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________________ २२४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा उत्तम-गुण- गहण - रओ उत्तम साहूण विषय-संजुत्तो' । साहम्मियं अणुराई सो सहिट्टी हवे परमो || ३१५ ॥ [ गा० ३१५ 1 [ छाया-उत्तम गुणप्रहृणरतः उत्तमसाधून विनयसंयुक्तः साधर्मिकानुरागी स सदृष्टिः भवेत् परमः ॥ ] स सदृष्टिः सम्यग्दृष्टिकृष्टो भवेत् । स कीदृक्। उत्तमगुणग्रहणरतः, उत्तमानां सम्यग्दृष्टीनां मुनीनां श्रावकाणां च गुणाः सम्यत्त्वज्ञानचारित्रतपोनतादिगुणाः मूलोत्तरगुणा वा तेषां ग्रहणे मनसा रुचिरूपे जिह्वया ग्रहणरूपे च रतः रक्तः । पुनः कीदृक्षः । उत्तमसाधूनाम् आचार्योपाध्याय सर्वसाधूनां विनयसंयुक्तः वैयावृत्यनमस्कार तदागमने उद्धी भवनासननिवेशन पादप्रक्षालनादिविनयपरिपतः दर्शनशानचारित्राणां तद्वतां विनयो वा । पुनः कीदृक् । साँधर्मिकानुरागी साधर्मिके जैनधर्माराधके जने अनुरागः प्रीतिरकृत्रिमस्त्रेहः विद्यते यस्य स तथोकः ॥ ३१५ ।। देह-मिलिये वि जीव शिय-गाम-गुणेण मुणदि जो भिष्णं । जीव- मिलिये पि देहं कंचुर्व सरिसं वियाणेइ ॥ ३१६ ॥ [ छाया - देहमिलितम् अपि जीवं निजज्ञानगुणेन जानाति यः भिन्नम् । जीवमिलितम् अपि देहूं कटुकदर्श विजानाति ॥ ] यो भन्मः मनुते आनाति । कमू । जीव स्वात्मानं देहमिलितमपि औदारिकादिशरीर संयुक्तमात्मानमपि निजज्ञानगुणेन स्वकीयज्ञानदर्शनमुणेन भेदज्ञानेन स्वपर विवेचनज्ञानगुणेन भिनं पृथपूर्व जानाति । अपि पुनः सम्यग्दृष्टिः देवं शरीरं जीवमिलितमपि आत्मना सहितमपि ककसदृशं विजानासि । यथा शरीराश्रितं श्वेतपीतहरितारुण कृष्णवर्णकभुक व भि पृथक् तथा जीवाश्रितम् औदारिकादिनामकर्मोत्पादित श्वेतपीतादिवर्णोपेतशरीरं भिन्नं पृथपूर्ण जानातीत्यर्थः ॥ ३१६ ॥ णिज्जिय-दोसं देवं सेव- जिवाणं दयावरं धम्मं । वजिय-गंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ॥ ३१७ ॥ [ छाया-निर्जितदोषं देवं सर्वजीवानां व्यापरं धर्मम् । वर्जितग्रन्थं च गुरुं सः मन्यते स खलु सदृष्टिः ॥ ] हु इति स्फुटं निश्वयो वा । स शास्त्र प्रसिद्धः सदृष्टिः सम्यग्दृष्टिः भवेदित्यध्याहार्यम् । स कः । यो भव्यः देवं परमाराध्यं भगवन्तं करता है और पश्चात्ताप करता है | ३१४ ॥ अर्थ -जो उत्तम गुणोंको ग्रहण करनेमें तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनोंसे अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है ॥ भावार्थ- - उत्तम सम्यग्दृष्टियों, श्रावकों और मुनियोंक्रे जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यञ्चारित्र तप, व्रत आदि उत्तमोत्तम गुण हैं उनको अपनानेमें उसकी मानसिक रूचि होती है, वह उत्तम साधुओंकी वृत्य करता है, उन्हें नमस्कार करता है, उनके पधारने पर खड़ा हो जाता है, उन्हें उश्वासनपर बैठाता है, उनके पैर धोता है। साधर्मी भाइयोंसे स्वाभाविक स्नेह करता है। जिसमें ऊपर कही हुई सब बातें होती हैं वह जीव शुद्रसम्यग्दृष्टि है || ३१५ ॥ अर्थ - वह देहमें रमे हुए भी जीवको अपने ज्ञान गुणसे भिन्न जानता है। तथा जीवसे मिले हुए भी शरीरको वस्त्रकी तरह भिन्न जानता है । भावार्थ - जीव और शरीर परस्परमें ऐसे मिले हुए हैं जैसे दूधमें घी । इसीसे मूढ़ पुरुष शरीरको ही जीव समझते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि जानता है कि जीव ज्ञानगुणवाला है और शरीर पौगलिक है । अतः वह शरीरको जीवसे वैसा ही भिन्न मानता है जैसा ऊपरसे पहना हुआ वस्त्र शरीरसे जुदा है ॥ ३१६ ॥ अर्थ- जो वीतराग अर्हन्तको देव मानता है, सत्र जीवों पर दयाको उत्कृष्ट धर्म मानता है और परिग्रहके त्यागीको गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है || भावार्थ- सम्यग्दृष्टि जीव भूख, प्यास, १ व सुंजुसो र साहिनिय । ३ म स ग कंन्तु । ४ म सच्चे । ५ ब म ( १ ) स ग जीवाण । ६ म दयावई ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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