Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 2 08 Kalpsutram Mool evam Vrutti Dashashrutskandhasya Ashtam Adhyayanam
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमालनमो नमो निम्मलदसणस्स म आज पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः (भाग 8 सवृत्तिक-आगम-सूत्राणि-2 (दशाश्रुतस्कंधस्य-अष्टम-अध्ययनम्) “कल्पसूत्रं” मूलं एवं वृत्ति: आजम आजम आजमा आजम आजमा मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता SonalesaANGal सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है। इस संघमें पूज्य साधू-भगवंत एवं साध्वी-महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म. की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRANS AN नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक-आगम-सूत्राणि-2 मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता www OES Tolerances पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] Hayee प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਬਸ ਤਕ ਰਸ ਸ ਲ ਸਤ ਤਾਲੂ ਨੂੰ ਬਾਸਰਸ਼ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਲ ਲ ਨ ਪਾਕਸ ਹਲ . आगम S P 2 ਸ ਨ ਲ ਹੈ ਤੇ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दशाश्रुतस्कंधस्य-अष्टम-अध्ययनम्) श्री कल्पसूत्रम् ॐ नमो नमो निम्मनदमणस्म “कल्पसूत्र' मूलं एवं [सुबोधिकाख्या-वृत्ति: विनयविजयजी रचिता सुबोधिका-वृत्तिः] [आदय संपादकः पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. । (किश्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर M.com. M.Ed. Ph.D. श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ सवृत्तिक-आगम-सुल्ताणि-२-त्रणी भाग पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........... व्याख्यान - ........ मूलं 1 | गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [-] गाथा - श्रेष्ठि-देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्क: ६१. श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुप्रणीतं श्रीकल्पसूत्रम् (दशाश्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययनम्) लोकप्रकाशनयकर्णिकादिग्रन्थसौधसूत्रधारश्रीविनयविजयोपाध्यायविरचितं सुबोधिकाख्यवृत्तियुतम् । मुद्रयिता-सौराष्ट्रान्तर्गतजामनगरवास्तव्यश्रेष्ठिधारशीभाइसुपुत्रलक्ष्मीचन्द्रस्मृतये अस्थिमिञाशासनरक्त पोपटभाइनामकसुपुत्रयुतश्रेष्ठिधारशीभाइनामधेयश्चाद्धवर्यविहितद्रव्यसाहाय्येन शाह जीवनचन्द साकरचन्द झवेरी अस्य कोशस्यैकः कार्यवाहकः। दीप अनुक्रम -1 एवं पुस्तकं मोहमध्यां निर्णयसागरयत्रालये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा कोलमाट वीभ्यां मुद्रितम् . प्रतयः१०००पीरसंवत् २४४९. पण्यम२-०-० विक्रम संवत् १९०९, काइए सन् १९२३. ... कल्पसूत्र-सुबोधिका-वृत्ते: मूल संपादकेन संकलित: मुखपृष्ठः Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब • जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से : श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ | • बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए| .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवगिणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम • मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हआ | .सिर्फ मल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत- छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | . ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध: | कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | • सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये । ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... .........मुनि दीपरत्नसागर... 27 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् : आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी | शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं : छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया| अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को • प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर..... अनुदान दाता संस्था:- "श्री परम-आनंद श्वेतांबर मर्तिपूजक जैन संघ" वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद : करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें | |श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म.सा. ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत : : एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर-साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है | - मुनि दीपरत्नसागर... Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - .. -. 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ८ के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “ सवृत्तिक-आगम-सुत्राणि-2 के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे । समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यो के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले : को यत्किंचित बहमान प्रगट करते हए कछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ .......मुनि दीपरत्नसागर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ०१३ मूलांका: २२८ + ७ + ६४ कल्पसूत्रस्य (लघु) विषयानुक्रम दीप-क्रमांका: ३११ REC ENE | SN RES EANINFO मूलाक: विषय:5 | पृष्ठाकः। । मूलाक: | व्याख्यान | पृष्ठांक | | मूलांक: । व्याख्यान र पृष्ठांक: इस प्रकाशन की भूमिका | ०१२ ००१-०१५ (१) प्रथमम् ०२६ । ११७-१४८ (६) षष्ठम् २१८ | द्वितियसंस्करण भूमिका | ०१५-०३६ (२) वितियम् ०६८ । १४९-२२८ (७) सप्तमम् ર૭૮ सेनप्रश्नांतर्गत कल्पसूत्र- | ०१४ । ।०३७-०६७ (३) तृतीयम | ११२ । । ००१-००७ (८) अष्टमम ३४१ | उपयुक्त प्रश्नोत्तराणि ०६८-०९६ (४) चतुर्थम् | ००१-०६४ (९) नवमम् ३६८ कल्पसूत्र बृहत् अनुक्रम | ०१८ | | ०९७-११६ (५) पंचमम् | १८० प्रशस्ति : ४१४ | शैलानानरेशस्य प्रमाणपत्र ०२३ ------------- अत्र मया संक्षिप्त-विषयानुक्रम: निर्दिष्टः | अस्य बृहत् विषयानुक्रम: मूल संपादकेन रचित:. अग्रे एकादशात् पृष्ठात् पंचदश-पृष्ठ: (११-१५) पर्यंत वर्तते | १५२ 250ASE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: - 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्पसूत्र- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा यह प्रत सबसे पहले "कल्पसूत्र" के नामसे सन १९२३ (विक्रम संवत १९७९) में देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | कल्पसूत्र के मूल को "बारसासूत्र" भी कहेते है, १२१५ श्लोक प्रमाण कल्प- (बारसा ) - सूत्र के अलग से भी बहोत प्रकाशन हुए है, पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'कल्प ( बारसा) सूत्र' हमने भी 'सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि' श्रेनी के 40 वे भागमे छपवाया है । कल्पसूत्र पर दुसरी भी टीकाए है, एक चूर्णि भी हमने देखी है, मगर व्यवहारमे विनयविजयजी रचिता ये टीका ज्यादा प्रसिद्ध होने से उस का प्रकाशन करवा रहे है । * हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | ** हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। * शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये "सवृत्तिक- आगम-सूत्राणि_2" भाग-८ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है । मुनि दीपरत्नसागर. पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: 11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [-] गाथा - श्रीकल्पसूत्रस्य भूमिका ।(द्वितीयसंस्करणे) wood उपादीयतां भोः शुभवद्भिर्भवगिरनूनमहिममिदमाविष्क्रियमाणं श्रीकल्पसूत्र, प्रणेतारोऽस्य श्रुतकेवलिनो भद्रबाहुस्वामिनः अष्टमाध्ययनता दशाभुतस्कन्धस्य पञ्चदिन्या वाच्यमानता ससमाधानानि विवादस्थानानि गर्भापहारस्य कल्याणकत्वानौचिती श्रीवीरजिनस्येतिवृत्त | तस्य राजकुमारता आदिनाथप्रभोर्लेखादिदर्शनमुपकाराय श्रीजम्बूखाम्यादिमहापुरुषचरित्रैदम्पर्य प्रस्तुताया व्याख्याया मुद्रणे हेतुरित्यादि प्रतिपादितं प्रथमावृत्तौ द्वीपघड्नन्देन्दु (१९६७) प्रमिताब्दहायनोद्भावितायामिति तत एवावलोकनीयं, सा ह्यावृत्तिः प्रस्तुतसाहित्योद्धारकोशात् वद्रव्येणाविर्भाविताऽभूत् , इयं त्वावृत्तिः सौराष्ट्रदेशीयनूतननगरापराभिधानजामनगरवास्तव्यस्य धर्मंकतानस्य जैनशासनसुधा-IN पानहृदयपावनस्याप्रतिमौदार्यगुणजुषः शासनहितकरणैकबद्धलक्षस्य प्रभूतसहस्रदम्भव्ययेनामेयमहिनि श्रीसिद्धक्षेत्रापरामिधानपादलिप्तनगरे चतुर्मास्युपधानोद्वाहनादिकारिणः श्रीमतां सेलाणाधिपाना जीवदयापट्टककारिणां गुणैरनुरजितमनस्कतया सेलाणापुर्या श्रीविलीपसिंहाभि-IN धाननरेन्द्रनामाक्तितपौषधशालाविधायकवरस्य अष्ठिपोपटभाइइयाख्यसुपुत्रेण पुत्रीमवतः श्रीधारासिंहवेष्ठिनो देवराजापत्यस्य साहाय्येन तत्तनुजलक्ष्मीचन्द्रस्य स्मृत्यर्थं मुद्रिता, अनेन हि श्रेष्टिना प्राक् मोहमय्यां साहित्योद्धारसमितये दत्ता गुम्माः परःसहस्राः, परं संचालकानां शासनपारतण्यानङ्गीकारात् विशीर्णाऽऽमूलचूलंसा, ततस्ते द्रम्मा वितीर्णत्वादगृहृता दत्त्वाऽस्मभ्यं मुद्रापितेयं, तस्याननुगुणरजितमनस्कतया दीप अनुक्रम -1 ... अत्र पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरेण लिखिता: सुबोधिका-वृत्ते: भूमिका वर्तते । - 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान - .......... मूलं ] गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक भमिका. [-] कल्पसयो-ISSसाभिरपि विहितमेतत् कार्य, यद्यपि तेषामभूदिच्छा सवासां प्रतीनां प्राभृतीकरणे परं सौकर्याभाष निरीक्ष्य समालोक्य चानेकेषां भव्या- स्मनां तथाविधनिष्कयरहिते पुस्तकमहणे संकोचं विभाव्य चास्मदीयकोशव्यवस्थासौस्थ्यं परःशतं प्रतीनां दत्त्वा प्राभृताय शेषा अर्धमूल्येन स्थापिताः, तैः आगतद्रम्मैः पुनर्मुद्रयिष्यन्ति नूतनं पुस्तकरनमित्याशास्महे श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाइजैनपुस्तकोद्धाराध्यक्षाः। लेखका:-आनन्दा उदन्यदन्ताा, स्वपुर्या मालये १९८० (गूजराती संवत् १९७९) श्रावणधुसकावश्याम् । सदा जगज्जीवहितोद्धराणां, जिनाधिपानां स्थविरोत्तमानाम् । चरित्रपझं विवृतं मुनीना, वृत्तं च दृष्ट्वाज न कस्य हर्षः ॥१॥ गाथा - दीप अनुक्रम -1 ॥ २ ॥ Fur & Fonte - 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: सेनप्रश्नान्तर्गतानि कल्पसूत्राद्युपयुक्तानि प्रश्नोत्तराणि. प्रत सूत्रांक [-] गाथा - सेनप्रश्नान्तर्गतानि कल्पसूत्रोपयोगीनि प्रभोत्तराणि | स्व. गा. १४ देविष्टिगणि नमसामिति पादोपलक्षिता पाठकसौकर्याय अत्रोल्लिख्यन्ते, अत्र आधभागे योऽङ्कः गाथा श्रीदेवर्षिगणिशिष्यकता सोऽवयवाच्यसूत्राङ्कः पङ्केरन्ये एक उल्लाससत्कोऽन्यस्तु प्रश्नोत्तरसत्कः स्थ. स्थविरावल्या वनसेनसूरिशिष्याणां चन्द्रादीनामलि|२४७ मरुदेव्यध्ययन (पहाणं नामज्झयणं) विभा खनमत्र वाचनाभेदेन १-७९ वयन्-प्ररूपयन्नित्यर्थः १९ अष्टशतसंख्यान्तर्गततया सिद्धोऽपि श्रीवृषभदेवो 18|१११ सांवत्सारिकदानात् पूर्व पश्चाद्वा लोकान्तिककृता नानन्तकालपतितः, सर्वेषामपि जिनानां यथोक्तभवसंदीक्षाविज्ञप्तिः |१११ सप्ताधिकसप्तशतादीनां लोकान्तिकानां प्रत्येक स्थाया एवार्वाक् प्रथमसम्यक्त्वलाभात् १-१०७ चतुःसहस्रसामानिकादिः परिवारः,सर्वेषां भवस्थितिलों ४२ पौरुपलक्षितं सर: पासरः न तु तन्नामकं कान्तिकवदिति १-५५ किश्चित् द्वीपान्तरे सरोऽस्ति १-१०८ 93902040300392920 992086020829092520 दीप अनुक्रम AM ... अत्र कल्पसूत्र-उपयुक्त कतिपयानि सेन-प्रश्नोत्तराणि निर्दिष्टानि | - 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक सेनप्रश्ना कल्प.सुवो. ॥३॥ [-1 गाथा - स्थ. आगमव्यवहारिमिः संभूतिसूरिमिरनुज्ञानात् श्रीस्थूल- । निकत्रायस्त्रिंशामरक्षकपाद्यानीकाधिपप्रकीर्णकानामेकैका. भद्राणां शय्यावर्या अपि कोशाया गृहे पिण्डादिग्रहणमिति १-१०९ चत्वारो लोकपालानामिति ६२-१३२-१०-१२-४-४ १४ इन्द्रविमानेभ्यः सामानिकानां प्रायविंशानां च । ८-८-१-१-१-१-१-१-४२५० २-३० पृथक् पृथक् विमानानि १-११५ सा. २७ विना कारण संखण्ड्या साधुभिर्न विहरणं, ३१ जिनाना पूर्वदेवादिभवसदृशोऽवधिरिति न सर्व त्रिंशता चत्वारिंशता वा जनैश्च संखडी, साधर्मिकवात्स ल्यमपि संखडी | जिनानां स समानः १-१२७ १११ लोकान्तिका एकावतारिण एवेति नियमाभावः २-५२ ९९ षष्टिलक्षाधिककोटीमिताः कलशा एवं प्रत्येकमष्ट १४७ श्रीवीरस्यायुद्वीसप्ततिवर्षमानं यत् तन्यूनाधिकमावाराः सहस्रेणाभिषेकात् अष्टसहस्री, कनकमयादिभेदेना सानामविवक्षणात्, आयुश्च गर्भात टधा कलशाः इति चतुःषष्टिसहस्री कलशाना,सार्धद्विशते स्थ.गणभृतां वाचनाभेदोऽपि परस्परं, तेन चासंभोगिकनामिषेकेण गुणनाद् यथोकसंख्या, अभिषेकसंख्या त्वेवं त्वसंभावनापि मिथः २-८९ अज्योतिष्काणां द्वाषष्टेरिन्द्राणां द्वषष्टिः, द्वात्रिंशदधिकशत १२९ अन्यभरतेषु सर्वेष्वैरवतेषु च भस्ममहकुमतबाहुल्यादिर-९३ | सूर्यचन्द्राणां तावन्तः,दक्षिणोत्तरासुरेशेन्द्राणीनां दश,नवानां १९ एतानि अन्यानि वाऽऽश्चर्याणि दशसु क्षेत्रेषु, परं नागादीनामप्रमहिषीणां द्वादश, व्यन्तराणां ज्योतिषकाणां दशसंख्यानियमः २-९४ च चत्वारश्चत्वारः,सौधर्मेशानेन्द्राममहिषीणामष्टाष्ट,सामा २९ श्रीवीरः सिंहभवानन्तरं भ्रान्ता चक्री जात इति दीप अनुक्रम -1 ॥३॥ For F lutelu - 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | ३-५६ प्रत सुत्रांक [-] गाथा - 18सुरादिभवो मध्ये ज्ञातव्यः १-११३ | पश्यंति २११ प्रथमतीर्थकृता सह दीक्षाग्राहकाः स्वामिवत् | ख. यक्षार्यया बाल्यात् मात्रेव पालितत्वात् महागिरिसुहदीक्षापाठोच्चारं करोति,अन्यैः सह प्रत्रजितानां तु द्रव्यशे- स्तिनोगर्योपपदत्वम् ३-७७ त्राद्यनुसारेण तपस्याग्रहण ७५ गजकुम्भवृषभाख्यान् स्वप्नान् प्रतिवासुदेवमातरः ११२ तीर्थकहानमभव्या नाप्नुवन्तीति वृद्धवादः, तथा- पश्यन्ति विधप्रन्धाक्षराणां त्वस्मृतिः २-१८८ ९६ मध्यरात्रे एवं गर्भावतारभावात् सप्तरात्राधिका १४८ श्रीसुधर्मस्वाम्यादयो नवमपूर्वान्तर्गतमेतद्ध्ययन एव नव मासा भवन्ति, सिद्धान्तशैल्या तु अद्धहमेत्यादि ३-८४ | पञ्चदिनी यावदमाणिषुः । २-२०१ । ७४ चक्रवर्तिमातरश्चतुर्दश स्वप्नानस्फुटान् पश्यन्ति ३-१०३ | १९ भरतैरावतयोयुग्मिनां न्यूनाधिकता स्यात्, न १४ सर्वेऽपीन्द्राः सर्वदा सम्यग्दृष्टयः ३-१३३ IS देवकुर्वादिषु, ततः संदरणभावे आनयनमेव कुतोऽपि ३-१३ | १४ ऐरावणाद्या वाहनकाले गजादिरूपिणः सर्वदा तु । २१. मृतयुग्मिशरीराणि महाखगाः नीडकाष्ठमियोत्पा सुररूपाः ३-१४० ट्याम्बुधौ चिक्षिपुः ३-३० १९ मल्लिजिनस्य वैयावृत्ये साध्यस्तिष्ठन्ति, पर्षरिस्थ३ सुपार्श्वचरित्रे श्रीशान्तिनाथचरित्रे च च्यवनक तिस्तु सर्वेषां जिनानां समानव ३-१४९ ल्याणकेऽपि सुरेन्द्रागमनादि ३-३३ | पौषधवतां श्राद्धानां कर्पूरादिभिः श्रीकल्पपूजा तद्व४ तीर्थकरमातरचतुर्दशापि स्वप्नान् मुखे प्रविशतः । तीनां श्राद्धीनां गुंहलिकान्युञ्छनादि च न कल्पते ३-१७० FO899283900000 92520393005000290 दीप अनुक्रम -1 Fur & Fonte - 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं 1 / गाथा - - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [-] गाथा - कल्प.सुयो- ९ अष्टाविंशत्यधिकशतप्रमृतिभिद्रोणः ३-१८८ चउत्थभत्तं अन्यथा अभत्तद्वमिति ४-५८सेनप्रश्नाः पार्श्वेऽस्वाध्यायो भवति तदापि अवश्य करणीयत्वात्। १४८श्राद्धादीनुद्दिश्य पठनं कल्पस्य विना पर्युषणां न युक्तं४-६१ | ॥४॥ कल्पवाचन शुध्यति ३-१८९ । चातुर्मासिकपाक्षिकप्रतिक्रमणानां चतुर्दश्यां चतुर्मा18|१३४ तीर्थकता पार्श्व यैः सम्यक्त्वलामपूर्व देश- सीकरणात् न्यूनाधिकत्वं, परमाचरणया निर्दोष, श्राद्धानां विरतिं सर्वविरति वा प्रतिपन्नास्त एव तत्परिवारभूताः ३-२३२ कल्पसूत्रश्रावणवत् ४-१११ ९७ भवनपत्यादिवत् कीडाप्रियत्वेन कुमार्यों दिकमायः ३-३२५ सामान्योपयोगीनि पैतानि । ___ जातिस्मरणवान् अतीवान संख्यातान् भवान् पश्यति३-३४१ पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकाणां क्षामणानि तपांसि ९८ तीर्थकृतां जन्मानन्तरं द्वात्रिंशहिरण्यकोटीमानां च यथाक्रम द्वितीयां पञ्चमी दशमी च यावत् शुभ्यन्ति २-४४ वृष्टिं देवाः कुर्वन्ति घटीद्वयात्प्रारभ्य मिलन्ती तिथिः शुध्ध्यति न तु न्यूना३-११६॥ १४७ श्रीवीरस्य चतुर्दशीदिनाद्देशनारम्भः अमावास्या वृद्धौ सत्यां स्वल्पाऽस्यप्रेतना तिथिः प्रमाणम् ३-१८५ यमेकोनत्रिंशन्मुहू निर्वाणं च ३-४५० सांवत्सरिके सनमस्कारचत्वारिंशलोकोद्योतचिन्तनं ३-२८६ १४८ श्रीदेवर्धिगणिभिः सर्वोऽपि सिद्धान्तः पुस्तकारूढः केवलसाधुभिः पाक्षिकप्रतिक्रमणे वपाधतिचारा कृतः अन्यपुस्तकानि तु पुरापि बहन्येवाभूवन्४-२३ | यद्यायान्ति तदा कथनीयाः सा.२१पारणके उत्तरपारणके चैकाशनकं विनापि च उत्थ आवश्यकचूादौ श्राद्धानां चरवलक ( रजोहरण) भन्न छट्ठभत्तमित्यादि कथ्यते, परम्परया सैकाशनेऽभक्तार्थे | प्रणाक्षराणि ३-३३३ दीप अनुक्रम -1 Ramaee020209282020020 - 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान - .......... मूलं ] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: | प्रत सुत्रांक कल्पसूत्रविषयानुक्रमः॥ [-] गाथा - विषयः सूत्रायः पत्राः विषयः सूत्राः पत्राच विषयः सूत्राः पत्राः मङ्गलादि १चैत्यपरिपाट्यादीनि पञ्च कार्याणि फलस्य पृच्छा विचारणं च ७ १३ आचेलक्यादयः कल्पाः ४ अष्टमतपसि नागकेतुकथा स्वप्नफलकथनं स्वप्नाधिकारश्च८ आचारभेदे कारणं दृष्टान्ताश्च ५ संक्षिप्तवाचनया श्रीधीरचरित्रम् १ ९वाल्यातिक्रमे पुत्र विज्ञानादि फलं ९ १६ चतुर्मास्याः परतः स्थाने कारणानि ५ षट्कल्याणकवादखण्डनम् ९खप्रफलनिवेदनम् चतुर्मासीयोग्यक्षेत्रगुणाः ६ मध्यमवाचनया श्रीवीरचरित्रम् २ १० स्वप्नफलाङ्गीकारे हर्षः तृतीयौषधदृष्टान्तः ६ श्रीवीरस्य गर्भावतारः ३ ११ स्वप्नफलषचसोऽङ्गीकारः कल्पमहिमा ७ देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम् ४ १२ इन्द्रस्वरूपं (कार्तिकवेष्ठिकथा) पूर्वलेखने मषीमानम् ऋषभदचपाधै गमनम् ५ १२ श्रीवीरगर्भावतारे हर्षः वाचनाश्रवणाधिकारिण: ७ स्वपनिवेदनम् ६ १३ शक्रस्तवः (मेघकुमारकथा च) १५ २१ 000 20.0000000 AAMmmnSM एयरटseneelersee दीप अनुक्रम -1 ... अत्र मूल-संपादकेन रचितः अस्या वृत्ते: विषयानुक्रमः वर्तते, तस्य पृष्ठांक: प्रत-पृष्ठांकानुसार ज्ञातव्यः - 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान - .......... मूलं 1 / गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सुयो-1 विषयानु क्रमा गाथा = विषयः सूत्राः पत्राविषयः सूत्राः पत्राविषयः सूत्राः पत्राः इति प्रथमं व्याख्यानम् २१ त्रिशलाकृतं सिद्धार्थजागरणं स्वप्नफलकथनं प्रशंसा त्रिशलाया: श्रीवीरवन्दनं चिन्ता च १५ २३ सप्रफलपृच्छा नृपहर्षोऽनुमोदना ४८... निवेदनं हर्षो भवनगमनं च। अहंदायुत्पत्ती योग्यायोग्यकुलानि १६१..दारकजन्म दारकस्य चक्रिजिनले निधानोपसंहारो वर्धमाननामकर-८८ आवर्यदशकं सप्तर्विशतिर्भवाः १७१७ स्वप्नाङ्गीकारः जागरिका ५६) णेच्छा च चिन्ता गर्भस्य निश्चलता विलापः १८२९ सेवकाहान नगरशोभा भूपोत्थान ५७) कम्पः हः हर्षेचेष्टा श्रीवीश्रीवीरस्य गर्भान्तरसंक्रमः २९४३६ अभ्यङ्गस्नानाभरणपरिवारास्था- ६० रस्यामिमहः संक्रमज्ञानं श्रीवीरस्त्य ३० ३६ नसभागमनानि ६३) गर्भपोषणं दौडदाः प्रहाणामुञ्चता ९५ गर्भापहारे देवानन्दावनापहारः ३१ ३६अटासनरचनास्वप्नपाठकादानत-६४...श्रीवीरजन्म च । त्रिशलावासगृहगर्भसंक्रमो २८ दागमनैकत्रीभवनाशीर्वाददानानि ६७५३ इति चतुर्थं व्याख्यानं गजादिस्वप्नचतुर्दशकम् श्रीवीरस्य जन्मोत्सवो रत्नादिवृष्टिः सूर्यवत्तत्स्वप्नवर्णनम् ४६९११ इति तृतीयं व्याख्यानं ६३ चन्द्रदर्शनं ज्ञातिमोजनं नाम- ९७१८६ द्वितीयं व्याख्यानं ४३ पाठकसत्कार स्वप्ननिवेदनं फलपू-६८१...करणं सर्वजिनमातृदर्शनीयता स्वमानां ४७ ५२ च्छा स्वप्नसंचालना(खप्नाधिकारः)८७६ श्रीवीरस्य नामत्रयं क्रीडा चामलकी * दीप अनुक्रम -1 ॥५ ॥ १०७) - 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सुत्रांक [-] गाथा - २०३६१४६ विषयः सूत्राः पत्रा विषयः सूत्राः पत्राविषयः सूत्राः पाकः लेखशाला शक्रागमनं संदेहच्छेदो प्रहः कीलकप्रक्षेपकर्षणे अनगारता- . इति षष्ठं व्याख्यानम् व्याकरणोत्पत्तिः १०८ स्वरूप विहारः सपः केवलम् श्रीपार्श्वनाधारिष्टनेमिचरित्रे १४९ पितृमातपुत्रीपितृव्याविनामानि १०९ ८९ निराकरणं प्रतिबोधो दीक्षा गण-१२२| इन्द्रभूत्यादिगणधरागमनं शङ्का (कमठोपसर्गः नेमिविवाइन) १८३ नम्यादीनामजितान्तानामन्त- १८४ ॥ दीक्षासंकल्पो देवागमनं सांवत्सरिक- धरपदं त्रिपदीदानं अनुशा च १२१ राणि दानमभिषेकः शिविका दीक्षामहोत्सवः-चतुर्मास्यःनिर्वाणं (सैद्धान्तिकमासदिआशीर्वाद उद्यानगमनं ११० सनराठ्यादिनामानि) गौतमकेवलं १२८ श्रीपमचरित्रं वंशस्थापना शतपुत्रजन्म दीक्षा च अष्टाशीतिम्रहाः निर्घम्यादीना-१२९१. राज्याभिषेकः विनीतानिवेशः शिल्पशतोत्पत्तिः १२३ इति पंचमं व्याख्यान ९६ मनुदयः कुन्थूलचिः अनशनं १३३ पुरुषकलामहिलागुण- २०४१.. उपसर्गसहनं अचेलकताभवनं श्रमणश्रमणीश्रावकभाविका- १३४7... शिक्षण राज्यदान दीक्षा २१११ पुष्पकागमःसंगमोपसर्गाःकम्ब-११७. दिपरिवार अन्तकृमिः १४६ मिविनम्यधिकारः वर्षान्ते पारणं । लशम्बलवृत्तं गोशालसमागमः १२१/१ अन्त्यचतुर्मासी निर्वाणदशा १४७१...यांसभवाः केवलं मरुदेवीसिद्धिः । पाटकदाहः तेजोलेश्योपायः अभि-) निर्वाणपुस्तकान्तरं १४८भरतयुद्धं २१२१५३ १५ दीप अनुक्रम -1 For FFU Clu -20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सुबो- विषयानु क्रमः गाथा - विपयः . सूत्राः पत्राका विषयः सूत्राशुः पत्रा विषयः सूत्रायः पनाह गणधरादिः परिवारः निर्वाण (देवे-२१३१. सुस्थिसमुप्रतिबुद्धादिपरम्परा विकृतिवर्जनं ग्लानाथ विकृति- १४१ . न्द्रादिकतो महः)अन्तकमिरन्तरं२२८१ कुलगणशाखाखरूपं च १६५ महणविधिः श्राद्धगृहेऽयाचनं च १९ इति सप्तमं व्याख्यानं १५९ राशिकमतोत्पत्तिः १६६ नित्यभक्तादीनां गोचरग- २० एकादश गणधरा नव गणाश्च प्रियमन्थाचार्याधिकारः मनकालमानं पानकविधिः २५१८० तबेतुः प्रमः वाचनानवकं गण श्रीवनस्वाम्यधिकारः १६९ दत्तिमहणविधिः २६ १८० धरस्वरूपं १६० २७ १८१ श्रीसुधर्मस्वामिस्वरूपं श्रीआर्यसमितिसूर्यधिकारः १६१ पद्यबन्धेन फल्गुमित्रादिनतिः जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकानां श्रीजम्बूस्वामिस्वरूपं वर्षासु गमनावस्थानविधिः २८ श्रीशय्यम्भवस्वरूपं १६१ इत्यष्टमं व्याख्यानं पूर्वपश्चात्पकादानेतरविधिः ३५) श्रीभद्रबाहुस्वरूपं १६१ पर्युषणाकालतद्धेतुश्च परम्परा १० अर्वागतमयाद्वसतावागमनं श्रीस्थूलभद्रस्वरूपं १६३ (चूलमासगणनाखण्डन)स्थापना च८'गृहस्वगृहादौ साधुसाव्योः श्रीआर्यमहागिर्यायसुह वर्षाकालावग्रहः एरावत्युत्ताररीतिः९१... परस्परमगार्यगारी मिश्च सह स्तिस्वरूपं १६३ दानग्रहणादिविधिः १३ स्थानविधिः १६ संखडिवर्जनविधिः १७१ दीप अनुक्रम -1 For F lutelu -21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | सत्रातः पत्राला प्रत सुत्रांक १९. १९४ [-] गाथा - विषयः सूत्रायः पादः विषयः सूत्राशः पत्राका विषयः परिज्ञाप्याहारानयन ४०१... वनादीनामातपे दाने विधिः ५२ १८९उपाश्रयत्रयप्रमार्जनादि अभिगृहीतशय्यादित्वं तद्वत ५३... उदकाट्टैण अभोजनं आराधकता कल्पस्य श्रीवीरंजिनोक्तता आरा-६३7 १८४ उच्चारप्रश्श्रवणभूमिप्रमार्जनं ५६ १९० धने तद्भवसिद्धिकत्वादिः ६४ प्राणपनकादिसूक्ष्माष्टकं लोचविधिः ५७ १९१ ४५८ अधिकरणप्रतिषेधः (द्विज- ) प्रशस्ति: १९५-१९६ आचार्यादीनापृच्छ्य दृष्टान्तः) वहिवसीयकलहक्षमणा ५८ गोचरीविहारभूम्यादि विकृति- १८८(उदयनदृष्टान्तः) (उभयाराध- । इति कल्पसूत्रविषयाः। चिकित्सातपोऽनशनकरणं ५१) कवायां मृगावतीदृष्टान्तः) ५५) ४४१.. seeseseceaeeeeeeeeeeeeeee 92090araaa92020302RRRRRRE - दीप अनुक्रम -1 Fur & Fonte -22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान - .......... मूलं 1 / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक गाथा - Tue ! रुषकार महकमे आलीये इजलास खास सरकार ससाना आगमो प्यारथ तपागच्छा-यार्यश्री आनंद सागर सूरीजी सीयश्री माहाराज धीराज माहाराजा श्रीश्री १०८ श्री दिलीप सिंहजी साहय बहादुर ताश्य५नयम्या सन१८२१ सम्पत | माहाराज ने हमारी इच्छानुसार ईससालसैलाने में यातु मसिकीय..उनके अनेक विषयों पाव्याख्यान हु.योसु खरी नक़ल. नकर हम रखुश हुचे. ईस शी में नीय लीप माफीक हक्म व पती अन्य सैलाना के 'दीयान दरबारः देने में आता है. १ हरओक साल मीती. नादयावीदी१२ सेंमीती नाट्या जैन श्वेताम्बा मंदीर मार्गी माहाजनान सैलाना दीप जकल मुताबीच असल. अनुक्रम -1 शरीस्तदार दरबारीर सैलाना पतीश UNE For A F eld ... शैलाना-नगरस्य नृपेण (राजा) पूज्य आनन्दसागरसूरीश्वरं प्रदत्त खिताब: ~23 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं H गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सुत्रांक [-] गाथा - सुरी तक याने पर्युषाणों के दोनो में सदाबंद माफीफ नकल रुषकार हाजाकी बतोर दाखलाजाचार्य पलती रहेगी. इसमें विशेष ये हुक्म दियाजाताहेके. जीआनंदसागर सूरीजी माहाराज वय माहाजने सैलाने की हद मे इन दिनो में बकरानही मारा जायेगा. सैलाने को देने वास्ते दरबार ऑफीस में भेनानाये. २ हमारी सालगीरह की तीथी अयमीहै. ईसलीये तारित १५ नवंबर सन् १८२१ संमत् १५७८ हरमहीने की दोनोअष्टमीके दीनयाने सालभर में सही ईग्रेजी में श्रीजी हजुर साहबबहादुरकी. दीन ओकादसी व अमावस्या की पलती के माफीक अज महक्मे आलीये दरबार सैलाना. तमाम ईलाके में पलती होतीरहे. नकल रुबकार हाजाकी जरीय नकल हकम हाना दीप अनुक्रम -1 नंबा रोजना मया ५२२. हु. नंवर रसीर. ८१५ -24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान - .......... मूलं 1 / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सुत्रांक [-] गाथा - आचार्यनी माहाराज आनंद सागरसूरीजी व पंच माहाजनान सैलाना को दीनाये तारीरप १८।११।१६२१ संमत १९७८ सही ईग्रेनी में दीवान साहब दरबार सैलाना दीप अनुक्रम -1 Fur & Fonte -25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||-|| श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभ्रातृ-जैनपुस्तकोद्धारे श्रीविनयविजयोपाध्यायरचितसुबोधिकाख्यवृत्तियुतंश्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुखामिप्रणीतं श्रीकल्पसूत्रम्। अपश्चिमपूर्वभृत्सकलसिद्धान्तोद्धारकेभ्यः श्रीदेवगिणिक्षमाश्रमणेभ्यो नमः । णमोअरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सवसाहणं, एसो पंचणमुक्कारो, सबपावप्पणासणो । मंगलाणं च सवेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ १॥ पुरिमचरिमाण कप्पो,मंगलं वद्धमाणतित्थंमि । इह परिकहिया जिणगणहराइथेरावलि चरितं ॥१॥ प्रणम्य परमश्रेयस्करं श्रीजगदीश्वरम् । कल्पे सुबोधिकां कुर्वे, वृत्तिं बालोपकारिणीम् ॥१॥ यद्यपि बय-परा टीकाः,कल्पे सन्त्येव निपुणगणगम्याः। तदपि मायं यत्नः, फलेग्रहिः खल्पमतिबोधात् ॥ २॥ यद्यपि भानुद्युतयः सर्वेषां वस्तुयोधिका बह्वथः । तदापि महीगृहगानां प्रदीपिकैवोपकुरुते द्राक ॥३॥ नास्यामर्थविशेषो न युक्तयो नापि पद्यपाण्डित्यम् । केवलमर्थव्याख्या.वितन्यते चालबोधाय ॥ ४॥ हास्यो न स्यां सद्भिः कुर्वन्ने । RSaras02020100020002020 दीप अनुक्रम SeateEA कल्प. सु.१॥ प्रथमं व्याख्यानं आरभ्यते ... अथ कल्पसूत्रस्य वृत्ते: आरंभ: क्रियते ~26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक गाथा - कल्प.सुबो- तामंतीक्ष्णबुद्धिरपि । यदुपदिशन्ति त एव, हि शुभे यथाशक्ति यतनीयम् ॥५॥ अत्र हि पूर्व नवकल्पविहार-II कल्पभेदाः व्या०१काक्रमेणोपागते योग्यक्षेत्रे साम्प्रतं च परम्परया गुर्वादिष्टे क्षेत्रे चतुर्मासीस्थिताः साधवः श्रेयोनिमितं आन-18 सन्दपुरे सभासमक्षं वाचनादनु सङ्घसमक्षं पञ्चभिर्दिवसैवभिः क्षणैः श्रीकल्पसूत्रं वाचयन्ति । तत्र कल्प शब्देन साधूनां आचारः कथ्यते, तस्य च कल्पस्य दश भेदास्तद्यथा-आचेलक्कु १ देसि.२ सिजायर ३ रायपिंड ४ किकम्मे वय ६ जिट्ट ७ पडिक्कमणे,८ मासं ९ पजोसणाकप्पे १०॥१॥ व्याख्या-'आचेलकमिति न विद्यते चेल-वस्त्रं यस्य सोऽचेलकस्तस्य भाव आचेलक्यं, विमतवस्त्रत्वं इत्यर्थः, तच्च तीर्थेश्वराना-1 श्रित्य प्रथमान्तिमजिनयोः शक्रोपनीतदेवदूष्योपगमे सर्वदा अचेलकत्वं, अन्येषां तु सर्वदा सचेलकत्वं । यच्च किरणावलीकारेण चतुर्विशतेरपि जिनानां शक्रोपनीतदेवपिगमे अचेलकत्वं उक्तं तचिन्यम् , 'उसमेणं अरहा कोसलिए संवच्छरसाहिअं चीवरधारी होत्थ'त्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्सिवचनात् 'सको अ लकखमुल्लं सुरदूसं |.१ अष्टौ शेषमासमवा एकश्चातुर्मासिकः, अभिवधिताधिकमासस्याविवक्षा । २ चक्खाणं पुरिसपुरभो अजा । कुवंति जत्थ मेरा नडपेडगसंनिहा जाणे ॥शाति संबोधप्रकरणवचनात् न साध्या व्याख्यानमात्रस्याप्यधिकारः पुरुषाणां पुरतः, न चोल्पज्ञानाः साधवः पठन्ति पार्वे तासां न च ते ता बन्दंते, पुरुषोत्तमत्व खत्रापि । ३ अणागय पंचरत्तं कडिजईत्यावश्यकागु के।। ४ असंतचेला य तित्थयरा सो || (पश्चकल्पभाष्य) असत्स्येव चेलेषु सर्वे जिना अचेला इत्यर्थः । ऋषभः अर्हन् कौश लिंकः संवत्सरं साधिकं चीवरधारी अभवत् इति।। शक्रश्च लचमूल्यं सुरदूष्यं स्थापयति सर्वजिनस्कन्धे । वीरस्य वर्षमधिकं सदापि शेषाणां तस्य स्थितिः ॥ १॥ दीप अनुक्रम For F lutelu ... अत्र 'कल्पस्य दश-भेदानां वर्णनं क्रियते -27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१] गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: टवइ सव्वजिणखंधे । वीरस्स वरिसमहिअं. सयावि सेसाण तस्स ठिई' ॥ १ ॥ इति सप्ततिशतस्थानकवचनाच्चेति ज्ञेयं । साधून आश्रित्य च अजितादिद्वाविंशतिजिनतीर्थसाधूनां ऋजुप्राज्ञानां बहुमूल्यविविधवर्णवस्त्र परिभो गानुज्ञासद्भावेन सचेलकत्वमेव केषाञ्चिच श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमपि इत्यंनियतस्तेषामयं कल्पः, श्री ऋषभवी रतीर्थयतीनां च सर्वेषामपि श्वेतमानोपेत जीर्णप्राय वस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमेव । ननु वस्त्रपरिभोगे सत्यपि कथं अचेलकत्वं इति चेद्, उच्यते, जीर्णप्रायतुच्छवस्त्रे सत्यपि अवस्त्रत्वं सर्वजनप्रसिद्धमेव, तथाहि कृतपोतिका नदीमुत्तरन्तो वदन्ति अस्माभिर्मनीभूय नदी उत्तीर्णा इति, तथा सत्यपि वस्त्रे तन्तुवायरजकादींश्व वदन्ति शीघ्रं अस्माकं वस्त्रं देहि वयं नग्नाः स्म इति, एवं साधूनां वस्त्रसङ्गावेऽपि अचेलकत्वं इति प्रथमः १ ॥ तथा 'उद्देसि 'ति औदेशिक आधाकर्मिकं इत्यर्थः साधुनिमित्तं कृतं अशनपानखादिमखादिमवस्त्रपात्र वसतिप्रमुखं तच प्रथमचरमजिनतीर्थे एक साधु एकं साधुसमुदाय एवं उपाश्रयं वा आश्रित्य कृतं तत्सर्वेषां साध्वादीनां न कल्पते, द्वाविंशतिजिनतीर्थे तु यं साध्वादिकं आश्रित्य कृतं तत्तस्यैव अकल्पयं, अन्येषां तु कल्पते इति द्वितीयः २ ॥ तथा 'सिजायर'ति शय्यातरो वसतिस्वामी तस्य पिण्ड: अशन १ पान २ खादिम ३ खादिम ४ वस्त्र ५पात्र ६ कम्बल ७ रजोहरण ८ सूची ९ पिष्पलक १० नखरदन १९ कर्णशोधनक १२ लक्षणो द्वादशप्रकारः १ पात्रलेपवत् संयमशुद्ध वर्णपरावर्त्तोऽधुना । For Prate & Personal Use Only ~28~ १० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सयो- व्या०१ ॥२॥ गाथा 11-11 सर्वेषां जिनानां तीर्थेषु सर्वसाधूनां न कल्पते, अनेषणीयप्रसश्गवसतिदोलभ्यादिबहुदोषसंभवात् । अथ यदि कल्पभेदाः साधवः समग्रां रात्रि जाग्रति प्रातः प्रतिक्रमणं च अन्यत्र कुर्वन्ति तदा मूलोपाश्रयस्वामी शय्यातरो ना १५ भवति, यदि च निद्रायन्ति प्रतिक्रमणं च अन्यत्र कृर्वन्ति तदा दावपि शय्यातरौ भवतः, तथा तृणडगल-11 भस्ममल्लकपीठफलकशय्यासंस्तारकलेपादिवस्तूनि चारित्रेच्छुः सोपधिकः शिष्यश्च शय्यातरस्यापि ग्रहीतुं कल्पते, इति तृतीयः ॥ 'रायपिंडति सेनापति १ पुरोहित २ श्रेष्ठि३ अमात्य ४ सार्थवाह ५ लक्षणः पञ्चभिः सह राज्यं पालयन् मुर्धाभिषिक्तो यो राजा तस्य पिण्ड:-अशनादिचतुष्कं ४ वस्त्रं ५ पानं ६ कम्बलं ७ रजोहरणं ८ चेति। अष्टविधः प्रथमचरमजिनसाधूनां निर्गच्छदागच्छत्सामन्तादिभिः स्वाध्यायव्याघातस्य अपशकुनबुद्ध्या शरीरव्याघातस्य च संभवात् खाद्यलोभलघुत्व निन्दादिदोषसंभवाच निषिद्धः, द्वाविंशतिजिनसाधूनां तु जुमाज्ञत्वेन पूर्वोक्तदोषाभावेन राजपिण्डः कल्पते इति चतुर्थः ४॥ - 'किइकम्म'त्ति कृतिकर्म-वंदनक, तद् द्विधा-अभ्युत्थानं हादशावतं च, तत्सर्वेषां अपि तीर्थेषु साधुभिः ॥२॥ परस्परं यथादीक्षापर्यायेण विधेयं, साध्वीभिश्च चिरदीक्षिताभिरपि नवदीक्षितोऽपि साधुरेव वन्द्यः १ यशामतिथिसंविभागवताराधनं तु साधर्मिकभक्त्या, साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणामतिथितयोमास्वातिभिर्व्याख्यानात.। दीप अनुक्रम [] JaMEducational -29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१] गाथा 11-11 पुरुषप्रधानत्वात् धर्मस्य इति पञ्चमः ५. ॥'वय'ति व्रतानि-महावतानि तानि च द्वाविंशतिजिनसाधूनां 8 चत्वारि, यतस्ते एवं जानन्ति यत् अपरिगृहीतायाः स्त्रियः भोगासंभवात् स्त्री अपि परिग्रह एवेति परिग्रहे प्रत्याख्याते स्त्री प्रत्याख्यातैव, प्रथमचरमजिनसाधूनां तु तथाज्ञानाभावात् पश्च व्रतानि इति षष्ठः६॥ 'जित्ति ज्येष्ठो-रत्नाधिकः स एव कल्पो वृद्धलघुत्वव्यवहार इत्यर्थः, तत्र आद्यान्तिमजिनयतीनां उपस्थापनातःप्रारभ्य दीक्षापर्यायगणना मध्यमजिनयतीनांच निरतिचारचारित्रत्वाहीक्षादिनादेव, अथ पितापुत्रमातादुहितराजामात्यअष्ठिवणिकपुत्रादीनां साई गृहीतदीक्षाणां उपस्थापने को विधिः?, उच्यते, यदि पित्रादयः पुत्रादयश्च समकमेव पहजीवनिकार्याध्ययनयोगोद्वहनादिभिर्योग्यता प्राप्तास्तदा अनुक्रमेणैवोपस्थापना, अथ स्तोकं अन्तरं तदा किय-18 विलम्येनापि पित्रादीनामेव प्रथममुपस्थापना, अन्यथा पुत्रादीनां बृहत्त्वेन पित्रादीनां अप्रीतिः स्यात् , अथ पुत्रादीनां सप्रज्ञस्वेन अन्येषां निष्प्रज्ञत्वेन महदन्तरं तदास पित्रादिरेवं प्रतियोध्या-भोमहाभाग! सप्रज्ञोऽपि तव पुत्रः अन्येभ्यो बहभ्यो लघुभविष्यति तव पुत्रे च ज्येष्ठे तवैव गौरवं, एवं प्रज्ञापितः स यदि अनुमन्यते तदा पुत्रादिः प्रथमं उपस्थापनीया, नान्यथा, इति सप्तमः ७॥ 'पडिक्कमणे'ति अतिचारो भवतु मा वा परं श्रीऋषभ-1 वीरसाधूनां उभयकालं अवश्य प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यमेव, शेषजिनमुनीनां च दोषे सति प्रतिक्रमणं नान्यथा, तत्रापि मध्यमजिनयतीनां कारणसद्भावेऽपि देवसिकरात्रिके एव प्रायः प्रतिक्रमणे, न तु पाक्षिकचातुर्मासिक दीप अनुक्रम [] For FFU Clu -30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||-II कल्पसुबो- सांवत्सरिकाणि, तथा चोक्तं सप्ततिशतस्थानकग्रन्थे-'देसिय १ राइय २ पक्षिय,३ चउमासिअ ४ वच्छरीअकल्पभेदाः व्या०१॥४॥नामाउदण्डं पण पहिकमणा,मज्झिमगाणं तु दो पढमा ॥१॥तं दुह सय दुकालं. इयराणं कारणे इउ8 मुणिणो' इति अष्टमः ८॥'मास'त्ति आयान्त्यजिनयतीनां मासकल्पमर्यादा नियता, दुर्भिक्षाशक्तिरोगादिकारणसावेऽपि शाखापुरपाटककोणकपरावर्सेनापि सत्यापनीयैब, परं शेषकाले मासादधिकं न स्थेयं, प्रति-13 बन्धलघुत्वप्रमुखबहुदोषसंभवात्, मध्यमजिनयतीनां तु ऋजुप्राज्ञानां पूर्वोक्तदोर्षाभावेन अनियतो मासकल्पः, ते हि देशोनां पूर्वकोटीं यावदपि एकत्र तिष्ठन्ति, कारणे मासमध्येऽपि विहरन्ति, इति नवमः ९॥ 'पज्जोसणा-1 कप्पे'त्ति परि-सामस्त्येन उषणा-वसनं पर्युषणा, तत्र पर्युषणाशब्देन सामस्त्येन वसनं , वार्षिक पर्व च द्वयं || अपि कथ्यते, तत्र वार्षिक पर्व भाद्रपदसितपञ्चम्यां कालकसूरेग्नन्तरं चतुर्थ्यामेवेति, सामस्त्येन बसनलक्षणश्च पर्युषणाकल्पो द्विविधा-सालम्बनो निरालम्बनश्च, तत्र निरालम्बनः कारणाभाववान् इत्यर्थः, स द्विविधो जघन्य उत्कृष्टश्च, तत्र जघन्यस्तावत् सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादारभ्य कार्तिकचतुर्मासप्रतिक्रमणं यावत् सप्तति७०-11 IS १ देवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकवात्सरिकनामानि । द्वयोः (प्रथमान्तिमतीर्थकरतीर्थयोः) पच प्रतिक्रमणानि, मध्यमकानां तु हे प्रथमे ॥ १ ॥ तत् द्वयोः सदोभयकालं , इतरेपो कारणे इति मुनीनां । २ चन्द्रसंवत्सरापेक्षयेदमिति कश्चिन्मुग्धः, शास्त्रापेक्षया । पापापाढयोरेव युद्धे, किंचाधिकमासप्रमाणीकरणे पौषवृद्धौ माघे आषाढवृद्धी चाद्यापाढे चतुमोसीकरणापत्तिः, तस्याः तत्तन्मास-18 प्रतिवद्धत्वेऽत्रापि समानं समाधानं । दीप अनुक्रम [] FOT Fur & Fonte ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||-II दिनमानः उत्कृष्टस्तु चातुर्मासिकः, अयं द्विविधो निरालम्बनः स्थविरकल्पिकानां, जिनकल्पिकानां तु एको निरालम्बनश्चातुर्मासिक एव, सालम्बनस्तु कारणिक इत्यर्थः, यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तत्रैव चतुमोसककरणे चतुर्मासकानन्तरं च मासकल्पकरणे पाण्मासिका, अयमपि स्थविरकल्पिकानां एव, तथा पञ्चकपञ्चकवृद्ध्या गृहिज्ञाताज्ञातादिविस्तरस्तु नात्र लिखितः, साम्प्रतं सधाज्ञया तस्य विधेयुच्छिन्नत्वाद्विस्तरभयाच, विशेषापिना च कल्पकिरणावल्यादयो विलोक्याः, एवं सर्वत्रापि ज्ञेयं, अथैवंवर्णितस्वरूपः पर्युषणाकल्पः प्रथमान्तिम-18 जिनयोस्ती नियतः शेषाणां तु अनियतः, यतस्ते हि दोषाभावे एकस्मिन् क्षेत्रे देशोनां पूर्वकोटिं यावत् तिष्ठन्ति दोषसद्भावे तु न मासं अपि, एवं महाविदेहेऽपि द्वाविंशतिजिनवत् सर्वेषां जिनानां कल्पव्यवस्था ज्ञेया इति दशमः॥१०॥ एते दशापि कल्पा अपभवर्धमानतीर्थे नियता एव द्वाविंशतिजिनतीर्थे तु आचेलक्यौ १द्देशिकप्रतिक्रमण ३ राजपिण्ड ४ मास ५ पर्युषणा लक्षणाः षट्र कल्पा अनियताः, शेषास्तु शय्यातर १ चतुर्बत२ पुरुषज्येष्ठ ३ कृतिकर्म ४ लक्षणाश्चत्वारो नियता एवेति दशानां कल्पानां नियतानियतविभागः॥ ननु एकस्मिन् मोक्षमार्गे साध्ये प्रथमचरमजिनसाधूनां द्वाविंशतिजिनसाधूनां च कथं आचारभेद.?, उच्यते, जीवविशेषा एव तत्र कारणं, [पुरिमाण दुविसोझो चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो । मज्झिमगाण जिणाणं १ पूर्वेषां दुर्षिशोध्यः, चरमाणां दुरनुपालः कल्पः । मध्यमकानां जिनानां, सुविशोध्यः सुखानुपालश्च ॥ १॥ अजुजडाः पूर्व खलु, नटाविज्ञासाद् भवन्ति सातव्याः । वजहाः पुनः चरमाः, मजुप्राज्ञा मध्यमा भणिताः ॥ २॥ दीप अनुक्रम [] -32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सुयो- व्या०१ ॥४॥ कल्पभेदकारण १५ गाथा ||-II सुविसुज्झो सुहणुपालो अ॥१॥ उज्जुजडा पुरिमा, खलु नडाइनायाउ हुंति नायव्वा । वक्कजडा पुण चरिमा उजुपण्णा मज्झिमा भणिया ॥२॥] तथाहि-श्रीऋषभतीर्थजीवा ऋजुजडास्तेषां धर्मस्य अवयोघो दुर्लभो जडत्वात् , वीरतीर्थसाधूनां च धर्मस्य पालनं दुष्करं वक्रजडत्वात्, अजितादिजिनतीर्थसाधूनां तु धर्मस्य अवयोधः पालनं च द्वयं अपि सुकरं, ऋजुप्राज्ञत्वात् , तेन आचारो द्विधा कृतः । अत्र च दृष्टान्ताः प्रदर्यन्तेयथा केचित् प्रथमजिनयतयो बहिभूमगुरुसमीपं आगताः पृष्टाश्च गुरुभि:-भो मुनयो भवतां इयती बेला का जाता?, तैरुक्तं-स्वामिन् ! वयं नटं नृत्यन्तं विलोकयितुं स्थिताः, ततो गुरुभिः कथितं-इदं नटविलोकनं साधूनां न कल्पते, तैरपि तथेति अङ्गीकृतं, अथ अन्यदा त एव साधवश्चिरेण उपाश्रयं आगतास्तथैव गुरुभिः पृष्टाः प्रोचुः-प्रभो ! वयं नटी नृत्यन्तीं निरीक्षितुं स्थिताः,तदा गुरुभिरूचे भो महाभागास्तदानीं भवतां नटो निषिद्धो नटे निषिद्धे च नटी सुतरां निषिद्वैव, ततस्तैर्विज्ञप्त-स्वामिन् ! इदं अस्माभिने ज्ञातं अथैवं न करिष्यामः, अत्र च जडत्वान्नटे निषिद्धे नटी निषिद्धैवेति तैनं ज्ञातं, ऋजुत्वाच सरलं उत्तरं दत्तं इति प्रथमः। अत्र द्वितीयोऽपि दृष्टान्त:--यथा कोऽपि कुङ्कुणदेशीयो वणिग वृद्धत्वे प्रव्रजिता, स चैकदा ऐर्यापथिकीकायोत्सर्गे चिरं स्थितो गुरुभिः पृष्टः-एतावद्दीघे कार्योत्सर्गे किं चिन्तितं ?, स प्रत्युवाच-खामिन् ! जीवदया चिन्तिता, कथमिति पुनर्गुरुभिः पृष्ट आह-पूर्व गृहस्थावस्थायां क्षेत्रेषु वृक्षनिपूदनपूर्वकं उप्तानि धान्यानि बहून्यभूवन , इदानीं मम पुत्रास्तु निश्चिन्ता यदि वृक्षनिषूदनं न करिष्यन्ति तदा धान्याभवनेन वराकाः कथं दीप अनुक्रम X ॥ ४ ॥ Fur & Fonte 158janelbrary.org ... अत्र प्रथम-अंतिम तथा मध्यवर्ती तीर्थकराणां कल्प-भेदस्य कारणानि निर्दिश्यते । ~33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१] गाथा II-11 भविष्यन्ति ? इति ऋजुत्वात् स्वाभिप्राये यथास्थिते निवेदिते गुरुभिः कथितं-महाभाग ! दुतिं भवता, अहो ! अयुक्तमेतद्यतीनां, इत्युक्ते च मिथ्यादुष्कृतं ददौ ॥ तथा वीरजिनयतीनां वक्रजडत्वेऽपि दृष्टान्तद्वयंतत्र केचिद्वीरतीर्थसाधवो नटं नृत्यन्तं विलोक्य गुरुसमीपं आगता गुरुभिः पृष्टा निषिद्धाश्च नटावलोकन प्रति, पुनर्रन्यदा नहीं नृत्यन्तीं विलोक्य आगता गुरुभिस्तथैव पृष्टा वक्रतया अन्यानि उत्तराणि ददुर्वाद पृष्टाश्च सत्यं प्रोचुः, गुरुभिरुपालम्भे च दत्ते संमुखं गुरूनेय उपालब्धवन्तः-यदेसाकं तदा नरनिषेधसमये नटीनिषेधोऽपि कुतो न कृतो? भवतां एव अयं दोषः, अस्माभिः किं ज्ञायते? इति प्रथमो दृष्टान्तः । तथा कश्चियवहारिसुतः पित्रा बहुशः शिक्ष्यमाणो जनकादीनां संमुखं जल्पनं न कर्त्तव्यं इति पितृवचनं वक्रतया% मनसि दधार, अर्थकदा सर्वेषु खजनेषु बहिर्गतेषु पुनः पुनः शिक्षयन्तं पितरं अद्य शिक्षयामीति विचिन्त्य शकपाटं दत्वा स्थितः, आगतेषु च पित्रादिषु द्वारोदघाटना) बहुशब्दकरणेऽपि न वक्तिन चोंदूघाटयति, भित्त्युल्लङ्घनेन मध्ये प्रविष्टेन च पित्रा हसन् दृष्ट उपालब्धश्च कथयामास-भवद्भिरेवोक्तं वृद्धानां उत्तरं न देयं इति द्वितीयः ।। अर्थाजितादियतीनां ऋजुप्राज्ञत्वे दृष्टान्तः-यथा केचिदेजितजिनयतयो नटं निरीक्ष्य चिरेणागता गुरुभिः पृष्टा यथास्थितं अकथयन् गुरुभिश्च निषिद्धाः, अथ अन्यदा ते बहिर्गताः नदीं नृत्यन्ती विलोक्य प्राज्ञत्वात् विचारयामासुः-यदमार्क रागहेतुत्वाद् गुरुभिनटनिरीक्षणं निषिद्धं तर्हि नटी तु अत्यन्त-18 रागकारणत्वात् सर्वथा निषिद्धेवेति विचार्य नटी नालोकितवन्तः ॥ ननु तर्हि द्वाविंशतिजिनयतीनां ऋजुप्रा-18 दीप अनुक्रम [] -34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||-II कल्प.सुबो- ज्ञानां भवतु धर्मः, परं प्रथमजिनयतीनां ऋजुजडानां कुतो धर्मः ?, अनवबोधात्, तथा च चक्रजडानां वीरय- वसतिव्या०१ तीनां तु सर्वथा धर्मस्य अभाव एव, मैवं, ऋजुजडानां प्रथमजिनयतीनां जडत्वेन स्खलनासद्भावेऽपि भावस्य । गुणाः विशुद्धत्वाद् भवति धर्मः, तथा वक्रजहानां अपि वीरजिनयतीनां ऋजुम्राज्ञापेक्षया अविशुद्धो भवति परं। ॥५ ॥ सर्वथा धर्मो न भवतीति न वक्तव्यं, तथा वचने हि महान् दोषः, तदुक्तम् जो भणइ नस्थि धम्मों,न य| 18सामइयं न चेव य वयाई । सो समणसंघवज्झो, काययो समणसंघेणं ॥१॥" 8 तथा यो नियतमवस्थानलक्षणः सप्ततिदिनमान: पर्युपणाकल्प उक्तः सोऽपि कारणाभावे एव, कारणे तु तन्मध्येऽपि विहतु कल्पते, तद्यथा-अशिवे १ भोजनाप्राप्ती २, राज ३ रोग ४ पराभवे । चतुर्मासकमध्येऽपि, बिहतु कल्पतेऽन्यतः॥१॥ असति स्थण्डिले ५ जीवाकुले ६ च वसती ७ तथा । कुन्थु ८ वग्नी ९ तथा सर्प १०, विहर्तुं कल्पतेऽन्यतः॥२॥ तथा एभिः कारणैश्चतुर्मासकात्परतोऽपि स्थातुं कल्पते-वर्षादविरते मेघे, मार्गे कर्दमदुर्गमे । अतिक्रमेऽपि कार्तिक्यास्तिष्ठन्ति मुनिसत्तमाः ॥१॥ एवं अशिवादिदोषांभावेऽपि संयमनिर्वाहार्थ क्षेत्रगुणा अन्वेषणीयाः, तच्च क्षेत्रं त्रिविध-जघन्यं १ मध्यमं २ उत्कृष्टं ३ च, तत्र चतुर्गुणयुक्तं जघन्य, ते चामी-'समिई विहारभूमी,वियारभूमी य सुलहसज्झाओं सुलहा भिकखा जाहे जहन्नयं वासखित् ५॥ तु ॥१॥' यन्त्र विहारभूमिः सुलभा-आसन्नो जिनप्रासाद इत्यर्थः १ यत्र स्थण्डिलं शुद्धं निर्जीवं अनालोकं || १ यो भणति नास्ति धर्मः न च सामायिकं नैव च व्रतानि । स श्रमणसंघबाह्यः कर्तव्यः श्रमणसंघेन ॥ १॥ दीप अनुक्रम [] UIDEducationa l For Fun -35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- च २ यत्र खाध्यायभूमिः सुलभा, अखाध्यायादिरहिता ३ पत्र भिक्षा व सुलभा ४, त्रयोदशगुणं उत्कृष्टं, ते चामी -'चिक्खिल्ल १ पाण २ थंडिल्ल, ३ बसही ४ गोरस ५ जणाउले ६ विज्जे ७॥ ओसह ८ निचया ९ हिवई १० पाडा ११ भिक्ख १२ सज्झाए १३ ॥ १ ॥ यत्र भूपान् कर्दमो न भवति १ यत्र बहवः संमूहिमाः प्राणिनो न भवन्ति २ यत्र स्थण्डिलं निर्दोषं भवति ३ यत्र वसतिः स्त्रीसंसर्गादिरहिता ४ यत्र गोरसं प्रचुरं ५ यत्र जनसमवायो महान् भद्रकश्च ६ यत्र वैद्यान भद्रकाः ७ यत्र औषधानि सुलभानि ८ यत्र गृहस्थगृहाः सकुडुम्बा धनधान्यादिपूर्णाश्च ९ यत्र राजा भद्रकः १० यत्र ब्राह्मणादिभ्यो मुनीनामेपमानं न स्यात् ११ यत्र भिक्षा सुलभा १२ पत्र स्वाध्यायः शुद्ध्यति १३ 'चउग्गुणोववेयं तु, वित्तं होइ जहन्नयं । तेरसगुणमुकोसं, दुहं मज्झमि मज्झिमयं ॥ १ ॥ पूर्वोक्तचतुर्गुणादधिकं पंचादिगुणं त्रयोदशगुणाच न्यूनं द्वादशगुणपर्यन्तं मध्यमं क्षेत्रं, एवं च उत्कृष्ट्रे क्षेत्रे तदप्राप्तौ मध्यमे तस्यापि अप्राप्तौ जघन्ये क्षेत्रे साम्प्रतं च गुर्वादिष्टे क्षेत्रे साधुभिः पर्युषणाकल्पः कर्तव्यः ॥ अयं च दशप्रकारोऽपि कल्पो दोषाभावेऽपि क्रियमाणस्तृतीयोषधवत् हितकारको भवति, तथाहिकेनचिद् भूपतिना स्वपुत्रस्य अनागतचिकित्सार्थं त्रयो वैद्या आकारिताः, तत्र प्रथमो वैद्य आह मदीयं औषधं रोगसद्भावे रोगं हन्ति रोगाभावे च दोषं प्रकटयति, राज्ञोतं-सुप्तसपस्थापनतुल्येन १ चतुर्गुणोपेतं तु क्षेत्रं भवति जघन्यकं । त्रयोदशगुणमुत्कर्षं द्वयोर्मध्ये मध्यमकं ॥ १ ॥ 36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१] गाथा १५ ||-II कल्प.सुवो-अनेन औषन किं?, द्वितीयः प्राह-मदीयं औषधं विद्यमानं व्याधि हन्ति रोगाभावे च न गुणं तृतीयौषधव्या. १ न दोषं च करोति, राजा प्राह-भस्मनिहुततुल्येन अनेनापि पर्याप्तं, तृतीयः प्राह-मदीयं औषधं सद्भावे समकल्प रोग हन्ति, तदभावे च शरीरे सौन्दर्यवीर्यतुष्टिपुष्टिं करोति, राज्ञोक्तं-इदं औषधं समीचीनं, तद्वदयमपि। महिमा NRI कल्पो दोषसद्भावे दोषं निराकरोति, दोषाभावे च धर्म पुष्णाति । तदेवं समुपस्थिते पर्युषणापर्वणि मगलनिमित्तं पञ्चभिरेव दिनः कल्पसूत्रं वाचनीयं, तच यथा देवेषु इन्द्रः, तारासु चन्द्रः न्यायप्रवीणेषु रामः, सुरूपेषु कामः, रूपवतीषु रम्भा, वादित्रेषु भम्भा, गजेषु ऐरावणः , साहसिकेषु रावणः, बुद्धिमत्सु अभयः। तीर्थेषु शत्रुञ्जयः, गुणेषु विनयः धानुष्केषु धनञ्जयः। मन्त्रेषु नमस्कार:: तरुषु सहकारस्तधा सर्वशाखेषु शिरोमणिभाष विभर्ति,181 यतः नार्हतः परमो देवो, न मुक्तेः परमं पदम् । न श्रीशत्रुञ्जयात्तीर्थ, श्रीकल्पान्न परं श्रुतम् ॥१॥ तथाऽपं कल्पः साक्षात्कल्पद्रुम एव, तस्य च अनानुपूया उक्तत्वात् श्रीवीरचरित्रं पीजं,श्रीपार्चचरित्रमंडूकुरः श्रीनेमिचरित्रं स्कन्धः,श्रीऋषभचरित्रं शाखासमूहः स्थविरावली पुष्पाणि : सामाचारीज्ञानं सौरभ्यं फलं मोक्षप्राप्तिः, किञ्च-वाचनात्साहाय्यदानात्, सर्वाक्षरथुतेरपि । विधिनाऽऽराधितः कल्पः, शिवदोऽन्त-॥६ भवाष्टकम् ॥१॥ एगग्गचित्ता जिणसासणम्मि, पभावणापूअपरायणा जे । तिसत्तवारं निसुगंति कप्पं १ एकाग्रचित्ता जिनशासने प्रभावनापूजापरायणा ये । विसावाराः शृण्वन्ति कल्पं भवार्णवं गौतम ! ते तरन्ति ॥ १॥ Basasedneoseeeeee दीप अनुक्रम [.] ... अब वृत्तिकार-रचितं कल्पसूत्रस्य माहात्म्यं वर्णयते 13 -37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [3] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सु. २ भवण्णवं गोअम ! ते तरन्ति ॥ २ ॥' एवं च कल्पमहिमानं आकर्ण्य तपः पूजाप्रभावनादिधर्मकार्येषु कष्टधनव्ययसाध्येषु आलस्यं न विधेयं, सकलसामग्रीसहितस्यैव तस्य वाञ्छितफलप्रापकत्वात् यथा बीजं अपि दृष्टिवायुप्रभृतिसामग्रीसद्भावे एव फलनिष्पत्तौ समर्थ नान्यथा एवं अयं श्रीकल्पोऽपि देवगुरुपूजाप्रभावनासाध|र्मिक भक्तिप्रमुख सामग्री सद्भावे एव यथोक्तफलहेतुः, अन्यथा - 'ईकोऽवि नमुक्कारो, जिणवर्वसहस्त वज्रमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥ १॥ इति श्रुत्वा किञ्चित्प्रयाससाध्ये कल्पश्रवणेऽपि आलस्यं भवेत् । अथ 'पुरुषविश्वासे वचनविश्वास' इति कल्पसूत्रस्य प्रणेता वक्तव्यः, स च चतुद्देशपूर्वविद्युगप्रधानः श्रीभद्रवाहखामी दशाश्रुतस्कन्धस्य अष्टमाध्ययनतया प्रत्याख्यानप्रवादभिधाननवमपूर्वात् उद्धृत्य कल्पसूत्रं रचितवान्, तत्र पूर्वाणि च प्रथमं एकेन हस्तिप्रमाणमषीपुञ्जन लेख्यं १ द्वितीयं द्वाभ्यां तृतीयं चतुर्भिः ४. चतुर्थं अष्टाभिः ८, पञ्चमं षोडशभिः १६. षष्ठं द्वात्रिंशता ३२, सप्तमं चतुःषष्ट्या ६४ अष्टमं अष्टाविंशत्यधिकशतेन १२८, नवमं षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयेन २५६ दशमं द्वादशाधिकैः पञ्चभिः शतैः ५१२. एकादशं चतुर्विंशत्यधिकेन सहत्रेण १०२४, द्वादशं अष्टचत्वारिंशदधिकया द्विसहरुपा २०४८ त्रयोदशं षण्णवत्यधिकया चतुः सहख्या ४०९६ चतुर्दशं च अष्टसहरुपा द्विनवत्युत्तरशताधिकया ८१९२, सर्वाणि पूर्वाणि षोडशभिः सहस्रैख्यशीत्यधिकै त्रिभिः शतैश्च १६३८३ हस्तिप्रमाणमषीपुत्रैर्लेख्यानि, तस्मान्महापुरुषप्रणीतत्वेन मान्यो गम्भीरार्थश्च यतः१ एकोऽपि नमस्कारो जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य । संसारसागरात् सारयति नरं वा नारीं वा ॥ १ ॥ ••• कल्पसूत्रस्य कर्तारः नाम्नः एवं उद्धरनास्य वर्णनं क्रियते 38~ ५ १० १४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म अधिकारी प्रत सूत्रांक [१] गाथा - कल्प.सदो- 'सब्वनेईणं जइ हुज्ज.वालुआ सब्योदहीण जं उदयं । तत्तो अणंतगुणिओ. अत्थो इक्कस्स मुत्तस्स ॥१॥ न्या०१ मुखे जिह्वासहस्रं स्थादू, हृदये केवलं यदि । तथापि कल्पमाहात्म्यं, वक्तुं शक्यं न मानवैः ॥२॥ | अथ तस्य श्रीकल्पस्य वाचने श्रवणेच अधिकारिणो मुख्यवृत्त्या साधुसाव्यस्तत्रापिकालतोरात्रौ विहितकाल॥७॥ IS ग्रहणादिविधीनां साधूनां वाचनं श्रवणं च, साध्वीनांच निशीथायुक्तविधिना दिवाऽपि श्रवणं,तथा श्रीवीर निर्वाणादशीत्यधिकनवशत९८० वर्षातिक्रमे मतान्तरेण च त्रिनवत्यधिकनवशतवर्षा ९९३ तिक्रमे ध्रुवसेननृपस्य पुत्रमरणार्तस्य समाधिमाधातुमानन्दपुरे सभासमक्षं समहोत्सवं श्रीकल्पसूत्रं वाचयितुमारब्धं, ततःप्रभृति चतुर्विधोऽपि सङ्कः श्रवणेऽधिकारी, वाचने तु विहितयोगानुष्ठानः साधुरेव ।। अथ अस्मिन् वार्षिकपर्वणि कल्पश्रवणवत् इमान्यपि पश्च कार्याणि अवश्यं कार्याणि, तद्यथा-चैत्यपरिपाटी १.समस्तसाधुवन्दनं २,सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं ३,मिथ: साधर्मिकक्षामणं ४,अष्टम तपश्च ५, एषां अपि कल्पश्रव|णवद् वाञ्छितदायकत्वं अवश्यकर्तब्यस्वं जिनानुज्ञातत्वं च ज्ञेयं, तत्र अष्टमं तप उपचासत्रयात्मकं महाफलकारणं रत्नत्रयवदान्यं शल्यत्रयोन्मूलनं जन्मत्रयपावनं कायवाङ्मानसदोषशोषकं विश्वनयाग्यपदप्रापकं निःश्रेयसपदाभिलाषुकैरवश्यं कर्त्तव्यं नागकेतुवत्, तथाहि-चन्द्रकान्ता नगरी, तत्र विजयसेनो नाम राजा, श्रीका १ सर्वनदीनां यावत्यो भवेयुर्वालुकाः सर्वोदधीनां यद् उदकं । ततोऽनंतगुणितोऽर्थ एकस्य सूत्रस्य ॥१॥२ आधुनिकसंघश्रावणापेक्षया IS३ नेदं कचित् ४ काले विणए बहुमाणे उवहाणेइत्युक्तेः दीप अनुक्रम e ... पर्युषण-पर्व-निमित्त अवश्य-कर्तव्याणि पंच-कार्याणि निर्दिश्यते -39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||-|| cिeaeseseseseocoteo तारुय व्यवहारी, तस्य श्रीसखी भार्या, तया च बहुप्रार्थित एकः सुतः प्रसूतः, स च वालक आसने पर्युषणापर्व|णि कुटुम्बकृतां अष्टमवार्ता आकर्ण्य जातजातिस्मृतिः स्तन्यपोऽपि अष्टमं कृतवान् , ततस्तं स्तन्यपानमकुर्वाणं पर्युषितमालतीकुसुममिव म्लानं आलोक्य मातापितरौ अनेकान् उपायांश्चक्रतु:, क्रमाश मूर्ण प्राप्तं तं बालं मृतं ज्ञात्वा खजना भूमौ निक्षिपन्ति सम, ततश्च बिजयसेनो राजा तं पुत्रं तददाखेन तत्पितरं च मृतं विज्ञाय तद्धनग्रहणाय सुभटान् प्रेषयामास, इतश्च-अष्टमप्रभावात् प्रकम्पितासनो धरणेन्द्रः सकलं तत्खरूपं विज्ञाय भूमिस्थं तं बालकं अमृतच्छदया आश्वास्प विप्ररूपं कृत्वा धनं गृह्णतस्तान निवारयामास, तत् श्रुत्वा राजाऽपि त्वरितं तत्रागत्योवाच-भो भूदेव! परम्परागतं इदं अस्माकं अपुत्रधनग्रहणं कथं निवारयसि ?, धरणोऽवादीराजन् ! जीवत्यैस्य पुत्रः, कथं कुत्रास्तीति राजादिभिरुक्ते भूमेस्तं जीवन्तं बालकं साक्षात्कृत्य निधानमिव दर्शयामास, ततः सर्वैरपि सविस्मयैः स्वामिन् ! कस्त्वं कोऽयमिति पृष्ठे सोऽवदत्-अहं धरणेन्द्रो नागराजः कृताष्टमतपसोऽस्य महात्मन:साहाय्यार्थ आगतोऽस्मि,राजादिभिरुक्तं-खामिन् ! जातमात्रेण अनेन अष्टमतपः कथं कृतं?, धरणेन्द्र उवाच-राजन् ! अयं हि पूर्वभवे कश्चिदणिकपुत्रो वाल्येऽपि मृतमातृक आसीत्, सच अपरमात्राऽत्यन्तं पीयमानो मित्राय खदुःखं कथयामास, सोऽपि त्वया पूर्वजन्मनि तपान कृतं तेनैवं परा-1 भिवं लभसे इत्युपदिष्टवान , ततोऽसौ यथाशक्ति तपोनिरतः आगामिन्यां पर्युषणायां अवश्यं अष्टमं करिष्या-1 मीति मनसि निश्चित्य तृणकुटीरे सुष्वाप, तदा च लब्धावसरया विमात्रा आसन्नप्रदीपनका निकणस्तत्र दीप अनुक्रम [] KOnjaneibraryurg ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१] गाथा - कल्प,सुबो-निक्षिप्तः तेन च कुटीरके ज्वलिते सोऽपि मृतः अष्टमध्यानाच अयं श्रीकान्तमहेभ्यनन्दनो जाताअष्टमतपरि च्या० १ तितोऽनेन प्रर्वभवचिन्तितं अष्टमतपः साम्प्रतं कृतं, तदसौ महापुरुषो लघुकर्माऽस्मिन् भये मुक्तिगामीनागकेत यत्नात् पालनीयो, भवतां अपि महते उपकाराय भविष्यतीति उक्त्वा नागराजः खहारं तत्कण्ठे निक्षिप्य । कथा ॥८॥ खस्थानं जगाम, ततः खजनैः श्रीकान्तस्य मृतकार्य विधाय तस्य नागकेतुरिति नाम कृतं, क्रमाच स वाल्या-1 दपि जितेन्द्रियः परमश्रावको पभूव, एकदा च विजयसेनराजेन कश्चिद् अचीरोऽपि चीरकलङ्कन हतो व्यन्तरो जातः समग्रनगरविघाताय शिलां रचितवान्, राजानं च पादप्रहारेण रुधिरं वमन्तं सिंहासनाद् भूमौ पातयामास, तदा स नागकेतुः कथं इमं सङ्घमासादविध्वंसं जीवन् पश्यामीतिबुद्ध्या प्रासादशिखरमारुह्य शिलां| पाणिना दः, ततः स व्यन्तरोऽपि तत्तपःशक्तिं असहमान: शिला संहत्य नागकेतुं नतवान्, तद्वचनेन | भूपालं अपि निरुपद्रवं कृतवान् । अन्यदा च स नागकेतुर्जिनेन्द्रपूजां कुर्वन् पुष्पमध्यस्थितसर्पण दष्टोऽपि तथैवाव्यग्रो भावनारूढः केवलज्ञानं आसादितवान्, ततः शासनदेवताऽर्पितमुनिवेषश्चिरं विहरति सम. एवं नागकेतुकथां श्रुत्वा अन्यैरपि अष्टमतपसि यतनीयं । इति नागकेतुकथा।। अथात्र श्रीकल्पसूत्रे त्रीणि वाच्यानि यथा-'पुरिमचरिमाण कप्पो.मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि । इह परिकहिया जिणगणहराइथेरावली चरितं ॥१॥ व्याख्या-पुरिमचरिमाण'त्ति ऋषभवीरजिनयोः 'कप्पत्ति अयं कल्पः-आचारः यत् वृष्टिर्भवतु मा वा परं अवश्यं पर्युषणा कर्तव्या, उपलक्षणत्वात् कल्पसूत्रं वाचनीयं दीप अनुक्रम For Fun ... कल्पसूत्रे त्रीणि वाच्यानि कथनं -01 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१] गाथा 11-11 च, मझलमिति एकं अयं आचारः अपरं च मङ्गलं-मङ्गलकारणं भवति वर्धमानतीर्थे, कस्मादेवं इत्याह-यस्मा8 दिह परिकथितानि 'जिण'सि-जिनानां चरितानि १ 'गणहराइथेरावली'ति-गणधरादिस्थविरावली २'चरित्त'न्ति-सामाचारी ३ । तत्र प्रथमाधिकारे जिनचरितेषु आसन्नोपकारितया प्रथम श्रीवीरचरित्रं वर्णयन्तः श्रीभद्रबाहुस्वामिनो जघन्यमध्यमवाचनात्मकं प्रथम सूत्रं रचयन्ति| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले, अवसर्पिणीचतुर्थारकपर्यन्तलक्षणे, णकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थः (तेणं समएणं) निर्विभाज्य: कालविभागः समयस्तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरेत्ति) श्रमणः-तपोनिरतः 'भगवं' ति-भगवान् अर्कयोनिवर्जितद्वादशभगशब्दार्थवान्, यदाहु:-'भगोऽर्क १ ज्ञान २ माहात्म्य,३ यशो४ वैराग्य ५ मुक्तिषु ६। रूप ७ वीर्य ८ प्रयत्ने ९च्छा ,१. श्री ११ धमै १२ श्वर्य १३ योनिषु १४ ॥१॥' अत्र आन्त्यिौ अथौँ वर्जनीयौ, ननु अन्त्योऽर्थस्तु वर्ण्य एव, परं अर्कः कथंः वयं ?, सत्यं, उपमानतया अर्को भवति परं वत्प्रत्ययान्तत्वेन अर्कवान् इत्यों न लगतीति वर्जितः, 'महावीरे'त्ति कर्मवैरिपराभवसमर्थः, श्रीवर्धमानखामीत्यर्थः (पश्चहत्धुत्तरे होत्थत्ति) हस्तोत्तरा-उत्तराफाल्गुन्यः, गणनया ताभ्यो हस्तस्य उत्तरत्वात् , ताः पश्चसु स्थानेषु यस्य स पश्चहस्तोत्तरो भगवान् होत्य'त्ति अभवत् ॥ अथ षटूकल्याणकवादी आहननु ‘पञ्चहत्धुत्तरे साइणा परिनिव्वुडे' इति वचनेन महावीरस्य षटूकल्याणकत्वं संपन्नमेष, मैवं, एवं उच्यमाने 'पश्चउत्तरासादे अभीइछठे होस्थ' त्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनात् श्रीऋषभस्थापि षट् कल्याणकानि वक्तव्यानि दीप अनुक्रम [१] JaMEduputational ... अत्र प्रथम सूत्र एव वर्तते किंतु बारसासूत्रस्य संपादने अस्य सूत्रस्य क्रमांकन '२' इति लिखितं ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक 10 मू. गाथा ||-II कल्प-सुबो स्युः, न च तानि त्वयाऽपि तथोच्यन्ते, तस्माद्यथा पश्चउत्सरासाढे इत्यत्र नक्षत्रसाम्यात् राज्याभिषेको मध्ये षट्कल्या व्यागणितः परं कल्याणकानि तु 'अभीइण्डे' इत्यनेन सह पश्चैव तथाऽत्रापि 'पश्चहत्थुत्तरे' इत्यत्र नक्षत्रसा- कनिरास: म्यात् गर्भापहारोमध्ये गणिता, परं कल्याणकानि तु 'साइणा परिनिव्वुडे' इत्यनेन सह पश्चैव, तथा श्रीआचा॥९॥ राङ्गटीकाप्रभृतिषु 'पञ्चहत्थुत्तरे' इत्यंत्र पञ्च वस्तून्येव व्याख्यातानि, न तु कल्याणकानि। किन-श्रीहरिभद्रसूरिकृ-18 तयात्रापश्चाशकस्य अभयदेवसरिकतायां टीकायां अपि-आषाढशुद्धषष्ठयां गर्भसंक्रमः १ चैत्रशुद्धत्रयोदश्यां जन्म २ मार्गासितदशम्यां दीक्षा ३ वैशाखशुद्धदशम्यां केवलं ४ कार्तिकामावास्यायां मोक्षः ५ एवं श्रीवीरस्य पञ्च कल्याणकानि उक्तानि, अथ यदि षष्ठं स्यात्तदा तस्यापि दिन उक्तं स्यात् । अन्यच्च नीचैर्गोत्रविपाकरूपस्य अतिनिन्द्यस्य आश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्थापि कल्याणकत्वकथनं अनुचितं ॥ अथ 'पञ्चहत्थुत्तरे' इत्यत्र गो १ ताश्च पञ्चसु स्थानेषु गर्भाधानसंहरणजन्मदीक्षाज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृत्ता इति प्रथमाने 'चवणाईणं छण्हं वत्थूण'ति कल्पचूणौ । मोच नार्थत्वाभावादपहारस्थानेन संक्रमानान्तरतामुक्त्वाऽप्यपहारस्य कल्याणकतया प्रथनं बकुः पृथुस्थूलबुझेरनुमापकं। कल्याणकानि वस्तुस्थानरूपाणि न तु वस्तुस्थानानि कल्याणकानीति तु मुबोधमेव २ महोत्सबार्थ वीरकल्याणकभणनप्रसंगे एतदुक्केः षष्ठकल्याणकवर्णनमाकाशकुसुमकल्पं, जिनवल्लभात् प्राक् न केनापि च लेशतोऽपि तदुक्तं, जिनवल्लभन्न सूत्रोत्तीर्णवादीति जीवाभिगमप्रज्ञापनादौ मलयगिरयः, परेषामनुगतिरनाभोगिकी ३ गर्भापहारोऽशुभः गर्भसंक्रमस्तूत्तमकुले उत्तमः, विचार्यों भेदोऽनयो वदूक, अपहारे हि भाजप्ने वक्षो देवानन्दया, उत्तमकुलादुत्तमकुले संक्रमेऽपि पितृदयादिना पटवाशुभता, दीप अनुक्रम [१] Fur & F ly Anjaneibraryurg ... भगवन्त महावीरस्य पंच-कल्याणकानां निर्देश: -43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||-|| पहरणं कथं उक्तं इति चेत् सत्यं, अत्र हि भगवान् देवानन्दाकुक्षी अवतीर्णः, प्रसूतवती च त्रिशलेति असं-18 गतिः स्यात् तन्निवारणाय 'पञ्चहत्थुत्तरे'त्ति वचनं, इत्यलं प्रसङ्गेन, कल्याणकानि पञ्चैव (१)॥(तंजहत्ति) तद्यथापञ्चहस्तोत्तरत्वं भगवतो मध्यमवाचनया दर्शयति-हित्युत्तराहिं चुएत्ति) उत्तराफल्गुनीषु च्युतो देवलोकात (चइसा गभं वक्रतेत्ति) च्युस्था गमें उत्पन्नः (हत्थुत्तराहिंगभाउ गम्भं साहरिएत्ति) उत्तराफाल्गुनीषु गर्भात गर्भ संहृतः, देवानन्दाग त्रिशलाग: मुक्त इत्यर्थः, (हत्थुत्तराहिं जाएत्ति) उत्तरफाल्गुनीपु जात:(हत्युत्तराहिं |मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पब्वइएत्ति) उत्तराफाल्गुनीपु मुण्डो भूत्वा,तत्र द्रव्यतोमुण्डाकेशलुश्चनेन, | भावतो मुण्डः रागद्वेषाभावेन,अगारात्-गृहात् निष्क्रम्येति शेषः अनगारिता-साधुता पब्बइए'त्ति प्रतिपन्नः,18 तथा (हत्थत्तराहिति) उत्तराफाल्गुनीष (अणन्तेत्ति) अनन्त-अनन्तवस्तुविषयं (अणुसरेसि) अनुपम (निवाघा-1 एत्ति) निर्व्याघात-भित्तिकटादिभिरस्खलितं (निरावरणेत्ति) समस्तावरणरहितं (कसिणेत्सि) कृत्सं-सर्वप योपेतवस्तुज्ञापकं (पडिपुण्णेत्ति ) परिपूर्ण-सर्वावयवसंपन्नं, एवंविधं यत् (केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्नेत्ति)। वर-प्रधानं केवलज्ञानं केवलदर्शनं च तत् उत्तराफाल्गुनीषु प्राप्तः, (साइणा परिनिव्वुए भययन्ति ) स्वातिनक्षत्रे मोक्षं गतो भगवान (२)॥ अथ विस्तरवाचनया श्रीवीरचरित्रम् -(नेणं कालेणंति) तस्मिन् काले बहुकल्याणकार्थ बहुवचन मिति प्रणेतारो बालिशा एव,यतः फाल्गुन्योर्द्विवचनान्तता स्वतः कोशादिसंगता,द्वित्वे च प्राकृते बहुत्वं स्वभावादेव, किंच 'फल्गुनीप्रोष्ठपदस्य में (२-२-१२३) इत्यपि नेक्षितं तैराग्रहाकुलैः बहुकल्याणेत्याग्रुपज्ञायमाना, कथमैन्यथा बहुच वाक्येषु बहुवचनं दीप अनुक्रम Fur & Fonte HAR -44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २] गाथा - कल्प.सचो-(तेणं समएणंति) तमिन् समये (समणे भगवं महावीरेत्ति) श्रमणो भगवान् महावीरः (जे से गिम्हा- कल्याणकव्या०१ति ) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य (चउत्थे मासेत्ति) चतुर्थो मासः (अट्ठमे पक्खेत्ति) अष्टमा पक्षा, कोऽर्थ:-(आसा-पंचकं सू.२ सुद्धेत्ति) आषाढशुक्लपक्षः (तस्सणं आसाढसुद्धस्सत्ति) तस्य आषाढशुक्लपक्षस्य (छट्ठीपक्खणंति) षष्ठीरात्री कुक्षावच(महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीआओ महाविमाणाओति) महान विजयो यत्र तन्महाविजयं पुष्फत्तरत्तितारः स.३ पुष्पोत्तरनामकं 'पवरपुंडरीआओ'त्ति प्रवरेषु-अन्यश्रेष्ठविमानेषु पुण्डरीकमिय-श्वेतकमलमिव अतिश्रेष्ठं॥ इत्यर्थः तस्मात् महाविमाणाओ'त्ति महाविमानात्, किंविशिष्टात् (वीसंसागरोवमठिहआओत्ति)विंशति-18 सागरोपमस्थितिकात्, तत्र हि देवानां विंशतिः सागराणि उस्कृष्टा स्थितिर्भवति भगवतोऽपि एतावत्येव । स्थितिरासीत् , अथ तस्माद्विमानात् (आउखएणंति) देवायुःक्षण (भवखएणंति) देवगतिनामकर्मक्षयेण ISI(ठिइखएणंति) स्थिति:-वैक्रियशरीरेऽवस्थानं तस्याः क्षयेण-पूर्णीकरणेन (अणन्तरंति ) अन्तररहितं (चयं ॥ चइत्तत्ति) च्यवं-च्यवनं कृत्वा (इहेव जम्बुद्दीवे दीवेत्ति) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनानि द्वीपे (भारहे वासेत्ति) भरतक्षेत्रे (दाहिणड्डभरहेत्ति)दक्षिणार्धभरते (इमीसे ओसप्पिणीएत्ति)यत्र समये समयेरूपरसादीनां हानिः स्यात् साऽवसर्पिणी, ततोऽस्यां अवसर्पिण्यां (सुसमसुसमाए समाए विइकताएत्ति) सुषमसुषमानानि चतुष्को कोटिसागरप्रमाणे प्रथमारके अतिक्रान्ते (ससमाए समाएत्ति) सुषमानानि त्रिकोटाकोटिसागरप्रमाणे दिती-18 यारके (विइक्वंताए) अतिक्रांते (सुसमदूसमाए समाएत्ति) सुषमदुष्षमानानि द्विकोटाकोटिसागरप्रमाणे दीप अनुक्रम [२] २६ For F lutelu -45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] ......... मूलं [२] / गाथा -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [२] गाथा - तृतीयारके (विइकताए) व्यतिक्रान्ते-अतीते (दूसमसुसमाए समाएत्ति) दुष्षमसुषमानाम्नि चतुर्थारके (बहुविश्कताएत्ति) बहुव्यतिकान्ते किञ्चिदूने, तदेवाह-(सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहि ऊणियाएत्ति) द्विचत्वारिंशद्वर्षसहरूया ४२००० ऊना एका सागरकोटाकोटिश्चतुर्धारकप्रमाणं, तत्रापि चतुर्थारकस्य (पञ्चहत्तरीए वासेहि अद्धनवमेहि अ मासेहिं सेसेहिति) पञ्चसप्तति ७५ वर्षेषु साोष्टमासाधिकेषु शेषेषु श्रीवीरावतारः, द्वासप्ततिवर्षाणि च श्रीवीरस्यायुः, श्रीवीरनिर्वाणान त्रिभिः सार्धाष्टमासैश्चतुर्धारकसमाप्तिः ततः, पूर्वोक्ता या द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्री सा एकविंशत्येकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणयोः पञ्च-hel मारकषष्ठारकयोः सम्बन्धिनी ज्ञेया, (इक्वीसाए तित्थयरेहिति) एकविंशतीतीर्थकरेषु (इक्खागकुलसमुप्पन्नेहिंति ) इक्ष्वाकुकुलसमुत्पन्नेषु (कासवगुत्तेहिति) काश्यपगोत्रेषु (दोहि अत्ति) द्वयोः मुनिसुव्रतनेम्यो (हरिवंसकुलसमुप्पन्नेहिति) हरिवंशकुलसमुत्पन्नयोः (गोयमसगुत्तेहिति) गीतमगोत्रयो, एवं च (तेवीसाए तित्थयरेहिं चिइकंतहिति) त्रयोविंशती तीर्थकरेषु अतीतेषु (समणे भगवं महावीरेत्ति) श्रमणो भगवान् महावीरः, किंविशिष्टः?-(चरमतित्थयरेत्ति) चरमतीर्थङ्करः, पुनः किंविशिष्टः? (पुवतित्थयरनिहिडेत्ति) पूर्वतीर्थङ्करनिर्दिष्ट:-श्रीवीरो भविष्यतीत्येवं पूर्वजिनैः कथितः (माहणकुंडग्गामे नयरेत्ति) ब्राह्मणकुण्डग्राम। १ पूर्वतीर्थकरेत्यस्यादिजिननेत्यर्थ कथयित्वा भववर्णनं कृतं केनचित् तश्चिन्त्य, सर्वजिनेश्चतुर्विंशतिस्तवोदितेः, निर्गमसंबन्धेनावश्यकादौ भवक्रमसंबन्धेन च वीरचरित्रादौ पूर्व भववर्णनं दृष्ट्वाऽत्राप्यत्रैव भववर्णनं युक्तमित्याख्यानं अनामोगमूलं दीप अनुक्रम [२] ~46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ..... व्याख्यान [१] .......... मूलं २,३] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: १४खप्नदशेनं सू. ४ १५ प्रत सूत्रांक [३] गाथा I कल्प.सयो- नामके नगरे (उसभदत्तस्स माहणस्सत्ति) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य, किंविशिष्टस्य?-(कोडालसगुत्तस्सत्ति) व्या१कोडालैः समानं गोत्रं यस्य स तथा तस्य, कोडालगोत्रस्येत्यर्थः (भारिआए देवाणंदाए माहणीएत्ति) तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः (जालन्धरसगुत्ताएत्ति)जालन्धरसगोत्रायाः (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) ॥ ११ ॥ पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मध्यरात्रे इत्यर्थः (हत्धुत्तराहिं नक्खत्तेणं) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे (जोगमुवागएणंति) चन्द्रयोग प्राप्ते सति, कया?-(आहारवकृतिएत्ति) आहारापकान्त्या-दिव्याहारत्यागेन (भवयकतिएत्ति) दिव्यभवत्यागेन (सरीरवकंतिएत्ति) दिव्यशरीरत्यागेन (कुच्छिसि गम्भत्ताए यकंते) कुक्षौ गर्भतया व्युकान्तः, अथ (समणे भगवं महावीरे ) यदा श्रमणो भगवान महावीरः गर्ने उत्पन्नस्तदा (तिन्नाणोवगए आवि होत्थत्ति) ज्ञानत्रयोपगत आसीत् (चइस्सामित्ति जाणइ) ततः च्योष्ये इति जानाति, च्यवनभविष्यत्काल जानातीत्यर्थः, (चयमाणेन याणइ ) च्यवमानो नो जानाति, एकसामयिकत्वात् (चुएमित्ति जाणइ) च्युतोऽस्मीति च जानाति (३)। तथा (जरयणिं च णं समणे भगवं महावीरेत्ति)पस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दाया ब्राह्मण्याः(जालंधरसगुत्ताप)जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गन्भत्ताए वर्कते) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्न: (तं रयणि च णं सा देवाणंदा माहणीति) तस्यां रजन्यां सा देवानन्दा ब्राह्मणी (सयणिजंसि)शयनीये-पल्यङ्के (सुत्तजागरत्ति)नातिनिद्रायन्ती नातिजाग्रती, अत एव | १ दशमदेवलोकादक्षिणार्धभरतागतौ वक्रगतिमत्त्वेनानेकसमयतायामपि देवलोकवियोगरूपं च्यवनमेकसामयिकमेव दीप अनुक्रम [३] ॥ ११ ॥ For Fun ... देवानन्दाया: कुक्षौ भगवन्त महावीरस्य उत्पत्तिः । -47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [३,४] / गाथा [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [४] गाथा सुत्तजागरा ओहिरमाणि २ त्ति) अल्पां निद्रा कुर्वती (इमेत्ति) इमान् (एघारवेत्ति) एतद्रूपान्-वक्ष्यमाणस्वरूपान | मगर उरालेत्ति) उदारान-प्रशस्तान् ( कल्लाणेत्ति) कल्याणहेतून (सिवेत्ति) शिवान-उपद्रवहरान् (धन्नेत्ति) धन्यान-धनहेतून ( मंगल्लेत्ति) मङ्गलकारकान ( सस्सिरीएत्ति) सश्रीकान् (चउद्दस महासुमिणे) ईशान चतुर्दश महास्वमान् (पासित्ता णं पडिबुद्धत्ति) दृष्ट्वा जागरिता, (तंजहत्ति) तद्यथा-(गय १ वसह २ सीह३ अभिसेअ.४ दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ झयं ८ कुंभं । पउमसर १० सागर ११ विमाणभवण १२ रयणु-| चय १३ सिहिं च १४ ॥१॥) हस्ती १ वृषभः २ सिंहः ३ अभिषेकः श्रियाः सम्बन्धी ४ पुष्पमाला ५ चन्द्रः ६ सूर्यः। ७ ध्वजः ८ पूर्णकुम्भः ९ पद्मोपलक्षितं सरः १० समुद्रः ११ विमानं देवसम्बन्धि भवनं-गृहं, तत्र यः खर्गादवितरति तन्माता विमानं पश्यति यस्तु नरकादायाति तन्माता भवनमिति द्वयोरेकतरदर्शनाचतुर्दशैव स्वमाः १२ रत्नानां उच्चयो-राशिः१३ शिखी-निर्धूमोऽग्निः१४ (४)। (तएणं सा देवानंदा माहणी) ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी (इमेति) इमान् (एयारवेत्ति) एतद्रूपान् (उरालेत्ति) उदारान-प्रशस्तान् (जावत्ति) यावत्शब्देन पूर्वपाठोऽनुसरणीयः, (चउद्दस महासुमिणेत्ति) यथोक्तान् चतुर्दश महास्वमान् (पासित्ता णं पडियुद्धा| समाणीति) दृष्ट्वा जागरिता सती ( हत्ति) हृष्टा-विस्मयं प्राप्ता ( तुहत्ति) संतोषं प्राप्ता (चित्तमाणंदिअत्ति) चित्तेन आनन्दिता (पीइमणत्ति) प्रीतिर्मनसि यस्याःसा तथा प्रीतियुक्तचित्ता (परमसोमणस्सिआ) परम सौमनस्य-सन्तुष्टचित्तत्वं जातं यस्याः सा तथा (हरिसघसत्ति) हर्षवशेन (विसप्पमाणत्ति) विस्तारवत् दीप अनुक्रम १५ ~48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [4] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [&] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [१] मूलं [५] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ||22|| कल्प० ------- (हिअयत्ति) हृदयं यस्याः सा तथा पुनः किं भूता ! (धाराहयकयं वपुप्फगंपिवत्ति) धारया मेघजलधारया सिक्तं एवंविधं यत्कदम्बतरुकुसुमं तद्धि मेघघारया फुछति ततस्तद्वत् (समुस्स सिअरोम कूवा) समुच्छ्रुसितानि रोमाणि कूपेषु यस्याः सा तथा एवंविधा सती (सुमिणुग्गहं करेइ २ ता) स्वप्नानां अवग्रहं स्मरणं करोति, तत्कृत्वा च (सयणिज्जाओ अब्भुदेइ) शय्याया अभ्युत्तिष्ठति, (अभुट्टित्ता) अभ्युत्थाय ( अतुरिअत्ति ) अत्वरितया मानसैौत्सुक्यरहितया (अचवलत्ति) अचपलया कायचापल्यवर्जितया, ( असंभन्ताएत्ति) असम्भ्रान्तया अखलन्त्या (अविलंबिआएत्ति) विलम्बरहितया (रायहं ससरिसीए गइए) राजहंससदृशया गत्या ( जेणेव उसभदत्ते) माहणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उसमदर्श माहणं जपणं विजएणं वद्धावे, वद्धावित्ता भदासणवरगया आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कहु एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिआ, अज्ज सयणिज्जंसिमाहणे ) यत्रैव रुषभदत्तो ब्राह्मणः (तेणेव उपागच्छइ) तत्रैवोपागच्छति ( उवागच्छित्ता ) उपागस्य ( उसमदर्श माहणं) रुषभदत्तं ब्राह्मणं (जएणं विजएणं वद्धावेइ) जयेन विजयेन वर्धापयति आशिषं ददाति तत्र जयः स्वदेशे विजयः परदेशे (वद्धाविता) वर्धापयित्वा च (भद्दा सणवरगया) भद्रासनवरगता ततश्च (आसत्यात्ति) आश्वस्ता श्रमापनयनेन (वीसत्यात्ति) विश्वरता क्षोभाऽभावेन, अत एव (सुहासणवरगयति सुखेन आसनवरं प्राप्ता, ( करयलपरिग्गहिअं दसनहं ) करताभ्यां परिगृहीतं कृतं दश नखाः समुदिता यत्र तम् (सिरसावतन्ति) शिरसि आवर्त्तः प्रदक्षिणभ्रमणं यस्य तं एवंविधं (मत्यए अंजलि कट्टु ) अञ्जलिं मस्तके कृत्वा देवानन्दा ( एवं वयासीति ) एवं अवादीत् किं तदित्याह ॥ ५ ॥ ( एवं खलु अहं देवाणुचि) एवं निश्वयेन अहं हे देवानुप्रिय हे स्वामिन् (अज्ज सयणिज्जंसि) अथ 49 सुबो० ||१२|| Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [६] गाथा ५ सुत्तजागरा ओहीरमाणीरति) सुप्तजागरा-अल्पनिद्रा कुर्वती(इमेत्ति) इमान् (एयारूवेत्ति) एतद्रूपान् जरालत्ति) उदारान् (जाव सस्सिरीएत्ति) यावत् सश्रीकान् (चउद्दस महामुमिणेत्ति) चतुर्दश महाखमान (पासित्ता णं पडिवुद्धत्ति) दृष्ट्वा जागरिता (तंजहा) तद्यथा (गय जाव सिहिं चत्ति) गय इत्यादितः सिहिं चेति यावत् पूर्वोक्ताः स्वमा ज्ञेयाः (६)॥(एएसि णं देवाणुप्पिअत्ति ) एतेषां देवानुप्रिय! (उरालाणंति) प्रशस्तानां (जाव चउदसण्हं महासुमिणाणंति) यावत् चतुर्दशानां महाखमानां (के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइत्ति) मन्ये-विचारयामि का कल्याणकारी फलवृत्तिविशेषो भविष्यति ?, तत्र फलं-पुत्रादि वृत्तिः-जीवनोपायादिः, (तए णं से उसभदत्ते माहणे) ततः स ऋषभदत्तो ब्राह्मणः (देवाणदाए माहणीएत्ति) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (अंतिएत्ति) अन्तिके-पाचे (एअमटुं सुच्चा) एतं IS अर्थ श्रुत्वा कर्णाभ्यां (निसम्मत्ति) निशम्य-चेतसा अवधार्य (हहतुट्टजावहियएत्ति) हृष्टः तुष्टः यावत् हर्षवशेन विसर्पद्धदयः (धाराहयकयंवपुप्फगंपिव समुस्ससिअरोमकूवेत्ति) मेघधारया सिक्तकदम्बवृक्षपुष्प वत् समुच्छसितानि रोमाणि कूपेषु यस्य सः, एवंविधः सन् (सुमिणुग्गहं करेइति) स्वप्नधारणं करोति (करित्तित्ति) कृत्वा च (ईहं अणुपविसइ) ईहां-अर्थविचारणां प्रविशति (ईहं अणुपविसित्ता) तां कृत्वा च (अप्पणो साहाविएणं मइपुत्वएणं बुद्धिविन्नाणेणंति) आत्मन:-खात्मनः खाभाविकेन मतिपूर्वकेण । बुद्धिविज्ञानेन, तत्र अनागतकालविषया मतिः, वर्तमानकालविषया बुद्धिः, विज्ञानं चातीतानागतवस्तुविषयं, दीप अनुक्रम 10] For Fun -50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [७] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: o प्रश्नोत्तरी प्रत सूत्रांक [७] गाथा (तेर्सि सुमिणाणं अस्थुग्गहं करेइत्ति) तेषां स्खमानां अर्थनिश्चयं करोति (अत्यग्गहं करिता )तंकवा स्वाफले (देवाणंद माहणिं) देवानन्या ब्राह्मणी (एवं चयासीत्ति) एवं अवादीत् (७)। किं तदित्याह-(उराला ण तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा) उदारास्त्वया देवानुप्रिये ! खाना दृष्टाः ( कल्लाणा णं जाव सस्सिरीयसि Dil पुत्रखरूपं कल्याणकारकाः यावत् सश्रीकाः (आरोग्गत्ति) आरोम्य-नीरोगत्वं ( तुहित्ति) तुष्टिः-संतोषः ( दीहा- स.७-८ उति) दीर्घाय:-चिरजीवित्वं (कल्लाणत्ति) कल्याणं-उपद्रवाभावः ( मङ्गलकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए 18 सुमिणा दिहा) मङ्गलं-वान्छितावाप्तिः, एतेषां वस्तूनां कारकास्त्वया हे देवानुप्रिये ! खमा दृष्टाः (तंजहत्ति) २० तद्यथा (अस्थलाभो देवाणुप्पिएत्ति ) अर्थलाभो भविष्यति हे देवानुप्रिये। (भोगलाभो देवाणुप्पिएत्ति) भोगानां लाभ: हे देवानुप्रिये ! (पुत्तलाभो देवाणुप्पिएत्ति) पुत्रस्य लाभ: हे देवानुपिये! ( सुक्खलामो देवाणुप्पिएत्ति) सौख्यलाभो हे देवानुप्रिये ! भविष्यतीति सर्वत्र योज्यं, (एवं खलु तुमं देवाणुप्पिएत्ति) एवं खलु त्वं देवानुप्रिये । (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणंति) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु ( अट्ठमाण राईदिआणं विइक्वंताणं) सार्द्धसप्ताहोरात्राधिकेषु अतीतेषु, एतादृशं दारकं-पुत्रं (पयाहिसित्ति) प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः, किंविशिष्टं दारक ? (सुकुमालपाणिपायंति ) सुकुमालं पाणिपादं यस्यैवंविधं, किंचि. ( अहीणत्ति) अहीनानि-लक्षणोपेतानि ( पडिपुन्नपश्चिन्दिअसरीरत्ति ) खरूपेण प्रतिपूर्णानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तादृशं शरीरं यस्य स तथा तं, तथा (लकखणवंजणगुणोववेअंति) लक्षणानि व्यञ्जनानि च लक्षणव्य दीप अनुक्रम [८] ॥१३॥ 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [S] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [१] मूल [८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- ञ्जनानि तेषां गुणास्तैरुपपेतं, तंत्र लक्षणानि छत्रचामरादीनि चक्रितीर्थकृतां अष्टोत्तरसहस्रं बलदेववासुदेवानां अष्टोत्तरशतं अन्येषां तु भाग्यवतां द्वात्रिंशत्, तानि चेमानि- 'छनं १ तामरसं २ धन् ३ रथवरो ४ दम्भोलि ५कूर्मा ६ कुशा ७, वापी ८ खस्तिक ९ तोरणानि १० च सरः. ११ पञ्चाननः १२ पादपः १३ । चक्रं १४ शङ्ख १५गजौ १६ समुद्र १७ कलशौ, १८ प्रासाद १९ मत्स्या २० यवा २१, यूप २२ स्तूप २२ कमण्डलू २४ न्यवनिभृत् २५ सच्चामरो २६ दर्पणः २७ ॥ १ ॥ उक्षा २८ पताका २९ कमलाभिषेकः ३०, सुदाम ३१ केकी ३२ घनपुण्यभाजाम् ॥ तथा 'इह भवति सप्तरक्तः, षडन्नतः पञ्चसूक्ष्मदीर्घश्च । त्रिविपुललघुगम्भीरो द्वात्रिंशल्लक्षणः स पुमान् ॥ १ ॥ तत्र सप्त रक्तानि-नख २ चरण २ हस्त ३ जिह्वा ४ ओष्ठ ५ तालु ६ नेत्रान्ताः ७, षडन्नतानि-कक्षा १ हृदयं २ ग्रीवा ३ नासा ४ नखा ५ मुखं च ६, पञ्च सूक्ष्माणि दन्ताः १ त्वक २ केशा ३ अङ्गुलिपर्वाणि ४ नखाश्च ५ तथा पश्च दीर्घाणि नयने १ हृदयं २ नासिका ३ हनुः ४ भुजौ च ५, श्रीणि विस्तीर्णानि - भालं १ उरः २ वदनं च ३, त्रीणि लघूनि श्रीचा १ जङ्घा २ मेहनं च ३, त्रीणि गम्भीराणि सत्त्वं १ खरः २ माभिश्च ३, मुखम शरीरस्य, सर्वे वा मुखमुच्यते । ततोऽपि नासिका श्रेष्ठा, नासिकायाश्च लोचने ॥ १ ॥ यथा नेत्रे तथा शीलं यथा नासा तथाऽऽर्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं यथा शीलं तथा गुणाः ॥ २ ॥ अतिस्खेऽतिदीर्घेऽतिस्थूले चौतिकृशे तथा । अतिकृष्णेऽतिगौरे च षट्सु सत्त्वं निगद्यते ॥ ३॥ सद्धर्मः सुभगो नीरुक, सुखमः सुनयः कविः । सूचयत्यात्मनः श्रीमान्, नरः स्वर्गगमागमौ ॥ ४ ॥ निर्दम्भः सदयो दानी, दान्तो दक्षः सदा ऋजुः । •••• अत्र द्वात्रिन्शत् लक्षणानाम् वर्णनं क्रियते ~52~ ५ १० १४ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [८] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म dिeo प्रत सुत्रांक [८] गाथा कल्प.सुषो-18मर्त्ययोनेः समुदभूतो, भविता च पुनस्तथा ॥५॥ मायालोभक्षुधालस्यवहाहारादिचेष्टितैः । तिर्यगयोने: समु- लक्षणवर्णन त्पत्ति, ख्यापयत्यात्मनः पुमान् ॥६॥ सरागः खजनद्वेषी, दुर्भाषो मूर्खसङ्गकृत् । शास्ति खस्य गतायातं,8 १४॥ नरो नरकवर्मनि ॥ ७॥ आवत्तों दक्षिणे भागे, दक्षिणः शुभकृनृणाम् । वामो वामेतिनिन्द्यः स्याद्दिगन्यत्वे तु मध्यमः ॥ ८॥ अरेखं बहुरेखं वा, येषां पाणितलं नृणाम् । ते स्युरल्पायुषो निःस्खा, दुःखिता नात्र संशयः IMe अनामिकाऽन्त्यरेखाया, कनिष्ठा स्थायदाऽधिका । धनवृद्धिस्तदा पुंसां, मातृपक्षो बहस्तथा ॥१०॥ मणिबन्धात् पितुलेखा, करभाद्विभवायुषोः । लेखे द्वे यान्ति तिस्रोऽपि, तर्जन्यकुष्ठकान्तरम् ॥ ११॥ येषां रेखा इमास्तिस्रः, सम्पूर्णा दोषवर्जिताः । तेषां गोत्रधनायूंषि, सम्पूर्णान्यन्यथा न तु ॥ १२॥ उल्लङ्यन्ते च यावत्योऽङ्गुल्यो जीवितरेखया । पञ्चविंशतयो ज्ञेयास्तावत्यः शरदा बुधैः ॥ १३॥ यवैरङ्गुष्ठमध्यस्थैविद्याख्यातिविभूतयः । शुक्लपक्षे तथा जन्म, दक्षिणाङ्गुष्ठगैश्च तैः ॥ १४ ॥ न स्त्री त्यजति । रक्ताक्षं, नार्थः कनकपिङ्गलम् । दीर्घबाहुं न चैश्वर्य, न मांसोपचितं सुखम् ॥ १५ ॥ चक्षुःस्नेहेन सौभाग्यं, दन्तस्लेहेन भोजनम् । वपुःस्लेहेन सौख्यं स्यात्, पादनेहेन वाहनम् ॥ १६ ॥ उरोविशालो धनधान्यभोगी, शिरोविशालो नृपपुङ्गवश्च । कटीविशालो बहुपुत्रदारो, विशालपादः सततं सुखी स्यात् ॥१७॥ इमानि लक्षणानि, व्यञ्जनानि च-मपतिलकादीनि तेषां ये गुणास्तैरुपेतं, पुनः किंवि० (माणुम्माणपमाणपिडिपुन्नसुजायसवंगसुंदरंगति) तत्र मान-जलभृतकुण्डान्तः पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति यदि तज्जलं दीप अनुक्रम [९] JaMEducat i onal NRimjaneibraryari -53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [८] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [८] गाथा द्रोणमानं भवेत् तदा स पुरुषो मानप्राप्तः, यदि च तुलारोपितोऽर्धभारमानः स्यात्तदा स उन्मानप्राप्तः, तत्र भारमानं-'षट्सर्षपैर्यवस्त्वेको, गुजैका च यवैस्त्रिभिः। गुञ्जात्रयेण वल्लः स्याद्, गवाणे ते च षोडश ॥१॥ पले च दश गयाणास्तेषां सार्धशतं मणे । मणैर्दशभिरेका च, धटिका कथिता बुधैः ॥२॥ धटिभिदेशभिस्ताभिरेको भारः प्रकीर्तितः। अत्र तेषां सार्द्धशतं मणे इति तेषां गद्याणानां इति वाच्यं न तु पलानां, पलानां सार्धशतेन मणकथने हिमारे अष्टसप्ततिर्मणाः स्युस्तदर्घ च एकोनचत्वारिंशन्मणाः, एतावच शरीरमानं न सम्भवति. गद्याणानां सार्धशतेन मणकथने तु भारे चत्वारिंशत्शेरमानेन पादोना अष्ट मणाः किञ्चिदधिका जायन्ते, स-18 IS म्भवति च तदर्धमानं पञ्चशेराधिकपादोनचतुर्मणप्रमाणं शरीरमिति, संभवति च गद्याणकानां सार्धशतस्यापि मणत्वं, कचिद्देशे किञ्चिदूनशेरत्रयस्यापि मणत्वव्यवहारात्, तथा 'पमाण'त्ति खानुलेन अष्टोत्तरशताङ्गुलोच उत्तमपुरुषः, मध्यहीनपुरुषौ च पण्णवतिचतुरशीत्यङ्गुलोचौ स्यातां, अत्र उत्तमपुरुषोऽपि अन्य एव, तीर्थङ्करस्तु द्वादशाङ्गुलोष्णीषसद्भावेन विंशत्यधिकशताङ्गुलोचो भवति, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुजातानि सर्वाङ्गानि-शिरप्रमुखाणि यन्त्र एवंविधं सुन्दरं अङ्गं यस्य तथा तं, पुनः किंवि०(ससिसोमागारेत्ति) शशिवत्सौम्याकारं ( कन्तन्ति) कमनीयं (पियदंसगंति) वल्लभदर्शनं (सुरुवंति) शोभनरूपं (दारयं फ्याहिसित्ति) दारकं प्रजनिष्यसीति ज्ञेयम् (८)॥ ॥ (सेवि अ णं दारएत्ति) सोऽपि दारक एवंविधो भविष्यति, किंवि०?8( उम्मुक्कबालभावेत्ति) त्यक्तवाल्यो-जाताष्टवर्षः, पुनः किंवि०?-(विन्नायपरिणयमित्तेत्ति) विज्ञानं परिण-131 दीप अनुक्रम [९] JMEducatani For F lutelu A njaneibrary.org -54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [९] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [S] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [१] मूल [९] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुवोव्या० १ ।। १५ ।। ---------- तमात्रं यस्य स तथा, क्रमाच्च किंवि० ( जोवणगमणुपत्तेत्ति ) यौवनं अनुप्रासः पुनः किंवि० ? - ( रिउब्वेज़| उब्वेअ - सामवेअ - अधव्वणवेअत्ति ) अत्र पष्ठीबहुवचनलोपात् ऋग्वेद १ यजुर्वेद २ सामवेद ३अथर्वण ४ वेदानां कीदृशानां ? - ( इतिहासपञ्चमाणंति ) इतिहासपुराणं पञ्चमं येषां ते तथा तेषां पुनः कीदृशानां ? (निर्घदुछाणंति ) निघण्टुः - नामसङ्ग्रहः षष्ठो येषां ते तथा तेषां पुनः कीदृशानां :-( संगोबंगाणंति ) अङ्गोपाङ्गसहितानां तत्र अङ्गानि शिक्षा १ कल्पी २ व्याकरण ३ छन्दो ४ ज्योति ५ र्निरुक्तयः ६, उपाङ्गानि - अङ्गार्थविस्तररूपाणि, पुनः कीदृशानां ? ( सरहस्साणंति ) तात्पर्ययुक्तानां ( उण्हं बेयाणंति ) ईदृशानां पूर्वोक्तानां चतुर्णां वेदानां (सारएति ) स्मारकः अन्येषां विस्मरणे (वारएत्ति) बारकः, अन्येषां अशुद्ध पाठनिषेधात् ( धारएत्ति) धारणसमर्थः, इदृशो दारको भावी, पुनः किंवि० १ - ( सहंगवित्ति ) पूर्वीक्तानि षट् अङ्गानि वेत्ति-विचारयतीति षडङ्गवित्, ज्ञानार्थत्वे तु पौनरुक्तयं स्यात्, पुनः किंवि० १- (सद्वितंतविसारएत्ति) षष्टितनं कापिलीयं शास्त्रं तत्र विशारदः - पण्डितः पुनः किंवि० : - ( संखाणेत्ति ) गणितशास्त्रे, यथा- 'अर्ध तोये कर्दमे द्वादशांशः, षष्ठो भागो वालुकाय़ां निमग्नः । सार्धो हस्तो दृश्यते यस्य तस्य, स्तम्भस्याशु ब्रूहि मानं विचिन्त्य ॥ १॥' स्तम्भो हस्ताः ६, क्वचित् (सिक्खाणेति पाठः) तत्र सिक्खाणशब्देन आचारग्रन्थः, (सिक्खाकप्पेति ) शिक्षा - अक्षरान्नायग्रन्थः कल्पश्च यज्ञादिविधिशास्त्रं तत्र, तथा ( बागरणेत्ति ) व्याकरणे - शब्दशास्त्रे, तानि च विंशतिः - ऐन्द्र १ जैनेन्द्र २ सिद्धहेमचन्द्र ३ चान्द्र ४ पाणिनीय ५ सारस्वत ६ ~55~ पुत्रखरूपे यौवन रूपं सू. ९ २० २५ ।। १५ ।। २८ Janel/ory.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१०] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१०] गाथा ॥१..|| शाकटायन ७ वामन ८ विश्रान्त ९ युद्धिसागर १० सरस्वतीकण्ठाभरण ११ विद्याधर १२ कलापक १३-18। भीमसेन १४ शैव १५ गौड १६ नन्दि १७ जयोत्पल १८ मुष्टिव्याकरण १९ जयदेवाभिधानानि २०, (छंदेत्ति) छन्दःशास्त्रे (निरुत्तेत्ति ) पदभञ्जने व्युत्पत्तिरूपे टीकादौ इत्यर्थः (जोइसामयणेत्ति ) ज्योति:शास्त्रे ( अन्नेसु अ बहुसुत्ति) एषु पूर्वोक्तेषु अन्येषु च बहुषु (भण्णएसुत्ति) ब्राह्मणहितेषु शास्त्रेषु (परि-1 व्वायएसुत्ति) परिव्राजकसम्बन्धिषु (नएम) नयेषु-आचारशास्त्रेषु (सुपरिनिट्टिए यावि भविस्सइत्ति) अतिनिपुणो भविष्यतीति योगः (१)॥ (तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिहा) तस्मात् कारणात् । उदाराः त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वमा दृष्टाः (जाव आरुग्गतुहिदीहाउमंगल्लकारगा मंति) यावत् आरोग्यतुष्टिदीर्घायुकल्याणमङ्गलानां कारकाः (तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिहत्ति) त्वया हे देवानुप्रिये ! खमा दृष्टाः (इतिकडुत्ति) इतिकृत्वा (भुजो भुजो अणुबूहइसि) भूयो भूयो-वारं वारं अनुहयति-अनुमोदयति (१०)॥ (तए णं सा देवाणंदा माहणीति) ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी (उसभदत्तस्स माहणस्स अंतिए)ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य पार्थे (एयमढे सुचत्ति) इमं अर्थ श्रुत्वा (निसम्मसि) चेतसा अवधाये हतुजाचहिययत्ति) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया (करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए। अंजलिं कड) करतलाभ्यां कृतं दश नखा मिलिताः यत्र तं, शिरसि आवर्ती यत्र तं, इदृशं मस्तके करसकम्पुटं कृत्वा ( उसभवत्तं माहणं) मषभदत्तं ब्राह्मणं ( एवं वयासी)ततः सा देवानन्द्रा एवं अवादीत् (११) दीप अनुक्रम [१०] JaMEducatanitli For F lutelu janeibrary.org -56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [११] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो-किमित्याह-(एवमेअं देवाणुप्पिअत्ति) एवमेतत् देवानुप्रिये ! (तहमेअं देवाणुप्पियत्ति ) तथैतद्देवानुखप्नोपहा व्या० १प्रिय ! यथा यथा भवद्भिरुक्तं (अवितहमेअं देवाणुप्पियत्ति ) यथास्थितं एतद्देवानुप्रिय! (असंदिद्धमेविनयः प्र॥१६॥ देवाणुप्पियसि ) सन्देहरहितं एतद्देवानुप्रिय ! (इच्छि अमेअं देवाणुप्पियत्ति) ईप्सितं एतद्देवानुप्रिय! (पडि- तीच्छा इ. छिअमेअंदेवाणुप्पियत्ति) प्रतीष्ठं-युष्मन्मुखात् पतदेव गृहीतं देवानुप्रिय ! (इच्छियपडिच्छिअमेअंदेवाणु न्द्रवर्णन सू प्पियत्ति) उभयधर्मोपेतं देवानुप्रिय ! (सच्चे णं एस अद्वेत्ति) सत्यः स एषोऽर्थः (से) अथ (जयंति) १०-१३ येन प्रकारेण इमं अर्थ (तुम्भे वयहत्ति) यूयं वदथ (इति कड) इति कृत्वा-इति भणित्वा (ते सुमिणे सम्म २० पडिच्छात्ति) तान् स्खमान सम्यग् अङ्गीकरोति (पडिच्छित्तत्ति) अङ्गीकृत्य (उसभदत्तेणं माहणेणं सद्धिति) ऋषभदत्तत्राह्मणेन सार्ध (उरालाई माणुस्सगाईति) उदारान् मानुष्यकान् (भोगभोगाईति) भोगार्हो भोगा भोगभोगास्तान् भोगाईभोगान् (मुंजमाणा विहरह) भुञ्जाना विहरति (१२)। (तेणं कालेणंति) तस्मिन् काले (तेणं समएणंति) तस्मिन् समये स शक्रो विहरतीति सम्बन्धः, किंविशिष्टः?-(सकेत्ति) शक्रनामसिंहासनाधिष्ठाता ( देविंदेसि ) देवानां इन्द्रः (देवरायात्ति) देवेषु राजा-कान्त्यादिगुणः राजमानः (वजपाणित्ति ) करधृ- २५ तिवज्रः (पुरंदरेत्ति) दैत्यनगरविदारकः (सयकाउत्ति) शतं क्रतवा-श्राद्धपश्चमप्रतिमारूपा नियमविशेषा यस्य ॥१६॥ स शतक्रतुः, इदं हि कार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया, तथाहि-पृधिचीभूषणनगरे प्रजापालो नाम राजा, कार्सिकनामा श्रेष्ठी, तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं, ततः शतक्रतुरितिख्यातिः, एकदा च गैरिकपरिव्राजको मासोपवासी दीप अनुक्रम २८ -57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१३] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [१३] गाथा ॥१..|| तत्रागतः, एकं कार्तिकं विना सर्वोऽपि लोकस्तद्भक्तो जातः, तच ज्ञात्वा कार्तिकोपरि गैरिको रुष्टः, एकदा च राज्ञा निमन्त्रितोऽवदत्-यदि कार्तिकः परिवेषयति तदा तव गृहे पारणां करोमि, राज्ञा तथेति प्रतिपद्य कार्तिकायोक्तं-यत्त्वं मद्गृहे गैरिकं भोजय, ततः कार्तिकेणोक्तं-राजन् ! भवदाज्ञया भोजयिष्यामि, ततः श्रेष्ठिना भोज्यमानो गैरिको धृष्टोऽसीति अङ्गुलिना नासिकां स्पृशंश्चेष्टांचकार, श्रेष्ठी यो-यदि मया पूर्व दीक्षा | गृहीताऽभविष्यत्तदाऽयं न पराभविष्यदिति विचिन्त्याष्टाधिकसहस्रेण वणिकपुत्रैः सह श्रीमुनिसुव्रतखामिसमीपे चारित्रं गृहीत्वा द्वादशाङ्गी अधीत्य द्वादशवर्षपर्यायः सौधर्मेन्द्रोऽभूत्, गैरिकोऽपि निजधर्मतस्तद्वाहा हनं ऐरावणोऽभवत् , ततः कार्तिकोऽयमिति ज्ञात्वा पलायमानं तं धृत्वा शक्रः शीर्ष आरूढः स च शक्रभापनार्थ रूपद्वयं कृतवान्, शक्रोऽपि तथा, एवं रूपचतुष्टयं, शक्रोऽपि तथा, ततश्चावधिना ज्ञातखरूपस्तं तर्जितवान् तर्जितश्च स्वाभाविक रूपं चक्रे, इति कार्तिकश्रेष्ठिकथा ॥ 81 (सहस्सक्खेत्ति) मन्त्रिदेवपञ्चशत्या लोचनानि इन्द्र कार्यकराणीति इन्द्रसम्बन्धीन्येवेति सहस्राक्षः (मघवंति) मघा-महामेघा वशे सन्त्यस्येति मघवान् (पागसासणेत्ति) पार्क-दैत्यं शास्ति-शिक्षयतीति पाकशासनः ( दाहिणड्डलोगाहिवइत्ति ) मेरोदक्षिणतो यल्लोकाध तस्याधिपतिः, उत्तरलोकार्धस्य ईशानस्वामिकत्वात् R(एरावणवाहणेत्ति) ऐरावणवाहनः (सुरिंदेत्ति) सुराणां इन्द्र:-आह्लादकः ( बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवइत्ति) द्वात्रिंशल्लक्षविमानाधिपतिः(अरयत्ति) अरजस्कानि-रजोरहितानि (अंबरवस्थधरेत्ति) स्वच्छतया दीप अनुक्रम [१३] ... शक्रेन्द्रस्य वर्णनं -58 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१३] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो- अम्बरतुल्यानि वस्त्राणि अम्बरवस्त्राणि तानि धरतीति अरजोऽम्बरवस्त्रधरः ( आलइअमालमउडेत्ति इन्द्रवर्णने व्या०१आलगितौ-यथास्थानं परिहितौ मालामुकुटौ येन स तथा (नवत्ति ) नवाभ्यां इव (हेमत्ति) हेमसत्काभ्यां कार्तिक कथा (चारुत्ति) चारुभ्या-मनोज्ञाभ्यां (चित्तत्ति) चित्राभ्यां-चित्रकारिभ्यां (चबलकुंडलसि) चपलाभ्यां-18 ॥१७॥ इतस्ततः कम्पमानाभ्यां, ईदृशाभ्यां कुण्डलाभ्यां (विलिहिज्जमाणगल्लेत्ति) विलिख्यमानौ गल्लौ यस्या शास तथा (महिड्डीएत्ति) महती ऋद्धि:-छत्रादिराजचिन्हरूपा यस्य स तथा (महज्जुइएत्ति) महती युतिः आभरणशरीरादिकान्तिर्यस्य स तथा (महब्बलेत्ति) महाबलः (महायसेत्ति) महायशाः (महाणुभावेत्ति) २० महान् अनुभावो-महिमा यस्य स तथा (महामुक्खेत्ति) महासुखा, पुनः किंवि०-(भासुरत्ति) भासुरंदेदीप्यमानं (बोंदित्ति) शरीरं यस्य स तथा, पुनः किंवि०(पलंबवणमालघरेत्ति) प्रलम्बा-आपादल-18 म्बिनी बनमाला-पञ्चवर्णपुष्पमाला तां धरति यः स तथा, अब स कुत्र वर्तते इत्याह-(सोहम्मे कप्पेत्ति) |सौधर्मे कल्पे ( सोहम्मवडिंसए विमाणेत्ति ) सौधर्मावतंसके विमाने ( सुहम्माए सभाएत्ति ) सुधर्मायांग | सभायां (सकसि सीहासणंसिसि) शक इति नामके सिंहासने, अथ स किं कुर्वन् विहरतीत्याह-- (से २५ गणं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणंति) स-इन्द्रस्तत्र-देवलोके द्वात्रिंशद्विमानावासशतसहस्राणां ॥१७॥ द्वात्रिंशल्लक्षविमानानां इत्यर्थः (चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणंति ) चतुरशीतिसामानिकसहस्राणां, ते हि इन्द्रसमानऋद्धयः (तायत्तीसाए तायत्तीसगाणंति) त्रयस्त्रिंशत् ब्रायखिशाते हि महत्तराः इन्द्रपूज्या, दीप अनुक्रम [१३] २८ JanEducaton -59 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१३] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [१३] गाथा ॥१..|| deceae मन्त्रिकल्पा वा तेषां (चउण्हं लोगपालाणंति) चतुर्णी लोकपालानां-सोम १ यम २ वरुण ३ कुबेरा ४ भिधा-18 नानां (अट्ठण्हं अग्गमहिसीण) अष्टानां अग्रमहिषीणां, ता हि पद्मा १ शिवा २ शची ३ अञ्जु ४ अमला -181 अप्सरो ६ नवमिका ७ रोहिणी ८ त्यभिधानाः, किंविशिष्टानां तासां(सपरिवाराणंति) सपरिवाराणां प्रत्येक षोडशसहस्रपरिवाराणां तथा (तिण्हं परिसाणंति) तिमृणां पर्षदा, बाय १ मध्यमा २ भ्यन्तराणां ३ (सत्तण्हं अणिआणंति) सतानां अनीकाना-सैन्यानां गन्धर्व १ नाटक २ अश्व ३ गज ४ रथ५ सुभट ६वृषभ ७ संज्ञकानां, भवनपत्यादीनां वृषभस्थाने महिषा भवन्तीति ज्ञेयं, तथा (सत्तण्हं अणिआहिवईणति) सप्तानां सेनापतीनां (चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणंति) चतसृषु दिक्षु प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्रमितानामात्मरक्षकदेवानां सर्वसङ्ख्यया च षत्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयमितानां (३३६०००) (अन्नसिं च बहणं सोहम्मकप्पवासीणं बेमाणिआणं देवाण देवीण यत्ति) अन्येषांच बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च (आहेवचंति ) अधिपतिकर्म-रक्षा इत्यर्थः (पोरेवचंति) अग्रगामित्वं ( सामित्तंति ) नायकत्वं (भटित्तंति) भर्तृवं-पोषकत्वं (महत्तरगत्तंति ) गुरुतरत्वं (आणाईसरसेणावचंति) आज्ञया ईश्वरो यः सेनापतिः तत्त्वं, स्वसैन्यं प्रति अद्भुतं आज्ञाप्राधान्यं इत्यर्थः ( कारेमाणेत्ति) कारयन् नियुक्तः (पालेमाणेत्ति ) पालयन् | | स्वयमेव, पुनः किं कुर्वन् १-( महयत्ति ) तत्र महतेति रबेण इत्यनेन योज्यते, महता शब्देनेत्यर्थः, केषां | इत्याह-(अहयत्ति) अविच्छिन्नं एवंविधं यत् (नगीअति ) नाटकं गीत-प्रसिद्धं ( वाइअत्ति) वादितानि दीप अनुक्रम [१३] A wtaneltmany.org. -60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१४] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो-यानि तन्त्र्यादीनि तेषां, तत्र (तंतीतलतालत्ति) तन्नी-वीणा तलतालाः-हस्ततालाः ( तुडियत्ति ) त्रुटि-वीरदर्शनं न्या०१ तानि-अन्यवादित्राणि (घणमुइंगत्ति) घनमृदङ्गो-मेघध्वनिमर्दलो, तथा (पडपडहवाइयरवेणंति) पटुपटहस्य | यद्वादित-वादनं एतेषां महता शब्देन ( दिवाई भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरह) देवयोग्यान् भोगाईभोगान ॥१८॥ भुञ्जानो विहरति ॥ (१३)॥ | पुनः स किं कुर्वन्नित्याह-(इमं च णंति) इमं (केवलक-पति) सम्पूर्ण (जंबुद्दीवं दीवंति ) जम्बूद्वीपं द्वीप (विउलेणंति ) विपुलेन-विस्तीर्णेन (ओहिणत्ति ) अवधिना (आभोएमाणे आभोएमाणे विहरइत्ति) अवलोकयन् अवलोकयन् विहरति-आस्ते इति सम्बन्धः (तत्थ णं समणं भगवं महावीरेसि) तत्र समये श्रमणं भगवन्तं महावीरं (जंबुद्दीवे दीवेत्ति) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनाम्नि द्वीपे (भारहे वासेत्ति) भरतक्षेत्रे (दाहिणड्डभरहेत्ति)। दक्षिणार्धभरते (माहणकुंडग्गामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामनामके नगरे (उसमदत्तस्सत्ति ) ऋषभदत्तस्य। (माहणस्सत्ति) ब्राह्मणस्य, किंवि०१(कोडालसगुत्तस्सत्ति) कोडालैः समानं गोत्रं यस्य स तथा, कोडालगोत्रस्येत्यर्थः (भारिआए देवाणंदाए माहणीएत्ति) तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः ( जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गम्भत्ताए वक्वंतंति) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नं ( पासइ पासित्ता ) पश्यति दृष्ट्वा ( हहतुट्ठचित्तमाणंदिए ) हृष्टः तुष्टः चित्तेन आनन्दितः (णंदिएसि) हर्षधनेन समृद्धतां गतः (परमाणंदिएत्ति) अतीव समृद्धभावं गतः (पीइमणे ) प्रीतिमनसि यस्य सः ( परमसोमणस्सिए ) परम दीप अनुक्रम [१४] Ungton For F lutelu anetbrary.org .. देवानन्दा कुक्षौ स्थित: भगवन्त महावीरस्य दर्शनं -61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१४] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: | प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ॥१..|| , सौमनस्यं तुष्टचित्तवं प्राप्तः (हरिसवसविसप्पमाणहिअए) हर्षवशेन विसर्पत् हृदयं यस्य सः, प्रमुदितचित्तप्राग्भारेणैव (धाराहयकर्यबसुरहिकुसुमत्ति) धाराहतं यत्कदम्बस्य सुरमिकुसुमं तद्वत् (चंचुमालहअत्ति) रोमाञ्चिता, अत एव (ऊससिअरोमकूवेत्ति) उच्छ्रितरोमकूपः, तथा (विअसिअवरकमलाणणनयणेत्ति) विकसितं वरं-प्रधानं यत्कमलं तद्वत् आननं-मुखं नयने च यस्य स तथा, प्रमोदपूरितत्वात् (पयलिअत्ति) प्रचलितानि-भगवदर्शनेन अधिकसम्भ्रमवश्वात् कम्पितानि (वरकडगत्ति) बराणि कटकानि-कङ्कणानि (तुडिअप्ति) त्रुटिताश्च-बाहुरक्षकाः 'बहिरखा' इति लोके (केऊरत्ति) केयूराणि च-अङ्गदानि 'बाजूवन्ध' इति । लोके (मउडकुंडलत्ति) मुकुटं कुण्डले च प्रसिद्धे, एतानि प्रचलितानि यस्य स तथा, (हारविरायंतवच्छेत्ति)। हारेण विराजमान हदयं यस्य स तथा, ततो विशेषणसमासः, (पालंबपलबमाणत्ति) प्रलम्बमानं यत्मालम्बो-|| झुम्बनकं (घोलंतभूसणधरेत्ति) दोलायमानानि भूषणानि च तानि धरति यः स तथा (ससंभमंति) सादरं (तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइत्ति) त्वरित-सौत्सुक्यं चपलं-कायचापल्योपेतं एवं यथा स्यात् तथा सुरेन्द्र सिंहासनावभ्युत्तिष्ठति (अन्मुहित्तत्ति) अभ्युत्थाय यावत् (पादपीढाओ पच्चोरहइत्ति) यत्र पादी स्थाप्येते तत्पादपीठं कथ्यते तस्मात्प्रत्यवतरति (पचोरुहित्तत्ति) प्रत्यवतीय च पादुके अवमुञ्चति, किंविशिष्टे ते ? (वेरुलिअत्ति) वैय-मरकतं नाम नीलरत्नं (वरिद्वरिदृअंजणत्ति) वरिष्ठे-प्रधाने रिष्ठअञ्जननानी श्यामरत्ने, एतै रत्नैः कृत्वा (निउणोवचिअत्ति) निपुणेन शिल्पिना रचिते इव, पुनः किंवि० मा दीप अनुक्रम [१४] कल्प.सु.४ i For F ate Only ... भगवन्तस्य च्यवन-अवसरे शक्रेन्द्र-कृत् भक्ति एवं स्तवना -62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१४] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४] / गाथा [१...] व्याख्यान [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० १ ॥ १९ ॥ ........................ (मिसिमिसिंतत्ति) देदीप्यमानानि ( मणिरयणमंडिआउत्ति ) मणयः - चन्द्रकान्तादयः रत्नानि - कर्केतनादीनि तैर्मण्डिते ( पाउआओ ओमुअइत्ति ) इश्यौ पादुके अवमुञ्चति (ओमुहत्तत्ति ) अवमुच्य ( एगसाडिअं उत्तरासंगं करेइ, करितत्ति ) एकपटं उत्तरासङ्गं करोति, तत् कृत्वा च ( अञ्जलिमउलिअग्गहत्थेत्ति ) अञ्जलिकरणेन मुकुलीकृती - योजितो अग्रहस्तौ येन स तथाभूतः ( तित्थयराभिमुद्दे सत्तट्ट पयाई अणुगच्छइत्ति) सप्ताष्ट पदानि तीर्थकराभिमुखोऽनुगच्छति ( अणुगच्छित्तत्ति ) तथा कृत्वा ( वामं जाणुं अंचेइत्ति ) वामं जानुं उत्पाटयति- भूमौ अलग्नं स्थापयति (अंचित्तत्ति) तथा संस्थाप्य (दाहिणं जाणं घरणितलंसित्ति ) दक्षिण जानुं धरणीतले (साहहुत्ति) निवेश्य ( तिक्खुत्तोत्ति) वारत्रयं (मुद्राणं धरणितलंसि निवेसेइत्ति ) मस्तकं धरणीतले निवेशयति (निवेसित्ता) तथा कृत्वा (ईसिं पचनमत्ति ) ईषत् प्रत्युन्नमति-उत्तरार्धेन क भवतीत्यर्थः (पलुन्नमित्तत्ति ) ऊभूय (कडगतुडिअर्थभिआओ भुआओ साहरइत्ति) कटकत्रुटिकाः कङ्कणबाहुरक्षकास्ताभिः स्तम्भिते भुजे वालयति (साहरितत्ति ) वालयित्वा (करयलपरिग्गहिअं दसनहंति) करतलपरिगृहीतं हस्तसम्पुटघटितं दश नखाः समुदिता यत्र स तथा तं (सिरसावत्तंति ) शिरसि - मस्तके आवर्त्तःप्रदक्षिणभ्रमणं यस्य एवंविधं (मत्थए अंजलि कट्टुत्ति) मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ( एवं वयासीत्ति) एवं अवादीत्, (१४) किं तदित्याह - ( नमुत्थु णंति) णङ्कारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थः, नमोऽस्तु, केभ्यः ? - (अरहंताणंति) अर्हज्य:त्रिभुवनकृत पूजायोग्येभ्यः, रागद्वेषरूपकर्मवैरिहननात् 'अरिहन्ताणं' इति पाठः, रागद्वेषरूपकर्मबीजाभावेन ... 'शक्रस्तव स्तोत्रस्य अर्थ विचारणा For Frate & Personal Use Only ~63~ च्यवनकल्याणके इन्द्रहर्षेः सू. १४ २० २५ ॥ १९ ॥ २८ janelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| भवक्षेत्रे प्ररोहणाभावात् 'अरुहन्ताणं' इति पाठश्च (भगवंताणंति) भगवद्भ्यो-ज्ञानादिमन्यः (आइगराणंति) आदिकरेभ्यः आदिकरत्वं खखतीर्थापेक्षया धर्मस्येति ज्ञेयं (तित्थयराणंति) तीर्थकरेभ्यः, तत्र तीर्थ-सङ्घः प्रथम-18 गणधरो वा तत्स्थापकेभ्यः (सयंसंबुद्धाणंति) स्वयंसम्बुद्धेभ्यो, न तु परोपदेशेन (पुरिसुत्तमाणंति) पुरुषेषु |उत्तमेभ्यः, अनन्तगुणनिधानत्वात् (पुरिससीहाणंति) पुरुषसिंहेभ्यः, कर्मवैरिषु निर्दयशूरवात् (पुरिसवर-|| पुंडरीआणंति) पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः, पुरुषेषु बरं-प्रधानं यत्पुण्डरीकं-श्वेतपद्मं तत्तुल्येभ्यः, यथा पुण्डरीकं पिङ्के जातं जलैर्वृद्धं जलपङ्की त्यक्त्वा उपरि तिष्ठति एवं भगवन्तोऽपि कर्मकर्दमे उत्पन्नाः भोगजलेन वृद्धाः कर्मभोगौ त्यक्त्वा पृथर तिष्ठन्ति (पुरिसवरगंधहस्थीणं) पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः, यथा गन्धहस्तिगन्धेन अन्ये गजाः पलायन्ते तथा भगवत्प्रभावेण दुर्भिक्षादयोऽपि (लोगुत्तमाणं) लोकेषु-भव्यसमूहषु चतुस्त्रिंशदतिशययुक्तत्वात् उत्तमास्तेभ्यो लोकोत्तमेभ्यः (लोगनाहाणं) लोकानां-भव्यानां नायेभ्यो-योगक्षेमकारिभ्या, तत्र योगः-अप्राप्तज्ञानादिप्रापणं क्षेमं च-प्राप्तज्ञानादिरक्षणं (लोगहिआणं) लोकानां सर्वजीवानां हितेभ्योहितकारकेभ्यो, दयामरूपकत्वात् (लोगपईवाणं) लोकप्रदीपेभ्यः, मिथ्यात्वध्वान्तनाशकत्वात् (लोगप-18|| जोअगराणं) लोकप्रद्योतकरेभ्यः, सूर्यवत् सर्ववस्तुप्रकाशकत्वात् (अभयदयाणं) भयानां अभावः अभयं । तदायकेभ्यः, भयानि सप्त, तद्यथा-मनुष्यस्य मनुष्याइयं इहलोकभयं १ मनुष्यस्य देवादेर्भयं परलोकभयं । २ धनादिग्रहणायं आदानभयं ३ बाह्यनिमित्तनिरपेक्ष भयं अकस्माद्भयं ४ आजीविकाभयं मरणभयं । दीप अनुक्रम [१५] XL For Fun -64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो- अपयशोभयं चेति (चक्खुदयार्ण) चक्षुःसमानश्रुतज्ञानदायकेभ्यः (मग्गदयाणति) मार्गस्य-सम्प-18 शक्रस्तवः व्या०१ग्दर्शनादिमोक्षमार्गस्य दायकेभ्यः, यथा केचिजनाश्चौरैलुण्टितधना लोचने पट्टवन्धं कृत्वा उन्मार्गेमे पातिताः स्युस्तेषां कोऽपि पहकापनयनेन धनापणेन मार्गदर्शनेन उपकारी भवति एवं भगवन्तोऽपि मारकथा ॥२०॥ कषायलपिटतधर्मधनानां मिथ्यात्वाच्छादितविवेकनयनानां श्रुतज्ञानसद्धर्ममुक्तिमार्गदानेन उपकारिणो भवन्ति, सरणदयाणंति) भवभीतानां शरणदायकेभ्यः (जीवदयाति) जीवनं जीव:-सर्वथा मरणाभावस्तद्दायकेभ्यः, क्वचिद् बोहिदयाणं ति पाठस्तत्र बोधिः-सम्यक्त्वं तद्दायकेभ्यः (धम्मदयाणंति) धर्म:-चारित्ररूपस्तदायकेभ्यः (धम्मदेसयाणंति) धर्मोपदेशदायकेभ्यः, धर्मदेशकत्वं च एतेषां धर्मखामित्वे सति न पुनर्नटवदिति दर्शयन्नाह-(धम्मनायगाणंति) धर्मनायकेभ्यः (धम्मसारहीणंति) धर्मस्य सारथय इव, यथा सारथिः उन्मार्गे गच्छन्तं रथं मार्गे आनयति एवं भगवन्तोऽपि मार्गभ्रष्टं जनं मार्गे आनयंति, अत्र च मेघकुमारदृष्टान्तो यथा-एकदा श्रीवीरखामी राजगृहे समवसृतः, तत्र श्रेणिकधारिण्योः सुतो मेघकुमारः IS प्रतिबुद्ध, कथमपि पितरी आपृच्छयाष्टी प्रियाः परित्यज्य दीक्षां गृहीतवान्, प्रभुणा च शिक्षार्थ स्थवि-R राणां अर्पितः, तत्र अनुक्रमेण संस्तारककरणे द्वारपाचे मेघकुमारस्य संस्तारक आगतः, ततः प्रश्रवणायर्थ | ॥२०॥ गच्छदागच्छस्साधुपादरजोभिर्भरितः मेघकुमारः समग्रायां रजन्यां क्षणमपि निद्रा न प्राप्ता, चिन्तयामासक मे सुखशय्या क चेदं भूलठनं ?, कियत्कालं इदं दुःखं मया सोढव्यं, ततः प्रातः प्रभुमापृच्छय गृहं| दीप अनुक्रम [१५] Socess -65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| Jeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee यास्यामीति प्रभाते प्रभुपार्श्वमागता, प्रभुणाऽपि मधुरवचनेन आभाषितः-वत्स! त्वया निशि एवं दुर्ष्यानं कृतं, परं अविचारितं एतत्, नरकादिदुःखाग्रे कियदेतदू दुःखं ?, तान्यपि दुःखानि सागरोपमाणि अनेकानि यावत् प्राणिना बहुशः सोढानि, किञ्च-वरमग्गिम्मि पवेसो,वरं विसुद्धेण कम्मुणा मरणं । मा गहियवयभङ्गो मा जीअं खलिअसीलस्स ॥१॥ तथा इदं चारित्रादिकष्टानुष्ठानं महते फलाय भवति, यथा त्वयैव पूर्वभवे अनुभूतं धर्मार्थ कष्टं एतावत्फलप्रापकं अभवत्, शृणु ततः पूर्वभवान् , यथा इतस्तृतीये भवे वैताख्यभूमौ | षड्दन्तः शुभ्रो हस्तिनीसहस्रभा सुमेरुषभनामा त्वं गजराजोऽभूः, अन्यदा दावानलाद्रीतः पलायमान|स्तृषितः पङ्कबहुलं एक सरःप्रातस्तत्र चर्चाज्ञातमाः पङ्के निमनो नीरात्तीराच भ्रष्टः पूर्ववैरिहस्तिना दन्तैई-18 न्यमानः सप्त दिनानि वेदनां अनुभूय सविंशं शतं आयुः समाप्य विन्ध्याचले रक्तवर्णश्चतुर्दन्तः सप्तहस्तिनी-1 शतभत्ता हस्ती जाता, क्रमेण च दावानलं दृष्ट्वा जातजातिस्मरणः पूर्वभवं स्मृतवान् , ततो दावानलपराभ-18 वरक्षणाय योजनपरिमितं मण्डलं कृतवान् , तत्र वर्षाणां आदी मध्ये अन्ते च यत् किञ्चित् तृणवल्ल्यादि भवति तत् सर्व उन्मूलयति, अन्यदा च दावानलाभीताः सर्वे वनजीवास्तन्मण्डलं व्याप्तवन्तः त्वमपि शीघं आगत्य तत्र मण्डले स्थितः, कदाचिदू देहकण्डूयनेच्छया एकं पादं उत्पादितवान् , उत्पाटिते च तस्मिन् पादे । १ वरमनौ प्रवेशो वरं विशुद्धेन कर्मणा मरणं । मा गृहीतबतभंगो मा जीवितं स्खलितशीलस्य ॥ १॥ २ अलब्धसम्यक्त्वेनाप्यनुकपायै. पादस्खामोचनेन ३ शशकरक्षणात् ४ विद्याधरैः कृतं नामेदमस्य ॥ दीप अनुक्रम [१५] -66 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-| 18|अन्यत्र साङ्गीर्यपीडितः शशकस्तत्र आगत्य स्थितः, गात्रं कण्डूयित्वा च पादं मुञ्चन् शशकं दृष्ट्वा तयया शक्रस्तवः ध्या१सार्द्ध दिनद्वयं तथैव पादं स्थापितवान् , उपशान्ते च दावानले सर्वेषु जीवेषु स्वस्थानं गतेषु विलगितपादो म.१५मेघ झटिति भूमौ पतितस्ततो दिनत्रयं क्षुधया तृषा च पीडितः कृपापरः शतवर्ष आयुः परिपाल्यात्र श्रेणिकथा-18 कुमारकथा ॥२१॥ रिण्योः पुत्रत्वेन जातस्त्वं, ततो भो मेघ! तदानी तिर्यग्भवेऽपि त्वया धर्मार्थ तत्कष्टं सोदं तर्हि जगद्वन्द्यसा- १५ धूनां चरणैर्घध्यमानः किं दयसे ?, इत्याद्युपदेशेन भगवता धर्मे स्थिरीकृतोऽवाप्तजातिस्मरणो नेत्रे विमुच्या-11 न्यत्सर्व शरीरं मया व्युत्सृष्टं इथं भिग्रहं कृतवान्, क्रमात् निरतिचारं चारित्रमाराध्यान्ते मासिकी संले-| खनां कृत्वा विजयविमाने सुरोऽभवत् , ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यति, इति श्रीमेघकुमारकथा । दीप अनुक्रम [१५] NearaParastawasnanathanamansahaRAPTAPASTATrana इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां प्रथमं ब्याख्यानं समाप्तम् । MeresERENERGERGENERGENERMERSERSEPRERNIRMERGEEPRESENEPEN ॥२१॥ प्रथमं व्याख्यानं समाप्तं -67 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत ॥ अथ द्वितीयं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ सूत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| (धम्मवरचाउरंतचक्कवहीणं) त्रयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवानिति चत्वारोऽन्तास्तेषु प्रभुतया भवाश्चातुरन्ता:चतुरन्तस्वामिनः एवंविधा ये चक्रवर्तिनस्ते चातुरन्तचक्रवर्तिनः धर्मस्य वरा:-श्रेष्ठाः चातुरन्तचक्रवर्तिनो धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनः, धर्मनायका इत्यर्थः, तेभ्यः (दीवो) समुद्रे मज्जतां द्वीप इव संसारसमुद्रे आधारः, (ताणं) त्राण-अनर्थप्रतिघातहेतुः, अत एव (सरणं) कर्मोपद्रवेभ्यो भीतानां शरणं (गई) गम्यते सौस्थ्याय दुःस्थैराश्रीयते गतिः (पइहा) भवकूपपतत्प्राणिनां अवलम्बनं, वीवो ताणं इत्यादीनि पदानि प्रथमा-18 तान्यपि चतुर्थ्यर्थषष्ठ्यन्ततया व्याख्येयानि (अप्पडिहयवरनाणदसणधराणं) अप्रतिहते-कटकुव्यादिमि-19 रस्खलिते बरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने-केवलज्ञानदर्शने धरन्ति येते तथा तेभ्यः (विअछउमाणं) व्यावृत्तंगतं छद्म-धातिकर्माणि येभ्यस्ते व्यावृत्तच्छद्मानस्तेभ्यः (जिणाणं) रागद्वेषजेतृभ्यः (जावयाणं) उपदेशदा-1 नादिना भव्यसत्त्वै रागादिजापकास्तेभ्यः (तिन्नाणं) भवसमुद्रं तीर्णेभ्यः (तारयाणं) सेवकानां तारकेभ्यः (वुद्धाणं) सर्वतत्वबुद्धेभ्यः (बोहयाणं) अन्येषां बोधकेभ्यः (मुसाणं) मुक्तेभ्यः कर्मपञ्जरात् ( मोअगाणं) सेवकानां मोचकेभ्यः (सचन्नणं) सर्वज्ञेभ्यः (सबदरिसीणं) सर्वदर्शिभ्यः (सिव) निरुपद्रवं (अयलं) दीप अनुक्रम [१५] १२ For F lutelu द्वितियम् व्याख्यानं आरभ्यते ... अत्र शक्रस्तव-स्तोत्रस्य शेष-वर्णनं वर्तते -68 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबोअचलं (अरु) अरुज-रोगरहितं (अणंतं) अनन्तं अनन्तवस्तुविषयज्ञानस्वरूपत्वात् (अक्खयं) क्षयर-18 पक्षपरशक्रस्तवः व्या०२ हितं, साधनन्तत्वात् (अपाबाई) यावाधारहितं (अपुणरावित्ति) पुनरावृत्तिा-पुनरागमनं तेन रहितं, मू.१५ एवंविधं (सिद्धिगइनामधेयं) सिद्धिगतिनामकं (ठाणं संपत्ताणं) यत्स्थान तत्सम्प्राप्तेभ्यः (नमो जिणाणं) ॥२२॥ | नमो जिनेभ्यो (जिअभयाण) जितभयेभ्यः, एवं सर्वजिनान्नमस्कृत्याथ शक्रः श्रीवीरं नमस्करोति-(नमोऽत्थुIM समणस्स भगवओ महावीरस्स) नमोऽस्तु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पुष्वतित्थयरनिहिस्स) पूर्व तीर्थङ्करैः निर्दिष्टस्य (जाव संपाविउकामस्स)यावत् सिद्धिगतिनामक स्थानं सम्प्राप्तुकामस्य, श्रीवीरो हि अथ मुक्तिं यास्यतीत्येवं विशेषणं, इमानि सर्वाप्यपि विशेषणानि चतुर्थ्यर्थषष्ट्येकवचनान्तानि ज्ञेयानि (वंदामिण भगवंतं तत्थगयं इहगए) वन्दे अहं भगवन्तं तन्त्रगतं-देवानन्दाकुक्षी स्थितं इत्यर्थः, अत्र पास्थितोऽहं (पासत मे भगवं तत्थगए इहगयंति कट्ट) पश्यतु मां भगवान् तत्र स्थित इह स्थित इति। hel उक्त्वा (समणं भगवं महावीरं) श्रमणं भगवन्तं महावीरं (वंदइ नमसइ) वन्दते नमस्थति (वंदित्ता नमंसित्ता) बन्दित्वा नमस्थित्वा (सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे सन्निसणे) पूर्वाभिमुखः सिंहासने सन्निषण्ण- उपविष्ट इत्यर्थः (तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो) ततः तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवानां राज्ञः ॥ २२॥ (अयमेआरूवे) अयं एतद्रूपः (अन्भत्थिए) आत्मविषय इत्यर्थः (चिंतिए) चिन्तात्मकः (पत्थिए) प्रार्थित:-अभिलाषरूपः (मणोगए) मनोगतो, न तु वचनेन प्रकाशितः, इदृशः (संकप्पे) संकल्पो-विचारः दीप अनुक्रम [१५] H janeibrary.org -69 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१६] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१६] गाथा ॥१..|| (समुप्पज्जित्था) समुत्पन्नः ॥ (१५) ॥ कोऽसौ इत्याह-(न खलु ए भूकं) न निश्चयेन एतद् भूतं अतीतकाले (न भवं) न भवति एतत्, वर्तमानकाले (न भविस्स) एतत् न भविष्यति आगामिनि काले, किं तदित्याह-(जन्नं अरहंता वा) यत् अर्हन्तो वा (चक्कवट्टी था) चक्रवर्तिनो वा (बलदेवा वा) बलदेवा वा| (वासुदेवा वा) वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा) अन्त्यकुलेषु शूद्रकुलेषु इत्यर्थः (पंतकुलेसु वा) प्रान्तकुलेषु-18 अधमकुलेषु (तुच्छ कुलेसु वा) तुच्छा:-अल्पकुटुम्बास्तेषां कुलेषु वा (दरिदकुलेसु वा) दरिद्रा-निर्धनास्तेषां कुलेषु चा (किविणकुलेसु वा) कृपणा:-अदातारस्तेषां कुलेषु वा (भिवखागकुलेसु वा) भिक्षाका:-तालाचरा-16 स्तेषां कुलेषु वा (माहणकुलेसु वा) ब्राह्मणकुलेषु वा, तेषां भिक्षुकत्वात्, एतेषु (आयाइंसु वा) आगता| अतीतकाले (आयाइति वा) आगच्छन्ति वर्तमानकाले (आशइस्संति वा) आगमिष्यन्ति अनागतकाले, एतन्न भूतमित्यादियोगः ॥ (१६) ।। तर्हि अहंदादयः ४ केषु कुलेषु उत्पद्यन्ते ? इत्याह-(एवं खलु) एवं-अनेन प्रकारेण खलु-निश्चये (अरहंता वा) अर्हन्तो वा (चक्कवट्टी वा) चक्रवर्तिनो वा (बलदेवा वा) बलदेवा वा (वासुदेवा वा वासुदेवा वा (उग्गकुलेसु वा) उग्राः-श्रीआदिनाथेन आरक्षकतया स्थापिता जनाः तेषां। कुलेषु (भोगकुलेसु वा) भोगा:-गुरुतया स्थापिताः तेषां कुलेषु (रायन्नकुलेसुवा) राजन्या:-श्रीऋषभदेवेन मित्रस्थाने स्थापिताः तेषां कुलेषु (इक्खागकुलेसु वा) इक्ष्वाका:-श्रीऋषभदेववंशोद्भवाः तेषां कुलेषु (खत्तियकुलेसु वा) क्षत्रिया:-श्रीआदिदेवेन प्रजालोकतया स्थापिताः तेषां कुलेषु (हरिवंसकुलेसु वा) तत्र 'हरि दीप १० अनुक्रम [१६] Fur FB Fanatec ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान R] .......... मूलं [१७] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७] गाथा ॥१..|| सबो- त्ति पूर्वभववैरिसुरानीतहरिवर्षक्षेत्रयुगलं तस्य वंशो हरिवंशस्तस्कुलेषु (अन्नयरेसु वा ) अन्यतरेषु वा (तह-18 व्या०२प्पगारेसु बिसुद्धजाइकुलवंसेसु) विशुद्धे जातिकुले यत्र एवंविधेषु वंशेषु, तत्र जाति:-मातृपक्षः कुलं- त्पत्तिवि पितृपक्षः, इदृशेषु कुलेषु (आयाइंसु वा) आगता अतीतकाले (आयाइंति वा) आगच्छन्ति वर्तमानकाले ॥२३॥ (आयाइस्संति वा ) आगमिष्यन्ति अनागतकाले, न तु पूर्वोक्तेषु ॥ (१७)॥ तर्हि भगवान् कथं उत्पन्न ? १६-१८ इत्याह (अस्थि पुण एसेवि भावे) अस्ति पुनः एषोऽपि भावो-भवितव्यताख्यः (लोगच्छेरयभूए) लोके आश्चर्यभूतः (अणताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं) अनन्तासु उत्सपिण्यवसप्पिणीषु (विइकंताहिं समुप्पज्जा २० 18 व्यतिक्रान्तासु इदशः कश्चित्पदार्थ उत्पद्यते, तत्रास्यां अवसप्पिण्या इदृशानि दश आश्चर्याणि जातानि, यथा-1 उवसग्ग १ गम्भहरणं २ इत्थीतित्थं ३ अभाविआ परिसा ४ । कण्हस्स अवरकंका ५ अवयरणं चंदसूराणं ६॥१॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती ७ चमरुप्पाओ ८ अ अट्ठसय सिद्धा ९। अस्संजयाण पूआ १० दसवि अणंतेण कालेणं ॥२॥ व्याख्या-'उवसग्ग'त्ति उपसर्गा-उपद्रवाः, ते हि श्रीवीरस्वामिनः छद्मस्थावस्थायां अग्रे| वक्ष्यमाणा बहवोऽभवन, किञ्च-अस्य भगवतः केवल्यवस्थायां अपि खप्रभावप्रशमितसर्वोपद्रवस्थापि वशिष्याभासेन गोशालकमात्रेणापि उपद्रवः कृतः, तथाहि-एकदा श्रीवीरो विहरन् श्रावस्त्यां समवसृतः, गोशालकोऽपि जिनोऽहं इति लोके ख्यापयन् तत्रागतः, ततोद्वौ जिनौ श्रावस्त्यां वर्तेते इति लोके प्रसिद्धिर्जाता, तां श्रुत्वा श्रीगौतमेन भगवान् पृष्टः-स्वामिन् ! कोऽसौ द्वितीयो जिन इति खं ख्यापयति ?, श्रीभगवानुवाच दीप अनुक्रम [१७] JanEducationa l IXILanelbrary.org ... अथ दश-आश्चर्याणां वर्णनं क्रियते ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| IS गौतम! नायं जिनः, किंतु शरवणग्रामवासी मङ्गलेः सुभद्राभार्यायां गोचहुलब्राह्मणगोशालायां जातत्वात् गोशालनामा अस्माकं एवं शिष्यीभूतोऽस्मत्त एव किञ्चिद् बहुश्रुतीभूतो मुधा खं जिन इति ख्यापयति, ततः सर्वतः प्रसिद्धां इमां वार्ता आकर्य मष्टो गोशालो गोचरचर्यागतं आनन्दनामानं भगवच्छिष्यं जगाद-भो आनन्द ! एकं दृष्टान्तं शृणु, यथा-केचिद्वणिजो धनोपार्जनाय विविधक्रयाणकपूर्णशकटाः परदेशं गच्छन्तोऽरण्यं प्रविष्टास्तत्र जलाभावेन तृषाकुला जलं गवेषयन्तः चत्वारि वल्मीकशिखराणि पश्यन्ति म, ततस्तरेकं शिखरं स्फोटितं, तस्माद्विपलं जलं निर्गतं, तेन जलेन गतपिपासाः पयःपात्राणि पूरितवन्तः, तत एकेन वृद्धेनोक्तं-सिद्धं अस्माकं समीहितं अथ मा स्फोटयन्तु द्वितीयं शिखरं इति निवारिता अपि द्वितीयं स्फोटयामासुस्तस्माच सुवर्ण प्राप्तवन्तः तथैव वृद्धवारिता अपि तृतीयं स्फोटितवन्तस्त-18 माद्रनानि प्राप्य तथैव बहुवारिता अपि लोभान्धाश्चतुर्थं अपि स्फोटयन्ति सम, तस्माच प्रादुर्भूतेन दृष्टिविषसग सर्वेऽपि स्वदृष्टिपातेन पश्चत्वं प्रापिताः, स हितोपदेशको वणिक तु न्यायित्वात् आसन्नका देवतया खस्थाने मुक्तः, एवं तब धर्माचार्योऽपि एतावत्या वसम्पदा असन्तुष्टो यथातथाभाषणेन मां रोषयति, | तेनाहं स्वतपस्तेजसा धक्ष्यामि, ततस्त्वं शीघ्रं तत्र गत्वा एनं अर्थ तस्मै निवेदय, त्यां च वृद्धवणिजमिव हितोपदेशकत्वात् जीवन्तं रक्षिष्यामीति श्रुत्वा भीतोऽसौ मुनिर्भगवदने सर्व व्यतिकरं कथितवान् , ततो भगवता उक्तं-भो आनन्द ! शीघ्रं त्वं गौतमादीन मुनीन् कथय यत् एष गोशाल आगच्छति न केनार्यस्य दीप अनुक्रम [१८] १४ -72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: अहंदाधु त्तिवि चारे आध प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| चंदशकं कल्प.सुबो-संभाषणं कर्त्तव्यं इतस्ततः सर्वेऽपसरन्तु, ततस्तैस्तथाकृते गोशाल आगत्य भगवन्तं अवादीत्-भो काश्यप च्या०२ किमेवं वदसि यदयं गोशालो मङ्गुलिपुत्र इत्यादि, स तव शिष्यस्तु मृतः अहं तु अन्य एव परीषहसहनस- मर्थ तच्छरीरं ज्ञात्वा अधिष्ठाय स्थितोऽस्मि, एवं च भगवत्तिरस्कारं असहमानी सुनक्षत्रसानुभूती अन- ॥२४॥ गारी मध्ये उत्तरं कुर्वाणौ तेन तेजोलेश्यया दग्धौ स्वर्ग गती, ततो भगवता उक्तं-भो गोशाल! स एव त्वं नान्यो, मुधा किं आत्मानं गोपायसि ?, न ह्येवं आत्मा गोपयितुं शक्यः, यथा कश्चिचौर आरक्षकदृष्टोऽङ्गुल्या तृणेन वा आत्मानमाच्छादयति स किं आच्छादितो भवति !, एवं च प्रभुणा यथास्थितेऽभिहिते स दुरात्मा भगवदुपरि तेजोलेश्यां मुमोच, सा च भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य गोशालकशरीरं प्रविष्टा, तया च दग्धशरीरो विविधां वेदनां अनुभूय सप्तमरात्रौ मृतः, भगवानपि तस्यास्तापेन षण्मासी यावल्लोहितवर्थोबाधां |अनुभूतवान् , तदेवं नामस्मरणशमितसकलदुःखस्य भगवतोऽप्येवं यदुपसर्गस्तदाश्चर्य १) 'गम्भहरणं'ति' गर्भस्य हरण-उदरान्तरमोचनं तत् कस्यापि जिनस्य न भूतपूर्व श्रीधीरस्य जातं इत्योश्चर्य २'इत्थीतित्यन्ति | १ कर्मोदयमात्रजन्येयं न गोशालफतेजोलेश्योद्भवेति तु सूत्रानवबोधत एव । २ यथा मल्लीजिनस्य स्त्रीत्वेन प्रतिमादि न क्रियते । आश्चर्यरूपत्वात्तस्य तद्वदिदमपि न कल्याणकतामञ्चति, न च स्थानवस्तुप्रभृतिभिः स्पष्टे व्यापके व्याख्याने व्याप्यकल्याणकव्याख्यानस्य ग्रहणं बुद्धिमतामह, स्पष्टं चोक्तं कल्याणकपरिगणनायां बीरस्य च्युतिजन्मदीक्षाकेवलमोक्षरूपाणां पञ्चकमेव कल्याणानां पञ्चाशके | चान्द्रकुलीनाभयदेवसूरिभिः दीप अनुक्रम [१८] Fur & Fonte Y ojanelbraryard. ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| तीर्थकरा हि भगवन्तः पुरुषोत्तमा एव भवंति, अनावसर्पिण्यां च मिथिलापतिकुम्भराजस्य पुत्री मल्लिनानी एकोनविंशतितमजिनत्वेनोत्पन्ना तीर्थ प्रवर्तितवतीति आश्चर्य (३) 'अभाविया परिस'त्ति अभाविता पर्षद्, भगवतो हि देशना कदापि निष्फला न भवति, अत्र च समुत्पन्नकेवलेन श्रीवर्धमानवामिना प्रथमसमव-18 सरण एव देशना दत्ता, न च तया कस्यापि विरतिपरिणामो जात इत्याश्चर्य (४) 'कण्हस्स'त्ति कृष्णस्यनवमवासुदेवस्य द्रौपदीनिमिसं अपरकवागमनं आश्चर्य, तच्चैच-पुरा किल पाण्डवभार्यया द्रौपद्या असंयतत्त्वान्नारदस्थ अभ्युत्थानादि न कृतं, तेन च रुष्टेन तस्याः कष्टे पातना) घातकीखण्डभरते अपरककराजधानीप्रभोः पश्चोत्तरस्य स्त्रीलुब्धस्य पुरतो रूपवर्णनं कृतं, तेनापि स्वमित्रदेवेन द्रौपदी खगृहं आनायिता, इतश्च पाण्डवमात्रा कुन्त्या विज्ञपितेन कृष्णेन द्रौपदीगवेषणव्यग्रेण नारदमुखादेव स समाचारो |लब्धः, ततः सोऽपि आराधितसुस्थितदेवताप्रदत्तमार्गों द्विलक्षयोजनायाम लवणसमुद्रं अतिक्रम्य अपरकङ्का गतः, तत्र च तर्जितपाण्डवं पद्मोत्तरं नरसिंहरूपकरणेन विजित्य द्रौपदीवचसा जीवन्तं मुक्त्वा च द्रौपद्या सह पश्चाद्वलितः, वलमानश्च शङ्ख आपूरितवान्, तच्छब्दं श्रुत्वा च तत्र बिहरमानमुनिसुव्रतजिनवचनेन IS कृष्णं आगतं ज्ञात्वा मिलनोत्सुकः कपिलवासुदेवोऽपि जलधितटमुपेत्य शङ्ख आपूरितवान् , ततो मिथ: शङ्खशब्दौ मिलितो, ततोऽस्यां अवसर्पिण्यां कृष्णस्य अपरकङ्कागमनं आश्चर्य (५)'अवयरणं चंदसूराणं ति यत् कौशाम्ब्यां भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनो वन्दनार्थ मूलविमानेन सूर्याचन्द्रमसी उत्तीर्णौ तदाश्चर्य (६) दीप अनुक्रम [१८] कल्प.. -74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२] मूलं [१८] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० १ ॥ २५ ॥ 'हरिवंसकुलुप्पत्ति'ति सा चैवं कुत्रचिनगरे केनचिद्राज्ञा वीरकशालापतिभार्या वनमालानाम्नी सुरूपेति स्वान्तःपुरे क्षिता, स च शालापतिस्तस्या वियोगेन विकलो जातो, यं कञ्चन पश्यति तं वनमाला वनमालेति जल्पयति, एवं च कौतुकाक्षिसैरनेकैर्लोकैः परिवृतः पुरे भ्रमन् वनमालया समं क्रीडता राज्ञा दृष्टः, ततश्चास्माभिरनुचितं कृतं इति चिन्तयन्तौ तौ दम्पती तत्क्षणाद्विद्युत्पातेन मृतौ हरिवर्षक्षेत्रे युगलित्वेन समुत्पन्नौ, शालापतिश्च तो मृतौ श्रुत्वा आः पापिनोः पापं लग्नं इति सावधानोऽभूत्, ततोऽसौ वैराग्यात्तपस्तप्त्वा व्यन्तरोऽभूत् विभङ्गज्ञानेन च तौ दृष्ट्वा चिन्तितवान् अहो इमी मद्वैरिणी युगलसुखं अनुभूय देवौ भवि ष्यतस्तत इमी दुर्गती पातयामीति विचिन्त्य स्वशक्त्या संक्षिप्तदेहो तो इहानीतवान्, आनीय च राज्यं | दत्त्वा सप्त व्यसनानि शिक्षितौ ततस्तौ तथाभूतौ नरकं गतौ, अथ तस्य वंशो हरिवंशः, अम्र युगलिकस्याश्रानयनं शरीरायुःसंक्षेपणं नरकगमनं चेति सर्व आश्चर्यं (७) 'चमरुप्पाओ'त्ति चमरस्य असुरकुमारराजस्य उत्पातः, स चैवं- पूरणनामा ऋषिस्तपस्तप्त्वा चमरेन्द्रतया उत्पन्नः, स च नवोत्पन्नः शिरःस्थं | सौधर्मेन्द्रं विलोक्य कोपाक्रान्तः परिघं गृहीत्वा श्रीवीरं शरणीकृत्य सौधर्मेन्द्रात्मरक्षकांस्त्रासयन् सौधर्मावतंसक विमानवेदिकायां पादं मुक्त्वा शक्रं आक्रोशयामास, ततो रुष्टेन शक्रेण जाज्वल्यमानं वज्रं तं प्रति मुक्तं, ततोऽसौ भीतो भगवत्पादयोलीनः, ततो ज्ञातव्यतिकरेण इन्द्रेण सहसाऽऽगत्य चतुरङ्गुलीप्रासं वज्रं गृहीतं, भगवत्प्रसादान्मुक्तोऽसीत्युक्त्वा चमरो मुक्तः, इयं चमरस्योर्ध्वगमनं आश्रर्य (८) अट्ठसय ति ~75~ आश्चर्यदशकम् २० २५ ।। २५ ।। २८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| एकस्मिन् समये उत्कृष्टावगाहनावन्तः अष्टाधिकशतमिता न सिध्यन्ति, ते च अस्यां अवसर्पिण्यां सिद्धाः यतः-'वृषभो १ वृषभस्य सुता९९.भरतेन विवर्जिताच नवनवतिः। अष्टौ भरतस्य सुताः१०८ शिवं गता एकस-18 मयेन ॥ १ ॥ (९) 'असंजयाणं ति असयंता:-असंयमवन्तः आरम्भपरिग्रहमसक्तास्तेषां पूजा, |संयता एव सर्वदा पूज्यन्ते, अस्यां अवसर्पिण्यां तु नवमदशमजिनयोरेन्तरे असंयतानां अपि ब्राह्मणादीनां पूजा प्रवृत्तेति आश्चर्य (१०) . | इमानि दशापि आश्चर्याणि अनन्तकालातिक्रमे अस्यां अवसर्पिण्यां जातानि, एवं च कालसाम्यात् ।। शेषेष्वपि चतुर्यु भरतेषु पञ्चसु ऐरवतेषु च प्रकारान्तरेण दश आश्चर्याणि ज्ञेयानि । अथ दशानां आश्चर्याणां|| तीर्थव्यक्ति:-अष्टाधिकशतसिद्धिगमनं श्रीऋषभतीर्थे १ हरिवंशोत्पत्तिः शीतलतीर्थे २ अपरकवागमनं श्रीनेमितीर्थे ३ स्त्रीतीर्थकरी मल्लितीर्थे ४ असंयतपूजा सुविधिजिनतीथे ५, शेषाणि च उपसर्ग १ गर्भापहारINR अभाविता पर्षत् ३ चमरोल्पात ४ चन्द्रसूर्यावतरणलक्षणानि ५ पञ्च आश्चर्याणि श्रीवीरतीर्थ, एकं तावत् आश्चर्य इदं, अपरश्च-(नामगुत्तस्स वा कम्मस्स) नाना गोत्रं इति प्रसिद्धं यत्कर्म गोत्राभिधानं कम-18 त्यर्थः तस्य, किंविशिष्टस्य ? ( अक्खीणस्स) अक्षीणस्य, स्थितेः अक्षयेण ( अवेइअस्स) अवेदितस्य, रसस्य |अपरिभोगेन (अणिज्जिण्णस्स) अनिर्जीर्णस्य, जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटितस्य, इदृशस्य गोत्रस्य-नीचैर्गोत्रस्य-18 (उदएणं ) उदयेन भगवान् ब्राह्मणीकुक्षी उत्पन्न इति योगः। दीप अनुक्रम [१८] JaMEducatani Fur & Fonte ~76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२] मूलं [१८] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० १ 5 ॥ २६ ॥ ४ २७ भवाः तब नीचैर्गोत्रं भगवता स्थूलसप्तविंशतिभवापेक्षया तृतीयभवे बद्धं तथाहि - प्रथमभवे पश्चिममहाविदेहे श्रीवीरस्स नयसारनामा ग्रामपतिः, स चैकदा काष्ठनिमित्तं वनं गतः, तत्र मध्याहे भोजनसमये सार्थभ्रष्टान् साधून् दृष्ट्वा हृष्टश्चिन्तितवान्- अहो मे भाग्यं । यदस्मिन् समये अतिथिसमागमः, ततः परमप्रमोदेन साधवोऽशनपाना- 18 दिभिः प्रतिलम्भिताः, पञ्चाद्भोजनानन्तरं साधून नत्वा उवाच - चलन्तु महाभागा ! मार्ग दर्शयामि, ततो मार्गे गच्छद्भिः साधुभिर्योग्योऽयमिति धर्मोपदेशेन सम्यत्तत्वं प्रापितः, अन्ते च नमस्कारस्मरणपूर्वं मृत्वा द्वितीयभवे सौधर्मदेवलोके पल्योपमायुर्देवो जातः, ततश्युत्वा तृत्तीयभये मरीचिनामा भरतचक्रवर्तिपुत्रो जातः, स च प्राप्तवैराग्यः श्रीऋषभदेवपार्श्वे प्रत्रजितः स्थविरपार्श्वे एकादशाङ्गीं अधीतच, एकदा च ग्रीष्मकाले तापादिपीडितश्चिन्तितवान्-अतिदुष्करोऽयं संयमभारो मया निर्वातुं न शक्यते गृहे गमनं च सर्वथा अनुचितं इति ध्यात्वाऽभिनवं वेषं रचितवान् तथाहि - भ्रमणास्त्रिदण्डविरताः अहं तु न तथा इति मम त्रिदण्डं चिह्नमस्तु श्रमणा द्रव्यभावाभ्यां मुण्डाः अहं तु न तथेति मम शिरसि चूडा क्षुरमुण्डनं चास्तु तथा श्रमणानां सर्वेभ्यः प्राणातिपातादिभ्यो विरतिर्मम तु स्थूलेभ्यः साऽस्तु, शीलसुगन्धाः साधवो नाहं तथेति मम चन्दनादिविलेपनमस्तु तथा अपगतमोहाः श्रमणाः अहं तु मोहाच्छादित इति मे छत्रकं अस्तु, श्रमणा अनुपानञ्चरणाः मम तु चरणयोरुपानद् अस्तु, श्रमणा निष्कषायाः अहं तु सकषाय इति इति मम काषाय्यं वस्त्रं अस्तु, श्रमणाः स्नानाद्विरताः मम तु परिमितजलेन स्नानं पानं चास्तु एवं खबुद्ध्या ... अथ भगवन्त महावीरस्य भावानां वर्णनं आरभ्यते ~77 ~ २० २५ ॥ २६ ॥ २८ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| परिव्राजकधर्म विकल्पितवान्, ततस्तं विरूपवेषं विलोक्य सर्वे जना धर्म पृच्छन्ति तत्पुरश्च साधुधर्म प्ररूप-18 यति देशनाशक्त्या च अनेकान् राजपुत्रादीन् प्रतियोध्य भगवतः शिष्यतया ददाति भगवता सहैव प्य 18विहरति, एकदा भगवान् अयोध्यायां समवसृतस्तन्न वन्दनार्थ आगतेन भरतेन पृष्टं-खामिन ! अस्यां पर्षेदि कोऽपि भरतक्षेत्रेऽस्यां चतुर्विशतिकायां भाविजिनोऽस्ति?, भगवानुवाच-भरत! तव पुत्रोऽयं मरीचिनामा अस्यां अवसर्पिण्यां वीरनामा चतुर्विशस्तीर्थकृत् १ विदेहे मूकाराजधान्यां प्रियमित्रनामा चक्री २ अत्रैव भरते प्रथमो वासुदेवश्च ३ भविष्यतीति श्रुत्वा हर्षितो भरतो गत्वा निः प्रदक्षिणीकृत्य मरीचिं वन्दित्वा|| अवदत्-भो मरीचे! यावन्तो लाभास्ते खयैव लब्धाः, यतस्त्वं तीर्थंकरो वासुदेवश्चक्री च भविष्यसि, अहं इच तव पारिवाज्यं न वन्दे किंतु त्वं चरमतीर्थकरो भविष्यसीति बन्दे इति पुनः पुनः स्तुत्वा भरतः स्वस्थानं गतः, मरीचिरपि तत् श्रुत्वा हर्षोद्रेकात्रिपदी आस्फोट्य नृत्यन्निदं अघोचत्-प्रथमो वासुदेवोऽहं, मुकायां चक्रवत्यहम् । चरमस्तीर्थराजोऽहं, ममाहो उत्तम कुलम् ॥१॥ आद्योऽहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रव-| र्तिनाम् । पितामहो जिनेन्द्राणां, ममाहो उत्तम कुलम् ॥ ॥२॥ इत्थं च मदकरणेन नीचर्गोत्रं बद्धवान, यता-'जाति १ लाभ २ कुलै,३ श्वर्य:४ बल ५ रूप ६ तपः ७ श्रुतैः८। कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः ॥३॥ ततो भगवति निर्वते प्राग्वजनान् प्रतिबोध्य साधूनां शिष्यान् कुर्वन् तैः सह विहरति, एकदा |च ग्लानीभूतस्य तस्य न कोऽपि वैयावत्यं करोति, तदा स चिन्तितवान्-अहो एते बहुपरिचिता अपि पर-1 दीप अनुक्रम [१८] JaMEducutane ~78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान R] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो-1 कीया एव निर्ग्रन्धाः, ततो यदि नीरोगो भवामि तदैक वैयावृत्यकरं शिष्यं करोमीति, क्रमेण च नीरोगोश्रीवीरस्थ व्या०१ जाता, एकदा कपिलनामा राजपुत्रो देशनां निशम्य प्रतिबुद्धो मरीचिना प्रोक्तो-भो कपिल! याहि साधुस-18|२७ भवाः मीपे चारित्रं गृहाण, तदा कपिलेन प्रोक्तं-खामिन्! भवद्दर्शने एवं व्रतं ग्रहियामि, तदा मरीचिरुवाच-भोर कपिल ! श्रमणास्त्रिदण्डविरताः अहं तु त्रिदण्डवानित्यादि सर्व खरूपं कथितं, तथापि स बहुलकर्मा चारिअपराङ्मुखः प्रोवाच-किं भवदर्शने सर्वथा धर्मों नास्ति ?, तदा मरीचिना एष मम योग्यः शिष्य इति विचिन्त्य उक्तं-'कविला इत्थंपि इहयंपि' कपिल ! जैनमार्गेऽपि धर्मोऽस्ति मम मार्गेऽपि विद्यते, तत् श्रुत्वा च कपिलस्तत्वाचे प्रवजिता, मरीचिरपि अनेन उत्सूत्रवचनेन कोटाकोटिसागरप्रमाणं संसारं उपोजयामास, यत्तु। किरणावलीकारेण प्रोक्तं 'कविला इत्थंपि इहयंपीति' वचनं उत्सूत्रमिश्रितमिति, तदुत्सूत्रभाषिणां नियमाव-18 नन्तः संसार इति खमतस्थापनरसिकतयेति ज्ञेयं, इदं हि तन्मतं-उत्सूत्रभाषिणस्तावन्नियमावनन्तः एव संसार स्यात्, यदि च इदं मरीचिवचनमुत्सूत्रमित्युच्यते तदा अस्यापि अनन्तः संसारः प्रसज्यते न चासी सम्प-18 नस्तदिदं उत्सूत्रमिश्रितमिति, तच्चायुक्तं, उत्सूत्रभाषिणां अनन्त एव संसार इति नियमाभावात्, श्रीभकागवत्यादियहुग्रन्धानुसारेण उत्सूत्रभाषिशिरोमणेर्जमालिनिलवस्यापि परिमितभवत्वदर्शनात, न चोत्सू ॥२७॥ मिश्रत्वकथनेऽपि अस्य मरीचिवचनस्य उत्सूत्रत्वं अपगच्छति, विषमिश्रितानस्यापि विषत्वमेवेत्यलं २७ दीप अनुक्रम [१८] Fur F ate Man anelbrary.org -79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| प्रसङ्गेन, ततोऽनालोचिततत्कर्मा चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि आयुः परिपाल्य मृत्वा चतुर्थे भवे ब्रह्मलोके दशसाग-1 रस्थितिः सुरः सञ्जातस्ततश्च्युतः पञ्चमे भवे कोल्लाकसन्निवेशे अशीतिलक्षपूर्वायुर्विप्रो भूत्वा विषयासक्तो निःशूका प्रान्ते त्रिदण्डीभूत्वा बहु कालं संसारे भ्रान्तः,तेहि भवाः स्थूलभवमध्ये न गण्यन्ते, ततः पर भवे स्थूणायां नगर्या द्वाससतिलक्षपूर्वायुः पुष्पनामा द्विजस्त्रिदण्डीभूत्वा मृत: ससमे भवे सौधर्म कल्पे मध्यस्थितिः सूरोऽभूत् , ततश्युतोऽष्टमे भवे चैत्यसन्निवेशे षष्टिलक्षपूर्वायुः अग्निद्योतो नाम विप्रस्त्रिदण्डी-18 भूत्वा मृतो नवमे भये ईशानदेवलोके मध्यस्थितिका सुरः, ततश्युतो दशमे मचे मन्दरसन्निवेशे षट्पञ्चाश-1 लक्षपूर्वायुरग्निभूतिनामा ब्रामणः अन्ते त्रिदण्डीभूत्वा एकादशे भवे तृतीयकल्पे मध्यस्थितिकः सुरः, ततश्युतो द्वानो भवे श्वेताम्ब्यां नगर्यां चतुश्चत्वारिंशल्लक्षपूर्वायुर्भारदाजनामा विप्रखिदण्डीभूत्वा मृत्वा अयो| वो भवे माहेन्द्रकल्पे मध्यस्थितिः सुरः, ततश्युतः कियत्कालं संसारे भ्रान्त्वा चतुरशे मचे राजगृहे चतुस्लिं-18 शल्लक्षपूर्वायुः स्थावरो नाम विप्रनिदण्डीभूत्वा मृतः पञ्चदशे भवे ब्रह्मलोके मध्यस्थितिको देवः पोकशे भवे|| कोटिवर्षायुर्विश्वभूतिनामा युवराजपुत्रः सम्भूतिमुनिपादान्ते चारित्रं गृहीत्वा वर्षसहस्रं दुस्तपं तपस्तप्यमानो मासोपवासपारणायां मथुरायां गोचरचर्यार्थं गतः, तत्र एकया धेन्वा तपःकृशत्षाअवि पातितः, तद् दृष्ट्वा च 81 १ दुर्भाषितेनैकेनेत्याधुपदेशमालायां, कविलेल्यादेः निरुपचरितो जैनधर्मे अत्र तु सोपचरित इति मलयगिरिपादाः, जमालेमतान्तरे णानन्ता भवा उक्ताः स्वयं लोकप्रकाशे दीप अनुक्रम [१८] JaMEducation Fur & Fonte ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [१८] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो-परिणयनार्थ तत्रागतेन विशाखनन्दिनाना पितृव्यपुत्रेण हसितः सन् कुपितस्तां धेनुं शृङ्गयोहीत्वा आकाशे श्रीवीरस्य व्या०२ अमितवान्, निदानं चैवं कृतवान् यदनेन उग्रतपसा भवान्तरे भूयिष्ठवीर्यो भूयासं, ततो मृत्वा ससदशे २७ भवाः भवे महाशुक्रे उत्कृष्टस्थितिः सुरः ततश्च्युतः अष्टादशे भवे पोतनपुरे खपुत्रीकामुकस्य प्रजापते राज्ञो मृगा-1 ॥ २८ ॥ वत्याः पुत्र्याः पत्न्याश्च कुक्षौ चतुरशीतिलक्षवर्षायुस्त्रिपृष्टनामा वासुदेवः,तत्र वाल्येऽपि प्रतिवासुदेवशालिक्षे-1॥ विनकारिणं सिंह विमुक्तशस्त्रः कराभ्यां विदारितवान् , क्रमेण च वासुदेवत्वं प्राप्तः, एकदा च शय्यापालक आदिष्टवान्-पर्दस्मासु निद्राणेषु एते गायना गीलगानान्निवारणीयाः,तेन च गीतरसासक्तेन वासुदेवे निद्राणेऽपि ते न निवारिताः,ततःक्षणात् प्रतिबुद्धेन वासुदेवेन आः पाप ! मदाज्ञापालनादपि तव गीतश्रवणं प्रियं लभस्खा तर्हि तत्फलं इत्युक्त्वा तत्कर्णयोस्तप्तं वपु क्षिप्तवान् , तेन च कर्णयोः कीलकप्रक्षेपकारणं कर्मोपार्जितवान् , एवं २० च कृतानेकदुष्कर्मा ततो मृत्वा एकोनविंशे भवे सप्तमनरके नारकतया उत्पन्न:, ततो निर्गत्य शितितमे भवे|| सिंहस्ततो मृत्वा एकविंशतितमे भवे चतुर्थनरके, ततो निर्गत्य बहून् भवान् भ्रान्त्वा द्वाविंशे भवे मनुष्यत्वं प्राप्योपार्जितशुभकर्मा अयोविंशे भवे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयस्य राज्ञो धारिण्या देव्याः कुक्षौ चतुरशीतिलक्षपूर्वायुः प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती बभूव, सच पोटिलाचार्यसमीपे दीक्षां गृहीत्वा वर्षकोटिं यावत् परि-1 १ जिनभवान् प्राक् षष्ठे भवे पोट्टिलकुमारः मृतश्च सहस्रारेऽभूदिति समवाये, उक्तभवग्रहणं विना हि नान्यद्भवग्रहणं षष्ठं श्रूयते भगवत इत्ये- 8 "२८ ॥२८॥ तदेव पष्ठभवमहणतया व्याख्यातमिसि वाक्यार्थमनवबुध्य यथारुचि कथनं खाद्यानां न मतिमतां मान्य,नहि भवतयेन कल्याणकालिसंगतिरुचिता दीप अनुक्रम [१८] A janeibrary.org -81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [१८] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| पाल्य चतुर्विशतितमे भवे महाशुके देवा, ततश्च्युतः पञ्चविंशे भये इहैव भरतक्षेत्रे छत्रिकायां नगर्या जितशत्रुनृपतेर्भद्रादेव्याः कुक्षी पञ्चविंशतिवर्षलक्षायुनन्दनो नाम पुत्रः, स च पोहिलाचार्यपाचे चारित्रं गृहीत्वा | यावजीवं मासक्षपणेविंशतिस्थानकाराधनेन च तीर्थकरनामकर्म निकाच्य वर्षलक्षं चारित्रपर्यायं परिपाल्य || मासिकया संलेखनया मृत्वा षड्विंशतिसमे भवे प्राणतकल्पे पुष्पोत्तरावतंसकविमाने विंशतिसागरोपमस्थि|तिको देवो जातः, ततश्च्युत्वा तेन मरीचिभवबद्धेन नीचैर्गोत्रकर्मणा भुक्तशेषेण सप्तविंशे भने ब्राह्मणकुण्ड ग्रामे नगरे ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः कुक्षी उत्पन्ना, ततः शक्र एवं चिन्तयतिMI (जन्नं अरहंता वा) यत् एवं नीचर्गोत्रोदयेन अर्हन्तो वा (चक्कवटी वा) चक्रवर्तिनो वा (बलदेवा वा) चलदेवा वा ( वासुदेवा वा) वासुदेवा वा (अन्तकुलेसुवा) अन्त्या:-शद्रास्तेषां कुलेषु वा (पन्तकुलेसु वा) समान्ता-अधमाचाराः तेषां कुलेषु वा (तुच्छकुलेसु वा) तुच्छा-अल्पकुटुम्बास्तेषां कुलेषु वा (दरिदकुलेसु वा) दरिद्रा-निर्धनास्तेषां कुलेषु वा (किविणकुलेसुवा) कृपणा:-अदातारस्तेषां कुलेषु वा (भिक्खागकुलेसु वा) १० मिक्षाका:-चारणादयस्तेषां कुलेषु वा (माहणकुलेसु वा) ब्राह्मणानां कुलेषु वा (आयाइंसु वा) आगता अतीतकाले (आयाइंति बा) आगच्छन्ति वर्तमानकाले (आयाइस्संति वा) आगमिष्यन्ति अनागतकाले (कुञ्छिसि) कुक्षौ (गम्भत्ताए) गर्भतया (चक्कमिंसु चा) उत्पन्ना वा (वक्कमति वा) उत्पद्यन्ते वा (वक्कमिस्संति वा) उत्पत्स्यन्ते वा, परं (नो चेवणं) नैव (जोणीजम्मणनिकखमणेणं) योन्या यत् दीप अनुक्रम [१८] -82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [१९] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ॥१..|| रणविचारः कल्प.सयो-IS जन्मार्थ निष्क्रमणं तेन (निकखर्मिसु वा) निष्क्रान्ता वा (निकखमंति वा) निष्क्रामन्ति वा (निकखमि-नीचगोत्रेव्या०२|| संति वा ) निष्क्रमिष्यन्ति च, अयमर्थ यद्यपि कदाचित् कर्मोदयेन आश्चर्यभूतस्तुच्छादिकुलेषु अर्हदादीनां वजन्म वि. अवतारो भवति परं जन्म तु कदाचिन्न भूतं न भवति न भविष्यति च ।। (१८)॥ नीचगोत्रो॥२९॥ IRL (अयं च णं) अयं प्रत्यक्षः (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान महावीरः (जंबुद्दीचे दीवे पात्तः जंबूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भरतक्षेत्रे (माहणकुंडग्गामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसमदत्तस्स मू.१८-२० माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( कोडालसगुत्तस्स) कोडालसगोत्रस्य (भारियाए भार्यायाः (देवाण-| दाए माहणीए ) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुसाए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गन्भत्ताए वते) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः ॥ (१०)॥(तं जीअमेयं ) तस्मात् हेतोःजीतं एतत्-आचार एष इत्यर्थः, केषां इत्याह-(तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं) अतीतवर्तमानौनागतानां (सकाणं देविदाणं देवरायाणं) शकाणां देवेन्द्राणां,देवराजानां, कोऽसौ? इत्याह-यत् (अरिहंते भगवंते) अर्हतो भगवतः (तहप्पगारेहिंतो.) तथाप्रकारेभ्यः (अंतकलेरितो) अन्तकलेभ्यः (पंतकुलेहितो) प्रान्तकुलेभ्यः (तुच्छकुलहितो) तुच्छकुपालेभ्यः (दरिदकुलेहितो) दरिद्रकुलेभ्यः (भिक्खागकुलेहितो) भिक्षाचर कुलेभ्यः (किविणकुलेहिंतकृपण-17 कुलेभ्यः (माहणकुलेहिंतो ब्राह्मणकुलेभ्यश्चादाय (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (उग्गकुलेसु वा) उग्रकुलेषु वा (भोगकुलेसु वा ) भोगकुलेषु वा (रायन्नकुलेसु वा) राजन्यकुलेषु वा (नायकुलेसु वा) ज्ञातकुलेषु वा| | २८ दीप अनुक्रम [१९] Fur Frately ... भगवन्त महावीरस्य गर्भ-संहरण-वृतान्त -83 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं २०] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [२०] गाथा ॥१..|| (खत्तियकुलेसु वा) क्षत्रियकुलेषु वा (हरिवंसकुलेसु वा) हरिवंशकुलेषु वा (अन्नयरेसु वा ) अन्यतरेषु वा (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (विसुद्धजाइकुलवंसेसु) विशुद्धे जातिकुले यत्र इदृशेषु वंशेषु (जाव रज्जसिरिं) यावत् राज्यश्रियं (कारेमाणे) कुवेत्सु (पालेमाणे) पालयत्सु च (साहावित्तए) मोचयितुं इन्द्राणां एषः आचारः, (तं सेयं खलु ममवि) ततः श्रेयः खलु युक्तमेतन्ममापि (समणं भगवं महावीर श्रमणं भगवन्तं महावीरं ( चरमतित्थयरं) चरमतीर्थकर (पुवतित्थयरनिद्दि) पूर्वतीर्थकरैर्निर्दिष्टं (माहणकुंडगामाओ नयराओ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् (उसमदत्तस्स माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य (भारियाए) भार्यायाः ( देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगोत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ) कुक्षेमध्यात् (खत्तिअकुंडग्गामे नयरे)क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खत्तिआणं) ज्ञातानां-श्रीऋषभखामिचंइयानां क्षत्रियविशेषाणां मध्ये (सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य ( कासवगुत्तस्म) काश्यपगोत्रस्य (भारियाए) भार्यायाः (तिसलाए ) त्रिशलायाः (खत्ति १ अत्राह कश्चित् यत् अनेन पूर्वतीर्थकरैर्महावीरस्य गर्भापहारः कल्याणकतया प्रतिपादित इति, तत् अभिनिवेशमहिमानमेव गमयति, यतोऽत्र मोचनार्थकेन संहरणेनान्वयः श्रेयःशब्दस्य, पूर्वतीर्थकर इत्यादीनि तु श्रीवीरविभोविशेषणानि प्रागनेकशः प्रतिपादितानि, २ संहरणार्हताज्ञापनाय, सिद्धार्थस्य नृपत्वं नानेन हन्यते, 'रजेण रटेण' मित्याधुके चिच्चा रज्ज चिच्चा रह'मित्याद्युक्तेः 'स्फीतमपहाय राज्य'मित्युक्तेश्च न कल्पिता नृपतिता दीप अनुक्रम [२०] JaMEducatani Fur & Fonte M a nelibrary.org -84 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं २०] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म कल्प.सुबो- व्या० २ प्रत सूत्रांक [२०] गाथा ॥१..|| आणीए) क्षत्रियाण्याः (वासिट्ठसगुत्ताए) वाशिष्टसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए) कुक्षौ गर्भतया संहरणादे(साहरावित्तए) मोचयितुं, तथा-(जेऽविणं से तिसलाए खत्तिआणीए गन्भे) योऽपि च तस्याः त्रिश-शम्.२१ लायाः क्षत्रियाण्याः गर्भ: पुत्रिकारूपः (तंपिअ णं देवाणंदाए माहणीए)तं अपि देवानन्दायाः ब्रामण्याः । (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए ) कुक्षौ गर्भतया ( साहरावित्तए) मोच-18 यितुं, (तिकट्ठ) इति कृत्वा ( एवं संपेहेइ) एवं-पूर्वोक्तं विचारयति (संहिता) विचार्य च (हरिणेगमेसिं१५ हरिनैगमेषिनामकं (पाइत्ताणीआहिवई) पदातिकटकाधिपतिं (देवं सद्दावेह) देवं आकारयति, (सहायित्ता) आकार्य (एवं वयासी) एवं इन्द्रः अवादीत् ॥ (२०)॥ किं तदित्याह-(एवं खलु देवाणुप्पिा !) एवं निश्चयेन हे हरिनैगमेषिन् ! (न एवं भूअं) न एतद्भूतं (न एवं भव्वं ) न एतत् भवति (न एअं भविस्स) म एतत् भविष्यति (जन्नं अरिहंता वा) यत् अर्हन्तो वा (चक्कवहि वा) चक्रधरा वा (बलदेवा वा) बलदेवा वा (वासुदेवा) वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा) अन्त्यकुलेषु वा (पंतकुलेसु चा) प्रान्ता:-अधमा-TRI चाराः तेषां कुलेषु वा (तुच्छकुलेसुवा) तुच्छा:-अल्पकुटुम्बास्तेषां कुलेषु वा (दरिदकुलेसु वा) दरिद्रा:निर्धनास्तेषां कुलेषु वा (किविणकुलेसु वा) कृपणा:-अदातारस्तेषां कुलेषु वा (भिक्खागकुलेसु वा) मिक्षाकाः-चारणादयः तेषां कुलेषु वा (माहणकुलेसु वा) ब्राह्मणानां कुलेषु वा (आयाइंसु वा) आगताः अतीतकाले (आयाइंति वा) आगच्छन्ति वर्तमानकाले (आयाइस्संति वा) आगमिष्यन्ति अनागतकाले, दीप अनुक्रम [२०] ॥ ३ For F lutelu -85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२१] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [२१] गाथा ||१..|| (एवं खलु अरहंता वा) अनेन प्रकारेण निश्चयेन अर्हन्तोवा (चक्कवही वाचक्रवर्तिनोवा (बलदेवा वा)बलदेवा वा जिनाद्याग(वासुदेवाचा वासुदेवा वा (उग्गकुलेसुवा) श्रीऋषभेण आरक्षकतया स्थापिताः उग्राः तेषां कुलेषु वा (भोगकुलेसुमनआश्चर्य वा) गुरुतया स्थापिताः भोगाः तेषां कुलेषु वा (राइण्णकुलेसु वा )मित्रस्थाने स्थापिता राजन्यास्तेषां कुलेषु जन्मनावा (खत्तियकुलेसु वा ) प्रजालोकतया स्थापिताः क्षत्रियास्तेषां कुलेषु वा (हरिवंसकुलेसु वा) पूर्ववैरिसुरानी भावः मू. २१-२२ सहरिवर्षक्षेत्रयुगलस्य वंशो हरिवंशस्तस्य कुलेषु वा (अण्णयरेसु वा ) अन्यतरेषु वा (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (विसुखजाइकुलवंसेसु) विशुद्धे जातिकुले यत्र इहशेषु वंशेषु, मातृपक्षो जातिः पितृपक्षः कुलं (आयाइंसु वा) आगता वा ( आयाईति वा) आगच्छन्ति वा ( आयाइस्संति वा) आगमिष्यन्ति वा, (२१) ॥ तर्हि भगवान् कथमुत्पन्न ? इत्याह-(अस्थि पुण एसेवि भावे) अस्ति पुनः एषोऽपि भवितव्यतानामपदार्थः ( लोगच्छेरयभूए ) लोके आश्चर्यभूतः ( अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं । अनन्तासु उत्सपिण्यवसर्पिणीषु (विकंताहिं ) व्यतिक्रान्तासु सतीषु (समुप्पबइ) इदृशः कश्चिद्भावः समुत्पद्यते (नामIS गुत्तस्स वा) नाना कृत्वा गोत्रस्य, अर्थात् नीचैगांत्रनामकस्य वेति पक्षान्तरे (कम्मस्स) कर्मणः, किंविशि टस्य ? (अक्खीणस्स) स्थितेः अक्षयेण-अक्षीणस्य, पुनः किंवि०१ ( अवेइअस्स) रसस्यापरिभोगेन - अवे. दितस्य, पुनः किंवि० १ (अणिज्जिण्णस्स) अत एव अनिर्जीर्णस्य-आत्मप्रदेशेभ्यः अपृथग्भूतस्य (उदएर्णा उदयेन कृत्वा (जनं अरहंता वा) यल् मीचोंबोदयेन क्रत्वा बहन्तो या (यावही वा) चक्रवर्तिनो वा दीप अनुक्रम [२१] कल्प.स. 786 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [२२] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [२२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- (बलदेवा वा) बलदेवा वा (वासुदेवा वा) वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा) अन्त्यकुलेषु वा (पंतकुलेसु वा श्रीवीरागव्या०१प्रान्तकुलेषु वा (तुच्छकुलेसु वा)तुच्छकुलेषु वा (दरिदकुलेसु वा) दरिद्रकुलेषु वा (भिक्रयागकुलेसुवा) भिक्षा- मनं संहर चरकुलेषु वा (किविणकुलेसु वा) कृपणकुलेषु चा (माहणकुलेसु वा) ब्राह्मणकुलेषु वा (आयाइंसुचाणाचारः मू. ॥३१॥ आगता वा (आयाईति चा) आगच्छन्ति वा (आयाइस्संति वा ) आगमिष्यन्ति वा ( कुञ्छिसि) कुक्षौ । |२३-२४ (गन्भत्ताए ) गर्भतया ( वकर्मिसु वा) उत्पन्ना वा (वक्कमंति वा) उत्पद्यन्ते वा (वक्कमिस्संति वा) उत्पत्स्यन्ते । सवा (नो चेव ण) परं नैव (जोणीजम्मणनिक्खमणेण) योनिमार्गेण जन्मनिमित्तं निष्क्रमणेन कृत्वा (निक्खर्मिसु वा) निष्क्रान्ता वा (निक्खमंति वा) निष्कामन्ति वा (निक्वमिस्संति वा) निष्क्रमिष्यन्ति वा ॥(२२)। (अयं |च णं) अयं प्रत्यक्षः (समणे भगवं महावीर)श्रमणो भगवान महावीर (जंबुद्दीव दीव) जंबूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भरतक्षेत्रे (माहणकुंडग्गामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसभदत्तस्स माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य (कोडालसगुत्तस्स ) कोडालसगोत्रस्य (भारियाए) भार्यायाः (देवाणंदाए माहणीए) देवान-II न्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए ) जालन्धरसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए वर्फते ) कुक्षी गर्भतया उत्पन्नः ॥ (२३)॥ IS (तं जीअमेयं) तस्मात् आचार एषः (तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं) अतीतवर्तमानानागतानां ( सकाणं ॥३१ देविंदाणं देवरायाणं) शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां (अरिहंते भगवंते ) अर्हतो भगवतः (तहप्पगारे दीप अनुक्रम [२२] एekceseseseperce २८ -877 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२४] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत गर्मसंहरणादेशः मू. २५ सूत्रांक [२४] गाथा |१..|| |हिंतो) तथाप्रकारेभ्यः (अंतकुलहितो) अन्तकुलेभ्यः ( पंतकुलेहिंतो) प्रान्तकुलेभ्यः (तुच्छकुले हिंतो तुच्छकुलेभ्यः (दरिदकुलेहितो ) दरिद्रकुलेभ्यः ( किविणकुलेहितो ) कृपणकुलेभ्यः (वणीमगकुलेहितो) | भिक्षाचरकुलेभ्यः (माहणकुलेहितो) ब्राह्मणकुलेभ्यश्च (तहप्पगारेसु ) तथाप्रकारेषु ( उग्गकुलेसु वा) | उग्रकुलेषु वा (भोगकुलेसु बा) भोगकुलेषु वा (रायन्नकुलेसु वा ) राजन्यकुलेषु वा (नायकुलेसु वा) ज्ञातकुलेषु वा (खत्तिअकुलेसु वा) क्षत्रियकुलेषु वा (इक्खागकुलेसु वा) इक्ष्वाककुलेषु वा (हरिवंसकुलेसु वा) हरिवंशकुलेषु वा (अण्णयरेसु वा) अन्यतरेषु वा (तहप्पगारेषु)तथाप्रकारेषु (विसुद्धजाइकुलविंसेसु) विशुद्धजातिकुलवंशेषु (साहरावित्तए) मोचयितुं ॥ (२४)॥ (तं गच्छ णं देवाणुप्पिए) यस्मात् कारणात् इन्द्राणां एष आचार: तस्मात्कारणात् त्वं गच्छ देवानुप्रिय ! हे हरिणैगमेषिन् ! ( समणं भगवं महावीरं) श्रमणं भगवन्तं महावीरं (माहणकुंडग्गामाओ नयराओ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् (उसभिदत्तस्स माहणस्स)ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य (कोडालसगुत्तस्स) कोडालसगोत्रस्य (भारियाए) भायर्यायाः (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ" कुक्षेः लात्वा (खत्तियकुडग्गामे नयरेक्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खत्तिआणं) ज्ञानजातीयानां क्षत्रिSयाणां मध्ये (सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य (कासवगुत्तस्स) काश्यपगोत्रस्य (भारियाए) भार्यायाः (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ( वासिहसगुत्ताए ) वाशिष्ठगोत्रायाः दीप अनुक्रम [२४] For F lutelu ~88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [२५] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा ||१..|| कल्प.सबो-18(कुच्छिसि गम्भत्ताए ) कुक्षी गर्भतया ( साहराहि ) मुश्च, (जेऽविय णं) योऽपि च (से तिसलाए) तेस्याः संहरणं मू. व्या०१त्रिशलायाः (खत्तिआणीए) क्षत्रियाण्याः (गम्भे) गर्भः (तंपिय गं)तं अपि (देवाणंदाए माहणीए) २६ देवानन्दाया ब्राह्मण्या: (जालंधरसगुत्ताए)जालन्धरगोत्रायाः (कुच्छिसि) कुक्षौ (गम्भत्साए) गर्भतया(साहराहि ॥३२॥ मुञ्च (साहरिता) मुक्त्वा (मम एअमाणत्ति) मम एतां आज्ञप्ति-आज्ञा (खिप्पामेब) शीघ्रमेव (पचप्पिणाहि) i|| 18| प्रत्यर्पय, कार्य कृत्वाऽऽगत्य मयैतत् कार्य कृतं इति शीघ्र निवेदय इत्यर्थः।। (२५)॥ NI (तए णं से हरिणेगमेसी) ततः स हरिणैगमेषी ( पायत्ताणियाहिबई देवे ) पदात्यनीकाधिपतिर्देव: (सकेणं देविंदणं) शक्रेण देवन्द्रेण (देवरना) देवराजेन ( एवं वुत्ते समाणे) एवं उक्तः सन् (हह) (जाव) यावत्करणात तुद्धचित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसबसविसप्पमाण इत्यादि सर्वे वक्तव्यं (हियए) हर्षपूर्णहृदया, अथैवंविधः सन् हरिणैगमेषी (करयल) करतलाभ्यां (जाव) यावत्कारणात् परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं इति प्राग्वत् वाच्यं (कटु) तथा मस्तके अञ्जलिं कृत्वा (जं देवो आणवेइत्ति) यत् शक्रः आज्ञापयति इत्युत्तवा (आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ) आज्ञाया-उक्तरूपाया यरचनं तद्विनयेन प्रतिशृणोति-अङ्गीकरोति (पडिसुणित्ता) प्रतिश्रुत्य च-अङ्गीकृत्य च (उत्तरपुरच्छिमं दिसि १ यदा संहरणस्य कल्याणकता तथा इन्द्रः स्वयमेव तदकरिष्यत् न पदात्यनीकाधिपेनाकारयिष्यत्, सेवाप्रकर्षामिलापयुक्तत्वात्तस्य, जन्मादिकल्याणकवत, कषभराज्याभिषेकः स्वयं कृत इन्द्रेणेति तस्य विशेषेण खायेन कल्याणकता स्वीकार्यो । दीप अनुक्रम [२५] 0393000050 ३२॥ ISONajaneibrary.org ... हरिणेगमेषीदेवेन कृत भगवन्त महावीरस्य गर्भ-संहरण 789 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२६] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [२६] गाथा ॥१..|| भामं ईशाणकोणनामके दिग्विभाग इत्यर्थः तत्र (अवकमह ) अपक्रामति गच्छतीत्यर्थः (अवकमित्ता) क्रियकरणं अपक्रम्य-गत्वा च (विउविअसमुग्घाएणं समोहण) वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धन्ति-वैक्रियशरीरकरणा प्रयत्नविशेष करोतीत्यर्थः ( समोहणित्ता) प्रयत्नविशेषं कृत्वा (संखिज्जाई जोअणाई) संख्येययोजनप्रमाणं (दंड दण्डाकारं शरीरवाहल्यं ऊध्वोंधआयतं जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहं (निस्सिरइ )शरीराद्वहिः निष्कास-ISH यतीत्यर्थः, तत्कुर्वाणस्तु एवंविधान पुद्गलान् आदत्ते, (तंजहा) तद्यथा-(रयणाणं) रवानां-कर्केतनादीनां १ यद्यपि रनपुद्गला औदारिका वैक्रियशरीरकरणे असमर्थाः तत्र वैक्रियवर्गणापुद्गला एव उपयुज्यन्ते तदपि परनानां इव सारपनला इति ज्ञेयं (वयराणं) वज्राणां-हीरकाणां २ (बेलिआणं) बैडयोणा-नीलरत्नानां ३ (लोहिअक्खाणं) लोहिताक्षाणां ४ (मसारगल्लाण) मसारगल्लानां ५ (हंसगम्भाणं) हंसगाणां ६(पुलयाणं) पुलकानां ७(सोगंधिआणं) सौगन्धिकानां ८ (जोईरसाणं) ज्योतीरसानां ९ (अंजणाणं) अन्जनानां १० (अंजणपुलयाण) अञ्जनपुलकानां ११ (जायख्वाण) जातरूपाणां १२ (सुभगाणं) सुभगानां १३ ( अंकाणं)| अहानां१४ (फलिहाणं) स्फटिकानां १५ (रिहाणं) रिष्ठानां १६ एताः षोडश रत्नजातयस्तेषां च (अहापायरे) यथाबादरान-अत्यन्तं असारान् स्थूलान् इत्यर्थः (पुग्गले)तान् पुद्गलान् (परिसाडेह) परित्यजति, दीप अनुक्रम [२६] १ भ्याऽन्यवर्गणापुद्गलानामन्यवर्गणात्वेन परिणतेसैदारिकाण्यपि वा सन्तु २ उदितवैक्रियनामकर्मपुद्गलानिति श्रीहरिभद्राद्या आचार्याः Fur FB Fanatec -90 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२] मूलं [२७] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० १ ॥ ३३ ॥ ( परिसाडिता ) परित्यज्य ( अहासहुमे ) यथासूक्ष्मान् - अत्यन्तं सारान् इत्यर्थः, तान् ( पुग्गले ) पुद्गलान् (परिआएइ) पर्यादन्ते-गृह्णातीत्यर्थः ॥ (२६) । (परियाइत्ता ) पर्यादाय-गृहीत्वा (दुचंपि ) द्वितीयवारं अपि ( वेडवियसमुग्धाएणं) वैकियसमुद्घातेन (समोहणइ) समुद्धन्ति पूर्ववत् प्रयत्नविशेषं करोति, (समोहणित्ता) प्रयत्नविशेषं कृत्वा ( उत्तरवेषविअं रूवं ) उत्तर वैक्रियं भवधारणीयापेक्षया अन्यत् इत्यर्थः ईदृशं रूपं ( विउचर ) विकुर्वति करोति (विउधित्ता ) तथा कृत्वा ( ताए ) तथा ( उक्किट्ठाए ) उत्कृष्टया अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया ( तुरिआए ) त्वरितया-चित्तौत्सुक्यवत्या (चवलाए ) काय चापल्ययुक्तया ( चंडाए) चण्डया - अत्यन्ततीव्रया ( जयणाए ) शेषगतिजयनशीलया (उद्धआए ) उद्भूतया - प्रचण्ड पवनोद्भूतधूमादेरिव ( सिग्धाए ) अत एव शीघ्रया, छेआपत्ति कुत्रचित् पाठः तत्र छेकया विघ्नपरिहारदक्षणा, ( दिवाए ) देवयोग्यया, इदृश्या ( देवगइए ) देवगत्या ( वीड्वयमाणे वीइवयमाणे ) अतिगच्छन् २- अधस्तादुत्तरन् २ ( तिरिअमसंखिजाणं दीवसमुद्दाणं ) तिर्यग असंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां ( मज्झमज्झेणं ) मध्यंमध्येन - मध्यभागेन ( जेणेव जंबुद्दीवे दीवे) यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपः ( भारहे वासे) भरतक्षेत्रं ( जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे ) यत्रैव ब्राह्मणकुण्डग्रामनगरं ( जेणेव उसभदत्तस्स माहणस्स गिहे ) यत्रैव ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य गृहं ( जेणेव देवाणंदा माहणी ) यत्रैव देवानन्दा ब्राह्मणी (तेणेव १ वैक्रियनिर्माणयोग्यान् । २ वैक्रियरूपनिर्माणाय । 91~ देवस्य गमनादि सू. २७ १५ २० ॥ ३३ ॥ २५ Janelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान R] .......... मूलं [२७] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | गर्भसंक्रा प्रत सूत्रांक [२७] गाथा ॥१..|| 18 उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) सपागत्य च (आलोए) आलोके-दर्शनमात्रे (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पणामं करेइ) प्रणामं करोति ( पणामं करित्ता) प्रणामं कृत्वा च (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दाया: ब्राह्मण्याः ( सपरिजणाए) सपरिवारायाः (ओसोवर्णि) अवखापिनीनिद्रा (दलह) ददाति (दलित्ता)तां दत्त्वा च (असुभे पुग्गले ) अशुचीन् पुद्गलान् अपवित्रानित्यर्थः (अबहरइ) अपहरति-दूरीकरोति (अवहरित्ता) तथा कृत्वा च (सुभे पुग्गले) शुभान पुद्गलान्, पवित्रपुद्गलानित्यर्थः (पक्खिबह ) प्रक्षिपति, (पक्विवित्ता) प्रक्षिप्य च ( अणुजाणउ मे भयवंतिकडु) अनुजानातु-आज्ञां ददातु मह्यं भगवान् इतिकृत्वा-इत्युक्त्वा (समणं भगवं महावीरं) श्रमणं भग-18 वन्तं महावीरं ( अवाचाहं ) व्यावाधारहितं (अवाबाहेणं) अव्यावाधेन-सुखेन (दिघेणं पहावेणं) दिव्येन प्रभावेण (करयलसंपुडेणं गिण्हइ) करतलसम्पुटे गृह्णाति, न च तेन गृह्यमाणस्यापि गर्भस्य काचित् पीडा स्यात्, यदुक्तं भगवत्यां-'प्रभू णं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कदूए इस्थीगभं नहसिरंसि वा रोमकूवंसि वा साहK १ प्रणामक्रियादर्शनेन शकस्तवपाठाभ्युपगमकारिणां च्यवनद्वयाभ्युपगमवतो ज़डिममनानामत्रापि शक्रस्तवाभ्युपगमप्रसंगः २ 'रुहिरकलमकाणि य न हयन्तीति वाक्यं तु विशिष्टाशुचिपुगलनिषेधख्यापक, प्रक्षेप्यदिव्यपुगलापेक्षया वाऽत्राशुचिपुद्गलाः ।। | ३ प्रभुः भदन्त । हरिणैगमेषी शक्रदूतः स्त्रीगर्भ नखशिरसि वा रोमकूपे वा मोक्तं वा निष्कासयितुं वा ?, हन्त प्रभुः, नैव तस्य गर्भस्य | |आवाधा वा विवाघा वा उत्पादयेत् , छविच्छेदं पुनः कुर्यात् । २ (भग० सू० १८६) दीप अनुक्रम [२७] JanEducutoriou re mjanelbrary.org. -92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान R] .......... मूलं [२७] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-18|रित्तए वा निहरित्तए वा ?, हंता पभू, नो चेवणं तस्स गन्भरसे आवाहं वा विवाहं वा उपाएजा, छविच्छे अं गर्मपराव्या०२ पण करिजा छविच्छेवं-त्वकछेदन अकृत्वा गर्भस्य प्रवेशयितुं अशक्यत्वादिति (करयलसंपडेणं गिणिहत्ता वृत्तिः हस्ततलसम्पुटे गृहीत्वा च (जेणेव खत्तियकुण्डग्गामे नयरे) यत्रैव क्षत्रियकुण्डग्रामनगरं (जेणेव सिद्ध॥३४॥ त्थस्स खत्तियस्स गिहे ) यत्रैव सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य गृहं (जेणेव तिसला खत्तियाणी) यत्रैव त्रिशला क्षत्रियाणी (तेणेव उवागच्छइ) तत्रैव उपागच्छति (तिसलाए खतिआणीए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः १५ (सपरिअणाए) परिवारसहितायाः (ओसोवर्णि) अवस्खापिनी निद्रा (दलइ ) ददाति (दलित्ता )तां दत्वा च (असुभे पुग्गले अवहरइ) अशुभान् पुद्गलान् दूरीकरोति (अवहरित्ता) तथा कृत्वा (सुभे पुग्गले पक्खिवइ) शुभान पुगलान् प्रक्षिपति, (पक्खिवित्ता) प्रक्षिप्य च (समणं भगवं महावीरं ) श्रमणं भग-IN | वन्तं महावीरं ( अवाबाहं ) व्यावाधारहितं ( अबाबाहेणं) अव्याबाधेन-सुखेन ( दिवेणं पहावेणं) दिव्येन प्रभावेण (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (कुच्छिसि गन्भत्ताए) कुक्षौ गर्भतया (साहरइ) मुञ्चति, अत्र गर्भाशयात् गभाशये,गर्भाशयात् योनौ,योनेगर्भाशये, योनेर्योनौ इति गर्भसंहरणे KIचतुर्भङ्गी संभवति, तत्र योनिमार्गेण आदाय गर्भाशये मुञ्चतीत्ययं तृतीयो भङ्गोऽनुज्ञातः शेषाश्च निषिद्धाः ॥ ३४ ॥ श्रीभगवंतीसूत्रे (जेऽविअ णं से तिसलाए खत्तिआणीए गब्भे) योऽपि च तस्याः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्या: १ गर्भसंक्रमस्यापि कल्याणकता चेत् जन्ममहादिवत् स्वयं स्यात् कर्त्तव्यमिदं, न नियुक्तैः कारणीय, २-(भग० २१९ पत्रे सू० १८६) दीप अनुक्रम [२७] UaKEducation For F lutelu -93 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [૨૮] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२] मूल [२८] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: गर्भः पुत्रीरूपः (पिअ ) गर्भ (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (कुच्छिसि गन्भत्ताए) (कुक्षिविषये गर्भतया (साहरइ ) मुञ्चति ( साहरित्ता) मुक्त्वा च ( जामेव दिसिं पाउन्भूए) यस्याः एव दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः - आगतः (तामेव दिसिं पडिगए) तस्यां एवं दिशि पश्चाद्भुतः स देव इति ॥ (२७) । (ताए उक्किद्वार ) तथा अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया (तुरिआए ) चित्तौत्सुक्यवत्या ( चबलाए ) काय चापल्ययुक्तया ( चंडाए ) अत्यन्ततीत्रया (जयणाए ) सकलगतिजेच्या ( उदुआए ) ऊद्भुतया (सिग्धाए ) अत एव शीघ्रया ( दिवाए ) देवयोग्यया (देवगइए ) इदृश्या देवगत्या ( तिरिअमसंखिज्ञाणं ) तिर्यग असख्येयानां (दीवसमुद्दाणं मज्झमज्झेणं) द्वीपसमुद्राणां मध्यमध्येन - मध्यभागेन भूत्वा ( जोयणसयसाहस्तिएहिं) योजनलक्षप्रमाणाभिः (विग्गहे हिं) वींखाभिः - विग्रहैः- पदन्यासान्तरैः वींखाभिर्गतिभिरत्यर्थः (उप्पथमाणे) ऊर्ध्व उत्पतन् २ ( जेणामेव सोहम्मे कप्पे ) यत्र स्थाने सौधर्मे कल्पे ( सोहम्मवर्डिसए विमाणे ) सौधर्मावतंसकविमाने (सक्कसि सीहासणंसि ) शक्रनामनि सिंहासने (सक्के देविंदे देवराया ) शक्रो देवेन्द्रः देवराजोस्ति ( तेणामेव उवागच्छ ) तत्रैव स्थाने उपागच्छति ( उवागच्छित्ता ) उपागत्य च ( सकस्स देविंदस्स देवरन्नो ) शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य ( तमाणत्तिअं खिप्पामेव ) तां पूर्वोक्तां आज्ञां शीघ्रमेव ( पञ्चप्पि इ) प्रत्यर्पयति-कृत्वा निवेदयति स देव इति ॥ (२८) | 947 आज्ञात्रत्यर्पणं सू. २८ १० १३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान R] .......... मूलं [२९] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबो-IN व्या०२ प्रत सूत्रांक [२९] गाथा ॥१..|| (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान् संहरणकामहावीरः (जे से वासाणं तचे मासे) योऽसौ वर्षाणां-वर्षाकालसम्बन्धी तृतीयो मासः (पंचमे पक्खे) पञ्चमः | लादि मू. पक्षा, कोऽसौ ? इत्याह-(आसोअबहुले) आश्विनमासस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं आसोअबहुलस्स) आश्विनकृष्णपक्षस्य (तेरसीपक्वेणं) त्रयोदश्याः पक्षः पश्चाधरात्रिरित्यर्थः, तस्यां (यासीइ राईदिएहिं विकंतेहि व्यशीती अहोरात्रेषु अतिक्रान्तेषु (तेसीइमस्स राइंदिअस्स)यशीतितमस्याहोरात्रस्य (अंतरा वहमाणस्स) अन्तरकाले-रात्रिलक्षणे काले वर्तमाने (हिओणुकंपएणं) हितेन-वस्य इन्द्रस्य च हितकारिणा तथा अनुकम्पकेन-भगवतो भक्तेन, अनुकम्पायाश्च भक्तिवाचित्वं 'आयरिअअणुकंपाए गच्छो अणुकपिओ महाभागी इति वचनात्, (हरिणेगमेसिणा देवेणं) इदृशेन हरिणैगमेषिनामकेन देवेन (सक्कवयणसंदिउणं शक्रवचन-18 संदिष्टेन-प्रेषितेन (माहणकुंडग्गामाओ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् ( नयराओ) नगरात् ( उसभदत्तस्स माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( कोडालसगुत्तस्स)कोडालसगोत्रस्य (भारिआए देवाणंदाए माहणीएRI भार्याया देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ) कुक्षितः (खत्ति २४ १ मासपक्षादिदर्शनेन कल्याणकताभिसन्धिः सत्यसन्धाशून्यानामेव, कुत्रापि तादृशस्तल्लक्षणस्याश्रुतेः, किंच-मेघकुमारादीनां दीक्षावावपि तच्छुतेः, इन्द्रादिमहोत्सवस्तु नान गन्धतोऽपि २ हितानुकम्पकदेवकृतत्वेन न कल्याणकताया लेशोऽपि, कल्याणकस्य भक्तिमात्रविहितत्वात् ३ आचार्यभक्त्या महामागो गच्छो भक्तः (ओष. १२७ भाष्य) दीप अनुक्रम [२९] JanEducation -95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२९] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [२९] गाथा ||१..|| अकुंडग्गामे नयरे ) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खत्तिआणं ) ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां (सिद्धत्थस्स संहरणदखत्तियस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य ( कासवगुत्तस्स) काश्यपगोत्रस्य (भारिआए तिसलाए खत्तिआणीए शायां ज्ञाभार्यायास्त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (वासिट्ठसगुत्ताए) वाशिष्टगोत्रायाः (पुचरत्तावरत्तकालसमयंसि) मध्य-ISI नत्रर्य मू. रात्रकालसमये (हत्थुत्तराहिं नक्षत्तेणं) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे (जोगमुवागएणं) चन्द्रण सम्बन्धं उपागते (अवाबाह)पीडारहितं यथा स्यात्तथा(अबायाहेणं दिवेणं पहावेणं)अव्याबाधेन दिव्यप्रभावेण(कुञ्छिसि गम्भत्ताए साहरिए) कुक्षिविषये गर्भतया संहता-मुक्त इत्यर्थः । अत्र कवेरुत्प्रेक्षा-'सिद्धार्थपार्थिवकुलाप्तगृहप्रवेशे, मौहूर्त | मागमयमान इव क्षणं यः।रात्रिंदिवान्युषितवान् भगवान ह्यशीति, विद्यालये स चरमो जिनराट्र पुनातु ॥(२९)। | (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये च (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान महावीरः (तिन्नाणोवगए आवि हुत्था ) त्रिभिानैः उपगतः-सहितः अभवत्, (साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ) संहरिष्यमाण:-मां इतः संहरिष्यति इति जानाति, ( साहरिज्जमाणे नो जाणइ) संह्रियमाणः संहरणसमये न जानाति, (साहरिएमित्ति जाणइ) संहतोऽस्मीति च जानाति, ननु संह्रियमाणो न जानातीति। कथं युक्तं?, संहरणस्य असङ्ख्यसामयिकत्वात् भगवतश्च संहरणकर्तृदेवापेक्षया विशिष्टज्ञानवत्वात् , उच्यते, IS इदं वाक्यं संहरणस्य कौशलज्ञापकं, तथा तेन संहरणं कृतं भगवतः यथा भगवता ज्ञातमपि अज्ञातमिवाभूत पीडाऽभावात् , यथा कश्चिद्वदति त्वया मम पादासथा कण्टक उद्धृतो यथा मया ज्ञात एच नेति, सौख्यातिशये दीप अनुक्रम [२९] JanEducation -96 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३०] / गाथा [१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३०] गाथा कल्प.सुबोव्या०२ ॥३६॥ च सत्येवंविधो व्यपदेशः सिद्धान्तेऽपि दृश्यते, तथाहि-'तहिं देवा वंतरिआ, वरतरुणीगीअवाइअरवेणं । निचं मुहिअपमुइया, गयंपि कालं न याति ॥१॥ इत्यादि, तथा च 'साहरिज्जमाणेचि जाणइ' (३९९ सू०) इत्याचाराङ्गोक्तेन विरोधोऽपि न स्यात् , इति मन्तव्यम् ॥ (३०)॥ (जं रयणि च णं) यस्यां च रात्री (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान् महावीरः ( देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए ) जालंधरसगोत्रायाः ( कुच्छिओ ) कुक्षितः (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (वासिहसगुत्ताए ) वाशिष्टगोत्रायाः (कुञ्छिसि गन्भत्ताए साहरिए) कुक्षी गौतया मुक्तः (तं रयणि च णं) तस्यां एव रात्री (सा देवाणंदा माहणी) सा देवानन्दा ब्राह्मणी (सयणिजंसि) शय्यायां (मुत्तजागरा) सुप्तजागरा (ओहीरमाणी ओहीरमाणी) अल्पनिद्रां कुर्वती (इमे एयारूवे उराले) इमान् एतद्रूपान् प्रशस्तान् (जाव चउद्दस महामुमिणे) यावत् चतुर्दश महाखमान् (तिसलाए खत्तिआणीए हडे पासित्ता णं पडिबुद्धा) त्रिशलया क्षत्रियाण्या हता इति दृष्ट्वा जागरिता, (तंजहा) तद्यथा (गयवसह गाहा) 'गयवसह' इति गाथाऽत्र वाच्या ॥ (३१)॥ (जं रयणि च णं) यस्यां च रात्री (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ) कुक्षितः (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (वासिहसगुत्ताए) वाशिष्टसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गन्भ 839999900090930angrass दीप अनुक्रम [३१] -97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [२] ......... मूलं [३३] / गाथा [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३३] गाथा त्साए साहरिए) कुक्षौ गर्भतया मुक्तः (तं रयणिं च णं) तस्यां रजन्यां (सा तिसंला खत्तिआणी) वासगृहशसा त्रिशला क्षत्रियाणी (तसि) तस्मिन् (तारिसगंसि) तादृशे-वक्तुं अशक्यस्वरूपे महाभाग्यवतां योग्ये यनीयवणेनं (वासघरंसि) वासगृहे, शयनमन्दिरे इत्यर्थः, किंविशिष्टे वासगृहे ? अन्भितरओ सचित्तकम्मे ) मध्ये सू. ३३ चित्रकर्मरमणीये, पुनः किंवि०? (बाहिरओ) बाघभागे (दुमिअ) सुधादिना धवलिते (घ४) कोमलपाषाणादिना घृष्टे, अत एव (मढे) सुकोमले, पुनः किंवि०१-(विचित्तउल्लोअचिल्लिअसले) विचित्रो-विविधचि-IN कलित उल्लोक-उपरिभागो यत्र तत्तथा (चिल्लिअ) देदीप्यमानः (तलः) अधोभागो यत्र तत्तथा ततः कर्मधारये विचित्रोल्लोकचिल्लिअतले, पुनः किंवि० १ (मणिरयणपणासिअंधयारे) मणिरत्नप्रणाशितान्धकारे, पुन: किंवि० (बहुसमत्ति) अत्यन्तं सम:-अविषमः पञ्चवर्णमणिनिषद्धत्वात् (सुविभत्तत्ति) सुविभक्का-विवि|धस्वस्तिकादिरचनामनोहर: एवंविधो (भूमिभागे) भूमिभागो यत्र तस्मिन, पुनः किंवि०१ (पंचवन्नसरससुरहिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिए ) पश्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा 'मुक्क'त्ति इतस्ततो विक्षिप्तेन ईदृशेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण-पूजया कलिते, पुनः किंचि०१(कालागुरुत्ति) कृष्णागरु प्रसिद्धं (पवरकुंदुरुक्कत्ति) विशिष्ट चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः (तुरुकत्ति) तुरुष्क-सिल्हकाभिधानं सुगन्धद्रव्यं (डझंतधूवत्ति) दह्यमानो धूपो-दशाङ्गादिरनेकसुगन्धद्रव्यसंयोगसमुद्भूतः एतेषां वस्तूनां सम्बन्धी यो (मघमघंतत्ति) मघमघायमानोऽपतिशयेन गन्धवान् (गंधुद्धआभिरामे) उद्भूत:-प्रकटीभूतः एवंविधो यो गन्धस्तेनाभिरामे, पुनः किंवि• I दीप अनुक्रम [३५] शल्प.पु. For F lutelu -987 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान R] ........ मूलं [३३] / गाथा [१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३३] गाथा कल्प.सबो-(सुगंधवरगंधिए) सुगन्धा:-सुरभयो ये वरगन्धा:-प्रधानचूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तत् तथा तस्मिन् , पुनःबास च्या० २ किंवि० ? (गंधवधिभूए) गन्धवर्तिः-गन्धद्रव्यगुटिका तत्सदृशेऽतिसुगन्धे इत्यर्थः, एतादृशे वासभवने, अथानीयवर्णन कातिंसि तस्मिन् (तारिसगंसि)तादृशे-वक्तुं अशक्यखरूपे महाभाग्यवतां योग्ये (सयणिज्जंसि)शय-IN ॥ ३७॥ नीये, पल्यके इत्यर्थः, इदं विशेष्यं, किंविशिष्टे?-(सालिंगणवट्टिए) सालिङ्गनवर्तिके-आलिङ्गनवर्तिका नाम शरीरप्रमाणं दीर्घ गण्डोपधानं तया सहिते, पुनः किंवि०? (उभओ) उभयतः-शिरोऽन्तपादान्तयोः। HO (पिब्बोअणे) उच्छीर्षके यत्र तत्तथा तस्मिन् , पुनः किंवि०? (उभओ उन्नए) यत उभयत उच्छीषेकयुक्ते अत एव उभयत उन्नते, पुनः किंवि०? (मज्झे णयगंभीरे) तत एव मध्ये मते गम्भीरे च, पुन: किंवि०१| (गंगापुलिणवालुआउद्दालसालिसए) तत्र 'उद्दाल'त्ति उद्दालेन-पादविन्यासे अधोगमनेन गङ्गातटवालुकासदृशे, अयमर्थः-यथा गङ्गापुलिनवालुका पादे मुक्त अधो ब्रजति तथा अतिकोमलवात् स पल्यकोऽपीति ज्ञेयं, पुनः किंवि०?(उवचिअत्ति)परिकर्मितं (खोमिअत्ति) क्षोम-अतसीमयं (दुगुल्लपट्टत्ति) दुकूलं-वस्त्रं तस्य यः पट्टो-युगलापेक्षया एकपः तेन (पडिच्छन्ने ) आच्छादिते, पुनः किंवि०? (सुविरइअरयत्ताणे) सुष्टु । २५ शविरचितं रजखाणं-अपरिभोगावस्थायां आच्छादनं यत्र तस्मिन् , पुनः किंवि०१ (रसंसुअसंवुडे) रक्तांशु- ॥३७ ।। केन-मशकगृहाभिधानेन रक्तवस्त्रेणाच्छादिते तथा (सुरम्मे) अतिरमणीये, पुनः किंवि०? (आइणगरूअ-8 बूरनवणीअतूलतुल्लफासे) आजिनक-परिकर्मितं चर्म रूतं-कर्पासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-म्रक्षणं | २८ दीप अनुक्रम [३५] -99 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] ......... मूलं [३३] / गाथा [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [३३] गाथा ॥३२॥ II तूल-अर्कतूल एभिः तुल्पः-समानः स्पर्शो यस्य स तथा तस्मिन्, एतद्वस्तुवत्कोमले इत्यर्थः, पुनः किंवि. गजस्वप्नव (सुगंधवरकुसुमचुन्नसयणोवयारकलिए) सुगन्धवरैः-अतिसुगन्धैः कुसुमैः चूर्णैः-वासादिभिश्च यः शयनो- नं सू.३३ पचार:-शय्यासंस्क्रिया तेन कलिते, कुसुमैः चूर्णैश्च मनोहरे इत्यर्थः, (पुब्बरतावरत्तकालसमयंसि) मध्यरात्रकालप्रस्तावे ( सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी) सुप्तजागरा-अल्पनिद्रां कुर्वती २ (इमे एयारूवे) इमान् एतद्रूपान् (उराले ) प्रशस्तान (जाव चउद्दस महामुमिणे ) यावत् चतुर्दश महास्वमान् (पासित्ता गं पडिबुन्हा ) दृष्ट्वा जागरिता, (तंजहा) तद्यथा-गय १ वसह २ सीह ३ अभिसेअ ४ दाम ५ ससि ६ दिण-12 पायरं ७ सयं ८ कुंभं । पउमसर १० सागर ११ विमाण-भवण १२ रयणुचय १३ सिहिं च १४ ॥१॥ इयं गाथा| 8सुगमा । (तए णं सा तिसला खत्तिआणी) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (तप्पढमयाए) तत्प्रथमतया प्रथमं इत्यर्थः इमं स्वमे पश्यतीति सम्बन्धः, अत्र प्रथमं इभं पश्यतीति यदुक्तं तत् बहीभिर्जिनजननीभिस्त-IIS Rथादृष्टत्वात् पाठानुक्रममैपेक्ष्योक्तं, अन्यथा ऋषभमाता प्रथमं वृषभं वीरमाता च सिंह ददर्शति, अथ कीदृशं इभं पश्यति ?-(चउहंतत्ति ) चत्वारो दन्ता यस्य स चतुर्दन्तस्तं, कचित् 'तओअचउइंत' इति पाठस्तत्र ततो जसो-महाबलवन्तश्चत्वारो दन्ता यस्येति व्याख्येयं, पुनः कीदृर्श ?-( उसिअत्ति ) उछित-उत्तुङ्गस्तथा (गलिअII १ एवं पञ्चकल्याणकपाठोऽपि बाहुल्यापेक्षयेति वचस्तु कल्पनोनवत्वेन न मानं, यथाऽऽवश्यकादौ स्वमदर्शनविषये स्पष्ट उल्लेखः 18न तथा पट्कल्याणकगन्धोऽपि जिनवल्लभात् प्राक्, प्रत्युत पञ्चाशके श्रीवीरस्यैव परिगणितानि पञ्च कल्याणकानि दीप अनुक्रम [३५] JABEducation ... भगवन्त माता-त्रिशालाया: दृष्ट १४ स्वप्नानाम दर्शनं एवं स्वप्नानाम् फ़ल-कथनं - 100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३३] / गाथा [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [३३] गाथा कल्प.सुबो-18 विपुलजलहर ) गलितो-वर्षणादनन्तरकालभावी, स हि दुग्धवर्णों भवति, एवंविधो यो विपुलजलधरो-महा गजखमवव्या.२ मेघस्तथा (हारनिकरत्ति) पुञ्जीकृतो-मुक्ताहारः (खीरसागरत्ति) दुग्धसमुद्रः (ससंककिरणत्ति) चन्द्रकिरणाःणनं म.३३ 18(दगरयत्ति) जलकणाः (रययमहासेलपंडुरं) रजतस्य-रूप्यस्य महाशैलो-महान् पर्वतो वैतापः तद्वत्पाण्ड, तच उच्छ्रितश्चासौ पूर्वोक्तसर्ववस्तुवत्पाण्डुरश्चेति कर्मधारयः ततस्तं, पुनः कीदृशं?-(समागयत्ति)समागतागन्धलोभेन मिलिताः (महुअरत्ति) मधुकरा-भ्रमरा यत्र तादृशं यत् (सुगंधत्ति) विशिष्टगन्धाधिवासित (दाणत्ति मदवारि तेन (वासिअति सुरभीकृतं (कवोलमूलं) कपोलयोमुलं यस्य स तथा तं, तस्य। कपोलमूलं दानवासितं अस्ति तद्गन्धेन भ्रमरा अपि तत्र मिलिताः सन्तीति भावः, पुनः कीदृशं? (देवरायकुंजरवरप्पमाणं) देवराजो-देवेन्द्रस्तस्य कुञ्जरो-हस्ती तद्वत् वरं-शास्त्रोक्तं प्रमाणं-देहमानं यस्य स तथा तं (पिच्छह ) प्रेक्षते-पश्यतीति, इदं क्रियापदं 'इभ इत्यनेन पूर्व योजितं, पुनः कीदृशं ? (सजलघणविपुलजलहरगजिअगंभीरचारुघोस) सजलो-जलपूर्णस्तस्य हि ध्वनिर्गम्भीरो भवति एवंविधो यो घनो-निविडो विपुलजलधरो-महामेघस्तस्य यद्गार्जितं तद्वत् गम्भीरश्चारु:-मनोहरश्च घोषः-शब्दो यस्य स तथा तं, महामेघवत् स गजो गर्जतीति भावः, (इभं) गज, इदं विशेष्यं, पुनः कीदृशं ? (सुभं) शुभ-प्रशस्य, पुनः ॥३८॥ कीदृशं? (सब्बलक्षणकयंवि) सर्वलक्षणानां कदम्ब:-समूहस्तज्जातं यस्य स तथा तं, पुनः कीदृशं? PRI( बरोक) वर:-प्रधान: उरु:-विशालश्च, एवंविधं हस्तिवरं प्रथमे खमे त्रिशला पश्यतीति १॥ (३३)। दीप अनुक्रम [३५] JanEducation Fur & Fonte ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [३४] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: वर्णनं स. प्रत सूत्रांक [३४] गाथा ||१..|| (तओ पुणो) ततः पुनः-गजदर्शनानन्तरं वृषभं पश्यतीति सम्बन्धः, अथ किंविशिष्टं वृषभ ! (धवल-18 कमलपत्तत्ति) धवलानां-उज्ज्वलानां कमलानां यानि पत्राणि तेषां (पयरत्ति) प्रकर:-समूहस्तस्मात् (अइरेगत्ति) अतिरेका-अधिकतरा (स्वप्पमं) रूपप्रभा-रूपकान्तिर्यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१(पहासमुदओवहारेहिं ) प्रभा-कान्तिस्तस्याः समुदया-समूहस्तस्य उपहारा-विस्तारणानि तैः (सव्वओ) सर्वतो-दशापि दिशः (चेव) निश्चयेन (दीवयंत) दीपयन्तं-शोभयन्तं, पुनः किंवि०१ (अइसिरिभरत्ति) अतिशयितः श्रीभरः-शो|भासमूहस्तेन कृता या (पिल्लणा) प्रेरणा, उत्प्रेक्ष्यते तयैव (विसप्पंतत्ति) विसर्पत-उल्लसत् अत एव (कंतत्ति) IS कान्तं-दीप्तिमत् तत एव ( सोहंतत्ति) शोभमानं ( चारु)मनोहरं (ककुहं ) ककुदं-स्कन्धो यस्य स तथा तं, 18 अपमर्थ:-यद्यपि स्कन्ध उन्नतस्वात् खयमेव उल्लसति तथापि अतिश्रीभरप्रेरणयेव उल्लसतीत्युत्प्रेक्ष्यते, पुन: किवि०१(तणुसुद्धसुकुमालत्ति) तनूनि-सूक्ष्माणि शुद्धानि-निर्मलानि सुकुमालानि ईशानि यानि (लोमत्ति) रोमाणि तेषां (णिद्धछविं) लिग्धा-सस्नेहा न तु रूक्षा छवि:-कान्तिर्यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१ (थिर-11 सुबद्धत्ति) स्थिरं-दृढं अत एव सुबद्धं (मंसलोवचिअ)मांसयुक्तं अत एव 'उवचिय'त्ति पुष्टं (लद्वत्ति)लष्टं-प्रधानं (सुविभत्तत्ति) सुविभक्तं यथास्थानस्थितसर्वावयवं, ईदृशं (सुंदरंग) सुन्दरं अहं यस्य स तथा तं, (पिच्छह) सा त्रिशला प्रेक्षते इदं क्रियापदं, पुनः किंवि०१ (घणवदृत्ति) घने-निचिते वृत्ते-घर्तुले (लट्टउक्किहत्ति) लष्टात्प्रधानादपि उत्कृष्ट अतिप्रधाने इत्यर्थः (तुप्पग्गत्ति ) म्रक्षिताने(तिक्खसिंग) तीक्ष्णे ईदृशे शृङ्गे यस्य स तथा दीप अनुक्रम [३६] Furniste AFennaiUse Cily ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [३५] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३५] गाथा ||१..|| कल्प.सबो-18|तं, पुनः किंवि.?(दंत) दान्तं-अकरं (सिवं) उपद्रबहरं, पुन: किंवि०१ (समाणसोहंतसुद्धदंत) समाना:- सिंहस्वप्नवव्या०२ तुल्यप्रमाणाः अत एव शोभमानाः श्वेता निर्दोषा वा दन्ता यस्य स तथा तं, पुन: किंवि०? (अमिअगुणम- र्णनं सू. ३५ गलमुहं ) अमिता गुणा येभ्य एवंविधानि यानि मङ्गलानि तेषां मुखं-द्वारं आगमनकारणमित्यर्थः २.॥ (३४)॥ (तओ पुणो) ततः पुनर्वृषभदर्शनानन्तरं सा त्रिशला सिंह पश्यति, अथ किंविशिष्टं सिंहं ? ( हारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरं ) हारनिकरक्षीरसागरशशाङ्ककिरणदकरजोरजतमहाशै-1 ला:-पूर्व व्याख्यातास्तद्वत्पाण्डुरं-उज्ज्वलं, पुनः किंवि० ? (रमणिज्जपिच्छणिज्ज) रमणीयं-मनोहर अत एव प्रेक्षणीयं-द्रष्टुं योग्यं, पुनः किंवि०१ (थिरलट्टत्ति ) स्थिरौ-दृढौ-अत एव लष्टौ-प्रधानौ (पत्ति ) प्रकोष्टी-कलाचिके 'पउंचा' इति लोकप्रसिद्धौ हस्तावयवौ यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१(वत्ति) वृत्ताः-18 वर्तुलाः (पीवरत्ति) पीवरा:-पुष्टाः (सुसिलिट्टत्ति) मुश्लिष्टा-अन्योऽन्यं अन्तररहिताः अत एव (विसिट्टत्ति विशिष्टाः-प्रधानाः(तिक्खत्ति) तीक्ष्णा एवंविधा याः(दादा) दंष्टास्ताभिः (विडंविअमुह) विडम्बितं कोऽर्थे ?-अलककृतं, मुखं यस्य स तथा तं, ततो विशेषणकर्मधारयः, पुनः किंवि० १ (परिकम्मिअत्ति) परिकर्मि- २५ ताविव परिकर्मिती (जच्चकमलकोमलत्ति)जात्यं-उत्तमजातिसम्भवं यत्कमलं सद्बत् कोमलौ, तथा (पमाण-18॥३९॥ सोभंतसि) यथोक्तमानेन शोभमानी तथा (लट्टउटुं) लष्टी-प्रधानी एवंविधौ ओष्ठौ यस्य स तथा तं, पुनः किवि० ? (रत्तुप्पलपत्तत्ति) रक्तोत्पलं-रक्तकमलं तस्य यत् पत्रं तद्वत् ( मउअसुकुमालतालुत्ति) मृदुसुकुमालं|| २८ दीप अनुक्रम [३७] JanEducation ~103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३५] | गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३५] गाथा ||१..|| ताल, तथा (निल्लालिअग्गजीह निर्लोलिता-लपलपायमाना अय्या-प्रधाना जिह्वा यस्य, कोऽर्थः १-उक्त-18सिंहस्वप्नवसाखरूपं तालु उक्तरूपा जिह्वा च विचते यस्य स तथा तं, पुनः किवि०? (मूसागयपवरकणगताविअआवत्ता- म.३५ तबदृत्ति) मूषा-मृन्मयभाजनं यत्र सुवर्णकारेण सुवर्ण प्रक्षिप्य गाल्यते, तस्यां स्थितं तापितं आवतोयमाकान-प्रदक्षिणं भ्रमत् एवंविधं यत् प्रवरकनकं तद्वत् वृत्ते (तडिविमलसरिसनयणं) विमला या तडित-विद्यत तत्सदृशे नयने-लोचने यस्य स तथा तं, पुन: किंविशिष्टं ? (विसालपीवरवरोरु) विशालो-विस्तीणों पीवरौ-पुष्टौ वरी-प्रधानौ उरू यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१(पडिपुन्नविमलखंघ) प्रतिपूर्ण:-अन्यूनः विमलश्च स्कन्धों यस्य स तथा तं, पुन: किंवि०? (मिउबिसयत्ति) मृदनि-सुकमाराणि विशदानि-धवलानि (सहमत्ति) सूक्ष्माणि (लक्खणपसत्यत्ति) प्रशस्तलक्षणानि (विच्छिण्णत्ति) विस्तीर्णानि-दीर्घाणि (केसराडोवसोहिअं) केसराणि-स्कन्धसम्बधिरोमाणि तेषां आटोप-उद्धृतत्वं तेन शोभितं, पुन: किंचि.? (उसिअसुनिम्मिअसुजायत्ति) उच्छ्रितं-उन्नतं सुनिर्मितं-कुण्डलीकृतं सुजातं-सशोभ यथा स्यात्तथा (अप्फोडिअलंगूल) आस्फो-18 टितं लाल-पुच्छं येन स तथा तं, तेन पूर्व लाडूलं आस्फोव्य पश्चात् कुण्डलीकृतमिति भावः, पुनः किंवि० ? (सोमं) सौम्य-मनसा अक्रूर ( सोमागारं) सौम्याकार-सुन्दराकृतिमित्यर्थः, पुनः किंधि० ? (लीलायंत) सविलासगति, पुन: किंवि०१ (नहयलाओ उवयमाणं) आकाशतलात् अवपतन्तं-अधस्तादुत्तरन्तं, ततश्च (नियगवयणमइवयंतीनिजकवदनमैनुप्रविशन्तं (पिच्छह सा)प्रेक्षतेसा त्रिशला, पुनः किंवि० (गाढतिक्खग्ग-1 दीप अनुक्रम [३७] .. Fur FB Fanatec INEnjaneibrary.org ~ 104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान R] .......... मूलं [३६] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| कल्प.सपो-18नह) गाई-अत्यन्तं तीक्ष्णानि अग्राणि येषां एवंविधा नखा यस्य स तथा तं (सी) केसरिणं इति विशेष्य, 3 व्यापुना किंवि० (चयणसिरित्ति) वदनस्य श्री:-शोभा तदर्थ (पल्लवपत्तत्ति) पल्लववत् प्रसारिता(चारुजीह) मनो-Aषेकवर्णन हरा जिह्वा येन स तथा तं ३॥ (३५)॥ ॥४०॥ I (तओ पुणो) ततः पुन:-सिंहदर्शनानन्तरं (पुन्नचंदवयणा) पूर्णचन्द्रवदना त्रिशला भगवतीं श्रियं-श्रीदे-IN वतां पश्यतीति योजना, अथ किंविशिष्ठां तां? (उच्चागयठाणलट्ठसंठिअं) उच्चो योगः-पर्वतो हिमवान् तत्र जातं उच्चागज एवंविधं लष्ट-प्रधानं यत् स्थानं-कमललक्षणं तत्र संस्थितां, तचैव-एकशतयोजनो१००च्चो द्वादशकलाधिकद्विपश्चाशद्योजनोत्तरयोजनसहस्र १०५२१२ पृथुलः वर्णमयो हिमवन्नामा पर्वतः, तदुपरि च दशयोजनावगाढः पञ्चशतयोजनपृथुलः सहस्र१०००योजनदीपों वज्रमयतलभागः पद्मइदनामा हृदः, तस्य मध्यभागे जलात् क्रोशद्वयोचं,एकयोजनपृथुलं एकयोजनदी, नीलरत्नमयदशयोजननालं बज्रमयमूलं रिष्ट-16 रत्नमयकन्दं रक्तकनकमयबाह्यपत्रं कनकमयमध्यपत्रं एवंविधं एकं कमलं, तस्मिन् कमले च क्रोशक्यपृथुला कोशद्वपदीर्घा, एकक्रोशोचा रक्तसुवर्णमयकेसराविराजिता एवंविधा कनकमयी कर्णिका, तस्या मध्ये च भघे॥क्रोशपथुलं एकक्रोशदीर्घ किंचिदूनकक्रोशोचं,श्रीदेवीभवनं, तस्य च त्रीणि द्वाराणि पश्चशतधनुरुचानि, तद धमानपृथुलानि पूर्वदक्षिणोत्तरदिकस्थितानि, अथ तस्य भवनस्य मध्यभागे सार्धशतद्यधनुर्मिता रत्नमयी ॥४॥ | वेदिका, तदुपरि च श्रीदेवीयोग्या शय्या, अथ तस्मान्मुख्यकमलात्परितश्च श्रीदेव्या आभरणभृतानि वलया-1 दीप अनुक्रम [३८] U090 २८ ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३६] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| काराणि पूर्वोक्तमानादर्धमानोचत्वदीर्घत्वपृथुत्वानि अष्टोत्तरशतकमलानि, एवं सर्वेष्वपि वलयेषु क्रमेणार्धा- वलयपूरि मानत्वं ज्ञेयं, इति प्रथमं वलयम् , द्वितीयवलये वायव्येशानोत्तरदिक्षु चतुःसहस्रसामानिकदेवानां चतुःसहस्री वारवर्णनं | कमलानां, पूर्वदिशि चत्वारि महत्तराकमलानि, आग्नेय्यां गुरुस्थानीयर्याभ्यन्तरपर्षदेवानां अष्टसहस्रकमलानि, |सू. ३६ दक्षिणदिशि मित्रस्थानीयमध्यमपर्षद्देवानां दशसहस्रकमलानि, नैर्ऋत्यां किङ्करस्थानीयवाह्यपर्षदेवानां द्वादशसहस्रकमलानि, पश्चिमायां च हस्ति १ तुरङ्गम २ रथ ३ पदाति ४ महिष ५ गन्धर्व ६ नाट्य ७ रूपसप्तकटकनायकानां सप्त कमलानि, इति द्वितीयं वलयम्, ततस्तृतीये वलये तावतां अङ्गरक्षकदेवानां षोडशसहस्रकमलानि, इति तृतीयम् वलयं, अथ चतुर्थे वलये अभ्यन्तराभियोगिकदेवानां द्वात्रिंशल्लक्षकमलानि, पश्चमे वलये मध्यमाभियोगिकदेवानां चत्वारिंशल्लक्षकमलानि, षष्ठे वलये बाह्याभियोगिकदेवानां अष्टचत्वारिंशल्ल-18 क्षकमलानि, सर्वसंख्यया च मूलकमलेन सह एका कोटिविशतिर्लक्षाः पञ्चाशत् सहस्राः शतमेकं विंशतिश्च । १२०५०१२० कमलानामिति । अथ एवंविधं यत्कमललक्षणं स्थानं तत्र स्थितां, पुनः किंवि०१ (पसत्थरूवं) प्रशस्तरूपां-मनोहररूपां इत्यर्थः, पुनः किंवि०१ (सुपइहिअत्ति) सुप्रतिष्ठितौ-सम्यक्तया स्थापितौ यौ(कणगमयकुम्मत्ति) कनकमयकच्छपी तयोः (सरिसोवमाणचलणं) सहशं-युक्तं उपमानं ययोः एवंविधौ चरणी यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि०१ (अच्चुन्नयत्ति) अत्युन्नतं तथा (पीणत्ति) पीनं-पुष्टं यत् अङ्गुष्ठादि अगं, तत्र स्थिताः (रहा) रञ्जिता इव, अयमर्थ:-श्रीदेव्याः खयमेव नखास्तथा रक्ताः सन्ति यथा उत्प्रेक्ष्यन्ते दीप अनुक्रम [३८] JanEducation प msanelibrary.org - 106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [३६] | गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: व्या०२ प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- लाक्षादिना रञ्जिता इव (मंसलउवचिअत्ति) मांसयुक्ताः तत एव उपचिताः-पुष्टाः (तणुतंवणिद्धनह) तनवः- श्रीदेवीव सूक्ष्माः न तु स्थूलाः ताम्रा-अरुणाः,स्निग्धाः-अरुक्षा,नखा यस्याः सा तथा तां, पुन: किंवि०? (कमल- नं मू.३६ | पलाससुकुमालंकरचरणं) कमलस्य पलाशानि-पत्राणि तद्वत् सुकुमालं करचरणं यस्याः सा तथा तां (कोमलवरंगुलि) कोमला अत एव वरा:-श्रेष्ठाः अङ्गुलयो यस्याः सा तथा तां, ततो विशेषणसमासः, पुनः किंचि.? (कुरुविंदावत्तत्ति) कुरुविन्दावर्त-आवर्त्तविशेष आभरणविशेषो वा तेन शोभिते (वडाणुपुवत्ति) वृत्तानुपूर्वे, IST कोऽर्थः-पूर्व बहुस्थूले ततः स्तोकं स्तोकं स्थूले करिकरवत् (जंघ) ईदृशे जो यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि०१13 (निगूढजाणुं) निगूढे-गुप्ते जानुनी यस्याः सा तथा तां, पुन: किंवि०१ (गयवरकरसरिसपीवरोसँ) गजवरोगजेन्द्रस्तस्य कर:-शुण्डा तत्सदृशे पीवरे-पुष्टे उरू यस्याः सा तथा तां, उरुशब्देन लोके 'साथल' इत्युच्यते, पुनः किंवि०? (चामीकररइअमेहलाजुत्तं ) सुवर्णरचिता-सुवर्णमयी इत्यर्थः एवंविधा या मेखला तया युक्तं, काअत एव (कंतविच्छिन्नसोणिच) मनोहरं विस्तीर्ण श्रोणिचक्र-कटितट यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि०१। (जच्चंजणत्ति) जात्याञ्जनं-मर्दितं तैलादिना अञ्जनं (भमरजलयपयरत्ति) भ्रमराणां-प्रसिद्धानां जलदानां च- २५ मेघानां या प्रकर:-समूहः तत्समानवर्णतया जात्याञ्जनभ्रमरजलदप्रकर इव (उजुअसमसंहिअत्ति) ऋजुकाIS प्रध्वरा अत एव समा-अविषमा संहिता-निरन्तरा.(तणुअआहज्वलडहति)तनुका-सूक्ष्मा आदेया-सुभगा, |लटभा-विलासमनोहरा (सुकुमालमउअत्ति) सुकुमालेभ्यः-शिरीषपुष्पादिवस्तुभ्योऽपि मृदुका तत एव (रम-11 २८ दीप अनुक्रम [३८] SIaneloraryana ~107 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३६] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१.॥ णिज्जरोमराई) रमणीया रोमराजिर्यस्याः सा तथा तां, पुनः किंचि? (नाभिमंडलसुंदरविसालपसत्थजघणं श्रीदेवीवनाभिमण्डलेन सुन्दरं विशालं-विस्तीर्ण प्रशस्तं-लक्षणोपेतं एवंविधं जघनं-अग्रेतनकव्यधोभागो यस्याः सातथा नं .३६ तां, पुनः किंवि० १ (करयलमाइअत्ति) करतलमेयो-मुष्टिग्राह्य इत्यर्थः (पसत्थतिवलिअत्ति) प्रशस्ता त्रिवलिः-IS तिनो बल्यो रेखा यत्रैवंविधो (मज्झं) मध्यभाग-उदरलक्षणो यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि० ? (नाणामणिकणगरयणत्ति) नानाजातीया मणया-चन्द्रकान्तप्रभृतयः, कनक-पीतवर्ण सुवर्ण,रत्नानि-वैडूर्यप्रभृतीनि (विमलमहातवणिजत्ति ) विमलं-निर्मलं, महत्-महाजातीयं एवंविधं तपनीयं-रक्तवर्ण सुवर्ण, एतत्सम्बन्धीनि यानि (आभरणभूसणत्ति) आभरणानि-अङ्गपरिधेयानि अवेयककङ्कणादीनि, भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि मुद्रिकादीनि तैः (विराइअमंगुवंगि) विराजितानि अङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि उपाङ्गानि-अङ्गुल्यादीनि, यस्याः सा तथा तां, कोऽर्थ:-आभरणैः श्रीदेव्या अङ्गानि भूषितानि सन्ति भूषणैश्च उपादानीति, पुनः किंवि० (हारविरायंतत्तिाहा रेण-मौक्तिकादिमालया विराजत्-शोभमानं (कुंदमालपरिणत्ति) कुन्दादिपुष्पमालया परिण -व्यासं (जलशिजलिंतत्ति) जाज्वल्यमानं-देदीप्यमानं एवंविधं यत् (थणजुअलविमलकलसं) स्तनयुगलं, तदेव सदृशाकारतया विमली कलशौ यस्याः सा तथा तां, अनेन च अभेदरूपकालंकारेण कनककलशवत् पीनी-कठिनी वृत्ती । श्रीदेव्याः स्तनौ बरोते इत्यर्थः सूचितः, पुनः किंवि० ?(आइअपत्तिअत्ति) आयुक्ताभिः-यथास्थानस्थापिताभिः | पत्रिकाभि:-मरकतपत्रः 'पानां' इतिलोकप्रसिद्धैः (विभूसिएणं) विभूषितेन अलङ्कृतेन (सुभगजालुज्ज-18 १४ दीप अनुक्रम [३८] Pasasses Fur & Fonte ~ 108 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान २] .......... मूलं [३६] | गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| कल्प.सुयो-शालेणंसुभगानि-दृष्टिसुखकराणि यानि जालानि-मुक्तागुच्छानि,तैः उज्ज्वलेन, एवंविधन (मुसाकलावए-श्रीदेवीवव्या०२ ण) मुक्ताकलापकेन-मौक्तिकहारेण शोभितां, अन्न शोभितां इतिपदं सूत्रे अनुक्तं अपि अध्याहार्य, एवं अग्रणेनं मू.३६ ॥४२॥ विशेषणदयेऽपि, पुनः किंवि०१ (उरस्थदीणारमालविरइएणं) उरःस्थया-हृदयस्थितया, दीनारमालया-सीवKIणिकमालया विराजितेन (कंठमणिसुत्तएणं) कण्ठमणिसूत्रकेन च-कण्ठस्थरत्नमयदवरकेण, शोभितां इति| पूर्ववत्, पुनः किंवि०? ( कुंडलजुअलुल्लसंतअंसोवसत्तसोभंतसप्पमेणं ) तत्र ईदृशेन शोभागुणसमुदयेनकान्तिगुणप्रारभारेण शोभितां इति योजना, अथ कीदृशेन शोभागुणसमुदयेन ?, अत्र 'अंसोवसत्त' इतिपदं प्राक योज्यं ततः 'अंसोवसत्त'त्ति अंसयोः-स्कन्धयोः, उपसक्तं-लग्नं, यत् कुण्डलयोयुगलं तस्य 'उल्लसं. त'त्ति-उल्लसन्ती सोभंत 'त्ति-शोभमाना अत एव 'सत्ति सती-समीचीना 'पभ 'सि प्रभा-कान्तिर्यस्मिन् एवंविधेन (सोभागुणसमुदएणं) शोभागुणसमुदयेन, पुनः कीदृशेन शो ? (आणणकुडंथिएणं) आननस्य-मुखस्य कौटुम्बिकेनेव, यथा राजा कौटुम्बिकैः-सेवकैः शोभते एवं श्रीदेव्या आननं तेन शोभागुणसमुदयेनेति भावः, अत्र 'उल्लसंत'त्ति 'सोभन्ते'त्यादीनि शोभागुणसमुदयस्य विशेषणानि 'अंसोवसत्ते'ति च कुण्डलयुगलविशेषणं, ननु तर्हि प्रभागुणसमुदयविशेषणयोर्मध्ये कुण्डलयुगलविशेषणं कथं न्यस्तं ? तथा ॥ ४२ ॥ 'अंसोवसत्ते' त्यस्य कुण्डलयुगलात् परनिपातश्च कथं? अंसोवसत्तकुंडलजुयलुल्लसंतेति पाठः कथं न कृत इति । चे, उच्यते, प्राकृतत्वात् अन्यविशेषणमध्येऽप्यन्यविशेषणावतारो विशेषणस्य परनिपातश्च भवति, एवं दीप अनुक्रम [३८] २५ २८ JanEducation Fur F ate ~109 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३६] | गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| सर्वत्र विशेषणपरनिपाते हेतु यः, पुनः किंविशिष्टां श्रीदेवतां ?-- कमलामलविसालरमणिज्जलोअर्णि) श्रीदेव्यकमलवत् अमले-निर्मले विशाले-विस्तीर्णे,रमणीये-मनोहरे च लोचने,यस्याः सा तथा तां, पुन: किंवि० ?- भिषेका (कमलपज्जलंतकरगहिअसि) तत्र पूर्ववत् प्राकृतत्वात् विशेषणस्य परनिपातः, ततः प्रज्वलन्ती-देदीप्यमानी यो करौ-हस्तौ ताभ्यां गृहीते ये कमले ताभ्यां (मुक्कतोयं ) मुक्तं-क्षरत्तोयं-मकरन्दरूपं जलं.यस्याः सा तथा ता, अयमर्थ:-श्रीदेव्या तावद् द्वयोः करयोः प्रत्येकं कमलं गृहीतमस्ति, तस्माच मकरन्दविन्दवः श्रवन्तीति, पुनः किंवि०? (लीलावायत्ति) लीलया न तु प्रस्खेदापनोदाय प्रखेदस्य दिव्यशरीरेष्वभावात्, लीलया वायत्ति-बातोदीरणार्थ (कयपक्वएण) कृन्तः-अवधूतो. यः पक्षका-तालवृन्तं . तेन शोभितां, अत्रापि शोभिता इति पदं अध्याहार्य, पुनः किंवि०१-(सुविसदत्ति)मुविशद:-सुविविक्तो,न पुनर्जटाजूटवत् परस्परसंलग्नः (कसिणत्ति) कृष्ण:-श्यामवणेः ( घणत्ति) घन:-अविरलो न तु मध्ये मध्ये रिक्तः ( सहत्ति ) सूक्ष्मो न तु शूकररोमवत्स्थूलः (लवंतत्ति ) लम्बमानः (केसहत्थं) केशहस्तो बेणियस्याः। सा तथा तां, पुन: किंवि०-(पउमद्दहकमलवासिणि) पद्मवहस्थ यत्कमलं पूर्वोक्तखरूपं तत्र शनिवसन्ती (सिरिं) श्रिय-श्रीदेवतां, इदं विशेष्य, पुनः किंवि०१-(भगवई) भगवती-ऐश्वयोदियुतां । (पिच्छद) प्रेक्षते इदं क्रियापदं, पुनः किंवि०-(हिमवंतसेलसिहरे) हिमवन्नामा पर्वतस्तस्य शिखरे || दीप अनुक्रम [३८] कल्प.सु.८ ~110 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३६] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबोव्या०२ प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| (दिसागइंदोरुपीवरत्ति) दिग्गजेन्द्राः-ऐरावणादयः तैः उरुपीवरैः-दीर्धेः पुष्टैश्च एवंविधैः (कराभिसिच्चमाणि) | करैः-शुण्डाभिः कृत्वा अभिषिच्यमानां-लप्यमानाम् ४॥ (३६)॥ ॥४३॥ दीप अनुक्रम [३८] REASBPSereal SARANDRARARARAANANARARARASARANA इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां द्वितीयः क्षणः समाप्तः । ग्रन्थानम् ॥ ७४१ । द्वयोर्व्याख्यानयोः ग्रन्थानम् ॥ १४०६ ।। REPSepteaserseaseRsURGERSEREERIESeRcerseaseseerleasepesepsite REPREnternel ॥४३ Fur & Fonte द्वितीयं व्याख्यानं समाप्तं ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [३७] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: ॥ अथ तृतीयं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ ५ पुष्पदाम स,३७ प्रत सूत्रांक [३७] गाथा ||१..|| दीप अनुक्रम [३९] (तओ पुणो) ततः पुनर्नभस्तलादेवपतद् दाम पुष्पमाल्यं त्रिशला पञ्चमे खमे पश्यति इति योजना, अथ किंविशिष्टं पुष्पदाम?-(सरसत्ति) सरसानि-सद्यस्कानि(कुसुमत्ति) कुसुमानि-पुष्पाणि येषु एवंविधानि यानि | ISI(मंदारदामत्ति) मन्दारदामानि-कल्पवृक्षमाल्यानि तैः (रमणिजभूअं) रमणीयभूतं-अतिमनोहरमित्यर्थः पुनः किंवि०१-(चंपगासोगत्ति) चम्पकः प्रतीतः,अशोकोऽपि प्रतीतः,तथा (पुन्नागनागपियंगुसिरिसत्ति) पुन्नागनागप्रियङ्गुशिरीषाः वृक्षविशेषाः तथा (मुग्गरत्ति) मुद्गरः प्रतीत(मल्लिआजाइजूहिअत्ति)मल्लिकाजातियूथिकावल्लीविशेषाः प्रतीताः (अंकोल्लत्ति) अङ्कोल्ल' प्रतीतः (कोजकोरिटत्ति) कोजकोरण्टौ अपि वृक्षविशेषी (पत्तदमणयत्ति) दमनकपत्राणि तथा(नवमालिअत्ति)नवमालिका लताविशेषः(वउलत्ति) बउल सिरी इति नामा बकुलवृक्षविशेषः (तिलयत्ति) तिलकनामा वृक्षविशेषः (वासंतिअत्ति) वासन्तिकाऽपि लताविशेषः (पउम्मुप्पलत्ति पद्मानि-सूर्यविकाशिकमलानि, उत्पलानि-चन्द्रविकाशिकमलानि. (पाडलकुंदाइमुत्सत्ति) पाटलकुन्दातिमुक्ताः वृक्षविशेषाः (सहकारत्ति) सहकारः प्रतीतः, एतेषां चम्पकाशोकादीनां सहकारान्तानां कुसुमानां-पुष्पाणां (सुरभिगंधि) सुरभिः-घ्राणतर्पणो गन्धो यत्र तत्तथा, पुन: किंवि०?-(अणुवममणोहरेणं गंघेणं) अनुपमो JaMEducutane For F lutelu व्याख्यानं आरभ्यते ... भगवन्त महावीरस्य च्यवन-अवसरे माता-त्रिशालाया: दृष्ट: १४ स्वप्नानाम् वर्णनं वर्तते ~ 112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [३५] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३५] गाथा ||१..|| कल्प,सयो-य उपमानरहितः अद्वितीय इतियावत् मनोहरश्च-चित्तालादकः एवंविधेन गन्धेन (दस दिसाओवि वासव्या३ यंतं) दशापि दिशः वासयत्-सुरभीकुर्वत्, पुनः किंवि०? (सबोउअसुरभिकुसुममल्लधवलत्ति) सर्वर्नुकं यत्र . ३७ सुरभि-सुगन्धं पुष्पमाल्यं तेन धवलं, अयमर्थः-षण्णां अपि ऋतूनां सम्बन्धिन्यः पुष्पमालास्तत्र दामनि १५ ॥ ४४ वर्तन्ते इति, तथा (विलसंतत्ति) दीप्यमाना अत एव (कंतत्ति) कान्ता-मनोहरा ये (बहुवन्नभत्तिचित्त) बहवोगा। वर्णा-रक्तपीतादयस्तेषां "भत्ति'त्ति-रचना तया चित्रं-आश्चर्यकारि अथवा चित्रयुक्तं इव, तलब विशेषणदयस्थ कर्मधारयः कर्तव्यः, अनेन च विशेषणेन तन्त्र पुष्पदामनि भूयान धवल एवं वर्णों वर्तते स्तोकस्तोकाच अन्येऽपि वर्णा वर्तन्ते इत्यर्थः सूचितः, पुनः किंवि०१-(छप्पयमहुअरिभमरगणगुमगुमायंतनिलितगुंजंतदेसभार्ग) अवापि विशेषणस्य परनिपासो गुमगुमायमानो-मधुरं शब्दं कुर्वन् अन्यस्थानात् आगत्य तत्र दामनि ॥1 लयं प्राप्नुवन्-अव्यक्तं शब्दविशेष कुर्वन् एवंविधो यः षट्पद१मधुकरीरभ्रमराणां-भ्रमरजातिविशेषाणां | यो गण:-समूहः स देशभागेषु-शिखाग्रभागपार्श्वद्वयाऽधोभागादिकेषु देशभागेषु यत्र तत्तथा, कोऽथः - तद्दाम सीरभ्यातिशयात् सर्वभागेषु भ्रमरैः सेवितमस्तीति भावः, अब षट्पदमधुकरीभ्रमराणां च वणोंदि-II भिर्भेदो ज्ञेयः (दाम) पुष्पदाम, इदं विशेष्यं (पिच्छइ ) प्रेक्षते इति क्रियापदं, पुनः किंवि०१ (नभंगण-I॥४४॥ तणलाओ)नभोगणतलात् (उवयंतं) अवपतत्-उत्तरत् ५॥ (३७)॥ (सर्सि च) ततः पुनः सा त्रिशलादेवी षष्ठे खमे शशिनं पश्चति, अथ कीदृशं ?-(गोखीरफेणदगरयर दीप अनुक्रम [३९] ~ 113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [३८] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सी सूत्रांक [३८] गाथा ||१..|| ययकलसपंडुरं) गोक्षीरं-धेनुदुग्धं फेनं प्रसिद्धं दकरजांसि-जलकणाः रजतकलशो-रूप्यघटः तद्वत् पाण्डुरं- उज्ज्वलं, पुनः किंवि०१-(सुभ) शुभं-सौम्यं, पुनः किंवि०?(हिअयनयणकंतं) अत्र लोकानां इति शेषः, ततश्च लोकानां हृदयनयनयोः कान्त-बल्लभ, पुनः किंवि०?-(पडिपुषणं ) प्रतिपूर्ण-पूर्णमासीसत्कं, पुनः किवि.? (तिमिरनिकरत्ति) तिमिराणां-अन्धकाराणां निकरण-समूहेन (घणगुहिरत्ति) घना-निविडा गम्भीरा ये वनगहरादयस्तेषां (वितिमिरकर) अन्धकारभावकर, वनगहरस्थितान्धकारनाशकं इत्यर्थः, यदुक्तं-'विरम ॥ तिमिर ! साहसादमुष्मा-यदि रविरस्तमितः खतस्ततः किम् ?। कलयसि न पुरो महोमहोर्मिस्फुटतरकैरवितान्तरिक्षमिन्दुम् ?॥१॥' पुनः किंवि०१-(पमाणपक्खंतत्ति) प्रमाणपक्षी-वर्षमासादिमानकारिणी यौ पक्षी-शुक्लकृष्णपक्षी तयोः अन्त:-मध्ये पूर्णिमायां इत्यर्थः तत्र (रायलेह) राजन्त्यः-शोभमानाः,लेखा:-कला यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१-कुमुअबणवियोहगं) कुमुदवनानां-चन्द्रधिकाशिकमलबनानां, विबोधक-विका-IN शकं, यतः-'दिनकरतापव्यापप्रपन्नमूर्छानि कुमुदगहनानि । उत्तस्थुरमृतदीधितिकान्तिसुधासेकतस्त्वरितम् |॥१॥ पुनः किंवि०?--निसासोहग) निशाशोभकं-रात्रिशोभाकारकं, पुनः किंवि०-(सुपरिमट्ठदप्पण तलोवर्म) सुपरिसृष्ट-सम्यकप्रकारेण रक्षादिना उज्ज्वलितं यत् दर्पणतलं तेन उपमा यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१-(हंसपडवन्नं ) हंसवत् पटुवर्ण-उज्ज्वलवर्ण इत्यर्थः, पुनः किंवि०१-- जोहसमुहमंडगं) ज्योतिषां ॥ मुखमण्डकं, पुनः किंवि०(तमरिपुं) अन्धकारवैरिणं, पुनः किंवि०-(मयणसरापूरगं) मदनस्य-कामस्य दीप अनुक्रम [४०] For F lutelu janebiary.org - 114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [३८] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक शशी सू. [३८] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- शरापूरमिव-तूणीरमिव, अयमर्थ:-यथा धनुर्धरस्तुणीरं प्राप्य मुदितो निःशङ्क मृगादिकं शरैविध्यति एवं व्या०३ मदनोऽपि चन्द्रोदयं प्राप्य निःशई जनान् बाणैाकुलीकरोति, पुनः किंवि० -( समुद्ददगपूरग) समुद्रोद- कपूरक-जलधिवेलावर्धकं इत्यर्थः, पुनः किंवि०-(दुम्मणं जणं दइअवज्जि) दुर्मनस्क-व्यग्रं, ईदृशं दयिते॥४५॥ न-प्राणवल्लभेन रहितं जनं, विरहिणीलोकं इत्यर्थः, (पाएहिं सोसयंतं) पादैः-किरणैः शोषयन्तं, वियोगि-| दुःखदं इत्यर्थः, यतः-रजनिनाथ ! निशाचर ! दुर्मते ! विरहिणां रुधिरं पिबसि ध्रुवम् । उदयतोऽरुणता कथम-18 न्यथा, तव कथं च तके तनुताभूतः? ॥१॥ (पुणो) पुनःशब्दो धुरि योजितः, पुनः किंवि०१-(सोमचारुरूवं ) यःसौम्यः सन् चामरूपो-मनोहररूपः तं, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा) सा. पुनः किंवि०? (गगणमंडलत्ति) गगनमण्डलस्य-आकाशतलस्य (विसालत्ति) विशाल-विस्तीर्ण (सोमत्ति) सौम्य-सुन्दराकारं ISI(चंकम्ममाणत्ति) चक्रम्यमाणं-चलनखभावं, एवंविधं (तिलय) तिलक, तिलकमिव शोभाकरत्वात्, पुनः किंवि० ?-(रोहिणीमणत्ति) रोहिण्या:-चन्द्रवल्लभाया मन:-चित्तं तस्य (हिअयत्ति) हितदो-हितकारी, एकपाक्षिकप्रेमनिरासार्थ हितद् इति विशेषणं, ईशो (वल्लहं) वल्लभो यस्तं, इदं कविसमयापेक्षया, अन्यथा रोहिणी किल नक्षत्र, चन्द्रनक्षत्रयोश्च स्वामिसेवकभाव एव सिद्धान्ते प्रसिदो न तु खीभतेभावा, (देवी) देवी-त्रिशला ( पुन्नचंदं) पूर्णचन्द्रं, इदं विशेष्यं ( समुल्लसंतं ) ज्योत्स्नया शोभमानम् ६॥ (३८)॥ (तओ पुणो) ततः पुनः-चन्द्रदर्शनानन्तरं सप्तमे स्वमे सूर्य पश्यति अथ किंविशिष्टं सूर्य ? (तमपडलप e oeselectroents दीप अनुक्रम [४०] Peacea For F lutelu ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [३९] | गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३९] गाथा ||१..|| रिप्फुड ) तमःपटलं-अन्धकारसमूहस्तस्य परिस्फोटक-नाशकं इत्यर्थः (चेय) निश्चयेन पुनः किंवि०१-(ते- सूर्यखमः असा पजलतरूवं) तेजसैव प्रज्ज्वलत्-जाज्वल्यमानं रूपं यस्य स तथा तं, स्वभावतस्तु सूर्यविम्यवर्तिनोस. ३९ वादरपृथ्वीकायिकाः शीतला एव, किन्वांतपनामकर्मोदयात्तेजसैव एते जनं व्याकुलीकुर्वन्तीति ज्ञेयं, पुनः किंवि०/-(रत्तासोगत्ति) रक्ताशोक:-अशोकवृक्षविशेषः (पगासकिंसुअसि) प्रकाशकिंशुका-पुष्पितपलाशः (सुअमुहगुंजद्धत्ति) शुकमुखं गुञ्जाधं च प्रसिद्धं (रागसरिसं) एतेषां वस्तूनां यो रागो-रक्तस्वं तेन सदृशं, पूर्वोक्तवस्तुवत् रक्तवर्ण इत्यर्थः, पुनः किंवि० ? (कमलवणालंकरणं) कमलवनानां अलङ्करणं-शोभाकारक विकाशकं इतियावत् , विकसितानि हि तानि अलङ्कृतानीव विभान्ति, पुन: किंवि०१-(अंकणं जोहसस्स)| ज्योतिषस्य-ज्योतिश्चक्रस्य,अङ्कनं-मेषादिराशिसंक्रमणादिना लक्षणज्ञापक, पुनः किंवि०१-(अंबरतलपई) अम्बरतले प्रदीपं-आकाशतलप्रकाशकं, पुनः किंवि०१-हिमपडलगलग्गह) हिमपटलस्य-हिमसमूहस्य । गलग्रह-गलहस्तदायक, हिमस्फोटकमित्यर्थः, पुनः किंवि०१-(गहगणोरुनायगं) ग्रहगणस्य-ग्रहसमूहस्य । उरुः-महान् नायको यः स तथा तं, पुनः किंवि०१-( रत्तिविणासं) रात्रिविनाशं-रात्रिविनाशकारणं इत्यर्थः।। र पुनः किंवि०१-(उदयस्थमणेसु मुहुत्तं सुहदंसणं) उदयास्तसमययोः-उदयवेलायां अस्तवेलायां च मुहूर्त यावत् सुखदर्शनं-सुखेन अवलोकनीयं इत्यर्थः, (दुन्निरिक्खरूवं) अन्यस्मिन् काले दुनिरीक्ष्यरूपं-सम्मुखं । विलोकयितुं न शक्यते इत्यर्थः, पुनः किंवि ?-(रत्तिमुद्धंतत्ति) रात्री उद्धता:-स्वेच्छाचारिणः, मकारोऽत्र प्राकृ दीप अनुक्रम [४१] ~ 116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [३९] | गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [३९] गाथा ||१..|| सबो-तत्वात्, एवंविधाये (दुप्पयारप्पमद्दणं) दुष्पचाराचौरादयोऽन्यायकारिणस्तान् प्रमईयति यस्तं, अन्यायकारि-18 सूर्यस्वनः व्या प्रचारनिवारकं इत्यर्थः, पुनः किंवि०१-(सीअवेगमहणं) शीतवेगमथनं, आतपेन शीतवेगनिवारणात्, (पि-1 सू. ३९ च्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं प्राग्योजितं, पुनः किंवि०१-(मेरुगिरिसययपरिवयं) मेरुगिरेः सततं परिवर्तक ॥४६॥ मेकं आश्रित्य प्रदक्षिणया भ्रमन्तं इतियावत, पुन: किंवि०१-(विसालं) विशालं-विस्तीर्णमण्डलं (सूरं) सूर्य इत्यपि विशेष्यं योजितं, पुनः किंवि०१-(रस्सीसहस्सपयलिअत्ति) रश्मिसहस्रण-किरणदशशत्या कृत्वा प्रदलिता-प्रस्फोटिता ( दित्तसोहं ) दीसाना-चन्द्रतारादीनां शोभा येन स तथा तं, येन खकिरणैः सर्वेषां, अपि प्रभा विलुप्सास्तीति भावः, अत्र सहस्रकिरणाभिधानं तु लोकप्रसिद्धत्वात्, अन्यथा कालविशेष अधिका अपि तस्य किरणा भवन्ति, तथा चोक्तं लौकिकशानेषु-'ऋतुभेदात्पुनस्तस्यातिरिच्यन्तेऽपि रश्मयः। शतानि द्वादश १२०० मधौ, त्रयोदश १३०० तु माधवे ॥१॥चतुर्दश १४०० पुनज्येष्ठे, नभोनभस्थयोस्तथा| 1॥१४००-१४००। पंचदशैव १५०० वाषाढ. षोडशैव १६०० तथाऽऽश्विने ॥२॥ कार्तिके त्वेकादश च ११००, शतान्येवं ११०० तपस्यपि । मार्गे च दश सार्धानि १०५०, शतान्येवं १०५०च फाल्गुने ॥३॥ पोष एव परं मासि, सहस्रं १००० किरणा रवेः ७॥ (३९)। A चैत्र वैशाख | ज्येष्ठे । आषाढे | श्रावणे भाद्रपदे आश्विने आर्तिक मार्गे । पौषे । माघे फाल्गुने १२०० १३०० | १४०० १५०० १४००-१४०० १६०० ११००१०५०१०००।११००।१०५० दीप अनुक्रम [४१] २५ ॥ga JanEducation ) IHnjaneibrary.org ~117 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४०] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४०] गाथा ||१..|| (तओ पुणो) ततः पुनः सा त्रिशला अष्टमे खमे ध्वजं पश्यति, किंविशिष्टं ध्वजं ?-( जच्चकणगलट्ठिपाइ ध्वज ट्ठि) जात्य-उत्तमजातीयं यत् कनक-सुवर्ण तस्य या यष्टिस्तत्र प्रतिष्ठितं, सुवर्णमयदण्डशिखरे स्थितं इत्य-मास.. र्थः, पुनः किंवि०१-(समूहनीलरत्तपीअसुकिल्लत्ति) समूहीभूतानि बहूनीत्यर्थः नीलरक्तपीतशुक्लानि कृष्णनीलयोरैक्यात् पञ्चवर्णमनोहराणीत्यर्थः ( सुकुमालुल्लसित्ति) सुकुमालानि उल्लसन्ति-वातेन लहलहायमानानि इत्यर्थः एवंविधानि यानि (मोरपिच्छकयमुद्धयं) मयूरपिच्छानि तैः कृता मूर्धजा इव-केशा इव यस्य स तथा तं, अयमर्थ:-यथा मनुष्यशिरसि वेणिर्भवति तथा तस्य ध्वजस्य वेणिस्थाने मयूरपिच्छसमूहः स्थापितोऽ स्तीति (धयं) ध्वजं इदं विशेष्यं, पुनः किंचि०१ ( अहिअसस्सिरीअं) अधिकसश्रीकं-अतिशोभितं इत्यर्थः, पुनः किंवि०?-एवंविधन सिंहेन राजमानं इति विशेषणयोजना, अथ कीदृशेन सिंहेन ?(फलिअसंखंकत्ति) |स्फटिक-रत्नविशेषः शङ्ख:-प्रसिद्धः अकोऽपि-रत्नविशेषः (कुंददगरयत्ति) कुन्दस्य-धवलपुष्पविशेषस्य माल्यं | दकरजांसि-जलकणाः (रययकलसत्ति) रजतकलशो-रूभ्यघटः (पंडुरेण) उक्तसर्ववस्तुबत् उज्ज्वलवर्णेन, ( मत्थयत्थेण ) मस्तकस्थितेन चिनतया ध्वजशिरसि आलेखितेनेत्यर्थः ( सीहेण ) सिंहेन इति |विशेष्यं, पुनः कीदृशेन सिंहेन ?-( रायमाणेण ) राजमानेन सुन्दरत्वात् शोभमानेनेत्यर्थः (रायमाणं) राजमान इति तु योजितं, पुनः कीदृशेन सिंहेन ? (भित्तुं) भेत्तुं-विधाकर्तु, किं ?-(गगणतलमंडलं) आकाशतलमण्डलं (चेच) उत्प्रेक्षायां (ववसिएणं) सोद्यमेनेव, अयमर्थः-ध्वजस्तावद्वायुतरङ्गेण कम्पते, कम्पमाने च ध्वजे सिंहोऽपि १४ दीप अनुक्रम [४२] For FFU Clu ~118 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४०] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४०] गाथा ||१..|| कल्प सुबो- गगनं प्रति उच्छलति, तथा च उत्प्रेक्ष्यते-अयं सिहः किंगगनतलं भेत्तुं उद्यमं करोतीति ?, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति जखव्या० ३ क्रियापदं, अथ पुनः किंविशिष्टं ध्वजं ?-(सिवत्ति) शिवः-सौम्यः सुखकारी अत एव (मउअत्ति) मृदुको-मन्द-मसू.४१ ॥४७॥ मन्द इतियावत एवंविधो यो (मारुअत्ति) मारुतो-वायुस्तस्य (लयत्ति) लय:-आश्लेषो मिलनमितियावत् तेन (आहयत्ति) आहत-आन्दोलितो यः, तत एव (कंपमाणं)चलनखभावो यः स तथा तं, पुनः किंवि०?(अइप्पमाणं) अतिप्रमाणं-महान्तं इत्यर्थः, पुनः किंचि०१-(जणपिच्छणिजस्वं) जनानां प्रेक्षणीयं-द्रष्टुं योग्य, रूपं-स्वरूपं यस्य स तथा तं ८॥ (४०)। AL (तओ पुणो) ततः पुनः सा त्रिशला क्षत्रियाणी नवमे स्वप्ने रजतपूर्णकलश-रूप्यमयं पूर्णकुम्भं पश्यति, अथ किविशिष्टं रजतपूर्णकलशं ?-(जचकंचणुज्जलंतरूव) जात्यकाश्चनवत्-उत्तमसुवर्णवत् उत्-मावल्पेन दीप्यमानं रूपं यस्य स तथा तं, यथा किल जात्यकाञ्चनस्य रूपं अतिनिर्मलं भवति तथा तस्य कलशस्यापि रूपं इति तात्पर्य, पुनः किंवि०१-(निम्मलजल पन्नमुत्तम) निर्मलेन जलेन पूर्ण अत एव उत्तम-शुभसूचक. पुन: किवि०१-(दिप्पमाणसोह)दीप्यमाना शोभा यस्य स तथा तं, पुन: किंवि०?-(कमलकलावपरिरायमाणं) कमलकलापेन-कमल-| समूहेन परिराजमानं सर्वतः शोभमानं, पुनः किंवि०१-(पडिपुन्नत्ति) प्रतिपूर्णा न तु न्यूना एवंविधा ये (सब्वम | गलभेअत्ति) सर्वमङ्गलभेदा–मङ्गलप्रकारास्तेषां (समागम) समागमः-सङ्केतस्थानमिव, यथा सङ्केतकारिणो| जनाः सङ्केतस्थाने अवश्यं प्राप्यन्ते तथा तस्मिन् कलशे दृष्टे अवश्यं सर्वे मङ्गलभेदाः प्राप्यन्ते इति भावः, पुन: दीप अनुक्रम [४२] janelbraryard. ~ 119 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४१] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४१] गाथा ||१..|| किंवि०१-(पवररयणपरिरायंतकमलहिअं) प्रवररत्नैः परिराजमानं यत् कमलं तत्र स्थितं, रत्नमयविकसित- १०पनसरः कमलोपरि स कलशो मुक्तोऽस्तीति भावः, पुनः किंवि०१-(नयणभूसणकर) नयनानां भूषणकर-आनन्द-1 | वनामू. करमित्यर्थः, नयनयोहि आनन्द एव भूषणं यथा पद्मस्य विकाश; पुनः किंवि०?-(पभासमाणं) प्रभासमानदीप्यमानं,प्रभया वाऽसमान-निरुपम, पुन: किंवि० (सब्वओ चेव दीवयंत) सर्वतः-सर्वदिशं निश्चयेन दीपयन्तं, पुनः किंधि०१-(सोमलच्छित्ति) सौम्या-प्रशस्ता या लक्ष्मीस्तस्याः (निभेलणं) गृहं, अयं देश्य: शब्दः, पुनः किंवि०१-(सच्चपावपरिवजिअं) सर्वैः पापैः-अमङ्गलैः परिवर्जितं-रहितं, अत एव (मुभाहा भासरंश भासुरं-दीप्यमान (सिरिवरं ) श्रिया-शोभया प्रधान, पुनः किंवि०(सब्बोउअसुरभिक-18 सुमत्ति) सर्व कानां-सर्वऋतुजातानां सुरभिकुसुमानां-सुगन्धिपुष्पाणां सम्बन्धीनि (आसत्तमल्लदाम) आसक्तानि-कण्ठे स्थापितानि माल्यदामानि यस्मिन् कलशे स तथा तं, (पिच्छद) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा) सा त्रिशला (रययपुन्नकलसं) रजतस्य पूर्णकलशं इदं विशेष्यम् ॥९॥४१॥ (तओ पुणो)ततः पुनः सा त्रिशला दशमे खने पद्मसरः पश्यति, अथ किंविशिष्टं पद्मसर:-( रविकिकरणतरुणपोहिअत्ति) प्राकृतत्वाद्विशेषणस्य परनिपातात् तरुणो-नूतनो यो रविस्तस्य ये किरणास्तवोंधितानि IS यानि (सहस्सपत्तत्ति) सहस्रपत्राणि-महापद्मानि तैः (सुरभितरत्ति) अत्यन्तं सुगन्धि (पिंजरजलं) पीतं रक्तं च जलं यस्य तत्तथा, पुनः किंवि०१-(जलचरपहकरत्ति) जलचरा-जलजीवास्तेषां पहकर'त्ति समूहस्तेन दीप अनुक्रम [४३] For F lutelu - 120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४२] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- (परिहत्थगत्ति) परिपूर्ण-सर्वतो व्याप्तं इत्यर्थः, तथा (मच्छपरिभुज्जमाणजलसंचयं) मत्स्यैः परिभुज्य-१० पानसरः व्या०३लमानो-व्याप्रियमाणो जलसञ्चयो यस्य तत्तथा, ततः कर्मधारयः, पुन: किंवि०१-(जलतमिव) ज्वल- खमाब. दिव-देदीप्यमानं इव, केन ?-(कमलत्ति ) कमलानि-सूर्यविकाशीनि अम्बुजानि (कुवलयत्ति) कुव-II ॥४८॥ |लयानि च-चन्द्रविकाशीनि कमलानि (उप्पलत्ति) उत्पलानि-रक्तकमलानि (तामरसत्ति) तामरसानि महापद्मानि (पुंडरीयत्ति) पुंडरीकानि-उज्ज्वलकमलानि, एतेषां नानाजातीयकमलानां यः (उरू) उरुः-विस्तीशाणेः (सप्पमाणत्ति) सर्पन्-प्रसरन् , एवंविधो यः (सिरिसमुदएणं) श्रीसमुदया-शोभासमूहस्तेन, कमलाना ||२. शोभाप्रकरण हि शोभमानत्वं एव स्यात् न तु सूर्यबिम्बादिवद्देदीप्यमानत्वं अत उत्प्रेक्ष्यते-एतेषां विविधकमलानां शोभाप्राग्भारेण ज्वल दिव-देदीप्यमानमिवेति, पुनः किं०-(रमणिज्जरूवसोह) रमणीया-मनोरमा रूपशोभा यस्य तत्तथा, पुनः किंवि०?-(पमुइअंत) प्रमुदितं अन्त:-चित्तं येषां ते प्रमुदितान्तर एवंविधा ये (भमरगणत्ति) भ्रमरगणाः (मत्तमहअरिगणुकरोलिजमाणकमलं) मत्समधुकरीगणाच-भ्रमरजातिविशेषगणास्तेषां उत्करा:-समूहाः, भ्रमरमधुकरीणां बहनि वृन्दानि इत्यर्थः, तैः अवलिह्यमानानि-आस्वायमानानि २५ कमलानि यत्र तत्तथा,पुनः किंवि०?-(कार्यबगबलाहयचकत्ति)कादम्बा:-कलहंसाः बलाहका-बलाकाः चक्रा-R॥४८॥ चक्रवाकाः (कलहंससारसत्ति) कला-मधुरशन्दा ये हंसाः कलहंसा राजहंसा इत्यर्थः सारसा-दीघेजानुका जीवविशेषाः इत्यादयो ये (गब्धिअत्ति) गर्विता:-ताहकस्थानप्राप्स्याऽभिमानिनो ये (सउणगणमिहुणसेविज-11 एएeeeeeeees दीप अनुक्रम [४४] ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [४४] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [४२] / गाथा [...] व्याख्यान [३] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: सु Uais Education ........................ माणसलिलं शकुनिगणाः-पक्षिसमूहास्तेषां मिथुनैः द्वन्द्वैः सेव्यमानं सलिलं यस्य तत् तथा पुनः किंवि० १(प्रमिणिपत्तो लग्गज लबिंदुनिचयचित्तं ) पद्मिन्यः - कमलिन्यस्तासां पत्राणि तत्र उपलग्ना ये जलबिन्दुनिचयास्तैचिनं मण्डितमिव, इन्द्रनीलरत्नमयानींव पद्मिनीपत्राणि मुक्ताफलानुकारिभिर्जलबिन्दुभिरतीव शोभन्ते, तैश्च पत्रैस्तत् सरः कृतचित्रं इव भातीति भावः, (पिच्छर ) प्रेक्षते इति क्रियापदं ( सा ) सा त्रिशला, पुनः किंवि० ? - ( हिअयनयणकंतं ) हृदयनयनयो। कान्तं वल्लभं ( पउमसरं नाम सरं ) पद्मसर इति नाम्ना सरः-सरोवरं, इदं विशेष्यं, किंवि० ? - ( सररुहाभिरामं ) सरस्तु अहं पूज्यं अत एव अभिरामंरमणीयम् १० ।। (४२) । (तओ पुणो ) ततः पुनरेकादशे खमे शरद्रजनिकर सौम्यवदना सा त्रिशला क्षीरोदसागरं पश्यति, अथ किंविशिष्टं क्षीरोदसागरं ? - ( चंद्रकिरणरासित्ति) चन्द्रस्य किरणराशिः- किरणसमूहस्तेन ( सरिस सिरिवच्छसोहं ) सदृशा श्रीः- शोभा यस्याः एवंविधा वक्षःशोभा यस्य स तथा तं वक्षःशब्देन हि हृदयं उच्यते, तत्तु प्राणिनो भवति न तु समुद्रस्य ततो हृदयशब्देनात्र मध्यभागः प्रोच्यते इति, ततोऽत्युज्ज्वलो मध्यभागो यस्येति ज्ञेयं, पुनः किंवि० 2 - ( चउग्गमणपवद्धमाणजलसंचयं ) चतुर्षु गमनेषु - दिग्मार्गेषु प्रकर्षेण वर्षमानो जलसञ्चयो - जलसमूहो यस्य स तथा तं चतसृष्वपि दिक्षु तत्र अगाध एवं जलप्रवाहोऽस्तीति भावः पुनः किंवि० ? - चवलचंचलुचायप्पमाणकोललोलंततोयं ) चपलचञ्चला - चपलेभ्योऽपि चपला 122~ पद्मसरःख प्र. सू. ४२ क्षीरोदसागरःसू. ४३ १० १४ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४३] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत कल्प.सुबो- व्या०३ सूत्रांक [४३] गाथा ||१..|| ॥४९॥ अतिचपला इतियावत् तथा उचं आत्मप्रमाणं येषामेवंविधा ये कल्लोलास्तैौलत्-पुनः पुनरेकीभूय पृथग्भवतीरसागरः एवंविधं तोर्य-पानीयं यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०?-( पड्डुपवणाहयत्ति) पटुना-अमन्देन पवनेन आहता- मू. ४३ आस्फोटिताः सन्तः अत एव (चलिअत्ति) चलिता-धावितुं प्रवृत्ताःतत एव (चवलत्ति) चपलाः (पागडत्ति) प्रकदाः (तरंगत्ति) एवंविधास्तरङ्गा:-कल्लोलाः तथा (रंगतभंगत्ति)रत-इतस्ततो नृत्यन्तः एवंविधा 'भंग'त्तिा कल्लोलविशेषाः तथा (खोखुन्भमाणत्ति) अतिक्षुभ्यन्त:-भयभ्रान्ता इव भ्रमन्तः (सोभंतत्ति ) शोभमानाः (निम्मलत्ति) निर्मला:-खच्छाः (उक्कडत्ति) उत्कटा:-उद्धताः (उम्मीत्ति) ऊर्मयो-विच्छित्तिमन्तः कल्लोला:, ततः एतैः सर्वैः पूर्वोक्तः कल्लोलप्रकारैः (सहसंबंधत्ति ) सह यः सम्बन्धो-मिलनं तेन (घावमाणावनियत्त-18 भासुरतराभिरामं ) धावमान:-त्वरितं तीराभिमुखं प्रसर्पन अपनिवर्तमान:-तटात् पश्चादलमानः सन् भासु-18 रतर:-अत्यन्तं दीमोऽत एव अभिरामो-मनोहरो यः स तथा तं, पुनः किंवि०१-(महामगरमच्छत्ति) महान्तो | मकरा मत्स्याश्च प्रसिद्धाः तथा (तिमितिर्मिगिलनिरुद्धतिलितिलियाभिघायत्ति)तिमयः १ तिमिङ्गिलाः २ निरुद्धाः ३ तिलितिलिका ४ श्च जलचरजीवविशेषाः, अर्थतेषां अभिघातेन-पुच्छाच्छोटनेन उत्पन्न: २५ (कप्पूरफेणपसरं ) कर्पूरवदुज्ज्वलः फेनप्रसरो यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०?-(महानईतुरियवेगसमागय- T॥४९॥ भमत्ति) महत्यो नद्यो महानद्यो-गङ्गाद्यास्तासां ये त्वरितवेगा:-शीघ्र आगमनानि तैःआगतभ्रम-उत्पन्नभ्रमणो यो (गंगावत्तत्ति) गङ्गावर्त्तनामा आवर्तविशेषस्तत्र (गुप्पमाणुश्चलंतत्ति) व्याकुलीभवत् अत एव उच्छलत् दीप अनुक्रम [४५] oe G anelbrary.org ~ 123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४३] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा ||१..|| आवर्तपतितत्वेन अन्यत्र निर्गमावकाशाभावात् ऊध्र्व उच्छलत् (पचोनियत्तत्ति)प्रत्यवनिवृत्तं-ऊध्र्व उच्छ- विमानखल्य तत्रैव पुनः पतितं, अत एव (भममाणलोलसलिलं ) तत्र आवतै एव भ्रमत् तत एव च लोलं-खभाव- मासू.४४ तश्चञ्चलं, एवंविधं सलिलं-पानीयं यत्र स तथा तं, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं (खीरोअसायरं)क्षीरोदसागरं इदं विशेष्यं (सरपरयणिकरसोमवयणा) शरत्कालीनः रजनीकर:-चन्द्रस्तद्वत् सौम्यं वदनं यस्याः, एवंविधा त्रिशला ११ ॥ (४३)॥ | (तओ पुणो) ततः सा त्रिशला द्वादशे स्वमे विमानवरपुण्डरीकं प्रेक्षते, अथ किंविशिष्टं विमानवरपुंडशरीक ? (तरुणसूरमंडलसमप्पहं ) तरुणो-नूतनो यः सूर्यस्तस्य मण्डलं-विम्ब तेन समा प्रभा-कोतिर्यस्य तत्तथा, पुनः किवि०१ (दिप्पमाणसोह) दीप्यमाना शोभा यस्य तत्तथा, पुनः किंवि०१(उत्तमकंचणम-IN हामणिसमूहपवरतेअअट्ठसहस्सत्ति ) उत्तमैः काश्चनमहामणिसमूहै:-सुवर्णरत्नप्रकरैः प्रवरा ये अष्टाधिकसहनसंख्याः तेका:-स्तम्भाः तैः (दिपंतनहपईवं ) दीप्यमानं सत् नभ-आकाशं प्रदीपयति यत् तत् तथा, पुनः किवि०१-(कणगपयरलवमाणमुसासमुज्जलंति) कनकमतरेषु-सुवर्णपत्रेषु लम्बमानाभिभुक्ताभिः समुज्ज्वलं-भावल्येन दीप्तिमत्, पुनः किंवि०१(जलंतदिब्बदामंति)ज्वलन्ति-दीप्यमानानि देवसम्बन्धीनि अर्था-1 लम्बितानि दामानि-पुष्पमाल्पानि यत्र तत्तथा, पुनःकिंवि०१-(इहामिगउसमतुरगत्ति) इहामृगा-वृका 'वरगडा जीव इति लोके' ऋषभा-वृषभाः तुरगा-अश्वाः (नरमगरविहगत्ति) नरा-मनुष्याः मकरा: विहगाः दीप अनुक्रम [४५] areer For F lutelu - 124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४४] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४४] गाथा ||१..|| कल्प सवोपक्षिणः (वालगकिन्नररुरुसरभचमरसंसत्तत्ति)व्यालका:-सर्पाः,किन्नरा-देवजातिविशेषाः, रुरवो-मृगभेदा विमानखव्या०३शरभा-अष्टापदाः, चमर्यो-धेनवः, संसक्ताः-श्वापदविशेषाः (कुंजरवणलयप उमलयत्ति) कुजरा-हस्तिनः। वनलता-अशोकलतायाः पद्मलता:-पद्मिन्यः एतेषां सर्वेषां या (भत्तिचित्तं) भक्ती-रचना चित्राणि इति॥५०॥ यावत् तैः चित्रं-आश्चर्यकारि, पुनः किंवि० ?-(गंधब्बोपचवमाणसंपुन्नघोसं) गान्धर्वशब्देन इह गीतंग। उच्यते उपवाद्यमानशब्देन वादित्राण्युच्यन्ते, ततो गान्धर्वोपवाद्यमानानां-गीतवादित्राणां सम्पूर्णो घोष:शब्दो यत्र तत्तथा, पुनः किंवि०-(निचं सजलघणविउलजलहरत्ति) नित्य-निरन्तरं सजलो-जलसम्पूर्णः २० घनो-निविडो विपुल:-पृथुला एवंविधो यो जलधरो-मेघस्तस्य यत् (गजिअसहाणुणाइणा ) गर्जितशब्दोISI गर्जारव इत्यर्थः तस्य अनुनादिना-सदृशेन एवंविधेन (देवदुंदुहिमहारवेणंति ) देवसम्बन्धिदुन्दुभिमहाशब्देन || ( सयलमवि जीवलोअं पूरयंत) सकलमपि जीवलोकं पूरयत् शब्बयाप्तं कुर्वत् इत्यर्थः, पुनः किवि० ?-(कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकत्ति) कृष्णागुरु१प्रवरकुन्दुरुष्क २ रुष्काः ३ प्राग्व्याख्याताःतथा (डज्झतमाणधूव-16 वासंगत्ति) दृह्यमानधूपो-दशाङ्गाविधूंपो,पासाहानि-सुगन्धद्रव्याणि एतेषां सर्वेषां यो (मघमघंतत्सि) मघम-18 घायमानो (गन्धुदुआभिरामं ) उद्धत-इतस्ततः प्रसूतश्च यो गन्धस्तेन अभिरामं, पुनः किषि०-(निचा-| लोअं) नित्यं आलोक:-उद्योतो यत्र तत्तथा, पुनः किंवि०१-(सेअं) श्वेतं-उज्ज्वलं अत एव (सेअप्पमं)II श्वेता-उज्ज्वला प्रभा-कान्तिर्यस्य तत्तथा, पुनः किंवि०-(सुरवराभिरामं) सुरवरैः प्रधान-शोभितं, न तु दीप अनुक्रम [४६] ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४५] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४५] गाथा ||१..|| रिक्त, (पिच्छह ) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा)सा त्रिशला इति प्राग्योजितं, पुन: किंवि०/-(सालोवभोग)ोषयस्व सातस्य-सातवेदनीयस्य कर्मण उपभोगो यत्र तत् सातोपभोगं, ईदृशं (विमाणवरपुंडरीयं) विमानवरपुण्ड-मसू.४५ ISIरीकं-विमानवरेषु पुण्डरीकमिव अत्युत्तमत्त्वात् , इदं विशेष्यं १२॥ (४४)॥ ARU (तओ पुणो) ततः पुनः सा त्रिशला त्रयोदशे खप्ने रत्ननिकरराशि पश्यति, अथ किंविशिष्टं रत्ननिक-191 राशि पुलगवेरिंदनीलत्ति) पुलक १ वज्रं २ इन्द्रनीलं-नीलरत्नं ३ (सासगत्ति) सस्यक-रत्नविशेषः ४ ५ (कअणत्ति) कर्केतनं ५ (लोहियक्खत्ति) लोहिताक्षं ६ (मरगयत्ति) मरकतं ७ (मसारगल्लत्ति) मसारगल्लं । (पवालत्ति) प्रवालं ९ (फलिहुत्ति) स्फदिकं १० (सोगंधियत्ति) सौगन्धिकं ११ हंसगन्भत्ति) हंसगर्भ १२ (अंजपाणत्ति) अञ्जन-अक्षनप्रभ श्यामरनं १३ (चंदप्पहत्ति) चन्द्रप्रभा-चन्द्रकान्तरनं १४ (वररयणेहि) एभी रत्नप्रकारैः। (महिअलपइडिअं) महीतलप्रतिष्ठितं (गगणमंडलंतं पभासयंत) महीलले स्थितमपि गगनमण्डलस्यान्तं 18 8 यावत् प्रभासयन्तं, लोकमसिद्धस्य आकाशस्यापि शिखरं खकान्त्या शोभयन्तं इत्यर्थः, पुनः किंवि०-18 (तुंगं) उच्चं, किंप्रमाणं? इत्याह-(मेरगिरिसन्निगासं) मेरुगिरिसदृशं (पिच्छह ) प्रेक्षते इति क्रियापदंश (सा) सा त्रिशला (रयणनिकररासि ) रत्ननिकराणां राशि:-उच्छ्रितः समूहस्तं, इदं विशेष्यम् १३(४५) IST. (सिहि च) सिंहिं चेति पदं मागुक्तगाथागतं तओ पुणो' इत्यर्थसूचक, (सा) ततः सा त्रिशला चतु-15 देशे खमे ईदृशं शिखिन-अनि पश्यति, अथ किविशिष्टं शिखिनं ?-(विउलुज्जलपिंगलमहुघयपरिसिचमाणत्ति)|| १३ दीप अनुक्रम [४७] - 126 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४६] | गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा ||१..|| दृश्यता कल्प.सबो- विपुला-विस्तीर्णा तथा उज्ज्वलपिंगलेन मधुघृतेन परिषिच्यमाना-उज्ज्वलेन घृतेन पिङ्गलेन च मधुना अनिवप्नः व्या३ सिच्यमाना अत एव (निद्भूमत्ति) निघूमा (धगधगाइअत्ति ) धगधगितिकुर्वत्यो (जलंतजालुजलाभिराम) ज्वलन्त्यो-दीप्यमाना या ज्वालास्ताभिः उज्ज्वलं अत एव अभिरामं, पुनः किंवि० ? (तरतमजोगजुत्तेहिं जिनजननी॥५१॥ तरतमयोगयुक्तैः (जालपयरेहिं ) ज्वालाप्रकरैः (अन्नुन्नमिव अणुपइन्नं ) अन्योऽन्यं अनुप्रकीर्ण इव, तस्य सर्वा अपि ज्वाला अन्योऽन्यं प्रविष्टा इव सन्तीति भावः, (पिच्छइ ) प्रेक्षते इति क्रियापदं, पुनः किंवि०-18 सू. ४७ (जालुज्जलणगत्ति) ज्वालानां ऊर्ध्व ज्वलनं ज्वालोज्ज्वलनं, स्वार्थिककप्रत्यये च ज्वालोज्ज्वलनक, अत्र तृती-18 यैकवचनलोपः तेन ज्वालोज्ज्वलनकेन (अंबरं व कत्थइ पयंत) कचित्प्रदेशे अम्बरं-आकाशं पचन्तं इव, अभ्रंलिहत्वेन भाकाशपचनसमर्थ इवेत्यर्थः, पुनः किंवि०-(अइवेगचंचलं) अतिवेगेन चश्चलं (सिहिं) |शिखिन-अग्निं, इदं विशेष्यम् १४ ।। (४६)॥ (इमे एयारिसे) इमान् एतादृशान् (सुभे) शुभान-कल्याणहेतून् (सोमे) उमया-कीयो सहितान् (पियदंसणे) प्रियदर्शनान-दर्शनमात्रेण प्रीतिकरान (सुरूवे) सुरूपान् (सुविणे) स्वमान् ( दद्दूण सयणमज्झे पडिबुद्धा) शयनमध्ये-निद्रामध्ये दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा-जागरिता सती (अरविंदलोयणा) अरविन्दलोच- ॥५१ ।। ना त्रिशला (हरिसपुलइअंगी) हर्षपुलकिताङ्गी-प्रमोदभररोमाञ्चितगात्री ॥ अत्र प्रसङ्गेन एतेषां स्वमानां। गर्भकाले सकलजिनराजजननीविलोकनीयत्वं दर्शयन्नाह-(एए चउदस सुविणे) एतान् चतुर्दश स्वमान् दीप अनुक्रम [४८] ~ 127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४८] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४८] गाथा ||१..|| ( सव्वा पासेइ तित्थयरमाया।) सर्वाः पश्यन्ति तीर्थकरमातरः (जं रयणि बक्कमइ ) यस्यां रजन्यां श्रीसिद्धार्थ18 उत्पद्यन्ते (कुञ्छिसि महायसो अरिहा ॥१॥) कुक्षौ महायशसः अर्हन्तः॥ (४७)॥ जागरणं (तएणं सा तिसला खत्तिआणी) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (इमे एयास्वे) इमान् एतदुरूपान . चिउइस महासुमिणे) चतुर्दश महास्वमान (पासित्ता णं पडिवुद्धा समाणी) दृष्ट्वा जागरिता सती (हट्टतुजावहिअया ) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया (धाराहयकयंवपुष्फगंपिव) मेघधाराभिः सिक्तं यत् कदंबपुष्पं-कदंषतरकुसुमं तद्वत् (समुस्ससिअरोमकूवा) उल्हसितानि रोमाणि कूपेषु यस्याः सा (सुमि-1% गुग्गई करेइ ) स्वप्नानां अवग्रहं-स्मरणं करोति ( करित्ता) कृत्वा च ( सयणिज्जाओ अब्भुइ ) शय्यायाः अभ्युत्तिष्ठति ( अन्भुद्वित्ता) अभ्युत्थाय ( पायपीढाओ पच्चोरुहइ ) पादपीठात् प्रत्यवतरति ( पच्चोरुहित्ता) प्रत्यवतीयं च ( अतुरियं) अत्वरितपा-चित्तौत्सुक्यरहितया (अचवलं) अचपलया-कायचापल्यरहितया | R(असंभंताए) असम्भ्रान्तया-कुत्रापि स्खलनारहितया (अविलम्बियाए) विलम्बरहितया (रायहंससरि सीए) राजहंसगतिसदृशया (गइए) एवंविधया गत्या (जेणेव सयणिज्जे ) यत्रैव शयनीयं (जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थनामा क्षत्रियः (तेणेव उवागच्छद)तत्रैव उपागच्छति (उथागच्छित्ता) उपागत्य च (सिद्धत्थं खत्तियं सिद्धार्थ क्षत्रियं ताभिर्गीर्भि:-वाणीभिः संलपन्ती २ प्रतिबोधयतीति सम्बन्धः।। अथ कीदृशीभिर्वाणीभिरित्याह-(ताहिं )ताभिर्विशिष्टगुणसंयुक्ताभिः, पुन: किंवि०?-( इवाहिं ) इष्टाभिः | दीप अनुक्रम ekeeseservedeo [५०] JanEducatorix" Fur Frately ... स्वप्न-दर्शनान्तर माता त्रिशालाया: जागरण एवं राजा सिद्धार्थ सह कृत: स्वप्न-विषयक-संवादः - 128 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४८] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४८] गाथा ||१..|| कल्प.सुबोव्या०३ ॥५२॥ Ke तस्य वल्लभाभिः, पुनः किंवि०१-(कंताहिं ) कान्ताभि:-सर्वदा वाञ्छिताभिः अत एव (पियाहिं) प्रिया-श्रीसिद्धार्थभि:-अद्वेष्याभिः, पुनः किंवि०१-(मणुण्णाहिं ) मनोज्ञाभि:-मनोविनोदकारिणीभिः, अत एव (मणामाहिं)। जागरण मनोऽमाभिः-मनसा अम्यन्ते-पुन: पुनर्गम्यन्ते न तु कदापि विस्मार्यन्ते एवंविधाभिः, पुनः किंवि०१(उरा- सू.४८ |लाहिं ) उदाराभिः-सुन्दरध्वनिवर्णसंयुताभिः, पुनः किंवि०? (कल्लाणाहि ) कल्याणानि-समृद्धयस्तत्कारिणीभिः, पुनः किंवि०१-(सिवाहि) शिवाभि:-उपद्रवहरीभिःतथाविधवर्णसंयुक्तत्वात् , अत एव (धन्नाहिं) धन्याभिा-धनप्रापिकाभिः, पुन: किंवि०१-( मंगल्लाहिं ) मङ्गलकरणे प्रवीणाभिः, पुनः किंवि०१ (सस्सिरीआर्हि) सश्रीकाभिः-अलङ्कारविराजिताभिः, पुन: किंवि०१-(हिअयगमणिजाहि) कोमलतया सुबोधतया च हृदयङ्गमामिः, पुनः किंवि०? (हिअयपल्हायणिजाहिं ) हृदयप्रसादनीयाभिः-हगतशोकायुच्छेदिकाभिः, पुनः किंवि०? (मिअमहुरमंजुलाहिं ) मिता:-अल्पशब्दाः बह्वाच. मधुरा:-श्रोत्रसुखकारिण्या, मञ्जला:-सुललितवर्णमनोहरा.लता पदवयस्य कर्मधारये मितमधुरमञ्जलाभिरिति (गिराहिं) एवंविधाभिः वाणीभिः (संलवमाणी २) संलपन्ती-बदन्ती (पड़ियोहेइ)जागरयति ॥ (४८)॥ । (तए णं) ततोऽनन्तरं जागरणानन्तरं ( सा तिसला खत्तिआणी)सा त्रिशला क्षत्रियाणी (सिद्धत्येणं ॥५२॥ रना) सिद्धार्थेन राज्ञा (अन्भणुपणाया समाणी) अभ्यनुज्ञाता सती (नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्तंसि) नानामणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-रचनाभिः, चित्रे-आश्चर्यकारिणि (भद्दासणंसि निसीयइ) भगासने २८ दीप अनुक्रम For F lutelu ~129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४९] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४९] गाथा ||१..|| Pee |निषीदति (निसीइत्ता) निषध च (आसत्था) मार्गजनितश्रमापगमेन आश्वस्ततां उपगता, अत एव शखमनिवेद(वीसत्था) विश्वस्ता क्षोभाभावेन (सुहासणवरगया) सुखासनवरं गता, सुखेन उपविष्टा सती (सिद्ध नं सू. ४९ त्थं खत्तियं) सिद्धार्थ क्षत्रिय (ताहिं इटाहिं ) ताभिः इष्टाभिः (जाव संलवमाणी २) यावत् पूर्वोक्तखरू- फलपृच्छा पाभिर्वाणीभिः ( एवं वयासी) एवं अवादीत ॥ (४९)।तत् किमित्याह सू.५० RIL (एवं खलु अहं सामी) एवं निश्चयेन अहं हे स्वामिन् ! ( अन्ज तंसि तारिसगंसि ) अद्य तस्मिन् तादृशे (सपणिजंसि) पल्प (यषणओ) वर्णकः पूर्वोक्ता (जाव पडिबुडा) यावत् जागरिता तावद्वाच्यः,18 (तंजहा ) तद्यथा (गयवसहगाहा) 'गयवसह' इति गाथाप्यन्न वाच्या (तं एएसि सामी) तस्मात् एतेषां शाह स्वामिन् ! (उरालाणं) प्रशस्तानां (चउदसण्इं महामुभिणाणं) चतुर्दशानां महास्वमानां (के मने) मन्ये इति वितकोर्थी निपातः, ततः कः? अहं विचारथामि (कल्लाणे) कल्याणकारी (फलवित्तिविसेसे भविस्सइ) फल वृत्तिविशेषो भविष्यतीति ॥(५०)॥ IS (तए णं से सिद्धत्थे राया) ततः स सिद्धार्थों राजा (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायाः क्षत्रिया ण्याः (अंतिए) अन्तिके-पार्थात् (एअम) एनमर्थ (सुचा) श्रुत्वा श्रोत्रेण (निसम्मत्ति) निशम्य-हृदयेनिविधार्य (हहतुट्ठजावहियए) हृष्टस्तुष्टः यावत् हर्षपूर्णहृदयः (धाराहयनीवसुरहिकुसुमत्ति) धारासिक्तो यो नीपवृक्षः तस्य सुगन्धि पुष्पं तद्वत् (चंचुमालइयरोमकूवे) उल्लसितानि रोमाणि कूपेषु यस्य स तथा, एवं- १५ दीप अनुक्रम [५१] Fur FB Fanatec ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [११] | गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५१] गाथा ||१..|| 10स.५२ कल्प.सदो- विधः सन् (ते सुमिणे ओगिण्हह) तान् स्वमान् अवगृह्णाति-चेतसि धरति (ओगिण्हित्ता) अवगृह्य च मत्यादिव्या०३ (ईहं अणुपविसइ) ईहां सदर्थविचारणालक्षणां अनुप्रविशति (अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य च ( अप्पणो भिरर्थनिश्च साहाविएणं) आत्मनः खभावतः उत्पन्नेन तथा ( मइपुव्वएणं) मतिपूर्वकेण एवंविधेन (बुद्धिविण्णाणेणं) यःमु. ५१ ॥ ५३॥ बुद्धिविज्ञानेन कृत्वा (तेसिं सुमिणाणं) तेषां स्वप्नानां (अत्युग्गहं करेह) अर्थावग्रहं-अर्थनिश्चयं करोति फलकथनम् (करित्ता) अर्थनिश्चयं कृत्वा च (तिसलं खत्तियाणिं) त्रिशला क्षत्रियाणी प्रति (ताहिं इवाहि) ताभिः। 18 इष्टाभिः (जाव सस्सिरीयार्हि) यावत् सश्रीकाभिः (बग्गूहिं संलवमाणे २) एवंविधाभिः वाग्भिः संल-1|| २० पन् सन् (एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (५१)॥ किमित्याह-(उराला णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिहा) उदारा:-प्रशस्ताः त्वया हे देवानुप्रिये !-सरलस्वभावे खमाः दृष्टाः (कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिहा) तथा कल्याणकारिणः त्वया हे देवानु-18 |प्रिये खमा दृष्टाः (एवं) अनेनाभिलापेन (सिवा धना मंगल्ला) उपद्रवहरा. धनप्रापकाः मङ्गलकारकाः18 (सस्सिरिया) शोभया सहिताः (आरुग्गतुहिदीहाउत्ति) नीरोगत्वं चित्तानन्दः चिरजीवित्वं (कल्लाणमंग- २५ ल्लकारगाणं) कल्याणं-समृद्धिः मङ्गलं-वाञ्छितप्राप्तिः एतेषां वस्तूनां कारकाः (तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा ॥५३॥ | दिवा) त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्नाः दृष्टाः । अथ तेषां स्वप्नानां महिना कि भविष्यतीत्याह-(अत्यलाभो देवा| गुप्पिए ) अर्थों-मणिकनकादिः तस्य लाभा हे देवानुप्रिये ! (भोगलाभो देवाणुप्पिए) भोगा:-शब्दादय-18| २८ दीप अनुक्रम [५३] ... राजा सिद्धार्थ एवं निमित्तकै: कृत स्वप्न-फ़ल्-वर्णनं ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [१२] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत भाविपुत्र वर्णनं सू. सूत्रांक [१२] गाथा ||१..|| ॥ स्तेषां लाभः हे देवानुप्रिये ! (पुत्तलाभो देवाणुप्पिए) पुत्रस्य लाभः हे देवानुप्रिये ! (सुक्खलाभो IS देवाणुप्पिए) सौख्यं-मनसो निवृत्तिस्तस्य लाभः हे देवानुपिये ! (रजलाभो देवाणुप्पिए) राज्यं- स्वाम्यमात्यमुहकोशराष्ट्रदुर्गसैन्यलक्षणं सप्ताङ्गं तस्य लाभो भविष्यतीति ॥ अथ सामान्येन फलान्युक्त्वा । हा विशेषतो मुख्यं फलमाह-(एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए !) अनेन प्रकारेण निश्चयेन त्वं हे देवानुप्रिये ! हे त्रिशले! ( नवण्हं मासाणं) नवसु मासेषु ( बहुपडिपुन्नाणं ) बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु ( अट्ठमाण राइंदियाणं) अर्द्धाष्टमरात्रिदिवसाधिकेषु (विकताणं) व्यतिक्रान्तेषु सुरूपं दारक-पुत्रं प्रजनिष्यसीति ६|| सम्बन्धः, किंविशिष्टं ?-(अम्हं कुलकेउ) अस्माकं कुले केतुरिथ केतुः-चिन्हं ध्वजस्तत्सदृशं अत्यद्भुतं इत्यर्थः (अम्हं कुलदीवं) अस्माकं कुले दीप इव दीपस्तं प्रकाशकं मङ्गलकारकं च (कुलपवयं) कुले पर्वत इव || पर्वतः अपराभवनीयः स्थिरच, कुलस्य आधार इत्यर्थः, (कुलवडिंसयं) कुले अवतंसक इव-मुकुट इव|R यस्तं, शोभाकरत्वात् , अत एव (कुलतिलयं) कुलतिलक मस्तकधार्यत्वात् (कुलकित्तिकरं) कुलकीर्ति-18 कर शुभाचारित्वात् (कुलवित्तिकरं) कुलस्य वृत्तिः-निर्वाहस्तस्य कारक (कुलदिणयरं) प्रकाशकत्वात्। कुले दिनकरसमानं (कुलआधारं ) कुलाधार:-पृथ्वीवत् कुलस्याधारं (कुलनंदिकर) कुलस्य नन्दिः-वृद्धि स्तस्याः कर-कारकं (कुलजसकर) कुलस्य यश:-सर्वदिग्गामिनी ख्यातिः तस्य कारक, 'एकदिग्भामिनी TSI| कीर्तिः, सर्वदिग्गामुकं यशः' इति वचनात् (कुलपायचं) छायाकरत्वात् आश्रयणीयत्वाच कुले पादपसमान, दीप अनुक्रम [५४] ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [१२] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा ||१..|| scesever कल्प.सुबो-पादपा-वृक्षा (कुलविवद्धणकरं) कुलस्त्र विवर्धन-सर्वतो वृद्धिस्तस्य कर-कारकं (सुकुमालपाणिपाया शौर्यादिवच्या०३|| सुकुमालं पाणिपादं यस्य स तथा तं (अहीणपडिपुन्नपचिंदियसरीरं) लक्षणोपेतानि तथा स्वरूपेणापि पूर्णानि शनिं सू.५३ एवंविधानि पश्चेन्द्रियाणि यन्त्र एवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं (लक्षणबंजणगुणोववेय) लक्षणानां व्यञ्जनानां च ये गुणाः तैः उपपेतं-सहितं ( माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्यंगसुंदरंग) मानेन उन्मानेन प्रमाणेन च प्रतिपूर्णानि तथा सुजातानि-शोभायुक्तानि एवंविधानि सर्वाणि अङ्गानि यन्त्र एवंविधं सुन्दरं अझं-शरीरं । यस्य स तथा तं (ससिसोमागारं) चन्द्रवत् सौम्याकारं (कंत) वल्लभं (पिपदसणं) प्रियं दर्शनं यस्य सा तथा तं (सुरूप) शोभनरूपं (दारयं) एवंभूतं पुत्रं (पयाहिसि) प्रजनिष्यसि ॥ (५२)॥ (सेविय णं दारए) सोऽपि च बालकः ( उम्मुकवालभावे) उन्मुक्तो बालभावो येन सः (विनायपरिणयमित्ते) विज्ञातं-विज्ञानं तत् परिणतमात्रं यस्य स तथा, परिपकविज्ञान इत्यर्थः (जुव्वणमणुपत्ते) यौवनं| अनुप्राप्तः सन् (सूरे) शूरः-दाने अङ्गीकृतनिर्वाहे च समर्थ इत्यर्थः (बीरे ) वीरः संग्रामे समर्थः (विकता विक्रान्ता-परमण्डलाक्रमणसमर्थः पराक्रमवानित्यर्थः (विच्छिण्णविउलबलवाहणे) विस्तीर्णादपि विपुले २५ अतिविस्तीर्णे इत्यर्थः एवंविधे बलवाइने यस्य स तथा, तत्र वलं-सेना वाहन-गवादिकं ( रज्जबई राया भविस्सइ) राज्यस्थ खामी एवंविधो राजा भविष्यति ।। (५३)॥ (तं उराला णं जाव सुमिणा दिट्ठा) तस्मात् प्रशस्ताः यावत् त्वया खमाः दृष्टाः (दुपि तचंपि अणुवू Qaceaeaseseeeeeeao दीप अनुक्रम [५४] ~133 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [१४] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ||१..|| हह) एवं वारदूयं वारत्रयं प्रशंसति (तए णं सा त्रिसला खत्तियाणी) ततोऽनन्तरं सा त्रिशला क्षत्रिया-तथाकृतिः हाणी (सिद्धत्थस्स रनो) सिद्धार्थस्य राज्ञः (अंतिए एयमई सुच्चा) पाचे एतं अर्थ श्रुत्वा (निसम्म प्रतिजागरनिशम्य-अवधार्य (हहतुहजाय हिअया)ष्य तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहया (करयलपरिग्गहियं) करतलाभ्यां च स. कृतं (जाव मत्थए अंजलिं कट्ठ) यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा (एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (५४)॥ TV (एवमेयं सामी!) एवं एतत् हे खामिन् ! (तहमेयं सामी) तथैतत् हे खामिन् ! (अवितहमेयं सामी) यथास्थितं एतत् हे स्वामिन् ! (असंदिद्धमेयं सामी) संदेहरहितं एतत् हे स्वामिन् ! (इच्छियमेयं सामी) वाञ्छितं एतत् हे स्वामिन् ! (पडिच्छियमेयं सामी) युष्मन्मुखापतदेव गृहीतं एतत् हे स्वामिन् ! (इच्छियपडिच्छियमेयं सामी) वाञ्छितं सत् पुनः पुनः वाञ्छितं एतत् हे स्वामिन् !(सच्चे णं एस अट्टे) सत्यः एषोऽथें ॥ (से जहेयं तुम्भे वयहत्ति कटु) स यथा-येन प्रकारेण इमं अर्थ यूयं वय इति उत्तवा (ते सुमिणे सम्म हापडिच्छह)तान् स्वमान् सम्यक प्रतीच्छति-अङ्गीकरोति (पडिच्छित्ता) अङ्गीकृत्य च (सिद्धत्धेर्ण रना) १० सिद्धार्थेन राज्ञा (अन्मणुन्नाया समाणी) अभ्यनुज्ञाता-स्वस्थानं गन्तुमनुमता (नाणामणिरयणभत्तिचिसत्ताओ भद्दासणाओ) नानामणिरत्नभक्तिभिश्चित्रात् भद्रासनात् (अन्भुढेह) अभ्युत्तिष्ठति, (अन्भुद्वित्ता) अभ्युत्थाय च (अतुरियमचवलमसंभंताए) अत्वरितया अचपलया असम्भ्रान्तया (अविलंबियाए) बिल-II सम्बरहितया (रायहंससरिसीए गहए )राजहंससदशया गत्या (जेणेव सर सपणिज्जे) यत्रैव स्वकं शपनीय १४ दीप अनुक्रम [५६] - 134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१६] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१६] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-8(तेणेव उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति ( उवागच्छित्ता) उपागत्य च (एवं वयासी) एवं अवादीत्-(५५) कौटुम्बिच्या०३ (मा मे एए उत्तमा) मा इति निषेधे लोके 'रखे' इति, मम एते उत्तमा:-स्वरूपतः सुन्दराः (पहाणा) सत्फलदायकत्वात् प्रधानाः अत एव (मंगल्ला) मङ्गलकारिणः (सुमिणा दिहा) स्वमाः दृष्टाः (अन्नेहि पावसुमिणेहिं ) अन्यैः पापस्वनैः (पडिहम्मिस्संतित्तिक१) मा प्रतिहन्यन्तां-विफलीक्रियन्तां इतिकृत्वा | (देवयगुरुजणसंबध्धाहिं) देवगुरुजनसम्बध्धाभिः अत एव (पसस्थाहिं) प्रशस्ताभिः (मंगल्लाहिं) मङ्गल कारिणीभिः (धम्मियाहिं ) धार्मिकाभिः (कहाहिं) कथाभिः (सुमिणजागरियं जागरमाणी ) स्वमजागISIरिकां-स्वमसंरक्षणार्थं जागरिका स्वमजागरिका तां जाग्रती (पडिजागरमाणी विहरइ) तान् स्वमानेव स्वाप-| 1 निवारणेन प्रतिचरन्ती आस्ते इत्यर्थः ।। (५६)॥ II (तए णं सिद्धत्थे वत्तिए)ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः (पच्चूसकालसमयंसि ) प्रभातकालसमये (कोडंबि यपुरिसे सद्दावेइ ) कौटुम्धिक पुरुषान-सेवकान् आकारयति (सद्दावित्ता) आकार्य च ( एवं वयासी) एवं अवादीत् ।। (५७) । किमित्याहA (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!) क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव अरे सेवकाः! (अज्ज सविसेस) अय उत्सवदिनत्वात् । ॥५५॥ विशेषप्रकारेण (बाहिरियं उवट्ठाणसालं) बायां उपस्थानशाला कचेरी' इति लोके, किंविशिष्ट ? (गंधोव्यसित्तं ) सुगन्धोदकेन सिक्तां (सुइसमजिओवलितं) शुचिं-पवित्रां, संमार्जितां कचवरापनयनेन उप दीप अनुक्रम [५८] २५ २८ UnEducation , Furniste AFennaiUse Cily ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [१८] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५८] गाथा ||१..|| लिप्सां छगणादिना, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, (सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलिय) सुगन्धानां वराणां सिंहासनपञ्चवर्णानां च पुष्पाणां य उपचारस्तेन कलितां (कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघंतगंधुझ्याभिराम) रचनादि तथा दह्यमाना ये कृष्णागुरुमवरकुन्दुरुषकतुरूषकधूपास्तेषां मघमघायमानो यो गन्धस्तेन उद्भूताभिरामा (सुगं | देशः मू. धवरगंधियं)तथा सुगन्धवराणां-चूर्णादीनां गन्धो यत्र तथा तां (गंधवहिभूयं) गन्धद्रव्यगुटिकासमानां k करेह) एवंविधां उपस्थानशालां कुरुत स्वयं ( कारवेह) अन्यैः कारयत (करित्ता कारवित्ता य) कृत्वा | कारयित्वा च तत्र (सीहासणं रयावेह रयावित्ता) सिंहासनं रचयत रचयित्वा मम एयमाणत्तियं खिप्पा-1181 मेव पचप्पिणह) मम एतां आज्ञा शीघ्रमेय प्रत्यर्पयत ॥ (५८)॥ | (तए णं ते कोटुंबियपुरिसा) ततोऽनन्तरं ते कौटुम्बिकपुरुषाः (सिद्धस्थेणं रना) सिद्धार्थेन राज्ञा (एवं बुत्ता समाणा) एवं उक्ताः सन्तः (हट्टतुट्ठजावहिअया) हृष्टास्तुष्टा इत्यादि पूर्ववत् हर्षपूणेहदयाः (जावण अंजलिं कड) यावत् अञ्जलिं कृत्वा (एवं सामित्ति) हे स्वामिन् ! यथा यूयं आदिशथ तत्तथैव अस्माभिरवश्यं । १० कतैव्यं इत्युक्त्वा (आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति) आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति (पडिसुणि-! सा) प्रतिश्रुत्य च (सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिआओ) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य पार्थात् (पडिनिक्खमंति) बहिस्तानिष्कामन्ति (पडिनिक्खमित्ता) तथा कृत्वा (जेणेव बहिरिआ उचट्ठाणसाला) यत्रैव बाह्या उप-1 स्थानशाला (तेणेव उवागच्छंति ) तत्रैव उपागच्छन्ति ( उवागच्छित्ता) उपागत्य ( खिप्पामेव ) शीघं एव दीप अनुक्रम [६०] ~136 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१९] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||१..|| २० कल्प मनो-(सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं) विशेषप्रकारेण बायां उपस्थानशालां (गंधोदयसित्तं सुई) गन्धोदकेन सिंहासनरव्या३सिक्तां तथा शुचिं च कृत्वा (जाव सीहासणं रयाविति ) यावत् तत्र सिंहासनं रचयन्ति (रयावित्ता)रच-चनादि स. शयिखा(जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रियः (तेणेव उवागच्छति)तत्रैव उपागच्छन्ति (स्वाग-५९उत्थान च्छित्ता) उपागत्य (करयल जाव मत्थए अंजलि कटु) करतलाभ्यां यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा (सिद्ध-IN त्थस्स खत्तियस्स) सिद्धार्थंय क्षत्रियस्य (तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति )तां आज्ञा प्रत्ययन्ति, तत्तथैव सर्व कृत्वा अस्माभिभेचदादेशः कृत इति निवेदयन्तीत्यर्थः ॥ (५९)॥ (तए णं सिद्धत्ये खत्तिए) ततः स सिद्धार्थः क्षत्रियः (कल्लं पाउप्पभाए रयणीए) कल्ये-आगामिनि| दिने 'प्रादुरित्यव्ययं प्रकाशे' ततः प्रकटप्रभातायां एवंविधायां रजन्यां जातायां सत्यां (फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि) फुलं-विकसितं यत् उत्पलं-पद्मं कमलश्च-हरिणविशेषस्तयोः सुकुमालं उन्मिलितंविकसनं दलानां नयनयोश्च यस्मिन्नेवंविधे अहापंडुरे पभाए) अथ-रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे-उज्ज्वले प्रभाते, अयमर्थ:-यस्मिन्प्रभाते पद्माना दलविकासेन विकसनं जातं हरिणानां च नयनविकासेनेति, तस्मिन I प्रभाते जाते, पूर्व रजनी विभाता तत ईषत्प्रकाशो जातः ततश्च पाण्डुरं-उज्ज्वलं प्रभातं जातं ततश्च क्रमेंण सूर्ये उद्गते सति, अध किंबिशिष्टे सूर्ये ( रत्तासोगप्पगासत्ति) रक्तस्य अशोकस्य यः प्रकाशा-प्रभासमूहः। (किंसुअत्ति)किंशुकंच-पलाशपुष्पं (सुअमुहत्ति)शुकमुख-शुकचचुपुटं (गुंजद्धरागत्ति) गुञ्जाया अर्धे कृष्णभा- २८ eace दीप अनुक्रम [६१] ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६०] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६०] गाथा ||१..|| aooooooose906003 गार्दैन्यभागलक्षणं एतेषां यो रागो-रक्तत्वं तथा (बंधुजीवगत्ति) बन्धुजीवकं-पुष्पविशेषः 'बपोहरीआ फुल' नृपस्योत्था. इति लोकप्रसिद्धं (पारावयचलणनयणत्ति) पारापतस्य चरणनयनं (परहुअसुरत्तलोअणत्ति) परभृतस्य-कोकि-1 नं सू.६० लस्य सुरक्ते-कोपादिना रक्तीकृते ये लोचने (जासुअणकुसुमरासित्ति) जपापुष्पस्य 'जासूद' इति लोकप्रसि-18 द्धस्य यो राशि:-समूहस्तथा (हिंगुलनिअराइरेगरेहंतसरिसे) हिंगुलनिकरच प्रसिद्धः, एतेभ्यः सर्ववस्तुभ्यः |अतिरेकेण राजमानः सन् सहशा, अन्न यः अतिरेकेण राजमानः स सदृशः कथं भवतीत्याशङ्कायां रक्तत्व-18 मात्रेण सदृशः कान्त्या तु अतिरेकेण राजमान इति वृद्धाः, अथवा रक्ताशोकप्रकाशादीनां हिङ्गुलनिकरान्तानां यो राजमानोऽतिरेक:-प्रकर्षस्तत्सदृश इति, घुनः किंविशिष्टे सूर्ये १ (कमलायरसंडवियोहए ) कमलानां आकरा-उत्पत्तिस्थानानि ये पद्महदादयस्तेषु यानि खण्डानि कमलवनानि तेषां विकाशके ( उद्वियंमि सूरे) एवंविधे अभ्युदित सूर्ये सति, पुनः किंवि०१ (सहस्सरस्सिमि) सहस्ररहमी, पुन: किंवि०१ (दिणयरे) दिनकरे-दिनकरणशीले, पुनः किंवि०? (तेअसा जलते) तेजसा देदीप्यमाने (तस्स य करपहरापर«मि अंधयारे) तस्य च-श्रीसूर्यस्य करमहारैः-किरणाभिघातैः अन्धकारे अपराद्धे-विनाशिते सति, अथ च | (बालायवकुंकुमेणं खचियव्य जीवलोए) बालातपः प्रसिद्धः स कुङ्कुममिव तेन जीवलोके-मनुष्यलोके | खचिते-व्याप्ते सति, कोऽर्थः ?-यथा कुङ्कुमेन किञ्चिद्वस्तु पिञ्जरीक्रियते तथा बालातपेन जीवलोके पिञ्जरीकृते सति (सयणिजाओ अब्भुढेइ ) शयनीयात् अभ्युत्तिष्ठति ॥ (६०)॥ दीप अनुक्रम [६२] UnEducation ~138 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६१] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६१] गाथा ||१..|| कल्प.सुबोव्या०३ ॥५७॥ (सयणिजाओ अब्भुट्टित्ता) स सिद्धार्थः शयनीयादभ्युत्थाय ( पायपीढाओ पचोरुहइ) पादपीठात् अट्टनशाप्रत्यवतरति ( पचोरुहित्ता) प्रत्यवतीर्य (जेणेव अणसाला) यत्रैव अट्टनशाला-परिश्रमशाला (तेणेव लागमादि उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति उवागच्छित्ता) उपागत्य च (अणसालं अणुपविसइ) अहनशाला अनुप्रविशति (अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य च (अणेगवायामत्ति) अनेकानि व्यायामाय-परिश्रमाय (जोग्गवग्गणत्ति) योग्या-अभ्यासः 'खुरली तु श्रमो योग्याऽभ्यास' इति वचनात् वल्गनं-अन्योऽन्यं उपर्युपरि पतनं (वामद्दणत्ति) व्यामर्दनं-परस्परेण बाह्वाद्यङ्गमोदनं (मल्लजुद्धकरणेहि) मल्लयुद्धानि प्रतीतानि, करणानि च-अङ्गगभङ्गविशेषाः मल्लशास्त्रोक्ताः एतैः कृत्वा (संते परिस्संते) श्रान्तः-सामान्येन श्रमं उपगतः, परिश्रान्त:सर्वाङ्गीणश्रमं प्राप्तः, एवंविधः सन् ( सयपागसहस्सपागेहिं ) शतवारं नवनवौषधरसेन पक्कानि, अथवा यस्य पाके शतं सौवर्णा लगन्ति तानि शतपाकानि.एवं सहस्रपाकानि एवंविधैः (सुगंधवरतिल्लमाइपहि) सुगन्ध-| वरतैलादिभिः, आदिशब्दात् कर्पूरपानीयादीनि ग्राह्याणि, अथ कीदृशैः तैलादिभिः ? (पीणणिज्जेहिं) प्रीणनीयैः-रसरुधिरादिधातुसमताकारिभिः । दीवणिज्जेहिं ) दीपनीयैः-अग्निदीप्तिकरैः (मयणिज्जेहिं मदनीयैः-कामवृद्धिकरैः (विहणिज्जेहिं ) बृहणीयैः-मांसपुष्टिकरैः (दप्पणिज्जेहिं ) दर्पणीयैः-बलकारिभिः । (सविदियगायपल्हायणिज्जेहिं ) सर्वाणि इन्द्रियाणि गात्राणि च तेषां प्रह्लादनीयैः-आप्यायनाकारिभिः एतादृशैः तैलादिभिः(अम्भंगिए समाणे) अभ्यङ्गितः सन् (तिल्लचम्मंसि) तैलचणि, तेलाभ्यानन्तरं। दीप अनुक्रम [६३] JaMEducutane ~139 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६] गाथा ।।१..।। दीप अनुक्रम [६३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६१] / गाथा [१९...] व्याख्यान [३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: एवंविधैः पुरुषैः संवाहितः सन् अपगतपरिश्रमो जात इति योगः, अथ किंविशिष्टैः पुरुषैः ? ( निउणेहिं ) निपुणैः-उपायविचक्षणैः पुनः किंवि० ? ( पडिपुन्नपाणिपायसुकुमालकोमलत लेहिं ) प्रतिपूर्णस्य पाणिपादस्य | सुकुमालकोमलानि अत्यन्तकोमलानि तलानि येषां ते तथा तैः अत्र किरणावलीकारेण दीपिकाकारेण च प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां इति प्रयोगो लिखितः स तु चिन्यः 'प्राणिसूर्यांगाणा' मितिसूत्रेणावश्यं हैमव्याकरणमते एकवद्भावभवनात् पुनः किंवि० ? (अभंगणपरिमद्दणुब्वलणकरणगुणनिम्माएहिं ) अभ्यङ्गनं-तैलादिना प्रक्षणं परिमर्दनं - तस्य तैलस्य मर्द्दनं उछलनं तस्य तैलस्य बहिः कर्षणं उद्वर्तनं वा एतेषां करणे ये गुणविशेषास्तेषु निर्माते:- विशिष्टाभ्यासवद्भिः पुनः किंवि० १ ( छेएहिं ) छेकैः - अवसरः पुनः किंवि० १ ( दुक्खेहिं ) दक्षैः खरितत्वरित कार्यकारिभिः पुनः किंवि० ? (पहेहिं ) प्रष्ठैः - मर्द्दनकारिणां अग्रेसरैः पुनः किंवि० १ (कुसलेहिं ) कुशलैः - विवेकिभिः पुनः किंवि० ? ( मेहाविहिं ) मेघाविभिः - अपूर्वविज्ञानग्रहणसमर्थैः पुनः किंवि० ? ( जिअपरिस्समेहिं ) जितपरिश्रमैः - बहुपरिश्रमकरणेऽपि श्रममनाप्नुवद्भिः (पुरिसेहिं ) एवंविधैः पुरुषै: ( अहिसुहाए ) अस्थ्नां सुखकारिण्या (मंससुहाए ) मांसस्य सुखकारिण्या ( तयासुहाए ) स्वचः सुखकारिण्या ( रोमसुहाए ) रोम्णां सुखकारिण्या ( चउब्बिहाए ) इत्येवंरूपया चतुष्प्रकारया ( सुहपरिकम्मणाए ) सुखा- सुखकारिणी परिकर्मणा - अङ्गशुश्रूषा यस्यां सा तथा एवंविधया ( संपाहणाए ) सम्बाधनया-विश्रामणया (संबाहिए समाणे ) संवाहितः कृतविश्रामणः सन् ( अवगयपरि 140~ अट्टनशालागमादि सू. ६१ ५ १० १४ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-स्समे) अपगतपरिश्रमः ( अणसालाओ पडिनिक्खमह) अहनशालायाः प्रतिनिष्कामति । (६१) मज्जनादि व्या०३ 8 (अट्टणसालाओ पडिनिक्खमित्ता) अहनशालायाः प्रतिनिष्क्रम्य (जेणेव मजणधरे) यवेव मज्जनगृह (तेणेव उवागच्छइ ) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (मज्जणघरं अणुपविसइ) मज्जनगृहं ॥५८॥ अनुप्रविशति ( अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य (समुत्तजालाकुलाभिरामे) समुक्तं-मुक्ताफलयुक्तं यत् जालं-1। गवाक्षस्तेन आकुलो-व्याप्तोऽभिरामश्च तस्मिन् (विचित्तमणिरयणकुहिमतले) विचित्राणां मणिरत्नान बद्धभूभागो यस्य स तथा तस्मिन् ( रमणिज्जे) रमणीये (पहाणमंडसि) एवंविधे स्वानमण्डपे (नाणामणिरयणभत्तिचिससि) तथा नानामणिरत्नभक्तिभिः चित्रे (पहाणपीढं सि) एवंविधे स्नानपीठे (सुहनिसन्ने) सुखेन निषण्णः-उपविष्टः सुखनिषण्णः सन् (पुष्फोदएहि य) पुष्पोदक:-पुष्परसमिर्जलैः (गंधोदएहि य ) गन्धोदकैः- श्रीखण्डादिरसमिर्जलैः (उण्होदएहि य) उष्णोदकः (सुहोदएहि य) शुभोदकैःतीर्थजलैः (सुडोदएहि य) शुद्धोदकैः- खभावनिर्मलोदकैः एवंप्रकारैर्विविधपानीयैः कृत्वा (कल्लाणकरणप वरमज्जणचिहियमजिए) कल्याणकरणे प्रवर-प्रवीण एवंविधो यो मज्जन विधिस्तेन मज्जितस्ताहशैः पुरुषैRI रिति शेषः (तस्थ कोउअसरहिं बहुविहेहिं) तत्र-स्नानावसरे कौतुकशत:-रक्षादीनां शतैः बहुविधः संयुक्त अथ कीदृशो राजा ?(कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे) कल्याणकारि एवंविधं यत् प्रवरमजतस्यावसाने-प्रान्त (पम्हलसुकुमालगंधकासाइअलूहियंगे) पक्ष्मला अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिका-कपायरक्ता दीप अनुक्रम [६४] For FFU Clu -141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||१..|| gac86880030sae शाटिका तया लूक्षितं-निर्जलीकृतं अङ्गं-शरीरं यस्य स तथा, पुनः कीदृशो राजा? (अहयसुमहग्घदूसरयण- मज्जनादि सुसंवुडे ) अहतं-अव्यङ्गं सुमहाघ-बहुमूल्यं ईदृशं यत् दृष्यरत्न-वस्त्ररत्नं तेन सुष्टु संवृतः, परिहितदूष्यरत्नसू. ६२ इत्यर्थः, पुनः किंवि०१(सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते) सरसेन सुरभिणा च गोशीर्षचन्दनेन अनुलिसं गात्रं यस्य स तथा, पुनः किंवि०?(सुहमालावन्नगविलेवणे ) तत्र माला-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं चमण्डनकारि कुङ्कुमादिविलेपनं तत् उभयं शुचि-पवित्रं यस्य स तथा, पुनः किंवि० ? (आविद्धमणिसुबन्ने) आविद्धानि-परिहितानि,मणिसुवर्णानि-लक्षणया मणिसुवर्णमयानि भूषणानि येन स तथा, पुनः किविका (कप्पियहारद्धहार तिसरयत्ति) कल्पिता-विन्यस्ता ये हारादयः, तत्र हार:-अष्टादशसरिक: अर्घहारो-नवसरिकस्त्रिसरिकं च प्रतीतं तथा (पालंवपलंबमाणत्ति) प्रलम्बमानःप्रालम्बो-मुम्बनकं (कडिमुत्तत्ति) कटिसूत्रं च-18 कव्याभरणं एतैः कृत्वा (सुकयसोहे) सुष्टु कृता शोभा यस्य स तथा, पुनः किंवि०१ (पिणद्धगेबिजे) पिनद्धानि-परिहितानि अवेयानि-ग्रीवाभरणानि येन स तथा, पुन: किंवि०१(अंगुलिज्जगललियकयाभरणे) | अङ्गुलीयकानि-अङ्गुल्याभरणानि ललितानि यानि कचाभरणानि-केशमण्डनानि पुष्पादीनि यस्य स तथा, पुन: किंवि० १ (वरकडगतुडिअर्थभिअमुए) वरैः-प्रधानः कटकैः-वलयैः त्रुटिकैश्च-बाहाभरणैः स्तम्भिती इव भुजी यस्य स तथा, पुनः किंवि० १ ( अहिअरूवसस्सिरीए) अधिकरूपेण सश्रीको यः स तथा, पुनः किंवि०१ (कुडलुज्जोइआणणे) कुण्डलाभ्यामुद्योतितमाननं-मुखं यस्य स तथा, पुनः किंवि०१(मउडदित्तसिरए) दीप अनुक्रम [६४] ~142 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबो-IN व्या०३ प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||१..|| ॥५९॥ मुकुटेन दीप्तं शिरो यस्य स तथा, पुनः किंवि०१ (हारुच्छयसुकयरइयवच्छे) हारेण अवस्कृत-आच्छादितं मन्जनादि अत एव सुष्टु कृतरतिकं-द्रष्टणां प्रमोददायि एवंविधं वक्षो-हृदयं यस्य स तथा, पुनः किंवि०? (मुद्दिया- म.६२ पिंगलंगुलिए) मुद्रिकाभिः पिङ्गला:-पीतवर्णा अङ्गुलयो,यस्य स तथा, पुनः किंधि०१ ( पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे) प्रलम्बेन-दीर्घेण अत एव प्रलम्बमानेन ईदृशेन पटेन सुष्टु कृतः उत्तरासङ्गो येन स तथा, पुनः किंचि?नाणामणिकणगरयणविमलत्ति) नानाप्रकारैर्मणिकनकरत्नैर्विमलानि-दीप्तिमन्ति अत एवं (महरिहत्ति) महाहाणि (निउणोवचियत्ति) निपुणेन शिल्पिना उपचितानि-परिकर्मितानि (मिसिमिसिंतत्ति) देदीप्यमानानि एवं विधानि (विरइयत्ति) विरचितानि (सुसिलिट्ठत्ति) सुश्लिष्टानि-सुयोजितसन्धीनि अत एव (विसिट्टत्ति) विशिष्टानि-अन्येभ्योऽतिरमणीयानि (लट्टत्ति) लष्टानि-मनोहराणि एवंविधानि (आविद्धवीरव|लए) आविद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि-वीरत्वगर्वसूचकानि वलयानि येन स तथा, यः कश्चिद्वीरंमन्यः स मां विजित्य इमानि मोचयतु इतिवुझ्या धृतवीरवलय इत्यर्थः, उपसंहरति-- किंबहुणा ) बहुना वर्णकवाक्येन किं? (कप्परुक्खए विव अलंकियविभूसिए) कल्पवृक्ष इव अलङ्कृतविभूषितः, तत्र कल्पवृक्षः|| अलङ्कृतः पत्रादिभिः विभूषितश्च पुष्पादिभिः राजा तु अलङ्कृतो मुकुटादिभिः, विभूषितो वस्त्रादिभिः, ईदृशो ( नरिंदे) नरेन्द्रः (सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरित्रमाणेणं) कोरिंटवृक्षसम्बन्धीनि माल्यानि-पुष्पा-1|| णि मालायै हितानीति व्युत्पत्तेस्तेषां दामभिः सहितेन छन्त्रेण प्रियमाणेन (सेयवरचामराहिं उद्धृवमाणीहिं)1॥ दीप अनुक्रम [६४] For F lutelu ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||१..|| श्वेतवरचामरैरुदयमानैश्च शोभित इति शेषा, पुनः किंवि०१ (मंगलजयसहकयालोए) मङ्गलभूतो जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने यस्य स तथा, यस्य दर्शने लोकैर्जयजयशब्दः क्रियमाणोऽस्तीति ज्ञेयं, पुनः | किंवि०१ (अणेगगणनायगत्ति) अनेके ये गणनायकाः-खखसमुदायस्वामिनः (दंडनायगत्ति) दण्डनायकाः तन्त्रपालाः खराष्ट्रचिन्ताकर्तारः इत्यर्थः (रायत्ति) राजानो-माण्डलिकाः (ईसरत्ति) ईश्वरा:-युवराजाः 'पाटबीकुंवर' इति लोके, अन किरणावलीकारेण दीपिकाकारेण च ईश्वरा युवराजान इति प्रयोगो लिखितः, स तु चिन्त्यः, अट्समासान्तागमनेन युवराजा इति प्रयोगभवनात (तलवरत्ति) तलवरा:-तुष्टभूपालप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः (माडंपियत्ति) माडम्बिका:-मडम्बवामिनः (कोडुबियत्ति) कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बखामिनः (मंतित्ति) मन्त्रिणो-राज्याधिष्ठायकाः सचिवाः (महामंतित्ति) महामन्त्रिणः त एव विशे-RI षाधिकारवन्तः (गणगत्ति) गणका:-ज्योतिषिकाः दोवारियत्ति) दौवारिका:-प्रतिहारा:(अमचत्ति)अमात्याःसहजन्मानो मन्त्रिणः (चेडत्ति) चेटा-दासाः (पीढमद्दत्ति) पीठमईका:-पीठ-आसनं मर्दयन्तीति पीठमर्दकाःआसन्नसेवकाः वयस्या इत्यर्थः (नगरत्ति) नागरा-नगरवासिनो लोका: (निगमत्ति) निगमा-वणिजः (सिहित्तिा श्रेष्ठिनो-नगरमुख्यव्यवहारिणः (सेणावइत्ति) सेनापतयः चतुरङ्गसेनाधिकारिणः (सत्यवाहत्ति)सार्थवाहा:सार्थनायकाः (दूअत्ति) दूता:-अन्येषां गत्वा राजादेशनिवेदकाः (संधिवालत्ति) सन्धिपाला:-सन्धिरक्षकाः (सद्धिं संपरिबुडे ) एतैः सर्वैः सार्ध संपरिघृतः, ईदृशो नरपतिर्मजनगृहात् प्रतिनिष्कामतीति योगा, अथ दीप अनुक्रम [६४] For F lutelu ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- व्या०३| ॥६ ॥ दीप अनुक्रम [६४] मज्जनगृहान्निष्क्रमणे उपमां आह(धवलमहामेहनिग्गए इव) धवलमहामेघनिर्गत इव-यथा (गहगण- सिंहासने | दिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिब्ब) ग्रहसमूहदीप्यमानऋक्षतारागणानां मध्ये वर्तमानः शशीव, अत्र ग्रहगणऋक्षतारागणतुल्यः पूर्वोक्तः परिवारः शशितुल्यस्तु राजेति, कीदृशो नृपः ? (पियदसणे ) प्रियंसू. ६३ दर्शनं यस्य स तथा, यथा हि वार्दलानिर्गतो नक्षत्रादिपरिवृतश्च शशी प्रियदर्शनो भवति तथा सोऽपि नरपतिरिति भावः, पुनः कीदशोपः (नरवहत्ति) नरपति:-प्रजापालक (नरिंदे) नरेन्द्र:-नरेषु इन्द्रस- मानः (नरवसहे) नरवृषभ:-धरांभारधुरन्धरत्वान्नरेषु वृषभसमानः (नरसीहे) नरसिंहो-दुस्सह पराक्रमत्वात् नरेषु सिंहसमाना, पुनः किंवि०१(अब्भहियरायतेयलच्छीए दिपमाणे) दीप्यमानः, कया?-अभ्य|धिकराजतेजोलक्ष्म्या, एवंविधो नृपतिः मज्जणघराओ पडिनिक्खमद ) मज्जनगृहात् स्नानमन्दिरात् प्रति निष्कामति ॥ (३२)॥ | (मजणघराओ पडिनिक्खमित्ता) लानमन्दिरात् प्रतिनिष्क्रम्य (जेणेव यहिरिया उवहाणसाला) यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला (तेणेव उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (सीहासणंसिर पुरत्याभिमुहे निसीअह) सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति-उपविशति ॥ (६३)॥ | (सीहासणंसि पुरस्थाभिमुहे निसीहत्ता) सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषय-उपविश्य (अप्पणो) आत्मनः सकाशात् ६ उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए) ईशानकोणे दिग्भागे ( अट्ठ भद्दासणाई) अष्ट भद्रासनानि, अथ ॥६ ॥ २८ ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६४] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६४] गाथा ||१..|| कीदृशानि? (सेयवत्वपच्चुत्थयाई ) श्वेतवस्त्रेण आच्छादितानि, पुनः किंवि. ? ( सिद्धत्थकयमंगलोवया-II राई) सिद्धार्थं श्वेतसर्षपैः कृतो मङ्गलनिमित्तं उपचार:-पूजा येषु तानि (रयावेइ) रचयति (रयावित्ता)। सिंहासने उपवेशः रचयित्वा च (अप्पणो अदूरसामंते ) आत्मनो नातिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः यवनिका रचयतीति योजना, सू. ६३ अथ किंविशिष्टां यवनिकां? (नाणामणिरयणमंडियं) नानाप्रकारैर्मणिरत्नैर्मण्डितां-शोभमानां अत एवं अहियपिच्छणिज्ज) अधिक प्रेक्षणीयां-द्रष्टुं योग्यां, पुनः किंवि० ? (महग्यवरपट्टणुग्गयं) महा_-बहुमूल्या वरे-प्रधाने पत्तने-वस्त्ररत्नोत्पत्तिस्थाने उद्गता-निष्पन्ना ततो विशेषणसमासस्ता, पुन: किंवि० (सहपहभत्तिसयचित्तताणं) श्लक्ष्णं यत्पसूत्रं तन्मयः भक्तीनां-रचनानां शतानि तें चित्रस्तानको यस्यां सा| तथा तां, पुनः किंवि०१ (इहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलय | भत्तिचित्रां) इहामृगा-वृकाः वृषभाः तुरगाः नराः मकराः विहङ्गा व्यालका:-सपी किन्नराः रुरवो-मृगभेदाः शरभा-अष्टापदाः महाकायाः अटवीपशवः चमाँ-गावः कुञ्जरा-हस्तिन: वनलता-चम्पकलतादयः पद्मलता:-प्रतीताः एतेषां या भक्तयो-रचनाः ताभिः चित्रां, एवंविधां (अभितरि जवणिअं) अभ्य न्तरां यवनिका (अंछावेह) रचयति (अंछावित्ता) रचयित्वा भद्रासनं रचयति, अथ किंविशिष्टं भद्रा 18 सनं? (नाणामणिरयणभत्तिचित्तं) विविधजातीयमणिरत्नानां भक्तिभी-रचनाभिश्चित्रं, पुन: किंचि०? प.स. ११ ला(अस्थरयमिउमसूरगोस्थयं) आस्तरक:-प्रतीतः मृदयों मसूरक-आस्तरणविशेषस्ताभ्यां अवस्तृत-आच्छा दीप अनुक्रम [६६] there Reacseksee ~146 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६४] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: न्या०३ प्रत सूत्रांक [६४] गाथा ||१..|| कल्प.सबोदितं यद्वा अस्तरजसा-निर्मलेन मृदुना-कोमलेन मसूरकेण-चाकलो गादी इति जनप्रसिद्धेन आच्छादित सिंहासने पुनः किंधि०१(सेअवस्थपञ्चुत्थयं) श्वेतेन वस्त्रेण प्रत्यवस्तृतं-उपरि आच्छादितं, पुनः किंवि०?(सुमउअं) उपवेशः सुतरां मृदुकं-अतिकोमलं, पुन: किंवि०? (अंगसुहफरिसर्ग) अङ्गस्य सुखा-सुखकारी स्पों यस्य स तथा, ॥६१॥ अत एव (विसिह) विशिष्टं-शोभनं (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायै क्षत्रियाण्यै तद्योग्य इत्यर्थः, ईदृशं (भद्दासणं रयाबेइ) भद्रासनं रचयति (रयावित्ता) रचयित्वा च (कोडंविअपुरिसे सद्दावेइ) कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति (सहावित्ता) शब्दयित्वा च ( एवं बयासी) एवं अवादीत् ॥ ३४॥ किमित्याह| (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ!) शीघ्रमेव भो देवानुप्रिया:-सेवकाः! खमलक्षणपाठकान् शब्दयत, अथ किंविशिष्टान् खमलक्षणपाठकान् ? ( अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए) अष्ट अङ्गानि यत्र एवंविधं यत् महा-18 निमित्तं-निमित्तशास्त्रं भाविपदार्थसूचकखमादिफलव्युत्पादको अन्धस्तस्य सूत्रार्थों धारयन्ति येते तथा तान् , 8 तत्र निमित्तस्य अष्ट अङ्गानि इमानि-अङ्ग १ खमं २ खरं ३ चैव, भौमं ४ व्यजन ५ लक्षणे ६ । उत्पाद | मन्तरिक्षं च ८, निमित्तं स्मृतमष्टधा ॥१॥ तत्र पुंसां दक्षिणाझे स्त्रीणां वामाझे स्फुरणं सुन्दरमित्यार्यङ्ग-1 विद्या १ खमानां उत्तममध्यमाधमविचारः खमविद्या २ दुर्गादीनां खरपरिज्ञानं खरविद्या ३ भौम-भूमिक-IS म्पादिविज्ञानं ४ व्यञ्जन-मषीतिलकादि ५ लक्षणं-करचरणरेखादि सामुद्रिको उत्पात-उल्कापातादिः ७ अन्तरिक्षं-ग्रहाणां उदयास्तादिपरिज्ञानम् ८ पुन: किंवि०? (विविहसस्थकुसले) विविधानि यानि दीप अनुक्रम [६६] For F lutelu ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ६५ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [६७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६५ ] / गाथा [...] व्याख्यान [३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ........................ शास्त्राणि तत्र कुशलाः तान् ( सुविणलक्खणपाढ़ए ) एवंविधान् खलक्षणपाटकान् (सहावेह ) आकारयत ॥ ( तए णं ते कोटुंबियपुरिसा) ततः ते कौटुम्बिकाः पुरुषाः ( सिद्धस्थेनं रन्ना एवं वुत्ता समाणा ) सिद्धार्थेन राज्ञा एवं उक्ताः सन्तः ( हहतुट्ट जाव हिअया) हृष्टतुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहृदयाः (करयल जाव | पडिसुगंति) करतलाभ्यां यावत् प्रतिशृण्वन्ति, यावत्करणात् “करयलपरिग्गहिअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अञ्जलिं कट्टु, एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं बघणं पडिसृणंति ” इति वाच्यं, आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति ॥ (६५) ॥ ( पडिणित्ता) प्रतिश्रुत्य ( सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिआओ ) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य पार्श्वात् (पडिनिक्खमंति) बहि: निस्सरन्ति ( पडिनिक्खिमित्ता) प्रतिनिष्क्रम्य ( कुंडग्गामं नयरं ) क्षत्रियकुंडग्रामस्य नगरस्य (ममझेणं) मध्यभागेन ( जेणेव सुमिणलक्खणपाडगाणं गेहाई ) यत्रैव स्वलक्षणपाठकानां गृहाणि सन्ति ( तेणेव उवागच्छंति ) तत्रैव उपागच्छन्ति (उवागच्छित्ता) उपागत्य ( सुविणलक्खणपाढए सद्दाविंति ) खमलक्षणपाठकान् शब्दयन्ति ॥ ( ३६ ) ॥ (लए णं ते सुविणलक्खणपाढगा) ततः - अनन्तरं ते खप्मलक्षणपाठकाः (सिद्धत्थस्स खत्तियस्स ) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य (कोटुंबियपुरिसेहिं ) कौटुम्बिकपुरुषैः (सद्दाविया समाणा) आकारिताः सन्तः (हट्टतुट्टजावहि अया ) हृष्टाः तुष्टाः यावत् हृदयाः पुनः किंविशिष्टास्ते ? (व्हाया ) नाताः पुनः किंवि० ? ( कयबलिकम्मा ) कृतं 148 स्वप्नपाठकाकारणागमने सू. ६६-६७ ५ १० १४ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [२] .......... मूलं [६७] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कागमः [६७] गाथा ||१..|| सुबो-बलिकर्म-पूजा यैस्ते, पुनः किंवि०१ (कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) कौतुकानि-तिलकादीनि,मङ्गलानि-दधिव्या३दूर्वाक्षतानि तान्येव प्रायश्चित्तानि-दुःखनादिविध्वंसकानि कृतानि यैस्ते तथा, पुनः किंवि० ? (सुद्धप्पवे-1 साई मंगल्लाई वस्थाई पवराई परिहिया) शुद्धानि-उज्ज्वलानि प्रवेश्यानि-राजसभाप्रवेशयोग्यानि उत्सवा॥६२॥ सू.६७ दिमङ्गलसूचकानि एवंविधानि प्रवरवस्त्राणि परिहितानि यैस्ते तथा, पुनः किंवि०१ (अप्पमहग्याभरणालंII कियसरीरा) अल्पानि-स्तोकानि अथ च महा_णि-बहुमूल्यानि एवंविधानि यानि आभरणानि तैः अल-11 कृतं शरीरं येषां ते तथा, पुन: किंवि०१ (सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा) सिद्धार्था:-श्वेतसःपाः। हरितालिका-दूर्वा तद् उभयं कृतं मङ्गलनिमित्तं मूर्धनि यैस्ते तथा, एवंविधाःसन्तः (सएहिं सएहिं गेहेहितो निग्गच्छति) स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो गेहेभ्यः निर्गच्छन्ति (निग्गच्छित्ता) निर्गत्य च (खत्तियकुंडग्गामं नयरं मझमझेणं ) क्षत्रियकुंडस्य ग्रामस्य नगरस्य मध्यंमध्येन (जेणेव सिद्धत्यस्स रनो) यत्रैव सिद्धार्थस्य ISराज्ञः (भवणवरवळिसगपडिद्वारे) भवनवरावतंसकप्रतिद्वारं, भवनवरेषु-भवनश्रेष्ठेषु अवतंसक इव-मुकुट |इव भवनवरावतंसकस्तस्य प्रतिद्वारं-मूलद्वारं (तेणेव उवागच्छंति) तत्रैव उपागच्छन्ति (उवागच्छित्ता)ाला २५ उपागत्य च (भवणवरवर्डिसगपडिद्वारे) भवनवरावतंसकप्रतिद्वारे (एगओ मिलति) एकत्र मिलन्ति-सम्म-| ॥६२॥ तीभवन्ति, सर्वसम्मतमेकं पुरस्कृत्य अन्ये तदनुयायिनो भवन्तीति तत्वं ।। यता-सर्वेऽपि यत्र नेतारः, सर्वे पण्डितमानिनः। सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तदन्दमवसीदति ॥१॥ दृष्टान्तश्च अन पञ्चशतसुभदानां, तयथा-II दीप अनुक्रम [६९] A njaneibrary.org ~149 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६७] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६७] गाथा ||१..|| 98290090878000sceae काचित्सुभटानां पञ्चशती परस्परमसम्बद्धा सेवानिमित्तं कस्यचिद्राज्ञः पुरो ययौ, राज्ञा च मन्त्रिवचसा परिक्षार्थ एकैव शय्या प्रेषिता, ते च सर्वेऽपि अहमिन्द्रा लघुवृद्धव्यवहाररहिताः परस्परं विवदमानाः सर्वैरपि। कागमः एषा शय्या व्यापार्या इति बुद्ध्या शय्यां मध्ये मुक्त्वा तदभिमुखपादाः शयितवन्तः, प्रातश्च प्रच्छन्नमुक्तपुरु- मू.६७ पैर्यथावत्यत्तिकरे निवेदिते. कथं एते स्थितिरहिताः परस्परं असम्बद्धाः युद्धादि करिष्यन्तीति राज्ञा निर्भस्यै निष्कासिता इति । ततस्ते स्वप्रपाठका (एगओ मिलित्ता) एकत्र मिलित्वा (जेणेच बाहिरिया उवट्ठा-5 णसाला) यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला (जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थःक्षत्रियः (तेणेव उवागच्छन्तिा तत्रैवोपागच्छन्ति (उवागच्छित्ता) उपागत्य ( करयलजाव अंजलिं कट्ठ) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा (सिद्धत्थं खत्तियं) सिद्धार्थ क्षत्रियं प्रति (जएणं विजएणं बद्धाविति) जयेन विजयेन त्वं वर्धख इत्याशीर्वाद दत्तवन्तः, स चैर्व-दीर्घायुर्भव वृत्तवान् भव भव श्रीमान् यशस्वी भव, प्रज्ञावान् भव भूरिसत्त्वकरुणादानक-1 शौण्डो भव । भोगाव्यो भव भाग्यवान् भव महासौभाग्यशाली भव, प्रौढश्रीव कीर्तिमान भव सदा विश्वोपजीव्यो भव ॥१॥ अन किरणावलिदीपिकाकाराभ्यां कोर्टिभरस्त्वं भवेति पाठो लिखितस्तत्र कोर्टि-TRI भर इति प्रयोगश्चिन्त्यः । कल्याणमस्तु शिवमस्तु धनागमोऽस्तु, दीर्घायुरस्तु सुतजन्मसमृद्धिरस्तु । वैरिक्षयो ऽस्तु नरनाथ ! सदा जयोऽस्तु, युष्मत्कुले च सततं जिनभक्तिरस्तु ॥२॥ (६७)॥ दीप अनुक्रम [६९] JMEducatamdanal Fur & Fonte - 150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [६९] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [३] मूलं [ ६७ ] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ॥ ६३॥ ........................ RARARARARARARARGARARARARARAN इति महोपाध्यायश्री कीर्तिविजयगणि शिष्योपाध्यायश्री विनय विजयगणि विरचितायां कल्पसुबोधिकायां तृतीयः क्षणः समाप्तः । ग्रन्थाग्रम् || ७०० | त्रयाणामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् ।। २१०६ ।। श्रीरस्तु SERBERGISERSPASEASPASERS SEASPASERSERVERS TREBASERSER तृतीयं व्याख्यानं समाप्तं 151 ||६३|| Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [६८] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६८] S303030 गाथा ||१..|| ॥ अथ चतुर्थ व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ खिमपाठकानामुप वेशनं सAI (तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा) ततस्ते स्वपलक्षणपाठकाः (सिद्धत्थेणं रन्ना वंदिअत्ति) सिद्धार्थेन राज्ञा त्कारः सू. वन्दिताः गुणस्तुतिकरणेन (पूइअत्ति) पूजिताः पुष्पादिभिः (सकारिअत्ति) सत्कारिताः फलवस्त्रादिदानेन |६८-६९ (सम्माणिआ समाणा) सन्मानिता: अभ्युत्थानादिभिः, एवंविधाः सन्तः (पत्तेयं पत्तेयं पुवनत्थेसु भद्दा-1 सणेसु निसीअंति) प्रत्येकं प्रत्येकं पूर्वन्यस्तेष भद्रासनेषु निषीदन्ति ॥ (६८)। 1. (तए णं सिद्धत्थे खत्तिए ) ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः (तिसलं खत्तिआणि) त्रिशलां क्षत्रियाणी (जव-18५ णिअंतरियं ठावे) यवनिकान्तरितां स्थापयति (ठावित्ता) स्थापयित्वा (पुष्फफलपडिपुन्नहत्थे) पुष्पैःप्रतीतैः फलैः-नालिकेरादिभिः प्रतिपूर्णी हस्ती यस्य स तथा, यता-रिक्तपाणिर्न पइयेच, राजानं दैवतं गुरुम् ।। निमित्तझं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत ॥१॥ ततः पुष्पफलप्रतिपूर्णहस्तः सन् (परेणं विणएणं) | उस्कृष्टेन विनयेन (ते सुविणलक्खणपाढए)तान् खप्नलक्षणपाठकान् (एवं बयासी) एवमवादीत्॥ (६९)। 1 किमित्याहRI (एवं खलु देवाणुप्पिया! ) एवं निश्चयेन भो देवानुप्रियाः । ( अज्ज तिसला खत्तिआणी ) अब त्रिशला | दीप अनुक्रम [७०] चतुर्थं व्याख्यानं आरभ्यते ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७०] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [७०] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो व्या०४ ॥६४॥ क्षत्रियाणी (तंसि तारिसगंसि) तस्मिन् तादृशे शयनीये (जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी) यावत् सुप्तजागरा खमानां अल्पनिद्रां कुर्वती (इमे एयारूवे) इमान् एतद्रूपान् (उराले चउद्दस महासुमिणे)प्रशस्तान चतुर्दश महा- कथनं फलस्वमान् (पासिसाणं पडिबुद्धा) दृष्ट्वा जागरिता ॥ (७०)॥ प्रश्नो वि(तंजहा)तवधा (गयवसहगाहा)'गयवसह' इति गाथा चात्र वाच्या (तं एएसि) तस्मात् एतेषांचार: सू. (चउदसण्हं महासुमिणाणं) चतुर्दशानां महाखमानां (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिया! ( उरालाणं) प्रशस्तानां (के मन्ने) का विचार्यामि (कल्लाणे) कल्याणकारी (फलवित्तिविसेसे भविस्सइ) फलवृत्तिविशेषः भविष्यति ? ॥ (७१)॥ | (तए ण ते सुमिणलक्षणपाढगा) ततः ते स्वपलक्षणपाठका: (सिद्धत्थरस खत्तियस्स) सिद्धार्थस्य | क्षत्रियस्य (अंतिए एयमटुं सुच्चा) पार्श्वे एनं अर्थ श्रुत्वा (निसम्म) निशम्य च (हहतुट्ट जाच हिअया) हृष्टा: तुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहदया. (ते सुमिणे सम्म ओगिण्हति) तान् खमान् सम्यग हदि धरन्ति (ओ-| गिणिहत्ता) हृदि धृत्वा (ईई अणुपविसंति) अर्थविचारणां अनुप्रविशन्ति (अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य च | ( अन्नमन्नेणं सर्द्धि संचालिंति) अन्योऽन्येन-परस्परेण सह सञ्चालयन्ति-संवादयन्ति पर्यालोचयन्तीत्यर्थः ॥६४॥ (संचालित्ता) सञ्चाल्य च (तेसिं सुमिणाणं) तेषां खमानां (लट्ठा) लब्धोऽर्थो यैस्ते लब्धार्थाः-खबुच्याऽवगतार्थाः (गहियट्ठा) परस्परतो गृहीतार्थाः (पुच्छियट्ठा) संशये सति परस्परं पृष्टार्थाः, तत एव (वि दीप अनुक्रम [७०] २५ ... स्वप्न-फल-पाठकै: कथित-स्वप्न-फल-वर्णनं ~153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [७२] / गाथा [...] व्याख्यान [४] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ........................ | णिच्छियट्ठा) विनिश्चितार्था:, अत एव (अहिगयट्ठा) अभिगनार्थाः - अवधारितार्थाः सन्तः (सिद्धत्थस्स रनो पुरओ) सिद्धार्थस्य राज्ञः पुरतः (सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उचारेमाणा ) खमशास्त्राण्युच्चारयन्तः (सिद्धत्थं खत्तियं ) सिद्धार्थ क्षत्रियं ( एवं वयासी) एवमवादिषुः, स्वप्नशास्त्राणि पुनरेवं- अनुभूतः १ श्रुतो २ दृष्टः ३, प्रकृतेश्व विकारजः ४ । खभावतः समुद्भूत ५ श्चिन्तासन्ततिसम्भवः ६ ॥ १ ॥ देवताद्युपदेशात्थी ७, धर्मकर्मप्रभावः ८ । पापोद्रेकसमुत्थश्च ९, स्वमः स्यान्नवधा नृणाम् ॥ २ ॥ प्रकारैरादिमैः षड्भिरंशुभश्च शुभोऽपि वा । दृष्टो निरर्थकः स्वमः सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः ॥ ३ ॥ रात्रश्चतुर्षु यामेषु, दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः । मासैर्द्वादशभिः षडिस्त्रिभिरेकेन च क्रमात् ॥ ४ ॥ निशाऽन्त्यघटिकायुग्मे, दशाहात्फलति ध्रुवम् । दृष्टः सूर्योये स्वप्नः सद्यः फलति निश्चितम् ॥ ५ ॥ मालास्वशोऽहि दृष्टश्च तथाऽऽधिव्याधिसम्भवः । मलमूत्रादिपीडोत्थः, स्वमः सर्वो निरर्थकः ॥ ६ ॥ धर्मरतः समधातुर्यः स्थिरचित्तो जितेन्द्रियः सदयः । प्रायस्तस्य प्रार्थितमर्थं स्वप्नः प्रसाधयति ॥ ७ ॥ न श्राव्यः कुस्वशो. गुर्वादेस्तदितरः पुनः श्राव्यः । योग्यश्राव्याभावे, गोरपि कर्णे प्रविश्य वदेत् ॥ ८ ॥ इष्टं दृष्ट्वा स्वप्नं न सुप्यते नाप्यते फलं तस्य । नेया निशाऽपि सुधिया, जिनराजस्तवन संस्तवतः ॥ ९ ॥ स्वप्नमनिष्टं दृष्ट्वा सुप्यात्पुनरपि निशामवाप्यापि । नायं कथ्यः कथमपि केषांचित् फलति न स यस्मात् ॥ १० ॥ पूर्वमनिष्टं दृष्ट्वा स्वमं यः प्रेक्षते शुभं पश्चात् । स तु फलदस्तस्य. भवेद् द्रष्टव्यं तद्वदिष्टेऽपि ॥ ११ ॥ स्वमे मानवमृगपतितुरङ्गमातङ्गवृषभ सिंहीभिः । युक्तं रथमारूढो यो गच्छति भूपतिः स भवेत् ॥ १२॥ For Frite & Personal Use Only 154 स्ववि चारः १० १४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] ......... मूलं [७२] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-1 अपहारो हयवारणयानासनसदननिवसनादीनाम् ।नृपशङ्काशोककरो,बन्धुविरोधार्थहानिकरः ॥१३॥ यः सूर्या- खप्नविव्या०४ चन्द्रमसोर्बिम्ब असते समग्रमपि पुरुषः । कलपति दीनोऽपि,महीं ससुवर्णा सार्णवां नियतम् ॥ १४॥ हरणं चारः प्रहरणभूषणमणिमौक्तिककनकरूप्यकुप्यानाम् । धनमानम्लानिकर दारुणमरणावह बहुशः ॥ १५ ॥ आरूढः ॥६५॥ शुभ्रमिभ,नदीतटे शालिभोजनं कुरुते। भुङ्क्ते भूमीमखिला.स जातिहीनोऽपि धर्मधनः॥१६॥ निजभार्याया। हरणे, वसुनाशः परिभवे च संक्लेशः। गोत्रस्त्रीणां तु नृणां जायेते बन्धुवघवन्धौ ॥१७॥ शुभ्रेण दक्षिणस्या. यः फणिना दश्यते निजभुजायाम् । आसादयति सहस्रं, कनकस्य स पश्चरात्रेण ॥१८॥ जायेत यस्य हरणं २० निजशयनोपानहां पुनः स्वमे। तस्य म्रियते दयिता, निविडा स्वशरीरपीडा च ॥ १९॥ यो मानुषस्य मस्तकचरणभुजानां च भक्षणं कुरुते। राज्यं कनकसहस्रं तदर्धमामोत्यसौ क्रमशः ॥२०॥ द्वारपरिषस्य शयनप्रेडो लनपादुकानिकेतानाम् । भानमपि यः पश्यति, तस्यापि कलत्रनाशः स्यात् ॥ २१ ॥ कमलाकररत्नाकरजलसTRIम्पूणोंपगाः सुहृन्मरणम् । यः पश्यति लभतेऽसानिमित्तं वित्तमतिविपुलम् ॥ २२ ॥ अतितप्तं पानीयं,सगो मयं गडुलमौषधेन युतम् । यः पिबति सोऽपि. नियतं म्रियतेऽतीसाररोगेण ॥ २३ ॥ देवस्य प्रतिमाया, यात्रा- २५ स्नपनोपहारपूजादीन् । यो विदधाति स्वमे तस्य भवेत् सर्वतो वृद्धिः ॥ २४ ॥ स्वमे हृदयसरस्यां यस्य प्रादुर्भ-|| ॥६५॥ वन्ति पद्मानि । कुष्टविनष्टशरीरो, यमवसतिं याति स त्वरितम् ॥ २५॥ आज्यं प्राज्यं स्वमे,यो विन्दति वीक्षते यशस्तस्य । तस्याभ्यवहरणं वा क्षीरान्नेनैव सह शस्तम् ॥ २६ ॥ हसने शोचनमचिरात् प्रवर्त्तने नर्सने च वध-18| २८ दीप अनुक्रम [७२] njaneibrary.org ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [७२] / गाथा [...] व्याख्यान [४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः Stotrive ........................ बन्धौ । पठने कलह, नृणामेतत् प्राज्ञेन विज्ञेयम् ॥ २७ ॥ कृष्णं कृत्स्नमंशस्तं मुक्त्वा गोवाजिराजगजदेवान् । सकलं शुक्लं च शुभं त्यक्त्वा कर्पासलवणादीन् ॥ २८ ॥ दृष्टाः स्वमा ये स्वं प्रति तेऽत्र शुभाशुभा नृणां स्वस्य । ये प्रत्यपरं तस्य ज्ञेयास्ते स्वस्य नो किञ्चित् ॥ २९ ॥ दुःखमे देवगुरून् पूजयति करोति शक्तितश्च तपः । सततं धर्मरतानां दुःस्वप्नो भवति सुस्वनः ॥ ३० ॥ तथा सिद्धान्तेऽपि "इत्थी वा पुरिसो वा सुविणन्ते एवं महन्तं खीरकुम्भं वा दहिकुंभ वा घयकुम्भं वा महुकुम्भं वा पासमाणे पासह उप्पाडेमाणे उप्पाडेह उप्पाडिअ मिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव बुज्झइ तेणेव भवग्गहणणं सिज्झइ जाव अन्तं करेइ ॥ इत्थी वा पुरिसो वा सुमिणन्ते एवं महन्तं हिरण्णरासिं वा रयणरासिंवा सुवण्णरासिं वा बयररासिं वा पासमाणे पासइ दुरूहमाणे दुरूहद्द दुरूढमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव बुज्झइ तेणेव भवरगहणेणं जाव अन्तं करेइ, एवमेव अपरासि त अरासि तम्बरासिं सीसगरासिंति सूत्राणि वाच्यानि, नवरं दुचेणं सिझर ( भ० ५८१ ) इति वाच्यम् ।। ( ७२ ) ।। ( एवं खलु देवाणुपिया) एवं निश्चयेन हे देवानुप्रिय ! हे सिद्धार्थराजन् ! ( अम्हं सुमिणसत्थे ) अस्माकं स्वमशास्त्रे (यायालीसं सुमिणा ) द्विचत्वारिंशत् स्वप्राः - सामान्यफलाः (तीसं महासुमिणा ) त्रिंशत् महा| स्वमा:- उत्तम फलदायकाः ( बावन्तरिं सङ्घसुमिणा दिट्ठा ) द्वासप्ततिः सर्वे स्वप्राः कथिताः (तत्थ णं देवाशुप्पिया ) तत्र च हे देवानुप्रिय ! (अरहंतमायरो वा ) अर्हन्मातरो वा ( चक्कवहिमायरो वा ) चक्रवर्त्ति 156 स्वमवि चारः ५ १० १४ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं ७३] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत खमफला सूत्रांक [७३] ७४-७९ ७६-७७ गाथा ||१..|| २० कल्प.सुबो-मातरो वा (अरहंतसि वा) अर्हति वा ( चक्कहरंसि वा) चक्रधरे वा (गभं वक्कममाणंसि) गर्भ व्युत्क्रा- च्या०४ मति-प्रविशति सति (एएसिं तीसाए महासुमिणाणं) एतेषां त्रिंशतः महास्वमानां मध्ये (इमे चउद्दस ॥६६॥ महासुमिणे) इमान् चतुर्दश महास्वभान (पासित्ता णं पडिबुझंति ) दृष्ट्वा प्रतिवुध्यन्ते-जाग्रति ॥ (७३) (तंजहा) तद्यथा-(गयवसहगाहा) गयवसह' इति गाथा वाच्या ॥ (७४)॥ (वासुदेवमायरो वा) वासुदेवमातरो वा (वासुदेवंसि) वासुदेवे (गन्भं वक्कममाणंसि) गर्भ व्युत्क्रामति सति (एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं) एतेषां चतुर्दशानां महास्वमानां मध्ये (अण्णयरे सत्त | सुमिणे) अन्यतरान् सप्त स्वमान् (पासित्ता णं पडिबुज्झंति)दृष्टा प्रतिबुध्यन्ते ॥ (७५)॥ A (बलदेवमायरो वा) बलदेवमातरो या (बलदेवसि) बलदेवे (गन्भं बक्कममाणंसि) गर्भ व्युत्क्रामति सति (एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं) एतेषां चतुर्दशानां महास्वप्नानां मध्ये (अण्णयरे चत्तारि महासुमिणे) अन्यतरान् चतुरः महास्वमान् (पासित्ताणं पडिबुझंति) दृष्ट्रा प्रतिबुध्यन्ते ॥ (७६)॥ या (मंडलियमायरो वा) माण्डलिको-देशाधिपतिः तस्य मातरो वा (मण्डलियंसि) माण्डलिके (गभं वक्कममाणंसि) गर्भ व्युत्क्रामति (एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं) एतेषां चतुर्दशानां महास्वप्नानां मध्ये (अपणयरं| एग महासुमिणं) अन्यतरं एक महास्वमं (पासित्ताणं पडिबुज्झंति) दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते ॥ (७७)। (इमे य णं देवाणुप्पिया) इमे च हे देवानुप्रिय ! (तिसलाए खत्तियाणीए) त्रिशलया क्षत्रियाण्या दीप अनुक्रम [७३] For F lutelu ~157 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७८] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७८] गाथा ||१..|| चलस महासुमिणा दिहा) चतुर्दश महास्वप्नाः दृष्टाः (तं उराला णं) तस्मात् प्रशस्ताः (देवाणुप्पिया)महास्वप्नफAIR देवानुप्रिय! (तिसलाए खत्तियाणीए) त्रिशलया क्षत्रियाण्या (सुमिणा दिहा) स्वमा दृष्टाः (जाब मंग- लम् सू.७८ शल्लकारगाणं) यावत् माङ्गल्यकारकाः (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय! (तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिवा) विशलया क्षत्रियाण्या खमा दृष्टाः, महाखमत्वात महाफलत्वं दर्शयति-(तं०अत्यलाभो देवाणुपिया)तस्मात् अर्थलाभो भविष्यति हे देवानुप्रिय! (भोगलाभो देवाणुप्पिया) भोगलाभो हे देवानु- ५ प्रिय ! (पुत्तलाभो देवाणुप्पिया) पुत्रलाभो हे देवानुप्रिय! (सुक्खलाभो देवाणुप्पिया) सुखलाभो हे| देवानुप्रिय! (रजलाभो देवाणुप्पिया)राज्यलाभो हे देवानुप्रिय ! (एवं खलु देवाणुप्पिया) अनेन प्रकारेण निश्च-11 येन हे देवानुनिय!(तिसला खत्तियाणी)त्रिशला क्षत्रियाणी (नवण्हं मासाणं) नवसुमासेषु (बहुपडिपुन्नाण) बहुप्रतिपूर्णेषु (अट्टमाण राइंदियाणं) सार्द्धसससु च अहोरात्रेषु (विइताणं) व्यतिक्रान्तेषु सत्सु (तुम्हं| कुलकरड) युष्माकं कुले केतुसमानं (कुलदीव)कुले दीपसमानं (कुलवडिसयं) कुले मुकुटसमानं (कुलपवयं) कुलस्य पर्वतसमान (कुलतिलयं) कुलस्य तिलकसमानं (कुलकित्तिकर) कुलस्य कीर्तिकारकं (कुलवित्तिकर) कुलस्य निवोहकारकं (कुल दियणरं) कुले सूर्यसमान (कुलाधारं) कुलस्थाधारं (कुलजसकरं) कुलस्य यशःकारक ATE कुलपायर्व) कुले वृक्षसमानं (कुलतंतुसंताणविवद्धणकर) कुलस्य तन्तुसन्तान:-परम्परा तस्य विवधन कारक (सुकुमालपाणिपाय) सुकुमालं पाणिपादं यस्य तं ( अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं) अहीनानि प्रति दीप अनुक्रम [७७] ~1580 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: चतुर्दशस्त्र| मालम् प्रत सूत्रांक [७८] गाथा ||१..|| ब. ७९ कल्प.सुबो-पूर्णानि च पश्चेन्द्रियाणि यन्त्र एवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं (लक्खणवंजणगुणोववेयं ) लक्षणव्यञ्जनानां म्या० गुणैरुपपेतं (माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसवंगसुंदरंग) मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि मुजातानि च सर्वाङ्गानि यन्त्र एवंविधं सुन्दरं अङ्गं यस्य स तथा तं (ससिसोमागारं ) चन्द्रवत् सौम्याकारं (कंत) ६ वल्लभं (पियदसणं ) प्रियं दर्शनं यस्य स तथा तं (सुरूवं ) सुरूपं (दारयं पयाहिसि) एवंविधं दारक-पुत्र प्रजनिष्यति ॥ (७८)॥ | (सेवि प णं दारए) सोऽपि च दारका (उम्मुक्कवालभावे) उन्मुक्तबालभावः (विष्णायपरिणयमित्ते) विज्ञानं परिपक्वं यस्य स तथा तं (जोवणगमणुप्पत्ते) यौवनावस्थामनुप्राप्तः सन् (सूरे वीरे विकते) दानादिपु शरः सामे वीर: परमण्डलाक्रमणसमर्थः (विच्छिण्णविपुलबलवाहणे) विस्तीणविपुले बलवाहने यस्य स तथा तं (चाउरंतचकवहीं रजवई राया भविस्सइ) चतुरन्तखामी एवंविधश्चक्रवर्ती राज्यखामी राजा भविष्यति (जिणे वा तिलुकनायगे धम्मबरचाउरंतचकवट्टी) जिनो वा त्रैलोक्यनायको धर्मवरचातुपरन्तचक्रवर्ती, तत्र जिनत्वे चतुर्दशानां अपि स्वप्नानां पृथक पृथक फलानि इमानि-चतुईन्तहस्तिदर्शनाचतुर्धा धर्म कथयिष्यति । वृषभदर्शनादू भरतक्षेत्रे बोधियीजं वस्यति २ सिंहदर्शनात् मदनादिदुर्गजभज्यमानं भव्यवनं रक्षिष्यति ३ लक्ष्मीदर्शनाद् वार्षिकदानं दत्त्वा तीर्थकरलक्ष्मी भोक्ष्यते ४ दामदर्शनात् त्रिभुवनस्य मस्तकधार्यों भविष्यति ५ चन्द्रदर्शनात् कुवलये मुदं दास्यति ६ सूर्यदर्शनाद्भामण्डलभूषितो भविष्यति ७ दीप अनुक्रम [७७] ॥६७॥ era ~159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७९] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७९] गाथा ||१..|| ध्वजदर्शनाडूमध्वजभूषितो भविष्यति ८ कलशदर्शनात् धर्मप्रासादशिखरे स्थास्यति ९ पद्मसरोदर्शनात् खप्मश्लाघा सुरसञ्चारितकमलस्थापितचरणो भविष्यति १० रत्नाकरदर्शनात् कैवल्यरत्नस्थान भविष्यति ११ विमानदर्श-हषः फलतनाद वैमानिकानामपि पूज्यो भविष्यति १२ रत्नराशिदर्शनाद् रत्नप्राकारभूषितो भविष्यति १३ निर्धूमाग्नि-थाकारः स. IN८०-८१-८२ दर्शनाद् भव्यकनकशुद्धिकारी भविष्यति १४ चतुर्दशानामपि समुदितफलं तु चतुर्दशरजवात्मकलोकायस्थायी भविष्यतीति ॥ (७९)॥ (तं उराला णं देवाणुपिआ) तस्मात् उदाराः हे देवानुप्रिय ! (तिसलाए खसिआणीए सुमिणा दिद्वा | त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वमाः दृष्टाः (जाव मंगल्लकारगाणं) यावत् माङ्गल्यकारकाः (देवाणुप्पिआ) हे | देवानुप्रिय ! (तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा) त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वमाः दृष्टाः ॥ (८०)॥ (तए णं सिद्धत्थे राया)ततोऽनन्तरं सिद्धार्थों राजा (तेसिं सुमिणलक्वणपाढगाणं) तेषां खमलक्षण-N पाठकानां (अंतिए एयम8 सुचा निसम्म) पार्वे एनं अर्थ श्रुत्वा निशम्य च (हट्टतुह जाब हियए) हष्टः तुष्टः यावत् हर्षपूर्णहृदयः (करयल जाव) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा (ते सुमिणलक्खणपाढए) | तान खालक्षणपाठकान् ( एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (८१)॥ (एवमेयं देवाणुप्पिआ) एवं एतत् हे देवानुप्रियाः! हे पाठकाः! (तहमेयं देवाणुपिआ) तथैतत् हे पाठकाः! (अवितहमेयं देवाणुप्पिआ) यथास्थित एतत् भो पाठकाः ! (इच्छियमेअं देवाणुप्पिा) वाञ्छितं दीप अनुक्रम [७८] 82609602raerdose For F lutelu ~160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [८२] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- एतत् भोः पाठकाः! (पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिआ) युष्मन्मुखात् पतदेव गृहीतं एतद् भोः पाठकाःगमनं खानव्या०४ (इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया) वाञ्छितं सत् पुनः पुनर्वाञ्छितं एतद् भोः पाठकाः! (सच्चेणं एस तकलश्राअढे) सत्यः एषोऽर्थः (से जहेयं तुम्भे व्यहत्ति कट्ठ) येन प्रकारेण इमं अर्थ यूयं वदथ इति उत्तवा (ते वणं प्रती॥६॥ सुमिणे सम्म पडिच्छद) तान् स्खमान सम्यक प्रतीच्छ ति-(पडिच्छित्ता) तथा कृत्वा (ते सुमिणलक्षण च्छनं सू. ८२-८७ पाढए) तान् स्वमलक्षणपाठकान (विउलेणं असणेणं) विपुलेन अशनेन-शाल्यादिना (पुष्फवत्वगंधमल्लालंकारेणं) पुष्पैः-अग्रथितर्जात्यादिपुष्पैः वस्त्रैः प्रतीतैः गन्धैः-वासचूर्णैः माल्यैः-ग्रथितपुष्पैः अलङ्कारः-मुकुटादिभिः ( सकारेइ सम्माणेइ ) सत्कारयति सन्मानयति च विनयवचनप्रतिपया ( सकारिता सम्माणि-18 सा) सत्कार्य सनमान्य च (विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ) विपुलं जीविकाह-आजन्म निर्वाहयोग्य प्रीतिदानं ददाति (दलित्ता पडिविसजेड) प्रीतिदानं दत्त्वा च प्रतिविसर्जयति ॥ (८२)॥ M (तए णं सिद्धस्थे खत्तिए) ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः (सीहासणाओ अन्भुढेइ ) सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति (अभुद्वित्ता) अभ्युत्थाय (जेणेव तिसला खत्तियाणी) यत्रैव त्रिशला क्षत्रियाणी (जवणियंतरिया) यवनिकान्तरिता ( तेणेव उवागच्छइ ) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागस्य च (तिसलं खत्तियाणि) त्रिशलां क्षत्रियाणी ( एवं बयासी) एवं अवादीत् ॥(८३)।। (एवं खल्लु देवाणुप्पिए) एवं खलु हे त्रिशले ! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा) खमशास्त्रे द्विचत्वारिंशत् खमाः (तीस महासुमिणा) त्रिंशत् महा यसseee दीप अनुक्रम [८१] ॥६० १८ CaMEducutanihemamal ~161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [28] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [४] मूलं [ ८४] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ........................ स्वमाः इत्यत आरभ्य ( जाव एवं महासुमिणं पासित्ता णं पडियुज्यंति ) यावत् एकं महावमं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धयन्ते इति पूर्वपाठः उक्तः ॥ ( ८४ ) ॥ इमे व णं तुमे देवाणुप्पिए) इमे च त्वया हे त्रिशले ! ( चउद्दस महासुमिणा दिट्ठा) चतुर्दश महास्वमाः दृष्टाः ( तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिए) तस्मात् उदाराः त्वया हे त्रिशले ! ( सुमिणा दिट्ठा) स्वमाः दृष्टाः (जाव जिणे वा तेलुकनायगे) यावत् तीर्थकरो वा त्रैलोक्यना यकः ( धम्म रथाउरंत चावडी ) धर्मवरचा तुरन्तचक्रवर्ती भविष्यति ॥ (८५) | ( तए णं सा तिसला खत्ति| याणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (एयमहं सोचा निसम्म ) एनं अर्थं श्रुत्वा निशम्य ( हट्टतुटू जावहियया हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया ( करयल जाव ) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा ( ते सुमिणे सम्मं परिच्छइ ) तान् स्वप्नान् सम्यक प्रतीच्छति-हृदि धते ॥ (८३) ॥ ( पडिच्छित्ता ) प्रतीच्छ्य च (सिद्धस्थेणं रन्ना) सिद्धार्थेन राज्ञा ( अग्भणुन्नाया समाणी ) अभ्यनुज्ञाता सती (नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ ) नानामणिरत्नभक्तिचित्रात् ( महासणाओ अब्भुट्ठेद ) भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति ( अम्मुट्ठित्ता) अभ्युत्थाय ( अतुरियमचवलं ) अस्वरितया अचपलया ( जाव रायहंससरिसीए गइए) यावत् राजहंससदृशया गत्या ( जेणेव सए भवणे ) यत्रैव स्वकं मन्दिरं ( तेणेव उवागच्छइ ) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता ) उपागत्य ( सयं भवणमणुपविट्ठा ) स्वकं मन्दिरं अनुप्रविष्टा ॥ ( ८७ ) ॥ (जप्पभि च णं समणे भगवं महावीरे ) यतः प्रभृति-पस्मादिनात् आरभ्य श्रमणो भगवान् महावीरः 162 गमनं स्वम तत्फल था वर्णं प्रतीच्छनं सू. ८२-८७ ५ १० १४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [८८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८८] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- (तंसि रायकुलंसि साहरिए) तस्मिन् राजकुले संहृतः (तप्पभियं च णं) ततः प्रभृति-तस्मादिनादारभ्य निधानसंव्या०४ (बहवे वेसमणकुंडधारिणो) बहवः वैश्रमणो-धनदः तस्य कुण्डः-आयत्तता तस्य धारिणः अर्थात् वैश्रमणा-क्रमासू.८८ ॥६९॥ यत्ताः (तिरियजभगा देवा) तिर्यग्लोकवासिनो जृम्भकजातीयाः तिर्यगजृम्भकाः उच्यन्ते, एवंविधाः देवाः (सक्वयणेणं) शक्रवचनेन, शक्रेण वैश्रमणाय उक्तं वैश्रमणेन तिर्यगजृम्भकेभ्य इति भावः (से जाई इमाई) से'त्ति अथशब्दार्थे, अथ ते तिर्यगजृम्भका देवाः यानि इमानि वक्ष्यमाणवरूपाणि (पुरा पोरा-1 Nणाई) पुरा-पूर्व निक्षिप्सानि अत एव पुराणानि-चिरन्तनानि (महानिहाणाई भवंति) महानिधानानि भवन्ति (तंजहा) तद्यथा, तानि कीदृशानि? (पहीणसामिआई) प्रहीणस्वामिकानि-अल्पीभूतखामिकानीत्य:, अत एव (पहीणसेजआई)महीणसेक्तृकानि, सेक्ता-हि उपरि धनक्षेसा स तु स्वाम्येव भवति, पुनः किवि०१ (पहीणगोत्तागाराई) येषां महानिधानानां धनिकसम्बन्धीनि गोत्राणि अगाराणि च प्रही-1 नाणानि-विरलीभतानि भवन्ति तानि प्रहीणगोत्रागाराणि एवं (उच्छिन्नसामिआई) उच्छिन्ना-सवेंधा अभावं प्राप्तः स्वामी येषां तानि उकिछन्नस्वामिकानि (उच्छिन्नसेउआई) उच्छिन्नसेक्तृकाणि (उच्छिन्नगोत्तागाराइं) उच्छिन्नगोत्रागाराणि, अथ केषु केषु स्थानेषु तानि वर्तन्ते? इत्याह-(गामागरनगरखेडकब्बडमडंव-M दोणमुहपट्टणासमसंकाहसंनिवेसेसु) ग्रामा:-करवन्तः आकरा:-लोहाद्युत्पत्तिभूमयः नगराणि-कररहितानि खेटानि-धूलिपाकारोपेतानि, कवटानि-कुनगराणि, मडम्बानि-सर्वतोर्धयोजनात्परतोऽवस्थितग्रामाणि, द्रोण-| दीप अनुक्रम [८६] JanEducatarinamsootball For F lutelu ~163 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [८८] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८८] गाथा ||१..|| मुखानि-यत्र जलस्थलपथावुभावपि भवतः,पत्तनानि-जलस्थलमार्गयोरन्यतरेण मार्गेण युक्तानि आश्रमाः-निधानसंतीर्थस्थानानि तापसस्थानानि वा,संबाहाः-समभूमौ कृषि कृत्वा कृषीवला यत्र धान्यं रक्षार्थ स्थापयन्ति क्रमासू.८८ सन्निवेशा:-साथेंकटकादीनां उत्तरणस्थानानि एतेषां द्वन्द्वः तेषु, तथा (सिंघाडएसु चा) शुहाटकेपु-शृङ्गाटकफलाकारत्रिकोणस्थानेषु वा (तिएसु वा) त्रिकेपु-मार्गत्रयमिलनस्थानेषु वा (चउक्केसु वा)चतुष्केपु-मार्गचतुष्टयमिलनस्थानेषु वा (चच्चरेसु वा) चत्वरेषु-बहुमार्गमिलनस्थानेषु वा (चउम्मुहेसु वा) चतुर्मुखेघु-देवकुलच्छत्रिकादिषु वा (महापहेसु धा) महापथेषु-राजमार्गेषु वा, तथा (गामट्टाणेसु वा) ग्रामस्थानानि-उद्सग्रामस्थानानि तेषु वा (नगरहाणेसु वा) उद्वसनगरस्थानानि तेपुवा (गामनिद्धमणेसु वा)। ग्रामसम्बन्धीनि निर्धमनानि-जलनिर्गमाः 'खाल' इति प्रसिद्धास्तेषु (नगरनिद्धमणेसुवा) एवं नगरनिर्धम-18 नेषु वा (आवणेसु था) आपणा-हवास्तेषु (देवकुलेसु वा) देवकुलानि-यक्षावापतनानि तेषु ( सभासु वा) सभासु-जनोपवेशनस्थानेषु (पवासु वा)प्रपासु-पानीयशालासु (आरामेसु था) आरामेषु-कदल्या- १० द्याच्छादितेषु स्त्रीपुंसयोः क्रीडास्थानेषु ( उजाणेसु वा) उद्यानेषु-पुष्पफलोपेतवृक्षशोभितेषु बहुजनभोग्येषु उद्यानिकास्थानेषु इत्यर्थः (वणेसु बा) बनेषु-एकजातीयवृक्षसमुदायेषु ( वगसंडेसु वा) वनखण्डेपु-अनेकजातीयोत्तमवृक्षसमुदायेषु (सुसाणसुन्नागारगिरिकंदरत्ति) श्मशानं,शुन्यागारं-शून्यगृहं गिरिकन्दरा-प्रतीता पवेतगुहेत्यर्थः (संतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु वा) अत्र गृहशयः प्रत्येकं योज्यः, ततः शान्तिगृहा-शान्ति- १४ दीप अनुक्रम [८६] For F lutelu ~164 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ce] गाथा ।।१..।। दीप अनुक्रम [६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- ( मूलं + वृत्तिः) मूल [८८] / गाथा [...] व्याख्यान [४] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प. सुबो व्या० ४ ॥ ७० ॥ ........................ कर्मस्थानानि, शैलगृहा:- पर्वतगृहाः पर्वतं उत्कीर्य कृता गृहा इत्यर्थः उपस्थानगृहाः -- आस्थानसभाः, भवनगृहा:- कुटुम्बिवसनस्थानानि ततः श्मशानादीनां द्वन्द्वः, अथ एतेषु ग्रामादिषु शृङ्गाटकादिषु च यानि महानिधानानि ( संनिक्खिताई चिर्हति ) पूर्वं कृपणपुरुषैः संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति ( ताई सिद्धत्थरायभवर्णसि | साहति ) तानि तिर्यगजृम्भका देवाः सिद्धार्थराजभवने संहरन्ति-मुंचन्तीति योजना ॥ ( ८८ ) ॥ ( जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे ) तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे यस्यां च रात्री श्रमणो भगवान् महावीर : ( नायकुलंसि साहरिए ) ज्ञातकुले संहृतः ( तं स्यणिं च णं तं नायकुलं ) तस्यां रात्री- ततः प्रभृति इत्यर्थः तत् ज्ञातकुलं (हिरण्णेणं वड्ढित्था) हिरण्यं रूप्यं अघटितं सुवर्ण वा (सुवपणेणं) सुवर्णेन प्रतीतेन अवर्धत, एवं (घणेणं) घनेन, गणिम १ धरिम २ मेय ३ पारिच्छेद्य ४ भेदाचतुर्विधेन, तदुक्तं-गणिमं जाइफलपुष्फलाई १ धरिमं तु कुंकुमगुडाई २ । मिज्जं चोप्पडलोणाई ३ रयणवत्थाइ परिच्छिज्जं ४ ॥ १ ॥ (धनेणं) धान्येन चतुर्विंशतिभेदेन तद्यथा- धन्नाई चउवीसं, जब १ गोहुम २ सालि ३ बीहि ४ सट्ठी अ ५। कुद्दव ६ अणुआ (जुवार ] ७ कंगू. ८ रालय ९ (चीना ] तिल १० मुग्ग ११ मासा य १२ ॥ १ ॥ अयसि १३ हरिमंथ (चणा ] १४ तिउडा (लांग ] १५ निष्फाव (बाल ] १६ सिलिंद (मठ ] १७ रायमासा ( चोळा ] य १८ । उच्छू (बरटी ] १९ मसूर २० तुवरी २१ कुलत्थ २२ तह धन्नय ( धाणा ] २३ कलाया (वटाणा ] २४ ॥ २ ॥ ( रज्जेणं ) राज्येन सप्ताङ्गेन (रहेणं) राष्ट्रेण-देशेन ( बलेणं) बलं चतुरङ्गसैन्यं तेन ( वाहणेणं) वाहनेन-औष्ट्रप्रमुखेण ( कोसेणं ) ... अत्र भगवत: 'वर्धमान" इति नामकरणे माता-पितरोः संकल्पः For Frate & Personal Use Only 165 नामसंक ल्पोद्भवः सु. ८९ २० २५ ॥ ७० ॥ २८ anelibrary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [८९] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८९] गाथा ||१..|| कोशेन-भाण्डागारेण (कोडागारेणं) कोष्ठागारेण-धान्यगृहेण ( पुरेणं ) नगरेण (अंतेउरेणं ) अन्तःपुरेण-1|| नामसंकप्रतीतेन (जणवएणं) जानपदेन-देशवासिलोकेन (जसवाएणं वडित्था) यशोचादेन-साधुवादेन च अव- ल्पोद्भव: र्धत (विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं) विपुलं-विस्तीर्ण धनं-गवादिक K कनकं घटितांघटितप्रकाराभ्यां द्विविध रत्नानि-कर्केतनादीनि मणय:-चन्द्रकान्ताद्याः,मौक्तिकानि-प्रतीतानि शङ्का-दक्षिणावर्ताः शिला-राजपहादिकाः, प्रवालानि-विट्ठमाणि रक्तरत्नानि-पद्मरागादीनि आदिशब्दालूलाखकम्बलादिपरिग्रहस्तेन, तथा (संतसारसावहज्जेणं) सत्-विद्यमानं न विन्द्रजालादिवत्खरूपतोऽविद्यमानं, एवंविधं यत् सारस्वापतेयं-प्रधानद्रव्यं तेन, तथा (पीइसकारसमुद्रएण) प्रीतिः-मानसी तुष्टिः सत्कारो| वस्त्रादिभिः स्वजनकृता भक्तिस्तत्समुदयेन च तद् ज्ञातकुलं (अईव अईय अभिवड्डित्था) अतीव अतीव R|अभ्यवर्द्धत, (तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स) ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( अम्मापिऊर्ण) मातापित्रोः (अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव संकप्पे समुप्पजित्था) अयं एतद्रूपः आत्मविषयः यावत् । संकल्पः समुदपद्यत ॥(८९)॥ कोऽसौ ? इत्याह-(जप्पभिई च णं) यतः प्रभृति ( अम्हं एस दारए कुच्छिसि। | गम्भत्ताए बर्फते) अस्माकं एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः (तप्पभिई च णं)ततः प्रभृति ( अम्हे हिरISण्णेणं बड्डामो) वयं हिरण्येन वर्धामहे ( सुवणेणं वडामो) सुवर्णेन वर्धामहे (धणेणं धन्नेणं जाव संतसार सावइज्जेणं ) धनेन धान्येन यावत् विद्यमानसारस्वापतेयेन (पीइसक्कारेणं अईव अईव अभिवड्डामो) प्रीति: १४ दीप अनुक्रम [८७] For Fun O njanelbrary.org - 166 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [१०] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०] गाथा ||१..|| कल्प सबो- सत्कारेण च अतीव अतीव अभिवर्धामहे (जया णं अम्हं एस दारए भविस्सइ) तस्मात् यदा अस्माकं एषगर्भनिश्चलव्या०४दारकः जातो भविष्यति (तया णं अम्हे एयरस ) तदा वयं एतस्य दारकस्य (एयाणुरूवं) एतदनुरूपं- ता सू. ९१ धनादिवृद्धेरैनुरूपं अत एव (गुण्णं गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करिस्सामो) गुणेभ्य आगतं तत एव गुणनिष्पन्नं । ॥७१ ॥ नामधेयं करिष्यामः, किं तदित्याह-विद्धमाणत्ति) वर्धमान इति ॥ (९०)॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे)ततः श्रमणो भगवान महावीरः (माउअणुकंपणढाए) मयि परिस्प-ISH सन्दमाने मातुः कष्टं मा भूदिति मातुः अनुकम्पनार्थ-मातुर्भक्त्यर्थ अन्येनापि मातुर्भक्तिरेवं कर्त्तव्या इति| दर्शनार्थ च (निचले) निश्चलः (निष्फंदे) निष्पन्दः किंचिदपि चलनाभावात् अत एव (निरयणे) निरेजनो-निष्कम्पः (अल्लीणत्ति) आईपल्लीनः अङ्गगोपनात् (पल्लीणत्ति) प्रकर्षेण लीन: उपाङ्गगोपनात् अत: एव (गुत्ते बावि होत्था) गुप्तः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'चावित्ति' विशेषणसमुचये अभवत्, अत्र कविः-एकान्ते किमु मोहराजविजये मन्त्रं प्रकुर्वन्निव, ध्यानं किञ्चिदंगोचरं विरचयत्येकः परब्रह्मणे । किं कल्याणरसं प्रसाधयति वा देवो विलुप्यात्मकं, रूपं कामविनिग्रहाय जननीकुमावसौ वः श्रिये ॥१॥ (९१) ॥ २५ (तए णं से तिसलाए खत्तियाणीए) ततो-भगवतो निश्चलावस्थानानन्तरं तस्यास्त्रिशलाक्षत्रियाण्याः| ॥ ७ ॥ (अयमेयारूचे जाव संकप्पे समुप्पजिस्था) अयं एतद्रूप: यावत् अध्यवसायः समुत्पन्न:, कोऽसी? इत्याह(हडे मे से गम्भे)हतः मे-मदीयः स गर्भः किं केनचिद्देवादिना हतः?(म मे से गम्भे) अथवा स मे दीप अनुक्रम [८८] aeoecedeoecemercedeseeeeeee For F lutelu ~167 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९२] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा ||१..|| गर्भः किं मृतः?(चुए मे से गन्भे) अथषा स मे गर्भः किं च्युतो? गर्भखभावात् परिभ्रष्टः (गलिए मे से त्रिशलाशोगम्भे) अथवा स मे गर्भः किं गलितः?-द्रवीभूय क्षरितः यस्मात्कारणात् (एस मे गम्भे पुब्धि एयइ) एषक सू.९२ मे गर्भः पूर्व एजते-पूर्व कम्पमानोऽभूत् (इयाणि नो एयइत्ति कटु) इदानीं नैजते-न कम्पते इतिकृत्वा-इतिहेतोः (ओहयमणसंकप्पा) उपहत:-कलुषीभूतो मन:संकल्पो यस्याः सा तथा (चिंतासोगसागरं पविहा) चिन्ता-गर्भहरणादिविकल्पसम्भवा अतिस्तया यः शोकः स एव सागर:-समुद्रस्तत्र प्रविष्टा-यूडिता अत एव (करयलपल्हत्थमुही) करतले पर्यस्तं-स्थापितं मुखं यया सा तथा (अज्झाणोवगया) आर्तध्यानोप-18| गता (भूमीगयदिहिया झियाअइ) भूमिगतदृष्टिका ध्यायति, अथ सा त्रिशला तदानीं यदू ध्याय-16 ॥ति स्म तल्लिख्यते-सत्यमिदं यदि भविता.मदीयगर्भस्य कथमपीह तदा । निष्पुण्यकजीवानामवधिरिति || ख्यातिमत्यंभवम् ॥१॥ यद्वा चिन्तारत्नं न हि नन्दति भाग्यहीनजनसदने । नापि च रत्ननिधानं दरिद्रगृहसङ्गतीभवति ॥२॥ कल्पतरुमरुभूमौन प्रादुर्भवति भूम्यभाग्यवशात् । न हि निष्पुण्यपिपासितनृणां पीयूषसामग्री ॥ ३॥ हा धिग धिग दैवं प्रति किं चक्रे तेन सततवक्रेण ? । यन्मम मनोरथतरुर्मूला-1 दुन्मूलितोऽनेन ॥४॥ आत्तं दत्त्वापि च मे. लोचनयुगलं कलङ्कविकलमलम् । दत्त्वा पुनरुहालितमधमेनानेन निधिरत्नम् ॥५॥ आरोप्य मेरुशिखरं,प्रपातिता पापिनाऽमुनाऽहमियम् । परिवेष्याप्याकृष्टं भोजनभाजनमलज्जेन ॥६॥ यद्वा मयाऽपराद्धं भवान्तरेऽस्मिन् भवेऽपि किं धातः!। यस्मादेवं कुर्वन्नुचितानुचितं न चिन्तयसि॥७॥ दीप अनुक्रम [९०] U EM S anjaneinaryorg ~168 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [१२] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-अथ किं कुर्वे क च वा, गच्छामि वदामि कस्य वा पुरतः । दुर्दैवेन च दग्धा,मुग्धा जग्धाऽधमेन पुनः॥ ८॥ त्रिशला व्या०४ किं राज्येनाप्यमुना, किं वा कृत्रिमसुखैर्विषयजन्यैः। किं वा दुकूलशय्याशयनोद्भवशर्महर्येण ? ॥९॥ गजवृ विलापः पभादिस्वः, सूचितमुचितं शुचिं त्रिजगदय॑म् । त्रिभुवनजनासपतं विना जनानन्दि सुतरत्नम् ॥१०॥ ॥७२॥ युग्मम् ॥ धिक् संसारमसारं धिग दुःखव्यासविषयसुखलेशान् । मधुलिप्सखगधारालेहनतुलितानहो लुलितान ॥ ११॥ यद्वा मयका किचित्तथाविधं दुष्कृतं कृतं कर्म। पूर्वभवे यद ऋषिभिः प्रोक्तमिदं धर्मशास्त्रेषु ॥१२॥ पसुपक्खिमाणुसाणं,बाले जोऽवि हु विओअए पायो। सो अणवचो जायह,अह जायइ तो विवजिजा ॥१३॥ तत् पटुका मया किं त्यक्ता वा त्याजिता अधमबुद्ध्या । लघुवत्सानां मात्रा,समं वियोगः कृतः किं वा ? ॥१४॥ तेषां दुग्धापायोऽकारि,मया कारितोऽथवा लोके। किं वा सवालकोन्दुरबिलानि परिपूरितानि जलैः ? ॥१५॥ किं वा साण्डशिशुन्यपि , खगनीडानि प्रपातितानि भुवि । पिकशुककुर्कुटकादेर्यालवियोगोऽथवा विहितः18 ॥ १६ ॥ किं वा बालकहत्याऽकारि.सपनीसुतायुपरि दुष्टम् । चिन्तितमंचिन्त्यमपि वा कृतानि कि कामेणा-18 दीनि ? ॥ १७॥ किं वा गर्भस्तम्भनशातनपातनमुखं मया चक्रे । तनमन्त्रभेषजान्यपि किं वा मयका प्रयुक्ता-२५ IS| नि?॥ १८ ॥ अथवा भवान्तरे किं.मया कृतं शीलखण्डनं बहशः। यदिदं दुःखं तस्माद्विना न सम्भवति ॥७२॥ दीप अनुक्रम [९०] | १ पशुपक्षिमानुपाणां चालान् योऽपि च वियोजयति पापः । सोऽनपत्यो जायते अथ जायते सतो विपोत ॥ १॥ ~169 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [१२] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: विलाप प्रत सूत्रांक [१२] गाथा ||१..|| जीवानाम् ॥ १९ ॥ यतः-कुरंडरंडत्तणदुन्भगाई, वंझत्तनिंदूविसकन्नगाई। लहंति जम्मंतरभग्गसीला, नाऊण कुज्जा दहसीलभावं ॥२०॥ एवं चिन्ताऽऽक्रान्ता,ध्यायन्ती म्लानकमलसमवदना । दृष्टा शिष्टेन सखीज़नेन तत्कारणं पृष्टा ॥ २१ ॥ प्रोवाच साथुलोचनरचना निःश्वासकलितवचनेन । किं मन्दभागधेया वदामि? यजी-| वितं मेऽगात् ॥२२॥ सख्यो जगुरथ रे सखि ! शान्तममङ्गलमशेषमन्यदिह । गर्भस्य तेऽस्ति कुशलं नवेति वद कोविदे! सत्यम् ॥२३॥ सा प्रोचे गर्भस्य च कुशले किमकुशलमस्ति मे? सख्या । इत्याद्युक्त्वा मूळमापन्ना पतति भूपीठे ॥ २४ ॥ शीतलवातमभृतिभिरूपचारैर्वहुतरैः सखीभिः सा । संपापितचैतन्योत्तिष्ठति विलपति च पुनरेवम् ॥ २५॥ गरुए अणोरपारे, रयणनिहाणे असायरे पत्तो। छिद्दघडो न भरिजइ. ता किं दोसो| जलनिहिस्स ॥ २६ ॥ पत्ते वसन्तमासे, रिद्धिं पावन्ति सयलवणराई । जंन करीरे पत्तं,ता किं दोसो वसंतस्स? ॥ २७ ॥ उत्तुंगो सरलतरू,बहुफलभारेण नमिअसवंगो । कुज्जो फलंन पावइ.ता किं दोसो तरुव दीप अनुक्रम [९०] १ कुरण्डत्वरण्डत्वदुर्भगत्वानि बन्ध्यात्वनिन्दु( मृतापत्यप्रसूः )विषकन्यकरवादि । लभन्ते जन्मान्तरभनशीला ज्ञात्वा कुर्यात् । ढं शीलभावं ॥ २०॥ २ गुरुकेऽनर्वापारे रत्ननिधाने च सागरे प्राप्तः । छिद्रघटो न भ्रियते तर्हि किं दोषो जलनिधेः ॥ २६ ॥ प्राप्ते बसन्तमासे कादि प्राप्नोति सकलवनराजी । यन्न करीरे पत्रं तर्हि किं दोषो वसन्तस्य ॥ २७ ॥ उत्तुगः सरलतरर्वदुफलभारेणनतसर्वाङ्गः । कुब्जः फलं न प्राप्नोति तर्हि किं दोपसरुवरस्य ? ॥२८॥ काप-पु.१३ Fur Frately ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९२] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा ||१..|| रस्स।॥२८॥ समीहितं यन्न सभामहे वर्य, प्रभो। न दोषस्तव कर्मणो मम । दिवाऽप्यलको यदि नौवलो-त्रिशलाविव्याकते, तवा स दोषः कथमेशुमालिनः ॥ २९॥ अथ मे मरणं शरणं,किं करणं विफलजीवितव्येन । लतालाप: बीर MI श्रुत्वेति व्यलपत्,सरूपादिः सकलपरिवारः ॥ ३०॥ हा किमुपस्थितमेतत् निष्कारणवैरिविधिभियोगेन । हा ॥७३॥ कुलदेव्यः क गताः१.यदुदासीनाः स्थिता यूयम् ॥ ३१ ॥ अथ तत्र प्रत्यूहे विचक्षणाः कारयन्ति कुलवृद्धाः। शान्तिकपौष्टिकमन्त्रोपयाचितादीनि कृत्यानि ॥ ३२॥ पृच्छन्ति च दैवज्ञान् निषेषयन्त्यपि च नाटकादीनि । अतिगावशन्दविरचितवचनानि निवारयन्त्यपि च ॥ ३३ ॥राजाऽपि लोककलितः, शोकाकुलितोऽजनिष्ट शिष्ट-% मतिः । किंकर्तव्यविमूढाः.संजाता मन्त्रिणः सर्वे ॥ ३४॥ अस्मिन्नवसरे च तत्सिद्धार्थराजभवनं यादृशं जातं तत् सूत्रकृत् खर्य आह-(तंपिय सिद्धत्थरायवरभवणं) तदपि सिद्धार्थराजवरभवनं (उवरयमुहंग-1 तंतीतलतालनाडइज्जजणमणुन्नं) मृदङ्गो-मईलस्तन्त्री-वीणा तलताला-हस्तताला:यदा तला-हस्ताः ताला:कंसिका नाटकीया-नाटकहिता जनाः पात्राणीति भावः एतेषां यत् मनोज्ञत्वं तत् उपरत-निवृत्तं यस्मिन् । एवंविधं अत एव (दीणविमणं विहरइ) दीनं सत् विमनस्कं-व्यग्रचेतस्कं विहरति-आस्ते ॥ (९२)॥(तए णं IS से समणे भगवं महावीरे) तं तथाविधं पूर्वोदितं व्यतिकरं अवधिना अवधार्य भगवान् चिन्तयति-किं कुर्मः। कस्य वा बूमो?, मोहस्य गतिरीदृशी । दुषेर्धातोरिवास्माकं, दोषनिष्पत्तये गुणः॥१॥ मया मातुः प्रमोदाय, कृतं जातं तु खेदकृत् । भाविनः कलिकालस्य, सूचकं लक्षणं ह्यदः ॥२॥ पश्चमारे गुणो यस्माद, भावी दीप अनुक्रम [९०] ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [९३] गाथा ।।१..।। दीप अनुक्रम [१] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ९३] / गाथा [१९...] व्याख्यान [४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ........................ दोषकरो नृणाम् । नालिकेराम्भसि न्यस्तः, कर्पूरो मृतये यथा ॥ ३ ॥ इत्येवंप्रकारेण स श्रमणो भगवान् महावीरो (माऊअ अयमेयारूवं ) मातुरिमं एतद्रूपं ( अम्मत्थियं पत्थियं मणोगयं) आत्मविषयं प्रार्थितं मनोगतं ( संकप्पं समुत्पन्नं विजाणिता ) संकल्पं समुत्पन्नं अवधिना विज्ञाय ( एगदेसेणं एयइ ) | एकदेशेन अङ्गुल्यादिना एजते-कम्पते ( तए णं सा तिसला खन्तिआणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रिपाणी ( हह तुट्ठ जाव हिअया) हृष्टतुष्टादिविशेषणविशिष्टायावत् हर्षपूर्णहृदया ( एवं वयासी) एवं (अवादीत् ॥ (९३) ॥ अथ किं अवादीत् ? इत्याह - ( नो खलु मे गन्भे हडे ) नैव निश्चयेन मे गर्भो हृतोऽस्ति ( जाव नो गलि(ए) यावत् नैव गलितः (एस मे गन्भे पुविं नो एयइ ) एष मे गर्भः पूर्वं न कम्पमानोऽभूत् ( इयाणिं एयइत्तिकड ) इदानीं कम्पते इतिकृत्वा ( हट्ट जाब हियया एवं विहरइ ) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया, ईदृशी सती विहरति, अथ हर्षिता त्रिशलादेवी यथाऽचेष्टत तथा लिख्यते - प्रोल्लसितनयनयुगला, स्मेरकपोला प्रफुल्लमुखकमला । विज्ञातगर्भकुशला रोमाञ्चितकञ्चुका त्रिशला ॥ १ ॥ प्रोवाच मधुरवाचा गर्भे मे विद्य | तेऽथ कल्याणम् । हा धिग मयकानुचितं चिन्तितमतिमोहमतिकतया ॥ २ ॥ सन्त्यथ मम भाग्यानि त्रिभु| वनमान्या तथा च धन्याऽहं । श्लाध्यं च जीवितं मे कृतार्थतामाप मे जन्म || ३ || श्रीजिनपदाः प्रसेदुः कृताः | प्रसादाश्च गोत्रदेवीभिः | जिनधर्मकल्पवृक्षस्त्वाजन्माराधितः फलितः ॥ ४ ॥ एवं सहर्षचित्तां देवीमालोक्य 172 Fersonal Use Only हर्षा ५ १४ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ९४] / गाथा [...] व्याख्यान [४] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या०४ || 08 || ........................ वृद्धनारीणाम् । जयजयनन्दत्यायाशिषः प्रवृत्ता मुखकज्ञेभ्यः ॥ ५ ॥ हर्षात् प्रवर्तितान्यथ कुलनारीभिश्च ललितधवलानि । उत्तम्भिताः पताका, मुक्तानां स्वस्तिका न्यस्ताः ॥ ६ ॥ आनन्दाद्वैतमयं राजकुलं तद्बभूव | सकलमपि । आतोयगीतनृत्यैः, सुरलोकसमं महाशोभम् ॥ ७ ॥ वर्धापनागता धनकोटीगृह्णन् ददच्च धनकोटीः । सुरतरुरिव सिद्धार्थः, संजातः परमहर्षभरः ॥ ८ ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततः श्रमणो भगवान् महावीरः ( गम्भत्थे चेव ) गर्भस्थ एव, पक्षाधिके मासषट्के व्यतिक्रान्ते (इमेयारूवं अभिग्ग अभिगिन्ह ) इमं एतद्रूपं अभिग्रहं अभिगृह्णाति, कं १ इत्याह-- ( नो खलु मे कप्पड़ ) खलु निश्चयेन नो मम कल्पते ( अम्मापि उहिं जीवंतेहिं ) मातापितृषु जीवत्सु (मुंडे भवित्ता, अगाराओ अणगारिअं पचहत्तर) मुण्डो भूत्वा अगारात् गृहान्निष्क्रम्य अनगारितां साधुतां प्रब्रजितुं दीक्षां ग्रहीतुं इत्यर्थः । इदं अभिग्रहग्रहणं च उदरस्थेऽपि मयि मातुः ईदृशः स्नेहो वर्तते तर्हि जाते तु मयि कीदृशो भविष्यतीति धिया अन्येषां मातरि बहुमानप्रदर्शनार्थं च यदुक्तं- आस्तन्यपानाज्जननी पशूनामादारलाभाच नराधमानाम् । आगेहकृत्याच्च विमध्यमानामाजीवितात्तीर्थमिवोत्तमानाम् ॥ १॥ (९४) ॥ ( तए णं सा तिसला खत्तियाणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी ( पहाया कयवलिकम्मा ) स्नाता कृतं बलिकर्म-पूजा यया सा तथा ( कयको उय मंगलपायच्छित्ता ) कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि यया सा तथा ( सवालंकारविभूसिया ) सर्वालङ्कारैः विभूषिता सती ( तं गर्भ नाइसीएहिं ) तं गर्भ नातिशीतैः *** भगवन्त महावीरेण गर्भवास-स्थिते कृत अभिग्रहः 173 श्रीवीरस्थाभिग्रहः सू. ९४ २० २५ ॥ ७४ ॥ २८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९५] गाथा ||१..|| (नाइउण्हेहिं) नात्युष्णः (नाइतित्तेहिं ) नातितिक्तः (नाइकडएहिं ) नातिकटुकैः (नाइकसाएहि गर्भपोषनातिकषायैः (नाइअंषिलेहि ) नात्यम्लैः (नाइमहुरेहिं) नातिमधुरैः (नाइनिहिं ) नातिस्निग्धैः (नाइ-गम्म.९५ लुक्खेहिं) नातिरूक्षैः (नाइउल्लेहिं ) नात्याः (नाइसुक्केहि ) नातिशुष्कः ( सवत्तुभयमाणसुहेहिं ) सर्वर्तुषु-19 तो काती, भज्यमानाः-सेव्यमाना ये सुखहेतवो-गुणकारिणस्तैः, तदुक्तं-वर्षासु लवणममृतं, शरदि जलं | गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चाऽऽमलकरसो,घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते ॥१॥ एवंविधैः (भोयणाच्छायणगंधम-11५ ल्लेहिं)भोजनाच्छादनगन्धमाल्यैः, तत्र भोजन-प्रतीतं . आच्छादनं-वलं गन्धाः-पुटवासादयः माल्यानिपुष्पमालास्तैगर्भ पोषयतीति शेषः, तत्र नातिशीतलादय एव आहारादयो गर्भस्य हिताः, न तु अतिशीत-18 लादया, ते हि केचिद्वातिकाः केचित् पैत्तिकाः केचित् श्लेष्मकराश्च, ते च अहिताः, यदुक्तं वाग्भट्टे-वातलैश्च भवेद् गर्भः, कुब्जान्धजडवामनः । पित्तलैः स्खलतिः पिङ्गः, श्वित्री पाण्डुः कफात्मभिः ॥१॥ तथा अतिलवणं नेत्रहरं अतिशीतं मारुतं प्रकोपयति । अत्युष्णं हरति बलं . अतिकामं जीवितं हरति ॥२॥ अन्यच्च'मैथुन १ यान २ वाहन ३ मार्गगमन ४ प्रस्खलन ५ प्रपातन ६ प्रपीडन ७ प्रधावना, ८ ऽभिघात ९विषमशयन १०विषमासनो-११ पवास १२ वेगविघाता १३ ऽतिरूक्षा १४ तितिक्ता १५ तिकटका १६ तिभो-15॥ जना १७ तिरोगा १८ तिशोका १९ तिक्षारसेवा २०तिसार २१ वमन २२ विरचेन २३ प्रेखोलना २४-1 जीर्ण २५ प्रभृतिभिर्गो बन्धनान्मुच्यते, ततो नातिशीतलाचैराहाराचैस्तं गर्भ सा पोषयतीति युक्तम् ॥ दीप अनुक्रम [९४] 920 JaMEducute For F lutelu ~ 174 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९५] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९५] गाथा ||१..|| कल्प.सपो-18 अथ सा त्रिशला कथंभूता :-( ववगयरोगसोगमोहभयपरिस्समा) रोगा-ज्वरायाः, शोक-इष्टवियोगादिज-गर्भपोषणम् व्या०४नितः.मोहो-मूर्छा भयं-भीतिः परिश्रमो-व्यायामः एते व्यपगता यस्याः सा तथा, रोगादिरहिता इति भावः॥ यत एते गर्भस्य अहितकारिणः, तदुक्तं सुश्रुते-'दिवा खपत्याः स्त्रियाः खापशीलो गर्भ अञ्जनादन्धः रोदनाद्विकृतदृष्टिः स्वानानुलेपनाद् दुःशीलःतैलाभ्यङ्गात् कुष्ठी, नखापकर्तनात् कुनखी, प्रधावनाचञ्चल हसनात् श्यामदन्तोष्ठतालुजिह्वः अतिकथनाच प्रलापी अतिशब्दभ्रवणाधिरः अबलेखनात् स्खलतिः व्यञ्जनक्षेपणादिमारुतायाससेवनादुन्मत्तः स्यात्, तथा च कुलवृद्धानिशलां शिक्षयन्ति-मन्दं सञ्चर मन्दमेव । निगद व्यामुश्च कोपक्रम, पथ्यं भुक्ष्व बधान नीविमनामा माऽदृहासं कृथाः। आकाशे भव मा सुशेष्य शयने नीचैर्वहिर्गच्छ मा, देवी गभरालसा निजसखीवर्गेण सा शिक्ष्यते ॥१॥ अथ सा त्रिशला पुन: किं कुर्वती ? (जं तस्स गम्भस्स हिअंमिश्र पत्थं गम्भपोसणं) यत्तस्य गर्भस्य हितं तदपि मितं न तु न्यूनं| AIअधिकं वा.पथ्य-आरोग्यकारणं अत एव गर्भपोषक (तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी)तदपि देशे-1 उचितस्थाने न तु आकाशादौ तदपि काले-भोजनसमये न तु अकाले, आहारं आहारयन्ती (विवित्तमउएहि सपणासणेहि ) विविक्तानि-दोषरहितानि मृदुकानि-कोमलानि यानि शयनासनानि त, तथा (पह-11॥७॥ रिकसुहाए) प्रतिरिक्ता-अन्यजनापेक्षया निर्जना अत एव मुखा-सुखकारिणी तया (मणाणुकलाए विहार-18 दीप अनुक्रम [९४] २७ ~ 175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९५] गाथा ||१..|| भूमीए) मनोऽनुकूलया-मनाप्रमोददायिन्या एवंविधया बिहारभूम्या-चक्रमणासनादिभूम्या कृत्वा, अथगर्भपोषणम् सा त्रिशला किंविशिष्टा सती तं गर्भ परिवहति ? (पसत्थदोहला) प्रशस्ता दोहदा-गर्भप्रभावोद्भूता मनो-1 रथा यस्याः सा तथा, ते चैवं-जानात्यमारिपटहं पटु घोषयामि, दानं ददामि सुगुरून् परिपूजयामि । तीर्थेश्वरार्चनमहं रचयामि सधे, वात्सल्यमुत्सवभृतं बहुधा करोमि ॥ १॥ सिंहासने समुपविश्य वरातपत्रा, संवीज्यमानकरणा सितचामराभ्यां । आज्ञेश्वरस्वमुदिताऽनुभवामि सम्यग , भूपालमौलिमणिलालितपादपीठा ॥२॥ आरुह्य कुञ्जरशिरः प्रचलत्पताका, वादिननादपरिपूरितदिग्विभागा । लोकैः स्तुता जयजये-18 तिरवैः प्रमोदाद्यानकेलिमनयां कलयामि जाने ॥३॥ इत्यादि, पुनः सा किंवि०१(संपुन्नदोहला) सम्पू दोहदा, सिद्धार्थराजेन सर्वमनोरथपूरणात् , अत एव (सम्माणियदोहला) सन्मानितदोहदा, पूर्णीकृत्य || तेषां निवर्तितत्वात् , तत एव (अविमाणिअदोहला) अविमानितदोहदा, कस्यापि दोहदस्य अवगणना|भावात्, पुन: किंवि० ? (चुच्छिन्नदोहला) व्युच्छिन्नदोहदा पूर्णवाञ्छितत्वात् , अत एव (ववणीयदोहला)18 व्यपनीतदोहदा, सर्वथा असहोहदा (सुहंसुहेणं) सुखसुखेन-गर्भानाबाधया (आसइ) आश्रयति-आश्रयणीयं स्तम्भादिकं अवलम्बते (सयह ) शेते-निद्रां करोति (चिट्ठा) तिष्ठति-ऊर्ध्व तिष्ठति (निसीय) निषीदति-आसने उपविशति ( तुअर) त्वगवर्तयति-निद्रां विना शय्यायां शेते इत्यर्थः (विहरइ) विह-18 दीप अनुक्रम [९४] U nal ~176 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [४] .......... मूलं [१६] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१६] गाथा ||१..|| जन्म स. ९६ कल्प.सुबो- रति-कुहिमतले विचरति, अनेन प्रकारेण (सुहंसुहेणं तं गम्भं परिवहइ) सुखसुखेन तं गर्भ परिवहतीति । ब्या०४भावः।। (९५)॥ 8 (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भग- वान् महावीरः (जे से गिम्हाणं पढमे मासे) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः (दुच्चे पक्खे) द्वितीयः। पक्ष (चित्तसुद्धे) चैत्रमासस्य शुक्लपक्षः (तस्स णं चित्तसुद्धस्स) तस्य चैत्रशुद्धस्य (तेरसीदिवसेणं) त्रयोदशीदिवसे (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु (अट्ठमाणं राइंदिआणं हा विकताणं) अर्धाष्टमरात्रिंदिवाधिकेषु, सार्धसप्तदिनाधिकेषु नवसु मासेषु व्यतिक्रान्तेषु इति भावः, तिदुक्तं-"दुहं वरमहिलाणं गम्भे वसिऊण गम्भसुकुमालो नवमासे पडिपुण्णे सत्त य दिवसे समइरेगे ॥१॥" 18 इदं च गर्भस्थितिमानं न सर्वेषां तुल्यं, तथा चोकं-“दु१चउत्थ २ नवम ३ बारस ४ तेरस ५ पन्नरस ६,सेस १८ गभठिई। मासा अड, नव तदुवरि उसहाउ कमेणिमे दिवसा ॥१॥चउ १ पणवीसं २ छविण ३ अड-8 वीसं ४ छच्च ५ छचि ६ गुणवीसं ७ । सग ८ चीसं ९छ १० च्छय ११ वीसि १२ गवीसं १३ छ १४ छबीस १५ ॥२॥छ १६ प्पण १७ अड १८ सत्त १९ट्ठय २० अड २१ ट्ठय २२ छ २३ सत्त २४ होन्ति गन्भदिण-" त्ति ॥ सप्ततिशतस्थानके श्रीसोमतिलकसूरिकृते ॥ १ द्वयोरमहिलयोर्गर्भ उषित्वा गर्भसुकुमालः । नव मासान प्रतिपूर्णान् सप्त च दिवसान समतिरेकाम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [९६] ॥ ७६ ॥ ... भगवन्त महावीरस्य जन्म एवं २४ तीर्थकराणां गर्भ-स्थिते: निर्देश: ~177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९६] / गाथा [१...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१६] सुखावबोधाय चास्य यंत्रम् श्रीवीरस्य जन्म स. गाथा १ ९९९||3||९| |९||२|१९९९.९९९९मा. ||१..|| दीप अनुक्रम [९६] (उच्चट्ठाणगए गहेसु) तदानीं ग्रहेषु उच्चस्थानस्थितेषु, ग्रहाणां उच्चत्वं चैवम्-अर्कााच्चान्यज १ वृष २-11 मृग ३ कन्या ४ कर्क ५मीन ६ वणिजो शैः। दिग् १० दहमा इष्टाविंशति २८ तिथी १५षु५ नक्षत्र २७-18 विंशतिभिः २०॥१॥ अयं भावा-मेषादिराशिस्थाः सूर्यादय उच्चास्तत्रापि दशादीनंशान् यावत् परमोचा। एषां फलं तु-सुखी १ भोगी२ धनी ३ नेता ४, जायते मण्डलाधिपः । नृपति -18 वक्रवर्ती च ७, क्रमानुग्रहे फलम् ॥१॥ तिहिं उच्चेहिं नरिंदो पञ्चहिं तह होइ अद्ध-18 | APARTचकी अ । छहिं होइ चकवट्टी सत्तहिं तित्थरो होइ ॥२॥ (पढमे चंदजोए) प्रथमे-प्रधाने RIG23 चन्द्रयोगे सति (सोमासु दिसासु) सौम्यासु-रजोवृष्ट्यादिरहितासु दिक्षु वर्तमानासु, पुनः किविशिष्टासु दिक्षु ? (वितिमिरासु) अन्धकाररहितासु, भगवजन्मसमये सर्वत्र उद्योतसद्भावात्, पुन: १ त्रिभिरुनरेन्द्रः पञ्चभिस्तथा भवत्यर्धचक्री । पद्धिर्भवति चक्रवर्ती सप्तभिस्तीर्थकरो भवति ॥ १ ॥ For Fun ~ 178 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९६] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१६] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-किंवि०१ (विसुद्धासु) विशुद्धासु, दिग्दाहायभावात् , (जइएसु सबसउणेसु) सर्वेषु शकुनेपु-काकोलूक- श्रीवीरख स. जन्म व्या० ४ दुर्गादिषु जयिकेषु-जयकारकेषु सत्सु (पयाहिणाणुकूलंसि) प्रदक्षिणे प्रदक्षिणावर्त्तत्वात् अनुकूले सुरभि-191 मू. शीतत्वात् सुखप्रदे (भूमिसप्पंसि) मृदुत्वात् भूमिसर्पिणि, प्रचण्डो हि वायुः उच्चैः सर्पति, एवं विधे (मारु॥७७॥ अंसि) मारुते-वायो (पवायंसि ) प्रवातुं आरब्धे सति ( निष्फण्णमेइणीयसि कालंसि) निष्पन्ना, कोर्थः?निष्पन्नसर्वशस्या मेदिनी यत्र एवंविधे काले सति (पमुइअपक्की लिए जणवएम) प्रमुदितेषु सुभिक्षादिना प्रक्रीडितेषु-प्रक्रीडितुं आरब्धेषु बसन्तोत्सवादिना, एवंविधेषु जनपदेषु-जनपदवासिषु लोकेषु सत्सु (पुवरत्तिावरत्तकालसमयंसि) पूर्वरात्रापररात्रकालसमये (हत्थुत्तराहिं नकखत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएण) उत्तरफा-18 ल्गुनीभिः समं योगं उपागते चन्द्रे सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं) आरोग्या-आवाधारहितासा त्रिशला आरोग्यआवाधारहितं (दारयं पयाया) दारक-पुत्रं प्रजाता-सुषुवे इति भावः॥ (१६)॥ शुrastrastrahasrana arastrastraastrashasasasaraRasReARAravale इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्यभुजिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचिताया कल्पसुबोधिकायां चतुर्थः क्षणः समाप्तः । ॥७७॥ ग्रन्थानम् ४६९। चतुर्णामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् ॥ २५७५ ।। श्रीरस्तु ReserseersersendenszeStasera surtressReaserasero दीप अनुक्रम [९६] UaMEducationa l For Fun चतुर्थं व्याख्यानं समाप्त ~179 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [५] .......... मूलं [९७] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: श्रीवीरज न्मोत्सव प्रत सूत्रांक [९७] गाथा ||१..|| ॥ अथ पञ्चमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ (जं रयणि चणे) यस्यां च रात्री (समणे भगवं महावीरे जाए) श्रमणो भगवान महावीरः जातः सू. ९७ (साणं रयणी बहहिं देवेहिं देवीहि य) सा रजनी बहुभिर्देवैः-शक्रादिभिर्वहीभिर्देवीभिः-दिक्कुमाहर्यादिभिश्च (ओवयंतेहिं) अवपतद्भिः-जन्मोत्सवार्थ खाडवागच्छद्भिः (उप्पयंतेहिं ) उत्पतद्भिः-ऊर्च का गच्छद्भिर्मेरुशिखरगमनाय, तैः कृत्वा (उप्पिंजलमाणभूआ) भृशं आकुला इव (कहकहगभूया यावि हुत्था)18 हर्षाहहासादिना कहकहकभूतेष-अव्यक्तवर्णकोलाहलमयीव, एवंविधा सा रात्रिः अभवत् (९७) अनेन | च सूत्रेण सुरकृतः सविस्तरो जन्मोत्सवः सूचितः। स चायं-अचेतना अपि दिशा, प्रसेदुमुदिता इव । वाय-TRI वोऽपि सुखस्पर्शा, मन्दं मन्दं वस्तदा ॥१॥ उद्योतस्त्रिजगत्यासीहध्यान दिवि दुन्दुभिः । नारका अर्नामो-IN दन्त, भूरप्युच्छासमासदत् ॥२॥ तत्र तीर्थकृतां जन्मनः सूतिकर्मणि प्रथमतः षट्पञ्चाशदिक्कुमार्यः समागत्य शाश्वतिकं वाचारं कुर्वन्ति, तद्यथा-दिक्कुमार्योऽष्टाधोलोकवासिन्यः कम्पितासनाः। अहंजन्मावधेर्जावाऽभ्येयुस्तत्सूतिवेश्मनि ॥ ३ ॥ भोगङ्करा १ भोगवती २, सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । सुबत्सा ५ वत्समित्रा च ६, पुष्पमाला ७ स्वनिन्दिता ८॥४॥नत्वा प्रभु तदभ्यां चेशाने सूतिगृहं व्यधुः। संवः-18 लानाशोधयन् क्ष्मामायोजनमितो गृहात् ॥५॥ मेघङ्करा १ मेघवती २. समेघा ३ मेघमालिनी ४ तोयधारा दीप अनुक्रम [९८] JanEducation पंचमं व्याख्यानं आरभ्यते ... भगवन्त महावीरस्य जन्म-कल्याणक-वर्णनं ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [84] गाथा ।।१..।। दीप अनुक्रम [९] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूल [९८] / गाथा [...] व्याख्यान [५] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ........................ व्या० ५ 11.96.11 कम्प सुवो- २५ विचित्रा च ६, वारिषेणा ७ बलाहका ८ ॥ ६ ॥ अष्टोर्ध्वलोकादेत्यैता, नत्वाऽर्हन्तं समातृकम् । तत्र गन्धापुष्पौधवर्ष हर्षाद्वितेनिरे ॥७॥ अथ नन्दो १ तरानन्दे २, आनन्दा ३ नन्दिवर्धने ४ । विजया, ५ वैजयन्ती च ६, जयन्ती ७ चौपराजिता ८ ॥ ८ ॥ एताः पूर्वरुचकादेत्य विलोकनार्थं दर्पण अग्रे घरन्ति । समाहारा १ सुप्रदत्ता २, सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ । लक्ष्मीवती ५ शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८ ॥ ९ ॥ एता दक्षिणरुचकादित्य स्नानार्थं करे पूर्णकलशान छ्रुत्वा गीतगानं विवति । इलादेवी १ सुरादेवी २, पृथिवी ३ पद्मवत्यपि ४ । एकनासा ५ नवमिका ६, भद्रा ७ शीतेति ८ नामतः ॥ १० ॥ एताः पश्चिमरुचकादेत्य वातार्थं व्यजनपाणयोऽग्रे तिष्ठन्ति । अलम्बुसा १ मितकेशी २, पुण्डरीका च ३ वारुणी ४ । हासा ५ सर्वप्रभा ६ श्री ७ ई. ८ रंष्टोदगरुचकाद्रितः ॥ ११ ॥ एता उत्तररूचकादेत्य चामराणि वीजयन्ति । चित्रा च १ चित्रकनका २, शतोरा ३ वसुदामिनी ४ । दीपहस्ता विदित्यास्थुर्विदिगरुचकाद्रितः ॥ १२ ॥ रुचकद्वीपतोऽभ्येयुञ्चतस्रो | दिक्कुमारिकाः । रूपा १ रूपासिका २ चापि, सुरूपा ३ रूपकावती ॥ १३ ॥ चतुरङ्गुलतो नालं, छित्त्वा खातोदरेऽक्षिपत् । समापूर्य च वैयैस्तस्यध्वं पीठमदिधुः ॥ १४ ॥ बद्धा तदुर्वया जन्मगेहाद्रम्भागृह त्रयम् । ताः पूर्वस्यां दक्षिणस्यामुत्तरस्यां व्यधुस्ततः ॥ १५ ॥ याम्यरम्भागृहे नीखाऽभ्यङ्कं तेनस्तु तास्तयोः । स्नानचशुकालङ्कारादि पूर्वगृहे ततः ॥ १६ ॥ उत्तरेऽरणिकाष्ठाभ्यामुत्पाद्याग्निं सुचन्दनैः । होमं कृत्वा बबन्धुस्ता, | रक्षापोहलिकां द्वयोः ॥ १७ ॥ पर्वतायुर्भवेत्युक्त्वाऽऽस्फालयन्त्योऽश्मगोलकी । जन्मस्थाने च तौ नीत्वा, स्वख 181 श्रीवीरज न्मोत्सवः सू. ९७ २० २५ ॥ ७८ ॥ २७ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [84] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूल [९८] / गाथा [...] व्याख्यान [५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सु. १४ ........................ दिक्षु स्थिता जगुः ॥ १८ ॥ एताश्व - सामानिकानां प्रत्येकं चत्वारिंशच्छतैर्युताः । महत्तराभिः प्रत्येकं, तथा चतसृभिर्युताः ॥ १९ ॥ अङ्गरक्षैः षोडशभिः सहस्रैः सप्तभिस्तथा । कटकैस्तदधीशैश्य, सुरैवान्यैर्महर्द्धिभिः ॥ २० ॥ आभियोगिकदेवकृतैयजनप्रमाणैर्विमानैः अत्रायान्तीति दिक्कुमारिका महोत्सवः ॥ ततः सिंहासनं शार्क, चचालचलनिश्चलम् । प्रयुज्याथावधिं ज्ञात्वा जन्मान्तिमजिनेशितुः ॥ १ ॥ वज्बेक योजनां घण्टां | सुघोषां नैगमेषिणा । अवादयत्ततो घण्टारेणुः सर्वविमानगाः ॥ २ ॥ शक्रादेशं ततः सोंचैः सुरेभ्योऽज्ञापयसंखयम् । तेन प्रमुदिता देवानोपमं व्यधुः ॥ ३ ॥ पालकाख्यमरकृतं, लक्षयोजन संमितम् । विमानं | पालकं नामाऽध्यारोहत्रिदशेश्वरः ॥ ४ ॥ पालक विमाने इन्द्रसिंहासनस्य अग्रे अग्रमहिषीणां अष्टौ भद्रासनानि, | वामतश्चतुरशीतिसहस्रसामानिकसुराणां तावन्ति भद्रासनानि दक्षिणतो द्वादश सहस्राभ्यन्तरपार्षदानां तावन्ति भद्रासनानि, चतुर्दशसहस्रमध्यमपार्षदानां तावन्त्येव भद्रासनानि एवं षोडशसहस्र वाह्य पार्षदानामपि षोडशसहस्रभद्रासनानि पृष्ठतः सप्तांनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि चतसृषु दिक्षु प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्त्रात्मरक्षकदेवानां चतुरशीतिसहस्र भद्रासनानि, तथा अन्यैरपि धनैर्देवैर्वृतः सिंहासनस्थितः । गीयमानगुगोऽचालीदपरेऽपि सुरास्ततः ॥५॥ देवेन्द्रशासनात् केचित् केचिन्मित्रानुवर्त्तनात् । पत्नीभिः प्रेरिताः केचित्, केचिदात्मीयभावतः ||६|| केऽपि कौतुकतः केऽपि, विस्मयात् केऽपि भक्तितः । बेलुरेवं सुराः सर्वे, विविधैर्वाहनैर्युताः||७|| विविधैस्तूर्यनिर्घोषैर्घण्टानां कणितैरपि । कोलाहलेन देवानां शब्दाद्वैतं तदाऽजनि ||८||सिंहस्थो वक्ति For Frate & Personal Use Only 182 दिकुमारीकृतीजन्मोत्सव: ५ १४ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१८] | गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत कल्प.सुबोव्या०५ सूत्रांक [२८] गाथा ||१..|| ॥७९॥ हस्तिस्थं, दूरेखीयं गजं कुरु।हनिष्यत्यन्यथा नूनं, दुर्द्धरो मम केसरी ॥१॥ वाजिस्थं कासरारुढो, गरुडस्थो हि सर्प- देवकतो गम् । छागस्थं चित्रकस्थोऽथ, वदत्येवं तदादरात् ॥१०॥ सुराणां कोटिकोटीभिर्विमानैर्वाहनैर्धनैः । विस्ती-8 जन्मोत्सव: ऽपि नभोमार्गोऽतिसंकीर्णोऽभवत्तदा ॥११॥ मित्रं केपि परित्यज्य, दक्षत्वेनाग्रतो ययुः। प्रतीक्षख क्षणं भ्रातामन्त्रेत्यपरोऽवदत् ॥ १२ ॥ केचिद्वदन्ति भो देवाः, संकीर्णाः पर्ववासराः । भवन्त्येवंविधा नूनं, तम्मान्मौनं विधत्त भोः॥१३॥ नमस्यागच्छतां तेषां, शीर्षे चन्द्रकरैः स्थितः । शोभन्ते निर्जरास्तत्र, सजरा इच केवलम् ॥ १४ ॥ मस्तके घटिकाकाराः, कंठे ग्रैचेयकोपमाः। स्वेदबिन्दुसमा देहे, सुराणां तारका बभुः ॥१५॥ नन्दीश्वरे विमानानि, संक्षिप्याऽऽगात् सुराधिपः । जिनेन्द्रं च जिनाम्यां च, त्रिः प्रादक्षिणयत्ततः ॥१६॥ वन्दित्वा च नमस्यित्वेत्येवं देवेश्वरोऽवदत् । नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारिके! विश्वदीपिके ! ॥१७॥ अहं शक्रोमि देवेन्द्रः, कल्पादाद्यादिहागमम् । प्रभोरन्तिमदेवस्य, करिष्ये जननोत्सवम् ॥ १८॥॥ भेतव्यं । देवि! तवेत्युक्त्वाऽवखापिनीं ददौ कृत्वा जिनप्रतिबिम्ब, जिनाम्बासनिधी न्यधात् ॥ १९॥ भगवन्तं तीर्थ-|| करं, गृहीत्वा करसम्पुटे । विचके पश्चधा रूपं, सर्वश्रेयोपर्थिकः स्वयम् ॥ २०॥एको गृहीततीर्थेशः, पार्श्वे द्वौ २५ चासचामरी । एको गृहीतांतपत्रः, एको वज्रधरः पुनः ॥ २१॥ अग्रगः पृष्ठगं स्तौति, पृष्ठस्थोऽप्यनगं पुनः ॥ ७९ ॥ नेत्रे पश्चात् समीहन्ते, केचनातनाः सुराः॥ २२॥ शक्रः सुमेरुशृङ्गस्थं, गत्वाऽथो पाण्डुकं बनम् । मेरुचूलादक्षिणेनातिपाण्डुकम्बलासने ॥२३॥ कृत्वोत्सङ्गे जिनं पूर्वाभिमुखोऽसौ निषीदति । समस्ता अपि देवेन्द्राः, २८ दीप अनुक्रम [९९] ~ 183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [84] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूल [९८] / गाथा [...] व्याख्यान [५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ........................ स्वामिपादान्तमैः ॥ २४ ॥ दश वैमानिकाः विंशतिर्भवन पतयः, द्वात्रिंशद्यन्तराः द्वौ ज्योतिष्कौ इति चतुःपष्टिरिन्द्राणां ॥ सौवर्णा राजता रात्राः, स्वर्णरूप्यमया अपि । खर्णरत्नमयाञ्चापि रूप्यरत्नमया अपि ॥ २५ ॥ स्वर्णरूप्यरक्षमया, अपि मृत्स्नामया अपि । कुम्भाः प्रत्येकमष्टाव्यं सहस्रं योजनाऽऽननाः ॥ २६ ॥ यतः-पेणविसजोअण तुङ्गो, बारस य जोअणाई वित्थारो । जोअणमेगं नालुअ. इगकोडिअ सलिक्खाई ॥ २७ ॥ एवं भृङ्गारदपणरत्नकरण्डक सुप्रतिष्ठकस्थालपात्रिकापुष्पचङ्गेरिकादिपूजोपकरणानि कुम्भवदंष्टप्रकाराणि प्रत्येकमूष्टोत्तरसहसमानानि तथा मागधादितीर्थानां मृदं जलं च गङ्गादीनां पद्मानि च जलं च पद्महदादीनां क्षुल्ल हिमवद्वर्षधर वेताढ्य विजयवक्षस्कारादिपर्वतेभ्यः सिद्धार्थपुष्पगन्धान् सर्वोपघीश्च आभियोगिकसुरैरच्युतेन्द्र आनाययत्, क्षीरनीरघदैर्वक्षःस्थलस्यैस्त्रिदशा वभुः । संसारोधं तरीतुं द्राग, घृतकुम्भा इव स्फुटम् ॥ २८ ॥ सिञ्चन्त इव भावदुं, क्षिपन्तो वा निजं मलम् । कलशं स्थापयन्तो वा धर्मचैले सुरा बभुः ॥ २९ ॥ संशयं त्रिदशेशस्य, मत्वा वीरोऽमराचलम् । वामाङ्गुष्ठाङ्गसम्पर्कात् समन्तादप्यचीचलत् ॥ ३० ॥ कम्पमाने गिरौ तत्र, चकम्पेऽथ वसुन्धरा । शृङ्गाणि सर्वतः पेतुश्चक्षुभुः सागरा अपि ॥ ३१ ॥ ब्रह्माण्डस्फोटसदृशे शब्दाद्वैते प्रसर्पति । रुष्टः १ नवमदशमयोरेकादशद्वादशयोश्चैकै केन्द्रखामिकत्वात् २ किन्नराद्या अष्ट अणपण्णीप्रभृतयोऽष्टेतिषोडशभेदानां तेषां द्विद्वीन्द्रस्वामिकत्वात् ३ पश्चविंशतिं योजनान्युथत्वं द्वादश योजनानि विस्तारः योजनमेकं नालं कोटयेका पष्टिर्लक्षाः ||२१|| कलशाः सौवर्णायाः प्रत्येकं सहस्रं तथा च ८००० अष्टवारा ६४००० अभिषेकाः २५० तथा च १६००००००। सार्धं शतद्वयमभिषेकाणामेवं ६२ इन्द्राः १३२ चन्द्रसूर्याः १ सामानिकः ३३ त्रयत्रिंशाः ३ पार्षयाः १ आत्मरक्षकः ४ लोकपालाः ७ अनीकाधिपाः १ प्रकीर्णकः ५ इन्द्राण्यः १ आभियोगिकः For Frate & Personal Use Only 184 enesistent देवकुतो जन्मोत्सवः १० ११ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२८] गाथा कल्प.सुबो शक्रोऽषधेर्मात्या, क्षमयामास तीर्थपम् ॥३२॥ संख्यातीतोहतां मध्ये, स्पृष्ठः केनापि नाहिणा । मेहः देवकृतो व्या०५ साकम्पमिषादित्यानन्दाविष मनत सः ॥ ३३ ॥ शैलेषु राजता मेऽभूत्, स्लाश्रमीराभिषेकतः । तेनामी जन्मोत्सवः निर्जरा हारा, खपीडो जिनस्तथा ॥ ३४॥ तत्र पूर्वमच्युतेन्द्रो, विधात्यभिषेचनम् । ततोऽनु परिपाटीतो, याचन्द्रार्यमादयः॥ ३५ ॥ जलवाने कषिघटना वेतच्छायमाणं शिरसि मुखशशिन्यापूरायमानं, कण्ठे हारायमाणं वपुषि च निखिले, चीनचोलायमानम् । श्रीमजम्माभिषेकप्रगुरिणहंगणोदस्तकम्भौधगर्भाद, भ्रश्यदुग्धाग्धिपाथश्चरमजिनपतेरसशि श्रिये यः॥ ३६ ॥ चतुर्घषभरूपाणि, शक्रः कृत्वा ततः खयम् । नाष्टकक्षरत्क्षीररकरोदभिषेचनम् ॥ ३७॥ सत्यं ते विबुधा देवाः, पैरन्तिमजिनेशितुः । सजद्धिः सलिलैः स्नानं, स्वयं नैर्मल्पमाददे ॥ ३८ ॥ समङ्गलप्रदीपं ते, विधायाऽऽरात्रिकं पुनः । सनृत्यगीतवाद्यार्वि, व्यधुविविधभुत्सवम् ॥ ३९ ॥ उन्मूज्य गन्धकाषाय्या, दिव्ययाऽङ्ग हरिविभोः । विलिप्य चन्दनायैश्च, पुष्पाहास्तमपूजयत् ॥४०॥ दर्पणो १ वर्धमानश्च २, कलशो३ मीनयोर्यगम् ४ श्रीवत्स: ५ खस्तिको ६नन्यावल-110 ७ भद्रासने ८इति ॥४१॥ शक्रः स्वामिपुरो रनपटके रुप्यतण्डुलः । आलिरुथ मङ्गलान्यष्टाविति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ ४२ ॥ (अट्ठसयविसुद्धगंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहिं अस्थजुत्तेहिं संथुणइ २त्ता वामं जाणुं| जाव एष वयासी णमोऽत्व ते सिद्धवृद्धणीरय समण सामाहिअ समरा समजोगि सलंगसण णिन्भय णीराग-IN दोस णिम्मम णीसंग निस्सल माणमूरण गुणरयण सीलसागरमणन्तमप्पमेय भविअधम्मवरचाउरन्तयक दीप अनुक्रम [९९] For Fun ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [9] .......... मूलं [९८] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९८] गाथा ||१..|| esed वही! णमोऽस्यु ते अरहओ) शक्रोऽथ जिनमानीय, विमुभ्याम्बान्तिके ततः। संजहार प्रतीविम्यावस्था- हिरण्यादिपिन्धौ स्वशक्तितः ॥४३॥ कुण्डले क्षीमयुग्मं चोच्छीर्षे मुत्तथा हरिय॑धात् । श्रीदामरत्नदामाख्यमुल्लोचेष्टिःसू.९८ स्वर्णकन्दुकम् ॥४४॥ द्वात्रिंशद्रत्नरैरूप्यकोटिवृष्टिं विरच्य सः । बाढमाघोषयामासे, सुरैरित्याभियोगिकैः 18.४५॥ स्वामिनः स्वामिमातुश्च, करिष्यत्यशुभं मनः । सप्तधाऽऽर्यमञ्जरीव, शिरस्तस्य स्फुटिष्यति ॥ ४६॥ खाम्यङ्गुष्ठेऽमृतं न्यस्येत्यर्हज्जन्मोत्सव सुराः । नन्दीश्वरेऽष्टाहिकां च, कृत्वा जग्मुर्यथाऽऽगतम् ॥ ४७॥ इति । देषकृतः श्रीमहावीरजन्मोत्सवः । अस्मिन्नवसरे राज्ञे, दासी नाना प्रियंवदा । तं पुत्रजननोदन्तं, गरवा शीघ्रं न्यवेदयत् ॥१॥ सिद्धार्थोऽपि तदाकर्ण्य, प्रमोदभरमेदुरः । हर्षगद्गदगी रोमोद्गमदन्तुरभूघनः ॥२॥ विना किरीटं तस्यै स्वां, सङ्गिाल कृतिं ददौ । तां धौतमस्तकां चक्रे, दासत्वापगमाय सः॥३॥ MH (जं रयणि च णं समणे भगवं महाबीरे जाए) यस्यां च रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः जातः (तं रयर्णि च णं)तस्यां रजन्यां (बहवे वेसमणकुंडधारी) बहवः वैश्रमणस्य आज्ञाधारिणः (तिरियजंभगा देवा) एवंविधाः तिर्यगज़म्भकाः देवाः (सिद्धत्थरायभवणंसि) सिद्धार्थराजमन्दिरे (हिरण्णवास था रूप्यवृष्टिं च (सुवण्णवासं च) सुवर्णवृष्टिं च (वयरवासंच) बज्राणि-हीरकाः तेषां वृष्टिं च (वत्ववासं च) वखाणां वृष्टिं च (आभरणवासंघ) आभरणवृष्टिं च (पत्तवासं च) पत्राणि नागवल्लीप्रमुखाणां तेषां वृष्टिं च (पुष्फवासंघ) पुष्पाणां वृष्टिं च (फलवासं च ) फलानि-नालिकेरादीनि तेषां वृष्टिं च ( बीयवासं दीप अनुक्रम [९९] ~1860 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [9] .......... मूलं [९९] | गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [९९] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- च) बीजानि-शाल्यादीनि तेषां वृष्टिं च (मल्लवासं च) मालधानां वृष्टिं च (गंधवासं च ) गन्धाः-कोष्ठ-उत्सवादेशः व्या०५18पुटादयस्तेषां वृष्टिं च (खुण्णवासं च) चूणोनि-वासयोगास्तेषां वृष्टिं च ( वणवासंच) वर्णाः-हिमलाद-मानादि यस्तेषां वृष्टिं च (वसुहारवासंच) वसुधारा-निरन्तरा द्रव्यश्रेणिस्तस्याः वृष्टिं च (पासिंस) अवर्षयन् (२८) द्वा. ॥८१॥ RI (तए णं से सिद्धत्धे खत्तिए) ततोऽनन्तरं स सिद्धार्थः क्षत्रियः (भवणवइयाणमंतरजोइसमाणिएहिं ९९-१०० देवेहिं ) भवनपतयः व्यन्तराः ज्योतिष्काः वैमानिकाः ततः समासस्तैः एवंविधैः देवैः (तित्थयरजम्मणासेयमहिमाए कयाए समाणीए) तीर्थङ्करस्य यो जन्माभिषेकस्तस्य महिम्नि-उत्सवे कृते सति (पच्चूसकालसमयंसि ) प्रभातकालसमये (नगरगुत्तिए सहावेइ ) नगरगोप्तृकान्-आरक्षकान् शब्दयति, आकारपतीत्यर्थः (सहावित्ता) शब्दयित्वा च (एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (९९)॥ | (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया!(खत्तियकुंडग्गामे नयरे) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (चारगसोहर्ण करेह)चारकशब्देन कारागारं उच्यते तस्य शोधनं-शुद्धिं कुरुत, बन्दिमोचनं कुरुत इत्यर्थः, यत उक्तं-"युवराजाभिषेके च, परराष्ट्रापमईने । पुत्रजन्मनि बा मोक्षो, बद्धानां प्रविधीयते ॥१॥ | किश्व-(माणुम्माणबद्धणं करेह ) तत्र मान-रसंधान्यविषयं, उन्मानं-तुलारूपं तयोर्वर्द्धनं कुरुत (करित्ता) ॥८१॥ कृत्वा च (कुंडपुरं नयरं सभितरवाहिरिअं) अभ्यन्तरे बहिश्च यथोक्तविशेषणविशिष्टं कुण्डपुरनगरं कुरुत कारयत, अथ किंविशिष्टं ? (आसिअत्ति) आसिक्तं सुगन्धजलच्छटादानेन ( संमनिओवलितं ) संमार्जितं Sareener दीप अनुक्रम [१००] ~187 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१००] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा Resesesecessoccessaech कचवरापनयनेन, उपलिप्सं छगणादिना ततः कर्मधारयः, पुन: किंवि०? (सिंघाडगतिअचउक्चच्चरचउम्मुह-18 मानवृद्धामहापहपहेसु) शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं, त्रिक-मार्गत्रयसंगमः , चतुष्क-मार्गचतुष्टयसङ्गमः चत्वरं-अनेकमा-दिस.१०० गैसङ्गमः, चतुर्मुख-देवकुलादि, महापन्धा-राजमार्गः पन्थान:-सामान्यमार्गाः एतेषु स्थानेषु (सित्ति) सिक्तानि जलेन अत एव (सुइत्ति) शुचीनि-पवित्राणि (संमट्टत्ति) संमृष्टानि कचवरापनयनेन समीकृतानि (रत्यंतरावणवीहियं) रथ्यान्तराणि-मार्गमध्यानि तथा आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यस्मिन् तत्तथा, पुनः किंचि०? (मंचाइमंचकलिअं) मञ्चा-महोत्सवपिलोककजनानां उपवेशननिमित्तं मालकाः अतिमञ्चका:-तेषां अपि उपरि कृता मालकास्तैः कलितं, पुनः किंवि०१ (नाणाविहरागभूसिअझयपडागमंडिअं) नानाविधै रागैर्विभूषिता ये ध्वजा:-सिंहादिरूपोपलक्षिता वृहत्पटाः, पताकाश्च-लव्यस्ताभिर्मण्डितं-विभूषितं, पुनः किंवि०१(लाउल्लोइअमहियं ) छगणादिना भूमौ लेपन सेडिकादिना भित्यादी धवलीकरणं ताभ्यां महितं |इव-पूजितं इव, पुन: किंवि०? (गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं) गोशीर्ष-चंदनविशेषः तथा सरसं यत् रक्तचन्दनं तथा दर्दरनामपर्वतजातं चन्दनं तैः दत्ताः पञ्चाङ्गुलितला-हस्तकाः कुड्यादिषु यत्र तत्तथा, पुनः किंवि०१ (उबचियचंदणकलसं) उपनिहिता गृहान्तश्चतुष्केषु चन्दनकलशाः यत्र तत्तथा (चंदणघडसुकयतोरणपडिनुवारदेसभाग) चन्दनघटैः सुकृतानि-रमणीयानि तोरणानि च प्रतिद्वारदेशभाग-द्वारस्य द्वारस्य देशभागे यस्मिन् तत्तथा, पुनः किंवि० ? (आसत्तोसत्तविपुलववग्धारियमल्लदामक-II दीप अनुक्रम [१०१] JaMEducata F Fate ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१००] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०१] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [५] .......... मूलं [१००] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- ॥ ८२ ॥ कल्प. सुबो लावं) आसतो-भूमिलग्नः, उत्सक्त- उपरिलग्नो, विपुलो- विस्तीर्णो वर्तुलः प्रलम्बतो मास्यामकलाप:व्या० ५ २ पुष्पमालासमूहो यस्मिन् ततथा पुनः किंवि० ? (पंचवण्णसरसमुरहिमुकपुष्फ पुंजोवयारकलियं ) पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचारो-भूमेः पूजा तथा कलितं, पुनः किंवि० १ ( कालागुरुपवरकुंदुरुतुरुतधूवमघमघंत गंधुदुआभिरामं ) दह्यमानाः ये कृष्णागरुप्रवरकुन्दुरुतुरुष्कधूपाः तेषां मघमघायमानो यो गन्धः तेन 'उद्याभिरामन्ति अत्यन्तमनोहरं पुनः किंवि० ? (सुगंधवरगंधियं ) सुगन्धवराः - चूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तत्तथा तं पुनः किंवि० ? ( गंधवहिभूयं ) गन्धवृत्तिभूतं- गन्धद्रव्यगुटिकासमानं पुनः किंवि० ? (नडनहगजलमलमुट्ठियत्ति) नदा-नाटयतारः, नर्सका :- स्वयं नृत्य कर्त्तारः जल्ला - वरत्राखेलकाः मल्लाः- प्रतीताः मौष्टिका-ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति ते मलजातीयाः (वेलंयगत्ति ) विडम्बका - विदूषका जनानां हास्यकारिणः ये समुखविकारमुत्प्लुत्य नृत्यन्ति ते वा (पवगत्ति) प्लवका - ये उत्प्लवनेन गर्तादिकमलङ्घयन्ति नद्यादिकं वा तरन्ति (कहगति) सरसकथावस्तारः (पाढगन्ति) सुक्तादीनां पाठकाः (लासगति) लासका ये रासकान् ददति (आरक्खगति) आरक्षकाः- तलबराः (लंखत्ति) लङ्का - वंशाग्रखेलकाः (मंखत्ति) मङ्खा:- चित्रफलक हस्ता भिक्षुका 'गौरीपुत्रा' इति प्रसिद्धाः (तूहल्लत्ति) तृणाभिधानवादिश्रवादकाः भिक्षुषि-२ ॥ ८२ ॥ शेषाः (तुंबधीणियत्ति ) तुम्बवीणिका - वीणावादकाः तथा (अणेगतालायराणुचरियं ) अनेके ये तालाचरा:तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तालान् कुट्टयन्तो वा ये कथां कथयन्ति तैः अनुचरितं संयुक्तं, एवंविधं क्षत्रियकुण्ड २५ 189~ मानवृद्ध्या दि सू. १०० १५ २० २८ Janetary org Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०१] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०१] गाथा ||१..|| ग्राम नगर (करेह कारवेह) कुरुत खयं, कारयत अन्यैः (करिता कारविता य) कृत्वा कारयित्वा च टमोच. (असहस्सं मुसलसहस्सं च उस्सवेह) यूपाः-युगानि तेषां सहस्र तथा मुशलानि-प्रतीतानि तेषां सहस्रंसू.१०१ ऊ-कुरुत, युगमुसलोभीकरणेन च तत्रोत्सवे प्रवर्तमाने शकटखेटनकण्डनादिनिषेधः प्रतीयते इति वृद्धाः (उस्सबित्ता) तथा कृत्वा च ( मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह) मम एतां आज्ञा प्रत्यर्पयत, कार्यं कृत्वा । कृतं इति मम कथयतेत्यर्थः ।। (१००)" | (तए णं ते कोटुंबियपुरिसा) तताते कीटुम्पिकपुरुषाः (सिद्धत्थेणं रमा) सिद्धार्थेन राज्ञा (एवं बुत्सा समाणा) एवं उक्ताः सन्तः (हतुट्ट जाव हिअया) हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहृदया: (करयल जाक पडिसुणिता) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा प्रतिश्रुत्य-अङ्गीकृत्य (खिच्पामेव कुंडपुरे नपरे) शीघ्रमेवर क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (चारगसोहणं जाव उस्सवित्ता) बन्दिगृहशोधन-वन्दिमोचनं यावत् मुशलसहरू चोकृत्य (जेणेक सिद्धत्थे खत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रियः (तेणेव उवागमति ) तत्रैच उपागच्छन्ति (उवागरिछत्ता) उपागत्य च (सिद्धस्थरस ससिअस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य (समाणत्तियं पचरिपति) सां आज्ञा प्रत्यर्पयन्ति-कृत्वा निवेदयन्ति। (१०१)। (तए ण सिद्धस्थे राया) ततोऽनन्तरं सिद्धार्थों राजा (जेणेच अणसाला) यत्रैव अहनशाला-परिश्रम स्थानं (तेणेव उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति (उचागठिसा) उपागत्य (जाव समोरोहेणं) अत्र यावत्- १४ दीप अनुक्रम [१०२] For FE FGC ~190 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०२] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०२] गाथा ||१..|| कल्प,सबो- शब्दात् 'सचिड्डीए सबजुइए सवयलेणं सबवाहणेणं सबसमुदएणं' इत्येतानि पदानि वाच्यानि, तेषां चायमर्थ:- करशुल्काव्या०५ 'सधिड्डीए'त्ति सर्वया ऋद्ध्या युक्त इति गम्यं, एवं सर्वेष्वपि विशेषणेषु वाच्यं, सर्वया युक्त्या-उचितवस्तुसंयोगेन दिवर्जनम् आभरणादिद्युत्या वा, सर्वेण बलेन-सैन्येन, सर्वेण वाहनेन-शिविकातुरगादिना सर्वेण समुदयेन-परिवारादि- सू. १०२ ॥८३Rसमन एवं समूहेन एवं यावत्शब्दसूचितं अभिधाय ततः 'सबोरोहेणं' इत्यादि वाच्यं, तत्र 'सबोरोहेणंति' सर्वावरोधेन, सर्वेण अन्तःपुरेणेत्यर्थः ( सन्चपुष्फगंधवत्थमल्लालंकारविभूसाए ) सर्वया पुष्पगन्धवस्त्रमाल्यालङ्काराणां विभू|पया युक्तः (सबतुडियसद्दनिनाएणं) सर्ववादित्राणि तेषां शब्दो निनादः-प्रतिरवश्च तेन युक्तः (महया 18 इड्डीए)महत्या ऋळ्या-छत्रादिरूपया युक्तः (महया जुईए)महत्या युक्त्या-उचिताड़म्बरेण युक्तः (महया बलेणं ) महता बलेन-चतुरङ्गसैन्येन युक्तः (महया वाहणेणं) महता वाहनेन-शिविकादिना युक्तः (महया | समुदएणं) महता समुदयेन-खकीयपरिवारादिसमूहेन युक्तः (महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं), महत्-विस्तीर्ण यत् वराणां-प्रधानानां त्रुटितानां-वादित्राणां जमगसमग-युगपत् प्रवादितं-शब्दस्तेन, तथा र (संखपणवभेरिझल्लरिखरमुहिहुडक्कमुरजमुइंगदुदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं) शङ्ख:-प्रतीतः पणयो-मृत्पटहः भेरी-1 ढका झल्लरी-प्रतीता खरमुखी-काहला हुडुक्का-तिवलितुल्यो वायविशेषः मुरुजो-मईल: मृदंगः-मृन्मयः स] ॥८३॥ एव दुन्दुभिः-देववाचं एतेषां यो निघोंषो-महाशब्दो नादितं च-प्रतिशब्दस्तद्रूपो यो रवस्तेन, एवंरूपया सकलसामग्या युक्तः सिद्धार्थो राजा दश दिवसान यावत् स्थितिपतितां-कुलमर्यादा महोत्सवरूपां करो-18 दीप अनुक्रम [१०४] For F lutelu ~191 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०२ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [ १०४ ] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [ ५ ] .......... मूलं [१०२] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धार की संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- तीति योजना ॥ अथ किंविशिष्टां स्थितिपतितामित्याह-- (उस्मुकं ) उच्छुकां शुल्कं विक्रेतव्यक्रयाणकं प्रति मण्डपिकायां राजग्राह्यं द्रव्यं ' दाण ' इति लोके तेन रहितां, पुनः किंधि० १ (उक्करं ) उत्करां, करोगवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजग्राह्यं द्रव्यं तेन रहितां, अत एव ( उहिं ) उत्कृष्टां सर्वेषां हर्षहेतुत्वात् पुनः किंवि० १ ( अदिजं ) अदेयां, यत् यस्य युज्यते तत्सर्वं तेन हतः ग्राह्यं न तु मूल्यं देयं मूल्यं तु तस्य राजा ददातीति भावः, अत एव (अमिजं) अमेयां अमितानेकवस्तुयोगात्, अथवा अदेयां विक्रयनिषेधात्, अमेयां क्रयविक्रयनिषेधात् पुनः किंवि० ? ( अभडपवेसं ) नास्ति कस्यापि गृहे राजाज्ञादायिनां भटानां| राजपुरुषाणां प्रवेशो यत्र सा तथा तां, पुनः किंवि० १ ( अदंडकोदंडिमं ) दण्डो - यथाऽपराधं राजग्राह्यं धनं कुदण्डो - महत्यपराधे अल्पं राजग्राह्यं धनं ताभ्यां रहितां, पुनः किंवि० ? ( अधरिमं ) धरिमं ऋणं तेन रहितां, ऋणस्य राज्ञा दत्तत्वात् पुनः किंवि० १ ( गणियावर नाडइज्जकलियं ) गणिकावरैः नाटकीयै:-नाटकप्रतिबद्धैः पात्रैः कलितां पुनः किंवि० १ ( अणेगतालायराणुचरियं ) अनेकैस्ता लाचरैः - प्रेक्षाकारिभिः अनुचरितां-सेवितां पुनः किंवि० ? (अणुधमुइंगं ) अनुद्धृता-वादकैः अपरित्यक्ता_मृदङ्गा यस्यां सा तथा तां, पुनः किंवि० ? ( अमिलाय मल्लदामं ) अम्लानानि माल्यदामानि यस्यां सा तथा तां, पुनः किंवि० १ (पमुइ| यपक्कीलिअसपुरजण जाणवयं ) प्रमुदिताः - प्रमोदवन्तः अत एव प्रकीडिता:- क्रीडितुं आरब्धाः पुरजनस 192 करशुल्कादिवर्जनम् ख. १०२ ५ १० १३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०३] | गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०३] गाथा ||१..|| ॥८४॥ दीप अनुक्रम [१०५] कल्प.सुवो- हिता.जानपदा-देशलोका यत्र सा तथा तां (दस दिवस ठिइवडियं करेइ) दश दिवसान यावत् एवंविधांस्थितिपतिव्या०५स्थितिपतितां-उत्सवरूपा कुलमयोंदा करोति ।। (१०२)॥ तायां देव(तए णं सिद्धत्थे राया) ततः स सिद्धार्थी राजा (दसाहियाए ठिइवडियाए बदमाणीए) दशाहिकायां- पूजादि दशदिवसप्रमाणायां स्थितिपतितायां वर्तमानायां (सइए अ) शतपरिमाणान् (साहस्सिए अ) सहस्रप- म. १०३ रिमाणान् (सयसाहस्सिए अ) लक्षप्रमाणान् (जाए अ) यागान्-अहेत्प्रतिमापूजाः, कुर्वन् कारयश्चेति शेषः, भगवन्मातापित्रोः श्रीपार्श्वनाथसन्तानीयश्रावकत्वात् यजधातोश्च देवपूजार्थत्वात् यागशब्देन प्रतिमा| पूजा एव ग्राह्या, अन्यस्य यज्ञस्य असम्भवात्, श्रीपार्श्वनाथसंतानीयश्रावकत्वं चानयोराचाराङ्गे प्रतिपादितं 8(दाए अ) दायान्-पर्वदिवसादौ दानानि (भाए य)लब्धद्रव्यविभागान् मानितद्रव्यांशान् वा (दलमाणे अ) ददत् वयं (दवावेमाणे अ) दापयन् सेवकः (सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य) शतप्रमाणान्। सहस्रप्रमाणान् लक्षममाणान् , एवंविधान (लंभे पडिच्छमाणे अ पहिच्छावेमाणे य) लाभान 'वधामणा' इति लोके प्रतीच्छन्-खयं गृह्णन् प्रतिग्राहयन सेवकादिभिः (एवं विहरह) अनेन प्रकारेण च विहरति-आस्ते ॥(१०३) (तएर्ण समणस्स भगवो महावीरस्स)ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्थ (अम्मापिपरो पढमे दिवसे)II २५ मातापितरौ प्रथमे दिवसे (ठिइवडियं करेंति) स्थितिपतितां कुरुतः (तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति)R॥८॥ तृतीये विक्से चन्द्रसूर्यदर्शनिकां-उत्सव विशेषं कुरुता, तद्विधिनायं-जन्मदिनादिनद्वयातिक्रमे गृहस्थगुरुर- २७ For FFU Clu ~193 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०४] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत १०४ सूत्रांक [१०४] गाथा ||१..|| त्पतिमाग्रे रूप्यमयीं चन्द्रमूर्ति प्रतिष्ठाप्य अर्चित्वा विधिना स्थापयेत्, ततः स्नातां सुवस्त्राभरणां सपुत्रां दशाहिकी मांतरं चन्द्रोदये प्रत्यक्ष चन्द्रसन्मुखं नीवाओं अहं चन्द्रोऽसि निशाकरोऽसि नक्षत्रपतिरसि सुधाकरो- मर्यादा मू, |सि औषधीगर्भोऽसि अस्य कुलस्य वृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा' इत्यादिचन्द्रमन्त्रमुचारयंश्चन्द्र दर्शयेत् , सपुत्रा | माता च गुरुं प्रणमति, गुरुश्चाशीर्वाद ददाति,सचायं-सर्वोषधीमिश्रमरीचिराजिः, सर्वापदां संहरणप्रवीणः। करोतु वृद्धिं सकलेऽपि वंशे, युष्माकमिन्दुः सततं प्रसन्नः॥१॥ एवं सूर्यस्यापि दर्शनं, नवरं मूर्तिः खर्णमयी ताम्रमयी वा, मन्त्रश्च-औं अहं सूर्योऽसि दिनकरोऽसि तमोऽपहोऽसि सहस्रकिरणोऽसि जगचक्षुरसि प्रसीद ' आशीर्वादश्चायं-सर्वसुरासुरवन्धः, कारयिताऽपूर्वसर्वकार्याणाम् । भूयात्रिजगचक्षुर्मङ्गलदस्ते सपुत्रायाः ॥ १॥ इति चन्द्रसूर्यदर्शनविधिः, साम्प्रतं च तत्स्थाने शिशोर्दर्पणो दश्यते ॥ (छट्टे दिवसे धम्मजागरियं जागरेन्ति ) ततः षष्ठे दिवसे 'धम्मजागरियं ति धर्मेण-कुलधर्मेण षष्ट्या रात्री जागरणं धर्मजागरि का तां जागृतः, पष्ठे दिने जागरणमहोत्सवं कुरुत इति भावः, एवं च (एक्कारसमे दिवसे वहफते) एकादशे II दिवसे व्यतिक्रान्ते सति (निब्बत्तिए असहजम्मकम्मकरणे) अशुचीनां जन्मकर्मणां-मालच्छेदादीनां करणे || निवर्तिते-समापिते सति (संपत्ते बारसाहे दिवसे) द्वादशे च दिवसे सम्प्राप्ते सति भगवन्मातापितरौ (विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उपक्खडार्विति) विपुलं-बहु अशनं पानं खादिम खादिमं च उपस्कारयता-मगुणीकारयतः (उवक्खडावित्ता) उपस्कारयित्वा च (मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजण) मित्राणि-1 दीप अनुक्रम [१०६] कश्म.स. १५ - 194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०४] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०४] गाथा ||१..|| कल्प.सपो- सहदादयः,ज्ञातयः-सजातीयाः,निजका:-स्वकीयाः पुत्रादयः,स्वजना:-पितृव्यादयः, सम्बन्धिन:-पत्रपत्री-I दशाहिका व्या०५॥णां श्वशुरादयः परिजनो-दासीदासादिः (नायए खत्तिए य) ज्ञातक्षत्रिया:-श्रीभाषभदेवसजातीयास्तान योदी स. (आमंतेइ २ता) आमन्त्रयति आमन्न्य च (तओ पच्छा पहाया कयबलिकम्मा) ततः पश्चात् लातौ कृता | पूजा याभ्यां तथा तौ ( कयकोउअमंगलपायच्छित्ता) कृतानि कौतुकमङ्गलानि तान्येव प्रायश्चित्तानि याभ्यां तथा तौ (सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई पवराई बस्थाई परिहिया) शुद्धानि-श्वेतानि सभाप्रवेशयोग्यानि,माङ्गल्यानि-उत्सवसूचकानि.प्रवराणि-श्रेष्ठानि वस्त्राणि परिहितौ (अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा) अल्पानिस्तोकानि बहुमूल्यानि यानि आभरणानि तैः अलङ्कृतं-शोभितं शरीरं याभ्यां तथा तौ, एवंविधौ भगव-11% न्मातापितरौ (भोअणवेलाए भोअणमंडवंसि) भोजनवेलायां भोजनमण्डपे (सुहासणवरगया) सुखासनवराणि गती सुखासीनी इत्यर्थः (तेणं मित्तनाइनियगसंबंधिपरियणेणं) तेन मित्रज्ञातिनिजकखजनसम्बधिपरिजनेन (नाएहिं खत्तिएहिं सदि) ज्ञातजातीयैः क्षत्रियैः साई (तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइ-IN म)तं विपुलं अशनं पानं खादिमं खादिमं च (आसाएमाणा) आ-देषत् खादयन्ती बहु यजन्ती इक्ष्वादेरिव (विसाएमाणा) विशेषेण स्वादयन्तौ अल्पं त्यजन्तौ वर्जूरादेरिव (परिभुजेमाणा) सर्वमपि भुञ्जानौ ॥८५ ॥ अल्पं अपि अत्यजन्ती भोज्यादेरिव (परिभाएमाणा) परिभाजयन्ती-परस्परं यच्छन्ती (एवं वा विहरति) अनेन प्रकारेण भुनानौ तिष्ठत इति भावः ॥ (१०४)॥ दीप अनुक्रम [१०६] ~1950 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०५ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०७ ] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [५] .......... मूलं [ १०५] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- (जिमियत्तरागयावि य णं समाणा ) ततः जिमितौ भुक्तयुत्तरं - भोजनानन्तरं आगतौ - उपवेशनस्थाने समागतो अपि च निश्चयेन एवंविधौ सन्तौ (आयंता चोक्खा परमसुइभूया ) आचान्ती-शुद्धोदकेन कृताचमनी ततश्च लेपसिक्थाद्यपनयनेन चोक्षौ अत एव परमपवित्रीभूतौ सन्तौ (तं मित्तनाइनियगसपण संबंधिपरियणं) तं मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनं (नायए खत्तिए अ) ज्ञातजातीयांश्च क्षत्रियान् (विउ| लेणं पुष्कवत्थगंधमलालंकारेणं) विपुलेन पुष्पवस्त्रगन्धमालालङ्कारादिना ( सकारेंति सम्मार्णेति ) सत्कारयतः | सन्मानयतः (सक्कारिता सम्माणित्ता) सत्कार्य सन्मान्य च (तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणस्स) तस्यैव मित्रज्ञातिनिजकखजनसम्बन्धिपरिजनस्य (नायाणं खत्तिआण य पुरओ) ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां च पुरतः ( एवं वयासी ) एवं अवादिष्टाम् ॥ ( १०५ ) ॥ (पुव्विपि णं देवापिया) पूर्वमपि भो देवानुप्रियाः ! - भोः खजनाः ! ( अम्हं एयंसि दारगंसि गर्भ वक्तंसि समाणंसि ) अस्माकं एतस्मिन् दारके गर्भे उत्पन्ने सति (इमे प्यारूवे अम्भस्थिए जाव समुप्पजिस्था ) अयं एतद्रूपः आत्मविषयः यावत् संकल्पः समुत्पन्नोऽभूत्, कोऽसौ ? इत्याहू - ( जप्पभिहं च णं अम्हं | एस दारए कुच्छिसिं गन्भताए वर्षाते ) यतः प्रभृति अस्माकं एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः (तप्पभि चणं अम्हे ) तत्प्रभृति वयं (हिरण्णेणं बहामो ) हिरण्येन -रूपयेन वर्धामहे ( सुवण्णेणं वडामो) सुवर्णेन वर्धामहे ( घणेणं धनेणं रज्जेणं जाव सावइज्जेणं) धनेन धान्येन राज्येन यावत् स्वापतेयेन द्रव्येण ( पीइस 196 अभिप्राय कथनं गुणनामकरणम् म्. १०५-७ ५ १० १४ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०७] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०७] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-18कारेणं अईव अईव अभिवट्ठामो) प्रीतिसत्कारेण अतीव अतीव अभिवर्धामहे (सामंतरायाणो वसमागया|श्रीचीरस्य व्या०५ ) स्वदेशसमीपवर्तिनः राजानः वझ्यं-आयत्तत्वं आगताः॥ (१०६)॥ | नामवयं KRI (तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सह ) तस्मात् यदा अस्माकं एष दारको जातो भविष्यतिम. १०८ ॥८६॥ l (तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स) तदा वयं एतस्य दारकस्य (इमं एयाणुरूवं गुपणं गुणनिष्फपणं) इमा am एतदनुरूपं गुणेभ्यः आगतं,गुणनिष्पन्न (नामधिलं करिस्सामो बद्धमाणुत्ति) एवंविधं अभिधानं करिष्यामः | वर्द्धमान' इति (ता अम्हं अज्ज मणोरहसंपत्ती जाया) 'ता' इति सा पूर्वोत्पन्ना अस्माकं अद्य| मनोरथस्य संपत्तिः जाता (तं होज णं अम्हं कुमारे वद्धमाणे नामेणं) तस्मात् भवतु अस्माकं कुमार: बर्द्धमानः' नाम्ना ॥ (१०७)॥ K (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (कासबगुत्तेणं) काश्यप इति नामकं गोत्रं यस्य स तथा (तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जति) तस्य भगवतः त्रीणि अभिधानानि एवं आख्यायन्ते, (तंजहा) तद्यथा-( अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे) मातापितृसत्कं-मातापितृदत्तं 'वर्द्धमान' इति प्रथम नाम १ (सहसमुइयाए समणे) सहसमुदिता-सहभाविनी तपाकरणादिशक्तिः तया श्रमण इति द्वितीयं नाम २ (अयले भयभेरवाणं) भयभैरवयोर्विषये अचलो-निष्पकम्पः, तत्र भयं-अकस्माद्यं । विद्युदादिजातं,भैरवं तु सिंहादिकं, तथा (परिसहोवसग्गाणं) परिषहा:-क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः २२॥ दीप अनुक्रम [११२] 000000000000003028. ... भगवंत महावीरस्य त्रयाणां नामानां वर्णनं ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०८] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०८] गाथा ||१..|| उपसर्गाश्च दिव्यादयश्चत्वारः सप्रभेदास्तु षोडश १६ तेषां (खंतीखमे ) क्षान्त्या-क्षमया क्षमते न स्वसमर्थ- आमलकीतया यः स क्षान्तिक्षमः (पडिमाणं पालए) प्रतिमानां-भद्रादीनां एकरात्रिक्यादीनां वा अभिग्रहविशे- क्रीडा षाणां पालकः (धीमं) धीमान ज्ञानत्रयोभिरामस्वात् ( अरइरइसहे ) अरतिरती सहते, न तु तत्र हर्षविपादी कुरुते इति भावः (दविए) द्रव्यं तत्तद्वणानां भाजनं, रागद्वेषरहित इति वृद्धाः (वीरिअसंपन्ने) वीर्य-पराक्रमस्तेन संपन्न:, यतो भगवान् एवंविधस्ततो (देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे) देवैः से इति-तस्य भगवतो नाम कृतं श्रमणो भगवान महावीर इति तृतीयम् ॥ (१०८)॥ तदिदं नाम देवैः कृतं, कथं कृतं? इत्यत्र वृद्धसंप्रदाया-अथैवं पूर्वोक्तयुक्त्या सुरासुरनरेश्वरैः कृतजन्मोत्सवो भगवान् द्वितीयाशशीव मन्दाराकर इव वृद्धि प्राप्नुवन् क्रमेण एवंविधो जात:-द्विजराजमुखो गजराजगतिः, अरुणोष्टपुटः सितदन्तततिः। शितिकेशभरोऽम्बुजमकरः, सुरभिश्वसितःप्रभयोल्लसितः॥१॥ मतिमान् श्रुतवान् प्रथितांवधियुक, पृथुपूर्वभवस्मरणो गतरुक । मतिकान्तिधृतिप्रभृतिखगुणैर्जगतोऽप्यधिको जगतीतिलकः ॥२॥ स चैकदा कौतुकरहितोऽपि तेषां उपरोधात् समानवयोभिः कुमारैः सह क्रीडां कुर्वाण। आमलकीक्रीडानिमित्तं पुरादू बहिर्जगाम, तत्र च कुमारा वृक्षारोहणादिप्रकारेण कीडन्ति स्म, अत्रान्तरे सौध-18 र्मेन्द्र सभायां श्रीवीरस्य धैर्यगुणं वर्णयनास्ते, यदुत-पश्यत भो देवाः! साम्प्रतं मनुष्यलोके श्रीवर्द्धमानकुमारो बालोऽप्यथालपराक्रमः शक्रादिभिर्देवैरपि भापयितुं अशक्यः कटरे वालस्यापि धैर्य, तदाकर्ण्य च कश्चित् १४ दीप अनुक्रम [११२] ~198 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [५] .......... मूलं [ १०९ ] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- व्या० ५ ॥ ८७ ॥ कल्प. सुबो- 8 मिथ्याग देवश्चिन्तयामास - अहो शक्रस्य प्रभुत्वाभिमानेन निरकुशा निर्विचारा पुम्भिकापातेन नगराक्रममिवांश्रद्धेया च वचनचातुरी, यदिमं मनुष्य कीटपरमाणु अपि इयन्तं प्रकर्ष प्रापयति, तदद्यैव तत्र गत्वा तं भीषयित्वा शक्रवचनं वृथा करोमि इति विचिन्त्य मर्त्यलोकमागत्य शिंशपामुशलस्थूलेन लोलजिह्वायुगलेन भयङ्करफूत्कारेण क्रूरतराकारेण प्रसरत्कोपेन पृथुफटाटोपेन दीप्रमणिना महाफणिना ते क्रीडातरुं आवेष्टितवान्, तदर्शनाच पलायितेषु सर्वेषु बालेषु मनागयभीतमनाः श्रीवर्द्धमानकुमारः स्वयं तत्र गत्वा तं फणिनं करेण गृहीत्वा दूरं निक्षिप्तवान् ततः पुनः संगतैः कुमारैः कन्दुकक्रीडारसे प्रस्तुते सति स देवोऽपि कुमाररूपं विकुर्व्य तां क्रीडां कर्त्तुं प्रववृते, तत्र चार्य पण:- पराजितेन जितः स्वस्कन्धे आरोपणीय इति, क्षणाच पराजितं मया जितं वर्धमानेनेति वदन् श्रीवीरं स्कन्धे समारोप्य भगवद्भापनाय सप्ततालप्रमाणशरीरः संजातो, भगवानपि तत्स्वरूपं विज्ञाय वज्रकठिनया मुष्ट्या तत्पृष्ठं जघान, सोऽपि तत्प्रहारवेदनापीडितो मशक इव संकोचं प्राप, ततश्च शक्रवचनं सत्यं मन्यमानः प्रकटितखरूपः सर्व पूर्वव्यतिकरं निवेद्य भूयो भूयो निजं अपराधं क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम स देवः, तदा च सन्तुष्टचित्तेन शक्रेण 'श्रीवीर ' इति भगवतो नाम कृतं यदुक्तं - बालणेऽवि सूरो पयईए गुरुपरक्कमो भगवं । वीरुति कथं नामं सक्केणं तुट्ठचित्तेणं ॥ १ ॥ | इत्यामलकीक्रीडा ॥ अथ तं मातापितरौ विज्ञौ ज्ञात्वाऽष्टवर्षमतिमोहात् । वरममितालङ्कारैरुपनयतो लेखशा१ बालवेsपि शूरः प्रकृत्या गुरुपराक्रमो भगवान् । वीर इति कृतं नाम शक्रेण तुष्टचित्तेन ॥१॥ 199 आमलकी क्रीडा २० २५ ॥ ८७ ॥ २७ Vanelibrary.org Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||१..|| लायाम् ॥१॥ लग्नदिवसव्यवस्थितिपुरस्सरं परमहर्षसंपन्नौ । प्रौढोत्सवान्महानि , वितेनतुर्घनधनव्ययतः लेखशाला॥२॥ तथाहि-पाजतुरगसमूहैः स्फारकेयूरहारः, कनकघटितमुद्राकुण्डलैः कङ्कणाद्यैः । रुचिरतरदुकूलैः पञ्च | मोचनं वर्णैस्तदानीं, खजनमुखनरेन्द्राः सक्रियन्ते स्म भक्त्या ॥३॥ तथा-पण्डितयोग्यं नानावस्त्रालङ्कारनालिकेरादि । अथ लेखशालिकानां दानार्थमनेकवस्तूनि ॥४॥ तथाहि-पूगीफलशृङ्गाटकखज्ज॑रसितोपलास्तथा खण्डा।। चारुकुलीचारुबीजादाक्षादिसुखाशिकावृन्दम् ॥५॥ सौवर्णरात्नराजतमिश्राणि च पुस्तकोपकरणानि । कमनी-18 यमषीभाजनलेखनिकापट्टिकादीनि ॥ ६॥ वाग्देवीप्रतिमार्चाकृतये सौवर्णभूषणं भव्यम् । नव्यवहुरत्नखचितं. छात्राणां विविधवस्त्राणि ॥७॥ इत्यादिसमग्रपठनसामग्रीसहितः कुलवृद्धाभिस्तीर्थीदकैः स्लपितः परिहितप्रचु-% रालङ्कारभासुरः शिरोधृतमेघाडम्बरच्छन्नश्चतुश्चामरवीजिताङ्गश्चतरदसैन्यपरिवृतो वाद्यमानानेकवादित्रः पण्डितगेहं उपाजगाम, पण्डितोऽपि भूपालपुत्रपाठनोचितां पर्वपरिधेयक्षीरोदकधौतिकहेमयज्ञोपवीतकेसरतिहालकादिसामग्री यावत् करोति तावत् पिप्पलपर्णवत् गजकर्णवत कपटिध्यानवत् नृपतिमानवत् चलाचलसि-1 हासनः शक्रोऽवधिना ज्ञाततत्खरूपो देवान इत्थं अवादीत-अहो! महच्चित्रं यद्भगवतोऽपि लेखशालायां मोचनं, यता-साऽऽने वन्दनमालिका स मधुरीकारः सुधायाःस च, ब्रायाः पाठविधिःस शुभ्रिमगुणारोपः सुधादीधितौ । कल्याणे कनकच्छटाप्रकटनं पावित्र्यसंपत्तये, शास्त्राध्यापनमहतोऽपि यदिदं, सल्लेखशालाकृते ॥१॥ मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत्, लङ्कानगर्या लहरीयकं तत् । तत्माभृतं लावणमम्बुराशेः, प्रभोः 161१५ दीप अनुक्रम [११३] ~ 2000 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प. सुबो व्या० ५. ॥ ८८ ॥ ---------- पुरो यद्वचसां विलासः ॥ २ ॥ यतः - अनध्ययनविद्वांसो निर्द्रव्यपरमेश्वराः । अनलङ्कारसुभगाः, पान्तु युष्मान् जिनेश्वराः ॥ १ ॥ इत्यादि वदन् कृतब्राह्मणरूपस्त्वरितं यत्र भगवान् तिष्ठति तत्र पण्डितगेहे समाजगाम, आगत्य च पण्डितयोग्ये आसने भगवन्तं उपवेश्य पण्डितमनोगतान् संदेहान् पप्रच्छ, श्रीवीरोऽपि बालोऽयं किं वक्ष्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददौ ततो जैनेन्द्र व्याकरणं जज्ञे, यतः-सको अ तस्समक्खं भगवन्तं आसणे निवेसित्ता । सहस्स लक्खणं पुच्छि वागरणं अवयवा इंदं ॥ १ ॥ सर्वे जना विस्मयं प्रापुः - अहो वालेनापि वर्द्धमानकुमारेण एतावती विद्या कुत्राधीता ?, पण्डितोऽपि चिन्तयामास - आवालकालादपि मामकीनान् यान् संशयान् कोऽपि निरासयन्त्र | विभेद तांस्तान्निखिलान् स एष, बालोऽपि भोः ! पश्यत चित्रमेतत् ॥ १ ॥ किश्च अहो ईदृशस्य विद्याविशारदस्यापि ईदृशं गाम्भीर्य, अथवा युक्तमेवेदं ईदृशस्य महात्मनः, यतः गर्जति शरदि न वर्षति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः । नीचो वदति न कुरुते न वदति साधुः करोत्येव ॥ १ ॥ तथा-असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाडम्बरो महान् । न हि स्वर्णे ध्वनिस्तादृग् यादृकू कांस्ये प्रजायते ॥ २ ॥ इत्यादि चिन्तयन्तं पण्डितं शक्रः प्रोवाच- मनुष्यमात्रं शिशुरेष विप्र !, नाशङ्कनीयो भवता स्वचिन्ते । विश्वत्रयीनायक एष वीरो, जिनेश्वरो वाङ्मयपारदश्वा ॥ ३ ॥ इत्यादि श्रीवर्धमानस्तुतिं निर्माय शक्रः स्वस्थानं जगाम, भगवानपि सकलज्ञातक्षत्रियपरिकलितः स्वगृहमागात् इति श्रीले १ शक्रश्च तत्समक्षं भगवन्तं आसने निवेश्य शब्दस्य लक्षणमपृच्छत् व्याकरणं अवयवा ऐन्द्रं ॥ १ ॥ For Frate & Personal Use Only 201 लेखशालामोचनं २० २५ ॥ ८८ ॥ २७ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] | गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||१..|| खशालाकरणं एवं बाल्यावस्थानिवृत्तौ संप्राप्तयौवनो भोगसमर्थों भगवान् मातापितृभ्यां शुभे मुहलें सम-18 श्रीवीरस्य रवीरनृपपुत्रीं यशोदां परिणायिता, तया च सह सुखमंनुभवतो भगवतः पुत्री जाता, साऽपि प्रवरनरपति-पित्रादीनां सुतस्य जमाले परिणायिता, तस्या अपि च शेषवती नानी पुत्री, सा च भगवतो 'नई' दौहित्रीत्यर्थः नामानि (समणस्स भगवओ महावीरस्स) अमणस्य भगवतो महावीरस्य (पिया कासवगोत्तेणं) पिता, कीदृशः- स. १०९ काश्यपः गोत्रेण कृत्वा (तस्स णं तओ नामधिजा) तस्य त्रीणि नामधेयानि (एबमाहिति) एवं आख्या- यन्ते (तंजहा-सिद्धत्थे इ वा सिजंसे इ वा जसंसे इवा) तद्यथा-सिद्धार्थ इति वा श्रेयांस इति या यशस्वी81 इति वा (समणस्स णं भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (माया वा सिट्ठस्सगुत्तेणं) माता वाशिष्ठगोत्रेण (तीसे तओ नामधिज्जा) तस्याः त्रीणि नामधेयानि (एबमाहिजंति) एवं आख्यायन्तेश (तंजहा-तिसला इ वा विदेहदिना इवा पीइकारिणी इवा) तयथा-त्रिशला इति वा विदेहदिना इति वा मीतिकारिणीति वा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पित्तिजे सुपासे) १० पितृव्यः 'काको' इति सुपार्श्वः (जिट्टे भाया नंदिवद्धणे) ज्येष्ठो भ्राता नन्दिवर्धनः (भगिणी सुदंसणा) भगिनी सुदर्शना (भारिया जसोया कोडिपणागुत्तेणं) भार्या यशोदा, साकीदृशी'-कौण्डिन्या गोत्रेण (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (धूआ कासवगोत्तेणं) पुत्री काश्यपगोत्रेण (तीसे दो नामधिज्जा, एवमाहिति) तस्या द्वे नामधेये, एवं आख्यायेते (तंजहा-अणोजाइ वा पियदसणा इ वा) दीप अनुक्रम [११३] JanEducation ~ 2020 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] | गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प-सुबोव्या०५ प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||१..|| ॥८९॥ तद्यथा-अणोजा इति वा प्रियदर्शना इति वा (समणस्स भगवओ महावीरस्स ) श्रमणस्य भगवतो महा- वर्षद्वयाववीरस्य (नत्तुई कासवगुत्तेणं ) पुत्र्याः पुत्री दौहित्री काश्यपगोत्रेण (तीसे णं दो नामधिज्जा एवमाहिजंति स्थानं लोतस्याः द्वे नामधेये एवं आख्यायते (तंजहा-सेसवई वा जसबई वा) तद्यथा-शेषवती इति वा यशस्वतीकान्तका इति वा ॥ (१०९) गमश्च म. (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान महावीरः (दक्खे) दक्षा-सकलकलाकुशलः (दक्खपइन्ने) दक्षा-निपुणा प्रतिज्ञा यस्य स तथा, समीचीनां एव प्रतिज्ञा करोति तां च सम्यग निर्वहतीति भावः (पडि-18 २० रूवे) प्रतिरूपा-सुन्दररूपवान् ( आलीणे) आलीन:-सर्वगुणरालिङ्गितः (भद्दए ) भद्रका-सरलः (विणीए) विनीतो-विनयवान् (नाए ) ज्ञाता-प्रख्यातः (नायपुत्ते) ज्ञात:-सिद्धार्थस्तस्य पुत्रा, न केवलं पुत्रमात्रः किन्तु (नायकुलचंदे ) ज्ञातकुले चन्द्र इच (विदेहे ) बज्रऋषभनाराचसंहननसमचतुरस्रसंस्थानमनोहरत्वाल विशिष्टो देहो यस्य स विदेहः (विदेह दिन्ने ) विदेहदिन्ना-त्रिशला तस्या अपत्यं वैदेह दिन्नः (विदेहजचे) विदेहा-त्रिशला तस्यां जाता अर्चा-शरीरं यस्य स तथा (विदेहसूमाले) विदेहशब्देन अत्र गृहवास उच्यते तत्र सुकुमालः, दीक्षायां तु परिपहादिसहने अतिकठोरत्वात् (तीसं वासाई विदेहंसि कड्ड) निश-12|| दुवर्षाणि गृहवासे कृत्वा, त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थभावे स्थित्वेत्यर्थः (अम्मापिउहिं देवत्तगएहिं ) मालापिनो-18] | देवस्वं गतयोः (गुरुमहत्तरएहिं अब्भणुण्णाए) गुरुमहत्तरैः-नन्दिवर्धनादिभिरभ्यनुज्ञातः (समत्सपइन्ने) दीप अनुक्रम [११३] २५. ... भगवंत महावीरस्य दीक्षा-कल्याणकस्य वर्णनं ~ 203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११०] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११०] गाथा ||१..|| ११० IS समाप्तप्रतिज्ञश्च, मातापित्रोर्जीवतोः नाहं प्रव्रजिष्यामीति गर्भगृहीतायाः प्रतिज्ञायाः पूरणात्, स व्यतिकर-1 विद्याव1 स्त्वेवं-अष्टाविंशतिवर्षातिक्रमे भगवतो मातापितरौ आवश्यकाभिप्रायेण तुर्य वर्ग आचाराङ्गाभिप्रायेण तु स्थानं लोअनशनेन अच्युतं गती, ततो भगवता ज्येष्ठनाता पृष्ट:-राजन्! ममाभिग्रहः सम्पूर्णोऽस्ति ततोऽहं प्रवजि- कान्तका गमच सू. ध्यामि, ततो नन्दिवर्धनः प्रोवाच-भ्रातः! मम मातापितृविरहदुःखितस्य अनया वार्तया किं क्षते क्षारं || लिपसि!, ततो भगवता मोक्तं-पिअमाइभाइभइणीभन्जापुत्तत्तणेण सव्वेऽवि । जीवा जाया बहुसो जीवस्स ज एगमेगस्स ॥१॥ ततः कुत्र कुन प्रतिवन्धः क्रियते? इति निशम्य नन्दिवर्धनोऽवोचत्-भ्रातरहं अपि इदं। जानामि, किंतु प्राणतोऽपि प्रियस्य तव विरहो मां अतितमां पीडयति, ततो मदुपरोधार्षद्वयं गृहे तिष्ठ, भगवानपि एवं भवतु, किंतु राजन् ! मदर्थ न कोऽपि आरम्भः कार्यः, प्रामुकाशनपाननाई स्थास्यामि इत्यबोचत् , राज्ञापि तथा प्रतिपन्ने समधिकं वर्षद्वयं वस्खालकारविभूषितोऽपि प्रासुकैषणीयाहारः सचितं जलं अपिवन भगवान् गृहे स्थिता, ततः प्रभृति भगवता अचित्तजलेनापि सर्वस्त्रानं न कृतं ब्रह्मचर्य च यावज्जीवं| पालितं, दीक्षोत्सवे तु सचित्तोदकेनापि स्नानं कृतं, तथाकल्पत्वात् , एवं भगवन्तं वैरङ्गिकं विलोक्य चतुई-18 शखमसूचितत्वाचक्रवर्तिधिया सेवमानाः श्रेणिकचण्डप्रद्योतादयो राजकुमाराः खं स्वं स्थानं जग्मुः॥ (पुणरवि लोअंतिएहिं) पुनरपि इति विशेषद्योतने, एकं तावत् समाप्तप्रतिज्ञः खयमेव भगवान वर्तते, १ पितृमातृधातृभगिनीभार्यापुत्रत्वेन सर्वेऽपि । जीवा जाता बहुशः जीवस्य एकैकस्य ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [११३] ~ 204 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [५] ........ मूलं [११०] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक व्या०५ [११० गाथा ||१..|| कल्प.सबो-पुनरपि लोकान्तिकैर्देवैबोंधित इति विशेषो द्योत्यते, लोकान्ते-संसारान्ते भवाः लोकान्तिका, एकावतार-18 वर्षद्वयाव त्वात् , अन्यथा ब्रह्मलोकवासिनां तेषां लोकान्तभवत्वं विरुदयते, ते च नवविधाः, यदुक्तं-सौरस्सय १- स्थान लो माइचा २ वण्ही ३ वरुणा य ४ गहतोया य५। तुडिआ६ अबाबाहा.७ अग्गिचा ८ चेव रिहा य९॥१॥ कान्तिका॥९॥ एए देवनिकाया भयवं बोहिन्ति जिणवरिंदं तु । सबजगज्जीवहियं भययं! तित्थं पवत्तेहि ॥ २॥ यद्यपि गमश्च सू. स्वयम्बुद्धो भगवांस्तदुपदेशं नोपेक्षते तथापि तेषां अयं आचारो वर्तते, तदेवाह-(जीयकप्पिएहिं देवेहि जीतेन-अवश्यंभावेन कल्प:-आचारो जीतकल्पः सोऽस्ति येषां ते जीतकल्पिकाः एवंविधा ते देवाः विभ-16 लाक्तिपरावर्तनात् (ताहिं इहाहि) ताभिः इष्टाभिः (जाव वग्गृहिं) यावत् शब्दात् 'कंताहिं मणुनाहि 18 इत्यादि पूर्वोक्तः पाठो घाच्या, एवंविधाभिर्वाग्भिः (अणवरयं) निरन्तरं भगवन्तं (अभिनंदमाणा य) अभिनन्दयन्तः-समृद्धिमन्तं आचक्षाणाः (अभिथुषमाणा य) अभिष्टुवन्तः-स्तुतिं कुर्वन्तः सन्तः ( एवं वयासी) एवं अवादिषुः ॥ (११०)॥ K १ सप्ताष्टभवा इति प्रवचनसारोद्धारे, लोकस्य-अझलोकस्य अन्ते-समीपे भवा लोकान्तिका इतिव्युत्पत्तेरौपपातिकादी दर्शनाच नायK मेकान्तः, लोकप्रकाशे स्वयमपि तथोक्तं २ सारस्वता आदित्या वह्नयो वरुणाश्च गर्दवोयाश्च । त्रुटिता अव्याबाधा आग्नेयाश्चैव रिष्ठाश्च ॥१॥ एते देवनिकाया भगवन्त बोधयन्ति जिनवरेन्द्रं तु । सर्व जगजीवहितं भगवन ! तीर्थ प्रवर्तय ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम [११३] For F lutelu ~ 205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१११] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत लोकान्तिकोक्तिः सू. १११ सूत्रांक [१११] गाथा ||१..|| (जय जय नंदा) जयं लभख २, सम्भ्रमे द्विवचनं, नन्दति-समृद्धोभवतीति नन्दस्तस्य सम्बोधन हे नन्द ! दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , एवं (जय जय भद्दा) जय जय भद्र !-कल्याणवन् ! (भई ते) ते-तव भद्रं भवतु (जय जय खत्तियवरवसहा) जय जय क्षत्रियवरवृषभ! (बुज्झाहि भगवं लोगनाह) बुद्ध्यख भगवन ! लोकनाथ ! (सयलजगजीवहियं) सकलजगज्जीवहितं (पवत्तेहि धम्मतित्थं ) प्रवर्तय धर्मतीर्थ, यत इदं (हियसुहनिस्सेयसकर) हित-हितकारक,सुख-शर्म निःश्रेयसं-मोक्षस्तस्कर (सबलोए सब्यजीवाणं) सर्वलोके सर्वजीवानां (भविस्सइत्तिकटु जयजयसई पति ) भविष्यतीतिकृत्वा-इत्युक्त्वा जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ (१११) ST (पुविपि णं) इदं पदं 'गिहत्थधम्माओ' इत्यस्माईग्रे योज्यं, (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ) मनुष्ययोग्यात् एवंविधात् गृहस्थधर्मात्-गृहव्यवहारात विवाहादेः पूर्वमपि (अणुत्तरे आभोइए) अनुपमं आभोगः-प्रयोजनं यस्य तत् आभोगिकं (अप्पडिवाई नाणदिसणे हुस्था) अप्रतिपाति-आकेवलोत्पत्तेः स्थिरं एवंविधं ज्ञानदर्शनं-अवधिज्ञान अवधिदर्शनं च अभूत् (तएणं समणे भगवं महावीरे) ततः श्रमणो भगवान महावीरः (तेणं अणुत्तरेणं आभोइएणं) तेन अनुत्तरेण आभोगिकेन (नाणदंसणेणं) ज्ञानदर्शनेन (अप्पणो निक्खमणकालं) आत्मनो दीक्षाकालं (आभोएइ) आभो गयति-विलोकयति (आभोइत्ता) आभोग्य च (चिचा हिरपणं) त्यक्त्वा हिरण्यं-रूपं (चिचा सुषणं) कल्प.सु. १६ त्यत्तवा सुवर्ण (चिचा धणं) त्यतया धनं (चिचा रज्ज) त्यत्तया राज्यं (चिचा रह) त्यत्वा राष्ट्र-देशं ( एवं SERIAGEथयटर दीप अनुक्रम [११४] ... दीक्षा-कल्याणक अवसरे सांवत्सरिक-दान एवं अभिषेकस्य वर्णनं ~ 206 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११२] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११२] गाथा कल्पसुबो- व्या०५ ॥ ९१॥ बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं) एवं सैन्यं वाहनं कोश कोष्ठागार (चिथा पुरं) त्यक्त्वा नगरं (चिचा अंतेउर) संवत्सरदात्यक्त्वा अन्तःपुरं (चिच्चा जणवयं ) त्यत्वा जानपद-देशवासिलोकं (चिच्चा विपुलवणकणगरयणमणिमोत्ति-नि स.११२ यसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइअं) यत्तवा विपुलधनकनकरनमणिमौक्तिकशलशिलाप्रवालरक्तरत्नप्रमुख (संत-SI सारसावइज) सत्सारखापतेयं, एतत् सर्वं त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा? (विच्छ इत्ता) विच्छय-विशेषेण त्यत्त्वा, पुनः किं कृत्वा (विगोवइत्ता) विगोप्य-तदेव गुप्तं सद्दानातिशयात् प्रकटीकृत्येति भावः, अथवा |विगोप्य-कुत्सनीयमेतदस्थिरत्वादित्युक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ? (दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता) दीयते इति दान-1 धनं तत् दायाय-दानार्थं आईन्ति-आगच्छन्तीति दायारा-याचकास्तेभ्यः परिभाज्य-विभागैर्दवा, यद्दा परिभाब्य-आलोच्य इदं अमुकस्य देयं इदं अमुकस्यैवं विचार्यत्यर्थः पुनः इत्ता) दान-धनं दायिका-गोत्रिकास्तेभ्यः परिभाज्य-विभागशो दत्त्वेत्यर्थ: ।। (११२)॥ अनेन सूत्रेण च || वार्षिकदानं सूचितं, तच्चैवं-भगवान् दीक्षादिवसात् प्राग्वर्षऽवशिष्यमाणे प्रातःकाले वार्षिकं दानं दातुंग प्रवर्तते, सूर्योदयादारभ्य कल्पवर्त्तवेलापर्यन्तं अष्टलक्षाधिका एका कोटिं सौवर्णिकानां प्रतिदिनं ददाति, २५ वृणुत वरं वृणुत वरं इत्युघोषणापूर्वकं यो यन्मार्गयति तस्मै तदीयते, तच सर्व देवाः शक्रादेशेन पूरयन्ति, एवं च वर्षेण यद्धनं दत्तं तदुच्यते-तिन्नेव य कोडिसया अहासीई य हुति कोडीओ । असीई च सयसहस्सं २७ १ त्रीण्येव च कोदिशतानि अष्ट्राशी तिश्च भवन्ति कोटयः । अशीतिश्च शतसहस्राणि एतत् संवत्सरे दत्तं ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [११५] ~ 207 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११३] गाथा एवं संवच्छरे दिन्नं ॥१॥ तथा च कवयः-तत्तद्वार्षिकदानवर्षविरमदारिद्यदावानला:, सधः सजितवाजिरा-दीक्षाभिषेजिवसनालद्वारदुर्लक्ष्यभाः । सम्प्राप्ताः खगृहेऽर्थिनः सशपथं प्रत्याययन्तोऽगनाः, खामिन् ! पिङ्गजनैर्निरुद्धह-काम.११३ सितैः के यूयमित्यूचिरे ॥१॥ एवं च दानं दत्त्वा पुनर्भगवता नन्दिवर्धनः पृष्टः-राजंस्तव सत्कोऽपि अवधिः । पूर्णस्तदहं दीक्षां गृह्णामि, ततो नन्दिनाऽपि ध्वजहहालङ्कारतोरणादिभिः कुण्डपुरं सुरलोकसमं कृतं, ततो नन्दिराजः शक्रादयश्च कनकमयान् १ रूप्यमयान् २ मणिमयान् ३ कनकरूप्यमयान् ४ कनकमणिमयान | ५रूप्यमणिमयान् ६ कनकरूप्यमणिमयान ७ मृन्मयांश्च ८ प्रत्येक अष्टोत्तरसहस्रं कलशान यावत् अन्यामपि च सकलां सामग्री कारयन्ति, ततोऽच्युतेन्द्राद्यैश्चतुःषष्ट्या सुरेन्द्ररंभिषेके कृते सुरकृताः कलशा दिव्यानुभाबेन नृपकारितकलशेषु प्रविष्टास्ततस्तेऽत्यन्तं शोभितवन्तः, ततः श्रीनन्दिराजः स्वामिनं पूर्वाभिमुखं निवेश्य सुरानीतक्षीरोदनीरैः सर्वतीर्थमृत्तिकादिभिः सर्वकषायैश्चाभिषेकं करोति, इन्द्राश्च सर्वेऽपि भृङ्गारदिर्शादिहस्ता जयजयशब्दं प्रयुञानाः पुरतस्तिष्ठन्ति, ततश्च भगवान् नातो गन्धकापाव्या रूक्षिताङ्गः सुरचन्दनानुलिप्सगात्रः कल्लतरुपुष्पमालामनोहरकण्ठपीठः कनकखचिर्ताञ्चलखच्छोज्वल लक्षमूल्यसदशश्वेतवस्त्रावृतशरीरो हारविराजवक्षःस्थलः केयूरकटकमण्डितभुजः कुण्डलललितगल्लतलः श्रीनन्दिराजकारितां पश्चाशद्धनरायतां पञ्चविंशतिधनुर्विस्तीर्णा षटत्रिंशद्धनुरुषों बहुस्तम्भशतसंनिविष्टां मणिकनकविचित्रां दिव्यानुभावतः सुरकृतताहकशिचिकामनुप्रविष्टां चन्द्रप्रभाभिधां शिविका आरूढो दीक्षाग्रहणार्थं प्रतस्थे, शेषं सूत्रकृत् वयं वक्ष्यति । दीप अनुक्रम [११६] For FFU Clu Gunjaneibrary.org ~ 208 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११३] गाथा ||१..|| कल्प,सुबो-। (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् दीक्षाभिषेव्या०५॥ महावीरः (जे से हेमंतार्ण ) योऽसौ शीतकालस्य (पढमे मासे पढमे पक्खे ) प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः कः सू.११३ ॥९२॥ (मग्गसिरबहुले) मार्गशीर्षमासस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं मग्गसिरवहुलस्स ) तस्य मार्गशीर्षवहुलस्य (दस-11 १५ मीपक्खेणं) दशमीदिवसे (पाईणगामिणीए छायाए)पूर्वदिग्गामिन्यां छायायां (पोरिसीए अभिनिविहाए) पौरु-11 व्यां-पाश्चात्यपौरुष्यां अभिनिसायां-जातायां,कथम्भूतायां?- (पमाणपत्ताए)प्रमाणप्राप्तायां नतु न्यूनाधिकायां (सुपएणं दिवसेणं) सुव्रताख्ये दिवसे (विजएणं मुहुत्तेणं) विजयाख्ये मुहूर्ते (चंदप्पभाए सिपिआए) चन्द्रप्र-IST भायां पूर्वोक्तापां शिपिकायां कृतषष्ठतपाः विशुद्ध्यमानलेश्याकः पूर्वाभिमुखः सिंहासने निषीदति, शिबि-MK कारूतस्य च प्रभोदक्षिणतः कुलमहत्तरिका हंसलक्षणं पटशाटकमादाय, वामपाचे च प्रभोरम्बधात्री दीक्षोपकरणमादाय,पृष्ठे चैका वरतरुणी स्फारशृङ्गारा धघलच्छत्रहस्ता, ईशानकोणे चैका पूर्णकलशहस्ता. अग्निकोणे चैका मणिमयतालवृन्तहस्ता भद्रासने निषीदंति, ततः श्रीनन्दिनुपादिष्टाः पुरुषाः यावत् शिथिकामुत्पाटयन्ति | तावत् शक्रो दाक्षिणात्यां उपरितनी पाहां ईशानेन्द्र औत्तराहां उपरितनी वाहां चमरेन्द्रो दाक्षिणात्यां अध-IRI २५ स्तनी बाहां बलीन्द्र औत्सराहां अधस्तनी बाहां शेषाश्च भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कबैमानिकेन्द्रांश्चञ्चलकुण्डलायाभरणकिरणरमणीयाः पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं कुर्वन्तो दुन्दुभीस्ताडयन्तो यथाऽहं शिविका उत्पाटयन्ति, ततः शक्रेशानी तां बाहां त्यक्त्वा भगवतश्चामराणि वीजयतः, तदा च भगवति शिधिकारूढे प्रस्थिते सति शरदि। दीप अनुक्रम [११६] ॥ ९२॥ २८ JaMEducatanim al Nirjaneibrary.org ~2090 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११३] गाथा ||१..|| पद्मसर इव पुष्पितं अतसीवनमिव कर्णिकारवनमिव चम्पकवनमिव तिलकवनमिव रमणीयं गगनतलं सुरवरै- दीक्षामिषेरभूत् , किन-निरन्तरं वाद्यमानभम्भाभेरीमृदङ्गदुन्दुभिशङ्खाद्यनेकवाद्यध्वनिर्गगनतले भूतले च प्रससार, तन्ना- सू.११३ देन च नगरवासिन्यस्त्यक्तखखकार्या नार्यः समागच्छन्त्यो विविधचेष्टाभिर्जमान विस्मापयन्ति स्म, यतः-15 तिनिवि थी वल्लहां कलि कज्जल सिंदूर । ए पुण अतीहि बल्लहां दूध जमाइ तूर ॥१॥ चेष्ठाश्चेमाः-खग-19 लयोः काचन कज्जलाडूकं, कस्तूरिकाभिनयनाञ्जनं च । गले चलन्नूपुरमहिपीठे, अवेयकं चारु चकार वाला ॥१॥ कटीतटे कापि बबन्ध हार, काचित् कणकिङ्किणिकां च कण्ठे । गोशीर्षपकन ररज पादावलक्तपङ्केन वपुर्लिलेप ॥२॥ अर्धनाता काचन पाला, विगलतसलिला विश्लथवाला । तत्र प्रथममुपेता त्रासं, व्यधित न केषां ज्ञाता हासम्॥३॥ कापि परिच्युतविश्लथवसना, मूढा करघृतकेवलरसना । चित्रं तन्त्र गता न ललजे, सर्वजने जिनवीक्षणसजे।४॥ संत्यज्य काचित्तरूणी रुदन्तं, खपोतमोतुं च करे विधृत्य । निवेश्य कव्यां खरया वजन्ती, हासावकाशं न चकार केषाम् ? ४५|अहो महो रूपमहो महौजः, सौभाग्यमेतत् कटरे शरीरे। गृह्णामि दुःखानि करस्य धातुर्यच्छिल्पमीहग वदति स्म काचित् ॥६॥ काचिन्महेला विकसत्कपोला, श्रीवीरवक्वेक्षणगाढलोला । विस्रस्य दूरं पतितानि तानि,नाज्ञासिषुः काश्चनभूषणानि ७ हस्ताम्बुजाभ्यां शुचिमौक्तिकोपरवाकिरन् काश्चन चञ्चलाक्ष्यः । काश्चिजगुमेञ्जलमङ्गलानि, प्रमोदपूर्णा नन्तुश्च काश्चित् ॥८॥ इत्थं नाग १ त्रीण्यपि त्रीणां वल्लभानि कलिः कजलं सिन्दूरम् । एतानि पुनः अतीव वल्लभानि दुग्धं जामाता तूर्यम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११६] JaMEducushional For Fun ~210 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत कल्प.सुबो- ब्या०५ म.११३ सूत्रांक [११३] गाथा ||१..|| ॥१३॥ रनागरीनिरीक्ष्यमाणविभवप्रकर्षस्य भगवतः पुरतः प्रथमतो रत्नमयान्यष्टौ मङ्गलानि क्रमेण प्रस्थितानि, दीक्षाभिषेतद्यथा-स्वस्तिकः १ श्रीवत्सो २ नन्द्यावर्ती ३ बर्द्धमानक ४ भद्रासनं ५ कलशो ६ मत्स्ययुग्मं ७ दर्पणश्च ८, ततः क्रमेण पूर्णकलशभृङ्गारचामराणि ततो महती वैजयन्ती ततश्छनं ततो मणिस्वर्णमयं सपादपीठं। सिंहासनं ततोऽष्टशतं आरोहरहितानां वरकुञ्जरतुरगाणां ततस्तावन्तो घण्टापताकाभिरामाः शस्त्रपूर्णा रथाः ततस्तावन्तो वरपुरुषाः ततः क्रमेण हय १ गज २ रथ ३ पदायनीकानि ४ ततो लघुपताकासहस्रपरिमण्डितः सहस्रयोजनोचो महेन्द्रध्वजः ततः खड्गग्राहाः कुन्तग्राहाः पीठफलकग्राहाः ततो हासकारकाः नत्तेनकारकाः कान्दर्पिका जयजयशब्दं प्रयुञ्जानास्तदनन्तरं बहव उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रियास्त लवरा माडम्बिकाः कौटुम्बिकाः श्रेष्ठिनः सार्थवाहाः देवा देव्यश्च स्वामिनः पुरतः प्रस्थिताः, तदनन्तरं (सदेवमणुआसुराए) देवमनुजासुरसहितया वर्गमापातालवासिन्या (परिसाए) पर्षदा (समणुगम्ममाणत्ति) सम्यग अनुगम्यमानं (मग्गे)अग्रतः (संखिपत्ति) शशिका:-शङ्खचादकाः (चक्कियत्ति) चाक्रिका:-चक्रपहरणधारिणः (लंगलियत्ति)। लाङ्गलिका-गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणो भविशेषाः (मुहमंगलियत्ति) मुखे प्रियवक्तारश्चाटु-1 कारिण इत्यर्थः (बद्धमाणत्ति) बर्द्धमाना:-स्कन्धारोपितपुरुषाः पुरुषाः (पूसमाणत्ति) पुष्पमाणवा-मागधाः। (घंटियगणे ) घण्टया चरन्तीति घाण्टिका 'राउलिआ' इति लोके प्रसिद्धाः एतेषां गणैः परिवृतं च भगवन्तं | प्रक्रमात् कुलमहत्सरादयः खजनाः (ताहिं इटाहिं जाव वग्गूहि) ताभिरिष्टादिविशेषणविशिष्टाभिवोग्भि दीप अनुक्रम [११६] ॥ ९३॥ JanEducatoninemaopal For FFU Clu S aneloraryara ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [ ५ ] .......... मूलं [११४] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: .............................. (अभिनंदमाणा य अभियुवमाणा ) अभिनन्दन्तः अभिष्टुवन्तश्च ( एवं वयासी) एवं अवादिषुः ॥ (११३) ॥ ( जय जयनंदा) जय-जयवान् भव हे समृद्धिमन् ! ( जय जय भद्दा ! भदं ते) जय-जयवान् भव हे भद्दा ! - भद्रकारक ! ते तुभ्यं भद्रं अस्तु, किञ्च - ( अभग्गेहिं नाणदंसणचरितेहिं ) अभग्नैः निरतिचारैर्ज्ञानदर्शनचारित्रे ( अजियाई जिणाहि इंदियाई ) अजितानि इन्द्रियाणि जय-वशीकुरु ( जियं च पालेहि समणधम्मं ) जितं च- स्ववशीकृतं पालय श्रमणधर्म (जियविग्धोऽवि अ वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे) जितविघ्नोऽपि च हे देव ! प्रभो ! -त्वं वस, कुत्र ? - सिद्धिमध्ये, अत्र सिद्धिशब्देन श्रमणधर्मस्य वशीकारस्तस्य मध्यं-लक्षणया प्रकर्षस्तंत्र त्वं निरन्तरायं तिष्ठेत्यर्थः ( निहणाहि रागदो समले ) रागद्वेषमल्ली निजहि निगृहाण, तयोर्निग्रहं कुरु इत्यर्थ:, केन ? - ( तवेणं ) तपसा बाह्याभ्यन्तरेण, तथा (धिघणियबद्धकच्छे ) घृतौ संतोषे धैर्ये वा अत्यन्तं बद्धकक्षः सन् ( मद्दाहि अट्टकम्मसत्तू) अष्टकर्मशत्रून मर्दय, परं केनेत्याह - ( झाणेणं उत्तमेणं सुकेणं) ध्यानेन उत्तमेन शुक्लेनेत्यर्थः, तथा ( अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च वीर ! तेलुकरंगमज्झे ) हे वीर ! अप्रमत्तः सन् त्रैलोक्यं एव यो रङ्गो - मल्लयुद्धमण्डपस्तस्य मध्ये आराधनपताकां आहर - गृहाण, यथा कश्चिन्मलः प्रतिमल्लं विजित्य जयपताकां गृह्णाति तथा त्वं कर्मशत्रून् विजित्य आराधनपताकां गृहाण इति भावः ( पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलवरनाणं ) प्राप्नुहि च वितिमिरं तिमिररहितं अनुत्तरं - अनुपमं केबलवरज्ञानं ( गच्छय मुक्खं परं पयं ) गच्छ च मोक्षं परमं पदं, केन ? ( जिणवरोवद्दद्वेण मग्गेण अकुडिलेण ) जिनवरो 212 महल रो क्ति: सू. ११४ ५ १० १४ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [५] .......... मूलं [११४] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ५ ॥ ९४ ॥ ---------- पदिष्टेन अकुटिलेन मार्गेण, अथ किं कृत्वेत्याह- ( हंता परीसह चमुं ) हत्वा, कां ? - परीषहसेनां ( जय जय खत्तियवरवसहा ) जय जय क्षत्रियवरवृषभ (बहूई दिवसाई) बहून दिवसान् (बहूई पक्खाई) बहून् पक्षान् (बहू मासाई ) बहून् मासान् (बहूई उऊई ) बहून् ऋतून मासद्वयममितान् हेमन्तादीन् (बहूई अथणाई ) बहूनि अयनानि षाण्मासिकानि दक्षिणोत्तरायणलक्षणानि ( बहूई संवछराई ) बहून संवत्सरान् यावत् ( अभीए परीसहोवसग्गाणं ) परीषहोपसर्गेभ्योऽभीतः सन् ( खंतिख मे भयभेरवाणं ) भय भैरवाणां विद्यु सिंहादिकानां क्षान्त्या क्षमो न त्वंसामर्थ्यादिना, एवंविधः सन् त्वं जय, अपरं च - ( घम्मे ते अविग्धं भवउतिकड ) ते तव धर्मे अविघ्नं विनाभावोऽस्तु इतिकृत्वा इत्युक्त्वा ( जयजयस पउंजंति ) जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ ( ९१४ ) ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततः श्रमणो भगवान् महावीरः क्षत्रियकुण्डग्रामनगरमध्येन भूत्वा यत्र ज्ञानखण्डवनं यत्राशोकपादपस्तंत्र उपागच्छतीति योजना, अथ किंविशिष्टः सन् ? ( नयणमालासहस्सेहिं ) नयनमालासहस्रैः (पिच्छिलमाणे २ ) प्रेक्ष्यमाणः २ - पुनः पुनः विलोक्यमानसौन्दर्यः पुनः किंचि० १ ( वयणमालासहस्सेहिं ) वदनमालासहस्रैः - श्रेणिस्थित लोकानां मुखपतिसहस्रैः (अभिधुवमाणे अभिक्षमाणे ) पुनः पुनः अभिष्ट्रयमानः पुनः किंवि० ? (हिअयमालासहस्सेहिं ) हृदयमालासहस्रैः (उन्नंदिजमाणे उन्नंदिजमाणे ) उन्नन्द्यमानो - जयतु जीवतु इत्यादिध्यानेन समृद्धिं प्राप्यमाणः पुनः किंवि० ? ( मणोरहमालास 213~ महत्तरी क्ति: सू. ११४ १५ २० २५ ॥ ९४ ॥ २८ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११५] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [५] .......... मूलं [११५] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः .............................. हस्सेहिं ) मनोरथमालासहस्रैः (विच्छिष्पमाणे विच्छिष्पमाणे ) विशेषेण स्पृश्यमानः वयं एतस्य सेवका अपि भवामस्तदापि वरं इति चिन्त्यमानः पुनः किंवि० ? ( कंतिरूवगुणेहिं ) कान्तिरूपगुणैः ( पत्थिज्ज्रमाणे पत्थिनमाणे ) प्रार्थ्यमानः खामित्वेन भर्तृत्वेन वाञ्छधमान इत्यर्थः पुनः किंवि० ? ( अंगुलिमाला सहस्सेहिं अङ्गुलिमालासहस्रैः (दाइमाणे २) दर्श्यमानः २, पुनः किंवि०- ( दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारीसहस्साणं ) दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणां (अंजलिमालासहरसाई) अञ्जलिमालासहस्राणि - नमस्कारान् (पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे ) प्रतीच्छन् प्रतीच्छन्- गृह्णन२, पुनः किंवि० १ (भवणपतिसहस्साई ) भवन पक्तिसहस्राणि ( समइकमाणे समइकमाणे ) समतिक्रामन् २, पुनः किंचि० ? (तंतीतलतालतुडियगीयवाइयरवेणं) तत्री - वीणा, तलताला:- हस्ततालाः त्रुटितानि - वादित्राणि गीतं गानं वादितं वादनं तेषां रवेण - शब्देन, पुनः कीदृशेन ? ( महुरेण य मणहरेणं) मधुरेण च मनोहरेण, पुनः कीदृशेन ? ( जयजयसद्दघोसमीसिएणं ) जयजयशब्दस्य यो घोष - उद्घोषणं तेन मिश्रितेन पुनः कीदृशेन ? (मंजुमंजुणा घोसेण मञ्जुमञ्जना घोषेण च - अतिकोमलेन जनस्वरेण ( पडिवुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे ) सावधानीभवन (सविडीए) सर्व समस्तच्छत्रादिराज चिन्हरूपया (सव्वजुईए) सर्वद्युत्या - आभरणादिसम्बन्धिन्या कान्त्या (सङ्घबलेणं) सर्वबलेन हस्तितुरगादिरूपकटकेन (सबवाहणेणं) सर्ववाहनेन - कर भवेसरशिविकादिरूपेण (सङ्घसमुद्रएणं) सर्व समुदयेन-महाजन मेलापकेन (सहायरेणं) सर्वादरेण सर्वोचित्यकरणेन (सङ्घविभूईए) सर्वविभूत्या - सर्वसंपदा ( सङ्घविभूसाए ) सर्वविभूषया - ~214 दीक्षायै गमनं सू. ११५ १० १४ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [५] ........ मूलं [११५] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११५] गाथा ||१..|| कल्प,सुबो- समस्तशोभया (सबसंभमेणं) सर्वसम्म्रमेण-प्रमोदजनितीत्सुक्येन (सधसंगमेणं) सर्वसङ्गमेन-सर्वखजनमेलाप- दीक्षायै व्या० ५ केन (सवपगइएहिं) सर्वप्रकृतिभि:-अष्टादशभिर्नेगमादिभिः नगरवास्तव्यप्रजाभिः (सबनाडएहि) सर्वनाटकैः गमनं ॥९५॥ (सबतालायरेहिं ) सर्वतालाचरैः (सबावरोहेणं) सर्वावरोधेन-सर्वान्तःपुरेण (सवपुष्पगंधमल्लालंकारविभू- स. ११५ साए) सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया प्रतीतया (सन्तुडियसद्दसपिणनाएण) सर्वत्रुटितशब्दानां यः शब्दः संनिनादश्च-प्रतिरवस्तेन, सर्वत्वं च स्तोकानां समुदाये स्तोकैरपि स्यात्तत आह-( महया इड्डीए) महत्या ऋद्ध्या (महया जुईए) महत्या गुत्या (महया बलेणं) महता बलेन (महया समुदएण) महता समुदयेन (महया | वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं ) महता-उच्चैस्तरेण वरत्रुटितानि-प्रधानबादित्राणि तेषां जमगसमगं-समकालं| प्रवादनं यत्र एवंविधेन (संखपणवपडहभेरीझल्लरीखरमुहिहुडुक्कदुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं ) शङ्ख:-प्रतीतः पणवा-मृत्पटहः पटह:-काष्ठपटहः भेरी-ढक्का झल्लरी:-प्रतीता खरमुखी-काहला हुटुका-विवलितुल्यवाद्यविशेष:18 दुन्दुभिः-देववायं तेषां निर्घोषः तथा नादित:-प्रतिशब्दः तद्रूपेण रवेण-शब्देन युक्तं, एवंरूपया कळ्या व्रताय व्रजन्तं भगवन्तं पृष्ठतश्चतुरङ्गसैन्यपरिकलितो ललितच्छत्रचामरविराजितो नन्दिवर्धननृपोऽनुगच्छति। पूर्वोक्ता डम्बरेण युक्तो भगवान (कुंडपुर नगरं मझमझेणं) क्षत्रियकुण्डनगरस्य मध्यभागेन (निग्गच्छइ) निर्गच्छति ISI(निग्गच्छित्ता) निर्गत्य (जेणेव नायसंडवणे उज्जाणे ) यत्रैव ज्ञातखण्डवनं इति नामकं उद्यानं अस्ति (जेणेव | असोगवरपायवे) यत्रैव अशोकनामा वरपादप:-श्रेष्ठवृक्षः (तेणेव उवागच्छद)तत्रैव उपागच्छति॥ (११५) ॥ दीप अनुक्रम [११७] Far Font ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११६] / गाथा [१...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११६] गाथा ||१..|| acasaseasesaadagadasaet (उवागच्छिता) उपागत्य (असोगवरपायवस्स) अशोकवरपादपस्थ (अहे सीयं ठावेह) अधस्तात् शिविका दीक्षाङ्गीस्थापयति (ठावित्ता) स्थापयित्वा च (सीयाओ पच्चोरुहइ) शिबिकातः प्रत्यवतरति (पच्चोरुहित्ता) कार: प्रत्यवतीर्य (सयमेव आभरणमल्लालङ्कारं ओमुयइ) खयमेव आभरणमाल्यालङ्कारान् उत्तारयति (ओमु-|| इत्ता) उत्तार्य, तचैव-अङ्गलीभ्यश्च मुद्रावलिं पाणितो, वीरवलयं भुजाभ्यां झटियङ्गदे । हारमथ कण्ठतः। कर्णतः कुण्डले.मस्तकान्मुकटमुन्मुश्चति श्रीजिनः॥१॥ तानि चाभरणानि कुलमहत्सरिका हंसलक्षणपद्दशाटकेन गृह्णाति, गृहीत्वा च भगवन्तं एवं अवादीत्-'इक्खागकुलसमुप्पन्नेऽसि गं तुम जाया!, कासवगुत्तेऽसि णं तुम जाया!, उदितोदितनायकुलनयलमिअङ्क ! सिद्धत्थजच्चखत्तिअसुएऽसि णं तुमंजाया!, जच्चखत्तिआणीए तिसलाए सुएऽसि णं तुम जाया!, देविन्दन रिन्दपहिअकित्तीऽसि णं तुम जाया!, एत्य सिग्धं चंकमिअवं गरुअं आलम्बेअवं असिधारामहत्वयं चरिअचं जाया! परिकमिदं जाया!, अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाइअवं, इत्यादि उक्त्वा वन्दित्वा नमस्कृत्य एकतोऽपक्रामति । ततश्च भगवान् एकया मुष्टया कूर्चे चतसूभिश्च ताभिः शिरोजान्, एवं ( सयमेव पंचमुडियं लोयं करेइ) खयमेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति (करित्ता) तथा कृत्वा च (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन अपानकेन (हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएणं) उत्तराफाल्गुन्यां चन्द्रयोगे सति (एगं देवदूससमादाय) शक्रेण वामस्कन्धे स्थापितं एकं देवदूष्यं आदाय (एगे) एको रागद्वेषसहायविरहात् (अबीए) अद्वितीयः, यथा हि ऋषभश्चतुःसहरुवा राज्ञां मल्लिपाश्चों दीप अनुक्रम [११८] ~216 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११६] / गाथा [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११६] गाथा ||१..|| | १५ कल्प.सुयो-त्रिभित्रिभिः शतैर्वासुपूज्यः षट्शल्या,शेषाश्च सहस्रेण सह प्रव्रजितास्तथा भगवान् न केनापि सहेत्यतोऽद्वितीयः दीक्षाङ्गीव्या०५ (मुंडे भविता) द्रव्यतः शिर कूर्चलोचनेन भावतः क्रोधाद्यपनयनेन मुण्डो भूत्वा ( अगाराओ अणगारियं । कार:.मू. पवइए) अगारात्-गृहात् निष्क्रम्य, अनगारिता-साधुता,प्रवजितः-प्रतिपन्नः ।। (११६) ॥ तद्विधिश्चार्य-एवं | ११६ पूर्वोक्तप्रकारेण कृतपञ्चमौष्टिकलोचो भगवान् यदा सामायिकं उच्चरितुं वाञ्छति तदा शक्रः सकलमपि वादिबादिकोलाहलं निवारयति, ततः प्रभुः णमो सिद्धाणं' इति कथनपूर्वकं 'करेमि सामाइ सव्वं सावजं जोगं पचक्खामी' त्यादि उच्चरति, न तु 'भंते' त्ति भणति, तथाकल्पत्वात्, एवं च चारित्रग्रहणानन्तरमेव भगवतचतुर्थ ज्ञानं उत्पद्यते, ततः शकादपो देवा भगवन्तं वन्दित्वा नन्दीश्वरयात्रां कृत्वा खं खं स्थानं जग्मुः। दीप अनुक्रम [११८] Senticestaesesecccestowseroticeae RamsastrasnastastraSanrapeARAastastarashasawasestastana इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्री विनय विजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां पञ्चमः क्षणः समाप्तः । ग्रन्थानम् ६५० । पश्चानामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् ॥ ३२२५ ॥ श्रीरस्तु Gera rERGERSURSEASERSURVIRGERSERSERSIRRUERRs& Fur F eld njaneibraryara पंचमं व्याख्यानं समाप्तं ~217 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११७] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत लयब सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| 9088888998288 ॥ अथ षष्ठं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ ततश्चतुर्जानो भगवान् बन्धुवर्ग आपृच्छय विहारार्थ प्रस्थितो, बन्धुवर्गोऽपि दृष्टिविषयं यावत् तत्र वजन निवस्थित्वा त्वया विना वीर ! कथं ब्रजामो, गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने? । गोष्ठीसुखं केन सहाचरामो,तिः गोपोभोक्ष्यामहे केन सहाथ बन्धो ! ॥१॥ सर्वेषु कार्येषु च वीर वीरेत्यामन्त्रणादर्शनतस्तवार्य ।। प्रेमप्रकर्षादभ- पसगे: जाम हर्ष, निराश्रयाश्चाथ कमाश्रयामः ? ॥२॥ अतिप्रियं बान्धव! दर्शनं ते, सुधाऽञ्जनं भावि कदाऽस्म- ५ दक्ष्णोः ? । नीरागचित्तोऽपि कदाचिर्दस्मान् , मरिष्यसि प्रौढगुणाभिराम! ॥३॥ इत्यादि वदन् कष्टेन नि-10 त्य साश्रुलोचनः खगृहं जगाम। किश्च-प्रभुर्दीक्षामहोत्सवे यद्देवैर्गाशीर्षचन्दनादिना पुष्पैश्च पूजितोऽभूत् साधि-18 कमासचतुष्कं यावत् तदवस्थेन च तद्गन्धेन आकृष्टा भ्रमरा आगत्य गाढं त्वचं दशन्ति युवानश्च गन्धपुटी याचन्ते, मीनवति च भगवति रुष्टास्ते दृष्टान् उपसगान् कुर्वन्ति, स्त्रियोऽपि भगवन्तं अद्भुतरूपं तथा सुगन्ध-11 शरीरं च निरीक्ष्य कामपरवशा अनुकूलान् उपसर्गान् कुर्वन्ति, भगवांस्तु मेरुरिव निष्प्रकम्पः सर्व सहमानो विहरति । तस्मिन् दिने च मुहूर्तावशेषे कुमारग्रामं प्राप्तस्तत्र रात्री कायोत्सर्गेण स्थितः, इतश्च तत्र कश्चिद् गोप: सर्व दिनं हले वृषान् वाहयित्वा सन्ध्यायां तान् प्रभुपाचे मुक्त्वा गोदोहाय गृहं गतः, वृषभास्तु बने । चरितुं गताः, स चागत्य प्रभु पृष्टवान्-देवार्य ! क मे वृषाः, अजल्पति च प्रभौ अयं न वेत्तीति वने विलो दीप अनुक्रम [११९] षष्ठं व्याख्यानं आरभ्यते ~218 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११७] / गाथा [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| कल्पसुपी-II लग्न अवास्तु रात्रिशेषे स्वयमेव प्रभुपाचं आगताः, गोपोऽपि तत्रागतस्तान दृष्ट्वा अहो ! जानताऽपि सिद्धार्थव्या०६ अनेन समग्रां रात्रि अहं भ्रामित इति कोपात् सेल्हकमुत्पाव्य प्रहन्तुं धाविता, इतश्च शक्रस्तं वृत्तान्तं अव-स्थापनं पा धिना ज्ञात्वा गोपं शिक्षितवान् । अथ तत्र शक्रः प्रभुं विज्ञपयामास-प्रभो! तवोपसर्गा भूयांसः सन्ति ततोरणके पश्च॥ ९७॥ द्वादशवर्षी यावत् वैयावृत्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि, ततः प्रभुरवादीद्-देवेन्द्र ! कदाप्येतन्न भूतं न भवति दिव्यानि न भविष्यति च यत् कस्यचिद्देवेन्द्रस्य असुरेन्द्रस्य वा साहाय्येन तीर्थङ्कराः केवलज्ञानं उत्पादयन्ति, किन्तु स्वपराक्रमेणैव केवलज्ञानं उत्पादयन्ति; ततः शक्रोऽपि मरणान्तोपसर्गवारणाय प्रभोर्मातृष्वज्ञेयं व्यन्तरं वैयावृत्त्यकरं स्थापयित्वा त्रिदिवं जग्मिवान् । ततः प्रभुः प्रातः कोल्लाकसन्निवेशे बहुलब्राह्मणगृहे मया सपात्रो धर्मः प्रज्ञापनीय इति प्रथमपारणां गृहस्थपात्रे परमानेन चकार, तदा च चेलोत्क्षेपः । गन्धोदकवृष्टिः २ दुन्दुभिनादःअहो दानमहो दानमित्युघोषणा वसुधारावृष्टि श्चेति पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, एषु वसुधाराखरूपं चेदं-"अद्धत्तेरस कोडी उकोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धत्तेरस लक्खा जहनिआ होह। वसुहारा ॥१॥" ततः प्रभुर्विहरन् मोराकसन्निवेशे दूइज्जन्ततापसाश्रमे गतः, तत्र सिद्धार्थभूपमित्रं कुलपतिः प्रभु उपस्थितः, प्रभुणाऽपि पूर्वाभ्यासान्मिलनाय बाह प्रसारितो, तस्य प्रार्थनया च एकां रात्रि तत्र स्थित्वा २५ IS नीरागचित्तोऽपि तस्याग्रहेण तत्र चतुर्मासावस्थानं अङ्गीकृत्य अन्यतो विजहार, अष्टौ मासान् विहत्य पुनर्वII १ अर्धत्रयोदश कोट्य उत्कर्षा तत्र भवति वसुधारा । अर्धत्रयोदश लक्षा- जपन्थिका भवति वसुधारा ।।९।। दीप अनुक्रम [११९] For F lutelu ... दिक्षाया: अनन्तरं प्रथम-भिक्षा एवं पंच-दिव्यानां प्रागत्य-वर्णनं ~ 219 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [६] ........ मूलं [११७] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| र्थ तत्रागतः, आगत्य च कुलपतिसमर्पिते तृणकुटीरके तस्थौ, तत्र च बहिस्तृणाप्राप्त्या क्षुधिता गावोऽन्य-1 अभिग्रहाः स्तापसैः खस्खकुटीरकान्निवारिताः सत्यः प्रभुभूषितं कुटीरं निःशकं खादन्ति, ततो कुटीरखामिना कुलपतेः पञ्चअचेलपुरतो रावाः कृताः, कुलपतिरप्यांगत्य भगवन्तं उवाच-हे वर्द्धमान! पक्षिणोऽपि खनीडरक्षणे दक्षा भवन्ति, कतादि मू. त्वं तावत् राजपुत्रोऽपि खं आश्रयं रक्षितुं अशक्तोऽसि ?, ततः प्रभुर्मयि सति एषां अप्रीतिरिति विचिन्त्या-18| ११७ पाढशुक्लपूर्णिमाया आरभ्य पक्षे अतिक्रान्ते वर्षायां एव इमान् पञ्च अभिग्रहान् अभिगृह्य अस्थिकग्राम प्रति ५ स्थितः, अभिग्रहाश्चमे-नामीतिमद्गृहे वास:१, स्थेयं प्रतिमया सह २। न गेहिविनयः कार्यों ३, मौन R४ पाणौ च भोजनम् ५॥१॥ (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (संवच्छरं साहियं । मासं) साधिकमासाधिकसंवत्सरं यावत् (चीवरधारी हुत्था) चीवरधारी अभूत् (तेणं परं अचेलए) तेन परंततः ऊर्ध्व-साधिकमासाधिकवर्षाध्वं च अचेलकः (पाणिपडिग्गहिए) पाणिपतद्ग्रहः-करपात्रश्चाभवत् । तत्र अचेलकभवनं चैवं-साधिकमासाधिकसंवत्सरादूर्ध्वं विहरन् दक्षिणवाचालपुरासन्नसुवर्णवालुकानदी-| तटे कण्टके विलग्य देवदूष्याः पतिते सति भगवान् सिंहावलोकनेन तदद्राक्षीत्, ममत्वेनेति केचित् १ स्थण्डि॥ लेऽस्थण्डिले वा पतितमिति विलोकनायेत्यन्ये २ अस्मत्सन्ततेर्वस्त्रपात्रं मुलभं दुर्लभं वा भावीति विलोकनार्थ | इत्यपरे ३, वृद्धास्तु कण्टके वस्त्रविलगनात् खशासनं कण्टकबहुलं भविष्यतीति विज्ञाय निर्लोभत्वात् तद्वस्त्राद्ध ISIन जग्राहेति, ततः पितुर्मित्रेण ब्राह्मणेन गृहीतं, अर्द्ध तु तस्यैव पूर्व प्रभुणा दत्तं अभूत, तचैवं-स हि पूर्व दीप अनुक्रम [११९] UaMEducatani ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [६] ........ मूलं [११७] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११७] गाथा कल्प.सुबो-दरिद्रो भगवतो वार्षिकदानावसरे परदेशं गतोऽभूत्, तत्रापि निर्भाग्यत्वात् किञ्चिदप्राप्य गृहमागतो भार्य-विप्राय बव्या०६ या तर्जितो-रे अभाग्यशेखर ! यदा भगवता श्रीवर्धमानेन सुवर्णमेघायितं तदा त्वं परदेशे गतः, अधुना 8 | खदानम् पुनर्निर्धनः समागतो, याहि दूरं मुखं मा दर्शय, अथवा सांप्रतं अपि तमेव जङ्गम कल्पतरू याचख यथा तव ॥९८॥ दारियं हरति, यतः-यैः प्राग्दत्तानि दानानि, पुनातुं हि ते क्षमाः । शुष्कोऽपि हि नदीमार्गः, खन्यते सलिलार्थिभिः॥१॥ इत्या दिवाक्यैर्भार्याप्रेरितो भगवत्पार्श्वौगत्य विज्ञपयामास-प्रभो! त्वं जगदुपकारी| विश्वस्यापि त्वया दारिद्यं निर्मूलितं अहं तु निर्भाग्यस्तस्मिन्नवसरेऽत्र नाभूवं, तत्रापि-किं किं न कयं ? को को न परिधओ? कह कह न नामिअंसीसं? । दुव्भरउअरस्स कए, किं न कयं न कायव्वं? ॥१॥ तथापि भ्रमता मया न किञ्चित् प्रासं, ततोऽहं निष्पुण्यो निराश्रयो निर्द्धनस्त्वामेव जगद्वामिछतदायकं शरणायोपेतोऽस्मि, तव च विश्वदारियहरस्य मदारिद्यहरणं कियन्मानं?, यता-संपूरिताशेषमहीतलस्य, पयोधरस्याद्भुतशक्तिभाजः । किं तुम्बपात्रप्रतिपूरणाय, भवेत्प्रयासस्य कणोऽपि नूनम् ? ॥१॥ एवं च याचमानाय विप्राय करुणापरेण भगवता देवदृष्यवस्त्रस्य अर्द्ध दत्तं, इदं च तादृग्दानदायिनोऽपि भगवतो निष्प्रयोजन-2 स्थापि वस्त्रस्य यदर्द्धदानं तत् भगवत्सन्ततेर्वस्त्रपात्रेषु मूछा सूचयति इति केचित् १ प्रथमं विप्रकुलोत्पन्नवं ॥९८ सूचयतीत्यपरे २ ब्राह्मणस्तु तदई गृहीत्वा दशाश्चलकृते तुन्नवायस्यादर्शयत्, विप्रेण तस्याग्रे सकले व्यतिकरे १ किं किं न कृतं कः को न प्रार्थिवः क क न नामितं शीर्ष । दुर्भरोदरस्य कृते किं न कृतं किं न कर्तव्यम् ।। १॥ 9856020896 दीप अनुक्रम [११९] ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११७] / गाथा [...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत पुष्पाय समृद्धिदान सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| KI निवेदिते सोऽप्युवाच-याहि भो ब्राह्मण ! तमेव प्रभु अनुगच्छ, स हि निर्ममः करुणाम्भोधिर्दितीयं अपि अर्द्ध दास्यति, ततस्तदर्द्धद्वयं अहं तथा संयोजयिष्यामि यथा अक्षतस्येव तस्य दीनारलक्षं मूल्यं भविष्यति, तेन च अर्धमध विभक्तेन द्वयोरप्यावयोरियं यास्पति, इति तत्प्रेरितो विप्रोऽपि पुनः प्रभुपार्श्वमांगतो लज्जया प्रार्थयितुं अशक्तो वर्ष यावत् पृष्ठे बभ्राम, ततश्च खयं पतितं तदध गृहीत्वा जगाम, तदेवं भगवता सवस्त्रधर्मप्ररूपणाय साधिकमासाधिकं वर्ष यावद्वस्त्रं स्वीकृतं, सपात्रधर्मस्थापनाय च प्रथमां पारणां पात्रेण कृतवान् , ततः परं तु यावज्जीवं अचेलका पाणिपात्रश्चाभूत् । एवं च विहरतो भगवतः कदाचिद् गङ्गातटे | सूक्ष्ममृत्तिकाकर्दमप्रतिबिम्बितासु पदपङ्किप चक्रध्वजाङ्कशादीनि लक्षणानि निरीक्ष्य पुष्पनामा सामुद्रिक-1 |श्चिन्तयामास-यदयं एकाकी कोऽपि चक्रवर्ती गच्छति तद् गत्वाऽस्य सेवां करोमि यथा मम महानुदयो भवतीति त्वरितं पदानुसारेण भगवत्पार्धमागतो, भगवन्तं निरीक्ष्य दध्यौ-अहो मया वृथैव महता कष्टेन सामुद्रिकं अधीतं, यदि ईगलक्षणलक्षितोऽपि श्रमणो भूत्वा व्रतकष्टं समाचरति तदा सामुद्रिकपुस्तकं जले क्षेप्यमेव, इतश्च दत्तोपयोगः शक्रः शीघ्रं तत्रागत्य भगवन्तं अभिवन्द्य पुष्पं उवाच-भो भो सामुद्रिक ! मा |विषीद सत्यमेवैतत्तव शास्त्रं यदयं अनेन लक्षणेन जगत्रयस्यापि पूज्यः सुरासुराणामपि स्वामी सर्वोत्तम|संपदाश्रयस्तीर्थेश्वरो भविष्यति, किञ्च-कायः खेदमलामयविवर्जितः श्वासवायुरपि सुरभिः। रुधिरामिषमपि दीप अनुक्रम [११९] ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१,२|| कल्प-सुबो-धवलं गोदुग्धसहोदरं नेतुः ॥१॥ इत्यादीन्यपरिमितान्यस्य बाह्याभ्यन्तराणि लक्षणानि केन गणयितुं उपसर्मसहम्या०६ शक्यानि? इत्यादि बदन पुष्पं मणिकनकादिभिः समृद्धिपात्रं विधाय शक्रः खस्थानं ययौ, सामुद्रिकोऽपि सू. ११८ प्रमुदितः खदेशं गतः, प्रभुरप्यन्यत्र विजहार ।। (१९७)॥ (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान महावीरः (साइरेगाई दुवालस वासाई) सातिरेकाणि द्वादश 8| वर्षाणि यावत् (निचं बोसहकाए) नित्यं-दीक्षाग्रहणादनु यावज्जीवं व्युत्सृष्टकायः परिकर्मणावर्जनात् (चियत्तदेहे) त्यक्तदेहः परीषहसहनात्, एवंविधः सन् प्रभुः (जे केइ उवसग्गा उप्पजंति) ये केचित् उप सर्गा उत्पद्यन्ते, (तंजहा) तद्यथा-(दिवा वा ) दिव्या:-देवकृताः (माणुस्सा वा) मानुष्या:-मनुष्यकृताः ISI(तिरिक्खजोणिआ वा ) तैर्यगयोनिका:-तिर्यककृताः (अणुलोमा वा ) अनुकूला:-भोगार्थ प्रार्थनादिकाः। RI(पडिलोमा बा) प्रतिकूला:-प्रतिलोमा ताडनादिकाः (ते उप्पन्ने 'सम्म सहर) तान् उत्पवान् सम्यक| सहते, भयाभावेन (खमइ) क्षमते, क्रोधाभावेन (तितिक्खह) तितिक्षते, दैन्याकरणेन (अहियासेइ) अध्यासयति, निश्चलतया (११८) ॥ तत्र देवादिकृतोपसर्गसहनं यथा-खामी प्रथमचतुर्मासकं मोराकसन्निवे-| शादागत्य शूलपाणियक्षचैत्ये स्थितः, सच यक्षः पूर्वभवे धनदेववणिजो वृषभ आसीत् तस्य च नदीं उत्तरता शकटपश्चशती पङ्के निमना, तदा च उल्लसितवीर्येण एकेन वृषभेण वामधुरीणेन भूखा यदि ममैव खण्डद्वयं विधायोभयो पार्चयोर्योजयति तदाऽहं एक एव सर्वाणि उत्तारयामीति चिन्तयता सर्वाणि शकटानि नियं-11 दीप अनुक्रम [१२०१२२] ॥१९॥ JMEducutane janelbrarying ... अथ भगवंत महावीरेण सह्य उपसर्गानां वर्णनं आरभ्यते ~223 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत पसगे: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| तानि, तथोतं-धवलु विसूरइ सामि! अहं गरुआं भर पिक्खेवि । हउं किं न जुत्तो दुहिं धुरिहिं खंडय दुन्निी करेविस तथाविधेन पराक्रमेण युटितसन्धिरशक्तशरीरो जाता, तदा च तं अशक्तं निरीक्ष्य धनदेवेन मानग्रामे मत्वा ग्राममुख्यानां तृणजलनिमित्तं द्रव्यं दत्त्वा स तत्र मुक्ता, प्राममुख्यैश्च न काचिचिन्ता कृता, स च क्षुत्त बाधितः शुभाध्यवसायान्मृत्वा व्यन्तरो जाता, तेन प्राग्भवव्यतिकरस्मरणाजातकोपेन तत्र Nमारीकरणेन अनेके जना मारिताः, कियां च संस्कारो भवतीति तथैव मुक्तानां मृतकानां अस्थिनिकरैः सः ब्रामः 'अस्थिकलाम' इति प्रसिद्धो बभूव, ततश्च अवशिष्टलोकाराधितेन तेन प्रत्यक्षीभूय स्वप्रासादः स्वप्रतिमा च कारिता, तत्र जनाः प्रत्यहं पूजां कुर्वति, भगवांस्तु तत्प्रतिबोधनाय तत्र चैस्ये समागतः, दुष्टोऽयं रात्री स्वचैत्ये स्थितं व्यापादयतीति जनैार्यमाणोऽपि तत्रैव रात्रौं स्थितः, तेन च भगवतः क्षोभाय भूमेहेंदकरोड दृहास कृतः, ततो हस्तिरूपं ततः सर्परूपं ततः पिशाचरूपं च विकृत्य दुस्सहा उपसर्गाः कृताः, भगवांस्तु मनागपिन क्षुभितः, तत एकैकाऽपि या अन्यजीवितोपहा तथाविधाः शिरःकर्णरनासिकाश्चक्षुर्दन्त५पृष्ठनिखॐ लक्षणेष्वनेषु विविधा वेदना प्रारब्धाः, तथापि अकम्पितचित्तं भगवन्तं निरीक्ष्यस प्रतिबुद्धर, असिन्नवसरेचा 8स सिद्धार्थः समागत्योवाच-भो निर्भाग्य! दुर्लक्षण! शूलपाणे! किमेतदांचरितं? यत्सुरेन्द्र पूज्यस्य भगवत आशातना कृता, यदि शको ज्ञास्यति तदा तव स्थानं स्फेटयिष्यति, ततः पुनीतः सन्नधिकं भगवन्तं पूज१ धवलो विषीदति स्वामिन् ! अहं गुरुं भारं प्रक्षिप्य । अहं किं न योजितो योधुरोः खण्डे द्वे कृत्वा ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२०१२२ ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ॥१,२|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः पप. सुबो व्या० ६ ॥१००॥ यामास, भगवतोऽग्रे गायति नृत्यति च तदाकर्ण्य च लोकांश्चिन्तितवन्तो- यदनेन स देवार्थी हतस्ततो गायति नृत्यति च तत्र च खामी देशोनान रात्रेञ्चतुरोऽपि यामान् अत्यन्तं वेदनां सोढवान् इति प्रभाते क्षणं निद्रां लेभे तत्र च प्रभुरूर्ध्वस्थ एवं दश खमान् दृष्ट्वा जागरितः, प्रभाते लोको मिलितः, उत्पलेन्द्रशर्माणी अपि अधीष्टाङ्गनिमित्तौ तत्रागतो, ते भगवन्तं दिव्यगन्धचूर्णपुष्पपूजितं निरीक्ष्य प्रमुदिताः प्रणमन्ति, तत उत्पलोऽवोचत्-हे भगवन् ! ये त्वया निशाशेषे दश खप्मा दृष्टास्तेषां फलं स्वया तुज्ञायत एव तदपि मया | कथ्यते यस्वया तालपिशाचो हतस्तेन त्वं अचिरेण मोहनीयं कर्म हनिष्यसि १ यच्च सेव्यमानः सितः पक्षी दृष्टस्तेन त्वं शुक्लध्यानं ध्यास्यसि २ यश्च चित्र कोकिलः सेवमानो दृष्टस्ततस्त्वं द्वादशाङ्गीं प्रथयिष्यसि ३ यच गोवर्गः सेवमानो दृष्टस्तेन साधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपञ्चतुर्विधः संघस्त्वां सेविष्यतेभ्यश्च त्वया स्वप्ने समुद्र|स्तीर्णस्ततस्त्वं संसारं तरिष्यसि ५ यश्चोद्गच्छन् सूर्यो दृष्टस्तेन तव अचिरात् केवलज्ञानं उत्पत्स्यते ६ यच त्वया अन्त्रैर्मानुषोत्तरो वेष्टितस्तेन त्रिभुवने तव कीर्त्तिर्भविष्यति ७ यच त्वं मन्दरचूलां आरूढस्तेन त्वं सिंहासने उपविश्य देवमनुजपर्षदि धर्म प्ररूपयिष्यसि ८ यञ्च त्वया विबुधलङ्कृतं पद्मसरो दृष्टं तेन चतुर्नि कायजा देवास्त्वां सेविष्यन्ति ९ यत्त्वया मालायुग्मं दृष्टं तदर्थं तु नाहं जानामि, तदा भगवता प्रोक्तं - हे उत्पल ! यन्मया दामयुग्मं दृष्टं तेन अहं द्विविधं धर्म कथयिष्यामि साधुधर्मं श्रावकधर्मं च तत उत्पलो वन्दित्वा गतः, तत्र खामी अष्टभिः अर्द्धमासक्षपणैस्तां प्रथमां चतुर्मासी (१) मतिक्रम्य ततः स्वामी मोरा ... भगवंत महावीरेण दृष्ट १० स्वप्नानि एवं तेषां फलानि 225 स्वमदशकं प्रथमा चतु मोसी १५ २० २५ ॥१००॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| | कसन्निवेशं गता, तत्र प्रतिमास्थितस्य वीरस्य सत्कारार्थ सिद्धार्थों भगवद्देहं अधिष्ठाय निमित्तानि कथयति, अच्छन्दकभगवतो महिमा जायते स्म, भगवन्महिमानं दृष्टा प्रद्विष्टेन अच्छन्दकेन तृणच्छेदविषये प्रश्ने कृते सिद्धार्थेनाइच चण्ड: न छेत्स्यते इत्युक्ते छेदनोद्यतस्य तस्याङ्गुलीदत्तोपयोगः शक्रः समागत्य वजेण चिच्छेद, तले रुष्टः सिद्धार्थों कौशिकवृत्तं जनानां चौरोऽयमित्यवदत्, ततः कथमिति जनेषु पृच्छत्सु सिद्धार्थों जगौ-अनेन कर्मकरवीरघोषस्य दशप-12 Kालपमितं बहलकं गृहीत्वा खजूरीवृक्षाधः स्थापितं, द्वितीयं इन्द्रशमण ऊरणको भक्षितस्तदस्थीनि खगृहवदर्या अधः स्थापितानि सन्ति, तृतीयं तु अवाच्यं अस्य भार्यव कथयिष्यति, ततो जनैर्गत्वा भार्या पृष्टा, साऽपि तहिने तेन सह कृतकलहा कोपादुवाच-भो भो जना! अद्रष्टव्यमुखोऽयं पापात्मा यदयं स्वभगिनीमपि भुङ-४ा ते, ततः स भृशं लजितो विजने समागत्य स्वामिनं विज्ञपयामास-स्वामिन् ! त्वं विश्वपूज्यः सर्वत्र पूज्यसे, अहं तु अत्रैव जीवामीति, ततः प्रभुस्तस्याप्रीतिं विज्ञाय ततो बिहरन् श्वेताम्ब्यां गच्छन् जनार्यमाणोऽपि कनकखलतापसाश्रमे चण्डकौशिकप्रतिबोधाय गतः, स च प्राग्भवे महातपस्वी साधुः, पारणके विहरणार्थ गमने जातां मण्डूकीविराधनां ईर्यापथिकीप्रतिक्रमणे गोचरचर्याप्रतिक्रमणे, सायंप्रतिक्रमणे च त्रिशः क्षुल्लकेन। स्मारितः सन् क्रुद्धस्तं शैक्षं हन्तुं धावितः स्तम्भेनास्फाल्य मृत्वा ज्योतिषके देवो जाता, ततश्युतस्तत्राश्रमे पश्चशततापसाधिपतिश्चण्डकौशिकाख्यो बभूव, तत्रापि राजकुमारान् स्वाश्रमफलानि गृह्णतो विलोक्य क्रुद्ध|स्तानिहन्तुमुद्यतः परशुहस्तो धावन स कूपे पतितः, सक्रोधो मृत्वा तत्रैवाश्रमे पूर्वभवनाम्ना दृष्टिविषोऽहिय दीप अनुक्रम [१२०१२२ For F lutelu ~226 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कल्प.सुबो- भव, स च प्रभुं प्रतिमारथं विलोक्य कुधा ज्वलन् सूर्य दृष्ट्वा दृष्ट्वा दृष्टिज्वाला मुमोच, मुक्त्वा च मा पतनयं नौरक्षा कव्या०६मा आक्रमतु इत्यपसरति, तथापि भगवांस्तथैव तस्थौ, ततो भृशं क्रुद्धो भगवन्तं दर्दश, तथापि भगवन्तंम्बलशम्ब॥१०॥ अव्याकुलमेव दृष्ट्वा भगवदुधिरं च क्षीरसहोदरं दृष्ट्वा "बुज्झ बुजम चंडकोसिआ!” इति भगवद्वचनं चालायातय समाकये जातजातिस्मृतिः प्रभु तिः प्रदक्षिणीकृत्य अहो अहं करुणासमुद्रेण भगवता दुर्गतिकूपादुद्धृत इत्यादि मनसा विचिन्तयन् प्रपन्नानशन: पक्षं यावहिले तुण्डं प्रक्षिप्य स्थितो, घृतादिविक्रायिकाभिः घृतादिच्छटाभिः पूजितो घृतगन्धोगतपीपिलिकाभिः भृशं पीड्यमानः प्रभुदृष्टिसुधावृष्ट्या सिक्तो मृत्वा सहस्रारे । सुरो बभूव, प्रभुरैपि अन्यत्र विजहार । उत्तरवाचालायां नागसेना स्वामिनं क्षीरेण प्रतिलम्भितवान् , पञ्च दिव्यानि जातानि, ततः श्वेताम्यां प्रदेशी राजा स्वामिनो महिमानं कृतवान् , ततः सुरभिपुरं गच्छन्तं । स्वामिनं पश्चभी रथैर्नेयका गोत्रिणो राजानो वन्दितवन्तः, ततः सुरभिपुरं गतः, तत्र गङ्गानयुत्तारे सिद्धयात्रो नाविको लोकान् नावमारोहयति, भगवानपितां नावमारूढः, तस्मिन्नवसरे च कौशिकारटितं श्रुत्वा नैमित्तिकः क्षेमिलो जगी-अयोस्माकं मरणान्तं कष्टं आपतिष्यति, परं अस्य महात्मनः प्रभावात् सङ्कटं विलयं यास्यति, २५ एवं च गङ्गां उत्तरतः प्रभोखिपृष्ठभवचिदारितसिंहजीवसुदंष्ट्रदेवकृतं नौमज्जनादिकं विघ्नं कम्बलशम्बलना- १०१ मानौं नागकुमारौ आगत्य निवारितवन्तौ । तयोश्चोत्पत्तिरे-मथुरायां साधुदासीजिनदासौ दम्पती परमश्रावको पञ्चमव्रते सर्वथा चतुष्पप्रत्याख्यानं चक्रतुः, तत्र चैका आभीरी स्वकीयं गोरसं आनीय साधुदास्यै ॥ दीप अनुक्रम [१२०१२२ २८ For Fun ~227 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||3,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ददाति सा च यथोचितं मूल्यं ददाति, एवं च कालेन तयोः अत्यन्तं प्रीतिर्जाता, एकदा तथा आभीर्या | विवाहे निमन्त्रितौ तौ दम्पती ऊचतुः यदुत भो ! आवाय आगन्तुं न शक्यते परं यद् भवतां विवाहे युज्यते तदस्मद्नेहाद् ग्राह्यं, ततो व्यवहारिद्वत्तैश्चन्द्रोदयाद्युपकरणैर्वस्त्राभरणधूपादिद्भिश्च स आभीरविवाहोऽत्यन्तं उत्कृष्टो जातः तेन प्रमुदिताभ्यां आभीराभीरीभ्यां अतिमनोहरौ समानवयसौ बालवृषभौ आनीय तयोदेतो, तो नेच्छतः, बलाद् गृहे बध्ध्वा तौस्वगृहं गतौ, व्यवहारिणा चिन्तितं यदि इमौ पश्चात् प्रेषयिष्येते तदा षण्डीकरण भारोद्वहनादिद्भिर्दुःखिनौ भविष्यतः इत्यादि विचिन्त्य प्रासुकतृणजलादिभिस्ती पोष्यमाणौ वाहनादिश्रमविवर्जितौ सुखं तिष्ठतः, अन्यदा च अष्टम्यादिषु कृतपौषधेन तेन श्रावकेण पुस्तकादि वाच्यमानं निशम्य तौ भद्रकौ जातौ, यस्मिन् दिने स श्रावक उपवास करोति तस्मिन् दिने तौ अपि तृणादि न भक्षयतः, एवं च तस्य श्रावकस्यापि साधर्मिकत्वेन अत्यन्तं प्रियौ जातौ, एकदा तस्य जिनदासस्य मित्रेण तो अतिबलिष्ठौ सुन्दरी वृषौ विज्ञाय श्रेष्ठिनं अनापृच्छचैव भण्डीरवनयक्षयात्रायें अदृष्टधुरौ अपि तथा वाहितौ यथा त्रुटिती, आनीय तस्य गृहे बद्धों, श्रेष्ठी च तौ तदवस्थौ विज्ञाय साधुलोचनो भक्तप्रत्याख्यापननमस्का रदानादिभिर्नियमितवान्, ततस्ती मृत्वा नागकुमारौ देवौ जातौ तयोश्च नवीनोत्पन्नयोर्दत्तोपयोगयोरेकतरेण नौ रक्षिता अन्येन च प्रभुं उपसर्गयन् सुदंष्ट्रसुरः प्रतिहतः, ततस्तं निर्जित्य भगवतः सत्त्वं रूपं च गायन्तौ नृत्यन्तौ च समहोत्सवं सुरभिजलपुष्पवृष्टिं कृत्वा तौ खस्थानं गतौ । भगवानपि राजगृहे नालन्दायां तन्तु 228~ कम्बलश म्बलो पति ५ १० १४ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] ......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१,२|| कल्प.सुबो- वायशालैकदेशे अनुज्ञाप्य आद्यं मासक्षपणं उपसंपद्य तस्थौ, तत्र च मङ्खलिनाममङ्खपुत्रः सुभद्राङ्गजो बहु- गोशालसच्या०६लद्विजगोशालायां जातत्वात् गोशालनामा मलकिशोर उपाययौ, स च स्वामिनं मासक्षपणपारणके विजयश्रे-मागमः द्वि ष्ठिना कूरादिविपुलभोजनविधिना प्रतिलम्भितं तत्र पञ्चदिव्यादिमहिमानं च निरीक्ष्य अहं त्वच्छिष्योऽस्मीति तीया तृती॥१०॥ स्वामिनं उवाच, ततो द्वितीयपारणायां नन्देन पकान्नादिना ततस्तृतीयायां सुनन्देन परमानादिना स्वामी प्रतिलम्भिता, (२) चतुर्थमासक्षपणे कोल्लागसन्निवेशे भगवानीगता, तत्र बहुलनामा द्विजः पायसेन प्रतिल- मासा |म्भितवान , पञ्च दिव्यानि च, गोशालश्च तस्यां तन्तुबायशालायां स्थामिनं अनिरीक्ष्य समग्रे राजगृहनगरे २० गवेषयन् स्वोपकरणं द्विजेभ्यो दत्त्वा मुखं शिरश्च मुण्डयित्वा कोल्लाके भगवन्तं दृष्ट्वा त्वत्प्रवज्या मम भवतु इत्युक्तवान् , ततस्तेन शिष्येण सह स्वामी सुवर्णखलग्राम प्रति प्रस्थितो, मार्गे च गोपैमहास्थाल्यां पायस पच्यमानं निरीक्ष्य गोशाला स्वामिनं जगौ-अत्र भुक्त्वा गम्यते, सिद्धार्थेन च तद्भगकथने गोशालेन च गोपे-18 भ्यस्तझंगे ज्ञापिते गोपर्यत्नेन रक्षिताऽपि सा स्थाली भन्ना, ततो गोशालेन 'यद्भाव्यं तद्भवत्येवेति नियतिः |स्वीकृता, ततः स्वामी ब्राह्मणग्राममंगात्, तत्र नन्दोपनन्दनातृदयसम्बन्धिनौ द्वौ पाटको, स्वामी नन्दपाटके || प्रविष्टः प्रतिलम्भितश्च नन्देन, गोशालस्तु उपनन्दगृहे पर्युषितान्नदानेन रुष्टो यद्यस्ति मे धर्माचार्यस्य तपस्ते-IN ॥१२॥ जस्तदाऽस्य गृहं दखतां इति शशाप, तदनु तदूगृहं आसन्नदेवता ददाह, पश्चात्प्रभुश्चम्पायां उपागतः, तत्र द्विमासक्षपणेन चतुर्मासी (३) अवसत्, चरमद्विमासपारणां च चम्पायाः बहिः कृत्वा.कोल्लागसंनिवेशं गतः दीप अनुक्रम [१२०१२२] JABEducational ... भगवंत महावीर समीपे गोशालकस्य आगमनं ~229 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| स्थितश्च शून्यगृहे कायोत्सर्गेण, गोशालेन तु तत्रैव शून्यगृहे सिंहो ग्रामणीपुत्रो विद्युन्मत्या दास्या सह। क्रीडन हसितः कुहितश्च तेन, स्वामिनं प्राह-अहं एकाक्येव कुहितो यूयं किं न वारयत?, सिद्धार्थः प्राह-मैवं ना मुनि पुनः कुयों, ततः पात्रालके गतस्तस्थिवांश्च शून्यागारे, तत्र स्कन्दः स्वदास्था स्कन्दिलया सह क्रीडन् हसि-न्द्रवृत्तं तो तस्तथैव तेन कुहितश्च, ततः स्वामी कुमाराकं सन्निवेशं गत्वा चम्परमणीयोद्याने कायोत्सर्गेण तस्थौ । इतश्च चतुर्मासी श्रीपार्श्वनाथशिष्यो भूरिशिष्यपरिवृतो मुनिचन्द्रमुनिस्तत्र कुम्भकारशालायां तस्थौ, तत्साधून निरीक्ष्य गोशाला पाह-के यूयं ?, तैरुक्तं वयं निर्ग्रन्थाः, पुनः प्राह-क यूयं क च मम धर्माचार्य, तेरूचे-यादशस्त्वं तादृशस्तव धर्माचार्योऽपि भविष्यति, ततो मष्टेन गोशालेनोचे-मम धर्माचार्यतपसा दह्यतां युष्मदाश्रयः,81 तिरूचे-नेयं भीतिरस्माकं, पश्चात् स आगत्य सर्व उवाच, सिद्धार्थों जगौ-नैते साधवो दद्यते, रात्री जिनक-81 स्पतुलनां कुर्वाणो मुनिचन्द्रः कायोत्सर्गस्थो मत्तेन कुम्भकारेण चौरभ्रान्त्या व्यापादिता, उत्पन्नावधिश्च स्वर्ग जगाम, सुरैमहिमार्थ उद्योते कृते गोशालो जगी-अहो तेषां उपाश्रयो दह्यते, तदा सिद्धार्थेन यथास्थिते कथिते स तत्र गत्वा तच्छिष्यान् निर्भयागतः ततः स्वामी चौरायां गतः, तत्रचारिको हेरिको इति कृत्वा रक्षका । अगडे प्रक्षिपन्ति, प्रथमं गोशाला क्षिप्तः प्रभुस्तु नांद्यापि, तावता तत्र सोमाजयन्तीनाम्न्पी उत्पलभगिन्यौ। संयमाक्षमे परिवाजिकीभूते प्रभुवीक्ष्योपलक्ष्य चततः कष्टान्मोचयामासतु,ततः प्रभुः पृष्ठचम्पांप्रासः, तत्र वर्षा(४) अतुमोसक्षपणेनातिवाद्य बहिः पारयित्वा.कायङ्गालसन्निवेशं गत्वा श्रावस्त्यां गता,तत्र पहिः प्रतिमया स्थितः, १४ दीप अनुक्रम [१२०१२२] क.मु.१८ Fur FB Fanatec ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कल्प सचो-तत्र सिद्धार्थेन गोशालाय मोक्तं-यत् अव त्वं मनुष्यमांसं भोक्ष्यसे,ततःसोऽपि तन्निवारणाय वणिग्गेहेषु भिक्षायै गोशालस्थ व्या०६वभ्राम, तन्त्र च पितूदत्तो वणिक तस्य भायों च मृतापत्यप्रसूरस्ति, तस्याश्च नैमित्तिकशिवदत्तेनोक्तोऽपत्यजी-मांसभक्षणं वनोपायो-यत् तस्य मृतवालकस्य मांसं पायसेन विमिश्रं कस्यचिंद्रिक्षोयं, तया च तेनैव विधिना गोशालाय बलदेवमू॥१०॥ दत्तं गृहज्वालनभयाच गृहद्वारं परावर्तितं, गोशालोऽपि अज्ञातखरूपस्तक्षयित्वा भगवत्समीपमाँगता,तिसाहाय्यं सिद्धार्थेन यथास्थिते उक्त वमनेन कृतनिर्णयश्च तद्गृहज्बालनाय आगतः, तद्गृहं अलब्ध्वा तं पाटकं एव | ।.२० भगवन्नाम्ना ज्वालितवान् । तत: खामी बहिदरिद्रसन्निवेशात् हरिद्रवृक्षस्य अधः प्रतिमया तस्थौ, पथिकप्रज्वा-18 लिताग्निना अनपसरणात् प्रभोः पादौ दग्धौ गोशालो नष्टः, ततः स्वामी मंगलाग्रामे वासुदेवगृहे प्रतिमया % स्थितस्तत्र गोशालो डिम्भभापनाय अक्षिविक्रियां कुर्वन् तस्पित्रादिभिः कुहितो मुनिपिशाच इत्युपेक्षित:, ततः स्वामी आवर्सग्रामे बलदेवगृहे प्रतिमया स्थितः, तत्र गोशालेन बालभापनाय मुखत्रासो विहितः, ततस्तस्पित्रादयो अथिलोऽयं किमनेन हतेन ? अस्य गुरुरेव हन्यते इति भगवन्तं हन्तुं उद्यतास्तांश्च बलदेवमूतिरेव बाहुना लाङ्गुलं उत्पाव्य न्यवारयत्, ततः सर्वेऽपि स्वामिनं नतवन्तः, ततः प्रभुः चोराकसन्निवेशं जगाम, तत्र मण्डपे भोज्यं पच्यमानं दृष्ट्वा गोशालः पुन:पुन:न्यग्भूय वेलां विलोकयति स्म, ततस्तैश्चौरशङ्कया ताडितः, अनेनापि रुष्टेन स्वामिनाना स मण्डपो ज्वालितः, ततःप्रभुः कलम्बुकासन्निवेशं गतस्तत्र मेघकालहस्तिनामानी द्वी ॥१०३|| भ्रातरौ, तत्र कालहस्तिना उपसर्गितो, मेघेनोपलक्ष्य क्षमित:,ततः स्वामी क्लिष्टकर्मनिर्जरानिमित्तं लाढाविषयं प्राप, दीप अनुक्रम [१२०१२२ Peene JanEducation ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| तत्र हीलनादयो बहवो घोरा उपसर्गा अध्यासिताः, ततः पूर्णकलशाख्येऽनार्यग्रामे गच्छतः खामिनो मार्गे द्वौ चौरयोः चौरौ अपशकुनधिया असिं उत्पाव्य हन्तुं धाविती, दत्तोपयोगेन शक्रेण च वज्रेण हतो, ततः स्वामी भद्रिकापुर्या अयस्कारवर्षा (4)चतुर्मासीक्षपणपारणां च बहिः कृत्वा,क्रमात्तम्बालग्रामं गतः, तत्र पार्चसन्तानीयो बहुशिष्यपरि- स्थ व्यन्तवृत्तो नन्दिषेणनामाचार्यः प्रतिमास्थितश्चौरभ्रान्त्या आरक्षकपुत्रेण भल्लया हतो जातावधिः स्वर्जगाम, शेषं च शोधोपसगोशालवचनादि मुनिचन्द्रवत्, ततः स्वामी कूपिकसन्निवेशं गतस्तत्र चारिकशङ्कया गृहीतः, पाचोन्तेवासिनीभ्यां परिवाजिकीभूताभ्यां विजयाप्रगल्भाभ्यां मोचितः, ततो गोशाला स्वामितः पृथगभूतोऽन्यस्मिन् । तुमासी मार्गे गच्छन् पश्चशतचोरैर्मातुल मातुल इति कृत्वा स्कन्धोपरि आरुह्य वाहितः खिन्नोऽचिन्तयत्-स्वामिनैव सार्द्ध । |वरं इति, स्वामिनं मार्गयितुं लग्नः, स्वाम्यपि वैशाल्पां गत्वाऽयस्कारशालायां प्रतिमया स्थितः, तत्र एकोऽयपस्कारः षण्मासी यावद्रोगी भूत्वा नीरोगः सन्नुपकरणान्यौदाय शालायां आगतः, स्वामिनं निरीक्ष्य अमङ्गल(मिति बुद्ध्या घनेन हन्तुमुद्यतोऽवधिना ज्ञात्वा आगत्य शक्रेण तेनैव घनेन हतः । ततः स्वामी ग्रामाकसन्निवेशं गतः, तत्रोद्याने विभेलकयक्षो महिमानं चक्रे, ततः शालिशी ग्रामे उद्याने प्रतिभास्थस्य स्वामिनो माघमासे त्रिपृष्ठभवापमानिता अन्तःपुरी मृत्वा व्यन्तरीभूता तापसीरूपं कृत्वा जलभृतजटाभिरन्यदुस्सह शीतोपसर्ग चक्रे, प्रभु च निश्चलं विलोक्य उपशान्ता स्तुति चकार, प्रभोश्च तं सहमानस्य षष्ठेन तपसा विशुग्यमानस्य लोकावधिरुत्पन्नः।ततः स्वामी भद्रिकायां षष्ठवर्षासु (३)चतुर्मासतपो विविधानभिग्रहांच अकरोत्, १४ ।। दीप अनुक्रम [१२०१२२ ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कल्प सबो-तत्र पुनः षण्मासान्ते गोशालो मिलितः, ततः स्वामी बहिः पारयित्वा ऋतुबद्धे मगधावनी निरुपसर्गो विह-सप्तम्यष्टमीव्या० तवान् , तत आलम्भिकायां ससमवर्षासु (७) चतुर्मासक्षपणेन स्थित्वा बहिः पारयित्वा च कुण्डगसन्निवेशे नवम्यश्चतु वासुदेवचैत्ये स्वामी प्रतिमया स्थितः, गोशालोऽपि वासुदेवप्रतिमायाः पराङ्मुखोऽधिष्ठानं मुस्खे कृत्वा तस्थौ, मोस्यः तिकुहितश्च लोकः, ततो मईनग्रामे बलदेवचैत्ये स्वामी प्रतिमया स्थितः, गोशालो बलदेवमुखे मेहनं कृत्वा । लजीवोपतस्थौ, ततो लोकै कुट्टितच, द्वयोरपि स्थानयोर्मुनिरिति कृत्वा मुक्ता, ततः कमात्प्रभु: उनागसंनिवेशे गतः, तिः तत्र मार्गे संमुखागच्छद्दन्तुरवधूवरौ मङ्खलिना हसितो, यथा-तत्तिल्लो विहिराया जणे विदरेऽवि जो जहिं || वसइ । जं जस्स होइ जुग्गं तं तस्स बिइज्जयं देइ ॥१॥ ततस्तैः कुहयित्वा वंशजाल्या प्रक्षिप्तः स्वामिच्छवधरत्वात् मुक्तश्च, ततः स्वामी गोभूमिं ययौ, ततो राजगृहेऽष्टमं वर्षारानं (८) अकरोत् चातुर्मासिकतपश्च, वहिः पारणां च कृत्वा ततो वनभूम्यां बहव उपसगो इति कृत्वा नवमं वर्षारानं (९)तत्र कृतवान् चतुर्मासिकतपश्च, अपरमपि मासदयं तत्रैव विहृतवान् , वसत्यभावाच नवमं वर्षोरात्रं अनियतं अकार्षीत्, ततः कूर्मग्राम गच्छन् मार्गे तिलस्तम्बं दृष्ट्वा अयं निष्पत्स्यते न वेति गोशालः प्रपृच्छ, ततःप्रभुणा सप्तापि तिलपुष्पजीवा। मृत्वा एकस्यां शम्बायां तिला भविष्यन्तीति प्रोते तद्वचनं अन्यथा कत्तुं तं स्तम्ब उत्पाव्य एकान्ते मुमोच, ॥१०॥ ततः सन्निहितव्यन्तरैर्मा प्रभुवचोऽन्यथा भवत्विति वृष्टिश्चक्रे, गोखुरेण च आर्द्रभूमौ स तिलस्तम्ब: स्थिरीब१ विधिराजो दक्षो यत् विदूरेऽपि जने यस्मिन् यत्र बसति सति । यद् यस्य भवति योग्य तत्तव द्वितीयकं ददाति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१२०१२२ SONajaneibrary.org ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१,२|| भूव, ततः प्रभुः कूर्मग्रामे गतः, तत्र च वैश्यायनतापसस्य आतापनाग्रहणाय मुत्कलमुक्तजटामध्ये यूकावाहु- गोशालरथा ल्यदर्शनात् गोशालो यूकाशय्यातर २इति तं वारं वारं हसितवान् , ततस्तेन क्रुद्धेन तेजोलेश्या मुक्ता, तां च तेजोलेश्योकृपारसाम्भोधिभगवान् शीतलेश्यया निवार्य गोशालं रक्षितवान, ततो मङ्खलिसनुस्तस्य तापसस्य तेजो- पादः लेइयां विलोक्य कमियमुत्पद्यते? इति भगवन्तं पृष्टवान्, भगवानपि अवश्यंभावितया भुजङ्गस्य पयःपा- दशमी नमिव तादृगनर्थकारणं अपि तेजोलेश्याविधि शिक्षितवान्, यथा आतापनापरस्य सदाषष्ठतपसः सनखकु चतुर्मासी ल्माषपिण्डिकया एकेन च उष्णोदकचुलुकेन पारणां कुर्वतः षण्मास्यन्ते तेजोलेश्योत्पद्यते इति । ततः सिद्धार्थपुरे ब्रजन् गोशालेन स तिलस्तम्बो न निष्पन्न इत्युक्ते स एष तिलस्तम्बो निष्पन्न इति प्रभुः प्रत्याहा |गोशालोऽश्रधत् तां तिलशम्बां विदार्य सप्त तिलान दृष्टा त एव प्राणिनस्तमिन्नेव शरीरे पुनः परावृत्त्य समु-18 त्पद्यन्ते इति मतिं नियतिं च गाढीकृतवान् । ततःप्रभोः पृथग्भूय श्रावस्त्यां कुम्भकारशालायर्या स्थितो भगवदुक्तोपायेन तेजोलेइयां साधयित्वा त्यक्तव्रतश्रीपार्श्वनाथशिष्यात् अष्टाङ्गनिमित्तं चाधीत्याहकारेण सर्वज्ञोऽहं इति ख्यापयति स्म, यथोक्तं किरणावलीकारेण 'गोशालाय तेजोलेइयोपायः सिद्धार्थेनोक्त' इति तचिन्त्य, भगवतीसूत्रावश्यकचूर्णिहारिभद्रीवृत्तिहमवीरचरित्राद्यनेकग्रंधेषु भगवतोक्त इत्यभिधानात्, ततः स्वामी श्रावस्त्यां दशम वर्षारात्रं (१०)विचित्रं तपश्चाकरोदित्याद्यनुक्रमेण खामी बहुम्लेच्छां दृढभूमिं गतः, तस्यां बहि: पेढालग्रामात् पोलासचैत्यैऽष्टमभक्तेन एकरात्रिकी प्रतिमा तस्थिवान्, । इतब सभागतः शक्रस्पैलोक्यजना दीप अनुक्रम [१२०१२२ Recenessencence For F lutelu ~234 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||8,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबोव्या० ६ ॥१०५॥ -➖➖➖➖➖➖➖➖➖ अपि वीरचेतश्चालयितुं असमर्था इति प्रभोः प्रशंसां कृतवान् तत् श्रुत्वा च अमर्षेण सामानिकः सङ्गमाख्यः सुरः क्षणात्तं चालयामीति शक्रसमक्षं कृतप्रतिज्ञः शीघ्रं प्रभुसमीपं आगत्य प्रथमं धूलिवृष्टिं चकार यया पूर्णाक्षिकर्णादिविवरः खामी निरुच्छ्रासोऽभूत् १ ततो वज्रतुण्ड पिपीलिकाभिचालनीतुल्यश्चक्रे, ताचैकतः प्रविशन्ति अन्यतो निर्यान्ति २ तथा वज्रतुण्डा उद्देशाः ३ तीक्ष्णतुण्डा घृतेलिकाः ४ वृचिकाः ५ नकुलाः ६ सर्पाः ७ मूषकाश्च ८ भक्षणादिना, तथा हस्तिनः ९ हस्तिन्यश्च १० शुण्डाघातचरणमर्द्दनादिना पिशाचोऽहाहहासादिना ११ व्याघ्रो दंष्ट्रानखविदारणादिना १२ ततः सिद्धार्थत्रिशले करुणाविलापादिना १३ उपसर्गयन्ति, ततः स्कन्धावारविकुर्षणा, तत्र च जनाः प्रभुचरणयोर्मध्येऽग्नि प्रज्वाल्य स्थालीमुपस्थाप्य पचन्ति १४ ततअण्डालास्तीक्ष्णतुण्डशकुनिपञ्जराणि प्रभोः कर्णबाहुमूलादिषु लम्बयन्ति ते च मुखैर्भक्षयन्ति १५ ततः खरवातः पर्वतानपि कम्पयन् प्रभुं उत्क्षिप्य उत्क्षिप्य पातयति १६ ततः कलिकावातश्चक्रवद् भ्रमयति १७ ततो येन मुक्तेन मेरुचूलापि चूर्णीस्यात्तादृशं सहस्रभारप्रमाणं चक्रं मुक्तं, तेन प्रभुराजानु भूमौ निमग्नः १८ ततः प्रभातं विकृत्य यक्ति-देवार्य! अद्यापि किं तिष्ठसि !, स्वामी ज्ञानेन रात्रिं वेत्ति (१९) ततो देवाद्वै विकुर्व्य वृणीष्व महर्षे ! येन तव स्वर्गेण मोक्षेण वा प्रयोजनं, तथापि अक्षुब्धं देवाङ्गनाहावभावादिभिः उपसगर्यन्ति २०, एवं एकस्यां रात्रौ विंशत्या उपसर्गैस्तेन कृतैः मनागपि न चलितः स्वामी, अत्र कविः - बलं जगध्वंसनरक्षणक्षमं, कृपा च सा सङ्गमके कृताऽऽगसि । इतीव सञ्चिन्त्य विमुच्य मानसं रुषेव रोषस्तव नाथ ! निर्ययौ ••• अथ संगमदेव कृत् उपसर्गाणां वर्णनं 235 Fersonal Use Only संगमोपसगोः २० २५ ॥१०५॥ २८ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| 18॥१॥ ततः षण्मासी यावत् अनेषणीयाहारसम्पादनादीन् तस्कृतान् नानाप्रकारान उपसर्गान् सहमानो संगमक भगवान्निराहार एव षण्मास्या स गतो भविष्यतीति विचिन्त्य यावद् ब्रजग्रामगोकुले गोचर्यायां प्रविष्टस्ताव-18 |निवसिनं पत्तत्रापि तत्कृतां अनेषणां विज्ञाय तथैवागत्य बहिः प्रतिमया तस्थौ, ततः स सुराधमः कथमपि अस्खलितं 18 विशुद्धपरिणाम जगदीश्वरं अवधिना विज्ञाय विषण्णमानसोऽपि शक्रभियाऽभिवन्ध सौधर्म प्रति चचाल । खामी च तत्रैव गोकुले हिण्डन् वत्सपाल्या स्थविरया परमान्नेन प्रतिलाभितो, वसुधारा च निपतिता, इतश्च 8 तावन्तं कालं यावत् सर्वे सौधर्मवासिनो देवा देव्यश्च निरानन्दा निरुत्साहास्तस्थुः, शक्रोऽपि वर्जितगीत-| नाट्य एतावतां उपसर्गाणां हेतुमत्कृता प्रशंसैवेति महादुःखाक्रान्तचित्तः करकमलविन्यस्तमुखो दीनदृष्टिर्विमनस्कस्तस्थी, ततश्च भ्रष्टप्रतिशं श्याममुखं आगच्छन्तं तंसुराधम निरीक्ष्य शका पराङ्मुखीभूय भुरानित्यूचे-1 हंहो सुरा ! असौ कर्मचण्डालः पापात्मा समागच्छति, अस्य दर्शनं अपि महापापाय भवति, अनेनास्माकं बहु अपराद्ध, यंदनेनास्मदीयः खामी कदर्थितः, अयं पापात्मा यथा अस्मत्तो न भीतस्तथा पातकादपि न भीतः, तदपवित्रोऽसौ दुरात्मा शीघ्र स्खगाँनिर्वास्थतां,इत्यादिष्टैः शक्रंसुभटैनिदेयं यष्टिमुष्टयादिभिस्ताड्यमानः साङ्गुलिमोटनं कृतान् सुरीणां आक्रोशान् सहमानश्चौर इव साशङ्क इतस्ततो विलोकयन् निर्वाणाङ्गार इव |निस्तेजा निषिद्धाखिलपरिवार एकाकी अलकेश्व देवलोकांनिष्कासितो मन्दरचूलायां एकसागरावशेष १३ Desecevedeoeceaeeeeeesesecece दीप अनुक्रम [१२०१२२ For Fun H anelhiaryara ~2367 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||8,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१०६ ॥ आयुः समापयिष्यति, तस्याग्रमहिष्यश्च दीनाननाः शक्राज्ञया खभर्त्तारं अनुजग्मुः । ततः खामिनमालम्भिकायां हरिकान्तः, श्वेताम्बिकायां हरिस्सहश्व विद्युत्कुमारेन्द्रौ प्रियं प्रष्टुं एतौ ततः श्राव स्त्यां शक्रः स्कन्दप्रतिमायामवतीर्य स्वामिनं वन्दितवान् ततो महती महिमप्रवृत्तिः, ततः कौशाम्यां चन्द्रसूर्यावतरणं, वाणारस्यां शक्रो राजगृहे ईशानो मिथिलायां जनको राजा धरणेन्द्रश्च प्रियं पृच्छन्ति स्म, ततो वैशाल्यां एकादशो वर्षारात्रो ( ११ ) ऽभूत्, तत्र भूतः प्रियं पृच्छति, ततः सुसुमारपुरं गतस्तत्र चमरोत्पातः । ततः क्रमेण कौशाम्यां गतस्तत्र शतानीको राजा मृगावती देवी विजया प्रतिहारी वादीनामा धर्मपाठक सुगुप्तोऽमात्यस्तद्भार्या नन्दा सा च श्राविका मृगावत्याः वयस्या, तत्र प्रभुणा पोषबहुलप्रतिपदि अभिग्रहो जगृहे, यथा-द्रव्यतः कुल्माषान् सूर्यकोणस्थान्, क्षेत्रतः एकं पादं देहल्या अन्तः एक पादं बहिश्च कृत्वा स्थिता, कालतो निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु, भावतो राजसुता दासत्वं प्राप्ता मुण्डितमस्तका निग|डितचरणा रुदती अष्टमभक्तिका चेद्दास्यति तदा गृहीष्यामि इत्यभिगृह्य प्रत्यहं भिक्षायै भ्राम्यति, अमात्यादयोऽनेकानुपायान् कुर्वन्ति न त्वंभिग्रहः पूर्यते, तदा च शतानीकेन चम्पा भग्ना, तत्र च दधिवाहनभूपभार्या धारिणी तत्पुत्री च वसुमती द्वे अपि केनचित् पदातिना बन्दितया गृहीते, तत्र च धारिणी त्वां भार्या करिष्यामीति पत्तिवार्त्तया जिह्वाचर्वणेन मृता, ततो वसुमती पुत्रीति समाश्वास्य कौशाम्ब्यां आनीय चतुरूपथे विक्रेतुं स्थापिता, तत्र धनावहश्रेष्ठिना गृहीत्वा चन्दनेति कृताभिधाना पुत्रीत्वेन स्थापिताऽतीव प्रिया •••• भगवंत महावीरेण कृत विशिष्ट अभिग्रहः एवं चन्दनबालायाः कथानकं ~237~ एकादशी चतुर्मासी सातप्रश्नो ऽभिग्रहब १५ २० २५ ॥१०६ ॥ २७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||8,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: च, एकदा च खपादौ प्रक्षालयन्त्यास्तस्याः श्रेष्ठिना स्वयं गृहीतां भूलुठद्वेणीं निरीक्ष्य मूलानाम्नी श्रेष्ठिपत्नी गृहस्वामिनी तु इयमेव युवतिर्भाविनी अहं निर्माल्यप्राया इति विषण्णचित्ता तां शिरोमुण्डन निगडक्षेपणपूर्वं यन्त्रमध्ये निरुद्ध कापि गता, श्रेष्ठयपि कथमपि चतुर्थे दिने तच्छुद्धिं प्राप्य यन्त्रं उद्घाट्य तां तदवस्यां देहल्यां संस्थाप्य सूर्यकोणे कुल्माषान् अर्पयित्वा निगडभङ्गार्थं लोहकाराकारणाय याबद्भुतस्तावद्यदि कोऽपि भिक्षुरागच्छेत् तर्हि दवा कुल्माषान् भुञ्जे इति चिन्तयन्त्यां तस्यां भगवान् समागतः साऽपि प्रमुदिता गृहाणेद प्रभो इति जगी, ततः स्वामी अभिग्रहे रोदनं न्यूनं निरीक्ष्य निवृत्तः, ततो वसुमती अहो अस्मिन्नवसरे भगवानीगत्य किञ्चिदपि अगृहीत्वा निवृत्त इति दुःखतो रुरोद, ततः पूर्णाभिग्रहः खामी कुल्माषान् अग्रहीत्, अत्र कविः - चंदना सा कथं नाम, बालेति प्रोच्यते बुधैः ? | मोक्षमादत्त कुल्माषैर्महावीरं प्रतार्य या ॥ १ ॥ ततः पञ्च दिव्यानि जातानि शक्रः समागतः देवा ननृतुः केशाः शिरसि सञ्जाताः निगडानि च नुपूराणि, ततो मातृखसुर्मृगावत्या मिलनं, तत्र च सम्बन्धितया वसुधाराधनं आददानं शतानीकं निवार्य चन्दनाज्ञया धनावहाय धनं दत्त्वा वीरस्य प्रथमा साध्वी इयं भविष्यतीत्यभिधाय शक्रस्तिरोदधे । ततः क्रमेण जृम्भिकाग्रामे शको नाट्यविधिं दर्शयित्वा हयद्भिर्दिनैर्ज्ञानोत्पत्ति : इत्यकथयत्, ततो मेण्टिकग्रामे चमरेन्द्रः प्रियं पप्रच्छ, ततः पण्मानिग्रामे स्वामिनो बहिः प्रतिमास्थस्य पार्श्वे गोपो वृपान् मुक्तवा ग्रामं प्रविष्टः आगतश्च पृच्छतिदेवार्य ! क्व गता वृषभाः १, भगवता च मौने कृते रुष्टेन तेन स्वाभिकर्णयोः कटशलाके तथा क्षिप्ते यथा 238 चन्दनादा नं कूटशलाकोपसर्ग: ५ १० १४ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१,२|| कल्पसबा- परस्परं लग्नाग्रे, अग्रच्छेदनाच अदृश्याने जाते, एतच्च कर्म शय्यापालकस्य कर्णयोस्त्रपुप्रक्षेपेण त्रिपृष्ठभवे उपा- कीलकर्षण व्या०६र्जितं अभूत् उदितं च वीरभवे, शय्यापालको भवं भ्रान्त्वा अयमेव गोपः सातः, ततः प्रभुमध्यमापापायांवीरसाधु गतः, तत्र प्रभु सिद्धार्थवणिग्गेहे भिक्षार्थं आगतं निरीक्ष्य खरकवैद्यः स्वामिनं सशल्यं ज्ञातवान् , पश्चात् स वणिक तेन वैद्येन सहोद्यानं गत्वा सण्डासकाभ्यां ते शलाके निर्गमयति स्म, तदाकर्षणे च वीरेण आराटिस्तथा मुक्ता यथा सकलमपि उद्यानं महाभैरवं बभूव, तत्र देवकुलमपि कारितं लोक, प्रभुश्च संरोहिण्या । औषध्या नीरोगो बभूव, वैद्यवणिजो स्वर्ग जग्मतुः गोपः सप्तमं नरकं, एवं चोपसर्गाः गोपेन आरब्धास्तेनैव | |निष्ठिताश्च । एतेषां च जघन्यमध्यमोत्कृष्टविभाग एवं-जघन्येषूत्कृष्टः कटपूतनाशीतं, मध्यमेषूत्कृष्टः कालचक्र | उत्कृष्टेपूत्कृष्टः कर्णकीलककर्षणं, इति उपसर्गाः । एतान् सर्वान सम्यक सहते इत्याद्युक्तमेव ॥ . | (तए णं समणे भगवं महावीरे) यत एवं परीषहान् सहते ततःणं' वाक्यालङ्कारे श्रमणो भगवान् महावीरः (अणगारे जाए ) अनगारो जातः, किंविशिष्टः १ (इरिआसमिए) ईयर्या-गमनागमनं तत्र समितःसम्यक प्रवृत्तिमान् (भासासमिए) भाषा-भाषणं तत्र सम्पप्रवृत्तिमान् ( एसणासमिए) एषणाद्विचत्वारिंशदोषवर्जितभिक्षाग्रहणे सम्यकप्रवृत्तिमान (आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए) आदाने-ग्रहणे ॥१०७॥ | उपकरणादोरिति ज्ञेयं भाण्डमात्रायाः-वस्त्राद्युपकरणजातस्य यद्वा भाण्डस्य-बखादेमन्मयभाजनस्य वा,मात्रस्य च-पात्रविशेषस्य यनिक्षेपर्ण-मोचनं च तत्र समितः प्रत्युपेक्ष्य प्रमाM मोचनात् (उचारपासवणखेल-13 दीप अनुक्रम [१२०१२२] ... केवलज्ञान-प्राप्ति पूर्वे आत्मन: स्थिते: वर्णनं ~239 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||3,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: CREDERERED सिंघाणजल्लपारिहाणियासमिए) उच्चार:- पुरीषं प्रश्रवणं-सूत्रं खेलो- निष्ठीवनं सिङ्घानो-नासिकानिर्गतं श्लेष्म, जल्लो- देहमलः एतेषां यत् परिष्ठापनं त्यागस्तत्र समितः - सावधानः, शुद्धस्थण्डिले परिष्ठापनात्, एतच अन्त्यसमितिद्वयं भगवतो भाण्डसिङ्घानाद्यसम्भवेऽपि नामाखण्डनार्थमित्थं उक्तं एवं (मणसमिए ) मनसः सम्यक प्रवर्त्तकः ( वयसमिए) वचसः सम्यक प्रवर्त्तकः ( कायसमिए) कायस्य सम्यक प्रवर्त्तकः (मणगुप्ते) अशुभपरिणामान्निवर्त्तकत्वात् मनसि गुप्तः (वयगुत्ते ) एवं वचसि गुप्तः ( कायगुत्ते ) काये गुप्तः ( गुत्ते गुतिदिए ) अत एव गुप्तः, गुप्तानि इन्द्रियाणि यस्य स गुप्तेन्द्रियः (गुत्तभयारी ) गुप्तं - वसत्यादिन ववृत्तिविराजितं एवंविधं ब्रह्मचर्यं चरतीति गुप्तब्रह्मचारी (अकोहे अमाणे अमाए अलोने) क्रोधरहितः मानरहितः मायारहितः लोभरहितः (संते ) शान्तोऽन्तर्वृत्या ( पसंते ) प्रशान्तो बहिर्वृत्त्या ( उवसंते) उपशान्तः-अ अन्तर्बहिश्वोभयतः शान्तः, अत एव (परिनिन्दुडे ) परिनिर्वृतः - सर्वसन्तापवर्जितः ( अगासवे ) अनाश्रवःपापकर्मबन्धरहितः हिंसायाश्रवद्वारविरतेः (अममे ) ममत्वरहितः (अकिंचणे ) अकिञ्चनः किञ्चनं द्रव्यादि तेन रहितः (छिनगंधे ) छिन्नः त्यक्तो हिरण्यादिग्रन्थो येन स तथा ( निरुवलेवे ) निरुपलेपो द्रव्यभावमलापगमेन, तत्र द्रव्यमलः शरीरसम्भवो भावमलः कर्मजनितः, अथ निरुपलेपत्वं दृष्टान्तैर्हदयति - ( कंसपाइय मुकतोए) कांस्यपात्रीव मुक्तं तोयमिव तोयं स्नेहो येन स तथा, यथा कांस्यपात्रं तोयेन न लिप्यते तथा भगवान् १ साधिकमासाधिकाद् वर्षादूर्ध्वं वस्त्राद्यभावेऽपि करचरणादिपरावर्त्ते चतुर्थ्याः स्थण्डिलादिभावे चान्त्यायाः समितेः सद्भावः For Frate & Personal Use Only 240 वीरस्य साधुत्वे वर्णनं ५ १० १३ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा || 8,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१०८॥ स्नेहेन न लीप्यते इत्यर्थः, तथा (संखो इव निरंजणे) शङ्ख इव निरञ्जनो, रञ्जनं - रागाद्युपरञ्जनं तेन शून्यत्वात् (जीवे इव अप्प डिहगई ) जीव इव अप्रतिहतगतिः, सर्वत्रास्खलितविहारित्वात् ( गगणमिव निरालंबणे ) गगनमिव निरालम्बनः कस्याप्यधारस्य अनपेक्षणात् (वाउन अपडिवद्वे) वायुरिव अप्रतिबद्धः, एकस्मिन् स्थाने कार्यवस्थानाभावात् (सारयसलिलं व सुद्धहियए) शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः कालुष्याकलङ्कितत्वात् (पुक्खरपत्तं व निरूवलेवे ) पुष्करपत्रं - कमलपत्रं तद्वन्निरुपलेपः, यथा कमलपत्रे जललेपो न लगति तथा भगवतोऽपि कर्मलेपो न लगतीत्यर्थः (कुम्मो इव गुन्तिंदिए ) कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः (स्वग्गिविसाणं व एगजाए) खनिविपाणमिव एकजातः, यथा स्वनिः श्वापदविशेषस्य विषाणं शृङ्गं एकं भवति तथा भगवानपि, रागादिना सहायेन व रहितत्वात् (विहग इव विप्पमुक्के ) विहग इव विप्रमुक्तः, मुक्तपरिकरत्वात् अनियत निवासाच (भारंडपक्खीव अप्पमन्ते ) भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः, भारण्डपक्षिणोः किलैकं शरीरं, यतः - एकोदराः | पृथग्ग्रीवास्त्रिपदा मर्त्यभाषिणः । भारण्डपक्षिणस्तेषां मृतिर्भिन्नफलेच्छया ॥ १ ॥ ते चात्यन्तं अप्रमत्ता एव जीवन्तीति तदुपमा (कुंजरो इव सोंडीरे ) कुञ्जर इव शौण्डीर, कर्मशत्रून् प्रति शूरः ( वस्त्रभो इव जायथामे ) वृषभ इव जातस्थामा जातपराक्रमः, स्वीकृत महाव्रतभारोद्वहनं प्रति समर्थत्वात् ( सिंहो इव दुद्धरिसे) सिंह इव दुर्द्धर्षः, परीषहादिश्वापदैरजय्यत्वात् (मंदरी इव अप्पकंपे ) मन्दर इव - मेरुरिव अप्रकम्पः, | उपसर्गवातैः अचलितत्वात् (सागरो इव गंभीरे ) सागर इव गम्भीरः, हर्षविषादादिकारणसद्भावेऽपि अवि Porate & Personal Use Only 241 वीरस्य साधुत्वे वर्णनं. १५ २० २५ ॥१०८॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कृतखभावत्वात् (चंदो इव सोमलेसे) चन्द्र इव सौम्पलेश्यः, शान्तत्वात् (सूरो इन दित्ततेए) सूर्य इव दीप्ततेजा, द्रव्यतो देहकान्त्या,भावतो ज्ञानेन ( जच्चकणगं व जायरूवे) जात्यकनकमिव जातं रूपं-खरूपं यस्य स तथा, यथा किल कनक मलज्वलनेन दीप्तं भवति तथा भगवतोऽपि खरूपं कर्ममलविगमेन अतिदीप्त अस्तीति भावः (वसुंधरा इव सबफासविसहे) वसुन्धरा इव-पृथ्वीव सर्वस्पर्शसहः, यथा हि पृथ्वी शीतोणादि सर्वे समतया सहते तथा भगवानपि (सुहुअहुआसणे इव तेयसा जलंते) सुष्टु हुतो-घृतादिभिः सिक्त एवंविधो यो हुताशन:-अग्निस्तद्वत्तेजसा ज्वलन् (नस्थि णं तस्स भगवंतस्स कथइ पडिबंधे भवहार नास्त्ययं पक्षो यत्तस्य भगवतः कुत्रापि प्रतिवन्धो भवति, तस्य भगवतः कुत्रापि प्रतिवन्धो नास्तीति भावः (से य पडिबंधे चउबिहे पण्णत्ते) सच प्रतिबन्धः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः (तंजहा) तद्यथा-दिपओ खित्तओ| कालओ भावओ) द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतश्च (दबओ सचित्ताचित्तमीसिएसु दवेसु)द्रव्यतस्तु प्रतिबन्धः सचित्तचित्तमिश्रितेषु द्रव्येषु, सचित्तं वनितादि अचित्तं आभरणादि.मिश्र सालङ्कारवनितादि तेषु, तथा । (खित्तओ गामे वा) क्षेत्रतः कापि ग्रामे वा (नयरे वा)नगरे वा (अरण्णे वा) अरण्ये वा (खित्ते था) क्षेत्र-धान्यनिष्पत्तिस्थानं तत्र चा (खले वा) खलं-धान्यतुषपृथकरणस्थानं तत्र वा (घरे वा) गृहे वा (अंगणे) अङ्गण-गृहाग्रभागस्तत्र वा (नहे वा) नभा-आकाशं तत्र वा, तथा (कालओ समए पा) कालतः। समयः-सर्वसूक्ष्मकाल: उत्पलपत्रशतवेधजीर्णपदृशाटिकापाटनादिदृष्टान्तसाध्यस्तत्र वा (आवलियाए वाण दीप अनुक्रम [१२०१२२] क.सु. १९ परjanelibrary.org ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ..... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१,२|| कल्प.सुयो- आवलिका-असह्यातसमयरूपा (आणपाणुए वा) आनप्राणी-उच्चासनिःश्वासकालः (थोवे वा) स्तोकः-- भगवतः व्या०६ ससोच्छासमानः (खणे धा)क्षणे-घटिकाषष्टभागे वा (लवे वा) लव:-सप्तस्तोकमानः (मुहत्ते वा) मुहर्त: सप्तसप्ततिलवमानः (अहोरसे वा पक्खे वा मासे वा उऊ वा अयणे वा संवच्छरे वा) अहोरात्रे वा पक्षे चार ॥१०९॥ भाव: मासे वा करती चा अयने वा संवत्सरे वा (अषणयरे वा दीहकालसंजोए) अन्यतरमिन् वा दीर्घकालसं-16 सू. ११८ योगे-युगपूर्वाङ्गपूर्वादी (भावओ) भावतः (कोहे वा, माणे वा, मायाए वा, लोभे वा, भए वा, हासे वा) क्रोधे वा माने वा भायायां वा लोभे वा भये वा हास्ये वा (पिज्जे वा, दोसे वा, कलहे वा, अभक्खाणे वा) प्रेमिण वा-रागे वा, द्वेष-अप्रीती कलहे-वाग्युद्धे अभ्याख्याने-मिथ्याकलङ्कदाने (पेसुन्ने वा, परपरिवाए वा) पैशुन्ये-प्रकछन्नं परदोषप्रकटने , परपरिवादे-विप्रकीर्णपरकीयगुणदोषप्रकटने (अरहरई वा, मायामोसे वा) मोहनीयोदयाचित्तोद्वेगोरतिः, रतिः-मोहनीयोदयाचित्तप्रीतिस्तत्र, मायया युक्ता मृषा मायामृपा तत्र (मिच्छादसणसल्ले वा) मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं तदेव अनेकदुःखहेतुत्वाच्छल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं तत्र ISI(तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवह)तस्प भगवतः एवं पूर्वोक्तस्वरूपेषु द्रव्य क्षेत्र २ काल ३ भावेषु ४॥ कुत्रापि प्रतिबन्धो नैचोस्तीति ॥ (१९८)॥ AK (से णं भगवं) स भगवान् ( वासावासं वजं) वर्षावासः-चतुर्मासी तां वर्जयित्वा (अह गिम्हहेमंतिए ॥१०९॥ मासे) अष्टौ ग्रीष्महेमन्तसम्बन्धिनो मासान् (गामे एगराइए) ग्रामे एकरात्रिका-एकरात्रिवसनस्वभावः २८ दीप अनुक्रम [१२०१२२ estateme Talanetbrorying ~243 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११९] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११९] गाथा ||२..|| (नगरे पंचराइए ) नगरे पश्चरात्रिका, पुनः किंवि०? (वासीचंदणसमाणकप्पे) वासी-सूत्रधारस्य काष्ठच्छेदनोपकरणं, चन्दन-प्रसिद्धं तयोर्द्वयोर्विषये समानसङ्कल्पा-तुल्याध्यवसायः, पुनः किंवि० ? (समतिणमणि| लेट्कंचणे ) तृणादीनि प्रतीतानि नवरं लेष्टुः-पाषाणः, समानि-तुल्यानि तृणमणिलेष्ठकाश्चमानि यस्य स तथा 18(सममुहदक्खे ) समे सुखदुःखे यस्य स तथा (इहपरलोगअपडिबढे) इहलोके परलोके च अप्रतिबद्धः.1% 18| अत एव (जीवियमरणे निरवकंखे) जीवितमरणयोर्विषये निरवकालो-वाञ्छारहितः (संसारपारगामी) संसारस्य पारगामी (कम्मसत्तुनिग्घायणट्ठाए) कर्मशत्रुनिर्धातनार्थ (अन्भुहिए) अभ्युत्थितः-सोद्यमः (एवं च णं बिहरह) एवं-अनेन क्रमेण स भगवान् विहरति-आस्ते ।। (११९)। (तस्स णं भगवंतस्स) तस्य भगवतः (अणुत्तरेणं नाणेणं) अनुत्तरेण-अनुपमेन. ज्ञानेन (अणुत्तरेणं ईसणेणं) अनुपमेन दर्शनेन (अणुत्तरेणं चारित्तेणं) अनुपमेन चारित्रेणं (अणुत्तरेणं आलएणं) अनुपमेन आलयेनस्त्रीषण्डादिरहितवसतिसेवनेन (अणुत्तरेण विहारणं) अनुपमेन विहारेण-देशादिषु भ्रमणेन (अणुत्तरेणं वीरिएणं) अनुपमेन वीर्येण-पराक्रमेण (अणुत्तरेणं अजवेणं) अनुपमेन आर्जवं-मायाया अभावस्तेन (अणुत्तरेणं महवेणं) अनुपमेन माईवं-मानाभावस्तेन (अणुत्तरेणं लाघवेणं) अनुपमेन लाघवं-द्रव्यतः अल्पोपधित्वं भावतो गौरवयत्यागस्तेन (अणुत्तराए खंतीए ) अनुपमया क्षान्त्या-क्रोधाभावेन (अणुत्त-18 राए मुत्तीए) अनुपमया मुक्त्या-लोभाभावेन (अणुत्तराए गुत्तीए) अनुपमया गुप्त्या-मनोगुप्त्यादिकया दीप अनुक्रम [१२४] | १४ UnEducatonintrol ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२०] / गाथा २...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: | प्रत सूत्रांक [१२०] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- न्या०६ ॥११॥ (अणुत्तराए तुट्टीए) अनुपमया तुट्या-मन:प्रसत्त्या (अणुत्तरेणं सबसंजमतवसुचरियत्ति) अनुपमेन सत्यं श्रीवीरविसंयमः-प्राणिया, तपो-द्वादशप्रकार एतेषां यत्सुचरितं-सदाचरणं तेन कृत्वा (सोवचियफलनिवाणमग्गेणं) हाररीतिः, सोपचयं-पुष्ट फलं-मुक्तिलक्षणं यस्य एवंविधो यः परिनिर्वाणमार्गों-रत्नत्रयरूपस्तेन, तदेवं उक्तेन सर्वगुण- द्वादशवर्षीसमूहेन (अप्पाणं भावमाणस्स) आत्मानं भावयतो (दुवालस संवच्छराई विइकंताई) द्वादश संवत्सराफ चसू.११९व्यतिक्रान्ताः , ते चैवं-एकं षण्मासक्षपणं ६,द्वितीयं षण्मासक्षपर्ण पञ्चदिनन्यूनं ११-२५, नव चतुर्मासक्ष-III पणानि ४७-२५,ढे त्रिमासक्षपणे ५३-२५, वे साईद्विमासक्षपणे ५८-२५, षट् द्विमासक्षपणानि ७०-२५.वे सार्द्धकमासक्षपणे ७३.२५, द्वादश १२ मासक्षपणानि ८५.२५,दासप्ततिः ७२ पक्षक्षपणानि १२१-२५, भद्रप्र-1 तिमा दिनद्वयमाना, महाभद्रप्रतिमा दिनचतुष्कमाना, सर्वतोभद्रप्रतिमा दशदिनमाना १२२-११ एकोनत्रिं-| शदधिकं शतद्वयं षष्ठाः १३७-१९.द्वादश अष्टमाः १३८-२५, एकोनपञ्चाशदधिकं शतत्रयं पारणानां १५०-१४ दीक्षादिन १५०-१५, ततश्चेदं जातं बारस चेव य वासा मासा छ चेव अदमासंच। वीरवरस्स भगवओ एसो छउमत्थपरिआओ॥१॥ इदं च सर्व तपो भगवता निर्जलमेव कृतं, न कदापि च नित्यभक्तं चतुर्थभक्तं च कृतं, एवं च (तेरसमस्स संवच्छरस्स) त्रयोदशस्य संवत्सरस्य (अंतरा वट्टमाणस्स) अन्तरा-मध्ये वर्तमानस्य (जे से गिम्हाणं) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य (दुचे मासे चउत्थे पक्खे) द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षः (वइसाहसुद्धे) १ द्वादशैव च वर्षाणि मासाः पठेव अधर्मासश्च । वीरवरस्य भगवतः एष छद्मस्थपर्यायः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२५] एटcee For Fun A njanelibraryarai ... भगवंत महावीर कृत तपस: वर्णन ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२०] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२०] गाथा ||२..|| |वैशाख शुक्लपक्षः (तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं) तस्य वैशाखशुद्धस्य दशमी दिवसे ( पाईणगामि-19 पाणीए छायाए) पूर्वगामिन्यां छायायां सत्यां (पोरिसीए अभिनिविदाए) पाश्चात्यपौरुष्यां अभिनिवृत्तायां जातायां सत्या, कीदृशायां ? (पमाणपत्ताए ) प्रमाणप्राप्तायां, न तु न्यूनाधिकायां (सुत्बएणं दिवसेणं) सुव्रतनामके दिवसे (विजएणं मुहत्तेणं) विजयनाम्नि मुहले (भियगामस्स नगरस्स पहिया) जम्भिक- ग्रामनामकस्य नगरस्य बहिस्तात् (उज्जुवालुयाए नईए तीरे) ऋजुवालुकाया:नद्याः तीरे (वेयावत्तस्य चेइयस्स) ब्यावृत्तं नाम जीर्ण एवंविधं यचैत्य-व्यन्तरायतनं तस्य (अदूरसामंते) नातिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः (सामागस्स गाहावइस्स) श्यामाकस्य गृहपते:-कौटुम्बिकस्य (कट्ठकरणंसि) क्षेत्रे (सालपायवस्स अहे) सालपादपस्य अधो| (गोदोहियाए ) गोदोहिकया ( उक्कुडियनिसिजाए) उत्कटिकया निषद्यया (आयावणाए आयावेमाणस्स) आतापनया आतापयतः प्रभोः (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन (हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं ) उत्तराफल्गुनीनक्षत्रे चन्द्रेण योगं उपागते सति (शाणंतरियाए बद्दमाणस्स) ध्यानस्य अन्तर-मध्यभागे वर्तमानस्य, कोऽर्थः-शुक्लध्यानं चतुर्धा-पृथत्त्ववितर्क सविचारं १ एकत्ववितक अविचार २ सूक्ष्मक्रियं अप्रतिपाति ३ उच्छिन्नक्रियं अनिवर्सि ४, एतेषां मध्ये आयभेदद्वये ध्याते इस्पर्थः (अणते) अनन्तवस्तुविषये (अणुत्तरे) अनुपमे (निवाघाए) नियाघाते-भित्त्यादिभिरस्खलिते (निराव दीप अनुक्रम [१२५] १० ... भगवंत महावीरस्य केवलज्ञान-कल्याणक-वर्णनं ~ 246 ~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१२६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प- सुबो पा० ६ ॥ १११ ॥ ---------- रणे ) समस्तावरणरहिते (कसिणे ) समस्ते ( पडिपुणे ) सर्वावयवोपेते ( केबलवरनाणदंसणे समुप्पने ) एवंविधे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने । (१२० ) ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततो ज्ञानोत्पश्यनन्तरं श्रमणो भगवान् महावीरः ( अरहा जाए ) अर्हन् जात:- अशोकादिप्रातिहार्यपूजायोग्यो जातः पुनः कीदृश: ? ( जिणे केवली सङ्घन्नू सङ्घदरिसी ) जिनो-रागद्वेषजेता केवली सर्वज्ञ सर्वदर्शी ( सदेवमणुआसुरस्त लोगस्स ) देवमनुर्जासुरसहितस्य लोकस्य (परियायं जाणइ पासह) पर्यायं इत्यत्र जातावेकवचनं, ततः पर्यायान् जानाति पश्यति च-साक्षात् करोति, तर्हि किं देवमनुजासुराणां एव पर्याय मात्रं एव जानातीत्याह (सबलोए सङ्घजीवाणं ) सर्वलोके सर्वजीवानां (आगई गई ठिई चवणं उववायं ) आगतिं भवान्तरात्, गतिं च भवान्तरे, स्थिति-तद्भवत्कं आयुः, कायस्थितिं वा च्यवनं देवलोकान्तिर्यग्नरेषु अवतरणं, उपपातो देवलोके नरकेषु वोत्पत्तिः (तक्कं मणो ) तेषां सर्वजीवानां सम्बन्धि तत्कं ईदृशं यन्मनः ( माणसियं ) मानसिकं - मनसि चिन्तितं ( भुत्तं ) भुक्तं, अशनफलादि (कर्ड) कृतं, चौर्यादि ( पडिसेवियं ) प्रतिसेवितं मैथुनादि ( आविकम् ) आविः कर्म-प्रकटकृतं (रहोकम्मं ) रहः कर्म-प्रच्छन्नं कृतं एतत् सर्वं सर्वजीवानां भगवान् जानातीति योजना, पुनः किंवि० प्रभुः ? ( अरहा) न विद्यते रहः प्रच्छन्नं यस्य, त्रिभुवनस्य करामलकवद् दृष्टत्वात्, अरहा: (अरहस्तभागी ) For Prate & Personal Use Only ~247~ केवलज्ञान फलम् सू. १२१ २० ॥१११॥ २५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१२६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धार की संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- रहस्यं - एकान्तं तन्न भजते इति अरहस्यभागी, जघन्यतोऽपि कोटीसुरसेव्यत्वात् ( तं तं कालं मणवयकायजोगे ) तस्मिन् तस्मिन् काले मनोवचनकाययोगेषु यथाई ( वट्टमाणाणं) वर्त्तमानानां (सबलोए सबजीवाणं ) सर्वलोके सर्वजीवानां (सबभावे जाणमाणे पासमाणे विहरह ) सर्वभावान् पर्यायान् जानन् पश्यंश्च विहरति, 'सङ्घजीवाणं' इत्यत्र अकारप्रश्लेषात् सर्वाजीवानां धर्मास्तिकायादीनामपि सर्व पर्यायान् जानन् पश्यंश्च विहरतीति व्याख्येयम् ॥ ( १२१ ) | इतश्च तस्मिन्नवसरे मिलितेषु सुरासुरेषु स्थले वृष्टिमिव निष्फलां देशनां क्षणं दत्त्वा प्रभुः अपापापुर्यां महासेनवने जगाम, तत्र च यज्ञं कारयतः सोमिलविप्रस्य गृहे बहवो ब्राह्मणाः मिलिताः सन्ति, तेषु च इन्द्रभूति १अग्निभूति २ वायुभूति ३ नामानस्त्रयः सहोदराश्चतुर्दशविद्याविशारदाः क्रमेण जीव १ कर्म २ तज्जीवतच्छरीर ३ सन्देहवन्तः पञ्चशतपरिवाराः सन्ति, एवं व्यक्तः ४ सुधर्मा ५ चेति द्वौ द्विजौ तावत्परिवारौ तथैव विद्वांसौ क्रमात् पञ्च भूतानि सन्ति न वेति ४ यो यादृशः स तादृशः ५ इति च सन्देहवन्तौ तादृशौ एव च मण्डित ६ मौर्यपुत्र ७ नामानौ बान्धवो सार्वत्रिशतपरिवारौ क्रमात् बन्ध ६ देव७ विषयक सन्देहवन्तौ, तथा अकम्पितो ८ ऽचलभ्राता ९ मेतार्यः १० प्रभास ११ चेति चत्वारो द्विजाः प्रत्येकं त्रिशतपरिवाराः क्रमेण नैरयिक ८ पुण्य ९ परलोक १० मोक्ष ११ सन्देह भाजस्तत्रगताः सन्ति, *** अथ गणधर-नाम-कर्म - बद्ध ११ महात्मानं शका एवं समाधानं वर्णयते 248 ५ १० १३ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [६] ........ मूलं [१२१] । गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत कल्प.सुबो नाम सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| गणधराः तत्संशयादि यज्ञे द्विजमेलापका १० ११ व्या०६ इन्द्रभूतिः अग्निभूतिः वायुभूतिः व्यक्तः सुधी मण्डितः मौर्यपुत्रः अकम्पितः अचलभ्राता मेतार्यः प्रभासः परिवार ५०० ५०० ।५०० ५०० ५०० ३५० ३५० ३०० ३०० ३००-३०० : ॥११२॥ | शङ्का जीवः । कर्म तळीव० । भूतानि योयादृशः बन्धः देवः । नारकः । पुण्यं, परलोकः मोक्षः ते चैकादशापि बिजा एकैकसन्देहसद्भावेऽपि सर्वज्ञत्वाभिमानक्षतिभयात् परस्परं न पृच्छन्ति, एवं एते तत्परिवारभूताश्च चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः अन्येऽपि उपाध्याय-शङ्कर ईश्वर शिवजी जानी-गङ्गाधर महीधर भूधर लक्ष्मीधर पिण्ड्या-विष्णु मुकुन्द गोविन्द पुरुषोत्तम नारायण दुवेश्रीपति उमापति विद्यापति गणपति जयदेव, व्यास-महादेव शिवदेव मूलदेव सुखदेव गङ्गापति गौरीपति त्रिवाडी-श्रीकण्ठ नीलकण्ठ हरिहर रामजी-बालकृष्ण यदुराम राम रामाचार्य राउल-मधुसूदन नरसिंह || 18 कमलाकर सोमेश्वर हरिशङ्कर निकम जोसी-पूनो रामजी शिवराम देवराम गोविन्दराम रघुराम उदिराम इत्यादयो मिलिताः सन्ति । अत्रान्तरे च भगवन्नमस्याथै आगच्छतःसुरासुरान् विलोक्य ते चिन्तयन्ति-अहो! यज्ञस्य महिमा ! यदेते सुराः साक्षात्समागताः, अथ तान् यज्ञमण्डपं विहाय प्रभुपार्श्व च गच्छतो विज्ञाय द्विजा विषेदुः, ततोऽमी सर्वज्ञं वन्दितुं यान्तीति जनश्रुत्या श्रुत्वा इन्द्रभूतिः सामर्षश्चिन्तयामासिवान-अहो! मयि सर्वज्ञे सत्यपि अपरोऽपि सर्वज्ञं खं ख्यापपति, दुःश्रवं एतस्कर्णकटु कथं नाम श्रूयते !, किश्च-कदाचित् दीप अनुक्रम [१२६] २५ ॥१२॥ २७ EX ~249 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [६] ........ मूलं [१२१] । गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कोऽपि मूर्खः केनचिढून वञ्च्यते, अनेन तु सुरा अपि वञ्चिताः, यदेवं यज्ञमण्डपं मां सर्वशं च विहाय , तत्समीपं गच्छन्ति । अहो! सुराः कथं भ्रान्तास्तीझुम्भ इव वायसाः । कमलाकरवड़ेका, मक्षिकाश्चन्दनं यथा ॥१॥करभा इव सहक्षान् , क्षीरान्नं शूकरा इव । अर्कस्यालोकवद् घूकास्त्यत्त्वा यागं प्रयान्ति यत RR॥२॥ अथवा यादृशोऽयं सर्वज्ञस्तादृशा एवैते, अनुरूप एव संयोगः, यतः-पश्यानुरूपमिन्दिदिरेण माकन्द शेखरो मुखरः । अपिच पिचुमन्दमुकुले, मौकुलिकुलमाकुलं मिलति ॥१॥ तथापि नाई एतस्य सर्वज्ञाटोप सहे, यतः योनि सूर्यद्वयं किं स्याद्, गुहायां केसरिद्वयम् । प्रत्याकारे च खड्गौ द्वौ, किं सर्वज्ञावहं स च ॥१॥ ततो भगवन्तं वन्दित्वा प्रतिनिवर्तमानान सोपहासं जनान् पप्रच्छ-भो! भो ! दृष्टः स सर्वज्ञः ? कीगरूपः किंखरूपः ? इति, जनैस्तु-यदि त्रिलोकीगणनापरा स्यात् , तस्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारेपराओं गणितं यदि स्यात्, गणेयनिःशेषगुणोऽपि स स्यात् ॥१॥ इत्याधुक्ते सति स दध्या-नूनमेष महाधूत्तों, मायायाः कुलमंदिरम् । कथं लोकः समस्तोऽपि, विभ्रमे पातितोऽमुना ? ॥२॥ न क्षमे क्षणमात्रं त. तं सर्वज्ञ कदाचन | तमास्तोममपाका, सूर्यों नैव प्रतीक्षते ॥३॥ वैश्वानरः करस्पर्श, केसरोल्लुंचनं हरिः । क्षत्रि-18 यश्च रिपुक्षेपं, न सहते कदाचन ॥४॥ मया हि येन वादींद्रास्तूष्णीं संस्थापिताः समे । गेहेशरतरः कोऽसौ, सर्वज्ञो मत्पुरो भवेत् ? ॥५॥शैला येनाग्निना दुग्धाः, पुरः के तस्य पादपाः १ । उत्पाटिता गजा येन, का बायोस्तस्य पुंभिका?॥६॥ किंच-गना गौडदेशोद्भवा दूरदेश, भयाजर्जरा गौर्जरानासमीयुः । मृता दीप अनुक्रम [१२६] JaMEducatonis E njanelhiaryara ~250 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-ISIमालवीयास्तिलांगास्तिलंगोद्भवा जज्ञिरे पंडिता मद्येन ॥ ७ ॥ अरे लाटजाताः क याताः प्रणष्टाः, पदिष्टा व्याः ६ अपि द्राविडा वीडयािः । अहो वादिलिप्साऽऽतुरे मय्यमुष्मिन, जगत्युत्कटं वादिदुर्भिक्षमेतत् ॥ ८॥ ॥११३॥ तस्य ममाग्रे कोऽसौ,वादी सर्वज्ञमानमुद्दहति ? । इति तत्र गंतुमुत्कं, तमग्निभूतिर्जगादेवं ॥९॥किं तत्र वादिकीटे,तब प्रयासेन ? यामि बंधोऽहम् । कमलोन्मूलनहेतोंर्नेतव्यः किं सुरेंद्रगजः ॥१०॥ अकथयदथेंद्रभू-I91 तिर्यद्यपि मच्छात्रजय्य एवासौ । तदपि प्रवादिनाम श्रुत्वा स्थातुं न शक्नोमि ॥ ११॥ पीलयतस्तिलः कश्चित्, दलतय यथा कणः । सूडयतस्तृणं किंचिदगस्तेः पिबतः सरः॥१२॥ मर्दयतस्तुषः कोऽपि, तद्वदेष ममा-1 भवत् । तथापि सासहिर्ने हि, मुधा सर्वज्ञवादिनम् ॥ १३ ॥ एकस्मिन्नजिते यस्मिन् , सर्वमप्यजितं भवेत् ।। एकदा हि सती लुप्तशीला स्यादसती सदा ॥ १४ ॥ चित्रं चैव ब्रिजगति,सहस्रशो निर्जिते मया वादैः। क्षिप्रचटस्थाल्यामिव.कंकटुकोऽसौ स्थितो वादी ॥१५॥ अस्मिन्नजिते सर्व जगज्जयोद्भूतमपि यशो नश्येत् ।। अल्पमपि शरीरस्थं शल्यं प्राणान् वियोजयति ॥ १६॥ यतः-छिद्रे खरूपेऽपि पोतः किं, पाधोधी न निमजति ? । एकस्मिन्निष्टके कृष्टे, दुर्गः सर्वोऽपि पात्यते ॥ १७ ॥ इत्यादि विचिंत्य विरचितद्वादशतिलका वर्णयज्ञोपवीतविभूषितः स्फारपीतांबराडंबर: कैश्चित्पुस्तकपाणिभिः कैश्चिकमंडलुपाणिभिः कश्चिदर्भपाणिभिः सरखतीकंठाभरण वादिविजयलक्ष्मीशरण वादिमदगंजन वादिमुखभंजन वादिगजसिंह बादीश्वरलीह वादि| सिंहअष्टापद वादिविजयविशद वादिवृंदभूमिपाल वादिशिराकाल वादिकदलीकृपाण वादितमोभान वादि-18 दीप अनुक्रम [१२६] २८ UaMEducutinine For FFU Clu ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| cenesesesenel गोधूमघरट्ट मर्दितवादिमरह वादिघमुद्गर वादिघूकभास्कर वादिसमुद्रागस्ते वादितरून्मूलनहस्तिन् वादि-18 सुरसुरेंद्र वादिगरुडगोविंद वादिजनराजान वादिकंसकाहान वादिहरिणहरे वादिज्वरधन्वंतरे वादियूथमल्ल वादिहृदयशल्य वादिगणजीपक वादिशलभदीपक वादिचक्रचूडामणे पंडितशिरोमणे विजितानेकवाद सरस्वतीलब्धप्रसाद इत्यादिविरुदबुंदमुखरितदिचःपंचभिः छात्रशतैः परिवृत इंद्रभूतिः वीरसमीपं गच्छश्चि-18 तयामास-अहो धृष्टेन अनेन किमेतत् कृतं? यदहं सर्वज्ञाटोपेन प्रकोपितः,यतः कृष्णसर्पस्य मंडूकश्चपेटां दातु-1 मुखतः । आखू रदैश्च मार्जरदंष्ट्रापाताय सादरः ॥१॥ वृषभः स्वर्गजं शृंगैः, प्रहां कांक्षति दुतम् । द्विपः पर्व-18 तपाताय, दंताभ्यां यतते रयात् ॥२॥ शशकः केसरिस्कंधकेसरां ऋष्टुमीहते । मदृष्टौ यदसौ सर्ववित्त्वं ख्यापयते जने ॥३॥ शेषशीर्षमणि लातुं, हस्तः स्वीयः प्रसारितः । सर्वज्ञाटोपतोऽनेन, यदहं परिकोपितः ॥४॥ समीराभिमुखस्थेन, दवाग्निज्वलितोऽमुना । कपिकच्छूलता देहे, सौख्यायालिंगिता ननु ॥५॥ भवतु, किंमतेन ?, अधुना निरुत्तरीकरोमि, यतः-तावगर्जति खद्योतस्तावद्गर्जति चंद्रमाः । उदिते तु सहसांशी, न खद्योतो न चंद्रमाः॥६॥ सारंगमातंगतुरंगपूगः, पलाय्यतामाशु वनादमुष्मात् । साटोपकोपस्फुटकेसरश्रीमंगाधिराजोऽयमुपेयिवान् यत् ॥ ७ ॥ मम भाग्यभराद्यद्वा, वाद्ययं समुपस्थितः । अद्य तां रसना हमपनेष्ये विनिश्चितम् ॥ ८॥ लक्षणे मम दक्षत्वं, साहित्ये संहता मतिः। तर्के कर्कशताऽत्यक शास्त्रे नास्ति मे श्रमः ॥९॥ यमस्य मालवो दूरे, किं स्यात्? को वा वचखिनः । अपोषितो रसो? नूनं, किमजेयं चा दीप अनुक्रम [१२६] रडारल For F lutelu ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प.सबो- चक्रिणः ॥१०॥ अभेद्यं किमु वजस्य, किमसाध्यं महात्मनाम् । क्षुधितस्य न किं खाय, किं न वाच्यं श्रीवीरपार्थे व्या०६।खलस्य च ॥११॥ कल्पद्रूणामदेयं किं, निर्विण्णानां किमेत्यजम् ? । गच्छामि तर्हि तस्यांते, पश्याम्येतत्परा- गमनम् क्रमम् ॥ १२॥ तथा ममापि त्रैलोक्यजित्वरस्य महौजसः । अजेयं किमिवास्तीह, तगच्छामि जयाम्येमुम् ॥११॥ AR॥ १३ ॥ इत्यादि चितयन् प्रभुमवेक्ष्य सोपानसंस्थितो दध्यौ । किं ब्रह्मा किं विष्णुः, सदाशिव शंकर: किं वा? ॥१४ ॥ चन्द्रः किं स न यत्कलंककलित: सूर्योऽपि नो तीव्ररुक, मेरुः किं? न स यनितांतकठिनो, विष्णुः? न यत् सोऽसितः । ब्रह्मा किं? न जरातुरः स च जरोभीकः? न यत्सोऽतनु:, ज्ञातं दोषविवर्जिता-1 खिलगुणाकीर्णोऽन्तिमस्तीर्थकृत् ॥१५॥ हेमसिंहासनासीनं, सुरराजनिषेवितम् । दृष्ट्वा वीरं जगत्पूज्यं, चिंतयामास चेतसि ।। १६॥ कर्थ मया महत्त्वं हा, रक्षणीयं पुरार्जितम् ? । प्रासाद कीलिकाहेतोभक्तुं को नाम वांछत्ति ? ॥१७॥ एकेनाविजितेनापि, मानहानिस्तु का मम? | जगजैत्रस्य किं नाम, करिष्यामि च सांप्रतम् ।। ॥ १८॥ अविचारितकारित्वमहो मे मन्ददुर्द्धियः । जगदीशावतारं यत् , जेतुमेनं समागतः ॥ १९॥ अस्याग्रेऽहं कथं वक्ष्ये ?, पार्वे यास्यामि वा कथम् ? । संकटे पतितोऽस्मीति, शिवो रक्षतु मे यशः॥ २०॥ कथंचि- २५ दपि भाग्येन, चेद्भवेदत्र मे जयः । तदा पंडितमूर्द्धन्यो, भवामि भुवनत्रये ॥२१॥ इत्यादि चिंतयन्नेव, सुधा- ॥११॥ मधुरया गिरा । आभाषितो जिनेंद्रेण, नामगोत्रोक्तिपूर्वकम् ॥ २२ ॥ हे गौतमेंद्रभूते! त्वं, सुखेनागतवानसि। इत्युक्तेऽचितयद्वेत्ति, नामापि किमसौ मम ? ॥ २३ ॥ जगत्रितयविख्यातं, को वा नाम न वेत्ति माम् ? । जन दीप अनुक्रम [१२६] २८ For F lutelu ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [६] ........ मूलं [१२१] । गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत प्रथम गणधर: सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| स्याबालगोपालं, प्रच्छन्नः किं दिवाकरः ॥२४॥ प्रकाशयति गुप्तं चेत्, संदेहं मे मनःस्थितम् । तदा जानामि सर्वज्ञमन्यथा तु न किंचन ॥२५॥ चिंतयंतमिति प्रोचे, प्रभुः को जीवसंशयः । विभावयसि नो वेदपदार्थ || शृणु तान्यध ॥ २६ ॥ समुद्रो मध्यमानः किं ?, गंगापूरोऽथवा किमु । आदिब्रह्मध्वनिः किं वा ?, वीरवेदध्व-II निर्वभौ ॥ २७ ॥ वेदपदानि च-विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञा|स्ती ति, त्वं तावत् एतेषां पदानां अर्थ एवं करोषि-यत् विज्ञानघनो-गमनागमनादिचेष्टावान् आत्मा एतेभ्यो भूतेभ्यः-पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशेभ्यः, समुत्थाय-प्रकटीभूय मांगेपु मदशक्तिरिव, ततस्तानि-भूता-|| न्येव अनु विनश्यति-तत्रैव विलयं याति जले बुबुद इव, ततो भूतांतिरिक्तस्य आत्मनोऽभावात् न प्रेत्यसंज्ञास्ति-मृत्वा पुनर्जन्म नास्तीति, परं अयुक्तोऽयमर्थः, शृणु तावदेतेषां अर्थ-विज्ञानघन इति कोऽर्थ:-विज्ञानघनो-ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानं तन्मयत्वादात्माऽपि विज्ञानघना, प्रतिप्रदेश अनंतज्ञानपर्यायात्मक-|| स्वात् , स च विज्ञानघन:-उपयोगात्मक आत्मा, कथंचिद्भूतेभ्यस्तद्विकारेभ्यो वा घटादिभ्यः समुत्तिष्ठते-उत्प-| यते इत्यर्थः, घटादिज्ञानपरिणतो हि जीवो घटादिभ्य एव हेतुभूतेभ्यो भवति, घटादिज्ञानपरिणामस्य घटादिवस्तुसापेक्षखात्, एवं च एतेभ्यो भूतेभ्यो-घटादिवस्तुभ्यस्तत्तदुपयोगतया जीवः समुत्थाय-समुत्पद्य तान्येव अनु विनश्यति, कोऽर्थः तस्मिन् घटादी वस्तुनि नष्टे व्यवहिते वा.जीवोऽपि तदुपयोगरूपतया नइपति,अन्यो-IN पयोगरूपतया उत्पद्यते.सामान्यरूपतया वा अवतिष्ठते, ततश्च न प्रेत्यसंज्ञास्ति, कोर्थः?-न प्राक्तनी घटाधु दीप अनुक्रम [१२६] For F lutelu ~254 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [६] ........ मूलं [१२१] । गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक 99 [१२१] गाथा ||२..|| सबोपयोगरूपा संज्ञा अवतिष्ठते, वर्तमानोपयोगेन तस्या नाशितत्वादिति, अपरं च स वै अयं आत्मा ज्ञानमय द्वितीय व्या०६ इत्यादि, तथा ददद, कोऽर्थः ?-दमो दानं दया इति दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः, किंच-विद्यमानभोक्तृक गणधरः इदं शरीरं, भोग्यत्वात् , ओदनादिवत् इत्याचनुमानेनापि, तथा-क्षीरे घृतं तिले तैलं, काष्ठेऽग्निः सौरभं सुमे ।। ॥११५॥ चंद्रकांते सुधा यद्बत् , तथाऽऽत्मागगतः पृथक् ॥१॥ एवं च प्रभुवचनैः छिन्नसंदेहः श्रीइंद्रभूतिः पंचशतपरिवारः प्रबजितः, तत्क्षणाच ' उपन्नेह वा (१) विगमेह वा (२) धुवेइ वा (३)' इति प्रभुवदनात्रिपदी माप्य द्वादशांगी रचितवान् । इति प्रथमगणधरः१॥ तं च प्रबजितं श्रुत्वा, दध्यौ तबान्धयोऽपरः । अपि जातु द्रवेदद्रिहिमानी प्रज्वलेदपि ॥१॥ वहिः शीतः स्थिरो वायुः, संभवेन तु बांधवः । हारयेदिति पप्रच्छ, लोकानश्रद्दधदू भृशम् ॥ २॥ ततश्च निश्चये जाते, चिंतयामास चेतसि । गवा जित्वा च तं धूर्त, वालयामि सहोदरम् ॥ ३॥ सोऽप्येवमागतः शीघ्र, प्रभुणाss-18 भाषितस्तथा । संदेहं तस्य चित्तस्थं, व्यक्तीकृत्यावद्विभुः ॥४॥ हे गौतमौग्निभूते ! का, संदेहस्तव कर्मणः । कथं वा वेदतत्वार्थ, विभावयसि न स्फुटम् ॥५॥स चायं-पुरुष एवेदं निं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं' इत्यादि, २५ तत्र 'ग्निं' इति वाक्यालङ्कारे यद भूतं अतीतकाले यच्च भाव्यं भाविकाले तत् सर्व इदं पुरुष एव-आत्मैव, ॥११५।। एवकारः कर्मेश्वरादिनिषेधार्थः, अनेन वचनेन यन्नरामरतिर्यकपर्वतपृथ्व्यादिकं वस्तु दृश्यते तत्सचे आत्मैव, ततः कर्मनिषेधः स्फुट एव, किंच-अमूर्तस्य आत्मनो मूर्तेन कर्मणा अनुग्रह उपघातश्च कथं भवति ?, यथा २८ दीप अनुक्रम [१२६] 909a909aeaapasas For F lutelu ~255 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| आकाशस्य चन्दनादिना मण्डनं खङ्गादिना खण्डनं च न सम्भवति, तस्मात् कर्म नास्ति इति तव चेतसि तृतीय वर्तते, परं हे अग्निभूते ! नायमर्थः समर्थः, यत इमानि पदानि पुरुषस्तुतिपराणि, यथा त्रिविधानि वेदपदानि गणधर: कानिचिद्विधिप्रतिपादकानि यथा 'खर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुयादि'त्यादीनि, कानिचित् अनुवादपराणि यथा द्वादश मासाः संवत्सर' इत्यादीनि, कानिचित् स्तुतिपराणि यथा'इदं पुरुष एवे'त्यादीनि, ततोऽनेन पुरुषस्य महिमा प्रतीयते, न तु कर्माद्यभावः, यथा-जले विष्णुः स्थले विष्णुः, विष्णुः पर्वतमस्तके । सर्वभूतमयोग विष्णुस्तस्माद्विष्णुमयं जगत् ॥१॥ अनेन वाक्येन विष्णोमहिमा प्रतीयते, न तु अन्यवस्तूनां अभावः, किञ्च-अमृसंस्थात्मनो मूर्सेन कर्मणा कयं अनुग्रहोपघातो, तदपि अयुक्तं, यत् अमूर्तस्यापि ज्ञानस्य मद्यादिना उपघातो, ब्राण्याद्यौषधेन च अनुग्रहो दृष्ट एव, किच-कर्म विना एका सुखी अन्यो दुःखी, एकः प्रभुरन्यः किङ्कर इत्यादि प्रत्यक्षं जगद्वैचित्र्यं कथं नाम सम्भवतीति श्रुत्वा गतसंशयः प्रवजितः । इति द्वितीयो। गणधरः २॥ | अथ वायुभूतिरपि तौ प्रबजितौ श्रुत्वा यस्य इन्द्रभूत्यग्निभूती शिष्यौ जातौ स ममापि पूज्य एव, तगच्छाम्यहमपि संशयं पृच्छामि इति सोऽप्योगतः, एवं सर्वेऽप्यागताः, भगवताऽपि सर्वेऽपि प्रतियोधिताः, तत्कमिश्चीयं-सजीवतच्छरीरे सन्दिग्धं वायुभूतिनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं, वेदार्थ किं न भावयसि ॥१॥ यता विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य' इत्यादिवेदपदैः भूतेभ्यो जीवः पृथग् नास्ति इति प्रतीयते, तथा 'सत्येन दीप अनुक्रम [१२६] ~256 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प सपोशलभ्यस्तपसा धेष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो, यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतास्मान इत्यादि चतु व्या०६॥ अस्यार्थ:-एष ज्योतिर्मयः शुद्ध आत्मा सत्येन तपसा ब्रह्मचर्येण लभ्य:-ज्ञेय इत्यर्थः, एभिस्तु वेदपदैर्भूतेभ्या पृथक आत्मा प्रतीयते, ततस्तव सन्देहः यदुत यच्छरीरं स एवात्मा अन्यो वेति, परं अयुक्तं एतत् , यस्मात् ॥११६।। विज्ञानघने'त्यादिभिरपि पदैः अस्मदक्तार्थप्रकारेण आत्मसत्ता प्रकटैय, इति तृतीयः गणधरः३॥ | पञ्चसु भूतेषु तथा,सन्दिग्धं व्यक्तसंज्ञक विबुधम् । ऊचे विभूयथास्यं वेदार्थं किं न भावयसि ? ॥१॥ ISI येन वनोपमं वै सकलं इत्येष ब्रह्मविधिरजसा विज्ञेय'इति, अस्पार्थ:-वै-निश्चितं सकलं-एतत पृथिव्या-1 | दिकं स्वमोपमं असत्, अनेन वेदवचसा तावद्भूतानां अभावः प्रतीयते, 'पृथ्वी देवता आपो देवता' इत्यादिभिस्तु भूतसत्ता प्रतीयते इति सन्देहः, परं अविचारितं एतत् , यस्मात् 'खमोपमं वै सकलं' इत्यादीनि पदानि अध्यात्मचिन्तायां कनककामिन्यादिसंयोगस्य अनित्यत्वसूचकानि, न तु भूतनिषेधपराणीति चतुर्थः गणधरः ४॥ | यो यादृशः स तादृश, इति सन्दिग्धं सुधर्मनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं वेदार्थ किं न भावयसि ?॥१ २५ यता-पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते, पशवः पशुत्वं ' इत्यादीनि भवान्तरसादृश्यप्रतिपादकानि, तथा 'शृगालो वै||| ॥११६॥ एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इत्यादीनि भवान्तरवसदृश्यप्रतिपादकानि वेदपदानि दृश्यन्ते, इति तव। सन्देहः, परं नायं सुन्दरो विचारो, यस्मात् 'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते' इत्यादीनि यानि पदानि तानि मनुष्योऽपि २८ दीप अनुक्रम [१२६] ~257 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत षष्ठसप्तमी गणधरौ सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कश्चिन्मार्दवादिगुणोपेतो मनुष्यायुःकर्म बध्ध्वा पुनरपि मनुष्यो भवति इत्यर्थनिरूपकाणि न तु मनुष्यो मनुष्य एव भवतीति निश्चायकानि, तथा कथं मनुष्यः पशुर्भवति?, न हि शालीबीजाद्गोधूमाङ्कुरः सम्भवतीति या तव चित्ते युक्तिः प्रतिभाति साऽपि न समीचीना, यतो गोमयादिभ्यो वृश्चिकाद्युत्पत्तेर्दर्शनात कार्यवैसदृश्यं अपि सम्भवत्येवेति पञ्चमः गणधरः५ | अथ बन्धमोक्षविषये,सन्दिग्धं मण्डिताभिधं विवुधम् । ऊचे विभुर्यथास्थं ,वेदार्थ किं न भावयसि ?॥१॥ यत:स एष विगुणो विभुने बयते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा त्वं तावत् एतेषां पदानां अर्थ एवं| करोषि-यत् स एषः-अधिकृतो जीवः, कथम्भूतो?-विगुणः-सत्त्वादिगुणरहितो, विभुः-सर्वव्यापको,न बढ्यते-पुण्यपापाभ्यां न युज्यते, नकारस्य सर्वत्र योजनात् न संसरति-न संसारे परिभ्रमति, न मुच्यते कर्मणा बन्धाभावात्, नाप्यन्यं मोचयति अकर्तृकत्वात् , परं नायं अर्थः समर्थः, किन्तु स एष आत्मा, किंविशिष्टो?चिगुणो-विगतच्छानस्थिकगुणः, पुनः कीदृशो-विभु:-केवलज्ञानवान् केवलज्ञानखरूपेण विश्वव्यापकत्वात्, एवंविध आत्मा पुण्यपापाभ्यां न युज्यते इति सुस्थं, इति षष्ठः गणधरः ६॥ | अथ देवविषयसन्देहसंयुतं मौर्यपुत्रनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं , वेदार्थ किं न भावयसि ॥१॥ यतः को जानाति मायोपमान गीर्वाणान् इन्द्रयमवरुणकुवेरादीन् ' इति पदैर्देवनिषेधः प्रतीयते, ' स एष यज्ञा-1 युधी यजमानोऽक्षसा सर्लोकं गच्छति' इति पदैस्तु देवसत्ता प्रतीयते इति तव सन्देहः, परं अविचारितं एतत् , दीप अनुक्रम [१२६] Fur & Fonte ~258 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१२६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ६ ॥११७॥ ---------- यत एते त्वया मया च प्रत्यक्षं एव दृश्यन्ते देवाः, यत्तु वेदे ' मायोपमान् ' इत्युक्तं तद्देवानां अपि अनित्यत्वसूचकं इति सप्तमः गणधरः ७ ॥ अथ नारकसन्देहात्, सन्दिग्धर्मकम्पितं विबुधमुख्यम् । ऊचे विभुर्यथास्थं, वेदार्थं किं न भावयसि १ ॥ १ ॥ यस्मात् ' न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति ' इत्यादिपदैर्नारिकाभावः प्रतीयते, 'नारको वै एष जायते यः शूत्रान्नमश्नाति ' इत्यादिपदैस्तु नारकसत्ता प्रतीयते इति तब सन्देहः, परं 'नह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति' इति कोऽर्थः ?-प्रेत्य-परलोके केचिन्नारका मेर्वादिवत् शाश्वता न सन्ति, किन्तु यः कश्चित् पापमाचरति स नारको भवति, अथवा नारका मृत्वाऽनन्तरं नारकतया नोत्पद्यन्ते इति प्रेत्य नारका न सन्तीत्युच्यते, इति अष्टमो गणधरः ८ अथ पुण्ये संदिग्धं द्विजमचलभ्रातरं विबुधमुख्यम् । ऊचे विभुर्यथास्वं वेदार्थ किं न भावयसि ? ॥ १ ॥ तब सन्देहकारणं तावत् अग्निभूत्युक्तं ' पुरुष एवेदं निं सर्व' इत्यादि पदं, तत्र उत्तरं अपि तथैव ज्ञेयं, तथा 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा' इत्यादिवेदपदैः पुण्यपापयोः सिद्धिश्व इति नवमः गणधरः ९ ॥ अथ परभवसन्दिग्धं, मेतार्य नाम पण्डितप्रवरम् । ऊचे विभुर्पथार्थं, वेदार्थं किं न भावयसि १ ॥ १ ॥ यत्तव इन्द्रभूत्युक्तैः 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादिपदैः परलोकसन्देहो भवति, परं तेषां पदानां अर्थं अस्मदुक्तप्रकारेण विभावय यथा सन्देहो निवर्त्तते इति दशमः गणधरः १० ॥ 259 अष्टमनवम दशमा गणधराः २० २५ ॥११७॥ २८ Vanelibrary.org Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१२६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- निर्वाणविषय सन्देहसंयुतं च प्रभासनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं, वेदार्थं किं न भावयसि ? ॥ १ ॥ यतः'जरामर्यं वा यदग्निहोत्रं' अनेन पदेन निर्वाणाभावः प्रतीयते, कथं?, यत् अग्निहोत्रं तत् जराम, कोऽर्थः ? - सर्वदा कर्त्तव्यं, अत्र अग्निहोत्रस्य सर्वदा कर्त्तव्यता उक्ता, अग्निहोत्रक्रिया च निर्वाणकारणं न भवति, शबलत्वात् केषाञ्चिदूधकारणं केषाञ्चिदुपकारकारणं इति, ततो मोक्षसाधर्कानुष्ठानक्रियाकालस्य अनुक्तत्वा|न्मोक्षो नास्ति इति मोक्षाभावः प्रतीयते, तथा 'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, परम्परं च तत्र परं सत्यज्ञानं, अनन्तरं ब्रह्मेति' इत्यादिपदैमोक्षसत्ता प्रतीयते इति तव सन्देहः, परं अविचारितं एतत् यस्मात् 'जराम वा यदग्निहोत्रं ' इत्यत्र वाशब्दोऽप्यर्थे स च भिन्नक्रमः, तथा च जराम यावत् अग्निहोत्रं अपि कुर्यात्, कोऽर्थः ?कश्चित्स्वर्गाद्यर्थी यावज्जीवं अग्निहोत्रं कुर्यात्, कश्चिन्निर्वाणार्थी अग्निहोत्रं विहाय निर्वाण साधकानुष्ठान मॅपि कुर्यात्, न तु नियमतोऽग्निहोत्र मेवेत्यपिशब्दार्थः, ततो निर्वाणसाधकानुष्ठानकालोऽप्युक्त एव, तस्मादस्ति निर्वाणं, इत्येकादशः गणधरः ११ ॥ एवं चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः प्रव्रजिताः, तत्र मुख्यानां एकादशानां त्रिपदीग्रहणपूर्वकं एकादशाङ्ग: चतुर्दशपूर्वरचना गणधरपदप्रतिष्ठा च तत्र द्वादशाङ्गीरचनानन्तरं भगवांस्तेषां तदनुज्ञां करोति, शक्रश्च | दिव्यं वज्रमयस्थालं दिव्यचूर्णानां भृत्वा त्रिभुवनखामिनः सन्निहितो भवति, ततः खामी रत्नमयसिंहासनादुस्थाय सम्पूर्णा चूर्णमुष्टिं गृह्णाति, ततो गौतमप्रमुखा एकादशापि गणधरा ईषदेवनता अनुक्रमेण तिष्ठन्ति, 260~ एकादशो गणघर: ५ १० १४ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: ROFER प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-देवास्तूर्यध्वनिगीतादिनिरोधं विधाय तूष्णीकाः शृण्वन्ति, ततो भगवान् पूर्व तावत् भणति-गौतमस्य द्रव्य-तीर्थानमा व्या०६ गुणपर्यायैस्तीर्थ अनुजानामि' इति, चूर्णाश्च तन्मस्तके क्षिपति, ततो देवा अपि चूर्णपुष्पगन्धवृष्टिं तदुपरि श्रीवीरचतुकुर्वन्ति, गणं च भगवान् सुधर्मवामिनं धुरि व्यवस्थाप्यानुजानाति, इति गणधरवादः।(१२१) सकानि ॥११॥ I (तेणं कालेणं)तस्मिन् काले (तेणं समएणं)तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् | सू. १२२ महावीरः (अहिअग्गामं निस्साए) अस्थिकग्रामस्य निश्रया (पढमं अंतरावासं) प्रथमं वर्षारानं चतुर्मासी-1 तियावत् (वासावासं उवागए) वर्षासु वसनं उपागतः (चंपंच पिट्टचंपं च निस्साए )ततः चंपायाः पृष्ठचम्पायाच निश्रया (तओ अंतरावासे) त्रीणि चतुर्मासकानि (वासावासं उवागए) वर्षावासाथै उपागतः (बेसालि नगरिं वाणिअगामं च निस्साए ) वैशाल्याः नगर्याः वाणिज्य ग्रामस्य च निश्रया (दुवालस अंतरावासे) द्वादश चतुर्मासकानि (वासावासं उवागए) वर्षावासार्थ उपागतः (रायगिहं नगरं नालंदं च बाहिरिअं नीसाए) राजगृहस्य नगरस्य नालन्दायाश्च पाहिरिकायाः निश्रया (चउद्दस अंतरावासे) चतुर्दश चतुर्मासकानि (वासावासं उवागए) वर्षावासार्थ उपागतः, तत्र नालन्दा राजगृहनगरादुत्तरस्यां दिशि बाहिरिका-शाखापुरविशेषस्तत्र चतुर्दश वर्षारावान् उपागतः (छ मिहिलाए) पटू मिथिलायर्या नगयों (दो ॥११॥ भद्दिआए ) द्वे भद्रिकायां (एगं आलंभिआए ) एक आलम्भिकायां (एगं सावस्थीए) एकं श्रावस्त्यां (एगं]NI पणिअभूमीए) एकं प्रणीतभूमी, वज्रभूम्याख्यानार्यदेशे इत्यर्थः (एगं पावाए मज्झिमाए) एकं पापायां मध्य-1| २८ दीप अनुक्रम [१२६] For Fun ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२२] | गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत मासक सूत्रांक [१२२] गाथा ||२..|| |मायां (हस्थिपालस्स रणो) हस्तिपालस्य राज्ञः ( रज्जुगसभाए) रज्जुका-लेखकाः 'कारकुन' इति लोकेश अन्त्यं चतुप्रसिद्धास्तेषां शाला-सभा जीर्णा-अपरिभुज्यमाना तत्र भगवान (अपच्छिमं अंतरावासं) अपश्चिमम्-अन्त्यं । चतुर्मासकं (वासावासं उवागए) वर्षावासार्थ उपागतः, पूर्व किल तस्या नगर्या 'अपापा' इति नामासीत् । |सिद्धिःबू. देवैस्तु 'पापा' इत्युक्तं, तत्र भगवान् कालगत इति ॥(१२२)॥ . |१२३-४ (तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए) तत्र यस्मिन् वर्षे पापायां मध्यमायां (हत्थिपालस्स रपणो) हस्तिपाआलस्य राज्ञः ( रज्जुगसभाए) लेखकशालायां (अपच्छिमं अंतरावास ) अन्त्यं चतुर्मासकं (वासावासं उवा-18 गए) वर्षावासार्थ उपागतः ॥(१२३)। II (तस्स णं अंतरावास्स) तस्य चतुर्मासकस्य मध्ये (जे से वासाणं) योऽसौ वर्षाकालस्य (चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे) चतुर्थः मास: सप्तमः पक्षः (कत्तिअबहुले) कार्तिकस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं कत्तिअवहुलस्स) तस्य कार्तिककृष्णपक्षस्य (पण्णरसीपकखेणं) पञ्चदशे दिवसे (जा सा चरमा रयणी) या साचरमा रजनी (तं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे) तस्यां रजन्यां च श्रमणो भगवान महावीरः (कालगए) कालगतः, कायस्थितिभवस्थितिकालागतः(विइकते) संसाराद्वय तिक्रान्तः (समुजाए) समुद्यात:सम्यग्-अपुनरावृत्त्या ऊध्र्व यातः (छिन्नजाइजरामरणबंधणे) छिन्नानि जातिजरामरणवन्धनानि-जन्मजरामरणकारणानि कर्माणि येन स तथा (सिद्धे) सिद्धा-साधितार्थः (बुद्धे) बुद्ध:-तत्त्वार्थज्ञानवान (मुसे)। दीप अनुक्रम [१२७] Fur F ate ... अथ भगवंत महावीरस्य निर्वाण-कल्याणक-वर्णनं आरभ्यते ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२४] / गाथा २...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२४] गाथा ||२..|| कल्प.सयो-मुक्तो भवोपनाहिकर्मभ्यः (अंतगडे ) अन्तकृत् सर्वदुःखानां (परिनिव्वुड़े) परिनिर्वृतः सर्वसन्तापाभावात् , बल व्या०६ तथा च कीदृशो जात:-(सचदुक्खप्पहीणे)सर्वाणि दुःखानि शारीरमानसानि तानि पहीणानि यस्य सशसदिनरात्रि तथा, अथ भगवतो निर्वाणवर्षादीनां सैद्धान्तिकनामान्याह-(चंदे नामे से दोचे संवच्छरे) अथ यत्र भग- ॥११९॥ नामानि 181वानिवृतः स चन्द्रनामा द्वितीयः संवत्सरः (पीइवद्धणे मासे) प्रीतिवर्द्धन इति तस्य मासस्य कार्तिकस्य। नाम (नंदिवद्धणे पक्खे) नंदिवर्द्धन इति तस्य पक्षस्य नाम ( अग्गिवेसे नाम दिवसे) अग्निवेश्य इति तस्य दिवसस्य नाम ( उवसमेत्ति पवुचइ ) उपशम इति प्रोच्यते, उपशम इति तस्य द्वितीयं नामेत्यर्थः (देवागंदा नाम सा रयणी) देवानन्दा नानी सा अमावास्या रजनी (निरतिसि पचह) निरतिः इत्यप्युच्यते नामान्तरेण (अचे लवे) अर्चनामा लवः (मुहत्ते पाणू) मुहतनामा प्राणः (थोवे सिद्धे) सिद्धनामा स्तोकः (नागे करणे)नागनामकं करणं, इदं च शकुन्यादिस्थिरकरणचतुष्टये तृतीयं करणं, अमावास्योत्तरार्द्ध हि। || एतदेव भवतीति (सबद्दसिद्धे मुहत्ते) सर्वार्थसिद्धनामा मुहतः (साइणा मक्खत्तेणं जोगमुवागएण) खाति नामनक्षत्रेण चन्द्रयोगे उपागते सति भगवान् (कालगए जाव सबदुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदु:खप्रक्षीणः ॥ ॥ अथ संवत्सरमासदिनरात्रिमुहर्तनामानि चैवं सूर्यप्रज्ञप्ती IN॥११९॥ __ एकस्मिन् युगे पञ्च संवत्सरास्तेषां नामानि चन्द्रः १ चन्द्रः २ अभिवद्धितः ३ चन्द्रः४ अभिवर्द्धित ५वैति संवत्सरनामानि।अभिनन्दनः१ सुप्रतिष्ठः२ विजयः३प्रीतिबर्द्धनः ४ श्रेयान् ५ शिशिरः ६ शोभन: हैम-18| २८ दीप अनुक्रम [१२९] ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२४] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२४] गाथा ||२..|| वान् ८ वसन्तः९कुसुमसम्भवः१० निदाघो ११ वनविरोधी १२ इति श्रावणादिद्वादशमासनामानि॥ पूर्वाङ्गसिद्ध देवागमनम् १ मनोरम २ मनोहर ३ यशोभद्र ४ यशोधर ५ सर्वकामसमृद्ध ६ इन्द्र ७ मूभिषिक्त८ सौमनस ९धन-18 स. १२५ अय १० अथेंसिद्ध ११ अभिजित १२ रत्याशन १३ शतञ्जय १४ अग्निवेश्य इति १५ पञ्चदश दिननामानि ॥ उत्तमा १ सुनक्षत्रा २ इलापत्या ३ यशोधरा ४ सौमनसी ५ श्रीसम्भूता ६ विजया ७ वैजयन्ती ८ जयन्ती अपराजिता १० इच्छा ११ समाहारा १२ तेजा १३ अतितेजा १४ देवानन्दा १५ चेति पञ्चदश रात्रिनामानि । रुद्रः१ श्रेयान २ मित्रं ३ वायुः४ सुप्रतीतो ऽभिचन्द्रो ६ माहेन्द्रो ७ बलवान् ८ ब्रह्मा ९ बहुसत्य १० ऐशान ११ स्त्वष्टा १२ भावितास्मा १३ वैश्रवणो १४ वारुण १५ आनन्दो १६ विजयो १७ विजयसेनः १८ प्राजापत्य १९ उपशमो २० गन्धर्बो २१ ऽग्निवेश्यः २२ शतवृषभ २३ आतपवान २४ अर्थवान २५ ऋणवान् I |२६ भीमो २७ वृषभः २८ सर्वार्थसिद्धो २९ राक्षस ३० श्चेति त्रिंशन्मुहर्तनामानि (१२४)। MAI (जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः (कालगए जाच सबदुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (साणं रयणी बहहिं देवेहिं देवीहि य)सा रजनी बहुभिः देवैः देवीभिश्च (ओवयमाणेहिं) खर्गात् अवपतद्भिः(उप्पयमाणेहि य) उत्पतद्रिश्च कृत्वा (उज्जोविया आविहुत्था) उद्योतवती अभवत् ।(१२५)। | (जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान महावीरः ( कालगए जाव सब-18 दीप अनुक्रम [१२९] JaMEducatar n al For FFU Clu ~264 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२६] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२६] गाथा ||२..|| २० कल्प.सुबो-दुक्खप्पहीणे ) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (सा णं रयणी बहूहिं देवेहिं देवीहि य) सा रात्रिः बहु-दिवकोलाहव्या०६भिः देवैः देवीभिश्च (ओवयमाणेहिं ) अवपतद्भिः (उप्पयमाणेहिं) उत्पतद्भिश्च कृत्वा (उप्पिजलगमाण-15ल: गौतमभूआ) भृशं आकुला इव (कहकहगभूआ आविहुत्था) अव्यक्तवर्णकोलाहलमयी अभवत् ॥(१२६ )। केवलम्स ॥१२०॥ १२६-१२७ SIL (जं रयर्णि च णं समणे भगवं महावीरे) यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान महावीरः (कालगए जाव सब18 दुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं रयणि च णं जिट्ठस्स) तस्यां च रजन्यां ज्येष्ठस्य, किं भूतस्य ? (गोअमस्स) गोत्रेण गौतमस्य (इंदभूइस्स) इन्द्रभूतिनामकस्य ( अणगारस्स अंतेवासिस्स) अनगारस्य शिष्यस्य (नायए पिज्जबंधणे बुच्छिन्ने) ज्ञातजे-श्रीमहावीरविषये प्रेमवन्धने-लेहबन्धने व्युच्छिने-त्रुटिते सति (अणंते) अनन्तवस्तुविषये (अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पने) अनुत्तरे यावत् | केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने, तच्चैव-खनिर्वाणसमये देवशर्मणः प्रतिबोधनाय कापि ग्रामे खामिना प्रेषितः श्रीगौतमः तं प्रतिबोध्य पश्चादागच्छन् श्रीवीरनिर्वाणं श्रुत्वा वजाहत इव क्षणं तस्थौ, बभाण च 'प्रसरति ।। मिथ्यात्वतमो,गर्जन्ति कुतीधिकौशिका अय । दुर्भिक्षडमरवैरादिराक्षसाः प्रसरमेष्यन्ति ॥१॥राहुग्रस्त. |निशाकरमिव गगनं दीपहीनमिव भवनम् । भरतमिदं गतशोभं, त्वया विनाऽय प्रभो ! जज्ञे ॥२॥ कस्यां-TRI ॥१२०॥ हिपीठे प्रणतः पदार्थान् , पुनः पुनः प्रश्नपदीकरोमि। कं वा भदन्तेति वदामि ? को वा, मां गीत त्याप्तगिराऽथ वक्ता ? ॥ ३ ॥ हा! हा! हा! वीर ! किं कृतं? यदीहशेऽवसरेऽहं दूरीकृतः, किं मांडकं मण्डयित्वा दीप अनुक्रम [१३१] JanEducation a l ... अत्र गौतमस्वामिनः केवलज्ञानस्य वर्णनं क्रियते ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१३२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२७] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः क.सु. २१ ---------- बालवन्तवश्वलेऽलगिष्यं ? किं केवल भागर्ममार्गविष्यं ? किं मुक्तौ सङ्कीर्ण अभविष्यत् ? किं वा तव भारोऽभविष्यद् यदेवं मां विमुच्य गतः, एवं च 'वीर वीर' इति कुर्वतो 'वी' इति मुखे लग्नं गौतमस्य, तथा च हुं ज्ञातं - बीतरागा निःस्नेहा भवन्ति, ममैवायं अपराधो यन्मया तदा श्रुतोपयोगो न दत्तः, धिमिमं एकपाक्षिकं स्नेहूं, अलं स्नेहेन, एकोऽस्मि, नास्ति कश्चन मम, एवं सम्यक् साम्यं भावयत्तस्तस्य केवलमुत्पेदे - मुक्खमग्गपबअण्णाणं सिणेहो वज्जसिंखला। वीरे जीवंतर जाओ, गोअमोजं न केवली ॥१॥ प्रातः काले इन्द्राद्यैर्महिमा कृतः, | अत्र कवि :- अहङ्कारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये । विषादः केवलायाभूत्, चित्रं श्रीगौतमप्रभोः ॥ १ ॥ स च द्वादश वर्षाणि केवलिपर्यायं परिपाल्य दीर्घायुरितिकृत्वा सुधर्मस्वामिने गणं समर्प्य मोक्षं ययौ, सुधर्मस्वामिनोऽपि पश्चात् केवलोत्पत्तिः, सोऽप्यष्टौ वर्षाणि विहृत्यार्यजम्बूस्वामिनो मणं समर्प्य सिद्धिं गतः ॥ (१२७) ॥ (जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः ( कालगए जाव सबदुक्खष्पहीणे ) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं स्यणिं च णं) तस्यामेव रजन्यां (नबमलई नवले - च्छई कासीको सलगा ) नवमल्लकी जातीयाः - काशीदेशस्य राजानः नबलेच्छकीजातीयाः - फोशल देशस्य | राजानः ( अट्ठारसवि गणरायाणो ) ते च कार्यवशात् गणमेलापकं कुर्वन्ति इति गणराजा अष्टादश, ये चेटकमहाराजस्य सामन्ताः श्रूयन्ते, ( अमावासाए ) ते तस्यां अमावास्यायां (पाराभोअं ) पारं संसारपारं १ मोक्षमार्गप्रपन्नानां स्नेहो वशृंखला। बीरे जीवति जातो गौतमो यत्र केवली ॥ १ ॥ •••• अथ दिपालिका एवं भ्रातृ-द्वितीयायाः उत्पत्ति वर्णयते 266 श्रीगौतमकेवलम् स. १२७ १० १३ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१३३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२८] / गाथा [२] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१२१॥ ---------- आभोगयति-प्रापयति यस्तं एवंविधं ( पोसहोववासं पट्टर्विसु ) पौषधोपवासं कृतवन्तः, आहारत्यागपौषधरूपं उपवासं चक्रुरित्यर्थः, अन्यथा दीपकरणं न सम्भवति, ततश्च ( गए से भावुज्जोए दग्बुजोअं करिस्सामो) गतः स भावोद्योतः ततो द्रव्योद्योतं करिष्याम इति तैः दीपाः प्रवर्तिताः, ततः प्रभृति दीपोत्सवः संवृत्तः, कार्त्तिक शुक्लमतिपदि च श्री गौतमस्य केवलमहिमा देवैश्व के अतस्तत्रापि जनप्रमोदः, नन्दिवर्धन नरेन्द्रश्च भगवतोऽस्तं श्रुत्वा शोकार्त्तः सुदर्शनया भगिन्या सम्बोध्य सादरं खवेश्मनि द्वितीयायां भोजितस्ततो भ्रातृद्वितीया पर्व रूढिः ॥(१२८)। (जं स्यणिं च णं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रात्री श्रमणो भगवान् महावीरः ( कालगए जाव सबदुक्खण्पहीणे ) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः ( तं स्यणिं च णं ) तस्यां च रात्रौ (खुद्दाए भासरासी नाम महग्गहे) क्षुद्रात्मा- क्रूरखभाव एवंविधो भश्मराशिनामा त्रिंशत्तमो महाग्रहः, किम्भूतोऽसौ ? - ( दोवाससहस्सा ) द्विसहस्रवर्षस्थितिकः, एकस्मिन् ऋक्षे एतावन्तं कालं अवस्थानात् (समणस्स भगवक्षो महावीरस्स) अमणस्य भगवतो महावीरस्य ( जम्मनक्खत्तं संकते ) जन्मनक्षत्रं- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं सङ्क्रा न्तः, तत्राष्टाशीतिर्ग्रहाः, ते चेमे-अङ्गारको १ विकालको २ लोहिताक्षः ३ शनैश्वरः ४ आधुनिकः ५ प्राधुनिकः ६ कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानकः १० कणसन्तानकः १९ सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कर्बुरकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः १८ शङ्खः १९ शङ्खनाभः २० शङ्खवर्णाभः २१ कंसः २२ कंसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ नीलः २५ नीलावभासः २६ रूपी २७ रूपावभासः २८ भस्मः २९ भस्म ७ For Frite & Personal Use Only 267 दीपालिका आतृद्वितीया सू. १२८ १५ २० २५ ॥ १२१ ॥ २७ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२९] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१३४] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [ १२९] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- राशिः ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णः ३२ दकः ३३ दकवर्णः ३४ कार्यः ३५ वन्ध्यः ३६ इन्द्राग्निः ३७ धूमकेतुः ३८ हरिः ३९ पिङ्गलः ४० बुधः ४१ शुक्रः ४२ बृहस्पति ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७ धुरः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसन्धिकल्पः ५१ प्रकल्पः ५२ जटाल: ५३ अरुणः ५४ अभि: ५५ कालः ५६ महाकाल: ५७ वस्तिकः ५८ सौवस्तिकः ५९ वर्धमानः ६० प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयम्प्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ क्षेमङ्करः ६७ आभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६९ अरजाः ७० विरजाः ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ विततः ७४ विवस्त्रः ७५ विशालः ७६ शालः ७७ सुव्रतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० द्विजटी ८१ करः ८२ करकः ८३ राजा ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतुः ८८ इत्यष्टाशीतिर्ग्रहाः ॥ (१२९) ॥ (पचिणं से खुद्दाए भासरासी महग्गहे) यतः प्रभृति सक्षुद्रात्मा भइमराशिनामा महाग्रहः (दोवाससहस्सा ठिई) द्विवर्षसहस्रस्थितिः (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( जम्भनक्खत्तं संकते ) जन्मनक्षत्रं सङ्क्रान्तः (तप्यभि च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य ) ततः प्रभृति श्रमणानां तपस्विनां निर्ग्रन्थानां साधूनां निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां च (नो उदिए उदिए पूआसकारे पवत्तद्द ) उदितोदित:-उत्तरोत्तरं वृद्धिमान् ईदृशः पूजा-वन्दनादिका सत्कारो वस्त्रदानादिवमानः स न प्रवर्त्तते, अत एव शक्रेण स्वामी विज्ञप्तो यत् क्षणं आयुर्वर्द्धयत येन भवत्सु जीवत्सु भवजन्मनक्षत्रं सङ्क्रान्तो भस्मराशिग्रहो भवच्छासनं पीडयितुं न शक्ष्यति, ततः प्रभुणोक्तं- न खलु शक्र ! कदाचिदपि इदं भूतपूर्वं यत् 268 भस्मग्रहाक मर्ण पूजाहानिः सू. १२९-१३० ५ १० १४ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१३०] / गाथा २...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा ||२..|| प.सबो-प्रक्षीणं आयुर्जिमेन्द्ररपि वर्द्धयितुं शक्यते, ततोऽवश्यंभाविनी तीर्थयाधा भविष्यत्येव, किन्तु षडशीतिवर्षा-भस्मग्रहो युषि कल्किनि कुनृपतो त्वया निगृहीते सति, वर्षसहस्रमे पूर्णे मजन्मनक्षत्रादु भस्मग्रहे व्यतिक्रान्ते च तारः कुन्थू वत्स्थापितकल्किपुत्रधर्मदत्तराज्यादारभ्य साधुसाध्वीनां उदितोदितः पूजासत्कारो भविष्यतीति ॥(१३०) सचिः स. ॥१२२॥ सूत्रकारा अपि तदेवाहु: जया णं से खुदाए भासरासी महग्गहे) यदा च स क्षुद्रात्मा भस्मराशिमहा- १३१-१३९ ग्रहः (दोवाससहस्सटिई) द्विवर्षसहस्रस्थितिकः (जाव जम्मनक्खत्ताओ विइते भविस्सइ) यावत् भग-8 || वजन्मनक्षत्रात् व्यतिक्रान्तो भविष्यति- उत्तरिष्यतीत्यर्थः (तया णं समणाणं निग्गंधाणं निग्गंधीण य) तदा श्रमणानां निग्रन्धानां निन्धीनां च (उदिए उदिए पूआसकारे भविस्सह) उदितोदितः पूजासत्कारो भविष्यति ॥(१३१ ) (जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे) यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान महावीर MI(कालगए जाव सबदुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं स्याणि च णं कुंथुअणुद्धरी नाम समुप्पन्ना) तस्यां रात्री कुन्धु-प्राणिजातिः या उद्धन शक्यते एवंविधा समुत्पन्ना (जा ठिया अचलमाणा) या स्थिता अत एवं अचलन्ती सती (छ उमस्थाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य) छमस्थानां निर्ग्रन्थानां निम्र-II न्धीनां च (नो चक्खुफासं हवमागच्छद) नैव चक्षुःस्पर्श-दृष्टिपथं शीघ्रं आगच्छत्ति (जा अहिआ चलमाणा)||१२२॥ या च अस्थिता अत एव चलन्ती (उमस्थाणं निग्गंधाणं निग्गंधीण य) छनस्थानां निन्धानां निन्थीनां च || (चक्खुफासं हवमागच्छह ) चक्षुर्विषयं शीघ्र आगच्छति ॥ (१३२)॥(जं पासित्ता बहूर्हि निग्गंथेहि २८ 800000000000000000 दीप अनुक्रम [१३५] For F lutelu ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१३३] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा ||२..|| 20000000000000000000000 निग्गंधीहि य) या कुन्थु अणुद्धरी दृष्टा बहुभिः निर्ग्रन्थैः-साधुभिर्बहीभिः निर्घन्धीभिश्च-साध्वीभिः (भत्ताईसंयताधनपञ्चक्खायाई) भक्तानि प्रत्याख्यातानि, अनशनं कृतमित्यर्थः (से किमाहुभंते !)