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________________ १०६ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १६७-. [छाया-बालासंख्यमागः एकाक्षचतुष्कवेहपरिमाणम् । योजनसहनमधिक पधम उत्कृष्टकं जानीहि ॥] एकाक्षचतुष्कबेहपरिमाणम् एकेन्द्रियचतुष्काणां पृथिवीकायिकानाम अपूकायिकानो तेजस्कायिकानां पायुकायिकाना जीवानी प्रत्येक चतुर्णा देप्रमाणे शरीरावगाहक्षेत्र अघन्योत्कृष्टम् असमागो भंगुलस्यासंख्यातो भागः धनालस्यासंख्येयभागमात्र । तया बसुनन्दियसाचारे प्रोकं च। "अंगुलअसंखभागं बादरमुहमा य सेसया काया। उकस्सेज बु णियमा मणुगा य तिगावदुविधा ॥"(अल द्रव्याडलम् अश्यनिष्पकम् ।) भेगुलेन येऽवष्म्याः माकासप्रदेशाः तेषां मध्येऽनेकस्याः प्रदेशपलेर्यावत् मायामः तावन्मात्रं द्रव्याकुलम् । तस्य दृष्यालस्य असंख्यातखण्ड कृत्वा तत्रैकखनाम् अकुलासंख्यातभागम् । खादरनामकर्मोदयादादराः, लक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, वादराच सूक्ष्माच सादरसूक्ष्मा, पृथिवीकायिकादयः। शेषाः कायाः, पृथिवीकायापकायतेजस्कायवायुकामाः, कृष्लेन सुनु महरवेन विशेषेण द्रव्याकुलस्यासंख्यातभागमात्रशरीराः । सर्वेऽपि वादरकायाः पृथिवीकायिकादिवायुकायान्ता द्रश्यात लासंख्यातभागशरीरोत्सेधाः। सूक्ष्माश्च किंचित् हीनमात्रशरीरा बदन्ते। मनुष्याश्च उसमभोगभूमिजाः निगम्यूतिशरीरोत्सेधाः ॥ तथा गोम्मउसारे सूक्ष्मवावराणां पर्याप्तपर्याप्ताहीनां च अघन्योत्कृष्टमेदेन बहुधा मेदोऽस्ति तंत्र शातभ्यः। प्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु परम पद्मं कमलम् उत्कृष्टमानयुक्तं साधिकसइनयोजनप्रमितं जानीहि ॥१६॥ वारस-ओयण-संखो कोस-तियं गोभियों समुहिट्ठा । भमरो जोयणमेग' सहस्स समुच्छिमो मच्छो ॥१७॥ [छाया-द्वादशयोजनः शङ्खः कोशत्रिक गोभिका समुरिष्टा । अमरः योजनमेकं सहस्र समूछिमः मरस्यः ॥ ] द्वीन्द्रियेषु शंखः द्वादशयोजनामा १६, चतुर्भो भन्मुख योजनाका है। मानियेषु गोभिका, प्रेमिका कर्ण. ख्यातवें भाग है । और कमलकी उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है ॥ भावार्थएकेन्द्रिय चतुष्क अर्थात् पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों से प्रत्येक के शरीरकी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना धनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है । बसुनन्दि श्रावकाचारमें भी एक गाथाके द्वारा इसी बातको कहा है जिसका अर्थ इस प्रकार है-'अंगुलसे द्रव्यांगुल लेना, जो आठ यव मध्यका लिखा है। उस अंगुल प्रमाण क्षेत्रमें आकाशके जितने प्रदेश आयें उन प्रदेशोंसे बनी अनेक प्रदेशपंक्तीयोंकी जितनी लम्बाई हो उतना द्रव्यांगुल होता है 1 उस द्रव्यांगुलके असंख्यात खण्ड करो । उसमेंसे एक खण्डको मुलका असंख्यातवां भाग कहते हैं । जिन जीवोंके बादर नामकर्मका उदय होता है उन्हें बादर कहते हैं और जिन जीवोंके सूक्ष्म नामकर्मका उदय होता है उन्हें सूक्ष्म कहते हैं । जितने भी बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव हैं उनके शरीरकी उत्कृष्ट ऊँचाई द्रव्यांगुलके असंख्यातवें भाग है । किन्तु बादर जीवोंसे सूक्ष्म जीवोंकी ऊँचाई कुछ कम होती है । तथा उत्तम भोगभूमिया मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई तीन कोस होती है। तथा गोम्मटसारमें सूक्ष्म बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त वगैरह जीवोंके जधन्य और उत्कृष्टके मेदसे बहुससे अवगाहनाके मेद बतलाये हैं सो वहाँसे जान लेना। यह तो हुआ एकेन्द्रिय चतुष्ककी अवगाहना का प्रमाण । और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंमें कमलकी उत्कृष्ट अषगाइनाका प्रमाण कुछ अधिक एक हजार योजन जानना चाहिये ।। १६६ ॥ अर्थ-दो इन्द्रियोंमें शंखकी उस्कृष्ट अवगाहना बारह योजना है। तेइन्द्रियों में गोभिका (कानखजूरा) की उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस है । चौइन्द्रियोंमें भ्रमरकी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन है । और पश्चन्द्रियों में १५ जोरण । २कोस । ३ खमसग गुम्भिया ।४ ब जोइणमेक। ५ग सहस्सम सहस्सा। लिमसग समुच्छिदो
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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