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________________ -१२८] १०. लोकानुप्रेक्षा 'जरा मरदि जीवो तस्थ हु मरण हवे ताणे । पकाइ अरथ एको चकमर्ण तत्व ताण १२६ ॥ मथ सूक्ष्मलं पावरवं च व्यनकि णय जेसि पडिखलणं पुढवी-तोएहि अग्गि-वाएहि । ते जाणे सुहुभ-काया इयरा पुण' थूल-काया य ॥ १२७ ।। [छाया-न च येषा प्रतिस्खलनं पृथ्वीतोयाभ्याम् भमित्राताभ्याम् । ते जानीहि सक्ष्मकायाः इसरे पुनः स्थूलकायाः च ते पञ्च स्थाचरा जीवाः सूश्मा इतिजामीदि । येषां जीवाना प्रतिस्सलने इन्धनम्। कैः । पृथिवीतोयः पृथिवीकायापकायेःच पुनः, अमिवातैः अनिकायबायकायः, न च कैरपि द्रव्यैः बजपटलादिभिः येषा जीवाना प्रतिस्खलनं बन्धनं न विद्यते इति मावते सुक्ष्मकायाः सूक्ष्मऋयिका जीवास्तान जानीहि विदित्वम् । पुन: इमरा इतरे अन्वे पृथिवीकायिकादयः पृथ्वीजलवातामिकाविभिः प्रतिस्खलनोपेता: स्थूलकायाश्च बादराः कण्वन्ते ॥१२॥ भय प्रत्येकखरूप प्ररूपयति पत्तेया वि य दुविहा णियोद-सहिदों तहेव रहिया य । दुविहा होति' तसा वि य वि-ति-चउरक्खा तहेव पंचक्खा ॥१२८ ॥ [छाया-प्रत्येकाः अपि च द्विविधाः निगोदसहिताः तथैव रहिताः । द्विविधाः भवन्ति त्रसाः अपि च द्वित्रिभतरक्षाः तगापा रिन, प्रोका शिकागचा , मुनिमा द्विविधाः द्विप्रकाराः, एके निगोदसहिताः हैं। इन्हें ही निगोदिया जीव कहते हैं। इन साधारण अथवा निगोदिया जीवोंके भी दो भेद हैं-एक निस्य निगोदिया और एक इतर निगोदिया अथवा चतुर्गति निगोदिया । जो जीव अनादिकालसे निगोदमें ही पडे हुए हैं और जिन्होंने कभी भी उस पर्याय नहीं पाई है उन्हें नित्य निगोदिया कहते हैं। और जो जीव स पर्याय धारण करके निगोद पर्यायमें चले जाते हैं उन्हें इतर निगोदिया कहते हैं । साधारण वनस्पतिकी तरह प्रत्येक वनस्पतिके भी दो भेद है-सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जिस प्रत्येक वनस्पतिके शरीरमें बादर निगोदिया जीवोंका आवास हो उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिस प्रत्येक वनस्पतिके शरीर में बादर निगोदिया जीवोंका वास न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। प्रत्येक वनस्पतिका वर्णन ग्रन्थकारने आगे खयं किया है ॥ १२६ ॥ अत्र सूक्ष्म और बादर की पहचान बतलाते हैं। अर्थ-जिन जीवोंका पृथ्वीसे, जलसे, आगसे, और वायुसे प्रतिघात नहीं होता उन्हें सूक्ष्मकायिक जीव जानो। और जिनका इनसे प्रतिघात होता है उन्हें स्थूलकायिक जीव जानो ।। भावार्थ-पांच प्रकारके स्थावर कार्योंमें ही बादर और सूक्ष्म मेद होता है। त्रसकायिक जीव तो बादर ही होते हैं। जो जीव न पृथ्वीसे रुकते हैं, न जलसे रुकते हैं, न आगरसे जलते हैं और न घायुसे टकराते है, सारांश यह कि वज्रपटल वगैरहसे भी जिनका रुकना सम्भव नहीं है-उन जीवोंको सूक्ष्मकायिक जीय कहते हैं । और जो दीवार वगैरहसे रुक जाते हैं, पानीके वहावके साथ बह जाते हैं, अग्निंसे जल जाते है और वायुसे टकराते हैं वे जीव बादरकायिक कहे जाते हैं ॥ १२७ ॥ अब प्रत्येक वनस्पतिका स्वरूप बतलाते हैं। - - - -...--. . . मपुई, लग पुडची। २५ जाणि। ३ व बु। ४ ब सहिया । ५ ब दुति । ६ माहारणाणि श्लादिनाथा (१२६) पुस्तकेत 'आहाउसास्स आज काऊणि' इति पाठाम्सरेण पुनक्ता दृश्यते । बचिों
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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