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________________ खामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० १५७अब सजीवसंख्या प्राई। “वितिक्षपमाणमसंखे वहिदपदरेगुलेग हिदपदर। हीणकर्म परिमायो भापकियासभागो तु ॥" द्वित्रिचतुःपवेन्द्रियजीवानां सामान्यराधिप्रमाणम् असत्यातभक्तपतरालभचजगरप्रतरप्रमितं भवति । अत्र द्वीन्द्रियराक्षिप्रमाण सर्वाधिकम् । ततः श्रीन्द्रियराशिः विशेषहीनः । ततः चतुरिन्द्रियराशिविशेषहीनः । ततः पञ्चेन्द्रियराशिविशेषहीनः । तथा पवेन्द्रियेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषेण बहवः । चतुरिन्द्रियेभ्यः त्रीन्द्रिया बहवः । श्रीन्द्रियेभ्यो द्वीन्द्रिया गइयः,वेभ्यः एकेन्द्रिया अहवः । अत्र विशेषागमनिमितं मागहारः प्रतिभागहारः सचावस्यसंख्येमभागमात्रः । एसेषां प्रसानां सामान्यराशेः पर्याप्तराशेः अपर्यातराशेष रचना लिख्यते । 'हारमा हारी गुणकोऽशराशेः' इति सोप हारहारभुतागामध्यम गराशेर्पणाकारोऽभूत् ॥ बेइंदिय तेइंदिय । वरिदिय एवेदिय ८४२४ ६१२० ४।६५६१ ४।४।६५६१/ -५८६४ ६५६५ | ४॥४॥६५६१ सामग्णरासी | =५८६४ । =६१२० 3८४१४ =५८३६ ४|४१६५६१ ४४१६५६:४४६५६१ ४४६५६१ पज्जत्तरासी स्सोक ५।६१२० । ५।८४२४ । ५/५८३६ । ५/५८६४ । -८४२४१७ =६१२०१७ =५८६४१७ =५८३६१७ | अपजत्तराखी | ४४०६५६१ ४॥४॥६५६१ ४४६५१ ६५६१ ७ परिमाण प्रतरांगुलमें असंख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसका भाग जगत् प्रतरमें देने से जितना लग्ध आता है उतना है। इसमें दोइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण सबसे अधिक है। उनसे तेइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण कुछ कम है। तेइन्द्रिय जीवों के प्रमाणसे चौइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण कुछ कम है । चौइन्द्रिय जीवोंसे पञ्चेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण कुछ कम है। तथा पञ्चेन्द्रियोंसे चौइन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। चौइन्द्रियोंसे तेइन्द्रिय जीव विशेष अधिक है और तेइन्द्रियोंसे दोइन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं तथा उनसे चारों प्रकारके एकेन्द्रिय जीव बहुत हैं। यहाँ विशेषका प्रमाण लाने के लिये भागहार और भागहारका भागहार आवलीके असंख्यातवें भाग है। टीकाकारने अपनी टीकामें एकेन्द्रिय जीवों और उस जीवोंकी राशि संदृष्टिके द्वारा बतलाई है । उसका खुलासा किया जाता है। एकेन्द्रिय जीवोंकी राशिकी संदृष्टि इस प्रकार है १३- यहाँ तेरहका मंक संसार राशिको बतलाता है और उसके आगे यह - घटाने का चिन्ह है। सो सराशिके घटानेको सूचित करता है अर्थात् संसार राशि (१३) में से सराशिको घटानेसे एकेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण आता है जिसका चिह (१३ -) यह है । संख्यातका चिह्न ५ का अह है। सो एकेन्द्रिय राशिमें संख्यात. का भाग देनेसे बढ़ भाग प्रमाण पर्याप्त जीव होते हैं और एक भाग मात्र अपर्याप्त जीव होते हैं । सो पर्याप्त जीवोंकी संदृष्टि इस प्रकार है – १३ -- । यहां बहुभागका ग्रहण करनेके लिये एकेन्द्रिय राशि (१३-) को पांच से भाग देकर चारसे गुणा करदिया है । जो यह बतलाता है कि ५ प्रमाण पर्याप्त है और शेष ' अपर्याप्त है अतः अपर्याप्त राशिकी संदृष्टि इस प्रकार है १३-५ । असंख्यात लोकका चिल्ड नौ ९ का अंक है । सामान्य एकेन्द्रिय राशिमें असंख्पात लोक {९) का भाग
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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