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वामिकारिकैातुप्रेक्षा
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एगब्द एकत्रीकृशानविंशतिभेदाः संमूर्च्छन तिर्यशो भवन्ति २३ । सेऽपि त्रयोविंशतिसंमूर्च्छनविर्वधविधाः पर्याप्ताः निवपाः लब्ध्यपर्याप्ता इति, एवं तेन सर्वे संमूर्च्छम तिर या मे कोन हप्तातिभेदा भवन्ति ६५ पूर्वोकगर्भजविर्वग्भिः 'पोस मेदेषाः पञ्चाशीतिभेदाः ८५ भवन्ति ॥ इति सर्वेषां तिरश्चाश्रीतिजीवसमासभेदाः सन्ति ॥ १३१ ॥ श्रथ मनुष्यजीवसमासभेदान् निरूपयति
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अज्जव मिले थंडे भोग-महीसुं वि कुभोग-भूमीसु ।
मणुयी हवंति दुविधा णिग्विचि अपुण्णगा पुष्णा ॥ १३२ ॥
[ छाया-आर्यध्छण्डयोः भोगमद्दीषु अपि कुभोगभूमीषु । मनुजाः भवन्ति द्विविधाः निèश्यपूर्णका पूर्णाः ॥ ] कार्यकाण्डखण्डेषु भोगभूमिष्वपि कुभोगभूमिषु मनुष्या मानवाः भवन्ति से द्विविधा निर्ऋत्वपर्याप्ताः हि सप्ताहकसेवा १७० मनुष्या निर्वस्मपर्याप्तकाः पर्यातकाय इति द्वौ १, पचाश
बादर नि निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, बादर चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिका विक, तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीव बादर ही होते हैं। इस तरह एकेन्द्रियके चौदह भेद हुए । १४ । शंख सीप वगैरह इन्द्रिय, कुन्धु चींटी वगैरह सेइन्द्रिय और डांस मच्छर वगैरह चौइन्द्रिय, ये विकलेन्द्रियके तीन भेद हैं । ३ । कर्मभूमिया जलचर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं । कर्मभूमिया पश्चेन्द्रिय तिर्यच संज्ञी और असंज्ञी । २ । कर्मभूमिया नभचर पशेन्द्रिय तिर्यश्च संज्ञी और असी । २। इस तरह कर्मभूमिया पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके छः भेद हुए । इन सबको जोडनेसे १४+३+ ६ = २३ मेद सम्मूर्छन तिर्यच्चोंके होते हैं। ये तेईस प्रकार के सम्मूर्छन तिर्यश्च भी तीन प्रकारके होते हैं पर्याप्त, निधू
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पर्याप्त और लम्ध्यपर्याप्त । अतः तेईसको तीनसे गुणा करनेपर सब सम्मूर्छन तिर्योंके ६९ भेद होते हैं। इनमें पहले कहे हुए गर्भज तिर्यच्चोंके १६ भेद मिलानेसे सब तिर्यञ्चोंके ६९+११ ८५ पिचासी भेद होते हैं ॥ १३१ ॥ अथ मनुष्यों में जीवसमास के भेद बतलाते हैं । अर्थ-आर्यखण्डमें, म्लेच्छस्वण्डमें, योगभूमिमें और कुभोग भूमिमें मनुष्य होते हैं। ये चारों ही प्रकार के मनुष्य पर्याप्त और विवृत्त्पपर्याप्त के भेदसे दो प्रकार के होते हैं | भावार्थ- आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड, भोगभूमि और कुभोग भूमिकी अपेक्षा मनुष्य चार प्रकास्के होते हैं। तथा ये चारोंही प्रकारके मनुष्य नित्यपर्याप्त मी होते हैं और पर्यास भी होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-आर्यखण्ड १७० है- पांच भरत सम्बन्धी ५, पांच ऐरावत सम्बन्धी ५, और पांच विदेह सम्बन्धी १६० । क्योंकि एक एक महाविदेशमें बत्तीस बत्तीस उपधिवेह होते हैं । तथा आठसौ पचास म्लेलखण्ड है; क्योंकि प्रत्येक भरत, प्रत्येक ऐरावत और प्रत्येक उपविदेह क्षेत्र के छः छः खण्ड होते हैं। जिनमेंसे एक आर्यखण्ड होता है, और शेष ५ म्लेच्छखण्ड होते हैं। अतः एक सौ स्वर आर्यखण्डोंसे पांच गुने म्लेष्ठखण्ड होते हैं। इससे १७०४५-८५० आठ सौ पचास म्लेच्छखण्ड हैं। और तीस भोगभूमियां हैं जिनमें ५ हेमवत् और ५ हैरण्यवत् ये दस जघन्य भोगभूमियां हैं । ५ हरिवर्ष और पांच रम्यक वर्ष ये दस मध्यम भोगभूमियां हैं। और पांच देवकुल और पांव उत्तरकुरु ये दस संकृष्ट भोगभूमियां हैं। इस तरह कुल तीस भोगभूमियां हैं।
१] मिलके, गम र ग मोगभूमीस श्म सग मणुआ ।