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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४१निर्गत्य, तत्रापि तिर्यग्गती गौं, अपिशब्दात् न केवलं गर्भ, संमूर्च्छने छेदनादिकम् , आदिशब्दात् शीतोष्णक्षुधातृषादिकम् , दुःख प्रामोति लभते ॥ ४० ॥ तिरिएहि खज्जमाणो तुदु-मणस्सेहि रममाणो वि । सबत्थ वि संतट्ठो भय-दुक्खं विसहदे भीमं ॥४१॥ [छाया-तिम्भिः स्त्रायमानः दुष्टमनुष्यैः हन्यमानः अपि । सर्वत्र अपि संत्रस्तः भयदुःख विषहते भीमम् ॥] विषहते विशेषेण क्षमते। किम् । मयदुःख भीतिकृतमसुखं सर्वत्रापि तिर्यग्गती, जीव इत्यध्याहार्य.दुःख भीम सैद्रम् । कथंभूतो जीयः । तिर्यगतिखाद्यमानः ध्यानसिइसकाभलकमार्जार कुकुरमत्स्यादिभिः भक्ष्यमाणः, अपि पुनः, इन्यमानः मार्यमाणः । कैः । दुष्टमनुष्यैः म्लेच्छभिन्धीवरपापिष्टर्मानुषैः । कीदक्षः । सर्वत्रापि प्रदेशेषु संत्रस्तः भयभीतः ॥४१॥ अपणोण्णं खजंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं ।। माया, वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खे दि ॥ ४२ ॥ [छाया-अन्योन्यं खादन्तः तिर्यश्चः प्रामुवन्ति दारुणं दुःखम् । मातापि यत्र भक्षति अन्यः कः तत्र रक्षति ] तियश्चः एकेन्द्रियादयो जीवाः प्राप्नुवन्ति लभन्ते । किम् । दारुणं दुःनं रौद्रतरमसुखम् । कोहक्षाः। अन्योन्यं खाद्यमानाः परस्परं भक्षयन्तः, यत्र तिर्यग्भवे मातापि, अपिशब्दात् अन्यापि, सपिणीमार्जारीप्रमुखवत भक्षति खादति सत्र तिर्यग्भवे अभ्यः परः मनुष्यादि को रक्षति । न कोऽपि ॥४२॥ तिष-तिसाएँ तिसिदो तिघ-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो। तिवं पायदि दुक्खं उर्यर-हुयासेण डझंतो ॥ ४३ ॥ छाया-तीनतृषया तृषितः तीत्रयुभुक्षया बुभुक्षितः सन् । तीबं प्राप्नोति दुःखम् सदरहुताशेन दपमानः ॥] प्राप्नोति लभते । किम् । तीनै दुःखम् । कः । तिर्यग्जीवः इत्यध्याहार्यम् । कीदृक्षः सन् । तृषितः तृवाक्रान्तः सन् । चतुरिन्द्रिय वगैरहके सम्मुईन जन्म होता है और पश्चेन्द्रियोंके सम्मुर्छन और गर्भ दोनों जन्म होते हैं। दोनों ही प्रकारके तिर्यश्नोंको छेदन-मेदनका दुःख सहना पड़ता हैं । अपि शब्दसे ग्रन्थकारने यही बात प्रकट की है ॥ ४० ॥ अर्थ-अन्य तिर्यञ्च उसे खा डालते हैं। दुष्ट मनुष्य उसे मार डालते हैं । अतः सब जगहसे भयमीत हुआ प्राणी भयके भयानक दुःखको सहता है | भावार्थतिर्यश्चगतिमें भी जीवको अनेक कष्टोंका सामना करना पड़ता है। सबसे प्रथम उसे उससे बलवान व्याघ्र, सिंह, भालू, विलाव, कुत्ता, मगर-मच्छ औरह हिंस्र जन्तु ही खा डालते हैं। यदि किसी प्रकार उनसे बच जाता है, तो म्लेच्छ, भील, धीवर आदि हिंसक मनुष्य उसे मार डालते हैं। अतः बेचारा रात-दिन भयका मारा मरा जाता है ॥ ४१ ॥ अर्थ-तिर्यश्च परस्परमें ही एक दूसरेको खाजाते हैं, अतः दारण दुःख पाते हैं । जहाँ माता ही भक्षक है, वहाँ दूसरा कौन रक्षा कर सकता है ॥ भावार्थ--'जीव जीबका भक्षक है। यह कहावत तिर्यश्वजातिमें अक्षरशः घटित होती है। क्योंकि पृथ्वीपर वनराज सिंह वनवासी पशुओंसे अपनी भूख मिटाता है, आकाशमें गिद्ध चील वगैरह उड़ते हुए पक्षियोंको झपटकर पकड़ लेते है, जलमें बड़े बड़े मच्छ छोटी-मोटी मछलियोंको अपने पेट में रख लेते हैं। अधिक क्या. सर्पिणी, बिल्ली वगैरह अपने बोको ही खा डालती हैं। अतः पशुगतिमें यह एक बड़ा भारी दःख है ॥४२|| अर्थ-तिर्यच जीव तीन प्याससे प्यासा होका तीव्र भूखसे भूखा होकर पेट की आगसे जलता हुआ बड़ा कष्ट पाता है | भावार्थ-तिर्यश्चगतिमें भूख म भवचक। २[तिभिः खाबमान]। ३लम सम अण्ण्णं । ४ग भिस्वदि यण्णो व तिसाद ११ उबर । ७लम स ग हुयासे हि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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