शिष्यः पृच्छति-किमाहुर्भदन्ताः- शन स. तत् किं कारणं यद् भक्तानि प्रत्याख्यातानि ?, गुरुराह-(अजप्पभिइ संजमे दुराराहए भविस्सइ) अद्य प्रभृति १३३ वीर संयमो दुराराध्यो भविष्यति, पृथिव्या जीवाकुलस्वात् संयमयोग्यक्षेत्राभावात् , पाखण्डिसंकराच (१३३॥ श्रमणादि| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम-18 पत् णस्य भगवतो महावीरस्य (इंदभूपामुक्खाओ) इन्द्रभूतिप्रमुखाणि (चउद्दससमणसाहस्सीओ) चतुर्दशा |श्रमणानां सहस्राणि (उकोसिआ समणसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ।। (१३४)॥18 (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्थ (अजचंदणापामुक्खाओ) आयेंचन्द-16 नाप्रमुखाणि (छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ) षट्त्रिंशत् आर्यिकाणां, सहस्राणि ( उक्कोसिया अज्जियासंपया हुस्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिकासम्पदा अभवत् ।।(१३५)। (समणस्स भगवओ महाबीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्थ (संखसयगपामुक्खाणं) शङ्खशतकप्रमुखाणां (समणोवासगाणं) श्रमणोपासकानां-18 आवकाणां (एगा सयसाहस्सीओ) एका शतसाहस्री-एक लक्षं (अउटिं च सहस्सा) एकोनषष्टिश्च सहरूयः (उकोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा श्रमणोपासकामां सम्पदा अभवत् ॥(१३६)। (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (सुलसारेवहपामुक्खाणं) सुलसारवती दीप अनुक्रम [१३८] JaMEducatio nal For F lutelu janelbraryana ... भगवंत महावीरस्य शिष्य-शिष्यादि परिवाराणां वर्णनं क्रियते ~270 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१३७] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१४२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] .......... मूलं [१३७] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१२३॥ ---------- प्रमुखाणां (समणोवासियाणं ) श्रमणोपासकानां (तिनि सयसाहसीओ) श्रीणि लक्षाणि (अट्ठारस सहस्सा ) अष्टादश सहस्राश्च (उकोसिआ समणोवासिआणं संपया हुत्था ) उत्कृष्टा एतावती श्रमणोपा सिकानां सम्पदा अभवत्, अत्र या सुलसा श्राविका सा द्वात्रिंशत्पुत्रजननी नागभार्या रेवती च प्रभोरीषधदात्री ज्ञेया ॥ ( १३७ ) | ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( तिन्नि सया चउदसपुवीणं) त्रीणि शतानि चतुर्दशपूर्विणां, कीदृशानां ? ( अजिणाणं जिणसंकासानं ) असर्वज्ञानां परं सर्वज्ञ सदृशानां (समक्खरसन्निवाईणं) सर्वे अक्षरसन्निपाता:- अक्षरसंयोगाः ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा तेषां पुनः कीदृशानां ? ( जिणो विव अवित बागरमाणाणं ) जिन इवावितथं सत्यं व्याकुर्वाणानां, केवलिश्रुतकेवलिनोः प्रज्ञापनायां तुल्यत्वात् (उकोसिआ चउदसपुवीणं संपया हुत्था ) उत्कृष्टा एतावती चतुर्द्दशपूर्विणां सम्पदा अभवत् ॥ (१३८) | (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्थ भगवतो महावीरस्य (तेरस सया ओहिनाणीणं) त्रयोदश शतानि अवधिज्ञानिनां कीदृशानां १ ( अइसेसपत्ताणं ) अतिशेषाअतिशयाः आमर्षोंषध्यादिलब्धयस्तान् प्रासानां (उकोसिया ओहिनाणिसंपया हुत्था ) उत्कृष्टा एतावती अवधिज्ञानिनां सम्पदा अभवत् ॥ (१३९) ॥ ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (सत्त सया केवलनाणीणं) सप्तै शतानि केवलज्ञानिनां (संभिन्नवर नाणदंसणघराणं) सम्भिन्नं सम्पूर्ण वरं श्रेष्ठं यत् ज्ञानं दर्शनं च तयोः धारकाणां (उक्कोसिया केवलवरनाणिणं संपया हुत्था) उत्कृष्ट एतावती केवलज्ञानि For Frate & Personal Use Only ~271~ श्रीवीरश्रमणादिपर्वत स. १३४१४५ २० २५ ॥१२३॥ २८ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४१] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१४१] गाथा ||२..|| श्रीधीरश्रमणादिपर्षत स. १३४१४५ सम्पदा अभवत्॥(१४०)।(समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (सत्त सया येउचीण) सप्त शतानि वैक्रियलब्धिमतां मुनीनां, कीदृशानां (अदेवाणं देविडिपत्ताणं) अदेवानामपि देवर्द्धिविकुर्वणास- मर्थानां इति भावः (उक्कोसिया वेउविसंपया हुस्था) उत्कृष्टा एतावती वैक्रियलब्धिमत्सम्पदा अभवत् ॥(१४१) | (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पंच सया विउलमईणं) पञ्च शतानि विपुलमतीनां, कीदृशानां ? (अट्ठाइजेसु दीवेसु दोसुअ समुद्देस) अर्धतृतीयेषु दीपेषु.द्वयोः समुद्रयोश्च विषये (सन्नीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं) सम्झिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां च (मणोगए भावे जाणमाणाणं) मनसि गतान् भावान् जानतां(उक्कोसिआ विउलमईणं संपया हत्था)उत्कृष्टा एतावती विपुलमतीनां सम्पदा अभवत्, तत्र विपुलमतयो हि घटोग्नेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रका शारदो नीलवर्ण इत्यादिसर्वविशेषोपेतं सर्वतः सार्द्धब्यङ्गुलाधिके मनुष्यक्षेत्रे स्थितानां सब्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोगतं पदार्थ जानन्ति, जुमतयस्तु सर्वतः सम्पूर्णमनुष्यक्षेत्रस्थितानां सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोगतं सामान्यतो घटादिपदार्थमात्रं जानन्तीति विशेषः॥(१४२)॥ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (चत्तारि सया वाईणं) चत्वारि शतानि वादिमुनीनां, कीदृशानां ? (सदेवमणुआसुराए परिसाए वाए) देवमनुष्यासुरसहितायां पर्षदि वादे | १ साद्वयाङ्गुलहीने इत्यौपपातिकादौ, नन्द्यादिषु त्वंत्रोक्तवत् , विपुलमतेमनुष्यक्षेत्रमित्यपि तत्र । दीप अनुक्रम [१४६] For Fun H emjaneithoraryurg ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४४] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रत सूत्रांक [१४४] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-(अपराजियाणं) अपराजितानां (उकोसिया वाइसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती वादिसम्पदा अभवत् 18 श्रीवीरस्थाव्या०६ (१४३ )॥ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (सत्त अंतेवासिसयाई सिद्धान्तकभूमिक सप्त शिष्यशतानि सिद्धिं गतानि (जाव सधदुक्खप्पहीणाई ) यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणानि (चउद्दस अलि- मू. १४६ ॥१२४॥ यासयाई सिद्धाई) चतुर्दश आर्यिकाशतानि सिद्धौ गतानि (१४४)॥ (समणस्स भगवओ महावीरस्स)| श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (अहसया अणुत्तरोववाइयाण) अष्ट शतानि अनुत्तरोपपातिकानां-अनुत्तरवि-II मानोत्पन्नमुनीनां, कीदृशानां ? (गइकल्लाणाणं) गतौ-आगामिन्यां मनुष्यगतौ . कल्याणं-मोक्षप्राप्तिलक्षणं येषां ते तथा तेषां, पुनः कीदृशानां? (ठिबकल्लाणाणं) स्थितौ-देवभवेऽपि कल्याणं येषां ते तथा तेषां, वीतरागमायत्वात् , अत एव (आगमेसिभहाणं) आगमिष्यद्भद्राणां, आगामिभबे सेत्स्थमानस्यात् ( उक्को-पा सिआ अणुसरोववाइयाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती अनुत्तरोपपातिनां सम्पदा अभवत् ॥(१४५)। __ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विविधा अन्तकृतो-मोक्षगामिनस्तेषां भूमि:-कालोऽन्तकृमिः अभवत् , तदेव द्विविधत्त्वं दर्शयति-(संजहा)तद्यथा-(जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य) युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृद्भूमिश्च, तत्र युगानि-कालमान-18 AIN विशेषास्तानि च क्रमवर्तीनि तत्साधाये क्रमवर्सिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः ॥१२४|| प्रमिता अन्तकृभूमिर्या सा युगान्तकृद्भूमिः, पर्यायः-प्रभोः केवलित्वकालस्तं आश्रित्य अन्तकृद्भूमिः पर्याया दीप अनुक्रम [१४९] ~2737 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४६] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: KA प्रत सूत्रांक [१४६] गाथा ||२..|| न्तकृद्भूमिः, तत्रायां निर्दिशति-(जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी) इह पञ्चमी द्वितीयार्थे ततो ||श्रीषीरगृहयावत् तृतीय पुरुष एव युगं पुरुषयुग-जम्बूखामिनं यावद् युगान्तकृद्भूमिः (चउवासपरियाए अंतमकासी)वासादिन, ज्ञानोत्पत्यपेक्षया चतुर्वर्षपर्याये च भगवति अन्तमकार्षीत-कश्चित् केवली मोक्षं अगमत् , प्रभोर्ज्ञानानन्तरं १४७ चतुषु वर्षेषु मुक्तिमार्गों वहमानो जातो.जम्बूस्वामिनं यावच्च मुक्तिमार्गों वहमानः स्थित इति भावः ॥(१४६) | (तेर्ण कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये ( समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान महावीरः (तीसं वासाई ) त्रिंशद्वर्षाणि ( अगारवासमझे वसित्ता) गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा (साइरेगाई || 18|दुवालस वासाइं) समधिकानि द्वादश वर्षाणि (छउमत्थपरियागं पाउणिता) छद्मस्थपर्यायं पालयिखा (देसूणाई तीसं वासाई) किनिनानि त्रिंशद्वर्षाणि (केवलिपरियागं पाउणिता ) केवलिपर्यायं पालयिस्खा | (वायालीसं वासाई)द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि (सामनपरियागं पाउणिसा) चारित्रपर्यायं पालयित्वा (बावतरि वासाई सघाउयं पालइत्ता) द्विसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः पालयित्वा (खीणे वेयणिजाउनामगुत्ते) क्षीणेषु।। सत्सु वेदनीय १ आयु २ाम गोत्रेषु ४ चतुर्यु भवोपग्राहिकर्मसु (इमीसे ओसप्पिणीए) अस्यां अवसपिण्या (दूसमसुसमाए समाए) दुष्षमसुषमा इति नामके चतुर्थे अरके (बहुविकताए)बहु व्यतिकान्ते || सति (तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसहि) त्रिषु वर्षेषु सार्दाष्टसु च मासेषु शेषेषु सत्सु (पावाए मजिसमाए) पापायां मध्यमायां (हत्थिवालस्स रनो) हस्तिपालस्य राज्ञः ( रज्जुगसभाए) लेखकसभायां दीप अनुक्रम [१५१] JanEducational ~274 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४७] / गाथा २...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४७] गाथा ||२..|| कल्प.सुवो-18(एगे अबीए) एक सहायबिरहात् अद्वितीया-एकाकी एव, नतु ऋषभादिवशसहस्रादिपरिवार इति, अत्र श्रीवीरगृहव्या०६ कविः-पन्न कश्चन मुनिस्त्वया समं, मुक्तिनापदितरैर्जिनैरिव । दुष्षमासमयभाविलिङ्गिना, व्यानि तेन गुरु-वासादिसू. निर्व्यपेक्षता ॥१॥ (छ?णं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन (साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवा-।। १४७ गएणं) खातिनक्षत्रेण सह चन्द्रयोग उपागते सति (पच्चूसकालसमयंसि) प्रत्यूषकाले समये-चतुर्घटिकावशेषायां रात्रौ (संपलिअंकनिसन्ने) संपल्यङ्कासनेन निषण्णः-पद्मासननिविष्टः (पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई) पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि कल्याणं-पुण्यं तस्य फलविपाको पेषु.तानि कल्याणफलविपा-18 कानि (पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई) पश्चपञ्चाशत् अध्ययनानि पापफलविपाकानि (छत्तीस अपुट्टवागरणाई) षत्रिंशत् अपृष्टव्याकरणानि-अपृष्टान्युत्तराणि (वागरिता) व्याकृत्य-कथयित्वा (पहाणं नाम अज्झयणं) प्रधानं नाम एक मरुदेव्यध्ययनं (विभावेमाणे) विभावयन् (कालगए) भगवान् कालगतः (बिडकते) संसाराव्यतिक्रान्तः (समुज्जाए) सम्यग् ऊर्ध्वं यातः (छिन्नजाइजरामरणबंधणे) छिन्नानि जातिजरामरणवन्धनानि यस्य स तथा (सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे) सिद्धः बुद्धः मुक्तः कमेणाम २५ |न्तकृत् सवेसन्तापरहितः (सबदुक्खप्पहीणे) सर्वदुःखानि प्रक्षीणानि यस्य स तथा ।।(१४७)।। अथ भगवतो ॥१२५॥ | निर्वाणकालस्य पुस्तकलिखनादिकालस्य च अन्तरमाह (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जाव सबदुक्खपहीणस्स) यावत् । दीप अनुक्रम [१५२] ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४८] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४८] गाथा ||२..|| सर्वदुःखप्रक्षीणस्य (नव वाससयाई विइक्वंताई) नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) वीरमोक्षदशमस्य च वर्षशतस्य ( अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति, वाचनान्तर यद्यपि एतस्य सूत्रस्य व्यक्त्या भावार्थो न ज्ञायते तथापि यथा पूर्वटीकाकारैर्व्याख्यातं तथा व्याख्यायते,8॥ तथाहि-अन्न केचिद्वदन्ति-यल्कल्पसूत्रस्य पुस्तकलिखनकालज्ञापनाय इदं सूत्रं श्रीदेवर्धिगणिक्षमाक्षमणैलि-18 सा खितं, तथा ायमर्थो-यथा श्रीवीरनिर्वाणादशीयधिकनववर्षशतांतिक्रमे पुस्तकारूदः सिद्धान्तो जातस्तदा| कल्पोऽपि पुस्तकारूनो जात इति, तथोक्तं-बल्लाहिपुरंमि नयरे,देवडिपमुहसयलसङ्केहिं । पुत्थे आगमलिहिओ नवसयअसीआओं वीराओ ॥१॥ अन्ये वन्दति-नवशतअशीतिवर्षे, वीरात सेनोगजार्थमानन्दे । सङ्घसमक्ष समहं, प्रारब्धं वाचितुं विज्ञैः॥१॥ इत्याधन्तर्वाच्यवचनात् श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनववर्षशतातिक्रमे 8 कल्पस्य सभासमक्षं वाचना जाता तां ज्ञापयितुं इदं सूत्रं न्यस्तमिति, तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति || (वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसइ) वाचनान्तरे पुनरयं त्रिनवतितमः संवकत्सरः कालो गच्छतीति दृश्यते, अब केचिद्वदन्ति-वाचनान्तरे कोऽर्थः-प्रत्यन्तरे 'तेणउए' इति दृश्यते, यत् |कल्पस्य पुस्तके लिखनं पदि वाचन वा अशीत्यधिकनववर्षशतातिक्रमे इति कचित् पुस्तके लिखितं तत्पु-18 १ वल्लभीपुरे नगरे देवप्रिमुखसकलसः । पुस्तके आगमो लिखितो नवशताशीतौ वीरात् ॥ २ भुवसेनस्य नामान्तरमिदं || | सेनाङ्गजनामा पुत्र इति तु निरक्षरषचः । दीप अनुक्रम [१५३] ~276 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४८] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: या प्रत सूत्रांक [१४८] गाथा ||२..|| ॥१६॥ गच्छति, वाण बोनस्तकान्तरे त्रिनयतिवर्षाधिकनवशतवर्षातिक्रमे दृश्यते इति भावः, अन्ये पुनर्वदन्ति-अयं अशीतितमे संवत्सरे । वीरमोक्ष इति कोऽर्थः ?-पुस्तके कल्पलिखनस्य हेतुभूतः अयं श्रीवीरात् दशमशतस्य अशीतितमसंवत्सरलक्षणः कालो वाचनान्तरं INR गच्छति, 'चायणंतरे' इति कोऽर्थः-एकस्याः पुस्तकलिखनरूपाया वाचनाया अन्यत् पर्षदि वाचनरूपं यदा- १४८ चनान्तरं तस्य पुनर्हेतुभूतो दशमशतस्य अयं त्रिनवतितमः संवत्सरः, तथा चायमर्थ:-नवशताशीतितमवर्षे कल्पस्य पुस्तके लिखनं, नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्वाचनेति, तथोक्तं श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिः स्वकृतस्तोत्ररत्रकोशे-पीराभिनन्दार (९९३) शरबचीकरत् , खचैत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः। यस्मिन् मह संसदि कल्पवाचनामाद्यां तदानन्दपुरं न कः स्तुते ॥ १॥ पुस्तकलिखनकालस्तु यथोक्तः प्रतीत एव'चल्लहीपुरंमि नयरे' इत्यादिवचनात् , तवं पुनः केवलिनो विदन्तीति ॥१४८॥ IdeasantARAananamaraanaRaTattaseamaramana इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां षष्ठः क्षणः समाप्तः। ॥१२६॥ ग्रन्थानम् १००७। पण्णामपि व्याख्यानानां अन्धानम् ॥ ४२३२ ॥ श्रीरस्तु SERRASVERSEASERASRASRASTERCERSUSERSERGERSERSTREERS दीप अनुक्रम [१५३] eseseeeeeeeeee PersERSEPPER UPNE Fur Frately षष्ठं व्याख्यानं समाप्तं ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१४९] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४९] गाथा ||२..|| ॥ अथ सप्तमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ श्रीपार्श्वकल्याणकानि स.१४९ अथ जघन्यमध्यमोत्कृष्टवाचनाभिः श्रीपार्श्वचरित्रमाह- तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं)| तस्मिन् समये (पासे अरहा परिसादाणीए) पार्श्वनामा अईन् पुरुषवासी आदानीयश्च आदेयवाक्यतया आदेयनामतया च पुरुषादानीयः पुरुषप्रधान इत्यर्थः (पंचविसाहे होत्था) पञ्चसु विशाखा यस्य स पञ्चविISशाखः अभवत् (तंजहा) तद्यथा (विसाहाहिं चुए, चइत्ता गन्भं वक्रते) विशाखायां च्युतः च्युस्खा गर्भ उत्पन्नः १(विसाहाहिं जाए) विशाखाय जातः २(विसाहाहिं मुंडे भवित्ता) विशाखायां मुण्डो भूत्वा | (अगाराओ अणगारियं पवइए) अगारान्निष्क्रम्य साधुता प्रतिपन्नः ३ (विसाहाहिं अणंते अणुत्तरे निवा-16 घाए) विशाखायां अनन्ते अनुपमे निर्व्याघाते (निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने) समस्तावरणरहिते समस्ते प्रतिपूर्णे (केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने) एवंविधे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने ४ (विसाहार्हि परिनिव्वुडे ) विशाखायां निर्वाणं प्राप्तः५॥ (१४९॥ | (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्चः अर्हन पुरुषादानीयः (जे से गिम्हाणं पढमे मासे) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः (पढमे पक्खे) प्रथम, दीप अनुक्रम [१५४] क.मु.२२ सप्तम व्याख्यानं आरभ्यते .. अथ श्री पार्श्वनाथ-चरित्रं संक्षेपेण कथयते ~278 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५० ] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१५५] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] ........मूलं [ १५०] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुनो व्या० ७ ॥१२७॥ ---------- पक्ष: ( चित्तबहुले ) चैत्रस्य बहुलपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपकखेणं ) तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीदिवसे ( पाणयाओ कप्पाओ ) प्राणतनामकात् दशमकल्पात् कीदृशात् ? (वीसंसागरोचमठिइयाओ ) विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिः - आयुः प्रमाणं यत्र ईदृशात् ( अनंतरं चयं वइत्ता) अनन्तरं दिव्यशरीरं त्यक्त्वा ( इहेव जंबुद्दीवे दीवे) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे ( भारहे वासे ) भरतक्षेत्रे ( वाणारसीए नयरीए) बाणारस्यां नगर्यो (आससेणस्स रनो) अश्वसेनस्य राज्ञः (वामाए देवीए) वामायाः देव्याः (पुधरत्तावरतकालसमयंसि ) पूर्वापररात्रिसमये मध्यरात्री इत्यर्थः ( विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (आहारवकंतीए) दिव्याहारत्यागेन ( भववकंतीए ) दिव्यभवत्यागेन ( सरीरवकंतीए) दिव्यशरीरत्यागेन (कुच्छिसि गन्भत्ताए वकंते) कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तउत्पन्नः ॥ (१५०) ॥ (पाणं रहा पुरिसादाणीए ) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (तिन्नाणोवगए आविस्था ) त्रिज्ञानोपगतः आसीत् (तंजहा) तथथा (चहस्सामित्ति जाणइ ) व्योष्ये इति जानाति ( तेणं चेवं अभिलावेणं) तेनैव पूर्वोक्तपाठेन (सुविणदंसणविहाणेणं) खमदर्शनस्वनफलप्रश्नप्रमुखविधानेन (सर्व्वं जाव निअगं गिहं अणुपविट्ठा) सर्व वाच्यं यावत् निजं गृहं वामादेवी प्राविशत् (जाव सुहंसुहेणं तं गन्धं परिवहइ ) यावत् सुखंसुखेन तं गर्भं परिपालयति ॥ (१५१) ॥ ~279~ श्रीपार्श्वच्यवनं सू. १५० गर्भपोषणम् स. १५१ १५ २० ॥१२७॥ २४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५२] | गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा ||२..|| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन् श्रीपार्श्वस्य ६ पुरुषादानीयः (जे से हेमंताणं ) योऽसौ शीतकालस्य (दुच्चे मासे तचे पक्खे) द्वितीयो मासः तृतीयः पक्षः जन्मतदुत्स(पोसबहुले) पौषबहुलः (तस्स गं पोसबहुलस्स दसमीपक्वेणं) तस्य पौषबहुलस्य दशमीदिवसे Baरणं च म. नामक (नवण्हं मासाणं) नवसु मासेषु (बहुपडिपुन्नाणं) बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु (अट्ठमाणं राइदिआणं) अर्धाष्टसुला १५२-४ च अहोरात्रेषु (विकताणं) व्यतिक्रान्तेषु सत्सु (पुषरतावरत्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रिसमये मध्यरात्री। इत्यर्थः (विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएण) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगे उपागते सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं ||8| दारयं पयाया) आरोग्या वामा आरोग्यं दारकं प्रजाता।। (१५२)॥ (जं रयाणि च णं) यस्यां रजन्यां (पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः जातः। (साणं रयणी बहुहिं देवेहि य देवीहि य) सा रजनी बहुभिः देवैः देवीभिश्च कृत्वा (जाव उपिजलमा-15) णभूआ) यावत् भृशं आकुला इव (कहकहगभूआ आविहुत्था) अव्यक्तवर्णकोलाहलमयी अभवत् ॥(१५३) (सेसं तहेव, नवरं पासाभिलावेणं भाणिअ) शेष-जन्मोत्सवादि तथैव-पूर्ववत्, परं पार्थाभिलापेन ! भणितव्यं (जावतं होउ णं कुमारे पासे नामेणं) यावत् तस्मात् भवतु कुमारः पार्श्व: नाना, तत्र प्रभा गर्भस्थे सति शयनीयस्था माता पार्थे सर्पन्तं कृष्णसर्प ददर्श, ततः पार्थेति नाम कृतं, क्रमेण यौवनं प्राप्तः, तिचैवं-धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभिोल्यमानो जगत्पतिः । नवहस्तप्रमाणाङ्गः, क्रमादाप च यौवनम् ॥१॥ ततः दीप अनुक्रम [१५७] For F lutelu ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५४] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा ||२..|| कल्प.सबो-18 कुशस्थलेशप्रसेनजिन्नृपपुत्री प्रभावतीनाम्नी कनी आगृह्य पित्रा परिणायितः, अन्येधुर्गवाक्षस्थः स्वामी जी व्या०७एकस्यां दिशि गच्छतः पुष्पादिपूजोपकरणसहितान्नागरान्नागरींश्च निरीक्ष्य एते क गच्छन्तीति कश्चित्पप्रच्छ,कान्तिका स आह-प्रभो! कुत्रचित्सन्निवेशे वास्तव्यो दरिद्रो मृतमातापितृको ब्राह्मणपुत्रः कृपया लोकैजीवितः कमठ- गमः मू. ॥१२८॥ नामाऽऽसीत्, स च एकदा रनाभरणभूषितान् नागरान् वीक्ष्य अहो एतत्पागजन्मतपसः फलमिति विचिन्त्य || पश्चाग्न्यादिमहाकष्ठानुष्ठायी तपखी जातः, सोज्यं पुर्या बहिरागतोऽस्ति,तं पूजितुं लोका गच्छन्तीति निशम्प प्रभुरपि सपरिवारस्तं द्रष्टुं ययौ, तत्र काष्ठान्तर्दयमानं महासर्प ज्ञानेन विज्ञाय करुणासमुद्रो भगवानाह'अहो मूढ! तपखिन् ! किं दयां बिना वृथा कष्टं करोषि, यता-कृपानदीमहातीरे, सर्वे धर्मास्तृणाकरा तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नन्दन्ति ते चिरम् ? ॥१॥” इत्याकये क्रुद्धः कमठोऽवोचत्-राजपुत्रा हि गजाश्वादिक्रीडां कर्तुं जानन्ति, धर्म तु वयं तपोधना एव जानीमः, ततः स्वामिनाऽग्निकुण्डात् ज्वलत्काष्ठं आकृष्य || कुठारेण विधा कारयित्वा च तापव्याकुलः सो निष्कासितः, स च भगवनियुक्तपुरुषमुखान्नमस्कारान प्रत्याख्यानं च निशम्य तत्क्षणं विपद्य धरणेन्द्रो जाता, अहो ज्ञानीति जनैः स्तूयमानः खामी स्वगृहं ययौ,। कमठोऽपि तपस्तावा मेघकुमारेषु मेघमाली जातः ।। (१५४)॥ ॥१२८॥ (पासे गं अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन पुरुषादानीयः (दक्खे दक्खप्पइन्ने) दक्षः दक्षप्रतिज्ञा (पडिरूवे अल्लीणे भइए विणीए) रूपवान् गुणैरालिङ्गितः भद्रका विनयवान् (तीसं वासाई अगारवासमझे दीप अनुक्रम [१५८] एएएटाळerseटटटटटटटट ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१५९] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......मूलं [ १५५ ] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- वसित्ता) त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थावस्थायां स्थित्वा (पुणरबि लोयंतिएहिं ) पुनरपि लोकान्तिका (जिअकप्पि| एहिं देवेर्हि) जीतकल्पिकाः देवाः (ताहिं इद्वाहिं जाव एवं वयासी) ताभिः इष्टाभिर्वाग्भिः यावत् एवं अचादिषुः ।। (१५५) । (जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जाव जयजयस पउंजंति) जय जयवान् भव, हे समृद्धिमन् ! जय जय वान् भव हे कल्पाणवन् ! यावत् जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ (१५६) । (पिणं पास अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पूर्व अपि पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य ( माणुस्सगाओ ) मनुष्ययोग्यात् (गिहत्थधम्माओ ) गृहस्थधर्मात् (अणुसरे आहोइए ) अनुपमं उपयोगात्मकं अवविज्ञानमंभूत् (तं वेव सर्व्वं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता ) तदेव सर्व पूर्वोक्तं वाच्यं यावत् धनं गोत्रिणो विभज्य दत्वा (जे से हेमंताणं) योऽसौ शीतकालस्य (दुच्चे मासे तथे पक्खे) द्वितीयो मासः तृतीयः पक्षः ( पोसबहुले) पौषस्य कृष्णपक्षः ( तस्स णं पोसबहुलस्स इकारसीदिवसेणं) तस्य पौषबहुलस्य एकादशीदिवसे (पुण्हकालसमयंसि ) पूर्वाह्नकालसमये - प्रथमप्रहरे (विसाला सिबिआए ) विशालपा नाम शिविकया (सदेवमणुआसुराए) देवमनुष्यासुर सहितया (परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे) पर्षदा समनुगम्यमानमार्गः ( तं चैव सवं नवरं ) सर्व तदेव पूर्वोक्तं वाच्यं, अयं विशेष: ( वाणारसिं नगरिं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छ) बाणारया नगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति ( निग्गच्छित्ता) निर्गत्य ( जेणेव आसमपए उखाणे ) For Frate & Personal Use Only 282 देवोक्ताशी दीक्षा च सू. १५६-७ १० १४ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५७] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत उपसगेस: हनं सू.१५८ सूत्रांक [१५७] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-| यत्रैव आश्रमपदनामकं उद्यानं (जेणेव असोगवरपायवे) यत्रैव अशोकनामा वृक्षः (तेणेव उवागच्छह) व्या०७ तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (असोगवरपायवस्स अहे) अशोकवृक्षस्य अधस्तात् (सीयं ॥२९॥ ठावेड) शिबिकां स्थापयति (ठवित्ता) संस्थाप्य (सीयाओ पचोरुहइ) शिविकातः प्रत्यवतरति (पच्चोरुहित्ता) प्रत्यवतीर्य (सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुअइ) खयमेव आभरणमालालङ्कारान् अवमुञ्चति (ओमुइत्ता) अवमुच्य (सयमेव पंचमुट्ठियं लोअं करेइ) स्वयमेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति (करित्ता) लोचं कृत्वा (अट्ठमणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (विसाहाहि नक्खत्तेणं जोगमुचागएणं) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोग उपागते सति ( एग देवदूसमादाय) एकं देवदृष्यं गृहीत्वा (तिहिं पुरिससरहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता) त्रिभिः पुरुषशतैः सार्द्ध मुण्डो भूत्वा (अगाराओ अणगारियं पञ्चइए) गृहान्निष्क्रम्य साधुता प्रतिपन्नः ।। (१५७)॥ ARI (पासे णं अरहा पुरिसादाणीए) पार्थः अर्हन् पुरुषादानीयः (तेसी राईदियाई) व्यशीति रात्रिदिव सान् यावत् (निचं बोसट्टकाए चियत्तदेहे) नित्यं व्युत्सृष्टकायः त्यक्तदेहः (जे केइ उवसग्गा उप्पजति) ये केचन उपसर्गाः उत्पद्यन्ते (तंजहा) तद्यथा (दिवा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिआ वा) देवकृताः मनुष्यकृताः तिर्यक्कृता वा (अणुलोमा वा पडिलोमा वा ते उप्पन्ने सम्म सहइ) अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा तान् उत्पन्नान् सम्यक सहते (तितिक्खइ खमइ अहियासेइ) तितिक्षते क्षमते अध्यासयति, दीप अनुक्रम [१५९] JanEducation ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५८] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत चिः. सूत्रांक [१५८] गाथा ||२..|| तत्र देवोपसर्गः कमठसम्बन्धी, स चैवं-खामी प्रव्रज्यैकदा विहरन् तापसाश्रमे कूपसमीपे न्यग्रोधाधो निशि | केवलोत्पप्रतिमया स्थितः, इतः स मेघमाली सुराधमः श्रीपार्श्वमुपद्रोतुं आगत्य क्रोधान्धः स्वविकुर्वितशार्दूलवृश्चिकादिभिरभीतं प्रभु निरीक्ष्य गगनेऽन्धकारसन्निभान् मेघान विकुळ कल्पान्तमेघवर्षितुं आरेभे, विद्युतश्च|| अतिरौद्राकारा दिशि दिशि प्रस्ताः, गर्जारवं च ब्रह्माण्डस्फोटसदृशं अकरोत्, क्षणादेव च प्रभुनासाग्रं यावजले प्राप्ते आसनकम्पेन धरणेन्द्रो महिषीभिः समं आगत्य फणैः प्रभुं आच्छादितवान् , अवधिना च विज्ञातोऽमर्षेण वर्षन् मेघमाली धरणेन्द्रेण हक्कितः प्रभु शरणीकृत्य खस्थानं ययौ, धरणेन्द्रोऽपि नाट्यादिभिः प्रभुपूजां विधाय खस्थानं ययौ, एवं देवादिकृतानुपसर्गान् सम्यक् सहते ॥ (१५८)॥ | (तए णं से पासे भगवं अणगारे जाए) ततः स पावो भगवान् अनगारो जातः (इरियासमिए जाव: | अप्पाणं भावेमाणस्स) ईर्यायां समितः यावत् आत्मानं भावयतः (तेसीई राइंदियाई विश्कताई) यशीतिः अहोरात्रा व्यतिक्रान्ताः (चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरा बढमाणस्स) चतुरशीतितमस्य । हा अहोरात्रस्य अन्तरा वर्तमानस्य (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः (चित्तबहुले) चैत्रस्य बहुलपक्षा-कृष्णपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स)तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थी दिवसे (पुषणहकालसमयंसि) पूर्वाहकालसमये-प्रथमपहरे(धायइपायवस्स अहे) धातकीनामवृक्षस्य अधः | (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (बिसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) दीप अनुक्रम [१६०] For F lutelu ~284 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५९ ] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१६१] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......मूलं [ १५९] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१३०॥ ---------- विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति ( झाणंतरिआए वहमाणस्स ) ध्यानान्तरिकायां वर्त्तमानस्य (अणते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ) अनन्ते अनुपमे यावत् केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने ( जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ) यावत् सर्वभावान् जानन् पश्यंश्च विहरति ॥ (१५९) ॥ ( पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य ( अह गणा अट्ठ गणहरा हुत्था) अष्टौ गणा अष्टौ गणधराच अभवन्, तत्र एकवाचनिका यतिसमूहा- गणाः, तन्नायकाः सूरयो गणधराः, ते श्रीपार्श्वस्य अष्टो, आवश्यके तु दश गणा दश गणधराचोक्ताः, इह स्थानाङ्गे च द्वौ अल्पायुष्कत्वादिकारणान्नोक्त इति टिप्पनके व्याख्यातं (तंजा) तयथा (सुभे य १ अजघोसे य २ बसि ३ वंभयारि य ४ । सोमे ५ सिरिहरे ६ नेव, वीरभद्दे ७ जसेवि य ८ ) ॥ १ ॥ शुभश्च १ आर्यघोषश्च २ वशिष्टः १३ ब्रह्मचारी ४ च सोमः ५ श्रीधरश्चैव ६ वीरभद्रः ७ यशस्वी ८ च ॥ (१६०) ॥ ( पारस णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अज्जदिन्नपामुक्खाओ ) आर्यदत्तप्रमुखाणि (सोलस समणसाहस्सीओ) षोडश श्रमणसहस्राणि ( १६००० ) ( उक्कोसिआ समणसंपया हुस्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ॥ (१६१) ।। ( पासरसणं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्थ अर्हतः पुरुषादानीयस्य (पुष्कचूलापामुक्खाओ) पुष्प 285~ श्रीपार्श्वस्य गणादिमा नं सू. १६०-१ २० २५ ॥१३०॥ २७ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१६२] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१६२] गाथा ||२..|| चूलाप्रमुखाणि (अट्ठत्तीसं अज्जियासाहस्सी) अष्टत्रिंशत् आर्यिकासहस्राणि (३८०००)(उफोसिआ अजि- श्रीपार्थस यासंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिकासम्पदा अभवत् ॥ (१६२)॥ परिवारम्स् ISA (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (सुबयपामुक्खाणं) सुव्रत-|१६२-५ प्रमुखाणां (समणोवासगाणं) श्रमणोपासकानां-श्रावकाणां (एगा सयसाहस्सी) एकः लक्षः (चउसहीं च सहस्सा) चतुःषष्टिश्च सहस्राः (१६४०००)(उकोसिआ समणोवासगाणं संपया हुत्था) उस्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत् ॥ (१६३)॥ | (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्स (सुनंदापामुक्खाणं) सुनन्दा-18 प्रमुखाणां (समणोवासियाणं) श्रमणोपासिकानां-श्राविकाणां (तिनि सयसाहस्सीओ) अयः लक्षाः (सत्तावीसं च सहस्सा) ससर्विशतिश्च सहस्राः (३२७०००)(उकोसिआ समणोवासियाणं संपया हुत्था) II उत्कृष्टा एतावती श्रमणोपासिकानां सम्पदा अभवत् ॥ (१६४)॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पाश्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अवहसया चउद्दसपुवीर्ण) अध्युष्टशतानि (३५०) चतुर्दशपूर्विणां (अजिणाणं जिणसंकासाणं) अकेवलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था) यावत् चतुर्दशपूर्विणां सम्पदा अभवत् ॥ (१६५)॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पावस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (चउद्दस सया ओहिना दीप अनुक्रम [१६४] ecemenerdersersersersects For F lutelu ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [७] ........ मूलं [१६६] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१६६] गाथा ||२..|| २० कल्प.सुबो- णीणं) चतुईश शतानि (१४००) अवधिज्ञानिनां.(दस सया केवलनाणीणं) दश शतानि (१०००) श्रीपार्थपव्या०७ केवलज्ञानिनां.(इकारससया बियाणं) एकादश शतानि (११००) वैक्रियलब्धिमतां (छस्सया रिउम-रिवारः सू. ॥१३॥ इणं) षट् शतानि (६००) ऋजुमतीना,(दस समणसया सिद्धा) दश भ्रमणशतानि (१०००) सिद्धानि,(बीसं। १६६-७ अज्जियासयाई सिद्धाई)विंशतिः आर्याशतानि (२०००) सिद्धानि, (अट्ठसया विउलमईणं) अर्धाष्टी शतानि (७५०) विपुलमतीना,(छसया वाईणं) षट् शतानि (६००) वादिना (पारस सपा अणुत्तरोववाइयाणं)द्वादश शतानि (१२००) अनुत्तरोपपातिना.सम्पदा अभवत् ।। (१६६)॥ 8 (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विविधा मुक्तिगामिनां मर्यादा अभूत् (तंजहा) तद्यथा-(जुगंतगडभूमी) युगान्तकृमि: (परियायंतगड-16 भूमी य) पर्यायान्तकृभूमिश्च (जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी) यावत् चतुर्थ पट्टधरपुरुष युगान्तकृभूमिः, श्रीपार्श्वनाथादारभ्य चतुर्थ पुरुषं यावत् सिद्धिमार्गों वहमानः स्थितः (तिवासपरिआए अंतमकासी) त्रिवर्षपर्याये कश्चिन्मुक्तिं गतः, पर्यायान्तकृद्भूमौ तु केवलोत्पत्तेत्रिषु वर्षेषु गतेषु सिद्धिगम-RI नारम्भः ।। (१६७)॥ ॥१३१॥ | (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन् । पुरुषादानीयः (तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता ) त्रिंशत् वर्षाणि गृहस्थावस्थायां उषित्वा-स्थित्वा दीप अनुक्रम [१६४] For Fun ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१६८ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१६७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......मूलं [ १६८] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- (तेसीई राईदिआई) व्यशीतिं अहोरात्रान् (छेउमत्थपरिआयं पाडणित्ता) छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा (देसूणाई सतरि वासाई) किञ्चिदूनानि सप्ततिं वर्षाणि (केवलिपरिआयं पाणित्ता ) केवलिपर्यायं पालयित्वा ( पडिपुन्नाई सत्तरि वासाई) प्रतिपूर्णानि सप्ततिं वर्षाणि (सामन्नपरियायं पाणित्ता) चारित्रपर्यायं पाल - यित्वा (एक्क वासस्यं सङ्घाज्यं पालइत्ता) एकं वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा ( खीणे बेयणिज्जाउयनामगुत्ते ) क्षीणेषु सत्सु वेदनीयायुर्नामगोत्रेषु कर्मसु (इमीसे ओसप्पिणीए ) अस्यामेव अवसर्पिण्यां (दूसमसुसमाए बहुविताएं) दुष्षमसुषमनामके चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते सति (जे से वासाणं पढने मासे दुचे पक्खे) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः (सावणसुद्धे) श्रावणशुद्धः (तस्स णं सावणसुद्धस्स अट्टमीपक्खेणं) तस्य श्रावणशुद्धस्य अष्टमीदिवसे (उपि संमेअसेलसिहसि) उपरि सम्मेतनामशैलशिखरस्थ ( अप्प| चउत्तीसह मे) आत्मना चतुस्त्रिंशत्तमः (मासिएणं भन्तेणं अपाणएणं) मासिकेन भक्तेन अपानकेन (विसाहाहिं नवखत्तेणं जोगमुबाग एणं) विशाखानक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (पुवण्हकालसमयंसि ) पूर्वाहकालसमये, तत्र प्रभोमक्षिगमने पूर्वाह्न एव काल:, 'पुवरत्ता वरत्तकालसमयंसि 'त्ति कचित्पाठस्तु लेखकदोषान्मतान्तरभेदाद्वा (बग्घारियपाणी) प्रलम्बिती पाणी - हस्तौ येन स तथा कायोत्सर्गे स्थितत्वात् प्रलम्बित भुजद्वयः, ( कालगए बिकते जाच सङ्घदुक्खप्पहीणे) भगवान् कालगतः व्यतिक्रान्तः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीण ॥ (१६८ ) ।। (पारस अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (जाब सङ्घदुक्खप्पहीणस्स) यावत् 288 अगार वास मानादि सू. १६८ ५ १० १४ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१६९] | गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१६९] गाथा ||२..|| कल्प.सयो-सर्वदुःखमक्षीणस्य (दुवालस वाससयाई विइकताई) द्वादश वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि (तेरसमस्स यशश्रीनेमेः कव्या०७ वाससयस्स) ब्रयोदशमस्य वर्षेशतस्य (अयं तीसइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं त्रिंशत्तमः संवत्सरल्याणकानि ॥१३२॥ कालो गच्छति, तत्र श्रीपार्श्वनिर्वाणात् पश्चाशदधिकवर्षेशतद्वयेन श्रीवीरनिर्वाणं, ततश्चाशीत्यधिकनववर्ष-IST. १७० शतानि अतिक्रान्तानि, तदा वाचना, ततो युक्तमुक्तं त्रयोदशमशतसंवत्सरस्यायं त्रिंशत्तमः संवत्सरः कालो गच्छतीति, इति श्रीपार्श्वनाथचरित्रं समासम् । (१६९)॥ ॥ अथ श्री नेमिनाथस्य जघन्यादिवाचनाभिश्चरित्रमाह-(तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएण) तस्मिन् समये (अरहा अरिहनेमी पंचचित्ते हुत्था) अर्हन् अरिष्टनेमिः पश्चसु चित्रा यस्य स पञ्चचित्रः अभवत् (तंजहा) तद्यथा (चित्ताहिं चुए चहत्ता गम्भं वकंते) चित्रायां च्युतःच्युत्वा गर्ने उत्पन्न: (तहेव उक्खेवो) तथैव चित्राभिलापेन पूर्वोक्ता पाठो वक्तव्यः (जाव चित्ताहिं परिनिव्वुए) यावत् चित्रायां निर्वाणं प्राप्तः ॥(१७०)। RI (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (अरहा अरिहनेमी) अर्हन अरिष्टनेमिः (जे से बासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे) योऽसौ वर्षाकालस्य चतुर्थो मासः सप्तमः पक्षः (कत्तिअबहुले) २५ कार्तिकस्य बहुलपक्षः (तस्स णं कत्तियबहुलस्स यारसीपक्खेणं) तस्य कार्तिकषहुलस्य द्वादशीदिवसे ॥३२॥ (अपराजिआओ महाविमाणाओ) अपराजितनामकात् महाविमानात् (बत्तीसं सागरोवमहिआओ) द्वात्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितियंत्र ईशात् (अणंतरं चर्य चइत्ता) अनन्तरं च्यवनं कृत्वा (इहेव जंबुद्दीवे दीवे)|| २८ दीप अनुक्रम [१६८] ... अथ श्री नेमिनाथ-चरित्रं संक्षेपेण कथयते ~289 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१९७१] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१७१] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [७] ........... मूलं [१७१] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: क. सु. २३ ---------- अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भरतक्षेत्रे (सोरिय पुरे नपरे) सौर्यपुरे नगरे (समुह विजयस्स रन्नो) समुद्रविजयस्य राज्ञः (भारियाए सिवाए देवीए ) भार्यायाः शिवाया देव्याः कुक्षौ (पुवरत्तावरप्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रकालसमये-मध्यरात्रौ (जाव चित्ताहिं गन्भत्ताए वक्ते) यावत् चित्रायां गर्भतया उत्पन्नः ( सर्व्वं तव सुमिणदंसणदविणसंहरणाइअं इत्थ भाणियां ) सर्वं तथैव स्वप्रदर्शनं पितृवेश्मनि द्रव्यसंहरणादिवर्णनं अत्र भणितव्यम् ॥ ( १७१ ) ॥ ( तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं ) तस्मिन् समये ( अरहा अरिनेमी ) अर्हन् अरिष्टनेमिः (जे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे ) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः (सावणसुद्धे ) श्रावणशुद्धः (तस्स णं सावणसुद्धस्स पंचमीपक्खेणं) तस्य श्रावणशुद्धस्य पञ्चमीदिवसे (नवण्डं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु ( जाव चित्ताहिं नक्स्खत्तेणं जोगमुवागएणं ) यावत् चित्रानक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं दारयं पयाया) अरोगा शिवा अरोगं दारकं प्रजाता | ( जम्मणं समुहविजयाभिलावेणं नेयवं) जन्मोत्सवः समुद्रविजयाभिधानेन ज्ञातव्यः (जाव तं होउ णं कुमारे अरिनेमी नामेणं) यावत् तस्मात् भवतु कुमारः अरिष्टनेमिर्नाम्ना कृत्वा, यस्मात् भगवति गर्भस्थे माता रिष्ठरत्नमयं नेमिं - चक्रधारां स्वमेऽद्राक्षीत् ततोऽरिष्टनेमिः, अकारस्य अमङ्गलपरिहारार्थत्वाच अरिष्टनेमिरिति, रिष्ठशब्दो हि अमङ्गलवाचीति, कुमारस्तु अपरिणीतत्वात्, अपरिणयनं तु एवं एकदा यौवनाभिमुखं ... अथ शेष तीर्थकराणां अन्त्राणि वर्णयन्ते 290~ श्रीनेमिना थस्य गर्भेद शा जन्म नाम सु. १७१ १७२ ५ १० १४ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत कल्प सुबोव्या०७ लपरिक्षा. सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| ॥१३३॥ नेमि निरीक्ष्य शिवादेवी समवदत्-वत्सानुमन्यस्व पाणिग्रहणं पूरय चास्मन्मनोरथं, स्वामी तु योग्यां कन्या प्राप्य परिणेष्यामीति प्रत्युत्तरं ददौ, ततः पुनरेकदा कौतुकरहितोऽपि भगवान मित्रप्रेरितः क्रीडमानः कृष्णायुधशालायामुपागमत् , तत्र कौतुकोत्सुकैमित्रैर्विज्ञप्तोऽङ्गुल्यग्रे कुलालचक्रवचक्रं भ्रामितवान् शाई धनुमणालवन्नामितवान् ,कौमोदकीगदां यष्टिवदुत्पाटितवान् पाश्चजन्यं शङ्खच स्वमुखे धृत्वा आपूरितवान् , तदा चनिर्मूल्यालानमूलं व्रजति गजगणः, स्वण्डयन् वेश्ममाला, धावन्त्युत्रोव्य बन्धान सपदि हरिहया मन्दुरायाः प्रणष्टाः। शब्दाद्वैतेन सर्व यधिरितमभवत्तत्पुरं व्यग्रमुग्रं, श्रीनेमेवक्तपद्मप्रकटितपवनैः पूरिते पाञ्चजन्ये ॥१॥ तादृशं च शब्दं निशम्योत्पन्नः कोऽपि वैरीति व्याकुलचित्तः केशवस्त्वरितं आयुधशालायां आगतः, | दृष्ट्वा च नेमि चकितो निजभुजबलतुलनाय आवाभ्यां वलपरीक्षा क्रियते इति नेमि वदस्तेन सह मल्लाक्षाटके जगाम, श्रीनेमिरोह-अनुचितं ननु भूलुठनादिकं, सपदि बान्धव ! युद्धमिहावयोः । वलपरीक्षणकृद्भुजवालनं, भवतु नान्यरणः खलु युज्यते॥१॥ द्वाभ्यां तथैव खीकृतं कृष्णप्रसारितं बाहुं, नेमिर्वेत्रलतामिव । मृणालदण्डवच्छीघ्र, वालयामास लीलया॥१॥ शाखानिभे नेमिजिनस्य बाही, ततः स शाखामृगवद्विलग्नः । चक्रे निजं नाम हरियधार्थमुद्यद्विषादद्विगुणासितास्यः॥२॥ ततो महतापि पराक्रमेण नेमिभुजेऽव-| लिते सति विषण्णचित्तः कृष्णो 'मम राज्यमेष सुखेन ग्रहीष्यतीति चिन्तातुरः खचित्ते चिन्तयामासक्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते । ममन्ध शङ्करः सिन्धु, रत्नान्यापुर्दिवौकसः ॥१॥ अथवा दीप अनुक्रम [१७३] ॥११ JMEducation ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते । दन्ता दलन्ति कष्टेन, जिह्वा गिलति लीलया ॥२॥ ततो बलभ- जलक्रीडा द्रेण सहालोचयति-किं विधास्ये? नेमिस्तु राज्यलिप्सुलवांश्च, तत आकाशवाणी प्रादुरभूदु-अहो हरे ! पुरा नमिनाथेन कथितमासीद् यदुत द्वाविंशस्तीर्थकरो नेमिनामा कुमार एव प्रव्रजिष्यतीति श्रुत्वा निश्चिन्तोऽपि निश्चयार्थ नेमिना सह जलक्रीडां का अन्तःपुरीपरिवृतः सरोऽन्तरे प्रविष्टा, तत्र च-प्रणयतः परिगृह्य करे जिनं, हरिरवेशयदाशु सरोऽन्तरे । तदनु शीघ्रमसिञ्चत नेमिनं, कनकशृङ्गाजलैघुमृणाविलैः॥१॥तथा । रुक्मिणीप्रमुखगोपिका अपि ज्ञापितवान्-ययं नेमिनिःशकं क्रीडया पाणिग्रहाभिमुखीकार्यः, ततश्च ता अपि-काश्चित् केसरसारनीरनिकरैच्छिोटयन्ति प्रभु, काश्चिद् बन्धुरपुष्पकन्दुकभरैर्निनन्ति वक्षःस्थले। काश्चितीक्ष्णाकटाक्षलक्षविशिखैर्विद्धयन्ति नर्मोक्तिभिः, काश्चिकामकलाविलासकुशला विमापयाश्चक्रिरे | S॥१॥ ततश्च-तावत्यः प्रमदा: सुगन्धिपयसा, स्वर्णादिशृङ्गी शं, भृत्वा तज्जलनिझरैः पृथुतः, कत्तु प्रभु व्याकुलम् । प्रावर्तन्त मिथो हसन्ति सततं ,क्रीडोल्लसन्मानसास्तावद्वयोमनि देवगीरिति समुद्भूता श्रुता चौखिलैः ॥१॥ मुग्धाः स्थ प्रमदा यतोऽमरगिरी.गीर्वाणनाथैश्चतुःषष्ट्या योजनमानवक्त्रकुहरैः कुम्भैः सह। स्राधिकः । बाल्येऽपि स्लपितो य एष भगवान्नाभून्मनागाकुल:, कर्तु तस्य सुयत्नतोऽपि किमहो, युष्माभिरी|शिष्यते ? ॥२॥ ततो नेमिरपि हरि ताश्च सर्वा जलैराच्छोटयति स्म कमलपुष्पकन्दुकैश्च ताडयति म इत्यादि। सविस्तरं जलक्रीडां कृत्वा तटमागत्य नेमि वर्णासने निवेश्य सर्वा अपि गोप्यः परिवेष्ट्य स्थिताः, तत्र दीप अनुक्रम [१७३] Fur & Fonte ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| रुक्मिणी जगौ-निर्वाहकातरतयोहसे न यत्त्वं, कन्यां तदेतदविचारितमेव नेमे ! । भ्राता तवास्ति विदितः ।। कल्प.सुबोसुतरां समर्थो, द्वात्रिंशदुन्मितसहस्रवधुर्विवोढा ॥शा तथा सत्यभामाप्युवाच-ऋषभमुख्यजिनाः करपीडनं, गोपीवाव्या०७ क्यानि विदधिरे दधिरे च महीशताम् । बुभुजिरे विषयांश्च बहून् सुतान् , सुषुविरे शिवमप्यथ लेभिरे ॥२॥ त्वमसि ॥१३४॥ किन्नु नवोऽद्य शिवङ्गमी, भृशमरिष्ठकुमार ! विचारय । कलय देवर ! चारु गृहस्थतां, रचय बन्धुमनस्सु च. सुस्थताम् ॥ ३॥ अथ जगाद च जाम्बुवती जवात्, शृणु पुरा हरिवंशविभूषणम् । स मुनिसुव्रततीर्थपतिगृही, शिवमंगादिह जातसुतोऽपि हि ॥४॥ पद्मावतीति समुवाच विना वधूटी, शोभा न काचन नरस्य | भवत्यवश्यम् । नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, विश्वासमेष विट एव भवेदभार्यः ॥५॥ गान्धारी जगी-सजन्ययात्राशुभसङ्घसार्थपर्वोत्सवा वेश्मविवाहकृत्यम् । उद्यानिकापुन्क्षणपर्षदश्व, शोभन्त एतानि र विनाऽङ्गना नो॥६॥ गौरी उवाच-अज्ञानभाजः किल पक्षिणोऽपि, क्षितौ परिभ्रम्य वसन्ति सायम् । नीडे खकान्तासहिताः सुखेन, ततोऽपि किं देवर! मूढहक त्वम् ॥७॥ लक्ष्मणाऽप्यवोचत्-लानादिसर्वाङ्गपरिविक्र-I8 यायां, विचक्षणः प्रीतिरसाभिरामः । विस्रम्भपात्रं विधुरे सहायः, कोऽन्यो भवेन्नूनमृते प्रियायाः? ॥८॥ सुसीमाऽप्यवादीत्-विना मियां को गृहमांगतानां, प्राघूर्णकानां मुनिसत्तमानाम् । करोति पूजाप्रतिपत्ति ॥१३४॥ सामन्यः, कथं च शोभा लभते मनुष्यः,॥९॥ एवमन्यासां अपि गोपाइनानां वाचोयुक्त्या यदनामाग्रहाच मौनावलम्बिनमपि स्मिताननं जिनं निरीक्ष्य 'अनिषिद्धं अनुमतं'इति न्यायात् नेमिना पाणिग्रहणं स्वीकृतमिति दीप अनुक्रम [१७३] ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१७३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १७२] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- ---------. ताभिर्बाद उद्घोषितं तथैव जनोक्तिरिति, ततः कृष्णेनोग्रसेन पुत्री राजीमती मार्गिता, लग्नं पृष्टश्च क्रोष्टुकि नामा ज्योतिर्वित् प्राह-वर्षासु शुभकार्याणि, नान्यान्यपि समाचरेत् । गृहिणां मुख्यकार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा ? ॥ १॥ समुद्रस्तं बभाषेऽथ, कालक्षेपोऽत्र नार्हति । नेमिः कथञ्चित् कृष्णेन, विवाहाय प्रवर्तितः ॥ २॥ मा भूद्विवाहप्रत्यूहो, नेदीयस्तद्दिनं वद । श्रवणे मासि तेनोक्ता, ततः षष्ठी समुज्वला ॥ ३॥ ततो द्वयोः स्थानयोर्विहिता | विवाहोचिता सामग्री, आसन्ने च क्रोष्टुक्यादिष्टे लग्ने चलितः श्रीनेमिक्कुमारः स्फारशृङ्गारः प्रजाप्रमोदकरो रथारूढो धृतातपत्रसारः श्रीसमुद्रविजयादिदशा है केशवबलभद्रादिविशिष्टपरिवारः शिवादेवीप्रमुखप्रमदाजे| गीयमानधवलमङ्गलविस्तारः पाणिग्रहणाय अग्रतो गच्छंश्च वीक्ष्य सारथिं प्रति कस्येदं कृतमङ्गलभरं धवलमन्दिरं इति पृष्टवान् ततः सोऽङ्गुल्यग्रेण दर्शयन् इति जगाद - उग्रसेन नृपस्य तव श्वशुरस्यायं प्रासाद इति, इमे च तव भार्याया राजीमत्याः सख्यौ चन्द्राननामृगलोचनाभिधाने मिथो वार्त्तयतः, तत्र मृगलोचना विलोक्य चन्द्राननां प्राह-हे चन्द्रानने ! स्त्रीवर्गे एका राजीमत्येव वर्णनीया यस्याः अयमेतादृशो वरः पाणि ग्रहीष्यति, चन्द्राननाऽपि मृगलोचनामाह- राजीमतीद्भुतरूपरम्यां निर्माय धाताऽपि यदीदृशेन । वरेण नो योजयति प्रतिष्ठां लभेत विज्ञानविचक्षणः काम् ? ॥ १ ॥ इतश्च तूर्यशब्दमाकर्ण्य मातृगृहात् राजीमती सखीमध्ये प्राप्ता, हे सख्यौ ! भवतीभ्यामेकाकिनीभ्यामेव साडम्बरमागच्छन् वरो विलोक्यते अहं तु विलोक| यितुं न लभेयं इति बलात्तदन्तरे स्थित्वा नेमिं आलोक्य साश्चर्य चिन्तयति किं पातालकुमारः, किं वा मकर For Frate & Personal Use Only 294 विवाहायगमन १०. १४ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१७३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूल [ १७२] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१३५॥ ---------- ---------. ध्वजः सुरेन्द्रः किम् । किंवा मम पुण्यानां प्राग्भारो मूर्त्तिमानेषः १ ॥ १ ॥ तस्य विधातुः करयोरात्मानं न्युञ्छनं करोमि मुदा । येनैष बरो विहितः सौभाग्यप्रभृतिगुणराशिः ॥ २ ॥ मृगलोचना राजीमत्यभिप्रायं परिज्ञाय समीतिहासं हे सखि ! चन्द्रानने । समग्रगुणसम्पूर्णेऽपि अस्मिन् वरे एकं दूषणं अस्त्येव परं वरार्थिन्यां राजीमत्यां शृण्वत्यां वक्तुं न शक्यते, चन्द्राननाऽपि हे सखि । मृगलोचने । मयाऽपि तद् ज्ञातं, परं साम्प्रतं मौनमेवा चरणीयं, राजीमत्यपि त्रपया मध्यस्थतां दर्शयन्ती - हे सख्यौ ! यस्याः कस्या अपि भुवनातभाग्यधन्यायाः कन्याया अयं वरो भवतु, परं सर्वगुणसुन्दरेऽस्मिन् वरे दूषणं तु दुग्धमध्यात् प्रतरकर्षणप्रायं असम्भाव्यमेव, तदनु ताभ्यां सविनोदं कथितं भो राजीमति । वरः प्रथमं गौरो विलोक्यते, अपरे गुणास्तु परिचये सति ज्ञायन्ते तद्गौरत्वं तु कज्वलानुकारमेव दृश्यते, राजीमती सेयं सख्यौ प्रत्याह- अग्र यावत् युवां चतुरे इति मम भ्रमोऽभवत्, साम्प्रतं तु स भग्नः यत् सकलगुणकारणं श्यामत्वं भूषणमपि दूषणतया प्ररूपितं शृणुतं तावत् सावधानीभूय भवत्यौ श्यामस्त्वे श्यामवस्त्वाश्रपणे च गुणान् 'केवल गौरवे दोषांचं, तथाहि १ चित्तवलि २ अगुरु. ३ कत्थूरी घण ५ कणीणिमा ६ केसा ७। कसबद्द ८ मसी ९ रयणी १० कसिणा एए अणग्धफला ॥ १ ॥ इति कृष्णत्वे गुणाः, कैप्पूरे अंगारो १ चंदे, चिंधं २ कणीणिगा १ भूः चित्र यही अगुरु कस्तूरी घनः कनीनिका केशाः । कपपट्टो मपी रजनी कृष्णा एते अनर्धफलाः ॥ १ ॥ २ कर्पूरे अंगारः चन्द्रे चिन्हं कनीनिका नयने । भोज्ये मरीचं चित्रे रेखा कृष्णा अपि गुणहेतवः ॥ २ ॥ 295 मृगलोच नादिहा २० २५ ॥१३५॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| नयणे ३ । भुजे मरीअं ४ चित्ते रेहा ५ कसिणावि गुणहेऊ ॥२॥ इति कृष्णवस्त्वांश्रयणे गुणाः । खारंग लवणं १ दहणं, हिमं च २ अइगोरविग्गहो रोगी३ । परवसगुणो अचुण्णो, ४ केवलगोरत्तणेऽवगुणा ३॥ एवं रावृतिः परस्परं तासां जल्पे जायमाने श्रीनेमिः पशूनामार्त्तखरं श्रुत्वा साक्षेप-हे सारथे! कोऽयं दारुणः खरः, सारथिः प्राह-युष्माकं विवाहे भोजनकृते समुदायीकृतपशूनामयं खर इत्युक्ते खामी चिन्तयति स्म-धिग |विवाहोत्सवं यत्रानुत्सवोऽमीषां जीवानां, इतश्च 'हेल्ली सहिओ! किं मे दाहिणं चक्खू परिप्फुरह'त्ति वदन्ती राजीमती प्रति सख्यौ-प्रतिहतममङ्गलं ते इत्युक्त्वा थुथुत्कारं कुरुतः, नेमिस्तु-हे सारथे ! रमितो निवर्तय, अत्रान्तरे नेमि पश्यन्नेको हरिणः खग्रीवया हरिणीग्रीवां पिधाय स्थितः, अत्र कविघटना-खामिनं वीक्ष्य || हरिणो ब्रूते-मा पहरसु मा पहरसु एवं मह हिअयहारिणिं हरिणिं । सामी ! अम्हं मरणावि दुस्सहो पिअतमाविरहो॥१॥ हरिणी नेमिमुखं निभाल्य हरिणं प्रति बूते-एसो पसन्नवयणो, तिहुअणसामी अकारणं बंधू 18 |ता विष्णवेसु बल्लह ! रक्खत्थं सबजीवाणं ॥२॥ हरिणोऽपि पत्नीप्रेरितो नेमि जूते-निजेझरणनीरपाणं, अरण्ण-R १क्षारं लवणं दहनं हिमं च अतिगौरविग्रहो रोगी । परवशगुणश्च चूर्णः केवलगौरत्वेऽवगुणाः ॥ ३॥ २हले सख्यः किं मम दक्षिणं चक्षुः परिस्फुरति ? ३ मा प्रहर मा प्रहर एतां मम हृदयहारिणी हरिणीं । स्वामिन् ! अस्माकं मरणादपि दुःसहः प्रियतमाविरहः ॥ १॥ ४ एप प्रसन्नवदनः त्रिभुवनखामी अकारणबन्धुः । तस्माद् विज्ञपय वल्लभ ! रक्षार्थ सर्वजीवानां ॥ २ ॥ ५ निर्झरणनीरपानं अरण्यतृणभक्षणं च वनवासः । अस्माकं निरपराधानां जीवितं रक्ष रक्ष प्रभो! ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [१७३] JMEucal ~296 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१७३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१३६॥ ---------- तणभक्खणं च वणवासो । अम्हाण निरवराहाण, जीविअं रक्ख रक्ख पहो ! ॥ ३ ॥ एवं सर्वेऽपि पशवः स्वामिनं प्रति विज्ञपयन्ति, तावत्खामी बभाषे भो पशुरक्षकाः ! मुञ्चत मुञ्चत इमान् पशून् नाहं विवाहं करिष्ये, पशुरक्षकाः श्रीनेमिवचसा पशून् मुञ्चन्ति स्म, सारथिरपि रथं निवर्त्तयते स्म अत्र कविः - हेतुरिन्दोः कलङ्के यो, विरहे रामसीतयोः । नेमे राजीमतीत्यागे, कुरङ्गः सत्यमेव सः ॥ १ ॥ समुद्रविजयशिवादेवीप्रमुखजनास्तु शीघ्रमेव रथं स्वलयन्ति स्म, शिवा च सवाष्पं ब्रूते पत्थेमि जणणिवलह ! वच्छ तुमं पढमपत्थणं किंपि । काऊण पाणिगहणं, मह दंसे निअवह्नययणं ॥ १ ॥ नेमिरोह - मुञ्चाग्रहमिमं मातर्मानुषीषु न मे मनः । मुक्तिस्त्रीसङ्गमोत्कण्ठ मंकुण्ठमवतिष्ठते ॥२॥ यतः-या रागिण विरागिण्यस्ताः स्त्रियः को निषेवते ? । अतोऽहं कामये मुक्ति, या विरागिणि रागिणी ॥ ३ ॥ इत्यादि, राजीमती-हा' दैव ! किमुपस्थितमित्युक्त्वा मूर्छा प्राप्ता सखीभ्यां चन्दनद्रवैराश्वासिता कथमपि लब्धसन्ज्ञा सवाष्पं गाढखरेण प्राह हो जायवकुलदिणयर ! हा निरुवमनाण हा जगस्सरण ! हा करुणायर सामी ! मं मुत्तूर्ण कहं चलिओ ॥ ४ ॥ हाँ हिअय घिट्ट निहुर १ प्रार्थयामि जननीबलभ ! वत्स ! त्वां प्रथमप्रार्थनां कामपि । कृत्वा पाणिग्रहणं मम दर्शय निजवधूवदनम् ॥3॥ २ हा यादवकुलदिनकर! हा निरुपमज्ञान हा जगच्छरण हा करुणाकर! स्वामिन्! मां मुक्त्वा कथं चलितः १॥ ४ ॥ निष्ठुर ! अद्यापि निर्लज ! जीवितं वहसि । अन्यत्र बच्धरागो यदि नाथ आत्मनो जातः ॥ ५ ॥ ३ हा हृदय ! धृष्ट 297 मुमुक्षुता प्रार्थना च १५ २० ॥१३६॥ janelbrary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| अज्जवि निल्लज़ जीविअं वहसि । अन्नस्थ बद्धराओ,जइ नाहो अत्तणो जाओ॥५॥ पुननिःश्वस्य सोपालम्भं राजीमत्याः |जगाद-जेइ सयलसिद्धभुत्ताइ.मुत्तिगणिआइ धुत्त ! रत्तोऽसि । ता एवं परिणयारभेण विडंविआ किमहं ? शोका ॥६॥ सख्यी सरोष-लोअपसिद्धी बत्तडी,सहिए इक सणिज्ज । सरलं विरलं सामलं. फिी विही करिज ॥ ७॥ पिम्मैरहिअंमि पिअसहि !,एअंमिवि किं करेसि पिअभावं ? । पिम्मपरं किंपि वरं, अन्नयरं ते करिस्सामो॥ ८॥ राजीमती कणौं पिघाय-हा अश्राव्यं किं श्रावयथ:-जइ कहावि पच्छिमाए, उदयं पावेइ दिणयरो तहचि।मुत्तुण नेमिनाहं,करेमि नाहं वरं अन्नं ॥९॥ पुनरपि नेमिनं प्रतिव्रतेच्छुरिच्छाधिकमेव दत्से. वं याचकेभ्यो गृहमागतेभ्यः । मयाऽर्थयन्त्या जगतामधीश!, हस्तोऽपि हस्तोपरि नैव लब्धः ॥१०॥ अर्थ || विरक्ता राजीमती प्राह-जइविहु एअस्स करो.मज्झ करे नो अ आसि परिणयणे । तहवि सिरे मह सुचि दीप अनुक्रम [१७३] १ यदि सकलसिद्धभुक्तार्या मुक्तिगणिकायां धूर्त ! रक्तोऽसि । तत एवं परिणयनारम्भेण विडम्बिता किमहम् ॥ ६॥ २ लोक-II प्रसिद्धा वार्ता सखि ! एका भूयते । सरलं विरलं श्यामलं विस्मृत्य विधिः कुर्यात् ॥७॥ ३ प्रेमरहिते प्रियसखि । एतस्मिन्नपि । किं करोषि प्रियभावं ? । प्रेमपरं कमपि वरं अन्यतरं ते करिष्यामः ॥ ८॥ ४ यदि कथमपि पश्चिमायामुदयं प्राप्नोति दिनकरस्तथापि । मुक्त्वा नेमिनाथं करोमि नाहं वरमन्यम् ॥ ९॥ ५ यद्यपि एतस्य करो मम करे न चासीत्परिणयने । तथापि शिरसि || मम स एव दीक्षासमये करो भविष्यति ।। १६ ॥ . ~298 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| जय कल्प.सुबो-दिक्खासमए करो होही॥११॥ अथ नेमिनं सपरिकरः समुद्रविजयो जगौ-नाभेयाद्याः कृतोद्वाहाः, मुक्तिदानं दीक्षा व्या०७ जग्मुर्जिनेश्वराः । ततोऽप्युच्चैःपदं ते स्थात्, कुमार ! ब्रह्मचारिणः ॥ १२॥ नेमिराह-हे तात! क्षीणभोगक-चस, १७ मोऽहमस्मि,किञ्च-एकस्त्रीसंग्रहेऽनन्तजन्तुसङ्घातघातके। भवतां भवतान्तेऽस्मिन् , विवाहे कोऽयमाग्रहः ॥१३॥ १० ॥१३७॥ अत्र कविः-मन्येऽङ्गनाविरक्तः,परिणयनमिषेण नेमिरांगत्य । राजीमती पूर्वभवप्रेम्णा समकेतयन्मुत्यै ॥१४॥ ISA (अरहा अरिहनेमी) अर्हन अरिष्टनेमिः (दक्खे जाब तिन्नि वाससयाई) दक्षः यावत् त्रीणि वर्षश-121 तानि ( कुमारे अगारवासमझे वसित्ता) कुमारः सन् गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा (पुणरवि लोयंतिएहिं सर्व ।। तंचेव भाणियचं) पुनरपि लोकान्तिकाः इत्यादि सर्वं तदेव पूर्वोक्तं भणितव्यं, लोकान्तिका देवाः यथा-जय हानिजितकन्द!, जन्तुजाताऽभयप्रद ! । नित्योत्सवावतारार्थ, नाथ! तीर्थ प्रवर्तय ॥१॥ इति खामिन प्रोच्य | 18|खामी वार्षिकदानानन्तरं त्रिभुवनमानन्दयिष्यतीति समुद्रविजयादीन् प्रोत्साहयन्ति म, ततः सर्वेऽपि | 18 सन्तुष्टाः (जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता) यावत् घनं गोत्रिकाणां विभज्य-दत्त्वा, दानविधिस्तु । श्रीवीरवद् ज्ञेयः॥ (१७२)॥ ||१३७॥ (जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्व ) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः (सावणसुद्धे) श्रावणस्य शुक्ल पक्षः (तस्स णं सावणसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं) तस्य श्रावणशुद्धस्य षष्ठीदिवसे (पुवाहकालसमयंसि ) पूर्वाह्नकालसमये (उत्तरकुराए सीयाए) उत्तरकुरायां शिविकायां स्थितः (सदेवमणुासुराए||२२ १५ दीप अनुक्रम [१७३] JaNEducation ~299 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७३] | गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७३] गाथा ||२..|| lectricesestatistratoesec परिसाए ) देवमनुष्यासुरसहितया पर्षदा (समणुगम्ममाणमग्गे) समनुगम्यमानमार्गः (जाव बारवईए दीक्षा नयरीए मजझमजोणं निग्गच्छद) यावत् द्वारवत्याः नगर्याः मध्यभागेन निर्गच्छति (निग्गच्छित्ता) निर्गत्यशास. १७२ (जेणेव रेवयए उज्जाणे) यत्रैव रैवतकं उद्यानं (तेणेव उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) केवलं उपागत्य (असोगवरपायवस्स अहे) अशोकनामवृक्षस्य अधस्तात् (सीयं ठावेइ) शिविकां स्थापयति सू.१७३ (ठाबित्ता) संस्थाप्य ( सीयाओ पचोरुहइ ) शिविकातः प्रत्यवतरति (पचोरुहिता) प्रत्यवतीर्य (सयमेव ५ आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ) खयमेव आभरणमालालङ्कारान् अवमुञ्चति (सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ) स्वयमेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति (करित्सा)कृत्वा च (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन अपान-1 केन-जलरहितेन (चित्ताहिं नकखत्तेणं जोगमुवागएणं) चित्रा नक्षत्रे चन्द्रयोग उपागते सति (एगं देव-18 दूसमादाय) एकं देवदृष्यं गृहीत्वा (एगेणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं) एकेन पुरुषाणां सहस्रेण साई (मुंडे भविता) मुण्डो भूत्वा प्रभुः (आगाराओ अणगारियं पञ्चइए) अगारानिष्क्रम्य साधुता प्रतिपन्नः ॥ (१७३) १० MA (अरहा अरिहनेमी) अहंन् अरिष्टनेमिः (चउपन्नं राइंदियाई)चतुष्पश्चाशतं अहोरात्रान् यावत् (निचं वोसहकाए) नित्यं व्युत्सृष्टकायः (तं चेव सर्व जाव पणपन्नगस्स राईदियस्स) तदेव पूर्वोक्तं सर्व चाच्य यावत् पञ्चपञ्चाशत्तमस्य अहोरात्रस्य (अंतरा वहमाणस्स) अन्तरा वर्तमानस्य (जे से वासार्ण तचे मासे पंचमे पक्खे) योऽसौ वर्षाकालस्य तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षः (आसोयबहुले) आश्विनस्य कृष्णपक्षः दीप अनुक्रम [१७४] JaMEducuTO For F lutelu ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७४] / गाथा २...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-(तस्स णं आसोयबहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं) तस्य आश्विनबहुलस्य पश्चदशे दिवसे (दिवसस्स पछिछमेश्रीनेमिराव्या०७ भाए ) दिवसस्य पश्चिमे भागे (उर्जितसेलसिहरे वेडसस्स पायवस्स अहे) उजयन्तनामशैलस्य शिखरे जीपूर्वेभवाः वेतसनामवृक्षस्य अधस्तात् (अट्ठमणं भत्तेणं अपाणएणं ) अष्टमेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (चित्ताहिं ॥१३८॥ नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) चित्रायां नक्षत्रे चन्द्रयोग उपागते सति (झार्णतरियाए वहमाणस्स ) शुक्लध्या-19 नस्य मध्यभागे वर्तमानस्य प्रभोः (अणंते जाच जाणमाणे पासमाणे विहरइ) अनन्तं केवलज्ञानं समुत्पन्न यावत् सर्वभाषान जानन पश्यंश्च विहरति,तत्र केवलज्ञानं रैवतकस्थे सहस्राम्रवणे समुत्पेदे, तत उद्यानपालको विष्णोर्व्यजिज्ञपत् , विष्णुरपि महर्या भगवन्तं वन्दितुमाययो, राजीमत्यपि तत्रागता, अथ प्रभोर्देशनां | निशम्य वरदत्तनृपः सहस्रद्वयनुपयुतो व्रतमाददे, हरिणा च राजीमत्याः स्नेहकारणे पृष्टे प्रभुर्धनवतीभवा दारभ्य तया सह खस्य नवभवसम्बन्धमाचष्टे, तथाहि-प्रथमे भवेऽहं धननामा राजपुत्रस्तदेयं धनवतीनाम्नी शमत्पत्नी अभूत् १ ततो द्वितीये भवे प्रथमे देवलोके आवां देवदेव्यो २ ततस्तृतीये भवेऽहं चित्रगतिनामा विद्याधरस्तदेयं रत्नवती मत्पत्नी ३ ततश्चतुर्थे भवे चतुर्थे कल्पे द्वावपि देवी ४ पञ्चमे भवेऽहं अपराजितराजा २५ एषा प्रियतमा राज्ञी ५ षष्ठे एकादशे कल्पे द्वावपि देवौ ६ सप्तमेऽहं शङ्खो नाम राजा, एषा तु यशोमती ॥१३८॥ राज्ञी ७ अष्टमे अपराजिते द्वावपि देवौ ८ नवमेऽहं एषा राजीमती ९ततः प्रभुरन्यत्र विहृत्य क्रमात्पुनरपि रेवतके समवासरत्, तदा च अनेकराजकन्यापरिवृता राजीमती रथनेमिश्च प्रभुपाचे दीक्षां जगृहतु:, अन्यदा दीप अनुक्रम [१७५] - 301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७४] / गाथा २...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा ||२..|| च राजीमती प्रभुनन्तुं रैवतके ब्रजंती मार्गे वृष्ट्या घाधिता एका गुहां प्राविशत्, तस्यां च गुहायां पूर्व प्रविष्टं रथ-रथनेमिस्थि| नेमि अजानती सा क्लिन्नानि वस्त्राणि शोषयितुं परितश्चिक्षेप, ततश्च तां अपहसितत्रिदशतरुणीरामणीयकांति : राजीसाक्षात् कामरमणीमिव रमणीयां तथा विवसनां निरीक्ष्य भ्रातुर्वैरादिव मदनेन मर्मणि हतः कुललनामु मोक्षः त्सृज्य धीरतामेवधीय रथनेमिस्तां जगाद-अयि सुन्दरि! किं देहः, शोष्यते तपसा त्वया ?। सर्वाङ्गभोगसंयोगयोग्यः सौभाग्यसेवधिः॥१॥ आगच्छ स्वेच्छया भद्रे,! कुर्वहे सफलं जनः । आवामुंभावपि प्रान्ते, चरिप्यावस्तपोविधिम् ॥२॥ ततश्च महासती तदाकर्ण्य तं दृष्ट्वा च धृताद्भुतधैर्या तं प्रत्युवाच-'महानुभाव र कोऽयं तेऽभिलाषो नरकाध्वनः। सर्व सावधमुत्सृज्य, पुनर्वाग्छन्न लजसे ॥१॥ अगन्धनकुले जातास्तिर्पञ्चो पे भुजङ्गमाः । तेऽपि नो वान्तमिच्छन्ति, स्वं नीचः किं ततोऽप्यसि ? ॥२॥ इत्यादिवाक्यैः प्रतियोधितः श्रीने-18 | मिपावे तद्दुचीर्णमालोच्य तपस्तप्त्वा च मुक्ति जगाम । राजीमत्यपि दीक्षामाराध्य शिवशय्यामारूढा चिरप्रार्थितं शाश्वतिकं श्रीनेमिसंयोगमबाप, यदाहु:-"उद्मस्था वत्सरं स्थित्वा, गेहे वर्षचतु:शतीम् । पञ्चवर्षशती राजी, ययौ केवलिनी शिवम्॥१॥(१७४)। (अरहओणं अरिहनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमेः (अट्ठारस गणा अट्ठारस। गणहरा हत्था) अष्टादश(१८)गणाः अष्टादश गणधराश्च अभवन् ।।(१७)।(अरहोणं अरिष्टनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमे (वरदत्तपामुक्खाओ) वरदत्तप्रमुखाणि (अट्ठारस समणसाहस्सीओ) अष्टादश भ्रमणानां सहक.सु. २४स्माणि (१८०००)(उकोसिया समणसंपया हत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ॥(१७६)। (अर दीप अनुक्रम [१७५] ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७७] / गाथा २...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- च्या०७ ॥१३९॥ ओ णं अरिहनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमे ( अज्जजक्खिणीपामुक्खाओ) आर्ययक्षिणीप्रमुखाणि (चत्ता- श्रीनेमिन: लीसं अज्जियासाहस्सीओ) चत्वारिंशत् आर्यासहस्राणि (४००००)(उक्कोसिया अजियासंपया हुत्या ) | परिवारः उत्कृष्टा एतावती आर्यासम्पदा अभवत् ।।(१७७)। (अरहओणं अरिट्टनेमिस्स) अहंतः अरिष्ठनेमे (नंदपा- स.१७५मुक्खाणं समणोबासगाणं) नंदप्रमुखाणां श्रावकाणां (एगा सयसाहस्सी) एकः लक्षः (अउणतरिं च सहस्सा) एकोनससतिश्च सहस्राः (१६९०००)(उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत् ।।(१७८)। (अरहओ णं अरिहनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमे (महासुब्बयापामुक्खार्ण सम-18 |णोवासिआणं) महासुप्रर्तप्रमुखाणां श्राविकाणां (तिनि सयसायस्सीओ) त्रयः लक्षाः (छत्तीसं च सहस्सा) षत्रिंशच (६३६०००) सहस्राः ( उक्कोसिआ समणोवासिआणं संपया हुस्था ) उस्कृष्टा एतावती श्रावि-18 काणां सम्पदा अभवत् ॥(१७९) (अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स) अहेत: अरिष्ठनेमे (चत्तारि सया चउद्दस-II पुब्बीणं) चत्वारि शतानि (४००) चतुर्दशपूर्षिणां ( अजिणाणं जिणसंकासाणं) अकेवलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव संपया हुस्था) यावत् सम्पदा अभवत् (पण्णरस सया ओहिनाणीण) पञ्चदश शतानि(१५००) अवधिज्ञानिना,(पन्नरस सया केवलनाणीणं) पञ्चदश शतानि (१५००) केवलज्ञानिना. ( पन्नरस सयाई ॥१३९॥ घेउब्विआणं) पश्चदश शतानि (१५००) वैक्रियलब्धिमतां.(दस सया विउलमईणं)दश शतानि (१०००) | विपुलमतीनां,(अट्ठ सया वाईणं) अष्टौ शतानि (८००) वादिनां.(सोलस सया अणुत्तरोववाइआर्ण) २८ दीप अनुक्रम [१७७] ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८०] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८०] गाथा ||२..|| KOT षोडश शतानि (१६०० ) अनुत्तरोपपातिनां, (पन्नरस समणसया सिद्धा) पञ्चदश श्रमणानां शतानि श्रीनेमिनः (१५००) सिद्धानि,(तीसं अजियासयाई सिद्धाई) त्रिंशत् आर्याशतानि (३०००) सिद्धानि.(१८०॥ (अरहओ णं अरिहनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमे (दुविहा अंतगडभूमी होत्था) द्विविधा अन्तकन्मर्यादा १७५ अभवत् (तंजहा) तद्यथा (जुगंतगडभूभी य परियायंतगडभूमी य) युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृद्भूमिश्च (जाव अट्ठ १८२ माओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी) अष्टमं पुरुषयुगं-पट्टधरं यावत् युगान्तकृद्भूमिरासीत् (दुवासपरियाए ५ अंतमकासी ) द्विवर्षपर्याये जाते कोऽपि अन्तर्मकार्षीत् ॥(१८१)। (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (अरहा अरिहनेमी)अर्हन अरिष्टनेमिः (तिन्नि वाससयाई कुमारवासमज्झेवसित्ता) त्रीणि वर्ष-18 शतानि कुमारावस्थायां स्थित्वा (चउपन्नं राइंदियाई) चतुष्पश्चाशत् अहोरात्रान (छउमत्थपरियायं पाउ-1 |णित्ता) छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा (देसूणाई सत्त वाससयाई) किञ्चिदूनानि सप्त वर्षशतानि (केवलिपरि-1 आयं पाउणित्ता) केवलिपर्याय पालयित्वा (पडिपुन्नाई सत्त वाससयाई) प्रतिपूर्णानि सप्त वर्षशतानि (सामनपरिआयं पाउणित्ता) चारित्रपर्यायं पालयित्वा (एगं वाससहस्सं) एक वर्षसहस्रं (सब्याउअं पालइत्ता) सर्वायुः पालयित्वा (खीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते) क्षीणेषु सत्सु वेदनीयायुर्नामगोत्रेषु कर्मसु (इमीसे |ओसप्पिणीए) अस्यामेव अवसर्पिण्यां (दूसमसुसमाए वहुविइकताए) दुषमसुषमानामके चतुर्थेऽरके यहुव्यतिक्रान्ते सति (जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्खे) योऽसौ उष्णकालस्य चतुर्थों मासः अष्टमः १४ दीप अनुक्रम [१७७] ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८२ ] गाथा ||3..|| दीप अनुक्रम [१७७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१४०॥ ---------- पक्ष: (आसाढसुद्धे) आषाढ शुद्धः (तस्स णं आसादसुद्धस्स अट्ठमीपखेणं) तस्य आषाढशुद्धस्य अष्टमी दिवसे (उपि उर्जित सेलसिहरंसि ) उज्जयन्तनामशैलशिखरस्य उपरि (पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसहिं सद्धि ) पञ्चभिः पत्रिंशद्युतैः अनगारशतैः (५३६) सार्द्धं (मासिएणं भत्तेणं आपाणएणं) मासिकेन अनशनेन अपानकेन- जलरहितेन ( चित्तानकखत्तेणं जोगमुवागणं ) चित्रानक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (पुत्र्वर सावरत्तकालसमयंसि ) मध्यरात्री (निसजिए कालगए, जाव सब्वदुक्खप्पहीणे ) निषण्णः सन् कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः ॥ (१८२) || अथ नेमिनिर्वाणात् कियता कालेन पुस्तक लिखनादि जातमित्याह - ( अरहओ णं अरिनेमिस्स ) अर्हतः अरिष्टनेमेः (कालगयस्स जाव सञ्चदुक्खप्पहीणस्स ) कालगतस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणत्य ( चउरा सीइं वाससहस्साइं ) चतुरशीतिर्वर्षसहस्राणि (विकताई ) व्यतिक्रान्तानि (पंचा सीइमस्स वाससहसस्स) पञ्चाशीतितमस्य वर्षसहस्रस्यापि ( नव वाससयाई विश्कताई ) नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि ( दसमस्स य वाससयस्स ) दशमस्य वर्षशतस्य ( अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छ ) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति ॥ (१८३ ॥ श्रीनेमि निर्वाणाच्चतुरशीत्या वर्षसहस्रैः श्रीवीरनिर्वाणमंभूत्, श्रीपार्श्वनिर्वाणं तु वर्षाणां त्र्यशीत्या सहस्रैः सार्द्धेः सप्तभिश्च शतैरभूदिति खधिया ज्ञेयम् ॥ इति श्रीनेमिचरित्रम् ॥ अतः परं ग्रन्थगौरवभयात् पश्चानुपूर्व्या नम्यादीनां अजितान्तानां जिनानां अन्तरकालमानमेवाह - (नमिस्स णं अरहओ कालगयस्स ) नमिनाथस्य अर्हतः कालगतस्य (जाव सङ्घदुक्खप्पहीणस्स) For Frate & Personal Use Only 305 श्रीनेमिपुस्तकान्तरम् २० २५ ॥१४०॥ २८ jaibeory.org Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८४] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: KA प्रत सूत्रांक [१८४] गाथा ||२..|| यावत् सर्वदुःस्वपक्षीणस्य (पंच वाससयसहस्साई) पञ्च वर्षाणां लक्षाः (चउरासीई वाससहस्साई) चतुरशी-18श्रीजिनानां तिवर्षसहस्राणि (नव य वाससयाई विइक्ताई) नव वर्षशतानि च व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वासस- पुस्तकाल खनस्सचायस्स) दशमस्य वर्षशतस्य (अयं असीइमे संबच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो न्तराणि IS गच्छति । श्रीनमिनिर्वाणात् पश्चभिर्वर्षाणां लक्षः श्रीनेमिनिर्धाणं, ततश्चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षाति क्रमे च पुस्तकवाचनादि ॥ (१८४) ॥ २१॥ (मुणिमुव्वयस्स णं अरहओ जाच सव्वदुक्खप्पहीणस्स ) मुनि-1 सुव्रतस्य अर्हता यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य ( इकारस वाससयसहस्साई) एकादश वर्षाणां लक्षाः (चउरासीइंच वाससहस्साई) चतुरशीतिवर्षसहस्राणि (नव वाससयाई विइताई) नव वर्षशतानि च व्यतिकान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य वर्षशतस्य ( अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सर: कालो गच्छति, श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाणात् षष्ट्या वर्षाणां लक्षैः श्रीनमिनिर्वाणं ततश्च | पञ्चलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, अत्र च मुनिसुव्रतनमिनिर्वाणान्तरस्य नमिनिर्वाणपुस्तकवाचनान्तरस्य च मिलने सूत्रोक्तं मानं भवति, एवं सर्वत्र ज्ञेयम् ॥ (१८५) ॥ २०॥ (मल्लिस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स) मल्लिनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (पण्णहि वाससयसहस्साई) पञ्चपष्टिवर्षाणां लक्षाः (चउरासीइंच बाससहस्साई) चतुरशीतिवर्षसहस्राणि (नव वाससयाई विइकताई)नव वर्षशतानि च व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयरस) दशमस्य वर्षशतस्य (अयं असीइमे दीप Dheeseaeselcerseeeeeesesesesed अनुक्रम [१८०] CaMEducutom o nal - 306 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [७] ........ मूलं [१८६] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८६] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-संबच्छरे काले गच्छह ) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति । श्रीमल्लिनिर्वाणाचतुष्पञ्चाशद्वर्षाणां श्रीजिनानां व्या०७ लक्षैः श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाणं, ततश्चैकादशलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, पुस्तकलि॥१४॥ 18|उभयमिलितं च सूत्रोक्तं मानं भवति ॥ (१८६) ॥ १९ ॥ (अरस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स) अरनाथस्य खनस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगे वासकोडिसहस्से विइकते ) एक वर्षकोटीनां सहस्र व्यतिक्रान्तं (सेसं जहा|| मल्लिस्स) शेषः कालः मल्लिनाथबद् ज्ञेयः (तं च एयं) स चायं (पंचसहि लक्खा) पञ्चषष्टिलेक्षाः (चउ-18 |रासीहं च वाससहस्साई विश्कताई) चतुरशीतिवर्षसहस्राणि च व्यतिक्रान्तानि (तमि समए महावीरो।। | निव्वुओ) तस्मिन् समये महावीरो निर्वाणं गतः (तओ परं नव वाससयाई विइक्कताई) ततः परं नव वर्ष-11 शतानि व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य वर्षशतस्य (अयं असीइमे संवच्छरे काले||| गच्छइ) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति (एवं अग्गओ जाव सेयंसो ताव दहब्बं) अयमेव पाठः अग्रतः यावत् श्रेयांसस्तावत् द्रष्टव्यः, श्रीअरनिर्वाणाद्वर्षाणां कोटिसहस्रेण श्रीमल्लिनिर्वाणं ततश्च पश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१८७)॥१८॥ 8 (कुंथुस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स) कुन्थुनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगे चउभागपलिओवमे ॥१४॥ 18 बिहकते ) एकः चतुर्थो भागः पल्योपमस्य व्यतिक्रान्तः (पंचसहि च सयसहस्सा) पञ्चषष्टिलक्षाः ( सेसं जहा मल्लिस्स) शेषं मल्लिनाथवद् ज्ञेयं, श्रीकुन्युनिर्वाणाद्वर्षकोटिसहस्रन्यूनपल्योपमचतुर्थभागेन श्रीअरनि दीप अनुक्रम [१८३] ~307 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८८] | गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८८] गाथा ||२..|| र्वाणं ततश्च वर्षसहस्रकोटिपश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशतवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१८८) ॥१७॥ श्रीजिनाना (संतिस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) शान्तिनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगे चउभागूणे पलिओयमे विइकते) एकं चतुर्थभागेनोनं पल्पोपमं व्यतिक्रान्तं (पण्णहिँ सयसहस्सा) पञ्चषष्टिलक्षाः (सेसं जहा हन्तराणि मल्लिस्स) शेषं मल्लिनाथवद् ज्ञेयं । श्रीशान्तिनिर्वाणात् पल्योपमार्टून श्रीकुन्थुनिर्वाणं ततश्च पल्यचतुर्थभाग- पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, उभयमिलने च सूत्रोक्तं पादोन | |पल्योपमं स्यात्, शेषं मल्लिनाथवत्, तच्च पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षरूपं ज्ञेयं, एवं सर्वत्र 8 ॥(१८९)। १६ ।। (धम्मस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) धर्मनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (तिन्नि सागरोबमाई विइकंताई) त्रीणि सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि (पन्नडिं च सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिलक्षाः शेषं मल्लिनाथवद् ज्ञेयम्, श्रीधर्मनिर्वाणात् पूर्वोक्तपादोनपल्यन्यूनैस्त्रिभिः सागरोपमैः श्रीशान्तिनिर्वाणं ततश्च पादोनपल्योपमपश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि (१९०)॥ १५॥ (अणंतस्स णं अरहओ जाब पहीणस्स) अनन्तनाथस्य अहंतः यावत् प्रक्षीणस्य (सत्त सागरोवमाई।। विकताई) सप्त सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि (पन्नाहि च सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिलक्षाः शेषं मल्लिवद् ज्ञेयं, श्रीअनन्तनिर्वाणात् चतुर्भिः सागरैः श्रीधर्मनिर्वाणं, ततश्च सागरत्रयपश्चषष्टिलक्षादिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, उभयमिलनात् सूत्रोक्तं मानं स्यात् ।। (१९१) ॥ १४ ॥ (विमलस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) दीप अनुक्रम [१८५] JanEducation For F lutelu ~308 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१९२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९२] गाथा ||२..|| कल्प.सुयो- विमलनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (सोलस सागरोवमाइं विइकताई) षोडश सागरोपमाणि व्यतिका-श्रीजिनानां न्या०७न्तानि (पपण िच, सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिर्लक्षाः शेषं मल्लिचद् ज्ञेयं, श्रीविमलनिर्वाणानवभिः सागरैः । पुस्तकाल श्रीअनन्तनाथनिर्वाणं, ततश्च सससागरपञ्चषष्टिलक्षादिना पुस्तकवाचनादि, उभयमिलनेन सूत्रोक्तं मानं || खनख चा॥१४२॥ स्यात् ॥(१९२)॥ १३॥ (वासुपुज्जस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) वासुपूज्यस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य न्तराणि (छायालीसं सागरोवमाई विकताई) षट्चत्वारिंशत् सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि (पन्नाष्टुिं च सेसं जहा। II मल्लिस्स) पश्चपष्टिलक्षाः शेषं मल्लिचदू ज्ञेयं, श्रीवासुपूज्यनिर्वाणात् त्रिंशता सागरैः श्रीविमलनिर्वाणं, ततश्च षोडशसागरपञ्चषष्टिलक्षादिना पुस्तकवाचनादि ॥ (१९३) ॥१२॥ (सिसस्स णं अरहओ जाव प्पहीसणस्स) श्रेयांसस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगे सागरोवमसए विदकते) एक सागरोपमशतं व्यतिक्रान्तं (पपणादि च सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिलक्षाः शेष मल्लीनाथवद् ज्ञेयं । श्रीश्रेयांसनिर्वाणाच्चतुष्पञ्चाशता सागरैः श्रीवासुपूज्यनिर्वाणं ततश्च षट्चत्वारिंशत्सागरपञ्चषष्टिलक्षादिना पुस्तकवाचनादि ।। (१९४) ॥११॥ ( सीयलस्स णं अरहओ जाष प्पहीणस्स) शीतलस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगा सागरोवमकोडी) एका सागरोपमकोटी, कीदृशी? (तिवासअद्धनवममासाहिअ) त्रिवर्षसार्धाष्टमासैरधिः एवंविधैः (पापालीस-1 ॥१४॥ वाससहस्सेहिं ऊणिआ विदकता) द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रः ऊना व्यतिक्रान्ता (एयंमि समए महावीरो शनिब्बुओ) एतस्मिन् समये महावीरो निर्धतः (अओवि परं नव वाससयाई विश्कताई) ततोऽपि परं नववर्ष-2 दीप अनुक्रम [१८८] ~309 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१९५] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९५] गाथा ||२..|| शतानि व्यतिक्रान्तानि (वसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य च वर्षशतस्य (अयं असीइमे संवच्छरे कालेश्रीजिनानां | गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति । श्रीशीतलनिर्वाणात् षट्षष्टिलक्षषर्विशतिसहस्रवर्षा पुस्तकलि|धिकसागरशतोनया एकया सागरकोट्या श्रीश्रेयांसनिर्वाणं, ततोऽपि वर्षयसार्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंश-1 खनस्य चा रशान्तराणि द्वर्षसहस्रन्यूनैः षट्षष्टिलक्षषइविंशतिसहस्रवरधिके सागरशते व्यतिक्रान्ते श्रीवीरो निर्वृतः, ततः परं नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥(१९५)॥१०॥ (सुविहिस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) सुविधिना- ५ थस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (दस सागरोचमकोडीओ विइकंताओ) दश सागरोपमाणां कोव्यः व्यतिक्रान्ताः (सेसं सीअलस्स) शेषः पाठः शीतलनाथवत् (संच इम-तिवासअद्धमयमासाहिअ) सचेत्थं-18 दश कोव्यः कीदृश्यः -त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिकाः (बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिआ बिहकता इचाइ) द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रः ऊना इत्यादिकः, श्रीसुविधिनिर्वाणान्नवभिः सागरकोटिभिः श्रीशीतलनाथनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षार्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनसागरकोव्यतिक्रमे श्रीवीरनितिः, ततो नवशता-18 शीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१९६) ॥९॥ (चंदप्पहस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) चन्द्रप्रभस्य 8 अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगं सागरोवमकोडिसयं विइछतं) एकं सागरोपमकोटिशतं व्यतिक्रान्तं (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलवदू ज्ञेयं (तं च इम-तिवासअनवममासाहिय) तच इत्थं-कीदृशं सागरको-1 IS टिशतं?-त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिकं (वायालीसवाससहस्सेहि ऊणगमिचाइ) द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रः ऊनं दीप अनुक्रम [१९२] ~3100 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१९७] / गाथा २...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९७] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-1 इत्यादि । श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणान्नवतिसागरकोटिभिः श्रीसुविधिनाथनिर्वाणं, ततोऽपि त्रिवर्षीधनवमासाधि-श्रीजिनानां व्या०कद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूँनासु दशसु सागरकोटिषु व्यतिक्रान्तासु श्रीवीरनिर्वृतिः ततो नवशताशीतिवर्षा-पुस्तकलि तिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१९७) ॥८॥ (सुपासस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) सुपार्श्वस्य अर्हता यावत्ख नसचा ॥१४॥ प्रक्षीणस्य (एगे सागरोवमकोडिसहस्से विइकते) एकं सागरोपमकोटीनां सहस्रं व्यतिक्रान्तं (सेसं जहा। सीयलस्स) शेषं शीतलवत् (तं च इम-तिवासअद्धनवममासाहिअबायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिआ इच्चाइ) बतचेदं, कीदृशं?-त्रिवर्षसा ष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्त्रैः ऊन इत्यादि । श्रीसुपार्श्वनिर्वाणासागराणां नवशतकोटिभिः श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणं, ततश्च वर्षत्रयसार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनैकशतकोटिसागरैः श्रीवीरनिर्वृतिः, ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१९८)॥७॥ (पउमप्पहस्स गं अरहओ जाव प्पहीणस्स) पद्मप्रभस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (दस सागरोवमकोडिसहस्सा विइकता) दश सागरोपमकोटीनां सहस्राणि व्यतिक्रान्तानि (सेसं जहा सीयलस्स) शेषं शीतलवत् (तं च इम-तिवा-18 सअद्धनवममासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमिचाइ) तच्चेदं, कीदृशं?-त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिक- २५ द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रः ऊन इत्यादि । श्रीपमप्रभनिर्वाणात् सागरकोटीनां नवभिः सहस्रः श्रीसुपार्श्वनिवर्वाणं, ॥१४॥ सतश्च विवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनककोटिसहस्रसागरैः श्रीवीरनिर्वृतिस्ततो नवशताशी-10 HRIतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ।। (१९९) ॥६॥ (सुमइस्स णं अरहओ जाय प्पहीणस्स) सुमतिनाथस्य अहेतः।।२८ दीप अनुक्रम [१९४] croeceivedeseverseaesercercerstocrace ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२००] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१९६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... मूलं [२००] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- यावत् प्रक्षीणस्य ( एगे सागरोवमकोडिसयसहस्से विकते ) एकः सागरोपमकोटीनां लक्षः व्यतिक्रान्तः | (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलवत् (तंच इमं तिवास अद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं कणगमिचाइ) तत् कीदृशं ? -त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । श्रीसुमतिनिर्वाणान्नव| तिसहस्रसागरकोटिभिः श्रीपद्मप्रभनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यून दशकोटिसहस्र सागरैः श्रीवीरनिर्वाणं, ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ ( २०० ) ॥ ५ ॥ ( अभिनंदणस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स ) अभिनन्दनस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( दस सागरोवमकोडिसय सहस्सा विकता) दश सागरोपमकोटिलक्षाः व्यतिक्रान्ताः ( सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलवत् (तं च इमं तिवास अद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमियाद ) तत् कीदृशं ? - त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । श्रीअभिनन्दननिर्वाणात् सागरकोटीनां नवभिर्लक्षैः श्रीसुमतिनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्त्रै न्यूनैकलक्ष कोटिसागरैः श्रीवीरनिर्वृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (२०१) ||४|| ( संभवस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) सम्भवस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (वीसं सागरोवमकोडिसयसहस्सा विकता ) विंशतिः सागरोपमकोटीनां लक्षाव्यतिक्रान्ताः (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलनाथवत् ( तं च इमं, तिवासदनवमासाहिय बायाली | सवाससहस्सेहिं ऊणग मिचाइ ) तत् कीदृशं ? - त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । For Frate & Personal Use Only 312 श्रीजिनानां पुस्तकलि खनस्य चा न्तराणि १० १४ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २०२] | गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २०२] गाथा ||२..|| कल्प.वो व्या०७ ॥१४॥ श्रीसंभवनिर्वाणात् सागरकोटीनां दशभिर्लक्षैः श्रीअभिनन्दननिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकद्विचत्वा-18 पुस्तकलिरिंशद्वर्षसहस्रन्यूनदशलक्षकोटिसागरैः श्रीवीरनिवृतिस्ततोनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि।(२०२) खनस्थ चा|३।। (अजियस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) अजितस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (पन्नासं सागरोवमकोडिस-RTI यसहस्सा विइकता) पञ्चाशत् सागरोपमकोटीनां लक्षाः व्यतिक्रान्ताः (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीत-18 लनाथवत् (तं च इमं, तिवासअनवममासाहिय बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमिबाइ) तत् कीदृशं?त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊन इत्यादि । श्रीअजितनाथनिर्वाणात् सागराणां त्रिंशता |कोटीलः श्रीसम्भवनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनविंशतिसागरकोटिलः |श्रीधीरनिर्वृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥(२०३)।।२।। श्रीऋषभनिर्वाणात् सागरकोटीन पश्चाशता लक्षः श्रीअजितनिर्वाण, ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनपञ्चाशत्कोटिलक्षसागरैः श्रीवीरनिवृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ २०३ ॥१॥ ॥ श्रीनमिनाथनिर्वाणथी पञ्च लक्ष वर्षे श्रीनेमिनिर्वाणं,तेवारपछी चोरासी सहस्र , नव शत. एसी वर्षे पुस्तकवाचनादि २१ । श्रीमुनिसुव्रतना निर्वाणथी छलाख वर्षे श्रीनमिनिर्वाण, तेवारपछी पांच लाख, ॥१४४॥ चोर्यासी सहस्र नवशत एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि २० । श्रीमल्लिनाथना निर्वाणथी चोपन लाख वर्षे श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाण, तेवारपछी इग्यार लाख चोर्यासी हजार नबसें एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १९ । श्रीअरनिर्वा दीप अनुक्रम [१९८] Taeeeroenodrad200000 Recenese ~313 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २०४] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २०४] गाथा ||२..|| णथी कोटिसहस्रवर्षे श्रीमल्लिनिर्वाण, तिवारपछी पांसठ लाख , चोर्यासी हजार नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाच- Iश्रीजिनानां नादि १८॥ श्री कुंथुनाथना निर्वाण पछी कोटीसहस्र वर्षे न्यून पल्योपमने चोथे भागे श्रीअरनाथनिर्वाण,तिवा-13 | पुस्तकलिरपछी सहस्र कोटि, पांसठ लाख चोरासी हजार नवसो एंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १७ । श्रीशांतिनाथना | खनस्य चानिर्वाणथी अर्घपल्योपमें श्रीकुंथुनाथ निर्वाण, तिवारपछी पल्योपमनो चोथो भाग. तथा पांसठलाख चोरासीन्तराणि हजार. नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १६ । श्रीधर्मनाधना निर्वाणधी पोणा पल्योपमे न्यून, त्रण सागरोपमें | श्रीशांतिनाथ निर्वाण, तिबार पछी पोj पल्योपम पांसठ लाख चोरासी हजार मचसो एसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १५। श्रीअनंतनाथना निर्वाणधी चारसागरोपमें श्रीधर्मनाथ निर्वाण, तिवारपछी त्रण सागरोपम पांसठ लाख, चोर्यासी हजार नवसो एंसी, वर्षे पुस्तकवाचनादि १४॥ श्रीविमलनाथना निर्वाणथी नवसागरोपमें श्रीअनंतनाथ निर्वाण, तिवारपछी सात सागरोपम.उपर पांसठ लाख.चोरासी हजार नवसो एंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १३ । श्रीवासुपूज्यना निर्वाणथी त्रीस सागरोपमें श्रीविमलनाथ निर्वाण, तिवारपछी सोल सागरोपम पांसठ लाख चोर्यासी हजार नवसो एंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १२। श्रीश्रेयांसना निर्वाणथी चोपन सागरोपमें श्रीवासुपूज्य निर्वाण, तिवारपछी छंतालीस सागरोपम,पांसठ लाख चोर्यासी हजार नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ११। श्रीशीतलनाथना निर्वाणथी एकसो सागरोपम छासठ लाख वीस हजार वर्षे भोछा एवा एककोडी सागरोपमें श्रीश्रेयांस निर्वाण, तिवारपछी ब्रण वर्ष साडा आठ मास अने दीप अनुक्रम [२००] क.मु. २५ For FFU Clu - 314 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२०४] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२००] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......... मूलं [२०४] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- व्या० ७ ॥१४५॥ कल्प. सुबो- बेंतालीस हजार वर्ष न्यून एवा छासठ लाख छवीस हजार वर्षे अधिक एकसो सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १० । श्रीसुविधिनाथना निर्वाणथी नव कोडी सागरोपमें श्रीशीतल निर्वाण, तिचारपछी बेतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठमास एटला न्यून एक कोडी सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ९ । श्रीचंद्रप्रभुना निर्वाणथी नेवु कोडी सागरोपमे श्रीसुविधि निर्वाण, तिचारपछी वेंतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडा आठ मास एटला न्यून दश कोडी सागरोपमें, श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ८ । श्रीसुपार्श्वना निर्वागधी नवसें कोडी सागरोपमें श्रीचंद्रप्रभ निर्वाण, तिवारपछी बेंतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठ मास एटले न्यून एकसो क्रोड सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ७ । श्रीपद्मप्रभना निर्वाणथी नव हजार कोडि सागरोपमें श्रीसुपार्श्व निर्वाण, तिवारपछी त्रण वर्षे साडाआठ मास तथा बैतालीस हजार वर्ष ओछा एक हजार क्रोड सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ६ । श्रीसुमतिनाथना निर्वाणथी नेवु हजार क्रोड सागरोपमें श्रीपद्मप्रभ निर्वाण, तिवार पछी त्रण वर्ष साडा आठ मास बेंतालीस हजार वर्ष ओछा दश हजार क्रोड सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, पछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ५ । श्रीअभिनंदनना निर्वाणधी नव लाख क्रोड सागरोपमें श्रीसुमति 315 श्रीजिनानां पुस्तकलि खनस्य चा न्तराणि २० २५ ॥१४५॥ २७ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २०४] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २०४] गाथा ||२..|| निर्वाण, तिवारपछी त्रण वर्ष साडा आठ मास बेतालीस हजार घर्ष ओछां , एक लाख क्रोड सागरोपमें श्रीजिनानां 18 श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ॥४॥ पुस्तकलि खनस्स चा| श्रीसंभवनाथना निर्वाण पछी दश लाख कोडी सागरोपमें श्रीअभिनंदन निर्वाण, तिवारपछी त्रण वर्ष न्तराणि साडाआठ मास बैंतालीस हजार वर्ष ओछां एवा दश लाख कोडी सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एसी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्रीअजितनाथना निर्वाणथी त्रीस लाख कोडि सागरोपमें श्रीसंभव-IS नाथ निर्वाण, तेवारपछी त्रण वर्ष साडाआठ मास तथा वंतालीस हजार वर्ष ओछां एवा वीश लाख कोडी | |सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्रीऋषभना निर्वाणथी पचास लाख कोडि सागरोपमें श्रीअजित निर्वाण, तेवारपछी त्रण वर्ष साडा आठ मास तालीस हजार वर्ष ओछां एवा पचास लाख क्रोड सागरोपमें श्रीमहावीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १॥ U अथास्याभवसर्पिण्या प्रथमधर्मप्रवर्तकत्वेन परमोपकारित्वात् किञ्चिद्विस्तरतः श्रीऋषभदेवचरित्रं प्रस्तौति(तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं ) तस्मिन् समये (उसभे णं अरहा) ऋषभः अर्हन , कीदृशः?( कोसलिए) कोशलायां-अयोध्यायां जातः कौशलिकः ( चउउत्तरासाढे अभीइपंचमे हुत्था ) चतुए उत्तरा-1 पाढा यस्य स चतुरुत्तराषाढ: अभिजिन्नक्षत्रे पञ्चमं कल्याण के अभवत् ॥ (२०४)॥ दीप अनुक्रम [२००] ... अथ श्री ऋषभदेव-चरित्रं विस्तरेण वर्णयते ~3160 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २०५] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सुबो- व्या०७ (२०५] गाथा ||२..|| ॥१४६ (तंजहा) तद्यथा ( उत्तरासाढाहिं धुए, चइत्ता गम्भं वक्रते ) उत्तराषाढायां च्युतः, च्युत्वा गर्ने उत्पन्नःश्रीषम (जाव अभीहणा परिनिब्बुए ) यावत् अभिजिन्नक्षत्रे निर्वाण प्राप्तः ॥ (२०५)॥ न्मादि मू. (तेणं कालेणं)तस्मिन् काले (तेणं समएण) तस्मिन् समये (उसमे णं अरहा कोसलिए) ऋषभः २०४-२०९ अहन कौशलिकः (जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे) योऽसौ उष्णकालस्य चतुर्थी मास: सप्तमः पक्षा (आसाढबहुले) आषाढस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं आसाढबलस्स चउत्थीपक्खेणं) तस्य आषाढबहुलस्य चतुर्थीदिवसे (सव्वट्ठसिद्धाओ महाविमाणाओ) सर्वार्थसिद्धनामकात् महाविमानात् (तित्तीसंसागरोचमट्टिआओ) त्रयस्त्रिंशत् सागराणि स्थितियंत्र एवंविधात् (अणंतरं चयं चइत्ता) अन्तररहितं च्यवनं कृत्वा | (इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतक्षेत्रे (इक्खागभूमीए) तदा ग्रामादीनामभावात् इक्ष्वाकुभूमिकायां (नाभिकुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए) नाभिनामकुलकरस्य मरुदेवाया भार्यायाः कुक्षी (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रकालसमये-मध्यरात्रौ (आहारवकंतीए जावी गम्भत्ताए वक्रते) दिव्याहारत्यागेन यावत् गर्भतया उत्पन्नः ॥ (२०६)॥ (उसभेणं अरहा कोसलिए) ऋषभः अर्हन् कौशलिका (तिन्नाणोवगए आविहुत्था) त्रिज्ञानोपगतः अभवत् (तंजहा) तद्यथा ( चहस्सामित्ति जाणइ, जाव सुमिणे पासइ) च्योष्ये इति जानाति, यावत् स्वमान् पश्यति (तंजहा) तद्यथा (गयवसहगाहा) ॥१४६॥ गयवसह' इत्यादिगाथाऽत्र वाच्या (सव्वं तहेव नवरं ) सर्व तथैव-पूर्वोक्तवत्, अयं विशेष: (पढम उस २७ दीप अनुक्रम [२०१] Recedeoeaeseseaeoes IO For F lutelu ~317 - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं R०७] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०७] गाथा ||२..|| मुहेणं अइंतं पासेइ) मरुदेवा प्रथमं वृषभं मुखे प्रविशन्तं पश्यति ( सेसाओ गयं) शेषास्तु जिनजनन्यः प्रथम श्रीऋष गजं पश्यन्ति, वीरमाता तु सिंहर्मद्राक्षीत् (नाभिकुलगरस्स साहेह) नाभिकुलकराय च कथयति (सुविण-18 न्मादि म. पाढगा नस्थि) तदा स्खमपाठका न सन्ति ( नाभिकुलगरो सयमेव वागरेइ) अतो नाभिकुलकरः स्वयमेव २०४-२०१ खमफलं कथयति ॥ (२०७)॥ (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (उसभेणं अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे ) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः (चिसघहुले) चैत्रस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स अहमीपक्खेण) तस्य चैत्रबहुलस्य अष्टमीदिवसे (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु (जाव आसाढाहिं नक्ख-18 तेणं जोगमुवागएणं) यावत् उत्तराषाढायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं दारयं पयाया) अरोगा माता अरोगं दारकं प्रजाता ॥ (२०८)। (तं चेव सव्वं जाव देवा देवीओ य वसुहारवासं वासिंसु) तदेव सर्वं यावत् देवाः देव्यश्च वसुधारावर्षणं चक्रुः (सेसं तहेव चारगसोहणमाणुम्माणवद्धणउस्सुकमाइय. ठिइवडियजयवजं सर्व भाणिअबं) शेषं तथैव-पूर्वोक्तप्रकारेण बन्दिमोचनमानोन्मानवर्द्धनशुल्कमोचनप्रमु खस्थितिपतितायूपवर्ज सर्वं भणितव्यम् ॥ (२०९)॥ __ अथ देवलोकच्युतोऽद्भुतरूपोऽनेकदेवदेवीपरिबृतः सकलगुणैस्तेभ्यो युगलमनुष्येभ्यः परमोत्कृष्टः क्रमेण प्रवर्द्धमानः सन्नाहाराभिलाषे सुरसश्चारितामृतरससरसा अङ्गुलिं मुखे प्रक्षिपति, एवं अन्येऽपि तीर्थङ्करा बाल्ये दीप अनुक्रम [२०३] Q.१४ JABEducati o nal For F lutelu ~3180 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२०५] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) मूलं [२१०] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- ---------. व्या० ७ ॥ १४७॥ कल्प, सुबो- अवगन्तव्याः, बाल्यातिक्रमे पुनरग्निपक्काहार भोजिनः, ऋषभस्तु प्रव्रज्यां यावत् सुरानीतोत्तरकुरुकल्पद्रुमफ-वंशस्थापन लान्याखादितवान्, अथ सञ्जाते किञ्चिदूनवर्षे च भगवति प्रथमजिनवंशस्थापनं शक्रजीतमिति विचिन्त्य कथं रिक्तपाणिः स्वामिसमीपं यामीति महतीं इक्षुयष्टिं आदाय नाभिकुलकरांङ्कस्यस्य प्रभोरंग्रे तस्थौ दृष्ट्वा चेक्षुयष्टिं हृष्टवदनेन स्वामिना करे प्रसारिते इक्षु भक्षयसीति भणित्वा तां दत्त्वा इक्ष्वभिलाषात् खामिनो वंश इक्ष्वाकुनामा भवतु, गोत्रं अपि अस्य एतत्पूर्वजानां इक्ष्वभिलाषात्काश्यपनामेति शक्रो वंशस्थापनां कृतवान् । अथ किञ्चिद्युगलं मातृपितृभ्यां तालवृक्षाघो मुक्तं, तस्मात्पतता तालफलेन पुरुषो व्यापादितः, प्रथमोऽयं अकालमृत्युः, अथ सा कन्या मातापित्रोः खर्गतयोः एकाकिन्येव वने चचार, दृष्ट्वा च तां सुन्दरीं युगलिकनरा नाभिकुलकराय न्यवेदयन्, नाभिरपि शिष्टयं सुनन्दानाम्नी ऋषभपत्नी भविष्यतीति लोकज्ञापनपुरस्सरं तां जग्राह ततः सुनन्दासुमङ्गलाभ्यां सह प्रवर्द्धमानो भगवान् यौवनं अनुप्राप्तः, इन्द्रोऽपि प्रथमजिन| विवाहकृत्यं अस्माकं जीतमिति अनेक देवदेवीकोटिपरिवृतः समागत्य स्वामिनो वरकृत्यं स्वयमेव कृतवान्, वधूकृत्यं च द्वयोरपि कन्ययोर्देव्य इति, ततस्ताभ्यां विषयोपभोगिनो भगवतः षलक्षपूर्वेषु गतेषु भरतब्राह्मीरूपं युगलं सुभङ्गला, बाहुबलिसुन्दरीरूपं युगलं च सुनन्दा प्रसुषुवे तदनु चैकोनपंचाशत् पुत्रयुगलानि क्रमात् सुमंगला प्रसूतवती।' (उसमे णं अरहा कोसलिए कासवगुत्तेणं) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः काश्यपगोत्रीयः (तस्स णं पंच नामधिजा For Frate & Personal Use Only 319 सुनन्दा ग्रहादि २० २५ ॥ १४७॥ २८ janelibrary.org Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२०५] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) मूलं [२१०] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- ---------. एवमाहिज्जंति) तस्य प्रभोः पञ्च नामधेयानि एवं आख्यायन्ते (तंजहा) तद्यथा (उसने इ वा १ पढमराया इ वा २) ऋषभ इति वा १ प्रथमराजा इति वा २ (पढमभिक्खायरे इ वा ३) प्रथमभिक्षाचर इति वा ३ ( पढमजिणे इ वा ४ ) प्रथमजिन इति वा ४ ( पढमतित्थंकरे इ वा ५) प्रथमतीर्थङ्कर इति वा ५, तत्र इकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारे, प्रथमराजा स चैवं -- कालानुभावात् क्रमेण प्रचुरकषायोदयात् परस्परं विवदमानानां युगलिकानां | दण्डनीतिस्तावत् विमलवाहनचक्षुष्मत्कुलकर कालेऽल्पापराघित्वेन हकाररूपैचाभूत्, यशखिनोऽभिचन्द्रस्य च काले अल्पेऽपराधे हक्काररूपा महति च अपराधे मकाररूपा, प्रसेनजिन्मरुदेवनाभिकुलकरकाले च जघन्यमध्यमोत्कृष्टापराधेषु क्रमेण हकारमकारधिकाररूपा दण्डनीतयोऽभूवन, एवमपि नीत्यतिक्रमेण ज्ञानादिगुणाधिकं भगवन्तं विज्ञाय युगलिभिर्भगवन्निवेदने कृते खाम्याह- 'नीतिमतिक्रमतां दण्डं सर्वं राजा करोति स चाभिषिक्तोऽमात्यादिपरिवृतो भवति' एवं उक्ते तैरूचे - अस्माकं अपि ईदृशो राजा भवतु, खाम्याह- पाचवं नाभिकु लकरं राजानं, तैर्याचितो नाभिः -'भो भवतां ऋषभ एव राजा' इत्युक्तवान्, ततस्ते राज्याभिषेक निमित्तमुदका - नयनाय सरः प्रति गतवन्तः, तदा च प्रकम्पितासनः शक्रो जीतमिति समागत्य मुकुटकुण्डलाभरणादिपरिष्क्रि यापुरस्सरं भगवन्तं राज्येऽभिषिञ्चति स्म, युगलिकनरास्तु नलिनपत्रस्थितजलहस्ता अलङ्कृतं भगवन्तं निरीक्ष्य विस्मिताः क्षणं विचार्य भगवतः पादयोर्जलं प्रक्षिप्तवन्तः तच दृष्ट्वा तुष्टः शक्रोऽचिन्तयत्-अहो विनीता एते पुरुषा इति वैश्रमणं आज्ञापितवान् यदिह द्वादशयोजनविस्तीर्णा नवयोजनविष्कम्भां विनीतां नाम्नीं नगरीं 320~ प्रथमेनृपत्वं नगरी निवे शनम् ५ १० १४ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं R१०] / गाथा [२...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: काससुबोव्या०७ प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ||२..|| ॥१४८ निष्पादयेत्याज्ञासमनन्तरमेव रत्नसुवर्णमयभवनपत्रिपाकारोपशोभितां नगरीमवासयत्, ततो भगवान् राज्ये अग्नरुत्पहस्त्यश्वगवादिसङ्ग्रहपुरस्सरं उग्रभोगराजन्यक्षत्रियलक्षणानि चत्वारि कुलानि व्यवस्थापितवान् , तत्रोपदण्ड-तिः शिल्पकारित्वादुग्रा आरक्षकस्थानीयाः१ भोगार्हत्वाद् भोगा गुरुस्थानीयाः २ समानवयस इतिकृत्वा राजन्या दर्शनम् वयस्यस्थानीयाः ३ शेषाः प्रधानप्रकृतितया क्षत्रियाश्च ४ । तदा च कालपरिहाण्या ऋषभकुलकरकाले कल्पद्रुमफललार्भाभावेन ये इक्ष्वाकास्ते इक्षुभोजिनः शेषास्तु प्रायः पत्रपुष्पफलभोजिनोऽग्नेरभावाचापकशाल्याचीषधीमोजिनाभूवन, कालानुभावासदजीणे च खल्पं खल्पतरं च भुक्तवन्तः, तस्यापजीणे भगवद्वचसाहा हस्ताभ्यां दृष्ट्वा स्वचं अपनीय भुक्तवन्तः, तथाप्यजीणे प्रभूपदेशात् पत्रपुटे जलेन क्लेदयित्वा तण्डलादीन भुक्तवन्तः, एवमप्यजीणे कियतीमपि वेलां हस्ततलपुटे क्लेदयित्वा हस्ततलपुटे संस्थाप्य, पुनरप्यजीणे कक्षासु खेद-18 यित्वा, तथाप्यजीणे हस्ताभ्यां पृष्ट्वा पत्रपुटे क्लेदायित्वा हस्ततलपुटे संस्थाप्पत्यादिबहुप्रकारैरन्नभोजिनो बभू-16 वांसः। एवं सत्येकदा दुमघर्षणान्नवोत्थितं प्रवृद्धज्वलज्ज्वालं तृणकलापं कवलयन्तं अग्निमुपलभ्याभिनवरत्नबुद्ध्या प्रसारितकरा दह्यमाना भयभीताः सन्तो युगलिनो भगवन्तं विज्ञपयामासुः, भगवता चाग्नेरुत्पति विज्ञाय । २५ |भो युगलिका ! उत्पन्नोऽग्निः अत्र च शाल्यायौषधीनिधाय भुमध्वं यतस्ताः सुखेन जीर्यन्तीत्युपाये कथिते. प्यनभ्यासात् सम्यगुपायं अजानाना औषधीरनौ प्रक्षिप्य कल्पद्रोः फलानींव याचन्ते, अग्निना च ताः सर्वतो । ॥१४८॥ दखमाना दृष्ट्वा अयं पापात्मा वेताल इवातृप्तः खयमेव सर्व भक्षयति नॉस्माकं किञ्चित् प्रयच्छत्तीत्यतोऽस्या दीप अनुक्रम [२०५] Oraneloraryana ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२०५] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१०] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- पराधं भगवते विज्ञप्य शिक्षां दापयिष्याम इति बुद्ध्या गच्छन्तः पथि भगवन्तं हस्तिस्कन्धारूढं अभिमुखमागच्छन्तं दृष्ट्वा यथास्थितं व्यतिकरं भगवते न्यवेदयन्, भगवांश्चाह-अत्र पीठरादिव्यवधानेन भवद्भिर्घान्यादिप्रक्षेपः कार्य इत्युक्त्वा तैरेव मृत्पिण्डं आनाय्य निधाय च हस्तिकुम्भे मिण्ठेन कुम्भकारशिल्पं प्रथमं न्यदर्शयत् उक्तवांश्च - एवंविधानि भाण्डानि विधाय तेषु पाकं कुरुध्वमिति, भगवदुक्तं सम्यगुपायमुपलभ्य ते तथैव कृतवन्तः, अतः प्रथमं कुम्भकारशिल्पं प्रवर्त्तितं, ततो लोहकार १ चित्रकार २ तन्तुवाय ३ नापितशिल्प ४ लक्षणानि चत्वारि शिल्पानि, एतेषां च पञ्चानां मूलशिल्पानां प्रत्येकं विंशत्या भेदैः शिल्पशतं तंचाचार्योपदेशजमिति ॥ ( २१० ) । ( उसमे णं अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः ( दुक्खे दक्खपन्ने पडिवे आलीणे भद्दए विणीए ) दक्षः दक्षा प्रतिज्ञा यस्य स तथा सुन्दररूपवान् सर्वगुणैरालिङ्गितः सरलपरिणामः विनयवान् (वीसं पुब्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्झे वसित्ता) विंशतिलक्षपूर्वाणि यावत् कुमारावस्थायां उषित्वा (तेवहिं पुव्वसयसहस्साई रजवासमज्झे वसई ) त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि यावत् राज्यावस्थायां वसति ( तेवट्ठि न्च पुव्वसयसहस्साई रज्जवासमज्झे वसमाणे ) त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि यावत् राज्यावस्थायां च वसन् सन् (लेहाइओ गणिय पहाणाओ ) लिखनं आदौ यासां तास्तथा गणनं प्रधानं श्रेष्ठं यासां तास्तथा, तथा ( सउणरयपजवसाणाओ ) पक्षिणां शब्दः स पर्यवसाने प्रान्ते यासां तास्तथा ( बावन्तरिं कलाओ ) एवंविधाः द्वास ~322~ राज्य कार्यम् १४ janelibrary.org Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं R११] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत कलाः सूत्रांक [२११] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- सतिः पुरुषकलाः, लेखादिका द्वासप्ततिः कला, ताश्चेमाः-लिखितं १ गणितं २ गीतं ३ नृत्यं ४ वाद्यं च ५ पठन- द्वासप्ततिः व्या०७६ शिक्षे च ७॥ ज्योति ८ श्छन्दो ९ऽलङ्कृति १० व्याकरण ११ निरुक्ति १२ काव्यानि १३ ॥१॥ कात्यायन १४ निघण्टु १५ र्गजतुरगारोहणं १६-१७ तयोः शिक्षा १८ । शस्त्राभ्यासो १९ रस २० मन्त्र २१-11 ॥१४९।। यत्र २२ बिष २३ खन्य २४ गन्धवादाश्च २५ ॥ २ ॥ प्राकृत २६ संस्कृत २७ पैशाचिका २८sपभ्रंशाः २९ स्मृतिः ३० पुराण ३१ विधी ३२ । सिद्धान्त ३३ तर्क ३४ वैदक ३५ वेदा ३६ ऽगम ३७संहिते, ३८ तिहासाश्च ३९॥३॥ सामुद्रिक ४० विज्ञाना ४१ ऽऽ चार्यकविद्या ४२ रसायनं ४३ कपटम् ४४॥ विद्यानुवाददर्शन ४५ संस्कारी ४६ धूर्तसम्बलकम् ४७॥ ४॥ मणिकर्म ४८ तरुचिकित्सा ४९ खेचर्य ५०मरीकले ५१न्द्रजालं च ५२ । पातालसिद्धि ५३ यन्त्रक ५४ रसवत्यः ५५ सर्वकरणी च ५६॥५॥ प्रासादल-10 क्षणं ५७ पण ५८ चित्रोपल ५९ लेप ६. चर्मकर्माणि ६१। पत्रच्छेद १२ नखच्छेद ६३ पत्रपरीक्षा ६४ वशीकर-18 णम् ६२॥६॥ काष्ठघटन ६६ देशभाषा ६७ गारुड ६८ योगात ६९ धातुकर्माणि ७०। केवलिविधि ७१शकुनरुते ७२ इति पुरुषकला द्विसप्ततियाः।। ७ । अत्र लिखितं हंसलिप्यायष्टादशलिपिविधानं, तच २५ भगवता दक्षिणकरेण ब्राहया उपदिष्टं, गणितं तु एक दश शतं सहस्रं अयुतं लक्षं प्रयुतं कोटिः अर्बुद अब्ज ॥१४९॥ खर्व निखर्व महापद्मं शङ्कः जलधिः अन्त्यं मध्यं परार्धं चेति यथाक्रमं दशगुणं इत्यादि सङ्ख्यानं सुन्दाः वामकरेण, काष्ठकर्मादिरूपं कर्म भरतस्य पुरुषादिलक्षणं च बाहुबलिन उपदिष्टमिति ।। दीप अनुक्रम [२०६] २८ PORN ... अथ द्वासप्तति: (७२) कलानां निर्देश: क्रियते - ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२०६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) मूलं [२११] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: ---------- ---------. (उस िमहिलागुणे ) चतुःषष्टिः स्त्रीकलाः, तामाः - ज्ञेया नृत्य १ चित्ये २ चित्रं ३ वादित्र ४ मन्त्र५तन्त्राश्च ६ । घनषृष्टि ७ फलाकृष्टी ८ संस्कृतजल्पः ९ क्रियाकल्पः १० ॥ १ ॥ ज्ञान ११ विज्ञान १२ दम्भ १३स्तम्भा १४ गीत १५ तालयो १६ मनम्। आकारगोपना १७ रामरोपणे १८ काव्यशक्ति १९ वक्रोक्ती ३० ॥ २ ॥ नरलक्षणं २१ गज २२ हयवरपरीक्षणे २३ वास्तुशुद्धिलघुबुद्धी २४ । शकुनविचारो २५ धर्माचारो २६ऽञ्जन २७ चूर्णयोयोगाः २८ ॥ ३ ॥ गृहिधर्म २९ सुप्रसादनकर्म ३० कनकसिद्धि ३१ वर्णिकावृद्धी ३२ । वाक्पाटव ३३ करलाघव ३४ ललितचरण ३५ तैलसुरभिताकरणे ३६ ॥ ४ ॥ भृत्योपचार ३७ गेहाचारो ३८ व्याकरण ३९ परनिराकरणे ४० । वीणानाद ४१ वितण्डाबादो ४२ ऽङ्कस्थिति ४३ र्जनाचारः ४४ ॥ ५ ॥ कुम्भभ्रम ४५ सारिश्रम ४६ रनमणिभेद ४७ लिपिपरिच्छेदाः ४८ । वैद्यक्रिया च ४९ कामाविष्करणं ५० रन्धनं ५१ चिकुरबन्धः ५२ ॥ ६ ॥ शालीखण्डन ५३ मुखमण्डने ५४ कथाकथन ५५ कुसुम| सुग्रधने ५६ । वरवेष ५७ सर्वभाषाविशेष ५८ वाणिज्य ५९ भोज्ये च ६० ॥ ७ ॥ अभिधानपरि ज्ञाना ६१ ss भरणयथास्थानविविधपरिधाने ६२ । अन्त्याक्षरिका ६३ प्रश्नप्रहेलिका ६४ स्त्रीकलाः चतुःषष्टिः॥८॥ ( सिप्पस च कम्माणं ) कर्मणां कृषिवाणिज्यादीनां मध्ये कुम्भकारशिल्पादिकं प्रागुक्तं शिल्पशतमेव भगवतोपदिष्टं, अत एवानाचार्योपदेशजं कर्म आचार्योपदेशजं च शिल्पमिति कर्मशिल्पयोविंशेमामनन्ति, कर्माणि च क्रमेण स्वयमेव समुत्पन्नानि (तिनिवि पयाहिआए उवदिसह ) त्रीण्यप्येतानि 324 चतुष्पष्टिमहिला गुणाः ५ १० १४ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २११] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ||२..|| प्र.सबो-द्वाससतिपुरुषकला,चतुःषष्टिमहिलागुणशिल्पशताख्यानि वस्तूनि प्रजाहिताय भगवानुपदिशति स ( उव- शतनन्दनव्या७ दिसित्ता) उपदिश्य च (पुत्तसयं रजसए अभिसिंचइ ) पुत्राणां शतं राज्यशते स्थापयति, तत्र भरतस्य नामानि विनीतायां मुख्यराज्यं बाहुबलेश्च बहलीदेशे तक्षशिलायां राज्यं दत्त्वा शेषाणां अष्टनवतिनन्दनानां पृथक ॥१५॥ पृथक देशान विभज्य दत्तवान्, नन्दननामानि मानि___भरतः १.बाहुबलिः २ शङ्ख: ३ विश्वकर्मा ४ विमल: ५ सुलक्षण: ६ अमलः ७चित्राङ्गः ८ ख्यातकीतिः९ वरदत्तः १० सागरः ११ यशोधरः १२ अमरः १३ रथवरः १४ कामदेवः १५ ध्रुवः १६ वत्सो १७ मन्दः १८ सूरः १९ सुनन्दः २० कुरुः २१ अङ्गः २२ बङ्गः २३ कोशल: २४ वीर: २५ कलिङ्ग: २६ मागधः २७ विदेहः २८ सङ्गमः २९ दशाण: ३० गम्भीरः ३१ वसुवर्मा ३२ सुवर्मा ३३ राष्ट्र: ३४ सुराष्ट्र ३५ बुद्धिकरः ३६ विविधकरः ३७ सुपशाः ३८ यश कीतिः ३९ यशस्करः४० कीर्तिकरः ४१ सूरणः ४२| ब्रह्मसेनः ४३ विक्रान्तः ४४ नरोत्तमः ४५ पुरुषोत्तमः ४६ चन्द्रसेनः ४७ महासेनः ४८ नभासेनः ४९ भानुः ५० सुकान्तः ५१ पुष्पयुतः ५२ श्रीधरः ५३ दुद्धर्षः ५४ सुसुमारः ५५ दर्जयः ५६ अजयमानः ५७।। सुधर्मा ५८ धर्मसेनः ५९ आनन्दनः ३० आनन्दः ६१ नन्दः ६२ अपराजितः ६३ विश्वसेनः ६४ हरिषेण: १५०॥ ६५ जयः ६६ विजयः ६७ विजयन्तः ६८ प्रभाकरः ६९ अरिदमन: ७० मानः ७१ महाबाहुः ७२ दीर्घयाहुः ७३ मेघः ७४ सुघोषः ७५ विश्वः ७६ वराहः ७७ सुसेनः ७८ सेनापतिः ७९ कपिलः ८० शैलविचारी ८१ अरि- २८ दीप अनुक्रम [२०६] For F lutelu ... अत्रश्री रुशभदेवस्य पूत्रानां नामानि दर्शयते ~3250 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२०६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] मूलं [२११] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: क. सु. २६ ---------- ---------. जयः ८२ कुञ्जरवलः ८३ जयदेवः ८४ नागदसः ८५ काश्यपः ८६ वलः ८७ वीरः ८८ शुभमतिः ८९ सुमति: ९० पद्मनाभः ९१ सिंहः ९२ सुजातिः ९३ सञ्जयः ९४ सुनाभः ९५ नरदेवः ९६ चित्तहरः ९७ सुरवरः ९८ दृढरथः ९९ प्रभञ्जनः १०० इति । राज्यदेशनामानि तु अङ्गः १ वङ्गः २ कलिङ्गः ३ गौडः ४ चौडः | १५ कर्णाट ६ लाट ७ सौराष्ट्र ८ काश्मीर ९ सौवीर १० आभीर ११ चीण १२ महाचीण १३ गूर्जर १४ बङ्गाल - १५ श्रीमाल १६ नेपाल १७ जहाल १८ कौशल १९ मालव २० सिंहल २१ मरुस्थला २२ दीनि ॥ (अभिसिंचिता ) स्थापयित्वा (पुणरवि लोअंतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं ) पुनरपि लोकान्तिकैः जीतकल्पिकैः देवैः (ताहिं इद्वाहिं जाव वग्गूहिं) ताभिः इष्टाभिः यावद् वाग्भिः उक्तः सन् ( सेसं तं चेव सर्व भाणिअहं जाव दाणं दाइआणं परिभाइत्ता) शेषं तदेव पूर्वोक्तं सर्वं भणितव्यं यावत् धनं गोत्रिणां विभज्य दवा (जे से गिम्हाणं पढने मासे पढमे पत्रले चित्तबहुले ) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः चैत्रबहुल: ( तस्स णं चित्तबहुलस्स अट्ठमीपक्खेणं) तस्य चैत्रबहुलस्य अष्टमीदिवसे ( दिवसरस | पच्छिमे भागे ) दिवसस्य पश्चिमे भागे (सुदंसणा सिबिआए) सुदर्शनायां नाम शिविकायां (सदेवमणु| आसुराप परिसाए समणुगम्यमाणमग्गे) देवमनुजासुरसहितया पर्षदा जनश्रेण्या समनुगम्यमानमार्गः (जाव विणीयं रायहाणिं मज्मज्झेणं निग्गच्छ) यावत् विनीतायाः नगर्याः मध्यभागेन निर्गच्छति (निग्गच्छिता) निर्गत्य ( जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे ) यत्रैव सिद्धार्थवनं उद्यानं ( जेणेव असोग वर पायवे ) ... अथ श्री रुषभदेवस्य दीक्षा कल्याणकस्य वर्णनं 326 श्रीऋषभ दीक्षा सू. २११ ५ १० १४ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२०६] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......... मूलं [ २११] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ७ ॥ १५१ ॥ ---------- यत्रैव अशोकनामा प्रधानवृक्षः (तेणेव उवागच्छद्द) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य ( असोगव रपायवस्स अहे ) अशोकवरवृक्षस्य अधः (जाव सयमेव च मुट्ठिअं लोअं करेइ ) यावत् आत्मनैव चतुमष्टिकं लोचं करोति, चतसृभिर्मुष्टिभिर्लोचे कृते सति अवशिष्टां एकां मुष्टिं सुवर्णवर्णयोः स्कन्धयोरुपरि लुटंतीं कनककलशोपरि विराजमानां नीलकमलमालामिव विलोक्य हृष्टचित्तस्य शक्रस्य आग्रहेण रक्षितवान्, (करिता) लोचं कृत्वा (छणं भत्तेणं अपाणएणं ) षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन (आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुबागएणं) उत्तराषाढायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (उग्गाणं भोगाणं राइन्नाणं खत्तिआणं च ) उग्राणां भोगानां राजन्यानां क्षत्रियाणां च ( चउहिं सहस्सेहिं सद्धिं ) कच्छमहाकच्छादिभिश्चतुर्भिः सहस्रैः सह, 'यथा स्वामी करिष्यति तथा वयमपि करिष्याम' इति कृतनिर्णयैः सार्द्धं, ( एगं देवसमादाय ) एकं देवदृष्यमादाय (मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचइए) मुण्डो भूत्वा गृहान्निष्क्रम्य अनगारितां प्रतिपन्न:दीक्षां गृहीतवान् ॥ ( २११ ) ॥ (उसमे णं अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः ( एगं वाससहस्सं ) एकं वर्षसहस्रं यावत् ( निश्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे ) नित्यं व्युत्सृष्टकायः व्यक्तदेहः सन् विचरति ॥ अथ प्रवज्यां प्रतिपय गृहीतघोराभिग्रहो भगवान् ग्रामानुग्रामं विहरति स्म, तदानीं लोकस्यातिसमृद्धत्वात् का भिक्षा कीदृशा वा भिक्षाचरा इति कोऽपि वार्त्ता न जानाति, ततस्ते सहप्रव्रजिताः क्षुधादिपीडिता भगवन्तं आहारोपायं पृच्छन्ति, For Fr & Personal Use Only ~327~ कच्छादीनां तापस त्वम् २० २५ | ।। १५१ ।। २८ janelba Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २१२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत मिविनम्योर्विद्या धरत्वम् सूत्रांक २१२] गाथा ||२..|| ecececenesseneededesesesese भगवांस्तु मौनी न किमपि प्रतिवक्ति, ततस्ते कच्छमहाकच्छौ प्रति विज्ञप्तिं चकुः, तो अपि ऊचतु:-यत्न वयमपि आहारविधि न जानीमा, पूर्व तु भगवान् न पृष्टः, इदानीं आहारं विना तु स्थातुं न शक्यते, भरतलजया गृहेऽपि गन्तुं अयुक्तं, ततो विचार्यमाणो वनवास एव श्रेयान् इति विचार्य भगवन्तं एवं ध्यायन्तो गङ्गातटे परिशटितपत्राद्युपभोगिनोंऽसंस्कृतकेशकूर्चा जटिलास्तापसा जज्ञिरे ॥ इतश्च कच्छमहाकच्छसुतौ भगवता पुत्रत्वेन प्रतिपन्नौ नमिचिनमिनामानी देशान्तरादागती, भरतेन दीयISIमानं राज्यभागं अवगणय्य पितृवचसा भगवत्समीपमागत्य प्रतिमास्थिते भगवति नलिनीपत्रैर्जलमानीय सर्वतो भूमिसिश्चनं.जानुप्रमाणं कुसुमोचयं च कृत्वा पञ्चाङ्गप्रणामपूर्वकं राज्यभागप्रदो भवेति प्रत्यहं विज्ञपयन्तौ जिनं, सिषेवतुः,तो चान्यदातथा वीक्ष्य वन्दनार्थमांगतो धरणेन्द्रो भगवद्भत्त्या सन्तुष्टोऽवादीत्-भो! भगवान् निःसङ्गो मा भगवन्तं याचेथां, भगवद्भक्त्याऽहमेव युवाभ्यां दास्यामीति भणित्वा अष्टचत्वारिंशत्सहस्रसङ्ख्याका (४८०००) विद्याः तत्र गौरी-गान्धारी-रोहिणी-प्रज्ञप्तिलक्षणाश्चतस्रो महाविद्याश्च पाठसिद्धा एव दत्तवान्, यच्चोक्तं किरणावलीकारेण 'अष्टचत्वारिंशत्सङ्ख्याका (४८) इति' तयुक्तं, आवश्यकवृत्ती अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणां (४८०००) उक्तत्वात् ,अथ विद्या दत्त्वा उक्तवांश्च इमाभिर्विद्याधरद्धिप्राप्ती सन्तौ खजनं जनपदं च गृहीत्वा यातंयुवां वताये नगे दक्षिणविद्याधरश्रेण्यां गौरेयगान्धारप्रमुखानष्टौ निकायान् रथनूपुरचक्रवालप्रमुखाणि पश्चाशनगराणि, उत्तरश्रेण्यां च पण्डकवंशालयप्रमुखानष्टौ निकायान् गगनवल्लभप्रमुखाणि च षष्टिनगराणि निवास्य विहरतमिति, दीप अनुक्रम [२०७] १४ ~328 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१२] गाथा ||3..|| दीप अनुक्रम [२०७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२१२] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो च्या० ७ ॥१५२॥ ---------- ---------. ततस्तौ कृतकृत्यां खपित्रोर्भरतस्य च तं व्यतिकरं निवेद्य दक्षिणश्रेण्यां नमिः, उत्तरश्रेण्यां विनभिश्च तस्यतुः ॥ भगवांश्रान्नपानादिदानाकुशलैः समृद्धिमद्भिर्जनैर्वस्त्राभरण कन्या दिभिर्निमन्त्रयमाणोऽपि योग्यां भिक्षां अलभमानोऽदीनमनाः कुरुदेशे हस्तिनागपुरे प्रविष्टः, तत्र च आवश्यकवृत्यनुसारेण बाहुबलिसुतसोमप्रभसुतः श्रेयांसो युवराजः, स च मया श्यामवर्णी मेरुरंमृतकलशेनाभिषिक्तोऽतीय शोभितवानिति स्वमं दृष्टवान्, सुबुद्धिनामा नगर श्रेष्ठी, सूर्यमण्डलात् स्रस्तं किरणसहस्रं पुनः श्रेयांसेन तत्र योजितं ततस्तदंतीवांशोभत इति स्वममैक्षत, राजाऽपि खझे महापुरुष एको रिपुबलेन युध्यमानः श्रेयांससहायाज्जयी जात इति ददर्श, श्रयोऽपि प्राप्ताः सभायां सम्भूय स्वप्नान् परस्परं न्यवेदयन् ततो राज्ञा कोऽपि श्रेयांसस्य महान् लाभो भावीति निर्णीय विसर्जितायां पर्षदि श्रेयांसोऽपि खभवने गत्वा गवाक्षस्यः स्वामी न किञ्चिल्लातीति जनकोलाहलं श्रुत्वा खामिनं वीक्ष्य च मया कापीदृशं नेपथ्यं दृष्टपूर्व इतीहापोहं कुर्वन् जातिस्मरणं प्राप, अहो अहं पूर्वभवे भगवतः सारथिर्भगवता सह दीक्षां गृहीतवान्, तदा च वज्रसेनजिनेन कथितमासीद् यदयं वज्रनाभो भरतक्षेत्रे प्रथमो जिनो भावीति स एष भगवान्, तदानीमेव तस्यैको मनुष्यः प्रधानेक्षुरसकुम्भसमूहप्राभृतमौदाय आगतः, ततोऽसौ तत्कुम्भमादाय भगवन् ! गृहाणेमां योग्यां भिक्षामिति जगाद, भगवताऽपि पाणी प्रसारितौ निसृष्टश्च तेन सर्वोऽपि रसः, न चात्र विन्दुरप्यधः पतति किन्तूंपरि शिखा वर्द्धते यतः - 329 दानख श्रे यांसोपज्ञता २० २५ ॥१५२॥ २७ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २१२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २१२] गाथा ||२..|| sarees माइज घटसहस्सा, अहवा माइज सागरा सन्थे । जस्सेयारिस लद्दी, सो पाणिपडिग्गही होई ॥१॥ पारणं अत्र कवि-स्वाम्याह दक्षिणं हस्तं, कथं भिक्षा न लासि भोः। स प्राह दातृहस्तस्याधो भवामि कथं प्रभो! दिल्यानि I॥२॥ यतः- पूजाभोजनदानशान्तिककलापाणिग्रहस्थापनाचोक्षक्षणहस्तकापेणमुखव्यापारबद्धस्त्वहम् । । अष्टमका इत्यभिधाय दक्षिणहस्ते स्थिते-वामोऽहं रणसम्मुखाकगणनावामाङ्गशय्यादिकृत, घूतादिव्यसनी त्वंसौ8 स तु जगी, चोक्षोऽस्मि न त्वं शुचिः ॥२॥ ततः-राज्यश्रीर्भवताअर्जितार्थिनिवहस्त्यागैः कृतार्थीकृतः, सन्तुष्टोऽपि गृहाण दानमधुना,तन्वन् दयां दानिषु । इय॑न्दं प्रतिबोध्य हस्तयुगलं,श्रेयांसतः कारयन, प्रत्यग्रेक्षुरसेन पूर्णमृषभ: पायात् स वा श्रीजिनः॥३॥ श्रेयांसस्य दानावसरे-नेत्राम्बुधारा चाग्दुग्धधारा धाराधरस्य च । स्पर्धया चर्द्धयामासुः, श्रीधर्मद्रं तदाशये ॥४॥ ततस्तेन रसेन भगवता सांवत्सरिकतपःपारणा कृता, पञ्च दिव्यानि जातानि-वसुधारावृष्टिः१चेलोत्क्षेपः २व्योनि देवदुन्नुभिः३ गन्धोदकपुष्पवृष्टिः ४ आकाशे अहो दानमहो दानमिति घोषणं च ५, ततः सर्वोऽपि लोकः ते तापसाश्च तत्र मिलिता, अथ श्रेयांसस्तान मज्ञापयति-भोजनाः! सद्गतिलिप्सया एवं साधुभ्य एषणीयाहारभिक्षा दीयते, इत्यस्यां अवसर्पिण्यां श्रेयांसोपझं दानं, 'त्वया एतत् कथं ज्ञातं' इति लोकै पृष्टश्च स्वामिना सह खकीयं अष्टभवसंबन्धं आचष्ट, यदा स्वामीशाने ललितास्तदाऽहं पूर्वभवे निर्नामिकानानी खयंप्रभा देवी १ ततः पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविजये लोहार्गले नगरे १मायुर्घटाः सहस्त्रा अथवा मायुः सागराः सर्वे । यस्यैतादशी लन्धिः स पाणिपतग्राही भवति ॥१॥ दीप अनुक्रम [२०७] aeseseseseseseseeease JanEducation For Fun A njaneibraryana ... अथ भगवंत ऋषभस्य प्रथम पारणकं एवं अष्ट भवानां वर्णनं ~330 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २१२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २१२] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- व्या०७ ॥१५॥ १५ भगवान् वज्रजङ्घस्तदानीमहं श्रीमती भार्या २ तत उत्तरकुरौ भगवान युगलिकोऽहं युगलिनी ३ ततः सौ-श्रीऋषभस धर्म द्वावपि मित्रदेवौ ४ ततो भगवानपरविदेहे वैद्यपुत्रस्तदाहं जीर्णश्रेष्ठिपुत्रः केशवनामा मित्रं ५ ततोऽच्यु- केवलम् तकल्पे देवौ ६ ततः पुण्डरीकियां भगवान् वज्रनाभचक्री तदाहं सारथिः ७ ततः सर्वार्थसिद्धविमाने देवास.२१२ इह भगवतः प्रपौत्र' इति, एवं श्रुत्वा सर्वोऽपि जन:-रिसंहेससमं पत्तं, निरवजं इकखुरससमं दाणं । सेअंस-1 समो भावो,हविज जइ मग्गिअं हुज्जा' ॥१॥ इत्यादि स्तुवन् स्वस्थानं गतः, एवं दीक्षादिनादारभ्य प्रभोर्वर्षसहस्रं छद्मस्थत्वकालस्तत्र सर्वसङ्कलितोऽपि प्रमादकालः अहोरात्रं, एवं च (जाव अप्पाणं भावमाणस्स)| यावत् आत्मानं भावयतः (इकं वाससहस्सं विइक्वंतं) एक वर्षसहस्रं व्यतिक्रान्तं (तओ णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे) ततश्च योऽसौ शीतकालस्य चतुर्थो मास: ससमः पक्षः (फग्गुणबहुले) फाल्गुनस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं फग्गुणवहुलस्स इकारसीपक्खेणं)तस्य फाल्गुनबहुलस्य एकादशीदिवसे (पुलंचहकालसमयंसि) पूर्वाह्नकालसमये (पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ) पुरिमतालनामकस्य विनीताशाखापुरस्य बहिस्तात् (सगडमुहंसि उजाणंसि) शकटमुखनामके उद्याने (नग्गोहवरपायवस्स अहे) न्यग्रोधनामकवृक्षस्य ॥१५३॥ अधः (अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भरोन अपानकेन-जलरहितेन (आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमु-18 वागएणं) उत्तराषाढायां नक्षत्रे चन्द्रयोगे उपागते सति (आणंतरियाए वहमाणस्स) ध्यानस्य मध्यभागे बर्त १ हपमेशसमं पात्रं निरव पुरससमं दानं । श्रेयांससमो भायो भूयाद यदि मार्गितं भवेत् ॥१॥ दीप अनुक्रम [२०७] JanEducational For Fun ... अथ भगवंत ऋषभस्य केवलज्ञान एवं माता मरुदेवाया: मोक्ष-गमनं ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं R१३] | गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: केवलपूजा मरुदेवी प्रत सूत्रांक [२१३] गाथा ||२..|| मोक्षः eroenesaeaso900900909 मानस्य (अणते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ) अनन्तं केवलमुत्पन्नं यावत् जानन् पश्यंश्च विहरति ।।(२१२॥ | एवं च वर्षसहस्रेऽतिक्रान्ते पुरिमतालनाम्नि विनीताशाखापुरे प्रभोः केवल ज्ञानं उत्पन्नं, तदैव भरतस्य । चक्रमपि, तदा च विषयतृष्णाया विषमत्वेन, प्रथम तातं पूजयामि उत चऋमिति.क्षणं विमृश्य इहलोकपरलोकसुखदायिनि ताते पूजिते केवलंमिहलोकफलदायि चक्रं पूजितमेवेति सम्पग विचार्य भरतः प्रत्यहं उपालम्भान् ददती च मरुदेवा हस्तिस्कन्धे पुरतः कृत्वा सर्वर्या वन्दितुं ययौ, प्रत्यासन्ने च समवसरणे मातः! पश्य स्वपुत्रदि इति भरतेन भणिता मरुदेवा हर्षपुलकिताङ्गी प्रमोदाश्रुपूरैर्निर्मलनेत्रा प्रभोरछत्रचामरादिकां प्रातिहार्यलक्ष्मी निरीक्ष्य चिन्तयामास-धिग् मोहविह्वलान्, सर्वेऽपि प्राणिनः खाथैः नियन्ति, यन्मम ऋषभदुःखेन रुदत्या नेत्रे अपि हीनतेजसी जाते, ऋषभस्तु एवं सुरासुरसेव्यमान ईदृशीं समृद्धिं भुञानोऽपि मम सुखवा सिन्देशमपि न प्रेषयति, ततोधिगिम स्नेह, इत्यादि भावयन्त्यास्तस्याः केवलमुत्पलं, तत्क्षणाच आयुषःक्षयान्मुक्तिं जगाम । अत्र कविः-पुत्रो युगादीशसमोन विश्वे, भ्रान्वा क्षिती येन शरत्सहस्रम् । यदर्जितं केवलरत्न|मंग्यं, लेहात्तदेवार्यत मातुरांशु ॥१॥मरुदेवा समा नाम्वा, याऽगात् पूर्व किलेक्षितुम् । मुक्तिकन्यां तनूजार्थे, |शिवमार्गमपि स्फुटम् ॥ २॥ भगवानपि समवसरणे धर्म अकथयत्, तत्र ऋषभसेनायाः पञ्च शतानि भरतस्य पुत्राः,सप्त शतानि पौत्राश्च प्रत्रजितास्तेषां मध्ये ऋषभसेनादयश्चतुरशीतिगणधरा स्थापिताः, ब्रायपि प्रवबाज, भरतः पुनः श्रावकः सञ्जातः, स्त्रीरनं भविष्यतीति तदा भरतेन निरुद्धा सुन्दर्यपि श्राविका सत्रा दीप अनुक्रम [२०८] । DanEducation ... अथ भरत-गृहे चक्र-रत्नस्य उत्पत्ति:, सुंदरी-दीक्षा, बाहबलिना सह युद्ध एवं केवलज्ञान-वर्णनं ~332 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं R१३] | गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २१३] गाथा ||२..|| G कल्प.सदो-तेति चतुर्विधसङ्कस्थापना ॥ तेच कच्छमहाकच्छवर्जाः सर्वेऽपि तापसाः भगवतः पाश्व दीक्षां जगृह, भरतस्तुबाहुबलियुन्या. शक्रनिवारितमरुदेवीशोकः स्वस्थानं जगाम ॥ अथ भरतश्चक्रपूजां कृत्वा शुभे दिने प्रयाणं कृत्वा षष्टिसहस्र-1 वर्षेः भरतस्य षट् खण्डानि साधयित्वा स्वगृहमागतः, चक्रं तु बहिरेव तस्थौ, तदा भरतेन तत्कारणानि पृष्टा १५ नियोगिनो जगुः-नवनवतिस्तव भ्रातरो वशे नागता इति, तदा भरतेनाष्टनवतिभ्रातृणां मदाज्ञा मान्येति दूत मुखेनावाचि, ते सम्भूप किमाज्ञां मन्यामहे उत युद्धं कुर्म इति प्रष्टुं प्रभुपाचे गताः, प्रभुणाऽपि वैतालीया-1 ध्ययनप्ररूपणया प्रतिबोध्य दीक्षिता इति, तदनु बाहुबलिन उपरि दूतः प्रेषि, सोऽपि क्रोधान्धदप्पोदुरः सन् खसैन्ययुतः सम्मुखमागत्य भरतेन सह द्वादशवर्षी यावद्युद्धर्मकरोत, परं न च हारितः, तदा शक्रेणागत्य भूयस्तरजनसंहारं भवन्तं ज्ञात्वा दृष्टिवागमुष्टिदण्डलक्षणाश्चत्वारो युद्धाः प्रतिष्ठिताः, तेष्वपि भरतस्य पराजयो जज्ञे, तदा भरतेन क्रोधान्धेन वाहुबलिनः उपरि चक्र मुक्तं, परमेकगोत्रीयत्वात्तत्तं न पराभवत् , तदाऽमर्षवशाहरतं हन्तुमना मुष्टिमुल्पाट्य धावन् बाहुबलिरहो पितृतुल्यज्येष्ठनातृहननं ममानुचितमेव, उत्पातिता मुष्टिरपि कथं मोघा भवेदिति विचार्य स्खशिरसि तां मुक्त्वा लोचं कृत्वा सर्व च त्यक्त्वा कायोत्सर्गचके, तदा । भरतस्तं नत्वा खापराध क्षमयित्वा स्वस्थानं गतः, बाहुबलिस्तु पर्यायज्येष्ठान लघुभ्रातून कथं नमामीति ततो। यदा केवलमुत्पत्स्यते तदैव भगवत्पाचे यास्यामीति विचार्य वर्ष यावत् कायोत्सर्गेणैवास्थात्, वर्षान्ते च भगवत्प्रेषिताभ्यां स्वभगिनीभ्यां हे भ्रातर्गजादुत्तरेत्युक्त्वा प्रतिबोधितः स यावत् चरणौ उदक्षिपत् तायत्तस्य ૨૮ दीप अनुक्रम [२०८] enerasacacass २५ ta ~333 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं R१३] | गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१३] गाथा ||२..|| केवलमुत्पेदे, ततो भगवत्पावे गत्वा चिरं विहस्य भगवता सहैव स मोक्षं ययाविति, भरतोऽपि चिरं चक्र-श्रीऋषभस्य वर्तिश्रियमनुभूय एकदाऽऽदर्शभवने मुद्रिकाशून्यां खाली दृष्ट्वाऽनित्यत्वं भावयन केवलज्ञानमुत्पाद्य दशस-परीवारःम. हसनपैः सार्द्ध देवतादत्तं लिङ्गमुपादाय चिरं विहृत्य शिवं ययाविति ॥ . |२१३-२१६ (उसमस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशालिकस्य (चउरासीह गणा चरासीह गणहरा हुस्था) चतुरशीतिः ८४ गणाः,चतुरशीतिः ८४ गणधराश्च अभवन् ।। (२१३) । ( उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य ( उसभसेणपामुक्खाणं) ऋषभसेनप्रमुखाणां (चउरासीह समणसाहस्सीओ) चतुरशीतिः श्रमणसहस्राणि (८४०००)(उकोसिया समणसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ॥(२१४)। (उसभस्सणं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (पंभिसुंदरिपामोक्खाणं) ब्रामीसुन्दरीप्रमुखाणां (अज्जियाणं) आर्पिकाणां(तिनि सयसाहस्सीओ) त्रयो लक्षाः (३०००००) (उकोसिया अज्जियासंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिकासम्पत् अभवत् ॥(२१५)॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (सिज्जंसपामुक्खाणं समणोवासगाणं) श्रेयांसप्रमुखाणां श्रमणो-18 पासकानां (तिन्नि सयसाहस्सीओ पश्च सहस्सा) त्रयः लक्षाः पञ्च सहस्राणि (३०५०००)(उकोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पत् अभवत् ।।(२१६)।(उसभस्स गं अरहओ कोस-RI लियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (सुभद्दापामुक्खाणं समणोबासियाणं) सुभद्राप्रमुखाणां श्राबि दीप अनुक्रम [२०८] For F lutelu ~334 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१७] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२०८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१७] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१५५॥ ---------- काणां (पंच सयसाहस्सीओ चउपण्णं च सहस्सा ) पञ्च लक्षाः, चतुःपञ्चाशत् सहस्राः ( ५५४००० ) ( उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था ) उत्कृष्टा श्राविकाणां सम्पत् अभवत् ॥ (२१७) || (उसभस्स णं अरहओ कोसलियम्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य ( चत्तारि सहस्सा सत्त सया पण्णासा) चत्वारि सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि (४७५० ) ( चउदसपुच्चीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं ) चतुर्दशपूर्विणां अके विलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव उक्कोसिया चउदसपुथ्वीणं संपया हुत्था) यावत् उत्कृष्टा एतावती चतुर्दशपूर्विणां सम्पत् अभवत् ॥ (२१८) । (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य | ( नव सहस्सा ओहिनाणीण ) नव सहस्राणि ( ९००० ) अवधिज्ञानिनां (उक्कोसिया ओहिनाणीसंपया हुत्था) उत्कृष्ट एतावती अवधिज्ञानिनां सम्पत् अभवत् ॥ (२१९) ॥ ( उसभस्स णं अरहओ कोसलियम्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (वीस सहस्सा केवलनाणीणं ) विंशतिसहस्राः ( २०००० ) केवलज्ञानिनां (उक्कोसिया केवलनाणीसंपया हुत्था ) उत्कृष्टा एतावती केवलज्ञानिसम्पत् अभवत् ॥ (२२० )|| ( उसभस्स णं अरहओ को सलियम्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (वीस सहस्सा छच्च सया वेउग्वियाणं) विंशतिः सहस्राणि षट् शतानि च (२०६००) वैक्रियलब्धिमतां (उकोसिया वेडवियसंपया हुत्था) उत्कृष्ट एतावती वैक्रियलब्धिमत्सम्पत् अभवत् ॥ (२२१ ) | ( उसभस्स णं अरहओ कोस लियरस) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (बारस सहस्सा छच्च सया पण्णासा विलमईणं) द्वादश सहस्राणि षट् शतानि पञ्चाशच (१२६५०) विपुलमतीनां ( अड्डाइज्जेसु 335 श्री ऋषभस्व परीवारः स्. २१७-२२२ २० २५ | ॥१५५॥ २८ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २२२] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२२२] गाथा ||२..|| दीवेसु दोसु अ समुद्देसु) सार्धद्वयद्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोः (सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं ) सञ्जिना श्रीऋषभस्य पञ्चेन्द्रियाणां पर्यासकानां (मणोगए भावे जाणमाणाणं) मनोगतान भावान जानता (उकोसिया विउलमइसं-परीवारःस. पया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती विपुलमतिसम्पत् अभवत् ॥(२२२)॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋष-11 - २२३-२२६ भस्य अर्हतः कोशलिकस्य (वारस सहस्सा छच्च सया पण्णासा वाईणं)द्वादश सहस्राणि, पटू शतानि, पञ्चा| शच (१२६५०) वादिना (उक्कोसिया वाइसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती वादिसम्पत् अभवत् ।। (२२३)। (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (वीसं अंतेवासिसहस्सा सिद्धा) विंशतिः शिष्यसहस्राणि (२०००० ) सिद्धानि.(चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ सिद्धाओ) चत्वारिंशत् आर्थिकासहस्राणि (४००००) सिद्धानि ॥ (२२४)। (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स ) ऋषभस्य अर्हतः। कौशलिकस्य (पावीससहस्सा नव सया अणुत्तरोषवाइयाणं) द्वाविंशतिः सहस्राणि नव शतानि च (२२९००) अनुत्तरोपपातिनां (गइकल्लाणाणं) गती कल्याणं येषां ते तथा तेषां ( जाच उक्कोसिया संपया हुत्था) यावत् उत्कृष्टा एतावती अनुत्तरोपपातिनां सम्पत् अभवत् ।। (२२५)॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विविधा अन्तकृद्भूमिः अभवत् (तंजहा) तद्यथा (जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य) युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृद्भूमिश्च (जाव असंखिजाओ पुरिसजुगाओ जुगतगडभूमी) यावत् युगान्तकृभूमिरस यानि पुरुषयुगानि भगवतोऽन्वयक्रमेण सिद्धानि (अंतो दीप अनुक्रम [२०९] JaMEducat i onal ~336 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २२६] / गाथा [२...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: हवासादि प्रत सूत्रांक [२२६] गाथा ||२..|| कल्प.सयो-मुहत्तपरिआए अंतमकासी) पर्यायान्तकृद्भूमिस्तु भगवतः केवले समुत्पन्नेऽन्तर्मुहर्तन मरुदेवास्वामिनी श्रीऋपभगृ व्या०७अन्तकृत्केवलितां प्राप्ता ॥ (२२६)॥ (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये ( उसभे अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन स. २२७ ॥१५६॥ कौशलिकः (वीसं पुय्वसयसहस्साई)विंशतिपूर्वलक्षान् (२०००००० पूर्व) (कुमारवासमझे वसिसा) कुमारावस्थायां उषित्वा-स्थित्वा (तेवहिं पुब्यसयसहस्साई) त्रिषष्टिपूर्वलक्षान् (६३००००० पूर्व) (रजवासमझे वसित्ता)राज्यावस्थायां उषित्वा (तेसीई पुवसयसहस्साई)व्यशीतिपूर्वलक्षान (८३००००० पूर्व) (अगार-1| २० वासमझे वसित्ता) गृहस्थावस्थायां उषित्वा (एगं वाससहस्सं) एक वर्षसहस्रं (१००० वर्ष) (छउमस्थप-18 रिआयं पाउणित्ता) उद्मस्थपर्यायं पालयित्वा ( एग पुव्यसयसहस्सं वाससहस्सूणं) एकं पूर्वलक्षं वर्षसहनेणोनं (केवलिपरिआयं पाउणित्ता) केवलिपर्यायं पालयित्वा (पडिपुन्नं पुब्वसयसहस्सं ) प्रतिपूर्ण पूर्वलक्षं (१००००० पूर्व)(सामण्णपरिआयं पाउणित्ता) चारित्रपर्यायं पालयित्वा (चउरासीइ पुरुषसयसहस्साई) चतुरशीतिपूर्वलक्षान् ( ८४००००० पूर्व) (सव्वाउयं पालइत्ता) सर्वायुः पालयित्वा (खीणे वेपणिज्जाउय-1 नामगुत्ते) क्षीणेषु वेदनीयायुनीमगोत्रेषु सत्सु (इमीसे ओसप्पिणीए) अस्यां अवसर्पिण्यां (सुसमदूसमाए ॥१५ समाए बहु विहफताए) सुषमदुष्षमानामके तृतीयारके बहुव्यतिक्रान्ते सति (तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि या मासेहिं सेसेहिं) त्रिषु वर्षेषु सार्द्धषु अष्टसु मासेषु शेषेषुसत्सु,(तृतीयारके एकोननवतिपक्षांवशेषे (जे से हेमं २८ दीप अनुक्रम [२११] ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ...... व्याख्यान [७] .......... मूलं २२७] / गाथा २...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: era प्रत सूत्रांक [२२७] गाथा ||२..|| secseeछ ताणं तथे मासे पंचमे पक्रने माहबहुले ) योऽसौ शीतकालस्य तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षः माघस्य कृष्णपक्षः श्रीऋषभदे(तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं)तस्प माघबहुलस्य त्रयोदशीदिवसे ( उप्पिं अट्ठावयसेलसिहरंसि) वनिर्वाणम् |अष्टापदशैलशिखरस्योपरि (दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं) दशभिः अनगारसहस्रः साई (चाउद्दसमे- स. २२७ णं भसणं अपाणएणं) चतुर्दशभक्तपरित्यागाद्-उपवासषट्केन अपानकेन-जलरहितेन (अभीइणा नक्खत्तेणं | जोगमुवागएण) अभिजिन्नामके नक्षत्रे चन्द्रयोग उपागते सति (पुवाहकालसमयंसि) पूर्वाह्नकालसमये । (संपलियंकनिसणे) पल्पकासनेन निषण्णः (कालगए) कालगतः (जाव सबदुक्खप्पहीणे) यावत् सर्वदुःखानि प्रक्षीणानि ।। (२२७)॥ यस्मिन् समये भगवान् सिद्धः तस्मिन् समये चलितासनः शक्रोऽवधिना भगवनिर्वाणं विज्ञायाग्रमहिपीलोकपालादिसर्वपरिवारपरिवृतो यत्र भगवच्छरीरं तत्रागत्य त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य निरानन्दोऽश्रुपूर्णनयनो नात्यासन्ने नातिदूरे कृताञ्जलिः पर्युपास्ते, एवं ईशानेन्द्रादयः सर्वेऽपि सुरेन्द्राः कम्पितासना ज्ञातभगवन्नि-11 र्वाणा: स्वस्थपरिवारपरिवृता अष्टापदपर्वते यन्त्र भगवच्छरीरं तत्रागत्य विधिवत् पर्युपासमानास्तिष्ठन्ति, ततः शको भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकदेवनन्दनवनादू गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि आनाय्य तिस्रश्चिताः कारयति, एकां तीर्थकरशरीरस्य, एकां गणधरशरीराणां, एका शेषमुनिशरीराणांतत आभियोगिकदेवैः क्षीरोदसमुद्राजलं आनाययति, ततः शक्रःक्षीरोदजलस्तीर्थकृच्छरीरंलपयति सरसगोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति हंसलक्षणं । दीप अनुक्रम [२१२] .स.२७॥ For FFU Clu ~3380 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२२८] गाथा ||3..|| दीप अनुक्रम [२१३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [७] मूलं [२२८] / गाथा [२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१५७॥ ---------- पटशाटकं परिधापयति सर्वालङ्कारविभूषितं करोति, एवं अन्ये देवा गणधरमु निशरीराणि लपितानि चन्दनानुलिसानि सर्वालङ्कारविभूषितानि कुर्वन्ति, ततः शक्रो विचित्रचित्रविराजितास्तिस्रः शिविकाः कारयति, निरानन्दो दीनमना अश्रुमिश्रनेत्रस्तीर्थकृच्छरीरं शिविकायां आरोपयति, अन्ये देवा गणधरमुनिशरीराणि शिविकायां आरोपयन्ति, ततः शक्रो जिनशरीरं शिविकाया उत्तार्य चितायां स्थापयति, अन्ये देवा गणधरमुनिशरीराणि स्थापयन्ति, ततः शक्राज्ञया अग्निकुमारा देवा निरानन्दा निरुत्साहा अग्निं ज्वालयन्ति, वायुकुमारा वायुं विकुर्वन्ति, शेषाञ्च देवास्तासु चितासु कालागुरुचन्दनादीनि सारदारुणि निक्षिपन्ति, कुम्भशो मधुघृतैस्ताः सिश्चन्ति, अस्थिशेषेषु च तेषु शरीरेषु शक्रादेशेन मेघकुमारा देवास्तिस्त्रिश्चिता निर्वापयन्ति, ततः शक्रः प्रभोरुपरितन दक्षिणां दाढां गृह्णाति ईशानेन्द्र उपरितनीं वामां चमरेन्द्रोऽधस्तनीं दक्षिणां बलीन्द्रोऽधस्तनीं वामां, अन्येऽपि देवाः केऽपि जिनभक्तया केsपि जीतमिति केऽपि धर्म इतिकृत्वा अवशिष्टानि अङ्गोपाङ्गास्थीनि गृह्णन्ति, ततः शको रत्नमयानि त्रीणि स्तूपानि कारयति - एकं भगवतो जिनस्य एकं गणधराणां एकं शेषमुनीनां तथा कृत्वा च शक्रादयो देवा नन्दीश्वरादिषु द्वीपेषु कृताष्टाहिकमहोत्सवाः खखविमानेषु गत्वा स्वासु खासु सभासु वज्रमयसमुद्गकेषु जिनदादाः प्रक्षिप्य गन्धमाल्यादिभिः पूजयन्ति ॥ (उसभर णं अरहओ कोसलियम्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (जान सकखप्पहीणस्स ) यावत् सर्वदुः खप्रक्षीणस्य ( तिनि वासा अद्धनवमा य मासा विकता) त्रीणि वर्षाणि सार्द्धाञ्चाष्टौ मासा व्यतिक्रान्ताः ~339~ श्री ऋषभदेनिर्वाणम् सू. २२७ २० २५ ॥१५७॥ २८ janeliorary.org Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२२८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२१३] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) मूलं [२२८] / गाथा [२...] व्याख्यान [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ---------- ---------. (तओऽवि परं एगा सागरोत्रमकोडाकोडी) ततः परं एका सागरोपमकोटाकोटी, कीदृशी ? - (तिवासअद्धनवममासाहियत्ति) त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिकैः (वायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिया विश्कता) द्विचत्वारिंशद्वर्षाणां सहस्रैः ऊना व्यतिक्रान्ता (एयंमि समए समणे भगवं महावीरे परिनिब्बुडे ) एतस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो निर्वृतः (तओऽवि परं नव वाससया विकता) ततोऽपि परं नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि ( दसमस्स य वांससयस्स) दशमस्थ व वर्षशतस्य ( अयं असीहमे संवच्छरे काले गच्छर ) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति ॥ (२२८ ) ॥ ॥ इति श्रीऋषभदेवचरित्रं समाप्तम् ॥ SRARARARARARARARARARAARARARARARARARARARA! । इति जगद्गुरुश्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यरत्न महोपाध्याय श्री कीर्ति विजयगणिशिष्योपाध्यायश्री विनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकार्यां सप्तमः क्षणः समाप्तः । समाप्तं च जिनचरितरूपप्रथमवाच्यव्याख्यानं इति । ग्रन्थाग्रम् ( १०२५ ) । सप्तानामपि व्याख्यानानां ग्रन्थाग्रम् ( ५२५७ ) । SEASPASEASERSEASERREPASPASCASTASIA सप्तमं व्याख्यानं समाप्तं ~340~ श्री ऋषभदे वीरपुस्तक कालान्तर म् सू.२२८ ५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [3] गाथा 11-11 दीप अनुक्रम [२१३] *०● [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [८] मूलं [१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुवो ब्या० ७ ॥ १५८ ॥ ॥ अथ अष्टमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ ॥ अथ गणधरादिस्थविरावलीलक्षणे द्वितीये वाच्ये स्थविरावलीमाह - ( तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले ( तेणं समपूर्ण ) तस्मिन् समये (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था ) नव गणाः एकादश गणधराच अभूवन् ॥ (१) ॥ अथ शिष्यः पृच्छति - ( से केणट्टेणं भंते ! एवं बुचइ ) तत् केन अर्थेन हेतुना हे भदन्त ! एवं उच्यते (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( नव गणा इकारस गणहरा हुस्था ) नव गणाः एकादश गणधराश्च अभूवन् अन्येषां गणानां गणधराणां च तुल्यत्वात्, 'जावइभा जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स' इति प्रसिद्धत्वात् ॥ (२) ॥ इति शिष्येण प्रश्ने कृते. आचार्य आह-(समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जिट्ठे इंदभूई अणगारे ) ज्येष्ठः इन्द्रभूतिनामा अनगारः ( गोयमसगुणं ) गौतमगोत्रः ( पंच समणसपाई वाएछ) पञ्च श्रमणशतानि वाचयति ( ५०० ). ( मज्झिमे अग्निभूई अणगारे ) मध्यमोऽग्निभूतिः अनगारः ( पंच समणसयाई वाएइ) पञ्च श्रमणशतानि वाचयति ( ५००) (कणीअसे वाउभूई अणगारे ) लघुः वायुभूतिर्नामा अनगारः ( गोयमसगुत्तेणं ) गौतमगोत्र: ( पंच समणसयाई वाएइ) पञ्च श्रमणशतानि | ( ५०० ) वाचयति. ( धेरै अजवियते ) स्थविरः आर्यव्यक्तनामा ( भारद्दाए गुतेणं) भारद्वाजगोत्रः ( पंच For Prate & Personal Use Only अष्टमं व्याख्यानं आरभ्यते मूल संपादकेन इतः पुनः क्रमांकन कृतः । अत्र स्थवीरावली-वाचना आरभ्यते 341~ श्रीवीर गणादि सू. १-२ १५ २० ॥ १५८॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [3] गाथा 11-11 दीप अनुक्रम [२१५] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [८] मूलं [३] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः समणसयाई वाएइ ) पञ्च श्रमणशतानि (५००) वाचयति ( थेरे अज्जसुहम्मे ) स्थविर आर्यसुधर्मा ( अग्गिवेसायणगुत्तेणं) अग्निवैश्यायनगोत्रः ( पंच समणसयाई बाएइ) पञ्च श्रमणशतानि ( ५०० ) वाचयति (घेरे मंडिअपुत्ते ) स्थविर: मण्डितपुत्रः ( वासिहे गुत्तेणं ) वासिष्ठ गोत्र: ( अजुट्ठाई समणसपाई वाएइ) सार्धानि श्रीणि श्रमणशतानि ३५० वाचयति. (थेरे मोरिअपुत्ते ) स्थविरः मौर्यपुत्रः (कासवगुणं) काश्यपगोत्रः ( अजुट्ठाई समणसयाई वाएइ) सार्द्धानि त्रीणि श्रमणशतानि ( ३५० ) वाचयति, ( धेरे अकंपिए) स्थविरः अकम्पितः (गोयमसगुत्तेणं) गौतमगोत्रः ( थेरे अपलभाषा ) स्थविरः अचलभ्राता च ( हारिआपणे गुत्तेणं) हारितायनगोत्र : (ते दुन्निऽवि थेरा तिष्णि तिण्णि समणसयाई वाएंति) तौ द्वावपि स्थविरौ त्रीणि त्रीणि श्रमणशतानि (३००) वाचयतः (थेरे मेअज्जे घेरे पभासे एए दुन्निवि | थेरा) स्थविर : मेतार्यः स्थविरः प्रभासः एतौ द्वावपि स्थविरौ (कोडिन्नागुत्तेणं) कोडिन्यो गोत्रेण (तिष्णि तिष्णि समणसयाई वाति ) त्रीणि त्रीणि श्रमणशतानि (३००) वाचयतः, ( से तेणट्टेणं अज्जो एवं बुचर ) तत्तेन हेतुना हे आर्य एवं उच्यते (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( नव गणा इकारस गणहरा हुत्था ) नव गणाः एकादश गणधराश्च अभूवन्, तत्र अकम्पिता चलनात्रोरेकैव वाचना, एवं | मेतार्थप्रभासयोरपीति युक्तमुक्तं नव गणा एकादश गणधराः यस्मात् एकवाचनिको यतिसमुदायो गण इति । अत्र मण्डितमौर्यपुत्रयोरेकमातृकत्वेन भ्रात्रोरपि भिन्नगोत्राभिधानं पृथक् जनकापेक्षया, तत्र मण्डितस्य 342~ गणधरवाचनाः सु. ३ १० १४ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [४] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४] गाथा ||-11 म.४ कल्प.सुबो-पिता धनदेवो मौर्यपुत्रस्य तु मौर्य इति, अनिषिद्धं च तत्र देशे एकस्मिन् पत्यो मृते द्वितीयपतिवरणमिति श्रीगौतमाव्या०७ वृहाः॥(३)॥ (सध्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स) सर्वे एते इन्द्रभूत्यादयः श्रमणस्य भगवतो महावी-18 दिगणधर खरूपम ॥१५९॥ रस्य (इकारसवि गणहरा) एकादशापि गणधराः, कीदृशाः-(दुवालसंगिणो)दादशाङ्गिन:-आचाराङ्गादिह-8 ष्टिवादान्तश्रुतवन्तः, खयं सत्प्रणयनात्, (चउद्दसपुग्विणो) चतुर्दशपूर्ववेत्तारः, द्वादशाङ्गित्वं इत्येतेनैव चतुर्दशपूर्विखे लब्धे यत्पुनरेतदुपादानं तदङ्गेषु चतुर्दशपूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थ,प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्व प्रणयनात् अनेकविद्यामन्त्रार्थमयस्वात् महाप्रमाणत्वाच, द्वादशाक्तित्वं चतुर्दशपूर्षित्वं च सूत्रमात्रग्रहणेऽपि स्यादिति तदपोहार्थमाह-(समत्तगणिपिडगधारगा) समस्तगणिपिटकधारकाः, गणोऽस्यास्तीति गणी-भावाचार्यस्तस्य पिटकमिव-रनकरण्डकमिव गणिपिटकं-द्वादशाङ्गी,तदपि न देशतः स्थूलिभद्रस्येव, किं तु?,समस्तं,सर्वाक्षरसनिपातित्वात् , तद्धारयन्ति सूत्रतोऽर्थतश्च येते तथा (रायगिहे नगरे) राजगृहे नगरे (मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं। अपानकेन मासिकेन भक्तन-भक्तप्रत्याख्यानेन, पादपोपगमनानशनेन(कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा) मोक्षं गता यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणाः (थेरे इंदभूई थेरे अजसुहम्मे) स्थविर इन्द्रभूतिः स्थविर आर्यमुधर्मा च (सिद्धि गए महावीरे) सिद्धिं गते महावीरे सति (पच्छा दुन्निवि थेरा परिनिव्वुया) पश्चाद् द्वावपि स्थविरौ निर्वाणं ॥१५९॥ प्राप्ती, तत्र नव गणधरा भगवति जीवस्येव सिद्धाः, इन्द्रभूतिसुधर्माणी तु भगवति निवृते निवृतौ ॥ (जे| इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति) ये इमे अद्यतनकाले श्रमणा निर्ग्रन्था विहरन्ति (एए णं सब्वे दीप अनुक्रम [२१७] Soone30 JanEducata - 343 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [४] | गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४] गाथा ||-11 अजमुहम्मस्स अणगारस्स आवचिजा) एते सर्वेऽपि आर्यसुधर्मणः अनगारस्य अपत्यानि,-शिष्यसन्तानजा | श्रीसुधर्मइत्यर्थः ( अवसेसा गणहरा निरवचा खुच्छिण्णा) अवशेषाः गणधराः निरपत्या:-शिष्यसन्तानरहिताः, खख-18|| खामिखमरणकाले खखगणान् सुधर्मस्वामिनि निसृज्य शिवं गताः, यदाहु-'मासं पाओवगया,सब्वेवि अ सव्व रूपम् स.५ लद्धिसंपन्ना । बजारिसहसंघयणा,समचउरंसा य संठाणा ॥१॥(४)॥ (समणे भगवं महावीरे कासवगुसणं) श्रमणो भगवान महावीरः काश्यपगोत्रः (समणस्स णं भग- ५ वओ महावीरस्स कासवगुत्तस्स) अमणस्य भगवतो महावीरस्य काश्यपगोत्रस्य (अजसुहम्मे धेरे अंतेवासी अग्गियेसायणगुत्ते ) आर्यसुधर्मा स्थविरः शिष्यः अग्निवैश्यायनगोत्रः । श्रीवीरपट्टे श्रीसुधर्मखामी पश्चमो गणधरः, तत्वरूपं चेदं-कुल्लागसन्निवेशे धम्मिलविप्रस्य भार्या भद्दिला, तयोः सुतश्चतुर्दश विद्यापात्रं पश्चाबादर्षान्ते प्रत्रजितत्रिंशद्वर्षाणि वीरसेवा, वीरनिर्वाणाद् द्वादशवर्षान्ते,जन्मतो द्विनवतिवर्षान्ते च केवलं,ततोऽष्टी वर्षाणि केवलित्वं परिपाल्य शतवर्षायुर्जम्बूस्वामिनं स्वपदे संस्थाप्य शिवं गतः१।(रस्स णं अजसुहम्मस्स अग्गिवेसायणगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यसुधर्मणः अग्निवैश्यायनगोत्रस्य (अजजंबुनामे धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते) आर्यजम्बूनामा स्थविर शिष्यः काश्यपगोत्रःश्रीजम्बूस्वामिस्वरूपं चेद-राजगृहे श्रीपभधारिण्यो। पुत्रः पञ्चमवर्गाच्युतो जम्बूनामा श्रीसुधर्मखामिसमीपे धर्मश्रवणपुरस्सरं प्रतिपन्नशीलसम्यक्त्वोऽपि पित्रोई १ मासं पादपोपगताः सर्वेऽपि च सर्वलब्धिसंपन्नाः । वऋषभसंहननाः समचतुरस्रसंधानाश्च ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२१७] JanEducation - 344 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [८] मूलं [५] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबो-ढाग्रहवशादष्टौ कन्याः परिणीतः परं तासां सनेहाभिर्वाग्भिर्न व्यामोहितः, यतः सम्यक्त्वशीलतुम्बाभ्यां भवान्धिस्तीर्यते सुखम् । ते दधानो मुनिर्जम्बू, स्त्रीनदीषु कथं बुडेत् ? ॥ १ ॥ ततो रात्रौ ताः प्रतिबोधयंश्चीर्यार्थमागतं चतुःशतनवनवति (४९९) चौरपरिकरितं प्रभवमपि प्राबोधयत् ततः प्रातः पञ्चशत चौर प्रियाष्टकतजनकजननीखजनकजननीभिः सह स्वयं पञ्चशतसप्तविंशतितमो नवनवतिकनककोटीः परित्यज्य प्रव्रजितः, क्रमात् केवलीभूत्वा षोडश वर्षाणि गृहस्थत्वे विंशतिः छाद्मस्थ्ये, चतुश्चत्वारिंशत् केवलित्वे, अशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीप्रभवं खपदे संस्थाप्य सिद्धिं गतः, अत्र कविः - जम्बूसमस्तलारक्षो, न भूतो न भविध्यति । शिवाध्ववाहकान् साधून, चौरानपि चकार यः ॥ १॥ प्रभवोऽपि प्रभुर्जीयाचीर्येण हरता धनम् । लेभेडनयचौर्यहरं, रत्नत्रितयद्भुतम् ॥ २ ॥ तत्र-वारस बरसेहिं गोअमु सिद्धो वीराओं बीसहि सुहम्मो । चउ सट्ठीए जंबू बुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा ॥ ३ ॥ मैण १ परमोहि २ पुलाए ३ आहार ४ खयग ५ उवसमे ६ कप्पे ७। संजमतिअ ८ केवल ९ सिज्झणा य १० जंबूमि बुच्छिन्ना ॥ ४ ॥ 'मण'त्ति मनःपर्यायज्ञानं, 'परमो हि ति परमावधिः यस्मिन्नुत्पन्नेऽन्तर्मुहूर्तान्तः केवलोत्पत्तिः, 'पुलाए'सि पुलाकलब्धिः यथा चक्रवर्त्तिसैन्यमपि चूर्णीकर्त्तुं प्रभुः स्यात्, 'आहारग'त्ति आहारकशरीरलब्धिः 'खवग'ति क्षपकश्रेणिः 'उवसम'ति उपशमश्रेणि व्या० ७ ॥१६०॥ १ द्वादशसु वर्षेषु गौतमः सिद्धो वीराद् विंशत्यां सुधर्मा । चतुष्पथां जम्बूयुच्छिन्नानि तत्र दश स्थानानि ॥ ३ ॥ २ मनः परमावधिः पुलाक आहारकं क्षपक उपशमः कल्पः । संयमत्रिकं केवलं सेवनाच जम्बो व्युच्छिन्नानि ॥ ४ ॥ ••• आर्य जंबू- कथानकं वर्णयते 345 श्रीजम्बूखामिखरू पम् २० २५ | ॥ १६०॥ jawar.org Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [५] / गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक पम् गाथा II-II 'कप्पत्ति जिनकल्प: 'संजमतिअति संयमत्रिकं,परिहारविशुद्धिक १ सूक्ष्मसम्पराय २ यथाख्यातचारित्रल-18 श्रीजम्बू क्षणं ३ ,अत्रापि कविः-लोकोत्तरं हि सौभाग्यं, जम्बूखामिमहामुनेः । अद्यापि यं पति प्राप्य, शिवश्री न्य-खामिखरूमिच्छति ॥१॥२।(थेरस्स णं अज्जजंबूणामस्स कासवगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यजम्बूनामकस्य काश्यपगोत्रस्य (अज्जप्पभवे धेरे अंतेवासी कच्चायणसगुत्ते) आर्यप्रभवः स्थविरः शिष्योऽभूत् कात्यायनगोत्रः (थेरस्स णं | अजप्पभवस्स कचायणगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यप्रभवस्य कात्यायनगोत्रस्य ( अज्जसिजंभवे घेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगुत्ते) आर्यशयंभवः स्थविरः शिष्यः, कीदृशः?-मनकस्य पिता वत्सगोत्रा, अन्यदा च8 प्रभवप्रभुणा खपदे स्थापनार्थ गणे सद्येच उपयोगे दत्ते तथाविधयोग्यादर्शने च परतीर्थेषु तदुपयोगे दत्ते राजगृहे यज्ञं यजन् शय्यंभवभट्टो ददृशे, ततस्तत्र गत्वा साधुभ्यां 'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते परम्' इति वचः श्रावित:, खगभापितखगुरुब्राह्मणदर्शिताया यज्ञस्तम्भाधास्थश्रीशान्तिनाथप्रतिमाया दर्शनेन प्रतिबुद्धा, प्रत्रजिता, तदनु श्रीप्रभवःश्रीशय्यंभवं खपदे न्यस्य वर्गमगादिति प्रभवप्रभुखरूपं शतदनु श्रीशय्यंभ-18 वोऽपि साधानमुक्तनिजभार्याप्रसूतमनकाख्यपुत्रहिताय श्रीदशवैकालिकं कृतवान,क्रमेण च श्रीयशोभद्रं स्वपदे संस्थाप्य श्रीवीरादष्टनवत्या (९८) वर्षेः स्वर्जगाम इति(४)। श्रीयशोभद्रसूरिरपि श्रीभद्रबाहुसम्भूतिविजयाख्यो शिष्यौवपदे न्यस्य खोकमलश्चके (धेरस्सणं अजसिखंभवस्स मणगपिउणो वच्छसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यशशय्यभवस्य मनकस्य पितुः वत्सगोत्रस्य (अञ्जजसभद्दे धेरे अंतेवासी तुंगियायणसगुत्ते) आर्ययशोभद्रः स्थविरः १४ दीप अनुक्रम [२१८] - 346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६] गाथा 1-11 कल्प सुबो- शिष्या तुनिकायनगोत्रोऽभूत् (५) अतः परं प्रथम सविसवाचनया स्थविरावलीमाह-संखित्तवायणाए अज्जजस-श्रीभद्रबाव्या . ७ भद्दाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया) सविसवाचनया आर्ययशोभद्रात् अग्रतः एवं स्थविरावली कविता || हुस्वरूपम् ॥१६॥ SI(तंजहा) तयथा-(धेरस्स णं अजजसभहस्स तुंगियायणसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्ययशोभद्रस्य तुङ्गिका-18 यनगोत्रस्य (अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे संभूइविजए माढरसगुत्ते) शिष्यौ द्वौ स्थविरौ, स्थविरः सम्भूतिविजयः माडरगोत्रः १(थेरे अजभद्दबाहू पाईणसगुत्ते) स्थविरः आर्यभद्रबाहुश्च प्राचीनगोत्रः २, श्रीयशोभद्रपडे श्रीसम्भूतिविजयश्रीभद्रबाहनामको दौ पट्टधरी जातो, तत्र भद्रवाहसम्बन्धर्व-प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिर-1 भद्रबाहू द्विजो प्रमजिती, भद्रवाहोराचार्यपददाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेषमाहत्य वाराही संहितां कृत्वा || निमित्तैर्जीवति, वक्ति च लोके-काप्यरण्ये शिलायां अहं सिंहलग्नममण्डयं, शयनावसरे तद्भञ्जनं स्मृत्वा लग्नभत्त्या तत्र गतः, सिंहं दृष्ट्रापि तस्याधो हस्तक्षेपेण लग्नभने कृते सन्तुष्टः सिंहलमाधिपः सूर्यः प्रत्यक्षीभूय% खमण्डले नीत्वा सर्व ग्रहचारं ममादर्शयदिति, अन्यदा वराहेण राज्ञः पुरो लिखितकुण्डालकमध्ये द्विपश्चा-1 शत्पलमानमत्स्यपाते कथिते , श्रीभद्रबाहुभिस्तस्य मत्स्यस्य मार्गेऽर्धपलशोषात् सार्धेकपश्चाशत्पलमानता| २५ कुण्डालकमान्ते पातश्च उक्तो मिलितश्च । तथाऽन्यदा तेन नृपनन्दनस्य शतवर्षायुर्वर्त्तने एते न व्यवहारज्ञा ॥१६॥ पपुत्रस्य विलोकनार्थमपि नागता इति जैननिन्दायां च क्रियमाणायां गुरुभिः सप्तभिर्दिनैपिडालिकातो मृतिरुचे , अत्र किरणावलीकारेण सप्तदिनैरिति समस्तः प्रयोगो लिखितः, स तु वैयाकरणश्चिन्त्यः, सङ्ख्यया | दीप अनुक्रम [२१९२२२] A njanebiary.org ... आर्य-भद्रबाहु-कथानकं वर्णयते ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] | गाथा [-] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६] गाथा ||-11 समाहारद्विगुभवनात्, तदनु राज्ञा पुरात्सर्वबिडालिकाकर्षणेऽपि सप्तमदिने स्तन्यं पियतो बालस्योपरि विडा-धीस्थलमलिकाकारवक्त्रार्गलापातेन मरणे गुरूणां प्रशंसा तस्य निन्दा च सर्वत्र प्रससार, ततः कोपान्मृत्वा व्यन्तरी-|| द्रवृत्तम् भयांशिवोत्पादादिना सम् उपसर्गयन् उपसर्गहरं स्तोत्रं कृत्वा श्रीगुरुभिर्निवारितः, उक्त च-उखसग्गहरं धुत्तं काऊणं जेण सङ्घकल्लाणं । करुणापरेण विहि.स भद्दयाहू गुरू जयउ ॥१॥ Mer (थेरस्स णं अजसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसम्भूतिविजयस्य माढरगोत्रस्य (अंते वासी थेरे अजथूलभद्दे गोषमसगुत्ते) शिष्यः स्थविरः आर्यस्थूलभद्रः गौतमगोत्रोऽभूत्, स्थूलभद्रसम्बन्ध-18 8 श्चैवं-पाटलिपुरे शकटालमन्त्रिपुत्रः श्रीस्थूलभद्रो द्वादश वर्षाणि कोशागृहे स्थितो, वररुचिद्विजप्रयोगात् पितरि मृते नन्दराजेनाकार्य मन्त्रिमुद्रादानायांभ्यर्थितः सन् पितृमृत्युं खचित्ते विचिन्त्य दीक्षामादत्त, पश्चाच सम्भूतिविजयान्तिके व्रतानि प्रतिपद्य तदादेशपूर्वकं कोशागृहे चतुर्मासीमस्थात्, तदन्ते च बहुहावभावविधायिनीमपि तां प्रतिबोध्य गुरुसमीपमागतः सन् तैः दुष्करदुष्करकारक इति सङ्घसमक्षं प्रोचे, तद्वचसा च पूर्वायाताः सिंहगुहासर्पविलकूपकाष्टस्थायिनत्रयो मुनयो दूनाः, तेषु सिंहगुहास्थायी मुनिर्गुरुणा |निवार्यमाणोऽपि द्वितीयचतुर्मास्यां कोशागृहे गतो, दृष्ट्वा च तां दिव्यरूपां चलचित्तोऽजनि, तदनु तया |नेपालदेशानायितरनकम्बलं खाले क्षिप्त्वा प्रतियोधितः सन्नागत्योवाच-स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः, स एकोऽखि १ उपसर्गहरं स्तोत्रं कृत्वा येन संघकल्याणम् । करुणापरेण विहितं स भद्रबाहुर्गुरुर्जयतु ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२१९२२२] For F lutelu ... आर्य-स्थूलभद्र-कथानकं वर्णयते - 3480 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६] गाथा कल्प.सुबोध्या०७ ॥१६॥ ||-11 लसाधुषु । युक्तं दुष्करदुष्करकारको गुरुणा जगे॥१॥ पुंप्फफलाणं च रसं सुराण मंसाण महिलिआण च । श्रीस्थूलभजाणंता जे विरया,ते दुकरकारए वंदे ॥२॥ कोशाऽपि तत्प्रतिबोधिता सती खकामिनं पुङ्खार्पितवाणैर्दूर- वृत्तम् स्थाम्रलुम्ब्याँनयनगर्वितं रथकारं सर्षपराशिस्थसूच्यग्रस्थपुष्पोपरि नृत्यन्ती पाह-न दुकरं अंबयलुम्बितोडणं, न दुक्करं सरिसवनचिआइ । तं दुकरं तं च महाणुभावं, जे सो मुणी पमयवर्णमि बुछो ॥३॥ कवयोऽपिगिरौ गुहायां विजने बनान्तरे, वासं श्रयन्तो वशिनः सहस्रशः । हयेऽतिरम्ये युवतीजनांन्तिके, वशी स| एक: शकटालनन्दनः॥४॥ योऽग्नौ प्रविष्टोऽपि हि नैव दग्धश्छिन्नो न खड़ाग्रकृतप्रचारः । कृष्णाहिरन्धेप्युषितो न दष्ठो, नौक्तोऽक्षनागारनिवास्यहो यः॥५॥ वेश्या रागवती सदा तदनुगा, पइभी' रसै जना शुभ्रं धाम मनोहरं वपुरहो, नव्यो वयःसङ्गमः । कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः,कामं जिगायादरात्, तं बन्दे || युवतीप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥६॥रे काम! वामनयना तव मुख्यमंत्रं, वीरा बसन्तपिकपश्चमचन्द्रमुख्याः । त्वत्सेवका हरिविरश्चिमहेश्वराया, हा हा हताश ! मुनिनाऽपि कथं हतस्त्वम् ? ॥७॥ श्रीनन्दिर्ष-1|| जरथनेमिमुनीश्वरार्द्रबुद्ध्या त्वया मदन ! रे मुनिरेष दृष्टः । ज्ञातं न नेमिमुनिजम्बुसुदर्शनानां, तुर्यों भविष्यति निहत्य रणाङ्गणे माम् ॥ ८॥ श्रीनेमितोऽपि शकटालसुतं विचार्य, मन्यामहे वयममुं भटमेकमेव । देवोऽद्रिदु॥१ पुरुषफलानां च रसं सुराणां मांसानां महिलानां च । जानन्सो ये विरताः तान् दुष्करकारकान् पन्दे ॥३॥ ॥१६॥ ॥२न दुष्करं आम्रलुम्वित्रोटनं न दुष्करं सर्पपनर्तितायाम् । तद् दुष्करं तच महानुभावं यत् स मुनिः प्रमदावने उषितः ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [२१९२२२] २५ Alanetbraryarg ~349 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [&] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१९ २२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [८] मूलं [६] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः क. सु. २८ गंमधिरुव जिगाय मोहं, यन्मोहनालयमेयं तु वशी प्रविश्य ॥ ९ ॥ अन्यदा द्वादशवर्षदुर्भिक्षप्रान्ते सङ्घाग्रहेण श्रीभद्रबाहुभिः साधुपञ्चशत्याः प्रत्यहं वाचनासप्तकेन दृष्टिवादे पाठ्यमाने सप्तभिर्वाचनाभिरन्येषु साधुषु उद्विनेषु, श्रीस्थूलभद्रो वस्तुद्वयोनां दशपूर्वी पपाठ, अथैकदा पक्षासाध्वीप्रभृतीनां वन्दनार्थमागतानां स्वभगिनीनां सिंहरूपदर्शनेन दूनाः श्रीभद्रबाहवो वाचनायां अयोग्यस्त्वं इति स्थूलभद्रं ऊचिवांसः पुनः सङ्घाग्रहात् अथान्यस्मै वाचना न देयेत्युत्ववा सूत्रतो वाचनां ददुः तथा चाहु:-केवली परमो जम्बूस्वाम्यथ प्रभवप्रभुः । शय्यंभवो यशोभद्रः, सम्भूतिविजयस्तथा ॥ १ ॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् ॥ (थेर णं अथूलभद्दस गोपमसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यस्थूलभद्रस्य गोतमगोत्रस्य (अंतेवासी दुवे थेरा) शिष्यों द्वौ स्थविरौ अभूतां (थेरे अजमहागिरि एलाबञ्चसगुत्ते) स्थविर आर्यमहागिरिः एलापत्यगोत्रः ( थेरे अज्ज मुहत्थी वासिद्धसगुत्ते) स्थविरः आर्यसुहस्तिश्च वासिष्ठगोत्रः, तयोः सम्बन्धञ्चैचं-आर्य महागिरिर्जिन कल्पविच्छेदेऽपि जिनकल्पतुलनामकार्षीत् 'बुच्छिन्ने जिणकप्पे, काही जिणकप्पतुलणमिह धीरो । तं वंदे मुणिव सह महागिरिं परमचरणघरं ॥ १ ॥ जिंणकष्पपरीकम्मं जो कासी जस्स संथयनकासी । सिधिरंमि सुहत्थी तं ११ व्युच्छिन्ने जनकल्पेऽकार्षीजिनकल्पतुलनाभिह धीरः । तं बन्दे मुनिवृषभं महागिरिं परमचरणधरम् ॥ १ ॥ २ जिनकल्पपरिकर्म योऽकार्षीत् यस्य संस्तवमकार्षीत् । श्रेष्ठिगृहे सुहस्ती तं आर्यमहागिरिं वन्दे ॥ २ ॥ For Frite & Personal Use Only 350~ श्रीस्थूलभद्र महारियवृत्तान्तः सु. ६ ५ १० Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६] गाथा ||-11 ॥१६३॥ कल्प.सुबो- अजमहागिरि वंदे ॥२॥ चंदे अजसुहत्यि मुणिपवरं जेण संपई राया। रिद्धिं सव्यपसिद्ध, चारिताश्रीसंपतिव्या०७ पाविओ परमं ॥ १ ॥' यैरार्यसुहस्तिभिदुर्भिक्षे साधुभ्यो भिक्षा याचमानो द्रमको दीक्षितः, स मृत्वा श्रेणि-1 वृत्तान्तः कसुतकोणिकसुतोदायिपट्टोदितनवनन्दपट्टोद्भूतचन्द्रगुप्तसुतबिन्दुसारसुतअशोकश्रीसुतकुणालपुत्रः सम्प्रति- सू. ६ नामाभूत,सच जातमान एव पितामहदत्तराज्यो रथयात्राप्रवृत्तश्रीआर्यसुहस्तिदर्शनाजातजातिस्मृतिः सपा- १५ दलक्ष (१२५०००) जिनालयसपादकोटि (१,२५०००००) नवीनविम्बषत्रिंशत्सहस्र (३६०००) जीर्णोद्धारप-I अनवतिसहस्र (९५००० ) पिसलमयपतिमाअनेकशतसहस्रसत्रशालादिभिर्विभूषितां त्रिखण्डामपि महीमेक8 रोत्, यत्तु किरणावलीकृता सपादकोटिनबीनजिनभवनेत्युक्तं तचिन्त्य, अन्तर्वांच्यादी सपादलक्षेति दर्श मात्, अनार्यदेशानपि कर मुक्त्वा पूर्व साधुवेषभूद्वण्ठप्रेषणादिना साधुविहारयोग्यान् खसेवकनुपान् जैनधर्मरतांश्च चकार, तथा-वस्त्रपानिध्यादिनासुकद्रव्यविक्रयम् । ये कुर्वन्त्यथ तानुर्वीपतिः सम्पतिरूचिवान् ॥१॥ साधुभ्यः सञ्चरङ्गयोऽने, दौकनीयं खवस्तु भो! ते यदाददते पूज्यास्तेभ्यो दातव्यमेव तत् ॥२॥ अस्मत्कोशाधिकारी च, छन्नं दास्यति याचितम् । मूल्यमभ्युल्लसल्लाभ, समस्तं तस्य बस्तुनः॥३॥ अथ ते पृथिवीभवें। राज्ञया तदू व्यधुर्मुदा । अशुद्धमपि तच्छुदबुद्ध्या वादायि साधुभिः॥४॥ (थेरस्स णं अजसुहत्धिस्स वासिट्टसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यसुहस्तिनः वाशिष्ठगोत्रस्य (अंतेवासी दुवे • १ वन्दे आर्यसुहस्तिनं मुनिप्रवरं येन संप्रतिः राजा । ऋद्धि सर्वप्रसिद्धां चारित्रात् प्रापितः परमाम् ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [२१९२२२] ... राजन् संप्रति-वृतान्तं दर्शयते ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [&] गाथा 11-11 दीप अनुक्रम [२१९ २२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६] / गाथा [-] व्याख्यान [८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: थेरा) शिष्यौ द्वौ स्थविरौ अभूतां (सुट्टियसुप्पडिबुद्धा कोडियका कंगा बग्घावञ्चसगुत्ता) सुस्थितः सुप्रतिबुद्ध कौटिक काकन्दिको व्याघ्रापत्यगोत्री, सुस्थिती- सुविहितक्रिया निष्ठौ सुप्रतिबुद्धौ सुज्ञाततरखी, इदं विशेषणं, कौटिक काकन्दिकाविति तु नामनी, अन्ये तु सुस्थित सुप्रतिबुद्धौ इति नामनी कोटिशः सूरिमन्त्रजापात् काकन्यां नगर्यो जातत्वाच्च कोटिककाकन्दिकाविति विशेषणं, (धेराणं सुट्टियसुपडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्धावचसगुप्ताणं) स्थविरयोः सुस्थितसुप्रतिबुद्धयोः कोटिक काकन्दिकयोः व्याघ्रापत्यगोत्रयोः (अंतेवासी थेरे अजइंददिने कोसियगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्य इन्द्र दिनोऽभूत् कौशिकगोत्रः ( थेरस्स णं अज्जइंददिनस्स को सियगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यइन्द्रादिनस्य कौशिकगोत्रस्य (अंतेवासी थेरे अज्जदिने गोयमसगुते ) शिष्यः स्थविरः आर्यदिन्नोऽभूत् गौतमगोत्रः ( थेरस्स णं अज्ज दिन्नस्स गोयमसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यदिनस्य गोतमगोत्रस्य ( अंतेवासी थेरे अज्जसीहगिरी जाइसरे कोसियगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्यसिंहगिरिरंभूत्, जातिस्मरणवान् कौशिकगोत्रः (थेरस्स णं अजसीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसिंहगिरेः जातिसारणवतः कौशिकगोत्रस्य (अंतेवासी थेरे अज्जवहरे गोयमसगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्यवज्रोऽभूत् गौतमगोत्रः ( थेरस्स णं अजवइरस्स गोयमसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यवज्रस्य गौतमगोत्रस्य ( अंतेवासी धेरे अजवहरसेणे कोसियगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्यवज्रसेनोऽभूत् उत्कौशिकगोत्रः ( धेरस्स णं अज्जवइरसेणस्स उक्कोसिअगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यवज्रसेनस्य उत्कोशिकगोत्रस्य 352 सुस्थितादिस्पविरावली स. ६ १० १४ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६] गाथा ६ ||-11 कल्प.सुयो-(अंतेवासी चत्तारि थेरा) शिष्याः चत्वारः स्थविराः अभूवन (धेरै अजनाइले, घेरे अज्ञपोमिले, धेरे अजजव्या०७यंते, थेरे अज्जतावसे) स्थविरः आर्यनागिल: स्थविरः आर्यपौमिल स्थविरः आर्यजयन्तः, स्थविर आर्यतापसः। (थेराओ अज्जनाइलाओ अजनाइला साहा निग्गया) स्थघिरात् आर्यनागिलात् आर्यनागिला शाखा निर्गता विरावली ॥१६॥ (थेराओ अज्जपोमिलाओ अजपोमिला साहा निग्गया) स्थविराद आर्यपोमिलादु आर्यपोमिला शाखा निर्गता (थेराओ अजजयंताओ अजजयंती साहा निग्गया) स्थविरात् आर्यजयन्तात् आर्यजयन्ती शाखा निर्गता (धेराओ अज्जतावसाओ अजतायसी साहा निग्गया) स्थविरात् आर्यतापसात् आर्यतापसी शाखा निर्गता इति ॥ (६)॥ अथ विस्तरवाचनया स्थविरावलीमाह-(विस्थरचायणाए पुण अजजसभाओ पुरओ|४ थेरावली एवं पलोइज्ज) विस्तरवाचनया पुनः आर्ययशोभद्रात् अग्रतः स्थविरावली एवं प्रलोक्यते, तत्रास्या 8 किल वाचनायां भूरिशो भेदा लेखकदोषहेतुका ज्ञेयाः, तसत्स्थविराणां शाखा: कुलानि च प्रायः सम्पति न ज्ञायन्ते, नामान्तरेण तिरोहितानि भविष्यन्तीति तत्र तद्विदः प्रमाणं, तत्र कुलं-एकाचार्यसन्ततिगणस्तु-एकवाचनाचारमुनिसमुदायः, यदुक्तं-"तत्थ कुलं विन्नेयं एगायरिअस्स संतई जा उ । दुण्ह कुलाण मिहो पुण|| साविक्खाणं गणो होई ॥१॥"शाखास्तु एकाचार्यसन्ततावेब पुरुषविशेषाणां पृथक् पृथगन्वयाः, अथवा ॥१६४॥ दीप अनुक्रम [२१९२२२] १ तन कुल विजयं एकाचार्यस्य संतति तु । द्वयोः कुलयोमिथः पुनः सापेक्षयोर्गणी भवति ॥ १ ॥ ~353 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] | गाथा [१+१+.....१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| विवक्षिताचपुरुषसन्ततिः शाखा, यथाऽस्मदीया बैरवामिनाम्ना वैरीशाखा, कुलानि तु तत्तच्छिष्याणां पृथक | विस्तृतपृथगन्धयाः, यथा चान्द्रकुलं नागेन्द्रकुलमित्यादि (तंजहा) तद्यथा-(धेरस्स णं अजजसभहस्स तुंगियायण-18 वाचना सगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्ययशोभद्रस्य तुङ्गिकायनगोत्रस्य (इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया|| हुस्था) इमी द्वौ स्थविरौ अन्तेवासिनी 'आहायचा' न पतन्ति यस्मिन्नुत्पन्ने दुर्गती अयशाप? वा, पूर्वजास्तदंपत्यं-पुत्रादिस्तत्सदृशौ यथापत्यौ, अत एव 'अभिन्नाया' अभिज्ञातौ प्रसिद्धौ अभूतां (तंजहा) तद्यथा (थेरे अजभहवाहू पाइणसगुत्ते) स्थविर आर्यभद्रबाहुः प्राचीनगोत्रः (धेरे अजसंभूइविजए माढरसगुत्ते) | स्थविर: आर्यसम्भूतिविजयः मावरगोत्रः (थेरस्स अज्जमहवाहुरस पाईणसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यभद्रवाहोः प्राचीमगोत्रस्य (इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी आहावचा अभिन्नाया हुत्था) एते चत्वारः स्थविराः अन्तेवासिनो यथापत्याः प्रसिहा अभवन् (तंजहा) तद्यथा (धेरे गोदासे, थेरे अग्गिदत्ते, थेरे जन्नदत्ते, थेरे सोमदत्ते, कासवगुण) स्थविरः गोदास स्थविर अग्निदत्तः २ स्थविर यज्ञदत्तः स्थविर सोमदत्तः ४ काश्यप-10 गोत्रः (धेरेहितो गोदासेहितो कासवगुत्तेहितो)स्थविरात् गोदासात् काश्यपगोत्रात् (इस्थ णं गोदासगणे नामं गणे निग्गए) अत्र गोदासनामको गणो निर्गतः (तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिचंति) तस्य एताश्वतस्रः शाखा एवं आरुपापन्ते (तंजहा) तथा (तामलित्तिया कोडिवरिसिया पुंडवद्धणीया दासीखब्ब-18 [डिया) तामलिसिका १ कोटिवर्षिका २ पुण्ड्रवर्द्धनिका ३ दासीखर्यटिका ४(थेरस्सणं असंभूइविजयस्स दीप अनुक्रम [२२३२५८] 354 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] | गाथा [१+१+.....१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| वाचना कल्प.सुबो- माढरसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसम्भूतिविजयस्य माढरगोत्रस्य ( इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा विस्तृतम्या०018अभिन्नाया हुत्था) एते द्वादश स्थविराः शिष्या यथापत्या प्रसिद्धा अभवन् (तंजहा) तयथा (नंदणभदु-1 ॥१६५।। १ वनंदण भद्दे २ तह तीसभ६३ जसभद्दे ४।धेरे य सुमणभद्दे ५ मणिभद्दे ६ पुण्णभद्दे ७य ॥१॥) नन्दनभद्रः १ उपनन्दः २ तिष्यभद्रः ३ यशोभद्रः ४ सुमनोभद्रः५ मणिभद्रः ६ पूर्णभद्रः ७(धेरे अ थूलभद्दे ८ । उज्जुमई ९ जंबुनामधिजे १० या थेरे अ दीहभद्दे ११ घेरे तह पंडभरे १२ य ॥२॥) स्थविरः स्थूलभद्रः ८ काजुमतिः९जम्बूनामधेयः१० स्थविरः दीर्घभद्रः ११ स्थचिरः पाण्डभद्रः १२॥ । (धेरस्स णं अजसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसम्भूतिविजयस्य माढरगोत्रस्य (इमा ओ सस अंतेवासिणीओ अहावचाओ अभिन्नायाओ हुत्था) एताः सप्त अन्तेवासिन्यः यथापत्याः प्रसिद्धा अभवन् (तंजहा) लयया (जक्खा य१ जक्खदिन्ना.२ भूआ ३ तह चेव भूअदिना य ४। सेणा ५ वेणा ६ लारणा ७ भइणीओ थूलभदस्स ॥१॥) सुगमा, थेरस्स णं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुस्था, तंजहा-धेरे अजमहागिरी एलावचसगुत्ते,धेरे अज्जमुहत्थी वासिट्टसगुत्ते, थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अहथेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था, तंजहा-II ॥१६५॥ धेरे उत्तरे थेरे पलिस्सहे. थेरे धणहे. थेरे सिरिढे धेरे कोडिन्ने थेरे नागे थेरे नागमित्ते, धेरे छडुलूए रोहगुत्ते। कोसियगुत्ते णं, 'छलुए रोहगुत्ते'त्ति द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ विशेष ५ समवायाख्य ६ षट्पदार्थ दीप अनुक्रम [२२३२५८] JanEducationinANN ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ .......१॥ दीप अनुक्रम [२२३ २५८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [[ ] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+१] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध - अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः ........................... प्ररूपकत्वात् पद्, उलूकगोत्रोत्पन्नत्वेनोंलूकः, ततः कर्मधारये पडलूकः, प्राकृतत्वात् 'छडलूए'त्ति, अत एव सूत्रे 'कोसिअगुते' इत्युक्तं, उलूककौशिकयोरेकार्थत्वात्, थेरिहिंतो णं छडुलूपहिंतो रोहगुत्तर्हितो कोसि यगुत्तेर्हितो, तत्थ णं तेरासिया निग्गया, 'तेरासिय'त्ति त्रैराशिका :- जीवाजीवनो जीवाख्यराशित्रयप्ररूपिणस्तच्छिष्यप्रशिष्याः, तदुत्पत्तिस्त्वेवं श्रीवीरात् पञ्चशतचतुश्चत्वारिंशत्तमे ५४४ वर्षे अन्तरञ्जिकायां पुर्या भूतगृहव्यन्तर चैत्यस्थश्रीगुप्ताचार्यवन्दनार्थं ग्रामान्तरादागच्छन् रोहगुप्तस्तच्छिष्यः प्रवादिप्रदापित पटह ध्यनिमाकर्ण्य तं पटहं स्पृष्ट्वाऽऽचार्यस्य तन्निवेद्य वृश्चिक १ सर्प २ भूषक ३ मृगी ४ वराही ५ काकी ६ शकुनिका ७ भिधपरिव्राजकविद्योपधातिका मयूरी १ नकुली २ बिडाली ३ व्याघ्री ४ सिंही ५ की ६ श्येनी ७संज्ञाः सप्त विद्याः अशेषोपदशमकं रजोहरणं च गुरुभ्यः प्राप्य बलश्रीनाम्नो राज्ञः सभायामागत्य पोहशालाभिधेन परिव्राजकेन सह वादे प्रारब्धे तेन जीवाजीवसुखदुःखादिरूपे राशिद्वये स्थापिते देवानां त्रितयं त्रयी हुतभुजां शक्तित्रयं त्रिखरास्त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमंथ, त्रिब्रह्म वर्णास्त्रयः । त्रैगुण्यं पुरुषत्रयी त्रयमधो. सन्ध्यादिकालत्रयं, सन्ध्यानां त्रितयं वचस्त्रयमर्थाप्यर्थास्त्रयः संस्मृताः ॥ १ ॥ इत्यादि वदन् जीवाजीवनोजीवेत्यादिराशित्रयं व्यवस्थापितवान् ततश्च तद्विद्यासु वविद्याभिर्विजितासु तत्प्रयुक्तां रासभीविद्यां रजोहरणेन विजित्य महोत्सवपूर्वकं आगत्य सर्वं वृत्तान्तं गुरुभ्यो व्यज्ञपयत्, ततो गुरुभिरूचे-वत्स ! वरं चक्रे, परं जीवाजीवनो जीवेति राशित्रयस्थापनमुत्सूत्रमिति तत्र गत्वा ददख मिथ्यादुष्कृतं, ततः कथं तथा ... अथ त्रैराशिक मतस्य उत्पत्तिः कथयते 356 त्रैराशिक वृत्तान्तः ५ १४ janelibrary.org Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ......... मूलं [७] / गाथा [१+१+....१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [0] गाथा ||१+१+ ......१|| कल्प सोपविघपर्षदि स्वयं प्रज्ञाप्य अप्रमाणयामीति जाताहङ्कारेण तेन तथा न चक्रे, ततो गुरुभिः षण्मासी यावद्राज- राशिक च्या 18सभायां वादमासूश्य प्रान्ते कुत्रिकापणानोजीवयाचने तस्यामाप्तौ चतुश्चत्वारिंशेन पृच्छाशतेन (१४४) निर्लो-1 वृत्तान्त: ठितः, कथमपि खाग्रहमेंत्यजन् गुरुभिः क्रुधा खेलमात्रभस्मप्रक्षेपेण शिरोगुण्डनपूर्वकं स सहन्यायश्चके, ततःषष्ठो ॥१६६॥ निहवस्त्रैराशिकः क्रमेण वैशेषिकदर्शनं प्रकटितवानिति । यत्तु सूत्रे रोहगुप्त आर्यमहागिरिशिष्यः प्रोक्तः, उत्त | राध्ययनवृत्तिस्थानाङ्गवृत्त्यादौ तु श्रीगुप्ताचार्यशिष्यःप्रोक्तस्ततोऽस्माभिरपि तथैव लिखितं,तत्त्वं पुनर्वहुश्रुता विदन्ति । थेरेहितोणं उत्सरबलिसहहिंतोतस्थ णं उत्तरवलिस्सहे नामंगणे निग्गए,तस्सणं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिजति,तंजहा कोसंविया सुत्तिवत्तिया कोडंबाणी चंदनागरी, थेरस्सणं अजसुहत्थिस्स बासिहसगुस्सस्स | इमे दुवालस घेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था-नहा-(धेरे अ अजरोहण १ भद्दजसे २ मेह गणिय ३ NRI कामिही ४। मुट्ठिय ५ सुप्पडिबुद्धे ६, रक्खिय ७ तह रोहगुत्ते ८ अ॥१॥ इसिगुत्ते ९सिरिगुत्ते १० गणी अ. Ke भे ११ गणी य तह सोमे १२। दस दोअगणहरा खलु एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥) आर्यरोहणः१ भद्रयशाः२| मेघ: ३ कामर्द्धि ४ सुस्थितः५ सुप्रतियुद्धः ६ रक्षितः ७ रोहगुप्तः ८ ऋषिगुप्तः ९श्रीगुप्तः१. ब्रह्मा ११ सोमः। 18| १२ इति द्वादश गणधारिणः सुहस्तिशिष्याः॥ थेरेहिंतो णं अजरोहणे हितो कासवगुत्तेहितो तत्थ णं उद्देहगणेश"१५॥ नाम गणे निग्गए, तस्सिमाओ चत्तारि साहाओ निगयाओ. छञ्च कुलाई एवमाहिजंति, से कितं साहाओ, साहाओ एवमाहिजंति, संजहा उदंबरिजिया मास पूरिआ मइपत्तिया पुन्नपत्तिया, से तं साहाओ ॥ से किं तं दीप अनुक्रम [२२३२५८] For Fun ~357 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ .......१॥ दीप अनुक्रम [२२३ २५८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [[ ] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः --------- कुलाई ? कुलाई एवमाहिजंति, तंजहा-पढमं च नागभूयं बिइयं पुण सोमभूइयं होइ । अह उल्लगच्छ तइअं | चउत्थयं हत्थलिलं तु ॥ १ ॥ पंचमर्ग नंदिज्जं छद्धं पुण पारिहासयं होइ । उद्देहगणस्सेए छच्च कुला हुति नाया ॥ २ ॥ थेरेहिंतो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियायसगुत्तेहिंतो इत्थ णं चारणंगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चतारि साहाओ. सत्त 'कुलाई एवमाहिति से किं तं साहाओ ?, साहाओ एवमाहिज्जति, तंजहाहारियमालागारी संकासीआ गवेधुया वज्जनागरी, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई ?, कुलाई एवमाहिजंति, तंजहा- पढमित्थ वत्थलिज्जं बीयं पुण पीइधम्मिअं होइ । तइअं पुण हालिज, चउत्थयं पूसमितिजं ॥ १ ॥ पंचमगं मालिज्जं छटुं पुण अज्जवेडयं होइ । सत्तमयं कण्हसहं सत्त कुला चारणगणस्स ॥ २ ॥ थेरेहिंतो णं भद्दजसेर्हितो भारदायगुप्तेहिंतो इत्थ णं उडवाडियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि | साहाओ तिथि कुलाई एवमाहिजंति से किं तं साहाओ ?, साहाओ एवमाहिजंति, तंजहा चंपिजिया भद्दिजिया काकंदिया मेहलिजिया, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई ?, २ एवमाहिज्जंति, तंजहा-भद्दजसियं तह भद्दगुत्तियं तइयं च होइ जसभदं । एवाई उड्डवाडियगणस्स तिन्नेव य कुलाई ॥ १ ॥ थेरेहिंतो णं कामिहीहिंतो कोडालसगुत्तेहिंतो इत्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाई एवमाहिजंति से किं तं साहाओ ?, सा० तंजहा - सावस्थिया रजपालिआ अंतरिजिया खेमलिजिया, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई ?, कुलाई एवमाहिजंति, तंजहा-गणियं मेहियकामिहिअं च तह होइ 358 नागभूतादीनि कुला नि चारणाद्या गणाः १० १४ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] | गाथा [१+१+.....१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबो- व्या०७ प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| तृत्वम् ॥१६७॥ इंदपुरगं च । एयाइं बेसवाडियगणस्स चत्तारि उ कुलाई ॥१॥ धेरोहितो णं इसिगुत्तेहिंतो वासिहसगुत्ते- श्रीप्रियन हिंतो इत्थ णं माणवगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ. तिन्नि कुलाई एवमाहिजंति, न्थसूरिसे किं तं साहाओ?, साहाओ एवमाहिज्जति, तंजहा-कासविज्जिया गोयमिज्जिया.वासिडिया सोरडिया, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई, कुलाई एवमाहिचंति, तंजहा-इसिगुत्तियत्थ पढम, बीयं इसिदत्ति मुणेयवं । तइयं च अभिजयंतं तिन्नि कुला माणवगणस्स ॥१॥ थेरोहिंतो सुट्टियमुप्पडिबुद्धेहितो कोडियकाकंदरहितो चग्धावचसगुत्तेहिंतो इत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओSI चत्तारि साहाओ, चत्तारि कुलाई च एवमाहिजंति, से किं तं साहाओ?, साहाओ एवमाहिवति, तंजहाउच्चानागरि बिवाहरी य, वइरी य मज्झिमिल्ला य । कोडियगणस्स एया. हयंति चत्तारि साहाओ॥१॥सेत्तं । साहाओ, से किं तं कुलाई ?, कुलाई एवमाहिज्जति, तंजहा-पढमित्थ भलिजें, बिइयं नामेण बस्थलिज्ज तु । तइयं पुण वाणिज्जं, चउत्थयं पण्हवाहणयं ॥१॥धेराणं सुवियसुप्पडिवुद्धाणं कोडियकाकंदयाणं वग्यावच्चस-18 गुत्ताणं इमे पंच थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्या, तंजहा-धेरे अजईददिने पियगंथे। 'पिअगंथेत्ति एकदा त्रिशतजिनभवनचतुःशतलौकिकमासादाष्टादशशतविप्रगृहषत्रिंशच्छतवणिग्गेहनवशतारामससशतवापीद्विशतकृपसप्तशतसत्रागारविराजमाने अजमेरुनिकटवर्तिनि सुभटपालराजसम्बन्धिनि हर्षपुरे श्रीप्रियग्रन्धसूरयोऽभ्येयुः, तत्र चान्यदा द्विजैर्यागेछागो हन्तुमारेभे, तैः श्राद्धकरार्पितवासक्षेपे। दीप अनुक्रम [२२३२५८] ॥१६७॥ For F lutelu ... आर्य-प्रियग्रन्थ-वृतांतं वर्णयते ~359 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ......... मूलं [७] / गाथा [१+१+...] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ Receneseseserce न्यमा ......१|| अम्बिकाधिष्ठितः स छागो नभसि भूत्वा वभाण-हनिष्यथ नु मा हुत्यै, वनीताऽऽयात मा हत।युष्मद्वन्निर्दयः श्रीप्रियनस्यांचेत, तदा हन्मि क्षणेन वः ॥१॥ यत्कृतं रक्षसां द्रले कुपितेन हनूमता । तत्करोम्येव वा खस्था, कृपा चेन्नान्तरा भवेत् ॥ २॥ यावन्ति रोमकूपानि, पशुगात्रेषु भारत ! | तावद्वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुधातकाः ॥३॥ यो दद्यात् काश्चनं मेलं, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्यान्न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥४॥ महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् । भीताभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥५॥ इत्यादि, कस्त्वं प्रकाशयात्मानं, तेनोरं पावकोऽस्म्यहम् । ममैनं वाहनं कस्माजिघांसथ पशुं वृथा ? ॥६॥ इहास्ति श्रीप्रियग्रन्थः, सूरीन्द्रः समुपागतः । तं पृच्छत शुचिं धर्म, समाचरत शुद्धितः ॥७॥ यथा चक्री नरेन्द्राणां, धानु- काणां धनञ्जयः । तथा धुरि स्थितः साधुः, स एकः सत्यवादिनाम् ॥ ८॥ ततस्ते तथा कृतवन्त इति ॥ थेरे विजाहरगोवाले कासवगुत्ते णं थेरे इसिदत्ते थेरे अरिहत्ते । थेरेहितो णं पियगंथेहिंतो एत्थ णं मज्झिमा साहा निग्गया, थेरेहिंतो णं विजाहरगोबालहितो कासवगुत्तेहिंतो एस्थ णं विजाहरी साहा निग्गया, थेरस्सणं अज्जइंददिन्नस्स कासवगुत्तस्स अज्वदिन्ने धेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते, थेरस्स णं अजादिन्नस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो घेरा अंतेवासी अहाबच्चा अभिन्नाया हुत्या, तंजहा-धेरे अजसंतिसेणिए माढरसगुत्ते, धेरे अजसीहगिरीश जाइस्सरे कोसियगुत्ते, थेरेहितो णं अजसंतिसेणिएहिंतो माढरसगुत्तेहिंतो एत्थ णं उचनागरी साहा निग्गया, थेरस्स णं अजसंतिसेणियस्स माढरसगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिनाया हुत्था, १४ CCCA दीप अनुक्रम [२२३२५८] JanEducatory For F lutelu ~3600 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] | गाथा [१+१+.....१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबो- प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| व्या०७ ॥१६८॥ तंजहा-(अं.१०००) थेरे अजसेणिए थेरे अज्जतावसे घेरे अजकुबेरे धेरे अजइसिपालिए । थेरोहितो णं अच- श्रीवजवासेणिएहिंतो एत्थ णं अजसेणिया साहा निग्गया, धेरोहितो णं अन्जतावसेहिंतो एत्थ णं अन्जतावसी साहा: मिवृत्तम् निग्गया, थेरोहिंतो णं अजकुबेरेहिंतो एत्य णं अज्जकुवेरी साहा निग्गया, थेरोहितो णं अज्जइसिपालि-11 एहिंतो एत्य णं अज्जइसिपालिया साहा निग्गया, थेरस्स णं अनसीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियगुत्तस्स इमे चत्तारि घेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था, तंजहा-धेरे धणगिरी थेरे अज्जवहरे 'थेरे अन्जा इरे'त्ति तुम्बवनग्रामे सुनन्दाभिधानां भार्या साधाना मुक्त्वा धनगिरिणा दीक्षा गृहीता, सुनन्दासुतस्तु। खजन्मसमये एव पितुर्दीक्षां श्रुत्वा जातजातिस्मृतिर्मातुरुद्वेगाय सततं रुदनेवास्ते, ततो मात्रा षण्मासवया| गव धनगिरेरर्पिता, तेन च गुरोः करे दत्तो महाभारत्वाद दत्तवज्रनामा पालनस्थ एवैकादशाङ्गानि अध्यष्ट, ततनिवार्षिक: सन् मात्रा राजसमक्षं विवादेऽनेकसुखभक्षिकादिभिभ्यिमानोऽपि धनगिरिणाऽर्पितं रजोहरणमग्रहीत्, ततो माताऽपि प्रवनाज, ततोऽष्टवर्षान्ते एकदा तस्य पूर्वभववयस्यैम्भिकैरुजयिनीमार्गे वृष्टिनिवृत्तौ कूष्माण्डभिक्षायां दीयमानायां अनिमिषत्वाइवपिण्डोऽयमकल्प्य इत्यं ग्रहणे तुष्टबैंक्रियलन्धिर्दत्सा, तथैव द्वितीयवेलायां घृतपूरीग्रहणे नभोगमनविद्या दत्ता, यश्च पाटलीपुरे धनधेष्ठिना दीयमानां बहुधन-11 ॥१६॥ कोटिसनाथां साध्वीभ्यो गुणानाकर्ण्य वज्रमेव वृणोमीतिकृताभिग्रहां रुक्मिणीनामकन्यां प्रतियोध्य दीक्षया-IN मास, अन्न कविः-मोहाधिश्चलुकीचक्रे, येन बालेन लीलया । स्त्रीनदीस्नेहपूरस्तं, बज्रार्ष प्लावयेत्कथम्? ॥१॥ दीप अनुक्रम [२२३२५८] २८ ... आर्य-वजस्वामिनं-वृतांतं वर्णयते । ~361 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ......... मूलं [७] / गाथा [१+१+....१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| यश्चैकदा दुर्भिक्षे सङ्घ पटे संस्थाप्य समुभिक्षां पुरिकापुरी नीतवान, तत्र बौद्धेन राज्ञा जिनचै-श्रीवत्रखात्येषु पुष्पनिषेधः कृतः, अत्रापि किरणावलीदीपिकयोपोंद्वराज्ञेति प्रयोगो लिखितःचिन्त्या, तदनु पर्युषणायां मिवृत्तं श्राद्धैर्विज्ञसो व्योमविद्यया माहेश्वरीपुर्या पितृमित्रमारामिकं पुष्पप्रगुणीकरणार्धमादिश्य खयं हिमबद्री श्रीदेवीगृहे गतः, ततश्च श्रिया दसं महापद्म हताशनवनादिशतिलक्षपुष्पाणि च लात्वा ज़म्भकामरविकवितविमानस्थ: समहोत्सवमागत्य जिनशासनं प्रभावयन् राजानमपि श्रावकं चक्रे, अन्यदा स श्रीवाखामी कफोद्रेके भोजनादनु भक्षणाय कर्णे स्थापितायाः शुण्ठ्याः प्रतिक्रमणवेलायां पाते प्रमादेन खमृत्यु आसनं विचिन्त्य द्वादशवर्षीयदुर्भिक्षप्रवेशे स्खशिष्यं श्रीवज्रसेनाभिधं-लक्षमूल्यौदनादू भिक्षा, यत्राहि त्वमेवाप्नुयाः । सुभिक्षमवबुद्धधेयास्तदुत्तरे दिनोषसि ॥१॥ इत्युक्त्वा अन्यत्र व्यहारयत्, स्वयं च खसमीपस्थसाधुभिस्सह रथावर्तगिरी गृहीतानशनो दिवं प्राप, तत्र च संहननचतुष्कं दशमं पूर्वच व्युच्छिन्नं, यतु किरणावलीकारेण तुर्य संहननं व्युच्छिन्नमिति लिखितं, तच्चिन्त्यं, तन्दुलवैचारिकवृत्तिदीपालिकाकल्पादौ चतुष्कव्युच्छेदस्यैवोक्तत्वात् । तदनु, च श्रीवज़सेनः सोपारके जिनदत्तश्राद्धगृहे तत्पन्या ईश्वरीनाम्नया लक्षमूल्यमन्नं पक्त्वा प्रक्षिप्यमाणं विषं गुरुवचः प्रोच्य न्यवारयत्, प्रभाते पोतेः प्रचुरधान्यागमनात् सञ्जाते १ दुष्कर्मावनिमिद्वने, श्रीजने स्वर्गमीयुपि । ब्युच्छिन्नं दशमं पूर्व, तुर्य संहननं तथा ।। १ ॥ इति परिशिष्टपर्वणि श्रीहेमचन्द्राचार्याः, तमि य निव्वुए अद्धनारायसंघयणं वुच्छिन्नं' इत्यावश्यकचूर्णिवृत्त्योः, तन्दुलवैचारिकादौ तु तत्तवधिकालतया वचनं । दीप अनुक्रम [२२३२५८] क.मु.२ For F lutelu ~362 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ......... मूलं [७] / गाथा [१+१+....१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| कस-सुनो- सुभिक्षे जिनदत्तः सभार्यों नागेन्द्र १ चन्द्र २ निर्वृति ३ विद्याधरा ४ ख्यसुतपरिवृतो दीक्षां जग्राह, तत-श्रीआयेसव्या०७॥स्तेभ्यः खखनाना चतनः शाखा: प्रवृत्ताः॥ अज्जसमिए धेरे अरिहदिने । धेरेहितो णं अजसमिएहितो गोय- मतमा मसगुत्तेहिंतो इत्थ णं बभदीविया साहा निग्गया। 'भद्दीविया साहा निग्गया' इति आभीरदेशेऽचलपु चम् ॥१६९॥ रासन्ने कन्नावेज्ञानयोर्मध्ये ब्रहाद्वीपे पञ्चशती तापसानां अभूत, तेष्वेकः पादलेपेन भूमाविंच जलोपरि गच्छन् जलोलिसपादो बेनामुत्तीर्य पारणार्थ याति, ततोऽहो एतस्य तपाशक्तिः, जैनेषु न कोऽपि प्रभावीति श्रुत्वा श्राद्धैः श्रीवज़खामिमातुला आर्यसमितसूरय आहूताः, तैरूचे-स्तोकमिदं, पादलेपशक्तिरिति, श्राद्धस्ते । IRI खगृहे पावपादुकाधावनपुस्सरं भोजिताः, ततस्तैः सहैव श्राद्धा नदीमंगुः, स च तापसो धाष्ट्येमालम्व्य नयां | प्रविशन्नेव बुडितुं लग्नः, ततस्तेषां अपभ्राजना। इतश्च तत्रार्यसमितसूरयोऽभ्येत्य लोकयोधनाय योगचूर्ण क्षिप्वा ऊचुम्बने ! परं पारं यास्याम इत्युक्ते कूले मिलिते, बभूव बहाश्चर्य, ततः सूरयस्तापसाश्रमे गत्वा तान् प्रतिबोध्य प्रावाजयन् , ततस्तेभ्यो ब्रह्मबीपिका शाखा निर्गता।तत्र च-महागिरिः १ सुहस्ती च २, सूरिः श्रीगुणसुन्दरः ३ । श्यामार्यः ४ स्कन्दिलाचार्यों ५, रेवतीमित्रसूरिराह ॥१॥ श्रीधर्मों ७ भद्रगुप्तश्च, ८ श्रीगुसो । वज्रसूरिराट् १० । युगप्रधानप्रवरा, दशैते दशपूर्विणः॥२॥ थेरेहितोणं अज्जवइरेहितो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्थ | राणं अजवारी साहा निग्गया।धेरस्सणं अजवइरस्स गोयमसगुत्तस्स इमे तिनि घेरा अंतेवासी अहावचा अभि-| माया हुत्था, तंजहा-धेरे अज्जवइरसेणे घेरे अजपउमे थेरे अजरहे । थेरेहितो णं अजवदरसेणेहिंतो इत्थ दीप अनुक्रम [२२३२५८] ॥१६॥ Ouraneibraryurg |... आर्य-समितसूरि-वृतांतं वर्णयते ~363 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] | गाथा [१+१+.....१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| अज्जनाइली साहा निग्गया, थेरेहितो गं अजपउमेहिंतो इत्थ णं अजपजमा साहा निग्गया, धेरेहितो | श्रीआर्यपगणं अजरहहिंतो इत्थ णं अजजयंती साहा निग्गया। रस्स णं अज्जरहस्स बच्छसगुत्तस्स अजपूस- आदिस्थविगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगुत्ते, थेरेस्स णं अजपूसगिरिस्स कोसियगुत्तस्स अज्जफग्गुमित्ते धेरे अंतेवासी रावली गोयमसगुत्ते, घेरस्स णं अज्जफरगुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अजधणगिरी थेरे अंतेवासी वासिङ्कसगुत्ते, रस्सणं अजधणगिरिस्स वासिसगुत्तस्स अज्जसिवभई धेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते, थेरस्स णं अज्वसिवभूइस्स कुच्छसगुत्तस्स अजभद्दे धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, धेरस्स णं अजभहस्स कासवगुत्तस्स अजनक्खसे धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अज्जरक्खे थेरे अंतेवासी 18 कासवगुत्ते।'धेरे अन्जरक्खे'त्ति अहो बत किरणावलीकारस्य बहुश्रुतप्रसिद्धिभाजोऽपि अनाभोगविलसितं, यतो ये श्रीतोसलिपुत्राचार्यशिष्याः श्रीवज्रवामिपावेऽधीतसाधिकनवपूर्वा नाना च श्रीआरक्षितास्ते से भिनाः, एते च श्रीवज्रस्वामिभ्यः शिष्यप्रशिष्यादिगणनया नवमस्थानभाविनो नाना पार्यरक्षाः, इत्येवमनयो आर्यरक्षितार्यरक्षयोः स्फुटं भेदं विस्मृत्य आर्यरक्षस्थाने आर्यरक्षितव्यतिकरं लिखितवान् ॥ । धेरस्स णं अज्जरक्खस्स कासवगुत्तस्स अजनागे थेरे अंतेवासी गोअमसगुत्ते, थेरस्स णं अज्जनागस्स गोअमसगुत्तस्स अजजेहिल्ले थेरे अंतेवासी वासिहसगुत्ते, घेरस्सणं अजजेहिल्लस्स वासिहसगुत्तस्स अज॥विण्हू घेरे अंतेवासी माढरसगुत्ते, थेरस्स णं अजविण्ठस्स माढरसगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अतवासी दीप अनुक्रम [२२३ २५८] JanEducation - 364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] | गाथा [१+१+.....१] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: . प्रत सूत्रांक [७] गाथा ||१+१+ ......१|| कल्प.सुबो- गोयमसगुत्ते, धेरस्स णं अजकालयस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी गोयमसगुत्ता-थेरे अजसंप- आर्यकाल लिए थेरे अजभद्दे, एएसि णं दुण्हंपि थेराणं गोयमसगुत्ताणं अज्जबुड्डे थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते, थेरस्स कादिस्थवि. अजवुड्स्स गोयमसगुत्तस्स अजसंघपालिए थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते, थेरस्स णं अजसंघपालिअस्स गोयम राणामा॥१७॥ सगुत्तस्स अजहत्थी थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजहत्थिस्स कासवगुत्तस्स अजधम्मे धेरे अंते-11 वासी सुच्चयगुत्ते, थेरस्सणं अजधम्मस्स सुब्बयगुत्तस्स अनसीहे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजसीहस्स कासघगुत्तस्स अजधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अज्जधम्मस्स कासवगुत्तस्स अन्जसंडिल्ले धेरे | अंतेवासी-वंदामि फग्गुमित्स' मित्यादिगाथाचतुर्दशकं, तत्र गयोक्तोऽर्थः पुनः पयैः सङ्गहीत इति न पुनरुशक्तिशङ्का ।। बंदामि फग्गुमित्तं,गोयम धणगिरिं च वासिडें । कुच्छ सियभूईपि य. कोसिय दुजंत कण्हे अ ॥१॥ते बंदिऊण सिरसा,भई वंदामि कासवसगुत्तं । नक्खं कासवगुत्तं रक्खपि य कासवं वंदे ॥२॥ चंदामि अजनागं, गोयम जेहिलं च चासिट्ठ। विण्डं माढरगुत्तं कालगमबि गोयम, चंदे ॥३॥ गोयमगुत्तISIकुमारं.संपलियं, तय भयं वंदे । थेरं च अज्जवुड गोयमगुत्तं नमसामि ॥ ४॥तं वंदिऊण सिरसा. थिरस- २५ सचरित्तनाणसंपन्नं । थेरं च संघवालिय,गोयमगुत्तं पणिवयामि ॥५॥ वदामि अजहत्यि, कासवं खंतिसागरं ॥१७॥ धीरं । गिम्हाण पदममासे, कालगयं चेव सुद्धस्स ॥६॥'गिम्हाण'ति-ग्रीष्मस्य प्रथममासे-पत्रे, 'कालगर्य'तिमा दिवं गतं, 'सुद्धस्स'त्ति-शुक्लपक्षे । वदामि अजधम्म च.सुषयं, सीललद्धिसंपणं । जस्सनिक्खमणे देवो, छ । दीप अनुक्रम [२२३२५८] २८ Kajanebiary.ary ~365 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ...... व्याख्यान [८] .......... मूलं ७...] / गाथा [१-१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [७...] गाथा ||१-१४|| विरमुत्तमं वहइ ॥७॥'वरमुत्तमं ति वरा-श्रेष्ठा, मा-लक्ष्मीस्तया उत्तम छत्रं वह ति-यस्य शिरसि धारयतिफल्गुमि देवः पूर्वसङ्गतिकः कश्चित् । हत्थं कासवगुत्तं,धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि । सीहं कासवगुत्तं,धम्मपि य कासवं? त्रादीनां | वंदे ॥ ८॥तं बंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं । थेरं च अजजंबु, गोयमगुत्तं नमसामि ॥९॥ नमस्कारा मिउमद्दयसंपनं उवउत्तं नाणदंसणचरित्ते । थेरं च नंदियंपि. य, कासवगुत्तं पणिवयामि ॥१०॥ 'मिउमद्दवसंपन्नं'ति मृदुना-मधुरेण.माइवेन-मायात्यागेन सम्पन्नम् । तत्तो य थिरचरितं, उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं । देसिगणिखमासमणं. माढरगुत्तं नमसामि ॥११॥ ततो अणुओगधरं,धीरं महसागरं महासत्तं । घिरगुत्तखमासमणं, वच्छसगुत्तं पणिवयामि ॥ १२॥ तत्तो य नाणदंसणचरित्ततवसुट्टियं गुणमहंतं । थेरं कुमारधम्म, वंदामि गणिं गुणोवेयं ॥ १३ ॥ सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममवगुणेहिं संपन्ने । देविडिखमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि ॥१४॥ इति स्थविरावलीसूत्रं सम्पूर्णम् । Seeeeasoeesasaeeeeee दीप अनुक्रम [२५९२६२] chaelesecraeseseseserce Fur & Fonte - 366 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र”- (मूलं+वृत्तिः ) ...... व्याख्यान [८] .......... मूलं ७...] / गाथा [१-१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म Scene प्रत सूत्रांक [७...] गाथा ||१-१४|| leasepreneu ANASANARA ARARSANAKARARANASANARA इति जमगुरुभट्टारकथीहीरविजयसूरिशिष्यरत्नमहोपाध्यायश्रीकीर्ति विजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितश्रीकल्पसूत्रसुबोधिनीवृत्तौ अष्टमः क्षणः समावः। समातश्चार्य स्थविरावलीनामा द्वितीयोऽधिकारः ॥ ReSRASLADRESURSLASERSERUerseaserstrasera दीप अनुक्रम [२५९२६२] अष्टमं व्याख्यानं समाप्तं ~367 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [१] गाथा II-II ॥ अथ नवमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ श्रीवीरस्य ॥ अथ सामाचारीलक्षणं तृतीयं वाच्यं वक्तुं प्रथमं पर्युषणा कदा विधेयेत्याह-(तेणं कालेणं) तस्मिन् पुषणा काले (तेणं समएणं)तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे)श्रमणो भगवान् महावीरः (वासाणं सवीसहराए मासे विकते) आषाढचातुर्मासिकदिनादारभ्य वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे व्यतिक्रान्ते । HI .१-२ (वासावासं पोसवेइ) पर्युषणामकरोत् ॥(१)॥ (से केणटेणं भंते ! एवं बुचह)तत् केन अर्थेन-कारणेन हे पूज्य ! एवं उच्यते-(समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान महावीरः (वासाणं सवीसहराए मासे विइ-18 कते) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्त मासे व्यतिक्रान्ते सति (वासाबासं पोसवेह) पर्युषणामकरोत्, इति । शिष्येण प्रो कृते गुरुः उत्तरं दातुं सूत्रमाह-(जओणं पाएणं अगारीणं अगाराई) यतः कारणात् प्रायेण । । अगारिणां-गृहस्थानां अगाराणि-गृहाणि (कडिआई) कटयुक्तानि (उकंबियाई) धवलितानि (छमाई) तृणादिभिराच्छादितानि (लित्ताई) गोमयादिना लिसानि (गुत्ताई) वृत्तिकरणादिना गुप्तानि (घट्टाई) विषमभूमिभाद् घृष्टानि (मट्ठाई)पाषाणखण्डेन घृष्ट्वा सुकुमालीकृतानि (संपधूमियाई) सौगन्ध्यार्थ धूपैचों सितानि (खाओदगाई) कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि (खायनिद्धमणाई) सज्जितखालानि, एवंविधानि (अप्प १ अवस्थानपर्युषणापेक्षयैवैतत् सूत्रं, ततो जिनस्य सांवत्सरिकप्रतिक्रमणस्याभावेऽपि न क्षतिः, अत एवामे अगारीणं अगाराई' इत्यादिनाऽवस्थानोपयोग्येवोत्तरं । दीप अनुक्रम [२६४] For F lutelu नवमं व्याख्यानं आरभ्यते ... अथ सामाचारी-वर्णनं क्रियते - 3680 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं R] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २] गाथा II-II कल्प.सुषो-लाणो अट्टाए) आत्मार्थ-आत्मनिमित्तं ( फडाई) गृहस्थैः कृतानि-परिकर्मितानि (परिभुत्ताई) परिभुक्तानि-श्रीवीरवत व्या०७ जनः व्यापूतानि (परिणामियाई भवंति) परिणामितानि-अचित्तीकृतानि, ईदृशानि यतो गृहाणि भवन्ति गणधर॥१२॥ से तेणढणं एवं वुचा) तेनार्थन-तेन कारणेन हे शिष्य ! एवं उच्यते-( समणे भगवं महावीरे) श्रमणो तच्छिष्यभगवान महावीरः (वासाणं सवीसइराए मासे विइकते ) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे व्यतिक्रान्ते स्थावराणी (वासावासं पजोसबेइ) पर्युषणामकरोत्, यतोऽमी प्रागुक्ता अधिकरणदोषा मुनिमाश्रित्य न स्युः।।(२)।जहाणं समणे भगवं महावीरे) यथा श्रमणो भगवान् महावीरः (बासाणं सवीसइराए मासे विइकते ) वर्षाकालस्या विंशतिदिनयुते मासे व्यतिक्रान्ते (वासावासं पजोसबेह) पर्युषणामकरोत् (तहा गं गणहरावि बासाणं सवीसइराए मासे विइफते) तथा गणधरा अपि वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे व्यतिक्रान्ते (वासावासं पज्जोसवेंति) पर्युषणां चक्रुः ॥ (३)॥ (जहा णं गणहरा वासाणं जाव पजोसर्विति) यथा गणधराः वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः (तहा णं गणहरसीसावि वासाणं जाय पजोसर्विति) तथा गणधरशिव्याः अपि वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः (४)।। (जहा णं गणहरसीसा यासाणं जाय पज्जोसर्विति) यथा गणधरशिष्याः वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां||॥१७२॥ चकः (तहा णं घेरावि वासाणं जाव पजोसर्विति) तथा स्थविरा अपि वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः २५ HOM(4)॥(जहा णं घेरा वासाणं जाव पज्जोसर्विति) यथा स्थविराः वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः (तहा दीप अनुक्रम [२६५] लिएeserever ~369 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६] / गाथा H । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक धुवाचार्य [६] गाथा II-II ण जे इमे अज्जत्साए समणा निग्गंथा विहरंति ) तथा ये इमे अद्यकालीना आर्यतया वा ब्रतस्थविरत्वेन वर्त मानाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः विहरन्ति (एएऽविअणं वासाणं जाव पज्जोसर्विति)ते अपि च वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां कुर्वन्ति ॥६॥ (जहा णं,जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा) यथा ये इमे अद्यतनकाले श्रमणा खपर्युषणा सू.६-७-८ निर्ग्रन्थाः (वासाणं सवीसइराए मासे विइकते ) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुते मासे व्यतिक्रान्ते ( वासावासं पज्जोसवेंति) पर्युषणां कुर्वन्ति (तहा णं अम्हंपि आयरिआ उवज्झाया वासाणं जाच पजोसर्विति) तथा | अस्माकमपि आचार्या उपाध्यायाश्च वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां कुर्वन्ति ॥(७)।। (जहा णं अम्हपि आयरिया उवज्झाया वासार्ण जाव पज्जोसविंति) यथा अस्माकं आचार्यों उपाध्यायाश्च यावत् पर्युषणां कुर्वन्ति (तहा णं अम्हे वि वासाणं सवीसहराए मासे विहफते) तथा वयमपि वर्षाकालस्प विंशत्या दिने युते मासे व्यतिक्रान्ते (वासावासं पजोसवेमो) पर्युषणां कुर्मः, (अंतरावि य से कप्पड) अवोगपि तत् पयुषणाकरणं । कल्पते (नो से कप्पइतरयणि उचाइणावित्तए) परंन कल्पते तांरात्रिं-भाद्रशुक्लपश्चमीरात्रिं अतिक्रमयितुम् ॥(८) । तत्र परि-सामस्त्येन उषणं-वसनं पर्युषणा, सा बेधा-गृहस्थैः ज्ञाता अज्ञाताच, तत्र गृहस्थैः अज्ञाता यस्या .. वर्षायोग्यपीठफलकादौ प्राप्ते कल्पोक्तद्रव्यक्षेत्रकालभावस्थापना क्रियते, सा चाषाढ पूर्णिमायां, योग्यक्षेत्रा १ उत्कृष्टत भाषाढपूर्णिमायामेव पर्युपणाकरणात् , तथा च वसनपर्युषणाया वार्षिकपर्युषणा न भिन्नदिने इति वदनिरस्तो वादी, एव-| मभिवर्धिते वर्षे विंशत्या दिनैर्वसनलक्षणैव पर्युषणा शेया, परेवामनभिवधितेऽभिवर्धितत्वापचिर्दुारा, यतो मासस्य यत्र वृद्धिस्तत्र विंशत्याऽयत्र वर्षे त्रयोदशमास्या तेषां सांवत्सरिकमिति । दीप अनुक्रम [२६९] JanEducation : Fur FB Fanatec ~3700 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [८] | गाथा ] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८] गाथा कल्प.सुबो- भाषे तु पश्चपञ्चदिनपृङ्ख्या दशपर्व तिथिक्रमेण यावत् श्रावणकृष्णपश्चदश्यां एव, गृहिज्ञाता तु द्वेधा-सांवत्स- पर्युषणा व्या०1रिककृत्यविशिष्टा गृहिज्ञातमात्रा च, तत्र सांवत्सरिककृत्यानि-संवत्सरप्रतिक्रान्ति १ लन्चनंश्चाष्टमं तपः । भाद्रपदन2018| सर्वाहिशक्तिपूजा ४ च, सङ्घस्य क्षामणं मिथा५॥१॥ एतस्कृत्यविशिष्टा भाद्रसितपश्चम्यां एय, कालिकाचार्या- तिवद्धा शाच्चतुर्ध्यामपि, केवलं गृहिज्ञाता तु सा यत् अभिवर्द्धिते वर्षे चतुर्मासकदिनादारभ्य विंशत्या दिनैर्ययमत्र १५ स्थिताः स्मेति पृच्छतां गृहस्थानां पुरो वन्दन्ति, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण, यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते 18चाषाढो बर्द्धते, नान्ये मासाः, तहिपनकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते, ततः पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः । अत्र कश्चिदाह-ननु श्रावणवृद्धौ द्वितीयश्रावणसितचतुर्थ्यामेव पर्युषणा युक्ता, न तु भाद्रसितचातुयां, दिनानां अशीत्यापत्तेः 'वासाणं सवीसइराए मासे विइकते' इति वचनबाधा स्यादिति चेत्, मैवं, अहो81 देवानुप्रिय ! एवं आश्विनवृद्धौ चतुर्मासककृत्यं द्वितीयाश्विनसितचतुर्दश्यां कर्त्तव्यं स्यात्, कार्तिकसितचतुदश्यां करणे तु दिनानां शतापत्या 'समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विकते सत्तरिराईदिएहिं सेसेहि' इति समवायाङ्गवचनबाधा स्यात, न च वाच्य-चतुर्मासिकानि हि आषाढादिमासप्रतिबद्धानि, तस्मात् कार्तिकचतुर्मासकं कार्तिकसितचतुर्दश्यामेव युक्तं, दिनगणनायां त्वधिको मासः कालचूलेत्यविवक्ष-18 ॥१७॥ Kणादिनानां सप्ततिरेवेति कुतः समवायाङ्गवचनबाधा इति ?, यतो यथा चतुर्मासकानि आषाढादिमासप्रतिव-R १ भाषणादियुद्धावेतस् पौषादिवृद्धिप्रसंगागतं वासापेक्षं वाक्यं प्रदर्शयन् प्रकरणगन्धस्याप्यक्ष इत्यपकर्णनीयः, अधिकानामविवक्षयाऽप्येतत् ।। २. दीप अनुक्रम [२७१] टिटटटटाcिeroecccerotococces ... अथ भाद्रपद-प्रतिबद्धा संवत्सरे: वर्णन ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [९] .......... मूलं [८] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक 1८1 गाथा II-II द्वानि तथा पर्युषणाऽपि भाद्रपद्मासप्रतिवद्धा तत्रैव कर्तव्या, दिनगणनायां तु अधिकमासः कालचूलेत्यवि- पयुषणा वक्षणाद् दिनानां पञ्चाशदेव कुतोऽशीतिवार्ताऽपि, न च भाद्रपदप्रतिबद्धवं पर्युषणाया अयुक्तं, बहुष्वागमेषु। भाद्रपदनतथा प्रतिपादनात्, तथाहि-'अन्नया पजोसवणादिवसे आगए अजकालगेण सालिवाहणो भणिओ-भद्दवयजु- तिबद्धा पहपंचमीए पजोसवणा' इत्यादि पर्युषणाकल्पचूणों, तथा-'तत्थं य सालिवाहणो राया, सो असावगो, सो अ कालगज्जं तं इंतं सोऊण निग्गओ अभिमुहो समणसंघो अ, महाविभूइए पविट्ठो कालगज्जो, पविटेहि अ भणिअं-भद्दवयसुद्धपंचमीए पजोसविजइ, समणसंघेण पडिवणं, ताहे रण्णा भणिअंतदिवसं मम लोगाHel णुवत्तीए इंदो अणुजाणेअव्यो होहित्ति साहुचेहए ण पज्जुवासिस्सं, तो छबीए पज्जोसवणा किलउ, आय रिएहिं भणिअं-न वहति अइफमिउं, ताहे रण्णा भणिअंता अणागयचउत्थीए पजोसर्विति, आयरिएहिं भणिअंएवं भवउ, ताहे चउत्थीए पजोसवितं, एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिआ, सा चेवाणुमया सब्ब १ अन्यदा पयुषणादिवसे आगसे आर्यकाल केन शालिवाहनो भणितो-भाद्रपदशुक्लपंचम्यां पर्युपणा । २ सत्र च शालिवाहनो राजा, स च श्रावकः, स च कालकार्य. तमायान्तं श्रुत्वा निर्गतोऽभिमुखं श्रमणसंघश्च, महाविभूत्या प्रविष्टः कालकार्यः, प्रविष्टैच, भणित-भाद्रपद-17 शुद्धपश्चम्यां पर्युष्यते, श्रमणसंधेन प्रतिपन्न, तदा राज्ञा भणितं-तदिवसे मम लोकानुवृत्त्या इन्द्रः अनुशापवितव्यो भविष्यतीति साधु-10 त्यानि न पर्युपासिष्ये, तस्मात् षष्ठयां पर्युषणा क्रियता, आचाणितं-न वर्तते अतिक्रान्तुं, तदा राज्ञा भणित-तस्माद् अनागतचतुथ्यो । पर्युष्यतां, आचार्भणितं-एवं भवतु, तदा चतुर्छा पर्युपितं, एवं युगप्रधानैः कारणे चतुर्थी प्रवर्तिता, सैव च अनुमता सर्वसाधूनाम् । दीप अनुक्रम [२७१] zeeseयर For F lutelu ~372 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [९] .......... मूलं [८] / गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८] गाथा ॥१७॥ II-11 कल्प.सुयो- साहूण' मित्यादि श्रीनिशीथर्णिदशमोद्देशके, एवं यत्र कुत्रापि पर्युषणानिरूपणं तत्र भाद्रपदविशेषितमेव, न द्वितीयभाव्या०७तु काप्यागमे "भहवयसुद्धपंचमीए पजोसविज्बई'त्ति पाठवत् 'अभिवहिअवरिसे सावणसुद्धपंचमीए पजोसवि- द्रपदे पर्यु जईत्ति पाठ उपलभ्यते, ततः कार्तिकमासप्रतिवद्धचतुर्मासककृत्यकरणे यथा नाधिकमासः प्रमाणं तथा पणा भाद्रमासप्रतिबद्धपर्युषणाकरणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणमिति त्यज कदाग्रह, किंच अधिकमासः किं काकेना भक्षितः? किंवा तस्मिन् मासे पापं न लगति ? उत बुभुक्षा न लगति ? इत्यायु पहसन् मा खकीयं अहिलवंश प्रकटय, यतस्त्वमपि अधिकमासे सति त्रयोदशसु मासेषु जातेष्वपि सांवत्सरिकक्षामणे 'बारसण्हं मासाणं'|| १५ MA इत्यादिकं वदन्नधिकमासं नाङ्गीकरोषि, एवं चतुर्मासिकक्षामणेऽधिकमाससद्भावेऽपि 'उण्हं मासाण'-18 मित्यादि, पाक्षिकक्षामणेऽधिकतिथिसम्भवेऽपि 'पन्नरसण्हं दिवसाण' मिति च ब्रूषे, तथा नवकल्पविहारादिलोकोत्तरकार्येषु 'आसाढे मासे दुपया' इत्यादि सूर्यचारे लोकेऽपि दीपालिकाक्षततृतीयादिपर्वसु धनकलान्तरादिषु च अधिकमासो न गण्यते तदपि त्वं जानासि, अन्यच्च-सर्वाणि शुभकार्याणि अभिवर्द्धिते मासे नपुंसक इतिकृत्वा ज्योतिःशास्त्रे निषिद्धानि, अपरं च आस्तामन्योऽभिवर्द्धितो भाद्रपदवृद्धौ प्रथमो भाद्रपदोऽपि अपमाणमेव, यथा चतुर्दशीवृद्धी प्रथमां चतुर्दशीमवगणय्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यं क्रियते । ॥१७४॥ १ तेरसह मासाणं इत्यादि पंचण्डं मासाणं इत्यादि च बदन कश्चित् शाखाणां स्याचारस्यापि च विराषका, पञ्चमासिकसाधिकमाससांवत्सरिकप्रतिक्रमणकथनापत्तेः, पक्षे च दिनानां सदैवानियमः, यवनवदर्वागेब प्रत्यभिवर्धितमागमन कार्य मासे मासे । दीप अनुक्रम [२७१] ~373 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [९] ......... मूलं [८] / गाथा -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक 1८1 Iव्यवस्खा गाथा तथाऽत्रापि, एवं तर्हि अप्रमाणे मासे देवपूजामुनिदानावश्यकादि कार्यमपि न कार्य इत्यपि वक्तुं माऽधरौष्ठं मासवृद्धि चपलय, यसो यानि हि दिनप्रतिबद्धानि देवपूजामुनिदानादिकृत्यानि तानि तु प्रतिदिनं कर्तव्यान्येव, यानि च चर्चा कल्पसन्ध्यादिसमयप्रतिबद्धानि आवश्यकादीनि तान्यपि यं कञ्चन सन्ध्यादिसमयं प्राप्य कर्तव्यान्येच, यानि तु| भाद्रपदादिमासप्रतिबद्धानि तानि तु तद्वयसम्भवे कस्मिन् क्रियते इति विचारे प्रथमं अवगणय्य द्वितीये मू.८ क्रियते इति सम्यग विचारय । तथा च पश्य अचेतना वनस्पतयोऽपि अधिकमासं नागीकुवते, येनाधिकमासे ५ प्रथमं परित्यज्य द्वितीय एव मासे पुष्प्यन्ति, यदुक्तं आवश्यकनियुक्ती-"फुल्ला कणिआरडा चूअग! अहिमासघमि घुझुमि ! तुह न खमं फुल्लेउं जइ पच्चंता करिति डमराई ॥१॥" तथा च कश्चित् 'अभिवडिअंमि वीसा इअरेसु सवीसई मासे' इति वचनबलेन मासाभिवृद्धी विंशत्या दिनैरेव लोचादिकृत्यविशिष्ट पर्युषणां करोति, तदप्ययुक्तं, येन 'अभिवडिअंमि धीसा' इति वचनं गृहिज्ञातमात्रापेक्षया, अन्यथा 'आसाढपुण्णिमासीए| लापजोसर्विति एस उस्सग्गो, सेसकालं पज्जोसविताणं अववाउ'सि श्रीनिशीधचूर्णिदशमोद्देशकवचनादाषाढपूल पर्णिमायामेव लोचादिकृत्यविशिष्टा पर्युषणा कर्तव्या स्यात्, इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ तत्र कल्पोक्ता द्रव्य १क्षेत्र २ काल ३भाव ४ स्थापना चैवं-द्रव्यस्थापना तृणडगलछारमल्लकादीनां परिभोगः सचित्तादीनां च परिहार, तत्र सचित्तद्रव्यं शैक्षो न प्रव्राज्यते अतिश्रद्धं राजानं राजामात्यं च विना, अचित्सद्रव्यं च वस्त्रादि न गृह्यते, II १किं तिथियुद्धी नोत्तरतिथी पाप ?, विचारय । २ यदि पुष्पिताः कणवीराः चूत ! अधिकमासे घुष्टे । तव न क्षमं पुष्पितु यदि क.मु.३. प्रत्यताः कुर्वन्ति उमरादि ।। SasaseasesasaSPOAS 11-11 दीप अनुक्रम [२७१] ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [८] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७१] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [८] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुवो व्या० ९ ॥१७५॥ acces मिश्रद्रव्यं सोपधिकः शिष्यः, क्षेत्रस्थापना सक्रोशं योजनं, ग्लानवैद्योपधादिकारणे च चत्वारि पञ्च वा योजनानि, कालस्थापना चत्वारो मासा, 'भावस्थापना क्रोधादीनां विवेक ईर्ष्यादिसमितिषु चोपयोग इति४ ( ८ ) (वासावासं पज्जोसवियाणं) वर्षावासं चतुर्मासकं पर्युषितानां स्थितानां (कप्पड़ ) कल्पते (निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा) निर्ग्रन्धानां साधूनां वा निर्ग्रन्धीनां साध्यीनां वा (सव्वओ समंता सक्कोसं जोयणं उग्गहं ओगिन्हित्ताणं ) सर्वतः चतसृषु दिक्षु समन्तात् विदिक्षु च सक्रोशं योजनं अवग्रहं अवगृह्य (चिट्टिउं अहालदमवि उग्गहे ) अथेत्यव्ययं, लन्दशब्देन काल उच्यते, तत्र यावता कालेनाद्रः करः शुष्यति तावान् कालो जघन्यं लन्दं, पश्च अहोरात्रा उत्कृष्टं लन्दं, तन्मध्ये मध्यमं तन्वं, लन्दमपि कालं यावत् - स्तोककालमपि अवग्रहे स्थातुं कल्पते, न तु अवग्रहाद् बहिः, अपिशब्दात् अलन्दमपि बहुकालमपि यावत् षण्मासानेकत्रांवग्रहे स्थातुं कल्पते, न तु अवग्रहाद् बहिः, गजेन्द्रपदादिगिरेर्मेखला ग्रामस्थितानां षट्सु दिक्षु उपाश्रयात् सार्द्धक्रोशद्वयगमनागमने पञ्चकोशावग्रहः, यत्तु विदिक्षु इत्युक्तं तद्व्यावहारिक विदिगपेक्षणा, नैयिक विदिशां | एकप्रदेशात्मकत्वेन तत्र गमनासम्भवात्, अटवीजलादिना व्याघातेषु त्रिदिको द्विदिको एकदिको वाऽवग्रहो भाव्यः ॥ (९) ॥ ( वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़ निग्गंथाणं वा निग्गंधीण वा) वर्षावासं चतुर्मासकं पर्युषितानां स्थितानां कल्पते निर्मन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा (सबओ समंता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनियसए) सर्वत: चतसृपु दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु च सक्रोशं योजनं भिक्षाचर्यायां गन्तुं प्रतिनिय ... अथ भिक्षादि अर्थे गमन-विचारः दर्शयते ~375~ अवग्रहः मिक्षाद्यर्थ गमनवि चारथ सू. ९-१३ २५ ॥१७५॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [११] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११] गाथा II-II तितुम् ॥(१०)। (जत्थ नई निचोयगा निच्चसंदणा) यत्र नदी नित्योदका-नित्यं प्रचुरजला नित्यस्यन्दना-IN | अवग्रह नित्यस्रवणशीला सततवाहिनीत्यर्थः (नो से कप्पइ सचओ समंता सक्कोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतुं भिक्षाद्यर्थ पडिनियत्तए) नैच तत्र कल्पते सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च सक्रोश योजनं भिक्षाचर्यायां गन्तुं प्रतिनिवर्तितुं ॥(११) गमनवि(एरावई कुणालाए) यथा ऐरावती नानी नदी कुणालायां पुर्या सदा द्विक्रोशवाहिनी तादृशीं नदी लवयितुं चारश्च सू. कल्प्या, स्तोकजलत्वात्, यतः (जस्थ चक्किया सिया एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा) यत्र एवं कर्तुं शक्नुयात्, किंतदित्याह-सिया-यदि एक चरणं जले कृत्वा-जलान्तः प्रक्षिप्य एक चरण स्थले कृत्वाजलादुपरि आकाशे कृत्वा (एवं चक्किया एवनं कप्पइ सबओ समंता सकोसं जोयणं गंतुं पडिनियत्तए) अनया रील्या गन्तुं शक्नुयात् एवं सति कल्पते सर्वतः समन्तात् सक्रोशं योजनं गन्तुं प्रतिनियर्सितुम्।।(१२) ( एवं चे नो चकिया एवं से नो कप्पइ सबओ समंता गंतुं पडिनियत्तए) पूर्वोक्तरीत्या नैव यत्र गन्तुं शक्नु-| यात् एवं तस्य साधोः नो कल्पते सर्वतः समन्तात् गन्तुं प्रतिनिवर्तितुं, यत्र च एवं कर्तुं न शक्नुयात् जलं विलोड्य गमनं स्यात् तत्र गन्तुं न कल्पते इतिभावः, जङ्घाई यावदुदकं दकसङ्घटो नाभिं यावल्लेपो नाभेरुपरि । लेपोपरि, तत्र शेषकाले मासे मासे त्रिभिर्दकसङ्घ सति क्षेत्रं नोपहन्यते, तत्र गन्तुं कल्पते इति भावः, वर्षाकाले च सप्तभिः क्षेत्रं नोपहन्यते, चतुर्थेऽष्टमे च दकसङ्घद्वे सति क्षेत्रं उपहन्यते एव, लेपस्तु एकोऽपि क्षेत्र उपहन्ति, नाभिं यावजलसद्भावे तु गन्तुं न कल्पते एव, किं पुनर्लेपोपरि ?-नाभेरुपरि जलसद्भावे ॥ (१३)॥la दीप अनुक्रम [२७३] JaMEducational For F lutelu S anjanelbrary.org ~376 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१४] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४] गाथा I-II कल्प.सुयो- (वासावासं पजोसबियाणं अत्यैगइयाणं) चतुर्मासकं स्थितानां केषाश्चित् साधूनां (एवं वृत्तपुवं भवइगुर्वाज्ञया दावे भंते ! एवं से कप्पह दावित्सए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए) गुरुभिः एवं प्रागुक्तं भवति-ग्लानायामुकदानग्रहणMPERIवस्तु दापये: भदन्त !-हे शिष्य, तदा तस्य साधो कल्पते दापयितुं, परं नो तस्य कल्पते स्वयं प्रतिग्रहीतुमच्यवस्था (१४)। (वासावासं पजोसबियाणं अत्थेगइयाणं एवं चुत्तपुवं भवइ) चतुर्मासकं स्थितानां केषाञ्चित् साधूनांश गुरुभिः एवं प्रागुक्तं भवति (पडिगाहे भंते !, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ दावित्तए) खयंग प्रतिगृह्णीयाः हे शिष्य!, तदा तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुं, परं नो तस्य कल्पते दापयितुं, यद्येवमुक्तं भवति यत् त्वं खयं प्रतिगृह्णीयाः ग्लानाय अन्यो दास्यति तदा स्वयं प्रतिग्रहीतुंकल्पते न तु दातुं इत्यर्थः।।(१५)॥(वासावास । पज्जोसवियाणं अत्थेगइयाण एवं बुतपुर्व भवइ)चतुर्मासकं स्थितानां केषाञ्चित् साधूनां गुरुभिः एवं प्रागुक्तं भवति। ( दावे भंते ! पडिगाहेहि भंते !, एवं से कप्पइ दावित्तएवि पडिगाहित्तएवि) दापये हे शिष्य ! खयं । प्रतिगृह्णीयाः हे शिष्य !, तदा तस्य कल्पते दापयितुमपि प्रतिग्रहीतुमपि, यदि च दद्याः प्रतिगृह्णीयाश्चेत्युक्त भवति तदा दातुं प्रतिग्रहीतुं चोभयमपि कल्पते ॥ (१६) ॥ (वासावासं पजोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा) चतुर्मासकं स्थितानां नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च, कीदृशना ?-(हहाणं) हृष्टानांतारुण्येन समर्थानां, तरुणा अपि केचिद्रोगिणो निर्बलशरीराश्च भवन्ति, अत उक्तं-(आरुग्गाणं बलियसरीराण) आरोग्यानां बलबच्छरीराणां, ईदृशानां साधूनां (इमाओ नव रसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहा २८ दीप अनुक्रम [२७६] २५ ॥१७६॥ ~377 - Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१७] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत Dece सूत्रांक | हृष्टानांवि [१७] गाथा I-II रित्तए) इमाः वक्ष्यमाणा: नव रसप्रधाना विकृतयोऽभीषणं-वारं वारं आहारयितुं न कल्पते (तंजहा) तद्यथा-18 (खीरंदाहिंनवणीयं ३ सपि तिगुडं ६ मह ७ मजं८ मंसं ९) दुग्धं १ दधि २ म्रक्षणं ३ घृतं कृतीनाम४ तैलं ५ गुडः ६ मधु ७ मा ८ मांसं ९, अभीक्ष्णग्रहणात् कारणे कल्पन्तेऽपि, नवग्रहणात् कदाचित् पकानं । गृह्यतेऽपि, तत्र विकृतयो द्वेधा-साशयिका असामयिकाश्च, तत्रासाश्चयिका या बहुकालं रक्षितुमशक्या MIदुग्धदधिपकानाख्याः, ग्लानत्वे गुरुवालाद्युपग्रहार्थं श्राद्वाग्रहाद्वा ग्राह्या, साञ्चयिकास्तु घृततेलगुढाख्यास्तिस्रः, ताश्च प्रतिलम्भयन् गृही वाच्यो-महान् कालोऽस्ति, ततो ग्लानादिनिमित्तं ग्रहीष्यामः, स वदेत्-गृह्णीत, चतुर्मासी यावत् प्रभूताः सन्ति, ततो ग्राह्या बालादीनां च देया न तरुणानां, यद्यपि मधु १ मा २ मांस ३-17 नवनीत ४ वर्जनं यावजीवं अस्त्येव तथापि अत्यन्तापवाददशायां बाह्यपरिभोगाद्यर्थं कदाचिदू ग्रहणेऽपि चतुर्मास्यां सर्वथा निषेधः ॥ (१७)॥ (वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइआणं एवं बुतपुर्व भवइ) चतुमासक स्थितानां अस्ति एतदू एकेषां-वैयावृत्यकरादीनां एवमुक्तपूर्व भवति, गुरुं प्रतीति शेषा, वैयावश्यकरेगुरवे एवं उक्तं भवतीत्यर्थः (अट्ठो भंते! गिलाणस्स) हे भदन्त-भगवन् ! अर्थों वर्तते ग्लानस्य विकृत्या इति [बयावृत्यकरेण प्रक्षे कृते (से अ वएज्जा) स गुरुः वदेत् (अट्ठो) ग्लानस्य अर्थों वर्तते, (से अपुच्छेअधी) ततः स ग्लानः प्रष्टव्यः (केवहएणं अट्ठो) कियता विकृतिजालेन क्षीरादिना तवाथैः, तेन ग्लानेन खप्रमाणे उक्ते (से अ वइज्जा)स वैयावश्यकरो गुरोरग्रे समागत्य यात्-( एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स) एतावताऽथों दीप Sesentaeraesentisease अनुक्रम [२७७] ~378 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [PC] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७८] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [१८] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ९ ॥ १७७॥ ग्लानस्थ, ततो गुरुराह - ( जं से पमाणं वयइ ) यत् स ग्लानः प्रमाणं वदति ( से य पमाणओ चित्तवे ) तत्प्रमाणेन 'से' इति तद्विकृतिजातं ग्रायं त्वया, ततः ( से य विनविजा ) स च वैयावृत्यकरादिः विज्ञापयेत् कोऽर्थो ?-गृहस्थपार्श्वात् याचेत विज्ञसिधातुरच याच्ञायां ( से य विन्नवेमाणे लभिजा ) स वैयावृत्त्यकरो याचमानो लभेत तद्वस्तु क्षीरादि ( से य पमाणपत्ते ) अथ च तद्वस्तु प्रमाणप्राप्तं पर्याप्तं जातं ततक्ष ( होउ अलाहि हय वत्तवं सिआ ) तत्र 'होउ'त्ति भवतु इतिपदं साधुप्रसिद्धं इच्छमितिशब्दस्यार्थे, अलाहित्ति मृतं इत्यर्थे इति पदद्वयं गृहस्थं प्रति वक्तव्यं स्यात्, ततो गृही ब्रूते- (से किमाहु भंते!) अथ किमाहुर्भदन्ताः !, कुतो भवन्तः सृतमिति ब्रुवते इत्यर्थः, ततः साधुराह (एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स) एतावतैव अर्थोऽस्तीति, ततः (सिया णं एवं वर्धतं परो वइज्जा ) स्यात् कदाचित् णं इति वाक्यालङ्कृती एवं वदन्तं साधु प्रति परो-गृहस्थो वदेत्, यत् (पढिगाहेहि अजो ! पच्छा तुमं भोक्खसि वा पाहिसि वा ) हे आर्य !-साधो प्रतिगृहाण पश्चात् ग्लान भोजनानन्तरं यदधिकं तत् त्वं भोक्ष्यसे-भुञ्जीथाः पकान्नादिकं पास्यसि-पिबेः क्षीरादिकं, कचित् 'पाहिसि'त्तिस्थाने 'दाहिसि'त्ति दृश्यते, तदा तु स्वयं भुञ्जीथाः अन्येभ्यो वा दद्या इति व्याख्येयं ( एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए) एवं तेनोक्ते तत् कल्पते अधिकं प्रतिग्रहीतुं (नो से कप्पर गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए) न च पुनर्लान निश्रया गार्थ्यात् स्वयं ग्रहीतुं ग्लानाथै याचितं मण्डल्यां नानेयमित्यर्थः ॥ (१८) | ( वासावासं पज्जोसबियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां ( अस्थि णं थेराणं तहष्पगाराई कुलाई ) अस्येतत् णं ~379~ लानाथ विक्रेत्यान यनंसू. १८ २० २५ ॥ १७७॥ २८ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१९] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७९] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१९] / गाथा [-] व्याख्यान [९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: इति प्राग्वत् स्थविराणां तथाप्रकाराणि - अजुगुप्सितानि कुलानि गृहाणि, किंविशिष्टानि ? - ( कडाई ) तैरन्यैर्वा श्रावकीकृतानि (पत्तिआई) प्रीतिकराणि ( बिजाई ) प्रीतौ दाने या स्थैर्ययन्ति ( वेसासियाई) निश्चितं अत्र लप्स्येऽहमिति विश्वासो येषु तानि वैश्वासिकानि ( सम्मयाई) येषां यतिप्रवेशः सम्मतो भवति तानि सम्मतानि (बहुमयाई) बहवोऽपि साधवः सम्मता येषां अथवा बहूनां गृहमनुष्याणां साधवः सम्मता येषु तानि बहुमतानि ( अणुमयाई भवंति ) अनुमतानि दानं अनुज्ञातानि अथवा अणुरपि-क्षुलकोऽपि मतो येषु | सर्वसाधुसाधारणत्वात् न तु मुखं दृष्ट्वा तिलकं कुर्वन्तीति अनुमतानि अणुमताणि वा भवन्ति (तत्थ से नो कप्पइ अक्खु वहतए) तत्र तेषु गृहेषु 'से' तस्प साधोः याच्यं वस्तु अदृष्ट्वा इति वक्तुं न कल्पते ( अस्थि ते आउसो ! इमं वा ) यथा हे आयुष्मन् ! इदं इदं वा वस्तु अस्ति ? इति, अदृष्टं वस्तु प्रष्टुं न कल्पते इत्यर्थः (से किमाहु भंते ) तत् कुतो भगवन् ! इति शिष्यप्रश्ने गुरुराह यतस्तथाविधः (सडी गिट्टी गिण्हुहु वा तेणियंपि कुज्जा ) श्रद्धावान् गृही मूल्येन गृह्णीत, यदि च मूल्येनापि न प्राप्नोति तदा स श्रद्धातिशयेन चौर्यमपि कुर्यात्, कृपणगृहे तु अदृष्ट्वाऽपि याचने न दोषः ॥ ( १९ ) ॥ ( वासावासं पज्जो सवियरस ) चतुर्मासकं स्थितस्य ( निचभक्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यमेकाशनकारिणः भिक्षोः (कप्पड़ एवं गोअरकालं गाहावइकुलं ) कल्पते एकस्मिन् गोचरचर्याकाले गाथापतेः-गृहस्थस्य कुलंगृहं (अस्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तएवा ) भक्तार्थं वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं ... अथ गोचर-चर्या-काल-वर्णनं क्रियते ~380~ दृश्यवाच ननिषेधः सू. १९ ५ १० १४ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२०] / गाथा [-] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०] गाथा I-II कल्प.सुवो बोवा कल्पते, न तु द्वितीयवारं, परं (णन्नत्थ) णकारो वाक्यादौ अलङ्कारार्थः, अन्यत्र आचार्यादिवैया-गोचरचर्याव्या०९ क्यकरेभ्यः, तान वर्जयित्वेत्यर्थः, ते तु यदि एकवारं भुक्तेन वैयावृत्त्यं कर्तुं न शक्नुवन्ति तदा द्विरपि भुञ्जते, विलानियम: तपसो हि वैयावृत्त्यं गरीय इति, (आयरियवेयावच्चेण वा) आचार्यवैयावृत्त्यकरान वा (उवज्झायवेयावच्चेण वा) .२०-२४ ॥१७॥ उपाध्यायवैयावृत्त्यकरान् वा (तवस्सिवेयावचेण वा) तपखिवैयावृत्त्यकरान् वा (गिलाणवेयावचेण वा) ग्लानवैयावृत्त्यकरान् वा (खुडएण चा खुहिआए वा अवंजणजायएण वा) यावत् व्यञ्जनानि-बस्तिकूर्चकक्षादिरोमाणि न जातानि तावत् क्षुल्लकक्षुल्लिकयोरपि द्विर्भुञानयोर्न दोषः, यद्वा वैयावृत्यमस्यास्तीति वेयावृत्त्यो वैयावृत्त्यकर इत्यथें। आचार्यश्च वैयावृत्त्यश्च आचार्यवैयावृत्त्या, एवं उपाध्यायादिष्वपि, ततश्च || आचार्यउपाध्यायतपखिग्लानक्षुल्लकानां तद्वैयावृत्त्यकराणां च द्विभोजनेऽपि न दोष इत्यर्थों जातः ।। (२०) (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स अयं एवइए विसेसे) एकान्तरोपवासिनः साधोरयतावान् विशेषो (जं से पाओ निक्खम्म) यत् स प्रातर्निष्क्रम्य गोचरचर्याथें । KI(पुवामेव वियडगं भुच्चा) प्रथममेव विकट-पासुकाहारं भुक्त्वा (पिञ्चा) तक्रादिकं पीत्वा (पडिग्गहगं । संलिहिय संपमजिय)पात्रं संलिख्य-निर्लेपीकृत्य सम्प्रमृज्य-प्रक्षाल्य (से य संथरिजा कप्पह से तद्दिवसं ॥१७८॥ तेणेव भत्तद्वेणं पजोसवित्तए)स यदि संस्तरेत-निर्वहेत् तर्हि तेनैव भोजनेन तस्मिन् दिने कल्पते पर्युषितुं स्थातुं (से य नो संघरिजा) अथ यदि न संस्तरेत् स्तोकत्वात् ( एवं से कप्पड दुचंपि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए २८ दीप अनुक्रम [२८०] Fur FB Fanatec ~381 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१] गाथा वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा)तदा तस्य साधोः कल्पते द्वितीयवारंगृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थं वा निष्क-गोचरचर्यामितुं वा प्रवेष्टुं वा ।।(२१)। (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (छट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यंलानियमः षष्ठकारिणः भिक्षोः (कप्पंति दो गोअरकाला गाहावइकुलं भत्ताए या पाणाए वा निक्वमित्तए वा पविसित्सए .२०-२४ वा) कल्पेते ही गोचरकाली गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रबेष्टुं वा ।।(२२)। (वासावासं पोस-1 वियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (अहमभत्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यं अष्टमकारिणः भिक्षोः (कप्पति तओ गोअरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पधिसित्तए वा) कल्पन्ते त्रयो गोचरकाला गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥(२३)। (वासावासं पज़ोसवियस्स) चतुर्मास स्थितस्य (विगिहभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति सोऽवि गोअरकाला गाहावइकूलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्वमित्तए वा पविसित्तए वा) नित्यं अष्टमादपरि तपाकारिण: भिक्षोः कल्पन्ते सर्वेऽपि गोचरकाला: गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, यदा इच्छा भवति तदा भिक्षते, न तु प्रातहीतमेव धारयेत्, सञ्चयजीवसंसक्तिसाघ्राणादिदोषसम्भवात् ॥ (२४)॥ । एवमाहारविधिमुक्त्वा पानकविधिमाह-(वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निचभत्सियस्स [भिक्खुस्स) नित्यं एकाशनकारिणः भिक्षोः (कप्पंति सवाई पाणगाई पडिगाहित्तए) कल्पते सर्वाणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं, सर्वाणि च आचाराङ्गोक्तानि एकविंशतिः, अब वक्ष्यमाणानि नव वा, तत्राचाराडोक्तानि इमानि दीप अनुक्रम [२८१] ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं २५] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: कल्प.सुबो- ध्या०९ प्रत सूत्रांक [२५] गाथा ॥१७९॥ vil II-II उस्सेइम १ संसेइम २ तंड्डुल ३तुस ४ तिल ५जवोदगा याम।सोवीर ८ सुद्धवियर्ड ९ अंबय १० अंबाडग ११ उत्सेदिमाकविट्ठ १२॥१॥मउलिंग १३ दक्ख १४ दाडिम १५ खज्जुर १६ नालिकेर १७ कयर १८ योरजलं १९। आमलगं २० दिजलविचिंचापाणगाई २१ पढमंगभणिआई॥२॥ एषु पूर्वाणि नब तु अत्रोक्तानि (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकंधिः सू.२५ स्थितस्य (चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स) एकान्तरोपवासकारिणः भिक्षोः (कति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए) कल्पते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं (तंजहा) तद्यथा-(उसस्सेइमं संसेइमं चाउलोदगं) उत्खेदिमपिष्टादिभृतहस्तादिधावनजलं संस्खदिम-यत्पर्णाद्युत्काल्य शीतोदकेन सिञ्च्यते तज्जलं, तण्डुलधावनजलं ॥ (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (छट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यं षष्ठकारिणः भिक्षोः (कप्पंति ॥ तओ पाणगाई पडिगाहित्तए) कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं (तंजहा) तद्यथा-(तिलोदगं तुसोदगं| जवोदगं वा) तिलोदक-निस्त्वचिततिलधावनजलं तुषोदकं-बीयादितुषधावनजलं यवोदक-यवधावनजलं ॥ (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स) निलं अष्टमकारिणः भिक्षोः (कप्पति तओ पाणगाई पडिगाहित्सए) कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं (तंजहा)तद्यथा-(आयाम २५ वा, सोवीरं वा, सुद्धवियडं वा) आयामक:-अवश्रावणं सौवीरं-कालिकं शुद्धविकट-उष्णोदकं ॥ (वासा- १७९।। वासं पजोसवियस्स ) चतुर्मासकं स्थितस्य ( विकिहभत्तियस्स भिकखुस्स) अष्टमादुपरि तपःकारिणः । |भिक्षोः (कप्पह एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए) कल्पते एक उष्णोदकं प्रतिग्रहीतुं (सेविय णं असित्थे | २८ दीप अनुक्रम [२९०] For F lutelu ~383 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं २५] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा II-II नोविय णं ससित्थे) तदपि सिक्थरहितं नैव सिक्यसहितं, यतः प्रायेण अष्टमादूर्व तपखिनः शरीरं देवो-दत्तिविधिः अधितिष्ठति ॥ (वासावासं पज्जोसपियरस) चतुर्मासकं स्थितस्य (भत्तपडियाइक्खियस्स भिकखुस्स) . २६ भक्तप्रत्याख्यानकरस्य-अनशनकारिणः भिक्षोः (कप्पइ एगे उसिणवियडे पढिगाहित्तए) कल्पते एका उष्णोदकं प्रतिग्रहीतुं (सेविय णं असित्थे) तदपि सिक्थरहितं, नैव सिक्थसहितं (सेविय णं परिपूए नो चेव णं अपरिपूए) तदपि परिपूर्त-वस्त्रगलितं नैव अगलितं, तृणादेगले लगनात् (सेऽधिय गं परिमिए, नो चेवणं अपरिमिए ) तदपि मानोपेतं नैव अपरिमितं, अन्यथाऽजीर्ण स्थात् (सेविय णं बहुसंपन्ने नो चेव णं अबहसंपन्ने) तदपि बहुसंपूर्ण-किश्चिदून नैव बाहुन्यून, तृष्णानुपशमात् ॥ (२५)॥ | (वासावासं पजोसपियरस) चतुमासकं स्थितस्य (संखादसियस्स भिखस्स ) दसिसयाकारिणो भिक्षोः (कप्पंति पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए पंच पाणगस्स) कल्पन्ते पञ्च दत्तयः भोजनस्य प्रतिग्रहीतुं पत्र पानकस्य (अहवा चत्तारि भोअणस्स पंच पाणगस्स) अथवा चतनः भोजनस्य पश्च पानकस्खा (अहवा पंच भोअणस्स चत्तारि पाणगस्स) अथवा पञ्च भोजनस्य, चतस्रः पानकस्य, तत्र दत्तिशब्देन अल्पं बहु वा यदेकवारेण दीयते तदुच्यते इत्याह-(तत्थ णं एगा दत्ती लोणासायणमित्तमवि पडिगाहिया सिया)। तत्र एका दत्तिः लवणास्वादनप्रमाणेऽपि भक्तादौ प्रतिगृहीते स्यात्, यतो लवर्ण किल स्तोकं दीयते, यदि 18 लावन्मानं भक्तपानस्य गृहातिसाऽपि दत्तिर्गण्यते, पश्चेत्युपलक्षणं तेन चतम्रस्तिस्रो द्वे एका षट् सप्त वा यथाभि दीप अनुक्रम [२९०] १४ Fur FB Fanatec ~384 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२६] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२९२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [२६] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: व्या० ९ कल्प. सुबो-ग्रहं वाच्या, समग्रस्य च सूत्रस्य अयं भावः यावत्योऽन्नस्य पानकस्य वा दसयो रक्षिता भवन्ति तावत्य एव तस्य कल्पन्ते, न तु परस्परं समावेशं कर्त्तुं कल्पते, न च दत्तिभ्योऽतिरिक्तं ग्रहीतुं कल्पते, ( कप्पड़ से तद्दिवसं तेणेव भत्तद्वेणं पजोसवित्तए) कल्पते तस्य तस्मिन् दिने तेनैव भोजनेन अवस्थातुं (नो से कष्पह दुश्चपि गाहाबद्दकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ) न तस्य कल्पते द्वितीयवारं गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ ( २३ ) ॥ ॥ १८० ॥ ( वासावासं पज्जोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां वा ( जाव उवस्सयाओ सत्तधरंतरं संखडिं संनिययारिस्स इत्तए) यावदू उपा श्रयादारभ्य सप्तगृहमध्ये संस्कृतिः - ओदनपाकः तां गन्तुं साधोर्न कल्पते, भिक्षार्थं तत्र न गच्छेदित्यर्थः, | एतावता शय्यातरगृहं अन्यानि च षड् गृहाणि वर्जयेदिति तेषां आसन्नत्वेन साधुगुणानुरागितया उगमादिदोषसम्भवात् कीदृशानां साधूनां ? -सन्निवृत्तचारिणां - 'सन्नियति निषिद्धगृहेभ्यः सन्निवृत्ताः सन्तः चरन्तीति तथा तेषां निषिद्धगृहेभ्योऽन्यत्र भ्रमतामिति भावः, अत्र बहुत्वे एकत्वं, भिक्षार्थं गन्तुं, बहवस्त्वेवं व्याचक्षते - सप्तगृहान्तरे सङ्घडि जनसङ्कुलजेमनवारालक्षणां गन्तुं न कल्पते, अत्रार्थे सूत्रकृत् मतान्तरा प्याह - ( एगे पुण एवमाहंसु नो कप्पड़ जाब उबस्सयाओ परेण संखडिं संनिपट्टचारिस्स इत्तए) एके पुनः एवं कथयन्ति नो कल्पते उपाश्रयादारभ्य परतः सप्तगृहमध्ये जेमनवारायां सन्निवृत्तचारिणां भिक्षार्थ गन्तुं ... अथ संखडी वर्जन विधिः दर्शयते For Frate & Personal Use Only 385 संखटीवर्जनविधिः सू. २७ २० २५ 1186011 २८ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२७] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा २८-३१ II-II (एगे पुण एवमाहंमु नो कप्पड़ जाव उवस्सयाओ परंपरेणं संखडि संनियदृचारिस्स इत्तए) एके पुनः एवं शिक्षा कथयन्ति-नो कल्पते उपाश्रयादारभ्य परम्परतः सप्तगृहमध्ये जेमनवारायां सन्निवृत्तचारिणां भिक्षार्थ गन्तुं, गमनादि द्वितीयमते 'परेण ति शय्यातरगृहं अन्यानि च सस गृहाणि वर्जयेत्, तृतीयमते परम्परेणेति शय्यातरगृहविधिः मू. IN तत एक गृहं ततः परं सप्त गृहाणि वर्जयेदिति भावः ॥ (२७)॥ ST (वासाचासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मास स्थितस्य (नो कप्पइ पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स) नो कल्पते पाणिपात्रस्य-जिनकल्पिकादेर्भिक्षोः (कणगफुसियमित्तमवि बुटिकायंसि निवयमाणंसि) कणगफुसिआफुसारमानं एतावत्यपि वृष्टिकाये निपतति सति (गाहावइकुलं भत्ताए पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितु वा प्रवेष्टुं वा ॥ (२८)। (वासावासं | पजोसवियस्स ) चतुर्मासकं स्थितस्य (पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स ) करपात्रस्य-जिनकल्पिकादेः भिक्षोः (नो कप्पइ अगिहंसि पिंडवायं पडिगाहित्ता पजोसवित्तए) नो कल्पते अनाच्छादिते-आकाशे पिण्डपात-भिक्षा प्रतिगृह्य अवस्थातुं-आहारयितुं न कल्पते, (पज्जोसवेमाणस्स सहसा बुहिकाए निवइज्जा) यदि अनाच्छादिते स्थाने भुञानस्य साधोः अकस्मात् वृष्टिकायः निपतेत्तदा (देसं भुच्चा देसमादाय से पाणिणा पाणि परिपिहित्सा) पिण्डपातस्य देशं भुक्त्वा,देशं चादाय स पाणि-आहारैकदेशसहितं हस्तं पाणिना-द्वितीयहस्तेन परिपिधाप-आच्छाद्य (उरंसि वा णं निलिजिजा) हृदयाग्रे वा गुसं कुर्यात् (फक्वंसि वा गं समा-1 दीप अनुक्रम [२९५] LSReceeeeree क.स. १४ Fur & Fonte ... अथ वृष्टिः समये भिक्षा-गमनादि विधि: दर्शयते ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२९] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२९७] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [२९] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ९ ॥१८२॥ हडिज्जा) कक्षायां वा समाहरेत्-आच्छादितं कुर्यात् एवं च कृत्वा (अहाछन्नाणि लेणाणि वा उवागच्छिला ) यथाच्छन्नानि गृहिभिः स्वनिमित्तमाच्छादितानि लयनानि-गृहाणि उपागच्छेत् (रुक्खमूलाणि वा उवागच्छिना) वृक्षमूलानि वा उपागच्छेत् (जहा से तत्थ पार्णिसि दए वा द्गरए वा द्गफुंसिया वा नो परिआवजइ) यथा तस्य तत्र पाणी दकं बहवो विन्दवः दकरजो बिन्दुमात्रं दगफुसिआ - फुसारं अवश्यायः न विराध्यन्ते पतन्ति वा, यद्यपि जिनकल्पिकादेर्देशोन दशपूर्वरत्वेन प्रागेव वर्षोपयोगो भवति, तथा चार्द्धभुक्ते गमनं न सम्भवति, तथापि छझस्थत्वात् कदाचिदनुपयोगोऽपि भवति ॥ (२९) ॥ उक्तमेवार्थ निगमयन्नाह - ( वासावासं पज्जोसवियरस) चतुर्मासकं स्थितस्य (पाणिपडिग्ग हियस्स भिक्खुस्स) पाणिपात्रस्य भिक्षोः (जंकिंचि कणगफु( सियमित्तंपि निवडति ) यत्किञ्चित् कणो-लेशस्तन्मात्रं कं- पानीयं कणकं तस्य फुसिआ-फुसारमात्रं तस्मिन्नपि | निपतति ( नो से कप्पर गाहाबद्दकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ) न तस्य जिन|कल्पिकादेः कल्पते गृहस्थगृहे भक्तार्थं वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ (३०) ॥ उक्तः पाणिपात्रविधिः) अथ पात्रधारिणो विधिमाह - ( वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स) पात्रधारिणः - स्थविरकल्पिकादेः भिक्षोः (नो कप्पर बग्घारियबुद्विकार्यसि ) न कल्पते अविच्छिन्नधाराभिः वृष्टिकाये निपतति-यस्यां वर्षाकल्पो नीव्रं वा श्रवति कल्पं वा भिश्वाऽन्तः कार्य आर्द्रयति तत्र (गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा For Fre & Fersonal Use Only 387 पृष्टौ भिक्षा गमनादिविधिः सू. २८-३१ २० २५ ॥१८२॥ २८ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३१] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२९८ ] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [३१] / गाथा [-] व्याख्यान [९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: प्रवेष्टुं वा अपवादमाह - ( कप्पड़ से अप्पबुद्विकार्यसि संतरुत्तरंसि ) कल्पते तस्य स्थविरकल्पिकादेः अल्पष्टिकाये अन्तरेण वर्षति सति, अथवा आन्तरः सौत्रः कल्प उत्तरः - और्णिकस्ताभ्यां प्रावृतस्यात्पवृष्टौ ( गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्स्वमित्तए वा पविसित्तए वा ) गृहस्थगृहे भक्तार्थं वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा अपवादे तु तत्रापि तपखिनः क्षुदसहाच भिक्षार्थं पूर्वपूर्वाभावे और्णिकेन औष्ट्रिकेन तार्णेन सौत्रेण वा कल्पेन तथा तालपत्रेण पलाशच्छत्रेण वा प्रावृता विहरन्त्यपि ॥ ( ३१ ) | ( वासावासं पोसवियरस ) चतुर्मासकं स्थितस्य ( निग्गंथरस निग्गंधीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स) निर्ग्रन्थस्य साध्ध्याश्च गृहस्थगृहे पिण्डपातो - भिक्षालाभस्तत्प्रतिज्ञया - अनाहं लप्स्ये इति धिया अनुप्रविष्टस्य-गोचरचर्यायां गतस्य साधोः (निगिज्झिय निगिज्झिय बुट्टिकाएं निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा वृष्टिकाय: निपतेत्, अथ घनो वर्षति तदा (कप्पड़ से अहे आरामंसि वा) कल्पते तस्य साधोः आरामस्याघो वा (अहे उवस्सयंसि वा) साम्भोगिकानां इतरेषां वा उपाश्रयस्याधः, तदभावे (अहे विपडगिहंसि वा) विकटगृहंमण्डपिका यत्र ग्राम्यपर्षदुपविशति तस्याधो वा ( अहे रुक्खमूलंसि वा ) वृक्षमूलं वा निर्गलकरीरादिमूलं । तस्य वा अधः ( उबागच्छित्तर ) तत्रोपागन्तुं कल्पते ॥ ( ३२ ) ॥ (तत्थ से पुद्दागमणेणं) तत्र विकटगृह - क्षमूलादौ स्थितस्य 'से' तस्य साधोः आगमनात् पूर्वकाले ( पुवाउन्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे ) | पूर्वायुक्त:-पक्तुमारब्धः तण्डुलौदनः पञ्चादायुक्तो भिलिंगसूपो-मसूरदालिर्माषदालिः सस्नेहसूपो वा (कप्पड़ 388 वृष्टी पूर्वयश्रादायुक्तादिविधिः सू. ३२-३५ १० १४ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [३४] / गाथा [-] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३४] गाथा I-II कम्प. मोसे चाउलोदणे पडिगाहित्तए) तदा कल्पते तस्य साधोः तण्डुलौदन प्रतिग्रहीतुं (नो से कप्पद भिलिंगसूवेब पपज्या.९ पडिगाहित्तए) न कल्पते तस्य मसूरादिदालिः प्रतिग्रहीतुं, अयमर्थ:-तत्र यः पूर्वायुक्ता-साध्वागमनात् पूर्वमेव बादायका खार्थ गृहस्थैः पत्तुमारब्धः स कल्पते दोषाभावात्, साध्वागमनानन्तरं च यः पक्तुमारब्धः स पश्चादायुक्त, दिविधिः ॥१८शासन कल्पते उद्गमादिदोषसम्भवात (३३)। (तस्थ से पुवागमणेणं पुषाउत्ते भिलिंगसूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे) .३२-३५ तत्र गृहे तस्य पूर्वायुक्ता मसूरादिदालिः पश्चादायुक्तः तण्डुलौदनः तदा (कप्पड़ से भिलिंणसूचे पडिगाहित्तए) कल्पते तस्य मसूरादिदालिः प्रतिग्रहीतुं (मो से कप्पइ चाउलोदणे पडिगाहित्सए) नो तस्य कल्पते तण्डुलौदनं प्रतिग्रहीतुं॥ (३४)॥ (तत्थ से पुषागमणेणं दोऽवि पच्छा उत्ताई एवं नो से कप्पइ दोऽवि पडिगाहित्तए) तत्र गृहे तस्य द्वावपि पश्चादायुक्तौ तदानो तस्य कल्पते बावपि प्रतिग्रहीतुं (जे से तत्थ पुषागमणेणं पुवाउत्ते से कप्पइ पडिगाहित्तए) यत् तस्य तत्र पूर्वायुक्तं तत् कल्पते प्रतिग्रहीतुं (जे से तत्थ पुवागमणेणं पच्छाउत्ते नो से कप्पइ पडिगाहित्तए) यत् तस्य तन्त्र पूर्व पश्चादायुक्तं न तत् कल्पते प्रतिग्रहीतुं ॥ (३५)॥ A (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासक स्थितस्य (निग्गंथस्स निग्गंधीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स) साधोः साध्व्याश्च गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहणार्थं अनुप्रविष्टस्य (निगिज्झिय निगिज्झिय बुद्विकाए ॥१८॥ निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा दृष्टिकायः निपतेत् तदा (कप्पड़ से अहे आरामंसि वा) कल्पते तस्य आरामस्याधो वा (जाव रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए) यावत् वृक्षमूले वा उपागन्तुं (नो से कप्पड पुषगहिएणं भत्तपाणेणं । दीप अनुक्रम [२९९] For FFU Clu IN njanelbrary.org ~389 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [३६] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा II-II वेलं उवायणावित्तए) नो तस्य कल्पते पूर्व गृहीतेन भक्तपानेन भोजनघेलां अतिक्रमयितुं, आरामादिस्थितस्य वर्षस्यपिवसाघोर्यदि वर्षा नोपरमति तदा किं कार्यमित्याह-(कप्पड़ से पुवामेव वियडगं भुच्चा पिचा पडिग्गहगं संलिहिया संलिहिय संपमल्जिय २) कल्पते तस्य साधोः पूर्वमेव विकट-उद्गमादिशुद्धमशनादि भुक्त्वा पीत्वा च पात्रा निर्लेपीकृत्य सम्प्रक्षाल्य (एगओ भंडगं कट्ठ) एकस्मिन् पार्थे पात्रायुपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्राकृत्य वर्षत्यपि मेघे (सावसेसे सूरिए) सावशेषे-अनस्तमिते सूर्ये (जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए) यत्रैव उपाश्रयः तत्रैव उपागन्तुं, परं (नो से कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए) नो तस्य कल्पते तां रात्रि वसतेहि गृहस्थगृहे एव अतिक्रमयितुं, एकाकिनो हि यहिर्वसतःसाधोः स्वपरसमुत्था बहवो दोषाः सम्भवेयुः, साधवो वा वसतिस्था अधृतिं कुर्युरिति ।(३६)॥(वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निर्ग-18 थस्स निग्गंथीए वा गाहावहकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स ) साधोः साध्व्याश्च गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहTणार्थ अनुमविष्टस्य (निगिज्झिय निगिज्झिय बुटिकाए निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा दृष्टिकायः निपतेत् तदा। (कप्पड से आरामंसि वा जाव उचागच्छित्तए) कल्पते तस्य आरामस्याघो वा यावत् उपागन्तुं, अग्रेतनसूत्रयुग्मसंबन्धाथै पुनरेतत्सूत्रं ॥ (३७)॥ अथ स्थित्वा २ वर्षे पतति यदि आरामादी साधुस्तिष्ठति तदा केन। विधिनेत्याह-(तत्य नो से कप्पड एगस्स निग्गंथस्स एगाए निग्गंथीए एगओ चिहित्तए) तत्र विकटगृहवृक्षमूलादी स्थितस्य साधोः नो कल्पते एकस्य साधोः एकस्याः साव्याश्च एकत्र स्थातुं १ (तत्थ नो कप्पड़ दीप अनुक्रम [३००] For F lutelu janelibrary.org 390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३८] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३०१] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [३८] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुमोव्या० ९ ॥१८३॥ एगस्स निग्गंथस्स दुपहं निग्गंधीणं एगओ चिट्ठित्तए) तत्र नो कल्पते एकस्य साधोः द्वयोः साध्योश्च एकत्र स्थातुं २ ( तत्थ नो कप्पइ दुण्हं निग्गंधाणं एगाए निग्गंधीए एगओ चिट्ठित्तए) तत्र नो कल्पते द्वयोः साध्वोः एकस्याः साध्व्याश्च एकत्र स्थातुं ३ ( तत्थ नो कप्पइ दुण्हं निग्गंधाणं दुन्हं निग्गंत्थीणं एगओ चिट्ठिउत्तए) तत्र नो कल्पते द्वयोः साध्वोः द्वयोः साध्योश्च एकत्र स्थातुं ४ ( अस्थि य इत्थ कोइ पंचमे खुड्डए वा खुड्डिया वा ) यदि स्यात् अत्र कोऽपि पश्चमः क्षुल्लको वा क्षुल्लिका वा ( अन्नेसिं वा संलोए सपडिदुवारे ) अन्येषां वा दृष्टिविषये बहुद्वारसहितस्थाने वा ( एवग्रहं कप्पर एगओ चिट्ठित्तए) तदा कल्पते एकत्र स्थातुं, भावार्थरत्वयं- एकस्य साधोः एकया साध्या सह स्थातुं न कल्पते, एवं च एकस्य साधोर्द्वाभ्यां साध्वीभ्यां सह द्वयोः साध्वोरेकया साध्या सह द्वयोः साध्वोः द्वाभ्यां साध्वीभ्यां सह स्थातुं न कल्पते, यदि चात्र पञ्चमः कोऽपि शुक्लकः क्षुल्लिका वा साक्षी स्यात् तदा कल्पते, अथवा अन्येषां ध्रुवकर्मिकलोहकारादीनां वर्षत्यप्यमुक्तस्वकर्मणां संलोके तत्रापि सप्रतिद्वारे सर्वतोद्वारे सर्वग्रहाणां वा द्वारे, एवं पञ्चमं विनाऽपि स्थातुं कल्पते ॥ (३८) ।। ( वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य ( निग्गंधस्स गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए जाव उवागच्छित्तए) साधोः गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहणार्थं यावत् उपागन्तुं ( तत्थ नो कप्पर एगस्स निग्गंधस्स एगाए अगारीए एगओ चित्तिए) तंत्र नो कल्पते एकस्य साधोः एकस्याः श्राविकायाः एकत्र स्थातुं ( एवं चभंगी) एवं चत्वारो भङ्गाः ( अत्थि णं इत्थ केइ पंचमे थेरे वा थेरिया वा ) यदि अत्र कोऽपि पञ्चमः स्थविर: स्थविरा 391 Fersonal Use Only वर्षति - हादाववस्थानवि घिः सू. ३७-३९ २० २५ ॥१८३॥ २८ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३९] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३०२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [३९] / गाथा [-] व्याख्यान [९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: वा साक्षी भवति तदा स्थातुं कल्पते ( अन्नेसिं वा संलोए सपडिदुवारे एवं कप्पर एगओ चिट्ठित्तए) अन्येषां वा दृष्टिविषये बहुद्वारसहिते वा स्थाने, एवं कल्पते एकत्र स्थातुं, ( एवं चैव निग्गंधीए अगारस्स य भाणियां ) एवमेव साध्याः गृहस्थस्य च चतुर्भङ्गी वाच्या, तथा एकाकित्वं च साधोः साङ्घाटिके उपोषितेऽसुखिते वा कारणाद्भवति, अन्यथा हि उत्सर्गतः साधुरात्मना द्वितीयः साध्ध्यस्तु व्यादयो विहरन्ति ॥ ( ३९ ) ॥ ( वासावास पलोसवियाणं ) चतुर्मासक स्थितानां ( नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां वा (अपरिनएणं) मदर्थं त्वं मम योग्यमशनमानयेः इति अपरिज्ञप्तेन-अज्ञापितेन साधुना ( अपरिनयस्स अट्टाए असणं ४ जाव पडिगाहित्तए) अहं त्वद्योग्यं अन्नमानयिष्यामीति अपरिज्ञापितस्य | साधोः निमित्तं अशनादि ४ यावत् प्रतिग्रहीतुम् ॥ (४०) || अत्र शिष्यः पृच्छति - (से किमाह भंते !) तत् कुतो भदन्त इति पृष्ठे गुरुराह - ( इच्छा परो अपरिन्नए भुंजिला इच्छा परो न भुंजिजा ) इच्छा चेदस्ति तदा परोऽपरिज्ञापितः यदर्थं आनीतं स भुञ्जीत, इच्छा न चेत्तदा न भुञ्जीत, प्रत्युतैवं वदति-केनोक्तमासीत् यत्त्वया आनीतं, किं च- अनिच्छया दाक्षिण्यतश्चेद् भुङ्क्ते तदा अजीर्णादिना बाधा स्यात्, परिष्ठापने च वर्षासु स्थण्डिलदौर्लभ्याद्दोषः स्यात्, तस्मात् पृष्ट्रा आनेयं ॥ ( ४१ ) ॥ (वासावासं पज्जोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च ( उदउल्लेण वा ससिणिद्वेण वा कारणं असणं वा ४ आहारितए) उदकाण- गलदू 392 अप रिक्त - शनाद्यशननिषेधः स्. ४०-४१ १० १४ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४२] / गाथा - । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४२] गाथा II-II कल्प.सुपो- बिन्दुयुतेन तथा सलेहेन-ईपदुदकयुक्तेन कायेन अशनादिकं ४ आहारयितुम् ॥(४२)।। (से किमाहु भंते!) तत्आ ट्रैकराव्या० ९ कुतः पूज्या इति पृष्टे गुरुराह-(सत्त सिणेहाययणा पण्णत्ता) सप्त स्नेहायतनानि-जलावस्थानस्थानानि प्रज्ञप्तानि दावभोजनं ॥१८४॥ जिनैः येषु चिरेण -जलं शुष्यति (तंजहा) तद्यथा-(पाणी१ पाणिलेहा २ नहा ३ नह सिहा ४ भमुहा५ सप्तस्नेहाअहरोहा ६ उत्तरोटा७) पाणी-हस्तौर पाणिरेखा-आयूरेखादयः, तासु हि चिरं जलं तिष्ठति २ नखा अखण्डाः३यतनानि नखशिखा:-तदप्रभागाः ४ भमूहा-भ्रूनेबोर्ध्वरोमाणि ५ अहरुडा-दादिका ६ उत्तरुट्टा-इमभूणि ७ (अह पुण . एवं जाणिज्जा विगओदए मे काए छिन्नसिणेहे, एवं से कप्पइ असणं वा ४ आहारित्तए) अथ पुनः एवं जानी-191 २० यात्-विन्दुरहितःमम देहः सर्वथा निर्जलोऽभूत् तदा तस्य साधो कल्पते अशनादिकं ४ आहारयितुं॥(४३) RI (वासावासं पजोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (इह खलु निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा) अत्र खलु साधूनां साध्वीनां च (इमाई अट्ट सुहमाई जाइं छउमत्थेणं निग्गंधेण वा निग्गंधीए वा) इमानि अष्टी सूक्ष्माणि यानि छद्मस्थेन साधुना साध्व्या च ( अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियबाई) वारं वारं यत्रावस्थानादि करोति तत्र तत्र ज्ञातव्यानि सूत्रोपदेशेन (पासिअचाई) चक्षषा द्रष्टव्यानि (पडिलेहिअबाई भवंति) २५ ज्ञात्वा दृष्ट्वा च प्रतिलेखितव्यानि-परिहर्त्तव्यतया विचारणीयानि सन्ति, (तंजहा) तद्यथा-(पाणसुहुमं ॥१८॥ पणगसुहुमं २ बीअमुहमं हरियनुहुम ४ पुष्फमुहुम ५ अंडसुहम ६ लेणमुहुमं ७ सिणेहसुहम ८) सूक्ष्माः प्राणा:-कुन्धवादयः द्वीन्द्रियादयः१ सूक्ष्मः पनका-फुल्लिा २ सूक्ष्माणि बीजानि ३ सूक्ष्माणि हरितानि ४ २८ दीप अनुक्रम [३०४] For Fun " INAaneibrary.org ~3930 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४४] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [४४] गाथा II-II सूक्ष्माणि पुष्पाणि ५ सूक्ष्माणि अण्डानि ५ सूक्ष्माणि लयनानि-बिलानि ७ सूक्ष्मः लेहः-अप कायः ८(से अष्ट सूक्ष्माकिं तं पाणमुहुमे?) तत् के सूक्ष्मप्राणा:?, गुरुराह-(पाणसुहुमे पंचविहे पन्नते) सूक्ष्मप्राणाः पञ्चविधाःणि प्रज्ञप्ताः तीर्थकरगणधरैः (तंजहा) तद्यथा-(किण्हे १ नीले २ लोहिए ३ हालिद्दे ४ सुकिल्ले ५) कृष्णा: नीला रक्ताः पीताः श्वेताः, एकस्मिन् वर्णे सहस्रशो भेदा बहुप्रकाराश्च संयोगास्ते सर्वे पञ्चसु कृष्णादिवर्णेष्वेव अवतरन्ति (अस्थि कुंथू अणुद्धरी नामं जा ठिया अचलमाणा) अस्ति कुन्थुः अणुद्धरी नाम या स्थिता अचलन्ती सती (छउमत्थाणं निग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा नो चक्खुफासं हवमागच्छद) छास्थानां साधूनां | साध्वीनां च नो दृष्टिविषयं शीघ्रं आगच्छति (जाव छउमत्थेणं निग्गथेण वा निग्गंथीए वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियचा पासियवा पडिलेहियथा भवइ) यावत् छद्मस्थेन साधुना साध्व्या च धारंवारं ज्ञातव्या द्रष्टव्याः प्रतिलेखितव्याश्च भवन्ति (सेतं पाणसुहुमे) ते सूक्ष्माः प्राणाः,ते हि चलन्त एव विभाव्यन्ते, न हि स्थानस्था:१॥(४४)॥(से किं तं पणगसुहुमे?) तत् का सूक्ष्मः पनकः, गुरुराह-(पणगसुहुमे पंचविहे पन्नसे) सूक्ष्मपनकः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः (तंजहा) तद्यथा (किण्हे जाव सुकिल्ले) कृष्णः यावत् शुक्लः (अस्थि पणगसुहमे तवसमाणवन्नए नाम पन्नते) अस्ति सूक्ष्मः पनकः यत्रोत्पद्यते तद्व्यसमानवणे: प्रसिद्धः प्रज्ञप्तः (जे छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंधीए वा जाव पडिलेहिअब्वे भवइ ) यश्छद्मस्थेन साधुना साध्या यावत् प्रतिलेखितष्पः भवति, पनक खल्ली, स च प्रायः प्रावृषि भूकाष्ठादिषु जायते, यत्रोत्पद्यते तद्रव्यस दीप अनुक्रम [३०५] O mjanetbrary.org ... अथ अष्ट-सूक्ष्माणां वर्णनं क्रियते 394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४५] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४५] गाथा कल्प.सुबो-ISमवर्णश्च, नाम पन्नत्तेत्यत्र नाम प्रसिद्धी (से तं पणगसुहमे)स सूक्ष्मपनका २॥ (से कि तंबीअसुहमे?) अथ अष्ट सक्ष्मा कानि तत् सूक्ष्मबीजानि?, गुरुराह-बीयसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते) सूक्ष्मवीजानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) णि ॥१५॥ तद्यथा-(किण्हे जाव सुकिल्ले) कृष्णानि यावत् शुक्लानि (अस्थि बीअसुहुमे कणियासमाणवष्णए नाम, पण्णत्ते) सन्ति सूक्ष्मघीजानि, बीजानां मुखमूले कणिका-नखिका 'नही' इति लोके तत्समानवर्णानि नाम ISI प्रज्ञप्तानि (जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियत्वे भवह) यानि छद्मस्थेन यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ( से तं बीअसुहुमे ) तानि सूक्ष्मबीजानि ३ ॥ (से किं तं हरियसुहुमे?) अथ कानि तत् सूक्ष्महरितानि ?, गुरुराह(हरियसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते) सूक्ष्महरितानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) तद्यथा-(किण्हे जाव सुकिल्ले) कृष्णानि यावत् शुक्लानि (अस्थि हरिअसुहुमे पुढवीसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते) सन्ति सूक्ष्महरितानि पृथिवीसमानवर्णानि प्रसिद्धानि प्रशसानि (जे निग्गंथेण वा २ जाव पडिलेहियवे भवाह) यानि साधुना साध्व्या वा यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (सेतं हरियसुहुमे) तानि सूक्ष्महरितानि, हरितसूक्ष्म-नबोद्भिन्नं पृथ्वीसमवर्ण हरितं, तच्चाल्पसंहननत्वात् स्तोकेनापि विनश्यति ३॥ (से किं तं पुष्फमुहुमे ?) अथ कानि || तत् सूक्ष्मपुष्पाणि ?, गुरुराह-(पुप्फसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्मपुष्पाणि पश्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) ॥१८५॥ तद्यथा-(किण्हे जाव सुकिल्ले ) कृष्णानि यावत् शुक्लानि (अस्थि पुप्फमुहुमे रुक्खसमाणवन्ने नामं पन्नत्ते) सन्ति सूक्ष्मपुष्पाणि वृक्षसमानवर्णानि प्रसिद्धानि प्रज्ञप्तानि, सूक्ष्मपुष्पाणि वटोदुम्बरादीनां, तानि चोच्छ्वासे-18 दीप अनुक्रम [३११] UaKEducation - 395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४५] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४५] गाथा 11-11 नापि विराध्यन्ते (जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियचे भवइ) यानि छद्मस्थेन यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (से अष्ट सूक्ष्मातं पुप्फसुहुमे ) तानि सूक्ष्मपुष्पाणि ४॥(से किंतं अंडसुहमे ?) अथ कानि तत् सूक्ष्माण्डानि?, गुरुराह-(अंड- णि सुहमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्माण्डानि पञ्चविधामि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) तद्यथा-(उदंसंडे १ उक्कलियंडे २ पिपीलि-ISI यडे ३ हलियंडे ४ हल्लोहलिअंडे ५) उद्देशा-मधुमक्षिकामत्कुणादयस्तेषां अण्डं उइंशाण्डं १ उत्कलिका-लूतापूता 'कुलातरा' इति लोके तस्या अण्डं उत्कलिकाण्डं २ पिपीलिका:-कीटिकाः तासां अण्डं पिपीलिकाण्डं ३ हलिका-गृहकोलिका ब्राह्मणी वा तस्याः अण्डं हलिकांडं ४ हल्लोहलिआ-अहिलोडी सरटी 'काकिंडी' इति लोके तस्या अण्डं हल्लोहलिकाण्डं ५(जे निग्गंधेण वा २जाव पडिलेहियवे भव) यानि साधुना यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (सेतं अंडमुहमे)तानि सूक्ष्माण्डानि ६॥(से किं तं लेणसहमे?) अथ कानि तत् लयनं-आश्रयः सत्वानां यत्र कीटिकाबनेकसूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति तल्लयनसूक्ष्म-बिलानि?, गुरुराह-(लेण-18 महुमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्मविलानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) तद्यथा-( उत्तिंगलेणे १ भिंगुलेणे २ उज्जुए ३ तालमूलए ४ संयुकावढे ५ नामं पंचमे) उत्तिङ्गा-भुवका गईभाकारा जीवास्तेषां बिलं-भूमौ उत्कीर्ण | ग्रहं उत्तिङ्गलयनं १ भृगुः-शुष्कभूरेखा, जलशोषानन्तरं जलकेदारादिषु स्फुटिता दालिरित्यर्थः२सरलं-बिलं ३ तालमूलाकारं-अधः पृथु उपरि च सूक्ष्म बिलं तालमूलं ४ शम्बुकावर्त्त-भ्रमरगृहं नाम पञ्चमं ५ (जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियवे भवा) यानि छद्मस्थेन यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (से तं लेणसुहमे) तानि सूक्ष्म दीप अनुक्रम [३११] १४ JanEducation For F lutelu R anjaneibrary.org - 396 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४५] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३११] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [४५] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ९ ॥१८६॥ विलानि ७ ॥ ( से किं तं सिणेहमुहमे ? ) अथ कः तत् सुक्ष्मस्नेहः ?, गुरुराह - (सिणेह सुहुमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्मस्नेहः पचविधः प्रज्ञतः, (तंजहा) तद्यथा - ( उस्सा १ हिमए २ महिया ३ करए ४ हरतणुए ५ ) अवश्यायो - गगनात्पतज्जलं १ हिमं प्रसिद्धं २ महिका - धूमरी ३ करका :- घनोपलाः ४ हरतनुः - भूनिःसृततृणायबिन्दुरूपो यो यवाङ्कुरादौ दृश्यते ५ ( जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियत्रे भवइ ) यः छद्मथेन साधुना यावत् प्रतिलेखितव्यः भवति ( से तं सिणेहसुद्ध मे ) सः सूक्ष्मः स्नेहः ८ ॥ ॥ (४५) ॥ अथ ऋतुबद्धवर्षाकालयोः सामान्या सामाचारी वर्षासु विशेषेणोच्यते (वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिला ) चतुर्मासकं स्थितः साधुः इच्छेत् ( गाहावइकुलं भत्ताए वा | पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, (नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता ) तदा नो तस्य साधोः कल्पते अनाष्टच्छथ, कं ? इत्याह- ( आयरियं वा ) आचार्य:- सूत्रार्थदाता दिगाचार्यो वा तं १ ( उवज्झायं वा ) सूत्राध्यापक उपाध्यायस्तं २ (थेरं वा ) स्थविरोज्ञानादिषु सीदतां स्थिरीकर्त्ता उद्यतानामुपबृंहकञ्च तं ३ ( पवित्तिं वा ) ज्ञानादिषु प्रवर्त्तयिता प्रदर्शकस्तं ४ ( गणिं वा यस्य पार्श्वे आचार्याः सूत्राद्यभ्यस्यन्ति स गणी तं ५ ( गणहरं वा) तीर्थकर शिष्यो गणधरस्तं ६ (गणावच्छेअयं वा ) गणावच्छेदको यः साधून गृहीत्वा बहिः क्षेत्रे आस्ते गच्छार्थ क्षेत्रोपधिमार्गणादौ प्रधावनादिकर्त्ता सूत्रार्थोभयचित् सं ७ ( जं वा पुरओ काउं विहरइ ) यं वाऽन्यं वयः पर्यायाभ्यां लघुमपि पुरतः 397 आचार्याद्याज्ञया गमनादि सू. ४६ २० २५ ॥१८६॥ २८ aerory.org Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४६] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा कृत्वा-गुरुत्वेन कृत्वा विहरन्ति (कप्पइ से आपुच्छिउँ आयरियं वा जाव जं वा पुरओ कार्ड विहरइ) आचार्याकल्पते तस्य आपृच्छच आचार्य यावत् यं वा पुरतः कृत्वा विहरति, अध कथं प्रष्टध्यमित्याह-(इच्छामि गं याज्ञया गोभंते ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे गाहावाकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) चयोविहा. इच्छाम्यहं हे पूज्य ! भवद्भिः अभ्यनुज्ञातः सन् गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वारभूम्यादि इति, (ते य से वियरिजा, एवं से कप्पड़ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए पविसित्तए वा) ते आचार्यादयः 'से' तस्य साधोः वितरेयु:-अनुज्ञां दधुः तदा कल्पते गृहस्थगृहे भक्ता) वा पानार्थे वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा (ते य से नो वियरिज्जा, एवं से नो कप्पड़ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा हानिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा)ते आचार्यादयः तस्य नो आज्ञां दद्युः तदा नो कल्पते गृहस्थगृहे भक्तार्थ ||४|| वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, (से किमाहु भंते !) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य ! इति पृष्टे गुरुराह(आयरिया पचवायं जाणंति) आचार्याः प्रत्यपायं-अपायं तत्परिहारं च जानन्तीति ॥ (४६)॥(एवं विहार-II भूमिं वा) एवमेव विहारभूमिः-जिनचैत्ये गमनं 'विहारो जिनसद्मनी' तिवचनात् (वियारभूमि वा) विचार भूमि:-शरीरचिन्ताच) गमनं (अर्स वा जंकिंचि पओअणं) अन्यदा यत्किश्चित्प्रयोजन लेपसीवन लिख-| INI नादिकं उच्छासादिवर्ज सर्वमापृच्छधैव कर्तव्यमिति तत्त्वं ( एवं गामाणुगामं दृइजित्तए) एवं ग्रामानुग्राम हिण्डितुं भिक्षाद्यर्थ ग्लानादिकारणे वा, अन्यथा वर्षासु ग्रामानुग्रामहिण्डनमनुचितमेव ॥ (४७)॥ १४ दीप अनुक्रम [३१४] Fur & Fonte ~ 398 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४८] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत व्या०९ सूत्रांक [४८] गाथा विधिः मू. II-II हो (वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिता अन्नयरिं विगई आहारित्तए) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् विकृतचि अन्यतरां विकृति आहारयितुं तदा (नो से कप्पइ अणापुच्छित्सा आयरियं वा जाव जं वा पुरओ काउंकित्सातपः विहरह) नो तस्य कल्पते अनापृच्छच आचार्य वा यावत् यं वा पुरतः कृत्वा विहरति (कप्पड़ से आपुच्छित्ता |संलेखना॥१८७|| आयरियं वा जाव आहारित्तए) कल्पते तस्य साधोः आपृच्छय आचार्य वा यावत् आहारयितुं, कथं प्रष्टव्यमित्याह (इच्छामि णं भंते! तुन्भेहिं अन्भणुनाए समाणे) अहं इच्छामि हे पूज्य ! युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः ४८-५१ सन् (अन्नयरिं विगई आहारित्तए, तं एवइयं वा एवयखुसो वा) अन्यतरां विकृति आहारथित, तां एतावतीं| एतावतो वारान् (ते य से वियरिजा, एवं से कप्पइ अन्नयरि विगई आहारित्तए)ते आचार्यादयः तस्य यदि आज्ञा दाः तदा तस्य कल्पते अन्यतरां विकृति आहारयितुं (ते य से नो वियरिजा एवं से नो कप्पा | अन्नयरिं विगई आहारित्तए)ते आचायोदयः तस्य नो यदि आज्ञां दद्युः तदा तस्य नो कल्पते अन्यतरां 18विकृति आहारयितुं (से किमाहु भंते!) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य! इति पृष्टे गुरुराह-(आयरिया पचवायं जाणंति) आचार्याः लाभालाभं जानन्ति ॥ (४८)॥(वासावासं पजोसविए भिक्खू इच्छिता अन्नयरिं तेगिच्छं) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् काश्चित् चिकित्सा, वातिक १ पैत्तिक २ श्लेधिमक ३ सान्निपा- १८७॥ तिक ४ रोगाणामातुर १ वैद्य २ प्रतिचारक ३ भैषज्य ४ रूपां चतुष्पादां चिकित्सा, तथा चोक्तम्-भिषग् १ द्रव्या २ ण्युपस्थाता ३, रोगी ४ पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येक तचतुर्गुणम् ॥१॥ दक्षो १ दीप अनुक्रम [३१६] २५ २८ हट . JanEducati ~399 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४९] | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत ee सूत्रांक [४९] गाथा ५ रसesesekeeserevercene विज्ञातशास्त्रार्थों २, दृष्टकर्मा ३ शुचि ४ भिषक । बहुकल्पं १ बहुगुणं २, सम्पन्नं ३ योग्यमौषधम् ४॥२॥ विकृतचिअनुरक्तः१शुचि २ दक्षो ३, बुद्धिमान् ४ प्रतिचारकः । आब्यो १रोगी २ भिषगवश्यो ३, ज्ञायकः सत्व- कित्सातपः | वानपि ४ ॥३॥ (आउहित्तए) कारयितुं, आउद्दिधातुः करणार्थे सैद्धान्तिकः (तं व सर्व भाणिअ) सलेखना विधिः सू. तदेव सर्व भणितव्यम् ॥ (४९) । (वासावासं पजोसविए भिक्खू इच्छिन्जा) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् । ४८-५१ ( अन्नयरं ओरालं कल्लाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए)। किञ्चित् प्रशस्तं कल्याणकारि उपद्रवहरं धन्यकरणीयं मङ्गलकारणं सश्रीकं महान् अनुभावो यस्य तत् तथा एवंविधं तपाकर्म आदृत्य विहां (तं चेव सर्व भाणिय) तदेव सर्व भणितव्यम् ॥(५०)। (वासावासं पज्जोसबिए भिक्खू इच्छिज्जा) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत्, अथ कीदृशो भिक्षु:-(अपछिममारणंतियसं-18 लेहणाजूसणाजूसिए) अपश्चिम-चरमं मरणं अपश्चिममरणं, न पुनः प्रतिक्षणमायुर्दलिकानुभवलक्षणं आवीचिमरणं, अपश्चिममरणमेवान्तस्तत्र भवा अपश्चिममरणान्तिकी, संलिख्यते-कृशीक्रियते शरीरकषायाद्यन-IN येति संलेखना, सा च द्रव्यभावभेदभिन्ना 'चत्तारि विचित्ताई' इत्यादिका तस्या 'जुसणं'ति जोषणं-सेवा। तया 'जुसिए'त्ति क्षपितशरीरः, अत एव (भत्तपाणपडियाइक्खिए) प्रत्याख्यातभक्तपानः, अत एव (पाओव-18 गए कालं अणवखमाणे विहरित्तए पा) पादपोपगतः-कृतपादपोगमन, अत एव कालं-जीवितकालं मरणकालं वाऽनवकाङ्कन-अनभिलषन विहर्तुमिच्छेत् (निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे निष्क्रमितुं १४ दीप अनुक्रम [३१७] १५ JanEducat i onal For F lutelu N ganetbrory.org -400 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [५१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सबो- [५१] गाथा ॥१८ II-II वा प्रवेष्टुं वा (असणं वा ४ आहारित्तए या) अशनादिकं ४ चा आहारयितुं (उच्चारं पासवणं वा परिठा- वस्त्राद्यातावित्तए वा) उचार-पुरीषं प्रश्रवणं-मूत्रं परिष्ठापयितुं वा (सज्झायं वा करितए) खाध्यायं वा कर्नु (धम्म-पन मू.५२ जागरियं वा जागरित्तए) धर्मजागरिकां-आज्ञा १ ऽपाय २ विपाक ३ संस्थान विचय ४ भेद्धर्मध्यान विधानादिना जागरणं धर्मजागरिका तां जागरितुं-अनुष्टातुमिति (नो से कप्पइ अणापुच्छित्सा तं चेव सवं) नो तस्य कल्पते अनापृच्छय तदेव सर्व वाच्यं, एतत् सर्व गुर्वाज्ञया एव कर्नु कल्पते ॥ (५१)॥ (वासावासं पज्जोसपिए भिक्खू इच्छिज्जा) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इकछेत् (वत्थं वा पडिग्गहं वा २० कंबलं वा पायपुरुछणं वा) वस्त्रं वा पतदहं वा कम्बलं वा पादयोञ्छनं-रजोहरणं वा (अन्नयरिं वा उबहिर आयावित्तए वा पयावित्तए चा) अन्यतरं वा उपधिं आतापयितुं-एकवारं आतपे दातुं प्रतापयितुं-पुनः पुनरातपे दातुं इच्छति, अनातापने कुत्सापनकादिदोषोत्पत्तेः, तदा उपधावातपे दत्ते (नो से कप्पइ एगं वा अणेग वा अपडिनवित्ता) नो तस्य कल्पते एकं वा साधु अनेकान् वा साधून अप्रतिज्ञाप्य-अकथयित्वा (गाहावइकुलं भत्ताए या पाणाए वा निक्खमित्तए चा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं । वा (असणं या ४ आहारित्तए) अशनादिकं ४ वा आहारयितुं (बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा सज्झायं ॥१८८॥ वा करित्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए) यहिः विहारभूमि वा-जिनचैत्यगमनं, विचारभूमि:-शरीरचि|न्ताद्यर्थ गमनं खाध्यायंवा का,कायोत्सर्ग वा स्थानं स्थातुं वृष्टिभयात्(अस्थि य इत्य केइ अहासन्निहिए एगे वा दीप अनुक्रम [३१९] ~4010 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१२] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा II-II अणेगे वा)यदि स्यात् अत्र कोऽपि निकटवर्ती एकः अनेको वा साधुः, तदा(कप्पा से एवं वात्सए)कल्पते तस्य शय्यामिनएवं वक्तुं-(इमं ता अजो तुम मुहुत्तगंजाणाहि)इमं उपधि त्वं हे आर्य मुहर्तमानं जानीहि-सत्यापये (जावहादि सू. ताव अहं गाहायइकुलं जाच काउसग्गं चा ठाणं वा ठाइत्तए) यावत् अहं गृहस्थगृहे यावत् कायोत्सर्ग चा५३-५४ स्थान-बीरासनादि वा स्थातुं इति (से य से पडिसुणिज्जा एवं से कप्पह गाहावइकुलं तं चेव सव्यं भाणियव्वं)स चेत् प्रतिशृणुयात्-अङ्गीकुर्यात् तद्वनसत्यापनं तदा तस्य कल्पते गृहस्थगृहे गोचर्यादौ गन्तुं अशनायाहारयितुं विहारभूमि विचारभूमि वा गन्तुं खाध्यायं वा कायोत्सर्ग वा कर्तुं स्थानं वा-वीरासनादिकं स्थातुं, तदेव सर्व भणितव्यं (से य से नो पडिसुणिज्जा एवं से नो कप्पइ गाहावइकुलं जाव ठाणं वा ठाइत्तए)स चेत् नो अङ्गीकुर्यात्सदा तस्य नो कल्पते गृहस्थगृहे यावत् स्थानं वा स्थातुं ॥ (५२)॥ 31 (वासावासं पज्जोसबियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पइ निग्गंधाण या निग्गंधीण वा) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां वा (अणभिग्गहिय सिज्जासणिएणं हुत्तए) न अभिगृहीते शय्यासने येन सोऽनभिगृहीतशय्यासनः अनभिगृहीतशय्यासन एवं अनभिगृहीतशय्यासनिकः खार्थे इकप्रत्ययः तथाविधेन साधुना 'हुत्तएत्ति' भवितुं न कल्पते, वर्षासु मणिकुहिमेऽपि पीठफलकादिग्रहवतैव भाव्पं, अन्यथा शीतलायां भूमौ । शयने उपवेशने च कुन्थ्वादिविराधनोत्पत्तेः (आयाणमेयं) कर्मणां दोषाणां वा आदानं-उपादानकारणं एतद्-अनभिगृहीतशय्यासनिकत्वं, तदेव द्रढयति-( अभिग्गद्दियसिज्जासणियस्स) अनभिगृहीतश दीप अनुक्रम [३२०] reservekटल For F lutelu -~402 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१३] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३] गाथा II-II कल्प-सुबो-ग्यासनिक इति प्राग्वत् तस्य (अणुचाकुइयस्स) उच्चा हस्तादि यावत् येन पिपीलिकादेर्वधो न स्यात् सर्पादेवशय्यामिनदंशो न स्यात् , अकुचा 'कुच परिस्पन्दे' इति वचनात् परिस्पन्दरहिता निश्चलेतियावत् ततः कर्मधारयः, हादि मू. ५३-५४ ॥१८॥ एवंविधा शय्या कम्बिकादिमयी सा न विद्यते यस्य सः अनुच्चाकुचिको-नीचसपरिस्पन्दशय्याकस्तस्य (अण-1 हावंधियस्स) अनर्थकवन्धिनः पक्षमध्ये अनर्थक-निष्प्रयोजनं एकवारोपरि द्वौ त्रीश्चतुरो वारान् कम्बासु बन्धान् ददाति चतुरुपरि बहनि अहकानि वा बध्नाति, तथा च खाध्यायविपलिमन्धादयो दोषाः, यदि चेकानिकं चम्पकादिपट्ट लभ्यते तदा तदेव ग्राह्य, बन्धनादिपलिमन्थपरिहारात् (अमियासणियस्त ) अमितासनिकस्य-अबद्धासनस्य मुहमुंहः स्थानात्स्थानान्तरं गच्छतो हि सस्ववधः स्यात्, अनेकानि वा आसनानि सेवमानस्य (अणाताविअस्स) संस्तारकपात्रादीनां आतपेदातुः (असमियस्स) ईर्यादिसमितिषु अनुपयु-18 क्तस्य (अभिक्खणं अभिक्खणं अपडिलेहणासीलस्स अपमजणासीलस्स) वारंवारं अप्रतिलेखनाशीलस्य दृष्ट्या अप्रमार्जनाशीलस्य रजोहरणादिना ( तहारूवाणं संजमे दुराराहए भवइ ) तथारूपाणां ईदृशस्य साधोः संयमो दुराराधो भवति ॥ (५३) ॥अत्र किरणावलीदीपिकाकाराभ्यां दुराराध्यो दुष्प्रतिपाल्य इति प्रयोगी लिखितो, तो चिंत्यौ, 'दुःखीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्' इतिसूत्रेण खल्प्रत्ययागमनेन दुराराधइति दुष्पतिपाल इति च भवनात्, न च वाच्यं आङा प्रतिना च व्यवधानात् खल न भविष्यतीति 'उपसर्गों न व्यवधायीति न्यायात्, किंच-समागच्छतीत्यत्र आङा व्यवधानेन 'समो गमृच्छिपृच्छी'त्यादिनाऽऽत्मनेपदा दीप अनुक्रम [३२०] ॥१८९॥ ~4037 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१४] / गाथा [-] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४] गाथा II-II प्राप्तः, अस्य न्यायस्यानित्यत्वादत्रोपसर्गस्य व्यवधायकत्वं भविष्यतीत्यपि न वाच्यं, न हि खल्विषये उपसर्गस्य उच्चारादिव्यवधायकत्वं, 'उपसर्गात् खल्धनो'श्वेतिसूत्रेण ईषत्प्रलंभं दुष्प्रलंभं इत्यादिप्रयोगज्ञापनादिति दिक। आदानमु-भूमयः मु. तवाऽनावानमाह-(अणायाणमेयं ) कर्मणां दोषाणां वा अनादानं-अकारणं एतनू-अभिगृहीतशय्यासनि-11५५-५६ करवं उच्चाकुचशय्याकत्वं सप्रयोजन पक्षमध्ये सकृच्च शय्यावन्धकत्वमिति, तदेव द्रढयति-(अभिग्गहियसि-11 जासणियस्स) अभिगृहीतशय्यासनिकस्य (उच्चाकुइअस्स) उच्चाकुचिकस्य (अट्ठावंधिस्स) अर्थाय थन्धिनः ||५ (मियासणियस्स) मितासनिकस्य (आयावियस्स) आतापिनो-वस्त्रादेरातपे दातुः (समियस्स)|| समित्तस्य-समितिषु दत्तोपयोगस्य ( अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणासीलस्स पमजणासीलस्स) अभीक्ष्णं[8] अभीक्ष्णं प्रतिलेखनाशीलस्य प्रमार्जनाशीलस्य ईदृशस्य साधोः (तहा तहा संजमे सुआराहए भवइ) तथा तथा-तेन तेन प्रकारेण संयमः सुखाराध्यो भवति ॥ (५४)॥ ARI (वासावासं पजोसबियाण) चतुर्मासकं स्थितानां (कप्पइ निग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा तओ उच्चारपासव णभूमीओ पडिलेहित्तए) कल्पते साधूनां साध्वीनां तिनः उच्चारप्रश्रवणभूम्यः, अनधिसहिष्णोस्तिस्रोऽन्तः अधिसहिष्णोश्च बहिस्तिस्रो, दूरव्याघातेन मध्या भूमिस्तद्व्याघाते चासन्नेति आसन्नमध्यदूरभेदात्रिधा भूमिः II प्रतिलेखितव्या (न तहा हेमंतगिम्हासु जहा णं वासासु) न तथा हेमन्तग्रीष्मयोर्यथा वर्षासु (से किमाहु भिंते!) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य ! इति पृष्टे गुरुराह-(वासासु णं ओसन्नं पाणा य तणा य बीया य पणगा या Beeeeeeescenestsee दीप अनुक्रम [३२१] ~404 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ५६ ] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२२] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [९] मूलं [ ५६ ] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० ९ ॥ १९०॥ हरियाणि य भवंति ) वर्षासु 'ओसन्नं'ति प्रायेण प्राणाः - शङ्खनकेन्द्रगोपकृम्यादयस्तृणानि प्रतीतानि बीजानितत्तद्वनस्पतीनां नवोद्भिन्नानि किसलयानि पनका उल्लयो हरितानि - बीजेभ्यो जातानि एतानि वर्षासु बाहुल्येन भवन्ति ॥ ( ५५ ) ॥ वासावासं पज्जोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (कप्पड़ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तओ मत्तगाई गिरिहत्तए) कल्पते साधूनां साध्वीनां त्रीणि मात्रकाणि ग्रहीतुं (तंजहा ) तयधा ( उच्चारमन्त्तए पासवणमत्तए खेलमत्तए) उच्चारमात्रकं १ प्रश्रवणमात्रकं २ खेलमात्रकं ३ मात्रका भावे वेलातिक्रमेण वेगधारणे आत्मविराधना वर्षति च वहिर्गमने संयमविराधनेति ॥ ( ५६ ) ॥ ( वासावासं पञ्चोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पड़ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च (परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाण मित्तेऽवि केसे ) पर्युषणातः परं आषाढचतुमसकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीयाः, आस्तां दीर्घाः, 'धुंबलोओ उ जिणाणं, निचं थेराण वासवासासु' इति वचनात् ( तं स्यणि उवायणावित्तए) यावत्तां रजनीं भाद्रपदसितपञ्चमीरात्रिं साम्प्रतं चतुर्थीरात्रिं नातिक्रामयेत्, चतुर्थ्या अर्वागेव लोचं कारयेत्, अयं भावः यदि समर्थस्तदा वर्षासु नित्यं लोचं कारयेद्, असमर्थोऽपि तां रात्रिं नोलङ्घयेत्, पर्युषणापर्वणि लोचं विना प्रतिक्रमणस्यावश्यमकल्पयत्वात्, केशेषु हि अश्कायविराधना, तत्संसर्गाच्च यूकाः संमूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति, शिरसि नखक्षतं वा १ वो लोचस्तु जिनानां नित्यं स्थविराणां वर्षावासेषु ॥ ••• अत्र लोच विधिः दर्शयते 405 लोचविधिः सू. ५७ २० २५ ॥ १९०॥ २७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१७] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७]] गाथा II-II स्थात् , यदि क्षुरेण मुण्डापयति कर्सर्या वा तदाऽऽज्ञाभायाः दोषाः संयमात्मविराधना, यूकाश्छिद्यन्तेलोचविधिः नापितश्च पश्चात्कर्म करोति शासनापभाजनाच, ततो लोच एव श्रेयान् , यदि चासहिष्णोलाचे कते ज्वरा-18 दिर्वा स्यात् कस्यचिद् बालो वा रुद्याद् धर्म वा त्यजेत्ततो न तस्य लोध इत्याह-(अज्जेणं खुरमुंडेण वा लुकRAI सिरएण वा होयचं सिया) आर्यण-साधुना उत्सर्गतो लुश्चितशिरोजेन, अपवादतो बालग्लानादिना मुण्डितशिरोजेन भवितव्यं स्यात् , तत्र केवलं प्रामुकोदकेन शिरः प्रक्षाल्य नापितस्यापि तेन करौ क्षालयति, यस्तु क्षुरेणापि कारयितुमसमर्थो व्रणादिमच्छिरा वा तस्य केशाः कतैयाँ कल्पनीयाः। (पक्खिया आरोवणा) पक्षे पक्षे संस्तारकवरकाणां बन्धा मोक्तव्याः प्रतिलेखितव्याश्चेत्यर्थः, अथवा आरोपणाप्रायश्चित्तं पक्षे पक्षे ग्राह्यं सर्वकालं, वर्षासु विशेषता, (मासिए खुरमुंडे) असहिष्णुना मासि मासि मुण्डनं कारणीयं (अद्भुमा-R सिए कत्तरिमुंडे ) यदि कर्तर्या कारयति तदा पक्षे पक्षे गुप्तं कारणीय, क्षुरकर्सर्योश्च लोचे प्रायश्चित्तं निशीथोक्तं यथासह लघुगुरुमासलक्षणं ज्ञेयं । (छम्मासिए लोए) पाण्मासिको लोचः (संवच्छरिए वा धेरकप्पे)18॥१. स्थविराणां-वृद्धानां जराजर्जरत्वेनासामर्थ्याद दृष्टिरक्षार्थ च 'संवच्छरिए वा थेरकप्पे'त्ति सांवत्सरिको वा लोचः स्थविरकल्पे स्थितानामिति, अर्थात्तरुणानां चातुर्मासिक इति ॥ (५७)॥ | (घासावासं पज्जोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च (परं पजोसवणाओ अहिंगरणं घइत्तए) पर्युषणातः परं अधिकरणं-राटिस्तत्करं वच- १४ दीप अनुक्रम [३२३] -406 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१८] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५८] गाथा II-II कल्प.सुबो- नमपि अधिकरणं तद् वक्तुं न कल्पते (जे णं निग्गंधो वा निग्गंथी वा परं पजोसवणाओ अहिगरणं वयइ)यश्च अधिकरणध्या०९ साधुः साध्वी चा पर्युषणातः परं अज्ञानात् केशकारि वचनं वदति (से 'अकप्पेणं अजो वयसित्ति' बत्तचे निषधः मू. सिया)स एवं वक्तव्यः स्यात्-हे आर्य! त्वं अकल्पन-अनाचारेण वदसि, यतः पर्यषणादिनतोऽर्वाग तद्दिने । एव वा यदधिकरणं उत्पन्नं तत् पर्युषणायां क्षमितं, यच त्वं पर्युषणातः परं अपि अधिकरणं वदसि सोऽयमकल्प इति भावः (जेणं निग्गयो वा निग्गंधी वा परं पजोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं निहिया सिया) यश्चैवं निवारितोऽपि साधुर्वा साध्वी वा पर्युषणातः परं अधिकरणं वदति स नियूहितव्या-ताम्बू-13 IN लिकपत्रदृष्टान्तेन सङ्काद् पहिः कर्तव्यः, यथा ताम्बूलिकेन विनष्टं पत्रं अन्यपत्र विनाशनभयाद् बहिः क्रियते | तबदयमप्यनन्तानुबन्धिक्रोधाविष्टो विनष्ट एवेत्यतो बहिः कर्त्तव्य इति भावः, तथाऽन्योऽपि द्विजदृष्टान्तो यथा-खेटवास्तव्यो रुद्रनामा द्विजो वर्षाकाले केदारान् ऋष्टुं हलं लात्वा क्षेत्रं गतो, हलं वायतस्तस्य गली | बलीबई उपविष्टः, तोत्रेण ताङ्यमानोऽपि यावन्नोत्तिष्ठति तदा कुद्धेन तेन केदारत्रयमृत्खण्डैरेवाहन्यमानो मृत्खण्डस्थगितमुखः श्वासरोधान्मृतः, पश्चात् स पश्चात्तापं विधानो महास्थाने गत्वा स्ववृत्तान्तं कथयन्नुपशान्तो न वेति तैः पृष्टो नाथापि ममोपशान्तिरिति वदन् द्विजैरपालेयश्चके, एवं अनुपशान्तकोपतया । ॥१९॥ वार्षिकपर्वणि अकृतक्षामणः साध्वादिरपि, उपशान्तोपस्थितस्यैव मूलं दातव्यं ॥(५८)। (वासावासं पजोसवियाणं इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा) चतुर्मासकं स्थितानां इह निश्चयेन साधूनां साध्वीनां च (अज्जेव दीप अनुक्रम [३२५] JaMEducatond Furniste AFennaiUse Cily ... पर्युषण-क्षामणा-विधिः कथयते ~407 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१९] | गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक ee24 [५९] गाथा II-II कक्खडे कडुए विग्गहे समुप्पजिस्था) अथैव-पर्युषणादिने एव 'कक्खड'त्ति उच्चैःशब्दरूपः कटुको-जकार-हिनापरामकारादिरूपो विग्रहः-कलहः समुत्पद्यते तदा (सेहे राइणि खामिजा) शैक्षो-लघुः रानिक-ज्येष्ठं क्षम- क्षमणा यति, यद्यपि ज्येष्ठ सापराधस्तथापि लघुना ज्येष्ठः क्षमणीयो व्यवहारात्, अर्थोपरिणतधर्मवाल्लघुज्येष्ठं न सू. ५९ क्षमयति तदा किं कर्त्तव्यमित्याह (राइणिएवि सेहं खामिजा) ज्येष्ठोऽपि शैक्षं क्षमयति (खमिय । खमावियचं उवसमियवं उवसामिय) ततः क्षन्तव्यं स्वयमेव क्षमयितव्यापरः,उपशमितव्यं स्वयं उपशमयितव्यः परः (सुमहसंपुच्छणायहुलेणं होय)शोभना मतिःसुमतिः-रागद्वेषरहितता तत्पूर्व या सम्पृच्छना-सूत्राविषया समाधिप्रश्नो वा तहहुलेन भवितव्यं, येन सहाधिकरणमुत्पन्नमासीत्तेन सह निर्मलमनसा आलापादि कार्यमिति भावः, अथ दूयोर्मध्ये यद्येक क्षमयति नापरस्तदा का गतिरित्याह-(जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा,जोन उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा) य उपशाम्यति अस्ति तस्याराधना, यो नोपशाम्यति नास्ति तस्याराधना(तम्हा अप्पणा चेव उयसमिय) तस्मात् आत्मना एव उपशमितव्यं,(से किमाहु भंते !) तत् कुतो हेतो हे पूज्य इति पृष्टे गुरुराह-(उयसमसारं खु सामन्नं) उपशमप्रधानं श्रामण्यं श्रमणत्वं, अन दृष्टान्तो यथा ISI-सिन्धुसौवीरदेशाधिपतिर्दशमुकुटबद्धभूपसेव्य उदयनराजो विद्यमालिसमर्पितश्रीवीरप्रतिमार्चनागतनी-IM रोगीभूतगन्धाराद्वार्पितगुटिकाभक्षणतो जाताद्भुतरूपायाः सुवर्णगुलिकाया देवाधिदेवप्रतिमायुताया अप-N हर्तारं मालवदेशभूपं चतुर्दशभूपसेव्यं चण्डप्रद्योतराज देवाधिदेवप्रतिमापत्यानयनोत्पन्नसङ्ग्रामे बध्ध्वा पश्चा-ASE दीप अनुक्रम [३२६] Fur & Fonte ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [५९] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: Jon प्रत सूत्रांक [५९] गाथा II-II प.सबोदागच्छन् दशपुरे वर्षासु तस्थौ, वार्षिकपर्वणि च स्वयमुपवासं चक्रे, भूपादिष्टमूपकारेण भोजनार्थ पृष्टेन तद्दिनापराव्या०९ चण्डप्रद्योतेन विषभिया श्राद्धस्य ममाप्यद्योपवास इति प्रोक्ते धूर्तसाधर्मिकेऽप्यस्मिन्नक्षमिते मम प्रतिक्रमणं क्षमणा न शुद्ध्यतीति तत्सर्वस्वप्रदानतस्तद्भाले मम दासीपतिरित्यक्षराच्छादनाय खमुकुटपदानतश्च श्रीउदयनराजेनस. ५९ ॥१९॥ |चण्डप्रयोतः क्षमितः, अत्र श्रीउदयनराजस्यैवाराधकत्वं, तस्यैवोपशान्तत्वात् । कचिचोभयोरप्याराधकत्वं, तथाहि-अन्यदा कौशाम्च्यां सूर्याचन्द्रमसौ खविमानेन श्रीवीरं वन्दितुं समागच्छतः स्म, चन्दना च दक्षा अस्तसमयं विज्ञाय खस्थानं गता, मृगावती च सूर्यचन्द्रगमनात्तमसि विस्तृते सति रात्रि विज्ञाय भीता उपाश्रयमागत्यर्यापथिकी प्रतिक्रम्य निद्राणां चन्दनां प्रवर्तिनी क्षम्यतां मर्मापराध इत्युक्तवती, चन्दनापि भद्रे! कुलीनायास्तवेदृशं न युक्तमित्युवाच, साऽप्यूचे-भूयो नेदृशं करिष्ये इति पादयोः पतिता तावता प्रवर्तिन्या निद्राऽऽगात्, तया च तथैव क्षमणेन केवलं प्राप्त, सर्पसमीपात् करापसारणव्यतिकरण प्रबोधिता प्रवर्तिन्यपि कथं सर्पोऽज्ञायीति पृच्छन्ती तस्याः केवलं ज्ञात्वा मृगावती क्षमयन्ती,केवलमाससाद, तेनेदृशं मिथ्यादुष्कृतं देयं, न पुनः कुम्भकारक्षुल्लकदृष्टांतेन, तथाहि-कश्चित् क्षुल्लको भाण्डानि काणीकुर्वन् कुम्भकारेण निवारितो मिथ्यादुष्कृतं दत्ते न पुनस्ततो निवर्तते, ततः स कुम्भकारोऽपि कर्करैः क्षुल्लककर्णमोदनं कुर्वन् पुनः पुनः क्षुल्लेन पीडयेऽहमित्युक्तोऽपि मुधा मिथ्यादुष्कृतं ददौ ॥ (५९)॥ (यासावासं पजोसबियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (कप्पा निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तओ उबस्सया enescenessecexercere दीप अनुक्रम [३२६] JanEducationN S For F lutelu -~409 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६०] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक [६०] गाथा II-II गिरिहत्तए) कल्पते साधूनां साध्वीनां च त्रीन उपाश्रयान् ग्रहीतुं (तंजहा) तद्यथा (वेउचिया पडिलेहा) वसतिविजन्तुसंसक्त्यादिभयात् तत्र-त्रिषु उपाश्रयेषु हौ पुनः पुनः प्रतिलेख्यो, द्रष्टव्यौ इति भावः (साइजियाधिः पृष्ट्वा पमवणा) साइजिधातुरास्वादने, ततः उपभुज्यमानो य उपाश्रयस्तत्सम्बन्धिनी प्रमार्जना कार्या, यतो यस्मि- गमनं सू. अपाश्रये साधवस्तिष्ठन्ति तं प्रातः प्रमार्जयन्ति पुनर्भिक्षां गतेषु साधुषु पुनस्तृतीयमहरान्ते चेति वारत्रयं,81६०-६२ ऋतुबद्धे च वारद्वयं, असंसक्तेऽयं विधिः, संसक्ते च पुनः पुनः प्रमार्जयन्ति, शेषोपाश्रयद्वयं तु प्रतिदिन । दृशा पश्यन्ति, कोऽपि तत्र ममत्वं मा कार्षीदिति, तृतीयदिने च पादपोछनेन प्रमार्जयन्तीति, अत उक्तं 'वेउविया पडिलेह'त्ति ।। (६०)॥ SU (वासावासं पज्जोसवियाणं) चर्तुमासकं स्थितानां (निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा) साधूनां साध्वीनां च (कप्पड अन्नयरिं दिसि वा अणुदिसि वा अवगिज्झिय भत्तं वा पाणं वा गवेसित्तए) कल्पते अन्यतरां दिशं-पूर्वादिकां अनुदिशं-आग्नेय्यादिकां विदिशं अवगृह्य-उद्दिश्य अहममुकां दिशं अनुदिशं वा यास्यामीत्यन्यसाधुभ्यः कथयित्वा भक्तपानं गवेषयितुं, (से किमाह भंते!) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य ! इति पृष्टे गुरुराह- उस्सपणं समणा भगवंतो वासासु तवसंपउत्ता भवंति) उस्सन्न'न्ति प्रायः श्रमणा भगवन्तो वर्षासु तपासम्प्रयुक्ताः-प्रायश्चित्तवहनाथ संयमार्थ लिग्धकाले मोहजयार्थ वा षष्ठादितपश्चारिणो भवन्ति (तवस्सी दुबले किलंते मुच्छिज्ज वा पकडिज वा) ते च तपखिनो दुर्वलास्तपसैव कृशाङ्गाश्च अत एव क्लान्ताः दीप अनुक्रम [३२७] Ungton ~410 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६१] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६१] गाथा II-II २० कल्प-सुबो 8सन्तः कदाचिन्मूच्छेयुः प्रपतेयुर्वा (तमेव विसं वा अणुदिसं वा समणा भगवंतो पडिजागति) ततःशकल व्या०९ तस्यामेव दिशि अनुदिशि वा उपाश्रयस्थाः श्रमणाः भगवन्तः सारां कुर्वन्ति-गवेषयन्ति, अकथयित्वा नफलं उप॥१९३॥ गतांस्तु कुत्र गवेषयन्ति ? ॥ (६१)॥(वासावासं पज्जोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (कप्पह निग्ग-संहारो वीथाण वा निग्गंधीण वा ) कल्पते साधूनां साध्वीनां च (जाव चत्तारि पंच जोयणाई गंतुं पडिनियत्तए) रोक्तता वर्षाकल्पौषधवैद्याथै ग्लानसाराकरणार्थ वा यावच्चत्वारि पञ्च योजनानि गत्वा प्रतिनिवर्तितुं कल्पते, न तु तत्रास. १३-६४ स्थातुं कल्पते, स्वस्थानं प्राप्तुमक्षमश्चेत्तदा (अंतरावि से कप्पइ वधए, नो से कप्पा तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए)तस्यान्तराऽपि वस्तुं कल्पते, न पुनस्तत्रैव, एवं हि वीर्याचाराराधन स्यादिति, यत्र दिने वर्षाकल्पादि| लब्धं तद्दिनरात्रि तत्रैव तस्य नातिक्रमयितुं कल्पते, कार्ये जाते सद्य एव बहिर्निगत्य तिष्ठेदिति भावः ॥(६२)018 | (इच्चेयं संवच्छरिअं थेरकप्पं) इतिरुपप्रदर्शने तं-पूर्वोपदर्शितं सांवत्सरिक-वर्षारात्रिकं स्थविरकल्पं ( अहामुत्तं) यथा सूत्रे भणितं तथा, न तु सूत्रविरुद्धं (अहाकप्पं ) यथा अत्रोक्तं तथा करणे कल्पोऽन्यथा खकल्प इति यथाकल्पं, एतत्कुर्वतश्च (अहामग्गं) ज्ञानादित्रयलक्षणो मार्ग इति यथामार्ग (अहातचं ) अत एव यथातथ्यं सत्यमित्यर्थः (सम्म) सम्यम्-यथावस्थितं (कारण) उपलक्षणत्वात्कायवामानसैः (फासित्ता ॥१९३|| स्पृष्ट्वा-आसेव्य (पालित्ता) पालयित्वा-अतिचारेभ्यो रक्षयित्वा (सोभित्ता) शोभिस्वा विधिवत्करणेन (तीरित्ता) तीरयित्वा-यावजीवं आराध्य (किट्टित्ता) कीर्तयित्वा-अन्येभ्य उपदिश्य (आराहिता) २८ दीप अनुक्रम [३२८] २५ For F lutelu ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ....... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६३] / गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६३] गाथा II-II आराध्य यथोक्तकरणेन (आणाए अणुपालित्ता) आज्ञया-जिनोपदेशेन यथा पूर्वैः पालितं तथा पश्चात् कल्पाराधपरिपाल्य (अत्थेगहआ समणा निग्गंथा) सन्त्येके ये अत्युत्तमया तत्पालनया श्रमणा निर्ग्रन्थाः (तेणेवनफल उपभवग्गहणणं सिझंति)तस्मिन्नेव भवग्रहणे-भवे सिद्धयन्ति-कृतार्था भवन्ति (बुझंति) बुद्ध्यन्ते केवलज्ञा-संहारो वी|नेन (मुचंति ) मुच्यन्ते कर्मपारात् (परिनिवायति) परिनिर्वान्ति-कर्मकृतसर्वतापोपशमनात् शीतीभवन्ति रोकता (सबदुक्खाणमंतं करिति ) सर्वदुःखानां शारीरमानसानां अन्तं कुर्वन्ति, (अत्थेगहआ दुचेणं भवग्गहणेणंस.१३-६४ सिझंति जाव अंतं करिति) सन्त्येके ये उत्तमया तु तत्पालनया द्वितीयभवग्रहणे सिद्ध्यन्ति यावत् अन्त कुर्वन्ति, (अत्धेगहआ तचेणं भवग्गहणेणं जाव अंतं करिंति) सन्त्येके ये मध्यमया तत्पालनया तृतीयभवे । यावत् अन्तं कुर्वन्ति, (सत्तट्ट भवग्गहणाई पुण नाइक्कमंति) जघन्ययाऽपि एतदाराधनया सप्ताष्ट भवास्तु पुनः नातिक्रामन्तीति भावः ॥ (१३)॥ अथैतत् न खयुद्ध्या प्रोच्यते किन्तु भगवदुपदेशपारतंत्र्येण इत्याह| (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले-चतुर्थारकपर्यन्ते (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) १० श्रमणो भगवान् महावीरः (रायगिहे नगरे ) राजगृहे नगरे समवसरणावसरे (गुणसिलए चेइए ) गुणशैल-RI नामचैत्ये (बहूणं समणाणं) बहूनां श्रमणानां (बहूणं समणीणं) बहूनां श्रमणीनां (बहूणं सावयाणं) बहूनां श्रावकाणां (बहूणं साबियाणं) बहूनां श्राविकाणां (बहूणं देवाणं) बहूनां देवानां (बहूर्ण देवीणं) बहूनां देवीनां (मज्झगए चेव ) मध्यगत एव, न तु कोणके प्रविश्य प्रच्छन्नतयेति भावः (एबमाइक्खा ) दीप अनुक्रम [३३०] Fur Frately ~412 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [६४] / गाथा । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: श्रीवीरोक्तता प्रत सूत्रांक [६४] गाथा II-II सामनाएषमाख्याति-कथयति (एवं भासह) एवं भाषते वाग्योगेन (एवं पण्णवेइ) एवं प्रज्ञापयति फलकथनेन व्या.९ (एवं परवेइ) एवं प्ररूपयति, दर्पणे इव श्रोतृहृदये सङ्कमयति (पज्जोसवणाकप्पो नामं अज्झयण) पर्युष लणाकल्पो नाम अध्ययनं (सअटुं) अर्थेन-प्रयोजनेन सहित, न तु निष्प्रयोजन (सहेउअं) सहेतुकं, हेतवो ॥१९४॥ निमित्तानि, यथा गुरून पृष्ट्वा सर्व कर्त्तव्यं, तत् केन हेतुना ?, यतः आचार्याः प्रत्यपायं जानन्तीत्यादयो हेत वस्तैः सहित (सकारणं) कारणं-अपवादो यथा 'अंतराऽविय से कप्पईत्यादिस्तेन सहितं (ससुतं)। सूत्रसहितं (सअत्थं) अर्थसहितं (सउभयं) उभयसहितं च (सवागरणं) व्याकरणं-पृष्टार्थकथनं तेन सहित सव्याकरणं (भुजो भुजो उपदंसेइत्ति बेमि) भूयो भूय उपदर्शयति, इत्यहं ब्रवीमीति श्रीभद्रबाहुखामी खशिष्यान् प्रतीदमुवाचेति ॥ (६४) ॥ (इति पजोसवणाकप्पो दसासुअखंधस्स अट्टममज्झयणं समत्तं) इति श्रीपर्युषणाकल्पो नाम दशाश्रुतस्कन्धस्याष्टममध्ययनं समर्थितम् ॥ gatarasvatarvasasatrahaayawasnaserawastsamratatvastrastra इति जगद्गुरुभट्टारकश्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यरत्नमहोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायक श्रीविनयविजयगणिविरचितायां श्रीकल्पमत्रसुबोधिकायां सामाचारीव्याख्यानं सम्पूर्णम् ॥ समाप्तश्चायं सामाचारीव्याख्याननामा तृतीयोऽधिकारः॥ BeastaSER SERSERSERSSERSPRERASERSRESCENSORSend sesuai Reserveersemesteroces दीप अनुक्रम [३३१] BERSERKERS JaMEducutonolmal For F lutelu नवमं व्याख्यानं समाप्तं ~413 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान .......... मूलं | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: म प्रत सूत्रांक प्रशस्ति। गाथा II-II | ॥ अथ प्रशस्तिः-आसीबीरजिनेन्द्रपपदवीकल्पद्रुमः कामदः, सौरभ्योपहृतमबुद्धमधुपः श्रीहीर सूरी श्वरः । शास्त्रोत्कर्षमनोरमस्फुरदुरुच्छायः फलप्रापकश्चश्चन्मूलगुणः सदाऽतिसुमनाः श्रीमान् मरुत्पूजितः ॥१॥ यो जीवाभयदानडिण्डिममिषात् खीयं यशोडिण्डिम, षण्मासान् प्रतिवर्षमुग्रमखिले भूमण्डलेऽवीवदत् । भेजे धार्मिकतामधर्मरसिको म्लेच्छाग्रिमोऽकब्बरः, श्रुत्वा यददनादनाविलमतिधर्मोपदेशं शुभम् ॥ २॥ तत्पट्टोन्नतपूर्वपर्वतशिरःस्फूर्तिक्रियाहर्मणिः, सूरिः श्रीविजयादिसेनसुगुरुर्भव्येष्टचिन्तामणिः । शुभैर्यस्य। गुणैरिवानघ (गुणैर्गुणरिव) घनरावेष्टित: शोभते. भगोलः किल यस्य कीर्तिसुदृशः क्रीडाकते कन्दुका ॥३॥IN येनाकन्वरपर्षदि प्रतिभटान्निर्जित्य वाग्वैभवः, शौर्याश्चर्यकृता वृता परिवृता लक्ष्म्या जयश्रीकनी । चित्रं मित्र! किमत्र मित्रमहसस्तेनास्य वृद्धा सती, कीर्तिः पत्यपमानशङ्कितमना याता दिगन्तानितः ॥४॥ विजय-13 तिलकसूरि रिसूरिप्रशस्यः, समजनि मुनिनेता तस्य पट्टेऽच्छचेताहरहसितहिमानीहंसहारोज्वलश्रीस्त्रिजगति परिवर्ति स्फूर्तियुग यस्य कीर्तिः॥५॥ तत्पट्टे जयति क्षितीश्वरततिस्तुत्याहिपकेरुहः, सूरिरितदुःखवृन्दविजयानन्दः क्षमाभृद्विभुः। यो गौरैर्गुरुभिर्गुणैर्गणिवरं श्रीगौतम स्पर्द्धते, लब्धीनामुदधिर्दधीयितयशाः शास्त्राधिपारं गतः ॥६॥ यच्चारित्रमखिन्नकिन्नरगणैर्जेगीयमानं जगज्जाग्रजन्मजराविपत्तिहरणं श्रुत्वा जयन्तीपितुः। वाञ्छापूर्सिमियति युग्ममथ तल्लेभे सहस्रं स्पृहावयग्यं गुणरागिणोऽग्रिमगुणग्रामाभिरामात्मनः ॥७॥ किञ्च-श्रीहीरसूरिसुगुरोः प्रवरी विनेयो, जातो शुभौ सुरगुरोरिव पुष्पदन्तौ । श्रीसोमसोमविजयाभिध दीप अनुक्रम ... अथ वृत्तिकारः कृता प्रशस्ति: दर्शयते ~414 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक H गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं ८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [-] मूलं [-] / गाथा [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध -अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिःः कल्प. सुबो व्या० ९ ॥१९५॥ वाचकेन्द्र, सत्कीर्त्तिकीर्त्तिविजयाभिधवाचकच ||८|| सौभाग्यं यस्य भाग्यं कलयितुममलं कः क्षमः सक्षमस्य, नो चित्रं यच्चरित्रं जगति जनमनः कस्य चित्रीयते स्म । चक्राणा मूर्खमुख्यानपि विबुधमणीन हस्तसिद्धिर्यदीया, चिन्तारत्नेन भेदं शिथिलयति सदा यस्य पादप्रसादः ॥ ९ ॥ आवास्यादपि यः प्रसिद्धमहिमा वैरङ्गि२. कग्रामणीः, प्रष्ठः शाब्दिकपङ्गिषु प्रतिभटैर्जय्यो न यस्तार्किकैः । सिद्धान्तोदधिमन्दरः कविकलाकौशल्यकी युद्भवः, शश्वत्सर्वपरोपकाररसिकः संवेगवारांनिधिः ॥ १० ॥ विचाररत्नाकरनामधेयप्रश्नोत्तराचद्भुतशास्त्रवेधाः । अनेकशास्त्रार्णवशोधकञ्च यः सर्वदैवाभवदप्रमत्तः ॥ ११ ॥ तस्य स्फुरदुरुकीर्त्तर्वाचकवरकीर्त्तिविजयपूज्यस्य । विनयविजयो विनेयः सुबोधिकां व्यरचयत्कल्पे ॥ १२ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ समशोधयंस्तथैनां | पण्डितसंविग्नसहृदयवतंसाः । श्रीविमलहर्षवाचकवंशे मुक्तामणिसमानाः ॥ १३ ॥ धिषणानिर्जितधिषणाः सर्वत्र प्रसृत (कान्त) कीर्त्तिकर्पूराः । श्रीभावविजयवाचककोटीराः शास्त्रवसुनिकषाः ॥ १४ ॥ युग्मम् ॥ रसनिधिरसशशिवर्षे (१६९६) ज्येष्ठे मासे समुजवले पक्षे । गुरुपुष्ये यत्नोऽयं सफलो जज्ञे द्वितीयायाम् ॥ १५ ॥ | श्रीरामविजयपण्डित शिष्यश्रीविजय विदुधमुख्यानाम् । अभ्यर्थनापि हेतुर्विज्ञेयोऽस्याः कृतौ विवृतेः ॥ १६ ॥ यावद्धात्री मृगाक्षी घरणिधर भर श्रीफलैः पूर्णगर्भ, चञ्चवृक्षोघदर्भ निषधगिरिमहाकुङ्कुमामत्रचित्रम् । जम्बू| द्वीपाभिधानं हिमगिरिरजतं मङ्गलस्थालमेतद्धत्ते तावत् सुबोधा विबुधपरिचिता नन्दतात् कल्पवृत्तिः ॥ १७ ॥ | यावद्व्योमतरङ्गिणी जलमिलत्कल्लोलमालाकुला, दिग्दन्ताचल कीर्णपुष्करकणासेकप्रणष्टश्रमम् । ज्योतिश्चक्रम ४ For Prate & Personal Use Only 415 प्रशस्तिः २० २५ ॥ १९५॥ २८ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र [भाग-8] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं वृत्ति:) ........ व्याख्यान .......... मूलं | गाथा - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्ति:: प्रत प्रशस्तिः सूत्रांक नुक्रमेण नभसि भ्राम्यत्यजनं क्षिती, तावन्नन्दतु कल्पसूत्रविवृतिर्विद्वजनराश्रिता ॥ १८॥ इति श्रीकल्पसुबो- धिकावृत्तिः सम्पूर्णा ।। ग्रन्थाग्रम् (८०५)। नवानामपि व्याख्यानानां ग्रन्थाग्रम् (६५८०) (प्रत्यक्षरं गणनया, ग्रन्थमानं शताः स्मृताः । चतुष्पश्चाशदेतस्या, वृत्ती सूत्रसमन्वितम् ॥१॥) इति श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६१. गाथा II-II दीप अनुक्रम Fur & Fonte मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: “कल्पसूत्र” (विनयविजयजी रचिता सुबोधिका-वृत्तिः) परिसमाप्ता ~416 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजीरचिता वृत्तिः: Jais Education intematonal XXXXXXXXX इति श्रीसुबोधिकानाम्नी कल्पसूत्रटीका समाप्ता । इति श्रेष्ठि- देवचन्द्रलालभाई - जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६१. ~417 Fersonal Use Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: भाग-8 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "कल्पसूत्र” [विनयविजयजी-रचिता सुबोधिका-वृत्ति:] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: - “कल्पसूत्र' मूलं एवं सुबोधिका-वृत्तिः” नाम्ना परिसमाप्त: 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि-2' श्रेणि, भाग-8 ~418 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ਨਾਮ ਦੀ ਕਾਸ਼ ਕਰਨ ਨਾਲ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਹਾਲ ਸ . वाचना शताब्दी वर्ष ਦਾਸ ਨੂੰ ਉ ਵੀ ਸ ਤੋਂ ਵੀ ਤੇ ਤਰਸ ਨਾਲ ਪਾਸ ਭਾਸ਼ ਘਰ ਨੂੰ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसुणस्स सवृत्तिक-आगम-सूत्राणि-2 मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता Ka SONG HIRO पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] randuate Vinyleoniparingeet प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघ में श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म० ही है । इस संघ में पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है। इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है । ऐसे सम्यग् मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है । 421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आगम आगम आगम जामा मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आजम आजम आजमा आजम आजम (दशाश्रुतस्कंधस्य-अष्टम-अध्ययनम्) “कल्पसूत्रं” मूलं एवं वृत्ति: आगम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आगम आजम आगम आजम आजम आगम 422