Book Title: Dvadasharam Naychakram Part 2 Tika
Author(s): Mallavadi Kshamashraman, Sighsuri, Jambuvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो 99 विभाग जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा न निव्वडइ। तरस भुवणेक्क गुरुणो, नमो अणेगंत वायस्स ॥ मार्ग (नेमिः ) ध्या MA प्रथ २ विधिविधिः ३ विध्युभयम् ४विधिनियमः । :31248 ५ उभयम् Sehgthya ६उभयविधिः S ) : (नेमिः ७उभयोभयम् मान rhitthyas १० नियम विधिः ९ नियमः Cउभय नियमः llo Cele): HOME प्रकाशिका-श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर) van Education Internailonal L en Education international withwabinelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ This edition will te of the greatest importance for the study of the older period of Indian Philosophy, which is relatively unknown, because many works have not been preserved. It would be difficult to mention another edition of an Indian philosophical text which has been edited with so much care. Already from the long list of books, consulted by the editor (cf. Part III F), it is obvious that be has spared no pains in preparing this edition. How many works, some only existing in manuscript form, have been consulted by him in order to trace the quotations in the text! The translation of complicated logical text from Tibetan into Sanskrit must have demanded great efforts as the editor states in his introduction : anekavarsani bhrsam parisramyasmabbih sapkalitamidam Bhota parisistam (अनेकवर्षाणि भूषं परि372 TETÀ: loafeg 712 Eer) (P. 40). The reconstruction of the Nayacakram was perhaps even more difficult. In the first place Pratika-s have to be traced in the commentary. In many places the commentator quotes only the first and last words of a passage. Sometimes no explanation is given by the commentator who, in such cases, contents himself with stating that the text is Spastam (स्पष्टम् ) or Sugamam (सुगमम् ). An entirely correct reconstruction of the original is perhaps impossible, as long as to other materials are available. As Frauwallner remarks in his preface the reconstruction has been carefully considered and deserves our full attention. We are looking forward to the sccond volume of this magnum opus which does great honour to the Scholorship of Muni Jambuvijayji. Australian National -- J. W. de Jong University S alon Intemattonel For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानंदजैनथरत्नमालायाश्चतुर्नवतितम रत्नम् तार्किकशिरोमणिजिनशासनवादिप्रभावका वार्य प्रवर - श्रीमल्लवादिक्षमाश्रमण प्रणीत द्वा द शा रं न य च क्रम् आचाय श्रीसिंहसूरिगणिवादिक्षमाश्रमणविरचितया न्यायागमानुसारिण्या । वृत्या समलंकृतम् द्वितीयो विभाग : (५-८ अराः) टिप्पणादिभिः परिष्कृतः संपादक पूज्यपादाचार्य महाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टाल कारपूज्यपादाचार्य महाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्य पूज्यपादमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः प्रकाश प्रापयित्री भावनगरस्था श्रीजैन-आत्मानं दसभा वीरसंवत् २५०२ ईस्वीसन १९७६ विक्रमसंवत् २०३२ आत्मसंवत् ८० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य ग्रंथस्य ३७७-७४४ पृष्ठानि मुबय्यां लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी इत्येताभि : डॉ. एम्. बी. वेलकरवीथ्याम् २६-२८ तमे गृहे निर्णयसागरमुद्रणालये मुद्रापितानि अन्यानि पृष्ठानि भावनगरे श्रीमद् हरिलाल देवच'द शेठ इत्यनेन स्टेशनरोड सुतारवाड्या-आनद प्रिन्टिंग प्रेसे मुद्रापितानि प्रथमावृत्ति: प्रतयः ७५० मूल्य ४० रूप्यकाः स च श्री खीमचंद चांपशी शाह, एम्. ए. निवृत्त प्रमुख, श्री जैन आत्मानद सभा, भावनगर, इत्यनेन प्रकाशितः। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરમપૂજ્ય યુગદિવાકર ન્યાયાભાનિધિ આચાર્ય મહારાજ શ્રી વિજયાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજ (આત્મારામજી મહારાજ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રે * રાત 1ર લાગી હાં પણ - કરી છે ક : પરમપૂજ્ય આગમપ્રભાકર મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri Atmanand Jain Granthamala Serial No. 94 DVĀDASARAM NAYACAKRAM OF Acarya Sri Mallavadi Ksamasramana With the commentary Nyayagamanusarini OF Śrī Simhasuri Gani Vadi Ksamasramana PART II (5-8 Aras ) Edited with critical notes by Muni Jambūvijayaji Disciple of His Holiness Muniraja Šri Bhuvanavijayaji Maharaja Grand Disciple of H. A. Acarya Sri Vijaya Siddhisurisvaraji Maharaja Published by Sri Jain Ātmanand Sabha-Bhavnagar Vira Samvat 2502 A. D. 1976 Vikrama S. 2032 Atma S. 80 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pages 377-744 printed by Laxmibai Narayan Chaudhari, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Dr. M. B. Velkar Street, Bombay 2. Other pages by Shri Harilal D. Sheth at the Anand Printing Press, Bhavnagar. First Edition : 750 Copies Price Rs. 40-00 Published by : Kbimchand Champshi Shab, Ex-President, Shri Jain Atmanand Sabha, Bhavnagar, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Pr_ _ 89) - પૂજ્યપાદ સંધસ્થવિર અ. ભ. શ્રી વિજ્યસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મ. ના પટ્ટાલંકાર પૂ. પા. આ. શ્રી વિજ્યમેધસૂરીશ્વરજી મ. ના શિષ્ય * છે પૂજ્ય ગુરુદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજ્યજી મહારાજ જન્મ : વિ. સં. ૧૫૧, શ્રાવણ વદ ૫, માંડળ. દીક્ષા : વ. સં. ૧૯૮૬, જેઠ વદ ૬, અમદાવાદ. સ્વર્ગવાસ વિ. સં. ર૦૧૫, મહા સુદિ ૮, શંખેશ્વર તીર્થ 62 ) © Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सद्गुरुदेवाय नमः | श्री सद्गुरुः शरणम् ॥ पूज्यपाद अनन्तउपकारी गुरुदेव मुनिराज श्री १००८ भुवनविजयजी महाराज ! बहुपुण्यातिं दत्वा दुर्लभ नरजन्म मे । लालन पालनां पुष्टिं कृत्वा वात्सल्यतस्तथा ॥ १ ॥ वितीर्य धर्म संस्कारानुत्तमांश्च गृहस्थितौ । भवद्भिः सुपितृत्वेन सुबहूपकृतोऽस्म्यहम् ॥ २ ॥ ततेो भवद्धिदीक्षित्वा भगवच्यागवत्मनि 1 अहमप्युद्धृतेा मार्ग तमेवाह्य पावनम् || ३ || ततः शास्त्रोक्त पद्धत्या नानादेशविहारतः । अचीकरन् भवन्तो मां तीर्थ यात्राः शुभावहाः ॥ ४ ॥ अनेकशास्त्राध्ययनं भवद्भिः कारितोऽस्म्यहम् । ज्ञानचारित्रसस्कारैरुत्तमैर्वासितोऽस्मि च ॥ ५ ॥ ममात्मश्रेयसे नित्यं भवद्भिश्चिन्तन' कृतम् । व्यापृताश्च ममोन्नत्यै सदा स्वाखिलशक्तयः ।। ६ ।। ममाविनयदेोषाश्च सदा क्षान्ता दयालुभिः । इत्थं भवदनन्तोपकारैरुपकृतोऽस्म्यहम् मोक्षाध्वरपान्थ ! मुनीन्द्र ! हे गुरो ! वचोऽतिगावः खलु मय्युपक्रियाः । L || 6 || असम्भवप्रत्युपकारसाधनाः स्मृत्वाहमद्यापि भवामि गद्गदः ॥ ८ ॥ हे सत्पुरुष ! सर्वदर्शनसमालोचप्रभाभासुरो विख्यातो नयचक्रमित्यभिधया ग्रन्थो महागौरवः । युष्मत्प्रेरण मार्गदर्शन बलात् सम्पादितोऽयं मया कृत्वा दर्शनशास्त्रबोधममल सम्पद्यतां श्रेयसे ॥ ९ - तत्रभवदन्तेवासी शिशुर्जम्बूमिजयः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX आभारदर्शन परम पूज्य आगमप्रभाकर श्रुतशीलवारिधि मुनिराज स्व. पुण्यविजयजी महाराजश्रीना सदुपदेशथी गोरेगांव(मुंबई)ना श्री जवाहरनगर जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ तरफथी आ ग्रंथ (द्वादशाएं नयचक्रम्-द्वितीयो विभागः) ना प्रकाशन खर्च मां मदद अर्थे रु. ११०००) अगियार हजारनी आर्थिक सहाय अमने मळी छे. आवी उदार सहाय माटे अमे ते श्री संघ अने तेमना ट्रस्टी साहेबाना अंतःकरणपूर्वक आभार मानी छीओ. श्री जैन आत्मानंद सभा-भावनगर. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकनुं निवेदन पूज्यपाद आचार्य महाराज श्रीमद् विजयसिद्धिसूरीश्वरजी दादाना पट्टाल कार पूज्यपाद आचार्य महाराज श्रीमद् विजयमेघसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य पूज्यपाद मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराजना अंतेवासी अने जैन साहित्यना तेमज भारतीय समन दार्शनिक साहित्यना तलस्पर्शी ज्ञाता तथा पोतानी अनुपम विद्वत्तावडे पूर्व तेमज पश्चिमना पौर्वात्य विद्याना विद्वानामां आगवु स्थान धरावनार परम पूज्य मुनिराज श्री जंबूविजयजी महाराज संशोधित अने संपादित महातार्किक, शासनप्रभावक आचार्य प्रवर श्री मल्लवादिसूरीश्वरजी प्रणीत द्वादशार नयचक्रम् नामना उच्च कोटिनो दार्शनिक लुप्तप्राय जेवो आकर ग्रंथ प्रगट करवा अमे भाग्यशाळी थया छीए, ते बाबतमां अमे गौरवनी लागणी अनुभवीए छीए. आ ग्रथना मूळ बार अर छे. तेना अकथी चार अर समावतो पहेलो भाग सं. २०२२मां अमे प्रसिद्ध को हतो. ते वखते पांचथी बार अर एकज भागमा समावी ते बीजा भाग रूपे जेम बने तेम जलदीथी प्रगट करवानी अमारी उमेद हती. पांचथी आठ अर छपाइ गया अने आठमा अर पूरो थतां नवमा अर छापवान काम शरु थयु. परंतु आठमा अरना छेल्ला पाना साथे नवमा अरना सात पानां छपायां पछी ते वखते अचानक अनिवार्य मुश्केलीओ आवी पडी अने दिलगीरी साथे छापकाम मोकुफ राखवु पडयु. आवी परिस्थितिमां जे चार अरो छपाइ गया छे ते वध वखत राखी नमकतां तेनो बीजो भाग तैयार करी विद्वानोना हाथमा मकवो तेवा निर्णय लेवामां आव्यो. ते प्रमाणे आ पांचथी आठ अर समावतो बीजो भाग प्रसिद्ध करीप छीण. नवथी बार अर तथा अन्य उपयोगी परिशिष्टो समावतो त्रीजो भाग जलदीथी प्रगट करवानी अमारी उमेद छे. नवमा अरनां जे सात पानां आ बीजा भागमा आपवामां आव्यां छे, ते फरीथी छापीने वाचकानी सुविधा खातर त्रीजा भागमां नवमो अर पूरेपूरो आपवामां आवशे. आ बीजा भागमा समाविष्ट अरोना परिशिष्टो वगेरे नवथी बार अरोना परिशिष्टो साथे त्रीजो भागमां आपवामां आवशे. आ ग्रंथना प्रथम भागमां अंग्रेजीमां विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना जगतना एक उच्च कोटिना दार्शनिक अने वियेना युनिवर्सिटीमां भारतीय दर्शनशास्त्रो तथा इरानियन तत्त्वज्ञाननी विद्याशाखाना अध्यक्ष विद्वान प्रोफेसर डो. ओ. फ्राउवलनेरे लखी हती. आ बीजा भागन प्रस्तावना पण तेओश्री पासे लखाववानी अमारी उमेद हती. पण गई साले दुर्भाग्ये तेमन शोकजनक अवसान थतां अमारी ते उमेद पूर्ण थई शकी नथी. अमे प्रो. डी. ए. फ्राउवलनेरनी अमारी तरफनी भली लागणीओने याद करी आ तके तेमनी आभार मानीए छीए. आवा धर्म अने संस्कृतिना पायाना ग्रंथो ए आपणा समाजनुं गौरव छे, अने तेमनु प्रकाशन आपणा गौरवशाळी अस्तित्व माटे आवश्यक छे. अमने कहेतां आनद थाय के के Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोरेगांव (मुंबई)ना श्री जवाहरनगर जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संधै रु. ११०००) अगियार हजारनी उदार आर्थिक सहाय आपी आ बीजा भागनु प्रकाशन सुलभ बनाव्यु छे एटलं ज नहीं, पण तेमणे बीजा श्री संघाने शानखातानी रकमोनो सद्उपयोग केम करतो तेनुं सुंदर मार्गदर्शन आप्यु छे. आ भागना मुख्य पाठनां पृ. ३७७ थी पृ. ७४४ सुधीन छापकाम मुंबईना सुप्रसिद्ध निर्णयसागर मुद्रणालये कयु छे अने बाकीचें छापकाम भावनगरना आनंद प्रिन्टींग प्रेसे कयुं छे. भावनगर खीमचंद चांपशी शाह ता. १-२-१९७६ श्री जैन आत्मानंद सभा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD It gives me great pleasure to bring out the Part II of the Dvādasāram Nayacakram of Ācārya Sri Mallavāds with the commentary of Sri Simhasūri by the grace of Arihanta and Gurudeva. The Nayacakram contains twelve Aras i. e. modes of consideration. Of these the first four were published as Part I about nine years ago. At that time it was our intention to publish the remaining eight Aras in one volume as Part II. The Aras from five to eight were printed but then owing to some unforeseen difficulties the Aras from nine to twelve have not been printed as yet. However owing to the pressing demand for publishing the Book, we have decided to publish the Aras from five t eight now as Part II. We hope that the remaining four Aras will be printed and brought out as part III very soon. The Fifth Ara considers both the Vidhi and Niyama i. e. Dravya and Kriya. The Vaiyakaranah follow this. The Sixth Ara considers the Vidhi of both Vidhi and Niyama (i. e. Sāmānya and Visesa). The Vaisesikah follow this. The Seventh Ara considers both the Vidhi and Niyama of both the Vidhi and Niyama. In this Ara old Vaisesika works which are not extant now-a-days, such as Vākya, Bhāsya Tika by Prasastamati and Katandi Tika have been criticized at length. Also in this Ara, the meaning of the WORD is described according to the famous Buddhist Logician, Dinnaga, who is aptly called the Father of the Budhist Logic. In the Eighth Ara, which is the longest of all the Aras, the doctrines of Bhartrhari, his teacher Vasurata, and Dinnāga and his commentators, have been fully repudiated. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 At present almost all the works of Dinnaga have been lost in Sanskrta. But a few have been preserved in the Tibetan and Chinese translations. From the Tibetan translations many important portions have been restored into Sanskrta by me and are given in the foot-notes at the relevant places in this Ara. This restoration of Tibetan portions into Sanskrta will be of great help, we hope, not only to the students of Nayacakram, but also to the students and scholars of many other Indian philosophies to understand the old Buddhist ideas. The Eighth Ara considers the Niyama of both Vidhi and Niyama. With this Ara the second Nemi, containing the Aras from five to eight, is completed. We are highly thankful to the late Professor Dr. Erich Frauwallner, the Head of the Department of Indian Philosophies at the University of Vienna, Austria (Europe), who described in a schoiarly manner the eontents of the first foti Aras in his introduction of the First Part of this work. We had also hoped that he would describe in the similar seholarly way the contents of this part also. But as, we are extremely sorry to say, he ezpired last year, we could not get his valvable introduction for this part. We express our thanks to all those, who have helped us in preparing, printing and publishing this volume. We are very much pleased that this work is being brought out in the 2501 st year from the Nirvana of Lord Mahavira. 1 pay homage at His Feet by this Flower. 15th Aug. 1975 Muni Jambūvijaya Patri Disciple of Muniraja Šrī (Kutch) Bhuvanavijayaji Maharaja For Private & Personal use only . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ हाँ अर्ह श्रीशङ्ख वरपार्श्वनाथाय नमः || आचार्य महाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । आचार्य महाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । सद्गुरुदेवमुनिराज श्री भुवनविजयजीपादपद्मेभ्यो नमः | प्रास्ताविकं किञ्चित् परमकृपालाः परमात्मनः सद्गुरुदेवस्य च कृपया न्यायागमानुसारिण्या वृत्त्या विभूषितस्य आचार्य श्रीमल्लवादिविरचितस्य द्वादशारस्य नयचक्रस्य उभयम् ५ उभयविधिः ६ उभयेोभयम् ७ उभयनियमः ८ इत्यरचतुष्टयात्मकोऽयं द्वितीया विभागो विदुषां पुरतः प्रकाश्यते । आदिममरचतुष्टयं बहोः कालात् पूर्व प्रकाशितम् । मध्यममिदमरचतुष्टयमपि बहोः कालात् प्रागेव मुद्रितम्, तथापि द्वितीयविभागे सम्पूर्ण नयचक्रम् अवशिष्टानष्टावप्यरान्प्रकाशयितुमस्माकं समीहाऽऽसीत्, प्रथमे विभागे प्राक्कथनेऽपि तथैवास्माभिरावेदितम् किन्तु विहितेष्वपि बहुतरेषु प्रयत्नेषु विविधकारणवशादन्तिमस्यारचतुष्टयस्य मुद्रणमद्याबधि नैव सम्पन्नम्, अतो द्राघीयसा विलम्बेन मध्यमारचतुष्टयात्मक एव द्वितीया विभागः सम्प्रति प्रकटीक्रियते । नयचक्रस्य स्वरूपे, भगवतां ग्रन्थकृतां मल्लवादिसूरीणां वृत्तिकृतां सिंहसूरिगणिवादिक्षमाभ्रमणानां च विषये, पतद्ग्रन्थसम्पादनशैल्याश्च विषये यद् वक्तव्यं तत् प्रथमविभागे प्राक्कथने विस्तरेणावेदितमेव । एतद्ग्रन्थसम्पादनाधारभूतानां हस्तलिखितादर्शानां स्वरूपमपि तत्रैब विस्तरेण द्रष्टव्यम् | संक्षिप्तमेव किञ्चित् प्रास्ताविकमत्र लिख्यते । अरचतुष्टयस्य विषयः " ast 'सर्व' द्रव्यमात्रम् ' इति यदुक्त तत् पञ्चमेऽरे निरस्यते, न केवल द्रव्यमेव भावः, क्रियाऽपि भाव, उभयेोरपि भवनाविशेषात् यथा द्रव्यं भवति तथा क्रियापि भवति' इति पञ्चमेऽर उभयनयमत' वैयाकरणसिद्धान्त मनसिकृत्य निरूपित ग्रन्थकृता । अयं नया नैगमदेशः । . " षष्ठेऽरे उभयमयमत मिराकृस्य विधि-नियमयोः सामान्य-विशेषयोः विधिः वैशेषिकमतानुसारेण वर्णितः । अयं नया नैगमैकदेशः । इमे बहू द्रव्यास्तिकनयाः । अतः परं षण्णां पर्य' वास्तिकनयानां प्रारम्भः । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक किञ्चित् . तत्र सप्तमेऽरे वैशेषिकसूत्र-वाक्य-भाष्य-प्रशस्तमतिटीका-कटन्दीटीकाद्यनुसारेण विस्तरेण वैशेषिकमत निरूप्य उभयोभयनयेन निराकृतम् , उभयाविधि-नियमयोः सामान्य-विशेषयाः भवनमभवन चेत्युभयं वर्णितम् । बौद्धमतानुसारेण अपोहः शब्दार्थो वर्णितः। ऋजुसूत्रदेशोऽयं नयः। सप्तमस्य उभयोभयनयस्य मत निराकुर्वता अष्टमेन उभयनियमनयेन ‘भावाभावौ द्वावपि प्रधानौ, भावः प्रधान विशेष उपसर्जनम् , विशेषः प्रधान भाव उपसर्जनम् , उभयमुपसर्जनम्' इति चतुर्यु विकल्पेषु ‘विशेषः प्रधान भाव उपसर्जनम्' इति स्वमत दर्शितम् । 'शब्दस्य कोऽर्थः' इति विचारणायां भर्तृहरेः भर्तृहयुपाध्यायस्य वसुरातस्य च मत नामग्राह विस्तरेण चर्चितम् । ततः परं 'नाम-स्थापना-द्रव्य-भिन्नलिङ्गवाच्येष्टाकरणाद् भावयुक्तवाची शब्दः' इति सिद्धान्तितमनेन शब्दनयानुसारिणा नयेन दिङ्नागेन तट्टीकाकारैश्च बणि तोऽन्यापोहः महता विस्तरेण उपन्यस्य निराकृतः ।। नयोऽय शब्दनयदेशः । विधिनियमयोर्गुणप्रधानभावेन नियमोऽत्र उपदश्यते । अस्मिश्च अष्टमेऽरेऽरचतुष्टयात्मको नयचक्रस्य द्वितीयो मार्गः समाप्यते । ___अष्टमेऽरे मल्लवादिसूरिभिः बौद्धाचार्यदिङ्नागस्य मत विस्तरेण चर्चितम् । दिङ्नागेन च प्रकरणशतं रचित मिति श्रूयते । प्रायः सर्वेऽपि तस्य ग्रन्थाः संस्कृतभाषायां चिराद् विनष्टाः, तेषु केवलं कतिपयानामेव ग्रन्थानां भोट [Tibetan ] भाषायां चीनभाषायां चानुवादाः पुरातने काले विहिताः सम्प्रति उपलभ्यन्ते । अष्टमेऽरे चर्चित दिङ्नागमत प्रमाणसमुच्चयाख्ये सवृत्तिके तदीये ग्रन्थे भूयसांऽशेन विद्यत इति ज्ञात्वा देवगुरुकृपया भोटभाषामधीत्य दुर्लभतमांश्च भोटभाषामयान् ग्रन्थान् देशान्तरेभ्यो लब्ध्वा भूयसा परिश्रमेण सम्पादितोऽस्याष्टमोऽरः, मोटग्रन्थेभ्यः संस्कृतभाषायां परिवर्तन विधाय प्रमाणसमुच्चयस्य, तद्धृत्तः, जिनेन्द्रबुद्धिविरचिताया विशालामलवत्याश्च तट्टीकाया अनेऽशाष्टिप्पण्यां तत्र तत्रोपन्यस्ता अस्माभिः । ___ न केवल जैनतक ग्रन्थाध्येतृणां, बौद्ध-न्याय-वैशेषिक-मीमांसादिदर्शनाध्येतृणामपि सहिप्पणोऽयमष्टमोऽरो नितान्तमुपयोगी भविष्यतीत्याशास्महे । _अवशिष्टमरचतुष्टयं शीघ्र मुद्रापयित्वा प्रकाशयितुं प्रयत्यते, परमात्मनः कृपया तदपि शीघ्र मुद्रित प्रकाशितं च भवेत् । उपकारस्मरणम् आगमप्रभाकरैः स्व० मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महोदयैरेतद्ग्रन्थसम्पादने प्रेरणया बहुविधदुर्लभसामग्रीप्रदानेन एतद्ग्रन्थप्रकाशनब्यवस्थाविधानेन च महत् कार्य" बिहितम् । स्व० एरीख फाउवाल्नर [Prof. Dr. Erich Frauwallner, Vienna, Austria, Europe]पण्डितश्री वासुदेव विश्वनाथ गोखले [ Poona]-पण्डित हिदेनेरी कितागावा [Prof. Dr: Hidenori Kitagawa, Nagoya University, Nagoya, Japan) इत्येमिर्षिषिधभोड Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकं किञ्चित् ग्रन्थप्रदानेन उपयोगिविविधसूचनाभिर्वा अत्र बहु साहायक विहितम् । निर्णयसागर. मुद्रणालयस्य पण्डितैः 'पं. नारायण राम आचार्य' एभिश्च शास्त्रिमहोदयैरस्य मुद्रणादौ महता परिश्रमेण प्रभूत प्रभूत साहायकमनुष्ठितम् ।। - गुरुदेवस्तुतिरूपं श्लोकनवकं न्यायविशारदन्यायतीर्थस्व०मुनिराजश्रीन्यायविजयजी महोदयः संस्कृते विरचितम् । पते सर्वेऽपि महानुभावा धन्यवादमर्हन्ति । गुरुदेवचरणेषु प्रणिपातः सम्पूर्णस्पास्य ग्रन्थस्य संशोधने सम्पादने च प्राणरूपा सर्वरूपेण सहायकाश्च मम गुरुदेवाः पितृचरणाश्च मुनिराजश्री१००८ भुवनविज्यजीमहाराजाः । परमपूज्यानां परमाराध्यानां प्रातःस्मरणीयानाममीषां गुरुदेवानां कृपया साहाय्येनैव च कार्य मिदं सम्पन्नमिति भूयो भूयो गुरुदेवानां चरणेषु प्रणिपात करोमि । प्रभुपूजनम् अनन्तोपकारिणः शासनपतेः परमाराध्यस्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चरणेषु अनन्तशो वन्दनापूर्वकं २५०१ वीरनिर्वाणसंवत्सरे-ग्रन्थमिमम समर्पयन् परमं हर्षमनुभवामि । वीरनिर्वाणसंवत् २५०१ विक्रमसंवत् २०३१ वैशाखशुक्लदशमी प्रभुश्री महावीरस्वामिकेवलज्ञानकल्याणकदिनम् । भद्रेश्वरतीर्थम् (कच्छ) -इत्यावेदयति पूज्यपादाचार्य महाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टशिष्यपूज्यपादाचार्य महाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवन विजयान्तेवासी मुनिजम्बूविजयः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ ही अहं श्री शङेखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ आचार्य महाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । आचार्य महाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः। . सद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः .. प्रास्ताविक परम कृपाळु जिनेश्वर परमात्मा तथा सद्गुरुदेवनी कृपाथी आचार्य श्री मल्लवादिविरचित द्वादशार नयचक्रनो 'उभयम् ५, उभयविधिः ६, उभयोभयम् ७, उभयनियमः ८, आ चार अरनो बनेलो बीजो विभाग प्रकाशित करतां अमे अति आनंद अनुभवीए छीए. प्रारभना चार अरनो बनेलो प्रथम विभाग घणा समय.पूर्वे प्रकाशित थई गयो छे. आ मध्यम चार अर पण घणा समय पूर्व छपाई गया हता. बीजा विभागमां संपूर्ण नयचक्रनेबाकी रहेला आठेय अरोने-प्रकाशित करवानी अमारी धारणा हती. प्रथम विभागनी प्रस्तावनामां अमे आ वात जणावी पण हती. छतां अनेक कारणाने लीधे छेल्ला चार अरनुं मुद्रण हजु सुधी थई शक्यु नथी. एटले जेटल छपाई गयं छे तेटल' शीघ्र प्रकाशित करवाना उद्देशथी मात्र वचला चार अरनो बनेलो आ बीजो विभाग प्रकाशित करवामां आवे छे. छल्ला चार अरना शीघ्र मुद्रण माटे अमारा प्रयत्न चालू छे. देवगुरुनी कृपाथी ए पण शीघ्र मुद्रित-प्रकाशित थई वाचकाना हाथमां आवशे एवी अमे आशा राखीए छीए । नयचक्रनु स्वरूप केवु छे ते संबंधमां, मूल ग्रंथकार आचार्य भगवान् मल्लवादी तथा टीकाकार सिंहसूरिगणिवादि क्षमाश्रमणना संबंधमां तेमज आ ग्रंथनी संपादनशैलीना सबंधमा प्रथम विभागनी प्रस्तावनामां अमे विस्तारथी जणाव्युछे. आ संपादनमा आधारभूत मुख्य बे प्रति-एक आचार्यश्री धर्म मूर्तिसूरिजीए लखावेली प्रति तथा बीजी वाचकप्रवर उपाध्यायश्री यशोविजयजी महाराजे बीजा अनेक मुनिवरो साथे मळीने (पखवाडियामांज १८००० श्लोक जेटली) लखेली प्रति-तथा उ० यशोविजय महाराजे लखेली प्रति उपरथी लखायेली प्रतिओनो परिचय प्रथम विभागनी प्रस्तावनामां विस्तारथी आपवामां आवेलो छ । जिज्ञासुओने त्यां जोई लेवा विनति छ । ५ थी ८ अरोनो विषय 'द्रव्य ज परमार्थरूप छे' एवं चतुर्थ अरनु मन्तव्य छे. तेनु खंडन करीने 'द्रव्य तथा क्रिया बने स्वतंत्र रीते पदार्थ छे' आQ उभयनयनु मन्तव्य वैयाकरणोना बिचारोने आधारे ग्रंथकारे पांचमा उभय अरमां वर्णव्यु छे । आ उभय नय नैगमनयनो एकदेश छ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक छट्ठा उभयविधि अरमां उभय नयनु खंडन करीने वैशेषिक मतने अनुसारे उभयनोविधि-नियमनो सामान्य विशेषनो उत्सर्ग -अपवादनो विधि स्वीकारवामां आव्यो छे । आ विचारधारानु मूळ आगमग्रंथोमां क्यां मळे छे ते जणावतां जीवाजीवाभिगमसूत्रना एक पाठ अरना अंतमां उध्धृत करवामां आव्यो छे । आ नय नैगमना भेद छ । प्रारंभना छ अरो द्रव्यास्तिक होवाथी छ द्रव्यास्तिक नयोन वर्णन अहीं पुरु थाय छे । हवे पछी पर्यायास्तिक नयना छ अर शरु थाय छ । सातमा अरमां वैशेषिकसूत्र, ते उपरनु वाक्य, ते उपर भाष्य, ते उपर प्रशस्तमतिए रचेली टीका तथा वैशेषिकसूत्र उपर रचायेली कटन्दी नामनी टीकार्नु विस्तारथी ख डन करीने विधि-नियमना सामान्य-विशेषनो भाव तथा अभाव बने छे' आ रीते सातमा उभयोभय नये पोताना मसनी स्थापना करी छ । वैशेषिकसूत्र उपरनी वाक्य आदि व्याख्याओ सेंकडो वर्षाथी 'नामशेष थई गई छे, तेथी नयचक्रमा आवता उल्लेखो तिहासिक दृष्टिए घणा ज महत्त्वना छ । वैशेषिकसूत्र उपरना रावणभाष्यनु बीजु नाम कटदी छे एम पण केटलाकनुं मानवु छे । आ नय ऋजुसूत्रनो भेद छे अने तेना मते अन्यापोह शब्दार्थ छ । आठमा उभयनियम अरमां ‘विधि गौण छे, नियम मुख्य छे' आ रीते उभयनो-विधि नियमना नियम स्वीकारवामां आव्यो छे । अने सातमा अरनु विस्तारथी खंडन करवामां आव्यु । नाम, स्थापना, द्रव्य आदि समर्थ न होवाथी 'शब्द भाववाची छे' एम शब्दनयने अनुसारे जणावेलु छे । शब्दार्थनी चर्चामां भर्तृहरि अने तेना उपाध्याय (अध्यापक गुरु ) वसुरातनो ते नाम पूर्वक करेला उल्लेख तथा तेना मतनी विस्तारथी चर्चा मैतिहासिक दृष्टिले खास ध्यान खेचे छ । दिइनाग तथा तेना ग्रंथना टीकाकारोए वर्णवेला 'अन्यापोह' शब्दार्थना खंडन-मडनमां आ अरनो घणो मोटो भाग रोकाएलो छ । नयचक्रना बधा अरोमां आ सौथी मोटो अर छ । आ आठमा अर शब्दनयनो मेद छे ते पूरो थाय एटले उभय नयना भेदो पूर्ण थाय छे तथा नवचक्रनो ५ थी ८ अरनो बनेला बीजो मार्ग (नेमि) पण पूर्ण थाय छे । आठमा अरमां बौद्धाचार्य दिङ्नागना मत अन्यापोह विषे घणा ज विस्तारथी चर्चा छ । दिङ्नागे नाना-मोटा से प्रकरणग्रंथो रचेला हता ओवी अनुश्रुति छे। तेमांना लगभग बधा ज ग्रंथो संस्कृतमा अत्यारे नष्ट थई गया छे । काईक काईक ग्रंथोनां टिबेटन तथा चीनी भाषामां से कडो वर्षा पूर्वे थयेला अनुवादा मळे छे । आठमा अरमां आ. श्रीमल्लवादीए जे चर्चा करेली छे ते प्रमाणसमुच्चय नामना दिङ्नागना ग्रंथमां मळे छे एवं अमारा जाणवामां १. जुश्री पृ. ४९८ टि. ११, पृ. ५१२ टि. ७ वगेरे । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक आव्यु, प्रमाणसमुच्चय ए बौद्धाचार्य दिङ्नागनो सौथी महत्त्वना सारग्राही दार्शनिक ग्रंथ गणाय छ । प्रमाणसमुच्चय उपर दिङ्नागे स्वोपज्ञ वृत्ति लखेली छे, ते बघा उपर जिनेन्द्रबुद्धिए विशालामलवती नामनी मोटी टीका लखेली छे, आ बधानां लगभग सातसाआठसो वर्षा पूर्वे थयेलां टिबेटन भाषांतरो (टिबेटने ‘भोट' देश कहेवामां आवे छे, पटले भोट भाषांतरो) मळे छ । तेथी टिबेटन भाषानो देव-गुरुनी परम कृपाथी अभ्यास करीने, टिबेटन भाषाना अत्यंत दुर्लभ ते ते ग्रंथोने अमेरिका, इंग्लेन्ड युरोप तथा जापानमांथी माइक्रोफिल्म-फेाटा आदि रूपे मेळवीने, ते ते टिबेटन भागोनो संस्कृतमां अनुवाद करीने नयचक्रना आठमा अरने विशद करवा अमे प्रयत्न को छे, ते ते टिबेटन अंशोनो संस्कृतमां करेलो अमारो अनुवाद आठमा अरमां 'टिप्पणामां ते ते स्थळे स्थळे आपेलो के के जेथी नयचक्रना ते ते अंशो शुद्ध अने स्पष्ट रीते समजी शकाय । मात्र जैन दर्शनशास्त्रना अभ्यासीओने ज नहि, परंतु बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि दर्शनाना प्राचीन ग्रंथोना अध्ययनमां के ज्यां ते बौद्धसिद्धांतनी चर्चा आवे छे त्यां आ आठमा अर अने तेनां टिप्पणो घणां उपयोगी थशे एवी अमने श्रद्धा छ । आगमप्रभाकर स्व. मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराजे आ ग्रंथना संपादन माटे प्रेरणा करीने, तेमज संपादन उपयोगी विविध दुर्लभ सामग्री पूरी पाडीने तथा आ ग्रंथना प्रकाशन अंगेनी वधी व्यवस्था करीने घणी ज 'महत्त्वनी कामगीरी करी छे । खरेखर आ ग्रंथ संशोधन, संपादन अने प्रकाशन एमने आभारी छ । वियेनानी युनिवर्सीटिना प्राध्यापक महान् दर्शनशास्त्री स्व. डॉ. एरीखू फाउवाल्नर [Prof. Dr. Erich Frauwallner, Vienna University, Vienna, Europe ], प्राध्यापक श्री वासुदेव विश्वनाथ गोखले [पुना], प्राध्यापक हिदेनारी कितागावा [ Prof. Dr. Hidenori Kitagawa, Nagoya University, Nagoya, Japan ]-आ महानुभावार टिबेटन ग्रथो अगे विविध सूचना द्वारा अथवा टिबेटन ग्रंथो मने मेळवी आपवामां घणी ज सहाय करेली छ । निर्णयसागर मुद्रणालयना पंडित शास्त्रीजी श्री नारायण राम आचायें आ प्रथना अत्यंत जटिल मुद्रणमां खूब ज सहाय घणा प्रेम अने घणी ज काळजीथी करी छ।। १. पृ. ६०७-६०९, ६१४, ६१७, ६२९-६३३, ६३८-६४०, ६५०-६५१, ६६३, ६८३६८५, ७०१, ७२४-७२९ । १. विषयानुक्रममां कईक विस्तारथी आ वात जणावेली छे, जेथी ते ते विशिष्ट स्थानो शोधवामा अभ्यासीओने सरलता रहे । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक गुरुस्तुतिनां ९ श्लोकानु संस्कृतमां सुंदर आयोजन न्यायविशारद न्यायतीर्थ स्व० मुनिरानश्री न्यायविजयजी महाराजे करी आपेलु छे । आना प्रकाशनमां जैन आत्मानंद सभाना प्रमुख शाह खीमचंदभाई चांपशीभाई तथा अन्य कार्यवाहको घणो घणो रस लीधेलो छ । आ ग्रंथना संशोधन तथा सम्पादनमा प्राणरूप अने सर्व रीते सहायक पूज्यपाद मुनिराजश्री १००८ भुवनविजयजी महाराज के के जेओ मारी पूर्वावस्थाना परमपूज्य पिताश्री तथा अत्यारे श्रमण अवस्थामां मारा तारक गुरुदेवश्री छे । परम पूज्य गुरुदेवश्रीना शंखेश्वरजी तीर्थमां (विक्रम सं. २०१५, माह सुदि ८ मे) स्वर्गवास थयो त्यां सुधी पृ० ५५२ सुधी आ ग्रंथ छपाई गयो हतो, संपूर्ण ग्रंथर्नु संशोधन अने संपादन तो तेथी पण घणा समय पूर्वे थई गयु हतुं । आ ग्रंथना संशोधन, संपादन अने मुद्रण समये तेओश्रीए जे चिंता अने परिश्रमो कर्या छे तेनु वर्णन शब्दो द्वारा माराथी थई शके तेम ज नथी । आ बधा प्रसंगानु स्मरण करतां गुरु परमात्माना चरणोमां हृदय प्रणिपात पूर्वक झुकी जाय छ । अनंत उपकारी शासनपति परमाराध्य चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् श्री महावीरप्रभुना करकमलमां प्रभुकृपाथी ज तैयार थयेला आ ग्रंथर्नु-वीरनिर्वाणसंवत् २५०१ मां-समर्पण करीने अने ए रीते प्रभुपूजन करीने अत्यंत आनंद अनुभवु छु। वीरनिवांगसंवत् २५०१ विक्रमसंवत् २०३१ ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी, जेठ वदि ६ पत्री (कच्छ) -निवेदक पूज्यपादाचार्य महाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टशिष्यपूज्यपादाचार्य महाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजय Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिण्या वृत्त्यालङ्कतस्य सटिप्पणस्य नयचक्रद्वितीयविभागस्य विषयानुक्रम : विषयः पृष्ठम् विषयः पृष्ठम् • ५ पञ्चम उभयारः ० ३७७-४१५ पतञ्जल्यभिहितक्रियालक्षणखण्डनम् ४११-४१४ एकान्तेन द्रव्यमेव न भावः, उभयनये पदार्थादिनिरुपणम् ४१५ किन्तु द्रव्य क्रिया चोभयं ० ६ उभयविध्यरः ० ४१६-४५४ भाव इति प्रतिपादनम् ३७७-३७९ द्रव्य-क्रियाद्वयखण्डनम् ४१६-४१७ द्रव्य-क्रियैकान्तवादनिरसनम् ३८०-३८२ उत्पाद-विनाशैकाधिकरण्ये दोषाः ४१८-४२३ द्रव्य-क्रियोभयार्थप्रतिपादनम् ३८२-३८४ उत्पाद-स्थित्यैकाधिकरण्ये दोषाः ४२३-४२६ द्रव्य-क्रिययोभिन्नत्वसाधनम् ३८५-३८७ उत्पाद-विनाश-स्थितीनामैकाधिद्रव्यस्य त्रैकाल्यम् २८७-३८८ करण्ये दोषाः ४२७-४२९ नित्यस्य द्विविधत्वम् ३८८-३८९ कारणकार्य नानात्वम् ४३०-४३४ सर्वस्य द्रव्य-क्रियोभयात्मकत्वम् ३९०-३९२ सत्कार्यवादिकृताक्षेपनिरसनम् ४३५ क्रियानित्यत्वे मेदज्ञान सर्व वादनाथानेकान्तवादाश्रयणम् ४३६ व्यवहारोपपादनम् ३९३-३९४ विधि-नियमविधिस्वरूपम् ४३७ द्रव्य-क्रियामिधाने आनर्धक्य वैयाकरणाभिमतद्रव्य-क्रियानिरासः ४३८- ४४२ पौनरुक्त्यपरिहारः ३९५-३९९ उभयविधिमतनिरूपणम् ४४३-४४६ [प्रत्यन्तरापेक्षयात्यन्त व्यवस्थितो उभयविधिनये शब्दार्थ-वाक्यार्थौ ४४६-४५० मा० प्रतौ पाठः ३९७-३९९] भवनस्य द्रव्यक्रियारूपत्वाभिधानम् ३९९. [वाक्यपदीये पदार्थस्वरूपम्-टि०] ४४६-४४८ प्रवृत्तिसामान्यस्य क्रियात्वसाधनम् ४००-४०१ [वाक्यपदीयेऽष्टौ वाक्य मालवनगरे सप्त वर्ष शतानि आम विकल्पा:-टि.] स्यैव घटस्य प्रदर्शनम् ४०१-४०२ एतन्नयनिर्गमसूत्रम् ४५०-४५३ गतिनिवृत्तेर्भावत्वोपपादनम् ४.२-४०५ षण्णां नयानां द्रव्यास्तिकमेदत्वम् ४५४ खपुष्पाधसत्तावाचिशब्दानां ० ७ सप्तम उभयोभयारः ० ४५५-५५२ भावार्थत्वम् ४०५४०६ पर्यायास्तिकनयेन पूर्व नयदूषणप्रवृत्तिसामान्यस्य क्रियात्वम् ४.७-४०८ प्रारम्भः द्रव्यक्रिययोरन्यत्वम् ४०९-४१० सत्तासमवायनिराकरणम् Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठम् विषयः पृष्ठम् वैशेषिकसूत्रस्य कटन्यां टीकायां सत्तानिराकरणम् ५२०-५२३ निर्दिष्टस्य पूर्व पक्षस्य समर्थनम् ४५८-४६० द्रव्यादीनां स्वतः सत्त्वम् प्रशस्तमतिमतखण्डनम् .. ४६०-४७० समवायस्यैकत्वे दोषप्रदर्शनम् ५२३-५२७ [मालवनगरे सप्तसु वर्षशतेष्वपि [प्रशस्तपादभाष्य-तत्त्वसंग्रहव्यतीतेषु स एव घटो वर्तत इति पञ्जिकान्तर्गतः समवायवर्णनम्] ४६८ विचारः-टि०] ५२४-५२५ सत्तासमवायनिराकरणम् ४७१.-४७३ ।। प्रशस्तमतिमतखण्डनम् सत्ताया असत्सत्करत्व-सत्सत्कर समवायनिरासः ५३५ त्वयोनिरासः ४७३-४८७ उभयोभयनयस्वरूपम् सत्तायाः सदसत्सत्करत्वनिरासः ४८७ वस्तुनो भावाभावात्मकत्वम् ५३६-५३८ सदसदैकात्म्योपपादनम् ४८७-४९० भावाभावान्यतरैकान्तवादनिरासः ५३९ वैशेषिकेण स्याद्वादे दूषणाभिधानम् ४९०-४९१ परस्परावबद्धभावाभावत्वसाधनम् ५४०-५४३ स्याद्वादे दूषणपरिहारः ४९१-४९५ लोकवादे क्रियाऽभावप्रदर्शनम् ५४४-५४६ वैशेषिकसूत्रस्य टीकायां प्रशस्त अन्यापोहः शब्दार्थः ५४७ मतौ निर्दिष्टानां स्याद्वाददोषाणां -बोद्धाचार्य दिश्नागमतस्योल्लेखः परिहारः ४९५-४९८ [दिनागमतस्य विस्तरेण कटन्दीकारविहिताक्षेपनिरासः ४९८-५०३ निर्देशः-टि०] ५४७-५४८ प्राग् निष्पत्तेरसत्कार्यवादनिरासः ५०४-५०७ प्रतिभावाक्यार्थः ५४८-५४९ निष्ठा-सम्बन्धयोरेककालत्वादिति ऋजुसूत्रदेशत्वात् पर्यायास्तिकत्वम् ५४९ वाक्ये दोषाः ५०८-५१२ पर्यायास्तिकशब्दार्थः ५५० वैशेषिकसूत्रस्य वाक्यस्य भाष्यस्य आर्षे निबन्धनम् ५५०-५५१ प्रशस्तमतिरचितटीकाया उल्लेखः ५१२-५१३ ०८ अष्टम उभयनियमारः ० ५५३-७३७ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ५१४-५१५ पूर्व नयमतदूषणम् ५५३-५५५ वैशेषिकसूत्र-वाक्य-भाष्य स्वसम्मतोभयनियममतवर्णनम् ५५६ नामद्रव्यार्थभवनवादिनः पूर्व पक्षः ५५७-५६० प्रशस्तमतिटीकाकृतां मतस्य नामद्रव्यार्थ नयमतम् ५६०-५६६ निरासः नामद्रव्याथनयनिरासः ५६७-५७९ वैशेषिकमतखण्डनम् [धैयाकरणमतखण्डनम् ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठम् विषयः पृष्ठम् लिङ्गाद्यभेदे तन्त्रार्थ संग्रहोल्लेखः ५७९ भोटभाषानुवादानुसारेण संस्कृते एकशब्दस्यानेकार्थत्वे उदाहरणत्वेन परिवति'ताः कतिपया अंशाः 'वार-दिगू-भू-रश्मि-व्रजेषुपश्वक्षि -तत्सम्बद्धाश्च केचिदन्ये स्वर्गवारिषु । दशस्वर्थेषु मेधावी पाठाः -टि०] ६०७-६०९, गोशब्दमुपधारयेत् ॥' इति श्लोक ६११-६१४, स्योपन्यासः ५७९ ६१७-६१८, वाक्यपदीयानुसारेणाभिजल्पस्य ६२३-६२९-६३४, शब्दार्थत्ववर्णनम् ५८०-५८१ ६३७-६४०, ६५०, भर्तृहरेः, म हयुपाध्यायस्य ६५१, ६६३, ६६५, वसुरातस्य च मतम् ५८१-५८३ ६७८-६८०,६८३भर्तृहरिमतनिरासः ५८३-५९४ ६८५,७०१-७०२, ७२४-७२९, ७३१, [आचार्य सिद्धसेनवचनोद्धरणम् ] ५८८ ७३३-७३४ भर्तृहयुपाध्यायस्य वसुरातस्य [दिङ्नागवचसा आप्तमीमांसायामते दोषोपदर्श नम् स्तुलना-टि०] शब्दनयस्य मतम् दिङ्नागरचितग्रन्थस्योपरि आचार्य सिद्धसेनस्य सम्मति भाष्यस्य टीकायाश्चोल्लेखः ६१८, ६२८ प्रकरणान्तर्गतगाथाया उद्धरणम् ५९६ दिङ्नागरचितग्रन्थस्य टीकास्थापनाद्रव्यार्थनयस्वरूपम् ५९६-६०२ काराणामुल्लेखः शब्दनयानुसारेण भावनिक्षेपवर्णनम् ६०२-६०४ ६२१ शब्दनयानुसारेण असत्योपाधि 'सामान्यपरीक्षा'कारस्य उल्लेखः ६२८ सत्यस्य शब्दार्थत्ववर्णनम् ६०४-६०५ सटीको दिङ्नागस्य ग्रन्थः ६५२-६५३ बौद्धाचार्यादिङ्नागप्रणीतस्य भा० प्रतावेव विद्यमानो अन्यापोहवाइस्य निरासः ६०६-७३५ विशिष्टः पाठः ६६०-६६१ [दिङ्नागविरचितस्य सवृत्तिकस्य दिनागरचितग्रन्थस्य टीकात प्रमाणसमुच्चयस्य जिनेन्द्रबुद्धि उद्धृतः पाठः ६६२ विरचितायास्तट्टीकाया द्वितीय भा० पा० प्रत्यारत्यन्त व्यवः वतीय-पश्चम परिच्छेहानां स्थिता पाठ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः ७३७ विषयः पृष्ठम् विपयः पृष्ठम् सभाण्याद् दिङ्नागरचितप्रन्था संघातः शब्दार्थः, पदसमूहो दुद्धृतः पाठः ६७८ वाक्यम् ७३६ वादविधिकारस्योल्लेखः ६८० शब्दनयैकदेशत्वात् पर्यवास्तिदिन्न-वसुबन्धु-बुद्ध-कापिल कत्वम् तन्त्राणामुल्लेखः उभयनियमनयस्य आष दिङ्नागरचितग्रन्थस्य भाष्यात् निर्गमवाक्यम् ७३७ टीकायाश्चोद्धृतः पाठः ७१८ नयचक्रे वृत्तौ वा पञ्चम-षष्ठ-सप्तमा-ऽष्टमारेषुल्लिखितानां वाद-वादि ग्रन्थ-ग्रन्यकृन्नाम्नां सूचिः अक्षपाद ६६७ भर्तृहरि अनेकोन्तवादी ५०१ भर्तृहयु पाध्याय वसुरात ५८१, ५९५ आचार्यसिद्धसेन ५८८, ५९६ भाष्य (दिनागरचितग्रन्थस्य) ६२८, ६७८, आन्यापोहिक ६८०, ६८३ ६९०, ७१८ आहेत ६९८ भाष्य (वैशेषिकसूत्रस्य) ५१२, ५१३, कटन्दी टीका (वैशेषिकसूत्रस्य) ४५८, ४९८, ४९९ भाष्यकार (पाणिनीयव्याकरणस्य) ४१२ कापिलतन्त्र भाष्य ( ३९७ गौतम इन्द्रभूति गणधर वसुबन्धु जैन ४९७ वाक्य (वैशेषिकसूत्रव्याख्या) ५१२, ५१३, जैनेन्द्र ४९०, ६९८ टीका (दिनागरचितग्रन्थस्य) ६१८, ६२८, वादविधिकार ६८० ६३२, ७१८ वैशेषिक ३८८, ३८९, ४५९, टीकाकार ४९५, ४९७, ५०४, टीकाकार (वैशेषिकसूत्रस्य) तत्रा(न्त्रा)र्थसङ्ग्रह ५७९ व्याकरण दिन्न साय दुवालसंग गणिपिडग सामान्यपरीक्षाकार ६२८ नयचक्रकार सिद्धार्थ मुतमत प्रशस्तमति ४६१, ४९२, ५१२, ५१७ सूत्रकार (वैशेषिक) प्रशस्तमतिटीका ४९५ सैद्धार्थीय बुद्ध स्याबाद ५०२ ५१७ ५८० ७३७ सामान्य Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचऋद्वितीयविभागस्य शुद्धिपत्रकम् ब्रमः पृ० पं. मुद्रितम् शुद्धम् पृ० ५० मुद्रितम् शुद्धम् ३९१ १७ २यदात्मा- २यदात्मा ,, २६ शाना विज्ञाना ४०० ३० २९२-२ ,, २७ निर्गता(तोऽ) निःसृत्योऽ ४०८ १५ आवनि आवनि०७५५ ४३२ २८ पं० १ पं० २ ४०८ ३० २२२ ७५५ ४३५ २१ घटादेः घटादेन ४०८ ३० २२३ ७५६ ४३७ २९ दृश्यतां दृश्यतां पृ०२७१ ४१५ ८ आख्यात "आख्यात पं०१४ साव्ययकारक साव्ययकारक ४४८ १५ वाचकट वाचकत्वं वाक्यमेकमिति [विशेषण] , २१ लक्षण लक्षणवाक्यम् , वाक्यमेकति" ४५५ ८ ब्रमः [पा० वा०२।१। , २० २५० ९॥ २॥ १ लि ४५६ ८ 'श्रयन्त्वा श्रयन्त्या , वाक्यम्। ८ ताकिङ्करत्वं तार्किकत्व ४१६ १७ "द्रव्यस्यैव "द्रव्यस्य , २७ भा०। (परमत- भा० । 'किंकरत्वं ४१६ २५ वेदा' य०।। वेदा भा०। किङ्गरत्व?)॥ य० ॥ ४२८ ३१ अष्टमारे। अष्टमारे पृ० ४६१ १७ मतिना 'म तिना ६६६-६६७। ४६२ ८ चेत्, ४२९ २१ ९।२।१। । ६।२।१। ४६४ १७ 'असत् 'असत्' , २३ ९।२।२।। ६।२।२। ४६९ २६ सम्बन्धः सम्बन्धः। , २४ वासोऽ वासो नियम चेत् ,...... पूर्वोऽ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० प० मुद्रितम् ११ ३ २१ १ प्रशस्तमतेरभिप्राय इति भावः ॥ ५१७ 93 33 35 ५४८ ११ [ वाक्या' ५७३ १२ काल " "" 35 Page Line 10 पृ० ११ १२ 93 53 91 १ २७ 95 १३ * Printed 15 schoiarly 16 eontents foti "" 6 x 2 x 0 m of = 30 पं० १२ 'प्राशस्त १ ५७९ ५ वाग्दिग्भूरश्मि #वाग्दिग्भूरश्मिवजेषुपश्यक्षिस्वर्ग' वारिषु । अभिधर्मकोशभाष्ये [२ । ४७] वसुबन्धुना उदधृतोऽयं श्लोकः, किन्तु तत्र 'नवस्वर्थेषु' इति पाठः || FOREWORD १७ ક १० १३ २९ 99 ४ मुद्रितम् मद्याबधि दुबावपि बर्णितो चतुष्ट्यात्मको व्यवस्था शुद्धम् ४ बिहितम् महोदयः x शुद्धिपत्रकम् * प्राशस्त * प्रशस्तमते रभिप्राय इति भावः ॥ १ वाक्या काल पृ० प० ६०६ ३२ ६०७ १८ २६ शुद्धम् "7 33 ६१९ ३२ ११ ६२० १९ स्थाणु ६३२ ३४ स्थाणु' ६४० २९ ६७६ ९ 35 "" Correct Page Line Printed scholarly 10 18 Contents 19 four प्रास्ताविकं किञ्चित् मुद्रितम् ° दोप्यऽत्रा "" "" "" द्यावधि तत्रैव द्वापि वर्णितो १४ २७ चतुष्टयात्मको १५ १५ व्यवस्था १६ " विहितम् १६ १८ महोदयैः 'उक्त च 'पात्रो' पृ० पं० ९ १८ 'नेच्छया कन (ज्वल ) त्स्वपि २२ (१७ अत्र' शब्द seholarly ezpired valvable मुद्रितम् विजयजी महाबीर २३ शुद्धम् दशस्वर्थेषु मेधावी गोशब्द. मुपधारयेत् ॥ 'दोऽप्यत्रा "आह च 'मात्रो' परीखू १२ स्थाणु (ऊर्ध्व) स्थाणु (ऊर्ध्व न तात्पर्येण कनत्स्वपि '१७ अत्र' शब्द ' Correct scholarly expired valuable शुद्धम् विजयजी महावीर प्रास्ताविक बिचारोने विचारोने उभयनो विधि उभयनो - विधि दानी शब्दार्थनी एरीख Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् अथ पञ्चम उभयारः। सत्यमेतद् भवतीति भावः' इति । किन्त्विदं 'द्रव्यमेवार्थः' इति विरुध्यतेऽभ्युपगमेन खवचनेन वा तदवयवेन वा, यत् तद् भवति तस्य भावत्वादपि, अतोऽन्यथाऽसत्त्वात् खपुष्पवत्, उभयम् - द्रव्यं भावश्च ।। एवमनन्तरनयेनाभिहिते ब्रवीत्युत्तरः ---सत्यमेतद् यदुच्यते त्वया 'भवतीति भावः' इति ।। किन्त्विदं 'द्रव्यमेवार्थः' इति विरुध्यते, द्रव्यं च भव्ये [पा० ५। ३ । १०४ ], द्रवतीति द्रव्यं द्रूयत इति वा द्रव्यमिति कर्तृकर्मसाधनव्युत्पत्तिमात्रभेदे सत्यपि अर्थभेदाभावात् सर्वसर्वात्मकत्वाञ्च द्रव्यमेव पृथिव्यादिव्रीह्यादिभावेन भवति नान्यः कश्चिद्भावोऽस्ति इत्येतदवधारणं विरुध्यते, केन सह विरुध्यते ? अभ्युपगमेन, यस्मात् त्वयैवाभ्युपगतं विशेषणं 'द्रव्यं भवतीति भावः' इति भवनलक्षणस्य प्रकृत्यर्थस्य साध्यस्य द्रव्यलक्षणेन प्रत्ययार्थेन साधनेन का विशेषणात् तद्वयर्थताभ्युपगतेति, विशेषणविशेष्ययोश्च 10 भेदात् 'द्रव्यमेवार्थः' इति पूर्वोऽभ्युपगमो विरुध्यते, इतरथा वैयर्थ्यं पौनरुक्त्यं वा स्याद् 'द्रव्यं भवति' २६८-२ इति । अथवा प्रकृष्टकालेनाभ्युपगमेन विरुध्यते इति किं चित्रायत्याम् ? किन्तु स्ववचनेन वा 'विरुध्यते' इति वर्तते, वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् समुच्चयार्थत्वाद्वा अभ्युपगमेन स्ववचनेन च विरुध्यत इति, अत आह-तदवयवेन वा, 'भवति' इति 'द्रव्यम्' इति वा विशेषणविशेष्यभेदानुपादानेऽपि एकस्मिन्नेव पदे प्रकृतिप्रत्ययार्थभेदोपादानात् , सत्तायां प्रकृतिः, लेट्प्रत्ययः कर्तरि, तौ प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह 15 ब्रूतः प्रधानोपसर्जनभावेन, यथा राजपुरुषौ पुरुषार्थमिति, तथा द्रव्यमित्यत्रापि द्रु गतौ [पा० धा० ९४५] कृत्यल्युटो बहुलम् [पा० ३ । ३ । ११३ ] इति कर्तृकर्माद्यन्यतमसाधने यत्प्रत्यये प्रकृतिप्रत्ययभेदोभ्युपगमात् । किं कारणम् ? यत् तद्भवति तस्य भावत्वादपि, यत् तत् त्वदिष्टं द्रव्यं तद् भावोऽपि क्रियापि, क्रिया भावः प्रवृत्तिरिति पर्यायाः, भावस्यापि भावात् 'भवतीति भावः' इति व्युत्पत्तेः 'द्रव्यम्' इति ‘भवति' इति च वचनाद् भवनस्य द्रव्याद् भिन्नत्वात् । अतोऽन्यथाऽसत्त्वात् , यदि द्रव्यं भावोऽपि न स्यात् 20 क्रियापि न स्यात् ततस्तदसत् स्यादभावत्वाद क्रियत्वात् खपुष्पवदिति । तस्माद् द्रव्य क्रिययोः सत्त्वाद् यदुक्तं त्वया 'द्रव्यमात्रमुत्क्षेपणादि' इति तदसत् । १प्रवी प्र०॥ २ दृश्यतां पृ. ३७० पं. ३॥ ३ दृश्यतां पृ. ३७३ पं०६॥ ४ दृश्यतां पृ० ३७३ पं० ३ ॥ ५ तद्यर्थ प्र० ॥ ६°मायत्यं । प्र० ॥ ७द्रव्यमतीति वा प्र० ॥ ८"भू सत्तायाम्'-पा० धा०१॥ ९ “वर्तमाने लट्”-पा० ३।२।१२३ ॥ १० दृश्यतां पातञ्जलमहाभाष्ये ३।१।६७ ॥ ११ "अचो यत्" पा० ३।११९७ ॥ १२°दात् गमात् प्र.॥ १३ दृश्यतां पृ० ३६९ पं० ४, पृ० ३७० पं० ८ ॥ नय०४८ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे तत्र सम्मूञ्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदं बीजं द्रव्यम् , तथाभवनविनाभूतसन्निधिवस्तुत्वव्यक्तिः क्रिया, प्रवृत्तिः क्रिया भावः, वदनगतनियतक्रमाकाररूपपरिमाणमायाकारकपताकिकासन्ताननिष्कालवत्, मायाकारकवद् द्रव्यादनुत्पादव्ययात्मकात् पृथिव्यादेर्मूलादयः, यथाखं पताकिकामालावत् क्रियात्मानः । अद्रव्य 5 तस्माच्च न 'एकं सर्वम्' अनन्तरनयदर्शनम् , न 'सर्वमेकं' पुरुषनियत्यादिविकल्पविधिविधिनयदर्शनम् , नापि विध्युभयदर्शनं कर्बकर्तृभूतं प्रकृतिपुरुषमिदम् , नाधिष्ठात्रधिष्ठेयमिदमितीश्वरकारणं प्रधानोपसर्जनभूतं प्राङिर्दिष्टम् , किं तर्हि ? उभयं कर्तृ भवनस्य प्रधानं च तुल्यबलत्वादस्य भावो भवतीति सामान्येन, २६९.१ किं पुनस्तदुभयमित्यत आह - द्रव्यं भावश्च । अत्र भावशब्दः क्रियावचनः क्रिया भावो धातुः [पा० वा. १।३।१] इति लक्षणात् । 10 तस्माइयं द्वयं सर्वं घटपटादि भवति पचत्यादिवत्। तत्र सम्मूर्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदम् , सम्मूर्छिताः संसृष्टाः अविनिर्भागेन सर्वे प्रभेदाः पचिपठिभुजिगेम्यासिशय्यादयः कृष्णगौरदन्तुरहस्वदीर्घतादयश्च यस्मिस्तत् सम्मूर्छितसर्वप्रभेदं तत् सर्वत्र स्वरूपासमवस्थानाद् निर्भेदं च तेंदगृहीततरङ्गादिप्रभेदसरःसलिलवत तत् तेषां बीजमाश्रयो द्रव्यमित्येतद् द्रव्यलक्षणम् । तथाभवनविनाभूत सन्निधिवस्तुत्वव्यक्तिः क्रिया, तेन प्रकारेण पचिपठिगम्यादिना भवनं तथाभवनम् , तेन भवनेन विनाभूतः सन्निधिः शक्तिमन्मात्रावस्था 15 शक्त्यनभिव्यक्तिर्यस्य वस्तुनस्तत् तथाभवनविनाभूतसन्निधिवस्तु, तस्य भावो वस्तुत्वम् , तद्वयक्तिः वस्तुशक्त्यभिव्यक्तिः क्रिया इत्येतत् क्रियालक्षणम् । प्रवृत्तिः क्रिया भाव इति पर्यायकथनम् ।। तस्य द्वयस्य स्वतत्रस्य भावस्य निदर्शनम् - वदनगतेत्यादि यावद् निष्कालवदिति । मायाकारकवदने व्यवस्थितः क्रमो यासामाकारा रूपाणि परिमाणानि च ता मायाकारकपताकिकाः, तासां सन्तानस्य निष्कालवत् । पृथक् तयोः स्वरूपव्याख्यानार्थमाह -मायाकारकवद् द्रव्यादनुत्पादव्ययात्मकात् 20 पृथिव्यादेर्मूलादय इति जगद् दार्टान्तिकं दृष्टान्तेन मायाकारकेण समीकुर्वन् द्रव्यं व्याचष्टे क्रियां च यथास्वं पताकिकामालावत् क्रियात्मान इति च । या या स्वा यथास्वं पताकिकामाला अव्यवच्छेदेन नीलपीतादिवर्णा हूस्वदीर्घादितनुस्थूलादिसंस्थानप्रमाणा नियता एव क्रमेण निष्कसन्ति तथा 'पचति गच्छति' इत्यादि क्रिया द्रव्याद् देवदत्तादेरिति । ततोऽन्या अपि च तास्तेन विना न भवन्ति, सोऽपि ताभिर्विना २६९-२ न भवति, अथ च नियताकाररूपपरिमाणास्ताः स च तत्परिणतव्यक्तिरिति द्वयमपि भवतीति । 25 एवं तस्मिन्नेव द्रव्यक्रियात्मनि वस्तुन्यन्तर्भावात् पदार्थान्तरकल्पनावैयर्थ्यम् क्रियामात्रत्वाद् गुणा द्याश्रितपदार्थानाम् । द्रव्यजातिभेदपरिकल्पनावैयर्थं च सर्वद्रव्याणां क्रियावत्त्वादिति तत्प्रदर्शनार्थमाह कर्तकर्तभतं प्र०॥ २ "क्रियावचनो धातुः ।.."भाववचनो धातुः ।" इति पाणिनीयवार्तिके १३१॥ ३ वि० विना "द्वयं द्रव्यं सर्व य० । °द्वयं सर्व वि० ॥ ४°दं निर्भेदं य० ॥ ५ गम्याशिशुपादयः प्र० ॥ ६4 एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ ७ तदार य० ॥ ८ तद्वयक्तिः वस्तुत्वव्यक्तिः वस्तुशक्त्यभिव्यक्तिःपा. डे. ली.॥ ९प्रथक तयोः प्र० । अत्र 'पृथक् च तयोः' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्रिययोरुभयोरर्थत्वप्रतिपादनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ३७९ द्रव्यवद्रव्यसंयोजनवियोजनोत्क्षेपणापक्षेपणादितथा भवन विशेषणसमवयनादयो भवनमेव द्रवति जानाति इच्छति द्वेष्टि ध्वनति यतते संयुनक्ति वियुनक्ति श्वेतते इत्यादि। पृथिव्यादिसंयोजनवियोजनोत्क्षेपणापक्षेपणतथा भवनविशेषणसमवयनादिभवनेन विना न द्रव्यभेदाः सम्भवन्ति यावदन्त्यं द्रव्यम् , पृथिव्यादिना विना न 5 संयोजनवियोजनोत्क्षेपणापक्षेपणतथाभवनविशेषणसमवयनादयो न मूलादिभावो वेति द्रव्यभावपरिग्रहः। एवं च कृत्वोक्तम् - न हि किञ्चित् स्वस्मिन्नात्मनि मुहूर्तमप्यवतिष्ठते वर्धते यावदनेन अद्रव्यद्रव्यवद्रव्यसंयोजनेत्यादयः, गुणादयस्तावत् क्रियैव इति प्रागुक्तम् , अधुनाप्युच्यते तद्वारेण जात्यभेदश्च । द्विविधं हि द्रव्यम् - अद्रव्यमनेकद्रव्यं च । नास्य द्रव्यं समवायिकारणमित्यद्रव्यमात्माकाशकाल-10 दिक्परमाण्याख्यम् । द्रव्यवद् द्रव्यं तु द्वयणुकादि महापृथिवीपर्यन्तम् । तस्य द्विविधस्यापि द्रव्यस्य जातिभेदाभावः, यस्मात् संयोजनं प्राप्तिः क्रिया परिणतिलक्षणा, सैव संयोगो गुणोऽण्वाकाशादीनाम् , आत्माकाशादेरपि परिणमनक्रियावत्त्वादुक्तवद क्रियस्यासत्त्वात्। एवं वियोजनं विभागः क्रियामानं न गुणः। तथा रूप्यतेऽक्षिभ्यामिति रूपम् , रस्यते जिह्वयेति रसः, एवं गन्धस्पर्शशब्दा अन्ये च सङ्ख्यादयो नेया बुद्ध्या सङ्ख्यायमानत्वात् । उत्क्षेपणापक्षेपणादीति ऊर्ध्वक्षेपणादिक्रिया द्रव्यधर्मो द्रव्यप्रभेदः । तथाभवनमिति 15 सत्तासामान्यं द्रव्यस्यैव समानस्य भवनम् , यत् समानेन भूयते। विशेषणमिति विशेषः क्रियैव येन नीलादिना गमनादिना क्रियामात्रेण द्रव्यस्य विशेषेण भवनं स स विशेषः । समवयन सम्बन्धः, सोऽपि संयोग एव, 'सम्' इत्येकीभावेनावयवानामवस्थानं तन्त्वादीनां पटादित्वेन समवाय इहे ति कार्यकारणयोरेकीभवनम् । आदिग्रहणाद् यावत्समवायिद्रव्यं भेदात् समवायानन्यं दर्शयति षट्पदार्थरिमाणाभावं [च] परिणामधर्मानन्त्यात् क्रियागुणादिपदार्थानन्त्याच्च । भवनमेव भाव एव क्रियैव, न गुणादयः सन्तीति भवनशब्देन 20 क्रियां दर्शयति । इदानीं द्रव्यं दर्शयितुकाम आह - द्रव॑तीत्यादि यावच्छेतत इत्यादि कारकं तल्लंकारेण कर्तृवाचिना द्रुशेषिद्विषिध्वनियतिसंयुजिवियुजिश्वितीनां साध्यानां क्रियाविशेषाणां सकर्तृकाणामभिधानात् । तयोरन्योन्यरहितयोर्द्रव्यक्रिययोरभावप्रदर्शनार्थो ग्रन्थः-पृथिव्यादिसंयोजनेत्यादि । यावद् द्रव्यभावपरिग्रहः । आदौ तावद् भवनेन यिया भावेन विना न द्रव्यभेदाः सम्भवन्ति पृथिव्यादयो यावदन्त्यं द्रव्यं परमाणुद्रव्यमिति, पृथिव्यादिनेत्यादि, यावन्न मूलादिभावो वेत्युक्तानामेव द्रव्यभेदा-25 नामभावे संयोजनादयः क्रियाभेदा न सन्तीत्यादि तेनानिष्ींपादनम् । तस्माद् द्रव्यभावपरिग्रहो युक्त इत्युपनयति, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वात् । एवं च कृत्वेत्यादि यावदपायेन वा युज्यत इति भाष्यकारेण साङ्ख्यादाहृत्योक्तो ज्ञापकग्रन्थः २७०-१ १नाधुच्यते प्र०॥ २ “यावदवधारणे ।२।१।८। यावन्तः श्लोकास्तावन्तोऽच्युतप्रणामा यावच्छोकम् ।” इति पा०सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ३ परिणामाभावं प्र०॥ ४ द्रव्यती प्र० ॥ ५ दृश्यतां पृ० १२६ टि०७॥ ६॥ एतचिहान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ७क्रियाया भा०॥ ८टानपा प्र०॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ पञ्चम उभयारे वर्धितव्यमपायेन वा युज्यते [ पो० म० भा० १/२/६४ ] । न हि कश्चिदर्थो द्रव्यं स्वस्मिन्नात्मनि निर्भेदनिरुपाख्ये मुहूर्तमपि अवतिष्ठते, अपिशब्दाद् यावत् समयमपि नावतिष्ठते, वर्धते यावदनेन वर्धितव्यम्, यावदनेन अपेतव्यं तावदेव अपायेन युज्यते, सन्निहितव्यक्ति युक्तत्वात् । यदि तु द्रव्यमित्येवाक्रियमभविष्यत् ततो नाभविष्यत् प्राक् तदा वा पश्चाच्च 5 ३८० सोऽयमस्मिन्नेव द्रव्यक्रियात्मकवस्तुवादे घटते, न परमतैकान्तद्रव्यपरिणामवादे नापि सततप्रवृत्तक्षणिकवादे । तद् व्याचष्टे - न हि कश्चिदर्थो द्रव्यम्, 'न हि किञ्चित्' इति प्राप्तस्य सामान्यनपुंसकनिर्देशस्य ‘अर्थः’ इति पुंल्लिङ्गेन विशेष्य व्याख्यानम्, यथोक्तम् - अव्यक्ते गुणसन्देहे नपुंसकलिङ्गं प्रयोक्तव्यम्, जायमानं हि द्वयमेव जयते - पुमान् स्त्री वा, तथापि वक्तारो भवन्ति - किमस्य जातम् ? इति [ प० म० भा० १/२/६९ ]। 10 पुनरपि चार्थशब्दपर्यायमाह - द्रव्यमिति भाष्यकारमतेनैव, स्वस्मिन्नात्मनि द्रव्यात्मनीत्यर्थः, निर्भेद२७० २ निरुपाख्ये गमनस्पन्दननिमेषोन्मेषादिभेदविरहिते तस्य भेदविरहितस्य निरुपाख्यत्वात्, तद्धि द्रव्यं धर्मरहितमुपाख्यातुमशक्यम्, अनुपाख्यत्वाच्चासदेव स्यात्, अतस्तद् मुहूर्तमपि नावतिष्ठते परिणतिक्रियाविरहितम् । तद् व्याचष्टे – 'अपि ' शब्दाद् यावत् समयमपि नावतिष्ठते नालिकालवस्तोकप्राणोच्छ्वासनिःश्वासक्रमहान्या, ततः परं सूक्ष्मकालाभावात् । एतेन स्वात्मन्यनवस्थानवचनेन वृद्धिहानिसततर्सम्प्रवृत्तिरूपं सर्वं 15 वस्तु इति द्रव्यप्रत्याख्यानमेव कृतम् । वर्धते यावदनेन वर्धितव्यमिति तु पुनः 'यत् परिमाणमस्य यावत्' इति नियतपरिमाणां वृद्धिं पद्मादीनामिव साधिकसहस्रयोजनात् परतो न भूतां कदाचिदिति दर्शयता तस्यैव द्रव्यस्यावस्थितस्यावस्था विशेष एव वृद्धिरिति दर्शितं भवति । तथापायोऽपि यावदनेनापेतव्यं तावदेवापायेन युज्यत इति यावच्छब्दार्थमधिकृतं भावयति, यथा सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकजीवस्यावरणान्तरायक्षयोपशमकृतयोगोपयोगस्वरूपस्याक्षरानन्ततमभागोपलम्भमात्रेऽवश्यमवतिष्ठते ज्ञानदृष्टावरणवीर्यान्तरायोदय20 जनितोपघातयोगोपयोगहानिः, न ततः परं हीयते, अन्यथा तस्याजीवत्वप्रसङ्गादिति । तस्माद् यावद्वचनाद् द्रव्यमेवावस्थितं वर्धतेऽपैति वा, न च वृद्ध्यपायरहितसमवस्थितत्वे सत्यपि इत्येषोऽस्य ग्रन्थस्यार्थः । तस्मादयमपि ग्रन्थो द्वयात्मकदर्शनेनैव नेतुं शक्यते, नान्यथेति प्रतिपत्तव्यम् । किं कारणम् ? सन्निहितव्यक्तियुक्तत्वात्, सन्निहितस्य अवस्थितशक्तेरेव व्यक्तिराविर्भावः सलिलसेकेन भूमिगन्धस्य, तस्या २७१-१ व्यक्तेर्युक्तत्वात् 'द्रव्यं च क्रिया च भवति' इति ग्राह्यम्, अन्यथा तदयुक्तेरसत्कार्यवादप्रसङ्गादसम्भवाञ्च । 'द्रव्यमेव, क्रियैव' इत्यनयोर्वादयोरयुक्तिरुच्यते । तत्र 'द्रव्यमेव' इति तावन्न युज्यते । कथम् ? यदि तु 'द्रव्यम्' इत्येवाक्रियमभवनमभविष्यद् वृद्धिव्ययरहितमपरिणामैकान्तरूपं यद्यभविष्यत् ततो नाभविष्यदिति क्रियातिपत्तौ लृङ् न भवनमेवापद्यत इति न भवत्येवेत्यर्थः, क्रिया भवनं प्रवृत्ति - 25 १ दृश्यतां पृ० २८४-२ २८५- १ । “प्रवृत्तिः खल्वपि नित्या । न हीदं कश्चिदपि स्वस्मिन्नात्मनि मुहूर्तमप्यवतिष्ठते वर्धते यावदनेन वर्धितव्यमपचयेन वा युज्यते । तच्चोभयं सर्वत्र ।” इति पातजलमहाभाष्ये पाठः ॥ २ दृश्यतां पृ० २४२ टि० ४ ॥ ३ निश्वास प्र० ॥ ४ संवृत्ति प्र० ॥ ५ वि० विना 'पस्त्याक्ष प्र० । वक्ष वि० ॥ ६ सपि भा० ॥ ७ थेति पत्तव्यम् प्र० ॥ ८ लगभवन प्र० । “लिङ्गिमित्ते ऌडू क्रियातिपत्तौ " पा० ३।३।१३९ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्रियैकान्तवादनिरसनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ૨૮૨ अप्रवृत्तत्वात् , खपुष्पवत्। भवदेव हि भवति।खपुष्पमपि वाऽभविष्यत्, अभवद्भवनात्, द्रव्यवत् । आत्माद्यपि च प्रवृत्तमेव, द्रव्यत्वात् , तन्तुवद् बीजवत् । तथा च चैतन्यादिलक्षणता आत्मादेस्तथाभवनप्रवृत्तिसामर्थ्यात् सत्यपि द्रव्यत्वतुल्यत्वे । अथ तु प्रवृत्तिरित्येवाद्रव्या ततो नैव स्यात् सा प्राक् पश्चात् तदा वाऽद्रव्यत्वा 15 रित्यर्थः, यदि न प्रवर्तेत न परिणमेत् न क्रियापि स्यात् द्रव्यं प्राक् केनचिद् गमनादिप्रकारेणावृत्तम् । 'तंदा वा' इति सामान्यकालवाचिना शब्देन इदानीमपि निर्देशकाले तदप्रवर्तमानम् पश्चाच्चैष्यत्कालेऽप्यप्रवर्तिध्यमाणं न स्यादित्यर्थः, अप्रवृत्तत्वात् । किमुक्तं भवति ? प्राग् नासीत् इदानीमप्रवृत्तत्वात् खपुष्पवत् । इदानीं न स्यात् प्रागप्रवृत्तत्वात् खपुष्पवत्, पश्चान्न भविष्यति इदानीमप्रवृत्तत्वात् खपुष्पवदेवेत्यभूतं तत् स्याद् द्रव्यं क्रियाशून्यत्वात् परिणामशून्यत्वादप्रवृत्तत्वादित्यर्थः । भवदेव हि भवति, प्रवर्तमानमेव हि केनचिद्धर्मेण मृदिव शिवकादिना भवति, न निरुपाख्यम् । यदि निरुपाख्यमपि 10 स्यात् खपुष्पमपि स्यात् , खपुष्पमपि वाऽभविष्यद् भवति भविष्यति [च] त्वदभिमतद्रव्यवत् अभवद्भवनादिति अक्रियभवनादित्यर्थः । ____ स्यान्मतम् , अनैकान्तिकमेतत् - अभवद्भवनात् खपुष्पमपि भवेद् द्रव्यवत् , द्रव्यमपि मा भूदप्रवृत्तत्वात् खपुष्पवदिति । कस्मात् ? आत्माकाशादीनामप्रवृत्तिभवनानां सत्त्वदर्शनादपरिणामित्वादित्यर्थ इति । एतच्चायुक्तम् , तद्विपक्षत्वासिद्धेः, यस्माद् आत्माद्यपि च प्रवृत्तमेव द्रव्यत्वात् तन्तुवद् २०१-२ बीजवदिति । यथा तन्तवस्तन्त्ववस्थायां पटावस्थायां च प्रवृत्तत्वाद् भवन्येव तथा आत्मादयः, एवं बीजमेव ह्यङ्करादिभावेषु प्रवृत्तमेव तथात्मादय इति दृष्टान्तद्वयोपादानाद् न्यायव्यापिता प्रदर्श्यते । यथोक्तम् - अस्ति-भवति विद्यति-पद्यति-वर्ततयः सन्निपातपष्ठाः सत्तार्थाः [ ] इति । तस्मात् तेन तेन प्रकारेण परिणममानं प्रवर्तमानं वस्तु भवतीत्युच्यते, स्वेन स्वेन च पारिणामिकेन प्रकारेण भवति परिणमतीति । अत्रोपचयहेतुमाह -तथा च चैतन्यादिलक्षणतेत्यादि यावत् तुल्यत्वे । सत्यपि तुल्ये 20 द्रव्यत्वेऽत्येव जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां च भवनविशेषः । तद्यथा-जीवद्रव्यस्य चैतन्यवीर्यामूर्त्यसङ्ख्यातप्रदेशावगाहादिस्तथाभवनप्रवृत्तिसामर्थ्यम् , अजीवद्रव्येष्वपि पुद्गलानां रूपरसादिकर्मदोषकर्मादि तथाभवनसामर्थ्यम्, यथासङ्ख्यं च धर्माधर्माकाशकालानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनास्तथाभवनसामर्थ्यानि । तस्मादास्मादेव्यत्वतुल्यत्वे सत्यपि तथाभवनप्रवृत्तिसामर्थ्याच्चैतन्यादिप्रतिविशिष्टलक्षणतोपपद्यते । एवं तावद् द्रव्यस्य क्रियाविरहितस्याभाव उक्तः, तयैव युक्त्या क्रियाया अपि विना द्रव्येणासत्त्व-25 मित्यत आह - अथ तु प्रवृत्तिभूतिरित्येवाद्रव्या प्रतिक्षणप्रवृत्त्युपरमलक्षणा भूतिरित्येव, एवेत्यवधारणादद्रव्या द्रव्यविरहिता क्रियैवेत्यर्थः, ततो नैव स्यात् सा पूर्ववत् प्राक् पश्चात् तदा वाऽद्रव्यत्वादभूतत्वात् खपुष्पवदिति तथैव व्याख्येयं निर्बीजत्वादस्थितत्वादित्यादिपर्यायैस्त्रिष्वपि कालेषु साधनानि १प्रवर्तेन परिणामेत् भा० । प्रवर्तेत परिणामेत य० ॥ २ तदेवेति प्र०॥ ३ पश्चात्वै भा० । अत्र पश्चाद्वै इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ४ एवं य० प्रतिषु नास्ति ॥ ५ दृश्यतां पृ० ३४ पं० २० ॥ ६ वि. विनान्यत्र कर्मदोषाकर्मादि य० । कर्मादि वि०॥ ७°हा वर्तना तथा प्र०॥ ८ दृश्यतां पृ० ३८० ५० ५॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ पञ्चम उभयारे दभूतत्वाद् निर्बीजत्वादस्थितत्वात् 'खपुष्पवत् । भवदेव हि भवति द्रव्यार्थतः । खपुष्पमपि वा स्यादद्रव्यत्वाद् भाववत् । भूतार्थ सामर्थ्यादेव हि प्रवृत्तिः । गुणाद्यपि च द्रव्यमेव वृत्तत्वात् तन्त्वादिवत् । एवं क्रियापि द्रव्येण विना नास्ति । भवतीति भावः । यतोऽसौ भवतीति भावः तद् भवनम् । अत एव उभयनियमः - प्रकृतिपर एव प्रत्ययः प्रयोक्तव्यः प्रत्ययपरैव प्रकृतिः । २७२ १ योजयद्भिरिति विशेषः । भवदेव हि भवति द्रव्यार्थत इति स्थितिरूपं द्रव्यार्थभवनमाचष्टे । एतदनिच्छतोऽस्थितभवनसाधर्म्यात् खपुष्पमपि वा स्यादद्रव्यत्वाद् भाववत् क्रियावत् अनिष्टापादनमेतत् । भूतार्थसामर्थ्यादेव हि प्रवृत्तिः, द्रव्यार्थसामर्थ्यादेव यस्मात् प्रवृत्तिः क्रिया, न निर्बीजेत्यर्थः । अ पूर्ववदनैकान्तिकत्याशङ्का – ननु निर्बीजगुणादिप्रवृत्तिर्दृष्टेति । अत्रोत्तरमाह - गुणाद्यपि च द्रव्यमेव वृत्त10 त्वात् तन्त्वादिवत् तन्तुबीजमृदादिवदिति प्राग्वत्, इह तु द्रव्यभवनमन्तरेण प्रवृत्त्यभाव इति प्रदइर्योपनेयमिति विशेषः । एवं क्रियापि द्रव्येण विना नास्तीत्युक्तन्यायवदेव । ३८२ इति द्रव्यक्रियालक्षणं द्वैतमुक्त्वा अक्षरार्थन्यायेनापि प्रतिपादयिष्यन्नाह - भवतीति भाव इति । अत्र भुवश्च [ ] इतीष्टा कर्तरि 'ण' प्रत्ययं केचिदाहुः, इह तु भूयत इति भावे घञ्प्रत्ययः, स च येन भूयते स भाव इत्यर्थसामर्थ्याद् यो भवति स एव सम्बध्यत इति 'भवतीति भावः' इत्युक्तम् । 15 स च कर्ता, कर्ता च द्रव्यम् तस्माद् भावशब्दो द्रव्यवाची, क्रियार्थ्यांचित्वमपि यतोऽसौ भवतीति भावः, यस्माद्धेतोर्येन प्रकारेण यतो धर्मेण धर्माद् वा भवति तद्रव्यं स भाव इति, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वाद् 'भवति' इत्येतद् यतो भवति भावः सा क्रिया । कुतः पुनर्भवेतीति भवति ? भवनसम्बन्धाद् भवति भवति तस्य द्रव्यस्य तस्मात् तद् भवनं भावः सा क्रिया प्रवृत्तिर्भवनमित्यर्थः । अत एवेत्यादि तस्योभयार्थत्वदर्शनस्य दृढीकरणार्थं यावत् प्रत्ययपरैव प्रकृतिरित्युत्तानार्थम् । 20 क्विप्प्रत्यये "चिदादीनां प्रथमैकवचने प्रकृतिमात्रप्रयोजनदर्शनात् 'अधुना' इत्यादिषु च प्रत्ययमात्रश्रवणाद् १ “किमयं प्रत्ययनियमः - प्रकृतिपर एव प्रत्ययः प्रयोक्तव्योऽप्रकृतिपरो नेति, आहोखित् प्रकृतिनियमः - प्रत्ययपरैव प्रकृतिः प्रयोक्तव्या प्रत्ययपरा नेति ? | कश्चात्र विशेषः ? 'तत्र प्रत्ययनियमे प्रकृतिनियमाभावः । तत्र प्रत्ययनियमे सति प्रकृतेर्नियमो न प्राप्नोति, अप्रत्ययिकायाः प्रकृतेः प्रयोगः प्राप्नोति । अस्तु तर्हि प्रकृतिनियमः, 'प्रकृतिनियमे प्रत्ययानियमः', प्रकृतिनियमे सति प्रत्ययस्य नियमो न प्राप्नोति, अप्रकृतिकस्य प्रत्ययस्य प्रयोगः प्राप्नोति । 'सिद्धं तूभयनियमात्' । सिद्धमेतत्, कथम् ? उभयनियमात् उभयनियमोऽयम् - प्रकृतिपर एव प्रत्ययः प्रयोक्तव्यः प्रत्ययपरैव च प्रकृतिरिति । " इति पातजलमहाभाष्ये ३।१।२ ॥ २ हि प्रवृत्तिः द्रव्यार्थ सामर्थ्यादेव हि प्रवृत्तिर्द्रव्यार्थ सामर्थ्यादेव प्र० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ३८१ पं० १३ ॥ ४ दृश्यतां पृ० ३८१ पं० २ ॥ ५ दृश्यतां पृ० १७३ पं० २५, टि० ९ । “विभाषा ग्रहः ।३।१।१४३ | णो वा, पक्षेऽच् । व्यवस्थितविभाषेयम्, तेन जलचरे ग्राहः, ज्योतिषि ग्रहः । भवतेश्व' इति काशिका, भवो देवः संसारच, भावाः पदार्थाः । भाष्यमते तु प्राप्त्यर्थाच्चुरादिण्यन्तादच् भावः । " इति सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ६ वाचीत्वमपि य० ॥ ७ भवति भावः य० ॥ ८ भवति स भावः य० ॥ ९ 'तीति भवनस य० ॥ १० विदा प्र० । “पृथक् सर्वेषामिति चेत्, एकशेषे पृथग्विभक्त्युपलब्धिस्तदाश्रयत्वात् । पृथक् सर्वेषामिति चेत्, एकशे पृथग्विभक्त्युपलब्धिः प्राप्नोति । किमुच्यते 'एकशेषे पृथग्विभक्त्युपलब्धिः' इति ? यावता समयः कृतः 'न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, न च केवलः प्रत्ययः प्रयोक्तव्यः' इति । तदाश्रयत्वात् प्राप्नोति, यत्र हि प्रकृतिनिमित्ता प्रत्ययनिवृत्तिः तत्राप्रत्ययिकायाः प्रकृतेः प्रयोगो भवति - अग्निचित् सोमसुदिति यथा । यत्र च प्रत्ययनिमित्ता प्रकृतिनिवृत्तिः तत्राप्रकृतिकस्य प्रत्ययस्य प्रयोगो भवति - अधुना इयानिति यथा ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये १।२।६४ | " अधुना | ५|३|१७| इदमः सप्तम्यन्तात् कालवाचिनः स्वार्थे ‘अधुना’प्रत्ययः स्यात् । इशू, 'यस्य' [ ६।४।१८४ ] इति लोपः, अधुना ।" इति पा० सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्रियोभयार्थप्रतिपादनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ३८३ उभयार्थवत्त्वप्रदर्शनाय च कोऽसौ भावो नाम ? यत् तद् भूयते केनापि, नोच्यतेयोऽसौ भवति कोऽपि, अखशब्दोपादानसाध्यभावत्वाद् भावस्य । कस्य भावः ? २७२-२ व्यभिचरतीति चेत्, अत एव तदर्थगतेरन्यत्र चोभयप्रयोगदर्शनादनुमीयते द्वयर्थतेति । व्युत्पादनकालेऽपि प्रकृत्यर्थव्युत्पत्तिरन्यथा अन्यथा प्रत्ययार्थव्युत्पत्तिः शास्त्रेऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां क्रियते । तत् किमर्थमिति चेत् , उभयार्थवत्त्वप्रदर्शनाय चेत्यादि यावत् कोऽपीति । कोऽसौ भावो नाम ? इति प्रश्नोपक्रमं व्युत्पाद्यते क्रिया, यत् तद् भूयते केनापि, 'भूयते' इति भावे लकारविधानात् 'यत् तत्' इति च भवनमेव प्रकृत्यों निर्दिश्यते । नोच्यते-योऽसौ भवति कोऽपीति, येन भूयते योऽसौ भवति कर्ता प्रत्ययार्थः स नोच्यते तस्मिन् प्रश्ने । तस्मात् प्रकृत्यर्थपरा व्युत्पादनैवम्प्रकारा । किं कारणम् ? अस्व. शब्दोपादानसाध्यभावत्वादू भावस्य । अस्मदुक्तानुकाराद् यथोक्तमन्यैर्द्रव्यभावयोरुक्तिक्रियालक्षणे भेदोपप्रदर्शने 'स्वशब्दोपादानसिद्धभावं सत्त्वम् , अस्वशब्दोपादानसाध्यभावो भावः' इत्येतदुक्तिक्रिया 10 श्रयं सत्त्वभावयोः पृथक्त्वम् [ ] इति । प्रसिद्धं हि लोके शास्त्रेषु च - क्रियावाचकमाख्यातं द्रव्याभिधायकं नामेति, स्वभावसिद्धं द्रव्यं हि क्रिया चैव हि भाव्यते' [पा० म० भा० १॥३।१] तथा पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातेन आचष्टे उपक्रमप्रभृत्यपवर्गपर्यवसानं परिनिष्पन्नं नाम्ना मूर्त सत्त्वं यथासङ्ख्यं व्रजति पचति व्रज्या पक्तिः [निरुक्त. ॥१] इति । तस्माद् घटपटादिशब्दा द्रव्यस्य स्वशब्दाः, पचतिगच्छत्यादयः क्रियायाः, भावशब्दश्च द्वयोरपि दृष्टः । तत्रास्वशब्दस्य द्रव्यवाचिनो घटदेवदत्तादेरुपादानेन 15 साध्यो भावः साध्यत्वम् , यासावनुमानगम्या क्रिया न शक्या साधनात् पृथग् दर्शयितुं गर्भवद् नि ठिता सा परतः साधनत एव यथा आत्मानं लभते तथाभिधानेऽपीत्यस्वशब्दोपादानसाध्यभावो भावः क्रियेत्यर्थः । तद्भावादस्वशब्दोपादानसाध्यभावत्वाद् भावस्य प्रवृत्तिलक्षणस्यैवं प्रश्नप्रतिवचनसिद्धिरिति । १ अत्र उभयार्थत्वप्रदर्शनाय इति पाठः समीचीनो भाति, दृश्यतां पृ. ३८२ पं० ९। २ एतत्समानार्थिका चर्चा पातञ्जलमहाभाष्ये इत्थमुपलभ्यते - “लुप्ताख्यातेषु चोपसङ्ख्यानं कर्तव्यम् , निष्कौशाम्बिः निर्वाराणसिः ।....... सिद्धं तु क्वाखतिदुर्गतिवचनात् 'प्रादयः कार्थे' इति । तदर्थगतेा । तदर्थगतेर्वा पुनः सिद्धमेतत् । किमिदं तदर्थगतेरिति ? तस्यार्थस्तदर्थः, तदर्थस्य गतिस्तदर्थगतिः, तदर्थगतेरिति यस्यार्थस्य कौशाम्ब्या सामर्थ्यं स निसोच्यते । अथवा सोऽर्थस्तदर्थः, तदर्थस्य गतिस्तदर्थगतिः, तदर्थगतेरिति योऽर्थः कौशाम्ब्या समर्थः स निसोच्यते ।” पा०म० भा० २।१।१॥ ३ “कथं पुनर्ज्ञायते - अयं प्रकृत्यर्थः, अयं प्रत्ययार्थ इति ? सिद्धं त्वन्वयव्यतिरेकाभ्याम् । अन्वयाच व्यतिरेकाच्च । कोऽसावन्वयो व्यतिरेको वा ? इह ‘पचति' इत्युक्ते कश्चिच्छब्दः श्रूयते पच्छब्दश्चकारान्तः, 'अति'शब्दश्च प्रत्ययः । अर्थोऽपि कश्चिद् गम्यते विक्लित्तिः कर्तृत्वमेकत्वं च । 'पठति' इत्युक्ते कश्चिच्छब्दो हीयते कश्चिदुपजायते कश्चिदन्वयी; पच्छब्दो हीयते पठशब्द उपजायते 'अति'शब्दोऽन्वयी । अर्थोऽपि कश्चिद्धीयते कश्चिदुपजायते कश्चिदन्वयी, विक्लित्तिहीयते पठिक्रियोपजायते कर्तृत्वं चैकत्वं चान्वयी । ते मन्यामहे यः शब्दो हीयते तस्यासावर्थो योऽर्थो हीयते, यः शब्द उपजायते तस्यासावर्थो योऽर्थ उपजायते, यः शब्दोऽन्वयी तस्यासावर्थों योऽर्थोऽन्वयी ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये १।३।१॥ ४ दृश्यतां पृ० १२५ पं० ७ । “एवं तर्हि कर्मसाधनो भविष्यति 'भाव्यते यः स भावः' इति । क्रिया चैव हि भाव्यते, खभावसिद्धं तु द्रव्यम् ।” इति पातञ्जलमहाभाष्ये पाठः ॥ ५ दृश्यतां पृ० १२६ पं० २४ ॥ तत्र स्व प्र०॥ ७ “क्रिया नामेयमत्यन्तापरिदृष्टा अशक्या क्रिया पिण्डीभूता निदर्शयितुम् , यथा गर्भो निलठितः । साऽसावनुमानगम्या। कोऽसावनुमानः ? इह सर्वेषु साधनेषु सन्निहितेषु कदाचित् 'पचति' इत्येतद् भवति, कदाचिन्न भवति । यस्मिन् साधने सन्निहिते ‘पचति' इत्येतद् भवति सा नूनं क्रिया । अथवा यया देवदत्त इह भूत्वा पाटलिपुत्रे भवति सा नूनं क्रिया ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये १।३।१॥ ८°दानासाप्र०॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ पञ्चम उभयारे योऽसौ भवति, नोच्यते यत् तद् भूयते केनापि खशब्दोपादानसिद्धभावत्वात् सत्त्वस्य । लिङ्गादिमद् द्रव्यम्, क्रिया तद्रहिता । लिङ्गादिमत्त्वादलिङ्गादिमत्त्वाच्च भवतो भवनस्य च उभयमेव भावः । लिङ्गसङ्ख्यावतो द्रव्याद् वस्तुत्वैकत्वगतिः क्रिया 5 तद्विपर्ययेण तु द्रव्यभावस्य प्रश्नप्रतिवचने दृष्टे व्युत्पादनकाले । तद्यथा - कस्य भावः इति प्रश्नः, २७३-१ कस्य क्रिया प्रवृत्तिः ? कर्तरि षष्ठीं कृत्वा । तदनुरूपं प्रतिवचनमपि - योऽसौ भवतीति यो भविता कव वा द्रव्यलक्षणः स उच्यते । नोच्यते - यत् तद् भूयते तद् भवनमेव । किं भूयते न भूयते केनापि ? इति अनिर्दिष्टकारकं हि भावसामान्यमेव भावस्याभिन्नत्वात् । किं कारणम् ? स्वशब्दोपादानसिद्धभावत्वात् सत्त्वस्य स्वशब्देनैव पृच्छ्यते - कस्य भावः ? को भवतीत्यर्थः । न पृच्छयते - किं भूयते ने भूयते 10 केनापि ? इति । प्रतिवचनमपि तथोच्यते - योऽसौ कोऽपि भवतीति तस्य भावः स भवति तेन भूयते इति । नोच्यते यत् तद् भूयते केनापीति, अविशद भवनमात्रं न व्याक्रियते तस्याष्पृष्टत्वात् । किं कारणम् ? क्रियालक्षणभावव्युत्पादनविपर्ययेण प्रश्नव्याकरणदर्शनात् तथैवार्थप्रसिद्धेस्तद्वाचिशब्दप्रवृत्तेरपि तदनुरूपत्वादिति । - किञ्चान्यत्, लिङ्गादिमदित्यादि यावदुभयमेव भाव इति । द्रव्यं लिङ्ग सङ्ख्या- काल - कारकयोगि, क्रिया तद्रहिता । 'लिङ्गादिमत्त्वादलिङ्गादिमत्त्वाच्च भवतो द्रव्यस्य भवनस्य च यथासङ्ख्यं भिन्नं वस्तु 15 भैवद्-भवनभूतं द्विधा । तस्मादुभयर्वंस्तुतश्चैकमिति प्रतिपाद्यमुपपत्त्येत्यतः प्रतिज्ञायते - लिङ्गसङ्ख्यावत इत्यादि । वस्तुत्वेनैकत्वं वस्तुत्वैकत्वम्, तस्य गतिः आपत्तिः, वस्तुत्वेनैकत्वमापन्ना क्रिया स्वरूपतोऽन्यैव, द्रव्यक्रियास्वरूपभिन्नमेकं वस्त्वित्यर्थः । कस्मात् ? अलिङ्गसङ्ख्यत्वात्, न लिङ्गसङ्ख्ये यस्य तदिदमलिङ्ग२७३२ सङ्ख्यं भवनम् । तद्धि वस्तुत्वेनैकत्वं गतं सद् द्रव्येण सहानन्यद्ध्यन्यदेव इति प्रतिज्ञार्थोऽनेन साध्यते 'अलिङ्गसँङ्खयत्वात्' इति हेतुना । दृष्टान्तः - लक्षादिव भिन्नार्थानामेकसम्बन्धिविषयश्चार्थः, यथा 20 'क्ष धवश्च' इत्यत्र 'च' शब्द : प्लक्षधवयोरन्ययोः समुच्चेतापि समुच्चयमेकमेव सम्बन्धिनं विषयीकृत्य वृत्तत्वादनन्यत्वेऽपि सत्यन्यस्यैवार्थस्य वाचकस्तथा द्रव्यक्रियात्मकवस्तुत्वैकत्वान्यत्वमिति । अत्राह - - द्रव्यादन्यत्वेन पक्षीकृतायां क्रियायां समुच्चयनक्रियैव यदि दृष्टान्तत्वेनोच्यते साध्यत्वाददृष्टान्तः । अथ मा भूदेष दोष इति द्रव्यान्तरसमुच्चयो यदि दृष्टान्त उच्यते तथापि द्रव्यार्थत्यागः लक्षधवसमुच्चयाख्यादिसर्वसत्तार्थसङ्ग्रहार्थत्वाद् I १ न भूयते भा० प्रतौ नास्ति ॥ २ शब्द प्र० ॥ ३ भावायु प्र० ॥ ४ लिङ्गादिमत्त्वाच्च प्र० ॥ ५ तद्भवनभूतं तद्विधा य० ॥ ६ वस्तुतश्चैवामिति प्र० । अत्र 'तस्मादुभयं वस्तु, तच्चैकमिति' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ७ संख्यादिति प्र० ॥ ८ लक्षादिवत् प्र० ॥ ९ 'अलिङ्गसङ्ख्यत्वात्' इति हेतोः साध्येनानुगमप्रदर्शनार्थ समुच्चयश्चार्थो दृष्टान्तत्वेन अत्र विवक्षित इति भाति । दृश्यतां पृ० ३८५ पं० १३ । “चार्थे द्वन्द्वः” । २।२।२९ | चार्थ इत्युच्यते, चश्चाव्ययम् तेन समासस्याव्ययसंज्ञा प्राप्नोति । नैष दोषः, पाठेनाव्ययसंज्ञा क्रियते, न च समासस्तत्र पठ्यते । पाठेनाप्यव्ययसंज्ञायां सत्यामभिधेयवलिङ्गवचनानि भवन्ति । यचेहार्थोऽभिधीयते न तस्य लिङ्गसङ्ख्याभ्यां योगोऽस्ति । नेदं वाचनिकम् - अलिङ्गताऽसङ्ख्यता वा, किं तर्हि ? स्वाभाविकमेतत्, तद्यथा - समानमीहमानानां चाधीयानानां च केचिदर्थैर्युज्यन्तेऽपरे न; न चेदानीं कश्चिदर्थवानिति सर्वैरर्थवद्भिः शक्यं भवितुं कश्विद्वाऽनर्थक इति सर्वैरनर्थकैः । तत्र किमस्माभिः शक्यं कर्तुम् यत् प्राक् समासाचार्थस्य लिङ्गसङ्ख्याभ्यां योगो नास्ति समासे च भवति । स्वाभाविकमेतत् ।” इति पातञ्जलमहाभाष्ये २।२।२९ ॥ १० ( द्रव्यान्तरं समुच्चयो ? ) ॥ ११ 'सत्तार्थ भा० प्रतौ नास्ति ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्रिययोभिन्नत्वसाधनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ३८५ खरूपतोऽन्यैव, अलिङ्गसङ्ख्यत्वात् , प्लक्षादिव भिन्नार्थानामेकसम्बन्धिविषयश्चार्थः । द्रव्यार्थस्य । अथ द्रव्यार्थं मा त्याक्षमित्येकमेवेष्यते पुनरपि दृष्टान्ताभावः द्रव्याद् भिन्नस्यार्थान्तरस्याभावादिति । अत्रोच्यते - पदार्थानामिति पदार्थग्रहणाद् नैष दोषः । प्रातिपदिकार्थो हि क्रियासम्बन्धी अन्तरङ्गत्यात् क्रियायाः, न पदार्थो बहिरङ्गत्वात् । यथा पुत्रमिच्छति पुत्रीयतीति द्वितीया बहिरङ्गकर्माभिधायिनी पुत्रस्य इषिणान्तरङ्गेण सम्बद्धत्वात् , उक्तं च-प्रातिपदिकानां क्रियाकृताः सम्बन्धा भवन्ति [पी० म० भा० २।३।५० ] इत्येषितुर्देवदत्तस्य पुत्रेणाभिसम्बन्धो न पदार्थेन विभक्त्यन्तेन, पदान्तरसन्निधौ तु तद्वयक्तिः कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया [पाँ० म० भा० १॥२॥१] इति वचनात्, क्रियया सम्बन्धमित्वा कर्मादित्वमेतीति पूर्वमेव क्रियया सम्बन्धः । यदि च क्रियासम्बन्धवत् प्रातिपदिकावस्थायामेव समुच्चयादिसम्बन्धोऽपि स्यात् ततः प्रातिपदिकार्थातिरेकात् सम्बोधनवद् यत्नान्तरविधेया प्रथमा 10 स्यात् , द्वितीयादयश्च न स्युः, कर्माद्यधिके हि प्रातिपदिकार्थे ता विधीयन्ते । यदि तु समुच्चयाद्याधिक्ये २७४-१ कर्माद्यस्तीति द्वितीयादयः स्युस्ततः कर्माद्याधिक्येऽपि प्रातिपदिकार्थोऽस्तीति प्रथमैव स्यात् । अतः पदार्थोत्तरकालभाविनि वाक्यार्थ उपजायमाने तस्योपकुर्वन्तश्चादयः पदैरभिसम्बध्यन्त इत्यत उच्यते-भिन्नानां पदार्थानामिति क्रियासम्बन्धव्युदसनार्थम् । स च समुच्चय एकसम्बन्धिविषयः । कोऽसावेकः सम्बन्धी ? वाक्यार्थः प्लक्षधवाद्येकदेशता अन्वाचयसमुँचययोरानयननयनादि । उक्तं च-चार्थे द्वन्द्वः [पा० २।२।२९], चस्य च कोऽर्थः ? समुच्चयोऽर्थोऽन्वाचयः समाहार इतरेतरयोगश्च पदार्थोत्तरकालभाविनः । तत्र 15 समुच्चयः गामश्वं पुरुषं शकुनि पशुमहरहर्नयमानो वैवस्वतो न तृप्यति सुरया इव दुर्मदीति । अन्याचयो यथा- देवदत्त भिक्षामट यज्ञदत्तं चानय । पाणिपादं ब्राह्मण-क्षत्रिय-विट्-शूद्राः रामकेशवाविति समाहारेतरेतरयोगौ । ये च द्रव्याणां गुणानां क्रियाणां च दृश्यन्ते यथा घटश्च पटश्चेति रूपं च रसश्चेति हसति तिष्ठति रमते 'वेत्यादयः पदार्थोत्तरकालभाविनः समुच्चयविकल्पादेयः न ते द्रव्यं न क्रिया न [णः, किन्तु द्रव्यस्यैव क्रियात्वाद् 'वीरपुरुषविशेषणविशेष्यैकात्मवद् वस्तुत्वैकत्वगत्यनन्यान्यत्वभाजो धर्माः प्रवृत्तिरेवेति 20 १ अ द्रव्यार्थ मा त्याक्षामि प्र० ॥ २ सम्बन्धत्वात् प्र० ॥ ३ “प्रातिपदिकानां क्रियाकृता विशेषा उपजायन्ते तत्कृताश्चाख्याः प्रादुर्भवन्ति-कर्म करणमपादानं सम्प्रदानमधिकरणमिति ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये ॥ ४“न ब्रूमः कारकाणि क्रियेति । किं तर्हि ? कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये ॥ ५“प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा । सम्बोधने च ।” पा० २।३।४६-४७ । दृश्यतां पाण्म०भा० २।३॥४६॥ ६ जायते तस्यों प्र०॥ ७°च्चयोरान प्र०॥ ८ञ्चयार्थों य० ॥ ९ "अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम् । वैवस्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी ॥ १॥” इति पातञ्जलमहाभाष्ये । २।२।२९ ॥ १० णत्वाच यथा य० ॥ ११ (चेत्यादयः?)॥ १२ दयः । न चेद्रव्यं प्र० ॥ १३ गुणाः भा० ॥ १४ “समानाधिकरणेषूपसङ्ख्यानमसमर्थत्वात् । समानाधिकरणेषूपसङ्ख्यानं कर्तव्यम् , वीरः पुरुषो वीरपुरुषः । किं पुनः कारणं न सिध्यति ? असमर्थत्वात् । कथमसामर्थ्यम् ? 'द्रव्यं पदार्थ इति चेत् । यदि द्रव्यं पदार्थः, न भवति तदा सामर्थ्यम् भेदाभावात् । अथ हि गुणः पदार्थः, भवति तदा सामर्थ्यम् । अन्यो हि वीरत्वं गुणः, अन्यो हि पुरुषत्वम् । नान्यत्वमस्तीतीयता सामर्थ्य भवति, अन्यो हि देवदत्तो गोभ्यश्चाश्वेभ्यश्च, न चैतस्यैतावता सामर्थ्य भवति । को वा विशेषो यद् गुणे पदार्थे सामर्थ्य स्याद् द्रव्ये च न स्यात् ? एष विशेषः-एकं तयोरधिकरणम् , अन्यश्च वीरत्वं गुणः अन्यः पुरुषत्वम् ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये २।१११॥ १५ गत्यान य० ॥ नय०४९ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे साधु भवति देवदत्तादौ यत् त्रिलिङ्गं तन्न भवति भवने, तथा एकस्मिन् द्वयोबहुषु वा भवत्सु याः सङ्ख्यास्ता न भवन्ति । प्रत्ययपरप्रकृतिव्यवस्थया तु प्रथमैकवचने, अतिक्रमकारणाभावात् । नपुंसकंच भवनस्याव्यक्तत्वात् , किमपि दृश्यते इति तथा त्रिकालविषयाद् द्रव्यादन्यो भावो न च तेन विना कारकः त्रिकाल 5 सम्बन्धः । यथात्र वीरशब्दः पुरुषसामानाधिकरण्याद् वस्तुत्वेनैकत्वं गतस्तथा पुरुषशब्दोऽपि वीरसामाना२७४, धिकरण्यात् , अन्यथा वैयधिकरण्याद् घटपटादिवदसम्बन्धादिदोषाः स्युः । अथ च वीरो विशेषणं पुरुषो विशेष्य इति परस्परतो भिन्नार्थत्वमनयोः, इतरथा सामानाधिकरण्यात् तादात्म्यात् पौनरुक्त्यादिदोषाः स्युः। दृष्टं चानयोरैकात्म्यं सामानाधिकरण्यात् , विशेषणविशेष्यभावाच्चान्यत्वम् । एवं प्लक्षादिपैदत्वेन दृष्टान्तपरिपूर्णत्वे सत्युत्तरकालभाविनश्वार्थस्यैकसम्बन्धिविषयत्वं प्लक्षधंवाद्युपात्तैकसमुच्चयगोचरत्वमित्यन10न्यत्वम् , अन्यत्वं तु प्लक्षधवयोरेवासी समुच्चय इति, तथा द्रव्यादलिङ्गसङ्खयो भावो वस्तुत्वैकत्वगतिरनन्योऽन्यश्चेति । इत्थं वा व्याख्यानेऽन्यत्वैकान्तो द्रव्यार्थत्यागोऽन्वयत्यागश्चेति परिहृता दोषाः । अतः परमलिङ्गसङ्घयत्वप्रसाधनायोत्तरो ग्रन्थः साधु भवतीत्यादिर्यावद् भवत्सु याः सङ्ख्यास्ता न भवन्तीति । एकस्मिन् द्वयोर्बहुषु वा देवदत्तादिभवितृषु लिङ्गसङ्ख्याभेदव॑त्सु यत् त्रिलिङ्ग सङ्खयाश्चैकत्वाद्यास्ता न भवन्ति भवने नपुंसकलिङ्गमेकवचनमेव चानुमीयते तद्विशेषणे साधुशब्दे श्रूयते च 'साधु 15 भवन्तं पश्य' इत्यादि कारकादिव्यतिरेकेऽपि । तस्मादन्यद् भवनं भवद्भयो देवदत्तादिभ्यः स्वरूपतः सत्यपि वस्तुत्वैकत्वे। स्यान्मतम् - किमर्थं नपुंसकलिङ्ग प्रथमैकवचनं च ? इत्यत्रोच्यते-प्रत्ययपरप्रकृतिव्यवस्थया तु प्रथमैकवचने, किं कारणम् ? अतिक्रमकारणाभावात् । अवश्यं च प्रत्ययपरा प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा [पा० २।२।४६ ] इति सत्तामात्रेऽपि प्रथमाविधानात् ततोऽतिरिक्तार्थासम्भवात् प्रथमातिलङ्घने फलाभावात् वचनस्य च नान्तरीयकत्वात् सत्तामात्रार्थकारणत्वात् कारणा20न्तराभावात् , कारणाद्धि तदतिक्रमः स्यात् । नपुंसकं च भवनस्याव्यक्तत्वात् , अव्यक्ते गुणसन्देहे २७५-१ नपुंसकलिङ्गं प्रयोक्तव्यमिति । किं तथा लोके दृष्टमिति चेत्, उच्यते-किमपि दृश्यते इति, यथा हस्त्यश्वनरादिसमूहं दृष्ट्वा वक्तारो भवन्ति - किमपि दृश्यते, इतिः प्रदर्शने, एतदेव वाक्यमुदाहरणत्वेन प्रदर्शयति । तथेत्यादि पूर्वसाधनवत् तस्मिन्नेव पक्षे हेत्वन्तरमुपचयरूपेणोच्यते । तेन प्रकारेण तथा यथा पूर्व 25 'वस्तुत्वैकत्वगत्यनन्यदन्यत्' इति पक्षीकृत्य साधितं तथात्रापि त्रिकालविषयाद् द्रव्यादन्यो भावो न च तेन विना कारक इति पक्षः, द्रव्येण विना न स्वयं कारको भावः, तत्सहवृत्तिरेवान्यत्वेऽपीत्यर्थः, १ पदत्तेन पा० डे. ली. २० ही० । (पदं, तेन,?)॥ २ धवादिउपा प्र० ॥ ३ (च?)॥ ४°वस्तु पतत्रिलिङ्गं प्र० ॥ ५ नमेव वानु य० । 'नमेवानु भा० ॥ ६ स्थाया य० ॥ ७°स्य वचनान्त प्र०॥ ८ दृश्यतां पृ० २४२ पं० ४ ॥ | Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्रियाभिन्नत्वसाधनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ३८७ त्वात्, द्रव्यं त्रिकालविषयम् क्रिया तु त्रिकाला गमनगन्तृवत्, वर्तमान एव देवदत्ते गन्तरि गतित्रैकाल्यम् 'अगमद् गच्छति गमिष्यति' इति तथा 'अभूद् भवति भविष्यति' इति । भावस्य द्रव्यादन्यत्वेन तदपृथक्कारकत्वेन च साध्यत्वाद् भावगमनयोरेकार्थत्वाद् दृष्टान्तः साध्यैकदेश इति चेत्, देवदत्तगमनयोस्त्रैकाल्या त्रैकाल्याभ्यां भेदसिद्धेर्द्रव्यभावयोरपि तद्वत्, युगपदयुगपत्तत्त्वख घटवत् । अथ द्रव्यार्थभेदत्वादस्य कथमिदं प्रागभावप्रध्वंसाभावात्मकं त्रैकाल्यम् ? कस्मात् ? त्रिकालत्वात्, त्रयः काला अस्येति त्रिकालः, कोऽसौ ? भावः क्रियालक्षण:, 'अभूद् भवति भविष्यति' इत्युपनेष्यमाणत्वाद् भेदेन त्रिभिरपि कालैरभिसम्बन्धदर्शनाद् भावस्य त्रिकालत्वं सिद्धत्वाद्धेतुः । द्रव्यं त्रिकालविषयमिति भावस्य त्रिधा भिन्नकालत्वेऽपि एकरूपत्वाद् वर्तमानत्वेनावतिष्ठमानं 10 तत्सम्बन्धि द्रव्यं तांस्त्रीनपि विषयीकरोतीति 'त्रिकालविषयम्' इत्युच्यते, त्रिष्वपि कालेषु तदेव भवतीत्यर्थः । अत्रिकालं द्रव्यं त्रिकालविषयमिति क्रिया तु त्रिकाला वर्तमानविषयेत्युक्तं भवति । गमनगन्तृव - दिति दृष्टान्तः । तद्वयाचष्टे - वर्तमान एव देवदत्ते गन्तरि, 'एव' कारोऽवधारणे, त्रिष्वपि कालेषु गन्तुवर्तमानैककालतामवधारयति । गतित्रैकाल्यम्, गमनस्य त्रयोऽपि काला अनवधारितैकरूपा दृष्टाः । तन्निदर्शयति – अगमद् गच्छति गमिष्यतीति, तथाऽभूदित्यादिरुपनयो व्याख्यातार्थः । 15 २७५-२ भावस्येत्यादि परमताशङ्का । स्यान्मतम् - भावस्य द्रव्यादन्यत्वेन तदपृथक्कारकत्वेन च साध्यत्वाद् भावगमनयोरेकार्थत्वाद् द्रव्याद् भवनपृथक्त्वासिद्धिवद् गन्तुर्गमनपृथक्त्वासिद्धेर्दृष्टान्तः साध्यैकदेश इत्येतस्यां विचिकित्सायां कथं साधनमिति चेत्, उच्यते - देवदत्तगमनयोस्त्रैकाल्या त्रकाल्याभ्यां भेदसिद्धेर्द्रव्यभावयोरपि तद्वदिति सामान्यविशेषयोः साध्यसाधनत्वाभ्यां विवक्षितत्वाददोषः तद्विचिकित्सायामपि तुल्यत्वात् युगपदयुगपत्तत्त्वखघटवदिति दृष्टान्तः, तस्य भावस्तत्त्वम्, तदेव 20 भवतीत्यर्थः । ननूक्तं ‘द्रव्यभेदे द्रव्यार्थत्यागः, अत्यागेऽन्वयाभाव:' इति, नैष दोषः, युगपदयुगपत्तत्त्वविशेषणादात्मादिसर्वैक्याद् युगपत्तत्त्वं खं द्रव्यार्थात्माभेदात् खादेः द्रव्यात्मैव वाऽयुगपत्तत्त्वो घटः, तथा त्रैकाल्यात्रैकाल्यवस्त्वन्यानन्यत्वे द्रव्यभावयोः । 25 अथेत्यादि । अथ मतम् - द्रव्यार्थभेदत्वादस्य नयस्य द्रव्यार्थस्य च नित्यत्वात् कथमिदं प्रागभावप्रध्वंसाभावात्मकं त्रैकाल्यं युज्यत इति वाक्यशेषः । यत् प्राग् नासीदधुना भवति तद् वर्तमानमित्युच्यते तच्च प्रागभूतम्, यद्विनष्टमतीतं प्रध्वस्तमभूतम्, यद् भविष्यति तदपि प्रागभूतमिदानीमभावात्, अङ्कुरघटकपालादिदर्शनात् । तच्च पूर्वापरकालतुल्यत्वाद् नित्यस्य न युक्तम्, नेर्ध्रुवे ब् १ दृश्यतां पं० २, १५ ॥ २ प्र० ॥ ३ गते भा० । गते त्रै' (त्रै ?) य० ॥ ४ तथाभूत्यादि प्र० । दृश्यतां पं० २, ८ ॥ ५ काल्या भेद प्र० ॥ ६ तुल्यत्यते युगप प्र० 11 ७ दृश्यतां पृ० ३८४ पं० २४, पृ० ३८६ पं० ६ ॥ ८ ( चायुग ? ) ॥ ९ वाक्यविशेषः प्र० ॥ १० त्यग्नित्य प्र० । “अव्ययात् त्यप् । ४।२।१०४।‘''त्यब् नेर्भुवे । त्यबू नेर्भुवे वक्तव्यः । नित्यः ।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतम् [ पञ्चम उभयारे न, प्रवृत्तिनित्यत्वात् । नित्यत्वस्यापि द्वित्वम् । कूटस्थस्य द्रव्यस्य तं तमात्मानं पर्यनुभवतः धौव्यं कौटस्थ्यं च । इतरस्य तु तथा तथाभिव्यज्यमानस्य अकौटस्थ्यं सततसम्प्रवृत्तिरूपं नित्यत्वं च । अत एव भूताभूतभाक्त्वं 'द्रव्यादन्यो भावः' इत्यस्यार्थस्य साधनम् । व्यति॰क्रान्त्यव्यतिक्रान्तिभाक्त्वाद् भिन्नौ क्रियाद्रव्यभावौ, तद्यथा - कृतः कटो देवदत्तेन, कृतः कर्मणा विभागः । क्रिया व्यतिक्रामति, विभागः कर्म च न व्यतिक्रामतः शब्दार्थस्य पिण्डितत्वात । न च व्यतिक्रमाव्यतिक्रमौ निर्निमित्तौ भवितुमर्हतः । दृष्टश्च कर्मविभागयोरव्यतिक्रमे करणस्य विभागविषयस्य व्यतिक्रमः । तत्र नित्यमिति निरुक्तेः । तस्मादसिद्धं भावस्य त्रैकाल्यम्, द्रव्यार्थाभ्युपगमात् । द्रव्यस्यैव वा त्रैकाल्याभ्युपगमे 10 भावस्य द्रव्यार्थवादत्याग इति । अत्रोच्यते - न दोषः, प्रवृत्तिनित्यत्वात्, नात्रापि द्रव्यार्थत्यागः प्रवृत्ति२७६- १ नित्यत्वात्, भवनप्रवृत्तिर्भाव इत्यर्थः, सा च प्रवृत्तिर्नित्या सदा प्रवृत्तेर्वस्तुनो भावोऽपि नित्य एवेति न द्रव्यार्थत्यागो नात्रैकाल्यमिति । इतर आह - कुतो नित्यत्वस्य द्वैतम् ? इति । अत्रोच्यते - वस्तुनो द्रव्यभवनात्मकस्योभयत्वादेव नित्यत्वस्यापि द्वित्वं सिद्धं यथा प्रागुपवर्णितं न हि तदेव नित्यमित्यादि यावत् तदपि हि नित्यं यस्मिं15 स्तत्त्वं न विहन्यते [ पा० म० भा० १|१| पस्पशा० ] इति उक्तत्वात्, इदानीमपि तद्वित्वं प्रदर्श्यते - कूटस्थस्येत्यादि, द्रव्यं हि कूटस्थं नित्यं पूर्वापरकालतुल्यत्वात्, तस्य कूटस्थस्य द्रव्यस्य सर्वप्रभेदनिर्भेदस्य बीजभूतस्य गमनस्थानादिसर्वात्मकत्वेनावस्थितस्य तं तमात्मानं पर्यनुभवतः तत्पर्यनुभवनात्मत्वादेव "ध्रौव्यं कौटस्थ्यं च युज्यते । इतरस्य तु भावस्य तथा तथाभिव्यज्यमानस्य पर्यनुभूयमानस्य क्रमेण युगपद्वा सततप्रवर्तनात्मनो भावस्य प्रवृत्तेरकौटस्थ्यं सतत सम्प्रवृत्तिरूपमव्यवच्छिन्नभवनात्मकं नित्यत्वं चेति 'नित्यत्वस्यापि द्वित्वम्' 20 इति साधूक्तम् । अत एवेत्यादि । एतस्मादेव नित्यत्वद्वित्वादन्यदिदमपि कारणं भूताभूतभाक्त्वं द्रव्याद्वैधर्म्यमस्याः प्रवृत्तेरन्यत्वकारि 'द्रव्यादन्यो भावः' इत्यस्यार्थस्य साधनम्, 'द्रव्यविलक्षणो भावः' इत्यत्र हेतुरित्यर्थः । भूताभूता क्रिया, द्रव्यं भवदेव, वृत्ता वर्तमाना च क्रिया, द्रव्यं वर्तत एवेत्यर्थः । अथवा भूतं द्रव्यमभूतं करणं स्थितं गतं च यथासङ्ख्यं, व्यतिक्रान्त्यव्यतिक्रान्तिभाक्त्वाद् भिन्नौ क्रियाद्रव्यभावौ, 25 तद्यथा - कृतः कटो देवदत्तेन, देवदत्तः कटकरणकाले करणोपरमे च कटस्यैकरूप एव, क्रिया तु वीरण२७६-२ संयोगावस्थायामव्यतिक्रान्ता कटनिष्पत्त्युत्तरावस्थायां व्यतिक्रान्ता । तथा कृतः कर्मणा विभाग इति द्वितीयमुदाहरणं कर्तृकर्मसमवायित्वात् क्रियायाः पचिभिदिवत्, वैयाकरणसिद्धान्तेन तु कर्तुरीप्सिततमं कर्म [ पा० - ४४९ ] क्रियैव तु वैशेषिकस्य, इहाविशेषेण विभागहेतुः क्रिया, विभागश्च सन्तत्यनुपरमाद् १ र्थत्यागः य० ॥ २ ( भवनं प्रवृत्तिर्भावः ? ) ॥ ३ नित्यस्यापि य० ॥ ४ दृश्यतां पृ० २१ पं० २२, पृ० २१२ टि० ४ ॥ ५ द्रव्यं क भा० | द्रव्य य० ॥ ६ भिन्नो क्रियाद्रव्यभावो य० ॥ ७ दृश्यतां पृ० २८३-२ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यक्रिययोभिन्नत्वप्रतिपादनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ३८९ देवदत्ते द्रव्ये कर्मणि वा करणलक्षणया प्रवृत्त्या भवितव्यमविच्छेदेन, सा च तदतद्भवनखरूपा। __ यथा च संयोगविभागफलं कर्म गमनं गन्तुः पदार्थान्तरम्, तत्सम्बन्धं चान्तरेण गमनं न भवति तथा गमनाद्यपि करणसम्बन्धमन्तरेण न भवति, अन्यतो भिन्नं खतत्त्वाद् द्रव्याद्वा न स्यात् कर्मेति न स्यात् । तथा भवद्वा 'कृतम्' इति व्यपदेशं न जनयेत्, करणसम्बन्धाभावात् , आकाशादिवत् । तथा च तत् सद् असत्कारणमिति नित्यं स्यात् । द्रव्यवदवस्थित इति विवक्षितं तस्य, विभागः कटकर्तुश्चलनात्मकस्य कर्मण ईप्सिततमत्वात् कर्म चलनेन द्रव्यं देशान्तरं प्रापयता क्रियत इति सा क्रिया व्यतिक्रामति, विभागः कर्म च न व्यतिक्रामतः, शब्दार्थस्य पिण्डितत्वाद् नामत्वादित्यर्थः । न च व्यतिक्रमाव्यतिक्रमौ निर्निमित्तौ भवितुमर्हतः । दृष्टश्च वर्तमानयोः 10 कर्मविभागयोः द्रव्ययोरव्यतिक्रमे करणस्य क्रियाया विभागविषयस्य व्यतिक्रमः। न चैकस्मिन् व्यतिक्रमाव्यतिक्रमौ युगपद् भवतः विरोधात् प्रमाणान्तरापेक्षामन्तरेण, तस्मादेतदनुमेयं तंत्र देवदत्ते द्रव्ये कटस्य कर्तरि कर्मणि वा कर्तरि चलने वीरणानां कटे वा कर्मणि करणलक्षणया प्रवृत्त्या भवितव्यमविच्छेदेन । सा च प्रवृत्तिः क्रिया तदतद्भवनस्वरूपा, तस्मिन् द्रव्येऽतस्मिंश्च करणे भवनमस्याः प्रवृत्तेः स्वरूपम् , तया च [व्यतिक्रमाव्यतिक्रमविभागतया द्विरूपैयाऽवश्यमव्यवच्छिन्नँया[5]कूटस्थया प्रवृत्तिभवनात्मिकया भवितव्यमिति । 15 यथा च संयोगेत्यादि । इदमधुना गन्तृगमनदृष्टान्तयोर्भवितृभवनदार्टान्तिकयोश्च प्रागुक्तवदू भेदानभ्युपगमे दोषाभिधित्सयोच्यते । 'संयोगविभागाः कर्मणां कार्य सामान्यम्, गुरुत्वप्रयत्नसंयोगानामुत्क्षेपणं कारणं सामान्यम् [वै० सू०] इति वचनाद् देशान्तरसंयोगं द्रव्यस्य देशान्तरविभागं च गमनकर्मारभते गुरुत्वादिजनकं चोत्क्षेपणं कर्म । तस्मात् संयोगविभागफलं कर्म गमनं गन्तुः, पदार्थान्तरम् , तयोः संयोगविभागयोस्तत्कारणस्य च कर्मणो यावद्रव्यभावाभावाद् वैशेषिकसतवत् 20 पदार्थान्तरतायां सत्यां गन्तुर्गमनेन सम्बन्धः, तत्सम्बन्धं चान्तरेण गमनं [न] भवति, 'गच्छति देवदत्तः' इति हि गमनसम्बन्धाद् दृष्टम् , व्यतिलविन्तगमनश्च 'गतः' इत्युच्यते, तस्मात् तद्वयतिक्रममन्तरेण 'गतम्' इति न भवति । एष विधिः कर्मविशेषे गमने दृष्टः । तथा गमनाद्यपि करणसम्बन्धमन्तरेण न भवतीति क्रिया सिध्यति, अन्यतो भिन्नमिति स्वतत्त्वात् कर्मत्वात् द्रव्याद्वा कर्मत्वस्य स्वतत्त्वस्याश्रयो न स्यात् कर्मेति न स्यात् , क्रियमाणत्वाद्धि तत् कर्म करणे सति, करणव्यतिक्रमे च 'कृतम्' इति न स्यात् । 25 कर्मणि तु भिन्ने द्रव्यात् स्वतत्त्वाद्वा स्यादिति । तथा भवद्वेत्यादिना करणं भवदपि स्वसम्बन्धव्यतिक्रममन्तरेण 'कृतम्' इत्येतं व्यपदेशं न जनयेत् , तच्च दृष्टम् , किं कारणं न स्यादिति चेत्, करणसम्ब १ कर्मटकर्तु डे० ली । कर्मचटकर्तु २० ही० । कर्मचमोटकर्तु पा० । दृश्यतां पं० ९ । 'विभागः कर्तुश्चलनात्मकस्य' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ २ तत्त भा० । तत्वत् डे० लीं० २० ही० । तत्वव पा० । ते तत्वत् वि०॥ ३°पतया य० ॥ ४'नयाकूट भा० । न्नकूट य० ॥ ५ यथारसंयों प्र०॥ ६ “द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम् । १।१।१८ । 'द्रव्याणां द्रव्यं कार्य सामान्यम् । १।१२३ । गुरुत्वप्रयत्नसंयोगानामुत्क्षेपणम् । १।१।२९ । संयोगविभागाश्च कर्मणाम् । १।१।३० । कारणसामान्ये द्रव्यकर्मणां कर्माकारणमुक्तम् । १।१।३१।" इति वैशेषिकसूत्रे पाठः ॥ ७ इति भवति भा०॥ ८करणे सति पा. डे. ली. रं. ही । (कर्म, करणेऽसति करणव्यतिक्रमे च?)॥ २७७१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् । [पञ्चम उभयारे यथा च कर्म क्रिया विना न भवति तथा करणमपि भवनव्यक्तिमन्तरेण नैव भवेत्, तथा भवनसम्बन्धव्यतिक्रममन्तरेण भूतमिति न स्यात् । पूर्वः पूर्व उत्तरोत्तरकार्यकारणभावेन । ततश्च प्रागादिनिर्विशेषणं नास्ति भवनसम्बन्धव्यतिक्रमाभावात् खपुष्पवत्, असत्कारणत्वाद्वा, अभूतभवनसम्बन्धव्यतिक्रमत्वात् । 5 व्यतिक्रमश्च तृणकमोदी कटविभागादिभवनभूततायाम् । द्रव्यं क्रिया च द्वयमेव २७७-२ न्धाभावात् । किमिव ? आकाशादिवत् । ततः किं स्यात् ? तथा च तद् भवत् कर्म सत्त्वात् कारणासम्बन्धाच्च सैदसत्कारणमिति नित्यं स्यात्, नित्यलक्षणयोगात् । किं नित्यलक्षणमिति चेत् , उच्यते - सदकारणवत्तन्नित्यम् [वै० सू० ४।१।१] इति नित्यलक्षणं वैशेषिकमतेनेति । एवं तावत् 'कर्म गमनादि करणसम्बन्धाद् भवति' इत्युपपादितम् । 10 यथा च कर्मेत्यादि । यथा च गमनादि कर्म क्रियया विना न भवत्युक्तविधिना तथा करणमपि भवनव्यक्तिमन्तरेण भवनक्रियाविर्भावेन विना नैव भवेत् , न भवितुमर्हतीत्यर्थः । तथा भवनसम्बन्धव्यतिक्रममन्तरेण भूतमिति न स्यात् , तत्सम्बन्धे 'भवति' इति भवति तत्सम्बन्धव्यतिक्रमे च 'भूतम्' इति । पूर्वः पूर्व उत्तरोत्तरकार्यकारणभावेनेति क्रियासम्बन्धप्रबन्धं प्रदर्शयति ततश्च प्रागादिनिर्विशेषणमित्यादि भवनसम्बन्धे तद्वयतिक्रमे चासति प्राक्प्रध्वंसेतरेतरशक्तिसंयोगाद्य15 भावाभावादभावभेदरहितो नास्त्यभाव इत्यनर्थान्तरमिति अँविशेषेणैकोऽत्यन्ताभाव एव स्यादभावः भवन सम्बन्धव्यतिक्रमाभावात् खपुष्पवदिति, यथा खपुष्पं भवनसम्बन्धाभावात् तद्वयतिक्रमाभावाच्च न भैवेदेवं सर्वं घटादि स्यादिति । असत्कारणत्वाद्वा, तदा हि वस्तुनो भवनकारणं योऽसौ करणसम्बन्धो भवनसम्बन्धश्च स नास्ति तद्वयतिक्रमो वेति सत्कारणाभावादकारणत्वादत्यन्ताभाव एव स्यात् खपुष्पवत् सर्व घटादि । तदुपसंहृत्य हेतुमाह - अभूतभवनसम्बन्धव्यतिक्रमत्वादिति, गतिस्थित्यादिकरणभवन20 सम्बन्धव्यतिक्रमसद्भावाद् गच्छति तिष्ठति करोति भवति गतस्थितकृतभूतव्यक्त्यात्मकदेवदत्तवस्तु भवदुपलभ्यते नान्यथेति । स्यान्मतम् - भवनस्य सततसम्प्रवृत्तस्याव्यतिक्रम इति । अत्रोच्यते - व्यतिक्रमश्च तृणकर्मादौ, तृणतन्त्वादीनां क्रियास्तृणकर्म, आदिग्रहणात् संयोगः, यथासङ्खथं कटविभागादिभवनभूततायाम् , अत्रापि आदिग्रहणात् पटविभागसंयोगादयो गृहीताः, भवनस्य भूततायामेवंलक्षणस्य भवति व्यतिक्रमः 'तृणं कटो भवति, गमनकर्म विभागो भवति संयोगश्चान्येन' । स्यान्मतम् - कथं 'तृणं 25 कटो भवति, कर्म विभागो भवति' इत्येतदुच्यते ? इति । अत्रोच्यते , अत्रापि ननूक्तम् -द्रव्यं क्रिया २७४-१ च द्वयमेव सर्वमिदमिति संयोगादि सर्वं गुणक्रियात्वप्रतिपादनात् तस्य भवनस्य भूतता व्यतिक्रम इति । . १ भवकर्म प्र०॥ २ (करणास ? ) ॥ ३ सदसतकामिति य० । सदत्ततत्कमिति भा० ॥ ४°णनत्तनित्यम् यः । “सदकारणवन्नित्यम्” इति वैशेषिकसूत्रे पाठः ॥ ५ क्रमन्त प्र. ॥ ६°सम प्रदर्शयति य० । सम्बन्धप्रबन्धप्रबन्धप्रदर्शयति भा० ॥ ७ अविशेषणेकात्य य०॥ ८ (भवेदेवं?)॥ ९ कारण प्र०॥ १० असत्कारणाभावा य० । वस्तुतस्तु अत्र असत्कारणभावा इति पाठः समीचीनो भाति, 'असत्कारणत्वात्' इत्यर्थः ॥ ११ सर्व प्र० ॥ १२ नन्यथेति भा० । अन्यथेति य० ॥ १३ °स्य व्यति . प्र.॥ १४ सर्वगुण वि. २० ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वस्य द्रव्यक्रियोभयात्मकत्वप्रतिपादनम् ] द्वादशार नयचक्रम् ३९१ सर्वमिदम् । एवमेव च भावक्रियाश्रयः कारकाणां कर्मादिभावः। यदि द्रव्यवत् क्रियापि वस्तुनस्तत्त्वं स्यात् ततस्तया विना नैव वस्तु स्यात् , तत्त्वात्, देवदत्तबालादिवत् घटरूपादिवत् । दृष्टं चैतद् गमनादिक्रियया विनापि देवदत्ताख्यं वस्तु । अन्तरेणापि तु क्रियां भवत्येव वस्तु, तस्मात् ततोऽन्यत् तदन्तरेणापि भावात् घटपटवत् । दृश्यते हि देवदत्ते गच्छत्यधृतिं करोति यज्ञदत्तः ।। यदि द्रव्यपारमार्थ्यवत् क्रियापि स्यात् गमनवत् क्रियात्वात् स्थानमपि परमार्थ एवमेव चेत्यादि । एवं कृत्वा भावक्रियाश्रयः, भाव एव क्रिया भावक्रिया । द्रव्यं भावः, स एव च क्रिया, द्रव्यस्य वा क्रिया । तदाश्रयो द्रव्यभवनाश्रयोऽयं कारकाणां कर्मादिभावः कर्मकरणादिभावः, न नियतरूपः विचित्रक्रियाभवनसम्बन्धाद् भवति, 'देवदत्तः पचति ओदनं काष्ठैः स्थाल्याम् , ओदनो भवति, काष्ठानि ज्वलन्ति सन्धुक्षन्ति, स्थाली धारयतीत्यधिश्रीयते' इत्येवमादिदर्शनात् । न हि 10 किञ्चिजातिविशेषयोगाद् गोत्वादियोगादिवत् कर्मत्वकरणत्वाधिकरणत्वादियोगात् कर्मैवेदं करणमेवाधिकरणमेव नियतं नान्यदपि भवतीति । किं तर्हि ? अनियतशक्तिविषयम् , शक्तीनां कारकत्वात् , तदेव हि द्रव्यमन्यया क्रियया 'प्रमाष्टिं नेत्रे' इति नेत्रादि कर्म भवति, अन्यया करणम् 'नेत्रेण पश्यति' इति, अन्ययाधिकरणम् 'नेत्रेऽञ्जनं तिष्ठति' इत्यादि । तस्मात् सर्वप्रभेदनिर्भेदं बीजं वस्तु द्रव्यं तत्त्वम् , तद्भेदिभवनव्यक्तिः क्रिया। - यदीत्यादि एवमनिच्छतो दोषः, यदि द्रव्यवत् क्रियापि वस्तुनस्तत्त्वम् आत्मा स्वरूपं स्यात् ततस्तया विना क्रियया नैव वस्तु स्यात् , तत्त्वात् तदात्मत्वात् स्वरूपत्वात् , यद् यत्तत्त्वं यदात्मास्वरूपं वा न तत् तेन विना भवति देवदत्तबालादिवत् , यथा देवदत्ततत्त्वा बालादयोऽवस्थाविशेषाः क्रमभाविनो न तेन विना भवन्ति तथैतदपि वस्तु क्रियया विना न स्यात् , घटरूपादिवदिति घटतत्त्वा रूपादयो युगपद्भाविनस्तेन विना न भवन्ति तथा क्रियया विना तद् वस्तु न स्यादिति विशेषः । दृष्टं चैतद् 20 गमनादिक्रियया विनापि देवदत्ताख्यं वस्त्वित्यनिष्टापादनमेतत् । दोषदर्शनादपि वस्तु भवतीत्येतदर्थं साधनमाह - अन्तरेणापि तु क्रियां भवत्येव वस्तु तस्माद् विना भावे दोषदर्शनात् ततोऽन्यत् 'क्रियातोऽन्यद् वस्तु' इति प्रतिपत्तव्यम् । न केवलं दोषदर्शनादेव, किं तर्हि ? अन्यत्वहेतुरप्यस्तीत्यत आह - तदन्तरेणापि भावात् , यद् यदन्तरेणापि भवति तत् ततोऽन्यत् घटपटवत् , यथा घटः पटमन्तरेण भवन् पटादन्यः पटश्च घटमन्तरेणापि भवंस्ततोऽन्यस्तथा क्रियामन्तरेणापि भवद् वस्तु ततोऽन्यदिति । 25 तन्निदर्शनान्तरं विचारान्तरास्पदमप्याह - दृश्यते हि देवदत्ते गच्छत्यधृतिं करोति यज्ञदत्त इति । अत्र यज्ञदत्तस्याधृतिकारणं गमनं देवदत्ताख्याद् वस्तुनोऽन्यत् पूर्वोत्तरकालतुल्येऽपि तस्मिन् यतोऽधृतिर्भवति, तस्माद् न क्रिया वस्तुनस्तत्त्वम् । २७८-२ यदि द्रव्यपारमार्थ्यवदित्यादि । यदि यथा देवदत्ताख्यस्य वस्तुनो, द्रव्यं परमार्थस्तथा क्रियापि स्यात् गमनवत् क्रियात्वात् स्थानमपि परमार्थ इति प्रागेव स्थानक्रियया गमनविरोधिन्या देवदत्तोऽ- 30 १°योगादि भा० प्रतौ नास्ति ॥ २ य आत्मा प्र० । अत्र यस्यात्मा इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ३ न गच्छ प्र० ॥ ४॥ एतदन्तर्गतपाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ - 15 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे इति तस्य गमनं नैव स्यात्, देवदत्तावरुद्धदेशे यज्ञदत्तवत् । अथ गमनतत्त्व एव देवदत्त इष्यते तथापि गमनक्रियापरमार्थदेवदत्तत्वात् स्थानं नैव स्यात् इति यानस्थानयोरभावात् पूर्ववद्धृतिः सततमधृतिर्वा स्यात् तथा । तथा भवने[ऽपि] यथा देवदत्ते गच्छति अधृतिरस्य तथा तदात्मत्वाद् यावद्देवदत्तमधृतिप्रसङ्गः 5 तत्कालवत्, देवदत्त एवास्याधृतिनिमित्तमिति । स्थित्यात्मकत्वाद्वास्य गच्छत्यपि देवदत्ते यज्ञदत्तस्य धृतिरेव सदा स्यात् स्थानकालवत् । यज्ञदत्त.... धृतिरधृतिर्वा । २७९-१ वरुद्धः स्यात् । ततश्च तयावरुद्धत्वात् तस्य देवदत्तस्य गमनं नैव स्यात् , कदाचिदपि न गच्छेद् देवदत्त इत्यर्थः । देवदत्तावरुद्धदेशे यज्ञदत्तवत् , यथा देवदत्ताख्यं वस्तु देवदत्तत्वेनावरुद्धमिति 10 तद्विरोधिनो यज्ञदत्तत्वस्यानवकाशात् तत्र यज्ञदत्तत्वं नैव जातु भवति तथा देवदत्ते स्थानेनावरुद्धे गमनं नैव जातु स्यादिति । अथ मा भूद् यज्ञदत्ताधृतिकारणस्य देवदत्तगमनस्याभाव इति गमनतत्व एव देवदत्त इष्यते तथापि गमनक्रियापरमार्थदेवदत्तत्वात् स्थानं नैव स्यात् कदाचिदपि, गमनेनावरुद्धत्वाद् देवदत्तस्य देवदत्तत्वावरुद्धदेवदत्ते यज्ञदत्तत्ववदेव। इतिशब्दो हेत्वर्थे, ततश्च हेतोर्यानस्थानयोरभावात् , यानाभावात् तावत् पूर्ववैद्धृतिर्यथा प्राग् गमनोत्पत्तेर्गमनासत्त्वादधृत्यभावः तथा गमना1b भावाद् गच्छत्यपि देवदत्ते यज्ञदत्तस्याधृत्यभावः देवदत्तसत्त्वात् गमनकालेऽपि', गमनाभावे यथा यज्ञ....दत्तस्य धृतिर्भवत्येवं सततमधृतिर्वा स्यादिति । एवं स्थानाभावेऽपि धृत्यधृती स्यातामुक्तन्यायेन । तथेति 'तेन प्रकारेण प्रोक्तोपपत्तिक्रमप्रापिताभावप्रकारेण यानस्थानयोरिति । ___ तथा भवने[ऽपी] त्यादि । भवतु वा गमनं स्थानं वेत्यभ्युपगम्यापि दोष उच्यते । तत्र गमने तावद् यथा देवदत्ते गच्छत्यधृतिरस्य तथा तदात्मत्वाद् यावद्देवदत्तमधृतिप्रसङ्गः, यथा देव20 दत्तगमनकाले यज्ञदत्तस्याधृतिहेतुर्देवदत्तो गमनात्मत्वात् तथा यावज्जीवम् आत्मनो यावदायुर्यज्ञदत्ताधृति हेतुरेव स्यात् गमनात्मत्वात् तत्कालवदिति तस्य देवदत्तस्य गतिपरमार्थत्वाद् वस्तुत्वावस्थानाच्च देवदत्तस्य गमनात्मनः पूर्वोत्तरकालतुल्यत्वात् । अतस्तद्विवरणार्थमाह - देवदत्त एवास्याधृतिनिमित्तमिति, 'इति'शब्दो हेत्वर्थे, यतो देवदत्तो गमनात्मैव तस्मात् सततमधृतिप्रसङ्गः । एवं तावदयं स्थानविरोधिन्या गर्भावेऽभिहितो दोषः । गतिविरोधिन्याः स्थितेरेव वा भावे स्थित्यात्मकत्वाद् वास्य देवदत्तस्य गच्छत्यपि 25 देवदत्ते यज्ञदत्तस्य धृतिरेव सदा स्यात् स्थानकालवद् देवदत्तसद्भावादिति । ___ एवं तावद् देवदत्तगतिस्थितिविषययज्ञदत्ताधृतिविचारद्वारेण दोषा उक्ताः । इदानीं यज्ञदत्ताधृतिविषयोऽपि विचारस्तथैव कर्तव्यः । अत्रापि यदि द्रव्यपारमार्थ्यवदित्यादिग्रन्थो धृत्यधृतियज्ञदत्तशब्दोधारणेन यथासम्भवं योज्यः । प्रकारान्तरेणापि तु यज्ञदत्तेत्यादि यावद् धृतिरधृतिर्वा । यज्ञदत्तद्रव्यत्वं १ तस्या प्र० ॥ २'रुद्धं (रुद्ध ?) देव भा० । रुद्धत्वं देव य० ॥ ३ ववृत्तेर्यथा प्र० ॥ ४त्वादृत्यभावः प्र० ॥ ५ त्तस्यत्वात् य० ॥ ६°पि भावे यथा य०॥ ७भवमु वा भा० । भवनमु वा य० ॥ ८ततस्यादत्तस्य भा०॥ ९त्तत्वस्य भा० ॥ १० दृश्यतां पृ० ३९१ पं०६॥ | Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियानित्यत्वे भेदज्ञानव्यवहारोपपादनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ३९३ न, तदतद्भवनाविच्छेदात्मकप्रवृत्तिनित्यत्वस्याकूटस्थत्वाद् भवनमेवेदं गतिधृतिस्थित्यादि । भेदज्ञानव्यवहारौ तु शब्दभेदद्रव्यप्रवृत्तितत्त्वानुरूप्यात्, शब्द हि वस्तुस्वरूपम् , धृत्यधृतिक्रिये च तदव्यतिरिक्ते । ततो देवदत्तयानस्थानयोरपि देवदत्ताव्यतिरेकात २७९-२ तद्वद् यावद्देवदत्तं गमनं स्थानं वेति धृतिरेवाधृतिरेव वा स्याद् यज्ञदत्ततत्त्ववत् , विरोधिनः क्रियान्तरस्याभावात् पूर्ववत् । तस्मादेतेन क्रियाया अपि नित्यत्वादित्याह -ने, तदतद्भवनाविच्छेदात्मकप्रवृत्ति-5 नित्यत्वस्याकूटस्थत्वात् , तद्भवनमतद्भवनं तदतद्भवनं च सरूपैकशेषात् तदतद्भवनम् । तद्भवनं तावदस्तिभवत्यादिविषयम् , पुनः पुनर्भवत्येवेति । अतद्भवनं स्थानाद् गमनं गमनाच्च स्थानमिति । तदतद्भवनं भवनसहिते ते एव स्थानगमने तथा धृत्यधृती । तस्याविच्छेद आत्मा यस्याः प्रवृत्तेरविच्छेदात्मिकायाः सा तदतद्भवनाविच्छेदात्मकप्रवृत्तिः, तस्या नित्यत्वम्, तदकूटस्थं कूटस्थद्रव्यनित्यत्वविलक्षणम् , तद्भावात् तदतद्भवनाविच्छेदात्मकप्रवृत्तिनित्यत्वस्याकूटस्थत्वाद् भवनमेवेदं गतिधृतिस्थित्यादि, एता 10 यानस्थानधृत्यधृत्यादिकाः परस्परविरोधिन्यः क्रियास्ता एता भवनमेव सततसम्प्रवृत्तिरूपभवनात्मकत्वाद् भवद्भवनविलक्षणं नित्यं च प्रवृत्तिभवनमात्रमेवेत्यभिन्नं क्रियामात्रम् । अतो द्रव्यं क्रिया चोभयं नित्यं भावः । स्यान्मतम् - क्रियाभेदाभावाद् भेदज्ञानव्यवहाराभावः स्यात् , दृश्येते भेदज्ञानं भेदव्यवहारश्चेति । एतचायुक्तम् , तस्माद् भेदज्ञानव्यवहारौ तु 'गच्छति तिष्ठति धृतिं करोत्यधृतिं वा न वा' इति द्वावप्येतौ शब्दभेदद्रव्यप्रवृत्तितत्त्वानुरूप्यात्, शब्दो भेदो यस्या द्रव्यप्रवृत्तेः सा शब्दभेदद्रव्यप्रवृत्तिः, न 15 शब्दोऽन्यो द्रव्यात्, प्रवृत्तिः क्रिया गुणोऽपि क्रियेति प्रागुक्तम् । रूपरसगन्धस्पर्शभेदायाः प्रवृत्तेः शब्द-२८०-१ भेदा प्रवृत्तिरन्या, तस्यास्तत्त्वं वर्णात्मकत्वादि रूपम् , तदानुरूप्याच्छब्दभेदप्रवृत्तितत्त्वानुरूप्याद् भेदज्ञानं भेदव्यवहारश्च भवति । शक्तिमतो द्रव्यस्य शक्तयो युगपद्भाविन्यो रूपरसादयः क्रिया एव, गमनस्थानादिक्रियास्तु क्रमभाविन्यः । यथोक्तम् - शक्तिमात्रासहायस्य विश्वस्याद्भुतकर्मणः । 20 सर्वथा सर्वदा भावात् कचित् किञ्चिद् विवक्ष्यते ॥ [वाक्यप० ३।७२] इति । १त्ततत्ववत् प्र० । (तत्ववत् ? ) ॥ २ दृश्यतां पृ० ३९५ पं० १०॥ ३ मतद्भवनं च सरूपैकशेषात् तदतद्भवनं तावद य० ॥ ४ का सा तद प्र० ॥ ५ तस्यापि नि प्र०॥ ६ भवनवद्भवनवि य० ॥ ७ (यस्माद् ?) ॥ ८°द्रव्यत्तिर्न शब्दो भा० । द्रव्यत्तिदर्शनानं शब्दों यः॥ ९ वर्णावर्णात्म प्र०॥ १० “कथं पुनरेतदवगम्यते 'शक्तिः साधनम् , न पुनर्द्रव्यम्' इत्याशङ्कयाह ----शक्तिमात्रासमूहस्य विश्वस्यानेकधर्मणः। सर्वदा सर्वथा भावात क्वचित किञ्चिद विवक्ष्यते ॥ [वाक्यप० ३।१२] । घटादयो भावा विश्वशब्दवाच्याः, ते च तत्तदुदकाहरणादिकार्यसाधिकानां शक्तीनां समूहरूपाः । अत एव ताः शक्तयः तत्र मात्रा भागाः इति शक्तिसमाहारमात्रं घटादयः । ताश्च शक्तयोऽनेकविधाः, काश्चित् खहेतोरेव दैवात् भवन्ति, आश्रयादिनाशं मत्वेव न च विनश्यन्ति यथा बोधप्रदीपानां प्रकाशशक्तयः । काश्चित् पौरुषेऽप्यन्तःस्थिता एव आश्रये निरुध्यन्ते यथा बा(बो?)धादिशक्तयः, ता हि समभ्यासेन दृष्टद्रव्योपयोगेन जायन्ते । अन्याः सत्यो वा अपरपुरुषप्रयत्नेन विध्वंस्यन्ते, यथा विषस्य मारणशक्तिः बीजस्य अङ्करजननशक्तिः। अन्याः प्रभावातिशयवता विपरिवर्त्यन्ते, यथा योगिना सर्वभावानां रूपपरिवृत्तिराधीयते। काश्चित् कालपरिवासेन व्यज्यन्ते यथा धर्माधर्मशक्तिः फलदाने इत्याद्यनेकविधमुन्नेयम् । एवमनेकस्वभावत्वे शक्तिसमुदायस्य विचित्रे कार्ये यथाशक्ति भेदविवक्षायां प्रतिनियतसाधनभावोपपत्तिः । द्रव्यस्य तु साधनत्वे तस्यैकरूपत्वात् कार्यवैचित्र्यं न स्यादित्यर्थः । तदुक्तं भाष्ये 'गुणसमुदायः साधनम्' इति । प्रधानक्रियाया एकैकशक्तिसाध्यत्वा नय० ५० Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे शक्तीनां यथानुरूपं प्रतिविषयनियतप्रत्यायनवृत्तित्वात् नित्यप्रवृत्तिक्रमप्रातिविशिष्टवस्तुभागाभिनिवेशिभिरभिधानः सर्वस्य वस्तुरूपस्याभिधातुमयोग्यत्वात् । यथा 'देवदत्तो गच्छति' इत्यत्र 'देवदत्तशब्दो द्रव्यांशविषयनियतशक्तित्वाद् गत्यादीन् नोपात्त न वा व्युदस्यति तथाख्यातमपि देवदत्तं नोपात्ते न वा व्युदस्यति क्रियांश5 विषयनियतशक्तित्वात् नामाख्यातयोर्नियतवस्तुभागाभिनिवेशित्वात्, तदनुपात्ययं भेदप्रत्ययः । तथैव गतिस्थितिधृत्यधृत्यादिभेदव्यवहाराः सर्वभेदपर्यनुभवार्थत्वाद् नित्यप्रवृत्तेः। देवदत्तवस्तुना गतिरुपात्तैव तदात्मत्वात् अग्निनेवौष्ण्यम् । गच्छतिशब्देन २८०-२ विवक्षापि च तासां शब्दशक्तीनां यथानुरूपं प्रतिविषयनियतप्रत्यायनवृत्तित्वात् , सत्यपि 10 सर्वसर्वात्मकत्वे द्रव्यार्थनयस्य वर्णात्मकघटशब्दशक्तेः पृथुकुक्ष्यूर्ध्वग्रीवाद्याकारप्रत्यायने नियता वृत्तिर्नान्यत्र, रूपादिद्रव्यशक्तिप्रवृत्तिभेदनियतेन्द्रियग्राह्यत्ववच्छब्दशक्तिप्रवृत्तिभेदाद् भेदज्ञानव्यवहारीवित्यर्थः । तद्व्याचष्टे -नित्यप्रवृत्तीत्यादिना, नित्यप्रवृत्तेः क्रमप्राप्त्या विशिष्टो यो वस्तुभागस्तदभिनिवेशिभिरभिधानैः सर्वस्य वस्तुरूपस्याभिधातुं शब्दैरयोग्यत्वादिति । तन्निदर्शयति - यथा देवदत्तो गच्छती यादि यावद् न वा व्युदस्यतीति गतार्थम् । तथाख्यातमपीत्यादि तद्वदेव गतार्थं यावत् क्रियांश15 विषयनियतशक्तित्वादिति, नामाख्यातयोर्नियतवस्तुभागाभिनिवेशित्वादिति तदेव कारणम् , ...तदनुपात्ययं भेदप्रत्यय इत्युपसंहरति, द्रव्यशक्त्यंशनियतशब्दप्रवृत्त्यनुपाति भेदज्ञानमित्यर्थः । तथैव गतिस्थितिधृत्यधृत्यादिभेदव्यवहाराः सर्वभेदपर्यनुभवार्थत्वाद् नित्यप्रवृत्तेः यासौ सततसम्प्रवृत्तिः सा 'सर्वान् गमनादीन भवनभेदान् पर्यनुभावयामि द्रव्यम्' इति प्रवर्तते, यदि तान् नानुभवेत् क्रियाभेदान् द्रव्यं ततो न ते स्युः तेनापर्यनुभूयमानत्वात् खपुष्पवत् । 'सर्वभेदं निर्भेदं बीजं द्रव्यम्' इति चेष्यते । तद्वा 20 द्रव्यं न स्यात् भेदापर्यनुभवनात् खपुष्पवत्, एवं तद् द्रव्यं बीजं स्याद् यदि तान् भेदान् पर्यनुभवेत् । ___ आह - यथानन्तरोक्तं देवदत्तशब्दो गत्यादीन नोपादत्ते न च व्युदस्यति अंशनियतत्वाच्छब्दशक्तीनां प्रवृत्तत्वाच्च तथा वस्तुनापि देवदत्तेन गत्यादयः किमनुपात्ताव्युदस्ताः ? नेत्युच्यते विशेषः - देवदत्तवस्तुनेत्यादि, देवदत्तशब्देनानुपादीयमानापि हि गतिर्वस्तुना तेन उपात्तैव अंशनियत्यभावाद् विशेषहेतोश्च । को विशेषहेतुरिति चेत् , उच्यते - तदात्मत्वात् , गत्याद्यात्मको हि देवदत्तः तत्पर्यनु25 भवनात् , यद् यदात्मकं तेन तदुपात्तम् , अग्निनेवौष्ण्यम् , यथा अग्नेरौष्ण्यमात्मेत्यग्निनोपात्तं तथा देवदत्तेन गतिरिति । भावात् समुदायग्रहणम् , गुणक्रियापेक्षया तु प्रत्येकं शक्तः साधनता, तस्याश्च प्रधानक्रियापेक्षया वैचित्र्यात् कर्माकर्मादिविरूपताया वा प्रत्येकं साधनत्वेऽपि समुदायग्रहणं शक्तीनां साधनत्वेन आसां भेदात् एकस्य कार्यभेदोपपत्तिव्याख्यापनार्थम् । तेन अनेकशक्तेरपि पदार्थस्य सत्येव तथा स्थानेऽपि काचिच्छक्तिः क्वचिदुद्भता विवक्ष्यते इति 'घटं पश्य, घटेनोदकमानय, घटे उदकं निधेहि' इत्यादिकर्मकरणादिभावो नियमेन उपपद्यत इति न कारकसाकर्यप्रसङ्गः । द्रव्यस्य तु एकखभावत्वात् कर्मकरणादित्वं नोपपद्यते इति गर्भीकृतेयमत्र शक्तिः शक्तेः साधनत्वे बोद्धव्या ।" इति वाक्यपदीयस्य तृतीयकाण्डे साधनसमुद्देशे हेलाराजकृतायां व्याख्यायाम् ॥ १ दृश्यतां पं० २१॥ २रादित्यर्थः प्र०॥ ३ हारः भा० ॥ ४ दृश्यता पं. ३ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदज्ञानव्यवहारोपपादनम्] द्वादशारं नयचक्रम् च देवदत्त उपात्तः, शब्दस्य द्रव्यभेदपर्यनुभवनप्रवृत्त्यात्मत्वात् । __ अर्थोपनिपातित्वात्तु वचसो [देवदत्तशब्देनापि गत्यादि न नोपात्तम् , अर्थवत् तद्भवनार्थत्वात् । देवदत्तशब्दो हि द्वितीयादिविनाभूतः केवले कर्तर्येव प्रयुज्यते, कर्ता च क्रियायाः साधनत्वात् क्रियासु तथा तथा वर्तमानस्तथा तथा शब्दोऽपि तत्तदर्थवाची। यथाहरन्ततः- अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषेऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति । गम्यते, 'वृक्षः' अस्तीति गम्यते [पा० म० भा० २।३।१] । ___ एवं तावद् देवदत्तवस्तुना गतिरुपात्ता न देवदत्तशब्देन इति विशेष उक्तः । किं गच्छतिशब्देन गच्छत्यर्थेन च देवदत्तार्थ उपात्तो न ? इत्यत्रोच्यते - गच्छतिशब्देन च देवदत्त उपात्त इति, पुंल्लिङ्ग देवदत्ताभिसम्बन्धात् । शब्देन चेदर्थ उपात्तोऽर्थेन गच्छतिलक्षणेन देवदत्तार्थ उपात्त एव तदात्मत्वादिति विशेषः । यथा 'ने, तदतद्भवनाविच्छेदात्मकप्रवृत्तिनित्यत्वस्याकूटस्थत्वाद् भवनमेवेदं गतिस्थितिधृत्य- 10 धृत्यादि' इति गम्यादिप्रवृत्तिभवनेन भवद्भवनमुपात्तमेव उभयात्मत्वाद् वस्तुनो द्रव्यक्रियात्मद्वैरूप्यात् अर्थेन गाद्युपात्तं देवदत्तादि गमयतीत्युक्तं क्रियाया द्रव्यभेदपर्यनुभवात्मकत्वादिति तथा शब्देऽप्येष विधिः- गच्छतिशब्दे [ने] त्यादि, गच्छतिशब्देन च देवदत्त [उपात्त] उक्तवदुभयवस्तुत्वात् प्राक् शब्दस्य द्रव्यभेदपर्यनुभवनप्रवृत्त्यात्मत्वादिति । __एवं तावत् सर्वसर्वात्मकद्रव्यार्थनयत्वादसतो भेदान् कल्पितानाश्रित्य भेदज्ञानव्यवहारावुक्तौ, 15 परमार्थतस्तु अर्थोपनिपातित्वात् तु वचस इत्यादि । [ देवदत्त शब्देनापि गत्यादि न नोपात्तम्, उपात्तमेव, अर्थवत् । कुतः ? तद्भवनार्थत्वात , तस्य भवनं तद्भवनं गत्यादिभवनमेवार्थो देवदत्तशब्दस्येति देवदत्तार्थेनेव गत्याद्यर्थोऽप्युपात्त इति गृहाण । मा शकिष्टाः - तद्भवनार्थत्वमसिद्धमिति, अत आह -- देवदत्तशब्दो हीत्यादि । यदा स्वार्थ-द्रव्य-लिङ्ग-सङ्ख्या-कर्मादिवाचि प्रातिपदिकं, विभक्तयस्तदंभिव्य २८१-१ ञ्जिकाः, विवक्षावशाच्च कारकविशेषाश्रयणम् , कर्मादीनामपि कारकत्वात् कर्तृत्वमिष्टमेव' इति सिद्धान्तस्तदा 20 विशेषानाश्रयणेऽपि द्वितीयादिविनाभूतो देवदत्तशब्दः केवले कर्तर्येव प्रयुज्यते, कर्ता च क्रियायाः साधनत्वात् क्रियामन्तरेण [न ] भवति, क्रियाश्च आसिशयितिष्ठत्यादयः, तासु तासु स्वयमसौ कर्ता तेन तेन प्रकारेण वर्तमानस्तथा तथा शब्दोऽपि तत्तदर्थवाची । यथाहुरन्तत इति ज्ञापकम् , विचारावसाने वैयाकरणैरेतद् निश्चितम् – अस्तिर्भवन्तीपर इत्यादि । लड् 'भवन्ती' इत्युच्यते । शेषं गतार्थम् । प्रथममध्यमोत्तमान्तमन्यदपि क्रियापदं भवत्येव दिङ्मात्रोल्लिङ्गनात् 'त्वमसि अहमस्मि "तिष्ठति तिष्ठसि तिष्ठामि' इत्यादीनां 25 नियमाभावात् , 'क्रियापदेन "विना न भवति' इत्येष हि नियमः । १ दृश्यतां पृ० २६१ पं० ६ टि० २॥ २ दृश्यतां पृ० ३९३ पं० १॥ ३°वनेन न भव भा० ॥ ४ गत्वायु वि. डे. ली. । गत्वायु २० ही. पा०॥ ५°भ्यर्थे द्रव्य प्र० । दृश्यतां पृ० ५६ पं० १३ ॥ ६°वाचिप्रातिपदिके भा० ॥ ७°भिष्वञ्जिकाः प्र०॥ ८°श्रयाणामपि प्र० ॥ ९ तासु स्वय' य० ॥ १० दृश्यतां पृ० २६१ पं० ५॥ ११ भत्येव प्र०॥ १२ ति तिष्ठसि प्र० ॥ १३ विना भवति प्र० ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे देवदत्तशब्दो न देवदत्तकर्बर्थप्रत्यायनार्थो नानर्थकः, अर्थप्रत्यायनार्थत्वाद् वचनप्रवृत्तेः । देवदत्तशब्देन देवदत्तार्थो विज्ञायमान एवानूद्यते स गच्छति' इति विधानाय, गतिविधानं स्थानविपरीतदेवदत्तकर्तृकगमनप्रतिपादनाय 'यो गच्छति स देवदत्तः' इति तथा 'योऽसौ स गच्छति' इति । 5 तथा चेदमानर्थक्यं पौनरुक्त्यं च अविभक्तविध्यनुवादार्थ वक्तारं प्रति । प्रथमपदोपादानसन्निहितार्थव्यञ्जनं द्वितीयपदं तत्सन्निधिमात्रेण तथा प्रतिपत्तुः श्रोतुरुपकारकं नान्यस्य । स एष उपात्तगत्यर्थो देवदत्तशब्दो न देवदत्तकप्रर्थप्रत्यायनार्थो नानर्थकः सम्यक्प्रत्यवेक्षायामिति वैर्तते, तस्या अर्थप्रत्यायनार्थत्वाद् वचनप्रवृत्तेः 'अर्थ प्रत्याययिष्यामि' इति वचनं प्रवर्तते 10 तस्मान्नानर्थकम् , समीक्ष्यार्थ्यक्तित्वात् । प्रमाणान्तरोपलब्धत्वाच्च देवदत्तस्य न देवदत्तवाचकः, किं तर्हि ? देवदत्तशब्देन देवदत्तार्थो विज्ञायमान एवानूद्यते, ज्ञातार्थो ह्यनुवादो विध्यङ्गत्वात् । किमर्थोऽनुवाद इति चेत् , स गच्छतीति विधानाय, देवदत्तविशिष्टगतिविधानाय । गतिज्ञातार्थत्वाद् विधीयते देवदत्तकर्तृका । देवदत्तानुवादो गतिविधानार्थोऽस्तु, गतिविधानं किमर्थमिति चेत्, उच्यते - स्थानविपरीतेत्यादि । अध्यारूढदेवदत्तकर्तृसाधनं स्थानविपरीतं गमनं विवक्षितम् , तत्प्रतिपादनाय 'देवदत्तं गतिकर्तृत्वेन 15 अध्यारोहयामि' इति प्रयुज्यते। तन्निदर्शयति - यो गच्छति स देवदत्त इति तथा 'योऽसौ स गच्छति' २४१-२ इति देवदत्तो गतिक्रियायाः कर्तेति अज्ञातार्थस्य ज्ञातार्थेनानूद्यमानेन विधानाद् द्रव्यक्रियावाचिनोश्चा भिन्नार्थत्वाच्च वस्तुतः। ___एवं सति पौनरुक्त्यमिति चेत् , अभ्युपगम्यते तथा चेदमित्यादि । एवं च कृत्वा 'देवदत्तः' इत्युक्ते विशिष्टक्रियात्मककर्तृनिर्देशाद् गतेर्गतत्वाद् गच्छतिशब्दोऽनर्थकः पुनरुक्तं च तथा गच्छतिशब्दादेव 20 विशिष्टकर्तृकगमनवचनाद् देवदत्तार्थगतेदेवदत्तशब्दोऽपि । तौ च आनर्थक्यपौनरुक्त्यदोषौ न विभक्तविध्यनुवादार्थ वक्तारं श्रोतारं वा प्रति भवतः, " तर्हि प्रति ? उच्यते - अविभक्तविध्यनुवादार्थ वक्तारं प्रति, अविभक्तो विधिरयमविज्ञातार्थत्वाच्छब्दः अनुवादोऽयं विज्ञातार्थत्वाद् विध्यङ्गत्वाच्च इत्यविवेक्तारं वक्तारं श्रोतारं वाऽऽसाद्य आनर्थक्यं पौनरुक्त्यं वा स्यादन्यतरस्यैवानयोः, न विवेक्तारं वक्तारं श्रोतारं वा आसाद्य आनर्थक्यं पौनरुक्त्यं वा स्यादन्यतरस्यैवानयोविवेक्तारं 'विध्यनुवादार्थों' इति । 25 स्यान्मतम् – अस्तु स्वयं निश्चितद्रव्यक्रियात्मकैकवस्तुविध्यनुवादार्थं वचनं वक्तारं प्रति, कथं पुनः श्रोतुरिति चेत् , उच्यते - तस्यापि प्रथमपदोपादानेत्यादि यावच्छ्रोतुरुपकारकमिति । प्रथमं पदमत्र 'देवदत्तः' इति 'गच्छति' इति वा यथाविवक्षं प्रयुक्तम् । प्रथमपदमुपादानमस्य सोऽर्थः प्रथमपदोपादानः, १'त्यपेक्षाया प्र०॥ २ वर्ततेस्था भा० ॥ ३ दृश्यतां पातञ्जलमहाभाष्ये २।१।१ । दृश्यतां पृ० १३३ टि. ११॥ ४°कारयुक्ति प्र० ॥ ५रीतीत्यादि प्र०॥ ६ तप्दा भा० ॥ ७ योऽसौ गच्छति य० ॥ ८°ब्दादेविशि भा० । 'ब्दादेर्विशि य० ॥ ९ वादार्थ प्र० ॥ १० किं प्र० ॥ ११ °नुवक्तारं य० ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनर्थक्यपौनरुक्त्यदोषपरिहारः] द्वादशारं नयचक्रम् ३९७ प्रथमपदोपात्तार्थमेव द्वितीयपदम् उद्घाहितार्थविवरणार्थत्वाद् भाष्यग्रन्थवत्, नादित एव तदर्थज्ञानस्य कारकं तथाव्यक्तव्यञ्जनत्वात् प्रदीपवत्। सन्निहितश्च द्वितीयपदाभिधेयाभिमतः, तस्य व्यञ्जनशब्दो द्वितीयपदम् , तत्सन्निधिमात्रेण प्रयोगमात्रेण प्राक् प्रतिपन्न एवाभिव्यज्यते सोऽर्थस्तेनेत्यर्थः, तथा प्रतिपत्तुः श्रोतुरिति वक्तुरभिप्रायमूहितुं समर्थस्य गृहीतसङ्केतस्येत्यर्थः उपकारकं प्रतिपत्त्याधानसमर्थ, नान्यस्येति अविभक्तविध्यनुवादार्थस्याकृतसङ्गीतेर्वा ।5। न स पुनः शब्दापराधो यदसौ तदर्थं न प्रतिपद्यते, यथा - न हि स सूर्यस्यापराधो यदेनमुलूको न २८२-१ पश्यतीति । तस्मादैकार्थे सत्यपि विध्यनुवादभिन्नार्थावेतौ। अत्र प्रयोगः --प्रथमपदोपात्तार्थमेव द्वितीयपदम् , उदाहितार्थविवरणार्थत्वात् , उद्राहितो गमनभवनाभिसम्बन्धी देवदत्तः, तद्विवरणार्थो गच्छतिशब्दः, 'देवदत्तः' इत्युक्ते आगृहीतगतिरपि न परेण ज्ञायत इत्युक्तत्वात् । यदुद्राहितार्थविवरणार्थं पदं तत् पूर्वपदोपात्तार्थमेव दृष्टम् , भाष्यग्रन्थवत् , यथा 10 वृद्धिरादैच् । पा० १।१।१] इति सूत्रेणैवोपात्तमर्थं भाष्यग्रन्थे पदानि विवृण्वन्ति – 'वृद्धिः' इतीयं संज्ञा भवति 'आदेच्'वर्णानामिति, साँध्वनुशासनादिविचाराधारेण सूत्रेणैवोपात्तत्वात् । तथा चोक्तम् - सूत्रेष्वेव हि तत् सर्वं यद् वृत्तौ यच्च वार्तिके। उदाहरणमर्थस्य प्रत्युदाहरणं पशोः ॥ [ ] इति । स्यान्मतम् - प्रथमपदोपात्तार्थं चेत् प्रथमपदोच्चारणकाल एवं तथा प्रतिपत्तुः श्रोतुरुपकारकं स्यात 15 तेनैव व्यक्तत्वादिति । अत्रोच्यते - कस्यचिद् भवत्यपि, केषाश्चिद् नादित एव तदर्थ[ज्ञान]स्य कारकम् , तथाव्यक्तव्यञ्जनत्वात् , तेन प्रकारेण व्यक्तस्तथाव्यक्तः, देवदत्तशब्दोच्चारणमात्रेण श्रोतुः 'विशिष्टक्रियाविषयकर्तृको देवदत्तः' इत्येतावत् तावदाधीयते बुद्धौ तस्मात् तथाव्यक्तः, तस्य व्यञ्जनो गच्छतिशब्दः नापूर्वं किञ्चिदाह तदनुवादित्वात् , अतस्तथाव्यक्तव्यञ्जनत्वात् प्रदीपवत् , यथा प्रदीपः प्रागभिव्यक्तं टमपवरकस्थं व्यनक्तीति नादित एव तदर्थज्ञानस्य कारकः तथात्र वाक्ये गच्छतिशब्दोऽपीति । 20 अथवा द्रव्यार्थवादे कुम्भकारोऽपि विद्यमानमेव घटं तथाभिव्यनक्ति नाविद्यमानमुत्पादयति प्रदीपवत् । तस्मात् कुम्भकारस्यापि व्यक्तव्यञ्जनत्वात् पिण्डाद्यवस्थायामपि व्यक्त एव घटः क्रियाक्रमाभिव्यक्तिप्रत्यक्षत्वात् प्रदीपाभिव्यक्तघटवत् , तथा 'देवदत्तो गच्छति' इत्यत्रापि व्यक्तव्यञ्जनत्वाद् नादित एव तदर्थज्ञानस्य कारक इति । १ (व्यञ्जनं शब्दो?)॥ २ द्वियपदम् प्र० ॥ ३ आदैव( आदैज् ? )वर्णा प्र० ॥ ४ साद्यनु य० ॥ ५“न हि सूत्रत एव शब्दान् प्रतिपद्यते । किं तर्हि ? व्याख्यानतश्चेति । परिहृतमेतत् - तदेव सूत्रं विगृहीतं व्याख्यानं भवतीति । ननु चोक्तम् - न केवलानि चर्चापदानि व्याख्यानम् - वृद्धिः, आत् , ऐजिति । किं तर्हि ? उदाहरणं प्रत्युदाहरणं वाक्याध्याहार इत्येतत् समुदितं व्याख्यानं भवतीति । अविजानत एतदेवं भवति । सूत्रत एव हि शब्दान् प्रतिपद्यते।” इति पातञ्जलमहाभाष्ये पस्पशाह्निके । एतदुपरि कैयटविरचिते भाष्यप्रदीपोझ्योते पूर्वार्धमात्रमस्य श्लोकस्य उद्धृतं दृश्यते ॥ ६°णमंथस्य प्र.॥ ७॥ एतच्चिह्नान्तर्गतः °व तथा प्रतिपत्तुः इत्यत आरभ्य श्रोतुरपि भवन्ती दृष्टा त° [पृ० ३९९ पं० १०] इत्यन्तः पाठो य० प्रतिषु इतश्चासिद्धिः स्ववि [पृ० ४०० ५० १८] इत्यनन्तरं वर्तते ॥ ८ दृश्यतां पं० २३ ॥ ९ * * एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ १० घटमपरमस्थं भा० । घटमस्थं य० ॥११ एव च तद य० ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे तथा च विनापि तथाभूतशब्दसन्निधिं पूर्वश्रुतशब्दोपात्तार्थवृत्तिरेव, तथानियतत्वात् , यथा प्रविश पिण्डीमिति । वक्तुर्विवक्षायामन्यथोक्त्यानर्थक्यात् अर्थप्रकरणाद्यापादनाच अन्ते नाम्नः कर्तृत्वप्रतिपत्तिः श्रोतुरपि भवन्ती दृष्टा । तस्माद् वक्तृवत् प्रतिपत्तिः श्रोतुरपि । 5 मा च मंस्थाः - केवलोपपत्तिमात्रकमेवैतदुच्यते 'प्रथमपदोपात्तार्थवाचि द्वितीयपदम्' इति । किन्तु लोकव्यवहारेऽपि प्रसिद्धिस्तथा दृष्टेति तद् दर्शयितुमाह - तथा च विनापीत्यादि यावत् प्रविश पिण्डीमिति इति । एवं च कृत्वा तथाभूतस्यानुवादमात्र भिन्नार्थस्य शब्दस्य सन्निधिमन्तरेणापि पूर्वश्रुतशब्दोपात्तस्यार्थस्य 'वृत्तिरेव तथानियतत्वात् , तथा हि तच्छब्दवृत्तिर्नियता यथा क्वचिदश्रयमाणद्वितीयपंदोऽपि तत्पदार्थविषयप्रतिपत्तिहेतुर्भवति तथैव च प्रतिपत्तारो दृश्यन्ते, येथा 'प्रविश पिण्डीम्' 10 इत्यत्र 'प्रविश'शब्दश्रवणात् प्रवेशयोग्यं प्रकरणादिभिः 'सुषिरं गृहादि कर्मपदमत्र' इति 'पिण्डीम्' इति च कर्मपदश्रवणादनन्तरोक्तप्रविश्यसम्भवात् 'तद्योग्यभक्षिक्रियाकर्तृकर्मकम्' इति प्रतिपद्यन्ते । तस्मात् 'प्रथम२८३-१ पदोपात्तार्थव्यञ्जनं द्वितीयपदम्' इति साधूक्तम् । यथा देवदत्तशब्दोपात्तार्थवाची गच्छतिशब्दस्तथा 'गच्छति' इति च तिपा उपात्त एव कर्ता, किं कारणम् ? 'लः कर्तरि च' इति कर्तरि विहितलकारादेशत्वात् तिपः । कोऽसौ कर्ता इति चेत्, उच्यते- स च देवदत्त एव विशिष्टः, विशिष्टकर्तृविषयगमनविवक्षित15 त्वात् । अथवा गच्छतिः स्वांशोपात्तार्थविषयक एव तच्छब्दव्यवस्थाप्यस्वरूपत्वात् , 'यो यच्छब्दव्यवस्थाप्यस्वरूपः शब्दः स स्वांशोपात्तार्थविषयक एव दृष्टः, यथा घटशब्दव्यवस्थाप्योर्ध्वत्वादिरिति । एवमनिच्छतो दोष उच्यते -वक्तुर्विवक्षायामन्यथोक्त्यानर्थक्यादिति, देवदत्तकर्तृविषयां गतिं अंतिपिपादयिषता हि वक्त्रा गच्छतिः प्रयुक्तो यदि तमेवार्थ न ब्रूयादुक्तेर्वाच्यः कोऽर्थः स्यात् ? इत्यानर्थक्यं प्राप्तमिति । किश्चान्यत् , अर्थप्रकरणाद्यापादनाच्च, "संसर्गविप्रयोगसाहचर्यविरोधार्थप्रकरणलिङ्गशब्दा १ "वाक्यैकदेशप्रयोगाद्वा ॥ अथवा दृश्यन्ते हि वाक्येषु वाक्यैकदेशान् प्रयुञ्जानाः पदेषु च पदैकदेशान् । वाक्येषु तावद्वाक्यैकदेशान् 'प्रविश, पिण्डीम् , प्रविश, तर्पणम्' इति । पदेषु पदैकदेशान् 'देवदत्तो दत्तः, सत्यभामा भामा' इति । एवमिहापि, संप्रसारणनिर्वृत्तात्संप्रसारणनिर्वृत्तस्येत्येतस्य वाक्यस्यार्थे संप्रसारणात्संप्रसारणस्येत्येष वाक्यैकदेशः प्रयुज्यते । ते निवृत्तस्य विधि विज्ञास्यामः 'संप्रसारणनिवृत्तात्संप्रसारणनिर्वृत्तस्य' इति।" इति पातञ्जलमहाभाष्ये १।१।४४ । अस्य व्याख्या"प्रविशेति । प्रवेशनक्रिया कर्म योग्यमाक्षिपति, तत्र पिण्ड्यां प्रवेशासंभवाद् गृहप्रतिपत्तिः। एवं पिण्डीमिति कर्म योग्यां क्रियामाक्षिपद्भक्षणक्रियां प्रकरणवशात् प्रत्याययति, एवं संप्रसारणादित्येतन्निवृत्तार्थमाक्षेप्स्यतीत्यर्थः । यथा च पदैकदेशप्रयोगस्तथा 'सिद्धे शब्दार्थसंबन्धे' इत्यत्र प्रतिपादितम् ॥” इति कैयटविरचितायां प्रदीपाख्यायां पातञ्जलमहाभाष्यव्याख्यायाम् १।१।४४ । अस्य व्याख्या-“वाक्येष्विति । स्वार्थबोधनाय वाक्येषु प्रयोक्तव्येष्वित्यर्थः । योग्या क्रिया दर्शनादिरपीत्यत आह - प्रकरणेति । तत्तद्वाक्यस्य वाक्यार्थे शक्तिग्रहणकाले तत्तदेकदेशस्यापि तत्तद्वाक्यार्थे शक्तिग्रहः, पदैकदेशस्य पदार्थ इवेति शक्त्यैव बोधः । पूर्वपरिहारे संप्रसारणपदस्य तजन्यवणे उपचारात्प्रयोगः । अत्र त्वेकदेशेन शक्त्या तदर्थप्रतिपत्तिरिति भेदः । तदाह - आक्षेप्स्यतीति । आक्षेपोऽत्र बोधनमेव । भाष्ये 'इत्येतस्य वाक्यस्यार्थे' इति । अत्र 'वाक्य'पदं पदसमुदायपरम् । इत्येतस्य - इत्येतदर्थकस्य, संप्रसारणादुत्पन्नो यस्तस्मादित्यस्येति संप्रसारणस्य यत्कार्य तस्येति च 'वाक्यस्यार्थे' इत्यर्थः ।" इति नागेशभट्टविरचितायाम् उड्योताभिधायां पातञ्जलमहाभाष्यप्रदीपस्य व्याख्यायाम् १।१।४४ ॥ २ वृत्तरेव प्र० ॥ ३ तथाहि भा० प्रतौ नास्ति ॥ ४(°पदेऽपि?)॥ ५ तथा प्रविश प्र० । (तद्यथा प्रविश ?)॥ ६ प्रविशिसम्म प्र०। (प्रवेशासम्भवात् ?)॥ ७ दृश्यतां पृ० १२६ टि० ७॥ ८ योग्यं यच्छ भा०॥ ९त्वादिविति प्र०॥ १० वक्तुवि प्र०। (वक्तृवि ? )॥ ११ प्रतिपादविषता भा० । प्रतिपादविषयता य०॥ १२°दुक्तेर्वान्यःभा० पा० डे० लीं ॥१३ दृश्यतां पृ० १२७ पं० ११ । दृश्यतां वाक्यपदीये २।३१७,३१८॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ भवनस्य द्रव्यक्रियारूपत्वाभिधानम् ] द्वादशारं नयचक्रम् अनया च शब्दार्थगतिभावनया भवनमेवेदमेकरूपं देवदत्तभेदं गतिस्थित्यादिभेदं वा भवति, तेन तथा भूयत इति । ____ननु कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया । सर्वत्र प्रवृत्तिसम्भवे केनचित् फलोद्देशेन कारकवत्याः परिग्रहार्थं विशेषग्रहणम् । सर्वभावेषु हि प्रवृत्तिरस्ति सहभाविभिरसहभाविभिश्च विशेषैः प्रत्याश्रयं सहिता प्रादुर्भावतिरोभावात्मिका न्तरसन्निध्यौचितीदेशकालव्यक्तिस्वरादिसामर्थ्यभेदैरर्थस्यानवगम्यमानस्य वक्त्रभिप्रायानुवर्तिभिर्व्याख्यातृभिविशेषेऽवस्थापनं दृष्टम् , तच्च तेनैव शब्देनोपात्तार्थत्वे घटते नान्यथेति । तथा श्रोत्राप्यश्रुतोऽपि गृह्यते स इति 'गच्छति' इत्युक्ते को गच्छति ? 'देवदत्तः' इति अन्तेऽवसाने नाम्नः कर्तृत्वप्रतिपत्तिः, यद्यपि तिपा उपात्तं कर्तृत्वं तथापि यां तां गतिं गत्वा 'नामपदार्थ एव कर्ता' इति प्रतिपत्तिः श्रोतुरपि भवन्ती दृष्टा, तस्माद्धेतोस्तस्या दृष्टायाः प्रतिपत्तेः, केव ? वक्तृवत्, वक्तरीव वक्तृवत, यथा 10 वक्तरि प्रतिपत्तिः प्रागुपजाता 'गच्छति देवदत्तकर्तृविषयं प्रयुञ्जेऽहम्' इति श्रोतुरपीति । एवम् 'अन्योन्याभिसम्बद्धद्रव्यक्रियावाचिनौ नामाख्यातशब्दौ' इति साधूक्तम् । एवमुपपत्त्यन्तरं शब्दार्थोऽपि द्रव्यक्रिया- २८३-२ त्मकवस्तुविषय इति भावितम् । अनया चेत्यादि । एतयापि शब्दार्थगतिभावनयास्मद्वयाख्यातया लोके दृष्टया भवनमेवेदमेकरूपं देवदत्तभेदं गतिभेदं स्थितिभेदं धृत्यधृतिहसनकथनादिभेदं वा भवति सर्वत्र व्यक्तेर्भवति । यस्मात् 15 तेन तथा भूयत इति, 'इति'शब्दहेत्वर्थत्वाद् यस्मादेकमेव भवनं देवदत्तद्रव्यरूपं गतिस्थित्यादिक्रियारूपं च भवति, तेनैव तेन तेन रूपेण भूयते, न भवनशून्यमन्यत् किञ्चिदस्ति, भवनमेव भवतीति । ननु कारकाणामित्यादि । 'भवनमेवाविशिष्टं सर्वत्र क्रिया' इत्यापादिते तदमृष्यता इदं वैयाकरणेन क्रियालक्षणमभिधीयते - प्रवृत्तिविशेषः क्रिया इत्येतज्ज्यायः क्रियालक्षणम् , न सततसम्प्रवृत्तिमात्रम् । तत्र 'कारकाणाम्' इत्येतस्य व्याख्यानमुद्भूतशब्दैः कारकस्यैव क्रियात्वं मा विज्ञायि भवता, 'कारक- 20 पृथग्भूता गृह्यताम्' इति भेददर्शनार्था षष्ठी । विशेषग्रहणं पुनः किमर्थमिति चेत्, तत आह - सर्वत्र प्रवृत्तिसम्भव इत्यादि । केनचित् फलोदेशेनेति सांव्यवहारिकमोदनादिफलमुद्दिश्यते, कारकैवत्या इति स्वाश्रयपृथग्भूतकरणादिसाधनवत्या इत्यर्थः, सर्वा हि क्रिया कर्तृसमवायिनी कर्मसमवायिनी वा स्यात् पचतिभिनत्तिवत् फलवतीति एवंरूपायाः पचिपठिगम्यादेः परिग्रहार्थ भिद्यादेश्च विशेषग्रहणमिति । प्रवृत्तिमात्रपरिग्रहे त्वत्पक्षे दोष उच्यते -सर्वभावेषु हि प्रवृत्तिरस्तीत्यादि, रूपादिभिः सह-25 भाविभिरसहभाविभिर्गतिस्थित्यादिभिश्च विशेषैः प्रत्याश्रयं वस्तुनि वस्तुनि सहिता युक्तैव सा प्रवृत्तिः, प्रादुर्भावतिरोभावात्मिकेति रूपमस्याः कथयति, पंचयापचयफलेति कार्यस्य प्रवृत्तिमाह क्रियायां २८४-१ १ दृष्टा तं य० ॥ २°स्माद्धतोस्तस्मा भा० । वि० विना द्वतोस्तस्मा द य० । द्वतोमाट वि० ॥ ३ 'तिदे प्र० ॥ ४°म्बन्धद्रव्य प्र०॥ ५त्यनन्तरं प्र०॥ ६ चाभवति प्र.॥ ७ य० । व्याक्तार्भवति भा० । ( व्यक्तौ भवति ? व्यक्तीभवति?)॥ ८वावशिष्टं प्र०॥ ९ कवृत्त्या प्र० ॥ १० प्रचयापचयफलेति कार्यसाप्रवृत्तिमहि प्र० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे प्रचयापचयफला इत्युक्तं भाष्यकारेण-सर्वस्य मुहूर्तमप्यनवस्थानात् किं फलं लौकिकम् ? विशेषास्तूपजायमानाः खाश्रयात् कारकान्तराण्यपेक्षन्ते, यथा विक्लेदस्तण्डुलाश्रयः काष्ठादीन्यपेक्षते । तत्र या प्रवृत्तिः सा लोकव्यवहारानङ्गम् । तस्मात् प्रवृत्तिविशेषः क्रिया ने प्रवृत्तिसामान्यम् । 5 भावश्च क्रिया इति यदुच्यते तन्न सिध्यति । प्रवृत्तिसामान्यस्य कुतः क्रियात्वं फलोद्देशकारकसम्बन्धाभावात्, गच्छत्यादिव्यापिरूपता वा प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वात् कारकवत्, वैधयं तद्भेदवत् । तथा च द्रव्यद्वितीयतापि नैव प्रवृत्तिसामान्यस्य, असत्त्वात् , खपुष्पस्येव । असत्त्वं च अद्रव्यत्वे सति अगत्यादित्वात् खपुष्पवत्। 10 गृहीत्वोक्तं भाष्यकारेणेति तस्याः सर्वत्र वस्तुनि सम्भवन्त्याः स्वरूपफलसद्भावप्रदर्शनार्थमुक्तमिति ग्रन्थं योजयति, सर्वस्य मुहूर्तमप्यनवस्थानात् किं फलं लौकिकं सांव्यवहारिकम् ? इति व्यवहाराक्षमतां दर्शयति। विशेषग्रहणसामर्थ्यात् पुनर्विशेषास्तूपजायमानाः पच्यादय ओदनादिफलान्तरहेतवः स्वाश्रयात् कारकान्तराण्यपेक्षन्ते । तन्निदर्शयति - यथा विक्लेदस्तण्डुलाश्रयः काष्ठादीन्यपेक्षते इति । तदुपनयति - तत्र या प्रवृत्तिरित्यादि गतार्थं यावद् न प्रवृत्तिसामान्यमिति । इति विशेषग्रहणसाफल्यं 15 व्याख्यातं भवति प्रवृत्तिसामान्यस्या क्रियात्वं च । भावश्च क्रियेत्यादि यावत् कुतः क्रियात्वं फलोद्देशकारकसम्बन्धाभावात् ? यदुच्यते 'द्रव्यं च क्रिया च' इति यन्यायबलेन त्वयोच्यते द्रव्यक्रियात्मको भाव इति तन्न सिध्यति त्वदभिप्रेतक्रियाभावासिद्धेरित्यर्थः । ईतश्चासिद्धिः स्वविशेषाव्यापित्वाद् न प्रवृत्तिसामान्यं क्रियेति । तत्प्रतिपादनार्थमाहगच्छत्यादिव्यापिरूपता वा इति 'कुतः' इति वर्तते । गत्यादिव्यापिनी न भवति त्वदिष्टप्रवृत्तिसामान्य20 लक्षणा क्रिया प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वात् , यद् यत् प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतं तत् तद् गच्छत्यादीन न व्याप्नोति यथा कारकं कारकाणां प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतमक्रिया, अक्रियात्वं चावयोः सिद्धमिति दृष्टान्तः साधर्म्यण । वैधयं तद्देदवदिति, या या क्रिया सा सा प्रवृत्तिविशेषत्वेन भूता यथा गच्छतितिष्ठादि क्रियाभेदाः द्रवण-पतन-सर्पण-रिङ्गणादयो वा गमनविशेषाः । तस्माद् गच्छत्याद्यव्यापित्वादप्यक्रियात्वं २८४-२ प्रवृत्तिसामान्यस्य कारकवदिति । 25 तथा चेत्यादि । एवं च कृत्वा द्रव्यं क्रिया च द्वौ भावाविति 'द्रव्यस्य भावस्य द्वितीयो भावः क्रिया' इत्येतदपि प्रवृत्तिसामान्यक्रियावादिनो नोपपद्यते तस्याः क्रियायास्त्वदिष्टाया असत्त्वात् खपुष्पस्येव, यथा खपुष्पमसत्त्वाद् द्रव्यस्य द्वितीयं न भवति तथा प्रवृत्तिसामान्यमिति । असत्त्वमसिद्धं प्रवृत्तिसामान्यस्येति चेत् , असत् तदद्रव्यत्वे सति अगत्यादित्वात् खपुष्पवत् , अगत्यादित्वं च तदव्यापित्वादिति । तस्मात् प्रवृत्तिविशेषः क्रिया न प्रवृत्तिसामान्यम् इति वैयाकरणपक्षः । १ दृश्यतां पृ० ३७९ पं०८, पृ० ३८० टि० १॥ २ दृश्यतां पं० २९, पृ० २८५-१, २९२-२ ॥ ३ दृश्यता पृ० २८५-२॥ ४°मिति विशेष भा०॥ ५क्रियत इति य० । क्रिच इति भा०॥ ६ दृश्यतां पृ० ३९७ टि. ७॥ ७ (वैधये ?)॥ ८ त्याक्रियामेदः प्र० ॥ ९दृश्यतां पृ० ४०० पं० ३॥ | Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्तिसामान्यस्य क्रियात्वसाधनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४०१ ___ अभ्युपगता तावदस्मदभिमतिवत् सर्वभावविषया प्रवृत्तिर्भावानामात्मा फलान्तरहेतुहेतुभावाविभक्तवृत्तिः सर्वभावेष्वित्युक्तेः । अनन्तरोक्तविशेषद्वयसन्निधानात् फलान्तरहेतुत्वात् तेषामेव । यथा च विशेषाः फलनिवृत्तौ कारकान्तराण्यपेक्षन्ते तथा मृद्भवनस्यापि घटफलनिवृत्तौ कारकान्तरापेक्षा, कर्ता कुम्भकारोऽस्य दण्डादिना उदकाद्याहृत्यै । अततः शालायां घटं करोति । मालवनगरे सप्त वर्षशतानि आम एव घटो वर्षे अत्रोच्यते - अभ्युपगता तावदस्मदभिमतिवदित्यादि । ननु त्वयापि प्रवृत्तिविशेषक्रियावादिना 'प्रवृत्तिसामान्यमेव क्रिया' इत्येतदभ्युपगतमस्मद भिमतिवत् । कथम् ? इति तद्दर्शयति - सर्वभावविषया प्रवृत्तिर्भावानामात्मेति, आदावेव तावदभ्युपगतं त्वया ने हि किञ्चित् स्वात्मनि मुहूर्तमप्यवतिष्ठते वर्धते यावदनेन वर्धितव्यमपायेन वा युज्यते इति ब्रुवता सर्वभावानां सततसम्प्रवृत्तिरात्मा स्वरूपमिति, स 10 चाभ्युपगमोऽस्मन्मतिसाम्यात् प्रवृत्तिसामान्यक्रियात्वं समर्थयति, किं कारणम् ? फलान्तरहेतुहेतुभावाविभक्तवृत्तिः सर्वभावेष्वित्युक्ते, फलं बीजादिप्रवृत्तेर्हेतुर्भूताया अङ्कुरादि, ततोऽन्यानि फलानि फलान्तराणि तदनुबन्धजन्मानि पर्ण-नाल-काण्ड-तुष-शूक-क्षीर-तण्डुलादीनि क्रमेण, हेतवः पूर्वे पूर्वे यथास्वम् , ततोऽपि पूर्वे पूर्वेऽन्तरिता हेतुहेतवः, त एव भावाः क्रियात्मानः, तैरेवाविभक्ता वृत्तिर्वर्तनं । सततसम्प्रवृत्तिः सर्वभावेष्वित्युक्तत्वात् । कथमुक्तम् ? ने हि किञ्चित् स्वात्मनि इत्यादिवचनात् सर्वभावेषु २८५-१ वीजाङ्डरमृत्पिण्डादिषूक्तम् । तच्च प्रवृत्तिसामान्यं तण्डुलविक्लेदादीनामपि तत्स्वारूप्यानतिवृत्तेः । किश्चान्यत् , यदपि चोक्तं “केनचित् फलोद्देशेन प्रवृत्तिविशेषः कारकाणाम्' इति ‘स च विशेषः सहभाविनो रूपा. दयोऽसहभाविनो गमनस्थानादयश्च तैः प्रत्याश्रयं युक्ता तदात्मिका च' इत्यनेनापि वचनेन सामान्यप्रवृत्तेरेवेति क्रियात्वमुक्तं मैंवति । किं कारणम् ? अनन्तरोक्तविशेषद्वयसन्निधानात् सर्वत्र तेषामेव च विशेषाणां सामान्यप्रवृत्त्यात्मकानामोदनााद्देश्यफलरूपत्वात् सन्निधानाच्च फलान्तरहेतुत्वात् तेषामेव, त एव ह्योदनादि-20 फलान्तरहेतवो नान्यः कश्चित् , अतः प्रवृत्तिविशेषात्मिकापि सैव सामान्यप्रवृत्तिरेवेति । ___ यदपि चोक्तं 'विशेषास्तूपजायमाना इत्यादिस्तदनन्तरोक्तो ग्रन्थो यावद् न प्रवृत्तिसामान्यं लोकव्यवहारानङ्गत्वादिति, अत्रोच्यते- इहापि समानकरूपत्वाद् न दोषः, विशेषग्रहणानर्थक्यं च परपक्ष इत्यत आह - यथा च विशेषा इत्यादि प्रवृत्तिविशेषसामान्यलक्षणयोः क्रिययोरविशेषापादनग्रन्थो गतार्थः । पचे. रोदनफलनिर्वृत्तौ कारकान्तरापेक्षापत् मृद्भवनस्यापि घटफलनिवृत्तौ कारकान्तरापेक्षेति पिण्डादिषु 25 सर्वेषु भवनमेव कुम्भकारादीनि मृदोऽन्यानि कारकाण्यपेक्षत इत्यर्थः । तान्युदाहरति - कर्ता कुम्भकारो. ऽस्येत्यादि कर्तृकरणसम्प्रदानापादानाधिकरणानि कुलालदण्डाद्युदकाद्याहृत्यतच्छाला इति । कालोऽपि केषा-२८५-२ श्चित् कारकमिति तदर्शयन्नाह -मालवनगरे सप्त वर्षशतानीति, तत्र आम एव घटो वर्षे प्रदर्श्यते १°वादि प्रवृ प्र० ॥ २ दृश्यतां पृ० ३७९ पं० ८॥ ३ भूतस्यांकुरादि प्र० ॥ ४ सर्वे पूर्वे य० । पूर्वे भा० ॥ ५ तत्स्वरूप्या प्र० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ३९९ पं० ३ ॥ ७ भवति य० प्रतिषु नास्ति ॥ ८ दृश्यता पृ० ४०० पं० २॥ ९°च्छालाया इति प्र०॥ १० वर्षे त्रदश्यते प्र०॥ नय०५१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे प्रदर्यते सङ्गोप्यते च गोदोहे वा तडागादौ; तस्यैव क्षणमप्यनवस्थानमुदके प्रक्षिप्तस्य । प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वाद्यसिद्धतापि चैवमुक्तैव । अगत्यादित्वाच नासत्त्वम् । नन्वगमनस्थानं चाकाशं भवति इति सन्देहहेतुता। . गत्यभावोऽप्रवृत्तिर्गतिनिवृत्तिरिति चेत्, अथ निरुपाख्यमेव गत्यभावमात्रस्थानं तत् प्रामोति अभावत्वादप्रवृत्तत्वात् खपुष्पवत् । सङ्गोप्यते च 'सङ्गोपितसाराणि द्रव्याणि' इति ख्यापनार्थं, 'गोदोहे वा तडागादाविति, तस्यैव आमस्य क्षणमप्यनवस्थानमुदके प्रक्षिप्तस्येति च कारकविशेषापेक्षाप्रदर्शनम् । यदप्युक्तं प्रवृत्तिसामान्यं प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वात् कारकवद् गच्छत्यादिव्यापि न भवति इति तदपि नानुमानम् , असिद्धहेतुत्वात् । प्रवृत्तिसामान्यस्य प्रत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वमसिद्धं प्रवृत्ति10विशेषस्वरूपत्वादेव, तत्सामान्यस्य प्रवृत्तिविशेषस्वरूपत्वं च सर्वत्र भवनस्याविच्छिन्नत्वात् तदविनाभावाच्च गत्यादिविशेषाणां भवनखात्मवदिति तन्न्यायमनुस्मारयन्नाह -प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वाद्यसिद्धतापि चैवमुक्तैव । आदिग्रहणाद् विरोधाविरोधभावौ द्रव्यक्रिययोरेवमुक्तावेवेति । यदप्युक्तम् -असत्त्वाद् द्रव्यद्वितीयतापि नैव प्रवृत्तिसामान्यस्यासत्त्वं च खपुष्पवदगत्यादित्वादिति, अत्रोच्यते - अगत्यादित्वाच्च नासत्त्वं हेत्वसिद्धेरेवोक्तवद् गत्यादिस्वरूपत्वात् सततभवनस्येति । 15 अभ्युपगम्यापि अगत्यादिहेतुसिद्धिमनैकान्तिकत्वं ब्रमः - नवगैमनस्थानं चाकाशम् अगच्छ___ दतिष्ठच्च व्योम भवति अस्त्येव । तत्र किमगत्यादित्वादसत् स्यात् खपुष्पवत् ? उताकाशवत् सत् स्यात् ? २८६-१ इति सन्देहहेतुतेति । स्यान्मतम् - अगत्यस्तु, कथमस्थानमाकाशम् नित्यस्थितत्वात् ? तस्मात् 'अगतित्वात्' इति संशयहेतुता स्यात् , 'अस्थानत्वात्' इत्ययुक्तेति । अत्रोच्यते - अस्याप्यस्थानत्वमेव, यस्मात् पठ्यते ष्ठा गतिनिवृत्तौ [पा० धा० ९२८ ], प्रवृत्ताया गतेर्या निवृत्तिः प्रतिबन्धः सा स्थितिर्वक्ष्यमाणवत् । न चास्य 20 प्रवृत्तगतेराकाशस्य प्रतिबन्धो जीतु प्रगतदेवदत्तगतिनिवर्तनवत् । 'अस्थानम्' इति च स्थानादन्यद् गमनादि उच्यते न स्थानस्यात्यन्ताभाव एव, तस्मादाकाशमप्यस्थानगमनं सच्चेत्यनैकान्तिकहेतुता तदवस्थैव साधनयोरनयोरिति। गत्यभावोऽप्रवृत्तिर्गतिनिवृत्तिरिति चेत् । स्यान्मतम् - नन्वभावो गतेर्गतिनिवृत्तिरप्रवृत्तिः, तस्माद् गत्यभावमात्रत्वात् स्थितेरभावत्वाद् नास्थानं न स्थानवदेव चाकाशं गतेरेवाभावादिति । अत्रोच्यते -अथ 25 निरुपाख्यमेवेत्यादि । उपाख्या संज्ञा, निर्गतोपाख्यं निरुपाख्यं त्वत्परिकल्पितगत्यभावमात्रस्थानं तत् प्राप्नोति, अभावत्वात् । अभावत्वं चास्याप्रवृत्तत्वात् खपुष्पवत् । आकाशादि च प्रवृत्तं स्थानवदस्थानं चेति वक्ष्यामः । १ गोदाहं बा तडागादाविति तथैव य० । गोदोविति तस्यैव भा० ॥ २ दृश्यतां पृ० ४०० पं० ६ ॥ ३ * * एतचिह्नान्तर्गतपाठस्थाने प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वमसिद्धं प्रवृत्तिविशेषस्वरूपत्वादेव तत्सामान्यस्य प्रवृत्तिविशेषत्वेनाभूतत्वमसिद्धं प्रवृत्तिविशेषस्वरूपत्वात्सामान्यस्य इति द्विर्भूतः पाठः प्रतिषु ॥ ४ दृश्यता पृ० ४०० पं० ७॥ ५ नन्वगमनं चाकाशम् भा० । (नन्वगमनमस्थानं चाकाशम् ? नन्वस्थानगमनं चाकाशम्)॥ ६ गतिनिवर्तनवदस्थानमिति वृत्तौ य० ॥ ७ प्रवृत्ता । प्रवृत्ताया भा० । प्रवृत्ताऽप्रवृत्ताया य० ॥ ८ जानु य० ॥ ९ भावगते भा० । भागवते य० ॥ १० स्थानतदेव प्र०॥ ११ व प्र.॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिनिवृत्तेर्भावत्वोपपादनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४०३ गतिविशेषणसामर्थ्यादिति चेत्, तदेवेदमस्मदिष्टं स्थानस्य सत्त्वं गत्यभावस्य गतिविशेषणयोगात् सिद्धम् । गतिविशेषणसामर्थ्यापादितस्थित्याद्युत्तरभाव सत्यस्वात् अत एव च सर्वात्मकभवनखतत्त्वमालम्ब्य तत्खाभाग्यात् पूर्वोत्तर भावयोरेकस्याभिव्यक्त्या इतरस्य अनभिव्यक्त्या च भवनं भावः । विरोधिभावप्रादुर्भावे हि भावान्तर निवृत्तिः भाव एव विरोधिभावप्रादुर्भावत्वादेव, यथा जागरणेन स्वमो 5 निवर्त्यते । न हि क्रियान्तरमन्यङ्गीय क्रियान्तरं प्रादुर्भवतीह किञ्चित् । इहापि च गतिभवनमन्यङ्गीय न स्थितिभवनं प्रादुर्भवति । गतिविशेषणसामर्थ्यादिति चेत् । स्यान्मतम् - यदि सर्वथा स्थानं निवृत्तिरभावः इत्यविशेष्य ब्रूयां खपुष्पवद् निरुपाख्यं स्यात्, किं तर्हि ? 'गत्या विशिष्टं स्थानं गतिनिवृत्तिः' इति ब्रूमः । तस्माद् 'गत्यभावः' इति सोपाख्यमिति । अत्रोच्यते - तदेवेदमस्मदिष्टं स्थानस्य सत्त्वं गत्यभावस्य स्थित्य - 10 भावस्य गमनस्य सत्त्ववद् गतिविशेषणयोगाद् भवन्मतविरुद्धं सिद्धम्, तस्मिंश्च सिद्धे स्थाने तद्वद् २८६-२ गतिस्थित्यादि सर्वक्रियापदाभिधेयं भावः सत्यमेव नासदिति सिद्धम् । तस्माच्च गतिविशेषणसामर्थ्यापादितस्थित्याद्युत्तरभावसत्यत्वात् अत एव च सर्वात्मकेत्यादि यावद् भवनं भाव इति । येयं निरुक्तिः 'भवनं भावः' इति साध्येतस्मादेव कारणाद् गतिस्थित्यादिसर्वात्मकमेव भवनंस्वतत्त्वमालम्ब्य तदपरित्यागेन तत्स्वाभाव्यात् तत्तद्भवनानुभवस्वभावत्वात् पूर्वस्य गतिभावस्य उत्तरस्य च स्थितिभावस्य अथवा पूर्वस्य 15 स्थितिभावस्य उत्तरस्य च गतिभावस्य यथाविवक्षाक्रमं यथापरिणतिक्रमं चे यथासम्भवमेकस्याभिव्यक्त्या इतरस्यानभिव्यक्त्या च भवनं भाव इति निरुच्यते । स्यान्मतम् - विरोधिनो भावस्य उत्तरस्य स्थित्यादेः प्रादुर्भावाद् गतेर्विनाश: गतेर्वा प्रादुर्भावे स्थिते:, स चाभावो विनाशः पाकजोत्पत्तिवदिति । अत्रोच्यते - योऽप्यभावाभिमतो विनाशो विरोधिभावप्रादुर्भावे हि भावान्तर निवृत्तिरितीष्टः, स च भावान्तरानभिव्यक्तिस्तस्य भावान्तरस्य स्थितेरन्यस्य गत्यादेः 20 गर्वान्यस्य स्थित्यादेर्भाव एव नाभावः, विरोधिभावप्रादुर्भावत्वादेव । यथा जागरणेन स्वप्नो निवर्त्यते, 'किमुक्तं भवति ? निवर्त्यतेऽनभिव्यक्ति नीयत इत्युच्यते । यथा जागरणेन स्वप्नोऽनभिव्यक्ति नीयते तथा स्वप्न जागरणम्, जाग्रतोऽपि च सुप्तवद् मन्द मन्दतर- मन्दतमचैतन्यदर्शनात् सुप्तस्यापि जायत इवाभिव्यक्त[व्यक्त]तरव्यक्ततमस्वदर्शनात् तदेव हि चैतन्यं तीव्रमन्दावरणोदयक्षयोपशमापेक्षं निद्रा-निद्रा[निद्रा]-प्रचलाप्रचला [प्रचला ] दिभेदं पटु- पटुतर - [पटु ] तँमेन्द्रियादिभेदं च दृश्यते । तस्मादेकस्यैव वस्तुनो - २८७-१ ऽभिव्यक्त्यनभिव्यक्तिकृते स्वप्नजागरणे, अन्यतरन्यङ्यनेनान्यतरभवनात् सर्पस्फटाटोप कुण्डलकीभवनवत् । अत आह- न हि क्रियान्तरमन्यङ्गीयेत्यादि गतार्थं यावदिह किञ्चिदिति । एषा दृष्टान्तवर्णना । इहापि च गतिभवनमित्यादि गतार्थं दार्शन्तिकवर्णन मपि । तस्मात् क्रियान्तरप्रादुर्भावे पूर्व भावनिवृत्तिः नाभाव इति । 25 १ स्य तत्त्व य० ॥ २ २० विना च यथासंख्यमे प्र० । ( चायथासंख्यमे ? ) ॥ ४ सा प्र० ॥ ५ एतदन्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ८° व च वस्तुनो भा० ॥ ६० ॥ ३ पिनाशः प्र० ॥ ७ तमैन्द्रि ं य० ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृस्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे स्यादेतत् - यथा भुक्तिक्रियाया निवृत्तिस्तृप्तिफलावसाना, प्रयोजनाभावे कारकानभिसम्बन्धाद भुजेनिवृत्तिर्न क्रियान्तरबाधनात् एवमेतदपि स्यात् । अत्रोच्यते-अत्रापि तु फलं तृप्तिः क्रियान्तरम् । बुभुक्षां हि बाधित्वा भुक्तिः प्रवर्तते, भुक्तिं च बाधित्वा तृप्तिः प्रवर्तते, क्रियाचक्रकाण्येतानि । 5 यदि स्थिति म अवस्तुकमभिधानं विवक्षाशब्दयोरप्रवृत्तिप्रसङ्गः । अथ द्रव्यमानं स्थितिः द्रव्यस्याविरोधाद् गतावपि स्यात् । यतस्तु खलु विरोध्यविरोधिभावा वाच्यवस्तुस्थितिः तस्माद् भवनानन्यत्व एव गतिविरोधिनी स्थितिः। __ अत्राह -स्यादेतदित्यादि यावदेवमेतदपि स्यादिति । यथा तु भुक्तिक्रियाया निवृत्तिस्तृप्तिफलावसौना तत् प्रयोजनमुद्दिश्य कारकप्रवृत्तेः, तस्मिंश्चावसिते प्रयोजने कारकाणि न प्रवर्तन्ते, तस्मात् कारकान10 भिसम्बन्धाद् भुजेनिवृत्तिः न क्रियान्तरबाधनात् । एवं गतिरपि प्राप्तिफलावसाना प्रयोजनाभावे कारका नभिसम्बन्धाद् निवर्तते न क्रियान्तरबाधनात् । अतः संशेमहे - किं स्वप्नजागरणवत् क्रियान्तरन्यङ्यने क्रियान्तरोद्भावस्तादात्म्ये सत्येव स्यात् ? उतात्यन्तनिवृत्तिरेव गतेः फलावसानभुजिक्रियावत् ? इति । अत्रोच्यतेअत्रापि तु मा मंस्थाः 'भुजिनिवृत्तिरभाव एव' इति, किं तर्हि ? फलं तृप्तिः क्रियान्तरं प्रवृत्तेरेव क्रियात्वात् , बुभुक्षां हि बाधित्वेत्यादि यावत् क्रियाचक्रकाण्यतानीति । एतदुक्तं भवति- क्रियान्तर15 प्रादुर्भावेन विना न क्रियानिवृत्तिर्नापि पूर्व क्रियान्यकरणमन्तरेण क्रियान्तरप्रादुर्भावः, बुभुक्षाभुक्तितृप्तिक्रियाचक्रवत् पूर्वपूर्वबाधया उत्तरोत्तरप्रादुर्भावात् समानमेतदपीति । तस्माद् नाभावो गतिनिवृत्तिः, भाव एव स्थितिरिति । २८७-२ एतदनिच्छोर्दोष उच्यते - यदि स्थिति मेत्यादि । स्थितेर्भावत्वानभ्युपगमे द्वयी गतिः स्थितिशब्दस्य स्यात् तृतीयविकल्पाभावात् - यद्वा स्थित्यभिधानमवस्तुकम् ? यद्वा द्रव्यमात्रविषयं स्यात् ? किश्चातः? 20 इदमतो भवति दोषजातम् – अवस्तुकत्वे विवक्षाशब्दयोरप्रवृत्तिप्रसङ्गः, यद्यवस्तुविषयं स्थितिशब्दवचनं वक्तुमिच्छा विवक्षा सा स्वनिश्चितमर्थं परं प्रत्याययामीति जायते, अर्थाभावाच्च न स्यात् । तथा च अभिधीयतेऽनेनेत्यभिधानं स्थितिशब्दः, तस्याभावः स्यादर्थाभावात् , काकवासितादिवदनर्थकं वा तत् स्यादिति । एवं तावदवस्तुकत्वे दोषः । अथ द्रव्यमान स्थितिः द्रव्यस्याविरोधाद् गतावपि स्यात् , यथा देवदत्तसद्भावाद् गत्यविरोधाच्च 'देवदत्तो गच्छति' इत्यत्र देवदत्ताभिधानं प्रवर्तते तथा 'देवदत्तस्तिष्ठति 25 गच्छति च' इत्येतदभिधानं प्रवर्तेत, उभयत्र द्रव्यस्यैव सत्त्वात् विशेषाभावाच्च । एवं दोषदर्शनाद् न गत्यभावमानं स्थितिः । यतस्तु खल्वित्यादि, विरोध्यविरोधिर्भावा वाच्यवस्तुस्थितिः, गतिस्थित्योः परस्परविरोधाद् देवदत्तद्रव्येण सहाविरोधाद् भावावेव गतिस्थिती द्रव्यवत् , अन्थो गतार्थो यावद् भवनानन्यत्व एव गतिविरोधिनी स्थितिरिति । भवनानन्यत्व इति द्रव्यभवनादनन्यैव गतिः स्थितिति प्रवृत्तिभवनानन्यत्व एवेति यथाक्रान्तमुपसंहरति । १नु भा० ॥ २ °सान प्र० ॥ ३°सानेभुजि य० ॥ ४ (प्रवृत्तिरेव ? )॥ ५ विरोधाविरोधि प्र० ॥ ६ भावाचाव्यवस्तुस्थिति भा० । भावावस्तुस्थितिः वि० । भावावाव्यस्तुस्थितिः पा० डे० ली० २०॥ ७°पक्रान्त प्र०॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खपुष्पादेरपि भावत्वोपपादनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४०५ स्यादेतत्-स्थित्या विरोधवत् खपुष्पादिना गत्यभावेनापि विरोधः, तत्र तद्विरोधित्वात् तदविनाभावित्वे कुत एतद् भावविषयमेव अभावविषयमेवैतदिति वा कुतः ? यद्यभावोऽपि भावेन अभावेन वा भावो विरुध्यते तावुभौ भावावेव तर्हि विरोधित्वात् यत्किश्चिद्वत् । अनुत्पद्यमानस्थितौ गतिनिवृत्ती गतिस्थित्याघेकभूतभवनाविनाभूतद्रव्यविनाशविषयं 'स्थानम्' इत्यभिधानं स्यात् । तस्माद् गत्यभावलक्षित.......। एवं खपुष्पाद्यसत्तावाचिशब्दानां भावार्थत्वम् , यथा 'तिष्ठति पचति' इत्य स्यादेतदित्यादि । स्यान्मतम् – 'विरोधित्वात्' इत्येतदनैकान्तिकमभावत्वप्रसङ्गात् । गतेरभावो गत्या विरुध्यते प्रकाशाभावेनेव तमसा प्रकाशः, यथा त्वन्मतेनैव ननु प्राग् गतिरेव क्रियान्तरप्रादुर्भावेनानभिव्यक्तिं नीयमाना भाव एव इत्युक्तम् , तत्र स्थित्या विरोधवत् खपुष्पादिना गत्यभावेनापि विरोधः । तत्र 10 तद्विरोधित्वात् तदविनाभौवित्वे इति गतिरभावाविनाभाविनी स्यात् तद्विरोधित्वात्, यच्च यद्विरोधि २४४-१ तत् तेनाविनाभावि दृष्टम् , यथा - गतिः स्थित्या । खपुष्पादेर्वा भावत्वमेव स्यात् , गतिविरोधित्वात् , स्थितिवत् । एवं तदविनाभावित्वे सति कुत एतद् भावविषयमेव एतदभिधानं 'स्थितिः' इति ? 'खपुष्पादिः' इत्यभावविषयमेवैतदिति वा कुतः ? विशेषो वात्र वाच्य इति । _ अत्र 'ब्रूमः - यार्थभावोऽपीत्यादि । खपुष्पादेर्विपक्षं कृत्वा भावत्वाद् नानिष्टापादनम् । किं 15 'विशेषेणोक्तेन ? यथा स्थितेरभावत्वायुक्तिस्तथा खपुष्पादेरपीत्यभिप्रायः । तत् कथं भाव्यते ? इति तदुच्यते- यद्यभावो भावेन अभावेन वा भावो विरुध्यते तावुभौ यो विरुध्यते येन च विरुध्यते भावावेव तर्हि विरोधित्वात् यत्किञ्चिद्वदिति उदाहरणसौलभ्यं दर्शयति अहिनकुलादिवद् घटपटादिवद् घटकपालादिवद्वा सर्वत्र सहानवस्थानलक्षणविरोपदर्शनाद् देशतः कालतो वेति । तस्मात् खपुष्पादेरपि भावत्वाद् नानिष्टमिति ।। 20 ___ यदपि च त्वया स्थित्यभिधानमभावविषयमिति मन्यते तस्यापीयमुपपत्तिः स्याद् भवन्ती, तद्यथागत्यभावमात्रविषयत्वं चानुत्पद्यमानस्थितिर्गतिनिवृत्तिरिति, तथा च कल्प्यांनायामनुत्पद्यमानस्थिती गतिनिवृत्ती, गतिस्थित्यादि एकभूतं भवनं प्रागुक्तन्यायकम् , तेनाविनाभूतं द्रव्यम् , तस्य विनाशोऽत्यन्तमभावः, तद्विषयं 'स्थानम्' इत्यभिधानं स्यात् , न चैवं द्रव्यस्य कूटस्थनित्यत्वाद् भवितुमर्हति । तस्मादेव च तदनिष्टभयात् प्रतिपत्तव्यम् - गतिनिवृत्तिः स्थिति भावः, तथा खपुष्पादिश्चेति । तदुपसंहरति-तस्माद् 25 गत्यभावलक्षितेत्यादि गतार्थम् । अनन्तरं खपुष्पादिरपि प्रसङ्गतोऽभिहितो योऽसावभावाभिमतस्तत्रापि 'अभावः' इति च नापदार्थ उच्यते, किं तर्हि ? नत्रः पर्युदासवाचित्वाद् भावादन्यो भाव इति भावविशेषः, अब्राह्मणक्षत्रियादिवत् । २४० एवं खपुष्पोद्यसत्तावाचिशब्दानां भावार्थत्वम्, एवमसद्भावाभिमतेष्वपि सदर्थविषयत्वमिति न्याय १ तेनेव प्र० ॥ २ भावत्वे भा० । भावत्ते य० ॥ ३ वा धूमः भा० ॥ ४॥ एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ ५भावाद् य० ॥ ६ विशेषेणा वि. विना० ॥ ७°धादर्शनाद् प्र० ॥ ८ पा० विना 'मानायामुद्यमानस्थितौ य० । मानायानुधमानस्थितौ पा० । मानस्थितौ भा० ॥ ९पादिसत्वा प्र०॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [पञ्चम उभयारे न्यथाभवनं तथा 'विनश्यति' इत्यादि । खपुष्पादीनामपि ननु तथा अभवनम् , अन्यथा न तु अभवनम् । अगतिस्थितिरन्यथाभवनमेवं खपुष्पादिरपि, सति नियतत्वात् प्रकाराणाम् । एवं च एक एव पूर्वापरीभूतो भावः प्रवृत्तिरित्युच्यते स च एवान्तर्भावित5 स्वप्रभेदत्वात् प्रवृत्तिविशेष इत्युच्यते, भुजिविशेषवत्, यथा भुजावेव द्रव्यक्षेत्र व्यापितां दर्शयति । वक्ष्यते चास्योदाहरणमतिदेशस्य । इदं तु तावत् प्रकृतं भाव्यते-यथा 'तिष्ठति, पचति' इत्यन्यथाभवनम् , अन्येन प्रकारेण परिस्पन्दपरिणतस्य द्रव्यस्य ततः प्रकारादन्येन अपरिस्पन्दपरिणतिप्रकारेण भवनं तिष्ठति आस्ते शेत इत्यादि, तण्डुलादिकठिनद्रव्यमृदूभवनं पचत्यादि । यथैताः क्रियाः अन्यथाभवनमात्रभेदाः प्रवृत्तिसामान्यं भवनं नातिवर्तन्ते तथा 'विनश्यति प्रध्वंसते 'नितिष्ठति' इत्याद10 योऽपि भवनप्रकाराः प्रवृत्तिसामान्य भावत्वं च नातिवर्तन्ते । एवं क्रियापदवाच्यस्यार्थस्य अन्यथाभवनमात्रता व्याख्याता । येऽप्यत्यन्ताभावाभिमताः खपुष्पादिशब्दवाच्यास्तेषामपि ननु तथा अभवनम् , अन्येन प्रकारेण न त्वभवनम् , भवनमेव, नात्यन्ताभवनमित्यर्थः । कथम् ? अगतिस्थितिः, गतेरन्या स्थितिरगतिस्थितिः, न तु गत्यभावमात्रम् , गतेरेव प्रकारान्तरता । यथा सा स्थितिरन्यथाभवनमेवं खपुष्पादिरपि अन्यथाभवनम् । किं कारणम् ? सति नियतत्वात् प्रकाराणाम् , प्रकारत्वात् सन्नेव खपुष्पादिः, यो यः 15 प्रकारः स सन्नेव, यथा गतिनिवृत्तिः स्थितिरुक्तन्याया सती । कथं खपुष्पादेः प्रकारता इति चेत्, उच्यते - खपुष्पस्य च समवायरूपेणानभिव्यक्तिः अशोककुसुमादिप्रकारेणाभिव्यक्तिरिति प्रकारत्वानतिवृत्तः, द्रव्यक्रिययोः सर्वात्मकत्वादस्मिन् द्रव्यार्थनयभेदे सर्वं द्रव्यं क्रिया च गमनादि, द्रव्यभेदानां गमनादिक्रियाभेदानां चोक्तवद् भवनद्वयाभेदात् कतमत् खं कतमद्वा पुष्पाणां विकसनमन्यत् ? इति देवदत्तगमन भवनद्वयत्ववत् तदपीति खपुष्पादिरपि भावः । २८९.२ एवं चेत्यादि । एवं च कृत्वा गमनस्थानादिक्रमभाविनीनामपि क्रियाणां सततसम्प्रवृत्तितादात्म्या नतिक्रमादेक एव पूर्वापरीभूतो भावः प्रवृत्तिरित्युच्यते, एवमेव च तदुपपद्यते यदुक्तं पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातेनाचष्टे व्रजति पचति [ निरुक्त० १।१] इत्यादीति सर्वधात्वैकार्थ्यस्य चानन्तरमापादयिष्यमाणत्वात् । कस्मात् स भावः प्रवृत्तिरित्युच्यते ? ब्रूमः -प्रकर्षेण वर्तनात् । स च प्रकर्षः सदा सर्वप्रभेदानु भवनरूपः, स च एवान्तर्भावितस्वप्रभेदत्वात् प्रवृत्तिविशेष इत्युच्यते रूपादिगत्यादीन स्वप्रभेदान 25 अन्तर्भावयन्नेव भावः सामान्यभवनलक्षणो भवन् , भेदानां परस्परतो विशेषाविशेषौ "भेदानुस्यूतत्वात् , न त्वदिष्टः कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः सामान्यप्रवृत्तेर्भिन्नः कश्चिदिति । दृष्टान्तः - भुजिविशेषवदिति । तद्वथाख्यानम् - यथा भुजावेवेत्यादि यावत् प्रकारमात्रं भिद्यत इति । अशन-पान-खाद्य-खाद्यादिद्रव्यभेदेन १।। एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ २ निस्तिष्ठति य० ॥ ३ वृत्तिस्थि प्र०॥ ४ चा भा० वि०॥ ५मचा य० ॥ ६ दृश्यतां पृ० १२६ पं० २४॥ ७°मापायांतर्भाविदयिष्य य० ॥ ८स च एचान्त भा० । (स एव चान्त?)॥ ९भव में वि० । भाव में डे० ली. । (भवेत् ?)॥ १०विशेषो य० ॥ ११ मेदानुभ्युतत्वात् भा० । मेदानुभ्युपगतत्वात् य० ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्तिसामान्यस्य क्रियात्वव्यवस्थापनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४०७ कालभावभेदेन प्रकारमानं भिद्यते एवं गतिस्थित्योरस्तिम्रियत्योर्वा । सर्वैव वासी ....... क्रियैव । एवं च भुजिगतिस्थितिपक्त्यादीनामपि तथा तथा सर्वभावव्यापिता, भाषतिजानातिश्वेतत्यादीनामपि पूर्वोत्तरव्यक्त्यव्यक्तिभवनैकत्वात् ।। कांसपाध्यां पाणौ शरावे वेति क्षेत्रभेदेन प्रथमद्वितीयग्रासादिना दिनरात्र्यादिना सायंप्रातराशादिना वा 5 कालभेदेन तीव्रमन्दक्षुधितग्लानौषधस्वस्वरसायनादिभावेन च प्रकारमात्रेणैव भिद्यते न भुजित्वेन । न हि तेषु प्रकारभिन्नेषु कश्चिद्भुजिर्भवति अक्रिया वा । किन्तु सर्वोऽप्यसौ भुजिरूपानतिक्रमाद् भुजिरेव, अथ च परस्परतः प्रकारमात्रभेदाद् भिद्यन्ते तथा सामान्यप्रवृत्तिरेव प्रवृत्तिविशेषः, वर्ततेरस्त्यर्थस्य सर्वगतिस्थित्यादिभेदात्मकत्वात् । एवं गतिस्थित्योरस्तिम्रियत्योर्वेति विरोधिभावप्रादुर्भावोऽपि सामान्यभवनस्यैव प्रकारमात्रभिन्नस्य विस्पन्दितमिति तन्निगमयति - सर्वैव वाऽसाविति यावत् क्रियैव । तस्मादस्ति-भवति-10 २८९-२ विद्यति-पद्यति-वर्ततीनामेकार्थत्वात् प्रकारभेदाच्च ततो नासामान्यः प्रवृत्तिविशेषो भुजिसामान्यमानप्रकारभिन्नभुजिविशेषवदिति । किश्चान्यत् , एवं चेत्यादि । न केवलमस्त्यादय एव सर्वधात्वर्थव्यापित्वात् सामान्यप्रवृत्तिमात्रत्वभावनायां निदर्शनम् , किं तर्हि ? भुजिगतिस्थितिपक्त्यादीनामपि तथा तथा सर्वभावव्यापिता, भुक्तेस्तावद् अँजेरभ्यवहरणार्थस्य उपयोगपर्यायत्वात् उपयोगस्यापत्त्यर्थत्वात् आपत्तेः परिणामार्थत्वात् परिणामस्य 15 वृत्तिसत्ताभवनार्थत्वात् । तथा गतिरपि सर्वभावव्यापिनी गमन-चलन-स्पन्दन-परिणामाघेकार्थत्वात् , द्रवति द्रोष्यति दुद्रावेति दुः, द्रोविकारो द्रव्यम् , द्रव्यं च भव्ये [पा० ५।३।१०४ ], द्रव्यं सदैव गत्यात्मकं विपरिणामात्मकमित्यर्थः । आर्षेऽपि यथा- परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं एयति वेयति चलति फंदति खोभति खुभति तं तं भावं परिणमति ? हंता गोतमा ! तदेव जाव परिणमति [ भगवतीसू० ५।७।२१२ ] इति । स्थितिरपि तिष्ठत्यास्तेऽस्ति स्वरूपं न त्यजति परिणमति तथा तथा भवतीत्यर्थः । पचति-कृषति-लिखत्यादयः 20 पक्त्यादयः, तेषामपि पक्त्यादीनामस्त्याद्यविशेषः पाकस्य क्रियाफलत्वात् क्रियायाश्च हेतुफलरूपाभिन्नपरिणतित्वात् 'पच्यते पचत्यात्मानं बीजमकरीभवति जायतेऽस्ति विपरिणमति' इत्यायेकार्थत्वात् । यथा कृषि-विलिखेती तथात्मनः शिरां दर्शयति तथा तथा सर्वभाववृत्तेः कण्डूयत इत्याद्येकार्थम् । स्यान्मतम् - अस्तु भुज्यादीनां सर्वभावव्यापिता गतिस्थितिसत्ताविपरिणामाद्यनतिक्रमात् , पठि-हसि-विदि-श्विति-गड्यादीनां कथमिति चेत् , उच्यते --भाषतिजानातिश्वेतत्यादीनामपि पूर्वोत्तरव्यक्त्यव्यक्तिभवनैकत्वात् ‘एवं च तथा तथा ३०-१ १°रात्रा प्र०॥ २ सायंप्रातराशादिना य० प्रतिषु नास्ति ॥ ३ स्वस्वरेसायना य० । स्वरसायंना भा० ॥ ४ ततोन्यसामान्यः य० । वतोन्यसामान्यः भा० । (ततोऽनन्यसामान्यः ?)॥ ५ “भुज पालनाभ्यवहारयोः"-पा० धा० १४५५॥ ६“परमाणुपोग्गले णं भंते ! एयइ वेयइ जाव तं तं भावं परिणमइ ? गोयमा । सिय एयइ चेयइ जाव परिणमइ, सिय णो एयइ जाव णो परिणमइ ।" इति भगवतीसूत्रे पाठः॥ ७इत्यादि दोषार्थ या इत्यादोषार्थत्वात् भा०॥ ८"कृष विलेखने"-पा० धा०९९०॥ ९खति प्र०॥ १० तथा सर्व भा० वि० २०॥ ११ इति आधेकार्थ्यम् प्र०। (इत्याद्यैकार्थ्यम् ?)॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ___ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [पञ्चम उभयारे यदप्यादिनैगमनयदर्शनमनवबुध्य पूर्वनयनिपाति स्थितिखरूपनिरूपणं क्रियते 'सा तु द्रव्यावस्थाविशेषो गतिवत् प्रतिपत्तव्या' इति अत्रापि यत्नप्रसाधितक्रियान्तिरत्वत्यागः अव्यक्तद्रव्यावस्थात्वात् । यत् तद् द्रव्यं ततोऽनन्या क्रिया, तदवस्थात्वात् , देवदत्तबालकुमारादिवत् । तथा चाभ्युपगमविरोधः। 5 सर्वभावव्यापिता' इति वर्तते । भाष व्यक्तायां वाचि [पा० धा० ६१२] ज्ञा अवबोधने [पा० धा० १५०० ] श्विता वर्णे [पा० धा० ७४२ ] गडि वदनैकदेशे [पा० धा० ६५,३६१ ] इत्येवमादीनां पूर्वोक्तपूर्वापरीभूतव्यक्त्यव्यक्तिलक्षणभवनैकत्वात् । एकमेव हि पूर्वापरीभूतं भवनं गतिस्थित्यादिवत् क्रियात्वादित्युक्तम् । तथा भाषत्यादीनामपि पूर्वापरीभूतैकभवनव्यक्त्यव्यक्तिलक्षणक्रियात्वानतिवृत्तेः सर्वभावव्यापितैव । पूर्वमभाषमाणो गच्छंस्तिष्ठन्नुदासीनो वा पश्चाद् भाषते, तथा पश्यति जानाति इच्छति द्वेष्टि प्रयतते स्मरतीत्यादिषु 10 तुल्यश्चर्चः । तस्मान्न काचिदपूर्वापरीभूता क्रियास्ति, क्रियात्वाच्च 'सर्वधात्वर्थाः सर्वधात्वर्थव्यापिनः' इति साधूक्तम्। एवं तावत् प्रवृत्तिसामान्यमेव क्रिया प्रवृत्तिविशेष इत्युक्तम् , अधुना लक्षणान्तर परीक्ष्यम् , अत आह - यदप्यादिनैगमेत्यादि । . णेगेहिं मिणति माणेहिं णेगमो एस तस्स रुत्ती । 15 संगहितपिंडितत्थं संगहवयणं समासेण ॥ [आवनि० ] इत्येवमादिनयलक्षणे द्रव्य क्रियात्मकद्वित्वाचनेकधा गमो नैगम इति निरुक्त्यपेक्षया द्रव्यक्रियाद्वित्वास्मकवस्तुवाद आदिनैगमनयदर्शनम् , त्रित्वादिदर्शनानां द्वितीयादिनैगमत्वात् । एतद् दर्शनमनवबुध्य पूर्वनयनिपाति संग्रहनयं निपतितुं शीलं यस्य निरूपणस्य तदिदं स्थितिस्वरूपनिरूपणं क्रियते सङ्ग्रहनय दर्शनानुपाति । प्रथमाद् विधिभङ्गाद् व्यवहारनयादारातीया येऽतीताः पूर्वनयास्ते सङ्ग्रहनयभेदाः, तदनु२४. पाति यदुत्तरं क्रियालक्षणं स्थित्युदाहरणद्वारेणोच्यते तत्स्वरूपनिरूपणाय तदविदितनयविषयविवेकैरेवो च्यते । कथं पुनस्तैः स्थितिस्वरूपनिरूपणं क्रियते ? उच्यते - सा तु द्रव्यावस्थाविशेषो गतिवत् प्रतिपत्तव्या इत्येवं निरूप्यते । यथा गतिर्द्रव्यस्यावस्थाविशेषो बालकुमारादिवद् द्रव्यादनन्या तथा स्थितिरिति । गतिस्थितिवश्च सर्वक्रिया इति । अत्रापि लक्षणान्तरे दोष उच्यते अविकल्पिते क इति चेत्, उच्यते-- यत्नप्रसाधितक्रियार्थान्तरत्वत्यागः, प्राक् त्वया यत्नेन प्रसाधितमुक्तिवस्तुक्रियालक्षणाभिधानेन 'द्रव्या25 दर्थान्तरं क्रिया' इति तस्य त्यागो दोषः । किं कारणम् ? अव्यक्तद्रव्यावस्थात्वात् , इह ह्यवस्थाशब्देनाध्यक्ताः क्रमभाविनो बालकुमारादयो धर्मा द्रव्यस्यैव देवदत्तादेरंशा एवोच्यन्ते, ते चांशास्तदवयवत्वात् ततोऽनन्ये । तस्मान्न ततोऽर्थान्तरमित्येतदापन्नम् । स चाभ्युपगतद्रव्यार्थान्तरभूतक्रियापदार्थत्यागो दोषः । एष प्रयोगेणैवोद्भाव्यते - यत् तद् द्रव्यं ततोऽनन्येत्यादि गतार्थं यावदभ्युपगमविरोध इति । १ पश्चाषते प्र०॥ २ सेणं पा०वि०॥ ३"णेगेहिं माणेहिं मिणइत्ती णेगमस्स नेरुत्ती। सेसाणं पिणयाण लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं ॥ २२२ ॥ संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ बिंति ।......॥ २२३ ॥” इति आवश्यकनिर्युक्तौ पाठः॥ ४द्यनेकमा गमो प्र०॥ ५ क्या प्र.॥ ६भा० २० विनान्यत्र-ल्पितक इति ॥ ७ ततो नान्ये य०॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ द्रव्यक्रिययोरन्यत्वप्रतिपादनम्] द्वादशारं नयचक्रम् एवमभिधानात्तु अन्युत्पत्ती व्युत्पत्तौ वा खवचनादिविरोधः । तत्र तावदव्युत्पत्तौ अवस्थायास्ततोऽन्यत्वम्, तत्वादिविषयशब्दवाच्यत्वात्, देवदत्ताश्ववत् । शिलापुत्रकशरीरवन्नेति चेत्, न, अवस्थाशरीरशब्दप्रयोगानर्थक्यात् अनापि शरीरावस्थाक्रियात्वात्। व्युत्पत्तावपि कर्तरि षष्ठीयं 'द्रव्यस्यावस्था' इति, सा यद्विषयं द्रव्यस्य कर्तृत्वं तामात्मनोऽक्रियात्वात् तदन्यगतिविचलनप्रतिबन्धात्मिकामवस्थां दर्शयति । एवमभिधानात्त्वव्युत्पत्ती व्युत्पत्ती वेत्यादि । अत्र 'द्रव्यावस्था' इत्यस्य शब्दस्यार्थद्वयकल्पना स्यात् - राजवृक्षादिशब्दवदव्युत्पत्तिर्युत्पत्तिर्वा राजपुरुषशब्दवत् । उभयथापि स्ववचनविरोधः । तद्व्याचष्टे -तत्र तावदव्युत्पत्तो अवस्थायास्ततोऽन्यत्वम् , द्रव्यादन्यावस्था, तत्स्वादिविषयशब्दवाच्यत्वात् , तस्य स्वस्वामिसम्बन्धादिष॑ष्ठीविषयेणावस्थाशब्देन वाच्यत्वं द्रव्यस्य, इतरथा द्रव्यशब्दोऽ- 10 वस्थाशब्दो वानर्थकः स्यात्, इंह यद्विशेषवाचिनोऽपि शब्दस्य वाच्यार्थोऽन्य इत्यवश्यमभ्युपगन्तव्यम् , देवदत्ताश्ववत् , यथा देवदत्ताश्व इत्युक्ते देवदत्तस्य स्वमश्वः सोऽस्य स्वामीति तेन स्वामिविषयेण २९१-१ 'अश्व'शब्देन तस्य देवदत्तस्य वाच्यत्वात् ततोऽन्यत्वं दृष्टमेवं द्रव्यावस्थेति । __ शिलापुत्रकशरीरवन्नेति चेत् । स्यान्मतम् – यथा 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' इत्यत्र शिलापुत्रकादनन्यस्मिन्नपि शरीरे स्वादिविषयशब्दवाच्यत्वदर्शनादनैकान्तिकतेति । एतच्च न, अवस्थाशरीर-15 शब्दप्रयोगानर्थक्यात् , यद्यनन्यच्छिलापुत्रकाच्छिलापुत्रकशरीरं 'शिलापुत्रक एव शरीरं शरीरमेव शिलापुत्रकः' इति घटकुटशब्दवत् पर्यायमात्रत्वात् प्रतीतपदार्थकं श्रोतारं प्रति अन्यतरप्रयोगानर्थक्यं स्याद् गतार्थत्वात् । तथा द्रव्यमेवावस्था द्रव्यावस्थेत्यन्यतरानर्थक्यम् । तस्मादन्यतरानर्थक्याद् नेदमुपपन्नम् , शिलापुत्रकशरीरवदू नानैकान्तिकतेति । किश्चान्यत् , अत्रापि शरीरावस्थाक्रियात्वादयुक्तम् , नन्वस्माभिरुपपादितम् - द्रव्यक्रियात्मकं सर्ववस्त्विति । तस्मादत्रापि शिलापुत्रकेण शीर्यते, शरारुत्वाच्छ- 20 रीरमिति शरारु भवति, तेन शरारुणा भूयत इति द्रव्य क्रियाभिधानं नातिवर्तते । तथा च द्रव्यावस्था द्रव्यमवतिष्ठते द्रव्येणावस्थीयते इत्यवस्थानस्य क्रियात्वानतिवृत्तेस्ततोऽन्यत्वमेव । एवं तावदव्युत्पत्तौ । व्युत्पत्तावपि सामासिकपदत्वात् समासस्य च षष्ठीसमासत्वात् षष्ठयाश्च कर्तरि विहितत्वात कर्तरि तु षष्ठीयं 'द्रव्यस्यावस्था' इति द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादि प्राग्वत् । सा यद्विषयमित्यादि यावत् तदन्यगतिविचलनप्रतिबन्धामिकामवस्थां दर्शयति । सा षष्ठी यद्विषयं द्रव्यस्य कर्तृत्वं 25 यां क्रियां साधयत् साधनं कर्तृ भवति तद् द्रव्यं ततोऽर्थान्तरभूतां तामवस्थानक्रियां दर्शयतीति सम्भन्स्यते । किं कारणम् ? आत्मनोऽक्रियात्वात् तस्य द्रव्यस्य स्वयमक्रियात्वात् , क्रियामन्तरेण कर्तुः२९१-२ कर्तृत्वाभावात् कर्तरि षष्ठी न स्यात्, ततस्तस्माद् द्रव्यांदन्यत्र गतिरन्यस्य गतिर्द्रव्याद् विचलनं १व्युत्पत्ती वे प्र० ॥ २ व्युत्पत्तिर्वा प्र० ॥ ३ दितिविष प्र० ॥ ४ षष्ठ्यविषयेणा भा० । 'षष्ठ्यविषयिणों य० ॥ ५ इह द्विशेष भा० । ( इह विशेष ? इह तद्विशेष ?) ॥ ६ तेन विषतेन स्वामि य० ॥ ७ (खादिविषयेण ? ) ॥ ८ 'गादान भा० ॥ ९ पुत्रकाच्छिलापुत्रकशरीरं शरीरमेव य० । पुत्रकशरीरं शिलापुत्रक एव शरीरं शरीरमेवभा०॥ १० इति वस्था प्र०॥ ११ षष्ठीस्यात् प्र० ॥ २२ दन्यामन्यत्र य० ॥ नय० ५२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [पञ्चम उभयारे त्वन्मनोरथानुवृत्तेस्तु घलादेव अत्याज्याभिमततत्त्वद्रव्यशब्दार्थवशाद द्रव्यादर्थान्तरभूताया गतिस्थित्यादिक्रियाया आपत्तिः, 'भवति भवनं वा द्रव्यम्' इति भव्यार्थत्वात् प्रकृतिप्रत्ययार्थव्युत्पत्तेन॒व्यक्रिययोः सिद्धिः कर्तृभावनानात्वात् । __ यत् पुनरेतदुक्तम् 'अविशिष्टदेशसंयोगा वा स्थितिः' इति तन्न युक्तं 5'वा'शब्दवय॑म् , द्वाभ्यामविरोधात् । परिस्पन्दपरिणतिः पूर्वस्या औदासीन्यावस्थायाः प्रच्युतिः क्रियान्तरत्वावस्थातो वा । तयोरन्यगतिविचलनयोः प्रतिबन्ध आत्माऽस्या अवस्थानक्रियायाः सान्यगतिविचलनप्रतिबन्धात्मिका, तां दर्शयति षष्ठीति । अथवा तदन्यगतिरिति तस्मिंश्चान्यस्मिंश्च नियमेन गतिर्विचलनम् , शेषं पूर्ववत् । पूर्वस्मिन् व्याख्याने भेदोऽनयोः - गतिर्देशान्तरप्राप्तिः, चलनं स्वक्षेत्रेऽपि व्यापृततेति । इह पुनरभेद इति विशेषः । तस्माद् 10 व्युत्पत्तावव्युत्पत्तौ च यदि द्रव्यं ततः 'अवस्था' इति विरुध्यते । अथावस्था ततः 'द्रव्यम्' इति विरुध्यते । आदिग्रहणाद् लोके तथा दृष्टत्वात् प्रत्यक्षविरोधः । तथानुमेयत्वादनुमानविरोधः । तद्रूढेश्च रूढिविरोधः । एवं 'द्रव्यावस्थाविशेषः' इति क्रियालक्षणमभ्युपगमादिविरोधादयुक्तम् । कॉलसाधनयोगी भाव इत्येतयोः क्रादिष्वव्याप्तेरलक्षणमिति तैरेव निराकृतमिति । त्वन्मनोरथानुवृत्तेस्त्वित्यादि । 'द्रव्यस्यावस्थामा क्रिया, नार्थान्तरम्' इत्येष सायमतानु15 वर्तिनो भवतः परप्रत्ययो मनोरथः स नोपपद्यते, सर्वत्र द्रव्य क्रियात्मकभावापत्तिभावादुक्तवत् । अथापि त्वन्मनोरथमनुवृत्य द्रव्यमात्रदर्शनाभिमुखीभूयापि अवस्थाशब्दं श्रूयमाणमपि उज्झित्वा यद्यपि त्वदुपर्यनु कम्पाद्रवीकृतचेतसो न किश्चिद् ब्रूमः, तथापि बलादेवोपपत्तेरेव अत्याज्याभिमततत्त्वद्रव्यशब्दार्थ२९३-१ वशात् , अत्यागार्हमभिमतं तत्त्वं तव साङ्ख्यस्य च द्रव्यमेवार्थः, तदभिधायिनो द्रव्यशब्दस्य वशात् तदर्थवशाच्च पुनरपि सारं सारं द्रव्यादर्थान्तरभूताया गतिस्थित्यादिक्रियाया आपत्तिः, सा 20 क्रियापन्ना, कस्मात् ? भवति भवनं वा द्रव्यमिति भव्यार्थत्वात् , द्रव्यं च भव्ये [ पा० ५३।०४], भव्यशब्दश्च कर्तरि भावे वास्तु, तथा द्रव्यशब्दोऽपि । तत्र द्रव्यशब्दस्य भव्यार्थत्वात् प्रकृतिप्रत्ययार्थव्युत्पत्तिरवश्यम्भाविनी, ततश्च प्रकृतिप्रत्ययार्थव्युत्पत्तेद्रव्यक्रिययोः सिद्धिा, प्रकृत्यर्थस्य क्रियात्वात् प्रत्ययार्थस्य द्रव्यत्वात् । कथं व्युत्पत्तिरिति चेत् , उच्यते - साध्यसाधनभेदात् , यद् भूयते सा क्रिया, यद् भवति तद् द्रव्यम् , यत् तद् भवता वस्तुना भूयते स प्रकृत्यर्थो भावः, यत् तद् भवति तत् कर्तृ, तस्मात् कर्तृ25 भावनानात्वाद् द्रव्यक्रियानानात्वात् स्यात् , नान्यथा । तस्माद् नयोत्थानप्रकृताद् द्रव्यशब्दार्थवशाद् भव्यभवत्यादिशब्दवशाच बलादेव द्वित्वसिद्धिरिति साधूक्तम् । ' ___यत् पुनरेतदुक्तम् 'अविशिष्टदेशसंयोगा वा स्थितिः' इति लक्षणं तन्न युक्तं 'वा'शब्दवज्येम्, तत्रापि 'वा'शब्दस्यानर्थक्यं विकल्पार्थासम्भवात् । कस्मात् पुनस्तदयुक्तम् ? द्वाभ्याम १°न्दः पप्र० । दृश्यतां पृ० ४०६ पं० ७॥ २ ( सा तदन्यगति ?) ॥ ३ दृश्यतां पृ० ४०९ पं० १॥ ४'भूतभविष्यद्वर्तमानादिकालयोगी भावः, कर्तृकर्मादिसाधनयोगी भावः' इति लक्षणद्वयमत्र क्रियाया विवक्षितम् ॥ ५कादि प्र०॥ ६ वय॑म् य० । वर्जम् भा० ॥ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतञ्जल्यभिहितक्रियालक्षणखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ક यदपि च द्वितीयं विशेषग्रहणप्रयोजनमभिधीयते - सर्वदा सर्वभावानां प्रवृत्तिसमन्वयाद् 'देवदत्तः' इत्यपि नाप्रवृत्तिकं वस्तु, सर्वभेदसम्बन्धानुगुण्यात्तु नायं विशेषः तस्मान्न क्रिया इत्येवमर्थं विशेषग्रहणम् । इदमपि त्यक्तद्रव्यार्थोत्थानम् । यथा तत्र प्रवृत्तिसामान्यनिवृत्त्यर्थे विशेषग्रहणे तथेहापि देवदत्तादिधातुत्वनिवृत्त्यर्थे विरोधात्, "क्रिया द्रव्यादर्थान्तरम्' इत्यनेन दर्शनेनाविरोधात्, उक्तिवस्तुक्रियालक्षणेन द्रव्य क्रियाश्रयेण 5 च प्रागुक्तेन च न्यायेन चाविरोधादिति । एवं तावत् प्रवृत्तिसामान्यक्रियात्वनिवृत्त्यर्थविशेषग्रहणप्रयोजने दोषाभिधानं कृतम्, अधुनेदमपि विशेषग्रहणप्रयोजनं दूष्यते - यदपि च द्वितीयं विशेषग्रहणप्रयोजनमभिधीयते सर्वदेत्यादि । २९२-२ ‘सर्वदा' इति प्रवृत्त्यनिवृत्तिं दर्शयति । सर्वभावानामिति व्याप्तिः । कुतः ? प्रवृत्तिसमन्वयाद्धेतोः देवदत्त इत्यपि नाप्रवृत्तिकं नाक्रियं वस्तु तेन शब्देनाभिधीयते, किं तर्हि ? सप्रवृत्तिकमेवोच्यते, यथा 10 पचत्यादीनां क्रियावचनत्वमेवं देवदत्तादीनां द्रव्यवाचित्वाभिमतानामपि वाच्यस्यार्थस्य प्रवृत्त्या सत्तया गत्यादिसर्वभवनात्मिकया समन्वितत्वम् । ततः पचत्यादिवद् देवदत्तादयोऽपि शब्दाः क्रियावचनाः, तस्मात् क्रियावचनो धातुः [ पा० वा० ||३ | १ ] इति धातुसंज्ञास्तेऽपि स्युः, विशेषग्रहणसामर्थ्यात् पुनः र्विशेषो न भवतीति निवर्त्यते । कस्मात् पुनर्देवदत्तादयो विशेषा न भवन्तीत्युच्यते - सर्वभेदसम्बन्धानुगुण्यात् तु नायं विशेषः, सर्वैर्हसिपठिगम्यादिभिर्भेदैर्देवदत्तभवनप्रवृत्तेः सम्बन्धेनानुगुणत्वात् प्रवृत्ति - 15 सामान्यमेवेदं भवनवत् सत्यपि भवद्भवनभावविशेषे तुशब्दस्य विशेषार्थत्वात् । तस्माद् न क्रियेति देवदत्तादेरक्रियात्वमुपसंहरति इतिशब्दस्य समाप्त्यर्थत्वात् एवमर्थं विशेषग्रहणमिति प्रकृतोपसंहारः, प्रवृत्तिविशेषः क्रिया न प्रवृत्तिसामान्यमिति न भवनमात्रं नापि देवदत्त इत्युपसंहारार्थः । अस्यापि विशेषग्रहणस्य सदोषत्वमुच्यते - इदमपि त्यक्तद्रव्यार्थोत्थानम्, इदं हि विशेषग्रहणप्रयोजनव्याख्यानमुत्थान एव द्रव्यार्थत्यागं कुरुते । अपिशब्दात् प्रागुक्तभवनसामान्यक्रियात्वनिवृत्त्यर्थं विशेषग्रहणमन्ते 20 क्रियामेव त्यजतीति स्मारयति । 'सर्वदा सर्वभावानां प्रवृत्तिसमन्वयात्' इति हेतुवचनेन 'देवदत्त इति नाप्रवृत्तिकम्' इति नामवाच्यार्थस्वरूपवचनेन च प्रवृत्तिमात्रमेवेदं न द्रव्यं नामेति द्रव्यार्थस्य प्रागभ्युपगतस्य त्यागः कृतो भवति अनेनापि विशेषग्रहणप्रयोजनवचनेन द्वितीयेनेति । 1 25 केवलं द्रव्यार्थ व दोषः, किं तर्हि ? प्राग्व्याख्यातविशेषग्रहणप्रयोजनतुल्यदोषानुबन्धं चेदम् । कथमिति चेत्, उच्यते - यथा तत्रेत्यादि ग्रन्थ उपसंहृते दोषासक्त्या चोद्यमेव उत्तरत्वेन समर्थ -, यति । भाष्यकारेण कारकवत्याः फलोद्देशिन्याः क्रियात्वं प्रतिपाद्य उपसंहृतं तस्मात् प्रवृत्तिविशेषः क्रिया, म प्रवृत्तिसामान्यमिति, तत्र दोष आसैज्यते - यदि प्रवृत्तिविशेषः क्रिया 'प्रवर्तते, ईहते, चेष्टते' इत्यादीनां धातुसंज्ञा न प्राप्नोति, क्रियावचनानामेव धातुत्वात् तेषां चाक्रियात्वात् प्रवृत्तिविशेष क्रियात्वादित्येष दोषो यथा तत्र प्रवृत्तिसामान्यनिवृत्त्यर्थे विशेषग्रहणे तथेहापि देवदत्तादिधातुत्व निवृत्त्यर्थे १ "सर्वमेदानुगुण्यं तु सामान्यमपरे विदुः । तदर्थान्तरसंसर्गाद् भजते भेदरूपताम् ॥” - वाक्यप० २४४ ॥ २ यतीति य० ॥ ३ प्रत्याख्यात' य० ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४०० पं० ३ ॥ ५ संज्य प्र० ॥ ६ वाक्रियत्वात् प्र० ॥ २९३-१ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ पञ्चमं उभया विशेषग्रहणे वृतादीनां धातुसंज्ञा नैव प्राप्नोति अक्रियावचनत्वाद् देवदत्तवत्, अस्वशब्दोपादानसाध्यभावादिलक्षणवचनं चानर्थकं स्यात् । यथा च तत्रोच्यतेनैष दोषः, विशेष इति भवतः व सम्प्रत्ययः ? य उपादीयमानोऽन्यं निवर्तयति । radiantarastra यमाना विशेषान् निवर्तयन्ति तथा चोक्तम् -- सामान्यमपि 5 यथा विशेषस्तद्वत् [पा० म० भा० २२ २४ ], ततश्चैषां सिद्धा धातुसंज्ञा । एवमिहापि प्रत्यु 1 विशेषग्रहणे वृतादीनां धातुसंज्ञा नैव प्राप्नोति । किं कारणम् ? अक्रियावचनत्वाद् देवदत्तवत्, तदर्थस्याक्रियात्वादक्रियावचनत्वम्, तदर्थस्याक्रियात्वं सर्वभेदसम्बन्धानुगुण्यात् । स वा देवदत्तः क्रिया स्यात् सर्वभेदसम्बन्धानुगुणत्वात् वृतादिवत् अनिष्टं चैतदिति । किञ्चान्यत्, प्रवृत्तिसामान्यनिवृत्त्यर्थे देवदत्तादिद्रव्यनिवृत्त्यर्थे च विशेषग्रहणे द्विधापि अस्वशब्दोपादानसाध्यभावादिलक्षणवचनं चान10 र्थकं स्यात् । यदुक्तम् 'अशब्दोपादानसाध्यभावो भावः' इति भावलक्षणम्, भावादिग्रहणात 'स्वैशब्दोपादानसिद्धभावं सत्त्वम्' इति द्रव्यलक्षणमुक्तित एव पृथगिति वस्तुतोऽपि लिङ्गसङ्ख्यादिमद्लिङ्गर्संङ्ग्यत्वं च द्वयोः पृथक्त्वं तथा त्रिकालात्रिकालविषयत्वं भूताभूतभेद इत्यादि पृथक्त्वलक्षणवचनमनर्थकं द्वयोरपि क्रियात्वादिति । २९३-२ यथा च तत्रोच्यते नैष दोष इत्यादि । एवं दोषेऽभिहिते स्यान्मतं प्रवृत्तिसामान्यनिवृत्त्यर्थ - 15 विशेषग्रहणप्रयोजनदोषं परिहरामीति विशेष इति भवतः क्व सम्प्रत्यय इति प्रश्नोपक्रमं दोषवादिनैव परिहारमभिधापयिष्यतस्ते, दोषवादी किल ब्रूयात्-य उपादीयमानोऽन्यं निवर्तयतीति । परो ब्रूयात् - यद्येवं वृतादयोऽप्युपादीयमाना विशेषान् निवर्तयन्तीति, तैर्हि गच्छत्यादयो विशेषा निवर्त्यन्ते न गच्छति न शेते न भुङ्क्ते वर्तत एव अस्ति भवति विद्यत एव केवलमिति । तस्मादुपादीयमाना गमनादीन् विशेषान् निवर्तयन्ति वृतादयः, तिष्ठत्यादिवत् । तथा चोक्तं भाष्यकारेण - सामान्यमपि 20 यथा विशेषस्तद्वदिति ज्ञापकमिदम् इति वर्तत्यादिर्विशेष एव उपादीयमानत्वे विशेषनिवृत्तिहेतुत्वात् तिष्ठत्यादिनिवृत्तिहेतु गच्छत्यादिवत् । ततश्चैषां सिद्धा धातुसंज्ञा वृतादीनामिति यथैष सामान्यप्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थे विशेषग्रहणे परिहार एवमिहापि प्रत्युंच्येत द्रव्यनिवृत्त्यर्थेऽपि विशेषग्रहणे परिहार उच् प्रत्युच्येत । सर्वदा सर्वभावानां प्रवृत्तिसमन्वयाद् 'देवदत्तः' इत्यपि नाप्रवृत्तिकं वस्तु, तस्मात् तन्निवृत्त्यर्थं सर्वभेदसम्बन्धानुगुण्यात् तु नायं विशेषः इत्येतदर्थेऽपि विशेषग्रहणे देवदत्तस्य क्रियात्वं 25 स्यात्, वृत्तादीनां तद्बदक्रियत्वाद्वा धातुसंज्ञा मा भूत्, स्वशब्दोपादानसिद्धतादिवचनानर्थक्यं "चे[त्या]दिदोषापादने कृते स एव परिहार उच्यते त्वया - विशेष इति भवतः क्व सम्प्रत्ययः ? इत्यादि यावत् सिद्धा धातुसंज्ञा । १ वृत्तादीनां भा० । वृत्तानांदी य० ॥ ३८३ पं० २ ॥ ५ दृश्यतां पृ० ३८४ पं० १ ॥ ८ च्यते य० ॥ ९ दृश्यतां पृ० ४११ ० २ ॥ दोषा प्र० । अत्र चेति दोषा इत्यपि पाठः स्यात् ॥ २० ॥ ३ मुक्तिवचनं डे० ० ॥ ६ सयत्वे च द्वयोः पृथक्त्वे प्र० ॥ १० त्वाद्वा संज्ञा भा० । त्वा संज्ञा य० ॥ १२ दृश्यतां पृ० ४१२ पं० ३ ॥ ४ दृश्यतां पृ० ७ वृत्त प्र० ॥ ११ चेदि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतअल्यभिहितक्रियालक्षणखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४१३. च्येत । एवं चोच्यमाने नन्वस्मद्धृदय एव दृष्टम् , नन्वस्माभिरप्यभिहितं प्रवृत्तिरेव प्रवृत्तिविशेष इति । एवं च कृत्वा प्रवृत्तिमात्रस्य...... अनर्थकमुभयोरपि व्याख्याविकल्पयोः । न चाफलमेव, अनिष्टकृदपि । एवं देवदत्तस्य क्रियात्वं स्यात्, अन्यनिवर्तनप्रवृत्तिविशेषत्वात्, पचादिवृतादिवत् । वृतादयोऽप्यक्रियाः, तच्छब्दानामधातुसंज्ञा च स्यात्, सर्वभेदसम्बन्धानुगुणविशेषत्वात्, देवदत्तवदेव ।। यत् पुनरुच्यते न वयं वस्तुन्यसहभावतां निवृत्तिं ब्रूमः, किं तर्हि ? पंचति'.. एवं परिहारद्वयेऽपि सैमानमुत्तरमिदमुच्यते-एवं चोच्यमाने नन्यस्मद्धृदय एव दृष्टम् । 'ननु' इत्यनुज्ञापने, अनुज्ञातं त्वयैतद् यदस्मद्धृदयक्षेत्र उप्तस्य दर्शनबीजस्य त्वद्वचनसलिलसेकेन फलमभिव्यक्तम् । तद्विवृणोति स्मारयन् - नन्वस्माभिरप्यभिहितं 'प्रवृत्तिरेव प्रवृत्तिविशेषः' इति, यदुच्यते ४.१ वृतादिसामान्यमुपादीयमानं गमनादिविशेषं निवर्तयतीति ताज्येत यदि घृतादिसामान्यव्यतिरेकेण गमनादि-10 विशेषः स्यात्, ‘स तु सामान्यमेव' इत्युक्तम् । तस्माद् न सामान्यं विशेषाभावादुपादीयमानं विशेषान् निवर्तयितुमर्हति खपुष्पादिविशेषानिव । अतः प्रवृत्तिविशेषत्वाभावादुभयत्र परिहारे विशेषग्रहणोनर्थक्यदेवदत्तक्रियात्व-वृताद्यक्रियात्वदोषास्तदवस्था एवेति । तदुपसंहरति-एवं च कृत्वा प्रवृत्तिमात्रस्येत्यादि गतार्थं यावदनर्थकमुभयोरपि व्याख्याविकल्पयोरिति । एवं तावद् विशेषग्रहणमनर्थकम् , न केवलमनर्थकमेव, किं तर्हि ? अनर्थार्थमपीत्यत आह -न 15 चाफलमेव, अनिष्टकृदपीति । तदनिष्टकृत्त्वं साधनेनैव भाव्यते - एवं देवदत्तस्य क्रियात्वं स्यात्, अन्यनिवर्तनप्रवृत्तिविशेषत्वात् पचादिवृतादिवदिति, प्रवृत्तिविशेषत्वमन्यत्वं तन्निवर्तनं चेति. द्रव्यादन्यस्य प्रवृत्तिसामान्यव्यतिरिक्तस्यार्थस्याभावादेवायुक्तम् , अभ्युपगम्यापि दोषः - देवदत्तः क्रिया स्यात्, अन्यनिवर्तनत्वे सति विशेषप्रवृत्तित्वात् , स गच्छत्यादिविशेषनिवर्तनो यज्ञदत्तादिविशेषनिवर्तनश्च सामान्यत्वात् , उपादीयमानत्वे सति अन्यनिवर्तनत्वात् प्रवृत्तिविशेषश्च । ततश्च पचत्यादिवद् वर्तत्यादिवच्च क्रिया, 20 क्रियात्वात् तद्वाचिनः शब्दस्य धातुसंज्ञा, पूर्वप्रक्रान्तन्यायक्रमेण पच्यादिवद् वृत्यादयः, तद्वद् देवदत्तादय इति सर्वं क्रियैवेत्यापन्नम् । अनिष्टं चैतदावयोरिति । येऽप्यमी वृतादयस्तेऽप्यक्रियाः, तच्छब्दानामधातुसंज्ञेत्यादि, सर्वभेदसम्बन्धानुगुणविशेषत्वाद् देवदत्तवदेव । पचादीनां च गमनादिसर्वधात्वर्थव्यापित्वस्य प्रागुपपादितत्वात् सिद्धहेतुत्वात् साधीयः साधनमिदमपि, चशब्दसूचितत्वादनन्तरोदाहृत-" द्विविधक्रियावाचिशब्दप्रकृतत्वाच्च सर्वनामशब्दता च स्यात् । . 25 येत् पुनरित्यादि यावदयं च धर्मो वृतादीनामप्यविशिष्ट इति । 'पचादिविशेषनिवर्तकत्वाद् । वृतादयो धातुसंज्ञा भवन्ति' इत्युक्ते परस्याशङ्का स्यात् 'नैव निवर्तयन्ति पचादीन् वृतादयः, विरोधाभावश्च धूताद्यन्तर्भावात् पचादीनाम् , अतो विशेषनिवर्तकत्वाभावाद् न धातुसंज्ञा वृतादयः स्युः' इत्या १एवं च कृत्वा प्रवृत्तिमात्रस्य प्रवृत्तिविशेषत्वाद् विशेषग्रहणमनर्थकमुभयोरपि व्याख्याविकल्पयोः।' इत्याशयको मूलपाठोऽत्र स्यात् ॥ २ 'पचति' इत्युक्ते पचतिशब्दः क्रियान्तरनिवृत्तिविज्ञानमादधाति, अयं च धर्मो वृतादीनामप्यविशिष्टः ।' इत्याशयकोऽत्र मूलपाठः सम्भाव्यते ॥ ३ समानमिदमुत्तरमिद य० ॥ ४ वृत्तादि प्र० ॥ ५ णार्थक्य । प्र०॥ ६ वादेवेत्युक्तम् प्र० ॥ ७ (वृतादयः?)॥ ८°याकविशब्द प्र०॥ ९ यत्र पुन प्र० ॥ १० वृताधंच(यंश यंग ? )भावात् प्र०॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् अयं च धर्मो वृतादीनामप्यविशिष्टः । अत्र ब्रूमः - वस्तुनः प्रवृत्तौ ... वैधम्र्येण । एवमयं स उभयनयः । नैगमदेशत्वाद्द्रव्यार्थोऽयम् । द्रव्यमपि भावसाधनम् । शङ्कय तत्प्रतिसमाधानं पुनरुच्यते - न वयं वस्तुन्यसहभावतां निवृत्तिं ब्रूमः, निवृत्तिरत्रास्माभि5 नर्थधर्मप्रकल्पिता विवक्षिता, किं तर्हि ? शब्दधर्मप्रकल्पिता विवक्षिता, अर्थगता हि निवृत्तिरसहभावजनिता घटपटादिवदेकत्रासम्भवात्, शब्दगता तु विज्ञानप्रवृत्तिनिवृत्तिमात्रकृता सा, देवदत्ते सन्निहितसत्ताद्रव्यत्वगतिस्थितिवृत्त्यवृत्त्यादिसर्वधर्मसम्बन्धिन्यपि 'गच्छति देवदत्तः' इत्युक्ते 'तिष्ठति आस्ते शेते' इत्यादिक्रियाकलापं निवर्त्य देवदत्तं 'गच्छति' शब्दो गमनेनैव सम्बन्धयति तद्विषयैकविज्ञानाधानहेतुत्वात् न तथा नि निवृत्तिः सम्भवति सततसन्निहितसर्वधर्मात्मकत्वाद् देवदत्तस्य । तदुदाहरति - किं तर्हि ? पचती10 त्यादि गतार्थम्, उदाहृतार्थसंवादी दार्शन्तिकोऽर्थः - अयं च धर्मो वृतादीनामप्यविशिष्टः, 'वर्तते, हते, चेते' इत्यादयोऽपि शब्दाः क्रियान्तरनिवृत्तिविज्ञानाधानधर्मिणो न वस्तुगतान् धर्मान् निवर्तयितु२५५-१ मलम्, शब्दानां बुद्धिप्रवृत्तिनिवृत्ति क्रियायां प्रभुत्वाद् वस्तुप्रवृत्तिनिवृत्त्योर प्रवृत्तत्वादिति । अन ब्रूमः - वस्तुनः प्रवृत्तावित्यादि यावद् वैधर्म्येणेति । अवसितप्रयोजनमिदं वचः, त्वयैव वस्तुप्रवृत्तेः सर्वप्रवृत्तिविशेषसहिताया एवाभ्यनुज्ञातत्वाद् भावितत्वाच्च, सँम्भावनैव हि न वस्तुप्रवृत्तिः 15 सर्वप्रवृत्तिविशेषात्मिकेत्यतीतविचारेषु विस्तरेण चरितार्थमेतत् । कथं ? विशेषवान् वाग्ब्यवहारो विशेषा#तरप्रवृत्तिनिवृत्तिविषयो न वस्तुन्यत्यन्तनिर्भेदात्मके प्रभवति इति भावयता भवतैव सुभाषितत्वात् किमस्माभिर्वाच्यं वृतादीनां पचादीनां वा धातुसंज्ञा प्राप्नोति न प्राप्नोतीति ? सर्वेषां धातूनामस्मदभिमतप्रवृत्ति - सामान्यक्रियावचनत्वानतिवृत्तेर्वस्तुव्यवहारे शब्दव्यवहारे वेति न किञ्चिद् न प्रसिध्यति । त्वया तु पुनरस - दर्थविषयत्वाद् भ्रान्तिज्ञानं शब्दार्थविषयं व्यवस्थापितं वस्त्वसंस्पर्शादित्यलं प्रसङ्गेन । 20 प्रकृतमुच्यते - एकमयं स उभयनयो योऽसौ मया आदावुद्दिष्टो विधिनियमात्मक उभयनय इति, विधिश्व नियमश्च सर्वत्र द्रव्यं क्रिया चेति विधिनियमम्, द्वन्द्वैकवद्भावात् स एष निर्दिष्टः प्रत्यक्षीकृतस्ते । कस्य पुनरयमार्षाभिहितानां नयानां भेद इत्यत्रोच्यते - नैगमदेशत्वाद् द्रव्यार्थोऽयम्, न पर्यायार्थः । द्रव्यपर्यायसङ्गृहीतानां बहुभेदानां मध्ये द्रव्यार्थभेदेषु नैगम-सङ्ग्रह - व्यवहारेषु यो नैगमोऽनेकभेदस्तस्यैकदेशोऽयं तद्भेद इत्यर्थः । एक्केको य सतविधो सत्त णयसता हेवंति ते चेवं [ अवनि० २२६ ] इति 25 वचनात् । १ सप्तम्यन्तोऽयं निर्देशः ॥ २ वस्तुनि विवृत्तिः प्र० ॥ ३ संभवादी प्र० ॥ ५ यज्ञात प्र० ॥ ६ सभाव प्र० ॥ ७ एतदन्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ भा० । मात्मः उतनय य० ॥ ९ हवंतेवं य० । दृश्यतां पृ० ३७३ पं० नयसया हवंति एमेव । अन्नो वि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥ २२६ ॥ [ पञ्चम उभयारे ४योत्तर ० ॥ ८ मात्मनः उतनय ११ ॥ १० "इक्किको य सयविहो सत्त इति आवश्यक निर्युक्तौ पाठः ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थादिनिरूपणम्] द्वादशारं नयचक्रम् द्वयर्थता उक्तवत् । पदार्थो द्रष्यक्रिये । वाक्यमाख्यातशब्दः। तदर्थ उक्त उभय. भाक् । नयविनिर्गमसूत्रम् - अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमति [ भगवतीसू० १॥३॥३२] इति । द्रव्यशब्दः किंसाधनोऽत्राभिप्रेत इति चेत्, उच्यते-द्रव्यमपि भावसाधनम् , यत् तद् २९५-२ द्रूयते केनापि यो द्रवति गच्छति सततं प्रवर्तते तस्य यद् द्रवणं गमनं सततप्रवृत्तिः स भावस्तद् भवनम् , तत्साधनो द्रव्यशब्दः, कर्तृसाधनाविनाभाविभावसाधनव्याख्यानस्य सोपपत्तिकस्य विस्तरेण कृतत्वात् सैव । द्वयर्थता उक्तवत् , द्रव्यक्रियात्मकद्वयर्थता परस्पराविनाभाविनी करणादीनां तदव्यतिरिक्तस्वरूपत्वात सर्वत्र घटपटादिबीजाङ्करादिषु च सर्वैकात्म्यस्य सुभावितत्वादिति । पदार्थों द्रव्यक्रिये 'उक्तवत्' इति वर्तते । वाक्यमाख्यातशब्द इति, आख्यातं साव्ययकारकवाक्यमेकैमिति वाक्यम् , तदर्थ उक्तः वाक्यार्थ उक्तः उभयभाक् द्रव्यक्रियाद्वयात्मकवस्तु भजते वाक्यार्थ इति विस्तरेणोक्तोऽनेन विधिनियमभङ्गेन नैगमैकदेशद्रव्यार्थेन । नयविनिर्गमसूत्रम् - अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमतीति, अस्तित्वं भावो भावेऽस्तित्वे परिणमति । भावो भाव एव सततं वर्तते परितः समन्ताद् नमति परिणमति तं तं भावमापद्यते सैदा कर्तृसहित एव । 10 इति उभयनयः पञ्चमोऽरः परिसमाप्तः ॥ १ दृश्यतां पृ० २९६ टि० १ ॥ २ मद्य य० ॥ ३°कविति प्र०॥ ४ सप्तम्यन्तोऽयं निर्देश्वः ॥ ५ तदा य० ॥ ६°सहित वेति उभयनयः पञ्चमोऽरः परिसमाप्तः प्र० । दृश्यतां पं० ५॥ ..... Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म् अथ षष्ठो विधिनियमविध्यरः । नन्वेवमुभयमप्यवस्तु, अनुपपन्नखावस्थत्वात् खपुष्पवत् । खा अवस्थाः स्थित्युत्पत्तिविनाशाः । ता यदि भावस्य ततो द्रव्यमनवस्थमिति द्रव्यप्रभेदासम्भवः । भाव एव तु स तथाभूत आपद्यते, तद्भेदस्य तदात्मकत्वात्, मृद्वत् । 5 प्रवृत्ति भाववचनात् तु प्रवृत्तावेव व्यतिरेकसम्भवाद् भावादेव सर्वस्य कृतत्वाद् एवं विधिनियमभङ्गारे द्रव्यक्रियात्मकवादे संहृते षष्ठनय आह - नन्वेवमित्यादि विचाराश्रयं दोषापादनसाधनम् । उभयमपि 'द्रव्यं क्रिया च' इत्यवस्तु अनुपपन्न स्वावस्थत्वात्, अनुपपन्नाः स्त्री अवस्था अस्य, तद्भावादनुपपन्न स्वावस्थत्वात् खपुष्पवदिति । कास्ताः स्वा अवस्थाः ? उच्यते - स्वा अवस्थाः स्थित्युत्पत्तिविनाशाः । ताश्च द्रव्यस्य वा स्युः क्रियाया वा ? किचातः ? ता यदि भावस्य ताः स्थित्या10 दयः प्रागुक्ततथाभूतसन्निहितवस्तुत्वव्यक्तिलक्षणायाः क्रियाया इष्यन्तेऽवस्था इति ततो द्रव्यमनवस्थं 'प्राप्तम्, अनवस्थालक्षणत्वादुभयोरन्यतरकल्पनावैयर्थ्यादवस्थाव्यतिरिक्तलक्षणाभावात् । भवतु द्रव्यमनवस्थम्, को दोष इति चेत्, उच्यते - द्रव्यमनवस्थमिति द्रव्यप्रभेदासम्भवः प्राप्तः, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वादनवस्थत्वादित्यर्थः, द्रव्यप्रभेदा रूपादिगत्यादिविवर्ताः, ते न सम्भवन्ति अनवस्थत्वादसत्त्वात् खपुष्पस्येव । ततश्च यदुक्तं द्रव्यस्य लक्षणं तस्य हानिः । कतमस्य इति चेत्, उच्यते, 'सर्वप्रभेदनिर्भेदं बीजम्' 15 इत्यस्य । तस्मान्नास्ति द्रव्यम्, अनवस्थत्वात् खपुष्पवत् । २९६-१ ततः किं प्राप्तम् ? भाव एव तु स तथाभूत आपद्यते, द्रव्यभूता क्रियैव आपद्यते, कस्मात् ? तद्भेदस्य तदात्मकत्वात्, स्थित्युत्पत्तिविनाशा हि द्रव्यभेदाभिमता ट्रॅव्यस्यैव चेदात्मानो भवन्ति, तत एतदर्थादापन्नम् - क्रियाया आत्मेति, क्रियैव च द्रव्यं संज्ञामात्रभेदात् । मृद्वदिति दृष्टान्तः, यथा मृद्भेदाः पिण्डशिवकादयो मृदात्मकाः सन्तो मृद्भूता एव तथा स्थित्यादयो द्रव्यभूतभावभेदा एवेति द्रव्याभावेऽर्था20 पत्त्या स्थित्यादयः क्रियाया भेदा इत्यापन्नाः । यदपि च कैल्पितं प्रवृत्तिसामान्यव्यतिरेकेण कारकवत्या ओदनादिफलोद्देशिन्याः परिग्रहार्थ विशेष - ग्रहणं तदपि न कार्यम् । कस्मात् ? प्रवृत्तिभाववचनात् तु मत्पक्षे प्रवृत्तावेव व्यतिरेकसम्भवः, १ दृश्यतां पृ० ३०१-१ ॥ २ स्वावस्था पा० डे० लीं० रं० ही ० । स्वावस्था भा० ॥ ३ उच्यते भा० पा० ॥ ४ इष्यंते अवस्था य० । इष्यंता अवस्था भा० ॥ ५वस्थात्वा प्र० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ३७८ पं० १ ॥ ७ द्रव्यस्य वेदा य० । द्रव्यस्यवे भेदा य० । ( द्रव्यस्य भेदात्मानो ? ) ॥ ८ सन्ति भा० ॥ ९ र्थोपस्या प्र० ॥ १० दृश्यतां पृ० ३९९ पं० ४ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ व्यक्रियाद्वयखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् द्रव्यभावत्यागाद् द्वयविभागवचनं व्यर्थम् , ततश्च तथाभवनविनाभूतसन्निधानमपि निर्मूलम् , सर्वनिर्मूलता चैवम् , अव्यक्तिरपि असन्निहितत्वात् खपुष्पवत् । अथोच्येत-सन्निहिततथाभूतवस्तुतत्त्वव्यक्ति द्रव्यमेव स्थित्यादिस्वावस्थमस्तु, एवं तर्हि सर्वप्रभेदनिर्भेदत्वमसत्यं द्रव्यस्य क्रियायाश्चाक्रियात्वमव्यञ्जकत्वात् प्रागेव तथाभूतव्यक्तिव्यर्थत्वात् । अथैतचेदुभयं नेच्छति ततोऽविभागावस्थत्वाद् द्रव्यमविभागावस्थं तद्व्य २९६.३ 'प्रवृत्तिसामान्यमेव भावः' इत्युक्तत्वाद् विशेषास्तत्रैव सम्भवन्ति । अतोऽस्य व्यतिरेकसम्भवाद् यदपि ओदनादि फलं तदपि प्रवृत्तिसामान्यमेव । तस्माद् भावादेव क्रियाया एव सर्वस्येष्टैस्य कृतत्वाद् 'द्रव्यं भावः' इत्येतत् त्यक्तम् । तत्त्यागाद् द्वयविभागवचनं व्यर्थम्, 'द्रव्यं क्रिया च वस्तु' इत्युभयाभ्युपगमो मूलत एव विघटते । ततश्च तथाभवनेन प्रवृत्तिलक्षणेन विनाभूतस्य सन्निधानमपि निर्मूलम् । ततश्च यदि द्वे अपि द्रव्यक्रिये विभक्ते न स्तः ततस्तयोर्लक्षणमनुपपन्नम् , अतश्च विभागेन लक्षणाभावात् तयोरभावः खपुष्यवत् । तदभावात् क्रिया कुतः तथाभवनक्रियासन्निधिलक्षणं द्रव्यं प्रवृत्तिसामान्यं वा कुतः तथाभवनविनाभूतत्वात् खपुष्पवदेवेति । सर्वनिर्मूलता चैवमिति सन्निधिनिर्मूलत्वात् क्रियायों अव्यक्तिर्भेदानामव्यक्तिश्च तया विनेत्यत आह - अव्यक्तिरपि असन्निहितत्वात् खपुष्पवत् । अथोच्येतेत्यादि । स्यान्मतम् --भावस्य प्रागुक्तवत् स्थित्युत्पत्तिलया अकल्पमानाः समनन्तरोक्त-13 दोषदर्शनात् , सन्निहिततथाभूतवस्तुतत्त्वव्यक्ति द्रव्यमेव उक्तवत् सम्मूच्छितसर्वप्रभेदं स्थित्यादिस्वार्वस्थमस्तु, ताश्च स्थित्याद्यवस्थाः क्रिययाभिव्यक्तिं नीयन्त इति । अत्रोच्यते-एवं तर्हि सर्वप्रभेदनिर्भेदत्वमसत्यं द्रव्यस्य, ते हि स्थित्यादिभेदा द्रव्यस्यैव संवृत्ता इति निर्भेदत्वोक्तिया॑हन्यते । किञ्चान्यत् , क्रियायाश्चाक्रियात्वम्, सन्निहिततथाभूतवस्तुतत्त्वव्यक्तिः क्रियेष्यते, ते हि भेदाः क्रिययाभिव्यज्यन्ते चेद् भेदाः प्रागपि क्रियाभिव्यक्तेः सन्ति, तथाभूतत्वात् क्रियाया व्यक्तिकरत्वाभावः । तस्माच्चान्यञ्जनात् क्रिया 20 द्रव्यवत् खरविषाणवद्वा न क्रियेति । ततश्च द्रव्यस्याद्रव्यत्वात् क्रियायाश्चाक्रियात्वादशेषपक्षध्वंसित्वम् , अनुपपन्नस्वावस्थत्वाद् द्रव्यस्य क्रियायाश्च खपुष्पवदभाव इति । अथैतच्चेदुभयं द्रव्यनिर्भदासत्वादद्रव्यं सन्निहिततथाभूतवस्तुव्यक्त्यभावादक्रियास्वं च नेच्छति : भवान् सर्ववस्तुत्यागभयात् ततोऽविभागेत्यादि, अविभागावस्थत्वात् , विभागा भेदाः स्थित्याद्यवस्थाः, तदभावाद् द्रव्यमविभागमित्यसदापन्नम् , मा भूद् द्रव्यस्य भेदात्मकस्याद्रव्यत्वमिति क्रियायाश्चाक्रियात्वम-25 न्यञ्जकत्वात् प्रागेव तथाभूतव्यक्तिव्यर्थत्वाद् मा भूदिति किमापन्नम् ? द्रव्यमविभागावस्थम् । तद्य १ दृश्णता पं० २५॥ २°वंत्यततोऽस्य य० ॥ ३ प्रकृतत्वाद् प्र० ॥ ४ नमतेतश्च प्र०॥ ५ या व्यक्ति प्र० ॥ ६°लयाः कल्पमानाः भा० । लयाः कल्ममानाः य० । (स्थित्युत्पत्तिलयकल्पनाया ? ) ॥ ७ सन्निहितत्वात् खपुष्पवत् तथाभूतवस्तुतत्त्वव्यक्ति य० ॥ ८ स्थस्तु प्र० ॥९ऽतो भा० । ( अतो ? ) । नय० ५३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् षष्ठे विधिनियमविध्यरे जिका क्रिया, ततो यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति युगपदयुगपद्भाविपृथिव्यादिभेदाविभागद्रव्यखावस्थत्वात् । ____ अस्त्विति चेत्, ततोऽङ्कुरोत्पत्तौ तस्यैव विनाशित्वादनुत्पन्नोऽविनष्टश्च सर्व एवेति खवचनादिविरोधाः, तथा चाङ्करपत्रादिनिराकरणादपि च लोकादिविरोधाः । २९७ 5 ञ्जिका क्रियेति, क्रियायाश्चाविभागावस्थद्रव्यविषययथासन्निधिव्यक्तिक्रियात्वादविभागस्यैव सन्निहितस्य व्यञ्जिका हि क्रिया । ततः किमिति चेत् , ततो यदेव उत्पद्यते तदेव विनश्यति, ऊर्द्धपत्तिरुत्पत्तिरात्मलाभः प्रत्यक्षोपलब्धिः, विविधमदर्शनं विनाशोऽनुपलब्धिरभावः । एकरूपत्वाच्च वस्तुनस्तदभिव्यञ्जनाच क्रियाया उत्पत्तिविनाशयोरप्यभेदाद् यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति । किं कारणम् ? युगपदयुगपद्भावि पृथिव्यादिभेदाविभागद्रव्यस्वावस्थत्वात् । यदा चौविभागावस्थं द्रव्यम् क्रिया च तद्वयञ्जिका च 10 तदामी युगपद्भाविनः पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालादिभेदा रूपरसगन्धस्पर्शसङ्ख्यासंस्थानादिभेदाश्च ये चायुग पद्भाविनो मृत्पिण्डशिवकादिभेदास्ते सर्वेऽप्यविभागाँवस्थामात्रमित्यापन्नाः । तस्मात् सर्वभेदानामविभागावस्थामात्रत्वादुत्पत्तिर्विनाश इत्यप्ययुगपद्भाविनौ भेदौ तयोश्च अविभागावस्थद्रव्यत्वम् , ततश्चैक्यम् , एकत्याच 'यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति' इति साधूक्तं देशकालादिभेदाभावात् । अस्त्विति चेत् । स्यान्मतम् – एकत्वादुत्पत्त्यादिभेदैक्याद् यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति इत्यस्तु, 15 तर्हि को दोष इत्यत्र दोषकुतूहलं चेद् ब्रूमः -- यदि बीजाङ्कुराययुगपद्भाविनामपि पृथिव्यादियुगपद्भाविभेद मूलत्वाद् यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति ततोऽङ्करोत्पत्तौ तस्यैव विनाशित्वमिति दोष उदाहरणेन स्फुटी• क्रियते, यस्माद् बीजोच्छूनमूलादिपूर्वभेदानां पत्रनालाँद्युत्तरभेदानां च विनाशावस्थत्वात् 'अङ्कुर एवैकः' इति सत्यं ततोऽङ्करोत्यत्तावङ्कुर एव विनश्यति, ततश्च दृष्टेष्टविरुद्धावनुत्पत्त्यविनाशदोषौ स्याताम् , अङ्कुरोत्पत्तौ तस्यैव अङ्करस्यैव विनाशित्वाद् न बीजं विनष्टं नाङ्कुर उत्पन्नः, विनंष्टुरुत्पत्तुश्चाभेदात् । भेदे तु 20 सति युज्येत 'बीजं विनष्टमङ्कर उत्पन्नः' इति । स चोत्पन्नश्चेद् न "विनष्टः, विनष्टश्चेद् नोत्पन्न इत्युभयाव्यवस्थानाद् नोत्पन्नो न विनष्ट इति । अस्तु नामानुत्पन्नोऽविनष्टश्च, किंनामको ममायं दोषो न्यायलक्षणोक्त इति चेत् , उच्यते-नैक एव, किं तर्हि ? सर्व एवेति स्ववचनादिविरोधाः, उत्पद्यते चेद् न विनश्यति विनश्यति चेद् नोत्पद्यते, त्वया चोच्यते – यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यतीति, देशकालादिभेदाभावे कथमूर्द्ध पदविविधादर्शनभेदेन तदेव' इति चाभेदेन निर्देशो विरुद्धार्थः ? अतः स्ववचनविरोधः । उत्पत्ति25 विनाशयोर्वा रूढिभेदादेकाधिकरणविरोधाल्लोके प्रतीतत्वाल्लोकविरोधः । प्रत्यक्षत एवोत्पादविनाशभेददर्शनात् प्रत्यक्षविरोधः । उत्पद्यमानघुटवदुत्पद्यमानत्वाद् न विनश्यति विनश्यत्त्वाच्च नोत्पद्यते भिन्नघटवदित्यनुमानविरोधः । तथा चाङ्करपत्रादिनिराकरणादपि च लोकादिविरोधा इति व्याख्यानमनन्तरोक्तस्यार्थस्य . १ अत्र 'यथा'शब्दप्रयोगोऽपि साधुरेव भाति, दृश्यतां पृ० ३१०-२॥ २ डे० विनान्यत्र वाविभागा प्र० ॥ ३ वायुग प्र०॥ ४ गाद्यावस्था प्र० । अत्र गद्रव्यावस्था इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ५ स्थाद्र य० ॥ ६ क्यादेवों प्र०॥ ७°लादि उत्त प्र०॥ ८(चाविभागावस्थत्वात् ?)॥ ९"त्पत्त्यायंकुर एव प्र.। दृश्यतां पृ. ४२१ पं० १७॥ १०विनष्टः प्रतिषु नास्ति ॥ ११ एवेति वचनाप्र० ॥ १२ विधिनादर्शन प्र० । दृश्यतां पं० ७ ॥ १३ तदेति चामेदेन प्र०॥ १४ घटवत्पद्यमान य० प्रतिषु नास्ति । १५ (तत्पूर्वाङ्करपत्रादिनिराकरणादपि ?)। दृश्यतां पृ० ३०३-२॥ तदेति चाभेदेन प्र० ॥१ एवढे घटचा पधमा १३ विध Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पादविनाशकाधिकरण्ये दोषप्रदर्शनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४१९ क्षणिकवादातिशयोऽतः, तद्यथा-तत्र हि उत्पादादन्यो विनाशक्षणः जातस्य विनाशात्, इह तु उत्पाद एव विनाशः प्रसक्तः क्रियार्थकालरहितद्रव्योत्पादादित्वात् । शून्यवादता वा, सर्वस्याविनष्टानुत्पन्नास्थितत्वात् खपुष्पवत् । ननु पृथिवीद्रव्यत्वाभेदे स्त उत्पादविनाशौ तत्कालौ च तदंशवीजाङ्कुरभेदा लोकप्रतीतिद्वारेण सुखप्रतिपाद्यत्वादिति गतार्थम् । वचनद्वारेण तु प्राच्यं वाक्यम् , उक्त्याश्रयत्वादेषां । दोषाणामिति । __एवं तावदुत्पादविनाशाद्यंभावदोषः । न केवलमेत एव दोषाः, किं तर्हि ? 'अनित्यतादोषश्च । स च क्षणिकवादं वातिलङ्घय अनित्यत्वदोषोऽतिशयेन वर्तत इति । अत इत्यस्मादेव हेतोः, कस्मात् ? 'यदेव २९, उत्पद्यते तदेव विनश्यति' इत्यभ्युपगमात् । स चैवमनित्यत्वातिशयदोषः प्रदश्यते, तद्यथा-तत्र हीत्यादि। तत्र हि क्षणिकवादे न हि यदेव उत्पद्यते तदेव विनश्यति, किं तर्हि ? क्षणोऽस्यास्तीति क्षणिक इत्युत्पादा-10 दन्यो विनाशक्षणः उत्पत्तुर्विनंष्टुश्चेत्यभ्युपगम्यते, भिन्नस्य कालस्य क्षणाख्यत्वात् , तस्मिंश्च काले जातस्य विनाशाद् , न जायमानस्य । स हि क्षणिकवादी नैकमेवोत्पादक्षणं विनाशक्षणं चेच्छति एकस्योपत्तिभङ्गासक्तिभयात् । यथोक्तं यद्येकस्मिन् क्षणे जातः[ ] इत्यादि । क्षणानां क्षणवर्तिनां च भेदात् 'जातस्य' इति च नाशनंष्टक्षणानां च भेदं सूचयति । इह तु 'यदेव उत्पद्यते तदेव विनश्यति' इति . वादे उत्पादे एव विनाशः प्रसक्तः क्रियार्थकालरहितद्रव्योत्पादादित्वात् , क्रियाशब्दवाच्योऽर्थः 15 क्रियैव वार्थः क्रियाप्रयोजनो वा कालः क्रियार्थकालः, स एव ते वैयाकरणस्येष्टः, यद्यप्यन्येषामन्यथा, यथोक्तम् - परिणामवती क्रियैव कालः [ ] इत्यादि । तादृग्विधकालरहितं द्रव्यं क्रियास्मककालविनाभूतं तदेव उत्पादो विनाशोऽवस्थानं चेतीष्टत्वात् क्षणिकवादातिशायी अयं क्षणिकवादस्त्वदीय इति साधूक्तम् । नानित्यवादेऽपि तिष्ठति अनवस्थानादुत्पादादीनाम् , किं तर्हि ? शून्यवादता वा, यथा प्रागुक्तं सर्वस्याङ्कुरानुत्पादाविनाशवदनवस्थानमपीति शून्यतासाधनं गतार्थं यावत् खपुष्पवदिति । 20 ___ ननु पृथिवीत्यादि यावदभेदस्य चाव्याघात इति । स्यान्मतम् - पृथिवीद्रव्यत्वं शिवछंदिष्वभिन्नम् , तस्मिंश्चाभिन्ने तदुत्पादविनाशयोश्चाभेदे सत्येव पृथिवीद्रव्यत्वेनानुत्पन्नाविनष्टत्वे सँत्यैक्ये च स्त उत्पादविनाशौ तत्कालौ च, तस्यैव पृथिवीद्रव्यत्वस्य चाँशाभ्यां बीजाकुरींख्याभ्यां भेद इत्यस्ति .. भेदः कारकसद्भावादित्युत्पत्तिरस्ति तथा विनाशस्तत्कालौ च, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वादेवं भेदस्याभेदस्य च व्याघातो नास्ति, तस्मात् तदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति पृथिवीद्रव्यत्वाभेदात् तदंशबीजाङ्कर-25 २९८-२ १ दृश्यतां पृ० ३०३-२॥ २ दृश्यतां पृ० ३०३-२॥ ३ दृश्यतां पृ० ४२० पं० २३ ॥ ४ वाच्यं य० ॥ ५°द्यदोषभावः य० ॥ ६नित्यता प्र० ॥ ७°श्यतीति भा० ॥ ८ उत्पतिस्तुर्वि भा० । उत्पत्तिस्तुर्वि य० ॥ ९ उत्पादे एव प्र० ॥ १० कालतः प्र. ॥ ११ ते वैया भा० । तैर्वैया य० ॥ १२ दृश्यतां पृ० १७ पं० ५॥ १३ चती प्र० ॥ १४ दृश्यतां पृ० ४१८ पं० ३ ॥ १५ °दित्वभिन्नम् प्र०॥ १६ सत्यैकेवस्त प्र०॥ १७ पांशाभ्यां भा०। पाशाभ्यां य० ॥ १८ राभ्यां भा० डे० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे दिति भेदस्याभेदस्य चाव्याघातः । एवं तर्हि पृथिवीत्वजातिमात्रमभिन्नं द्रव्यैकत्वविघातकम् , बीजस्य अङ्करस्य च नानात्वम् । तस्मान्न तदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति। ततश्च यथा बीजमङ्करात् पृथगेवेष्यते तथा पश्चिादित्वमपि पार्थिवत्वाद् भिन्नमेषितव्यमिति भेदनिर्भेदद्रव्यनिर्मूलनम् । 5 अपि च त्वयैवापादितं भेदबहुत्वं द्रव्यैकत्वविघाति, तत्परिहारार्थमुत्थितेन पार्थिवत्वमपि नानवोत्थापितम् । भेदकं चाभेदकादन्यदभेदकं च भेदकात्, भेदकत्वादभेदकत्वात् , यथा द्रव्यक्रिये। ननु घट उत्पद्यमान एव शिवकत्वेन पिण्डत्वेन विनश्यति इति स एवोत्पद्यते , भेदात् तत्कालौ च स्त इति नानित्यशून्यते दोषाविति । अत्रोच्यते - एवं तहरीत्यादि यावद् न तदेवोत्प10 द्यते तदेव विनश्यतीति । अयमिदानीमस्मत्परिकल्पितो भेद एवापतितस्तवापि अश्मसिकतामृल्लोष्टवत्रादि भेदे सति पृथिवी नाम न कदाचिदन्यास्ति तद्वयतिरेकेण, किन्तु पृथिवीत्वजातिमात्रमभिन्न तद्भेदव्यापि । तच्च 'द्रव्यमेकम्' इत्यस्य त्वत्पक्षस्य विघातकं जातिमात्रमभिन्नं शेषं सर्वं भिन्नमिति सिध्यति, वीजस्य अङ्करस्य च नानात्वम् , बीजाद् विनश्यतोऽन्योऽङ्कुर उत्पद्यमानत्वात्, विनंष्टुम॒तादन्य इव देवदत्तो यज्ञदत्तादुत्पद्यमान इति । तस्माद् न तदेव उत्पद्यते तदेव विनश्यति, अन्यनिवृत्त्यर्थावधारणस्य भेद15 सत्यत्वे सति आनर्थक्यात् । ततश्च यथा बीजमित्यादिदृष्टान्तः। यथा अङ्करादिकालेषु भिन्नेष्वपि व्रीहित्व सामान्याभेदे सति पृथगेव बीजमङ्करादिष्यते मा भूत् पूर्वोक्तोऽनुत्पादादिदोष इति त्वया तथा पांश्वादित्वमपि पांशुमृत्पिण्डादित्वमपि पार्थिवत्वाद् भिन्नमेषितव्यम् । ततः किमिति चेत्, ब्रूमः - इति भेदनिर्भेदद्रव्यनिर्मूलनम् , इत्यस्मात् पाश्वादित्वभेदाभ्युपगमात् सर्वप्रभेदनिर्भेदं द्रव्यं न भवति । ततश्च लक्षणाभावाद् द्रव्यमेव निर्मूलितं त्वयेति । 20 अपि चेत्यादि । त्वयैवापादितं भेदानां बहुत्वं द्रव्यैकत्वविघाति । कतमेन वचनेन इति चेत्, 'पार्थिवत्वादेकत्वमुत्पत्तुर्विनंष्टश्च नेतरद्रव्यांशीभ्यां बीजाङ्कुराभ्याम् , ताभ्यां चानेकत्वम्' इत्यनेन वचनेना२९९-१ पादितम् । किश्चान्यत्, इदमप्यन्यदनिष्टं तत्परिहारार्थमुत्थितेन त्वयापादितम् । कथम् ? यच्चोदितोऽसि "बीजाङ्कुरनानात्वं क्षणिकातिशयः शून्यवादिता च भवतः' इति तत्परिहारार्थमुत्थितेन ननु पृथिवीद्रव्यत्वाभेद इत्यादिना वचनेन पार्थिवत्वमपि नानैवोत्थापितम् । कथमिति तदुच्यते - अभेदकं पार्थिवत्वम् , बीजादि 25 भेदकम् , भेदकं चाभेदकादन्यत् अभेदकं च भेदकात् , भेदकत्वादिति स्वभावभेदं हेतुत्वेनाह, इतश्च अस्मादन्यदभेदकत्वादिति, उभयोदृष्टान्तो द्रव्यक्रिये, यथा द्रव्यात् सर्वभेदनिर्भेदादन्या तथाभूतवस्तुत्वव्यक्तिलक्षणा क्रिया क्रियातश्च द्रव्यम् , तथा च पार्थिवत्वमभेदकत्वाद् बीजादेर्भेदकाद् भिन्नस्वभावं तद्वद् भेदकत्वात् नाना स्यात् क्रियाया इव द्रव्यमिति । ___ आह - ननु घट उत्पद्यमान इत्यादि याँवद् घटत्वेनोत्पद्यत इति । यत् त्वयोक्तं 'यदेव उत्पद्यते १ मात्रभिन्नं प्र०॥ २त्यर्थव प्र०॥ ३ शाशाभ्यां प्र० ॥ ४ दृश्यतां पं० २॥ ५ दृश्यता पृ० ४१९ पं० १॥ ६ दृश्यतां पृ० ४१९ पं० ४ ॥ ७ यावत् य०॥ ८ दृश्यतां पृ० ४२१ टि. १ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पादविनाशैकाधिकरण्यखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४२१ स एव विनश्यति, तथा घटत्वेन विनश्यन् घटत्वेनोत्पद्यते शिवकत्वेनेव विनश्यंइछत्रकत्वेन । अयमपरिहार उक्तोत्तरत्वात् , शिवकेनैवोत्पत्तौ शिवकेनैव विनंष्टव्यं ततोऽभिन्नत्वात् घटोत्पादवत् । एवं त्वनुत्पत्तौ विनाशस्याप्यभावाद् घटादिभवनाभावः, भवनसम्बन्धव्यतिक्रमाभावात् सर्वमभूतं नास्तीत्येवमाद्यापद्यते।। अथोच्येत-ऐक्य एव मृत्कुम्भावस्थयोः मृगव्यस्यैव भवनस्य तथानियता: तदेव विनश्यति' तत्रानुत्पत्त्यविनाशववचनविरोधादिक्षणिकवादातिशयशून्यतादोषा न सम्भवन्ति प्रत्यक्षवचनादीनां तथात्वात् , यस्माद् घट उत्पद्यमान एव शिवकत्वेनोत्पद्यमानः पिण्डत्वेन विनश्यति पूर्वोत्तरकालयोरपि सद्रव्यपृथिवीमृत्त्वाभेदवद् घटाभेदात् पिण्डावस्थायां शिवकाद्यवस्थायां मृदादियावत्परमाण्यवस्थायां कपालादियावत्परमाण्ववस्थायां च घट एव इति स एवोत्पद्यते स एव विनश्यति, 'इति'शब्दस्य हेत्वर्थत्वात् उक्तहेत्वर्थत्वात् तस्माद् घट एव पिण्डत्वेनोत्पद्यमानः शिवकत्वेन विनश्यति, तस्माद् 10 नानुत्पत्त्यादिदोषाः । यथा च पिण्डत्वेनोत्पद्यमानः शिवकत्वेन घट' एव विनश्यति तथा पुनर्घटत्वेन विनश्यन् 'घटत्वेनोत्पद्यते, किमिव ? शिवकत्वेनेव विनश्यंश्छत्रकत्वेन, यथा शिवकत्वानन्तरं छत्रकत्वं जायमानं तदोत्पन्नं विनष्टं च तथा देशान्तरभावान्तरान्तरितघदविनाशर्घटसम्भवयोरपि अभेदो वस्तुत्वादिभ्यः पिण्डशिवकत्ववदिति । अत्रोच्यते - अयमपरिहार उक्तोत्तरत्वात् , नन्वत्रोक्तमेव प्रागकुरस्यैव विनाशित्वादिदोषजातम् , 15 तस्य पिण्डशिवकसंज्ञामात्रपृथकृतादुक्तिमात्रभेदाद् न परिहारो भवति, यस्मादर्थतो यदेव 'शिवकोत्पत्तौ शिवकेनैव विनाशः' इति तदेव 'अङ्कुरोत्पत्तावडरेणैव विनाशः' इत्युक्तम् । ततोऽयं ते दोषो बलादापात्यते - शिवकेनैवोत्पत्तौ शिवकेनैव विनंष्टव्यमिति । किं कारणम् ? ततोऽभिन्नत्वात् , यतो यदभिन्नं तदुत्पत्तौ तेनैव विनंष्टव्यम् , यथा त्वदुक्तानन्तरघटोत्पादेवदिति । एवं त्वनुत्पत्तावित्यादि । एवं चेदुत्पत्तिर्नेष्यते तस्यैवावस्थितस्य घटस्य नैवोत्पत्तिरस्ति अत्यन्तं घटाख्याद् भावादन्यत्वात् खपुष्पवत् , अनुत्पन्नस्य च विनाशा-20 भावः खपुष्पवदेव, विनाशस्याप्यभावाद् घटादिभवनाभावः, अपिशब्दादुत्पत्तेरप्यभावाद् घटादीनामुत्पत्तिविनाशशून्यत्वाद् भवनाभावः अस्तित्वाभावः, उत्पत्तिविनाशौ हि भवनसम्बन्धः, तद्वयतिक्रमस्य चाभावात् सर्वमभूतं नास्तीत्येवमादि आपद्यते । आदिग्रहणादवस्तु असद् अभावो निरुपाख्यमित्यादि । अत्र पुनः परिहारः- अथोच्येतैक्य एवेत्यादि । यथा सत्येवैक्ये मृत्कुम्भावस्थयोः सर्वसर्वात्म १ अत्र प्रतिषु 'घटत्वेनोत्पद्यते' इति पाठः प्रतीकत्वेन टीकायामुपलभ्यते, अग्रे तु यद्यपि 'घटत्वेन विनश्यन् पटत्वेनोस्पद्यते..... देशान्तरभावान्तरान्तरितघटविनाशपटसम्भवयोरपि' इति पाठ उपलभ्यते तथापि तत्र 'पट'शब्दस्थाने 'घट'शब्द एवोचित इति भाति । यदि तु नेदं रोचते तर्हि अत्रापि पटत्वेनोत्पद्यते इति अग्रेऽपि च 'घटत्वेन विनश्यन् पटत्वेनोत्पद्यते.....देशान्तरभावान्तरान्तरितघटविनाशपटसम्भवयोरपि' इति पाठः खीकर्तव्यः ॥ २ “अभूतं नास्तीत्यनान्तरम्”-वै० सू० ९।१।९ । दृश्यतां पृ. ३०८-२॥ ३ भेदतद्धटाभेदात् प्र०॥ ४ हेत्वर्थात् उक्तहेत्वर्थात् य० ॥ ५ पटत्वे प्र० । दृश्यतां टि० १॥ ६ पटस' प्र० । दृश्यतां टि० १॥ ७°कत्वसं य० ॥ ८ दृश्यतां पृ. ४१८ पं० ३ ॥ ९ ततोऽयं । त दोषो भा० । ततोऽयं दोषो य०॥ १० 'दविति य० ॥ ११ सम्बन्धतद्वयति य० । सम्बन्धवद्वयति भा०॥ १२ सर्वासर्वात्म य० । सर्वात्म भा०॥. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ न्यायागमानुसारिणीवृस्य लङ्कृतम् [ षष्ठे विधिनियमविध्यरे एव भवनभागा अभिव्यज्यन्ते तांश्च भावोऽपि तथाभिव्यनक्ति तथा उत्पत्तिस्थितिविनाशा अभिन्नस्यैवावस्थाः स्युः । नन्वस्माभिरपीदमुक्तम् – अनन्यत्वाद् द्रव्यखावस्थात्वे सति अविरोधात् पूर्वोत्तराभावादभिभवैक्यानापत्तेरविद्यमानपार्थक्यात् कस्यचिद् व्यक्त्यव्यक्ती नोपपद्येते, कुत उत्पादादिः ? अपि च लोकप्रतीतव्यक्तिधर्मविपरीतत्वादुत्पादाद्यभावः, क्रियाखावस्था कॅत्वाद् भिन्नयोरप्यभेदः तथा बीजाङ्कुरादिभेद इत्यभिप्रायः । यथा मृदः कुम्भावस्था युगपद्भाविनां रूपरसा३००-१ दीनामयुगपद्भाविनां च शिवकादीनां नियतानि भवनानि, मृद्रव्यस्यैव कर्तृभवनस्य रूपादिशिवकादित्वेन तेन प्रकारेण नियता एव भवनभागा मायाकारकपताकिकावद् नानियताभिव्यक्तयोऽभिव्यज्यन्ते प्रथमभवन10 शब्दस्य कर्तृभवनार्थत्वात् । तांश्च भवनभागान् क्रियापि तथाभिव्यनक्ति नान्यथा, भावशब्दस्य द्वितीयस्य क्रियावाचित्यात् । यदि भिन्नस्य मृत्कुम्भाद्ययुगपदवस्था रूपादिपृथिव्यादियुगपदेवस्था वा स्युः तास्तस्य मृद्रव्यस्यैव न स्युः, कस्मात् ? अन्यतरेणावरुद्धावकाशत्वाद् घटपटादिवत् । भवन्ति चैकस्य । तस्मादभिन्नमृत्कुम्भावस्थावदुत्पत्तिस्थितिविनाशा अभिन्नस्यैवावस्थाः स्युः, को दोषः ? इति । अत्रोच्यते - नन्वस्माभिरपीदमित्यादि यावत् कुत उत्पादादिरिति । नन्वस्माभिस्ते एव नोपio पैद्येते इत्युक्तं 'व्यक्त्यव्यक्ती' इत्यभिसम्बध्यते तथानियतभवनभागद्रव्यावस्थाया व्यञ्जनमव्यञ्जनं वेति । कस्मात् ? अनन्यत्वात् सर्वस्य सर्वात्मकत्वाच्च । तच्चानन्यद् द्रव्यमेव, तस्य च स्थित्युत्पत्तिविनाशा अनन्ये, किं कारणम् ? त्याभ्युपगतानां स्थित्यादीनां द्रव्यस्वावस्थात्वात्, 'द्रव्यस्यैव स्वावस्थाः स्थित्यादयः परस्परतोऽनन्याः' इति हि समाश्रितस्त्वयायं पक्षः, परस्परभिन्नस्थित्यादीनां द्रव्यस्वावस्थात्वे सर्वपक्षार्थ - ध्वंसित्वभयात् । तस्माद् द्रव्यस्वावस्थात्वादविरोधः स्थित्यादीनाम्, न यथा स्वप्नजागरणयोर्विरोधः । 20 तस्माद् द्रव्यस्वावस्थात्वादविरोधः । अविरोधाच्चानन्यत्वमासाम् । अनन्यत्वाच्च 'पूर्वमिदम्, उत्तरमिदम्' इति क्रमभाव:, ततः पूर्वोत्तराभावात् कः केनाभिभूतो येनैक्यमापद्येरन् स्थित्यादयः यत एतत् स्यात् 'इयमनया क्रिययाभिव्यज्यतेऽवस्था नेयम्' इति च । कस्मात् ? अविद्यमानपार्थक्यात् पृथक्सद्धानां हि `ऐक्यापत्तिः स्यात् सति अविरोधे तन्तुपटत्ववत् । तस्मादभिभवैक्यानापत्तेः पूर्वोत्तराभावात् द्रव्यस्वावस्थात्वे सति अविरोधादनन्यत्वात् कस्यचिद् व्यक्त्यव्यक्ती नोपपद्येते । कुतस्तदनुपपत्तेः 25 तथानियतभवनभागर्व्यक्त्यव्यक्तिभावाभ्यामुत्पादादिभेदः ? इति तदवस्थो दोषः । 3 किचान्यत्, अपि चेत्यादि । अभ्युपगम्याभिन्नार्थैक्यापत्तिविषये व्यक्त्यव्यक्ती लोकप्रतीतव्यक्तिधर्मविपरीतत्वादुत्पादाद्यभाव इति ब्रूमः । लोके हि पूर्ववृत्तिव्यतिरिक्तो व्यञ्जकः प्रसिद्धोऽन्यः उदकाञ्जनदीपादियोगो भूगन्धचक्षुरिन्द्रियशक्त्यभिव्यक्तिघटादिदर्शन हेतुर्यथासङ्ख्यम्, युजिक्रियासाधनभूयोगि च ३००-२ १ क्रियापि नक्ति य० ॥ २ दृश्यत पं० २५ ॥ ४ पंद्यते भा० । ७ भुजिय० ॥ एतचिहान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ३ उत्पातादि प्र० । पद्यते य० ॥ ५ क्यान्यपत्तेः प्र० ॥ ६ व्यक्तव्यक्ति प्र० ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पादविनाशैकाधिकरण्यखण्डनम ] द्वादशारं नयचक्र में ४२३ द्रव्यभेदनिषेधाद् द्रव्यमात्राभ्युपगमाद् व्यक्तिधर्मत्यागाद् व्यक्तिकारणाभावात् । अहेतुतो वा व्यक्ताव्यक्तेरपि तद्वत्तेति नित्यमेव व्यक्तिरव्यक्तिर्वा सर्वस्य स्यात् । परिणामाद् नैवमिति चेत्, न उक्तदोषतुल्यत्वात् । 1 भूदकादिद्रव्यजातमुपलभ्यते यथा न तु तथा तद्द्रव्यव्यतिरिक्तम्, 'यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति' इति द्रव्यं स्वावस्था विभागं ब्रुवता त्वया न ततोऽन्यः संयोगः संयोगी वाभ्युपगम्यते द्रव्य क्रियापृथग्भूतः द्रव्य - 5 स्वावस्थामात्रत्वादुत्पादादीनाम् । किं कारणम् ? क्रियास्वावस्थाद्रव्यभेदनिषेधात्, 'उत्पादादयः क्रियायाः स्वावस्था:' इत्येतं पक्षं 'द्रव्यस्यापि परस्परभिन्नाः सन्त्योऽवस्थाः' इत्येतं च पक्षं यस्माद् निषिद्धवन्तो वयं द्रव्यनिर्मूलत्वादिदोषात् । तस्मादभ्युपगतं त्वया न किञ्चिद् द्रव्यव्यतिरिक्तमस्तीति । ततश्च तदभ्युपगमाद् व्यक्तिधर्मस्त्यक्तः, तद्विपर्ययधर्मणो द्रव्यमात्रस्याभ्युपगमात् । तत्त्यागाच्च व्यक्तिरनुत्तरमेव व्यक्तिकारणाभावादिति । स्यान्मतम् - निर्हेतुका व्यक्तिरव्यक्तिर्वा द्रव्यधर्मः स्वभावः । यथोक्तम् - सुदूरमपि सन्धाय सङ्गीणासूपपत्तिषु । न स्वभावागमावन्ते कश्चिन्न प्रतिपद्यते ॥ [ १ परिस्पभिन्नाः य० । पस्पभिन्नाः भा० ॥ २ द्रव्यव्यतिमस्तीति य० । द्रव्यतिमस्तीति भा० ॥ ३ द्रव्ये धर्मः भा० ॥ ४ “सुदूरमपि गत्वेह विहितासूपपत्तिषु- । कः स्वभावागमावन्ते शरणं न प्रपद्यते ॥ १२३ ॥” इति हरिभद्रसूरिविरचिते शास्त्रवार्तासमुच्चये समुचितायां कारिकायां पाठः ॥ ५ वा व्यक्तेव्यक्तेरपि पा० वि० । वा व्यक्तेरपि पा० वि० विना ॥ ६ 'तुका तथैवा प्र० । ( 'तुका ते तथैवा ? ) ॥ ७ अत्र 'रोत्पत्तिः इत्यपि पाठः स्यात् । दृश्यतां पृ० ४२३ पं० २३ । तुलना - "अथ कोऽयं परिणामः ? अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः ।" इति पातञ्जलयोगदर्शन वैयासिकभाष्ये ३।१३ ॥ ८ दृश्यतां पं० २० ॥ ९ दृश्यतां पृ० ४१६ पं० २ ॥ ] इति । एतच्चायुक्तम्, अहेतुतो वो [ व्यक्तौ अव्यक्तेरपि तद्वत्तेति, तेन तुल्यं तद्वत्, तद्भाव स्तद्वत्ता, व्यक्तिवद्भाव इत्यर्थः । कथम् ? यथा व्यक्तिर्निहर्तेका तथैवाव्यक्तिरपि निर्हेतुका । ततः किमिति चेत्, 15 उच्यते- इति नित्यमेव व्यक्तिरव्यक्तिर्वा सर्वस्य स्यात् निर्हेतुकत्वात् मृदवस्थायां घटाव्यक्तिवद् घटावस्थायामव्यक्तिर्घटस्य स्यात्, घटावस्थायां घटव्यक्तिवद् मृदवस्थायां व्यक्तिः स्यात्, मृत्पिण्डे घटव्यक्तिवद् गगनेऽपि स्यात्, वियत्यव्यक्तिवद् मृद्यप्यव्यक्तिर्वा स्यादित्यादि । परिणामाद् नैवमिति चेत् । स्यान्मतम् - यथा स्वयोक्तं न तथा भवितुमर्हति परिणामाभ्युपगमात्, अवस्थितस्य द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरापत्तिः परिणामः, तस्माद् मृत्पिण्डशिवकादिपरि- 20 णामैः स्थित्युत्पत्तिविनाशा भविष्यन्ति, न निर्हेतुकाः । तस्मादेव परिणामाद् व्यक्त्यव्यक्ती च स्त इति एतदपि न, उक्तदोषतुल्यत्वात् । य एतेऽस्माभिर्भावस्वावस्थात्वपक्षे द्रव्यस्वावस्थात्वपक्षे च भिन्नाभिन्नात्मकद्वैधे दोषा उक्तास्ते तुल्या एव परिणामपक्षेऽपि द्रष्टव्याः परिणामावस्थयोः श्रुतिमात्रभेदात्, “उत्पत्तिप्रादुर्भावत्वात् 'विनाश' निवृत्तित्वात् 'अवस्थितस्य' इति च स्वशब्देनैव स्थितिवचनात् । परिणामोच्चारणेन च नन्वेवमुभयमपि अवस्तु इत्यादिरादितो ग्रन्थो योज्यो यावदयमेवावधिरिति । तस्मादपरिहारः परिणामः | 25 10 ३०१-१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् षष्ठे विधिनियमविध्यरे .. अथ विनाशसामानाधिकरण्ये दोषदर्शनात् तदेवोत्पद्यते तदेवावतिष्ठते, अत्रापि तथा वा सर्वथा वा अवतिष्ठमाने उत्पत्तिः कुतः, उत्पद्यमाने वावस्थानम् ? इति ववचनादिविरोधाः पूर्ववत् । यापिखतत्त्वानुमतांशुतन्तुवत्तु प्रदीर्घद्रव्यपूर्वोत्तरावस्था बीजाङ्कुरत्वादय B एवं तावदुत्पादविनाशयोः संयोगेनायं विकल्पः सप्रसङ्गपरिहारप्रच!ऽभिहितः तथा वक्ष्यमाणेषू३०१-२ पादस्थितिसंयोगे स्थित्युत्पादसंयोगे स्थितिविनाशसंयोगे विनाशोत्पादसंयोगे विनाशस्थितिसंयोगे त्रिकादि संयोगेषु च समानः प्रच! द्रष्टव्यः 'यदेव उत्पद्यते तदेव विनश्यति' इत्यतः प्रभृति यावदयमवधिरिति, ग्रन्थयोजनया योजयिष्यते। अथ विनाशसामानाधिकरण्ये इत्यादि । उत्पादविनाशैकाधिकरण्ये दोषदर्शनाद् निर्दोषोय:10मिति विकल्पान्तरमाश्रीयते - तदेव उत्पद्यते तदेवावतिष्ठत इति । अत्रापि न निर्दोषमेवेति ब्रुमः, अत्रापि हि द्वयी गतिः तेनापि उत्पत्तिप्रकारेणावतिष्ठमाने यद्वा उत्पादेनैवावतिष्ठमानं तदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति चेति यद्वा स्थित्युत्पत्तिविनाशप्रकारैः सर्वथावतिष्ठमानं तदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति च' इत्युच्यते ? यदि तथोत्पादेनैव अवतिष्ठमानमुत्पद्यते विनश्यतीत्युच्यते तत उत्पादेनैवावस्थितत्वात् "किमिति पुनरुत्पद्यते ? अथ सर्वथाप्यवतिष्ठमानमुत्पद्यत इति उच्येत ततस्त्र्यात्मकं सत् कथमुत्पद्यते ? उत्पत्तिरूपस्य चावस्थित15 त्वाद्, नोत्पद्यत इति उत्पत्तिद्विधापि कुत इति, असम्भव इत्यर्थः । अस्ति चोत्पत्तिः । उत्पद्यमाने वावस्थानं 'कुतः' इति वर्तते । यद्युत्पद्यते कथमवतिष्ठते ? यद्यवतिष्ठते कथमुत्पद्यते ? इति स्ववचनविरोधः पूर्ववदिति, यथाङ्कुरोत्पत्तिविनाशकाधिकरण्योदाहरणे स्ववचनादिविरोधास्तथात्राप्युत्पत्तिस्थितिसामानाधिकरण्ये योज्या इति । व्यापीत्यादि यावत् प्रकल्प इति । स्यान्मतम् – यथा स्वतत्त्वानुमतांशुतन्तुवत्तु, व्याप्नोतीति 20व्यापी, अविशेषितत्वात् सर्वस्य व्याप्यस्य कार्यस्य व्यापकं कारणमुच्यते व्यापीति । 'व्यापिनः स्वतत्त्वमेव' ३०२.१ इत्यनुमतोंऽशुस्त्वयापि द्रघ्यार्थवादाश्रयिर्णी, व्यापि स्वतत्त्वमस्येति वा विग्रहः, स च व्यापिस्वतत्त्वानुमतोंs शुरेव तन्तुाप्यः, कारणमयत्वात् कार्यस्य । किमुक्तं भवति ? यथांशुमयस्तन्तुरतोंऽशुरेव तन्तुरिति दृष्टान्तः अंशुरपि तन्तुस्तन्तुरप्यंशुरिति वा, तथा बीजमयोऽङ्कुरो बीजमेवारः अङ्कुरोऽपि बीजं बीजमप्यकुर इति वा दार्टान्तिकः । तद् वर्णयति -- प्रदीर्घद्रव्येत्यादि, प्रकृष्टदीर्घत्वस्य द्राधीयसो द्रव्यस्य मेर्वादेरिव पूर्वोत्तरतया 25 स्थित्युत्पत्तिविनाशावस्था ब्यापिस्वतत्त्वानुमतबीजाङ्कुरत्वादय इति, अस्मिन् प्रकल्पे तदेवोत्पद्यते तदेवा १ दृश्यतां पृ० ३०३-२॥ २ दृश्यतां पृ० ३०३-१॥ ३ दृश्यता पं० १॥ ४ दृश्यतां पृ० ३०३-२॥ ५ दृश्यता पृ. ३०४-१॥ ६ दृश्यतां पृ. ३०३-१॥७ दृश्यतां पृ. ३०३-२॥ ८ दृश्यतां पृ० ३०४-२॥९'समानप्रचों द्रष्टव्यः' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात्, 'समानप्रच) विकल्पः' इत्याशयः॥ १० दृश्यतां पृ० ४१८ पं० १॥ ११ अयं विकल्प इत्यर्थः ॥ १२द्यते देव विन भा० । 'द्यते विनय०॥ १३ स्थित्युत्तिप्र०॥ १४॥ एतच्चिदान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ १५ उत्पत्तिर्विधापि प्र. ॥ १६ दृश्यतां पृ० ४१८ पं० ४ ॥ १७ नुनातांशुप्र०॥ १८ णो प्र० ॥ १९ स्या प्र.॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पादस्थित्यकाधिकरण्यखण्डनम् ] द्वादशार नयचक्रम् ४२५ इति प्रकल्पे बीजस्यांशूनां वा अनुत्पाद्यविनाशित्वाद् नित्यत्वादङ्कुरतन्त्वनुपपत्तिरेवेति त एव विरोधाः पूर्वस्तम्बनित्यत्वाद्वा बीजानुपपत्तेः। स्तम्बोत्तरबीजोत्पत्तेस्तु अङ्कुरवत् स्थितिभिन्नोत्पत्तित्वात् सर्वस्य द्रव्यात्मनो. ऽनित्यताऽव्यापिता च पूर्वाद्यभाव एव वाऽभेदत्वात् ।। .. अथोच्येत-यदुक्तं भवति यदेवोत्पद्यते तदेवावतिष्ठत इति तदुक्तं भवति उत्पत्तिरूपमेवावस्थानमिति खपुष्पवैलक्षण्येनैवमेवोच्यते । एवं सति यदेवोत्पद्यते वतिष्ठते इत्युत्पत्तिस्थितिसामानाधिकरण्ये स्ववचनादिविरोधा न सन्ति, तस्य वस्तुनोऽवस्थामात्रभिन्नस्यानुत्पन्नाविनाशिनः स्थितस्यैवोत्पादादिति । अत्रोच्यते – एतस्मिन्नपि प्रकल्पे बीजस्य दार्टान्तिकस्य अंशूनां वा दृष्टान्तभूतानां वाशब्दादन्यस्य वा कस्यचिद् वस्तुनः प्रदीर्घस्य अनुत्पादित्वादविनाशित्वाच्च नित्यत्वम्, नित्यत्वात् स्थितिरेव नोत्पादविनाशाविति कुतोऽङ्कुरो बीजात् ? कुतोऽशुभ्यस्तन्तुः ? अतोऽङ्गुर-10 तन्त्वनुपपत्तिरेवेति । ततः किमिति 'चेत्, इति त एव विरोधाः, उत्पत्त्यभावात् पूर्ववत् स्ववचनादिविरोधास्तदवस्था एवेति । पूर्वस्तम्बनित्यत्वाद्वा बीजानुपपत्तेः 'त एव विरोधाः' इति वर्तते, ननु त्वदुक्तेनैव न्यायेन व्यापिस्वतत्त्वानुमतपूर्वस्तम्बबीजत्वं प्रदीर्घद्रव्यस्थितत्वं चेति पूर्वस्तम्बस्यानुत्पाद्यविनाशित्वाद् नित्यत्वम् , नित्यत्वाद् बीजानुपपत्तिः, अतोऽपि तदेव उत्पद्यते तदेवावतिष्ठते' इति स्ववचनादिविरोधा इति दूषणं न्यायस्य व्यापितां दर्शयति । 16 अथ मा भूवनेते दोषा इति स्तम्बादुत्तरकालं बीजोत्पत्तिरिष्यते ततः स्तम्बोत्तरबीजोत्पत्तेस्तु, हेतोः अङ्करवदित्यादि । यथाङ्कुरो बीजादुत्पद्यमानः स्थितादन्य उत्पद्यते पूर्वदोषभयात् पूर्वस्तम्बाच्च बीजं तथा सर्वमपि स्थितिभिन्नोत्पत्ति, तस्मात् स्थितिभिन्नोत्पत्तित्वात् सर्वस्य द्रव्यात्मनोऽनित्यताऽव्यापिता च । यथाङ्कुरो बीजादिस्थितादुत्पन्नोऽनित्योऽव्यापी च तथा त्वदभ्युपगतप्रदीर्घद्रव्यात्मनोऽप्यनित्यत्वमव्यापित्वं च स्यात् तथैव । किञ्चान्यत् , एवं पूर्वाद्यभाव एव वाऽभेदत्वात् , 'पूर्वमिदं बीजादि, 20 उत्तरमिदमडरादि' इत्येतस्य वाऽभावः, कस्मात् ? अभेदत्वात् , अभिन्नं हि तद्वस्तु द्रव्यं न क्रिया, व्यापिखतत्त्वबीजाङ्कुरादिप्रादुर्भावस्य क्रियाविषयत्वात् तस्य प्रदीर्घत्वकल्पनाभ्रान्तित्वात् किं पूर्वम् ? किमुत्तरम् ? इति पूर्वोत्तरस्थित्युत्पत्तिकल्पवचनानुपपत्तिः । ____ अथोच्येत इत्यादि यावत् खपुष्पवैलक्षण्येनैवमेवोच्यत इति । स्यात् परिहारार्थव्याख्याशङ्का - "तदेवोत्पद्यते तदेवावतिष्ठते' इत्यनेन वचनेन 'किमुक्तं भवति ? इति तदाचष्टे - यदुक्तं भवति यदेवो त्पद्यते तदेवावतिष्ठत इति तदुक्तं भवति इत्यर्थं कथयत्यनेन, वचनेनेति । स पुनरयमर्थ एवं कथितो भवति - उत्पत्तिरूपमेवावस्थानमिति कथितो भवति । यदि "नोत्पद्येतावस्थिताभिमतं नावतिष्ठेत अनु १ वेदेति इति प्र० ॥ २ दूषणन्यायस्य प्र० ॥ ३ तश्चैव भा० । तव्वैव ही० । तवैव पा० डे० वि० '२०॥ ४चाभावः प्र०॥ ५ वि. विनान्यत्र द्रव्यमक्रिया प्र० । द्रव्यमक्रिया वि०॥ ६°ण्येनैवोच्यत । ७** एतच्चिह्नान्तर्गतः र्थव्याख्या इत्यत आरभ्य अथोच्येत उत्पादविनाशपर्वतायामित्या [पृ. ४२७ पं०१८] इत्येतत्पर्यन्तः पाठो वि० २० ही० प्रतिषु नास्ति ॥ ८॥ एतचिह्नान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति । ९मकिमुक्तं भा०॥ १० नोत्पद्यतेवस्थि य०॥ नय०५४ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे तदेवावतिष्ठते इत्युत्पत्तिरेवावस्थानमित्यापन्नम् , उक्तस्थितित्यागात् , अंतश्च क्षणिक त्वापत्तिः, उभयात्यागाभिमती वानेकान्तापत्तिः। ____ अथोच्येत-उत्पादपूर्वत्व एते दोषा मा भूवन्निति तदेव विनश्यति तदेवोत्पद्यते । अत्रापि यदेव विनश्यति बीजं तदेवोत्पद्यत इत्यङ्कराप्रादुर्भाव एव प्राप्त । इति पूर्ववत् खैवचनादिविरोधाः तत्पूर्वपत्राद्यपोहाच लोकादिविरोधाः । तदेव विनश्यति तदेवोत्पद्यते इति क्षणिकवादातिशयनादि च पूर्ववत् । त्पत्तिरूपत्वात् । तस्मादनुत्पन्नमस्थितं खपुष्पादि, तद्वैलक्षण्येन यदेव उत्पद्यते तदेवावतिष्ठते, नानुत्पत्तिकम३०३-१ वतिष्ठते, तस्मादुत्पत्त्यनुमितमेवावस्थानं द्रव्यस्येति । अत्रोच्यते - एवं सति यदेवेत्यादि यावत् क्षणिक स्वापत्तिरिति । इत्थं तीदं व्याख्यानं संवृत्तम् - यदेवेति यस्मादित्यर्थः अव्ययत्वाद् यच्छब्दस्य, यत एवो10 त्पद्यते तत एवावतिष्ठत इति प्रागुक्तोत्पत्तृस्थात्रैक्यवदुत्पत्तिस्थित्यैक्यापत्तिः, अत उत्पत्तिरेवावस्थानमित्यापन्नम् , किं कारणम् ? उक्तस्थितित्यागात् , उत्पत्तिरेव स्थितिरित्यनुमिमानेन स्थितिरुत्पत्तिरेव कृतेति योक्ता व्यापिस्वतत्वानुमतांशुतन्तुवत् तु प्रदीर्घद्रव्यपूर्वोत्तरावस्था स्थितिरिति सा त्यक्ता स्यात्, तत्त्यागादुत्पत्तिरेवावस्थानम् , न स्थिति ना काचिदित्यतश्च क्षणिकत्वापत्तिः, उत्पद्यत उत्पद्यत एव नावतिष्ठते किञ्चिदिति 'सर्वं क्षणिकम्' इत्युक्तं भवति । स्यान्मतम् – क्षणिकत्वदोषो मा भूदिति 'केनचित् प्रकारेण 15 स्थितम् , उत्पद्यते केनचित्' इतीष्यत इति । ततश्च उभयात्यागाभिमतौ वानेकान्तापत्तिः, यदि स्थित्युत्पत्ती न यक्त त्वया ततस्तेऽभ्युपगमविरोधिनी स्याद्वादप्रक्रिया अनेकान्तवस्तुतत्त्वा आपद्यत इति । .. अथोच्येत-उत्पादपूर्वत्व एते दोषा इत्यादि । 'यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यति, यदेवोत्पद्यते तदेवावतिष्ठते' इत्युभयोरुत्पादप्रधानयोर्विकल्पयोर्ये दोषास्तानपरिहार्यान् प्रत्युच्चार्यानुमत्य चासौ तौ विकल्पौ त्यक्त्वा विकल्पान्तरे निर्दोषे मन्यमानः श्रयेत विनाशप्रधाने । तत्राद्यस्तावद् विकल्पः-तदेव विनश्यति 20 तदेवोत्पद्यत इति । अस्मिन्नपि विकल्प दोष उच्यते-लोके तावत् प्रत्यक्षादिप्रसिद्धम् 'अङ्कुरोत्पत्तौ बीजं विनश्यति' । तव पुनर्यदेव विनश्यति बीजं तदेवोत्पद्यते नाङ्कुर इत्यङ्कराप्रादुर्भाव एव प्राप्तः, इति३०३.२ शब्दस्य हेत्वर्थत्वात् ततश्च पूर्ववत् स्ववचनादिविरोधाः, तत्पूर्वपत्राद्यपोहाच्च लोकादिविरोधाः, अङ्कुराभावेऽङ्करपूर्वाणां पत्रकाण्डनालपुष्पफलशूकादीनामुत्तरेषां लोके प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धानामङ्खराप लापवदपलापाल्लोकादिविरोधाः, पूर्ववद् वचनलोकद्वाराभ्यां दोषाभिधानमिति । 25 तदेवेत्यादि, 'तदेव विनश्यति तदेवोत्पद्यते' इति वचनेनानन्यभूतस्यैकस्मिन्नेव काले विनाश उत्पादश्वेति क्षणिकवादातिशयः पूर्ववत् , भिन्नकालविनाशोत्पादो हि क्षणिकवादः, स चानेनातिशय्यते । आदिग्रहणादविनष्टानुत्पन्नास्थितत्वात् खपुष्पवद् बीजाङ्करशून्यता स्यादिति । १'उत्पत्तेश्च क्षणिकत्वापत्तिः' इत्यपि मूलं स्यात्, दृश्यतां टि० ७॥ २'प्राप्तः, ततश्च पूर्ववत् स्ववचनादिविरोधाः' इत्यपि मूलं स्यात् ॥ ३ दृश्यतां पृ० ४१८ पं० ४ ॥ ४ तव्यस्येति भा० । नव्यस्येति य० । अत्र तस्येति इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ५क्यात्पत्तिः भा० । क्योत्पत्तिः य० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ४२४ पं० ४ ॥ ७काचिदित्युत्पतश्च य० । काचिदित्यत्यतश्च भा० । अत्र काचिदित्युत्पत्तेश्च इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ८ शयेत प्र० ॥ ९ सूकादी भा० । सूक्ष्मैकादी य० ॥ १० दृश्यतां पृ० ४१९ पं० ५॥ ११ दृश्यतां पृ० ४१९ पं० ३ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पत्तिविनाशस्थितीनामैकाधिकरण्यखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४२७ है अथोत्पादैकाधिकरण्ये दोषदर्शनात् तदेव विनश्यति तदेवावतिष्ठते । अत्रापि तथा वा सर्वथा वा अवतिष्ठमाने कुतो विनाशो विनाशे वावस्थानम् ? इति त एव खवचनादिविरोधाः क्षणिकवादातिशयनादि च पूर्ववत् । ___ अथोच्यत-उत्पादविनाशपूर्वतायामेते दोषा मा भूवनिति तदेवावतिष्ठते तदेवोत्पद्यत इत्युच्येत । अत्रापि तथा वा सर्वथा वा उत्पद्यमानेऽवस्थानं कुतः, अवतिष्ठमाने वोत्पत्तिः ? इति त एव स्ववचनादिविरोधाः क्षणिकवादातिशयनादि । - अथ यदेवावतिष्ठते तदेव विनश्यति, अत्रापि तथा वा सर्वथा वा विनश्यति कुतोऽवस्थानम्, अवस्थाने वा विनाशः? इति पूर्ववत् स्ववचनादिविरोधाः क्षणिकवादातिशयनादि शून्यता वा। अवतिष्ठते वान्वयः, विनश्यति व्यतिरेकः । अनन्वयगोचरव्यतिरेकमात्रोपलब्धेश्च 'तदेवावतिष्ठते तदेव विनश्यति' इति पूर्ववत् त 10 एव खवर्चनादिविरोधाः । अवस्थितार्थविनाशाभ्युपगमेनाशेषसाधनावयवध्वंसः, ___ अथोत्पादैकाधिकरण्य इत्यादि द्वितीयविकल्पे विनाशप्रधानस्थितिपक्षेऽनन्तरोद्वाहितेऽपि उक्तवदेव दोषाः स्थानाभिधानेन तु योज्याः, योजनादिक्प्रदर्शनं तु तथा वा सर्वथा वेति स्थितिप्रकारेण विनश्येत् उत्पत्तिस्थितिविनाशप्रकारेण वा "विनश्येत् इति विकल्प्यते । उत्पत्तिप्रधानविकल्पाभिहितदोषवदत्रापि विनाशप्राधान्येन स्थित्या सह योजितं तथा वा सर्वथा वा विनश्यति अवतिष्ठमाने कुतो विनाशः १ 15 विनाशे वा कुतोऽवस्थानम् ? इति त एवाधिकृताः स्ववचनादिविरोधाः क्षणिकवादातिशयनादि च पूर्ववत् । एवं तावदुत्पादपूर्वयोर्विनाशपूर्वयोश्चोत्पाद स्थितिविकल्पयोर्दोषा उक्ताः। . अथोच्येत-उत्पादविनाशपूर्वतायामित्यादि पूर्ववदुच्चार्य दोषांश्चानुमत्य त्यक्त्वा चतुरोऽपि विकल्पानिमौ निर्दोषौ विकल्पावित्याश्रयेत् । तत्राद्यस्तावत् तदेवावतिष्ठते तदेवोत्पद्यत इत्युच्येतेत्यादि यावत् क्षणिकवादातिशयनादीति पूर्ववदत्रापि व्याख्या कार्या 'अवतिष्ठमीने' इत्युच्चारणेन तु "योज्य इति । 20 . अथ यदेवावतिष्ठते तदेव विनश्यतीति स्थितिपूर्वद्वितीयविकल्पेऽपि व्याख्यानं तदेव योज्यं यावत् क्षणिकवादातिशयनादीति गतार्थं शून्यता वेति । अस्मिन् विकल्पेऽन्यथापि दोषाभिधित्सयाहअवतिष्ठते वान्वय इत्यादि यावत् स्ववचनादिविरोधा इति । अनन्वयगोचरेत्यादि, अवस्थानमन्वयः, व्यतिरेको विनाशः, अन्वयशून्यो व्यतिरेक एवानन्वयः, स एव गोचरो व्यतिरेकः, अर्थशून्यो विनाश एव इत्यर्थः । तन्मात्रोपलब्धेश्च सर्वत्रैव "बीजाङ्कुरपत्रादौ तदेवावतिष्ठते तदेव विनश्यति' इतीत्थमपि व्यप-३०४-१ देशो न सम्भवतीति पूर्ववत् त एव विरोधा अनेनापि प्रकारेणेति । एवं तावत् पक्षदोषा अभिहिताः । न" केवलं पक्षदोषा एव, किं तर्हि ? अवस्थितार्थविनाशाभ्युपगमेनानेन भवतोऽशेषसाधनावयवा . १ दृश्यतां पृ० ४२४ पं० २॥ २ (इत्युच्यते ?)॥ ३ (चान्वयः ?)॥ ४ दृश्यतां पृ० ४२७ टि० १३ ॥ ५विनाशादिति भा० । विनाशाविति य०॥ ६ 'योजितव्यम्' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ७ दृश्यतां पृ० ४२५ टि. ७॥ ८ मत त्यक्त्वा प्र०॥ ९ इत्युच्यतेत्यादि य० । (इत्युच्यत इत्यादि )॥ १०°मान प्र० ॥ ११ अत्र 'प्रन्थः' इति शेषः । व्याख्याया विवक्षितत्वे तु योज्या इत्येव समीचीनः पाठः कल्पनीयः ॥ १२ व्याख्यातं तदेष य० । व्याख्याततदेव भा०॥ १३ इत्यादि यावत् स्ववचनविरोधा इति य० । इत्यादिविरोधा इति भा०॥ १४ 'त्यादि २ अवस्था भा० । 'त्यादि २ अनवस्था य० ॥ १५ बीजेकुर" प्र०॥ 25 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ षष्ठे विधिनियमविध्यरे तथाव्यवस्थान विनाशात् । तथाव्यवस्थानाविनाशे एव हि सपक्षमपि तत् स्यात् 'अग्निरत्र धूमात्' इति यथा, विनाशेऽवस्थानविपरीतवृत्तित्वात् । एवं त्रिकादियोग भङ्गेष्वपि यावद्योगम् । C ४२८ ते । किं कारणम् ? तथाव्यवस्थानविनाशात्, यथा स्फुटितपृष्ठत्वात् खरं खरविषाणम् आकाश5 स्फोट वदिति वचनवत् । तद्वैधर्म्येण साधनव्यवस्थां दर्शयति - तथाव्यवस्थानाविनाश एव हि सपक्षमपि तत् स्यात्, तद्धि साधनं साधनं भवत् पक्षेण सहापि सत्येव व्यवस्थितस्यार्थस्याविनाशे भवितुमईति, नाविनाशे । किमिव ? ‘अग्निरत्र धूमात्' इति यथा यथा हि धूमो धूमरूपेण व्यवस्थितो व्यवस्थिते एवानौ अग्नितया तद्वत्तया च प्रदेशे, यद्युभयव्युदासानुगृहीतसमुदायार्थसाध्यता यदि धर्मविशिष्टधर्मिसाध्यता सर्वथा व्यवस्थितस्य वस्तुनो व्याप्यो धूमांशो व्यापकेन अभ्यंशेन व्याप्तस्तमंशं व्यवस्थित एव व्यवस्थितं 10 गमयति अविनष्टमविनष्टोऽविनष्टस्येति स्यात् साधनत्वं साध्यत्वं च । त्वन्मते तु पुनर्विविधादर्शने विनाशेऽत्यन्ताभावेऽन्यभवनरूपे वा विपरीतात्मके त्वयेष्टयावस्थायावश्यं विनंष्टव्यमित्यवस्थानविपरीतवृत्तित्वात् अन्यथाभवनरूपत्वादस्य धूमाख्यस्यांशस्य पक्षधर्मत्वमसिद्धम् । अतः प्रदेशस्याप्यन्यथावृत्तत्वादभूतत्वाद्वा आश्रग्रासिद्धिः । विपरीतवृत्तेर्विरुद्धतापि च, पक्षधर्मत्वमभ्युपगम्य धूमं धूमरूपेणावस्थितमग्नेरग्निरूपेणावस्था.. नस्य अन्यथाभूतत्वात् । अथवा अवस्थान विपरीतवृत्तित्वादिति, त्वन्मतेनेत्थं विरुद्धता, मन्मतसंवादेन तु वदीयसर्वहेतुविरुद्धता । अवस्थानविनाशद्वयरूप एवाग्निस्त्वयाभ्युपगतः, तत्र यावन्तमंशमग्नित्वव्यवस्थानरूपं स्पृशति तावता अभ्यन्तरे सपक्षे च दृष्टः यावन्तं च 'विनाशरूपं स्पृशति तावता अभित्वव्यवस्थानाभावे तद्विपरीते वा विपक्षे दृष्टः तस्मादनैकान्तिक इति हेतुदोषाः । तस्यैवाग्नेरवस्थानविनाशद्व्यंशस्य तद्वतः प्रदेशस्य च द्व्यंशस्य व्यवस्थानांशमात्रे दर्शनाद् वनस्पतिचैतन्ये स्वापवदव्यापिपक्षधर्मश्च साधनं तद्वृत्त्यवृत्त्योः । एवं दृष्टान्तेऽपि साध्यसाधनधर्मधर्म्यसिद्धिदोषास्तदव्यावृत्त्यादिदोषाश्च योज्याः । 15 ३०४-२ 20 ' एवं त्रिकादियोगभङ्गेष्वपि यावद्योगमिति । एते द्विकसंयोगभङ्गेषु षट्सु दोषा उक्ताः । तथा त्रिकादियोगभङ्गेष्वपि वाच्या इत्यतिदिशति, उक्तदिक्पातित्वात् तेषामपि विकल्पानाम् । तत्रैकस्त्रिकसंयोगः – यदेवोत्पद्यते तदेवावतिष्ठते विनश्यति चेति प्रथमः, यदेवोत्पद्यते तदेव विनश्यत्यवतिष्ठते चेति द्वितीय इत्युत्पत्ति..... प्रधानौ द्वौ त्रिकसंयोगौ, तथा विनाशप्रधानौ स्थितिप्रधानौ च । अथवा 'यदेवोत्पद्यते तदेवोत्पद्यते विन३०५-१ श्यति' इत्यनुत्पत्तिदोष परिहारार्थमुत्पत्तिस्वरूपं विनाशसमानाधिकरणमवधारयन् विकल्पयेत्, तथा शेषेष्वपीति १ द्विनाश भा० ॥ २ नोभावो प्र० ॥ ३ धर्म च भा० । धर्मे च य० । “अवृक्षव्यवच्छिन्नस्यापि स्वार्थस्य नानुमानाय नाभिधानाय स्याद् वृक्षशब्दः, न प्रभवतीत्यर्थः । तदेकदेशवर्तित्वात् स्वार्थस्य धर्मिणः पक्षस्यानुमेय - स्याभिधेयस्य एकदेशे वर्तितुं शीलमस्य धर्मः साधु वा वृत्तिरस्येति तदेकदेशवर्ती, किमुक्तं भवति ? अव्यापिपक्षधर्मत्वात् समस्तानुमेयावृत्तित्वादित्यर्थः । अवनस्पतिव्यवच्छिन्नचैतन्यसाधनार्थस्वापवत् यथा 'चेतना वनस्पतयः' इति प्रतिज्ञायां 'खापात्' इति हेतुर्धर्मिणो वनस्पतेरेकदेशे शिरीषादौ वर्तमानोऽपि तालादिषु अवर्तमानो न चैतन्यानुमानाय प्रभवति अव्यापित्वात् तथा वृक्षशब्दोऽपि अवृक्षव्यावृत्त्यर्थो वृक्षस्वार्थांशवृत्तिर्नानुमानाय नाभिधानाय प्रभवति ।" इति वक्ष्यते नयचक्रवृत्तौ अष्टमारे ॥ ४ दृश्यतां पृ० २६० दि० ७ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पत्तिविनाशादीनामैकाधिकरण्यखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४२९ अत्र पक्षेऽमी दोषा इत्यन्यदुत्पद्यतेऽन्यद् विनश्यतीत्यादि यथावस्तुबीजाकुरकर्माद्यात्मधर्माणुस्थूलपृथिव्यादिवत्। .. द्वयोर्द्वयोरपि धर्मयोस्त्रिकसंयोगाः कार्याः । उत्पादेनाभिभवाद् विनाशस्य उत्पादस्य प्रादुर्भावाद् अवस्थानस्योत्पादेन सहभावादन्योन्याभिभवोद्भवमिथुनवृत्तयो हि गुणाः सत्त्वरजस्तमोभिधाना उत्पत्तिविनाशस्थित्याख्या भवन्तीति। तथा चतुष्कसंयोगाः पञ्चकसंयोगाः षट्कसंयोगाश्च सम्भवन्तो योज्याः। यावद्योगमिति । संकलकरणोपायेन यावन्तो भङ्गास्तावन्त इत्यर्थः, यावन्ति वा दर्शनान्यर्थतः सम्भवन्ति तदर्शनानुसारेण तावन्तो भङ्गाः कार्या इत्यर्थः, अभिहितसामानाधिकरण्यानुपपत्तिदोषदिशा भङ्गोपचयाश्रयेण दोषोपचयमपि वर्धयद्भिर्व्याख्येयमित्युपायं दर्शयति । अत्र पक्ष इति द्रव्यस्यावस्थामात्रं स्थित्यादयो न भिन्नाश्च परस्परत इत्यस्मिन् पक्षेऽमी दोषा इति तस्माद् विपर्ययोऽस्त्विति तदुपसंहरति- इत्यन्यदुत्पद्यतेऽन्यद् विनश्यतीत्यादि । 'आदि'ग्रहणात् ।। 'अन्यद् विनश्यति अन्यदुत्पद्यते, अन्यदुत्पद्यतेऽन्यदवतिष्ठते,* अन्यद् विनश्यति अन्यदवतिष्ठते, अन्यदवतिष्ठतेऽन्यदुत्पद्यते, अन्यद्वतिष्ठतेऽन्यद् विनश्यति' इत्यादिभङ्गाः सम्भवन्तो ग्राह्याः । यथावस्तुबीजाकुरकर्माद्यात्मधर्माणुस्थूलपृथिव्यादिवत् , यद् यद् वस्तु यथावस्तु, बीजमन्यद् वस्तु विनश्यति अङ्कुरोऽन्य उत्पद्यते द्रव्यम् , कर्म गमनमुत्पद्यते स्थानं विनश्यति, आदिग्रहणाद् निर्णयबुद्ध्यादिर्गुण उत्पद्यते संशयबुद्ध्यादिविनश्यति, आत्माकाशकालदिङ्मनोद्रव्याणि नोत्पद्यन्ते न विनश्यन्ति अवतिष्ठन्त एव, तथाणवोऽपि, पटादि 15 स्थूलमुत्पद्यते पिण्डादि विनश्यति, धर्मोऽभिषेचनादिकर्मणोत्पाद्य उत्पद्यते गुणः संस्कारप्रयत्नादिश्च कारण-३०५-२ विनाशादिभिश्च विनश्यति, न विभुत्वादिरिति । . १“अन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तयश्च गुणाः ॥ १२ ॥” साङ्ख्यका० ॥ २ संभवतो भा० ॥ ३ संकल' भा० ॥ ३ * * अन्यदुत्पद्यतेऽन्यद् विनश्यति अन्यदवतिष्ठते भा० । अन्यद् विनश्यति. अन्यदुत्पद्यते अन्यदवतिष्ठते य० ॥ ४ “एवं श्रुतिस्मृतिविधिभ्यो धर्मो भवतीत्युक्त्वा इदानीमेषां धर्मसिद्धौ प्रकारविशेषमाह, तथाहि - दृष्टानां दृष्टप्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय [वै० सू० ९।२।१], श्रुतिस्मृतिपरिदृष्टानां स्नानादीनां दृष्टस्य मलापकर्षादेरनभिसन्धाने प्रयोगोऽभ्युदयाय भवति । के ते ? अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्था(स्थ्य ? स्थ?)यज्ञदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय [वै० सू० ९।२।२], विशिष्टदेशकालापेक्षेण अम्भसा यः शरीरस्य संयोगस्तदभिषेचनं स्नानम् । नक्तंदिनं वासोऽनाहाररूप उपवासः।ब्रह्मशब्देनात्मा, ब्रह्मणि चरणमात्ममनसोर्यः संयोगः ख्यादिपरिहाररूपो ब्रह्मचर्यम् । ज्ञानाद्यर्थिनो गुरुचर्यापरस्य तद्गृहेषु वसनं गुरुकुलवासः । शास्त्रविधिना [ग्रामा]निर्गता(तोऽ)रण्यप्रस्थितो वा(व)नप्रस्थः, तस्य कर्म वानप्रस्था(स्थ्यम् ? स्थम् ?)। यज्ञाः पाकयज्ञादयः । दानं सुवर्णादिदानमभयदानं च । प्रोक्षणं सन्ध्योपासनादि । दिनियमादयोऽन्ये विशेषाः, दिनियमः 'प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत', नक्षत्रनियमः 'कृत्तिकाखादधीत', मन्त्रनियमो 'देवस्य त्वेति निर्वपति', कालनियमो 'वसन्ते ब्राह्मणोऽग्नीनादधीत' । एवमेतत् सर्व दृष्टप्रयोजनतिरस्कारेण प्रयुज्यमानं धर्माय सम्पद्यत इति ।" इति [पुण्यनामधेयमुनिश्रीपुण्यविजयमहोदयसकाशाल्लब्धायां हस्तलिखितायां प्राचीनतमायां ] चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० २४ A ॥ २ एतादृशी सदसत्कार्यविषयिका चर्चा प्रथमारे [पृ० १६०-१७१], नवमारे [पृ० ४७८-२], दशमारे [पृ. ५०६-२-५०९-२] च दृश्यते । सापि चर्चा मूलनिर्णयेऽर्थपरिज्ञाने पाठसंशोधने चात्रानुसन्धेया ॥ - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे .. यत् तत् सत् ततोऽन्यत् कार्यम् , तदतुल्यविकल्पत्वात्, घटपटवत् । कथमतुल्यविकल्पता ? इहे कार्यकारणयोर्द्वयोरपि सत्त्वं कार्यासत्त्वमेव वेत्येतद् विकल्पद्वयं स्यात्, इतरयोरभ्युपगतप्रतिपक्षत्वाद् वादाभावात्। . तद् यदि तावदुभयसत्त्वं तत उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे तदात्मकसत्त्वाविशिष्टउत्वात् कारणखात्मवत् कारणाविर्भाववद् नित्यं कार्याविर्भावः स्यात् । अथ न कारणा. अत्रानुमानं कारणकार्यनानात्वेऽभिधीयते -यंत् तत् सत् ततोऽन्यत् कार्यम् , तदतुल्यविकल्पत्वात् , घटपटवत् , यत् त्वया कारणं कार्यं च सदित्यभिमतं तत्र बीजादेः पुरुषादेश्च कारणात् तनुभुवनाद्यनुरादि कार्यमन्यदित्य भिप्रायः । पक्षीक्रियते तु 'सत्' इत्यभिमताद् वस्तुनोऽन्यत् तत् कार्यमिति । विशेषहेतुः - तदतुल्यविकल्पत्वादिति, सता तेनातुल्यो विकल्पोऽस्येति कार्यमभिसम्बध्यते, तस्य त्वया 10 कारणादनन्यत्वेनेष्टत्वाद् नाश्रयासिद्धिदोषो हेतोः । घटपटवदिति दृष्टान्तः, यथा घटः पटेनातुल्यविकल्पो लोके पृथुकुक्षिबुध्नवृत्तोर्ध्वग्रीवाद्याकारादिविकल्पः पटाच्चतुरस्रदीर्घा दिसंस्थानादिविकल्पादन्यो दृष्टस्तथा कार्य सतोऽन्यदिति । ____ अत्राह - कथमतुल्यविकल्पतेति, असिद्धमतुल्यविकल्पत्वमिति चोदकाभिप्रायः । अत्र चत्वारो भङ्गाः सम्भाव्यन्ते- यो वा कारणं सत् कार्यं चेति, यो वा कारणं सत् कार्यमसत् , कार्यं सत् कारणमसत्, 15 कार्यमसत् कारणं चेति वा । तेषु द्वौ सम्भवेताम् , न द्वौ । तद्यथा- इह 'कार्यकारणयोईयोरपि सत्त्वं कार्यसत्त्वमेव वा' इत्येतद् विकल्पद्वयं स्यादिति 'कारणं सत् कार्य च सत् , कारणमसत् कार्य सत्' इत्येतौ विकल्पौ भवितुमर्हतो नेतराविति । कस्मात् ? इतरयोरभ्युपगतप्रतिपक्षत्वाद् वादाभावात् , अभ्युपगतः प्रतिपक्षो यस्मिन् येन वा वादिना सोऽभ्युपगतप्रतिपक्षो विकल्पो वादी वा, तद्भावादभ्युपगतप्रतिपक्षत्वात् , किं भवति ? वादाभावो भवति अवसितप्रयोजनत्वात् , परश्चेदभ्युपगच्छति किमिति वादः 20 क्रियते ? तौ च विकल्पौ 'सत् कारणमसत् कार्यम् , असत् कारणमसत् कार्य च' इति यदि त्वमभ्युपग३०६-१ च्छसि अवसितप्रयोजनः स्यामहम् , अतो वादाभावादिदं विकल्पद्वयं स्यादिति । - किश्चातः ? उच्यते - तद् यदि तावदुभयसत्त्वम् , 'कार्यसत्त्वं कारणसत्त्वं च' इत्ययं विकल्पः परीक्ष्यते, तिष्ठतु तावदसत् कारणं सत् कार्यमिति विकल्पः । अत्रोभयसत्त्वे कारणांविर्भाववत् कार्याविर्भावः स्यादिति पक्षार्थः सम्बध्यते, उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे सति तदात्मकसत्त्वांविशिष्टत्वात् 20 कारणस्वात्मवत् , यथावरणातिदूरातिसामीप्याद्यनुपलब्धिकारणविरहे सति सत्त्वात्मकं कारणमाविर्भवति नित्यं मृदादि तथानुपलब्धिकारणांसत्त्वे सति तदात्मकसत्त्वाविशिष्टकार्यमाविर्भवेद् नित्यमिति । - अथेत्यादि । एतेन सत्त्वेऽपि आविर्भावानाविर्भावकृतं वैलक्षण्यमापद्यते कारणकार्ययोः, ततश्च सद्वि.. १ यत् तत् सतोऽन्यत् कार्यम्प्र० । दृश्यतां पृ० ४३५ पं० १५, पृ० ४३४ पं० ५,५०६-२, तुलना - पृ० १६० पं० ४,४७८-२ । 'यत् सत् ततोऽन्यत् कार्यम्' इत्यपि पाठोऽत्र स्यादिति भाति ॥ २ दृश्यतां पृ० १६१ पं० २॥ ३ दृश्यतां पृ० ४३४ पं० ७॥ ४ दृश्यतां पृ० १७० पं० १५-२२ ॥ ५ व्यास्त्रः यो वा भा० । व्यास्तु यो वा य० । ( सम्भाव्या स्ते यो वा ? सम्भाव्यास्त्रयो वा ? ) ॥ ६ चेतो भा० । चेते य० ॥ ७ पा० विनान्यत्र मह(महं ?) ततोवादा डे० वि० २० । महतो वादा भा० ॥ ८°विर्भाववसत्कार्या पा० डे० वि० । विर्भावसत्कार्या' २०॥ ९ विशिष्टकारणस्वात्मवत् प० । दृश्यतां पृ० ४३४ पं० ७॥ १०°णसत्त्वे प्र०॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणकार्यनानात्वसाधनम्] द्वादशारं नयचक्रम् विर्भाववद् नित्यं कार्याविर्भावः सच्च कार्यमिति निश्चितं तद्वैलक्षण्यान्न तर्हि सत् कारणम् , असत्, सद्विलक्षणत्वात् खपुष्पवत्। ननु घटसत्त्वं पटसत्त्वविलक्षणम् , न, इतरेतरासत्त्ववैलक्षण्यात् । अथैवमपि वैलक्षण्ये कारणसत्त्वनिश्चयो न निवर्तते आवि र्भावात्मकं च तत् न तर्हि अनाविर्भावात्मकत्वात् कार्य सत् खपुष्पवत् । इतरथा हि नित्यमेवाविर्भवेत् सत्त्वात् कारणवत्, कारणं वा नाविर्भवेत् अनाविर्भावक-5 सत्त्वाविशिष्टत्वात् कार्यवत् । अथ न कार्यानित्यप्रादुर्भाववत् कारणप्रादुर्भावः सच कारणमिति निश्चितं तद्वैलक्षण्यान्न तर्हि सत् कार्यम् , असत्, सद्विलक्षणत्वात् खपुष्पवत्, इतरः कारणवत् । खपुष्पमपि वा सत्, आविर्भावानुपलब्धेः, कार्यवत् । ननु घटसत्त्वं पटसत्त्वविलक्षणम्, न, इतरेतरासत्त्ववैलक्षण्यात् । अथैवमपि वैलक्षण्ये कार्यसत्त्व-10 विनिश्चयो न व्यावर्तते अनित्याविर्भावात्मकं च तत् न तर्हि आविर्भावात्मकत्वात् कारणं सत्, न त्वेवं भवति । अतः कारणं सत्, उपलभ्यत्व आविर्भावकत्वात्, कृतवत् । कृतमपि कारणवत् सत्, उपलभ्यत्वे आविर्भावकत्वात्, कारणवदेव । न तु कार्य सत्, उपलभ्यत्वे आविर्भावानुपलब्ध्यात्मकत्वात्, खपुष्पवत् । सत्त्वे वा विशेषो वक्तव्यः, अविशेष वैलक्षण्यानुपपत्तेः । विशेषोन्नयनेऽपि विशेषस्या-18 सदाश्रयत्वात् ततोऽन्यत्वमेव, तत्रासत्त्वमेव अघटपटवत् । लक्षणत्वादसत् कारणमापद्यतेऽभ्युपगमप्रत्यक्षादिविरुद्धम् । तस्यानैकान्तिकत्वचोदना-ननु घटसत्त्वं पटसत्त्वविलक्षणमिति । सतो हि घटात् पटो विलक्षणः संश्च दृष्टः, खपुष्पमसत् , तत्र सन्देहः - किं खपुष्पवदसत् कार्यं स्यात् ? घटविलक्षणपटवेत् सत् स्यात् ? इति । अत्रोच्यते - न, इतरेतरासत्त्ववैलक्षण्यात्, घटः पटात्मना नास्ति पटोऽपि घटात्मना नात्येवेति असत्त्वांशाभ्यामेव वैलक्षण्यमनयोः, अतो 20 विपक्षासिद्धेः सपक्ष एव वृत्ते नैकान्तिकः । शेषो ग्रन्थः सत्कार्यवादविपर्ययेण तुल्यगमत्वार्दुक्तानु-.. सारेणोह्यो यावदनाविर्भावकसत्त्वाविशिष्टत्वात् कार्यवदिति प्रथमचक्रकं कार्यसत्त्वप्रसङ्गेन ।। अथ न कार्यानित्यप्रादुर्भाववदित्यादि कारणसत्त्वपँसंगचक्रकं द्वितीयं यावदुपसंहारग्रन्थः- अतः ३०६-६ कारणं सत् , उपलभ्यत्व आविर्भावकत्वात् , कृतदिति कृतघटवादित्यर्थः । स्यान्मतम् - कृतं घटादि. कार्यमकृतात् कार्यात् कारणाच्चान्यद् विलक्षणं च तत् तस्मादसैदिति। एतच्च न, विशिष्टं कृतमपि कारणवत् 20 सत् , उपलभ्यत्वे आविर्भावकत्वात् , कारणवदेवेति उपलभ्यत्वविशेषणमावरणाद्यभावप्रकाशाद्युपलब्धि-. प्रदर्शनमिति । शेषं प्रागुंक्तसत्कार्यवादद्वितीयचक्रकविपर्ययेण तुल्यगमं यावत् ततोऽन्यत्वमेवेति। तत्र किमुक्तं भवति ? तद्वयाख्यानार्थमाह -तत्रासत्त्वमेवाघटपटवदिति । यथा घटाभाव एव पटोऽघटस्तथा विशेषो. ऽपि कल्प्यमानोऽसत्वांशद्वारेण स्याद् नान्यथेत्यविशेषाद् वैलक्षण्यानुपपत्तिरिति द्वितीयं चक्रकं समाप्तम् । १ दृश्यतां पृ० ४३४ पं० १४ ॥२ एतचिह्नान्तर्गतपाठस्य मूलत्वे सन्देहः ॥ ३ दृश्यतां पृ० ४३४ पं० १८ ॥ ४ दृश्यतां पृ०४३४ पं० १९ पृ० १६३ पं०४॥५°वत्स्यात भा० । व स्यात य०॥६ दृश्यतां पृ० १६२ पं० १॥ ७प्रसंगभंगचक्रकं य० ॥ ८॥ एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ९ सदनित्येतच्चन य० ॥ १० वत्वारणवदे भा० ॥ ११ दृश्यतां पृ० १६३ पं० १॥ १२ कल्पमा प्र०॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ षष्ठे विधिनियमविध्यरे अथैतत् साम्यमुभयसत्त्वाद् मा भूदित्यन्यतरसत्त्वं कार्यास स्वाभ्युपगमपरिहारेण 'कार्यमेव सत्' इति । अत्र कार्यसमीपे 'एव' कार इत्यन्यत्र प्रतियोगिनि सत्त्व नियमः 'सेवं कार्ये एव नियतं नान्यत् सत्' इति, ततश्च न कारणं सत्, तथा च सतोऽसदिति असतश्च सदिति संज्ञा क्रियते, कार्यसत्त्वं खरविषाणादिसत्व तुल्यम्, B नाममात्रे विसंवादः । कार्यासत्व निवृत्त्येकान्तत्यागाच्चाभ्युपगमविरोधः स्ववचनादिविरोधाः । सदेवकारे तु सदनवधृतेः पूर्वदोषा एव । ४३३ अथोच्येत - सर्वथा सत्त्वादेककारणतया न कश्चिद् विशेषोऽस्ति, यदेव कारणकाले कार्यसत्त्वं तदेव कारणसत्त्वमपीति नावधारणकृतो दोषो नापि पूर्वस्तुत्यत्वापत्तिदोषः । एवमप्येकत्वाद् विशेषाभावः, ततो यथैव कारणमनुपादानसिद्धं 10 सामान्यमन्तर्भाविताशेषविशेषसत्त्वात्मकमेवं कार्यस्यानुपादानसिद्धत्वात् सामान्यत्वादन्तर्भाविताशेषविशेष सत्त्वात्मकत्वात् कार्यमपि कारणवदेवाक्रमं स्यात् । अथैतत् साम्यमित्यादि । पूर्वदोषपरिहारेणान्यतरसत्त्वपरिग्रहे 'कार्यमसत्' इति नेच्छतोऽवश्यं 'कार्यमेव सत्' इत्यवधारणपक्षः स्यात् । स चै सत्कारणप्रतिषेधवादविपर्ययेण दोषाभिधानवदिहापि कार्यो यावद् नाममात्रे विसंवाद इति । एवं च सति कार्या सत्त्वनिवृत्त्येकान्तत्यागाच्चाभ्युपगमविरोध इत्यादि गतार्थं 15 तथैव । अथ 'कार्यमेव सत्' इत्यवधार्यमाण एते दोषा इति सत्त्वं नावधार्यते 'कार्यमस्त्येव कारणमप्यस्ति ' इतीष्टत्वादिति चेत्, अवैलक्षण्यादिकृताः पूर्वदोषा एव । अथोच्येत - सर्वथा सत्त्वादित्यादि यावदनेकविषयत्वात् तुल्यत्वस्येति । पक्षद्वयोक्तदोषपरिहारार्थमित्थं कल्पयेत् - सर्वथा सत्त्वात् सर्वपिण्ड शिवकघटादिप्रभेदाभेदादेककारणता, तया न कश्चिद् C: विशेषोऽस्ति, यथैकस्यैवाहे : 'संवर्ते विवर्ते वाऽभिन्नस्य कारणस्य कारणता, नाहे: पृथग्भूतौ संवर्तविवत 20 तथा तथा तस्यैवावस्थानात्, नाप्यहिः संवर्तो विवर्तो वा न भवति तथेति । तद् भावयति - यदेव कारणे३०७-१ त्यादि यावत् कारणसत्त्वमपीति । इति नावधारणेत्याद्युपनयः, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वाद् यदि 'कार्य*मेव सत्' अथ 'कारणमेव सत्' इत्युच्येत यदि 'सदेव कारणं कार्यं च' इत्युच्यते सर्वथा तस्य कारणस्य स्वसंवर्तविवर्तैकरूपत्वाद् नावधारणकृतो दोषोऽस्ति परमतापेक्षत्वादवधारणस्यापि । नापि पूर्वः तुल्यत्वापत्तिदोषः खपुष्पाद्य स द्विलक्षणप्रादुर्भावाप्रादुर्भाव कारण कार्यावैलक्षण्यदोषो वास्ति, एकत्वात् । अनेकं 25 हि तुल्यमतुल्यं वा स्यात् 'इदमनेन तुल्यं घटादि पटादि वा' इति । निरस्तपूर्वापरीभावात्मनि कार्ये कतर भिन्नं कारणं नाम ? कारणात्मकभावितकार्यत्वाद्वा कतरत् कारणम् ? इति । न त्वस्ति भेदः, तस्माददोष इति । अत्रोच्यते - एवमप्येकत्वाद् विशेषाभावः त्वयोक्तोऽधुना । ततः किम् ? तत इति यथैव I ( पृ० १६४ पं० २ । ( चासत्कार्यप्रतिषेधवाद विपर्ययेण ? ) ॥ ६ सर्वे य० ॥ प्रभेदाचैक भा० । (प्रभेदाभेदाच्चैककारणतया ? ) ॥ ८ विवर्तभिन्नस्य य० ॥ १६६ पं० १ ॥ १० कार्या विलक्षणदोषो प्र० ॥ १ दृश्यतां पृ० ५०८-२, पृ० १६४ पं० १ ॥ २ दृश्यतां पृ० ५०९-१, पृ० १६४ पं० ४ ॥ ३ दृश्यतां पृ० ५०९-१, पृ० १६५ पं० २, पृ० १६८ पं० ५ ॥ ४ दृश्यतां पृ० १६५ पं० ४ ॥ ५ चासत्कारण य० । दृश्यतां ७ प्रभेदाभेदाचै (चै?) क° य० । ९ पूर्व प्र० । दृश्यतां पृ० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणकार्यनानात्वसाधनम्] द्वादशारं नयचक्रम् - अथ मा भूदेष दोष इतीष्यत एवाक्रमं कारणे कार्यस्य सन्निहितत्वादहिवत् । यदि क्रमवदह्यादि कारणं स्यात् न स्यात् क्रमवत्त्वात् खपुष्पवत् । तस्मादक्रममेव सर्वम् , कारणत्वादेव कारणखात्मवत् तथा भेदेनाभवदपि सदेव । खपुष्पमपि तर्हि सत् कारणं च स्यादनुपलभ्यत्वात् कार्यवत् । कारणं वा असत् कार्य च तथानुपलभ्यत्वात् खपुष्पवदेव। यदि तु न कारणानुपादानसिद्धत्ववत् कार्यमनुपादानसिद्धं सदिति च निश्चयो न व्यावर्तते तद्वैलक्षण्यान्न तर्हि कारणं सत्, असत्, सद्विलक्षणत्वात् खपुष्प कारणमनुपादानेत्यादि यावदक्रमं स्यादिति । विशेषाभावात् कारणवत् कार्यमनुपादानसिद्धम् , अनुपादानसिद्धत्वात् सामान्यम् , सामान्यत्वाच्चान्त विताशेषविशेषसत्त्वात्मकमेव, तस्य कार्यस्य सामान्यत्वादनुपादानसिद्धत्वादन्त विताशेषशिवकासकोशकुशूलघटादिविशेषसत्त्वात्मकत्वात् कार्यमपि 10 कारणवदेवाक्रमं स्यात् , उपलभ्यते च क्रमेण प्राक् पिण्डः पश्चाच्छिवक इत्यादि । ____ अथ मा भूदित्यादि यावत् सदेवेति । स्यान्मतम् – इष्यत एवाक्रमं कारणम् , अहाविव संवर्तविवर्तसद्भावात् कारणे कार्यस्य सन्निहितत्वात् । यदि क्रमवदह्यादि कारणं स्यात् न स्यात् क्रमवत्त्वात् अक्रमत्वाभावादित्यर्थः, अक्रमात् कारणादत्यन्तविलक्षणत्वात् खपुष्पवत् । युगपत्सन्निहितसर्वधर्मकं कारणमह्यादीष्टम् , नो चेत् संवर्तविवर्तावहाविवाकाशेऽपि स्यातामुभयोरक्रमतुल्यत्वात् । तस्माद् वियति अभूतैरहि-३०७१ संवर्तविवर्तादिभिः सहैवा]ममेव अहिरात्मरूपभूतैः, तस्मात् कारणत्वादक्रममेव सर्वमह्यादिकारणस्वात्मवत् । किमर्थं तर्हि कारणवद् न भेदेन भेदा गृह्यन्ते तदैव इति चेत् , उच्यते - कारणत्वादेव कारणस्वात्मवत् , अहिः संवर्तविवादिभेदेनाभवन्नपि कारणत्वेनैवाक्रमरूपेण भवन्नपि स एवास्ति गृह्यत एव सत्त्वात् तदेव कारणं तथा तथा तथा गृह्यत इत्यर्थ इति । अत्रोच्यते - एतदपि असत् अनुमानान्तरविरोधात् , खपुष्पमपि तर्हि सत् स्यात् अनुपलभ्यत्वात् कार्यवत् । कारणं च स्यात् खपुष्पम् , 20 अनुपलभ्यत्वात् , कार्यवत् । कारणत्वे वा तथाभेदेनाभूतत्वात् सत् खपुष्पं स्यात् कार्यवत् । अथैवं नेष्यते कारणमसत् कार्य च सत् त्वदिष्टं तथानुपलभ्यत्वाद् भेदेन क्रमभाविनी अहिसंवर्तविवादिप्रकारेणानुपलभ्यत्वादित्यर्थः खपुष्पवदेवेति । न चैवमादीष्टम् , तस्मादनुपादानसिद्धं कारणं सत्, उपादानसिद्धं कार्यमसच्च सद् भवति । यदि त्वित्यादि । यथा कारणमनुपादानसिद्धं सत्त्वात् तथा कार्यमनुपादानसिद्धं सत्त्वात्' इत्येतद् 25 नेष्टमुपादानसिद्धमेवेष्टम् , असत्त्वापत्तिभयात् 'सत्' इति च निश्चयो न व्यावर्तते भवतस्ततस्तद्वैलक्षण्यात् उपादानसिद्धत्ववैलक्षण्याद् न तर्हि कारणं सत् । कस्मात् ? अनुपादानादित्वात् सामान्यत्वा १ दृश्यतां पृ० १६६ पं० ७॥ २ दृश्यतां पृ० १६७ पं. ३॥ ३°पानसि प्र०॥ ४ स्थासकाशकुशलय। स्थासककुशल भा० ॥५'अक्रममेव कारणमहिः' इत्यर्थो भाति । अत्र 'अक्रममेव अहेरा" इत्यपि पाठः स्यात् । (अक्रम एव अहिरा ?)॥ ६ अत्र सन्नेवास्ति इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ७ नोहिसंवर्त प्र०॥ ८दानमसिद्धं प्र०॥ ९स्तद्वैल भा० । नय०५५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [षष्ठे विधिनियमविभ्यरे वदित्यादि पूर्ववच्चक्रकद्वयप्रवर्तनम् । तस्मादसत् कार्यम् । . नंन्वेवमसत्त्वादायत्यामपि नाविर्भवेत् कार्य खपुष्पवत् । न, सविशेषणासत्त्वा दन्तर्भाविताशेषविशेषसत्त्वात्मकत्वात् , असत् , कार्यवैलक्षण्यात् खपुष्पवदित्यादि पूर्ववच्चक्रकद्वयप्रवर्तनमुपादानानुपादानविलक्षणत्वादिवचनेन आविर्भावानाविर्भावात्मकत्वादिवचनवद् नेतव्यम्5 यत् [तत् सत् ] ततोऽन्यत् कार्यम् , । तदतुल्यविकल्पत्वात् घटपटवद् द्रव्यक्रियावद्वा । कथमतुल्यविकल्पता? इह कार्यकारणयोर्द्वयोरपि सत्त्वं कार्यसत्त्वमेव वेत्येतद् विकल्पद्वयं स्यात्, इतरयोरभ्यु. पगतप्रतिपक्षत्वाद् वादाभावात् । तद् यदि तावदुभयसत्त्वं ततस्तदात्मकसत्त्वाविशिष्टत्वात् कारण स्वात्मवदुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे' यथा कारणस्यानुपादानोपलब्धिः तथा कार्यस्य स्यात् । अथ न कारणानु३००१ पादानवत् कार्यानुपादानं सच कार्यमिति निश्चितम् , तद्वैलक्षण्याद् न तर्हि सत्कारणमसत्सद्विलक्षण10 त्वात् खपुष्पवत्, इतरः कृतघटवत् । ननु घटसत्त्वं पटसत्त्वविलक्षणम् , न, इतरेतरासत्त्ववैलक्षण्यात् । अथैवमपि बैलक्षण्ये कारणसत्त्वनिश्चयो न निवर्तते अनुपादानात्मकं च तत्, न तहननुपादानात्मकत्वात् कार्य सत् खपुष्पवत् । इतरथा हि नित्यमेवोपादीयेत सत्त्वात् कारणवत्, कारणं वोपादानवत् स्यात् उपलभ्यसत्त्वाविशिष्टत्वात् कार्यवत् इति प्रथमचक्रकम् । ... अथ न कार्यानित्योपादानवत् कारणोपादानम् , सच्च कारणमिति निश्चितं तद्वैलक्षण्याद्न तर्हि सत् 15 कार्यम् , असत्, सद्विलक्षणत्वात् खपुष्पवत्, इतरः कारणवत् । खपुष्पमपि वा सत् अनुपादानानुप. लब्धेः कार्यवत् । नन्वित्यादीति सोत्तरम् । अथैवमपि वैलक्षण्ये कार्यसत्त्वविनिश्चयो न व्यावर्तते उपादानात्मकं च तत् न तर्हि अनुपादानात्मकत्वाद् गन्धर्वनगरवत् कारणं सत्, न त्वेवं भवति, अतः कारणं सत् उपलभ्यत्वेऽनुपादानात्मकत्वात् कृतवत्, कृतमपि वा कारणवत् । न तु कार्यम् , अनुपादानानुपलब्ध्यात्मकत्वात् खपुष्पवत्। सत्त्वे वा विशेषो वक्तव्यः, अविशेष वैलक्षण्यानुपपत्तेः । विशेषोन्नयनेऽपि 20 विशेषस्यासदाश्रयत्वात् ततोऽन्यत्वमेव, तत्रासत्त्वमेव अघटपटवत् इति द्वितीयचक्रकप्रवर्तनं कृतमिति । तस्मादसत् कार्यमित्युपसंहृते आह - नन्वेवमित्यादि । यद्येवमसत् कार्य चेदुत्पद्यते ततोऽसत्त्वादायत्यामपि बीजमृत्पिण्डाद्यवस्थानकालादुत्तरकालेऽप्यकुरो नाविर्भवेच्छिवकादि घटादि च कार्यमसत्त्वात् [खपुष्पवत् ], खपुष्पमप्यायत्यां वा प्रादुर्भवेत् असत्त्वात् अङ्कुरघटादिवदित्येतदनिष्टं प्रसक्तम् । तच्च नास्ति । तस्मात् सत् कारणे कार्यमिति । एतच्च न, सविशेषणासत्त्वात् , योऽयं हेतुरनिष्टापादनार्थमुक्तः 25 'असत्त्वात्' इति एषोऽसिद्धः, अभूतं नास्तीत्यनान्तरम् [वै० सू० ९।१।९] इति वचनादत्यन्तासत एवा ३०८.२ . १ दृश्यतां पृ० १६८ पं० १॥ २ दृश्यतां पृ० १६८ पं० १॥ ३ ताशेषसत्त्वा प्र० । दृश्यतां पृ० ४३२ पं०११॥ ४त्वादिसत्कार्य प्र०। (त्वात् , असत्, सत्कार्य?)॥ ५ एतचिह्नान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ६ दानुपा भा० ॥ ७ दृश्यतां पृ० ४३० पं० १, पृ० ४३५ पं० १५ । अत्र यत् सत् ततोऽन्यत् कार्यम् इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ८°तुल्यता प्र० । दृश्यतां पृ० ४३० पं० २॥ ९ कार्यमेवेत्येतद् प्र० । दृश्यता पृ० ४३० पं० २॥ १० चोपाप्र०॥ ११ दृश्यतां पृ० ४३१ पं० ६॥ १२ दृश्यतां पृ० ४३१ पं० ८॥ १३ दृश्यतां पृ० ४३१ ६० ९॥ १४ 'सत्' इति वाक्यशेषः॥ १५'न तु कार्य सत्' इत्याशयः ॥ १६ “अभू नास्तीत्यनान्तरम् [वै० सू० ९।१९ ], प्राक्प्रध्वंसोपाध्यभावेभ्यो यदत्यन्ताभावरूपं शशविषाणादि तद् 'अभूतं, नास्ति' इति पर्यायशब्दाभ्यामव्यतिरिक्तमुच्यते, नास्य पर्यायशब्दैरर्थान्तरता कथ्यते, अतोऽस्य पर्यायशब्दैरेवोपदर्शनं लक्षणम् , नास्य देशकालादिनिषेधः । अन्यत्र तु नास्ति घटो गेह इति सतो घटस्य गेहसंयोगप्रतिषेधः [वै० सू० ९।१।१०], Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार्यवादिकृताक्षेपस्य निरसनम्] द्वादशार नयचक्रम् दनन्यचन्द्रादित्ववत् । अत एव प्रकरणचिन्ता- किं घटादि कार्यमसदाविर्भवेदलातचक्रवत्, उतेतरचक्रवत् सदाविर्भवेत् ? अनैकान्तिकत्वात्। ... एवं तर्हि मयापि शक्यं वक्तुम् - यत् तदसत् ततोऽन्यत् कार्यम् तद्विकल्पासमर्थत्वाद् घटपटवदित्यादि । उत्तरमत्र वक्तुमशक्यम् । यद्येवमहमपि ब्रवीमि सत्कार्यसाधनान्यप्यशक्यानि निवर्तयितुं सोपनयसप्रपञ्चानां वक्तुं युक्तत्वात् । तथो- सत्त्वात् । अनन्यचन्द्रादित्ववत् , यथा नास्त्यन्यश्चन्द्रमा इति द्वितीयचन्द्राभावादनन्योऽयमेवेति सामान्यात् प्रतिषिध्यते चन्द्रमाः तथा नास्ति घटो गेहे मृत्पिण्डे कपालावस्थायां वेत्यादीन्यसत्त्वानि सविशेषणानि अनन्यचन्द्रादित्वनिदर्शनसूचितानि तेषां च सतामेवासतामायत्यामाविर्भावदर्शनादिति । .. अत एव प्रकरणचिन्तेत्यादि । यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः [न्या० सू० १।२७] इति, यस्मादेव आविर्भवद् द्विविधं दृष्टम् - सदसञ्च, तद्यथा- अलातचक्राद्यसत् , 10 सच्च रथादिचक्रादि, तत्र सन्देहः-किं घटादि कार्यमसदाविभवेदलातचक्रवत् उतेतरचक्रवत् सदा-: विर्भवेत् ? इति । यत एव संशयो न तत एव हि निर्णयः, अनैकान्ति[कत्वात् । ऐकान्ति]को हि हेतुः स्यात् , धूमादत्राग्निर्यथा । इत्यसदेव कार्यमिति ।। .. एवं तीत्यादि । सत्कार्यवादी पूर्वाभिहितसत्कार्यवादोपपत्तिभिर्विरुद्धाव्यभिचारिचिकीर्षयाहएवं तर्हि मयापि शक्यं वक्तुम् , तद्यथा- यत् तदसत् ततोऽन्यत् कार्यम् तद्विकल्पासमर्थ- 15 त्वाद् घटपटवदित्यादिसत्कार्यसाधनप्रपञ्चोऽतीतः सोऽत्र द्रष्टव्य इति पूर्वपक्षः । उत्तरमत्र वक्तुम-१९-१ शक्यम् , यथात्रासत्कार्यसाधनानि अनिवानि तथा सत्कार्यवादसाधनान्यपीति । .. यद्येवमिति । यद्येवं ब्रवीपीति प्रत्युच्चार्याह अहमपि ब्रवीमि-एवमपि सत्कार्यसाधनान्यप्यशक्यानि निवर्तयितुम् , सोपनयसप्रपञ्चानां वक्तुं युक्तत्वात् , यथा त्वयोपनयसहितानि प्रत्यवः . स्थानसहितानि च पूर्वोत्तरपक्षप्रसङ्गेन, सत्कार्यासत्कार्यवादयोस्तुल्यं समर्थनमिति भवतो यदि मतिः तथो- 20 नास्ति घटोऽस्मिन् देशे काले वेति देशादिनिषेधो घटादेः स्वरूपतो निषेधः क्रियत] इति । नास्त्यन्यश्चन्द्रमा इति सामान्याञ्चन्द्रमसि निषेधः (प्रतिषेधः ) [वै० सू० ९।११११ ], 'नास्ति द्वितीयश्चन्द्रमाः' इति सङ्ख्याप्रतिषेधेन सामान्याञ्चन्द्रत्वाख्याञ्चन्द्रमा निवर्त्यते इति कृत्वा चन्द्रत्वं सामान्यं नास्तीत्युक्तं भवति । देशकालभावसामोपाधीनामभावे तदत्यन्तासत एव प्रभेदश्चन्द्रत्वसामान्यनिषेध इति वर्णयन्ति ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P.पृ० ३१ ॥ १ दृश्यतां पृ० १६९ पं० १॥ २ चन्द्रादित्यवत् प्र० । अत्र अनन्यचन्द्रादिवत् इत्यपि पाठः स्यात्, दृश्यतां पृ. ३२०-१॥ ३ आनन्यचन्द्रासत्वनिद भा० । अनन्यचन्द्रासत्वनिद य० । अत्र अन्यचन्द्रासत्त्व- . निदर्शनसूचितानि इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ४ मुपं प्र० । “यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः [न्या० सू० १।२।७], विमर्शाधिष्ठानौ पक्षप्रतिपक्षावनवसितौ प्रकरणम् , तस्य चिन्ता विमर्शात् प्रभृति प्राग निर्णयाद् यत् समीक्षणम् , सा जिज्ञासा यत्कृता स निर्णयार्थ प्रयुक्त उभयपक्षसाम्यात् प्रकरणमनतिवर्तमानः प्रकरणसमो निर्णयाय न प्रकल्पते । प्रज्ञापनं तु-अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेरिति, अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकमनित्यं दृष्टं स्थाल्यादि । यत्र समानो धर्मः संशयकारणं हेतुत्वेनोपादीयते स संशयसमः सव्यभिचार एव । या तु विमर्शस्य विशेषापेक्षिता उभयपक्षविशेषानुपलब्धिश्च सा प्रकरणं प्रवर्तयति, कथम् ? विपर्यये हि प्रकरणनिवृत्तेः, यदि नित्यधर्मः शब्दे गृह्येत न स्यात् प्रकरणम् । सोऽयं हेतुरुभौ पक्षौ प्रवर्तयन्नन्यतरस्य निर्णाय न प्रकल्पते।" इति न्यायभाष्ये ॥ ५ अनेका भा० । अत्र 'अनेका. [न्तात् , ऐका]न्तिको हि हेतुः स्यात्' इत्यपि पाठः स्यात्, दृश्यतां पृ० १६८ पं० ४॥ ६ तासत्कार्य भा० ॥ . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे भयवादसिद्धिः, उभयोरन्यतरस्य वा निषेधे प्रमाणाभावात् । नन्वेवं तथार्थस्थितिसत्यत्वात् सर्ववादनाथानेकान्तवादाश्रयणं कृतम् , तदतत्समर्थविकल्पत्वात् , एकपुरुषपितृपुत्रादिवत् । न च तेन सह कस्यचिद् विरोधः, तस्मादयमाराध्यः शरणं च । यत् तद् भूयते द्रव्येण तस्य सर्वगतत्वं नित्यत्वं चोत्सर्गः, भूताभूतभेदात्मकस्तस्यैवापवादः, तस्य च विधानम् , इत्येष उभयविधिन भवति । २०९-२ भयवादसिद्धिः सत्कार्यासत्कार्यवादयोः सिद्धिः, निवारयितुमशक्यत्वात् । स्यान्मतम् - अन्योन्यनिवारितयोरनयोर्वादयोरसिद्धिरेवेत्यसद्वादाश्रयणं श्रेय इति । एतच्चायुक्तम् , उभयोरन्यतरस्य वा निषेधे प्रमाणाभावात् , ज्ञानाभिधानयोः प्रमाणयोर्द्विरूपार्थविषयत्वादसद्विषययोरप्रामाण्यात् । तस्मादवश्यमुभय रूपार्थस्थितिसत्यत्वम् । 10 ततः किम् ? इति चेत्, उच्यते-नन्वेवं तथार्थस्थितिसत्यत्वात् सर्ववादनाथानेकान्त वादाश्रयणं कृतम् त्वया' इति वाक्यशेषः । अनेकान्तवादो हि वादनायकः सर्ववादविरोधाविरोधयोर्निग्रहानुग्रहसमर्थत्वात् , अरिविजिगीष्वादीनामिवोदासीननृपः । स चेत्थम् - स्यादन्यत् स्यादनन्यत कारणात् कार्यमित्यादि । कुतः ? तदतत्समर्थविकल्पत्वात् , तस्मिंश्चातस्मिंश्च विकल्पे समर्थत्वात् , 'कारणे कार्य सदनन्यत् , असदन्यत्' इति वा पक्षे समर्थो विकल्पोऽस्येति अनन्तरोक्तविकलादेशहेतुद्वय15 समाहारैकरूपोऽयं हेतुः पक्षद्वयसाधनसमर्थः । को दृष्टान्तः ? एकपुरुषपितृपुत्रादिवत् , यथैक एव पुरुषोऽपेक्षाविशेषोपनीतैः पितृपुत्रभ्रातृभागिनेयमातुलादिभिरन्यैरन्योऽनन्यश्च तेन तेन प्रकारेण संश्चासंश्च कारणकार्यनित्यानित्यादिपर्यायार्पणीयश्चेति । अस्य हेतोर्भावना उक्तसाधनद्वयादेवाधिगम्या विकल्पभङ्गकै ाख्यातैव । सदसद्बाद्युभयोपनीतहेतुसामर्थ्यादेवानेकान्तेसिद्धिः । न च तेन सह कस्यचिद् विरोधः, तस्मात् परित्यक्तपक्षरागैरनभिनिविष्टैरात्महितगवेषिभिः कुशलैरन्यथा हितप्राप्त्यसम्भवात् 'आश्रयणीयः' इति 20 परिच्छिद्यायमाराध्यः शरणं , नयसमूहात्मकत्वादनन्यसाधारणोत्साह-प्रभु-मत्रशक्तियुक्तभरतचक्रवर्तिवद् विजिगीषुभिरिति । यद्यसौ सर्वैराराध्यः शरणं च वादानां किमर्थं वादिभिः सह व्युद्यते ? दृष्टश्च विवादः, तस्माद् विवादित्वाच्छेषवादिवदनाराध्योऽशरणं तैवापि च दर्शनात् तेन सहेति । अत्रोच्यते - मम तेन सहाविरोध एव तबापि च, किन्तु वयं त्वत्प्रतिपत्त्यैकान्तर्वस्त्वनुपपत्तेमः, वयं त्वदनुग्रहार्थं त्वदनुशासिन इति न दोषः । इदानी नैगमनय उभयविधिरात्ममतस्वरूपं वक्तुकामः परमतं प्राग्दूषितं प्रत्युच्चारयन्नित्थमुपसंहरति25 यत् तद् भूयत इत्यादि । यत् तद् भवति तेन भवता यद् भूयते द्रव्येण तस्य भवनसामान्य क्षेत्रतः सर्व[गत]त्वं कालतो नित्यत्वं च सर्वात्मकं तस्य उत्सर्जनं विधानं स एव विधिः प्रागुक्तः, पश्चाद् द्वितीयः प्रवृत्त्यात्मकभूताभूतभेदात्मकस्तस्यैवापवादः, तस्य च विधानम् इत्येष उभयविधिस्त्वयेष्ट एव न भवति । १ दृश्यतां पृ० ८३ पं० २॥ २ त्वादरविजि प्र० ॥ ३ रन्योन्यश्च प्र०॥ ४ 'ख्यातैवः प्र० ॥ ५ सिद्धेः य० ॥ ६च ननय प्र० । (च नः नय?)॥ ७व्युत्पद्यते प्र० । अत्र व्युद्यते विवादः क्रियत इत्यर्थः ॥ ८ तथापि प्र.। 'तवापि च तेन सह विरोधदर्शनात्' इत्याशयः ॥ ९वत्वनु प्र०॥ १० सामान्य य० । अत्र सामान्यस्य इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ११ एव नवति भा० । एव भवति य०॥ | Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिनियमविधिस्वरूपप्रदर्शनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् सत्ताद्रव्यत्वादिगगनादिसर्वगतत्वमण्वादिसहितनित्यत्वं चोत्सर्गः । आरब्धद्रव्यगुणानां कर्मणश्चानित्यत्वात् प्रागुक्तेभ्यो द्रव्यगुणकर्मणां परस्परतः स्वजातिप्रभेदेभ्यश्च कारणकार्यतया चान्यत्वमित्यपवादः । तयोर्विधिरेष विधिनियमविधिः। ___कस्तीति चेत् , सत्ताद्रव्यत्वादीति यावद् नित्यत्वं चोत्सर्ग इति । सत्ता महासामान्यम् , द्रव्यत्वं पृथिव्यादिषु सामान्यम् , आदिग्रहणाद् गुणत्वकर्मत्वे च रूपादिगमनादिषु च सामान्यविशेषास्तद्भेदाः ।। गगनादीनि आकाशात्मदिकालद्रव्याणि 'विभक्तसर्वगतानि, द्रव्याणामेषां सर्वव्यापिता सर्वगतत्वमण्यादिसहितनित्यत्वं चेति तेषां द्रव्याणामणूनां च नित्यत्वं कालव्यापिता पार्थिवादिचतुर्विधाणुद्रव्याणां चेति । ३१०.१ आदिग्रहणाद् मनोद्रव्यसहितानामिति विभुत्वपरिमण्डलत्वादिगुणसहितानाम् , ते च गुणास्तानि च द्रव्याणि नित्यानीत्यर्थः । एष उत्सर्गः सामान्यविधिः ।। ____ आरब्धद्रव्येत्यादि यावदपवाद इति । पार्थिवाप्यतैजसवायव्यैश्चतुर्विधैरणुभिः संयोगापेक्षैः 10 समानजातीयैः समानजातीयानि द्वथणुकादीनि तदाद्युत्तरवृद्ध्या महापृथिव्यादिपर्यन्तानि आरब्धानि, द्रव्याणि द्वे बहूनि वा द्रव्यान्तराण्यारभन्ते चतुर्विधान्येव, येषामेवाधिकृतमारम्भसामर्थ्य तैरारब्धे कार्यद्रव्ये तत्समवेता नियमत एव गुणाश्च गुणान्तरमारभन्ते [ ] इति वचनाचित्रादय आरब्धगुणाः, तेषामुभयेषामारब्धद्रव्याणामारब्धगुणानां चानित्यत्वात् प्रागुक्तेभ्यो विशेषः तथा कर्मणश्च सप्रभेदस्य । एवं तावद् नित्यानित्यसर्वगतासर्वगतभेदेनान्यत्वम् , पुनश्च द्रव्यगुणकर्मणां परस्परतः द्रव्येभ्यो गुणानां 15 कर्मणां च गुणेभ्यो द्रव्याणां कर्मणां च कर्मभ्यो द्रव्याणां गुणानां च परस्परत इति स्वजातिप्रभेदेभ्यश्चान्यत्वम् , द्रव्यजातेः परस्परतः पृथिव्या उदकादिभ्यः उदकस्य पृथिवीसहितेभ्योऽन्येभ्यः, एवं ज्वलनपवनगगनदिकालात्ममनसामितरेभ्योऽन्यत्वमिति सत्तासमवायसामान्यविशेषान्त्यविशेषेभ्यश्चान्यत्वं नित्येभ्यो[s] नित्यानां चेत्यपवादः, तथा कारणकार्यतया च, व्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम् [वै० सू० १।१।१७] इत्यादि संयोगविभागाः कर्मणां कार्यम् [वै० सू० १।१।२८] इत्यादि कारणकार्य- 20 नानात्वेन चान्यत्वमित्यपवादः । तयोरुत्सर्गापवादयोर्विधिः सामान्यविशेषयोविधिनियमयोरित्यर्थः । एष विधिनियमविधिः, न प्राक्तनस्त्वत्परिकल्पितः। १°द्रव्यादीति प्र० ॥ २ अत्र विभुत्वात् सर्वगतानि इति पाठः स्यात् ॥ ३ विभुक्तप प्र० ॥ ४ अत्र 'आरब्धानि द्रब्याणि । द्रव्याणि द्वे बहूनि वा' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ५ "द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते [वै० सू० १११८], द्रव्ये च द्रव्याणि चेति विग्रहादेकमनारम्भकम् । समवायिकारणानि द्रव्याणि खात्मव्यतिरिक्त कार्यद्रव्यमारभन्ते, आकाशाद्यन्त्यावयविद्रव्याणि तु द्रव्यं नारभन्ते, तुल्यजातीयानां मूर्तिक्रियारूपादिमतां द्वयोर्बहूनां वा कारणानां कार्यारम्भकत्वात् । न चैवंविधान्याकाशादीनि । मनसोऽस्पर्शवत्त्वाद् द्रव्याकारणत्वमन्त्यावयविद्रव्याणां चादृष्ठत्वात् । गुणाश्च गुणान्तरम् [वै. सू. १।१।९],गुणौ च गुणाश्चेति पूर्ववत, यथा तन्तुरूपादयः खाश्रयसमवेते पटद्रव्ये रूपादिगुणानात्मघ्यतिरिक्तानारभन्ते ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० ७ B॥ ६ दृश्यतां पृ. ३१४-२॥ ७°श्चान्यत् नित्येभ्यो नित्यानां चेत्यपवादः तयोः कारणकार्यतया च प्र० ॥ ८ "वैधान्तरमपि - द्रब्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम् [ वै० सू० १११११७], सामान्यशब्दः समानपर्यायः, क्षित्यादीनि त्रयाणां कारणं समानम् , आकाशादीनां केवलगुणकारणत्वेऽपि एकैकस्यानेकगुणत्वादाकाशादीनि समानं गुणेषु कारणम् , मनोऽन्त्यावयविद्रव्ये गुणकर्मणाम् । तथा गुणः [वै० सू० १११११८], 'संयोगानां द्रव्यम्' [१।१।२५] इति 'अग्निसंयोगादू गुणान्तर प्रादुर्भावात् [७।११५,६] इति 'आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्या हस्ते कर्म[५।१।१] इति वाक्येभ्यः संयोग एव द्रव्यगुणकर्मणां Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे . क्रिया हि प्रागभूतनिर्वृत्त्यर्था अनेकद्रव्यतायां भवति, अदृष्टवशादणुषु कर्म- यदप्युक्तं त्वया यथाभूतसन्निहितवस्तुशक्तिव्यक्तिः क्रिया व्याभेदे सर्वभेदप्रभेदनिर्भेदं बीजं द्रव्यम् इति च तन्न भवति, यस्मात् क्रिया हि प्रागभूतनिर्वृत्त्यर्था, जगत्प्रलयकाले च का वदिष्टव्यापारलक्षणा क्रिया मदिष्टादृष्टचोदिताणुगतकर्मण्यसति ? सा बदृष्टचोदिताणुकर्मजनिता धर्मनिवृत्त्यर्था जगत्सृष्टयर्था च स्यात्, कर्मैव च नः क्रिया, न हि सा निर्वृत्तमेव निर्वर्तयितुं 'क्रीडितमेवास्तु' इति निरर्थकं वा प्रवर्तते । सा चानेकद्रव्यतायां सत्यां भवति, अनेकद्रव्यत्वं चादृष्टचोदिताणुकर्म अन्तरेण न भवितुमर्हति, कस्मात् ? अदृष्टवशादणुषु कर्मसम्भवाद् द्वथणुकांद्यनेकद्रव्योत्पत्तेः तत्समवायाञ्च, ततश्चानेकाणुकृताम्यूद्धज्वलनादिलोकस्थितिकरसर्वकार्योपपत्तेः नैकस्य कस्यचित् खवद् नित्यस्य क्रियास्ति । भेदबीजमात्रद्रव्यशक्तिव्यक्तौ वा न कश्चिदुपकारोऽस्त्यस्य जगतः, किं कारणम् ? यस्मादुक्तम् - अणुमनसोश्चाद्य 10 कर्मेत्यदृष्टकारितम् [वै० सं० ५।२।१४ ] इति । न चेदेतदेवमिष्यते यदा अदृष्टपरिगृहीतेष्वणुषु कर्म न समानं कारणं नान्यो गुणः, तथाहि-तूलपिण्डस्य वेगवता तूलेन संयोगात् कर्म, द्वितूलकद्रव्यम् , तत्र च परिमाणं महदुत्पद्यतेऽन्ये गुणा यथायोगम् । संयोगविभागानां कर्म [वै० सू० १।१।१९], खाश्रयमन्यतो विभज्य आश्रयान्तरेण संयोजयति अतः संयोगविभागानां समानं कारणं कर्म । न द्रव्याणां व्यतिरेकात् [वै० सू० १११।२० ], यदि खलु द्रव्यस्य कारणं कर्म भवेत् तथा सति कृत्वापि संयोगं न निवर्तेत, निवृत्ते तु कर्मणि केवलस्य संयोगस्योपलम्भात् मन्यामहे 'न द्रव्यकारणं कर्म' । गुणवैधान्न कर्मणाम् [ वै० सू० १११।२१], गुरुत्वद्रवत्वनोदनाभिघातसंयुक्तसंयोगाः खाश्रये पराश्रये च कर्मकारणम् , प्रयत्नादृष्टौ तु पराश्रये एव । तत्र तावत् कर्म [न] खाश्रये कर्मकारणम् , निष्क्रियद्रव्यानुपलब्धिप्रसङ्गात् । नापि पराश्रये तत्संयोगेनैव निवर्तितत्वात् । तस्मादेतैः कर्मकारणैर्गुणैः वैधान्न कर्म कर्मकारणम् । अपरं वैधर्म्यम् - द्रव्याणां द्रव्यं कार्य सामान्यम् [ वै० सू० १।१।२२ ], सजातीयानां द्वयोर्बहूनां द्रव्याणां द्रव्यं तन्तूनामिव पटः समानं कार्यम् । द्वित्वप्रभृतयश्च सङ्ख्या: पृथक्त्वं संयोगविभागाश्च [वै० सू० १११।२३], द्वयोर्द्रव्ययोर्द्वित्वं सामान्य कार्यम् , त्रयाणां त्रित्वमित्यादि । तथैव द्विपृथक्त्वादि । द्वयोर्द्रव्ययोः संयुज्यमानयोः संयोगः विभज्यमानयोविभागः । एषाभनेकाश्रितत्वात् समानत्वम् । असमवायात् सामान्यं कर्म कार्य न विद्यते [वै० सू० १११२४ ], अनेकस्मिन् द्रव्ये एकस्य कर्मणः समवायनिषेधाद् न द्रव्याणां द्विबहूनां कर्म समानं कार्यमस्ति । संयोगानां द्रव्यम् [ वै० सू० १११।२५], द्वयोर्बहूनां वा असमवायिकारणानां संयोगानां द्रव्यं समानं कार्यम् , तन्तुसंयोगानामिव पटः । रूपाणां रूपम् [ वै० सू० १११।२६], द्वयोर्बहूनां वा कारणरूपाणां कार्यद्रव्याश्रितं रूपं समानं कार्य यथा घटरूपं कपालरूपाणाम् , एवं रसादीनाम् । गुरुत्वप्रयत्नसंयोगानामुत्क्षेपणम् [वै० सू० १।१।२७ ], आदित्यरश्मीनामगुरुत्वात् पर्वते तथाभूतप्रयत्नाभावात् लोष्टस्य च हस्तनासंयुक्तत्वादनुत्क्षेपणमिति गुरुत्वादीनामुत्क्षेपणं समानं कार्यम् । संयोगविभागाः कर्मणाम् [ वै० सू० १११।२८], उभयकर्मजा ये संयोगा विभागाश्च ते कर्मणां समानं कार्यम् । कारणसामान्ये द्रव्यकर्मणां कर्माकारणमुक्तम् [ वै० सू० १११।२९ ] इति यस्मिन् प्रकरणे द्रव्यादीनां कारणं समानं वर्णितं तस्मिन् कारणसामान्ये द्रव्यकर्मणां यतः कर्माकारणमुक्तमतस्तान्यप्यस्य कार्य सामान्यं न भवन्तीति । एवं नाना द्रव्यगुणकर्माणीति सिद्धम् । प्रथमस्याध्यायस्याद्यमाहि. कम् ।” इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० ८ B--९ B । दृश्यतां पृ० ३८९ पं० १७ टि० ६॥ १ दृश्यतां पृ० ३७८ पं० १ । अत्र 'यथा'शब्दप्रयोगोऽपि साधुरिति प्रतीयते, दृश्यतां पृ० ४१८ पं० ५॥ २ द्रव्यभेदे भा० ॥ ३ ह्यदृष्टा वि. विना ॥ ४ दृश्यतां पृ० ३७८ पं० १॥ ५ धर्मनिवृत्त्यर्था य० । (कर्मनिवृत्त्या ?)॥ ६इति रर्थकं य० । इनिरर्थकं भा० ॥ ७ कादने प्र०॥ ८ खवद् गगनवदित्यर्थः ॥ ९ “यथा नोदनाभिघातसंयुक्तसंयोगादृष्टेभ्यः पृथिव्यां कर्म तथा तेजसो वायोश्च, एतदनियतं कर्म । नियत तु- अग्नेरूद्धज्वलनं वायोश्च तिर्यक्पवनमणुमनसोश्चाद्यं कर्मेत्यदृष्टकारितानि [वै० सू० ५।२।१४], अग्नेरवस्थाने तिर्यग् वा गमने पच्यमानस्याभस्मीभावः स्यादपांवा(दपाकात् ?), तथा वायोरतिर्यग्गमने पूयमानद्रव्याणां पवनाभावः अग्नेश्चाप्रबोधः, विनष्टशरीराणामात्मनां सर्गादौ पृथिव्यादिपरमाणुष्वाद्यं परस्परोपसर्पणकर्म न Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वनयमतनिराकरणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् सम्भवाद् द्वथणुकाद्यनेकद्रव्योत्पत्तेः । न चेदेतदेवमिष्यते तदा चैक्येन तदेकं द्रव्यं निष्क्रियत्वान्न किश्चिदारभेत, ततश्च तदपि न भवेदेव कर्म, द्वयणुकायनेकद्रव्यद्रव्याभूतेः क्रियानिर्विषयतैव स्यात् । आरब्धद्रव्यभूतावपि च तदभावाल्लक्षणा भवति तदा चैक्येन स्तिमितगगनवत् तदेकं द्रव्यं निष्क्रियत्वाद् न किञ्चिदारभेत, ततश्चारम्भाभावात् तदपि न भैवेदेव कर्म, कर्म ह्यारम्भस्वरूपं कल्प्यते, तस्य स्वरूपाभावात् खपुष्पवदभावः, तद्भावाद्। द्वयणुकाद्यनेद्रव्यं द्रव्यं न भवेत्, तदभूतेः क्रियानिर्विषयतैव स्यात्, यद्यनेकद्रव्यविषया न भवति आरम्भाभावादनेकद्रव्यत्वानुपपत्तेरेव अण्वाकाशाद्येकद्रव्यविषयापि न भवत्येव सा त्वदिष्टा अस्मदिष्टकर्मविलक्षणा तेषां नित्यैकस्तिमितगगनवदारम्भाभावात् , अगुणवतो द्रव्यस्य गुणारम्भात् कर्मगुणा अगुणा ३११-१ अक्रियाश्चास्मन्मतेन त्वन्मतेनापि गुणादीनां क्रियात्वात् क्रियायाश्च द्रव्यप्रधानाया निष्क्रियत्वादेवेति क्रियानिर्विषयता सुष्टुच्यते । . : 10 - एवं तावत् क्रिया द्रव्यं नारभत इत्युक्तम् । इदानीं स्वदिष्टं द्रव्यं च भव्ये [पा० ५।३।१०४] .. स्यात्, तथा लब्धभूमीनां योगिनां कल्पान्ते अभिसन्धाय प्रयत्नेन मनः शरीरादू व्यतिरिच्यावतिष्ठमानानां सर्गादौ नवशरीरसम्बन्धाय मनस आद्यं कर्म न भवेत् अदृष्टाहते । तस्मादग्नेरूज्वलनं वायोश्च तिर्यक्पवनमणूनां चोपसर्पणकर्म मनसश्चाद्यं कर्म एतानि प्राणिनामदृष्टेन कृतानि । हस्तकर्मणा मनसः कर्म व्याख्यातम् [वै० सू० ५।२।१५], यथात्मसंयोगप्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म तथात्ममनःसंयोगात् प्रयत्नाच मनसः कर्म, एतत् सदेहस्य कर्म, तत्र जाग्रत इच्छाद्वेषपूर्वकात् प्रयत्नात् प्रबोधकाले तु जीवनपूर्वकात् । यतः संयोगो योगः स च कर्मकार्यः अतो योगाझं कर्म, योगमोक्षौ च कर्माधिकारेऽप्युच्येते-आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात् सुख दुखे तदनारम्भः [वै० सू० ५।२।१६], यतो हेतोरात्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षों ज्ञानकारणत्वेन सुखदुःखे जनयति अतस्तदनारम्भः तस्य सन्निकर्षस्यानारम्भोऽनुत्पत्तिरुच्यत इति । तथाहि-आत्मस्थे मनसि शरीरस्य सुखदुःखाभावः स योगः [वै० सू० ५।२।१७ ], यदा हि आत्मनि मनोऽवस्थितं नेन्द्रियेषु तदा चतुष्टयसन्निकर्षस्यानारम्भात् तत्कार्ययोः सुखदुःखयोरभावरूपो विद्यमानशरीरस्यात्मनो वायुनिग्रहापेक्ष आत्मनो मनसा संयोगो योगः, योगाङ्गं प्राणायामकर्म किं नोक्तम् ? कायकर्मणा आत्मकर्म व्याख्यातम् [वै० सू० ५।२।१८] इह आत्मशब्देन वायुः, यथा आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म तथात्मवायुसंयोगात् प्रयत्नाच प्राणायामकर्म । अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगः कार्या(या T)न्तरसंयोगाश्चेत्यदृष्टकारितानि [वै. सू. ५।२।१९], मरणकाले पूर्वशरीराद् मनसो निःसरणमपसर्पणम्, शरीरान्तरेणाभिसम्बन्धो मनस उपसर्पणम् , शुक्रशोणितात् प्रभृति गर्भस्थस्य मात्रा उपयुक्तेनान्नपानेन नाड्यानुप्रविष्टेन सम्बन्धोऽशितपीतसंयोगः, कललार्बुदमांसपेशीघनशरीरादिभिरेकस्मिन्नेव संसारे ये सम्बन्धास्ते कार्या(या?)न्तरसंयोगाः, ते तान्यपसर्पणादीनि अदृष्टैनैव क्रियन्ते, न प्रयत्नेन । तदभावे संयोगाभावोऽप्रादुर्भावः स मोक्षः [वै० सू० ५।२।२०], एवंरूपस्य अनाद्यपसर्पणादिनिमित्तस्य अदृष्टस्याभावे जीवनाख्यस्य आत्ममनःसंयोगस्याभावोऽन्यस्य च शरीरस्याप्रादुर्भावो यः स मोक्षः। तमोवृत्त(त?) त्वात् सर्वस्य ज्ञानानुत्पत्तौ तमो हेतुः, तत् पुनः द्रव्यगुणकर्मवैधाद भाऽभावमात्रं (भाऽभावः ) तमः[वै० सू० ५।२।२१], विनाशित्वेन नित्यैव्यैर्वैधादमूर्तत्वास्पर्शत्वप्रकाशविरोधैरनित्यद्रव्यैर्वधान द्रव्यं तमः, न च गुणः कर्म वा आश्रयानुपलब्धेः । तस्मात् प्रकाशस्याभावमानं तमः । कुत एतत् ? तेजसो द्रव्यान्तरेणावरणाच्च [वै० सू० ५।२।२२], तेजसः सवितृप्रकाशादेर्बहिःसद्भावात् पर्वतगुहादौ च द्रव्यान्तरेणावृते अभावाद् मन्यामहे-तेजसोऽभावमात्रं तम इति । बाह्य प्रदीपादिनिवर्त्यम् , अविद्यात्मकं तु ज्ञानज्योतिषा, इत्युक्तौ योगमोक्षौ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ. २१ B- २२ B॥ i... १ (नेकद्रव्याभूतेः ?) ॥ २ भवेदेव कर्म ह्यारम्भ भा० ॥ ३ कादने प्र० ॥ ४ कद्रव्यं न भव त भा० ॥ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .... . . . . .. ...." Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे रम्भानारम्भादिभेदाचान्यत्वादेवान्यत्वम् , गुणकर्मणां तदभूतेः द्रव्येभ्यो विशेषः 'भवेत्येव भवति द्रव्यम्' इत्ययुक्तमिति वक्ष्यामः । कथम् ? अभ्युपेत्याप्यारब्धद्रव्यं कारणे कार्यस्यासत्त्वा वर्णितवर्णितोपपत्तिवत् कारणद्रव्येभ्योऽन्यत्वात् कार्यद्रव्याणां न हि तदेव द्रव्यं भवतीति । अथवायमप्यपवादविधिः- आरब्धद्रव्यभूतावपि च पूर्वद्रव्येभ्यः कारणभूतेभ्यः कार्यभूतानामन्यत्वाद् गुणकर्मत्वादिना 5 तस्यैव वाऽभावाद् द्रव्यस्येति । किञ्च, लक्षणारम्भानारम्भभेदाच्चान्यत्वादेवान्यत्वमिति, विशेषप्रकरणे क्रियावत् [वै० सू० १॥१॥१४] इत्यादि द्रव्यलक्षणम् , द्रव्याश्रयी [वै० सू० १।१।१५] इत्यादि गुणलक्षणम् , एकद्रव्यादि कर्मलक्षणम् , इत्थं लक्षणभेदाद् नानैव द्रव्यगुणकर्माणीति । द्रव्येष्वप्यनारम्भकेभ्यो गगनादिभ्यः पृथिव्याद्यारम्भकनानात्वम् , गुणानामपि संयोगविभागरूपादीनामारम्भकाणां विभुत्वाद्यनारम्भकेभ्यो नानात्वम् , कर्मणोऽवयविद्रव्यसंयोगविभागारम्भिणोऽनारम्भकेभ्यो भेदः, तदभावात् । तेषां 10 'विरोधाविरोधकारणकार्यप्रकरणकृतं च नानात्वमादिग्रहणात् । गुणकर्मणां तदभूतेरिति द्रव्यमेव द्रव्यं ३११-२ भवति, न गुणा न कर्माणि, गुणानामगुणाकर्मत्वात् कर्मणश्चागुणाकर्मत्वाद् द्रव्येभ्यो विशेषः । अनार १ तुलना पृ० ३१३-२॥ २ मप्यवाद प्र०॥ ३ वाभावाद प्र०॥ ४षकरणे प्र०॥ ५ “वैधान्तरमपि-क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् [वै० सू० १1१1१४ ], उत्क्षेपणादिकं कर्म क्रिया यथासम्भवं यस्मिन् समवायेन वर्तते तत् क्रियावत् अन्यत्राकाशकालदिगात्मभ्यः । गुणा रूपादयो : वर्तन्ते तद् गुणवत् , अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेति यतः [स] समवायः, स यस्यास्ति तत् समवायि, कारण च तदै(दे)व, समवायिनो वा कार्यस्य कारणम् । तत्र क्षित्यादीनि त्रयाणां द्रव्यगुणकर्मणां समवायिकारणम्, आकाशादीनि गुणानाम् , मनोऽन्त्यावयविद्रव्ये गुणकर्मणाम् । द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् [ वै० सू० १।१।१५ ], द्रव्यमाश्रयतीति द्रव्याश्रयी, अगुणवान् निर्गुणः, संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति सापेक्षकारणम् , तथाहि - अङ्गुल्योराकाशसंयोगो व्यङ्गुलाकाशसंयोगे कर्तव्ये व्यङ्गुलोत्पत्तिमपेक्षते, अङ्गुल्योः परस्परविभागो व्यङ्गुलाकाशविभागं प्रति कार्यविनाशमपेक्षते, एवं संयोगविभागलक्षण एव गुणः संयोगविभागेषु सापेक्षः कारणम् । एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेषु अनपेक्षं कारणमिति कर्मलक्षणम् [वै० सू० १११११६ ], एकमस्य कर्मणो द्रव्यमाश्रयः, न द्वे, एकमेव वा द्रव्ये वर्तत इत्येकद्रव्यम् , नास्य गुणाः सन्तीत्यगुणम् , संयोगविभागेषु कार्येषु स्वस्याश्रयस्य अन्यतो विभज्याश्रयान्तरेण संयोजनादुत्पाद्या(घ)विनाश्यानपेक्षया संयोगविभागेष्वनपेक्षं कारणमिति ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० ८ ॥ ६“वैधान्तरमाह-कार्याविरोधि द्रव्यं काराणाविरोधि च [ वै० सू० १।१।११], विनाशो विरोधः प्रतिबन्धः, क्वचित् द्रव्यादिना कार्येण कारणद्रव्यं समवाय्यसमवायिकारणाभ्यां च न विरुध्यते, तथाहि-अङ्गुलिद्रव्यं कार्य व्यङ्गुलं जनयिष्यत् तदर्थेन कर्मणा तत्कृतेन संयोगेन ततो जातेन व्यङ्गलेन न विरुध्यते नापि समवाय्यसमवायिकारणाभ्यां पर्व-तत्संयोगाभ्यां वा, मनोऽन्त्यावयविद्रव्याणि गुणकर्मभिः कार्यैः आकाशादीनि गुणैः, नित्यत्वादेषां न कारणः(ण ? णैः ? )विरोधः । उभयथा गुणः [ वै० सू० १।१।१२ ], कार्यकारणोभयानुभयैरविरोधी विरोधी च परमाणुझ्यणुकाद्यन्त्यावयविद्रव्येषु रूपादयः कारणैरविरोधिनः यथासम्भवं रूपरसगन्धस्पर्शा अकार्यकारणभूता अविरोधिनः परस्परेण विरोधिन आद्यमध्यान्त्यशब्दाः कार्योभयकारणैः, अदृष्टः कार्येण, स्पर्शवव्यसंयोगेन वेगप्रयत्नौ, संयोगविभागौ सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ परस्परतोऽकार्यकारणभूतौ विरुध्येते, ज्ञानं संस्कारसन्तानप्रतिपक्षैः संस्कारो ज्ञानमददुःखादिभिरिति यथासम्भवमेतद् द्रष्टव्यम् । कार्यविरोधि कर्म [वै० सू० १११११३ ], संयोगविभागसंस्काराणां च्यात् संयोगेनैव कर्म विरुध्यते, न विभागसंस्काराभ्यां संयोगानुत्पत्तिप्रसङ्गात् ।” इति चन्द्रानन्दविरचितार्या वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ. ७ B-८॥ ७ दृश्यतां पृ० ४३७ टि० ८॥ ८ अन्यारभ्य प्र.॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ पूर्वनयमतनिराकरणम् ] द्वादशारं नयवक्रम् अनारभ्यत्वाच शब्दस्येतरेभ्यो विशेषः सामान्यादीनां च । ततस्त्वदुक्तद्रव्यखरूपलक्षणभवनानुपपत्तिरित्युभयस्याप्यभावः। द्रव्यादिषड्भेदस्य सप्रभेदस्यैव भावः। यंदुच्यते यदयं भवति स्वयमेव यदनेन भूयते स एवास्य भाव इति नैष भावः । अन्येनान्येन भूयते सोऽन्य एवास्य भावः येन च भूयते सोऽपि चास्य भावः। भावेऽप्युभयता उभयोत्सर्गात्, द्विविधो हि भावः-खभावः संबन्धश्च ।। भ्यत्वाचाकाशगुणस्य शब्दस्येतरेभ्यो विशेषः सामान्यादीनां चेति सामान्यस्य सामान्यविशेषाणामन्त्यविशेषाणां चेतरेभ्योऽनारभ्यत्वात् , समवायस्य चाश्रयित्वे सत्यपि परस्परतश्च स्वाश्रयस्य स्वानुरूपप्रत्ययाधानहेतुत्वादित्येवमादिविशेषहेतुसद्भावात् सर्वमन्यदेव । ___ ततः किम् ? ततस्त्वदुक्तद्रव्यस्वरूपलक्षणभवनानुपपत्तिः, सर्वप्रभेदनिर्भेदं बीजं द्रव्यम्, 'तस्यैव द्रव्यस्य तथाभूतसन्निहितशक्तिव्यक्ति वः' इत्येवंस्वरूपलक्षणस्य भवनस्यानुपपत्तिः, द्रव्यभवन-10 भिन्नभवनात्मकत्वाद् गुणादीनां द्रव्यान्तराणां सत्तासमावायाद्याश्रिति॑पदार्थानां [च] । इतिशब्दो हेत्वर्थे, तस्मात् कारणादुभयस्यापि सामान्यस्य द्रव्यभवनस्यैकरूपस्योत्सर्गस्य क्रियाभवनस्य चापवादस्य भूताभूतादिभेदस्याभावः । कथं तर्हि तयोर्भाव इति चेत्, उच्यते- द्रव्यादिषड्नेदस्य सप्रभेदस्यैव पृथक्पृथक्स्वरूपस्यैव विशेषधर्मकस्य भावः। यदपि च तत् स्वसन्मानं स्वरूपसत्त्वं तदपि नात्मनैव, यदुच्यते--यदयं भवति स्वयमेवार्था-15 न्तरनिरपेक्षं स्वतत्रम् , विभक्त्यन्तरेण तदेव व्यक्तीकरोति - यदनेन भूयते इति, स्वभावसम्बन्ध इत्यर्थः, अयं त्वयेष्ठः स एवास्य भाव इति, नैष पुनर्भावो भवति । कस्तर्हि ? अन्येनान्येन भूयतेऽन्यापेक्षेण चें तथा तद्भिन्नेन सोऽन्य एवास्य भावो भावः । कोऽसौ ? सत्ता महासामान्यम् । येन च भूयते सोऽपि चास्य भावः, सद्वथपदेशार्हस्य द्रव्यादेः सतोऽपि भावः, न केवलं सत्तैव, यत्सम्बन्धाद् भवति' इति भवति सापि सत्ता भावः संच द्रव्यादि भवतीत्यर्थः । भावेऽप्युभयता उभयोत्सर्गात् , सत्तायामपि उभयता सामान्यविशेषता, सोत्सृज्यते नियम्यते ३११ च, सोऽपि ह्युत्सृज्यते च भावः 'सर्वगतः' इति, नियम्यते 'स्वगत एव' इति । सत्तान्तरसम्बन्धनिरपेक्षसद्भावे[5]सति मा भूत् सम्बन्धानवस्था, द्विविधो हि भाव इति सर्वस्य वस्तुन उत्सर्गापवादौ पृथक् १ दृश्यतां पृ० ३८३ पं० १॥ २ “स च द्रव्यादिभ्यः पदार्थान्तरं भाववलक्षणभेदात् , यथा भावस्य द्रव्यत्वादीनां खाधारेषु आत्मानुरूपप्रत्ययकर्तृत्वात् स्वाश्रयादिभ्यः परस्परतश्चार्थान्तरभावः तथा समवायस्यापि पञ्चसु पदार्थेषु 'इह' इति प्रत्ययदर्शनात् तेभ्यः पदार्थान्तरत्वमिति ।" इति प्रशस्तपादभाध्ये समवायनिरूपणे ॥ ३ दृश्यतां पृ० ३७८ पं० १॥ ४ "आश्रितत्वं चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः [ प्रशस्तपा० भा० ], आश्रितत्वं च परतन्त्रतयोपलब्धिः, न समवायलक्षणा वृत्तिः समवाये तदभावात् । इदं चाश्रितत्वं चतुर्विधेषु परमाणुषु आकाशकालदिगात्ममनःसु नास्तीत्यत आह - अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति ।" इति प्रशस्तपादभाष्यव्याख्यायां कन्दल्यां साधर्म्यवैधर्म्यप्रकरणे ॥ ५ स्यैवाविशेषधर्मकस्याभावःप्र० । अत्र "स्यैवाविशेषधर्मकस्य भावः' इत्यपि पाठश्चिन्त्यः । “षण्णामपि पदार्थानामस्तित्वाभिधेयत्वज्ञेयत्वम् ।" इति प्रशस्तपादभाष्ये ॥ ६व तथा प्र० । अत्र '२ च तथा' इत्यपि पाठः स्यात् , तथा च 'अन्यापेक्षेण अन्यापेक्षेण च तथा' इत्यपि पाठश्चिन्त्यः ॥ ७ सोपि वि० १०॥ ८ स च द्रव्यादि भा० । (स च द्रव्यादिः ?)॥ ९द्युत्सू य० । व्यत्सृभा० ॥ नय०५६ 20 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे खभावः खरूपसत्ता, सम्बन्धः सम्बन्धसत्ता यत्सम्बन्धाद् द्रव्यगुणकर्मसु सदिति भवति। न तु भवत्येव भावः सन् , द्रव्यगुणकर्मवत् सत्तास्वतत्त्वासमवायात् । दण्डवत्तु अर्थान्तरापेक्षत्वाद् द्रव्यगुणकर्मणां सत्तादिसम्बन्धानुरूपप्रत्ययहेतुत्वं सामान्यादीनाम् , न त्वगृहीते विशेषणे विशेष्ये बुद्धिरनुप्रवर्तते। पृथग्विभिन्नरूपौ दर्शयति । तद्वयाख्या - स्वभावः सम्बन्धश्चेत्यादि गतार्थं यावद् द्रव्यगुणकर्मसु 'सत्' इति भवति, स्वरूपसत्ता नार्थान्तरमपेक्षते सम्बन्धसत्ता त्वपेक्षत इत्यर्थः । न तु भवत्येवेत्यादि । न तु भावः सत्ता सैन् , द्रव्यगुणकर्मवत् सन्न भवति सद्भावसामान्येऽपि भावानां प्रतिस्वं स्वभावभेदात् , द्रव्यगुणकर्मसद्वेधात् सन्न भवति न द्रव्यं भवति न घटादिर्भवति, 10 द्रव्यत्वर्घटत्वादिसम्बद्धद्रव्यादिघटादिवद् ने स द्रव्यादि भवतीत्यर्थः । किं कारणम् ? सत्तास्वतत्त्वासमवायात्, सत्तासमवायो द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्व-घटत्वादिस्वतत्त्वसमवायो वा सत्ताया यतो नास्ति, ते हि द्रव्यादयः सत्तास्वतत्त्वसमवायात् सद्व्यघटादिव्यपदेशार्दा भवन्तीति । एषोऽपि विशेषः किमर्थं सत्तास्वतत्त्वसमवायाद् द्रव्यादि सद् भवति न पुनद्रव्यादिसमवायात् सत्तादिस्वतत्त्वानि ,व्यादीनि भवन्ति इति चेत् , उच्यते - स्वरूपसंत्तया सतामपि सामान्य-सामान्यविशेष-विशेष-समवायानामसत्त्वात 15 स्वसद्भावादेव सतां सम्बन्धसद्भावशून्यानां सत्तादीनामितरेभ्यो *विशेषः, स तु सम्बद्धद्रव्यादीनामस्तीति* दर्शयति -- दण्डवत् त्वर्थान्तरेत्यादि गतार्थं यावद् विशेष्ये बुद्धिरनुप्रवर्तते इति । 'विशेषणस्वरूपप्रत्ययनिमित्तत्वाद् विशेषणानां सत्तादिसम्बन्धानुरूपप्रत्ययहेतुत्वं सामान्यादीनां स्वाश्रयेषु दण्डनिमित्तदण्डिप्रत्ययवत् द्रव्यगुणकर्मणां न त्वगृहीते विशेषणे, रश्वैत्यादिविशेषप्रत्ययस्य ३१२-२ १'दण्डवत्तु अर्थान्तरसम्बन्धानुरूपप्रत्ययनिमित्तत्वाद् विशेषणानां सत्तादिसम्बन्धानुरूपप्रत्ययहेतुत्वं सामान्यादीनाम्, न त्वगृहीते विशेषणे विशेष्ये बुद्धिरनुप्रवर्तते' इत्यपि मूलपाठः सम्भवेत् ॥२ स्वभावसम्बन्धश्चेत्यादि भा० । स्वभावसम्बन्धन्येत्यादि य० ॥ ३ सद्रव्यगुणकर्मवत् य० ॥४°घटादिसंबंधद्रव्यादि प्र० ॥ ५ अत्र न सद्व्यादि इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ६द्रव्यादीनि न भवन्ति प्र० । अत्र 'न' अधिकः ॥ ७ सत्ताया प्र०॥ ८*विशेषस्तत्तु संबंधद्रव्यादीनामस्तीति* प्र० । अत्र विशेषः, स तु सम्बन्धो द्रव्यादीनामस्तीति इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ९ विशेषेण प्र० ॥ १० सामादीनां प्र० ॥ ११ खैत्यादि प्र० । “बुद्धिरिदानीं निरूप्यते-द्रव्येषु ज्ञानं व्याख्यातम् [वै० सू० ८१], षण्णां पदार्थानां मध्याद् द्रव्येष्वेव ज्ञानं व्याख्यातम् , यथोत्पद्यते सन्निकर्षात न तथा गुणादिषु । तस्य मन आत्मा च [वै० सू० ८१२ ] मन आत्मा च ज्ञानस्य कारणं व्याख्यातम् । इदानीं गुणादिषु ज्ञानमाह -ज्ञाननिर्देशे ज्ञाननिष्पत्तिरुक्ता [वै० सू० ८।३ ], यत इन्द्रियसनिकर्षेण ज्ञाननिष्पत्तिरुक्ता गुणादीनाम् । यतः गुणकर्मसु असन्निकृष्टेषु शाननिष्पत्तेर्द्रव्यं कारणं कारणकारणं च [वै० सू० ८।४ ], गुणकर्मणां यतो द्रव्यं समवायिकारणं ततस्तेषु साक्षादिन्द्रियेण असन्निकृष्टेषु विज्ञाननिष्पत्तेः कारणस्य सन्निकर्षस्य तदेव द्रव्यं कारणं न गुणकर्माणि, तस्माद् गुणकर्मसु संयुक्तसमवायं ज्ञानम् , 'च'शब्दो हेतौ । सामान्यविशेषेषु सामान्यविशेषाभावात् तत एव ज्ञानम् [वै० सू० ८५], सामान्ये सत्तादौ विशेषेषु चान्त्येषु तद्दर्शिनां द्रव्यसन्निकर्षादेव ज्ञानमुत्पद्यते, न सामान्यविशेषेभ्यः तेषु तदभावात् । अन्यत्र तु सामान्यविशेषापेक्षं द्रव्यगुणकर्मसु [ वै० सू० ८।६], द्रव्यगुणकर्मसु द्रव्येन्द्रिय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयविधिमतस्वरूपनिरूपणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४४३ एवमेव भयस्यैवाभयप्राधान्यस्यापि विधिः, न तु द्रव्यक्रिययोः उभयप्राधान्याभावात् तथाभूतार्थविषयत्वात् सन्निधानस्य व्यक्तेरपि तद्भवनतन्त्रत्वात् । गगनादिष्वैतत्सम्बन्धिष्वभाववदिति । एवमेव ह्युभयस्यैवोभयप्राधान्यस्यापि विधिर्यथास्माभिरुक्तः तथैव सामान्यस्य विशेषस्य च विधिः सम्भवति, अत्यन्तविशेषरूपत्वात् पदार्थषट्कभेदानाम्, तथा सामान्यविशेषद्वयविधिरपि भवितुमर्हति न तु पूर्वनॅयेष्टो द्रव्यक्रिययोः, उभयप्राधान्याभावादस्वा-5 ये कर्तृत्वाभावादिति । अस्माभिस्त्वदनुकम्पया अभ्युपगतेऽपि कॅर्तृत्वे स्वतत्रभवनात्मके द्रव्यस्यैव प्राधान्यमिति तद्विधानात् क्रियायाः प्राधान्याविधानात् 'भवेद् द्रव्यं कर्तृ स्वातंत्र्यात् न क्रिया प्राधान्याभावात्' इत्येवं युक्त्या प्राप्तेऽपि त्वदनुकम्पया तयोः कर्तृत्वे वाभ्युपगतेऽपि न भवितुमर्हति उभयप्राधान्याभावादित्यर्थः । किं कारणमुभयप्राधान्यं नास्ति इति चेत्, उच्यते - तथाभूतार्थविषयत्वात् सन्निधानस्य, द्रव्यं हि सन्निहितभवनमिष्यते तथातथाभवद्भावाभिर्मुखसन्निहितघटादिभवनगेहवत्, 10 गेहसन्निहितघटवत् सर्वथा तेषां क्रियाव्ययाभिमतानां द्रव्ये सन्निधानाभ्युपगमात् प्रदीपेनेव गेहे सन्निहितानां घटादीनां क्रियया न किञ्चित् प्रयोजनम्, सम्भाव्यमानमपि प्रयोजनमभिव्यक्तिमात्रं स्यात्, तस्या व्यक्तेरपि तद्भवनतन्त्रस्वात् द्रव्यभवनस्यैव प्रधानस्योपकारमात्रार्थत्वाद् व्यक्तेरप्राधान्यमिति । सन्निकर्षात् सामान्याच्च सादेः( सत्तादेः ? ) सामान्यविशेषाच्च द्रव्यत्वादेः सदिति द्रव्यमित्यादि च ज्ञानमुत्पद्यत इति । इह सूत्रे सामान्यं सत्ता, विशेषा द्रव्यत्वादयः, पूर्वसूत्रेऽन्यथा । तत्रापि द्रव्ये द्रव्यगुणकर्मापेक्षम् [वै० सू० ८1७ ], चक्षुःसन्निकर्षाद् यज्ज्ञानं द्रव्ये सामान्यविशेषापेक्षं 'विषाणी' इति, गुणापेक्षं 'शुक्लः' इति, कर्मापेक्षं 'गच्छति' इत्युत्पद्यत इति । द्रव्यादीनां च विशेषणत्वात् पूर्वमुपलम्भः, तेन विशेषणबुद्धेः कारणत्वं विशेष्यबुद्धेः कार्यत्वम् । गुणकर्मसु गुणकर्माभावाद् गुणकर्मापेक्षं न विद्यते [ वै० सू० ८८ ], गुणे गुणकर्मणोरभावात् कर्मणि च गुणकर्मनिमित्तं गुणकर्मसु ज्ञानं न भवतीति । द्रव्यादौ ज्ञानस्य पूर्वोत्पत्तावनियमः, यथा समवायिनः श्वत्याच्छ्रुत्यबुद्धेः श्वेते बुद्धिस्ते कार्यकारणभूते [ वै० सू० cis ], श्वेतगुणसमवायिनः श्वेत (चैत्य ) सामान्यात् श्वैत्यसामान्यज्ञानाच श्वेतगुणज्ञानं जायते, सामान्यगुणसम्बन्धोऽपि द्रष्टव्यः, अतो विशेषणबुद्धिः कारणं विशेष्यबुद्धिः कार्यम् । विशेषणविशेष्य [ताs]भावे तु द्रव्येष्वनितरेतर कारणात्कारणायोगपद्यात् [ वै० सू० ८/१० ], अणुत्वाद् मनसो यौगपद्याभावात् सत्यपि क्रमे घटपटज्ञानयोर्न कार्यकारणभावः विशेषणविशेव्यत्वायोगात् । तथा द्रव्यगुणकर्मसु कारणाविशेषात् [ वै० सू० ८1११], गौः शुक्ला गच्छतीति च द्रव्यगुणकर्मसु ज्ञानानां क्रमेणापि जायमानानां न कार्यकारणभावः विशेषणविशेष्यताऽभावादित्यस्य पूर्वोक्तस्य कारणस्याविशेषात् । त द्रव्यज्ञानं न गुणकर्मबुद्धयोः कारणम्, गुणकर्मबुद्धी अपि न परस्य कारणम् । विशेषणन्यायाभावे तु अयमेष कृतं त्वया भोजनमिति बुद्धयपेक्षम् [ वै० सू० ८।१२ ], 'अयम्' इति सन्निकृष्ठे 'एषः' इति च किञ्चिद्विप्रकृष्ठे प्रत्ययः, 'कृतं त्वया' इति कर्मकर्तृ प्रत्ययो (य), 'भोजयैनम्' इति कर्तृकर्मप्रत्ययौ । सन्निकृष्टापेक्षो विप्रकृष्ठे प्रत्ययः, 'कृतम्' इति कर्मापेक्षः कर्तरि, ‘भोजय' इति कर्त्रपेक्ष(क्षः) कर्मणि । कुतः सापेक्षा इति चेत्, दृष्टेषु भावाददृष्टेष्वभावात् [ वै० सू०८।१३ ], दृष्टेषु सत्सु यतः सन्निकृष्टादिषु विप्रकृष्टादिप्रत्यया भवन्ति नादृष्टेषु अतः सापेक्षा अपि सन्तो न कार्यकारणभूता विशेषणविशेष्यस्वायोगात् । " इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० २९ ॥ १ स्वत प्र० ॥ २ एवमेव भा० । एवमेवाधुभ य० ॥ ३ विधेर्यथा' प्र० ॥ ४ नये भा० ॥ ५ “स्वतन्त्रः कर्ता” इति पाणिनीयध्याकरणे, १|४|५४ ॥ ६ द्रव्यस्यैव च प्राधान्यमिति द्विधानात् य० ॥ ७ पूर्वनयेष्टो द्रव्यक्रिययोर्विधिर्न भवितुमईतीत्यर्थो भाति । दृश्यतां पं० ५ ॥ ८ ( °मुखं सन्नि° ? ? ? ) ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे - अयं तूभयप्रधानविधिः-आरब्धानारब्धद्रव्याणां स्वभावभेदाद् विशेषः, भावसत्त्वस्य अत्यन्तव्यञ्जनवातच्यादन्यथाभूतेः । पृथिव्युदकतेजोवाय्वाकाश ३१३ अयं तूभयप्रधानविधिरिति निगमनम् । तुशब्दो विशेषणार्थः, एवं ह्यसौ विशिष्टार्थाधिकारापरित्यागेनैव सामान्यविशेषयोविधिरिति । कीदृश इति चेत् , तन्निदर्शयति - आरब्धानारब्धेत्यादि सप्र भेदषट्पदार्थपरस्परान्यत्वप्रदर्शनार्थो ग्रन्थो यावत् कर्मणि तु स्वभावसम्बन्धसद्भावाभ्यामिति प्रायो 'गतार्थः, तथापि किञ्चिदुच्यते - पार्थिवादिपरमाणुद्वयणुकाद्यारब्धानामपि स्वभावभेदाद् देशकालाभेदेऽपि नानात्वम् , परमाण्याकाशादीनामनारब्धानां च तत एव, भावसम्बन्धाभिव्यङ्ग्याभेदेऽपि सति आरभ्याणां च कादाचित्कत्वादितरेषां नित्यत्वाद् विशेषः । भावसत्त्वस्य सत्तासत्त्वस्य स्वभावसद्भावेऽपि विशेषः, कस्मात् ? अत्यन्तव्यञ्जनस्वातन्त्र्यात् , इतरे व्यज्यन्ते स तु व्यनक्त्येवेति । अन्यथाभूतेः, एवमन्येन 10 प्रकारेण भवनात् 'सर्वत्र सन्निहितमेव भवति' इत्यभावात् अन्यथाभूतेरिति । यद्येवं भावव्यञ्जनास्वातव्ये सत्येव न स्यात् , नैव स्यात् सत्ता सम्बन्धरहितत्वात् खपुष्पवत् , भावो हि सद्भावसद्वयञ्जनस्वातव्याभावात खपुष्पवद् न स्यादिति । पृथिव्युदकेत्यादि । एतान्यपि द्रव्याणि इतरेतराभावात्मना न सन्ति, असतामेव १°कारार्थपरि° भा० ॥ २ वातनये व न स्यात् य० ॥ ३ 'सती एव' इत्यर्थो भाति ॥ ४"अथातो धर्म व्याख्यास्यामः [ वै० सू० १११११], कस्यचिद् ब्राह्मणस्य वेदाभ्यासवशेन व्यपगतकल्मषस्येदं वेदवाक्यं प्रतिबभौ 'अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' [छान्दोग्योप० ८२] इति। तत इदं वाक्यमालोच्य कणभक्षमाजगाम । ततोऽभ्युवाच -भगवन् । अनेन वाक्येन अपहतशरीरस्य क्षेमसाधनता कथ्यते, तदुच्यताम्-क उपाय इति । ततो मुनिरभ्युवाचधर्म इति । ततो जगाद ब्राह्मणः-को धर्मः कथंलक्षणः कान्यस्य साधनानि कि प्रयोजनं कांश्च प्रत्युपकरोतीति । अत एभ्यः प्रश्नेभ्योऽनन्तरं धर्मव्याख्यानप्रतिज्ञायाम् 'अथ शब्द आनन्तर्यमभिधत्ते, 'अतः'शब्दोऽपि वैराग्यप्रज्ञाकथापरिपाकादिकां शिष्यगुणसम्पदं हेतुत्वेनोपदिशति, यस्मादयं शिष्यो गुणसम्पदा युक्तस्ततोऽस्मै प्रश्नेभ्योऽनन्तरं धर्म व्याख्यास्यामः । को धर्म इत्याहयतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः [वै० सू० १११२], यागदेवतापूजादिक्रियाणामाज्यपुष्पादिनिर्वानां तदैव विनष्टत्वादुत्तरकालं फलदानाशक्तर्यस्माद्धेतोरभ्युदयनिःश्रेयसे भवतः स धर्म इति बोद्धव्यः । अभ्युदयो ब्रह्मादिलोकेष्विष्टशरीरप्राप्तिरनर्थोपरमश्च । निःश्रेयसमध्यात्मनो वैशेषिकगुणाभावरूपो मोक्षः । कुत एवंलक्षणो धर्मो ज्ञायत इति चेत्, आम्नायात् तस्य प्रामाण्यम् । कथमित्याह -तद्वचनादानायप्रामाण्यम् [वै. सू. १११।३], तदिति हिरण्यगर्भपरामर्शः, हिरण्यं रेतोऽस्येति कृत्वा भगवान् महेश्वर एवोच्यते । आप्तेन उक्तत्वस्य सत्यताव्याप्तत्वादिहाप्तेन हिरण्यगर्भेणोक्तत्वादाम्रायस्य प्रामाण्यं साध्यते । ईश्वरश्च साधितस्तनुभुवनादीनां कार्यतया घटादिवद् बुद्धिमत्कर्तृकत्वानुमानेन । उक्तं धर्मखरूपं तल्लक्षणं च । साधनान्यस्येदानीं द्रव्याणि वक्ष्यामः, तत्र पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि [वै० सू० १।१।४], द्रव्यत्वाभिसम्बन्धाद् द्रव्याणि, नाधिकानीत्येवमर्थः 'इति'शब्दः । एवमुद्दिष्टानि द्रव्याणि । के पुनर्गुणा इत्याह-रूपरसगन्धस्पर्शाः सजाया (सङ्ख्याः ।) परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषी प्रयत्नश्च गुणाः [वै. सू. १।१।५], एते सप्तदश कण्ठोक्ता रूपादयो गुणाः चशब्दसमुचिताश्च गुरुत्वद्वत्वस्नेहसंस्कारधर्माधर्मशब्दा गृह्यन्ते, एते यथावसरमुत्तरत्र वक्ष्यन्ते।कानि पुनः कर्माणीत्याह-उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि [ वै० सू० १।१।६], एतान्येव पञ्च कर्माणि द्रष्टव्यानि, 'गमन ग्रहणाद् भ्रमणरेचनादीनां प्रहणम्, एवमुद्दिष्टानि द्रव्यगुणकमोणि । तदनुषङ्गात् सामान्य-विशेष-समवाया अपि वक्ष्यन्ते । एवं षण्णा पदार्थानां साधयेवैधर्म्यपरिज्ञान विषयदोषदर्शनद्वारेण वैराग्योत्पत्तौ सत्यां निःश्रेयसे साध्ये धर्महेतुः । अभ्युदये साध्ये धर्महेतुत्वं पुनरमीर्षा 'समे यजेत' इति पृथिव्याः, अपोंबूनि( अपः 'अम्बूनि? अपाम् 'अम्बूनि?) नयति' इत्यादि यथाखमन्येषां द्रव्याणाम् । गुणानां तु 'कृष्णमालभेत' इत्यादि । कर्मणां तु 'नीहीन अवहन्ति' इत्यादि।” इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्ती P.पू. ७ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयविधिमतनिरूपणम् द्वादशारं नयचक्रम् कालदिगात्ममनोद्रव्याणामितरेतरासतामेव भावादिसम्बन्धात् तथा तथान्यता, अन्यत्वे एव असति सत्त्वम् । गुणकर्मणोरप्येवमेव । न चास्यान्यस्मात् सदभिधानप्रत्ययौ खपरप्रकाशहेतुत्वात् प्रदीपवत्, खसद्भावेन सत एवासत्त्वं सम्बन्धसद्भावाभावात्, अगुणगुणवत् । एवं सामान्य सामान्यमेव । कार्यद्रव्यादीनां खभावसद्भावो. न भवतीति भवत्येव । किश्चित् तु भवत्येव भवति परमाण्वाकाशकालदिगात्ममनो-। सत्तासम्बन्धात् सत्त्वं भवति देव्यत्वसम्बन्धाद् द्रव्यत्वं भवति । ततश्च सत्तातो द्रव्यत्वाच्चान्योन्यतश्च तेन तेन प्रकारेणान्यता, अन्यत्व एवेतरेतरासतां भावादिसम्बन्धा[द]न्यत्व एव असति सत्त्वमन्य[त्व] एवेति । गुणकर्मणोरप्येवमेवेति, भाव-गुणत्व-कर्मत्वादिभिः सम्बन्धादितरेतरासतामेव सगुणकर्मत्वानि । एवं भावोऽसतां सम्बन्धात् सत्त्वं जनयति द्रव्यादीनामित्युक्तम् , तथा किं भावस्य सम्बन्धोऽन्येन .. जन्यते ? नेत्यत्रोच्यते - न चास्येत्यादि । स हि स्वयं सम्बन्धादन्येषां सदभिधानप्रत्ययहेतुर्नान्यस्मात् सदभि-10 धानप्रत्ययौ लभते, स्वपरप्रकाशहेतुत्वात् , प्रदीपवत् , न हि प्रदीपो घटादिप्रकाशनसमर्थः स्वप्रकाशने ३१३-२ घटादीनपेक्षते तथा सत्तापि । तस्मात् तस्य स्वभावसद्भावेन संत एवासत्त्वं सम्बन्धसद्भावाभावात् , नेतरेतरासत्त्वात् , यथा 'गुणोऽगुणः' इति नास्य गुणोऽस्तीत्यगुण उच्यते गुणः, न तु गुणो न भवतीति । कस्मात् ? गुणान्तरसम्बन्धाभावात् , न स्वयमगुणत्वादिति । एवं सामान्य सामान्यमेवेति गतार्थम् , एवं तावत् स्वत एव भावः संत्तान्तरानपेक्षः सन् । योऽप्यसौ स्वभावसद्भावः कार्यद्रव्यादीनां परतो भाव-15 सम्बन्धादधेियस्तस्मादेवासन्निति न, किं तर्हि ? तन्न भवतीति भवत्येव, अभूत्वा भावात् भूत्वा चाभावात् कार्यस्य स्वसद्भावेनैवासत् सद् भवति सदप्यसद् भवतीति तस्य स्वसद्भावस्य कार्यस्य सदसद्भावद्वैरूप्यं तदेतत्समर्थविकल्पत्वात् , एकपुरुषपितृपुत्रत्वादिवदिति भावितमेवं । तस्मात् सर्वमन्यथान्यथैव सामान्य विशेषात्मकं भवति । किञ्चित् त्वित्यादि । इदं पुनर्भवत्येव भवति स्वसद्भावादेव नाभूत्वा न सत्तासम्बन्धात् परमाण्वाकाशकालदिगात्ममनोद्रव्यादि, 'आदि'ग्रहणात् सँमवाय-20 १ द्रव्यसत्वसम्ब य०॥ २°न्यतान्यता भा० ॥ ३ संबंधान्यत्व एवा भा० । 'संबंधान्यत्य एवाय० ॥ ४ मन्य एबेति भा० । 'मन्यवत्य एवेति डे० । मन्यवन्य पवेति पा० । मन्यदन्य एवेति रं. ही० । मन्यवय एवेति वि०॥ ५ दृश्यतां पृ० ४४४ टि. ४ ॥ ६ सगुणकर्मत्वाम्यत्वानि य० । 'सत्त्वं गुणत्वं कर्मत्वं परस्परतोऽन्यत्वं च' इत्यर्थ विवक्षायां य०प्रतिपाठोऽपि साधुरेव ॥ ७सत्येवासवं प्र० ॥८"आनुषङ्गिकाः सामान्यादयस्त्रयः पदार्थाः, तत्र सामान्यं कथयति - सामान्यं विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम् [ वै० सू० १।२।३]; भिन्नेषु पिण्डेष्वनुवर्तमानां 'गौौः' इति बुद्धिमपेक्ष्य एभ्य एव च परस्परतो व्यावर्तमानाम् 'अयमस्मादन्यः' इति तदनुवृत्ति बुद्ध्यपेक्षं सामान्य व्यावृत्तिबुद्ध्यपेक्षो विशेष इति । भावः सामान्यमेव [ वै० सू० १।२।४ ], सत्ता सामान्यमेव, विष्वपि द्रव्यादिष्वनुवर्तमानत्वात् न विशेषः ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ. ९॥ ९ सतान्त भा०। सवान्त य०॥ १० दावेय प्र०॥ ११च। भावात पा० भा० । चभावात् पा० भा० विना ॥ १२ दृश्यता पृ. ४३६ पं० २॥ १३ न्यावशे' प्र०॥ १४“इहोते यतः कार्यकारणयोः स समवायः [वै० सू० १२।२९], गुणादयः समवायिनो द्रव्ये अतः समवायं कथयति-इहेति यतः कार्यकारणयोः प्रत्यय उत्पद्यते 'इह तन्तुषु पटः, इह घटे रूपादयः, इह घटे कर्म' इति [स] समवायः। कार्यकारणग्रहणस्योपलक्षणत्वात् 'जातेय॑क्तौ विशेषाणां चं नित्यव्येषु समवायः' इत्युक्तं भवति ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ. २८॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ षष्ठे विधिनियमविध्यरे द्रव्यादि । विशेषेऽप्युभयता सामान्यविशेषान्त्यविशेषाभ्याम् । कर्मणि तु स्वभावसम्बन्धसद्भावाभ्याम् । अयं च नैगमैकदेशत्वाद् द्रव्यास्तिकः । द्रव्यमपि द्रव्यत्वसम्बन्धात् । जातिः विभुपरिमण्डलपरिमाणगुणादि । सर्वत्र चेतरेतरासत्त्वान्यथात्वमिति विशेषः, स्वभावसत्त्वं सामान्यम् । 5 विशेषेऽप्युभयतेति सामान्यविशेषा द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादयः, अन्त्यविशेषा योगिनामेकाकाशदेशस्थाण्वन्यत्वकराः । कर्मणि तु स्वभावसद्भावेन कर्मत्वसम्बन्धसद्भावेन चेतरेभ्यो भेदाभेदौ । एवं ३१४-१ द्रव्यगुणयोर्द्रव्यत्वगुणत्वसम्बन्धसद्भावात् स्वभावसद्भावाच्चेत्येवमादिसाधर्म्यवैधर्म्याभ्यां षट्सु पदार्थेषु विशेषा एव वैशेषिकं विशेष प्रयोजनं वा वैशेषिकमिति विधिनियमयोर्विधिरुपपद्यते, न तु त्वदिष्टैकवस्तुविधिनियमविधिरिति । अत्राह – किमयं द्रव्यास्तिकभेदः पर्यायास्तिकभेदः ? इति उच्यते - नैगमैकदेशत्वाद् द्रव्यास्तिकः, द्रव्यमस्तीत्यस्य मतिः, न पूर्ववद् द्रव्यमेवास्ति, नाप्युत्तरवत् सदसद् नास्त्येव वा द्रव्यमिति । नैगमँशब्दो 'निरुक्तार्थभेदः, तेषु द्रव्यमपीत्यादि द्रव्यत्वसामान्यविशेषविशेषणसम्बन्धाद् द्रव्यम्, न व्यद्रवणगुणसन्द्रावसमुदायाद्यात्मकम् । जातिः शब्दार्थ इति । सर्वशब्दानां जातिवाचित्वमेव, आकाशादीनामपि 'जातिवज्जातिः' इति 10 १ " किन्तु नित्यं परिमण्डलम् [वै० सू० ७ १/२६ ], परमाणुपरिमाणं परिमण्डलम्, तन्नित्यम्, तस्य अविद्या विद्यालिङ्गम् [वै० सू० ७।१।२७], परिमाणरहितस्य द्रव्यस्या [त्यन्त ]मसम्भवः परमाणूनां परमाणुपरिमाणस्य सम्भवे लिङ्गम्। ‘अविद्या' असम्भवः, सम्भवो 'विद्या' । विभवाद् महानाकाशः [ वै० सू० ७।१।२८ ], विभवाद् मूर्तद्रव्यैः समागतैरगच्छतः संयोगात् परममहत्त्वमाकाशस्यास्तीति गम्यते । तथात्मा ( तथा चात्मा T ) [ वै० सू० ७|१|२९], आकाशमिवात्मापि परममहान् द्रष्टव्यः असमासा [द] दिक्कालावपि महान्तौ ।” इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ. २६ ॥ २ द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च [ वै० सू० १/२/५ ], क्षित्यादिषु यतो 'द्रव्यं द्रव्यम्' इत्यनुवृत्तबुद्धिः, रूपादिषु च 'गुणो गुणः' इति उत्क्षेपणादिषु 'कर्म कर्म' इति तानि द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वानि सामाभ्यानि, परस्परतश्च व्यावृत्तेर्विशेषाः । अन्यत्रान्त्येभ्यो विशेषेभ्यः [वै० सू० १।२६ ], नित्यद्रव्येषु परमाण्वाकाशादिषु समवायेन वर्तमानास्तुल्याकृतिगुणेषु 'अयमन्योऽयमन्यः' इत्यत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धि हेतवस्तद्दर्शिनां विशेषकत्वाद् विशेषाः । एवं विशेषा व्याख्याताः ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ०९ ॥ ३ दृश्यतां पृ० २५ टि० १२ ॥ ४ “द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य विशेष समवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः । " इति प्रशस्तपादभाष्ये । दृश्यतां पृ० ४४४ पं० ३२ ॥ ५ दृश्यतां पृ० ७ पं० ११ । " अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः [ पा० ४/४/६० ], तदस्येत्येव, अस्ति परलोक इस्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिकः दिष्टमिति मतिर्यस्य स दैष्टिकः ॥” इति पाणिनीयव्याकरणसिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ६ नाव्युत्तर भा० । वाव्युत्तर य० ॥ ७ मशक्तो निरु प्र० ॥ ८ दृश्यतां पृ० ४०८ पं० १६, पृ० ४१४ पं० २३ ॥ ९ दृश्यतां पृ० ४४४ पं० २७ ॥ १० दृश्यतां पृ० २४४ पं० १९-२३॥ ११ “तदित्थं पदापोद्धारे प्रदर्शिते तदर्थस्यापोद्धृतस्य सिद्धसाध्यरूपद्वययोगिनो मतभेदेन खरूपेण दर्शनार्थमाह - पदार्थाना मपोद्धारे जातिर्वा द्रव्यमेव वा । पदार्थों सर्वशब्दानां नित्यावेवोपवर्णितौ ॥ [ वाक्यप० ३।१/२ ], अर्थद्वारेण पदं परीक्ष्यते इति दर्शनभेदेन प्रथममपोद्धारपदार्थविचारः । तथाहि सर्वेषामपि शब्दानां पदरूपाणां नामाख्यातादिस्वभावानां आतिवादिमते जातिरेवार्थः, न द्रव्यम् । द्रव्यवादिमते तु द्रव्यमेव, न जातिः । द्वितीयेन वाशब्देन पदार्थान्तरं सूचितम् - जातिविशिष्टद्रव्याभिधानमिति । अत एव तदेव सङ्कलनारूपं 'पदार्थों' इति स्फुटीकृतम् । अन्यथा वार्थे प्रक्रान्ते वार्थोपसंहारोऽयं नोपपद्यते । तदभिधाने त्वभिधानं तावद् द्वयोरपि समानम्, विरम्यव्यापाराभावाच्छन्दस्य । वार्थस्तु नातिद्रव्ययोर्गुणप्रधानभावः । यद्वा प्राधान्येनैव भिन्नविषयतया पाणिनिदर्शने जातिद्रव्ये शब्देनाभिधीयेते इत्ययमत्र पक्षः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४४७ शब्दार्थवाक्याथोदिनिरूपणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् शब्दार्थः । अन्त्यं च पदं वाक्यार्थः। उपचारात् । अन्त्यं च पदं वाक्यार्थः, यथा 'देवदत्तः काष्ठैः स्थाल्यामोदनं पचति' इत्यत्रान्त्येन 'पचति' 'पदार्थों' इत्युक्तः । तत्र नामपदस्य 'गौः' इत्यादेर्गोस्वादिजातिनियतक्रियाविषयसाधनैकार्थसमवेतसङ्ख्याजातिविशेषणभाव. मात्राभिधेयाया अनाश्रयाया जातेरनुपपत्तेः सामर्थ्यात् प्रतीतं द्रव्यम् । एवमाख्यातपदस्यापि विभिन्नक्रियाक्षणसमवेताभिन्नाभिधानप्रत्ययहेतुक्रियाजातिविषया साक्षाद् वाचकशक्तिः । कारकादिजातिस्त्वत्र गुणभूता । नामपदगतया च कारकजात्या क्रियाजातिराख्यातपदगता व्यक्तिद्वारेण समन्वयमेति । द्रव्यजातिस्त्वेकार्थसमवायात् साधनशक्तिद्वारेण क्रियायोगमनुभवति । सङ्ख्याजातिरपि एकार्थसमवायात् खव्यक्ता(त्या ?)त्मना शक्तिमुखेनैव क्रियान्वयमेतीति सर्वपदार्थसमन्वयोपपत्तौ कल्पते वाक्यार्थः । यथा वोत्क्षेपणादिक्षणैर नेक]समयभाविभिरपि आवृत्त्या उत्क्षेपणत्वादिजातिरभिव्यज्यते तथा अधिश्रयणादिभिः क्रियाक्षणैः पचत्यादिक्रियाजातिरिति विचारयिष्यते । व्यक्तिद्वारकं चास्या नित्याया अपि साध्यत्वमुपपद्यते । उपसर्गादिरप्यत्र नामाख्यातसहभावी तदर्थस्य विशेषावद्योतकत्वाजातिपदार्थ एव । विशेषस्य विशिष्ट विश्रान्तस्यैवावसायात् कर्मप्रवचनीयोऽपि सम्बन्धजातिनिष्ठ एव । गुणशब्दानामपि शुक्लादीनां गुणजातिर्वाच्या । संज्ञाशब्दानामपि डित्यादिशब्दानां जातिवाचित्वं समर्थयिष्यते । तदित्थं वाजप्यायनाचार्यमतेन सार्वत्रिकी जातिपदार्थव्यवस्थोपपद्यते । व्याडिमते तु सर्वशब्दानां द्रव्यमर्थः तस्यैव साक्षात् क्रियासमन्वयोपपत्तेर्वाक्यार्थाङ्गतया चोदनाविषयत्वात् , यथाह-'चोदनासु च तस्यारम्भात्[ ] इति । एकजातिसमन्वयवशेन चात्र सङ्केतोपपत्तिः । अनभिधीयमानापि जातिरुपलक्षणीक्रियते शब्दार्थ, यथा गृहादी काकादि । आख्यातेऽपि च सा, भवनाधारद्रव्यप्राधान्यं व्याडिमते, 'देवदत्तः पचति' इति द्रव्येणैव साक्षात् सामानाधिकरण्योपपत्तेः, क्रिया तु गुणभूता अत्र, व्यापाराविष्टं हि द्रव्यमाख्यातार्थः 'इदं तत्' इति सर्वनामप्रत्यवमर्शयोग्यं चात्र द्रव्यमिति सार्वत्रिकीयं व्यवस्था, तथा च वक्ष्यति - 'द्रव्यधर्मा पदार्थे तु द्रव्ये सर्वोऽर्थ उच्यते' [वाक्यप० ३।१।१३ ] इति, अत एव शुक्लादीनामपि द्रव्यपदार्थता सिद्धा । तत्तदुपाधिव्यवच्छिन्नं वा ब्रह्म द्रव्यशब्दवाच्यं सर्वशब्दानां विषय इति वक्ष्यत एव। व्यक्तिपर्यायो वा द्रव्यशब्द इति जातिव्यक्तिविकल्पेन सर्वशब्दविषयः तथा च 'सर्वशब्दानाम्' इत्यभिधानात् । पदादप्यपोद्धारे प्रकृतिप्रत्ययरूपस्यापि शब्दस्य यथायोगं क्रियाकारकसङ्ख्यादिरपोद्धारपदार्थों जातिव्यक्तिमेदेन समानातः । उभयस्यापि वा शब्दात् प्रतीतेरुभय पदार्थः, गुणप्रधानभावभेदाश्रयस्तु मतविकल्पः । नित्यत्वोपवर्णनं च 'सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे [पा. म. भा. १।११] इत्यत्र भाष्ये 'यस्मिंस्तत्त्वं च न विहन्यते' [पा० म० भा० १।१।१] इति द्रव्यस्यापि नित्यत्वं प्रवाहनित्यतया शब्दात सदैव प्रतीतेः ।" इति वाक्यपदीयस्य पुण्यराजकृतायां वृत्तौ ३।१।२॥ १“कालाकाशदिशामेकत्वाद् नित्यत्वेनावस्थाभेदाभावाच कथं जातिः, येन व्याप्तिसिद्धिः ? इत्यत आह-संयोगिधर्ममेदेन देशे च परिकल्पिते । तेषु देशेषु सामान्यमाकाशस्यापि विद्यते ॥ [वाक्यप० ३।१।१५], यथा सामान्य. विशेषाणामन्वयिधर्मोपाधिरभेदः तथा आकाशस्यापि संयोगोपाधिर्भेद इति प्रकृतापेक्षः समुच्चयः । आकाशेन संयोगो विद्यते येषामाकाशाधिकरणानां घटादीनां ते संयोगिनः । आकाशं हि सर्वेषां मूर्तानामधिकरणम् । अवकाशदानाद्धि तदाकाशम् । मूर्तास्तु भावाः परस्परप्रतिबन्धका इति न तेऽवकाशदायिनः । संयोगिनां धर्मभेदः प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धं परिमितत्वं तद्वशाद्वा लोकप्रसिद्धं परिमितदेशवृत्तित्वम् । यत्र हि देशे संयोगः परिसमाप्तो वर्तते स प्रदेशो भवत्याकाशस्यानेकः, कार्य प्रति देशः प्रदेशः इति निर्वचनात् । गुणाश्च केचिद् व्याप्यवृत्तयो यथा रूपादयः, संयोगस्तु मूर्तिपरिच्छिन्नवस्तुवृत्तिरिति सर्वदा प्रदेशवृत्तिरेव । अतः संयोगस्य नियतदेशतया संयोगिनोऽपि नियतदेशवृत्तय इति संयोगिधर्मभेदेन आकाशस्य भेदो भवत्युपाधिकृतः, न स्वतः। यदाह-देशे च परिकल्पिते इति । देशभेदाच सामान्यमाकाशस्यापि विद्यते । अतश्च प्रतिदेशमिदमाकाशमिदमाकाशमित्यभिन्नाभिधानप्रत्ययानुवृत्तिलक्षणमाकाशसामान्यमाकाशशब्दगोचरोऽस्ति । एवं समानन्यायत्वात् कालादीनामपि प्रदेशपरिकल्पनेन सामान्यमुपवर्णनीयम् । तथाहि-कालस्य युधिष्ठिरादिसंयोगवशेन मेदे सति अभिन्नं कालसामान्यं कालशब्दवाच्यमस्ति । एवं मेरुं प्रदक्षिणमावर्तमानस्य सवितुर्लोकपालगृहीतैर्देशविशेषैर्ये संयोगाः तदुपाधिना सूर्येण दिशः संयोगे सति भेदेऽभिन्नं दिक्सा. मान्यं दिक्शब्दवाच्यं परिकल्प्यम् । आत्मा तु प्रतिशरीरमन्य एवेति तत्राप्यस्त्येव आत्मत्वसामान्यम् । एवं समवायस्यापि सम्बन्धिभेदान्नानात्वोपचारे सर्वत्र 'इह'बुद्धयनुवृत्तेर्जातिः परिकल्पनीया । ननु च संयोगिदेशेनाकाशस्य देशपरिकल्पनेन संयोगिनामितरेतराश्रयत्वम् , नैतदस्ति, इतरेतरव्यावृत्तिरूपतैव रव्यादीनां मूर्तत्वात् परिच्छिन्नपरिमाणत्वं बोधयति, कल्पितास्त्वा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृस्यलङ्कृतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे पदव्यङ्गयेन सह परस्परसंसर्गलक्षणस्यान्वयव्यतिरेकवतोऽर्थस्य परिपूर्णत्वात् । स च वाक्यार्थः पूर्वपदज्ञानाहितसंस्कारापेक्षोऽन्त्यैपदप्रत्ययः, प्रत्येकं पदैर्हि खांशार्थविषयैरुत्पादितानि विज्ञानानि संस्कारमादधति, काशदेशाः लोकप्रसिद्धाः संयोगिवस्तुगतां परिच्छिन्नदेशतां ज्ञापयन्ति । सामान्यतया आकाशदेशत्वे रव्यादीनां प्रत्यक्षादिप्रमाणावसितरूपविरुद्धं व्यापित्वमारोपितं स्वगतेन परिमितत्वेन आकाशस्य प्रदेशकल्पनया निराक्रियते । यद्येवं कल्पिता देशाः कथमाकाशस्य खतो निरवयवस्य देशभेदनिबन्धनं कार्य जातिप्रक्लप्तिलक्षणं जातिशब्दलक्षणं वा कुर्युः, येन तद्गता आतिरभिधीयेत? उच्यते-व्यक्तिस्थानीयानां देशानामद्वैतदर्शने यथाऽसत्यत्वम् 'असत्या व्यक्तयः स्मृताः' [वाक्यप० ३।१।२८] इति वक्ष्यते तथेहाप्याकाशस्य सत्यत्वे व्यक्तीनां न कश्चिद् विरोधः । अथवा मुख्या एवाकाशस्य देशा घटादीनामिवेत्याह - अदेशानां घटादीनां देशाः सम्बन्धिनो यथा । आकाशस्याप्यदेशस्य देशाः संयोगिनस्तथा ॥ [वाक्यप० ३।१।१६ ], इह देशोऽवयव उच्यते, घटादयश्चावयविनः स्वात्मनि निरवयवाः, ये हि तेषामवयवभूताः कपालादयस्ते आरम्भकाः कारणभूता व्यतिरिक्ता एव समवायसम्बन्धेन सम्बन्धिनः । एवमाकाशमपि केनचिदप्यनारब्धत्वादमूर्त व्यापि निरवयवमित्यात्मभूतदेशाभावाद् रव्यादयः संयोगिन एवास्य देशाः तथा तद्भेदादाकाशभेदे सर्वत्राभिन्नप्रत्ययानुगमाज्जातिरपि कल्प्या। आकाशं ह्यवच्छिन्दन्तोऽर्था देशास्तस्य भवन्ति तत्कृतावच्छेदं चाकाशमपि तेषामधारभावापत्तेर्देश इत्यन्योन्यदेशत्वम् । मूर्तामूर्तयोर्मूर्तास्त्वव्यापकाः परस्परमवच्छेदका न भवन्तीत्याधार एवैतेषां देशः।...............। तदेवं वैशेषिकदर्शनाश्रयेण जातिपदार्थव्याप्तिरुपपादिता।" इति हेलाराजकृतायां वाक्यपदीयवृत्तौ तृतीयकाण्डे जातिसमुद्देशे ॥ १ पूर्वत्वात् प्र०॥ २ “एवं शब्दस्य प्रयोजनसहितं खरूपादिकं लेशतो निर्णीतम् , तस्य च साधारण्येन वाचकरव्यवस्थापितम् । इदानी मतभेदेन केषाञ्चित् पदं वाचकमन्येषां वाक्यमिति वाचकात्मनो वाक्यस्वरूपस्य तावद् बितत्य खरूपप्रतिपादनाय द्वितीयकाण्डप्रारम्भः । तत्राचार्यमतभेदाश्रयेण तावद् वाक्योद्देशार्थमाह -आख्यातशब्दः सातो जातिः सङ्घातवर्तिनी । एकोऽनवयवः शब्दः क्रमो बुद्धयनुसंहतिः ॥ पद्यमाधं पृथक् सर्वे पदं साकाङ्गमित्यपि । वाक्यं प्रति मतिर्भिन्ना बहुधा न्यायदर्शिनाम् ॥ [वाक्यप० २११,२], एतेऽष्टौ वाक्यविकल्पा आचार्याणाम् । तत्राऽखण्डपक्षे 'जातिः सङ्घातवर्तिनी, एकोऽनवयवः शब्दः, बुझ्यनुसंहतिः' इति त्रीणि लक्षणानि । खण्डपक्षे तु 'आख्यातशब्दः, क्रमः, सङ्घातः, पदमाद्यम् , पृथक् सर्वपदं साकाइम्' इति पञ्च लक्षणानि । अत्रापि 'सङ्घातः, क्रमः' इत्यभिहितान्वयपक्षे लक्षण द्वयम् । 'आख्यातशब्दः, पदमाद्यम् , पृथक् सर्वपदं साकासम्' इत्यन्विताभिधानपक्षे लक्षणत्रयमिति विभागः । इह च 'पदप्रकृतिः संहिता' [ऋक्प्रातिशाख्ये ] इति प्रातिशाख्यम् , तत्र पदानां प्रकृतिः कारणं पदप्रकृतिः संहितेत्यखण्डपक्षः, पदानि प्रकृतियस्याः सेति खण्डपक्षःप्रादुर्भवति। तत्राख्यातशब्दो वाक्यमिति परस्ताच्छब्दार्थनिर्णय इति प्रकरणे दर्शयिष्यति, यथा-'आख्यातशब्दो नियतं साधनं यत्र गम्यते । तदप्येकं समाप्तार्थ वाक्यमित्यभिधीयते ॥' [वाक्यप० २।३२८] इति । 'केवलेन पदेनार्थः' [वाक्यप० २।४१] इत्यादिना श्लोकाष्टकेन 'सङ्घातो वाक्यम्' इति दर्शयिष्यति । 'यथैक एव सर्वार्थः' [वाक्यप० २१७ ] इत्यादिना 'देवदत्तादयो वाक्ये तथैव स्युरनर्थकाः' वाक्यप० २।१४] इत्यन्तेन ग्रन्थेन तथा 'अव्यक्तः क्रमवान्' [वाक्यप० २।१९] इत्यादिना 'व्यावृत्तभेदो येनार्थः' इत्यन्तेन चाखण्ड एव स्फोटलक्षणः शब्दो वाक्यमिति दर्शितम् । उक्तं च- 'येनोच्चारितेन सास्नालाजूलखुरककुद विषाण्यर्थरूपं प्रतिपाद्यते स शब्दः [पा० म० भा० १११।१], तथा 'स्फोटः शब्दः ध्वनिः शब्दगुणः [पा. वा. ११७०] इति ।स्फोटश्च द्विविधो बाह्य आभ्यन्तरश्चेति । बाह्योऽपि जातिव्यक्तिभेदेन द्विविधः । तत्र जातिलक्षणस्य 'जातिः सङ्घातवर्तिनी' इति व्यक्तिलक्षणस्य ‘एकोऽनवयवः शब्दः' इति आभ्यन्तरस्य तु 'बुद्ध्यनुसंहृतिः' इत्यनेनोद्देशः । तत्र जातिव्यक्तिलक्षणस्य बाह्यस्य 'यथैक एव' [ वाक्यप० २१७] इत्यादिना पुनः 'अव्यक्तः क्रमवान्' [वाक्यप० २।१९] इत्यादिना ग्रन्थेन स्वरूपमुक्तम् । 'यदन्तः शब्दतत्त्वम् [वाक्यप० २।३० ] इत्यादिना श्लोकचतुष्टयेन आन्तरस्य स्वरूपमुक्तम् । 'सन्त एव विशेषा ये' [वाक्यप० २।४९ ] इत्यादिना 'समानेऽपि त्वशब्दत्वे' [वाक्यप० २५३ ] इत्यन्तेन श्लोकपञ्चकेन क्रमो वाक्यमिति दर्शयिष्यति । 'नियतं साधने साध्यम्' [बाक्यप० २१४७] इत्यनेन च श्लोकद्वयेन ‘पदमाद्यम् , पृथक् सर्वपदं साकाइम्' इति लक्षणद्वयं व्याख्यास्यति । अन्यदपि वार्तिककारीयं पारिभाषिकं शास्त्रे वाक्यलक्षणमस्ति 'आख्यातं साव्ययकारकविशेषणं वाक्यम् । एकति [पा. वा० २।१।१] इति च । जरन्मीमांसकोक्तं लौकिकमप्यस्ति 'अर्थैकत्वादेकं वाक्यं साकाझं चेद् विभागे स्यात्' [ मीमांसाद० २।१।४६ ] इति । अनयोः सङ्घातपक्षेऽन्तर्भावः । एते अपि प्रथममेव 'निघातादिव्यवस्थार्थम् [वाक्यप० २।३] इत्यादिना विचारयिष्यते। इत्थमष्टावेव वाक्यविकल्पा मतभेदेन सम्पद्यन्ते इति बोद्धव्यम् । यत् Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यार्थनिरूपणम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४४५ अतोऽन्त्यपदज्ञानं पूर्वपदज्ञानसंस्कारपरिपाकवशात् सम्बन्ध्यन्तरव्यवच्छेदि परस्परसंसर्गविषयमुपजायते इति पुनरनेन [भर्तृहरिणा] वृत्तावुक्तम् 'उदाहरणमात्रमेतत् , अन्यान्यपि वाक्यलक्षणानि दर्शयिष्यति' इति तद् वार्तिककारीयवाक्यलक्षणादेरन्तर्भावमनपेक्ष्येति मन्तव्यम् । उद्दिष्टानां च वाक्यलक्षणानां यथान्यासमग्रे कारिकाभिरेव दर्शितक्रमेण स्वरूपमुन्मीलयिष्यतीति नार्थ इह तत्प्रदर्शनेन । वाक्यलक्षणप्रसङ्गेन च तथा वाक्यार्थस्य सम्बन्धस्य च मतभेदं दर्शयिष्यति । तत्राखण्डपक्षे त्रिष्वपि लक्षणेषु प्रतिभा वाक्यार्थः, यथा दर्शयिष्यति 'विच्छेदग्रहणेऽर्थानां प्रतिभाऽन्यैव जायते । वाक्यार्थ इति तामाहुः [वाक्यप० २११४४ ] इति। अवशिष्टेषु पञ्चसु लक्षणेसु मध्यादाख्यातशब्दो वाक्यमित्यस्मिन् पक्षे क्रिया वाक्यार्थः, यथा वक्ष्यति ‘क्रिया क्रियान्तराद् भिन्ना' [वाक्यप० २४१७ ] इत्यादि । यथा च 'प्रतिभा यत्प्रभूतार्था यामनुष्ठानमाश्रितम् । फलं प्रसूयेत यतः सा क्रिया वाक्यगोचरः ॥'[ 1 इति । सङ्घातपक्षे क्रमपक्षे च संसर्गो वाक्यार्थः, स च 'सम्बन्धे सति यत् त्वन्यदाधिक्यमुपजायते । वाक्यार्थमेतं संप्राहुरनेकपदसंश्रयम् ॥' [वाक्यप० २।४२] इत्यादिना दर्शयिष्यते। तथा सङ्घातपक्ष एव 'सर्वमेदानुगुण्यम्' [वाक्यप० २।४४ ] इत्यादिना प्रकारान्तरेणाभिहितान्वयपक्षे प्रतिपाद्यमाने 'कार्यानुमेयः सम्बन्धो रूपं तस्य न विद्यते।' [वाक्यप० २१४६] इत्यनेन श्लोकेन विशेषविश्रान्तः पदानामेवार्थो वाक्यार्थ इति लक्ष्यते। पदमाद्यं पृथक् सर्वपदं साकाहमित्यस्मिंस्तु पक्षद्वये संसृष्ट एव प्रथमतरं प्रक्रम्यते वाक्यार्थः, यथा निरूपयिष्यति-'तेषां तु कृत्स्नो वाक्यार्थः प्रतिभेदं । समाप्यते ।' [वाक्यप० २।१८], तथा 'पूर्वरथैरनुगतो यथार्थात्मा परः परः । संसर्ग एव प्रक्रान्तस्तथायेष्वर्थवस्तुषु ।' [वाक्यप० २१४१४ ] इति । 'अभिधेयः पदस्यार्थो वाक्यस्यार्थः प्रयोजनम् [वाक्यप० २।११४ ] इत्यनेन प्रयोजनं वाक्यार्थत्वेन प्रदर्शितम् , तत् केषाञ्चिद् मते सर्वलक्षणसाधारणमिति न प्रयोजनं वाक्यार्थो वाक्यलक्षणेषु पृथग विभज्यते । तदेवं 'प्रतिभा, संसर्गः, संसर्गवशान्निराकाहो विशेषावस्थितः पदार्थ एव, संसृष्ट एवार्थः, क्रिया, प्रयोजनं च' इति षड् वाक्यार्था इहोपदर्शिताः । संसर्गे संसर्गवशाद् विशेषावस्थिते पदार्थे च वाक्यार्थेऽभिहितान्वयः । संसृष्टे क्रियायां चान्विताभिधानम् । प्रतिभायां त्वेकरसैव प्रतिपत्तिरिति न तत्र काचिदभिहितान्वयचर्चा । प्रयोजने त्वभिहितान्वय एव । विधिनियोगभावनासंज्ञास्तु वाक्यार्था न निरूपिताः, यस्माद् भावनाक्रिययोः पर्यायता प्रायशो लक्ष्यते, केवलं प्रकृत्यर्थप्रत्ययार्थतायामत्र वैयाकरणमीमांसकयोर्विवादः । किञ्च, भावना सकर्मिकैव अकर्भिकापि क्रियेति सत्यपि भेदे साध्यत्वाविशेषादभेद एवानयोः । यथा धात्वर्थरूपा क्रिया साध्यभूतैव तथा भावनापीति कथमवान्तरभेदादू मेदोऽनयोर्भवेत् ? विधिनियोगौ तु लिङ्लोट्कृत्यान्तेष्वेव वाक्येष्वर्थावित्यसर्वविषयत्वादनादृताविहेति न तत्प्रदर्शनं कृतम् । तत्तदनादिवाक्यार्थविकल्पाहितवासनाप्रबोधजन्मा क्रमवद्भिरिवाकमैर्बहीरूपतया अध्यस्तैः पदार्थैश्चित्रीकृत इव विकल्पविशेषोल्लिख्यमान आकारो बहीरूपतया अध्यस्तो निर्विभाग एव शाक्यानां वाक्यार्थ इति प्रायशः 'प्रतिभा'सोदर एवासौ मन्तव्यः । वाक्यमपि तत्तदनादिवाक्यविकल्पाहितवासनाप्रबोधजन्म क्रमवद्भिरिवाक्रमैः पदैश्चित्रीकृत इव बहीरूपतया अध्यस्यमानो विशिष्टविकल्पोल्लिख्यमान आकारविशेष एव बहीरूपतया अध्यस्त इति प्रायशो बुद्ध्यनुसंहृतिरित्यस्य सोदरमेवेति न तन्मतानुसारेण वाक्यवाक्यार्थयोरिहासंग्रहो वेदितव्यः । नैयायिकादीनां तु पूर्वपूर्ववर्णस्मृतिसचिवोऽन्त्यो वर्णों नश्यदवस्थानुभवविषयीक्रियमाणः पदं यथा, तथैव पूर्वपूर्वपदस्मृतिसचिवमन्त्यमेव पदं नश्यदवस्थानुभवविषयीक्रियमाणं वाक्यमिति प्रायशः सङ्घातपक्ष एवान्तर्भवति । तथा पूर्वपूर्वपदार्थस्मरणसचिवेतान्त्येन पदेनोपजन्यमाना प्रतीतिर्वाक्यार्थ इति प्रायशः संसर्गपक्ष एवास्यान्तर्भाव इति न तदसङ्ग्रहेणाव्याप्तिरत्र वकन्या। अथात्रानवयवे एकस्मिन् स्फोटात्मके वाक्ये प्रतिभालक्षणे च वाक्यार्थे वाक्यवाक्यार्थयोरध्यासरूपः सम्बन्धः, तद्वक्ष्यति'वाक्यवृत्तस्य वाक्यार्थे वृत्तिः' [वाक्यप० २।२६३] इत्यादि । अवशिष्टेषु पक्षेषु वाच्यवाचकभावलक्षणो योग्यताख्य एव शब्दार्थयोः सम्बन्धो मीमांसकदृष्टया । शाक्यदर्शनानुसारेण तु विज्ञानवादनयेन बौद्धे शब्दार्थे सर्वत्र कार्यकारणभाव एव, बाह्यार्थवादे तु तत्र सङ्केतलक्षणोऽसौ बोद्धव्यः । नैयायिकाद्यनुसारेण च सङ्केतलक्षण एवासौ । इत्येवमत्र वाक्यवाक्यार्थसम्बन्धानां संक्षेपतः खरूपं बोद्धव्यम् । सम्बन्धेषु मध्यादत्र अध्यासमेव दर्शयिष्यति, पदकाण्डे तु सर्वानभिधास्यति । तत्र वैयाकरणस्याखण्ड एवैकोऽनवयवः शब्दः स्फोटलक्षणो वाक्यम् , प्रतिभैव वाक्यार्थः, अध्यासश्च सम्बन्ध इति पद(र.)वादिपक्षदूषणपरः परं टीकाकारो व्यवस्थापयतीत्यस्य काण्डस्य संक्षेपः।" इति पुण्यराजरचितायां वाक्यपदीयटीकायाम् २।१।२॥ नय०५७ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ षष्ठे विधिनियमविध्यरे अस्य निर्गमसूत्रम् - इमा णं भंते । रतणप्पभा पुढवी किं सांसता, असासता ? गोतमा ! सिया सासता सिया असासता । से केणट्टेणं भंते ! एवं वुञ्चति - सिया सासता सिया असासतत्ति ? गोमा ! देव्या सासता, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं संठाणपज्जवेहिं 5 ઘણન सम्बन्धोऽन्वयव्यतिरेकवानन्त्यपदार्थव्य क्तिर्वाक्यार्थ इति । यथाह - नादैराहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । ३१४-२ आवृत्तपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवधार्यते ॥ [ वाक्यप० ११८४ ] इति । स च कृतसङ्गीतेरेव पदादिशब्दार्थज्ञस्य पुरुष [स्य ] प्रत्ययहेतुर्वाक्यार्थः शब्दो वा, नाकृतसङ्गीतेः, म्लेच्छप्रयुक्तशब्दार्थापरिज्ञानवत् । नैताः स्वमनीषिका उच्यन्ते, किं तर्हि ? अस्य नयस्य यतो निर्गमस्तन्निर्गमसूत्रम् - इमा णं भंते 10 तत्यादि यावत् संठाणपज्जवेहिंति । एतमेवागमं भेदवचनादिति हेतुत्वेनाह नयचक्रकारः, १ पूर्वं [पृ० ३ पं० १४-१६] नयचक्रवृत्तिकृता उल्लिखितं जीवाजीवाभिगमसूत्रपाठमनुसृत्यैवात्र अयं मूलपाठो निर्दिष्टः, किन्तु अत्र “अस्य नयस्य यतो निर्गमस्तन्निर्गमसूत्रम् - इमा णं भंते रतणप्पभेत्यादि यावत् संठाणपज्जवेहिंति” इति नयचक्रवृत्तौ पाठदर्शनात् 'दव्वद्वयाए सासता, असासता वण्णपजवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं संठाणपज्जवेहिं' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ २ "नादैः शब्दात्मानमवद्योतयद्भिर्यथोत्तरोत्कर्षेणाधीयन्ते व्यक्त परिच्छेदानुगुणसंस्कार भावनाबीजानि । ततश्चान्त्यो ध्वनिविशेषः परिच्छेदसंस्कार भावनाबीजवृत्तिलाभप्राप्तयोग्यतापरिपाकायां बुद्धावुपग्रहेण शब्दस्वरूपाकारं सन्निवेशयति ।" इति भर्तृहरिविरचितायां वाक्यपदीयस्ववृत्तौ । "नादैरिति ध्वनिभिः 'स्फोटमवद्योतयद्भिः' इति शेषः । आहितबीजायामिति, बीजानि शक्तयः, ता आधीयन्ते तस्यां शक्तिद्वारेण । ध्वनिना सह इति, तस्मिन् काले शब्दोऽवधार्यत इति सम्बन्धः | आवृत्तपरिपाकायामिति, आवृत्तः परिपाको यस्या इति, परिपाकः कार्योत्पादनं प्रति विशिष्ट आत्मलाभः । स च बीजानामपि वर्तते । सह सन्निधानात् । यतः प्रतिध्वनिविभागं विशेषप्रतिपत्तेः तस्य वृत्तिलाभः, अन्त्यध्वनिकाले चावस्थानात् कालान्तरावभासोऽप्यस्ति । स तु बीजानामपि परिपाको बुद्धेरव्यतिरेकाद् बीजानां बुद्धेरेव सम्बन्धित्वेनोपात्तः, न तु बुद्धेः परिपाकः 1 आवृत्तः परिपाको यस्यामिति विग्रहः । व्यक्तपरिच्छेदेति, व्यक्तपरिच्छेदो विशिष्टस्वरूपावधारणम्, व्यक्तस्य परिच्छेदः । संस्कारभावनेति शक्तय एवाधीयन्ते तास्तु संस्कारादिभिरुच्यन्ते । तथाहि - शक्तयश्चेतः संस्कुर्वन्ति विशिष्टं जनयन्तीति 'संस्कार' शब्दोक्ताः तद्रूपभावनं च भावना, यतश्चेतनेनाकारेण भावयन्ति । विशिष्टोत्तर बुद्धिजनकत्वेन बीजानि । तेन संस्कारश्चासौ भावना च बीजं चेति समानाधिकरणसमासः । परिच्छेदेति स्फोटपरिच्छेदोपायाः संस्कारादयः, तेषां वृत्तिलाभो विशिष्टकार्योन्मुखता । प्राप्तेति योग्यतैवात्र परिपाकः, स प्राप्तो यया स्फोटपरिच्छेदसमर्थेति यावत् ।” इति वृषभदेवविरचितायां वाक्यपदीयस्ववृत्तेर्व्याख्यायाम् । “नादैर्ध्वनिभिरा हितबीजायाम्, आहितं भावनाबीजं यस्यां सा तथोक्ता । आवृत्तपरिपाकायामिति, आवृत्तोऽभ्यस्तः परिपाको यस्याः सा तथोक्ता, प्रथमेन ध्वनिना किञ्चिदु भावनाबीजमाहितं तेन च कश्चित् परिपाकः कार्यजननशक्तिविशेषः, एवं द्वितीयेनेति । यद्यपि परिपाका भिन्नास्तथापि जातिमाश्रित्य 'आवृत्त' वाचो युक्तिः 'अष्टकृत्वो ब्राह्मणा भुक्तवन्तः' इतिवत् । भावृत्तेत्यस्य अन्या व्याख्या - आवृत्तोऽवधारणविघ्नभूतस्य रागादिकषायस्य परिपाकः परिपाचनं यस्यामिति, आवृत्तेन वा आवृत्त्या कषायपरिपाको यस्यामिति । क्वचित् तु 'आवृत्ति' इति पाठः । बुद्धावन्तःकरणे शब्दोऽवधार्यते अन्त्येन ध्वनिना सह यदा अन्त्यो ध्वनिरवधार्यते तदा 'गौः' इत्येवं शब्दोऽप्यवधार्यते इत्यर्थः । अवधारणापरपर्यायं ज्ञानमपि बुद्धयाख्यान्तःकरणाधिकरणमिति साङ्ख्या मन्यन्ते । एतच्चावधारणं चित्रबुद्धिरिति वार्तिककारीया मन्यन्ते । अथवा अन्त्येन ध्वनिना सह पूर्वनादैराहितबीजायां बुद्ध पश्चिमध्वन्यनन्तरं शब्दोऽवधार्यते गौरित्येकं पदमिति, यदव - धारणं समस्तवर्णविषयं स्मरणमित्याचक्षते । परमार्थतस्तु प्रत्यक्षज्ञानमेवैतत् ध्वनिसंस्कृतश्रोत्रेन्द्रियजनितत्वात् न ह्यन्यथा स्फुटप्रकाश उपपद्यत इति ।" इति रामचन्द्रविरचितायां मण्डनमिश्रकृतस्फोटसिद्धेर्व्याख्यायां गोपालिकायाम्, पृ० १३२ ॥ ३ तप्प भा० । एतदन्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४ ठि०२ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ अस्य नयस्य आर्षमूलकत्वप्रदर्शनम्] द्वादशारं नयचक्रम् असासता [जीवाजीवाभि० ३।१७८] इति भेदवचनात् । वर्णादिपर्यायादिषु वर्णः पर्यवः समन्ताद् भविता एकवाक्यभावात् वर्णस्यैव परितो भवनाद् गमनाच्च । वर्णेभ्य व्याचष्टे च-वर्णादिपर्यायादिष्वित्यादि । पर्यायशब्दस्य परिगमनार्थस्य पर्यवशब्दस्य भाववाचिनो ग्रहणाद् वर्णादिपरिगमनानि यस्मिन् समन्ततो भावो वा, अवतेर्धातोर्भावार्थस्य रक्षणादिदण्डके पाठात् , वर्णादय एव पर्यायाः पर्यवा इति कर्मधारयो वा सरूपैकशेषत्वात् सङ्ग्रहीतसमासद्वयत्वात् , समन्ताद् गमनत्वात समन्ताद् भावित्वाच्च पर्यायाणां पर्यवाणां च, अत्र केनार्थेन पर्यायपर्यवार्थयोरेकस्योक्ती द्वितीयस्यापि सैव निरुक्तिः ? इति मन्यमान आह-वर्णः पर्यवः समन्ताद् भविता एंकवाक्यभावात् द्रव्यगुणकर्मणां सप्रभेदानां सत्तासमवायसम्बन्धप्रधानानां संसृष्टरूपाणामेकवाक्यभावादिति, बहुव्रीहिं दर्शयति -वर्णस्यैव परितो भावाद् गमनाच्चेति । कथं पुनस्तत्परिगमनं पर्यवनं च ? इति तद् भावयितुं सोपपत्तिकं सनिदर्शनमाह-वर्णेभ्य 10 एवेत्यादि यावद् गृह्यन्त इति । वर्णेभ्य एव रूपादिभ्यो गुणान्तरं 'चित्रवर्णो रक्तश्यामपाण्ड्वादिः १ अधुनोपलभ्यमानेषु जीवाजीवाभिगमसूत्रग्रन्थेषु संठाणपज्जवेहिं इति पाठो नोपलभ्यते, किन्तु पूर्वमवश्यमासीत्, दृश्यतां पृ. ३ पं० १६ । अधुना तु अधोलिखितः पाठ उपलभ्यते-“इमा णं भंते। रयणप्पभा पुढवी किं सासया असासया? गोयमा! सिय सासता सिय असासया। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ 'सिय सासया सिय असासया'? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासता, वण्णपज्जवेहिं गंधपजवेहिं रसपजवेहिं फासपजवेहिं असासता ।" इति जीवाजीवामिगमसूत्रे ३।११७८१ अस्य व्याख्या- "इमा ण भंते इत्यादि । इयं भदन्त | रत्नप्रभा पृथिवी कि शाश्वती अशाश्वती? भगवानाह -गौतम! स्यात् कथंचित् कस्यापि नयस्याभिप्रायेणेत्यर्थः शाश्वती। स्यात् कथञ्चिदशाश्वती। एतदेव सविशेष जिज्ञासुः पृच्छति-से केणतुणमित्यादि । 'से'शब्दः 'अथ'शब्दार्थः, स च प्रश्ने, केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते यथा स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वतीति ? भगवानाह-गौतम ! दवट्ठयाए इत्यादि, द्रव्यार्थतया शाश्वतीति । तत्र द्रव्यं सर्वत्रापि सामान्यमुच्यते, द्रवति गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमिति व्युत्पत्तद्रव्यमेवार्थः तात्त्विकः पदार्थों यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थः द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषः, तद्भावो द्रव्यार्थता, तया द्रव्यमात्रास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्रायेणेति यावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनयमतपोलोचनायामेवंविधस्य रत्नप्रभायाः पृथिव्या आकारस्य सदा भावात् । वर्णपर्यायः कृष्णादिभिः गन्धपर्यायैः सुरभ्यादिभिः रसपर्यायैः तिक्तादिभिः स्पर्शपर्यायैः कठिनत्वादिभिः अशाश्वती अनित्या, तेषां वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वा अन्यथाभवनात् अतादवस्थ्यस्य चानित्यत्वात् । न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यानित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदोपगमात्, अन्यथा उभयोरप्यसत्त्वापत्तेः, तथाहि शक्यते वक्तुं परपरिकल्पितं द्रव्यमसत् पर्यायव्यतिरिक्तत्वाद् बालत्वादिपर्यायशून्यवन्ध्यासुतवत् , तथा परपरिकल्पिताः पर्याया असन्तः द्रव्यव्यतिरिक्तत्वात् बन्ध्यासुतगतबालत्वादिपर्यायवत् । उक्तं च - 'द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः । क कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन घा ? ॥ १॥' इति कृतं प्रसङ्गेन । विस्तरार्थिना च धर्मसङ्ग्रहणिटीका निरूपणीया ।" इत्याचार्यश्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमसूत्रवृत्तौ ॥ २“अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमनप्रवेशश्रवणखाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्यालिङ्गनहिंसादहनभाववृद्धिषु इति पठितत्वात्" इति नवमारसमाप्तौ नयचक्रवृत्तौ वक्ष्यते । हैमधातुपाठेऽपि “४८९ अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमनप्रवेशश्रवणखाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्यालिङ्गनहिंसादहनभाववृद्धिषु एकोनविंशतावर्थेषु" इति पाठः । मुद्रिते पाणिनीयधातुपाठे तु “६०१ अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्त्यालिङ्गनहिंसादानभागवृद्धिषु" इति पाठ उपलभ्यते ॥ ३ “सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ” पा० १।२।६४॥ ४एकवाच्यभावात् प्र०॥ ५ “एकं चित्रं रूपं नीलादिरूपैरेकरूपारम्भात् । यथा हि शुक्लादिर्विशेषो रूपस्य तथा चित्रं रूपादिविशेष एव, यद्यपि शुक्लादिशब्दैन व्यपदिश्यते तथापि खशब्देन व्यपदेशादस्तित्वम् । अथ विरुद्धानां नीलादीनां कथमेकरूपारम्भकत्वम् । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलतम् [षष्ठे विधिनियमविध्यरे एव वर्णान्तरं तदारम्भनियमादेव पृथिव्यादिषु भवति समन्ताद् गच्छति वा । तानि प्रागभावप्रध्वंसात्मकानि गृह्यन्ते, तस्मात् तैर्वर्णादिपर्यवैरशाश्वती, वर्ण एव च पर्यवो गुणः यथासम्भवं श्यामादिः संयोगविभागपृथक्त्वपरत्वापरत्वादिश्च, तैः पाकजो वा तदारम्भनियमादेवेति, यथोक्तम् - येषामधिकृतमारम्भसामर्थ्यम् [ ] ईति, पृथिव्यादिषु 5 वर्णान्तरं भवति समन्ताद् गच्छति वा । तानि वर्णादिपर्यवाः पर्याया वा घटादीनि वा द्रव्याणि ३१५-१आरब्धानि तैरप्यन्यारब्धद्रव्याणि प्रागभावप्रध्वंसात्मकानि वर्णाानात्मकान्येव मृत्पिण्डाद्यवस्थानानि घटादीनि कपालादीनि च गृह्यन्ते । तस्मात् तैः प्रागभावप्रध्वंसात्मकैर्घटाद्यात्मभूतैर्वर्णादिपर्यवैरशाश्वती कार्यकारणभूतैरित्यर्थः । कर्मधारये वा वर्ण एव च पर्यवो गुणो यथासम्भवमित्यादि, गुणा इमे, तैः 'अशाश्वती' इति च वर्तते वर्णादिपर्यवैरिति सम्बन्धः । यथासम्भवमारब्धानारब्धद्रव्यगताः केचिच्छया10 मादयोऽनारब्धचतुर्विधाणुगताः तदारब्धद्रव्यान्तरे कारणगुणपूर्वाश्चतुर्विधे, पार्थिवेष्वेव रक्ताद्याः पाकजाः, यथा शुक्लानामिति । यथा हि बहूनि शुक्लरूपाण्येकं शुक्लरूपमारभन्त इत्युपलब्धम् , तथा नीलादीनामपि चित्ररूपारम्भकत्वं दृष्टत्वादभ्युपगन्तव्यम् ।” इति प्रशस्तपादभाष्यव्याख्यायां व्योमवत्यां पृथिवीनिरूपणे । "क्वचिदेकस्यामपि व्यक्तावनेकप्रकाररूपसमावेशः यत्र नानाविधरूपसम्बन्धसम्बन्धिभिरवयवैरवयवी आरभ्यते । कथमेतदिति चेत् , उच्यते-यथावयौरवयव्यारब्धस्तथावयवरूपैरवयविनि रूपमारब्धव्यम् , अवयवेषु न शुक्लमेव रूपमस्ति नापि श्याममेव, किन्तु श्यामशुक्लहरितादीनि । न च तेषामेकं रूपमेवारभते नापराणीत्यस्ति नियमः, प्रत्येकमन्यत्र सर्वेषामपि सामर्थ्यदर्शनात् । न च परस्पर विरोधेन सर्वाण्यपि नारभन्त एवेत्यपि युक्तम्, चित्ररूपस्यावयविनः प्रतीतेररूपस्य द्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वाभावाच्च । न चाववयवरूपाणि समुचितान्यत्र चित्रधिया प्रतीयन्ते तैरेवावयवी प्रत्यक्ष इति कल्पनाप्रामाण्यम् , अन्यत्रापि तथाभावप्रसङ्गेनावयविरूपोच्छेदप्रसङ्गः । तस्मात् सम्भूय तैरारभ्यते, तच्चारभ्यमाणं विविधकारणस्वभावानुगमाच्छयामशुक्लहरितात्मकमेव स्यात् 'चित्रम्' इति च व्यपदिश्यते।" इति प्रशस्तपादभाष्यव्याख्यायां कन्दल्यां पृथिवीनिरूपणे ॥ १ दृश्यतां टि० ८॥२ मधिपत्तिकृत प्र० । दृश्यतां पृ० ४३७ पं० १२॥ ३ (इत्यादि।)॥४°नि तैरप्यन्यारब्ध भा० प्रतौ नास्ति ॥ ५ (°द्यात्मका ? ? ? ) ॥ ६ कथं धारये प्र० ॥ ७ व इत्यादि प्र० ॥ ८ “इदानीं रूपादीनाहउक्ता गुणाः [ वै० सू० ७।१।१ ], रूपादिसूत्रेणोद्दिष्टा इत्यर्थः । गुणलक्षणं चोक्तम् [वै० सू० ७।१।२ ], 'द्रव्याश्रयी' [१११११५] इत्यादिना द्रव्यकर्मभ्यां वैधयं कथितमित्यर्थः । इदमेवंगुणमिदमेवंगुणमिति चोक्तम् [वै० सू० ॥१।३ ], तथा युक्तं 'रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी' [११] इत्यादि । तत्र प्रथिव्यां रूपरसगन्धस्पर्शा द्रव्यानित्यत्वादनित्याः [ वै. सू० ॥११४ ], घटादेः पार्थिवस्य विनाशात् तद्गतानामपि रूपादीनां विनाश आश्रयविनाशात् । अग्निसंयोगाश्च [वै० सू० १५], अग्निसंयोगाच्च पार्थिवेषु परमाणुषु रूपादीनां विनाशः कार्ये समवेतानां त्वाश्रयविनाशादेव । परमाणुष्वग्निसंयोगादेव कुतः१ गुणान्तरप्रादुर्भावात [ वै० सू० ७११६ 1. यस्माच्छयामादिगुणेभ्यो व्यतिरिक्तं गुणान्तरमुत्पद्यते ततः पूर्वे परमाणुगुणा विनष्टाः गुणवति गुणानारम्भात् । एतेन नित्येष्वनित्यत्वमुक्तम् [ वै० सू० १११७ ], एतेन गुणान्तरप्रादुभावेन नित्येषु परमाणुषु रूपादीनामनित्यत्वमुक्तं पार्थिवेष्वेव, यतः अप्स तेजसि वायौ च नित्या द्रव्यनित्यत्वात् [ वै० सू० ॥१८ ], सलिलानलानिलपरमाणुरूपादयो नित्या [आश्रयनित्यत्वात् विरोधिगुणान्तराप्रादुर्भावाच नाग्निसंयोगाद् विनाशः । अनित्येष्वनित्या द्रव्यानित्यत्वात् [ वै० सू० १९ ], अनित्येषु सलिलादिषु' अनित्या रूपादय आश्रयविनाशे तेषामपि विनाशात् । कारणगुणपूर्वाः पृथिव्यां पाकजाश्च [ वै० सू० ॥१।१० ], अनित्यायां कार्यरूपायां पृथिव्यां कारणगुणपूर्वी रूपादयो जायन्ते, नित्यायां तु परमाणुखभावायां पाकजाः पाकादग्निसंयोगाजाताः । अप्सु तेजसि वायौ च कारणगुणपूर्वाः पाकजा न विद्यन्ते [ वै० सू० ७१।११ ], कार्ये उदकाद्यवयविनि समवायिकारणरूपे रूपादय आरभ्यन्ते, पाकजास्तु जलाद्यणुषु नैव सन्ति विरोधिगुणान्तराभावात् । अगणवतो द्रव्यस्य गुणारम्भात् कर्मगुणा अगुणाः [वै० सू० १११२], अगुणस्य द्रव्यस्यैवोत्पन्नस्य कारणगुणैर्गुणा जन्यन्ते न गुणकर्मणाम् , अशेषावयवगुणेकार्थ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ आगमानुसारेण नयस्वरूपप्रदर्शनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् गन्धादिभिश्च । शाश्वती द्रव्यार्थतः। इति षष्ठो विधिनियमविध्यरः। संयोगविभागौ सक्रियेषु, पृथक्त्वं सर्वद्रव्येषु, परत्वापरत्वे दिग्देशकालापेक्षे तेल्लिङ्गे, आदिग्रहणाद् गन्धशब्द-ज्ञानादयोऽसाधारणगुणाः पृथिव्याकाशात्मादीनाम् , एकत्वादिसङ्ख्याः सर्वद्रव्यसाधारणा एव, गन्धादिभिरिति तृतीयानिर्देशादेभिश्वाशाश्वती । [शाश्वती] नित्या रूपादिमूर्तिसंस्थानसामान्यधर्मेद्रव्यार्थतो रत्नप्रभेत्यर्थः । इति षष्ठो नयो नैगमभेदो द्रव्यास्तिकान्तःपाती परिसमाप्त 'इतिशब्दसमाप्त्यर्थत्वात् , विधि. नियमविध्यर इति नामनिर्देशोऽयं नयचक्रविभागविन्यस्तचक्रार इवार इति । समवायाभावात् कर्मत्ववत् । एतेन पाकजा व्याख्यानाः [ वै० सू० १११३], अग्निसंयोगानिवृत्तेषु श्यामादिषु पाकजा जायन्ते इति तेऽपि गुणरहिते सिद्धाः । संयोगवति संयोगारम्भवद् गुणवति पाकजा इति चेत् , न, एकद्रव्यवत्वात् [वै. सू० ११।१४ ], एकद्रव्यवन्तः पाकजाः, ते कथं तत्रैवारभ्येरन् विरुद्धत्वात् ? संयोगस्य तु संयोगवति आरम्भो न दुष्यति अनेकदव्यत्वात् ।” इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० २५ ॥ १ "एकदिकालाभ्यां सन्निकृष्टविप्रष्टाभ्यां परमपरम् [वै० सू० ७।२।२५], एकदिक्को पिण्डौ दिकृतयोः परत्वापरत्वयोः कारणम्, एककालो वर्तमानकालसम्बद्धौ काल कृतयोः परत्वापरत्वयोः कारणम् । तौ च सन्निकृष्टविप्रकृष्टबुद्ध्यरेक्षया पिण्डौ कारणम् । कारणपरत्वात् कारणापरत्वाच्च [वै० सू० ॥२।२६], परापरदिक्प्रदेशसंयोगावसमवायि. कारणम् । तथैव परापरकालप्रदेशसंयोगौ । दिकालप्रदेशैः संयोगात् सन्निकृष्टविप्रकृष्टयोः पिण्डयोः सन्निकृष्टविप्रकृष्टबुद्ध्यपेक्षया सन्निकृष्टेऽपरत्वं विप्रकृष्टे च परत्वम् ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P.पृ० २८॥ २"काल इदानीं कथ्यते-अपरस्मिन् परं युगपदयुगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि [वै० सू० २।२।६], एतान्यपरत्वव्यतिकरादीनि काललिङ्गानि । तत्र परेण दिप्रदेशेन संयुक्ते यूनि परत्वज्ञाने जाते स्थविरे चापरेग दिक्प्रदेशेन संयुक्तेऽपरत्वज्ञानोत्पत्तौ कृष्ण केशादिवलीपलितादिपर्यालोवनया येन निमित्तेन यूनि अपरत्वज्ञान स्थविरे च परत्वज्ञानं जायते स कालः । तथा तुल्यकार्येषु कर्तृषु 'युगपत् कुर्वन्ति, अयुगपत् कुर्वन्ति' इति यतः प्रत्ययो जायते स कालः । तथैकक्रियाफलमुद्दिश्य ओदनाख्यं भूयसीनामधिश्रयणादिक्रियाणां प्रबन्धप्रवृत्तौ तुल्यकर्तरि 'चिरमद्य कृतम् , क्षिप्रमद्य कृतम्' इति यतः प्रययौ भवतः स काल इति । तस्य गुणाः सङ्ख्य परिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः ।............इत इदमिते यतस्तद्दिशो लिङ्गम् [वै० सू. २।२।१२], मूर्त द्रव्यमवधिं कृत्वा यत एतद् भवति इद(य?)मस्मात् पूर्वेत्यादिप्रत्ययः तद् दिशो लिङ्गम् । गुणाः सङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० १३ ॥ ३ "घ्राणग्राह्यो गुणो गन्धः । स च द्विविधः-सुरभिरसुरभिश्च । पृथिवीमात्रवृत्तिः ।.............. श्रोत्रग्राह्यो गुणः शब्दः आकाशमात्रवृत्तिः ।........... सर्वव्यवहारहेतुर्ज्ञानं बुद्धिः,..."सर्वेषामनुकूलतया वेदनीयं सुखम् , सर्वेषां प्रतिकूलतया वेदनीयं दुःखम् , इच्छा कामः, क्रोधो द्वेषः, कृतिः प्रयत्नः, विहितकर्मजन्यो धर्मः, निषिद्धकर्मजन्यस्त्वधर्मः, बुद्ध्यादयोऽष्टावात्ममात्रविशेषगुणाः ।" इति अन्नम्भट्टविरचिते तर्कसङ्ग्रहे॥ ४“इदानीं सङ्ख्य दीनुपक्रमते, भेदव्यवहारहेतुः सङ्ख्या, साधुना रूपादिव्यतिरिक्तेत्येतदर्थमाह - रूपरसगन्धस्पर्शव्यतिरेकादर्थान्तरमेकत्वं तथा पृथक्त्वम् [वै० सू० १२।१], 'एकोऽयम्' इत्यादिप्रत्ययो न रूपादिनिमित्तः तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् । रूपादिनिमित्तो हि 'रूपवान्' इत्यादिप्रत्ययः स्यात् । तस्मादर्थान्तरनिमित्तः । एकत्वैकपृथक्त्वे कार्येषु कारणगुणपूर्वे । द्वित्वादेरेकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः । तथैव द्विपृथक्त्वादेः पृथक्त्वेभ्यः, किन्तु एकपृथक्त्वाद्यपरसामान्याभावः । तयोर्नित्यत्वानित्यत्वे तेजसो रूपस्पर्शाभ्यां व्याख्याते [वै० सू० ॥२॥२]. यथा द्रव्यनित्यत्वात् तेजःपरमाणुरूपस्पशौं नित्यौ एवमेकत्वैकपृथक्त्वे नित्यद्रव्यवर्तिनी निये, यथा चानित्ये तेजसि द्रव्यानित्यत्वाचानित्यौ रूपस्पशौं तथैव कार्यवर्तिनी अनित्ये एकत्वैकपृथक्त्वे। निवृत्तिश्च (निष्पत्तिश्च T)[वै० सू० ॥२॥३], यथा च तेजसि कार्ये कारणगुणपूर्वा रूपस्पर्शयोस्त्पत्तिरेवमेकत्वपृथक्त्वयोः । एवं गुरुत्वद्रवत्वस्नेहानाम् ।" इति चन्द्रानन्दविरचिताय वैशेषिकसूत्रवृत्ती P.पृ. २७॥ ५ इतिशब्दः य इति इतिशब्द: भा०॥ ६श्चकार प्र०॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [षष्ठविधिनियमविध्यरसमाप्तिः ___ अयं च षड्दो द्रव्यास्तिक उपवर्णितः । एषु च पर्यवशब्दो भाववचनः, पर्यायशब्दः समन्ताद्गतिवचनः । विशेषेण तु यथादर्शनमेव विध्यादिषु प्रत्येक व्याख्यातखरूपभेदमनुगन्तव्यं सर्वगतिसामान्यमत्यजद्भिः । द्रव्यशब्दार्थस्तत्र तत्र व्याख्यात एव। । अयं चेत्यतीतान् पञ्चैतं च षष्ठं सम्पिण्ड्य एकस्य त्रिशतभेदस्य सङ्केपेण षड् भेदाः, तत्र 'विधिः 'विधि[विधिः विधिविधिनियम] 'विधिनियमः 'विधिनियमं षष्ठश्चायं विधिनियमविधिरिति षड्नेदो द्रव्यास्तिक उपवर्णितः, षडप्येते भेदा द्रव्यास्तिकस्यैवेत्यर्थः । . एषु च षट्सु नयेषु पर्यवशब्दो भाववचनः समन्ताद् भवनात् पर्यवः सर्वात्मना भवनात् । पर्यायशब्दः समन्ताद्गतिवचनः, समन्ताद् गमनात् पर्यायः, द्रव्यस्य वर्णाद्यात्मना परितो गमनात् । 10 अयं च विग्रहार्थः षण्णामपि सामान्येन द्रष्टव्यः, विशेषेण तु यथादर्शनमेव विध्यादिषु प्रत्येकं व्याख्यात३१५-२ स्वरूपभेदमनुगन्तव्यं सर्वगतिसामान्यमत्यज द्भिः, सर्वस्य सर्वात्मकत्वात् एकस्य सर्वात्मकत्वात् एकैकस्य सर्वात्मकत्वात् सर्वस्य चैकैकात्मकत्वात् सर्वगतिमेव यथादर्शनमाह । द्रव्यशब्दार्थस्तत्र तत्र व्याख्यात एव यथादर्शनं द्रव्यप्राधान्यात् , पर्यायोपसर्जनादिहान्ते पर्यायशब्दो व्याख्यातः । 8 इति द्रव्यार्थनयविकल्पाः समाप्ताः॥ XXXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxx १ अत्र 'एषु च समन्ताद् भवनात् पर्यवः, समन्ताद् गमनात् पर्यायः।' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ २ दृश्यतां पृ० ४५१ पं० ३ ॥ ३ष्टद्रव्यः प्र० ॥ ४ पर्ययों प्र०॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् । - अथ सप्तम उभयोभयारः। यद्यसत् कार्य नोत्पद्येत असन्निहितभवितृकत्वात् खपुष्पवत् । खपुष्पमपि वोत्पद्येत असन्निहितभवितृकत्वात् कार्यवत् । खपुष्पसत्त्वस्याश्रयो नास्तीति चेत्, न, इतरत्रापि तुल्यत्वात् । घटस्य मृदोऽतत्त्वाद् घटादिसत्त्वस्याप्याश्रयो नास्त्येव उत्पत्स्यमानस्य असतः सत्तासमवायित्वात् । इदानीं पर्यायनयप्रथमशिराप्रदिदर्शयिषया अनन्तरनिर्दिष्टवैशेषिकोभयविधिनिराचिकीर्षया चोत्तरः समनन्तरानुलोमत्वात् पूर्वविरुद्धत्वानिवृत्तनिरनुशयत्वाच्च नयानामसत्कार्यवादमेव दूषयितुमाह - यद्यसदित्यादि । आस्तां तावदस्मन्मतम् , पूर्वनयमतेनैवैतत् त्वदर्शनमनुपपन्नमिति ब्रमः, द्रव्यार्थिकनयानां सन्निहितभवितृकभवनाभ्युपगमाद् नासत् कार्यमुत्पत्तुमर्हति, असन्निहितभवितृकत्वात् , खपुष्पवत् । खपुष्पमपि 'वोत्पघेतासन्निहितभवितृकत्वात् कार्यवत् । षट्पदार्थसंसर्गवादस्य सत्तासमवायबलेन प्रवृत्तत्वात 10 सत्तासमवायोन्मूलनात् तत्रस्यैवोन्मूलनमित्यभिप्रायेणायं सत्तासमवायविचारप्रस्ताव इति । खपुष्पसत्त्वस्याश्रयो नास्तीति चेत् । स्यान्मतम् – कारणद्रव्येष्वाश्रयभूतेषु सत्स्वेव सत्तासमवायात् कार्य प्रागसत् पश्चादुत्पद्यते, खपुष्पं तु निराश्रयत्वाद् नोत्पत्स्यते कार्यवैधादिति । एतच्च न, इतरत्रापि तुल्यत्वात् , कार्यमपि हि निराश्रयमसत्त्वादेव खपुष्पवत् , अतो न कश्चित् कार्यखपुष्पयोर्वि-१७ शेषः । किं कारणम् ? घटस्य कार्यस्य मृदोऽतत्त्वात् , मृद्रव्यस्य पिण्डादिरूपैर्भवितृणो न तत्त्वं त्वन्मते ।। पिण्डादि कार्यमसत्त्वात् । तस्माद् घटादिसत्त्वस्याप्याश्रयो नास्त्येव खपुष्पादिसत्त्वस्येव । त्वन्मतेनैवोत्पत्स्यमानस्य पिण्डघटादेः कार्यस्य निःसत्तासमवायस्याऽसतः सत्तासमवायित्वात् सत्तासमवायित्वाभ्युपगमात् उत्पन्न ह्याश्रयमाश्रयन्त्याश्रयिणः सत्तादयः [ ] इति सिद्धान्तात् तस्यां ह्यवस्थायां १ भयमविधि प्र० ॥ २ 'रुद्धानिवृत्त भा० । 'रुद्धान्निवृत्ति य० । दृश्यतां पृ० २२१ पं० ८ ॥ ३ दृश्यतां पृ० ३१७-२ पं० २॥ ४ चोत्पद्यतासन्नि प्र० । दृश्यतां पृ० ३२३-१ । अत्र वोत्पद्यतामसन्निहित. भवितकत्वात् इत्यपि पाठः स्यात् , तुलना पृ० ३५१-२॥ ५ स्यासतः सतः सत्ता भा० ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् सप्तम उभयोभयारे अथाश्रयिसमवायाहतेऽपि कार्य खेनैवास्तित्वेनोत्पन्नमाश्रयो भवति खपुष्पवैधhण, एवं तर्हि तस्य स्वत एव सतः किं तदतिरिक्तसत्तासम्बन्धकल्पनया प्रयोजनम् ? कार्यखपुष्पयोराश्रयकृतविशेषाभावो वा। यद्यसत् सद् भवति, विशेषहेतुर्वक्तव्यः-खपुष्पं कस्मान्नोत्पद्यते? घटादि कस्मादुत्पद्यते? 6 अथोच्येत-कारणवदकारणविशेषात् । यद्यकारणं नोत्पद्यते तत्पुरुषवाच्यं ततः कार्य नोत्पद्यत एव कारणमेवोत्पद्यते इति स एव कारणवादः परिगृहीतः स्यात् । अथ बहुव्रीहिसमासाश्रयणम् , तन्नोत्पद्यतेऽविद्यमानकारणत्वाद् घटवत्; स्वयमसतः कार्यस्याश्रयस्वाभावात् खपुष्पमुत्पन्नमाश्रयम्त्वाश्रयिण इत्यहो परमताकिङ्करत्वं भवतामिति । सत्तायाः समवायाभावे च कुतः कार्योत्पत्तिः ? इति । 10 अथाश्रयीत्यादि । अथैतस्मात् खपुष्पतुल्यत्वापत्तिदोषभयात् सत्ताया आश्रयिण्याः समवायाहतेऽपि सत् कार्य तदाश्रयभूतं स्खेनैवा स्तित्वेन स्वभावसत्तयैवोत्पन्नमाश्रयो भवति कदाचिदप्यनुत्पत्स्यमानस्य खपुष्पस्य वैधयेणेतीष्यते, तत एवं तहीत्यादि, इष्यत एवैतदस्माभिः 'स्वेनैव महिना तत् सत्' इति, न तु त्वया । त्वया चैवमस्माभिरिवेष्यमाणे खरविषाणाद्यसद्विलक्षणस्य तस्य कार्यस्य स्वत एव सतः किं तदतिरिक्तसत्तासम्बन्धकल्पनया प्रयोजनम् ? न किञ्चित् तेन कल्पितेनेत्यर्थः, सत्तासम्बन्धानर्थक्यम् , 15 अतः सर्वद्रव्यगुणकर्मादिकारणसमवायिकार्यसंसर्गवादो निवर्तते तस्मादेव । तदनिष्टानभ्युपगमे यो मया ११६.२ प्रागुक्तः कार्यखपुष्पयोराश्रयकृतविशेषाभावो वा, तत्र तुल्ये तयोरसत्त्वे कार्यमेवोत्पद्यते खपुष्पमेव नोत्पद्यत इति को विशेषहेतुः ? तद्वयक्तिः - यद्यसदित्यादि गतार्थं यावद् घटादि कस्मादुत्पद्यत इति , इत्यतः कार्यखपुष्पयोरविशेषदोषस्तवस्थः । ___अथान्यथैतदोषपरिहारार्थमुच्येत-कारणवदकारणविशेषात् , यथासङ्ख्यं सकारणं घटादि 20 खपुष्पमकारणमित्यस्ति विशेषः, कारणैः समवाय्यसमवायिभिर्घटीदि सम्बध्यते न तु खपुष्पादीति । स एव स्वाभिप्रायं विवृणोति - यद्यकारणं नोत्पद्यते तत्पुरुषवाच्यमिति 'न भवति कारणमित्यकारणम्' इत्थं तत्पुरुषसमासश्चेदिष्टः ततः कार्य नोत्पद्यत एव कारणमेवोत्पद्यते, तस्यैव विधिविध्यादिप्राच्य'नयदर्शनात् कार्यतयोत्पादात् स एव कारणवादः परिगृहीतः स्यात्, स च मया नेष्टः । तस्मात् तत्पुरुषे नैव विचारः कार्यः । अथ यस्य न कारणं तदकारणमिति बहुव्रीहिसमासाश्रयणं तन्नोत्पद्यते 25 कार्य तस्यां बहुव्रीहिकल्पनायामविद्यमानकारणत्वात् खपुष्पवत् । घटवदिति वैधर्म्यम् , यथा घट उत्पद्यते न तथेति । ततः किम् ? ततोऽनुत्पन्नत्वात् तदनाश्रयः सत्तायाः, सत्तानाश्रयत्वात् तत्सम्बन्धाभावाच्च न १श्रयंत्यायिण प्र० ॥ २ 'किंकत्वं भा० । ( परमतकिङ्करत्वं ?)॥ ३ सत्ताया प्र० ॥ ४ अथैव तस्मात् प्र० । (अथ वैतस्मात् ?)॥ ५ तुल्ये जयो प्र० । (तुल्येऽनयो ?)॥ ६°टादिभि सम्ब' पा० डे. भा० । टादिभिः सम्ब० वि० । (टादि अभिसम्ब?) ॥ ७ वाच्यं इति भा० । वाच्य इति य० । (°वाक्यमिति ? वाक्ये इति)॥ ८°समाश्रयणं प्र० । दृश्यतां पृ० ३२०-१॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तासमवायनिराकरणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४५७ एवं तर्हि सर्वासत्त्वप्रसङ्गः परमाण्यवादीनामकारणत्वादनुत्पन्नत्वादनाश्रयत्वे सत्तासमवायाभावः, तेषां ह्याश्रयत्वे सत्त्वसमवाय इष्टः, ततः सत्तासमवायाभावात् कारणानां परमाण्वादीनामभावात् कार्यस्य कार्यसमवायिनां च खपुष्पाद न कश्चिद् विशेष इति सर्वशून्यतेति सर्वविरोधाः। अथोच्येत- नित्योत्पन्नत्वात् खसद्भावेनैव सन्ति परमाण्वाकाशादीनि, कार्य-5 द्रव्यगुणकर्मणामेव सत्तासमवायात् सत्त्वमिति । एवं तर्हि आकाशपरमाण्वादिषु अनुपनिपातिखरूपत्वादात्माभेदाच न केनचित् सम्बन्धोऽस्याः स्यात् । असति च सम्बन्धे यथा सत्ता सती एव पदार्थत्वात् स्वरूपसद्भावाच तथा तान्यपि द्रव्यगुण सत्कार्यमिति । अत्रोच्यते - एवं तर्हि सर्वासत्त्वप्रसङ्ग इत्यादि यावत् सर्वशून्यतेति सर्वविरोधा इति । परमाणवोऽकारणत्वाद् वियदादीनि च नोत्पद्यन्ते, अनुत्पन्नत्वादनाश्रयः सत्तायाः, तदनाश्रयत्वे 10 सत्तासमवायाभावः, तेषां ह्याश्रयत्वे सत्त्वसमवाय इष्ट इति तद्वैधयं दर्शयति । ततश्च सत्तासमवाया-३१७ १ भावात् खपुष्पवत् कारणानां परमाण्वादीनामभावः, तदभावात् कार्यमकारणत्वादनाधारं क समवैतु ? तस्मात् कारणासमवायित्वात् खपुष्पात् तस्य न कश्चिद् विशेषः, अतः प्रागुक्ताविशेषदोषस्तदवस्थः कार्यसमवायिभिः परमाणुभिः सहितस्य कार्यस्येदानी प्रापितस्त्वयैव, कार्ये समवेतानां रूपादिघटत्वाद्युत्क्षेपणादीनां कार्यसमवायिनां चेति विग्रहान्तरात् । ततः किमिति चेत् , उच्यते - इति सर्वशून्यता, इति सर्वभावा न सन्तीति ।। ब्रुवतः परमशून्यवादिता भवतः इतिशब्दनिगमनार्थत्वात् । इति सर्वविरोधाः, इत्थं स्ववचनाभ्युपगमप्रत्यक्षानुमानरूढिविरोधाः सर्वासद्वादिनः प्रमाणाभावात् । कारणाकारणकार्याकार्यविरोधाविरोधलक्षणभेदसूत्राणां सदाद्यविशेषसूत्रस्य च सत्तासमवायप्राणोत्थानत्वात् किमवशिष्टं स्याच्छास्त्रस्य तन्नानात्वप्रयोजनस्य वैशेषिकाख्यस्य कार्यकारणखपुष्पाविशेषादिति । - इत्थं प्रागसतः सकारणस्य कार्यस्य खपुष्पाविशेषो मा भूदिति अथोच्येत-नित्योत्पन्नत्वा- 20 :, वित्यादि । स्वसद्भावेनैव सन्ति पृथिव्यादिचतुर्विधपरमाण्वाकाशकालदिगात्ममनांसि द्रव्याणि सत्तासमवायौ गुणाश्च विभुपरिमण्डलादयः । किन्तु कार्यद्रव्यगुणकर्मणामेव सत्तासमवायात् सत्त्वमिति । अत्रोच्यते - एवं तह-त्यादि यावत् तत्पदार्थत्ववदिति । यथाकाशपरमाण्वादिषु नोपनिपतितुं शीलमस्याः सत्तायास्तथा कार्यद्रव्यगुणकर्मस्वपि सत्तास्वरूपत्वादनुपनिपातिस्वरूपत्वम् , अनुपनिपातिस्वरूपत्वाच्चात्माभेदस्तस्याः सर्वपरमाण्वाकाशादिष्वगंगनादिपदार्थेष्वात्माभेदाच्च न केनचित् सम्बन्धोऽस्याः स्यात् । असति च ३१७-२ सम्बन्धे यथा सत्ता सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वादिसम्बन्धाभावे सत्येव पदार्थत्वात् स्वरूपसद्भावाच्च 'स्वात्मस्वरूपं खात्मनि आदधाति' इत्येवंस्वरूपा तथा सत्तादिसमवायमन्तरेण तान्यपि कार्यद्रव्यगुणकर्माणि भवन्तु आकाशपरमाण्वादिवत् सत्तावञ्चेति किं तद्वयतिरिक्तसत्ताद्रव्यत्वादिसमवायकल्पनया ? तस्माद्धेतुफलवन्ध्य १°त्वात् नाश्रयः य० ॥ २'यत्वा(यत्वात् ?) सत्ता भा० । 'यत्व सत्ता य० ॥ ३°णात्सम प्र०॥ ४ कार्यसम पा० ॥ ५ दृश्यतां वैशेषिकदर्शनस्य प्रथमाध्यायस्य प्रथममाह्निकम् । दृश्यतां पृ० ४३७ दि० ५,८, पृ० ४४० टि० ५,६॥ ६सत्तासत्तालमवाय भा० । दृश्यतां पृ० ४५५ पं० ११ ॥ ७°गमनादि प्र. .. नय०५८ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ न्यायागमानुसारिणीवृस्यलङ्कृतम् [ सप्तम उभयोभयारे कर्माणि भवन्तु तत्पदार्थत्ववदिति सत्तासम्बन्धात् सन्ति द्रव्यादीनीत्ययुक्तम् । ततोऽनुपपन्नविकल्पत्वात् सत्तासमवायस्य सत्ताद्रव्यत्व गुणत्वकर्मत्वरूपत्वादिसम्बन्धात् सद्रव्यगुणकर्मरूपादय इत्याद्यविशेष-लक्षणविरोधाविरोधारम्भानारम्भादिविशेषधर्माभिधानमयुक्तं सर्ववाक्यानृतत्ववत् । ० त्वादभावः स्यात् सत्ता समवाययोः खपुष्पवदिति । इति सत्तासम्बन्धात् सन्ति द्रव्यादीनि इत्ययुक्तम्, तस्मात् सत्तासम्बन्धाद् द्रव्यं सद् गुणः सन् कर्म सच्चेत्ययुक्तम् । आदिग्रहणाद् 'द्रव्यत्वाभिसम्बन्धाद् द्रव्याणि पृथिव्यादीनि, गुणत्वाभिसम्बन्धाद् गुणा रूपादयः, कर्मत्वाभिसम्बन्धात् कर्माणि गमनादीनि' इत्ययुक्तम्, इतिशब्दस्य निगमनार्थत्वाद् एवं तावद् यत् प्रत्यज्ञासिष्महि - असन्निहितभविकत्वात् खपुष्पवत् कार्यमसदिति पूर्वनयदर्शनेनैव तदुपापीपदामेति । 10 इत उत्तरमस्मादेव न्यायात् कटन्द्यां टीकायां च यत् पूर्वपेक्षितं तदेव समर्थयितुमाह - ततोऽनुपपन्नविकल्पत्वादित्यादि उद्देशवाक्यम् । सत्तासम्बन्धात् सन्ति द्रव्यत्वाद् द्रव्याणि, गुणत्वाद् गुणाः, कर्मत्वात् कर्माणि, रूपत्वाद् रूपम्, आदिग्रहणात् पृथिवीत्वादिभ्यः पृथिव्यादयः रसत्वादिभ्यो रसादयः, गमनत्वादिभ्यो गमनादय इत्यादि । क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यलक्षणम् । द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् । एकद्रव्यमगुणं संयोग विभागेष्वैनपेक्षं 15 कारणमिति कर्मलक्षणम् [ वै० सू० १।१।१४-१६] इत्यादिना द्रव्यादीनां नानात्वं विरोध्यविरोध्यारम्भानारम्भकार्यकारणादिभिश्च सत्तादिभ्यश्च त्रिभ्यः सदनित्यै द्रव्यवत् कार्य कारणं सामान्यविशेषवदिति द्रव्यगुणकर्मणामविशेषः [ बै० सू० १।१।७ ] इति षडविशेषमुखेन विशेषाभिधानं सत्तासमवायबीजं सर्वत्र तत् सर्वमयुक्तं वक्तुम् । कस्मात् ? अनुपपन्नविकल्पत्वात्, सर्ववाक्यानृतत्ववत्, यथा 'सर्वं मदीयं त्वदीयमन्यदीयं च वाक्यमनृतम्' इति ब्रुवाणस्य तस्य वाक्यं सत्यमनृतं सत्यानृतं वा स्यात् ? सर्वथा 20 नोपपद्यते । यदि तद् वाक्यमप्यनृतं सत्यानृतं वा ततः सर्ववाक्यानृतत्वप्रतिपादनासमर्थम् स्वयमप्रमाण३१८-१ त्वात्, अप्रमाणत्वमसत्यत्वात् । अथ सत्यं न तर्हि सर्वमनृतम्, तस्य सर्वान्तः पातित्वात् तत्सत्यत्ववच्छेषस्यापि सत्यत्वात् सर्वथानुपपन्नं वाक्यमेवं 'सत्तासमवायात् सत्' इत्यादिसदाद्यविशेषलक्षण विरोधारम्भादि १त्वाभावः प्र० ॥ २ महि सन्न प्र० । दृश्यतां पृ० ४५५ पं० १ ॥ ३ पक्षिस्तं भा० । पक्षस्तं य० ॥ ४ अत्र 'समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्' इत्यपि पाठः स्यात्, दृश्यतां पृ० ४४० टि०५ ॥ ५ नपेक्ष य० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ४४० टि० ५ ॥ ७ दृश्यतां पृ० ४५७ टि० ५ ॥ ८ " विज्ञातसाधर्म्यवैधर्म्याणां च द्रव्यादीनामभ्युदयनिःश्रेयसहेतुत्वात् साधर्म्य तावत् कथयति सदनित्यं द्रव्यवत् कार्य कारणं सामान्यविशेषवदिति द्रव्यगुणकर्मणामविशेषः [ वै० सू० १1१1७ ], 'सद् द्रव्यं सन् गुणः सत् कर्म' इति सत्ता त्रयाणामविशेषः तथैव अनित्यत्वमन्यत्राकाशादिभ्यः । द्रव्यवदिति समवायिकारणवत्त्वमविशेषः परमाण्वाकाशादिवर्जम् । कार्यत्वमभूत्वा भवनं तथैवाविशेषोऽन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः । कारणत्वं कार्यजनकत्वं त्रयाणामविशेषः, क्षित्यादीनि द्रव्यगुणकर्मणां समवायिकारणम्, आकाशादीनि गुणानाम्, मनोऽन्त्यावयविद्रव्ये गुणकर्मणाम्, गुणास्तु रूपरसगन्धानुष्णस्पर्शसङ्ख्यापरिमाणैकपृथक्त्वस्नेहशब्दा असमवायिकारणम्, बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावना निमित्तकारणम्, संयोगविभागौष्ण्यगुरुत्वद्रवत्ववेगा उभयथा कारणम्, परत्वापरत्वद्वित्वद्विपृथक्त्व पारिमाण्डल्यादयोऽकारणम्, कर्माणि संयोगविभागेष्वसमवायिकारणम् । सामान्यानि च तानि द्रव्यत्वादीनि विशेषाश्च त इति सामान्यविशेषाः, तद्वत्ता त्रयाणामविशेषः ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० ७ ॥ ९ अ सत्यं प्र० ॥ १० अत्र विरोधाविरोधारम्भानारम्भादि इत्यपि पाठः स्यात् ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तायाः सत्करत्वखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४५९ इह प्राक् सत्तासम्बन्धात् संतां वा असतां वा सदसतां वा द्रव्यादीनां सत्करी सत्ता? ने तावदसतां सत्करी सत्ता शशविषाणादीनामपि सत्करत्वप्रसङ्गात् । नापि सतां भूतत्वात् सत्तावत् प्रकाशितप्रकाशनवैयर्थ्यवत् । सतां च पुनः सत्तासम्बन्धात् सत्त्वादनवस्थाप्रसङ्गात् । प्राक् तत् सत्तासम्बन्धात् किमात्मकमिति स्वरूपावधारणं कार्यम्, अन्यथाऽसत्त्वात् । नापि सदसताम् , ऐकात्म्यानुपपत्तेः । घटखपुष्पवत् । उभयदोषप्रसङ्गाच, यदसत् तत् खरविषाणतुल्यम्, यत् सत् तत्र सत्तासम्बन्धो व्यर्थः, सदसतोवैधात् कार्ये सदसत्ता न [वै० सू० ९।१।१२] इति च त्वन्मतसिद्धानुपपत्तिरेवायं विकल्पः । तस्माद् विकल्पानुपपत्तेर्न सत्तासम्बन्धोऽभिधानप्रत्ययहेतुः। विशेषधर्मापादनवाक्यानि नोपपन्नानि, सर्वपदार्थानां वैशेषिकीयाणां सत्तासमवायमूलविशेषात्मकत्वाद् 10 द्रव्यादिकार्योत्पत्तिविचारप्रकृतेश्च तदेव विचार्यते तत्प्राणत्वाद् वैशेषिकीयतत्रस्येति । स्यान्मतम् – कथं पुनरनुपपन्नविकल्पत्वं सत्तासमवायस्य ? इति, अत्रोच्यते - इह प्राक् सत्तासम्बन्धात् सतां वेत्यादिविकल्पत्रयोपन्यासो गतार्थः, एवं भवन्मतं स्यात् । तदुत्तरम् - न तावदसतामित्यादि । लघुत्वादुत्क्रमेणासतां सत्तासम्बन्धात् सदभिधानप्रत्ययप्रतिषेधः प्रागिति ।। नापि सतामिति वैयर्थ्यांपादनं भूतत्वात् सत्तावदिति गतार्थम् । प्रकाशितप्रकाशनवैयर्थ्यव-11 दिति द्वितीयमुदाहरणं लोकसिद्धं शास्त्रसिद्धात् सत्तोदाहरणाद् भेदेनोपन्यस्तमिति विशेषः । न वैयर्थ्यदोष एवास्मिन् विकल्पे, किं तर्हि ? सतां च पुनः सत्तासम्बन्धात् सत्त्वादनवस्थाप्रसङ्गादिति, विद्यमानानामेव पुनरपि सत्तासम्बन्धात् सत्त्वेष्टौ सत्ताया अपि तत्सत्त्वाभिधानप्रत्ययकर्याः सत्तान्तरसम्बन्धात् सत्त्वम् , वस्या अपि तथेत्यनवस्था स्यात् । किश्चान्यत् , प्राक् तत् सत्तासम्बन्धादित्यादि यावदन्यथाऽसत्त्वादिति । तञ्च द्रव्यादि पूर्व सत्तासम्बन्धात् किमात्मकम् ? इति स्वरूपावधारणं कार्यम् । 20 तस्यामवस्थायां सत्तासम्बन्धशून्यत्वाद् नैवास्ति तत्, अनवधृतात्मकत्वात् , खपुष्पवत् । अन्यथाऽस-३१ त्वात् अनवधृतात्मकत्वे तस्यासत्त्वादिति । नापि सदसतामिति तृतीयविकल्पस्योत्तरम् । ऐकात्म्यानुपपत्तेरित्यनेकान्तवादाभ्युपगमस्य पूर्वाभ्युपगमेन विरोधात् । अथवा ऐकात्म्यानुपपत्तरिति अनाहतनयेन प्रकाशतमसोरिवात्यन्तवैधात् 'सत् सोपाख्यम् असद् निरुपाख्यम्' तयोः सदसतोवैधादेकत्र न युज्यते सदसत्त्वम् । घटखपुष्पवविति, 25 घटः सोपाख्यः सत्त्वात् , असत्त्वात् खपुष्पं निरुपाख्यमिति वैधादेकत्वाभावस्तयोरेवं सदसदात्मकं कार्यमित्ययुक्तम् । किश्चान्यत् , उभयदोषप्रसङ्गाच्च । तद्वथाचष्टे-यदसत् तेत् खरविषाणेत्यादि यावत् त्वन्मतसिद्धानुपपत्तिरेवायं विकल्प इति । असत्पक्षे खपुष्पादविशेषः, सत्पक्षे सत्तासम्बन्ध १ दृश्यतां पृ० ४६१ पं० ९॥२ दृश्यतां पृ० ४६१ पं० १४ ॥३ वैशेषिकमतंचस्येति भा० । वैशेषिकयतं च तस्येति य० ॥ ४प्राक्त सत्ता भा० । प्रात्क सत्ता य० । अत्र प्राक सत्ता इत्यपि पाठः स्यात्, एवं सति मूलमपि 'प्राक् सत्तासम्बन्धात् तत् किमात्मकम्' इति कल्पनीयम् । (प्राक् च सत्ता?)॥ ५ तच्छविषा भा० । (तच्छशविषा?)॥ ६°ष्पादिविशेषः भा० । पाविशेषाः य०॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् - [सप्तम उभयोभयारे नन्वगुणादिवद् द्रव्यादीनां सत्तासम्बन्धः प्रतिषिध्यते न तु स्वरूपसद्भाव इति सत्ता नैवासतां सत्करी । एष विकल्पोऽनुपपन्न इति त्वयैव तर्हि कृतम् । एवमपि नैवैतत्, सत्तासम्बन्धात् प्राक् खभावसद्भूतकार्यासत्त्वप्रतिपादनद्वारेणायं विचारः प्रस्तुत एव।। 5 ननु स प्राग्विषयासत्सत्करत्वे शशविषाणादिसत्करत्वप्रसङ्गस्तदवस्था, द्रव्यादीनां खत एवास्तित्वे सत्तासम्बन्धो व्यर्थः स्यादतोऽसत्सत्करत्वमेव सत्तायाः, वैयर्थ्यम् , सदसतोवैधात् कार्ये सदसत्ता न [वै० सू० ९।१११२] इति च त्वन्मताविरुद्धमेवानुपपन्नत्वम् । तस्माद् विकल्पानुपपत्तेर्न सत्तासम्बन्धोऽभिधानप्रत्ययहेतुरिति निगमनम् । . आह - नन्वगुणादीत्यादि यावद् नैवासतां सत्करीति । अस्तु तावत् सतामेव सत्करी सता 10 नासताम् , यथा मया प्रागुक्तो दृष्टान्तः स्वभावसद्भावप्रतिपादनार्थं भावस्य यथा नास्य गुणोऽस्तीत्यगुणो गुण एव सन्नगुण इत्युच्यते तथा स्वभावसद्भावसन्नेव भावो नास्त्यस्य सन्नित्यसन्नुच्यते न तु स्वयमसन्निति, तथा द्रव्यादयोऽपि सन्तः, तेषां तु सत्तया सह सम्बन्धः प्रतिषिध्यते न तु स्वरूपसद्भाव इत्यतो ३१९-१नैवासतां सत्करी सत्ता, किं तर्हि ? सतामेव । तस्मादसतां सत्तासम्बन्धानभ्युपगमाददोष इति । अत्रोच्यते - एष विकल्पोऽनुपपन्न इति त्वयैव तर्हि कृतम् , एवं ब्रुवता त्वयैव तर्हि 'असतां 10 सत्करी सत्ता न भवति' इत्येतदस्मदनुष्ठेयमनुष्ठितम् , अतोऽस्य सिद्धत्वादत्र वयं निश्चिताः संवृत्ताः । अपि च - एवमपि नैवैतदित्यादि । यद्यपि मया त्वदनभिज्ञताख्यापनार्थमुक्तम् - असतां सत्तासम्बन्धो नास्तीति । नैतदप्येवम् । किन्त्वसतामेव सत्तासम्बन्धः स्याद् वा न वा ? इति विचार्यम् । किं कारणमिति चेत्, उच्यते - शशविषाणादिसत्करत्वप्रसङ्गः । सत्तासम्बन्धात् प्राक् तद्विषयो द्रव्यादि कार्य तत् । स्वभावेनैव किं सत् ? उत सत्तासम्बन्धात् सत् ? इत्येतस्मिन् सन्देहे स्वभावसद्भूतस्य कार्यस्यासत्त्व20 प्रतिपादनद्वारेणायं विचारः प्रस्तुत एवेति कथं प्रस्तुतपरित्यागेन परिहारो युज्यत इत्यभिप्रायः । । अपि च ननु स प्राग्विषयेत्यादि । योऽयमस्माभिः प्रागुद्राहितः यद्यसत् सद् भवति इत्यादिनोपपत्तिप्रन्थेन अगुणगुणस्थानीयसत्ताया एवाभाव इति यद्यविद्यमानं द्रव्यादिविषयं सत्ता स्वयमसती सन्तं कुर्यात् शशविषाणादीन् बन्ध्यापुत्रादिः संतः कुर्यादित्येष प्रसङ्ग आपिपादयिषितस्तदवस्थः । एतदनिच्छतो द्रव्यादीनां स्वत एवास्तित्वे सत्तासम्बन्धो व्यर्थः स्यादित्येष वा दोषः निर्विषयत्वात् सत्तासम्बन्धस्य, अनिष्टं . १ "सिकताभ्योऽनुत्पत्तेर्दनः क्षीराच्चोत्पत्तेः प्रत्यक्षेण चाग्रहणात् सदसत् कार्य कारणे । सदसतोर्वैधात् कार्ये सदसत्ता न [वै० सू० ९।१।१२], सत्त्वासत्त्वयोर्युगपद्विरुद्धत्वान्न सदसत् कार्य कारणे, तस्मादसदेव ।” इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० ३१। "नासन्न सन्न सदसत् सदसतोधात् [न्या० सू० ४।१।४८], प्रागू निष्पत्तेर्निष्पत्तिधर्मकं नासत् उपादाननियमात् , कस्यचिदुत्पत्तये किञ्चिदुपादेयं न सर्वं सर्वस्येत्यसद्भावे नियमो नोपपद्यते इति । न सत्, प्रागुत्पत्तेर्विद्यमानस्योत्पत्तिरनुपपन्नेति । न सदसत्, सदसतोवैधात् , 'सत्' इत्यर्थाभ्यनुज्ञा 'असत्' इत्यर्थप्रतिषेधः, एतयोाघातो वैधर्म्यम् , व्याघातादव्यतिरेकानुपपत्तिरिति ।" इति न्यायभाष्ये ॥ २ त्वन्मतविरुद्धमेवानुपपन्नत्वम् प्र.। (त्वन्मतसिद्धमेवानुपपन्नत्वम् ?)॥ ३ दृश्यतां पृ० ४४५ पं० ३॥ ४ दृश्यतां पृ. ४५६ पं० ३, पृ० ४५९ पं० २॥ ५संत रं० । संतं पा० वि० भा० । सतं डे० ॥ ६ स्तथावस्थः य० ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमंतिमतनिरूपणम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४६६ तचाप्येवमनुपपन्नमसत्सत्करत्वम् । योऽपि चावयवार्थविकल्पेषु अन्त्यो व्युत्पत्तिविकल्पः सोऽप्येवमनुपपन्नः। न, साध्येनानभिसम्बन्धात्.........असाधनत्वम् । प्रतिज्ञाविशेषो वा...... प्रतिविशिष्टत्वम् । अथ द्रव्यादीनाम् ....... तेषामसत्त्वमसिद्धं द्रव्याद्यभ्युपगमे सत्त्वात्। प्रागुत्पत्तेरिति चेत् , सिद्धसाधनमेतत्, तदा तेषां सत्तासम्बन्धानभ्युप-5 गमात्। नासता सम्बध्यते सत्ता विशेषणत्वाद् दण्डवत् । यथा विशेषणस्य दण्डस्य मासता दण्डिना सम्बन्धस्तथा सत्ताया अपि । अथ सम्बध्यते, सत्ताया एव हि सामथ्यात् तस्या आधारीभवति सद्व्यादि, चैतत् । अतोऽसत्सत्करत्वमेव सत्ताया इत्येष एव विकल्पो भवितुमर्हति । तच्चाप्येवमनुपपन्नमस-10 त्सत्करत्वं विचारितविधिनेत्युपसंहरति ।। योऽपि चावयवार्थेत्यादि । 'अनुपपन्नविकल्पत्वात्' इत्यस्य साधनस्यावयवार्थाः संतामसतां सदसतां वा द्रव्यादीनां सत्करी सत्ता इति विकल्पाः, तेषु 'नासतां सत्करी' इत्यस्य विकल्पस्य उपपाद-३१९-२ नार्थ यानि साधनानि व्युत्पादितानि पूर्वपक्षीकृत्य व्यावर्तितानि च, तेषु योऽन्त्यो व्युत्पत्तिविकल्पः सुष्टु: व्युत्पाद्य व्यावर्तितः पूर्वपक्ष इत्यभिमतः सोऽप्येवमनुपपन्न इति विचारपर्यन्तस्योत्तरस्यानुपपत्तौ तुष-18 कण्डवत् सर्वविचारनैरर्थक्यात् पूर्वपक्ष एवोत्तरपक्षो भवतीत्यभिप्रायः । यत् तावदुक्तम् - नासतामित्यादि पूर्वपक्षो यावत् सत्करत्वप्रसङ्गादिति अत्र प्रक्रान्तं प्रशस्तमतिनान, साध्येनानभिसंबन्धादित्युत्तरं यावदसाधनत्वमित्येष प्रथमो व्युत्पत्तिविकल्पः । प्रतिज्ञाविशेषो वेत्यादि द्वितीयो गतार्थः सोत्तरो यावत् प्रतिविशिष्टत्वम् । अथ द्रव्यादीनामित्यादिस्तृतीयः सोत्तरो यावत् तेषामसत्त्वमसिद्धम् , द्रव्याद्यभ्युपगमे संत्त्वादिति । अत्र चोद्यम् – प्रागुत्पत्तेरिति चेत् , 20 प्रागुत्पत्तेर्न सन्ति द्रव्यादीनि, तस्मादसत्त्वं सिद्धमिति । अत्रोत्तरम् - सिद्धसाधनमेतत् , तदा तेषां सत्तासम्बन्धानभ्युपगमादिति । एतेषु त्रिषु व्याख्याविकल्पेषु असारबुद्ध्या नासता सम्बध्यते सत्ता, विशेषणत्वात् , दण्डवत् । यथा विशेषणस्येत्यादि साधनव्याख्या यावत् सत्ताया अपीति । अथ सम्बध्यत इत्यादिना यावत् तदवस्थ इति पूर्वपाक्षिक एव परमतमाशङ्कयोत्तरमाह-अथ 25 तव मतमसदपि द्रव्यादि सम्बध्यते सत्ताधेयस्वरूपत्वात् तत्प्रतिपाद्यसत्त्वात् सत्ताया एव हि हेतुभूतायाः - १°कल्पात प्र० । दृश्यतां पृ० ४५८ पं० २॥ २ दृश्यतां पृ० ४५९ पं० १॥ ३ दृश्यतां पृ. ४५८ पं० १०॥ ४ सत् प्र० ॥ ५ दृश्यतां पृ. ४५९ पं० २॥ ६ मतिना न शान्येना भा० । मतिना न शाच्येना २० । मतिना नाशाच्येना पा० डे० । मतिना नाशान्येना वि० । (°मतिना साध्येना?)॥ ७त्वमित्येव प्रथमो प्र०॥ ८ सत्वादि प्र० ॥ ९सत्तावेयस्व भा० । सत्तावेयंस्वय० ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे तद्वच्छशविषाणादिभिरपि सम्बध्येतेति शशविषाणादीनामपि सत्करत्वप्रसङ्गस्तदवस्थः।न, शशविषाणादिवदत्यन्तनिरात्मकत्वानभ्युपगमात् कार्यद्रव्यगुणकर्मणाम्। ननु 'असत्' इत्यत्र नत्र उत्तरपदाभिधेयनिवारणार्थत्वात् सत्प्रतिषेधार्थत्वात् कथमस्य सात्मकत्वम् ? न, अनेकान्तात्, अपुत्रब्राह्मणवदगुणगुणवत् । यथा नास्य पुत्रोऽस्तीत्यपुत्रो ब्राह्मणः नास्य गुणोऽस्तीत्यगुणो गुणः तथेहापि नास्य सदित्यसत्। न च तदपि निरात्मकं शशविषाणवत्, सत्तासम्बन्धादृतेऽपि यथा परपक्षे प्रधानादीनां सात्मकत्वं तेथेहापि स्यात् ।। त्वत्पक्षे दृष्टान्ताभाव इति चेत्, सामान्यादिवद्वा,......"सामान्यादिवदेव सामर्थ्यात् तस्या आधारीभवति सद्व्यादीति । एतदपि नोपपद्यते, यस्मात् तद्वच्छशविषाणादिभि10 रित्यादि गतार्थम् । एवं व्युत्पाद्य पूर्वपक्षं प्रशस्तमतिराहात्राप्युत्तरम् - शशविषाणादिवदत्यन्तनिरात्मकत्वानभ्युपगमात् । केषाम् ? कार्यद्रव्यगुणकर्मणाम् । द्विविधो हि भाव उक्तः स्वभावसद्भावः सम्बन्धसद्भावश्च इतरेतरासतां सात्मकानामेव संविशेषणासत्त्वादनन्यचन्द्रादिवदित्यादि पूर्वम् । तस्माच्छशविषाणादीनामेवात्यन्तासतामसत्त्वम् , न प्राक्पश्चादितरेतराद्यसतामनात्मकत्वम् । अतो द्रव्यादि १२०-१ सत्, तत्तु स्वकारणेषु समवेतं वस्त्वेव, सत्तासम्बन्धरहितमपि सात्मकमेव, न खरविषाणादिवद् निरात्मकम् । 15 तस्माद् युक्तः सत्तासम्बन्धो द्रव्यादीनाम् , न खपुष्पादीनामिति ।। ___ अत्राह - नन्वसदित्यादि यावत् कथमस्य सौत्मकत्व]मिति द्रव्यादेर्निरात्मकत्वापादनार्थो प्रन्थो गतार्थः उत्तरपदाभिधेयनिवारकत्वात् सत्प्रतिषेधार्थः, सत्प्रतिषेधार्थत्वादनात्मकमिति । अत्रोत्तरम् - न, अनेकान्तादित्यादि यावत् तथेहापि नास्य सदित्यसदिति लौकिकशास्त्रीयदृष्टान्तद्वयेन व्यभिचारप्रदर्शनार्थो बहुव्रीहिसमासाश्रयेण अपुत्रब्राह्मणवदगुणगुणवदिति च गतार्थो ग्रन्थः । एवमनात्मकत्वे[5]स्थिते 20 तस्या व्यभिचार उच्यते-न च तदपि निरात्मकमित्यादि, वैधर्येण शशविषाणवदिति । सत्तासम्बन्धरहितत्वाद् निरात्मकं खरविषाणवदित्येतत् सायबौद्धकल्पितप्रधानपुरुषपश्चस्कन्धवत् स्यात् । अथवा सत्तासम्बन्धात् सात्मकमित्येवमुच्यमाने प्रधानादिवत् सत्तासम्बन्धादृतेऽपि सात्मकत्वदर्शनादित्यव्यापिता तथेहापि स्यादिति । त्वत्पक्षे दृष्टान्ताभाव इति 'चेदित्यादि पूर्वपक्षीकृय तदुत्तरम् - सामान्यादिवद्वेत्यारभ्य यावत् 28 सामान्यादिवदेव सात्मकंन घटादिवत् सात्मकमिति वाशब्दावधारणार्थत्वव्याख्यानसहितो प्रन्थः वैशेषिकपक्षे सत्तासम्बन्धरहितसात्मकदृष्टान्ताभावे चोदिते सामान्यविशेषसमवायानां सात्मकत्ववत् स्यादिति १दृश्यतां पृ० ३३३-१॥ २ तस्याधारीभवति प्र०॥ ३ दृश्यतां पृ. ४४१ पं० ५॥ ४ दृश्यतां पृ. ४३४ पं० २॥ ५सात्मकमिति प्र०॥ ६ नार्थाग्रन्थो प्र० ॥ ७'असत' इत्यत्र नम निवारकत्वादित्याशयः । दृश्यतां पृ. ३२४-२॥ ८लौकशास्त्री प्र०॥ ९ अत्र 'एवमननात्मकत्वे स्थिते' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ १० अत्र तस्या इत्यस्य 'सत्तायाः' इत्यर्थः स्यात् । अत्र अवारस्ये तु तस्य इति पाठः कल्पनीयः॥ ११ माने व (च)प्रधा डे० वि०। माने थ प्रधा २० पा०॥ १२चेत्यादि प्र०॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४६३ सात्मकं न घटादिवत् सात्मकम् । सामान्यादीनां सात्मकत्वमसिद्धमिति चेत्, न, स्वरूपभिन्नत्वे सति अभिन्नवाग्बुद्धिव्यवहारविषयत्वाद् यद् विशेषणं तत् सामान्यम् । अत्राप्युत्तरे बह्वेव सम्प्रधार्यम्, 'अत्यन्तनिरात्मकत्वानभ्युपगमात्' इति वचनेन सदसत्त्वयोरपि विकल्पवत्त्वं वर्ण्यते - किञ्चित्सत् समस्तसदिति, एवमसदपि 15 संपूर्णनिरतिशयखात्मन एव तु सत्त्वाद् निरूप्यम् - कतमत् तत् क वा किश्चित्सत्त्वमसत्त्वं वा ? एतर्हि निरूप्यते - नन्विदमेव तदेकसत्तासदसदपि असमर्थगववत् । तार्थम् । सामान्यादीनां सात्मकत्वमसिद्धमिति चेदिति दृष्टान्ते साध्यधर्मासिद्धिचोदना । तत्परिहारः - न, स्वरूपभिन्नेत्यादि यावद् विशेषणं तत् सामान्यमिति दृष्टान्तसाधनम् । छत्रवस्त्रकम्बलादिविशेषणैश्छत्रिवस्त्रिकम्बलिनां सात्मकैरे । त्मरूपप्रत्ययकरैर्विशेषणत्ववत् स्वरूपभिन्नत्वे सति अभिन्नवाग्बुद्धिव्यवहार - 10 विषयत्वाद् विशेषणं सामान्यं सात्मकं चेत्यन्तमुत्तरमेतदिति । ३२०-२ अत्राप्युत्तरे वह्नेव सम्प्रधार्यम्, अस्मान् प्रत्येतदप्युत्तरं न निश्चलमेवेत्यभिप्रायः । यस्मादेत - दप्युत्तरं द्रव्यादीनां शशविषाणवदत्यन्तनिरात्मकत्वानभ्युपगमबलेन सप्रसङ्गमुत्थापितं शैशविषाणादीनामपि सत्करत्वप्रसङ्गस्तदवस्थः इत्यतः प्रभृति समानप्रचर्चम्, अन्यदप्यत्र वक्ष्यामः - ' -'अत्यन्त निरात्मकत्वानभ्युपगमात्' इत्यनेनैव तावद्वचनेन सदसत्त्वयोरपि विकल्पवत्त्वं वर्ण्यते, द्विधा सत् - किश्चित्सत् समस्त. 15 सदिति, ऍवमसदपीत्याभ्यां विकल्पाभ्याम् । सम्पूर्णनिरतिशयस्वात्मन एव तु सस्यात् तुशब्दः परमतव्यावर्तनार्थः, यद्यपि मतं परस्य - सदसतोर्विकल्पवत्त्वमस्तु, को दोष? इति, तन्न भवति, सत् सत्तरं सत्तममिति सतोऽतिशयाभावात् कुतो विकल्पः सत्त्वे ? तस्मात् सम्पूर्णमेव सत्त्वमेवमसत्त्वमपि । ततो 'नात्यन्तानात्मकं सात्मकं च' इत्ययुक्तं वक्तुमित्यभिप्रायः । अस्तु वा विकल्पवत् सत्त्वमसत्त्वं च तत् पुनर्निरूप्यं त्वया कतमत् तत् स्वरूपतः क्व वाश्रये किचित् सत्त्वमसत्त्वं वा ? इति विकल्प्यम् । 20 अत्राह - एतर्हि निरूप्यते, किमत्र निरूप्यम् ? नन्विदमेव तदेकसत्ता सदसदपि, एकया स्वभावसत्तया सत् तदेवासत् संम्बन्धिसत्तयेति । ततस्तत् किञ्चित्सत् किञ्चिदसत् । किमिव ? असमर्थगववत् यथा गोकार्यासमर्थो गौरेव सन्नगौरित्युच्यते नासौ गौर्न भवति तथेदमपि द्रव्यादि संदेवासदिति । ३२१-१ 1 १ गतार्थ य० । गतार्थ च भा० । अत्र 'उत्तरम्' इत्यनेन अन्वये 'गतार्थम्' इति 'गतार्थ च' इति वा पाठः साधुरेव, 'ग्रन्थः' इत्यनेन अन्वये तु 'गतार्थः' इति वा 'गतार्थश्व' इति पाठोऽवश्यं कल्पनीयः ॥ २ " सामान्यं द्विविधं परमपरं च खविषयसर्वगतमभेदात्मकमनेकवृत्ति एकद्विबहुषु आत्मस्वरूपानुगमप्रत्ययकारि स्वरूपाभेदेनाधारेषु प्रबन्धेन वर्तमानमनुवृत्तिप्रत्ययकारणम् ।" इति प्रशस्तपादभाष्ये सामान्यनिरूपणे ॥ ३ वेत्यन्त प्र० ॥ ४ संग उत्था ० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ४६१ पं० ५ ॥ ६ दृश्यतां पृ० ४६२ पं० २ ॥ ७ एवमदप प्र० ॥ ८ " इदमो हिंल् [ पा० ५।३।१६ ], सप्तम्यन्तात् काले इत्येव, हस्यापवादः, अस्मिन् काले एतर्हि । काले किम् ? इह देशे । ....अनद्यतने र्हिलन्यतरस्याम् [ पा० ५।३।२१], कर्हि कदा, यर्हि यदा तर्हि तदा, एतस्मिन् काले एतर्हि ।" इति पा० वै० सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ९ संबंधसत्त प्र० । एवमग्रेऽपि ॥ १० सदिति भा० ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ म्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे ____एवं तर्हि सामान्यसत्तायाः सत्ता अव्यक्तिः किञ्चित्सती न सम्पूर्णा सती एकसद्भावत्वात् स्वसत्तावत्, स्वभावसद्भावत्वात् असमवेतसत्ताकानि द्रव्यादीनि यथा।सा असर्वगताच व्यक्तिरेव वा न भवति एकजातीयापेतखरूपत्वात् घटवत् । उभयासम्पूर्णतायां च तद् न सत् असत्त्वात् खपुष्पवत्, नासत् सत्त्वाद् 5 घटवत्, न सदसत् सदसत्ताऽभावात् । सदसद्वैधर्म्यनिराकरणायैव तु प्राय इयं प्रतिपत्तिर्भवतः। अत्र ब्रूमः - एवं तहीत्यादि । सामान्याख्यायाः सत्तायाः सामान्यसत्तायाः सत्ता, सा चाव्यक्तिः द्रव्यादिव्यक्तिरहिता किश्चित्सती, न सम्पूर्णा सती स्वभावसत्तामात्रेण सती सम्बन्धिसत्तया न सती, सती चासती च विकल्पवतीत्यर्थः । कस्मात् ? एकसद्भावत्वात् , यदेकसत्तया सत् तत् सञ्चा10 सच्च दृष्टम् , तद्यथा - स्वसत्तावत्, यथा द्रव्यादि स्वभावसत्तया सदेकया सम्बिन्धिसत्तया असत् तथा महासत्तापि स्यादिति । एष एव हेत्वर्थोऽन्यया वाचोच्यते -स्वभावसद्भावत्वात् , असमवेतसत्ताकानि द्रव्यादीनि यथेति गतार्थमेतदनिष्टापादनम् । सा सामान्यसत्ता असर्वगता च स्वविषयसर्वगता न भवतीत्येतदपि दोषापादनम् , न सर्वस्वविषयानुवृत्तिरित्यर्थः । व्यक्तिरेव वा द्रव्यादिव्यतिरिक्ता न भवतीति दोषापादनप्रतिज्ञान्तरम् । उभयत्रैक एव हेतुः - एकजातीयापेतस्वरूपत्वादिति, एकप्रकार15 मेकजातीयम् , प्रकारवचने जातीयर् [पा० ५।३।६९ ], न तु जात्यन्ताच्छ बन्धुनि [पा० ५।४।९], मा भूद् द्रव्यत्वसत्तादिवदनैकान्तिकत्वम् । तत एकजातीयादपेतं व्यावृत्तं स्वरूपं यस्याः सा एकजातीयापेतस्वरूपा, तद्भावादेकजातीयव्यावृत्तस्वरूपत्वाद् घटवत सजातीयासजातीयव्यावृत्तस्वरूपत्वादित्यर्थः । यथा घट एकप्रकारेभ्यो व्यावृत्तस्वरूपो देशकालवर्णाकारादिभिर्विशिष्टत्वाद् घटान्तरस्वविषयव्यापी च न भवति व्यक्तिरेव च न भवति तथा सत्तापि स्यादिति । तस्मादयुक्तमसमर्थगववदेकसत्तासदसत्त्वं द्रव्यादे20 स्तथा सत्तायाश्चेति । ३२१-२ इतश्चायुक्तम्, वक्ष्यमाणदुर्निरूपविकल्पत्वात् खपुष्पवदसत्त्वादित्यनुपपन्नविकल्पत्वहेतोरेवैतानि व्याख्यानान्तराणि । तद्यथा- उभयासम्पूर्णतायां चेत्यादि । वस्तुनो द्रव्यादेः सामान्यस्य वा सत्त्वेनासत्त्वेन च किश्चित्समस्तत्वाभ्यामसम्पूर्णतायां पुनरपि तद् निरूप्यमेव किं सदसम्पूर्णम् , उतासत् , आहोस्वित् सदसत् ? इति । तत्र यदि तावत् सत् तत् सद् न भवति, कस्मात् ? असत्त्वात् खपुष्पवत् , उभया १॥ एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ २दनप्रति रं० । ( ‘दनं प्रति° ?)॥ ३ "प्रकारवति चायम् , थाल् तु प्रकारमात्रे, पटुप्रकारः पटुजातीयः ।" इति पाणिनीयव्याकरणव्याख्यायां वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ४ "जात्यन्ताच्छ बन्धुनि [५।४।९ ], ब्राह्मणजातीयः । बन्धुनि किम् ? ब्राह्मणजातिः शोभना । जातेय॑क्षकं द्रव्यं बन्धु" इति वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्याम् । अस्य व्याख्या- "ब्राह्मणजातीय इति, 'येकयोः । १।४।२२] इतिवद् भावप्रधानो तस्य जातिशब्देन सह बहुव्रीहिः, ब्राह्मणत्वजात्याधारभूतः पिण्ड इत्यर्थः । ब्राह्मणजातिरिति, षष्ठीतत्पुरुषः भावप्रधानेन सह कर्मधारयो वा । जातव्यंजकमिति, बध्यते जातिरस्मिन्निति बन्धु, 'शस्वृस्निहि [उणा० १०] इत्यादिना अधिकरणे उप्रत्ययः । रूढोऽपि बन्धुशब्द आप्तपर्यायः पुंलिङ्गोऽस्ति तथापि स नेह गृह्यते 'बन्धुनि' इति नपुंसकनिर्देशादिति भावः।" इति ज्ञानेन्द्रसरखतीविरचितायां तत्त्वबोधिन्याम् ॥ ५ रूपादित्यर्थः प्र०॥ ६र्णतासत् प्र०॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम्] द्वादशा नयचक्रम् ४६५ योऽपि चासच्छब्दस्य नास्य सदित्यसदगुणगुणवत् सत्सत्तासम्बन्धरहितमित्यर्थः सोऽप्यनुपपन्नो विकल्पः कृत्तद्धितान्तरूपार्थविप्रकृष्टान्तरत्वात् । अथ नास्य सदिति सत्तापि स्वभावसत्तया सती यस्य नास्ति तदप्यसद् द्रव्यादि उच्यते गुरुत्वा भावाद् गुणागुरुत्ववत् । एतदेव ननु प्रस्तुतम् , सदादयः षडविशेषा द्रव्यादीनामेव त्रयाणां न सामान्यादीनामित्युक्त्वा सामान्यादीनां सत्त्वमुच्यमानं सदित्यसदिति च स्ववचनविरोधाय । सम्पूर्णत्वाभ्युपगमाद् नासिद्धमसत्त्वमसत्त्वस्यापीष्टत्वात् । नासत् न च तदसत् सत्त्वाद् घटवत् , सत्त्वमपि नासिद्धमुभयासम्पूर्णत्वेष्टेरेव । न सदसत् , नापि तत् सदसदुभयरूपमित्यर्थः, त्वन्मतेनैव सैदसतोर्वैधात् कार्य सदसत्ता न [वै० सू० ९।१।१२ ] इति वचनात् । किञ्चान्यत् , सदसत्ताभावात् , यथा सत्तासम्बन्धात् सद् भवति तथा सदसत्तासम्बन्धात् सदसत् स्यात् असत्तासम्बन्धादसद् वा स्यात् , 10 न चैवं भवितुमर्हत्यदृष्टानिष्टत्वात् । तस्मादसत्ताऽभावात् सदसत्ताऽभावाच्च न संदसद् नासदसम्पूर्णमिति । अहं पुनरेवं तर्कयामि त्वया नोपलक्षिता सदसद्वैधर्म्यनिराकरणायैव तु प्राय इयं प्रतिपत्तिर्भवतः किञ्चित्सत् समस्तसदिति तथा किञ्चिदसत् समस्तासदिति ब्रुवतः, उभयासम्पूर्णतायां तदेव सञ्चासञ्चेति सदसतोः साधर्म्यमेव, न वैधर्म्यमिति प्रतिपन्नत्वादिति । किश्चान्यत् , नैत एव दोषाः, किं तर्हि ? योऽपि चासच्छब्दस्येत्यादि यावत् सत्सत्तासम्बन्ध-15 रहितमित्यर्थ इति पूर्व पक्षप्रत्युच्चारणम् । योऽप्यसौ नास्य सदित्यसदगुणगुणवदिति तस्य बहुव्रीहिसमासाश्रयात् सामान्यविशेषसमवायैः सद्भिः शून्यं सत्तया न सम्बद्धं तस्मादसच्छब्दस्य सर्दर्थवाचित्वमेवेति ३२२-१ विकल्प इति । तत्रोत्तरमुच्यते - सोऽप्यनुपपन्नो विकल्पः कृत्तद्धितान्तरूपार्थविप्रकृष्टान्तरत्वात् , भवत्यस्ति वेति 'सत्' कृदन्तरूपम्, अर्थश्चास्य द्रव्यभूतः, सतो भावः सत्तेति तद्धितान्तं रूपम् , अर्थश्चास्य यस्य गुणस्य भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलौ [पा० वा० ५।१।११२ ] इति सतोऽसाधारणं 20 स्वरूपं सदन्तरव्यापि सामान्यं चेति शब्दतोऽर्थतश्चात्यन्तभेदादनयोः कथं सत्ता सत् स्यात् यदभावाद् नास्य सदित्यसद् द्रव्यादि भण्येत ? एवं तावत् सदुक्तौ नैव सत्तोक्तिः । अथ नास्य सदित्यादि । अथ मा भूच्छब्दार्थविप्रकृष्टत्वात् कृच्छब्देन तद्धितार्थानभिधानाच्छब्दार्थसङ्करदोष इति सत्तापि स्वभावसत्तया सती तस्याः सत्त्वात् , सा यस्य नास्ति तदप्यसद् द्रव्यादि उच्यते, यथा गुरुगुणाभावादगुरु द्रव्यं गुणः कर्म चोच्यते गुरुत्वाभावाद् गुणागुरुत्ववत् तथा सद-25 भावसत्ताभावतुल्यवादसदित्युच्यमानमदोषमिति । अत्रोच्यते - एतदेव ननु प्रस्तुतम् , सदनित्यं द्रव्यवत् कार्य कारणं सामान्यविशेषवदिति द्रव्यगुणकर्मणामविशेषः [वै० सू० ११३८] इति सदादयः षडविशेषा द्रव्यादीनामेव त्रयाणां न सामान्य १°द्धमसत्त्वस्यापी प्र०॥ २ दृश्यतां पृ० ४६० टि. १॥ ३ वि० विना सदरुत्तसदसम्पूर्ण य० । सदसत्तदसम्पूर्ण वि० । सत्तदसम्पूर्ण भा०। ( सदसन्न सदसम्पूर्णमिति ? )॥ ४ यावच्छत्सत्ता प्र०॥ ५ समाश्रयात् प्र०॥ ६ °र्थवात्वमें प्र० । ( °र्थवत्त्वमे ? ) ॥ ७ कृच्छेन प्र० ॥ ८'त्वासदि प्र०॥ नय०५९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ सप्तम उभयोभयारे तु सत् तत्समवायिकारणं तदस्यास्त्येव, तत् किमिति मत्वोक्तं नास्य सत् तदिदमसद् द्रव्यादि कार्यमिति ? यत्त्वस्य नास्ति समवेतं तदपेक्ष्य न युक्तं वक्तुं 'नास्य सत् तदिदमसत्' इति । तद्धि सदेव न भवत्यावयोरपि मतेन । किं तर्हि ? नास्यासत् तदिदमनसत् । न हि वपुष्पं यस्य नास्ति सोऽसन्नित्युच्यते, संस्तु सत्वांश्च नियमाद् भवति प्रतिषेधद्वयार्थत्वात् । ૪૬૬ विशेषसमवायानामित्यविशेषाभिधानद्वारेण त्रयाणां त्रिभ्यो नानात्वं परस्परतश्च लक्षणादिना व्याचिख्यासितं भवता । अस्माभिश्च द्रव्यव्यतिरिक्तगुणाद्यभावात् सामान्याद्यभावाच्च सत्त्वेनाविशेष एव विशेषे वान्यतरद् द्रव्यादित्रयं सामान्यादित्रयं वा खपुष्पतुल्यं स्यादित्यासञ्जितं प्रोक्तद्वारेण वादप्रस्तावादिति । तत्र सदादिषडविशेषो द्रव्यादित्रयविषय एव न सामान्यादित्रयविषय इत्युक्त्वा सामान्यादीनां सत्त्वमुच्य10 मानं सदित्यसदिति च स्ववचनविरोधाय 'सदा मौनव्रतिकोऽस्मि' इति वचनवत् । ३२२.२ यसदित्यादि । यत्तु सत्यं मुख्यं सत् तत्समवायिकारणं देव्यादि कार्यस्याश्रयः परमाणुतन्तुकपालादि घटपटादिपरिणामिकारणं तदस्यास्त्येव बीजभूतं साधयिष्यमाणं तैत् तत् किमिति मत्वोक्तं मत्वर्थसत्त्वादिना बहुव्रीहिणा नास्य सदस्ति तदिदमसद् द्रव्यादि कार्यमिति ? तस्य मुख्यस्य सतोऽस्तित्वादेयुक्तं वक्तुम्, न च 'सद् न भवत्यसत्' इति तत्पुरुषेण द्रव्यादिकार्यस्या15 सत्त्वादिति वा । ननूक्तम् - सामान्यं समवायिसत्, तदस्य नास्ति यत्सम्बन्धाद् द्रव्यादिकार्यं सद्वयपदेशं लभते इति तदपेक्षयोक्तम् 'असत्' इति । अत्रोच्यते - यत्त्वस्य नास्ति समवेतमिति सामान्यं तदपेक्ष्य न युक्तं वक्तुं 'नास्य सत् तदिदमसत्' इति । यस्मात् तत् सदेव न भवत्यावयोरपि मतेन त्वन्मतेन तावत् सदविशेषाभावात् सामान्यादित्रयस्य द्रव्यादेरेव सदाद्यविशेषात्, अस्मन्मतेन द्रव्यादिव्यतिरिक्त20 सामान्यविशेषसमवायसत्त्वादेव तस्यैव विवादस्य प्रस्तुतत्वात् तस्यासत्त्वाद् द्रव्यादि कथं 'नास्त्यस्य सत् तदिदमसत्' इति बहुव्रीहिणा वक्तुं शक्यम् । किं तर्हि युक्तं वक्तुम् ? नास्यासत् तदिदमनस दिति, तस्मादसद् यस्य नास्ति तत् सदेव अनसदित्यर्थः । तन्निदर्शनम् - न हि खपुष्पं यस्य नास्ति सोsसन्नि त्युच्यत इति, सामान्यापेक्षया नपुंसकनिर्देशे प्राप्ते पुंलिङ्गनिर्देशोऽर्थसामानाधिकरण्यादुत्तानार्थः । संस्तु ३२३-१ सत्वांश्च नियमाद् भवति, सन्नस्यास्तीति सत्वान् यथा गौरस्यास्तीति गोमान् बहुव्रीहिः सदपेक्ष एव 25 सत्येवार्थे युज्यते नान्यथेति तथा तत्पुरुषेऽपि योज्यमेतदेव वैधर्म्यनिदर्शनम् । कस्मात् ? प्रतिषेधद्वयार्थ - त्वात्, यथा प्रतिषेधद्वयमर्थवदेव दृष्टम् 'अनगुः' इति तथा द्विः प्रतिषेधस्य प्रकृत्यर्थापत्तेः ‘नास्यासत्’ इत्युक्ते सत्वानेव भवितुमर्हति, नासन् सदर्थत्वात् । १ भावच्च भा० । भावतच्च य० ॥ २ द्रव्यादे प्र० । अत्र द्रव्यादेः इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ३ तत्तत्कि मिति प्र० । ( तत् किमिति ? ) ॥ ४ मत्वर्थ सत्वादिना य० । मत्वमर्थमत्वादिना भा० । “ तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् [ ५।२।९४ ], गावोऽस्यास्मिन् वा सन्ति गोमान् । 'भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने । सम्बन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ॥” इति पा० सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ५°दु युक्तं प्र० ॥ ६ समवे प्र० । ( असमवे ? ) ॥ ७ पुलिंग प्र० ॥ ८ भन्नास्या य० । तन्नास्यां भा० ॥ ९ (द्वयार्थवत्वात् ? ) ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तासमवायनिराकरणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४६७ ननु द्विविधभावत्वात् सत्त्वासद्वचनेऽपि न दोषः । ननु तदेवेदं भवनं विचायंते, तस्यैव द्वैविध्यस्यास्मान् प्रत्यसिद्धिः, उक्तवत् । कस्मात् खपुष्पं दलमकरन्दादिषु कारणेषु न समवैति? अद्रव्यत्वात् अभूतत्वात् असन्निहितत्वात् । कस्माचम्पकपुष्पं तु समवैति? तद्व्यत्वादेः। ___ यथा च द्रव्यादीनि प्राक् सन्ति सत्तयाभिसम्बध्यन्ते तथोत्पत्त्यवस्थायाः। अत्राह - ननु द्विविधभावत्वात् सत्वासद्धचनेऽपि न दोषः, स्वभावसत् सम्बन्धिसदिति च द्विविधं सदुक्तम् , तस्मात् सत्तायाः सामान्याख्याया अपि स्वभावसत्त्वमस्तीति नास्य सत् तदिदमसदिति वक्तुं युज्यत एवेति । अत्रोच्यते - ननु तदेवेदं भवनं विचार्यते, किमेकविधमेव निरतिशयमस्मन्मतवत् ? उत त्वन्मतवत् किश्चित्सत् समस्तसदिति स्वभावसत् सम्बन्धिसदिति च ? तस्यैव द्वैविध्यस्यास्मान् प्रत्यसिद्धिः। सत्तासम्बन्ध-10 रहितत्वमपि सत्तोपपत्तिरहितत्वमेव । उक्तवत् , यथानन्तरमेवोक्तम् - न किञ्चित्सत् समस्तसन्नाम स्वभावसत् सम्बन्धसन्नाम वेति विकल्पजातं सतोऽस्तीति । अथवा खैपुष्पमप्यसन्निहितभवितृकत्वात् कार्यवद् भवेदित्यतीतं सर्वमेवोक्तं तत् सम्पूर्णनिरतिशयं सत्त्वमसत्त्वं 'चेत्येतस्य प्रतिपादनार्थमिति । अत्र केनचित् पृच्छयेत-कस्मात् खपुष्पं दल केसर-मकरन्दादिषु कारणेषु न समवैति ? इति । वयमत्रोपपत्तिं ब्रमः - अद्रव्यत्वात् निर्बीजवादित्यर्थः । द्रव्यं सामान्यमाश्रय इत्यादिपर्यायाः । 15 कस्माद् निर्बीजम् ? इति चेत् , अभूतत्वात् , अतीतेऽधुनानागते काले न भूतं हि तत् , भूतशब्दस्य त्रिकालवाचित्वादाकाशभूतवत्, असत्त्वादकारणत्वादकार्यत्वादित्याद्यर्थः । तत् कुत इति चेत्, असन्नि-३२३-२ हितत्वात् , यत् सततं भवति तत् सन्निहितम् , सन्निहितमेव हि भवति, असन्निहितं नैव भवति, वन्ध्यापुत्र इव वन्ध्यायां 'बीजाधानादिभावेनासन्निहितः । अथवा अद्रव्यत्वादसन्निहितत्वादभूतत्वादिति पर्यायशब्दा एवेति । ___ पुनः पृच्छेत् कश्चित् - कस्माच्चम्पकपुष्पं दलादिषु तु समवैतीति । तुशब्दः खपुष्पादस्य विशेषं दर्शयति । अत्रोच्यते विशेषः -तद्रव्यत्वादेरिति त एव हेतवस्तुल्यव्याख्यानाः । एष खपुष्पचम्पकपुष्पयोर्विशेषोऽसत्त्वात् सत्त्वाच्च भवति । इयं च भावाभावयोः प्रश्नोपक्रमा स्वरूपविशेषव्याख्या। यथा च द्रव्यादीनि प्राक् सन्तीत्यादि । अत्रानुमानम् - यस्यामवस्थायामुत्पन्नमात्राणि द्रव्यादीनि सन्त्येव सत्तयाभिसम्बध्यन्त इतीष्यन्ते तस्या अवस्थायाः प्रागपि सन्तीति प्रतिज्ञा । तस्यामवस्थायां सत्तया-* भिसम्बध्यमानत्वात् , यस्यामवस्थायां सत्तयाभिसम्बध्यन्ते तस्या अवस्थायाः प्रागपि सन्त्येव दृष्टानि यथा उत्पत्त्युत्तरकालं सत्तयाभिसम्बध्यमानानि उत्पत्त्यवस्थायां तान्येव । तथोत्पत्त्यवस्थायाः प्रागपि स्युरिति अभूतक्रियागुणव्यपदेशमुत्पत्त्यवस्थमपि कार्यं ततः प्रागपि सत् संत्तया सम्बन्धित्वात् तत्काल 20 १ सत्वाऽसद्धप्र० । अत्र सत्ताऽसद्वचनेऽपि इत्यपि पाठः स्यात् ॥ २ किंचित्समस्तसन्नाम प्र० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ४५५ पं० १॥ ४ वेत्ये वि० २०॥ ५ चेत् भूतत्वात् प्र.॥ ६ बीजादानादिप्र.॥ ७°सत्वासत्याच य० । सस्वाश्च भा॥ ८स्वास्वरूप भा०॥ ९ ष्यते वि.२०॥ १० सत्ताया प्र.॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे प्रागपि स्युः सत्तासम्बन्धित्वात् भवनात् इदानीं भावात् आकाशवत् । इदानीमपि सत्तया न सम्बध्येत कार्यम् । प्रागसत्त्वात् खपुष्पवत् ।। अन्यथाभूतत्वाद् नेति चेत्, अन्यथाभवनेऽपि तदनन्यथाभवनमेव मृत्तन्त्वादितद्भावानतिक्रमात् सजातीयासजातीयेतरस्वभावभूतत्वात् सुचिरादपि 5 तत्तत्त्वात् दृढीभूतघटवत् । ___ यदपि चोक्तं नास्य पुत्रोऽस्तीत्यपुत्र इति पुत्रान्तरसम्बन्धः प्रतिषिध्यते इति इदमपि नातिगमितार्थम् , अत्रापि हि पुत्रान्तरसम्बन्धो न प्रतिषिध्यते ना उत्तरपदाभिधेयनिवारणार्थतत्पुरुषसमाससम्भवसामर्थ्यात्, बहुव्रीहावपि पुत्रात्मत्व द्रव्यादिवत् । किमुक्तं भवति 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इति ? अत आह -भवनात् , अभूतक्रियागुण10 व्यपदेशाभिमतावस्थं कार्यं ततः पूर्वमपि वस्तुस्वरूपैमेव, नाभावः, इदानीं भावात् आकाशवदिति ३२... तद्वयक्त्यर्थम् । इदानीमपि न सत्तया सम्बध्येत कार्यम् , प्रागसत्त्वात् , खपुष्पवदिति विपर्ययेणानिष्टापादनसाधनम् । भवदेव हि भवति गगनवत् , नाविद्यमानमश्वविषाणवदिति । अन्यथाभूतत्वाद् नेति चेत्, प्रत्यक्षं तन्तुभ्योऽन्यथा पटभवनात् प्रत्यक्षविरुद्धं 'प्रागपि सत् कार्यम्' इति वचनमिति चेत्, तद् न, प्रत्यक्षमन्यथाभवनेऽपि तदनन्यथाभवनमेव प्रत्यक्षतः । किं कारणम् ? 15 मृत्तन्त्वादितद्भावानतिक्रमात् अनतिक्रान्ततद्भावत्वादित्यर्थः । दृढीभूतघटवदिति दृष्टान्तो वक्ष्यते । हेतोरस्य व्याख्या - सजातीयासजातीयेतरस्वभावभूतत्वात् , घटस्य सजातीयानि घटान्तराणि, असजातीयानि पटादीनि, तेभ्य उभयेभ्य इतरः अन्यो घटः सजातीयासजातीयभिन्नो देशकालाकारप्रमाणरूपादिभेदात् । नन्वेवं सजातीयासजातीय भिन्नत्वे स्वकारणेभ्योऽपि भिन्नत्वात् प्रागसत्त्वमेव प्राप्तं कार्यस्येति । एतच्चायुक्तम् , 'स्वभावभूतत्वात्' इति विशेष्योक्तत्वात् स्वसमवायिकारणभूतपरमाणुद्वयणुकादिरूपरसाद्या20 त्मकपरिणामस्वभावेनैव भूतत्वादिति तद्भावानतिक्रम एवैवं व्याख्यातो भवति । किश्चान्यत् , सुचिरादपि तत्तत्त्वात् ; देशकालाकारादिभेदे सत्यपि मृदः पिण्डाद्यवस्थासु मृदवस्थागतरूपादिस्वरूपानतिवृत्तेः पर३२४..माणुरूपादितत्त्व एव घटः, तस्मादन्यथाभवनेऽपि तदनन्यथाभवनमेव । किमिव ? दृढीभूतघटवत् , यथा मोलवनगरे घटो दृढीभूत आर्द्रादि-सामिशुष्क-नव-युव-मध्यम-पुराणाद्यवस्थासु अन्यथाभवनेऽपि घटत्वमनतिक्रामन् सप्तसु वर्षशतेषु नीतेष्वपि स एव तथा भवति एवं तदपि कार्य द्रव्यादीति । 25 किञ्चान्यत् , यदपि चेत्यादि पूर्वपक्षप्रत्युच्चारणं यावत् प्रतिषिध्यत इति । तदुत्तरम् - इदमपि नातिगमितार्थमित्यादि यावत् सम्भवसामर्थ्यादिति । तद् विव्रियते - यदपि सत एवासत्त्वप्रतिपादनाथ दृष्टान्तत्वेनोक्तम् - नास्य पुत्रोऽस्तीत्यपुत्रः, न तु पुत्रो न भवतीति, तस्यान्यपुत्रत्वादिति । तदपि नातिगमितार्थमिति दाक्षिण्यवचनमेतत् , मा निष्ठुरं वोचमिति । कथमगमितार्थम् ? यस्मादत्रापि पुत्रान्तर १पमेव भावः भा० ॥ २ वि० विना तयक्तार्थर्थम् यः । तद्यक्तार्थम् वि० ॥ ३ मृत्तत्वादि वि० पत्र मृत्तत्त्वादितद्भावानतिक्रमात् इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ४ तत्वत्वात् प्र.। (तत्त्वत्वात् ?)॥ ५ दृश्यतां पृ० ४०१ पं०.६॥ ६ “सामि त्वर्धे” इति अमरकोशे ३१२४८॥ ततः सामिशुष्कोऽर्धशुष्क इत्यर्थः॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४६९ मेव प्रतिषिध्यते नत्रा अतव्यत्वात् खयं पुत्रीभावपरिणामशून्यत्वात् खपुष्पवत्। तथा चान्वाह - ___अङ्गादङ्गं सम्भवसि हृदयादभिजायसे। [कौषीतकिबा० २।७] सम्बन्धो न प्रतिषिध्यते, अन्यस्य स्वामिपुत्रादेईष्टत्वात् तस्य पुत्रोऽस्तीति बहुव्रीहिसमासार्थस्य प्रत्यक्षविरुद्धस्यासम्भवात् । किं तर्हि वक्तव्यम् ? नत्र उत्तरपदाभिधेयनिवारणार्थतत्पुरुषसमाससम्भव- 5 सामर्थ्यात् , यथा 'भिक्षां 'देहि' इति गृहबहिरन्तःस्थयोर्याचकदायकयोर्याच्यादानसम्भववत् को भिक्षां ददाति ?' इति प्रश्ने प्रत्याख्यानदौनसम्भववत् 'गवाक्षे गावः' इत्यादित्यकिरणसम्भववद्वा उत्तरपदाभिधेयसम्भवः 'स्वयमेवासौ पुत्रो न भवति' इत्युक्तं भवति, तच्च वक्ष्यते । तस्माद् नास्य पुत्रोऽस्तीत्यपुत्र इत्ययुक्तो दृष्टान्तः । अभ्युपगम्य बहुव्रीहिं बहुव्रीहावपि पुत्रात्मत्वमेव प्रतिषिध्यते ना न पुत्रान्तरसम्बन्धः । ३२५-१ कस्मात् ? अतद्रव्यत्वात् , तद् द्रव्यं तत् कारणं तद् बीजं परिणामि अस्य तदिदं तद्रव्यम् , न तद्रव्यम-10 तद्र्व्यम् , तद्भावादतद्रव्यत्वात् स्वयं पुत्रीभावपरिणामशून्यत्वात् स्वयं स्वपुत्रत्वेनानुत्पित्सुत्वादित्यर्थः । खपुष्पवदिति गतार्थम् । यथोक्तम् – अगणिरूपिता अगणिपरिणामिता अगणिसरीरेति वत्तव्वं सिया [ भगवतीसू० ५।२।१८१ ] इति । तथा चान्योऽप्यन्वाह - अङ्गादङ्गं सम्भवसीत्यादि । तान्येव पितुः १ "अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे । आत्मा त्वं पुत्र माविथ[-जानीथ ] स जीव शरदः शतम् ।” इति कौषीतकिब्राह्मणोपनिषदि पाठः । “अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे । स त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धविद्धामिव मादयेमाममूं मयीति” इति बृहदारण्यकोपनिषदि पाठः ६।४।९। “अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ।” इति आवलायनगृह्यसूत्रे पाठः १११५ ॥ २ देही देहीति य० ॥ ३ दापकयोर्याच्यादापनसम्भववत् प्र० । अत्र "दापकयोः' इति पाठाभिरुचौ दापकयोर्याच्आदापनसम्भववत्' इति पाठः समीचीन एव ॥ ४ का भा० वि० २०॥ ५ दानदान भा०॥ ६ यथोक्तं गणिरूपिता प्र.। "अह भंते ! ओदणे कुम्मासे सुरा एए णं किंसरीराति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! ओदणे कुम्मासे सुराए य जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च वणस्सइजीबसरीरा तओ पच्छा सत्थातीया सत्थपरिणामिआ अगणिज्झामिया अगणिज्झसिया अगणिसेविया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया । सुराए य जे दवे दव्वे एए णं पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थातीया जाव अणगिकायसरीराति वत्तव्वं सिया।" इति भगवतीसूत्रे पाठः ५।२।१८१। अस्य व्याख्या- “अहेत्यादि । एए णंति एतानि, णमित्यलङ्कारे, किंसरीरत्ति केषां शरीराणि किंशरीराणि ? सुराए य जे घणेत्ति, सुरायां द्वे द्रव्ये स्याताम् - घनद्रव्यं द्रवद्रव्यं च । तत्र यद् घनद्रव्यं पुव्वभावपन्नवणं पडुच्चत्ति अतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गीकृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्व हि ओदनादयो वनस्पतयः । तओ पच्छत्ति वनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वानन्तरम् 'अग्निजीवशरीराणि' इति वक्तव्यं स्यादिति सम्बन्धः । किम्भूतानि सन्ति ? इत्याह - सत्थातीयत्ति, शस्त्रेण उदूखलमुशलयन्त्रकादिना करणभूतेन अतीतानि अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि । सत्थपरिणामियत्ति शस्त्रेण परिणामितानि कृतानि नवपर्यायाणि शस्त्रपरिणामितानि । ततश्च अगणिज्झामियत्ति, वह्निना ध्यामितानि श्यामीकृतानि खकीयवर्णत्याजनात् । तथा अगणिज्यूसियत्ति अग्निना शोषितानि पूर्वस्वभावक्षपणात्, अग्मिना सेवितानि वा 'जुषी प्रीतिसेवनयोः' [पा.धा. तुदादि. ८] इत्यस्य ध तोः प्रयोगात् । अगणिपरिणामियाइंति सजातामिपरिणामानि उष्णयोगादिति । अथवा 'सत्थातीता' इत्यादौ शस्त्रममिरेव, 'अगणिज्झ मिया' इत्यादि तु तद्व्याख्यानमेवेति ।" इति अभयवेधसूरिविरचित्तायां भगवतीसूत्रवृत्तौ ॥ ७ तथा व्यत्योष्यत्वाह प्र.॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे यदप्युक्तम् 'अगुणो गुणः' इति तदपि गुणभूतोऽयमर्थो न भवति, किं तर्हि ? खतनं द्रव्यमेवेति गुणसन्द्राववादे गुणभावो गुणस्य प्रतिषिध्यते न गुणसम्बन्धो युगपदयुगपद्भाविता, भवनलक्षणद्रव्यत्वात् , सङ्ग्रहवादवद्वा । तस्माद् बहुव्रीह्यसदपि नासत्, सदेव । खवचनविरोधादेः सदप्यसत् सत्तासम्बन्धरहितत्वात् । सत्तासम्बन्धेन शुक्राद्यङ्गानि पुत्राङ्गत्वेन परिणमन्ति क्षीरदधित्ववत् । हृदयादभिजायसे इति, प्रज्ञापि सैव पुत्रस्य या पितुः, अश्वादिप्रज्ञाया मनुष्यादिष्वभावात् । ___यदप्युक्तं द्वितीयमुदाहरणं तत्रैव 'अगुणो गुणः' इति शास्त्रीयं तदपि गुणभूतोऽप्रधानो द्रव्याश्रयी उपसर्जन इतीष्टोऽयमर्थो न भवति, किं तर्हि ? स्वतत्रं प्रधानं द्रव्यमेवेति, उत्तरपदाभिधेयनिवारणार्थत्वाद् 10 नयः । न तु नास्य गुणोऽस्तीत्यगुणो गुणः, तस्य हि रूपादेः परस्परतोऽन्यरसादिगुणकस्य गुणसद्भावात् । सत्त्वादेर्वा गुणसन्द्राववादे गुणवत्त्वाद् गुणभावो गुणस्य गुणत्वमेव प्रतिषिध्यते, न गुणसम्बन्धः । स च दृष्टो गुणसम्बन्धः युगपदयुगपद्भाविता, [युगपद्भाविता] सैंपरसगन्धस्पर्शसङ्ख्यानादीनां गुणानां सम्बन्धः, अयुगपद्भाविमृत्पिण्डशिवकस्थासकादीनामयुगपद्भाविता, कृष्णनीलशुक्लरक्तादिवर्णादिभेदानामयुगपद्भावितादि शेषगुणानामिति । तथा सत्त्वादीनामङ्गाङ्गिभावेन युगपद्भाविता, महदहङ्कारतन्मात्रादीनामयुगपद्भाविता ३२५-२ चेति । कस्मात् ? भवनलक्षणद्रव्यत्वात् , द्रव्यं च भव्ये [पा० ५।३।१०४ ] भवतीति द्रव्यं भव्यं 1 भवनसम्बन्धयोग्यम् , गुणाः सन्द्रुत्यैव तिष्ठन्ति भवन्ति द्रवन्तीति गुणयन्ति गुण्यन्ते द्रूयन्ते ज्ञायन्ते चेत्येक एवार्थ इति । सङ्ग्रहवादवद्वा, यथा वा सङ्ग्रहनयवादे सर्वस्य सर्वात्मकत्वात् त एव रूपपरमाण्वादिद्रव्यविशेषाः स्वजात्यपरित्यागेन युगपदयुगपञ्च भवन्ति द्रवन्ति द्रूयते भूयते तैरेवेत्युक्तम् । तस्माद् बहुव्रीह्यसदपि नासत् , सदेवेति प्रस्तुतोपनयः । यथोक्तम् – अस्थित्तं अत्थित्ते परिणम20 तीति गत्थित्तं णस्थित्ते परिणमति [भगवतीसू० १।३।३२] इति । तस्मात् सम्पूर्णनिरतिशयं सदसद् वैति । तस्मादसत् कार्य न सत्तया सम्बध्यते सत्वाभावादसम्पूर्णसदसत्त्वाभावादित्युक्तम् ।। ___ तथा स्ववचनविरोधादेः सदप्यसदिति, यदपि 'सत्' इति द्रव्यादि कार्यमिष्टं तदपि स्ववचनविरोधादेर्दोषादसदेव जायत इति पक्षः । स्ववचनादिविरोधाश्चानुमानविरोधद्वारेणैवोद्भावयिष्यन्ते, तत्र तावत् तस्यासत्त्वे हेतुः - सत्तासम्बन्धरहितत्वात् । संत्तया, सम्बन्धमनुभूय 'सत्' इत्यभिधानं प्रत्ययं 25 च लभते कार्यम् , विशेषणस्वरूपाभिधानप्रत्ययभाक्त्वाद् विशेष्यस्य, दण्डनिमित्तदण्ड्यभिधानप्रत्ययभाग्देव दत्तवत् । सत्तासम्बन्धश्च सन्निहिताल्लिङ्गात् सदभिधानप्रत्ययदर्शनादनुमीयते, अतः 'सत्तासम्बन्धात् सद् भवति' इत्युक्तं भवतीति परमतसमर्थनमेव तावदेतत् । तस्मात् सत्तासम्बन्धेन भाव्यमानं सद् भवति, १°व गुणो गुणः प्र०। (°व गुणोऽगुणः ? )॥ २'त्वमेवं प्र० ॥ ३ युगपद्भाविता डे । एतदनुसारेण स च दृष्टो गुणसम्बन्धः, युगपद्भाविता रूपरसगन्धस्पर्शसयानादीनां गुणानां सम्बन्धः' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ४॥ एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ ५ वेति प्र०॥ २ भव्यं य० प्रतिषु नास्ति ॥ ६णस्थिति प्र.। दृश्यतां पृ० २९६ टि० १॥ ७भावत् भा० । भावात् य०॥ ८ सत्ता भा० प्रतौ नास्ति ॥ ९ सत्ताया यः। ( सत्तायाः १)। भा० प्रतौ तु 14 एतदन्तर्गतः पाठो नास्त्येध ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तासमवायनिराकरणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४७१ भाव्यमानं सद् भवति, यच्च भाव्यमानं सद् भवति तदारम्भकेभ्यो भवति द्रव्याद्यारब्धद्रव्यान्तरादिवद् भाव्यमानभवितृत्वात्। सत्तापि यदि द्रव्यादेर्भाविका ततः कारणम् , भावकत्वात् , आरम्भकवत् । सति सत्तान्तराधानाद् नेति चेत्, न, तुल्यत्वात्, एवमपि कारणमेव ते सत्ता सति सत्तान्तराधायित्वात् पटसत्ताधायितन्तुसंयोगवत्, वृत्तसत्त्वातिरिक्तसत्त्वकारण-5 परत आत्मानं लभते न स्वत इत्यर्थः । ततः किम् ? तत इदं भवति - यच्च भाव्यमानं सद् भवति ३२६ १ तदारम्भकेभ्यो भवति कारणद्रव्यादिभ्य इत्यर्थः । साध्यानुगतसाधनवचनात् साधर्म्यदृष्टान्त एषः, तन्निदर्शनं हेतुना[s]व्यवहितं प्रतिपत्तिलाघवार्थम् - द्रव्याद्यारब्धद्रव्यान्तरादिवदिति, यथा द्रव्यगुणकर्मभिर्द्रव्यगुणान्तराण्यारभ्यन्ते, कर्म च गुणैः संयोगविभागप्रयत्नगुरुत्वसंस्कारादृष्टैः, तथा सत्तया आरभ्यते तत् सत् कार्यम् । हेतुरत्र भाव्यमानभवितृत्वादिति व्याख्यातार्थः । तस्मात् तस्यामवस्था- 10 यामसत् तद् द्रव्यादिकार्यम् । 'असत् तत्' इति च ब्रुवतः स्ववचनविरोधोऽनुमानविरोधश्च, प्रत्यक्षाभ्युपगमरूढिविरोधा अपि योज्यास्तथैव । एवं तावद् द्रव्यादिकार्यमुत्पत्त्यवस्थायां 'स्वत एवास्ति' इतीष्टमपि सत्तासम्बन्धाद् भवितृत्वात् 'असदेव' इत्युक्तम् । ___ न केवलं द्रव्यमेवासत् तदा, किं तर्हि ? 'सत्तापि च नास्ति' इत्यापादयिष्यते हेतुसद्भावेन कारणत्वादिभ्यः । कारणत्वात् तावत् - सत्तापि यदि द्रव्यादेः कार्यस्य भवतो भाविका तत उक्तविधिना 15 कारणम् , भावकत्वात् भावयितृत्वादित्यर्थः, तसिलादिष्वाकृत्वसुचः [ पा० ६।३।३५] इति पुंवद्भावात् । आरम्भकवदिति पटस्य तन्त्वादिवदिति वक्ष्यते, इह तु सामान्येन यथारम्भकाः परमाणवस्तत्समवायिनः संयोगविभागा अदृष्टादिगुणाश्च सापेक्षा निरपेक्षाः क्रियाश्चादृष्टादिहेतुकाः कारणानि भावकानि यथासम्भवं द्वयणुकादिकार्यद्रव्याणां गुणानां कर्मणां च तथा सत्तापि कारणमिति । सति सत्तान्तराधानाद् नेति चेत् । स्यान्मतम् – स्वयमुत्पन्ने समवाय्यसमवायिकारणारब्धे 20 द्रव्यादौ कार्ये स्वभावतः सत्येव सत्तान्तरं सम्बन्धिसत्त्वमाधीयते तया सत्तया, तस्माद् नारम्भिका सा, ३२६-२ अनारम्भकत्वाचाऽकारणमण्वादिवत् , अतो वैषम्यं दृष्टान्तदा न्तिकयोः, भावकत्वं वा तस्या नास्तीति । एतच्च न, तुल्यत्वादनन्तरोक्तंदण्ड्यादिवद् विशेषणस्वरूपसदभिधानप्रत्ययानुमितसत्तासम्बन्धनिवृत्तेः । अभ्युपेत्याप्यभावकत्वं सति सत्तान्तराधायित्वं च सत्तायाः एवमपि कारणमेव ते सत्ता, सति सत्तान्तराधायित्वात् , पटसत्ताधायितन्तुसंयोगवत्, यथा तन्तुभिः परस्परसंयोगापेक्षैरारब्धे पटे 25 सति तत्संयोगः सत्तासमवायजं सम्बन्धिसत्त्वमादधानः कारणं दृष्टः तथा सत्तापि स्यादिति । स्यान्मतम् - आरम्भकाः परमाणवो न संयोगः, तस्माद् वैषम्यमिति । एतच्चायुक्तम् , संयोगस्याप्यारम्भकत्वेष्टेः कारणत्वमात्रसाधनाद् वा न दोष इति । अथवा वृत्तसत्त्वातिरिक्तसत्त्वकारणत्वात् 'कारणमेव सत्ता' इति १ गतेसा भा०॥ २ दृश्यतां पृ० ४३७ टि. ८। प्रशस्तपादभाष्ये कर्मनिरूपणमपि द्रष्टव्यम् ॥ ३ हेतुमद्धावेन वि० विना । ( हेतुहेतुमद्भावेन ?)॥ ४ वि० विना कारणत्वात्तवत् प्र० । कारणत्वात्तद्वत् वि० । (कारणत्वं तावत् ?) ॥ ५ दृश्यतां पृ. ४७२ पं० १॥ ६सापेक्षनिर भा० वि०॥ ७°च्चारणमाणदिवत प्र०। 'अण्वादिवत्' इति वैधर्म्यदृष्टान्तोऽत्र विवक्षित इति भाति ॥ ८ दृश्यतां पृ. ४७० पं० २५॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे त्वात् तन्त्वादिवत् । तथा च द्रव्याद्यन्यतमदेव तत् । अत एव च 'नास्य सत् तदिदमसत्' इति खान्वयवृत्ति सत्त्वव्यतिरेकवृत्ति च निरूपितमन्वयव्यतिरेकाभ्यां निष्कलं सत्त्वं यस्य तद् द्रव्यादि सिध्यत्येव, तदर्थमभिधानप्रत्ययहेतुना अन्येन सत्तादिना नार्थः, खत एव सिद्धप्रयोजनत्वात् । तत्र 5द्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य सदभिधानप्रत्ययहेतोरनवकाशः स्वत एव सिद्धाभिधानप्रत्ययत्वात्, सत्तादिवत्, आकाशादिवत् । खगतपुत्रत्वसंसिद्धान्वयव्यतिरेका वर्तते, यस्माद् वृत्तस्य निष्पन्नस्य कारणान्तरैः स्वभावसतः ततोऽतिरिक्तं सम्बन्धिसत्त्वं करोति सत्ता तस्मात् कारणमेव । को दृष्टान्तः ? तन्त्वादिवत् , यथा वृत्तसत्त्वं तन्तुत्वं तदतिरिक्तपटसत्त्वकरं कारणं च तथा सत्तति । अथवा यथा वृत्तस्य तन्तुभिरारब्धस्य पटस्य जन्मोत्तरकालमपि सत्त्वं कुर्वन्तस्तन्तव एंव 10 संयोगापेक्षाः कारणं पटस्येष्यन्ते तथा सत्तापि वृत्तसत्त्वातिरिक्तसत्त्वकरत्वात् कारणमेव स्यात् , आदिग्रहणात् कपालवीरणा दिद्रव्याण्युदाहर्तव्यानीति । तथा च द्रव्याद्यन्यतमदेव तत् , सामान्यं सत्ताख्यं द्रव्यं गुणः कर्म वा, नान्यत् स्यात् । यद्धि कारणं तद् द्रव्यं गुणः कर्म वा, नातोऽन्यद् दृष्टम् , यथा तन्तवस्तत्संयोगाश्च तक्रियाश्च । तस्मात् ३२७-१ सामान्यं सदनित्यं द्रव्यवत् कार्य कारणं सामान्यविशेषवञ्च द्रव्यादिवत् , अतो द्रव्यादीनामेव सदादिषड15 विशेषा इति व्याख्या व्यर्था । अत एव चेत्यादि । एतस्मादेव द्रव्याद्यन्यतमस्वरूपत्वात् सत्तायाः सामान्याख्यायाः 'नास्य सत तदिदमसत्' इति विगृह्य 'अस्य' इत्यन्धयात् 'न' इति च व्यतिरेकाद् द्रव्यगुणकर्माख्यस्य त्रयस्य सतोऽवधारणार्थं प्रतिषेधवाचिना नया व्यवच्छेद्यं सत्त्वमभ्युपगम्य स्वान्वयवृत्ति सत्त्वव्यतिरेकवृत्ति च निरूपितमन्वयव्यतिरेकाभ्यां निष्कलं परिपूर्ण स्वरूपतोऽवधारितं च सत्त्वं यस्य तद् द्रव्यादि द्रव्यान्तरादि20 सद्व्यतिरेकेण स्वान्वयेन च यथा व्याख्यातं "सिध्यत्येव । तस्मात् तदर्थ द्रव्याद्यवधारणार्थमभिधानप्रत्ययहेतुनान्येन सत्तादिना नार्थः न प्रयोजनं स्वत एव सिद्धप्रयोजनत्वादित्युक्तोपसंहारः । ____ अत्र पृथक साधनम् - तत्रेत्यादि । द्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य सदभिधानप्रत्ययहेतोर्द्रव्यादावनवकाशः, स्वत एव सिद्धाभिधानप्रत्ययत्वात् , यत्र स्वत एव सिद्धाभिधानप्रत्ययत्वं तत्रान्यस्य सदभिधानप्रत्ययहेतो वकाशोऽस्ति यथा सत्तासमवायविशेषेष्विति । अथवाश्रयाश्रयिणोः पारतत्र्यस्वातत्र्य25 व्याख्याकुसृतिप्रत्युत्थानं मा का<द् वैशेषिक इति निराशङ्कमाकाशादिवदिति दृष्टान्तः, दिक्कालाकाशद्रव्याणि हि दिक्कालादिमुख्यसामान्यशून्यानीति । अथवा प्रस्तुतोदाहरणमेव दृष्टान्तः - स्वगतेत्यादि । अन्वय १ दृश्यतां पृ० ४७३ पं० १८॥ २ कुर्वत वि. विना॥ ३९वं प्र० ॥४°न्यवदेव तत् य० । न्यवतत् भा० ॥ ५ तातोऽन्यद भा० । ततोऽन्यद य०॥ ६ व्यर्थाः भा० वि० ही० ॥ ७ च्छेद्यां सत्वामभ्यु प्र०॥ ८°सत्वा प्र० ॥ ९ व्यतिरेकवृत्ति च निरूपितमन्वयव्यतिरेकवृत्ति च निरूपित । १०सिध्यतेव भा० । सिध्यते च यः॥ ११ दानवकाशः प्र०॥ १२ द्रव्याणि रि दिकालादिमुख्य° य० । 'द्रव्याणि दि मुख्य भा० । (द्रव्याणि हि मुख्यसामान्यशून्यानीति ? )॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्लत्करत्व सत्सत्करत्वयोर्निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् ४७३ भिधानप्रत्ययो देवदत्तः पुत्र एव सून्वनपेक्षपुत्रत्वः, एवमत्र खभावसिद्वेरेव द्रव्यादिवं नेतरसत्वात् । एवं सत्तानिराकरणं कृतम् । द्रव्यत्वाद्यप्येवमेव निराकार्य व्याख्यातवत् । एतेन सत्सत्करत्वपक्षेऽपि साक्षात्कृतमेव वैयर्थ्यम् । यस्तु 'अनवस्थान, दृष्टान्तात् । तद्यथा - वाचा गमिते विनियोगार्थो न कृत इति तदर्थं प्रदीपप्रकाश : उपादीयते, तस्योपादानं न व्यर्थम्, न च पुनस्तस्यान्यः प्रकाशः प्रकाशनार्थ उपा दीयते, तथेहापि द्रव्यादिकार्येण उपभोगक्रिया नास्ति इत्यसत् अशक्तसदसत्त्वात् व्यतिरेकयुक्तावभिधानप्रत्ययावश्वरथवदन्वयव्यतिरेकाभिधानप्रत्ययौ तौ स्वगतेन पुत्रत्वेन संसिद्धौ यस्मिन् ३२७-२ सोऽयं स्वगतपुत्रत्वसंसिद्धान्वयव्यतिरेकाभिधानप्रत्ययो देवदत्तः पुत्र एव सून्वनपेक्षपुत्रत्वः स्वसूनुमनपेक्ष्य व्याख्यातविधिना पुरुषान्तरस्य पितुः पुत्र एव सन्नपुत्रः स्वसून्वभावादिति यथा पुत्र एवा- 10 पुत्र इत्युच्यते । इत्येवं दृष्टान्तार्थ भावयित्वा दार्शन्तिकमुपनयति – अत्र स्वभावसिद्धेरित्यादि । स्वभावसद्भावसिद्वेरेव द्रव्यादित्यम्, नेतरसत्वात् न सम्बन्धिसत्त्वादिति, विचारफलं निगम्यते - एवं सदविशेषविचारद्वारेण सत्ताया निराकरणं कृतम् । द्रव्यत्वाद्यप्येवमेव निराकार्यम्, द्रव्याद्यप्येवमेव द्रव्यत्वादिनिरपेक्षमित्यतिदिशति । 'द्रव्यं गुणः कर्म' इत्यत्रापि द्रव्यत्वगुणत्व [कर्मत्व ] सामान्यविशेषनिरपेक्षावभिधानप्रत्ययौ स्वत एव द्रव्यादीनां सुलभौ 15 व्याख्यातवदिति, तत्रापि तुल्यप्रचर्चत्वात् । एतेन सत्सत्करत्वपक्षेऽपि साक्षात्कृतमेव वैयर्थ्यम्, नास्य सदित्यसत्पक्षे यथाभिहितं विचारावसाने - नासतः सत्करी सत्ता सद्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य सत्ताद्रव्यत्वादेस्तत्सदभिधानप्रत्यय हेतोरनवकाशः स्वत एव सिद्धाभिधानप्रत्ययत्वात् सत्तादिवदिति तथा तदेव 'सतां द्रव्यादीनां सत्करी सत्ता ' इत्यत्रापीति प्रत्यक्षीकृतमस्माकं त्वयैव वैयर्थ्यम्, सँत्तासम्बन्धस्य स्वत एव सिद्धत्वादिति । यस्त्वनवस्था नेत्यादि यावदर्थवत्प्रकाशनावस्थावदिति पूर्वपक्षप्रत्युच्चारणम् । अनवस्थादोषपरिहारार्थः प्रतिसमाधानविकल्पः - नैष दोषो दृष्टान्तादित्यादि, दृष्टान्तस्तद्यथा - वाचा गमिते प्रकाशिते ३२८-१ घटइति ज्ञानमात्राधाने कृते तावता जलाद्याहरणादिक्रियाविनियोगार्थो न कृत इति तदर्थं घटग्रहणधारणाद्यर्थं च प्रदीपप्रकाश उपादीयते, तस्य वाक्प्रकाशादन्यप्रकारस्य प्रदीपप्रकाशस्योपादानं न व्यर्थं न च पुनस्तस्यान्यः प्रदीपोऽन्यो वा प्रकाशः प्रकाशनार्थ उपादीयते । तस्मात् तत्रैव व्यवस्थितत्वाद् नानवस्थादोषोऽस्तीत्येष दृष्टान्तः । उपनयः - तथेहापि द्रव्यादिकार्येण वस्तूद्भूतिप्रकाशमात्रेण स्वकारणोत्पादितमात्रेण वाक्प्रकाशितघटस्थानीयेन द्रव्यादेः कार्यस्योपभोगक्रिया नास्ति, पुरुषोपभोगार्थाश्च सर्वाः क्रिया इत्यतः कारणादसत्, अशक्तसदसत्त्वात् अशक्तस्य स्वकार्यकरणे सत एवासत्त्वात्, १ सूचनपेक्ष' प्र० ॥ २ स्वसृतुमन' प्र० ॥ ३ स्वशूत्वभा° भा० । स्वशून्यत्वभा य० ॥ ४ तार्थ भाव भान्तार्थाद्भाव य० । ( दृष्टान्तार्थान् भावयित्वा ? ) ॥ ५ दृश्यतां पृ० ४७२ पं० ५ ॥ ६ सत्वा भा० ॥ ७पयोग प्र० ॥ ८ गार्थश्च प्र० । (गार्थं च ? ) ॥ ९ कारणे प्र० ॥ नय०.६० 20 25 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे क्षुत्प्रतीकाराशक्तासीहिवत्, विचित्रोपभोगसिद्ध्यर्थ भिन्नेषु अभिन्नाभिधानप्रत्ययव्यवहारसिद्ध्यर्थं च सत्त्वविशेषणेन संम्बन्धः अर्थवत्प्रकाशनावस्थावत् इति प्रतिसमाधानविकल्पः सोऽप्यनुपपन्नोऽवस्थादृष्टान्तासत्त्वात् अनेकान्तत्वात् । वाक्प्रकाशप्रकाशकप्रदीपवत् प्रदीपप्रकाशस्यापि इन्द्रियप्रकाश्यत्वात् तस्यापि 5 बहुप्रभेदोपकरणप्रकाश्यत्वात् तेषामपि लब्धिप्रकाश्यत्वात् लब्धेरप्युपयोगफलाया अङ्कुरावस्थायामिव व्रीहेरकठिनावस्थायामिव वा क्षुत्प्रतीकाराशक्तासद्रीहिवत् । विचित्रोपभोगसिद्ध्यर्थ घटपटकटादिभिः परस्परव्यतिरिक्तैर्जलधारणत्वक्त्राणप्रच्छादनाद्युपभोगसिद्धयर्थं भिन्नेषु घटादिषु देशकालादिभिः समाजातीयेषु अभिन्नाभिधानप्रत्ययव्यवहारसिद्ध्यर्थ च सामान्यान्वितेषु सत्त्वविशेषणेन प्रकारान्तरेण संबन्धः, अर्थवत एव वाक्प्रकाशस्य पुनः प्रकाशने प्रदीपप्रकाशस्येव वाक्प्र10 काशितघटविषयस्यावस्थावदनवस्थादोषाभाववञ्चेति योऽयं प्रतिसमाधानविकल्पः सोऽप्यनुपपन्न इत्यादि तदुत्तरं यावत् प्रदीपादिप्रकाशनवदिति । कस्मादनुपपन्न इति चेत्, उच्यते - अवस्थादृष्टान्ता३२८-२ सत्त्वात् , असावेव प्रदीपदृष्टान्तः 'अवस्थावान्' इत्यभिमतोऽवस्थावान् न भवति, अनेकान्तत्वात्, एकान्तरूपो हि निश्चितोऽर्थो दृष्टान्तः स्यात् स्यात् । त्वदुद्राहितस्यार्थस्य तु न हि व्यर्थत्वैकान्तानुगतं प्रकाशनम् , यदि प्रदीपस्य प्रकाशान्तरेण प्रकाशनं व्यर्थं स्यात् तत्रैवावस्था स्यात् , सा तु नास्ति । यस्माद् 15 वाक्प्रकाशप्रकाशकप्रदीपवत् प्रदीपप्रकाशस्यापि इन्द्रियप्रकाश्यत्वात् , इन्द्रियेण हि प्रदीपोऽपि प्रकाश्यते, वाक्प्रकाशप्रकाशंकप्रदीपवदिन्द्रियेणानुपलब्धस्यागृहीतस्य घटादेर्विचित्रोपभोगासिद्धेः । किमिन्द्रियेऽवस्था स्यात् ? नेत्युच्यते, तस्यापि बहुप्रभेदोपकरणप्रकाश्यत्वात् , तदपि हीन्द्रियं "निर्वृत्त्युपकरण १ दृश्यतां पृ० ३३२-२॥ २ स्थामिव प्र० ॥ ३ देशकालाकालादिभिः य० । अत्र देशकालाकारादिभिः इत्यपि पाठः स्यात् , दृश्यतां पृ० ४६८ पं० १७ ॥ ४°सिद्ध्यर्थ खसामा भा० वि० । सिद्ध्यर्थ स्वसामा डे० । सिद्ध्यर्थे स्वसामा पा० २० ॥ ५°कान्तात् भा० ॥ ६ अत्र 'स्यात्' इत्येकं पदमपि निर्वहेत् ॥ ७॥ एतदन्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ८ प्रदीपवत्प्रकाशस्यापि भा० । (प्रकाशस्यापि ? प्रदीपस्यापि ?)॥ ९ शनप्रदी भा० ॥१० निवृत्त्युपकरणेन्द्रियखरूपविषये कश्चन मतभेदः शास्त्रेष्ववलोक्यते। तथाहि-नयचक्रवृत्तिकारमतेन तत्वरूपं प्राग वर्णितमेव, दृश्यतां पृ० १८३ पं० १९-२०, पृ. ३७२ पं० १९-२१ । "द्विविधानि [तत्त्वार्थसू० २।१६ ], द्विविधानीन्द्रियाणि भवन्ति - द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि च । निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् [ तत्त्वार्थसू० २।१७ ], तत्र निवृत्तीन्द्रियमुपकरणेन्द्रियं च द्विविधं द्रव्येन्द्रियम्। निवृत्तिरङ्गोपाङ्गनामनिर्वर्तितानीन्द्रियद्वाराणि, कर्मविशेषसंस्कृताः शरी निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलगुणनिर्वर्तनेत्यर्थः । उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च निर्वर्तितस्य अनुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति ।" इति वाचकवरश्रीउमास्वातिप्रणीते तत्त्वार्थभाष्ये । अस्य सिद्धसेनगणिकृता व्याख्या- "द्विविधानीन्द्रियाणि भवन्ति सामान्यतः द्रव्यमयानि द्रव्यात्मकानि द्रव्येन्द्रियाणि, भावेन्द्रियाणि तु भावात्मकानि आत्मपरिणतिरूपाणीति । अत्र च पुद्गलद्रव्यमेवानन्तप्रदेशस्कन्धमात्मप्रयोगापेक्षमायतते निवृत्त्युपकरणरूपतया, सर्वाणीन्द्रियाणि अनन्तप्रदेशानि असङ्ख्येयात्मप्रदेशाधिष्ठितानि च द्रव्यात्मकानि भवन्ति। इतरत्र द्वये आत्मपरिणामो भावः प्रयत्नमातिष्ठते इति । उक्तमिन्द्रियं द्रव्यभावभेदतो द्विविधम् , अधुना खरूपतो निरूपयितुकाम आह, तत्र निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् [तत्त्वार्थसू. २॥ भाष्यकारः सूत्रं सम्बन्धयति, 'तत्र' द्वितये द्रव्येन्द्रियं तावन्निायते स्वरूपभेदाभ्याम् । निर्वर्तनं निवृत्तिः प्रतिविशिष्टसंस्थानोत्पादः । उपक्रियतेऽनेनेति उपकरणम् । निर्वृत्तिरेवेन्द्रियं निवृत्तीन्द्रियम् । उपकरणेन्द्रियमप्येवम् । उभयमेतत् पुद्गलपारे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तायाः सत्सत्करत्वखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ४७५ योग्यात्मोपात्तेन्द्रियपर्याप्त्याख्यपुद्गलद्रव्यप्रकाश्यमञ्जन-पादाभ्यङ्ग-नस्य-पध्यभोजन-प्रदीपादिबाह्यद्रव्यप्रकाश्यं णामरूपमपि सत् 'इन्द्रिय'व्यपदेशमश्नते भावेन्द्रियोपयोगकारणत्वात् , यस्माद्धि तत्साचिव्यं भावस्यैवोल्लिङ्गने समायाति । आत्मभावपरिणामस्य भाविनो यत् सहायतया क्षम द्रव्यं तदिह द्रव्येन्द्रि ! प्रस्थदारुवदेषितव्यम् । तत्र निवृत्त्युपकरणयोः खरूपमाविष्करोति भाष्येणैव-निर्वृत्तिरङ्गोपाङ्गनामेत्यादिना । निर्माणनाम नामकर्मान्तर्गतः कर्मभेदो वर्धकिस्थानीयः कर्णशष्कुल्याद्यवयवसन्निवेशविशेषरचनायामाहितनैपुणः, तथा औदारिकादिशरीरत्रयाङ्गोपाङ्गनामकर्मभेदो यदुदयादङ्गानि उपाङ्गानि द्यन्ते शिरोङ्गुल्यादीनि, एतत् कर्मद्वयमुभयरूपद्रव्येन्द्रियप्रसाधनाय यतते । भाष्यभावना चैवं कार्या-निवृत्तिः किंरूपा ? इत्यत आह - अङ्गेति । अङ्गोपाङ्गनाम्ना प्रतिविशिष्टेन कर्मभेदेन 'निर्वर्तितानि' जनितानि घटितानि 'इन्द्रियद्वाराणि' इन्द्रियविवराणि । 'इन्द्रिय'शब्देन चात्र भावेन्द्रियमुपयोगरूपं विवक्षितम् , तस्य इन्द्रियस्य द्वाराणि अवधानप्रदानमार्गाश्चित्राः। शष्कुल्यादिरूपा बहिरुपलभ्यमानाकारा निर्वृत्तिरेका, अपरा तु अभ्यन्तरनिर्वृत्तिः । नानाकारं कायेन्द्रियमसङ्ख्येयमेदत्वात् , अस्य चान्तर्बहिर्भेदो निवृत्तेर्न कश्चित् प्रायः । प्रदीर्घत्र्यस्रसंस्थितं कर्णाटकायुधं क्षुरप्रः, तदाकारं रसनेन्द्रियम् । अतिमुक्तकपुष्पदलचन्द्रकाकारं किञ्चित्सकेसरवृत्ताकारमध्यविनतं घ्राणेन्द्रियम् । किञ्चित्समुन्नतमध्यपरिमण्डलाकारं धान्यमसूरवच्चक्षुरिन्द्रियम् । पाथेयभाण्डकयवनालिकाकारं श्रोत्रेन्द्रियं नालिककुसुमाकृति चावसेयम् । तत्राद्यं स्खकायपरिमाणं द्रव्यमनश्च, शेषाणि अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणानि सर्वजीवानाम् । तथा चागमः - ‘फासिदिए णं भंते । किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा । नाणासंठाणसंठिए। जिभिदिए णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! खुरप्पसंठिए । घाणिदिए णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! अतिमुत्तयचंदकसंठिए पण्णत्ते । चक्खुरिं दिए णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा ! मसूरयचंदसंठिए पण्णत्ते । सोईदिए णं भंते । किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा | कलंबुयापुप्फसंठिए पण्णत्ते'[प्रज्ञापनासू. १९१1, अभ्यन्तरां निवृत्तिमङ्गीकृत्य सर्वाण्यमूनि सूत्राण्यधीतानि । बाह्या पुनर्निर्वृत्तिश्चित्राकारत्वानोपनिबद्धुं शक्या, यथा मनुष्यस्य श्रोत्रं भ्रूसमं नेत्रयोरुभयपार्श्वतः, अश्वस्य मस्तके नेत्रयोरुपरिष्टात् तीक्ष्णाग्रम् , इत्यादिजातिभेदाद् बहुविधाकारा । इममेव चातिक्रान्तभाष्यार्थ पर्यायान्तरेण स्पष्टयति भाष्यकारः- कर्मविशेषसंस्कृताः शरीरप्रदेशाः । अथवा अङ्गोपाङ्गनामैवोपात्तमतीतभाष्ये, न तु निर्माणकर्म, तदुपादानायेदमुच्यतेकर्मविशेषेत्यादि । कर्मविशेषो नामकर्म, तस्यापि विशेषः अङ्गोपाङ्गनाम निर्माणकर्म च, आभ्यां कर्मविशेषाभ्यां संस्कृता विशिष्टावयवरचनया निष्पादिता निर्वर्तिताः औदारिकादिशरीराणां त्रयाणां प्रदेशाः प्रतिविशिष्टा देशाः कर्णशष्कुल्यादयः प्रदेशाः । कर्मविशेषाभिधानश्रवणादतिसम्प्रमुग्धबद्धामोहस्तदवस्थ एव चेतसीत्यतस्तदवबोधार्थं भूयोऽप्याह-निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलगुणनिर्वर्तनेत्यर्थः । कर्मविशेषं नामग्राहमाचष्टे, निर्माणनाम च अङ्गोपाङ्गं च निमोणनामाङ्गोपाझे, मध्यव्यवस्थितो नामशब्द उभयं विशेष्यतयाक्षिपति. ते कर्मणी प्रत्ययः कारणं निमित्तं यस्या निवृत्तेः सा निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया, मूलगुणनिर्वर्तना उत्तरगुणनिर्वर्तनापेक्षयोच्यते । उत्तरगुणनिर्वर्तना हि श्रवणयोर्वेधः प्रलम्बतापादनम्, चक्षुर्नासिकयोरजननस्याभ्यामुपस्कारः, तथा भेषजप्रदानाजिह्वाया जाड्यापनयः. स्पर्शनस्य विविधचूर्णगन्धवासप्रघोदिभिर्विमलत्वकरणम् । एवंविधानेकविशेषनिरपेक्षा यथोत्पन्नवर्तिनी औदारिकादिप्रायोग्यद्रव्यवर्गणा मूलकारणव्यवस्थितगुणनिर्वर्तनोच्यते । 'इति'शब्द एवंशब्दार्थः, एवमेषोऽर्थः प्रवचनविद्धिराख्यात इति । सम्प्रति उपकरणेन्द्रियस्वरूपमाख्यातुमाह-उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च निर्वर्तितस्य अनुपघातानुग्रहाभ्याम पकारीति । निवृत्तौ सत्यां कृपाणस्थानीयायामुपकरणेन्द्रियमवश्यमपेक्षितव्यम्, तच खावेषयग्रहणशक्तियुक्तं खड्गस्येव धारा छेदनसमर्था, तच्छक्तिरूपमिन्द्रियान्तरं निवृत्तौ सत्यामपि शक्त्युपधातैर्विषयं न गृह्णाति । तस्मानिवृत्ते श्रवणादिसंज्ञके द्रव्येन्द्रिये तदावादात्मनोऽनुपघातानुग्रहाभ्यां यदुपकारि तदुपकरणेन्द्रियं भवति । तच बहिर्वेति अन्तर्वेति च, निवृत्तिद्रव्येन्द्रियापेक्षया अस्यापि दैविध्यमावेद्यते । यत्र निवृत्तिद्रव्येन्द्रियं तत्रोपकरणेन्द्रियमपि न भिन्नदेशपति तस्येति कथयति तस्याः स्वविषयग्रहणशक्तनिवत्तिमध्यवर्तिनीत्वात् । एतदेव स्फुटयति-निवर्तितस्य निष्पादितस्य खावयव विभागेन यदनुपहत्या अनुग्रहेण चोपकरोति ग्रहणमात्मनः स्वच्छतरपुद्गलजालनिमोपितं तदुपकरणेन्द्रियमध्यवस्यन्ति विद्वांसः । आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । 'निवृत्तेरादावभिधा जन्मक्रमप्रतिपादनार्थम् , तद्भावे छुपकरणसद्भावाच्छाशक्तिवदिति ।" इति सिद्धसेनगणिकृतायां तत्त्वार्थभाष्यव्याख्यायाम् । अथ एतदनुसारिणी हरिभद्रसूरिकृता व्याख्या- "अनन्तरोक्तानि पञ्चापीन्द्रियाणि द्विविधानि भवन्तीति सूत्रसमुदायार्थः । अवयवार्थ स्वाह-द्विविधानीत्यादिना ।....-निर्वत्त्यपकरणे पदलमये द्रव्येन्द्रिय मिति सत्रसमुदायार्थः । अवयवाथै स्वाह-निवृत्ती. न्द्रियामत्यादिना । निवर्तन निवृत्तिः प्रति विशिष्टसंस्थानोत्पत्तिः सैवेन्द्रियं निवृत्तीन्द्रियम । उपक्रियतेऽननत्यपकरणम. एत. दवान्द्रयमुपकरणेन्द्रियम् । चः समुच्चये, द्विविधमेतद् द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियोपकरणत्वाद् द्रव्यात्मकत्वाचेति । निवृत्तेलेक्षणमाहनिवृत्तिरियादिना ।...''इहाजोपागनाम औदारिका दिशरीरत्रयाङ्गोपालनिर्वर्तक यदुदयादगोपाङ्गान्युत्पद्यन्ते शिरोडुल्यादीनि, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे ज्ञानात्मात्मप्रकाश्यं च । तान्यपि हि निर्वृत्त्युपकरणतद्योग्यपर्याप्तिद्रव्याण्यञ्जनादिबाह्यद्रव्याणि चात्मन्युदितक्षीगोपशान्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयज्ञानदर्शनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमापेक्षात्मलब्धिप्रकाश्यानि, तस्मात निर्माणनाम चात्र वर्धकिस्थानीयं कर्णशष्कुल्याद्यवयवसन्निवेशविशेषरचनायामाहितनैपुण्यमिति आचार्याः । तदित्थमङ्गोपाङ्ग नाम्ना प्रतिविशिष्टेन कर्मणा निर्वर्तितानि जनितानि इन्द्रियद्वाराणि इन्द्रियविवराणि भावेन्द्रियावधानद्वाराणीति भावः । एतानि च नानासंस्थानादीनि, तथा चागमः - ‘फासिदिए णं भंते ! किंसठिए पण्णत्ते ?........... कलंबुआपुप्फसंठिए पण्णत्ते [प्रज्ञापनासू० १९१], अभ्यन्तरां निर्वृत्तिमङ्गीकृत्य सर्वाण्यमूनि सूत्राण्यधीतानि, बाह्या पुनर्निवृत्तिश्चित्राकारत्वान्नोपनिबर्द्ध शक्या अश्वमनुष्यादीनां बाह्यश्रोत्रादिभेदादिति । इममेवातिक्रान्तभाष्यार्थ पर्यायान्तरेण स्पष्टयन्नाह-कर्मेत्यादि । कर्मविशेषसंस्कृता इति, कर्मविशेषो नामकर्म, तस्यापि अङ्गोपाङ्गनाम निर्माणकर्म च, आभ्यां संस्कृता विशिष्टावयवरचनया निर्वर्तिताः शरीरप्रदेशाः औदारिकादीनां त्रयाणां प्रतिविशिष्टा देशाः कर्णशष्कुल्यादय इति । मुग्धमतिमोहव्यपोहायाह-निर्माणेत्यादि । निर्माणनाम च अनोपाझंच निर्माणनामाङ्गोपाङ्गे, ते प्रत्ययः कारणं यस्याः सा तथाविधा मूलगुणनिर्वर्तनेत्यर्थः, निगमनमेतत्' नोत्तरगुणनिर्वर्तना, सा हि कर्णयोः वेधप्रलम्बतापादनं चक्षुर्नासिकयोरञ्जननस्याभ्यामुपकारः ब्राहयादियोगाजिह्वायाः स्पर्शस्य गन्धादिभिर्विमलत्वकरणमिति । इत्यर्थ इत्येवमर्थोऽस्याःप्रवचनज्ञैराख्यात इति व्याख्याता निर्वृत्तिः । अधुनोपकरणमाह - उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च । उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् , बाह्यकरणं शष्कुल्यादीति । तत्र अभ्यन्तरं खड्गस्थानीयाया निवृत्तेस्तद्धाराशक्तिकल्पं स्वच्छतरपुद्गलजालनिष्पादितं तदभिन्नदेशमेवेति, यदधिकृत्याह-निर्वर्तितस्येत्यादि, निर्वर्तितस्य निष्पादितस्य स्वावयवविभागेन निवृत्तीन्द्रियस्येति गम्यते, अनुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति, यदनुपहत्या उपग्रहेण चोपकरोति तदुपकरणेन्द्रियमिति । तथाहिनिवृत्ती सत्यामपि शक्त्युपघाते न विषयग्रहः, बाह्योपकरणघाते च नियमतः शक्त्युपघात इति तत्प्राधान्यतो बाह्यमभ्यन्तरं चेत्याह ।" इति हरिभद्रसूरिविरचिताया तत्त्वार्थभाष्यव्याख्यायाम् । “इष्टानिष्टविषयोपलब्धा(ब्ध्य ?)र्थानि भोक्तुरात्मनो यान्यमूनीन्द्रियाणि तेषामुक्तसामर्थ्यविशेषादुपनिपतितभेदानां प्रत्येक भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह-द्विविधानि [ तत्त्वार्थसू० २।१६ ], 'विध'शब्दस्य प्रकारवाचिनो ग्रहणम् । अयं 'विध'शब्दः प्रकारवाची गृह्यते, विध-युक्त-गत-प्रकाराः समानार्था इति । द्वौ विधौ येषां तानि द्विविधानि द्विप्रकाराणीत्यर्थः । कौ च द्वी प्रकारौ? द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियमिति । तत्र द्रव्येन्द्रियस्वरूपविज्ञानार्थमाह - निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् [ तत्त्वार्थसू० २।१७], निर्वर्त्यत इति निर्वृत्तिः । कर्मणा या निवर्त्यते निष्पाद्यते सा निवृत्तिरित्युपदिश्यते । सा द्वेधा बाह्याभ्यन्तरभेदात् । सा निर्वृत्तिर्द्वधा, कुतः ? बाह्याभ्यन्तरभेदात् । तत्र विशुद्धात्मप्रदेशवृत्तिराभ्यन्तरा । उत्सेध गुलस्यासङ्ख्येभागप्रमितानां विशुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियमानावमानावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निवृत्तिः । तत्र नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयो बाह्या । तेषु आत्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाक् यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः स बाह्या निर्वृत्तिः । उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् । येन निवृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । तद् द्विविधं पूर्ववत् । तदुपकरण द्विविधं पूर्ववद् बाह्याभ्यन्तरभेदात् । तत्राभ्यन्तरं शुक्लकृष्णमण्डलम् , बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि । एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम् ।" इति अकलकदेवविरचिते तत्त्वार्थराजवार्तिके ॥ १°णातद्यो भा० पा० डे० । णात्तद्यो वि०॥ २ “लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् [ तत्त्वार्थसू० २।१८], लब्धिरुपयोगस्तु भावेन्द्रियं भवति । लब्धिर्नाम गतिजात्यादिनामकर्मजनिता तदावरणीयकर्मक्षयोपशमजनिता च इन्द्रियाश्रयकर्मोदयनिर्वृत्ता च जीवस्य भवति । सा पञ्चविधा, तद्यथा - स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः रसनेन्द्रियल ब्धिः घ्राणेन्द्रियलब्धिः चक्षुरिन्द्रियलब्धि: श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरिति । उपयोगः स्पर्शादिषु [ तत्त्वार्थसू० २।१९], स्पर्शादिषु मतिज्ञानोपयोग इत्यर्थः । उक्तमेतत् ‘उपयोगो लक्षणम्' [ तत्त्वार्थसू० २१८ ] । उपयोगः प्रणिधानम् , आयोगस्तद्भावः परिणाम इत्यर्थः । एषां च सत्यां निर्वृत्तावुपकरणोपयोगी भवतः, सत्यां च लब्धौ निर्वृत्त्युपकरणोपयोगा भवन्ति निवृत्त्यादीनामेकतराभावेऽपि विषयालोचनं न भवति ।" इति वाचकवरश्रीउमाखातिप्रणीते तत्त्वार्थभाष्ये । अस्य सिद्धसेनगणिकृता व्याख्या-“लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् । लब्धिः प्रतिस्वमिन्द्रियावरणक्षयोपशमः, स्वविषयव्यापारः प्रणिधानं वीर्यमुपयोगः, एतदुभयं भावेन्द्रियमात्मपरिणतिलक्षणं भवति । अत्राचार्यों लब्धिखरूपनिर्वर्णनायाह-लब्धिर्नामेत्यादि भाष्यम् । लाभो लब्धिः प्राप्तिः, नामशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, अथवा लब्धिरिति यदेतद् नाम अभिधानं तस्यायमर्थः - गतिजात्यादिनामकर्मजनिता लब्धिरुच्यते । गतिजाती आदिर्यस्य तद् गतिजात्यादि, गतिजात्यादि च तन्नामकर्म च गतिजात्यादिनामकर्म, तेन जनिता निर्वर्तिता मनुष्यगतिनामोदयाद् मनुष्यः तथा पञ्चेन्द्रियजातिनामोदयात् पञ्चेन्द्रिय इत्यतो मनुष्यत्वपञ्चेन्द्रियत्वादिलामे प्रतिखं तदावरणकर्मक्षयोपशमो निर्वय॑ते, तस्य क्षयोपशमस्य गतिजातिप्रभृतिनामक कारणवानिदिष्टमाचार्येण । आदिग्रहणेन यत् तदत्र नान्तरीयकं शरीरादिक्षयोपशमलब्धे Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तायाः सत्सत्करत्वखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् तेषामपि लब्धिप्रकाश्यत्वादनवस्था । सापि लब्धिरात्मनः प्रणिधानाख्येन वीर्येणापनीते ज्ञानावरणादिकालुष्ये जीवस्योपयोगलक्षणस्य प्रसादमात्रं ज्ञानमुपयोगस्तेन प्रकाश्यते लब्धेरप्युपयोगफलायास्तत्प्र नामान्तःपाति तत् सकलमादीयते । अपरे तु आयुष्कमपि तदाश्रयत्वात् कारणमाचक्षते क्षयोपशमस्य । एवं विदूरवर्ति कारणमपदिश्याधुना प्रत्यासन्नतरकारणान्तरमाविष्करोति - तदावरणीयकर्मक्षयोपशमजनिता चेति। तस्याः खलु रूपादिग्रहणपरिणतेरावणीयमावारकमाच्छादकम् , बाहुलकात् कर्तरि व्युत्पत्तिः, तदावरणीयं च तत् कर्म च तदावरणीयकर्म, मतिज्ञानदर्शनावरणकर्मेत्यर्थः । तस्योभयस्य क्षयोपशमोऽभिहितलक्षणः, तजनिता च तन्निष्पादिता चेत्यर्थः । चशब्दः पूर्वकं कारणं समुच्चिनोति । ननु च क्षयोपशम एव लब्धिरुका, तेन जनिता अन्या का भवेल्लब्धिः ? उच्यते- मतिज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमावस्थानिवृत्तौ यो ज्ञानसद्भावः क्षायोपशमिकः सोऽत्र लब्धिरुच्यते । कथं कृत्वोक्तं प्राक्क्षयोपशमो लब्धिरिति ? कारणे कार्योपचारमालम्ब्य नवलोदकं पादरोगवदित्य भिहितमतो न दोषाय । अन्ये पुनराहुः - अन्तरायकर्मक्षयोपशमापेक्षा इन्द्रियविषयोपभो(यो ?)गज्ञानशक्तिर्लब्धिरित्युच्यते । पुनः प्रत्यासन्नतमकारणनिर्दिदिक्षया भाष्यकृत् प्रतनुते ग्रन्थम्-इन्द्रियाश्रयकर्मोदयनिर्वृत्ता च जीवस्य भवतीति । इन्द्रियाण्याश्रयोऽवकाशो येषां कर्मणां तानीन्द्रियाश्रयाणि कर्माणि यावन्ति कानिचिद् निर्माणाङ्गोपाङ्गादीनि यैर्विना तानि न निष्पद्यन्ते तदुदयेन तद्विपाकेन निर्वृत्ता जनिता आत्मनो लब्धिरुद्भवति, स्वच्छे हि दर्पणतले प्रतिबिम्बोदयो भवति, न मलीमसे, तथा निर्माणाङ्गोपाङ्गादिभिरत्यन्तविमलतद्योग्यपुद्गलद्रव्यनिर्मापितानीन्द्रियाणि तस्याः क्षयोपशमलब्धेरतुलं बलमुपयच्छन्ति कारणतां बिभ्रतीति । सैषा लब्धिः कारणत्रयापेक्षा पञ्चप्रकारा भवति । तद्यथा-स्पर्शेनेन्द्रियलब्धिरित्यादि भाष्यम् । यथा तत् पञ्चविधत्वं तस्यास्तथा दर्श्यते । स्पृष्टिः स्पर्शनम् , स्पर्शनं च तदिन्द्रियं चेति स्पर्शनेन्द्रियम् , एतदेव लब्धिः स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः शीतोष्णादिस्पर्शपरिज्ञानसामर्थ्यमनभिव्यक्तमुपयोगात्मनेति यावत् , एवं जिह्वेन्द्रियादिलब्धयोऽपि वाच्याः । इति शब्दो लब्धेरियतामावेदयति । उक्ता लब्धिः, अधुनोपयोग उच्यते । यदि लब्धिनिर्वृत्त्युपकरणक्रमेणोपयोगस्ततोऽतीन्द्रियोपयोगाभावो निवृत्त्याद्यपेक्षाऽभावात् । एतदुक्तं भवति-अवध्यादीनामतीन्द्रियत्वादत्यन्ताभाव एव । विशेषो वाच्यः । उच्यते - न खलु सर्व उपयोगो लब्धिनिर्वृत्त्युपकरणेन्द्रियकृतः, किं तर्हि ? स एवैकस्त्रितयनिमित्त इत्यत आह - उपयोगः स्पर्शादिषु । स्पर्शरसगन्धवर्णशब्देषु ग्रहणरूपो व्यापार उपयोग गृह्यते स्पर्शनेन्द्रियादिनिमित्तः, नावध्याधुपयोगः । अमुमेवार्थ स्पष्टयन् भाष्यकृदाह-स्पशोदिषु मतिज्ञानोपयोग इत्यर्थः । स्पशोदिविषयो मतिज्ञानव्यापारः प्रतिनियतविषयानुभवनमुपलम्भनमिति अनेन शेषज्ञानव्युदासमादर्शयति, मतिज्ञानोपयोग एव लब्धिनिवृत्त्युपकरणापेक्षः प्रवर्तते न शेष इति । अत्रोपयोगसामान्यश्रुत्यपहृतावधानश्चोदयति-स्पर्शादिविषयो य उपयोगः परिसमाप्तिव्यापार इत्युक्तम् । एतच परमाणुद्वयणुकादिष्यपि दृष्टम् । परमागुरपि हि सर्वात्मनोपयुज्यते द्वयणुकादिस्कन्धपरिणामे, ततश्च सोऽप्युपयोगलक्षणं प्राप्नोतीत्यत आह भाष्यकारः-उक्तमेतदुपयोगो लक्षणमिति । अथवा भाष्यकारः स्वयमेवोपयोगविशेषव्याख्यामातितनिषुराह-उक्तमेतदित्यादि । अभिहितमेतदुपयोगचैतन्यपरिणामो जीवस्य वैशेषिकं लक्षणम् , कः परमाण्वादिष्वत्र प्रसङ्गः ? अत्यन्तासम्बन्ध एव । तमेवोपयोगं पर्यायतः कथयति चैतन्यलक्षणं विशेषव्याख्यानदर्शनद्वारेण उपयोग इत्यादि । उपयोगस्तु द्विविधा चेतना- संविज्ञानलक्षणा अनुभवनलक्षणा च । तत्र घटाद्युपलब्धिः संविज्ञानलक्षणा, सुखदुःखादिसंवेदना अनुभवनलक्षणा । एतदुभयमुपयोगग्रहणाद् गृह्यते । प्रणिधानमवहितमनस्कत्वम् । एतदुत्कीर्तयति-स्पष्टो हि मतिज्ञानोपयोगो मानसोपयोगावश्यम्भावी द्रव्येन्द्रियाद्यपेक्षश्च, नावध्याधुपयोगस्तथेति । आयोग इति स्वविषयमयोदया स्पशादिभेदनिभासो ज्ञानोदयः स्पर्शनेन्द्रियादिजन्मा अभिधीयते । तद्भाव इति, उपयोगलाञ्छनो जन्तुः तच्छन्देनामृश्यते, तस्य भावः स्पर्शनादिद्वारजन्म ज्ञानमात्मनो भूतिरुद्भव इति यावत् । परिणामोऽप्यात्मन एव तद्भावलक्षणो नार्थान्तरप्रादुर्भावलक्षणः, स्पर्शनादिनिमित्तज्ञानस्यात्मपरिणतिरूपत्वादित्यर्थः । सम्प्रति प्रवृत्ती क्रमनियममापादयन्नाह - एषामित्यादि भाष्यम् । एषामिति व्याख्यातस्वरूपाणां निर्वृत्त्युपकरणलब्ध्युपयोगेन्द्रिय णामयं प्रवृत्तिक्रमो यदुत निर्वृत्तिः प्राक, तस्यां सत्यामुपकरणमुपयोगश्च भवति निवृत्त्याश्रयत्वादुपकरणस्य तदारजन्मत्वाचोपयोगस्य । एतच्च निवृत्त्यादित्रय लब्धीन्द्रियपूर्वकं दर्शयति-श्रोत्रादिक्षयोपशमलब्धौ सत्यां निवृत्तिः शकुल्यादिका भवति, यस्य तु लब्धिर्नास्त्येवंप्रकारा न खलु तस्य प्राणिनः शष्कुल्यादयोऽवयवा निवर्त्यन्ते,,तस्मालब्ध्यादयश्चत्वारोऽपि समुदिताः शब्दादिविषयपरिच्छेदमापादयन्त इन्द्रियव्यपदेशमश्नवते, एकेनाप्यवयवेन विकलमिन्द्रिय नोच्यते न च स्वविषयग्रहणसमर्थ भवति । अमुमर्थ भाष्येण दर्शयति-निर्वृत्त्यादीनामिति सूत्रोपन्यस्तक्रममङ्गीकृत्योच्यते । निवृत्त्युपकरणलब्ध्युपयोगानामन्यतमाभ'वे एकेनाप्यनेन विकले सति समुदाये न जातुचित् शब्दादिविषयस्वरूपावबोधो भवत्यात्मनः धिकलकरणत्वात्... ...... । 'उपयोगः स्पर्शादिषु' इति Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे स्तत्प्रकाश्यत्वात् तस्यापि बाह्योपयोग्यद्रव्योपयोगप्रकाश्यत्वादनवस्था । तस्मात् काश्यत्वादनवस्था । तस्यापि मतिज्ञानोपयोगादारभ्य यावत् केवलोपयोगस्य बाह्योपयोग्यद्रव्योपयोगप्रकाश्यत्वादनवस्था । सोऽपि हि 'जं जं जे जे भावे परिणमति पओगवीससादब्वं । ३२९-१ तं तह जाणाति जिणो अपजवे जाणणा णत्थि ॥ [आवनि० ७९४] इति बाह्यवस्तुपरिणामानुरूपोपयोगात् तत्प्रकाश्य उपयोगोऽपीत्यतः परं पुनरुक्तं भवति प्रकाश्यप्रकाशककेचिद् भाषन्ते 'सूत्रमिदं न भवति, भाष्यमेव सूत्रीकृत्य केचिदधीयते । तदेतदयुक्तम् , अविगानेन सूत्रमध्येऽध्ययनात् प्रतिविशिष्टाचार्यसम्प्रदायगम्यत्वाद् विवरणाच निश्चीयते सूत्रतेति।" इति सिद्धसेनगणिविरचितायां तत्त्वार्थभाष्यवृत्ती । “भावेन्द्रियमुच्यते-लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् [तत्त्वार्थसू. २०१८ ], ............ इन्द्रियनिर्वृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिः । यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्तिं प्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशम विशेषो लब्धिरिति विज्ञायते। तन्निमित्तः परिणामविशेष उपयोगः । तदुक्तं निमित्तं प्रतीय उत्पद्यमान आत्मनः परिणाम उपयोग इत्युपदिश्यते । तदेतदुभयं भावेन्द्रियमिति।" इति अकलङ्कदेवविरचिते तत्त्वार्थराजवार्तिके ॥ १ दृश्यतां पृ० १८२, पृ० २१२ । “एवं च नय विगप्पजायपरूवणं सोतूण वाउलितो सीसो आह - भगवं | किमेत्थ तत्तं ? अतः सिद्धांततो भण्णति-जं जं.॥ ७९४ ॥ तत्थ गुरू भणति सोम्ममुह ! जं जिणो जाणति तं तत्तं; किं पुण जिणो जाणति ? भण्णति-जं जं किंचि वत्थु, जे जे केइ भावे, तं तं वत्थु ते ते सव्वे भावे व परिणमति, सव्वं वत्थु सव्वभावपरिणामित्ति जं भणितं, तथाहि - ‘एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भावाः सर्वभावस्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः ॥' पयोगवीससत्ति, केइ भावे पओगतो परिणमति केइ वीससा, तं परिणामि वत्थु तहा सब्वभावपरिणामिप्पगारेण जाणाति, जं पुण अपजवतं तत्थ जाणणा णस्थित्ति ।..... सव्वणयसमूहमतं जिणमयंति ॥” इति जिनदासगणिमहत्तरविरचितायाम् आवश्य कचूर्णौ पृ. ४३५ । "तथा चाधुना द्रव्यार्थिकपक्षसमर्थनार्थमाह नियुक्तिकारः-जं जमित्यादि । यान् यान् भावान् घटादीन् परिणमति प्रयोगविस्रसाद्रव्यम्, तत्र प्रयोगेण घटादीन् विस्रसा अभ्रेन्द्रधनुरादीन् , द्रव्यमेव तदुत्प्रेक्षितपर्यायं कटककेयूराङ्गदादिव्यपदेशाहसुवर्णवत् । अपि च, तत् तत् तथैव अन्वयप्रधानं सर्जनं जानाति परिच्छिनत्ति जिनः । अपजवे जाणणा णस्थित्ति, अपर्याये निराकारे तथापरिणतिरहिते इत्यर्थः, आणणा णस्थित्ति परिज्ञा नास्ति । न च ते पर्यायास्तत्र वस्तुसन्तः, द्रव्यमेव तथा कारवत् । ततश्च तदेव सत् केवलिनाप्यवगम्यमानत्वात् केवलवात्मवत् ।" इति कोट्याचार्यविरचितायां विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यायाम , पृ० ७५५ । “अस्यैव द्रव्याथिकनयमतस्य समर्थनार्थ नियुक्तिकारोऽप्याह - जं जं...॥ २६६७ ॥ प्रयोगश्चेतनावतो व्यापारः, विस्रसा स्वभावः, ताभ्यां निष्पन्नं द्रव्यं प्रयोगविस्रसाद्रव्यमुच्यते । तत्र प्रयोगनिष्पन्नं घटपटादि. विलसानिष्पन्नं त्वभ्रेन्द्रधनुरादि । तत्र प्रयोगविस्रसाद्रव्यं कर्तृ यान् यान् कृष्णरक्तपीतशुक्लत्वादीन् भावान् पर्यायान् परिणमति प्रतिपद्यते तं तहत्ति वीप्साप्रधानत्वाद् निर्देशस्य तत् तत् तथा तेन तेन रुपेण परिणमद् द्रव्यमेव जानाति जिनः के ली, न पुनस्तदतिरिक्तान् पर्यायानिति भावः, तेषामुत्प्रेक्षामात्रेणैव सत्त्वात्, न धुत्फणविफणकुण्डलिताद्यवस्थायामपि सादिद्रव्यस्य स्वस्वरूपव्यतिरिक्तः कोऽपि पर्यायः संलक्ष्यते, सर्वावस्थासु अविचलितस्वरूपस्य सर्पादिद्रव्यस्यैव संलक्षणादिति । यदि पर्याया न विद्यन्ते तर्हि कथमुच्यते जे जे भावे परिणमइ? इत्याशङ्कयाह - अपजवे जाणणा नस्थित्ति, अपर्याये पर्यायरहिते वस्तुनि केवल्यादीनां परिज्ञा नास्तीति मन्यामहे, केवलमुत्प्रेक्षामात्रेणैव ते पर्यायाः, न पुनद्रव्यव्यतिरेकिणः केचनापि वास्तवास्ते विद्यन्ते । अतो द्रव्यमेव परमार्थसत् इति नियुक्तिगाथार्थः ।" इति मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितायां विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यायाम , पृ० १०६० । “द्रव्यार्थिक आह - जं जं.॥ ७९४ ॥ यत् यत् आत्ममृदादिकं वस्तु यान् यान् भावान् पर्यायान् विज्ञानघटादीन् परिणमति तदात्वेन प्रतिपद्यते प्रयोगतो विस्रसातो वा । तत्र प्रयोगश्चेतनावतो व्यापारः, विस्रसा स्वभावः । तत् सर्वमुत्प्रेक्षितपर्याय द्रव्यमेव उत्फणविफणत्वकुण्डलितादिपर्यायसमन्धितसर्पद्रव्यवत् , तथाहि-न तत्र केचन उत्फणतादयः सर्पद्रव्यातिरिक्ताः पयोयाः सन्ति प्रमाणेनानुपलब्धेः गगनकुसुमस्य मुकुलितार्धमुलितत्वादिपर्यायवत् । तस्मात् तदेव द्रव्यं तत्र परमार्थसदिति । किच, तद् द्रव्यं तथैव अन्वयपर्यायोपसर्जनं जानाति परिच्छिनत्ति जिनो भगवान् केपछी । कस्मात पर्यायोपसर्जन Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् द्वादशारं नयचक्रम् ४७९ प्रकाश्यः प्रकाशः अतद्रूपभावाधिगम्यत्वात् । सत्तापि च द्रव्याद्यतद्रूपप्रत्ययेन प्रकाश्यते वाक्प्रकाशावगमितार्थप्रदीपादिप्रकाशनवत् । प्रधानमपि चैवं स्याद् भवत्परिकल्पिता सत्ता विश्वरूपोपभोगप्रतिपादनार्थत्वात् पुरुषार्थत्वाद् गुणत्रयवत् ।। कार्यमपि ते प्रागपि सदेव प्राप्नोति, अशक्तसदसत्त्वेनाध्यास्यमानत्वात् । सक्रियमाणत्वात् , उत्पन्नमात्रद्रव्यादिवत् । यद्वा न तत् सक्रियते न भाव्यते वा केनचिदर्थान्तरेण, सद्भूतत्वात्, सत्तादिवत् । न तत्सत्ता सत्तान्तरमपेक्षते सत्तात्म चक्रकरूपेण । तस्मात् प्रकाश्यः प्रकाशः प्रकाशान्तरप्रकाश्यः प्रदीपप्रकाशोऽपि, अतद्रूपभावाधिगम्यत्वादित्यवस्थादृष्टान्तासत्त्वसमर्थनोपसंहारः । सत्तायामप्यनवस्थामतद्रूपप्रकाश्यसाधादापादयितुमाह प्रस्तुतायाम् – सत्तापि चेत्यादि । सत्तापि चाश्रयस्य द्रव्यादेरतद्रूपस्य प्रत्ययेनात्मानं 10 लभते, तेन प्रकाश्यते, वाक्प्रकाशावगमितस्यार्थस्य प्रदीपादिना प्रकाशनवत् , न स्वत एवेत्यनवस्थादोषोऽत्रापि तदवस्थः । किश्चान्यत्, प्रधानमपि चैवमित्यादि । सायपरिकल्पितं सकलजगत्कारणं प्रधानादिपर्यायं स्याद् भवता वैशेषिकेण परिकल्पिता सत्ता विश्वरूपोपभोगप्रतिपादनार्थत्वात् पुरुषार्थत्वाद् गुणत्रयः वत् , यथा सत्त्वरजस्तमोनामकं पुरुषार्थ प्रवर्तमानं पुरुषस्य विश्वरूपमुपभोगं प्रतिपादयितुं प्रवर्तमानं 15 प्रधानमेव न ततोऽन्यद् व्यतिरिक्तं किञ्चित् तद्विकारत्वादेवं सत्तापि प्रधानमेव स्यात् । अनिष्टं चैतत् । किश्चान्यत्, कार्यमपि त इत्यादि यावद् द्रव्यादिवदिति । कार्यमपि तव द्रव्यादि जन्मकालात् प्रागपि सदेव प्राप्नोतीत्येतदप्यनिष्टापादनम् । कथं तन्त्वादिकारणानि प्रागप्युत्तरकालभाव्यभिमतात्मसम्बन्धीनि ? अँशक्तसदसत्त्वेनाध्यास्यमानत्वादित्यादिहेतवो गतार्था यावत् सक्रियमाणत्वादिति । ३२९-२ उत्पन्नमात्रद्रव्यादिवदिति दृष्टान्तः । 20 यद्वेत्यादि । अथैवं नेष्यते न तत् सक्रियते द्रव्याद्युत्पन्नमात्रं न भाव्यते वा केनचिदर्थान्तरेण, सद्भूतत्वात, सत्तादिवदिति, आदिग्रहणाद् द्रव्यत्वादिसामान्यविशेष-विशेष-समवायवत । जानाति, न तु पर्यायरहितमित्यत आह - अपजवे जाणणा नत्थित्ति । अपर्याये पर्यायरहिते यतो जाणणा परिज्ञा केवल्यादीना. मपि नास्ति ततस्ते उत्प्रेक्षामात्रेण व्यवह्रियन्ते, न तु परमार्थतः सन्ति, ततो द्रव्यमेव तात्त्विकम् ।" इति मलय गिरिविरचितायाम् आवश्यकनियुक्तिव्याख्यायाम् । विस्तरेण त्वस्या आवश्यकनियुक्तिगाथाया अर्थो निम्निलिखिताभ्यो जिनभद्रगणिक्षमाश्रणविरचितविशेषावश्यकभाष्यगाथाभ्योऽवसेयः - "जं जाहे जं भावं परिणमइ तयं तया तओऽणन्नं । परिणइमेत्तविसिटुं दव्वं चिय जाणइ जिणिंदो ॥ २६६८ ॥ न सुवष्ण.दन्नं कुंडलाइ तं चेय तं तमागारं । पत्तं तव्ववएसं लभइ सरुवाद भिन्नं ति ॥ २६६९ ॥ जइ वा दन्वादन्ने गुणादओ नूण सप्पएसत्तं । होज व स्वाईणं विभिन्न देसोवलंभो वि ॥ २६७० ॥ जइ पजवोवयारो लयप्पयासपरिणाममेत्तस्स । कीरइ तन्नाम न सो दवादत्थंतरभूओ॥ २६७१ ॥ दवपरिणाममेतं पजाओसो य न खरसिंगस्स। तदपजवं न नजइ जनाणं नेयविसयंति ॥ २६ २॥" विशेषाव०भा०। आना गाथानां व्याख्यानं तु कोट्याचार्यमलधारिहेमचन्द्राचार्यादिविरचितवृत्तिभ्योऽवसेयम् ॥ १ स्थानअतद्रू प्र० ॥ २षार्थ प्र० । (°षाय ?)॥ ३त्वादेवसत्वाविधानमेव प्र० ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४७३ पं० ७॥ ५ सदसत्वेसत्वेना रे० डे० । (अशक्तसदसत्त्वे सत्त्वेनाध्यास्यमानत्वात् ?)॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृतम् [सप्तम उभयोमयारे कत्वादत्यन्तानुप्रवृत्तसत्तावत् । अनर्थसत्ता चान्यत्रानाधेया, तत एव, स्वसत्तावत् । यदि तत् कारणसमवेतं खत एव सन्न भवति असदेव तर्हि तत्, स्वतो निरुपा. ख्यत्वात् अव्यपदेश्यत्वात् तथाऽविशिष्टत्वात् खपुष्पवत् असत् स्यात् । कार्यमपि वा प्राक् सदुत्पत्तेः, एभ्य एव, उत्पन्नमात्रद्रव्यादिवत् । इन तत्सत्ता सत्तान्तरमपेक्षते, द्रव्यादीनामुत्पन्नानां स्वभावसत्ता सम्बन्धिसत्ता नापेक्षते सत्तासम्बन्धरहितत्वेऽपि सत्तात्मकत्वात् , अत्यन्तानुप्रवृत्तसत्तावत् महासामान्यवदित्यर्थः । अनर्थसत्ता, 'अर्थः' इति द्रव्यगुणकर्मसु संज्ञानियमादनाः सामान्य-विशेष-समवायाः, तेषामनर्थानां या सत्ता सापि चान्यत्रानाघेया अनाश्रितेत्यर्थः । तत एव हेतोः, स्वसत्तावदित्येतान्यनिष्टापादनसाधनानि ।। पुनस्तत्रैव दोषः प्रकारान्तरेणोच्यते - यदि तत् कारणसमवेतमित्यादि । यदि कारणेषु समवेत10 मात्रं कार्यं स्वत एव सन्न भवति, सत्तासम्बन्धात् सद् भवेति, सदेवेति सदेव न भवति, अँगुणगुणत्वादिवदसदपीति, यद्यवमिष्यते तत एवमापन्नम् - असदेव तर्हि तत् । कुतः ? स्वतो निरुपाख्यत्वात् , 'निरुपाख्यत्वात्' इति सिद्धे 'स्वतः' इति विशेषणं वेदनादीनां स्वसंवेद्यानां निरुपाख्यानां सत्त्वात् तद्वदनै कान्तिकता मा भूदिति । तद्धि वेदनाद्यसाधारणरूपेण निरुपाख्यमपि स्वत एव वस्त्वात्मनैव सामान्यात्मना ११० अंशान्तरेण पररूपेण च व्यावृत्तेन सोपाख्यमिति । तथा विविधं विशिष्टं वा अपदेश्यो व्यपदेश्यः, न 15 व्यपदेश्यः प्रकारान्तरेण वेदनादिवद् व्यपदेश्यो न भवतीत्यर्थः, खपुष्पवैलक्षण्येन तथाऽविशिष्टत्वादिति विशेषणेन हि सदादिना वस्त्वेव सामान्यांशादिना वेदनादि सम्बध्यते नावस्त्विति एवं साधर्म्यात् खपुष्पवदसत् स्यादिति गतार्थम् । एतदनभ्युपगमे कार्यमपि वा प्राक् सदुत्पत्तेः, एभ्य एव हेतुभ्यः 'स्वतो निरुपाख्यत्वात्' इत्यादिभ्यः, उत्पन्नमात्रद्रव्यादिवत् ।। १ "बुद्धीनामर्थेन्द्रियापेक्षत्वे[s]प्यर्थस्तावदुच्यते-अर्थ इति द्रव्यगुणकर्मसु [वै०. सू० ८।१४ ], विनाप्यर्थत्वेन सामान्येन त्रिष्वेव द्रव्यादिषु तत्र प्रसिद्ध्यर्थशब्दः (प्रसिद्ध्यार्थशब्दः ? प्रसिद्धोऽर्थशब्दः ? प्रसिद्ध्यर्थमर्थशब्दः?) परिभाष्यते । क्वेव ? यथा सामान्य विशेषेषु. विना सामान्यान्तरेण यथा सत्तादिषु सामान्येषु 'सामान्यं सामान्यम्' इति ज्ञानं तथा विशेषेषु विशेषान्तराभावेऽपि 'विशेषो विशेषः' इति तद्दर्शिनां विज्ञानमेवं द्रव्यादिषु विनाप्यर्थत्वेन पारिभाषिकोऽर्थशब्दः । इन्द्रियाण्युच्यन्ते, तानि च न पश्चात्मकानि, यतः द्रव्येषु पञ्चात्मकं प्रत्युक्तम् [वै० सू० ८1१५], यतो द्रव्येष्वारब्धव्येषु पञ्च भूतानि आरम्भकानि न विद्यन्ते अपि तु यानि आरभन्ते च वारि तानि खां खां जातिमारभन्ते । एवमिन्द्रियाण्यपि प्रतिनियतभूत कार्याणि, तथाहि-भूयस्त्वाद् गन्धवस्वाच्च पृथिवी गन्धज्ञाने [वै० सू० ८।१६], गन्धज्ञानं घ्राणम् , तस्मिन्नारब्धव्ये पृथिवी कारणं भूयस्वात् , शरीरापेक्षया तु भूयस्त्वम् । भूयस्त्वं च घ्राणे पृथिव्याः, पादादिना गन्धोपलब्ध्यभावात् । गन्धवत्त्वाच्च, यतश्च स्वसमवायिना गन्धेन घ्राणेन्द्रियं गन्धमभिव्यनक्ति अतस्तस्य गन्धवती पृथिव्येव कारणम् , भूतान्तराणि तु संयोगीनि खल्पान्येव । तथापस्तेजो वायुश्च रसरूपस्पर्शज्ञानेषु (रसरूपस्पर्शेषु T) रसरूपस्पर्श विशेषात् [वै० सू० ८1१७] इति, खसमवायिना मधुरापाकजेन रसेन रूपेण शुक्लभास्वरेण स्पर्शन अपाकजानुष्णाशीतेन यतो रसन-नयन-स्पर्शनानि रसरूपस्पर्शान भिव्यजन्ति अतो रसवत्त्वाद् रूपतत्त्वात् स्पर्शवत्त्वाच्च भूतान्तरैर्निमित्तैरनभिभूतत्वेन भूयस्त्वाच्च त्रिष्विन्द्रियेषु यथास्वयमापस्तेजो वायुश्च समवायिकारणानि द्रष्टव्यानि । आकाश तु खत एव श्रोत्रं कर्णशष्कुल्यावच्छिन्नं, न प्रकृतिरनारम्भकत्वात् । एवं प्रत्यक्षं व्याख्यातम् । अष्टमोऽध्यायः।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P.पृ. ३०॥ २°ति सदेवेति सदेव इति कथञ्चिद् द्विर्भूतश्चेत् पाठस्तर्हि 'सत्तासम्बन्धात् सद् भवति, सदेव न भवति, अगुणगुणत्वादिवदसदपीति' इति पाठः समीचीन इति प्रतिभाति ॥ ३ अगणत्वादि भा० ही० ॥ ४ सतोप्र.॥ ५ वखात्मनैव य० । अत्र च खात्मनैव इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ६ तथा विधं प्र० ॥ ७ तथाविशि° भा० ॥ ८ वि. विना प्राक् बवुत्पत्तेः य० । प्राक् वदुत्पत्तेः वि० । प्राक् दुत्पत्तेः भा० ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् ૪૮૨ यदपि च कर्नादिकारकव्यापारफलमुत्पन्नं वस्तुमात्रमशेषविशेषणविनिर्मुक्तं कारणसमवेतमित्यात्मावधारणं कृत्वा चोदितं 'वस्तुमात्रस्य निरतिशयत्वात् सत्त्वादिविशेषणसम्बन्धनियमानुपपत्तिः' इति तत् तथैव, सत्ताद्यसम्बन्धात् कारणसमवेतसर्वकार्यातिशयाभावात् सत्तादिविशेषणसम्बन्धनियमानुपपत्तिरेव । यत्तु प्रत्युच्यते-न, कारणसामग्र्ये विशेषसद्भावात् । यत्तुल्यजातीयावयवा-5 रब्धं वस्तुमानं कार्य तद् द्रव्यत्वेन सम्बध्यते । यत्तु कारणगुणारब्धं वस्तुमात्रं कार्य तदू गुणत्वेन सम्बध्यते। यत् पुनर्गुरुत्वादिभिः खाश्रये स्वाश्रयसंयोगसहितैर्वा - यदपि च कर्नादीत्यादि । कादीनां कारकाणां समवायिनामसमवायिनां च मृदादीनां देवदत्तदण्डादीनां च यो व्यापारः समेत्य खकार्यारम्भः, तस्य फलं घटादि कार्यमुत्पन्नं वस्तुमात्रम् , तस्यास्मावधारणं कार्यमित्यतः प्रागुवाहितार्थनिराकाङ्क्षीकरणार्थमाह - अशेषविशेषणविनिर्मुक्तं सत्त्व-द्रव्यत्व-10 गुणत्व-कर्मत्वादिभिः सर्वैविशेषणैर्विनिर्मुक्तं सम्बन्धिसद्भावशून्यं स्वभावसद्भावमात्रं यत् तदुच्यते कारणसमवेतं तदात्मा इतीत्थमात्मावधारणं कृत्वा स्वयमेव यच्चोदितम् - वस्तुमात्रस्य निरतिशयत्वात् संत्त्वादिद्रव्यत्वादिविशेषणसम्बन्धनियमानुपपत्तिः, ने हि तस्यामवस्थायामिदं द्रव्यम् , 'मया द्रव्यत्वेनात्रैव निलयनीयं न गुणकर्मत्वाभ्याम्' इति द्रव्यत्वस्य निलयननियमारणं नास्ति, अतिशयाभावादेव । तथा गुणत्वकर्मत्वयोरपि गुणकर्मणोरिति । तत् तथैवेत्यादि त्वदुक्तमेव कारणमिति तदेवोच्चारयति यावद-15 नुपपत्तिरेवेति । सत्तादिग्रहणात् सत्त्व-द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्व-घटत्व-रूपत्व-गमनत्वाद्यसम्बन्धात् कारणसमवेतसर्वद्रव्यगुणादिकार्यसत्ताद्रव्यत्वादिविशेषकृतसम्बन्धातिशयाभावादिति । ३३०-२ ___एतस्य परिहारार्थं यत् तु प्रत्युच्यते-न, कारणसामग्र्ये विशेषसद्भावादिति । तद्वयाख्यानं-यत् तुल्यजातीयावयवेत्यादि यावद् द्रव्यत्वेन सम्बध्यत इति द्रव्यत्वनिलयननियमः । पृथिव्यप्तेजोवायुपरमाणुभिर्द्वाभ्यां बहुभिर्वा स्वसंयोगापेक्षैस्तुल्यजातीयैरारब्धेऽवयविद्रव्यकार्ये द्रव्यत्वं निलीयत 20 इत्यर्थः । यत्तु कारणगुणेत्यादि, तैरारब्धे कार्यद्रव्ये नियमत एव [गुणा] गुणान्तरं तत्रस्था आरभन्ते [ ] इति वचनात् तदारब्धे गुणान्तरे कार्य गुणत्वनियमनात् गुणत्वेन सम्बध्यते । यत् पुनर्गुरुत्वादिभिः स्वाश्रये यत्राश्रये गुरुत्वं समवेतं तत्र "संयोगाभावे पतनकारभ्यते, आदिग्रहणात् प्रयत्ननोदनाभिघातसंयोगवेगाः कारभन्ते । स्वाश्रयसंयोगसहितैर्वेति तैरेव गुरुत्वादिभिः स्वाश्रये .. १'नासमवा प्र० ॥ २ गुणकर्म प्र०॥ ३°न्धेसद्भाप्र० ॥ ४ सत्वादि प्र० ॥ ५ 'न हि तस्यामवस्थायाम् 'इदं द्रव्यम् , मया द्रव्यत्वेनात्रैव निलयनीयं न गुणकर्मस्वाभ्याम्' इति द्रव्यत्वस्य निलयननियमकारणमस्ति' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ६ वि० विना कारणनास्ति य० । दृश्यतां टि० ५ ॥ ७ (कार्ये?) ॥ ८ यस्तु प्र०॥ ९ख्याने यत्तुल्यजातीयावयावेत्यादि भा० ॥ १० संगाभावे प्र०॥ ११ रभते प्र० । अत्र 'गुरुत्वम्' इत्यस्य कर्तृत्वविवक्षायाम् 'आरभते' इति यथाश्रुतपाठोऽपि साधुरेवेति ध्येयम् ॥ १२ दृश्यतां प्रशस्तपादभाष्ये क्रर्मनिरूपणम् । “एवमुक्तेषु द्रव्येषु गुणानुल्लङ्घय अल्पवक्तव्यत्वात् कर्माण्यभिधत्ते । तत्र आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म [वै० सू० ५।१।१], खाश्रयसंयोगापेक्षित्वात् प्रयत्नस्य क्रियारम्भे आत्महस्तसंयोगः कर्मणः कारणम् । सापेक्ष नय०६१ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૨ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे आश्रयान्तरे कर्म आरभ्यते तद् वस्तुमानं कार्य कर्मत्वेन सम्बध्यते इत्यस्त्यतिशयः। एतद् निदर्शनमात्रम् , सर्वत्र कारणसामग्र्यनियामकसद्भावात् प्रतिनियत एव कपित्थफलवृन्तादौ गुरुत्वेन कर्मण्यारब्धे तत्संयुक्ते कीटे पतनमारभ्यते आश्रयान्तरे । तच्चारब्धं वस्तुमात्रं कर्म कार्यमितराभ्यां विशिष्टं कर्मत्वेन सम्बध्यते । इत्यस्त्यतिशय इति दर्शयन् निरतिशयत्वस्या5 सिद्धतामापादयति । एतद् निदर्शनमात्रमित्यादि यावद् द्रष्टव्य इति । सर्वत्र घटत्व-गोत्वादि रूपत्वादि कारणत्वात् संयोगस्य प्रयत्नोऽपि कारणम् । अतो द्वाभ्या हस्ते कर्म । तथा मसलकर्म हस्तसंयोगाच वै. सू० ५।१।२], तथेति सङ्ख्यामात्रातिदेशः, तेन हस्तमुसलसंयोगो मुसलकर्मणः कारणं पूर्वाधिकृतश्च प्रयत्नः । न तु आत्महस्तसंयोगोऽसमवायिकारणं मुसलकर्मणि, आत्मसंयुक्तहस्तसंयोगादेव] तत्सिद्धेः । अभिघातजे मुसलकर्मणि व्यतिरेकादकारणं हस्तसंयोगः [वै० सू० ५।१।३ ], वेगवद्व्यसंयोगोऽभिघातः, उलूखलाभिघातादुत्पन्ने मुसलस्योत्पतनकर्मणि अकारणं हस्तमुसलसंयोगः पूर्वप्रयत्नस्याभिघाताद् विनष्टत्वात् , 'उत्पततु मुसलद्रव्यम्' इतीच्छाया अभावात् प्रयत्नान्तरस्याभावः, संयोगस्य च कर्मारम्भे सापेक्षकारणत्वात् प्रयत्नरहितो हस्तमुसलसंयोगो न कारणमुत्पतनस्य । तथात्मसंयोगो हस्तमुसलकर्मणि [वै. सू० ५।१।४], यथैव हस्तमुसलसंयोगो मुसलोत्पतनकर्मणि न कारणं तथात्महस्तसंयोगोऽपि हस्तोत्पतनकर्मणि न कारणं संयोगस्य सापेक्षकारणत्वात् 'मुसलेन सहोत्पततु हस्तः' इति [अभिसन्धेरभावेन प्रयत्नस्य चाभावात् । कुतस्तयोरुत्पतनमिति चेत्, मुसलाभिघातात्तु मुसलसंयोगाद्धस्ते कर्म [वै. सू. ५।१।५], उलूखलाभिघातो मुसलस्योत्पतनकर्मणः कारणम् । हस्तमुसलसंयोगस्तु मुसलगतवेगापेक्षो हस्तकर्मणः कारणम् , नाभिघातोऽसमवेतत्वात् । तथात्मकर्म हस्तसंयोगाच्च [वै० सू० ५।१।६], आत्मेति शरीरैकदेशः, यथा चैतदप्रत्ययं हस्ते मुसले च कर्म तथैव हस्तावयवसंयोगाद् हस्तगतवेगापेक्षाद् हस्तोत्पतनकालेऽवयवे तस्मिन्नप्रत्ययं कर्म जायते । संयोगाभावे गुरुत्वात पतनम [ वै० सू० ५।११७], विभागान्निवृत्ते हस्तमुसलसंयोगे गुरुत्वात् पतनं भवति । नोदनविशेषाभावाद नोज़ न तिर्यग् गमनम् [वै० सू० ५।११८ ], नुद्यतेऽनेनेति नोदनं वेगप्रयत्नापेक्षः संयोगविशेषः, प्रेरकप्रयत्नाभावे नोदनाभावाद् नोवं तिर्यग् वा केवलाद् गुरुत्वाद् मुसलादेर्गमनकर्म भवति । कुतो नोदनविशेषः ? प्रयत्नविशेषानोदनविशेषः [वै० सू० ५।१।९], 'अत्र इदं क्षिपामि' इति इच्छाविशेषजः प्रयत्न उत्पन्नो हस्तादेव्यस्य द्रव्यान्तरेण संयोग नोदमाख्यं जनयति। नोदनविशेषाद्दसनविशेषः [वै० सू० ५।१।१०], दूरदेशप्रेरणेच्छाविशिष्टात् प्रयत्नाजातो नोदनविशेषो दूरदेशक्षेपणं करोति । हस्तकर्मणा दारककर्म व्याख्यातम् [वै० सू० ५।१।११], यद् गर्भस्य स्पन्दनादिकर्म तदात्मशरीरैकदेशसंयोगाजीवनपूर्वकप्रयत्नापेक्षाद् भवतीति सप्रत्ययम् , मातुः कार्यावस्करोपसर्पणकर्म गर्भस्याप्रत्ययमात्मसंयोगाददृष्टापेक्षाद् भवतीति । तथा दग्धस्य विस्फोटनम् [वै० सू० ५।१।१२], व्यासक्ते मनसि यद् दग्धस्य हस्तादेर्विक्षेपणं तदपि जीवनपूर्वकप्रयत्नापेक्षादात्महस्तसंयोगाद् भवतीति नाप्रत्ययम्। प्रयत्नाभावे गुरुत्वात् सुप्तस्य पतनम् [वै० सू०५।१।१३], शरीरविधारकप्रयत्नाभावे सुप्तस्याङ्गानां पतनं गुरुत्वाद् भवति तदाभिसन्धेरभावात् । तृणकर्म वायुसंयोगात् [वै० सू० ५।१।१४ ], वेगापेक्षाद् वायुतृणसंयोगात् तृणादीनां कर्म, तेषां प्रयत्नाभावात् । मणिगमनं सूच्यभिसर्पणमित्यदृष्टकारितानि [वै० सू० ५।१।१५], मणीनां तस्करं प्रति गमनं सूचीनां वा अयस्कान्तं प्रति धर्माधर्मकृतमित्यर्थः । इषावयुगपत् संयोगविशेषात्क(षाः क)र्मान्यत्वे हेतुः [वै० सू० ५।१।१६ ], नोदनादाद्यं कर्म, संस्काराद् बहूनि कर्माणि इषावुत्पद्यन्ते । एकस्मिस्तु कर्मणि प्रथमेणैवाकाशसंयोगेन विनष्टत्वात् कर्मण उत्तरसंयोगविभागा नोत्पद्येरन् , तस्मादिषावनेकं कर्म । नोदनादाद्यमिषोः कर्म कर्मकारिताच्च संस्कारादुत्तरं तथोत्तरमुत्तरं च [वै० सू० ५।१।१७ ] ज्याशरसंयोगः प्रयत्नापेक्षो ज्यागतवेगापेक्षो वा नोदनम् , तत आद्यमिषोः कर्म नोदनापेक्षं संस्कारं करोति, निरपेक्षं तु संयोगविभागौ। ततः संयोगाद् विनष्ट कर्मणि नोदने विभागाद् विनिवृत्ते आद्यकर्मजसंस्कार उत्तरमिषौ कर्म करोति, तथोत्तरमुत्तरं पौनःपुन्येनेत्यर्थः । संस्काराभावे गुरुत्वात् पतनम् [वै० सू० ५।१।१८ ], स्पर्शवद्र्व्यसंयोगेन संस्कारविनाशाद् गुरुत्वं तत्पतनकर्म करोति । पञ्चमस्याद्यमाह्निकम् । आध्यात्मिकेषु तत्सम्बन्धे(द्धे)षु च कर्माण्युक्त्वा महाभूतकर्माणि व्याचष्टे - नोदनायभिघातात् संयुक्तसंयोगाच्च पृथिव्यां कर्म [वै० सू० ५।२।१], समस्तान् व्यस्तांश्च गुरुत्वद्रवत्ववेगप्रयत्नान Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् सामान्यविशेषसम्बन्धो द्रष्टव्यः। ___ अनेन यत्तदुत्पन्नं वस्तुमात्रं तत् स्वत एव परस्परतो विशिष्टमिति स्फुटीकृतम् । विशेषसद्भावस्तावदाहत्य भेरीमभ्युपगतः, तदुपवर्णनद्वारेण चाविशेषोऽपि । 'अविगंमनत्वादिष्वप्यनया युक्त्या सामान्यविशेषेषु कारणसामग्र्यस्य नियामकस्यातिशैयिनः सद्भावात् प्रतिनियत एव सम्बन्धो द्रष्टव्यः । इति परिहारे कृते प्रस्तुतनय आह - अनेनेत्यादि । त्वदीयेनैवैतेन परिहारवचनेन यत् तदुत्पन्नं कार्यं वस्तुमात्राभिमतं तत् स्वत एव कारणसामग्र्यातिशयादेव परस्परतो विशिष्टं न सत्ताद्रव्यत्वादि-३३१.१ सम्बन्धनमपेक्ष्येति स्फुटीकृतम् , तेनैव वस्तुभावनेन विशिष्टेन सत्तादिविशेषणसम्बन्धकृत्यस्यांविशेषविशेषाभिधानप्रत्ययहेतोः प्रतिप्रापितत्वात् । ___तत्र विशेषसद्भावस्तावदाहत्य भेरीमभ्युपगतः 'सर्वत्र कारणसामग्र्यनियामकसद्भावात् 10 प्रतिनियतः सामान्यविशेषसम्बन्धो द्रष्टव्यः' इत्युपसंहारवचनात् । तदुपवर्णनद्वारेण चौविशेषोऽपि 'अभ्युपगतः' इति वर्तते । तुल्यजातीयसंयोगारभ्यकार्यत्वाविशेषस्य द्रव्यत्वनिलयनविषयविशेषणवर्णनद्वारेण गुणारब्धगुणान्तरविषयनिलयनगुणत्ववर्णनद्वारेण गुरुत्वाद्यारब्धतदाश्रयाश्रयान्तरसमवेतकर्मविषयकर्मत्वपेक्षमाणो यः संयोगविशेषो नोदनादविभागहेतोः कर्मणः कारणं तद्] नोदनम् , तथाहि-प(पा)दादिभिर्नुद्यमानायां पङ्काख्यायां पृथिव्यां कर्म जायते । वेगापेक्षोऽभिघातादभिहन्यमानस्य विभागहेतोः कर्मणः कारणं संयोगोऽभिघातः, तथाहि-रथादिमिरभिघातात् पृथिव्येकदेशेषु दृश्यते कर्म । संयुक्तसंयोगाच्च, नुद्यमानाभिहन्यमानाभ्यां च संयुक्तेषु भवन्ति कमोणि । तद विशे. षेणादृष्टकारितम् [वै० सू० ५।२।२], यत् खलु विरुद्धक्रियवायुसंयोगात् सर्वस्यां पृथिव्यां कम्पादि कर्म प्रजानां शुभाशुभसूचनायोत्पद्यते तत् सर्वेषामेव शुभाशुभसूचनादू विशेषेणादृष्टकारितम् । अपां संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् [वै० सू० ५।२।३ ], विधारकवाय्वभ्रसंयोगाभावेऽपा गुरुत्वात् पतनकर्म भवति । तद् विशेषेणादृष्टकारितम् [वै० सू० ५।२।४ ], सस्यानां समृद्धये विनाशाय वा सर्वजनानामदृष्टेन जनितं पतनकर्म अदृष्टकारितमुच्यते । द्रवत्वात् स्यन्दनम् [वै० सू० ५।२।५], विधारकाभावादपां स्यन्दनकर्म द्रवत्वाद् भवति । नाड्या वायुस ५।२।६ ], नाडीति रश्मिः, सवितुर्की रश्मी-शुन्धिश्च शुक्रश्च । शुचिरप आदत्ते शुक्रेण वृद्धिं करोति । शुच्याख्यया नाड्या वायुसंयुक्तया आदित्यप्रयत्नापेक्षयारोहणम् । नोदनात् पीडनात् संयुक्तसंयोगाच्च [वै० सू० ५।२।७ ], नोदनाचित्रदण्डादिभिरारोहणम् , पीडनाद् वस्त्रादिभिः, पीड्यमाननुद्यमानाभ्यां च संयुक्ते । वृक्षाभिसर्पणमित्यदृष्टकारितम् [वै० सू० ५।२।८], वृक्षमूले निषिक्तानामपां वृक्षोपरि गमनमदृष्टेन क्रियते इति । अपां सङ्गातो विलयनं च तेजसः संयोगात् [वै० सू० ५।२।९ ], अपां सङ्घातः काठिन्यं दिव्येन तेजसा संयोगात् , दिव्यभौमाभ्यां तु विलयनम् । तत्रावस्फूर्जथुर्लिङ्गम् [ वै० सू० ५।२।१० ], 'अस्ति दिव्यासु अप्सु तेजः' इत्यत्र तेजसः अवस्फूर्जथुरभ्रान्निःसरणं लिङ्गमिति । वैदिकं च [वै० सू० ५।२।११ ], 'ता अमिं गर्भ दधिरे वभूषा' इति च वैदिकं वाक्यं दिव्यास्वप्सु तेजसो लिङ्गम् । अपां संयोगाद् विभागाच्च स्तनयिनुः [वै० सू० ५।२।१२ ], मेघाशनिशब्दः स्तनयित्नुः । विरुद्धदिक्रियाभ्यां वायुभ्यामा प्रेयमाणानां तरङ्गा(ङ्गी)भूतानां परस्परा भिघाताख्यात् संयोगाच्छब्दः । एकेनापि प्रकुपितेन वायुना व्यवच्छिद्यमानानामपां विभागाच्छन्दः । पृथिवीकर्मणा तेजःकर्म वायकर्म च व्याख्यातम [वै० सू० ५।२।१३ ], यथा नोदनाभिघात. संयक्तसंयोगादृष्टेभ्यः पृथिव्यां कर्म तथा तेजसो वायोश्च । एतदनियतं कर्म।" इति चन्द्रानन्दविरचिताया घशेषिकसूत्रवृत्ती P. पृ. १९-२१॥ १गमकत्वादि प्र०॥ २°शायिनः वि. । शयेनः डे० । शयेन २० ॥ ३ (°भवनेन ?) ।। ४°षेणस' य० ॥ ५ °स्याविशेष्यविशेषाभिधान भा० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ४८२ पं० २॥ ७ वाऽवि य० । बावि भा०॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे शेषविशेषणविनिर्मुक्तमपि न भवति' इत्येतदपि त्वयैव भावितम् , तुल्यजातीयावयवसंयोगादिभिन्नाविशेषविशिष्टवस्तुवतत्त्वप्रदर्शनादस्ति हि..... नेतर नेतरत्र । पुनरपि च कारणसामय्या अविशेषेण योगादबादिष्वपि तुल्यजातीयाद्यवयवसंयोगादपि द्रव्यत्वं भावितम् । एतेन पृथिव्यादिभिन्न....."द्रव्यत्वमुक्तम् । 5 तुल्यजातिभेदेऽपि च अविशेषविशेषणाविनिर्मुक्तत्वं वस्तुनः, द्वयोर्बहुषु वा [ ] इति वचनात् । निलयनद्वारेण च सर्वद्रव्यगुणकर्मणां नियतविषयस्वजातिगतविशेषवर्णनादविशेषोऽप्याहत्य भेरीमभ्युपगत इति द्रष्टव्यम् । तस्मात् कारणगतविशेषाविशेषकृतातिशयादेव कार्यगतविशेषाविशेषविशेषणसम्बन्धिसिद्धिः । एवं तावद् विशेषणवर्णनद्वारेणोक्तम् । 10 किश्चान्यत् , अविशेषेत्यादि । 'अविशेषविशेषणविनिर्मुक्तमपि न भवति' इत्येतदपि त्वयैव भावितम् । तद्यथा-तुल्यजातीयावयवसंयोगादिभिन्नेत्यादि । तुल्यजातीयाः तुल्यप्रकारा अवयवाः, तेषां पार्थिवादीनां गन्धादिमत्त्वप्रकाराणां संयोगैर्द्रव्यं पार्थिवं कार्य जायते, आदिग्रहणाद् गुणकर्मणोरपि स्वकारणसान्निध्यप्रकारता प्रागुक्ता । तैः संयोगोंदिभिर्भिन्नत्वेऽप्यविशेषो द्रव्यादीनामित्यनेनाविशेषण ३३१-२ विशिष्टमितरविलक्षणं वस्तुनः स्वतत्त्वं प्रदर्शितं त्वया । तस्मात् तत्प्रदर्शनादस्ति हीत्याद्युपसंहारग्रन्थो 15 गतार्थो यावद् नेतरद् नेतरत्रेति । किञ्चान्यत् , पुनरपि चेत्यादि । रूपरसगन्धस्पर्शवत्सु पृथिव्यवयवेषु संयुक्तेष्वविशेषो दर्शितः । न केवलमेष एवाविशेषः सजातीयगतः स्फुटीकृतस्त्वया, किं तर्हि ? तद्विजातीयेष्वपि द्रव्यत्वं तथा कारणसामय्या अँविशेषेण योगादेबादिष्वपि आप्येष्वपि कारणसामग्र्यास्तुल्यत्वात् तुल्यजातीयाद्यवयवसंयोगादपि द्रव्यत्वं भावितम् , तुल्यजात्यवयवसंयोगाविशेषात् । आदिग्रहणात् तेजोवाय्ववयवसंयोगाद20पीति, अतुल्यजातीयानामपि तुल्यजातीयसंयोगारम्भाविशेषात्[ ] इत्युक्तत्वात् स्फुटीकृतमविशेषविशेषणमिति । अतोऽतिदिशति - एतेन पृथिव्यादिभिन्नेत्यादि गतार्थं यावद् द्रव्यत्वमुक्तमिति । किश्चान्यत् , तुल्यजातिभेदेऽपि चेत्यादि यावद् द्वयोर्बहुषु वेति वचनादिति । यापीयमवान्तरजातिर्घटत्वपटत्वाद्याख्या पृथिवीत्वजातिभेदः तस्मिन्नपि च सति अविशेषविशेषणेनाविनिर्मुक्तत्वं वस्तुनः । कस्मात् ? 'द्वित्रिचतुरादिसंयोगात् कार्यद्रव्यमुत्पद्यते' इत्युक्तत्वात् । एवं तावत् सम्बन्ध्यन्तर25 निरपेक्षे वस्तुमात्रे एव "विशेषाविशेषविशेषणसम्बन्धः अतिप्राप्त इत्युक्तम् । - १"दस्ति हि परस्परातिशयो द्रव्यादीनाम् , ततो नेतरद् नेतरत्र' इत्याशयो भाति ॥ २ 'पृथिव्यादिभिन्नद्रव्याणामपि तुल्यजातीयाद्यवयवसंयोगारम्भाविशेषाद् द्रव्यत्वमुक्तम्' इत्याशयो भाति ॥ ३ (विशेषविशेषणवर्णनद्वारेणोक्तम् ? विशेषवर्णनद्वारेणोक्तम् )॥ ४ पार्थिवकार्य प्र०॥ ५ गादिभिन्नत्वे प्र०॥ ६ नाविशेषेण विशेषेण विशिष्ट पा० विना । नाविशेषेण विशेषणविशिष्ट पा० । (नाविशेषेण विशेषणेन विशिष्ट ?)॥ ७ नेतरं नेतरेत्रेति भा० । नेतरं नेत्रेति य० ॥ ८ अविशेषण भा० ॥ ९दपादिष्वपि प्र०॥ १०नपि र सति प्र० ॥ ११ विशेषाधिशेषणसम्बन्धः प्र०॥ १२ इति भा०। अति' य० ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तायाः सत्सत्करत्वनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् - जातिकल्पनावच्च यदुक्तं वस्तुमात्रमाविर्भूतमुक्तवद् नियामकतया अविशेषविशेषवृत्तिमात्रेण सामान्यविशेषेण सम्बध्यते तत एतदापन्नम् - स्वत एव वृत्तं वस्तु द्रव्यादिप्रत्ययत्वादिना सम्बध्यते । तस्मादेव तु सामान्यस्यापि प्रकाशकं तदेव, तदाश्रयत्वात् सामान्यविशेषादी[नाम्। तस्मादेव प्रविभक्तविषयान्वयाद् विचित्रोपभोगक्रियाप्रसिद्धेर्भिन्नेष्वभिन्न-5 व्यवहारप्रसिद्धेश्च न विशेषणसम्बन्धः कल्प्यः । एतद् निदर्शनमात्रम् , सर्वत्र तु घटत्वादावपि कारणसामय्यनियामकसद्भावादेव तत्त्वम् । - किश्चान्यत् , जातिकल्पनावच्चेत्यादि । यथा भवता जातिरन्यानाकाङ्क्षा वस्तुमात्रे वृत्तेन प्रकाशेन खत एव प्रकाशते तथा कारणसमवेतद्रव्यादीत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थं यदुक्तम्-वस्तुमात्रमाविभूतमिति, ३३२-१ उक्तवद् नियामकतैयेति सर्वत्र कारणसामग्यनियामकसद्भावादित्यनेनोक्तन्यायेन स्वेनैव महिम्ना वस्तु 10 नियतत्वाद् विशेषणेन द्रव्यत्वादिना सम्बध्यते । तञ्च द्रव्यत्वादि अविशेषविशेषवृत्तिमात्रं सामान्यविशेषः, अविशेषेण प्रागुक्तेन 'विशेषेण च वृत्तिर्यस्य तदिदमविशेषविशेषवृत्ति द्रव्यत्वादि, तत्परिमाणं तन्मात्रम् , तेनाविशेषविशेषवृत्तिमात्रेण सामान्यविशेषेण सम्बध्यते वस्तुमात्रं तदाविर्भूतमिति । सतः किम् ? इति चेत् , तत एतदापन्नम् - स्वत एव वृत्तं वस्तु ,व्यादिप्रत्ययत्वादिना सम्बध्यते विशेषणं व्यतिरिक्तमनपेक्ष्य सिद्धं प्रकाशते स्वत एव, प्रकाशान्तरेण नार्थ इत्युक्तं भवति । किञ्चान्यत् , 15 तस्मादेव वित्यादि । उक्तादेव न्यायात् सामान्यस्यापि प्रकाशकं तदेव वस्तुमात्रमाविर्भूतम् , तदाश्रयत्वात् सामान्यविशेषादी[नाम् । यदप्युक्तं विचित्रोपभोगक्रियाप्रसिद्ध्यर्थं सत्ताद्रव्यत्वादिसम्बन्धः कल्प्यते इति सोऽप्यनेनैव प्रतिपादितः, प्रदीपवद् भूताद् वस्तुनः प्रकाशान्तरनिरपेक्षात् तस्मादेव प्रविभक्तविषयान्वयात्, प्रविभक्तो विषयो द्रव्यत्वस्य कारणसामग्र्यविशेषस्तुल्यजातीयावयवसंयोगादिः कारणगुणपूर्वक्रमः स्वाश्रया- 20 श्रयान्तरक्रियारम्भिगुणादिकृतः तस्य कारणकार्यादिप्रविभागाद् व्यतिरेकात् सदनित्याद्यविशेषान्वयाच तादृक्प्रविभक्तविषयान्वयात् तस्मादेव वस्तुनो विचित्रोपभोगक्रियाप्रसिद्धेर्भिन्नेष्वभिन्नव्यवहारप्रसिद्धेश्चेति द्विप्रकारं पुरुषार्थं दर्शयति । अनयोश्च पुरुषार्थयोरुक्तवद् वस्तुत एव सिद्धेर्न विशेषण- ३३१-२ सम्बन्धः कल्प्यः, सत्ताद्रव्यत्वादिविशेषणसम्बन्धो न युक्तः कल्पयितुमानर्थक्यादिति । ऐतद् निदर्शनमात्रम् , तद्भेदानामपि सम्बन्धकल्पनानर्थक्यमुक्तन्यायेनेत्यतोऽतिदिशति -सर्वत्र 25 तु घटस्वादावपि 'आदि'ग्रहणाद् गोत्वमनुष्यत्वादिषु कारणसामग्र्यनियामकसद्भावादेव तत्त्वं घटत्वगोत्वमनुष्यत्वादि स्वत एव, न सामान्यविशेषात् त्वत्कल्पितात्, इति त्वद्वचनादेव वस्तुत एव सर्व त्वदिष्टं प्रतिप्राप्तं नार्थान्तरसम्बन्धात् । तदेव च विशेषणस्यापि सत्तादेः प्रकाशकमिति स्थितम् । . १°न्यान्यानाकाङ्क्षा भा० ॥ २ दृश्यतां पृ० ४८१ पं० १॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पाठः प्रतिषु द्विर्भूतः ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४८२ पं० २॥ ५विशेषणेन च प्र०॥ ६द्रव्यादिना सम्बध्यते भा०॥ ७कस्मादेव प्र०॥ ८ दृश्यतां पृ० ४७४ पं० १॥ ९ दृश्यतां पृ० ४८१ पं०५॥ १० तकारण पा० डे० २० । तत्कारण वि०॥ ११°षायाधच्च भा० । षायावश्च य०॥ १२ वस्तुत य० प्रतिषु नास्ति ॥ १३ दृश्यतां पृ०४८२ पं०३॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्गतम् [ सप्तम उभयोभयारे इदं तु प्रस्फुटतरं विशेषणसम्बन्धप्रकाशं वस्तु तत्सम्बन्धनियमाय त्वयैवाभ्युपगतमिति दर्शयितुं वचनं यदुक्तम् - अथवा विशेषणसम्बन्धमन्तरेणापि वस्तुमात्राणां परस्परातिशयोऽस्ति तेन विशेषणसम्बन्धनियमसिद्धिः [ ] इति । चोद्यपरिहारोऽपि चैवं प्रसिद्धिमस्मदुक्तामेव सन्दर्शयति- कथं परस्परातिशय 5 इति चेत् , कथं प्राक्...अतिशयः स्यात् न, दृष्टान्तात् । यथा परपक्षे....... अतिशयस्तैथेहापि स्यात् [ ] इति । खसमयोदाहरणमपि चैतमेवार्थ द्रढयति यदुच्यतेसामान्यादिवद्वा...."स(ख)त एव स्यात् [ ] इति । न द्रव्यादि अन्यायखप्रकाशं नाधेयसत्त्वादि नाप्रतिपूर्णसत्त्वादि सत्त्वात किश्चान्यत् , इदं तु प्रस्फुटतरमित्यादि । विशेषणस्य सत्ताद्रव्यत्वादेः सम्बन्धः प्रकाशोऽस्मि10निति विशेषणसम्बन्धप्रकाशं वस्तु । तेन वस्तुनैव प्रकाश्यते विशेषणमिति तदेव वस्तु प्रकाशनम् । तेन च वस्तुना नापेक्षितः सामान्येन सह सम्बन्धः, सामान्यमेव वस्तुना सह सम्बन्धमपेक्षत इति तत्सम्बन्धनियमाय त्वयैवाभ्युपगतमिति दर्शयितुं वचनोपन्यासः । कतमस्य वचनस्योपन्यासः ? उच्यते - यदुक्तं वस्त्वात्मावधारणे कृतेऽतिर्शयाभावाद् विशेषसम्बन्धाभाव इति चोदिते विकल्पान्तरेण परिहारवचनं तद् व्यक्ततरं वस्त्वेवार्थान्तरनिरपेक्षं विशेषणानामपि प्रकाशकमिति । तद्यथा-यदुक्तम् 15 'अथवा विशेषणसम्बन्धमन्तरेणापि वस्तुमात्राणां परस्परातिशयोऽस्ति, तेन विशेषणसम्बन्धनियमसिद्धिः' [ ] इत्येतद् वचनं यथोक्तकारणसामग्र्यसद्भावविशेषाविशेषन्यायप्राणकमिति । चोद्यपरिहारोऽपीत्यादि । एतस्मिंश्चार्थे यच्चोदितम् - कथं परस्परातिशयः इति चेदिति, तस्य व्याख्या - कथं प्रागित्यादि गतार्थ यावदतिशयः स्यादिति । अस्य चोद्यस्य परिहारः सोऽपि चैवं प्रसिद्धिमस्मदुतामेव सन्दर्शयति । कोऽसौ परिहारः ? उच्यते - न, दृष्टान्तादिति । तद्वथाख्या - 20 यथा परपक्ष इत्यादि यावदतिशयस्तथेहापि स्यादिति गतार्थम् । यदि परमते सत्त्वरजस्तमसां परस्परातिशयोऽस्ति, तव किम् ? इत्यत्राशङ्कानिषेधार्थ स्वसमयोदाहरणमपि "चैतमेवार्थ द्रढयतीति स्ववचनं तद्वचनप्रदर्शनम् - यदुच्यते सामान्यादिवद्वेत्यादि सव्याख्यानं गतार्थं सोपनयं यावत् स(स्व)त एव स्यादिति । अत्र प्रयोगा:-न द्रव्यादि अन्याधेयस्वप्रकाशम्, नान्येनाधेयोऽस्य द्रव्यादेः प्रकाश इति 25 पक्षः, नाधेयसत्त्वादिविशेषणं द्रव्यादि नाप्रतिपूर्णसत्त्वादिविशेषणमिति वा पक्षः, सत्त्वात् , यत सद् न तदन्याधेयस्वप्रकाशं नाधेयसत्त्वादि नाप्रतिपूर्णसत्त्वादि दृष्टम् , सामान्यादिवत् , यथा सामान्य १'कथं प्राक् सत्तासम्बन्धाद् द्रव्यगुणकर्मणां परस्परतोऽतिशयः स्यात् ;न, दृष्टान्तात्, यथा परपक्षे सत्तासम्बन्धादृतेऽपि सत्त्वरजस्तमसां परस्परतोऽतिशयस्तथेहापि स्यात्' इत्याशयो भाति ॥ २ दृश्यतां पृ० ४६२ पं० ७॥ ३ दृश्यतां पृ. ४६२ पं० ८। 'यथा सामान्यादि खत एवास्ति अर्थान्तरसम्बन्धनिरपेक्षं तथा द्रव्याद्यपि खत एव स्यात्' इत्याशयोऽत्र भाति ॥ ४ दृश्यता पू. ४८१ पं०२॥ ५ दुक्तमेव प्र०॥ ६इत्यशंका भा०॥ ७चेवमेवार्थ द्रढतीति प्र.॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तायाः सदसत्सत्करत्वनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् ४८७ सात्मकत्वात् प्रत्येकं सत्त्वात् खभावसद्भूतत्वात् सामान्यादिवत् । असदेव वा स्यात् सत्त्वसमवायलभ्यसद्भावत्वात् कार्यवत् । तस्माद् 'न सतामपि द्रव्यादीनां सत्करी सत्ता व्यर्थत्वात्' इति साधूक्तम् । नापि सदसतां सत्करी सत्ता अभूतत्वात् सदसदात्मकत्वस्य त्वन्मतेनैव खपुष्पवत् । या तु त्वयोक्तोपपत्तिः 'सदसदैकात्म्यानुपपत्तेः' इति सा नोपपत्तिः,5 त्वन्मतेनैव सदसदैकात्म्योपपत्तेः । अत्यन्ताविरुद्धत्वात् सदसदात्मकं कार्य प्राक् सत्तासम्बन्धादपि, सामान्यादिद्रव्यादितदतत्सदसद्वत् । सामान्यादीनि स्वात्मना "खसन्त्यपि न भवन्ति । विशेषसमवायाः सन्तो नान्यप्रकाशा नाधेयसत्त्वायो नाप्रतिपूर्णसत्त्वादयः तथा द्रव्यादीनि । एवं सात्मकत्वात् प्रत्येकं सत्त्वात् स्वभावसद्भूतत्वादिति हेतवः, मूलहेतोरेव पर्यायवाचिनो वा । ऐवमनभ्यु- 10 पगमे असदेव वा स्यात् सत्त्वसमवायलभ्यसद्भावत्वात् , सत्त्वसमवायेन लभ्यः सद्भावोऽस्येति द्रव्याद्युत्पन्नमात्रं त्रयमभिसम्बध्यते । कार्यवदिति कारणावस्थायां यत् कार्य स दृष्टान्तः । नन्वेवं सत्त्वसमवायलभ्यसद्भावं तस्यामवायां कार्य न भवतीति चेत्, न, त्वयैव निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वाभ्युपग-१ मेन परिहृतत्वात् । तस्मादू न सतामपि द्रव्यादीनां सत्करी सत्ता व्यर्थत्वादिति साधूर्तमिति प्रस्तुतदोषोक्त्यु-15 पपत्त्युपसंहारः । एवं तावदसतां सतां च द्रव्यादीनां सत्करी न भवति सत्ता इत्युक्तम् ।। ____किञ्चान्यत् , नापि सदसतां सत्करी सत्ता, सन्तश्चासन्तश्च द्रव्यादयः सदसन्तो व्यात्मकाः, तेषां सदसतां सदभिधानप्रत्ययकरी सत्ता स्यादिति परस्याभिप्रेतं स्यात् तदपि न घटते । कस्मात् ? अभूतत्वात् सदसदात्मकत्वस्य त्वन्मतेनैव खपुष्पवत्, सत्तासम्बन्धात् प्राग् द्रव्यादि कार्य सदसदपि न भवति अंसदेव तत् स्वतो निरुपाख्यत्वादित्यादिहेतुभिः पूर्ववत् सत्तासम्बन्धलभ्यसत्त्वात् ।20 अथ सत्तासम्बन्धनिरपेक्षमेवास्ति व्यर्थः सत्तासम्बन्ध इत्युक्तम् । तस्मादुभयथापि सदसत्त्वविकल्पो नास्ति । तस्मादभावात् खपुष्पवत् सैत्तया न सम्बध्यते त्वन्मतेनैव, नास्मन्मतेनाप्यस्ति । या तु त्वयोक्तोपपत्तिः सदसत्त्वाभावे 'सदसदैकात्म्यानुपपत्तेः' इति सा नोपपत्तिः त्वमतेनैव सदसदैकात्म्योपपत्तेरत्यन्ताविरुद्धत्वं तयोः, अत्यन्ताविरुद्धत्वात् सदसदात्मकं कार्य प्रोक् सत्तासम्बन्धादपि । तद्यथा-सामान्यादि,व्यादितदतत्सदसद्वत् , यथा सामान्यविशेषसमवायाख्यं 25 १ 'सामान्यादीनि खात्मना सन्त्येव सम्बन्धसद्भावेनासन्ति, द्रव्यादीनि च कार्याण्युत्पन्नमात्राणि वसन्त्यपि न भवन्ति' इत्याशयः प्रतिभाति ॥ २ (नान्याधेयखप्रकाशा?)॥ ३ प्रकाशनाधेय प्र० ॥ ४ यो नाप्रतिपूर्णसत्त्वाद य० प्रतिषु नास्ति ॥ ५ एवमभ्युपगमे प्र० ॥ ६ स्थानां प्र०॥ ७ “यच्चेदं 'किं गौ!त्वेनाभिसम्बध्यते अथागौः' इति चोद्यं तन्न प्रतिसमाधानाहं निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वादिति खकारणैः सत्तादिभिश्चि पिण्डस्याभिसम्बन्ध एवात्मलाभो न पूर्व तस्य गोरूपता अगोरूपता वा” इति प्रशस्तपादभाष्यव्याख्यायां व्योमवत्यां कर्मनिरूपणे ॥ ८ दृश्यतां पृ. ४५९ पं० ३, ४७३ पं० ७॥ ९ भूतत्वात् प्र०॥ १० असदधव तत् प्र०॥ ११ दृश्यतां पृ० ४८० पं० २॥ १२ दृश्यतां पृ० ४६० पं० ६॥ १३ सत्ताद्या भा०॥ १४ दृश्यतां पृ० ४५९ पं० ५॥ १५ प्राक्प्रत्तासम्ब य० । प्राक्प्रवृत्तासम्ब भा०॥ १६ द्रव्यादौ प्र०॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૮ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे ___ नन्वेवं तदव्यवहृतेः प्रागभावभेदवदभूतत्वमेव, अथ यदेतदभूतत्वं तत् किं भूतस्य आहोखिदभूतस्य ? यदि भूतस्य ततः सदसदैकात्म्योपपत्तिरेव । अथ [अभूतस्य ? ] अभूतत्वं ततो द्रव्यादेरभावहेतुर्याच्यः। अहेतुतो[5]भवने क्षणिकशून्यतादिव्युत्पत्तिवदभाव एव । न चेत्, पूर्ववत् सदसदैकात्म्योपपत्तिरेव । 5 वस्तुत्रयं स्वभावसत् खेनात्मनास्ति तत्सत् , सम्बन्धसद्भावेन नास्तीत्यतदसत् , सच्चासञ्चेत्यत्यन्तमविरुद्धत्वात् सदसत् त्वन्मतेनैव । तथा द्रव्यगुणकर्माख्यं कार्यत्रयमुत्पन्नमात्र सामान्यादिवत् तदतत्सदसदिति सिद्धम् । तस्य दृष्टान्तद्वयस्य व्याख्या सामान्यादीनि स्वात्मनेत्यादि गतार्था यथाक्रमं यावत् स्वसन्त्यपि न भवन्ति । तस्मात् त्वन्मतेनैव सदसदैकात्म्यानुपपत्तेरसत्वं नास्ति, उपपत्तरेव सत्त्वं सिद्धम् । तत् पुनरसत्त्वं कथं तर्हि ? इति, उच्यते - अभूतत्वादिति साधूक्तमिति । 10 इतर आह - नन्वेवं तदव्यवहृतेः प्रांगभावभेदवदभूतत्वमेव, यथा तस्योत्पन्नमात्रघटद्रव्यादेः प्राक् कुशूल-कोस-स्थासक-शिवक-पिण्ड-मृदवस्था भिरभावभेदैर्जलाद्याहरणादिव्यवहारो नास्तीति तत्र घटा सत्त्वं तथा तदव्यवहृतेरभूतत्वमेव प्राक् सत्तासम्बन्धात् सदसदात्मकस्य कार्यस्य, को दोषः ? इति । - 'अत्रेदं सम्प्रधार्यम् – अथ यदेतदभूतत्वमित्यादि विकल्पद्वयोपन्यासेन प्रश्नो गतार्थः । तत्रोत्तरम् – यदि भूतस्य द्रव्यादेरुत्पन्नमात्रस्याव्यवहारादभूतत्वमिष्यते तदेव भूतं वस्त्वात्मना तदेव चाभूतमव्यवहारात्मने15 त्यतः सत्त्वासत्त्वाविरोधितेति सदसदैकात्म्योपपत्तिरेव । अथाभ्युपगमविरुद्धमैकात्म्यं मा भूदिति अभूतत्वमिष्यते ततो द्रव्यादेरभावहेतुर्वाच्यः कार्यस्य, केन हेतुना तदभूतं कार्य स्वकारणेषु समवेतमुत्पन्नमात्रमस्मदुक्ताविरोधेहेतुं 'अव्यवहारयोग्यत्वात् सदप्यसत्' इत्येतं मुक्त्वा ? स्यान्मतम् - अहेतुत एवाभूतं तदभावे कारणाभावात् खपुष्पादिवदिति । एतच्चायुक्तम् , यस्मात् अहेतुतो[5]भवने निष्कारणतोऽसत्त्वे क्षणिकशून्यतादिव्युत्पत्तिवदभाव एव 'स्यात्' इति वाक्यशेषः । यथा पूर्ववस्तुनि २२४४निरुद्धे पश्चादुत्तरमुत्पद्यमानं निर्हेतुकमिति प्राप्तं क्षणिकवादित्वम् , तस्याप्युत्पन्नस्याहेतुत एव विनाशाशंस नात् । तच्चाद्रव्यत्वाद् निर्बीजत्वात् खपुष्पवदत्यन्ताभावः स्यात् तथेदमपि स्यात् , अनिष्टं चैतत् । यथा वाऽसिद्ध्ययुक्त्यनुत्पत्तिसामग्रीदर्शनादर्शनादिव्युत्पत्त्या सर्व शून्यं निर्हेतुकोत्पत्तिस्थितिविनाशाभावसाधर्म्यात् खपुष्पवत् स्यात् । आदिग्रहणात् प्रतीत्योत्पादसमुदायसन्तानादिसंवृतिव्युत्पत्तिवत् । न चेत् पूर्ववदिति, मा भूदेषोऽत्यन्ताभावदोष इति सहेतुककार्याभूतत्वाभ्युपगमेऽस्मदुक्तसदसदैकात्म्योपपत्तिरेव 25 प्राप्नोति । एवं तावत् प्राक् सत्तासम्बन्धात् सदसत् कार्यमिति प्रतिपादितम् । ३३४-२ १'त्येतदसत् प्र० ॥ २ दृश्यतां पृ० ४८७ पं० ४ ॥ ३ प्रागभेदभावभेद भा० वि० । प्रागभेदभावाभेद भा० वि० विना ॥ ४ सच्चासत्वावि य० । सच्चावि भा०॥ ५ हेतुकम् प्र०॥ ६ स्यान्मतनहेतुत भा०। स्यान्मतं न हेतुत य० ॥ ७°दिवति प्र० ॥ ८ स्याहेतु एव वितासामंसतात् प्र० ॥ ९ यथा वाऽसिद्ध. युक्त्यानुय० । यथावासिद्धयुक्त्यानु भा० । (अथवाऽसिद्ध्ययुक्त्यनु ?) । “अत्रोपपत्तिप्रश्नः - अथ कथं खपरोभयाभावः ? ब्रूमः - एभ्यो हेतुभ्यः असिझ्ययुक्त्यनुत्पादसामग्रीदर्शनादर्शनेभ्यः ।" - इति नयचक्रवृत्तौ द्वादशेऽरे विस्तरेण वश्यते शन्यवादे ॥ १० दर्शनादिव्यु डे०॥ ११ भूदषों य० । भूदेतेषां भा०॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदसदैकात्म्योपपादनम् ] - द्वादशारं नयचक्रम् ४८९ ___यदापि सत्तया सम्बद्धं तदापि सदसत् त्वन्मतेनैव । यत् तत् कार्य सत्तया सम्बद्धं सदित्यभिधीयते ननु तत् स्वसत्तयैव सत् न सत्तासत्तया । सत्तापि आश्रयप्रतिलम्भात् सती एव अभिव्यज्यते कारणकार्याकारणाकार्यनित्यानित्यसम्बन्ध्यसम्बन्धिजातिमदजातिभेदात् तन्तुसमवायवत् । इतरेतराभावादिवर्णनैश्च सर्वत्र सदसदैकात्म्योपवर्णनमेव । अत इदं जैनेन्द्रत्वमेव प्रतिपद्य प्रज्ञाप्य च अविविक्तप्रज्ञान प्रति संवियते । किञ्चान्यत् , तिष्ठतु तावत् प्राक् सत्तया सम्बन्धात् कार्यस्य सदसत्त्वम् यदापि सत्तया सम्बद्धं तदापि सदसत् त्वन्मतेनैव, तद्यथा- यत् तत् कार्य सत्तया सम्बद्धं सदित्यभिधीयते सत्तया विशेषेणभूतया विशेष्यते दण्डेनेव दण्डी विशेष्यत्वात् ननु तत् स्वसत्तयैव सत् लब्धात्मलाभमेव दण्डविशिष्टदेवदत्तवत् , न सत्तासत्तया, न हि दण्डसम्बन्धादू देवदत्तोऽसन् सन् क्रियते, 'किं तर्हि ? सन्नव दण्डित्व- 10 व्यपदेशभाग् भवति स्वसत्तया सन् दण्डिसत्तया चासंस्तदेति सदसन् । तथा सत्कार्यं सत्तासम्बन्धकाले सदेव स्वसत्तया खपुष्पाद्यवस्तुवैधात् । तथा सत्तापि न वस्तुसत्तया असती सती क्रियते, किं तर्हि ? आश्रयप्रतिलम्भात् सत्येवाभिव्यज्यते । तदुभयं वस्तुसत्सया सदेव सत्तादि द्रव्यादि च सम्बन्धिसत्तया नास्तीत्यर्थः । कुतः ? कारणकार्येत्यादिहेतोर्यावद् भेदादिति । 'द्रव्यादि वस्तु कार्य कारणं च, ३३५-१ • सत्ता त्वकार्यमकारणं च, नित्या सत्ता, द्रव्याद्यनित्यम् , सम्बन्धि द्रव्यादि, सत्ता असम्बन्धिनी, जातिमद् 15 द्रव्यादि, अजातिः सत्ता' इत्येभ्यो भेदेभ्यो भिन्नत्वात् । तन्तुसमवायवत् , यथा तन्तवः कारणादिधर्माणस्तथा द्रव्यादयः, यथा समवायोऽकारणादिधर्मा तथा सत्तेति । दृष्टान्तदाान्तिकयोश्च सदसत्त्वयोजना स्वभावसम्बन्धसत्ताभ्यां कर्तव्या । तस्मात् सदसत्त्वैकात्म्योपपत्तिरेव ।। किञ्चान्यत्, इतरेतराभावादिवर्णनैश्च त्वयैव सर्वत्र सदसदैकात्म्योपवर्णनमेव 'कृतम्' इति वाक्यशेषः । सञ्चासत् [वै० सू० ९।१।४] इतीतरेतराभाववर्णनं घटः सन्नेव स्वात्मना पटाद्यात्मना 20 १सदापि प्र० ॥ २षभूतया प्र० ॥ ३ न सत्वासत्तया य० । न सत्तया भा० ॥ ४ °म्बन्धा देवदत्तो भा० । 'म्बन्धो देवदत्तो य०। (°म्बन्धादेव देवदत्तो ? ) ॥ ५ किंतु तर्हि भा० ॥ ६ “इदानीमनुमानं व्याचिख्यासुस्तस्य विषयं दर्शयति -क्रियागुणव्यपदेशाभावादसत् [वै० सू० ९।१।१], न तावत् कार्य प्रागुत्पत्तेः प्रत्यक्षेण गृह्यते। नाप्यनुमानेन, सति लिङ्गे तस्य भावात् , लिङ्गाभावश्च तदीययोः क्रियागुणयोरनुपलब्धेः, न चान्यद् 'व्यपदेश'शब्दसूचितं लिङ्गमस्ति, तस्मात् प्रागुत्पत्तेरसत् । पश्चात् सदसत [ वै० सू० ९।१।२], सद्भुतं च कार्य प्रध्वस्तमुत्तरकालमसदेव, न सतस्तिरोधानं क्रियागुणव्यपदेशाभावादेव । मध्ये तु असतः सत क्रियागुणव्यपदेशा(श?)भावादर्थान्तरम् [वै० सू०९।१।३], प्रध्वंसात् पूर्वमुत्पत्तेरुत्तरकालमसतोऽर्थान्तरभूतं वस्तु 'सत्' इत्युच्यते क्रियागुणव्यपदेशानां भावात् । सच्चासत् [वै० सू० ९।१।४ ], सदपि वस्तु भावान्तरनिषेधेन गौरवो न भवतीति, कार्याकरणेन नायं गौर्यो न वहति 'असत्' इत्युपचर्यते । यच्चान्यत् सतस्तदप्यसत् [वै० सू० ९।१।५], सतश्च वस्तुनो यदन्यदत्यन्ताभावरूपं प्रागुपाधिप्रध्वंसाभावाविषयं शशविषाणादि तदप्यसदेव । असतामविशेषात् प्रागसति कथं कारकप्रवृत्तिर्नान्यत्रेति चेत् , न, विशेषग्रहणात् , तत्र असदिति भूतप्रत्ययाभावाद् (भूतप्रत्यक्षाभावाद् !') भूतस्मृतेविरोधिप्रत्यक्षत्वाञ्च ज्ञानम् [ वै० सू० ९।१।६], प्रध्वंसासति स(?) असदिति ज्ञानं भूतस्य वस्तुनः पूर्ववदिदानी दर्शनाभावात् तस्य च भूतस्य वस्तुनः स्मरणाद् विरोधिनश्च नय०६२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [ सप्तम उभयोभयारे ननु मया विगृयैवात्र वादः सैद्धार्थीयमतावलम्बिनं त्वामेवोद्दिश्य । यदच्यते सैद्धार्थीयैः 'उपादाननियमदर्शनात् सत् कार्य तिलतैलवत् तक्रियाद्यसत्त्व नास्तीति । तथा क्रियागुणव्यपदेशाभावादसत् [वै० सू० ९।१७ ] इति असदिति भूताप्रत्यक्षत्वाद् भूतस्मृतेर्विरोधिप्रत्यक्षत्वाच्च । तैथाभावेऽभावात् [वै० सू० ९।१७ ] इति च प्रागभावप्रध्वंसाभाववर्णनं 5 च । सर्वत्र सदसत्त्वमेव वर्णितमेकमत्यन्ताभावं मुक्त्वा शशविषाणादिवदेकान्तनिरात्मकत्वानभ्युपगमादिति । अंत इदं जैनेन्द्रत्वमेव सदसद्वादित्वं प्रतिपद्य बहुधा प्रज्ञाप्य च मा भूदृजुजनेष्वविविक्तप्रज्ञेषु जैनानामेव गौरवं 'तत्त्वज्ञाः' इति मम च लाघवम् 'अतत्त्वज्ञः' इति त्वयैवं तानविविक्तप्रज्ञान् प्रति संवियते गृह्यते । अत्राह – नाहं जैनेन्द्रत्वमभ्युपैमि, न चाविविक्तप्रज्ञान प्रति संवृणोमि । ननु मया "विगृह्मैवात्र 10वादः 'सदसतोवैधात् कार्ये सदसत्ता न' [वै० सू० ९।१।१२] इत्यनेन सूत्रेण । स पुनर्वादः सिद्धार्थ३३... सुतमतावलम्बिनं सदसदैकात्म्यवादिनं त्वामेवोद्दिश्य । यदुच्यत इत्यादि सैद्धार्थीयमतप्रदर्शनार्थः पूर्वपक्षः । ते हि सैद्धार्थीयाः सदसदेकात्मत्वं वस्तुनोऽभिलषन्त इत्थमुपपत्तिं ब्रूयुः, तद्यथा- उपादाननियमदर्शनात् सत् कार्य तिलतैलवत् , तक्रियाद्यसत्त्वदर्शनादसद् "वीरणेष्विव घटो मृद्यपीति । इतरथा अत्यन्तासत्कार्यवादे न स्यादुपादाननियमः खपुष्पस्येव, अत्यन्तसति च तन्त्ववस्थायामेव पटे कपालादेर्ग्रहणाद् विनाशं परिकल्प्योत्पद्यते, अन्यथा कथमिव न दृश्येत तथात्वस्याविशेषात् । प्रागभावे तु तथाभावे भावप्रत्यक्षत्वाच्च (तथाऽभावे भावप्रत्यक्षत्वाच्च ? ) [वै० सू० ९।११७ ], मृत्पिण्डावस्थायां प्रागभावे घटविषयं प्रत्यक्षज्ञानं नाभूत् , इदानीं तु घटविषयं विरुद्धं विज्ञानमुदभूत् स्मर्यते चाभावावस्था, तस्मादिदानीमयं भावः समभूत् पूर्वमस्याभाव एव चासीदिति प्रागभावे 'असत्' इति निश्चयज्ञानम् । एतेनाघटोऽगौरधर्मश्च व्याख्यातः [वै० सू० ९।१।८], यथा हि स्थाल्यां घट इत्युत्पन्नविज्ञानस्य कारणान्तरितसम्यक्प्रत्यय उत्पद्यते 'नायं घटः, स्थालीयम्' इति तदपि घटप्रत्ययस्याभावात् तस्य च स्मरणाद् विरुद्धस्य च स्थाल्यादेदेर्शनादू बोद्धव्यम् । एवमश्वे 'अगौः' इति। त[था] सामान्यतो दर्शनाद् रात्रिस्नानादेधर्मत्वे सम्भाविते अधर्म इत्युत्पद्यत इति चेतनाचेतनातीन्द्रियभेदेनोदाहरणत्रयम्।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ० ३० B-३१ A॥ १ भूतप्र प्र० । अत्र चन्द्रानन्दविरचितवृत्तियुते वैशेषिकसूत्रे असदिति भूतप्रत्ययाभावाद् भूतस्मृतेर्विरोधिप्रत्यक्षत्वाच्च ज्ञानम् इति पाठः, वैशेषिकसूत्रमूलमात्र[P]प्रतौ तु असदिति भूतप्रत्यक्षाभावाद् भूतस्मृतेर्विरोधिप्रत्यक्षत्वाच्च ज्ञानम् इति पाठः, दृश्यतां पृ० ४८९टि०६ । शङ्करमिश्रविरचितोपस्कारसहिते पैशेषिकसूत्रे तु असदिति भूतप्रत्यक्षाभावाद् भूतस्मृतेर्विरोधिप्रत्यक्षवत् इति पाठः ॥ २ तथाभावात् रं० । तथाभावभावात् भा० । अत्र तथाऽभावे भावात् इति समीचीनं भाति । अत्र चन्द्रानन्दविरचितवृत्तिसहिते वैशेषिकसूत्रे वैशेषिकसूत्रमूलमात्र[P]. प्रतौ च तथाभावे भावप्रत्यक्षत्वाच्च इति पाठः, दृश्यतां पृ० ४८९ टि०६ । शङ्करमिश्रप्रणीतोपस्कारसहिते वैशेषिकसूत्रे तु “तथाऽभावे भावप्रत्यक्षत्वाच्च [ वै० सू० ९।११७], सामान्यवाच्यप्ययम् 'अभाव'शब्दः प्रकरणात् प्रागभावपरः, यथा प्रध्वंसे प्रत्यक्षज्ञान तथा प्रागभावेऽपि, कुतः? भावप्रत्यक्षत्वात् , भावस्य व्यूह्यमानवीरणादेः प्रत्यक्षत्वात् प्रत्यक्षेण विषयीक्रियमाणत्वात् । यद्वा भावस्याधिकरणस्य प्रतियोगिनश्च प्रत्यक्षत्वात् योग्यत्वादित्यर्थः । संसर्गाभावग्रहेऽधिकरणयोग्यतायाः प्रतियोगियोग्यतायाश्च तन्त्रत्वात् । चकारात् प्रतियोगिस्मरणं उक्तं च तर्क समुच्चिनोति ।" इति ॥ ३ अद इदं जैनेन्द्रत्वमेव सदसत्वादित्वं प्र०॥४"विगृह्येति विजिगीषया, न तत्त्वबुभुत्सयेति" - न्यायभा० ४।२।५१॥५ दृश्यतां पृ० ४६० टि. १॥ ६सिद्धार्थो नाम नरेन्द्रः, तस्य सुतः श्रमणो भगवान् महावीरः 'वर्धमानः' इत्यपराभिधानः, तन्मतावलम्बिनं जैनमित्यर्थः ॥ ७वीरणोष्विवद्वटोभा०1वीरणोब्धिवद्यटोपा० डे। वीरणोब्धिवद्धटो वि०वीरणाब्धिवद्यटोरं०॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिकेण स्याद्वादे दूषणाभिधानम्] द्वादशारं नयचक्रम् दर्शनादसत्, दृष्टं तावत् ...........', इतरथा तन्तुपांखादिष्वविशेषः प्रागपि व्यापाराभावश्च स्यात्, दृष्टा तु क्रिया............", उभयैकान्ते दोषदर्शनात् सदेवासदेव वेति चायुक्त एकान्तः, सदसदात्मकत्वात् कार्यस्य उपादाननियमः क्रिया च युज्यते' इति, तन्न, विकल्पानुपपत्तेः। संदेवासत् सदसत् खेनैवात्मना सचासच अन्येनात्मना सद् घटात्मना चासत्? न तावत्..... असत्त्वप्रति-5 पक्षश्च सत्त्वम् । सत् सोपाख्यमसन्निरुपाख्यम्.......... सदसत्त्वं न भवतीत्यर्थः। अत्र सतोऽसत्प्रतिपक्षत्वमसिद्धं तदङ्गत्वात् तदात्मकत्वात् तत्प्रवृत्तित्वात् घटोर्द्ध पदार्था कुविन्दस्य क्रिया न स्यात् । उपादाननियमतदर्थव्यापारौ सदसत्त्वे कार्यस्य हेतू , दृष्टं तावदित्यादिना समर्थयति । अनिष्टं चापादयति - तथानिच्छतः तन्तुपांस्वादिष्वविशेषः स्यादुपादानमेवानुपादानमेव वा, लब्धात्मपदार्थकारकव्यापाराभाववत् प्रागपि व्यापाराभावः स्यादिति च यथासङ्ख्यम् । 10 निगमयति यथासम्भवं दृष्टा तु क्रियेत्यादि । उभयैकान्ते दोषदर्शनादिति सदेवाऽसदेव चेत्येकान्ते । सदेवासदेव वेति चायुक्त एकान्तः, सदसदात्मकत्वात् कार्यस्य सत्पक्षमाश्रित्योपादाननियमो युक्तः, असत्पक्षमाश्रित्य क्रिया युक्तेति । यदेतत् सैद्धार्थीयं मतं तन्न, विकल्पानुपपत्तेरित्यादि । सदेवासत् सदसदित्यादि प्रत्युच्चारणं संक्षेपेण विकल्पद्वयेन सोपपत्तिकं स्वेनैवात्मना सच्चासच अन्येनात्मना सदिति यावद् घटात्मना चासदिति । 15 न तावदित्यादि प्रथमं तावद् विकल्पं व्यवस्थाप्य सूत्रेण दूषणमाह सव्याख्यानं "सोपवर्णनं यावदसत्त्वप्रतिपक्षश्च सत्त्वमिति गतार्थम् । सतोऽसता विरोधः प्रातिपक्ष्यं वैधर्म्यमेव हेतुः । मा मंस्थाः सोऽसिद्ध इति, अतस्तत्प्रदर्शनार्थमाह-सत् सोपाख्यमित्यादि वैधर्म्यस्फुटीकरणं यावत् सदसत्त्वं न ३३६-१ भवतीत्यर्थ इति सुव्याख्यातम् । अत्राचार्य उत्तरमाह - अत्र त्वत्साधने सतोऽसत्प्रतिपक्षत्वं विरोधो वैधर्म्यमसिद्धम् । कुतः ? 20 तदङ्गत्वात् , अङ्गमवयवस्तदेकदेशः, यद् यस्याङ्ग स तस्य प्रतिपक्षो न भवति, यथा घटस्योर्द्धग्रीवादित्व १ 'दृष्टं तावत् पटार्थितायां तन्तूनामेवोपादानं न तु पांस्वादीनाम , एवं पटार्थश्च कुविन्दस्य व्यापारो दृष्टः' इत्याशयो भाति ॥ २ 'दृष्टा तु क्रिया पटार्था कुविन्दस्य तन्तूनामेव चोपादानम् ; तस्मादुपादाननियमतदर्थव्यापाराभ्यां सदसत् कार्यम् ।' इत्याशयो भाति ॥ ३ अत्र 'किं येनैवात्मना सत् तेनैव असत्, आहोखित् आपेक्षिक सदसत्त्वम् अन्येनात्मना मृदादिना प्राक् सद् घटादि कार्य घटात्मना चासत् ?' इति विकल्पद्वयस्याशयो भाति ॥ ४ 'न तावद् येनैवात्मना सत् तेनैवात्मना असत् , सदसतोवैधात् । यदुक्तम्-सदसतोवैधात् कार्ये सदसत्ता न [वै० सू० ९।१।९], सत्त्वप्रतिपक्षोऽसत्त्वमसत्त्वप्रतिपक्षश्च सत्त्वम् , सत् सोपाख्यम् असन्निरुपाख्यम् , तयोवैधात् एकस्मिन् कार्ये सदसत्त्वं न भवतीत्यर्थः ।' इत्याशयो भाति ॥ ५ प्रथमाविभक्त्यन्तत्वे इयमेव वाक्ययोजना समीचीना । द्वितीयाविभक्त्यन्तत्वे तु 'हेतू समर्थयति' इत्यन्वयो ज्ञेयः ॥ ६ दृष्टां प्र० ॥ ७ चेति डे० वि० ॥ ८ वायुक्त य० ॥ ९ सच्चासच्चा प्र० ॥ १० द्वितीयविकल्पस्य खरूपं दूषणं तत्परिहारादिकं च ज्ञातुं दृश्यतां पृ० ४९९, ५०० ॥ ११ सोवर्णनं प्र० ॥ १२ पक्षं च प्र० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलड़तम् [सप्तम उभयोभयारे ग्रीवादित्ववत् । भवन् सन् भवति प्रत्येकवस्तुस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थतवतत्प्रवृत्तव्यावृत्त सदसदात्मकः खतोऽत्यन्ताविभक्तवृत्तिपर्यनुभवोऽभूतखपुष्पविलक्षणोऽर्थान्तरभूतक्षणभङ्गविलक्षणश्चातीतानागतवर्तमानभिन्नभवनसदसदेकक्रियः आकाशवत्। तथा तन्तुपटाद्यपि क्रमभावि सदसत्, तथा युगपद्भावि खमपि, इतोऽपीतोऽपि । 5 मिति । इतश्च प्रतिपक्षो न भवति, तदात्मकत्वात् , स आत्माऽस्य भावस्याभाव आत्मा, तद्भावात् तदात्मकत्वात् , घटोर्द्धग्रीवादित्ववदेव । इतश्च, तत्प्रवृत्तित्वात् , स एवाभावोऽस्य सतः प्रवृत्तिः, तेनाभावरूपेण भावः प्रवर्तत इत्यर्थः । एक एंव भावाभावरूपेणार्थो घटवद् मृत्पिण्डशिवकादिरूपादियुगपदयुगपद्भाविधर्मभावाभावप्रवृत्तिरिति । अथवा अङ्गमात्मा, आत्मा च प्रवृत्तिरित्यैकार्थ्यमेवेति व्याख्यानं तदङ्गत्वस्य । 10 भवन् सन् भवतीति सत्त्वं नाम भवत एव नाभवतः । भवनं च कीदृशम् ? अभावानुविद्धम् , इति तदर्शयति - प्रत्येकवस्त्वित्यादि दण्डको यावत् सदसदात्मकः, एकमेकं प्रति प्रत्येकं वस्तुनः स्वरूपं प्रतिपत्तुं प्रत्येकवस्तुस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थं तत्प्रवृत्तं घटाख्यं शिवकादिव्यावृत्तं पटादिव्यावृत्तं चं, तस्मात् तदेव घटाख्यं घटात्मना प्रवृत्तं भवति', पटशिवकाद्यात्मना व्यावृत्तं 'न भवति' । अतः सदसदात्मकः । तस्मादभावो भावाङ्गं भावात्मा भावप्रवृत्तिरेव । एवं तावद् युगपद्भाविरूपादिभावेनापि भवन् स घटो 15 नाभावेन स्वाङ्गात्मप्रवृत्तिस्वरूपेण विना भवतीत्युक्तं द्रव्यक्षेत्रापेक्षम् । कालभावापेक्षमप्युच्यते - स एव च ३१६. भविता घटः स्वतोऽत्यन्ताविभक्तवृत्तिपर्यनुभवः तामात्मनो वृत्तिं प्राक् पश्चाच्च परितोऽनुभवति । तस्माद्भवनात्मकत्वादभूतखपुष्पविलक्षणः, केनचिद्रूपेण खपुष्पस्याभवनाद् घटस्य च पूर्वोत्तररूपैर्भवनात् । अर्थान्तरभूतक्षणभङ्गविलक्षणश्च प्राक् पश्चा दिदानी च भवनाद् भवनस्य प्रवर्तनस्य द्रव्यार्थतोऽत्यन्तमभिन्नत्वात् क्षणभङ्गवादेऽत्यन्तं क्षणे क्षणेऽन्यत्वाभ्युपगमात् तद्विलक्षण इति। नन्वेवं द्रव्यार्थभवनस्याभेदादभवनं 20 निरवकाशमेवेति, एतच्च न भवतीत्यत आह - अतीतानागतवर्तमानभिन्नभवनसदसदेकक्रियः, यान्यतीतानि भवनान्यनागतानि च तानि वर्तमानभवनाद् भिन्नानि देशकालाकारनिमित्तादिभेदात् , तेभ्यश्च वर्तमानभवनम् , परस्परविलक्षणत्वाच्च परस्पररूपेण न सन्ति, अथ च भवनक्रियैकैव सर्वाणि तान्युच्यन्ते । कथम् ? आकाशवत् , यथा तवाप्याकाशं शब्दादिसमवायिनां घटादिसंयोगिनां चाधारभूतमेकम विच्छिन्नभवनमपि तेषु घटपटशब्दादिभवनाधारतया भिद्यमानत्वाद् भेदाभेदाभ्यां 'सच्चासच्च' इत्येषणीयम् , 25 अन्यथा तेषां घटशब्दादीनां सङ्करप्रसङ्गात्, तथास्मन्मतेनाप्यवगाहसामान्याद् भवत्येव अङ्गुलिघटाद्यव गाहेर्भेदादसञ्च, तथोक्तभावनो घटो द्रव्यादि कार्य चेति । यथाकाशं तथा भूतत्वात् तन्तुपटाद्यपि १ दृश्यतां पृ० ४९३ पं० १३ ॥ २ एव भा० प्रतौ नास्ति ॥ ३ युगपद्भाविधर्म प्र० ॥ ४°मात्मा च प्रवृ भा० ॥ ५ भवनं की य० ॥ ६ प्रति प्रत्ये वस्तुनः भा० । प्रत्येकं वस्तुनः भा० ॥ ७ चा भा० ॥ ८ ( भवन् सन् घटो ? ), दृश्यतां पृ० ४९२ पं० १० ॥९ स्वतात्यतावि य० । स्वतोत्यंगोताव भा० ॥ १० द्भावना प्र० ॥ ११ भूतलक्षणभंग भा० । भूतलक्षणं भंग य०॥ १२ देशकालादिस्वरूपज्ञानार्थं दृश्यतां पृ० ३२० पं० ४, १८, २६॥ १३ भवने य० ॥ १४°च्यते २० ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादे दूषणपरिहारः] द्वादशारं नयचक्रम् ४९३ इतरथा नैव भवेद वस्तु अपूर्णत्वात् खपुष्पवत्, वैधयेण चम्पकपुष्पवत्, अपरत्वादभेदत्वादवर्तमानत्वात् वान्ध्येयवत् क्षणिकवादवत्, । तस्मान्न सदसतोः प्रतिपक्षत्वम् । न नैकात्म्यम् , विधिप्रतिषेधैकविषयत्वात् , भावितैकात्म्यचेतनाचेतनत्ववत् । यदपि च सत् सोपाख्यमसद् निरुपाख्यमिति तदपि नोपपद्यते सतोऽप्यनुपाख्य-5 त्वात् । को हि प्रतिवस्तु प्रतिक्षणसत्त्वेन सदुपाख्यातुं शक्नोति? असाधारणत्वात् क्रमभावि संदसत् । यथा च तत् तन्तुपटादि क्रमभावि तथा युगपद्भावि खमपि संदसद् भिन्नाभिन्नं च इतोऽपि इतोऽपीति उभयात्मकत्वं प्रदर्यत इति ।। इतरथा नैवेत्यादि । एवं सदसदात्मकत्वमनिच्छतो वस्तुनस्ते नैव भवेद् वस्तु अपूर्वत्वात् निर्बीजत्वात् , नास्य पूर्वमिति बहुव्रीहिसमासाश्रयेण न पूर्वमपूर्वं प्रागसत्त्वादिति तत्पुरुषाश्रयेण वा, 10 खपुष्पवत् । वैधर्येण चम्पकपुष्पवत् , मूलाङ्करादिभवनेन पूर्वस्यैव संतश्चम्पकस्य पुष्पीभवनात् । तच्च सदसदात्मकं चम्पककुसुममिति । एवमपरत्वादनुत्तरत्वादभेदत्वादिति योज्यम् । तस्माद् वर्तमानमेव न स्यात्, ततश्चावर्तमानत्वादपि नैव स्यात् , वान्ध्येयवत् क्षणिकवादवदिति च खपुष्पक्षणभङ्गवैलक्षण्यप्रस्तुतेरुदाहरणद्वयमेतत् । तन्निगमयति - तस्मान्न सदसतोः प्रतिपक्षत्वमिति । इतश्च न नैकात्म्यं सदसतोरैकात्म्यमेव, द्विः प्रतिषेधस्य प्रकृत्यापत्तेः । कुतः ? विधिप्रतिषेधे-15 कविषयत्वात् , विधिः अन्वयः, प्रतिषेधो व्यतिरेकः, 'तावुभावकविषयौ' इत्येतत् प्रत्येकवस्तुस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थतदतत्प्रवृत्तिव्यावृत्तिसदसदात्मक इति अविभक्तस्वरूपपर्यनुभवोऽतीतानागतवर्तमानभिन्न भवनसदसदेकक्रियः इत्यादिवचनात् सिद्धम् । तस्मात् सदसदैकात्म्यमेव भावितैकात्म्यचेतनाचेतनत्ववत् , यथा च चेतनाचेतनयोविधिप्रतिषेधैकविषयत्वेन भावयित्वा चेतनोऽचेतन इत्युक्तं तथेहापि द्रव्यादिसदसदैकात्म्याद् नास्ति सदसतोः प्रतिपक्षतेति । 20 यदपि चेत्यादि । सदसतोः प्रतिपक्षत्वभावनार्थं वैधर्म्यमुच्यते त्वया सँत् सोपाख्यमसद् निरुपाख्यमिति तदपि नोपपद्यते, सतोऽप्यनुपाख्यत्वात् । को हीत्यादि, वस्तुनि वस्तुनि रूपरसादौ ३३७.२ यो योऽसाधारण आत्मा पूर्वक्षणे उत्तरे च क्षणे विलक्षणस्तस्य भावः सत्त्वम् , तेन सत्त्वेन प्रतिवस्तु प्रतिक्षणसत्त्वेन च सद् वस्तु तदुपाख्यातुं केनचिदशक्यम् , असाधारणत्वात् , यदसाधारणं न तदुपाख्यातुं शक्यते स्वसुखादिपर्यनुभववत् । तस्मादू नायमेकान्तः सत् सोपाख्यमेवेति । स्यान्मतम् -- 25 न ब्रूमः ‘सत् सोपाख्यमेव' इति, यतोऽस्य व्यभिचार उच्यते। किं तर्हि ? सत् सोपाख्यं निरुपाख्यं १ सत् भा० ॥ २ कत्वं प्रदर्शत भा० । कत्वं प्रदर्शन डे० वि० । कत्वप्रदर्शन पा० २० ॥ ३ सत एचंपकस्य भा० । सत एवं चंपकस्य पा० डे० वि० । सत एव चंपकस्य रं० ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४९२ पं० २॥ ५त्मकमिति प्र० । दृश्यतां पृ० ४९२ पं. २॥ ६ दृश्यतां पृ. ३७२ पं० ७॥ ७.दृश्यतां पृ. ४९१५०६॥ ८ ययोरसाधारण प्र०॥ ९क्षस्तस्य प्र.॥ १० (च यद् वस्तु ?)॥ ११ स्यान्मतं ब्रूमःप्र०॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलतम् [सप्तम उभयोभयारे खसुखादिपयनुभववत् ? । अथ च निरुपाख्यतायामपि नैव तदसत् सामान्यसोपाख्यत्वात् । अपि च त्वयापि.... ..."विशेषणसम्बन्धः कल्प्यः, अथ च न तदसद् निरुपाख्यत्वात्, सदसदेव तु सोपाख्यनिरुपाख्यत्वात् सामान्यवत् , सोपाख्यं निरुपाख्यं च सदसत्त्वात् सामान्यवत् । सामान्यं स्वसत् न सामान्यसद् 5 वस्तुवदिति सदेवासत् सामान्यम् । सोपाख्यं वपरप्रत्ययाभिधानाधानात् निरुपाख्यं च वस्तुवदिति सोपाख्यमेव निरुपाख्यम् , वस्तुनि विपर्ययः। अतो व्यवस्थापितसोपाख्यनिरुपाख्यत्वात् सदसदेव सामान्यादिद्रव्यादिवत् । वा स्यात् , निरुपाख्यं त्वसदेव, तत् सता साधर्म्य न भजत इति । एतदपि नोपपद्यते व्यभिचारादित्यत आह-अथ च निरुपाख्यतायामपि नैव तदसत् सामान्यसोपाख्यत्वात् , उप सामीप्ये, सामी10 प्येनाख्या उपाख्या प्रत्यासत्त्येत्यर्थः, सह उपाख्यया सोपाख्यम् , यदप्यसाधारणं सुखादिपर्यनुभवादि तदपि सामान्येनोपाख्यायते - किमपि सुखं दुःखमित्यादि । तस्मान्निरुपाख्यस्यापि सत्त्वदर्शनादयुक्तमुक्तम् - अंसन्निरुपाख्यं सत् सोपाख्यमिति । तस्मात् केनचिदात्मना सदेवासत् सोपाख्यं चेति नास्ति सदसतो_धर्म्यम् । अथवा सामान्यसोपाख्यत्वात् , यथा सामान्यं स्वेनात्मना सोपाख्यं स्वसत्तया, न विशेषणात्मना सामान्यान्तरेण, न तु द्रव्यादिवस्तुवत्, इति सत् सोपाख्यं निरुपाख्यमसञ्चति दृष्टत्वात् 15 तवैवैकत्र सदसतोर्नास्ति विपक्षता । किश्चान्यत् , अपि च त्वयापीत्यादि, त्वत्कल्पनयैव 'सदसत्' इत्येतत् प्रदर्शयितुमिदमुच्यते, प्राग्व्याख्यातार्थ एवैष ग्रन्थो यावद् विशेषणसम्बन्धः कल्प्य इति, इह तु 'प्राग विशेषणसम्बन्धाद् विद्यमानमेव निरुपाख्यमितीष्टं त्वयैव' इत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थमुपन्यस्तः, अत आह -अथ च न तदसद् निरुपाख्यत्वादिति निरुपाख्यत्वस्य सति दृष्टत्वाद् व्यभिचार उक्तः । असञ्च तत् सम्बन्धासत्त्वात तस्यामवस्थायाम् , सोपाख्यं च तदुत्तरकालं सत्तासम्बन्धोपाख्यत्वात् । एवं सोपाख्यनिरुपाख्यत्वाविरोधमापाद्य प्रस्तुतकार्यसदसत्त्वाविरोधे साधनमाहाचार्यः - सदसदेव तु सोपाख्यनिरुपाख्यत्वात् सामान्यवदिति । अथवा सोपाख्यं "निरुपाख्यं च सदसत्त्वात् सामान्यवदिति सदसत्त्वैकात्म्ये साध्ये सोपाख्यनिरुपाख्यत्वं हेतुः सोपाख्यनिरुपाख्यत्वे च सदसत्त्वं प्रोक्तन्यायेन त्वयैवाभ्युपगतत्वात् । सामान्यदृष्टान्तस्य सदसत्सोपाख्यनिरुपाख्यत्वैकात्म्यं दर्शयति - सामान्यं स्वसत् स्वसत्तया सत् 25 न सामान्यसद् वस्तुवत् सम्बन्धसत्तयेत्यर्थः । यथा त्वन्मतेनैव सामान्येन सम्बन्धाद् द्रव्यगुणकर्माख्यं वस्तु सम्बन्धसदिष्यते न तथा सामान्यं सामान्यस्य सामान्यान्तरसम्बन्धाभावात् । इति सदेवासत् ३३८-१ १चा भा० ॥ २ प्रत्यासत्तेत्यर्थः प्र०। (प्रत्यासन्नेत्यर्थः ?)॥ ३ भावादि प्र०॥ ४°दयुक्तम् भा० २०॥ ५ दृश्यतां पृ० ४९१ पं०६॥ ६ (सोपाख्यं निरुपाख्यं चेति ?)॥ ७ पृ० ४७४ पं० २॥ ८ कल्प्यव इति भा० । (कल्प्यत इति ?)। दृश्यतां पृ० ४८५ पं० १८॥९ सम्बन्धसत्तात् प्र० । अत्र सम्बन्धसत्ताभावात् इत्यपि पाठः स्यात् १० निरुपाख्य य० प्रतिषु नास्ति ॥ ११ निरूप्यं च प्र० ॥ १२ कात्म्यैकार्थ य० । (कात्म्यैकार्थं ?)॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् 'हेतूपादानक्रिया यत्तूक्तं 'पूर्वदोषपापीयस्त्वाद् न । तद्यथा नियमाभावः, अस्मिन् पुनः सदसत्कार्यपक्षे द्विदोषता पापीयसी' इति, तन्न, परिहृतपूर्वदोषत्वात् । - तंत्र हि --- सामान्यम्, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वात् एवं सामान्यस्य सदसत्त्वैकात्म्यम् । तदेव च सोपाख्यं स्वपरप्रत्ययाभिधानाधानात्, स्वात्मनि सम्बन्धिनि च प्रत्ययमभिधानं चाधत्ते 'सती सत्ता' 'सन्ति द्रव्य - 5 गुणकर्माणि' इति च सामान्यम् तदेव निरुपाख्यं च नास्योपाख्यास्ति, वस्तुवत्, वस्तुन इव सम्बन्धिसामान्यादुपाख्या नास्ति सामान्यादेः सामान्याद्यन्तराभावात् । इति सोपाख्यमेव निरुपाख्यम्, इत्थमुक्तन्यायेन सोपाख्यनिरुपाख्यत्वयोर्वैधर्म्याभाव: । वस्तुनि विपर्यय इति, द्रव्यादित्रये ३३८-२ वस्तुनि स्वतो निरुपाख्यता सामान्येन सोपाख्यता, स्वतस्त्वसत्त्वं सम्बन्ध्यन्तरात् सत्त्वं च सत्तातो विपरीतम् । ४९५ अतो व्यवस्थापितेत्यादि व्याख्यातदृष्टान्तसोपाख्यनिरुपाख्यत्वैककाष्ठीकृतहेतुधर्मयोः सदसत्त्वैककाष्ठभूत साध्यधर्माविनाभावः उपसंह्रियते । तस्मात् ताभ्यां धर्माभ्यां 'भिन्नौ विरुद्धौ च' इत्यभिमताभ्यामेव प्रतिपद्यतां भवान्, सोपाख्यनिरुपाख्यत्वात् सामान्यादिद्रव्यादिवत्, सामान्यविशेषसमवायाः सामान्यादयः, द्रव्यगुणकर्माणि द्रव्यादीनि, सामान्यादयश्च द्रव्यादीनि च यथा सन्ति असन्ति च सोपाख्यनिरुपाख्यानि चेति सोपाख्यनिरुपाख्यत्वं सदसत्त्वैकात्म्ये हेतुः सदसत्त्वमपि सोपाख्यनिरुपाख्य- 15 त्यैकात्म्ये तथैव हेतुस्त्वन्मतेनैव । उपनये तु द्रव्यादीनां दृष्टान्तत्वेनोपादानं त्वयैवेष्टत्वात् । अत्रापि सदसत्त्वैकात्म्ये सोपाख्यनिरुपाख्यत्वैकात्म्ये च निःसंशयमविपक्षतेति । इदानीं स्याद्वादे परोक्तान् दोषान् परिहर्तुकाम आह- यत्तूक्तमित्यादि । टीकायां प्रशस्तमतौ स्याद्वादिनं प्रति ‘पूर्वदोषपापीयस्त्वाद् न' इत्युक्तौ दोषौ, तत्र सदसत्कार्यपक्षयोः साङ्ख्यवैशेषिकेष्टयोर्यथासङ्ख्यं क्रियानुपपत्त्युपादाननियमाभावदोषौ । यथोक्तम्- 'उपादाननियमस्यासति सति च क्रियाया 20 अभावप्रसङ्गात् सदसत् कार्यम्' इति दोषद्वयं ब्रुवतो जैनस्य पूर्वदोषपापीयस्त्वं किलेत्थमुच्यते । [ वै० सू० प्रशस्तमतिटीका ], तद्यथा - तत्र हीत्यादि, यथासङ्ख्यं प्रत्येक दोषप्रदर्शनप्रन्थो गतार्थो यावद्धेतूपादान- ३३९-१ क्रियानियमाभाव इति, हेतवो दण्डाद्या घटस्य, मृदुपादानम्, क्रिया कुलालव्यापार इति । अस्मिन् पुनः सदसत्कार्यपक्षे द्विदोषता पापीयसी सदसत्पक्षाभ्यामेकैक दोषाभ्याम्, 'सत्त्वात् कार्यस्य घटार्थायाः क्रियाया अभाव:, असच्चादुपादान [नियमा] भावः' इत्येतद्विदोषत्वात् पापीयानेष पक्ष इति । 25 अत्राचार्य आह - तन्न, परिहृतपूर्वदोषत्वात् परिहृतावस्मिन् सदसदेकात्मककार्यपक्षे पूर्वोक्तौ क्रियाभावोपादाननियमाभावदोषाविति । १ ‘तत्र हि अत्यन्तासत्कार्यपक्षे उपादाननियमस्य अत्यन्तसत्कार्यपक्षे च क्रियाया अभावप्रसङ्गात् सदसत्कार्यपक्षयोर्हेतूपादान कियानियमाभावः' इत्याशयो भाति || २ वाधत्ते प्र० ॥ ३ "न्याद्यपाख्या प्र० ॥ ४ स्वतस्वत्वं सम्बन्ध्यन्तरासत्त्वं च य० । स्वत्वं सम्बन्ध्यन्तर(सत्त्वं च भा० । (खतोऽसत्त्वं सम्बन्ध्यन्तरात् सत्त्वं च ? ) ॥ ५ काष्टी ० ॥ ६ख्या निरु पा० ॥ ७ पूर्णदोष प्र० ॥ ८ पञ्चम्यन्तोऽयं निर्देशः ॥ ९ ( 'दानाभावः ? ) ॥ 10 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे तत्र हि सत्कार्यपक्षे क्रिया किं विरुध्यते? सायो यदसौ 'एकान्तेन सन्नेव घटः' इत्याह ततस्तस्य 'क्रिया निष्पन्नस्य न युज्यते कर्तव्याभावात् कृतवत्' इति क्रियाऽभावदोषो भवति, न पुनः स्याद्वादिनः। यदि त्वसौ स्यादादिना कर्तव्यत्वमपि विदधीत ततः क एनमेवं ब्रूयात् ? असत्कार्यपक्षेऽपि उपादाननियमः किं 5 विरुध्यते ? यदसौ 'एकान्तेन असदेव कार्यम्' इति हेतूपादानेषु सन्निहितस्य क्रियाभिव्यङ्गयस्यार्थस्योपर्यवज्ञया ब्रूयात् तस्य ‘पटार्थितायां तन्तूपादाननियमो न __तत् परेणैवाभिवाचयति प्रश्नपूर्वकम् - तत्र हि सत्कार्यपक्षे क्रिया किं विरुध्यते केन हेतुना ? साङ्ख्यो यदसावेकान्तेनेत्यादि यावत् कृतवदिति । द्रव्यार्थतो हि मृत्पिण्डे घटोऽस्ति न पैर्यायतः । साङ्ख्यस्तु सन्नेव घटः कार्यत्वपर्यायनिरपेक्ष इत्याह ततस्तस्य क्रिया करणं निष्पन्नस्य सर्वथा विद्यमानस्य न युज्यते 10 कर्तव्याभावात् कृतवत् निष्पन्नघटवदित्येवं तस्य सत्कार्यवादिनः क्रियाऽभावदोषो भवति, न पुनरा काङ्कितकर्तव्यपर्यायद्रव्यावादिनः स्याद्वादिनः 'स्यात् सन्नेव मृत्पिण्डे घटः केनचिद्धर्मेणासन्नपि' इति वदतः परिहृतपूर्वोक्तसत्कार्यैकान्तवाददोषत्वात् । यदि त्वेसौ साङ्ख्योऽपि स्यादादिना कर्तव्यत्वमपि विदधीत स्याद्वादिवत् 'कथंचित् कुतश्चित्' इत्यादिनानेकान्तवाचिना विशेषणेन विशेष्य 'सदेव कार्यम्' ३३९.२ इति ततः क एनमेवं ब्रूयात् ? को वादी सुसमीक्षितवाक्यगुणदोषोऽपि 'क्रियाऽभावदोषस्ते प्राप्तः कर्तव्य15 त्वाभावात् कृतवत्' इति वक्तुं शक्नुयात् परिहृतपूर्वदोषं वादिनं साङ्ख्यमन्यं वाभ्युपेतानेकान्तवादमिति । असत्कार्यपक्षेऽपीत्यादि, वैशेषिकं प्रत्यसत्कार्यवादिनमुपादाननियमाभावदोष उक्तो योऽयं स किं विरुध्यते ? इति पूर्ववत् प्रश्नोपक्रमं भाणयति । यदसावेकान्तेनेत्यादि, यदसौ वैशेषिकः पर्यायार्थाश्रयेण ‘क्रियागुणव्यपदेशाभावादसदेव कार्यम्' इति द्रव्यार्थतो हेतुषु तुर्यादिषूपादानेषु च तन्तुषु सन्निहितस्याव्यक्तस्य क्रियामन्तरेण क्रिययाभिव्यङ्ग्यस्य पटाख्यस्यार्थस्य उपरि अवज्ञया अनपेक्ष्य तं ब्रूयात् 20 तस्य पटार्थितायां तन्तूपादाननियमो न युज्यते तत्रासत्त्वात् तृणादिवत्, यथा तृणाद्युपादानं पटार्थितायां न युक्तं तत्र तस्यासत्त्वादेवं तन्तूपादानमपीतीत्थमसत्कार्यैकान्तवादेऽप्युपादाननियमाभावदोषः, सोऽनेकान्तवादे स्यादादिविशिष्टे नास्ति 'स्यादसत् कार्यम्' इति दत्तसत्तावकाशमपि वदतः । तथा यदि वैशेषिकोऽपि विशेष्य ब्रूयात् क एनं किश्चिदपि ब्रूयात् ? न तदा तस्य वादिनो विशेषितान्वयव्यतिरेकधर्मधर्मिव्यवस्थस्य तिलतुषशतभागमात्रमपि वाच्यमस्तीति । उक्तं च - हेतुविसयोवणीतं जध वैयणिजं परो णियत्तेति । जदि तं तहा पुरिल्लो दोपंतो केण जिवंतो ॥ [सैन्मति० ३।५८] १ वाभिवावयति प्र० । (वाभिधापयति ? ) ॥ २ पर्ययतः प्र० ॥ ३ सत्कार्यवादिनः भा० । सत्कार्येादिनः य० । अत्र 'सत्कार्यकान्तवादिनः' इत्यपि पाठः समीचीनो भाति ॥ ४ °वाचिनः य० ॥५ तसौ सांख्येपि प्र०॥ ६ वक्तुयात् य० ॥ ७ उक्तौ य०॥ ८ 'योऽयमुपादाननियमः स किं विरुध्यते' इत्याशयः ।। ९ व्यंग्य पटाख्य य० ॥ १. स्यापर्यवशया य० ॥११ वादेप्युपा प्र० । (°वादे य उपा?)॥१२ वणिजं प्र०॥ १३ दाएतो वि० रं० ॥ १४ जिञ्चतो भा० । मुद्रिते सन्मतिप्रकरणे जिव्वंतो इति पाठः ॥ १५ “यत्रानुमानविषयतयाभ्युपगम्यमाने साध्ये दूषणवादिनोऽवकाश एव न भवति तदेव साध्यं हेतुविषयतया अभ्युपगन्तव्यमिति Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ४९७ युज्यते तत्रासत्वात् तृणादिवत् इत्युपादाननियमाभावदोषः, न पुनः स्याद्वादिनः । तथा यदि वैशेषिकोऽपि विशेष्य ब्रूयात् क एनं किञ्चिदपि ब्रूयात् । एवमयं पूर्वश्रेग्रस्त्वार्थ आद्युद्ग्राहः । यत् पुनरिदमभिधीयते - सद्भागस्योपादाननियमः असद्भागस्य क्रिया च युज्यते, तौ च वस्तुनिस्त एवेति चेत्, न, विपर्ययप्रसङ्गात् । एकस्योभयात्मकैकवस्तुत्वे 5 विशेषहेत्वभावात् कुत एतत् पूर्वदोषपापीयस्त्वमेवेति । - - एतदपि न किञ्चित् कार्यत्वादेव | कार्ये उपादानक्रिययोः स्वविषयनियतौ भावावेव, एकस्यो तस्मान्न स्तः स्याद्वादिनः पूर्वदोषौ, कुतः पापीयस्त्वम् ? ताभ्यां वा श्रेयस्त्वमेवेत्यत आह- • एवमयं पूर्व श्रेयस्त्वार्थः पूर्वाभ्यां वादाभ्यां श्रेयसो वादस्य भावः पूर्वश्रेयस्त्वम्, तदेवार्थोऽस्योद्वाहस्येति सोऽयमा- ३४०-१ युद्ध हः पूर्वश्रेयस्त्वार्थः परिहृतदोषवचनावकाशः तस्मिन्नाद्युद्रा हे प्रतिज्ञानिर्देशे दर्शित एव मया 'स्यात् 10 सत् कार्यं स्यादसत् कार्यम्' इति । स पुनस्त्वया स्वपक्षरागादस्मत्प्रद्वेषाद्वा नावबुद्धः । 2 यत् पुनरिदमित्यादि पूर्वपक्षः परस्य यावत् पूर्वदोषपापीयस्त्वमेवेति । जैनेनायं परिहार : पूर्वI दोषपापीयस्त्वेऽभिहितः सदसत्कार्यवादिना - सद्भागस्योपादाननियमः मृदि सत्त्वाद् घटस्य मृदुपादाननियमः तस्य चासद्भागस्य क्रिया च घटस्य युज्यते सदसदंशयोरन्यतराश्रयेण, तौ चांशौ वस्तुनि स्त एवेति चेदित्याशङ्कायाम्, 'एवं चेन्मन्यसे' इति आर्हतीयं परिहारमाशङ्कयोत्तरमाह - एतच्च न, 15 विपर्ययप्रसङ्गात्, विपर्ययः सद्भागमाश्रित्य क्रियाप्रसङ्गोऽसद्भागमाश्रित्योपादाननियमप्रसङ्गः, अनिष्टौ च ते जैनस्य, एकस्योभयात्मक कैकवस्तुत्वे विशेषहेत्वभावात् 'उपादाननियमस्यासति सति च क्रियाया अभाषैः' इत्येतयोर्हेत्योरितरेतरांशव्यावर्तितयोरभावादपक्षधर्मता । एकं हि वस्तु सच्चासच्च, तस्मिन् सत्युभयात्मके कुत एतदित्यादि गतार्थं विपर्ययप्रसङ्गापादनं विशेषहेत्वभावाद हेतुहेर्यनियमाभावात् । अत्राचार्य आह - एतदपि न किञ्चित् नोत्तरस्य गन्धोऽप्यस्तीत्यर्थः । कस्मात् ? कार्यत्वादेव, 20 'क्रियते' इति हि कार्यम्, तस्मिन् कार्ये उपादानक्रिययोः स्वविषयनियतौ भावावेव, नाभावः, स्वो विषयः स्वविषयः, उपादानस्य सत्येव नियमः, तस्य तत्र नियतत्वाद् भावो विषयः, क्रियायाः पुनरसत्येव, दर्शयन्नाह - हेउविसयोवणीयं जह वय णिज्जं परो नियत्तेइ । जइ तं तहा पुरिल्लो दाईतो केण जिप्पंतो ॥ हेतुविषयतयोपनीतमुपदर्शितं साध्यधर्मिलक्षणं वस्तु पूर्वपक्षवादिना 'अनित्यः शब्दः' इत्येवं यथा वचनीयं परो दूषणवादी निवर्तयति सिद्धसाध्यताननुगमदोषाद्युपन्यासेन एकान्तवचनीयस्य तदितरधर्माननुषक्तस्य अनेकदोषदुष्टतया निवर्तयितुं शक्यत्वात्, यदि तत् तथा द्वितीयधर्माक्रान्तं ' स्यात्' शब्दयोजनेन पुरिल्लः पूर्वपक्षवादी अदर्शयिष्यत् ततोऽसौ नैव केनचिदजेष्यत । ततश्चासौ तथाभूतस्य साध्यधर्मिणोऽप्रदर्शनात् प्रदर्शितस्य चैकान्तरूपस्य सत्त्वात् तत्प्रदर्शकः सन्नसत्यवादितया निग्रहार्ह इति ।" इति अभयदेवसूरिविरचितायां [ जेसलमेरस्थायां लिखितायां ] सन्मतिवृत्तौ पृ० २२६ ॥ १ 'कुत एतत् 'सद्भागस्योपादाननियमोsसद्भागस्य क्रिया च न तूभयाभावः' इति ? तस्मात् पूर्व दोषपापीयस्त्वमेवेति' इत्याशयोऽत्र भाति ॥ २ ज्ञानिर्देश य० ॥ ३ तस्यावा (तस्यैवा ?) सद्भागस्य प्र० ॥ ४ आर्हतीयं ही० विना ॥ ५ एतच्चिहान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ६ दृश्यतां पृ० ४९५ पं० २० ।। ७ वस्तु सश्च भा० । अत्र वस्तु सदसश्च इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ८ दृश्यतां पृ० १३८ टि०९ ॥ ॥ नय० ६३ ३४०-२ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे भयात्मकत्वात्, एकपुरुषनियतपितृपुत्रत्ववत् । न ह्येकस्य......"न तूमयाभावः, एवम्.......। अपि च विपर्ययप्रसङ्गापत्तावप्येवंविधार्थतैव । असद्भागमाश्रित्योपादाननियमाभाव एव अनुपादानसत्तादिभावसामान्यलभ्यखरूपत्वात् सद्व्यादेः। सद्भागमाश्रित्य च क्रियाया अभाव एव सर्वस्य सर्वात्मकत्वात् तथात्वाद5 त्यन्तमसतोऽभावात्। यत्तूच्यते-सदसतोधात् कार्ये सदसत्ता न [वै० सू० ९।१।१२], सदसच्छब्दार्थयो. नियतत्वादभावो विषयः उक्तवत् । ते चोपादानक्रिये स्खे विषये नियते इति कथं ज्ञायते ? एकस्योभयात्मकत्वात् , सदसदात्मकं ह्येकं कार्यं मयाभ्युपगतं त्वया च दोषाभिधित्सया, तस्मादेकस्योभयात्मक. त्वात् , यद् यदुभयात्मकमेकं तस्य तस्य स्वविषयनियतता दृष्टा, एकपुरुषनियतपितृपुत्रत्ववत् । न ह्येक10 स्येत्यादि दृष्टान्तव्याख्यानं यावद् नै तूभयाभाव इति । एवमित्यादि दार्टान्तिकव्याख्यानमनियमाभावसाधर्म्यप्रदर्शनं दोषाभावप्रदर्शनम् । उभयैकत्वमेव च विशेषहेतुः, तस्य स्वविषयनियतत्वाद् नास्ति विपर्ययप्रसङ्गः । तस्मात् पूर्वाभ्यां श्रेयस्त्वमेव । अभ्युपेत्यापि विपर्ययप्रसङ्गम् अपि च विपर्ययप्रसङ्गापत्तावप्येवंविधार्थतैव अनेकान्तसिद्धेः न पापस्य गन्धोऽपि, सदसदात्मनो वस्तुनो योऽसौ पर्यायार्थोऽसद्भागो मृदि घटाभावस्तमाश्रित्योपादान15 नियमाभाव एव । कस्मात् ? अनुपादानसत्तादिभावसामान्यलभ्यस्वरूपत्वात् सद्रव्यादेः । प्रागुत्पत्तेः कार्यमसदेव समवाय्यसमवायिकारणसान्निध्ये जायते, न तस्योपादानेनार्थः कश्चित् , उत्पन्नं सत् सत्तयाभिसम्बध्यते द्रव्यगुणकर्माख्यम् , द्रव्यत्वेन द्रव्यम् , गुणत्वेन गुणः, कर्मत्वेन कर्मेत्येभिर्भावैः सामा न्याख्यैर्लभ्यं स्वरूपं वास्येति 'नैव कार्यस्योपादाननियमोऽस्ति' इत्यनेकान्तः सिध्यति । सद्भागमाश्रित्य च ३४१.६ क्रियाया अभाव एव, यो घटस्य कार्यस्य सत्त्वमेव द्रव्यार्थतो वाञ्छति तस्य क्रियाया नास्त्येव प्रयोज20 नम् , नैव क्रियास्ति, इत्यनियमः । किं कारणम् ? तस्य वादिनः सर्वस्य सर्वात्मकत्वात् , मृत्पिण्डो हि युगपदयुगपद्भाविसर्वधर्मात्मकः । तेन प्रकारेण तथा द्रव्यार्थवादप्रकारेण, तथाभावस्तथात्वं सर्वसर्वात्मकत्वम् , तस्मात् तथा[त्वा]दसद् नाम किश्चिन्नास्यतोऽत्यन्तमसतोऽभावात् प्रत्येकनयविवक्षायामन्यतराश्रय इतरस्याभावाद् न पत्र विशेषहेतुनार्थ एव । यत्तूच्यत इत्यादि यावत् सप्तम्यभिधानेन दर्शयतीति सूत्रार्थः कटन्यां व्याख्यातः । १'न ह्येकस्य पुरुषस्य पितृपुत्रत्वनियमो नास्ति, वपुत्रमपेक्ष्य पितृत्वम् , स्वपितरमपेक्ष्य च पुत्रत्वम्, न तूभयाभावः । एवमत्रापि उभयात्मकैकवस्तुत्वात् उपादानक्रिययोः स्वविषयनियतत्वाद् नास्ति विपर्ययप्रसङ्गः । इत्याशयोऽत्र भाति ॥ २ दृश्यतां पृ० ४६.टि. १॥ ३ ननभया प्र०॥४°मनियाभाव प्र.॥ ५ भावाप्रद प्र०॥ ६तस्य विषयनि प्र.(ततः स्वविषयनि?)॥७त्यादि विप०प्र०॥८सच सदात्मनो भा०।स य०॥ ९र्लभ्यस्वरूपं वास्येति डे० । लभ्यखरूपवास्येति पा० रं० वि० । ( र्लभ्यं खरूपं चास्येति ? लभ्यं खरूपमस्येति ? ) ॥ १० सप्तभिधानेन दर्शयति प्र०॥ ११ कटन्दी नाम कणादविरचितवैशेषिकसूत्राणां काचित् प्राचीना व्याख्या । “भो भो लक्ष्मण ! वैशेषिककटन्दीपण्डितो जगद् विजयमानः पर्यटामि । कासौ रामः तेन सह विवदिष्ये।" इति मुरारिकविविरचिते अनर्घराघवनाटके पञ्चमाङ्के रावणस्य वचः॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटन्दीकाराभिप्रायस्य खण्डनम्] द्वादशार नयचक्रम् विरोधादेकस्मिन्नेव कार्ये सदसच्छब्दयोरेकाधिकरणभावेन प्रयोगो नास्ति, 'सदेवासत्' इत्यनुसन्धान नास्त्येकाधिकरणभावेन इति सप्तम्यभिधानेन दर्शयति [वै० सू० कटन्दी ९।१।१२] ।-एतदपि न किश्चित्, एकैकार्थे तत्त्वात्मनि इतरेतरभूताभूततत्त्वं जगद् वृत्तावृत्तपर्यायार्थाविभक्तद्रव्यार्थभावनायां सदेवासत् किं नूभयप्रत्यपेक्षाभावयितव्यखात्मनि । तथा च । यदप्युक्तम्-आपेक्षिकं सदसत्त्वम्, प्रागुत्पत्तेः मृदात्मना सत् कार्य घटात्मना चासत्, 5 निस्पन्नेऽपि घटे मृत्त्वदर्शनाद् मृदुपादानोपपत्तिः, घटात्मना चासत्त्वाद् घटार्थक्रियोपपत्तिरित्येवं किल आर्हत आह । अत्रोत्तरम् - नै, असत्कार्यत्वसिद्धेः, एवं तर्हि मृदात्मनः कर्तव्यत्वाभावादू घटात्मनः कर्तव्यत्वादसदेव कार्यम् । तस्मान्न प्रागुत्पत्तेः सदसत् कार्यम् [वै० सू० कटन्दी] इति । अत्र न 'सदसतोवैधात्' इति किमुक्तं भवति ? परस्परविरोधात् समानाधिकरणभावेनैकस्मिन् प्रागुत्पत्तेः 'सच्चासञ्च तदेव' इति संदसच्छब्दार्थयोर्विरोधादेकस्मिन्नेव कार्ये कुतः सत्त्वं प्रागुत्पत्तेः ? किं तर्हि ? असत्त्व- 10 मेवेति सदसच्छब्दयोरेकाधिकरणभावेन प्रयोगो नास्तीति । तद् व्याचष्टे – 'सदेवासत्' इत्यनुसन्धान नास्त्येकाधिकरणभावेनेति बुद्ध्या निर्धारणं नास्ति, तदभावात् प्रयोगोऽनुपपन्नः । एषोऽर्थः 'कार्ये सदसत्ता न' इति सप्तम्यभिधानेन दर्शितः, अन्यथा 'कार्य सदसन्न' इति लाघवार्थं ब्रूयात् । एतदपि न किञ्चिदित्याद्युत्तरं यावत् स्वात्मनि । एकस्मिन्नेकस्मिन् घटपटादावर्थे तत्त्वात्मनि इतरेतरभूताभूततत्वं जगत् , घटात्मना घटोऽस्ति पटात्मना नास्ति, पटोऽपि तथेति खेनात्मना भूतत्वमभूतत्वं चेतरात्मना, 15 तस्माद् भूताभूततत्त्वं 'जगदिति व्यापितां दर्शयति, न केवलं कार्यमेव सदसदिति । तथा वृत्तावृत्ताभ्यां ३४१.२ पिण्डशिवकपर्यायार्थाभ्यां क्रेमभाविभ्यामविभक्तो द्रव्यार्थ एकः, तस्य भावना मृत्पिण्ड एव शिवकीभवति, शिवक एव च स्थासकीभवतीत्यादि यावद् घटो यावच्च पांशुर्यावच्च परमाणुरित्यवस्थासु पिण्डात्मना भवति शिवकाद्यात्मना न भवतीति पिण्डो भावाभावात्मकस्तथा शिवकोऽपि शिवकात्मना भवति न पिण्डात्मना, तथोत्तरास्वप्यवस्थासु इतरेतराभावस्वरूपेण स्वेन च भावरूपेण सदसदेव, संचासत् [वै. सू. ९।१॥ ४] 20 इति वचनात् । एवं सकलजगद्वृत्तावृत्तपर्यायार्थेनाविभक्तद्रव्यार्थभावनायां सदेवासत् । किन्नूभयेत्यादि, किं पुनर्युगपद्भाविनामयुगपद्भाविनां च पर्यायाणां रूपरसादीनां शिवकादीनां च प्रत्यपेक्षया भावयितव्यो यस्य वस्तुनः स्वात्मा तस्मिन् भावयितव्ये ? निःसन्दिग्धमेव तदा सदेवासदपीत्यर्थः । तदुपसंहरतितथा चेति गतार्थम् । यदप्युक्तमापेक्षिकमित्यादि । स्याद्वादी किलेत्थं सदसत्त्वं समर्थयतीति पूर्वपक्षः । मृदात्मना 25 घटस्य प्रागुत्पत्तेः सत्त्वम् , निष्पत्त्युत्तरकालमपि मृत्त्वदर्शनात् , तदात्मकत्वाद् मृदुपादानोपपत्तिः । घटात्मना चासत्त्वाद् घटार्थक्रियोपपत्तिरिति । अत्र किलोत्तरं कटन्दीकार आह-न, असत्कार्यत्वसिद्धेः। १ दृश्यतां पृ. ४९१ पं० १५, पृ० ५०० पं० १२, पं० १७ ॥२ दृश्यतां पृ० ५०२ पं० १६, पं० २१॥३दृश्यतां पू०५०२५० ७॥ ४'अब न पूर्वपक्षे नोत्तरपक्षे किञ्चित् सत्यम्' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ५ सामान्याधिक यः। सामाधिक भा०॥ ६ सच्छब्दार्थ प्र०॥ ७ पपत्तेः प्र० ॥ ८°त्म भूतत्व प्र०॥ ९क्रमभाविभक्तो द्रव्यार्थ प्र० ॥ १० दृश्यतां पृ० ४८९ पं० २८ ॥ ११ 'जगवृत्ता प्र० ॥ १२ कित्तमये प्र० । (किमुभये ?)॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतम् सप्तम उभयोभयारे पूर्वपक्षो नोत्तरपक्षः सत्यः, को हि नाम सोऽनेकान्तवादी एवं ब्रूयात्-प्रागुत्पत्तेः मृदात्मना सत् कार्य घटात्मना चासदिति ?.एवं हि मृदोऽकार्यत्वे..... को भेदः? अभूत्वोत्पत्तिवाचिप्राक्छब्दोचारणादेव साक्षादसत्त्वैकान्ताभ्युपगमः । अन्येन मृदात्मना भवति खेन च घटात्मना न भवतीत्येवं ब्रुवन् प्रत्यक्षादि विरुद्धं मत्तोन्मत्त5 कादिवत् स्यात् । देशकालभेदलक्षणोभयपयोयमात्रत्वादेवमयमसद्वाद एव स्यात् । एवं तहरीत्यादि व्याख्या । मृदात्मनः कर्तव्यत्वाभावात् , 'क्रियते' इति हि कार्यम्, न च मृत् क्रियते, घटो हि क्रियते, स चासन्निति । तदुपनयति - तस्मान्न प्रागुत्पत्तेः सदसत् कार्यमिति । अत्र न पूर्वपक्ष इत्यादि आचार्यो ब्रूते । अत्रैवं पूर्वोत्तरपक्षयोर्न किञ्चित् सत्यम् , प्रागतीतेषु पूर्व३४३.१ पक्षोऽपि कश्चित् सत्यः स्याद् विकलादेशवशार्पणात् , यथा सद्भागमाश्रित्योपादानम् असद्भागमाश्रित्य 10क्रियाभाव इत्यादिः। इह तु न पूर्वपक्षो नोत्तरपक्षः सत्यः । पूर्वपक्षासत्यत्वं तावत् को हि नाम सोऽनेकान्तवादीत्यादि । एवं ह्यसत्कार्यैकान्तवाद एवावस्थापितः, तदसत्कार्यमवस्थाप्य कोऽनेकान्तवादी एवं ब्रूयात् ? इत्यादि, प्रागित्यादि तस्यैव प्रत्युच्चारणं यावद् घटात्मना चीसदिति, न ब्रूयादेवेत्यभिप्रायः । यदि ब्रूयादनेकान्तवादत्याग एकान्तवादाभ्युपगमश्च कृत इति तद्दर्शयति - एवं हि मृदोऽकार्यत्वे इत्यादि गतार्थो यावत् को भेद इति । य एवैष वैशेषिको बौद्धो वा स्यादाहतोऽपीति । 15 किश्चान्यत् , अभूत्वोत्पत्तीत्यादि यावदभ्युपगमः । प्राक्छब्दो डंभूत्वोत्पन्नार्थवाची घटावस्थातः पूर्वावस्थावाचित्वात् । स चाभूत्वोत्पत्त्यर्थः प्राक्छब्दोच्चारणादेव साक्षादभ्युपगतस्तेन स्यात् । ततः किमर्थ विवदेताभ्युपगम्यासत्त्वैकान्तं 'मृदात्मना सद् घटात्मना चासत्कार्यम्' इति ? तथापि भ्रोन्तिमपि न ब्रूते । किश्चान्यत् , अत्यन्तासमीक्षितभाषिणैकान्तवादिनापि न तुल्यतामेत्यसौ, घटादन्यस्या मृदो य आत्मा तेनात्यन्तमन्यो घटो भवति स्वेन च घटात्मना न भवतीत्येवं ब्रुवन प्रत्यक्षादिविरुद्धं मत्तोन्मत्तकादिवत् स्यात्, 20 सोऽपि चैकान्तवादी प्रत्यक्षादिविरुद्धं किञ्चित् परिहरतीति । किश्चान्यत् , देशकालेत्यादि । देशतो भेदो रूपरसादीनाम् , कालतो भेदः पिण्ड शिवकादीनाम् , स भेदो लक्षणमेषां सहासहावस्थायिनामुभयेषां पर्यायाणां ते देशकालभेदलक्षणोभयपर्यायाः, तत्परिमाणं देशकाल भेद लक्षणोभयपर्यायमात्रम् , तैद्भावात् तन्मात्रत्वादेवमनेन प्रकारेणायमसद्वाद एव स्यात् , रूपं रसादन्यत्, तदपि विभज्यमानं कृष्णम् , पुनरप्येकगुणकृष्णमित्यादि आ च परमाणुशो विभागादसदेव रूपम् , एवं रसादयः, तथा पिण्डादयो १एवं हि मृदोऽकार्यत्वेऽनेकान्तवादत्यागादेकान्तवादाभ्युपगमाच्च वैशेषिकाद् बौद्धाद्वा को भेदः।' इत्याशयो भाति ॥ २ नहीत्यादि ही० । नहित्यादि रं० ॥ ३ सदसदसत् भा० । अयमेव पाठः पुनरपि अग्रे भा० प्रतौ, दृश्यतां पृ० ५०३ टि. १ । एवं चोभयत्रापि भा. प्रतौ 'सदसदसत्' इति पाठदर्शनात् तदनुसारेण 'तस्मान्न प्रागुत्पत्तेः सदसत् , असत् कार्यम्' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४९७ पं०४॥ ५ इत्यादि य० ॥ ६ वासप्र० । दृश्यतां पृ० ४९९ टि० १॥ ७ह्यभूत्वोन्नार्थ प्र०॥८त्पत्तथैः य० । (त्पन्नार्थः ? )॥ ९भ्रांतिपि भा० । (भ्रान्तोऽपि ?)॥ १० लक्षणभेदां सहाभा० पा० डे० । लक्षणभेदा सहा वि० २०॥ ११ तद्धावत् य० । तद्भाववत् भा० ॥ १२ "मित्योद्याप पर' य. मित्येजा पर भा० । अत्र 'आ' अभिविधौ, ततो 'यावत् परमाणुशो विभागात्' इत्यर्थं इति भाति । अत्र 'मित्यादि आ पर इत्यपि पाठः स्यात् ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ कटन्दीकारविहिताक्षेपस्य परिहारः] द्वादशारं नयचक्रम् इत्थं पुनः कोऽनेकान्तवादी ब्रूयात् आपेक्षिकमृदात्मसत्त्वमसद्वादिवत् । आपेक्षिकमृदात्मसद्विशेषणात्तु असदभिधानमेवेदम् , अभिधेयस्वतत्त्वनिरसननियतत्वात्, अन्यनुष्णत्वाभिधानवत् । अव्युदासे तु घटात्मनापि सन्नेव तद्भावत्वात्।। सदसदात्मकवस्तुतत्त्वप्रत्यक्षीकरणार्थ जैनाः एकमेवात्मानं परमार्थ द्रव्यार्थपर्यायाधुंभयलक्षणमुपवर्णयन्ति, खपुष्पवदन्यथाऽसम्भवात् । द्रव्यशब्दं च ३४३-१ 15 ऽपीत्यसद्वादः । इत्थं पुनः कोऽनेकान्तवादी यात् यथासावसद्वादी ब्रूते - रूपं रसात्मना नास्ति रसोऽपि रूपात्मना कृष्णाद्यपि शुक्लाद्यात्मनेत्यादि ? न ब्रूयादेवेत्यर्थः । किं कारणम् ? धृतिसङ्ग्रहपक्तिव्यूहावकाशदानात्मकपृथिव्याद्यात्मकत्वाद् मृदादेर्घटादेश्च कथं मृदमेकामपेक्ष्य 'मृदात्मनैवास्ति' इत्यापेक्षिक[मृदा]मसत्त्वमसद्वादिवत् कः कुशलो ब्रूयात् इति सम्बध्यते । अत्र प्रयोगः - आपेक्षिकमृदात्मसद्विशेषणात् त्वसदभिधानमेवेदम् 'मृदात्मना सद् घटात्मना चासत्' इति वचनम् । कुतः ? अभि- 10 धेयस्वतत्त्वनिरसननियतत्वात् , अभिधेयस्य मृत्पिण्डस्य स्वं तत्त्वं देशभिन्नरूपरससंस्थानादि कालभिन्नरूपरसशिवकादिपांस्वादि धृत्यादिलक्षणभिन्नपृथिव्यादि च, मृदात्मनैवास्ति घटो न रूपादिशिवकार्थेबादिस्वतत्त्वैरिति तान्यस्य स्वतत्त्वानि सन्त्येव निरस्तानि स्युः, तन्निरसने नियतत्वादस्य वाक्यस्य । यद् यद् वाक्यमभिधेयस्वतत्त्वनिरसननियतं तत् तदसदभिधानं दृष्टम् , यथा 'अनुष्णोऽग्निः' इत्युक्तिः । 'अभिधेयस्वतत्त्वनिरसनमसिद्धम्' इति मा मंस्थाः, सिद्धमेवाबाद्यात्मव्युदसनात् । स्यान्मतम् – नावधार्य मृदात्मनैव सत्, नान्येन' इति ब्रूमः, किं तर्हि ? मृदात्मना तावत् सन् घटो यदि रूपादिपिण्डादिशिवकाद्यबाद्यात्मभिरपि भवेद् भवतु नाम तदात्मत्वात् , को दोषः ? इति । अत्र ब्रमः- अव्युदासे तु घटात्मनापि सन्नेव तद्भावत्वात् , ते भावा रूपादिशिवकार्येबादिव्रीह्यादयो घटादयश्चास्या मृदः, तद्भावभावस्तद्भावत्वम् , तस्मात् तद्भावत्वात् घटात्मना प्राक् कार्यमुत्पत्तेः सत् तदात्मत्वाद् घटात्मत्वात् अपिशब्दात् सर्वात्मकत्वाच्छिवकादिपांश्वादिव्रीह्याद्यात्मनापि सत् । तथा चासत्कार्यत्वानुक्तिः, 20 सत्कार्योक्तिरेव कृता तथा वदतेति । तस्मान्न स्याद्वादिन एवमाहुरेकान्तवादिन इवानपेक्ष्य पूर्वापरम् । कथं ताहुरिति चेत् , अत आह-सदसदात्मकेत्यादि । 'व्यात्मकं वस्तुतत्त्वम्' इत्येतस्यार्थस्य प्रत्यक्षीकरणार्थ जैनाः स्याद्वादिन एकमेवात्मानं परमार्थ द्रव्यार्थतः सत्त्वात् पर्यायार्थतोऽसत्त्वात् तदुभयलक्षणमुपवर्णयन्ति 'तादृग् वस्तु' इति प्रतिपादितत्वात् । खपुष्पवदन्यथाऽसम्भवात् उभयरूपैकात्म्याभावादेकरूपस्य द्रव्यार्थात्मनः पर्यायार्थात्मनो वा निर्भेदत्वात् निर्बीजत्वाच्च खपुष्पवदभावप्रसङ्गात् सद-25 सद्रूप एवात्मा वस्तुन इति । द्रव्यशब्दव्याख्या-द्रव्यशब्दं च मृदादिरूपाद्यतीतानागतवर्तमानभेदाभेदार्थ 'वर्णयन्तीति वर्तते । मृदः पिण्डशिवकादयः क्रमभुवः, सहभुवः रूपरसादयश्च भिन्नाः, त्रिषु १ दृश्यता पृ. ३१९ पं० १ टि. १॥ २ 'कमसत्त्व प्र० । ३ वासत् प्र०॥ ४ द्यपादिप्र० ॥ ५ 'वापाद्या प्र०॥ ६°ण्डादिवका प्र० । (°ण्डशिवका ? )॥ ७°द्यपा प्र०॥ ८ वस्तु इति भा०। (वस्तुत इति?)॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतम् [ सप्तम उभयोभयारे मृदादिरूपाद्यतीतानागतवर्तमान भेदाभेदार्थ पर्यायशब्दं सर्वाभेदभेदार्थ मृदात्मानं द्रव्यार्थ पर्यायार्थं घटात्मानं च द्रव्यार्थपर्यायार्थं च । द्रव्यं हि 'द्रव्यार्थघटोऽत्यन्तसन्, पर्यायस्तु · · असन् । इदमपि च कुतो मृद एव दर्शनम्, न पुनर्धृत्यादिवत् सङ्ग्रहादिदर्शनम् अनिर्देश्यं च ? कुत एतत् असत्त्वाद् घटात्मना 'असदेव कार्यम्' इति, न पुनर्मृत्तत्त्वघटसत्त्वात् तत्त्व एवानुभवक्रमप्राप्तेः तत्प्रत्यग्रादित्ववद् घटसत्त्वम् ? यदपि चोच्यतेनं, असत्कार्यत्वसिद्धेः । एवं तर्हि मृदात्मनः कर्तव्यत्वाभावाद् घटा ५०२ कालेषु मृदादयः वर्तमानाश्व रक्तत्वादयो वृत्त हुण्डादयश्च ते च भिन्ना अप्यभिन्नाः स्वां मूर्तिमनतियर्तमानत्वादिति भेदाभेदार्थमेव द्रव्यशब्दं वर्णयन्ति । पर्यायशब्दं सर्वाभेदभेदार्थं 'तेष्वेव त्रिकालवर्तमान10 कालवर्तिषु जातिं भिन्दन्तं वर्णयन्ति । तस्मादुभयोरुभयार्थत्वम् । न केवलं शब्दार्थकथनमात्रादेवोभयार्थत्वम् । किं तर्हि ? वस्तुस्वरूपनिरूपणमपि क्रियते, तद्यथा - मृदात्मानं द्रव्यार्थ पयार्यार्थ वर्णयन्तीति सम्बध्यते । घटात्मानं च द्रव्यार्थपर्यायार्थं चेति । तयोर्यथाक्रमं व्याख्या द्रव्यं हीत्यादि द्रव्यार्थस्य यावद् द्रव्यार्थघटोऽत्यन्तसन्निति, घटस्यैव पूर्वोत्तरावस्था मृदादिव्रीहिबीजादिमूलादिर्भवतीति प्रागपि भावितार्थम्, पर्यायस्त्वित्यादि पर्यायार्थस्य यावदसन्निति तद्विपर्ययेण गतार्थम् । यथा च घटात्मा मृद15 प्येवं द्रव्यार्थ पर्यायार्थाभ्याम् | इदमपि च कुत इत्यादि । यदुच्यते - 'निष्पन्नेऽपि घटे मृत्वदर्शनाद् मृदात्मकस्योपादानमिति, एषोऽपि विशिष्टपार्थिवत्त्वदर्शनेनैकान्तः कुतः सम्भवति सङ्ग्रहपक्तिव्यूहावकाशदानधर्म जलानलानिलगगनव्युदासेन धृत्यादिधर्मपृथिव्यात्मकतैवेति ? तत् प्रदर्शयति - न पुनर्धृत्यादिवत् सङ्ग्रहादिदर्शनमित्यादि तस्मिन् वस्तुनि विद्यमानसर्वधर्मदर्शनानि यावदनिर्देश्यं चेति । तस्माद् न मृद एव दर्शनमुभयथापि 20 यदि मृदि मृदात्मदर्शनम् अथ घटे मृदात्मदर्शनमिति । यदप्युच्यते – घटात्मना चासत्वात् क्रियोपपन्नेत्येवं किल आईत आह । अत्रापि कुत एतदित्या - युत्तरम् । नैवमाईतो ब्रूते - घटात्मनाऽसत्त्वादसदेव कार्यमिति, किं तर्हि ? सन्नपि घट ३४४-१ मृत्तत्त्वघटसत्त्वात् । तद्दर्शयति-असत्त्वाद् घटात्मनेति कुत एतत्, न पुनर्मृत्तत्त्वघटसत्त्वात्, तत् पुनः सत्त्वं मृत्तत्त्वस्य घटस्य तत्त्व एवानुभवक्रमप्राप्तेः क्रमजन्मघटपर्यायानुभवः क्रमेण प्राप्यते 25 तत्त्वे द्रव्यार्थतोऽवस्थितस्वरूप एव वस्तुनि मृदाख्ये, तत्प्रत्यग्रादित्ववत् यथा घटस्य प्रत्यप्रेषन्मध्यममध्यपुराणतादिभावा घटतत्त्वे व्यवस्थितस्यैव तथैव मृत्तत्त्व एवानुभव क्रमप्राप्तेः घटसत्त्वम् । तस्मादाहतो - क्त्यपरिज्ञानादसाधूक्तम् । किचान्यत्, यदपि चेत्यादि । एतस्य पूर्वपक्षस्योत्तराभिप्रायेणोच्यते - न, असत्कार्यत्व सिद्धेरिति १ दृश्यतां पृ० ४९९ पं०.७ ॥ २ तेष्वेवत्रिष्वेवत्रिकाल प्र० ॥ क्रिया प्र० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ४९९ पं० ६ ॥ ६ 'पर्यानुभवः प्र० ॥ ३ स्वरूपणमपि प्र० ॥ ४ वात्म Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटन्दीकारविहिताक्षेपस्य परिहारः] द्वादशारं नयचक्रम् ५०३ स्मनः कर्तव्यत्वादसदेव कार्यम् । तस्मान्न प्रागुत्पत्तेः सदसत् कार्यम् [वै० सू० कटन्दी] इति।-एतदपि नैव, असत्कार्यत्वसिद्धिवत् सत्कार्यत्वसिद्धेः....सत्कार्यत्वम् । न हि घटतायां मृत्तत्त्वस्याभावः । मृद आत्मैव घटात्मा, तत्त्यागे तत्वरूपानुपपत्तेः, अतीतानागतवर्तमानविचित्रविशेषाध्यासिस्वभावसद्भूतमृत्त्ववत् अतीतानागतवर्तमानविचित्र विशेषाध्यासिखभावसद्भूतघटवद् वा । एतेन सर्वोऽस्याद्वादः प्रत्युक्तः। । 10 यावत् तस्मान्न प्रागुत्पत्तेः सदसत् कार्यमिति गतार्थम् । अत्रोत्तरमाचार्य आह - एतदपि नैव, असकार्यत्वसिद्धिवत् सत्कार्यत्वसिद्धेरित्युपक्रम्य भावना यावत् सत्कार्यत्वमिति । यथा मृद्भावादप्रच्युतस्य घटस्य मृद्भावेनानुत्पाद्याविनाश्यस्य सत एव घटविवक्षया कर्तव्यत्वादसत्त्वमिष्टं त्वया तथाऽकर्तव्यत्वात् सततमप्रच्युतस्यातकस्य घटादिशिवकादिकर्तव्यात्मनो मृत्तत्त्वस्य मृत्तत्त्वविवक्षया कर्तव्यत्वाभावात् 'सदेव कार्यम्' इति कस्माद् नेष्यते ? न हि घटतायामित्यादि, शिवकादिवद् मृत्तत्त्वस्य घटस्य मृत्तत्त्वस्याभावे यद्यवस्थानं स्यादसन् घटः प्राक् पश्चाज्जायत इति स्यात् , तत्तु नास्ति, यस्माद् मृद आत्मैव घटात्मा । कस्मात् ? तत्त्यागे तत्स्वरूपानुपपत्तेः, यत्त्यागे यत्स्वरूपानुपपत्तिः स तस्यैवात्मा । अतीतानागतेत्यादि यावद् मृत्त्ववत् , यथा {त्पिण्डस्यातीतानागतवर्तमानेषु कालेषु ये विशेषाः शीतोष्णत्वादयः साशुष्कखण्डितशकलादयश्च ३४४-३ विचित्रास्तानध्यास्ते स्वभावो यस्य मृत्त्वस्य तत् तत्स्वभावम् , स एव सद्भावः परमार्थः, स एव परमार्थो 15 भूतं मृत्तत्त्वं तान् विशेषान् विहाय न प्रवर्तते तेऽपि च तदिति स एवात्मा विशेषाणां मृत्त्वस्य [च] तथा घटात्मा मृद एवात्मा । अथवा अतीतानागतवर्तमानविचित्रविशेषाध्यासिस्वभावसद्भूतघटवदिति द्वितीयमुदाहरणंम् , सैव व्याख्या । मृद आत्मा घटस्यात्मा घटस्यात्मा मृद आत्मेति द्विधापि प्रतिज्ञायते तेनैव हेतुना अनेनापि दृष्टान्तेनेति । ____एतेन सर्वोऽस्याद्वादः प्रत्युक्तः । कार्यसदसदात्मकैकवस्तुप्रतिपादनात्मकेन तदेकान्तप्रतिषेधा-20 त्मकेन च यत्नेन नित्यानित्यायेकान्तवादः सर्वः प्रतिषिद्धो बोद्धव्यः 'उपादाननियमस्यासति सति च क्रियाया असम्भवाद् नित्यानित्यैकनानाकार्यकारणसर्वासर्वगतत्वादिरस्याद्वादः । नित्यत्वेनानित्यत्वमनित्यत्वेन च नित्यत्वमेकान्तरूपं बाध्यते, सापेक्षं च सर्व सिध्यति, तद्यथा-सदा सत्त्वाद् नित्यत्वम्, सदा सत्त्वं द्रव्यार्थात् , नैकान्तानित्यत्वमतः । सदा चासत्त्वादनित्यत्वम् , सदा चासत्त्वं पर्यायार्थत्वात् , अतश्च नैकान्तनित्यत्वमिति । 25 १ सदसदसत्कार्य भा० । दृश्यतां पृ० ५०० टि० ३ ॥ २ भावानां प्र०॥ ३ तथा कर्तव्य प्र० ॥ ४कृतकर्घटा पा० वि० भा० । कृतघटा डे० २० ॥ ५मृत्वस्या भा० ॥ ६ यत्स्वरूपा प्र० ॥ ७ मृत्त्वंडस्य भा०। (मृत्खण्डस्य ? )॥ ८ परमार्थः य० प्रतिषु नास्ति ॥ ९ सभाव प्र०॥ १० णं स्यैव व्या भा० । 'जस्यव व्या य०॥ ११ मृवात्मा य०॥ १२ सर्वास्याद्वादः य०॥ १३ दृश्यता पृ० ४९५ पं. २०॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृतम् [सप्तम उभयोभयारे .. यदपि चोपादाननियमसत्त्वप्रतिषेधार्थमुत्तरम् -प्राक् प्रसिद्धव्यापारयोग्यद्रव्योपादानं क्रियानिमित्तं न कार्यसत्त्वनिमित्तम् । अथास्य व्यापारनियमः कुतः १:....'न सिध्यति । . समर्थस्य करणेऽधिकारपरिग्रहात् स इति चेत्, समर्थस्यैव कार्यक्रियायाम् 5 ... 'असदेव कार्यम् । एकीभावगतार्थस्य समर्थत्वात् सत्कार्यत्वमेव । यदपि चोपादाननियमसत्त्वप्रतिषेधार्थमुत्तरैमित्यादि । कर्तृ 'कारणम्', कर्म 'कार्यम्' इति क्रियानिमित्तको शब्दौ, तत्र प्राक् प्रसिद्धव्यापारयोग्यद्रव्योपादानं तत् क्रियानिमित्तम् , न कार्यसत्त्वनिमित्त । अत्र स्याद्वादी किल पृच्छति-- अथास्य व्यापारनियमः कुत इत्यादि यावद् न सिध्यति । अत्र वैशेषिकपक्ष आशङ्कयते -समर्थस्य करणेऽधिकारपरिग्रहात् स इति चेत् । एतस्य ३४५-१ "io व्याख्या-समर्थस्यैव कार्यक्रियायामित्यादि कारणनिदर्शनो ग्रन्थो गतार्थो यावदसदेव कार्यमिति एतत् किलोपादाननियमकारणत्वेन उत्तरमसत्कार्यवादिनः । अत्राचार्यस्तदुत्तरमाह - एकीभावगतार्थस्य समर्थत्वात् सत्कार्यत्वमेव, ननु त्वयैव समर्थस्य करणेऽधिकारपरिग्रहादुपादाननियमः इति ब्रुवता सत्कार्यत्वं समर्थितम् , सङ्गतार्थ समर्थम् , एकीभावं गतो योऽर्थः स समर्थः साध्येन साधनाख्यः, तद्भावादे. कीभावगतार्थस्य समर्थत्वात् सत्कार्यत्वमेव नासता खरविषाणेन सह कस्यचित् सामथ्यं तस्य वा केनचिदु15 पपद्यत इति । १ "प्राग निष्पत्तनिष्पत्तिधर्मकं नासत् , उपादाननियमात् । कस्यचिदुत्पत्तये किञ्चिदुपादेयं न सर्व सर्वस्येत्यसद्धावे नियमो नोपपद्यत इति।" इति न्यायभाष्ये ४।१।४८॥ २'समर्थस्यैव कार्यक्रियायामधिकारपरिग्रहादुपादाननियमः, तस्मादसदेव कार्यम् ।' इत्याशयो भाति । दृश्यतां पृ. ५०४ टि० १५॥ ३ “यत् पुनरुक्तं प्रागुत्पत्तेः कार्य नासदुपादाननियमादिति, बुद्धिसिद्धं तु तदसत् [न्या० सू० ४।१।५०], इदमस्योत्पत्तये समर्थ न सर्वमिति प्रागुत्पत्तेर्नियतकारणं कार्य बुझ्या सिद्धमुत्पत्तिनियमदर्शनात् । तस्मादुपादाननियमस्योपपत्तिः । सति तु कार्ये प्रागुत्पत्तरुत्पत्तिरेव नास्ति ।" इति वात्स्यायनप्रणीते न्यायभाष्ये । “यत् पुनरेतत् नासदुपादाननियमादिति, बुद्धिसिद्धं तु तदसत् [न्या. सू० ४।१।५० ], नायं सवादुपादाननियमः, अपि तु सामर्थ्यात् । 'इदमनेन शक्यं निवर्तयितुं नेदमनेन' इत्येवं बुद्धिसिद्धं कार्यं कृत्वा यद् यस्योत्पत्तये समर्थ तत् तस्योपादीयते न सर्व सर्वस्य, न सर्वस्मात् सर्वमुत्पद्यमानं दृष्टमिति । अथोत्पत्तिनियमेन' कार्यनियमेन कार्यकारणनियम प्रतिपद्यते तेनापि कार्यकारणशब्दयोरर्थो वाच्यः, किमुक्तं भवति कारणमिति किमुक्तं च भवति कार्यमिति । ननु करोतीति कारणं क्रियत इति कार्यम् । यद्यभिव्यक्तिः पूर्ववत् प्रसङ्गः । अथ विद्यमानेष्वपि करोत्यर्थो दृष्ट इति मन्यसे यथा 'केशान् कुरु, पृष्ठं कुरु' इति । न तत् , विद्यमानानां हि रचनाविशेषः क्रियते पश्चात् , पृष्टस्यापि मलापगमोऽविद्यमानः, इति न विद्यमाने कारणार्थ जात्वपि पश्याम इति । तस्मादसदेतत् ।” इति उक्ष्योतकरविरचिते न्यायवार्तिके। “यच्चोक्तमुपादाननियमादिति तत्र यदि पुरुषस्योपादाननियमः पटार्थी तन्तूनेवोपादत्ते न वीरणं कटार्थी वीरणमिति ततस्तदुपादानानां तत्र तत्र कार्ये सामर्थ्यपरिज्ञानात् । तच्च सामर्थ्यमानुमानिकम् । तदिदमुच्यते-बुद्धिसिद्धं तु तदसत् [न्या. सू० ४।१।५०] इति तदसद्भावि कार्यमनेनैव कारणेन जन्यते नान्येनेत्यनुमानाद् बुद्धिसिद्धमेवेत्यर्थः । अथासत्कार्यपक्षे तन्तव एव पटस्योपादानं न वीरणादीत्ययं नियमो न स्यादिति ब्रूषे तदयुक्तम् , असत्त्वाविशेषेऽपि खकारणादुत्पन्न किञ्चिदेव किश्चित् कार्य जनयितुं समर्थ नान्यदित्ययं स्वभावविशेषादुपपद्यत इति" इति वाचस्पतिमिश्रविरचितायां न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकायाम् ॥४ नैमित्तिको प्र०॥ ५ अर्थस्य य० । अथस्य भा०॥ ६॥ एतच्चिदान्तर्गतः पाठो य० प्रतिषु नास्ति ॥ ७योऽर्थः असमर्थः प्र.॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग् निष्पत्तेरसत्कार्यवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् ५०५ अथ कथं तन्तुतुर्यादेरेव कारणत्वेनोपादानं पटनिर्वृत्ती, न पांशुवास्यादेः? तस्यैव समर्थत्वात् तथा तथा पटादिकार्य तन्तुषु वर्तते तथा अंशुषु तथा पक्ष्मतुटिरेणुपरमाणुषु तथा तुर्यादिष्वपि, पांखादिष्वपि च, कारणकारणत्वादणुवत् । योऽप्युपचयहेतुः 'प्राय निष्पत्तेरसत् कार्य क्रियागुणव्यपदेशाभावात् खपुष्प अस्य व्याख्यानम् - अथ कथं तन्तुर्यादि यावत् कारणकारणत्वादणुवत् वैशेषिकमेव । पृच्छंस्तेनैव व्याख्यापयति । तुर्यादेरेव कारणत्वेनोपादानं पटनिवृत्तौ न पांशुवास्यादेरिति करणाधिकारपरिग्रहादेव सत्कार्यत्वं तस्यैव समर्थत्वात् तथा तथा तेन तेन प्रकारेण तत्तन्नियतनिजशक्तियुक्तार्थसमर्थत्वात् , पटादि कार्य तन्तुषु वर्तते, तन्तुकारणेषु तेथांशुषु प्रकारान्तरेण पटकारणभावं बिभ्रत्सु, तथा पक्ष्मतुटि-रेणु-परमाणूनामपि यथास्वशक्ति प्रकारान्तरैः पटकारणत्वात् पारम्पर्येण तत्र तत्रास्त्येव पटः तत्समवायव्यङ्ग्यत्वात् तदात्मकत्वाच्च । असमवायिपटोऽपि संयोगव्यङ्ग्यत्वात् संयोगिद्रव्येभ्यः संयोगस्याभिन्नत्वाद् 10 द्वथणुकत्र्यणुकाद्यनन्तप्रदेशस्कन्धसंयोगत्वपरिणतद्रव्याभेदात् त एव परमाणवः पटः, यथा “संयोगिषु ३४५-२ पटकारणेषु तदात्मकत्वात् पटत्वं तथा तत्कारणपरमाणूनाम् । तथा तुर्यादिष्वपि, तुरि-वेम-शलाकाऽश्चनिका-विलेखनिकादीनां कुविन्दप्रयत्नोत्थापितव्यापाराणां पटत्वं तदात्मकत्वाद् द्रव्याभेदात् । पांस्वादिष्वपि च भूम्यम्बुमारुतानलाकाशबीजसंयोगनिष्पाद्यकर्पासात्मकत्वात् पटत्वं सिद्धम्, तत्कारणकारणत्वात् परमाणुवत् । एवं तावत् कार्यसंदसत्त्वप्रतिषेधो न सिध्यति प्रतिषेधहेत्वयुक्तेः सदसत्त्वै-15 कात्म्यसाधनसौ स्थित्यप्रदर्शनाच्च सदसदेव कार्यमिति । किश्चान्यत् , योऽप्युपचयहेतुरित्यादि तेन किल सदसत्त्वनिषेधं कृत्वा कार्यासत्त्वसाधनार्थमुपचयहेतुरुक्तः, तद्यथा- प्राग् निष्पत्तेश्च कार्यस्याभावात् । कथम् ? इति तदुच्यते-क्रिया-गुण-व्यपदेशाभावात् । क्रिया त्वक्त्राणादिका पटस्य तन्त्ववस्थायां गुणाश्च संयोगपरिणामादयः व्यपदेशश्च शब्दान्तरं लिङ्ग वा न सन्ति, तस्मात् क्रियागुणव्यपदेशाभावात् प्रागुत्पत्तेरसत् कार्य खपुष्पवदिति । अस्याप्युपचय- 20 १ नयचक्रवृत्तौ पाठस्याशुद्धत्वसन्देहादत्र मूले सन्देहः । नयचक्रवृत्तिपाठस्य समञ्जसत्वे तु 'अथ कथं तन्तुतुर्यादि एव पटनिवृत्तौ कारणम् , न पांशुवास्यादि ?' इत्यपि मूलं स्यादत्र ॥ २ अत्र तुर्यादेरित्यादि इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ३ (तन्तुतुर्यादेरेव?)॥ ४ तथा तेन भा०॥ ५ तथासुषु भा०। तथातंतुषु य० ॥ ६ धनंतांतप्रदेश भा० । 'आदि'शब्दस्य 'अन्त'शब्दस्य च परस्परमभिसम्बद्धत्वाद् 'व्यणुकत्र्यणुकादि' इत्यत्र 'आदि'शब्दः, 'अनन्तान्त' इत्यत्र च 'अनन्त'इत्यनन्तरम् 'अन्त'शब्दः, इति विवक्षायां भा० प्रतिपाठोऽपि साधुरेवेति ध्येयम् ॥ ७संयोगेषु प्र.॥ ८ “दव्वकारणं दुविहं - तद्दव्यकारणं अन्नदब्वकारणं च । तद्रव्यकारणं घटस्य मृत्पिण्डः, अन्यद्रव्यकारणं चक्रदण्डसूत्रोदकपुरुषप्रयत्नादयः । अथवा द्रव्यकारणं द्विविधं समवायिकारणमसमवायिकारणं च । समवातिकारणं पटस्य तन्तवः, तंतुसु पडो समवेत इति । असमवायिकारणं वेमनलकाअंछनिकातुरिविलेखनादीनि । अहवा निमित्तकारणं च नैमित्तिककारणं च, कडस्स वीरणा निमित्तं, नैमित्तिकानि पुरुषप्रयत्नरज्जुकीलकादीनि । एवं घटपटादीनामपि।” इति जिनदासगणिमहत्तरविरचितायाम् आवश्यकचूणौ, गा० ७३६, पृ० ३७२ ॥ ९ सदसदसत्त्व प्र०॥ १०॥ एतचिह्नान्तर्गतः पाठो य. प्रतौ नास्ति ॥ ११ (भावः, कथम् ?)॥ नय०६४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतम् [ सप्तम उभयोभयारे वत्' इति अस्यापि विरुद्धत्वम्, सदेव भवति कार्यम्, प्रागभूतक्रियागुणव्यपदेशत्वात्, सत्ताऽसम्बन्धिद्रव्यादिवत् । अनैकान्तिकता च, असति च खपुष्पादौ सतिच जातमात्रे कार्यत्रये दृष्टत्वात् । ननु खपुष्पवदनेकान्तः, न, प्राविशेषणापक्षिप्तप्रसङ्गत्वात् । ननु.. "सदेव तु द्रव्यं न कार्यम् । नेनु निष्पत्ति: । निष्पत्तिशब्दो हि.... । प्रभूतस्य त्रिप्रकारा निष्पत्तिः नियता निश्चिता अधिका वा भवनमेव 5 तोर्विरुद्धत्वं दोष इत्याचार्य आह । अयमेव ते उपचयहेतुः परपक्षसाधनाय, सदेव भवति कार्य जायते व्यज्यत उत्पद्यते, प्रागभूतक्रियागुणव्यपदेशत्वात्, सत्ताऽसम्बन्धिद्रव्यादिवत्, सविशेषणं स्वपक्षसाधनं वेदम् । यथा द्रव्यगुणकर्माख्यं कार्यत्रयं स्वभावसत् त्वन्मतेनैव यावत् सत्तया न सम्बद्धं तावत् ३४६-१ क्रियागुणव्यपदेशभाग् न भवति अथ च विद्यते स्वकारणेषु समवेतमात्रं तथेदं समवेतकार्यमित्यस्मन्मतसिद्धिः । 'अनैकान्तिकता च ' क्रिया-गुण- व्यपदेशाभावात्' इत्यस्य हेतोरेंसति च खपुष्पादौ सति च जातमात्रे कार्यदृष्टत्वात् 'असदेव' इति सन्दिग्धम् । 10 इतर आह- ननु खपुष्पवदनेकान्तः । ' प्रागुत्पत्तेरसत् कार्यमभूतक्रियागुणव्यपदेशत्वात् खपुष्पवत् स्यात्, उपजातमात्रद्रव्यादिवत् सत् स्यात् ?' इति त्वत्साधनमपि संशयकारीति चेत् । एतच्च न, 15 प्राग्विशेषणापक्षिप्तप्रसङ्गत्वात् । स्यादयं प्रसङ्गो यद्यविशेष्य 'क्रियागुणव्यपदेशाभावात् सत् कार्यम्' इत्येतद् ब्रूयाम्, किं तर्हि ? 'प्रागभूतक्रियागुणव्यपदेशत्वात्' इति मया विशेष्योक्तम्, यस्य प्रागभूतः क्रिया गुणव्यपदेशः पश्चाद् भविष्यति तत् सदेव, यथा तदेवोत्पन्नमात्रद्रव्यादि, न तु यस्य 'प्राक् पश्चात् ' इति कालाविभागेनैवासत्त्वं खपुष्पादेरिति । अतः प्राग्विशेषणाद पक्षिप्तोऽनैकान्तिकत्वप्रसङ्गोऽस्य हेतोरिति । अत्राह - नन्वित्यादि यावत् सदेव तु द्रव्यं न कार्यमिति । मया 'प्राग् निष्पत्तेरसत् कार्यम्' 20 इति कालविशिष्टं 'यावदनुत्पन्नं तावद् नास्ति' इति प्रतिज्ञाय 'क्रियाद्यभावात्' इति हेतुरुक्तः, स तु निष्पन्ने द्रव्ये नास्ति, तस्मात् साधनधर्मवैकल्यादयुक्तो दृष्टान्त इति । अत्र ब्रूमः - ननु निष्पत्तिरित्यादि । ननु 'निष्पत्तेः प्राक्' इत्युक्तेऽपि निष्पत्तेरुत्पत्यभूत्वाभावादिसमानार्थत्वादव्यक्तसद् व्यक्तसद् भवतीत्युक्तं भवति । तद्यथा - अनुपनिलीनसत्त्वं च तद् द्रव्यादित्रयं जातमात्रं सत्तोपनिलयनात् प्रागनिष्पन्नं सत्तासामान्येन सत् सत्तासमवायात् सद् भवति व्यक्तसद् 25 भवतीत्येषोऽर्थो निष्पत्तिशब्दस्येति । अत आह - निष्पत्तिशब्दो हीत्यादि । तद्वयाख्यानम् - प्रभूतस्य प्रारब्धभवनस्य त्रिप्रकारा निष्पत्तिः, तद्यथा - नियता निश्चिता अधिका वा । का सा ? भवन ३४६-२ १ 'ननु मया प्राग् निष्पत्तेरसत् कार्यं क्रियागुणव्यपदेशाभावात्' इत्युक्तम्, सदेव तु द्रव्यं न कार्यम् । इत्येतादृशं मूलमंत्र भाति ॥ २ 'ननु निष्पत्तिरुत्पत्तिरभूत्वा भावः 'अव्यक्तसद् व्यक्तसद् भवति' इत्युक्तं भवति । अनुपनिलीनसत्त्वं च द्रव्यादित्रयं जातमात्रं सत्तासामान्येन सद् भवति । निष्पत्तिशब्दो हि भवनस्य सत्ताया वाचकः' इत्याशयः स्यादिति भाति ॥ ३ सत्तासम्बन्धि प्र० ॥ ४. चेदम् य० ॥ ५ संबंधं प्र० ॥ ६ भाग् भवति प्र० ॥ ७ रति च प्र० ॥ ८ ब्रूयात् प्र० ॥ ९ तथेव भा० । (तत्रैवो ? ) १० ख्यान प्रभू प्र० ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण निष्पत्तेरसत्कार्यपादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् ५०७ ते । यथा सत्तासम्बन्धादेव द्रव्यादी कार्ये नियता निश्चिता सत्त्वान्तरेभ्यो विविक्तत्वात् सत्तायाः अधिका पुनर्भवनात्, एवमुपादाननियमस्वसत्तानियता तण्डुलविचयवत् क्रियाया व्यापारेण निश्चिता युगपदयुगपत्पर्यायक्रमतथाभूतेरधिका निष्पत्तिरिहापि। तस्मात् सदसत्क्रियागुणत्वात् सदसत एव क्रियागुणव्यपदेशाः । अन्यथा हेतुशक्त्युपादानानामभिधानमात्रप्रसङ्गः, असत्त्वाविशेषात् ।। यस्य तु विद्यमान एवार्थः........ एतेषामर्थानामभावादभिधानमात्रप्रसङ्गः निष्पाद्यनिष्पादकत्वाविशेषादिति । अतश्चायुक्तं सत्कार्यत्वमेवेति । मेव । कस्मात् ? पद्यतेः सत्तार्थत्वात् । सा च ते त्रिप्रकारापि तवैव । तद्यथा-सत्तासम्बन्धादेव द्रव्यादौ कार्ये नियता कारणसमवायस्य सामान्यस्य च नित्यत्वात् , निश्चिता द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्व- 10 घटत्वरूपत्वोत्क्षेपणादिसत्त्वान्तरेभ्यो विविक्तत्वात् सत्तायाः, अधिका पुनर्भवनात् कार्यस्य त्वन्मतेनैव कारणसमवाये जन्माभ्युपगमात् । एवं तावद् दृष्टान्तस्य कार्यद्रव्यादित्रयस्य निष्पत्तिनिरूपा व्याख्याता । दार्टान्तिककार्यस्याधुना - उपादाननियमस्वसत्तानियता, मृदाद्युपादाननियमेन घटादेः स्वसत्ता विद्यते, तया सत्तया नियता मृधेव घटनिष्पत्तेः, तत्त्वतोऽसौ घटत्वेन निश्चिता पटत्वादिव्यावृत्त्या, तद्यथातन्दुलविचयवत् , विचिता निश्चितास्तण्डुलाः कचवराद्यैपनयनेन स्वरूपपरिग्रहेण च, 'क्रियाया व्यापा-15 रेण परिस्पन्देन अनिष्पत्तेः सकाशाद् निश्चिता अपनीता घटनिष्पत्तिः स्वरूपपरिग्रहेणेत्यर्थः । अधिका युगपदयुगपत्पर्यायक्रमतथाभूतेः, ये प्रोग् युगपद्भाविनो रूपादिपृथुबुध्नादिपर्यायाः पिण्डशिवकादयो नव-मध्यम-पुराणतादयश्चायुगपद्भाविनः तेषां क्रमेण शिवकादिकरणविधिना तथाभूतेः तेन प्रकारेण भवनादधिका निष्पत्तिरिहापीति । तस्माद् दृष्टान्तभूतस्य द्रव्यादित्रयस्य कार्यस्य निष्पत्तिवदव्यक्तसद् व्यक्तसद् ३४७-१ भवतीति समानमुपादाने सतः कार्यस्येति गतमानुषङ्गिकम् । स्थितं प्रागुक्तं सदसत्त्वं कार्यस्य । 20 तस्मात् सदसत एव क्रियागुणाः, तद्भावात् सदसत्क्रियागुणत्वात् सदसत एव क्रिया-गुणव्यपदेशाः। अन्यथा हेतुशक्त्युपादानानामभिधानमात्रप्रसङ्गः, यद्यसदेव कार्य स्यात् हेतोर्दण्डादेः मर्दनादियोग्यसायाः शक्तेरुपादानस्य च मृदः, घटादौ मृदेवोपादीयते न तन्त्वादिरिति, एषां खरविषाणादिवदभावे 'अयमस्य दण्डादिहेतुः, इयमस्य शक्तिर्मार्दवादिर्घद्रव्यस्य, मृदेव घटस्योपादानम्' इति वचनमात्रमेवेदं सर्वं स्यात्, नार्थः कश्चित्, खपुष्पादिनिष्पत्त्यर्थक्रियाहेत्वाद्यभाववदसत्त्वाविशेषात् । 25 ____ यदि तु सदेव कार्यं स्यात् तत्रापि स एव दोष इत्यत आह - यस्य तु विद्यमान एवार्थ इत्यादि गतार्थं यावदेतेषामर्थानामभावादभिधानमात्रप्रसङ्गः निष्पाद्यनिष्पादकत्वाविशेषादिति । निष्पाद्यो १°सत्वा प्र० ॥ २ कार्यादित्रयस्य प्र० ॥ ३°धनयनेन प्र० ॥ ४ क्रिया व्यापा भा० । ( क्रियया व्यापा° ? ) ॥५ प्राग् गनुपद्भा भा० । प्रागनुपद्भा य० । ( ये प्राग् न युगपद्भाविनो! ) ॥ ६ ( दण्डादिहेतुः ?.) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ भ्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [ सप्तम उभयोभयारे __तस्मादेकान्तिकपक्षयोरयुक्तत्वाद् युक्तमेतत् प्राक् सदसदेव प्रादुर्भवतीति । यदपि चोक्तम्-विकल्पत्रयानाश्रयाद् विकल्पान्तराश्रयणाच 'विकल्पानुपपत्तेः' इति न दोषः, निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात् । निष्ठा कारणसामग्र्यव्यापार घटः, निष्पादकाः कुलालदण्डादयः, कुलालमृद्दण्डाद्यस्तित्ववद् घटास्तित्वात् किं दण्डादिना हेतुना क्रियते, 5न वा तुर्यादिना ? मृद एव मार्दवादिशक्तिर्न वज्रादेः, मृदेवोपादानं घटस्यानिष्पन्नत्वात् न तु निष्पन्नघट इति विशेषो नास्ति, सत्त्वाविशेषात् । इति प्रसङ्गपरिसमाप्त्यर्थः, तदुपसंहरति - अतश्चायुक्तं सत्कार्यत्व मेवेति । ततः किमायातम् ? इदमायातम् - असत्कार्यायुक्तत्ववत् सत्कार्यत्वमप्यैकान्तिकं न युक्तम् । ३४७.२ तस्मादैकान्तिकपक्षयोस्तयोरयुक्तत्वाद् युक्तमेतत् प्रतिपत्तुं प्राक् सदसदेव प्रादुर्भवतीति स्याद्वादिन उपसंहरन्ति । एकान्तपक्षयोर्दोषदर्शनादनेकान्तपक्षे चादोषदर्शनात् सदसदेव कार्यमव्यक्तसद् 10 व्यक्तसद् भवतीति स्थितमेतत् - त्रिधापि विकल्पानुपपत्तेः सत्तया न सम्बध्यते कार्यमिति ।। यदपि चोक्तमित्यादि । एतद्विकल्पपक्षत्रयपरिहारेण निर्दोषाभिमतं विकल्पान्तरमाश्रित्य यदुच्यते त्वया 'विकल्पानुपपत्तेः' इति नासौ दोषः, विकल्पत्रयानाश्रयाद् विकल्पान्तराश्रयणाच्च । कस्माद् विकल्पान्तरादिति चेत्, 'निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात् । का निष्ठा ? इत्यत आह - निष्ठा कारण १“कथं तर्हि गोत्वं गोषु वर्तते....गवि अगवि वृत्त्यभावादिति चेत्, अथ मन्यसे यदिदं गोत्वं गोषु अनुवृत्तिप्रत्यय. कारणं तत् किं गवि वर्तते आहोखिदगवि ? यदि तावद् गवि, प्राग् गोत्वयोगाद् गौरेवासाविति व्यर्थ गोत्वम् । अथागवि, अश्वाद्यपि गोत्वयोगाद् गौः प्राप्नोति । न चान्या गतिरस्ति । तस्मान्न गोत्वादनुवृत्तिप्रत्यय इति । न, विकल्पानभ्युपगमात् । न गवि गोत्वं नागवि, प्राग् गोत्वयोगान्नासौ गौ प्यगौरिति । किं कारणम् ? उभावेतौ विशेष्यप्रत्ययौ न विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवतः, न च प्राग् गोत्वयोगाद् वस्तु विद्यते न चाविद्यमानं गौरित्यगौरिति च शक्यं व्यपदेष्टम् , यदैव वस्तु तदैव गोत्वेनाभिसम्बध्यते इत्यनास्पदो विकल्पः । एतेन सत्तासम्बन्धस्य सदसद्विकल्पो व्याख्यातः, न सतः सत्तासम्बन्धो नासतः, यदैव तद् वस्तु तदैव सत्तया सम्बद्धमिति सदसदाश्रयो दोषोऽनुपपन्न इति । तस्मादुपपन्ना जातिः।" इति उच्योतकरविरचिते न्यायवार्तिके २।२।६५ । “अथास्तु सामान्यादावुपचरितं द्रव्यादौ मुख्यं 'सत् सत्' इति ज्ञानम् , सत्तासम्बन्धस्तु विकल्पते-किं सत्ता सताम् , अथासताम् ? इति । यदि सताम् , अथ सत्तासम्बन्धात् पूर्व सत्त्वं सत्तासम्बन्धेन विना चेति । सत्तासम्बन्धाभ्युपगमे तत्राप्ययं विकल्प इत्यनवस्था । विनेति चेत्, किं सत्तया? अथासता सत्तासम्बन्धात् सत्त्वमिति, अपारमार्थिकं तर्हि सत्त्वमुपाध्यपेक्षित्वात् , सदिति चासतां सत्तासम्बन्धेन सत्त्वं खरविषाणादीनामपि सत्त्वं स्यात् असत्त्वाविशेषात् । तथा सत्तायाश्चासत्त्वेन तद्योगान्न द्रव्यादिषु सत्त्वं स्यात् , खरूपेण च सत्त्वे द्रव्यादिषु तथा प्रसङ्गः, सत्तासम्बन्धेन चानवस्थेति । अतोऽर्थक्रियाकारित्वेन सत्त्वमिति शाक्या मन्यन्ते । वर्तमानकालसम्बन्धित्वेनेत्यपरे। तत्र यत्तदवोचाम किं सतां सत्तासम्बन्धात् सत्त्वमथासतामिति तदसत् , निष्पादसम्बन्धयोरेककालत्वात् । तथाहि-पदार्थानां स्वकारणसत्तासम्बन्ध एवोत्पत्तिः, न पूर्व सत्त्वम् , सत्कार्यवादप्रतिषेधात् । न चासतां खकारणसत्तासम्बन्धाभ्युपगमे खरविषाणादिषु तथाभावप्रसङ्गः, तदुत्पत्तिकारणाभावस्य तदभावेनैव निश्चयात् । नित्येषु पूर्वापरभावानुपपत्तेर्विकल्पानुपपत्तिः । न चापारमार्थिकं सत्त्वम् , सत्तासम्बन्धस्य परमार्थत्वात् । [पृ० १२६]....." .........अथ किमिदं कार्यत्वं नामेति? स्वकारणसत्तासम्बन्धः, तेन सता 'कार्यम्' इति व्यवहारात् । अभूत्वा भवनमित्येके, अत्रापि अभूत्वा पश्चाद् भवनं स्वकारणैः सत्तया च सम्बन्ध एवेति । [पृ० १२९]..........यच्चेदं 'किं गौ!त्वेनाभिसम्बभ्यते, अथागौः' इति चोद्यं तन्न प्रतिसमाधानाहं निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वादिति । खकारणैः सत्तादिभिश्च पिण्डस्याभिसम्बन्ध एवात्मलाभः, न पूर्व तस्य गोरूपता अगोरूपता वा तत्सत्त्वस्यैवासम्भवात् ।” [पृ० ६९० ] इति व्योमशिवाचार्यविरचिताया प्रशस्तपादभाष्यटीकायां व्योमक्त्याम् ॥ mwwwammmmmmwww. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वादिति वाक्ये दोषाः ] द्वादशारं नयचक्रम् कालः प्रागसतो वस्तुभावः निष्ठानं समाप्तिः । सम्बन्धः खकारणसत्तासमवायः । तयोरेककालत्वम् , खकारणसत्तासम्बन्ध एव निष्ठाकालः, कुतः? समवायस्यैकत्वात्, यस्मिन्नेव काले परिनिष्ठां गच्छत् कार्य कारणैः सम्बध्यते समवायसम्बन्धेन अयुतसिद्धिहेतुना तस्मिन्नेव काले सत्तादिभिरपि, तस्मादप्रविभागात् प्राक् कार्योत्पत्तेरसतः सदादिरनास्पदो विकल्पः। एतदपि न, अनुपपन्नविकल्पत्वात् । असम्बन्धात् अवस्तुत्वात् । कथं चावस्तुनः कारणैः सत्तया वा सम्बन्धः? यदि तस्य स्यात् खपुष्पस्यापि स्यात् । सामग्र्यव्यापारकालः, कारणानां समवाय्यसमवायिनां तन्तु-संयोग-दण्डादीनां सामय्या अव्यापारकाल: पटनिष्पत्तौ तुर्यादिव्यापारोपरमकाल इत्यर्थः । तमेव व्याचष्टे -प्रागसतो वस्तुभावः पटादिवस्तुजन्म निष्ठानं समाप्तिरित्यादिपर्यायैः । सम्बन्धः कः ? इत्यत आह - सम्बन्धः स्वकारणसत्तासमवायः, 10 स्वकारणेषु तन्तुषु कार्यस्य पटस्य सत्तया च समवायः । तयोर्निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वम् । तद्दर्शयति[स्वकारण] सत्तासम्बन्ध एव निष्ठाकालः, स्वकारणैः सत्तया च कार्यस्य यः सम्बन्धः स एव निष्ठाकाल इति प्रतिज्ञाय कुतः इति हेतुं परिपृच्छय हेतुमाह - समवायस्यैकत्वात् , समवायो हि सम्बन्धः, स चैको द्वयोरपि, नितिष्ठत एव सम्बन्धात् कारणसत्तादिभिः । तदर्शयति - यस्मिन्नेव काले परिनिष्ठां, गच्छत् कार्यमात्मानं लभमानं पटाख्यं कारणैस्तन्त्वादिभिः सम्बध्यते समवायसम्बन्धेन समवाया-३४८ १ ख्येन सम्बन्धेनेति अयुतसिद्धिहेतुना संयोगाद् युतसिद्धिहेतोरस्य विशेषं दर्शयति, तस्मिन्नेव काले सत्तादिभिरपि 'सम्बध्यते' इति वर्तते । य एव कारणैः कार्यस्य समवायः स एव सत्ताद्रव्यत्वादिभिरप्येकः समवायः कालस्याभिन्नत्वात् । तस्मादप्रविभागः, तद् यस्माद् नास्त्यत्र कालप्रविभागो निष्ठासम्बन्धयोः तस्मात् 'प्राक्' इत्येतदेव नोपपद्यते कार्योत्पत्तेरसतः सदादिरनास्पदो विकल्प इति, सता कार्येणासता सदसता वा सत्तायाः सम्बन्ध इत्यर्थाभावात् किमाश्रयोऽसौ विकल्पः स्यात् ? इति तांत्रीनपि 20 विकल्पाननाश्रित्य निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वविकल्पो निर्दोष आश्रीयतामिति । अत्रोच्यते-एतदपि न, अनुपपन्नविकल्पत्वात् । एषोऽपि विकल्पो नोपपद्यते, तदनुपपत्तेर्न दोषपरिहारः कृतः । कथमनुपपन्नोऽयं विकल्प इति चेत् , असम्बन्धात् , असम्बन्धोऽप्यवस्तुत्वात् , खपुष्पस्यावस्तुनः केनचित् सम्बन्धो नास्ति तथा प्रागुत्पत्तेरसतः कार्यस्य सम्बन्धो नास्ति । तस्य च कार्यस्य परिनिष्ठां गच्छतोऽसत्त्वादवस्तुत्वम् , कथं चावस्तुनः कारणैः सत्तया वा सम्बन्धः ? 'परिनिष्ठां गच्छत्' 25 इत्युत्पद्यमानमसदेवालब्धात्मकत्वात् तत् कार्यं तस्यामवस्थायां स्वकारणैः सत्तया वा न सम्बध्यते अवस्तुत्वात् खपुष्पवत् । यदि तस्य स्यात् खपुष्पस्यापि स्यात् , यदि कार्य परिनिष्ठां गच्छदनिष्पन्नमसत् कारणैः सत्तया च सम्बध्यते ततः खपुष्पमपि परिनिष्ठां गच्छत् स्वकारणैः सत्तया च सम्बध्येत, अवस्तु-३४८-२ त्वात् कार्यवत् । तस्मादयमपि विकल्पः 'असत् सत्तया सम्बध्यते' इत्येतद्विकल्पान्तःपात्येवेति । १ स चेको प्र० । ( स त्वेको ? ) ॥ २ तद्यस्माद् प्र. । ( तस्मात् ? )॥ ३ कार्ययोत्प य० ॥ ४°ल्पान् नाश्रित्य प्र० ॥ ५ इत्युद्यमान भा० । अत्र इत्युच्यमान इत्यपि पाठः स्यात् ॥ . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० न्यायागमानुसारिणीवृस्यलकृतम् [सप्तम उभयोभयारे सम्बन्धकाले तन्तुवद् वस्तुभावात्, भवदेव च सम्बध्यते परिनिष्ठानसम्बन्धयोरेककालत्वात् । तस्मात् सम्बन्धो वस्तुन एव कार्यस्य । पुनरपीदं तदवस्थमेव, लोके हि सम्बध्यमानानां सत्त्वं दृष्टम् , न हि शशविषाणस्य सम्बध्यमानता दृष्टा, न हि परिनिष्ठायाः सम्बन्धाद् वा सत्त्वम् , यदि स्यात् तदा हि शशविषाणमपि 5 निष्ठां गच्छत् सम्बध्येत, कार्यमपि वा न सम्बध्येत । समानत्वान्नेति चेत्, सति असति च सम्बन्धादर्शनतुल्यत्वात् , यथाऽसतः खपुष्पादेः समवायसम्बन्धेन द्विविधेन स्वकारणसत्तादिभिः सम्बध्यमानता न दृष्टा तद्वत् सतोऽपि सम्बध्यमानता न दृष्टा; नहि सम्बध्यमानमविशिष्टमिहाधिकृतम् । सम्बन्धकाले तन्तुवद् वस्तुभावात् । स्यान्मतम् - ननु सम्बन्धकालेऽस्ति कार्यमुत्पद्यमानमेव 10 वस्तु भवति, पटकारणं तन्तव इव । भवदेव च परिनिष्ठां गच्छत् सम्बध्यते परिनिष्ठानसम्बन्धयोरेककालत्वात् , 'परिनिष्ठितं सम्बद्धं च' इत्येकः कालः, कालप्रविभागाभावः । तस्मात् सम्बन्धो वस्तुन एव कार्यस्य नावस्तुन इत्युक्तमिति । अत्रोच्यते - पुनरपीदं तदवस्थमेव, निष्पद्यमानावस्थाया उत्पत्तेः पूर्वकालत्वात् प्रागुत्पत्तेश्च कार्यस्यासत्त्वादसतः सम्बध्यमानता खपुष्पादेरिव का ? नो चेत् , तस्यामवस्थायां कार्यं सदेव स्यात् स्वकारणैः 15 सत्तया च सम्बध्यमानत्वात् निष्पन्नकार्यवत् । लोके हि सम्बध्यमानानां सत्त्वं दृष्टमिति साधर्म्य. दृष्टान्तः । न हि शशविषाणस्य सम्बध्यमानता दृष्टेति वैधHदृष्टान्तः, तदा न सम्बध्यते कार्यम् असत्त्वात् , खपुष्यवदित्यनिष्टापादनानुमानं वा । न हि परिनिष्ठायाः सम्बन्धाद् वा सत्त्वमिति, न हि परिनिष्ठा सम्बन्धो वान्यत्र दृष्टावपि सत्त्वमसतः कुरुतः खपुष्पादेः, सत एव निष्ठासम्बन्धदर्शनात् । यदि निष्ठायाः सम्बन्धाद् वा सत्त्वं स्यात् तदा हि शशविषाणमपि निष्ठां गच्छत् सम्बध्येत 20 निष्ठितं च सम्बद्धं चेति भवेत् , असत्त्वात् , कार्यवत् । कार्यमपि वा परिनिष्ठां गच्छत् स्वकारणैः सत्तया च न सम्बध्येत, असत्त्वात् , खपुष्पवत् । तदेति च त्वदुक्तवद् निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वाभ्युपगमावस्थायां खैपुष्पाद्यकार्यस्यापि तद्वदेकलाले निष्ठासम्बन्धौ स्यातां स्वकारणैः सत्तया चेत्यनिष्टापादनमेतदितश्चेतश्च । समानत्वान्नेति चेत् , स्यान्मतम् – नैतदनिष्टापादनं घटते, कस्मात् ? सत्यसति च सम्बन्धा25 दर्शनतुल्यत्वात् । अस्य व्याख्या - यथाऽसतः इत्यादि यावदिहाधिकृतमिति, यथैव असतः खपुष्पादेः समवायसम्बन्धेन द्विविधेन स्वकारणसम्बन्धेन सत्तासम्बन्धेन च सम्बध्यमानता न दृष्टा, आदिग्रहणाद् द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिभिश्चेति दृष्टान्तः । तद्वदित्यादि दान्तिकं गतार्थम् , न हि सम्बध्यमानमविशिष्टं यत् किञ्चिदिहाधिकृतम्, स्वकारणस्वसत्तादिवचनादिति । १“न तु कार्यकारणयोः संयोगः, अयुतसिद्धत्वात् । युतसिद्धिरसम्बद्धस्य विद्यमानता, न पुनः कार्य कारणासम्बद्धं विद्यते, जातः सम्बद्धश्चेत्येकः कालः । तस्मान्न कार्यकारणे संयुक्ते ।” इति उझ्योतकरविरचिते न्यायवार्तिके २।१।३३ ॥ २ तथा हि प्र०॥ ३ खपुष्पादिकार्यस्यापि प्र०॥ ४ रणकः प्र०॥ ५ यथासतःप्र०॥ ६ स्वकारणसत्तादि य०॥ १०९-१ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वादिति वाक्ये दोषाः ] द्वादशारं नयचक्रम् अत्र ब्रूमः-सम्बन्ध एव स न भवति, सत्सु अभूतत्वात्, शशविषाणवत् । विद्यमानविषयेणैव तेन भवितव्यम् , सम्बन्धत्वात्, द्वयङ्गुलिसंयोगवत् । यदि त्वात्मात्मीययोः पटव्यञ्जनयोः सद्भावे कारणानि तन्तवः, सम्बध्येरंस्तेन पटेन । स तु नास्ति । त एव तन्तवः परिनिष्ठां गच्छन्तः सम्बध्यन्त इति कालाविभागः कार्यकारणसत्तासम्बन्धस्य । तदा ते यदि तन्तव इत्येव, पुरुषादिकारण-5 मात्रवादवदयं वादः स्यात् । सत्कार्यवादोऽपि न प्रतिपूर्यंत, तन्त्वाकुण्डलनवत् पूर्वोत्तरकालतुल्यत्वात् सम्बन्धानर्थक्यं परिनिष्ठाऽपरिनिष्ठाऽविशेषश्च । अथ पटोपि, अत्र ब्रूमः - सम्बन्ध एव स न भवति, सत्सु अभूतत्वात् , शशविषाणवदित्यनिष्टापादनसाधनेनासत्सतोः सम्बन्धस्यातुल्यता प्रदर्श्यते । स्वकारणैः स्वसत्तया च कार्यस्य सम्बन्धः प्रागपि सत एवेति । तदर्थसाधनं चेदम् - विद्यमानविषयेणैव तेन समवायसम्बन्धेन भवितव्यम् , सम्बन्धत्वात् , 10 यथा संयोगो द्वे अङ्गुली विद्यमाने एव विषयीकुरुते सम्बन्धशब्दवाच्यत्वात् तथा समवायोऽपि कार्यकारणे विद्यमाने एव विषयीकुरुते व्यादिपराधीनवृत्तित्वादिति । अतः शब्दार्थव्यवहारद्वारेणात्रैव दोषाभिधित्सयेदमाह - यदि त्वात्मेत्यादि । 'स्वकारणानि स्वसत्ता' इत्यत्र स्वशब्दस्य आत्मा-ऽऽत्मीय-धनपर्यायस्य इहात्मनि आत्मीये यथाविवक्षं वृत्तिः स्यात्, स च कार्योऽर्थः । तयोः पटव्यञ्जनयोः सद्भावे कुर्वन्ति कार्य पटमिति कारणानि तन्तवः सम्बध्येरंस्तेन पटेन, 15 स तु नास्ति पटः, तदभावे किंविषयं कारणानां कर्तृत्वमित्यर्थः । व्यञ्जनसद्भायकर्तृत्वनिर्विषयाः त एव ३४९-२ तन्तवः परिनिष्ठां गच्छन्तः सम्बध्यन्ते खपुष्पेणेव कार्यकारणनिरपेक्षाः परिनिष्ठिताः सम्बद्धाश्चेति कालाविभागः कार्यकारणसत्तासम्बन्धस्येत्येतदापन्नम् । ततः को दोष इति चेत्, उक्तोऽसता सम्बन्धाभावः । पुनरपीत्थमुच्यते - तदा ते यदि तन्तव इत्येव कार्याभावात् कारणत्वव्यापारविमुखाः केवलं तन्तव इति 'पुरुषादिकारणमात्रमेवेदम्' इतिवादवदयं वादः स्यात् , कुतोऽसत्कार्यवादः ? सत्कार्यवादोऽपि 20 साङ्ख्या भिमत: 'प्रकृत्यन्तीना विकाराः' इति सोऽपि न प्रतिपूर्येत, स्तिमितसरःसलिलवद् गगनवद्वा निर्व्यापारकारणमात्रवादाभ्युपगमात् न प्रतिपूर्यतेति, मा बोचं 'न प्रतिपूर्यत एव' इति निष्ठुरमिति सानुनयमुच्यते । किमिव ? तन्त्वाकुण्डलनवत् , यथा तन्तूनामाकुण्डलीकृतानां पुञ्जितानामित्यर्थः, कुविन्दतनन-पायन-प्रसारण-वयनादि क्रियानिरपेक्षाणां कारणत्वं नास्ति, तत्रात्यन्तं पटकार्यादर्शनात् , न हि कुण्डलितेषु पटो दृश्यते, तथा कारणमात्रमसम्पूर्णसत्कार्यमेतत् , पूर्वोत्तरकालतुल्यत्वादिति, एवं निर्व्यापार-25 पूर्वोत्तरकालतुल्यतन्तुमात्रतायां पटाख्यस्य कार्यस्य कश्चिद् गन्धोऽपि नास्ति, अतस्तेन सम्बन्धानर्थक्यं कारणानां तन्तूनां खपुष्पेणेव । किश्चान्यत् , परिनिष्ठापरिनिष्ठाविशेषश्च, दोषोपचयः, खपुष्पवत् कार्य १°विवहार य० ॥ २ “खो ज्ञातावात्मनि खं त्रिष्वात्मीये खोऽस्त्रियां धने ।" इत्यमरकोशे ॥ ३°मात्प्रतिपूर्यतेति प्र० ॥ ४ पंजिताना प्र० ॥५°पानयन प्र० । दृश्यतां पृ० २२६ टि० ४ ॥ ६ पूर्वोतुल्यतन्तु प्र० ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे ततः स्वकारणसत्तासम्बन्धद्वयतन्तुपटद्वयसानाथ्यं नानेकान्तानाश्रयणे । असत्सम्बन्धपरिहारार्थं च 'निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात्' इत्येतदेव वाक्यं सभाष्यं प्रशस्तोऽन्यथा व्याचष्टे-सम्बन्धश्च सम्बन्धश्च सम्बन्धी, निष्ठायाः wwwwwwww www ३५०-१ स्यात्यन्तमसत्त्वात् कारणानां चात्यन्तं पूर्वोत्तरकालतुल्यत्वादाकाशवत् किं कथं परिनिष्ठितं तिष्ठति न 5 परिनितिष्ठति ? सर्वं हि सर्वदा सर्वथा परिनिष्ठितमपरिनिष्ठितं, वा स्यादित्यविशेषः । एवमसम्पूर्णसत्कार्यकारणमात्रवादित्वं सम्बन्धानर्थक्यं निष्ठानिष्ठाविशेषश्चेति दोषाः स्वसिद्धान्तोपरोधिनस्ते । ___अथ पैटोऽपि । अथ मा भूवनेते दोषा इति 'पटोऽपि केनचिद् न्यायेन तन्तुष्वस्ति' इत्यभ्युपगम्यते सोऽप्यभ्युपगमविरोधायैकान्तवादिनस्तेऽनेकान्तवादाभ्युपगमो जायत इत्यत आह - ततः स्वकारण सत्तासम्बन्धद्वयतन्तुपटद्वयसानायं नॉनेकान्तानाश्रयणे, पटस्य कार्यस्य स्वकारणैस्तन्तुभिः 10 स्वसत्तया चेति द्वौ सम्बन्धौ तावेव कार्य कारणानि च द्वावविति तदेव तच्चतुष्टयम् , अव्यक्तसन् पटः तन्त्ववस्थायां तन्तुभिः स्वकारणैः स्वसत्तया च सम्बद्धः कुविन्दादिकारकव्यापारोत्तरकालं व्यक्तसन् भवति पटात्मना परिणतेरिति द्रव्यपर्यायात्मकस्याद्वादपरमेश्वराश्रयप्रभावलभ्यमेतद् वचनसामर्थ्य नान्यथेति । तस्मादेषोऽपि विकल्पोऽसत्सम्बन्धदोषदुष्ट इति । असत्सम्बन्धपरिहारार्थ चेत्यादि । “निष्ठासम्बन्धयोरेक[काल]त्वात्' इत्येतदेव वाक्यं 18 सभाष्यमसत्सम्बन्धदोषपरिजिहीर्षया विद्वस्यन् प्रशस्तोऽन्यथा व्याचष्टे- सम्बन्धश्च सम्बन्धश्च सम्बन्धौ, निष्ठायाः सम्बन्धी निष्ठासम्बन्धौ, न निष्ठा च सम्बन्धश्चेति । तयोनिष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात् । १'परिनितिष्ठति न परिनितिष्ठति' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ २१॥ एतचिह्नान्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ ३ पटोऽथ मा य० ॥ ४ नानेकान्तनाथ प्र.। ( नानेकान्तनाथानाश्रयणे ?)॥ ५स्वकार्यकारण य० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ५०८ पं०३॥७ इदं तु ध्येयम्-वाक्यमिदं भाष्यं चेदं केन कदा च विरचितमिति न सम्यग् विज्ञायते । कणादविरचितवैशेषिकसूत्राणां सङ्क्षिप्तव्याख्यानरूपो वाक्यनामकः कश्चिद् ग्रन्थ आसीत् , तदुपरि केनचिद् विरचितं भाष्यमासीत् , तदुपरि च प्रशस्तमतिविरचिता काचित् टीका आसीदिति तु पूर्वापरग्रन्थपर्यालोचनया प्रतीयते, दृश्यतां पृ० ५१७ पं०९ त्रयमप्येतदिदानीं न क्वचिदप्युपलभ्यते। यत्तु प्रशस्तपादभाष्यमिदानीमुपलभ्यते तत्र नैवेयं चर्चा दृश्यते, अतःप्रशस्तपादभाष्यादवश्यं भिन्नमेवैतद् भाष्यम् । किञ्चान्यत् , प्रशस्तपादभाष्यं न साक्षाद् वैशेषिकसूत्राणां व्याख्यानभूतं किन्तु स्वतन्त्र एव निबन्धः । तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका-प्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुदचन्द्रादिप्राचीनग्रन्थेषु च तस्य पदार्थप्रवेशकनाम्नैव उल्लेखः, वादिदेवसूरिविरचितस्याद्वादरत्नाकरे [पृ. ९२.] तु प्रशस्तकरभाष्यनाम्नापि निर्देशः, अन्यग्रन्थेषु केवलं भाष्यनाम्नापि निर्देशः, सम्प्रति तु प्रशस्तपादभाष्यनाम्नैव प्राचुर्येण व्यवहारः। एवं प्रशस्तपादभाष्यकर्तुः 'प्रशस्तः, प्रशस्तकरः, प्रशस्तदेवः, प्रशस्तकरदेवः, प्रशस्तपादः' इत्यादीनि बहूनि नामानि उपलभ्यन्ते। 'प्रशस्तमतिः' इत्यपि तस्यैव नामान्तरं स्यादिति प्रतिभाति । इदं त्ववधेयम् - तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायां सन्मतितर्कवृत्तौ प्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुदचन्द्रादिषु च प्रशस्तमतेर्बहनि वचांसि उद्धृतानि दृश्यन्ते, किन्तु तत्र तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायां विशेषपरीक्षायां समवायपरीक्षायां च यत् प्रशस्तमतेर्मतमुद्धतं तदेव केवलमुपलभ्यते यथाक्षरं प्रशस्तपादभाष्ये, अपराणि तु प्रशस्तमतेर्वचांसि नैवोपलभ्यन्ते प्रशस्तपादभाष्ये। अत एवं सम्भाव्यते-एकस्तावद् वैशेषिकसूत्राणां वाक्यतद्भाष्ययोश्च व्याख्यानभूतो ग्रन्थः प्रशस्तमतिना व्यरचि, अपरस्तु पैशेषिकमतवर्णनपरः स्वतन्त्र एव निबन्धस्तेन विरचितो यः सम्प्रति प्रशस्तपादभाष्यनाम्ना सर्वलोकप्रसिद्ध इति ध्येयम् ॥ ८°ष्यमत्स य० । ष्यसत्स भा० ॥ ९ विद्वस्यत्प्रशस्तो प्र० ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिकल्पितव्याख्यानिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् सम्बन्धी निष्ठासम्बन्धी, तयोरेककालत्वात् । निष्ठितं निष्ठा, कारकपरिस्पन्दाद् वस्तुभावमापन्नमव्यपदेश्याधारं कार्य निष्टितं 'निष्ठा' इत्युच्यते, तस्य खकारणैः सत्तया च युगपत् सम्बन्धौ भवतः । भाष्यमपि 'परिनिष्ठां गच्छद् गतम्' इत्येतमर्थ दर्शयति, वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा [पा० ३।३।१३१ ] इति । यथा कारकान्तरमुत्पद्यमानं दृष्टं कारकव्यापाराद् वस्तुभावमापन्नमव्यपदेश्याधारं निर्वृत्तं सत् स्वकारणैः । सत्तया च सम्बध्यते तथा पटाख्यम् । तदपि न, समवायिकारणत्वविरोधात् ववचनाभ्युपगमविरोधौ । किञ्च, निष्ठितस्य कार्यस्य कारणैः सत्तया च सम्बन्धो युतसिद्धसम्बन्धः, कार्यस्य कारणेभ्योऽन्यत्र परिनिष्ठितत्वात् । निष्ठितं निष्ठा, निष्ठ गच्छद् गतमित्येकोऽर्थः । कादीनां कारकाणां कुविन्द-तुरि-वेमादीनां परिस्पन्दाद् 10 वस्तुभावं वस्तुभवनमापन्नं निष्पन्नमव्यपदेश्याधारम् , अव्यपदेश्य आधारोऽस्य तन्त्वादिः समवायि-... :३५०-२ हेतुः, ‘इह तन्तुषु पटः' इतीहप्रत्ययाभिधानकारणस्य समवायसम्बन्धस्य निमित्तभूतं पटाख्यं कार्य निष्ठित 'निष्ठा' इत्युच्यते । तस्य निष्ठितस्य स्वकारणैः सत्तया च युगपत् सम्बन्धौ भवतः । भाष्यमपीति अस्य वाक्यस्य व्याख्याग्रन्थोऽप्ययं परिनिष्ठां गच्छद् गतमित्येतमर्थ दर्शयति । केन पुनर्लक्षणेन गतं सद् गच्छदित्युच्यते ? ब्रूमः - वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा [पा० ३।३।१३.] इति । 15 किमिव ? इत्यतो निदर्शनमाह - यथा कारकान्तरमुत्पद्यमानं दृष्टमिति, कारकादन्यत् कारकं कारकान्तरमुत्पद्यमानमुत्पन्नमित्यर्थः । कस्मात् ? 'दृष्टम्' इत्यक्षिगोचरापन्नार्थनिर्देशात् , इतरथा 'दृष्टं' न स्यात्, उत्पद्यमानस्यानुत्पन्नत्वेऽक्षिगोचरत्वानुपपत्तेः । तत् पुनः कतमत् ? कारकव्यापाराद् देवदत्त-स्थाली. काष्ठादीनां व्यापाराद् वस्तु[भावम्] आत्मलाभमापन्नं पूर्ववदव्यपदेश्याधारं निर्वृत्तं सदोदनाद्या इयं स्वकारणैस्तण्डुलादिभिः सत्तया च सम्बध्यते तथा पटाख्यमिति । 20 __ अत्र ब्रूमः - तदपि न, समवायिकारणत्वविरोधात् स्ववचनविरोधोऽभ्युपगमविरोधश्च दोषावित्थं ब्रुवतः । क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यमुक्तम् , समवायिनो द्रव्यान्तरस्य गुणकर्मणोश्वारम्भकत्वात् । यदि पुनर्वस्तुभावं गतं कार्यं द्रव्यादित्रयं कारणैः सत्तया चाभिसम्बध्यते ततोऽनारम्भकाणि अकारणानि च तन्त्वादिकारणद्रव्याणि स्युः, ततश्च स्ववचनमभ्युपगमश्च निवर्तेते 'समवायिनां कार्याणां ,व्यम्' इति । किश्चेत्यादि यावत् परिनिष्ठितत्वादिति । एतावपि स्ववचनाभ्युपगमविरोधौ, 25 यस्मात् कार्यकारणगुणगुणिव्यक्त्याकृतीनामयुतसिद्धः समवायः सम्बन्ध उक्तोऽभ्युपगतश्चै, इदानीं निष्ठितस्य ३५११ कार्यस्य कारणैः सत्तया च सम्बन्धोऽभ्युपगतः, स च युतसिद्धसम्बन्धः, कार्यस्य कारणेभ्योऽन्यत्र परिनिष्ठितत्वाद् घटाकाशवत् । १ इत्यक्षगों प्र० ॥ २ गुणसमवायि प्र० । दृश्यतां पृ० ४४० टि० ५॥ ३ निवर्तते य० ॥ ४ 'द्रव्यं समवायि कारणम्' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ५ नं अयु भा० । न अयु य० ॥ ६ 'श्चेदिदानी प्र०॥ नय०६५ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ सप्तम उभयोभयारे येतूच्यते - समवायिकारणत्व निवृत्तिरिति चेत्, न, अन्यत्रा समवायात् । यदि तस्य ... तस्माददोषः [ वै०सू० प्रशस्तमति० ] इति, सोऽप्यपरिहारः, इच्छामात्रत्वात् वोक्तोपपत्तिविरुद्धार्थत्वात् तदसम्बद्धत्वात् अन्यत्र परिनिष्ठितत्वात् तन्तुष्विव घटस्य तत्राप्रवृत्तत्वात् तत्रानारम्भात् तदसम्बद्धोत्पत्तित्वात् । ५१४ 5 कार्यस्य चोत्पत्तिवत् खपुष्पमुत्पद्यताम्, कारणैरसम्बद्धत्वात् । अकारणत्वादिति चेत्, पटाद्यपि मोत्पादि अकारणत्वात् खपुष्पवत्, तद्वत्पद्यताम् । यथा तत्वादीनि तेष्वसतः सतोऽप्यकारणानि कार्यस्य तथा सर्वत्र कारणं यत्तूयत इत्यादि यावत् तस्माददोष इति द्रव्यसमवायिकारणत्वनिवृत्तिदोषपरिहारो योऽभिहितः समवायिकारणत्वनिवृत्तिरिति चेदित्याशङ्कय-न, अन्यत्रासमवायादिति । तद्वयाख्यानं यदि 10 तस्येत्यादि सुलिखितत्वाद् न वित्रियते । सोऽप्यपरिहार इच्छामात्रत्वात्, कार्यस्य निष्ठितस्य कारणैः सम्बन्धोक्तिरन्यत्रसमवायाख्यायिनी 'न, अन्यत्रासमवायात्' इत्युत्तरवाक्यं विरुणद्धि, तच्चेतरविरोधि, ततोऽनुपपत्तेर्विरुद्धार्थत्वादिच्छामात्रं ते वचो न परिहार इत्यत आह - स्वोक्तोपपत्तिविरुद्धार्थत्वात्, विरुद्धार्थत्वमसम्बद्धत्वात् तैः कारणैः कार्यस्य, तदसम्बद्धत्वमन्यत्र परिनिष्ठितत्वात् किमिव ? तन्तुष्विव घटस्य, यथा तन्तुषु घटस्यानिष्ठितत्वादन्यत्र कपालेषु निष्ठितत्वात् तन्तुभिरसम्बद्धत्वमेवं द्रव्या15 दिकार्यस्य । तदसिद्धमिति चेत्, न तत्राप्रवृत्तत्वात् 'तन्तुष्विव घटस्य' इति वर्तते । तत्राप्रवृत्तत्वमैन्यत्र प्रवृत्तत्वं च तत्रानारम्भात्, तँत्र चानारम्भः तदसम्बद्धोत्पत्तित्वात्, तैः कारणैरसम्बद्धस्य पटस्योत्लत्तेरिष्टत्वात् तवैव आरम्भ - प्रवृत्ति - निष्ठास्तन्तुषु पटस्य न सन्ति घंटस्येवाकाशस्येव खपुष्पस्येव वा । सामान्येनैक एव वा हेतुः तदसम्बद्धोत्पत्तित्वादिति । अनिष्टापादनं चात्र - कार्यस्य चेत्यादि । खपुष्पमुत्पद्यताम्, कारणैरसम्बद्धत्वात् त्वदभिमत20 कार्यवत् । अकारणत्वादिति चेत्, निष्कारणं च खपुष्पम्, पटादि सकारणम्, तस्माद् दृष्टान्तदाष्टन्ति३५१-२ कयोर्वैषम्यादयुक्तमिदमनिष्टापादनमिति चेत्, उच्यते - पटाद्यपीत्यादि, पटाद्यपि कार्यं मोत्यादि, अकारणत्वात्, खपुष्पवत् । अकारणत्वं चास्य कारणासम्बद्धत्वादाकाशवत् । तद्बोत्पद्यतामिति, कारणासम्बद्धस्य कार्यस्योत्पत्तिवत् खपुष्पं वोत्पद्यतामकारणत्वादित्युक्तमेव । यथा तत्वादीनीति, तन्त्वादीनां कारणत्वं कार्येण सम्बन्धादृते नास्ति, तस्मात् तेष्वसतः १. 'यत्तूच्यते - न, अन्यत्रासमवायात्' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ दोषः, न तु तथाभ्युपगम्यते, तस्माददोषः' इत्याशयोऽत्र भाति ॥ पाठोऽत्र स्यात् ॥ ४ चेत्याशङ्क्य प्र० ॥ ५ मन्येव प्र० ७ पत्तैरिष्ट भा० । 'त्पत्तौरदृष्ट य० ॥ ८ तत्रैव भा०वि० ॥ भा० रं० ही ० ॥ ॥ २ 'यदि तस्य अन्यत्र समवायोऽभ्युपगम्येत स्यादयं ३ 'कार्यस्य चोत्पत्तिवत् खपुष्पं कस्मान्नोत्पद्यते' इत्यपि ६ तद्वचनारब्धा तदसम्बद्ध प्र० ॥ ९ घटस्यैवाकाशस्यैव प्र० ॥ १० स्यैव Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् यथायोगं स्वस्यैव कार्यस्य नासतो नान्यकार्यस्य वा असम्बन्धात् । तस्मादस्ति सम्बन्धः प्रागपि । योऽयं सम्बन्धसमवायशब्दार्थः सोऽपि एवमेव घटते । एकीभावेन बन्धः सम्बन्धः, अनेकसर्वात्मकत्वात् । एकीभावेन गतिः अयः अवगत्या समवायः कारणसत्कार्यैकत्वलक्षणः । ५१५ 5 तदापत्तिभयात् त्वयेदममार्गप्रमर्दनं क्रियते यदिदमव्यपदेश्याधारत्वम् । व्यपदेश्याधारं द्रव्यादिकार्यं समवेतं च स्वकारणैः प्रागपि, परिनिष्ठितत्वात्, विभुपरिमण्डलवियदादिवत् । सतोऽप्यकारणानि कार्यस्य अत्यन्तासतः खपुष्पस्येव घटस्येव वा कारणान्तरसाध्यस्येत्युक्तमुपनयति - सर्वत्र कारणमित्यादि, 'करोति' इति कारणं कर्तृसाधनम्, खपुष्पादि घटादि वा तन्तुभिर्न क्रियते ततस्तत्राकार - 10 णानि, पटस्तु क्रियते तस्मात् तस्य कारणानि, यो यो योगो यथायोगं स्वस्यैव कार्यस्य तन्तवः पटस्य कपालनि घटस्य, नासतो नान्यकार्यस्य वा, कस्मात् ? असम्बन्धात्, कार्यकारणभावश्च सम्बद्धत्वे सति भवति, तस्माद्[स्ति] सम्बन्धः प्रागपि कार्योत्पत्तेस्तत्कारणैः सम्बन्धोऽस्ति । कथं तत् कार्यं तेंदू नितिष्ठति कारणैरसम्बद्धम् ? तस्मात् ‘कार्यमव्यक्तसद् व्यक्तसद् भवति सम्बद्धं च सदा स्वकारणैः' इत्यनुमीयते । सम्बन्धसमवायशब्दार्थावप्येवमेव घटेते, नान्यथेत्यतो योऽयमित्याद्याह । 'सम्' इत्येकार्थीभाव- 15 वाच्ययमुपसर्गः, एकीभावेन बन्धः सम्बन्धः 'अनेकं कारणाख्यं वस्तु सदेकमेव कार्याख्यं भवति परस्परेण बध्यते' तमर्थमाह, अनेकसर्वात्मकत्वात् अनेकस्य तन्त्वादेः प्रतिस्वमात्मानमपरित्यज्य सर्वैकसङ्घातभव - ३५२-१ नेन पटादिकार्याख्येन परिणतेः । एकीभावेन गतिः गमनपरिणतिरयः, अव अपगमने, अवगत्या अपगमनेन प्राच्य संस्थानादिधर्माणां त्यागेन द्रव्यपर्यायाभ्यां तन्तुत्वापरित्यागेन पटत्वपरिणामः सम्बन्धः समवाय इत्यक्षरार्थानुसारेणोक्त्वा वस्तुनि स्फुटीकर्तुमाह- कारणसत्कार्यैकत्वलक्षणः, कारणेषु विप्र - 20 कीर्णेषु सत्कार्यमेकत्वमापन्नेषु पटीभवद् व्यक्ति यातीत्येष परमार्थः । तदापत्तिभयादित्यादि । 'एष द्रव्यपर्यायात्मकस्याद्वादपरमार्थवादं मा प्रपत्स्येऽहम्' इत्यकस्माद्भयात स्वपक्षरागसमुत्थात् परपक्षद्वेषाञ्च त्वयेदममार्गप्रमर्दनमस्थाने शक्तिक्षयायैवं क्रियते । कतमदमार्गप्रमर्दनमिति चेत्, उच्यते - यदिदमव्यपदेश्याधारत्वं प्राग् व्याख्यातम् । तत् पुनः किमर्थमारभ्यते ? इहेति यतः कार्यकारणयोः [ स ] समवायः [वै० सू० ७ २ २९ ] इति 'इह' बुद्ध्यभिधानाभ्यां कार्यकारण- 25 गताभ्यां समवायोऽनुमीयते सोऽत्र न सम्भवति कार्यस्यासत्त्वात् तस्मादव्यपदेश्याधारकार्यसम्बन्धकल्पना क्रियते । अयमुत्पथगमनक्लेशो निरर्थकच, सोऽपि च " मिध्याभिधान एव । अव्यपदेश्याधारं द्रव्यादिकार्यमसमवेतं वा कारणैः प्रागुत्पत्तेरिति मा मंस्थाः, मन्यतां तु तत्रैवास्तीति । तथा च मन्तव्यम् - व्यपदेश्याधारं द्रव्यादिकार्यं समवेतं च स्वकारणैः "प्रागपि निर्वृत्तेस्त्वन्मतेनैव परिनिष्ठितत्वाद् ३५२-२ २ सर्वत्व पा० रं० | सर्वच्च डे० । सर्वस्व वि० ॥ ३ यो योगो प्र० ॥ ५ ( यद् ? ) ॥ ६ सम्बन्धः य० ॥ ७ तिरूपा दित्यादि प्र० ॥ ८ एव भा० । ( एवं ? ) ॥ ९ क्षय प्र० || १० दृश्यतां पृ० ४४५ टि० १४ ॥ ११ 'मिथ्याभिमान एव' इति १२ प्रागपिति वि० विना । अत्र प्रागपीति इत्यपि पाठः स्यात् ॥ १ष्पमेव प्र० । ४ °लादिनि य० ॥ सम्यग् भाति ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे योऽपि च परिहारोऽभिहितः- न, अस्यासंयोगात्, न हि कारणसम्बन्धिभिः कार्यस्य संयोगोऽस्ति [ वै० सू० प्रशस्तमति० ], सोऽपि न परिहारः, उक्तवदसंयोगासिद्धत्वात् । तत्त्वोपनिलयनात् सदाद्यभिधानार्थ कारणसमवेतस्य वस्तुन उत्तरकालं सत्तासम्बन्ध इति बहूनां मतम्। 'वस्तूत्पत्तिकाले एव' इति तु वाक्यकाराभिप्रायोऽनुसृतो 5 वस्तुभावमापन्नत्वात् , विभुपरिमण्डलवियदादिवत् , यथा विभुत्वपरिमाणान्याकाशकालदिगात्मद्रव्याणि परिनिष्ठितत्वाद् विभुत्वगुणसमवेतानि व्यपदेश्याधाराणि च तथा द्रव्यादिकार्यम् , परिमण्डलपरिमाणाः परमाणवः परिमण्डलत्वेन समवेता व्यपदेश्याधाराश्च द्वयणुकादिकार्ये, विभुत्वपरिमण्डलत्वगुणयोर्वाश्रयभूतयोर्वाकाशपरमाण्वोद्वर्थणुकादिव्यपदेश्याधारत्वं समवेतत्वं च सिद्धं तथा द्रव्यादिकार्यस्येति । एवं तावत् परिनिष्ठितसम्बन्धौ ब्रुवतो द्रव्यस्य समवायिकारणत्वनिवृत्तिप्रसङ्गपरिहारोऽसमर्थः । 10 योऽपि चेत्यादि । अस्मदुक्तस्य कार्यकारणयुतसिद्धिदोषस्य परिहारो योऽभिहितः- न, अस्यासंयोगादिति । तद् व्याचष्टे - न हि कारणसम्बन्धिभिः कार्यस्य संयोगोऽस्ति, यथा द्वयोरङ्गुल्योराकाशे युज्यमानयोः संयोगस्य द्वयमुलाकाशसंयोगकारणस्य सम्बन्धिन्योर्युतसिद्धयोः संयोगो न तथा कारणसम्बन्धिभिः कार्यस्य द्रव्यादेः कैश्चित् संयोगोऽस्ति यतो युतसिद्धिदोष आपद्येत पृथक्सिद्धयोरिव । तस्मादसं योगात् संयोगवैधात् पृथक्सिद्धथभाव इति । 15 अत्रोच्यते - सोऽपि न परिहारः, उक्तवदसंयोगासिद्धत्वात् । यदि तत्र परिनिष्ठितं प्रवृत्तमारब्धं कथं तेनासम्बद्धम् ? इत्यादिना प्रपश्चेन 'सम्बद्धमेव' इत्युक्तं सम्बन्धसमवायशब्दार्थव्याख्यानेन च । तस्मादुक्तवदसंयोगस्यासिद्धत्वादपरिहारः । यदि तत्रोत्पन्नताद्यसिद्धिः सम्बन्धासिद्धिश्च स्यात् स्यादसंयोगः, ततः परिहारश्च युतसिद्धिदोषस्य स्यात् । एवं तावद् व्याख्यान्तरमप्ययुक्तम् ।। इदानीं सूत्रकारमतं समर्थयतां वाक्य-भाष्य-टीकाकाराणां मतानि समाहृत्य प्रधानानुगामित्वाच्छे___20 षाणां सूत्रकारमतमेवेत्थं दूषयितुमाह-तत्त्वोपनिलयनात् सदाद्यभिधानार्थं कारणसमवेतस्य वस्तुन उत्तर३५३-१ १ प्रशस्तमतेरभिप्राय इति भावः ॥ २'यणुकादि(दे ?)ऱ्याप प्र० ॥ ३°तः तास्यासं भा० । तस्तास्यासं° य० ॥ ४ "अन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजश्च संयोगः [वै० सू० ७।२।११ ], अन्यतरकर्मजः संयोगः श्येनस्योपसर्पणकर्मणा स्थाणुना । मल्लयोरुपसर्पणादुभयजः । संयोगजः कारणाकारणयोः संयोगात् कार्याकार्यगतः, यथा अङ्गुल्याकाशसंयोगाभ्यां व्यङ्गुलाकाशसंयोगः । एतेन विभागो व्याख्यातः [वै० सू० ७२।१२], अन्यतरकर्मजो विभागः श्येनस्यापसर्पणात् । उभयकर्मजो मेषयोरपसर्पणात् । विभागजस्तु अङ्गुल्योरन्योन्यविभागाद् विनष्टमात्रे व्यङ्गुलेऽनुल्याकाशविभागः, कारणाकारणयोर्वा हस्ताकाशयोविभागाच्छरीराकाशविभागः । संयोगविभागयोः संयोगविभागाभावोऽणुत्वमहत्त्वाभ्यां व्याख्यातः [वै० सू० ॥२।१३ ], युतसिद्ध्यभावान्न तौ स्त इत्यर्थः । कर्मभिः कमाणि गुणैर्गुणाः [ वै० सू० ॥२।१४ ], युतसिद्ध्यभावान्न संयोगविभागवन्त इत्यर्थः । युतसिद्ध्यभावात् कार्यकारणयोः संयोगविभागौ न विद्यते [ वै० सू० ७।२।१५], कार्यकारणयोः परस्परेण संयोगविभागौ न विद्येते, यथा घटकपालयोः, युतसिद्ध्यभावात् । युतसिद्धिद्वयोरन्यतरस्य वा पृथग्गतिमत्त्वम्, सा च नित्ययोः, युताश्रयसमवेतत्वं वाऽनित्ययोः त्वगिन्द्रियपार्थिवशरीरयोश्च । न च घटकपालयोः युताश्रयसमवायः, घटस्य तेष्वेव समवेतत्वात् ।” इति चन्द्रानन्दविरचितायो वैशेषिकसूत्रवृत्तौ ? पृ. २७ B- २८ A ॥ ५न न परिभा० । 'सोऽपि न' इत्येतावन्मात्रस्य मूलप्रतीकत्वे 'सोऽपि न, न परिहारः' इति भा० प्रतिपाठोऽपि सङ्गच्छेत ॥ ६ दृश्यतां प्र. ५१४ पं०३॥ ७दृश्यतां पृ० ५१५५० ३॥ ८ वि. विना त्वाद्येषाणां प्र.। त्वाहोषाणां वि०॥ ९ द्वष भा० । द्वेष य० ॥ wwwmom Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यभाष्यटीकाकाराणां मतस्य खण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ५१७ भाष्यकारैः। सिद्धस्य वस्तुनः स्वकारणैः स्वसत्तया च सम्बन्ध इति प्राशस्तमतोऽभिप्रायः । तेषां त्रयाणामप्यसत्यता, परस्परविरुद्धार्थत्वात् , कुमारब्रह्मचारिपितृत्ववत् । इदमेव चोदाहरणमन्यत्र । एवं वक्तरि वा शास्त्रकारे सर्वेषामनुवर्तित्वात् स एवानाप्तोऽसत्यवादी वेत्येतदपि स्यात् । सदादिविकल्पानुपपत्तिश्च तदवस्थैव उक्तवत् । यत् पुनः 'द्रव्यादीनां खत एवाभिधानप्रत्ययविषयत्वं सत्त्वात् सत्तादिवत् ।। यथा सत्तादेः सदभिधानप्रत्ययौ खत एव, न सत्तायोगात्, एवं द्रव्यादीनामपि सदभिधानप्रत्ययौ स्वत एव, न सत्तायोगात्' इत्युक्ते उच्यते-नैतत् , अतादात्म्यात्। द्रव्यादीनामसदात्मत्वात् सत्तानिमित्तं सदभिधानादि दण्डनिमित्तादण्डदण्डित्व कालं सत्तासम्बन्ध इति बहूनां मतम् । वस्तूत्पत्तिकाल एवेति तु वाक्यकाराभिप्रायोऽनुसृतो भाष्यकारैः । सिद्धस्य वस्तुनः स्वकारणैः स्वसत्तया च सम्बन्ध इति प्राशस्तमतोऽभिप्रायः । अस्मदभिप्रायः - तेषां 10 त्रयाणामप्यसत्यतेति। कस्मात् ? परस्परविरुद्धार्थत्वात्। दर्शिता विरुद्धार्थता । किमिव ? कुमारब्रह्मचारिपितृत्ववत् , यदि पिता कथं कुमारब्रह्मचारी ? अथ कुमारब्रह्मचारी कथं पितेति ? इदमेव चोदाहरणमन्यत्रेति, स्वोक्तोपपत्त्यभ्युपगमविरुद्धार्थत्वादिष्वप्येतदेवोदाहरणं वाच्यमिति । एवं वक्तरि वेत्यादि । सर्वेषां वाक्य-भाष्य-टीकाकाराणां शास्त्रकारमतानुवर्तित्वात् स एवानाप्तोऽसत्यवादी 'वेत्येतदपि स्यादिति लोकानुवृत्त्या साशङ्कमिवोच्यते, मा भूत् तीर्थकरगौरवाकृष्टमतिभिः 'अनाप्त एव' इति निष्ठुरवचनकुपितैः 15 सह तद्भक्तैः कलह इति । किश्चान्यत् , सदादिविकल्पानुपपत्तिश्च तदवस्थैव उक्तवत् , 'निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात्' इति ब्रुवतापि किं कार्यस्य सत्तया सम्बन्धः सतोऽसतः सदसतो वा ? इत्युपालम्भान्न मोचित एवात्मा । तद्यथा - कार्यस्य किं सत्तया सम्बन्धो निष्ठितस्यानिष्ठितस्य निष्ठितानिष्ठितस्य ? इति समानप्रेचर्चत्वात ३५३-२ न शब्दान्तरमात्रोच्चारणाद् दोषपरिहारः। 20 यत् पुनद्रव्यादीनामित्यादि । द्रव्यादीनां स्वत एवाभिधानप्रत्ययविषयत्वं सत्त्वात् , स्वतः सत्त्वात् , स्वभावसत्त्वादित्यर्थः । किमिव ? सत्तादिवदित्यादि सव्याख्यानमनिष्टापादनसाधनं वैशेषिकं प्रति गतार्थं यावद् न सत्तायोगादित्युक्ते उच्यते परिहारः किल काणादैः - नैतत् , अतादात्म्यात् , स आत्मा यस्य तत् तदात्म सत्तादि, तद्भावस्तादात्म्यम् , तद्वैधादतादात्म्याद् द्रव्यादीनाम् , तद्वयाख्या यावदभिधानादीति गतार्थम् । दण्डनिमित्तादण्डदण्डित्ववदिति दृष्टान्तः, यथा 'दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी' 25 इति दण्डित्वमदण्डद ण्डिनो दण्डनिमित्तमेवं द्रव्यादेरसदात्मनः सत्तानिमित्तं सदभिधानादीति । १ सत्ता सत्तासम्बन्धः प्र० ॥ २ नुसतो भा०॥ ३ प्रशस्त य० ॥ ४ दर्शित विरु° प्र० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ५१४ पं० २॥ ६चेत्ये वि. ही० ॥ ७ दृश्यतां पृ० ५०८ पं० ३॥ ८ सत्ताया प्र०॥ ९प्रवर्चय० । प्रवर्त° भा० ॥ १० वदि सव्याख्यान प्र०॥ ११त्वसंदंडादडिनो भा० । "त्वसदंडाइंडादंडिनो य०॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे वदिति । अत्र वयं सम्प्रधारयामः-कथमिदं तादात्म्यम् ? किं सतो भावात् उत सत्करत्वात् ? तद् यदि तावत् खतो भवनं ततः सर्वेणापि सता भूयते खत एवेत्युक्तम् । अथ सत्करत्वात्, तत् प्राक प्रत्युक्तम् । यथा च सत्तायां स्वत एव सदभिधानप्रत्ययौ तदात्मत्वात् एवं द्रव्यादौ द्रव्यत्वादौ च तदात्मत्वं सदभिधान5 प्रत्ययकारणं सर्वत्र सति । __ दण्डेऽपि च तादात्म्यादेव दण्डाभिधानप्रत्ययसिद्धौ खत एव दण्डिनि दण्ड्यभिधानप्रत्ययौ तादात्म्येन विना न भवतः । यथा च...........। अथोच्येत-दण्डोऽपि दण्डव्यतिरिक्ताद् दण्डत्वाद् दण्डाभिधानप्रत्ययभाक् । अनुदाहरणं तर्हि दण्डी, दण्डाद् दण्ड्य भावात् । दण्डत्वोपपादितदण्डाद् दण्डीति 10 अत्र वयं सम्प्रधारयामस्त्वया सह - कथमिदं तादात्म्यम् ? किं सतो भावात् , यत् सद् भवति तत् तस्य सतस्तादात्म्यमात्मलाभः स्वरूपानुभवनम् ? उत सत्करत्वम् ? इति । तद् यदि तावत् सतो भवनं ततः सर्वेणापि सता भूयते सत्तादिना द्रव्यादिना वा स्वत एवेत्युक्तम् । अथ सत्करत्वात् तादात्म्यात् सद् भवतीति, तत् प्राक् प्रत्युक्तम् । स्वतः सिद्धस्य द्रव्यादेः सत्ता सत्करी न भवति वैयर्थ्यात् , असतोऽसत्त्वात् खपुष्पवत् , सदसतः सम्भवाभावादित्युक्तम् । 15 यथा च सत्तायामित्यादि भावनार्थम् । द्रव्यादेव्यत्वादेश्च स्वत एव सदभिधानप्रत्ययौ तदात्म त्वात् सत्तावदिति । सतश्च द्रव्यादेस्तदात्मत्वं सदात्मत्वं द्रव्यादेः, एवं द्रव्यत्वगुणत्वसत्तादिनित्यैकसर्वत्रगेषु ३५४१ सामान्य-सामान्यविशेषशून्येष्वपि सदभिधानप्रत्ययौ । सर्वत्र सतीति सर्वव्यापितां न्यायस्यास्य दर्शयति । किश्चान्यत् , दण्डेऽपि चेत्यादि । योऽपि दण्डित्ववदिति दृष्टान्तः सोऽपि तादात्म्यादेव दण्डस्य भवनात्मत्वादेव दण्डाभिधानप्रत्ययसिद्धौ सत्यां स्वत एव दण्डिनि देवदत्त 'दण्डी' इत्यभिधानं प्रत्ययं च 20 कुर्वति तावभिधानप्रत्ययौ 'तादात्म्यात्' इत्यनेनार्थेन विना न भवतः, अतोऽस्मदिष्टमर्थं साधयति, इतरथा दण्डिकुण्डल्यविशेषः स्यात् । साधनं चात्र - दण्डोऽपि स्वरूपाभिधानप्रत्ययकारी स्वत एव, तादात्म्यात्, सत्तावत् , तथा दण्ड्यपि तत एव तद्वत् । यथा चेत्यादि, एवं च सति दण्डत्वसामान्यविशेषनिरपेक्षः खत एव भवति दण्डः, तादात्म्यात् , सत्तावदिति सिद्धम् । अथोच्यतेत्यादि । वैशेषिको दण्डमपि दण्डत्वाद् दण्डव्यतिरिक्ताद् मन्यते दण्डाभिधानप्रत्यय25 भाजम् । आचार्यों ब्रवीति - अनुदाहरणं तर्हि दण्डी, दण्डादू दण्ड्यभावात् । दण्डस्य स्वतोऽसिद्धत्वाद दण्डी न सिध्यति, परतः सत्त्वसिद्धयर्थं चोदाह्रियते दण्डी, दण्डासिद्धेः कुतस्तत्सिद्धिः ? इति । १'यथा च स्वत एव भवति दण्डः तादात्म्यात् सत्तावत् एवं दण्ड्यपि' इत्याशयः स्यात् । 'यथा च सत्ता स्वत एव भवति तादात्म्यात् एवं दण्डोऽपि' इत्यपि वाशयः स्यात् ॥ २°सत्तादिन्नित्येक भा० ॥ ३'सोऽपि: अस्मदिष्टमर्थ साधयति' इत्यन्वयः॥ ४ कुर्वति प्र० । 'कुर्वति' इति सप्तम्यन्तं पदम् ॥ ५ (तथाचेत्यादि ? ? ? ) ॥ ६ दण्डासिद्धे प्र०॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिकमतखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् चेत्, इतरेतराश्रयमिदम् , दण्डत्वतत्त्वाद् दण्डसिद्धिः, दण्डविशेषणसाधितदण्डिसिद्धेः पुनर्दण्डत्वतत्त्वसिद्धिः। दण्डीति च कथमिति निर्धार्यम् । यदि दण्डादेव, खतः सिद्धात् सिद्ध इत्युक्तम् । अथ दण्डत्वात् , दण्डत्वी भवतु, मा भूद्दण्डी, आत्मान्तरसङ्कान्तिश्चैवम् । वयं तु ब्रूमः-खत एव भवति, तदभावेऽसामान्यात्मकत्वमेव सर्वस्य स्यात् । यथा । दण्डे एवं सत्यपि.......... । यदप्युक्तम् 'अतदात्मत्वाद् द्रव्यादीनां सदभिधानप्रत्ययौ सत्तायोगात्, न दण्डत्वोपपादितदण्डाद् दण्डीति चेत् , दण्डत्वसामान्यविशेषाद् दण्डः सिध्यति, दण्डाद् दण्डीति, तत उदाहरणसिद्धिर्विशेषणादेव 'विशेष्यसिद्धः, एवं चेन्मन्यसे, इदमापतितम् - दण्डत्वतत्त्वाद् दण्डः सिध्यति, दण्डत्वतत्त्वं पुनर्दण्डविशेषणसाधितदण्डित्वसिद्धः सिध्यति, तदिदमितरेतराश्रयं जायते, इतरे- 10 तराश्रयाणि च न प्रकल्पन्ते, तद्यथा नौ वि बद्धा नेतरत्राणायेति तत्प्रतिपादनार्थो ग्रन्थः - इतरेतरेत्यादिर्गतार्थो यावत् तत्त्वसिद्धिरिति । _ 'दण्डी' इति च देवदत्तः स दण्डत्वाद् दण्डाद् वा कथम् ? इति निर्धार्यम् । दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी देवदत्तः । स यदि दण्डादेव, स्वतः सिद्धात् सिद्ध इत्युक्तम् । अथ दण्डत्वात् 'दण्डत्वमस्यास्ति' इति दण्डत्वी भवतु, मा भूद् दण्डी, युक्तं तावद् दण्डाद् दण्डी, न तु दण्डत्वात्, स्वत एव च 15 भवेद्दण्डी । किश्चान्यत् , आत्मान्तरसङ्क्रान्तिश्चैवम् , दण्डत्वादात्मान्तरं दण्डो दण्डी च, दण्डाद्र दण्डत्वदण्डिनौ, दण्डिनो दण्डदण्डत्वे, दण्डः स्वत एवाभवेन् दण्डत्वाद् भवंस्तदात्मा भवति, एवं दण्ड्यपीति । वयं तु ब्रूमः – यत् तद् दण्डेन भूयते तस्यैव दण्डत्वात् यदण्डो दण्डो भवति तदेव दण्डो भवति आत्मानं लभते भावान्तरविविक्तं यत् तेन भूयते तदेव भवनं दण्डत्वं न तद्वयतिरिक्ताद्, न दण्डत्वतत्त्वात् । एवं देवदत्तस्य दण्डिनोऽप्यात्मानुभवनं तत्त्वम् । तदभावे[s]सामान्यात्मकत्वमेव सर्वस्य स्यात् , 20 यदि सा दण्डदण्ड्यादिव्यक्तिः स्वत एव न भवति सत्ता-द्रव्यत्व-दण्डत्व-दण्डित्वादितत्त्वाद् भवति स्वत एव अभवन्ती नास्त्येव सा खपुष्पवत् । ततश्चासामान्यमेव सत्तादि स्यात् , तच्चानिष्टम् , स्वत एव भवतः समानस्याभावात् सामान्यमेव सामान्यं न स्यात् । तस्मात् स्वत एव दण्डो भवति स्वत एव च सदभिधानप्रत्ययौ, न सत्तायोगात् । यथा दण्डे एवं सत्यपीत्यादि गतार्थ साधनम् । एवं तावत् तादाम्यात् सत्तादिषु सदभिधानादीत्ययुक्तम् । यदप्युक्तम् - अतदात्मत्वादित्यादि असत्तात्मकत्वाद् द्रव्यगुणकर्मणां सदभिधानप्रत्ययौ सत्ता. योगात् , न स्वत इति । तदपि न, अतदात्मकत्वादित्यादिरनैकान्तिकत्वात् अनैकान्तिकत्वप्रतिपादनार्थो ग्रन्थो यावद् द्रव्यत्वादिवदिति । तस्य भावना-द्रव्यत्वादीनामतादात्म्ये द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वघटत्व १ विशेष्टसिद्धेः भा०॥ २त्यादिग° भा०॥ ३त्वाद्दण्डत्वा कथम् भा० । त्वाद्दण्डत्वात्कथम् य० ॥ ४ भवदण्डी प्र० । ( भवन् दण्डी ?).॥ ५ वदण्डत्वाद् भा० । वद्दण्डत्वाद् य० ॥ ६ तदेवदत्तो भवति प्र० । अत्र न देवदत्तो भवति इत्यपि पाठो भावान्तरवैविक्यसूचनार्थ स्यात् । तथाच 'यद्दण्डो दण्डो भवति न देवदत्तो भवति' इत्यपि विवक्षितं स्यात् ॥ ७ १श्यतां पृ० ५१७ पं० ७॥ ८ वादिरनै भा०। (°त्वादेरनै ?)॥ 25 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे खतः' इति, तदपि न, अतदात्मकत्वात् 'द्रव्यत्वादिवत्। द्रव्यत्वादीनामतादात्म्ये खतः सदभिधानप्रत्ययौ, एकैकत्वात्, आत्मवत्, द्रव्यत्वादिषु खतो भवन्त्याः सत्तायाः सदभिधानं दृष्टमेवं द्रव्यादीनामपि स्वत एव ।। सत्तासम्बन्धाभावेऽपि असङ्ख्ययोरपि गुणत्वकर्मत्वयोरेकाभिधानप्रत्ययवत 5 सदभिधानप्रत्ययौ द्रव्यत्वादिष्वौपचारिको स्यातामिति चेत्, द्रव्यादिष्वप्यौपचारिको स्यातां तुल्यत्वात्। मनुष्यसिंहत्वादिवत् तथा अञ्जसा अनुपपत्तेर्नेति चेत्, ततस्ते खपक्षे एव दोषविधानम् । यदि तु....... । एतत् पुनः स एव प्रष्टव्यः। यत् पुनरिदमुच्यते-सत्तायां सिद्ध इति चेत्, "आत्मानमात्मना न युक्तम 10 रूपत्वोत्क्षेपणत्वादीनां सामान्यविशेषाणामसत्तात्मकत्वे स्वतः सदभिधानप्रत्ययौ, न सत्तातः । कस्मात् ? ३५५.१ एकैकत्वात् । एकमेव द्रव्यत्वं सर्वद्रव्येषु, द्रव्यत्वान्तरानिष्टेः तत्र सत्तायोगो नेष्यते, अनुप्रवृत्त्यभावात् । तथापि च 'सत्' इत्यभिधीयते प्रतीयते च, एवं गुणत्वादीन्यपि । तस्मादेकैकत्वात् स्वतः सत्त्वमात्मवत सत्तावदित्यर्थः, स च दृष्टान्तः स्वतो द्रव्यत्वादिभवने । तस्य वर्णना - द्रव्यत्वादिषु भिन्नेषु स्वतो भवन्त्याः सत्तायाः एकस्याः सदभिधानं दृष्टमेवं द्रव्यादीनामपि स्वत एवेति साधनेनोपपा15 दितोऽर्थः। आह - सत्तासम्बन्धेत्यादि । 'गुणत्वमेकं कर्मत्वमेकम्' इत्येकाभिधानप्रत्ययौ असङ्ख्ययोरपि गुणत्वकर्मत्वयोरौपचारिको दृष्टौ तथा सदभिधानप्रत्ययौ द्रव्यत्वादिष्वौपचारिकौ स्यातामिति को दोषः ? अत्रोच्यते-द्रव्यादिष्वपीत्यादि तुल्यत्वापादनमौपचारिकत्वेन गतार्थम् ।। आह-मनुष्यसिंहत्वादिवत् तथाञ्जसाऽनुपपत्तेर्नेति चेत्, यथा शौर्यक्रौर्यादिधर्माः सिंह 20 मुख्याः सिद्धाः सन्तो मनुष्ये शक्या उपचरितुं नासिद्धास्तथा द्रव्यादिषूपचरितौ स्यातां यद्यन्यत्राञ्जसा सिद्धौ सदभिधानप्रत्ययौ, न तु तौ कचित् सिद्धौ, भाक्तव्यवहारश्च आञ्जसादृते नास्ति, तस्माद् द्रव्यादिष्वेव मुख्याविति एवं चेन्मन्यसे ततस्ते स्वपक्ष एव दोषविधानम् । तद् भावयति- यदि त्वित्यादि, सत्तादिष्वप्याञ्जसयोरसिद्धत्वादिति भावार्थः । एतत् पुनः स एव प्रष्टव्य इति, स्वभावसत्तापेक्षा सदभिधानप्रत्ययाविच्छतां किं नः सत्तासम्बन्धकल्पनया ? तव पुनः सत्तासम्बन्धादिच्छतो दुष्प्रतिपादं 25 भावसत्ताव्यतिरिक्ततादात्म्यवादिनः, तस्मात् त्वमेवासि प्रष्टव्य इति । ३५५-२ यत् पुनरिदमुच्यते-सत्तायां सिद्ध इति चेदिति सभाष्यं गतार्थम् । इयं पुनराशङ्का के प्रति युक्ता ? द्रव्यादिव्यतिरिक्तां सत्तां स्वत एव सिद्धां तदात्मिकामिच्छन्तम् , स पुनर्नान्यो वैशेषिकात् , तस्मा १'यथा दण्डे एवं सत्यपि स्वत एव सदभिधानप्रत्ययौ तादात्म्यात्, न सत्तायोगात्' इत्याशयो भाति ॥ २ 'अतदात्मकत्वात्' इत्यनैकान्तिकः, अतदात्मकत्वेऽपि स्वतः सदभिधानप्रत्ययदर्शनात् द्रव्यत्वादिवत्' इत्याशयो भाति ॥ ३ सतो प्र०॥ ४न्यवांजसा भा० । न्यवाजसा य० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ सत्तानिराकरणम् ]. द्वादशारं नयचक्रम् भियोक्तुम्.....तद्योगनिमित्तम् , यंदा वा..."तद्योगनिमित्तं ननूत्तरमप्येतदयुक्तम् । असत्तात्मनां द्रव्यादीनां मुख्यौ सदभिधानप्रत्ययौ कथं युक्तौ मनोरथवत् ?.........। नैवे तु......... दण्डित्वदण्डत्ववत् खत एव सतोः तत्सम्बद्धत्वात् सत्वतः सत्त्वात् सत्त्ववत् संदेव स्वम् । तस्मात् सर्वस्य सतोऽतादात्म्याभावात् सदात्मैव सर्वमिति भाक्तत्वनिवृत्त्याद्यभावः सत्तादिवच्च स्वतः सत्त्वम् । यतश्चैवं तस्मात सतो भावः सत्तेति व्युत्पत्तिर्द्रव्याद्यव्यतिरिक्तसत्तार्थव दात्मानमात्मना न युक्तमभियोक्तुमित्युबैट्टनाग्रन्थो गतार्थो यावत् तद्योगनिमित्तमिति । यदा वेत्यादेरारभ्य यावत् तद्योगनिमित्तमित्येवंप्रकार उद्घट्टनाग्रन्थः पूर्वमास्ते । ननूत्तरमप्येतदयुक्तं 'न, द्रव्यादिष्वासा सिद्धिः' इत्यादि वक्ष्यमाणमसम्बद्धम् , अतदात्मनिमित्तस्य सत्प्रत्ययस्यानुपपत्तेः असत्तात्मनां 10 द्रव्यादीनां मुख्यौ सदभिधानप्रत्ययौ कथं युक्तौ ? इति एतदाचार्यवचनमन्तरे पतितं परस्याकौशलख्यापनार्थम् । मनोरथवदिति वैशेषिकस्य मनोरथ एव द्रव्यादिव्यतिरिक्ता सत्तेति यदि भवेत् , स्यात् । तन्मतौ तु पूर्वोत्तरपक्षौ व्याख्यातावेव । 'द्रव्यादिभाक्तत्वनिवृत्तिः, 'स्वतः सत्त्वं सत्तादिवच्च' इत्येतस्य वचनस्य व्याघातः' इत्येतद्दोषद्वयदर्शनादिति वैशेषिकेणोक्त आचार्य आह -नैव वित्यादि, दण्डित्वं दण्डत्वं च यथा स्वत एव सतोः तत्सम्बद्धत्वात् सत्तासम्बद्धत्वादित्यर्थः सत्वतः सत्त्वात 15 सत्त्ववत् सदेव स्वम् , सत्वतः सतः सत्त्वात् आत्मत्वात् स्वतः सत्त्वादित्यर्थः । एवं तावद् न्यायो यदुत सदेव सत्, सत्त्वमेव सत् , न सद्वयतिरिक्ता सत्ता, न सत्तातोऽन्यत् सत् । तस्मात् सर्वस्य सतो नास्त्यतादात्म्यमसदात्मत्वम् , तदभावात् सदात्मैव सर्वमिति भाक्तत्वनिवृत्त्याद्यभावः, नार्य दोष इत्यर्थः, सत्तादिवच्च स्वतः सत्त्वमिति, आदिग्रहणाद् द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्ववत् । यतश्चैवमित्यादि, यस्मात् स्वत एव सत्ता द्रव्यादीनां युक्ता तस्मात् सतो भावः सत्तेति या 20 शब्दव्युत्पत्तिर्भेदपृष्ठयापादनार्था सा द्रव्याद्यव्यतिरिक्तसत्ताथैव ज्ञायते सतां भावः सत्तेति । किं कार-३५६-१ १(यदा च?)॥२ 'नैव तु 'द्रव्यादिभाक्तत्वनिवृत्तिः, स्वतः सत्त्वं सत्त्वादिवच्चेत्येतस्य वचनस्य व्याघातः' इत्येतद्दोषद्वयम्' इत्याशयो भाति ॥ ३°द्यहदानाग्रन्थो प्र० । (°द्युद्दानग्रन्थो ?) ॥ ४ यदा वेत्यादि यदा वेत्यादिरारभ्य प्र. । ( यदा चेत्यादेरारभ्य ? )॥ ५ उद्धहना य० । उद्धहदाना भा० ॥ ६ ('न, द्रव्यादिष्वजसा सिद्धेः' ?)॥ ७°लस्याख्याप य०॥ ८इतस्य प्र० । 'इत्यस्य वचनस्य' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ९यथा यथा प्र० । (यथा तथा ?)॥ १० “यथा दण्डसम्बन्धात् प्रागू दण्डी जात्यादिभिर्लक्षणैः खतः सिद्धत्वात् सन् , दण्डोऽपि प्राग् दण्डिसम्बन्धाद् वृत्तद्राधिमादिना लक्षणेन स्वतः सिद्धत्वात् सन् , अतो दण्डयोगाद् दण्डीत्येतन्याय्यम्, तथा नीलद्रव्ययोगाच्छाट्यादि नीलमित्येतन्याय्यम् , तथोष्णगुणयोगान्न प्रागग्नेरन्यद् विशेषलक्षणं सद्भावस्य प्रख्यापकमस्तीति असन्नग्निः, उष्णस्यापि प्रागग्नियोगादसत्त्वं निराश्रयगुणाभावात् । न चासतोः सम्बन्धो दृष्ट इष्टो वा।" इति अकलङ्कविरचिते तत्त्वार्थराजवार्तिके ११ ॥ ११ (सदेव सर्वम् ? ) ॥ १२ स्वत्वादि प्र० ॥ १३ एव भा० । ( एष ?)॥ १४ °षष्ठयपादानार्थी य० । षष्ठयपवादानार्था भा० । ( °षष्ट्युपादानार्था ? ) ॥ नय०६६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे कर्तरि षष्ठीवृत्तेः। यत् तत् सद्भिर्भूयते....."सदित्यभिधानप्रत्ययकारणं सर्वत्र । अत इदमपि अप्रत्ययोद्धाहम् - ........ स्वतः सत्त्वमित्येतदयुक्तम् । अत्र हि 'सत्तादिवत्' इति त्वदनुवृत्त्योच्यते । न मम सत्ता द्रव्यादिव्यतिरिक्ता काचिदस्ति । ततो द्रव्यादीनामकारणत्वादिदोषप्रसङ्गात् कुतोऽनुपपन्नता ममात्र निपतिता? मम तु द्रव्यादीनामेकत्वान्नानुपपन्नम्। कर्तृणाऽकर्तृणा वा कारकेण यो भवति स एव भावः सामान्यम् , स एव विशेषोऽन्यभवननिरपेक्षः कर्ता भवद्भवनात्, तदेव द्रव्यं गुणः, स एव क्रिया, स एव विशेषो भावान्तराद विशिष्यमाणत्वात्, वक्ष्यमाणवच स एव समवायः। एवमेव सम्बन्धाभावःप्रत्याख्यातः सहासत्त्वेन । नासंयोगः, नासमवायः। ताभ्यां 10 णम् ? कर्तरि षष्ठीवृत्तेः । तद्व्याख्यानम् - यत् तत् सद्भिरित्यादि गतार्थं यावत् सदित्यभिधानप्रत्ययकारणं सर्वत्रेति । अत इदमपीत्यादि पूर्वोत्तरपक्षौ सव्याख्यानौ गतार्थों वैशेषिकस्यैव यावदुपनयः, तत्र यदुक्तं 'स्वतः सत्त्वम्' इति एतदयुक्तमिति, आचार्यो यथैतदप्रत्ययोढ़ाहं भवति तथाह - अत्र हि सत्तादिवदित्यादि । सर्वमिदं त्वदनुवृत्त्या त्वां प्रतिपादयितुमुच्यते, न मम सत्ता द्रव्यादिव्यतिरिक्ता काचिदस्ति 15 'कर्तरि षष्ठी' इत्युक्तत्वात् । 'द्रव्यादीनामकारणत्वादिदोषाः प्रसक्ताः, ततोऽनुपपन्नम्' इत्येषा तत्प्रसङ्गात् कुतोऽनुपपन्नता ममात्र निपतिता अभ्यागता, त्वन्मतेन तु सत्तामभ्युपगम्य मया सत्तादिवद् द्रव्यादीनामनिष्टापादने कृते ? मम तु द्रव्यगुणकर्मणां सामान्यविशेषसमवायानां चैक[त्वा] नानुपपन्नमिति । तद् व्याचष्टे - कर्तृणा[s]कर्तृणा वेत्यादि । 'भवतीति भावः' इति कर्तरि, 'भवनं भावः' इति भावे, इत्यादिकारकविवक्षायां यो भवति स एव भावः सामान्यम् , देशकालादिभेदेऽपि भवनतुल्यत्वात् । 20 स एव विशेषोऽन्यभवननिरपेक्षः कर्ता, उक्तवत् 'कर्तरि षष्ठी' इति भवतो भँवनाद् भवदेव भवति, तदेव द्रव्यं भव्यं भवद्भवनादेव, कलनं गुणनं गुणः युगपदयुगपत्पर्यायत्वेन भवनात्, स एव भावः क्रिया भवनं भाव इति, स एव विशेषो भावान्तराद् विशिष्यमाणत्वात् अन्यनिरपेक्षत्वात् सदसदात्मकत्वात् सत्त्वेनासत्त्वेन च तस्यैव विशिष्यमाणत्वात् , वक्ष्यमाणवच्चेति कारणाकारणाचै क्यमनन्तरं वक्ष्यते, स एव समवायः । एवमेवेति भवतः कर्तृत्वेन तस्यैव कारणत्वम् , तदेकीभावगत्या कार्यत्वापत्तेः ३५६-२ प्रतिपादितेन विधिना सम्बन्धाभावः प्रत्याख्यातः समवायव्याख्यानात् , सहासत्त्वेनेति अनेनैवासत्त्व १'यत् तत् सद्भिर्भूयते यद् भवन्ति सन्तः सा सत्ता सदित्यभिधानप्रत्ययकारणं सर्वत्र' इत्याशयो भाति ॥ २ 'द्रव्यादीनां स्वतः सत्त्वं सत्तादिवत् न तु सत्तायोगादिति चेत्, न, सत्तादिवत् खतः सत्त्वे द्रव्यादीनामकारणनित्यासम्बन्धाजातिमत्त्वप्रसङ्गात् । तस्माद्रव्यादीनां खतः सत्त्वमित्येतदयुक्तम् ।' इत्याशयो भाति ॥ ३“न द्रव्यादन्ये गुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः सन्ति, द्रव्यस्यैवोभयपरिणामकारणापेक्षस्य गुणः कर्म सामान्यं विशेषः समवाय इत्येवमादिपर्यायान्तरेण परिणामः ।" इति तत्त्वार्थराजवार्तिके ११॥ ४ऽत्र पा० रं० वि०। त्र भा० डे० ॥ ५ द्रव्यादीनामकारणत्वादिदोषप्रसङ्गादित्यर्थः ॥ ६ चैकन्नानुप० प्र० । (चैक्यान्नानुप° ? चैक्यं नानुप°)॥७भावनाद प्र० ॥८(भवद्भवनात्, तदेव कलनं ?)॥ ९गुणनं भा० २० प्रतिषु नास्ति । 25 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यादीनां स्वतः सत्त्वस्य प्रतिपादनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ५२३ च सम्बन्धवत्त्वाद् नित्यत्वासत्त्वे न स्तः । अजातिमन्ति त्विति प्रतिपाद्यत एव । अथवा अकारणनित्यासम्बन्धाजातीनि द्रव्यादीनि स्वतः सत्त्वात्, सामान्यादिवत् । कारणादि च सामान्यादि, स्वतः सत्त्वात् द्रव्यादिवत् । तदात्मत्वात् स्वतः सत् सत्तादिवत् । उभयं द्रव्यादि सामान्यादि च वस्तुत्वात् । यदपि च चोदितं येकः समवायो द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिविशेषणैः सह मपि प्रत्याख्यातम्, सदसदात्मकत्वात् । कर्तृत्वात् संयुक्तमेव कार्येणेति नांसंयोगः, कार्यकारणप्रतिपादनात् नासमवायोऽस्ति, ताभ्यां चेति संयोगसमवायाभ्यां सम्बन्धवत्त्वाद् नित्यत्वासत्त्वे न स्तः । अजातिमन्ति त्विति प्रतिपाद्यत एव, व्यव्यतिरिक्तायाः प्रतिषिषित्सितत्वात् । एवं तावत् कारणादित्वं द्रव्यादेः । अथवेत्यादि । अकारणनित्या सम्बन्धाजातीनि द्रव्यादीनि स्वतः सत्त्वादुक्तात् सामान्यादिवत् । 10 कारणादि चेति, कारणानित्यसम्बन्धजातिमत्त्वानि सामान्यविशेषसमवायानाम् स्वतः सत्त्वात् द्रव्यादिवत् स्वसत्सत्त्वादित्यर्थः । तदात्मत्वात्, यद् यदात्म तत् स्वतः सत् सत्तादिवदित्युक्तम् । उभयमिति कारणाकारणनित्यानित्य सम्बन्धासम्बन्धजातिमदजातिमत्त्वानि द्रव्यादीनां सामान्यादीनां च सर्वस्य वस्तुत्वाद् द्वयात्मकत्वं भवत्येवेतरेतररूपैकभवनाविशेषात् । यदपि चेत्यादि । निष्ठायाः सम्बन्धस्य च सत्तयैककालत्वप्रतिपादनार्थं 'समवायस्यैकत्वादेकः 15 १ दृश्यतां पृ० ५२४ टि० ३ पं० १८ ॥ २ " सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपि न संयोगवदनित्यत्वम्, भाववदकारणत्वात् । यथा प्रमाणतः कारणानुपलब्धेर्नित्यो भाव इत्युक्तं तथा समवायोऽपीति । न ह्यस्य किञ्चित् कारणं प्रमाणत उपलभ्यत इति । कया पुनर्वृत्त्या द्रव्यादिषु समवायो वर्तते ? न संयोगः सम्भवति, तस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् । नापि समवायः, तस्यैकत्वात् । न चान्या वृत्तिरस्तीति । न, तादात्म्यात् । यथा द्रव्यगुणकर्मणां सदात्मकस्य भावस्य नान्यः सत्तायोगोऽस्ति एवमविभागिनो वृत्त्यात्मकस्य समवायिनो नान्या वृत्तिरस्ति । तस्मात् स्वात्मवृत्तिः ।" इति प्रशस्तपादभाष्ये समवाय निरूपणे संयोगसमवायाभ्यामसम्बन्धवतो नित्यस्य सत्तारहितस्य च भावस्य उदाहरणत्वेनोल्लेखः । अत्र 'भावः' सत्ता इत्यर्थः । अस्य प्रशस्तपादभाष्यस्य न्यायकन्दली व्याख्या - " किं पुनरयमनित्य आहोस्विन्नित्य इति संशये सत्याह - सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपीति । यथा सम्बन्धिनोरनित्यत्वे संयोगस्यानित्यत्वं न तथा समवायिनोरनित्यत्वे समवायस्यानित्यत्वं भाववदकारणत्वादिति । एतद् विवृणोति - यथेत्यादिना । युक्तो हि सम्बन्धिविनाशे संयोगस्य विनाशः, तदुत्पादे सम्बन्धिनोः समवायिकारणत्वात् । समवाय तु सम्बन्धिनौ न कारणम्, सम्बन्धिमात्रत्वात् । यथा च तौ न कारणं तथोपपादितम् । तस्मादेतस्य सम्बन्धिविनाशेऽप्यविनाशः, सत्तावदाश्रयान्तरेऽपि प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् । किमसम्बद्ध एव समवायः सम्बन्धिनौ सम्बन्धयति सम्बद्धो वा ? न तावदसम्बद्धस्य सम्बन्धकत्वं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात् । सम्बन्धश्चास्य न संयोगरूपः सम्भवति, तस्य द्रव्याश्रितत्वात् । नापि समवायः, एकत्वात् । न च संयोग समवायाभ्यां वृत्त्यन्तरमस्ति । तत् कथमस्य वृत्तिरित्याह- कया पुनर्वृत्त्या द्रव्यादिषु समवायो वर्तत इति । वृत्त्यभावान्न वर्तत इत्यभिप्रायः परस्य । समाधत्ते - नेति । 'वृत्त्यभावान्न वर्तते' इत्येतद् न, तादात्म्याद् वृत्त्यात्मकत्वात् स्वत एवायं वृत्तिरिति । कृतको हि संयोगः, तस्य वृत्त्यात्मकस्यापि वृत्त्यन्तरमस्ति, कारणसमवायस्य कार्यलक्षणत्वात् । समवायस्य वृत्त्यन्तरं नास्ति, तस्मादस्य स्वात्मना स्वरूपेणैव वृत्तिर्न वृत्त्यन्तरेणेत्यर्थः । " इति न्याय कन्दल्याम् ॥ ३ संबंधवत्वाद् भा० । संबंधत्वाद् य० ॥ ४ द्रव्यादिव्यतिरिक्ताया जातेरिति भावः ॥ ५ द्रव्यत्वादेः य० ॥ ६ मत्वादि सामान्य भा० ॥ ७ स्वत्वाद्रव्य प्र० ॥ " Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहपत्रिकासम्बन्धी पूर्वपदादी ग्रन्थकता ५२४ म्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [ सप्तम उभयोभयारे सम्बन्धैकत्वात् पदार्थसङ्करप्रसङ्गः [ ] इति, स तदवस्थ एव, बहूनां सम्बन्धिनामेकसम्बन्धभावात्, वागादिगवाद्यभिधानवत् व्यवस्थानाभावात् सर्वस्य सर्वाकालः' इत्युक्त्वा पुनरत्र यो दोषश्वोदितः 'सङ्करप्रसङ्गः' इति स तदवस्थ एव दुष्परिहारः। बहूनां , सम्बन्धिनामेकसम्बन्धभावादिति हेतुः, बहवो हि सम्बन्धिन एकसम्बधीभूताः, ततस्तेषां सङ्करः, ३४७-१ वागादिगवाद्यभिधानवत् , यथा 'गौः' इत्युक्त वाग्-दिग्-भू-रश्म्यादिभिरेकस्य गोशब्दस्य वागादिशब्दपर्यायत्वात् तत्तदात्मासौ तत्तदर्थप्रतिपादनात् तत्तत्सम्बन्धात् 'अमुष्यैवेदं सम्बन्धि' इति निर्धार्य व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् सर्वेषां दशानामिष्टः कारणकार्याधारः समवायोऽपि तथाधेयो द्रव्यत्वेनेव गुणत्वकर्मत्वा १ "गौरुदके दृशि स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ वज्रे भूमाविषौ गिरि ॥” इति अनेकार्थसङ्ग्रहे हेमचन्द्राचार्यविरचिते, श्लो०६॥ २ दृश्यतां पृ० ७८९ पं. ७ ॥ ३ सत्तानिराकरणप्रस्तावेऽपि प्रसङ्गागतः समवाय आचायश्रीमल्लवादिना इतः परं महता प्रचर्चेन निराकृतः । पूर्वपक्षिरूपेण प्रशस्तमतिमुद्दिश्य चायं विवादो ग्रन्थकृता विहित इति पूर्वापरसन्दर्भपर्यालोचनया प्रतिभाति । प्रशस्तमते मग्रहणपूर्वकमेतादृशः समवायसम्बन्धी पूर्वपक्षः तत्त्वसङ्ग्रहपञिकायामपि समवायपरीक्षावसरे उद्धृतः कमलशीलेन । एतावास्तु विशेषः - तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायां प्रशस्तमते मग्राहमुद्धृतः समवायसम्बन्धी ग्रन्थः प्रशस्तपादभाष्ये समवायनिरूपणे सम्पूर्णतया उपलभ्यते, एतच्च निम्नलिखितप्रशस्तपादभाष्यतत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकापाठावलोकनेन व्यक्तीभविष्यत्यत्रैव टिप्पणे । तत्त्वसङ्ग्रहे वैशेषिकाभिमतषट्पदार्थपरीक्षायां बहुत्रोद्धृतः पूर्वपक्षः प्रशस्तपादभाष्ये दृश्यत इत्यपि ध्येयम् । नयचक्रे तु समवायपरीक्षायामुद्धृतस्य पूर्वपक्षस्य कश्चिदंशः प्रशस्तपादभाष्ये उपलभ्यते, कश्चित्तु नोपलभ्यते । अत एवं सम्भाव्यते-वैशेषिकसूत्रोपरि प्रशस्तमतिविरचितायाः [सम्प्रति लुप्तप्रायायाः] टीकाया एव मलवादिना उद्धृतः स्यात् पूर्वपक्षः, तत्त्वसङ्घहे तु प्रशस्तपादभाष्यादिति । विशेषजिज्ञासुभिर्द्रष्टव्यं पृ० ५१२ टि० ७ । “न च संयोगवन्नानात्वम् , भाववल्लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्च । तस्माद् भाववत् सर्वत्रैकः समवाय इति । यद्येकः समवायो द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिविशेषणैः सह सम्बन्धैकत्वात् पदार्थसङ्करप्रसङ्ग इति, न, आधाराधेयनियमात् । यद्यप्येकः समवायः सर्वत्र स्वतन्त्रस्तथाप्याधाराधेयनियमोऽस्ति । कथम् ? द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वम् , गुणेष्वेव गुणत्वम् , कर्मखेव कर्मत्वमिति । एवमादि कस्मात् ? अन्वयव्यतिरेकदर्श nmom नात् । इह' इति समवायनिमित्तस्य ज्ञानस्यान्वयदर्शनात् सर्वत्रैकः समवाय इति गम्यते । द्रव्यत्वादिनिमित्तानां व्यतिरेकदर्शनात् प्रतिनियमो ज्ञायते। यथा कुण्डदनोः संयोगैकत्वे भवत्याश्रयाश्रयिभावनियमः तथा द्रव्यत्वादीनामपि समवायैकत्वेऽपि व्यङ्यव्यञ्जकशक्तिभेदादाधाराधेयनियमः इति ।" इति प्रशस्तपादभाष्ये समवायनिरूपणे । अस्य श्रीधरभट्टकृता न्यायकन्दली व्याख्या-“किमयमेक आहोस्विदनेकः? इत्यत्राह-न च संयोगवन्नानात्वमिति । यथा संयोगो नाना नैवं समवायः । कुतः ? इत्यत्राह-भाववल्लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्च । यथा 'सत् सत्' इति ज्ञानस्य लक्षणस्य सर्वत्राविशेषादवैलक्षण्याद् विशेषे भेदे लक्षणस्य प्रमाणस्याभावाच्च सर्वत्रैको भावस्तद्वत् 'इह' इति प्रत्ययस्य लक्षणस्य सर्वत्रावैलक्षण्याद् भेदे प्रमाणाभावाच्च सर्वत्रैकः समवायः । उपसंहरति-तस्मादिति । चोदयति-योकः समवाय इति । समवायस्यैकत्वे य एव द्रव्यत्वस्य पृथिव्यादिषु योगः स एव गुणत्वस्य गुणेषु कर्मत्वस्य च कर्मसु । तत्र यथा द्रव्यत्वस्य योगः पृथिव्यादिष्वस्तीति तेषां द्रव्यत्वं तथा तद्योगस्य गुणादिष्वपि सम्भवात् तेषामपि द्रव्यत्वम् । यथा च गुणत्वस्य योगो रूपादिष्वस्तीति रूपादीनां गुणत्वं तथा तद्योगस्य द्रव्यकर्मणोरपि सम्भवात् तयोरपि गुणत्वं स्यात् । एवं कर्मखपीति पदार्थानां सङ्कीर्णता दर्शयितव्या । समाधत्ते -नेति । न च पदार्थानां सङ्कीर्णता । कुतः ? आधाराधेयनियमात् । न समवायसद्भावमात्रेण द्रव्यत्वम् , किन्तु द्रव्यत्वसमवायात्, द्रव्यत्वसमवायश्च द्रव्येष्वेव न गुणकर्मसु, अतो न तेषां द्रव्यत्वम् । एवं गुणकर्मस्वपि व्याख्येयम् । एतत् सङ्ग्रहवाक्यं विवृणोति- यद्यप्येकः समवाय इत्यादिना । स्वतन्त्र इति, संयोगवत् सम्बन्धान्तरेण न वर्तत इत्यर्थः । व्यक्तमपरम् । पुनश्चोदयति-एवमादि कस्मादिति । द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वं वर्तते गुणेष्वेव गुणत्वं कर्मस्वेव कर्मत्वमित्येवमादि कस्मात् त्वया ज्ञातमित्यर्थः । उत्तरमाह - अन्वयव्यतिरेकदर्शनादिति । द्रव्यत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य द्रव्येष्वन्वयो गुणकर्मभ्यश्च व्यतिरेकः । गुणत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य गुणेष्वन्वयो द्रव्यकर्मभ्यश्च व्यतिरेकः । तथा कर्मत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य कर्मखन्वयो द्रव्यगुणेभ्यश्च व्यतिरेको दृश्यते । तस्मादन्वयव्यतिरेकदर्शनाद् द्रव्यत्वादीनां नियमो ज्ञायते । अस्य विवरणं सुगमम् । सम wwwwwww wamma MWWW~ www.mmmmmm WW Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाये दोषप्रदर्शनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् वायाविशेषे कुत एवायं नियमो द्रव्यत्वस्य पृथिव्यादिष्वेव समवायो गुणत्वस्य रूपादिष्वेव कर्मत्वस्योत्क्षेपणादिष्वेव नान्यत्रेत्यत आह – यथेति । संयोगस्यैकत्वेऽपि कुण्डदनोराश्रयाश्रयिभावस्य नियमो दृष्टः शक्तिंनियमात् कुण्डमेवाश्रयो दध्येवाधेयं न तु कुण्डमाधेयं दधि वाधारः तथा समवायैकत्वेऽपि द्रव्यत्वादीनामाधाराधेयनियमो व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिभेदात् । किमुक्तं स्यात् ? द्रव्यत्वाभिव्यञ्जिका शक्तिर्द्रव्याणामेव, तेन द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वं समवैति नान्यत्रेति । एवं गुणकर्मस्वपि व्याख्येयम् ।" इति न्यायकन्दल्याम् । अथ तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकास्था चर्चा उद्भियते - “इहबुद्ध्यविशेषाच्च योगवन्न विभिद्यते । सर्वस्मिन् भाववत्त्वेष एक एव प्रतीयते ॥ ८२५॥ एवं तावद् वैशेषिकाणां मतेन इहबुद्धिलिङ्गानुमेयः समवायः । नैयायिकमतेन तु इहबुद्धिप्रत्यक्षगम्य एव, तथाहि - ते अक्षव्यापारे सति 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिप्रत्ययोत्पत्तेः प्रत्यक्षत्वमाचक्षते । स चायं समवायो यथा संयोगः सम्बन्धिषु भिन्नः तथा नायं भिद्यते, किं तर्हि ? भाववत् सत्तावत् तलिङ्गा विशेषाद् विशेषलिङ्गाभावात् सर्वत्रैक एव समवायः । योगवदिति वैधर्म्यदृष्टान्तः "1 यच्चोक्तम् 'इहबुद्ध्यविशेषात्' इत्यादि तत्राह - यद्येकः समवायः स्यात् सर्वेष्वेव च वस्तुषु । कपालादिष्वपि ज्ञानं पटादीति प्रसज्यते ॥ ८३५ ॥ गजादिष्वपि गोत्वादि समस्तीत्यनुषज्यते । ततो गवादिरूपत्वममीषां शाबलेयवत् ॥ ८३६ ॥ पटस्तन्तुषु योऽस्तीति समवायात् प्रतीयते । अस्ति चासौ कपालेषु तस्येति न तथेति किम् ॥ ८३७ ॥ नाश्रितः स कपाले चेन्ननु तन्तुष्वपीष्यते । आश्रितः समवायेन स कपालेऽपि नास्ति किम् ॥ ८३८ ॥ तन्तौ यः समवायो हि पटस्येत्यभिधीयते । स घटस्य कपालेषु तद्धीरनवधिर्भवेत् ॥ ८३९ ॥ एवं यश्च गजत्वादिसमवायो गजादिषु । गोत्वादिजातिभेदानां स एव स्वाश्रयेष्वपि ॥ ८४० ॥ यद्येक इत्यादि । यद्येकस्त्रैलोक्ये समवायः स्यात् तदा कपालेषु [ पट ] इत्यादयोऽपि धियः प्रसूयेरन् अश्वादिषु च गोत्वादिर्विद्यत इत्येवं स्यात् । ततश्च सावलेयादिभेदवद् गजादिष्वपि गवादिप्रत्ययो भवेत् । तथाहि - तन्तुषु पट इति यत्समवायबलात् प्रतीतिरुपवर्णिता स समवायस्तस्य पटस्य कपालादिष्वप्यस्तीति किमिति तथा प्रतीतिर्न भवेत् । स्यादेतत्-न कपाले पट आश्रितः, तेन तथा प्रत्ययो न भवतीति । एतदपि मिथ्या । यतस्तन्तुष्वपि पट आश्रित इति यत्समवायबलादुपवर्ण्य समवायः कपालेषु किं नास्ति, येन तत्र तन्तुष्विव पटोऽस्तीति तद्बुद्धिर्न भवेत् ? । किन्तु य एव तन्तुषु पटस्य समवाय इति निर्दिश्यते स एव पटस्य समवायः कपालेषु, तत् कथं सङ्करो न स्यात् ? तत् तस्मात् धीरनवधिः अवधिरहिता भवेत्, ततश्च द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वादिविशेषणैः सम्बन्धस्यैकत्वात् पञ्चपदार्थविभागो न स्यात् । एवमित्यादिना गजादिषु गवादिबुद्धिप्रसङ्गं समर्थयते । ५२५ navan आधाराधेय नियमस्तदेकत्वेऽपि विद्यते । द्रव्येष्वेव हि तज्जातिः कर्मस्वेव च कर्मता ॥ ८४१ ॥ आधारेत्यादिना अत्र प्रशस्तमतेरुतरमाशङ्कते । स ह्याह - यद्यप्येकः समवायस्तथापि पञ्चपदार्थसङ्करो न भवति, आधाराधेयनियमात् । तथाहिद्रव्येष्वेव द्रव्यत्वम् गुणेष्वेव गुणत्वम्, कर्मस्वेव कर्मत्वमिति । एवं द्रव्यत्वादीनां प्रतिनियताधारावच्छेदेन प्रतिपत्तिरुपजायते । यद्येवं तर्हि समवायः प्रतिपदार्थं भिन्नः प्राप्नोतीत्यत आह- इहेति समवायोत्थविज्ञानान्वयदर्शनात् । सर्वत्र समवायोऽयमेक एवेति गम्यते ॥ ८४२ ॥ द्रव्यत्वादिनिमित्तानां व्यतिरेकस्य दर्शनात् । धियां द्रव्यादिजातीनां नियमस्त्ववसीयते ॥ ८४३ ॥ इहेत्यादि । इहेति समवायनिमित्तस्य प्रत्ययस्य सर्वत्राभिन्नाकारतया अन्वयदर्शनात् सर्वत्रैकः समवाय इति गम्यते । सत्यपि चैकत्वे द्रव्यत्वादिनिमित्तानां धियां प्रतिनियताधारावच्छेदेनोत्पत्तेः व्यतिरेकस्यानन्वयलक्षणस्य दर्शनादू द्रव्यत्वा दिजातीनां व्यतिरेको विज्ञायते तेन पञ्चपदार्थसङ्करो न भवति । कथं पुनः सम्बन्धाविशेषेऽप्यमीषामाधाराधेयप्रतिनियमो युज्यत इत्याहतद्यथा कुण्डदध्नोश्च संयोगैक्येऽपि दृश्यते । आधाराधेयनियमस्तथेह नियमो मतः ॥ ८४४ ॥ व्यङ्ग्यव्यञ्जक सामर्थ्यभेदाद द्रव्यादिजातिषु । समवायैकभावेऽपि नैव चेत् स विरुध्यते ॥ ८४५ ॥ तद्यथेत्यादि । यथाहि कुण्डदनोः संयोगैकत्वेऽपि भवत्याश्रयाश्रयिप्रतिनियमः तथा द्रव्यत्वादीनां समवायैकत्वेऽपि व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिभेदादाधाराधेयप्रतिनियम इति । स इत्याधाराधेयनियमः । आधाराधेय इत्यादिना प्रतिविधत्ते - आधाराधेयनियमो नन्वेकत्वेऽस्य दुर्घटः । द्रव्यत्वं द्रव्य एवेष्टं कथं तत्समवायतः ॥ ८४६ ॥ तस्यासौ समवायश्च गुणादिष्वपि विद्यते । गुणजात्यादिसम्बन्धादेक एव ह्ययं तयोः ॥ ८४७ ॥ न ह्यस्माकं रूपत्वादीनां रूपादिष्वाधेयनियमः सिद्धः, किन्तु भवतामेव । स च सर्वत्र समवायमेकमेव अभ्युपगच्छतां दुर्घट इत्यादिप्रसङ्गापादनं क्रियते । तथाहि - 'द्रव्ये एव द्रव्यत्वम्' इत्येवं यो नियम इष्यते स समवायबलादेव, तस्य च द्रव्यत्वादेर्यः समवायः स एव गुणादिप्यस्ति गुणत्वादिजात्या तेषां सम्बन्धत्वात् । यदि नाम सम्बन्धस्तथापि स एव तत्र समवायोऽस्तीति कथमवसीयते इत्याह – एक एवेत्यादि । तयोरिति द्रव्यत्वगुणत्वादिजात्योः । ततश्चाभिन्ननिमित्तत्वात् तत्सङ्करप्रसङ्गो दुर्निवार इति भावः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् । [सप्तम उभयोभयारे भिधानप्रत्ययौ स्याताम् , पदार्थलक्षणव्यवस्थानाभावात् षट्पदार्थनिवृत्तिर्वा । कथम् ? समवायस्यैकत्वाद् द्रव्यत्वेन गुणकर्मणोः सम्बन्धाद् द्रव्यभावः, गुणकर्मभावयोर्हानिः । तत्त्वविशेषणभेदाद्धि तद्भेदः स्यात्, छत्रिदण्डिवत् । दिभिश्च सम्बन्ध इहलिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाञ्चैकः समवायः, तस्माद् द्रव्यत्वसम्बन्धाद् यथा 5 द्रव्ये द्रव्यबुद्धिं तथा गुणे कर्मणि च द्रव्यबुद्धिं कुर्यादिति सर्वस्य सर्वाभिधानप्रत्ययौ स्यातामिति सामान्येन सङ्करदोष उक्तः । पदार्थेत्यादि द्वितीयः सङ्करप्रकारः । पदार्थानां षण्णां द्रव्यादीनां लक्षणव्यवस्थानस्याभावात् षडपि पदार्था निवर्तन्ते इति । कथमित्यादि व्याख्या । समवायस्यैकत्वाद् द्रव्यत्वेन गुणकर्मणोः सम्बन्धाद् द्रव्यभावो ,व्यत्ववत् , तयोश्च स्वरूपस्य गुणत्वस्य कर्मत्वस्य च हानिरिति दोषौ, तत्त्वविशेषणभेदाद्धि 10 तद्भेदः स्याच्छत्रिदण्डिवदिति वैधHदृष्टान्तः, छत्रविशिष्टश्छत्री, दण्डविशिष्टो दण्डी, न तथेह द्रव्यत्वस्य क्वचिद् भेदोऽस्ति । अन्यथा गुणजात्यादिभिन्न एव भवेदयम् । योगिभेदात् प्रतिव्यक्ति यथा योगो विभिद्यते ॥ ८४८ ॥ अन्यथेति, यदि द्रव्ये द्रव्यत्वस्य यः समवायः स एव गुणादिषु गुणत्वादीनां न भवेत् तदा संयोगवत् प्रत्याधारं समवायो भिद्यते । यच्चोक्तं 'द्रव्यत्वादिनिमित्तानाम्' इत्यादि तत्राह -द्रव्यत्वादिनिमित्तानां व्यतिरेको न युज्यते । धियां निमित्तसद्भावादतस्तन्नियमोऽपि न ॥ ८४९ ॥ द्रव्यत्वादीति, न विकले निमित्ते सति कार्यस्य व्यतिरेकोऽभावो युक्तः, अतत्कार्यत्वप्रसङ्गात् । ततश्च धियां व्यतिरेकायोगात् तस्याप्याधाराधेयभावस्य नियमो न युक्तः । ननु द्रव्ये एव द्रव्यत्वमाश्रितं स्थितमित्यादिव्यपदेशतो नियमो भविष्यतीत्याह-तदाश्रितत्वस्थानादि तस्मादेवाभिधीयते । समवायादतश्चैतन्न युक्तं तन्नियामकम् ॥ ८५०॥ तदाश्रितत्वेत्यादि। तस्मादेव हि समवायादाश्रितत्वादिव्यवस्थानमुपवर्ण्यते भवद्भिः, तस्य च सर्वत्राविशिष्टत्वे कथमेष नियमो योश्यते । तस्मादेतदप्याश्रितत्वादि न तस्याधाराधेयभावस्य नियामकं युक्तम् , आधाराधेयभावेन सहैकयोगक्षेमत्वादेषाम् । व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिप्रतिनियमात् तर्हि नियमो भविष्यतीत्याह-व्यायव्यजकसामर्थ्यमेदोऽपि समवायतः । नान्यतस्तु स नित्यानामुत्पादानुपपत्तितः॥ ८५१ ॥ व्यायेत्यादि । द्रव्यत्वादिसामान्यव्यञ्जकत्वं द्रव्यादीनां यदुच्यते तत् समवायबलादेव । तथाहि-यत एव द्रव्यत्वं द्रव्ये समवेतं तत एव तेन तद् व्यज्यत इत्युच्यते । अन्यत इति सौगतोपवर्णितात् ज्ञानोत्पादनयोग्यस्वभावोत्पादनात् । यस्मान्नित्यानामपि सत्तादीनां समवाय इष्टः; न च नित्यानामुत्पत्तिर्युक्ता । एतदेव न हीत्यादिना समर्थयते-न हि दीपादिसद्भावाजायन्ते यादृशा इमे । विज्ञानजनने योग्या घटाद्या जातयस्तथा ॥ ८५२ ॥ यश्चापि दधिकुण्डसंयोगो दृष्टान्तत्वेनोक्तः सोऽप्यस्माकमसिद्ध इति दर्शयति-कुण्डदनोश्च संयोग एकः पूर्व निराकृतः । न चासौ नियतस्तस्माद्युज्यतेऽतिप्रसङ्गतः॥ ८५३ ॥ कुण्डदनोरित्यादि । पूर्वमिति संयोगपदार्थदूषणे । भवतु नाम संयोग एकः, तत्रापि तुल्य एव प्रसङ्ग इति दर्शयति-न चासावित्यादि । तस्मादिति संयोगात् 'दन्नि कुण्डम्' इत्यादिबुद्धिप्रसङ्गोऽतिप्रसङ्गः संयोगस्य निमित्तस्य निर्विशिष्टत्वात् ।" इति शान्तरक्षितविरचिततत्त्वसङ्ग्रहस्य कमलशीलविरचितायां व्याख्यायां तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायाम् ॥ १ "सल्लिङ्गाविशेषादू विशेषलिङ्गाभावाच्चैको भावः[ वै० सू. १।२।१८] इति, 'एक'शब्देन अमेदः कथ्यते, न तु सङ्ख्या । लिङ्गयतेऽनेनेति लिङ्गं प्रत्ययः, येन लिङ्गेन 'सत् सत्' इति प्रत्ययेन प्रतीयते सत्ता तस्य सर्वत्राविशिष्टत्वाद् विशिष्टस्य च प्रत्ययस्याभावादभिन्ना सत्ता । [P. पृ० १.]।"द्रव्यत्वगुणत्वप्रतिषेधो भावेन व्याख्यातः [वै० सू० १२॥३०], यथैकद्रव्यवत्त्वान्न द्रव्यं भावो गुणकर्मसु च भावान्न कर्म न गुण एवं समवायोऽपि । तत्त्वं च [वै० सू० ॥२॥ ३१] इति, यथा सलिडाविशेषा[देको भावस्तथा इहलिङ्गाविशेषा देकः समवायो वृत्तिरहितो निलो निरवयवश्चति सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ।" इति चन्द्रानन्दविरचितायां वैशेषिकसूत्रवृत्तौ P. पृ. २९ । दृश्यतां पृ० ५२४ पं० १७॥ २ दृश्यतां पृ० ५२९ पं० ४ ॥३ अत्र 'द्रव्यभावो द्रव्यवत्' इति पाठो यद्वा 'द्रव्यभावो द्रव्यत्वं द्रव्यवत्' इति पाठः स्यादिति सम्भाव्यते । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाये दोषप्रदर्शनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् कार्यकारणाधाराधेयसमवायात् तौ भविष्यत इति चेत्, तयोर्गुणकर्मणोर्गुणकर्मभावनिवृत्तौ द्रव्यभावसम्बन्धे गुणकर्मणामनाश्रयत्वाद् द्रव्यस्य द्रव्यभावनिवृत्तिः । कार्यकारणाधाराधेयसमवायस्यैकत्वाद् गुणकर्मणोर्द्रव्यीभूतत्वाद् गुणकर्मभावनिवृत्तौ गुणकर्मणामनाश्रयत्वाद् न द्रव्यं क्रियावदादिलक्षणं न गुणकर्माणि तथालक्षणानीति द्रव्यस्यापि द्रव्यभावनिवृत्तिः । तथा द्रव्यगुण षट्पदार्थनिवृत्तिः । । परस्पर 5 कार्यकारणेत्यादि । कारणमाधारश्च द्रव्यम्, आधे कार्ये च गुणकर्मणी, तयोर्भिन्नयोः कार्यकारणयोराधाराधेययोश्च समवायात् तौ गुणकर्मभावौ भविष्यत इति चेत् एवं चेन्मन्यसे, मा संस्थाः, अत्रोत्तरम् - तयोर्गुणकर्मणोरित्यादि यावत् प्रथमद्रव्यभावनिवृत्तिरिति तावदुपदेशवचनम्, उपरितनो ग्रन्थस्तद्वयाख्या, गुणकर्मणोर्गुणकर्मभाव निवृत्तिद्वारेण द्रव्यस्य द्रव्यभावनिवृत्तिराख्यायते । तद्यथा - य 10 उक्तः कार्यकारणाधाराधेयसमवायस्तस्यैवैकत्वात् यो द्रव्यभावेन गुणकर्मणोः समवायः स एकस्तेन द्रव्येण ३५७-२ सम्बन्धात् ते गुणकर्मणी द्रव्यमेवैकं करोति, ततो गुणकर्मणी निवर्तेते, तन्निवृत्तौ द्रव्यमाश्रय्यभावाद् नाश्रयो न च कारणं समवायिनां गुणकर्मणामभावात्, ततो द्रव्यस्य द्रव्यलक्षणं नास्ति क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणम् [ वै० सू० १|१|१४ ] इति, क्रियागुणाभावाद् न द्रव्यं तद्वत् । ५२७ गुणकर्माणि तथा लक्षणानीति, 'इति' शब्दों हेत्वर्थे, यस्माद् न सन्त्येव तादृग्लक्षणानि 15 गुणकर्माणि तेषामाश्रयिणां समवायिनामभावात् तन्निवृत्तौ द्रव्यस्यापि द्रव्यभावनिवृत्तिः, गुणवत १ ' तथा द्रव्यगुणकर्मणां व्यवस्थितलक्षणानामभावाद् निवृत्तौ द्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वादीनामप्याश्रयाभावादनुपपत्तिः । परस्परसङ्करात् पदार्थलक्षणव्यवस्थानाभावात् षट्पदार्थनिवृत्तिः । इत्याशयो भाति ॥ २ " अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्ध 'इह' प्रत्ययहेतुः स समवायः । द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणां कार्यकारणभूतानामकार्यकारणभूतानां अयुत सिद्धानामाधार्याधारभावेनावस्थितानाम् 'इहेदम्' इति बुद्धिर्यतो भवति यतश्चासर्वगतानामधिगतान्यत्वानामविष्वग्भावः स समवायाख्यः सम्बन्धः । कथम् ? यथा 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययः सम्बन्धे सति दृष्टस्तथा 'इह तन्तुषु पटः, इह वीरणेषु कटः, इह द्रव्ये गुणकर्मणी, इह द्रव्यगुणकर्मसु सत्ता, इह द्रव्ये द्रव्यत्वम्, इह गुणे गुणत्वम्, इह कर्मणि कर्मत्वम्, इह नित्यद्रव्येऽन्त्या विशेषाः' इति प्रत्ययदर्शनादस्त्येषां सम्बन्ध इति ज्ञायते ।” इति प्रशस्तपादभाष्ये समवायनिरूपणे । अस्य न्यायकन्दली व्याख्या - " तुभ्यं भवभिदे विश्वसंहारोत्पत्तिहेतवे । निर्मलज्ञानदेहाय नमः सोमाय शम्भवे ॥ अथ समवायनिरूपणार्थमाह-अयुत सिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्धः 'इह' प्रत्यय हेतुः स समवायः । तदेतत् कृतव्याख्यानमुद्देशावसरे । के तेsयुत सिद्धाः येषां सम्बन्धः समवायो भवेदत आह- द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणामिति । कार्यकारणभूतानामकार्यकारणभूतानामिति अनियमकथनम् । अवयवावयविनामनित्यद्रव्यतद्गुणानां नित्यद्रव्यतत्समवेतानित्यगुणानां कर्मतद्वतां कार्यकारणभूतानां समवायः । नित्यद्रव्यनित्यतद्गुणानां सामान्यतद्वतामन्त्यविशेषतद्वतां चाकार्यकारणभूतानां समवायोऽयुतसिद्धानामिति नियमः । एवमाधार्याधारभावेनावस्थितानामित्यपि नियम एव । ' इहेदम्' इति बुद्धिर्यतः कारणाद् भवति यतश्चासर्वगतानां नियत देशावस्थितानामधिगतान्यत्वानामधिगतखरूपभेदानामविष्वग्भावोऽपृथग्भावोऽस्वातन्त्र्यं स समवायः भिन्नयोः परस्परोपश्लेषस्य सम्बन्धकृतत्वोपलम्भात् । एतदेव 'कथम्' इत्यादिना प्रश्नपूर्वकमुपपादयति । यथा 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययः कुण्डदनोः सम्बन्धे सति दृष्टः तथा 'इह तन्तुषु पट:' इत्यादिप्रत्ययानां दर्शनादस्त्येषां तन्तुपटादीनां सम्बन्ध इति ज्ञायते । 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिप्रत्ययाः सम्बन्धनिमित्ताः, अबाधितेहप्रत्ययत्वात्, 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययवत् ।" इति न्यायकन्दल्याम् ॥ ३ ंस्तस्यैवेकत्वात् प्र० । अत्र तस्यैकत्वात् इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ४ ततो द्रव्यलक्षणं भा० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ४४० टि० ५ ॥ · Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे यच 'न, बहूनामेकत्वात् । बहूनां द्रव्यादीनामेकः समवायः, न तु द्वयोर्द्वयोः......... समवायिकारणं क्रियावदद्रव्यमनेकद्रव्यं वा द्रव्यं स्यात् , तच्चेत्थं नाद्रव्यं नानेकद्रव्यं सम्भवति । तस्माद् गुणकर्मणां गुणकर्मभावनिवृत्तौ द्रव्यभावसम्बन्धे सति गुणकर्मणामनाश्रयत्वाद् द्रव्यस्य द्रव्यभावनिवृत्तिरिति द्रव्यपदार्थनिवृत्तिरुक्ता । अथवा त्वदिष्टेन द्रव्यत्वेन सर्वगतेन सम्बन्धे सति गुणस्य कर्मणो वा द्रव्यं द्रव्यत्वेन 5 सम्बद्धमिति द्रव्यीभावः, तद्भावाद् गुणकर्मणी न द्रव्याश्रिते, ततो द्रव्यलक्षणायुक्तेर्द्रव्यभावनिवृत्तिः, ३५८-१ किं द्रव्यलक्षणमिति चेत् , उच्यते-क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणम् [ वै० सू० १॥३॥१४] इति, तत्तु कार्यकारणाधाराधेयसमवायस्यैकत्वाद् गुणकर्मणोव्यीभूतत्वात् 'क्रियावेदादिलक्षणं नास्ति, यस्माद् न तु गुणकर्माणि तथालक्षणानीति गुणस्य द्रव्याश्रय्यादिलक्षणत्वात् ऐकद्रव्यादिलक्षणत्वात् कर्मणः । एवं स्वलक्षणाभावापेक्षा द्रव्यस्य द्रव्यभावनिवृत्तिर्गुणकर्मलक्षणायुक्तेरिति । ततश्च द्रव्यस्यापीत्यादि आश्रया10 भावाद् गुणकर्माभावमापाद्य आश्रय्यभावेऽपि द्रव्यस्याश्रयस्याभाव इति गतार्थम् । एवं गुणकर्मणोरपि गुणकर्मलक्षणाव्यवस्थानाद् गुणकर्मभावनिवृत्तिरुक्ता वेदितव्या । एवं तावद् द्रव्यगुणकर्मणां व्यवस्थितलक्षणाभावाद् निवृत्तिः। तथा द्रव्यगुणेत्यादि । द्रव्यत्व[-गुणत्व-]कर्मत्वादीनामाश्रयाभावादनुपपत्तिः सामान्यविशेषाणाम् । आदिग्रहणात् सत्तायाः । तद् व्याचष्टे-परस्परेत्यादि भावितार्थं यावत् षट्पदार्थनिवृत्तिरिति । 15 यच्चेत्यादि । आधाराधेयभावेन भेदे सति संयोगवद् द्विवृत्तित्वात् समवायस्य ततश्चानित्यत्वं स्यात् [ ] इति पूर्वपक्षं कृत्वा परिहारमाह वैशेषिकः -न, बहूनामेकत्वात् , बहूनां द्रव्यादीनामेकः समवाय इति स्वरूपवर्णनं द्विवृत्तिप्रतिषेधार्थम् । न तु द्वयोर्द्वयोरित्यादि संयोगेन वैधयं १ 'बहूनां द्रव्यादीनामेकः समवायः, न तु द्वयोद्वयोः । द्वयोद्वयोर्यथा संयोगः, न तथा द्वयोर्द्वयोः समवायः । तस्मान्नानित्यत्वं समवायस्य ।' इत्याशयो भाति ॥ २ द्रव्यत्वेनासम्बद्धमिति द्रव्याभावः प्र०॥ ३ दृश्यतां पृ० ४४० टि०५॥ ४ व्याभूत य० ॥ ५ वदलक्षणं प्र०॥ ६ यत्वेत्यादि भा० । (यत्त्वित्यादि ?) ॥ ७ (द्विवृत्तित्वं?) ॥ ८ समवायस्य द्विवृत्तित्वे सम्बन्धिनाशे संयोगवदनित्यत्वापत्तिरित्याशयो भाति ॥ ९ दृश्यतां पृ० ५२४ टि.३। “सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपि न संयोगवदनित्यत्वं भाववदकारणत्वात् । यथा प्रमाणतः कारणानुपलब्धेनित्यो भाव इत्युक्तं तथा समवायोऽपीति । न ह्यस्य किञ्चित् कारणं प्रमाणत उपलभ्यत इति ।" इति तु समवायनित्यत्वं समर्थितं प्रशस्तपादभाष्ये । अस्य न्यायकन्दली व्याख्या पृ० ५२३ टि० २ इत्यत्र द्रष्टव्या । अस्य प्रशस्तपादभाष्यमतस्य खण्डनं तत्त्वसङ्ग्रहपञिकायामित्थमस्ति-“यच्चोक्तं 'कारणानुपलब्धेर्नित्यः समवायः' इति तत्राहनित्यत्वेनास्य सर्वेऽपि नित्याः प्राप्ता घटादयः । स्वाधारेषु सदा तेषां समवायादवस्थितेः॥ ८५४ ॥ नित्यत्वेनेत्यादि । यदि हि समवायो नित्यः स्यात् तदा घटादीनामपि नित्यत्वप्रसङ्गः स्वाधारेषु तेषां सर्वदावस्थानात् । तथाहि-समवायास्तित्वादेवैषां स्वाधारेष्ववस्थानमिष्यते, स च समवायो नित्य इति किमिति सदाऽमी न सन्तिष्ठेरन् । स्वारम्भकेत्यादिना परस्योत्तरमाशङ्कते-खारम्भकविभागाद् वा यदि वा तद्विनाशतः। ते नश्यन्ति क्रियाद्याश्च योगादेरिति चेन्न तत् ॥ ८५५ ॥ वाधारे समवायो हि तेषामपि सदा मतः । तेषां विनाशभावे तु नियताऽस्यापि नाशिता ॥ ८५६ ॥ स्यादेतत् - घटादीनां ये खारम्भकावयवास्तेषां विभागाद् विनाशाद्वा घटादीनां विनाशः, यथा घटस्योद्वेष्टनपाकावस्थयोः क्रियादयः स्पर्शवद्रव्यसंयोगादिभ्यो विनश्यन्ति । यथोक्तम् - 'स्पर्शवद्व्यसंयोगात् कर्मणो नाशः ।' 'कार्यविरोधि च कर्म' [वै० सू० १।१।१३ ] इति । तथा बुद्धेर्बुद्ध्यन्तराद् विनाशः शब्दस्य शब्दान्तरादिति परप्रक्रिया। तेन सत्यपि समवायेऽवस्थितिहेतौ सहकारिकारणान्तराभावाद् विरोधिप्रत्ययोपनिपाताच न नित्यत्वप्रसङ्गो घटादीनामिति परस्य भावः । न तदित्यादिना प्रतिषेधति । नैतद् युक्तम्, यतस्तेषा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ प्रशस्तमतिमतखण्डनम्] द्वादशारं नयचक्रम् समवायस्य' [ ] इति, एतेनापि सङ्करप्रसङ्गस्तदवस्थ एव बहूनामेकसमवायाभ्युपगमात् । ततः षडपि पदार्थी निवर्तिताः। गतार्थ यावत् समवायस्येति । आचार्य आह - एतेनापीत्यादि । एतेनानित्यत्वपरिहारवचनेनापि सङ्करप्रसङ्गः सामान्येन व्यवस्थानाभावात् सर्वत्र सर्वांधेयवृत्तौ सर्वाभिधानप्रत्ययसङ्करः विशेष्य च पदार्थलक्षणव्यवस्थानासम्भवात् षपदार्थनिवृत्तिवेत्यादिरुक्तः तदवस्थ एव दृढीकृतः, बहूनामेकसमवाया-5 भ्युपगमात् , ततः सङ्करादुक्तात् षडपि पदार्था निवर्तिताः, तन्निवृत्तौ समवाय्यभावात् समवायनिवृत्ते-३५८-२ स्तस्यासतः ख कुतो नित्यत्वमनित्यत्वं वा? मपि वारम्भकावयवानां कपालादीनां वारम्भकेष्ववयवान्तरेषु समवायः, तेषामप्यन्येष्वन्येषु यावत् परमाणुरवशिप्यते । तस्य च परमाणोर्नित्यत्वात् नान्यथात्वमस्ति । ततश्च सर्वेषां स्वारम्भकेष्ववयवेषु समवायः सर्वदास्त्येवेति कुतो विनाशो विभागो वा । न केवलं तदारब्धानां द्रव्याणाम् , 'क्रियादीनां च' इति अपिशब्देन दर्शयति । यदि तु वारम्भकाणामवयवानां विनाशोऽभ्युपगम्येत तदा नियतमस्य समवायस्यापि विनाशः प्राप्नोति । कस्मादित्याह-सम्बन्धिनो निवृत्तौ हि सम्बन्धोऽस्तीति दुर्घटम् । न हि संयुक्तनाशेऽपि संयोगो व्यवतिष्ठते ॥ ८५७ ॥ यथा संयोगभावे तु संयुक्तानामवस्थितिः । समवायस्य सद्भावे तथा स्यात् समवायिनाम् ॥ ८५८ ॥ सम्बन्धिनो निवृत्तौ हीत्यादि । एतदेव घटयन्नाह - न हीत्यादि । ततश्च विनष्टसम्बन्धित्वान्नष्टसंयोगिसंयोगवदनित्यः समवायः प्राप्नोतीत्युक्तं भवति । सम्बन्धिनां वा स्थितिः प्राप्नोति, अविनष्टसम्बन्धत्वात्, अनुपरतसंयोगद्रव्यद्वयवत् । अन्यथा तत्सम्बन्धस्वभावहानिरुभयेषामपि प्रसज्येत । एकसम्बन्धिनाशेऽपीत्यादिना परः प्रत्यवतिष्ठते - एकसम्बन्धिनाशेऽपि समवायोऽवतिष्ठते । अन्यसम्बन्धिसद्भावाद् योगो नो चेन्न भेदतः ॥ ८५९ ॥ एवं मन्यते- यदि प्रथमे हेतौ विनष्टाशेषसम्बन्धित्वादिति हेत्वर्थोऽभिप्रेतः तदा पक्षकदेशासिद्धता हेतोः । न ह्यशेषाणां सम्बन्धिनां विनाशः क्वचिदस्ति, प्रलयेऽपि परमाण्वादीनामवशिष्यमाणत्वात् । अथ यथाकथञ्चिद् विनष्टसम्बन्धित्वसम्बन्धमधिकृत्य हेतुरुच्यते तदाऽनैकान्तिकता। यदि नामैकः सम्बन्धी क्वचिद् विन्ष्टस्तथाप्यपरसम्बन्धिनिबन्धनाऽवस्थितिरस्य भविष्यति । यद्येवं संयोगस्याप्यनया नील्या नित्यत्वं प्राप्नोतीत्याशय परः प्रतिविधत्ते - न भेदत इति । संयोगो हि प्रतियोगि भिद्यते, तेनास्यानित्यत्वं युक्तम् , समवायस्तु 'इह'प्रत्ययनिबन्धनस्याभिन्नत्वादेक एव जगति, तेनास्यानित्यत्वमयुक्तमन्यत्रापि सम्बन्ध्यन्तरे तस्योपलभ्यमानत्वात् । यद्येवमित्यादिना प्रतिविधत्ते - यद्येवं ये विनश्यन्ति घटाद्याः समवायिनः । तेषां वृत्त्यात्मको योऽसौ समवायः प्रकल्पितः ॥ ८६०॥ स एव व्यतिष्ठेत किं सम्बन्ध्यन्तरस्थितेः । अथान्य एव सम्बन्ध[:] संयोगबहुतादिवत् ॥ ८६१॥ तद्वत्तिलक्षणस्यैव समवायस्य संस्थितौ। पूर्ववत् ते स्थिता एव प्राप्नुवन्ति घटादयः ॥ ८६२ ॥ एतेषामनवस्थाने तेषां वृत्त्यात्मकः कथम् । समवायोऽवतिष्ठेत संज्ञामात्रेण वा तथा ॥ ८६३ ॥ अतः प्रागपि तद्भावान ते वृत्ताः स्युराश्रये । पश्चादिव तथा ह्येषा वृत्तिस्तेषामवस्तुनः ॥ ८६४ ।। तथाहि -ये ते विनश्यन्ति घटादयः स्वकारणादिसमवायिनस्तेषां खकारणेषु वृत्त्यात्मको योऽसौ समवायः कल्पितः स एव किं तेषु विनष्टेषु सम्बन्ध्यन्तरेष्वस्ति आहोखिदन्य एव यथा संयोगो बहुत्वं वा प्रतिसंयोगि भिद्यते । आदिशब्दाद् विभागादिपरिग्रहः । तत्र यद्याद्यः पक्षः तदा प्रागवस्थावदप्रच्युतप्रवृत्तित्वादवस्थिता एव घटादयः प्राप्नुवन्ति, तेषां वा घटादीनामनवस्थानेऽनवस्थितप्रवृत्तित्वान्नावस्थितिः समवायस्य प्राप्नोति, अन्यथा न वृत्त्यात्मकः स्यात् । तथाभूतस्य च खतन्त्रस्यानुपकारिणो वृत्तिः समवाय इति वा नामकरणे संज्ञामात्रमेव स्यात्, न तु वस्तुतथाभावः । तथेति तद्वृत्त्यात्मक इत्येवम् , ततः संज्ञामात्रान्वयो दोषः, तं दर्शयति-अत इत्यादि । प्रागपि सम्बन्धिनाशात् , अविनष्टसम्बन्ध्यवस्थायामपीत्यर्थः, ते घटादयः स्वाश्रये वृत्तास्तस्य समवायस्य भावात् सद्भावबलान सिध्येयुः, पश्चादिव विनष्टसमवायिकारणवत् परमार्थतो वृत्त्यभावात् । तथाहीत्यादिना हेत्वर्थ दर्शयति । अथान्य एव संयोगविभागबहुतादिवत् । सम्बन्ध्यन्तरसद्भावे समवायोऽवतिष्ठते ॥ ८६५॥ संयोगादिवदेवं हि नन्वस्य बहुता भवेत् । एवमाद्यस्य सद्भावे बहु स्यादसमञ्जसम् ॥ ८६६ ॥ अथान्य एवेति द्वितीयः पक्षस्तदा संयोगादिवत् समवायबहुत्वं प्राप्नोति । ततश्च 'न समवायो भेदवान्' इत्यस्याभ्युपेतस्य हानिः । एवमादीत्यादिशब्देन ... . . . . . 'दोषान्तरपरिग्रहः ।" इति [जेसलमेरस्थायां] तत्त्वसङ्ग्रहपन्जिकायां समवायपदार्थपरीक्षावसरे, [ अत्र स्थूलाक्षरनिर्दिष्टः पाठो जेसलमेरस्थहस्तलिखितपुस्तकानुसारेण ज्ञेयः] । सन्मति० वृ० पृ० ७०३ ॥ १ दृश्यतां पृ० ५२४ पं० २, पृ. ५२६ पं० १॥ नय०६७ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [ सप्तम उभयोभयारे तु प्रत्युक्तम् — नं, आधाराधेयनियमात् । यद्यप्येकः समवायः सर्वत्र स्वतन्त्रस्तथाप्याधारानियमोsस्ति । कथम् ? 'द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वम्, गुणेष्वेव गुणत्वम्, कर्मस्वेव कर्मत्वम्' इति [ वै० सू० प्रशस्तमति० ] । ऐतदपि प्रत्युक्तम् "प्रतिनियतानि । ] | सर्वत्र तावद् यत्तूच्यते - अवगम्यतां तावत् ... समवायैकत्वेऽप्याधाराधेयनियमः स्यात् [ इति इदमपि स्ववादविहितोत्तरमार्गम् । न तु तथा द्रव्यद्रव्यत्वादिसमवाये द्विवृत्तित्वं सम्बन्धिद्वयविशिष्टाभिधानप्रत्ययत्वात् कुण्डदध्यादिसंयोगवत् । द्रव्यगुणयोः । तथा च ' "अनित्यतैव । 25 ५३० यत्तु प्रत्युक्तमित्यादि सङ्करदोषस्य यदुत्तरमुक्तम्- न, आधाराधेयनियमादिति । यद्यप्येक इत्यादि तद्वयाख्या यावत् कर्मस्वेव कर्मत्वमिति, 'सर्वत्र चैकः समवायः' इत्यनेन द्विवृत्तित्वपरिहारेणा10 नित्यत्वमपि परिहृतमिति वैशेषिकः । आचार्य आह - एतदपि प्रत्युक्तमित्यादि गतार्थं यावत् प्रतिनियतानीति । 'द्विवृत्तित्वमेवास्य' इति च वक्ष्यति । यत्तूच्यते - अवगम्यतां तावदित्यादि इदं तस्य दोषपरिहारप्राणसर्वस्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यामनियमातिप्रसङ्गाभावभावनं गतार्थं यावत् समवायैकत्वेऽप्याधाराधेयनियमः स्यादिति । अत्राचार्य आह - इदमपीत्यादि, स्ववादेनैवोत्तरमार्गो विहितोऽस्य वचनस्य त्वया 'इहेदम्' [ वै० सू० प्रशस्तैमति० ] इत्यादिना 15 समवायलक्षणं व्याचक्षाणेन आधार राधेयसम्बन्धज्ञानलक्षणत्वात् कार्यकारणयोश्चाधाराधेयभावात् सम्बन्धिनोः कुण्डदधिदृष्टान्तेन च सुभावितोऽयमर्थ:, तेनैव वयं ब्रूमः - न तु तथेत्यादि, न तु तथा सङ्कराभावो घटते उत्तरप्रकारेण, कुण्डदधिसंयोगदृष्टान्ते यदि दधिमधूदकादिभिर्बहुभिराधेयैः कुण्डाधारः संयुक्तो भवति ततः किमिति सङ्करो नास्ति ? तथा यदि सर्वात्मकः समवायो द्रव्य-गुण-कर्म- द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्व-सत्ताद्याधार एक एव भवति तदा किमिति सङ्करो न स्यात् ? नापि च द्विवृत्तित्वनिवृत्तिः समवायस्य यतः 20 संयोगाद् वैधर्म्यमुच्यते त्वया 'द्वयोर्द्वयोः' [ ] इत्यादिना । तत्र साधनम् - सर्वत्र तवद् द्रव्यद्रव्यत्वादिसमवाये द्विवृत्तित्वं त्वयैवोपवर्ण्यते, साधयामश्चैतद् द्विवृत्तित्वं सम्बन्धिद्वय विशिष्टाभिधानप्रत्ययत्वात् कुण्ड दध्यादिसंयोगवत्, यथा कुण्डध्नोः संयोगे दध्ना कुण्डेन वा विशिष्टे तन्निमित्तमभिधानं प्रत्ययश्च दृश्यते दधिकुण्डं कुण्डदधि वेति तद्दिवृत्तित्वं च तथा समवायेऽपि द्रव्यगुणयोरित्यादि द्विवृत्तिवर्णनम् । तस्मात् त्वत्पूर्वपक्षितदोषासङ्गस्तदवस्थः समवायस्येत्यत आह- तथा चेत्यादि यावदनित्यतैवेति गतार्थम् । ३५९-१ १ दृश्यतां पृ० ५२४ पं० १९, पृ० ५२५ पं० २५ ॥ २ 'एतदपि प्रत्युक्तं सर्वत्रैकत्वे समवायस्य आधाराधेयनियमाभावात्, द्विवृत्तित्व एव हि द्रव्यादिषु द्रव्यत्वादीनि प्रतिनियतानि ।' इत्याशयो भाति ॥ ३ 'अवगम्यतां तावदन्वयव्यतिरेकदर्शनात् । 'इह' इति समवायनिमित्तस्य ज्ञानस्यान्वयदर्शनात् सर्वत्रैकः समवाय इति गम्यते । द्रव्यत्वादिनिमित्तानां व्यतिरेकदर्शनात् प्रतिनियमो ज्ञायते । यथा कुण्डदनोः संयोगैकत्वे भवत्याश्रयाश्रयिभावनियमः तथा द्रव्यत्वादीनामपि समवायैकत्वेऽपि आधाराधेय नियमः स्यात्' इत्याशयो भाति, दृश्यतां पृ० ५२४ टि० ३ ॥ ४ 'न तु तथा सङ्कराभावो घटते । यदि सर्वात्मकः समवायो द्रव्याद्याधार एक एव तदा किमिति सङ्करो न स्यात् ? नापि च द्विवृत्तित्वनिवृत्तिः समवायस्य' इत्याशयो भाति ॥ ५ ' द्रव्यगुणयोः द्रव्यकर्मणोः द्रव्यद्रव्यत्वयोः गुणगुणत्वयोः कर्मकर्मत्वयोश्च समवायः इत्यभिधानप्रत्ययौ दृश्येते । तथा च आधाराधेयभावेन भेदे संयोगवद् द्विवृत्तित्वात् समवायस्यानित्यतैव ।' इत्याशयो भाति । दृश्यतां पृ० ५२८ टि० ८ ॥ ६ङ्गभावभावभावतं भा० । 'ङ्गभावभावगतं पा० वि० । ङ्गभावगतं डे० रं० ॥ ७ दृश्यतां पृ० ५२७ टि०२ ॥ ८° दृष्टान्तो प्र० ॥ ९ दृश्यतां पृ० ५२८ पं० १७ ॥ १० वावद्रव्य प्र० । ११ सम्बन्धे द्वय प्र० ॥ १२ ( दृश्येते ? ) ॥ १३ ( द्विवृत्तित्ववर्णनम् ? ) ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशारं नयचक्रम् ५३१ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ] यत्विदम् "ज्ञानमित्यादि, अनेन खपक्षे प्रत्यक्षविरोध उद्वाह्यते त्वया, ने हि...... एवं ते समवायैकत्वे द्रव्येष्वपि गुणज्ञानं स्याद् गुणज्ञानकारणत्वात् समवायस्य गुणवत् । एकत्वे योऽयं द्रव्यस्य द्रव्यभावेन सम्बन्धः स एव गुणस्यापीति द्रव्यस्यापि गुणत्वम् । गुणत्वाभिसम्बन्धाच्च तस्य द्रव्यभावहानिः । तैस्य निवृत्तिः । तस्य द्रव्यस्य गुणभावेन सम्बद्धत्वाद् गुणीभूतत्वाद् गुणानाश्रयत्वादभाव इति गुणभावनिवृत्तिर्गुणस्य तल्लक्षणानुपपत्तेः । क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् । द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् [ वै० सू० १1१1१४-१५]। ततश्च..... । किं कारणम् ? ..... । यत्त्वमित्यादि परोक्तमेव ग्रन्थमतिदिशति यावज्ज्ञानमित्यादि, द्रव्यादीनामाधाराणां द्रव्यत्वा- 10 दिभिराधेयैः परस्परव्यतिरिक्तैर्विशेषणैर्नियमो भवति स्वतत्त्वानुरूपप्रत्ययोत्पत्तेरिति । अत्रोच्यते - अनेन स्वपक्षे प्रत्यक्षविरोध उद्भाह्यते त्वया । कथम् ? न हीत्यादिना भावयति, हिशब्दो हेत्वर्थे, यस्मात् समवाय एकस्तस्माद् द्रव्यादिद्रव्यत्वादिभिरविशिष्टत्वाद् व्यतिरेको नियमच नास्ति, अतो द्रव्येष्वेव ‘द्रव्यम्' इति ज्ञानं न स्यात् । तस्य व्याख्या - एवमित्यादि, एवं ते समवायैकत्वे द्रव्येष्वपि गुणज्ञानं स्यादविशिष्टत्वाद् गुणेष्विव । अपिशब्दात् कर्मस्वपि । किं कारणम् ? गुणज्ञानकारणत्वात् सम- 15 वायस्य किमिव ? गुणवदिति, गुणेष्विव गुणवत् इति साधनम् । 1 तदेव व्याचष्टे - एकत्वे योऽयमित्यादि यावद् द्रव्यस्यापि गुणत्वम् । यदि दधिमधूदकादीनां कुण्डसङ्कीर्णानामविवेके नियमेन 'अयमस्यैव स्वभावः' इत्यशक्यमवधारयितुं संयोगे 'दधिकुण्डमेव, मधु - कुण्डमेव, उदककुण्डमेव वा' इति एकत्वात् संयोगस्य सर्वेणापि सम्बन्धात्, तथात्रापि यो द्रव्यभावेन ३५९-२ सम्बन्धः स एव र्गुणस्यापि इति एतस्मात् कारणात् प्राप्तं गुणत्वं द्रव्यस्यापि गुणभाव:, द्रव्यं गुणो 20 भवतीत्यर्थः । गुणत्वाभिसम्बन्धाच्च तस्य द्रव्यभावहानि:, एवं गुणभावापत्तौ द्रव्यभावो हीयत इति पररूपतामापाद्य स्वरूपत्यागमापादयति । तस्येत्यादि व्याख्यानसाधनं यावद् निवृत्तिः । द्रव्यं गुणभावेन सम्बद्धत्वात् त्यक्तद्रव्यभावं गुणवदिति । एवं तावद् द्रव्यस्य गुणत्वापत्तिर्द्रव्य [व] त्यागचानवस्थाने । तस्य द्रव्यस्येत्यादि । तद् द्रव्यं गुणभावेन सम्बद्धमतो गुणीभूतं नाश्रयो गुणान्तरस्येति, द्रव्यमनाश्रितस्य च गुणस्याभाव:, ततो गुणानाश्रयस्य द्रव्यस्याप्यभावः, तदभावादसति द्रव्ये कस्य गुणः ? इति 25 गुणभावनिवृत्तिर्गुणस्य तल्लक्षणानुपपत्तेः । 'क्रियावत्' इत्यादिसूत्रद्वयेन लक्षणं दर्शयति । ततश्चेत्याटार्थोनयः । किं कारणम् ? इत्यादि कारणप्रश्नपूर्वके पूर्ववदत्रापि देव्यत्वापत्तिगुणत्वत्यागौ द्वे अनवस्थाने । १ 'यत्त्विदमभिधीयते 'द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यत्वादिभिः परस्परव्यतिरिक्तैर्नियमाद् द्रव्येष्वेव द्रव्यज्ञानम्' इत्यादि, अनेन स्वपक्षे प्रत्यक्षविरोध उद्भाह्यते त्वया ।' इत्याशयो भाति ॥ २ ‘न हि समवायैकत्वेऽविशिष्टत्वाद् व्यतिरेको नियमश्चास्ति, अतो द्रव्येष्वेव द्रव्यज्ञानं न स्यात् । इत्याशयो भाति ॥ ३ ' तस्य द्रव्यस्य गुणभावेन सम्बद्धत्वाद् गुणवद् द्रव्यभावनिवृत्तिः' इत्याशयो भाति ॥ ४ दृश्यतां पृ० ४४० टि० ५ ॥ ५ द्रव्यादि भा० प्रतौ नास्ति ॥ ६ ( गुणत्वस्यापि ? ) ॥ ७ व प्र० । गुणत्वापत्तिद्रव्यत्वत्यागौ द्वे अनवस्थाने इत्यर्थः ॥ ८ गुणभूतं य० ॥ ९ गुणत्वापत्तिगुणत्वात्यागt भा० । ( गुणस्य द्रव्यत्वापत्तिगुणत्वत्यागौ ? ) ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे तथा योऽयं गुणस्य कर्मत्वेन..... न गुणकर्मणी तथालक्षणे। तयोरलक्षणत्वादसत्त्वादाश्रयत्वोपलक्ष्यद्रव्याभावः। तदभावादाश्रयिणां द्रव्यत्वादीनामप्यभावः। एवं द्विकसंयोगेन चतुर्विंशतिरनवस्थाचक्रकाणि भवन्ति तथा कार्यकारणयोः...... गुणस्येत्यादेः। 5 ननु सर्वगतत्वात् समवायस्य स्वतत्त्वेनापि सम्बन्धात् तत्त्वं सिध्यति । नन्वत एव सङ्कर उच्यते परतत्त्वेनापि सम्बन्धादतत्त्वमपीति । एवं च स्वविषयसर्वगतानि तत्त्वानि समवायस्य सर्वगतैकत्वाभ्यां सर्वगतानि प्राप्तानि । 'अतो द्रव्यगुणकर्मणाम्... 'कर्मसु कर्मज्ञानम् । तथा योऽयं गुणस्य कर्मत्वेनेत्यादि कर्मणा सह पररूपापत्तिः स्वरूपत्यागश्च द्वे अनवस्थाने 10 लक्षणायोगद्वारेण सव्याख्याने गतार्थे यावद् न गुणकर्मणी तथालक्षणे इति लक्षणाभावापादनम् । तयोरलक्षणत्वादसत्त्वात् , तयोर्गुणकर्मणोरलक्षणत्वादसत्त्वं खपुष्पवत् , तदसत्त्वादाश्रयत्वोपलक्ष्यद्रव्याभावः, गुणकर्मणोरुपलक्षणयोराश्रयिणोरभावाद्वाश्रयो द्रव्यं नास्ति औष्ण्याभावेऽन्यभाववत् उपलक्षणाभावात् खपु३६०-१ ष्पवद्वा । तस्मिंश्चासति द्रव्ये निराश्रययोर्गुणकर्मणोरभावाद् द्रव्यस्य चाभावादाश्रयिणां द्रव्यत्वादीनामप्य भावः, उक्तं हि – उत्पन्नमाश्रयमाश्रयन्त्याश्रयिणः [ ] इति । 20 एवमेतानि द्विकसंयोगेन ,व्यस्य गुणेन सह कर्मणा च द्वे, गुणस्य द्रव्येण कर्मणा च सह द्वे, कर्मणो द्रव्येण गुणेन च सह द्वे, इति षट् चक्रकाणि । द्रव्यत्वेन गुणस्य कर्मणश्च द्वे, गुणत्वेन द्रव्यस्य कर्मणश्च द्वे, कर्मत्वेन द्रव्य[स्य] गुणस्य [च] द्वे, इति षट् । एवं द्वादश चक्रकाणि । एवं द्रव्यत्वस्य कर्मणा गुणेन च गुणत्वस्य द्रव्येण कर्मणा च कर्मत्वस्य द्रव्येण गुणेन च षट् चक्रकाणि । द्रव्यस्य गुणत्वेन कर्मत्वेन च, गुणस्य द्रव्यत्वेन कर्मत्वेन च, कर्मणो द्रव्यत्वेन गुणत्वेन च षट्, तान्यपि द्वादश । एवं द्विक25 संयोगेन चतुर्विंशतिरनवस्थाचक्रकाणि भवन्ति । कस्मात् ? तथा कार्यकारणयोरित्यादि यावद् गुणस्येत्याँदेरिति हेतुं व्याख्यातमेवोपनयति । ___ आह-ननु सर्वगतत्वादित्यादि । समवायस्य सर्वगतत्वात् स्वतत्त्वेनापि सम्बन्धोऽस्ति, द्रव्यस्य द्रव्यत्वं स्वतत्त्वम् , एवं शेषयोरपि शेषद्वयम् । सर्वेण सह समवायसद्भावात् स्वेनापि तत्त्वेन सम्बन्धात् तद्भावस्तत्त्वं द्रव्यभावो गुणभावः कर्मभावो वा सिध्यतीति । अत्रोच्यते-नन्वत एव सङ्कर उच्यते 30 परतत्त्वेनापि सम्बन्धादतत्त्वमपीति । इति हेत्वर्थे, यस्मात् परतत्त्वेनापि सम्बन्धस्तस्मात् तद्भावोऽपि अतद्भावोऽपीति सङ्करदोषाविमोक्षः, अपिशब्देन त्वदुक्तेनैव समर्थितत्वात् । किञ्चान्यत् , दोषोपचयश्च, एवं १'अतो द्रव्यगुणकर्मणां व्यवस्थितानामभावात् न द्रव्येषु द्रव्यज्ञानं गुणेषु गुणज्ञानं कर्मसु कर्मज्ञानम् ।' इत्याशयो भाति ॥ २ दृश्यतां पृ० ४५५ पं० १८॥ ३ द्रव्यगुणेन प्र० ॥ ४ चक्राणि य० ॥ ५ चक्राणि प्र०॥ ६ गुणद्रव्यत्वेन प्र० ॥ ७ त्यादिरिति य० ॥ ८ हेतूव्याख्यानमेवो' वि० ही० ॥ ९°ख्यानमें डे. विना॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ प्रशस्तमतिमतखण्डनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् यदपि उक्तं......."तदपि नैव, कुण्डदध्याधाराधेयभावसमवायानामप्येकत्वात् । समवायनिमित्तस्य तत्त्वस्य स्ववृत्तिप्रतिलम्भादेव लोकसिद्धिवद् भेदभावात् कारकशक्तित एव तु कुण्डदनोः संयोगैकत्वेऽप्याधाराधेयनियमः । यथा च स्वविषयेत्यादि । स्वविषयसर्वगतानि हि तत्त्वानीष्यन्ते तत्समवायस्य सर्वगतैकत्वाभ्यां तान्यधुना सर्वगतानि ३६०-२ प्राप्तानि, ततोऽभ्युपगमविरोधो जायत इति शेषपदार्थाभाव उच्यते, अतो द्रव्यगुणकर्मणामित्यादि प्राक्तन एव ग्रन्थो यावत् कर्मसु कर्मज्ञानमिति । तत्र 'व्यवस्थितलक्षणानामभावात्' इति लक्षणाभावद्वारेण निराकरणम् , इह तु 'व्यवस्थितानामभावात्' इति सह तत्त्वैर्लक्षणैश्च तेषां निराकृतत्वादिति विशेषः आधेय. ज्ञानभेदनिमित्तनियमनिराकरणद्वारेण चेति । ___ यदपीत्यादि । यदपि परेणोक्तं यथा कुण्डदधिसंयोगे 'दध्येवाधेयम् , कुण्डमेवाधारः' इति नियमस्तथा द्रव्यमेवाधारो गुणकर्माद्येवाधेयम् , द्रव्यगुणकर्माण्येवाधारो द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वान्येवाधेयानि इति, तदपि 10 नैव, कुण्डदध्याधाराधेयभावसमवायानामप्येकत्वात् , तत्रापि त्वन्मतेनाधारयोः कुण्डदध्नोराधेययोश्च कुण्डत्वदधियोस्तयोस्तत्त्वयोर्द्रव्यत्वादीनां च तत्त्वानां ये समवायास्तेषामप्येकत्वात् समवायिभेदोपचरितभेदानामाञ्जस्येनैकत्वात् पूर्वोक्तविधिना तदवस्थः सङ्करदोषः । ___ यद्यसङ्करेण नियमेन चार्थः वयमेव स्पष्टतरं ब्रूमः, तद्यथा-समवायनिमित्तस्येत्यादि। समवायस्य यद् निमित्तं तत्त्वं कुण्डदध्नोः कुण्डत्वं दधित्वं च तस्य स्वत एवात्मप्रतिलम्भः, तयोश्च लोकसिद्धिवद् 15 १'यदप्युक्तं 'यथा कुण्डदनोः संयोगैकत्वेऽप्याधाराधेयनियमस्तथा समवायैकत्वेऽपि द्रव्यादीनामाधाराधेयभावनियमः' इति तदपि नैव।' इत्याशयो भाति । दृश्यतां पृ० ५२४ टि०३॥ २ “यद्यप्यपरिच्छिन्नदेशानि सामान्यानि भवन्ति तथाप्युपलक्षणनियमात् कारणसामग्रीनियमाच्च स्वविषयसर्वगतानि, अन्तराले च संयोगसमवायवृत्त्यभावादव्यपदेश्यानीति ।" इति प्रशस्तपादभाष्ये सामान्यनिरूपणे । अस्य व्याख्या - "खविषये सर्वत्र सामान्य समवैति नान्यत्रेति यत् पूर्वमुक्तं तत्र कारणमाहयद्यपीति । यद्यपि सामान्यानि यत्र तत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बन्धादपरिच्छिन्नदेशानि अनियतदेशानि तथापि उपलक्षणस्य अभिव्यजकस्यावयवसंस्थानविशेषस्य नियमाद् नियतत्वात् पिण्डोत्पादककारणसामग्रीनियमाच स्वविषये सर्वत्र समवयन्ति नान्यत्र । एतदुक्तं भवति - सास्नादिसंस्थानविशेषो गोत्वस्य व्यञ्जकः, केसरादिसंस्थान विशेषोऽश्वत्वस्य, विशिष्टग्रीवादिसंस्थानविशेषश्च घटत्वस्य, प्रतीतिनियमात् । एते च संस्थानविशेषाः न सर्वेषु पिण्डेषु साधारणाः, अपि तु प्रतिनियतेषु भवन्ति । तत्र यद्यपि सर्व सामान्यं सर्वत्रोपजायमानेन स्वविषयेणेव पिण्डान्तरेणापि सम्बर्द्ध क्षमते तथापि यस्याभिव्यञ्जकं यत्र पिण्डे सम्भवति तस्य तत्रैव समवायो नान्यत्र । एवं सामग्रीनियमादपि सामान्यसम्बन्धनियमः । एष हि तन्त्वादीनां कारणानां स्वभावो यदेतैरुत्पाद्यमाने द्रव्ये पटत्वमेव समवैति नान्यत् । एष हि मृत्पिण्डादीनां महिमा यत् तैः क्रियमाणे द्रव्ये घटत्वमेव समवैति नान्यत् । न तावत् सामान्यमन्यतः समागत्य सम्बध्यते निष्क्रियत्वात् , तत्रापि यदि पूर्वं नासीत् तत्रोपजायमानेन पिण्डेनास्य सम्बन्धो न स्यात् , दृश्यते च सर्वत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बन्धः, तस्मात् सर्वं सर्वत्रास्तीति कस्यचिद् मतं निराकुर्वन्नाह - अन्तराले संयोगसमवायवृत्त्यभावादव्यपदेश्यानीति । अन्तरालमिति आकाशं वा दिग्द्रव्यं वा स्तिमितवायुर्वा मूर्तद्रव्याभावो वा, तेषु गोत्वादिसामान्यानां न संयोगो नापि समवायः । न चासम्बद्धानामेव तेषामवस्थाने प्रमाणमस्ति, अतोऽन्तराले न सामान्यानि व्यपदिश्यन्ते, न सन्तीत्यर्थः । कथं तर्हि तत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बध्यन्ते ? कारणसामर्थ्यात् । संयोगो ह्यन्यतः समागतस्य भवति तत्रैवावस्थितस्य वा भवति, तस्माद् विलक्षणस्तु समवायो यत्र यत्रैव पिण्डोत्पत्तौ कारणानि व्याप्रियन्ते तत्र तत्रैव कारणानां सामर्थ्यात् पिण्डेऽन्यतोऽनागतस्य तत्रास्थितस्यापि सामान्यस्य भवति वस्तुशक्तेरपर्यनुयोज्यत्वात् ।" इति न्यायकन्दल्याम् ॥ ३ गतत्वाभ्यां प्र०॥ ४ दृश्यतां पृ० ५२६ पं० १॥ ५ वेति पा० ॥ ६ योस्त' इत्यस्य द्विर्भूतत्वे त्वयोस्तत्त्वयों इत्यपि पाठः साधुः ॥ ७°वायभेदो य० ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे त्वमेवात्थ 'न समानत्वात्' [ ] इति तथेहापि समानमुत्तरम्-समवायैकत्वेऽपि कारकशक्तरेव नियमभेदः।............... कस्मिंश्चिदेव। यत्तूच्यते- व्यङ्गथव्यञ्जक". "न सङ्करप्रसङ्गः [ ] इति, ऐतच्च व्यङ्ग्यव्यञ्जक ''असङ्करः स्यादेवम् । समवायस्य...... । तथा यदि य एव..... गुणकर्मभाव5 विनिवृत्तिरिति सर्व सर्वविकल्पं प्रपश्चनीयं यथावार्थम् । ३६ भेदः स्ववृत्तिप्रतिलम्भादेव, त्वन्मतेऽप्याकाशकालयोरिव दधिकुण्डयोर्लोकेन प्रतिपन्नो भेदो नार्थान्तरात तथा ततो वयमपि लोकविरुद्धं मा वोचामेति लोकसिद्धिवद् "भेदभावात् कारकशक्तित एव तु प्रतिपद्यते भेदेसिद्धिं संयोगपरिणामकृतं सदप्यैक्यमनादृत्य तयोः संयोगैकत्वेऽप्याधारशक्तिः कुण्डस्य आधेयशक्तिर्दन इति नियममसङ्कीर्णमाचक्ष्महे । अस्यार्थस्य भावनाग्रन्थो गतार्थो यावदाधाराधेयनियम इति । 10 अवश्यं चैतदेवम् , त्वया समवायमपि कल्पयित्वैतदेव प्रतिपत्तव्यम्; स्वंद्वचनप्रामाण्यादेव । यथा त्वमे वात्थेति संयोगैकत्वेऽपि कारकशक्तित एव कुण्डदध्नोराधाराधेयनियमो भिन्न इत्युत्तरमात्थ । किं तदुत्तरमिति चेत् , उच्यते - न, समानत्वादिति, तथेहापि समानमुत्तरम् - समवायैकत्वेऽपि कारकशक्तेरेव नियमभेदः । तद्वयाख्या गतार्था यावत् कस्मिंश्चिदेवेति । यत्तूच्यते-व्यङ्ग्यव्यञ्जकेत्यादि । व्यङ्ग्यव्यञ्जकत्वभेदात् द्रव्यद्रव्यत्वादीनां भेदो घटप्रदीपवदिति 15 परिहारान्तरं गतार्थं यावद् न सङ्करप्रसङ्ग इति वैशेषिकस्य । आचार्यवचनं तु एतच्च व्यङ्गथव्यञ्जकेत्यादि, स्यादेतदेवम् यदि दार्टान्तिकस्य द्रव्यद्रव्यत्वादेर्व्यङ्ग्यव्यञ्जकभावः प्रदीपघटदृष्टान्तवत् पृथक् सिद्धः स्यात्, न तु तदात्मभेदनियमः सिद्धः, सिद्धे हि तदाधाराधेयभेदनियमोऽपि स्यात् , तदर्थोद्भावनं यावदसङ्करः स्यादेवमिति । तस्य हेतोरसिद्धिप्रतिपादनार्थं चाह -समवायस्येत्यादि, उक्तोत्तरमेवैतत् , आधाराधेयभेदनियमाभावस्य तुल्यत्वाद् दृष्टान्तसाधर्म्यं न भजत एतदिति प्राग् विस्तरेण व्याख्यातार्थ20 त्वात् । तदेव स्मारयति - तथा यदि य एवेत्यादि यावद् गुणकर्मभावविनिवृत्तिरिति सर्वं सर्वविकल्पं ३६१-२ प्रपञ्चनीयमिति पूर्वोक्तार्थातिदेशः । आ कुतः ? इति चेत् , उच्यते-- अस्माद् ग्रन्थावधेः । यथास्वार्थ मिति यो यः स्वार्थो यथास्वार्थ द्रव्य-गुण-कर्म-द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्वसंयोगाव्यवस्थानचक्रकाण्येव व्याख्येयानि पूर्ववदिति । १'समवायैकत्वेऽपि कारकशक्तेरेव आधाराधेयनियम इति न द्रव्यादिषु सर्वत्र द्रव्यत्वादि समवैति, किन्तु कस्मिंश्चिदेव' इत्याशयो भाति ॥ २'यत्तूच्यते-व्यङ्ग्यव्यञ्जकत्वमेदाद् द्रव्यदव्यत्वादीनां भेदो घटप्रदीपवदिति तदाधाराधेयभेदनियमाद् न सङ्करप्रसङ्गः' इत्याशयो भाति । दृश्यतां पृ. ५२४ टि. ३॥ ३ 'एतच्च व्यङ्ग्यव्यञ्जकभावे द्रव्यद्रव्यत्वादीनां पृथक् सिद्धे सति स्यात् , न तु सिद्धः, सिद्धे हि तस्मिंस्तदाधाराधेयभेदनियमोऽपि स्यात् , ततश्च असङ्करः स्यादेवम्' इत्याशयो भाति ॥ ४ 'समवायस्यैकत्वे कुण्डदधिसंयोगवद् आधाराधेयभेदनियमाभावात् तदवस्थ एव सङ्करप्रसङ्गः' इत्याशयो भाति ॥ ५ तथात्ततो य० । अत्र तथाऽन्ततो इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ६'वयमपि.."इति नियममसङ्कीर्णमाचक्ष्महे' इत्यन्वयः ॥ ७ भेदाभावात् प्र० ॥ ८ ( प्रतिपद्य भेदसिद्धिं ? ) ॥ ९°सिद्धि य० ॥ १० तद्वच प्र० ॥ ११ वात्रेति प्र० ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिकाभिमतसमवायनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् ५३५ यत् पुनरिदमाशङ्कितं 'समवायैकत्वं पञ्चत्वव्यवहारेण विरुध्यते' [ ] इति, तदेवमेव । यत् पुनरिदं प्रत्युच्यते-न, आश्रयविशेषाद् भाववत्.....तथा समवायैकत्वेऽपि...... भविष्यति [ ] इति, इदं निर्मूलमेव व्यङ्गयस्याधारस्य वाऽनियमात् कुतस्तद्वयङ्गयो व्यञ्जको वाधेयोऽर्थः ? कुतो वाश्रयाणां वैचित्र्यम् ? अजलचन्द्रवदेकत्वात् , समवायस्य भावस्य च जलचन्द्रेण साधाभावात् कुतो नानात्वोपचारः ? भावो वा कुतः? एवमेतदुभयमुभयभाक् । सामान्य भावः प्रकृत्यर्थः, यत् तत् तेन भूयते सा सत्ता, विशेषोऽपि प्रत्ययार्थः सः। यत् पुनरिदमाशङ्कितमित्यादि । समवायैकत्वं पश्चत्वव्यवहारेण विरुध्यते इति यदाशङ्कितं 10 त्वया तदेवमेव ममापि प्रतिभाति विरुध्यत एवेति । यत् पुनरिदं प्रत्युच्यते तस्याशङ्कितस्योत्तरं वैशेषिकेण - न, आश्रयविशेषाद् भाववदित्यादि, द्रव्यादिसद्भावत्रयं दृष्टान्तः, प्रतिदृष्टान्तश्च जलचन्द्रः, तथा समवायैकत्वेऽपीत्यादि दान्तिकं गतार्थं यावद् भविष्यतीति । अस्योत्तरमाहाचार्यः- इदं निर्मूलमेव, व्यङ्गयस्याधारस्य वाऽनियमात् पूर्वोक्तादाश्रय एवासिद्धो व्यञ्जको व्यङ्गयो वा त्वदिष्टः, कुतस्तद्वयङ्गयो व्यञ्जको वाधेयोऽर्थः ? कुतो वाश्रयाणां 15 वैचित्र्यम् , समवायैकत्वे षट्पदार्थनिवृत्तेः सुभावितत्वात् ? अजलचन्द्रवद् व्योमचन्द्रवदेकत्वात् समवायस्य भावस्य च सत्ताख्यस्य॑ जलचन्द्रेण सह साधाभावात् कुतो नानात्वोपचारः, छायामात्रत्वाच्च जलचन्द्रस्याबहुत्वाद्वा? भावो वा कुतः, भावोऽपि द्रव्यादिव्यतिरिक्तो नास्येवैकः तन्मूलत्वा द्वि[वा]दस्य इत्यलमतिविकाशिन्या सङ्कथया । एवं स्वभावसत्-सम्बन्धसद्वस्तुभावभेदवादिवेशेषिकमतनिराकरणप्रपञ्चेनैतदायातमिति तदू दर्श- 20 यति- एवमेतदित्यादि 'उभयमुभयभाकू' इत्यस्य नयस्य स्वरूपम् , यत् तत् सामान्यं तदपि विधीयते निय- ३६२-१ म्यते योऽपि विशेषः सोऽपि विधीयते नियम्यते चेति । तद् व्याचष्टेऽक्षरार्थं प्रदर्शयन् प्रकृतिप्रत्ययार्थाभ्याम् - सामान्य भावः प्रकृत्यर्थः, तद् दर्शयति- यत् तत् तेन भूयते सा सत्ता, भू सत्तायाम् [पा० धा० १] इति पाठात् सामान्यम् , तत् किं प्रकृत्यर्थमात्रमेव ? 'न' इत्युच्यते, विशेषोऽपि प्रत्ययार्थः स तस्यैव भवितृत्वाचिप्रत्ययार्थत्वात् स एव प्रकृत्यर्थः प्रत्ययार्थोऽपीत्युक्तः । योऽसौ भवति कर्तृवाचिप्रत्ययार्थः स 25 विशेषः सामान्यमपि भवति सत्ता भावः भवनात्मकत्वात् भवनं सामान्यमन्तरेण तस्याकर्तृत्वादभवितृत्वात स एव प्रत्ययार्थः प्रकृत्यर्थानतिक्रमेण वृत्त इति । १ 'यथा भावस्यैकत्वेऽपि जलचन्द्रवदाश्रयविशेषाद् नानात्वोपचारः तथा समवायस्यैकत्वेऽपि व्यङ्ग्यव्यजकभावमेदादाधाराधेयनियमादाश्रयविशेषात् पञ्चत्वव्यवहारो भविष्यति' इत्याशयो भाति ॥ २°श्च । जलपा. ही० । 'श्चाजल' भा० ॥ ३ धानियमात् भा० । धायनियमात् य० ॥ ४ स्याजल° य० । ( °स्याजल° ? )॥ ५°स्य । बहु पा० ही० । °स्य बहु° डे• रं० वि०॥ ६°त्वाद्विदस्य प्र० । अत्र त्वाद्वादस्य इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ७ कासिन्या प्र० । दृश्यतां पृ० १०७ टि.६॥ ८त्वावाचि प्र०॥ ९यार्थोऽपि त्यक्तः य० । ( यार्थोऽपि युक्तः ?)॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे सामान्य प्रवृत्तिः विधिर्भावः। विशेषोऽपि..... नियमोऽभावः। एतदुभयं पूर्ववदेकत्वमनापद्यमानं सामान्यं विशेषश्च भवतः। प्रवृत्तौ निवृत्तिः....'येन... यथा... 'येन हि....। यदि [स्य... "खपुष्पवत्। एवं द्रव्यक्षेत्र..............सदसत्त्वम् । प्रतिस्खं घटादि मृदादि कारणमपेक्षते 5 निर्विशेषत्वे. 'इति खावयवभेदेषु सदसत्त्वेन वृत्तिः। तद्भावाभावात्मको घट इति स्यान्मतम् - विधिविधि यमतवदेकत्वापत्तिः सामान्यविशेषयोरिष्टा, सैषा त्वदुक्तन्यायेनैवं त्वेकत्वापत्तिरपीति 'सा मा भूत्' इति सर्वविकल्पभावकत्वव्युदासेन विशेषलक्षणमनयोः पर्यायादिभिर्विभक्तं वक्तुकाम आह - सामान्यं प्रवृत्तिरित्यादि यावद् विधिर्भाव इति तथा विशेषोऽपीयोदि यावद् नियमोऽभाव इति द्वावेतौ [भावा]भावौ पर्यायभेदात् । एतदुभयं पूर्ववद् विधिविध्यरविकल्पपुरुषा10 दिवादवत् ‘एकमेवेदम्' इत्येवंविधं भावमनापद्यमानं सामान्यमपि सामान्यं विशेषश्च भवतः विशेषोऽपि विशेषः सामान्यं च भवत इति । तद् दर्शयति -प्रवृत्तौ निवृत्तिरित्यादि, उभयमन्योन्याविनाभावि भावो वस्त्वित्यर्थः । भावाभावरूपं भवनं सद् वस्तु, तस्य सतो भावः सत्ता, यत् सता भूयते सततनियमेनेति प्रकृतिप्रत्ययार्थयोरुभयो. ३६२-२ रुभयं नियमो विधिश्च । तावेव दर्शयति 'येन' इति प्रत्ययार्थं 'यथा' इति प्रकृत्यर्थं च, येन हीत्यादि 15 का क्रियायां नियतेन नियुतायां भवनमाह । यदि [अ]स्येत्यादि अन्यथानिष्टापादनं यावत् खपुष्पवदिति भवननियमेन आत्मलाभो भवत उक्तः, तेतश्चावरणेन भवितृनियमेन भवनात्मलाभ इत्येतदुभयमुभयत्र विधिनियमश्चेति सामान्येनोक्तम् । विशेष्यापि वक्ष्यति । ___ एवं द्रव्यक्षेत्रेत्यादि यावत् सैदसत्त्वमिति । द्रव्यतो घटो भवन्नात्मानुवृत्त्या पटादिव्यावृत्त्या घटान्तरव्यावृत्त्या च भावाभावात्मभ्यां भवति । क्षेत्रतो गृहे घटो न बहिर्न "मंनय (?) इति स्वक्षेत्रे भवन 20 परक्षेत्रे क्षेत्रान्तरे चाभवन् भवति । कालतो वर्तमाने काले भवन्नतीतानागतयोः कालान्तरयोरभवन् शिवकस्तूपकादिभिः पूर्वैरुत्तरैश्च कपालादिभिरभवन् शिवकावस्थायामेव वा पिण्डेस्तूपकाभ्यां पूर्वोत्तराभ्यामभवन् शिवकत्वेन भवन् 'भवति' इत्युच्यते । अथवा भावतः शिवकादिभिराकारैर्धर्वर्तमानयु(रयु?)गपद्भाविभिर्युगपद्भाविभिश्च रूपरसादिभिर्भवन् भावान्तरैरुपयोगादिभिश्चाभवन् भवतीति सदसत्त्वम् , एवं सर्वभावानां भावा[-ऽभावा]त्मकत्वम् । १'सामान्यं प्रवृत्तिव्यमन्वयो धर्मी विधिर्भावः । विशेषोऽपि निवृत्तिः पर्यायो व्यतिरेको धर्मोऽन्यत्वं नियमोऽभावः ।' इत्याशयो भाति, दृश्यतां पृ० ३७१-१॥ २ ‘एवं द्रव्यक्षेत्रकालभावैः घटपटघटान्तरस्वक्षेत्रक्षेत्रान्तरस्वकालकालान्तरभावभावान्तरभावाभावाभ्यां सदसत्त्वम् ।' इत्याशयो भाति ॥ ३ 'कण्ठः खात्मना भवति न कपालाद्यात्मना कपालानि स्वात्मना भवन्ति न कण्ठाद्यात्मना इति खावयवभेदेषु सदसत्त्वेन वृत्तिः।' इत्याशयो भाति ॥ ४ नियमत प्र० । विधिविधिनयमतस्वरूपं द्वितीयारे द्रष्टव्यम् ॥ ५°त्यादिर्यावद प्र०॥ ६र्थयोरुभयोरुभयो नियमो पा० वि० भा० । र्थयोरुभयो नियमो डे० २० । अत्र 'र्थयोरुभयोर्नियमो इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ७नियं भवन भा० ॥ ८( यदि चेत्यादि ? )॥ ९ ( ततश्चाकरणेन ? )॥ १० ससत्त्व प्र०॥ ११ मंतय इति वि० । संनय इति २० । अत्र मण्डपे इति पाठः स्यात् , मध्ये इति वा भवेत् ? ॥ १२ पिण्डकस्तूपकाभ्यां भा० ॥ १३ °मानैर्युगपद्भाविभिर्युगपद्भाविभिश्च प्र० । अत्र मानैर्युगपद्भाविभिश्च इत्यपि पाठः स्यात् ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयोभयनयस्वरूपनिरूपणम्] द्वादशार नयचक्रम् ५३७ तदभावे न भवति भाषाभावभाव एव च भवति । तथा घटपटादिद्रव्यक्षेत्रकालभावभावाभावसत्ताया घटसामस्त्येऽपि न कश्चिद् विशेषः, वस्तुत्वात्, असामस्त्यवत् । यथैव..........''गुणावृत्त्यनावृत्तिभेदेषु। विवक्षया वैष विशेष उभयोरपि तत्त्वात्। तथा घटस्तावदस्त्येव क्रियागुणव्यपदेशवत्त्वात् पटरथवत्, सर्वसर्वसमवाया- 5 सत्त्वाद् योग्यस्यैव योग्येषु समवायात्, यथा रूपे घटः, तथा रसादिष्वपि भावनीयं अथवा प्रतिपत्तिववस्तुप्रवृत्तेः वस्तुनि वस्तुनि वृत्तिः (?)। प्रतिस्वं घटादि मृदादि कारणमपेक्षते, 'आदि'ग्रहणात् पटादि तन्त्वाद्यपेक्षते, निर्विशेषत्व इति कारणान्तरानपेक्षत्वात् स्वकारणापेक्षत्वाच्च भावाभावत्वेनाविशेषः, कण्ठः खेनात्मना भवति कपालाद्यात्मना न भवति, कपालानि स्वात्मना ३६३-१ भवन्ति न कण्ठाद्यात्मनेति भावाभावाद्यात्मना परस्परतश्चासत्सु सत्सु च भेदं भेदं प्रति वृत्तत्वात् इति 10 स्वावयवभेदेषु सदसत्त्वेन वृत्तिः । तस्यार्थस्य भावना -तद्भावाभावात्मको घट इति तदभावे न भवति भावाभावाभावे न भवति भावाभावभाव एव च भवति तद्भाव एव भवतीत्यर्थः ।। __एतस्यैवार्थस्य भावनार्थ साधनमाह -तथा घटपटादिद्रव्यक्षेत्रकालभावभावाभावसत्ताया घटसामस्त्येऽपि न कश्चिद् विशेष इति प्रतिज्ञा । घंटपटघटान्तरेत्यादिदण्डकोक्तार्थचातुर्विध्यस्य सदसत्त्वमसामस्त्येन भावितम् , सामस्येऽपि तथेति साध्यार्थः । वस्तुत्वादिति हेतुः । असामस्त्यवदिति 15 दृष्टान्तः । यथैवेत्यादि चातुर्विध्येन दृष्टान्तवर्णना गतार्था यावद् गुणावृत्त्यनावृत्तिभेदेष्विति । द्विगुणत्रिगुणकृष्णशुक्लत्वादिरावृत्तिः, शुक्लः कृष्ण इत्यनावृत्तिः । तत्रैकगुणसत्त्वं द्विगुणासत्त्वम् , द्विगुणसत्त्वमेकगुणासत्त्वम् , शुक्लसत्त्वं कृष्णासत्त्वम् , कृष्णसत्त्वं शुक्लासत्त्वमित्यादि । ___ भावाभावात्मकत्वाविशेषे सामस्त्यासामस्त्यविशेषः क इति चेत् , उच्यते -विवक्षया 'वैष विशेष उभयोरपि सामत्यासामस्ययोः । कस्मात् ? तत्त्वात् , तद्भावस्तत्त्वं भावाभावत्वम् , तस्मात् तत्त्वात 20 भावाभावत्वाद् विवक्षाविशेषादेवैष विशेषः 'समस्तो घटः, असमस्तः कण्ठकपालादिः' इत्यादि प्रागुक्तं पातुरात्म्यम्, सकलादेशवशाद् विकलादेशवशाच्च प्रतिपादनोपायत्वात् एवं भावाभावात्मकत्वं सर्वस्य सकळादेशेन भावितम् , विकलादेशेन प्रत्येकं भावयिष्यामः। तत्र भावात्मकत्वं तावत् - तथा घटस्तावदस्त्येव क्रियागुणव्यपदेशवत्वात् , उदकाद्याहरणं ३६३-२ क्रिया, गुणो रूपादि, व्यपदेशो लिङ्गं हेतुरपदेशः 'लिङ्गम्' इत्यादिशब्दो वा । पटरथवदिति भावात्मकत्वे 25 दृष्टान्तः खपुष्पवैलक्षण्येन । बैधयेण सर्वसर्वसमवायासत्त्वादिति भावनाहेतुः, न हि सर्वं सर्वत्र समवैति तन्तुषु घटः कपालेषु वा पटः, तस्मात् सर्वसर्वसमवायासत्त्वाद् योग्यस्यैव योग्येषु समवायात् १ प्रतिपत्तिववस्तुप्रवृत्तेः वस्तुनिवस्तुनिवृत्तिः प्र० । अशुद्धोऽयं खण्डितो वा पाठ इति भाति । ( प्रतिवस्तु प्रवृत्तेः वस्तुनि वस्तुनि वृत्तिः ? प्रतिपत्तिवद् वस्तुप्रवृत्तेः वस्तुनिवृत्तिः ?)॥ २°णांतपेक्ष भा०॥ ३°णानपेक्ष'प्र०॥ ४ (वृत्तत्वात् प्रतिखावयव ?)॥ ५भावाभावाभाव एव य० । भावाभाव एव भा० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ५३६ टि. २॥ ७ असामान्यवदिति प्र०॥ ८शुक्ल कृष्ण प्र०॥ ९ (चैष ?)॥१० तस्मात्तत्तत्वात् प्र.॥ ११त्वाधुदका प्र०॥ १२ "हेतुरपदेशो लिङ्गं निमित्तं प्रमाणं कारणमित्यनान्तरम्।" बै० स०९।२।४ । श्यतां पू० ४८९ टि०६॥ नय०६८ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [ सप्तम उभयोभयारे प्रत्येकं सत्त्वात्। अथ पुनरेवं न स्यात् ततोऽसावसन्नेवापद्येत सिकताखिव तैलम् । न च तथा स्थितौ घटो न भवति, रूपरसयोघेटभावात्। ___ नंनु घट"..... 'पृथिव्यपि मृदादिः, इतरथा निर्मूलत्वात्। तथा च एकभवनात्मकत्वात् घटघटस्वात्मवत् तद्विशेष एव विशेषो नाभावः पृथिवीसामान्ये 5 सत्येव ऊर्द्धत्वविस्तृतत्वादिः। 'अस्त्येव' इति वर्तते, यथा रूपे घटः गुणसमुदायवाददर्शनेन, 'रूपं वा' इति गुणमात्रवादे 'तदाधारो वा' इत्यवयविवादे 'यथा रूपे घटोऽत्येव' इत्यादि तथा रसादिष्वपि भावनीयमेकैकस्मिन् वृत्तत्वात् । अथ पुनरेवं न स्यात् पटरथादिसाधर्म्यण खपुष्पवैलक्षण्येन वैकैकस्मिस्तिलेष्विव तैलं ततोऽसावसन्नेवापद्येत, किमिव ? सिकतास्विव अविद्यमानं यथा सिकतासु प्रत्येकं समुदायेऽपि तैलं 10 नात्येव तथा घटो रूपादावेकैकस्मिन्नसत्त्वादसन्नापद्येत, अनिष्टं चैतत् । एवं सामस्येन घंटाद्यस्तित्व रूपादीनां प्रत्येकं सत्त्वात् , इतरथा रूपवद् रसोऽपि रूपं स्यात् स्वरूपासत्त्वात् , न च रूपवद् रसोऽपि रूपं भवति रूपं वा रसवद् रसो भवति दृष्टविरुद्धत्वात् । यस्माद् रूपमेव रूपं रस एव रसो भवति नेतरभावमापद्यते तस्माद्रूपादयः सन्ति । एवं तर्हि रूपादिमात्रत्वाद् न घट' इति स्यौदाशङ्का, सा मा भूत् , न च तथा स्थितौ घटो न 15 भवति । यथा परस्परठयावृत्तात्मत्वे सत्यपि रूपादयो भवन्तीति स्थितिः, तथा स्थितौ एवं स्थिते तथा घटोऽपि भवति, न न भवति, रूपरसयोर्घटभावात् तयोरितरेतराभूतयोरेव घटत्वात् तयोराधारभूतयोर्वा घटत्वात् । तदुपनयति -असामस्त्येन वा भावाभावात्मक एव घट इति । ननु घटेत्यादि वैशेषिको विशेष भावात्मकमेव वाञ्छन् व्यावृत्त्यात्मकं विशेषं निराकुर्वन्नाह । यथा रूपादिष्वाधारेषु घटो भवति रूपादय एव वा सिद्धान्तान्तरदर्शनेन घटो न निर्मूलस्तथा पृथिव्यपि 20 मृदादिः मृदश्म-सिकता-लोष्ट-वज्र-वृक्ष-गुल्म-लता-ऽवंतान-वीरुदादिषु तदात्मिका, तस्या एव ते विशेषा रूपादय इव घटस्य नाभावो विशेषः, इतरथा निर्मूलत्वादभावविशेषत्वे घटस्य रूपादीनां चासत्त्वमापन्नं खपुष्पवत् , न च तदिष्टम् । एवं न्यायाद् रूपादयो मृदादयश्च घटस्य पृथिव्याश्च विशेषो भाव इत्युक्तम् । तथा चेत्यादि भावविशेषत्वभावनाग्रन्थो यावद् विस्तृतत्वादिः । एकभवनात्मकत्वादिति हेतुः "एकमेव भवनमेकस्यैव वा भवनमात्माऽस्य' इति विग्रहः, यदेकभवनात्मकं तद् नाभावविशेषः । दृष्टान्तः25 घटघटस्वात्मवत्, यथा घट एव घटस्वात्मा, नान्यत् खपुष्पाद्यसत् । स्यान्मतम् - अविशेषस्तर्हि प्राप्त १'ननु घटबिशेषा रूपादयो यथा भावविशेषः तथा पृथिव्यपि मृदादिः इतरथा निर्मूलत्वात् ।' इत्याशयो भाति ॥ २ दृश्यतां पृ० ५३९ पं० १७ ॥ ३ 'तथा च रूपादयो मृदादयश्च घटस्य पृथिव्याश्च भावविशेष एव एकभवनात्मकत्वाद् घटघटस्वात्मवत् । न चैवमविशेषः, तद्विशेष एव पृथिवीसामान्ये सत्येव उर्द्धस्वविस्तृतत्वादिः' एतादृशमपि मूलमत्र स्यात् ।। ४ घटादिस्तित्वं भा० ॥ ५ स्यादाकाशं सा मा प्र० ॥ ६ स्थितिवेवस्थिते य० ॥ ७ वा भावात्मक पव भा०॥ ८ यथा स्यादिष्टावारेषु प्र०॥ ९“अवतन्वन्तीत्यवताना नाम विटपाः केतकीबीजपूरादयः ।" इति प्रशस्तपादभाष्यन्यायकन्दल्यां पृथिवीनिरूपणे ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ भावाभावान्यतरैकान्तवादनिरासः] द्वादशारं नयच क्रम् नैकभवनात्मकत्वं पृथिवीभूतेरपि, तस्या अपि भावाभावात्मकत्वात्। ननु पृथिव्यपि उदकादि न भवति । _न, उक्तोपन्यासवद् 'द्रव्यम्' इति भवनात्। ननु द्रव्यमपि 'गुणः' इति न भवति। न, 'सत्' इति भवनात्। यदि 'सत्' इत्येव भवति केन विशेषहेतुना 'सदेव सर्वम्' इति भवति, न 'द्रव्यमेव' इति ? यतस्तु.....'यथा तन्तुषु पटः।। यद्येवम्, तर्हि "भवति' इत्युक्तेऽपि न भवति' 'नार्थः' इत्येवोक्तं भवति 15 एकभवनात्मकत्वाद् मृदादिरूपादीनां घटघटस्वात्मवत् , अनिष्टं चैतदिति । अत्रोच्यते- न चैवमविशेषः, घटस्वात्मन एव देशकालरूपादिविशेषवदात्मन्येव भावविशेषदर्शनात् । अत आह-तद्विशेष एव विशेषो नाभावः । कोऽसौ पृथिव्यादिविशेष इति चेत् , उच्यते-पृथिवीसामान्ये सत्येव ऊद्धत्वविस्तृतत्वादि-10 विशेषो नाभावः, तथा घटोऽपि मृदेकभवनात्मकाकारविशेषो भाव एव न पटाद्यभाव इति । ३६४-२ अत्राचार्य आह - त्वदभिमतं नैकभवनात्मकत्वं पृथिवीभूतेरपि, कुतो घटघटस्वात्मनः ? कस्मात तस्या अपि पृथिवीभूतेः भूमिभवनस्य भावाभावात्मकत्वात् । तन्निदर्शयति- नन्वित्यादि, पृथिवीभवनमुदकाम्न्याद्यभवनम् , एतदेवास्य मूलमभावविशेषभवनम् , तन्मूलत्वात् किमित्यस्यासत्त्वापत्तिः ? एवमभावविशेषरहितभावविशेषसिद्धौ 'मां प्रति न किञ्चिद् निदर्शनमस्तीत्यभिप्रायः । .. पर आह-न, उक्तोपन्यासवद् 'द्रव्यम्' इति भवनात , पृथिवी द्रव्यभवनाविनाभावेनैव भवति, पृथिव्युदकादि पृथिव्युदकादिषु वा द्रव्यम् , ईतरथा निर्मूलत्वादित्यादिः स एव ग्रन्थो यथायोगं वाच्यः । अत्रोत्तरम् - ननु द्रव्यमपि 'गुणः' इति न भवतीत्यभावाविनाभाविभवनवचनम् । - न, 'सत्' इति भवनादिति सत्त्वभवनव्याप्त्या भावस्यैव विशेष इति पूर्ववत् । अभाववाद्याह - यदि सदित्यादि, अनिष्टापादनमुखेनासद्वादसमर्थनमिदम् । यदि 'सत्' इत्येव भवति सत्त्वाविशेषाद् 20 द्रव्यगुणकर्मणामव्यतिरेकात् पर्यायमात्रत्वे केन विशेषहेतुना 'सदेव सर्वम्' इति भवति, न 'द्रव्यमेव' इति ? दृष्टं चेदम् , द्रव्यमेव न भवति, गुणकर्मणोरपि सद्भावात् । गुणकर्माभावाद् द्रव्यं सदिति भवति, गुणकर्मणी च तद्भावात् सती भवतः । न च द्रव्यादिव्यतिरेकेण सद् नाम किञ्चिदस्ति' इत्युक्तत्वाद् दृष्टविरुद्धमुच्यते त्वयेति । अत्र वयं ब्रूमः - यतस्त्वित्यादि चेटकमर्कटिकया अभावाविनाभाविभावप्रतिपादनं यथा तन्तुषु पट इति गतार्थम् । एवं तावद् भावैकान्तपक्षव्यावर्तनद्वारेणाभावसहितो भाव उक्तः, अतः परमभावैकान्तपक्षव्यावर्तन-३६५-१ द्वारेण भावसहित एवाभाव इत्येतत् प्रतिपादयिष्यते -यद्येवमित्यादि अभावैकान्तवादिनं भावैकान्तवादी mmmmwwwwwm 25 १एवभवना प्र०॥ २°न्येन भाव प्र.॥ ३°त्मककाकार' प्र० । (त्मक आकार ?) ॥ ४ भावात्मकत्वात् भा० ॥ ५मा प्र०॥ ६ दृश्यतां पृ० ५३८ पं० ३॥ ७°द्वासमर्थ भा०॥ ८ दृष्टांतं चेदं य० ॥ ९चटमर्क भा० ॥ १०णा प्र०॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे परितो भवनाभावात् खपुष्पवत्। ननु परितः पटादावभवन्नेव कटः सिध्यति । ननु 'परितो'वचनेन खात्मनोऽप्यभवनमुक्तं भवति । तथा...'असत्त्वं पक्षधर्मोऽनर्थत्वैकान्ते, पटः कटादिन भवति नापि रूपादिः। ननु परितोऽप्यभवनमेव साधयति भावमपि। कटोऽपि कट इति भवन्नेव 5 घटपटौ न भवति। न, 'गुणः' इत्यभवनात्। ननु गुणोऽपि 'गुणः' इति भवन्नेव कटपटौ न भवति। न, "द्रव्यम्' इत्यभवनात्। यदि न भवत्येव...'घट इति भवति। नन्वेवम्......''परस्परावबद्धनौद्वयवत्। न, व्यवस्थितोपकारिखरूपत्वात् , उपालभते, यदि 'घटो भवति' इत्युक्तेऽप्यभाव एवोक्तो भवति 'पटो न भवति' इति तर्हि 'भवति' 10 इत्युक्तेऽपि 'न भवति' 'नार्थः' इत्येवोक्तं भवतीति प्राप्तम् । साधनमप्यत्र परितो भवनाभावात् खपुष्पवदिति । स्यान्मतम् - ननु परितः पटादावभवन्नेव कटः सिध्यति, तस्मादनैकान्तिक इति चेत् , न, विपक्षाभावात् , ननु 'परितो'वचनेनेत्यादि, परितोवचनं सर्वत्रार्थम् , तेन स्वात्मनोऽप्यभवनमुक्तं भवति, तस्माद् नानैकान्तिकता । तथेत्यादिरस्य न्यायस्य प्राप्तिप्रदर्शनार्थो दण्डको यावदसत्त्वं पक्षधर्मोऽनयंत्वैकान्त इति प्राग्व्याख्यातोऽर्थः कण्ठः कपाले नास्तीत्यादि, तेस्य निदर्शनम् पटः 15 कटादिनं भवति नापि रूपादिरिति, अनिष्टं चैतत् । अत्र भावाभाववादी उत्तरमाह -ननु परितोऽप्यभवनमेव त्वदुक्तं साधयति अस्मदिष्टं भावमपि, तद्यथा-कटोऽपि कट इति भवन्नेव घटपटौ न भवति, घटत्वपटत्वाद्यभावः कटस्य कटात्मभवनाविनाभावीति भावभवनाद् न मुच्यते । इतर आह्व-भवन् न, गुण इत्यभवनात् , अत्रापि गुणाभावानुविद्ध एव कटभावः गुणत्वेनाभवनात् । ननु गुणोऽपीत्यादि गुण इति विधिना भवन्नेव कट 20 इति न भवति विशेषेण नियमेन व्यावृत्त्येति । ३६५-२ इतर आह - न, 'द्रव्यम्' इत्यभवनात् , अत्रापि द्रव्याभावानुविद्धस्त्वदभिमतो गुणभाव इति । अत्रोच्यते – यदि न भवत्येवेत्यादि झुटकमर्कटिकया द्रव्यगुणयोर्भावाभावत्वमापाद्य कटादेव्यविशेषस्यापादयति गतप्रत्यागतन्यायेन, ततो घटस्यापि यावद् घट इति भवतीति । एवमेकान्तभावाभाववोदिनोः परस्परकृतचोद्यद्वयपरिहारः । एवमेव भावाभाववादिनं प्रत्यपि तद्विपर्ययेणेतरभावनया एकान्तवादिनां 25 विध्यादिनयानां मतेषु परिहारः कार्यः । अथवा तच्चोद्यस्यात्रावकाश एव नास्ति, तेनापि उभयोभयनयेन सर्वैकान्तवादिनां सुनिवर्तितत्वात् सकलविकलादेशाभ्यां भावाभावत्वसिद्धेरिति । नन्वेवमित्यादि इदमप्यन्यच्चोयं विकलादेशपक्षे उभयोभयवादिनं प्रत्यनिष्टापादनं साधनेन गतार्थ namammmmmmmmmm १'नन्वेवं पृथिव्यादीनां परस्परावबद्धत्वेऽव्यवस्थितस्वरूपत्वादनवस्था स्यात् परस्परावबद्धनौद्वयवत्' इत्याशयो भाति । २९. ही विनान्यत्र इति न तर्हि पा० डे० वि० ।इते न तर्हि भा०॥ ३°दसत्वां प्र०॥ ४'ख्यातोर्थः य० । ( दण्डको......प्राग्व्याख्यातार्थः ॥ ५ तस्या प्र०॥ ६भाववादी भा०॥ ७भवन् गुण : (तम, गुण !)॥ ८चकटमर्क भा०॥९°वादिनो प्र०॥ १० तश्चोद्यस्य प्र.॥ ११°वर्तित्वात् प्र.॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परावबद्धभावाभावत्वसाधनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् ५४१ धृत्यादिवृत्तजगदवस्थावत् । पृथिव्यादीनामनित्यत्वेऽपि अर्थभवनाविच्छेदाद् व्यवस्थितोपकारित्वं सिद्धमनवस्थानाभावश्च खत्वपरत्वाभ्यां तथा भावाभावयोः । यदि तु भावाभावयोर्न परस्परावबद्धत्वं ततः पटस्याभावे घटभावाभावः भाव एव अभावतुल्यत्वात्, पटवत् । यदि वा " ननु तस्य साक्षादेवाभवनमुभयतः । नन्वत एवेदम् द्रव्यादित्वेन च । 5 यदि त्वसौ पटः पटत्वद्रव्यत्वाभ्यां न भवेत्, न पटो भवेत्, पटत्वद्रव्यत्वाभ्याम I यावत् परस्परावेबद्धनौद्वयवदिति पूर्वपक्ष: । अत्रोच्यते - तद् न, व्यवस्थितोपकारि स्वरूपत्वात् धृत्यादिवृत्तजगदवस्थावदिति साधनेनानवस्थादोषपरिहारः । नित्यत्वे पृथिव्यादीनां व्यवस्थितत्वं परस्परोपकारित्वं च धृतिसङ्ग्रहपक्तिव्यूहावकाशदान क्रियाभिः सिद्धम्, ततोऽनवस्था नैवास्तीत्यत्र का चिन्ता ? किन्तु अनित्यत्वेऽप्यर्थभवनाविच्छेदात् सततभवनस्याविच्छेदाद् भावे व्यवस्थितोपकारित्वस्य धृत्या 10 भूमिरितरेषामात्मनश्चोपकुरुते जलं सङ्ग्रहेण अग्निः पक्त्या वायुर्व्यूहेन सर्वेषामवकाशदानादाकाशैमित्यवस्थितोपकारिस्वरूपत्वं सिद्धमनवस्थानाभावश्च, अक्षरार्थो भाष्ये गमितः, स्वैत्वपरत्वाभ्यामिति स्वरूपसिद्धौ पररूपसिद्धौ च तेषां परस्परावबद्धत्वे सत्यप्यनवस्था नास्ति, तथा भावाभावयोरिति, योऽसौ भवति घटः स पटो न भवति, यदसौ पैंटो भवति तद् घटो न भवति, घटो भवन्नेव पटो न भवति, पटो भवन्नेव घो न भवति, तथा भवति न भवति चेत्यपि ज्ञेयम्, परस्परावबद्धव्यवस्थितोपकारिस्वरूपत्वाद् नानवस्थेति । 15 यदि त्वत्यादि परस्पराव बद्धभावाभावत्वाभावे द्वयोरप्येकान्तपक्षयोर्दोषाभिधानम् । पदस्याभावे द्वैटभावाभावस्त्वदिष्टविघात्यापद्यते, कोऽसौ ? भाव एव, कस्मात् ? अभावतुल्यत्वात् पटवदित्यभावैकान्तपक्षे दोषः । भावैकान्तपक्षेऽपि यदि वेत्यादि घटपटादिसङ्कीर्णता दोषः । एवमन्तरितद्रव्यत्वसत्त्वादिगुणत्वादिसामान्यविशेषाभ्यां भावाभावात्मकता, नान्तरिताभ्यामेव, किं तर्हि ? ननु तस्य साक्षादेवाभवनमुभयतः, सामान्यतो द्रव्यत्वेन स्वेन विशेषतोऽन्यद्रव्यत्वेन पटगतेन 20 गुणस्याभवनात्, तथा तद्विपर्ययेण पटस्य, पटघटगतयोश्च द्रव्यत्वयोर्भेदात् तद्भेदवत् तद्वयतिरिक्तद्रव्यत्वस्याभावात् । नन्वत एवेदमित्यादिना भावयति यावद् द्रव्यादित्वेन चेति । घटो गुणत्वेन पटद्रव्यादित्वेन च साक्षान्न भवति घटद्रव्यत्वेन भवति, पटः पटद्रव्यत्वेन साक्षाद् भवति गुणत्वेन घटद्रव्यत्वेन च साक्षान्न भवतीति भावाभावात्मकत्वमेवानयोः । यदि त्वावित्यादि अनिष्टापादनसाधनमभ्युपगमे, यदि पटः पटत्वद्रव्यत्वाभ्यां न भवेत्, न पटो 25 १ "वद्वनोद्वय प्र० । दृश्यतां पृ० ३४ टि० ५॥ व्यवस्थि' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ५ स्वत्वरत्वाभ्या प्र० ॥ ८ अत्र नयचक्रवृत्तौ 'कोऽसौ भाव एव' इति पाठस्य 'कोऽसौ भाव मूलेऽपि 'पटस्याभावे घटभावाभावः, अभावतुल्यत्वात् पटवत्।' १० घटस्य भवनात् प्र० ॥ २'नावस्था प्र० ॥ ३ वृत्त्या प्र० ॥ ४ अत्र मिति ६ पटो न भवति प्र० ॥ ७ घटभावस्व भा० ॥ एव ? न कश्चिदपि भावः' इत्यभिप्रायश्चद् विवक्षितस्तदा इति पाठोऽवधेयः ॥ ९ यदि भा० प्रतौ नास्ति ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् सप्तम उभयोभयारे भवनात्, घटवद् गुणवद्वा। यतस्तुतत एवेतराभ्यां भवति नीलोत्पलादिवत् । अतस्त्वन्यथा..... खपुष्पवत्। ... कालतोऽपि च.........। न यथा लोकवादः- पैलालमग्निर्दहतीति । यदि तद् दह्यते एव,............. 'भस्मीकरणानुपपत्तेः पूर्ववत् । देशः पलालस्य दह्यते तथापित...... देशस्यापि भस्मीकरणानुपपत्तेः । अथाकाशव्यतिरेक.........."तदपि न..........। तथा घटो न भिद्यते कचित्। भवेत् पटत्वद्रव्यत्वाभ्यामभवनात् घटवद् गुणवद्वा, घटो गुणो वा नैव न भवेत् तत एव तद्वत् । एवं घटगुणयोरपि साधनाभ्यामनिष्टमापाद्यम् । एतस्यार्थस्य भावना - यतस्त्वित्यादि यावत् तत एवेतराभ्यां भवतीति । अवश्यं चैतदेवम् , अन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थस्यावधारणे प्रयोगस्य साफल्यात् । तद्यथा नीलो10त्पलादिवत्, सिद्धे सति आरम्भो नियमार्थः, यथा रक्तनीलत्वयोः सिद्धयोरन्यतराभावेनान्यतरभावेन चोत्पलं नियम्यते 'रक्तमेव, नीलमेव वा' इति तथा घटः पट इति वेति । तदर्थभावना भाष्येऽन्यतराभावाभावेऽन्यतरभावाभावे च सतोऽप्यभावप्रसङ्गापादनद्वारेण लोकप्रसिद्ध्यनुपातेन कृता । एतस्य न्यायस्यानभ्युपगमे द्वयोरप्यभावः, तदर्शयति-अतस्त्वन्यथेत्यादि अनिष्टापादनसाधनं गतार्थ यावत् खपुष्पवदिति । एवं द्रव्यतो भावाभावात्मकता व्याख्याता । 15 कालतोऽपि चेत्यादि, विनाशोत्पादयोरेककालत्वात् पिण्डशिवकादीनां पिण्डो न भूतः शिवको भूत इत्येकमेव भूतमभूतं च कालभेदात् । अतीतानागताभ्यां वृत्तिभ्यामसंसृष्टतत्त्वा शिवकादिता वर्तमानैककाला । न यथा लोकवाद इति अविज्ञातार्थतत्त्वो लोको मिथ्या ब्रूत इति वैधोदाहरणं पैलालमग्निदहतीति, एतत् स्ववचनानुमानप्रत्यक्षविरुद्धं वचनमिति । तद् भावयति -यदि तद् दह्यत एवेत्यादि यावद् भस्मीकरणानुपपत्तेः पूर्ववत् पलालकालवत् , कालस्य भिन्नत्वाभ्युपगमात् । परः परिहारं 20 मन्येत -देशः पलालस्य दह्यते स च पलालमेवेति । तस्योत्तरम्-तथापीत्यादि गतार्थ यावद् देशस्यापि भस्मीकरणानुपपत्तेरिति । अथाकाशव्यतिरेकेल्या[दि], स्यान्मतम् - द्रव्यार्थिकनयमते80, ऽभेदात् पलालादिमूर्तद्रव्येष्वेव सम्भवादाकाशाद्यमूर्तिद्रव्यव्यतिरेकेण पलालमेव दह्यते नाकाशादीति । तदपि नेत्यादि, अभूततद्भावेऽर्थे चिप्रत्ययः, तदन्तेन भस्मीकरणशब्देनान्यो दाहो वर्तते अन्यच्च पलालमिति भिन्नार्थत्वादपरिहारः। अथाप्येकत्वं पलालस्येष्यते द्रव्यार्थाभेदात् ततस्तस्य दाह्यता नास्ति 25 भस्मत्वाभूतेरिति । तथा घट इत्यादि कालत एव भावाभावात्मकत्वविपर्ययेऽन्यदुदाहरणं पूर्ववद् गतार्थ [स प्रसङ्गम् । भिदेः कपालविषयत्वाद् घटस्य ऊर्द्धताद्याकारत्वात् कालभेदादनुपपत्तिः । प्रस्तुतघटोदाह नैव भवेत् य० ॥ २ अन्यस्त्वन्य भा० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ५४३ टि. ४ ॥ ४मनोंतदेशः भा० । मनोंतर्देशः पा० डे० । मानांतर्देशः रं० । मानोंतर्देशः वि० ॥ ५ मतोभेदात् प्र० ॥ ६ विप्र भा० । "कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि चिः [पा० ५।४।५०] 'अभूततद्भावे' इति वक्तव्यम् । विकारात्मतां प्राप्नुवयां प्रकृतौ वर्तमानाद् विकारशब्दात् खार्थे चिर्वा स्यात् करोत्यादिभिर्योगे।" पा० सिद्धान्तकौ ॥ ७र्थप्रसंगम् २० ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवादे दोषप्रदर्शनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् क्षेत्रतः शून्यं न प्रविश्यते.........। भौवतोऽसंयतो न प्रव्रजति । एवमेव भव्यो न सिध्यति। रणे भावयितुमुपादानमस्येति । अथवा पूर्व घटपटावुदाहृतौ, इह दर्शनविपर्ययेऽप्युदाहरणद्वयम् , तथा च क्षेत्रतो भावतश्च द्वे द्वे वक्ष्यति, भावनादृढीकरणार्थत्वात् क्रियान्तरगतत्वभावनातो न्यायप्राप्तिदर्शनात् । क्षेत्रेतः शून्यमित्यादि प्रवेशगमनस्थानानुपपत्तिर्गतार्था, 'तिष्ठतिगच्छतिविपर्ययेण प्रासङ्गिकमुदाहरणम् ।। भावतोऽसंयत इत्यादि, अनादिकालसम्बद्धदर्शनचारित्रमोहनीयोदयजाया अविरतेः पृथग्भावः प्रव्रज्या प्रकर्षव्रजनं विरतिः, सा कथमसंयते घटते ? एवमेवेति एकस्य भावाभावात्मकत्वाधिकारानुवृत्त्या भावतः 'सिद्ध-भव्यकालभेदादयुक्तमित्युदाहरति । mammawwwmawwwmawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwwww १°णार्थत्वा क्रिया भा० । णार्थस्वा क्रिया य० । अत्र णार्थम्वा क्रिया इत्यपि पाठः सम्भवेत् , तथा च 'भावनादृढीकरणार्थ वा, क्रिया” इत्यपि भवेत् ॥ २ गतभाव भा० ॥ ३ तिष्ठतिग भा० ॥ ४ “नारकाद्यायु:प्रथमसंवेदनकाले एव नारकादिव्यपदेशो भवति ऋजुसूत्रनयदर्शनेन । यत उक्तं नयविद्भिः ऋजुसूत्रस्वरूपनिरूपण कुर्वद्भिः- 'पलालं न दहत्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित् । न शून्यान्निर्गमोऽस्तीह न च शून्यं प्रविश्यते ॥ १ ॥ नारकव्यतिरिक्तश्च नरके नोपपद्यते । नरकान्नारकश्चास्य न कश्चिद् विप्रमुच्यते ॥ २ ॥' इत्यादि ।" इति अभयदेवसूरिकृतायां तीसूत्रवृत्तौ ४।१०।१७४ । “ततो नारकाद्यायुर्वेदनप्रथमसमये एव नारकादिव्यपदेशं लभते । एतच्च ऋजुसूत्रनयदर्शनम् । तथा च नयविद्भिः ऋजुसूत्रनयनिरूपणं कुर्वद्भिरिदमुक्तम् –पलालं न दहत्यनिर्भिद्यते न घटः क्वचित् । नाशून्ये (न शून्याद् ?) निष्क्रमोऽस्तीह न च शून्यं प्रविश्यते ॥१॥ नारकव्यतिरिक्तश्च नरके नोपपद्यते । नरकान्नारकश्चास्य न कश्चिद् विप्रमुच्यते ॥२॥ इत्यादि ।" इति मलयगिरिकृतायां प्रज्ञापनासूत्रवृत्तौ १७३। "ऋजु वर्तमानसमयं वस्तु स्वरूपावस्थितत्वात् , तदेव सूत्रयति परिच्छिनत्ति नातीतानागतम् , तस्यासत्त्वेन कुटिलत्वात् । तस्य वचनं पदं वाक्यं वा, तस्य विच्छेदोऽन्तः सीमेति यावत् । .......... । तस्य च पूर्वापरपर्यायैर्विविक्ते एकपर्याय एव प्ररूपयतो वचनं विच्छिद्यते एकपर्यायस्य परपर्यायासंस्पर्शात् । उक्तं च तन्मतमर्थं प्ररूपयद्भिः- 'पलालं न दहत्यग्निर्दह्यते न गिरिः क्वचित् । नासंयतः प्रव्रजति भव्यजीवो न सिध्यति ॥' पलालपर्यायस्य भग्निसद्भावपर्यायादत्यन्तभिन्नत्वात् यः यः पलालो नासौ दह्यते यश्च भस्मभावमनुभवति नासौ पलालपर्याय इति।” इति अभयदेवसूरिविरचितायां सम्मतिवृत्तौ १।५। “तत्र ऋजुसूत्रः कुटिलातीतानागतपरिहारेण वर्तमानक्षणावच्छिन्नवस्तुसत्तामात्रम् ऋजु सूत्रयति अन्यतो व्यवच्छिनत्ति सूत्रपातवत् । न ह्यतीतमनागतं वास्ति । यदि स्यातामतीतानागते न तर्हि मृतपुत्रिका युवतिः पुत्रकमुद्दिश्य रुद्यात् न च पुत्रार्थिनी योषित् औपयाजिकादि विशिष्टदेवतासन्निधौ विदध्यात् । तद्धि वस्तु वर्तमानक्षणावस्थाय्येव, म जातुचित् ततः परं सत्तामनुभवति, नापि अतीतकालासादितात्मलाभं किञ्चित् तत्रान्वेति, स्वकारणकलापसामग्रीसन्निधावुत्पद्य खरसभङ्गुरतामवलम्बन्ते तत्क्षणमात्रावलम्बिनः सर्वसंस्काराः। एवं च सति य एते कर्तृभूतद्रव्यशब्दसन्निधौ क्रियाशब्दाः प्रयुज्यन्ते यथा देवदत्तः पचति पठति गच्छतीति कर्मभूतद्रव्यशब्दसनिधी वा यथा घटो भिद्यते घटं वा भिनत्तीत्येवमादयो म यथार्थाः । कथम् ? यतो नामशब्देन अविकृतरूपस्य द्रव्यस्याभिधानात क्रियाशब्देन च विकारस्य प्रतिपाद्यत्वात् , न च विकाराविकारयोरैकाधिकरण्यमस्ति विरुद्धत्वात् । अर्थप्रत्यायनाय हि प्रयुक्तः शब्दो बिरुद्धमर्थ प्रतिपादयन् नैव सम्यग्ज्ञानमाधत्ते, अयथार्थत्वात् , मृगतृष्णायां सलिलशब्दवदिति । उक्तार्थसंवादी च श्लोको गीतः पुराविदा - पलालं न दहत्य मि कचित् । नासंयतः प्रव्रजति भव्योऽसिद्धो न सिध्यति ॥ पलालं दह्यत इति यद् व्यवहारस्य वाक्यं तद् विरुध्यते । अत्र wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwm wwwwwwwwwwwwwwwwwwwnwwwm AnmM Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतम् [सप्तम उभयोभयारे 'कुम्भं करोति' इति आदावप्याह । न तथा घटते। यदि स कुम्भ एव मृदवस्थायाम्, न क्रियते, भूतत्वात्, अन्यमृद्वत् । अथाभूतः, न क्रियते सः, अभूतत्वात्, खपुष्पवत् । कथमसन् कुम्भ उच्यते वा ? अथवैकमेवोदाहरणं द्रव्यादिचतुर्विधत्वं योजयति इत्याह - 'कुम्भं करोति' इत्यादावयाह, 5 मृन्मर्दनकालेऽप्याह 'कुम्भं करोमि' इति कुम्भकारः, अपिशब्दात् करणकाले निर्वृत्त्युत्तरकाले च कृतः कुम्भ इति । न तथा घटते, 'यथा लोको वदति' इति वर्तते । यदि स कुम्भ एवानिवृत्तोऽपि मृदवस्थायाम् , न क्रियते, भूतत्वात् , यद् भूतं तन्न क्रियते, यथा अन्या मृत् । अथाभूतः क्रियत इति मन्यसे, म क्रियते सः, अभूतत्वात् , खपुष्पवत् । कथमसन् कुम्भ उच्यते वा ? www वाक्ये वाक्यार्थप्रतिपत्तये पदार्थप्रविभागकाले पलालशब्दो विशिष्टाकारद्रव्यवचनो नामशब्दः, तद्धि द्रव्यं यावत् तस्मिन्नेवाकारे वर्तते तावदेव पलालशब्दवाच्यम् । अन्यदा तु पलालभावेन तस्याभाव एव, तद्भावेनाभावात्, पटवत् । तस्मात् स्थिररूपमव्यापारमुदासीनमविकृतं पलालशब्देन वस्तु प्रतिपादितम् , कथं तदेव 'दह्यते' इत्यनेन शब्देनोच्येत, क्रियाशब्दस्य विकाराभिधायित्वात् ? न हि स एवार्थो विकारश्चाविकारश्च भवितुमुत्सहते । यदि हि तत् पलालं न तर्हि तदेव दह्यते, अविपरिणतत्वात् , प्रागवस्थावत् । विपरिणममानं च पलालमेव तन्न भवति, विपरिणामशब्दस्य भावान्तरवाचित्वात् । तस्माद् यावत् तत् पलालं तावन्न दाते यदा दह्यते तदा पलालं न भवतीत्यतो नैतावेकस्यार्थस्य प्रत्यायनाय सम्यग्ज्ञानोपजनकारणम् , शब्दान्तरापस्यसहिष्णुत्वात प्रमत्तगीतावेताविति । एवं घटाधुदाहरणभावना कार्या।" इति सिद्धसेनगणिविरचितायां तत्त्वार्थभाष्यव्याख्यायाम् ५॥३१॥ "पलालं न दहत्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित् । नासंयतः प्रव्रजति भव्योऽसिद्धो न सिध्यति ॥ ३१॥” इति यशोविजयोपाध्यायविरचिते नयोपदेशे। “सूत्रपातवजुत्वादृजुसूत्रः । ७।... समयमात्रमस्य निर्दिदिक्षितम् । 'कषायो भैषज्यम्' इत्यत्र च सञ्जातरसः कषायो भैषज्यम् , न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषयः । पच्यमानः पक्वः, पक्वस्तु स्यात् पच्यमानः स्यादुपरतपाक इति ।....."एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्याः। तथा प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थः, यदेव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासम्भवात् । कुम्भकाराभावः, शिवकादिपर्यायकरणे तदभिधानाभावात्, कुम्भपर्यायसमये च स्वावयवेभ्य एव निवृत्तेः । स्थितप्रश्ने च 'कुतोऽद्यागच्छसि' इति ? 'न कुतश्चित्' इत्ययं मन्यते तत्कालक्रियापरिणामाभावात् ।......अतः पलालादिदाहाभावः प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषयः अग्निसम्बन्धनदीपनज्वलनदहनानि असङ्ख्येयसमयान्तरालानि यतोऽस्य दहनाभावः। किञ्च, यस्मिन् समये दाहः न तस्मिन् पलालम् भस्मताभिनिवृत्तेः, यस्मिंश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति । यत् पलालं तद् दहतीति चेत्, न, सावशेषात् । समुदायाभिधायिनां शब्दानामवयवेषु वृत्तिदर्शनाददोष इति चेत्, न, तदवस्थत्वात् , एकदेशदाहाभावस्योक्तत्वात् । निरवशेषदाहासम्भबादिति चेत्, न, वचनविरोधात् तदवस्थत्वाच्च । वचनविरोधस्तावत् यदि निरवशेषस्य पलालस्य दाहस्यासम्भव इत्येकदेशहाहात पलालदाहो नादाहः ननु भवद्वचनस्य निरवशेषपरपक्षदूषकत्वाभावात् परपक्षकदेशस्य दूषकत्वम् , अतः एकदेशदूषकत्वात् कलमपीदं दृषकमेवेत्यस्य साधकत्वसामर्थ्याभाव इति । तदवस्थत्वमपि 'एकसमये दाहाभावः' इत्युक्तत्वात् । अवयवानेकत्वे यद्यवयवदाहात् सर्वत्र दाहोऽवयवान्तरादाहात् ननु सर्वदाहाभावः । अथ दाहः सर्वत्र, कस्मान्नादाहः ? अतो न दाहः । एवं पानभोजनादिव्यवहाराभावः । न शुकः कृष्णीभवति, उभयोर्भिन्नकालावस्थत्वात् प्रत्युत्पन्न विषये निवृत्तपर्यायानभिसम्बन्धात् । सर्वसंव्यवहारलोप इति चेत्, न, विषयमात्रप्रदर्शनात् । पूर्वनयवक्तव्यात् संव्यवहारसिद्धिर्भवति ।" इति तत्त्वार्थराजवार्तिके १॥३३॥ १(चतुर्विधत्वे )॥२ 'करोमि' इत्यपि पाठः स्यादत्रेति चिन्त्यम् ॥ ३ करोति य० ॥ ४ दृश्यतां पृ० ५४२५० ३॥ wwwww Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवादे क्रियाऽभावप्रदर्शनम् ] द्वादशारं नयचक्रम् अथोच्येत-सत्यम् , प्रागभूतः, इदानीं क्रियते, क्रियमाणश्च भवतीति । अत्रापि यद्यभूतो न तर्हि कुम्भः स क्रियते, भूतत्वेऽपि कृतकरणवैयर्थ्यान्न क्रियते। अथाभूतोऽपि कुम्भ उच्यते, पृथिव्यपि ते कुम्भ इति प्राप्ता । ततश्च क्रियाऽभावः। न च कस्याश्चिदप्यवस्थायाम्............"क्रिया। कथं तर्हि सोऽक्रियमाणः कुम्भो जातः ? को वा ब्रवीति 'जातः' इति, 5 द्रव्यादितो जन्मविनाशसमत्वात् ? स न जायते इति किं शक्यो वक्तुम् ? ओम्, अथोच्येत पक्षद्वयानाश्रयणेन परिहारसमर्थ मत्वा पक्षान्तरं संश्रित्य सत्यं प्रागभूत इदानीं क्रियते, क्रियमाणश्च भवतीति । अत्रापि भूताभूतत्वविकल्पद्वयानतिवृत्तिः, यद्यभूतो न तर्हि कुम्भः सः, पटादिवत् कुम्भत्वेनाभूतत्वाद् न क्रियते नापि 'कुम्भः' इति वक्तव्यः । भूतत्वेऽपि पैटादिवञ्च सान्निध्ये कुँतकरणवैयर्थ्याद् न क्रियते । अथाभूतोऽपि पिण्डादिः स्वपक्षे रागाद् लोकानुवृत्त्या वा कुम्भ उच्यते 10 पृथिव्यपि ते कुम्भ इति प्राप्ता कुम्भत्वेनाभूतत्वात् त्वदिष्टक्रियमाणकुम्भवत् । ततश्च क्रियाऽभावः, पृथिव्यर्थक्रियावैयर्थ्यवत् कुम्भार्थक्रियाया अभावः। तद् भावयति-न च कस्याश्चिदप्यवस्थायामित्यादि यावत् क्रियेति । द्रव्यतः सर्वप्रदेशात्मकस्य परमाणुमात्रेऽवरुद्धत्वान्न क्रिया, द्रव्यान्तरे त्वभावादभावः । क्षेत्रतो बुधमध्योर्ध्वादिभागावष्टब्धक्षेत्रवादित्वात् कतमो घटः क्रियते ? कालतः प्रतिक्षणमन्यान्यप्रदेशस्पन्दावरोधात् , भावतः सर्वसंस्थानरूपादिसमाहारात्मकत्वे घटस्य भावं भावं प्रति पृथक्त्वात् का क्रिया ? 15 .. यस्मात् क्रियमाणमेव तु क्रियते मृदाहरणादीति चतुर्धाप्येतदुदाहरणम् । ___ अपर आह - कथं तर्हि सोऽक्रियमाणः कुम्भो जातः, क्रियाया अभावाद क्रियमाणोऽक्रिय-३६.१ माणत्वात् कुम्भो जायते खपुष्पवदिति प्राप्तम् , अनिष्टं चैतत् , लोकप्रसिद्ध्युपरोधित्वादिति । अत्रोच्यतेको वा ब्रवीति 'जातः' इति ? अहं तु लोकमेवायुक्तवादिनं मन्ये, द्रव्यादितो जन्मविनाशसमत्वात्, य एव जातः स एव विनष्टो यत्रैवं तत्रैव यदैव तदैव यथैव तथैवेति भावाभावयोर्भावो भवनम् , स एव 20 भावाभावभावो वस्तु सैदसदात्मकभवनम् , वस्तुत्वात् पूर्वाभाव एव भावोऽस्य पिण्डादेः, पूर्वभावस्याभावो विनाशः, स एव उत्तरोत्तरो भावो जन्म इति जन्मविशयोर्लक्षणम् , तयोस्तुल्यत्वाद् द्रव्यादितः । स मौवाभावात्मकोऽर्थो न जायत इति किं शक्यो वक्तुम् । इति । ओमित्युच्यते, स 'न जायते' इति १श्रयेण परि य०॥ २°वृत्ते प्र० ॥ ३ घटा य० ॥ ४ कृते य० ॥ ५°त्वात् क्रिया प्र० ॥ ६ व्यदित्वात् यः । (त्रव्यापित्वात् ?) ॥ ७°मन्यान्यान्यप्रदेशस्यंदा भा० । 'मन्योन्यप्रदेशास्वंदा' य० ॥ ८°चादिक्रियमाणोक्रियमाणत्वात् कुंभो य० । 'घात्क्रियमाणाक्रियमाणत्वात् कुभो भा० । (बाद क्रियमाणत्वात् ?) । अत्र 'वाद क्रियमाणत्वात् कुतो इति वादक्रियमाणोऽक्रियमाणत्वात् कुतो इत्यपि वा पाठोऽपि स्यात् ॥ ९ द्रव्यतो भा० ॥ १० °व च य० ॥११ भवनं त एव प्र० ॥ १२ सदासदात्मक य० । सदात्मक भा० ॥ १३ पूर्वभाषो विनाशः भा० ॥ १४ °नाशोलक्षण तयोस्तुत्वाद्रव्यादितःप्र० ॥ १५भावात्मको भा० ॥ नय० ६९ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे विनश्यत्त्वात्, पूर्ववत् । 'न विनश्यति' इत्यपि शक्यं वक्तुं जायमानत्वादुत्तरवत् । एतदुदाहरणं निवर्त्यकर्मविषयासु विकार्यकर्मविषयासु च क्रियासु, सर्वाखपि तावेषैव वार्ता । प्राप्यकर्मक्रियास्वपि च कासुचित्। एवं तावदुत्पन्नशब्दानां निर्विषयता। द्रव्यशब्देष्वपि भावाभावात्मकत्वात 5 सर्वभावानां कुतः तत्त्वोपनिपाति वचनम् ? भ्रूक्षेपादिवत्तु स्वाभिप्रायसूचनं कृतसङ्केतानां क्रियते। शक्यो वक्तुमिति । कस्मात् ? विनश्यत्त्वात् , घटावस्था हि जन्म, सा विनश्यदवस्थैव उक्तन्यायात् , पूर्ववदिति त्वंदिष्टानन्तराघटावस्थावत् । 'न विनश्यति' इत्यपि शक्यं वक्तुं जायमानत्वादुत्तरवत घटावस्थावदिति । 10 एतदुदाहरणं निवर्त्यघटादिकर्मविषयासु करणपचनादिक्रियासु, विकार्यपलालादिविषयाषु च दहनादिक्रियासु, सर्वास्वपि तास्वेषैव वार्ता - नास्ति काचित् क्रियेति । 'ग्रामं गच्छति' इत्यादिप्राप्यकर्मिकासु कथमिति चेत्, प्राप्यकर्मक्रियास्वपि च कासुचिदिति गच्छतिव्रजत्यादिषु भावितम् , कासुचित् तु हिमवदादित्यश्रवणदर्शनादिषु यद्यपि नैषा वार्ता, शब्दघटश्रवणदर्शनादिष्वेषैव वार्ता । किञ्च, कृत-दग्ध३६८-२ गतादिशब्दैश्च 'क्त'प्रत्ययान्तैर्याः क्रिया उच्यन्ते तासां निष्ठितत्वाद् भूतकालविहितत्वाच्च क्तस्य 'किश्चिन्निष्ठितं 15 किश्चिदनिष्ठितं मृत्पलालादि कर्म' इति कृताकृतत्वानुपपत्तेः सुतरां प्रयोगाभाव इति सुष्टुच्यते- यथा लोको वदति न तथा घटत इति ।। . एवं तावदुत्पन्नशब्दानां क्रियावाचिनामाख्यातानां नाम्नां पाचकादीनां शुक्लादिगुणशब्दानां च निर्विषयता निरर्थकतेत्यर्थः । द्रव्यशब्देष्वपीत्यादि यावद् वचनमिति सर्वभावा भावाभावात्मका इत्युक्तं विस्तरतः, तद्वाच्यभिमतानां शब्दानामुक्तन्यायेन तदसंस्पर्शात् कुतः तत्त्वं भाषाभावात्मकं वस्तूपनिपतितुं 20 वचनस्य 'शीलं धर्मः साधुकारिता वा कस्यचित् ? इति । एवं तर्हि शब्दार्थव्यवहारहानिरिति चेत् , 'न' इत्युच्यते, अस्ति शब्दार्थसंव्यवहारः संज्ञासंज्ञि १दत्विष्ट पा० डे० विना। रत्विष्ट पा० डे०॥ २ निर्वादित्रिविधर्मस्वरूपं वाक्यपदीये [ श्लो० ३१७/४५-५४ 1 सिद्धहेमबृहद्वत्तौ [२॥२॥३-च विस्तरेण विलोकनीयम । 'निर्वर्त्य वा विकार्य वा प्राप्यं वा यत् क्रियाफलम् । तद् दृष्टादृष्टसंस्कार कर्म कर्तुर्यदीप्सितम् ॥' इति त्रिविधं कर्म ॥ ३°प्रजत्यादिषु भा० । दृश्यतां पृ० १२६ टि. १५, अत्र गच्छतिव्रजत्यादिषु इत्यपि पाठः सम्भवेत् ॥ ४ कालाध्यनोरत्यन्तसंयोगे [पा० २।३।५],'': एवं मन्यते-यत्र कश्चित् क्रियाकृतो विशेष उपजायते तन्याय्यं कर्मेति । न चेह कश्चित् क्रियाकृतो विशेष उपजायते । नैवं शक्यम् । इहापि न स्यात् - आदित्यं पश्यति, हिमवन्तं शृणोति. ग्रामं गच्छति ।....."कर्मण्यण [ पा० ३।२।१] 'कर्मणि निवत्यमानावाक्रयमाण' इति वक्तव्यम् । इह मा भूत्-आदित्यं पश्यति. हिमवन्तं शृणोति, ग्राम गच्छतीति ।" इति पातअलमहाभाष्ये ॥ ५"क्तक्तवतू निष्ठा [पा० १।१।२६] एतौ निष्ठासंज्ञौ स्तः । निष्ठा [पा० ३।२।१०२] भूतार्थवृत्तेर्धातोर्निष्टा स्यात्' इति । पा०सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ ६ दृश्यतां पृ० ५४३ टि० ४॥ ७ दृश्यतां पृ० ५४२ पं० ३, पृ. ५४४ पं० ६॥ ८ "आ क्वेस्तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु ॥"-पा० ३।२।१३४ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्यभिधानम्] द्वादशारं नयचक्रम् ५४७ अत्र चान्यापोहः शब्दार्थः । आह हि- शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिः 'अभिधत्ते' इत्युच्यते [ ]। सम्बन्धसन्निवेशात्मकः । भ्रूक्षेपादिवत्तु अक्षिनिकोचैः पाणिविहारैर्धक्षेपादिभिश्चाङ्गविकारैः स्वाभिप्रायसूचनं कृतसङ्केतानां क्रियते, अभिप्रेतार्थपर्यायमात्रत्वात् तासां क्रियाणाम् , तथा शब्दस्यापि अभिधेयाभिमतार्थपर्यायमात्रपरमार्थत्वात् तदर्थप्रतिपत्त्युपायः शब्दो भ्रक्षेपादिवत् । संज्ञा संज्ञैव संज्ञापनात् । न वाचकः शब्दः, । पुरुषाणां कृतसङ्केतानां प्रतिपत्त्युपायः, अकृतसङ्केतानां तु शब्दगडुमात्रसम्प्रत्ययनिमित्तत्वात् । यथोक्तम् - "विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः।। तेषामत्यन्तसम्बन्धो नार्थाञ् शब्दाः स्पृशन्त्यपि ॥[ ] इति । एवं वस्तुनो भावाभावात्मकस्यानिर्देश्यत्वात् परमार्थस्यावाचकः, संवृतिसतस्तु व्यवहारस्य वाचक इवोपलक्षणभूतः शब्दः। __ अत्र चेत्यादि । नयमतेन वस्तुस्वरूपं शब्दार्थसम्बन्धं चावधार्य शब्दार्थोऽधुनावधार्यते - अत्र च विधिनियमविधिनियमभङ्गेऽन्यापोहः शब्दार्थः । यस्मादाह - शब्दान्तरार्थेत्यादि, शब्दादन्ये शब्दाः शब्दान्तराणि, तेषामर्थानपोहते घटशब्दः पटादिशब्दानां स्वतोऽन्येषां व्यवहारानुपातात् । 'स्वाथै कुर्वती श्रुतिः' इति वचनेन भावाभावात्मकमर्थं दर्शयति । 'अभिधत्ते' इत्युच्यत इति, न परमार्थतोऽभिधत्तेऽर्थात्मनोऽनभिलाप्यत्वात् संज्ञापरमार्थत्वात् 'अभिधत्ते' इवाभाति लक्षयन सङ्केतवशादर्थमिति एष पदार्थः । 15 10 ३६९-२ १भृत्क्षेप य० । दृश्यतां पृ. २४२ पं० १०, पृ० २६७ पं० ११ । “उद्द्योतकरस्तु प्रमाणयति-देवदत्तस्य रूपरसगन्धस्पर्शप्रत्यया एकानेकनिमित्ताः, मयेति प्रत्ययेन प्रतिसन्धीयमानत्वात् , कृतसमयानामेकस्मिन् नर्तकीम्रक्षेपे युगपदनेकपुरुषाणां प्रत्ययवत् । अस्यायमर्थः - यथा किल 'नर्तकीभ्रभङ्गानन्तरमस्माभिर्वस्त्राणि प्रक्षेप्तव्यानि' इत्येवं कृतसमयानां बहूनां नानाकर्तृकाः नानाभूताः प्रत्ययाः निमित्तस्य भ्रूभङ्गस्यैकत्वाद् 'मया दृष्टो मया दृष्टः' इति प्रतिसन्धीयन्ते तथेहापि नानाविषयाः प्रत्यया निमित्तस्यैकत्वात् प्रतिसन्धास्यन्ते । यच तदेकं निमित्तं स आत्मेति ।" इति तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायाम् , श्लो. १८०-१८१॥ २ “अन्तरेण खल्वपि शब्दप्रयोग बहवोऽर्था गम्यन्तेऽक्षिनिकोचैः पाणिविहारैश्च ।” इति पातञ्जलमहाभाष्ये २।१।१॥ ३ दृश्यतां पृ. २४३ पं० १०-१४ ॥ ४(मात्रमप्रत्ययनिमित्तत्वात् ???) । दृश्यतां पृ० २४३ पं० १० ॥ ५ दृश्यतां पृ० २४३ पं० ९, पृ० ४९८-१। “यदधिकृत्याह 'विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः' इति । [व्याख्या - ] यदधिकृत्याहाचार्यः-विकल्पयोनयः विकल्पकारणाः शब्दाः विकल्पाः शब्दयोनय इति। [पृ० १।३३४ ] ...... यथोक्तम् - ‘विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः' इति । [व्याख्या -] यथोक्तं भदन्तदिन्नन- विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दविकल्पाः शब्दयोनय इत्यादि ।” [पृ० १।३३७ ] इति हरिभद्रसूरिविरचितायां खोपशव्याख्यासहितायाम् अनेकान्तजयपताकायाम् । बौद्धाचार्यदिङ्गागस्यैव ‘भदन्तदिन्नः' इति नाम इति ध्येयम् , दृश्यतां टि० ९॥ ६ नार्थी शब्दा य० । नार्थी शब्दा भा० । दृश्यतां पृ. ४९८- १॥ ७ भूतशब्दः प्र०॥ ८ बौद्धमते 'अपोहः शब्दार्थः, प्रतिभा च वाक्यार्थः' इति विज्ञायते, तथाहि-"अपोहः पदार्थत्वेन कल्पितः । स वाक्यादपोद्धृत्य कल्पितस्य पदस्यार्थ इष्टः । वाक्यार्थस्तु प्रतिभालक्षण एव । यथोक्तम् - अपोद्धारे पदस्यायं वाक्यादर्थो विवेचितः । वाक्यार्थः प्रतिभाख्योऽयं तेनादावुपजन्यते ॥' इति ।" इति तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायाम्, पृ. २९४ ॥ ९ बौद्धाचार्यदिङ्गागस्य वचनमिदम् । 'दिनः' 'दिनकः' 'दत्तकः' इति च दिङ्गागस्य नामान्तराण्यपि सन्ति । संस्कृतभाषायां दत्त इति दत्तक इति च रूपम् , तयोरेव प्राकृतभाषायां यथाक्रम दिन इति दिनक इति च रूपं भवति । तत्र प्राचीननग्रन्थेषु [ नयवृत्ती wwwww Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmumtam mwwwwAM WW. www न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृतम् [सप्तम उभयोभयारे प्रतिभा च वाक्यार्थः। वाक्यार्थस्तर्हि कः ? उच्यते-प्रतिभा च वाक्यार्थः । शब्दाभ्यासवासनाजनिताऽर्थेषु प्रतिभा वाक्येभ्यो जायते तिरश्चां मनुष्याणां च यथाभ्यासं स्वजातिनियता स्वप्रत्ययानुकारेण शूर-कातरादीनामिव पृ० ६३ पं० ५, पृ० ९६ पं० ६, पृ० ५४५ टि. १, अनेकान्तजयपताकाव्याख्यायां पृ० ११३३७ इत्यादिस्थानेषु ] दिन्न इति, सिद्धसेनगणिविरचितायां तत्त्वार्थभाष्यव्याख्यायां [५।२४ ] दत्तक इति, अन्यत्र च बहुषु स्थानेषु दिङ्गाग इति त्रिधापि नामनिर्देशो दृश्यते । प्राचीनेषु चीनदेशीयग्रन्थेषु च दिन्न इति दिन्नक इत्यपि च दिङ्गागस्य नाम उपलभ्यते, दृश्यतां On Yuan-chwang's Travels in India by Thomas-watters, Part II. p. 211-2121 "तेन आचार्यदिनागस्योपरि यद् उड्योतकरेणोक्तम् - 'यदि शब्दस्यापोहोऽभिधेयोऽर्थस्तदाभिधेयार्थव्यतिरेकेणास्य खार्थो वक्तव्यः, अथ स एवास्य स्वार्थस्तथापि व्याहतमेतत् 'अन्यशब्दार्थापोहं हि खार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते इत्युच्यते' 1 इति । अस्य हि वाक्यस्यायमर्थस्तदानीं भवति 'अभिदधाना अभिधत्ते' इति' [ न्या. वा० २।२।६७] । तदेतद् [वाक्यार्थापरिज्ञानादुक्तम् ।" इति तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिकायाम, श्लो० १०१६। सन्मति वृ० पृ. २०४ । “न चान्यापोहमात्रं शब्दार्थः, विधिनिरपेक्षस्य व्यतिरेकस्याप्रसिद्धरन्वयस्य च व्यतिरेकशून्यस्यानुपलब्धेः परस्परापेक्षाभ्यामन्वयव्यतिरेकाभ्यां सर्वत्रार्थाधिगतेः 'व्यतिरेकस्यैव प्राधान्यम्' इत्ययुक्तम् । तथा चाह दत्तकभिक्षुरेव- अर्थान्तरापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिः 'अभिधत्ते' इत्युच्यते। 'हि'शब्दो यस्मादर्थे, यथा वृक्षशब्दोऽवृक्षशब्दनिवृत्तिं खार्थे कुर्वन् स्वार्थ वृक्षलक्षणं प्रत्याययतीत्युच्यते। एवं च निवृत्तिविशिष्टं वस्तु शब्दार्थः, न निवृत्तिमात्रम् , अलक्षणीयमेव च स्यान्निवृत्तिमात्रम् , अवस्तुत्वात् , खरविषाणकुण्ठतीक्ष्णतादिवर्णनवत् । अत्र च न प्राग विधिना घटं गृहीत्वा पश्चादन्यापोहं करोति, नाप्यन्यापोहं कृत्वा पश्चाद् घटं कालभेदेन गृह्णाति । क्रमेण हि ग्रहणे हसिष्ठत्वात् क्षणिकत्वाच्च सर्वभावानां धनेर्ज्ञानस्य च न युक्तं व्यापारद्वयानुष्ठानम् । सन्तानाच्चेत्, तदयुक्तमवस्तुत्वात् । एवं तर्हि घटग्रहणमन्यापोहश्च युगपदुभयं सिद्धम् , यथा सवितुरुदये सन्तमसविदलनं खरूपप्रकाशनं च खभावात् । एवं सति उभयमभिधेयं सामान्यं विशेषश्चत्यवशेनापि प्रतिपत्तव्यमन्यापोहशब्दार्थवादिना। अन्वयव्यतिरेकयोस्तुल्यकक्षत्वाद् विधेय( उभय ?)मपि प्रधानमेवास्तु, न हि द्वयोरर्थयोर्धवखदिरवद् युगपदुपात्तयोरेकस्य गुणभावकल्पना श्रेयसी । ननु चान्वयस्य प्राधान्येऽभ्युपेयमाने प्रयत्नानन्तरीयकत्वमव्याप्तसपक्षं सद् नैवानित्यत्वं गमयेत् । केन चेदमुक्तं 'व्याप्तसपक्षं गमयति, अव्याप्तसपक्षं न गमयति' इति ? एतावत्तु उच्यते - अन्वयनिरपेक्षो न गमयति व्यतिरेकः, नापि व्यतिरेकनिरपेक्षोऽन्वयः प्रतिपादकोऽर्थस्य, परस्परापेक्षतायां च शिबिकोद्वाहकादिवत् सर्वत्र प्राधान्यं क्वचिद् विवक्षावशाद्वा अन्यतरस्य गुणप्रधानकल्पनेति, यथाह द्वादशशतिकायाम् - यदप्युक्तम् 'अप्रसक्तस्य किमर्थं प्रतिषेधः' ? इति, नैवैतत् प्रतिषेधमात्रमुच्यते, किन्तु तस्य वस्तुनः कश्चिद् भागोऽर्थान्तरनिवृत्त्या लोके गम्यते यथा विषाणित्वादनश्वः इति । न चाक्षिप्तो विशेषः, साक्षादभिधीयमानत्वात् । यथैव सामान्यमुच्यते तथा विशेषोऽपीत्युभयमत्र मुख्यं वाच्यमित्यतः सामान्यविशेषात्मकमेवाभिधेयम् ।” इति सिद्धसेनगणिविरचितायां तत्त्वार्थभाष्यव्याख्यायाम् ५।२४ । “स एव चायं समानरूपप्रतिभासी भेदो निर्दिष्ट आचार्यदिङ्गागेन । कथमित्याह - अर्थान्तरल्यावृत्त्या तस्य वस्तुनः कश्चिद् भागो गम्यत इति, तथा शब्दोऽर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानेव भावानाह इत्यादिना । 'आदि'ग्रहणात् शब्दार्थान्तरापोहं कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्यादिपरिग्रहः [ पृ० २५१] 'आचार्यदिङ्गाग आह" ......शब्दा[A]न्तरापोहं कुर्वती श्रुतिः स्वार्थमभिधत्ते इति ।” [ पृ० २५३ ] इति प्रमाणवार्तिकस्ववृत्तेः कर्णकगोमिविरचितायां टीकायाम् १।१२९। “किमपोहो वाच्योऽथावाच्य इति । यदि वाच्यः, अनैकान्तिकः शब्दार्थः 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इति । अनवस्था वा, अथानपोहव्युदासरूपेणाभिधीयतेऽपोहः तस्याप्यन्य इत्यनवस्था । अथावाच्यः, 'शब्दार्थान्तरापोहं करोति' इति व्याहतम् । यदि च शब्दस्यापोहो नाभिधेयार्थः, अभिधेयार्थव्यतिरेकेण स्वार्थो वक्तव्यः । अथ स एवास्य स्वार्थः तथापि व्याहतम् अन्यशब्दार्थापोहं खार्थे कुर्वती श्रुतिः अभिधत्त इत्युच्यते इति । तस्य वाक्यस्यायमर्थस्तदानीं भवति-अन्यदनभिदधानोऽभिधत्त इति ।" इति उक्ष्योतकरविरचिते न्यायवार्तिके २।२।६७॥ १दृश्यतां पृ०५४७दि. ८॥२“परमार्थतस्तु वाक्यार्थ एक एव, सर्वोऽपि शब्दः प्रतिभाया एव हेतुरिति तत्त्वरूपमिदानीं MMw Www Wwwwwr Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा वाक्यार्थः' इत्यभिधानम् ] अयमृजुसूत्रदेशत्वात् पर्यायास्तिकः । द्वादशारं नयचक्रम् व्याघ्रादिशब्दश्रवणात् कोप-हर्ष- भयादिनिमित्तेत्यादि यथावदनुगन्तव्यम् । वाक्यार्थप्रतिपत्त्युपायः पदार्थो - सन् वाक्यादपोद्धृत्य उत्प्रेक्षया व्याख्यायते । ५४९ अयं पुनर्नयः कतमः शास्त्रविहितानामिति चेत्, ऋजुसूत्र देशत्वात् पर्यायास्तिकः । एकैकस्य 1 प्रस्तावयितुमाह-अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः सर्वः शब्दोऽपरैः स्मृतः । बालानां च तिरश्चां च यथाऽर्थप्रतिपादने ॥ [ वाक्यप० २।११८ ] अपरैराचार्यैः सर्वः यः कश्चिच्छन्दः स प्रतिभाहेतुः जडानामपि प्रतिभाहेतुरित्याह - बालानामित्यादि । आस्तां विदितसमयस्य किं न भविष्यत्यसौ प्रतिभाहेतुः । येऽप्यविदितसङ्केता अमी बाला जडप्राया वा तिर्यञ्चः तेषामप्यनादिवासनावशात् तदर्थः प्रतीयमानो दृश्यते शब्दः । तथा च जडानामपि प्राणिनां नियतपदः शब्दः सम्बोधनायोदीर्यते । तेन प्रतिनियतजात्यनुसारेण नियतैव काचित् प्रतिभा प्रबोध्यते इति तन्मूल एव सर्वः कश्चित् तेषां व्यवहारः । अनेनैतदुच्यते यदियं प्रतिभा सर्वप्राणिसंवेद्या शब्दनिमित्ता सकलव्यवहारमूलभूताऽनपह्नवनीया । तदपहवे स्वात्मैव विप्रलभ्यते । तत् प्रतिभाभ्युपगमोऽवश्याश्रयणीयः ॥ ११८ ॥ अभ्यासात् प्रतिभाहेतुरित्युक्तम् । तत्राभ्यासः किमिदानीन्तन उत जन्मान्तरभावी ? तस्य च किं स्वरूपमित्याशङ्कयाह – अनागमश्च सोऽभ्यासः समयः कैश्चिदिष्यते । स चाभ्यासोऽनागम इदानीन्तनो न भवति, न हि बालस्य तदैवोपदिष्टं केनचित् इति जन्मान्तरभाव्येव । स च समय इष्यते सङ्केतस्वरूपोऽसाविष्यत इति खरूपमेवास्य स्फुटयितुमाह – अनन्तरमिदं कार्यमस्मादित्युपदर्शकः ॥ [ वाक्यप० २।११९ ] स चानन्तरमिदं कार्यमित्युपदर्शनस्वभावः । यथा कशाभिघातमात्रसमनन्तरमेव वाजिनोऽतियान्ति अङ्कुशाभिघातेन च गजाः एवमन्येऽपि प्राणिनोऽनादिवासनाभ्यासवशेन प्रतिभातः समुचितव्यवहारं कुर्वन्तो लोकयात्रां निर्वाहयन्तीति स्थितम् । एवमखण्डमेव वाक्यम्, प्रतिभा च वाक्यार्थ इति समाश्रयणीयम् । पदपदार्थापोद्धारमाश्रित्य प्रतिनिध्यादिकल्पनं प्रासङ्गिकादिन्यायनिर्वाहश्च भविष्यतीति व्यवस्थापितम् । ....... अथ प्रतिभाखरूपमेव पूर्वोपक्रान्तमनुबध्नन्नाह - विच्छेदग्रहणेऽर्थानां प्रतिभाऽन्यैव जायते । वाक्यार्थ इति तामाहुः पदार्थैरुपपादिताम् ॥ [ वाक्यप० २।१४४ ], देवदत्तादिपदेभ्यो बिच्छिन्नेभ्यस्तदर्थानां विच्छेदेनैव ग्रहणे प्रत्ययवेलायामेका प्रतिभा पदार्थमतिव्यतिरिक्तैव जायते । तां च वाक्यार्थं वैयाकरणा आहुः । उपाय इत्याह – पदार्थैरुपपादितामिति । पदार्थैरसत्यैरेवोपाधिभूतैरुपपादितामभिव्यक्तामिति ॥” इति पुण्यराजविर - चितायां वाक्यपदीयटीकायाम् । “अभ्यासात् प्रतिभा हेतुः सर्वः शब्दः समासतः । बालानां च तिरश्चां च यथाऽर्थप्रतिपादने ॥ ८९२॥ अन्ये त्वाहुः - अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दो न तु बाह्यार्थप्रत्यायक इति, दर्शयति - अभ्यासादित्यादि । शब्दस्म क्वचिद् विषये पुनः पुनः प्रवृत्तिदर्शनमभ्यासः । नियतसाधनावच्छिन्नक्रियाप्रतिपत्त्यनुकूला प्रज्ञा प्रतिभा । सा प्रयोगदर्शनावृत्तिहितेन शब्देन जन्यते, प्रतिवाक्यं प्रतिपुरुषं च सा भिद्यते । स तु तस्या अपरिमाणो भेदः शब्दव्यवहारस्यानन्त्यान शक्यते विधातुमित्यत आह-समासत इति । अत्र दृष्टान्तमाह - बालानां च तिरश्चां चेत्यादि । यथैव ह्यशाभिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्तौ क्रियमाणायां प्रतिभाहेतवो भवन्ति तथा सर्वेऽर्थवत्सम्मता वृक्षादयः शब्दा यथाभ्यासं प्रतिभामात्रोपसंहारहेतवो भवन्ति, न त्वर्थ साक्षात् प्रतिपादयन्ति । अन्यथा हि कथं परस्परपराहताः प्रवचनमेदा उत्पाद्यकथाप्रबन्धाश्च स्वविकल्पोपरचितपदार्थभेदद्योतकाः स्युरिति ।" तत्त्वसं० पं० । “अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः सर्वः शब्दः समासतः । बालानां च तिरश्चां च यथाऽर्थप्रतिपादने ॥ [ विधिवि० ] | अभ्यासजनितां भावनामभ्यासशब्देनाह कार्ये कारणोपचारात् । नाभिधानाधीनोऽर्थबोध: शब्दात् अपि त्वभ्यासाधीनः । यथा हि खलु कशाङ्कुशाभिघातादयोऽनभिधायका अपि वाजिगजादीनामभ्यासात् स्वतः प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुमर्थप्रतिभासां प्रतिभां भावयन्तः प्रवर्तका निवर्तकाश्च तथा सङ्क्षेपतः सर्वः शब्दो व्युत्पन्नानामव्युत्पन्नानां चेह जन्मनीत्यर्थः । अयं च प्राग्भवीयोऽभ्यासोऽवश्याभ्युपेय इत्यत्र दृष्टान्तमाह - 'बालानां च तिरवां च यथाऽर्थप्रतिपादने' । अर्थाभासप्रतिभोत्पादनेन चार्थप्रतिपादनमुक्तम् [ पृ० १०] । विशिष्टसाधनावच्छिन्न क्रियाप्रतीत्यनुकूला प्रज्ञा प्रतिभा' [ विधिवि० ] । साध्यसाधनेतिकर्तव्यतावच्छिन्नायाः क्रियायाः प्रतिपत्तावनुकूलां तत्प्रतिपत्त्या कार्येऽनुष्ठानलक्षणे कर्तव्ये सहकारिणीं कर्तव्यमिति प्रज्ञां प्रतिभामध्यगीष्महि [ पृ० २४७ ]" इति मण्डनमिश्रविरचित विधिविवेकस्य वाचस्पति मिश्रकृतामा न्याय कणिकायां व्याख्यायाम् ॥ १ पदार्थात्वाक्या ० ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [सप्तम उभयोभयारे परि समन्तात्......। उपनिवन्धनमप्यस्य आर्षम्-आता भंते ! पोग्गले, णो आता ? गोतमा ! सिया आता नयस्य शतधा भेदाभ्युपगमादृजुसूत्रदेशोऽयमृजुसूत्रभेदः, १ . ऐक्केको य सतविधो सत्त णयसता हवंति एवं तु। 5 वितियो वि अ आदेसो पंच णयसता हवंतेवं ॥ [ भाव० नि० ७५९] इति वचनात् । ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तत्रयत इति ऋजुसूत्रः, सूत्रपातवदृजुसूत्र इति वा। परि समन्तादित्यादिना पर्यायास्तिकशब्दार्थ सव्युत्पत्तिं स्वयमेव व्याचष्टे । किमेताः स्वमनीषिका उच्यन्ते, आहोस्विदस्य नयस्य निबन्धनमस्त्यार्षम् ? इति, 'अस्ति' इत्युच्यते, ३६९२ । १ एकेको य सतविधो पंच नयसता हवंति एवं तु । वितिओ वि अ आदेसो सत्त णयसता हवंतेवं प्र.। हस्तलिखितादर्शप्रतिस्थोऽयं पाठोऽशुद्धो भाति । दृश्यतां पृ० ३७३ पं० ११ टि. ३ । पृ० ४१४ पं० २४ टि. ९ । अत्र “एक्कक्को य सयविहो सत्त णयसया हवंति एवं तु । अण्णोवि य आएसो पंच सया हुँति उ नयाणं ॥ -७५९॥" इति पाठो हरिभद्रसूरीणां मलयगिरिसूरीगां चाभिप्रेत इति आवश्यकनियुक्तिव्याख्यावलोकनादवसीयते । तथाहि तद्वयाख्या-"अनन्तरोक्तनैगमादिनयानामेकैकश्च वभेदापेक्षया शतविधः शतभेदः, सप्त नयशतानि भवन्ति एवं तु। अन्योऽपि चादेशः पञ्च शतानि भवन्ति तु नयानाम् , शब्दादीनामेकत्वात् एकैकस्य च शतविधत्वादिति हृदयम् । अपिशब्दात् षद चत्वारि द्वे वा शते । तत्र षट् शतानि नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारद्वये प्रवेशात् एकैकस्य च शतभेदत्वात् । तथा चत्वारि शतानि सहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दानामेकैकनयानां शतविधत्वात् । शतद्वयं तु नैगमादीनामृजुसूत्रपर्यन्तानां द्रव्यास्तिकत्वात् शब्दादीनां च. पर्यायास्तिकत्वात् तयोश्च शतभेदत्वादिति गाथार्थः ।” इति हरिभद्रसूरिविरचितायामावश्यकनियुक्तिवृत्तौ । एतादृशी एव मलयगिरीया वृत्तिः। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचिते विशेषावश्यकभाष्ये तु “इक्किक्को य सयविहो सत्त नयसया हवंति एमेव । अन्नोवि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥ २२६४ ॥” इति आवश्यकनियुक्तिपाठः । “एकेको य सयविहो. गाहा । एक्केको शतभेद इति सप्त शतानीति । बितिओ वि य आदेसो पंच सया । नणु किमिति ? तिन्नि वि सद्दनया एगो चेव, तेण पंच सया, णेगमसंगहयवहारउजुसुयसदा एत्थ उदाहरणं, एत्थ एको उ सयभेद इति पंच सया अपि । 'च'सद्दादन्नो वि आदेसो-जहा छ मूलनया।णेगमो दुविहो संगहितो य असंगहितो य । संगहितो संगहं पविट्ठो, असंगहितो ववहार पविट्ठो, एक्कोको य सयविहो, एवं छ स्सया। अहवा चत्तारि मूलनया-नेगमो संगहितो संगहं पविट्ठो, असंगहितो असंगई पविट्ठो, तेण संगहववहारउजुसुयसद्दा चत्तारि णया, ते विभजमाणा एकेको सयविहो, एवं चत्तारि नयसता । अहवा दो मूलनया-दव्वट्ठियो य पजवट्ठियो य, एक्कको सयविहो एवं दो णयसया । अहवा दो नया - ववहारिओ णेच्छतितो य । उदाहरणं-वावहारियणयस्स कालतो भमरो, णेच्छतियणयस्स पंचवन्नो जाव अट्ठफासो। अहवा दो मूलणया-अप्पियववहारितो य अणप्पियववहारितो य । उदाहरणं-जीवो नारकत्वेनार्पितः जीवत्वेनानर्पितः, एवं तिर्यग्मनुष्यदेवत्वेनापि भाव्यः । अहवा दो नया-तीयभावपन्नवतो पडप्पन्नभावपन्नवतो य । उदाहरणं-'नेरतियाणं भंते। किं एगिदियसरीराई' आलावओ। एवं एते उल्लोयेण णया भणिता ॥ ७५९ ॥” इति जिनदासगणिमहत्तरविरचितायाम् आवश्यकचूर्णी ॥ २ "ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयत इति ऋजुसूत्रः।"-तत्त्वार्थसर्वार्थसि० १।३३ । “सूत्रपातवजुत्वादृजुसूत्रः । यथा ऋजुः सूत्रपातः तथा ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तात्रयति ऋजुसूत्रः । पूर्वास्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयमादत्ते, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । समयमात्रमस्य निर्दिदिक्षितम् ।"-तत्त्वार्थराजवा० १।३३। “ऋजु प्राजलं वर्तमानपर्यायमात्रं सूत्रयति प्ररूपयति इति ऋजुसूत्रः।"-न्यायकुमु०६७१॥३'परि समन्तादेति गच्छतीति पर्यायः, सोऽस्तीति मतिरस्येति पर्यायास्तिकः।' इत्येतादृशं मूलमत्र स्यादिति भाति । दृश्यतां पृ० ७५० ८-११ । “परि भेदमेति गच्छतीति पर्यायः । पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः ।"-धवलाटी० पृ० ८४ । “परि समन्तादायः पर्यायः । पर्याय एवार्थः कार्यमस्य, न द्रव्यम् ,... इति पर्यायार्थिकः।"-तत्वार्थराज०१३३॥ ४त्पत्ति य० ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षवचनेन संवादोपदर्शनम् ] द्वादशार नयचक्रम् परमाणुपोग्गला(ले), सिया णो आता । से केणद्वेण भंते ! एवं वुञ्चति-सिया आता परमाणुपोग्गले सिया णो आता? गोतमा ! अप्पणो आदितु आता परस्स आदि? णो आता [भगवतीसू० १२।१०।४६९] | इति सप्तमोऽर उभयोभयभङ्गः। उपनिबन्धनमप्यस्य यतो निर्गमस्तदस्त्यार्षम् । तद्यथा- आता भंते ! पोग्गले इत्यादि । पुद्गलानामात्मा स्वरूपं नो आत्मा पररूपमिति भावाभावौ विधिनियमाविति प्रश्नो गौतमस्य इन्द्रभूतेर्गणधरस्य । व्याक-5 रणं भगवानाह -गौतम ! सिया आता परमाणुपोग्गला(ले) सिया णों आता, भवत्यपि [न भवत्यपि] । सेकेणदेणेत्यादि कारणप्रश्नः। एवमिति स्याच्छब्दार्थ प्रत्युच्चारयति । केनार्थेन स्यादात्मा परमाणुपुद्गलः, स्यानो आत्मा ? इति विवृणोति तैमेव । को निश्चय इति प्रश्नः । भगवानाह - गोतमा ! अप्पणो आदिढे आता आत्मना स्वरूपेण आदिष्टे अर्पिते विवक्षिते आत्मा भावो विधिः स्वरूपम् । परस्स आदिदे णो आता, परस्य आदिष्टे नो आत्मा [अ]वृत्तिरभावो नियम इति । तथा द्विप्रदे-10 शिकादिस्कन्धाः आकाशाद्यस्तिकाया घटपटादयश्चार्था यथा विस्तरशो व्याख्यातमिति । इति नयचक्रटीकायां सप्तमोर उभयोभयभङ्गः समाप्तः॥ १ "आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी, अन्ना रयणप्पभा पुढवी ? गोयमा ! रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं आयाति य नो आयाइ य । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ- रयणप्पभा पुढवी सिय आया सिय नो आया सिय अवत्तव्वं आताति य नो आताति य ? गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया, पररस आदिढे नो आया, तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्वं रयणप्पभा पुढवी आयाति य नो आयाति य । से तेणढणं तं चेव जाव नो आताति य ।......'आया भंते ! परमाणुपोग्गले, अन्ने परमाणुपोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गलेवि भाणियध्वे ।" इति भगवतीसूत्रे पाठः, १२।१०१४६९। व्याख्या- "आत्माधिकाराद् रत्नप्रभादिभावानामात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाह -आया भंते इत्यादि, अतति सततं गच्छति तांस्तान् पर्यायानित्यात्मा, ततश्च आस्मा सद्रूपा पृथिवी, अनति अनात्मा असद्रूपेत्यर्थः । सिय आया सिय नो आयत्ति, स्यात् सती स्यादसती, सिय अवत्तव्वंति आत्मत्वेन अनात्मत्वेन च व्यपदेष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः, कथमवक्तव्यमित्याहआत्मेति च नोआत्मेति च वक्तुमशक्यमित्यर्थः । अप्पणो आइट्रेत्ति आत्मनः खस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायैः आदिष्टे भादेशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः नोआत्मा अनात्मा भवति, पररूपापेक्षयाऽसतीत्यर्थः । तदुभयस्स आइ अवत्तव्धति तयोः खपरयोरुभयं तदेव वोभयं तदुभयम् , तस्य पर्यायैरादिष्टे आदेशे सती तदुभयपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः, अवक्तव्यम् , अवाच्यं वस्तु स्यात्, तथाहि-न ह्यसौ आत्मेति वक्तुं शक्या, परपर्यायापेक्षया अनात्मत्वात् तस्याः । नाप्यनात्मेति वक्तुं शक्या, खपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति । अवक्तव्यत्वं चात्मानात्मशब्दापेक्षयैव, न तु सर्वथा, अवक्तव्यशब्देनैव तस्या उच्यमानत्वात् , अनभिलाप्यभावानामपि भाव-पदार्थ-वस्तुप्रभृतिशब्दैरनभिलाप्यशब्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति । एवं परमाणुसूत्रमपि।" इति अभयदेवसूरिविरचितायां भगवतीसूत्रवृत्तौ ॥ २ 'पुद्गलो नाम आत्मा' इत्यपि पाठोऽत्र चिन्त्यः। (पुद्गलः किमात्मा?)॥ ३ भावो विधि भा० ॥ ४ सिआ य०॥ ५ तत्मव प्र०॥ ६ आत्मनो य०॥ ७ आह भावो प्र०॥ ८"आया भंते ! दुपएसिए खंधे, अन्ने दुपएसिए खधे ? गोयमा दुपएसिए खंधे सिय आया १। सिय मो आया २। सिय अवत्तव्वं आयाइ य नो आयाति य ३ । सिय आया य नो आया य ४ । सिय आया य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ५ । सिय नो आया य अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य ६ । से केणटेणं भंते । एवं तं चेव जाव भा याति य नो आयाति य? गोयमा| अप्पणो आदिढे आया १ । परस्स आदिढे मो आया २ । तदुभयस्स भाविद Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५९ द्वादशारं नयचक्रम् [सप्तमोभयोभयारः समाप्तः अवत्तव्वं दुपएसिए खंधे आयाति य नो आयाति य ३। देसे आदिढे सम्भावपजवे देसे आदिढे असन्भावपजवे दुप्पएसिए खंधे आया य नो आया य ४ । देसे आदितु सब्भावपज्जवे देसे आदिढे तदुभयपजवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तव्वं आयाइ य नो आयाइ य ५। देसे आदितु असम्भावपजवे देसे आदितु तदुभयपजवे दुपएसिए खंधे नो आया य अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य ६ । से तेणटेणं तं चेव जाव नो आयाति य । आया भंते! तिपएसिए खंधे............ जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए । सेवं भंते सेवं भंतेत्ति जाव विहरति ।" इति भगवतीसूत्रे १२।१०।४६९ । अस्य भ्याख्या-"द्विप्रदेशिकसूत्रे षड् भङ्गाः । तत्राद्यास्त्रयः सकलस्कन्धापेक्षाः पूर्वोक्ता एव, तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षाः । तत्र च गोयमेत्यत आरभ्य व्याख्यायते - अप्पणोत्ति स्वस्य पर्यायैः आदिद्वेत्ति आदिष्टे आदेशे सति आदिष्ट इत्यर्थः, द्विप्रदेशिकस्कन्धस्य आत्मा भवति १ । एवं परस्य पर्यायैरादिष्टोऽनात्मा २। तदुभयस्य द्विप्रदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायैरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात् , कथम् ? आत्मेति चानात्मेति चेति ३ । तथा द्विप्रदेशत्वात् तस्य देश एक आदिष्टः, सद्भावप्रधानाः सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् स सद्भावपर्यवः, अथवा तृतीयाबहुवचनमिदम् , खपर्यवैरित्यर्थः, द्वितीयस्तु देश आदिष्टः असद्भावपर्यवः परपर्यायैरित्यर्थः, परपर्यवाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्बन्धिनो वेति । ततश्चासौ द्विप्रदेशिकः स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति नो आत्मा चेति ४ । तथा तस्य देश आदिष्टः सद्भावपर्यवो देशश्चोभयपर्यवः ततोऽसावात्मा चावक्तव्यं चेति ५। तथा तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्धावपर्यवो देशस्तूभयपर्यवस्ततोऽसौ नो आत्मा चावक्तव्यं च स्यादिति ६ । सप्तमः पुनरात्मा च नो आत्मा चावक्तव्यं चेत्येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिके, व्यंशत्वादस्य । त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी । त्रिप्रदेशिकस्कन्धे तु त्रयोदश भङ्गाः ........ षट्प्रदेशिके त्रयोविंशतिरिति ।” इति अभयदेवसूरिविरचितायां भगवतीसूत्रवृत्तौ । श्यतां पृ० ५५१ टि०१॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y सद्गुरुभ्यो नमः अथाष्टम उभयनियमारः। भावाभावभावनायां यदि भावो विधिरभावो विशेषः, स च पराभाव इष्टो न स्वरूपस्यैव विशेषः, ततस्तदभावे स्वत्वं परत्वं चाव्यवस्थितं परत्वाभावविशेष-. तुल्यत्वात् । ततश्च द्वयोरपीतरेतरात्मापत्तेः स्वपरविशेषत्वाभावे भावाभावयोर्भेदेनोपनिपातो न स्यात् खतोऽप्यसत्त्वं परतश्च सत्त्वं स्यात् । इदमिह सम्प्रधार्यम्-किमेतौ भावाभावौ द्वावपि प्रधानौ, भावः प्रधानं विशेष उपसर्जनम् , विशेषः प्रधानं भाव उपसर्जनम्, उभयमुपसर्जनम् ? यदि द्वावपि प्रधानी ततस्तयोरङ्गाङ्गिभावो न स्यात् परस्परानपेक्षत्वादपरार्थत्वात् प्रधानत्वाद् विजिगीषुवत् । घटो घटभावेन खेनैव भवति न पटादिभावेन नाभावेन वा, विधि-नियमभङ्गसमस्तवृत्तिसत्यत्वप्रतिपादनाधिकारे पूर्वनयदृष्टावपरितुष्टेरुत्तरनयसमारम्भः,तद्यथा--10 भावाभावभावनायामित्यादि । यदि भावाभावात्मकं वस्त्विति भावो विधिरभावो विशेषः, स च पराभाव इष्टो न स्वरूपस्यैव भावस्य विशेषो नियम इति, ततस्तदभावे स्वगतविशेषाभावे परस्यापि स्वगतविशेषाभावे स्वत्वं परत्वं चाव्यवस्थितम्, परत्वाभावविशेषतुल्यत्वात् । स्वं खं न भवति पराभावविशेषत्वात् परवत् , पराभावविशेषत्वं वस्तुत्वात् स्ववत् स्वभावविशेषशून्यत्वात् । परमपि परं न भवति स्वभावविशेषशून्यत्वात् स्ववत्, पराभावविशेषत्वात् पूर्ववत् पक्षे धर्मसिद्धिः । ततश्च द्वयोरपि 15 स्वपरयोरितरेतरात्मापत्तेः 'स्वस्य स्खेत्वं परस्य च परत्वम्' इत्येष विशेषो नास्ति । सति च स्वपरविशेषत्वाभावे भावाभावयोः सामान्यविशेषयोर्भेदेनोपनिपातो न स्यात् । 'न स्यात्' इति सम्भावनया, मा मुखनिष्ठुरं वोचमिति । एवमैक्यापत्तिरनयोः । नैक्यापत्तिरेव, किं तर्हि ? सङ्करोऽपीत्यत आहस्वतोऽप्यसत्त्वं भावितार्थमेव, अपिशब्दात् परतोऽसत्त्वं त्वदभ्युपगतमेव, परतश्च सत्त्वं स्यात् , अनिष्टं चैतत् । किश्चान्यत्, इदमिह सम्प्रधार्यम्-किमेतौ भावाभावौ द्वावपि प्रधानौ विजिगीषू इवान्योन्यनिरपेक्षौ, भावः प्रधान विशेष उपसर्जनम् , विशेषः [प्रधानं] भाव उपसर्जनम् , उभयमुपसर्जनम् ? इति । चतुर्पु विकल्पेषु त्रीन् विकल्पान् व्युदस्य भावोपसर्जनं विशेषप्रधानं नयस्यास्य मतं समर्थयिष्यामः । तत्र तावद् यदि द्वावपीत्यादि उभयप्राधान्येऽनिष्टापादनं यावद् विजिगीषुवदिति । १ दृश्यतां पृ० ५३६ पं० १॥ २ सत्वं प्र० ॥ ३ स्यात्र प्र० ॥ ४ सभा प्र० ॥ ५ द्रष्टव्यं पृ० ५५५ पं० ७॥ नय० ७० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे पटोऽप्येवमेव । शिविकावाहकवत् तुल्यशक्तीनामप्यर्थानामङ्गाङ्गिभाव इति चेत्, न, शिबिकावाहकवत् प्रधानभूतस्यान्यस्य कस्यचित् सामान्यविशेषयोःप्रयोजयितुरभावात् । उत्तरभावः प्रयोजयितेति चेत्, न, तदाऽभूतत्वात् उत्पन्नस्यापि तदात्मकत्वात् शिविकावाहकवदखतन्त्रत्वात् । 5 इतरस्य प्रधानस्यार्थ साधयितुमङ्गं प्रवर्तमानमङ्गिनमपेक्षते, अङ्गयप्यङ्गमित्यङ्गाङ्गिभावः, स न स्यात् परस्परानपेक्षत्वात् तयोः, परस्परानपेक्षत्वमपरार्थत्वात् , अपरार्थत्वं प्रधानत्वात् , यथा विजिगीषोः । ततो विरोधादेकत्र प्रवृत्त्यभावाद् वस्तु भावाभावात्मकं न भवतीति । कथं तर्हि भवतीति चेत् , घटो घटभावेन स्वेनैव भवति स्वभवनप्राधान्येन, न पटादिभावेन ३७०-२ उक्तसङ्कर-विशेषासत्त्वदोषभयात्, नाभावेन वा पटादेरोत्मनो वा, उक्तदोषादेव । पटोऽप्येवमेव, 10 खेनैव पटभावेन भवति न घटभावेनाभावेनैव वा । शिबिकावाहकेत्यादि यावच्चेदिति । स्यान्मतम् - परस्परनिरपेक्षत्वादित्यादिहेत्वसिद्धिः, तुल्यशक्तीनामप्यर्थानामङ्गाङ्गिभावदर्शनात्, यथा शिबिकावाहकानामिवेति । एतच्च [न], शिबिकावाहकवदित्यादि यावत् प्रयोजयितुरभावादिति । न हेत्वसिद्धिः, शिबिकावाहकानामिव प्रधानभूत ईश्वरो यथा प्रयोजयिता संहत्यकारिणामङ्गाङ्गिभावहेतुरस्ति वहन क्रियायां न तथा कश्चित् सामान्यविशेषयो15 घंटादेः पिण्ड शिवकादेश्च प्रधानभूतोऽन्यः कश्चित् प्रयोजयितास्ति । तस्माद् वैधादयुक्तदृष्टान्तमिदमुत्तरमिति । उत्तरभावः प्रयोजयितेति चेत् , पिण्डस्योत्तरो भावः शिवकादिः, स प्रयोजयिता प्रधानभूतः, तस्यापि स्थार्सेक-कोशक-कुशूलकादिरुत्तरो यावत् पश्चिमो घटः पुनरावृत्त्या इति एवं चेन्मन्यसे तदपि न, तदाऽभूतत्वात् , उत्तरस्य भावस्य तस्मिन् कालेऽनुत्पन्नत्वादसतः प्रयोजकत्वाभावात् कुतः प्रधानत्वं 20 खपुष्पस्येव ? किञ्चान्यत्, अभ्युपेत्यापि तदुत्पत्तिमुत्पन्नस्यापि तदात्मकत्वात् मृत्पिण्डाद्यात्मकत्वादु त्तरोत्तरभावस्य स्वबीजाँदभिन्नत्वात् पूर्व एवोत्तरः, स कथमात्मानमेव प्रयोजयितुमर्हति ? भेदमभ्युप३७१-१ गम्यापि शिबिकावाहकवदस्वतन्त्रत्वात् परवशवर्तित्वादप्रवर्तकत्वं पूर्वोत्तरयोर्दिक्तः कालतो वा भिन्न योरपि भावाभावयोरप्रधानत्वादीश्वराप्रेरितशिबिकावाहकवत् । एवं तावत् प्रधानयोरप्रवृत्तिः सामान्यविशेषयोः। 25 अथ सन्मित्रवदित्यादि अन्यतरोपसर्जनप्रधानभावेन सामान्यविशेषयोरविशिष्टतेति पूर्वपक्षयति । यथा संहत्यकारिणोः सन्मित्रयोः परस्परमतानुवर्तिनोरर्थवशादेकस्योपसर्जनता इतरस्य प्राधान्यमिति चेत् एवं चेन्मन्यसे, तदपि न, वक्ष्यमाणेत्यादि यावदभावादिति । 'भवितुर्विशेषस्यैव प्राधान्यम् सामान्यस्य भवनस्यैवोपसर्जनत्वमित्युभयनियमेनार्थवत्त्वं भावशब्दस्य नान्यथा' इति वक्ष्यतेऽस्य नयस्य मतम् । तस्माद् नान्यतरोपसर्जन-प्रधानभावः । . १ धान्येतत्र पटाप्र०॥ २रात्मनोक्तदोषादेव य०॥३ पृ० ५५३ पं० ८॥४°सकोशक भा०॥ ५त्यादि प्र०॥ ६°दिभिन्न य०॥ ७ यमेनार्थवत्त्वं य० ॥ ८ पृ. ५५५ पं० ७ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५५ पूर्वनयमतदूषणम्] द्वादशारं नयचक्रम् । अथ सन्मित्रवदन्यतरोपसर्जनप्रधानभावेन सामान्यविशेषयोरविशिष्टतेति चेत्, न, वक्ष्यमाणोभयनियमनयमतवदन्यतरोपसर्जनप्रधान भावाभावात्। __ अथोपसर्जनावेव भावाभावौ ततस्तयोः प्रधानेनान्येनावश्यं भवितव्यं प्रवर्तयित्रा, तदभावे प्रवृत्त्यभावात् । न च भावाभावव्यतिरिक्तोऽर्थोऽस्ति । न च प्रधानेन विनोपसर्जनम् । न च प्रधानोपसर्जनभावेन विना दृश्यते भोक्तृभोग्यशरीरा-3 हारादिवस्तुप्रवृत्तिरिति तयोरेव प्रधानोपसर्जनता। इत्युभयनियम उच्यते-भवत् प्रधानम्, भाव उपसर्जनम् । भवति विशेषः, अथोपसर्जनावेव भावाभावौ ततस्तयोः प्रधानेनान्येनावश्यं भवितव्यं बैलवताश्रयभूतेन द्वयोरिव राजपुरुषयोपतिना प्रवर्तयित्रा, तदभावे प्रवृत्त्यभावात् । दृष्टा हि प्रवृत्तिरबलयोर्बलवंदाश्रया । एतावती च प्रवृत्तिः सामान्य-विशेषयोर्भवन्ती भवेत् , सर्वथा चानुपपन्ना, भावाभावयोरेव 10 पर्यायमात्रत्वात् तत्त्वान्यत्वादिधर्माणां वस्त्वन्तराभावात् , 'भावः सामान्यं प्रवृत्तिव्यं विधिरन्वयो धर्मी' इति पर्यायाः, 'अभावो विशेषोऽन्यत्वं निवृत्तिः पर्यायो नियमो धर्मः' इति पर्यायाः, गुणगुण्यादिकल्पनाखपि भावाभावत्वव्यतिरिक्तार्थासम्भवाद् द्विधैव स्यात् । तच्चेत्थं वस्तु परीक्ष्यमाणं चतुर्धापि न घटते । तस्माद् भावाभावव्यतिरिक्तस्यार्थस्याभावादुपसर्जनयोरप्रवृत्तिरिति । स्यान्मतम्-प्रधानेन विनाप्युप-३७१-२ सर्जनयोः प्रवृत्तिर्भविष्यतीति । तदपि न च प्रधानेन विना उपसर्जनम् 'अस्ति' इति वर्तते, भृत- 15 कादिरिव स्वामिना । तस्मादकल्पना इयमपीति । __ स्यान्मतम्-उपार्योपकारिभावेन विनापि भवति वस्त्विति। एतदपि न च प्रधानोपसर्जनभावेनेत्यादि यावद् वस्तुप्रवृत्तिरिति । भोक्ता प्रधानम् , तदर्थं भोग्यमुपसर्जनमोदनवर्धितकवच्छंरीराद्यात्मनः । शरीरमेव भोक्त चेतनाधिष्ठितम् , तदर्थमुपसर्जनमाहारादि, आदिग्रहणाद् वस्त्रशय्यासनगृहादि, आहारार्थं शाल्यादि, शाल्याद्यर्थ सलिलादि । यथैतद् भोक्तृभोग्यादि गुणप्रधानभावेनैव प्रवर्तते न विना तेनेति । 20 दृश्यते च वस्तुनः प्रवृत्तिरित्थं प्रत्यक्षीकृतमिति तयोरेव भावाभावयोः प्रधानोपसर्जनता गुण- . प्रधानभावः, तृतीयवस्त्वभावात् । __ इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वादेतस्मात् कारणादेवमवस्थिते कतरत् कथं नियतमित्युभयनियम उच्यते. तद्यथा-भवत् प्रधानं कर्तृसाधनं प्रत्ययार्थः । भाव उपसर्जनं भावसाधनं प्रकृत्यर्थः । को भवतीति चेत्, उच्यते-भवति विशेषः, स एव 'भवति' इति भावः 'ण'प्रत्ययान्तेन कर्तृवाचिना शब्देनोच्यते 25 पूर्वनयव्याख्याव्युत्पत्तिवत् । अर्थतः प्रकृत्यर्थविवक्षायामपि कर्बर्थप्राधान्याद् भावसाधनत्वेऽपि कर्थ एवोच्यते, अतस्तत्प्रदर्शनार्थमाह-यत् तेन भूयते, किमुक्तं भवतीति चेत्, उच्यते यदसौ भवति भवनमापद्यते भवनक्रियामनुभवति स्वरूपप्रतिलम्भे गुणभूतं क्रियात्वं प्रतिपद्यमानोऽर्थो विपरिवर्तत इत्युक्तं १ अत्र यथाश्रुते 'बलवता आश्रयभूतेन' इति पदच्छेदो विधेयः। अत्र बलवदाश्रयभूतेन इत्यपि पाठः स्यात् । दृश्यतां टि. २॥ २वताश्रया भा०॥ ३ तथेत्थं य०॥ ४ कारोपका प्र०॥ ५ च्छरीरादि आत्मनः' इति पदच्छेदः ॥ ६ गुणधान प्र०॥ ७ दृश्यतां पृ. ३७७-२॥ ८ दृश्यतां पृ० १७३ पं० २०, पृ० ३८२ पं० १३॥ ९ दृश्यतां पृ० ५३६ पं० १३-१४ ॥ ... Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे यत् तेन भूयते यदसौ भवति नटपरमार्थनृपत्ववत् । भवित्रा भूयते, न भवनेन । तेन भूयते चेत् खपुष्पमपि भवेत् भवनस्य द्रव्यत्वापत्तेः।। न तु भवनमविशेष कचिदपि भवद् दृष्टम्, विशेषेण तु भवित्रा वशीकृतं दृष्टम् , क्रिया-घट-व्रीहि-देवदत्तादौ कारक-रूपादि-मूलादि-बालादिभेदं दृश्यत एव । 5 इत्युभयं नियम्यते। इह विशेषः प्रधानं भावः, सामान्यमुपसर्जनम्, शिबिकावाहकयानेश्वरयानवत्, विशेषभवनमेव भावभवनम् । ३७२-१ भवति । किमिव ? नटपरमार्थनृपत्ववत् , यथा नटः परमार्थतो नट एव सन् राज वेषधारी राजक्रियास्वा ज्ञापनादिषु च वर्तमानो नटत्वप्रधानस्तद्विशेषपरमार्थ एवं घटाख्यो विशेषो जलधारणादिभवनेषु वर्तमानो घटत्वप्रधानस्त द्विशेषपरमार्थो भवतीति भविता घटः कर्ता, तेन का भवित्रा भूयते स एव भवनीभवति 10न भवनेन न कळ भूयते, न भवनं घटो भवति, उपसर्जनत्वात् कर्तृ भवितुं न शक्नोति । तेन भवनेन भूयते चेत् खपुष्पमपि भवेत् , यद्यभवद् भवेत् अभवित्रा भवनमनुभूयेत खपुष्पेणाप्यनुभूयेत । न ह्यभवितृत्वात् खपुष्पं भवनमनुभवति तथा भवनमभवितृत्वाद् नानुभवतीत्यर्थः । कस्माद् नानुभवति भवनं भवनमिति चेत् , उच्यते-भवनस्य द्रव्यत्वापत्तेः, द्रव्यशब्दस्य कर्तृप्रत्ययान्तत्वाद् भवति' इति ,व्यं भव्यं 'कृत्यल्युटो बहुलं कर्तरि' इति लक्षणाद् यदि भवति द्रव्यं स्यात् । अनिष्टं चैतदिति । 15 एवं तर्हि भविताप्यभवनः खपुष्पवद् न स्यादिति तुल्यमनिष्टापादनम् । यथा भवित्रा विना भवनं नास्ति, तद्विशिष्टं दृष्टम् , तथा भवितापि भवनेन विना नास्ति, तद्विशिष्टो दृष्ट इति । एतच्च ने तु भवनमविशेषं सामान्यमानं वचिदपि भवद् दृष्टम् , विशेषेण तु भवित्रा वशीकृतं दृष्टम् , सत्यमेतत् , वयमपि न ब्रूमः-भवनं नास्त्येवेति, किं तर्हि ? विशेषप्रधान स्वोपसर्जनं तु दृष्टमिति न तुल्यत्वमनयोः । क तद् दृश्यत इति चेत्, उच्यते-क्रियाघटेत्यादि । क्रियायां कारकं कर्ता, 20 घटे रूपादिः, व्रीहौ मूलादिः, देवदत्तादौ बालादिः, एते भेदा यस्य तद् भवनसामान्यं भेदप्रधानं ३७२-२ दृश्यते लोके विशेषेणोपसर्जनीकृतं प्रधानेन । इत्युभयम् अस्मात् कारणाद् विधिनियमश्च नियम्येते 'सामान्यमुपसर्जनमेव विशेष एव प्रधानम्' इति विधिनियमौ नियतौ, न यथा पूर्वत्रोभयमते कामचारो वा विधिविधीयते नियम्यते च नियमो विधीयते नियम्यते चेति तुल्यकक्षौ, अनन्तरातीतनयमतवदुभयं 'चोभयम्-भावोऽपि भावो १ दृश्यतां पृ० ३७७-२॥ २ दृश्यतां पृ० ३७७-२॥ ३ भवता भा० । भावता य० । (भावना । ?)। 'भवता भूयते' इति मूलसत्त्वे तु भा० पाठोऽपि संगच्छतेऽत्र ॥ ४ भवतीभवति य० ॥ ५ कर्ता प्र.॥६ भवनमिति चेत् भा०॥ ७ “द्रव्यं च भव्ये। ५।३।१०४। द्रव्यशब्दो निपात्यते भव्येऽभिधेये, दुशब्दादिवार्थे 'यत्' प्रत्ययो निपात्यते । द्रव्यम् । भव्य आत्मवान् अभिप्रेतानामर्थानां पात्रभूत उच्यते । द्रव्योऽयं राजपुत्रः । द्रव्योऽयं माणवकः ।"-पा० काशिका ॥ ८ "कृत्यल्युटो बहुलम् । ३।३।११३ । 'भावेऽकर्तरि च कारके' इति निवृत्तम् । कृत्यसंज्ञकाः प्रत्यया ल्युट् च बहुलमर्थेषु भवन्ति, यत्र विहितास्ततोऽन्यत्रापि भवन्ति । भावकर्मणोः कृत्या विहिताः कारकान्तरेऽपि भवन्ति ।.."करणा वे च ल्युट अन्यत्रापि भवति ।..."बहुलग्रहणादन्येऽपि कृतो यथाप्राप्तमभिधेयं व्यभिचरन्ति ।"-पा० काशिका। ९ ननु भवन य० ॥ १० द्वयमपि प्र० ॥ ११ ब्रूतो भा० । ब्रूवो य० ॥ १२ (वोभयं? )॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थभवनवादिनः पूर्वपक्षः] द्वादशारं नयचक्रम् । अस्य पर्यायनयभेदत्वात् सर्वद्रव्यार्थभवनं प्रतिपक्षः । नामद्रव्यार्थभवनं तावत्-नाम कारणं द्रव्यं तदेव कार्य भवनात्मकत्वात् । घटस्य हि कुम्भकारचेतना कारणम् ; न अमूर्तात्मा अकरणात्। सर्वमपि चैतद् नामैव । कुम्भकारो ह्यात्मान्तःभवत्यभावश्च, अंभावोऽपि [अभावो भवति ] भावश्चेति, सङ्करदोषात् । इहेत्यस्मिन् नये स्वरूपं घटो विशेषः, न पटाद्यभावः । स एव विशेषः प्रधानं भावः, सामान्य क्रिया भवनं प्रकृत्यर्थ उपसर्जनम-5 प्रधानम् । किमिव ? शिबिकावाहकानेश्वरयानवत्, यथा शिबिकावाहकानां यानमीश्वरयानार्थत्वादप्रधानम् अतः शिबिकावाहकाः 'यान्ति' इति नोच्यन्ते तैरुह्यमान ईश्वर एव प्रधानत्वात् 'याति' इत्युच्यते तथा सामान्येन भवताप्यप्रधानेन भविता घट एव भवति' इति प्राधान्यादुच्यते । तस्माद् निरूपितवस्तुस्वरूपमुपनयति विशेषभवनमेव भावभवनमिति दान्तिकमर्थम् । ___इत्थं पर्यायनयभेदोऽयम् । अस्य नयस्य पर्यायनयभेदत्वात् सर्वद्रव्यार्थभवनं प्रतिपक्षः। 10 तत्र विध्यादयो द्रव्यार्थभवनभेदा व्याख्याता दूषिताश्च ‘समनन्तरानुलोमाः पूर्वविरुद्धा "निवृत्तनिरनुशयाः' [ ] इति न्यायक्रमेण । ते च द्रव्यार्थभेदाः । नाम-स्थापनाद्रव्यभवनयोरव्याख्यातयो र्व्याख्यानं कृत्वा दूषयिष्यति । तत्र नामद्रव्यार्थभवनं तावत् स्वरूपतः नमयति प्रह्वीकरोति सर्वमात्मस्वभावेनेति नाम, कारणं करोतीति, द्रव्यं प्राग्व्याख्यातार्थम् । भवत एंव वा यद् भवनं तद् ,व्यं ३७३-१ कारणं नाम इत्युच्यते । भवत्येव भवत्यवस्थितं विश्वस्य कारणं प्रागुक्तपुरुषादिकारणवदेकमेव नाम शब्दः । 15 आह-करोतीति कारणमुक्तम् , कार्याभावात् किं क्रियते यत् कुर्वत् तत् कारणं कारणं स्यात् ? तस्मात् कार्याभावात् कारणत्वाभावः, कारणत्वाभावात् स्वलक्षणाभावात् खपुष्पवदसदिति; उच्यते-तदेव कार्यकारणमेव नाम कार्य नासत् । कुतः ? भवनात्मकत्वात् । स हि शब्दो भवनात्मकः, भवनानि अवस्थाविशेषाः स्वप्नादिवत् पुरुषस्य बालादिवद्वा पिण्डादिरूपादिवद्वा घटस्य । तस्मात् स एव कारणं स्वावस्थाविशेषाणां कार्याणामिति । 20 ____ अस्योदिष्टस्य कार्यकारणभावस्य निरूपणार्थमुदाहृत्य घटं घटस्य हीत्याद्यारभते । घटस्य हि कार्यस्य यस्मात् कुम्भकारचेतना कारणं कुम्भकरणसमर्थशरीरसहिता, चेतनारहितस्य अंकरणात् । आत्मा तर्हि कारणमस्तु चेतनत्वादिति चेत्, तद् न अमूर्तात्मा, अंकरणात् । ततः किम् ? कुम्भकारशरीरं कर्तृत्वाद् मूर्तत्वाद् मृदाद्यात्मकत्वाद् घटस्य मूर्तस्य कारणं सम्भाव्येत, मृत्सलिलाद्यात्मकत्वाद्वा घटस्य मृत्सलिलाद्येव कारणं सम्भाव्येत, यदस्तु तदस्तु कार्य कारणं च, सर्वथा चैतन्यरहितस्य मूर्त-25 द्रव्यस्य घटसजातीयस्यापि मूर्तिरहितस्यापि वा चेतनस्यासजातीयघटकारणत्वासम्भवाद् मूर्तचैतन्यात्मकः कुम्भकारः पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशात्मानः संहत्य कुम्भकाराख्या भवन्ति । तच्च सर्वमपि चैतद् नामैव ३७३-२ शब्द एव, शब्दब्रह्मण एवैकस्य विपरिवर्तस्वरूपं पृथिव्यात्मादि मूर्तामूर्तभेदप्रभेदं जगत् । १'अभावोऽपि [भावो भवत्य]भावश्च' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ २ यामेदश्वभयानवत् प्र० । अत्र 'याने ईश्वर यानवत्' इत्यपि पाठो भवेत् ॥ ३ पर्यय प्र०॥ ४ निवृत्ति य० । दृश्यतां पृ. २२१ पं० ८, पृ० ४५५ पं० ७ । टिपृ. ७२ पं० ७॥ ५(द्रव्यद्रव्यार्थभेदाः?)॥ ६ एव धायद् भा० । एव धावद् य०॥ ७द्रव्यं कारण नाम य० । द्रव्यं नाम भा०। ८क्रियेते प्र०॥ ९ अकारणात् प्र० । 'अकारणत्वात्' इत्यर्थविवक्षायां तु यथाश्रुतः 'अकारणात्' इत्यपि पाठः साधुः ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे संनिविष्टशब्दानुबद्धचैतन्यस्वरूपत्वाच्छब्दात्मकः, तदनुरूपप्रवृत्तयोऽपि तदात्मिकाः, न तदभावे प्रवर्तते तन्तुवायवत् । न हि काचिदपि चेतनाऽशब्दास्ति । येऽप्यव्यक्तचेतनाः स्थावरा जङ्गमाश्च तेऽपि शब्दाभ्यासवासनाजनितान्तर्निविष्टस्वानुरूपचैतन्याः, हिताहितप्रवृत्तिव्यावृत्तिवृत्तत्वात्, कुम्भकारवत्। भगवदर्हदा 5. अपर आह-शब्दस्वतत्त्वमाकाशम् , आकाशगुणो वा शब्दः श्रोत्रग्राह्यस्यार्थस्य शब्दसंज्ञत्वादिति केचित् प्रतिपन्नाः । तत् कयोपपत्त्येदमुच्यते-शब्द एव सर्वमिति ? अत्रोच्यते--कुम्भकारो हीत्यादि । हिशब्दो हेत्वर्थे, कुम्भकारस्तावदात्मान्तःसन्निविष्टशब्दानुवद्धचैतन्यस्वरूपत्वाच्छब्दात्मकः, तदनुरूपान्तःशब्दानुबद्धचैतन्यप्रेरितपिण्डशिवकाद्यनुक्रमप्रवृत्तयः क्रिया अपि तदात्मिकाः, तत्प्रवृत्तित्वात् , मृत्प्रवृत्त्यात्मकघटवत् तद्भावे भावात् तदभावे चाभावात्, वैधयेण न तदभावे, तदनुरूपान्तःसन्नि10 विष्टचैतन्याभावे न प्रवर्तते तन्तुवायवत् । स्यान्मतम्-तदनुरूपचैतन्यात्मकत्वमस्तु प्रवृत्तेश्चैतन्याविनाभावात् , शब्दात्मकत्वं तु साध्यमिति । अत्रोच्यते-किमत्र साध्यम् ? सिद्धमेवैतत्, न हि काचिदपि चेतनाऽशब्दास्ति अनादिकालप्रवृत्तशब्दव्यवहाराभ्यासवासितत्वाद् विज्ञानस्य चैतन्यमेव हि पश्यन्त्यवस्थानं मध्यमावैखोरवस्थयोरुत्थाने कारणं 'नाम' इत्युच्यते, कारणात्मकत्वात् कार्याणाम् । यथोक्तम्-वैखर्या मध्यमायाश्च पश्यन्त्याश्चैत15 दद्भुतं रूपम् [ वाक्यप० १।१४२ ] इत्यादि । स्यान्मतम्-शब्दव्यवहारानभिज्ञेष्वप्यव्यक्तचेतनेषु विज्ञानोत्थापितप्रवृत्तिसम्भवे व्यभिचरतीति चेत् , 'न' इत्युच्यते, येऽप्यव्यक्तचेतना इत्यादि । कृमि-पिपीलिकादीनां जङ्गमानां व्रतती-त्रपु-सीसक३७४-१ चितकर्णिकादीनां स्थावराणां च शब्दाभ्यासवासनाजनितान्तर्निविष्टस्वानुरूपचैतन्यास्तित्वं प्रति ज्ञायते हिताहितप्रवृत्तिव्यावृत्तिवृत्तत्वात् कुम्भकारवत् , हिताहितयोः प्रवृत्तिव्यावृत्ती 'निमित्त20 सप्तमी सँम्बन्धषष्ठी वा, हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्योर्वृत्तत्वात् , इत्थम्भूतलक्षणा तृतीया वा हिताहितप्रवृत्ति १“वैखर्या मध्यमायाश्च पश्यन्त्याश्चैतदद्भुतम् । अनेकतीर्थमेदायास्त्रय्या वाचः परं पदम् ॥ [वाक्यप० १११४२], सर्वशब्दनिबन्धनत्वमाह-वैखर्या इति । एतदिति व्याकरणम् , अद्भुतमाश्चर्यं परं पदमिति सम्बन्धः। अनेकप्रकरणस्य शब्दराशेरास्पदं प्रतिष्ठेयाश्चर्यमेतत् । अनेकतीर्थभेदाया इति वैखरीमध्यमापश्यन्तीनामनेकमार्गभेदकतामाह । त्रय्या इति त्रयोऽवयवा वैखर्यादयो यस्या इति त्रयी। परमिति उत्कृष्टम् । पदमिति तत्सारत्वात् ।” इति वाक्यपदीयस्य वृषभदेवकृतायां टीकायाम् । “परैः संवेद्यं यस्याः श्रोत्रविषयत्वेन प्रतिनियतं श्रुतिरूपं सा वैखरी श्लिष्टा व्यक्त वर्णसमुच्चारणा प्रसिद्धसाधुभावा भ्रष्टसंस्कारा च । तथा याऽक्षे या दुन्दुभौ या वेणौ [या] वीणायामित्यपरिमाणभेदा । मध्यमा त्वन्तःसंनिवेशिनी परिगृहीतक्रमेव बुद्धिमात्रोपादाना । सा तु सूक्ष्मप्राणवृत्त्यनुगता क्रमसंहारभावेऽपि व्यक्तप्राणपरिग्रहैव केषाञ्चित् । प्रतिसंहृतकमा सत्यप्यभेदे समाविष्टक्रमशक्तिः पश्यन्ती। सा चलाचला प्रतिलब्धसमाधाना च आवृता विशुद्धा च सन्निविष्टज्ञेयाकारा प्रतिलीनाकारा निराकारा च परिच्छिन्नार्थप्रत्यवभासा संसृष्टार्थप्रत्यवभासा प्रशान्तसर्वार्थप्रत्यवभासा चेत्यपरिमाणभेदा ।.....'तथेतिहासेषु निदर्शनान्युपलभ्यन्ते-...... । पुनश्चाह-'स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥ १ ॥ केवलं बुद्ध्युपादाना कमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥ २॥ अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा। स्वरूपज्योतिरेवान्तःसूक्ष्मा वागनपायिनी' ॥ ३ ॥"-इति भर्तृहरिरचितायां वाक्यपदीयवृत्तौ ॥ २“वल्ली तु व्रतती लता" इति अमरकोशे ॥ ३°सीसकर्णिका भा०॥ ४"निमित्तात् कर्मयोगे"- पा. वा० २।३।३६ ॥ ५“षष्ठी शेषे”-पा०२॥३॥५०॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थभवनवादिनः पूर्वपक्षः] द्वादशारं नयचक्रम् । ज्ञापि तथोपश्रूयते-सव्वजीवाणं पि यणं अक्खरस अणंतभागो णिचुग्घाडितओ [नन्दीसू० ४२]। अतो यथैव कुम्भकारकरणशब्दचेतनावैचित्र्यवृत्तितारतम्याध्यासनसमुपहितरूपा घटता नाम्नः साक्षाद् भवति तथा तथा, तथा तत्प्रभवमेव कुम्भकारशरीरमृदादि शब्दोपयोगात्मयोगवक्रताऽवक्रतादेः, रूपादिमदर्थविरचनात्मकत्वात् व्यावृत्तिभ्यां वृत्तत्वात् । स्तम्भाद्याश्रयोपसर्पणं हितप्रवृत्तिवृत्तत्वं गम्यिादिभयादन्यतो गमनमहितव्या-5 वृत्तिवेत्तत्वं चेति सिद्धो हेतुर्वनस्पतिष्वपि । म्यादीनां तु त्रास-स्तम्भ-भ्रान्ति-पलायित-गतागतादिक्रिया भयाद्यविनाभाविन्यः सिद्धा एव, अतो हिताहितप्रवृत्तिव्यावृत्तिवृत्तता विद्यते शब्दानुविद्धचैतन्याविनाभाविनी यथा कुम्भकारे, तस्मात् तेषूभयेषु साध्यते । सुप्तदग्धादिषु तु जङ्गमेषु व्यक्तमेव पाणिप्रस्फोटनादि क्रियालिङ्गम् , तेन विज्ञानमविनाभावित्वात् सिद्धमेव, शब्दानुविद्धत्वं तु साध्यत इति । नैतत् स्वाभिप्रेतोपपत्तिबलादेव, किं तर्हि ? भगवदर्हदाज्ञापि तथोपश्रूयते-सव्यजीवाणं पीत्यादि । 10 'अक्खराणक्खरसुता'दिभेदेन श्रुतज्ञानप्ररूपणायामेकेन्द्रियादिस्वामिकमुक्तं सूत्रे । तथा भाष्येऽपि तं पि जति आवरिजेज तेण जीवो अजीवतं पावे। सुट्ठवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराण ॥ [नन्दीसू० ४२ ] अतो यथैवेत्यादि उक्तार्थोपसङ्घहरूपेण दृष्टान्तदण्डको यावत् साक्षाद् भवति तथा तथेति । कुम्भकारः शब्दानुविद्धचेतनात्मकः, तक्रियापि तदात्मिका विचित्रा पिण्डशिवकाद्यर्थपरिस्पन्दभेदा शब्द-15 चेतनैव, तस्या वैचित्र्येण वृत्तेस्तारतम्येन उत्तरोत्तरोत्कर्षपरम्परया अध्यासनम् , तेन समुपहितं रूपमस्या ३७४-२ घटतायाः सा कुम्भकारकरणशब्दचेतनावैचित्र्यवृत्तितारतम्याध्यासनसमुपहितरूपा घटता, सा साक्षादू नानो भवति तथा तथा तेन तेन प्रकारेण पिण्डशिवकादिरूपादिपृथुबुध्नादिना चेति दृष्टान्तः । दार्टान्तिकोऽर्थोऽधुना-तथा तत्प्रभवमेव शब्दचेतनाप्रभवमेव कुम्भकारमनुष्यशरीरं मृदादि मृत्सिकता-लोष्ट-वज्रा-ऽश्म-शिलादिपृथिवीकायतिर्यक्शरीरं च, आदिग्रहणादप्तेजो-वायु-वनस्पतितिर्यक्शरीरं 20 देवशरीरं नारकीयं च । तद् भावयति-शब्दोपयोगेत्यादि । शब्दात्मक उपयोगः श्रुतज्ञानं व्यक्ताव्यक्तम् , तत्सम्बन्धाद्व(यः) कायवाङ्मनःकर्मयोगः शुभोऽशुभो वा स आश्रवः पुण्यपापयोः, एकेन्द्रियादिजातिनाम्नस्तिर्यग्भेदस्य योगवक्रता विसंवादनं च, तद्विपरीतं योगावक्रत्वमविसंवादनं [च] शुभस्य मनुष्य-देवपञ्चेन्द्रियजात्यादिनाम्नः, आदिग्रहणादविसंवादनग्रहणात् । 'आदेः' इति पञ्चमीनिर्देशाद्धेतोरित्यर्थः । 'कुम्भकारशरीरमृदादि तथा तथा तत्प्रभवमेव' इति वर्तते । उक्तमिदं प्रक्रियायुक्त्या, न पुनर्हेतुना शब्दानु-25 विद्धचैतन्यात्मकत्वमिति चेत् , एतर्हि ब्रूमः-रूपादिमदर्थविरचनात्मकत्वात् , रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्श १ दृश्यतां पृ० ३७८-१ ॥ २ वृत्तित्वं प्र० ॥ ३ क्रम्यादीनां भा० ॥ ४ मु भा० । मू य० ॥ ५ दृश्यतां पृ० १९० पं० ७, पृ. ३५१ पं० ४, टिपृ० ६७ पं० ७॥ ६°दये होइ पहा य० ॥ ७ इयं गाथा सम्प्रति नन्दीसूत्रेण मिश्रितोपलभ्यते । नयचक्रवृत्तिकृतस्तु सा नन्दीसूत्रभाष्यगाथात्वेन सम्मता प्रतीयते। दृश्यता टिपृ. ६८ पं० २-७ ॥ ८ तत्सम्बन्धाद्व काय° य० । तत्सम्बन्ध काय° भा० । 'तत्सम्बद्धकायवाड्मनःकर्मयोगः' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ९ “कायवाङ्मनःकर्म योगः । स आश्रवः । शुभ पुण्यस्य । अशुभः पापस्य.।"-तत्त्वार्थ सू० ६।१-४॥ १० “योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। विपरीतं शुभस्य।"-तत्त्वार्थसू० ६।२१-२२॥ ११ तथा तथा तथा भा०॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [ अष्टम उभयनियमारे कुम्भकारकार्यवत् । नाम्न एव च प्रभावाद् घटस्य घटत्वम्, न बहिर्निमित्तापेक्षम् । तथाहिस्कन्दनादिनिमित्तानामनुपपत्तावपि जीवस्य जीवस्य वा निमित्तनिरपेक्षा संज्ञा क्रियते स्कन्दो रुद्र इन्द्र इति । प्रत्यक्षत्वात् सर्वलोकप्रसिद्धशब्दाभिधेयत्वाच्च तद्भूताः प्रत्यक्षाश्च गोपालादयो मुख्यया च वृत्त्योच्यन्ते तस्मात् त एव ते । ५६० सङ्ख्या - संस्थानादयो रूपादयः, ते यस्य सन्ति सोऽर्थो रूपादिमदर्थः, तस्य विरचना परस्पर सम्बन्धानुरूप्येण ३७५-१ घटना, स एवात्मा यस्य स्वरूपं मनुष्यतिर्यगङ्गोपाङ्गादिनामनिर्वृत्तकुम्भकारशरीरमृदादेरिति धर्मित्वेन सम्बध्यते । कुम्भकारकार्यवदिति दृष्टान्तः, यथा हि घटपिठरादि कुलालकार्यं तेन तेन मृन्मर्दनादिप्रकारेणान्तःसन्निविष्टशब्दानुविद्धकुम्भकार प्रवृत्त्या निर्वर्तितत्वात् तत्प्रभवं तदात्मकं कुम्भकार प्रवृत्त्यात्मकं रूपा10 दिमदर्थविरचनात्मकत्वात् तथा कुम्भकारशरीरमृदाद्यप्यन्तः सन्निविष्टशब्दानुविद्धचैतन्यप्रवृत्त्यात्मकमिति । अत्राह - प्रत्यक्षत एव दण्डादिबहिर्निमित्तादृते घंटा निर्वृत्तेः कथमिदमवधार्यते - नाम्नः साक्षाद् भवति, न दण्डादिभ्य इति ? अत्रोच्यते - नाम्न एव चेत्यादि । दण्डादीनां सतामप्यकिश्चित्करत्वाच्छब्दचैतन्यस्यैव प्रभावात् तत्प्रेरितप्रयत्न परिस्पन्दजनितनिष्येत्तिघटाख्यस्य वस्तुनस्तद्वस्तुत्वं घटत्वं नान एव महिम्नो लभ्यते न बहिर्निमित्तापेक्षम् । तत्प्रवृत्तीनामपि स्थाने स्थाने शब्दचेतननियोजिताना15 मात्मलाभात् तदात्मत्वम्, इतरथा तेषामतदात्मत्वे स्वरूपप्रवृत्तिरेव दुर्लभा, कुतो घटस्य घटत्वं वस्तुत्वम् ? * तस्मात् सर्वकारकसान्निध्येऽपि कर्तुरौदासीन्ये तदभावे वा क्रियायाः कार्यस्य चाभावः घटौदनपटवागादेः, अतः शब्दप्रभावप्रभवं सकलं जगदिति । तथा हीत्यादि तन्निरूपयति । हिशब्दो निदर्शने, एवं च कृत्वा स्कन्दरुद्रेन्द्राः स्कन्दिर् शोषणे, रुदिर अश्रुविमोचने, इदि परमैश्वर्ये [ पा० धा० ] इति 'स्कन्दनेन निमि३७५-२ तेन स्कन्दः, रोदनेन रुद्रः, इन्दनेन इन्द्रः' इत्येतेषां निमित्तानामनुपपत्तावपि गोपशुपालादेर्जीवस्या - 20 जीवस्य वा काष्ठकुंड्यपाषाणादेर्निमित्तनिरपेक्षा संज्ञा क्रियते 'स्कन्दो रुद्र इन्द्रः' इति, गोपालादीनामेव तैस्तैः शब्दैः समध्यारोपवशाच्चोच्यते । स्यान्मतम् - भवतीति भवो 'रोदितीति रुद्र इन्दतीति इन्द्र इति देवताविशेषाः तन्निमित्तभूतार्थभाजः सन्त्यप्रत्यक्षाः समयान्तरप्रसिद्धाः, तन्मुख्यप्रवृत्तेरितरत्रोपचारो भविष्यतीति । एतच्चायुक्तम्, प्रत्यक्षत्वादित्यादि यावत् तैं एव ते । अप्रत्यक्षास्ते भव - कार्तिकेयादयः समयान्तरप्रसिद्धशब्द परिकैल्पगम्या न सर्वलोकप्रसिद्धशब्दाभिधेया यथा गोपालादयः प्रत्यक्षाः 25 सर्वलोकप्रसिद्धशब्दाभिधेयाश्चेति तेषां सत्त्वं तच्छब्दात्मकत्वं चाप्रत्यक्षममुपचारगम्यं चेत्येतेभ्यः कारणेभ्यस्तद्भूताः स्कन्दादिशब्दभूताः प्रत्यक्षाश्च गोपालादयो मुख्यया च वृत्त्योच्यन्ते तस्मात् त एव ते, गोपालादय एव स्कन्दादयः, न समयान्तरपरिकल्पिताः सन्तीति । तस्माच्छब्दशक्तिप्रभावादेव संज्ञा १ घटादिनिर्वृत्तेः य० ॥ २ (निष्पत्तेर्घटाख्यस्य वस्तुनस्तद्वस्तुत्वं ? ) ( ° निष्पत्तिर्घट ख्यस्य वस्तुनः, स्तुत्वं ? ) ॥ ३ घटत्वं भा० मध्ये नास्ति ॥ ४ 'महिम्नः' इति पञ्चम्यन्तं पदम् ॥ ५ स्थाने शब्द भा० ॥ ६ स्वस्वरूप भा० ॥ ७ स्कन्दिरशोषणे रुदिरु अश्रु प्र० । “स्कन्दिर् गतिशोषणयोः ९७९, रुदिर् अश्रुविमोचने इदि परमैश्वर्ये ६३ - पा० धा० ॥ ८ ( कु ? ) ॥ ९ रोदतीति प्र० ॥ १० त एव तेषु प्रत्यक्षास्ते भा० । त एव तेषु प्रत्यक्षास्ते य० ॥ ११ कल्पाः भा० ॥ १०६७, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनयमतम्] द्वादशारं नयचक्रम् । येऽपि च ते समयान्तरपरिकल्पिताः स्कन्दरुद्रेन्द्राः तेषु एकस्मिन्नितरसंज्ञयोरपि प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् त्रयोऽपि परस्परसंज्ञानिर्देश्याः स्युः। ___अथान्यतमनिमित्तमात्रं तत्त्वमिष्यते इष्टार्थविवक्षया एवं तर्हि विवक्षितेष्टार्थविषयव्यवहरणादन्तर्निविष्टशब्दानुबद्धचैतन्यनिमित्तः संज्ञाव्यवहारोऽभ्युपगतः, बहिर्निमित्तं तु त्यक्तम् । निमित्तप्रत्ययेन संज्ञाप्रवृत्ती यावत्सम्भवं संज्ञासन्निवेशे भावकादयोऽपि ते प्राप्ताः । तथा च यावत् किश्चिद् भवननिमित्तग्रस्तं तस्य सर्वस्येन्द्रस्कन्दादिरर्थः सर्वधातुभ्वर्थत्वात् पर्यायो घटकुटशब्दवत् । सम्भविघटनादिस्कन्दनादित्वाच सर्वसर्वत्वम् । सन्निवेशो न निमित्तान्तरात् । अभ्युपेत्यापि समयान्तरपरिकल्पितानां स्कन्दादीनामस्तित्वं निमित्तनियमा-10 भावदोष उच्यते—येऽपि च त इत्यादि । स्कन्देऽपि रोद[नमिन्द]नं च स्तः, अतः स रुद्र इन्द्रो वा किं न भवति ? तथा रुद्रेऽपि स्कन्दनेन्दने * इन्द्रेऽपि रोदनस्कन्दने * ततः स इतर इतरः स किं न भवति ? एकस्मिन्नितरयोरपि संज्ञयोः प्रवृत्तेर्निमित्तमस्त्येव । तस्मात् त्रयोऽपि परस्परसंज्ञानिर्देश्याः सङ्करेण स्युः। अथ मा भूदेष दोष इत्यन्यतमदेव निमित्तमेकं तत्त्वमिष्यतेऽसङ्कीर्णसंज्ञाव्यवहारार्थं 'स्कन्द ३७६-१ एव, न रुद्रो नेन्द्रः' इतीष्टार्थविवक्षया एवं तर्हि अन्यतमनिमित्तमात्रतत्त्वयाऽवधृतया संज्ञया 15 विवक्षितेष्टार्थविषयव्यवहरणादन्तर्निविष्टशब्दानुबद्धचैतन्यनिमित्तः संज्ञाव्यवहारोऽभ्युपगतः, बहिनिमित्तं तु त्यक्तमिति दोषः, तुशब्दादनिष्टसम्परिग्रहेष्टत्यागौ विशेषयति । किश्चान्यत्, निमित्यप्रत्ययेनेत्यादि । यदि स्कन्दनादिनिमित्तप्रत्ययेन संज्ञाप्रवृत्तिस्ततो यावसम्भवं याव[न्ति] निमित्तानि भवन-करण-शयन-भाषण-चङ्क्रमण-वर्तन-परिणमनादीनि सम्भवन्ति तावद्भिनिमित्तैः संज्ञासन्निवेशे सति रोदनाद् रुद्रो भवनाद् भवो भावकः करणात् कारक इत्यादिसर्वव्यपदेश-20 भाक्त्वाद् भावकादयोऽपि ते प्राप्ताः। ततश्च तथा च यावदित्यादि, यत् परिमाणमस्य यावत् , यावदेव किञ्चिद् भवननिमित्तग्रस्तं सर्वमित्यर्थः । तस्य सर्वस्य घटपटादेरिन्द्रस्कन्दादिरर्थः सर्वधात्वर्थानां वर्थत्वात् पर्यायः, तद्वाचिनश्च पर्यायशब्दा एव । किमिव ? घटकुटशब्दवत् । सर्व एव सर्वः, घटः स्कन्दः, पँटः स्कन्दः, स्कन्दवैद्योऽपि स्कन्दः । एवं रुद्रेन्द्रादयश्च । स्कन्दोऽपि घटः पटश्चेत्यादि प्राप्तम् । एवं तावत् सर्वधातुभ्वर्थत्वात् सर्वसर्वत्वमविशेषात् । किञ्चान्यत् , विशेषतोऽपि सम्भविघटनादि-25 स्कन्दनादित्वाच्च सर्वसर्वत्वम् । चेष्टा-कौटिल्याद्यभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वकपरिस्पन्दार्थत्वात् परिणत्यर्थ १* * एतदन्तर्गतः पाठो य० मध्ये नास्ति ॥ २ इतरस्य किं प्र०॥ ३'मिष्यता भा० । मिष्यत्तो यः॥ ४ बहिनिमित्तं प्रत्यक्षमिति प्र०॥ ५°भाक्तत्वाद' प्र०॥ ६ त्वर्थत्वात् प्र०॥ दृश्यतां पृ० २४४ पं० ३॥ ७ पटः स्कन्दः भा० मध्ये नास्ति ॥ ८'स्कन्दवद्योऽपि' इति पाठोऽत्र सम्भवेत् , 'घटः स्कन्दः पटः स्कन्दः स्कन्दवत् , योपि स्कन्दः स स्कन्दः' इति च तस्याशयो ज्ञेयः॥ ९ धातुः त्वर्थत्वात् प्र०॥ १० सम्भवविध प्र०॥ ११ सर्वसर्वसर्वत्वम् भा० ॥ नय०७१ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे एवमपि तु स्थितेऽर्थप्रतिपादनार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य सर्वसर्वाभिधानलक्षणाव्यवस्थाव्यावर्तनार्थं बहिर्निमित्तनिरपेक्षं संज्ञामात्रसन्निवेशितं स्कन्दादित्वमभ्युपगन्तव्यम् । ५६२ एवं हि सङ्केतमात्रत्वाच्छन्दार्थ सम्बन्धस्य मुख्यार्थाः सर्वदेशभाषा इत्येतदऽयत्नसिद्धम् । इदमप्यभियुक्तानामत एव स्मरणमुपपन्नम् — अनेकार्था धातवः" देश्यताम् । इति चेतनाचेतनभेदस्य समस्तस्यास्य जगतो भावकं नाम । घटस्य द्रव्यं ३७६-२ त्वात् सर्वेषां ज्ञान - गत्यर्थानां स्कन्दन - शोषण-विसैरण - रोदनेन्दन - सदन स्तम्भनाद्यर्थानां यावतां यस्मिन्नर्थे सम्भवस्तस्य तस्य तथार्थत्वे सर्वसर्वत्वम् । वसनाद् वस्तुवास्तुनी, शयनस्थानासनाघेकार्थत्वाच्च गतिनिवृत्ति - पर्यायाणां शेषधातूनां च वस्त्वर्थानतिवृत्तेः कतमद् द्रव्यं कतमेन निमित्तेन नाभिधीयते ? ततः 10 सर्व सर्वत्वम् । स्यान्मतम् - एवं तर्हि सुतरामतिप्रसङ्गापादनद्वारेण त्वयैव सर्वस्य बहिर्निमित्तापेक्षत्वं समर्थितम्, त्वत्पक्षेऽपि च सर्वसर्वाभिधानातिप्रसङ्गो दुर्निवार इति । एतच्चायुक्तमुक्तन्यायेनैव, एवमपि तु स्थित इत्यादि यावत् स्कन्दादित्वमभ्युपगन्तव्यमिति स्वप्रतिपिपाद्विषितार्थप्रतिपादनार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य प्रसक्तेऽपि सर्वसर्वत्वे सर्वसर्वाभिधानलक्षणाऽव्यवस्था प्राप्तैव सा मा भूदिति तद्व्यावर्तनार्थं स्कन्दादि15 शब्दाः कस्मिंश्चिदर्थे बहिर्निमित्तनिरपेक्षाः संज्ञामात्रत्वेन सन्निवेशिताः सन्तो नियमेन तमेवार्थमभिदधतीति प्राप्तम् इतरथा सर्वसर्वत्वे सर्वाभिधानाव्यवस्थाऽवश्यम्भाविनी । तस्मात् संज्ञासन्निवेशान्न मे कश्चिद् दोष इति । तस्माच्चोद्याभासमेतत् 'समानदोषत्वादिति । ३७७-१ एवं हीत्यादि अस्य न्यायस्य व्याप्तिप्रदर्शनम् । एवं च कृत्वा सङ्केतमात्रत्वाच्छब्दार्थसम्बन्धस्य मुख्यार्थाः सर्वदेशभाषा इत्येतद्यत्नसिद्धम् 'घटः कुटः कुम्भः ' 'क्षीरं पयः पालि दुग्धम्' 'अग्निरातुरः 20 ँकिचु मंङ्गलः' इत्यादीनां च सङ्केतवशादभिधित्सितैकार्थवाचित्वं सिद्धम्, 'नियतनिरपेक्षत्वात् सङ्केतस्य ॐ स्वोपयोगप्रतिपादन समर्थत्वाच्च तेषां तेषां शब्दानां डित्थादिवत् । इदमप्यभियुक्तानामत एव स्मरणमुपपन्नम्, नान्यथा, यथा - अनेकार्था धातव इति गतार्थं यावद् दृश्यताम् । इति चेतनाचेतनेत्यादि, अनेन प्रकारेण यदुक्तं नाम तच्चेतनाचेतनभेदस्य कुम्भकार - घटादेः पृथिव्यादि-मनुष्य-नारकतिर्यक्-सिद्ध-परमाणु-कालाकाशादेः समस्तस्यास्य जगतो भावकं नाम 'समस्तं जगद् नाम्नो भवति' 25 इति भावितम् । तस्मादेव घटो भवति, घटस्य द्रव्यं कारणम्, घटं भावयति नाम, घटस्य ततो पा० धा० ९२८ ॥ १ 'दृश्यतामिति । चेतनाचेतनभेदस्य' इत्यपि योजनाऽत्र भवेत् ॥ २ विशरण' इति पाठोऽप्यत्र भवेत् । तुलना "षद विशरणगत्यवसादनेषु" - पा० धा० ८५४, १४२८ ॥ ३ सदन य० मध्ये नास्ति ॥ ४ "ष्ठा गतिनिवृत्तौ "५सङ्गोपादान' प्र० ॥ ६ सर्वसर्व सर्वत्वे भा० ॥ ७ किच्चु भा० ॥ ८ दृश्यतां टिपृ० ६३ पं० २० ॥ ९ नियता भा० । ( निमित्तनिरपेक्षत्वात् ? ) ॥ १० तेषां शब्दानां भा० ॥ ११ “कथमञ्जिरञ्चत्यर्थेऽपि वर्तते ? अनेकार्था अपि धातवो भवन्ति । - पा० म० भा० ८१२।४८ ॥ १२ दृश्यतामिति चेतनाचेतनेत्यादि प्र० । अत्र 'दृश्यतामिति । चेतनाचेतनेत्यादि' इत्यपि योजना भवेत् ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ नामद्रव्यार्थनयमतम्] द्वादशारं नयचक्रम् । नाम, घटस्य ततो भवनात्, मृद्वत् । अनया [यथा घटो भवति तथा नाना घटो भवति ] घटक्रियात्मकत्वं वा भावकत्वम् । रूपाद्युपयोगभवनमन्तर्निविष्टशब्दानुबद्धं तच्छब्दात्मकम् । तस्मान्नामद्रव्यस्यानुपसर्जनतैव । एष नामद्रव्यार्थनयः। ___अस्यापि नियमः । उपसर्जनत्वेनेष्यते, न प्राधान्येन । अर्थार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्यार्थः प्रधानम् , न शब्दः । अर्थस्यापि ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तत्वाद् ज्ञानमेव प्रधानम् । । न हि नानो घटादि भवति । ततस्तु श्रोत्राभिघात एवोत्पद्यते । तथा च यदि नानो घटोत्पत्तौ द्रव्यत्वं स्यात् ततो घटार्थिनो भवतु घट इति प्रब्रवीरन् ।। तस्मात् प्रवृत्ति-निवृत्तिकारणमार्थिनां तदभावार्थिनां च क्षायोपशमिको भवनात् , 'ततो भवति' इति प्रतिपादितत्वात् सिद्धो हेतुः । यद् यतो भवति तत् तस्य कारणं दृष्टम् , यथा मृद् मृदो भवतो घटस्य कारणं तथा नाम घटस्य कारणमित्येतमर्थमुपनयति--अनयेत्यादि । यथा 10 घटस्य मृद् द्रव्यं भवति तथा नामेत्यर्थः । घटक्रियात्मकत्वं वा भावकत्वं नाम्न इति वर्तते, शब्दो द्रव्यभावं घटकरणात्मकत्वात् पूर्वोक्तात् प्रतिपद्यते, तस्माद् घटं भावयति नाम, नानो घटो भवतीत्यर्थः । ___ रूपाधुपयोगेत्यादि । अथवा रूपाद्युपयोगो रूपादिज्ञानम् , तस्य भवनमन्तर्निविष्टशब्दानुबद्धं तच्छब्दात्मकम् , 'रूपणाद् रूपम् , रस्यत इति रसः, घायत इति गन्धः, श्रोत्रग्रहणं शब्दः' इति लक्षणात तस्योपयोगस्य शब्दात्मकत्वाद् रूपादीनां च तदात्मकत्वाच्छब्दो रूपादिरपि भवति । तस्माद् नामद्रव्य-18 स्यानुपसर्जनतैव प्राधान्यमेवेत्यर्थः । एष नामद्रव्यार्थनयः पूर्वपक्षः।। ___ अत्रोत्तरमुभयनियमभङ्गारः शब्दनयो वक्ष्यत्यतः-अस्यापि नियम इत्यादि । एषोऽपि नामद्रव्यार्थभावो नियतः उपसर्जनत्वेनेष्यते न प्राधान्येन, प्राधान्येन तु विशेषो नियत इत्युक्तः । न ब्रूमः-३७७२ 'शब्दो निमित्तमात्रव्यापतो ज्ञानोपकारी नास्ति' इति । ज्ञानस्यैव प्रधानस्योपकारकत्वेन वर्तते ज्ञानेनैव चोत्थाप्यते, अर्थप्रत्यायनार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य । तस्मादर्थार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्यार्थः प्रधानं न शब्दः, 20 तस्याशब्दार्थत्वात् । अर्थस्यापि ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तत्वाद् ज्ञानमेव प्रधानम् । न च ज्ञान-शब्दयोरैक्यम् , प्रत्यक्षप्रतीतिविरोधाभ्याम् । यस्मात् प्रत्यक्षमेव न नाम्नः शब्दाच्छोत्राभिघातकाराद् घटादि भवति, न शब्दः कारणं घटस्य ततोऽनुत्पत्तेः । ततस्तु शब्दाच्छ्रोत्राभिघात एवोत्पद्यते, तस्माच्छब्दः श्रोत्राभिघाते हेतुर्न घटे न ज्ञाने । तथा चेत्यादि यावत् प्रब्रवीरन्नित्यनिष्टापादनम् । यदि शब्दस्य घटोत्पत्तौ द्रव्यत्वं स्यात् ततो 25 घटार्थिनो भवतु घट इति प्रब्रवीरन् ; अरिविनाशार्थिनश्च राजानो विजिगीषवो न हस्त्यश्वं बिभृयुः, परबलमेति ‘मा भूत्' इति वा ब्रूयुः । न च तद् दृष्टमिष्टं वा । तस्मात् प्रवृत्ति-निवृत्तिकारणमार्थिनां तदभावार्थिनां च क्षायोपशमिको भावः ज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तं ज्ञानमित्यर्थः, तत एव प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् । सोऽपि द्रव्यार्थतां हित्वा १ ततोऽर्थार्थिनस्तदभावार्थिनश्च भवतु मा भूदिति वा प्रब्रवीरन्' इत्यपि मूलमत्र सम्भवेत् ॥ २ व्यावृतो प्र०॥ ३ नाम्नीति प्र० ॥ ४°नुपपत्तेः प्र०॥ ५ परबलं मेति भा० ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे भावः। सोऽपि द्रव्यार्थतां हित्वा भवति । तेनापि विशेषेणैव भूयते । स हि भावागमः। शब्दो द्रव्यागमः। तथाह्याहुः-आगमतो जाणये अणुवयुत्ते दव्वसुतं [ ]। ज्ञानमेव प्रधानम् । तत एव चास्योत्पत्तिः । प्रवृत्तिश्च तादर्सेन, शिबिकावाहकयानेश्वरयानवत् । अतस्त्वदुक्तिवदुपयोगविशेषभवनप्राधान्यं तत्कार्यत्वाच्छ5 बदस्य तत्कारणत्वाच । क्षायोपशमिको भावः क्षणे क्षणेऽन्यत्वाद् द्रव्यार्थतां त्यक्त्वा भवति क्षणिकत्वात् । तेनापि विशेषेणैव भूयते, विशेष एव भवति, उक्तशब्दार्थव्युत्पत्तिर्भवति, भवत् प्रधानं भाव इत्युपक्रम्य यावद् बालादिभेदं ३७८-१ दृश्यते एव इत्यक्षरार्थों गतः । वस्त्वर्थतश्च भावितम्-सामान्यमुपसर्जनं विशेषः प्रधानं भावः शिविका वाहकयानेश्वरयानवदिति । 10 स हि भावागमः, यस्मात् क्षायोपशमिकभावो ज्ञानं भावागम उच्यते तस्मात् स प्रधानं भवति, मर्यादयाभिविधिना च गमोऽवबोधः, ततः शब्दस्यागमत्वम् , तत उत्थाप्यते शब्दो ज्ञानात् । तस्माच्छब्दो द्रव्यागमः । तथाह्याहुरिति शब्दद्रव्यागमत्वे ज्ञापकमार्षम्-आगमतो जाणये अणुवयुत्ते दवसुतमिति । ___इतश्च ज्ञानमेव प्रधानम् , यस्मात् तत एव चास्योत्पत्तिः शब्दस्य ज्ञानादेवोत्पत्तिः, वक्तर्ज्ञानेनो15 स्थापितत्वात् , ज्ञानमेव शब्दस्य कारणम् । प्रवृत्तोऽपि शब्दः परतन्त्री ज्ञानार्थत्वात् , परतत्रो ज्ञानोत्पादनार्थत्वाच्छ्रोतरीत्यत आह-प्रवृत्तिश्च तादर्थेन । तन्मूलोत्पत्ति-तदर्थत्वाभ्यां ज्ञानं प्रधानमित्येतस्मिन्नर्थद्वये दृष्टान्तः-शिबिकावाहकयानेश्वरयानवदिति वैतनिकानां यानं यात्राप्रेरितमीश्वरेण प्रवृत्तमपीश्वरयानार्थम् , अतोऽपि द्विधापीश्वरप्राधान्यवद् ज्ञानप्राधान्यमिति । अतस्त्वदुक्तिवदित्यादि । सामीप्येन सर्वात्मना योग उपयोगः रूपाद्यर्थसमीपे सर्वात्मप्रदेशानां 20 तत्प्रवणता, शब्दोपयोगात्मयोगवक्रताऽवक्रतादेस्तिर्यग्-मनुष्यनामनिर्वर्तितं मृदादि कुम्भकारादि च यथासङ्ख्यं भवति रूपादिमदर्थविरचनात्मकत्वात् कुम्भकारादिकार्यवद् नानो भवति, ___ आत्मा बुझ्या समर्थ्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया । [पा० शिक्षा ६ ] ३७८-२ इत्यादि सर्वं त्वदुक्तोपपत्तिजातमुपयोगविशेषभवनप्राधान्यं साधयति, तत्कार्यत्वाच्छब्दस्य, उप १ "से किं तं दव्वावस्सयं? २ दुविहं पण्णत्तं तं जहा-आगमओ अ नोआगमओ अ [सू० १२] 1 से किं तं आगमओ दवावस्सयं ? २ जस्स णं आवस्सएत्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणचक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलिअं अमिलिअं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोढविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं,से गं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिअट्टणाए धम्मकहाए नो अणुपेहाए। कम्हा? 'अणुवओगो दव्य'मिति कट्ठ[सू० १३] । से तं आगमओ दवावस्सयं..........[सू० १४ ] ...............से किं तं आगमतो दव्वसुअं? २ जस्स णं सुएत्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं जीव णो अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुवओगो दव्वमिति कटू । .. से तं आगमतो दव्वसुअं[सू३३]।" इति अनुयोगद्वारसूत्रे पाठ उपलभ्यते ॥ २°त्पत्तिभवति भा०॥ ३ दृश्यतां पृ० ८ ५० ७॥ ४ दृश्यतां पृ० ५५५ पं० ७॥ ५ दृश्यतां पृ० ५५६ पं० ५॥ ६ वक्रुझानेनो प्र०॥ ७ परतन्त्राज्ञानोपादानार्थ य० । परतन्त्रज्ञानोपादानार्थ भा०॥ ८दृश्यतां पृ० ५५९ पं. ४ ॥ ९ "समेत्यार्थान्"-पा० शिक्षा॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनय निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् | ५६५ अथोच्येत - सामान्यमविशेषः, उभयोः परस्परकारणत्वाविशेषत्वात् । अथ कस्मादुपयोग एव नामत्वमापद्यते ? इति उपयोगत्व प्राप्तेर्नाम्नः सर्वत्र विशेष - प्रधानत्वम् । तस्यापि वा नामशब्दस्य उरःप्रभृतीत्यादि [ना] नामद्रव्यार्थं हित्वा द्रव्यद्रव्यार्थोऽङ्गीकृतः मूर्तद्रव्याभ्युपगमात् । मूर्तममूर्तस्य द्रव्यं न भवति । नामशब्दो 5 योगस्य शब्दः कार्यम्, स एव कारणमुपयोगस्य कुम्भकारशरीरादेरिति तत्कारणं तदिति त्वयैव प्रागू भावितं विस्तरेणैतत् । अथोच्येतेत्यादि पूर्वपक्षो गतार्थो यावदविशेषत्वादिति । सामान्यमविशेषः, तद्भवनमात्रत्वं न विशेष इत्येतदापन्नमिति भावितोऽर्थ उभयोः परस्परकारणत्वाविशेषत्वादिति । अत्रोत्तरम् - अथ कस्मादित्यादि यावत् सर्वत्र विशेषप्रधानत्वमिति । उपयोग एव नामत्वमा - 10 पद्यत इति विशेषस्योपयोगस्य प्रौधान्यमुपयोगत्व प्राप्तेर्नानः । तस्यापि वा नामशब्दस्येत्यादि, 'नामशब्द:' इति 'वीणा-वेणु - तालशब्दादिभ्यो विशिष्यते प्रकृतत्वादौपयोगित्वाच्च तस्य उरःप्रभृती - याद[] नामद्रव्यार्थं हित्वा त्वया द्रव्यद्रव्यार्थोऽङ्गीकृतः, तद्यथोक्तम् आत्मा बुद्ध्या संमर्थ्यार्थान् मनो युद्धे विषक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ॥ ६ ॥ मारुतस्तुपरि चरन् मन्द्रं जनयति स्वनम् ॥ ७ ॥ [ पा० शिक्षा ] इत्यादिना मूर्तद्रव्याभ्युपगमात् । आर्षमपि ज्ञापकम्, नोआगमतो द्रव्यं शरीरमुक्तम्, तद्यथाइमेणं सरीरसमुस्सएणं सामाइएत्ति पदं आघवितं पण्णवितं [ अहो ] इत्यादि । तस्माच्छब्दकारणत्वत्यागेन मूर्तद्रव्यकारणत्वाभ्युपगमस्ते विरोधायापद्यते । अत आह- मूर्तममूर्तस्य द्रव्यं न भवति परिणामिकारणमित्यर्थः । यथा 'मूर्तममूर्तस्य कारणं न भवति' इत्ययमभ्युपगमः 20 तथा नामशब्दस्य मूर्तत्वादमूर्तोपयोगकारण्यं न युज्यते । स्यान्मतम् - कथं मूर्तः शब्दो यतोऽस्यार्मूर्तज्ञानकारण्यं न भवेदिति । अत्र ब्रूमः नामशब्दो ३७९-१ १ दृश्यतां पृ० ५५९ पं० ४ ॥ २ भावितार्थो य० ॥ ३ प्राधान्यामुप भा० । प्राधान्यानुप य० ॥ ४ वीणावीताल प्र० ॥ ५ वाक्यपदीय[१।११६] स्ववृत्तौ भर्तृहरिणापि 'समर्थ्यार्थान्' इति पाठेनायं श्लोक उद्धृतः । "समेत्यार्थान् " - पा० शिक्षा ॥ ६ " मारुतस्तूरसि चरन् मन्द्रं जनयति खरम् " - पा० शिक्षा ॥ ७ °स्सएण प्र० ॥ "से किं तं नोआगमओ दव्वावस्सयं ? २ तिविहं पण्णत्तं तं जहा - जाणयसरीरदव्वावस्सयं भविअसरीरदव्वावस्सयं जाणयसरीरभविअसरीरवतिरिक्तं दव्वावस्सयं [ सू० १५] । से किं तं जाणयसरीरदव्वावस्सयं ? २ आवस्सएत्ति पयत्था हिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुतचावितचत्तदेहं जीवविप्पजढं सिजागयं वा संथारगयं वा निसीहिआगयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता णं कोई भणेजा-अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सरणं जिणदिट्ठेणं भावेणं आवस्सपत्ति पयं आघवियं पण्णवियं परूविअं दंसिअं निदंसिअं, जहा को दिŚतो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी, से तं जाणयसरीरदव्वावस्सयं [ सू० १६] ।......नामनिप्फण्णे सामाइए । से समासओ चउव्विहे पं० तं० णामसामाइए ठेवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए । नामठवणाओ पुब्वं भणियाओ । दव्वसामाइए वि तहेव [सू० १५०] ।” इति अनुयोगद्वारसूत्रे उल्लेखः ॥ ८ ° मूर्तिज्ञान प्र० ॥ 15 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृतं [अष्टम उभयनियमारे मूर्तः कुड्यादिप्रतिहतगतित्वाद लोष्टादिवत् । तद् नाम नोपयोगस्य द्रव्यं मूर्तत्वाद् मृद्वत् । उक्तं हि ने हि मूर्तममूर्तत्वं नामूर्तमेति मूर्तताम् । द्रव्यं त्रिष्वपि कालेषु च्यवते नात्मभावतः ॥ [ ] 5 नन्वन्योन्यानुगतखरूपत्वा निवृत्त्युपकरणेन्द्रियज्ञानतन्वात्मद्रव्यवद् द्रव्यं मूर्तममूर्तस्य ज्ञानस्य । द्रव्येन्द्रियं मूर्तममूर्तस्य ज्ञानस्य द्रव्यम् । शरीरादिकरणाद् भवान्तरात्मनस्तन्वादि द्रव्यम् , घटश्च घटाकाशस्य । मूर्त इति [प्रति]पद्यताम् , कुड्यादिप्रतिहतगतित्वात् , यस्य गतिः कुड्यादिभिः प्रतिहन्यते तद् मूर्त दृष्टम् , यथा लोष्टादीति । तद् नाम नोपयोगस्येत्यादि अर्थप्रदर्शनसाधनम् । उपयोगो न 10 मूर्तद्रव्यहेतुकः, अमूर्तत्वात् , आकाशवत् , न ह्याकाशं मृदादिदण्डादिमूर्तद्रव्यस्य कार्यमिति साधर्म्य दृष्टान्तः । मृद्वदिति वैध\ण, यद् मूर्तद्रव्यहेतुकं न तदमूर्तं यथा मृदिति । अथवा नामूर्तस्य द्रव्यं नामशब्दः, मूर्तत्वात् , मृद्वत् । यदमूर्तस्यावगाहादेर्द्रव्यं न तद् मूर्तम् , यथा आकाशमिति । उक्तं हीत्यादि ज्ञापकमाह । न हि मूर्तममूर्तत्वं वर्णा दिमत् पु[ग]लद्रव्यं मूर्त सवर्णाद्यात्मकत्वममूर्तत्वं न गच्छति न तथा परिणमति जीवा-ऽऽकाश-धर्मा-ऽधर्मत्वं न याति । नामूर्तमेति मूर्तत्वम् , नाप्या15 काशाद्यमूर्तं मूर्तत्वं प्रयाति । द्रव्यं त्रिष्वपि अतीतानागतवर्तमानेषु कालेषु, न कदाचिदित्यर्थः, यस्माद् नात्मभावम् , यावद्रव्यभावी यो धर्मः स आत्मभावः, तमात्मभावं न कदाचित् परित्यजति द्रव्यमिति । ___अत्राह-नन्वन्योन्यानुगतेत्यादि यावद् घटाकाशस्येति । 'नात्मभावं त्यजति पररूपं नाप्नोति' इत्येतद्युक्तम् , अन्योन्यानुगतस्वंपरत्वात् क्षीरोदकवत् । अन्योन्यानुगतस्वरूपत्वनिदर्शनं निवृत्तीत्यादि 20 यावद् द्रव्यवत् । वत्करणं 'निर्वृत्त्युपकरणेन्द्रियज्ञानवत् तन्वात्मद्रव्यवच्च' इति प्रत्येकं परिसमाप्यते । ३७२-२ द्रव्यं कारणं मूर्तममूर्तस्य ज्ञानस्य, द्विविधं द्रव्येन्द्रियम् - निर्वृत्तिरुपकरणं च, निर्वृत्तिः पक्ष्मपुट-कृष्ण सारादिद्रव्यनिष्पत्तिः, 'निर्वृत्तमुपकरोति' इत्युपकरणं मसूरकाकारांश्चक्षुर्मध्यप्रदेशाः प्रकाशाञ्जनादयश्वोपैकरणानि । एतद् द्विविधमपि ज्ञानस्य द्रव्यं दृष्टम् । तस्य व्याख्यानम्-द्रव्येन्द्रियं मूर्तममूर्तस्य ज्ञानस्य द्रव्यम् । तथा 'तन्वात्मवत्' इत्यस्य व्याख्या-शरीरादिकरणाद् भवान्तरात्मनः, *कायादित्रिविधयोगकार्य शरीराङ्गोपाङ्गादिनामकर्म, तस्य करणात् तन्वादि भवान्तरे जन्मान्तरे य आत्मा तस्य द्रव्यं कारणं भवति* । घटश्च घटाकाशस्येति मूर्तो घटोऽवगाहानुमेयस्याकाशस्यावगाहात्मन इति । १“नामूर्त मूर्ततां याति मूर्त नायायमूर्तताम् । द्रव्यं त्रिष्वपि कालेषु च्यवते नात्मभावतः ॥” इत्यपि पाठोऽत्र सम्भवेत् । तुलना-"नामूर्त मूर्ततां याति मूर्त नायायमूर्तताम् ।" शास्त्रवार्तासमु० ३।४१। 'नामूर्त मूर्ततामेति मूर्त नायात्यमूर्तताम् । द्रव्यं कालत्रयेऽपीत्थं च्यवते नात्मरूपतः ॥"-सन्मतिवृत्ति. १।५३, पृ० ४५६ । २°स्वपत्वात् य० । अत्र 'स्वरूपत्वात्' इति पाठः समीचीनो भाति ॥ ३ ज्ञानस्य द्रव्यं द्रव्येन्द्रियम् भा० ॥ ४रश्चक्षु प्र० ॥ ५°श्वोपकारणानि प्र.। (श्चोपकारकाणि?)। ६* * एतदन्तर्गतः पाठो य० मध्ये नास्ति ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनय निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् | ५६७ आगतं ततद् योऽर्थो द्रव्यं सोऽस्वतन्त्रो विशेषेण तथा तथा भाव्यते, ज्ञानमात्मा च विशेष एव भवति । तत्र यदि [ सेन्द्रियाणि मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानानि ततस्तेषामिन्द्रियकृतत्वादज्ञानत्वात् केवलमेव ] एकं ज्ञानं स्यात् । आत्मनश्च [ अशरीरस्यैव खतन्त्रस्य कर्तृत्वात् ] अशरीरेण सिद्धकेवलिना कृतं कर्म - अन्वेष्यं स्यात् । न हस्तादिमद्रागिकृतमपि स्यात् कर्म, तस्यैव संसारित्वेष्टे.... आत्मनोऽन्यत्वात् । तथा आकाशघटयोरनावृत्यावृत्यात्मकत्वात् कुतो घटाकाशमाकाशघटो वा ? एवं कुतः सान्योन्यानुगमरूपता ? 5 अन्यरूपानुगमात्तु चेतनाचेतनयोरात्मभावत्यागात् द्रव्यस्य सामान्यभवन अत्रोच्यते - आगतं तर्ह्येतदित्यादि यावद् विशेष एव भवतीति । योऽर्थो द्रव्यं सामान्यं विशेषो वा प्रकृत्यर्थः प्रत्ययार्थो वा भवनं भाव इति योऽस्तु सोऽस्तु सर्वथा सोऽस्वतन्त्रो विशेषेण 10 ज्ञानेन तथा तथा भाव्यते देव्येन्द्रियादि तत् सर्वात्मना ज्ञानमात्मा च विशेषः स भावयति । यद्यपि भवत् सामान्यं भावस्तथाप्युपसर्जनम्, विशेषः प्रधानमित्युक्तं भवति । तत्र यदीत्याद्यनिष्टापादनं परस्य यावदेकं ज्ञानं स्यादिति हेतुहेतुमद्भावेन गतार्थम् । सेन्द्रियाणि मति - श्रुता - Sवधि-मनः पर्यायज्ञानानि, तानीन्द्रियकृतत्वादज्ञानानि स्युः, केवलज्ञानमेवैकं ज्ञानं स्यादिति । किञ्चान्यत्, - आत्मा (त्म )नश्चेत्यादि । आत्मैव स्वतत्रश्चेतनत्वात्, न शरीरम्, स्वतन्त्रश्च कर्ता 115 ततश्चाशरीरेण शुद्धेन सिद्धकेवलिना कृतं कर्मान्वेष्यं स्यात्, तच्चात्यन्तदुर्लभं मुक्तसंसारप्रसङ्गादनिष्टं च । न हस्तादिमद्रागिकृतमिष्टमपि स्यात् कर्म, तस्यैव संसारित्वेष्टेः पूर्ववद्धेतुहेतुमद्भावेना- ३८०-१ पादनं यावदात्मनोऽन्यत्वात् । एवं प्राच्योदाहरणद्वयं व्यभिचारितम् । तृतीयमपि तथाकाश-घटयोर्यथासङ्ख्यमैनावृत्या[वृत्या]त्मकत्वात्, आकाशमनावृत्यात्मकं चेदावृत्यात्मक घटीभवति घटश्वानावृत्यात्मकाकाशीभवति आवृत्यात्मक: संस्ततो 'घटाकाशम्' इति स्यात्, तत्तु त्वन्मते न । आकाशमेवामूर्तम्, 20 तद्विपरीतो घटो मूर्त एवेति कुतो घटाकाशमुदाहरणं घटते, घटात्मानापत्तेराकाशस्य, ओकाशानात्मापत्तेर्घस्य आकाशघटो वा तद्विपरीतगुण उदाहरणमिति ? एवमित्यादि । अनेन प्रकारेण द्रव्यस्य भवने परिगृहीते दृष्टान्तस्य विपर्ययसाधनत्वात् कुतः सान्योन्यानुगमरूपता या त्वया प्रतिज्ञाता एवं मदुक्तन्यायात् त्वन्मतेन च द्रव्यस्य कारणस्य सँदा[ऽऽत्म]रूपापरित्यागात् ? इत्युक्तं परस्यानिष्टापादनम् । अत एव स्वमत विशेषप्रधानभवन - 25 सामान्योपसर्जनभवनप्रतिपादनार्थमाह- अन्यरूपानुगमात्त्वित्यादि । तुशब्दः परमतव्यावृत्तिं स्वमतसिद्धिं च विशेषयति । चेतनाचेतनयोरात्मभावत्यागात् त्वदुक्तात् द्रव्यस्य सामान्यभवनमुंप[सर्जनं] भवदेव I । १ ( इति बा ? ) ॥ २ (द्रव्येन्द्रियादिवत् सर्वात्मना ? ) ॥ ३ मनावृत्त्यात्मकत्वात् आकाशमावृत्त्यनावृत्यात्मकं प्र० । आवृतिरावरणम्, अनावृतिरनावरणमित्यर्थः ॥ ४ वृत्त्या प्र० । एवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ ५ (आकाशात्मानात्ते ? ) | घटाकाशस्योदाहरणत्वानुपपत्तिमभिधाय इदानीमा काशघटस्योदाहरणत्वानुपपत्तिमभिदधातिआकाशानात्मेत्यादि ॥ ६ द्रव्यकारणस्य भा० । ७ ‘सदा[स्त्र]रूपापरि” इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ८ त्वदुक्तत्वात् भा० ॥ ९ अत्र कश्चित् पाठः खण्डितो भाति ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे प[सर्जनमेकमेव भवति, न विशेषः ] अर्थान्तराभाव-भवद्भवनाभ्यां केनचिदबाध्यत्वात् । यथा च विशिष्टः सामान्यनिरपेक्षो भवति तथा स्वविषयेऽप्येकवृक्षादिभवने द्विवचनादिविशेषान्तरनिरपेक्षेणैव तेनाभिन्नलिङ्गवचनादिना भवितव्यम् । यद्येकं नक्षत्रं कथं पुनर्वसू द्वौ, अथ द्वौ पुनर्वसू कथमेकं नक्षत्रम्, विरोधित्वादेकद्वित्वयोः ? इत्यादि सर्वं यथाविषयं प्रतिविधातव्यं घटपटादिवत् । प्रतीतेस्तादर्थ्यमेवेति चेत्, न, प्रत्यवयवप्रतीतेरेव एकत्वाद्यपेक्षयैकवचनादिशब्दप्रयोगप्रसिद्धेः । इदं त्वभिधानाभिधेयप्रत्यययोर्विसंवादात् प्रतीतिविरुद्धं कुमारब्रह्मचारिपितृत्ववत् । ५६८ 10 च भवति, तस्मादर्थान्तराभावादे भवत एव भवनाच्च केनचिदविशेषो न बाध्यते । यथोक्तं त्वया प्राकू 'वृक्षो वृक्षसामान्यमुपसर्जनीकृत्यैक एव भवति न द्वयादिरपि विशेषवशवर्तित्वाद् नाम्नः' [ ] इत्यादि । तस्मादिदमनिष्टं विशेषासत्त्वं प्रसक्तम् । तदसत्त्वात् सामान्यासत्त्वं दृष्टेष्टविरुद्धमापन्नमिति । ३८०-२ किञ्चान्यत्, यथा च विशिष्ट इत्यादि । यथा च सामान्येन प्रतिपक्षेण विना विशेषस्त15 न्निरपेक्षो भवति भवत्येव विशिष्टस्तथा स्वविषयेऽप्येकवृक्षादिभवने द्विवचनादिविशेषान्तरनिरपेक्षेणैव तेनाभिन्नलिङ्गवचनादिना भवितव्यम् । त्वन्मते न पुनस्तथा भवति स विशेषः, नक्षत्र पुनर्वस्वादिसमानाधिकरणवचनलिङ्गादिभेददर्शनात् । तद् भावयति यद्येकमित्यादि साधनद्वयमनिष्टापादनम् विरोधित्वादेकद्वित्वयोरित्यादि सर्वं यथाविषयं प्रतिविधातव्यमित्यतिदेशाद् लिङ्गकालादावप्यनिष्टापादनसाधनानि द्रष्टव्यानि । यदि पुनर्वसू पुमांसौ न नक्षत्रं नपुंसकम् पुंस्त्वात्, 20 वृक्षवत् । अथ [ नक्षत्रं न पुमांसौ ] नपुंसकत्वात् कुण्डवदित्यादि । तथा 'तारा स्त्रीत्वात्' इत्यादि योज्यम् । घटपटादिवदिति विशिष्टयोर्घटपटयोरिवान्योन्यस्वरूपापत्तिर्नास्ति विशेषाणाम्, सामान्याभावात् । दृष्टं च नक्षत्र - पुनर्वस्वादिषु । तस्मादयुक्तमुक्तम्- सामान्यनिरपेक्षो विशेष एव शब्दार्थो विवक्षितत्वादिति । प्रतीतेस्तादर्थ्यमेवेति चेत् । स्यान्मतम् - लोकप्रतीतत्वाद् नक्षत्रार्थ एव पुनर्वस्वर्थ: पुनर्वस्वर्थ एव च नक्षत्रार्थ इति लोके प्रसिद्धमागोपालादि । तस्मात् सामान्यस्य विशेषत्वाददोषः, इतरथा नैरर्थ25 क्यमेव स्यादिति । अत्रोच्यते - न, प्रत्यवयवप्रतीतेरेवेत्यादि । वयमपि लोकप्रतीतेरेव ब्रूमः, द्वयेकयोद्विवचनैकवचने, बहुषु बहुवचनम् [पा० १।४।२२ - २१ ] इत्यर्थानामवयमवयवं प्रति विवक्षितानामेक३८१-१ त्वाद्यपेक्षयैकवचनादिशब्दप्रयोगप्रसिद्धेर्यद्येकवचनान्तः शब्दोऽभिधानार्थेनाप्येकेन भवितव्यम्, न व्यादिना । अथ व्यादिः, नैकवचनेन शब्देन भवितव्यम् उक्तवत् । इदं त्वभिधानाभिधेयप्रत्यययोर्वि १ तुलना- पृ० ५६८ पं० २२ ।। २ तुलना-“अर्थान्तराभाव-भवद्भवनाभ्यां केनचिदबाध्यत्वात् " - नयचक्रवृत्ति. ३९४-१ ॥ ३ तुलना पृ० ३९३-२ ॥ ४ कृत्यैव एव भवति भा० । 'कृत्त्यैव भवति य० ॥ ५ तथा च य० ॥ ६ यदि तारा स्त्री न नक्षत्रं स्त्रीवाद् गङ्गावत्, अथ नक्षत्रं न स्त्री नपुंसकत्वात् कुण्डवदिति योज्यम् ॥ ७ दृश्यतां पृ० ५६८ पं० ३ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ 10 नामद्रव्यार्थनयनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । लक्षणं हि नाम शब्दानां प्रकृतिप्रत्ययादिविभागान्वाख्यानम् । प्रकृत्याद्यर्थाव्यवस्थायां लक्षणाव्यवस्थानात् कुतस्तजन्यलक्ष्यतत्त्वप्रतिपत्तिः शब्दव्यवस्था च, अविविक्तीभावितस्खलक्षणविषयत्वात् , अविविक्तीभावितस्वलक्षणविषयस्थाणुपुरुषप्रतिपत्तिव्यवस्थावत् । 'स वृक्ष आस्ते' इति प्रतिपद्य पुनः 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि' इत्यस्मात् । तद्विपरीतादपि तद्वदेव प्रतिपत्त्या प्रकृत्यादिलक्षणालक्षणीकरणं प्रतिपत्तेश्चाप्रतिपत्तित्वं यदृच्छाप्रवृत्तित्वात् । संवादात् प्रतीतिविरुद्धम् , 'पुनर्वसू'शब्दो द्वयर्थो द्विवचनान्तत्वात्' इति प्रत्ययो नक्षत्राभिधेयविषयप्रत्ययेन विसंवदति, स चानेन । किमिव ? कुमारब्रह्मचारिपितृत्ववत् , यदि कुमारब्रह्मचारी कथं पिता ? अथ पिता कथं कुमारब्रह्मचारीति ? तद्वदिहेति । तद् भावयति-लक्षणं हि नामेत्यादि । शब्दानां लक्षणं प्रकृतिप्रत्ययादिविभागान्वाख्यानम् , त द्धि 'लक्ष्याशब्दान् व्यवस्थापयामि' इति । तेषां च प्रकृत्यादि विभागानामव्यवस्था, प्रकृत्याद्यर्थायथार्थत्वात् । तस्यां च शब्द विषयप्रकृत्याद्यर्थाव्यवस्थायां तदाश्रितलक्षणाव्यवस्था । लक्षणाव्यवस्थानात् कुतस्तजन्यलक्ष्यतत्त्वप्रतिपत्तिः शब्दतत्त्वप्रतिपत्तिः शब्दव्यवस्था च? न स्तः । कस्मात् ? अविविक्तीभावितस्वलक्षणविषयत्वात् । दृष्टान्तः-विविक्तीभावितेत्यादि, यथा 'विविक्तौ सन्ता[व]-15 'विविक्तौ भावितौ स्वलक्षणाभ्यां स्थाणुपुरुषौ, तत्र या स्थाणौ पुरुषप्रतिपत्तिर्व्यवस्था च मिथ्याप्रतिपत्तिव्यवस्थे ते, कस्मात् ? अविविक्तीभावितस्वलक्षणविषयत्वात् , तथा शब्दानां लक्ष्याणां प्रतिपत्तिव्यवस्थे । लक्ष्याप्रतिपत्त्यव्यवस्थाभ्यां चाभिधानाभिधेयविषयप्रत्ययद्वयविसंवादात् 'कुमारब्रह्मचारी पिता' इति प्रत्ययवद् नक्षत्र-पुनर्वस्वाद्येकद्वित्वादिविरोध इति सम्बन्धः । ३८१-२ एवं तावत् सङ्ख्याविषयप्रकृतिप्रत्ययप्रतिपत्तिविरोध उक्तः । अतः परं पुरुषविषय उच्यते, तद्यथा- 20 स वृक्ष आस्त इत्यादि यावदप्रतिपत्तित्वम् । 'सः' इति शेषोपपदे 'आस्ते' इति पुरुषविषयप्रकृतिप्रत्ययसंवादेन स्वयं प्रतिपद्य पुनः 'एहि मन्ये' इति तद्विपरीतप्रतिपत्त्या प्रकृत्यादिलक्षणमलक्षणीकृतं प्रतिपत्तिश्चाप्रतिपत्तीकृता तद्वदेवेति लक्ष्यतत्त्वाप्रतिपत्त्यव्यवस्थाद्वारेणेति । कस्मात् ? यदृच्छाप्रवृत्तित्वादसमीक्षित १ दृश्यतां पृ० ५७१ पं० १७ । २ कुतस्तजन्यलक्ष्यतत्रे प्रतिपत्तिः शब्दतत्त्वप्रतिपत्तिः शब्दव्यवस्था च भा० । कुतस्तद्यन्यलक्ष्यतो प्रतिपत्तिः शब्दव्यस्था च य० । 'कुतस्तजन्यलक्ष्यतत्त्वप्रतिपत्तिः शब्दव्यवस्था च ?' इत्येवमपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ३ अविभक्ती प्र०॥ ४ विविक्ती सन्ता य० मध्ये नास्ति ॥ ५°विवक्तौ प्र० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ५७१ पं० १८ ॥ ७ “शेषे प्रथमः । १।४।१०८। शेष इति मध्यमोत्तमविषयादन्य उच्यते । यत्र युष्मदस्मदी समानाधिकरणे उपपदे न स्तः तत्र शेषे प्रथमपुरुषो भवति । पचति। पचतः । पचन्ति ।"-पा० काशिका । “शेष उपपदे प्रथमो विधीयते। उपोचारितं पदमुपपदम् ।"-पा०म० भा० १।४।१०८॥ ८ “प्रहासे च मन्योपपदे, उत्तम एकवच ।१।४।१०६। प्रहासः परिहासः क्रीडा । प्रहासे गम्यमाने मन्योपपदे धातोर्मध्यमपुरुषो भवति, मन्यतेश्चोत्तमः, स चैकवद् भवति । एहि मन्ये ओदनं भोक्ष्यस इति, न हि भोक्ष्यसे, भुक्तः सोऽतिथिभिः । एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता । मध्यमोत्तमयोः प्राप्तयोरुत्तममध्यमौ विधीयते । प्रहास इति किम् ? एहि मन्यसे ओदनं भोक्ष्य इति । सुत्रु मन्यसे, साधु मन्यसे ।"-पा० काशिका । एहि मन्ये रथेन यास्यसि रथेन यास्यामीति त्वं मन्यसे इत्यर्थः । ९ (यदृच्छाप्रवृत्तत्वा ?) । दृश्यतां पृ० ५७१ पं० १८॥ नय० ७२ - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे 'एहि मन्ये' इति प्रस्तुतक्रियाविसंवादात् 'त्वं यामि, अहं यासि' इति प्रयोगवदयथार्थमगमकमसाधु । प्रस्तुतप्रत्ययविसंवादाद्वा, देवदत्तो भूयत इति प्रयोगवत्। अङ्गीकृतपुरुषार्थवैयधिकरण्यवृत्तत्वात् , त्वं पचतीति प्रयोगवत्।। अत्र प्रत्ययपरा प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, प्रयोगकाले केवलयोः प्रकृतिप्रत्यययोहरसम्भवात् तथाऽनर्थकत्वात् काकवासितवत् । शिक्षणार्थं तु चित्रभक्तिबिन्दु पौर्वापर्यप्रत्ययत्वाद् ब्रह्मचारिपितृत्ववदित्येव सम्बन्धः । अत्र प्रयोगः-एहि मन्य इत्यादि यावदयथार्थमगमकमसाधु इति प्रतिज्ञास्तिस्रः । प्रस्तुता क्रिया मन्यतिः, तया सामानाधिकरण्यं विसंवदति प्रत्ययस्योत्तमपुरुषाख्यस्य एहिशब्दप्रयुक्तमध्यमपुरुष[वि]संवादादिति हेत्वर्थः । 'त्वं यामि, अहं यासि' इति प्रयोगवदिति तदर्थनिदर्शनं हेत्वर्थानुरूपेण योनार्थयोर्मध्यमोत्तमविशिष्टयोर्भेदे सति विसंवादादयथार्था10 गमकासाधुत्ववदिति । प्रस्तुतप्रत्ययविसंवादाद्वेति द्वितीयो हेतुः । देवदत्तो भूयत इति यथेति दृष्टान्तः । देवदत्त इति प्रथमानिर्दिष्टः कर्बर्थः प्रकृत्यर्थमात्रवाचिना भावसाधनेन 'भूयते'शब्देन र्सीमाना धिकरण्यं नार्हति 'भवति' इत्यनेन तु स्यात् तथा 'एहि'शब्दप्रस्तुतमध्यमपुरुषान्तेन 'मन्ये' इत्युत्तमान्ता३८२-१ यथार्थागमकासाधुत्वान्युपनेयानि । प्रस्तुतप्रत्ययविसंवादस्फुटीकरणार्थमाह-अङ्गीकृतपुरुषार्थवैयधिकरण्य वृत्तत्वादिति । तस्य निदर्शनम्-त्वं पचतीति यथेति । 'त्वम्' इति युष्मदुपपदे 'पचति' इति शेषोपपद15 विषयप्रथमपुरुषप्रयोगो विसंवदति तथा 'एहि मन्ये यास्यसि' इति । अत्र प्रत्ययेत्यादि वाक्यावधिकेऽर्थे पदावधिके वा प्रतिपाद्ये वाक्यं पदं वा प्रतियोगिशब्दार्थापेक्षमेव गमयति केवलस्याप्रयोगात् । पदावधिके तावदयं नियमः-प्रत्ययपरा प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, 'प्रकृतेः परः प्रत्ययः' [पा० म० भा० ३।१।२] इति व्यवस्थापितत्वात् प्रयोगकाले केवलयोः प्रकृतिप्रत्यय योरसम्भवात् , असम्भवश्च तथानर्थकत्वात् भू-लट्-तिप्-शपादीनाम् , किमिव ? काकवासितवत् , यथा 20 वायसवासितादीनां न कश्चिदभिधेयोऽर्थोऽस्ति तथा भू-तिपादीनां केवलानाम् । किमर्थं तर्हि भू सत्तायाम् [पा० धा० १] कर्तरि कृत्, लः कर्मणि च [पा० ३।४।६७, ६९ ] इत्यादि प्रकृतिप्रत्ययार्थ (र्थ?)पाठ इति चेत्, उच्यते-शिक्षणार्थ तु चित्रभक्तिबिन्दुविन्यसनवत् पृथगध्ययनम् । 'शिष्यान ग्राहयामि' इति विभज्य प्रकृतिप्रत्ययार्थों देश्यते । यथा एकामेव काष्ठादिभक्तिं लेखयिष्यंश्चित्रकराचार्यः शिष्यान् पूर्वं बिन्दुविन्यासान् कारयति पश्चात संयोजयति ततः सा दर्शनीया 25 चक्षुरमणीया पुष्प-वल्ली-गृह-मनुष्य-स्त्री-हत्यादिसंस्थाना संव्यवहारार्हा भक्तिर्भवति एवं प्रकृतिप्रत्ययार्थोपप्रदर्शनं पृथक् क्रियते, अपृथक्सिद्धसमुदायार्थप्रतिपत्त्युपायत्वात् । १ दृश्यतां पृ० ५७१ पं० १८ । (रूप्येण?)॥ २यानर्थ्ययोर्म भा० । यार्थानायोर्म य० । 'या'धातोर्यावौँ तयोर्मध्यमोत्तमविशिष्टयोर्भेद इत्याशयो भाति । (यार्थान्यार्थयोर्म°?) ॥ ३°गमकसाधुत्व प्र० ॥ ४ समाना प्र० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ५७१ पं० १३ ॥ ६ “वर्तमाने लट् । ३।२।१२३। तिप्तझिसिप्थस्थमिब्वस्मस्तातां झथासाथांध्वमिवहिमहिङ् । ३।४।७८। कर्तरि शप् । ३।१।६८”-पा०॥ ७ दृश्यतां टिपृ. ५८ टि० १॥ ८ दृश्यतां पृ० १२६ पं० ११ टि. ७ ॥ ९प्रत्ययार्थी प्र०॥ १० दश्येति य० ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ नामद्रव्यार्थनयनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । विन्यसनवत् पृथगध्ययनम् । एवमेव च कृत्वोक्तम्-प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह ब्रूतः [पा० म० भा० ३।१।६७] । अत एव च प्रकृतिपरः प्रत्ययः प्रयोक्तव्यः प्रत्ययपरा च प्रकृतिः [पा० म० भा० ३।१।२] । अत एव च प्रत्ययार्थानपायित्वाद् मन्यतेः प्रस्तुतसामानाधिकरण्यत्यागेन 'मन्ये' इति उत्तमैकवचनप्रत्ययप्रयोगोऽयथार्थाभिधानम् । प्रत्ययपुरुषायथार्थत्वेऽप्येषैव भावना। इत्यर्थत्रयविषयमयथार्थत्वम् । इदं च द्रव्यतोऽयथार्थत्वम्।। प्रहासादिदमसत्यमेवेति चेत् , बढेव तर्हि लक्षणानामलक्षणीकरणं लक्ष्या एवमेव च कृत्वोक्तमिति ज्ञापकमाह । प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह ब्रूत इति प्राधान्येन प्रत्ययार्थो विवक्षितो गुणत्वेन प्रकृत्यर्थः । अत एव चेति, यदुक्तं भाष्ये-प्रकृतिपरः प्रत्ययः प्रयो-३८२-२ क्तव्यः, प्रत्ययपरा च प्रकृतिरिति प्रत्ययः परो विशेषः प्रधानं यस्याः सा प्रत्ययपरा प्रकृतिः, परशब्दस्य प्रधानार्थता वर्ण्यते । 10 एवं चानेन न्यायेन प्रत्ययार्थाद् नापैति प्रकृतिः, तत्परत्वात् । अत एव च प्रत्ययार्थानपायित्वाद् मन्यतेरित्यादिना भावयित्वोपसंहरति यावदयथार्थाभिधानमिति । एहिशब्दप्रयोगप्रस्तुतसामानाधिकरण्यत्यागेनास्मत्समानाधिकरणोत्तमैकवचनप्रत्ययायथार्थत्वम् अङ्गीकृतपुरुषार्थवैयधिकरण्यवृत्तत्वात् 'त्वं पचति' इति प्रयोगवदिति साधूक्तम् । एवं तावत् प्रकृत्ययथार्थत्वं प्रत्ययायथा त्व?]द्वारेणानपायित्वादुक्तम् । 15 प्रत्ययपुरुषायथार्थत्वेऽप्येषैकैव भावना । प्रकृत्यविनाभावित्वात् प्रत्ययस्य प्रत्ययत्वात् एहि मन्ये रथेन यास्यसि इत्यस्मात् तद्विपरीतादपि तद्वदेव प्रतिपत्त्या प्रत्ययादिलक्षणालक्षणीकरण प्रतिपत्तश्चाप्रतिपत्तित्वं यदृच्छाप्रवृत्तत्वादित्यादि यावदयमवधिः समानभावनः प्रत्ययपुरुषार्नुरूपेण योज्यत इति । इत्यर्थत्रयविषयमयथार्थत्वमिति निगमनम् ‘इति'शब्दनिगमनार्थत्वात् , अनया भावनया भावितमेव भवति 'अगमकमसाधु' इत्यपि द्रष्टव्यं बुद्धिचक्षुषा । इदं च द्रव्यतोऽयथार्थत्वम् , यस्मात् 20 'नाहं त्वम्' इत्यस्मद्युष्मद्रव्यविपर्ययेणायथार्थत्वमेतत् । यथा चैतत् तथा घटपटादिशेषोपपद विषयो भिन्नव्यवहारो निराक्रियते 'त्वं पचति' इत्यादिकुंटुक्त्वादिप्रयुक्तभिन्नलिङ्गादिविपर्ययार्थशब्दप्रयोगवदिति । प्रहासादिदमसत्यमेवेति चेत् । स्यान्मतम्-‘एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता' इत्येतदसत्यमेव प्रहासविषयत्वात् । अत एव लक्षणमुक्तम्-प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम ३.३-१ एकवच [पा० १।४।१०६] इति, तथा द्विवचनबहुवचनविषयावप्युदाहृतौ ‘यास्यथः, यास्यथ' इति । 25 १एवमेवं च भा० ॥ २ प्रकृति य०॥ ३दृश्यतां पृ० ५७० पं. ३ ॥ ४ प्येषैव भावना' इत्यपि पाठः सम्भवेदत्र ॥ ५ दृश्यतां पृ० ५६९ पं० ५॥ ६°रूण भा० । (रूप्येण ?)॥ ७ इत्यस्य प्र०॥ ८°यथार्थमत्वतत् प्र०॥ ९ कुटुक्त्वादि भा० प्रतौ नास्ति ॥ १० “एहि मन्ये ओदनं भोक्ष्यस इति, भुक्तः सोऽतिथिभिः । एतमेत वा मन्ये ओदन भोक्ष्येथे भोक्ष्यध्वे ।"-पा०सिद्धान्तकौमुदी ॥३।१०१ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे णामलक्ष्यीकरणं प्रतिपत्तेश्चाप्रतिपत्तित्वमसत्यत्वात् प्रत्याय्यार्थविपर्ययवृत्तत्वात् प्रहासोक्तिवत् । न च तेष्वसत्यमतिः । पर्वताधिकरणकर्मवच नासत्यमतिः । आधारोऽधिकरणम् . . . . . . . अन्यस्यानाधारत्वाद्वा । भूतमनागतमिति च विरुद्धार्थम् । शतभिषजः नक्षत्रम्, [गोदौ ग्रामः, पुनर्वसू पश्च तारकाः, आम्रा वनम् , 5 अनोच्यते-बढेव तीत्यादि । बहूनां तर्हि लक्षणानां धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः [पा० ३।४।१] व्यत्ययो बहुलम् [पा० ३।१।८५] इत्येवमादीनामलक्षणीकरणम् तल्लक्ष्याणां च ‘अग्निष्टोमयाजी अस्य पुत्रो जनिता' इत्येवमादीनामलक्ष्यीकरणम् । प्रतिपत्तेश्चाप्रतिपत्तित्वं सर्वस्याऽसत्यत्वात् , तदसत्यत्वं प्रत्याय्यार्थविपर्ययवृत्तत्वात् प्रहासोक्तिवदिति गतार्थम् । न च तेषु लक्षणेषु लक्ष्येषु चासत्यमति र्भवति । किञ्चान्यत् , पर्वताधिकरणकर्मवच्च नासत्यमतिः । 'इह पर्वते वसति' इत्येतस्मिन्नधिकरणार्थे 10 'पर्वतमँधिवसति, अध्यास्ते' इत्यादिकर्मत्वायुक्तेः । अत्र प्रयोगः- 'पर्वतमधिवसति' इत्यादि असत्यमिदम् , स्वकारकव्यधिकरणवृत्तत्वात् , 'देवदत्तो भूयते' इति यथेति । एतस्य भावनार्थ आधारोऽधिकरणमित्यादि यावदन्यस्यानाधारत्वाद्वेति गतार्थो ग्रन्थः । एतच्च क्षेत्रविषयमयथार्थत्वमुक्तम् । तथा कालविषयमयथार्थसाधनम्-'भूतमनागतम्' इति च विरुद्धार्थमिति । अत उत्तरं शतभिषज इत्यादि १“धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः ।३।४।१। धात्वर्थानां सम्बन्धे यत्र काले प्रत्यया उक्तास्ततोऽन्यत्रापि स्युः । तिङन्तवाच्यक्रियायाः प्राधान्यात् तदनुरोधेन गुणभूतक्रियावाचिभ्यः प्रत्ययाः । वसन् ददर्श। भूते लट् । अतीतवासकर्तृकं दर्शनमर्थः । सोमयाज्यस्य पुत्रो भविता । सोमेन यक्ष्यमाणो यः पुत्रस्तत्कर्तृकं भवनम् ।”-पा० सिद्धान्तकौमुदी ॥ २ दृश्यतां पृ० १५४ पं० २६ ॥ ३ चाश्रित्यमति भा० । श्चामृत्यमति य० ॥ ४ “अधिशीस्थासां कर्म ।१।४।४६। पूर्वेणाधिकरणसंज्ञायां प्राप्तायां कर्मसंज्ञा विधीयते । अधिपूर्वाणां शीङ् स्था आस् इत्येतेषामाधारो यस्तत् कारकं कर्मसंज्ञं भवति । ग्राममधिशेते। ग्राममधितिष्ठति । पर्वतमध्यास्ते ।.... उपान्वध्याब्वसः । १।४।४८। उप अनु अधि आङ् इत्येवंपूर्वस्य वसतेराधारो यस्तत् कारकं कर्मसंज्ञं भवति । ग्राममुपवसति सेना। पर्वतमुपवसति । ग्राममनुवसति। ग्राममधिवसति । ग्राममावसति ।"-पा० काशिका.। ५ आधारोऽधिकरणम् । १।४।४५। आध्रियन्तेऽस्मिन् क्रिया इत्याधारः । कर्तृकर्मणोः क्रियाश्रयभूतयोर्धारण क्रियां प्रति य आधारस्तत् कारकमधिकरणसंज्ञं भवति । कटे आस्ते । कटे शेते । स्थाल्यां पचति ।”-पा० काशिका। ६"शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्याययतीति शब्दः ॥ ८॥ उच्चरितः शब्दः कृतसंगतेः पुरुषस्य खाभिधेये प्रत्ययमादधातीति शब्द इत्युच्यते । स च लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः ॥ ९ ॥ लिङ्गं स्त्रीत्वपुंस्त्वनपुंसकत्वानि । संख्या एकत्वद्वित्वबहुत्वानि । साधनमस्मदादि । एवमादीनां व्यभिचारो न न्याय्य इति तन्निवृत्तिपरोऽयं नयः । तद्यथा-लिङ्गव्यभिचारस्तावत् स्त्रीलिङ्गे पुंलिङ्गाभिधानं तारका स्वातिरिति । पुंलिङ्गे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति । स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानं वीणा आतोद्यमिति । नपुंसके रुयभिधानम् आयुधं शक्तिरिति । पुंलिङ्गे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति । नपुंसके पुंलिङ्गाभिधानं द्रव्यं परशुरिति । संख्याव्यभिचारः-एकत्वे द्वित्वं नक्षत्रं पुनर्वसू इति । एकत्वे बहुत्वं नक्षत्र शतभिषज इति । द्वित्वे एकत्वं गोदौ ग्राम इति । द्वित्वे बहुत्वं पुनर्वसू पञ्च तारका इति । बहुत्वे एकत्वम् आम्रा वनमिति । बहुत्वे द्वित्वं देवमनुष्या उभौ राशी इति । साधनव्यभिचारः-एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पितेति । आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते । विश्वदृश्वास्य सुतो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचारः। सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते विरमति उपरमति [ इति] उपग्रहव्यभिचारः । एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः । कुतः ? अन्यस्यार्थस्यान्यार्थेन सम्बन्धाभावात् । यदि स्यात् घटः पटो भवतु पटो [वा?] प्रासाद इति । तस्माद् यथालिङ्गं यथासङ्ख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।" इति तत्त्वार्थराजवार्तिके १॥३३॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनयनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ५७३ देवमनुष्या उभौ राशी? ] इत्यादिषु भावतोऽयथार्थता, द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयविसंवादवृत्तत्वात् खोक्तार्थनिराकरणार्थत्वात् , उन्मत्तप्रलापवत् । ननु पुष्यस्य देवविशेषत्वात् तद्विषयौ नक्षत्रतारासामान्याह्न, घटविशेषविषयमृत्सामान्यार्थवत् । उक्तं हि यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो विशेषे शब्दान् यथावद्व्यवहारयुक्तो(क्ते)। सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ॥ [पा० म० भा० १।१।१] तस्माद् विवक्षापूर्वकत्वाच्छब्दप्रवृत्तेविषयविशेषपरिग्रहेण गावी-गोणी-गोतागोपालिकादिवत् शब्दा गमकाश्चागमकाश्च । यद्येवं तर्हि कया विवक्षया 'आपः' इति बहुवचनमेकस्मिन्नपि बिन्दौ, एक भावार्यथार्थप्रतिपादनं गतार्थं यावदित्यादिषु भावतोऽयथार्थतेति । एवं च न वाचकता शब्दस्य न 10 वाच्यतार्थस्य, अयथार्थत्वात्, उक्तशब्दार्थवत् । यथार्थाभिधानं च शब्दः [तत्त्वार्थभाष्य. १३५] इत्युक्तम् । तत् सर्वमुपसंहृत्य साधनमाह-द्रव्य-क्षेत्र-कालभावविषयविसंवादवृत्तत्वादिति हेतुाख्या-३८३-२ तार्थः । स्वोक्तार्थनिराकरणार्थत्वादिति साधितार्थोपसंहारार्थो हेतुः पृथगयाथार्थ्यप्रतिपादनार्थो वा । उन्मत्तप्रलापवदिति दृष्टान्तः । इदं च साधनमतीतप्रपश्चेन भावितार्थमिति न विव्रियते । ननु पुष्यस्येत्यादि पूर्वपक्षो विवक्षाविशेषार्थशब्दप्रयोगन्यायाश्रयेण दोषपरिहारार्थो यावद् 15 गमकाश्चागमकाश्चेति । पुष्यः पुमान् देवो विशेषः, तद्विषयौ तदर्थौ नक्षत्र-तारासामान्यार्थों घटविशेषविषयमृत्सामान्यार्थवत् सामानाधिकरण्यं तस्मादुपपन्नम् । अस्मिंश्च ज्ञापकमाह-उक्तं हीत्यादि भाष्यकारेणोक्तम् । यस्तु प्रयुत इति श्लोकः । विशेषे विवक्षिते प्रधाने गुणभूताशब्दान् प्रयुङ्क्ते यः कुशलोऽर्थगत्यर्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य तद्दर्शयन्नाह विक्क्षापूर्वकत्वाच्छब्दप्रवृत्तेरिति-यथावद्व्यवहारयुक्तौ यो यः शब्दो व्यवहारकाले यस्य यस्य विवक्षितार्थस्य विशिष्टस्य विशिष्ट एव गमक इत्यभि-20 मतः स एव स एव तत्र प्रयुज्यते नान्योऽन्यत्र वा गौणमुख्यादिभावेन स्वाभिधेयप्रत्यायनसमर्थत्वात् सर्वशब्दानाम् । सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र । कः ? वाग्योगविद् य एवमुक्तविशेषविषयशब्दार्थसम्बन्धज्ञः । दुष्यति चापशब्दैरवाग्योगविद् विशेषविषयप्रयोगानभिज्ञः । तस्माद् विवक्षापूर्वकत्वाच्छब्दप्रवृत्तेविषयविशेषपरिग्रहेण साधुताऽसाधुता च शब्दानाम् , असाधुत्वाभिमतानामपि गव्यादीनां साधुत्वं विशेषविषयत्वात् , साधुत्वेनाभिमतानामपि गव्यादीनामसाधुत्वमिति । तदर्शयति-गावी-25 गोणीत्यादिर्गतार्था भावना शब्दव्युत्पत्त्या । ___अत्राचार्य आह-यद्येवं तह-त्यादि यावत् सिकता इति । एषोऽपि न्यायो व्यभिचाराद् न प्रभवति । उदाहरणैर्व्यभिचारयिष्यन्नविजानन्निव पृच्छति तमेव कया विशेषविवक्षयेति । आप इति बहुवचनमेकस्मिन्नपि बिन्दौ दृष्टम् , नात्र सामान्यविशेषभावोऽस्ति । तथा एकयोषिति दारा गृहाः १ यथार्थाप्रति प्र० । (यथार्थत्वप्रति ? )॥ २ तत्त्वार्थभाष्ये 'च' नास्ति ॥ ३ °यथार्थ्य भा० । यथार्थ य० ॥ ४०हारयुक्ते' इति पाठोऽत्र समीचीनः सम्भाव्यते। दृश्यतां पृ० १२८ पं० २१॥ ५ग्रहणे य० ॥ ६ (गाव्यादी ? ) । दृश्यतां टिपृ० ५७ पं० २२-२६ ॥ ७ (गवादीना?)॥ ८°त्यादिगतार्था य० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे योषिति 'दारा गृहाः' इति, एकस्मिंश्च शर्कराकणे 'सिकताः' इति । नित्यमपि वह्ववयववृत्तत्वादिति चेत्, एकघटेऽपि तह्यत एव नित्यं बहुवचनं प्राप्तम् , 'बिन्द्वादाविव 'आपः' । अप्सु वा एकवचनं स्याद् घटवत् । अतिशय्येकात्मकनिरासेन विशेषविषयप्रयोगसाधुत्वेष्टौ कस्मात् तत एव 5 न्यायात् बिन्दौ अप्छब्द एकवचनान्तो न प्रयुज्यते विशेषविषयत्वाद् गवादिवत् । स एकवचनान्त एव स्यात्, एकमिति गृहीतत्वात् , तन्तुपटवत् । तथा तटस्तटी तटमिति कतमं विशेषमुपादाय लिङ्गभेदः कतमद् वा सामान्यमतिदिश्यते? ननु स्थितिप्रसवसंस्त्यानविशेषविषयो लिङ्गभेदः । न तटतटीतटानां विषय10 विशेषः, अभिन्नस्वरूपत्वात् , घटघटखात्मवत् । 'बहुवचनं कया विवक्षयेति वर्तते । एकस्मिंश्च सूक्ष्मशर्कराकणे सिकता इति, किंशब्दस्य क्षेपार्थत्वात् कया विवक्षया किं तया विवक्षया विपरीतार्थयेति । नित्यमपि बह्ववयववृत्तत्वादिति चेत् । स्यान्मतम्-बहवोऽवयवाः परमाणु-द्वथणुकादयो बिन्दावपि, तदपेक्षया बहुवचनम् 'आपः' इति । अत्रोच्यते एकघटेऽपीत्यादि । अत एव त्वदुक्तात् 'बह्ववयववृत्तत्वात्' इति हेतोरेकस्मिन् घटेऽपि नित्यं बहुवचनं 15 प्राप्तम् , 'बिन्द्वादाविव 'आपः' इत्यनिष्टापादनद्वारेण परोक्तहेतुव्यभिचारः । अप्सु वेत्यादि, अप्छब्दादपि एकवचनं स्यात् , नित्यमपि बह्ववयववृत्तत्वात् , घटवत् , अनिष्टं चैतत् । अतिशय्येकात्मकेत्यादि । यथास्माभिरुक्तोऽतिशयी एक एव आत्मा भवति यत् स[त] किञ्चिदिति तस्य निरासेन त्वया विशेषविषयप्रयोगो गाव्यादिवत् 'साधुः' इतीष्टः, तत्रेदं तेऽनिष्टमापाद्यते कस्मात् तत एव न्यायात् बिन्दौ वर्तमानोऽप्छब्द एकवचनान्तो न प्रयुज्यते, विशेषविषय20 त्वात् , गवादि[वदि]ति ? अतोऽयमपि न्यायो व्यभिचरतीति । किञ्चान्यत् , सोऽप्छब्द एकवचनान्त एव स्यात् , बह्ववयवात्मकत्वेऽपि 'एकम्' इति गृहीतत्वात् तन्तुपटवदिति गतार्थत्वान्न व्याख्यायते । एवं तावदयं सङ्ख्याविषयो विचारो न घटते । लिङ्गविषयोऽपि विशेषप्रयोगसाधुत्वन्यायो न घटते । अर्थैकत्वे सङ्ख्याभेदानुपपत्तिवत् लिङ्गभेदानुपपत्तिरपीत्यत आह-तथा तटस्तटीत्यादि । कतमं वात्र विशेषमुपादाय लिङ्गभेदः ? कतमद् वा सामान्यमतिदिश्यते विशेषप्रतिपादनार्थम् ? न 25 सम्भवतीत्यर्थः । आह-ननु स्थिति-प्रसव-संस्त्यानविशेषविषयो लिङ्गभेदः । ३८४-२ १ बिंद्वाविचार्यः भा० । 'बिन्दाविवापः' इति पाठोऽप्यत्र संभवेत् ॥ २ यत्स किंचिदिति प्र० । (यः स किञ्चिदिति ?)॥ ३ तया प्र०॥ ४ (चात्र ?)॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनयनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । गोचरविशेषोपपत्तौ वा सोऽपि नास्ति, न हि तटो गोचरः प्रसवस्य, संस्त्यानात्मकत्वात्, स्त्रीवत् । न तटी गोचरः संस्त्यानस्थ, प्रसवात्मकत्वात्, पुरुषवत् । [न तटं गोचरोऽनुभयत्वस्य, संत्यानप्रसवात्मकत्वात्,] स्त्रीपुंसवत् । अथवा........ तटीवत् । एवं लिङ्गाभाव एव । ततश्चासत्त्वमप्येषाम् , अक्रियाव्ययत्वे सत्यलिङ्गत्वात्, खपुष्पवत् । अथोच्येत-नन्वेवं संस्त्यानात्मकत्वादित्यादिना त्रिलिङ्गत्वं व्यवस्थापितमेव "संस्त्याने स्त्यायतेइँट् स्त्री सूतेः सप् प्रसवे पुमान् ।” । "उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम् ॥” [पा० म० भा० ४।१।३] स्थितिर्नपुंसकम् , स्त्री स्यानम् , प्रसवः पुमान् , ए[ते] चार्थाः सर्वमूर्ति (ते)षु सम्भवन्ति, अत्र यो विशेषो विवक्ष्यते तद्विषयो लिङ्गभेद इति । एतच्च न तट-तटी-तटानां विषयस्य विशेषः, 10 एकत्वादर्थस्य स एव विशेषो नास्ति, यद्विषयो लिङ्गभेदः स्यात् स नास्ति, अभिन्नस्वरूपत्वात्, घट-घटस्वात्मवत् , यथा घट एव घटस्वात्मा तथा तट एव तटी तटं च, अभिन्नस्वरूपत्वाद् नास्ति विशेषः । आह-गोचरविशेषोपपत्तेभित्त्यादिसंस्थाना तटी कटकादिसंस्थानस्तटः कुड्यादिसंस्थानं तटमिति तस्माद् विषयविशेषोपपत्तेर्लिङ्गविशेषोपपत्तिरिति । अत्रोच्यते-गोचरविशेषोपपत्तौ वा सोऽपि विशेषो३४५., नास्ति, यस्माद् न तटो गोचरः प्रसवस्य, संस्त्यानात्मकत्वात् , संस्त्यानात्मकत्वं तस्यार्थस्य सिद्धं 15 त्वयैवाभ्युपगतत्वात् व्यात्मकत्वस्य, स्त्रीवदिति स्तन-केशवत्याः प्रसवाभाववदिति । एवं शेषे साधने गतार्थे यावत् स्त्री-पुंसवदिति । एष बाह्यख्यादिनिदर्शनबलेन गोचरनिषेधः कृतः । अधुना तस्यैवार्थस्य त्रित्वापेक्षया क्रियते-अथवेत्यादि साधनानि गतार्थानि यावत् तटीवदिति । एवं लिङ्गाभाव एव तटत्वादीनां प्रसवादिधर्माभावे गोचरविशेषाभावादित्युपनयः । न लिङ्गाभाव एव दोषः, किं तर्हि ? ततश्चासत्त्वमप्येषां मूलोद्वर्तनेन, [अ]क्रिया-ऽव्ययत्वे सति अलिङ्गत्वात् , खपुष्पवत्, मा भूत् 20 पंचत्यादिस्वराद्याख्याताव्ययाभिधेयार्थवत् सत्त्वाशङ्केति 'अक्रियाव्यय विशेषणम् । अथोच्यतेत्यादि । परेणोच्येत परिहारः-नन्वेवं प्रपञ्चनेन गोचरलिङ्गनिराकरणव्याख्यानेन 'संस्त्यानात्मकत्वादित्यादिना त्रिलिङ्गत्वं स्वं स्वं 'लिङ्गव्यवस्थापनहेतुं परिगृह्णता व्यवस्थापितमेव त्वया । यथा 'न तटी, संस्त्यान १ अत्र मूलं यथायोगमूह्यम् ॥ २स प्रसवे प्र० । “किं पुनलोंके दृष्ट्वा एतदवसीयते-इयं स्त्री अयं पुमान् इदं नपुंसकमिति ? लिङ्गम् । किं पुनस्तत् ? स्तनकेशवती स्त्री स्यालोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम् ॥... .....तटे च सर्वलिङ्गानि दृष्ट्वा कोऽध्यवसास्यति ।.....तस्मान्न वैयाकरणैः शक्यं लौकिकं लिङ्गमास्थातुम् । अवश्यं च कश्चित् खकृतान्त आस्थेयः । कोऽसौ स्वकृतान्तः?..... संस्त्याने स्त्यायतेईट स्त्री सूतेः सप् प्रसवे पुमानिति ।"-पा०म०भा० ४।१।३। “संस्त्यान इति भावसाधनत्वं दर्शयति । सूतेरिति 'सू' इत्येतस्य धातोः 'सप्' प्रत्ययो भवति, सकारस्य पकारो भवतीत्यर्थः । औणादिको 'मसुन्' प्रत्ययः । हुवश्च बाहलकात् ।........."संस्त्यानमिति तिरोभावः । प्रवृत्तिराविर्भावः । साम्यावस्था स्थितिः।”-पा० म० भा० प्रदीप.॥ ३ अथ चेत्यादि प्र०॥ ४ पचत्यादि आख्यातम् , खरादि अव्ययम् ॥ ५ अथोच्यते प्र० ॥ ६व्यामत्रनयनो द्रव्यसंस्त्यानात्मकत्वादिना भा० ॥ ७ 'संस्त्यानात्मकत्वादिना' इति भा० पाठोऽपि समीचीनो भाति । दृश्यतां पृ० ५७५ पं० १॥ ८ लिङ्ग व्यव भा० ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ५७६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे त्वया तटः पुंलिङ्गं प्रसवात्मकत्वात् पुरुषवदित्यादि । न, लिङ्गव्यवस्थापन हेत्वभावात् । प्रसवादीनामेकार्थे सन्निधिभावे वा स पुमानेव न स्यात्, स्त्रीत्वात्, देवदत्तादिवत् । न स्त्री, पुंस्त्वात् । न तौ, नपुंसकत्वात्, इतरवत् । प्रसवात्मकत्वात्, पुरुषवत्' इत्यात्थ तथा तः ( तटः) पुंलिङ्गम्, प्रसवात्मकत्वात्, पुरुषर्वेदिति, 10 आदिग्रहणात् संस्त्यानानुभयत्वाभ्यामपि त्रयाणां त्रिलिङ्गत्वहेतुत्वमिति । एतच्च न, लिङ्गव्यवस्थापनहेत्वभावात् । ननूक्तम्-त एव हि प्रसवादयो लिङ्गव्यवस्थापनहेतवो न सन्तीति साधितमनन्तरमेव, ३८५-२ तस्मान्न किञ्चिदेतत् | अभ्युपगम्यापिं प्रसवादीनामेकार्थे सन्निधिभावे वा स पुमानेव न स्यात्, स्त्रीत्वात्, देवदत्तादिवत्, तस्य स्त्रीत्वं त्वयाभ्युपगतं त्रिलिङ्गत्वात् । तथा न स्त्री पुंस्त्वात्, न ती स्त्रीपुंस नपुंसकत्वात्, इतरत्वेन दृष्टान्तोऽत्र । पर्वत नदी भवनविषयं त्रिलिङ्गत्वं विशिष्टविषयमिति चेत्, न, पुंमादिभिन्नबाह्राद्येकलिङ्गत्वात् अर्धर्चादिषु च विशेषादर्शनादपरिहारात् । नन्वेकस्य दृष्टं त्रिलिङ्गत्वं भूतिर्भवनं भाव इति । न, यदि वयं लोके दृष्टत्वात् प्रतिपद्यामहे तटे दृष्टत्वादेव कस्माद् न प्रतिपद्यामहे ? तदेव दुर्दृष्टम् । अपि चेदं साध्यम् - असावप्येकोsर्थो भावो वेति । 20 पर्वत - नदीत्यादि । स्यान्मतम् - पर्वतः पुमान्, तद्विषयस्तटः । नदी स्त्री, तद्विषया तटी । भवनं नपुंसकम्, तद्विषयं तटम् । तस्मात् त्रिलिङ्गत्वं विशिष्टविषयमिति । एतच्च न पुमादिभिन्नबाह्राद्ये कलिङ्गत्वात् । एकस्मिन् देहे बाहुः पुमान्, जिह्वा स्त्री, अक्षि नपुंसकमिति नियतलिङ्गत्वान्नैतदपि पुष्कलम् । किञ्चान्यत्, अर्धर्चादिषु च विशेषादर्शनादपरिहारात् 'न' इति वर्तते, अर्धर्चः अर्धर्च गोमयः गोमयमित्यादीनां स्त्रीलिङ्गाभावात् त्रिलिङ्गत्वं नैकार्थम् । आह–नन्वेकस्य दृष्टं त्रिलिङ्गत्वम् - भूतिर्भवनं भाव इति, अतोऽव्यभिचार इति चेत्, नेत्युच्यते, यदि वयमित्यादि, यदि लोके प्रयोगो दृष्ट इत्येतावता प्रतिपद्यामहे त्वादृशा इव परंप्रत्येयाः तटे दृष्टत्वादेव कस्माद् न प्रतिपद्यामहे ? किं विवादेन ? तस्मात् तदेव दुर्दृष्टम्, प्रसिद्धिरेव दुष्प्रसिद्धिरित्यर्थः । अपि चेदमित्यादि, 'भूतिर्भवनं भावः' इत्येतेऽपि त्रयोऽर्था यथार्थाभिधानशब्दनयमतेन भिन्नाः, तस्मादेतत् साध्यम् - असावप्येकोऽर्थो [ ना]नेक इति । अपि च भावो वेति एतदपि १ पुमादिभिन्नादि । अयमत्राशयः - पुंसः स्त्रियाः नपुंसकस्य च देहे विद्यमाना बाहु-जिह्वादयोऽवयवा पुमादिभिन्नविषया अपि एकलिङ्गत्वेन दृश्यन्ते, न हि पुमादिभिन्नविषयत्वेऽपि बाहौ लिङ्गभेदः एवं च विशिष्टविषयत्वं न लिङ्गभेदे हेतुः । किच, अर्धर्चादिषु विशिष्टविषयत्वाभावेऽपि लिङ्गभेदो दृश्यते । तस्माद् 'अथैकत्वे लिङ्गभेदानुपपत्तिः ' [ पृ० ५७४ पं० २३ ] इति पूर्वोक्तो दोषोऽपरिहृत एव ॥ २ दृश्यतां पृ०५७५ पं० २,३ ॥ ३ तथातः पुंलिंगम् प्र० । (तथा अतः पुंलिङ्गम् ? तथात्थ पुंलिङ्गम् ? ) ॥ ४ ( वत्, इत्यादिग्रहणात् ? ) ॥ ५ पुमानेव स्यात् भा० ॥ ६ अत्र देवदत्तो वैधर्म्यदृष्टान्तो भाति । यथा देवदत्तः पुमानेव न तथा तटः पुमानेवेत्यर्थः ॥ ७ स्त्रीत्वं पुंस्त्वात् य० ॥ ८ इतरव्वन भा० । इतरत्वन य० । ' इतरत्वेन दृष्टान्तोऽत्र' इति पाठोऽत्र सम्यग् विभाव्यते । इतरत्वेन वैधम्र्येणेत्यर्थः । ( इतरवत् ? ) ॥ ९ ऋचोऽर्धमर्धर्चः । “अर्धर्चाः पुंसि च |२| ४ | ३ || अर्धर्चादयः शब्दाः पुंसि नपुंसके च भाष्यन्ते । अर्धर्चः । अर्धर्चम् । गोमयः । गोमयम् ।" - पा० काशिका ॥ १० परप्रत्ययाः प्र० ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनयनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । - अपि च एकस्य त्रैलिङ्यायुक्तिविचारे भूत्यादीनां नानाशब्दानामुपन्यासोऽतिविस्पर्धते, पर्यायनयविषयत्वाच भावशब्दस्यात्र कर्तेवैको भावः तस्मादेकभवनासत्त्वादथैकत्वमपि नैव ।। __ यदप्युक्तं 'नक्षत्रतारार्थातिदेश...............अयं देवदत्तः, वृक्षोऽर्थो भवति। [ नक्षत्रेण सामान्येन पुष्यस्य अतिदेशः यथा इदमा] देवदत्तस्य । अत्र युक्तौ, 5 देवदत्तस्येदंविषयत्वादतिदेशो युज्यते, न नक्षत्रेण पुष्यस्य अतद्विषयत्वात् । अर्थेन वा वृक्षोऽतिदिश्येत तद्विषयत्वात् । नक्षत्राद्यतिदेश्यो न भवति पुष्यः, अस्त्रविषयत्वात्, स्थाणुपुरुषवत् । यद्यतद्विषयेणाप्यतिदिश्येत घटादावपि नक्षत्राद्यतिदेशवृत्तिर्युक्ता स्यात्, अतद्विषयत्वात्, पुष्यवत् । साध्यम्-भावः क्रिया न कर्ता भूत्यादिशब्दाभिधेयः । स च शब्दनयस्य नास्ति, प्रकृत्यर्थस्य न्यग्भूतत्वात् । 10 कर्बर्थस्यैव सद्भावात् मन्मतेन । अपि चेत्यादि । तटशब्दस्यैकार्थस्य एकस्य लिङ्गयायुक्तिविचारे नानालिङ्गानां भूत्यादीनां ३८६-१ नानाशब्दा[ना]मुपन्यासो[5]तिविस्पर्धते । इतश्च न घटते तदुपन्यासः, द्रव्यार्थत्वात् सामान्यस्य भूति-भवन-भावाख्यस्यैकत्वात् तद्विषयमुदाहरणं स्यात्, न पर्यायनय विषयम् , पर्यायनय विषयत्वाच्च भावशब्दस्यात्र कतैवैको 'भवति' इति भावो विशिष्ट एवैको घटादिः, न त्वेक एव भूत्यादिरूपो विशेषः 15 कर्ता । तस्मादेकभवनासत्त्वादथैकत्वमपि नैव, सामान्यभवनस्यैकस्य न्यग्भूतत्वात् विशेषभवनस्य भूत्यादिविशिष्टैकरूपत्वात् नास्त्यर्थैकत्वमत्र नयेऽतो द्रव्यार्थकृतं भूत्यादिष्वैक्यं तद् मां प्रत्यसिद्धमित्यर्थः । तस्माददृष्टान्त इति । किश्चान्यत् , त्वया यदप्युक्तं नक्षत्रतारार्थातिदेशेत्यादि तदुक्तप्रत्युच्चारणम् । सामान्यार्थातिदेशेन : विशेषार्थातिसर्गे निदर्शनम्-अयं देवदत्त इति, 'वृक्षोऽर्थो भवति' इति द्वितीयम् । ‘शेषं गतार्थ 20 सभावनं यावद् देवदत्तस्येति पूर्वपक्षः । उत्तरपक्षस्तु अत्र युक्तौ देवदत्तस्येदमित्यादिना वैधयं निदर्शयति अतिदेशाभावभावनार्थं यावदतद्विषयत्वादिति प्रथमनिदर्शनस्य । अर्थेन वेत्यादिना द्वितीयनिदर्शनवैधयं दर्शयति । अर्थेन सता वृक्षोऽतिदिश्येत प्रत्यक्षः सन् परोक्षेण धर्मेण विशेषेण, न सामान्येन सता वा खपुष्पादिना वा । नक्षत्रादीनामतद्विषयत्वात् प्रत्यक्षनिर्देश्यस्य पिण्डस्य देवदत्तार्थस्य तद्विषयत्वात् वृक्षस्यार्थविषयत्वाञ्च वैधर्म्यम् । तस्मान्न दृष्टान्तः । नक्षत्राद्यतिदेश्यो न भवति पुष्यः, 25 अखविषयत्वात् , स्थाणुनेव पुरुषः पुरुषेण वा स्थाणुरिति । यद्यतद्विषयेणाप्यतिदिश्येत घटादावपि 'नक्षत्रं,०६-२ तारा घटः' इत्यतिदेशवृत्तिर्युक्ता स्यात् अतद्विषयत्वात् पुष्यवत् इत्यतिप्रसङ्गः। १ दृश्यतां पृ० ५७३ पं. ३॥ २'देवदत्तस्य इदमा अर्थेन वा वृक्षस्यातिदेशो युज्यते, न तु नक्षत्रेण पुष्यस्य अतद्विषयत्वात्' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् । ३भूयादि य० ॥ ४ दृश्यतो पृ० ५५७ पं० ५॥ ५तिविषयत्वाच्च प्र०॥ ६नयेनो द्रव्यार्थ० प्र० ॥ ७ तस्मादृष्टान्तः य० । तस्मादृष्टान्तः भा० ॥ ८ विशेषं य० ॥ ९°त्तस्येवमित्यादिना प्र०। १० °निर्देशस्य प्र०॥ ११ तस्मान्ना प्र०। (तस्मानासौ ?)॥ १२ नक्षत्रतारा प्र०॥ नय० ७३ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृतं [ अष्टम उभयनियमारे - ननु पुरुषोऽपि.........गवादि गोण्या। सत्यमुच्यते, न तु तद्गतविशेषविरोधेन.........संवादव्युदसनवृत्तिः । एष प्रकृत्यादिविसंवादेष्वपि अशेष आक्षेपपरिहारप्रपञ्च आयोज्यः। नन्वेवमाख्यातुराख्येयार्थगतविशेषविना तदाख्यानासम्भवाद् नान्तरीयकं 5 विशेषणोपादानम् , तानि च संख्यालिङ्गादिभेदा एव । न, क्रियाव्युत्पत्त्यादिभेदेन व्याख्यानोपपत्तेः । उक्तं हि-क्रियाकारकभेदेन पर्यायवचनेन वाक्यान्तरेण च व्याख्या ननु पुरुषोऽपीत्यादि अस्वविषयत्वासिद्ध्यद्भावनं यावद् गवादि गोण्येति । तदुत्तरम्-सत्यमुच्यत इत्यादि । शब्दो हि तेन प्रकारेण वाच्यविशेष संवादिनं ब्रवीति, तत्सम्परिग्रहगुणेन सत्यमुच्यते सोऽर्थविशेषः, न तु तद्गतानां विशेषाणां विरोधेनोच्यते यथा स्त्री-पु-नपुंसकादीनामेकद्विबहुत्वादीनां 10 चैकार्थत्वेनेति संवाद-विसंवाददर्शनो ग्रन्थो यावत् संवादव्युदसनवृत्तिरिति गतार्थः । एवं लिङ्ग-सङ्ख्याविसंवादवृत्तिहेतुप्रसङ्गेन चोद्य-परिहारप्रपञ्च उक्तः । एष प्रकृत्यादिविसंवादेष्वपि अशेष आक्षेप-परिहारप्रपञ्च आयोज्यः समानप्रचर्चत्वात् प्रकृति-प्रत्ययाद्यक्षरविशेषोच्चारणमात्रभेदः प्रेहासादिदमसत्यमेव इति चोद्योपक्रमप्रभृतिर्यावदेतदवधि लिङ्गादिविशेषत्यागेन यथानुपूर्वोत्तरपक्षविरचनो नेय इति । नन्वेवमित्यादि । नन्वाख्यातुराख्यानकर्मणि प्रवृत्तस्य आख्येयार्थगतविशेषैरवश्यम्भाविमिर्विना 15 तदाख्यानासम्भवाद् नान्तरीयकं विशेषणोपादानम् , तानि च विशेषणानि सङ्ख्यालिङ्गादिभेदा एव, इतरथा अर्थोपदेशाभावः, अर्थप्रत्यायनार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य अर्थपरतन्त्रस्यानन्तरीयकत्ववद् लिङ्गादिभेर्दैनान्तरीयकत्वमिति । एतच्च न, क्रियाव्युत्पत्त्यादिभेदेन व्याख्यानोपपत्तेः । तद्दर्शयति-उक्तं हीयादि ज्ञापकेन क्रिया-कारकभेदेनेति, द्रव्यवदाश्रयवृत्तिः स्वस्था परसाधना व्यभिहित(ता?)श्च । 20 द्वे शून्ये क्षयिणी चेत्यष्टौ ज्ञेयाः क्रियाभेदाः ॥[ ] कारकभेदाः कादयः षडष्टौ वा कालोपायसहितास्त एव । पर्यायवचनेन घट-कुट-कुम्भादिना वाक्यान्तरेण च 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ [पा. १।११५६]' इत्यस्य स्थान्यादेशपृथक्त्वात् स्थानिवदतिदेशो गुरुवद् गुरुपुत्रे वर्तितव्यम् अन्यत्रोच्छिष्टभोजनात् पादग्रहणाच्च [पा. म. भा. ॥१॥५६] इत्यादि । १°ग्रहणगुणेन य० ॥ २ दृश्यतां पृ० ५७१ पं० ६॥ ३"स्यार्थनान्तरीयकत्ववद्' इति पाठोऽत्र सम्यग् भाति ॥ ४°दानान्त° प्र०॥ ५ (व्यवहिता च?)। ६°वचने घट° य० ॥ ७वदितिदेशे प्र० । "किमर्थ पुनरिदमुच्यते? स्थान्यादेशपृथक्त्वादादेशे स्थानिवदनुदेशो गुरुवद् गुरुपुत्र इति यथा । अन्यः स्थानी अन्य आदेशः । स्थान्यादेशपृथक्त्वादेतस्मात् कारणात् स्थानिकार्यमादेशे न प्राप्नोति । तत्र को दोषः ? 'आडो यमहनः' इत्यात्मनेपदं भवतीति हन्तेरेव स्यात् वधेर्न स्यात् , इष्यते च वधेरपि स्यादिति । तच्चान्तरेण यत्नं न सिध्यतीति तस्मात् स्थानिवदनुदेशः । एवमर्थमिदमुच्यते गुरुवद् गुरुपुत्र इति यथा । तद्यथा-गुरुवद् गुरुपुत्रे वर्तितव्यमिति गुरौ यत् कार्य तद् गुरुपुत्रेऽतिदिश्यते एवमिहापि स्थानिवत् कार्यमादेशेऽतिदिश्यते ।........ विशिष्ट स्थानिकार्यमादेशेऽतिदिशति गुरुवद् गुरुपुत्र इति यथा । तद्यथा-गुरुवदस्मिन् गुरुपुत्रे वर्तितव्यमन्यत्रोच्छिष्टभोजनात् पादोपसंग्रहणाच्च । यदि च गुरुपुत्रोऽपि गुरुर्भवति तदपि कर्तव्यं भवति ।"-पा० म०भा० १।१।५६ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामद्रव्यार्थनयनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । [ ]। क्रियाभेदेन 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारयुतिस्तुतिमोदमदस्वप्मकान्तिगतिषु' [पा० धा० ११०७]......स वृक्षः । इहापि क्रियाकारकभेदाभ्यां पुष्यति......खपुष्पे । उपोद्घात......भेदलक्षणायाः अधिकरणयोग......व्याख्यायाः का कथं वाऽनुपपत्तिर्लिङ्गाद्यभेदेऽपि? अनेकार्थेकशब्दग्रहणेनापि व्याख्यानाद् लिङ्गाद्यभेदेऽप्यर्थाधिगतिः । यथाह-वाग्दिग्भूरश्मि.........॥ [ ]......दृष्ट्या वा। अत एव च व्याकरणाध्ययने यत्न आस्थेयः। उक्तं हि 'अर्थप्रवृत्तितत्त्वानां शब्दा एव निबन्धनम् । तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणाहते ॥ [वाक्यप० १॥ १३] अथवा आचार्येणैव क्रियाभेदेन दिवु क्रीडेत्यादि व्याख्यातमेव यावत् स वृक्ष इति गतार्थम् ] 110 इहापीति सिद्धं व्याख्यानं प्रदर्य प्रस्तुतं योजयति क्रियाकारकभेदाभ्यां पुष्यतीत्यादि यावत् खपुष्प इति गतार्था व्याख्या । अथवान्या व्याख्या-उपोद्धातेत्यादि यावद् भेदलक्षणाया इति व्याख्यायाः का कथं वेहाऽनुपपत्तिर्लिङ्गाद्यभेदेऽपि इति सम्भन्स्यते । अथवायमपरो व्याख्यामार्गः, तद्यथा-अधिकरणयोगपदार्थेत्यादि यावत् का कथं वानुपपत्तिर्लिङ्गाद्यभेदेऽपीति । सोदाहरणं त्वस्य व्याख्यानं तत्रा(न्त्रा)र्थसाहादिभ्योऽधिगन्तव्यम् । 15 ___ इतश्च व्याख्या[ना]ल्लिङ्गाद्यभिन्नार्थगतिरुपपद्यते, अनेकार्थैकशब्दग्रहणेनापीत्यादि । व्याख्यातृभिरेकः शब्दोऽनेकार्थ इति ब्रुवद्भिर्व्याख्यानाद लिङ्गाद्यभेदेऽप्याधिगतिरभ्युपगतैवेति । तद् १ अत्र वक्ष्यमाणाद् 'अर्थप्रवृत्तितत्त्वानाम्' इति श्लोकात् पूर्व वाक्यपदीये प्राप्तरूपविभागाया यो वाचः परमो रसः। यत् तत् पुण्यतमं ज्योतिस्तस्य मार्गोऽयमाञ्जसः ॥ १।१२ ॥ इति श्लोको दृश्यते । तस्य व्याख्यायां भर्तृहरिणा 'तथा चोक्तम्' इत्युल्लिख्य 'शब्दार्थसम्बन्धनिमित्ततत्त्वं वाच्याविशेषेऽपि च साध्वसाधून् । साधुप्रयोगानुमितांश्च शिष्टान्न वेद यो व्याकरण न वेद ॥' इति श्लोक उद्धृतः । किन्तु नयचक्रवृत्तौ प्रतीकानां स्फुटमदर्शनादनयोरन्यतरः श्लोकोऽत्र मल्लवादिना विवक्षितोऽन्यो वा कश्चिदिति निर्णेतुं न पार्यते ॥ २"अर्थप्रवत्तितत्त्वानां शब्दा एव निबन्धनम् । तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणाहते ॥ [वाक्यप० १।१३ ], अर्थस्य प्रवृत्तितत्त्वं विवक्षा, न तु वस्तुस्वरूपतया सत्त्वमसत्त्वं वा । विवक्षा हि योग्यशब्दनिबन्धना। योग्यं हि शब्द प्रयोक्ता विवक्षाप्रापितसंनिधानेष्वभिधेयेषु प्रत्यर्थमुपादत्ते । तद्यथा-उपलिप्समानः प्रतिविषयं योग्यमेवेन्द्रियमुपलब्धौ प्रणिधत्ते। .........अथवार्थप्रवृत्तेः किं तत्त्वम् ? अर्थरूपाकारः प्रत्ययात्मा बाह्येषु वस्तुषु प्रत्यस्तः । स च शब्दनिबन्धनः । तत्त्वावबोधः शब्दानाम्, शब्दस्य तस्वमवैकल्यम् , अनपगतसंस्कार साधुस्वरूपम् , तद्भ्यस्याविकलम् । अन्ये तु तत्प्रयुयुक्षया प्रयुज्यमाना विकलाः स्युरपभ्रंशा इति ।” इति भर्तृहरिरचितायां वाक्यपदीयस्ववृत्तौ ॥ ३ क्रियामेदोन दिव क्रीडे प्र० । “दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु"-पा० धा० ११०७॥४ गतार्था भा० ॥५व्याख्याः भा०॥ 1 "अर्थस्य प्रवृत्तिर्व्यवहारः, तस्य तत्त्वानि । अर्थश्च प्रवृत्तिश्चेति वा द्वन्द्वः, अर्थो द्रव्यं प्रवृत्तिः क्रिया तयोस्तत्त्वात् , तेषां शब्दो निबन्धनम् । तत्त्वावबोध इति साधुत्वावबोधः । योग्यशब्दनिबन्धनेति योग्यस्तद्विवक्षाप्रतिपादनसमर्थः शब्दः। ............प्रत्ययात्मेति बुद्धिस्वरूपम् । बाह्येष्विति बुद्धिरेवोपदर्शिताभिधेयाकारा तेषु प्रत्यस्तेत्युच्यते । बाह्यत्वेन ग्रहण न तु बाह्य वस्त्वस्तीति । सति बाह्येऽर्थे तनिबन्धना विवक्षा पूर्वत्र तत्त्वमित्युक्ता, सम्प्रति बुद्धिरेवेति विशेषः।" इति। वृषभदेवरचितायां टीकायाम् ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे - यदप्युच्येत-लिङ्गादिविचारखेदोऽयमकस्मात् क्रियते त्वया । अभिजल्पो हि शब्दार्थः । स च शब्द एव । सोऽयमित्यभिसम्बन्धाद् रूपमेकीकृतं यदा। शब्दस्यार्थेन तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते ॥ । दर्शयति-यथाह-वाग्-दिग्-भू-रश्मीत्यादि श्लोकोऽयमाचार्येणैव व्याख्यातः यावद् दृष्ट्या वेति ग्रन्थे नैव । एवं निरवशेषव्याख्येयविषयव्यापिता व्याख्यायाः प्रदर्शिता । अत एव चेत्यादि । व्याकरणं हि ३८७२ लक्ष्याधिगतये लक्षणं 'कथं नाम शब्दादर्थे ज्ञानमविपरीतं स्यात्' इति । तस्माद् व्याकरणाध्ययने यत्न आस्थेयः । उक्तं हीत्यादि श्लोकद्वयं व्याकरणस्तवनार्थ निदर्शयति । 'वागादिषु गोशब्द एकोऽनेकार्थः, 10 एकस्मिन् पृथुबुनादिलक्षणेऽर्थे घट-कुट-कुम्भादिशब्दोऽनेकः प्रवृत्तः' इत्येवमादेः प्रकाश्यस्यार्थस्य प्रकाशकं व्याकरणं स्थावर-जङ्गमानामिव प्रकाश्यानां सूर्यः । तथा न व्याकरणमन्तरेण वाच्यस्य सूक्ष्मस्य ज्ञानं वाचकस्य च शब्दस्य, यः शब्दः शब्दकर्मको वाचमेव ब्रूते हसतिजल्पत्यादिस्तद्विषयं च ज्ञानं न सम्भवति । तच्च सर्व व्याकरणज्ञो वेद । तथा अर्थप्रवृत्तितत्त्वानामित्यादि । अर्था अभिधेयाः, प्रवृत्तयः क्रियाः पुरुषहितहेतवोऽहितहेतवो वा, तेषामुभयेषां तत्त्वानि खान्यविपरीतानि रूपाणि शब्दैरेव ज्ञायन्ते । 15 शब्दानां पुनस्तत्त्वं व्याकरणाहते न ज्ञायते । अथवार्थस्य प्रवृत्तितत्त्वानि यथास्वमेकैकस्यानन्तधर्मात्मविपरिणामाः, तानि शब्दैर्जायन्ते, शब्दा व्याकरणेनेति । अथवा अर्थी धर्मार्थकाममोक्षार, तद्धेतवः प्रवृत्तयः, तासां तत्त्वानि यथाखं साध्यसाधनभावाः । इत्यादिव्याख्याविशेषेषु तद्विषयसम्यग्ज्ञानस्य शब्दाः कारणानि, शब्दज्ञानस्य तु व्याकरणमिति ।. यदप्युच्येतेत्यादि । 'स्त्रीपुंनपुंसकव्यक्तीनां विरुद्धानां पुष्यनक्षत्रतारार्थानामयुक्तमैकाधिकरण्यम् , १“शब्दो वाऽप्यभिजल्पत्वमागतो याति वाच्यताम् । [वाक्यप० २।१२८ ], अभिजल्पत्वमध्यासरूपत्वमागतः शब्द एव स्वरूपलक्षणः शब्दस्य वाच्यः । अभिजल्पस्वरूपमाह-सोऽयमित्यभिसम्बन्धाद्रपमेकीकृतं यदा। शब्दस्यार्थेन तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते ॥ [वाक्यप० २।१२९], सोऽयमित्यभिसम्बन्धोऽध्यासाख्य उच्यते, तेन पदार्थस्वरूपमाच्छादितमेकीकृतमिव प्रत्याय्यते तदाऽभिजल्पः शब्द उच्यते, अध्यासवशाच्छब्दार्थयोरेकात्मत्वेऽप्यर्थांशस्यैव प्राधान्यमुपयोगवशात् । तयोरपृथगात्मत्वे रूढेरव्यभिचारिणि । किश्चिदेव क्वचिद्रूपं प्राधान्येनावतिष्ठते ॥ [वाक्यप० २।१३० ], तयोः शब्दार्थयोरध्यासवशाद् रूढेनियमादेवाव्यभिचारिणि अपृथगर्थत्वे एकरूपत्वे सति किञ्चिदेव रूपं योगवशात् क्वचिदेव लोके शास्त्रे वा प्राधान्येन उद्रिक्ततयाऽवतिष्ठते । तत्र लोकेऽर्थांशस्यैव प्राधान्यमित्यपि दर्शयितुमाहलोकेऽर्थरूपतां शब्दः प्रतिपन्नः प्रवर्तते । अर्थरूपतां प्रतिपन्नोऽर्थेन सहैकत्वमिव प्राप्तः शब्दः प्रवर्तते 'अयं गौरित्यादि। तत्रार्थ एव बाह्यतया प्रधानमवसीयते । शास्त्रे तु शब्दस्योभयरूपतापि विभागेन परिदृश्यत इत्याह-शास्त्रे तभयरूपत्वं प्रविभक्तं विवक्षया ॥ [ वाक्यप० २।१३१], शास्त्रे हि स्वरूपप्रधानो निर्देशः क्वचिच्चार्थप्रधानोऽपीत्युभयरूपता शब्दस्य दृश्यते।" इति पुण्यराजविरचितायां वाक्यपदीयवृत्तौ । “अन्ये तु ब्रुवते 'शब्द एवाभिजल्पत्वमागतः शब्दार्थः' इति । स चाभिजल्पः 'शब्द एवार्थः' इत्येवं शब्देऽर्थस्य निवेशनम् 'सोऽयम्' इत्यभिसम्बन्धः, तस्माद् यदा शब्दस्यार्थेन सहकीकृतं रूपं भवति तं स्वीकृताकारं शब्दमभिजल्पमित्याहुः ।"-सन्मतिवृत्तिः १२, पृ० १८०-१८१ । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका पृ० २८४-२८५॥ २ दृश्यतां ५२४ टि. १ । “स्वर्गेषुपशुवाग्वजदिक्रेत्रघृणिभूजले । लक्ष्यदृष्टया स्त्रियां पुंसि गौर्लिङ्गं. चिह्नशेफसोः ॥ ३।३।२५॥” इति अमरकोशे ॥ ३ यावद्दष्टया भा० । यावद्दष्या य०॥ ४ पवेत्यादि य०॥ ५ खानि अविपरीतानि रूपाणीत्यर्थः ॥ ६ ( यदप्युच्यत इत्यादि ?)॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wamianmmm भर्तृहरि-वसुरातमतोपन्यासः] द्वादशारं नयचक्रम् । तयोरपृथगात्मत्वे रूढेरव्यभिचारिणि । किञ्चिदेव क्वचिद् रूपं प्राधान्येनावतिष्ठते ॥ लोकेऽर्थरूपतां शब्दः प्रतिपन्नः प्रवर्तते । शास्त्रे तूभयरूपत्वं प्रविभक्तं विवक्षया ॥ [वाक्यप० २।१२९, १३०, १३१] दर्शनोत्प्रेक्षाभ्यामर्थमुपगृह्य तत्र न्यग्भूतखशक्तिः बुद्धौ परिप्लवमान आन्तरो । विज्ञानलक्षणः शब्दात्मा श्रुत्यन्तरप्रवृत्तिहेतुरभिजल्प इति भर्तृहर्यादिमतम् । वसुरातस्य भर्तृहयुपाध्यायस्य मतं तु स च स्वरूपानुगतमर्थमन्तरविभागेन संनिवेशयतिmm 'पुनर्वसू नक्षत्रम्' इत्यादिसंख्याविरोधाद्ययुक्तेर्विज्ञानमपि तद्विषयमयुक्तम्' इत्यादिवचनखेदोऽयमकस्मात् क्रियते त्वया । किं कारणम् ? अभिजल्पो हि शब्दार्थः, हिशब्दो यस्मादर्थे, शब्दार्थस्याभिजल्पत्वाद् 10 न लिङ्गादिविचारखेदेनार्थः, असद्विषयत्वात् , खपुष्पविषयविचारखेदवत् । स्यान्मतम्-कोऽसाव भिजल्प २८० इति, अत्रोच्यते स च शब्द एव, स चाभिजल्पः शब्द एव । कथमिति चेत्, उच्यते-सोऽयमित्यभिसम्बन्धादिति श्लोकः । 'योऽर्थः सोऽयं शब्दो घटः' इत्यभेदोपचारसम्बन्धाद् यदा शब्दस्य रूपमथेनैकीकृतं भवति तैदा यथा 'इन्द्रकः, चन्द्रकः' इतीन्द्रचन्द्राद्यप्रत्यक्षार्थानभिज्ञोऽपि इन्द्र-चन्द्रशब्दरूपापन्नं गोपालादिमर्थ प्रत्याययम् दृश्यते 'सोऽर्थेन एकीभूत: 15 शब्द एव. 'अभिजल्पः' इत्युच्यते । एवं शब्दार्थयोः क्षीरोदकवदपृथगात्मत्वम् । तयोरपृथगात्मत्वे सत्य[व्य]भिचारिणि अन्योन्याविनाभावित्वेऽपि रूढिवशादेव किश्चिद् रूपं प्राधान्येनावतिष्ठते शब्दरूपमर्थरूपं वा यथा लौकिका अर्थप्रधानाः शाब्दाः शब्दप्रधाना इति, तमर्थं प्रविभागेन दर्शयति-संव्यवहारकाले [लोके]ऽर्थरूपतामिति श्लोको गतार्थः । 'अग्निमानय' इत्युक्ते लोके दहनादिलक्षणेऽर्थे सम्प्रत्ययः, न शब्दे । शास्त्रे तु स्त्रीभ्यो ढंक [ पा० ४।१।१२०] इति स्त्रीवाचकेषु सार्थेषु शब्देषु, भुजो कौटिल्ये 20 [पा० धा० १४१८] इत्येवमादिषु अर्थेष्वेव सम्प्रत्ययः । तद्व्याख्या-दर्शनोत्प्रेक्षाभ्यामित्यादि । प्रधानादिदर्शनेन पुरुषस्य उत्प्रेक्षया वार्थमभिधेयत्वेन उपगृह्य पूर्वोक्तचन्द्रादिवत् साकारं तत्र न्यग्भूतस्वशक्तिः अस्वतश्रीकृताभिधानसामर्थ्यः बुद्धौ परिप्लवमानः 'अयमित्थमनेन शब्देनोच्यत' इत्यान्तरो विज्ञान-३८८-२ लक्षणः शब्दात्मा श्रुत्यन्तरस्य बाह्यस्य ध्वन्यात्मकस्य प्रवृत्तौ हेतुः उत्थापकः सोऽभिजल्पा(ल्पोऽ)भिधेयाकारपरिग्राही बाह्याच्छब्दादन्य इति भर्तृहर्यादिमतम् । वसुरातस्य भर्तृहर्युपाध्यायस्य मतं तु 25 स च स्वरूपानुगतमित्यादि, स च अभिजल्पः स्वरूपानुगतमर्थरूपमन्तरविभागेन सन्निवेशयतीति । १“अपि चायमभिजल्पोऽपि बुद्धिस्थ एव । तथाहि-बाह्ययोः शब्दार्थयोर्भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वादिभ्यो भेदस्य सिद्धेस्तयोरैक्यापादनं परमार्थतोऽयुक्तमेवेति बुद्धिस्थयोरेव शब्दार्थयोरेकबुद्धिगतत्वादेकीकरणं युक्तम् । तथाहि-उपगृहीताभिधेयाकारतिरोभूतशब्दखभावो बुद्धौ विपरिवर्तमानः शब्दात्मा स्वरूपानुगतमर्थमविभागेनान्तःसंनिवेशयन् अभिजल्प उच्यते । स च बुद्धरात्मगत एवाकारो युक्तो न बाह्यः तस्यैकान्तेन परस्परं विविक्तखभावत्वात् ।"-सन्मतिवृत्ति १।२, पृ. १८४ । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका पृ० २८८ । २°धाययुक्त य०॥ ३ तथा प्र०॥ ४ इन्द्रत्वंचन्द्र भा० ॥ ५सोऽर्थो न प्र०॥६टक प्र.। "स्त्रीभ्यो ढक् । ४।१।१२० । स्त्रीग्रहणेन टाबादिप्रत्ययान्ताः शब्दा गृह्यन्ते । स्त्रीभ्योऽपत्ये ढक् प्रत्ययो भवति । सौपर्णेयः । वैनतेयः ।"-पा० काशिका॥ ७ दृश्यतां पृ० ३९६-१॥ ८ दृश्यतां पृ०. ३९६-१,२॥ ९ गतेपित्यादि य० । गतेपीत्यादि भा०॥ १० दृश्यतां पृ० ३९७-१॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं अशक्तेः सर्वशक्तेर्वा शब्दैरेव प्रकल्पिता । एकस्यार्थस्य नियता क्रियादिपरिकल्पना ॥ [ वाक्यप० २।१३२ ] 25 इहैकमेवार्थवस्तु एकस्यामवस्थायामेकस्मिन् काले युगपत् पर्यायेण वोच्यते विरुद्वैधर्मैः : । तद्यथा - ओदनं पचति, पाकमोदनस्य निर्वर्तयति, निर्वृत्तिं पाकस्य करोति । तत्र यदि [ कर्मत्वं कथं शेषरूपत्वमोदनस्य ] शेषरूपत्वं च पाकस्य । तस्मादविद्यमाना वा शक्तयो[ऽस्यार्थस्य शब्देन विवक्षावशात् ] समध्यारोप्यन्ते । सर्वशक्तियोगे वा [ नियतास्ताः शब्दः ] प्रकाशयति । तत्राशक्तिपक्षे वस्तुगता शक्तिरप्रयोजिका । न हि तस्या वस्तुविषयाभ्यां सन्निधानासन्न - धानाभ्यां किञ्चिदपि प्रयोजनमस्ति । योग्यशब्दनिबन्धना हि विवक्षा श्रोतृबुद्धौ 10 सत्यपि बाह्येऽर्थे तन्निरपेक्षं स्वातत्र्यमभिजल्पस्य प्रदर्शयितुमाह-अशक्तेः सर्वशक्तेर्वेत्यादि । या एता गति-स्थिति-जल्पि-चिन्त्यादिधातुवाच्याः क्रिया बाह्यार्थशक्त्यभिमताः तद्वान् वासौ बाह्योऽर्थोऽस्तु अशक्तिरेव वा द्वयोरपि शक्तिमदशक्तिपक्षयोस्ताः क्रियादिशक्तयो नियता एव 'जल्पनादि मनुष्यादीनामेव, सर्पणवाद्याः सर्पशकुनादीनामेव' इति, सर्वा एव तु एकस्य क[स्य ] चिदर्थस्य अनेकाः शब्दैरेव प्रकल्पिताः शब्दशक्त्युत्थापिता इत्यर्थः । [ अष्टम उभयनियमारे 15 एतमेवार्थं भाष्येण विवृणोति - इहैकमेवार्थवस्तु इत्यादि । वस्तुत एक ओदन एकस्यां पचनास्थायामेकस्मिन् मुहूर्तादौ काले बहुभिर्वत्तृभिर्युगपदेकेन वा पर्यायेण वक्त्रोच्यते विरुद्धैर्धर्मैः । तद्यथेति निदर्शयति, ‘ओदनम्' इति देवदत्तादिकर्तृसमारूढक्रियं कर्म, 'पाकमोदनस्य' इति षष्ठ्या सम्बन्धमात्रं पाककर्मत्वम्, 'निर्वृत्तिं पाकस्य' इति च पाकसम्बन्धित्वमिति । ३८९-१ तत्र यदीत्यादिना भावयति यावत् पाकस्येति । बाह्येऽर्थे विरुद्धधर्मसम्बन्धाभावाद् युगपदेककाले 20 न घटते एवम् । नापि क्रमेण प्रयोगे, वस्तुन एकत्वात् पाकसमवायिन ओदनाख्यस्य पाकावस्थायाः कालस्य च । तस्मादित्यादि पारिशेष्यात् अविद्यमाना वेत्यादिना प्रथमविकल्पे दर्शयति शब्दस्यैव शक्तिं यावत् समध्यारोप्यन्त इति । सर्वशक्तियोगे वेत्यादि द्वितीयविकल्पेऽपि शब्दशक्तिमेव दर्शयति यावत् प्रकाशयतीति । तत्राशक्तिपक्षे वस्तुगता शक्तिः 'नास्त्येव' इत्यभ्युपगतत्वादप्रयोजिका शब्दप्रयोगस्य, खपुष्पवदसत्त्वात् । नै हि तस्या इत्यादि भावना गतार्था यावत् किञ्चिदपि प्रयोजनमस्ति प्रयोजने १ " इदानीमर्थेषु न शक्ति: पृथगस्ति, किन्तु शब्दाधीनेति यथा ते शब्दैर्विधीयन्ते तथैवावगम्यन्त इति स्वमाहात्म्योप स्थापित एव शब्दार्थ इत्यष्टमं पक्ष दर्शयितुमाह- अशक्तेः सर्वशक्तेर्वा शब्दैरेव प्रकल्पिता । एकस्यार्थस्य नियता क्रियादिपरिकल्पना ॥ [ वाक्यप० २।१३२], अथवा सर्वशक्तिरर्थो व्यवस्थितः, तस्य प्रतिनियतशक्त्यभिधानं शब्देनेति नवमं पक्ष दर्शयितुमत्रैवोक्तम् - सर्वशक्तेर्वा इति । शक्त्यार्थः कदाचित् क्रियारूपतयाभिधीयते, कदाचित् सिद्धरूपतयेति नियता क्रियादिरूपता शब्दार्थतया प्रतिपाद्यते ।” इति पुण्यराजकृतायां वाक्यपदीयवृत्तौ ॥ २ च्येत प्र० ॥ ३ न हि तस्येत्यादि भा० । न हि स्येत्यादि य० । दृश्यतां पृ० ५८५ ॥ 3 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ भर्तृहरिमत निरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । तां तां शक्तिमध्यारोपयति । सर्वशक्तिपक्षे तु व्यवस्थितामव्यतिकीर्णी तां तां शक्तिमुपादाय स्वविषयनियताः शब्दाः प्रयुज्यन्ते । तस्मादुभयोरपि. सम्भवति। - इदमप्यस्मदभिप्रायप्रसाधनफलम् । योग्यशब्दनिवन्धना [हि विवक्षा श्रोतबुद्धौ तां तां शक्तिम् ] अध्यारोपयति । तत्र वस्तु तावदनेनैव त्वद्वचनेन शब्दा-5 दन्यत् सिद्धम् । तदिदंसम्बन्धात्मकशब्दार्थयोर्भदाद् यत्रासौ प्रयुज्यते शब्दो वक्तुमिष्यते च शक्तिश्च यत्राध्यारोप्यते तद् वस्तु सर्वस्यास्याधारभूतम् । योग्योऽनुरूपः शब्दः । तस्मादर्थात् सिद्धात् पश्चाद् भवति शब्दः। यथार्थरूपं तथा हि स योग्यः शब्दस्तस्यार्थस्य वाचकः। अर्थनिबन्धना हि विवक्षा, इतरथा वचनस्य सति प्रयोगः स्यात् । तस्यामसत्यामपि बाह्यार्थशक्तौ मत्पक्षे सम्भवत्येव शब्दप्रयोगः, यस्माद् योग्यशब्द-10 निबन्धनेत्यादि गतार्थ यावच्छक्तिमध्यारोपयति । सर्वशक्तिपक्षे तु मम विशेषेण व्यवस्थितां कुतश्चिदनादेयामव्यतिकीर्णामनन्यशब्दवाच्यामित्यादि यावत् प्रयुज्यन्ते प्रयोगसाफल्यमस्तीति । तन्निगमयतितस्मादुभयोरपीत्यादि यावत् सम्भवतीति पूर्वपक्षः । अत्र वयं ब्रूमः-इदमप्यस्मदभिप्रायप्रसाधनफलम् , 'सामान्योपसर्जना विशेषा एव भवन्ति' इत्येतमेव साधयति, एतदस्य त्वद्वचनस्य फलं भविष्यति । तद् भावयितुकामो योग्यशब्देत्यादि प्रत्युच्चार-15 यति यावदध्यारोपयतीति अशक्तिपक्षे शब्दशक्तिप्रदर्शनोपसंहारोऽन्त्यः, तत्फलत्वाच्छेषग्रन्थस्य । तत्र वस्तु तावदित्यादि । अनेनैव तावत् त्वद्वचनेन शब्दादन्यद् वस्तु शक्त्याख्यं शक्तिमद्वा सिद्धम् । तत् पुनर्वस्तु कीदृशमिति चेत्, दर्शयति-तदिदंसम्बन्धात्मकेत्यादि, 'सोऽयमित्यभिसम्बन्धात्' इत्येतस्मादेव ३८०.२ वचनात् तच्छब्दवाच्यं वस्तु इदंशब्दवाच्याच्छब्दादन्यत् अर्थाद्वा तच्छब्दवाच्यादिदंशब्दवाच्यः शब्दोऽन्यः, आधाराधेययोर्भेदात् तदिदंसम्बन्धात्मकशब्दार्थयोः । यत्रासौ प्रयुज्यते शब्दः वक्तुमिष्यते20 चै यद्विषया बुद्धिरुत्पादयितुमिष्टेत्यर्थः शक्तिश्च यत्राध्यारोप्यते तद् वस्तु सर्वस्यास्य शब्दशक्तिबुद्धि-विवक्षाख्यस्यार्थकलापस्याधारभूतम् , आधेयानामाधारप्राणतः सिद्धेः । 'योग्य'शब्दाच्च बाह्यार्थसिद्धिः, योग्योऽनुरूपः शब्दः, केनचिदर्थेन कश्चित् तदनुरूप एव शब्दो युज्यते पृथुबुध्नाद्यर्थेन घटशब्दः । तस्माद् घटाख्यादर्थात् सिद्धात् पश्चाद् भवति शब्दः, 'अनु'शब्दस्य पश्चादर्थत्वात् सिद्धेऽर्थे पश्चाच्छब्देनार्थस्य योगोऽनुरूपः । यथार्थरूपादि(पमि?)त्यादि, अथवा अनुरूपो योग्यः, 35 यथार्थोऽनुशब्दः, यथारूपं यद् यद् रूपं यथारूपमनुरूपं यथा युज्यते तथेत्यर्थः । कथं च युज्यत इत्यत आह-तथा हि स इत्यादि, तेन हि प्रकारेणासौ योगमर्हति योग्यः शब्दः 'तैमर्थं प्रत्याययिष्यामीति प्रयोगदर्शनात् तस्यार्थस्य वाचकत्वोपेत इत्यर्थः, यो ह्यर्थस्यावाचकः स नानुरूपो न योग्य इत्युक्तं भवति त्वयैव । यस्मादर्थनिबन्धना विवक्षा, हिशब्दहेत्वर्थत्वात् । इतरथेति अर्थप्रत्यायनादृते वचनस्य १ दृश्यतां पृ० ५८५ ॥ २ दृश्यतां पृ. ५८६ ॥ ३°प्रायसाधन य० ॥ ४ दृश्यतां पृ. ५८० पं० ३ ॥ ५चा भा० । चः य० । (वा)॥ ६ योग्यानु प्र.॥ ७ योगानुरूपः प्र०॥ ८"अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः । अर्थ संप्रत्याययिष्यामीति शब्दः प्रयुज्यते"-पा०म०भा० २।१।१॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे प्रवृत्त्यसम्भवात् । न हि शब्दोऽनामृष्टप्रत्याय्यप्रत्यायकभावो वक्तुमिष्यते । न च विवक्षामात्रेण शब्दः श्रोतृबुद्धौ तां तां शक्तिमाधातुं शक्नोति । एवं चानेन त्वद्वचनेनैव विशेषलक्षणाः शक्तयः परिगृहीता एव त्वया । अस्मन्मतवदेव च विशेषखरूपप्रवृत्त्या विना न कश्चिच्छक्तिमानन्यः। विशेषा एव शक्तयः स्वार्थसत्यः। 5 तासां च तेषु तेषु विवक्षैव व्यञ्जिका । विवक्षैव तां तां शक्तिमध्यारोपयति प्रागात्मनि पश्चात् प्रयोगाच्छ्रोतृबुद्धौ । शब्दनिरपेक्षैव विवक्षाध्यारोप्या शक्तिरर्थे, प्रवृत्त्यसम्भवात् । न हि शब्द इत्यादि, शब्दो हि समीक्षितप्रत्याय्यप्रत्यायकसम्बन्धो वक्तुमिष्यते, ३९०-१ न ह्यनामृष्टप्रत्याय्यप्रत्यायकभावः। विवक्षायाश्चार्थमन्तरेणासम्भवात् न च विवक्षामात्रेणेत्यादि, च - शब्दो 'विवक्षितेऽनुरूपेऽर्थे प्रयुक्तः श्रोतृबुद्धौ तां तां शक्तिमाधातुं शक्नोति, नान्यथा, शब्दस्यार्थस्य 10 शब्दार्थस्य च शक्तिः शकनात् , शक्नोति वक्तुं शब्दः शक्यते वक्तुमर्थ इति । ऐवं चानेनेत्यादि । सोऽयमित्यभिसम्बन्धात् [वाक्यप० २ । १२९] इत्यादिप्रक्रमम् अशक्तेः सर्वशक्तेर्वा [ वाक्यप० २।१३२] इति विकल्प्य त्वदीयमेव वचनं पलायमानस्यापि ते बाह्यवस्तुसद्भावमनतिक्रमणीयं प्रतिपादयति बलात् तदनिच्छतोऽपि धरणिसखिमेगालिकापलायनवत् । अतः स्त्रीपुंनपुंसकैकद्विबहुत्वका दिविशेषलक्षणाः शक्तयः परिगृहीता एव त्वयेति । 15 इतश्च अस्मन्मतवदेव चेत्यादि । त्वद्वचनादेव 'अस्यार्थस्याविद्यमानाः शक्तयोऽध्यारोप्यन्ते' इति विकल्पोत्थापनादसम्भवं शक्तिमतोऽन्यस्य वयमपि ब्रूमः । या सा विशेषाणां स्वरूपप्रवृत्तिस्तया विना न कश्चिच्छक्तिमान् नामान्यः, किन्तु विशेषा एव विशेषेणास्मदभीष्टाः 'शक्तयः' इति यद्युच्यन्ते त्वया उच्यताम् , को वारयति ? ताश्च स्वार्थसत्यः स्वेन रूपेण सन्ति शक्तयो विशेषरूपेण स्त्री-पुं-नपुंसकादिभावेन शक्त्यन्तरव्यावृत्तरूपा विशेषा एव वर्तमानाः सन्तीत्यर्थः । तासां च शक्तीनां तेषु तेषु प्रवृत्तिवस्तुषु 20 स्त्रीत्वादिषु विवक्षैव व्यञ्जिका, विवक्षया व्यज्यन्ते प्रकाश्यन्ते सत्य एव शब्दप्रयोगेण, सैव हि विवक्षा 'तटस्तटी तटम्' इत्यादीन सतो विशेषानभिव्यनक्तीत्यर्थः । का विवक्षा ? वक्तुमिच्छा, सैव तां तां शक्ति३९०-२मर्थगतां शब्दमनपेक्ष्य सिद्धामध्यारोपयति प्रागात्मनि वक्तरि, पश्चात् प्रयोगाच्छ्रोतृबुद्धौ, नौसतीम् , . वक्त्रभिप्रायगहणार्थप्रयतनात् 'पुमानयमनेन विवक्षितः, स्त्री इयम् , नेतरे' इत्याद्यनन्यबुद्धिव्यवस्थापनेन । अत्र प्रयोगः-शब्दनिरपेक्षैव विवक्षाध्यारोप्या शक्तिरर्थ इति प्रतिज्ञा । प्रत्याय्यत्वात् , 26 प्रत्यायकेन वक्त्रा श्रोतरि प्रत्ययाधानं प्रत्याय्यत्वं शक्त्याख्यस्यार्थस्य सिद्धमेव । यः प्रत्याय्यः स शब्दनिरपेक्ष १मन्तरेण सम्भवात् य०॥ २ विवक्षितो प्र० । ( विवक्षातो ? )॥ ३ तातां य० । तासां भा० ॥ ४ शब्दस्यार्थशब्दस्यार्थस्य शब्दार्थस्य च भा० । शब्दार्थस्य च य० ॥ ५एवं चनेने प्र० । ( एवं च तेने ?) ॥ ६ दृश्यतां पृ. ५८० पं. ३॥ ७ दृश्यतां पृ. ५८२ पं० १॥ ८ त्वदीयमेव चनं प्र०॥ ९(सृगालिका ?)॥ १० दृश्यतां पृ. ५८२ पं० ६ ॥ ११ इत्यादीनसतो प्र०॥ १२ गत य० ॥ १३ नासंती य० ॥ १४व्यवस्थानेन य० ॥ १५ दृश्यतां पृ. ३९४-२॥ - - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्तृहरिमतनिरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् । ५८५ प्रत्याय्यत्वात्, अभिजल्पार्थावयववत्, प्रयोजकत्वाच्चास्याः शक्तेरेव विवक्षाबीजत्वात् । सर्वशक्तिपक्षेऽपि चास्मन्मतमेवोच्यते त्वया, अर्थार्थत्वाच्छन्दप्रयोगस्य व्यवस्थितामव्यतिकीर्णां तां तां शक्तिमुपादाय स्वविषयनियताः शब्दाः प्रयुज्यन्ते लिङ्गादिभिन्नसामानाधिकरण्यक्रियायां व्यतिकरापत्तेः । परमार्थतस्तु वादपरमेश्वर - 5 वाद एवायम्, एकैकद्रव्यानन्तपर्यायत्वात् । यत्तु विषयोद्वा विरुद्वैर्धर्मयुक्तमित्यभिधीयते एतन्नातिसम्यक्प्रत्यपेक्षित एव सिद्धः । अभिजल्पार्थावयववत्, यथा त्वत्प्रयुक्तस्याभिजल्पशब्दस्याभिधेयोऽर्थः समुदायः 'आभिमुख्येन जल्पोऽभिजल्पः' तदिदंसम्बन्धात्मक एकीभावस्त्वया शब्दार्थयोर्व्युत्पादितः, स च प्रत्याय्योऽवयवार्थाभ्याम् ‘अभि’शब्दार्थेन जल्पार्थेन च, 'आभिमुख्येन जल्पोऽभिजल्प:' इति समुदायार्थप्रतिपत्तेर - 10 वयवार्थप्रतिपत्तिपूर्वकत्वात् । मा भूद् विवक्षा प्रयोगयोस्त्वदीययोरानर्थक्यमिति तावभ्युपगन्तव्यौ खपुष्पवैलक्षण्येन शब्दनिरपेक्षौ शक्त्याख्यौ त्वया प्रत्याय्यत्वात् तथा शक्त्याख्योऽर्थः इतरथा अभिजल्पशब्दवैयर्थ्यं स्यादिति । किञ्चान्यत्, प्रयोजकत्वाच्चास्या इत्यादि । यदुक्तं त्वया तंत्राशक्तिपक्षे वस्तुगता शक्तिरप्रयोजिका, न हि तस्या वस्तुविषयाभ्यां सन्निधानासन्निधानाभ्यां किञ्चिदपि प्रयोजनमस्ति इति, तदिदमितोमुखं युक्तिजातं विपरिवर्तते, शक्तेरेव विवक्षाबीजत्वात् प्रयोजकत्वाच्च । एवं तावदशक्ति - 15 पक्षोऽस्मन्मतसिद्धेस्त्वद्वचनादेव नास्ति । '३९१-१ सर्वशक्तिपक्षेऽपि चास्मन्मतमेवोच्यते त्वया, कस्मात् ? अर्थार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य 'व्यवस्थिताम्' इत्यादिना तद्यथा-व्यवस्थितां शब्देनानानेयामव्यतिकीर्णामनन्यशब्दवाच्यां तां तां शक्ति स्त्रीपुंनपुंसकादिकां शक्तयन्तरव्यावृत्त्या विवक्षितां विशिष्टामेव उपादाय स्वविषयनियताः शब्दाः प्रयुज्यन्तेऽभिन्नलिङ्गसङ्ख्यादिविशिष्टैकशक्तिविषयनियताः । किं कारणम् ? लिङ्गादिभिन्न सामानाधिकरण्य- 20 क्रियायां व्यतिकरापत्तेः, उक्तं प्राक् - तारा-पुष्य नक्षत्राणां स्त्री-पुं-नपुंसकानां व्यतिकरेण प्रयोगोऽपशब्दः [ ] इति । अयं च सर्वशक्तिपक्षः । परमार्थतस्तु वादपरमेश्वरवाद एवायम् । कस्मात् ? एकैकद्रव्यानन्तपर्यायत्वादस्मन्मतमेव, अहं हि त्वयैव सह विरुध्ये न वादपरमेश्वरेण । तेन च सह को विरोधः ? तस्य हि मतम् - एकैकं द्रव्यमनन्तपर्यायम्, सापेक्षनिरपेक्षाञ्च परिणामाः पर्यायाः शक्य इत्युच्यन्ते, द्रव्याणि चान्योन्यानुगतशक्तित्वात् सर्वशक्तीनि । यथाह अण्णोष्णाणुगताणं इमं वं तं वत्ति विहयणमयुत्तं । जघ दुद्ध-पाणियाणं जावंति (त) विसेसपजाया ॥ [ सम्मति० १।४७ ] यत्तु " विषयोद्राह इत्यादि । अशक्तेः सर्वशक्तेर्वा [ वाक्यप० २।१३२] इत्येतस्याः कारिकाया विषयः शब्दोत्थापिताः क्रियादिपरिकल्पना इति, एतस्यार्थस्य निदर्शनार्थमुद्राह्यते - विरुद्धैर्धर्मैर्युक्तमित्यभिधीयत १ तौ अवयवार्थी ॥ २ दृश्यतां पृ० ५८२ पं० ७ ॥ ३ दृश्यतां पृ० ५८३ पं० १ ॥ ४ शक्तयन्तरा प्र० । ( शक्तयन्तराद् ? ) ॥ ५ सापेक्षाश्च भा० ॥ ६ अण्णाण्णा भा० ॥ ७ च प्र० ॥ ८ युक्तं प्र० ॥ ९ 'यायं य० । याय भा० ॥ १० ( विषयोद्धा हे ? विषयोग |हम् ? ) ॥ नय० ७४ 25 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे स्वार्थम्, सर्वस्यास्याविरुद्वैकार्थत्वात् । ननु सर्व एव [ अविरुद्धोऽर्थः ] यदेव 'ओदनं पचति' इति कर्म तदेव 'पाक ओदनस्य' इति षष्ठ्योच्यते । पाकशब्देन च भावः कृतोच्यते, 'पचति' इति तिङा कर्त्रर्थः, कृदभिहित भावद्रव्यवत्त्वात् कर्तुः साध्यत्वात् । यदा चौदनः प्रतीतो भवति तद्विषयक्रियासन्देहे 'किं करोति' इति प्रश्ने 6 ओदनस्याव्याख्येयत्वादस्यैव पचेर्विधानं 'पचति' इति । तस्यैव पचतेरपूर्वस्य व्याख्याने 'पाकं करोति' इति पचिना प्रतिवचनात् कर्मत्वम् उक्तवत् । 'पाकस्य निर्वृत्तिं करोति' इति कर्तृप्रत्ययार्थं व्याचष्टे । स्थाल्याद्यपि पचने वर्तते । इत्ये 10 इत्यादिः स एव ग्रन्थः प्रत्युच्चार्यः - ई हैकमेवार्थवस्तु इत्यादि यावच्छेषरूपत्वं च पाकस्य इत्युदाहृत्य तस्मादविद्यमाना वा शक्तय इत्यादिना भावयित्वा तदुपसंहारेऽभिहितम् - तस्मादुभयोरपि पक्षयोरित्यादि ३९१-२ यावत् सम्भवतीति । इत्थं प्रत्युच्चार्योत्तरमाहाचार्यः - एतन्नातिसम्यक्प्रत्यपेक्षितस्वार्थम्, कस्मात् ? सर्वस्यास्य उदाहृतस्यार्थस्याविरुद्धैकार्थत्वात् । तद् भावयति - ननु सर्व एवेत्यादि । यदेव 'ओदनं पचति' इति पचिविषयं कर्मोदनाख्यं तदेव 'पाक ओदनस्य' इत्यनया षष्ठयोच्यते, अनभिहिते कर्मणि द्वितीया [ पा० २|३|१-२] एकत्र, एकत्र च कर्तृकर्मणोः कृति षष्ठी [पा० २।३।६५ ] इति षष्ठया तदेव कर्मोच्यते । पाकशब्देन च भावः पच्यर्थः कृता घना उच्यते, 'पचति' इति तिङा कर्त्रर्थः, स एव 'पार्क 61 निर्वर्तयति' इति निदर्श्यते वर्ण्यते नै तिङेति । किं कारणम् ? कृदभिहितभावद्द्रव्यवत्त्वात्, उक्तं हि— कृदभिहितो भावो द्रव्यवद् भवति [ ० म० भा० ३।१।६७ ] इति पाकं करोति इति द्रव्यवत् कर्मणि द्वितीया, ‘निर्वर्तयति' इति च करोतीत्यर्थः । कुतः ? कर्तुः साध्यत्वात्, विलित्तिस्तन्दुलानां पाकः, तद्विषयः कर्ता साध्यते ' विलित्तिनिर्वृत्तिं करोति देवदत्तः, विक्लेदयति, पचति, पाकं निर्वर्तयति' इत्येकार्थत्वात् पचिक्रियाव्यापृतत्वेन साध्यते देवदत्त इत्यर्थः । यदा चौदनः प्रतीतो भवति तद्विषयभुजिपच्यादि20 क्रियासन्देहे ‘किं करोति' इति प्रश्ने ओदनस्य प्रसिद्धस्यानूद्यमानस्याव्याख्येयत्वादस्यैव पचेर्भुज्यादिव्यतिरेकेण विधानं 'पचति' इति, तस्यैव पंचतेरपूर्वस्य व्याख्याने 'किं करोति' इति पृष्टे 'पाकं करोति' इति चिना प्रतिवचनात् कर्मत्वम् उक्तवदिति अनभिहिते कर्मणि द्वितीया कृदभिहितभावद्रव्यवत्त्वादिति । 'पाकस्य निर्वृत्तिं करोति' इति कर्तृप्रत्ययार्थं व्याचष्टे, 'करोति' इति देवदत्तस्य व्यापारं विशिष्टं ३९२-१ स्थाल्यादिव्यापारेभ्यः संम्भवनधारणादीनां प्रकरणात् तत्प्रयोजकत्वात् स्थाल्याद्यपि पचने वर्तते 25 इत्यादिना सामान्यकारकत्वं देवदत्ताधीनस्य विशिष्टस्य कारकान्तरप्रवर्तनाभावं च दर्शयति । इत्येवमादिभिरन्यान्यव्याख्यानप्रयोगैरेक एवार्थो व्याख्यायते, यथा 'वृद्धिरादैच्' [ पा० १|१|१] इत्यस्यार्थः, 'वृद्धि:' इतीयं संज्ञा भवति आदैचां वर्णानाम् आकारस्य च "ऐचोश्चेत्यादिप्रतीतापेक्षव्याख्यानवत् । ..... १ दृश्यतां पृ० ५८२० ३ - पं० ५ ॥ २ तस्या विद्यमाना प्र० । ३ पृ० ५८३ पं० २ ॥ ४ ( च तिबेति ? तेन तिबेति ? ) ॥ ५ द्रव्यत्वात् य० ॥ ६ पा० म० भा० २/२/१९, ४1१1३, ५/४/१९, ६।२।१३९ ।। ७ पा० म० भा० २।३।२॥ ८ व्यावृत्तत्वेन प्र० ॥ ९ पचते पूर्वस्य य० ॥ १० दृश्यतां पृ० १९४ टि० १ । पा० म० भा० १।४।२३ ॥ ११ °रन्योन्यान्य' भा० । 'रन्योन्य' य० ॥ १२ आदौचा भा० । आदौच य० । “वृद्धिरादैच् । वृद्धिशब्दः संज्ञात्वेन विधीयते प्रत्येकमादैचां वर्णानां सामान्येन तद्भावितानामतद्भावितानां च । - पा० काशिका 91919 11 १३ एचोवेत्यादि प्र० । तुलना - " तेभ्योऽपि विवृतावेढा ताभ्यामैचौ तथैव च ॥ २१ ॥ " - पा० शिक्षा ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्तृहरिमतनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । वमादिभिरन्यान्यप्रयोगैरेक एवार्थो व्याख्यायते । एवं सर्वत्र पाकः साध्यरूपतायामेव व्यवस्थितः साधनमाकांक्षतीति तस्मिन्नेव काले कर्मत्वं शेषरूपत्वं चाविरुद्धं तादात्, शेषस्याकारकविवक्षणात्, तस्मादविरुद्धा क्रियादिपरिकल्पना। तस्मादसम्यकप्रत्यपेक्षितखार्थं वचस्त्वदीयमेवम् । तस्माच्छब्दस्याप्रधानत्वात् कुतोऽस्य कल्पनाशक्तिः? अत इत्थं कारिका 5 पठितव्या शक्तेर्वा सर्वशक्तेर्वा स्वार्थेनैव प्रकल्पिता। एकस्यार्थस्य नियता क्रियादिपरिकल्पना ॥ _____ अभिजल्पशब्दार्थत्वमपि खरागेणैवोक्तम् , अभिजल्पगत्यर्थाभावात् । स चाभिजल्पत्वमागतो वाच्यतां यायात् सोऽयमित्यभिसम्बन्धाच्छब्दस्यार्थेन सहकी- 10 करणात्। न च तत्, शब्दस्यैवार्थत्वात् । न हि कश्चित् [अर्थः पृथगस्ति शब्दात् एवमित्यादि । इत्थं व्याख्यानप्रकारेण सर्वत्र पाकः साध्यरूपतायामेव व्यवस्थितः साधनमाकांक्षतीति तस्मिन्नेव काले कर्मत्वं शेषत्वं च भजते, तस्माद् युक्तमविरुद्धम् , तादर्थ्यात् स एव साध्यरूपोऽर्थः कर्मरूपापन्नः शेषरूपापन्नश्च साधनाधीननिर्वृत्तिक उच्यते । कस्मात् ? शेषस्याकारकविवक्षणात् , सतामेव हि कारकाणामविवक्षा शेष उच्यते, तस्मादविरुद्धा क्रियादिपरिकल्पनाऽर्थशक्ति- 15 विषयैव न शब्दोत्थापिता। तस्मादुद्बाहानुरूपोपसंहाराभावादसम्यक्प्रत्यपेक्षितखार्थ वचस्त्वदीयमेवमित्युपसंहारः । तस्माच्छब्दस्याप्रधानत्वादवस्थितमर्थमनुवर्तमानस्य उपसर्जनत्वात् कुतोऽस्य कल्पनाशक्तिः ? नास्तीत्यर्थः । अत इति उक्तन्यायादित्थं कारिका पठितव्या-शकेर्वा सर्वशक्तेर्वेत्यादि । विशेषाः शक्तय एवोपसर्जनीभूतसामान्याः, तदर्थो हि शब्दप्रयोगः, तस्य विवक्षितत्वात् , 'यथार्थाभिधानं च शब्दः' [तत्त्वार्थभाष्य १३५] इत्यस्मन्मतमित्युभयनियमनयदृष्ट्या । 'सर्वशक्तेर्वा' इति वादपरमेश्वरमतेनोक्तवत् 20 एकस्यैवार्थस्याविरुद्धशक्तिविशेषस्यानेकशक्त्यात्मकस्य वा स्वार्थेनैव प्रकल्पिता न शब्देनाप्रधानेन ३९२-२ नियता व्यवस्थिता क्रिया-कर्म-शेष-कादिपरिकल्पना । अभिजल्पशब्दार्थत्वमित्यादि । यदपि च त्वया परिकल्पितम् 'अभिजल्पः शब्दार्थः' इति तदपि खेन गेणैव स्वदृष्टिपरितुष्टयैवोक्तम् , नोपपत्त्या । कस्मात् ? अभिजल्पगत्यर्थाभावात् , 'अर्थगतिरेव शब्दगतिः' इति वक्ष्यते । स च शब्दोऽभिजल्पत्वमागतो वाच्यतां यायात् आत्मानमेवार्थरूपापन्नं 25 ब्रूयात् सम्भाव्येत, कयोपपत्त्या ? इत्यत आह-सोऽयमित्यभिसम्बन्धाच्छब्दस्यार्थेन सहकीकरणात् , अस्मादेव त्वद्वचनात् । न च तद् यदभिजल्पत्वमागतो वाच्यतां यातीति । कस्मात् ? शब्दस्यैवार्थत्वाद न च तत् । असम्भवं दर्शयति-न हि कश्चिदित्यादि यावत् सम्बन्धेनेति । 'येन सहैकी क्रियतेऽर्थेन १°रुद्ध क्रियादि य० ॥ २ दृश्यतां पृ. ५७३ पं० ११ टि. २ ॥ ३ दृश्यतां पृ० ५८५ पं० ५ । 'वादपरमेश्वरमतेन । उक्तवदेकस्यैवार्थस्या” इत्यपि अन्वयोऽत्र स्यात् ॥ ४ राशेनैव प्र० । (रसेनैव ?)॥ ५ दृश्यतां पृ. ५९१ पं० ३ ॥ ६ सम्भाव्येत भयोरुपपत्या भा० । सम्भाव्येते( तो ? )भयोरुपपत्त्या य० ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे त्वन्मतेन येन सहकीक्रियेत शब्दः] सम्बन्धेन । ...द्रव्यभवनोपसर्जनत्वात् तस्य विशेषस्य प्राधान्यमिति स्थितमेतत् । प्रयुज्यमाननाम्न्यपि बाह्ये येन येन विशेषेण भूयते तदुपसर्जनं तद् नाम, अर्थगत्यर्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य तद्वशप्रवृत्तित्वात्, भृत्यवत् । नाम च वचनादिविशेषवशम् , यथार्थशब्दत्वात् । वृक्ष इत्यत्र यद्यपि पञ्चकं 5 शब्दस्य रूपं स मुख्योऽर्थः, य एकीक्रियते सोऽप्रधानः' इति शब्दादर्थस्य पृथक् सिद्धौ क्रियेतैक्यमनयोः, तत्तु नास्ति त्वन्मतेनार्थाभावात् । सम्बन्धस्यापि च द्विष्ठत्वात् पृथगर्थसिद्धिः, इतरथा सम्बन्धाभावात् । [अतो येन येन विशेषेण भूयते तस्यार्थस्यैव प्राधान्यम् , नाम्नो द्रव्यभवनोपसर्जनत्वात् द्रव्यभवनस्योप-?] सर्जनं तत्, तद्भावाद् द्रव्यभवनोपसर्जनत्वात् तदुपसर्जनमस्यात्यन्तापूर्वस्य मूर्तस्यामूर्तलक्षणं भवनं विशेषोऽमूर्तस्य मूर्तलक्षणम् । तस्मात् तस्य विशेषस्य प्राधान्यमिति स्थितमेतत् । इति स्थिते विशेषप्राधान्ये 10 इत्थमान्तरनाम्न्यप्रयोगार्हे विशेषप्राधान्यं व्याख्यातम् । ३९३-१ प्रयुज्यमाननाम्न्यपि बाह्ये येन येन विशेषेण भूयते यो यो विशेषो भवति तदुपसर्जनं तस्यैव विशेषस्योपसर्जनं तद् नाम बाह्यम् , अर्थगत्यर्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्य, अर्थपरतत्रो हि शब्दः प्रयुज्यते, तदेव हेतुत्वेनाह-तद्वशप्रवृत्तित्वादिति, भृत्यवदिति दृष्टान्तः । भृत्यो हि स्वामिवशप्रवृत्तिः स्वामिपरतत्र उपसर्जनं तथा शब्द उपसर्जनमर्थः प्रधानम् , यत्र प्रयुज्यते तद्वशवर्ती शब्दः, विशेषोऽर्थ एव प्रधानमिति । 15 तद् दर्शयति-नाम च वचनादिविशेषवशम् । वचनं सङ्ख्या, आदिग्रहणाद् लिङ्ग-काल कारक-पुरुषोपग्रहा गृह्यन्ते विशेषाः, तद्वशं नाम । यथार्थशब्दत्वादिति शब्दलक्षणं स्वसमयसिद्धं हेतुमाह। यो योऽर्थो यथार्थ शब्दस्तदभिधत्ते यथालिङ्गवचनकालकारकपुरुषोपग्रहमभिधत्ते । तथा चाचार्यसिद्धसेन आह-यत्र ह्यर्थों वाचं व्यभिचरति नाभिधानं तंत् [ ] इति । तथा व्याख्यातारोऽपि १ भावाद प्र०॥ २ अत्र बहुतरः पाठः खण्डितः प्रतिभाति सर्वास्वपि प्रतिषु । अस्माभिः कल्पनयैवेत्थं पूरितः॥ ३ तततद्धावात भा० । ततद्भावात् य०॥ ४ नानाप्रयोगाहे भा० । 'नानां प्रयोगार्ह य० ॥ ५°पग्राह भा० । °पग्राहं य० ॥ ६ “विद्याद् यथार्थशब्दं विशेषितपदं तु शब्दनयम् [ तत्त्वार्थभा० ११३५] । शब्दखरूपमाह-विद्याद् यथार्थशब्दमिति । अनेन तु एवम्भूत इव (एव?) प्रकाशितो लक्ष्यते, सर्वविशुद्धत्वात् तस्येति । यतः स एवमभ्युपैति-यदार्थश्चेष्टाप्रवृत्तस्तदा तत्र घट इत्यभिधानं प्रवर्यं नान्यदेति । साम्प्रतसमभिरूढौ कस्मानानेडिताविति चेत्, उच्यते-तावपि स्मारितावेव । यत आह-विशेषितपदं तु शब्दनयमिति । विशेषितपदमिति विशेषितज्ञानम् , यतः साम्प्रतसमभिरूढयोरन्यादृशं ज्ञानम् । नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छन्दादर्थे प्रतीतिः साम्प्रतः । शब्दान्तरवाच्यश्चार्थः शब्दान्तरस्य नाभिधेयो भवतीत्येवं समभिरूढविज्ञानमिति ।"-इति तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनगणिविरचितायां वृत्तौ १।३५, पृ० १२८ ॥ ७°कारकविशेषोपग्रह प्र० ॥ ८ऽनभिधानं भा० । नभिधानं य० । (अनभिधानं)। “शन्दनयः शब्द एव । सोऽर्थकृतवस्तुविशेषप्रत्याख्यानेन शब्दकृतमेवार्थविशेषं मन्यते । समानलिङ्गादिशब्दसमुद्भावितमेव वस्त्वभ्युपैति, नेतरत् । न हि पुरुषः स्त्री, यदीष्येत वचनार्थहानिः स्यात्, मेदार्थ हि वचनम् । अतः स्वातिः तारा नक्षत्रमिति लिङ्गतः, निम्बाम्रकदम्बा वनमिति वचनतः, स पचति त्वं पचसि अहं पचामि पचावः पचाम इति पुरुषतः । एवमादि सर्व परस्परविशेषव्याघातादवस्तु । परस्परव्याघाताच्चैवमाद्यवस्तु प्रतिपत्तव्यम् , यथा शिशिरो ज्वलनः । तथा विरुद्ध विशेषत्वात् तटस्तटी तटमित्यवस्तु, रक्तनीलमिति यथा । यद् वस्तु तदविरुद्धविशेषमभ्युपयन्ति सन्तः, यथा घटः कुटः कुम्भ इति । तथा चोच्यतेयत्र ह्यों वाचं न व्यभिचरत्यभिधानं तत् । एवमयं समानलिङ्ग-संख्या-पुरुष-वचनः शब्दः ।"-इति तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनगणिविरचितायां वृत्तौ ११३४, पृ० ११६॥ ९ दृश्यतां पृ० ५७२ दि. ६॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्तृहरिमतनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । प्रातिपदिकार्थस्तथापि विवक्षापूर्वकत्वाच्छब्दप्रवृत्तेः विवक्षितसंख्याभिधाय्येव वचनं विधीयते । वृक्षस्यैकत्वाचैकवचनम् एकस्य वचनमेकवचनमुच्यते, अनेनार्थः। तथा च लोके वृक्षशब्दप्रयोगे सामान्यमुपसर्जनं विशेषः प्रधानमिति गम्यते, एकार्थगतेद्वर्यादिनिवृत्तेः। इतरथा सर्वगतिरगतिः सन्देहो वा स्यात् । वृक्षे प्रातिपदिक......भवति। ननु विशेषाणामप्यखवशत्वादनवस्थानात् सामान्यभवनप्राधान्यमेव । दृश्यते हि वचनादिस्तस्माद् विशेषादपयान्, यथा एकवचनं द्विवचनार्थ 'नक्षत्रं पुनर्वसू' .......हेतुः कर्म। सर्वत्राप्येवमेव च । प्रस्थिताः-नाम-स्थापना-द्रव्य-भिन्नलिङ्गवाच्येष्टाकरणाद् भावयुक्तवाची शब्दः [ ] इति । अस्यार्थस्य प्रख्यापनमुदाहरणं वृक्ष इत्यत्रेत्यादि सभावनम् । 'स्वार्थो लिङ्ग द्रव्यं सङ्ख्या कर्मादिकारकाणि' 10 इति पैश्चकः प्रातिपदिकार्थश्चतुष्कस्त्रिको वा सङ्ख्या-द्रव्यान्तः । तथाऽऽख्यातस्यापि सर्वस्य नामत्वाविशेषात् 'नमयति अथं गमयति' इत्यादिनिरुक्तेर्यद्यपि पश्चकं सम्भवति तथापि तु वक्तुर्विवक्षितपूर्विका शब्दप्रवृत्तिरिति सामस्त्योपगमं परित्यज्य प्रतिपिपादयिषितं विशेषमेकमेव ब्रूते शब्दः । एकद्विबहुवचनेषु प्राप्तेषु ३९३-२ विवक्षितसङ्ख्याभिधायि एव वचनं विधीयते त्रयाणामन्यतमदेव, नेतरे । वृक्षस्यैकत्वाञ्चैकवचनं व्यक्तिकृतम् , न सर्ववृक्षगतसामान्यं तेनाप्रयोजनात् । एवं द्विबहुवचनयोरपि । 'एकवचनम्' इति समासद्वय-15 सम्भवात् सन्देहेऽवधारयति किमेकस्य वचनमेकवचनमेकं च तद्वचनं च तदेकवचनमिति वा ? एकस्य वचनमेकवचनमुच्यते, अनेनार्थः, कर्मणि षष्ठीति शब्दव्युत्पादनेन । तथा चेत्यादि । एवं च कृत्वा लोके वृक्षशब्दप्रयोगे सामान्यमुपसर्जनं [विशेषः प्रधानमिति गम्यते । कुतः ? एकार्थगतेयादिनिवृत्तेः । इतरथा सामान्यप्राधान्यात् सर्वगतिरगतिः सन्देहो वा स्यात् , युक्ता तु विशेषगतिस्तद्वशवर्तित्वान्नाम्नः । तद्भावना गतार्था-वृक्षे प्रातिपदिकेत्यादि यावद् भवतीति । 20 अत्राह-ननु विशेषाणामपीत्यादि । तेऽपि हि विशेषाः परतश्रा एव, ततोऽस्ववशत्वाद]नवस्थानात् सामान्यभवनप्राधान्यमेव । न हि वृक्षवदेकवचनमेव दृश्यते सर्वत्र, यदि स्यात् स्याद् विशेषप्राधान्यम् , तस्माद् विशेषव्यभिचारात् सामान्यप्राधान्यमेव न्याय्यम् । मा मंस्था:-विशेषप्राधान्याव्यभिचार इति, दृश्यते हि वचनादिस्तस्माद् विशेषादर्पयान् , वचन-लिङ्ग-काल-कारकपुरुषोपग्रहादिविशेषाणां स्वस्थितिव्यतिक्रमः स्वसमानाधिकरणविशेषाचापगतिर्लोके दृश्यते । तदा-25 हरणानि-यथा एकवचनं द्विवचनार्थ 'नक्षत्रं पुनर्वसू' इत्यादीन्युत्तानार्थानि यावद्धेतुः कर्मेति । सर्वत्राप्येवमेव च, यथान्त्यमुदाहृतमभेदिलिङ्गविशेषव्यभिचारे तथा प्राक्तनेष्वपि वचनादि-३९४-१ १ दृश्यता पृ० ५९६ पं० ८। विशेषावश्यकभाष्यस्य कोट्टार्यवृत्तावपीदमुद्धृतम् । नामवाच्य-स्थापनावाच्य-द्रव्यवाच्यभिन्नलिङ्गादिवाच्यानामभिलषितार्थाविधायित्वाद् शब्दनयो भावयुक्तमेवाभ्युपगच्छतीत्याशयः ॥ २ दृश्यतां पृ० ५६ पं० १३ ॥ ३“अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् । १।२।४५। धातुं प्रत्ययं प्रत्ययान्तं च वर्जयित्वा अर्थवच्छब्दखरूपं प्रातिपदिकसंज्ञं स्यात् ।”-पा०सिद्धान्तकौमुदी ॥ ४ चतुर्थस्त्रिको प्र०॥ ५ दृश्यतां पृ० ५६८ पं० ११॥ ६°पयावचन प्र०॥ ७°क्रम प्र०॥ ८°चागति प्र०॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे अतो विशेषानवस्थानादू विशेषो विशेष एव न भवितुमर्हति । ततोऽसौ नैव स्यात्, अविशिष्टत्वादनवस्थानादववशत्वात् खपुष्पवत् । ततश्च सामान्यमपि नैव, प्रवर्तकाभावात् ववशत्वात् विविक्तवृत्तित्वात् मुक्तवत्, अर्थान्तराभाव भवद्भवनाभ्यां केनचिदबाध्यत्वात् । 5 अथ सोऽप्यस्ति भेदेनार्थः शब्दात् न तर्हि शब्द एव शब्दार्थोऽभिजल्पत्वमागतो वाच्यः। स यथा शब्दस्तथार्थोऽपि सम्बन्धेनैकीक्रियमाणत्वात् पृथक सिद्धः क्षीरोदकवद् द्वयोरप्येकीकृतत्वे तुल्यत्वात् । अपि च प्रागुक्तवत् प्रत्याय्यत्वादभिजल्पावयववदर्थोऽर्थ एव । विशेषव्यभिचारे तद्भावना । अतो विशेषानवस्थानाद् विशेषो विशेष एव न भवितुमर्हति 10 सामान्याघ्रातरूपत्वाद् विशेषात्मानवस्थानात् । ततः किम् ? ततोऽसौ नैव स्यात् , भवनमेव नानुभवेत् , अविशिष्टत्वादनन्तरोक्तात्, अविशिष्टत्वमनवस्थानादू भावितवेत् , अनवस्थानमस्ववृत्तित्वादस्ववशत्वाद् भावितवदेव । खपुष्पवदिति सर्वत्र दृष्टान्तः । पृथक् पृथग् वा विशेषाभावे हेतवस्त्रयोऽपि खपुष्पदृष्टान्ताः । ततश्चेत्यादि । ततश्च विशेषाभावात् सामान्यमपि नैव स्यादिति वर्तते । कस्मात् ? प्रवर्तकाभावात् , सामान्यस्य हि प्रकृत्यर्थस्य भवनादेः क्रियात्मनः प्रवर्तकः प्रत्ययार्थः कर्ता स्याद् 15 विशेषः, तदभावान्न प्रवर्तते सामान्यम् । किमर्थं न प्रवर्तयति विशेषः सामान्यमिति चेत्, स्ववशत्वात् , स्ववशो हि विशेषो नासावस्ववशः, कस्मात् ? विविक्तवृत्तित्वात् , किमिव ? मुक्तवत् , यथा मुक्तामानः कर्मपारतश्यापेतत्वाद् विविक्तवृत्तयो न किञ्चित् प्रवर्तयन्ति न केनचित् प्रवर्त्यन्ते किन्तु स्वयमेव वर्तन्ते तस्मादप्रवर्तकत्वसामान्याद् दृष्टान्ताः, तद्वद् विशेषोऽप्रवर्तकः असन्नेव वा । प्रवर्तकाभावान्न सत् सामान्यं खपुष्पवदिति । तद्व्याचष्टे-अर्थान्तराभाव-भवद्भवनाभ्यां केनचिदबाध्यत्वात्, अर्थान्तरं 20 च नास्ति विशेषात् । अर्थाभावे मा भूदेष दोष इति अथ सोऽप्यस्ति भेदेनार्थः शब्दाद् यस्य तद्रूपमने 30५.२ सदेकं क्रियते, किं ततः ? इदं भवति-न तर्हि शब्द एव शब्दार्थोऽभिजल्पत्वमागतो वाच्यः, किं तर्हि ? विशिष्टा शक्तिः शब्दादन्या सर्वशक्तिर्वार्थोऽन्य इति प्राप्तम् । तत एवेदं चायुक्तं त्वया यथोच्यते-तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते, स च शब्दार्थ इति, यस्मात् स यथा शब्दस्तथार्थोऽपि सम्बन्धे25 नैकीक्रियमाणत्वात् पृथक् सिद्धः, किमिव ? क्षीरोदकवद् द्वयोरप्येकीकृतत्वे तुल्यत्वादिति साध्यसाधनधर्मानुगमप्रदर्शनम् । अपि चेत्यादि अर्थार्थत्वमेवोक्तं प्राक् 'प्रत्याय्यत्वात् अभिजल्पार्थावयववत्' इति तदर्थस्मारणं गतार्थं यावदर्थोऽर्थ एवेत्यवधारणम् ।। १ तद्भावनातो विशेष प्र०॥ २ वचनवस्थान प्र० ॥ ३ भावात् सत् प्र० । (भावान्न स्यात् ?)॥ ४ दृश्यतां पृ० ५६८ पं० १॥ ५ दृश्यतां पृ० ५८० पं० ४॥ ६ दृश्यतां पृ. ५८५ पं० १॥ ७°दर्थोर्थ प्र० । दृश्यतां पृ० ५९० पं० १२॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्तृहरिमनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ___ यदा चैवं तदास्मन्मतमेव प्रतिपन्नम्, अर्थस्य तत्त्वात् । योऽसौ शब्दः सोऽयं न, अस्मादन्य एव सः। एवंविषय एव शब्दः, न शब्दविषयोऽर्थः। अर्यतेऽयं तेन शब्देनार्थः तेनोच्यते गम्यते । अर्थगतिरेव शब्दगतिः।। एवं च कृत्वा 'योग्यशब्दनिबन्धना हि [विवक्षा श्रोतृबुद्धौ तां तां शक्तिम् ] अध्यारोपयति' इति त्वदुक्तो ग्रन्थो युक्तोऽस्मिन् दर्शने । योग्य एव शब्दो नायोग्यः 'क्रीडित-5 मेवास्तु' इति प्रयुज्यते काकवाशितादिवबुद्धिपूर्वो वा, अर्थविसंवादादेकीकर्तुमशक्यत्वात् । हिशब्दोऽपि च हेत्वर्थे, यस्माद् योग्यशक्ति........ मर्यादया वा। यदपि चोक्तं तयोरपृथगात्मत्वे इत्यादि श्लोकद्वयं तदपि चास्मन्मतफलमेव । तयोरपृथगात्मत्वं रूढेरतस्य तदुपचारात् पथि गमनवत्, इतरेतरप्रधानोपसर्जन यदा चैवमित्युक्तक्रमेण पृथक् सिद्धौ प्राधान्ये चार्थस्य तदास्मन्मतं यथार्थाभिधानशब्दत्वमेव 10 प्रतिपन्नम् , अर्थस्य तत्त्वात् । तद् व्याचष्टे योऽसौ शब्दः सोऽयं न अर्थो न भवति शब्दः 'अर्थ एवार्थः' इत्युक्तत्वादिति अस्मादर्थात् प्रत्यक्षनिर्देश्यादन्य एवासौ 'सः' इति परोक्षनिर्देश्यो भेदेन । एवंविषय एव अर्थविषय एव शब्दः, न शब्दविषयोऽर्थः नाप्रधान इत्यर्थः । अर्यतेऽयं तेन शब्देन 'अर्थः', किमुक्तं भवतीति, तेनोच्यते गम्यते, क्र गतौ [ पा. धा. ], तस्यार्थः शब्दस्य विषयः, विषयिणो विषयपरतत्रत्वाद् यार्थस्य गतिः शब्दस्यापि सैव, नात्मनः पृथक् स्वतत्रा । एवं 15 व्याख्यातमर्थप्राधान्यं पार्थक्यं च । ____एवं च कृत्वेत्यादि गुणोत्कर्षमस्मन्मते दर्शयिष्यामः, योग्यशब्देत्यादि यावदध्यारोपयति इति त्वदुक्तो ग्रन्थो युक्तोऽस्मिन् दर्शने । तद्भावयति-योग्य एव शब्दः पृथुबुध्नादिलक्षणस्यार्थस्य घटशब्दः नायोग्यः पटादिशब्दो यः कश्चित् 'क्रीडितमेवास्तु' इति प्रयुज्यते काकवाशितादिवदबुद्धि-३९५.१ पूर्वो वा, कस्मात् ? अर्थविसंवादात्, अर्थेन विसंवादोऽस्य वाच्यवाचकसम्बन्धाभावः, स च 20 एकीकर्तुमशक्यत्वात् सम्बन्धयितुम् । हिशब्दोऽपि चेत्यादि, योग्यशब्दनिबन्धना हि इत्यत्र हिशब्दो हेत्वर्थे, यस्माद् योग्यशक्तीत्यादि तद्वयाख्या गतार्था यावद् मर्यादया वेति ।। यदपि चेत्यादि । 'सोऽयमित्यभिसम्बन्धात्' इति स्वलक्षणमभिजल्पस्य तदस्मन्मतं समर्थयतीत्युक्तम् । तदनन्तरं यत् स्वलक्षणव्याप्तिप्रदर्शनार्थ लोकगतशब्दार्थसंव्यवहारव्यवस्थापनार्थ चोक्तं तदपि चास्मन्मतम् 'अर्थस्यार्थान्तरत्वं शब्दादापन्नम्' इत्येतत्फलमेव । कतमत् तत् ? इदं श्लोकद्वयम्-25 तयोरपृथगात्मत्वे [वाक्यप० ] इत्यादि । वयमत्र निश्चिनुमः-तयोरपृथगात्मत्वं रूढेः लोकप्रतीतेः अतस्य तदुपचाराद् भिन्नयोरभेदोपचारात् । किमिव ? पथि गमनवत् , यथा 'पन्थाः पाटलिपुत्रं गच्छति' इति पथोऽसद् गमनं पुरुषगत्यभेदोपचारात् तदविनाभावाद् व्यर्थत्वात् तयोरुच्यते तथा शब्दार्थयोरव्यभिचारादविनाभावादभेदोपचाराद् लोकरूढेरपृथगात्मत्वं पृथग्भूतयोरेवेति । किश्चान्यत् , इतरे १ "ऋ सृ गतौ”-पा० धा० १०९८, १४९८ । “ऋ गतिप्रापणयोः”-पा० धा० ९३६ ॥ २ दृश्यतां पृ० ५८७ पं० २४ ॥ ३ दृश्यतां पृ० ५८२ पं० ९॥ ४ स्वत्वदुक्को य० ॥ ५ पृ. ५९४ ॥ ६ पृ. ५८० पं०३ ॥ ७ लोमगत° प्र०॥ ८र्थानुरत्व प्र० ॥ ९ पृ. ५८१ पं० १॥ १० तद्विनाभावाद्वयर्थता प्र०॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृत [अष्टम उभयनियमारे भावात् सन्मित्रवत् । तथा लोकेऽर्थरूपतां शब्दः प्रतिपन्नः प्रवर्तते, व्याकरणशास्त्रे तु शब्दरूपतां प्रतिपन्नः प्रवर्तते, शब्दाधिगमार्थप्रवृत्तिर्विशेषो भवतिवत् । अर्थस्य च गोः सालादि भिन्नं रूपम् , तदर्थत्वाच्छब्दस्य गकारादिवर्णानुपूर्वी श्रोत्रनादमात्रम् । तद्धि न कदाचिदर्थो भवितुमर्हति कल्पितुं वा अव्यवस्थितत्वाद् व्यतिकी5र्णत्वादनियतत्वात् । बाह्यार्थस्तु व्यवस्थितोऽव्यतिकीर्णो नियतश्च । तस्मान्न शब्दोऽर्थरूपतां प्रतिपन्नो वर्तते । प्रतिपन्नोऽपि स्वसम्बन्धादेव सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वाच्छब्दार्थयोरेकीभावगतेः, नान्यथा उक्तवत् । साध्वसाधुत्वज्ञानस्य प्रयोजनं धर्मनियमोऽपि पृथगर्थसिद्धिं सूचयति। तरप्रधानोपसर्जनभावात् शब्दस्योपसर्जनत्वादर्थस्य प्राधान्याद् व्यर्थतैव, किमिव ? सन्मित्रवत्, 10 यथा स्निग्धयोर्मित्रयोः पृथक् सिद्धयोरेककार्यप्रवृत्तयोरितरेतरप्रधानोपसर्जनत्वनियमस्तथा शब्दार्थयोः, तत्तु त्वद्वचनादेव सिद्धम्, यथोक्तं त्वया-कैचिदेवेति यावदवतिष्ठते । ३९५-२ यथा प्रथमश्लोकोऽस्मन्मतं समर्थयति तथा 'लोकेऽर्थरूपताम्' इत्येषोऽपि । 'गामभ्याज शुक्लाम्' इति न शब्दे बुद्धिः, किं तर्हि ? अभिधेये लोकसिद्धा । व्याकरणशास्त्रे शब्दरूपतां प्रतिपन्नः प्रवर्तते । तुर्विशेषणे, शब्दाधिगमार्थप्रवृत्तिर्विशेषो भवतिवदिति, 'भवति' शब्दमधिगमयिष्यन् 15 'भू सत्तायाम् [ पा. धा. १ ] लेट् कर्तरि' इत्यादि करोति तस्माद् भिन्नौ । इतश्च भिन्नौ, रूपभेदात् । अर्थस्य चेत्यादि, गोः सानादि "भिन्न रूपम् । तदर्थत्वाच्छब्दस्य गंकारादिवर्णानुपूर्वीशब्दस्य श्रोत्रनादमात्रम् , तदर्थं शब्दप्रयोगाद् गकारादिवर्णानुपूर्वीमात्रोच्चारणम् । तद्धि न कदाचिदर्थों भवितुमर्हति, कल्पितुं वा 'न' इति वर्तते, त्वया योऽभिजस्पः कल्पित एव स न भवत्यर्थः । कस्मात् ? अव्यवस्थितत्वाद् व्यतिकीर्णत्वादनियतत्वात् । 20 बाह्यार्थस्तु व्यवस्थितः देशकालादिभिन्नशब्दशतसङ्कलेऽपि धटशब्दस्य ऊर्ध्वग्रीवाद्ये स्वाभिधेये प्रयोगात् [अ]व्यतिकीर्णश्च, नियतः प्रतिपादनेऽवश्यवाच्यत्वात् तेनैव शब्देन 'स एव' इति तत्रैव च बुद्ध्युत्पत्तेः । तस्माद् व्यवस्थिताव्यतिकीर्णनियतत्वेभ्यो बाह्योऽर्थोऽन्यः रूपभेदाच्छब्दान्तरात् कल्पिताच्च । तस्मान्न शब्दोऽर्थरूपतां प्रतिपन्नो वर्तते । अभ्युपेत्यापि रूढेरपृथगात्मत्वप्रतिपत्तिमव्यभिचाराद नयोः "प्रतिपन्नोऽपि स्वसम्बन्धादेव सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वाच्छब्दार्थयोरेकीभावगतेः प्रतिनियतोऽभिधानाभिधेय25 सम्बन्धः पार्थक्यमन्तरेण न भवितुमर्हति घटशब्दार्थयोरित्युक्तम् , एकीकरणस्यान्यथाऽसम्भवात् , अत ३९६-१ आह-नान्यथा उक्तवदिति । किश्चान्यत् , शास्त्रे तूभयरूपत्वं प्रविभक्तं विवक्षया [वाक्यप० २।१३१] १°न्याद्वयर्थतैव प्र० ॥ २ दृश्यतां पृ० ५८१ पं० २ ॥ ३ तुवि० प्र० ॥ ४द्भवति प्र० ॥ ५ लकर्तरि भा० । लडकर्तरि य० । “वर्तमाने लट् ३।२।१२३॥ कर्तरि कृत् ।३।४।६७। लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः ।३।४।६९।"पा०॥ ६ वेत्यादि प्र० ॥ ७सानादिरूपं भिन्नतदर्थ य०॥ ८ गोः सानादि स्वरूपम्, गोशब्दस्य तु गकारादिवर्णानुपूर्वी स्वरूपमित्याशयः ॥ ९श्रोत्रानादरूपं प्र. । (श्रोत्राधानरूपं ?)॥ १० काल्पः कल्पित एव य० ॥ ११ बाह्यवस्तुव्यव०प्र०॥ १२ ऊर्धग्रीवाद्यं प्र०। (ऊर्धग्रीवादी?) ॥ १३ °वाचत्वात् प्र० ॥ १४ पत्तिव्यभि य०॥ १५ अर्थरूपता प्रतिपन्नोऽपीत्यर्थः (१)॥ १६ स्वं सम्बन्धादेव प्र०॥ १७ पृ. ५८१ पं०४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९३ भर्तृहरिमतनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । एवमेव च दर्शनोत्प्रेक्षाभ्यामित्यादि शब्दाद् बहिरर्थसिद्धौ घटते । इतरथा किं दर्शनम् ? कोत्प्रेक्षा?.. कुतोऽभिजल्पो हेयः । __ श्रुत्यन्तरप्रवृत्तिहेतुरित्येतदपि त्वत्कल्पिताभिजल्पे नैवोपपद्यते । ध्वनिः शब्दार्थाभ्यां न प्रवर्येत अकर्तृभ्यां करणकर्मभ्याम् । चेतनात्मत्वात् त्वात्मा खतन्त्रः कर्ता 10 इत्येतदप्यस्मन्मतमेवानुधावति । यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो विशेषे [पा० म० भा०] इत्यादिक्रमेण गोशब्दस्य । सानादिमति साधुत्वं सिद्धेऽर्थे शब्दे सम्बन्धे च पृथक, गोण्यादावसाधुत्वं रूढितः, अर्थविशेषविवक्षायां गोण्या आववने साधुत्वमित्यादि च नान्यथा घटते । तस्य च साध्वसाधुत्वज्ञानस्य प्रयोजनं धर्मनियमः सिद्ध शब्दार्थसम्बन्धे [पा० वा. ] इत्यादिरुक्तः सोऽपि पृथगर्थसिद्धिं सूचयति । लोकेनाभिधेयेऽर्थे शब्दाः प्रयुक्ताः प्रयोजनेन वा, तत्रार्थस्य पृथक् सिद्धौ शब्दस्य च तद्विषयस्य धर्मार्थः प्रयोगनियमः साधोः स्वार्थः शास्त्रेण क्रियते भक्ष्याभक्ष्यनियमवदिति । तस्मान्नाभिजल्पोऽर्थः।। एवमेव चेत्यादि एतस्यैव कारिकात्रयाभिहितस्यार्थस्य वर्णकदण्डकोऽपि दर्शनोत्प्रेक्षाभ्यामित्यादि, 'प्रधानपुरुषेश्वरादिमयम्' इत्यादिदर्शनानि शब्दाद् बहिरर्थसिद्धौ घटन्ते, वस्तुन्यभिन्ने घटादौ बाह्ये तु पुरुषाणां चोत्प्रेक्षा नित्यानित्यादित्वेन नियमेन सद्भावे, नान्यथा । इतरथेत्यादि, अभिजल्पा-ऽथैक्ये नियतबाह्यार्थाभावे प्रधानादिदर्शनासम्भवः । तत्र किं दर्शनम् ? नास्तीत्यर्थः । कोत्प्रेक्षा? इत्यादि तद्वन्थानुसारेणासम्भवं सोपपत्तिकं दर्शयति यावत् कुतोऽभिजल्पो हेयः ? इति सभावनं गतार्थम् । 15 अर्थाभावे न घटते, अर्थसद्भावे युज्यत इति पिण्डार्थः । किश्चान्यत् , 'Qत्यन्तरप्रवृत्तिहेतुः' इत्येतदपि त्वत्कल्पिताभिजल्पे नैवोपपद्यते, अस्मदिष्टे तूपपद्यते । तद्यथा-श्रुतेरन्या श्रुतिः श्रुत्यन्तरम् , अन्तरेकीभूताभिजल्पपृथग्भूतो ध्वनिर्व्यवहारानुपाती ३९६-२ स्यात् , स त्वदिष्टाभ्यां शब्दार्थाभ्यां न प्रव]त अकर्तृभ्यामचेतनाभ्यां करण-कर्मभ्याम् , १ पृ. ५७३ पं. ५, पृ० १२८ पं० २१॥ २ पृ० १२८ पं० १८, पृ० ५७३ पं० २५, टिपृ० ५७ पं० २२२६ ॥ ३ टिपृ० २२ पं० ६ । “कथं पुनरिदं भगवतः पाणिनेराचार्यस्य लक्षणं प्रवृत्तम् ? सिद्ध शब्दार्थसम्बन्धे । सिद्धे शब्दे अर्थे सम्बन्धे चेति ।......कथं पुनर्जायते सिद्धः शब्दोऽर्थः सम्बन्धश्चेति ? लोकतः ।....."यदि तर्हि लोक एषु शब्देषु प्रमाणं किं शास्त्रेण क्रियते ? लोकतोऽर्थप्रयुक्त शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः क्रियते । किमिदं धर्मनियम इति । धर्माय नियमो धर्मनियमः । धर्मार्थो वा नियमो धर्मनियमः। धर्मप्रयोजनो वा नियमो धर्मनियमः”।-पा० म० भा० १1१1१॥ ४भक्ष्याभक्ष्यानियम प्र०। (भक्ष्याभक्ष्यादिनियम!)। "लोके तावदभक्ष्यो ग्राम्यकुकुटः, अभक्ष्यो ग्राम्यसूकर इत्युच्यते । भक्ष्यं च नाम क्षुत्प्रतिघातार्थमुपादीयते। शक्यं चानेन श्वमांसादिभिरपि क्षुत् प्रतिहन्तुम् । तत्र नियमः क्रियते-इदं भक्ष्यमिदमभक्ष्यमिति । तथा खेदात् स्त्रीषु प्रवृत्तिर्भवति । समानश्च खेदविगमो गम्यायां चागम्यायां च । तत्र नियमः क्रियते-इयं गम्या इयमगम्येति ।......... एवमिहापि समानायामर्थावगतौ शब्देन चापशब्देन च तत्र धर्मनियमः क्रियते-शब्देनैवार्थोऽभिधेयो नापशब्देनेति । एवं क्रियमाणमभ्युदयकारि भवतीति ।"-पा० म० भा० १११।१॥ ५पृ० ५८१ पं. ५-६॥६ अभिन्ने एकस्मिन् वस्तुनि घटादौ बाह्ये नित्यानित्यादित्वेन पुरुषाणामुत्प्रेक्षा घटते, न तु बाह्यार्थाभावे इत्याशयः । अत्रारुचौ तु 'वस्तुनि भिन्ने' इति पाठः कल्पनीयः॥ ७त भा. प्रतौ नास्ति॥ ८'कुतोऽभिजल्पो हेयः हेतुगभ्यः' इत्यर्थे यथाश्रुतमेव साधु । अन्यथा तु 'कुतोऽभिजल्पोऽहेयः' इति 'कुतोऽभिजल्पोऽभिधेयः' इति वा पाठोऽत्र सम्भवेत् । दृश्यतां पृ० ५८१ पं० २५ ॥ ९ भूताविजल्पपृथग्भूतो भा० । भूतो विजभ्यपृथग्भूतो य० । (भूतो विभज्य पृथग्भूतो?)॥ १० प्रवर्तेत प्र०॥ नय० ७५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे प्रवृत्तिहेतुः श्रुत्यन्तरस्य भवितुमर्हति । शब्दार्थयोरेकीभूयान्तर्वर्तमानयोः कान्या श्रुतिः श्रुत्यन्तरमित्युच्येत ? केन च विशेषेण तत्प्रवृत्तिहेतुरुच्यते ? अस्ति विशेषः । तद्यथा-घटार्थप्रत्यायनाथ ध्वन्यात्मकशब्दोत्पत्तिकार्यदर्शनात् तदनुरूपः कारणभूतोऽनुमीयते घटशब्दः, नार्थः तद्विरूपत्वात् । तस्माच्छुतिः 5 श्रुत्यन्तरस्य प्रवर्तिका श्रुतित्वात् , नार्थो नाप्यात्मा। _ ननु तस्यापि श्रुत्यन्तरस्य श्रुतित्वात् पूर्वश्रुतिवदर्थप्रवर्तितः शब्दः, अर्थाभावे प्रयोगानर्थक्यात् । आभिमुख्येन जल्पत्यर्थं शब्दः, तमर्थोऽभिजल्पयति, तद्विषय एवाभिजल्प इत्युच्यते । एवं तावद् भर्तृहर्यादिदर्शनमयुक्तम् । यथासङ्ख्यं करण-कर्मत्वाच्छब्दार्थयोः । चेतनात्मत्वात् त्वात्मा स्वतन्त्रः, स्वातत्र्यात् कर्ता, स 10 'प्रवृत्तिहेतुः श्रुत्यन्तरस्य भवितुमर्हति । यथोक्तम्-आत्मा बुझ्या समर्थ्यार्थान् [पा०शिक्षा० ॥ ६ ॥] इत्यादि । इदं चायुक्तं 'श्रुत्यन्तरम्' इति विभज्य कथनम् , शब्दार्थयोरेकीभूयान्तर्वर्तमानयोः कान्या श्रुतिः 'श्रुत्यन्तरम्' इत्युच्येत ? तस्माद् विशेषाभावे कथमविभ्रान्तैरविभक्तः सन् विभक्तः शब्दात्मा उच्यते ? केन च विशेषेण ] श्रुत्यन्तराभावेन तत्प्रवृत्तिहेतुरुच्यते ? चैतन्य-स्वातव्यकृतं कर्तृत्वविशेष मन्तरेण श्रुत्यन्तरासम्भवे कस्य प्रवृत्तिहेतुत्वम् ? 15. अत्राह-अस्ति विशेषः । तद्यथा-घटार्थप्रत्यायनार्थमित्यादि । कारणानुरूपत्वात् कार्याणां ध्वन्यात्मकशब्दोत्पत्तिकार्यदर्शनादन्तर्निविष्टोऽपि तदनुरूपः कारणभूतोऽनुमीयते शाल्यकुरदर्शनाच्छालिबीजवद् घटशब्दः, नोर्ध्वग्रीवादिलक्षणोऽर्थः तद्विरूपत्वात् । उपादानं च श्रुतेरनुरूपा श्रुतिरेव युक्ता, नार्थो घटादिरूप्यात् । तस्माच्छ्रुतिः श्रुत्यन्तरस्य प्रवर्तिका नार्थो नाप्यात्मेत्ययं विशेष इति । अत्रोच्यते-ननु तस्यापि श्रुत्यन्तरस्येत्यादि । एतदप्यनुमानं प्रतितर्कबाध्यम् , विज्ञानसन्निविष्ट20 घटार्थप्रवां सा श्रुतिः श्रुतित्वात् । ननु प्रागुक्तम्-अर्थप्रत्यायनार्थ शब्दः प्रयुज्यते न वायसवासितादिवद् निरर्थकः 'क्रीडितमेवास्तु' इति 'वेत्यादि । तस्माच्छृतित्वात् पूर्वश्रुतिवदर्थप्रवर्तितः शब्दः, अर्थाभावे प्रयोगानर्थक्यादिति । ३९७१ निरुक्त्यर्थोऽप्यभिजल्पस्य तथा घटते नान्यथा, जप जल्प व्यक्तायां वाचि [पा० धा० ३९७, ३९८ ], आभिमुख्येन जल्पत्यर्थं शब्दः, तं प्रयुङ्क्तेऽर्थः अभिजल्पयति, तद्विषय एवाभिजल्प इत्युच्यते, यद्या25 भिमुख्येनावस्थितमर्थ जल्पति ततो जल्पः शब्दः, सोऽर्थो विषयोऽस्य तद्विषय एवाभिजल्पः शब्दः, एतदुक्तं भवति-अर्थविषयः शब्दः शब्दार्थकल्पनायां युक्ततरः स्यात् , अर्थोत्थापितशब्दाभिजल्पत्वपक्षेऽभिजल्पशब्दार्थपरिकल्पना युक्ततरा स्यात्, न तु त्वत्परिकल्पिते शब्दप्रेरिते । एवं तावद् भर्तृहयादिदर्शनमयुक्तम् । १ प्रतिपत्तिहेतुः प्र०॥ २ पृ० ५६५ पं० १४ ॥ ३°भूतया य० ॥ ४ 'श्रुत्यन्तराभावे तत्प्रवृत्ति" इति चारुतर भाति ॥ ५ तादिन्निरर्थकः प्र०॥ ६ चेत्यादि प्र० । दृश्यतां पृ० ५९१ पं० ६ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुरातमत द्वादशारं नयचक्रम् । यत्तु वसुरातो भर्तृहरेरुपाध्यायः सं च स्वरूपानुगतमर्थमन्तरविभागेन संनिवेशयतीत्याह तेन द्वावपि शब्दोऽर्थश्चाभ्युपगतौ । न तु स तेन शब्दनयेनाभिहितानन्यान्यलिङ्गादिसामानाधिकरण्याभावादिदोषान् परिहर्तुं शक्नोति । ननु 'शब्दानुगतार्थमन्तरविभागेन' इति ब्रुवता अर्थतन्त्रः शब्दोऽभिहितः, न शब्दतन्त्रोऽर्थः । ततोऽर्थतन्त्रत्वाच्छब्दप्रवृत्तेः तदवस्था दोषाः । यथा च रूपादय एकैकभवनात्मका न पर्यायान्तरमपेक्षन्ते विशेषत्वात् तथा पुष्यतारानक्षत्रादिपुंलिङ्गादयः परस्परविरोधित्वाद् विशेषाणामिति कुतः सामानाधिकरण्यम् ? यत्तु वसुरातो भर्तृहरेरुपाध्यायः 'सं च स्वरूपानुगतम्' इत्याद्याह तेन द्वावपि शब्दोऽर्थश्चाभ्युपगतौ, सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वात् सम्बन्धिनोरभ्युपगतिः । प्राच्यादत्यन्धदर्शनात् तैमिरिक- 10 दर्शनमिदं तत्त्वदृष्टिं प्रत्यासीदति, न दूरापयातम् , अभिजल्पस्वरूपं तु पुनस्तेनापि 'निरस्तम् । 'किञ्च न तु स तेनेत्यादि । एतस्मिन्नपि दर्शने यथा पुष्यशब्दार्थयोरन्तः सन्निवेशनमविभागेन चलिङ्गवचनकारकादिभेदयोरेवमिष्टाल्लिङ्गादेरन्यान्यलिङ्गादीनि अन्यशब्दार्थगतान्यपि सन्निवेशयिष्यति स इति सामान्योपसर्जनविशेषप्रधानवादिना शब्दनयेनाभिहितांस्तत्सामानाधिकरण्याभावादिदोषान् परिहर्तुमशक्त एव तथापि । कस्मात् ? ननु शब्दानुगतेत्यादि । 'स्वरूपमनुगतोऽर्थः, तमर्थमन्तरविभागेन' इति ब्रुवता 15 अर्थतत्रः शब्दोऽभिहितो [न] शब्दतत्रोऽर्थः, यद्यर्थमनुगतः शब्दोऽन्तरविभागेन सन्निवेश्येत ततः शब्दप्रेरितत्वाच्छब्दावधारणादर्थो व्युदस्तः स्यात्, किन्तु तद्विपरीतं शब्दावधारणव्युदसनादर्थप्राधान्याव-३९०२ लम्बनं कृतम् । ततोऽर्थतन्त्रत्वात् अर्थप्रधानत्वाच्छब्दप्रवृत्तेः, प्रवर्तको हि शब्दस्यार्थः, तस्मात् तदवस्था दोषाः । शब्दप्राधान्यावधारणे तु परिहृताः स्युः । तस्मादुक्तवदेव विशेषप्राधान्यवादेऽर्थान्तरनिरपेक्षाणां पुष्य-तारा-नक्षत्रादिविशेषाणां नास्ति सामानाधिकरण्यम् , अतो विशेष एक एव व्यवस्थितः। 20 एषा तावद् वस्तुनोऽर्थपर्यायेषु भावना कृता शब्दगोचरातिक्रान्तेषु, व्यञ्जनपर्यायेष्वनेनातिदेशः क्रियते-यथा चेत्यादि । रूपादयो युगपद्भाव्यभिमता अप्येकैकभवनात्मका न पर्यायान्तरमपेक्षन्ते विशेषत्वादिति दृष्टान्तः । पुष्य-तारा-नक्षत्रादिपुंलिङ्गादयः परस्परविरोधित्वाद् विशेषाणामिति । दार्टान्तिकः । एकमेकमेव भँवनं भवति न द्वितीयमिति कुतः सामानाधिकरण्यम् ? पुष्यः पुमान् स कथं स्त्री भवतीति 'तारा' इति, नपुंसकं वा 'नक्षत्रम्' इति ? एवं वचन-काल-कारक-पुरुषोपग्रहा- 25 दिभेदा न परस्परापेक्षा विशेषैकभवनादिति भावनीयम् । १ पृ० ५८१ पं० ७ ॥ २ निरस्त प्र० । (न निरस्तम् ? ?) ॥ ३ (किञ्चान्यत् स तेनेत्यादि ? ?) (किञ्च, वसुरातेनेत्यादि ? ? ?) ॥ ४ सलिङ्ग प्र०॥ ५°ण्यादिभावादि प्र०॥ ६वादिर्थान्तर भा० । वादिनार्थान्तर य० । (°वादिनोऽर्थान्तर° ?)॥ ७ एक भा० प्रतौ नास्ति ॥ ८ भवनं भवनं भा०॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ न्यायागमानुसारिणीवृस्यलकृतं [अष्टम उभयनियमारे एवं चैतच्छन्दनयस्य दर्शनम्-यथार्थाभिधानं शब्दः [ तत्त्वार्थभा० १॥३५ ], तथा नामस्थापनाद्रव्यभिन्नलिङ्गादिवाच्येष्टाकरणाद् भावयुक्तवाची शब्दः [ ] इति । ____ व्यवहारान्तःपातिस्थापनावाच्येष्टाकरणप्रदर्शनार्थ तु स्थापनाद्रव्यार्थखरूपमेव तावदाख्यायते। । स्थीयते यस्मिंस्तत् स्थानम् । केन स्थीयते? विशेषावचनात् सर्वगतिरितिक च स्थीयते? आकारे स्थीयते। मर्यादया करणमभिविधिना वा आकारः। अभिविधिः एवं चैतदित्यायुक्तार्थोपनयः । तत्र शब्दनयस्य एतद्दर्शनम्-यथार्थाभिधानमेव न्याय्यम् । लक्षणं च यथार्थाभिधानं शब्दः [ तत्त्वार्थभा० १॥३५] । तथा नाम-स्थापना-द्रव्य-भिन्नलिङ्गादिवाच्येष्टाकरणाद् भावयुक्तवाची शब्दः [ ] इति च लक्षणान्तरम् । तत्र विभागेन द्रव्यद्रव्यार्थवाच्यं 10 पूर्वनयेषूक्तमिष्टं न करोतीति नैगमादिगोचरमनेनापि व्यावर्तितमेव शब्दनयेन । व्यवहारगोचरनामद्रव्यार्थ३९८-१ वाच्यमपीष्टं न करोतीत्यधुना व्यावर्तितम् । ऋजुसूत्रस्यार्थपर्यायस्य गोचरं च भिन्नलिङ्गादिवाच्यमिष्टं न करोतीति यथा वचनादि साधु इति मन्यमानः शब्दनयः प्रवर्तते युक्त्या च यथा तस्य मतं शब्दस्य तथा प्रकारान्तं प्रदर्शितम् । तथाचार्यसिद्धसेनोऽप्याह नाम ठवणा दविएत्ति एस दवट्टियस्स णिक्खेवो। भावो उ पजवट्ठियपरूवणा एस परमत्थो ॥ [सन्मति० १६] त्ति । __अधुना सामान्यभेदं स्थापनाद्रव्यार्थमव्यावर्तितं व्यावर्तयितुकामः सम्बन्धयति-व्यवहारान्तःपातिस्थापनावाच्येष्टाकरणप्रदर्शनार्थ तु, 'व्यवहारनयान्तःपातिनी स्थापना, तद्वाच्यमिष्टं न करोति' इत्येतत् प्रदर्शयिष्यते, स्थापनाद्रव्यार्थस्वरूपे चाविदिते न शक्यं तत् प्रदर्शयितुमिति स्थापनाद्रव्यार्थस्वरूपमेव तावदाख्यायते । तत्र स्थानक्रियायाः कर्तुस्तिष्ठतः प्रयोजके समवेता ण्यन्तवाच्या 20 ऐयासश्रन्थो युच् [पा० ३।३।१०७ ] इति लक्षणात् क्रिया स्थापना । तां वक्तुकामः स्थानमेव ताँवद् व्याचष्टे-स्थीयते यस्मिंस्तत् स्थानम् , भाव-करणा-ऽधिकरण-कर्मसाधनेष्वधिकरणं तावदाह। वक्ष्यमाणार्थसम्बन्धाद् भावः क्रिया स्थानम् , का तिष्ठता "स्थीयते, अतस्तन्निर्णयार्थ पृच्छति-केन स्थीयत इति । तत्प्रतिवचनम्-विशेषावचनात् सर्वगतिरिति । इतिशब्दो हेत्वर्थे, यस्मात् 'सचित्तस्य देवदत्तादेरचित्तस्य वा घटादेः स्थानम्' इति विशेष्यानुक्तमतः सामान्येन येन केनचित् स्थातव्यम् । 'यस्मिन्' इत्यधिकरणस्योक्तस्य निर्णयार्थ पृच्छति-कच स्थीयत इति । उच्यते-आकारे स्थीयते । और मर्यादाभिविध्योः, मर्यादया करणमभिविधिनाभिव्याप्त्या वाऽऽकारः, भूकृमोः सर्वधात्वर्थव्यापित्वादा १ पृ० ५७३ ॥ २ पृ० ५८९ पं० ९ ॥ ३ °स्यार्थस्य गोचरं य० ॥ ४ वाचनादि प्र० ॥ ५ (तथा प्रकारान्तरेण?) (तथाप्रकार तत् ?)॥ ६ (तथाचाचार्य?)॥ ७°पनाद्भाव्यनिष्ट न करोति प्र०॥ ८ पृ. १९५ पं० ६ टि. १॥ ९ "ण्यासश्रन्थो युचु ।३।३।१०७॥ अकारस्यापवादः । कारणा । हारणा । आसना । श्रन्थना। घट्टिवन्दिविदिभ्यश्चेति वाच्यम् । घटना । वन्दना । वेदना । इषेरनिच्छार्थस्य । अन्वेषणा । परेर्वा । पर्येषणा, परीष्टिः।"-पा०सिद्धान्तकौमुदी ॥ १० यावद प्र०॥ ११ पृ. ५९७ पं० १२॥ १२ स्थीयतेतस्त १३ "आङ् मर्यादाभिविध्योः ।।१।१३॥” इति सूत्रमपि पाणिनीयव्याकरणेऽस्ति ॥ १४ व्याप्ताव्याकारः प्र०॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाद्रव्यार्थनय स्वरूपम् ] द्वादशारं नयचक्रम् | ५९७ परिसमापनमभिव्याप्तिः प्रस्तुतस्य रूपस्य तेन आकरणम्, तस्मिन् स्थानं मर्या - दया वा । मर्यादा अन्यरूपविलक्षणता । अस्य स्थानस्य प्रयोजना स्थापना । ईषत् तिष्ठत ऐकाग्र्येण स्थानम्, स्वयं तिष्ठतोऽसद्भावेन सर्वत्र विशेष्य स्थाप्यमानं स्थानम्, अनिश्चितैकक्रियप्रयोज्यत्ववत् असद्भावेन वा अतद्भूतरूपेऽपि स्थूणेन्द्रवत्, तथाऽक्षादिषु । तस्माद् यथा बालादिविविधद्रव्यनाम भावभेदोपपत्तौ देवदत्ताकारस्याभिन्नकरणमाभवनमित्यर्थः । तंत्राभिविधिं व्याचष्टे - अभिविधिः परिसमापनमभिव्याप्तिः कस्य ? प्रस्तु - ३९८-२ तस्य रूपस्य स्वभावस्य वस्त्वात्मनः तेन अभिविधिना प्रस्तुतरूपपरिसमापनेन आकरणमाभवनम्, तस्मिन् स्थानम्, मर्यादया वेत्यनर्थान्तरं योजयति । का मर्यादा ? अन्यरूपविलक्षणता रूपान्तरव्यावृत्तिर्नियम इत्यर्थः, न ह्यनाकारं किञ्चिदस्ति, सर्वमाकारपरिग्रहेण भवति तिष्ठतीति स्थानमाकारो 10 मर्यादाभिविधिभ्याम् । अस्य स्थानस्य स्वतत्रस्थातृसमवायिनः प्रयोजके हेतुकर्तरि विहितो णिच्, तस्य भावः क्रिया प्रकर्षयोजना प्रयोजना प्रयोजकत्वं हेतुकर्तृत्वं स्थापना । किमुक्तं भवति ! ईषत् तिष्ठतो विप्रकीर्णरूपस्थानस्य स्थातुरैकाग्र्येण स्थानं तदैकाय्याधानम् । तद् व्याचष्टे - स्वयं तिष्ठतोऽसद्भावेन सर्वत्रेति अक्ष-वराटकाद्यसमाप्ताभिप्रेताकारं स्वयमेव तिष्ठदसद्भावेन तिष्ठति, तत्तु विशेष्य स्थाप्यमानं परिसमाप्तं स्थानं स्वविशिष्ट आकारेऽभिव्याप्य तिष्ठति 'इन्द्रोऽयं स्कन्दः' इत्यादि रूपान्तरव्यावृत्त्या मर्यादया 15 नियतं वेति । किमिव ? इत्यत आह- अनिश्चितैकक्रिय प्रयोज्यत्ववत्, यथा पचि-पठि-गम्यादिक्रियावधारणाभावेनानिश्चितक्रियं स्वतन्त्रं कर्तारं हेतुकर्ता ' पच पच' इति नियुङ्क्ते पचावेव स्थापयति क्रियान्तरव्यावृत्त्या तत्रैव स्थाने पंच्याकारे नियमयति से स्थापनानियमः, एवं सर्वत्राऽऽकारे सद्भावस्थापनया नियम : प्रस्तुतरूपस्य परिसमाप्त्या रूपान्तरविलक्षणतया मर्यादया वेति स्थानार्थः । तं व्याख्याय स्थापनार्थो: व्याख्यातः शब्दः व्युत्पत्त्या । एवं तर्हि असद्भावस्थापनाया नियमयितुरभावाद् न व्यापिता लक्षणस्येति 20 चेत्; 'न' इत्युच्यते, सुखप्रतिपाद्यत्वादादौ सद्भावस्थापना इत्थं प्रतिपादिता, तत्समानं प्रतिपादनमितरस्यामपीत्यत आह-असद्भावेन वा अतद्भूतरूपेऽपि स्थूणेन्द्रवत्, तदेव हि वस्तु व्यक्ताव्यक्ताकारपरिणामं स्वयं तथा तथा तिष्ठद् "विशेष्याभीष्टे स्थाप्यते यथा स्थूणैवासंस्कृतावस्थायामप्यव्यक्ततरावयवाकायां विशेष्यमाणा चित्रावस्थां व्यक्तावयवाकारामप्रत्यासीदन्ती 'इन्द्र:' इति स्थाप्यते तस्मात् सापि स्थाने नियम्यते, अतो व्याप्येव लक्षणम् । एतेनाव्यक्ततरावस्था व्याख्यातेत्यतिदिशति तथाऽक्षादि - 25 विति गतार्थम् । ३९९-१ तस्माद् यथा बालादीत्यादि उक्तोपपत्तिनिगमनं सभावनमुदाहरणं यावद् देवदत्तः । बालत्वस्य कारणद्रव्याणि "पीत्थकादीनि युवत्वादीनां चान्यान्यानीति द्रव्यभेद उपपन्नः, तथा पाचको लावकोऽध्यापक " प्र० ॥ १ तत्राभिविध्याचष्टे प्र० ॥ २ रूपस्य भावस्य य० ॥ ३त्यनर्थावरयोजयति प्र० ॥ ४ लक्षणंना ५ स्थापनादि किमुक्तं प्र० ॥ ६ स्थातुरेकाग्रयेण स्थानं तदेकाग्र्याधानम् प्र० ॥ ७ मान परि प्र० ॥ ८ पश्वाकारे भा० । पश्चाकारे य० ॥ ९ सा प्र० ॥ १० ( स्थापनाया ? ) । दृश्यतां पृ० ५९७ पं० २० ॥ ११ विशेषीभीष्टे प्र० ॥ १२ स्थूणवा प्र० ॥ १३ 'काराया विशि° प्र० ॥ १४ पथकादीनि प्र० । ( पीच्छकादीनि ? पीथकादीनि ? ) । दृश्यतां पृ० ५९८ पं० १० ॥ 5 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे त्वात् तदाकारतो देवदत्त एकः सर्वभेदोऽपि एवं चित्रलेप्यपुस्ता दिभेदोपपत्तावपि तथा तिष्ठतस्तस्य तस्य स्थानस्य प्रयोजनात् सा स्थापना, तत्कर्मणस्तत्त्वापत्तेः । स्थापनया निक्षेपः स्थापनानिक्षेपः, स्थापना सद्भावासद्भावाभ्यां वस्तु निक्षिपति । यथा पुरुषाद् नामकर्म नामकर्मणो देवदत्तादिता तथा च चित्रकरादिः " 15 इत्यादिर्नामभेद:, क्रियायाः क्षायोपशमिकवीर्यात्मकत्वाद् भावभेद चोपपन्नः, विविधशब्दादेवमादिभेदा गृहीताः । सत्यां चैवं द्रव्य - नाम - भावभेदोपपत्तौ देवदत्ताकारस्याभिन्नत्वात् तदाकारतत्त्वो देवदत्त ऐकः सर्वभेदोऽपि नान्योऽन्यश्च आकारपरमार्थत्वाभेदादिति भावयित्वा तेनोदाहरणेन दाष्टन्तिकेषु चित्रादिष्वपि भावयितुमाह - एवं चित्र - लेप्य-पुस्तादिभेदोपपत्तावपि तथा तिष्ठतस्तस्य ३९९-२ तस्य स्थानस्य प्रयोजनात् सा स्थापना । किं कारणम् ? तत्कर्मणस्तत्त्वापत्तेः, चित्रकरकर्मणस्तै10 दिन्द्रत्वापत्तेः पीथकादिद्रव्य- पाचकादिनाम-भावभेदकर्मणां देवदत्ताकारत्वापत्तिवदिति व्यापिता स्थापनायाः । स्याद्वादी तु सद्भावासद्भावद्रव्यनामभावादिभेदतत्त्वं वस्तु वाञ्छन्नेवं ब्रूते । स्थापनाद्रव्यार्थैकान्तवादिनस्तु [न] किञ्चिदाकारव्यतिरिक्तमस्ति, अतो भ्रान्तिमात्रं भेदाः । 1 एषा च स्थापना निक्षेपानुयोगद्वारान्तर्गतार्थेऽभिहिता । तस्मात् 'स्थापनया निक्षेपः' इति तृतीयासमासे ‘स्थापनानिक्षेपः' इत्यस्य व्याख्यानार्थमाह - स्थापना सद्भावासद्भावाभ्यां वस्तु निक्षिपति | सद्भावेना15 सद्भावेन च स्वात्मनि वस्तु स्थापयतीत्यर्थः । तद्भूतात्मकं वस्तु तद्भावमाकारात्मानमापादयति आत्मानमात्मनेत्युक्तं भवति । किमिव ? यथा पुरुषाद् नामकर्म, प्रागमूर्तात्मा लक्षणतः सन्नात्मा कर्मत्वेन मूर्तात्मना परिवर्तते आभवति । ततश्च नामकर्मणो देवदत्तादिता, तस्मादुपातात् कर्मणो नारक-तैर्यग्योन-देवदत्ताख्यमनुष्यत्वापत्तिरेष दृष्टान्तः । दाष्टन्तिकः तथा च चित्रकरादिरित्यादि । तद्व्याख्या–तत्रात्मवदतथाभूतस्य तथात्वापादनात् तदेकता चित्रकर्मादिदेवदत्तस्येति यथा 20 जीव - कर्मणोरन्योन्यात्मापत्त्या " भिन्नाभिमतयोरेकत्वापत्तिराख्याता तथा चित्रगतवर्णकादिदेवदत्तत्वापत्तिरपीत्यर्थः । अथवाभ्युपगच्छामो जीवकर्मणोरपि भेदम्, एक एव जीवाख्योऽर्थः परिणामिकजीवभव्या४००-१ भव्यत्वादिभावापत्तिपरिणामः क्षायोपशमिकौयिका दिपरिणामश्चैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यङ्नारकादिः सर्व एव देवदत्तः कर्मात्मैक्यादिति दृष्टान्तः । महाश्वेतत्वादिदेवदत्ताकाराभेदश्चित्रेऽपीति दाष्टन्तिकोऽर्थः । तद् दर्शयति—यथा च जीवत्वादि पूर्वरूपमित्यादि दण्डको गतार्थः । अथवा जीवस्य कर्म *चाभेद क्षायोपशमिकौदयिका दिपृथक्परिणामाभावादेक एव पारिणामिको भावः, अतस्तयोरपि नास्ति 25 १ एकसर्व ० ॥ २ तेनों प्र० ॥ ३ स्तदित्वापत्तेः य० । स्तदिदंत्वापत्तेः भा० । भा० पाठोऽपि समीचीन एव भाति, ‘तदिदन्त्वापत्तेः' तस्य इदन्त्वापत्तेरित्यर्थो भाति । अत्रार्थेऽरुचौ तु 'तदिन्द्रत्वापत्तेः' इति पाठः कल्प्यः ॥ ४ पीथकाद्रव्य ं प्र० । दृश्यतां पृ० ५९७ पं० २८ ॥ ५ विस्तरेणैत जिज्ञासुभिरनुयोगद्वारसूत्रादयो ग्रन्था विलोकनीयाः ॥ ६ अततद्भूतात्मकं प्र० ॥ ७ दृश्यतां पृ० ५९९ पं० २० ॥ ८ त्ताकर्मणो प्र० ॥ ९ पत्तिरेव प्र० । १० भिन्नाभिन्नाभिमतयो भा० ॥ ११ औपशमिकक्षायिक भाव मिश्रच जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च । २।१। जीवभव्याभव्यत्वादीनि च २|७|” - तत्त्वार्थसू० । विस्तरार्थिभिरेतद्वयाख्या विलोकनीयाः ॥ १२ ** एतच्चिह्नान्तगतः पाठो य० प्रतौ नास्ति ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाद्रव्यार्थ नयस्वरूपम् ] द्वादशारं नयचक्रम् । ५९९ तत्रात्मवदतथाभूतस्य तथात्वापादनात् तदेकता चित्रकर्मादिदेवदत्तस्य । यथा च जीवत्वादि पूर्वरूपम् । यथा च जीवत्वं तत्पूर्वम् आकारत त्त्वैकत्वात् । यदि स्थापनया चित्रादि स्थाप्यं देवदत्तोद्देशेन देवदत्तखरूपमापद्यते तथा देवदत्तोऽपि कस्मान्न चित्रादिस्वरूपमापद्यते । तथेन्द्रतामक्षादिरापद्यते नाक्षतामिन्द्र इत्यत्र को विशेषहेतुः ? नन्वसावपि इन्द्रनामगोत्रकर्मस्थाप्यत्वात् स्थापनानिक्षेपात्मकतां नातिवर्तते । अतो युज्यत एवैतत्, न न युज्यते । अथवा स्थापनाया निक्षेपः स्थापनानिक्षेपः । स्थापना आकारो वस्त्वात्मा निक्षिप्यते स्वात्मनि घटादिः कुम्भकारादिभिः, मुमुक्षुभिरात्मा । तथेन्द्रोऽपीन्द्रा परस्परतो भेदो धर्माभेदादित्यत आह-यथा च जीवत्वं तत्पूर्वं जीवपूर्वं पारिणामिकेन चैतन्येन 10 सर्वपरिणामाभिमुखेनाऽव्यक्ताकारमसद्भावस्थापनं सततं तिष्ठत् स्थाप्यते तथा पुद्गलानामपि वर्णादिपारिणामिका भावा असद्भावस्थापनेन महाश्वेत- सिन्दूरादिवर्णकजातम्, अतस्तयोरेकता, कस्मात् ? आकारतत्त्वैकत्वात् बुद्ध्या [ss] क्रियमाणत्वेनाभेदात् तत्परिणामात्मकत्वात् तथा तथा स्थाननियमादभेद इति । 1 अत्र चोदयति-यदि स्थापनयेत्यादि । अयमभिप्रायः - यदि स्थाप्याकारानाकार वस्तुनोऽतिरिक्तस्योद्देर्रेयस्य देवदत्तस्य स्वरूपं चित्रादि स्थाप्यवस्तु आपद्यते ततस्तद्वश्चित्रादेः स्थाप्यस्य स्वरूपं कस्माद् देव - 15 दत्तादिरुद्देश्योऽर्थो नापद्यते, तुल्ये स्थापयितृवशाद् व्यतिरिक्तार्थस्वरूपापत्तिहेतुत्वे स्थापनायाः ? तथा इन्द्रतामक्षादिरापद्यते नाक्षतामिन्द्र इत्यत्र को विशेषहेतुः ? इति सद्भावासद्भावस्थापनयोश्चोद्यमेतत् । अत्रोच्यते - नन्वसावपीत्यादि यावद् न न युज्यते । नैतदनिष्टम्, इष्यत एवैतत् अतो न दोषः । यथा चित्र - लेप्यादि स्थाप्यमिन्द्रोद्देशेन इन्द्रो भवति तथेन्द्रोऽप्यक्षादिर्भवति । अपि च सोऽपीन्द्रनाम - ४००-२ गोत्रकर्मस्थाप्यत्वात् स्थापनानिक्षेपात्मकतां नातिवर्तते, 'पुरुषाद् नामकर्म नामकर्मणो देवदत्तादिता' 20 इत्यादिग्रन्थेन भावितत्वात् । तस्मात् स्थापनानिक्षेपत्वे सत्येव जीवकर्मणोर्योगवादिपरिणामवैचित्र्यं व्यक्ताकारवैश्वरूप्यमभिहितचित्रलेप्यादिदृष्टान्तसाधर्म्यं नातिवर्तते । अतो युज्यत एवैतत् न न युज्यते, द्विः प्रतिषेधस्य प्रकृत्यापत्तेः । एवं तावत् ' स्थापनया निक्षेपः' इति तृतीयासमासे स्थापाना निक्षेपद्रव्यार्थनयव्यापिता दर्शिता । अथवेत्यादि षष्ठीसमासेऽपि दर्शयितुमाह । स्थापनाया निक्षेप इति समासः कर्मणि षष्ठीं 25 कृत्वा । किं कर्म ? स्थापनैव । का सा स्थापना १ आकारः । कोऽसावाकारः ? वस्त्वात्मा । स एव निक्षिप्यते, क ? स्वात्मनि । कः ? घटादिः । केन ? कुम्भकारादि [भि]रिति व्याख्यातः षष्ठीसमासार्थोऽपि वस्तुतः प्रस्तुते व्यापकत्वप्रदर्शनार्थमाह- मुमुक्षुभिरात्मा स्वात्मनि निक्षिप्यते इति वर्तते, कीदृश इति चेत्, कर्मामिश्रः स्थाप्यते स्वाकारेऽविविक्तः सन् विविक्तरूपत्वेन । तथेन्द्रोऽपी ॥ १णामभिमु प्र० ५ दृश्यतां पृ० ५९८ पं० ४ ॥ प्रस्तुतो यपिकत्व य० ॥ 5 ४ शस्य प्र० ॥ २ महाश्वेता प्र० ॥ ३ तथा स्थाननियमा भा० ॥ ६त्म प्र० ॥ ७ (कुम्भकारादिनेति ? ) ॥ ८ 'प्रस्तुत पिकत्व भा० । ९ (कर्ममिश्रः ? ) ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे निन्द्रयोविवेकमजानतां पुंसां साक्षात् प्रदश्यते; यस्माद् न तदाकारविनाभूत इन्द्रो घट इव विकुक्षिविनाभूतः। अथवा स्थापनायां निक्षेपः स्थापनानिक्षेपः। न नाम्नि निक्षिप्यते, स्थापनायामेव निक्षिप्यते । यतो नामापि सहार्थेन तत्तत्रमेव । स्थानकरणजन्मानः शब्दा5कारास्तद्गम्याश्चार्थाकाराः सर्वे स्थापनाविपरिणामविजृम्भितमात्रम् । तदभावे शब्दार्थयोरभावादाकाराग्रहणे च तयोरग्रहणात् । द्रव्यमपि स्थापनानिक्षेप एव आकारमयत्वादू द्रव्यस्य । यथा श्रीपर्णीदारु द्रव्यमन्तीनाकारं तस्य तस्याकारविशेषस्य । त्यादि अविविक्तविविक्तस्थानलक्षणस्थापनानिक्षेपात्मकत्वं जगतः प्रत्यक्षीक्रियते व्यापित्वाद् लक्षणस्यास्य, 10 इन्द्रानिन्द्रयोविवेकमजानतां पुंसां स इन्द्रः साक्षात् प्रदर्यते । कस्मात् ? यस्माद् न तदाकारे त्यादि, नयनशबलवर्णताद्याकारमन्तरेण इन्द्राभावात् तदाकारतत्त्व एवेन्द्र इत्युक्तत्वात् । किमिव ? ४०१-१ घट इव विकुक्षित्वादिविनाभूतः, यथा घटो विकुक्षित्वाद्याकाराइते नास्ति तदात्मक एवास्ति तथा इन्द्रोऽपि स्वाकारविनाभूतो नास्ति तदात्मैवास्तीति । ___ अथवा स्थापनायामित्यादि सप्तमीसमासो वा । स्थापनायां निक्षेपो स्थापनानिक्षेप इति 15 ऐवकारार्थो द्रष्टव्यः, तद् व्याचष्टे-न नाम्नि न शब्दे निक्षिप्यते, किं तर्हि ? स्थापनायामेव निक्षिप्यते । कस्मादिति चेत्, अत आह-यतो नामापि सहार्थेन तत्तन्त्रमेव, आकारतत्र एव शब्दोऽर्थश्च । तद् भावयति-स्थानकरणेत्यादि, अकारादयो वर्णाः प्रतिनियतकण्ठोदिस्थांनाकारजन्मानः सङ्गत्या नैरन्तर्येण उच्चरन्तः सुप्-तिङन्तादिविशेषाकाराः तद्गम्याश्च नामाख्यातवाच्यद्रव्यक्रियाकाराः सर्वेऽन्तर्भूताकारतत्त्वस्थापनाविपरिणामविजृम्भितमात्रम् । किं कारणम् ? तदभाव इत्यादि, आकाराभावे शब्दार्थयोर20 भावादाकाराग्रहणे च तयोरग्रहणात् । एवं तावन्नामनिक्षेपः स्थापनानिक्षेपान्तर्भूत उक्तः । द्रव्यनिक्षेपोऽपि स्थापनान्तर्भूत इति ब्रूमः, तद्यथा-द्रव्यमपीत्यादि, द्रव्यनिक्षेपोऽपि स्थापनानिक्षेप एव आकारमयत्वाद् द्रव्यस्य, यथा श्रीपर्णीदारु द्रव्यं कारणमन्तीनाकारं तस्य तस्याकारविशेषस्य तदव्यक्तसामान्यव्यक्तेस्तथाऽऽकारसम्परिग्रहमात्रमिति स्थापनैव द्रव्यमपि । एवं नामद्रव्यनिक्षेपौ स्थापना निक्षेप एव । १ अविविक्तस्थान भा० ॥ २°वर्मता भा० । वर्त्मता य० ॥ ३ एवकारार्थे भा० ॥ ४ “अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा। जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च ॥ १३ ॥.."संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्विमात्रिकम् । घोषा वा संवृताः सर्वे अघोषा विवृताः स्मृताः ॥१०॥ स्वराणामूष्मणां चैव विवृतं करणं स्मृतम् ।"-पा० शिक्षा ॥ “योऽयं शब्दः......... स्थानकरणाद्यनुगृहीतो विवर्तते ।"-वाक्यप० स्ववृत्ति १।४७ ॥ ५°दिनास्था य०॥ ६ स्थानकरणजन्मानः इति पाठोऽप्यत्र समीचीनो भाति ॥ ७ मुद्गम्या भा० । पदभ्या य०॥ ८चेतयों प्र०॥ ९°व्यक्षेस्तथ भा० । व्यक्षेपस्तथा य० ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाद्रव्यार्थ स्वरूपम् ] द्वादशारं नयचक्रम् । ६०१ भावोऽप स्थापनैव । क्रियोपयोगरूपादिनीलादिशिवकादिरूपभेदो भाव आकार एव । अक्षाद्यसद्भावस्थापनायामपि रूपान्तरव्यावर्तनेन रूपान्तराकरणादभिप्रेताकारवृत्तो नामबुद्ध्यध्यारोपस्तत्कर्मणः द्रव्यार्थस्थापनेन्द्रस्थूणावत् । एतत्तत्त्वाध्यवसायादेव लिङ्गसमाचारदेवताप्रतिमानमस्करणादि लोके । अत्रापि विशेषाकार एव परमार्थः । तस्यैकभवनस्य स्थापनानिक्षेपे कार्ये भावोऽपीत्यादि । भावनिक्षेपोऽपि स्थापनैव आगमतो 'नोआगमतश्च, आगमतस्तत्प्राभृतज्ञ उपयुक्त इत्युपयुक्तो भावः पारिणामिकः, क्षायोपशमिकश्रेष्टा जीवस्य वीर्यान्तरायक्षयोपशमजो भावः, ४०१ - २ पुद्गलानां तु रूपादिर्युगपद्भावी पारिणामिको भावो नीलादिर्वा तद्विशेषः शिवकादिरयुगपद्भावी वा इत्येवमादिरूपा भेदा यस्य सोऽयं क्रियोपयोगरूपादिनीलादिशिवकादिरूपभेदो भावः । स आकार 10 एव, आभवनमेव पूर्वोक्तविधिना | एवं निक्षेपत्रयं स्थापनानिक्षेप एव सङ्क्षेपतो रूपान्तरव्यावर्तनेन रूपान्तराकरणात्मक स्थापनास्वरूपानतिक्रमात् । एतल्लक्षणानुगृहीतत्वाद सद्भाव स्थापनाऽव्यक्ताकाश सती स्थापनेत्यपादयितुकामः पराशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह- अक्षाद्यसद्भावेत्यादि । अत्रापि रूपान्तरं चेद् व्यावर्त्य रूपान्तरं नाssकुर्यात् रूपान्तरस्य इन्द्रादेरक्षनिक्षेपप्रतिपाद्यस्यार्वरोधः प्रतिपत्तिर्न स्यात् भवति तु । तस्मादविरुद्धोऽभिप्रेतीकारे वृत्तो 15 नाम्ना शब्देन ' इन्द्र:' इति बुद्ध्या वाध्यारोपः तत्कर्मणः अक्षनिक्षेपस्थापनाकर्मणः, किमिव ? द्रव्यार्थ - स्थापनेन्द्रस्थूणावत् यथा रूपान्तरव्यावृत्त्या रूपान्तर ( रा ? ) करणाद् द्रव्यार्थस्थापनेन्द्रार्था स्थूणा इन्द्रस्तथाऽक्षा दिरिति । " 5 एतत्तत्त्वाध्यवसायादेव लिङ्ग- समाचार - देवताप्रतिमानमस्करणादि लोके, नैतदुपपत्त्या प्रतिपाद्यं 'स्थापनैव सर्वम्' इति लोके रूढत्वात् । तथाहि - पाषण्डिनां लिङ्गग्रहणानि यथागममाकार - 20 विशेषप्रसिद्धेस्तत्सहचारिणो नियमा अर्हदुद्रेन्द्रबुद्धादिदेवताप्रतिमा स्थापनानि तन्नमस्कार जपस्तुतिबलिमाल्यादिभिरभ्यर्चनानि च प्रतिविशिष्टाकारनिबन्धनानि दृष्टानि, न हि दृष्टाद् गरिष्ठं प्रमाणमस्तीत्येवं, स्थापनाद्रव्यार्थ नयमतमुक्तम् । अत्रापीत्यादि । अस्यापि नयस्योत्तरमिदम् । आकारोऽपि द्विविध:- सामान्याकारो विशेषाकारश्च । तत्र विशेषाकारः स्वरूपमेव परमार्थः, न सामान्याकारः । तस्य परमार्थस्य एकभवनस्य स्थापनानिक्षेपे 25 कार्ये सामान्याकारद्रव्यार्थ उपसर्जनं प्रधानस्य परमार्थस्य सद्भावस्याऽसद्भाव उपकारित्वात्, पाण्यङ्गुलि १ नोगमश्च य० । नागमश्च भा० । 'ऽनागमतश्च' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ २ " भावो द्विविधो वेदितव्यः पूर्ववदागमनोआगमभेदात् । तत्प्राभृत विषयोपयोगाविष्ट आत्मा आगमः । जीवादिप्राभृतविषयेणोपयोगेनाविष्ट आत्मा आगमतो भावजीवो भावसम्यग्दर्शनमिति चोच्यते ।" - तत्त्वार्थराजवार्तिक. ११५॥ ३ 'दियुगप प्र० ॥ ४ स्थापनाया आकारस्वरूपत्वाद् रूपान्तरव्यावर्तनेन रूपान्तरस्य आकरणात्मकं यत् स्थापनाखरूपं तदनतिक्रमादित्याशयो भाति ॥ ५ कारसती य० ॥ ६ त्यादयितुकामः प्र० ॥ ७ नाकुर्यात् प्र० । दृश्यतां पृ० ६०२ पं० १४ ॥ ८ वबोधः इति सम्यग् भाति ॥ ९ भवि तु प्र० ॥ १० दृश्यतां पृ० ६०२ पं० २० ॥ ११ रूपान्तरकरकरणाद् भा० । रूपान्तकरणाद् य० । दृश्यतां पृ० ६०१ पं० १२,१४ ॥ १२ त्येव प्र० ॥ १३ अत्रापि भा० ॥ नय० ७६ ४०२-१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं । अष्टम उभयनियमारे सामान्याकारद्रव्यार्थ उपसर्जनम् । परमार्थतस्तु अविकल्प्यतत्त्वत्वाद् न पाण्यादीनि स्वरूपतः । कुतस्तेषां स्थापना द्रव्यतः ? क्षेत्रतो युगपद्भाविपर्यायेषु विशेषव्यतिरेकेणार्थाभावाद् नास्ति स्थापना । कालतो बालाद्ययुगपद्भाविपर्यायेष्वपि विशेषव्यतिरेकेणार्थाभावात् कथं स्थापना 5क्रियतां कस्य वा? असद्भावस्थापनायाश्च [ द्रव्यार्थत्वात् सद्भावस्थापनायाश्च पर्यायार्थत्वात् द्रव्यार्थप्राधान्ये ] इतरनिराकरणम् । योऽपि नामबुद्धयध्यारोप उक्तः सोऽपि नामद्रव्यार्थपर्यायार्थयोर्विषयः। स च विशेषभवनमेव। द्रव्यद्रव्यार्थस्तु विध्यादिभङ्गेषु व्याख्यातो दूषितः। इतस्तु भाव[युक्तवाची शब्दः, नामस्थापनाद्रव्यवाच्येष्टाकरणात् ] । स्थित10 मेवम्................ 'युगपत्तत्त्वम् । त्वक्-पर्व-सन्धि-वर्ण-रेखा-ऽवयव-परमाणु-रूपादिभेदेष्विव प्रत्येक विशेषतत्त्वभवनस्य इतरदुपसर्जनम् । परमार्थतस्तु तेदत्यन्तविशेषे तत्त्वमविकल्प्यमस्ति, न तानि पाण्यादीनि स्वरूपतः, कुतस्तेषां स्थापना द्रव्यतः ? तथा क्षेत्रतो युगपद्भाविपर्यायेषु विशेषव्यतिरेकेणार्थाभावाद् नास्ति स्थापना, आकार आभवनमाकार्ये आकर्तरि वार्थे नास्ति स्थापनाया आकारत्वात् । कालतोऽप्ययुगपद्भाविपर्यायेषु बालादि15 ध्वेकमेकं विशेषभवनं परमार्थः, तद् भावयति बालाद्ययुगपद्भावीत्यादि यावत् कथं स्थापना क्रियतां कस्य वा ? इति गतार्थम् । किश्चान्यत् , सद्भावस्थापनायाः पर्यायार्थत्वादसद्भावस्थापनाया द्रव्यार्थमात्रत्वात् ते द्वे प्ररूपयता त्वया पर्यायार्थप्राधान्यावलम्बि[त्व]मित्थं निराकृतम् , द्रव्यार्थप्राधान्ये वा पर्याया निराकृता अंक्षाद्यसद्भावेत्यादिना ग्रन्थेनेति तद् दर्शयति-असद्भावस्थापनायाश्चेत्यादि यावदितरनिराकरणम् । 20 योऽपि नामबुद्ध्यध्यारोप उक्तः अभिप्रेताकारवृत्त इत्यादि सोऽपि नयान्तरयो मद्रव्यार्थ४०२२ पर्यायार्थ]योर्विषयः । तत्र नामद्रव्यार्थविषयो नामाध्यारोपः, पर्यायार्थविषयो बुद्ध्यध्यारोपः-आगमतो जाणए उवउत्ते भावसामाइयं [ ] ति । स च विशेषभवनमेव । द्रव्यद्रव्यार्थस्त्वित्यादि अतिक्रान्तेषु 'विध्यादिभङ्गेषु द्रव्यद्रव्यार्थो व्याख्यातो दूषितः पुनर्न वाच्यः। इतस्तु भावेत्यादि, अस्मिंश्च शब्दनये उभयनियमभङ्गलक्षणे विशेष एवैको भवतीति शब्दार्थ25 व्याख्यानेन द्रव्यद्रव्यार्थवाच्यं नामस्थापनाद्रव्यार्थवाच्यं चेष्टं न करोतीति भावितमेव । अतो नयस्वरूपमुपनयति-"स्थितमेवमित्यादि यौवद् युगपत्तत्त्वमिति । १ पर्थ प्र० ॥ २ तदंत्यविशेषे य० ॥ ३ द्रव्य प्र० ॥ ४ बालादिष्टेकमेकविशेषभवनं य० । बालादिष्टेकमेकमेकविशेषभवनं भा० । 'बालादिष्वेकमेव विशेषभवनं' इत्यपि पाठः स्यादत्र॥ ५ त द्वे भा० । त द्वे य० ॥ ६ पृ० ६.१५० ३॥ ७°बुद्ध्याध्या' प्र० । दृश्यतां पृ. ६०१ पं० १६॥ ८ “से किं तं भावसामाइए ? २ दुविहे पं०, तं०-आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ भावसामाइए? जाणए उवउत्ते।" इति अनुयोगद्वारसूत्रे १५० ॥ ९विबुद्ध्यादि प्र० ॥ १० शब्देनयेनुभयमभङ्गलक्षणे प्र० ॥ ११ द्रव्यंद्रव्यार्थ प्र० ॥ १२ स्थितमेतमित्यादि य० । स्थितमित्यादि भा० ॥ १३ यावद्यगत्तत्वमित्येव तस्य य० ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनयस्य भावनिक्षेप इष्टः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६०३ क्रियाफलाविसंवादोऽपि च विशेषैकभवनादेव । तद्युक्तं नामादिव्यवहारमङ्गीकृत्य क्रिया प्रवर्तते । नाग्निना शब्देन पच्यते न च [चित्रलिखितेन, तयोर्व्यवहाराक्षमत्वात् , किं तर्हि ? तथावृत्तिभावेनैव । मानमपि] न यथा मानप्रस्थकेन तथा तन्नाना। नामप्रत्ययनामकर्मतत्त्वात् तेनैवेति चेत्, न, चेतनभेद[नियतपृथिव्यादि- 5 तत्त्वाभावे योगवक्रतादिविपरिणामाप्रवृत्तेः फलाभावाद् ] नामकर्माद्यनुपपत्तेः । न च चित्रलिखिताग्निप्रस्थकाभ्यां दहनमाने तयोर्व्यवहाराक्षमत्वात् । द्रव्यमपि च भव्यं तथा तथा भावे एव घटते, त्वन्मते द्रव्यभवने तु न । तथा प्रस्फुटम् 'अग्निद्रव्यम्' इति पुनपुंसकयोर्भावभेदे सामानाधिकरण्यं दृष्टम् । 15 एतस्य दर्शनस्य लोकसंव्यवहारव्यापितां दर्शयति-क्रिया-फलाविसंवादोऽपि चेत्यादि । ऐहिक-10 मोदनादि पचिक्रियादेः स्थालीकाष्ठादिसाधनायाः फलम् , आमुष्मिकं स्वर्गादि दानादेरोदनादिसाधनायाः फलम् , न तत्र काष्ठस्थाल्यादीनि नाममात्राणि न चित्रलिखितानि वा, किन्तु तथाभूतानि पचेभागधि(चेर्भागधे)यानि तान्येव विशेषैकभवनानि । तद्युक्तं नाम-चित्रकाष्ठादिव्यवहारमङ्गीकृत्य भावभवनं क्रिया प्रवर्तते । नाग्निना शब्देन पच्यते, न चेत्यादि भाविता) यौवन्न यथा मानप्रस्थकेन तथा तन्नाम्नेति । नामप्रत्ययनामकर्मतत्त्वात् तेनैवेति चेत् । स्यान्मतम्-प्रागुक्तचैतन्यनामप्रत्ययायत्तं नामकर्म, तत्तत्त्वानि काष्ठादीनि, अतस्तेनैव नाम्ना लोके व्यवहार इति । एतच्च न, चेतनभेदेत्यादि यावद् नामकर्माद्यनुपपत्तेरिति, अत्रापि चेतनभेदेषु यानि पृथिव्यादितत्त्वानि नियतानि तथाभूतियोग्ये ४०३-१ विशेषात्मनि तेषामभावे तिर्यग्गतिनिर्वर्तनीययोगवक्रतादिविपरिणामाप्रवृत्तेः फलाभावः, तदभावात् कुतो नामकर्म ? कुतः काष्ठादिवनस्पतिपृथिव्यम्यादितिर्यक्शरीरत्वादीनि ? अतो विशेषैकभवनमेव क्रिया-फलादि-20 व्यवहारहेतुः न नामशब्द इति सुष्टुक्तम् । तथा चित्रकर्मेत्यत आह-न च चित्रलिखिताग्नि-प्रस्थकाभ्यां दहन-माने तयोर्व्यवहाराक्षमत्वात् , तथावृत्तिभावस्यैव व्यवहारक्षमत्वात् । द्रव्यमपि च भव्यं तथा तथेति । द्रव्यं च भव्ये [पा० ५।३।१०४ ], 'भवति' इति भव्यं तेन तेन प्रकारेण लोकव्यवहारक्षमेण भवनाद् भाव एव घटते, त्वन्मते द्रव्यभवने तु न, अग्निप्रस्थकादि सर्वमेकभाव एव भूतं द्रव्यार्थाभेदात् को द्रव्यशब्देनात्यन्तविरुद्धार्थेन भेदवाचिना 25 तथा तथा भवनार्थेन सम्बन्धः ? । अस्मिन्नर्थे निदर्शनमाह-तथा प्रस्फुटमित्यादि । 'अग्निद्रव्यम्' इति पुनपुंसकयोर्भावभेदे सामानाधिकरण्यं दृष्टम् , नान्यथा तत् । स्यान्मतम्-द्रव्यशब्दस्य दारुसमानाधिकरणत्वाद् नपुंसकं १ भा० प्रतिपाठानुसारेण 'तथेह' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ २ काष्ठानिंदिव्य भा० ॥ ३ यावत्तयथा प्र० ॥ ४ पत्तिरिति भा० ॥ ५ चेतनाभेदेषु प्र० ॥ ६ णातिप्रवृत्तेः प्र० ॥ ७ तथेहिति भा० । (तथेहेति ? ) ॥ ८ भव्यं भव्य प्र०॥ ९ तथा तथा भावनार्थेन य० । तथा भावनार्थेन भा० ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे वारुप्रस्थकत्वाद्वा समानाधिकरणीकरणाद् दारुण्यपि स नावतिष्ठेत । तथाभूत... - दहनोऽग्निः । ६०४ एवं प्रतिपदार्थं भावनिक्षेपः शब्दनयस्यास्योक्तः, न यथर्जुसूत्र [ म् ] । अत्र च शब्दार्थोऽप्यसत्योपाधिसत्यः । यथोक्तम् — असत्योपाधि यत् सत्यं तद्वा शब्द निबन्धनम् वाक्यप० २।१२८ ] | 'विशेषा उपाधयः [ कुण्डलादयो विकारा असत्या यस्य सत्यस्य सर्वभेदानुयायिनः सुवर्णादेः सामान्यस्य ] तदभिधीयते विशेषैरिव सामान्यम् । सते हितं प्रस्थक इति एतच्चायुक्तम्, यस्माद् दारुप्रस्थकत्वाद्वा सँमानाधिकरणीकरणाद् दारुण्यपि से नावतिष्ठेतेत्यतिप्रसङ्गदोषः । कथम् ? यथा द्रव्यत्वाद् दारुप्रस्थकत्वाभेदस्तथा द्रव्यत्वात् पृथिव्युदेका10 द्यभेद् इति दोष एव । स्वमते तु दोषाभावो गुणोत्कर्षश्चेत्यत आह- तथाभूतेत्यादि गतार्थं यावद् दहनोऽग्निः । उक्तार्थनिगमनम्-एवं प्रतिपदार्थं सर्वपदार्थेषु भावनिक्षेपः शब्दर्नयस्यास्योक्तः, न ४०३-२ यथर्जुसूत्र [म् ]; नामादिचतुर्विधनिक्षेपाभिलाषिणो यथा ऋजुसूत्रनयस्य वर्तमानपर्यायग्राहिणो मतं तथा न भवतीति शब्दमतं दर्शितम् ॥ अत्र चेत्यादि । शब्दार्थोऽप्यसत्योपाधिसत्यः, नानन्तरनयनिर्दिष्टोऽन्यापोहः । यथोक्तमिति शिष्टान्तरमँतं च दर्शयति-असत्योपाधि यत् सत्यं तद्वा शब्दनिधन्धनमिति । तद्वाचष्टे - विशेषा उपाधय इत्यादि तदीय एव प्रन्थो यावत् तदभिधीयत इति । सुवर्णप्रकृत्युपमर्दे कुण्डलविकारस्य विशेषस्यासत्यस्य सामान्यवादिमते सत्यं प्रकृतिः सामान्यं प्रतिपाद्यम् । तथा पुरुषादिसामान्यस्य प्रतिपादका विशेषा उपाधयस्ते ते प्रकृतिपुरुषेश्वराः स्वागमेषु । विशेषैरिव सामान्यमिति प्रतिपादनसाधर्म्येण 20 दृष्टान्तः । तंत्र शब्द उपनिबद्धो विकार कृतित्ववदिति । तत् संहृत्याऽऽचार्य: 'सते हितं सत्यम्' इति 15 १ “अन्ये त्वाहुः - यदसत्योपाधि सत्यं स शब्दार्थ इति । तत्र शब्दार्थत्वेनासत्या उपाधयो विशेषा वलयाङ्गुलीयकादयो यस्य सत्यस्य सर्वभेदानुयायिनः सुवर्णादेः सामान्यात्मनः तत् सत्यमसत्योपाधि | शब्दनिबन्धनमिति शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमभिधेयमित्यर्थः ।”-तत्त्वसंग्रहपञ्जिका पृ० २८४ । सन्मतिवृत्ति पृ० १८० । २ 'विशेषा उपाधयः [ कुण्डलादयो विकारा असत्याः, सत्यं सर्वभेदानुयायि सुवर्णादि सामान्यम् ] तदभिधीयते विशेषैरिव सामान्यम् ।' ईदृशमपि मूलमंत्र सम्भवेत् ॥ ३ सामाना भा० । ( सामानाधिकरण्यकरणाद् ? ) ॥ ४ समानावतिष्ठेते भा० । समानावतिष्ठते य० । ( समानोऽवतिष्ठेते ? ॥ ५. दक्याद्वयभेद भा० ॥ ६ 'नयस्योक्तः भा० ॥ ७ मत्तं दर्शयति भा० ॥ ८ तुलना - "सत्यं वस्तु तदाकारैरसत्यैरवधार्यते । असत्योपाधिभिः शब्दैः सत्यमेवाभिधीयते ॥ अध्रुवेग निमित्तेन देवदत्तगृहं यथा । गृहीतं गृहशब्देन शुद्धमेवाभिधीयते ॥ सुवर्णादि यथा भिन्नं स्वैराकारैरपायिभिः । रुचकाद्यभिधानानां शुद्धमेवैति वाच्यताम् ॥” - वाक्यप० ३।२।२-४ आसां कारिकाणां विस्तरार्थो वाक्यपदीयस्य हेलाराजरचितवृत्तितोऽवगन्तव्यः ॥ ९ उपाध्यायास्थते य० ॥ १० श्वराष्वागमेषु भा० । श्वराविष्वागमेषु य० । (श्वरादयः स्वागमेषु ? ) (श्वरा आगमेषु ? ) ॥ ११ तत् शब्द भा० ॥ १२ प्रकृतित्वदवदिति प्र० । ( प्रकृतित्वादिति ? ) ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ शब्दार्थोपवर्णनमस्मिन्नये] द्वादशारं नयचक्रम् । सत्यम् , कर्मणि चतुर्थी । भवव्यापि रूपादिशिवकादिपर्यायवृत्तितत्त्वं सत्यम् । असत्याः पुनरुपाधयोऽस्य द्रव्यं मृद् घट इत्यादिप्रवृत्तयस्तदाभाः। एवमेव च...... आनीयताम् [ ]। सत्यस्य.... 'तदाख्यानमुपसर्जनम् , गृहोपलक्षणकाकवत् । तथा जातिशब्दो विशेषार्थः । तद्वचनेनोक्तमपि विशेषवस्तु उक्तवत् । सापि चोक्तवत्, वाग्विसर्गकालोपलक्षणनक्षत्रदर्शनश्रुतिवत् । अन्यथा तच्छब्दार्थतायां । १०४-१ तद्धितार्थं व्युत्पाद्य विभक्तिमाह-कर्मणि चतुर्थीति षष्ठ्यर्थे, चतुर्थी चाशिष्यायुष्यमैद्रभद्रकुशलसुखार्थहितैः [पा २।३।७३] इति विहितत्वात् हिनोतेर्दधातेर्वा धातोः कर्मणि द्वितीयस्यां प्राप्तायां षष्ठीचतुथ्यौँ विभाष्येते। अधुना स्वमतं तेन समीकुर्वन् भावयति-भवव्यापीत्यादि । रूपादिशिवकादिपर्याया वृत्तिरस्य तत्त्वस्य तदविकल्पं शिबिकावाहकाँनेनेवेश्वरस्तत्पर्यायवृत्तितत्त्वं याति सततं वर्तते, देशभिन्नं रूपादि 10 कालभिन्नं शिवकादि सत्यम् । असत्याः पुनरुपाधयोऽस्य लिङ्गाद्युपाध्युपायेन निदर्शनम्-'द्रव्यं मृद् घटः' इत्यादिप्रवृत्तयस्तदाभाः रूपादिशिवकादिपर्यायतत्त्वाभासाः । तद्वस्तुव्यापिवदाभासते सामान्यम् , तद्विशेषः परमार्थः सन् । एवमेव चेत्यादि एतदर्शनसंवादीदमिति ज्ञापकमेतेन लक्षणेन सङ्गृहीतं यावदानीयतामिति । तद्वयाख्या-सत्यस्येत्यादि यावत् तदाख्यानमुपसर्जनमिति गतार्थम् । दृष्टान्तः-गृहोपलक्षण-15 काकवदिति । कतरद् देवदत्तस्य गृहम् ? इति प्रश्ने प्रतिवचनम्-'यत्रासौ काकः' इति काकशब्दो गृहार्थप्रतिपादनार्थत्वात् काकार्थ एव सन् गृहार्थ इत्युच्यते तथा उदितस्वार्थवत् जातिशब्दो विशेषार्थ इति । तद्वचनेन तदर्थत्वप्रकारेण वचनेन उक्तमपि विशेषवस्तु उक्तेन तुल्यमुक्तवत् न परमार्थत उक्तमेव तद् गम्यते ["इ ?]त्यादि जातिगतानां सत्ता-द्रव्य-पृथिवी-मृद्-घट-कुण्ड-कुण्डिकादिलिङ्गसङ्ख्यादीनां संवादिनां विसंवादिनां च या सामानाधिकरण्यगतिस्तया निरूपितं यादृच्छिकैमर्थवत्त्वमनर्थिकाया 20 एव सत्यास्तस्याः । सापि चोक्तवदिति, तस्या अपि जातेरभिहितन्यायेन परार्थत्वादर्थवत्त्वम् , अनर्थकत्वं स्वार्थेन । किमिव ? वाग्विसर्गकालोपलक्षणनक्षत्रदर्शनश्रुतिवत् , यथा 'नक्षत्रं दृष्ट्वा वाचो विसृजन्ति' इति नक्षत्रदर्शनमत्रातत्रम् , नक्षत्रदर्शनयोग्यः कालोऽत्र तदर्थेन पश्यतिना उक्तवदुक्तः, परमार्थेन तु पश्यतिः स्वार्थे एव वर्तते तथा जातिशब्दो विशेषार्थ इति । अन्यथा मुख्यन्यायेन तच्छब्दार्थताया १“एतदथैर्योगे चतुर्थी वा स्यात् पक्षे षष्ठी। आशिषि आयुष्यं चिरजीवितं कृष्णाय कृष्णस्य वा भूयात् । एवं मद्रं, भद्रं, कुशलं निरामयं, सुखं शम् , अर्थः प्रयोजनं, हितं पथ्यं वा भूयात् । आशिषि किम् ? देवदत्तस्यायुष्यमस्ति । व्याख्यानात् सर्वत्रार्थग्रहणम्।"-पा०सिद्धान्तकौमुदी। २ मद्रकुशल य० ॥ ३ सचद्वयापी भा? ॥ ४ यानेनेतेश्वर यानेनेतिश्वर भा० । 'शिबिकावाहकयानेन इव ईश्वरः' इति पदच्छेदः ॥ ५ द्रव्य मृद प्र०॥६ व्यादिवदा य० । च्यादिवदा भा०॥ ७ सामान्यतद्विशेष: य० । सामान्यद्विशेषः भा० ॥ ८ (परमार्थसन् ?) ॥ ९ संवादितिदमिति प्र० ॥ १० स्वार्थवत भा० । स्यार्थवत य० । (वार्थगतजातिशब्दो?) ॥ ११ अत्र कश्चित् पाठः खण्डितोऽशुद्धो वा भाति ॥ १२ ककर्थबंधनमन भा० । किकिर्थबंधमन य० ॥ १३स्तस्या प्र०॥ १४ दृश्यतां पृ० १३५ पं० १३, टिपृ० ५८ पं० २०-२३ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे पुनरुक्तदोषाद् विशेषशब्दाप्रयोग एव स्यात् । अत एव नियमार्था पुनः पुनः श्रुतिः, तदर्थत्वात् पूर्वश्रुतेः। नियमः स्वार्थव्यवस्थापनम् । सञ्चारि चैतत्, द्रव्यनय..........। 'युगपदयुगपत्......."| यावच्च ......... तावत् सर्वमनेन शब्दनयशब्दार्थेन व्याप्तम् । एवमेव च विशेषप्रधान5 शब्दार्थव्यवस्थापनार्थमिदमपि नै जातिशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः। वाचको नियमार्थोक्तेर्जातिमद्वदपोहवान् ॥ मित्यादि, पुनरुक्तदोषात् सामान्यशब्देनोक्तत्वाद् विशेषशब्दाप्रयोग एव स्यात् , उक्तार्थानामप्रयोगः [पा० म० भा० २।११] इति न्यायात् । ४०.18 . अत एवेत्यादि । सत्यवृत्त्या नोक्तो विशेषः, उपाधिवृत्त्योक्तोऽप्यनुक्त एव । नियमार्था पुनः पुनः श्रुतिर्विवैक्षितार्था, कस्मात् ? तदर्थत्वाद् विशेषार्थत्वाद् विशेषणार्थत्वात् पूर्वश्रुतेः सामान्यश्रुतेः ब्राह्मणादेः । तस्माच्छ्रवणकालक्रमेण पुनः श्रुतिरिति विशेषशब्द उच्यते । कोऽसौ नियमो नाम ? इत्युच्यते-नियमः स्वार्थव्यवस्थापनं विवक्षितेऽर्थेऽवधारणम् । सञ्चारि चैतदिति, न पुनस्तत् सामान्यशब्देन उक्तवदुक्तं वस्तु व्यवस्थितमेव, किं तर्हि ? सञ्चारि विशेषपरम्परया । तत्र कारणं सञ्चरणे 15 द्रव्यनयेत्यादि, एवंसमवस्थस्यार्थस्य सत्त्वात् । किं पुनः सत्यमिति चेत् , युगपदयुगपदित्यादि । तस्य विशेषस्य प्रधानस्य प्रत्याय्यस्य प्रत्यायकत्वेन उपसर्जनमात्रप्रवृत्तिरसत्योपाधिरर्थः, तद्दर्शयति-यावच्चेत्यादि गतार्थम् तावत् सर्वमनेन 'शब्दनयशब्दार्थेन व्याप्तमिति । एवमेव चेत्यादि एतन्न्याये व्याप्तिप्रदर्शनद्वारेण दर्शनान्तरं निराचिकीर्षुराह । विशेषप्रधान20 शब्दार्थव्यवस्थापनार्थमिदमपीति तद्विचारवस्तुसूत्रम् न जातिशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः। वाचको नियमार्थोक्तेर्जातिमद्वदपोहवान् ॥ इति । जातिशब्दो विशेषार्थनियमोक्तेर्भेदानामवाचकः, व्यभिचारादानन्याच्च । जातिमतो वाचकत्वे च ये दोषास्तेऽन्यापोहाभिधानेऽपीति प्रतिज्ञा। १ 'युगपदयुगपत्तत्त्वस्य विशेषस्य प्रधानस्य उपसर्जनमात्रप्रवृत्तिरसत्योपाधिरर्थः' ईदृशमपि मूलमत्र स्यात् ॥ २“न जातिशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः । वाचको योगजात्योर्वा भेदार्थैरपृथक्श्रुतेः ॥” [प्र० समु० ५।२ ] इति दिङ्नागेन यदुक्तं दूषणं तद् दिङ्नागस्याप्यपोहपक्षे समानमेवेति प्रतिपादनार्थमिदं प्रतिवचनं मल्लवादिनोक्तम् ।। २ °वक्षतार्था प्र० ॥ ४ युगपदित्यादि य० ॥ ५ प्रत्ययोस्य य० ॥ ६ शब्देनय प्र० ॥ ७ इत आरभ्य 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इति बौद्धाचार्यदिङ्गागस्य मतं निराक्रियते । तत्रेदमवधेयम्-दिङ्गागेनापोहवादोऽनेकेषु ग्रन्थेषु सिद्धान्तितः । तत्र दिनागस्य के ग्रन्थं लक्ष्यीकृत्य उभयनियमनयेनापोहवादोऽत्र प्रतिविहित इति निश्चतुं न पार्यते तथापि पृ०४१७-१ इत्यत्र 'सामान्यपरीक्षाकारलिखित एवात्रापि' इति वक्ष्यमाणोल्लेखदर्शनात् सामान्यपरीक्षान्तर्गतोऽपोहवादोप्यऽत्राभिप्रेतः स्यादिति सम्भाव्यते । दिनागेन बहवो ग्रन्थाः संस्कृतभाषायां रचिताः, ते च प्रायः सर्वेऽपि नष्टाः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागमतनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । द०७ सर्वेषां स्वग्रन्थानां विषयसंग्रहाय यः प्रमाणसमुच्चयो वृत्त्या सह दिङागेन रचितस्तत्र पञ्चमेऽपोहपरिच्छेदे विस्तरेणापोह निरूपणं वर्तते । अतः सवृत्तिकस्य प्रमाणसमुच्चयस्य 'विशालामलवती'टीकायाश्च भोटभाषानुवादान् मुहुः पर्यालोच्यापोहपरिच्छेदादत्यन्तमुपयोगी अंशो भोटभाषानुवादतः संस्कृतभाषायां परिवर्त्य इहोपन्यस्यते इति नयचक्रेऽपोहचचार्या सर्वत्र यथास्थानं सोऽनुसन्धेयः। [प्रमाणसमुच्चयान्तर्गतोऽपोहवादः] उक्तं प्रमाणद्वयम् । केचिच्छाब्दमपि प्रमाणान्तरं मन्यन्ते । तत्र न प्रमाणान्तरं शाब्दमनुमानात् तथाहि तत् । कृतकत्वादिवत् स्वार्थमन्यापोहेन भाषते ॥१॥ यस्मिन् विषये शब्दः प्रयुज्यते तस्य येनाङ्गेनाविनाभावितया सम्बद्धस्तत् कृतकत्वादिवदर्थान्तरव्यवच्छेदेन द्योतयति । ततोऽनुमानान्न भिद्यते । ये तु 'जातिशब्दः खभेदान् सर्वानेवाभिधत्ते । उक्तेषु नियमार्थ भेदशब्दः' इत्याहुस्तत्रोच्यते न जातिशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः। वाचको योगजात्योर्वा भेदाथैरपृथक्श्रुतेः ॥२॥ न जातिशब्दो मेदानां* वाचक इति वक्ष्यति । जातिशब्दस्तावत् सदादिः द्रव्यादीनां न * वाचक आनन्त्यात् । आनन्ये हि मेदानामशक्यः शब्देन सम्बन्धः कर्तुम् । न चाकृतसम्बन्धे शब्देऽर्थाभिधानं युक्तम् , स्वरूपमात्रप्रतीतेः । किञ्चान्यत् , व्यभिचारतः। सच्छब्दो हि यथा द्रव्ये वर्तते तथा गुणादिष्वपीति व्यभिचारात् संशयः स्यात् , नाभिधानम् । येऽपि मन्यन्ते 'जातिमात्रस्य तद्योगस्य वा वाचकः सम्बन्धसौकर्यादव्यभिचाराच्च' इति तदयुक्तम् , वाचको योगजात्योवा भेदाथैरपृथक्श्रुतेः । तथाहि-सद् द्रव्यम् , सन् गुणः, सत् कर्म' इति भेदाथैर्द्रव्यादिशब्दैः सामानाधिकरण्यं न स्यात् । तच दृष्टम् । न हि सत्ता योगो वा द्रव्यं गुणो वा भवति, किं तर्हि ? द्रव्यस्य गुणस्य वा । * उक्तं चविभक्तिभेदो नियमाद् गुगगुण्यभिधायिनोः । सामानाधिकरण्यस्य प्रसिद्धिद्रव्यशब्दयोः ॥* [वाक्यप० ३।१४।८] सम्बन्धोऽप्यत्र सम्बन्धिधर्मवाच्योऽभिधीयते। तथा भावीकृत्योच्यते भावोऽप्यन्येन युज्यते ॥३॥ *सम्बन्धनेन सम्बन्धः । स रागादिवदन्यसम्बद्धः। तस्मात् सम्बन्धिधर्मेण सम्बन्धस्याभिधेयत्वात् खधर्मेण सम्बन्धवाचिशब्दाभाव इति अस्य जातिशब्दाभिधेयत्वं नोपपद्यते । ये तु विशेषशब्दैः सामानाधिकरण्यात् सम्बन्धसौकर्यादव्यभिचाराच्च जातिमन्मानं विवक्षितमित्याहुः तत्र तद्वतो नास्वतन्त्रत्वादुपचारादसम्भवात् । तद्वतो नास्वतन्त्रत्वात् । तथापि सच्छब्दो जातिस्वरूपपात्रोपसर्जनं द्रव्यमाह, न साक्षात् , इति तद्वतघटादिभेदानाक्षेपादतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावः । न ह्यसत्यां व्याप्ती सामानाधिकरण्यम् । यथा शुक्शब्दः स्वाभिधेयगुणमात्रविशिष्टद्रव्या मानाद् द्रव्ये सतोऽपि मधुरादीन् नाक्षिपति ततोऽतद्भेदत्वमेवमत्रापि प्रसज्यते। किञ्चान्यत् , उपचारात । सच्छब्दो हि भूतार्थेन स्वरूपं जातिं वाह। तत्र प्रवृत्तस्तद्वति उपचर्यते । न हि यो यत्रोपचर्यते स तमर्थ भूतार्थेनाह। सारूप्यस्यापि असम्भवात् । तद्वति च गुणसारूप्यं न प्रत्ययसंक्रान्तितो नापि गुणोपकारात् सम्भवति । कथं न प्रत्ययसंक्रान्तित इति चेत्, उपचारे भिन्नत्वाद् बुद्धिरूपस्य भृत्ये राजोपचारवत् ॥ ४॥ 1 दृश्यतां टिपृ. ९५॥ 2 दृश्यतां तत्त्वसंग्रहपञ्जिका. पृ० ४४१॥ 3 *** एतदन्तर्गतः पाठः PS मध्ये नास्ति ॥ 4 Psv' मध्येऽत्रान्यादृशोऽनुवादः ॥ 5 'तद्वतो नास्वतन्त्रत्वाद् भेदाजातेरजातितः। अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तस्तेनान्यापोहकृच्च्छुतिः' ॥ इति दिङ्गागस्य ग्रन्थान्तरस्थायाः कारिकायास्तु नयचके खण्डनं दृश्यत इति ध्येयम् ॥ 6 तुलनातत्त्वसंग्रहपलिका. पृ० ३१०॥ 7 "न ह्यसत्यां व्याप्तावित्यादि । व्याप्तिराक्षेपः । यथा रूपशब्देन मधुरादीनामनाक्षेपोऽतद्भेदत्वात् तैः शब्दैः सामानाधिकरण्यं न भवति 'रूपमाम्लम्' इति। व्याप्तौ तु भवति 'रूपं नीलम् , इति।"-विशाला०पृ. २४३ A ॥ 8 तुलना-“यः पुनरस्मिन्नेव पक्षेऽपरो दोषोऽभिहितः-सच्छब्दोऽपि भूतार्थन स्वरूपं जातिं वाह । तत्र प्रवृत्तस्तद्वत्युफ्चर्यमाणो गौणः स्यात्-इति सोऽपि समानः।"-मी० श्लो० वा०शर्करिका पृ० ६१॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे यथा 'यो मृत्यः स स्वामी' इति भृत्ये स्वामिशब्दाभिधाने राज्ञि भृत्ये च समाना बुद्धिन भवति । उपचारश्च जातिशब्दस्य तद्वति । क्रमेणानभिधानाञ्च कुन्दशुक्त्यादिशौक्लयवत् । यत्र समाना प्रतीतिस्तत्र क्रमेणाभिधानं दृष्टम् , यथा कुन्दस्य कुमुदस्य शुक्तेश्च शौक्लयमिति । जातितद्वतोयुगपच्छब्दप्रयोगान्न प्रत्ययसंक्रान्तितः सारूप्यम् । गुणोपकारात् ताद्रूप्ये प्रकर्षः स्याद् विना धिया ॥५॥ यदि स्फटिकवद् गुणोपकारात् तद्वान् गुणस्वरूपः स्यात् तथा सति गुणप्रकर्षबुद्धिनिरपेक्षा द्रव्ये प्रकर्षबुद्धिः स्यात् । न हि स्फटिके रक्तबुद्धेर्भाव उपधानबुद्धिमपेक्षते, अविमलेषु मेदबुद्ध्यभावात् । किञ्चान्यत् संसर्गरूपात् सर्वत्र मिथ्याज्ञानं प्रसज्यते । सर्वो हि शाब्दः प्रत्ययोऽर्थेषु संसर्गरूपेण व्यवच्छिन्नस्ततः स्फटिकप्रत्ययवदयथार्थः स्यात् । किश्चान्यत् सामान्यादिबहुत्वे च युगपञ्च ग्रहीतृषु ॥६॥ उपकारो विरुध्येत सर्वैर्मेचकदर्शनम्।। सामान्यादिबहुत्वे च युगपञ्च ग्रहीतृषु उपकारो विरुध्येत । यदा च बहवो ग्रहीतारो भवन्ति गुणवतः शुक्लादेः तद्यथा-घटः पार्थिवो द्रव्यं सन् शुक्लो मधुरः सुरभिरित्येवमादि तदा गुणोपकारो विरुध्यते । न हि शक्यं तदा द्रव्येण एकगुणरूपेण स्थातुम् , अविशिष्टत्वात् । नाप्येकदेशेन गुणरूपमनुभवितुं शक्यम् , कृत्स्नस्य घटादिरूपप्रतीतेः । सर्वैर्मचकदर्शनम् । अथ पुनः सर्वैर्घटत्वादिभिर्युगपदुपकारः कृत्स्नस्य क्रियते ततः सर्वेषां प्रत्येक घटादिरूपग्रहणाभावाद् मेचकदर्शनं युगपत् सर्वरूपापत्तेः स्यात् । - PSvi c. ed. पृ०६६-६८. N. ed. पृ० ७३ B-७५ B, Psvi N. ed. पृ० १५७ B--१५९ A, P. ed. पृ० १५६-१५७ [ VT. D.ed. पृ. २३७ B-२४८ A] । तुलना—“ व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः ॥ २।२।६६ ॥..................न व्यक्त्याकृतिजातयः पदार्थ इति केचित् । कुतः ? विकल्पानुपपत्तेः । सदित्येतदेव व्यापकत्वादुपादाय चिन्त्यते । सदित्यनेन पदेन पुनर्जातिरभिधीयते पिण्डो वा सम्बन्धो वा जातिमान् वा पदार्थः। तत्र न तावजातिरभिधीयते भेदार भिन्न विभक्तिकत्वात् । यद्ययं जातिवाचकः सच्छब्दो भवति 'सद् द्रव्यम्' इति भेदवाचिना द्रव्यशब्देन सह सामानाधिकरण्यं न प्राप्नोति । न हि भिन्नार्थवाचकानां सामानाधिकरण्यं पश्यामः । न हि गवाश्वमिति सामानाधिकरण्यं दृष्टम् । अथ द्रव्यादिवृत्तित्वात् सत्ताया एव द्रव्यादिशब्दैः सह सामाना. धिकरण्यम् , तथापि पारतच्यात् सत्ताया गुणत्वम् , गुणगुण्यभिधायिनोश्च शब्दयोः सामानाधिकरण्यं न दृष्टमिति यथा शङ्कस्य शौक्लयमिति । एतेन सम्बन्धो व्याख्यातः । सच्छब्दः पिण्डानां वाचको भविष्यतीति न युक्तं पिण्डानामानन्त्यात् । न ह्येकस्य शब्दस्यानेकद्रव्यगुणप्रपञ्चेन सम्बन्ध आख्यातुं शक्यः । न चानाख्याते शब्दार्थसम्बन्धे शब्दादर्थप्रतिपत्तियुक्ता स्वरूपमात्रप्रतीतेः व्यभिचाराच्च । सच्छब्दश्रवणाच्च द्रव्यगुणकर्माणीति परिप्लवमाना बुद्धिरवतिष्ठते । न च यस्मादभिधानात् परिप्लवते बुद्धिस्तदभिधानमिति युक्तं वक्तुम् । तस्मात् सच्छब्दो भेदानां न वाचक इति । जातिमन्मात्राभिधायकोऽपि सच्छब्दो न भवति । कस्मात् ? अस्वतन्त्रत्वात् । न हि सच्छब्दात् तद्भेदा घटादयो गम्यन्त इति तद्वद्घटादिभेदानाक्षेपात् सामानाधिकरण्याभावः । अथवा अस्वतन्त्रत्वादिति सच्छब्दः प्राधान्येन सत्तायां वर्तते । तत्र वर्तमानः तद्वत्युपर्यते । यच्च यत्र वर्तमानमन्यत्रोपचर्यते न तत् तस्याभिधायक मञ्चशब्दवदिति । उक्तं चात्र । किमुक्तम् ? तद्वतामानन्त्यात् न सच्छब्देनाभिधानं युक्तमिति । तद्वति च न गुणसारूप्यात् प्रत्ययसंक्रान्तिः यथा स्वामिशब्दस्य भृत्ये । न गुणोपरागात् यथा नीलः स्फटिक इति क्रमवृत्त्यभावाद् युगपदसम्भवाच्च अयथार्थज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गाच्च । तस्मान्न जातिमन्मात्राभिधायकोऽपि । असाधारणविशेषणविशेष्याभिधायको भविष्यतीति न युक्तम् , अन्यत्र प्रत्ययाभावप्रसंगात् । न चान्या गतिरस्ति । तस्मादन्यार्थापोहकृच्छ्रुतिरिति अन्यशब्दार्थान्तरापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यत इति ।"-न्यायवार्तिक २।२।६६ ॥ 1 यथा यः स्वामी स भृत्य इत्यत्र राज्ञि भृत्ये च Psv* 2 “अत्र भिक्षुणोक्तम्-किञ्चित् कुत्रचिद् वर्तमानमुप. कारमासजद्वर्तते यथा लाक्षा स्फटिकेऽनुरजनोपकारेण वर्तते । वर्तते चेजातिव्ये तया तस्यानुरञ्जनाद्युपकारः कर्तव्यः। ततश्च जातिबुद्धया विनैव तदुपकृतद्रव्यमात्रप्रतीत्या भवितव्यम् । न हि लाक्षानुरक्ते स्फटिके गृह्यमाणे तद्ब्रहणमपरमपेक्षते । न चैवमत्रास्ति तेन नास्ति उपकारको(तो) द्रव्ये वृत्तिः-इति । तदुक्तम्-गुणोपकारतो द्रव्ये प्रकर्षः स्याद्विना धिया ।---- इति।"-मी० श्लो० वा० शर्करिका. पृ० ६५-६६ ॥ 3 अविमले VP. ॥ 4 स्फटिकवत् सर्व ज्ञानमयथार्थ स्यात् Psvin 5 सर्वमेचकदर्शनम् (2)॥ 6 सर्वरूपप्रतीतेः VP. ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । कथम् ? अन्यापोहकृच्छुतिः। शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते इत्युच्यते [ ]। अर्थो च स्वसामान्यलक्षणावुक्तौ, तृतीयार्थासम्भवात् । स्वार्थ एव तावदवधार्य:-कः स्वार्थः ? स्वार्थः खलक्षणोऽनन्यः प्रत्यक्षविषयः। स इह सविकल्पार्थे न सम्भवति स्वार्थः प्रत्यक्षविषयः। न च ततोऽन्यः स्वार्थः । शब्दान्तरार्थापोहश्च न खार्थः। तद्द्वयातिरिक्तश्च तृतीयो न कश्चिदन्योऽस्ति । तिष्ठतु तावत् स्वार्थः। 5 तथा च जाति-सम्बन्ध-जातिमदभिधानानामसम्भवादन्यापोहकृच्छुतिः[ कथम् ? इत्युपपत्तिप्रश्नः । भेद-जातिमद भिधानपक्षेषु दोषदृष्टेरादापन्नम् 'अन्यापोहकृच्छ्रुतिः' इत्यन्यापोहं वर्णयति "शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिः 'अभिधत्ते' इत्युच्यते' इत्यन्यापोह-४०५-१ वादिनोक्तम् , अर्थों च स्वसामान्यलक्षणावुक्तौ, नातोऽन्यत् प्रमेयमस्ति इति ततोऽन्यतृतीयार्थासम्भवात् स्वार्थ एव तावदवधार्यः, तावच्छब्दस्य क्रमार्थत्वादर्थान्तरस्याप्यवधारयिष्यमाणत्वात् , 10 शब्दान्तरार्थापोहमात्रोक्तौ 'दोषोऽसत्त्वप्राप्तिः, तस्मात् तावताऽपरितोषात् 'स्वार्थे कुर्वती' इत्युक्तः कः स्वार्थः ? उच्यते-स्वार्थः स्वलक्षणः, अन्यतोऽन्यः स्वः, अनन्यः स एवेत्यर्थः प्रमाणयोरपि नियतविषयावधृतेः प्रत्यक्षविषयः स स्वार्थ इति । स इहेत्यादि । इह शब्दार्थे सविकल्पार्थे सामान्यतः सविकल्परूपेऽध्यारोपापवादात्मनि स न सम्भवति स्वार्थः प्रत्यक्षविषयः, 'स्वलक्षणमनिर्देश्यम्' [प्रै० समु० ११५, २।२ ? ] इत्युक्तत्वात् प्रत्यक्षविषयस्य । स्यान्मतम्-प्रत्यक्षादर्थादन्योऽस्ति स्वार्थ इति चेत्, 15 तन्न च ततोऽन्यः प्रत्यक्षार्थात् स्वार्थः। शब्दान्तरार्थेत्यादि । अन्यापोहः स्वार्थो न भवति, तहयातिरिक्तश्च तृतीयो न कश्चिदन्योऽस्ति, लक्ष्यद्वित्वावधारणात् ततश्च प्रमाणद्वित्वावधारणात् । तस्मात् तृतीयोऽर्थोऽपि नास्ति, कुतः स्वार्थः ? इत्यत आह-तिष्ठतु तावत् स्वार्थः असत्त्वादविचार्य इत्यर्थः । तथा चेत्यादि । एवं च कृत्वा शब्दवाच्यविचारे प्रस्तुते जाति-सम्बन्ध-जातिमदभिधाना १'अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तस्तेनान्यापोहकृच्छुतिः।' इति प्रमाणसमुच्चयस्य पञ्चमेऽपोहपरिच्छेदे द्वादश्यां कारिकायां दृश्यते, किन्तु तस्य दिङ्नागविरचितायां वृत्तौ 'शब्दान्तरार्थापोहं हि' इत्यादिव्याख्याया अदर्शनादिदं दिङ्नागस्यान्यस्माद् ग्रन्थादत्रोद्धृतं भाति ॥ २ दृश्यतां पृ. ४१६-१॥ ३“उक्तं प्रमाणद्वयम् । केचित् शाब्दमपि प्रमाणान्तरं मन्यन्ते। [तत्र PSY' ] न प्रमाणान्तरं शाब्दद्मनुमानात् तथाहि तत् । कृतकत्वादिवत् स्वार्थमन्यापोहेन भाषते ॥ ५॥१॥ शब्दो यस्मिन् विषये प्रयुज्यते तस्य येनाङ्गेनाविनाभावितया सम्बद्धस्तत् कृतकत्वादिवदथान्तरव्यवच्छेदेन द्योतयति ततोऽनुमानान्न भिद्यते । [पृ० १५७ B].........यस्माजातिशब्दः कथञ्चिदपि भेद-सामान्य-सम्बन्ध-जातिमद्वाचको न युज्यते तेनान्यापोहकृच्छतिः[प्र. समु०५।१२] । तस्मात् 'कृतकत्वादिवत् स्वार्थमन्यापोहेन भाषते' इति यद् [ उक्तं ] तदेव स्थितम् | पृ० १६०]।” इति प्रमाणसमुच्चयवृत्ती पञ्चमेऽपोहपरिच्छेदे दिङ्नागेनोक्तम् । Psv"पृ० ७३ B-७६ B॥ ४ दृश्यतां पृ० ५४७-५४८ । तुलना-"वाक्स्वभावोऽन्यवागर्थप्रतिषेधनिरङ्कुशः । आह च स्वार्थसामान्य ताहग वाच्यं खपुष्पवत् ॥ १११ ॥” इति समन्तभद्ररचितायाम् आप्तमीमांसायाम् ॥ ५ प्रमाणसमुच्चयवृत्त्यादौ दिनागेनोक्तौ । दृश्यतां टिपृ० १०० पं० १ टि. १ ॥ ६ दोषो सत्वाप्राप्तिः प्र. । ( दोषः सत्त्वाप्राप्तिः ?)॥ ७°ऽपरतोषात् भा० । परतोषात य० ॥ ८ दृश्यतां टिपृ० १०४ पं० १३ । प्रमाणसमुच्च 'स्वसंवेद्यमनिर्देश्य रूपमिन्द्रियगोचरः' इति कारिका दृश्यते । 'वलक्षणमनिर्देश्यं रूपमिन्द्रियगोचरः' इति तु पाठभेदेन नयचक्रवृत्तौ अष्टमेऽरे पृ० ४३७-२ इत्यत्र उद्धृता, अत इयं कारिका दिनागस्य ग्रन्थान्तरादत्रोद्धृता प्रतीयते । प्रमाणसमुच्चयस्य द्वितीयपरिच्छेदस्य द्वितीयश्लोके तु 'स्वलक्षणमनिर्देश्य ग्राह्यभेदात् तदन्यथा' इति पाठो भाति ॥ नय०७७ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे इत्युक्तं त्वया न प्रत्यक्षविषयवार्थत्वेन । अनुमानविषयोऽपि नैवास्य स्वार्थः, अपोहार्थवरूपत्वात् । अग्निरनग्निन......। भेदोपादाने वाऽस्वार्थत्वमपोहार्थादन्यत्वात् परप्रत्यायनादित्वभिन्नार्थत्वाच । अथ कचिददृष्टोऽपि 'अन्यापोहः' इत्यस्मादेव शब्दादवगन्तव्यः स्वार्थः, 5 यस्मिन्नन्योऽपोह्यते स स्वार्थः । तदपि न, 'स्वार्थे' इत्याधाराधेयादर्शनात् स्वरूपविधिविनाभूतत्वात् कस्मिन् खार्थेऽपोह्यते ? अन्यशब्दशब्दान्तरार्थयोरस्थितरूपत्वात् को ह्यसावन्यो यस्य यस्माद् वाऽपोहः क्रियेत ? नवादव। नामसम्भवात् 'अन्यापोहकृच्छ्रुतिः' इति भेदपक्षस्य जातिमत्पक्षाविशिष्टत्वेष्टेः शब्दार्थाववधृत्य उक्तं त्वया, न प्रत्यक्षविषयस्वार्थत्वेनेति त्वद्वचनमेव ज्ञापकम् । ४०० स्यान्मतम्-अनुमानविषयः स्वार्थ इति । तच्चानुमानविषयोऽपि नैवास्य शब्दस्य स्वार्थः, अपोहार्थस्वरूपत्वात् । तदर्शयति-अग्निरनग्निर्नेत्यादि, तस्यापि चापोहार्थस्याख्येयत्वात् , न चाख्यातोऽसौ 'ईदृशः स्वार्थः' इति विशेष्य । स्यान्मतम्-अग्निमत्त्वविशिष्टदेशादिः स्वार्थो भिन्नस्तत्सम्बन्धीति चेत् । एवं तर्हि भेदोपादाने वा अस्वार्थत्वमपोहार्थादन्यत्वात् , अपोहार्थस्यैव त्वयानुमानत्वेष्टेः । किश्चान्यत् , परप्रत्यायनादित्वभिन्नार्थत्वाच्च, सचानुमानविषयः स्वार्थः आत्मनः प्रत्यायने लिङ्गादि15 वस्तुरूपः, परप्रत्यायने शब्दवाच्यो ज्ञानरूपो ज्ञानार्थत्वाच्छब्दप्रयोगस्येत्ययुक्तमस्य स्वार्थस्य द्वैरूप्यम् । एवं न प्रत्यक्षविषयो नानुमानविषयः स्वार्थो घटते शब्दस्य त्वन्मतादेव । अथ क्वचिदित्यादि । शब्दार्थविचारे प्रत्यक्षानुमानविषयत्वविचारोऽसम्बद्ध इति चेत् , तन्न, 'तृतीयार्थासम्भवात्' इत्यादेः प्रदर्शितत्वात् । तथापि त्वदनुवृत्त्या यद्यपि प्रत्यक्षानुमानेविषययोरदृष्टोऽपि 'अन्यापोहः' इत्यस्मादेव शब्दादवगन्तव्यः स्वार्थः, अन्यस्यापोहो न स्वस्यार्थस्य, स्वार्थे 20 चान्यस्यापोहो न निराश्रय उक्तदोषात् । तस्मात् यस्मिन्नन्योऽपोह्यते स स्वार्थ इति 'घटः' इत्युक्ते 'अघटो न भवति पटादिः' इति घटे पटाद्यपोहाद् घटः स्वार्थ इति शब्दविषय एव स्वार्थो निश्चित इति मतम् । तथापि तदपि न स्वार्थ इत्याधाराधेयादर्शनात् , स एवाधाराभिमतः स्वार्थ आधेया भिमतश्च शब्दो न दृश्येते तौ स्वरूपविधिविनाभूतत्वात् , यस्मिन् 'अन्यस्य शब्दान्तरार्थस्यापोहं ४०६-१ करोति' इत्युच्यते स एवाधारोऽर्थो न विधीयते शब्दश्चाधेयः । तस्मात् तथोरदर्शनात् कस्मिन् 25 स्वार्थेऽपोह्यते इत्यभिसम्भन्त्स्यते, न चेद् विधीयते अन्यस्यार्थस्य सूत्रोक्तस्य भाष्योक्तस्य शब्दान्तरार्थस्य १वा न्यापोह प्र०॥ २ मत्प्रक्षाविशिष्टत्वेष्टः य० । मत्प्रत्यक्षाविशिष्टत्वेष्टेः भा० ॥ ३ हार्थः स्वरू' य० ॥ ४ आत्मान प्र० । अत्र 'आत्मने' इति पाठोऽपि समीचीनो भाति, 'स्वस्मै इदं स्वार्थम् , परस्मै इदं परार्थम्' इत्याशयेन 'आत्मने' इत्यपि पाठोऽत्राभिप्रेतो भवेत् ॥ ५ ज्ञानात् नानार्थत्वा य० । ज्ञानात् नानानार्थत्वा भा० । अत्र ज्ञानाधानार्थत्वा इत्यपि पाठो भवेत् ॥ ६ सत्यक्षा प्र०॥ ७°संबंध प्र०॥ ८ पृ. ६०९ पं० २॥ ९नविषयो प्र.॥ १० अनस्यपोहे प्र०॥ ११ दृश्यतां पृ०६०९ पं० ११॥ १२ इइत्या भा० १३ दृश्यते प्र० ॥ १४ अन्यार्थस्य भा० । अयं भा०प्रतिपाठोऽपि समीचीन एव । 'तेनान्यापोहकृच्छतिः' इति दिङ्गागप्रणीते सूत्रे योऽन्यार्थ उक्तः 'शब्दान्तरार्थापोहं हि' इत्यादि भाष्ये च यः शब्दान्तरार्थ उक्तस्तस्य स्वरूपानवस्थानमित्याशयः ॥ १५°रार्थ च प्र०॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । __ योऽनन्यो न भवतीति चेत्, ननु स एव विधेरनन्यः प्रत्यक्षः। इतरथा अन्यो न भवति अनन्य इति व्यावृत्तिमात्रस्थितित्वादप्रतिष्ठितस्वार्थयोस्तदतयोर्ग्रहणाभावात् कुतः कोऽन्यः ? इतरेतराश्रयभावदोषश्च 'तस्मादन्यः, अन्यस्मात् सः' इति । अथान्यापोहलक्षणवाक्यानुवृत्त्या व्यावृत्तिमान स्वार्थो गृह्यते, न व्यावृत्तिमानं 'न सदसत्' इति। हिशब्दो यस्मादर्थे, यस्माद् वृक्षशब्दोऽवृक्षशब्दनिवृत्ति स्वार्थे कुर्वन् । स्वार्थ वृक्षलक्षणं प्रत्याययति एवं निवृत्तिविशिष्टं वस्तु शब्दार्थः द्रव्यादि सन्, न निवृत्तिमात्रम् । च स्वरूपानवस्थानम् , विधीयमानस्वार्थानवस्थानात् । तस्मिंस्तु विधेयेऽवस्थिते 'शब्दान्तरमन्यः शब्दस्तदर्थश्च' इति वक्तुं युज्येत अत आह-अन्यशब्दशब्दान्तरार्थयोरस्थितरूपत्वात् को ह्यसावन्यो यस्य यस्माद् वापोहः "क्रियेत स्वरूपविधिविनाभूत इति, न सम्भवत्येषोऽर्थ इत्यर्थः। योऽनन्यो न भवतीति चेत्, स्यान्मतम्-यथैव स्वार्थः 'अन्यो न भवति' इत्यन्यस्यापोहेन 10 प्रतीयते तथैवान्योऽपि 'अनन्यो [न] भवति' इति तदपोहेन प्रतीयते इति चेद् मन्यसे, अत्र ब्रूमः-ननु स एव विधेरित्यादि, वेन विधेयेनोपलक्षितस्य अनन्यस्य प्राणादन्यप्रतीतेरनन्यः स एव स्वार्थो विधेयः, तस्याग्रहणे 'अनन्यः' इति बुद्धेरभावात् 'अनन्यः स्वार्थो विधेः' इत्यापनम् । इतरथा अन्यो नेत्यादि यावद् ग्रहणाभावात् , यथा 'घटादन्यः पटः' इत्युक्ते स न भवति, एवं पटादन्यो घटः सोऽपि न भवत्येव, द्वयोरपि व्यावृत्तिमात्रस्थितित्वात् । ततश्चाप्रतिष्ठितखार्थयोस्त यो]रयं स्वः अन्यः स इति तदतयो- 15 ग्रहणाभावः । ततश्च कुतः कोऽन्यः ? कुतः कस्यापोहः ? इत्यपोहशब्दार्थाभावः । किञ्चान्यत् , इतरेतराश्रयभावदोषः । कथमिति चेत् , उच्यते-तस्मादन्यः, अन्यस्मात् स इति । इति हेत्वर्थे, यस्मादन्यबलात् स प्रसिध्यति तद्बलादन्यः, इतरेतराश्रयाणि च न प्रकल्पन्त इत्युक्तम् । एवं लौकिकान्यापोह- . शब्दार्थमात्रानुसारेण परीक्ष्यमाणेऽन्यापोहे न घटते स्वार्थः।। ४०६-२ ... अथान्यापोहेत्यादि यावद् न सदसदिति अन्यापोहलक्षणवाक्यानुसारेण परीक्षामाह-20 अन्यापोहलक्षणवाक्यं तेनान्यापोहकच्पुतिः[ ] इति, तस्य व्याख्या-शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते [ ] इति, तदनुवृत्त्या व्यावृत्तिर्यस्मिन् विद्यते स्वार्थे स गृह्यते न व्यावृत्तिमात्रम् , हिशब्दस्य हेत्वर्थत्वात् । तद्दर्शयति–'हि'शब्दो यस्मादर्थे, तन्निरूपयति लौकिकोदाहरणेन-यस्माद् वृक्षशब्द इत्यादि यावत् प्रत्याययति इति । एवं निवृत्तिविशिष्टं वस्तु शब्दवाच्यार्थः, कतमोऽसौ ? द्रव्यादि सन् द्रव्य-पृथिवी-मृद्-घटत्वादि, न निवृत्ति-25 ... १ दृश्यतां पृ० ४१६-१॥ २ दृश्यतां पृ० ५४८ पं० १२-१४ ॥ २ °वस्थानात् तस्मिंस्तु विधेये वस्थानात् तस्मिंस्तु विधेय इति द्विर्भूतः पाठः प्रतिषु ॥ ४ क्रियते य० ॥ ५ नन्यो भव' य० ॥ ६ अन्योन्य भवति य० । अन्योन्यान्य भवति भा०॥ ७ष्वेन विधियेनोपालक्षितस्य प्र० ॥ ८ग्रहणेइत्यति बुद्धे य० ॥ ९स्तरयं श्वः अन्यः प्र०॥ १० इति हेत्वों भा० । ( इतिहेत्वर्थे ? )॥ ११ दृश्यतां पृ. ३४ टि. ४ ॥१२ माणो य० ॥१३ दृश्यतां पृ० ६०९ टि. १॥१४ यस्मा वृक्ष" भा०। यस्मादवक्ष य० । दृश्यतां पृ० ५४८ पं० १२-१४ । सिद्धसेनगणिविरचितायां तत्त्वार्थवृत्तावुद्धृतेऽस्मिन् दिङ्गागवचने "हिशब्दो यस्मादर्थे, यथा वृक्षशब्दोऽवृक्षशब्दनिवृत्तिं स्वार्थ कुर्वन् स्वार्थ वृक्षलक्षणं प्रत्याययतीत्युच्यते एवं च निवृत्तिविशिष्टं वस्तु शब्दार्थः न निवृत्तिमात्रम्" [ तत्त्वार्थवृ० ५।२४ पृ० ३५७ ] इति पाठदर्शनादत्र यथा वृक्ष इत्यपि पाठः स्यात् ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे यथा कृतकत्वस्य अनित्यत्वविशिष्टः शब्दोऽनुमेय एवं शब्दोऽपि खमभिधेयमर्थान्तरव्यवच्छेदविशिष्टं द्योतयति प्रमाणत्वात् । अत्रापि विधिरेवाङ्गीकृतः, अव्यावृत्तस्वार्थार्थत्वात् 'देवदत्त ! गामभ्याज शुक्लाम्' इति गवानयनविधायकवाक्यवत् । व्यावृत्तिव्यतिरिक्तस्य स्वार्थस्य विधानं त्वयैवोक्तम् , शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते, हिशब्दो यस्मादर्थे, यस्माद् वृक्षशब्दोऽवृक्षनिवृत्तिं स्वार्थ कुर्वन् स्वार्थ वृक्षलक्षणं प्रत्याययति [ ] इति त्वद्वचनादेव स्वार्थविधानस्य प्रदर्शनात् । निवृत्तिविशिष्टं वस्तु शब्दार्थों द्रव्यादि सन् [ ] इत्यादिग्रन्थेनापि खार्थविधानमेव प्रदर्शितम् । अन्यथा सर्वत्रैव व्यावृत्तिमात्रम्, न स्वार्थो नाम कश्चिदस्तीति स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरित्यनर्थकं स्यात् । 10 मात्रं खपुष्पतुल्यमिति दृष्टान्तः । अथवा 'अनुमानानुमेयसम्बन्ध एव वाच्यवाचकसम्बन्धः' इति मन्यमानो यथा कृतकत्वस्येत्यादि सैतत्स्वरूपव्याख्यानमुदाहृत्यानुमानम् एवं शब्दोऽपीत्यादि दार्टान्तिकं च सतत्स्वरूपव्याख्यानं निगमयति 'प्रमाणत्वात्' इति हेतुधर्मं च तयोस्तुल्यम् । शेष गतार्थम् । उभयोरन्यापोहविशिष्टार्थप्रत्यायनतुल्यत्वादिति पिण्डार्थः । यथा वक्ष्यति निदर्शनम्-न प्रमाणान्तरं शाब्दमनुमानात् [ प्र० समु० ५।१] इति । 15 अत्र ब्रूमः-अत्रापीत्यादि । त्वयैवं ब्रुवतापि अपोहातिरिक्तः स्वार्थ उक्तः, अतो विधिरेवा ङ्गीकृतः । कस्मात् ? अव्यावृत्तस्वार्थार्थत्वात् , अव्यावृत्तस्वार्थोऽर्थोऽस्येत्यव्यावृत्तस्वार्थार्थमेतद् 'व्यावृत्तिमान स्वार्थो गृह्यते' इत्यादि वाक्यम् । यस्याव्यावृत्तस्वार्थार्थत्वं तद् वाक्यं विधिमङ्गीकुर्वद् ४०७-१ दृष्टम् , यथा 'देवदत्त गामभ्याज शुक्लाम्' इति गवानयनविधायकं वाक्यमगवादिदोहादिव्यावृत्तिमद्देव दत्तकर्तृकशुक्लगवकर्मानयन क्रियास्वार्थम् , तथा 'घटः पटो न भवति' इत्यन्यापोहोपलक्षितस्वार्थवाक्यमिति 20 त्वयैवोक्तम् । तद्यथा-व्यावृत्तिव्यतिरिक्तस्येत्यादि परवाक्यप्रत्युच्चारणम् । तद्विवरणं च हिशब्दो यस्मादर्थे इत्याद्युपक्रम्य हेत्वर्थभावनोदाहरणं वृक्षशब्दः सव्याख्यादण्डकः सोत्त[र]पूर्वपक्षप्रत्युच्चारणं सव्याख्यानं यावत् प्रदर्शनादिति त्वद्वचनादेव स्वार्थस्य विधानं स्फुटीकृतम् । किश्चान्यत् , निवृत्तिविशिष्टमित्यादि । एवं निवृत्तिविशिष्टं वस्तु शब्दार्थो द्रव्यादि सन् इत्यादिना ग्रन्थेन कृतकत्वस्यानित्यत्वविशिष्टशब्दानुमेयत्वदृष्टान्तेन सँभावनेन एवं शब्दोऽपि स्वमभिधेय20 मित्यादिना स्वार्थविधानमेव प्रदर्शितम् । अन्यथेत्यादि । एवमनिच्छतस्ते दोषः-यथा वृक्षशब्दप्रयोगे पटाद्यवृक्षान्यशब्दार्थव्यावृत्तिरपि प्राप्ता, ततः सर्वत्रैव व्यावृत्तिमात्रम् , न स्वार्थो नाम कश्चिदस्ति, अतः 'स्वार्थ कुर्वती श्रुतिः' इत्यनर्थकं स्यात् । १ दृश्यतां पृ० ६०७ पं० ९॥ २ तत्स्वरूपव्याख्यानेन सहितं सतत्स्वरूपमित्यर्थः ॥ ३ चातयो भा० । (चानयों ?)। ४ “न प्रमाणान्तरं शाब्दमनुमानात् तथाहि तत् । कृतकत्वादिवत् स्वार्थमन्यापोहेन भाषते ॥” इति सम्पूर्णा कारिका प्रमाणसमुच्चयस्य पञ्चमेऽपोहपरिच्छेदे, दृश्यतां पृ० ६०७ पं० ७॥ तत्त्वसंग्रहपञ्जिकायामप्युद्धतेयं कारिका पृ० ४४१ ॥ ५ दृश्यतां पृ० ६११ पं० ४॥ ६ °क्रियस्वा प्र० ॥ ७ दृश्यतां पृ० ६११ पं०६ ॥ ८ सहावनेन प्र०॥ ९ पट्टाद्य प्र०॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् । ६१३ यदपि च तत् सदित्यसन्न भवतीति तदप्यतिपरिश्लथम् । ननु युगपद्भूतपटाद्यभवनेनैव घटभवनं दृष्टम्, युगपद्भूतरसाद्यभवनेनैव च रूपभवनं दृष्टम् । अन्यथा तद्भवने घटो न भवेत् त्वन्मतवदुक्तवच्च । अयुगपद्भाविष्वपि [ अ ] युगपद्भूतपिण्डादि शिवकादिपूर्वोत्तर भवनाभवनेन च भवति 'सन्' इति, अन्यथानुपपत्तेः । यदि तु सदसन्न भवेत् ततोऽन्यापोहो निर्विषय एव भवेत् । ततश्च "भेदो भेदान्तरार्थं तु विरोधित्वादपोहते [ प्र० समु० ५।२८ ] अत्राह - स्यादेतदेवं यदि [ अ ] वृक्षनिवृत्त्या गम्यते स्वार्थः कश्चिदिति, किं तर्हि ? वृक्षः सन्नित्यसन्न भवतीति तस्यापि वृक्षसत्त्वस्यावृक्षासत्त्वमात्रार्थत्वादन्यापोहमेव शब्दार्थमभ्युपगच्छामीति । अत्र ब्रूमः - यदपि च तत् सदित्यसन्न भवतीति सच्छन्दोऽसच्छब्दार्थं निवर्तयतीति ततः 'सत्' इत्युक्ते ४०७-२ ‘असन्न भवति' इत्ययमर्थो गम्यते ततोऽन्यापोह एवेति भवतोक्तं तदप्यतिपरिश्लथम्, दुर्बद्धदारुभारकवद् 10 विशीर्यत इत्यर्थः । कस्मात् ? [ युगपद ] युगपद्भाविनोऽर्थस्यासत्त्वाविनाभाविन एव सत्त्वात् । तत्र तावन्ननु युगपद्भूतपटाद्यभवनेनैव घटभवनं दृष्टं युगपद्भूतरसाद्यभवनेनैव च रूपभवनं दृष्टम्, यद् घटस्य सत्त्वं तत् पटस्यासत्त्वम्, रसस्यासत्त्वं रूपस्य सत्त्वम् । तस्मात् सँदित्यसन्न न भवति, असद् भवत्येव । अन्यथा तद्भवने घटो न भवेत्, पँटस्य सतो घटे भवने घट एव न भवेत्, पटसत्त्वेनावष्टब्धत्वे घटाकाशाभावात् । किमिव ? त्वन्मतवत्, तेवैव हि ' शब्दान्तरार्थापोहं 15 स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते' इति मतमितरेतराभावात्मकं च तत्त्वमिति । किञ्चान्यत् उक्तवच्च, अनन्तरातीतनये 'भावाभावभावनायाम्' इत्युपक्रम्य बहुधोक्तम् । तस्मान्न युक्तं 'सदित्यसन्न भवति' इति । तथा रूपरसादियुगपद्भाविषु योज्यम् । एवं तावद् युगपद्भाविषूक्तम् । अयुगपद्भाविष्वपि [ अ ] युगपद्भूतेत्यादि । पिण्डो यदि न भवेत् कोशक-स्था स क - कुशूल कादिर्वा यदि न भवेत् ततः शिवको भवेत् । एवं कोशकादिष्वपि पूर्वोत्तरभावाभावे वर्तमानभावो भवेत्, न भावे । तथा कपाल - शकल शर्क - 20 कादिभावेषु योज्यं बाल-कुमार - युव- मध्यम स्थविरेषु च तथैव प्रागनेकधा भावितम् ' अभवन्नेव भवति' इति । अथैवं नेच्छसि यदि तु सदसन्न भवेत् तव ततोऽन्यापोहो निर्विषय एव भवेत् । तद्यथा - 'घटः' इत्यघटो न भवतीति नैव स्यात्, घट इत्युक्ते [s] घट एव स्यात् घटश्च न भवेत्, अघटासत्त्वाभावात् घटसत्त्वाभावाच्च । किं कारणम् ? सदसन्न भवति इति घटस्याघटत्वेनात्मा सद्रूपे - 25 पपटादिना भवनात् । ततः को दोषः ? ततश्च इदं दोषजातमनिष्टमापद्यते - भेदो भेदान्तरेत्यादि यावदित्यादि 'आदि' ग्रहणात् सामान्यान्तरभेदार्थाः स्वसामान्य विरोधिनः [प्र० समु० ५।२८ ] इति वा ४०८-१ १ पृ० ६१५ पं० १८ ॥ २ पृ० ६१५ पं० १८ ॥ ३ पृ० ६१५ पं० १९ ॥ ४ " मेदो भेदान्तरार्थं तु विरोधित्वादपोहते । सामान्यान्तरभेदार्थाः खसामान्यविरोधिनः ॥” इति सम्पूर्णा कारिका । दृश्यतां पृ० ४२६-१ ॥ ५ दृश्यतां पृ० ६१५ पं० १९ ॥ ६ सदित्यन्न न भवति प्र० ॥ ७ पटस्यासतो भा० । अयं भा०पाठोऽपि कथञ्चित् सङ्गच्छेत ॥ ८ नाचत्वत्वे प्र० 11 ९ तत्रैव प्र० ॥ १० दृश्यतां पृ० ५५३ पं० २ ॥ ११ भावतायाम् भा० ॥ ९२ दृश्यतां पृ० ६१५ पं० १९ ॥ १३ घटस्य न य० ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे इत्यादि यथार्थ न भवति । नापोहेताप्येवं विरोध्यविरोधित्वात् । अथ युगपदयुगपद्भाविसर्वभावभेदभवनस्य भवननियमो घटाद्यसद्वयुदासेनेति । तदपि न, विदितभवनानुवादत्वात् सदभ्युपगमादसत्सत्त्वात् । नैव चैवं खार्थविशेषगतिः स्यात्, प्रतिपक्षापक्षेपणक्षीणशक्तित्वात् , 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा 5 यथार्थ यथा त्वयाभिवाञ्छितं तथा न भवति, अनृतं तदित्यर्थः । अत्र प्रयोगः-नापोहेताप्येवम् , त्वदुक्तेन विधिना 'सन्नसन् न भवति' इति विरोधित्वात् अस्मन्मतेन 'सन्नसन् भवति' इत्यविरोधित्वात् द्विधापि पक्षधर्मसिद्धेः विरोध्यविरोधित्वादिति । यथा सदित्यसदेव अनपोहात् विरोधित्वेऽपि सति अविरोधित्वात् तथा 'वृक्षः शिंशपा' इति अवृक्षाशिंशपादि नापोहेतेत्यन्यापोहाभावः। अथ युगपदयुगपदित्यादि यावद् व्युदासेनेति । स्यान्मतम् - नाहं ब्रवीमि युगपद्भाविनां घटा10 दिरूपादीनां भावानां शिवकादिबालादीनां वोऽयुगपद्भाविनां भेदभवनेऽन्यस्याभवनं नास्तीति, किं तर्हि ? संवृतिसत्त्वाद् घट एवासन् सन्तानपतिताश्च रूपादय एवासन्तः क्षणिकत्वाद् घटरूपादिसंवृतिसतां मुष्टिपतयादिवदसत्त्वात् सन्नसन्न भवतीति । तस्माद् युगपदयुगपद्भाविसर्वभावभेदभवनस्य भवननियमः ‘सैन्नेव तत्व(त्त ?)द् भवति' इत्युच्यते घटाद्यसद्व्युदासेनेति । इति हेत्वर्थे, अस्मान्न्याया ददोष इति । 15 अत्रोच्यते तदपि न, विदितभवनानुवादत्वात् , एवंवादिनस्ते घटादिरूपाद्यसत्त्वात् तदप्रसिद्धौ घटो रूपादिर्वा भवति न भवति अपोह्यते नापोह्यते वा स्वार्थो न स्वार्थ इत्याद्यनुवादायुक्तिः, प्रसिद्धविदितार्थविषयत्वादनुवादस्य । अनुवदता च त्वया घटो रूपादि च 'सत्' इत्यभ्युपगतम् , ततः सदभ्युप गमात् सुतरामसत्सत्त्वमापन्नम् , अतोऽसत्सत्त्वादुक्तदोषाविमोक्षस्तदवस्थ एव ।। ४०८-२ नैव चैवमित्यादि । रूपादिव्यतिरिक्तघटाद्यसत्त्वाभ्युपगमे अनिर्देश्यपरमनिरुद्धक्षणिकसन्तानिव्यति20 रिक्तसन्तानरूपाद्यसत्त्वाभ्युपगमे च घटादिविशेषः स्वार्थ इति वचनमगतिकम् , नैव 'घटोऽयम्' इति स्वार्थविशेषगतिः स्यात् 'अघटो न भवति' इत्यर्थगतेरभ्युपगमे । कस्मात् ? प्रतिपक्षापक्षेपणक्षीणशक्तित्वात् , 'असन्न भवति' इति प्रतिपक्षस्यापक्षेपणे क्षीणा शक्तिरस्य घटशब्दस्य, यत्र च शब्दे प्रतिपक्षापक्षेपणक्षीणशक्तित्वं तस्य स्वार्थविशेषवचनगति स्ति, यथा अक्षपादपक्षलक्षणे 'साध्यनिर्देशः प्रतिक्षा' १ दिङ्गागवचनेनैव दिङ्गागमतमत्र निराक्रियते । तथाहि दिङ्गागेनोक्तमक्षपादं प्रति--“साध्य निर्देश इत्यत्र सिद्ध्यभावे कृतार्थता । तथा चासिद्धदृष्टान्तहेतुवादः प्रसज्यते ॥ ३३ ॥ नैयायिकास्तु 'साध्यनिर्देशः' [न्या० सू. १।१।३३ ] इति । अत्र सिद्ध्यभावे कृतार्थता । 'साध्य'वचनं ह्यत्र सिद्धिनिवृत्तौ चरितार्थत्वात् साध्यविशेषे नावतिष्ठते । तथा चासिद्धदृष्टान्तहेतुवादः प्रसज्यते। यथा शब्दो नित्यः, अस्पर्शत्वात् , बुद्धिवत् [इति Psvi]। एवं चाक्षुषत्वादनित्य इति । इदमपि साध्यनिर्देशात् प्रतिज्ञा प्रसज्यते।"-प्र०समु०७० ३।३। Psvc. ed. पृ० ४१, N. ed. पृ० ४५ A. I PSv° N. ed. पृ० १२७ A, P. ed. पृ० १२५ B। दृश्यतां पृ० ४३६-१ । प्र० वार्तिकालं० पृ० ५५९, ५६३ । प्र०वा० म० पृ. ४७०॥ २ सदसन् य०॥ ३ यप्दा भा० ॥ ४ तंम नाहं प्र० ॥ ५(चायुग?)॥ ६ सती प्र० ॥ ७ सन्नेव न त्वसन् भवेति' इति ‘सन्नेव न त्वसद् भवति' इति 'सन्नेव तद् भवति' इति वा पाठोऽप्यत्र सम्भाव्यते ॥ ८°मसत्त्वमा य० ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । [ न्या० सू० ।।१।३३] इति वाक्ये साध्यविशेषागतिवत् । घटादिसंवृत्यर्थासत्त्वादगतिरेव सामान्यार्थस्यापि, असत्त्वेनाभ्युपगतत्वात् । अर्थविशेषश्च तवावाच्य एव । अस्मन्मतेन तु यदा तदाऽनेनैव विषयेण भवितव्यम् , उक्तवत् । तथा चान्यापोह उपेक्ष्यः। ननु चात्राप्यपोहो देशकालभेदानां परस्परतः। अत एवोपेक्ष्यः । भवतु वा 5 [न्यायसू० १।१।३३ ] इत्यस्मिन् वाक्ये साध्यहेतुदृष्टान्ताभासयोरपि असाध्यत्वनिवृत्तिलक्षितयोः साध्यत्वात् साध्यविशेषस्वार्थागतिः तथा[s]घटो न भवतीति अंघटनिवृत्तौ चरितार्थत्वाद् घटस्वार्थविशेषागतिः स्यात् । स्यान्मतम्-साध्यसामान्यगतिवद् घटसामान्यगतिः स्यादिति । तन्न, घटादिसर्वसंवृत्यर्थासत्त्वादगतिरेव सामान्यार्थस्याप्यसत्त्वेनाभ्युपगतत्वात् त्वयैव, अत एव चास्माभिरेवमिति शि(विशे)षितमनन्तरातीतासद्वस्तु आन्नानात् असत्योपाधिसत्यशब्दार्थवादिनोऽस्य नयस्य मतेनापि सामान्यार्था-10 वाच्यत्वाद् नास्ति शब्दस्य स्वार्थः । इतश्च नास्ति; यस्मात् अर्थविशेषश्च तवावाच्य एव, यथोक्तम् नार्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वात् सामान्यं तूपदेक्ष्यते ॥ [ ] इति । सामान्यस्यासत्त्वाद् विशेषस्यावाच्यत्वात् कतमोऽन्यः स्वार्थ इति, नास्ति त्वन्मतेनैव । अस्मन्मतेन तु अभिधेयो विधिनैवावश्यम् , यस्मादस्य च वाक्यस्य यदा तदाऽनेनैव विषयेण 15 भवितव्यम् , शब्दाभिधेयेनार्थेन चेत् कार्य सुदूरमपि विचाराध्वना गत्वा यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले ४०९-१ विशेषस्यैव वस्तुत्वादन्यस्यार्थस्याभावादनेन विशेषेणैव विषयेण भवितव्यम् , नान्येन । किमिव ? उक्तवत् । ननु युगपद्भूतपटाद्यभवनेनैव इत्यादि यावद् भवनाभवनेन च भवति ‘सन्' इति, अन्यथाऽनुपपत्तेः । यदि तु सदसन्न भवेत् इत्यादिना यावत् साध्यविशेषागतिवत् इत्येतदवधिना ग्रन्थेन असत्त्वस्यापादितत्वात् । तथा चान्यापोह उपेक्ष्यः, यस्मादन्या[न]पोहरूप एव भावस्तस्मादन्यस्यापोहो नास्तीत्युपेक्ष्योऽ-20 न्यापोहः। __आह-ननु चात्राप्यपोहो देशकालभेदानां परस्परतः। देशतः 'पटो घटो न भवति, घटोऽपि पटो न भवति' इति परस्परतोऽपोहः सिद्धः, तथा 'रूपं रसो न भवति रसोऽपि रूपं न भवति' इति । कालतः पूर्वक्षण उत्तरक्षणभाव्यर्थो नास्ति, उत्तरः पूर्वो न भवति' इति परस्परापोहसिद्धिरेवेति । अत्रोच्यते-अत एवोपेक्ष्यः, यस्मात् 'परस्परता विधिरूपैव' इत्यनेकधा प्ररूपितं तस्माद् 'विधेरेव विशेष- 25 विषयस्य सत्त्वात् ततोऽन्यस्य शब्दार्थस्याभावात् पारस्पर्यस्य विशिष्टार्थविषयत्वाद् विधेरेव व्यावृत्तिरूपत्वाच्चोपेक्ष्योऽन्यापोह इति सुष्टुक्तम् ।। १ दृश्यतां पृ० ६१५ पं० १९॥ २ तुलना-“सामान्यार्था गिरोऽन्येषां विशेषो नाभिलप्यते। सामान्याभावतस्तेषा मृषैव सकला गिरः ॥ ३१ ॥"-आप्तमीमांसा ॥ ३ तथा घटो य० । तथा टो भा० ॥ ४ ऽघट य० । घट भा० ॥ ५"त्वागतिरेव प्र. ॥ ६ मिह विशेषित इत्यपि पाठोऽत्र सम्भाव्यते। तथा चानेन शब्दनयेन सामान्यस्याभ्युपगतत्वादसंगतिपरिहाराय टीकाकृद्भिः 'त्वयैव' इति विशेषितमित्याशयो भवेत् ॥ ७ दृश्यतां पृ० ६१३ पं० १॥ ८ दृश्यतां पृ० ६१५ पं० १॥ ९विधिरेव प्र०॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे तत्रापोहः, तथापि सर्वविशेषयुक्तस्यैव स्वार्थस्य गमनमुपलक्ष्यते । न च पूर्वदृष्टस्य, अज्ञातज्ञानार्थत्वाच्छ्रोतुः। एवं च अर्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वे सामान्यादुपसर्जनात् ॥ 5 अतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावः, असदसच्छब्दाभिधेयवस्त्वविशेषत्वे साक्षादनुक्तेः सतः। __ अभ्युपेत्यापि त्वदुक्तन्यायेनाऽन्यापोहमस्मदिष्टविधिरूपाभिधानमेव ब्रूमः-भवतु वा तत्रापोहः ४०९-२ तथापि सर्वविशेषयुक्तस्यैव स्वार्थस्य गमनमुपलक्ष्यते, स्वरूपविधिविनाभूतस्यासम्भवादपोहस्य विशेषाणामेव सद्भावोदित्युद्राहितार्थवद् विधिरूपेणैवेति । 10 यदप्युक्तम्-पूर्वदृष्टसामान्येन धूमेनाग्न्यनुमानवदभिधानं सामान्यस्य शब्देन न विशेषस्य पूर्वम दृष्टत्वादिति; तद् न च पूर्वदृष्टस्य, न हि लोके पूर्वप्रतिपादनाय शब्दः प्रयुज्यते प्रकाशितप्रकाशनवैयर्थ्यवत् । क्षणिकत्वाच्च पूर्वदृष्टश्विरनष्टः कासौ ? कथं वा शब्देनोच्यते ? ननूक्तम् 'पूर्वदृष्टसामान्येन' इति, उक्तमिदम् , अयुक्तमुक्तम् , सामान्यस्य संवृत्याख्यस्यापोहाख्यस्य चासत्त्वात् । अतो न पूर्वदृष्टस्य गतिः शब्देन, अत आह-न च पूर्वदृष्टस्य, न हि स पूर्वदृष्टः, नापि पूर्वदृष्टेनार्थः, किं कारणम् ? 15 अज्ञातज्ञानार्थत्वाच्छ्रोतुः श्रोता ह्यज्ञातार्थज्ञानेनाऽर्थी, तस्य ज्ञानाधानार्थः शब्दः प्रयुज्यते वक्त्रा न दृष्टज्ञानार्थम् , उक्तार्थानामप्रयोगात् । एवं चार्थशब्दविशेषस्येत्यादि श्लोकः । एवं च कृत्वाऽज्ञातार्थत्वाद् विशेषार्थस्यैव सत्त्वादित्थमस्माभिः पठ्यते अर्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वे सामान्यादुपसर्जनात् ॥ इति । यथासङ्ख्यमर्थविशेषस्य वाच्यता शब्दविशेषस्यैव वाचकतास्माभिरिष्यतेऽनयोरेव सत्त्वात्, न सामान्यार्थशब्दयोरसत्त्वात् । तस्य विशेषस्य पूर्वमदृष्टत्वात् स एवाज्ञातत्वाज्ज्ञाप्यते, केनोपायेन चेत् , उच्यतेसामान्यादुपसर्जनात् । ___ अतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावः 'अतद्भेदत्वे' इति किमुक्तं भवतीति तद् व्याचष्टे-अस४१०-१ दसदित्यादि, 'सत्' इत्युक्तेऽसदपोह्यते 'असन्न भवति' इति तदसदसत् , तदेवासदसच्छब्देनाभिधेयं 'वस्तु असद्व्यावृत्तिसामान्यम् , तस्य विशेषा भेदा न भवन्ति घटादयः सत्वन्तः, तेषामसदसच्छब्दाभिधेयवस्त्वविशेषत्वे साक्षादनुक्तेः सतः सामानाधिकरण्याभाव इति वर्तते । । १ स्वरूपविधिनाभूतस्या य० । स्वरूपविधिनाऽभूतस्या भा० । दृश्यतां पृ० ६१० पं० ६ ॥ २°दित्युद्युद्राहि प्र० । अत्र °दित्याधुद्राहि° इति पाठः सम्भाव्यते ॥ ३°तार्थज्ञानेनार्थ य० । तार्थशानेनार्थी भा० ॥ ४'ऽज्ञातज्ञानार्थत्वाद' इति पाठः सम्यग् भाति ॥ ५ पृ. ४६०-२ इत्यत्रापि दृष्टत्वे इत्येव पाठः । नवमारे तु दृष्टत्वात् इति पाठो निर्दिष्ट इति ध्येयम् ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । कथं साक्षान्न ब्रवीति सत् ? यस्मादन्यापोहेऽपि तावत् साक्षात् प्रवर्तमानस्तद्गतं नित्यत्वादिभेदं नाक्षिपति किमङ्ग पुनरन्यापोहेन व्यवहिते तद्गतान् भेदान् घटादीनाक्षेप्स्यति ? एतदर्थव्यक्तीकरणा) 'सदित्यसन्न भवति' इत्यवश्यं भवतिशब्दप्रयोगाद् ‘भवति' इत्यर्थो मुख्यः श्रयणीयोऽव्याहतः। भेदे तु भवत्यर्थसम्भेदनं स्यात् । असत्त्वविविक्तसत्त्वप्राप्तावेवात्ययस्ते, कुत एव तदन्यापोहः । भवत्य- 5 सम्भेदेऽविविक्तैकसत्त्वप्राप्तौ तवान्यापोहयत्नवैयर्थ्यमेव, घटस्य पटभावादपि । एतद् भावयितुकामः प्रश्नयति-कथं साक्षान्न ब्रवीति सदिति । तस्य भावनार्थ व्याकरणं जातिमत्पक्षतुल्यदोषत्वापादनाय च-यस्मादन्यापोहेऽपीत्यादि यावत् तद्गतान् भेदान् घटादीनाक्षेप्स्यतीति, जातिमतीवापोहेऽपि तावदसव्यावृत्तिमात्रे साक्षात् प्रवर्तमानोऽन्यापोहसामान्यगतं नित्यत्वादिभेदं नाक्षिपति अन्यापोहेऽपक्षीणशक्तित्वात् , किमङ्ग पुनरन्यापोहेन व्यवहिते ‘सदित्यसन्न 10 भवति' इत्यसदसत्त्वेनावच्छिन्नेऽभिधेयभागेऽपोहवति गतान् घटादीन् भेदानाक्षेप्स्यतीति सम्भावनास्ति ? इति पिण्डार्थः । वक्ष्यत्यस्यार्थस्य तदुक्तमेव सभावनं दृष्टान्तम् । सच्छब्दाभिप्रायस्यैवोपवर्णनेनान्यापोहवादिनं तावदुट्टयन्निदमाह-एतदर्थेत्यादि यावत् कुत एव तदन्यापोहः ? एतस्यान्यापोहार्थस्य व्यक्तीकरणार्थं 'सदित्यसन्न भवति' इति वाक्यमवश्यमुपादेयम् , सच्छब्दमात्रादनभिव्यक्तेः । तत्र चावश्यं 'भवति'शब्दः प्रयोक्तव्यः, क्रियापदमन्तरेण सच्छब्देन सह प्रयुक्तनबोरर्थाभावात् भवतिशब्दसहितयोः 15 साफल्यात् । यथोक्तम्-यत्राप्यन्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्राप्यस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषेऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति गम्यते [पा० म० भा० २।३।३] इति । तस्माद् भवतीत्यर्थः स एव मुख्यः श्रयणीयः, १०२ कोऽसौ ? सदर्थ एव । स च अव्याहतः कचिदव्यावृत्तो भावे सर्वत्रैवैष्टव्यः । भेदे तु घटे वर्तमान सत्त्वं पटादिषु न वर्तते [३]त्यसदपि स्यात्, एवं च भवत्यर्थसम्भेदनं स्यात्, मा भूदेष दोष इति तद्भयादसम्भेदाय भेदानाक्षेप एव, गमिष्यमाणघटादिद्रव्यप्रभेदस्य तिरस्कृतपटाद्यपेक्षा सत्त्वस्य प्राप्तिर्मनो- 20 रथैरपि न लभ्येत, असत्त्वविविक्तसत्त्वप्राप्तावेवाऽत्ययस्ते, कुतस्ततोऽन्यस्यापोहः ? अँसदसत्वत र नित्यत्वादयो जातिधर्मा अपोहे संगच्छन्त इति दिङ्गागस्याभिप्रायमत्र निराकरोति । उक्तं हि दिङ्गागेन—“जातिधर्मव्यवस्थितिः॥ ५॥३६ ॥ जातिधर्माश्चैकत्व नित्यत्व-प्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अत्रैव तिष्ठन्ति, अभेदादाश्रयानुच्छेदात् कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च । एवं दोषाभावाद् गुणोत्कर्षाच शब्दोऽर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानेव भावानाह।"-प्र० समु०वृ०५।३६ ।। Psvic.ed. पृ० ७५, N. ed. पृ. ८३ B. | Psv N. ed. पृ. १६७ B. । दृश्यतां तत्त्वसं पं० पृ. ३१६ । तुलना--"अत्र भिक्षुणापोहपक्षे जातिपक्षतुल्यत्वमति दिष्टम् , यथाह-'जातिधर्मव्यवस्थितिः' इति । 'जातिधर्माश्चैकत्व नित्यत्व प्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अत्रैव तिष्ठन्ति' इत्यर्थः । ते इमे वस्तुधर्मा अवस्तुन्यतिदिश्यमाना असूत्रपट कारित्वं सूचयन्तीत्याह-अपि चैकत्वनित्यत्वप्रत्येकसमवायिताः। निरुपाख्येष्वपोहेषु कुर्वतोऽसूत्रकः पटः ॥ १६३ ॥ इति ।"-मी० श्लो० वा०शर्करिका पृ. ७४ ॥ २ दृश्यतां पृ० ६१९ पं० ३॥ ३ तदसन्यापोहः य० ॥ ४ दृश्यतां पृ० २६१ पं०५॥ ५°त्यर्थ स एव प्र० ॥ ६ भावे तैवैष्टव्यः य० । भावे नैवैष्टव्यः भा० । दृश्यतां पृ. ६१८ पं. ७ । 'भावे सन्नेवैष्टव्यः' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ७°नापेक्ष य०॥ ८ असत्वत भा०॥ नय० ७८ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे तु गुणधर्म व स्वतोऽन्यान्सीमानाधिकरण्याभावः । स्यादेवम्अनाक्षिप्तैर व्याप्तैरपि सामानाधिकरण्यं भविष्यति विवक्षावशात् । न ह्यसत्यां व्याप्तौ सामानाधिकरण्यम्, रूपशब्देन मधुरादीनामनाक्षिप्तत्वादव्याप्तत्वात् तच्छब्दैः सामानाधिकरण्यं न भवति, व्याप्तौ तु भवति, यथा रूपमाम्लं रूपं नीलमिति । ६१८ 5 एवाभिधाने शक्त्यभाव: दूरत एवान्यापोह इति न स्वार्थाभिधानं नान्यापोहं वा कुर्यात् सच्छब्दः । तस्मादप्रतिपत्तिरेव शब्दार्थ[स्य ] स्यादिति । अथ मा भूद् भवत्यर्थस्य सम्भेदनं पटाद्यसत्त्वेनेति सर्वत्र भवत्यर्थ एव चेदिष्यते ततः भवत्य स - म्भेदेऽविविक्चैक सत्त्वप्राप्तौ तवान्यापोहयत्नवैयर्थ्यमेव प्राप्तम् । किं कारणम् ? घटस्य परभावादपि, यदि सन् घट इत्युक्ते पटादिरपि सन्नेवेति सर्वस्य सत्त्वेनैवाक्रान्तत्वे च ' सन्नसन्न भवति' इति किंविषयो10 ऽन्यापोहः स्यात्, असन्नामकार्थस्यात्यन्तमभावात् ? इत्यलमत्युद्घट्टनेन प्रस्तुतमस्तु । अयं तु गुणधर्म एवेत्यादि । विशेषणं गुणः, तस्य धर्म एषः, स्वतोऽन्यानित्यादि गतार्थं यावत् सामानाधिकरण्यभावः । सच्छब्दो गुणः विशेषणात् नीलादिवदिति पिण्डार्थः । विशेषणमनुग्राहकमनुग्राह्यं विशेष्यं प्रधानम् । स्यादेन (a) मित्यादि । टीकायां चोदितम् - अनाक्षिप्तैर व्याप्तैरपि सामानाधिकरण्यं भविष्यति 15 विवक्षावशात् 'इदं विशेष्यमिदं विशेषणम्' [ ] इति । अत्र भाष्येण पर एवोत्तरमाह - ४११-१ न ह्यसत्यां व्याप्तावित्यादि साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां यावद् रूपमाम्लं रूपं नीलमिति । अनाक्षिप्तत्वा दव्याप्तत्वादिति हेतवः । १ 'अयं तु गुणधर्म एव स्वतोऽन्यान् भेदानाक्षेप्तुमसमर्थत्वाद् नीलादिवत् । अतो घटादिभेदानामना क्षिप्तत्वादतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावः' इति 'अयं तु गुणधर्म एव स्वतोऽन्यान् व्यावर्त्य सत्वद्द्रव्याभिधानात् नीलादिवत् । ततश्च घटादिभेदानामनाक्षिप्तत्वादतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभाव:' इति वा कश्चिदाशयोऽत्र सम्भाव्यते । तुलना- पृ० ६०७ पं० २६ ॥ २ तुलना - " एवमपोह मात्राभिधाने दोषसाम्यमुक्त्वा जातिमदभिधानेऽपि तद्वतो नाखतन्त्रत्वात्' [ ] इत्यादिना सामानाधिकरण्याभावादि यद् भिक्षुणोक्तं तदपोहवदभिधानेऽपि समानमित्युपपादयिष्यन् पक्षपरिग्रहं तावत् करोति - ' अथान्यापोहवद्वस्तु वाच्यमित्यभिधीयते' । इति अत्र भिक्षुराह - ' जातिशब्दः सदादिस्तद्विशिष्टमेव द्रव्यमभिदधन्न तद्गतमेत्र घटादिविशेषरूपमाक्षिपति । परतन्त्र सौ सत्तां निमित्तीकृत्य द्रव्ये वर्तते, न तु स्वतन्त्रः सर्वविशेषणविशिष्टं द्रव्यं वक्ति । ततश्च घटादेस्तेन सच्छब्देनानाक्षेपान्नास्ति तद्वाचिना सामानाधिकरण्यम् । न कोपाधिविशिष्टे द्रव्येऽभिहिते परोपाधिना सामानाधिकरण्यं भवति । यथा मधुरशब्देन माधुर्योपाधिविशिष्टं खण्डद्रव्यमभिदधता तद्द्वता परशुक्लायनाक्षेपात् तेन न सामानाधिकरण्यं यथैतन्मधुरं श्वेतमिति तथैतेनापि न भाव्यं 'सन् घटः' इति' [ ] इति । तदेतत् सर्वमस्मिन्नपि पक्षे समानमित्याह -- ' तत्रापि परतन्त्रत्वाद् व्याप्तिः शब्देन दुर्लभा ॥ १२० ॥ इति । तत्रापि ह्यसद पोहविशिष्टद्रव्यं प्रतिपादयन् सच्छब्दः परतन्त्रो वर्तते नासौ तद्गतमपरमघटादिव्यावृत्तं सदाक्षेप्तुं समर्थ इत्यभिप्रायः । अतश्च तथैव खण्डादिद्रव्ये मधुरादिभिः शब्दैरात्मीयामधुरा शुक्ला दिव्यावृत्तिमात्रप्रवृत्तेः परस्परं शुक्लमधुरत्वादिव्याप्त्यसम्भवेनाक्षेप नास्ति । अतश्च मधुरं शुक्लमिति विशेषणं न भवत्येव । सच्छब्देनाप्यसद्व्यावृत्तिमात्र विशिष्टद्रव्याभिधायिना अपरा तद्द्वताघटादिव्यावृत्तिराक्षेप्तुं न शक्यते तत् कथमत्रापि ‘सन् घटः' इति सामानाधिकरण्यम् ।" - मी० श्लो० वा० शर्करिका. पृ० ६० ॥ ३ तुलना पृ० ६०७ पं० २७ ॥ ४ सम्भेदे विवि प्र० ॥ ५°न्तत्वे व य ं । ( ° न्तत्वेन ? ? ) ॥ ६ गुण विशे० प्र० ॥ ७ नीलावदिवदिति य० ॥ ८ ग्राह्यं विशेष्यं प्रधान भा० | ग्राह्य प्रधान य० ॥ ९ रूपमंलंरूपं नीलमिति य० । रूपं नीलमिति भा० ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । श्रुतगुणगतभेदाभेदत्वादनाक्षेपः । यथा [शुक्लशब्देन मधुरादीनाम् । अत्र च स्वरूपापोहगुणा गुणत्वेनोच्यन्तेऽनुग्राहकत्वापेक्षया, अपोह-गुण-द्रव्याणि च द्रव्यत्वेन अनुग्राह्यत्वापेक्षया। शुक्लशब्दो हि स्वाभिधेयगुणमात्र विशिष्टं द्रव्यमभिदधद् द्रव्ये सतोऽपि मधुरादीन् नैवाक्षिपति, ततश्चातद्भेदत्वम् , एवमिहापि सच्छब्दो हि पूर्वमसन्न भवतीत्यसत्त्वादवच्छिन्नमंशमात्रमभिधाय सत्वद् द्रव्यम-5 भिदधद् नैवाक्षिपति तद्विशेषं तद्विशेषान् वा यत्तत्तद्वत् ] सत्वन्मात्रवदिति सच्छब्दवाच्यार्थाभेदत्वं द्रव्यादीनां घटादीनां वा। वक्ष्यमाणशुक्लदृष्टान्तभावनार्थमाह-श्रुतगुणगतभेदाभेदत्वादनाक्षेपः । श्रुतो गुणो विशेषणं शुक्लसदादि, तद्गता भेदाः शुक्लतरादयो [ द्रव्यादयो ? ] वा, तेषामभेदत्वं तद्वति, अनुवृत्तिपक्षेऽन्यापोहपक्षे वा जातिस्वरूपोपसर्जनमात्रत्वाद् गुणभूतत्वादन्यापोहमात्रोपसर्जनत्वाद् गुणभूतत्वाश्चातद्भेदत्वादनाक्षेपः । 10 कस्य ? ततो जातेरन्यस्यापोहाद्वान्यस्य तद्वत इति । दृष्टान्तः यथेत्यादि उद्घाहितार्थभावनार्थमुदाहरणं पक्षद्वयसाम्यापादनम् । सत्वत्पक्षे शब्दस्वरूपं गुण एव, जाति-गुणौ गुणो द्रव्यं च, द्रव्यं तु द्रव्यमेव, उपकारी गुणः प्रधानं द्रव्यमित्यर्थः । विवक्षावशात्तु प्रतिपाद्यार्थस्य । अपोहपक्षे शब्दस्वरूपं गुण एव, अपोह-गुणौ गुणो द्रव्यं च, द्रव्यं च द्रव्यमेवेति पक्षद्वयेऽपि विशेषणविशेष्यत्वविभागक्रमेण तुल्यदोषत्वापादनेन च सामानाधिकरण्याभावोत्कीर्तनो ग्रन्थो यावत् सत्वन्मात्रवदिति प्रायो गतार्थः । 15 विशेषस्तु विव्रियते-अत्र च स्वरूप-जाति-गुणा गुणत्वेनोच्यन्ते जाति-गुण-द्रव्याणि च द्रव्यत्वेनेति परेणोक्तत्वान्नोच्यते । अत्र च स्वरूपापोहेत्यादि यावदनुग्राह्यत्वापेक्षयेति तत्समानार्थोक्तेः सोऽपि द्रष्टव्यः । एतस्यार्थस्य भावना-शुक्लशब्दो हीत्यादि यावत् ततश्चातद्भेदत्वं शुक्लाभेदत्वमिति सत्वदभिधानपक्षे दोषोत्कीर्तनं निदर्शनत्वेन गतार्थम् । एवमिहापि सच्छब्दो हि पूर्वमसन्न भवतीत्यादि दार्टान्तिकत्वेन ४११-२ सैव परिपाटी तुल्या यावत् सत्वद्रव्यमभिदधदिति नयेनेत्यतः प्रभृति उदकादिना द्रव्यभेदेन सत्वद् 20 गुणरूपादिगुणभेदेन कर्मगमनादिकर्मभेदेन वा सत्वदिति । तं विशेषमिति एकं वापोहवन्तं द्रव्यादिभेदानामन्यतमं तान् विशेषान् वेति सर्वान भेदान् वा 'नैवाक्षिपति' इति वर्तते । व(१)यत्तत्तद्वदिति, 'तिष्ठन्तु तावद् विशेषाणामन्यतमः सर्वे वा, किं तर्हि ? विवक्षितमेकं घटादि वा गुणादिविरहितं तद्वस्तु नैवाक्षिपति नाप्यारातीयं ततो द्रव्यादि वा तद्वद्वस्तु तं विशेष तद्विशेषान् वा, नारातीयानामपि विशेषाणामवि(मि?)धातेति। सत्वन्मात्रवदिति, यथा सत्वान्निराक्रियते सत्वन्मात्रपक्षेऽनाक्षेपस्तथा त्वदिष्टेऽन्यापोह-25 वत्पक्षेऽपि । इति सच्छब्दवाच्यार्थाभेदत्वं द्रव्यादीनां घटादीनां वेति भावितार्थानुसारेणोपसंहारः । १ तुलना पृ० ६०७ पं २७ ॥ २च्चतद्भेदत्वादनापेक्षः प्र०॥ ३ सत्वमात्र प्र.। दृश्यतां पृ० ६१९ पं० २५॥ ४ °जातिगुण गुणत्वेनोच्यते य० । जातिगुणत्वेनोच्यन्ते भा० ॥५ तत्समानोर्थोक्तेःप्र० । 'तत्समानोऽर्थोक्तेः' इत्यपि पाठोत्र भवेत् ॥ ६°दवदिति प्र.॥ ७ (वर्ततेऽत्र यत्तत्तद्वदिति ?)॥ ८ (तिष्ठतु ?)॥ ९ (तद्वद्वस्तु?)॥ १०°याणमपि विशे य० ।याणाम विशे भा० ॥ ११ यथा त्वनिराक्रियते प्र० । 'यथा सत्वान्निराक्रियते' इति पाठोऽत्र सम्माव्यते। सदस्ति अस्येति सत्वान् , यथा स निराक्रियते त्वया सत्वन्मात्रपक्षेऽनाक्षेपात् तथाऽन्यापोहवत्पक्षेऽपीत्याशयो भाति ॥ ११ अत्र 'पक्षेऽनाक्षेपात्तथा' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे ___ सच्छब्दो हि असत्त्वादवच्छिन्नं धर्मिणोंऽशमात्रमभिधत्ते, तत्स(स्त्र)रूपजातिविशिष्टद्रव्याभिधायित्वात् , शुक्लश्रुतिवत् । द्रव्यशब्दश्च अद्रव्यापोहमात्रमभिधत्ते न तद्विशेषम् । इत्थं तयोरवच्छिन्नभागमात्रविषयत्वादभेदवत्त्वानिर्विषयत्वात् कुत एकार्थता ? इत्यसदसद्रूपेऽपि अतद्भेदत्वादनाक्षिप्तत्वादसामानाधि5 करण्यम् । अत्रापि सच्छब्देन असद्वयावृत्तिमात्रविशिष्टद्रव्याभिधानात् सतोऽपि द्रव्यादीनामनाक्षेपः, ततश्च तदभेदत्वम् । ननु च तत्र दृष्टं सामानाधिकरण्यम्-शुक्लं खण्डम् , तच्च मधुरम् , शुक्लतरः सच्छब्दो हीत्यादि कारणभावना । 'सदित्यसन्न भवति' इति असत्वादवच्छिन्नं धर्मिणोंऽशमात्रं सच्छब्दोऽभिधत्ते न तस्यान्यं कञ्चित् , अपोहनित्यत्वाद्यंशवत् । मा मंस्थाः-'नैवं संभवतीति, 10अत आह-तत्स(त्स्व)रूपजातिविशिष्टद्रव्याभिधायित्वात् , व्याख्यातार्थ एवायं हेतुः, दृष्टान्तानुगुण्येन तु पक्षद्वयप्रसिद्ध्यापादनार्थं तद्वदिति सामान्येनोक्तः । शुक्लश्रुतिवदिति, अशुक्लनिवृत्तिमात्रं धय॑शं शुक्लशब्दोऽभि[द]धत्तस्यैवांशान्तरं नाभिधत्ते यथा तथा सच्छब्दोऽसन्निवृत्तिमात्रमुक्त्वा नान्यत् किश्चिदिति । ४१२-१ तदुपसर्जनं द्रव्यमाह' [ ] इत्यत्र द्रव्यशब्दश्च 'अद्रव्यं न भवति' इत्येतावदद्रव्या15 पोहमात्रमभिधत्ते तेनैव न्यायेन, [न] तद्विशेषं न द्रव्यविशेषम् । ततः किमिति चेत्, इत्थं तयोः सद्रव्यशब्दयोरवच्छिन्नभागमात्रविषयत्वादभेदवत्त्वम् , अभेदवत्त्वाद् निर्विषयत्वम् , निर्विषयत्वात् कुत एकार्थता सच्छब्दद्रव्यशब्दयोः ? इत्यतः असदसद्रूपेऽपि असद्व्यावृत्तिरूपे सत्यपि न सतो भेदा द्रव्यादयः, न द्रव्यस्य घटादयः, न सच्छब्दस्य द्रव्यादिशब्दाः, तस्मादतद्भेदत्वमनाक्षिप्तत्वात् , अतोऽसामानाधिकरण्यम् । अतद्भेदत्वानाक्षिप्तत्वापादनाय परदूषितपक्षसमानदोषापादनग्रन्थोऽयम् 20 अत्रापि सच्छब्देनेत्यादिरक्षरविपर्यासेनान्यापोहपक्षेऽपि यावत् तदभेदत्वमिति समानः । दृष्टमिष्टं च सामानाधिकरण्यं सत्वदभिधानेऽपोहवद भिधाने "चेत्थं न प्राप्नोतीति । ____ अत्राह-ननु च तत्र दृष्टमित्यादि । अनाक्षिप्तत्वमतद्भेदत्वं चानैकान्तिक शुक्लखण्डादिसामानाधिकरण्यदर्शनात् । अथवा दृष्टविरुद्धं त्वयोच्यते शुक्लशब्दस्वरूप-जाति-गुणानां खण्डद्रव्यस्य 'वात्यन्तभिन्नार्थत्वात् जातिमत्पक्षेऽपोहवत्पक्षे चेति । पुनः तच्च खण्डं मधुरम्' इति रूपरसयोर्भेदात् 25 द्रव्यस्य रूपरसाभ्यां च भेदादसम्बद्धमेवेदम् । तथा 'शुक्लतरः शुक्लतमः' इति गुणजातिगतप्रकर्षभेदस्य द्रव्येणासम्बन्धः । तथा 'शुक्लशङ्खस्य जातिर्नित्या' इति शङ्खदैव्य-शुक्लगुण-जाति-तन्नित्यत्वानामत्यन्तं भेदादसम्बन्धः । स च दृष्टः । १ नैवं न भवतीति प्र० ॥ २ व्याख्यार्थ एवायं हेतु दृष्टान्तोनुगुण्येनतु भा० । व्याख्यार्थ एवायं हेतु दृष्टान्तोतु य० ॥ ३ मात्र मुक्त्वा इति रम्यं भाति ॥ ४ दृश्यतां पृ० ६०७ पं०२ असद प्र० ॥ ६ असतो य० ॥ ७ वेत्थं न प्रा भा० । चेत्थं प्राय० ॥ ८ वात्यन्त प्र० ॥ ९शुक्ला प्र०॥ १० द्रव्य प्र० ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ ४१२-२ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । शुक्लतमः, शुक्लशङ्खस्य जातिनित्येति । इह वा किं न दृष्टम्-सव्यं सद्गुणः सत्कर्मेति ? एतदेव तु न प्राप्नोतीत्युच्यते। यथा चैते जातिमत्पक्षे सच्छब्दप्रयोगे घटाद्यनाक्षेपोऽतद्भेदत्वमसामानाधिकरण्यं च दोषास्तथान्यापोहेऽपि, असाक्षाद्वचनत्वात्। ___ भवत्साक्षाद्वचने च रूपनीलत्ववद् गुणपर्यायलक्षणं विशिष्टं भवदेव सद्यो । वस्त्वभिधीयते प्राधान्येनेति नाखतन्त्रविशिष्टं भवद्वस्तु । तच्च सदसदुपसर्जनं जात्युपसर्जनं वा। यथा चाहुः-सच्छब्देन सह भेदशब्दा असमानाधिकरणाः, तदभिधानेऽना अत्र दोषस्तादवस्थ्यादेवमुच्यते-इह वा किं न दृष्टं 'सद्व्यं सगुणः सत्कर्म' इति ? न हि दृष्टाद् गरिष्ठं प्रमाणमस्ति, तस्यानतिक्रमणीयत्वात् । किं तर्हि ? एतदेव तु दृष्टं सामानाधिकरण्यं 10 . गुणशब्दत्वे विशेषणद्वारेण शब्दस्वरूप-जात्युपसर्जने तद्वति वाच्येऽपोहवति वा न प्रामोतीति उच्यते परं प्रति दोषः। एतदुभयं तुल्यदोषमित्यापादयति यथा चैते जातिमदित्यादि । यथा परपक्षे सच्छब्दप्रयोगे घटाद्यनाक्षेपोऽतद्भेदत्वमसामानाधिकरण्यं च दोषाः शुक्लशब्दमधुरानाक्षेपादिदृष्टान्तास्तथा अन्यापोहपक्षे सच्छब्देऽपि जातिमत्सच्छब्दघटाद्यनाक्षेपादिदृष्टान्ताः । उभयत्र तुल्यो हेतुः-असाक्षाद्वचनत्वादिति । 15 तच्चैतत् सर्वं दोषजातमसत्योपाधिसामान्यसोपानारोहिसत्यभवदर्थविशेषसाक्षाद्वचनपक्षे नास्ति सामानाधिकरण्यं चोपपद्यते इति तत्प्रदर्शनार्थमाह-भवत्साक्षाद्वचने चेत्यादि यावज्जात्युपसर्जनं वेति । रूपनीलत्ववदिति रूपजातिसामान्यासत्योपाध्यनुगतिद्वारेण नीलविशेषस्य सद्यो भवतः सत एवार्थस्य गतिररूपानीलत्वनिवृत्त्यसत्योपाधिद्वारेण वा यथा भवति तथेहास्मदिष्टगुणपर्यायलक्षणं विशिष्टं भवदेव सद्यो वस्तु अभिधीयते प्राधान्येन मुख्ययैव वृत्त्या साक्षाद् । यत्तत्र द्रव्यघटपटादि भेदजातं 20 गुण-कर्म-सामान्य-विशेषादि वा परिकल्पितं तदसत्, संवृतिसत्त्वात् । गुण-पर्यायलक्षणो हि विशेष एव सन् , न अङ्गुलिव्यतिरिक्तमुष्टिवद् बलाकादिव्यतिरिक्तपतयादिवञ्चेति द्रव्याद्यपि तदेव इति एतस्माद्धेतोः नास्वतन्त्रविशिष्टं भवद्वस्तु । तच्चोक्तविधिनाऽपोहवत्पक्षापेक्षमसदसदुपसजनं जातिमत्पक्षापेक्षं जात्युपसर्जनं वा, द्विधापि न दोष इति ।। यथा चाहुरित्यादि । टीकाकारैर्यानि साधनान्युक्तानि जातिमत्पक्षदोषप्रदर्शनार्थानि तान्येवापोह-25 वत्पक्षेऽपि तद्दोषप्रदर्शनार्थानि । तत्र सच्छब्देनेति प्रथमे साधने भेदशब्दानां सामान्यशब्देन सह सामानाधिकरण्याभावः पक्षीक्रियते । द्वितीये भेदैः सह सामान्यस्य । तदभिधानं गुणभूतेनान्यापोहेनापोहवतोऽभ्युपगतम्, लक्षणवाक्ये शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वाथै कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते [ ] १ सहुणं प्र० । ( सन् गुणः १) ॥ २ जातिउप प्र०॥ ३°नाक्षेपत्वादिदृष्टान्ता प्र० ॥ ४ जातिम[त्पक्षवत् सच्छब्द इत्यपि संभवेत् पाठः ॥ ५ चेति प्र० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ९३ पं० ८ ॥ ७°पोहावपेक्षापेक्षत्वमसदुपसर्जनं य० । °पोहावपक्षत्वमसदसदुपसर्जनं य० ॥ ८ यथा बाहुरित्यादि प्र०। (यथा वाहुरित्यादि ?)॥ ९ पोटवतो भा० । पोटगतो य० ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे क्षिप्तत्वाद् भेदानाम् , शुक्लाभिधानानाक्षिप्तमधुरादिवत् । सच्छब्दो भेदैः सहासमानाधिकरणः, सामान्यानभिधायित्वात् , शुक्लशब्द इव मधुरादिभिः सहासामान्यवाची। द्रव्यादिशब्दो वा सच्छब्देन सहासमानाधिकरणः, अतद्विशेषसम्बन्धित्वात् , मधुरशब्द इव शुक्लशब्देन । सच्छब्दो वा असद्व्यावृत्तिमन्तं नाभिधत्ते, घटादिशब्दैः सहासमानाधिकरणत्वात् , अनित्यशब्दवत् । यथा चाह विद्यमानाः प्रधानेषु न सर्वे भेदहेतवः । विशेषशब्दैरुच्यन्ते व्यावृत्तार्थाभिधायिभिः ॥ [वाक्यप० ३।५४ ] इति वचनात् । भेदानाक्षेपश्चान्यापोहे चरितार्थत्वादिष्टः । अतः सिद्धो हेतुः-तदभिधानेऽनाक्षिप्तत्वाद् भेदानाम् , तेषामेव च पक्षीकृतत्वात् । शुक्लाभिधानानाक्षिप्तमधुरादिवदिति दृष्टान्तोऽपि भावितार्थः । 10. द्वितीयेऽपि साधने सच्छब्दे पक्षीकृते भेदानाक्षेपात् कस्य तत् सामान्यमपोहवद्वस्तु ? इति सामान्यानभिधायित्वं सिद्धं तस्य । दृष्टान्तः-शुक्लशब्दो मधुरादिभिः संहासामान्यवाचीति । पूर्वत्र शुक्लशब्दसहयोगावधिका भेदशब्दा एव साध्याः दृष्टान्ताश्च, इह तु भेदशब्दावधिकाः सामान्यशब्दा इति विशेषः । __ तृतीये द्रव्यादिशब्दो वेति साक्षाद् विशेषशब्द एव तद्वारेण विशेषार्थ एव वा साक्षात् 15 पक्षः । अतद्विशेषत्वम् , असदसतः सामान्यस्य न विशेषा द्रव्यादयः, अनाक्षिप्तत्वादुक्तन्यायेन । न चें तत् सामान्यं तेषां सम्बन्धि ते वा तस्येति सिद्धमतद्विशेषसम्बन्धित्वम् । 'तद्विशेषासम्बन्धित्वात् , अतद्विशेषसम्बन्धित्वात्' इति वा पाठान्तरे। मधुरशब्द इव शुक्लशब्देनेति गतार्थो दृष्टान्तः । ४१३-२ सच्छब्दो वाऽसद्व्यावृत्तिमन्तं नाभिधत्ते, अपोहवतः स्वार्थाभिमतस्याभिधानमेव वा निराकुर्महे । घटादिशब्दैः सहासमानाधिकरणत्वात् , सच्छब्दस्य घटादिशब्दैः सहासमानाधिकरणत्वं भेदाना20 क्षेपात् सिद्धम् । अनित्यशब्दवत् , 'अनित्यः शब्दः' इत्युक्ते 'नित्यो न भवति' इति नित्यत्वव्यावृत्तिमन्तं ब्रूते नासद्व्यावृत्तिमन्तम् , 'शब्द'शब्देनैव च समानाधिकरणोऽनित्यशब्दो न घटादिशब्दैः । अतः साध्यसाधनधर्मद्वयं दृष्टान्ते दार्टान्तिके च सिद्धमिति । यथा चाहेति ज्ञापकं सम्प्रतिपन्नवाद्यन्तरंमतप्रदर्शनं तस्यार्थस्य दृढीकरणार्थम् । प्रधानेषु विशेष्येषु विद्यमाना अपि भेदहेतवो धर्माः सर्वे नोच्यन्ते, कश्चिदेव विशिष्टो विवक्षितः केनचिद् ‘विशेषणेन 25 तद्वाचिना विशेषशब्देनोच्यतेऽर्थो विशेषान्तराव्यापारेण, तत्रैव चरितार्थत्वात् तस्य गुणभूतत्वात् । अत एव च ते 'विशेषशब्दाः' इत्युच्यन्ते व्यावृत्तार्थाभिधायित्वादिति । एतेनैव यत्नेन त्वदीयेन च विधिप्रधानसत्वदभिधानपक्षदोषोक्तियत्नेन कृतप्रयोजनत्वान्न पृथग् दूष्यते । १°वदि दृष्टाप्र०॥ २ सह सामान्य प्र०॥ ३ च सामान्यं य० ॥ ४ नामवधा निरा प्र०॥ ५त्वात् च्छब्दस्य भा०। स्वात् शब्दस्य य० ॥ ६ यथा वाह प्र०॥ ७रतमप्र य० । रमप्र भा० ॥ ८ विशेषेणन य० ॥ ९°न्तरव्यापाप्र०॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६२३ ननु चासदसछ्रुतेः सामान्यश्रुतित्वादयमप्रसङ्गः। केन तस्याः सामान्यश्रुतित्वम् ? यदा सा ख[रूप]गुणमात्रविशिष्टं द्रव्यमाह तदा भेदानामनाक्षेपात् कस्य तत् सामान्यं यदभिदधतीति 'सामान्यश्रुतिः' इत्युच्येत । न सछुतिः...। अथवा सच्छब्दो मुख्यया वृत्त्या भूतार्थेन स्वरूपेण प्रकाश्यमानः संवृतिसद्वस्तु खरूपव्यवहितमाह स तत्र वृत्तः स्वरूपव्यवहितेऽर्थे सति असद्व्यावृत्तिं न अत्राह-ननु चासदसच्छ्रुतेः सामान्यश्रुतित्वादयमप्रसङ्गः । सच्छब्दनिवर्तितासदपोहः सर्वत्र वृत्तेः समानः, तद्वाचित्वाञ्चासौ सामान्यशब्दः, भेदाश्च घटादयोऽसद्व्यावृत्त्या व्याप्तत्वादाक्षिप्तास्तद्भेदा एव । अतः सर्वोऽयं वाग्व्यायामो विफल:-'सामानाधिकरण्यं नास्ति , भेदा न भवन्ति, सामान्य न भवति, अनाक्षेपात्' इत्यादिरप्रसक्त एव विचार इति । ___अत्र ब्रूमः त्वद्वचनानुवृत्त्यैव त्वमिदं प्रष्टव्योऽसि-केन तस्याः सामान्यश्रुतित्वम् ? केन हेतुना 10 तस्या असद्यावृय॑याः सच्छ्रुतेः सामान्यश्रुतित्वम् ? नास्त्येव हेतुरित्यभिप्रायः । त्वन्मतेनैव यदा सा ४१४-१ स्व[रूप]गुणमात्रविशिष्टं द्रव्यमाह, स्वरूपं गुणो विशेषणम् , तत् परिमाणमस्य तत् स्वरूपगुणमात्रम् , तेनैव विशिष्टं नाधिकेन, लक्षणवाक्येऽपि शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती [ ] इति वचनात् द्रव्यमसद्वयावृत्तिगुणप्रमाणविशेषणमित्यर्थः । गुणधर्मत्वं च सत्वत्पक्षवद् भावितमेव । तदा भेदानामनाक्षेपात् कस्य तत् सामान्यं यदभिदधतीति 'सामान्यश्रुतिः' इत्युच्यतेति । अत्र 15 प्रयोगः 'न सछ्रुतिः' इत्यादिर्गतार्थः । तस्मात् तदवस्थः प्रयोगो भेदानाक्षेपादिस्त्वन्मतादेवेति । __अथवेत्यादि यावदपोहशब्दो द्रव्येषु वर्तते । व्याख्यानविकल्पान्तरं तद्वतो नास्वतन्त्रत्वात्, ___] इत्यस्य । सच्छब्दो मुख्यया वृत्त्या भूतार्थेन स्वरूपेण प्रकाश्यमान इति शब्दस्वरूपमात्रेण बुद्ध्या गृह्यमाणः संवृतिसद्वस्तु स्वरूपव्यवहितमाह । स तत्र वृत्तः स्वरूपव्यवहितेऽर्थे सति व्यावृत्तेरसतः 'सन् असन्न भवति' इति प्रसज्यप्रतिषेधासम्भवात् प्रतिषेधसमाश्रयोऽर्थः सत्तुल्य]-20 एव स्यात् 'असन्' इति, 'नभिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे [पाँ० वा० ३।१।१२] इति परिभाषितत्वात् । 'अब्रामणो ब्राह्मणवदधीते' इति ब्राह्मणसदृशे पुरुष एव प्रत्ययो नाश्वे न गवीति यथा न तु तथा किञ्चिदसत् सत्तुल्यमस्ति, संतोनस्यासत्त्वादसतोनत्वाभावात् । तस्मादयुक्तमेवैतत् 'सदित्यसन्न भवति' इति । १ तुलना-पृ०६०७ पं० २६-२७॥ २ तुलना-पृ. ६०७ पं० २९ ॥ ३ वासद प्र० ॥ ४ निवृत्तितास य० ॥ ५ वृत्ते प्र०॥ ६°त्तार्था प्र० ॥ ७ सत्यपक्ष य० ॥ ८°दवतीति प्र० । स्त्रीलिङ्गत्वात् सामान्यश्रुतेः 'अभिदधती' इति शतृप्रत्ययान्तोऽयं प्रयोग इति ध्येयम् ॥ ९ “तद्वतो नाखतन्त्रत्वाद् भेदाजातेरजातितः । अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तस्तेनान्यापोहकृच्छ्रुतिः ॥” इति सम्पूर्णः श्लोकः प्रतिभाति । श्लोकोऽयं न प्रमाणसमुच्चयादपि तु दिनागस्यैव ग्रन्थान्तरादुद्धृतोऽत्रेति प्रतीयते। अतोऽस्य पूर्वार्द्ध पृ० ४७३-२,४७५-१ इत्यत्र यथा वक्ष्यते तथात्रास्माभिर्योजितम् । प्रमाणसमुच्चये तु यथायं श्लोकस्तथा पृ०६०७ इत्यत्र दर्शितमस्माभिः ॥ १०°स्वरूपेण बुद्ध्या भा०॥ ११ संप्रतिसद्वस्तु प्र०॥ १२ सत एव य०॥ १३ दृश्यतां पृ. २३२ टि. ७॥ १४ ह्मणी ब्रा भा० । ह्मणै ो य० ॥ १५ तत्तु य० ॥ १६ सता ऊनस्य असत्त्वादसता ऊनत्वाभावादित्याशयो भाति । अत्रारुचौ तु 'सतोऽन्यस्यासत्त्वादसतोऽन्यत्वाभावात्' इति पाठः कल्पनीयः ॥ , Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे करोति भूतार्थेन, उपचारादसदसद् ब्रवीति । सोऽपोहेऽपि तावददृष्टत्वात् तद्वति अप्रधानत्वादखतन्त्रः । न हि यो यत्रोपचयेते स तमथै भूतार्थेनाह । तथा चोक्तम् ___ मञ्चशब्दो यथाधेयं मञ्चेष्वेव व्यवस्थितः । तत्वेनाह तथापोहशब्दो द्रव्येषु वर्तते ॥ स्वरूपेऽन्यापोहे च मुख्यया वृत्त्या वर्तित्वापोहशब्दस्तद्वति वर्तते, न मुख्यया वृत्त्या, उपचारात् । सच्छब्दो हि..........."मश्चशब्दवत् । सोऽप्युपचारो न घटते । न तावत् प्रत्ययसंक्रान्तितः सारूप्यादुपचारः संभवति, सारूप्यासम्भवे प्रत्ययसंक्रान्त्यभावात् क्रमेणानभिधानाच । नापि गुणोप 10 इत्थं सच्छब्दोऽसद्ध्यावृत्तिं न करोति भूतार्थेन, किं तर्हि ? उपचारादसदसद् ब्रवीति, अन्यस्या पोहं गौण्या वृत्त्या ब्रूते, स सच्छब्दोऽपोहेऽपि तावददृष्टत्वात् तद्वति अपोहवति दूरत एवादृष्टत्वा४१४-२ दप्रधानः, अप्रधानत्वादस्वतन्त्रः न हि यो यत्रोपचर्यते स तमर्थ भूतार्थेनाहेति साध्येन मुख्या नभिधानेन हेतोरुपचाराप्रधानास्वातत्र्यानुगमं दर्शयति । तथा चोक्तम्-मश्चशब्द इत्यादि तन्निदर्शनम् । मञ्चशब्दो मञ्चस्थान मञ्चस्वरूपापन्नानेव ब्रूते न पुरुषत्वापन्नानिति । तथापोहार्थः शब्दोऽपोह एव 15 व्यवस्थितोऽपोहवत्सु द्रव्येषु वर्तत इति दार्टान्तिकम् । पूर्वत्र विशेषणत्वादस्वातत्र्यम् , इहाभिधानवृत्तेरेवोपचारादस्वातत्र्यदोष इति विशेषः । इत्थमस्माभिरुत्प्रेक्षितो दोषविकल्पः। त्वदुक्तसँत्वत्पक्षदूषणानुसारेणाप्येष दोष उच्यते । एतदनभ्युपगमेऽपि अयमन्योऽर्थोऽन्यापोहवत्पक्षदूषणः-स्वरूपेऽन्यापोहे चेत्यादि । स्वरूपमन्यरूपनिवृत्त्यात्मकमर्थान्तरनिवृत्त्यात्मकं च स्वार्थ मुख्यया वृत्त्या अभिदधानस्तद्वति उपचारेण वर्तते नाभिधानेना पोहशब्द इति समो न्यायः । 20 उपचारादिति हेतुः । सच्छब्दो हीत्यादिरुपनयः । मञ्चशब्दवदिति दृष्टान्तः 'तद्वति न वर्तते मुख्यया वृत्त्या' इति साध्ये । एवमुपचारमभ्युपेत्य दूषणमुक्तम् । सोऽप्युपचारो न घटत इति ब्रूमः । द्वयी हि उपचारस्य गतिः-सारूप्यात् , यथा यमलयोरन्यतरस्मिन् ‘स एवायम्' इति प्रत्ययसङ्क्रान्तः, राज्ञो भृत्येऽमात्यादौ 'राजा' इति वा प्रत्ययः । गुणोपकाराद्वा उपधानानु[रा]गादिव स्फटिके रक्तत्वादिबुद्धिः । तत्र न तावत् प्रत्ययसङ्क्रान्तितः सारूप्यादुपचारः सम्भवति सारूप्यासम्भवे प्रत्ययसङ्क्रान्त्यभावात् स्वामिभृत्ययोभिन्नत्वात् , यदि सैव बुद्धिः सङ्क्रान्ता स्यादभिन्ना स्वामिनि भृत्ये च स्वाम्यनुज्ञातमुक्तावलीव स्यात् , न तु भवति, १'मञ्चशब्दो यथाधेयं मञ्चेष्वेव व्यवस्थितः। तत्त्वेनाह तथा जातिशब्दो द्रव्येषु वर्तते ॥' [ वाक्यप० ३।१४।३५१] इति भर्तृहरेः कारिकात्र परिवोद्धता ग्रन्थकारेण । “मञ्चाः क्रोशन्ति' इति क्रियासम्बन्धस्याधेये मञ्चस्थे प्राणिन्युपपत्तेराधाररूपामे देनाधारवचनोऽपि मञ्चशब्दस्तदाधेयवचन इति निश्चीयते एवम् 'आनीयन्तां गावः' इति क्रियासम्बन्धस्य जांतावनुपपत्तेस्तदभेदापन्ना व्यक्तयः क्रियासमन्वयसमर्था जातिनिबन्धनेन शब्देनोपादीयन्त इत्यवगमः ।" इति हेलाराजकृतायां वाक्यपदीयटीकायां वृत्तिसमुद्देशे ३।१४।३५१॥ २ तुलना-पृ० ६०७ पं० ३०॥ ३ साप्येन प्र० ॥ ४°सत्वपक्ष य० ॥ ५ नाभिधानेनाह शब्द प्र० । 'नाभिधानेनाऽऽह शब्दः' इत्यपि स्यादत्र पाठः ॥ ६सामान्योयः य० ॥ ७ तव न प्र० ॥ ८°मुक्तावलीय स्यात् भा० । °मुक्तावलीय स्मात् य० ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६२५ कारात् , स्फटिकवद् विशेषणप्रकर्षमगृहीत्वा विशेष्ये प्रत्ययप्रसङ्गात् , अयथार्थज्ञानोत्पत्तेः, युगपदसम्भवाच । स्वशब्दार्थप्रवृत्ति...........। मञ्चशब्दो यथाधेयं मञ्चेष्वेव व्यवस्थितः। तत्त्वेनाह तथा भावशब्दो द्रव्येषु वर्तते ॥ विशेष एव वस्तु परमार्थतोऽस्ति, न द्रव्यार्थः सामान्यम् । तस्यासत्त्वाद् विशेष एव स्वतन्त्रः कल्पितसामान्योपसर्जनः, मञ्चशब्दवत् ।। इतश्च त्वन्मतिवद् भेदात् तद्वतो न वाचकः । भिन्ना हि व्यावृत्तिमन्तः किं तर्हि ? 'राजवदमात्यः' इति भिन्नैवाभेदोपचारा भवति । तस्मान्न प्रत्ययसङ्क्रान्तिर्न च सारूप्यमपोहापोहवतोः । अतो नोपचारो निमित्ताभावात् । किश्च, क्रमवृत्त्यभावाच्च, न हि क्रमेण सकृदुच्चरितः 10 शब्दः क्षणिकत्वादसदपोहे वर्तित्वा तद्वति वर्तते राज-भृत्यबुद्धिवत् । तस्मादपि नास्ति प्रत्ययसङ्क्रान्तिसारूप्यासम्भवादुपचारः । स्यान्मतम्-गुणोपकारादिति । तन्नापि गुणोपकारात्, स्फटिकवद् विशेष[ण]प्रकर्षमगृहीत्वा विशेष्ये प्रत्ययप्रसङ्गात् , यथा स्फटिके रक्तत्वादिप्रत्यय उपधानप्रकर्षमगृहीत्वा भवति । तथा विशेषणप्रकर्षमगृहीत्वा विशेष्ये प्रत्ययः स्यात्, न तु भवति । किञ्च, अयथार्थज्ञानोत्पत्तेः, यथा स्फटिके रक्तत्वादिप्रत्ययो मिथ्याप्रत्ययस्तथा विशेषणसरूपप्रत्ययो विशेष्ये स्यात् । किञ्च, युगपद-15 सम्भवाच्च, *यदा च बहवो ग्रहीतारो भवन्ति गुणवतः शुक्लादेः तद्यथा-'घटः पार्थिवो द्रव्यं सन्छुल्लो मधुरः सुरभिः' इत्येवमादिविशेषैस्तदा गुणोपकारो विरुध्यते । न हि शक्यं तदा द्रव्येण एकगुणरूपेण स्थातुम् , अनेकात्मकस्याविशिष्टत्वात् । नाप्येकदेशेन गुणरूपमनुभवितुं शक्यम् , कृत्स्नस्य घटादिरूपप्रतीतेः । अथ पुनः सर्वैर्घटत्वादिभिरुपकारो युगपत् कृत्स्नस्य क्रियते ततः सर्वेषां प्रत्येकं ग्रहीतृणां घटादिरूपग्रहणाभावात् सर्वगुणसङ्करेण मेचकदर्शनम् युगपत् सर्वरूपापत्तेः स्यात्* स्फटिकवदेव, न तु भवति । 20 तस्मादयुक्तस्ताद्रूप्यात् प्रत्ययसङ्क्रान्तेरुपचारः, यमलादिवत् ; नापि गुणोपकारात् स्फटिकवदिति ।। स्वशब्दार्थप्रवृत्तीत्यादि । अथवायमन्योऽर्थोऽस्य विकल्पस्यैव । मञ्चशब्द इति श्लोकस्यान्त्यपादे पाठान्तरं तथा भावशब्दो द्रव्येषु वर्तते इति । तस्य व्याख्या-विशेष एव वस्तु परमार्थतोऽस्ति, .. न द्रव्यार्थः सामान्य जातिघंटादिवेकं भवत् किञ्चिदस्ति । तस्य सामान्यस्य असत्त्वाद् विशेष एव स्वतन्त्रः कल्पितसामान्योपसर्जनो यथा प्राक् प्रक्रान्तः । किमिव ? मञ्चशब्दवत् , सैव व्याख्या 25 गतार्था भावशब्दस्य गुणपर्यायवाचित्वात् । इतश्च त्वन्मतिवदित्यादि । हेत्वन्तरमपि भेदादिति । जातिमत्पक्षदूषणवदसदसत्वत्पक्षदूषणं त्वयैव. कृतम्-तद्वतो न वाचक इति । भिन्ना हि व्यावृत्तिमन्तः सत्वन्त इवार्था घटादय इति हेतु ४१५-२ १ दृश्यतां पृ० ६२४ पं० ४ ॥ २ °वाच प्र० ॥ ३ * * एतदन्तर्गतः पाठः प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ प्राय ईदृश एवोपलभ्यते । दृश्यतां पृ० ६०८ पं० १३ ॥ ४°त्वाप्येकदेशेन य० ॥ ५°टेकुंभवत् य० ॥ नय० ७९ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे सत्वन्त इवार्था घटादयः। भेदानां चानन्त्ये सम्बन्धाशक्यत्वाद् व्यभिचाराचावाचक इत्युक्तं प्राक् त्वयैव । ननु चायं घटादिषु.........। यस्याभिधाता सोऽर्थोऽसदसन्मात्राख्यो भेदवत् सत्त्वं वा स्यात् सत्तामात्रं -5वा सत्तासम्बन्धो वा सत्वन्मात्रं वा ? तत्र . नोपोहशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः। वाचको योगजात्योर्वा भेदार्थैरपृथक्श्रुतेः॥ तद्वतो नास्वतन्त्रत्वाद् भेदाद् जातेरजातितः। अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तः सत्ताद्यर्थोऽप्यतो न सः॥ 10 एवं सन्मात्रसत्ताद्यापादनवदिहापि.........."आरभ्यते व्याख्या त्वन्मतवदेव । के ते व्यावृत्तिमन्त इति चेत् , उच्यते--असदसन्तोऽर्था घटादयः । भेदानां 'चानन्त्ये सम्बन्धाशक्यत्वाद् व्यभिचाराच्चावाचक इत्युक्तं प्राक्, केन ? त्वयैव । . अत्राह-ननु चायं घटादिष्वित्यादि । सत्वन्मात्रपक्षे पूर्वमेव हि द्रव्यादिभेदानभिधानेनानन्त्यव्यभिचारदोषौ परिहृतौ तथेहापि असदसत्वन्मात्रपक्षे भेदानभिधानेन तद्दोषपरिहार इति तद्दर्शयति । 15 अत्र ब्रूमः--यस्याभिधातेत्यादि । यस्यार्थस्य शब्दो वाचक इध्यते सोऽर्थोऽसदसन्मात्राख्यो भेदवत् सत्त्वं वा स्यात् , भेदवती सभेदा सत्ता जातिरित्यर्थः, किं तदसदसन्मात्रमुच्यते, सत्तामात्रं ४१६१ वा भेदनिरपेक्षा सत्तैव वा, सत्तासम्बन्धो वा, सत्वन्मात्रं वा ? सदनुवृत्त्यभिधानपक्षवदेते चत्वारो विकल्पाः असदसत्वति व्यावृत्तिमत्यपि पक्षे सम्भवेयुर्गत्यन्तराभावात् । स्यान्मतम्-'असदसत्' इत्यभावपक्षोऽपि सँम्भवतीति । तन्न, अभावस्य प्रतिषिद्धत्वात्, 'शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते' 20 इति त्वयैव स्वार्थवचनेन उक्तत्वादस्माभिः स्वार्थ एंव [ ताव] निर्धायते इत्यादिना यावद् अनन्यः प्रत्यक्ष इति ग्रन्थेन विचार्य भाष्ये प्रतिषिद्धत्वात् । परिशेषादेतावन्त एव विकल्पा भवन्तो भवेयुः 'असदसन्मात्रम्' इति शब्दार्थस्य । तच्चीसदसन्मात्रम् । विधिवादिमतवदपोहवादिमतेऽपि चतुष्टये स्थिते समान एवात्रापि विचारो ग्रन्थश्चेति तथैवाह-नापोहशब्दो भेदानामित्यादि श्लोकद्वयम् । अन्ये पादे तूप संहारे विशेषः-सत्ताद्यर्थोऽप्यतो न स इति, 'मौत्र'शब्दलभ्याथैतावत्त्वात् । एतच्छ्रोकद्वयं व्याख्यातु25 कामः सम्बन्धयति—एवं सन्मात्रसत्ताद्यापादनवदिहापीति तुल्यदोषत्वविवक्षा भवन्तमन्यांश्च प्रतीति १'ननु चायं घटादिषु द्रव्यादिभेदानभिधानेन परिहृतो दोषः । न ह्यत्र भेदा अभिधीयन्ते, कि तर्हि ? तेषामसदसन्मानं सामान्यरूपम् । तस्यैकत्वात् सुकरः सम्बन्धः। व्यभिचारोऽपि नास्ति, तदभावे शब्दस्याप्रवृत्तेः' इत्याशयो भाति । तुलना पृ०६०७ पं० २४ ॥ २दिङ्गागस्यैव 'न जातिशब्दः' इत्यादि कारिकाद्वयं किञ्चित् परिवर्त्य दिङ्गागमतं प्रतिविधातुमत्र ग्रन्थकृतोपन्यस्यते । तुलना-पृ० ६०७ पं० ११॥ ३ दृश्यतां पृ. ६०७ पं० २०॥ ४ तत्र भा० ॥ ५ इष्यते सार्थासद? य० । इष्यते सद° भा०। (इष्यतेऽसावर्थोऽसद? ) ॥ ६ सभेदाशत्वाजाति° भा० । सभेदांशत्वाजाति यः। भेदेन सहिता सभेदा इत्यर्थः ॥ ७ स्यान्मतं मसदसत् प्र०॥ ८ सम्भवीति य.॥ ९एवं निर्धार्यते यः। दृश्यतां पृ० ६०९ पं० २॥ १० दृश्यतां पृ. ६११ पं० १॥ ११ भास्य य० ॥ भांस्य भा०। चास्य' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ १२ तच्चासदसन्मात्र य० । 'तत्रासदसन्मात्रे' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ १३ दृश्यतां पृ० ६२६ पं० ४॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ने जातिशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः। वाचको योगजात्योर्वा भेदार्थैरपृथक्श्रुतेः॥ तद्वतो नास्वतन्त्रत्वाद भेदाजातेरजातितः। अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तः सत्ताद्यर्थोऽप्यतो न सः॥ .. . जातिशब्दस्तावत् सदादिः । कस्मान्न वाचकः ? आनन्त्याद् भेदानाम् ।। आनन्त्ये हि भेदानामशक्यः शब्देन सम्बन्धः कर्तुम् । न चाकृतसम्बन्धे शब्देऽर्थाभिधानं न्याय्यम् , स्वरूपमात्रप्रतीरित्यादि यावद् न, गुणत्वादिव्यभिचारात् । ........ गताथं यावदारभ्यते । न जातिशब्द इत्यादि तदारम्भः । पूर्वमपोहशब्देन सम्पन्नत्वाद् विश्रब्धं परवाचोयुक्त्यैव 'न जातिशब्दः' इत्यादि परग्रन्थमेव उददिक्षत् , [अ]सदसद्विशिष्टसन्मात्र-भेद-सत्ता- ... सम्बन्ध-सत्वत्पक्षाणां त्वदिष्टानां विधिरूपाणां च परेष्टानामविशेषादिति । तद्यथा-न जातिशब्दो भेदानां 10 'वाचकः' इति वक्ष्यति । जोतिशब्दस्तावत् सदादिरिति, यस्मात् सच्छब्दो आतिसम्बन्धिनो जातिमुपादायात्मरूपेण द्रव्यादीनभेदोपचारादाह तस्मादभेदोपचारहेतुना व्यपदिश्यते जातिशब्द इति । यथा 'सिंहो ४१६-२ माणवकः' इति सिंहशब्दो माणवकगुणानुपादायाभेदोपचारप्रवृत्तेरभेदोपचारहेतुना व्यपदिश्यते गुणशब्द इति । कस्मान्न वाचक इति हेतुपरिप्रश्नः, यस्माद् वाङ्मात्रेण न श्रद्धीयते । उच्यते---आनन्त्यादिति हेतुः । कस्यानन्त्यात्? भेदानाम् , यस्मात् ते पूर्व प्रकृता न चान्यः श्रूयते । आनन्त्ये हि भेदानामशक्यः 15 शब्देन सम्बन्धः कर्तुम् , न हि पाटलिपुत्रादिस्था द्रव्यादय इहस्थेन सच्छब्देन सहाख्यातुं शक्याः । कर्तुम् आख्यातुम् , करोतेरनेकार्थत्वात् । आनन्याद्वा द्रव्यादीनाम् , तथाहि-ते घट-पट-रथादिभेदेनानन्ताः । एवं तावत् सम्बन्धिभेदाद् भेदमभ्युपगम्येदमुच्यते, न तु तस्य वस्तुनः स्वगतो भेदोऽस्ति । तत्रेदमेव कारणम्-यत् सम्बन्धान्तरविशिष्टाभिधायी शब्दः सम्बन्धान्तरविशिष्टशब्दवाच्यमसमर्थो वक्तुम् , गवाश्वादिवत् । तस्माद् भेदानामवाचकः । 20 __ न चाकृतसम्बन्ध इत्यनाख्यातसम्बन्धे शब्द इति द्विष्ठत्वेऽपि सम्बन्धस्य शब्दस्यैवाविनाभावि- ... त्वादर्थप्रत्यायकत्वं दर्शयति । अत्र चानन्त्यं पारम्पर्येणानभिधानहेतुः-ततो हि सम्बन्धाशक्यता, सम्बन्धाव्युत्पत्तेरनभिधानं स्वरूपमात्रप्रतीतेरिति यत्र शब्दस्यार्थेन सम्बन्धोऽव्युत्पन्नो यथा म्लेच्छशब्दानां तत्र १ दृश्यतां पृ० ६.७५० ११, २५ ॥ २ पृ. ६०७ पं० १३॥ ३तिभेदाना प्र० । दृश्यतां पृ० ४६०-१॥ ४ तुलना-"सम्बन्धिभेदात् सत्तैव भिद्यमाना गवादिषु । जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः ॥ [ वाक्यप० ३।११३३], वक्ष्यमाणैराश्रयादिभिः स्वसम्बन्धिभिर्भिद्यमानोपचरितभेदा गवाश्वादिषु सत्तैव महासामान्यमेव जाति!त्वाश्वत्वादिका अपरसामान्यं, नान्या परमार्थभिन्ना सा विद्यते। तथा गोः सत्ता गोत्वं नापरमन्वयि प्रतिभासते एवमश्वस्य सत्ता अश्वत्वमित्यादि वाच्यम्। तस्यामेव च गवादिभेदभिन्नायां सत्ताख्यायां जातौ सर्वे गवादयो डित्थादय आकाशादयश्च शब्दा पाचकत्वेन व्यवस्थिता इत्यसांकर्येण नियतोपाधिवशाजात्यभिधायिनः सिद्धाः।" इति वाक्यपदीयस्य हेलाराजरचितटीकायाम् ॥ ५ संबंधः इत्य प्र०॥ ६ चात्यंतं पारंपर्येणाभिधानहेतुः य० ॥ ७°शक्यता ना संबंधान्युत्पत्तेरन यः। शक्यता ता संबंधान्यत्तेरन भा०। ८ऽव्युत्पत्ती भा० । व्युत्पत्ती य० ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे एतावच्च.............. स्वाधारो वा। न चास्ति सम्भवः । मात्रशब्दापादित सत्ताद्यर्थोऽप्यतो न सः। अलमतिप्रसङ्गेन । अथवा मेदादिति यस्माद् व्यावृत्तिमानसदसत्वान..... स एव दोषः, तेन सहाभूतसामान्यत्वात् , यथा सत्वदर्थसच्छब्दस्य घटादिभेदार्थत्वाभावात् तेन 5सहासामानाधिकरण्यं तथा तवापि असदसदर्थसच्छब्दस्य घटादिभेदार्थत्वाभावात् सामानाधिकरण्याभावः। शब्दमात्रमेव प्रतीयते नार्थ इत्यादिः सह टीकया भाष्यग्रन्थो द्रष्टव्यो यावद् न गुणत्वादिव्यभि४१७१ चारादित्यवधिराचार्येण यावत्कारितः सव्याख्यानः सामान्यपरीक्षाकारलिखित एवात्रापीति न लिख्यते । तदुपसंहारः-एतावच्चेत्यादि यावत् स्वाधारो वा । न चास्ति सम्भव इति यथा विचारित10 मिति मात्रशब्दापादितसत्ताद्यर्थोऽप्यतो न स इत्युपसंहारः । अलमतिप्रसङ्गेनेति, “भेदात्' इत्येत प्रसङ्गागतसाक्षाद्विधिवादिमतदूषणमिदं [स]प्रसङ्गमुक्तम्-सत्ताद्यर्थोऽप्यतो न स इति, मात्रग्रहणस्य एतावद्विषयसम्भवानतिवर्तित्वात् । अधुना भवन्तं प्रति मात्रग्रहणात् तत्सम्भविनो विकल्पास्त एवेति तान् दूषयिष्यामः । तद्यथाअथवा भेदादिति यस्माद्यावृत्तिमानित्यादि, 'भेदात्' इत्ययं हेतुर्व्यावृत्तिमत्पक्षे दोषमापादयितुमित्थं 15 व्याख्यायते । यस्माद् व्यावृत्तिमानसदसत्वानिति पूर्वेभ्यः पक्षेभ्यो विशेषं दर्शयति । शेषं तुल्यं यावत् स एव अतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभाव एव दोषः प्रतिज्ञातस्त्वां प्रत्यापाद्यते । कस्मात् ? * 'तेन सहाभूतसामान्यत्वात् । 'घटः' इत्युक्ते यस्मिन्नसदसत्त्वं घटे स घटोऽन्यत्र घटान्तरे पटादौ च न वर्तते, अतो भिन्नः, भिन्नत्वाच्चातद्भेदा घटादयः, तस्मात् * तेन सहाभूतसामान्यत्वं सिद्धम् । यो येन सहाभूतसामान्यस्तस्य तेन सामानाधिकरण्यं न भवति । यथा सत्वदर्थेत्यादिनिदर्शनदण्डकः, सत्वानर्थोऽस्य सच्छब्दस्य 20 सोऽयं सच्छब्दः सत्वदर्थः, तस्य घटादिभेदार्थत्वं नास्ति त्वन्मतेन, तदभावात् तेन सहासामानाधिकरण्यम् , ४१७-२साक्षाद्विधिवादिमत इव तवापि सच्छब्दो[ऽसद]सदों घटादिभेदार्थो न भवति, अतस्तद्वदेव सामाना धिकरण्याभाव इति । १'एतावच्चात्र भवेत्-भेदा वा, सत्तामात्रं वा, सत्तासम्बन्धो वा, सत्तायाः स्वाधारो वा।' इत्याशयोऽत्र भाति । तुलनापृ० ६२६ पं० ४ ॥ २'यस्माद् व्यावृत्तिमानसदसत्वानर्थोऽन्यत्र न वर्तते ततो भिन्नः । भिन्नत्वाचातद्भेदत्वे स एव दोषः' इत्याशयः सम्भाव्यते ॥ ३ यावन गुण भा० । यावदगुण य० । दृश्यतां पृ० ४१९-२॥ ४ दिनागरचिते सामान्यपरीक्षाग्रन्थे 'न जातिशब्दो भेदानामानन्त्याद् व्यभिचारतः। वाचको योगजात्योर्वा भेदार्थैरपृथक् श्रुतेः ॥ तद्वतो नास्वतन्त्रत्वाद् भेदाजातेरजातितः । अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तस्तेनान्यापोहकृच्छ्रुतिः ॥' इति श्लोकद्वयं तद्व्याख्या च विस्तरेण सम्भाव्यते ॥ ५ नवास्ति प्र० । दृश्यतां पृ. ४१९-२॥ ६ दृश्यतां पृ. ६२५ पं०८॥ ७°द्वषण भा० । द्वेषण य.॥ ८ दृश्यतां पृ. ६२६ पं०४ ॥ ९** एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठो य०. प्रतौ नास्ति ॥ १०दिकागेन सवृत्तिके प्रमाणसमुच्चये पञ्चमेऽपोहपरिच्छेदे यदभिहितं तस्य प्रारम्भिकोंऽश इह पृ. ६०७६०८ इत्यत्रास्माभिर्भोटभाषानुवादात् संस्कृते परिवर्त्य प्रदर्शितः। ततोऽग्रेतनोंऽश इहोपन्यस्यते । स चात्रापोहपरीक्षायां यत्र | Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६२९ यत्र यथा यथोपयुज्यते तथा तथानुसन्धेयः । प्रमाणसमुच्चयान्तर्गतोऽपोहवादः ___"भेदेषु जातौ तद्योगे दोषस्तुल्यो हि तेष्वपि ॥७॥ "यतो जातिः स्वरूपं च तद्वद्रूपं न युज्यते । भेदरूपेणाभिधानेऽपि अवश्यं जातिरूपेण भेदाभिधाने जातौ साक्षाद् भेदेषूपचारात् तद्वतीव सर्वत्र दोषो वाच्यः, जातावप्यभिधेयायां शब्दस्वरूपाध्यारोपेण जात्यभिधानात् सम्भवात् । जातियोगो जातिरूपेण सदादिनाभिधीयत इत्यत्रापि यथासम्भवं दोषो वाच्यः । "तद्वांश्च भेद एवोक्तः स च पूर्व निराकृतः ॥ ८॥ 10"न जातिशब्दो भेदानां वाचकः' इति "पूर्व निराकृतः स च जातिमान् । ननु चोक्तम्-जातिशब्दो जातिमन्मात्रस्य वाचको न तु भेदरूपेणेति । यद्येवम् , "तद्वन्मात्रेऽपि सम्बन्धः सत्ता वेति विचारितम् । तद्वन्मात्रं हि तद्वत्त्वं भावप्रत्ययः । १३स च सम्बन्धे गुणे वा स्यात् । यथोक्तम्-समासकृत्तद्धितेषु सम्बन्धाभिधानं [भावप्रत्ययेन ?] अन्यत्र रूट्यभिन्नरूपाव्यभिचरितसम्बन्धेभ्यः [ ] इति । तत्रापि न वाचको योगजात्यो मेदाथैरपृथक् श्रुतेः' इत्युक्तम् । ____ "तद्वानों घटादिश्चेन्न पटादिषु वर्तते । सामान्यमर्थः स कथम् ? अनेकवत्ति हि सामान्यम। तच्च यदि सामान्यवान घटादिः स पटादिषु अवर्तमानः कथं तेषां सामान्यमिति युज्यते? ननु च सामान्यवानभिधीयते, किमर्थं तत्र सामान्यत्वमारोप्यते इति चेत्, यस्मात् सच्छब्दः सामान्यस्य वाचक इति प्रतिज्ञातम् । सत्तादिषु च सत्ताद्यभावात् तद्वान् नोच्यते । तस्मादर्थेऽवश्यमर्थसामान्यमभ्युपगन्तव्यम् । तच्चार्थे नास्ति । तस्मात ऽत्र केवलः । तद्वान् घटादिः सच्छब्दवाच्यत्वात् तुल्यः, न तु तद्वता केनचित् [अपि V'.] । सत्तायोगौ च पूर्व निषिद्धौ । नानिमित्तः स च मतः। शब्दश्च भिन्नेषु निमित्ताभावेऽभिन्नो न दृष्टः । ततश्च किं न युज्यते ? 1 मेदे जातौ च तद्योगे Psv | Vr. मध्ये तूभयथा दृश्यते, दृश्यतां पृ. ६३० पं० २९, पृ० ६३१ पं० ३२॥ 2 यतो जातिः खरूपं तद्वद्रूपं च न युज्यते (?) ॥ 3 वा Psvin 4 भेदस्वरूपेणा Psvi॥ 5भेदाभिधानम् (१)॥ 6 जातिषु (2) साक्षाद् भेदेषूपचार इति तद्वतीव सर्वो दोषो वाच्यः Psv' ॥ 7 °धानात् सम्भवः Psv | धानमिति सम्भवात् Psv॥ 8 सदादि (2) अभिधीयते rsvi9 “यत् पुनरेतस्मिन्नेव पक्षे भिक्षुणोक्तम्-जातिविशिष्टेष्वभिधीयमानेषु स्खलक्षणान्येवाभिधेयानि प्राप्नुवन्ति, तेषामानन्त्यव्यभिचाराभ्यामवाच्यत्वमुक्तम्-इति । तदुक्तम्-'तद्वांस्तु भेद एवेष्टः सच पूर्व निराकृतः' इति ।"-शर्करिका पृ० ६२ ॥ ".."स तु..." न्या०र० पृ. ६००॥ 10 जातिशब्दः पूर्व निराकृतः 'न जातिशब्दो मेदानां वाचकः' इति । स च जातिमत्यपि उक्तः (तेन जातिमत्यपि उक्तम् ? ?)।-PSv' | 11 पृ० ६०७ पं० ११॥ 12 यच्चात्र भिक्षुणा जातिमन्मात्रं वाच्यं भविष्यतीत्याशङ्कय विकल्पितम्-अथ जातिमत्त्वं किं जातितद्वतोः सम्बन्धः किं वा सामान्यरूपमिति । एवं च विकल्प्य 'पूर्वोक्तजातिसम्बन्धाभिधानदोषो योजनीयः' इत्युक्त्वोक्तम्तद्वन्मात्रेऽपि सम्बन्धः सत्ता वेति विचारितम' इति ।"-शर्करिका. पृ० ६२ । न्या०र० पृ० ६०१॥ 13 तेन सम्बन्धो गुणो वा स्यात् (१)। तुलना-"किञ्च, अपोहवत्त्वमिति मतुबन्तादयं भावप्रत्ययः । स च सम्बन्धवाच्यपि स्मयते । यथाह-समासकृत्तद्धितेषु सम्बन्धाभिधानं भावप्रत्ययेन अन्यत्र रूढयव्यभिचरितसम्बन्धेभ्यः [ ] इति । न च सम्बन्धस्य वाच्यत्वमस्तीत्युक्तम् ।"-शर्करिका. पृ० ६३ । न्या०र०पृ० ६०१॥ 14 “यदपि चास्मिन् पक्षे भिक्षुणोतम्-यदा गोत्वविशिष्टः शाबलेयो गोशब्दस्य वाच्यत्वमित्यङ्गीकृतं तदासौ बाहुलेये नास्तीति तत्र गोशब्दप्रवृत्तिने स्यादिति । तदुक्तम्-तद्वानों घटादिश्चेन्न पटादिषु वर्तते । सामान्यमर्थः स कथम-इति । तदपि समानम् ।"-शकेरिका पृ०६३ । “भिक्षुणोक्तम्-'तद्वानों घटादिश्चेन्न पटादिषु वर्तते । सामान्यमर्थः स कथमिति तद्वदवाच्यता ॥' इति।"-न्या०र०. ६०१॥ 15 न युज्यते Psy | 16 सामान्यमारोप्यते Psy'n 17 तत्र वृत्तिोंच्यते Psy | 18 अवश्यं सामान्यमभ्युपगन्तव्यम् Psv 19 यस्मात VP. ॥ 20 शब्दार्थः केवलः समः Psv' । अत्र शब्दः केवलं तुल्यः Psv' | इदमत्रावधेयम्-PS'मध्येऽयं कारिकांशो दृश्यते, PS मध्ये तु न दृश्यते । अतोऽयं वस्तुतः कारिकांशो वृत्त्यंशो वेति निर्धारयितुं न पार्यते ॥ 21 'नानिमित्तः स चेष्यते इति 'निनिमित्तं च तन्नेष्टम्' इत्यपि वा पाठोऽत्र भवेत् ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे ततश्च विशेषणविशेष्यत्वाभावः। अथापि [स्यात् अनन्यद्रव्यवर्तिनि सद्गुणे सच्छब्दाद् घटाद्याशङ्कायां विशेषणविशेष्यभावो भविष्यति नीलतरादिवदिति चेत्, यद्येकत्रासितादिवत् । तच्च नास्ति । नीलशब्दो हि नीलतरादिष्वन्याभावे तद्वति न युज्यते। नीलत्वं सम्बन्धश्च न शब्दार्थ इत्युक्तम् । किञ्चान्यत्, अभ्युपायेऽपि नैतजातेरजातितः। नीलतरादिषु नीलसामान्याभ्युपगमेऽपि यथा नीलगुणस्त्रिधा भिन्न एवं घटत्वादिजातिमती सजातिर्नास्ति यतस्तद्विशेषानुपादाय द्रव्ये वृत्तौ घटादिविशेषे वृत्तिराशयेत । तस्मादिदमपि न कल्पनीयम् ।। - नन्वेवमशब्दवाच्येष्वप्याक्षिप्तेषु घटादिषु तद्वानर्थोऽवश्यं घटत्वादिना केनचिदनुबद्ध इति विशेषणविशेष्यभावो भविष्यतीति चेत्, अर्थालेपेऽप्यनेकान्तः। अर्थाक्षेपो हि यत्रार्थसामर्थ्याद् निश्चय उत्पद्यते यथा दिवा न भुते इति रात्रिभोजने निश्चयः । अत्र तु सदित्युक्ते घटादिष्वनिश्चयात् [ संशय इति Psvi] अर्थाक्षेपो नास्ति । 'तस्माजातिशब्दः कथञ्चिदपि भेद-सामान्य-सम्बन्ध-जातिमतां वाचको न युज्यते तेनान्यापो तिः । तस्मात् 'कृतकत्वादिवत् स्वार्थमन्यापोहेन भाषते' [पृ० ६०७ पं० ८ ] इति स्थितम् । आह च बहुधाप्यभिधेयस्य न शब्दात् सर्वथा गतिः । स्वसम्बन्धानुरूप्यात्तु व्यवच्छेदार्थकार्यसौ ॥ १२ ॥ अनेकधर्मा शब्दोऽपि येनार्थ नातिवर्तते । प्रत्याययति तेनैव न तु शब्दगुणादिभिः ॥ १३ ॥ [इति सङ्ग्रहश्लोकौ Psvi] यद्यन्यापोहपात्रं शब्दार्थः कथं नीलोत्पलादिशब्देषु सामानाधिकरण्यं विशेषणविशेष्यभावश्च स्यात् । कथं न स्यादिति चेत् , यस्माद् भिन्नः सामान्यविशेषशब्दानामपोह्य इति चेत् , नायं दोषः । तेऽपि अपोह्यभेदाद् भिन्नार्थाः स्वार्थभेदगतौ जडाः। एकत्राभिन्नकार्यत्वाद् विशेषणविशेष्यकाः ॥ १४ ॥ नीलोत्पलादिशब्दा अपोह्यभेदे सत्यपि स्वार्थविशेषव्यक्त्यर्थं स्थाणुकाकनिलयनवत् स्वापोहार्थमेकत्र समुदिताः समानाधिकरणभूताः । तथाहि-ते प्रत्येकं स्वार्थविशेषे संशयहेतवः । शब्दान्तरसहित प्रकाश्यार्थासम्भवाच्च विशेषणविशेष्यभूताः । नन्वेकाधिकरणं यत् तद् नीलमपि नोत्पलमपि नेति कथं तद् 1 नीलं च तदुत्पलं चेति नीलोत्पलमित्युच्यत इति चेत् , मैं हि तत् केवलं नीलं न च केवलमुत्पलम् । समुदायाभिधेयत्वात्, 1 नीलोत्पलशब्दाभ्यां ते समुदिते प्रतीयेते, न केवले, केवलयोस्तु वर्णवत् तन्निरर्थकम् । यथा नीशब्द-लशब्दौ सन्तावपि नीलाभिधाने निरर्थको [एव Psvi] एवमत्र [ अपि Psvi]-Psvic. ed. D. ed. पृ० ६७ B-६९ A । N. ed. पृ० ७५ B-७७ A | Psvs. N. ed. पृ० १५९ ५-१६० B | P. ed. पृ० १५७ B-१५९ B॥ अस्य सवृत्तिकस्य प्रमाणसमुच्चयस्य जिनेन्द्रबुद्धिना विरचिता विशालामलवती व्याख्या भोटभाषानुवादात् संस्कृते परिवात्रोपन्यस्यते "मेदेष्वित्यादिना तद्वत्पक्षेऽभिहितं दोषं पक्षान्तरेष्वतिदिशति । उत्तरार्धेन अत्रैवोपपत्तिमाह । जातिरूपं भेदेषु न युज्यते, शब्दस्वरूपं जातौ, शब्दस्वरूपवजातिरूपं सम्बन्धे। सम्बन्धिरूपेण सतोऽर्थस्य स्वयं वचनविषयीकर्तुमशक्यत्वाद 1 'अनन्यद्रव्यवर्ती सद्गुणः' इत्यपि पाठश्चिन्त्यः ॥ 2 शर्करिका पृ. ६४ । तुलना-"तदुक्तम्-मा भूदर्थान्तरे वृत्तियोकत्रासितादिवत् । प्रकर्षादिविशिष्टत्वम्' इति । एवं चाशङ्कय दूषितम्-'नैवं जातेरजातितः' इति ।"-न्या. र० पृ. ६०१-६०२ ॥ 3 'द्रव्ये वर्तमानस्य' इयपि पाठो भवेत् ॥ 4 शर्करिका. पृ. ६४ । न्या०र० पृ. ६०२ ॥ 5 अर्थाक्षेपो नाम PS 6 देवदत्तो दिवा न Psv' ॥ 7 यस्माजातिशब्दः Psv* ॥ 8 इति यत् तदेव स्थितम् Psy* ॥ 9 नय चक्रवृत्ति. पृ०४२७-२ । 'स्वसम्बन्धानुरूपेण'-शर्करिका. पृ० ४६ ॥ 10 "भावश्च कथं स्यात् Psy | 11 तत्त्वसं०पं० पृ. ३०७ । सन्मतिव० 12 समुदयेन Pavi-213 नीलं चोत्पलं चेति चेत्, उच्यते-न हि तत् केवलं......"Psvi॥ 14 तत्त्वसं०पं० पृ. ३०८ । सन्मतिव०॥ 15 'नीलोत्पलशब्दाभ्यां. समुदिताभ्यां तदुच्यते न केवलाभ्याम्, केवलं तु वर्णवत् तन्निरर्थकम् ।' इत्यपि पाठः Psvi VT. अनुसारेण सम्भाव्यते ॥ . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशागप्रणीतापोहयादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । वश्यमित्युक्तम् । ननु तद्वत्पक्षाद् भेदपक्षस्य को विशेष इति चेत्, तद्वत्पक्षे सज्जातिरूपेण सच्छब्देनाभिधानम् , भेदपक्षे तु द्रव्यादिरूपेण । एवं हि ते भेदरूपेणाभिहिता भवन्तीति विशेषः । तत्रापि द्रव्यत्वादिषु साक्षाद् भेदेखूपचार इति पूर्ववदेव दोषो वक्तव्यः-साक्षाद् उपचारप्रवृत्तत्वं क्रमेणानभिधानं गुणोपकारविरोधश्चेति । सम्भवादिति जात्यभिधाने 'प्रकर्षः स्याद् विना धिया' इत्यस्यासम्भवात् । सम्बन्धाभिधानेऽप्यत एव 'सम्भव'वचनम् । ननु पूर्व सम्बन्धस्यानभिधेयत्वमुक्तं तत् कथमिदानीं सद्रूपेणाभिधानमाश्रीयते कथं चात्र अभेदोपचारः सम्बन्धस्याङ्गीक्रियते ? पूर्व हि असत्त्वभूतत्वाद् आख्यातार्थे शब्दस्याभेदोपचारानुपपत्तेरनभिधानमुक्तम् , सम्बन्धोऽप्यसत्त्वभूत एव, तत् कथं तस्य सत्त्वं सच्छब्देनाभेदोपचारो वा ? अभेदोपचाराभावे च कुतः पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः ? अथ सत्तया अभेदोपचारेण स उच्यते कथं सद्योगशब्दयोः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिरिति चेत्, नायं दोषः, सम्बन्धाभिधानमभ्युपगम्यास्य दोषस्योक्तत्वात् । 'यदि च सम्बन्धोऽभिधीयते तथापि तद्वत्पक्षदोषानतिक्रम एव जातिमता तुल्यसामर्थ्यात्' इति दर्शनार्थमिदमुक्तम् । तद्वांश्चेत्यादिनास्य पक्षान्तरत्वमेव निराकरोति । ननु चोक्तमित्यादिना पक्षान्तरत्वं दर्शयति । अत्र भेदा भेदरूपेण नाभिधीयन्ते, किं तर्हि ? जातिमतां तेषां यन्निविशेष रूपं सत्त्वेनारोपितं तदेव भेदरूपासंस्पृष्टमभिधीयते । तथा च भेदपक्षात् पक्षान्तरमेवेदमिति मन्यते । यद्येवम् इत्यादिना जातियोगपक्षयोरन्तर्भूतत्वादस्य पक्षान्तरत्वं निषेधति । कथं पुनस्तद्वन्मानं सत्ता सम्बन्धो वा भवतीति चेदुच्यते-तद्वन्मात्रं हि इयादि । 'मात्र' शब्देन विशेषनिराकरणे सामान्यं सर्वानुगतिरूपं शब्दार्थ इत्युक्तं भवति। तच्च प्रवृत्तिनिमित्तत्वाद् भावप्रत्ययेन उच्यमानं सत्तां सम्बन्धं वा विहाय नान्यदुपलभ्यते, भावप्रत्ययस्य तत्रैव विहितत्वात् । इदमागमेन दर्शयितुमाह-समासकृत्तद्धितेषु इत्यादि सम्बन्धस्याभिधेयत्वे आगमः । राजपुरुषत्वं पाचकत्वम् औपगवत्वमित्येतेषु समासादिषु स्वस्वामि-क्रियाकारक-निमित्तनैमित्तिकसम्बन्धा उच्यन्ते यथासंख्यम् । ततोऽत्रापि सच्छब्दः कृदन्तत्वात् सम्बन्धवाचकः स्यात् । अन्येऽस्यैवापवाद वदन्ति-अन्यत्रेत्यादि । अयं गुणवाचित्वे आगमः । रूढे..... अत्र जातिमात्रमभिधीयते, न सम्बन्धः । अभिन्नरूपात् तद्धितात्..... अत्र च गुण एवोच्यते । अव्यभिचरितसम्बन्धात्..... 'अत्र तदेव सत्त्वमभिधीयते, न सम्बन्धः । तद्वानों घटादिरित्यादिना अनेकत्रावर्तमानताया हेतुः प्रकाशितः । सामान्यमर्थः स कथमिति प्रमाणफलम् । यदनेकत्र न वर्तते तन्न सामान्यम् , स्वलक्षणवत् , तद्वांश्च तथा, इति व्यापकाभावः । सामान्यं ह्यनेकत्र वर्तते इति व्यतिरेकः । तच्चेत्यादिना हेतोरेवार्थ विवृणोति । कथमित्यादिभिः प्रतिज्ञार्थम् । ननु चेत्यादिना सिद्धसाध्यतामाह, तद्वतः सामान्यरूपत्वेनानिष्टत्वात् । तदनिष्टत्वं सामान्यरूपारोपस्य प्रकाशयन्नाह-किमर्थमित्यादि । यस्मादित्यादि सिद्धसाध्यतायाः प्रतिविधानम् । एवं मन्यते-सम्बन्धसौकर्यादव्यभिचारवचनाच्च सच्छब्दस्य सामान्यवाचित्वमाश्रीयते भेदशब्दैः सह सामानाधिकरण्याभ्युपगमाच, सामान्यविशेषभावाभावे सामानाधिकरण्यं नोपपद्यत इति । तथाहि-सामान्यशब्दाद् निर्विशेषं प्रवर्तमाना बुद्धिर्विशेषशब्देर्भेदान्तरेभ्यो व्यवच्छिद्य विशिष्टविषयेऽवस्थाप्यते । तत् सामान्याभावे नोपपद्यते । अत्र च सामान्येन तद्वानित्यभ्युपगमे विकल्पद्वयम्-किं सत्तादिसामान्यस्य तद्वत्त्वम् आहोखित् तद्वतो घटादेः समानत्वमिति । तत्र पूर्वस्यासम्भव इति दर्शयति-सत्तादिषु चेत्यादि । सत्तादिषु जात्यन्तरं नास्ति जातीनामजातित्वात् । ततोऽवश्यं द्वितीयविकल्पोऽभ्युपगन्तव्य इति दर्शयति-तस्मादित्यादि । अथै इति प्रकृतत्वात् तद्वति घटादौ । स्यादेतत् (?) ननु तत्रैवेति चेत्, अत्रोच्यतेतच्चेत्यादि । कस्मानास्तीति चेत्, यस्मादित्यादि । केवलवचनेन अभिधेयं तुल्यं निराकरोति। शब्द एवाभिधायक एते[षां] तुल्यः, न वाच्यमेवं किञ्चिदपीत्यर्थः। तद्वता केनचिदपि नेति, अभिधानसाम्येनैव एतेषां समानत्वम्, न त्वभिधेयेन तद्वद्वस्तुरूपेण केनचिदित्यर्थः । ननु सत्ता शब्दखरूपेण तद्वती अभिधीयते, सम्बन्धश्च सत्तारूपेण । तस्मात् सत्तायाः सम्बन्धस्य वा अभिधेयेन तद्वता तुल्यत्वं भविष्यतीति चेत्, उच्यते-सत्तायोगी चेत्यादि । भेदे जातौ च तद्योगे दोषस्तुल्यो हि तेष्वपि [पृ० ६३० पं० २] इत्यादिना पूर्वमेव निराकृतं जातियोगयोस्तद्वत्त्वेनाभिधानम् । यदि घटादिषु शब्दः समानस्तदा स एव शब्दः शब्दत्वेन तद्वान् तेषां सामान्यं स्यादिति चेत्, उच्यते-नानिमित्त इत्यादि । ......... निमित्तवतो यस्य शब्दस्य यत्र निमित्ताभावः तस्य तत्र योगो भवितुं नाहति यथा दण्डशब्दस्य दण्डरहिते पुरुषे। घटादिष्वपि निमित्तवतो जातिशब्दस्य निमित्ताभाव इति कारणानुपलब्धिरुक्ता। ततश्चेत्यादौ यदि सामान्यमभिधेयं ततस्तद्विशेष्यार्थ घट इत्युच्यत इति सामानाधिकरण्यं स्यात् । सामान्याभिधानाभावे किं कस्य विशेष्यम् ? ततश्चाभ्युपगमहानिः । अथापीति सामान्यविशेषभावाभावेऽपि प्रकारान्तरेण विशेषणविशेष्यत्वं ग्राहयति । द्रव्यान्तरे न वर्तत इति अनन्यद्रव्यवर्ती सहुणो घटादि द्रव्यम् । सहुण इति सत्तागुणवानित्यर्थः, सत्ता गुणोऽस्यति कृत्वा । अनेनातुल्यत्वमुच्यते । एवमतुल्यत्वे सत्यपि सच्छब्दादू घटाद्याशङ्कायां विशेषणविशेष्यभावो भविष्यति नीलतरादिवत् । नीलगुणवद् द्रव्यं नीलतरादिद्रव्यान्तरेऽतद्गुणे न वर्तते Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे इति तदसामान्यम् , तथापि नील इत्युक्ते योऽयं नील इत्युक्तः स किं नीलतर आहोखिन्नीलतम इति विशेषाशका भवति, ततो नीलतरो नीलतम इति भेदशब्दविशेष्यते एवं सदित्युक्ते यः सन् अयं किं घट आहोस्वित् पट इति घटाद्याशङ्का भवति ततस्तच्छब्दैविशेष्यते घटः पटो वेति । योकत्रासितादिवदिति ..............तच्चेदं नास्ति । कुत इति चेत्, उच्यते-नीलशब्दो हीत्यादि । नीलशब्दो हि नीलगुणवद् द्रव्यमाह । तच्च नीलतरादिद्रव्यान्तरे न वर्तते । यन्नीलत्वं वर्तते तत्सम्बन्धो वा तस्य शब्दार्थत्वं न भवति। तस्मादत्रापि नानिमित्तः स च मतः [पृ० पं. १९] इत्येतत् समानमिति दार्शन्तिकेन समानस्य दृष्टान्तस्याप्यसिद्धिरेव । अभ्युपायेऽपीति, यद्यपि दृष्टान्तः सिध्यति तथापि सत्तायां तत्तुल्यत्वं नास्ति । तद्दर्शयति-नैतज्जातरजातित इति। न विद्यते घटत्वादिजातिरस्यां सत्ताजातावित्येवम् अजातिः सज्जातिः अजातिमतीति सत्तायां घटत्वादयो जातिविशेषा न सन्ति नीलगुणे नीलतरादिविशेषवत् यतस्त द्विशेषानुपादाय द्रव्ये वर्तेत ।...... ...तस्मात् सच्छब्दाद् घटादिविशेषाशङ्का न युक्ता । नीलगुणस्तु अनेकभेदः । स एकत्रापि द्रव्ये वर्तमानः खविशेषानुपादाय 'यथाभिसम्भवं वर्तत इति तद्वाचिनीलशब्दान्नीलतराद्याशङ्का युज्यत इति दर्शयति । नन्वेवमिति प्रकारान्तरेण विशेषाशङ्कासम्भवमाह ।........"तद्वानर्थोऽवश्य मित्यादि । जातिमानों हि शब्देनोपात्तः । स च नियोगादेव घटत्वादिसामान्येन केनचिदनुबद्धः । ततश्च तत्सामान्यभेदाक्षेपे घटादिविशेष आक्षिप्यत इति । इममपि विकल्पं निराकुर्वन्नाह-अथोक्षेपेऽप्यनेकान्त इति । अथोक्षेपो हीत्यादिना अक्षेिपस्य स्वरूपमाह । तदभावमत्र दशे यितुं यथा दिवा न भुङ्कइति वैधर्म्यनिदर्शनम् । अत्र त्वित्यादिना वैधर्म्यप्रयोगे पक्षधर्ममुपदर्शयति । आक्षेपो नास्तीति प्रमाणफलम् । यत्राक्षेपस्तत्र निश्चयः यथा दिवा न भुङ्क्ते इत्यत्र रात्रिभोजने । सदित्यभिधाने च घटादिषु न निश्चयः, किं तर्हि ? सन्देहः । इति स्वभावविरोधः ।........"तस्मादित्यादिना यथोक्तजात्याद्यभिधाननिषेधोपसंहारेण स्वपक्षमेव दर्शयति ।...... ......"आह इति अर्थगम्यांशसन्दर्शनेन अन्यापोहमेव शब्दार्थ ग्राहयति। बहधेति शिंशपादिविशेषेण पुष्पितफलितादिविशेषेण चानेकविधत्वेऽपीत्यर्थः। अभिधेय इति शिंशपादिरर्थः । तस्यैव अनेकविधत्वेऽपि न शब्दात् सर्वथा गतिः। स्वसम्बन्धानुरूप्यादिति स्वसम्बन्धोऽविनाभावित्वं तदन्वयव्यतिरेकलक्षणम् । स च तत्सामान्यापेक्षया, न तु विशेषापेक्षया । तस्माद् यादृशः सम्बन्धः प्रत्यायकत्वमपि तादृशमेव युज्यते । इदमुक्तं भवति-सामान्यापेक्षयास्य सम्बन्धः, सामान्यं च व्यवच्छेदरूपमेव यथोक्तवत् अन्यस्यायोगात् । तस्माद् व्यवच्छेदमेव कुर्वन् प्रत्याययतीति । अथ केनांशेन प्रत्याययतीति चेत्, उच्यते-अनेकधर्मा शब्दोऽपीत्यादि । स्वसामान्यधर्मरनेकधर्मा। येनार्थ नातिवर्तत इति सामान्यधर्मेण वृक्षत्वादिना येन न व्यभिचरति प्रत्याययति तेनैवेति अनेन स एव धर्मः प्रत्यायक इत्यर्थः । एवकारेण यद्वयवच्छेदस्तद् दर्शयति-न तु शब्दगुणादिभिरिति। आदिशब्देन शब्दज्ञेयत्वादयो गृह्यन्ते । अप्रत्यायकत्वं तेषामव्यभिचारित्वात्। तथाहि-ते वृक्षार्थ विनापि रसादिषु दृष्टाः, न तु वृक्षशब्दत्वादि सामान्यम् । यद्यन्यापोहमात्रमित्यादि । ....."कथमित्यादि.........। कथं न स्यादिति चेदित्यादि । यस्माद भिन्न इत्यादि अपोह्यभेदेन सहचारादर्थभेदं दर्शयति । अयं हेतुः । ये भिन्नार्थास्त न समानाधिकरणा न च विशेषणविशेष्यभूताः, घटपटादिशब्दवत् , नीलोत्पलादिशब्दा अपि तथेति व्यापकविरोधः। तेऽपीत्यादि । यद्यपि अपोह्यमेदाद भिन्नार्थास्तथाप्यस्ति विशेषः स्वार्थमेदगती जडाः प्रत्येकमिति शेषः । स्वार्थः सामान्यमुत्पलशब्दस्योत्पलमात्रम्, तद्भेदा रक्तोत्पलादयः । नीलशब्दस्यापि नीलमात्रम्, तद्भेदा भ्रमरादयः । तद्गतौ जडाः संशयहेतवः । अनेन प्रत्येकं स्वार्थभेदे संशयहेतुत्वम् अर्थापत्त्या सहितानामेव निश्चयहेतुत्वं विशेष उक्तः। यस्मादेवमुत्पलनीलादिशब्दानां परस्परार्थे स्वार्थविशेषे प्रत्येकं संशयहेतुत्वं सहितानामेव निश्चयहेतुत्वं तस्मादेकस्मिन् वस्तुनि नीलोत्पलमित्यभिन्नकार्यत्वं विशिष्टाभिव्यक्तिलक्षणं युज्यते। तस्मादेकत्राभिन्नकार्यत्वात् सामानाधिकरण्यं तस्माच विशेषणविशेष्यभाव उपपद्यते। ............. अपोह्यमेदे सत्यपि इति, इदमपि पूर्ववदपोह्यभेदेनार्थभेदं दर्शयति । स्वार्थविशेषव्यक्त्यर्थमिति स्वार्थविशेष उत्पल. नीलादिशब्दानामुत्पलनीलादिः, तदभिव्यक्त्यर्थमिति । अनेनाभिन्नकार्यत्वमुक्तम् । स्थाणुकाकनिलयनवत् स्वापोहार्थमिति नीलसामान्योत्पलसामान्ययोः [अपोहार्थम् ] एकत्र समुदिता इति । ........तथाहि-ते प्रत्येकं स्वार्थविशेषे संशयहेतवः। अर्थापत्त्या सहितानां निश्चयहेतुत्वमुच्यते। यस्माद् नीलोत्पलादिशब्दाः प्रत्येकं स्वार्थविशेषे सन्देहहेतवः सहिता एव निश्चयहेतवः, तस्मात् साहताः स्वार्थविशेषकार्थव्यञ्जकाः समानाधिकरणभूताः। शब्दान्तरसहितप्रकाश्यार्थासम्भवाच्चेत्यादि । शब्दान्तरेण नीलादिशब्देन सहितस्य उत्पलशब्दस्य प्रकाश्यो विशिष्टोऽधः स उत्पलशब्दे केवले न , 1 यथानीलसम्भवं (2) P. ed. ॥ 2 वैधोपयोगे D. ed. । वैधोपयोगेन P. ed.॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६३३ शब्दमात्रं हि....."तन्निमित्ताभावात् छत्रिदण्डिवत् । भेदाद् व्यावृत्तिसामान्यानाम् ..........एकस्मिन्नर्थे यदा बहवो वक्तारो भवन्ति 'घटः पार्थिवो द्रव्यं सन् शुक्लः' इत्येवमादिविशेषैस्तदा सोऽर्थो घटरूपेण कृत्स्नो वाभिधीयेत एकदेशेन वा ? न तावत् कृत्लः, वक्त्रन्तरस्य पार्थिवत्वेनाभिधानासम्भवप्रसङ्गात् । अन्यतरसामान्यविशेषणाभावः, कृत्स्नाभिधेयस्वरूपोपादानशब्दाभिहितत्वात्, घट- 5 शब्दमात्रं हीत्यादि त्वन्मतदोषोक्तिस्तुल्या तवापि यावत् तन्निमित्ताभावात् छत्रिदण्डिवदिति । यथा छत्रनिमित्तश्छत्री दण्डनिमित्तो दण्डी भिन्ननिमित्तत्वात् परस्पर म]समानाधिकरणौ तथा व्यावृत्तिमत्सच्छब्दपक्षेऽपीति । 'भेदाद् व्यावृत्तिसामान्यानामित्यादि, विधिपक्षदूषणवदिहापि व्यावृत्तिसामन्यवद्भेदादन्यदेवासद्व्यावृत्तिसामान्यात् [अ]घटनिवृत्तिसामान्यम् , अतः 'सन् घटः' इति भिन्नव्यावृत्तिविशिष्टसन्घटत्वसामान्ययोर्भेदादिति । अत ऊर्ध्वं तुल्यगमनीयमेव विधिपक्षदूषणेन सर्वमिति तद्व्याख्यैवेयं 10 लिख्यते- एकस्मिन्नर्थे घटादौ घटत्व-पृथिवीत्व-द्रव्यत्व-सत्त्वादिभिन्नेषु वक्तृषु कश्चिद् ‘घटः' इति ब्रूते कश्चित् 'पृथिवी' इत्यादि यावत् 'सन्' इति, तत्र घटाभिधाने सोऽर्थो घटरूपेण कृत्स्नो वाभिधीयेत, एकदेशेन वा ? न तावत् कृत्स्नः, तस्मिन्नेव काले वक्त्रन्तरस्य पार्थिवत्वेनाभिधानासम्भवप्रसङ्गात्, न हि [अ]घटव्यावृत्तिरूपसामान्यं गृहीत्वाऽतद्रूपाभिप्रायिशब्दप्रयोगो युक्तः, स चेतरवक्तृवशात् कृत्स्नो घटरूपेण स्थित इत्यसम्भवो रूपान्तरस्य कृत्स्नस्यैकस्य । [अनेक?]वृत्तिसामान्यरूपप्रतीतेस्तद्वतस्तत्सारूप्येण युगपद् 15 वक्त्रभिप्रायभेदेन युक्तो ‘भावः सन् घटः' इति प्रयोगः । अत्र साधनम्-अन्यतरसामान्यविशेषणाभाव इति प्रतिज्ञा । कृत्स्नाभिधेयस्वरूपोपादानशब्दाभिहितत्वात् , यत्र कृत्स्नाभिधेयस्वरूपं तदुपादानेन शब्देनाभिधीयते तत्रान्यस्य सामान्यविशेषण सम्भवति । एवं नीलशब्देऽपि उत्पलशब्देन सहितस्य यः प्रकाश्यः स केवले न सम्भवतीति शब्दान्तरसान्निध्येन विशिष्टार्थे प्रवृत्तेः परस्परं विशेषणविशेष्यभावः । .....'नन्वेकाधिकरणं यत् तदिति, विग्रहकाले 'नीलं च तदुत्पलं च' इति क्रियते तस्मात् पृच्छति । अनेन यदुक्तं 'शब्दान्तरसहितेनैव शब्देन विशेष्यार्थः प्रकाश्यते' इत्यत्राभ्युपगमबाधामाह । न हि तत् केवलं नीलम् इति केवलनीलनिषेधेन नीलशब्दमात्रवाच्यत्वस्य निषेधः। एवं नच केवलमुत्पलमिति उत्पलशब्दमात्रवाच्यत्वस्य केवलस्य । तथाहि-केवलनीलशब्देन केवलोत्पलशब्देन च यदभिधीयते तत् केवलं नीलं केवलं चोत्पलमिति प्रसिद्धम् । कस्मात् पुनः नीलोत्पलशब्दाभ्यां केवलाभ्यां तन्नाभिधीयत इति चेदुच्यते-समुदायाभिधेयत्वादिति । यस्मात् सहिताभ्यामेव नीलोत्पलशब्दाभ्यां सोऽर्थोऽभिधीयते न केवलाभ्याम् , अन्यथा एकेन तदर्थस्याभिहितत्वे पर्यायशब्दवत् तयोः सह प्रयोगो नोपपद्यते । ततोऽनेन विग्रहकालेऽपि सहिताभ्यां नीलोत्पलशब्दाभ्यां तदभिधीयत इत्यभ्युपगमाद् नाभ्युपगमबाधेति दर्शयति । ननु केवलाभ्यां किं प्रतीयते इति चेत् , न किञ्चिदपि, यस्माद् वर्णवत् तन्निरर्थकम् । कथं पुनरंशानां निरर्थकत्वे तत्समुदायस्यार्थवत्त्वमिति चेदुच्यते-यथेत्यादि ।"-विशालामलवती. VT. D. ed. पृ. २४८ A-२५८ A , P. ed. पृ. २८० A-२९१ B॥ १'शब्दमात्रं हि तुल्यं नार्थः । शब्दश्च निमित्तमुपादाय प्रवर्तते, अतो व्यावृत्तिमत्पक्षे व्यावृत्तिमतां भेदान्न सामानाधिकरण्यम् , एकत्र तन्निमित्ताभावात् छत्रिदण्डिवत्' इत्याशयोऽत्र भाति ॥ २ यावत्तमित्ताभावात् य०॥ ३°ब्दमपेक्षेपीति य० ॥ ४ मेदाद्वाभ्यावृत्ति भा० । भेदाद्वा व्यावृत्ति इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ५वक्तृषु वक्तृषु भा० । वक्तृषु २ य० ॥ ६°त्वातद्रूपा य० । त्वतद्रूपा भ० ॥ ७°मत्तद्वत भा० ॥ नय०८० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे पार्थिवत्वादिवत् । अथास्यैकदेशं गृह्णाति, तदयुक्तमप्रतीतेः । न हि व्यावृत्तिसामान्यशब्दैस्तद्वत एकदेशो वक्तुं शक्यः, अतदसत्वत्सामान्यविषयत्वात् , यथा आचार्यो मातुल इति । अथापि स्यात्-असद्यावृत्तिजातिमति बह्वाशङ्कायां घटादिभेदवाचि 5 प्रयोगस्याभावो दृष्टः, यथा परं प्रति त्वदुदाहृतघटपार्थिवत्वोक्तौ 'यदि घटत्वेन समस्तं वस्तु विशिष्टं ४१४-१ ततः पार्थिवत्वस्यावकाशाभावान्न युज्यते' इति इष्टो दोषस्तथा यद्यघटत्वनिवृत्तिविशिष्टं वस्तु समस्तमुक्तं ततोऽपार्थिवनिवृत्तिविशिष्टं न युज्यत इति समानः । अथास्यैकदेशं 'घटः' इत्यघटनिवृत्त्या गृह्णाति एकः, अपरोऽपार्थिवनिवृत्त्या देशं 'पार्थिवः' इति गृह्णातीति मतम् तदयुक्तमप्रतीतेः, न हि निमित्तान्तरैरुच्यमानस्य एकदेशप्रतीतिर्दृष्टा यथा आचार्यो 10 मातुल इति तथा न हि व्यावृत्तिसामान्यशब्दैस्तद्वत एकदेशो वक्तुं शक्यः । कस्मात् ? अतदसत्वत्सा मान्यविषयत्वात् । अतस्य अन्यस्य व्यावृत्तस्य असत्त्वम्, तदस्यास्ति 'सन् घटः' इत्यादिसामान्ये, स विषयोऽस्य शब्दस्य सोऽतदसत्वत्सामान्यविषयः, यत्रातदसत्वत्सामान्यविषयत्वं शब्दे तस्यैकदेशो न शक्यो वक्तुम् । किमिव ? आचार्यो मातुल इत्यादिनिमित्तान्तरोक्तैकदेशानुक्तिवत् ।। अथापि स्यादित्यादि परमताशङ्का । यथा विधिवादिमतमाशङ्कयते तथापोहवादिमतम्-असद्व्या15 वृत्तिजातिमतीत्यादि शब्दविशेषितग्रन्थमर्थतस्तुल्यं यावद् नीलतम इति वेति । अस्य व्याख्या १“सम्बन्धिभेदेनैक एवार्थोऽनेकरूपत्वेन प्रतिभासत इत्यत्र भाष्ये [ पा० म० भा० ३।३।१८] निदर्शनमुपन्यस्तं व्याचष्टे-आचार्यों मातुलश्चेति यथैको व्यपदिश्यते । सम्बन्धिभेदादर्थात्मा स विधिः पक्तिभावयोः ॥ [वाक्यप० ३।८।६३], उक्तमिदं भाष्ये-उपाध्यायस्य शिष्यो मातुलस्य भागिनेयं गत्वाह-उपाध्यायं भवानभिवादयतामिति । स गत्वा मातुलमभिवादयते । तथा मातुलस्य भागिनेय उपाध्यायस्य शिष्यं गत्वाह-मातुलं भवानभिवादयतामिति । स गत्वोपाध्यायमभिवादयत इति । अत्र च यथैकोऽर्थः कश्चित् प्रत्युपाध्यायो भवति कञ्चित् प्रति मातुलो भवति तथा स प्रकारः पक्तिभावयोबौधे च । स्वगतविशेषापेक्षया सामान्यखभावोऽपि पचिर्भावं प्रति विशेषः, भावः पुनः पचिं प्रति सामान्यमेव ।" इति वाक्यपदीयस्य हेलाराजरचितवृत्तौ ३।८।६३ ॥ २ तुलना-“यदपि च भिक्षणा शङ्कितम्-'मा भूत् पिण्डान्तरेण विशेषणविशेष्यभावः । तस्मिन्नेव पिण्डे सत्तादिविशिष्टेऽभिहितेऽपरतद्गतविशेषाकांक्षायां विशेषणादिव्यवहारो भविष्यति 'सन् घटः' इति । यथा नीलशब्देन नीलगुणेऽभिहिते तद्गत विशेषापेक्षया तरबादिविशेषणं भवति नीलतरो नीलतम इति' [ ] इति । तदुक्तम्-'योकत्रासितादिवत् [पृ. ६३०] इति । एवं चाशय परिहृतम्-'युक्तं तत्र नीलो गुणः प्रकर्षाप्रकर्षादि. भेदभिन्नस्तरबादिभिर्विशेष्यते। सत्ताजातिस्तु घटादिजातिशून्या स्वात्मविशिष्टं पदार्थ प्रतिपादयन्ती नैव घटत्वादीनाकाक्षतीति न तत्र विशेषणाभिधानं भवति' [ ]। तदुक्तम्-'नैतज्जातेरजातितः' [पृ० ६३०] इति । तदेतदपि समानम् । तवापि ह्यसदपोहे नैवाघटापोहोऽस्ति । अतश्चात्मन्यविद्यमानमघटापोहमसदपोहो नैवाक्षेप्तं समर्थ इति तै घटापोहै विशेष्यते यथाऽनीलापोहः स्वगतैरप्रकर्षापोहैविशेष्यते । तदेतत् सर्वमाह-'नात्मन्यविद्यमानत्वाद्विशेषापोहसूचनम्। तस्मान्न तैर्विशेष्यत्वं प्रकृष्टत्वेन नीलवत् ॥ १३२ ॥' इति । यत् पुनः 'अशब्दवाच्यैरेव घटादिभिः सज्जात्याक्षिप्तैर्विशेषणादिव्यवहारो भविष्यति' [ ] इत्याशय भिक्षुणा दूषितम्-'अनैकान्तिको घटाक्षेपः, पटेऽपि सङ्क्रान्तिसम्भवात् [ ] इति । तदुक्तम्-'अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तः' [पृ० ६३० पं० ७] इति । तदेतदपि [ समानम् ] । न ह्यसदपोहोऽनैकान्तिको धूमवदग्निमघटापोहमाक्षेप्तुं समर्थ इत्याह-'अर्थाक्षेपोऽपि नास्त्येव सन्देहाल्लिङ्गलिङ्गिवत् ।' इति ।"-मी० श्लो० वा० शर्करिका. पृ० ६४ ॥ ३ तुलना-पृ. ६०८ पं० १४ ॥ .. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६३५ शब्दैः सामानाधिकरण्यं भविष्यति तत्सामान्यगुणत्वात् तद्वाचिशब्दस्यापि तद्व्यवच्छेद्यविषयत्वात् । यत्र यत्र तत्सामान्यगुणत्वं तत्र तत्र सामानाधिकरण्यं दृष्टम् , तद्यथा अनन्यद्रव्यवर्तिनि नीलगुणेऽनीलनिवृत्तिसामान्यस्य नीलतरादिद्रव्यवृत्तित्वात् तैः सह सामानाधिकरण्यं भवति नीलतरो नीलतम इति वा। न, सामान्यविशेषभावस्य तच्छब्दार्थाभावात् सम्प्रधार्यत्वात् । यतश्च नीलशब्दोऽपि न द्रव्यं नीलत्वेनाह, किं तर्हि ? अनीलवदभावम् । तत्र च न नीलादिभेदानां कस्यचिदपि सम्भवः । अनीलाभावभावत्वान्नेति चेत्, एवं विधिशब्दार्थता तर्हि । यस्मादेवं सतोऽपि न सामानाधिकरण्यम् , अभूतसामान्यविशेषत्वात्। यद्यपि तद्वद् घटादि पटादिषु न वर्तते तथापि एकत्रातद्व्यावृत्त्याधारे वर्तते सत्ता, ततो बह्वशङ्कास्ति, 10 तस्यां च सत्यां घटादिभेदवादिभिः शब्दैर्येषु सा सत्ता वर्तते तैस्तद्वाचिभिः सामानाधिकरण्यं भविष्यतीति प्रतिज्ञा । तत्सामान्यगुणत्वादिति हेतुः, सा सामान्यगुणो येषां ते बहवोऽस्तित्सामान्यगुणाः, तद्भावात् तत्सामान्यगुणत्वात् । तद्वाचिशब्दस्यापि तद्व्यवच्छेद्यविषयत्वात् , तया सत्तया व्यवच्छेद्याः सर्वे विषया अर्थाः, ते विषया अस्य शब्दस्य स तद्व्यवच्छेद्यविषयः, तद्भावात् तद्व्यवच्छेद्य-४१८-२ विषयत्वात् । यत्र यत्रेत्याधुपनयः कार्यः । दृष्टान्तः-तद्यथा अनन्यद्रव्यवर्तिनीत्यादि, अनीलेतरो.हि 15 नीलगुणोऽनन्यद्रव्यवर्ती द्रव्ये 'नीलगुण एव वर्तते, नीलतरादिष्ववर्तमानेऽपि तस्मिन् नीलगुणसामान्ये अनीलनिवृत्तिसामान्यस्य नीलतरादिद्रव्यवृत्तित्वात् तैः सह सामानाधिकरण्यं भवति, यथा नीलतरः पटो नीलतम इति वेति । सोदाहरणोपसंहारे परिहारे वयमत्र ब्रूमः-तच्च न, सामान्यविशेषभावस्य नीलत्वनीलगुणद्रव्यादेरनीलत्वानीलगुणद्रव्यनिवृत्तिलक्षणस्य तच्छब्दार्थाभावात् सम्प्रधार्यत्वात् , नीलत्वजातिशब्दार्थस्यातव्यावृत्तिलक्षणस्य नीलगुणशब्दार्थस्य चाभावादनीलेतरजातिगुणद्रव्यदृष्टान्ताभावात् तत्सामान्य- 20 विशेषभावोऽत्रापि सम्प्रधार्यः । तद्भावनाहेतुः-यतश्च नीलशब्दोऽपीत्यादि, सोऽपि हि नीलशब्दो न द्रव्यं नीलत्वेनाह यत्तत्तरतमादिप्रकर्षभेदस्य सामान्यं स्यात् , किं तर्हि ? [अनीलवदभावमनीलत्वजातेरनीलगुणस्य वा निवृत्तिमाह । तत्र चाभावे न नील-नीलतर-नीलतमानां भेदानां कस्यचिदपि सम्भवः । तस्मादभावमात्राभिधानाद् नास्ति सामान्यविशेषभावः । अनीलाभावभावत्वाद् नेति चेत् । स्यान्मतम्-अनीलत्वजातिगुणाभावो नीलगुणद्रव्यभाव 25 एव, स च सामान्यं नीलादिभेदानाम् , इति चेन्मन्यसे । अत्रोच्यते-एवं विधिशब्दार्थता तर्हि, स एव नीलत्वजातिगुणाधारद्रव्यस्य 'विधिः । अस्तु, को दोष इति चेत्, उच्यते यस्मादेवं सतोऽपि न ४१९.१ सामानाधिकरण्यं त्वदुक्तन्यायेन अभूतसामान्यविशेषत्वात् , अनन्यद्रव्यवर्तिनि नीलगुणे नील-नीलतरनीलतमप्रकर्षभेदाभावात् सामान्यविशेषत्वाभावः । तस्मादभूतसामान्यविशेषविषयत्वात् त्वदुक्तनील १ तुलना-पृ० ४७४-१॥२ अर्थशब्दस्य प्र० ॥ ३ तुलना पं० २८ । पृ० ६३० पं० १॥ ४ 'नीलगुणे' इति सप्तम्यन्तमेतत् ॥५°लक्ष्याभ्यनीलगुण भा० । लक्षभ्या नीलगुण य० । (°लक्ष्यस्य नीलगुण ?)॥ ६ विधेः प्र० ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे उपेत्यापि तु सामान्य विशेषत्वा भावमसदघटादिव्यावृत्तिमतां ब्रूमो जातेरजातितः । न ह्यभिधानप्रत्यय हेताव सदभावात्मिकायां सज्जातावघटाभावाद्यात्मिका घटत्वादिजातिरस्ति यथा नीलगुणे द्रव्ये नीलप्रकर्ष भेदः यतोऽसदसत्वतोऽघटाभावघटत्वादीनुपादाय प्रवर्तेत । न चाविद्यमानः स्वात्मन्यर्थो विशेषणेन शक्यते विशेष्यवस्तुन्यध्यारोपयितुं स्वरूपवत् । तस्मात्" सामानाधिकरण्यं स्यात् । न सद् घटादि विशेषयिष्यति, अविद्यमानतद्रूपत्वात्, नीलमिव मधुरम् । अर्थाक्षिप्तस्तर्हि घटादयो भवितुमर्हन्ति, असद्व्यावृत्तिमतोऽन्यतमघटत्वादि ६३६ 10 नीलतरादिवत् सामानाधिकरण्याभाव इति दृष्टान्तासिद्धेः संच्छब्देऽसद्वयावृत्त्या भेदानामसद्वयावृत्तिपक्षे विधिपक्षे वा नास्ति सामानाधिकरण्यम् । उपेत्यापि तु, न व्यावृत्तिमदभिधानं सच्छब्देन, असद्व्यावृत्तिमतः सतोऽभिधानमभ्युपगम्याि सामान्यविशेषत्वाभावमसदघटादिव्यावृत्तिमतां ब्रूमः । कुतः ? जातेरजातितः, नास्यां जातिर्विद्यत इति [अ]जातिरिति विग्रहात् सामान्यानामसामान्याधारतां दर्शयति । न ह्यभिधानप्रत्यय हेतावित्यादि यावत् प्रवर्तेतेति, सदभिधान- प्रत्य[य] योर्हेतुरसदभावात्मिका सज्जातिः सत्ता, तस्यां त्वघटाभावात्मिका घटत्वजातिर्नास्ति, यथा नीलगुणे द्रव्ये नीलप्रकर्षभेद इति दृष्टान्तदाष्टन्तिकयोर्वैधर्म्यं दर्शयति । 15 यतोऽसदसत्वतो वस्तुनः अघटाभावघटत्वादीनुपादाय प्रवर्तेतेत्यसम्भवमन्योन्येषु दर्शयति । द्रव्याणि तावदपोहवादिनस्तेऽस्माकम सत्योपाधिसत्यविशेषविधिवादिनामिव घटाद्यभिधानानां न हेतवः । यान्यघटासत्त्वादीनि तत्कारणानि तानि नासदसत्तायां सन्ति । तस्माज्जातिरजातिरिति सिद्धम् । ४१९-२ ततः किम् ? ततो न चाविद्यमानः स्वात्मन्यर्थः सत्ता- नीलत्वादिविशेषणेन शक्यते २ विशेष्यवस्तुनि घटोत्पलादावध्यारोपयितुम् । किमिव ? स्वरूपवदिति वैधर्म्यदृष्टान्तः, यथा स्वरूपं 20 शब्दो विशेष्ये ऽध्यारोपयति न तथेति । तस्मादित्यादि प्रस्तुतोपसंहारो यावत् सामानाधिकरण्यं स्यादिति र्गतार्थः । प्रयोगश्चात्र - न सद् घटादि विशेषयिष्यति, अविद्यमानतद्रूपत्वात्, अविद्यमानतद्रूपत्वं प्रतिपादितत्वात् सिद्धम् । नीलमिव मधुरमिति दृष्टान्तो गतार्थः । अर्थाक्षिप्तास्तत्यादि । यदि घटादयोऽतद्भेदत्वादनाक्षिप्ताः सामान्यनाम सामान्यत्वात् अर्थतस्तर्ह्याक्षिप्ता भवितुमर्हन्ति । कुतः ? असद्व्यावृत्तिमतोऽन्यतमघटत्वादिसामान्य विशेषानुबद्धत्वात्, 25 असद्व्यावृत्तिमद्धि वस्तु घटत्वादीनां सामान्यविशेषाणामन्यतमेनावश्यमनुबद्धम्, अंसच्चेन्न भवति अवश्यं सद् भवति, सच्च घटत्वाद्यन्यतमदिति परो मन्येत । १ 'तस्मादसदपोहेऽघटापोहाभावात् स्वात्मन्यविद्यमानमघटापोहमसदपोहो नाक्षेप्तुं समर्थ इति सच्छब्दस्य न घटादिशब्दैः सामानाधिकरण्यम्, विशेषणविशेष्यभावे हि सामानाधिकरण्यं स्यात्' इत्याशयो भाति ॥ २ सच्छन्दोसा प्र० ॥ ३ सच्छेन सच्छब्देन प्र० ॥ ४ मतां घटः कुतः य० ॥ ५ नास्या य० ॥ ६ न्यानामनान्याधारतां भा० । न्यानां मानाभ्याधारतां य० । ( न्यानामनन्याधारतां ? ) ॥ ७ विशेषोध्यारो य० । विशेपोध्यारो भा० ॥ ८ गतार्थ प्र० ॥ ९ असत्वेन भा० । असत्वेन य० ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६३७ सामान्यविशेषानुबद्धत्वात् । नैतदस्ति अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तः।.......... असद्वयावृत्तिमता विशेषाक्षेपो युज्यते चेत् घटादिभेदानां व्यभिचाराद् द्रव्यत्वमात्राक्षेपस्तर्हि भविष्यति, तदपि न, गुणादिव्यभिचारात् । एतावच्च.........। न चास्ति सम्भवः । तेन नापोहकृच्छ्रुतिः। किमन्यत्वे न सामान्यभेदपर्यायवाच्यनुत् ? अत्रोच्यते-नैतदस्ति, अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तः । अस्य भाष्यं सव्याख्यानं गतार्थं यावदसद्व्यावृत्तिमता विशेषाक्षेपो युज्यते चेत् घटादिभेदानां व्यभिचारादू द्रव्यत्वमात्राक्षेपस्तहि भविष्यति, 'मात्र'ग्रहणाद् द्रव्यत्वसामान्यविशेषमात्रं गृह्यते सद्विशेषणेनेति । अत्रोच्यते तदपि न, गुणादिव्यभिचारात् । गुणकर्मणोरपि सद्भावात् 'किं द्रव्यं गुणः कर्म वा सत् स्यादसट्ट्यावृत्तिमत्' इति संशय एव । एतावच्चेत्याद्युपसंहारः । पूर्वविधिवादिदूषणोपसंहारवदन्यापोहमात्रेऽपि उपसंहारः । न चास्ति 10 सम्भव एतेषां विकल्पानां दोप॑वत्त्वात् तेन नाऽपोहकृछुतिरिति । ___ यथा विधिवादिनामन्यापोहवादिनश्च दोषास्तथा सामान्योपसर्जनविधिप्रधानवादिनोऽपीति मा मंस्थाः, मा च मंस्था अन्यापोहवादिलक्षणवदतिप्रसक्तत्वादपवादोऽस्याप्यारब्धव्यो लक्षणस्येत्यत आहकिमन्यत्वे न सामान्यभेदपर्यायवाच्यनुत् ? 'अविरोधात्' इति वाक्यशेषः । 'किम्' इति प्रश्ने, "किं ४२०-१ त्वं मन्यसे-अन्यत्वे सामान्य भेद-पर्यायशब्दानामर्थं वृक्षश्रुति पोहते पृथिवी-शिंशपा-तर्वादिशब्दानाम-15 विरोधात् , विरोधाच्च पटादीनपोहत इति, यतोऽस्य विरोद्धाविरुद्धयोरन्यत्वादपोहानपोहप्रसङ्गे तुल्ये त्वयेव मयापि यथा शब्दान्तरार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते इति लक्षणस्यातिप्रसङ्गभयादारब्धव्यम् १ अयमत्राशयो भाति-अर्थाक्षेपेऽपि न नियमः, सच्छब्दादसद्वयावृत्तिमतार्थेन घटादेरिव पटादेरप्याक्षेपसम्भवात् । तथा च 'सन् घटः' इत्यत्र घटाक्षेपनियमाभावात् सच्छब्दस्य न घटशब्देन सामानाधिकरण्यम् । अथ मा भूद् व्यभिचाराद् घटादीनामाक्षेपः, द्रव्यत्वमात्राक्षेपो भविष्यति असद्यावृत्तिमता अव्यभिचारात् । तदप्ययुक्तम् , गुणादिव्यभिचारात् । सच्छब्दस्य गुणादिष्वपि सम्भवाद् द्रव्यत्वमात्रस्यापि नियमेनाक्षेपाभावादिति ॥ २'एतावचात्र भवेत्-अन्यापोहवन्तो भेदा वा, अन्यापोहो वा, अन्यापोहसम्बन्धो वा, अन्यापोहस्य स्वाधारो वा' इत्याशयोऽत्र सम्भाव्यते । तुलना-पृ० ६२८ पं० १॥ ३ 'अन्यत्वेऽपि न सामान्यभेदपर्यायवाच्यनुत्' इति दिनागेनाभिहितं प्रमाणसमुच्चयादौ । तत्र सामान्य-भेद-पर्यायवाचिनामनपोहे विधिरेव वस्तुतः कारण मिति विधेरेव शब्दार्थत्वं सिध्यतीत्याशयेन उभयनियमनय उपकामति । तुलना-"अत्र च भिक्षुणा 'वृक्षः शिंशपा' इति सामानाधिकरण्यं दर्शयतोक्तं-'वृक्षस्तरुरिति पर्यायाणां च परस्परमनपोह्यत्वम्, अन्यत्वेऽपि च सामान्यभेदपर्यायवाचिनामविरोधात् [ ] इति । तदिदमनपोहे कारणं नातीव बुध्यत इत्याह-'सामान्याद्यनपोहश्च नाविरोधेन कल्पते।' इति । किमिति नावकल्पत इत्याह-न हि शब्दस्वरूपाणां स्याद् विरुद्धाविरुद्धता ॥ १४९ ॥ इति ।"मी० श्लो० वा० शर्करिका. पृ. ६९,७० ॥ ४चेद घटादिभेदानामव्यभि भा० । चेद घटादिमेदानामाव्यभि° य० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ६२७ पं० ७॥ ६ दृश्यतां पृ० ६२८ पं० १॥ ७ दोषबंधात्तेन प्र० ॥ ८ वापोह भा०। चापोह य० । 'अर्थाक्षेपेऽप्यनेकान्तस्तेनान्यापोहकृच्छ्रुतिः' इति यदुक्तं दिङ्गागेन तत् प्रतिविधातुमत्र मलवादिसूरिभिः नापहिकृच्छ्रुतिः' इत्युक्तम् ॥ ९वाच्यनुदि विगेधात् य० । दृश्यतां पृ० ६३८ पं० ७॥ १० 'किं त्वं मन्यसे त्वयेव मयापि अतिप्रसङ्गभयादारब्धव्यम्-अन्यत्वेऽपि न सामान्यभेदपर्यायवाच्यनुदिति ?' इति सम्बन्धः ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे विधिः । नन्विदमेव विधिना वाचकत्वेऽनुमानं शब्दस्य । यदन्यत्वेऽपि न सामान्य 'अन्यत्वेऽपि न सामान्य-भेद-पर्यायवाच्यनुत् , अविरोधात्' इति । किं कारणमनारभ्यम् ? विधिः । विधिना हि सामान्योपसर्जनं विशेषं शब्दोऽभिदधानो विरोधाभावात् तानपि गमयति तदङ्गभावाद् १ दिङ्गागेन प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ यदभिहितं तदत्र भोटभाषानुवादतः संस्कृते परिवोपन्यस्यते । तच्च यथायोगमत्रानुसन्धेयम् "तत्र अन्यत्वेऽपि न सामान्यभेदपर्यायवाच्यनुत् ॥ २५ ॥ अन्यत्वे तुल्येऽपि सामान्य-भेद-पर्यायशब्दानामर्थ शब्दो नापोहते। कुत इति चेत्, अविरोधात् । 'पर्यायशब्दस्य तावदपोह्यस्तुल्यः, युगपदप्रयोगात् । खार्थश्च प्रतिक्षेप्तं न युक्तः । सामान्यशब्देनापि स्वभेदेष्वर्थान्तरापोहो भेदशब्देन न नानुमन्यते अर्थित्वात् । यथा शिंशपा न पलाशादि एवं घटाद्यपि न । एतेन *सामान्यसामान्यशब्दार्थाप्रतिक्षेपोऽप्युक्तः । एवं सामान्यशब्दः स्वार्थमभिमतविषये स्थापयन् भेदशब्देन भेदभेदशब्देन वा कथं 'नोपेक्ष्यते ? एवमविरोधात् सामान्यादिशब्दा पोहो न युज्यते । समूहश्च तथार्थान्तरवाचकः । एवं च सामान्यविशेषशब्दयोः स्वार्थसामान्ये प्रवर्तमानयोद्वयोर्बहूनां वा तद्विशिष्टार्थान्तरवाचकत्वं यथापूर्वोक्तवदुपपद्यते । आह च .. 'तन्मात्राकाङ्क्षणाद् भेदः स्वसामान्येन नोज्झितः। नोपात्तः संशयोत्पत्तेः साम्ये चैकार्थता तयोः ॥२६॥ अनेकमपि सामान्यं भेदेनाव्यभिचारिणा। उपात्तं न तयोस्तुल्या विशेषणविशेष्यता ॥ २७ ॥ [इति संग्रहश्लोकी Psvi] ... किं पुनरत्र कारणं येन मेदशब्दो भेदान्तरशब्दार्थमपोहत इति चेत् , भेदो भेदान्तरार्थ तु विरोधित्वादपोहते । भेदार्था हि शब्दाः परस्परविरोधिनः सामान्यार्थापहारित्वाद् राजपुत्रवत् । ततः परस्परार्थं न सहन्ते, यथायं [ वृक्षः] शिंशपेति शिंशपाशब्दो वृक्षशब्देन सह प्रयुक्तो धवादिभ्यो वृक्षत्वमाच्छिद्य स्वविषये स्थापयन् । एवमितरत्रापि । एवं तावद् 13भेदशब्द एकद्रव्यापहारित्वाद् भेदान्तरशब्दार्थमपोहते [इति ] युज्यते । .. अथ घटादिकमसम्बद्धं सामान्यान्तरभेदार्थ कुतोऽपोहत इति चेत्, यस्मात् ____सामान्यान्तरमेदार्थाः स्वसामान्यविरोधिनः ॥ २८॥ वृक्षशब्देन तु घटादीनां पार्थिवत्वाद्यपहाराद् विरोधः । तेन तदपोहः क्रियमाणोऽनुमन्यते मित्रशत्रुवत् । अर्थतस्तत् तेनापोढमिति गम्यते । एतेन सामान्यान्तरभेदानां गुणादीनां तद्भेदानां च रूपादीनां सम्बद्ध सम्बन्धाद् मित्रमित्रशत्रुवद् ___1 पर्यायशब्दे (?) Psv | पर्यायशब्दस्तावत् तुल्यापोह्यः (?) PSV VT. | 2 न च स्वार्थप्रतिक्षेपो युक्तः (१) VT | 3 'अनुमन्यते' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् । 'अगृहीतो नास्ति' (?) Psv' | न सह्यते (?) Psv* ॥ 4 सामान्यसामान्यशब्दार्थप्रतिक्षेपः प्रत्युक्तः Psv'॥ 5 निवेशयन् (?)। प्रवर्तयन् (?)॥ 6'नापेक्ष्यते' इति Psv'मध्ये दृश्यते इत्यपि ध्येयम् ॥ 7 तत्त्वसं० पं० पृ० ३०७ । सन्मतिवृ०। तत्त्वार्थसिद्ध०३० पृ० ४१२ । शरिका पृ० ७२ ॥ 8 "अत्र भिक्षुणा पाशः शिंशपेति सामानाधिकरण्यं न भवतीति दर्शयतोक्तम्-भेदो भेदान्तरार्थ तु विरोधित्वादपोहते-इति । मेदशब्दा हि पलाशशिंशपादय एकं वृक्षत्वसामान्यमन्योन्यमपहृत्य राज्यमिव राजपुत्राः स्वविषये स्थापयन्तः परस्परविरोधिनो वर्तन्ते । तेनैकापोहेनैकः प्रवर्तमानः कथं तेन सामानाधिकरण्यं लभतामित्यर्थः ।"-शर्करिका पृ० ६९ । नयचक्र-वृत्ति. पृ० ६१३ पं०६, २७ ॥ 9 ततश्च (?)॥ 10 यथा Psy | 11 वृक्षत्वं व्यवच्छिद्य Psvi ॥ 12 स्थापयति (?)॥ 13 भेदशब्दे Psv' । मेदशब्देन...... शब्दार्थापोहो युज्यते' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ 14 °मपोहमानो युज्यते (?)॥ 15 अर्थाच्च तत् Psvin 16 'तेनापोह्यत इति गम्यते' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ 17 'सामान्यान्तरभेदा गुणादयस्तद्भेदाश्च रूपादयः सम्बद्धसम्बन्धाद् मित्रमित्रशत्रुवद् मित्रशत्रुमित्रवच्चापोढा उपेक्षिताश्च वेदितव्याः' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६३९ मित्रशत्रुमित्रच्च अपोह उपेक्षा च वेदितव्ये।"-Psvc.ed. D. ed. पृ. ७२B-७३A, N. ed. पृ. ८०B-८१B । Psvi N. ed. पृ० १६४ B-१६५ A, P. ed. पृ० १६३५-१६४B ॥ अस्य जिनेन्द्रबुद्धिरचिता विशालामलवती व्याख्या भोटभाषानुवादात् परिवोपन्यस्यते-"पूर्व 'कृतकत्वादिवत् खार्थमन्यापोहेन भाषते [ पृ. ६०७ ] इत्युक्तम् । इदानीं तस्यापवादम्-अन्यत्वेऽपीत्यादिनाह । यः परमः परिहारोऽन्यापोहः स सामान्य-विशेष-पर्यायशब्दार्थपरिहारेणेति । अन्यत्वे तुल्येऽपीति प्रसङ्गकारणमाह, प्रतिषेधस्य प्रसङ्गपूर्वकत्वात् , अन्यत्वं चापोहे निमित्तम् । अविरोधादित्यनपोहकत्वे हेतुः । येऽविरुद्धास्ते परस्परमप्रतिक्षिपन्तो नापोहन्ते यथा द्रव्ये रूपादयः । एवं त्रयाणामविरोधित्वं युगपदभिधायेदानी प्रत्येकं दर्शयितुमाह-पर्यायशब्द[स्य ] इत्यादि। अपोह्यस्तुल्य इत्येकार्थत्वमाह । युगपदप्रयोगादित्येकार्थत्वसाधनम् । तदेकार्थीकृतत्वादुभयोरप्रयोगः । यत्र शक्तौ सल्यामप्युभयोरप्रयोगस्तयोरेकार्थत्वम् , यथा विशेषयोः । य एकार्थास्तेऽविरोधिनो यथा द्रव्ये रूपादयो मित्राणि वा । पर्यायशब्दा अप्येकार्था इति व्यापकविरोधः । येऽविरोधिनस्ते परस्परतोऽप्रतिक्षिप्ता यथा त एव, पर्यायशब्दा अप्यविरोधिन इति व्यापकविरोध एव । स्वार्थश्च प्रतिक्षेप्तुं न युक्त इत्यनपोहत्वे हेत्वन्तरमाह । यो यस्य स्वार्थः स तेन नापोह्यते यथा विज्ञानेन स्वार्थः, पर्यायशब्दोऽपि पर्यायशब्दान्तरस्य स्वार्थः । सामान्यशब्देनापीत्यादि । सामान्यशब्दस्य वृक्षशब्दस्य यत् स्वसामान्य वृक्षत्वं तद्विशेषाः स्वभेदाः शिंशपादयः, तेषु अर्थान्तरस्य घटादेवृक्षशब्देनापोहो भेदशब्देन शिंशपाशब्देन अनुमन्यत एव अर्थित्वात । अर्थितो हि शिंशपाशब्देन घटाद्यपोहः । तदेवार्थित्वं दर्शयितुमाह-यथेत्यादि । अनेन घटाद्यपोहेनार्थित्वादेकार्थत्वद्योतकभेदशब्दः सामान्यशब्देनाविरुद्ध इति दर्शयति । यथा पलाशादिरूपः शिंशपाशब्दार्थो न भवतीति पलाशादयस्तत्प्रतिक्षेप्या एवं घटादिरूपोऽपि न भवतीति घटादयोऽप्यपोह्याः । ते च वृक्षशब्देनापोह्यन्ते । एतेनेत्यादिना स्वसामान्यस्य वृक्षत्वस्य यत् सामान्यं पार्थिवत्वं तच्छब्दः पार्थिवशब्दः सामान्यसामान्यशब्दः तेन यदपोह्यमा प्यादि तच्छिशपाशब्देनाप्यनुमन्यते, अर्थित्वात् । यथा शिंशपा न पलाशादि एवमाप्यत्वाद्यपि नास्ति ।....."एवं सामान्यशब्द इत्यादि । यथा भेदशब्दोऽविरोधात् सामान्यशब्दार्थ न प्रतिक्षिपति एवं सामान्यशब्दोऽपि सदादिः स्वार्थ सत्तादिकम् अभिमतविषये स्थापयन्निति भेदेष्वनवस्थितत्वात् स्थापयन् गुणादितो व्यवच्छिन्ने द्रव्यादौ निवेशयन्..... भेदशब्देन द्रव्यादिना भेदभेदशब्देन वा पार्थिव-वृक्ष-शिंशपादिशब्देन कथं नोपेक्ष्यते ? उपेक्ष्यत एव, अर्थित्वात् स्वविषये स्थित्या निर्विषयस्वार्थानुपपत्तेः । एतेनाभिमतार्थसाधनाद् भेदशब्दः सामान्यशब्दमुपकुरुते । ततश्च सामान्यशब्दस्तेनाविरुद्ध इति दर्शयति । समूहश्चेत्यादि अविरोधादप्रतिक्षेपे गुणोत्कर्ष दर्शयति, अथवा अन्योन्याप्रतिक्षेपे हेत्वन्तरमाह । परस्परार्थाप्रतिक्षेपे हि स्वार्थविशिष्टार्थवाचकत्वमुपपद्यते, नान्यथा ।............ एवं चेति परस्परार्थाप्रतिक्षेप एवेत्यर्थः, द्वयोरिति यथा 'वृक्षम्' इति प्रकृतिप्रत्यययोः........... । एवं नीलोत्पल मिति नीलोत्पलशब्दयोः ...... । बहूनामिति यथा 'राजपुरुषः सुरूप आगच्छति' इति स्वार्थसामान्ये प्रवर्तमानानां सर्वेषामपि वाक्यपदानामितरेषां च वाक्यार्थवाचकत्वमप्रतिक्षेपे योजनीयम् । अर्थान्तरवाचकत्विं ] प्रागेव प्रतिपादितमियाह-यथापूर्वोक्तवदिति । 'न हि तत् केवलं नीलं न च केवलमुत्पलम्' [पृ० ६३० पं० २२] इत्यादिना नीलोत्पलशब्दयोः समूहार्थस्य प्रत्येकं नैरर्थक्यदर्शनेन समूहस्यार्थान्तराभिधायकत्वमुक्तम् । आह चेति सामान्यभेदशब्दयोरविरोधे सामान्यशब्देन भेदानामत्यागानुपादाने अधिकृत्य कारिकामाहतन्मात्राकालणादित्यादि । स्वभेदमात्राकाङ्क्षणादित्यर्थः । आकाङ्क्षा तेषु सन्देहव्यवच्छेदार्थिता । मात्रशब्दो भेदान्तराकाङ्क्षानिरासाय । तथाहि वृक्षशब्दात् पलाशादिविषयैवाकाङ्क्षोत्पद्यते, न घटादि विषया ।......... - तस्माद् नोज्झितः । ............ ननूपात्तः, अनुज्झितत्वादिति चेत् , उच्यते-नोपात्त इत्यादि । नोपात्तो न प्रतिपादित इत्यर्थः । यो येषु संशयहेतुस्तेन ते न प्रतिपादिताः, यथा स एव, सामान्यशब्दोऽपि स्वभेदेषु संशयहेतुरिति कारणविरोधः। साम्ये चैकार्थता तयोरिति यत्र सामान्यविशेषशब्दाभ्यामुभयमपरिहृतमनुपात्तं च तत्रैकार्थत्वं तत्सामानाधिकरण्य मित्यर्थः । यथा सामान्यशब्देन स्वभेदा अप्रतिक्षिप्ता अत्यक्ताः किमेवं भेदशब्देनापि सामान्यम् ? इति पर्यनुयोग परिहरन्नाह-अनेकमपीत्यादि । यद्यपि सामान्यमनेकं तथापि तद् भेदशब्देनोपात्तं प्रतिपादितमित्यर्थः, प्रतिपादनाद् भिन्नस्योपादानस्यासम्भवात् ।............. अव्यभिचारिणेति यस्माद् विशेषः सामान्यं न व्यभिचरति सामान्याभावे विशेषाभावात् तस्मात् तेनोपात्तम् । न तयोरिष्टा(स्तुल्या?) विशेषणविशेष्यतेति वृक्षः शिंशपादिव्यभिचारव्यवच्छेदमपेक्षत इत्यस्ति विशेषण विशेष्यभावः, शिंशपा तु वृक्षसामान्याव्यभिचारं नापेक्षत इति नास्ति । व्यभिचारिणोर्विशेषणयोस्तु विशेषणविशेष्यभावस्तुल्यो यथा नीलोत्पलयोः ।....... किं पुनरत्रेत्यादि । सामान्ययोः खसामान्यापेक्षया भेदत्वात् पृथगनुपादानम् । भेदो भेदान्तरार्थमिति वृक्षत्वस्य भेदः Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे भेदपर्यायवाच्यनुत् । त्वया पुनस्त्यक्तोऽन्यापोहवादः, अनिर्वाहकत्वात् । शब्दान्तरार्थापोहं खार्थे कुर्वती [ श्रुतिः] तदर्था स्यात् । सामान्यादिशब्दान्तरार्थात्यागात्तु त्वदनिष्टो नन्वयमेव परमविधिः । विधानं विधिः । विध्येकीभूतार्थत्वादिति कारणं वक्ष्यति । नन्विदमेव विधिना वाच[क] त्वेऽनुमानं शब्दस्य-यदन्यत्वेऽपि सामान्यादीनां विशेषानुगुणानां गतिः। समूहश्च प्रकृतिप्रत्ययादीनां तथार्थान्तरवाचक इति युक्त्या वक्ष्यामः । त्वया पुनरुत्सर्गवाक्ये महता क्लेशेन प्रतिपाद्यापवादवादेन त्यक्तः । किं कारणम् ? अनिर्वाहकत्वात् , किमनेन प्रतिज्ञातमर्थमनिर्वहता ? शब्दान्तरार्थापोहं स्वार्थ कुर्वती तदर्था [अ]न्यापोहा स्यात् , तेत्तु नोक्तमत्यन्तं सामान्यादिशब्दान्तरार्थापोहानिष्टेः । तस्मात् त्यक्तोऽन्यापोहः। ततः किम् ? ततः सामान्यादिशब्दान्तरार्थात्यागात्तु त्वदनिष्टो नन्वयमेव परमविधिः । कोऽक्षरार्थो विधिरित्यत आह-विधानं विधिरिति । लक्षणतस्तु अनपवादं प्रतिपत्त्याधानं विधिः । स च विधिरेव शब्दार्थः सामान्याद्यन्यशब्दार्थेषु अव्याहतत्वात् परमः श्रेष्ठः । शिंशपादिः, परस्परतो मिद्यत इति कृत्वा । अत्र विषयेण विषयिनिर्देशाद् भेदो भेदान्तरं च शब्द इति विज्ञेयम् । भेदशब्दो भेदान्तरशब्दार्थमित्यर्थः । विरोधित्वादिति हेतुः । सामान्यार्थापहारित्वादिति विरोधित्वस्य कारणम् । राजपुत्रवदिति दृष्टान्तः । राजपुत्राणां पितरि मृते सामान्यार्थो राज्यम् , तस्य तैर्यथासर्वपराक्रममपहृतत्वाद् विरोधिनः, ततश्च परस्परार्थ न सहन्ते। ये सामान्यार्थापहारिणस्ते परस्परविरोधिनः, राजपुत्रवत् , सामान्यशब्दा अपि तथेति स्वभावः । ये विरोधिनस्ते परस्परार्थ न सहन्ते, तद्वदेव, भेदशब्दा अपि तथेति व्यापकविरोधः । यथेति सामान्यार्थापहारित्वं दर्शति । एकद्रव्यापहारित्वादिति सामान्यार्थापहारित्वस्यैवान्धाख्यानम् ।...... ... विरोधः परिहार हेतुरुक्तः, स च सामान्यार्थापहारित्वात् । सामान्यान्तरस्य पार्थिवत्वादेर्ये भेदा घटादयस्तद्वाचकशब्दैः सह शिंशपाशब्दस्यैकार्थापहारित्वं नास्ति, किं तर्हि ? वृक्षशब्देन । तस्मात् परिहारहेत्वभावान्नापोह इति मन्यमान आह-अथेत्यादि । शिशपासामान्यं वृक्षत्वम् , ततोऽन्यत्वात् पार्थिवत्वं सामान्यान्तरम् , तद्भेदो घटादिः, सोऽसम्बद्धः शिंशपाशब्देन विरोधाभावात् , तच्छब्देन शिंशापाशब्दस्यैकद्रव्यापहारित्वमपि नास्ति । तस्मात् तं कुतोऽपोहते ? अविरोधादम्यानपोह एवेत्यर्थः । सामान्यान्तरभेदार्था इति तमेव अपोहकारणं विरोधं दर्शयति । विरोधसामान्यमपोहस्य कारणम् । अत्र च यद्यपि न साक्षाद् विरोधस्तथापि परम्परयास्त्येव । तद्दर्शयति-वृक्षशब्देन त्वित्यादि । तेनेत्यादि । शिंशपाशब्दस्य मित्रं वृक्षशब्दः, तदर्थसामान्यवाचकत्वात् । तच्छत्रको घटादिशब्दाः पार्थिवत्वापहारित्वात् । ततो वृक्षशब्देन तेन घटाद्यपोहः क्रियमाणः शिंशपाशब्देनानुमन्यते मित्रशत्रुवत् । अर्थतस्तत् तेनेति शिंशपाशब्दार्थः शिंशपासामान्यम् , तच्चाघटादिरूपत्वाद् घटादितो व्यावृत्तम् । तत एवार्थतो गम्यते । शिंशपाशब्दस्य तत्र व्यापारो नास्ति तथापि शिंशपाशब्देन तेन घटाद्यपोढमिति गम्यते, तद्गत्यार्थतस्तस्यापोढत्वात् । पतेनेति अनया युक्त्या पार्थिव त्व]सामान्यात् सामान्यान्तरं द्रव्यत्वम् , तत्सामान्यं सत्ता, तद्भेदा गुणाः कर्माणि च, तेषामपि भेदा रूपादय उत्क्षेपणादयश्च यथासङ्ख्यं स्खविरोधिसामान्यशब्देनापोढा विशेषशब्देनोपेक्षिताश्च सम्बद्धसम्बन्धाद् वेदितव्याः । कथमिति चेदुच्यतेमित्रमित्रशत्रुवदित्यादि। अत्र मित्रमित्रेति द्विरुक्तिः परम्परया मित्रप्रतिपादनेच्छयावगन्तव्या, अन्यथा एकीकृतेनैव मित्रेण मित्रस्य प्रतीतेः । तत्र गुणकर्मणी शिंशपाशब्देन द्रव्यशब्देनापोह्यमानानि मित्रमित्रशत्रुवदनुमन्यन्ते । गुणविशेषा रूपादयः कर्मविशेषाश्चोत्क्षेपणादयस्तु शिंशपाशब्देन मित्रशत्रुमित्रवद् द्रव्यशब्देन.....'अपोह्यमाना उपेक्ष्यन्ते।"-विशालामलवती VT. D. ed. पृ० २६६ A-२७० A, P. ed. पृ० ३०१ -३०५ A ॥ १ दृश्यतां पृ० ४२४-२॥ २ तुलना-पृ० ६३८ पं० ११॥ ३°पवादन त्यक्तः भा० ॥ ४ तदर्थान्यापोहार्था प्र० ॥ ५ तत्तु त्यक्तमत्यन्तं इति सम्यग् भाति ॥ ६ श्रेष्ठः य० प्रतौ नास्ति । तुलना-पृ० ६३९ पं० ४ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । सामान्यानुदुक्तेः सामान्ये विशेषविध्यर्थो न व्याहन्यते । यथा न हि घटादि सामान्यानुपसर्जनं भवितुमर्हति, वस्तुत्वात्, आत्मवत् । यथा स सन्तानाख्यसामान्योपसर्जनस्तमन्तरेण न भवितुमर्हति आ मुक्तेरेवं घटशब्देनाप्यागृहीता मृदादयस्तच्छब्दार्थान्तःपातित्वादाकारादिवत् । भेदास्तूच्यन्त एव, घटसामान्यस्य तदङ्गत्वात् तद्भवनभवनात्मकत्वात्, 5 तत्र तावत्-सामान्यानुदुक्तेः सामान्ये 'विशेषविध्यर्थो न व्याहन्यते, त्वयैव 'सामान्यं न नुदति' इत्युक्तत्वादस्मदिष्टम् उपसर्जनीकृतसामान्यो विशेषो विधिनैवोक्त इति । तस्य निदर्शनम्-यथा न ४२०-२ हि घटादीत्यादि । साधनमिदम्-सामान्योपसर्जनमेव न सामान्यानुपसर्जनं भवितुमर्हति घट-पटादि बाह्यवस्त्विति प्रतिज्ञा । वस्तुत्वादिति हेतुः । आत्मवदिति दृष्टान्तः, आन्तरोऽर्थो नामरूपसन्तानाख्य आत्मा, यथा स शरीरादिप्रतिक्षणदेशभिन्नरूपादिसुखविज्ञानादिविशेषतत्त्वोऽर्थः सन्तानाख्यसामान्योपसर्जनस्तम-10 न्तरेण न भवितुमर्हति नरक-मनुजादिविशेषतत्त्वो वाऽऽमुक्तः यावद् मोक्षस्तावद् विशेषाः सामान्यानुविद्धा एव तथा घटादयोऽपि बाह्या इत्यत आह-एवं घटशब्देनाप्यागृहीता मृदादय इति साध्ये बाह्ये सामान्यमृदाशुपसर्जनं घटविशेषार्थं दर्शयति । तच्छब्दार्थान्तःपातित्वादिति आत्म-घटाद्यविशेषवाचिना सर्वनाम्ना वस्तुत्वसामान्यस्य साध्येनानुगतत्वं विशेषाविनाभाविनो दर्शयति । आकारादिवदिति प्रतिक्षणदेशादिभिन्नरूपादिविशेषपरमार्थस्य ऊर्द्धग्रीव-पृथुकुक्षित्वादिसामान्योपसर्जनस्य सद्भावात् । 15 एवं तावद् घटे विशेषशब्दार्थे पार्थिव-द्रव्य-सत्त्वादिसामान्यात्यागो युक्तः, विधिप्रधानशब्दार्थत्वात् । एवं तर्हि 'वृक्षः शिंशपा' इति शिंशपाविशेषो विधिना कथमुच्यते वृक्षविधावनुपसर्जन इत्यत्रोच्यतेभेदास्तूच्यन्त एव, 'वृक्षः शिंशपा' इत्यादिवद् घटस्य ये ये रूपादयो युगपदयुगपद्भाविनस्त एव मुख्यशब्दार्थत्वादुच्यन्ते, घटसामान्यस्य तदङ्गत्वाद् घटाद्युपसर्जनरूपादिविशेषपरमार्थत्वात् तद्भवनभवनात्मकत्वात् , सँ विशेषो भवनं भावः प्रत्येकं निर्विकल्परूपादिभवनमात्मलाभः, तद्भवन[भवन]मात्मास्य 20 घटस्येति तद्भवनभवनात्मको घटः 'शिबिकावाहकाने ईश्वरस्येव यानवत्' इत्युक्तं प्राक् । तन्निरूपयति-४२१-१ रूपादिरूपादिस्वरूपशब्दार्थत्ववदिति, यद्यपि युगपद्भाविनो रूपादिस्वभावा एव सन्तो रूप-रस-गन्धस्पर्श-शब्दा एव निर्विकल्पा वस्तुत्वाच्छब्दार्थः प्रतिक्षणवर्ययुगपद्भाविनो वा विशेषास्तथापि सामान्योपसर्जनद्वारेण 'इति सामान्यशब्दाः प्रयुज्यन्ते, न तु कल्पितेन परमार्थसता वा विना तेन सामान्येन शब्दार्था भवितुमर्हन्तीति । तस्मात् सामान्यशब्दप्रयोगो विशेषप्रतिपादनार्थः, विशेषास्तु विवक्षिता एव परमार्थ-25 त्वादस्य नयस्य । विशेषणविध्यर्थी य० ॥ २ तत्वार्थः यः॥ ३ तत्वो मक्ते य० ॥ ४ तच्छब्दार्थतःपाति प्र० ॥ ५साध्यनानुभा० । साध्यतानु य० ॥ ६ घटस्या येये भा० । घटस्यापोष य० ॥ ७ युगपद्भाविनो भा० ॥ ८ स हि शेषो प्र. । (स हि विशेषो? )॥ ९ मात्रलाभः प्र०॥ १०°यानेश्वरस्येव याचनवत् प्र०॥ ११ प्रति प्र० ॥ नय०८१ | Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतं अष्टम उभयनियमारे रूपादिरूपादिस्वरूपशब्दार्थत्ववत् । पर्यायशब्दा अपि तद्विधानाः घटनविशेषस्य कुटनकुम्भाद्यर्थात्मकत्वात् । [न] हि कुटन[-कुम्भताभ्यां विना घटनम्, नापि घटनं विना कुटन-कुम्भते] । इत्येतदवगम्यताम्-सामान्यविशेषपर्यायशब्दार्थानामन्यत्वेऽपि विधिप्राधान्यादेव तान्नापोहते। 5 विध्यतिक्रमे स्वप्रस्तुतासत्त्वशब्दार्थापत्तरन्यापोहायुक्तिश्च । विधिपक्षे तु साक्षादेव स्वार्थ ब्रूते । पर्यायशब्दस्य तावद् विधेय एवार्थः, दर्शनात् , द्विमातृवत् । विशेषणवरूपापन्नविशेष्यप्रतीतित्वाद् युगपदप्रयोगेऽपि स एव भेदः प्रतीयते । न हि खार्थानुपातित्वाद् विधिः खरससमापतितः प्रतिक्षेप्तुं युक्तः। पर्यायशब्दा अपीत्यादि । ये पुनः पर्यायशब्दास्ते तद्विधाना एवमेव विशेषं विदधति, घटन10 विशेषस्य कुटन-कुम्भाद्यर्थात्मकत्वात् , तस्य कुटिलता कुटनम् , घटनं चेष्टा, कुम्भता वृत्तत्वम् । ताभ्यां घटन-कुटनाभ्यां विना नास्ति कुम्भता नाम काचित् , तया वा विना न घटन-कुटने स्त इति [न ?] हि कुटनेत्यादिनान्योन्याविनाभावं दर्शयति । प्रकृतमुपसंहरति-इत्येतदवगम्यतामित्यादिना । इत्थं प्रतिपद्यस्व यथा 'घटः' इत्युक्ते पटस्तत्प्रतिपक्षशब्दार्थोऽन्यस्तथैवाप्रतिपक्षसामान्य-विशेष-पर्यायशब्दार्था अन्ये, ततस्तेषामन्यत्वे तुल्ये विधि15 प्राधान्यांदेव तान् नापोहते, नान्यत् कारणं विधेः । अतोऽस्माकमपवादलक्षणान्तरारम्भक्लेशाहते व्यापि युक्तं चासत्योपाधिसत्यविध्यर्थलक्षणशब्दार्थकथनं श्रेयोगुणप्रकर्षयुक्तं च । ४२१-२ भवतस्तु विध्यतिक्रमे त्वप्रस्तुतासत्त्वशब्दार्थापत्तेरन्यापोहायुक्तिश्च । यदि विधिर्नेष्यते ततो न केवलौवव्याप्त्यतिप्रसङ्गदोषावेव, किं तर्हि ? एषोऽप्यनिष्टोपचयः-उदकाद्याहरणार्थिने 'घटः' इत्युक्ते तंत्राप्रस्तुतस्य अविवक्षितस्य पटादेरघटस्याऽसत्त्वं व्यावृत्तिरविवक्षितोऽशब्दार्थ एव शब्दार्थ इत्येतदापन्नम् । 20 अनिष्टं चैतदिति । __ किञ्च; विधिपक्षेऽस्मदिष्टे साक्षादेव अव्यवहितमेव स्वार्थ ब्रूत इत्येष च विशेषः । तद्यथापर्यायशब्दस्य तावदित्यादि यावत् प्रतिक्षेप्तुं युक्त इति । पर्यायशब्दस्य घट-कुटादेविधेय एवार्थः, कस्मात् ? दर्शनात्, विधेयत्वदर्शनात् , तदेव हि विधेयं घटनं कुटनमुभयं वा । किमिव ? द्विमातृवत् , यथा विशेष[ग]द्वारेण विशेष्यप्रधाने निर्देशे 'राधकमाता, पूर्णकमाता, राधकपूर्णकमाता' इति द्वाभ्याम25 न्यतरेण वा विशेष्यते सैव तथा विशेषणस्वरूपापन्नविशेष्यप्रतीतित्वात् सम्बन्धिविशिष्टरूपप्रतिपत्तेरित्यर्थः, युगपदप्रयोगेऽपीति निमित्तभेदेऽप्यर्थै कत्वाद् युगपदप्रयोगेऽपि स एव निमित्तोपलक्षितो भेदः प्रतीयते । स्यान्मतम्-निमित्तभेदे निमित्तिभेदात् किमर्थं निमित्तान्तरापोहो न भवतीति, एतच्च न हि स्वार्थानुपातित्वाद् विधिः खरससमापतितः प्रतिक्षेप्तुं युक्तः । निमित्तान्तरेणापि तस्यैव विशेषार्थस्य १ प्रतिपाद्यश्व प्र० ॥ २°न्यादेवदत्तान् प्र० ॥ ३°क्रमेण प्रस्तुत य० ॥ ४ (पत्ति? ) ॥ ५ लावव्याप्यति भा० । लावध्यायति य० ॥ ६ तवाप्र भा०। ७ टस्यात्वं प्र०॥ ८ अवविहतमेव य० । अविहितमेव भा० ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । શરૂ अत एव सामान्यशब्देनापि स एव विशेषार्थः साक्षादव्यवहितवृत्तिना विधिना प्रतीयते । सर्वथा अव्यवहितवृत्तिना विधिना स्वभेदाः समाक्षिप्तास्तद्रूपपरमार्थत्वेनाङ्गाङ्गिभावगत्या। प्रतिषेधव्यापारनिराकाहं विध्यर्थस्य प्रतिपत्ती उपसर्जनत्वेनापोहबुद्धेरुत्पत्तेविधिः प्रधानोऽप्रधानोऽपोहः, यथा शिंशपायुपहारिवृक्षशब्दार्थेऽघटघटा-5 नवतारः। ४२२-१ प्रतीतेः स एवार्थः स्खेनैव रसेन समापतितः प्रतिपादयितुमिष्टश्च किमिति प्रतिक्षिप्यते ? न हि स्वार्थप्रतिक्षेपो युक्तः । किं कारणम् ? दूरमपि गत्वा तेन विना तदगतेः 'घटः' इत्युक्ते 'अघटो न भवति' इति प्रतिषेधद्वयेनार्थान्तरं व्यावापि घट एवावश्यं प्रतिपत्तव्यः, स च कुट एवेति कुटत्वेन विना घटत्वाभावात् कुटत्वस्याप्यविनाभाविनः स्खेनैव रसेन प्रतीयमानत्वादक्लेशेनागतो विधिरेव शब्दार्थः पर्याय इति । 10 'किश्चान्यत् , अत एव अविनाभावात् सामान्यशब्देनापि घटस्य पार्थिवादिना सामान्यसामान्यशब्देन वा द्रव्य-सत्त्वादिना विधीयमानः स एव विशेषार्थो घटाख्यः साक्षादव्यवहितवृत्तिना विधिना प्रतीयते । तानि हि भेदरूपाणि अनेकात्मकस्य वस्तुनः सामान्याद्याकारेणापि गृह्यमाणानि कथं न विधीयन्ते ? सर्वथेत्यादि, तस्मादव्यवहितविधिवृत्तिना शब्देन घटस्यैव स्वभेदाः समाक्षिप्ताः। यथोक्तम्-सद्रव्यपृथिवीमृद्धटादि(भि)सम्बन्धादस्ति द्रव्यं पार्थिवो मार्तिको घट इति घटे सम्प्रत्ययः 15 [ ] इति । तत् कथमिति चेत् , उच्यते-तद्रूपपरमार्थत्वेन, तानि भेदरूपाणि एव सामान्यवदाभासमानानि अविद्यमानान्येव वा सामान्यादिरूपाणि भेदप्रतिपादनपरतया तस्यैव विशेषस्य परमार्थरूपत्वेनाङ्गाङ्गिभावं गतानि, असत्योपाधिसत्यशब्दार्थत्वात् । तथा चाङ्गाङ्गिभावगत्या तद्रूपपरमार्थरूपया अव्यवहितवृत्तिना विधिना स्वभेदाः समाक्षिप्ता इति वर्तते । प्रतिषेधव्यापारनिराकासमित्यादि यावद् घटानवतार इति । योऽपि त्वयान्यापोह इष्टः सोऽपि 20 विधिमन्तरेण न भवति, यस्मात् 'अघटो न भवति' इत्येतेमविवक्षितं द्विःप्रतिषेधमनाहत्यानपेक्ष्य विधिरूपेण विवक्षितविध्यर्थस्य घटस्य प्रतिपत्तौ सत्यामुत्तरकालं भवति, नाप्रतिपत्तौ । तस्यैवं चरितविध्यर्थस्य घटस्य उपसर्जनत्वेनापोहबुद्धेरघटाभावबुद्धेरुत्पत्तेरवश्यात्मा विधिः प्रधानोऽप्रधानोऽपोह इति । ४२२-२ किमिव ? शिंशपायुपहारिवृक्षशब्दार्थे[s]घटघटानवतारवत् , यथा 'वृक्षः' इत्युक्ते शिंशपादिभेदानामन्यतमेन विनार्थवान्न भवति वृक्षशब्द इति शिंशपादि उपहरन्नर्थवान् , तस्मिन् मूलादिमति शिंशपाद्य- 25 वश्यम्भावि विशेषस्वभावेऽर्थे[]घटानवतारः, 'अघटो न भवति' इत्यस्य तु दूरत एव, नैवासौ शब्दार्थो गुडमाधुर्यगतिवदर्थापत्तिलभ्यत्वात् । घटानवतार इत्येव वा पाठः, घटस्य वृक्षार्थेऽवकाशाभाववदनुपात्तावृक्षापोहस्य कोऽवकाश इति । १"शब्दार्थे घटानवतारः' इत्यपि पाठान्तरम् ॥ २ किंचादन्यत एव प्र०॥ ३ तुलना-पृ. ६३९ पं० १७ ॥ ४ उद्धृतमेतत् प्रागपि नयचक्रवृत्तौ पृ० ३३ पं० १० इत्यत्र ॥ ५ तदविव य०॥ ६प्रतिपत्तौ स्यामुत्तरकालं प्र०॥ ७ तस्येवं प्र०। (तस्यैव?)॥ ८रवस्यात्मा य० ॥ ९शब्दार्थ घटाघटानवतारवत' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ १० भावेर्थघटान प्र० । अत्र "भावेऽर्थे घटानवतारः, 'घटो न भवति' इत्यस्य' इत्यपि पाठः सम्भवेत् ॥ ११ वशाभाव प्र०॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ ___ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे यदि तु सोऽप्यपोहपर एव स्यात् ततोऽवृक्षव्यावृत्तिव्यापृतत्वाद् वृक्षभेदं नाक्षिपेद् नानुमन्येत न व्युदस्येत् , अनर्थित्वात् , अवृक्षाभवनवत् । अवृक्षो घटादि........."व्यापार एव नास्ति । यदसौ वृक्षार्थ शिंशपादिभेदात्मकं खार्थमनन्यत्वेनाक्षिपति तस्मात् तेन सह सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते तद्भवनविध्येकार्थीभावात् । तद्भवनभवनविधिविनाभावे तु न युज्यते भेदाक्षेपाभावात् । भवनविधिविनाभूतं भेदानाक्षेपि न समानाधिकरणं वृक्षः शिंशपेति त्वदभिमतं वस्तु स्यात् , अभवत्त्वात्, वन्ध्यापुत्रवत् । स्यान्मतम्-अत्रापि 'वृक्षः' इति 'अवृक्षो न भवति' इत्यपोह एवोच्यते, न शिंशपायुपहारः, तस्यैव 10"विसंवादस्थानत्वाद् न स्वार्थ इति । अत्रोच्यते-यदि तु सोऽप्यपोहपर एव स्यादित्यादि । यदि तु सोऽपि वृक्षशब्दोऽपोहपर एवाभविष्यत् ततः सोऽवृक्षव्यावृत्तिव्यापृतत्वादू वृक्षभेदं शिंशपादीन्नाक्षिपेत् , आक्षि]पतीति चेष्टं शिंशपादिसामाना धिकरण्यदर्शनात् । तथा नानुमन्येत अनाक्षिप्तत्वात् तमर्थम् , अनुमन्यते तु । न व्युदस्येत् 'अपोह एवं' इत्यभावमात्रार्थत्वात् खपुष्पवत् । वक्ष्यति चोपसंहारे-शून्यमात्रत्वात् किं कः केन कस्माद्वापोहते ? इति । कुतोऽनाक्षेपाननुमत्यव्युदासा इति चेत् , 15 उच्यते-अनर्थित्वात् , अनर्थी हि शिंशपादिना भेदेन वृक्षशब्दः, तस्मान्नाक्षेपादीन कुरुते । किमिव ? अवृक्षाभवनवत् । तद्वयाख्या-अवृक्षो घटादीत्यादिर्गतार्था यावद् व्यापार एव नास्तीति । यदसावित्यादि । विधिवादे त्वस्मत्पक्षे यस्मादसौ वृक्षशब्दो वृक्षार्थ घटादिभ्योऽन्यत्वेन शिंशपादि१२३-१ भेदात्मकं स्वार्थमनन्यत्वेनाक्षिपति तस्मात् तेन सह सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते-वृक्षः शिंशपेति, तद्भव - विध्येकार्थीभावात् । 20 तद्भवनभवनविधिविनाभावे तु न युज्यते । तत्समानाधिकरणं भवनं भवनमस्य तद्भवनभवनम् , तस्य तद्भवनभवनस्य विधिरात्मलाभः स्थितिराचारः, तेन विनाभावे तद्विरहितत्वे न घटते घटां नोपैति, भवनविधिविनाभूतस्य भेदाक्षेपाभावात् , न ह्यभवतो भेदा आक्षेपकत्वं वास्ति यतः समानाधिकरणता स्यात् । साधनमप्यत्र-भैवनविधिविनाभूतं भेदानाक्षेपि न समानाधिकरणं वृक्षः शिंशपा इति त्वदभिमतं वस्तु स्यात् , अभवत्त्वात्, वन्ध्यापुत्रवत् । अनुपपन्नसामानाधिकरण्यभेदाक्षेपार्नुमति त्वदिष्टं 'वृक्षः 25 शिंशपा' इति पदद्वयाभिधेयम् , अभवत्त्वात् , वन्ध्यापुत्रवत् । १ तुलना-पृ० ६४६ पं० ४॥ २ 'अवृक्षो घटादि, तदभवनस्याप्रस्तुतत्वाद् वृक्षशब्दस्य तत्र व्यापार एव नास्ति तथाऽप्रस्तुतत्वाद् वृक्षभेदाक्षेपे वृक्षशब्दस्य व्यापार एव नास्ति' ईदृशं किमपि मूलं सम्भाव्यते ॥ ३ तस्येव प्र० ॥ ४ (विवादस्थानत्वाद्?)॥ ५ व्यावृत्तत्वाद् प्र०॥ ६ 'वृक्षसेदान्' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ७ व्युदस्येवपोह प्र.॥ ८ दृश्यतां पृ. ६४५ पं०४॥ ९ दृश्यतां पृ० ६४६ पं० २३॥ १०°विधिकार्थी प्र०॥ ११ तु प्रयुज्यते तत्समाधिकरणीभवनं प्र०॥ १२ विना अभावे प्र०॥ १३ भवनविधिभूतं प्र० ॥ १४ अभत्वात् य० ॥ १५ दृश्यतां पृ० ६४७ पं० ६॥ १६ पृ. ६४४ पं० २ इत्यत्र निर्दिष्टा अनुमतिरत्राभिप्रेता ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ___कुतोऽस्य भेदस्य भेदत्वम् ? कथं सोऽपि तीभेदः ? यद्यसावपि भेदो न भवति न तर्हि वृक्षो भवति, अभूतशिंशपादिभेदत्वात् , घटवत् । सोऽप्येवमेव घटो न भवति, अभूतग्रीवादिभेदत्वात्, वृक्षवत् । यावत् परमाणुर्न भवति, अभूतरूपादिभेदत्वात्, विज्ञानवत् । एवं च सर्वमिदं शून्यमापद्यते । कः किं केन कस्माद्वापोहते? अथ कथञ्चिदू भवत्यपि वृक्षस्ततः स्वार्थाद्युक्तेः स एव विधिर्विषयः संवृत्तोऽर्थः । तदुपसर्जनश्चापोहोऽसत्त्वादसत्यः। असत्योपाधिः सत्यः शब्दार्थः। स च 'विशेषार्थविधिः। __इतर आह-कुतोऽस्य भेदस्य भेदत्वम्, शिंशपादेव॒क्षभेदाभिमतस्य तद्भेदत्वम् ? वृक्षसामान्यस्यानुवृत्तिलक्षणस्याऽवृक्षाभावत्वे सत्यसिद्धत्वात् कस्य भेदः शिंशपादिः ? तस्माद् भेदस्य शिंशपादेर्भेदत्वं कुतः ? 10 नैवास्तीत्यर्थः । कथं सोऽपि तीभेदः ? न भवति शिंशपादिवृक्षः अभेदोऽन्यस्मादनिवृत्तोऽनपोहः शिंशपावृक्षाभावाव्यावृत्तो वृक्ष एव न भवति, कुतो भेदः शिंशपादिवृक्ष इति । अत्रोच्यते-यद्यसावपीत्यादि अनिष्टापादनसाधनम् । यद्यसावपि भेदो न भवति शिंशपादिः न तर्हि वृक्षो भवतीति वृक्षस्यैवावृक्षत्वमवस्तुत्वं प्रतिज्ञायते । हेतुः-अभूतशिंशपादिभेदत्वात् । घटवदिति दृष्टान्तः । सोऽप्येवमेवेत्यादि, यदि तु सोऽपि घटो न भवति भेद इतीष्यते तस्याप्यघटत्व-15 मभूतग्रीवादिभेदत्वात् , वृक्षवत् । एवं ग्रीवादिरभूतकपालादित्वात् इत्यादि यावत् परमाणुन भवति, ९२२० अभूतरूपादिभेदत्वात् , विज्ञानवत् । रूपादिरप्यरूपादि, अभूतरूपादिक्षणभेदत्वात् , विज्ञानवदेव । सर्वत्र वा सामान्येन न भवन्त्येतेऽर्थाः स्वभेदशून्यत्वात् खपुष्पवदिति । एवं चेत्यादि प्रेस्तुतदोषापादनोपसंहारः। एवम् अनेन विधिना सर्वमिदं दृश्यादि प्रत्यक्षाभिमतमनुमेयमभिधेयं वा वस्तु शून्यमापद्यते त्वन्मतेनैव । कः किं केन कस्माद्वापोहते ? सर्वस्य 20 शून्यत्वे 'कः किम्' इत्यादि कर्तृकर्मकरणापादानभूतानां शब्दादीनामभावेऽपोहाभाव एवमित्यर्थः । अथ कथञ्चिदित्यादि । मा भूदेष सर्वशून्यत्वदोष इति त्यक्त्वा भवनाभावमात्राकान्तापोहकल्पनां केनचित् प्रकारेण भवत्यपि वृक्षोऽवृक्षो न भवति, शिंशपा भवत्यपि इतीष्यते शब्दार्थशून्यत्वदोषभयात् ततो वयं ब्रूमः- स्वार्थाद्युक्तः 'स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते' [ ] इत्यादिवचनात् स एव विधिर्विषयः संवृत्तोऽर्थः । तदिदानी प्रस्तुतनयमतेन शब्दार्थं योजयति-तदुपसर्जनश्चापोहोऽसत्त्वा- 25 दसत्यः, विशेषार्थस्य विधेरुपसर्जनोऽपोहः, स चासत्त्वादसत्यः, उक्तवदेव प्राग् विस्तरेण असत्योपाधिः सत्यः शब्दार्थः, स च विशेषमेव विदधाति नापोहते इत्येष शब्दार्थविधिरिति । १ पृ० ६४४ पं० १४ ॥ २ दृश्यतां पृ० ६४६ पं० १९॥ ३°रूपा। क्षण य० ॥ ४ भवन्त्येतोः भा० । भवन्त्यतीर्थाः य० ॥ ५प्रयुक्तस्तुतदोषा भा० । प्रयुक्तस्तुतदोषा य० ॥ ६ शून्यत्वो भा० । (शून्यत्वात् ? )॥ ७ इत्यादि कर्मकरणा य० ॥ ८°कांत्यपोह प्र०॥ ९ वृक्षो वृक्षो भा०॥ १० न भवति शिंशपा न भवति शिशपा प्र०॥ ११ पृ० ६०९ ॥ १२ वचनाश एव भा० । वचनांश एव य० ॥ १३ संवृतों प्र० ॥ १४ शब्दस्यार्थः भा० । अयं भा० पाठोऽपि समीचीन एव ॥ १५ इत्येव शब्दार्थ य० । इत्येशब्दार्थ भा० ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे एतेन सामान्यशब्दार्थविशेषताप्युक्तैव । सामान्यस्य स्वार्थं विशेषशब्दोऽभिधत्ते तत्त्वेनात्मानं विदधदभेदत्वासत्त्वापत्तित्यागेन शिंशपादिसम्परिग्रहेण अत्यजन्नेवानुवृत्तिव्यावृत्ती तदुपसर्जनाशिंशपाऽभवनबीजतां यान् । यदि तु सोऽप्यपोहपर एव स्यात् ततः शिंशपाशब्दो न विदध्याद् वृक्षार्थं व्यावृत्तत्वात् अर्थापत्त्या नानुमन्येत वोपात्तार्थाविरोध इति अशिंशपाऽभवनवत् । ६४६ एतेन सामान्यशब्दार्थविशेषताप्युक्तैव । यथान्यत्वे विशेषप्राधान्यात् सामान्य-भेद -पर्याय४२४-१ शब्दार्थास्तदङ्गत्वात् तदात्मकत्वाद्वा नापोह्यन्ते तथा विवक्षितशब्दार्थादन्यस्य विशेषशब्दार्थस्य विशेषशब्दार्थस्य वा सामान्यस्य स्वार्थं विशेषशब्दो[s]भिधत्ते । कथम् ? तत्त्वेनात्मानं सामान्येन सहैकीभावं विदधत् आत्मन उपसर्जनभावे साहायकीकारयन् । किं करोति ? स्वार्थं विधत्ते इति वर्तते । 10 अभेदत्वासत्त्वापत्तित्यागेन, न च वृक्ष - पार्थिव - मृद्-द्रव्य - सत्त्वसामान्यानि त्यक्त्वा 'विशेषमेव तैरेकान्तेन विविक्तं प्रतिपादयति तथारूपार्थासम्भवात् सामान्योपसर्जनत्वोपायप्रतिपाद्यविशेषात्मलाभत्वात्, नापि 'अवृक्षाशिंशपादि न भवति' इत्यसत्त्वापत्तिमेव स्वार्थप्रतिपत्तिरहितां ब्रूतेऽभिधेयाभावे शब्दार्थव्यवहारोच्छित्तिप्रसङ्गात् । कोऽसौ विशेषशब्दस्तदर्थो वेति चेत्, उच्यते - शिंशपादिः, तत्सम्परिग्रहेण वृक्षादेः सदन्तस्यानुवृत्तेः सामान्यस्य सम्परिग्रहेण तदभावावृक्षाद्यर्सदन्तव्यावृत्त्यपोहपरिग्रहेण चात्यजन्ने15 वानुवृत्तिव्यावृत्ती, किं कारणं न ते त्यजति ? इति चेत्, उच्यते - यस्मात् तदुपसर्जनाशिंशपाऽभवनarti या स्वार्थमभिधत्ते गच्छन् व्रजन्नित्यर्थः, स्वार्थानुवृत्तिसामान्योपसर्जनत्वस्य अशिंशपाया घटादेस्तनाभवनलक्षणस्य च व्यावृत्तिसामान्यस्य स्वार्थः शिंशपाशब्दस्य शिंशपार्थः, स बीजं तयोरनुवृत्तिव्यावृत्त्योः, इतरथा किमसावपोहेताप्रतिपादयन् किञ्चित् ? ४२४-२ यदि तु सोऽपीत्यादि पूर्ववद् ग्रन्थ ईषद्विशिष्टः प्रसङ्गो यावद् विशेषार्थविधिरित्युपनयः । तत्र 20 विशेष उच्यते—'वृक्षः शिंशपा' इत्यत्र शिंशपाशब्दो न विदध्याद् वृक्षार्थ शिंशपाविशेषात्मापन्नं व्यावृत्तत्वादिति पूर्ववद् गमः, अर्थापत्त्या नानुमन्येत वा 'अवृक्षो न भवति' इत्युक्तेऽर्थादापन्नं 'वृक्षो भवति' इति, अयमर्थो मा भूत्, इष्यते चासौ, कुतः ? उपात्तार्थाविरोधात्, 'उपात्तार्थाविरोध इति' अत्र इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वात् । अशिंशपाऽभवनवदित्यादि: 'अवृक्षाभवनवत्' इत्यादितुल्यः सामान्यगमविपर्ययेण १ दृश्यतां पृ० ६४४ पं० १ ॥ २ प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ 'सामान्यशब्दो विशेषशब्देन सहाविरुद्ध:' इत्येतद्दर्शनावसरे भेदभेदशब्दोऽपि गृहीतः । दृश्यतां पृ० ६३८ पं० १० । अतोऽत्र 'विशेष विशेषशब्दार्थस्य' इत्यपि पाठो भवेत् । तुलना - पृ० ६४३ पं० १॥ ३ 'स्वार्थमभिधत्ते' इति अनन्तरमेवोक्तं वक्ष्यते च पुनरपि पृ० ६४४ पं० १६ इत्यत्र । अतः 'स्वार्थमभिधत्ते' इति पाठोऽत्र सम्भाव्यते ॥ ४ वात्सत्वपत्ति प्र० ॥ ५ विशेषव तैरेका प्र० ॥ ६ विवक्तं य० । विक्तं भा० ॥ ७ सदत्तस्या' भा० । सदसत्तस्या य० । अत्र 'सदंशस्या" इति सम्यग् भाति । एवमग्रेऽपि ॥ ८ सदंत' य० । संदेत भा० ॥ ९ व्यावृत्तिव्यापृतत्वादिति' इति पाठोऽत्र सम्यग् भाति, दृश्यतां पृ० ६४४ पं० १ ॥ १० पृ० ६४४ पं० २ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः ] ....... .... अभवत्त्वादवृक्षत्वाद् द्वादशारं नयचक्रम् | · विशेषार्थविधिः T: 1 यत्तु 'अंविरोधादन्यत्वेऽपि सामान्यादिशब्दार्थानपोहः' इत्युक्तं सोऽप्येवमेवाविरोधी घटते भवन विध्येकार्थीभूतत्वात् । समूहश्च तथार्थान्तरवाचकः । एवं च सामान्यविशेषशब्दयोः खार्थ सामान्ये वर्तमानयोस्तद्विशिष्टार्थवाचकत्वम्, ट्र्यादिसमूहस्य वाक्यार्थवाचकत्वम् । ૭ तदविनाभाविविशेषार्थगमनिकया नेयः 'अभवत्त्वात् अवृक्षत्वात्' इत्यादिहेतुकः, अभावमात्राभ्युपगमाञ्च हेतुसिद्धिः, तद्विपर्ययेऽस्मत्पक्षापत्तिः । शेषग्रन्थभावना पूर्वग्रन्थभावनातुल्या । एवं तावत् सामान्य-भेद - पर्यायशब्दार्थानपोहवत् सामान्यसामान्यशब्दार्थान पोहोऽन्तैर्निविष्टविशेषाभिधायिसामान्यशब्दार्थविधिश्वोक्तो विधेरेव शब्दार्थत्वात् । यत्त्वविरोधादित्यादि । यदपि त्वया कारणमुक्तमन्यत्वेऽपि सामान्यादिशब्दार्थानपोहे 'तेषामविरोधात्' इति सोऽपि एवमेवाविरोधी घटते, भवनविध्येकार्थीभूतत्वात् । सामान्याख्यं 10 विशेषाख्यं च यत् किञ्चिद्वस्तु तत् सर्वं भवनमेव अन्योन्यात्मापत्त्या एकीभूतम् स एव शब्दार्थो विवक्षितार्थोपँकाराविनाभावित्वेन एकीभूतो विधीयमानत्वादेव 'अविरुद्ध:' इति युज्यते, नान्यापोहे, अन्यत्वाविशेषादभावतुल्यत्वाच्च कौ विरोधाविरोधौ ? इति । " सेमूहश्च तथार्थान्तरवाचकः । तद्व्याख्या एवं चेत्यादि, एवं च कृत्वा विधिप्रधानशब्दार्थत्वात् सामान्यविशेषशब्दयोरित्यादि यावद् वाक्यार्थवाचकत्वमिति । प्रकृतिप्रत्यययोर्भवनसामान्यापरित्या - 15 गिनोस्तद्विशेषकर्तृपदार्थवाचित्वं समूहेन 'भवति' इति । 'नीलोत्पलम्' इति " वृत्तिपदार्थभवन सामान्यवाचिनोः, विशेषणविशेष्यत्व सम्बन्धलक्षणसामान्यविशेषभाविवृत्त्यर्थवाचित्वम्, तथा राजपुरुषादीनां राजाभिसम्बन्धविशेषणादीनां ज्ञेयम् । द्वयादिसमूहस्येति 'देवदत्तस्तिष्ठति, देवदत्तो गेहे तिष्ठति, देवदत्त ! गामभ्याज शुक्लाम्' इत्यादिद्वि-[त्रि- ] चतुः पञ्चादिपदसमूहानां वाक्यार्थवाचकत्वम्, उपात्तार्थाविरोधि सामान्योपकृतैविध्यर्थत्वात् सर्वशब्दानामिति । १ 'अशिंशपा घटादि, तदभवनप्रतिपादन एवापक्षीणशक्तित्वात् शिंशपात्मकवृक्षार्थविधाने तस्य व्यापार एव नास्ति । यदसौ वृक्षार्थ शिंशपादिभेदात्मकमाक्षिपति तस्मात् तेन सह सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते तद्भवनविध्येकार्थीभूतत्वात् । तद्भवनभवनविधिविनाभावे तु न युज्यते सामान्यविधानाभावात् । भवनविधिविनाभूतं सामान्याविधायि न समानाधिकरणं त्वदभिमतं वस्तु स्यात् अभवत्त्वादवृक्षत्वात् वन्ध्यापुत्रवत् । कुतोऽस्य सामान्यस्य सामान्यत्वम् ! कथं सोऽपि तर्ह्यसामान्यः ? यद्यसावसामान्यः न तर्हि शिंशपा भवति, अभूतवृक्षादित्वात्, घटवत्। सोऽप्येवमेव यावत् परमाणुर्न भवति, अभूतसामान्यत्वात्, खपुष्पवत् । एवं च सर्वस्य शून्यत्वे कः किं केन कस्माद्वाऽपोहते ? अथ कथञ्चिद् भवत्यपि शिंशपा ततः स्वार्थाद्युक्तेः स एव विधिर्विषयः संवृत्तोऽर्थः । तदुपसर्जनश्चापोहोऽसत्त्वादसत्यः । असत्योपाधिः सत्यः शब्दार्थः । स च विशेषार्थविधिः ।' ईदृशं किमपि मूलमंत्र सम्भाव्यते ॥ २ दृश्यतां पृ० ६३८ पं० ६ ॥ ३ तुलना - पृ० ६४४ पं० ८ ॥ ४ तुलना - पृ० ६४३ पं० ११॥ ५ न्तर्विशिष्ट य० ॥ ६ दृश्यतां पृ० ६४० पं० ४ ॥ ७ तुलना- पृ० ६४७ पं० २० ॥ ८ तुलना - "सामान्यद्यानपोहश्च नाविरोधेन कल्पते । न हि शब्द स्वरूपाणां स्याद्विरुद्धाविरुद्धता ॥ ३४९ ॥” इति मी० लो० वा० अपोहवादे || ९ अन्यापोहवादेऽभिहितमिदं दिङ्गागवचनं विधिप्रधानशब्दार्थत्व एवं घटत इति दर्शयति । दृश्यतां पृ० ६३८ पं० ११ ॥ १० वर्तिपदार्थ प्र० । वृत्तिः समास इत्यर्थः । ११ पृ० ६४७ पं० १२ | पृ० ६३९ पं० २२ ॥ 5 ४२५-१ 20 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे अयं च..............................। नाक्षिपत्येव सद्भेदान् किं मुधा भ्रम्यते त्वया ॥ अनेन प्रत्युक्तं प्रतिषेधसामानाधिकरण्यं वेदितव्यम् । आह च तन्मात्राकाङ्क्षणाद् भेदः स्वसामान्येन नोज्झितः। उपात्तस्तत्समाबन्धात् तत्त्वादेकार्थता तयोः॥ अनेकं च सामान्यमुपात्तमव्यभिचारिणा भेदेन । अतस्तयोश्चित्रा विशेषण अयं चेत्यादि श्लोकः । यदुक्तं त्वया 'घटादिभेदानाक्षेपित्वात् सच्छब्दस्य जातिस्वरूपोपसर्जनद्रव्यमात्राभिधानात् पारतत्र्याद् घटादिभेदाभेदत्वात् तैः सह सामानाधिकरण्याभावः' इति, यथा परेषां दोषस्तथा तवापि असन्निषेधमात्राभिधानपारतत्र्याद् नाक्षिपत्येव सद्भेदान् घटादीनिति तुल्ये दोष10 सम्भवे किं मुधा भ्रम्यते त्वया ? इति । अनेनेत्यादि तद्भावना । पारतत्र्यातू सच्छब्दानाक्षेपवचनेन 'सन् घटः' इति सामानाधिकरण्यं न प्राप्नोतीति प्रत्युक्तं प्रतिषेधसामानाधिकरण्यं वेदितव्यम् । __ आह चेत्युक्तार्थसङ्ग्रहकारिका । तन्मात्राकाङ्क्षणादित्यादि, आत्मार्पणामात्रमाकाङ्कति सामान्य स्वभेदे, अतस्तन्मात्राकाङ्क्षणाद् भेदः शिंशपा वृक्षण सामान्येन नोज्झितोऽन्यत्वेपि, किं तर्हि ? 15 उपात्त एव कस्मात् ? तत्समाबन्धात् तत्त्वात् , तेन सह विशेषेण सामान्यस्यानुबद्धत्वे सति तत्त्वात् एकत्वात्तेर्विशेषप्रवणत्वादन्यत्वे सत्यपि एककार्यत्वादेकार्थता सामान्यविशेषयोरन्योन्यापरित्यागे सति आत्मलाभादन्यतरत्यागे स्वरूपाप्रतिलम्भात् सामानाधिकरण्यम् । न हि वृक्षेण विना शिंशपा शिंशपां विना ४२५-२ वा वृक्षोऽस्तीति । अत्र यदुक्तम्-नोपात्तः संशयोत्पत्तेः साम्ये चैकार्थता तयोः ["प्र० समु० ५।२६] इति तत् कुतः संशयः ? कुतो वा साम्यैकार्थते ? संशयस्तावदन्यापोहमात्रोक्तेरनुपात्तत्वाद् विशेषाणां सामान्य20 शब्देन नास्ति, यापात्ताः स्युर्विशेषाः स्यात् "संशयः । साम्यमपि च नास्ति अनुपात्तत्वात् , कुतः समानाधिकरण्यम् ? उपात्तत्वान्न संशयः स्याद् वृक्षवदिति चेत् , न, उक्तत्वात् सामान्यादुपसर्जनाद् विधिविशेषार्थान्नियमे निश्चयदर्शनादिति ।। .. किश्चान्यत् , अनेकं चेत्यादि । इह विधिप्रधाने शब्दार्थे 'वृक्षः शिंशपा' इति चोक्ते भेदशब्देन अनेकं च सामान्यं पृथिवी-द्रव्य-सदादि नाम-स्थापना-द्रव्य-भावाख्यं च सर्वमप्युपात्तमव्यभिचारिणा 25 भेदेन शिंशपादिविध्येकार्थीभूतत्वात् । अतस्तयोश्चित्रा सामान्यविशेषशब्दयोर्विशेषणविशेष्यता, १ दृश्यतां पृ० ६३८ पं० १३ । दिकागवचनमेव किञ्चित् परिवर्त्य प्रतिक्षिपति ग्रन्थकारः॥ २ 'अनेकमपि सामान्य भेदेनाव्यभिचारिणा । उपात्तं न तयोस्तुल्या विशेषणविशेष्यता ॥' इति यदुक्तं [पृ० ६३८ पं० १५] दिनागेन तदत्र प्रतिक्षिपति ग्रन्थकारः ॥ ३चित्यादि य० ॥ ४ दृश्यतां पृ. ६०७ पं० २६॥ ५°नाक्षेपितत्वात् प्र० ॥ ६ नास्तितोन्यच्चेति प्र० । 'नोज्झितोऽन्यत्वेऽपि' इति 'नोज्झितोऽत्यक्तः' इति वा पाठोऽत्र सम्भाव्यते ॥ ७ तत्समबंधातत्त्वात् य.॥ ८ पत्तर्विशेषणप्रव प्र.॥ ९शिंशपा विना वा न वृक्षोऽस्तीति प्र.॥ १० दृश्यतां पृ० ६३८ पं० १४ ॥ ११ कार्थः ते भा० । कार्थस्ते य० ॥ १२ संशयः स्यत्यमपि भा० । संशयस्य त्वमपि य०॥ १३ दृश्यतां पृ. ६१६ पं० ४ ॥ १४°षार्थन्नियमे निश्चिय भा० ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् ६४९ विशेष्यता । नामाद्यनेकं सामान्यं भेदेनाव्यभिचारिणोपात्तम् । ततः संशयव्यावृत्त्यर्थं भवत्येव विशेषणत्वं वृक्षस्य शिंशपायाश्च विशेष्यत्वम् । 'सत् । इत्थम् स्वार्थावबद्ध शक्तिश्च भेदो भेदमपोहते । सामान्यार्थविशेषार्थविधिमन्नियमश्रुतेः ॥ विवक्षावशात् कदाचिद् वृक्षेण शिंशपा विशेष्यते कदाचिच्छिशपया वृक्षः 'शिंशपा वृक्षः, वृक्षः शिंशपा' 5 इत्यनियमदर्शनात् । तस्यानियमस्य हेतुं दर्शयति-नामाद्यनेकमित्यादि, नामशिंशपा स्थापनाशिंशपा द्रव्यशिंशपा भावशिंशपा । कन्यायाः 'शिंशपा' इति नान्नि कृते कन्या नामशिंशपा । तच्च सामान्यं पूर्वोक्तविधिना सर्वस्य नामत्वात्, शिंशपैव वा नामाद्यपेक्षया सामान्यम् । तच्चेदं भेदेन वृक्षेणाऽव्यभिचारिणा विकार्थीभूतत्वादुपात्तम् । ततः संशयः 'स्यादवृक्षशिंशपा कन्या नामशिंशपा' । तद्वयावृत्त्यर्थं वृक्षशिंशपामौदकिभावात्मिकां भावशिंशपा [मा]नयेति भवत्येव विशेषणत्वं वृक्षस्य शिंशपायाश्च विशेष्यत्वम्, 10 अनियमः, न तु यथेोच्यते त्वया - न तयोस्तुल्या विशेषणविशेष्यता [ मै० समु० ५/२७ ], दृष्टत्वान्नियमेन तुल्यत्वस्य । एवं तावन्नेयं यावत् सदिति । ४२६-१ यदप्युच्यते त्वया— भेदो भेदान्तरार्थं तु विरोधित्वादपोहते । सामान्यान्तरभेदार्थाः स्वसामान्यविरोधिनः ॥ [ ० समु० ५२८ ] इति, तत्रापि न तु विरोधित्वादपोहते, विरोधाभावादङ्गाङ्गिभावेन सामान्यविशेषभावापत्तेरुक्तन्यायेन सर्वस्य नामाद्यपेक्षस्य । कस्मात् तर्ह्यपोहते ? उच्यते - यस्मादित्थम् स्वार्थाबद्धशक्तिश्च भेदो भेदमपोहते । सामान्यार्थविशेषार्थविधिमन्नियमश्रुतेः ॥ इति । स्वार्थे बद्धा शक्तिरस्य शिंशपाशब्दस्य वृक्षसामान्यसहायस्य शिंशपायामेवावबद्धा, तस्या एव विवक्षि - 20 तत्वात्तु शब्दान्तरार्थप्रतिपादन सहायभावाप्रतिपत्तेः । अतः स्वार्थावबद्धशक्तित्वाच्छिशपाशब्दः खदिरादिमपोहते । किं कारणम् ? सामान्यार्थविशेषार्थविधिमन्नियमश्रुतेः, येयमभिहितानां सामान्यशब्देन उपसर्जनसामान्यार्थेन विशेषाणां नियमार्था विशेषश्रुतिरिष्टायाः शिंशपाया: प्रतिपादनस्य तङ्कारत्वाद् यथास्माभिः प्राग् विस्तरेण व्याख्याता सा सामान्यार्थविशेषार्थगुणप्रधानयुक्तविधेयार्थवती । तस्माद्धेतोस्तस्याः सामान्यार्थविशेषार्थविधिमन्नियमश्रुतेर्भेदान्तरस्याविवक्षितत्वात् प्रयोजनाभावात् स्वार्थावबद्धशक्तित्वाद् 25 भेदः शिंशपादिर्भेदं खदिरादिमपोहते, न तु विरोधित्वात्, सामान्यविशेषयोरन्योन्याविनाभावित्वे ४२६-२ सामान्याविनाभाविना विशेषान्तरेण स्वरूपेणैव कथं विरुध्यते विशेष: 'शिंशपादिः खदिरादिना ? इति । १ वृक्षशिंशपा य० ॥ २ध्यतो भा० । 'ध्यते य० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ६३८ पं० १६ ॥ ४ पृ० ६३८ पं० १८ ॥ ५ तत्वातु भा० । 'तत्वात्रु य० । 'विवक्षितत्वात् शब्दान्तरा" इति रम्यं भाति ॥ ६रार्थाप्रति प्र० ॥ ७ पार्थविवित्वान्नियम भा० । पार्थविविधान्नियम य० । (पार्थविधित्वान्नियम ? ) ॥ ८ उपसर्जनीसामा भा० ॥ ९ शिंशपादि प्र० ॥ नय० ८२ 15 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे एतेन सामान्यान्तरमेदार्थाः स्वसामान्यविरोधिनः [प्र० समु० ५।२८ ] इत्यादि सर्व प्रत्युतार्थमित्यलमतिप्रसङ्गेन। यत्तूक्तं कथं पुनः शब्दस्यार्थान्तरापोहेन स्वार्थाभिधाने पूर्वदोषाप्रसङ्गः कथं वार्थान्तरापोहेन स्वार्थाभिधानम् ? 5 एतेन 'सामान्यान्तरभेदार्थाः स्वसामान्यविरोधिनः' इत्यादि सर्वमभिहितेन न्यायेन सामान्य विशेषभवनविध्येकीभूतार्थत्वादिना प्रत्युक्तार्थम् ; प्रत्युक्तः प्रतिषिद्धोऽस्यार्थस्त्वदीयस्य एवमादिनो वचनस्य । इत्यलमतिप्रसङ्गेन, अन्यापोहशब्दार्थनिराकरणप्रसङ्गपरम्परागतस्तिष्ठतु विचारः, प्रकृतमस्त्वित्यर्थः । यत्तूक्तमित्यादि । कथं पुनः शब्दस्यार्थान्तरेत्यादि चोद्यं पराभिप्रायं गृहीत्वा स्वमतनिर्दोषता10 प्रदर्शनार्थं स्वमतं प्रत्युच्चारयतोत्थापितं यावत् पूर्वदोषाप्रसङ्ग इति, भेद-जाति-तत्सम्बन्ध-तद्वत्पक्षगता १ दृश्यतां पृ० ६३८ पं० २४॥ २ अत्रेदमवधेयम्-दिडागस्य कतमस्माद् ग्रन्थादिदं सर्वमपोहवादिमतं केनचिद्विरचितया तट्टीकया सहात्र मल्लवादिक्षमाश्रमणैरुद्धृतमिति निर्णतुं न पायते, दृश्यतां पृ० ६०६ टि. ७ । यथा तु प्रमाणसमुच्चयेऽपोहपरिच्छेदे दिङागेनाभिहितं तथा भोटभाषानुवादात् संस्कृते परिवात्रोपदर्यत इति सर्वत्र पूर्वोत्तरपक्षयोर्यथायोगमनुसन्धेयोऽयं प्रमाणसमुच्चयग्रन्थः"कथं पुनः शब्दस्यार्थान्तरापोहेन खार्थाभिधाने पूर्वदोषाप्रसङ्गः ? यस्मात् अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् । श्रुतेः सम्बन्धसौकर्य न चास्ति व्यभिचारिता ॥ ३४ ॥ अन्वयव्यतिरेकौ हि शब्दस्यार्थाभिधाने द्वारम् । तौ च तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती। तत्र तुल्ये नावश्यं सर्वत्र वृत्तिराख्येया, क्वचिदानन्त्येऽर्थस्याख्यानासम्भवात् । अतुल्ये तु सत्यप्यानन्ये शक्यमदर्शनमात्रेणावृत्तेराख्यानम् । अत एव स्वसम्बन्धिभ्योऽन्यत्रादर्शनात् तद्व्यवच्छेदानुमानं स्वार्थाभिधानमित्युच्यते। अन्वयद्वारेण त्वनुमाने वृक्षशब्दादेकस्मिन् वस्तुनि शिंशपादिप्रतिभासी संशयो न स्यात् । तत्संशयवत् पार्थिवत्वद्रव्यत्वादिप्रतिभास्यपि संशयः स्यात् । यस्माद् वृक्षशब्दोऽपार्थिवादिषु न दृष्टस्तस्माद् व्यतिरेकेणैवानुमानम् । आह च वृक्षत्वपार्थिवद्रव्यसज्ज्ञेयाः प्रातिलोम्यतः। चतुस्त्रिद्वयेकसन्देहे निमित्तं निश्चयेऽन्यथा ॥ ३५॥ इत्यन्तरश्लोकः । न च सम्बन्धद्वारं मुक्त्वा शब्दस्य लिङ्गस्य वा स्वार्थख्यापनशक्तिरस्ति, तस्यानेकधर्मत्वेऽपि सर्वथा गत्यसम्भवात् । न चास्ति खार्थे व्यभिचारो मेदानभिधानात् । एवं तावत् पूर्वदोषाभावः।"-Pavc. ed. पृ० ७४, N. ed. पृ. ८३ A I PSV N. ed. पृ० १६६ B-१६७ A, P. ed. पृ० १६५। अस्य सवृत्तिकस्य प्रमाणसमुच्चयस्य जिनेन्द्रबुद्धिरचिता विशालामलवती व्याख्यापि भोटभाषानुवादात् संस्कृते परिवर्येहोपन्यस्यते-"कथं पुनरित्यादि । 'शब्दोऽर्थान्तरव्यवच्छेदेन स्वार्थमभिधत्ते' इत्यस्मिन् पक्षे......चतुर्ष पक्षेषु ये दोषाः पूर्वमुक्तास्ते कथं न स्युरिति पृच्छति । अदृष्टेरन्यशब्दार्थ इति [अन्य शब्दार्थवचनं विपक्षोपलक्षणम् । ___ 1 तत्त्वसं० पं० पृ. ३०७ । सन्मतिवृ० पृ० १९६ ॥ 2 तुलना-"विधिमुखेन शब्दे प्रवर्तमाने सर्वात्मकार्थग्रहणं प्राप्नोति । ततश्च यथानुलोम्येन वृक्ष-पार्थिव-द्रव्य-सत्-ज्ञेयशब्देभ्यश्चतुस्त्रियेकनिश्चयो भवति तथा प्रातिलोम्येनापि निश्चयेन भवितव्यम् । न च तथा दृश्यते । ज्ञेयशब्दाच्चतुषु सत्तादिषु सन्देहात् सच्छब्दात् त्रिषु द्रव्यादिषु द्रव्यशब्दाद् द्वयोः पार्थिववृक्षत्वयोः पार्थिवशब्दादेकत्र वृक्षत्वे । तस्मान्न विधिमुखेन प्रवृत्ताः शब्दाः । तदुक्तम्-वृक्षत्वपार्थिवद्रव्यसज्ज्ञेयाः प्रातिलोम्यतः। चतुस्त्रिद्वयेकसन्देहे निमित्तं निश्चयेऽन्यथा ॥ इति”—मी० श्लो० वा० शर्करिका पृ० ७२ । न्या०र० पृ० ६०९॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् ६५१ दोषास्तवापि आनन्य-व्यभिचारादयः कथं न स्युरिति । ननु शब्दस्यार्थान्तरापोहेनेति परपक्षदोषाभिधानमात्रेण स्वपक्षासिद्धितः पृच्छति कथं वार्थान्तरापोहेन स्वार्थाभिधानं 'पक्षसिद्धिः' इति वाक्यशेषः । पूर्वदोषाप्रसङ्गश्च कथमर्थान्तरापोहेन स्वार्थाभिधाने ? विपक्षेऽदर्शनादित्यर्थः । स्वार्थस्यांशेऽपि] दर्शनादित्यत्र स्खः [अर्थः ] खार्थः । कः पुनरयमिति चेत्, विवक्षावत्पुरुषसमुदायः । तस्यांशोऽवयवो विवक्षावान् पुरुषः। अंशेऽपीति विवक्षावतोऽयं पर्यायः । एवमुक्तं भवति-यद्यपि यथोक्तवार्थांशा अनन्तास्तथाप्येकत्रापि दर्शनादिति । अपिशब्दोऽनेकत्रापीति द्योतयति । सपक्षव्याप्तः प्रतिपादनानङ्गत्वादशवचनम् । अव्यापकमपि गमकम् । श्रुतेः सम्बन्धसौकर्यम् , यथोक्ताद्धेतोः । न चास्ति व्यभिचारिता स्वार्थाभावेऽभावात् । अन्वयव्यतिरेको हीत्यादिनेममेवा) प्रकाशयति । द्वारमुपायः, शब्दस्य लिङ्गत्वात् तस्य चान्वयव्यतिरेकलक्षणसम्बन्धबलेन गमकत्वात् । तौ चेत्यन्वयव्यतिरेकरूपोपाख्यानम् । लिङ्गस्य तत्तुल्य एव वृत्तिस्तदतुल्ये चावृत्तिरेवेत्येतद्धि अन्वयव्यतिरेकयोः स्वरूपम् । तत्र तत्तुल्ये नावश्यमिति नियमेनास्य सजातीये सर्वत्र वृत्तिर्नाख्येया। कुत इति चेत्, उच्यते-क्वचिदित्यादि। नहि वृक्षादिशब्दस्य वृक्षादौ सर्वत्र दर्शनसम्भवः, तेषामानन्त्यात् । यदृच्छाशब्देषु तु सर्वत्र दर्शनसम्भवः, तद्विषयस्यैकत्वादिति । तस्मात् क्वचिदित्युक्तम् । एवं तावदन्वयाभिधानसौकर्यम् । स्यादेतत्-तदतुल्यानामानन्त्याद् व्यतिरेकाख्यानस्यापि सर्वत्रासम्भव इति । अत आह-अतुल्ये तु सत्यप्यानन्त्य इति यत्र शब्दार्थाभावस्तेषामानन्त्ये सत्यपि स्वार्थाभावे शब्दाभावलक्षणो व्यतिरेको दर्शयितुं शक्यते, अदर्शनस्य अभावमात्रत्वात् । शब्दार्थयोः कार्यकारणभावसिद्धौ कारणार्थाभावे तत्कार्यशब्दाभावो भविष्यतीत्येतन्मात्रेणादर्शनं प्रतीयते। तत्राश्रयदर्शनं निष्प्रयोजनम् , तदभावेऽपि व्यतिरेकनिश्चयात् । न हि कारणाभावे कार्यसम्भवः । तस्माद् व्यतिरेकोऽपि वक्तुं सुकरः । अत एवेति यस्माद् दर्शनस्य तत्तुल्ये सर्वत्रासम्भवः, तदतुल्ये त्वदर्शनस्य सम्भवस्तस्मात् स्वसम्बन्धिभ्यः सजातीयेभ्योऽन्यत्र विपक्षेऽदर्शनात् तद्वयवच्छेदानुमानमिति यत्र खार्थाभावेऽदर्शनं तद्वयवच्छेदानामनुमानम् अनुमितिः स्वार्थाभिधानमित्युच्यते । एतेन यद्यपि अन्वयव्यतिरेकयोयोरप्यनुमानाङ्गत्वं तथापि व्यतिरेकस्य प्राधान्यात् तद्वारेणैव गमकत्वमिति दर्शयति । अन्वयद्वारेण त्वित्यादि । तुशब्दोऽवधारणार्थः । यद्यन्वयद्वारेणैवाभिधानमिष्यते तथा सति वृक्षशब्दस्यार्थादिसहितस्य शिंशपादिष्वनुगमोऽस्तीति वृक्षशब्दात् केवलादेकस्मिन् वस्तुनि शिंशपादिप्रतिभासी संशयो न स्यात् , अपि तु निश्चय एव स्यात् । अथ बहुषु दृष्टत्वात् संशय एवं तर्हि तत्र संशयवत् पार्थिवत्व-द्रव्यत्वादिप्रतिभास्यपि संशयः स्यात् , पार्थिवत्वादिषु बहुषु दृष्टत्वात् । निश्चयस्तु दृष्टः । यस्माद् बहुष्वपि वर्तमानो यदभावे न भवति तत् प्रतिपादयति, नेतरत् । तस्माद् व्यतिरेकद्वारेणैवानुमानम् । एतदेव दर्शयन्नाह-यस्मादित्यादि । व्यतिरेकद्वारेणैव गमक इत्येतद् ग्राहयितुमन्तरश्लोकमाह । श्रेयशब्दः सद्रव्यपार्थिववृक्षत्वेषु चर्तुषु संशयस्य हेतुः, यस्मात् स तेषामभावेऽपि दृष्टः । एवमुत्तरेष्वपि वक्तव्यम् । सच्छब्दो द्रव्य-पार्थिव-वृक्षत्वेषु त्रिषु, द्रव्यशब्दः पार्थिववृक्षत्वयोर्द्वयोः, पार्थिवशब्द एकस्मिन् वृक्षत्वे । निश्चयेऽन्यथेति निमित्तमिति वर्तते । अन्यथेत्यानुलोम्येन वृक्षशब्दः पार्थिवद्रव्यसज्ज्ञेयेषु चतुर्षु निश्चयस्य हेतुः । तथाहि-स तेष्वपि दृष्टः तेषामभावे चादृष्टः । एवमुत्तरेष्वपि वक्तव्यम् । पार्थिवशब्दादयोऽप्येवमेकैकहान्या द्रव्यत्वादिषु निश्चयहेतवो ज्ञेयाः । यदि च दृष्टवद् विधिना गमयेत् यथाक्रमं चतुस्त्रिद्वयेकार्थनिश्चयस्तर्हि प्रातिलोम्येन स्यात् , ज्ञेयशब्दादीनां सत्त्वादिषु दृष्टत्वात् । यस्मात् तदभावेऽपि दृष्टत्वात् सन्देहस्तस्माद् व्यतिरेकद्वारेणैव गमकत्वमिति । सम्बन्धद्वारं मुक्त्वेत्यादि । सम्बन्धोऽविनाभावः । स एव द्वारम् । अनुमानस्य निमित्तम् , तत् परित्यज्य शब्दस्य लिङ्गस्येव स्वार्थख्यापनशक्तिर्नास्ति । इवशब्द औपम्ये । यथा अर्थात्मकं लिङ्गमविनाभावसम्बन्धद्वारेण गमयत् खार्थ व्यतिरेकद्वारेणैव गमयति एवं शब्दोऽपीति ख्यापयितुं 'लिङ्गस्येव' इति वचनम् । तस्यानेकधर्मत्वे इति शिंशपादिभेदेन पुष्पितफलितत्वादिभेदेन वा वृक्षाद्यर्थस्यानेकधर्मत्वेऽपि सर्वथा गत्यसम्भवादिति । यदि सर्वथा पुष्पितफलितत्वादिना गम्यते तदा यथोक्तसम्बन्धं विना विधिनैव गम्येत । तच्च न संभवति, पुष्पितत्वादिविशेषेषु व्यभिचारात् । दृष्टवद् गतिर्हि विधिः । तस्माद् विधिना न गतिः, अपि तु अर्थान्तरव्यतिरेकद्वारेण । मेदानभिधानादिति, तेषामन्योन्याभावेऽपि सत्त्वाद् व्यभिचारो भवति, न तु सामान्यस्याभिधेयत्वे, तस्याभिन्नत्वात् तदभावे च शब्दाभावात् ।"विशाला D. ed. पृ. २७५ A-२७७ A, P. ed. पृ० ३१० B-३१२ B॥ ३ प्रतिषिद्धोस्वार्थ प्र. ॥ ४ अन्योऽपोह यः॥ १ तत्तु शब्दस्या भा० । (तत्र शब्दस्या?)॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ . न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् । शब्दस्यान्वयव्यतिरेकावर्थाभिधाने द्वारम् । तौ च तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती । तत्र तुल्ये नावश्य सर्वत्र वृत्तिराख्येया । क्वचिदानन्त्येऽर्थस्याख्यानासम्भवात् । अतुल्ये तु सत्यप्यानन्त्ये शक्यमदर्शनमात्रेणावृत्तेराख्यानम् । अत एव च स्वसम्बन्धिभ्योऽन्यत्रादर्शनात् तन्यवच्छेदानुमानम् । एवं च 5 कृत्वा वृक्षशब्दाद्रव्यत्वाद्यनुमानमुपपन्नं भवति । अन्वयद्वारेण चानुमाने यस्मादनुगमोऽस्ति वृक्षशब्दस्य शिंशपादिषु तस्मात् केवलेनाप्यनुमानं प्राप्नोति । अथ बहुषु दृष्ट इति संशयो भवति एवं सति वृक्षार्थे पार्थिवत्व-द्रव्यत्व-सत्त्वेषु संशयः स्यात् । निश्चयस्तु दृष्टः । तथाहि-वृक्ष-पार्थिव-द्रव्य-सच्छब्दा अत्रोच्यते त्वया-अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् , 'अन्यापोहेनार्थाभिधानसिद्धिः' इति वाक्यशेषः । अनुमानानुमेयसम्बन्धो ह्यभिधानाभिधेयसम्बन्धः । तत्र यथा धूमस्य एक10 देशे दर्शनादग्नेः अनग्नौ चादर्शनादनग्निव्युदासेनाग्निप्रतीतिस्तथा शब्दस्यान्वयव्यतिरेकावर्था४२७-१ भिधाने द्वारम् । 'तौ च तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती । तत्र तुल्ये नावश्यं सर्वत्र वृत्तिराख्येया, क्वचिदानन्त्येऽर्थस्याख्यानासम्भवात् , न हि सम्भवोऽस्ति वृक्षशब्दस्य सर्ववृक्षेषु दर्शने, नापि सर्वत्र लिङ्गिनि सर्वलिङ्गस्य सम्भवोऽग्निधूमादिवत् । यद्यपि च क्वचिदस्ति डित्थादिषु सम्भवः, तथापि न तद्वारेणानुमानम् , सर्वात्मनाऽप्रतीतेः । गुणसमुदायो हि डित्थाख्योऽर्थः, न च सर्वे काण15 कुण्टादयो डित्थशब्दाद् गम्यन्ते । एवमन्वयद्वारेणानुमानाभावः। स्यादेतत्-व्यतिरेकस्याप्यसम्भवः । तत आह-अतुल्ये तु सत्यप्यानन्त्ये शक्यमदर्शनमात्रेणाऽदर्शनेऽप्रवृत्तेराख्यानम्, अदर्शनमात्रत्वात् , अदर्शनं हि दर्शनाभावमात्रम् । अत एव चेति, यस्माद्दर्शनस्य सर्वत्रासम्भवः सत्यपि च दर्शने सर्वथानुमानाभावः अत एव स्वसम्बन्धिभ्य इति यत्र दृष्टः सोऽत्र सम्बन्धी अभिप्रेतः न तु अविनाभावित्वसम्बन्धेन, अन्यत्रादर्शनादिति अभिधेयाभावेऽ20 दर्शनात् , अन्यथा हि वृक्षशब्दस्य तस्मिन् वस्तुनि पृथिवी-द्रव्याद्यभावेऽपि देर्शनं वक्तव्यं स्यात् , तद्वयवच्छेदानुमानमिति यत्रैवादर्शनमुक्तं वृक्षाभावेऽवृक्षे ततो व्यवच्छेदानुमानम् 'अँवृक्षो न भवति' इति । एवं च कृत्वा वृक्षशब्दाद्रव्यत्वाद्यनुमानमुपपन्नं भवति । अन्वयद्वारेण चानुमानेऽयं दोषः-यस्माद गमोऽस्ति वृक्षशब्दस्यार्थादिसहितस्य शिंशपादिषु तस्मात् केवलेनाप्यनुमानं प्राप्नोति । अथ बहुषु पलाशादिष्वपि दृष्ट इति संशयो भवति एवं "25 सति वृक्षार्थे पार्थिवत्व-द्रव्यार्थ-सत्तार्थाः सन्ति तेषु वृक्षशब्दस्य समानत्वात् संशयः स्यात्, निश्चयस्तु १ अत्रेदमवधेयम् । दिङ्गागरचितस्य कस्यचिदपोह विषयकग्रन्थस्यांशोऽत्र केनचिद् विरचितया तट्टीकया सह प्रायो यथाक्षरमेव नयचक्रवृत्तिकृद्भिः सिंहसूरिक्षमाश्रमणैरिहोपन्यस्तः, तत्र कियद् दिनागस्य कियच्च तट्टीकाकृत इति सम्यग् विवेक्तुं न पार्यते, मलवादिक्षमाश्रमणेनापि कियदत्र मूलरूपेणोपात्तमित्यपि न सम्यग् विज्ञायते । यावत्तु दिलागेनाभिहितमित्यस्माकं प्रतिभाति तावदस्माभिः स्थूलाक्षरैरत्र वृत्तौ दर्शितम् , यथा तु प्रमाणसमुच्चये वर्तते तथा पृ० ६५० टि. २ इत्यत्र प्रदर्शितमस्माभिः प्राक् । तच्च सर्वत्र यथायोगमनुसन्धेयमत्र पूर्वोत्तरपक्षयोः ॥ २ पृ०४३२-१, ४७२-१॥ ३ पृ. ४३२-१, ४३३-२ । तुलना पृ०४५९-२॥४पृ०४३२-१, तुलना-पृ० ४६१-२॥ ५पृ० ६६२ पं० ११ । पृ० ४५९-२॥ ६ पृ० ६६२ पं० १४ ॥ ७ पृ. ४३८-२॥ ८ तुलना-पृ. ४३६-२, ४३८-१, ४३९-२॥ ९ पृ० ४३३१॥ १० तुलना-पृ० ४५९-१॥ ११ तुलना-पृ० ४६०-१॥ १२°ऽदर्शनेऽवृत्तेराख्यानम् इति पाठः सम्यग् भाति ॥ १३ तुलना-पृ०४६६-२॥ १४ दृश्यतां पृ० ४६६-२॥ १५ अदर्शनम् इत्यपि पाठोऽत्र सम्भाव्यते ॥ १६ यथैवा प्र०॥ १७ तुलना-पृ०४६६-२॥ १८ पृ० ४६६-२॥ १९ ब्दादद्रव्य प्र० ॥ २०°नुगतोस्ति य० ॥ २१ शब्दार्थादिसहितस्य प्र० । दृश्यतां पृ० ४६८-१; ४६९-१॥ २२ पृ० ४६८-१,२ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः] द्वादशारं नयचक्रम् आनुलोम्येन त्रिद्वये कार्थनिश्चयहेतवः । एवमर्थान्तरव्युदासेनार्थान्तराभिधानमुपपन्नम् । न च सम्बन्धद्वारं मुक्त्वा शब्दस्य लिङ्गस्य वा स्वार्थख्यापनशक्तिरस्ति । आह च बहुधाप्यभिधेयस्य न शब्दात् सर्वथा गतिः। स्वसम्बन्धानुरूप्यात्तु व्यवच्छेदार्थकार्यसौ ॥ अनेकधर्मा शब्दोऽपि येनार्थ नातिवर्तते । प्रत्याययति तेनैव न तु शब्दगुणादिभिः ॥ पूर्वदोषाभावश्च, यस्मात् 'श्रुतेः सम्बन्धसौकर्यं न चास्ति व्यभिचारिता' भेदानभिधानात् [ ] इति। एतदयुक्तम् । यतस्तावन्वयव्यतिरेकावपीह न घटेते, अन्यापोहार्थनैर्मूल्यात् स्वार्थस्यांशेऽप्यदर्शनात् । 10 आस्तां ते शब्दसम्बन्ध आस्तां तेऽव्यभिचारिता ॥ दृष्टः शब्दात् । वृक्षशब्दोऽवृक्षनिवृत्त्यैकार्थकोऽपार्थिवव्यावृत्त्यापि स्वार्थे वर्तते, तथाहि-वृक्ष-पार्थिवद्रव्य-सच्छब्दा आनुलोम्येन त्रिद्वयेकार्थनिश्चयहेतवः। एवमर्थान्तरव्युदासेनार्थान्तराभिधानमुपपन्नम्। 'नं च सम्बन्धद्वारं मुक्त्वा शब्दस्य' इति यथा भेदाधनभिधानं पूर्वमुक्तं तद्दर्शयति । आँह चेत्येतमेवार्थ श्लोकद्वयेनापि दर्शयति । बहुधाप्यभिधेयस्येति, शिंशपादिभेदा अत्राभिप्रेता 15 न द्रव्यादयः, तथाहि-वृक्षवद्भेदेषु संशयो दृष्टोऽर्थतस्तु द्रव्यादिषु निश्चयः । स्वसम्बन्धानुरूप्यात्त्विति, यस्मादसौ तज्जातीये दृश्यमानोऽर्थान्तरनिवृत्तिद्वारेणैव दृष्टोऽभिधायकः प्रागेवान्यत्रादृश्यमानस्तस्मात् सम्बन्धानुरूप्यात् तद्विशिष्टमेवार्थमाह । अनेकधर्मा शब्दोऽपि सामान्यधर्मैः खगुणत्वादिभिर्वृक्षार्थ तस्मिन् वस्तुनि नाभिधत्ते, तथाहि-ते विनापि वृक्षार्थेन रसादिषु दृष्टाः, न तु वृक्षशब्दोऽन्यत्र दृष्टः, तस्माद् वृक्षशब्देनैव प्रत्यायन मुपपन्नमित्युक्ता स्वपक्षसिद्धावुपपत्तिः । पूर्वदोषाभावश्च, यस्माच्छ्रुतेः 20 सम्बन्धसौकर्यम् बहुत्वेऽपि तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती, सम्बन्धसौकर्याद् ने चापि व्यभिचारिता भेदानभिधानात् । एवं तावद् भेदाभिधाने ये दोषा उक्तास्ते परिहृता इति अन्यापोहवादिपक्षः । ___आचार्योऽस्यापि दूषणं वक्तुकामः प्राक् तावत् तत्र यदिदं श्रुतिसम्बन्धसौकर्यमुच्यत इति परिहारबीजमेव दूषयितुमाह-एतदयुक्तम् , यत इत्यादि यावद् न "घटेते इति । यस्मात् तावन्वयव्यतिरेकावपीह न घटेते, दूरत एव यावर्थाभिधानहेतू तुल्यातुल्यवृत्त्यवृत्तिभ्यां भवत इत्यभिमतौ । तस्मादयुक्तं 25 सम्बन्धसौकर्यमिति प्रतिज्ञानम् । तदुपपादनार्थमाह-अन्यापोहार्थनर्मूल्यादित्यादि श्लोकः । अपोहाभावात् सम्बन्धाभावः, स्वार्थगन्धस्याप्यदर्शनात् संशयबीजमपि नास्ति, कुतो व्यभिचाराशङ्केत्युपन्यासः । १ दृश्यतां पृ० ६३० पं० ११-१४ ॥ २ दृश्यतां पृ० ४३२-१॥ ३°वृत्त्यैवार्थको प्र० । तुलना पृ० ४६८२॥ ४ तथापि वृक्ष प्र० । 'तथा वृक्ष' इति पाठोऽप्यत्र समीचीनो भाति । तुलना-पृ० ४६८-२, ४६९-१॥ ५°च्छब्दानुलोम्येन प्र० ॥६पृ० ६६३ पं० ९ ॥ ७ दृश्यतां पृ० ६३० पं० १०-१५॥ ८ तुलना-पृ० ४४०२ ॥ ९ सामान्यधर्मैकगुणत्वादिभि प्र० । खम् आकाशम् , खगुणत्वादिभिराकाशगुणत्वादिभिरित्यर्थः ॥ १० क्षार्थी भा० । °क्षार्थी य०॥ ११ नमनुपपन्न य०॥ १२ दृश्यतां पृ० ४३१-२॥ १३ धाने पि दोषा प्र.॥ १४ घटते प्र०॥ १५ तावदन्वय य०॥ १६ घटते प्र.॥ १७°धानहेतु प्र. ॥ १८ स्वार्थग्रंथस्या प्र० । दृश्यतां पृ. ६५५ पं० ११॥ १९ व्यभिचारा२शंके भा० । 'व्यभिचाराव्यभिचाराशंका' इत्यपि भा. प्रतिपाठानुसारेण पाठः स्यात् ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे स किमन्योऽर्थः स एव भवति उतान्यो न भवति ? यदि तावत् स एव भवति ततस्तच्छब्दोत्पाद्यविज्ञानविषयेऽव्यावृत्त्याऽन्याख्येऽर्थे विधिनैव प्रतिपन्ने किमपोहेन क्रियते, अर्थप्रतीतेवृत्तत्वात् । तदा ह्यर्थापत्त्या तदन्ययोरुभयोरपि तत्त्वं खतः सिद्धम् । तस्मात् स्यादप्यनयोरन्यापोहप्रत्ययः, असत्योपाधिसत्य5 शब्दार्थत्वात्। ___ अथान्यो न भवति ततोऽपि प्रश्नाव्यवस्था । अन्यत्वस्य चोभयविषयत्वात् तदग्रहे कोऽसावन्यः ? कुतो वा अन्यो न भवतीत्युच्यते ? ___ ततो यदिदमुक्तं चोद्यपक्ष एव 'अर्थान्तरापोहेन स्वार्थाभिधाने' इति, अत्र अर्थान्तरं नाम अन्योऽर्थ इति यस्माद् भवति तस्मात् तत् तावद् विचार्यते—स किमन्योऽर्थः स एव भवति 10 विधिनान्याख्योऽर्थ उच्यते उतान्यो न भवतीत्यपोहेन ? इति द्वयी कल्पना स्यात् । तत्र यदि तावद् मतम्-अन्य इति स एवान्याख्यो भवतीति ततः 'सः' इति शब्देनोत्पाद्यते यद् विज्ञानं तस्य विज्ञानस्य स्वार्थोऽभिधेय एवान्याख्योऽर्थः विषयः संवृत्तः स एव । ततश्च तस्मिन्नव्यावृत्त्याऽन्याख्येऽर्थे विधिनैव प्रतिपन्ने किमपोहेन क्रियते ? नार्थोऽपोहेनेत्यर्थः । कस्मात् ? अर्थप्रतीतेवृत्तत्वात् , अर्थप्रतीत्यर्थो हि शब्दप्रयोगः, अन्यापोहकल्पना च तदभिधानस्वरूपपरिज्ञानार्था तदर्थप्रतीतौ व्यर्था सा।। 15 अथापि स्यादन्यापोहेन प्रयोजनमित्थं स्याद् नान्यथा । तद्यथा-तदा तस्मिन् विधिनान्यविज्ञान काले यद्यन्यो भवति ततः स न भवति, अथ स भवति अन्यो न भवतीति अर्थादापन्नं तदन्ययोरुभयोरपि तत्त्वम् । तच्च स्वत एव सिद्धम् । तस्मात् स्यादप्यनयोस्तदन्ययोरन्यापोहप्रत्ययः । स चोपसर्जनो विधिर्न भवितुमर्हति, कस्मात् ? असत्योपाधिसत्यशब्दार्थत्वात् । इत्थमन्यप्रतिपत्तिर्विधिरेव, न व्यावृत्तिः । अंथ अन्यो न भवति, अथ मा भूदेष दोष इत्यन्यो न भवतीति तस्याप्यन्याख्यस्यार्थस्य 20 अन्यव्यावृत्तिरेव 'अन्यो न भवति' इति स्यात् स्वरूपम् । ततः किम् ? ततोऽपि प्रश्नाव्यवस्था, सोऽपि योऽन्यो न भवतीत्युच्यमानोऽर्थः किं स एव भवति, उत अन्यो न भवति ? इति पृच्छ्यसे त्वम् । तत्र यदि स एव भवतीति ब्रूयास्त्वं पूर्ववद् विधिरर्थः। अथान्यो न भवति सोऽपि अन्यस्तथा प्रष्टव्यो योऽन्यो न भवतीत्युच्यते ततोऽप्यन्यः प्रष्टव्य इति प्रश्नानवस्था । कस्मात् ? सर्वत्रास्याक्षेपस्य तुल्यत्वा दुक्तवत् । किश्चान्यत् , अन्यत्वस्य चोभयविषयत्वात् , अन्य इति स उच्यतेऽन्यापेक्षया सोऽपि 25 एतदपेक्षया 'अयमस्मादन्योऽयमस्मादन्यः' इति तयोर्द्वयोरपि स्वरूपतः सिद्धौ द्विष्ठं सदन्यत्वं सिध्यति । ततस्तस्य अन्यत्वस्य उभयविषयत्वात् तदग्रहे कोऽसावन्यः ? तयोरन्याख्ययोविधिरूपेणाग्रहणे कोऽसावन्यो नाम यदपोहादन्यापोहः स्यात् ? कुतो वा 'अन्यो न भवति' इति उच्यते यतोऽस्यान्यस्यान्यत्वं सिध्येत् ? 'यतोऽन्यो योऽन्यः' इत्येतहिष्ठत्वादन्यत्वस्य निर्धार्यमेतदन्यत्वम् , नान्यथा निर्धारयितुं शक्यमित्यभिप्रायः। .१ पृ० ६५० पं० ३॥ २ तुलना-पृ० ६५८॥ ३त्पद्यते य० । त्पद्यते भा० । तुलना पृ० ६५८ ॥ ४ स्वार्थोभिधेय भा० । (खार्थो विधेय? ) ॥ ५ तुलना-पृ० ६५८ ॥ ६ तुलना पृ० ६५९ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् एवं तु न स कश्चिदर्थो भविता । उभयतोऽप्यभावप्रसङ्गात् स्वार्थस्यांशोऽपि न दृश्यत एव । 'अन्यो न भवति' इत्युच्यमाने उभयतोऽप्यभावादन्यव्यावृत्तेरभवनपरमार्थत्वादभूतखान्यत्वाद् वन्ध्यापुत्रवदविषय एव । स च निबन्धनमन्यापोहस्य स्यात् ।। ____ अथोच्येत-अन्योऽप्यनन्यो न भवति । यद्यन्य इत्यनन्यो न भवति । ततोऽन्यस्यैवानुवदनात् कोऽसावन्योऽनन्यो नाम अन्यान्यत्वतदनन्यत्वातुल्यः शब्दार्थः ? अन्यशब्दार्थस्य च अनन्यशब्दार्थाद् भिन्नत्वेऽन्य इत्यनन्यो न भवतीत्यपोहार्थः स्यात् , अतुल्येऽन्यस्मिन्नवृत्तेः। ऐवं त्वित्यादि । इत्थमुक्तन्यायेन न स कश्चिदर्थो भविता न कदाचित् तादृग्विधो भवति, अन्योऽप्यन्यो न भवति सोऽपि स [न] भवतीति उभयतोऽप्यभावप्रसङ्गात् स्वार्थस्यांशोऽपि 10 गन्धोऽपि न दृश्यत एवेति । अस्यार्थस्य भावना—'अन्यो न भवति' इत्युच्यमाने किं सम्प्रवृत्तम् ? उभयतोऽपि न भवति, न भवति' इत्यन्यस्य व्यावृत्तिरेव, न कश्चिद् विधिगन्धोऽपीत्यतोऽन्यव्यावृत्तेः हेतोः अभवनमेव परमार्थः, तत्परमार्थत्वादात्मान्यत्वाभावः । ततश्च अभूतस्वान्यत्वाद् वन्ध्यापुत्रवदविषय एव, न हि वन्ध्यापुत्रादिरभावः शब्दार्थो भवितुमर्हति । स च अभावस्तेऽन्यापोहस्य निबन्धन प्राप्तः । 15 ततश्चाप्रतिपत्तिरेव स्याच्छब्दार्थस्य, अत्यन्ताभावनिबन्धनत्वात् , वन्ध्यापुत्राप्रतिपत्तिवत् । एवं तावद् 'यदि स एव भवति, अन्यो न भवति' इति च विकल्पयोर्विधिवादप्रसङ्गोऽन्यापोहनैर्मूल्यं चोक्तौ दोषौ । ____ अथ तद्दोषद्वयपरिहारार्थम् अथोच्येत-अन्योऽप्यनन्यो न भवति, अन्य इति न स एव भवति नाप्यन्यो न भवति, किं तर्हि ? ततोऽन्यस्मादन्योऽनन्यो न भवति, अन्यापोहशब्दार्थव्यापित्वाद् व्यावृत्त्यैव गमयति, अतो न विधिप्रसङ्गो नाभावमात्रता वेति । अत्रोच्यते-यद्यन्य इति अनन्यो 20 न भवति ततोऽन्यस्यैव अनुवदनादित्यादि यावदतुल्येऽन्यस्मिन्नवृत्तेरित्युत्तरपक्षः । किमुक्तं भवति ? योऽयमन्यः सोऽन्य एव सन् 'अन्यः' उच्यते, स एवानन्य एव, स्वयमेव भवति परमनपेक्ष्येत्यर्थः । ततः किम् ? ततो योऽसावनन्यो नाम सोऽन्य ऐव, स एवान्याख्यः अन्यः सन् 'अनन्यः' इत्युक्तं भवति । तस्मात् तस्यैव अन्यत्वस्य अनन्यशब्देनापि अनुवदनात् कोऽसावन्यः पृथक् ततोऽन्यस्मादनन्यो नाम? नास्तीत्यर्थः । यदि स्यात् परापेक्षः स्यादिति निरूपयति-अन्यान्यत्व-तदनन्यत्वातुल्यः शब्दार्थ इति, अन्यस्मादन्यः अन्यान्यः, तद्भावोऽन्यान्यत्वम् , तस्माद् भिन्नेन अनन्यत्वेनातुल्योऽन्योन्यत्वात कोऽसौ अन्यान्यत्व-तदनन्यत्वातुल्यः शब्दार्थः ? यथा वैधhण 'घटः' इत्युक्ते घटान्यान्य-तदनन्यातुल्यो १ तुलना ६५९ पृ०॥ २ तुलना पृ० ६५८ ॥ ३ सोऽपि न भवतीति इत्यपि पाठोऽत्र सङ्गच्छते । ४ तुलना-पृ०४३६-२, ४३६-२,४३७-१,४५६-२॥ ५ तुलना पृ० ६५८॥ ६ हारार्थः अथोच्येत प्र.॥ ७ तुलना पृ० ६५९ ॥ ८ तावमात्रा वेति य० ॥ ९ तुलना-पृ० ६५९॥ १० (°न्यत्वस्यैवानु°१) ॥ ११ एव स भा० प्रतौ नास्ति ॥ १२°त्वात्तुल्यः प्र० ॥ १३ °न्योन्यत्वात् प्र०। (न्योऽन्यत्वात् ?) ॥ १४'त्वात्तुल्यः प्र.॥ १५ घटोनान्य प्र०॥. १४२९-२ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे योऽसौ तदतत्त्वातुल्यः स आत्मान्यत्वान्यः सन् 'अन्यः' इत्युच्यते । अतुल्यं हि घटस्यान्यत्वं पटादस्मादन्यस्मात् । न हि घटस्य पटादितरान्यत्ववदन्यत्वम्, पटस्य वा घटादन्यत्वं घटान्यत्ववत् । यथोक्तद्विष्ठत्वतुल्यतायामपि तत एवात्मानन्यत्वं तत्त्वम् । न हि घटस्य तस्मादेव घटात् पटानन्यत्ववदनन्यत्वम् । 5 नन्वेवं सोऽपि अन्यस्मादन्य एव भवन्नन्यः सननन्यो भवति । तदनन्यत्वं तत्त्वमपोहमानोऽन्यापोहस्तदपोह एव भवतीति खवचनाद्यशेषपक्षविरोधापत्तिः। दृश्यते पटादिरपोह्यो घटशब्देन न तथेह कश्चिदनन्यशब्देन भिन्नोऽनन्योऽस्ति यतोऽस्यान्यस्यान्यान्यस्माद् भिन्नस्य पटवदवृत्तिः स्यात्, अन्योन्यापेक्षत्वादन्यत्वस्य, स च नास्तीत्थम् । किश्चान्यत् अन्यशब्दार्थस्य चेत्यादि अन्यापोहे न्यायं दर्शयति । यदा चान्यशब्दार्थादनन्यशब्दार्थो भिन्नो 10 भवति तस्माच्चान्यशब्दार्थस्तदा 'अन्यः' इत्युक्ते 'अनन्यो न भवति' इत्यपोहार्थो 'विधेर्भिन्नः स्यात् । किं कारणम् ? अतुल्येऽन्यस्मिन्नवृत्तेर्घटपटवत् । न तु अस्ति, अन्यस्यैवान्यस्यानन्यत्वात् । तस्मात् वार्थापोह एव स्यात् । .. इतर आह—स्यादेतदेवं यद्यन्य एवान्यत्वे स्थितोऽन्य उच्येत परापेक्षान्यत्वात् अनन्यः स एवान्य इति । किं तर्हि ? स्वापेक्षान्यत्व एव 'अन्यः' इत्युच्यते । तद्भावयितुकाम आह-योऽसावित्यादि यावद् 15 घंटात् पटानन्यत्ववदनन्यत्वमिति । योऽसौ तस्य अन्यस्य अतद्भावेन अतत्त्वेनातुल्य आत्मीयेन स स्वतोऽन्यस्मादेवान्यस्मादात्मान्यत्वान्यः आत्मान्यत्वान्यः सन् 'अन्यः' इत्युच्यते । निदर्शनम्-अतुल्यं हि घटस्यान्यत्वं पटौंदस्मादन्यस्मात् , न हि घटस्येत्यादिना घटान्यत्वस्य पैटान्यत्वेनासङ्करं दर्शयति यौवदितरान्यत्ववदन्यत्वम् , पटस्य वेत्यादिना पटान्यत्वस्य *घटान्यत्वासङ्करं यावद् घटान्यत्ववदिति भावितार्थम् । एष दृष्टान्तः । 20 अयमर्थोपनयः--यथोक्तद्विष्ठत्वतुल्यतायामपीत्यादि । त्वदुक्ता तद्विष्ठत्वादन्यता परस्परापेक्षता,* तस्यां तुल्यायामपीतरेतरापेक्षान्यतायां तत एव स्वत एवात्मनोऽनन्यत्वं तत्त्वम् , स ४३०-१ एव घटोऽनन्यः। शेषः पूर्वेण तुल्योऽन्यत्वभावनाग्रन्थेनासङ्करप्रदर्शनग्रन्थः । तस्मादन्यत्वमपि स्वत एव अनन्यत्वमपि तथेति व्यवस्थिते भवत्यन्यापोह इति । __ अत्रोच्यन्ते तव दोषाः--नन्वेवमित्यादि यावत् स्ववचनाद्यशेषपक्षविरोधापत्तिरिति । 'ननु 25 इत्यत्रानुज्ञापयति परम् । नन्वित्थं सोऽपि योऽन्यः अन्यस्मादन्यस्वरूपात् स्वत एव सिद्धान्यत्वादन्याख्यादादन्य एव भवन्नन्यः सन्ननन्यो भवति स एव भवति । तस्य अन्यस्य स्वात्मनि व्यवस्थितस्य तदनन्यत्वं १°शब्देनाभिन्नो प्र०॥ २ न्यस्यानान्यस्माद भा० । न्यस्यानन्यस्माद इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ३भिन्नपटवभा०॥ ४ नायं प्र० । तुलना-पृ. ६५७ पं० १४ ॥ ५ विधिभिन्नः प्र०॥ ६ दृश्यतां पृ० ६५९ ॥ ७ घटात्पटात्पटानन्यत्ववद भा०॥ ८ स्मादेवादन्यस्मादात्मा य० । (स्मादेवान्यत्वादात्मा° ?) ॥ ९त्माऽन्यत्वान्यः प्र०॥ १० पटाद्यस्माद भा० ॥ ११ पटानत्वेना भा० । पटाननत्वेना य० ॥ १२ ययदितरा भा० । यायदितरा य० । पटादितरा इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ १३ * * * एतचिह्नान्तर्गतः 'टान्यत्वा इत्यादिः क्षता इत्यन्तः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ १४ एवात्मानों प्र०॥ १५ दृश्यतां पृ० ६५९ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । अन्यापोह इति चानन्यापोहो न भवतीत्यपि न परिहार एव, अन्यापोह इत्यनन्याभावापोहो न भवतीति यतोऽर्थान्तरापोहेन स्वार्थापोहे वृत्त्यार्थेऽन्यविशिष्टोऽपोहः । यथा अपोह इत्यनपोहो न भवति तथान्यविशेषणापोह तत्त्वमात्मत्वमपोहमानोऽन्यापोहस्तदपोह एव भवति स्वापोह एव नान्यापोहस्त्वदिष्टः परापोह इत्यर्थः । इतीत्थं स्ववचनविरोधः 'अन्यापोहः' इति वचनात् । तथाभ्युपगमादभ्युपगमविरोधः । लोकविरोधश्चेत्थं । लोके दृष्टत्वात् स्वार्थप्रतीतेः । तथा प्रत्यक्षदर्शनात् प्रत्यक्षविरोधः । अनुमानविरोधश्चैवमनुमानात् । इत्यशेषाः पक्षदोषा आपन्नाः । विधिवादापत्तिश्चैवमिति । एवं तावद् वस्तुनो लक्षणानुसारेण दूषणमुक्तम् । स्यान्मतम्-अन्यापोहशब्दार्थानुसारच्छायामात्रेण परिहरामीति । तद्यथा- अन्यापोह इति च अनन्यापोहो न भवतीति, अन्यविशेषणविशिष्टापोहस्य अनन्यविशेषणविशिष्टापोहः प्रतिपक्षः, स न भवतीत्यर्थः । स चान्योऽन्यस्मात् । अतोऽन्यापोह एवात्रापीति । 10 अत्रोच्यते-इत्यपि न परिहार एव । कस्मात् ? अन्यापोह इति अनन्याभावापोहो न भवतीति यतः अर्थान्तरापोहेन स्वार्थापोहे वृत्त्यार्थेऽन्यविशिष्टोऽपोह इति । किमुक्तं भवति ? अनन्यस्याभावोऽन्यः अन्यस्य वाऽभावोऽनन्यः प्रतिपक्षः । तद्वदपोहस्यानपोहः प्रतिपक्षः अनपोहस्यापोह इति भवति । तं दृष्टान्तत्वेन न्यायं दर्शयति-यथा अपोह इत्यनपोहो न भवतीति, तथान्यविशेषणा-४३०.२ पोहप्रदर्शनार्थमित्यादि दार्टान्तिकम् । किमुक्तं भवति ? यथा 'अपोहः' इत्युक्ते 'अनपोहो न भवति' इति 15 पदार्थे द्वि:प्रेतिषेधप्रकृत्यापादनादपोह एवार्थो भवति तथा अन्यविशेषणविशिष्टस्यापोहस्य प्रदर्शनार्थम् 'अन्यापोहः' इत्युक्तेऽन्यस्याभावोऽनन्यः, सोऽर्थोऽस्येति अँन्याभावार्थोऽन्यशब्दः, तद्भावोऽन्याभावार्थान्यशब्दता, सत्यां च तस्यामन्याभावार्थान्यशब्दतायाम् 'अन्यापोहः' इत्यनन्याभावस्यानन्यापोहस्य तद्व्यावृत्तेः 'अंपोहो न भवति' इत्येषोऽर्थः संवृत्तः । तस्य चेदनन्याभावस्यानन्यस्यापोहो न भवति न तर्हि अनन्यानपोहो न भवति तत्प्रतिपक्षत्वादन्यानपोहस्येति यथा विशेष्यविपक्षव्यावृत्तिस्तथेह एतस्मिन् 20 'अन्यो न भवति' इत्यन्यशब्दार्थे त्वदीये 'अन्यापोहः' इत्य[न]न्याभावस्यापोहो न भवति, वस्यानन्यस्याभावोऽन्योऽनन्याभावः, तस्यापोहो न भवतीत्यन्यापोह एव न भवति, अनन्यापोहः स्वापोह एवेत्यनन्याभावार्थः । स चानिष्टस्ते शब्दानुसारेणापि दोषः प्राप्तः । स्यान्मतम्-'अन्यस्यैवापोहो नानन्यस्य' इत्यवधारणाददोष इति । तच्च न, यस्मात् तत्रापि कोऽन्यः ? 'कोऽनन्यः ? कोऽपोहः ? कोऽनपोहः ? इति विचारणायामनन्याभाव एव उक्तवदनवधारणात् 'अन्यस्यैव नानन्यस्य' इति विधिवादापत्तः 'अनन्यस्यापोह 25 एव नानपोहः' इति स्वस्यापोहानपोहाभ्याम[वधारणा]नवधारणाभ्यां विधिप्रतिषेधादन्यानन्यविचारे च १ दृश्यतां पृ० ६६० पं० १३ ॥२ चानन्यो भा०॥ ३ पृ. ६६० पं० १३ पं० ६५८ पं० १०॥ ४ स्वार्थपोहे य० ॥ ५ प्रतिषेध कृत्या भा० । प्रतिषेधः प्रकृत्या य० । (प्रतिषेधे प्रकृत्या?)॥ ६अन्यान्याभावा भा० ॥ ७ अपोहो भवती य० ॥ ८ अनस्यानपोहो प्र० । 'अन्यस्यानपोहो' इत्यपि पाठोऽत्र विचारणीयः ॥ ९ वृत्त य० ॥ १० अनन्यो भवति य० ॥ ११ कोन्यः य० ॥ १२ °नपोह्यस्याम भा० ॥ नय०८३ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे प्रदर्शनार्थमन्यापोह इत्युक्तेऽन्या भावार्थान्यशब्दतायाम् 'अन्यापोह:' इत्यनन्याभावस्यापोहो न भवति । अनन्यापोहः खापोह एव । ६५८ एवं प्रक्रमेऽपि च न स कश्चिदर्थो भवितेति स्वार्थस्यांशोऽपि न दृश्यत एव । 'अनन्यो न भवति' इत्युच्यमाने उभयतोऽप्यभावादनन्यव्यावृत्तेर भवनपरमार्थछत्वादभूतस्वानन्यत्वाद् वन्ध्यापुत्रवदविषय एव । स च निबन्धनमन्यापोहस्य स्यात् । येषामपि चार्थान्तराणामपोहेन स्वार्थाभिधानं तत्र यत् तदर्थान्तरं तत् किं भवदेवापत उताभवत् ? यदि तावद् भवदर्थान्तरं भवति ततस्तच्छन्दोत्पाद्यविज्ञानविषयेऽव्यावृत्त्या सिद्धे विधिवृत्तैकगतिगुरुतरप्रतिपत्त्यात्मके बहुतरविषये विधिवादे प्रतिपन्ने किमपोहेन पुनः क्रियते, अर्थप्रतीतेर्वृत्तत्वात् । तदा त्वर्थापत्त्या 10 विधिप्रसङ्गात् सर्वथान्यापोहे नैर्मूल्यमित्ययमपि न निःसरणोपायः । स्थितमेतत्- 'अनन्याभावस्य अपोहो ४३१-१ न भवतीति यतोऽर्थान्तरापोहेन स्वार्थाभिधाने न स्यात् । "एवं प्रक्रमेऽपि चेत्यादि । एवमापादितशब्दार्थन्यायेऽपि च न स कश्चिदित्यादिनापोहनैर्मूल्यमापादयन्नुपसंहरति पूर्वान्यविकल्पदूषावद् विपर्ययेणानन्यविकल्पदूषणं यावदभूतस्वानन्यत्वाद् वन्ध्यापुत्रवदविषय एव, स च निबन्धनमन्यापोहस्य स्यादिति गतार्थम् । 15 येषामपि चार्थान्तराणामित्यादि । यदप्युक्तम् 'अर्थान्तरापोहेन स्वार्थामिधाने' इति, अर्थान्तराणि अर्थेभ्योऽन्यानि तेषामर्थान्तराणां मध्ये यत् तदर्थान्तरं सोऽर्थादन्योऽर्थः तत् किम् ? इति पूर्ववद् विकल्पद्वयम् । भवदेवार्थान्तरमपोह्यत उताभवत् ? इति प्रश्नः । यदि तावदित्यादि प्रथमविकल्पे दूषणम्, स एव भवन्नर्थोऽर्थान्तरत्वे स्थितः स भवतीति चेदिष्टस्तच्छन्दोत्पाद्य विज्ञानविषयः, तस्य विषयस्य सिद्धत्वात्, तस्मिन्नव्यावृत्त्या सिद्धे सा च प्रतिपत्तिरस्मदिष्टाया विधिर्वृत्तैकगतेर्लघीयस्या 20 एकार्थविषयाया गरीयसी तेषामर्थानां भूयसां प्रतिपत्तिः, स च विधिवाद एव भूयोर्थविषयो गरीयःप्रतिपत्त्यात्मकश्च तस्मिंश्च विधिवृत्तैकगतिगुरुतरप्रतिपत्त्यात्मके बहुतरविषये विधिवादे प्रतिपन्ने किमपोहेन पुनः क्रियते, सर्वार्थविषयस्य 'स एव' इति विधिप्रतिपत्तेः प्रागेव वृत्तत्वात् । त्वमेव बहुतरार्थ विषय शब्द विधिवादी संवृत्तोऽनन्तार्थशब्दवादी चेत्यतः किमपोहकल्पनया क्रियते ? तँदा ह्यर्थापत्त्येत्यादि । स्वार्थश्च विवक्षितोऽर्थः ये चान्येऽर्था अर्थान्तराणि, तदेतदुभयं स्वत एव सिद्धात्मस्वभावं 25 विधिनैव । यत् पुनरत्र 'सन् घटः' इत्युक्ते 'सत्' इत्यनुगमसामान्यज्ञानम् ' असन्नघटश्च न भवति' इति व्यावृत्तिसामान्यज्ञानं च तदुभयमर्थापत्त्या यदि भवति भवतु गुडमाधुर्यवदुपसर्जनीकृतात्मस्वरूपम्, को ४३१-२ १ पृ० ६५७ पं० २ ॥ २ भवतीति भवति भा० ॥ ३ धाने त स्यात् प्र० । न स्यात् पूर्वदोषप्रसङ्ग इत्याशयो भाति । 'स्वार्थाभिधानं ते स्यात्' इत्यपि पाठोऽत्र विचारणीयः ॥ ४ पृ० ६५५,६५९,६६० ॥ ५ पृ० ६५४ पं० १॥ ६ पृ० ६५० पं० ३ ॥ ७ त्रताभ प्र० ॥ ८ पृ० ६५४ पं० २ ॥ ९ वृत्त्यैक'० ( वृत्त्येक ? ) ॥ १० 'भूतोर्थ प्र० ॥ वृत्यैक'० ॥ १२ सर्वार्थविषयस्य विधिवादस्य इत्यर्थो भवेत् । (सर्वार्थविषयस्य स एवेति विधेः प्रतिपत्तेः ? ) ॥ १३ पृ० ६५४ पं० ३ ॥ ११ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५९ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । खार्थान्तराणां तत्त्वं स्वतः सिद्धमित्यनुगमसामान्यज्ञानं व्यावृत्तिसामान्यज्ञानं च यदि भवति भवतु, असत्योपाधिसत्यशब्दार्थत्वात् । ___ अथार्थान्तरं न भवति ततोऽनवस्था प्रश्नस्य । अर्थान्तरस्य चोभयविषयत्वात् [तदग्रहे किमिदमर्थान्तरम् ? कुतो वार्थान्तरं न भवतीत्युच्यते ? एवं तु न स कश्चिदर्थो भविता । उभयतोऽप्यभावप्रसङ्गात् खार्थस्यांशोऽपि । न दृश्यत एव । अर्थान्तरं न भवतीत्युच्यमाने उभयतोऽप्यभावादर्थान्तरव्यावृत्तरभवनपरमार्थत्वादभूतखार्थान्तरत्वाद् वन्ध्यापुत्रवदविषय एव । तच्च निबन्धनमन्यापोहस्य स्थात्। - अथोच्येत-अर्थान्तरमप्यनर्थान्तरं न भवति । यद्यनर्थान्तरं [न भवति ततोऽर्थान्तरत्वस्यैवानुवदनात् कोऽसावर्थान्तरार्थान्तरत्वतदनर्थान्तरत्वातुल्यः 10 शब्दार्थः ? अर्थान्तरशब्दार्थस्य चानान्तरशब्दार्थाद् भिन्नत्वेर्थान्तरमित्यनर्थान्तरं न भवतीत्यपोहार्थः स्यात् ] अतुल्येऽन्यस्मिन्नवृत्तेः। __ योऽसौ तदतत्त्वातुल्यः [ स आत्मान्यत्वान्यः सन् 'अर्थान्तरम्' इत्युच्यते । अतुल्यं हि घटस्यार्थान्तरत्वं पटादस्मादर्थान्तरात् । न हि घटस्य पटादितरार्थान्तरत्ववदर्थान्तरत्वम् , पटस्य वा घटादर्थान्तरत्वं घटार्थान्तरत्ववत् । यथोक्तद्विष्ठत्व-18 तुल्यतायामपि तत एव आत्मानन्तरत्वं तत्त्वम् । न हि पटस्य ] तस्मादेव पटाद् घटानान्तर[त्व]वदनान्तरत्वम् । नन्वेवं तदप्यर्थान्तरादर्थान्तरम् [एव भवदर्थान्तरं सदनर्थान्तरं भवति । 20 वारयति ? असत्योपाधिसत्यशब्दार्थत्वात् पूर्ववत् । एवं तावद् भवदर्थान्तरं चेद् भवति तत उक्तो दोषः। अथार्थान्तरं न भवतीति मन्यसे ततोऽनवस्था प्रश्नस्य पूर्वव्याख्यातान्यशब्दार्थप्रश्नानवस्थानवत् । अर्थान्तरस्य चोभयविषयत्वादित्यादि शेषम् 'अन्यत्वस्य चोभयविषयत्वात्' इत्यादिना तुल्यं यावत् तच्च निबन्धनमन्यापोहस्य स्यादिति । अंथोच्येतेत्यादि यावद् न भवतीति पूर्ववदेव पूर्वपक्षः । उत्तरपक्षोऽपि यद्यनर्थान्तरमित्यादि तथैव यावदतुल्येऽन्यस्मिन्नवृत्तेरिति । 25 योऽसौ तदतत्त्वातुल्य इत्यादि पूर्ववदेव पूर्वपक्षः यावत् तस्मादेव पटाद् घटानान्तरवदनर्थान्तरत्वमिति । तत्रोत्तरपक्षो नन्वेवं तदप्यर्थान्तरादर्थान्तरमित्यादि यावदशेषपक्षविरोधापत्ति १ पृ० ६५४ ५० ६ ॥ २ तावद्यञ्च य० ॥ ३ अथोच्यतेत्यादि भा० । अथोच्येतेत्यादि य० प्रतौ नास्ति । दृश्यतां पृ० ६५५ पं० ५॥ ४ तुल्येतस्मिन्नवृत्ते भा० ॥ ५ पृ० ६५६ पं० १॥ ६ तदप्यर्थान्तरमित्यादि य० । तुलना-पृ. ६५६ पं०५॥ ७ पत्तिरितीयदक्षर य० ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० न्यायागमानुसारिणीवृत्यलतं [ अष्टम उभयनियमारे तदनन्तरत्वं तत्त्वमपोहमानोर्थान्तरापोहस्तदपोह एव भवतीति ] खवचनाद्यशेषपक्षविरोधापत्तिः । अपरिहारस्तु तुल्याक्षर एव । __ एवं तु प्रक्रमे न स कश्चिदर्थो भविता उभयतोऽप्यभावप्रसङ्गादर्थान्तरस्वार्थस्यांशोऽपि दृश्यते न स कश्चित् । कुतः स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनमिष्टं त्वया ? 5 उभयतोऽप्यभावादन्यव्यावृत्तेरभवनपरमार्थत्वादभूतखान्यत्वाद् वन्ध्यापुत्रवदविषय एव । स च निबन्धनमन्यापोहस्य स्यात् ।। तदभावेऽन्यशब्दार्थार्थान्तरशब्दार्थापोहशब्दार्थस्वार्थशब्दार्थनैर्मूल्यादन्वयव्यतिरेकनैर्मूल्यम् , तन्नैर्मूल्यादन्यापोहार्थनैर्मूल्यम् । ततः स्वार्थस्यांशेऽप्यदर्शनात् क सोऽन्वयः ? के चान्येऽनन्तास्तद्भेदाः ? एकस्मिन्नपि हि श्रुतिसम्बन्धाभाव एव 10 स्वार्थाभावस्योक्तत्वात् । क्लेशेनापि महता न शक्यः सम्बन्ध इत्थमापादयितुम् । अतोऽलं सम्बन्धसौकर्येण वाङ्मात्रसारेण ।। रितीषदक्षरविपर्यासेन गतार्थः । अपरिहारस्तु तुल्याक्षर एवेति । अत्र 'अर्थान्तरापोह इत्यनर्थान्तरापोहो न भवति' इति पूर्ववत् परेण परिहारेऽभिहिते 'इत्यपि न परिहार एव अन्यापोह इत्यनन्याभावा पोहो न भवतीति यतः' इत्यादिः स एव ग्रन्थोऽत्रापि तुल्यार्थ इति न 'विशेष्य लिख्यते तथा तु द्रष्टव्य 15 इत्यतिदिश्यते। __ ऐवं तु प्रक्रमे न स इत्यादिः स एव ग्रन्थस्तुल्यार्थी यावदन्यापोहस्य स्यादिति । विशेषस्तु अर्थान्तरस्वार्थस्यांशोऽपि श्यते न स कश्चित् , कुतः स्वार्थस्यांऽशेऽपि दर्शनमिष्टं त्वयेति । __तदित्थं प्रतिपादितमन्यापोहार्थनैर्मूल्यमुपसंह्रियते तदभावेऽन्यशब्दार्थेत्यादिना । नान्यशब्दार्थः, ४३२-१ नार्थान्तरशब्दार्थः, नापोहशब्दार्थः, न स्वार्थशब्दार्थः इति प्रसङ्गानुप्रसङ्गागतानामेषां शब्दार्थानां 20 नैर्मूल्यम् , तन्निर्मूलत्वादन्वयव्यतिरेकयो मूल्यम् , तन्नैर्मूल्यादन्यापोहार्थनैर्मूल्यम् । यदलात् त्वयोच्यते अन्वयव्यतिरेकौ हि शब्दार्थस्याभिधाने द्वारम् , तौ च तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती इति, तयोरभावादपोहार्थनैर्मूल्यं स्वार्थस्य च त्वदिष्टस्योक्तत्वात् । ततः स्वार्थत्यांशेऽप्यदर्शनात् के सोऽन्वयः? के चान्येऽनन्तास्तद्भेदाः ? तदभावात् किमानन्त्येन कल्पितेन यस्मादेकस्मिन्नपि श्रुतिसम्बन्धाभाव एव, स्वार्थाभावस्योक्तत्वात् । ततश्च यत् त्वया 25 कल्प्यते-स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनाच्छ्रुतेः सम्बन्धसौकर्यम् [प्र. समु० ], क्लेशेनापि महता न शक्यः सम्बन्ध इत्थमापादयितुम् , अतोऽलं सम्बन्धसौकर्येण वाङ्मात्रसारेण महतापि क्लेशेन दुरुपपादेन, त्यज्यता १°यासेनेन भा० ॥ २ °स्तुस्तुल्याक्षर भा० ॥ ३ पृ० ६५७ पं० १॥ ४ विशिष्य य० ॥ ५ एवं उ प्रक्रमे य० । तुलना-पृ० ६५५ पं० १, पृ० ६५८ पं. ३ ॥ ६ ॐ a एतचिह्नान्तर्गतो दृश्यते इत्यत आरभ्य स्वार्थस्यांशेऽपि इत्यन्तः पाठो य० प्रतौ नास्ति ॥ ७नर्थातरणशब्दार्थो भा०॥ ८शब्दस्यार्थाभिधाने इति सम्यग् भाति । दृश्यतां पृ० ६५२ पं० २॥९क्कासन्वयः भा० । 'क्वासावन्वयः' इत्यपि पाठश्चिन्त्यः, तुलनापृ० ६६४ पं० १४ ॥ १० तद्भावात् भा० ॥ ११ दृश्यतां पृ० ६५० टि० १, पृ० ६५२ पं० १, पृ० ६५३ पं० ७ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीता पोहवादनिरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् । ६६१ आस्तां तेsभिचारिता । यत्तूक्तं त्वया - व्यभिचारतः [ प्र० समु० ५२ ] इति । तत्र विधिवादे तदतदात्मक संशयज्ञानस्य प्राप्तत्वात् किमिव न प्राप्तम् ? अत्र तूक्तन्यायेन संशयादि अनास्पदम् । तदतद्भावात्मक भावाभावात्मकशब्दार्थत्वादस्वार्थत्वादन्वयव्यतिरेकविषयत्वासत्वात् । अथवा अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽप्यदर्शनात् । श्रुतेः सम्बन्धदौष्कर्यं न नास्ति व्यभिचारिता ॥ तस्य व्याख्या त्वन्मतवदेव । यथोक्तम्-वृक्षशब्दस्यावृक्ष [शब्दस्य वा स्वाभिधेयेषु मित्यर्थः । एवम् - 'अन्यापोहार्थनैर्मूल्यात् स्वार्थस्यांशेऽप्यदर्शनात् । आस्तां ते शब्दसम्बन्धः' इत्यनेन पादत्रयेण श्लोकस्य ‘अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् । श्रुतेः सम्बन्धसौकर्यम्' इत्येतत् 10 पादत्रयं दूषितम् । चतुर्थपादेन यत् त्वयोक्तं न चास्ति व्यभिचारिता इति सा तावदास्तां स्वपक्षगतापोहवादिनस्तवाव्यभिचारिता विप्रकृष्टत्वात् । भेदपक्षे संशयदोषापादनार्थं यत्तूक्तं त्वया - व्यभिचारत इति छन्दो हि यथा द्रव्ये वर्तते तथा घटादिष्वपीति व्यभिचारात् संशयः स्यात्, नाभिधानम् [प्र० समु० वृ० ] इति । अत्र ब्रूमः -- तत्र विधिवादे स चासश्च विधेय- व्यावत्यौ भावौ, तयोस्तस्या - 15 तस्य च भावस्य सम्भवो यस्यात्मा तद् भवति तदतदात्मकं संशयज्ञानम्, तस्य संशयज्ञानस्य प्राप्त - ४३२-२ त्वात् किमिव न प्राप्तमभिधानं निश्चयो विपर्ययो वाऽनध्यवसायो वा ? सर्वं प्राप्तमित्यर्थः । तत् सर्वं विधवाद एव घटते । अत्र तूक्तन्यायेन अन्यापोहार्थनैर्मूल्यात् स्वार्थांशस्याप्यदर्शनात् त्वत्पक्षे संशयाद्यनास्पदम्, आदिग्रहणाद् विपर्यया-नध्यवसाय निर्णया अप्यनास्पदा निर्विषया इत्यर्थः । कस्मात् ? तदतद्भावात्मक - 20 भावाभावात्मकशब्दार्थत्वात्, 'स चासश्च भवन् भावो भवति' इत्युक्तमस्माभिः, तस्याभाव आत्मा यस्य शब्दार्थस्य त्वदभिमतस्य तस्य भावात् तदतद्भावात्मकभावाभावात्मकशब्दार्थत्वात् । तद्व्यक्तिः— अस्वार्थत्वात्, 'न भवति न भवति' इत्युभयतोऽपि अभावविषयत्वात् । तद्व्यक्ति:- अन्वयव्यतिरेकविषयत्वासत्त्वादिति, संशयविपर्ययावपि निर्विषयो विध्यर्थाभावात्, अनध्यवसायोऽपि स्वार्थभावात्मकस्याव्यवसायस्य पर्युदासेना[ऽन ]ध्यवसायोऽध्यवसायादन्य इति भवति, उभयतोऽप्यभावे कुतोऽनध्यवसायः 25 निर्विषयत्वात् खपुष्पवत् ? इति । अथवेत्यादि पाठान्तरम् । पूर्वार्द्धं तदेव । तस्य व्याख्या - त्वन्मतवदेव, 'अदर्शनादन्यशब्दार्थे ' इति प्रथमपादार्थस्त्वद्व्याख्यात एव, स्वार्थस्य चांशेऽप्यदर्शनात् त्वन्मतव देवेति द्वितीयपादार्थः । 5 १ पृ० ६५३ पं० १० ॥ २ पृ० ६५०,६५२,६५३ पं० ७ ॥ ३ 'वपक्षगता अपोहवादिनस्तव' इति पदच्छेदः ॥ ४ प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ तु गुणादिष्वपि इति पाठ इति ध्येयम् । दृश्यतां पृ० ६०७ पं० १५ ॥ ५ °यानास्पदम् य० ॥ ६ 'पर्युदासेऽनभ्यवसायो' इत्यपि भवेदत्र पाठः ॥ ७ पृ० ६५२ पं० १॥ ८ वशेऽप्य प्र० ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३-१ ६६२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे सर्वत्र ] दर्शने नास्ति सम्भवः, नापि सर्वत्र लिङ्गिनि सर्व लिङ्गस्य सम्भवोऽग्निधूमादिवत् । यद्यपि क्वचिदस्ति डित्यादिषु सम्भवस्तथापि न तद्वारेणानुमानम्, सर्वात्मनाऽप्रतीतेः । गुणसमुदायो हि डित्थाख्योऽर्थः। न च सर्वे काणकुण्टादयो गुणास्तस्य डित्थशब्दाद् गम्यन्ते । तस्मात् तद्वारेणानुमानासम्भवः [ ] । अनेन यदपि तदेकदेशे दर्शनमिष्टं स्वार्थाशे तदप्यदर्शन5 मेवेत्युक्तं भवति सर्वात्मखदर्शनात् । अन्वयानुक्त्युदाहृतेः व्यावृत्त्या डित्थार्थगतेरुदाहरणमेतदिति चेत्, न, तत्प्रतिपत्तिनिर्मूलत्वात् अनवगतपर्युदासकवार्थत्वात् , अविदिते देवदत्ते 'न भवत्यदेवदत्तः' इति वचनवत् । एवं च शब्दस्यार्थाभावाद् यः सम्बन्धाशक्यत्वं दोषः पूर्वमुक्तः स इहापि । 10 इति श्रुतेः सम्बन्धदौष्कर्यम् । ___ तं भावयति-यथोक्तमित्यादि टीकाग्रन्थ एव । वृक्षशब्दस्यावृक्षेत्यादि यावद् दर्शने नास्ति सम्भवः, नापि सर्वत्र लिङ्गिनीत्यादि शब्दस्यानुमानत्वात् सर्वत्रानुमेये दर्शनासम्भवोऽपि अयोगुडाङ्गाराम्याद्यनुमेये धूमादिलिङ्गादर्शनवदिति । अत्र परो ब्रूयात्-ननु डित्थादिस्वाभिधेये सर्वत्र दर्शनमिति, अत्र त्वयोत्तरं यदुक्तम् यद्यपि क्वचिदित्यादि स एव टीकाग्रन्थो यावर्दैनुमानासम्भव इति वयं 15 त्वन्मतादेव ब्रूमः । अनेनोत्तरवचनेन त्वदीयेन यदपि तदेकदेशे दर्शनमिष्टं स्वार्थांशे तदप्यदर्शनमेवेत्युक्तं भवति 'कोण-कुण्टादयः सर्वे गुणास्तस्य गुणसमुदायात्मकस्य न गम्यन्ते' इति वचनात् सर्वात्मस्वदर्शनाच्छब्दस्य सर्वात्मनाऽप्रतीतेरुदाहरणेऽभिहितत्वाददर्शनं स्वार्थांशेऽपि समर्थितम् । तत एव चानुमानासम्भव इत्युच्यतेऽस्माभिः, क्वचिददर्शनादिति । अत्र ब्रूयास्त्वम्-अन्वयानुयुक्त्युदाहृतेरित्यादि यावदेतदिति चेदिति । एतदुक्तं भवति–'डित्थः 20 इत्यपि 'अडित्थो न भवति' इति व्यावृत्त्या डित्थार्थगतेरन्वयाभावादेव डित्थोदाहरणमिति । एतच्च न, तत्प्रतिपत्तिनिर्मूलत्वात्, नैतदडित्थव्युदासमात्रमुपपद्यते प्रतिपत्तेरभावप्रसङ्गात् 'न भवति न भवति' इत्युभयतोऽपि अभावमात्रत्वात् , प्रतिपत्तिनिर्मूलत्वं कस्मात् ? अनवगतपर्युदासकस्वार्थत्वात् , अनवगतः पर्युदासो यस्य स्वार्थस्य सोऽनवगतपर्युदासकस्वार्थः, तद्भावादनवगतपर्युदासकस्वार्थकत्वाद् नास्ति प्रतिपत्तेर्बीजम् । दृष्टान्तः–अविदिते देवदत्ते 'न भवति अदेवदत्तः' इति वचनमप्रतिपत्तेरेव कारणं निर्मूल25 त्वात् तथैतदिति । तद्भावयति एवं च शब्दस्येत्यादि यावत् स इहापीति । यथा पूर्वमुक्तम्-"आस्तां ते शब्दसम्बन्धः, अर्थाभावात्' इति सम्बन्धाशक्यत्वं दोषः स एव । ततोऽन्यस्य चार्थस्याभावादलब्धात्मकेऽर्थद्वये शब्दस्य केन सहाविनाभावः सम्बन्धः स्यात् ? इति श्रुतेः सम्बन्धदौष्कर्यम् । १ तुलना-पृ० ६५२ पं० १२ ॥२ सम्भवेपि प्र० ॥३°नुमेय धूमा प्र० ॥ ४ तुलना-पृ० ६५२ पं० १३ ॥ ५ तुलना-पृ० ४६२-१,४६५-२॥ ६ पृ. ६५२ पं० १४॥ ७सर्वात्मदर्श भा०॥ ८ नाशब्दस्य प्र०॥ ९°त्वादर्शनं भा० । त्वाद्दर्शनं य० ॥ १० 'अन्वयानुक्त्युदाहृते. इति पाठोऽत्र सम्भाव्यते । अन्वयोक्तिरहितमेतदुदाहरणमित्याशयो भाति ॥ ११ इत्यस्य डित्थो न य० ॥ १२ तद्भावानव प्र०॥ १३ स्वात्वाद् भा०॥ १४ तथैववदिति प्र० । (तथैव तदिति ?)॥ १५ पृ० ६५३ पं० ११,२६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । यः स वृक्षशब्दस्तदितरो वा तस्य तेनार्थेन न शक्यते सम्बन्धः कर्तुम् , तेन सहात्यन्तमदृष्टत्वात् , श्रावणत्वनित्यानित्यत्ववत् । न च सम्बन्धद्वारं मुक्त्वा शब्दस्य लिङ्गस्य वा स्वार्थख्यापनशक्तिरस्ति । स च सम्बन्धो नास्ति उक्तवत् । अत एव न नास्ति व्यभिचारिता, असाधारणधर्मत्वात् । 'यो ह्यसाधारणः पक्षधर्मः स यावता भेदेन सर्वसङ्ग्रहस्तत्र संशयहेतुः तद्वता तत्सङ्ग्रहादेकान्तव्यावृत्तेश्च [ 4० समु० वृ० ? ]। 5 तदुपसंहृत्य प्रतिज्ञायते-यः स वृक्षशब्दो यस्य स वृक्षोऽर्थः तदितरो वेत्यवृक्षशब्दावृक्षार्थयोः ४३३-२ सम्बन्धो वृक्षशब्दार्थयोः प्रतिपत्त्यर्थः, तस्य शब्दस्य तेनार्थेन लोकप्रसिद्धेन वा त्वदभिप्रायान्न शक्यते सम्बन्धः कर्तुमिति पक्षः, तेन सहात्यन्तमदृष्टत्वात् श्रावणत्वनित्यानित्यत्ववदिति गतार्थ साधनम् । नं च सम्बन्धद्वारं मुक्त्वा शब्दस्य लिङ्गस्य वा स्वार्थख्यापनशक्तिरस्तीति त्वयैवोक्तोऽयं न्याय इति दर्शयति । स च सम्बन्धो नास्ति उक्तवत् , उक्तं सम्बन्धदौष्कर्यम् । अत एवेत्यादि । एतस्मादेव सम्बन्धदौष्कर्याद् यदुक्तं त्वया भेदाभिधानपक्षे दोषजातं *व्यभिभिचारः, सोऽपोहपक्षे न चास्ति व्यभिचारितादोषः, भेदानभिधानादिति । तदपि न भवति, न नास्ति व्यभिचारिता अस्त्येव सम्बन्धदौष्कर्यस्योक्तत्वात् न नास्ति अस्त्येव व्यभिचारितादोष इति १“तथा च आचार्येणाप्ययं व्यतिरेकी कथितः । तथाचाह-यो ह्यसाधारणः साधनधर्मः स यावता भेदेन सर्वसंग्रहस्तत्र संशयहेतुः, तद्वता तत्संग्रहादेकान्तव्यावृत्तेश्च ।”-प्र० वार्तिकालं० पृ० ६२९ । “युक्तं तावत् चतुर्विधस्य [अनै कान्तिकस्य ] उभयत्र सत्त्वात् संशयहेतुत्वम् । श्रावणत्वस्य कथम् ? असाधारणत्वात् । यो ह्यसाधारणः साध्यधर्मः स यावता भेदेन सर्व भाव Psv]संग्रहस्तत्र संशयहेतुः, तद्वता तत्संग्रहादेकान्तव्यावृत्तेश्च ।"-प्र० समु० वृ० Psvc. ed. पृ. ४७, N. ed. पृ० ५१ B, Psy: N. ed. पृ० १३४ A । अस्य व्याख्या-"युक्तं तावदिति । चतुर्विधस्य संशयहेतुत्वे कारणमुभयत्र सत्त्वमस्ति । ततः प्रमेयत्वादिना संशयो जन्यते । श्रावणत्वे तन्नास्तीत्याहश्रावणत्वस्य कथमिति केन प्रकारेणेति कारणादर्शनात् पृच्छति । असाधारणत्वादिति कारणमाह । यद्यसाधारणः संशयहेतुत्वं कुत इत्यत आह-य इत्यादि । साध्यधर्म इति पक्षधर्मः । अनेन सम्बद्धत्वमुक्तम् । असम्बद्ध चाक्षुषत्ववद् विचाराभावात् । यावता भेदेनेति नित्यानित्यभावभेदेन वा साश्रवानाश्रवभेदेन वा तीर्थकरव्यवस्थापितभावभेदेन वा सर्वभावसङ्ग्रहस्तत्र तेषु भावेषु संशयहेतुः । तद्वतां तत्संग्रहादिति असाधारणधर्मवतां तैः संग्रहात् तेषु वा संग्रहात् एकान्तव्यावृत्तश्चेति एकान्तो निर्णयः, तद्व्यावृत्तिरभावः, अनेन एकत्र भावे साधनाभावमाह।"विशाला D.ed पृ० १६९ B-१७० A | P. ed. पृ० १९४ ॥ २ अत्र VT. मध्ये 'तद्वतां' इति पाठो भाति ।। ३ तुलना टिपृ० ८४ पं० १३॥ ४ न्यायमुखेऽपि एतदस्ति, तथाहि Prof. Giuseppe Tucci इत्येभिर्विहिते English भाषानुवादे इत्थमुपलभ्यते-Some say: it is logical to admit only four kinds of reasons called inconclusive, because they are in both ways in the affirmative as well as in the negative instances. But how can the cause: because [ sound ] is audible, be an inconclusive one? [I reply: because it is too-narrow [असाधारण]. When [ the predicate of the middle term ] is too narrow it includes all the possible varieties of the predicate to be proved. Therefore it is absolutely a doubtful reason. In fact it is merely included in the subject possessing that particular nature: thus it is deprived of one of the [ neccessary ] aspects of the reason, [ that is it does not reside in any positive instance.] न्यायमुख पृ० ३२-३३ ॥ ५°प्रायाच्च शक्यते भा०। प्रायोत्वशक्यते य० ॥६पृ. ६५३ पं० १४ पृ० ६५० पं० २५॥ ७* *एतचिह्नान्तर्गतो भिचार इत्यत आरभ्य सम्बन्धदौष्कर्यस्यों इत्यन्तः पाठो य. प्रतौ नास्ति ॥ ८सदपि भा०॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे इदमपि चात्र 'अन्वयव्यतिरेको शब्दस्यार्थाभिधाने द्वारम्' इत्युक्त्वा पुनरन्वयस्य निराकरणं तत् केनाभिप्रायेणेति न विद्मो यदन्वयविषय एकदेशे निरूप्यते त्वया वृक्ष इत्यवृक्षो न भवतीत्यवृक्षव्युदासेन । नन्वेवं......... कासावन्वय इति सर्ववृक्षार्थदर्शनासम्भवात् । 5 लिङ्गयेकदेशसम्भविलिङ्गवत्तु न स्वार्थांशमात्रे सम्भवति प्रत्यक्षवृक्ष[मूलादिभेदानन्त्ये सम्बन्धाशक्यत्वे प्रतिपत्त्यभावात्। अवृक्षव्यवच्छिन्नस्यापि खार्थस्य नानुमानाय नाभिधानाय स्याद् वृक्षशब्दः, पक्षः । असाधारणधर्मत्वादिति हेतुः । असाधारणधर्मत्वं सपक्षासपक्षयोरदृष्टत्वात् तद् व्याचष्टे-'यो ह्यसाधारणः पक्षधर्म इत्यादि यावदेकान्तव्यावृत्तेश्चेति तद्व्याख्यया गतार्थम् । 10 किश्चान्यत्-इदमपि चात्रेत्यादि । अन्वयस्य निर्मूलनीतत्वाद् यद् अन्वय-व्यतिरेको शब्दस्यार्थाभिधाने द्वारम् इत्युक्त्वा पुनरन्वयस्य निराकरणं तद् भवतः केनाभिप्रायेणेति न विद्मः । किमज्ञानाद् अस्मद्बुद्धिपरिभवाद् इहपरलोकाभ्यामयशसश्चाभीरुत्वात् ? इति । कतमदन्वयनिराकरणमिति चेत् , उच्यतेयदन्वयविषय एकदेशे निरूप्यते त्वया वृक्ष इत्यवृक्षो न भवतीत्यवृक्षव्युदासेन । कथं पुनरनेनान्वयो निराक्रियत इति चेद् ब्रूमः-नन्वेवमित्यादि यावत् वासावन्वय इति इति 15 भावना गतार्था । तत्र कारणमाह-सर्ववृक्षार्थदर्शनासम्भवात् , भेदानन्त्याच्चासम्भव उक्तः । स्वार्थदेश४३४-१ व्याप्यन्वयो नास्तीति चोक्तो गुणसमुदायमात्रत्वात् गुणभूतेषु चावयवेध्वसत्त्वं दर्शनस्योक्तं त्वयैव । तस्मादन्वयाभावेऽनुमानानुमेयसम्बन्धाभावादनुमानानुपपत्तिवदभिधानाभिधेयभावस्यानुपपत्तिरिति । स्यान्मतम्-लिङ्गथेकदेशसम्भविलिङ्गवदभिधेयैकदेशसम्भव्यभिधानदर्शनादस्त्यन्वयोऽभिधानं चेति । अत्रोच्यते तदप्यभ्युपेत्य-लिङ्गयेकदेशेत्यादि । लिङ्गिनामग्नीनामेकदेशेऽनावेकस्मिन् सम्भवतो धूमस्य 20 लिङ्गस्याग्नेर्गमकत्ववत् तु न स्वार्थांशमात्र सम्भवतीति शब्दादभिधेयप्रतिपत्तिर्न भवितुमर्हति । प्रत्यक्षवृक्षेत्यादि, 'अयं वृक्षः' इति प्रत्यक्षस्यापि मूलादिमतः साक्षादुपलभ्यमानस्य संज्ञाव्युत्पत्तिकाले सम्बन्धकरणं नास्ति । शिंशपादिभेदानन्त्य जातिशब्दस्य भेदैरनन्तैः सम्बन्धाशक्यत्वे प्रतिपत्त्यभाववंदेकांशेऽपि स्वार्थाख्ये मूलादि-कोटरादि-हस्व-दीर्घ-तनु-विशालादिभेदानन्ये सम्बन्धाशक्यत्वं क्वचिददृष्टत्वात् , किमङ्ग पुनरत्यन्तपरोक्षस्वर्गादिशब्दस्वार्थांशमात्रेऽपि, तद्वदेवाप्रतिपत्तेः ? नो चेद् धवखदिराद्यनन्तभेदाभिधानं 25 वृक्षशब्दस्य स्याददृष्टस्वार्थांशत्वात् । अनानिष्टापादनसाधनम्-अवृक्षव्यवच्छिन्नस्यापि स्वार्थस्य नानुमानाय नाभिधानाय स्याद् ४३४-२ वृक्षशब्दः न प्रभवतीत्यर्थः । तदेकदेशवर्तित्वात् , * स्वार्थस्य धर्मिणः पक्षस्यानुमेयस्य अभिधेयस्य एकदेशे वर्तितुं शीलमस्य धर्मः साधु वा वृत्तिरस्येति तदेकदेशवर्ती । किमुक्तं भवति ? अव्यापिपक्षधर्मत्वात् * १ बाह्यसाधारणः प्र० ॥ २ पृ० ६५२ पं० २ ॥ ३ तुलना पृ० ४५९-२॥ ४ कासाबंधय इति भा० । कासासंबंधय इति य०॥ ५°संभवव्यभिधान प्र० । (संभवेऽप्यभिधान° ?)॥ ६ स्वार्थासमात्र प्र०॥ ७ वदेकशेपि भा० । वदेकस्वोपि य० । वदेकदेशेऽपि' इत्यपि भवेत् पाठः ॥ ८ * * एतच्चिदान्तर्गतः पाठः प्रतिषु द्विर्भूतः॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । तदेकदेशवर्तित्वादव्यापिपक्षधर्मत्वात् , अवनस्पतिव्यवच्छिन्न चैतन्यसाधनार्थखापवत् । अशेषपक्षाव्यापि.......। ___ खापोदाहरणनिरपेक्षादृष्टदेशवर्तित्वाभ्युपगमे त्वतुल्येऽपि वृत्तिप्रसङ्गः । तस्मादेव वानन्त्यादकृतसम्बन्धजातिशब्दभेदवाचित्वेऽप्यदोषः, तदर्थांशेऽदृष्ट समस्तानुमेयावृत्तित्वादित्यर्थः । अवनस्पतिव्यवच्छिन्नचैतन्यसाधनार्थस्वापवत् , यथा 'सचेतना वनस्पतयः' इति प्रतिज्ञायां 'स्वापात्' इति हेतुर्धर्मिणो वनस्पतेरेकदेशे शिरीषादौ वर्तमानोऽपि तालादिषु अवर्तमानो न चैतन्यानुमानाय प्रभवति अव्यापित्वात् , तथा वृक्षशब्दोऽपि अवृक्षव्यावृत्त्यर्थो वृक्षस्वार्थांशवृत्तिर्नानुमानाय नाभिधानाय प्रैभवति । एतत् पुनः स्वार्थांशवृत्त्यभ्युपगत्याऽनिष्टापादनम् । 'नैव वृत्ति. रस्ति' इत्युक्तमेव, वक्ष्यामश्च अनुमानस्यापि स्वार्थाभावम् । स्यान्मतम्-साध्याशेषानित्यत्वाव्यापिप्रयत्नानन्तरीयकत्ववदनुमानं स्यात् , वनसत्यव्यापिस्वापवदनु-10 मानाभासः स्यात् ? इति सन्देह इति । एतच्च न, अशेषपक्षाव्यापीत्यादि, प्रयत्नानन्तरीयकं हि सपक्षं न व्याप्नोति, स्वापस्तु पक्षमेव न व्याप्नोतीति परिहारः । वृक्षशब्दो ह्यशेषमवृक्षाद् व्यवच्छिन्नं वृक्षार्थं नामवृक्षं मनुष्यादि स्थापनावृक्षं चित्रादि वास्मन्मतेन साध्यधर्मसामान्येन समानं सपक्षं न तु न व्याप्नोति, नाप्यनुमानेऽत्र दोषः, स्वार्थांशवृत्तित्वादव्यापिपक्षधर्मत्वाद् वनस्पतिचैतन्ये स्वापवदित्युदाहृतम् । तस्माद् 'नानुमानाय स्यादृक्षशब्द इति साधूक्तम् । तत्र कः सम्बन्धः साध्यानित्याव्यापिप्रयत्ना- 15. नन्तरीयकत्वानुमानत्वप्राप्तेरिति । स्यान्मतम्-उक्तस्वापदृष्टान्तमनपेक्ष्य वृक्षशब्दो यत्र न दृष्टस्तानपि स्वार्थान्यान् गमयति दृष्टस्वार्थानुमानसाधादंशे दृष्टशक्तित्वादिति । एतच्चायुक्तम् , अपोह्ये वृत्तिप्रसङ्गात् । अत आह-स्वापोदाहरणनिरपेक्षादृष्टदेशवर्तित्वाभ्युपगमे तु अतुल्येऽपि वृत्तिप्रसङ्गः, अतुल्ये साध्यविपक्षे वृत्तिः स्यादवृक्ष घटादौ वृक्षश्रुतेः, अदृष्टदेशवर्तित्वात् , मूलादिमति पलाशादौ स्वार्थांशे वा वृत्तिवत् । तस्मादेव वान-20 न्त्यादकृतसम्बन्धजातिशब्दभेदवाचित्वेऽप्यदोषः, तदर्थाशेऽदृष्टत्वात् , अदृष्टस्वार्थांशत्वादित्यर्थः, १ तुलना-"ननु चान्योऽप्यस्ति असिद्धः। स च द्विधा । प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धः, यथा अनित्यः शब्दोऽनित्यत्वात् । अव्यापकासिद्धश्चेति, यथा सचेतनास्तरवः स्वापात् ।”-न्यायप्रवेशकवृत्ति. पृ० २३. । “प्रतिज्ञार्थस्यैकदेशः सन्नसिद्ध इति विग्रहः, प्रतिज्ञार्थस्यासिद्धत्वात् हेतुरपि तदेकदेशः सन्न सिद्ध इत्यर्थः। अव्यापकासिद्ध इति, इह पक्षधर्मो यो न भवति स एवोच्यतेऽसिद्धः। ततोऽसिद्धस्यवेह विचार्यमाणत्वात् पक्षस्य इत्यध्याहृत्य समसनीयम् । यथा पक्षस्य धर्मिरूपस्याव्यापकः सन्नसिद्धोऽव्यापकासिद्ध इति । इह पक्षीकृतेषु तरुषु पत्रसङ्कोचलक्षणः स्वाप एकदेशे न सिद्धः। न हि सर्वे रात्रौ सङ्कोचभाजो न्यग्रोधादावदर्शनात् तस्य किन्तु क्वचिदेवेति ।”-न्यायप्रवेशकवृत्तिपञ्जिका पृ० ५७ ॥ २ यथा चेतना भा० । तुलना-पृ. ४२८ पं. १८ ॥ ३न भवति प्र०॥ ४ त एत्वन प्र०॥ ५मनुष्यादिवत्स्थापनावृक्षं मनुष्यादिस्थापनावृक्षं मनुष्यादिस्थापनावृक्षं चित्रादि चास्म भा०। मनुष्यादिस्थापनावृक्षं ३ चित्रादि वाऽस्म य० ॥ ६नन न य० । अयमपि य० प्रतिपाठो विचारणीयः ॥ ७ पृ० ६६४ पं. ७ ॥ ८ मनुपेक्ष्य प्र० ॥ ९°दन्यानु प्र०॥ १० तानंत्या प्र० । ( चानन्त्या ?)॥ ११ तथादर्थांशे दृष्टत्वात् य० ॥ नय०८४ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे त्वात् , अपोहस्वार्थवत् । इति कुतोऽन्वयव्यतिरेको कुतो वा पक्षधर्मत्वं कुतस्त्रलक्षण्यं कुतोऽनुमानत्वं शब्दस्य ? * यदि लिङ्गवच्छब्दस्त्रिलक्षणोऽन्यापोहेन स्वार्थ गमयति ततो वृक्षशब्दस्या वृक्षाव्यवच्छिन्नेषु वृत्तिः स्यात् , अनुमानत्वात् , अन्वयप्रदर्शनार्थप्रयुक्तघटादि5वत् । न तु वृक्षेषु वृत्तिः स्यात् , पक्षत्वाद् वृक्षाणां सपक्षशब्दार्थावच्छिन्नार्थत्वात् कृतकस्येव नित्येषु । तस्मात् तत्तुल्ये नास्ति वृत्तिः शब्दस्य । अपोहस्वार्थवदिति 'अवृक्षो न भवति' इत्यवृक्षापोहस्य स्वार्थो मूलादिमाननन्तः कोटरादिभेदेन, तद्वाचित्वे चादोषो दृष्ट एवं भेवादिनोऽप्यानन्येऽपि भेदानामकृतसम्बन्धेऽपि दोषाभावः स्यात् । त्वन्मतस्वार्थेऽपि वा तद्वद् दोष एव स्यादिति कुतस्तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्तिभ्यामन्वयव्यतिरेको ? कुतो वा शब्दस्याभिधेयस्य 10 पक्षस्य धर्मत्वं लिङ्गवल्लिङ्गिनः ? कुतस्वैलक्षण्यम् ? कुतोऽनुमानत्वमिति, एवं च शैब्दलिङ्गगतपक्षापक्षसपक्षविसंवादे साधाभावाल्लिङ्गशब्दयोः कुतोऽनुमानत्वं शब्दस्य ? इति । __ तद्व्याख्या-यदि लिङ्गवच्छब्द इत्यादि, यदि कृतकत्वादिलिङ्गवच्छब्दस्त्रिलक्षणोऽन्यापोहेन स्वार्थ गमयतीति मन्यसे ततो वृक्षशब्दस्यावृक्षाव्यवच्छिन्नेषु वृक्षाद भिधेयात् स्वार्थांशाख्यादन्यत्रा४३५-२ तुल्ये सपक्षे वृत्तिः स्यात् पक्षधर्माद् वृक्षशब्दादन्यस्यावृक्षशब्दादिवाच्ये तेतो व्यवच्छिन्ने कृतकत्वा15 नित्यत्वाश्रये घटे इव वृत्तिः स्यादनुमानत्वात् अन्वयदर्शनार्थप्रयुक्तघटादिवदिति गतार्थम् । न तु वृक्षेषु वृत्तिः स्यात्, किं कारणम् ? पक्षत्वाद् वृक्षाणाम् , पक्ष एव वृक्षशब्दाख्यस्य धर्मस्य धर्मिणो वृक्षार्थाः सपक्षादवच्छिन्नाः, तेष्वेव न तु वृत्तिः स्यात्, अनुमानत्वादेव, त्वदभिर्मंताऽवृक्षान्निवृत्तिमात्रं वृक्षता नान्य स्मिन्नपि साध्यधर्मसामान्येन समानेऽर्थे, अतस्त्वदभिमत्या तुल्यत्वं येषु साध्याद् वृक्षाद् भिन्नेषु अर्थान्तरेषु [ तेषु ] वृक्षशब्दस्य वृत्तिर्नास्ति पक्षधर्माभिमतस्य । कस्मात् ? संपक्षशब्दार्था20वच्छिन्नार्थत्वात् । किमिव ? कृतकस्येव नित्येष्विति । तस्मादिति वैधयेण, तस्मात् सपक्षाभावात् तत्तुल्ये नास्ति वृत्तिः शब्दस्य, किं तर्हि ? तत्रैव वृत्तिः । तस्मात् त्रैलक्षण्याभावाद् नानुमानं शब्दः । १ वादोषौ प्र० ॥ २१ अत्रेदमवधेयम् । य० प्रतौ शब्दलिङ्गगतपक्षापक्ष इत्यत्र २३० पत्राङ्कः समाप्यते । तदनन्तरं २३४ तमे पत्रे प्रमादात् २३१ इत्यङ्को लिखितः, २३१ तमे २३२ इत्यङ्कः, २३२ तमे २३३ इत्यङ्कः, २३३ तमे तु २३४ इत्यङ्को लिखितः । य. प्रतौ प्रमादादेवं लिखितेष्वप्यशुद्धाङ्केषु तत्रैव पत्राणां वामकोणे शुद्धाङ्का अप्युपन्यस्ताः । पा० प्रतावपि शुद्धाङ्कानुसार्येव पाठः । किन्तु य० प्रतिमवलम्ब्य कैश्चिदन्यलेखकैर्याः प्रतयो लिखितास्तैस्त्वेतदपरिज्ञानादशुद्धाङ्कानुसारेण स्वप्रतयो लिखिता इति २३० पत्रानन्तरम् २३४ तमं पत्रं लिखितमिति तासु भूयान् पाठव्यत्ययः सञ्जातः । अतस्तासु मिष्येते इत्यत आरभ्य 'अत्र'शब्दवाच्यस्याग्निविशिष्टस्य धू इत्यन्तो वक्ष्यमाणः पाठोऽकस्मादत्रापतितः । अतः सर्वथा सोऽसम्बद्धः । अस्माभिस्तु यथा भा० प्रतौ पा. प्रतौ च पाठो दृश्यते यथा च य० प्रतौ शुद्धाङ्केषु पत्रेषु पाठो - लिखितस्तथैवात्रोपन्यस्त इति स एवोपादेयः ॥ ३ पक्षापक्षविसंवादे भा० ॥ ४°शब्दस्यावृक्षादच्छिन्नेषु भा० । शब्दस्याव्यवच्छिन्नेषु य० ॥ ५ (ततोऽव्यवच्छिन्ने ? ) ॥ ६ घटादिवदि गतार्थ य० । घटादिति गतार्थ भा० ॥ ७°वच्छिन्नार्थस्तेष्वेव भा०॥ ८°मतवृ य० । मति भा० ॥ ९ समानोर्थतस्त्वदभिमत्या प्र०॥ १० सपक्षधर्मार्थावच्छि य० ॥ ११ तस्यादिति भा० ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६६७ तत्रैव वृत्तावसपक्षवृत्तिगतदोषापत्तिः । हेत्वपवादनियतव्यवस्थानियमाद् नेति चेत् , न, पक्षसपक्षासपक्षव्यवस्थायां तद्व्यवस्थाभावात् तदसिद्धावसिद्धिः। __ आपत्त्यनभ्युपगमे त्वन्यापोहान्यथात्वं सपक्षावच्छिन्नस्यापि सपक्षत्वात् सपक्षापक्षेपणक्षीणशक्तेश्च पक्षा[स]पक्षयोर्विशेषं गमयितुं नालम् , साध्यनिर्देशवत्। किञ्चान्यत् , त्वन्मतवत् तत्रैव वृत्तावसपक्षवृत्तिगतदोषापत्तिः। सपक्षादन्यो वा सपक्षाभावो वा स्यादसपक्षः, स च साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः संपक्षः पंक्षादन्यः पक्षाभावोऽपक्ष ए[व] वा सपक्षः । इह तत्रैव वृक्षार्थे वृत्तत्वात् वृक्षशब्दस्त धर्मोऽपि सन विरुद्धोऽसाधारणानैकान्तिको वा स्यात् ।। हेत्वपवादेत्यादि यावद् नेति चेत् । स्यान्मतम्—स हेतुर्विपरीतोऽस्माद् विरुद्धोऽन्यस्त्वनिश्चितः [प्रै० समु० ३ । २२ ] इति लक्षणात् त्रिलक्षणस्य हेतोरपवादो हेत्वाभासो विरुद्धोऽसाधारणः साधा-10 रणोऽसिद्धो वेति नियमितत्वादस[पक्ष]त्तिगतदोषाभावोऽस्य वृक्षशब्दस्येति । एतच्च न, पक्षसपक्षासपक्ष व्यवस्थायां तव्यवस्थाभावात् , हेतु-हेत्वाभासव्यवस्था पक्ष-सपक्षा-ऽसपक्षव्यवस्थायां सिद्धायां सिध्येत् । ४३६-१ तदसिद्धावसिद्धिः, हेतु-तदाभासव्यवस्थानियमस्य पक्षादिव्यवस्थाश्रयत्वात् । पक्ष एव तावदव्य स्थित 'उभयतोऽप्यभवनपरमार्थत्वात्' इत्युक्तत्वात् । सपक्षस्तु अनन्तरन्यायो नास्ति । असपक्षस्तु स एव पक्षस्त्वन्मताभ्युपगमात् स्यात् सपक्षाभावमात्रत्वात्, इतरथा नैव स्यादुक्तवदेव । तस्माद्धेत्वादिनियमादसपक्ष- 15 वृत्तिगतदोषापत्तिस्तदवस्थैव । आपत्त्यनभ्युपगमे त्वित्यादि । यद्येवमापत्तिदोषं नाभ्युपैषि असपक्षवृत्तिगतं ततोऽन्यापोहान्यथात्वं दोषः, अन्यापोहोऽपि तर्हि अन्याभावात् तदपोहाभावाच्च स्वार्थापोह एव स्यात् । कस्मात् ? सपक्षावच्छिन्नस्यापि सपक्षत्वात् , सपक्षादन्यः पक्षस्ततोऽवच्छिन्नोऽसपक्षो वा स एव संपक्षः ततः पक्षादन्यः । पक्ष एव पक्षादन्यः सपक्षादन्यत्वात् । ततोऽन्यापोहः पक्षापोहः स्वार्थापोह इत्यापन्नः । 20 किञ्चान्यत्, सपक्षापक्षेपणक्षीणशक्तेश्च, सपक्षादन्योऽसपक्षः पक्ष इत्युक्ते सपक्षव्यावृत्तिमात्रे चरितार्थत्वात् पक्षा[स]पक्षयोर्विशेषं गमयितुं नालं 'पक्ष एवायं नासपक्षः' इति । कस्मात् ? उक्तकारणात् । किमिव ? साध्यनिर्देशवत्, यथा साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा [न्यायसू० १॥१॥३३ ] इत्यक्षपादपक्षलक्षणं सिद्धिनिवृत्तौ चरितार्थत्वात् साध्यविशेषं पक्षमेवीसिद्धहेतु-दृष्टान्तेभ्यो व्यतिरिक्तं न गमयितुमलं विपक्षापक्षेपणक्षीणशक्तित्वात् तथा 'सपक्षादन्योऽसपक्षः' इत्यसपक्षात् पक्षं विशेष्य न गमयितुमलं सामान्य- 25 मात्रवृत्तेः । त्वया तु विशेषवृत्तेः पक्ष एवासपक्षावच्छिन्नवृत्तिरिष्यते, तत्तु न सिध्यतीत्थं न्यायात् । १ सपक्षः सपक्षादन्यः य० ॥ २ ‘पक्षादन्यः पक्षाभावोऽपक्ष एव सपक्षः' इत्यपि पाठो भवेत् । 'पक्षादन्यः पक्षाभावोऽपक्षः, पक्ष एवासपक्षः' इत्यपि पाठोऽत्र चिन्त्यः ॥ ३ दृश्यतां टिपृ० ७४ पं० ४-टिपृ० ७५ पं० १॥ ४ द्वत्ति य० ॥ ५ हेतुहेतुत्वाभास य० । हेत्वाभास भा०॥ ६ पृ० ६५५ पं० २ ॥ ७ °न्यायो नास्ति प्र० । (न्यायेन नास्ति ? ) ॥ ८ नाभ्युपैप्यसपक्ष भा० । अभ्युपेत्यसपक्ष य० ॥ ९ सपक्षादन्यः भा० ॥ १० सपक्षः पक्ष इत्युक्ते प्र० ॥ ११ °वासिद्धतुदृष्टान्तेभ्योऽव्यति° प्र० । दृश्यतां पृ० ६१४ टि० १। “ननु साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञेत्युक्ते साध्ययोर्हेतुदृष्टान्तयोरपि प्रसङ्गो यथा[s?] नित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वात् , नित्यः शब्दोऽस्पर्शत्वाद् बुद्धिवचेति ।"न्यायवार्तिक. ११॥३३॥ ४३६-२ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे तद्विषयपक्षधर्मत्वादेव तुल्ये वृत्तिर्वृक्षार्थ इति चेत्, अननुमानं तर्हि शब्दः पक्ष एव वृत्तत्वाद् द्विलक्षणत्वादसाधारणवत्, [ ऐकलक्षणत्वाद्वा अन्वयव्यतिरेकाभावाद् विरुद्धवत् ] तद्विषय मात्रार्थत्वादन्यापोहशब्दार्थत्वस्य । व्यतिरेकस्य स्वार्थासम्भवादपि व्यर्थतैव वा, पक्षमात्रस्याप्यलक्षणत्वात्, अव्यक्तश्रुतिवत् । गुणसमुदायो हि वृक्षाख्योऽर्थ इति वृक्षस्य मूलकोटरायानन्त्ये वाच्यत्वाभावः संवृतिमात्रत्वात् समुदायस्य तदर्थागतेः । तस्मात् तद्वारेणानुमानासम्भव उक्तवत् । तस्मात् तदेकलक्षणतापि नास्ति, कुत एवान्यापोहः tree वृक्षशब्द [ वृक्षार्थवृत्तिः ] तत् कथम् ? गुणसमुदायसंवृत्यर्थत्वात्, सेनाशब्दवत् । ६६८ 10 स्यान्मतम् तद्विषय इत्यादि यावच्चेदिति । स एव वृक्षार्थो विषयः पक्षः, तस्य पक्षस्य धर्मो वृक्षशब्दः, तस्मात् तद्विषयपक्षधर्मत्वादेव तुल्ये वृत्तिर्वृक्षार्थे, तच्च दृष्टम्, 'पक्षस्य धर्मो हेतुः' इत्यनयैवोक्त्या गतत्वाद् विशेषार्थगतिरेवेत्यर्थः । " अत्रोच्यते - अननुमानं तर्हि शब्दः, अनुमानाभास इत्यर्थः, पक्ष एव वृत्तत्वात् तेश्च कारणत्वेनाह, द्विलक्षणत्वादसाधारणवदित्यादि गतार्थं यावत् तद्विषयमात्रार्थत्वादन्यापोहशब्दार्थत्व15 स्येति, स एव विषयस्तद्विषयो वृक्षः, 'तन्मात्रमेव वाच्यम्' इत्युक्तमन्यापोहशब्दार्थत्वम् । अतोऽसाधारणविरुद्धते । किञ्चान्यत्, व्यतिरेकस्य स्वार्थासम्भवादपि व्यर्थतैव वा, अन्यापोहो हि व्यतिरेकमात्रम्, ' न भवति न भवति' इत्यभवन परमार्थत्वादुभयतोऽप्यभाव एव वन्ध्यापुत्रवत्, न स्वार्थः कश्चित्' इत्युक्तम् । तस्माद् वृक्षशब्दस्य व्यर्थतैव पक्षमात्रस्याप्यलक्षणत्वादव्यक्तश्रुतिवत्, यथा म्लेच्छ20 प्रयुक्तशब्दार्थो व्यावृत्तिमात्रार्थत्वात् स्वार्थमात्रस्याप्यलक्षणाद् व्यर्थो "हिस्तमिस्' इत्यादि तथा वृक्षशब्दः स्यादिति तदर्थाभावप्रदर्शनार्थमाह- गुणसमुदायो हीत्यादि । तस्मात् तद्वारेणानुमानासम्भव उक्तवदिति प्रागुक्तं तन्मतमेव स्मारयति, संवृतिसतः सामान्यसमुदायाख्यस्यासत्त्वाद् विशेषाणामृजु-वक्र - निर्विवरकोटरादीनामवाच्यत्वादिति । तस्मात् तदेकलक्षणतापि नास्ति, कुत एव स्वार्थाद्भिन्नस्याभूतस्य प्रतिपत्तिरैन्यस्य यतोऽन्यापोहः सिध्येत् स तु नास्त्यन्यः, तदभावात् तत्प्रतिपत्तिनिश्चयलभ्यप्रतिपत्ति25 लभ्योऽन्यो नास्ति, तत्प्रतिनिश्चयलभ्यो हि तुल्यातुल्यविवा (वे) कात्मेति । ४३७-१ 1 यच्च वृक्षशब्द इत्यादि । वृक्षार्थस्य पक्षस्याभावात् पक्षधर्मत्वाभावो वृक्षशब्दस्येति । तद्भावनाग्रन्थः तत् कथम् इत्यादि यावत् सेनाशब्दवदिति गतार्थः । गुणसमुदायसंवृत्यर्थत्वादिति हेतुः । वृक्ष१ तुलना - पृ० ६७० पं० १४ ॥ २ तुलना - पृ० ६७१ पं० १ ॥ ३ तुलना - पृ० ६७१ पं० १२ ॥ ४ तुलना- पृ० ६७१ पं० ४ ० ६७३ पं० २ ॥ ५ तुलना - पृ० ६७३ पं० ५ ॥ ६ तुलना - " साध्यधर्मो यतो हेतुः " प्र० समु० ३ । ७ । दृश्यतां टिपृ० ७४ पं० ३ टि० ३ ॥ ७ गतिरिवेत्यर्थः प्र० ॥ ८ अननुमाना प्र० ॥ ९ ( तत्र ? ) ॥ १० दृश्यतां पृ० ६७० पं० १ ॥ पं० १४, पृ० ६७१ पं० ३, १६ ( तत्प्रतिनिश्चय ? ) ॥ ११ पृ० ६५५ पं० २, ३ ॥ १२ हिस्तमिश्र य० ॥ पृ० ६७३ पं० १ ॥ १४ तुलना - पृ० ६७१ पं० १४ ॥ १७ स्य भावात् भा० ॥ १३ तुलना- पृ० ६५२ १५ रतस्य भा० ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । वृक्षशब्दस्य समुदायार्थवृत्तितैवेति चेत्, न, अभ्युपगतमूलादिसपक्षत्वात् तदतुल्यत्वाद् वृक्षार्थस्य तुल्यातुल्यवृत्त्यवृत्त्यादिवचनवैयर्थ्यमेव । संवृत्तिसत्यत्वाच्च समुदायस्यापि वृक्षवदनर्थत्वात् सेनावनादेरपि व्यर्थत्वमेव । रूपादिसत्यत्वप्रतिपादनार्थेऽपि च डित्याधुदाहरणे रूपादिपरस्परव्यावृत्त्याऽन्वयाभावे व्यतिरेकस्याभावात् न किञ्चित् सत्यम् , सजातीयासजातीयव्यावृत्त । खरूपत्वादत्यन्तापूर्वत्वादनिर्देश्यखलक्षणत्वात् । तस्मादतुल्ये पक्ष एव वृत्तिः शब्दस्य । नास्त्येव वार्थे वृत्तिः ___ शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते । अनागमविकल्पा तु स्वयं विद्योपवर्तते ॥ [वाक्यप० २।२३५] एवं सर्वत्रातुल्ये [पक्ष एव वृत्तेः] लिङ्गवच्छब्दोऽनुमानं न भवति प्रमाणमेव 10 वा न भवति । शब्दस्य समुदायार्थवृत्तितैवेति चेत् । स्यान्मतम्-वृक्षशब्दः समुदायेनार्थेनार्थवान् , मूलादीनां च समुदायो वृक्ष उच्यते, तस्मात् समुदायार्थवत्त्वाददोष इति । एतच्च न, अभ्युपगतेत्यादि, अभ्युपगतानां मूलादीनां तदात्मत्वेनैकत्वे संपक्षत्वम् , सपक्षादन्यत्वं पक्षत्वम् , तेनातुल्य[त्व]मन्यत्वं सैपक्षाद् वृक्षार्थस्य, तदतुल्यत्वात् तुल्यातुल्यवृत्त्यवृत्त्यादिवचनवैयर्थ्यमेव । किश्चान्यत् , संवृतिसत्यत्वाञ्च समुदायस्यापि 15 वृक्षवदनर्थत्वात् सेनावनादेरपि व्यर्थत्वमेव । 'अवृक्षो न भवति वृक्षः' इत्यस्य मूलादिस्वरूँपसत्तामात्रत्वेनाप्यतुल्य एव वृत्तिः, रूपादिभेदसमुदायसंवृत्यर्थत्वात् । रूपादिसत्त्वादर्थवान् स्यादिति चेत् , तदपि न, रूपादिसत्यत्वप्रतिपादनार्थेऽपि च डित्थाद्यदाहरणे त्वयैव काण-कुण्टादिगुणसमुदायान्वयाभावोक्त्याऽन्यापोहप्रयासे क्रियमाणे रूपादिपरस्परव्यावृत्त्याऽन्वयाभावे व्यतिरेकस्याभावात् 'न भवति न भवति' इत्यभवनपरमार्थत्वाद् न किञ्चित् सत्यम् । तत्कारणमाह- 20 सजातीयासजातीयव्यावृत्तस्वरूपत्वादिति, तत्सत्यस्यापि पुनः क्षणातिपातित्वात् क्षणे क्षणेऽत्यन्तान्यत्वाद् द्वितीयक्षणे तदभावात् कतमद् रूपम् , अत्यन्तापूर्वत्वाद् निर्बीजत्वादनिर्देश्यस्वलक्षणत्वात् ? स्वलक्षणमनिर्देश्यं रूपमिन्द्रियगोचरः [प्र. समु० १।११?] इति ह्युक्तम् । तस्मादतुल्ये पक्षे सपक्षासपक्षव्यावृत्त्या तत्रैव वृत्तिः शब्दस्य । नास्त्येव वार्थे वृत्तिः, अथवा शब्दस्याप्रामाण्यं प्रतिपन्नमेव त्वया, यस्मादेतत् त्वन्मतानुसार्येव ज्ञापकम्-शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरित्यादि 25 श्लोको गतार्थः । एवं सर्वत्रातुल्य इत्यादि । लिङ्गवच्छब्दोऽनुमानं [ न ] भवति प्रमाणमेव वा न भवतीत्युक्तस्यार्थस्य यथाप्रतिज्ञं प्रतिपादितस्योपसंहारः प्रोक्तार्थक्रमसङ्ग्रहात्मकः । १ दृश्यतां पृ० २४२ पं० ३, टिपृ० ७९ ॥ २ सपक्षादन्यत्वं तेनातुल्य भा० ॥ ३ सपक्षाद् वृक्षास्यर्थ तद य० । सपक्षाद् स्यर्थ तद भा० ॥ ४°दयस्यापि प्र० ॥ ५ अवृक्षे इत्यस्य भा०॥ ६ रूपासत्ता यः॥ ७°दायासंवृत्त्य प्र०॥ ८°सत्वा प्र०। (सत्यत्वा?)॥ ९°दायाभावो य०॥ १० दृश्यता पृ. ६०९ टि. ८ पं० १४॥ ११ चाथै प्र०॥ १२ यथाप्रतिज्ञा प्रतिपादित य० । यथाप्रतिपादित भा० ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे शब्दवत्तु लिङ्गे द्वैलक्षण्यमेव स्यात्, [ पक्ष एव वृत्तत्वात् , असाधारणवत्। एकलक्षणत्वमन्वयव्यतिरेकाभावाद् विरुद्धवत् । सपक्षवृत्त्यभावादन्यत्र वृत्त्यसम्भवादन्वयाभावाद् व्यतिरेकव्यापारावकाशाभावादेकलक्षणं वा शब्दवल्लिङ्गमपि। 5 सन्निहिततायामप्यननुमानत्वम् , तावन्तरेणाप्यनुमानत्वोपपत्तेः, साध्यधर्मसाधनव्याप्तिवत् । ततस्तयोरकारणत्वादेकलक्षणं शब्दवल्लिङ्गमपि । अनुमानत्वादेकलक्षणत्वाच्च 15 ४३८-१ 'लिङ्गमपि शब्दवन्न भवति' इत्युपपादयिष्यामीत्यत आह-शब्दवत्तु लिङ्गे द्वैलक्षण्यमेव स्यादित्यादि । प्रथममेव तावदनुमानत्वाच्छब्दवद् द्विलक्षणं लिङ्गमिति साधयति, ततो 'द्विलक्षणत्वाद10 साधारण इत्यादि यदुक्तमनन्तरं शब्दे दोषजातं तत् सर्वं लिङ्गस्य शब्दवदित्येवोक्तक्रमेण ज्ञेयम् ।। ___ एकलक्षणत्वमन्वयव्यतिरेकाभावात् पक्षधर्मत्वमानं विरुद्धवदिति शब्दे यदुक्तं तद् लिङ्गे स्यात् । तद्व्याख्या-सपक्षवृत्त्यभावात् , किमुक्तं भवति ? अन्यत्र वृत्त्यसम्भवात् , पक्षादन्यत्रावृत्तेरित्यर्थः । अत एवान्वयाभावाद् व्यतिरेकव्यापारावकाशाभावः, तस्माद् व्यतिरेकव्यापारावकाशाभावादेकलक्षणं वा शब्दवल्लिङ्गमपि, शब्दस्य चैकलक्षणं प्रोगुक्तं विरुद्धवदन्वयव्यतिरेकाभावादिति । सन्निहित]तायामप्यननुमानत्वमर्थप्रतिपत्तावकारणत्वम् , तावन्तरेणाप्यनुमानत्वोपपत्तेः, __ विनापि ताभ्यामर्थगतेस्तयोः सन्निधानमप्यकारणम् । किमिव ? साध्यधर्मसाधनव्याप्तिवत् , यथा 'यत् कृतकं तदनित्यम्' इति कृतकत्वस्यानित्यत्वेनाविनाभावेन व्याप्तत्वादविनाभाविनोऽनित्यत्वस्य गतिः कृतकत्वादिष्टा, न तु 'यदनित्यं तत् कृतकम्' इत्यनित्यत्वस्य कृतकत्वेनाविनाभाविना, व्याप्तौ सत्यामप्यगतेः अन्यत्र तदभावे सत्यविवक्षितत्वात् पँयत्नानन्तरीयकत्वादौ त्वन्मतेन यथा तहाप्यन्वयव्यतिरेको सन्नि20 हितावप्यकारणम् , शब्दार्थे तोद्धर्म्यमात्रात् तद्गतेः । तस्मादन्वयव्यतिरेकसन्निधानेऽपि अकारणत्वान्नार्थः शब्दार्थगतौ ताभ्याम् । यथानुमानविचारेऽभिहितम् प्रतिषेध्याप्रचारेण यस्माद व्याप्तिरपेक्ष्यते । लिङ्गस्य लिङ्गिनि व्याप्तिस्तस्मात् सत्यप्यकारणम्॥ [प्र० समु० २।२२३ ] इत्यादिकारिकार्था गमः कार्यः । ॐ ततः किम् ? ततस्तयोरकारणत्वात् पक्षधर्मत्वमात्रकारणत्वादेकलक्षणं शब्दवल्लिङ्गमपि, अनुमानत्वादेकलक्षणत्वाच्च 'विरुद्धोऽपि तेऽनुमानम्' इत्यापन्नम् एकलक्षणत्वाच्छब्दवदभिमतविलक्षणलिङ्गवच्च । माशंकिष्ठा एकलक्षणत्वमसिद्धमित्यत आह स्मारणार्थमुक्तन्यायसिद्धस्यैकलक्षणत्वस्य - उक्तवच्छब्दवदिति । १ पृ. ६६८ पं० २॥ २ पृ. ६६८ पं० २,३ ॥ ३ स्याद्व्याख्या य० ॥ ४ लक्षणं शब्द य० ॥ ५ दृश्यतां पृ० ६६८ पं० २॥ ६संनिहितायामप्य भा० । संनिहियामप्य य० ॥ ७ गतेरत्र तदभावे य०॥ ८ प्रति. पन्नान्तरीय प्र० ॥ ९ तात्वर्ण्य भा० । त्वर्य य० ॥ १० दृश्यतां पृ० ४४३-२, ४५८-२॥ ११°रपेहते प्र० । दृश्यतां पृ०४५९-१॥ १२ लिंगल्य लि° भा० । लिगलि य० ॥ १३ नुसमा प्र० ॥ १४ शब्दल्लिंग भा० । शब्दलिंग य॥ १५ लक्षलिंगवत्व य०॥ १६ शंष्टो एक प्र०॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । विरुद्धोऽपि तेऽनुमानं स्यात् उक्तवत् । शब्दोऽपि वा नानुमान विरुद्धवत् । व्यर्थतैव वा, स्वार्थस्याप्यभावोऽनध्यवसायवद् विपर्ययवद्वा । अग्निरत्र धूमादिति खार्थानुमाने गुणसमुदायो हि धूमाख्योऽर्थः । बहलकुटिलत्वाद्यानन्त्ये च धूमत्वाभावः । तस्मात् तद्वारेणानुमानासम्भव इति तदेकलक्षणतापि नैव, कुंत एवान्यापोहः ? पक्षधर्येव वा धर्मस्याधारः प्राप्नोतीति तस्मिन्नेव वृत्तिः स्यात् पक्षधर्ममात्र- 5 लक्षणा, न तुल्यान्वयात्मिका । अन्यत्र च वृत्तौ सत्यां व्यतिरेकाकाङ्क्षा स्यात् । सा तु सपक्षाभावान्नास्तीत्यन्वयव्यतिरेकाभावः। शब्दोऽपि वा नानुमान विरुद्धवदिति शब्दस्यानुमानत्वाभावे लिङ्गस्यापि प्राप्तमेवा[न]नुमान[त्वम् ], द्वयोरपीत्यभिप्रायः । व्यर्थतैव वेत्यादि शब्दवद् लिङ्गस्य वैयर्थ्य प्राग्व्याख्यातविधिना योज्यम् । स्वार्थस्येति 10 पक्षधर्ममात्रस्याप्यभावोऽनध्यवसायवत् म्लेच्छशब्दज्ञानवत् , 'विपर्यय[व] द्वेति विरुद्धज्ञानवत् । तद् भावयति-अग्निरत्र धूमादित्यस्मिन्नपि स्वार्थानुमाने गुणसमुदायो हि धूमाख्योऽर्थ इति, वृक्षस्य मूलादिकोटराद्यानन्ये वाच्यत्वाभाववत् बहल-कुटिलत्वाद्यानन्त्ये च धूमत्वाभावः ज्ञातसम्बन्धत्वा-४३८-२ भावात् संवृतिमात्रत्वाञ्च समुदायस्य तदर्थागतेः । तस्मात् तद्द्वारेणा[न]नुमानमित्यलक्षणं लिङ्गं स्वार्थमात्रस्यापीति । इति तदेकलक्षणतापि नैव, इत्थमुक्तं स्वार्थमात्रालक्षण त्वम् । स्वार्थमात्रालक्षण]त्वे 15 कुत एव तस्यागृहीतत्वात् ‘स भवति धूमो नाधूमोऽन्यो भवति' इतिविषयत्वादुभयप्रतिपत्तेरभावेऽन्याभावादन्यापोहः ? कुतः ‘अग्निरियन ग्निर्न भवति, धूम इत्यधूमो न भवति' इति च ? दूरत एवैतन्न घटॉमियति । पक्षधर्येव वेत्यादि । यथैव 'वृक्ष एव, न कश्चित् सपक्षः' इति प्रसञ्जिता शब्दार्थवृत्तिस्तथा 'अग्निः' इति पंक्षो धर्मी धूमस्य धर्मस्याधारः प्राप्नोति अनुमेयत्वादिति सपक्षस्य तुल्यादेरभावः, तदभ्युपगमे 20 पक्षाभावः प्रागुक्तशब्दानुमानविषयवत् , इति तस्मिन्नेव वृत्तिः स्यात् पक्षमात्रे सपक्षाभावात् । सा कीदृशी ? इति चेत्, उच्यते-पक्षधर्ममात्रलक्षणा । किमुक्तं भवति ? न तुल्यान्वयात्मिका, अन्वयार्थाभावाद् न स्याद् वृत्तिः । अन्यत्र "चेत्यादि, पक्षधर्मस्य चान्यत्र सपक्षे सत्यां वृत्तौ तुल्ये 'तद्वदतुल्येऽपि वृत्तिः स्यात्' इत्याशङ्काया व्यावृत्तये व्यतिरेकाकाङ्क्षा स्यात् , सा तु सपक्षस्यैवाभावान्नास्ति व्यतिरेकाकाङ्क्षा । तस्मादन्वयव्यतिरेको न स्तः । 25 १ तुलना पृ० ६६८ पं. ६॥ २ तुलना-पृ० ६६८ पं० ७, पृ. ६७३ पं०२॥ ३'पक्षधम्र्येव च धर्मस्याधारः' इत्यपि भवेत् पाठः ॥ ४व्यर्थत्तेत वे प्र०॥ ५भावो.........नध्य य० ॥ ६विपर्ययद्वेति भा० । विपर्ययाद्वेति य०॥ ७ तुलना पृ० ६५२ पं० १४, पृ० ६६८ पं. ५, पृ. ६७३ पं० १॥ ८°भावावत् भा० । भावात् य० ॥ ९ 'तस्मान्न तद्वारेणानुमानम्' इत्यपि पाठो भवेत् ॥ १०°मात्रत्वालक्षण य० ॥ ११ तस्य गृ भा०॥ १२ नाधमोन्यो न भवति य०॥ १३ °मियत्ति प्र०॥ १४ पक्षधयेच वेत्यादि प्र. । ( पक्षधर्येव चेत्यादि ?)॥ १५ पक्षो धर्मा भा० । पक्षधर्मो य०॥ १६ नेत्यादि य० ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे अथ च भवति ज्ञानं ततः प्राप्ते प्रत्यक्षे शाब्दलैङ्गिकेऽपि ज्ञाने, अन्वयव्यतिरेकवियुततथ्यज्ञानत्वात् अविकल्पकत्वात्, सन्निकृष्टार्थवत् । अत इदं पूर्वापरासमीक्षयैवोक्तं न प्रमाणान्तरं शाब्दमनुमानादिति । नाप्रमाणान्तरं शाब्दमनुमानात् तथाहि तत् । 5. कृतकत्वाद्यपि स्वार्थमात्मापोहेन नाशयेत् ॥ यदि न प्रमाणान्तरं [शाब्दमनुमानात्, तथाहि-तत् स्वार्थमन्यापोहेन भाषते] कृतकत्वादिवत् ततोऽन्यापोहार्थकृता दोषा न शब्द एवैकस्मिन् , किं तर्हि ? तद्विधदोषजालोपनिपातसम्बन्ध्येव तेऽनुमानमपि । नन्वेवं कृतकत्वाद्यप्यनुमानं खार्थमात्मापोहेन नाशयेदेव, अन्यापोहेन ........", अन्यापोहशब्दार्थवत् । 10 धूम इत्यधूमो न भवतीति निरन्वया प्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिरेव, ग्राह्यदर्शनरहितत्वात् स्थाण्वस्थाण्वप्रतिपत्तिवत् । अथ च भवति ज्ञानमिति । विनाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां भवति ज्ञानम् 'धूमोऽयम् , अग्निरयम् , वृक्षोऽयम्' इति । ततः किम् ? ततः प्राप्ते प्रत्यक्षे। कतमे ते प्राप्ते ? शाब्द-लैङ्गिकेऽपि ज्ञाने प्रत्यक्षे ४३९-१ एव प्राप्नुतः । कस्मात् ? अन्वयव्यतिरेकवियुततथ्यज्ञानत्वात् अविकल्पकत्वात् सन्निकृष्टार्थ15वदिति व्याख्यातो(ता)र्थसङ्ग्रहः । साधनं स्वार्थपरार्थानुमानयोः शाब्दलैङ्गिकयोः प्रत्यक्षत्वासञ्जनं गतार्थम्। किञ्चान्यत् , अत इदमित्यादि । 'स्वप्रतिपाद्यवस्तुधर्मत्वे सति अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तस्य गमकत्वात् अनुमान शाब्दम् , नानुमानादन्यत् प्रमाणम्' इत्येतदपि अत एव पूर्वापरासमीक्षयैवोक्तम् , अन्वयव्यतिरेकरहितत्वस्योक्तत्वात् प्रत्यक्षत्वस्योपंपादितत्वात् । एष तु पाठो घटमान उपलक्ष्यते-नौप्रमाणान्तरमित्यादि श्लोकः । यदि न प्रमाणान्तरमि20 त्यादि तदेव प्रत्युच्चारयति यावत् कृतकत्वादिवदिति । ततोऽन्यापोहार्थत्यादि दोषोपन्यासः । न शब्द एवैकस्मिन्निति यथा मयोक्ताः शाब्दप्रत्यक्षप्रसङ्गादिदोषाः अन्यापोहार्थकृताः केवले, किं तर्हि ? तद्विधदोषजालोपनिपातसम्बन्ध्येव तेऽनुमानमपि । तत् कथमिति चेत् , तर्हि तदेवं प्रकाश्यते-नन्वेवं कृतकत्वाद्यप्यनुमानं स्वार्थ परार्थं वा त्रिलक्षणं लिङ्गं शब्दवदुक्तविधिना स्वार्थमात्मापोहेन नाशयेदेव, न न नाशयति, इयं प्रतिज्ञा । हेतुः-अन्यापोहेनेत्यादि गतार्थः, दृष्टान्तश्च यावदन्यापोहशब्दार्थ25 वदिति साधनम् । तस्य भावना साधनम्-धूम इति अधूमो न भवति इति निरन्वया प्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिरेवेति प्रतिज्ञा । ग्राह्यदर्शनरहितत्वादिति हेतुः । स्थाण्वस्थाण्वप्रतिपत्तिवदिति दृष्टान्तः, यथा १ पृ.६७४ ॥ २ 'ग्राह्यधूमदर्शन' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् । ( ग्राह्याग्राह्यदर्शन ?॥) ३°संग्रहः स्वार्थपरार्थ य० ॥ ४ पयादित्वात् भा० । पयाचितत्वात् य० ॥ ५ नाप्रमाणमित्यादि य० ॥ ६ ( शाब्द ?)॥ ७ शब्दिप्रत्यक्ष भा० । ( शाब्दे प्रत्यक्ष° ?)॥ ८ चेत् एतर्हि भा० ॥ ९ इति धूमो भा० ॥ १० प्रतिपत्तिरेवेति य० ॥ ११ ग्राह्यामदर्शन प्र० । 'ग्राह्यधूमदर्शन' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् । (ग्राह्याग्राह्यदर्शन ? ग्राह्यस्य दर्शन ?)॥ १२ स्थाण्वप्रतिपत्ति भा० ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् गुणसमुदायो हि धूमाख्योऽर्थः [बहलपाण्डुत्वाद्यानन्त्ये च धूमत्वाभावः, तस्मात् तद्वारेणानुमानासम्भव इति तदेकलक्षणतापि नैव] कुत एवान्यापोहः, अगृहीतब्राह्मणाब्राह्मणार्थाप्रतिपत्तिवत् । एवं तावद्भूमार्थ एव न निश्चीयते, किं पुनर्यत्रासौ वर्तते? __ यच धूमोऽग्निमत्प्रदेशधर्म इति तदपि नन्वल्पबहुताप........ गुणसमुदायोऽसौ, नाग्निदेशौ नाम कौचिदपि स्तः । तज्ज्ञानाभ्यां तु तदर्थाध्यारोपणेन..................... "इत्यादि यावदन्योपादानमात्मनश्च त्यागः। सपक्षासपक्षयोरप्येवमेव यावदात्मनश्च । स्थाण्वस्थाणुविषयविज्ञानरहितस्य ग्राह्यस्य [ दर्शनाभावादप्रतिपत्तिनिरन्वयत्वात् तथा धूम इत्यधूमो न भवतीति । 10 तद्व्याख्या -[णसमुदायो हीत्यादि पूर्ववदेव भावनीयं पाण्डुत्वाद्यक्षरविशेषं यावत् कुत ३९-२ एवान्यापोहः, अगृहीतब्राह्मणाब्राह्मणार्थ(र्था)प्रतिपत्तिवदिति साधनेनैव भावितमप्रतिपत्तित्वम् । एवं तावद्भूमार्थ एव न निश्चीयते, किं पुनर्यत्रासौ धूमो गुणसमुदाये परमार्थेऽग्नौ वर्तते ? सोऽपि न निश्चीयतेऽग्निरित्यर्थः । ताभ्यां चाग्निधूमाभ्यां ततोऽन्ययोरनम्न्यधूमयोरपोहौ स्याताम्, तदभावात् कुतस्तावपि ? इति । 15 __ यच्च धूम इत्यादि *धर्मेऽग्नौ सिद्धे तद्वति प्रदेशे च धर्मिण्यग्निमति सिद्धेऽग्निमत्प्रदेशधर्मो धूमः सिध्येत् , तत् सर्वमसिद्धमिति तदर्शयति तदपि नन्वल्पबहुतापेत्यादि* समासदण्डको यावद् गुणसमुदायोऽसौ, नाग्निदेशौ नाम कौचिदपि स्त इति तमेव तदुक्तं न्यायं दर्शयति । तज्ज्ञानाभ्यां त्विति अग्निदेशज्ञानाभ्यां तदर्थाध्यारोपणेनेत्यादिना तमेवाशेषमतीतं ग्रन्थमतिदिशति यावदन्योपादानमात्मनश्च त्याग इति पँन्थावधिं च दर्शयति समानप्रचर्चत्वादिति । एवं तावत् 20 पक्षधर्मस्य चानुपपत्तिाख्याता 'किं भवदेव भवति उताभवत्, अन्यदनन्यत् , अपोहश्च गुणसमुदायपरमार्थश्च स्वार्थः' इत्यादिविकल्पैरात्मापोहात् । सपक्षासपक्षयोरप्येवमेवेत्यतिदिशति, तैरेव विकल्पैर्विचार्यमाणयोः सपक्षासपक्षयोरप्यभावात् । सपक्षासपक्षावपि भवन्तावेव भवत उताभवन्तौ अन्यानन्यावपोह्यो(हौ) गुणसमुदायस्वार्थों 'चेत्यादिविकल्पैरात्मापोह इति समानत्वात् । आ कुत आरभ्य ग्रन्थ इति चेत्, उच्यते-किमन्यत्वे न सामान्य-भेद-पर्यायवाच्यनुत् ? विधिः । ननु इत्येतस्माद् ग्रन्थावधेरा-25 रभ्यातीतो ग्रन्थो योज्यः । कियदैवधिरिति चेत् , उच्यते-इंदमस्मिन्नन्तरे यावदात्मनश्चेति । ४४०-१ १तुलना-पृ. ६६८ पं० ७, पृ. ६७१ पं० ४ ॥ २ पृ. ६५७ इत्यत्र कदाचिद् भवेदतिदिष्टः पाठः ॥ ३ ग्राह्यस्पर्शनाभावा प्र.॥ ४ तुलना-पृ० ६६८ पं० ५ पृ. ६७१ पं. ३॥ ५पाण्डुरत्वाद्य भा० ॥ ६ * * एतचिह्नान्तर्गतः पाठो य० प्रतौ नास्ति ॥ ७ग्रन्थाविधिं य० । ग्रन्थाविविधि भा०॥ ८वनन्यापोह्यो भा० । वन्यापोह्यो य० ॥ ९ वेत्यादि इति सम्यग् भाति ॥ १० पृ० ६३७ पं० ५-पृ० ६३८ पं० १॥ ११ बाध्यतुत् प्र०॥ १२ न तु प्र० ॥ १३ दवधेरिति प्र० ॥ १४ इयम य० ॥ नय०८५ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे यथा कृतकत्वादेर्न पक्षस्तेनैव न्यायेन न पक्षोऽन्यापोहवादिनः । एवं नास्य सपक्षो नासपक्षः । एवमनुमानमप्रमाणमेव, अतत्तत्प्रत्ययात्मकत्वात्, अलातचक्रधीवत् । शाब्दमपि नाप्रमाणान्तरम्, अप्रमाणमेवानुमानवत् । इदमपि चात एव पूर्ववदलक्षणं यत् त्वयोक्तम् ६७४ शब्दः, एतस्य ग्रन्थस्योपरि उपसंहारग्रन्थः प्रागुक्तन्यायप्राण एव यथा कृतकत्वादेर्न पक्ष: 'अनित्यः अग्निरे' इति वा स्वार्थपरार्थयोस्तेनैव न्यायेन न पक्षोऽग्निविशिष्टो देशोऽनित्यत्वविशिष्टः शब्दो 10 वान्यापोहवादिनः ' न भवति न भवति' इत्यभवनपरमार्थत्वादुभयतोऽप्यभावमात्रत्वात् । तस्मिंश्चासत प्रदेश- शब्दादिधर्मिणि पक्षे कुतस्तस्य पक्षधर्म: ? इति पक्ष-धर्मो न स्तः । एवं नास्य सपक्षो नासपक्ष इति तथा भावितार्थमेव बहुधा । तथाङ्गं येन रूपेण लिङ्गिनं नातिवर्तते । तेनैवानेकधर्मापि गेमकं नेतरेण तु ॥ 1 एवमनुमानमप्रमाणमेव, अतत्तत्प्रत्ययात्मकत्वात्, अलातचक्रधीवदिति । पक्ष-सपक्षाSeपक्षव्यवस्थानाद्धि त्रैलक्षण्यव्यवस्थातश्चानुमानप्रामाण्यमिष्यते । तदेवं पक्षाद्यतथार्थत्वात् 'अतस्मिंस्तदिति 15 प्रत्ययोऽनुमानम्' इति सुभावितार्थम् । तस्मादतत्तत्प्रत्ययात्मकत्वादनुमानमप्रमाणम्, अलातचक्रे भ्रमदृष्टेः पुंसोऽचक्रे 'चक्रम्' इति प्रत्ययवदिति । तस्मात् साधूक्तम् ४४०-२ अप्रमाणादनुमानात् परपरिकल्पितं शाब्दमपि नाप्रमाणान्तरं नार्थान्तरम्, अप्रमाणमेवानु20 मानवदिति प्रकृतोपसंहारार्थः । नाप्रमाणान्तरं शाब्दमनुमानात् तथाहि तत् । कृतकत्वाद्यपि स्वार्थमात्मापोहेन नाशयेत् ॥ इति । इदमपि चात एव पूर्ववदलक्षणम् । न प्रमाणान्तरं शाब्दम् [ प्र० समु० ५ १ ] इति लोक थान []क्षणं तथेदमपि लिङ्ग- लिङ्गिनोर्गमक-गम्यनियमार्थकम् । कतमत् तदिति चेत्, उच्यतेयत् त्वयोक्तम् तथाङ्गमित्यादि । लिङ्गमङ्गं धूम - कृतकत्वादि लिङ्गिनम् अग्न्यनित्यत्वादिविशिष्टं देश-शब्दादिमर्थ नातिक्रम्य वर्तते येन रूपेण, केन च नातिवर्तते ? 'धूम इत्यधूमो न भवति, कृतक इत्यकृतको 25 न भवति' इत्यधूमाकृत कनिवृत्यात्मना नातिक्रामति, तेनैव च रूपेणान्यतो व्यावृत्त्यात्मकेन गमयति, सत्त्व द्रव्याद्यनेकधर्मापि संस्तैस्तु व्यभिचारान्न गमयति सत्त्वादिसामान्यधर्मैरिति । एष तावद् गमकनियमः । गम्यनियमोऽपि गम्यन्त इत्यादि । लिङ्गिनः अनुबन्धिनः सामान्यधर्माः सत्त्व- द्रव्यत्वादयो गम्यन्ते / प्र० ॥ १ ( गमतीतरैर्न तु ? ) ॥ २ रत्रेति रत्रेति वा प्र० ॥ ३ वान्यापोह प्र० ॥ ४ णमेव तत्तत्प्र ५ द्वि० ॥ ६ मिष्येते य० । दृश्यतां पृ० ६६६ टि० २ ॥ ८ यथा नक्षणं प्र० । ( यथाऽलक्षणं ? ) ॥ संस्तैस्त्वाद्यभि भा० । ( संस्तैस्तद्व्यभि° ) ॥ ७ दृश्यतां पृ० ६७२ पं० ४ ॥ १० संस्तैस्त्वाव्यभि य० । ९ तुलना - पृ० ६५३ पं० ५ ॥ ११ अनुबन्धनः सान्यधर्माः प्र० ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीता पोहवादनिरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् यन्ते तेsपि लिङ्गेन 'लिङ्गिनो येऽनुबन्धिनः । विशेषा न तु गम्यन्ते तस्यैव व्यभिचारिणः ॥ लिङ्गानुबन्धिनस्त्वर्था गमयन्ति न लिङ्गिनम् । यभिचाराद् विशेषास्तु प्रतीताः प्रतिपादकाः ॥ [प्र० १६३ समु० २१८३] किमङ्गम् . . . . . . . * *** यत्तूक्तं नै सर्वत्र लिङ्गिनि लिङ्गं सम्भवति यथा अग्निरत्र धूमात् [ ] तदिदमयप्रेक्ष्यवादिता । यदि लिङ्गयेव तत् सर्वं कथं तस्य लिङ्गं नास्ति ? अथ नास्ति लिङ्गं कथं तद्वान् । ६७५ अग्निधूमोदाहरणे च 'अग्निरत्र' इति निर्देशादग्निमत्त्वेन देशस्य साध्यत्वादग्निमति प्रदेशे सर्वत्र धूमवत्त्वं लिङ्गमस्त्येव । || 5 तैरविनाभावाल्लिङ्गस्य । विशेषास्तौष - कारीषादयो न गम्यन्ते तस्यैव, व्यभिचारित्वाद् लिङ्गस्य विशेषैः सहादृष्टत्वात् । एवं लिङ्गस्यान्यव्यावृत्तं सामान्यं गमकम्, नाव्यावृत्तमन्यतः सत्त्वादि । लिङ्गिनः सामान्यं गम्यं निवृत्तमनग्न्यादिभ्योऽग्नित्वं सत्त्वादि चाग्नित्वानुबद्धमव्यभिचारादिति । लिङ्गे त्वयं पुनर्विशेषः-लिङ्गानुबन्धिनस्त्वर्था इत्यादिश्लोकः । पूर्वोदाहृताः सामान्यधर्माः सत्त्वादयो लिङ्गस्य धूमस्य न गमयन्ति, उक्तकारणत्वात् । विशेषास्तु केचिद् लिङ्ग्यविनाभाविन: 15 प्रतीताः प्रतिपादकाः पाण्डुत्व - बहुलत्वादय इति । एतत् पुनः कथं पूर्ववदलक्षणम् ? इत्यत आह- किमङ्गमित्यादि लोकत्रयं क्षेपप्रस्तारेणोपन्यस्तं समस्तस्य त्वदुक्तस्यार्थ जातस्य पूर्वोक्तेन ' न भवति, न भवति' इत्यभवनपरमार्थत्वात् खपुष्पवदर्भावेन गम्यगमक नियमो नास्त्येवेति गतार्थम् । 10 किञ्चान्यत्, यत्तूक्तमित्यादि पूर्वपक्षप्रत्युच्चारणं यावद्धूमादिति । यत् स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनाद 20 गमकत्वं समर्थयतोक्तं 'न सर्वत्र लिङ्गिनि लिङ्गं सम्भवति' इति, तदिदमप्यप्रेक्ष्यवादितया, ४४१-१ न वादिता कौशलमित्यभिप्रायः । तद् व्याचष्टे - यदि लिङ्गयेवेत्यादि । लिङ्गमस्यास्तीति लिङ्गि, यदि तत् सर्व लिङ्गि भस्माङ्गारायगुडपाकाद्यग्न्याख्यं वस्तु कथं तस्य लिङ्गं नास्ति लिङ्गाभावे लिङ्गित्वस्यैवाभावात् ? मत्वर्थीयेनिर्देश्यस्य लिङ्गित्वाभ्युपगमादेव लिङ्गास्तित्वमित्यभिप्रायः । अथ नास्ति लिङ्गं कथं तद्वान् ? 'लिङ्गमस्यास्ति' इति लिङ्गवान् लिङ्गीत्यर्थः, मत्वर्थीयनिर्देश्यो न भवितुमर्हति सोऽर्थस्तन्नि- 25 मित्तत्वाभावादिति स्ववचनविरोधि ते वचनमिति । अग्निधूमोदाहरणे चेत्यादि । इदं तावत् प्रष्टव्योऽस्ति - 'अग्निरत्र धूमात्' इति इदमः प्रत्यक्षविषयस्य प्रातिपदिकस्य सप्तम्यन्तनिर्देशे 'अत्र' इति प्रत्यक्षोपलभ्यधूमाधारप्रदेशाभिसम्बन्धो धूमवत्त्वाद्धूमादिति यथा 'अग्निरत्र' इति धूमाधार प्रदेशप्रत्यक्षनिर्देशादग्नेः परोक्षस्य जिज्ञासितत्वात् तद्वत्त्वेन देशस्य १ (ये लिङ्गिन्यनुबन्धिनः ? ) ॥ २ दृश्यतां पृ० ४५७-२ ॥ ३ सांख्यकारिका युक्तिदीपिकायाम् [ पृ० ४५] उद्धृतमेतत् ॥ ४ दृश्यतां पृ० ६५२ पं० १३, पृ० ६६२ पं० १ ॥ ५ चाग्निनानु य० ॥ ६ स्वार्था प्र० ॥ ७ क्षेपप्रश्नारे भा० । प्रेपप्रस्तारे' य० ॥ ८ भावे गम्य भा० ॥ ९ पृ० ६५२ पं० १ ॥ १० नवाधिवाकौशल प्र० । ( न वादिवाकौशल ? ) ॥ ११ यनिर्देशस्य लिंगि मा० । 'यनिर्देश्य लिंगि य० ॥ १२ समाधार प्र० ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे अयोगुडाङ्गाराद्यग्नौ धूमासम्भवादिति चेत्, न, अग्निसत्त्वस्य सिद्धत्वात् तद्विषयलिङ्गालिङ्गत्वात् तदलिङ्गित्वात् प्रत्यक्षाविषयवत् । तदसिद्धौ पक्षधर्मादिनिर्मूलत्वात्। 'अत्र' इत्यभिधेयस्य लिङ्गित्वादग्निधूमवत्तयोश्च विभागविवक्षायां साध्य 5 साध्यत्वात् , इतरथा 'अत्र' इत्यनर्थको निर्देशः स्यात् , तस्मात् सर्वलोकप्रसिद्धेऽग्निमति प्रदेशे साध्ये सर्वत्र धूमवत्त्वं लिङ्गमस्येव । न च सर्वाग्निमत्प्रदेशसाध्यत्वम् , तत्र दृष्टान्ताभावादसाधारणतादिदोषप्रसङ्गात् । ४४१-२ तस्मादस्ति सर्वत्र लिङ्गिनि लिङ्गमिति । अयोगुडाङ्गाराद्यग्नौ धूमासम्भवादिति चेत् । स्यान्मतम् – सर्वत्र लिङ्गिनि लिङ्गं नास्ति, अयोग्नौ गुडाग्नावङ्गारामौ च कन(ज्वल)त्स्वपि धूमस्य प्रत्यक्षत एवादर्शनादिति । एतच्च न, अग्निसत्त्वस्य 10 सिद्धत्वात् । न हि 'अग्निरत्र' इति प्रतिज्ञायां प्रतीतमग्निसामान्यं साध्यते, अग्निसत्तायाः प्रतीतत्वाल्लोके प्रत्यक्षोपलब्धधूमबलेन 'अत्र' इति देशविशिष्टस्याप्रत्यक्षस्य सिसाधयिषितत्वात् अयोगुडाङ्गारभस्मच्छन्नाद्यग्निष्वपि धूममात्रायाः कस्याश्चिद् दर्शनात् तदविनाभावात् । तद्विषयलिङ्गालिङ्गत्वादिति, अयोगुडाङ्गारादिविषयस्य लिङ्गस्य धूमस्यालिङ्गत्वात् असत्त्वादविवक्षितत्वादप्रत्यक्षत्वाद्वेत्यर्थः । तदलिङ्गित्वात् प्रत्यक्षविषयवदिति, ते ह्ययोगुंडाङ्गाराद्यग्नयो न लिङ्गिनो लिङ्गाभावात् तेषां तस्यामवस्थायाम् , देशे च 15 तस्मिन्नतिज्ञातत्वात् । लिङ्यते च लिङ्गदर्शनबलेन लिङ्गि वस्तु । न हि ते लिङ्यन्ते "लिङ्गादर्शनाद् लिङ्गनिरपेक्षप्रसिद्धेश्च, यथा प्रत्यक्षोपलब्धिकाले । तस्मात् तेषामलिङ्गित्वात् प्रत्यक्षदलिङ्गं धूमस्तेषाम् । यत्र चासो लिङ्गं तत्र 'लिङ्गिनि देशे सिद्धत्वादेव लिङ्गम् , तंत्राऽसिद्धेरग्नित्वेन "देशे लिङ्गयेवेति ।। स्यान्मतम्-अयोम्यादीनामप्यसिद्धत्वात् पक्षान्तर्गतत्वे सति उच्यते न सर्वत्र लिङ्गिनि अग्निमति दृश्यते धूम इति । एतदयुक्तम् , तदसिद्धौ पक्षधर्मादिनिर्मूलत्वात् , तेषामप्ययोग्न्यादीनां साध्यत्वे ___ 20धूमः सर्वत्र धर्मिण्यभावादव्यापी पक्षधर्मोऽसिद्धौ वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत् स्यात् । देशविशेषानपेक्षाग्नि *सामान्यसाध्यत्वे सपक्षाभावादसाधारणत्वम् 'अत्र' इत्यभिधानवैयर्थं च स्यात् । तन्मा भूदिति 'अत्र' शब्दवाच्यस्याग्निविशिष्टस्य धूमविशिष्टत्वेन स्वयमात्मनैव आत्मनः साध्यत्वात् साधनत्वाच्च लिङ्गित्वं लिङ्गत्वं चेत्यत आह-'अत्र' इत्यभिधेयस्य लिङ्गित्वादग्निमद्धमवत्तयोश्च विभागविवक्षायां साध्यसाधनधर्मभावादिति । स एव हि प्रदेशोऽग्निमत्त्वेन साध्योऽप्रत्यक्षाग्निकत्वात्, १°गुंडागारा भा० । 'गुंडागारा' य० ॥ २ च सत्स्वपि धूमस्य' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ३ऽप्रतीत प्र०॥ ४ अयोगुंडागारा° भा० । अयोगुडागारा य०॥ ५ वयोगुंडांगारा भा० । अयोगुंडागारा य० ॥ ६ अविवक्षि भा० ॥ ७ तदलिंगत्वात् प्र०॥ ८°गुंडांगारभा० । गुडागारा य० ॥ ९ तस्मिन् विज्ञातत्वात्' इत्यपि पाठो भवेत् । यदि त्वत्र लिंगेन सम्बन्धो विवक्षितस्तर्हि 'तस्मिन्न विज्ञातत्वात्' इत्यपि पाठो भवेत् ।। १०लिंगदर्शनाद प्र०॥ ११°वदिलिंगं भा० । °वतिलिंगं य० ॥ १२ लिंगिनिर्देशे भा०॥ १३ तत्रासिद्धे भा० । तत्रत्सिद्धे य०॥ १४ (देशो?)॥ १५ पक्षधर्मोऽसिद्धो' इत्यपि पाठः स्यात् । तथा चायं प्रतिज्ञाथैकदेशासिद्धो हेतु यः। दृश्यतां पृ० ६६५ टि. १॥ १६ * * एतचिहान्तर्गतः सामान्य' इत्यत आरभ्य ऽप्रत्यक्षाग्नि इत्यन्तः पाठो य० प्रतौ द्विर्भूतः॥ १७ दृश्यतां पृ० ६६६ दि० २॥ १८ श्वाविभाग भा०॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीत पोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् साधनधर्मभावाल्लिङ्गिनि लिङ्गस्यासम्भवो न सम्भवति तयोस्तत्रैव प्रधानोपसर्जनभावेन परस्परं नियतभावत्वात् । अग्निमत्प्रदेशपरिचिच्छित्सायाम् · तत्सम्बन्धिमत्प्रतिपत्तिश्च यदि च तस्य देशस्य तल्लिङ्गतां लभते, तयोरेकवस्तुधर्मत्वात् । नासम्भवन् धूमो लिङ्गतां लभते अपक्षधर्मत्वात् । वनस्पतिचैतन्ये खापवद् धूमः सन्देहहेतुः स्यात् पक्षाच्या पिसाधनधर्मत्वात् तत्प्रतिपत्त्याधानाधारधर्म भावात्मकप्रत्ययाव्यवस्थानकारणत्वात् स्थाणुपुरुष भावाभावप्रतिपत्तिवत् । ६७७ धूमवत्त्वेन साधनं प्रत्यक्षधूमकत्वात् । तस्माद्विशिष्टदेश साध्यसाधनधर्मभावाद् लिङ्गिनि साध्ये लिङ्गस्य साधनस्य असम्भवो न सम्भवति, सम्भव एव सम्भवतीत्यर्थः । कस्मात् ? तयोस्तत्रैव प्रधानोपसर्जनभावेन परस्परं नियतभावत्वात्, अग्निः प्रधानं धूमनिर्वृत्तौ धूमस्याग्निपरिणामत्वात् तन्नि- 10 र्वर्त्यत्यात् । धूम उपसर्जनमग्निनिर्वृत्तौ तत्परिणामत्वाभावादतन्निर्वर्त्यत्वात् । धूमः प्रधानमन्निगतौ, तल्लिङ्गत्वात् तमन्तरेणानिर्वृत्तेरनुपपत्तेरविनाभावात् । उपसर्जनमग्निर्धूमगतौ, अप्रत्यक्षत्वात् तत्कालदेशयोः, अन्यथा भवत्येवेत्युक्तत्वात् तेनान्योन्यप्रधानोपसर्जनभावेन नियमेन भवन्तौ तौ धर्मावनिधूमाख्यौ देशस्यैकस्य भेदविवक्षायां साध्य - साधने भवतः । तद्वयाख्या- -अग्निमत्प्रदेशपरिचिच्छित्सायामित्यादि पूर्वं गमकत्वेन लिङ्गस्य धूमस्य प्राधान्यं 15 गम्यस्य लिङ्गिनोर्गुणभावं दर्शयति यावत् तत्सम्बन्धिमत्प्रतिपत्तिश्चेति । ततः परं यदि च तस्य देशस्येत्यादिना निर्वृत्तावग्नेः प्राधान्यं धूमाप्राधान्यं च यावत् तल्लिङ्गतां लभत इति । पक्षधर्मत्व-सपक्षानुगति - ४४२-१ विपक्षव्यावृत्तिरूपतां व्याख्याय धूमस्य पूर्वेणाग्निसाध्यतां गमयति । उत्तरेणाग्निविशिष्ट देशसाध्यत्वं व्याख्याय तद्बलनिर्वृत्तधूमप्रत्यक्षतायां त्रैलक्षण्येन गमकत्वं धूमस्य व्याचष्टे । तयोरेकवस्तुधर्मत्वादिति, एतदुक्तं भवति–सम्भवतोरेव लिङ्गलिङ्गिनोः साध्यसाधनभावोऽन्वयप्राधान्यात् नापोहप्राधान्यात् । न चेदिच्छसि 20 ततोऽनिष्टापादनसाधनम् - नासम्भवन् धूमो लिङ्गतां लभते, अपक्षधर्मत्वात् । त्वन्मतादेव सर्वलिङ्गिन्यसम्भवात् सिद्धमपक्षधर्मत्वम् । यत्र यत्रापक्षधर्मत्वं तत्र तत्र तल्लिङ्गत्वाभावः, यथा तस्मिन् प्रदेशेऽनभिधूमादेरधूमायोग्न्यादिकाले वा । किञ्चान्यत् प्राक्छब्दे व्याख्यातमधुना लिङ्गेऽप्युच्यते वनस्पतिचैतन्ये स्वापवदित्यादि । 'अग्निमानयं देशः धूमवत्त्वात्' इत्यस्मिन् साधने त्वदभिमत्या धूमः सन्देहहेतुः स्यात्, पक्षाव्यापि साधनधर्मत्वात्, तद्व्याख्या - तत्प्रतिपत्त्याधानेत्यादि दण्डकहेतुः । 25 तस्य प्रतिपत्तिस्तत्प्रतिपत्तिः, तस्या आधानं तत्प्रतिपत्त्याधानम्, तस्याधारो धर्मः, तस्य भाव आत्मा यस्य स भवति तत्प्रतिपत्त्याधानाधारधर्मभावात्मकः प्रत्ययो यथास्माभिर्व्याख्यातः । तस्य प्रत्ययस्याव्यवस्थाने कारणीभवति स धूमस्त्वन्मतेन पक्षाव्यापिसाधनधर्मत्वात् सर्वत्र लिङ्गिन्यभावादनियतलिङ्गि सम्भवत्वात् । किमिव ? स्थाणु- पुरुषभावाभावप्रतिपत्तिवत् । यथा स्थाणावभवन् वस्त्रसंयमनादिधर्मः पुरुषे च भवन १ मत्प्रदेशपरिविच्छित्साया भा० । 'मत्प्रक्षेपरिविच्छित्साया य० ॥ २ यावलिंगतां य० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ६८१ ॥ ४ न्यान्यापोह य० ॥ ५ न्यनुवेदमिच्छसि भा० । न्यननु चेदिच्छसि य० ॥ ६ प्रदेशमादेर्धूमायोश्यादि प्र० ॥ ७ पृ० ६६५ पं० १॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे यत्तु तदन्यत्रायो गुडाङ्गारान्यादावदर्शनं तयैते धूमस्य तत्र दर्शनाभावे लिङ्गत्वात्र्याख्यानाददोष एव । लिङ्गिन्यदर्शने तु स्याद् दोषः । एवं चानेनैव न्यायेन यस्तद्विपरीतः प्रकाश्यप्रकाशकत्वभेदपाठः सोऽप्यसम्यक् ६७८ 5 15 ४४३ - १ 'स्थाणुः' इति प्रतिपत्त्याधानाधारभावात्मकप्रत्ययाव्यवस्थानकारणत्वात् द्विविषयसन्देहकृदेकदोभयत्राभावात् ‘किं स्थाणुः स्यात् किं पुरुषः स्यात् तथा वयोनिलयनादिः पुंसि अभवन् स्थाणौ भवन्नुभयविषयं संशयं करोति । यत्र दृष्टस्तत्र निश्चयहेतुरेव स्थाणौ वयोनिलयनं पुरुषे च वस्त्रसंयमनम्, तत्र भवनात् । 10 तथायमपि ‘अग्निरत्र धूमात्' इति सन्देहहेतुः स्यात् साध्ये भवनानियमात् । संम्बन्धो यद्यपि द्विष्ठः सहभाव्यङ्गलिङ्गिनोः । आंधाराधेयवद्वृत्तिस्तस्य संयोगिवन्न ॥ तु यत्तु तदित्यादि । यत् त्वयेदं साध्यादन्यत्र योगुडाङ्गाराग्न्यादावदर्शनं प्रत्यक्षतस्तर्यते धूमस्य तत्र सपक्षे लिङ्गस्य सर्वत्र दर्शनाभावे लिङ्गत्वाव्याख्यानाददोष एव । लिङ्गिन्यदर्शने तु स्याद् दोष:, लिङ्गी चात्र प्रदेशः प्रत्यक्षधूमसम्बन्धी, तत्र सर्वत्र दृश्यत एव । तस्माद् भ्रान्तवचनमेतत् सर्वत्र लिङ्गिन्यदर्शनान्न दृष्टवत् प्रतिपत्तिः [ ] इति । किञ्चान्यत्, एवं चेत्यादि । अनेनैव न्यायेन ' दर्शबलादेव गमयति' इत्युक्तेन यस्तद्विपरीतः प्रकाश्यप्रकाशकत्वभेदपाठः सोऽप्यसम्यक् । कतमोऽसाविति चेत्, उच्यते - सम्बन्धो यद्यपि द्विष्ट 1 इत्यादिकारिकाः सँभाष्याः । तद्यथा - 'ननु द्विगतत्वात् सम्बन्धस्य संयोगिवद् लिङ्गिधर्मणा लिङ्गेन भवितव्यम्' इति चोदिते ‘नैतदस्ति, सम्बन्धो यद्यपि द्विष्ट:' [ प्र० समु० वृ० २।१९] इत्यादि । यथा हि १ " ननु द्विगतत्वात् सम्बन्धस्य संयोगिवल्लिङ्गिधर्मणा लिङ्गेन भवितव्यमिति चेत्, नैतदस्ति, सम्बन्धो यद्यपि द्विष्ठः सहभाव्यङ्गलिङ्गिनोः । . ॥" - प्र० समु० ० २।१९ ॥ २ दृश्यतां पृ० ४४९-२ ॥ ३ "नह यादृशी व्यापकधर्मे व्याप्तिः तादृश्येव व्याप्यधर्म इति । तथा चाह— सम्बन्धो यद्यपि द्विष्टः सहभाव्यङ्गलिङ्गिनोः | आधाराधेयवद्वृत्तिस्तस्य संयोगिवन्न तु ॥ " - हेतु बिन्दुटीका पृ० १९ । “ द्विष्ठत्वात् सम्बन्धस्य कथमुभयत्रैकाकारता व्याप्तेन स्यादित्याशङ्कय 'यद्यपि ' इत्यनेन द्विष्ठं सम्बन्धं वास्तवमभ्युपगम्यापि प्रतिविधत्ते । कयोर सावित्याह – अङ्ग इति । अंगेज़ (र्ज्ञान ) - परस्य ग्रहणादंग्य ते लिङ्गयते प्रतीयतेऽनेन परोक्षार्थं इति अङ्ग लिङ्गम्, तेन लिङ्गलिङ्गिनोरित्यर्थः । किंभूतः स इत्याह-सहेति । तयोरेव युगपद्भाविप्रकृतत्वात् द्विष्टत्वाभ्युपगमादेव च सहभावित्वाभ्युपगमोऽप्यायातः । ' यद्यपि शब्दसान्निध्यात् ' तथापि ' इत्यर्थतो द्रष्टव्यम् । तस्य सम्बन्धस्य वृत्तिर्वर्तनम्, तयोर्लिङ्गलिङ्गिनोरित्यर्थात् । कयोरिव सेत्यत आह- आधाराधेययोरिवेति सप्तम्यन्तत्वाद् वतिः । यथा आधाराधेयभावलक्षणः सम्बन्धो द्विष्टोऽपि नैकरूपया वृत्त्या द्वयोर्वर्तते । यत एवैकसम्बन्धयोगेऽपि नाधारस्याधेयत्वमाधेयस्य वाधारत्वं तथा लिङ्गलिङ्गिनोर्व्याप्तिरपि धूमत्वादावन्यथा अन्यथा च वह्नित्वादौ । अत एव धूमत्वादिरेव व्याप्यतया गमको न प्रमेयत्वादिः । वह्नित्वादिरेव व्याप्यतया गम्यो न तु तार्णत्वादिर्नापि धूमो गम्यो वह्निर्गमक इति ।" - हेतुबिन्दुटीकालोक, पृ० २६४ ॥ ४ त्रायो गुंडागारा य० । 'त्रायोगुडांगारा' भा० ॥ ५ नात्वदिष्टवत् य० ॥ ६ प्रकाशाप्रकाशकत्वभेदपाठः य० । प्रकाशकत्वभेदः भा० ॥ ७ समाप्याः य० । 'भाष्य'शब्देनात्र दिागरचिता वृत्तिविवक्षिता भाति ॥ ८ ° धर्मिणा भा० ॥ ९ इत आरभ्य गम्यतैव स्यान्न गमकत्वम् [ पृ० ६८० पं० १६ ] इत्यन्तः प्रायः सर्वेऽपि पाठः प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ दृश्यते ॥ www Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् ६७९ यथा हि सत्यपि द्विगतत्वे सम्बन्धस्य न कदाचिदाधार आधेयधर्मा भवति नाप्याधेय आधारधर्मा तथा न कदाचिलिङ्ग लिङ्गि भवति लिङ्गि वा लिङ्गम् । संयोगी तु यथैकस्तथा द्वितीय इति ने तद्वदिह । तथाहि लिङ्गे लिङ्गि भवत्येव लिङ्गिन्येवेतरत् पुनः । नियमस्य विपर्यासे सम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः ॥ मालिङ्गे लिङ्गि भवत्येव तस्माद्युक्तं यदग्निवद् धूमो द्रव्यत्वादीनामपि प्रकाशको न तैक्ष्ण्यादी नाम् । यस्माच्च लिङ्गिन्येव लिङ्गं भवसि नान्यत्र तस्माद् युक्तं यद् धूमो धूमत्वेनेव पाण्डुत्वादिभिरपि प्रकाशयति न द्रव्यत्वादिभिरिति । एवं हि अवधारणवैपरीत्येन सम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः । ननु च लिङ्गमपि लिङ्गिनि भवत्येव यथा कृतकत्वमनित्यत्वे कामं लिङ्गमपि व्यापि लिङ्गिन्यङ्गि तु तत्ततः । व्यापित्वान्न तु तत्तस्य गमकं गोविषाणवत् ॥ यद्यपि किञ्चिलिङ्गं लिङ्गिनि भवत्येव न तु तत्तेन व्यापित्वेन लिङ्गिनं गमयति । तद्यथा - विषाणि ear गोव्यापित्वेऽपि न गोप्रकाशकत्वम्, व्यापित्वात्तु तदेव गोत्वेन प्रकाश्यं भवति, तद्वदिति । किं सत्यपि द्वित्वे सम्बन्धस्य न कदाचिदाधार आधेयधर्मा भवति नाप्याधेय आधारधर्मा तथा न कदाचिल्लिङ्गं लिङ्गि भवति लिङ्गि वा लिङ्गम् । संयोगी तु यथैकस्तथा द्वितीय इति न तद्वदिह । 10 5 तथाहि - लिङ्गे लिङ्गि भवत्येवेत्यादि लोकः । यस्माच्च लिङ्गे लिङ्गि भवत्येव तस्माद्युक्तं यदग्निवद् धूमो द्रव्यत्वादीनामपि प्रकाशको न तैक्ष्ण्यादीनाम् । यस्माच्च लिङ्गिन्येव लिङ्गं भवति नान्यत्र तस्माद्युक्तं यद् धूम धूमत्वेनेव पाण्डुत्वादिभिरपि प्रकाशयति न द्रव्यत्वादिभिरिति । एवं हि अवधारण - ४४३-२ वैपरीत्येन सम्बन्धो लिङ्ग लिङ्गिनोः । 15 ननु च लिङ्गमपि लिङ्गिनि भवत्येव यथा कृतकत्वमनित्यत्वे, कामं लिङ्गमपि व्यापीत्यादि | 20 यद्यपि किञ्चिद् लिङ्गं लिङ्गिनि भवत्येव, न तु तत्वे (ते) न व्यापित्वेन लिङ्गिनं गमयति । तद्यथा"विषाणित्वेन गोव्यापित्वेऽपि न गोप्रकाशकत्वम्, व्यापित्वात्तु तदेव गोत्वेन प्रकाश्यं भवति तद्वदिति । १ दृश्यतां पृ० ४४५-२ ॥ २ ' तद्वदिह न भवति' इत्यपि पाठो भवेत् ॥ ३ कारिकेयं हेतुबिन्दुटीका [ पृ० १८]-प्रमाणमीमांसा[पृ० ३८ पं० १९ ]दिष्वप्युद्धृता । इदं पुनरत्रावधेयम् - पृ० ४५५-२, ४५७-१, ४५७-२, इत्यादावत्र 'लिङ्गी' इति पाठो वक्ष्यते । प्रमाणमीमांसादिष्वपि 'लिङ्गी' इति पाठः । अत्र तु 'लिङ्गि' इति पाठदर्शनादस्माभिः स एव पाठोऽत्रादृतः ॥ ४ अत्र 'सम्बन्ध' इति पाठ एवं नयचक्रवृत्तौ सम्मतः । प्रमाणसमुच्चयटीकायां विशालामलवल्यामपि स एव पाठः । हेतुबिन्दुटीकाया आलोकेऽप्येवमस्य व्याख्या - "लिङ्गे साधने सति लिङ्गी साध्यं भवत्येव । अनेन व्यापकधर्मगता व्याप्तिर्देर्शिता । इतरलिङ्गं पुनर्लिङ्गिन्येव साध्य एव भवतीति । अनेन व्याप्यधर्मगता व्याप्तिरुक्ता । उक्तेन प्रकारेण नियमस्य अवधारणस्य विपर्यासे वैपरीले, विपर्यासश्चैकत्रायोगव्यवच्छेदेन विशेषण[म]परत्रान्ययोगव्यवच्छेदेन । तस्मिन् विपर्यासे सति लिङ्गलिङ्गिनोरस ( ( स ) म्बन्धो व्यातिरित्यर्थः । " - पृ० २६३ । किन्तु मुद्रितायां प्रमाणमीमांसायां हेतुबिन्दुटीकायां च 'ऽसम्बन्धो' इति पाठान्तरं दृश्यत इति ध्येयम् ॥ ५ दृश्यतां पृ० ४५५-२ ॥ ६ दृश्यतां पृ० ४५८-१ ॥ ७ 'तद्वदिति' प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ न दृश्यते ॥ ८ ' कस्मात्' इति 'कुतः' इति वा पाठः प्रमाणसमुच्चयवत्तर्भोटभाषानुवादानुसारेणात्र भाति । तथापि 'किं कारणम्' इति पाठोऽत्र स्यादिति संभाव्यते दृश्यतां पृ० ४५८-२ ॥ ९ नामस्ति प्रका प्र० ॥ १० विषाणत्वेन प्र० ॥ 1 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे कारणम् ? प्रतिषेध्याप्रचारेण यस्माद्व्याप्तिरपेक्ष्यते । लिङ्गस्य लिङ्गिनि व्याप्तिस्तस्मात् सत्यप्यकारणम् ॥ कृतकत्वस्य हि अनित्यार्थव्यापित्वेऽपि नित्यत्वप्रतिषेधेन गमकत्वम् । एवमनित्यत्वस्य कृतकार्थ5 व्यापित्वेऽपि अकृतकत्वप्रतिषेधेन गमकत्वम् । तस्माद् यदनित्यार्थेऽपि कृतकत्वव्यापित्वं तेनाकृतकत्वानवकाशाद नित्यत्वेन कृतकत्वस्याकृतकत्वप्रतिषेधेन गम्यतैव स्याद् न गमकत्वम् । *तुल्यमिति चेत्, न, विषाणित्वे व्यभिचारात्* । आह च नाशिनः कृतकत्वेन व्याप्तेरकृतकं न तत् । "नित्याभावस्तु व्याप्तत्वात् कृतकार्थे न दर्श्यते ॥ विषाणित्वेन गौाप्तोऽविषाणित्वं निवर्तयेत् । विषाणित्वेन गौाप्तोऽगवार्थ न निवर्तयेत् ॥ इति निर्दिष्टं स्वार्थानुमानम् [प्र० समु० वृ० २११९३-२४३] । किं कारणम् ? प्रतिषेध्याप्रचारेणेत्यादि श्लोकः । कृतकत्वस्य हि अनित्यार्थव्यापित्वेऽपि नित्यत्वप्रतिषेधेन गमकत्वम् , तथा अनित्यत्वस्य कृतकार्थव्यापित्वेऽपि अकृतकत्वप्रतिषेधेन गमकत्वम् । तस्माद् यदनित्यार्थेऽपि कृतकत्वव्यापित्वं तेनाकृतकत्वानवकाशादनित्यत्वेन कृतकत्वस्याकृतकत्वप्रतिषेधेन गम्यतैव 15 स्यान्न गेमकत्वम् । तुल्यमिति चेत् , न, विषाणित्वे व्यभिचारादिति । आह चेत्यादि एतस्यार्थस्य निदर्शने भावनार्थे कारिके-नाशिनः कृतकत्वेनेत्यादि विषाणित्वेनेत्यादि च । पूर्वया कारिकया कृतकत्वेनानित्यत्वं व्याप्तं न साधनमविवक्षितत्वात् । यस्माद् नित्याभावोsनित्यत्वं कृतकेऽर्थे न प्रदर्यते-यदनित्यं तत् कृतकमिति, किं तर्हि ? नित्याभावेनाकृतकाभावस्य कृतकस्य व्याप्तेर्विवक्षितत्वात् कृतकत्वेऽर्थेऽनित्यत्वं प्रदर्यते यत् कृतकं तदनित्यमपि(मिति)। द्वितीयया तस्यार्थस्य 20 स्फुटीकरणार्थ विवक्षिताविवक्षितयोाप्योर्व्यभिचाराव्यभिचारनिदर्शनं क्रियते । 'विषाणित्वादू गौः' इति व्यभिचरति, 'गोत्वाद् विषाणी' इति न व्यभिचरति, अतो न गमयति [ गमयति ] चेति प्रतिषेध्याप्रचाररूपा व्याप्तिर्गमयति न विधेयप्रचाररूपेति निर्दिष्टं स्वार्थमनुमानं गम्यगमकनियमव्यवस्थोक्तेर्मयैव न वादविधिकारादिभिरित्याहोपुरुषिकयोपसंहरत्यान्यापोहिकः । १ दृश्यतां पृ० ६७७ पं० २२ । पृ०४५८-२॥ २ एतदन्तर्गतः पाठः प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ न दृश्यते ॥ ३ उक्तमर्थ कारिकाद्वयेन सङ्गह्नाति–नाशिनः कृतकत्वेनेत्यादि । अनित्यत्वस्य कृतकत्वेन व्याप्तेः 'अनित्यत्वात् तदकृतकं न' इत्ययमप्रस्तुत एवार्थः प्रतीयते इति क्रियालोपेन निर्दिशति । यः प्रस्तुतो नित्यत्वाभावोऽनित्यत्वं स तेन व्याप्तत्वात् कृतकत्वार्थे न दयते । इममेवा) स्फुटीकर्तुं द्वितीयया कारिकया दृष्टान्तमाह । अविषाणित्वं निवर्तयेदिति विषाणित्वं गमयेदित्यर्थः । अगवार्थ न निवर्तयेदिति गवार्थस्य न साधनमित्यर्थः।"-विशाला D. ed. पृ० १०४ B-१.५A | P. ed. पृ० ११८ A ॥ ४(नित्याभावो न व्यापित्वात् कृत कार्थे प्रदर्यते ?)। (व्यापित्वात् कृतकार्थे तु नित्याभावो न दर्यते ?)। (अनित्यत्वं त्वभिव्याप्या कृतकेऽर्थे न दर्श्यते ?)॥ ५ (गौाप्तोऽविषाणित्वनिवर्तकः ?)॥ ६ (गौाप्तो नागवार्थनिवर्तकः ?)॥ ७ इत्यन्तरश्लोकी [ इति सङ्ग्रहश्लोकी Psvi] | निर्दिष्टं स्वार्थानुमानम्।' इति प्रमाणसमुच्चयवृत्ती पाठः ॥ ८ Psvc. ed. पृ० ३१ B-३२ A | Psy' P. ed. पृ० ११३ B-११४ । दृश्यतां पृ. ४५५-२॥ ९ गमकत्वे भा० । गमत्वे य० ॥ १० विषाणत्वे य० ॥ ११ कृतकत्वेत्यादि प्र.। दृश्यतां पृ० ४५९-१॥ १२ दृश्यतां पृ०४५९-२॥ १३ पूविकया य० ॥ १४ कृतकोथे भा० । कृतकोर्थः य०॥ १५ कत्वेऽर्थ य० ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६८१ अनोच्यते तद्भावदर्शनादेव साध्यसाधनधर्मयोः । विधेः संयोगिवत्तिराधाराधेयवन्न तु ॥ तद्भावदर्शनं यत् तद् भवति तेनैव भूयते तद्भावस्य दर्शनादेव धूमोऽग्निं गमयति । अतदभावान्वयशब्दार्थतायामधूमस्य पटस्याभावो घटो वन्ध्यापुत्रो वा स्यात् , तथानग्नेः पवनस्याभाव उदकं खपुष्पं वा स्यादसम्बद्धम् । 'तत्र' इत्यभूतान्वयसाधनार्थातथार्थत्वात् । तद्भावदर्शनादेव तु साध्यसाधनधर्मयोस्तथाभूतान्वयदर्शनात् संयोगिनोरिव वृत्तिरिष्टा, न त्वाधाराधेयवदतुल्या, द्वयोरपि लिङ्गिन्याधारे परस्परप्रत्ययाधाराधेयप्रधानोपसर्जनभावेनाविनाभावादेकवस्तुधर्मत्वात् कृतकानित्यत्ववत् । 10 अत्रास्माभिरुच्यते-तद्भावदर्शनादेवेत्यादि श्लोकस्तद्विपरीतार्थः संयोगिवद् नाधाराधेयवदिति । तद्भावदर्शनं यत् तदित्यादि, स एवाग्निधूमो भवति, तेनैवाग्निना धूमेन भूयते तद्देशेन्धनादिसम्बद्धन, नान्येन अयोग्यादिनाऽबादिना वा धूमेन भूयते, न सोऽग्निधूमो न भवति भवत्येवेति तद्भावस्यास्वनिवृत्तिहेतुभावाभूतस्य दर्शनादेव 'धूमो धूमो भवन्नेवाग्निं गमयति, न यत्र न दृष्टस्तदवच्छेदेन त्वन्मतेन 'अधूमो न भवति यतस्तस्मादनग्निर्न भवति' इति, तद्भावाग्रहणे दोषदर्शनात् । को दोष इति चेत् , 15 उच्यते-अतदभावान्वयशब्दार्थतायां विधिरूपतद्भावान्वयशब्दार्थविपरीतकल्पनायाम् 'अग्निरत्र धूमात्' इत्यस्मिन्ननुमानेऽग्निधूमविपक्षव्यावृत्तिमात्रेष्टावनिष्टम् अधूमस्य पटस्याभावो घटो वन्ध्यापुत्रो वा स्यात् , अनिष्टं चैतत् । एष लिङ्गे दोषः । लिङ्गिन्यपि तथानॅग्नेः पवनस्याभाव उदकं खपुष्पं वा स्यादसम्बद्धम् , अनिष्टं चैतदपि । किं कारणम् ? तत्रेत्यभूतान्वयसाधनार्थातथार्थत्वात् , 'यत्र धूमस्तत्राग्निः' इत्यन्धयसहितः साधनार्थस्तथार्थः सत्यस्तद्भावात् तत्प्रदेशसम्बन्ध्यग्निधूमभावात् , अन्यथा 20 त्वदिष्टातदभावात्मकस्य अभूतान्वयसाधनार्थस्यातथार्थत्वादनन्तरनिर्दिष्टानिष्टप्राप्तिः । अंत एव तर्हि अस्मदिष्टतद्भावदर्शनादेव तु साध्यसाधनधर्मयोः अग्निधूमयोस्तथाभूतान्वयदर्शनहेतोः संयोगिनो-४४४-२ रमुल्योरिव यथैकस्य तथा द्वितीयस्यापि तद्भावाविशिष्टा वृत्तिरिष्टा, न त्वाधाराधेयर्वदतुल्या, यथा आधार [आधार ] एव, आधेय आधेय एव, न विपर्ययेणेति । कस्मात् ? द्वयोरपि लिङ्गिनि आधारे देशेन्धनादौ परस्परप्रत्ययाधाराधेयप्रधानोपसर्जनभावेनाविनाभावात् , प्राग्व्याख्यातनिर्वर्तकगम्य-25 भावेन एकवस्तुधर्मत्वात् , कृतकानित्यत्ववत्, यथा हि प्रागभाव-प्रध्वंसाभावलक्षण एक एव ह्यभूत्वा भवन भूत्वा चाँभवन् कृतकश्चानित्यश्च भावः साध्य-साधनाख्यां लभते तथेह अग्नि-धूमाख्य एक एव १ नादिसंबंधेन य० । नाता दिसंबंधेन भा० ॥ २ सोग्निधूमो प्र० ॥ ३ तुतावाभूत्यस्य य० । तुताथाभूत्यस्य भा० । "तुभावभूतस्य' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् । (तुतयाभूतस्य ? ) ॥ ४धूमो भवन्नेवाग्निं भा० ॥ ५ नग्नेरपवनस्य प्र०॥ ६°ानिर्दिष्टप्राप्तिः य०॥ ७ अत एतर्हि य० । अयमपि पाठः संगच्छेत ॥ ८ यथैवास्य तथापि द्वितीय प्र० ॥ ९ * * एतदन्तर्गतः वदतुल्या इत्यादिः धाराधेय इत्यन्तः पाठो य. प्रती नास्ति ॥ १० आधेयोधेय एव भा०॥ ११ पृ. ६७७ पं० १०॥ १२ निर्वनक य०॥ १३ राभवन् प्र० ॥ नय.८६ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे एवं च सपक्षे साध्यसाधनधर्मयोः सहभावदर्शनार्थमन्वयवृत्त्या साधर्म्यदृष्टान्त उच्यते तथाप्रत्यक्षसम्बन्धित्वविवक्षायाः।। प्रसिद्धस्य धर्मस्य साधनत्वादप्रसिद्धस्य साध्यत्वात् कुतो लिङ्गलिभिव्यतिकरदोषाशङ्का ? धर्मिण एवैकस्य लिङ्गत्वाल्लिङ्गित्वाच, अलिङ्गत्वाद् धूमस्यापि 5 अलिङ्गित्वाच्चाग्नेः। यत् पुनरिद सम्बन्धवादिनः प्रति लिङ्गलिङ्गयैकरूप्यापादनमेषोऽन्यायः। कोऽयं नियमः सम्बन्धिना द्वितीयसम्बन्धिरूपेण भवितव्यमिति। न हि चैत्रा साध्य-साधनव्यपदेशं लभते प्रदेशेन्धनादिर्भावः । तस्मात् साध्य-साधनधर्मयोलिङ्गिन्याधारे परस्परप्रत्ययाधाराधेयप्रधानोपसर्जनभावेनाविनाभावात् संयोगिवद्वृत्तिः, न तु कुण्डबदरयोराधाराधेययोरिव वृत्तिः, 10 अनुमाने तुल्यकक्षत्वादुभयोरिति । एवं च सपक्षेत्यादि । एतमेव चास्मदुक्तं न्यायमुपोद्वलयति साधर्म्यदृष्टान्तप्रयोगो लोकप्रसिद्धो न्यायशास्त्रे च । तद्यथा- 'यत्र धूमस्तत्राग्निः, यत् कृतकं तदनित्यम्' इति सपक्षे साध्य-साधनधर्मयोः अग्निधूमयोः कृतकानित्यतयोश्च तद्वति देशान्तरे वस्त्वन्तरे वा घटादा सहभावदर्शनार्थमन्वयवृत्त्या साधर्म्यदृष्टान्त उच्यते । कस्मात् ? तथाप्रत्यक्षसम्बन्धित्वविवक्षाया हेतोः, प्रसिद्धस्य साधनधर्मत्वेन 15 अप्रसिद्धस्य च साध्यधर्मत्वेन विवक्षितत्वादित्यर्थः । ४४५-१ यत् पुनरत्राशयते त्वया-लिङ्गस्य लिङ्गित्वं लिङ्गिनो वा लिङ्गत्वं प्रसक्तम् [ ] इति, एतस्या आशङ्काया अनुपपत्तिरेव, प्रसिद्धस्य धर्मस्य साधनत्वादप्रसिद्धस्य साध्यत्वात् कुतो लिङ्गलिङ्गिव्यतिकरदोषाशङ्का लिङ्गैकदोषाशङ्कानुपपत्तिरेवेत्यर्थः । धर्मिण एवैकस्य प्रदेश-शब्दादेर्लिङ्गत्वाद् लिङ्गित्वाचालिङ्गैकदेशत्वाद्वा लिङ्गिनः, धर्येव लिङ्ग लिङ्गी चेति कृत्वा नाग्निर्लिङ्गी न धूमो लिङ्गं 20 तथा कृतकानित्यत्वे । तस्मादलिङ्गत्वाद् धूमस्यापि नालिङ्गित्वादेव, अलिङ्गित्वाच्चाग्नेः नालिङ्गत्वादेव । तस्मात् प्रत्यक्षतरसम्बन्धित्वविवक्षितत्वाद् न सङ्कीर्येयातां लिङ्गलिङ्गिनौ । अतः प्रसिद्धधर्मलिङ्गद्वारेण अप्रसिद्धधर्मलिङ्गिद्वारेण चैकस्यैव साधनत्वात् साध्यत्वाच्च व्यवस्थितमेव लिङ्गलिङ्गित्वमिति । .. यत् पुनरिद सम्बन्धवादिनः प्रतीत्यादि । यदेतद् लिङ्गलिङ्गयैक रूप्यापादनमेषोऽन्यायः, कोऽयं नियमः-सम्बन्धिना द्वितीयसम्बन्धिरूपेण भवितव्यम् इति ? नैष नियमोऽस्ति प्रत्यक्षा25 प्रत्यक्षत्वविशेषदर्शनाद् धूमाझ्यादिषु । तदर्शयति-न हि चैत्राश्वेत्यादि, स्व-स्वाम्यादिसप्तविधसम्बन्धेषु चैत्राश्वादिसम्बन्धिनां प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाणां न हि नियमोऽस्ति - एकः प्रत्यक्ष इति द्वितीयेनापि प्रत्यक्षेण १प्रवृत्तिः प्र० ॥ २ एवमेव भा० ॥ ३ नासमन्वय य० । नामन्वय भा० ॥ ४ विवक्षया प्र.। 'हेतोः' इति पञ्चम्यन्तनिर्देशाद् "विवक्षायाः' इति पाठो युक्तः प्रतीयते, तुलना पृ० ६९२ पं० २२॥ ५साधर्म्यत्वेन प्र०॥ ६ तुलना पृ० ६९० पं० २७ पृ० ६७८ पं० १७ ॥ ७लिंगित्वं प्र०॥ ८ शंकायांति लिंगैक भा० । शंकायां लिंगैक य०। (शका आयाति । लिङ्गैक?) (शङ्का । लिङ्गिलिडैक्य ?)॥ ९ शब्दादेलिंगत्वाद य०॥ १० च्चाल्लिङ्गै भा० । (°चालिङ्गैकदोषत्वाद्वा ?)। "च लिङ्गैकदेशत्वाद्वा' इत्यपि पाठोऽत्र चिन्त्यः ॥ ११ धय॑स्येव भा० । धर्मस्येव य० ॥ १२ अन्यालिंगित्वा प्र०॥ १३ प्रत्यक्षतर प्र० ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । श्वादिसम्बन्धिनामेकः प्रत्यक्ष इति द्वितीयेनापि प्रत्यक्षेण भवितव्यम् । तथा संयोगित्वसाध्यसाधकत्व.....यथैकः संयोगी तथा द्वितीयः।। __अत एव चैवं वक्तुमयुक्तम्-यथाहि सत्यपि द्विगतत्वे सम्बन्धस्य न कदाचिदाधार आधेयधर्मा भवति नाप्याधेय आधारधर्मा तथा न कदाचिल्लिङ्गं लिङ्गि भवति लिङ्गि वा लिङ्गम् । संयोगी तु यथै कस्तथा द्वितीय इति तद्वदिह न भवति [प्रै० समु० वृ० २।१९३] इति । तन्न घटते । ननु तद्वदेवेह । संयोगिनोरपि न यथैकस्य संयोगस्तथा द्वितीयस्य, संयोगित्वात् , स्थाण्वादिसंयोगवत् । यत्तूक्तम्-इंदं पुनर्वक्तव्यम् - केन प्रकारेण सम्बन्धादेकस्मात् प्रत्यक्षादिति । यदि स्वत्वादिना भवितव्यं चेति । तथा संयोगित्वसाध्यसाधकत्वेत्यादि गतार्थे यथासयं निदर्शने यावद् यथैकः संयोगी तथा द्वितीय इति, 'न हि' इति वर्तते, उक्तादेव न्यायादयुक्तमेवं भवितुम् । ___अत एव चैवं वक्तुमयुक्तं यथा त्वया यत एवं विस्रब्धमुच्यते गुणदोषविचारनिरपेक्षेण निःशङ्केन । कतम[द]युक्तमिति चेत् , इदं तद् दयतेऽस्माभिः-यथा हि सत्यपि द्विगतत्व इत्यादि... यावत् तद्वदिह न भवतीति संयोगिनोरतुल्य आधाराधेयोरिव न भवतीति । तन्न घेटत इति । तत्र वयं तन्न घटत इति ब्रूमः । तद्यथा-ननु तद्वदेवेह आधाराधेयवदेव, संयोगिनोरपि लिङ्गलिङ्गिनोधूमान्योर्न यथैकस्य प्रत्यक्षस्य संयोगस्तथा द्वितीयस्याप्रत्यक्षस्येति पक्षः, 15 संयोगित्वादिति हेतुः । स्थाण्वादिसंयोगिवदिति दृष्टान्तः, यथा हि स्थाणुश्येनयोः संयोगिनोः स्थाणोरकर्मणः श्येनस्य सकर्मणश्च संयोगः सकर्माकर्मकत्वाभ्यामतुल्यः तथा मल्ल-द्वयङ्गुलाकाशादिसंयोगसंयोगिनां तथा चैत्राश्वादीनामप्यत्यन्तप्रियवाहनादित्वाद्युपलक्षितत्वे प्रत्यक्षाप्रत्यक्षादित्वैनैव विशेष इति । यत्रूणा(यत्तूक्त)मित्यादि सम्बन्धवादिनमेव प्रति आन्यापोहिकेन पर्यनुयुज्य यदुक्तं दोजातम् 10 ४४५.२ १ दृश्यतां पृ० ६७९ पं० १-३॥ २"स्वार्थालोचनमात्रत्वादव्युत्पन्नस्य तद्गतेः। [प्र. समु० २।३७], ....... इदं पुनर्वक्तव्यम् -केन प्रकारेण सम्बन्धादेकस्मात् प्रत्यक्षादिति । यदि स्वत्वादिना ततः स्वामिसम्बन्धित्वात् स्वस्य खाम्यायत्तत्वादुत्तरकालं स्मृतिरनर्थिका । अथान्यथा, तन्नोक्तम् । लिङ्गग्रहणे तुल्यमिति चेत्, न, तस्य सम्बन्धित्वेनाग्रहणात् । अनुमेयस्थं लिङ्गं धूमादित्वेन पूर्व गृह्यते पश्चात् तस्याम्न्यादिभिरविनाभावित्वं स्मर्यते । स्वस्खाम्यादिसम्बन्धात् [ एकस्मात् PSVI] शेषसिद्धिरनुमानमिति यदुक्तं तदयुक्तम् । कस्मात् ? अव्युत्पन्नस्य तद्गतेः। दृष्टः स्वखाम्याद्यनभिज्ञानामप्यविनामावित्वमात्रोपलब्धेर्निश्चयः । न चागृहीतः सम्बन्धोऽनुमानस्य कारणम् , ज्ञानकारणत्वेन तस्य ज्ञापकत्वात् । न चावश्यं सर्वत्र खस्वाम्यादीनामव्यभिचारः । तस्मात् सम्बन्धादनुमानं न भवति । उपलब्धसम्बन्धस्य न पुनरव्यभिचारापेक्षानुमितियुक्ता तस्यैवाभिव्यञ्जकत्वापत्तेः । अत्र चाग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्गः, सम्बन्धाविशेषात् , अविशिष्टो ह्यग्निधूमयोनिमित्तनैमित्तिकसम्बन्धः । यस्य त्वविनाभावित्वं सम्बन्धोऽभिमतस्तस्यायमदोषः ।" इति प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ द्वितीये स्वार्थानुमानपरिच्छेदे Psv' e. ed. D. ed. पृ. ३६, N. ed. पृ. ३९ B-४० A । Psvi N. ed. पृ० १२१ B, P. ed. पृ० ११९.. B- १२० A । अस्य विशालामलवती व्याख्या-"इदं पुनर्वक्तव्यमित्यादि । स्वादिसम्बन्धिनः खत्वादिरूपेणैव आहोस्विद् रूपान्तरेण ग्रहणं स्यात् ? यदि स्वत्वादिरूपेण 'खम्' इत्येवं गृह्यते तर्हि खामिसम्बन्धित्वात् स्वस्य स्वाम्यभावे स्वत्वस्यानुपपत्तेः स्वामिनिश्चयापेक्षत्वात् लिङ्गदर्शनात् पूर्वमेव खामिप्रतिपत्त्या भवितव्यम् , अन्यथा 'इदमस्य स्वम्' इत्येवं ग्रहणं न सम्भवति । ततश्चोत्तरकालं सम्बन्धस्मृतिरनार्थका स्यात् , स्वामिनः प्रागेव सिद्धत्वात् शेषानुपपत्तेः । शेषेण सिद्धेश्चानुमानत्वस्येष्टत्वात् । . अथान्यथा प्रकारान्तरेण ग्रहणमिष्यते तन्नोक्तमिति लक्षणस्यापरिपूर्णत्वम् । लिङ्गग्रहणे तुल्यमिति यद्यविनाभावित्वेन लिङ्गं गृह्यते अविनाभावित्वमपि प्रतियोग्यन्तरापेक्षमेवेति लिङ्गग्रहणात् पूर्वमेव साध्यप्रतिपत्त्या भवितव्यम् । तथा च साध्ये Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे ततः स्वामिसम्बन्धित्वात् स्वस्य स्वाम्यायत्तत्वादुत्तरकालं स्मृतिरनर्थिका । अथान्यथा, तन्नोक्तम् । [प्र० समु० वृ० २।३७] इति । अत्र ब्रूमः-न किञ्चिदत्र नोक्तम् । तत्सम्बन्धिप्रत्यक्षात् तथैवानुमानाव यदि स्वस्वामिभावेन प्रत्यक्षः सम्बन्ध्येकस्ततो द्वितीयस्य स्वस्य स्वामिनो वा तेन सहैव गतत्वादेन्योन्या5 पेक्षत्वाच्च सम्बन्धस्य शेषसिद्ध्यर्थं स्मृत्यानर्थक्यम् । दृश्यते च स्मृतिबलेन शेषसिद्धिः । तस्मात् स्वत्वादिप्रत्यक्षत्वादयुक्तमुक्तम् । अथान्यथा, अथ मा भूदेष दोष इति स्वस्वामित्वादिभ्योऽन्येन केनचित् प्रकारेण प्रत्यक्षः सम्बन्ध्येकः ततस्तत्सम्बन्धस्मरणादनुमानमिति मन्येथाः तन्न भवति तस्य प्रकारस्यानुक्तत्वात् 'स्वस्वाम्यादिभावेन सम्बन्धात्' इति वचनात स्व-स्वामिभावेन वा प्रकृति-विकारभावेन वा कार्य४४६-१ कारणभावेन वा निमित्त-नैमित्तिकभावेन वा मात्रा-मात्रिकभावेन वा [सहचरिभावेन वा] वध्य-घातक10 भावेन वा कश्चिदर्थः कस्यचिदिन्द्रियस्य प्रत्यक्षो भवति इति तेभ्योऽतिरिक्तस्यावचनादेतेषामेव वचनादिति । एतस्मिन् परोक्ते दोषजाते परिहारं ब्रूमः-न किञ्चिदैत्र नोक्तम् । वक्तव्यमशेषमुक्तमित्यभिप्रायः । प्रतियोगिनि सिद्धे सम्बन्धस्मृतेरानर्थक्यम् । अथान्यथा, तन्नोक्तमिति तुल्यम् । न, तस्येत्यादि । अनुमेयस्थमिति । धर्मिणि धूमादेः सत्त्वमात्रं गृह्यते, न सम्बन्धित्वमिति । कदा तर्हि तद् गृह्यत इत्याह-पश्चादित्यादि । अव्युत्पन्नस्य तद्गतेरिति वखामिसम्बन्धाद्यनभिज्ञस्यापि शेषप्रतिपत्तरित्यर्थः । कथं पुनस्तद्गतिरित्याह-दृष्ट इत्यादि । कार्यकारणभावसम्बन्धे हि यथा कार्यकारणभावसम्बन्धः शास्त्रे विवेचितः तथैवाप्रतीतत्वमत्र विवक्षितम् , न सर्वथेति वेद्यम् । शास्त्रे ह्येकस्यैव भावस्य स्वरूपात्यागात् परिणामेन कार्यकारणभावो व्यवस्थाप्यते। य एवं कार्यकारणभावसम्बन्धं न प्रतिपादयन्ति तेऽप्यन्यथा तं प्रतिपद्य अविनाभावित्वमात्रोपलब्धेरनुमेयं निश्चिन्वन्ति । शास्त्रदृष्टः कार्यकारणभावोऽनुपपन्न एव । यस्मात् कार्यकारणयोरेकत्वे इदं कार्यमिदं कारणमित्येतदेव न स्यात् । अथ तयोर्येनैवं स्वभावातिशयः कश्चिदस्ति, भेदप्रसङ्गः। सत्त्वादिष्वपि स्वभावभेद एव भिन्न प्रकारान्तरकारणम् । ननु कार्यकारणभावत्वे सत्यपि न भेदः, त्रैगुण्यजात्यभेदादेकत्वमिति चेत् ; न, कार्यकारणाभ्यां भिन्नस्य त्रैगुण्यस्यानुपलक्षणात् । नित्यस्य क्रमेण युगपद्वा परिणामो न सम्भवति । ततस्तत्कारणवत्कार्यकारणव्यवस्था कुत इत्यलं प्रसङ्गेन । स्यादेतत्-सोऽगृहीत एव तदनुमानस्य कारणमित्याह-नेत्यादि सुगमम् । नावश्यमित्यादि । ननु खस्वरूपसिद्धिः स्वाम्यपेक्षव, तद्वयभिचारः कुत इति चेत्, अयमाशयः-अनुमानकाल एव खत्वेन गृहीतं लिङ्गं प्रतियोगिनं प्रतिपादयति, आहोस्वित् सम्बन्धग्रहणकाले तथा परिच्छिन्नमनुमानकाले चान्यथोपलभ्यमानमिति । यद्यनुमानकाले 'इदमस्य स्वम्' इत्येवं निश्चित गमकमिष्यते, अत्रोक्तो दोषः-स्वामिसम्बन्धित्वात् स्वत्वस्य [पृ० ६८३ पं० ३१] इत्यादिना। तस्माद् द्वितीयं दर्शनमभ्युपगन्तव्यम् , ततश्च व्यभिचारः, स्वस्वामिनोः परम्परया व्यतिरेकभावसम्भवात् तथाऽनुमातुं न शक्यते-अत्रात्मना तत् पूर्व स्वत्वेन गृहीतं तस्माद् यत्रेदमस्ति तत्रास्य स्वामी नियमेन भवितुमर्हतीति। भूपतेः सम्पत्त्याद्यभावेऽपि केवलस्य छत्रादेरधिपत्यभावे च दर्शनसम्भवात् । एवमन्यत्रापि यथासम्भवं व्यभिचारः कल्पनीयः । स्यादेतत्-स्वस्वामिभावादिना सर्वः सम्बन्धो न गमकः, किं तर्हि ? यत्राव्यभिचार इत्याह-उपलब्धसम्बन्धस्य नेत्यादि । यदि यथोक्तसम्बन्धग्रहणेऽपि पुनर्लिङ्गस्य व्यभिचारित्वमव्यभिचारित्वं चापेक्षते ततोऽविनाभावित्वमेवानुमानस्य कारणं भवेत् , न स्वस्खाम्यादिसम्बन्धाः । अविनाभावस्यानुमानकारणत्वे स्यादेतत् , स यथोक्तसम्बन्धे सति भवति, ततो निर्देश इति चेत्, तदयुक्तम् , तस्मिन् सत्यपि तदभावात् सम्बन्धस्याविशिष्टत्वादिति निमित्तनैमित्तिकसम्बन्धो द्विष्ठ इति स यथैकत्र तथा द्वितीयेऽपीति उभयत्र गमकभावः स्यात् ।"-VT. P. ed. पृ० १३६ A-१३८ A ॥ ३'भवितव्यमेवेति' इति 'भवितव्यमिति' इति वा पाठः सम्यक् प्रतीयते ॥ ४ विश्रब्ध य० ॥ ५ घटवदिति य० ॥ ६ स्य प्रत्यक्षस्येविवक्षः प्र० ॥ ७ दिसंयोगिसंयोगिनां भा० । 'दिसंयोगिनां इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ८ पर्यनुयुज्यता यदुक्तं भा० ॥ ९ दोषयुक्तम् य० ॥ १ प्रत्यक्षतः य० ॥ २ दन्योपेक्ष य० । दृश्यतां पृ० ६८५ पं० २६ ॥ ३ दयुक्तम् । अथा भा० ॥ ४ ततस्तंबंध भा० । तत् संबंध य० । ततः सम्बन्ध इति तत्सम्बन्ध इति वा पाठोऽप्यत्र समीचीन एव ॥ ५ वार्षगणतन्त्रभाष्येऽभिहितमिदम् । दृश्यतां पृ० ६८५ पं. ३, २०, टि. १, पृ० २४० पं० १२॥ ६°दत्त प्र०॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६८५ तारणात् । द्वयोस्तु सम्बन्धिनोरुपलब्धे सम्बन्धेऽन्यतरप्रत्यक्षत्वोत्तरकालमुपलब्धचरसम्बन्धानुसारिणी स्मृतिः किमित्यनार्थका स्यात्, अग्यपेक्षधूमवत् ? ___ एवं च कृत्वोक्तम् --कश्चिदर्थः कस्यचिदिन्द्रियस्य प्रत्यक्षो भवति । तस्मादिदानीमिन्द्रियप्रत्यक्षादर्थात् पूर्व समुदाये कृतसम्बन्धमतिरविशिष्टस्यार्थस्यास्तित्वं प्रतिपद्यते, यथा पूर्व धूमाग्योः सम्बन्धं दृष्ट्वा धूमदर्शनादग्नेरस्तित्वं प्रतिपद्यते [ ] इति । ___यत्तु तेन प्रत्युच्यते-लिङ्गग्रहणे तुल्यमिति चेत् [प्रै० समु० वृ० २।३७ ], तत् तथैव । अहमप्येवं ब्रुवे-लिङ्गिसम्बन्धित्वाल्लिङ्गस्य [लिङ्यपेक्षमेव लिङ्गत्वमिति यदि लिङ्गं गृहीतं तेन सहैव ] लिङ्गी गृहीतः । अथान्यथा, तन्नोक्तम् । यस्मादुक्तभेदात् सम्बन्धादनुमानम् , तच्च तत्सम्बन्धिप्रत्यक्षात् एकस्मात् प्रत्यक्षात् [ ] इति वचनात् तेनैव प्रकारेणानुमानावतारणात् । तत्र्याचष्टे-द्वयोस्तु सम्बन्धिनोरित्यादि यावदग्न्यपेक्ष-10 धूमवत् । यथा धूमः प्रत्यक्ष एको बहुल-वर्तुलोर्द्ध-पाण्डुत्वादिविशेषेणाम्यविनाभाविरूपेण विशिष्टः प्रत्यासन्ने देशेऽग्निं गमयति विशेषाणामविनाभाविनां गमकत्वादश्वस्याभरण-मर्दनप्रियत्वादिविशेषाश्चैत्राविनाभाविनश्चैत्रं सम्बन्धादेव गमयन्ति तथा चैत्रस्य वा विशेषा आरोहक-पोषक-तद्गुणरक्तत्वादयोऽश्वाविनाभाविनोऽश्वं गमयन्त्येवेत्युपलब्धे सम्बन्धेऽन्यतरप्रत्यक्षत्वोत्तरकालं 'यत्रायं प्रत्यक्षोऽश्वश्चैत्रो वा तत्रेतरोऽपि' इति या उपलब्धचरसम्बन्धानुसारिणी स्मृतिः सा किमित्यनर्थिका स्यात् ? नैवानर्थिकेत्यर्थः । 15 किमिव ? अग्न्यपेक्षधूमवत् । यथाग्निजन्यात्मलाभो धूमः प्रोक्तविशेषयुक्तोऽग्नेः सम्बन्धस्मरणात् प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षस्य सम्बन्धिनोऽनुमानायालम् , अग्निर्वा प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षस्य तत्परिणामत्वाद् भावि-भूतदेशकालसम्बन्धी सम्बन्धिन एवैकस्य प्रत्यक्षत्वात् सम्बन्धा(द्धा)देकस्मात् प्रत्यक्षाच्छेषसिद्धिरनुमानम् [ ] इति वा पाठात् सम्बन्धिन एव प्रत्यक्षस्य समानाधिकरणोक्तेः । __एवं च कृत्वोक्तमित्यस्यैव लक्षणस्य भाष्यं ज्ञापकमाह कश्चिदर्थः कस्यचिदिन्द्रियस्य प्रत्यक्ष 20 इत्यादि सामान्यवाचिना किंवृत्ते न] यावदग्नेरस्तित्वं प्रतिपद्यत इति । अवशिष्टस्याविशिष्टस्येति वा ४४६-२ पाठः, अवशिष्टस्य अप्रत्यक्षस्य, अविशिष्टस्य दर्शनकालतुल्यस्य तद्देशवर्तिनो वेति । शेषो गतार्थो ग्रन्थः । ____ यत्तु तेनेत्यादि । 'स्वामिसम्बन्धित्वात् स्वस्य स्वाम्यपेक्षमेव स्वत्वमित्युत्तरकालं स्मृतेरानर्थक्यं प्राप्तम्' इत्यत्र तेन आन्यापोहिकेन प्रत्युच्यते परमतमाशङ्कय - लिङ्गहणे तुल्यमिति चेत् । स्यान्मतम्'स्मृतेरानर्थक्यं स्व-स्वाम्यादिसम्बन्धिप्रत्यक्षत्वात्' इत्येतल्लिङ्ग-लिङ्गिनोः सम्बन्धाविशेषात् समानं दोषजातमिति । तत् तथैव, यद्येष दोषः स्यात् स्वस्वाम्यादित्वे लिङ्गेऽपि स्यादेवायं लिङ्गलिङ्गिनोरन्योन्या-25 पेक्षत्वात् । अथ तत्र नेष्यते, स्वस्वाम्यादिष्वपि मा भूदिति सुष्ठच्यते-अहमप्येवं वे, कस्मात् ? लिङ्गि १ वार्षगणतन्त्रभाष्येऽभिहितमेतदिति प्रतीयते । दृश्यतां पृ० २४० पं० १२ टिपृ० ७८ पं० १९ । तुलना “कश्चिदर्थः कस्यचिदिन्द्रियस्य प्रत्यक्षो भवति' इति भाष्यवचनात् ।"-विशाला० D. ed. पृ० ११९ B॥ २ दृश्यता पृ० ६८३ टि०२॥ ३ दृश्यतां पृ. २४० पं० ११॥ ४ वर्तलोद्वपाण्डु भा० । वर्तलोचपाण्डु य० ॥ ५ संबंधिन्यतर प्र० । 'सम्बन्धिनीतर इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ६ मानावालामग्निर्वा प्र० ॥ ७°णामद् य० ॥ ८ संबंधादेक प्र० ॥ ९ दृश्यतां पृ. २४० पं० ११॥ १० समाधिक भा० ॥ ११ अविशिष्टस्याविशिष्टस्येति भा० । अविशिष्टस्या विशिष्टश्चेति य० ॥ १२ अविशिष्टस्य प्र० ॥ १३ तुल्यस्यातद्देश य० ॥ १४ तुलना पृ० ६८४ पं० १॥ १५ ग्रहे तुल्य य० ॥ १६ °त्वादत्र तत्र प्र० ॥ १७ ब्रूते प्र० ॥ . Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे __ यत्तुच्यते-ने, तस्य सम्बन्धित्वेनाग्रहणात् । लिङ्गमनुमेयस्थं पूर्व धूमादित्वेन गृह्यते पश्चात्तस्याझ्यादिभिरविनाभावित्वं स्मर्यते [प्र० समु० वृ० २।३७] इति । तदिहापि तुल्यम् , अनुमेयस्थं [वं पूर्व गृह्यते पश्चात् तत्रस्थश्चैत्रोऽविनाभावीति स्मयते] न तद्देशसम्बन्धीति, देशादिस्थानग्निधूमवत् । 5 यत्तक्तम्- 'स्वस्वाम्यादिसम्बन्धाच्छेषसिद्धिरनुमानम्' इत्ययुक्तमिदम् , कस्मात् ? अव्युत्पनस्य तद्गतः । दृष्टः स्वस्वाम्यादिसम्बन्धानभिज्ञानामपि अविनाभावित्वमात्रोपलब्धेनिश्चयः, न चागृहीतः सम्बन्धोऽनुमानस्य कारणम् , ज्ञान कारणत्वेन तस्य ज्ञापकत्वात् [प्र० समु० वृ० २॥३७] इति। एतदयुक्तम्, अविनाभावित्वस्य सहचरिभावसम्बन्धत्वात् तस्मादपि यो निश्चयः सोऽपि स्वाम्याद्यर्थव्युत्पन्नानामेव भवति तदादित्वात् सहचरिभावस्य । 10 सम्बधित्वाल्लिङ्गस्येत्यादि तत्तुल्यत्वप्रदर्शनं गतार्थं यावद् लिङ्गी गृहीत इति । अथान्यथा तन्नोक्त. मिति, यथान्यांस्त्वमुद्धट्टयसि स्वाम्यादित्वेनाग्रहणेऽन्यथा ग्रहणं चेत् तन्नोक्तमिति तथा वयमपि त्वामुद्धदृयामः-अन्यथा लिङ्गे ग्रहणं स्वस्वाम्यादिषु अन्यथेति चेन्मन्यसे तन्नोक्तमिति । अत्र यत्तूच्यते त्वया-मा मंस्था लिङ्गग्रहणे तुल्यमिति, लिङ्गे त्वस्ति विशेषः-न, तस्य सम्बन्धि[त्वेनाग्रहणात् । न हि लिङ्गं सम्बन्धित्वमात्रेण गृह्यते, किं तर्हि ? अनुमेयदेशस्थं धूमादित्वेन 15 पूर्व गृह्यते, पश्चात् तस्याग्न्यादिभिरविनाभावित्वं स्मर्यते, आदिग्रहणाच्छब्दस्य कृतकादित्वेन प्राग् ग्रहणं पश्चादनित्यत्वाविनामावित्वेन स्मर्यत इति सर्वत्र व्यापीति । अत्रोच्यते-तदिहापि तुल्यमित्यादि । ४४. तत्तुल्यत्वभानम् – अनुमेयस्थमित्यादि यावन्न तदेशसम्बन्धीति गतार्थम् । देशादिस्थाननिधूमवदिति दृष्टान्तः, यथाऽग्निरभवन धूमो देशादिस्थः प्राग् गृह्यते प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षाग्नेरन्यत्वात् ततः पश्चात् 'अग्निरिह' इत्यनुस्मयते तथाश्वः स्वं चैत्रादन्यो गृह्यते प्रामादिस्थः ततः पश्चात् तत्रस्थश्चैत्रोऽविनाभावीति स्मर्यते 20 'इहाग्निः' इति धूमसम्बन्ध्यग्निस्मरणवदिति तुल्यमिति । यत्तूक्तमित्यादि । 'स्वस्वाम्यादिसम्बन्धेन सम्बन्धाच्छेषसिद्धिरनुमानम्' इत्यस्य लक्षणस्य दोषस्तेनोक्तः, अत्र ब्रूमः-अयुक्तमिदम् । कस्मात् ? अव्युत्पन्नस्य तद्गतेरित्यादि तन्मतप्रत्युच्चारणं यावज्ज्ञापकत्वादिति, स्वस्वाम्यादिसम्बन्धानभिज्ञा अपि धूमादग्निमविनाभावसम्बन्धाद् निश्चिन्वन्तो दृश्यन्ते, स च मा भूदगृहीतसम्बन्धत्वान्निश्चयः, ज्ञानकारणत्वं हि ज्ञापकस्य हेतोर्लिङ्गादेहीतस्वरूपस्य 25 नोत्पादकबीजादिवदिति । - एतदयुक्तम् । कस्मात् ? अविनाभावित्वस्य सहचरिभावसम्बन्धत्वात् , न विना भवति सह भवति सह चरतीत्येकोऽर्थः । तस्मादपि सहचैरिभावसम्बन्धाद् यो निश्चयः सोऽपि स्वाम्याद्यर्थव्युत्पन्नानामेव भवति, नाव्युत्पन्नानाम्। कस्मात् ? तदादित्वात् स्वस्वाम्यादित्वात् सहचरिभावस्य, सप्तानां सम्बन्धाना १ दृश्यतां पृ० ६८३ टि० २॥ २ तुलना-पृ० ६८४ पं० १॥ ३ ग्रहणतुल्य प्र०॥ ४ भावम् य० ॥ ५ प्रत्यक्षे प्रत्यक्षाग्ने प्र०॥ ६ संबंधात्वान्नि भा०॥ ७°जादिति भा०॥ ८सहचारि प्र० । दृश्यता पृ० ६९६ पं० १६॥ ९चरतीत्यर्थः य० ॥ १० चरितभावसंबंधत्वाद् य० ॥ ११ स्वाम्यादित्वात् सहचरितभावस्य य०॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशार नयचक्रम् । ६८७ अविनाभावगम्यातिरिक्तार्थविषयत्वेन तु सहचरिभावादृतेऽपि स्वस्खाम्यादिसम्बन्धव्युत्पन्नबुद्धेरेवानुमानं दृश्यते । तद्यथा-काकभवन-तत्स्वीकृततत्प्रसवकाल-तत्कृतनीडप्रसवा-ऽण्डभेद-विवृद्धि-पोषण-काकशावकसहचरण-काकीपृष्ठगमनानि न कारणानि कोकिलत्वज्ञानस्य व्यापित्वाविनाभाविरूपोपेततायामपि वस्वामिभावप्रत्यवगमनादारात् । पश्चात् तत्प्रतिपत्तिः वखामिसम्बन्धेन भवति । 'कोकिलशावकोऽयम् , तत्वभाषासमन्वितत्वात् , इतरकोकिलवत् ।' एवं स्वस्खाम्यादिसम्बन्धा अनुमापकाः, अनुमेयव्यक्तिकाले तथोपलभ्यमानत्वात्, तत्प्रसिद्धलिङ्गवत् । मन्यतमत्वात् तस्यापि । स च सहचरिभावोऽविनाभावो गृह्यमाण एवानुमानकारणं ज्ञातज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वाज्ज्ञापकस्य । तस्मादविनाभावसम्बन्धज्ञानं स्वस्वाभ्याद्यन्तःपाति व्युत्पन्नानामेव नाव्युत्पन्नानामिति । 10 __ अथवा विनाप्यविनाभावित्वेन स्वस्वाम्यादिव्युत्पत्तेरनुमेत्यत आह-अविनाभावगम्यातिरिक्ता... र्थविषयत्वेन त्वित्यादि यावदितरकोकिलवदिति साधनेनोपसंहारोऽस्यार्थस्य । व्यापको यः स एवांशो ग्राह्यो व्याप्यस्तु सूचकः । अनेकधर्मणो न्यो ग्राह्य ग्राहकधर्मणोः ॥[ ] इत्येतल्लक्षणवैपरीत्येन सहचरिभावादृतेऽपि स्वस्वाम्यादिसम्बन्धव्युत्पन्नबुद्धेरेवानुमानं दृश्यते, तद्यथा- 15 काकभवनेत्यादि समासदण्डको व्यापक-व्याप्यत्वाभ्यां सहचरिभावप्रदर्शने यावद् व्यापित्वाविनाभाविरूपोपेततायामपीति, काकाजन्म व्यापीति तत्स्वीकृतस्तत्प्रसवकालः, तत्कृतनीडप्रेसवः, अण्डभेदः, विवृद्धिः, काकेन काक्या च पोषणं वात्सल्येन, तस्य द्वितीयेन काकशावकेन सहचरणम् , काक्याः पृष्ठतो गमनमित्येतानि पूर्वपूर्वकाणि व्यापकानि साध्यानि उत्तरोत्तराणि व्याप्यानि साधकाभिमतानि अविनाभावसम्बन्धीनि धर्मान्तराणि सन्त्यपि न कारणानि तानि कोकिलत्वज्ञानस्य । यावदा कुतः ? स्वस्वामिभाव-20 प्रत्यवगमनादारात्, यावत् स्वस्वामिसम्बन्धं नावैति तावत् कोकिलत्वाप्रतिपत्तेः पश्चात् तत्प्रतिपत्तिः स्वस्वामिसम्बन्धेन भवति, तत उत्तरकालं 'कोकिलशावकोऽयं न काकशावकः' इति परित्यज्याविनाभाव्यभिमतांस्तांस्तान् धर्मान् व्यापकान् व्याप्यांश्च तथा लोके प्रतिपत्तारो वक्तारश्च भवन्ति, 'कोकिलशावकोऽयम्' इत्यनुमिमते च तत्स्वभाषासमन्वितत्वात् विशिष्टमाधुर्योपेतस्वरत्वात् , इतरकोकिलवदिति । आदिग्रहणात् स्वस्वामिसम्बन्धवत् प्रकृतिविकारादिशेषसम्बन्धा अपि व्युत्पन्नानामेवानुमानकारणम् । 25 अतोऽत्र साधनं संहतार्थमुच्यते-एवं स्वस्वाम्यादिसम्बन्धा अनुमापका इत्थमुक्तन्यायेन ।" कस्मात् ? अनुमेयव्यक्तिकाले तथोपलभ्यमानत्वात् , अनुमेयस्य अग्नि-कोकिला-ऽनित्यत्वादेरर्थस्य व्यक्तिकाले तेनैव स्वस्वाम्यादिप्रकारेणोपलभ्यमानत्वात् । किमिव ? तत्प्रसिद्धलिङ्गवत्, तेन तेन प्रकारेण प्रसिद्धं धूमादिलिङ्गं तस्य सम्बन्धिनोऽनुमापकमयादेः स्वस्वाम्यादिप्रकारेणैव सम्बन्धात्, यथा कोकिलशावकस्तज्जातीयानुकारिस्वरेणैवेति । १°नुमाकारण य० ॥ २ ज्ञातं ज्ञानोत्प य० । ३ स्वामित्वादि य० ॥ ४ काकाजन्मध्यापीति प्र. । ( काकजन्मव्यापीनि ?)॥ ५प्रसवोर्णभेदः प्र० ॥ ६ भावा प्रत्य प्र०॥ ७ पृ० ६८७ पं० १॥ ४४८-१ 30 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे यदप्युक्तम्-ने चावश्यं सर्वत्र स्वस्वाम्यादीनामव्यभिचारः । तस्मात् सम्बन्धादनुमानं न भवति । उपलब्धसम्बन्धस्य न पुनरव्यभिचारापेक्षानुमितिर्युक्ता, तस्यैवाभिव्यञ्जकत्वापत्तेः [ प्र० समु० वृ० २।३७ ] इति, एतदपि न, शेषसिद्धिवचनेनाव्यभिचारिविधिवृत्तेरुपात्तत्वात्। इदं हि सर्वाभासव्युदासेन सम्बन्धानुमानविधानम् । प्रत्यक्षतरसम्बन्ध्यनुमेयः प्रत्यक्षाद्यविरुद्धार्थः पक्षो धर्मधर्मिसमुदायाख्यो निर्दोष एवानेन शेषसिद्धिवचनेन गृहीतः । यथायोग सम्बन्धादेकस्मात् प्रत्यक्षात् प्रत्यक्षवद्वा प्रसिद्धात् पक्षधर्मसम्बन्धाच्छेषेण शेषस्य सिद्धिरिति शेषसिद्धिवचनादेव विरुद्धासाधारणधर्मव्युदासः। सिद्धिवचनं साधारणानैकान्तिकवदसिद्धिर्मा भूदिति । असिद्धिय॑भिचारिधर्मता । तद्यथा-खाम्यसम्प्रदानचैत्रान्यथात्वम् ......"अतिप्रियसुतवत् । 10 किञ्चान्यत्-यदप्युक्तमित्यादि सम्बन्धवादिनो दोषवचनम् । न चावश्यमित्यादि प्रत्युच्चारणम् । एतदुक्तं भवति-स्वस्वाम्यादिसम्बन्धादनुमानं न भवति, तव्यभिचारार्थ विशेषाका नित्वात् उपलब्धेऽपि खे स्वामिनि वाश्वे चैत्रे वा स्वतन्त्रजीवदत्यन्तावियोगा आकाङ्कयन्ते । तेषामेवाव्यभिचारात् त एव हि अनुमापकाः स्युः, न स्वस्वाम्यादिसम्बन्धः सत्यपि तस्मिन्ननुमानाभावाद् व्यभिचारीति । एवं प्रत्युच्चार्य आचार्य उत्तरमाह-एतदपि न, शेषसिद्धिवचनेनाव्यभिचारिविधिवृत्तेरुपात्तत्वात् , सम्बन्धादे15 कस्मात् प्रत्यक्षाच्छेषसिद्धिरनुमानम् [ ] इत्यस्मिन् स्वार्थानुमानलक्षणे शेषसिद्धिवचनेन विधिवृत्तिरव्यभिचारिण्येवोपात्ता, तस्मादयमदोषः ।। ___ तत् कथमिति भाव्यत इति चेत् , उच्यते-इदं हि सर्वाभासव्युदासेनेत्यादि । पक्ष-हेतु-दृष्टान्ताभासाः सर्वे तेनैव सम्बन्धानुमानविधानेनापोद्यन्ते । प्रत्यक्षादितरः शेषः सम्बन्धी स्वादिना विशिष्यमाणो ४४८.२ देशादिः सम्बध्यतेऽनुमेयोऽनुमानाभासभेदैः प्रत्यक्षादिविरोधैरविरुद्धार्थः पक्षो धर्मधर्मिसमुदायाख्य उत्तरत्रा20 वय[व] विधाने परार्थानुमाने वीताख्ये 'साध्याभिधानम्' इति वक्ष्यमाणो निर्दोष एवानेन शेषसिद्धिवचनेन गृहीतः । यथायोगं स्व-स्वामि-निमित्त-नैमित्तिकादिषु तेन तेन सम्बन्धेन सम्बन्धात् प्रत्यक्षादिति प्रत्यक्षस्य धर्मादुपलब्धात् प्रसिद्धादिति यावत् । तत्रैको यः प्रत्यक्षः स पक्षधर्मः, शेषोऽनुमेयः । कृतकत्वाद्यप्रत्यक्षत्वादव्यापीति चेत् , अत आह-प्रत्यक्षवद्वा, प्रत्यक्षवत् प्रत्यक्षः प्रसिद्धः, तस्मात् प्रसिद्धत्वात् , सम्बन्धी पक्षधर्मोऽश्वः स्वम् , तस्य पक्षधर्मस्य सम्बन्धात् प्रागुपलब्धादनुस्मर्यमाणाच्छेषेण शेषस्य चैत्रस्य 25 सिद्धिरिति शेषसिद्धिवचनादेव विरुद्धासाधारणधर्मव्युदासः 'यत्र यत्राश्वः स्वं तत्र तत्र देवदत्तः स्वामी' इत्यत्यन्तावियोगादिसम्बन्धान्वययुक्तत्वात् सपक्षावृत्तिः विपक्ष एव वा वृत्तिः कुतः ? 'शेषाय शेषे वा प्रत्यक्षादेकस्मात् सम्बन्धात्' इत्येतावता सिद्धे सिद्धिवचनं 'सिद्धिरेव नासिद्धिः' इत्यवधारणात् 'प्रमेयत्वाद् नित्यः' इति साधारणानैकान्तिकवदसिद्धिर्मा भूदिति । का पुनरसिद्धिः ? व्यभिचारिधर्मता । तद्यथा-स्वाम्यसम्प्रदानेत्यादि यावदंतिप्रियसुतवदिति । चैत्रान्यथात्वं मरणम् । शेषं गतार्थम् । १ तुलना-पृ० ६८३ टि० २॥ २ मानं भवति प्र०॥ ३°न्तावियोषा प्र० ॥ ४ चारविधि प्र० ॥ ५ नमेवोनुमा भा० । नुमेवानुमा य० ॥ ६ तत्रैवकायः प्र०॥ ७ 'अथवा केचिदेवमाहुः-एकम्मात् प्रत्यक्षादिति प्रत्यक्षशब्दोऽयं प्रसिद्धत्वस्योपलक्षणम् । प्रत्यक्षात् प्रसिद्धादित्यर्थः ततः प्रत्यक्षात् प्रत्यक्षकार्याच्चान्यस्यापि ज्ञानस्य विषये लिङ्गे प्रत्यक्षव्यपदेशो भवति ।”-विशालामलवती P. ed, पृ० १३५ B-१३६ A ॥ ८ दितिप्रिप्र०॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६८९ .. इत्थं हि व्यभिचारिविशेषव्यावर्तनेनापि स एव सम्बन्धी गमकः सम्बन्ध्यन्तरस्य । न ते विशेषा गमकाः, तत्समर्थनार्थत्वात् । न हि वात्याप्रसङ्गव्यावर्तनेन धूमस्य व्यञ्जकत्वम् , बह्येव ह्यवात्या घटपटादि; न हि तद्वदग्नेरगमको धूमः। न वाऽवात्येति व्यञ्जकमग्नेर्भवितुमर्हति घटपटाद्यधूमतायामसत्यामेव । धूमतैव हि सती वह्नितायाः व्यञ्जिका। ____तथा कृतकत्वस्य [ अनित्यत्वोपलब्धसम्बन्धस्य ] अनित्यत्वाव्यभिचारप्रदर्शनार्थ व्यतिरेक उच्यते । यद्युपलब्धसम्बन्धस्य पुनरव्यभिचारित्वापेक्षमनुमानं न स्यात् व्यतिरेकवचनं न स्यात् । नापि च तस्यैवाभिव्यञ्जकत्वमापद्यते । तथा च कृतकत्वस्यानित्यत्वोपलब्धसम्बन्धस्य पुनरव्यभिचारापेक्षानुमितियुक्ता, तस्यैवा इत्थं हि व्यभिचारिविशेषव्यावर्तनेनापि स एव सम्बन्धी धूमादिरश्वादिर्वा गमकः 10 सम्बन्ध्यन्तरस्य प्रत्यक्षोऽनुमेयस्य द्वितीयस्यैकः सम्बन्ध्यन्तरस्य सम्बन्धित्वात् । न ते विशेषा व्यावा विधेया वा गमकाः तत्समर्थनार्थत्वात् , यथा न हि वात्याप्रसङ्गव्यावर्तनेन धूमस्य व्यञ्जकत्वम् , 'अधूमो वात्या, सा न भवत्ययं धूमः' इति वात्यायां निवर्तितीयामग्नेन गमको भवति धूमो यत्रादृष्टस्तद्वय ४४९-१ वच्छेदमात्रेण, यस्माद् बैह्वेवावाल्या घट-पटादि, न हि तद्वदग्नेरगमको धूमः, न वाऽवायेति व्यञ्जकं गमकमग्नेर्भवितुमर्हति घंटपटाद्यधूमतायामसत्यामेव, किं तर्हि ? धूमतैव हि सती वह्निताया: 15 सम्बन्धिनी सम्बन्धिन्या व्यञ्जिकेति । तस्माच्छेषसिद्धिवचनाद् निरस्तव्यभिचाराशङ्क सम्बन्धानुमानमेव प्रत्यक्षैकत्वविशेषणाभ्यां निरस्तसर्वाभासम् । किञ्चान्यत् , त्वयापीष्यत एतत् प्रसिद्धसम्बन्ध्येवाप्रसिद्धसम्बन्धिनो गमक(कं य दव्यभिचारस्वरूपावधारणार्थं व्यभिचारिविशेषव्यावृत्तिरुच्यत इत्यतस्तत्प्रदर्शनार्थमाह तथा कृतकत्वस्येत्यादि । 'अनित्यः शब्दः, कृतकत्वात् , यद् यत् कृतकं तत् तदनित्यम्' इति सम्बन्धविधिना प्रदर्य 20 कृतकत्वस्यैवानित्यत्वाव्यभिचारप्रदर्शनार्थं यदनित्यं न भवति तत् कृतकमपि न भवति' इति व्यतिरेक उच्यते, यापलब्धसम्बन्धस्य पुनरव्यभिचारित्यापेक्षमनुमानं न स्यात् व्यतिरेकवचनं पक्षधर्मसाध्यानुगतिसमर्थनार्थं न स्यात् , तत्तु दृष्टम् , नापि च तस्यैव व्यतिरेकवचनस्याभिव्यञ्जकत्वमापद्यते । तथा च एवं च कृत्वास्मन्न्यायेन कृतकत्वस्यानित्यत्वोपलब्धसम्बन्धस्य व्यतिरेके पुनरव्यभिचारापेक्षाऽनुमितियुक्ता, न तु त्वन्मतेन । किं कारणम् ? तस्यैवाभिव्यञ्जकत्वव्यक्तः, योऽसौ पुनरव्य-25 भिचारः स तस्यैव पक्षधर्मस्याभिव्यञ्जकत्वमभिव्यनक्ति, न स्वयमेवानुकंपा(कम्पते )। तथेहापीति ४४९-२ १ धूमस्याव्यञ्जकत्वम् प्र० ॥ २ तायामग्नेर्नामको भा० । “तामग्नेर्नामको य० ॥ ३ वह्वेवावात्या य० । बवाल्या भा० ॥ ४ विधिरूपा धूमतैव गमिका, न त्वधूमताया अभावः। न हि वात्यादिगता या अधूमता तदभाववत्त्वेऽपि घटपटादेरनिगम कलं दृश्यते । तस्माद् धूमतैव गमिके याशयः । यदि त्वयमाशयो न रोचते तदा 'न वाऽवात्येति व्यञ्जकं गमकमग्नेर्भवितुमर्हति घटपटादि धूमतायामसत्यामेव' इति पाठः कल्पनीयः ॥ ५न्यां व्यञ्जकेति भा० । 'न्यां व्यञ्जकतेति य० ॥ ६गमकमुदव्यभि प्र० ॥ ७'नार्थना स्यात् प्र० ॥ ८ ( स्वयमेवाभिव्यञ्जकः ? स्वयमेवाभिव्यनक्ति ?)॥ नय० ८७ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे भिव्यञ्जकत्वव्यक्तेः । तथेहापि, चैत्राश्वोदाहरणं स्वस्वामिसम्बन्धस्योपलक्षणार्थमग्निधूमानित्यकृतकत्वादिषु । सोऽत्र, तद्वत्सत्त्वात् , पूर्ववत् । नन्वेवमविनाभावोपवर्णनमेवेदम् । एवमेवैतत्, आधाराधेयसंयोगिवद्वृत्त्यभेदात् त्वदुक्तस्य व्यावर्तितत्वादस्मदभिहितेस्तु पूर्वत्वात् । त्वया न ज्ञातमनुमान5 स्वरूपं सत् मया ज्ञातम् । यथा त्वमाह तथा सम्बन्धानुमानकदेशस्य भाष्यमात्रमेवेदम्, तदनतिरिक्तार्थत्वात्, वृद्धिरादैजर्थव्याख्यानवत् । एवं च द्रव्याथासत्यो तत्साधर्म्य योजयति । चैत्राश्वेत्यादि, यञ्चैत्राश्वोदाहरणमत्रानुमानलक्षणभाष्ये तत् स्वस्वामिसम्बन्धस्योपलक्षणार्थमग्निधूमानित्यकृतकत्वादिषु तुल्यन्यायत्वात् । सोऽत्र स इत्यप्रत्यक्षोऽग्निचैत्रानित्यत्वादिधर्मः 'अत्र' इति प्रदेशे प्रत्यक्षाद् धूमाश्वकृतकत्वादेः पक्षधर्मात् साध्यार्थः पक्षोऽवगम्यताम् । तद्वत्सत्त्वादिति 10 हेतुः, सोऽस्मिन् सम्बन्धी वह्निचैत्रशब्दादिरस्तीति तद्वान् धूमाश्वकृतकत्वादिः, स एव धर्मः सन् तस्य भावात् तद्वत्सत्त्वात् । यत्र यत्र तद्वत्सत्त्वं तत्र तत्र सोऽस्ति, पूर्ववत्, यथा पूर्वोत्तरधूमादिरम्यादिना सम्बन्धात् तत्स्वामिक एव तेथेहापीत्येवमादीनामुपलक्षणार्थं चैत्राश्वोदाहरणमिति । अत्राह-नन्वेवमविनाभावोपवर्णनमेवेदम् । नन्वित्थमविनाभावसम्बन्धो मदिष्ट एव, अव्यभिचाराकाङ्क्षानुमानत्वादिति । अत्रोच्यते-वयमपि ब्रूमः-एवमेवैतत् अविनाभावसम्बन्धात् स्वस्खाम्यादि15 विकल्पादनुमानम् । कस्मात् ? आधाराधेयसंयोगिवद्वत्त्यभेदात् , आधाराधेयवद्वृत्तेः संयोगिवद्वत्तेश्चा भेदात् यत्त्वयोक्तम्-आधाराधेयवदृत्तिस्तस्य संयोगिवन्न तु [प्र० समु० ] इति, तस्य व्यावर्तितत्वात् । किञ्चान्यत् , अस्मदभिहितेस्तु पूर्वत्वात् , दिन्न-वसुबन्ध्वादिभ्यो बुद्धाच्च पूर्वकालत्वात् कापिलस्य तन्त्रस्य आर्हतैकदेशनयमतानुहारित्वाच्च तदनुमानस्य तच्चास्मन्मतोपजीवनमेव । त्वया न ज्ञातमनुमानस्वरूपं सत् मया ज्ञातमिति । 20 तद्व्याख्या यथा त्वमित्यादि । भाष्यमात्रमेवेदमिति पक्षः, सम्बन्धानुमानैकदेशस्यैवैतल्लक्षणस्य ४५०-१ भाष्यमात्रं *त्वत्प्रयासफलम् , तदनतिरिक्तार्थत्वात् , यद् यतोऽनतिरिक्तार्थव्याख्यानं तत् तदेकदेशस्यैव भाष्यमात्रम् यथा 'वृद्धिरितीयं संज्ञा भवति आदेचां वर्णानाम् , संज्ञाधिकारः संज्ञासम्प्रत्ययार्थः' इत्यादि वृद्धिरादैच् [पा० १।१।१] इत्यस्य, तथेदं त्वदीयमविनाभावसम्बन्धव्युत्पादनमस्मज्ज्ञातस्य सम्बन्धानुमानैकदेशस्य भाष्यमात्रम् , तदपि सर्वं न विदितमित्यभिप्रायः । कापिलमपि चास्मदुपज्ञमेव द्रव्यार्थविकल्पैक25 देशत्वादिति चाभिप्रायः । अत आह-एवं च द्रव्यार्थासत्योपाधिसत्यार्थव्याख्यानुज्ञा कृता त्वया 'सामान्योपसर्जनो विशेषः शब्दार्थः' इति द्रव्यार्थस्याप्यनुज्ञानादभ्युपगतं भवति द्रव्यार्थवादिमतार्जुमानलक्षणानुज्ञानात् । तस्यां चासत्योपाधिसत्यार्थव्याख्यानुज्ञायां 'लिङ्गिनो लिङ्गत्वं प्रसक्तम्' इत्यस्याभावः, न १ इत्यत्रप्रत्यक्ष प्र. । (इत्यत्राप्रत्यक्षों)॥ २ तद्वानुमाश्च प्र.॥ ३स्वत्तस्य प्र०॥ ४(पूर्वोऽत्र धूमादि)॥ ५ तत्वेहा प्र०॥ ६ भावोपर्णन प्र०॥ ७वन्निति भा० । वन्निति य० । दृश्यतां पृ० ६७८ पं० ६॥ * * एतचिह्नान्तर्गतः पाठो य. प्रतौ नास्ति ॥ ९नुमानं लक्ष य०॥ १० तस्या प्र०॥ ११ दृश्यतां पृ. ६८२ पं० १६ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ''""" दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६९१ पाधिसत्यार्थव्याख्यानुज्ञा कृता त्वया । तस्यां च नहि लिङ्गिनो लिङ्गत्वं प्रसञ्जयितुं शक्यम् । तथापि स्यात् विवक्षाभेदात् तथा तथा स्वखाम्यादिगम्यगमकत्वात् । तद्यथा देवदत्त यज्ञदत्तयोः संयुक्तयोरन्योन्यं लिङ्गत्वं लिङ्गित्वं च भवति तथा स्वस्वाम्यादिषु । तथाहि राज्ञो लाजपेयातरणं तत्करणाज्ञया... . . . . . . . . । न, संयोगित्व एकरूपत्वाद् अग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्गः । तत्काल एव च धूमोऽस्ति । न, असम्भवात् । प्रत्यक्षत्वाद्भूमोऽसाध्यः, साध्यस्त्वग्निरप्रत्यक्षत्वात् संयोग्येकरूपत्वाचानिष्टापादनमनपेक्षितार्थम् । संयोगित्व...... । यत् पुनरिदमुक्तम्-यस्य त्वविनाभावित्वं सम्बन्धोऽभिमतस्तस्यायमदोषः [प्र० समु० वृ० २।३७] इति । अत्र गुणदोषाभिमान: 110 हि लिङ्गिनोऽप्रत्यक्षस्य लिङ्गत्वं प्रत्यक्षत्वं प्रसञ्जयितुं शक्यमृद्धिमद्भिर्बुद्ध-बोधिसत्त्वादिभिरपि यथोक्तोऽस्माभिरव्यतिकर इति । तथापि स्यादित्यादि । न हि लिङ्गस्य लिङ्गित्वे लिङ्गिनो वा लिङ्गत्वे कश्चिद् दोषोऽस्ति विवक्षाभेदात् तथा तथा स्व-स्वाम्यादिगम्यगमकत्वात् , स्वं वा गम्यत्वेन गमकत्वेन वा विवक्ष्येत स्वामी वा यदा तदा विवक्षितस्यान्यतरस्य गम्यत्वं गमकत्वं वा यथाविवक्षं दृश्यते, तद्यथा-देवदत्तेत्यादि 15 दृष्टान्तः, यथा कस्मिंश्चित् कालेऽन्यतरकर्मणा देवदत्तो यज्ञदत्तेन युक्तो भवति यज्ञदत्तो वा देवदत्तन तयोश्चान्योन्यं लिङ्गत्वं [लिङ्गित्वं ] च पर्यायेण विवक्षावशाद् भवति युगपद्वोभयकर्मजसंयोगित्वात् तथा ४५०-२ स्वस्वाम्यादिष्विति । तथाहीत्यादि राज्ञो विशेषितस्य लाजपेयातरणं तत्करणाज्ञयेत्यादि गतार्थमग्निना धूमानुमानमिति । ____ अत्राह–न, संयोगित्वं एकरूपत्वादित्यादि । नाग्नेः पूर्व पश्चाद्वा धूमः संयोगी न धूमो 20 वाग्नेरिति मत्वाऽनिष्टमापाद्यते-अग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्ग इति; किं तर्हि ? तत्काल एव चाम्युपलब्धिकाल एव 'धूमोऽस्ति' इति भवत्येवानिष्टापादनमिदं व्यतिकरप्रसङ्ग इति । अत्रोच्यते-न, असम्भवात्, न सम्बन्धाविशेषादग्निलिङ्गत्वं [धूमलिङ्गित्वं] च प्राप्तम् , किं तर्हि ? प्रत्यक्षत्वाद्धमोऽसाध्यः साधनं तु, साध्यस्त्वग्निरप्रत्यक्षत्वादनुमेयत्वादसाधनम् । धूमोऽपि साध्यश्चेत् प्रत्यक्षमप्रमाणं स्यात् तदप्रामाण्ये चानुमा निर्बीजा स्यात् । 'अनुमितिः' इत्यपशब्देन परानुकरणं 25 दोषश्चैष स्यादिति । किश्चान्यत् , संयोग्येकरूपत्वानुमानाच्चानिष्टापादनम् 'अग्नितोऽपि धूमानुमानप्रसङ्गः' इति यदेतद् भवत्साधनमेतदैनपेक्षितार्थम् । तत्प्रदर्शनार्थ साधनम्-संयोगित्वेत्यादि गतार्थमनिष्टापादनम् । यत् पुनरिदमित्यादि स्वपक्षे दोषाभावप्रदर्शनार्थं यदुक्तं त्वया यस्य त्वविनाभावित्वमित्यादि १ दृश्यतां पृ० ६८३ टि० २ ॥ २ दृश्यतां पृ० ६८३ टि० २ ॥ ३ मद्भिर्बुधबोधि प्र० ॥ ४ °व्यतिकरमिति य० । व्यति भा० ॥ ५ म्यादीगम्य प्र०॥ ६°श्चान्यलिंगत्वं य० ॥ ७ वाजपेयाप्र० ॥ ८ तत्कारणाप्र० । दृश्यतां पृ० ६९५ पं० १५॥९°त्वरूपत्वा य० ॥ १० नमितिदं य० ॥ ११ वात् सत्यं बंधाविशे प्र० ॥ १२ °दनुपेक्षि य० ॥ १३ पुनरित्यादि य० ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे अग्र्यादिसम्बन्धी ...........लिङ्गी । इत्थमुक्त्वा यत् पुनरिदमुच्यते–'अग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्गः' इति न्यायदिग्मूढेन तत्। इह देशसाध्यतामुक्त्वा लिङ्गिलिङ्गतत्त्वव्यवस्थानवृत्तेरेवं वक्तव्यम् अग्निमतोऽपि धूमवदनुमाप्रसङ्गः................. उभयतोऽपि तन्मतुबर्थस्य तथा 5 तथेष्टवद्वत्तेः । धूमविषय एतदेव स्यात् । अथ(त्र) पुनर्नास्ति दोषगन्धोऽपि । धूमवत्त्वस्य हि लिङ्गत्वं युक्तम् , लिङ्गित्वमपि तद्देशविवक्षाया अग्निमत्त्वविशिष्टस्य देशस्यैव । न ह्यग्निमत्त्वस्य युक्तं लिङ्गत्वं साध्यत्वात् । अत एव मया तत्प्रधानमेवोच्यते-अग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्ग इति । 10 यावददोष इति । वयं तु ब्रूमोऽत्र गुणदोषाभिमान इत्यादि साध्य-साधनधर्मवद्देशाद्यनुमेयत्वमुक्त्या पुनस्तस्यैव दोषाभिधानादप्रत्यभिज्ञातम् अग्न्यादिसम्बन्धीत्यादिना त्वयैवाभ्युपगतमिति दर्शयति तस्यैव देशस्य लिङ्गत्वं [लिङ्गित्वं ] च न धर्मयोरग्निधूमयोरिति यावद् लिङ्गीति त्वन्मतमेवेदमिति प्रत्यभिज्ञापयति । ___ इत्थमुक्त्वा यत् पुनरिदमुच्यते-अग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्ग इति, न्यायदिग्मूढेन 15 तदिति । कथं पुनरमूढा ब्रुवत इति चेत्, बूंमस्त्वां शिक्षा ग्राहयन्तः, तद्यथा-इह देशसाध्यतामुक्त्वा "लिङ्गिलिङ्गतत्त्वव्यवस्थानवृत्तरेवं वक्तव्यमित्यादि, तां न्यायव्यवस्थामनुवर्तमानेन त्वयेत्थं वक्तव्यम् अग्निमतोऽपि धूमवदनुमाप्रसङ्ग इत्याद्युपदेशग्रन्थो यावदुभयतोऽपि तन्मतुबर्थस्य तथा तथेष्टवद्वत्तेरिति तत्कारणोक्तिम् । धूमविषय एतदेव स्याद् धूम एव देशविशेषानपेक्षोऽनुमापकः स्यादग्निरेव वानुमेयस्तदाऽग्नितो धूमानुमानं धूमादग्न्यनुमानवत् स्यात् प्रसङ्गः संयोगिनोरविशेषात् । अंथ पुनर्देशस्य 20 साध्य-साधनत्वान्नास्ति दोषगन्धोऽपीति । ___ तद् भावयति-धूमवत्त्वस्य हीत्यादि । धूमवत्त्वधर्मविशिष्टस्य देशस्यैव लिङ्गत्वं युक्तम् , धूमवत्त्वेन सिद्धस्य तस्य साधकत्वात् । 'लिङ्गित्वमपि तद्देशविर्वक्षाया हेतोः अग्निमत्त्वविशिष्टस्य देशस्यैव लिङ्गित्वं युक्तम् । अग्निविषये तु देशे लिङ्गत्वं न युक्तम् , किं कारणम् ? न ह्यग्निमत्त्वस्य युक्तं लिङ्गत्वं साध्यत्वात् , साध्यत्वं लिङ्गित्वात् , लिङ्गित्वमसिद्धत्वात् । अस्मन्मतेन तु "लिङ्गत्वमपि 25 अग्निमत्त्वविशिष्टस्य देशस्यैव शक्यं भावयितुम् , अग्निप्रत्यक्षत्वे धूमाप्रत्यक्षत्वे च कदाचित् । अत एव मया तत्प्रधानमेव देशप्रधानमेवोच्यते-अग्नितोऽपि धूमानुमितिप्रसङ्ग इति । . १ दृश्यतां पृ० ६८३ टि० २ ॥ २ 'धूमवत्त्व[विशिष्ट]स्य हि देशस्यैव लिङ्गत्वं युक्तम्' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ३ ब्रूवस्त्वा शिक्षा प्र० ॥ ४ लिंगिलिंगितत्त्व य० । लिङ्गलिङ्गितत्त्व इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ५ तन्मतु. पर्यस्य भा० । तन्मनुपर्यस्य य० ॥ ६ तत्कारणोक्तिं प्र. । (तत्कारणोक्तिः ?)॥ ७'एतदेवं स्यात्' इत्यपि भवेत् पाठः ॥ ८'अत्र' इत्यपि भवेत् पाठः । 'अथ पुनर्देशस्य साध्यसाधनत्वं नाति दोषगन्धोऽपीति' इत्यपि पाठः सम्भवेत् ॥ ९लिंगत्व प्र०॥ १०वक्षया य०॥ ११ लिंगित्वमपि प्र० ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम्। नन्वेवं देशमुपेक्ष्याग्नेरेव लिङ्गित्वं स्यादनुमेयत्वात् । न चासो लिङ्गी भवितुमर्हति लोके सिद्धत्वादननुमेयत्वात् । तथा चोक्तम्-. न धर्मी धर्मिणा साध्यो न धर्मस्तेन धर्म्यपि । धर्मेण धर्मः साध्यस्तु साध्यत्वाद्धर्मिणस्तथा ॥ [ प्र० समु० ३।१३] उपचारादेवेदमुच्यत इति चेत्, अत्र तत्त्वं मृग्यते, सुहृत्सूपचारः......... 5 साध्यत्वाद्धर्मिणस्तथा। एवं त्वग्निमद्देशस्य लिङ्गत्वम्, धूमवत्त्वसाधकलिङ्गानन्यत्वात् , धूमवत्त्वखात्मवदेव । अत्राह–नन्वेवं देशमुपेक्ष्य अनादृत्य अग्नेरेव लिङ्गित्वं स्याद् भवितुं योग्यम् । कस्मात् ? अनुमेयत्वादिति । अत्रोच्यते न चासौ लिङ्गी भवितुमर्हति अग्निः, कस्मात् ? लोके सिद्धत्वात् , 10 अतोऽननुमेयत्वात् । तथा चोक्तं त्वया यथास्मन्मतं 'धर्मविशिष्टो धर्म्यव साध्यः साधनं च' इत्यत्र त्वद्वचनमेव ज्ञापकम् । न धर्मी धर्मिणेत्यादि श्लोकः । न धर्मी धर्मिणा साध्यो यथाग्निधूमेन, सिद्धत्वादग्नेस्तद्धर्म-४५१-१ त्वाभावाद् धूमस्य । न धर्मो ‘धर्मिणा' इति वर्तते, यथाग्निनोष्णस्पर्शः, सिद्धत्वात् तद्धर्मत्वाभावाच्च । तेन धर्म्यपि तेन धर्मेणाऽनन्तरनिर्दिष्टेन 'विभक्तिपरिणामनिर्देशात् धर्म्यपि न साध्यः, यथा-अस्ति 15 प्रधानम् , भेदानामन्वयदर्शनादिति, धर्म्यसिद्धेरेव धर्मासिद्धेः । पारिशेष्याद् धर्मेण धर्मः साध्यस्तु । ननु धर्मयोरपि परस्परं धर्मत्वासिद्धिर्धर्मित्वाभावे, तस्मादयुक्तं साध्य-साधनत्वमिति । नेत्युच्यते साध्यत्वाद्धर्मिणस्तथा, तेन प्रकारेण तथा अनेकधर्मणो धर्मिणो वस्तुनः सिसाधयिषितधर्मविशिष्टस्य साध्यत्वात् सिद्धधर्मविशिष्टस्य साधनत्वात् । तथा चाह-साध्यत्वापेक्षया चात्र धर्म-धर्मिव्यवस्था न गुण-गुणित्वेनेत्यदोषः [ ] इति । उपचारादेवेदमुच्यत इति चेत् । स्यान्मतम्-सत्यम् , परमार्थतो लिङ्गलिङ्गिभाव एकस्य वस्तुनः सिद्धसाध्यधर्मविशिष्टस्य तथापि उपचारकृताद्धर्मभेदाद् भिन्नमिवाभिन्नमप्युच्यते इति । एतच्चायुक्तम् , यस्मादत्र तत्त्वं मृग्यते सुहृत्सूपचार इत्यादि यावत् साध्यत्वध(त्वाद्ध)र्मिणस्तथेति गतार्थ सव्याख्यानम् । तस्थात् सिद्धमग्निमत्त्व-धूमवत्त्वविशिष्टस्यैव देशस्य लिङ्गत्वं लिङ्गित्वं च । __तदुपसंहृत्य त्वां प्रति यदसिद्धं प्रस्तुतमग्निमदेशलिङ्गत्वं तत् साधयामः । तद्यथा-एवं तु अग्निमद्दे-25 शस्य लिङ्गत्वमिति प्रतिज्ञा । हेतुः-धूमवत्त्वसाधकलिङ्गानन्यत्वादिति । दृष्टान्तः-धूमवत्त्वस्वात्मवदेव, यथा धूमवत्त्वं स्वात्मा देशस्य तदनन्यत्वात् लिङ्गं तथानिमत्त्वस्वात्मा तदनन्य[त्वा देशस्य ४५२-१ लिङ्गमेव, तदनन्यत्वं च प्रतिपादितमेवेति । . १ इत्यग्र प्र०॥ २ धर्मा प्र०॥ ३ धर्मा प्र० ॥ ४ (तद्धर्मित्वा ? ) ॥ ५ धर्मिणो य० ॥ ६ विभक्तिनुपरिणाम भा०। ( विभक्तिविपरिण म ?)॥ ७ धर्मेण धर्मः साध्यतु ननु धर्मयोरपि य० । धधर्मयोरपि भा० ॥ ८ अनेकधर्मणो धर्मोणो वस्तुनः भा० । अनेकधर्मणोऽधर्मणो वस्तुनः य० ॥ 'अनेकधर्मणो वस्तुनः' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ९त्वात्त-सिद्ध य० ॥ 20 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्यलकृतं न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे नाग्निमत्त्वस्य लिङ्गत्वं व्यभिचारित्वात् प्रमेयत्ववत् । । न, धूमवस्तुत्वानुमानभूतेन लिङ्गत्वं नियतम् । अव्यभिचारित्वोपपादनेनाग्यविनाभावित्वेनैव धूमत्वसिद्धेः।। अथात्र किं प्रतिपत्तव्यं धूमलिङ्गादग्निप्रतिपत्तिवदग्नेरपि धूमप्रतिपत्तिः स्यात् । .5 अथ किंविषयः सम्प्रधारः ? दर्शितन्यायदेशसाध्यताया युक्तमेव लिङ्गस्य लिङ्गिनो वा लिङ्गित्वं लिङ्गत्वं वा । धूमवत्त्वलिङ्गित्वापत्तौ तु प्रमेयत्ववदग्निमत्त्वव्यभिचाराल्लिङ्गत्वाभाव एव । न हि सर्वत्राग्नी धूमस्याशङ्कयमनुमानम् , अनुगमाभावात् । देशासाध्यतायामपि सिद्धसाधनन्यायविरोधदोषः। अत्राह-नाग्निमत्त्वस्य लिङ्गत्वं व्यभिचारित्वात् , व्यभिचरति ह्यग्निमत्त्वं प्रदेशस्य धूमवत्त्वा10 दृतेऽपि देशान्तरे कालान्तरे चायोगुडाङ्गारादिषु दृष्टत्वात् । किमिव ? प्रमेयत्ववत् , यथा 'नित्यः शब्दः, प्रमेयत्वात् , आकाशवत्' इत्युक्त प्रमेयत्वं घटादावनित्ये विनापि नित्यत्वेन दृष्टं तथा अग्निमत्त्वं धूमवत्त्वेनेति व्यभिचारित्वादनन्यत्वस्यासाधकत्वम् । धूमवच्चस्य तु भवति अग्निमत्त्वेन 'विना न दृष्टत्वादिति । . अत्र ब्रूमः-न, धूमवस्तुत्वानुमानेत्यादि । धूमस्य हि वस्तुत्वे[न] आत्मलाभेनैवानुमानभूतेनान्यविनाभूतेन लिङ्गत्वं नियतं पाण्डुत्वबहुलत्वाविच्छिन्नमूलत्वादिरूपेण धूमत्वनिश्चयकरेण, तत्र लिङ्गित्व15 दोषप्रसङ्गस्यावतार एव नास्ति प्रत्यक्षत्वात् सिद्धत्वादेव लिङ्गत्वात् । तथाग्नेरपि प्रत्यक्षत्वे धूमस्य लिङ्गिनो लिङ्गत्वम् । अव्यभिचारित्वोपपादनेनेत्यादि, यदि तु अग्निमत्त्वं प्रमेयत्ववद् धूमं व्यभिचरेत् ततो धूमस्य धूमत्वमेव सन्दिह्येत बाष्पनीहारादिभावेनाबद्धमूलादित्वात् । तस्मात् सन्दिग्धासिद्धो हेतुः स्याद्धूमः, कुतोऽस्य लिङ्गत्वम् ? अग्न्यविनाभावित्वेनैव तु बद्धमूलत्वादिरूपेण धूमत्वसिद्धेः स्यात् पक्षधर्म त्वाल्लिङ्गत्वम् , तथाग्नेरपि धूमसिद्धौ लिङ्गत्वम् । 20 इतर आह-अथात्र किं प्रतिपत्तव्यं धूमलिङ्गादग्निप्रतिपत्तिवदग्नेरपि धूमप्रतिपत्तिः स्यात् , वस्तुनो लिङ्गलिङ्गित्वाविशेषात् । प्रतिपत्तौ तु दृष्टो विशेष इत्यभिप्रायः । ४५२-२ आचार्योऽत्रापि अविशेषमापादयितुकामस्तमेव वाचयितुं चाह-अथ किंविषयः सम्प्रधार इति । इतर आह-दर्शितन्यायदेशसाध्यत(ता)या हेतोः, दर्शितोऽयं न्यायः-देश एवाग्निमत्त्वेन साध्यः साधनं धूमवत्त्वेनेति । तस्मात् युक्तमेव लिङ्गस्य लिङ्गिनो वा लिङ्गित्वं [लिङ्गत्वं ] वा, न विरुध्यत 25 एतत् । किन्तु धूमवत्त्वलिङ्गित्वापत्तौ त्वित्यादि । सत्यपि संयोगित्वाविशेषे धूमसंयोगित्वमेवाग्नेर्गमकं दृष्टम् 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निः' इति । धूमवत्त्वस्य लिङ्गित्वे प्रमेयत्ववदग्निमत्त्वव्यभिचाराल्लिङ्गत्वाभाव एव । तस्मादग्नेरन्यथा संयोगित्वमन्यथा धूमस्य, यस्माद् न हि सर्वत्रेत्यादि 'यत्र यत्राग्निस्तत्र तत्र धूमः' इति आशयमनुमानम् अनुगमाभावात् सर्वत्राग्नौ धूमाभावात् । मा भूदेष दोष इति देशा साध्यतेष्यते, तस्यां च देशासाध्यतायामपि 'सिद्धसाधनन्यायविरोधदोषः 'धूमादग्निः' इति अग्नेः 30 सिद्धत्वात् साध्यत्वेनेप्सितः पक्षः [न्यायमुखं.] इति लक्षणानवतारः प्रकाशितप्रकाशनवच्च वैयर्थ्यमिति । १ वायोगुडा य० ॥ २ विनानान दृष्ट° भा० । विना दृष्ट य० ॥ ३°वनुमा' य० ॥ ४ धूमस्य लिंगत्वम् भा० ॥ ५ त वाप्यनीहा भा० । 'त तवाप्यनीहा य०॥ ६ वा य० प्रतौ नास्ति ॥ ७धूमत्वलिंगित्वा य० ॥ ८(अशक्यमनुमानम् ?)॥ ९ (सिद्धसाधनं न्याय?)॥ १० दृश्यतां टिपृ० १२८ पं० ३॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९५ 10 दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । अग्निसाधनवदेव हि धूमसाधनेऽपि विनाग्निना धूमस्य दृष्टत्वाद् व्यभिचाराद् नानुमानसम्भवः। _ सम्भाव्यते तु धूमदर्शनात् 'अग्निरत्र' इति अग्निदर्शनाद्वा 'धूमोऽत्र' इति, अग्ने रन्धनगृहत्ववत् । यत्र धूमासम्भवस्तत्राग्नेरप्यसम्भवोऽन्तर्जलवत् । अन्वयार्थः सम्भवार्थत्वेन इतरवत् । प्रतीतिरपि तथा । अथवालं भवतु।। ___ 'अग्निरत्र' इति प्रतिज्ञायाम् 'अग्निरेवान' इति नावधार्यते तावत् तत्र पृथिवीन्धनादिसद्भावात् । नापि 'अग्निरत्रैव' इत्यवधार्यते प्रत्यक्षादिप्रसिद्धिविरुद्धार्थत्वात्। नापि 'अग्निरत्र भवत्येव' इत्यवधार्यते सदाग्निधूमाभावात् तत्र। तस्माद् विवक्षिते देशे काले भवत्यग्निरिति प्रतिज्ञार्थः, अव्युत्पत्तिविध्यनवधृतेः, 'रक्तमिदं करवीरपुष्पम्' इति प्रतिज्ञावत् । अत्र ब्रूमः-अग्निसाधनवदेव हीत्यादि अग्नि-धूमयोरविशिष्टगम्यगमकभावापादनग्रन्थो गतार्थः । वासगृहेऽपनीताग्निके [ धूमोऽग्निना ] *'विना दृष्टोऽरैणिनिर्मथने वाऽभूताग्निके *तस्मात् तुल्यो व्यभिचारः। कथं पुनरनुमानसम्भवः ? सम्भाव्यते तु धूमदर्शनादग्निरत्रेति अग्निदर्शनाद्वा धूमोऽत्रेति, तत् पुनः प्रमाणान्तरगते देशेऽमित एव धूमः, बद्धमूलत्वादिभिधूमाद्वाग्निरिति । तत्र दृष्टान्तः-अग्ने रेन्धन. गृहत्ववदिति त्वरिततरणकरणार्थाज्ञाप्ताग्निहस्तसूपकारके रन्धनगृहे 'धूमः सम्भवति' इति । वैधयेण यत्र 15 धूमासम्भवस्तत्राग्नेरप्यसम्भवोऽन्तर्जलवदिति । धूमोऽग्नेरन्यत्र न सम्भवतीत्यन्वयस्यार्थः सम्भवार्थत्वेन इतरवदिति धूमवत् , यथा धूमोऽग्नौ सम्भवति स कदाचित् कचित् तथाग्निधूमे सम्भवति इत्यन्वयार्थः ४५३. शक्यत एव, प्रतीतिरपि तथा । अथवालि(लं) भवत्विति अलमियता क्रीडितेनेति वस्तुतः प्रतिपत्तितश्च प्रतिपादितमपि अस्माभिर्न प्रतिपद्यसे लिङ्ग-लिङ्गित्वाविशेषं किमर्थम् ? यद्यपि न प्रतिपद्यसे तथाप्यत उत्तरमवयवनिरूपणेनापि प्रतिपादयिष्यामः । 20 ___ 'अग्निरत्र' इत्यस्यां प्रतिज्ञायामित्यादि । 'अग्निरेवात्र' इति नावधार्यते तावत् तत्र पृथिवीन्धनादिसद्भावात् तदभावेऽनेरेव दुर्लभत्वात् , देशस्यैव वाऽभावात् तदाधेययोरग्निधूमयोरप्यभावापत्तः । नापि 'अग्निरत्रैव' इत्यवधार्यते तत्प्रदेशाग्नितोऽन्येषामग्नीनामनग्नित्वाभ्युपगमे प्रत्यक्षादिप्रसिद्धिविरुद्धार्थत्वात् प्रतिज्ञादोषात् , तत्प्रदेशव्यतिरिक्तेषु प्रदेशेष्वन्यभावात् 'यत्र यत्राग्निस्तत्र तत्र धूमः' इति दृष्टान्तो न शक्यो वक्तुम् , अतस्तन्निरासः । नापि 'अग्निरत्र भवत्येव' इत्यवधार्यते भवतिप्रयोग- 25 व्यवहारेण, ने न भवत्यपि कदाचिदिति । किं कारणम् ? सदाग्निधूमाभावात् तत्र तस्मिन् देशे कादाचित्काग्निव्युदाँसो निरर्थकः सततमग्निधूमयोरभावात् । तस्माद् 'विवक्षिते देशे तस्मिंस्तस्मिन् काले भवत्यग्निः' इति प्रतिज्ञार्थः । कस्मात् ? १°नचदेव भा० । नंचदेव य० ॥ २ * * एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ ३°रणिनिमर्थने वा भूताग्निके य० ॥ ४°व्यतोसु धूम प्र० ॥ ५ रत्वन' य० । नत्वन भा०॥ ६ तुलना-पृ०६९१ पं० ५॥ ७ संभवोन्नर्जल° भा० । संभवेनिर्जल य० ॥ ८ अथवालिरुवत्विति भा० । अथवालिसरु य० ॥ ९चाभावात् भा० ॥ १० तदाचययों य० ॥ ११ प्रयोगाव्यवहारेण प्र० । (प्रयोगाध्याहारेण ?)॥ १२ न भवत्यपि य०॥ १३ दासोनर्थकः भा०॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे धूमश्च पक्षधर्मोऽनुबद्धरूप एवाग्निना भवति अग्निसहचरित्वाग्निनिमित्तत्वख्यापनार्थम् । इह क्वचित् सहचरिभावः, कचिच्च निमित्तनैमित्तिकभावः । इह तु द्वयवयवमेव लिङ्गम् । तत्राविना भावी [ सहचरी । सहचरावग्निधूमौ । ] सहचरोऽस्मिन् विद्यत इति सहचरी । अस्मिन् विद्यत एवाग्निर्धूमे, न न विद्यत एव न च न 5 विद्यतेऽपि कचित् । तस्मिन् हि किल सति विद्यत एवाग्निः, न न विद्यते वात्यादिवत् न च न विद्यतेऽपि धूमासहचरायोनिधूमवत्, न वा सपक्षसहचरे न विद्यत एव कृतकमिव नित्ये । एवमसिद्ध विरुद्धानैकान्तिकव्युदासेन सहचरिभावानुमानं सिध्यति । नन्वेवं किमर्थं निमित्तनैमित्तिक भावोपादानम् ? न, अग्निवद् व्यभिचारि ६९६ 10 अव्युत्पत्तिविध्यनवधृतेः, विधिनैवाव्युत्पादितावधारणेनोक्तत्वात् 'रक्तमिदं करवीरपुष्पम्' इत्यव्युत्पन्न - रक्तश्वेतविशेषणाय पुरुषायेव तन्निरूपणार्थ 'रक्तमेव, 'श्वेतमेव वा' इत्यवधारणानपेक्षा प्रतिज्ञा । ४५३-२ धूमश्च पक्षधर्मोऽनुबद्धरूप एवाग्निना भवति । किमर्थम् ? अग्निसहचरित्वाग्निनिमित्तत्वख्यापनार्थम्। तद्व्याख्या - इह क्वचिदित्यादि, रूपस्पर्शयोः सहचैरिभावः, दण्डादि निमित्तम् घैटो नैमित्तिक इति निमित्तनैमित्तिकभावः, तावेतौ सहचरिनिमित्तनैमित्तिकभावाववयवौ, तदेव हि तत्, इह तु द्व्यवयव15 मेव लिङ्गम् । तत्राविनाभावीत्यादि, सहचरिभावं तावदादौ निरूपयामः सोऽविनाभाव एव । तद्व्याख्या निरूपणार्थी - सहचरावित्यादि सहचरो यस्मिन् विद्यत इति सहचरी धूमस्याग्निरिति इनिप्रत्ययः सप्तम्यर्थे, अस्य त्रिविधोऽर्थः - अस्मिन् विद्यत एवाग्निर्धूमे अग्नित एव चायमिति पक्षधर्मावधारणम् । नन विद्यत एवेति 'सपक्षाननुगतो विपक्ष एव सन्' इति विरुद्धासाधारणानैकान्तिकाशङ्का मा भूदिति । न च न विद्यतेऽपि क्वचित् सहचरी धूम इति साधारणानैकान्तिकौशङ्का मा भूदिति वा । 20 तद्व्याचष्टे - तस्मिन् हि किल सतीति, पराभिमतस्य धूमे लिङ्गिनि अग्निलिङ्गत्वस्य व्युदासार्थं तदुदाहरणानि, सति विद्यत एवाग्निर्न न विद्यते वात्यादिवदित्यसिद्धव्युदासेन । न च न विद्यतेऽपि धूमा सहचरायोग्निधूमवदिति साधारणानैकान्तिकाशङ्काव्युदासेन । न वा सपक्षसहचरे न विद्यत एव कृतकमिव नित्य इति विरुद्धासाधारणानैकान्तिकाशङ्काव्युदासेन । एवमसिद्धेत्या शुक्तोपसंहारो गतार्थः । नवे मित्यादि । एवं तर्हि असिद्धविरुद्धानैकान्तिकव्युदासेन सहचरिभावानुमानसिद्धौ सत्यां 25 किमर्थमनर्थकनिमित्त नैमित्तिकभावोपादानम् ? तस्मादेकावयवमेवास्त्विति । ४५४-१ एतच्च न, अग्निवद् व्यभिचारित्वाद् धूमस्यापि यथाग्निर्धूमं व्यभिचरति अयोध्यादावभावात् तथा धूमोsपि अग्निमपनीतानिकवासगृहादौ अरणिनिर्मथनादौ चेति समानम् । तद्व्याख्या यदि हे (हि) ससदेत्यादि दृष्टान्तोपनया सभावना गतार्था प्रागुक्तन्याया । सन्निहितनिमित्त-सहचरिप्रख्या प्र० ॥ १ पुरुषायैवातन्निरू २ श्वेतमेवेत्य य० । श्वेतमेवत्यव भा० ॥ ३ चरिताभावः भा० । 'चरितः य० ॥ ४ घटादि य० ॥ ५ भावावयवौ प्र० ॥ ६ तदेव हि तदिह तु द्यवयमेव य० । तदेतदतदिह तुद्यवयवमेव भा० ॥ ७ ( अस्मिन् ! ) ॥ ८ वा भा० ॥ ९ विरुद्धसाधारणानैकान्तिका मा भूदिति प्र० । १० शङ्का य० ॥ ११ धूमसहचरायो भा० । धूमसहचरयों य० । १२ सावधार प्र० ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ६९७ त्वाद् धूमस्यापि । यदि हि स सदा......... । पाण्डूर्धगतिबहलोत्सङ्गयेकदेशबद्धमूलपुनःपुनरुत्थायिधूम[स्याग्निमन्तरेणाभावाद निमित्तनैमित्तिकभाव एषितव्यः] । बलाकापताकावच [सहचरिभावोऽप्येषितव्यः, निमित्तनैमित्तिकभावे सत्यपि] धूमेऽग्नेर्व्यभिचारदर्शनात् । सहचरिनिमित्तोपपत्तौ तु न काचिद व्यभिचारदिक । देशान्तरासश्चारिधूमस्य तत्कालसन्निहिताग्निनिमित्तत्वाद् विशिष्टस्यैव धूमस्याग्नौ गमकत्वम्, विशेषणार्थवत्त्वात् । स यथाग्निमत्त्वं गमयति तथा सन्निहिताग्निनिमित्तत्वमपि । एवं चाग्नेरपि गृहीतत्वाद् न प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरमपेक्ष्यते कृतकत्वेनेपनेन विशिष्टधूमग्रहणं 'तस्मिन्नेव देशे काले च नानुत्पन्नो नातीतो नापनीतो वाग्निः' इत्येतस्या[र्थ]स्य 10 प्रख्यापनार्थम् । सत्यपि सहचरिभावे निमित्तभूत्तं तमग्निमन्तरेण धूमस्यैवाभावाद् निमित्तनैमित्तिकभाव एषितव्यः । ततस्तवधारणार्थानि लिङ्गानि दर्शयन्नाह-पाण्डूर्धगतीत्यादि । पाण्डुविशेषणं बाष्पनीहारादिव्युदासार्थम् । ऊर्धगत्या बहलत्वेन च धूमिकाव्युदासः । उत्सङ्गिग्रहणात् शेरावाकारो विस्तारित्वं सूच्यते, पार्श्वविस्तारित्वाद् धूमिकादीनाम् । एकदेशबद्धमूलग्रहणादभूता-ऽपनीताग्नि-बात्यादिव्युदासोऽनेकत्र भ्रमणादित्वात् तेषाम् । पुनःपुनरुत्थायिधूमग्रहणा[द]पनीताग्निकवासगृहारणिनिर्मथनावस्था- 15 व्युदासः । तस्मात् सलिल-बलाकयोः सहचरिणोरिवाग्निधूमयोर्व्यभिचारदर्शनाद्' निमित्तनैमित्तिकभावोऽपीष्ट इति । सोऽपि निमित्तनैमित्तिकभावः सहचरिभावेन विना व्यभिचरत्येवेति दर्शयन्नाह बलाकापताकावच्चत्यादि यावद् धूमेऽग्नेर्व्यभिचारदर्शनादिति भावना गतार्था, नैमित्तिकसद्भावे निमित्ताभावदर्शनात् स्थपतिकृतप्रासादादिवदिति । तदुभयगतदोषपरिहारेण व्यवयवगुणप्रकाशनार्थं चाह - [सह] चरिनिमित्तोपपत्तावित्यादि यावद् 20 विशेषणार्थवत्त्वादिति । उभयविशेषणसम्पत्तौ सत्यां काचिद् व्यभिचारैदिग् न सम्भवति । तत् कथम् ? इति तद् दर्शयति-देशान्तरासञ्चारीत्यादिना भावयन् , तत्कालसन्निहिताग्निनिमित्तत्वाद् धूमस्य व्यभिचारमलविशुद्धस्य तैर्विशेषणैर्विशिष्टस्यैव सहचरिण्यग्नौ गमकत्वम् , इतरथा धूमस्यापि अग्नेरिव धूमे व्यभिचाराद् विशेषणसामोदेवानुमानार्थवत्त्वम् , विशेषणानुपादानेऽग्निमत्त्वमेव न गमयति उभयतोऽपि सहचरित्वे निमित्तनैमित्तिकत्वे वाऽसति यस्मात् तस्मात् स यथाग्निमत्त्वं गमयति तथा सन्निहिताग्नि-25 निमित्तत्वमपि 'गमयति' इति वर्तते, यथाग्निमत्त्वेन विना नास्ति धूमवत्त्वं तथा तन्निमित्तत्वमन्तरेण नास्तीत्यग्निमत्त्ववन्निमित्तत्वमपि गमयति उभयत्राव्यभिचारादिति । स्यान्मतम्-लिङ्गत्वादग्निः प्रत्यक्षं प्रमाणान्तरमपेक्षेत धूमवदिति । तन्न भवति, एवं चेत्यादि । एवमुक्तबद्धमूलत्वादिविशिष्टधूमपरिग्रहेऽग्नेरपि गृहीतत्वाद् न प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरमपेक्ष्यते । किमिव ? १ नानीतो या० ॥ २ नायतीतो प्र० ॥ ३ पाण्डूर्वगती प्र० ॥ ४ बाप्यनीहा प्र० ॥ ५ सरावा प्र० ॥ ६ तादित्यादि प्र० ॥ ७ रदिङ्गसंभवति प्र० ॥ ८ 'प्य¥गत्वम् प्र० ॥ ९ 'नार्थत्वम् य० ॥ १० पादानाग्निम प्र० ॥ ११ वासति प्र० । 'चासति' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ १२ धूमवथा तन्नि भा० । धूमत्वं तथा तन्नि य०॥ नय० ८८ ४५४-२ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [ अष्टम उभयनियमारे वानित्यत्वस्य । स एव निमित्तमग्निधूमस्य सहचरश्च । न हि तस्याग्नितोऽन्यद् निमित्तं भवितुमर्हति सहचरं वा........ क्रियेत । पूर्वप्रत्यक्षसम्बन्धस्मरणादन्यतरेणेतरस्याभिव्यक्तिः प्रत्यक्षवत् । ....... अनित्यं सर्व प्रयत्नानन्तरीयकम् , आईतत्वस्याभ्युपगम्यमानत्वात् । 5 खवचनानपेक्षायामपि तान्यपि सिद्धप्रयत्नानन्तरीयकान्येव लोकप्रत्यक्ष......."विहितवृत्तित्वात्, कुड्यादिवत् । जीवशरीरं नात्यन्त(क्त ?)शरीरचित्त प्रवृत्तत्वात् स्थपतिवत् । चेतनविहितवृत्ति च .....सवितृगति..... । कृतकत्वेनेवानित्यत्वस्य, तद्यथा प्रागभावप्रध्वंसाभावाख्यमेकमेव [व]स्त्व[६]वमनित्यं कृतकं 'चोच्यते, 10 ध्रुव स्थैर्ये, ध्रुवं स्थिरम् , नेधुंवे त्यप् [पा० म० भा० ४ । २ । १०४ ] नित्यम् , न नित्यमनित्यमिति ‘कृतकम्' इत्युक्ते तदेवानित्यमध्रुवमित्युक्तं भवति उत्पादविनाशयोरध्रौव्याभेदात् तथा धूमग्रहणेऽग्निग्रहणं प्रदेशात्माभेदात् । स एव निमित्तमग्निधूमस्य सहचरश्च, न हि तस्येत्यादि श्यावत् क्रियेतेत्यादि*, नहि तस्य धूमस्य अग्नितोऽन्यद् निमित्तं प्रदेशपरिणामात्मकाद् देशान्तरस्थाग्निपाषाणाम्बुकुम्भादि भवितु४५५-१ मर्हति सहचरं वा तदसम्बद्धत्रैलोक्यलिङ्गित्वप्रसङ्गात् , परिणाम्यभेदपरिणामान्तरसाध्यत्वे परिणामान्तर15 साधनत्वात् एवमस्यैव हेतु-हेतुमद्भावभावनार्थमाह-पूर्वप्रत्यक्षेत्यादि यथा पूर्व प्रत्यक्षकालेऽग्निना सम्बद्धो धूमोऽग्निश्च धूमेन तथान्वयकाले तस्य सम्बन्ध]स्य स्मरणाद् 'यत्राग्निस्तत्र धूमः, यत्र धूमस्तत्राग्निः' इत्यन्यतरेण विवक्षितेन हेतुनोपात्तस्य इतरस्य साध्यस्याभिव्यक्तिः प्रत्यक्षकाले इव प्रत्यक्षवत् । स्यान्मतम्-धूमविज्ञानकालेऽग्निविज्ञानस्याभावात् ... ... ............। .......... अनित्यत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वयोरन्योन्यव्याप्तिं प्रतिज्ञाय हेतुमाह-आर्हतत्वस्याभ्यु20 पगम्यमानत्वादिति अन्यापोहाभ्युपगमात् स्ववचनादेव जैनेन्द्रं मतमभ्युपगतं त्वयेति वक्ष्यामः । स्ववचनानपेक्षायामपीत्यादि । यद्यपि त्वं वचनमनपेक्ष्यापि 'अनित्यं सर्व प्रयत्नानन्तरीयकं न भवति' इति ब्रूषे तथापि ते वचनं न्यायापेतमेवेदम् । तद्यथा-तान्यपीत्यादि, तान्यपि अभ्रेन्द्र चापादीनि सिद्धप्रयत्नानन्तरीयकान्येवेति प्रतिज्ञा, लोकप्रत्यक्षेत्यादि समासदण्डको हेतुर्यावद् विहितवृत्ति त्वादिति । कुड्यादिदृष्टान्तः । तद्व्याख्या लोकप्रत्यक्षेत्यादिविशेषणप्रयोजनानि च पिण्डार्थेन विद्युदा25 दीनां चैतन्यं तावत् साध्यते-जीवशरीरं वातादयः, अनण्यादित्वे स्पर्शादिमत्त्वात् , गोवत् । तस्यापि गोम॑तस्य जीवत्वाभावाद् मा भूदनैकान्तिकते[ति ] जीवशरीरत्वेऽपि तु नात्यन्त(क्त)शरीरै चित्तेत्यादि यावत् स्वयं प्रवृत्तत्वादिति विशेषणव्याख्या । स्थपतिवदिति स्थपतेश्चैतन्यवत् । वातादिचैतन्ये सिद्धे ४५५-२ चेतनविहितवृत्ति चेत्यादिना विद्युदभ्रमेघशब्दादीनां चेतनवातप्रयत्नोत्थता दर्श्यते, सवितृगतीत्या दिना . १ चोच्यते वस्थैर्य भा० ॥ २“धु स्थैर्ये'-पा० धा० ९४३ ॥ ३ न ध्रुवे त्यप्र प्र० । “त्यब् नेवि॒वे । त्यब् नेधुवे वक्तव्यः । नियः।"-पा०म० भा० ४।२।१०४॥४* * एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति ॥ ५क्रियतेत्यादि य० ॥ ६ एवंस्यैव भा० । ( एकस्यैव ? )। 'परिणाम्यभेदपरिणामान्तरसाध्यत्वे परिणामान्तरसाधनत्वादेकस्यैव र्थमाह' इत्यपि पाठोऽत्र भवेदिति ध्येयम् ॥ ७ हेतूसद्भावभावनार्थ य०॥ ८'सम्बद्धस्य' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ९ इतः परं पाठस्त्रुटितः सर्वासु प्रतिषु ॥ १० ते कवचनं य०॥ ११ रचेत्तेत्यादि प्र०॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ 10 दिनागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । याप्याधाराधेयवद्वत्तिः 'लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव लिङ्गिन्येवेतरत् पुनः । नियमस्य विपर्यासे सम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः ॥ यस्माल्लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव तस्माद् युक्तं यदग्निवद् धूमो द्रव्यत्वादीनामपि प्रकाशको न तैक्ष्ण्यादीनाम् । यस्माच्च लिङ्गिन्येव लिङ्गं भवति नान्यत्र तस्माद् युक्तं यद् धूमो धूमत्वेनेव पाण्डुत्वा- 5 दिभिरपि प्रकाशयति न द्रव्यत्वादिभिः । एवं ह्यवधारणवैपरीत्येन सम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः । [प्र० समु० वृ० २।२०३]। . एषापि तद्भावदर्शन विधेरेव गमयति न व्यावृत्तिबलेन । न हि योषिद्गण्डपाण्डुत्वं गमयत्यग्निम् , अभूताग्निधूमकत्वात् । धूमभूतं गमयति धूमभूताग्नित्वात् तद्भावस्य तद्भावत्वेनैव गमकत्वात् । ___ यथा चेदं तथा द्रव्यत्वादिसामान्यस्यापि धूमभूतेर्गमकत्वमग्नेः पाण्डुत्ववत् । अग्नेरपि द्रव्यत्वसामान्यगतिरग्निभूतत्वात् । यत्तु धूमो दीप्त्यादिविशेषाणामगमकस्तत् तद्भावदर्शनविधेरेव तथा चान्यथा च दृष्टत्वाद् व्यभिचारात् । इन्द्रधनुषः। तस्माद् विद्युदादीनि प्रयत्नानन्तरीयकानि अनित्यानि चेत्यनित्यप्रयत्नानन्तरीयकत्वयोरन्यो- 15 न्यगम्यगमकता। ___ एवमविनाभावित्वकुतर्कस्य विनाभावेनास्माभिः तद्भावदर्शनादेव साध्यसाधनधर्मयोः विधेः संयोगिवद्वृत्तिः यथाप्रतिज्ञर्मुक्ता, 'न त्वाधाराधेयवद्वृत्तिः' इति प्रतिपादयिष्यामः-याप्याधाराधेयवदित्यादि । यामपि आधाराधेयवद्वृत्तिं मन्यसे लिङ्गे लिङ्गी भवत्येवेत्यादि श्लोकः । तद्वयाख्या-यस्माद् लिङ्गे धूमे लिङ्गी अग्निर्भवत्येव न [ न ] भवत्यपि तस्माद् युक्तमित्यवधारणार्थप्रदर्शनम् । यस्माच्च 20 लिङ्गिन्येवेत्यादि यावद् द्रव्यत्वादिभिरित्यादि तद्विपरीतावधारणप्रदर्शनं गतार्थम् । सामान्यस्य गेम्यत्वं लिङ्गिनि न विशेषाणाम् , लिङ्गस्य च विशेषाणां केषाश्चिद् गमकत्वं न सामान्यस्य दृष्टम् , तत् सर्वमविनाभावादाधाराधेयवद्वृत्तेरिति पूर्वपक्षः।। ___ अत्रोत्तरम् -एषापीत्यादि । इयमपि आधाराधेयवद्वृत्तिः तद्भावदर्शनविधेरेव यत्र दृष्टस्तद् गमयति दर्शनबलेन, न यत्रादृष्टस्तव्यवच्छेदेन व्यावृत्तिबलेनेति । अत्रापि न हीत्यादि यौवन(त् ? ) 25 योषिद्गण्डपाण्डुत्वं न गमयति अग्निम् , अभूताग्निधूमकत्वात् ; धूमभूतं तु पाण्डुत्वं गमयत्यग्निं धूमभूताग्नित्वात् , विधेरेवं तद्भावस्य तद्भावत्वेनैव गमकत्वात् ।। यथा चेदमित्यादि, पाण्डुत्वादिविशेषस्य धूमभूतत्वेन गमकत्ववद् द्रव्यत्वादिसामान्यस्यापि धूमभूतेर्गमकत्वमग्नेरिति भावना यावत् पाण्डुत्ववदिति । एवं तावद्धूमभूतसामान्य-विशेषधर्माणां गमकत्वं तुल्यम् । ' विधेरेव गम्यत्वनियमाविशेषः । तथाहि-अग्नेरपि द्रव्यत्वसामान्यगतिः, अग्निभूतत्वात् ।।१६-१ नोदकादितद्व्यतिरिक्तद्रव्यत्वगतिः, अतद्भूतत्वात् । यत्तु धूमो दीप्त्यादीत्यादि, दीप्ति-तैक्ष्ण्यादिविशेषा १ दृश्यतां पृ० ६७९ पं० ४-८॥ २विनास्माभिः भा०॥ ३ पृ. ६८१ पं० २॥ ४ मुक्त्वा प्र० ॥ ५ गमकत्वं य०॥ ६ अत्रोत्तरमेषामपीत्यादि प्र. । 'अत्रोत्तरमियमपीत्यादि' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ७ अत्र किञ्चिदशुद्ध त्रुटितं वा प्रतीयते । 'न हीत्यादि भावना, योषिद्दण्डपाण्डत्वं न......' इति चेत् पाठस्तदा सम्यक् सङ्गच्छते॥ ८ धूमत्वात् य० ॥ ९ विधिरेव प्र०॥ १० विधिरेव प्र०॥ ११ तथा व्यग्नेपि प्र० । 'तथा चाग्नेरपि' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे तद्भावदर्शनानुबन्धेन हि बुद्धयुत्पत्तिरनुमानम् । धूमवत्त्वमग्निमत्त्वानुबद्धमेवेत्यैकान्तिकग्रहणेऽनुमानं भवति, अव्यभिचारात् । व्यभिचारात्त्वनुमानाभासम्, तद्यथा वृक्षक्षुपादिवज्वलनतैक्ष्ण्यादिव्यभिचारेण । तथाविधदर्शनबुद्ध्यनुबद्धमेवानुमानमपि । तदतत्पक्षद्वयगतैकान्तमनाश्रित्य ज्ञानमनव धृतार्थमनध्यवसायो विपर्ययश्चानुमानाभासौ । व्यावृत्तेस्त्वनुमानाप्रामाण्यापत्तिः, अत्यन्ताज्ञानादन व्यवसायवत्, ग्राह्यवृत्यननुरोधिप्रतिपत्तेर्वा विपर्ययवत् । गतिरपि तद्भाÎदर्शनविधेरेव, तथा चान्यथा च दीप्ति-तैक्ष्ण्यादिरूपेण तद्विरहितत्वेन च दृष्टत्वाद् 10 व्यभिचारात्, नात्यन्ताभूत शीतादिव्यभिचार दसम्बद्धादगतिः, किं तर्हि ? सम्बद्धव्यभिचारादेव | किञ्चान्यत्, दर्शनविधेरेवानुमानलक्षणोपपत्तेः स एवैषितव्य इत्यत आह-तद्भावदर्शनानुबन्धेन हि बुद्ध्युत्पत्तिरनुमानमित्येतदनुमानर्हेक्षणम् । तद् व्याचष्टे - धूमवत्त्वमित्यादि, यदा 'धूमवत्त्वं प्रदेशस्याग्निमत्त्वानुबद्धमेव' इत्यैकान्तिकं ग्रहणं तदानुमानं भवति 'धूमादग्निरत्र' इति, तस्याग्नेरेकान्तेनैव ग्रहणमव्यभिचारात् । व्यभिचारात् त्वनुमानाभासम्, तद्यथा - वृक्ष - क्षुपादिवज्वलन तैक्ष्ण्यादिव्यभिचारेण, 15 यथा यदा तु 'वृक्षः क्षुपो वात्र, धूमात्' इति तदानुमानाभासं भवति, विनापि वृक्षादिना दृष्टत्वाद् व्यभिचाराद् दर्शनबलेनैव । तदुपसंहारः तथाविधदर्शन बुद्ध्यनुबद्धमेवानुमानमपीत्यादि तार्थ एवं सन्देहानुमानाभासश्च । अनध्यवसाय विपर्ययानुमानाभासावपि तद्यथा - तदतत्पक्षेत्यादि । स चाश्च पक्षौ तदतत्पक्षौ तयोर्द्वयम्, तद्गतमेकान्तं 'भूतमेव, अभूतमेव' इत्यनाश्रित्य यथा 'अग्निरत्रैव, अभिरत्र भवत्येव' एवमाद्यनिश्चितासन्दिग्धरूपं ज्ञानमनवधृतार्थमनध्यवसायः, विपर्ययश्चाभूते भूतप्रत्ययः, भूते 20 चाभूतप्रत्ययः, पुरुषप्रत्ययवत् । एतावप्यनुमानाभासौ । तत्परिणामाव्यवच्छेदेन तथाविधदर्शन४५६-२ बुद्ध्यनुबद्धमेवानुमानं दृष्टवत्, तथैवानुमानाभासोऽपि । ७०० त्वन्मत्या व्यावृत्तेस्त्वनुमानाप्रामाण्यापत्तिः ' न भवति न भवति' इत्युभयतोऽप्यभवनपरमार्थत्वदर्थान्तरभावो वाऽत्यन्तमदृष्टत्वात् 'अग्निर्न भवति, उदकमनग्निः स न भवति घटः खपुष्पं वा इति 25 अज्ञानमेवेत्यप्रामाण्यापत्तिः पूर्वोक्तन्यायेन । कस्मात् ? अत्यन्ताज्ञानादनध्यवसायवदित्यप्रामाण्यम् । तथा विपर्ययवदप्रामाण्यापादनार्थमाह-ग्राह्यवृत्त्यननुरोधिप्रतिपत्तेर्वा विपर्ययवदिति । ग्राह्यस्याग्नेर्विधिरूपेण वृत्तिरग्निभवनम्, तदनुरोधिनी न भवति या प्रतिपत्तिः सा ग्राह्यवृत्त्यननुरोधिनी, तस्याः प्रतिपत्तेर्ग्राह्यवृत्त्यननुरोधिन्या हेतोरप्रामाण्यं व्यावृत्त्यनुमानस्य, पुरुषे स्थाणुप्रत्ययवदिति प्रागुक्तन्यायबलेनानिष्टापादनं गतार्थम् । तस्माद् दृष्टवदेवानुमानतदाभासौ यथादृष्टज्ञानानुबद्धत्वादिति । १ दर्शने विधिरेव प्र० ॥ २संबद्ध य० ॥ ३ संबंधव्यभि प्र० ॥ ४ लक्षणं च य० ॥ ५ मपीति य० ॥ ६ गतार्थ एवं सन्देहानुमानाभासं च प्र० । ( गतार्थमेवं सन्देहानुमानाभासं च ? ) ॥ ७ तमेवेत्या प्र० । ( तमेव वेत्यना' ? ) ॥ ८ तथाविधिदर्श प्र० 11 ९ यन्तरं मत्वात् भा० ॥ १० 'नमेवोत्यप्रा भा० । 'नमेवोत्पत्यप्राय० ॥ ११ यत्रवदिति प्र० ॥ ( त्याsनुमानस्य ? ) ॥ १२ ननुमानस्य प्र० । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०१ 15 दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । एवं च तदपि न दूषणं यत् किल सम्बन्धानुमानलक्षणस्य अस्येदं कार्य कारणम् [वै० सू० ९।१।१८ ] इत्यादेश्वोक्तं दूषणम् , उक्तविधिवृत्तिभावनत्वादनुमानस्य । लिङ्गेन न विना लिङ्गी..............। लिङ्गे चेल्लिङ्गिनियमस्तैक्षण्यं किमिति नेष्यते ॥ न यथाह-['लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव । न तु लिङ्गिनि लिङ्गं भवत्येव लिङ्गि- 5 सत्त्वेऽपि लिङ्गाभावाद] अयोग्निवत् ।' लिङ्गिनि देशे धूमो भवन्नेव पक्षधर्मो भवति। यथा वाह-लिङ्गिन्येव लिङ्गं भवति नालिङ्गिनि, तदपि न घटते, नियमेन तस्य सद्भावे तत्रैवाग्नौ लिङ्गत्वात् । एवं च तदपीत्यादि। अतिदेशेन सम्बन्धानुमानलक्षणस्य 'सम्बन्धादेकस्मात्' [ ]इत्यादेः 'अस्येदं कार्य कारणम्' [वै० सू० ९।१।१८] इत्यादेश्च यत् किल दूषणं सम्बन्धस्याविशिष्टत्वाद् धूमादग्नि-10 द्रव्यादिवद् दीप्तितैक्ष्ण्यादीनामपि गम्यत्वम् , धूमपाण्डुत्वादिविशेषगमकत्ववद् द्रव्यसत्त्वादिसामान्यस्यापि गमकत्वम् , अग्नेर्वा गमकत्वं धूमवत् , धूमस्य वाग्निवद् गम्यत्वम्' इत्येते दोषाः प्रसक्ता दृष्टवद् विधिवृत्तेरनुमानोक्तेः यथा दृष्टस्तथा सन्देहानध्यवसायविपर्ययनिश्चयकृदित्यभ्युपगमादिति । एतदपि न दूषणम् , उक्तविधिवृत्तिभावनत्वादनुमानस्येति । किश्चान्यत् , 'लिङ्गे लिङ्गी भवत्ये' इत्यस्याः कारिकाया योऽर्थोऽवधारणवैपरीत्येनाऽनुमानमि-४५७-१ त्युक्तस्तस्य दूषणार्थमाहाचार्यः-लिङ्गेन न विना लिङ्गीत्यादि श्लोकः । न यथाहेत्यादि परमतप्रदर्शनं यावदयोग्निवदिति नियमविपर्ययेण सोदाहरणम् । अत्रोत्तरम्-लिङ्गिनि देशेऽग्निमति धूमो भवन्नेव पक्षधर्मो भवति, नाभवन् असिद्धत्वादलिङ्गत्वात् । आबद्धमूलत्वादिविशेषणावधृतपक्षधर्मत्वस्यैव लिङ्गत्वाल्लिङ्गिनि लिङ्गं भवत्येव वात्यादिव्युदासेन । तस्य च धूमस्याग्निगततैक्ष्ण्यादिलिङ्गत्वं न भवति, न दृष्टत्वाद् धूमे तस्याग्नेरदृष्टत्वात् तैक्ष्ण्यादिना च सह विधिवृत्त्येति ।। 20 यथा वाहेत्यादि । 'लिङ्गिन्येव' इत्यस्यावधारणस्य निरूपणम्-यदा भवति लिङ्गं तदा नालिङ्गिनि भवति उदकादौ धूम इति । तदपि न घटते, कस्मात् ? नियमेनेत्यादि, तस्य धूमस्य सद्भावे बद्धमूलत्वादिविशेषपरिच्छिन्ने तत्रैवाग्नौ नान्यत्रायोन्यादौ लिङ्गत्वम् । किं कारणम् ? 'अग्निरत्र' इति अत्रशब्दस्याधिकरणवाचिनोऽर्थवत्त्वे 'अत्र'शब्दवाच्यैतत्प्रदेशसम्बन्धिन्येवाग्नौ 'लिङ्गित्वात् , अन्यथाऽनुमानाभावदोषस्योक्तत्वात् । तस्मात् स एव तस्यैव लिङ्गमिति सिद्धम् । यत् पुनर्धूमगतद्रव्यत्वाद्यम्यप्रकाशनं तत्तु 25 अस्मदिष्टदर्शनविधेरेव तथा व्यभिचारात् । . १ 'लिङ्ग एवेतरत् पुनः' इत्यपि द्वितीयपादोऽत्र स्यात् ॥ २ दृश्यतां पृ० ७०२ पं० ९-१०॥ ३ पृ. २४० पं० ११॥ ४ वैशेषिकमतपरीक्षावसरे प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ द्वितीयपरिच्छेदे विस्तरेणापादितमिदं दूषणं दिडागेन । विस्तरार्थिभिः Gaekwad's Oriental Series, Baroda इत्यत्र प्रकाशितस्यास्मत्सम्पादितस्य वैशेषिकसूत्रस्य सप्तमे परिशिष्टे पृ० १८४ त्र सवत्तिकात सटीकाच प्रमाणसमचयादद्धता वैशेषिकानुमानपरीक्षा विलोकनीया ॥ ५ दृष्टवविविवृत्ते भा० । दृष्टविष्विविवृत्ते य०॥ ६ पृ० ६७९ पं. ४ ॥ ७ योर्थावधाभा । यार्थावधा य०॥ ८ अबंधमूल' प्र०॥ ९°ण्यादिलिंगं न भवति प्र० ॥ १० 'न भवति, दृष्टत्वाद् धूमे तस्याग्नेः, अदृष्टत्वात् तैपण्यादिना च सह विधिवृत्त्येति' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ११वाचिनोयथावत्वे य॥ १२°वाचेतत्प्र० प्र०॥ १३ लिनित्वात् प्र०॥ १५ नुमानदोषाभावस्यो प्र० ॥ १५पृ० ६७६ पं. ६॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे लिङ्गे चेल्लिङ्गिनियमस्तक्ष्ण्यं किमिति नेष्यते ? । अदर्शनमिति चेत्, तन्न, प्रचुरहरिततृणेन्धनो धूमस्तार्णाल्पतादिविशेषानग्रेर्गमयति । बहल................ [ धूमो बहुतापादिविशेषान् गमयति ] हस्तलगृहागणगतस्तौषस्तौषाग्निं गमयति । इति लिङ्ग एव लिङ्गिनो भावः । 5 अथोच्येत-विशेषा न तु गम्यन्ते तस्यैव व्यभिचारिणः [प्र० समु० २।१८ ] । न, तैक्ष्ण्यादिवचनात् । तत्रापि चोक्तमेव तद्भावदर्शनविधेरेव तदिति । न च लिङ्गिन्येव लिङ्गमिति नियमो वासगृहवत् । शक्यते च लिङ्गे धूमे नियमादग्निरिति वक्तुम् , असन्धुक्षितानग्नित्वात्।। किन्तु यथा च त्वयोच्यते “लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव' इति, तत्र लिङ्गे चेल्लिङ्गिनियमः तथा चेदं 10 दोषजातम् - तैक्ष्ण्यं किमिति नेष्यते ? धूमत्वावधारणकारणविशेषाणां दीप्ततर-मन्दप्रकाशनादिविशेष४५७-२ सहचरत्वाद् धूमादग्निगतिवत् तदवधारणकारणविशेषसहचराग्निविशेषः कस्मान्नेष्यते तेभ्य एव धूमावधारणकारणविशेषेभ्यः ?। स्यान्मतम्-अदर्शनमिति चेत्, तन्नेति 'दर्शनमस्ति' इत्युच्यते । तद्यथा प्रचुरहरितेत्यादि, यत्र दोग्धारः पुरुषा एव दोहयन्तीभिर्विरहिताः, गोकुले हरिततृणाकीर्णे नवावासे गवां मशकनिवारणार्थ 15 हरिततृणेन्धनोऽग्निः क्रियते तत्रैतदण्डकोक्तविशेषो धूमस्तार्णाल्पतादिविशेषानग्नेर्गमयति । तथा बहलेत्यादिना तापाभिवृद्ध्या विशेषः । हस्तला मृत्पात्रकाराः शिल्पिनः, तद्गृहाङ्गणगतस्तौषस्तौषाग्निं गमयतीति विशेषाणामपि लिङ्गित्वदृष्टेलिङ्गे धूम एव लिङ्गिनोऽग्नेर्भावः । तस्माद् नावधारणवैपरीत्येन लिङ्गलिङ्गिता, न च विशेषागम्यतेति । ___अंथोच्यतेत्यादि । स्यान्मतम्-मया विशेष्योक्त एंवादोषोऽस्य विशेषा न तु गम्यन्ते, के ? ये 20 तस्यैव व्यभिचारिण इति । एतदपि न, तैक्ष्ण्यादिवचनात् , त्वया हि दीप्तितैक्ष्ण्यादयो विशेषा न गम्यन्ते इति कारिका) विवृण्वतोक्तत्वात् तैक्ष्ण्यादीनां च गम्यतत्त्व[स्य] दर्शितत्वादिति । किश्चान्यत् , मया तत्रापि चोक्तमेव तद्भावदर्शन विधेरेव तदिति, तदपि च विशेषाणां गम्यगमकत्वं साध्यसाधनधर्मयोस्तद्भावेन दृष्टयोर्विधिरूपेण संयोगिवद् वृत्तदृष्टवलेनैव न व्यावृत्त्येत्यभिहितमेव । तस्मात् लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव इत्ययुक्तमुक्तम् । "लिङ्गेन न विना लिङ्गी इत्यादि श्लोकश्च साधूक्तः । 25 यदप्युक्तं 'लिङ्गिन्येव लिङ्गम्' इति, तदपि न च 'लिङ्गिन्येव लिङ्गम्' इति नियमो ४५८-१ वासगृहवत्, यथा वासगृहेऽपनीताग्निके लिङ्गिनाग्निना "विनापि धूमस्य दृष्टत्वादरणिनिर्मथनावस्थस्येति । शक्यते च 'लिङ्गे धूमे नियमादग्निः' इति वक्तुम् , कस्मात् ? असन्धुक्षितानग्नित्वात् , न ह्यसन्दीप्ते १ दृश्यता पृ० ६७५ पं० २॥ २ पृ. ६७९ पं० ४॥ ३°त्वाचकरणविशेषाणां प्र०॥ ४न्तीतिविरहिता प्र० ॥ ५ तत्रैव तद्दण्ड य० ॥ ६ "ल्पतापादि' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् । तुलना-पृ० ६७३ पं० ५ ॥ ७ अथोच्यतेत्यादि प्र०॥ ८ एवादोषस्यापि शेषाननु य० । पवादोस्यापि शेषा ननु भा० । (एवादोषो विशेषा न तु?) ( एव दोषो विशेषा न तु?)॥ ९केषे तस्यैव भा० । केषा तस्यैव य०॥ १० दृश्यतां पृ. ६०६ टि. ७ । प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ 'अनेकधर्मणोऽर्थस्य न लिङ्गात् सर्वथा गतिः ।।१२।' इति का रिकार्धस्य विवरणे एतद् वाक्यं विलोक्यत इति ध्येयम् ॥ ११ गम्यतत्वदर्शितत्वा प्र० । 'गम्यत्वस्य दर्शितत्वा' इत्यपि पाठः सम्भाव्यते ॥ १२ पृ०६८१ पं० २॥ १३ पृ० ७०१ पं०३॥ १४ विना धूमस्य य०॥ १५ (स्थस्य चेति?)॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीत पोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् | एवं च लिङ्गं लिङ्गिनि व्यापित्वादेव गमकत्वं भजते कृतकानित्यत्ववत् । त्वन्मतिवत् साध्यधर्मस्य लिङ्गित्वे साधनधर्मस्य लिङ्गत्वेऽपि ब्रूमः - यथा लिङ्गमपि व्यापि तथा लिङ्गमप्यङ्ग्यपि । उभयं लिङ्गं लिङ्गि वा न यत् तद् गोविषाणवत् ॥ यथा लिङ्गमपि व्यापि संयोगिवद्वृत्ती ७०३ ] इत्यङ्ग न्धनावस्थोऽरण्यवस्थो वाग्निरधूमकः, अधूमत्वादनग्निरेव अगि रगि लगि गत्यर्थाः [ नाद् गमनादग्निः । अनिन्धनो न गच्छति न दहति, अगच्छन्नदहन्ननग्निरेव । भस्मच्छन्नस्यापि बाष्पोष्मपुद्गलनिश्चरणात् सेन्धनत्वं सधूमत्वं च परमार्थतः तत्परिणामादम्यभिहतकाष्ठतृणादीन्धनानां सन्दीपनप्रज्वलनज्यालाङ्गारमुर्मुरभस्मच्छन्नोष्ममात्राद्यवस्थासु लक्ष्णधूम परिणामशून्यत्वात् सर्वत्र धूमेऽग्निर्नियतः 10 “तथा लिङ्गमप्यङ्ग्यपि । तथाग्न धूमः । एवं च कृत्वात्र प्रयोगः - लिङ्गं धूमो लिङ्गिन्यग्नौ व्यापित्वादेव गमकत्वं भजते विधिवृत्त्यैवेत्यर्थः । कृतकानित्यत्ववदिति दृष्टान्तः, यथा कृतकत्वमनित्यतां व्यामुवद् गमयति तथा धूमोऽप्यग्निमिति । एवं लिङ्ग एंव लिङ्गीत्यपि ग्राह्यम् । त्वमतिवदित्यादि । अस्मन्मतेन 'साध्यं साधनं च एकमेव ' इत्युक्तत्वात् परस्परव्यापित्वाद् 15 विधिरूपेणैवोभयतोऽपि गम्यगमकता न व्यावृत्त्येत्यत्र किं चित्रम् ? त्वन्मतेनापि भेदं कृत्वा साध्यधर्मस्याग्नेर्लिङ्गित्वे साधनधर्मस्य धूमस्य लिङ्गत्वेऽपि ब्रूमः - यथा लिङ्गमपि व्यापीत्यादि श्लोकः । येथेोच्यते त्वया - कामं लिङ्गमपि व्यापि लिङ्गिन्यङ्गि तु तत्ततः । 20 व्यापित्वान्न तु तत्तस्य गमकं गोविषाणवत् ॥ [ प्र० समु० २ । २१३] इति । किमुक्तं भवति ? सत्यपि किल कृतकानित्यत्रत् संयोगिवद्वृत्त्याऽन्योन्यव्यापित्वे धूम एवाग्नेर्गमको ४५८-२ ननिर्धूमस्य यथा 'गोत्वाद् विषाणी' इति गोत्वं विषाणित्वस्य गमकम् ; न 'विषाणित्वाद् गौः ' इति विषाणित्वं गोः, गज- वृष - महिष- वराहादिषु व्यभिचारादिति । अत्रापि गम्यगमक नियमोsस्मन्मतेनेत्येष श्लोकः - यथा लिङ्गमपि व्यापीति । अस्य व्याख्या - संयोगिवद्वृत्तावित्यादि प्रदेशधर्मत्वात् तस्यैव साध्यसाधनत्वोपवर्णनं प्रागुक्तमतिदिश्य तथा लिङ्गमप्यङ्ग्यपि, वात्यादिव्युदासेनाग्निपरिणामत्वेन बद्ध- 25 मूलत्वादेरुभयलिङ्गलिङ्गिताऽस्यैव प्रागुक्ता स्मर्यताम्, को दोष: ? इति तमेव न्यायं स्मारयति । अत २ दृश्यतां पृ० ६१ पं० ७ टि० ३ ॥ २ अगच्छन्ननदहनग्निरेव प्र० ॥ ३° निश्चयंरणात् प्र० ॥ ४ णादीत्ववनानां भा० । 'णादीत्वचनानां य० ॥ ५ मा सून्य प्र० । ६ एवं प्र० ॥ ७ लिंगित्वेऽपि प्र० ॥ ८ मभिव्यापी प्र० ॥ ९ 'न यथोच्यते' इत्यपि पाठः स्यादत्र । तुलना - पृ० ७०४ पं० १३ ॥ १० दृश्यतां पृ० ६५९ पं० १० ॥ ११ प्रति प्र० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ ४५९-१ व्यभिचारि लिङ्गस्य लिङ्गिनि व्याप्तिस्तस्मात् सत्येव साधनम् ॥ 'विधेयो भावः । तस्य प्रकर्षेण गतिः प्रचारोऽनुत्पिञ्जलगमनिका, न धूमसामान्यानिमगतिवत् । यस्माद् व्याप्तिरेवंविधाऽपेक्ष्यतेऽस्मदिष्टा द्वैविध्येन उभयाव्यभि चारात्मिका यत्र यत्र "तस्मात् सत्येव व्याप्तिः साधनम् । धूमो यथाग्निसान्निध्यार्थ विशेषणैरात्मलाभादग्निसान्निध्यं गमयति तथा न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे न यत्तद् गोविषाणवत् । विषाणं हि प्रमेयत्ववद् "इतरवदगौरव्यभिचारी - । किं कारणम् ? विधेयार्थप्रचारेण यस्माद्व्याप्तिरपेक्ष्यते । अत एव च एव चेत्यादि सहेतुकं प्रतिज्ञातं निगमयति । नियत्तं ( न यत्तद् ) गोविषाणवदिति, यच्छन्दो यस्मा10 दर्थे, तच्छब्दस्त निर्देशे, यस्माद् गोविषाणवदेकतो न व्यभिचरति तस्मादुभयं लिंगं लिङ्गि वेति ग्राह्यम् । तद्व्याख्या - विषाणं हीत्यादि असाधर्म्यदर्शनं गो- विषाणयोः कृतकानित्यत्वयोश्च गतार्थम् । प्रमेयत्ववद् व्यभिचारि विषाणित्वम् । इतरो धूमः, तद्वद् गौरव्यभिचारीति । 25 किं कारणमित्थमिति चेत्, अस्मदुक्ताया व्याप्तेर्विधिरूपाया एव गम्यगमकत्वादिति । अत आह - विधेयार्थेत्यादि श्लोकः । अत्रापि न यथा त्वयोच्यते-प्रेतिषेध्याप्रचारेण इत्यादि । तद्र्याख्या 15 विधेयो भाव इत्यादि, भावग्रहणमभावरूपाया व्याप्तेर्निराकरणार्थम् । कस्मात् ? अर्थत्वादेव । तस्य भावस्य, नाभावः प्रतिषेध्यः तत्राप्रचारः, स चाप्रमाणफलं भवितुमर्हति अर्थान्तरस्यात्यन्ताभावस्य चाविवक्षितत्वात् प्रागुक्तदोष सम्बन्धाच्च, प्रकर्षेण गतिः प्रचारो वस्तुयथाभावावगम इत्यर्थः, अनुत्पिञ्जलगमनिकेति तदर्थगमनम् अव्यथागमनम् । वैधर्म्येण न यथा त्वदिष्टमिति दर्शयति-न धूमसामान्यानिमगतिवदिति एकतो व्याप्तिं विषाणित्वादिकल्पां दर्शयति । यस्माद् व्याप्तिरेवंविधा परस्परसंसृष्टाऽपेक्ष्यते 20 गतावर्थस्य तस्मात् सत्येव व्याप्तिः साधनमित्यभिसम्भन्त्स्यते, 'वि'शब्दस्य द्वैविध्यार्थत्वात् । तद्दर्शयतिअस्मदिष्टा द्वैविध्येन व्याप्तिरुभयाव्यभिचारात्मिका, तस्मात् किम् ? स्फुटमेवान्वयात्मको दृष्टान्तो नोच्यतेऽस्माभिः, यत्र यत्रेत्यादिरुभयव्याप्तिप्रदर्शनो गतार्थो यावत् सत्येव साधनमित्युपसंहार इति । तस्माद् दृष्टान्तलक्षणमपि साध्येनानुगमो हेतोः [ प्र० समु० ४ । २ ] इत्यादि प्रयोगनियमाभिधानात्मकमनर्थकम्, मुधा भ्रान्तं चात्र [ये ]ति । धूमो यथेत्यादि । एवं कृत्वा यथाऽग्निसान्निध्यार्थैर्विशेषणैर्धूमात्मलाभादग्निसान्निध्य[मेवग्निसान्निध्य] साधकं तथा कृतकत्वं घटादौ, घकौरा - Sकार-टकारा- कारविसर्जनीयानां पूर्वस्य पूर्वस्य विनाश १ तुलना- पृ० ६८० पं० १ ॥ २ लिंगलिंगि वेति प्र० ॥ ३ पृ० ६७७ पं० २२, पृ० ६८० पं० २ ॥ ४ मध्यथा प्र० । उत्पिञ्जलगमनिका अव्यथागमनमित्यर्थः । " उत्पिञ्जल समुत्पिञ्जपिञ्जलाभृशमाकुले || ३ | ३० ॥ उत्पिञ्जयतीति उत्पिञ्जलः । समुत्पिञ्जयति समुत्पिञ्जः । पिञ्जयतीति पिञ्जलः । भृशमत्यर्थ माकुले ।" - अभिधानचिन्तामणिस्वोपज्ञवृत्तिः ॥ ५ व्याप्तिरेव - विधा प्र० D ६ अस्मद्दिष्टा प्र० । ( अस्मदुद्दिष्टा ? ) ॥ ७ युक्त पसंहारः प्र० । ( °त्युक्तोपसंहारः ? ) ॥ ८ दृश्यतां टिपृ० १३३ पं० ९ ॥ ९ त्वति भा० । त्वावि य० ॥ १० तुलना- पृ० ७०५ ॥ ११ घकाराकारटकारविसर्ज भा० । घटाकाराकार विसर्ज य० ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीत पोहवाद निरासः ] कृतकत्वमनित्यत्वसान्निध्यादात्मलाभादनित्यत्वसान्निध्यं गमयति द्वादशारं नयचक्रम् | घटकृतकत्ववत् । अस्मादेव च न्यायाद् यदप्युक्तं नाशिनः कृतकत्वेन [ प्र० समु० २।२३ ] इत्यादि तदप्येवमध्येयम् — येयम् नाशिनः कृतकत्वेन व्याप्तेस्तत् कृतकं कृतम् । अनित्यत्वं त्वभिव्याश्या कृतकेऽर्थे प्रदर्श्यते ॥ "स्थापितम् " कृतकत्वस्यानित्यत्वम् । विषाणित्वेन गौप्तो विषाणित्वं प्रसाधयेत् । गव्येवानियमात् तत्तु न गवार्थप्रसाधनम् ॥ ७०५ कारणम्, उत्तरोत्तरोत्पत्तेः तत एव विनाशादनित्यत्वादुत्पत्तेः कृतकत्वस्यात्मलाभादनित्यत्व सान्निध्यमेवा- 10 नित्यत्व सान्निध्यं गमयतीत्युभयतो व्याप्तिः सत्येव कारणम् । शिवकादिविनाशक्रमेण एतदर्थभावना गतार्थाअग्निसान्निध्यार्थेत्यादि यावद् घटकृतकत्ववदिति । तथा शब्देऽपि भावयितव्यं प्रयत्नानन्तरीयकानित्यवयोरिति । अस्मादेव च न्यायाद् यदप्युक्तं त्वया-नीशिनः कृतकत्वेन [ प्र० समु० २।२३ ] इत्यादि कारिकया एकतो व्याप्तिगमकत्वप्रदर्शनार्थं तदप्येव ध्येयम् विषाणत्वेन गोविषाणित्वं प्रसाधयेत् । 'गोत्वाद विषाणी' इति संयोगिवद् विधिवृत्तेः साधयेद् विषाणितां गोत्वं तत्रैव नियतत्वात् । विषाणित्वं पुनरस्मादेव न्यायाद् गव्वानियमात् तत्तु न गवार्थप्रसाधनम् । नाशिनः कृतकत्वेन व्याप्तेस्तत् कृतकं कृतम् । अनित्यत्वं त्वभिव्या त्या कृतकेऽर्थे प्रदर्श्यते ॥ ४५९-२ तद्व्याख्या- "येयमित्यादि यावत् कृतकत्वस्यानित्यत्वमिति गतार्थ 'स्थापितम्' इत्यनुवर्तनादिति । एतस्मादेव न्यायाद् योऽप्युक्तो "विषाणित्वेन गौयतः [ प्र० समु० २।२४ ] इत्यादि श्लोकः ४ सोsपीत्थं पठितव्यः 20 १ बिनाशो नित्यत्वा प्र० । ( विनाशेऽनित्यत्वा° ? ) ॥ ४ दृश्यतां पृ० ६८० पं० ८ ॥ ५ कारिकाया प्र० ॥ ६ मव्ययम् प्र० ॥ कृतकेऽर्थे प्रदर्शिते प्र० । ( अनित्यत्वमपि व्यात्या कृतकेऽर्थे प्रदर्श्यते ? ) ॥ योद्युक्तो य० । न्यायाद् द्युक्तो भा० ॥ १० दृश्यतां पृ० ६८० पं० १० ॥ नय० ८९ 5 15 २ सानिध्य प्र० ॥ ३ एतदर्थ भा० ॥ ७ अनित्यत्वं त्वदभिव्याया ८ जेयमि प्र० ॥ ९ न्यायाद् Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे - तावद् द्वयमप्युक्तम्-अनुमानमभिधानं चाधाराधेयवद्वृत्त्या न गमयति, अत्र च पक्षे कांश्चिद दोषानत्यदिशाम । संयोगिवद् विधिवृत्त्या गमयति, अत्र च पक्षे गुणानभ्यधाम । __ यत् पुनर्निरुक्तीकृत्यान्वयासम्भवं व्यतिरेकासम्भवमाशङ्कयोक्तं स्यादेतद् 5व्यतिरेकस्याप्यसम्भवः [ ] इति, तद् युक्तमेवोक्तम्, अन्वयव्यतिरेकयोर भावात् । अन्वयव्यतिरेको हि प्रत्ययात्मको, न वस्तुगते तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती, विशेषस्यैव वस्तुत्वादस्य नयस्य । तत्रान्वयाभाव उक्त एव त्वया । न च सम्भवोऽस्ति सर्वावृक्षार्थव्यतिरेकस्य, आनन्त्यात्, सर्ववृक्षार्थान्वयवत् । तावदित्यादिरुक्तार्थोपसंहारः । द्वयमप्युक्तम् , अन्यापोहविशिष्टार्थैकदेशान्वयदर्शनादनुमानमभिधानं 10 चाधाराधेयवद्वृत्त्या न गमयतीत्युक्तम् , अत्र च पक्षे कांश्चिदोषानत्यदिशाम अदीदृशाम, पाठान्तरं संयोगिवद् विधिवृत्त्या उभयतो व्याप्त्या गर्मैयतीत्युक्तिम् , अत्र च पक्षे गुणानभ्यधामेत्येवं शब्देन स्मारयति । किश्चान्यत् , यत् पुनर्निरुक्तीकृत्येत्यादि । त्वया 'अन्वयव्यतिरेकावानुमाने द्वारम् [ ] इत्युक्त्वा गुणसमुदाये डित्थाख्येऽर्थे काण-कुण्टाद्यवयवान्वयानभिधानादन्वयासम्भवं निरुक्तीकृत्य अन्वया15 सम्भववद् व्यतिरेकासम्भवमाशङ्कयोक्तं स्यादेतद् व्यतिरेकस्याप्यसम्भव इति, तद् युक्तमेव त्वयोक्तम् , अस्मदुक्तसंयोगिव द्विधिवृत्तिमन्तरेणान्वयव्यतिरेकयोरभावात् । तयोरेव तावद् लक्षणम् – अन्वयव्यतिरेको हि प्रत्ययात्मकौ, समानभवनानुवृत्तिप्रत्ययोऽन्वयः, तद्विपरीतो व्यतिरेकः, न वस्तुगते तुल्यातुल्ययोवृत्त्यवृत्ती त्वदुक्ते । कस्मात् ? विशेषस्यैव वस्तुत्वादस्य नयस्य स्याद्वादेऽनेकात्मकत्वात् । तत्रान्वया. भाव उक्त एव त्वयाऽस्माभिश्च त्वन्मतवत् । ४६०.१ व्यतिरेकाभावोऽधुनोच्यते न च सम्भवोऽस्तीत्यादि । वृक्षशब्दस्य शक्तिर्नास्ति सर्वानवृक्षान् व्यतिरेचयितुम् । कस्मात् ? आनन्त्यात् , आनन्त्ये हि भेदानाम् [प्र० समु० वृ० ५।२ ] इत्यादिग्रन्थव्याख्यानन्यायवदवृक्षार्थानां घटपटादीनामानन्त्याद् व्यतिरेचनाभावे न्यायो द्रष्टव्यः । सर्ववृक्षार्थान्वयवदिति दृष्टान्तः, यथा सर्वे वृक्षार्थी आनन्त्यात् सम्बन्धाशक्यत्वादन्वयाभावाच्चानभिधेयास्तथा बहुतरव्यावर्त्यघटपटाद्यनन्ततरत्वादव्यतिरेकः, तथा धूमस्य उदकादिसर्वानग्निव्यतिरेचने सामर्थ्याभावो 25 वाच्यः सर्ववृक्षानन्त्यादन्वयवदिति । १°त्यादिभक्त्यर्थो भा० । त्यादिभक्त्यार्थी य० ॥ २ पृ० ६८१॥ ३ षानतिदिशाम यदीदृशान पाठान्तरं य० । षानतिदिशा यदीदृशान पाठान्तरं भा०। (°षानतिदिश्यादीदृशाम, पाठान्तरं ?)। षानत्यदिशाम, 'अदीदृशाम' पाठान्तरम् । संयोगिवद्......' इत्यपि योजना समीचीना। ४गमयतीत्युत्र च पक्षे भा० । गमयतीत्यत्र च पक्षे य० । य० प्रतिपाठोऽप्यत्र संगच्छत इति ध्येयम् ॥ ५ तुलना-पृ० ६५२ पं० २॥ ६ तुलना पृ० ६५२ पं० १६ ॥ ७युक्तमेत त्वयोक्तम् अस्मादुक्त° प्र०॥ ८ (तयोरेवं?)॥ ९ वृक्षान् भा० ॥ १० दृश्यतां पृ० ६०७ पं० १४ पृ. ६२७ पं० ६ ॥ . 20 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीता पोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् | यत्तूच्यते - अतुल्ये सत्यप्यानन्त्ये शक्यमदर्शनमात्रेणावृत्तेराख्यानम् । अत एव स्वसम्बन्धिभ्यो ऽन्यत्रादर्शनात् तद्व्यवच्छेदेनानुमानम् [ प्र० समु० वृ० ५ ३४ ] इति । अत्र ब्रूमः –न, द्विधरूपेण नै वेल्लिङ्गं प्रकाशयेत् । सर्वत्रादर्शनान्न स्यात् सर्वथा वाऽगतिर्भवेत् ॥ लिङ्गमपदेशः कारणं निमित्तम् [ इत्यनर्थान्तरम् ] भेदाविवक्षैकत्वापादितैकत्वं सामान्यं लिङ्गं तथाभावितैकत्वस्य लिङ्गिनो गमकं तद्भावेनैव । एवं लिङ्गं गमकं लिङ्गी गम्यश्चेत्यदोषः । अत्र परिहारस्त्वयोक्त आशय ते यत्तूच्यत इत्यादि । अन्वयगतदोषाभावं व्यतिरेकगतं गुणं च दर्शयति ग्रन्थः - - अतुल्ये सत्यप्यानन्त्ये इत्यादि । ततोऽन्यस्याभावमात्रं सामान्यतो व्यतिरेचनीयं तद्भेदरूपाणि असंस्पृशता शब्देन लिङ्गेन वा । तस्माददोष इति परिहारः । ७०७ अत्र ब्रूमः - न, दृष्टवदित्यादि । यदि दृष्टवद् विधिरूपेण लिङ्गं लिङ्गिनं न प्रकाशयेत् सर्वत्र लिङ्गिन्यदर्शनात् तल्लिङ्गं लिङ्गमेव न स्यात्, अगतिर्वा सर्वथा भवेत् कस्यचिदप्यर्थस्येति पिण्डार्थः । एतद्व्याख्या-लिङ्गमपदेशः कारणं निमित्तमित्यादि पर्यायकथनम् । शब्दः परार्थः, धूमादिः स्वार्थः । वाच्यवाचकसम्बन्धस्यानुमानानुमेयसम्बन्धस्य चाविशिष्टत्वादैकध्येन द्विविधस्याप्यनुमानस्य ग्रहणम् । तत्र विशेषस्यैव वाच्यत्वादनुमेयत्वाच्चार्थस्य सामान्यस्यासत्वादसत्योपाधिसत्यशब्दार्थत्वं त्वयो- 15 क्तत्वात्, अस्माभिर्यथा अर्थशब्द विशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते सामान्यस्यासत्त्वाद् विशेषस्यैव सत्त्वात् *, न भावो वाच्यः खपुष्पवत् । तस्य सामान्यस्यासत्त्वादेव पूर्वमदृष्टत्वे विशेषस्यैव दृष्टस्य कल्पितासत्य- ४६०-२ सामान्योपसर्जनद्वारेण वाच्यत्वाच्छन्दस्यापि तथैव वाचकत्वात् सामान्योपसर्जनोपायेन । तथानुमानेऽपि विधिः । १ तुलना- पृ० ६५२ पं० ३ ॥ २ दृष्टवद् विधिरूपेण यदि लिङ्गं प्रकाशयेत् । सर्वथाऽप्रतिपत्तिः स्यात् सर्वथा वा गतिर्भवेत् ॥ [ प्र० समु० ३।१४ ] इति दिङ्गागमतनिराकरणायेयं कारिका । पृ० ४७१ - १ इत्यत्र वक्ष्यमाणं टिप्पणमप्यत्र द्रष्टव्यम् ॥ ३ ( चेलि न ? ) (लिङ्गं चेन्न ? ) ॥ ४ (प्रकाशकम् ? ) ॥ ५ 'सर्वस्यादर्शनान्न स्यात्' इत्यपि भवेत् पाठः, दृश्यतां पृ० ७०८ पं० १४ । ( ततः प्रकाशकं न स्यात् ? ) ( लिङ्गं न लिङ्गमेव स्यात् ? ) ( ततो न लिङ्गमेव स्यात् ? ) ॥ ६ ‘सर्वथा वा गतिर्भवेत्' इत्यपि पाठः । दृश्यतां पृ० ७१७ पं० ६४७१-२ ॥ ७ तुलना“हेतुरपदेशो लिङ्गं निमित्तं प्रमाणं कारणमित्यनर्थान्तरम्" - वै० सू० ९।२० ॥ ८ व्यतिरेवचनीयं प्र० । ( ततोऽन्यत्राभावमात्रं सामान्यतो व्यतिरेके वचनीयं ? ) ॥ ९ स्पृता भा० । स्मृता य० ॥ १० धूमादि प्र० । ११** एतचिहान्तर्गतो 'दसत्यो' इत्यत आरभ्य सत्त्वात् इत्यन्तः पाठो य० प्रतौ नास्ति । १२ दृश्यतां पृ० ६१६ पं० ३ ॥ १३ तत्वाल्लिंगं प्र० । ( तस्मा लिङ्गं ?) ( तल्लिङ्गं ? ) ( तथा लिङ्गं ? ) | १४ एकत्वादापितं भा० । एकत्वापितं य० । 'एकत्वापादितम्' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ 5 तत्त्वाल्लिङ्गं शब्दो धूमादि वा कथं गमकं भवति ? उच्यते - भेदानामविवक्षया सामान्यस्य एक- 20 त्वादापादितं तेषामेकत्वं भेदानां यस्मिंस्तल्लिङ्गं भेदाविवक्षापादितैकत्वं सामान्यं लिङ्गं तद्भावापन्नो धर्मो धूम-शब्दादिः, तथाभावितैकत्वस्य तेन शब्द-धूमादिप्रकारेण भावितमेकत्वं शाखादिभिन्नावयववतस्तरो 10 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ [ अष्टम उभयनियमारे यदि तु न तथा प्रकाशयतीतीष्टं किन्त्वन्यापोहेन ततो नैव प्रकाशकं स्यात् सर्वस्यादर्शनात् प्रतिद्रव्यमपोह्यस्यादर्शनात् । न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं " न हि स वा भवति ततोऽन्यो वा अदृष्टत्वात् वन्ध्यापुत्रवत् । न च तदतुल्यमतच्छन्दमतद्रूपं तथा तथाऽदृष्टं प्रतिपत्तुं शक्यम् । अप्रतिपन्ने च तस्मिन् कस्य कथं वापोहः स्यात् ? अपितृत्ववत् स्यादिति चेत् । यथा 'पितुरन्योऽपिता सर्वो व्यावृत्तिबुद्धिमात्रेण स्तापादिभिन्नं कर्मवतश्चाग्नेर्लिङ्गिनश्च, वाच्यलिङ्ग्यभेदात् प्रागुक्तन्यायेन आत्मनैवात्मनो वाचका आत्मनैवात्मनोऽनुमेयाः, तद्भावदर्शनादेव सामान्यस्य विशेषप्रतिपादनार्थस्याच्छिबिका वाहकयानेश्वरयानवद् गमकं तद्भावेनैव, अग्नेरेव धूमत्वात् बद्धमूलादिविशिष्टतया धूमस्यैवाग्नित्वादादिमध्यान्तेषु अरण्यादीन्धनसन्धु10 क्षणमुर्मुराद्यवस्थधूमादिपुद्गलाग्नित्वात् । एवमुक्तन्यायेन लिङ्गं गमकं लिङ्गी गम्यश्चेत्यदोष इत्यतीतं न्यायं स्मारयति । यदि तु न तथेत्यादि परमते दोष: । यदि येन प्रकारेण दृष्टस्तेनैव प्रकारेण लिङ्गं दृष्टं तेनैव च प्रकारेण विधिना प्रकाशयतीतीष्टं न त्वया तु किमिष्टम् ? अन्यापोहेनेति । ततः किम् ? ततो नैव प्रकाशकं स्यात् । कस्मात् ? सर्वस्यादर्शनात्, यथा विधेयमदृष्टं त्वन्मतेन तथा व्यावर्त्यमपि 15 ४६१-१ दृष्टमवृक्षानन्याख्यम्, घटपटादिभेदानामानन्त्याद् द्रव्यं द्रव्यं प्रति प्रतिद्रव्यमपोह्यस्यादर्शनात् किं तद् वृक्षादर्थादन्यदवृक्षानम्याख्यम् ? अदृष्टमेव भवेत् । यतश्च बुद्धेर्व्यावृत्तिरिष्टा, न दृष्ट्वार्थम् 'अयं भवति, अयं न भवति' इत्यन्वयव्यतिरेकौ भवितुमर्हतो बुद्धेः, दृष्टानेव बुद्धिरन्वियादर्थान् तेभ्य एव च व्यावर्तेत, यथा 'देवदत्तोऽयं यज्ञदत्तो न' इत्यादि, नात्यन्तादृष्टख पुष्पवन्ध्यापुत्रादिविषया । एतदर्थप्रदर्शनार्थमाह-न हि स वृक्षोऽग्निर्वा भवति ततोऽन्यो वा घटादिः, अदृष्टत्वात्, 20 वन्ध्यापुत्रवत् । दृष्ट ऍव स वा भवति अन्यो वा ततः । न च तेन दृष्टेनाऽतुल्यमतच्छब्दम्, न स वृक्षशब्दोऽग्निशब्दो वा शब्दोऽस्य तदिदमतच्छब्दमवृक्षोऽनन्यादि वा । तथा न तस्य रूपं रूपमस्यातद्रूपम् । किं कारणम् ? यस्मात् तथा तथा तेन तेन प्रकारेणाऽदृष्टं घटपटकुड्यादिभेदप्रकारेणादृष्टत्वात् प्रतिपत्तुमशक्यम् । ततश्चाऽप्रतिपन्ने चेत्यादि व्याख्यातार्थभेदरूपेणाग्रहणम्, तत एवान्योऽपि नास्ति, सति चाग्रहणेऽन्यस्य चाभावात् कस्य कथं वापोहः स्यात् ? प्रागुक्तविधिना किं न कुतोऽपोह्य 25 इत्यादिग्रन्थोऽत्र योज्य इति । अपितृत्ववत् स्यादिति चेत्, स्यादियमाशङ्का, यथेत्यादि तद्व्याख्या, पितुरन्ये सर्वे पुरुषा अनाश्रितभेदरूपास्तदन्वयादृतेऽपि दृष्टात् पितुरन्यत्वव्यावृत्ति बुद्धिमात्रेण स्वभेदानपेक्षा निरवयवा एव १ दृश्यतां पृ० ४७०-१ ॥ तेनैव ? ) ॥ ४ व्यावृत्य य० ॥ भा० । एवमत्रान भवति य० ॥ २ ( भिन्नधर्मव ? ) ॥ ३ दृष्टः शब्दो धूमादिर्वात्र विवक्षितो भाति । ( दृष्टं ५ वृक्षाने भा० ॥ ६ रर्थान्यदवृक्षा प्र० ॥ ७ एवमत्रा भवति ८ क कथं भा० ॥ ९ दृश्यतां पृ० ६४५ पं० ४ । १० ग्रन्थोक्तयोज्यः प्र० ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् | निरवयव एव प्रतीयते तथाग्निवृक्षाभ्यामन्येऽवृक्षाज्वलनाः सर्वेऽपि व्यावृत्तिबुद्धिमात्रेण निरवयवाः प्रतीयेरन्, को दोषः ? सर्वस्यादर्शनान्न स्यात् । युक्तं पितुरपितुश्च दृष्टस्य व्यक्तग्रहणोत्तरकालं पितुः पर्युदासेनान्यस्यापितृत्वं प्रतिपाद्येत, न तु पितुरेवादर्शने । स हि पितरि प्रत्ययोत्पत्तिः । ७०९ यथा त्विदं त्वयेष्टं तुल्ये वृत्तिरतुल्ये चावृत्तिः । तत्र तुल्ये नावश्यं सर्वत्र वृत्तिराख्येया, क्वचिदानन्त्येऽर्थस्याख्यानासम्भवात्, न हि सम्भवोऽस्ति वृक्षशब्दस्य सर्ववृक्षेषु दर्शने । नापि सर्वत्र लिङ्गिनि सर्वलिङ्गस्य सम्भवः, अग्निधूमादिवत् । यद्यपि च क्वचिदस्ति डित्थादिषु सम्भवः तथापि गुणसमुदायमात्रस्य काणकुण्टादेर्दर्शनासम्भवः, सत्यपि च दर्शने सर्वथाऽनुमानासम्भवः [ ] इति तथा सर्वस्यादर्शनात् पितृकल्पस्य "तदपोहस्य वा[s] प्रतिपत्तिः । 10 यदि हि स्वार्थः परार्थश्च सपिण्ड्य विधिना गृहीतः स्यात् तत एवं प्रतिपद्येत 'अयं वृक्षः, अयं न भवति' इति, नात्यन्ताविदितवृक्षावृक्षशब्दार्थतायाम् । प्रतीयन्त इति दृष्टान्तस्तथाग्निवृक्षाभ्यामन्येऽवृक्षाज्वलना वृक्षज्वलनपर्युदासेनानन्ता भेदा अपि व्यावृत्तिबुद्धिमत्रेण निरवयवाः प्रतीयेरन् को दोष इति । अत्र दोषकुतूहलं चेद् ब्रूमः – सर्वस्यादर्शनाद् न स्यात् । युक्तं पितुरस्मद्दर्शनेन विधिरूपेण 15 दृष्टस्य अङ्गादङ्गं सम्भवसि | कौषीतकिना० २७] इत्यादिन्यायात् स्वपुत्रस्य गुणसमुदायरूपस्य प्राणान् ४६१-२ दत्तवतः पर्युदासेनान्यस्य भ्रात्रादेः स्वजनस्य पितृविपरीतबुद्धेरैध्यासेन ग्राह्यस्य 'एष पिता देवदत्तः, नेमे वसुरातादयः' इति पितुरपितुश्च व्यक्तग्रहणोत्तरकालं पैरजनस्य चान्यस्यापितृत्वं प्रतिपाद्येतेत्येषोऽस्ति न्यायः । त्वद्दर्शने पुनर्गुणसमुदायस्य न तु पितुरेवादर्शने 'युक्तम्' इति वर्तते न घटते पितुरेव ग्रहणासम्भवे असति वा पितरि गुणसमुदायमात्रार्थग्रहणाभिधानाभाव प्रकारेणोक्तेन । स हि पितरी - 20 त्यादिना दर्शनविधिं पितुः पितृदर्शनाच्चापितॄणां तदितरभेदानां च कथयति दर्शनविधिं यावत् प्रत्ययो - त्पत्तिरिति ग्रन्थेन । एषा दृष्टान्तवर्णना । दाष्टन्तिकोसमञ्जसतेदानीम् । यथा विदमित्यादि यथा त्वयेष्टं 'तुल्ये वृत्तिरतुल्ये चावृत्ति:' इत्युद्राहेण यावत् सर्वथानुमानासम्भव इति ग्रन्थो व्याचक्षाण एव गतः परमतम् । न्यायेन त्वदुक्तेनैव तथा सर्वस्यादर्शनात् पितृकल्पस्येत्यादिना दान्तिकवैषम्यापादनं गतार्थं यावत् तदपोहस्य वा[s]प्रतिपत्तिरिति । त्वन्मन कस्यचिदेव स्वार्थस्य परार्थस्य, चादर्शनादपि पितृत्वप्रत्ययाभाव एवेति पिण्डार्थः । अथवा 'सर्वस्यादर्शनात्' इत्यादिना प्रकारान्तरेण दोषं ब्रूमः - यदि हि स्वार्थ इत्यादि, 'वृक्षः' इत्युक्तेऽस्मदुक्तेन न्यायेन सामान्योपसर्जनो विशेषः समस्तः शिंशपादिरभिहितः स्यात् तेनापोढश्चावृक्षः सभेदो घटपटादिः सपिण्ड्य 'अयमन्योऽस्माद् वृक्षात् ' 25 १ तुलना पृ० ६५२ पं० २ । २ तुलना - पृ० ६६२ पं० २, पृ० ७०९ पं० १८ ॥ ३ तुलना पृ० ४७०-१ ॥ ४ अङ्गादङ्ग संभवसि य० । दृश्यतां पृ० ४६९ पं० ३ टि० १॥ ५ व्यासेन प्र० ॥ ६ ग्राह्यस्यैष्य पिता य० । ग्राह्यशैष्यपिता भा० ॥ ७ 'खजनस्य' [पं० [१७] इति प्रागभिहितत्वादत्र 'परजनस्य च' इत्युक्तम् ॥ ८ ( प्रतिपद्येते ? ) । तुलना - पृ० ७१० पं० ७ ॥ ९ 'समाजस्ते य० ॥ १० मत पर य० ॥ 5 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं . __ [अष्टम उभयनियमारे वृक्षशब्दादंहिपशब्दोऽन्यत्वादवृक्षा, तथा तदर्थः, अग्नेर्वयादिरन्योऽनग्निः। न हि कचित् ................. । तंत्र सामान्यशब्दार्थेषु तावत् 'सदित्यसन्न भवति' इत्यत्र द्वयी वृत्तिः-अनङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिः सच्छब्दः, अङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिा । तत्र तावदनङ्गीकृतार्थान्तरतायामपोहः केवल उच्यते । सदित्युक्ते 'असन्न 5 भवति' इति द्विनप्रयोगात् 'भवत्येव' इति सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः-यो न भवति यथा वा न भवति तस्य द्विविधस्याप्यसद्भवनस्यात्र सम्बन्धित्वं नास्ति । इति गृहीतः स्यात् तत एवं प्रतिपद्येत-अयं वृक्षः अयमेव वृक्ष एव भवति, ततोऽन्योऽयं घटपटादि४६२-१ रवृक्षो वृक्षो न भवतीति । किं कारणम् ? प्रत्यक्षत्वादुभयस्य । नात्यन्ताविदितवृक्षावृक्षशब्दतायां न चात्यन्तादृष्टवृक्षावृक्षस्वरूपतायां वा सा प्रतिपत्तिर्भवितुमर्हति 'अयं वृक्षोऽयं न भवति' इति, खपुष्पवन्ध्या10 पुत्रादिवदिति । एतदर्थनिदर्शनार्थं दृष्टान्तमाह-वृक्षशब्दादंहिपशब्दोऽन्यत्वादवृक्षस्तथा तदर्थः, अग्नेवह्नयादिः, उभयत्र वा सत्त्वद्रव्यत्वादिसामान्यविशेषधर्मोऽन्योऽनग्निरवृक्षश्चेति विदितसकलवृक्षावृक्षाम्यनम्यादिशब्दार्थस्यैव तज्ज्ञानं दृष्टम् । तथाकाशशब्दादिषु ख-गगन-वियदादि-सत्त्व-द्रव्यत्वादिधर्मापेक्षं तदतत्त्वं योज्यम् । 15 न हि क्वचिदित्यादि । न हि किञ्चिद्दर्शनमात्राद्वा तद्वृत्तिनि(नि)यमो वा भवतः, कस्मात् ? व्यभिचारात्, वृक्षान्वयोऽपि ब्रश्वकपुरुषव्यभिचाराद् व्रश्चनधर्माभावव्यभिचारादवृक्ष एव । अवृक्षघटोऽपि घटमानपादप-तरु-शाखिभेदवृक्षव्यभिचारीद् वृक्षः, वृक्षो[s]वृक्षो घटो[]घटश्च । अन्योऽपि हि भवन्न[न]न्यो भवति 'पीलु-हस्ति-वृक्षादिवत् सामान्य-विशेष-पर्यायशब्दार्थेभ्यः । तंत्र सामान्यशब्दार्थेषु तावदुदाहरणम्-‘सदित्यसन्न भवति' इति, अत्र हि द्वयी वृत्तिश्चिन्यते20 अनङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिः सच्छब्दः अङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिर्वा स्यात् ? तत्र प्रथमं तावद् व्युदस्तभेदसामान्यमात्रवृत्तिरनङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिः शब्दः । स कीदृश इति चेत्, तन्निरूपणार्थमाह-अपोहः केवलो व्यावृत्त्यर्थो निर्निबन्धन उच्यते । तदुदाहरणम्-'सत्' इत्युक्ते 'असद् न भवति' इति द्विनप्र. योगात् प्रकृत्यापत्तेः 'भवत्येव' इति विध्यर्थ एव ज्ञायते । ततः किं संवृत्तम् ? सिद्धे सति आरम्भो नियमार्थ इति 'असद् न भवति' इति द्वाभ्यां प्रतिषेधाभ्यां नियम्यते विहितं सत्त्वमेव । तत् कथमिति ४६ चेत् , उच्यते-यो न भवति खपुष्पादिः यथा वा न भवति घट-पटादिप्रकारेण तस्य द्विविधस्याप्यसद्भभवनस्यान वृक्षे सँम्बन्धित्वं नास्तीत्युक्तं भवति । स च "प्रतिषेधः । विधिप्रधानः पर्युदासस्ततोऽन्यत्र १ तुलना-पृ० ७१२ पं० १॥ २'तेन द्विविघेनाप्यसता न भवितव्यम्' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् । तुलना-पृ० ७११ पं० २० ॥ ३ (प्रतिपाद्येत ? )। तुलना पृ० ७०९ पं० १८ ॥ ४ पत्तुर्भवि य० ॥ ५°शब्दोऽनन्यत्वा य० ॥ ६ (वृक्षान्वयेऽपि ?)॥ ७ वृक्षक प्र० ॥ ८ रावृक्षो वृक्षो वृक्षो घटो घटश्च भा० । रावृक्षो वृक्षो घटो घटश्च य० ॥ ९ दृश्यतां पृ० ७१५ पं० ८॥ १० तत्र य० प्रतौ नास्ति ॥ ११ तुलना—पृ० ७१३ पं० १६ ॥ १२ प्रवृत्त्यापात्तर्भवत्येव भा० । प्रवृत्त्यापांतर्भवत्येव य० ॥ १३ °सभवन भा० । °संभवन य० ॥ १४ संबंध नास्ती य० ॥ १५ प्रतिषेधो न पर्युदास भा० । प्रतिषेधो विधिप्रधानः पर्युदास य० ॥ . - - Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७११ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । इत्थं च विधिप्रधानपर्युदासात्मकासच्छब्दार्थत्यागः प्रसज्यप्रतिषेधमात्रार्थत्वादन्याभावादर्थान्तरापोहस्वार्थाभिधानलक्षणाभ्युपगमत्यागः। - अर्थतेभ्य एव दोषेभ्योऽङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिरपोह इष्यते तत इदं विघटतेसदित्यसन्न भवतीति । प्रतिस्वसत् सर्वमपि घटादीति सदेवासदपि भवति इतरेतराभावादिभ्यः । असतापि हि तेन सता केनचिद् भवितव्यम् , प्रत्येकवृत्तित्वात् , यथा । घट इत्यघटो न भवति वृक्ष इत्यवृक्षो न भवति । विधिः, असच्छब्दश्च तदर्थः, इत्थं चोक्तन्यायेन असच्छब्दार्थो विधिप्रधानपर्युदासात्मकस्त्यक्तः स्यात् । स एव वृक्षो भवति सत्त्वात् , सतोऽन्यस्यासतोऽत्यन्ताभावात् प्रसज्यप्रतिषेधमात्रम[स]त् प्रसक्तं प्रतिषिद्धमित्येषोऽर्थः स्यात् । तस्मात् प्रसज्यप्रतिषेधमात्रार्थत्वात् ततश्च 'अयमस्मादन्यः' इत्यन्यस्याभावात् 'अन्यापोहः शब्दः' इत्यस्याभ्युपगमस्य त्यागः कृत इति दोषः स्यात् । किश्चान्यत् , तत एव 10 'अर्थान्तरापोहं हि स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते [ ] इत्येतस्य 'अर्थान्तरापोहेन खार्थाभिधानम्' इति लक्षणस्य त्यागः कृतः स्यात् , एषोऽप्यभ्युपगमत्यागदोषोऽपर इति । एवं तावदनङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिः सदित्यसन्न भवतीति सामान्यशब्दार्थेऽन्यापोहो न युक्तो विधिरेव युक्त इति । अथैतेभ्य एवेत्यादि । अथ मा भूवन्नेते पर्युदासात्मकान्यशब्दार्थार्थान्तरापोहस्वार्थाभिधानलक्षणाभ्युपगमत्यागदोषा इति तेभ्य एव भयादङ्गीकृतार्थान्तरवृत्तिरपोह इष्यते तेत इदं विघटते सदि-15 त्यसन्न भवतीति । कस्मात् ? प्रतिस्वसत् सर्वमपि घटादीति, इतिशब्दस्य हेत्वर्थत्वात् प्रतिस्वं सर्वस्य सत्त्वात्, सर्वं हि प्रतिस्वं प्रत्यात्म प्रत्येकमात्मना सदेवासदपि भवति, न ह्यसन्न भवति । कुतः ? इतरेतराभावादिभ्यः, प्राक्प्रध्वंसेतरेतरसंयोगसमवायाप्रमाणसामर्थ्यादिभेदेन सदेवासद् भवति इति ४६-१३ "विस्तरत उत्पतद्भिरेव प्रतिपादितमस्माभिः- 'घटो घटात्मना सँन् भवति असन्नेव पटात्मना' इत्यादि । अत्र प्रयोगः-असतापि हि तेन सता केनचिद् भवितव्यमिति प्रतिज्ञा, यो भवति येन प्रकारेण 20 च भवति तेन द्विविधेनाप्यसता भवितव्यमित्यर्थः । कस्मात् ? प्रत्येकवृत्तित्वात् , प्रतिस्वमात्मरूपेण वर्तमानत्वात् , अथवा सत्त्वात् , यः सन् प्रत्येकं वा वर्तते सोऽसन्नपि केनचित् प्रकारेण दृष्टो भावः, यथा घटादन्यः पटो घटत्वेनासन्नेव पटत्वेन सन् दृष्ट इति तद्वदिदमपि असदेव सद् भवतीति, "तथा प्रत्येकवृत्तित्वादिति । एवमनङ्गीकृतार्थभेदत्वे सद् भवत्येवासत् । अभ्युपगतमपि चैतत् त्वयापि, विस्मृतमधुना मया स्मार्यमेतत्-यथा घट इत्यघटो न भवति वृक्ष इत्यवृक्षो न भवतीति एवमाद्यन्यापोह- 25 शब्दार्थवादित्वाद भवतः । एष सच्छब्दसामान्याथै उक्तः । १'घटादीति सदित्यसन्न न भवति' इत्यपि पाठः स्यात् । तुलना-पृ० ७१२ पं० १२॥ २ पृ. ५४७ पं० १,१२, टि. ९॥ ३ दृश्यतां पृ० ६५३ पं० १॥ ४°ब्दार्थान्तरा य०॥ ५ तत इदं विघटते २ तत इदं विघटते प्र०॥ ६ इशब्दस्य प्र० ॥ ७विस्तरस भा० । (विस्तरश?)॥ ८सन्न य०॥ ९ अथवा सत्त्वात् भा० प्रतौ नास्ति ॥ १० यथा भा०॥ ११ ( एवमङ्गीकृतार्थभेदत्वे ?)॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे - द्रव्यादिसामान्यशब्दार्थेष्वपि अनङ्गीकृतार्थान्तरतायां तेनैव न्यायेन भावितवदभ्युपगमत्यागः। अथान्तरापोहतायां प्रतिवसन्यायाद् यथायोगं योज्यं तथैव । - ननूच्यमानसच्छब्दवदेतत्सिद्धिः। अत्र ब्रूमः-यदि सच्छब्दोऽसच्छब्दोऽपि भवति तत एव घटशब्दाद्युदाहरणमवकाशं लभते, अन्यथा कुतोऽस्यावकाशः? 5 सच्छब्द एव हि सन्नसच्छब्दो भवत्येव इतरथा घटस्य सतः पटाद्यसत्त्वाभावे कस्य सतः शपनाच्छब्दः स्यात् सच्छब्दः। एवमर्थतः 'सच्छब्दोऽसच्छब्दो न भवति' द्रव्यादिसामान्यशब्दार्थेष्वपि द्विविधा सैव, अङ्गीकृतान]ङ्गीकृतभेदार्थवृत्तित्वात् । तत्र तावदनङ्गीकृतार्थान्तरतायामित्यादिः स एव न्यायः प्राक्तनः “अद्रव्यं न भवति' इति [द्वि]नप्रयोगाद् द्रव्यमेवेति सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः, यो न भवति येन न भवतीत्यादि स एव ग्रन्थो विधिप्रधान10 पर्युदासात्मकाद्रव्यशब्दार्थत्यागादिदोषापादनः प्रसज्यप्रतिषेधमात्रार्थत्वादित्येतदर्थातिदेशो गतार्थो यावद् भावितवदभ्युपगमत्यागः । द्वितीयविकल्पेऽपि अर्थान्तरापोहतायामित्यादि तमेव न्यायमतिदिशतिप्रतिस्वसन्यायात् , प्रतिस्वद्रव्यत्वात् सर्वद्रव्याणां व्यमित्यद्रव्यं न [न] भवति इतरेतराभावादिभ्य इत्यादि यथायोगं योज्यं तथैव । ४६३-२ . अत्राह-ननूच्यमानसच्छन्दवदेतत्सिद्धिः, सिद्धं सच्छब्दमसत्स्वरूपविनिर्मुक्तं मन्यमानश्चोदयति 15 यः सँच्छब्दः [स] सतः शपनादावानात् , अतः शब्दाद् यथा सच्छब्द एव संदर्थवाच्येव च नासच्छब्दो नांसदर्थवाची वा तथा सद्वस्त्वपि स्यादिति । घटशब्दादिरपि विशेषशब्दस्तदर्थश्च तथा न पटादिशब्दस्तदर्थो वा भवितुमर्हतीति । तस्मादयुक्तमुच्यते सनसन् भवतीति । अत्र ब्रूमः-यदि सच्छब्दोऽसच्छब्दोऽपीत्यादि । नाभ्युपगच्छाम एतत् 'सच्छब्दोऽसच्छब्दो न भवति' इति, तथोदाहरणत्वासम्भवात् सच्छब्दासच्छब्दत्व एवोदाहरणत्वसिद्धेः । यदि हि सच्छब्दो20 ऽसच्छब्दोऽपि भवति तत एव लोकेऽन्यापोहवादे च घटशब्दाद्युदाहरणमवकाशं लभते, अन्यथा कुतोऽस्य घटायुदाहरणस्यावकाशः ? तद् व्याचष्टे-सच्छब्द एव हि सन्नसच्छब्दो भवत्येव, सदेव शब्दयन् घटादि पटाद्यशब्दनादसच्छब्दो भवत्येव, इतरथा घटस्य सतः पटाद्यसत्त्वाभावे सत्त्वाभावः, सत्त्वाभावात् सङ्करादिदोषौच्चासत्त्वे कस्य सतः शपनौच्छब्दः स्यात् सच्छब्दोऽङ्गीकृतभेदार्थत्वे ? तस्मादयुक्तमुक्तम् सच्छब्द25 वदसन्न भवति सद्वस्त्विति । एवमर्थतः 'सतः शब्दः सच्छब्दः' इत्यर्थद्वारेण 'सच्छब्दोऽसच्छब्दो न भवति' इत्ययुक्तम् । १अनङ्गीकृताङ्गीकृत इत्यपि भवेदत्र पाठः॥ २'त्यादि य०॥ ३ प्राक्तनो द्रव्यं न प्र०॥ ४ दृश्यतां पृ० ७१० पं० २२॥ ५भाविततदभ्युप° प्र०॥ ६ दृश्यतां पृ० ७११ पं० १७ ॥ ७ सशब्दः प्र०॥ ८ सदवाच्येव प्र०॥ ९नावदर्थ प्र०॥ १०°रपि र विशेष य० । र विशेष भा०॥ ११ भवत्येव प्र०॥ १२ दोषाच्च सत्त्वे प्र.॥ १३ नात् सब्दः स्यात् सच्छाङ्गीकृत भा० । 'नात् शब्दः स्यात् शब्दोङ्गीकृतय.॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । इत्ययुक्तम् । शब्दतोऽपि चास्ति सच्छब्दोऽन्य एव । सदेर्धातोः सच्छब्दोऽप्यन्य एव । एवं द्रव्यादिशब्देषु वाच्यम् । विशेषशब्दार्थेषु तु 'घट इत्यघटो न भवति' इत्यत्रापि न न भवत्यघटः । तद्यथा आमच्छिद्रादिघटा एवाघटा अचेष्टत्वात् । घटयन् वा घटः स्यात् । तदभावादप्यघटो भवत्येव । अघटोऽपि च घटो भवति, घटते घटयति वा तन्तुतन्तु- 5 वायगवाश्वादिः। तथा प्रत्यक्षप्रसिद्धेरनन्यत्वं सिद्धं गोशब्दस्य वागादिषु वर्तमानस्य, तच्छब्द शब्दतोऽपि च 'अस्ति'सच्छब्दः असेर्धातोः शत्रन्तस्य 'सत्' इति रूपसिद्धेर्यः सच्छब्दः सोऽन्य एव । सदेर्धातोः क्विबन्तस्य यः सच्छब्दः सोऽप्यन्य एव, संदिप्रकृतिः सच्छब्दो न भवत्येव असिप्रंकृतिः सच्छब्दः । तस्माच्छब्दतोऽपि सच्छब्दो[ऽसच्छब्दो] भवत्येव न न भवतीति । 10 ___ एवमित्यादि । यथा सच्छब्दस्य रूपसिद्धिकृतनानात्वकृते सत्त्वासत्त्वे तथा द्रव्यशब्दस्यापि ४६४-१ द्रष्टव्ये । तथा 'द्रोर्विकारो द्रव्यम् , द्रोरवयवो वा द्रव्यम् , द्रव्यं च भव्ये [ पा० ५। ३ । १०४ ] भवतीति भव्यं द्रव्यम् , द्रवतीति द्रव्यं द्रूयते वा, द्रवणाद् गुणानां गुणसन्द्रावो द्रव्यम् , इत्यादिव्युत्पत्त्या पृथिव्यादिखभेदापेक्षया च द्रव्यशब्दः सन्नद्रव्यशब्दश्च । 'द्रव्यादिशब्देषु' इति आदिग्रहणात् पृथिव्युदकादिसामान्यशब्देष्वपि स्वभेदापेक्षेषु वाच्यमित्यतिदेशार्थः । एवमर्थेऽपि द्रष्टव्यम् । एवं तावद् महासामान्या- 15 परसामान्यशब्दार्थेषु सर्वस्यादर्शनादयुक्तोऽन्यापोहः । विशेषशब्दार्थेष्वित्यादि । तुशब्दो भेदाङ्गीकरणाकरणविकल्पाभावं सामान्यशब्दार्थाद् विशेषशब्दार्थेषु दर्शयति । 'घट इत्यघटो न भवति' इत्यत्रापि न [न] भवत्यघटो भवत्यघट इति । तद्यथा-आमच्छिद्रादीति, आमघटश्छिद्रघटो न भवति, आदिग्रहणाच्चित्रलेप्यादिघट इत्यादयो घटा एवाघटा घटनसामर्थ्याभावादचेष्टत्वात् । घटयन् वा घटः स्यात् प्रयोक्तकर्तरि, तदभावादप्यघटो भवत्येवेति । किश्चा-20 न्यत्-अघटोऽपि च घटो भवति चेष्टार्थवत्त्वात् स्वतत्रः प्रयोक्ता चे, तद्दर्शयति-घटते घटयति वा तन्तुतन्तुवायग[वा]श्वादिरिति प्रकृत्यन्ताद् ण्यन्ताद्वा कर्तर्यचो विहितत्वात् । तथा प्रत्यक्षेत्यादि । 'गौरित्यगौर्न भवति' इत्येतदपि न युक्तम् , यस्माद् ‘गौरगौर्भवति, अगौरपि गौर्भवति' इत्येतत् प्रदर्श्यते । तत्र हि द्वयी शब्दानां गतिः-एकः शब्दोऽनेकार्थः, अनेकः शब्द एकार्थो भवति । तत्र य एकोऽनेकार्थः स चिन्त्यते । गोशब्दस्य तावद् वागादिषु वर्तमानस्य एकत्वं प्रत्यक्षप्रसिद्धम् , ४६४-२ १ 'आमच्छिद्रादि, अचेटत्वात् ।' इति ‘आमश्छिद्रादि, अचेष्टत्वात् ।' इति वा मूलं चिन्त्यम् ॥ २ वास्ति प्र० ॥ ३ असतातोः य०॥ ४ सदिति प्रकृतिः प्र. । (सदतिप्रकृतिः ?)॥ ५कृतिसच्छब्दः प्र०॥ ६न भवती भा० ॥ ७ (तद्यथा-2)॥ ८ दृश्यतां टिपृ० १६ पं० २४-टिपृ० १७ पं० ६ ॥ ९ भेदोंगीक भा० । मेयोऽगीक य० ॥ १० तद्यथामिच्छ(मश्छि ?)द्रादीति आमघटच्छिद्रघटो प्र० ॥ ११ घटत्वा घटः य० ॥ १२ प्रयोक्त कर्तरि प्र० ॥ १३ चा भा०॥ १४ तंपु तंतवाय भा० । तंतुतंतवाय य० ॥ १५ कर्तुयवो वि य० । कर्तुयवों वि भा० । “नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः ।"-पा० ३।१।१३४ ॥ नय० ९० Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे विशेषानिरूप्यत्वात् तत्सम्बन्धाशक्यत्वम् । तस्मादेकात्मत्वं गोशब्दस्य । तस्मिंश्चैकात्मत्वे शक्तिभेदात् तत्तदर्थप्रत्यायनशक्तयः प्रकल्प्याः , एकपुरुषपितृपुत्रादिवत् प्रतिसम्बन्धमन्यथावृत्तेः। ___ गदनादिविशेषनिरूप्यान्यत्वे वा गवान्तरवद् गौरेवेति गौरित्यगौर्न भवती5 त्यपि न, वागादिगवानां व्यतिरेकात् । सकृदुच्चरितम्य वाग्दिग्भूरश्म्यादिषु दृष्टत्वात् । अतः प्रत्यक्षप्रसिद्धरनन्यत्वं सिद्धम् , तच्चानाशङ्कनीयम्किमन्योऽनन्यो गोशब्द इति । तस्मादन्याय्यमन्यत्वम् । स्यान्मतम्-भिन्नार्थगते!शब्दस्यान्यत्वम् , साहश्यात्तु ‘स एव' इति भवतीति, एतच्च न, तच्छब्दविशेषानिरूप्यत्वात् , 'अयमुदात्तोऽनुदात्तः स्वरितो वाचि वर्तते, अयं दिशि' इत्यादिविशेषरूपस्यानिरूप्यत्वाद् नास्त्यन्यत्वं प्रत्यक्षस्यानुमानाद् 10 बलीयस्त्वाच्च । ततः किम् ? ततस्तत्सम्बन्धाशक्यत्वम् , अनिरूप्यात्मरूपाणामसतां पृथगनुपलब्ध नानाथैः सह न शक्यः सम्बन्धः कर्तुम् । अकृतसम्बन्धानां च शब्दानामर्थप्रत्यायनमन्याय्यम् , म्लेच्छप्रयुक्तशब्दश्रवणादप्यर्थप्रतीतिप्रसङ्गात् । तस्मादेकात्मत्वं गोशब्दस्य । तस्मिंश्चैकात्मत्वे सति शब्दस्य शक्तिभेदात् सम्बन्धिभिरभिव्यक्तात् तत्तदर्थप्रत्यायनशक्तयः प्रकल्प्याः , किमिव ? एकपुरुषपितृपुत्रादिवत् , यथैक एव पुरुषोऽनेकशक्तिसम्बन्धिभेदापेक्षया पिता पुत्रो मातुलो भागिनेय इत्यादि15 व्यपदेशभागू भवति तथा गोशब्दोऽपि वागादिषु । कस्मात् ? प्रतिसम्बन्धमन्यथा वृत्तेः, स एव सम्बन्धं सम्बन्धं प्रति [प्रतिसम्बन्धं ] सम्बन्धिजनितमन्यत्वमन्यथान्यथा वर्तते । तस्मादेकत्वाद् गोशब्दस्य वागादिभिन्नार्थवाचित्वाद् गौरेव वागादिरगौर्भवति, अगौरपि गौर्भवति । स्यान्मतम्-निमित्तभेदाद् गोशब्दा भिद्यन्ते, तानि च निमित्तानि गदन-गर्जन-गमन-गिरणादीनि, ४६५-१ पृषोदराद्याकृतिगणत्वाद् रूपसिद्धेरन्यत्वमेवेति । एतच्चोक्तविधिना न युक्तमप्यभ्युपगम्य गदनादिविशेष20 निरूप्यान्यत्वे वा गवान्तरवद् गौरेव, यथा हि गोशब्दः सानादिमत्येकस्मिन्नप्यर्थे गमननिमित्ते वृत्तोऽपि खण्ड-मुण्ड-शाबलेय-बाहुलेय-सौरभेयादिभेदेषु गवान्तरेषु गौरेव । इति हेत्वर्थे, यस्मात् खण्डादिविशेषापेक्षया सामान्यशब्दो गोशब्दस्तस्मात् पूर्ववदस्मिन्नपि पक्षे गौरित्यगौर्न भवतीत्यपि न, कस्मात् ? वागादिगंवानां व्यतिरेकात् , तद्यथा 'गौः' इत्युक्ते वागादिषु न व्यतिरिच्यते गोत्वं गोशब्द[वत्] वागित्युक्ते दिगादिभ्यो व्यतिरिच्यते 'वाग् न दिक्' इति । ततः 'गौरगौरपि भवति' इति 25 गतार्थमुदाहरणम् । १ भूरित्यादिषु प्र० । दृश्यतां पृ० ५२४ पं० ५॥ २ स एव भवतीति य० ॥ ३°लब्धा भा० ॥ ४ तदर्थ भा० ॥ ५ °वृत्तेः स्म एव य० । वृत्तेस्म एव भा० । (वृत्तेस्तमेव ! ) ॥ ६ गराणा प्र० । दृश्यतां पृ० ११४ टि०६॥ ७ हेत्वों भा० ॥ ८ भवतीत्यपि म तस्माद् प्र०॥ ९गवानं व्यतिरेकातिरेकात् य० । (गवानां व्यतिरेकाव्यतिरेकात् ?)॥ १० (गोशब्दो वा । वागित्युक्ते)?॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीता पोहवादनिरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् । ७१५ एकोत्तरशतनामत्वाच्चाम्भसो विषमविषं भवति अविषमपि विषं भवतीत्यादि । तथा पीलुवृक्षो वृक्षत्वादपीलुर्भवति धवादिवत्, हस्तिवत् पीलुर्वा । अतः पीलुरपीलुरपि पीलुश्च, अपीलुरपीलुरपि पीलुश्च । एवं हरिरामार्जुनादयोऽपि । | एवं तावदनेकार्थैकशब्दत्वेऽन्यापोहाभावः । अनेकशब्देकार्थत्वेऽपि तद्यथा - एकोत्तरशतनामत्वाच्वाम्भस इत्यादि । 'सलिलमुदकममृतं वा जीवनं विषम्' इत्याद्येकोत्तरं शतमुदकनामानि निरुक्ते पठ्यन्ते । ततो विषमविषं भवति, अंविषमपि विषं भवति, अपानीयं ग्रन्थिसर्पादिविषं मारणात्मकं न, जीवनात्मकम् । जीवनात्मकमप्युदकादि मारणात्मकं दुष्प्रयोगादित्यादि गमनिका । आदिग्रहणाद् घृतमघृतमित्यादि । तथा पीलुवृक्षः वृक्षत्वादपीलुर्भवति धेवादिवत्, हेस्तिवत् पीलुर्वा । हस्त्यपि पीलुरपीलुर्भवति हैंस्तित्वाद् मनुष्यवत् । तथा विपर्ययेणाह स्तित्वादपीलुर्भवति पीलुवृक्षः, अवृक्षत्वादपीलुर्हस्तीति । अत इत्युपसंहरति । पीलुरपीलु पीलुश्च, अपीलुरपीलुरपि पीलुश्चेति । ' एवं हरिरामार्जुनादयोऽपि 10 ईति च व्यापितामप्यस्य न्यायस्योदाहरणबाहुल्येन दर्शयति । क्र -सिंह- वासुदेव- मण्डूक-वानर- ह्यादिषु ४६५-२ हरिशब्ददर्शनादहरिर्हरिश्च । रोमो रम्यवर्ण- दाशरथि बलदेव - जामदम्येषु अर्जुनस्तृण- सुवर्ण-वृक्ष-पाण्डवकार्तवीर्येषु दर्शनादित्यादि तच्चातश्च पूर्ववत् । १ " अर्णः । क्षोदः । क्षद्म । नभः । अंभः । कबन्धम् । सलिलम् । वाः । वनम् । घृतम् । मधु । पुरीषम् । पिप्पलम् | क्षीरम् । विषम् । रेतः । कशः । जन्म । बृबूकम् । बुसम् । तुम्या । बुर्बुरम् । सुक्षेम । धरुणम् । सिर । अररिन्दानि । ध्वस्मन्वत् । जामि । आयुधानि । क्षपः । अहिः । अक्षरम् । स्रोतः । तृप्तिः । रसः । उदकम् । पयः । सरः । भेषजम् । सहः । शवः । यहः । ओजः । सुखम् । क्षत्रम् । आवयाः । शुभम् । यादुः । भूतम् । भुवनम् । भविष्यत् । महत् । आपः । व्योम । यशः । महः । सकम् । स्तृतीकम् । सतीनम् । गद्दनम् । गभीरम् । गंभरम् । ईम् । अन्नम् । हविः । सद्म । सदनम् । ऋतम् । योनिः । ऋतस्य योनिः । सत्यम् । नीरम् । रयिः । सत् । पूर्णम् । सर्वम् । अक्षितम् । बर्हिः । नाम । सर्पिः । अपः । पवित्रम् | अमृतम् । इन्दुः । हेमः । खः । सर्गाः । शंबरम् । अभ्वम् । वपुः । अंबु । तोयम् । तूयम् । कृपीटम् । शुक्रम् । तेजः । स्वधा । वारि । जलम् । जलाषम् । इदमित्येकशतमुदकनामानि ॥ १।१२ ॥” इति यास्कनिरुक्ते नैघण्टुककाण्डे १०१ नामानि । "नीरं वारि जलं दकं कमुदकं पानीयमम्भः कुशं तोयं जीवन जीवनी यसलिला स्यम्बु वाः संवरम् । क्षीरं पुष्कर मेघपुष्पकमलान्यापः पथःपाथसी कीलालं भुवनं वनं घनरसो यादो निवासोऽमृतम् ॥४|१३५ ॥ कुलीनसं कबन्धं च प्राणदं सर्वतोमुखम् ।” - अभिधानचिन्ता० । “ शेषश्चात्र -- जले दिव्य मिरासेव्यं कृपीटं घृतमङ्कुरम् । विषं पिष्पलपातालमलिलानि च कम्बलम् ॥ पावनं षइरसं चापि वहूरं तुसितं पयः । किट्टिमं तदतीसारं सालूकं पङ्कगन्धिकम् । अन्धं तु कलुषं तोयमति स्वच्छं तु काचिमम् ॥” - अभिधानचिन्तामणिखोपज्ञवृत्तिः ४।१३५ ॥ २ ऽविषमपि य० । विषमपि भा० ॥ ३ मरणा प्र० ॥ ४ धनादि य० ॥ ५ " द्रुमप्रभेदमातङ्गकाण्डपुष्पाणि पीलवः ।" - अमरकोश. ३।३।१९३॥ ६ हस्तवत्त्वादित्यर्थः ॥ ७० ॥ लुरपि य० ॥ ९ इति व व्यापी भा० । इति व्यापि य० । १० 'हुल्येन न दर्शयति य० निलेन्द्र चन्द्रार्कविष्णुसिंहांशुवाजिषु । शुकाहिकपिभेकेषु हरिर्ना कपिले त्रिषु ॥ - अमरकोष ३।३।१७४ ॥ १२ "बले रामो नीलचा रुसित त्रिषु । ” – अमरकोष. ३।३।१४० । “रामः पशुविशेषे स्याजामदभ्ये हलायुधे । राघवे च सितश्वेतमनोज्ञेषु च वाच्यवत् ॥”विश्व ॥ १३ " अर्जुनः ककुभे पार्थे कार्तवीर्यमयूरयोः । मातुरेकसुतेऽपि स्याद् धवले पुनरन्यवत् ॥ नपुंसके तृणे नेत्ररोगे स्यादर्जुनी गवि । उषायां बाहुदानद्यां कुहन्यामपि च क्वचित् ॥" - मेदिनी ॥ ॥ ८ लुपी ११ " यमा 5 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. ७१६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे एवं श्रुतिमात्रतत्त्वो गवादिरेकः शब्दोऽनेकार्थगमकशक्तियुक्तः एकादित्य[तपन-प्रकाशन......."अनेकार्थ]कारित्ववत् । प्रत्यर्थवृत्ति ....... संसर्गो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता। अर्थः प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः॥ सामर्थ्य मौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः। शब्दस्यार्थव्यवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥ [वाक्यप० २। ३१७, ३१८) अथोच्येत--सर्वथाऽदृष्टत्वात् स्थिते तु स्वार्थस्याभावे सामान्याभावमात्रनिवृत्तिरभावभेदासंस्पर्शात् । अथ स्वार्थाभावाभावमात्रत्वे कः शब्दार्थः 'वृक्ष [इत्यवृक्षो न भवति' इति] तच्छब्दधूमलिङ्गाभ्यामन्यावपोह्याववृक्षानग्नी भेदासंस्पर्शेन । तत्र च प्रसह्यप्रतिषेधार्थे तन्मात्रमेव च गम्येत । न वृक्षपर्युदासेन घटादिरर्थात्माऽन्यः कश्चिल्लभ्यते। __ एवं श्रुतिमात्रेत्यादि । अनेनोक्तन्यायेन श्रुतिमात्रतत्त्वो गवादिरेकः शब्दो[ऽप्र]तिलब्धविभागोऽनेकार्थगमकशक्तियुक्तः । किमिव ? एकादित्येत्यादि यावत् कारित्ववदिति गतार्थः प्रोक्तार्थोपसंहारः। 15 स्यान्मतम् -एकस्यानेकार्थकारित्वे विभागप्रतिपत्त्यभावादव्यवच्छेदप्रसङ्ग इति । तन्न, प्रत्यर्थवृत्तीत्यादि यावद् विशेषस्मृतिहेतवः इति यथासङ्ख्यं संकरभायुदाहरणभावितार्थ कारिकाद्वयं निमित्तान्तरादेकार्थावच्छेदाख्यानम् । आदिग्रहणाद् गौण-मुख्य-स्तुति-निन्दादिभावार्थकृतव्यवच्छेदादिति ।। अथोच्यतेत्यादि । अथ परेणोच्येत-ननूक्तमेव "गुणसमुदायमात्रस्य काणकुण्टादेर्दर्शनासम्भवः, सत्यपि च दर्शने सर्वथानुमानासम्भवः सर्वप्रकारेणादृष्टत्वात्' इति निराकाङ्कीकृते मूलत एव 20 पुनरिदानी को विचारः-दर्शनं स्यात् न स्यादिति ? स्थिते तु स्वार्थस्याभावे सामान्यरूपस्याभावमात्रस्य निवृत्तिरभावभेदासंस्पर्शात् 'वृक्ष इत्यवृक्षो न भवति अग्निरित्यन ग्निर्न भवति' इत्यवृक्षानन्यभावभेदा संस्पर्शेनोच्यते, न वाऽभावस्य भेदाः सन्ति । तस्मात् सर्वाभावभेदेदर्शनेन विनैवापोहो गमक इति । ४६६-१ अत्रोच्यते-अथ स्वार्थाभावाभावमात्रत्वे त्वदिष्टे कः शब्दार्थ इति पृच्छति वृक्ष इत्यादि प्रत्युच्चार्यात्राप्यपोहाभावमापादयितुकामः । तच्छब्दो वृक्षशब्दः परार्थेऽनुमाने स्वार्थे धूमश्च लिङ्गे, 25 ताभ्यामन्या[व]पोह्याववृक्षानग्नी घटादिभेदरूपाण्यसंस्पृश्येत्यभिमतोऽर्थः, तत्र च "प्रसह्यप्रतिषेधार्थे 'वृक्षो न भवत्यवृक्षः' इति तन्मात्रमेव च गम्येत, न च गम्यत इत्यभिप्रायः । वृक्षादन्योऽवृक्ष इति न वृक्षपर्युदासेन घटादिरात्माऽन्यः कश्चिल्लभ्यते, अन्यस्यासत्त्वादविवक्षितत्वाच्च वृक्ष एव व्याख्येयो विवक्षित १ दृश्यतां पृ० १२७ पं० ११-१४ । टिपृ. ५६ टि. १॥ २ तुलना पृ० ७०५॥ ३'सकरभा धेनुरानीयताम्' इत्यत्र 'करभ'संसर्गाद् विशिष्टा एव धेनुरवगम्यते । एवमन्यान्यप्युदाहरणानि टिपृ० ५६ टि. १ इत्यतोऽवसेयानि ॥ ४ अथोच्यते प्र०॥ ५ तुलना-पृ० ६५२ पं० १४ । पृ. ६६२ पं० २ पृ. ७०९ पं. ९ ॥ ६ स्यात् न य० प्रतौ नास्ति ॥ ७ तुलना पृ० ७१७ पं० २७ ॥ ८ वाभावस्य प्र० । 'चाभावस्य' इत्यपि भवेत् पाठः ॥ ९°दादर्शनेन प्र०॥ १० द्विवचनान्तमिदं पदम् ॥ ११°मतोर्थसूत्रं च प्र०॥ १२ (प्रसज्यप्रति°१)॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ७१७ वृक्ष एव व्याख्येयः। स स्वयमनवगतः कथमभावं विशेषयितुं शक्नुयात् 'अवृक्षो मदभावः' इति, तस्य भावेन लभ्यात्मलाभत्वात् । ततश्च वृक्ष इत्यवृक्षो न भवतीतीदमुक्तं भवेत्-योऽभावाभावः स वृक्षः । ततो घटपटादीनामभावनिवृत्तिमात्रत्वाद् वृक्षशब्दार्थवत्त्वं प्राप्तम् , कुतोऽपोहस्तेषां स्यात् । __ सर्वथा वा गतिर्भवेत् । सर्वदर्शननिराकासन्तायां शब्दादनुमानाद्वा वृक्षोऽग्निरिति च विशेषवचनप्रत्ययानर्थक्यं स्यात् , अभावाभावमात्रस्यैकत्वात् , भेदविषयवचनानुमानव्यवहारनिर्विषयत्वात् अभूतभेदविषयत्वात् खपुष्पादिवत् ।। अत्रोच्येत-नाप्यशेष...... .......... । किं तर्हि ? स्वसम्बन्धित्वात्, स स्वयमनवगतः कथमभावं विशेषयितुं शक्नुयात् 'अवृक्षो वृक्षाभावो मदभावः' इति, 10 खपुष्पमिव वन्ध्यापुत्रः ? कस्मात् ? तस्याभावस्य भावेन लभ्यात्मलाभत्वात् स स्वयमसन् कथमसतो विशेषणं स्यात् ? उभयत्र चान्वये व्यतिरेके च घटादीनां भेदरूपाणां सपक्षासपक्षयोरसंस्पृश्यत्वेनेष्टत्वाद् न किञ्चित् केनचिद् विशेषयितुं शक्यम् । ततश्चेत्यादि । अस्मादुक्तन्यायादेष शब्दार्थः संवृत्तः, 'वृक्ष इत्यवृक्षो न भवति' इत्युक्ते इदमुक्तं भवेत् सम्भाव्येत योऽभावेत्यादि, अभावस्याभावो वृक्ष इत्युक्तं स्यात् , नान्यदभावनिवृत्तेः । ततो घट-15 पटादीनामभावनिवृत्तिमात्रत्वाद् वृक्षतावद् वृक्षशब्दार्थवत्त्वं प्राप्तम् , कुतोऽपोहस्तषां स्यात् ? तत्संस्पर्शे हि स्यादपोहँस्ते वृक्षो न भवतीति । इत्थमपोहाभावः, अनिष्टं चैतत् । किश्चान्यत् , सर्वथा वा गतिर्भवेत् , अभावाभावमात्रं हि वृक्षोऽग्निर्वा स्यात् , न सपक्षासपक्षभेदसंस्पर्शेन दृष्टवत् । अतः सर्वदर्शननिराकाङ्कता, तस्यां च सत्यां शब्दाद् वृक्षादनुमानाद्वा धूमादभावाभावमात्रवृक्षाग्नित्वाददृष्टभेदासंस्पर्शादेव त्वदुक्तात् 'वृक्षोऽग्निः' इति च विशेषवचनप्रत्ययानर्थक्यं स्यात् । 20 कस्मात् ? अभावाभावमात्रस्यैकत्वादिति स्वपरार्थानुमानयोः सामान्येन हेतुः खपुष्पादिवदिति ४६६-२ दृष्टान्तः । विशेष्य वा हेतुः-भेदविषयवचनानुमानव्यवहारनिर्विषयत्वात् , अभूतभेदविषयत्वादिति सामान्येन । स एव दृष्टान्तः सर्वत्र, अन्तेऽभिहितत्वात् । अयमन्यो व्याख्याविकल्पः, तद्यथा विकल्पः-सर्वथा वाऽगतिर्भवेत् प्रश्लेषलभ्याकारत्वात् । अगतिरज्ञानं वृक्षशब्दोच्चारणाद् भवेत् सर्वथा। कस्मात् ? गन्तव्याभावात् । गन्तव्याभावश्वाभावाभावमात्रवृत्तित्वाच्छब्दानुमानयोरिति । 25 अत्रोच्येतेत्यादि । स्वभेदाभावव्यावृत्तिलक्षणान्यापोहेऽनन्तत्वादसँम्भवसम्बन्धाभिधानादिदोषा उक्ताः । सामान्याभावाभावमात्रे सर्वैकत्वानर्थक्यापोहोभावदोषा उक्ताः । तेषां पक्षद्वयानभ्युपगमात परिहारः-नाप्यशेषेत्यादि । किं तर्हि ? इति पक्षान्तरं श्रयते निर्दोष मन्यमानः, स्वसम्बन्धिवृक्षस्याग्ने, १ पृ. ७०७ पं० १२ पृ. ७१९ पं० १९॥ २ अवृक्षो भावो मद भा० ॥ ३ स्पृशात्वे प्र०॥ ४ सभाव्येत य० । सभावोत भा० ॥ ५ (वृक्षता भवेद् ! ) ॥ ६ ( °हस्तेषां वृक्षो न भवतीति ? ) । (°हस्ते वृक्षो न भवन्तीति?) तुलना पृ० ७१८ पं० २४ ॥ ७त्वादृष्टमेदाभा०॥ ८°संभवसंभवसंबंधाप्र०॥ ९पृ० ७१६ पं० २०॥ १० पृ० ७१७ पं० २१ ॥ ११ पृ० ७१७ पं० २०॥ १२ पृ० ७१७ पं० १७ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे सामान्यधर्मेषु तदनुबन्धिभेदेषु चाविनाभाविषु दर्शनसंस्पर्शेन तद्व्यतिरिक्तेष्वदर्शन संस्पर्शेनान्यापोहस्य प्रवृत्तत्वाददोषः । अत एव चेदं स्वसम्बन्धिभ्योऽन्यत्रादर्शनात् तद्व्यवच्छेदानुमानम् । यत्र दृष्टः सोऽत्र सम्बन्ध्यभिप्रेतो न त्वविनाभावित्वसम्बन्धेन । अन्यत्रादर्शनादिति अनुमेयाभावेऽदर्शनात्, अन्यथा हि वृक्षशब्दस्य धूमस्य च तस्मिन् वस्तुनि पृथिवीद्रव्याद्यभा5 वेsपि दर्शनं वक्तव्यं स्यात् । तद्वयवच्छेदानुमानमिति यत्रैवादर्शनमुक्तं वृक्षाभावेऽवृक्षेऽन्यभावेऽनग्नौ वा ततो व्यवच्छेदानुमानम् - अवृक्षोऽनग्निर्वा न भवतीति । एवं च कृत्वा वृक्षशब्दाद् धूमाच्च द्रव्यत्वाद्यनुमानमुपपन्नं भवति । इतरथा तु द्रव्यादीनामप्यन्यत्वादतुल्य एव वृत्तेरपक्षधर्मत्वानैकान्तिकत्व - विरुद्धत्वानुमानाभावदोषाः स्युः । द्रव्यादित्यागे तइविनाभाविनः स्वार्थस्य चासम्भव एव । तस्मात् स्वसम्बन्ध्यभावेऽदर्शनादनुमानस्य सिद्धिः [ ] इति । 10 ७१८ एवं तर्हि यदि सत्तादीनि विशेषणानि वृक्षो भवन्ति स वा तानि भवति एक भवनात्मकोsर्थोऽस्य वृक्षशब्दस्य तत्स्वात्मवत् ततोऽनन्यत्वात् द्रव्यादिवृक्ष सत्ताद्रव्यत्वादिसामान्यधर्मास्तदनुबन्धिनो भेदाश्च शिंशपादयः तेष्वविनाभाविषु दर्शनसंस्पर्शेन तद्व्यतिरिक्तेषु घटादिष्वदर्शनसंस्पर्शेन जलादिषु चान्यापोहस्य प्रवृत्तत्वान्न सम्भवन्त्युभयपक्षगता दोषाः । अत एव चेदमित्यादि एतत्पक्षसंश्रयदर्शनार्थं भाष्यग्रन्थमाह स्वसम्बन्धिभ्योऽन्यत्रादर्शनादि - 15 त्यादि । अस्य व्याख्या टीकाग्रन्थो यत्र दृष्ट इत्यादिः यावदवृक्षोऽनग्निर्वा न भवतीति गतार्थः । एवं च कृत्वेत्यादि यावदुपपन्नं भवतीति, अनेक विनाभाविनां पृथिवीद्रव्यत्वादीनां वृक्षशब्दाद् धूमाच्चा४६७- १ नुबन्धिनामनुमानं युज्यते तद्दर्शनस्पर्शेन, वृक्षत्वात् पृथिवी द्रव्यं सच्च धूमत्वाच्च वृक्षवदद्भिवश्चेति । इतरथा त्वित्यादि, अत्यन्तव्यतिरेके सम्बन्धित्वाभावेऽनुबन्धिनां द्रव्यादीनामप्यन्यत्वादतुल्ये विपक्ष एव वृत्तेरपक्षधर्मत्वनैकान्तिकत्वविरुद्धत्वानुमानाभावदोषाः स्युः । अनुबन्धिनां द्रव्यादीनां त्यागे तदविनाभाविनो 20 वृक्षस्य स्वार्थस्यासम्भव एवेति च दोषः । ततः प्रत्याय्य प्रत्यायनयोरर्थशब्दयोरनुपपत्तिः । तस्मात् स्वसम्बन्ध्यभावेत्याद्युक्तोपसंहारः, सम्बन्धिनोऽर्थान्तरस्य भावे दर्शनात् सम्बन्धिन एव भावाभावेऽदर्शचानुमानस्याभिप्रेतस्य सिद्धिरिति । अत्रोत्तरमुच्यते एवं तर्हीत्यादि । यदि सत्तादीनीत्यादि सत्ताद्रव्यपृथिव्यादीनि विशेषणानि वृक्षस्य वृक्षादभिन्नानि सन्ति वृक्षो भवन्ति तानि वृक्ष एवेत्यर्थः, स वा वृक्षस्ता भवन 25 विशेष्यन्ते देवदत्तपाण्यादिवदेकभवनात्मनेत्येतदापन्नम् । तस्मिन्नेकभवने प्रयोगः शाखादिमति दर्शनमित्युच्यते ऽस्यार्थः स एकभवनात्मकोऽर्थोऽस्य वृक्षशब्दप्रयोगस्य । किमिव ? तत्स्वात्मवत् सत्ताद्रव्यत्वादिवृक्षस्वात्मवद् वृक्षस्य सत्ताद्रव्यत्वादिस्वात्मवत् एकभवनात्मवदित्यर्थः । कस्मात् ? उक्तन्यायेन ततोऽनन्यत्वात् तेभ्यस्तस्य तस्माद् वा तेषामनन्यत्वात् द्रव्यादिवृक्षभावदर्शनाद् वृक्षद्रव्यादिभावदर्शनादित्यर्थः । I १ तुलना- पृ० ६५२ पं० २२ ॥ २ 'स्वसम्बन्ध्यभावादर्शनात्' इत्यपि भवेदत्र पाठः । भा० प्रत्यनुसारेण 'सम्बन्ध्यभावादर्शनात्' इत्यपि भवेत् ॥ ५ इत्यादि य० ॥ ६ पृ० ६५२ पं० २२ ॥ ७ वृक्षवाद अयमपि पाठः समीचीनो भाति, ११ ऽस्योस्यार्थः भा० ॥ ९ तस्मात् सम्बन्ध्य भा० ॥ १० (नात्मतेत्येतदापन्नम् ? ) । ३ पृ० ६५२ पं० ४ ॥ ४ पृ० ६५२ पं० १८ ॥ भा० । वृक्षत्वाद य० ॥ ८'त्वान्नै' य०॥ व्याख्यायां 'सम्बन्धिनोऽर्थान्तरस्य' इति दर्शनात् ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशार नयचक्रम् । भावदर्शनाद् द्रव्याद्यभावदर्शनानभ्यनुज्ञानादतिस्फुट एवायं विधिवादस्त्वयाभ्युपगतः भवनपरमार्थार्थाभ्युपगमात् । यत् कोऽपि भवति [तद् भवनपरमार्थत एव......] वैधर्येण खपुष्पवत् । योऽप्यसौ [व्यावर्तते सोऽपि भवनपरमार्थत एव ] भवत एव व्यावृत्तेः, देवदत्तादिव्यावृत्तिवत् , न खपुष्पादिवत् । एवं भवद्भवननिरूपणे स्थित एवार्थ; स चान्यश्चेत्यन्यापोह परिग्रहे सर्वथा वा 5 गतिर्भवेत् । अनुगमो विधिरेव । अथवा अनिर्वाहकैकान्तव्याख्याविकल्पप्रदर्शनात् सर्वथा वा विकल्पानां गतिरनेकान्तः स एवैवं भवेत् । विधिविकल्पोऽपि सदाद्यात्मकार्थग्रहणात् । अपोहकस्मात् ? द्रव्याद्यभावदर्शनानभ्यनुज्ञानात् । पृथिवीद्रव्यसत्त्वाभावे दर्शनं वृक्षस्य वृक्षाभावे वा : पृथिव्यादिभावदर्शनं वृक्षात्मविषेयं नाभ्यनुज्ञायते यस्मात् तस्मादेकभवनात्मकत्वानुज्ञानादन्याभावादतिस्फुट 10 एवायं विधिवादस्त्वयाभ्युपगतः, पूर्वेष्वपि पक्षेषु स्फुट एव विधिवादः, अस्मिंस्त्वतिस्फुटः । कस्मात् ? ४६७ भवनपरमार्थार्थाभ्युपगमात् , वृक्षशब्दस्य सद्व्यपृथिवीमृदादिवृक्षैकभवनात्मकः परमार्थतोऽर्थ इत्यभ्युपगतत्वात् । यत् कोऽपि भवतीत्यादिना भवनमेवेति दर्शयति यावद् वैधयेण खपुष्पवदिति । योऽप्यसावित्यादि ध्यावाभिमतोऽपि भवनपरमार्थत इति दर्शयति । भवत एव व्यावृत्तेरिति हेतुः, भवन्नेव व्यावर्तते कर्तरि षष्ठीविभक्त्युत्पत्तेः, पर्वते प्रतिहतस्य देवदत्तस्य व्यावृत्तिवत् सत एव व्यावृत्तेरित्यपादान-15 लक्षणा पञ्चमी वा, यो भवति पर्वतादिः तस्माद् भवत एव पर्वतादेर्देवदत्तादेावृत्तिवत् न खपुष्पादिवदिति विधिवाद एव स्फुटीकृतः। ___ ततः किम् ? तत इदम् ---एवं भवद्भवनेत्यादि। इत्थं भवदेव भवतीति निरूपणेऽयमस्य स्थित एवार्थःस चान्यश्चेत्ययमन्यापोहपरिग्रहः, तस्मिंश्च सति सर्वथा वा गतिर्भवेत् , *अनुगमो विधिरेवेत्युपसंहरति । अथवा अनिर्वाहकेत्यादि, ये त्वमी व्याख्याविकल्याः कल्पिता* विधिवादेऽन्यापोहवादे 20 "चैकान्तरूपास्ते सर्वे न निर्वहन्तीत्युपेक्ष्याः। तत्प्रदर्शनात् सर्वथाशब्दो विमर्दरमणीयः परिनिष्ठितोऽतीतसर्वविचारस्यायं पिण्डार्थ इत्येतदाख्यानार्थः । कोऽसौ पिण्डार्थ इति चेत्, उच्यते-वेति 'वा'शब्दो विकल्पार्थः, विकल्पानां गतिरिति विकल्पानामेव ज्ञानं निश्चयः परिनिष्ठा सर्वथा घटो घटोऽप्यघटोऽपीत्यादि निश्चयः। का सा गतिः ? अनेकान्तः, स एव एवं भवेत् स एवानेकान्तो विमर्दक्षमो विचारपर्यवसानेऽवतिष्ठतेत्थम् , सर्वन्यायपरिशुद्धि फलत्वादस्य सर्वविकल्पाः, सङ्केपेण विधि-प्रतिषेधौ, तावुभावित्थं 25 गृहीताविति दर्शयति विधिविकल्पोऽपि सदाद्यात्मकार्थग्रहणादिति विधिम् , अपोहविकल्पोऽपि ४६८स्वसम्बन्ध्यन्यप्रतिषेधार्थत्वादिति प्रतिषेधम्। एतौ त्वद्वचनादेवापतितौ । तेन सर्वथा विकल्पानां वा गतिः स्याद्वादः । स च द्रव्यार्थपर्यायार्थावेकान्तत्यागरूपैकवाक्यमत्यात्मकौ, तयोर्विषयविभागेन शब्दार्थमुपसंहृत्य १ 'यः कोऽपि' इति चेत् पाठः स्यात् तदा 'यः कोऽपि भवति [ स भवनपरमार्थत एव ]' इति मूलं सम्भावनीयम् ॥ २°षयन्नाभ्य भा० । षयत्वाभ्यय०॥ ३ व्यावृत्त्या प्र०॥ ४ यत्कोऽपि प्र० । अत्र 'यः कोऽपि' इत्यपि भवेत् पाठः ॥ ५ पृ. ७०७ पं० १२, पृ० ७१७ पं० १८॥ ६* एतदन्तर्गतः पाठो भा० प्रतौ नास्ति । ७ वैकान्त° य०॥ ८ दाख्या-नार्थः भा० । दाख्यापनार्थः' इति पाठोऽप्यत्र सम्भाव्येत ॥ ९°ध्यम् प्र०॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं विकल्पोऽपि स्वसम्बन्ध्यन्यप्रतिषेधार्थत्वात् । द्रव्यार्थतः न च तेन [ 'सह कस्यचिद् विरोधः, आराध्यत्वाच्छरणत्वाच्च ] सर्वेषामपि । ततश्चेदमपि दुरधीतमेवान्यापोहवादिना - [दृष्टवद् विधिरूपेण यदि लिङ्गं प्रकाशयेत् । ] सर्वथाऽप्रतिपत्तिः स्यात् सर्वथा वा गतिर्भवेत् ॥ [ प्र० स० ३ | १४ ] इति यत्तूक्तम् अन्वयद्वारेण चानुमानेऽयं दोषः - यस्मादनुगमोऽस्ति वृक्षशब्दस्यार्थादिसहितस्य शिंशपादिष्वपि तस्मात् केवलोऽपि शिंशपावाची स्याद् वृक्षशब्दः । अथ बहुषु पलाशादिष्वपि दृष्ट इति संशयो भवति, एवं सति वृक्षार्थे सत्त्वद्रव्यत्वपार्थिवत्वानि सन्ति तेषु वृक्षशब्दस्य समानत्वात् संशयः स्यात्, 10 निश्चयस्तु दृष्टः, अवृक्षनिवृत्त्याऽर्थामिधानवदपृथिव्यद्रव्या सत्त्वव्यावृत्त्या वृक्षाभिधानात् । यथा हि वृक्षशब्दोऽवृक्षनिवृत्त्यैकार्थको पार्थिवव्यावृत्त्यापि स्वार्थे वर्तते तथा वृक्षपार्थिवद्रव्यसच्छन्दा आनुलोम्येन त्रिद्वयेकार्थनिश्चयहेतवः प्रातिलोम्येन संशयहेतव इति । 5 दर्शयति यथासङ्ख्यम् – द्रव्यार्थत इत्यादि गतार्थं सोदाहरणं यावत् स्यादनपोह इत्यादि । आदिग्रहणा15 दन्यदपि यत् किञ्चिदन्यैरप्युग्राहितं वस्तूदाहरणमेवास्य सर्वगतासर्वगतकारणकार्यत्वादीत्यभिप्रायः । न च तेनेत्यादि यावत् सर्वेषामपीति वादपरमेश्वरत्वप्रदर्शनं स्याद्वादस्य गतार्थम् । [ अष्टम उभयनियमारे 'स्यादनपोह इत्यादि । ततश्चेदमपि दुरधीतमेवान्यापोहवादिना इत्युक्तार्थानुसारेणातिदेशेन दूषयति कारिकाम्, अन्यापोहस्य केवलस्य दूषितत्वाद् दर्शनबलेनैव शब्दार्थप्रतिपत्तेर्व्याख्यातत्वात् अन्ते वा स्याद्वादोपसंहारादेकान्तविधिवाददूषणस्य प्रकाशित प्रकाशनवद् वैयर्थ्यादिति । 20 यतूक्तमित्यादि यत् परेण दोषजातमुपन्यस्तं विधिवादिनं प्रति तत् परिहर्तुकामः पूर्वपक्षयति । 'वृक्षो मञ्चकः क्रियते' इत्याद्यैर्थप्रकरणशब्दान्तरसन्निध्यादिभिः शिंशपादिष्वपि दृष्टत्वात् सर्वत्र सर्वथा केवलोऽपि शिंशपावाची स्याद् वृक्षशब्दः, अनिष्टं चैतत् केवलस्याप्रत्यायनात् । अथ बहुष्वित्यादि सोऽन्यापोहवाद्येव परमतमाशङ्कते । बहुषु पलाशादिष्वपि दृष्टोऽयं वृक्ष [शब्द]स्तस्मात् कतम एषां विवक्षितः स्यात् ? इति सामान्यात् संशयो भवतीत्याशङ्कय तत्रापि दोषं ब्रूया25 दन्यापोहवादी एवं सतीत्यादि, वृक्षार्थे सत्त्वद्रव्यत्वपार्थिवत्वानि दृष्टानि तेषु निश्चयो दृष्ट इत्यनैकान्तिकमेतत् । केन पुनर्न्यायेनेति चेत्, अवृक्षनिवृत्याऽर्थाभिधानवदपृथिव्यद्रव्यासत्त्वव्यावृत्त्या वृक्षाभिधानाद् व्यावृत्तिबलेनेति । अस्य च न्यायस्य गुणोपचयवर्णनम् - यथा हि वृक्षेत्यादि गतार्थं यावत् संशयहेतव इति । ४६८-२ ५ 'यथा हि वृक्ष १ दृश्यतां पृ० ४३६ पं० ३, १८-२१ ॥ २ पृ० ७०७ ॥ ३ तुलना - पृ० ६५२ पं० २३ ॥ सत्त्वद्रव्यत्वपार्थिवत्वादिषु कस्मान्निश्चयो भवति' इत्यपि मूलं स्यादत्र । दृश्यतां पृ० ७२१ पं० १४ ॥ [ पार्थिवद्रव्यसच्छन्दा आनुलोम्येन त्रिद्व्येकार्थनिश्चय हेतवस्तथा प्रतिलोम्येन ] संशयहेतवः' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ६ पृ० ६५२ पं० २३ । हृदयतां पृ० १२७ पं० ११-१४, टिपृ० ५६ टि० १ ॥ ७ ध्यादिभिः शिशपादिभिः शिंशपादिष्वपि प्र० । अत्र 'दिभिः शिंशपादिभिः शिंशपा इति पाठो द्विर्भूतः प्रतीयते ॥ ८ तुलना - पृ० ६५२ पं० २४ ॥ ९ तुलना - पृ० ६५२ पं० २४ ॥ १० निश्चयो न दृष्ट य० ॥ ११ तुलना - पृ० ६५३ पं० १२ ॥ ४ एवं सति वृक्षा Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ७२१ अत्र ब्रूमः-गुणदोषाभिमानस्ते खपक्षरागात् । अन्वयद्वारेण चानुमानेऽयं गुणः-दृष्टबलेनैवार्थादिभिः सह शिंशपादिषु वृक्षशब्दस्य दृष्टत्वान्निश्चयो भवति केवलात् संशयो यथादर्शनमनुमानप्रवृत्तेः । एवमेव च वृक्षार्थ[भवनेन विना वृक्षो न भवतीति वृक्षशब्दात् तद्भवनं यथा प्रतीयते तथा पार्थिवद्रव्यसत्त्वानि प्रतीयन्ते, तैर्विना] वृक्षभवनस्यैवादर्शनात् । विधिरूपेण दर्शनसामर्थ्येनैव च 5 वृक्षपार्थिवद्रव्यसच्छब्दा आनुलोम्येन त्रिद्वयेकार्थनिश्चयहेतवः, प्रातिलोम्येन संशयहेतवः । एवं गम्यताम् ........... यदप्यनियतशिंशपं गम्यते तत्रापि विशेषादर्शनादगतिविशेषदर्शनाद गतिः। यथा अविभातैकदेश......"तथा वृक्षशब्दात्...."संशयः, तद्भावदर्शनन्यायवत् । वयं त्व[त्र] ब्रूमः-गुणदोषाभिमानस्ते स्वपक्षरागादिति । व्याख्या-अन्वयद्वारेण *चानु-10 मानेऽयं गुण इत्यादि, दृष्टवलेनैव हि अर्थ-प्रकरण-विशेषणादिभिः सह शिंशपादिषु दृष्टत्वान्निश्चयो भवति, तैर्विना * नै दृष्टत्वात् केवलात् संशयः, किं कारणम् ? यथादर्शनमनुमानप्रवृत्तः । विशेष (वार्थादिरपि शिंशपादिवत् , विशेषादर्शनादेव पलाशाद्यपि । वृक्षशब्दसामान्यात् संशयो भवति अदृष्टत्वाद् विशेषविरहितस्य । निश्चयस्तु विशेषसहितस्य दृष्टत्वात् । यदप्युच्यते- सत्त्व-द्रव्यत्व-पार्थिवत्वादिषु कस्माद् निश्चयो भवति ? इति, तत्रापि दृष्टबलादेव, एवमेव च वृक्षार्थेत्यादि यावद् वृक्षभवनस्यैवादर्शनादिति 15 एतदुक्तं भवति-यथा वृक्षः स्वार्थभवनेन विना न भवतीति वृक्षशब्दात् तद्भवनं प्रतीयते तथा पार्थिवद्रव्यास्तित्वैर्विना वृक्षत्वस्याभवनाद् वृक्षत्वभवनप्रतीतिवत् पार्थिव-द्रव्य-सत्त्वानि प्रतीयन्ते तैर्विना तस्यैवादर्शनादिति । यदपि च वृक्षशब्दात् पार्थिव-द्रव्य-सत्त्वत्र्यर्थगतिः पार्थिवशब्दाद् द्रव्य-सत्त्वव्यर्थगतिः ४६९.१ द्रव्यशब्दात् सत्त्वगतिः प्रतिलोम्येन सदाद्यानुलोम्येन चोत्तरेषु पूर्वस्मात् संशय इति तदपि विधिरूपेण दर्शनसामर्थेनैव च वृक्षपार्थिवद्रव्यसच्छब्दा आनुलोम्येनेत्यादि तत्प्रदर्शनं गतार्थं यावत् संशयहेतव 20 इति दर्शनस्यव निश्चय-संशयहेतुत्वात् ।। एवं गम्यतामित्यादिरुक्तोपसंहारो तु[ य?]दर्थप्रकरणादिसहिताद् वृक्षशब्दाच्छिशपाव॒क्षत्वतत्त्वाद् धवादिभ्योऽर्थेभ्योऽन्यस्माच्छिशपादिशब्दाद् विशेषात्मकादिव विशेषदर्शनादेवेति । यदप्यनियतशिंशपमित्यादि । योऽयं वृक्षशब्दोच्चारणे कदाचिच्छिशपाया गतिः कदाचित् तदगतिरित्यनियमः स विशेषादर्शनादगतिः विशेषदर्शनाद् गतिः । तत्र निदर्शनम्-यथा अविभातैकदेशे-25 त्यादि धूमविषयं प्राग्वर्णितं दर्शनं संशयाय, विशिष्टं तु निश्चयायेति दृष्टान्तः । दार्टान्तिकोऽर्थः-तथा वृक्षशब्दादित्यादि यावत् संशयः। केन पुनायेनैतदेवम् ? इति तद् व्याचष्टे-तद्भावदर्शनन्यायवत् , यथोपवर्णितं प्राग् "देश एवाग्निधूमात्मकस्तद्भावेन दृष्टो विधिना आत्मानमेवात्मना साधयतीत्यादि स एवात्रापीति । १द्वारेणा य०॥ २ * * एतदन्तर्गतः पाठो य. प्रतौ नास्ति ॥ ३ नष्टत्वात् यः॥ ४ अर्थादिःअर्थप्रकरणलिङ्गादिः ॥ ५ आतिलों प्र०॥ ६ अत्र कश्चित् पाठः खण्डितः प्रतीयते ॥ ७ वृक्षतत्त्वाद् भा० ॥ ८तसंशयमित्यादि य० ॥ ९प्राग्वर्णनं य० ॥ १० यायाविशिष्टं प्र० ॥ ११ देश वाग्नि य० ॥ १२ त्यादिः प्र०॥ नय०९१ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं अष्टम उभयनियमारे एवं वृक्षत्वस्य पृथिवीत्वादिभिस्त्रिभिः पृथिव्या द्रव्यसत्त्वाभ्यां द्रव्यस्य सत्त्वेनानुलोम्येन तथा दर्शनात् प्रातिलोम्येन तथाऽदर्शनाच निर्णयसंशयौ।। अथ मन्येत-तावेतौ न युक्तौ दर्शनादुभयतोऽपि अविशेषो निश्चय एव वा स्यात् । मन्मते तु युक्ती, अतुल्यत्वात् खार्थाभावे वृत्त्यवृत्त्योः । संशयहेतवस्तावद् 5 वृक्षादिशब्दाः, शिंशपादिखार्थाभावेऽपि पलाशादौ वृत्तेः। निश्चयहेतवस्तु वृक्षावयवान् व्यामुवन्तस्तदनुवन्धिनश्वार्थान् , खार्थाभावेऽवृत्तेः । न दर्शनस्यैवोत्सर्गापवादभूतत्वाद् वस्तुनोऽतुल्यत्वात्, स्थाणुपुरुषोर्द्धत्वसामान्यशकुनिनिलयनवस्त्रसंयमनविशेषदर्शनवत्। ननूक्तम्-अवृक्षादावदर्शनात् 'तद्व्यवच्छेदानुमानं स्वार्थाभिधानम् [प्र० समु० वृ० ५। 10३४ ] इति । एवं च सति क तद् दर्शनम् ? । एवं वृक्षत्वस्येत्यादि प्रकृतोपसंहारः, शिंशपादिविशेषेषु पृथिव्यादिसामान्येषु च तुल्यमप्यनेकत्र वृत्तं वृ[क्ष]त्वं स्वार्थेन सहैव वृत्तेः पृथिवीत्वादिभिर्गम्यते त्रिभिरानुलोम्येन पृथिवी-द्रव्य-सत्त्वैः पृथिवी, द्रव्य-सत्त्वाभ्यां द्रव्यं, सत्त्वे त्वेकमेव आनुलोम्येन तथा दर्शनात् । सत्त्वाद्यत्तरोत्तरसंशयस्तु प्राति लोम्येनादर्शनादेव तथेति यावद् निर्णयसंशयाविति गतार्थः । ४६९-२ अथ मन्येतेत्यादि परमतमाशङ्कते । तावेतौ निश्चयसंशयौ न युक्तौ दर्शनादुभयतोऽपि वृक्षदर्श15 नस्य धव-शिंशपयोरविशेषो निश्चय एव वा स्यात् । मन्मते पुनरन्यापोहे स्वार्थाभावे [वृत्तः] संशयो युज्येत अवृत्तेश्च निश्चयः, कस्मात् ? अतुल्यत्वात् स्वार्थाभावे वृत्त्यवृत्त्योः, ते हि स्वार्थाभाववृत्त्यवृत्ती यथासङ्ख्यं संशयनिश्चयहेतू । तद् व्याचष्टे-संशयहेतवस्तावद् वृक्षादिशब्दाः शिंशपादिस्वार्थाभावेऽपि पलाशादौ वृत्तेः, सदादिशब्दाश्च द्रव्यादिस्वार्थाभावेऽपि गुणादौ वृत्तः संशयहेतवः। निश्चयहेतवस्तु 20 वृक्षावयवाञ्छाखादीन् व्याप्नुवन्तः पार्थिवमृद्रव्यत्वादींश्चानुबन्धिनोऽर्थान् स्वार्थस्याभावे न वर्तन्ते, ततस्ते व्यावृत्तिबलेनैव निश्चयहेतव इति । ___ एतच्च न, दर्शनस्यैवोत्सर्गापवादभूतत्वात्, वृक्षभवनदर्शनमेव हि पलाशशिंशपादिषूत्सर्गेण प्रवृत्तं [संशयाय] शिंशपाभवननियतमपवादभूतं निश्चयाय । कस्मात् ? वस्तुनोऽतुल्यत्वात् , वस्त्वेव हि विशिष्टमतुल्यं शिंशपापलाशाख्यं परस्परतः, तदुपकारित्वात् सामान्यवृक्षभवनस्य सामान्यादुपसर्जनात् 25 इत्युक्तन्यायत्वात् । किमिव ? स्थाणु-पुरुषेत्यादि दृष्टान्तो यावद् दर्शनवदिति यथा ऊर्द्धत्वं सामान्य 'स्थाणुः स्यात् पुरुषः स्यात्' इति संशयहेतुः, शकुनिनिलयनं 'स्थाणुरेव' इति निश्चयहेतुर्विशिष्टत्वात् , वस्त्रसंयमनं वा 'पुरुष एव' इति, तथैव वृक्षशिंशपादिष्वपि दर्शनादेव । अत्राह-ननूक्तमित्यादि । वृक्षादेरभावो हि अवृक्षादि, तत्रैवादर्शनम् , ततो व्यवच्छेद्यमानं यत् तवृक्षादि न भवतीति तदेव स्वार्थाभिधानमिति । एवं च सति क तद् दर्शनं यत् त्वयेष्टम् ? यतो १ दृश्यतां पृ. ६५० पं० २० ॥ २ प्रकृतोपसंहारो गतार्थ इति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः ॥ ३ वृत्तं वृत्वं भा० । वृत्तं वृत्तं य०॥ ४ सत्वे त्वेकमेव प्र० । ( सत्त्वेकमेव ?)॥ ५पृ. ६१४ पं० ४ ॥ ६ ऊर्द्धत्वसामान्य भा० ॥ ७'व्यवच्छेदानुमानम्' इति पाठोऽत्र सम्यग् भाति, तुलना-पृ० ६५० पं० २० ॥ ८ ततो भा०॥ ४७०-१ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् ।। नन्वदर्शनाद् दर्शनस्यैव सिद्धिरेवम् । यदि दर्शनं नाभ्युपगम्यते वृक्ष इत्यत्रावृक्षाभाव एवोक्तः स्यात् तत इदमदर्शनमेवावृक्षे । तत्रावृक्षस्यैवाभावः, कुतस्तददर्शनमवृक्षस्य वृक्षदर्शनेनैव व्याप्तत्वात् । तस्माद् दर्शनमेवैवं सिध्यति । अपितृवदवृक्षादर्शनं व्यतिरेक इति चेत्, न उक्तवत् । व्यवस्थाकारि...... स्थिते हि वृक्षे दर्शने त्ववृक्ष इति स्यात् । स तु तव कदा........तच नेष्यत एव ।। विधिप्राधान्ये तु पृथिवीत्वाद्युत्तरभवनं वृक्षभवनविज्ञानविध्यापाद्यं तदात्म दर्शनोत्सर्गापवादाभ्यां वस्तुनोऽतुल्यत्वात् संशयनिश्चयाविष्येयाताम्, तत्तु नास्ति दर्शनम् । वयं ह्यानन्त्यव्यभिचारादिदोषान् दर्शनपक्षेऽपेक्ष्यादर्शनसाधनार्थम]वृक्षाद्यभावो वृक्षादिशब्दार्थ इति कल्पयामो दर्शनस्यैवाभावात् तदोषासंस्पर्शाददर्शनमात्रस्याभिन्नत्वादिति । ___ अत्रोच्यते नन्वदर्शनादित्यादि । ननु दर्शनस्यैव सिद्धिरेवम् अदर्शनस्यादर्शनात् । तद् व्याचष्टे-10 यदि दर्शनमन्वयो विधिर्नाभ्युपगम्यते वृक्ष इत्यत्रावृक्षस्याभाव एवोक्तः स्यात्, न वृक्षो नाम कश्चित् स्यात् । ततः किम् ? तत इदमदर्शनमेवावृक्षे, व्यतिरेक एवेत्यर्थः । ततश्चाभावमात्रमेव खपुष्पादीत्यादिप्रागुक्तवन्न किश्चिदुक्तं स्यात् 'अवृक्षाभावो वृक्षः' इत्यभावमात्रत्वात् । तत्रावृक्षस्यैवाभावो वृक्षीभूतत्वात् सर्वस्यावृक्षाभावस्य कुतस्तददर्शनमवृक्षस्य वृक्षदर्शनेनैव व्याप्तत्वात् ? वृक्षदर्शनबलादेव चावृक्षादर्शनसिद्धिः, वृक्षदर्शनाच्च 'अयं वृक्षः, अयं घटादिरवृक्षः' इति सिद्धिः, नादृष्टे । तस्माद् दर्शनमेवैवं सिध्यति 15 नादर्शनमिति । अपितृवदवृक्षादर्शनं व्यतिरेक इति चेत् । स्यान्मतम्-'पितुरन्योऽपिता सर्वः' इत्यादिप्रागुक्तवददर्शनमिति । एतच्च न, उक्तवत् पितॄकल्पस्य दर्शनं स्यादत्रापि, न चेत् प्रागुक्तवदेवानुपपत्तिः, प्रत्यक्षदर्शनबलेन हि 'अयं वृक्षः, अयमन्योऽस्माद् घटादिरवृक्षः' इति व्यवस्थिते विधिना दृष्टेऽन्यापोहलक्षणम-४७०-२ दर्शनं स्यात्, नान्यथेति । एतदर्थप्रदर्शनो ग्रन्थः-व्यवस्थाकारीत्यादि यावत् स्थिते हि वृक्षे विधेये 20 दर्शने त्ववृक्ष इति स्यात् विधिना दर्शनान्वये सति सिध्यत्येतदिति दर्शयत्येष ग्रन्थः । व्यावृत्तिपक्षे त्वनिष्टापादनम्-स तु तव कदेत्यादि यावत् तच्च नेष्यत एव त्वयेति विभक्तिपरिणामाद् । घटादिभ्यो व्यावृत्तौ सत्यां वृक्षादिसिद्धिः तत्सिद्धौ घंटादिव्यावृत्तिसिद्धिरित्यनवस्था परस्परतः स्यात् । सा मा भूदिति दर्शनं व्यवस्थापकमेषितव्यं विधिना व्यावर्त्यव्यावर्तकयोवृक्षादिसदाद्यवृक्षाद्यसदाद्योरिति । कथं पुनर्विधिप्राधान्ये तदोषाभावः ? उच्यते-विधिप्राधान्ये तु पृथिवीत्वाद्युत्तरेत्यादि साधनं 25 यावत् स्वात्मवदिति । वृक्ष-पृथिवी-द्रव्य-सन्तो वृक्ष-शिंशपा-कुब्ज-कुसुमित-मूल-स्कन्ध-शाखादयश्च वृक्षादयः पूर्वे चोत्तरे च भावा विधिना दृष्टाः, पार्थिवभवनं वृक्षभवनविज्ञानविध्यापाद्यमेव वृक्षात्मकत्वात् १ पक्षेऽपक्षादर्शन य० ॥ २ नन्वनादित्यादि य० ॥ ३ तुलना-पृ० ७१६ ॥ ४ स्तद्दर्श प्र० ॥ ५ वृक्षावृक्षदर्श य० ॥ ६ पृ० ७०८ पं० ६॥ ७ पृ० ७०९ पं०३ ॥ ८ पृ. ७०९ पं० १०॥ ९पटादिव्यावृत्तिसिद्धि भा० । पटादिव्यावृत्त्य सिद्धि य०॥ १० सामान्यभूदिति प्र०॥ ११ व्यावृर्त्यव्यावृतकयो भा० । व्यावृत्त्यव्यावृत्तकयो य० ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे कत्वात् ततोऽनन्यत्वाद् वृक्षखात्मवत् । तथा वृक्षादिपूर्वभवनं शिंशपाद्युत्तरभवनविज्ञान विध्यापाद्यं तदात्मकत्वात् ततोऽनन्यत्वाद् वृक्षमूलादिवत् । व्यावृत्तिप्राधान्ये तु दृष्टवत् पार्थिवत्वाद्यसिद्धौ वृक्षो नैव वृक्षः स्यात् पार्थिवत्वेनासिद्धत्वात् तोयवत् । तथा पार्थिवं द्रव्यत्वेनासिद्धत्वात् पार्थिवं नैव स्यात्, 5 गुणवत् । एवं द्रव्यं न द्रव्यं स्यात् सत्त्वेनासिद्धत्वात् खपुष्पवत् । तथा सदपि न सत्, द्रव्यादित्वेनासिद्धत्वात् । ततोऽनन्यत्वाद् वृक्षखात्मवत् , वृक्षात्मकत्वं च पार्थिवत्वादीनां पूर्वमापादितं मूलागुत्तरभवनानां चेत्यतस्तदेकात्मकत्वसिद्धौ सत्यां साधनस्य साधीयस्त्वम् । तथा पृथिवीभवनमेव · द्रव्यभवनम् , द्रव्यभवनमेव सद्भवनमिति । तथा वृक्षादिपूर्वेत्यादि साधनं तद्विपर्ययेण उत्तरभवनधर्मापादनम् , तदनतिरिक्तात्मकत्वात 10 ततोऽनन्यत्वात् , वृक्षमूलादीति दृष्टान्तः । शिशपाद्युत्तरभवनविज्ञानविध्यापाद्यो वृक्षः, तदात्मकत्वात् , मूल-स्कम्ध-पलाशादिधर्मात्मना वृक्ष एव यथा भवन् दृष्टस्तथा शिंशपाद्यात्मना वृक्ष एव भवतीति । एवं विधिरूपेण दृष्टवदेवानुमानं विधिप्राधान्ये युज्यतेऽभिधानं च ।। ४७१-१ त्वन्मते व्यावृत्तिप्राधान्ये तु दोषः । तद्यथा-दृष्टवत् पार्थिवत्वाद्यसिद्धौ पार्थिवद्रव्यसदे कात्मकभवनमेव वृक्षभवनमनिच्छतोऽस्मन्मतं ते वृक्षो नैव वृक्षः स्यात् पार्थिवत्वेनासिद्धत्वात् तोय15वत् , यथा तोयं पार्थिवत्वेनासिद्धं वृक्षो न भवति एवं वृक्षोऽपि वृक्षो नैव स्यात् । तथा पार्थिवं द्रव्य त्वेनासिद्धत्वात् पार्थिवं नैव स्यात् , गुणवत्, यथा गुणस्य द्रव्यत्वेनासिद्धत्वादपार्थिवत्वं तथा पार्थिवस्यापि अपार्थिवत्वं स्यात् । एवं द्रव्यं न द्रव्यं स्यात् , सत्त्वेनासिद्धत्वात् , खपुष्पवदिति । पार्थिवद्रव्यसत्त्वासिद्धयोऽसिद्धा इति चेत् , न, व्यावृत्तिप्राधान्येऽन्यत्वात् स्वार्थानुबन्धिभेदानामपि व्यावृ त्तत्वात् स्वार्थाभावाभावशदार्थत्वात् । प्रसिद्धिविरोधदोष इति चेत्, तवैव व्यावृत्तिप्राधान्याभ्युपगमा20 दोषो न ममेति । तथा सदपि न सत्, द्रव्यादित्वेनासिद्धत्वात् 'खपुष्पवत्' इति वर्तते । एवं पूर्व पूर्व नात्मरूपभाक् स्यात् , उत्तररूपेणाभूतत्वात् , अग्निवदिति यथावद् गतार्थमनिष्टापादनम् । येदप्युक्तम् गुंणत्व-गन्ध-सौरभ्य-तद्विशेषैरनुक्रमात् । अद्रव्यादिव्यच्छेद एकवृद्धयोत्पलादिवत् ॥ [प्र० समु० २ । १४ ] 25 इति व्यावृत्तिप्राधान्ये गुणवत्त्वादिभिरद्रव्यादिव्यच्छेद एकवृद्ध्या युज्यते । १ भावनानां प्र०॥ २"मूलादीनि' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ३°नुवत्विभेदा प्र० । 'नुवर्तिमेदा इत्यपि स्यादत्र पाठः ॥ ४ शब्दार्थत्वाभावात् य० ॥ ५ पृ० ७२७ पं० १२ 'तदपि' इत्यनेनास्यान्वयः ॥ ६ सवृत्ति के प्रमाणसमुच्चये द्वितीये स्वार्थानुमानपरिच्छेदे दिङ्गागेन यदभिहितं तदत्र भोटभाषान्तरतः संस्कृते परिवोपन्यस्यते __ अनेकधर्मणोऽर्थस्य न लिङ्गात् सर्वथा गतिः। अनुबन्धिव्यवच्छेद इतर(एवान्य?)स्मात् प्रतीयते ॥२।१२३ ॥ वह्वेर्दीप्तितैक्षण्यादयो यावन्तो विशेषास्ते सन्तोऽपि धूमेन न गम्यन्ते व्यभिचारात् । ये पुनरनुबन्धिनो यदभावेऽग्निर्न भवति तेषां द्रव्यत्वगुणत्वादीनामद्रव्यादिभ्यो व्यावृत्तिरेव प्रतीयते, यथाग्नेरनग्नितो व्यावृत्तिमात्रं स्वसम्बन्धानुरूप्यात् प्रतीयते, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ७२५ तथाहि-अयमनग्नौ सर्वत्र न दृष्टः, अन्यत्र च दृष्टः । गुणत्वगन्धसौरभ्यतद्विशेषैरनुक्रमात् । __ अद्रव्यादिव्यवच्छेद एकवृद्ध्योत्पलादिवत् ।। २।१३३ ॥ तत्र गुणत्वेन अद्रव्याद् गन्धत्वेनापार्थिवादद्रव्याच्च सौरभ्येणासुरभिसाधारणात् सौरभ्यविशेषणानुत्पलादेर्व्यवच्छेद एकैकवृद्ध्या क्रियते । अन्यथा दृष्टवद् विधिरूपेण यदि लिङ्गं प्रकाशयेत् । 'सर्वत्राप्रतिपत्तिः स्यात् सर्वथा वा गतिर्भवेत् ॥ २॥१४३ ॥ यदि च यथा धूमोऽग्नौ दृष्टस्तथोत्तरकाले प्रकाशयति कदाचिदपि नैव प्रकाशयेत् । यथानग्नौ सर्वत्र न दृष्टस्तथा सर्वत्राग्नावपि न दृष्टः । यदि च यथा दृष्टस्तथा प्रकाशयति [ तथा सति ] दीप्तितण्यादयो विशेषा अपि गम्येरन् । यस्मात सामान्यरूपेणैवानग्निप्रतिषेधेन प्रकाश्यते तस्माद् विधिनापि तदेवास्य रूपं दृष्टमिति प्रतीयते न विशेषरूपम् । सामान्यं यद्यपि भवेदाश्रयाणामदर्शनात् । ततोऽन्यत् तद् न दृश्येत, भेदो वैकत्र दर्शनात् ॥ २॥१५३ ॥ अग्नित्वं तावदग्नितोऽन्यत् सामान्यं नास्ति । सत्त्वेऽपि तद्दर्शनस्य न सम्भवः, सर्वेषामाश्रयाणामदर्शनात् । द्वित्वादीनामनेकसाधारणानामाश्रयाग्रहणे[5] ग्रहणं दृष्टम् । कस्यचित् सादृश्यवादिनः सादृश्यस्यापि न । अथ सामान्यमेकाश्रयग्रहणेऽपि समस्तं गृह्यते तथा सति आश्रयवद् नाना स्यात् । यथा चानुमेयं केनचिदंशेन गम्यते तथाङ्गं येन रूपेण लिङ्गिनं नातिवर्तते । तेनैवानेकधर्मापि गमयेदितरैर्न तु ॥ २॥१६३ ॥ धूमोऽपि धूमत्वपाण्डुरत्वादिना येनांशेनाग्निं न व्यभिचरति तेनैव गमयति, न द्रव्यत्वादिभिः, व्यभिचारात् । आह च गम्यन्ते तेऽपि लिङ्गन ये लिङ्गिन्यनुबन्धिनः । विशेषा न तु गम्यन्ते तस्यैव व्यभिचारिणः ॥ २॥१७३ ॥ लिङ्गानुबन्धिनस्त्वर्था गमयन्ति न लिङ्गिनम् । व्यभिचाराद् विशेषास्तु प्रतीताः प्रतिपादकाः ।। २।१८३ ॥ इत्यन्तरश्लोकौ ।” -Psvc.ed. D. ed. पृ. ३० b-३१a, N. ed. पृ. ३० b-३१ at PSvN. ed. पृ० ११४ b-११६ a, P. ed. पृ० ११३ । दृश्यतां पृ. ६७४-६७५ । अस्य जिनेन्द्रबुद्धिना रचिता विशालामलवती टीकापि भोटभाषानुवादात् संस्कृते परिवत्येहोपन्यस्यते-अनुबन्धिव्यवच्छेद इति । अनुबन्धिना सम्बन्धिना येनांशेनाग्निः प्रतीयते तस्य द्रव्यत्वादेः विपक्षादन्यस्माद् व्यवच्छेदो व्यावृत्तिः प्रतीयते । के पुनरनुबन्धिनो विशेषा इति चेत् , यदभावेऽग्निर्न भवतीत्यादि । ननु धूमस्य प्रकाशकत्वाद् 'यदभावे धूमो न भवति' इति वक्तव्यम् , कुत एवमुच्यत इति चेत् । अयमेवार्थोऽनेन प्रकारेणोक्त इति न दोषः । तथाहि-यदभावेऽग्निर्न भवति तदभावे धूमोऽपि न भवत्येव । अथवा ये सम्बन्धिन इति धूमस्यैवानुबन्धिन इति योज्यम् । ये धूमस्यैवानुबन्धिनस्तानेव दर्शयितुमाह-यदभावे इत्यादि । यदभावेऽग्निर्न भवति त एव धूमस्यानुबन्धिनः । अनुबन्धिनामन्यस्माद् व्यावृत्तिः प्रतीयत इत्यत्रोदाहरणमाह-यथाग्नेरनग्नितो व्यावृत्तिमात्रमित्यादि । कस्माद् व्यावृत्तिमात्रं गम्यते न विशेष इत्याहस्वसम्बन्धानरूप्यादित्यादि। अयं कारको हेतुः, न लिङ्गम् । तथाहि-अयमिति तत्सम्बन्धानुरूप्यमाह । अनग्नौ सर्वत्र न दृष्ट इत्यनेन व्यावृत्तेः प्राधान्यं विपक्षे सर्वत्रादर्शनेन कथयति अन्यत्र च दृष्ट इति चशब्देन क्वचिददर्शनमपीति द्योतनेनान्वयाप्राधान्यम् । एवं यस्मादन्वय उपचरितो व्यावृत्तिस्तु मुख्यः सम्बन्धः स च सामान्येनैव सम्भवति न विशेषेण तस्मात् ___1 'सर्वत्रादर्शनान स्यात्' इति पाठो विशालामलवत्यामादृतो भाति ॥ 2 तावदग्नावन्यत् Psv ॥ 3 'न सम्भवः' इत्यर्थः ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलकृतं [अष्टम उभयनियमारे तदानुरूप्याद् व्यावृत्तिद्वारेण 'अत्राग्निरेव, नानग्निर्भवति' इति अनग्नितो व्यावृत्तिमात्रं प्रतीयते न विशेषः। यथा चाग्नित्वेन सम्बन्ध एवं द्रव्यत्वगुणित्वादिभिरपीति तेषामप्यद्रव्यत्वादिभ्यो व्यावृत्तिरेव प्रतीयते । व्यावृत्तिद्वारेणैव हेतुर्गमक इत्यत्र हेत्वन्तरमाहगुणत्व-गन्ध-सौरभ्य-तद्विशेषैरित्यादि । एकवृद्ध्येति एकैकवृद्धयेत्यर्थः । गुणत्वेन अद्रव्यादिति 'इदं द्रव्यं गुणत्वात्' इति गुणत्वेनाद्रव्यव्यवच्छेद उत्पलादौ क्रियते । तथाहि-तत् सर्वत्राद्रव्ये न दृष्टम् , द्रव्ये दृष्टम् । अत्राद्रव्यव्यवच्छेद आद्ये न वृद्धिरेकस्मिन् । यदपेक्षया गन्धेनैकवघ्या व्यवच्छेदः क्रियते तत्प्रदर्शनार्थ 'गुणत्वेन अद्रव्यात्' इत्युक्तम् । अत एव गुणत्वस्याप्येकवृद्ध्या व्यवच्छेदं प्रति अङ्गभावोऽस्ति । यदि तेनाद्रव्यव्यवच्छेदो विधीयते तर्हि गन्धेनैकवृद्ध्या व्यवच्छेदः क्रियते, नान्यथा । तथा च कारिकायां द्वन्द्वसमासान्तत्वेन गुणत्वशब्दस्याविरोधः पदान्तरेण तुल्यसामर्थ्यात् । गन्धत्वेनापार्थिवादद्रव्यत्वाञ्चेति 'इदं पार्थिवं द्रव्यं च गन्धत्वात्' इति अपार्थिवादद्रव्याच्च व्यवच्छेदः क्रियते । पौरभ्येण असुरभिसाधारणादिति सौरभ्येण पूर्वाभ्यामसुरभिसाधारणाच्च व्यवच्छेदः क्रियते । गन्धविशेषसुरभिसाधारणं सामान्यं सुरभिसाधारणम् , यद् न सुरभिसाधारणं तत् तथोक्तम् । गन्धाभाव इत्यर्थः । सौरभ्यविशेष उत्पलादौ गन्धविशेषः । एवमद्रव्यादिव्यवच्छेद एकैकवृद्ध्योत्पलादिषु गुणत्वादिभिः क्रियमाणो दृष्टः । स कथम् ? यदि विपक्षाद् व्यावृत्तिद्वारेण हेतुर्गमकः, अन्यथा न युज्यते । दृष्टवद् विधिद्वारेण सर्वत्र सर्वेषां द्रष्टणां निर्विशेषत्वात् समाना प्रतीतिः स्यात् । तस्मात् व्यावृत्तिद्वारेणैव हेतुर्गमक इत्यभ्युपगन्तव्यम् । ये तन्नेच्छन्ति तान् प्रयाह-दृष्टवदित्यादि । दृष्टेन तुल्यं दृष्टवत् । यथा पूर्व सम्बन्धकाले लिङ्गमुपलब्धं तथा यदि प्रकाशयेदित्यर्थः । विधिरूपेण 'अग्निरत्र भवति' इति, न व्यतिरेकरूपेण 'अत्राग्निरेव, नानग्निः' इत्येवम् । सर्वत्रादर्शनात् प्रकाशनं न स्यादिति विज्ञेयम् , 'प्रकाशयेत्' इत्यस्य प्रकृतत्वात् यदि च यथाग्नौ दृष्ट इत्यादि । यद्येवमभ्युपगम्यते विधिवादिना 'यस्मादग्नावेव धूमो दृष्टः, नानग्नौ, तस्मात् प्रत्याययति' इति, तथा सति प्रतिषेधद्वारेणैव प्रकाशयेत् । तस्मात् तेनैवम व्यं 'यस्मादग्नौ दृष्ट एव, नादृष्टः, तस्मात् स तं गमयति' इति । ततश्च नैव प्रकाशयेत् । यस्मात् स सर्वत्राग्नौ न दृष्टः, देशावस्थादिभिन्ने सर्वत्राग्नौ दर्शनस्यासम्भवात् । यदि चेति दोषान्तरमाह । यदा धूमोऽग्नौ दृष्टस्तदा दीयादिविशेषाणामन्यतरेण युक्त एव दृष्टः । ततश्च तेऽपि प्रकाश्येरन् । तथा च न। तस्माद्दर्शनमात्रमनुमेयप्रतीतेन कारणम् , तद्भावेऽपि तदभावादिति । ननु प्रतिषेधवादिनापि दर्शनमिष्यत एव, तथाहि-कार्यत्वेनाविनाभावित्वाद् धूमो हतभुजो हेतुः, कार्यकारणभावश्च दर्शनादर्शनाभ्यां सहि]ताभ्यां सिध्यति न केवलाददर्शनादिति चेत्, उच्यते-यस्मादित्यादि । एतद् दर्शयति-यस्माद् धूमेनाग्निः सामान्यरूपेण प्रकाश्यते, न दीप्त्यादिविशेषरूपेण, तस्मात् कार्यकारणभावसिद्धये विधिनापि तदेवास्य रूपं दृष्टमिति कार्यकारणव्यपदेशसिद्धेः कारणत्वेन प्रतीयते, न विशेषरूपमित्याशयः । दीप्त्यादिविशेषदर्शनं कार्यकारणव्यपदेशसिद्धेर्न कारणम् , तदभावेऽपि धूमदर्शनात् ।..... ..........स्यादेतत्-सामान्यमेकमेव वस्तु व्यक्तिषु ताभ्यो भिन्नं ताभ्योऽभिन्नं वास्ति । तस्य च प्रतिव्यक्ति सर्वात्मना परिसमाप्तत्वादेकस्यामेवाग्निव्यक्तौ दर्शनमुपपद्यते ततः 'सर्वत्रादर्शनात् प्रकाशनं न स्यात्' इत्येतन्न युज्यत इति, उच्यते-सामान्यं यद्यपीत्यादि । यद्यपीत्यनेन 'तदभाव एव, तथाप्यभ्युपगम्य दोष उच्यते' इत्येतद् दर्शयति । अग्नित्वं तावद् नास्तीत्यादि । यदि व्यक्तिभ्योऽन्यत् सामान्यं स्यात् [तथा सति ] बुद्धौ प्रतिभासेत, न चास्ति प्रतिभासः ।....... यद्यनन्यत् तथापि व्यक्तिवत् तत् सामान्यमेव न स्यात् । तथाप्यभ्युपगम्य तदर्शनासम्भवं साधयितुमाह-तत्सत्त्वेऽपीत्यादि । यदनेकसाधारणमगृहीत समस्ताश्रयं तद् द्रष्टुं न शक्यते, यथाऽगृहीतसमस्ताश्रयं द्वित्वादिकम् , अग्नित्वमपि तथेति व्यापकविरोधः । सादृश्यस्यापि नेति आश्रयादभिन्नत्वात् सादृश्यस्य भेदेनोपन्यासः । अत्रापि स एव प्रयोगो वक्तव्यः । अथैकग्रहणेऽपि समस्तं गृह्यते तथा सति तस्य प्रत्येक सर्वात्मना परिसमाप्तत्वाद् गुणवद् नानात्वं स्यात् ।.....अनेकत्वाच्च तत् सामान्यमेव न स्यात् आश्रयवत् , सामान्यस्यैकत्वेनेष्टत्वात् । तथेत्यादि । ...."अङ्गं लिङ्गमुच्यते । नातिवर्तत इति न व्यभिचरतीत्यर्थः । अनेकधर्मापीति सामान्य विशेषधमैः । धूमत्व-पाण्डुरत्वादिनेति'.........। न द्रव्यत्वादिभिरिति ।...... उक्तार्थमेव संग्रहश्लोकाभ्यां सुखेन प्रतिपादनाय गम्यन्ते तेऽपि लिङ्गेनेति । तेऽपि अनुबन्धिनो द्रव्यत्वादयो गम्यन्ते.....। लिङ्गानुबन्धिनस्त्वर्था इति अविशिष्टा द्रव्यत्वादिसामान्यधर्माः । विशेषास्त्विति धूमत्वादयः । ते चाविशिष्टद्रव्यत्वादिसामान्यापेक्षया विशेषा इत्युच्यन्ते, न त्वसाधारणरूपापेक्षया ।"-VT. D. ed. पृ. १०.a-१०२ b, P. ed. पृ. ११२a-११५b॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् | दृष्टानुवृत्तेः दृष्टानुवृत्तेरेव नादृष्टावच्छेदादानुलोम्यान्निश्चयः प्रातिलोम्याद्वा संशयः । यतस्तत्र तुल्येऽन्यत्वे शुक्लत्वाद् गुणे निश्चयो न द्रव्यकर्मणोः, तयोश्चापोहो न सत्त्वगुणयोः । व्यावृत्तिप्राधान्ये तु — तत्रानुबन्धितत्त्वदर्शनान्नैवान्यत्वमिति चेत्, शुक्लं तर्हि नीलाद्यपि स्यात्, रूपादनन्यत्वात्, शुक्लगुणखरूपवत् । एवमेव [ रूपं रसाद्यपि स्याद् गुणादनन्यत्वाद्, गुणस्वरूपवत्, ] द्व्यणुकाद्यपि । द्व्यणुकमुत्क्षेपणादि रूपादि च स्यादाश्रितत्वात् । संशयो न स्यात् शौक्कयैकात्म्यात् । 11 ७२७ दृष्टवद् यदि सिद्धिः स्याच्छीक्लयरूपगुणाश्रितात् । क्रमवत् प्रातिलोम्येऽपि द्वित्र्येकार्थगतिर्भवेत् ॥ [ प्र० समु० ३ | ४४ ] इति । तदपि दृष्टानुवृत्तेरित्यादि श्लोकः क्रमेण 'द्वित्र्येकार्थगतिवत् प्रातिलोम्ये 'द्वित्र्येकार्थगतिर्न भवति तथा दर्शनाददर्शनाच्चेति । तद्व्याख्या-- दृष्टानुवृत्तेरेव नादृष्टावच्छेदात् नादृष्टा [न] नुवृत्तेरानुलोम्यादू निश्चयः प्रातिलोम्याद्वा संशयः । कस्मात् ? यतस्तत्र तुल्येऽन्यत्वे शुक्लत्वाद् गुणे निश्चयो द्रव्य-कर्मणोर्नेति, तयोपोहोन सत्त्वगुणयोः । शौक्लय- रूपादीना मैकात्म्याद् निश्चयः, दर्शनादेव चैकानेकात्मभ्यामाश्रित- 15 गुण-रूपादिभिर्गुण-रूप-शौक्कुथेषु संशय इति । तत्रानुबन्धितत्त्वदर्शनाद् नैवान्यत्वमिति चेत् । स्यान्मतम् - वृक्षात् पार्थिव द्रव्य-सत्त्वानीवानन्यानि शौक्या रूपगुणाश्रितानुबन्धीनि । तस्मात् तत्र निश्चयोऽनपोहच । येऽन्ये तेषामरूपागुणानाश्रितानामपार्थिवत्वादिवद् वृक्षादपोह इति । ४७१-२ 10 5 अत्र ब्रूमः -शुक्लं तत्यादि । नीलरक्तपीताद्यपि शुकं स्यात्, रूपादनन्यत्वात् शुक्लगुणस्वरूप - 20 वत् । एवमेवेत्यादि गतार्थान्यनिष्टापादनानि यावद् द्व्यणुकाद्यपीति । द्र्यणुकं कार्यद्रव्यमाश्रितं परमाण्वो १ “यदि यथा दृष्टं तथा प्रतीयते न व्यवच्छेदद्वारेण [ तर्हि ] यथा क्रमेण शौक्कयेन त्रयाणां रूपत्व-गुणत्वा ऽऽश्रितत्वानां प्रतीतिर्भवति, गुगत्वाद् द्वयो रूपा-ssश्रितत्वयोः, गुणत्वाच्चैकस्याश्रितत्वस्य एवं प्रातिलोम्येनापि आश्रितत्वात् त्रयाणां गुणत्वरूपत्व-शौक्लयानां स्यात् गुणत्वाद् द्वयो रूपत्व-शौक्लययोः रूपत्वा चैकस्यैव शौक्लयस्य । न हि आश्रितत्वादयो गुणत्वादिषु न दृष्टाः । अथ यथा आश्रितत्वं गुणत्वादिषु दृष्टं तथा कर्मादिष्वपीति सन्देहो भवति, शौक्लयमपि रूप गुणा-ऽऽश्रितेषु दृष्टमित्यतस्तेषु साधारणत्वात् सन्देहः स्यात् । व्यावृत्तिद्वारेण प्रतीतौ तु न दोषः । यथा गुणत्वाभावेऽभावाच्छौक्कथं रूपत्वे हेतुः तथा गुणत्वाश्रितत्वयोरपि तयोरभावेऽभावादिति । आश्रितत्वं तु गुणत्वाद्यभावेऽपि दृष्टमिति नास्ति तस्माद् गुणत्वादिनिश्चयः । - विशाला मलवती प्रमाणसमुच्चयटीका VT. P. ed. पृ० २०३ b २०४६ ॥ २ प्रतिष्वत्र द्वित्र्येकार्थगति इति. पाठो विलोक्यते तथापि प्रमाणसमुच्चये 'त्रिद्वये कार्थगति" इति पाठः प्रतीयते, स च समीचीनतरः सङ्गतार्थश्चेति विभाव्य त्रिद्वकार्थंगति इति पाठोऽत्रादरणीयो भाति ॥ ३ इति भा० प्रतौ नास्ति ॥ ४ कार्य द्रव्य य० ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे अन्यत्वमेव तर्ह्यतुल्यं शौक्यादेः । रूपादयो नान्ये शौक्लयादेः, अनिष्टापत्तेः । अरूपादित्वे शैौक्लयस्य तच्छौक्लयमेव न स्यात् अरूपादित्वात् उत्क्षेपणादिवत् । तस्मात् तेन सहानन्यत्वाद् रूपादेर्न तदपोहः । ये पुनरन्येऽपि आश्रितादेस्तु गुणादयः तेषामपोहानपोहाभ्यां संशयः । अथैतदेव कुतः ? अस्मदिष्टान्वयदर्शनादेवैतत् सिद्धम् । एवं तावदानन्त्यानुक्तिव्यभिचारदोष योरन्यापोहपक्षेऽपि भावः । 'अनन्तरस्यापि च भावः यस्मात् 5 , ७२८ रुत्क्षेपणादि रूपादि च स्यादिति 'आश्रितत्वात्' इत्यस्माद्धेतोः । संशयो न स्यात् कर्म-गुणेषु सप्रभेदेषु अनुबन्धिवदनन्यत्वात् तदुपायप्रदर्शनं सर्वगुणादिपरिक्रमेण । कस्मात् ? शौकुयैकात्म्यात् त्वदिष्टादिति । ४७२-१ अत्राह - अन्यत्वमेव तर्ह्यतुल्यं शौक्यादेः । एवं तर्हि नानन्यत्वम्, किं तर्हि ? अन्यत्वमेव । 10 मा भूदेतदनिष्टमिति तद् दर्शयन्नाह - रूपादयो नान्ये शौक्यादेः कस्मात् ? तद्रूपानुबन्धित्वात्, वृक्षादिव पार्थिवत्वम् । किं कारणम् ? अनिष्टापत्तेः । किं तदनिष्टमिति चेत्, अरूपादित्वे शौक्लयस्य तच्छौ क्लयमेव न स्यात्, अरूपादित्वात्, उत्क्षेपणादिवदिति । तस्मात् तेन सहानन्यत्वात् शौक्लन रूपादेर्न तदपोहः न रूपाद्यपोहः । ये पुनरन्येऽपि ततस्तेषामपोहानपोहाभ्यां संशयः । के पुनस्ते ? उच्यन्तेआश्रितादेस्तु गुणादयः, तद्यथा - गुणोऽयमाश्रितत्वात् इत्याश्रित एव नियमाद् गुणो नाऽनाश्रितोऽस्तीति । 15 आश्रितस्तु गुणः कर्म सामान्यं विशेषः समवायो वेत्यनियमः । तस्मात् तेन सहाश्रितत्वेन तेषां गुणादीनामन्यत्वादपोहोऽनपोहचेति संशयः स्यादिति । 20 आचार्य आह- अथैतदेव कुतः ? 'शौक्कयादिवद्रूपादिषु निश्चयः, आश्रितत्वाद् गुणादिषु संशयः' इति त्वया यतः प्रत्यवगतं तद् वक्तव्यं विशेषकारणं व्यावृत्तिप्राधान्यवादिना, विधिना दर्शनमन्तरेण वस्तुनो न शक्यम्, अस्मदिष्टवस्त्वन्वयदर्शनादेवैतत् सिद्धम्, तदभावे तन्नियमानियमाप्रसिद्धेः । एवं तावदित्यादि । भेदपक्षे परं प्रति उक्तयोरानन्त्यानुक्ति-व्यभिचारदोषयोः 'अॅटष्टेरन्यशब्दार्थे' [प्र० समु० ५।३४ ] इत्यादिनाप्यपरिहृतत्वात् सविशेषयोरन्यापोहपक्षेऽप्यस्तित्वं दर्शितमित्युपसंहारः । अनन्तरस्यापि च भावः । यदप्युक्तम् अनन्तरस्यापि जातिसम्बन्धाभिधानपक्षयोरुक्तस्य १ “अनन्तरस्याप्यभावः । कथम् ? यस्माद् व्याप्तेरन्यनिषेधस्य तद्भेदार्थैरभिन्नता । साक्षाद्वृत्तेरभेदाच्च जातिधर्मव्यवस्थितिः ॥ [ प्र० समु० ५/३६ ] सामान्यशब्दस्य हि योऽर्थान्तरव्युदासो व्यापारः स स्वभेदाप्रतिक्षेपेणेति भेदश्रुत्या सह सामानाधिकरण्यमुपपद्यते ।" इत्यादि दिङ्गागमतं निराकर्तुमत्र प्रारभते । दृश्यतां पृ० ७२८ टि० ९ ॥ २ स एवं भा० ॥ ३ वृक्षादि पार्थि य० ॥ ४ तौ पुनस्ते प्र० ॥ ५ आश्रितास्तु य० ॥ ६ दितद्रूपा ० । दिपा भा० ॥ ७] [] इत्यपि पाठः स्यादत्र ॥ ८ दृश्यतां पृ० ६५० टि० २ ॥ ९ दृश्यतां पृ० ६५० पं० ११-२६ । दिङ्गागेन सवृत्तिके प्रमाणसमुच्चये पञ्चमेऽपोहपरिच्छेदे यदभिहितं तदत्र भोटभाषान्तरात् संस्कृते परिवर्त्यो पन्यस्यते- "व्याप्तेरन्यनिषेधस्य तद्भेदार्थैरभिन्नता । साक्षाद्वृत्तेरभेदाच्च जातिधर्मव्यवस्थितिः ॥ ५/३६ ॥ अनन्तरस्याप्यभावः । कथम् ? व्याप्तेरन्यनिषेधस्य तद्भेदार्थैरभिन्नता । सामान्यशब्दस्य हि योऽर्थान्तरव्युदासो Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवाद निरासः ] द्वादशारं नयचक्रम् । व्यापारः स स्वभेदाप्रतिक्षेपेणेति भेदशब्दैः सह सामानाधिकरण्यमुपपद्यते । तस्मात् स्वभेदार्थैः पृथक्छ्रुतिदोषो नास्ति । योऽर्थ उभयशब्दाभिधेयः तत्रार्थान्तरे सामानाधिकरण्यम् । तथा हि स्वार्थाव्यभिचारः, 'केवलस्यान्यत्रावृत्तेः । पश्चिमस्यापि दोषस्याभावः । कथम् ? साक्षाद् वृत्तेरभेदाच्च । अर्थान्तरमुपादाय स्वभेदेषु शब्दो न वर्तते । तस्मात् पारतन्त्र्येण स्वभेदानाक्षेप दोषो भाक्तदोषश्च न स्तः । नापि भेदानवस्थानादव्यापकत्वाच्चानभिधाना सामान्यदोषौ स्तः, अर्थान्तरापोहमात्रस्याभिन्नत्वादद्रव्यत्वाच्च । तत एव सामान्यविशेषान्तरयोगानुसरणमपि न कर्तव्यम्, साक्षादर्थान्तरनिषेधात् । एवं पूर्वोकदोषाभावादर्थान्तरापोह एव शब्दार्थः साधुः । अतश्च जातिधर्मव्यवस्थितिः । जातिधर्माचैकत्व-नित्यत्व-प्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अत्रैव व्यवतिष्ठन्ते, अमेदादाश्रयानुच्छेदात् कृत्स्नार्थप्रतीतेश्च । एवं दोषाभावाद् गुणोत्कर्षाच्च शब्दोऽर्थान्तर निवृत्तिविशिष्टानेव भावानाह ।"Psv' c. ed. n. ed. पृ० ७४ -७, a, N. ed. पृ० ८३-८४ । Psv N. ed. पृ० १६७, P. ed. पृ० १६५ b-१६६a । अस्य जिनेन्द्रबुद्धिरचिता विशाला मलवती टीकापि भोटभाषानुवादात् संस्कृते परिवर्सेहोपन्यस्यते— “व्याप्तेरन्यनिषेधस्येति । व्याप्तिः स्वभेदाप्रतिक्षेपः, अन्यनिषेधो यथोक्तं सामान्यम्, तस्य व्याप्तेः स्वभेदेषु व्यापकत्वादित्यर्थः । अन्यनिषेधस्येति कृद्योगलक्षणेयं कर्तरि षष्ठी । तद्भेदार्थैरभिन्नतेति अन्यापोहभेदार्थवाचकैर्द्रव्यादिशब्दैः सदादिशब्दस्य सामानाधिकरण्यमित्यर्थः । सामान्यशब्दस्य हीत्यादि । सामान्यशब्दस्य यो व्यापारः प्रतीयते स च कीदृश इति चेत् अर्थान्तरव्युदासः, स स्वार्थाप्रतिक्षेपेण । एतेन व्यापकत्वमाह । यथा जात्यभिधाने जात्यन्तराणां प्रतिक्षेपस्तथार्थान्तरापोहाभिधाने न द्रव्यत्वादिविशेषाणाम् । हिशब्दो यस्मादर्थ इतिशब्दस्तस्मादर्थो (र्थे), यस्मादेवं तस्माद् भेदार्थैर्द्रव्यादिशब्दैः सच्छब्दस्य सामानाधिकरण्यमुपपद्यते । तस्मादेकमेव वस्तु सत्त्वद्रव्यत्वाभ्यां व्यज्यमानं 'सद् द्रव्यम्' इति सद्द्रव्यशब्दाभ्यामभिधीयते । तथा हि स्वार्थाव्यभिचार इति, समुदायार्थो हि विशिष्टः, यदि पदं तद्वाचकं स्यात् तदा तदभावेऽपि पदस्य वृत्तस्तत्प्रतीतिर्न स्यात् । यस्मात् समुदायस्तद्वाचकं शब्दान्तरमेव तस्मादव्यभिचारः । पश्चिमस्यापीति 'द्वतो नास्वतन्त्रत्वात्' इत्यस्य । साक्षाद्वृत्तेरिति " ...... । अत्र सत्तादिगुणान्तरानपेक्षया असदपोहवस्तुनि शब्दः प्रवर्तते । तद् दर्शयति — अर्थान्तरमुपादायेत्यादि । तस्मात् पारतन्त्र्येणेति, यमुपादाय द्रव्ये शब्दः प्रवर्तते सोऽर्थान्तरापोहो न जात्यादिवत् किमप्यर्थान्तरम्, ततो व्यवधानाभावात् कुतः पारतन्त्र्यम् ? तदेव हि वस्तु असदादिभ्यो व्यावृत्तं साक्षादभिधीयते, तस्माद् यस्तस्य भेदः [स] तत्राभेदाद् न प्रतिक्षिप्यते । भाक्तदोषोऽप्यत एव नास्ति । न ह्यन्यत्र मुख्ये वर्तमानः शब्दो द्रव्यादिषूपचर्यते । नापीत्यादि, भेदानामानन्त्यमनवस्थानम्, तस्मादनभिधानदोषो नास्ति 'तद्वांश्च भेद एवोक्तः स च पूर्वं निराकृतः' इत्यनेनोकः । व्यापकत्वाद सामान्यदोषोऽपि नास्ति यः 'तद्वानर्थो घटादिश्च' इत्यादिनोक्तः । कुतो नास्तीत्याह - अर्थान्तरापोहमात्रस्याभिन्नत्वादिति, 'अभेदात्' इत्येतदनेन व्याख्यायते । भेदसद्भावे हि आनन्त्यदोषः स्यात् असामान्यदोषथ, अन्यस्यान्यत्रावृत्तेः । अर्थान्तरापोहमात्रं त्वभिन्नम्, तत्र कुतोऽस्य दोषस्यावकाशः ? ननु यो ज्ञानस्य सामन्याकारः सामान्यं व्यवस्थाप्यते सोऽपि ज्ञानादभिन्नत्वादन्यत्रावर्तमानः कथं सामान्यम् ? इति चेत्, उच्यते - अद्रव्यत्वादित्यादि । स विज्ञानस्याकारोऽपि सामान्यरूपेण । परिनिष्पन्नत्वात् सामान्यमद्रव्यसदेव । नेदमनिष्टमेव ।....... ....तत एवेति साक्षाद्वृत्तेः । तत्र सत्ताया विशेषणरूपेणाभिधानाद् वस्तुस्वरूपस्य व्यवधनम् । तेन सम्बन्धिनो हि घटत्वादयः, न सत्तया सम्बन्धिनः जातौ जात्यभावात् । तस्मात् तद्वारेण अनेकार्थाकाङ्क्षाया न कारणम् । अत्र तु साक्षादसन्निषेधेन स्वार्थे शब्दो वर्तते, तस्मात् तस्य विशेषाकाङ्क्षाकारणत्वमुपपद्यते सामान्यान्तरयोगाभावेऽपि साक्षादर्थान्तरनिषेधादिति, अर्थान्तर निषेधोपायभूतं स्वार्थाभिधानमेवमुच्यते, साक्षात् स्वार्थाभिधानादित्यर्थः । एतेन 'तत एव' इत्यस्यार्थो दर्शितः । अत्र च वस्तुसज्जात्यन्तरयोगनिषेधो विवक्षितः, नोपचरितजात्यन्तरयोगोऽपि । अत्रैव व्यवतिष्ठन्त इति ।......... नित्यत्वेन कल्पनमप्युपपद्यते कृत्स्नार्थप्रतीतेस्तु प्रत्येकं परिसमाप्तिः । ........ गुणोत्कर्षादिति जातिधर्मव्यवस्थाया अत्रैव युक्तत्वात् । " - VI. D. ed. पृ० २७७ – २७९, P. ed. पृ० ३१२ b - ३१४ ॥ 1 तस्मादस्य भेदाथैः Psv ॥ पं० २५ ॥ 5 पृ० ६२९ पं० ७ ॥ नय० ९२ ७२९ 2 केवलेऽन्यत्रावृत्तेः (?) ॥ 3 कुतः ? जातिधर्म' Psv ॥ 4 पृ० ६०७ 6 पृ० ६२९ पं० १४ ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० ४७२-२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे असन्निषेधाभावत्वाद विशेषार्थविभिन्नता। सामान्यशब्दस्य हि योऽर्थान्तरव्युदासो व्यापारः स स्वभेदाप्रतिक्षेपेण [प्र०समु०३०५।३६] इति वाङ्मात्रेणोक्तम् । स खभेदप्रतिक्षेपेणैव, तस्य सन्नियमार्थत्वादसत्प्रतिषेधस्याभावत्वात् भेदानां परस्परतः सदसत्त्वात् भेदश्रुत्या सह सामानाधिकरण्यमनु5 पपन्नम् । सम्बन्धस्यापि भेदैरभावस्यानुपपत्तेः कस्य वा ते भेदाः १ तस्माद पृथक्छ्रतिदोषोऽस्त्येव । - सुकरो हि [शब्दस्यान्यापोहेन सम्बन्धः, शब्दो जातिमात्रस्य तद्योगस्य वा न वाचको भेदार्थैरपृथक्छ्रुतेः । तथा हि 'सद् द्रव्यं सन् गुणः सत् कर्म' इति भेदाथैद्रव्यादिशब्दैः सामानाधिकरण्यं न स्यात्, तच्च दृष्टम् । न हि सत्ता योगो वा द्रव्यं 10 गुणो वा भवति, किं तर्हि ? ] द्रव्यस्य गुणस्य वा। तथैव हि [अन्यापोहस्य न समानाधिकरणाभावप्रसङ्गदोषजातस्य [अ]भाव इति । तद्यथा-व्याप्तेरन्यनिषेधस्य तद्भेदार्थैरभिन्नता [प्र. समु० ५।३६] । 'सदित्यसन्न भवति' इत्यसतो निवृत्तिः सर्वद्रव्यगुणकर्मघटरूपोत्क्षेपणादिभेदव्यापिनी, तस्या असन्निवृत्तेः सर्वभेदव्यापित्वात् तैरभिन्नार्थत्वात् सामानाधिकरण्यमुपपन्नमिति । एतन्न, यस्मादसन्निषेधा भावत्वाद् विशेषार्थविभिन्नता । तद्व्याख्या सामान्यशब्दस्य हीत्यादि, सामान्यशब्दस्य हि सदादे15 र्योऽर्थान्तरव्युदासः 'असन्न भवति' इति कृत्यं व्यापारः स त्वयेत्थमवधारितः स्वभेदाप्रतिक्षेपेणेति वाङ्मात्रेणोक्तं प्रागुक्तं विस्मृत्येति पूर्वपक्षप्रत्युच्चारणम् । अत्र तु वयं ब्रूमः-स स्वभेदप्रतिक्षेपेणैवेति । कस्मात् ? तस्य सच्छब्दस्य सन्नियमार्थत्वात्-'असन्न भवति' इति द्विःप्रतिषेधस्य प्रकृत्यापत्तेः सत्त्वेन नियतत्वादसत्प्रतिषेधस्याभावत्वात् । ततः किम् ? ततो भेदानां परस्परतः सदसत्त्वात् , इतरेतराभावत्वादसत्त्वम् , सन्नियमात् सत्त्वम् , अतः स्वभेदाः प्रतिक्षिप्ता एव, सन्तोऽप्यसन्त एव न भवन्तीति 20 प्राप्तम् । ततश्च भेदश्रुत्या द्रव्यगुणादिकया घटपटादिकया च सह सामानाधिकरण्यमनुपपन्नमसन्नि वृत्तेरभावसाधनत्वात् , अभावेन चैकविभक्तित्वमनुपपन्नं भेदानां 'सव्यं सद्गुणः सन् घटः' इत्यादि । न विभक्तिमात्रसामानाधिकरण्यानुपपत्तिरेव, किं तर्हि ? पदस्याप्यनुपपन्नं सामानाधिकरण्यं विभक्तिभेदेनापि 'सैद् द्रव्यस्य गुणस्य वा' इत्यादि । सम्बन्धस्यापि भेदैर्द्रव्यादिभिरमावस्यानुपपत्तेः कस्य वा ते भेदाः सच्छब्देनाभिन्नासत्त्वनिवृत्तिमात्रोपादानात् ? तस्मादपृथक्छुतिदोषोऽस्त्येव । 25 तद्व्याख्यानार्था टीका तँदीयैव —सुकरो हीत्यादिका दृष्टान्तत्वेन गतार्था यावद् द्रव्यस्य गुणस्य वेति । तथैव हीति दार्टान्तिकत्वेन त्वन्मतप्रदर्शनमेव यावत् सामानाधिकरण्यं न स्यात् । यथा न ११,हि सत्ता द्रव्यं गुणो वा भवतीत्यादि तथा न हि सदसन्निषेधाभावस्त्वन्मतोऽस्मन्मतस्य प्रतिषेधद्वयविधेयस्य सतः सभेदस्यानभ्युपगमे द्रव्यं भवति गुणो वा, किं तर्हि ? द्रव्यस्य गुणस्य वा भावा १ तुलना-पृ० ६०७ पं० १६॥ २ समाधिकरणाभाव भा० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ७२८ टि० ९॥ ४ 'सन् गुणः' इति सम्यक् प्रतिभाति । तुलना-पृ० ६०७ पं० १७ ॥ ५ तुलना-पृ० ६०७ पं० १८ ॥ ६ कस्य धातो भेदाः भा० । कस्य धातोर्भेदाः य० ॥ ७ तदैयैव सुकरा ही प्र० ॥ ८ (ऽभावाभावः, असदसन्मात्रमित्यर्थः ? ? ?)॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ७३१ वाचकः, भेदार्थैरपृथक्छतेः। तथा हि 'सद द्रव्यं सन् गुणः सत् कर्म' इति भेदाथैद्रव्यादिशब्दैः ] सामानाधिकरण्यं न स्यात् । यथा न हि सत्ता द्रव्यं गुणो वा, भवति, किं तर्हि ? द्रव्यस्य गुणस्य वा, तथा न हि सदसन्निषेधाभावो द्रव्यं भवति गुणो वा, किं तार्ह ? द्रव्यस्य गुणस्य वा भावाभावः। आह च विभक्तिभेदो नियमाद् गुणगुण्यभिधायिनोः । सामानाधिकरण्यस्य प्रसिद्धिद्रव्यशब्दयोः ॥ [ वाक्यप० ३।१४।८ ] यत्तु सत्तासम्बन्धाभिधानपक्षाभ्यामपोहपक्षे विशेषहेतुप्रतिपादनार्थमुक्तम्-तत्र हि सत्तासम्बन्धयोर्गुणत्वाद् वस्तुनश्च गुणित्वात् सामानाधिकर 10 भावः, सदसन्मात्रमित्यर्थः, इतीयं व्याख्या त्वन्मतानुसारिण्येवेति आहे चेति ज्ञापकमप्याह -विभक्तिभेदो नियमादित्यादि । यत्तु सत्तेत्यादि । सत्ता-सम्बन्धाभिधानपक्षयोरपृथक्छुतिदोषोऽस्ति, नापोहपक्षे विशेषहेतुसद्भावादिति तस्य विशेषहेतोः प्रतिपादनार्थमुक्तम्-तत्र हीत्यादि । सत्तासम्बन्धा[भिधा]नपक्षयोर्गुणौ सत्ता १अत्रेदमवधेयम् । नयचक्रवृत्तौ 'विभक्तिभेदो नियमादित्यादि' इत्येव प्रतीक उपलभ्यते । न्यायवार्तिके २१६६ 1 दिङागमतनिराकरणप्रसङ्गे 'विभक्तिभेदो नियमाद गुणगुण्यभिधायिनोः । सामानाधिकरण्यस्यासिद्धिः सद्रव्यशब्दयोः ॥' इति कारिका उद्दयोतकरेण पूर्वपक्षरूपेणोपन्यस्ता, अतः सा दिनागस्येति सम्भाव्यते । भर्तृहरेर्वाक्यपदीये [ ३।१४।८ ] तु 'विभक्तिभेदो नियमाद् गुणगुण्यभिधायिनोः । सामानाधिकरण्यस्य प्रसिद्धिद्रव्यशब्दयोः॥' इति कारिका दृश्यते । एतच्चास्माभिरत्र पृ० ७३१ टि० ३ इत्यत्र विस्तरेणोपदर्शितम् । अतोऽत्र मल्लवादिक्षमाश्रमणानां कीदृशी कारिकाभिमतेति निर्णेतुं न पार्यते । तथापि भर्तृहरेः कारिका दिङागेनापि पृ० ६०७ पं० १९ इत्यत्रास्मिन् प्रसङ्गे निर्दिष्टा, अतोऽस्माभिरपि सैव कारिका सम्भावनयात्रोपन्यस्तेति सुधीभिर्विभावनीयम् ॥ २ वेति प्र०। तुलना-पृ. ६०७ पं० १८॥ ३ "विभक्तिभेदो नियमाद् गुणगुण्यभिधायिनोः । सामानाधिकरण्यस्य प्रसिद्धि ब्दयोः॥ [वाक्यप० ३।१४।८], पटस्य शुक्ल इति द्रव्यगुणाभिधायिपदप्रयोगे शाब्दो गुणप्रधानभावः। तथाहि-अत्रोपसर्जनं प्रधानोपकारपरिणतं स्वार्थमाचष्ट इति गुणविभक्तिं षष्ठीमुपादत्ते । प्रधानं तु स्वात्मन्यवस्थितमपरोपकारीति प्रथमया युज्यते इति नियतो विभक्तिभेदो व्यधिकरणे विषये । वीरः पुरुष इत्यादौ तु समानाधिकरणे विषये द्वावपि द्रव्यशब्दौ खनिष्ठं स्वार्थमाचक्षाते । तथा च तत्र प्रथमैव । सामर्थ्यनिबन्धनस्तु गुणप्रधानभाव उक्तो 'विशेष्यं स्यादनितिम्। [ वाक्यप० ३।१४।७] इत्यादिना । एवं च सत्यपि गुणप्रधानभावे शाब्दाशाब्दत्वकृतो विशेषः सामानाधिकरण्यवैयधिकरण्ययोरिति षष्ठीसमानाधिकरणयोः समासयोर्भेदः ।" इति हेलाराजकृतायां वाक्यपदीयटीकायां वृत्तिसमुद्देशे ॥ “यत् पुनरेतद् 'भेदार्थैरभिन्नविभक्तिकत्वात्' इति तन्न, समानार्थापरिज्ञानात् । न ब्रूमः सत्ताशब्देन सामानाधिकरण्यम् , अपि तु सत्तायाः प्रधानसाधनवाचिना सच्छब्देन द्रव्यगुणकर्माण्य भिधीयन्ते । गुणकर्मशब्दैरपीतरेतरविशेषणविशेष्यभावापनस्तान्येव । एवं च सति युक्तं सामानाधिकरण्यमुभयोः सद्व्यशब्दयोः, एकविषयत्वात् । यदा पुनरयं सत्ताशब्दः सत्ताप्रधान एवाङ्गभूतं साधनमभिधत्ते न तदा सामानाधिकरण्यं द्रव्यस्य सत्तेति भवति । तस्मात् सामानाधिकरण्यानुपपत्तिरदोषः । 'विभक्तिभेदो नियमाद् गुणगुण्यभिधायिनोः । सामानाधिकरण्यस्यासिद्धिः सद्रव्यशब्दयोः ॥ इति तदनेन प्रत्युक्तम् ।”न्यायवार्तिकम् [जेसलमेरस्थं हस्तलिखितम् ] २।२।६६ ॥ 1दिङ्गागमतस्य निराकरणमत्र प्रस्तुतम् , अतोऽयं श्लोको दिङ्गागस्यैव कस्मिंश्चिद् ग्रन्थान्तरे भवेदिति सम्भाव्यते । यस्तु भर्तृहरेः श्लोको दिङ्गागेनोद्धृतः स पृ० ६०७ पं० १९ इत्यत्र द्रष्टव्यः । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [ अष्टम उभयनियमारे याभावो युक्तः, इह तु अर्थान्तरापोहो यस्मिन् वस्तुनि क्रियते तद् द्रव्यं शब्दार्थः नापोहमात्रम् । स च सच्छब्देन व्याप्तः, अपरित्यागात्, न तु साक्षादुक्तः । 5 तद्यथा - सच्छन्दः [ असन्निवृत्त्युपसर्जनं द्रव्यमाह, न साक्षात्, ] संशयोत्पत्तेः, तस्माद् विशेषार्थैर्द्रव्यादिशब्दैः सच्छन्दस्य सामानाधिकरण्यं वाक्यार्थे युक्तं सद्द्रव्यं सद्गुणः सत्कर्म । तथा हि स्वार्थाव्यभिचारो विशेषशब्दसहितस्य । यस्मादवयवशब्दार्थाभ्यामन्यः समुदायार्थः, तस्य च वाचकौ तौ समुदितौ, न तु सच्छन्दो द्रव्यार्थमाह न द्रव्यशब्दः सदर्थम् । कथं तार्ह यत् सत् तद् द्रव्यं यद् द्रव्यं तत् सदिति ? उभयशब्दव्युदा सानुगृहीतस्य शब्दद्वयाभिधेयस्य समुदायार्थस्यैकत्वात् तथोच्यते, न तु सदर्थस्य द्रव्यशब्देनाभिधानात् । 10 सम्बन्धौ विशेषणत्वात्, तद्वस्तु गुणीत्यतः सामानाधिकरण्याभावो युक्तः । इह त्वर्थान्तरापोहः सदित्यसन्न भवतीति नासद्भावमात्रमेवोच्यते, किं तर्हि ? अर्थान्तरापोहेन विशिष्टं वस्त्वेव सदित्युच्यते, यस्मिन् वस्तुनि सोऽपोहः क्रियते तच्च द्रव्यं शब्दार्थः, नापोहमात्रम् । स चापोहविशिष्टोऽर्थो द्रव्यादिः सच्छब्देन व्याप्तोऽपरित्यागात्, न तु साक्षादुक्तः । तद्व्याख्या- तद्यथा संच्छन्द इत्यादि । कस्मादनभिधानमिति चेत्, संशयोत्पत्तेः, उपात्तत्वे 15 सति अनभिहिते संशयः स्यात् । तस्मात् सामानाधिकरण्यं विशेषार्थैद्रव्यादिशब्दैः सच्छब्दस्य वाक्यार्थे युक्तं न पदार्थे । तद्दर्शयति-सद्रव्यं सद्गुण इत्यादि । तथा हि स्वार्थाव्यभिचारो विशेष सहितस्येति विशेषशब्दप्रयोगः । कोऽसौ वाक्यार्थ इत्यत आह- यस्मादवयवशब्दार्थाभ्यामन्यः समुदायार्थः, सद्दव्यशब्दार्थावयवावसदद्रव्यनिवृत्त्युपलक्षितौ ताभ्यामन्य उभयशब्दव्युदासानुगृहीतः समुदायार्थः, तस्य च ४७३-२ वाचकौ तौ समुदितौ न विपरीतार्थौ, तद् दर्शयति- न तु सच्छन्दो द्रव्यार्थमाह, न द्रव्यशब्दः 20 सदर्थमिति । यथोक्तम् अपोह्यभेदाद् भिन्नार्थाः स्वार्थभेदगतौ जडाः । एकत्राभिन्नकार्यत्वाद विशेषणविशेष्यकाः ॥ [ प्र० समु० ५ । १५ ] इति । अत्र चोद्यम् — कथं तहींति 'यत् सत् तद् द्रव्यम्, यद् द्रव्यं तत् सत्' इति भिन्नार्थत्वेन युक्तम् ? इति । अत्र तेनैवोच्यते - उभयशब्दव्युदासानुगृहीतस्य असदद्रव्यनिवृत्त्यनुगृहीतस्य संहत25 शब्दद्वयाभिधेयस्य समुदायार्थस्यैकत्वात् तथोच्यते, न तु सदर्थस्य द्रव्यशब्देनाभिधानादिति पूर्वपक्षः । " १ 'उभयशब्दव्युदा सानुगृहीतस्य शब्दद्वयाभिधेयत्वात्, न तु सदर्थस्य द्रव्यशब्देनाभिधानात्' इत्यपि मूलं स्यादत्र । तुलना - पृ० ७३३ पं० ३, पृ० ७३३ पं० ५ ॥ २ 'तत्' इति पाठः शोभनः । ( तद्वद्वस्तु ? ) ॥ ३ तुलना - पृ० ७३३ पं० २ ॥ ४ " न्तरापोहे' इत्यपि पाठः स्यात् ॥ ५ वस्तुनि अपोहः य० ॥ ६ तुलना पृ० ६०७ पं० २६ ॥ ७ संशयोत्पत्तेरूप त्तत्वे सति प्र० ॥ ८ ' अनुपात्तत्वे' इत्यपि चिन्त्यम्, दृश्यतां पृ० ६३८ पं० १४ ॥ ९ दृश्यतां पृ० ६३० ॥ १० ‘कथं तति । 'यत् सत् तद् द्रव्यम्, यद् द्रव्यं तत् सत्' इति भिन्नार्थत्वे न युक्तमिति । इत्यपि योजना ११ तुलना - पृ० ७३३ पं० ३ ॥ १२ तुलना - पृ० ७३३ पं० ५ ॥ स्यादत्र ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । ७३३ अत्रापि शक्यं वक्तुम्-आश्रितस्य गुणि(ण ?)त्वाद् गुणगुणिनोर्भेदात् सामानाधिकरण्याभावस्तदवस्थः । इह तु जातियोगी यस्मिन् वस्तुनि वर्तेयातां [तद् द्रव्यं सदित्युच्यते......] शब्दद्वयाभिधेयत्वात् ।। पश्चिमस्यापि दोषस्य भाव एव, साक्षादवृत्त्यादिदोषजातस्य सातिशयस्योक्त उत्तरपक्षस्तु-अत्रापि शक्यमित्यादि । सत्ता-योगपक्षगतो विभक्तिभेदप्रसङ्गदोषोऽत्रापि शक्यो । वक्तुम् , आश्रितस्य गुणित्वात् । तद्यथा-सदभावाभाव आश्रितः, द्रव्याद्यभावाभाव आश्रयः, तयोश्च गुणगुणिनोर्भेदात् तदभिधायिनोः सामानाधिकरण्याभावस्तदवस्थः । या त्वयोक्तोपपत्तिः साऽपि जातियोगपक्षयोरपि क्रमत इत्यतस्तत्प्रदर्शनार्थमाह-इह तु जाति-योगी यस्मिन् वस्तुनीत्यादि । सत्तातः सच्छब्दः तत्सम्बन्धाद्वा सति वर्तते वस्तुनि द्रव्यादिभेदवति ‘सत्त्ववत् सत्' इत्यभेदोपचाराद् मतुब्लोपाद्वा, वयोक्तापोहवृत्तिवद् वर्तेयातां जातियोगौ 'सदेव सत्त्ववत्' इति । शेषस्त्वदुक्तोपपत्तिँग्रन्थवत्तुल्यगमो 10 यावच्छब्दद्वयाभिधेयत्वादिति गतार्थः । तस्मात् तदवस्थ एवापृथक्च्छ्रुतिदोषः । किश्चान्यत्-पश्चिमस्यापि दोषस्य भाव एव, नाभावः । यदुक्तं जातिमत्पक्षे तद्वतो नास्वतन्त्रत्वाद् भेदाजातेरजातितः । इत्यादि दोषजातं तस्याभावोऽन्यापोहपक्षे साक्षाद्वृत्तेः, तत्र हि सैच्छब्दः सत्तामुदापाय द्रव्ये ४४, वर्तमानस्तद्भेदान् घटादीना[क्षे] तुमसमर्थः । अत्र पुनरसत्प्रतिषेधेन साक्षाद्वर्तत इति तस्य ये विशेषास्तान 15 न प्रतिक्षिपति । तस्मादिहानाक्षेपदोषो नास्ति । भोक्तदोषोऽप्यत एव नास्ति, न ह्यन्यत्र मुख्या वृत्तिईव्यादिषूपचर्यते । नापि भेदानवस्थानादनभिधानदोषः, कस्मात् ? अभेदात् , न ह्यर्थान्तरापोहो भेदेषु भिद्यते, अभावात् । तन्मात्रं च शब्देनोच्यते, न “भेदाः । तथा सामान्यदोषोऽपि नास्ति । यत्तूक्तम् सत्वान् घटादिरर्थो न पटादिषु न वर्तते [ ] इति, साक्षाद् घटपटादिष्वसत्प्रतिक्षेपादिति । तन्न भवति, यस्मात् साक्षादवृत्त्यादिदोषजातस्य 20 १ दिनागेन क्वचिद् ग्रन्थे यत् स्वमतं प्रतिपादितं तदत्र निराक्रियते । प्रमाणसमुच्चयवृत्तावपि “पश्चिमस्यापि दोषस्याभावः । कथम् ? साक्षाद्वत्तेरमेदाच अर्थान्तरमुपादाय स्वभेदेषु शब्दो न वर्तते । तस्मात् पारतन्त्र्येण खमेदानाक्षेपदोषो भाक्तदोषश्च न स्तः । नापि भेदानवस्थानादव्यापकत्वाचानभिधानासामान्यदोषौ स्तः, अर्थान्तरापोहमात्रस्याभिन्नत्वादद्रव्यत्वाच्च" इत्यभिहितं दिनागेनेति ध्येयम् । दृश्यतां पृ. ७२९ पं० २॥ २ अवापि य० ॥ ३'गुणत्वात्' इत्यपि भवेदत्र पाठः। 'आश्रितस्य [गुणत्वादाश्रयस्य च ] गुणित्वात्' इत्यपि पाठोऽत्र चिन्त्यः ॥ ४ पात्त्वयोक्तों प्र० ॥५पृ० ७३२ पं० १॥ ६ तुलना-पृ० ७३२ पं० १॥ ७त्तयोक्तापोहनिवृत्तिवत् प्र०। (त्वदुक्तापोहवृत्तिवत्)॥ ८ ग्रंथवस्तुल्य प्र०॥ ९ तुलना-पृ० ७३२ पं० २५॥ १० तुलना-पृ० ७३५ पं० १४॥ ११ दृश्यतां पृ० ६०७ पं० २५ टि० ५, पृ० ६२३ पं० १७, पृ० ६२५ पं० ८, पृ० ६२८ पं० ३, पृ० ७३५ पं० २४ ॥ १२ पृ. ७२८ पं० ३०॥ १३ पृ. ७२९ पं०३ ॥ १४ सन्न पुन प्र०॥ १५ पृ० ६२३ पं० ४॥ १६ पृ. ६२५ पं० ८॥ १७ अभावत्वेन तस्यैकत्वादित्याशयः ॥ १८ भेदात् तथा प्र०॥ १९ पृ० ६२९ पं० १४ । अत्रेदमवधेयम्-प्रमाण समुच्चयवृत्तौ 'असामान्यदोषः' इत्यभिहितं दिकागेन, अत्र तु पृ. ७३४ पं० १५ इत्यत्र च 'सामान्यदोषः' इत्यभिहितं ग्रन्थकृता । अतो दिङागेन ग्रन्थान्तरेऽभिहितं 'सामान्यदोषोऽपि नास्ति' इति वचनमत्र विवक्षितं भाति । प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ असामान्यदोष उक्तः, अन्यत्र तु दिनागेन सामान्यदोष उक्त इति भाति ॥ २० सदस्यास्तीति सत्वान् , दृश्यतां पृ० ६२८ पं० १९ । प्रमाणसमुच्चये 'तद्वानों घटादिश्च न पटादिषु वर्तते' इति 'तद्वानर्थो घटादिश्चेन्न पटादिषु Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कतं [अष्टम उभयनियमारे स्वादस्माभिः । सच्छब्दोऽपोहमात्रखरूपोपसर्जनं द्रव्यमाह, न साक्षादित्यादि सर्व प्रागुक्तम् । यत्तूक्तं परं प्रत्याशङ्कय - स्यादेतत्-अपोहविशिष्टार्थत्वे...."तुल्यं शब्दार्थस्य समानत्वम् । ततःअद्रव्यत्वाच्च भेदाच.............॥ [ ] नाप्यर्थान्तरापोहो नाम [ भावान्तरम् .......... ... .... नास्ति सामान्यदोष इति । अत्र ब्रूमः-तद्वत्त्वं च त्वदुक्तवत् । ननु भावान्तरतैव................। सातिशयस्योक्तत्वादस्माभिः, तदेव स्मारयन्नाह—सच्छब्दोऽपोहमात्रस्वरूपोपसर्जनं द्रव्यमाह, न साक्षादित्यादि सर्व प्रागुक्तं 'जातिमद्वदपोहवान्' इत्युपक्रम्य । तत्र च जातिमतीवापोहवत्यपि 10 सर्वे दोषा यथा सङ्गतास्तथा प्रतिपादिता इति न पुनर्लिख्यते । स्यान्मतम्-जातिमत्त्ववदपोहवत्त्वमप्ययुक्तमिति, तैदाशङ्कयते यत्तूक्तमन्यापोहवादिना परं प्रति आशङ्कय तद्यथा-स्यादेतदपोहविशिष्टार्थस्त(र्थत्व) इत्यादि यावत् तुल्यं शब्दार्थस्य समानत्वम् शब्दस्य च समानत्वमर्थस्य च 'अपोहपक्षेऽपि' इति वाक्यशेषः । इत्थं पूर्वपक्षीकृत्योत्तरमाह-ततः अद्रव्यत्वाच्च भेदाच्चेति कारिकया चशब्दा[द् भा]ध्ये लिखितम् । तद्व्याख्या-नाप्यर्थान्तरापोहो नामेत्यादि 15 यावन्नास्ति सामान्यदोष इत्यपोहपक्षे जातिमत्पक्षगतदोषाभावप्रतिपादनं 'विशेषप्रदर्शनादिति त्वदभिप्रायं प्रदर्य वयमत्रोत्तरं ब्रूमः-तद्वत्त्वं च त्वदुक्तवत् । अस्य व्याख्या-ननु भावान्तरतैवेत्यादि । यदि परमताभ्युपगमात् सामान्यवत्पक्षे सत्सामान्यान्वयात् सामान्य[व]द्विशेषणस्य सामान्यस्यार्थान्तरत्वं पारतव्यादि च ब्रूषे सामान्यवद् व्यावृत्तेरपि अर्थान्तरत्वं विशेषणत्वं पारतव्यादि च ननु तदवस्थमेव, ४७४-२ तद्वतोऽन्यप्रत्ययात्मकत्वात् सामान्यवत् तद्व्यावृत्तेरपि । अथ स्वमतेन ब्रूषे न सामान्यं न व्यावृत्तिमदिति 20 कुतस्तद्विशिष्टवस्त्वभिधानं खपुष्पशेखरविशिष्टवन्ध्यापुत्राभिधानवत् । वर्तते' इति वा पाठो दृश्यते। दृश्यता पृ० ६२९ पं० १४ । अत इदं कारिकाध दिनागस्य ग्रन्थान्तरादत्रोद्धृतं प्रतीयते । 'सत्वान् सत्तावान् घटादिरों न न सच्छब्दार्थ इत्याशयः, कस्मादिति चेत् , पटादिषु न वर्तते, स हि घटादिरर्थः पटादिषु न वर्तते, तस्मात् सामान्यमर्थः स कथम्? सामान्यं ह्यनेकवृत्ति, घटादिरर्थस्तु पटादिषु न वर्तते तस्मात् स न सामान्यमित्याशयोऽत्र भाति ॥ २१ तुलना-पृ० ६२९ पं० १४॥ २२ वर्तते प्र०॥ १ पृ० ६०७ पं० २६ ॥ २ पृ. ६०६ पं० २२ ॥ ३ 'तदाशङ्कय ते[न] यत्तूक्त' इत्यपि पाठोऽत्र भवेत् ॥ ४°ष्टार्थस्त इत्यादि भा० । ष्टास्त इत्यादि य० ॥ ५ स्यासमानत्वं शब्दस्य चासमा भा० । स्यास दस्य च समा य० ॥ ६दिङागस्य ग्रन्थान्तरादियं का रिकात्रोद्धृता प्रतीयते, प्रमाणसमुच्चये तु नेयं कारिका दृश्यते । किश्चान्यत्, प्रमाणसमुच्चयवृत्तौ 'अर्थान्तरापोहमात्रस्य अभिन्नत्वादद्रव्यत्वाच्च' इति पाठ उपलभ्यत इति ध्येयम् । दृश्यतां पृ. ७२९ पं० ४, पृ० ७३३ पं० २१॥ ७ कारिकाया प्र० । 'कारिकायां' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ ८ चशब्दाख्ये भा० ॥ ९विशेषदर्श य० ॥ १० °दिव ननु भा० । 'दिषुव ननु य० ॥ ११ द्रूपे न य० । द्रूयते न भा०॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३५ दिङ्गागप्रणीतापोहवादनिरासः] द्वादशारं नयचक्रम् । अपि च भावान्तर ............... । यथा जातिखरूप........ अनाक्षेपस्तथा यथाकथञ्चित् .............. ... अस्वातन्त्र्यहेतुत्वात् । __यदि चार्थान्तरापोहो न भावान्तरं कथमिदम्-यत् सत् तद् द्रव्यं यद् द्रव्यं तत् सदिति ? उभयशब्दव्युदासानुगृहीतस्य शब्दद्वयाभिधेयस्य समुदायस्यैकत्वात् तथोच्यते न तु सदर्थस्य द्रव्यशब्देनाभिधानात्, अर्थान्तरापोहो यस्मिन् । वस्तुनि क्रियते तद् द्रव्यं शब्दार्थो नापोहमात्रम् । तस्मादपरिहृतः पश्चिमदोषोऽपि । अपि च भावान्तरेत्यादि । अत्र प्रस्तुतार्थोपकारापकारानङ्गत्वाद् भावान्तराभावान्तरत्वाभ्यां विचारिताभ्यां न किञ्चित् प्रयोजनमस्ति, किन्तु इदमत्र प्रस्तुतार्थोपयोगिकम् , तद्यथा-बुद्धिस्थस्य शब्दप्रयोगजनितज्ञानोपलक्षितस्यान्वयव्यतिरेकद्वारेणावधारितस्यार्थस्याऽऽनुगुण्येन वशवर्तितया 'अयं भवति, अयं न भवति' इति तयोविधिप्रतिषेधयोर्भेदेन प्रत्ययः शब्दार्थसम्बन्धज्ञस्य शब्दप्रयोगादुत्पद्यते, सामान्यो-10 पसर्जनविशेषशब्दार्थपक्षे वा। द्वयोरपि च पक्षयोरुपसर्जनीकृतविशेषणत्वाद् भेदानाक्षेपादस्वातत्र्यादनभिधानं तुल्यमित्येष विचारप्रयासार्थः । तद् दृष्टान्तेन दर्शयति – यथा जातिस्वरूपेत्यादिना तद्वत्पक्षवादिमतेन यावदनाक्षेप इति, दार्टान्तिकेन च तथा यथाकथञ्चिदित्यादिना यावदस्वातन्त्र्यहेतुत्वादिति सुष्टुच्यते-पश्चिमस्यापि दोषस्य सातिशयस्य भाव एवेति । ___यदप्युक्तम्-अर्थान्तरापोहोऽसदघटनिवृत्तिः सन् घट इति, तस्मात् सामान्यदोषोऽपोहपक्षे नास्तीति, 15 तदपि प्रत्यासन्नमात्मोक्तं विस्मृत्य त्वयाभिहितमिति बोधयितुकाम इदमेव तावत् प्रत्युच्चारयति-यदि चार्थान्तरापोहो न भावान्तरमित्यादि । अभावान्तरत्वादर्थान्तरापोहस्यापोहवानर्थः शब्दवाच्यो न भवति, अतो नापोहो विशेषणं नापोहवान् सोऽर्थ इति यदि त्वयेष्टमिति अस्य विरोधापादनार्थमुच्यतेकैथमिदमित्यादि पूर्वपक्षितमस्माभिर्यावन्न तु सदर्थस्य द्रव्यशब्देनाभिधानादित्येतस्य सूचनं सूत्रेण यावद् नापोहमात्रमिति गतार्थम् । किमुक्तं भवतीति चेत् , उच्यते-यदि द्रव्यं यद्यद्रव्यमर्थान्तरापोहः 20 तद्वांस्त्वर्थः त्व(स्व)शब्दार्थत्वेन विवक्षितत्वादुच्यत एव बुद्धिस्थान्वयव्यतिरेकार्थभेदप्रत्ययोत्पत्तिदर्शनादित्युक्तं भवति । न हि लोके शब्दप्रयोगजनितप्रत्ययपरिच्छेद्यापलापेनान्यः शब्दार्थः शक्यः कल्पयितुं सुदूरमपि गत्वा प्रतिपत्तिशरणावस्थानाद् वादानामिति नायं निःसरणोपायः । तस्मादपरिहृतः पश्चिमदोषोऽपीति । एतेन 'अस्वातन्त्र्याद् भेदाजातेरजातितः' [ ] इति सव्याख्याविकल्पा दोषहेतवोऽपरिहृता वेदितव्याः, तेषां त्वदुक्तन्यायाध्यानतिक्रमात् परिहारहेतूनां तद्विकल्पानुसारित्वाच्चेत्यलं प्रसङ्गेन । 25 १ 'कथमिदम्-यत् सत् तद् द्रव्यं यद् द्रव्यं तत् सदिति ? अर्थान्तरापोहो यस्मिन् वस्तुनि क्रियते तद् द्रव्यं शब्दार्थो नापोहमात्रम् । तस्मादपरिहृतः पश्चिमदोषोऽपि।' इत्यपि मूलं स्यादत्र ॥ २ यत्र प्र०॥ ३तार्थी प्र०॥ ४० ७३३ पं० ४ ॥ ५ तुलना-पृ० ७३२ पं० ७॥ ६ पृ० ७३२ पं० २५॥ ७सूचनसूत्रेण प्र०॥ ८ शरणो° प्र० ॥ ९ दपहृतः य० ॥ १० दृश्यतां पृ० ६२३ पं० १७, पृ० ६२५ पं ८, पृ० ६२८ पं० ३, पृ० ७३३ पं० १३॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतं [अष्टम उभयनियमारे ... अत्र च 'संघातः शब्दार्थ उत्पत्तावभिव्यक्ती वा । यद्यप्राप्तयोगपद्यानि पदानि कार्यात् प्रसिद्धाद् व्यवस्था लोकप्रसिद्धेरेव वा, अनवस्थिततर्कत्वात् पुरुषाणाम् । आगममात्रं त्वेतत् पदसमूहोऽनियतानुपूर्यो वाक्यम् । प्रस्तुतनयमतः शब्दार्थो विधीयते-अत्र च विधि नियम]नियमे सङ्घातो वर्ण-पद-वाक्यादीनां 5 शब्दार्थ उत्पत्तावभिव्यक्तौ वेति । यदि वर्णादयो जन्यन्ते यद्यभिव्यज्यन्ते कार्य-नित्यपक्षयोर्द्वयोरपि अविरुद्धः सङ्घातो वाक्यादिः शब्द इति । स्यान्मतम्-उत्पन्नमात्रप्रध्वंसित्वाद् वर्णादीनां योगपद्याभावे ४७५२ कुतः सङ्घात इति, अत्रोच्यते यद्यप्राप्तयोगपद्यानि पदानि कार्यात् प्रसिद्धाद् व्यवस्था लोके, किं तत कार्यम् ? अर्थप्रतिपादनम् , तद्यथा-वर्णादीनां तिरोहितानां परिणामान्तरमापन्नानां विनष्टानां वा बुद्धौ संस्कारमाधायाऽभिधेयविज्ञानोत्पत्तिनिमित्तत्वं तदभावे तदभावात् प्रयोगानन्तरीयकत्वाच्च प्रत्ययस्यानु10 मीयते । लोकप्रसिद्धरेव वा व्यवस्था, दृष्टा हि लोके तेषां वर्णपदादीनां शब्दानामर्थप्रत्यायनासम्भवादर्थ प्रत्यायकस्तत्समुदाय इति शक्तिः प्रसिद्धा । सन्निदानी समुदायः समुदायिभ्यो वर्णादिभ्यस्तदसम्भविकार्यान्तरदर्शनादन्य इति केचिदाहुः, तस्मादेव कार्याद् मा भूदहेतुकमर्थप्रत्यायनं तेषु तस्य प्रतिदेशं समस्तेषु वा देशैः सामस्त्येन वा वृत्त्यसम्भवान्न व्यतिरिक्त इत्यपरे । पूर्ववर्णज्ञानाहितसंस्कारांपेक्षान्त्यवर्णे 'संहृताशेषशेषावयवः समुदायोऽभिधाता पूर्ववर्णजनितबुद्धिपरिपाकादित्येके । सिकतातोयवद् देशान्तरेषु 15 असतोऽन्त्येऽशे कुतः सम्भवः प्रत्यायनस्य ? किन्तु तिलतैलवत् सर्वावयवेषु तिरोहिताभिमतेषु सूक्ष्मतामापन्नेषु वितत्य व्यवस्थितो बुद्धिसंस्कारपरिपाकसमुदायोऽभिव्यञ्जकः प्रत्ययस्येत्यपरे । स च समुदायात्मा शब्द एक एवाभिन्नः प्रत्यायकोऽर्थस्यैकप्रत्ययदर्शनात् , अनेक एव वा प्रत्यवयवाहितसंस्कारबलाधेयार्थज्ञानत्वादित्येवमादीनि विचारान्तराण्येवैतानि । पुरुषमतिसमुत्थापितशुष्कतर्कविषयत्वात् किं न एतैः, यदि व्यतिरिक्तः यद्यव्यतिरिक्तः अन्त्ये शेषसमस्तेष्वभिन्नो भिन्नो वा प्रत्यायकः समुदायोऽवयवा एव 20वा ? योऽस्तु सोऽस्तु, सर्वथाऽर्थप्रत्यायनात् फलात् समुदायः शब्द इत्येतावदुपयुज्यते । किं कारणम् ? ४७६-१ अनवस्थिततर्कत्वात् पुरुषाणाम् , यथोक्तम्-यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः [ वाक्यप० ५ । ३४ ] इत्यादि तथा हस्तस्पर्शादिवान्धेन [ वाक्यप० १ । ४२ ] इत्यादि । किं तर्हि प्रतिपत्तव्यम् ? आगममात्रं त्वेतत् पदसमूहो वाक्यमिति । यथोक्तम् जो हेतुवादपैक्खमि हेतुओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविरोधओ इतरो [ सम्मति. ३ । ४५ ] त्ति । स चाऽनियतानुपूर्व्यः पदसमूहः । अनुपूर्वभाव आनुपूर्व्यम् , तदनियतं यस्य सोऽनियतानुपूर्व्यः १ पृ० ४४८ टि० २ ॥ २ 'शब्दार्थोऽभिधीयते' इति पाठः समीचीनो भाति ॥ ३ मावयोभिधेय भा० । मावयोरभिधेय य० ॥ ४ रापेक्ष्यन्त्य भा० ॥ ५संहृताशेषदोषावयवः य० । संहताशेषशेषावयवः भा० । भा० प्रतिपाठोऽपि शोभन इति ध्येयम् ॥ ६ समस्तेप्यभिन्नो य०॥ ७ यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ॥” इति सम्पूर्णा कारिका । दृश्यतां पृ०३६ पं. ४॥ ८"हस्तस्पर्शादिवान्धेन विषमे पथि धावता । अनुमानप्रधानेन विनिपातो न दुर्लभः ॥' इति सम्पूर्णा कारिका ॥ ९ वायपक्खंमि हेउओ य० ॥ १० परिक्खंमि भा० ॥ ११ राहओ इयरो य० ॥ 25 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थादिनिरूपणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् । ૦૨૭ अयं च शब्देकदेशत्वात् पर्यवास्तिकः । परिः समन्तादर्थे, अव गत्यर्थे । परितोऽवनं पर्यवः । समन्ताद् द्रवति । कोऽसौ ? भेदो भावोपसर्जनः । सोऽस्तीति यस्य मतिः स पर्यवास्तिकः । 1 निर्गमवाक्यमप्यस्य - दुवालसँग गणिपिडगमेकं पुरिसं पडुच्च सादियं सपज्जवसियं [ नन्दीसू० ४२ ] इत्यादि । इति विधिनियम नियमोऽष्टमोऽरः । समाप्तश्च द्वितीयो मार्गः । पदसमूहः, तद्यथा – 'देवदत्त गामभ्याज' इति कदाचित् कदाचिच्च 'देवदत्त गामभ्याज शुक्लाम्, देवदत्त महिषीं गृष्टिं कल्याणीम्' इति 'पात्रमाहर, आहर पात्रं सौवर्णं च' इत्यादि । व्याकरण- साङ्ख्य-वैशेषिक- बौद्धाद्यन्यतमग्रन्थमात्रं सर्वागमसमूहात्मकार्हतागमो वा वाक्यम्, वाक्यार्थोऽपि तदभिधेयोऽर्थः । उक्तः शब्दार्थः । 10 अयं पुनर्नयः क्वान्तर्भवति, द्रव्यार्थे किं पर्यायार्थे ? उच्यते - अयं च शब्दैकदेशत्वात् पर्यवास्तिकः । मूलनिमेणं पजवणयस्स उज्जुसुतवयणविच्छेदो । तस्स तु साहपसाहा सद्दविकल्पा सुहुमभेदा ॥ [ सम्मति १।५ ] या सप्तशतान्नानात् पर्यवास्तिकभेदस्य शब्दनयस्य भेद इत्यर्थः । 15 पर्यवास्तिक इति कः शब्दार्थः ? उच्यते - परिरुपसर्गः समन्तादर्थे, अव गत्यर्थे धातुः । परितोऽवनं समन्ताद् गमनं पर्यवः । तदाचष्टे - समन्ताद्रवति । इत्थमक्षरार्थमुत्तवा वस्तुतो दर्शयति-aisir ? भेदो भावोपसर्जनः, यो भवति घटादिर्भेदः स भवनक्रियोपसर्जनः पर्यवः । सोऽस्तीति नयस्य मतिः स पर्यवास्तिक इति तद्धितप्रत्ययान्तार्थः प्रकृत्यर्थेन विशेषितो ज्ञेयः । • ४७६-२ 5 तद्यथा-1 किमेताः स्वमनीषिका एवोच्यन्ते, अस्ति किञ्चिद् निबन्धनमस्यार्षमपीति ? 'अस्ति' इत्युच्यते, 20 - निर्गमवाक्यमध्यस्य- दुवासंगं गणिपिडगंमेकं पुरिसं पडुच्चेत्याद्यार्षग्रन्थं साक्षित्वेनाऽऽहैतन्मतसंवादिनम् । यद्यप्ययमागमोऽनेकपुरुषान्वयेन सदा व्यवस्थितस्तथापि प्रत्येकं पुरुषविशेषाश्रत एव निश्चयाय क्रियासामान्योपसर्जनविशेषपरमार्थत्वाद् भवत्यर्थस्य । तच्च द्वादशाङ्गं गणिपिटक मत एव सद्यं सपर्यवसानं च क्षणिकमेवेत्यर्थः । इत्यादिग्रहणादन्यापि प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धादिप्ररूपणा एकसमयमात्रविषया मिध्यादर्शनादिपरिणामाध्यवसाय प्ररूपणा च द्रष्टव्या । 25 इति परिसमाप्तौ इत्थं परिसमाप्तो विधिनियमयोर्नियमोपप्रदर्शनो गुणप्रधानभावेनायमष्टमोऽरः । समाप्तश्च द्वितीयो मार्ग उभयविकल्पभेदोपदर्शनः || ७ ॥ १ तुलना पृ० ७ पं० ११ ॥ २ दृश्यतां पृ० ३ पं० ७, टिपृ० ५ पं० २३ ॥ ३ वाक्याभिर्थो प्र० ॥ ४° निमेषणं भा० । निमेषण य० ॥ ५० ॥ ६ तस्स उ य० ॥ इत्यार्थे भा० । इत्यर्थे य० ॥ ९ तथाच य० ॥ १० 'समन्तादवति' इति पाठः सम्यग् भवेत् ॥ न्वयेन दा व्यव य० ॥ १४ साद्यसप य० ॥ १५ दन्यपि भा० | कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते । स बन्धः । प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशास्तद्विधयः ।”— तत्त्वार्थसू० ८ । २-४ ॥ १७ मोर्नियमोएवोपदर्शनो प्र० । १८ द्वितीयोर उभय विकल्प य० ॥ sa य० । 'दर्थो अव भा० ११ सिंग भा० ॥ १२ मेगं य० । १३ दन्यदपि य० । १६ " सकषायत्वाज्जीवः नय० ९३ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह V सद्गुरुभ्यो नमः अथ नवमो नियमारः। यदि भेदप्रधानो भावः कथमसौ ? स भवितारमन्तरेण खरूपमपि प्राप्तुमसमर्थोऽस्वतन्त्रत्वादसन् खपुष्पवत् । तदभावे भेदा एव विप्रकीर्णाः स्युः। ततश्च भेत्तव्याभावाद् भेदा अपि न भवितुमर्हन्तीति धर्मधर्मिस्वरूपविरोधः । घटादि5 भेदाभावः, भेत्तव्याभावात् , गगनोदुम्बरकुसुमवत् । ततश्चात्यन्तनिरुपाख्यत्वात् खवचनाभ्युपगमानुमानप्रत्यक्षविरोधा अपि । 'पृथिवी घटो भवति' इत्यत्र यदि विशेष एव भवति तर्हि सामान्यस्याभावे विशेषोऽपि नास्त्येव । असति च विशेषे कुतः सामान्यस्यासत्प्रधानोपकारिता? विधि-नियमसर्वभङ्गवृत्त्यात्मकैकतत्त्वाधिकारे वर्तमान उभयनियमभङ्गारदर्शनेऽप्यपरितुष्यत उत्तर10 नयस्य नियमभङ्गस्योत्थानम् । तस्मिंस्तु दूषिते स्वमतप्रदर्शनं युक्तमिति तद्दषणार्थमाह -यदि भेदप्रधानो भाव इत्यादि यावद् धर्म-धर्मिस्वरूपविरोधः । यद् 'भेदो भवति प्राधान्येन, अन्वयोऽस्योपसर्जनम्' ४७७-१ इत्युक्तं तत्र तमेवंविधं भावमवधारयामः-कथमसौ ? इति, स त्वयेष्टोऽन्वयो भावो भवितुर्भेदस्य क्रिया भेदातिरेकेण भवितारं कर्तारमन्तरेण स्वरूपमपि प्राप्तुमसमर्थो 'निश्चयो( ये ?)। कस्मात् ? अस्वतन्त्रत्वादकर्तृत्वादभविता, अभवितृत्वादसन् खपुष्पवत् । तस्य अन्ययस्य भावस्य अभावे भेदा एव विप्रकीणो 15 भेद्यवस्तुरहिताः स्युः । ततश्च भेत्तव्यस्यान्वयस्याभावाद् भेदा अपि न भवितुमर्हन्ति । "भिद्यमानो हि भेदः, कुतो भिद्यतेऽसौ निर्भेद्यत्वात् खपुष्पवदिति भेदाभावाद् धर्मधर्मिणोः स्वरूपाभावे 'अन्वयोपसर्जनो भेदप्रधानः शब्दार्थः' इत्येतद् वाक्यं निराकृतधर्मधर्मिस्वरूपकं संवृत्तम् । तदुपसंहृत्य साधनमाहघटादिभेदाभावः, भेत्तव्याभावात् , गगनोदुम्बरकुसुमवदिति । उभयोर्मेत्तृभेत्तव्ययोरभावः, न गगनकुसुमादुदुम्बरकुसुम[मु]दुम्बरकुसुमाद्वा गगनकुसुमं भेत्तृ भेत्तव्यं वेति दृष्टान्तः, तथा उपसर्जन20प्रधानयोः सामान्य-भेदयोरिति दार्टान्तिकोऽर्थः । ततश्चात्यन्तेत्यादि । इत्थं निरुपाख्यत्वाच्छून्यत्वापत्तौ स्ववचना-ऽभ्युपगमा-ऽनुमान-प्रत्यक्षविरोधा अपि प्राप्ताः, ते चानिष्टा इति । किञ्चान्यत् , 'पृथिवी घटो भवति' इत्यत्र निर्धार्यम्-किं पृथिवी भवति न घटः, उत घटो भवति न पृथिवी, उभयं वा भवति, न भवति ? इति । तत्र यदि विशेष एवेत्यादि, सामान्यस्योपसर्जनस्याभावे 'विशेषोऽपि नास्त्येवेतीदानीमेवोक्तत्वादसति च घटे विशेष कुतः सामान्यस्यासतोऽसत्प्रधानोप १कतत्वाधि भा० । °कत्वाधिय०॥ २ दृश्यतां पृ० ७३७ पं० २॥ ३ (ऽनिश्चयाय?) (निश्चयेन ?) (ऽनिश्चयः ? ) ( निरुपाख्यः ?) ॥ ४ विद्यमानो प्र० ॥ ५ निरूपणाख्य य० ॥ ६ विशेषणोवे नास्त्ये य० ॥ ७ पृ० ७३८ पं० ४ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ भेदप्रधानस्य भावस्य निराकरणम्] द्वादशारं नयचक्रम् । अथ पृथिव्यादेरन्वयित्वं प्रवृत्तेर्भवति ततश्चोपसर्जनत्वं सामान्यस्य नास्ति। उभयस्मिंस्त्वसति स यद्य भाव एव भेदः, तेनैव भेदेन न भूयेत अभावत्वात् खपुष्पवत् । न ह्यभावो भावो भवति । अथ भाव एव ततो भावाव्यतिरेकाद् भूतत्वादुभयथापि न पुनभूयेत, भूतघटादिवदाकाशादिवत् । न हि भूत एव भवति, तथाऽसत्त्वापत्तेः। यदि भूतमेव भवेत् ततस्तदसत् स्यात्, उत्पद्यमानत्वात् , अजात-5 घटादिवत् । ४७७-२ भेदेषु भवनान्वय औपचारिकः [ इति चेत् ], नन्वन्वयद्रव्यं स्वात्मन्येव तिष्ठति, ततश्च तदवस्थामात्रं घटादिभेदा इति घटादिभेदा एवौपचारिका इत्युक्तं भवति । यथा 'अङ्गुलिर्वक्रा भवति' इत्युक्ते वक्रता अङ्गुलेः भेदावस्थामात्रमित्यौ कारिता ? इति । अथेत्यादि । अथ मा भूत् पृथिव्यादिसामान्योपसर्जनत्वे द्वयोरपि सामान्य-विशेषयो- 10 रभावदोष इति पृथिव्यादेरन्वयित्वं प्रवृत्तेर्भवति सत्त्वात् , ततश्चोपसर्जनत्वं सामान्यस्य नास्ति स्वतत्त्वव्यापित्वात् भावत्वात् प्रवर्तमानत्वाद् भेदवत् , इत्थमप्युपसर्जनत्वनिवृत्तिः । । उभयस्मिंस्त्विति सामान्ये पृथिव्यां भेदे च घटे द्वयेऽपि असति भावेऽन्वये भवितरि च विशेषे स यद्यभाव एव 'भेदो येन भूयते भेदेन स भेद इतीष्यते तेनैव भेदेन न भूयेत अभावत्वात् , अभावत्वमभवनक्रियात्मकत्वात् खपुष्पवत् । न ह्यभावो भावो भवतीति दृष्टान्तार्थप्रदर्शनात् । अथ 15 भाव एव, मा भूदेष दोष इति अन्वयस्वभाव एवासी भेदो भाव एवेष्यते : ततो भावाव्यतिरेकाद् भावा मकत्वादन्धयात्मकत्वाद् भूतत्वादुभयथापि प्रधानोपसर्जनत्वाभ्यां पृथिवी-घटत्वाभ्यां न पुनभूयेत, भूतत्वात् , भूतघटादिवत् आकाशादिवद् वैयर्थ्यात् । तदर्शयति-न हि भूत एव भवतीति । कस्मात् ? तथाऽसत्त्वापत्तेः । यदि भूतमेव भवेत् उत्पन्नमेवोत्पद्यते ततस्तदसत् स्यात् , उत्पद्यमानत्वात् , अजातघटादिवदित्यसत्त्वापत्तिः, अनिष्टा च सेति न भावो भवति नोभावो भवत्युभयं 20 पृथिवी घटश्चेति । भेदेष्वित्यादि । स्यान्मतम्-भेदेषु घटादिष्वेव पृथक् सत्सु परमार्थतः योऽसौ ' भवति भवति' इति भवनान्वयः स औपचारिक इति । अत्रोच्यते-नन्वन्वयेत्यादि । ननु त्वयैव स्वद्रव्ये पृथिव्यादि तिष्ठति स्वात्मन्येव ततश्च तस्य पृथिव्यादिद्रव्यान्वय[स्या]वस्थामात्रं घटादिभेदा इति 'घटादिभेदा एवौपचारिकाः, पृथिव्यादिसामान्यमेव तत्त्वम्' इत्युक्तं भवति । किमिव ? इत्यत आह-यथाङ्गुलि-११ १ 'येन भूयते भेदेन तेनैव न भूयेत' इत्यपि मूलमन्त्र स्यात् ॥ २ व्यापितत्वात् प्र० ॥ ३ भेदोप्यनुभूयते य० । भेदोत्यनुभूयते भा० ॥ ४ प्राधानो प्र०॥ ५नाभावो भा० । न भावो य० । अत्रेदमवधेयम्-लेखकप्रमादात् ति न भावो भवति न भावो भव इति द्विर्भावोऽप्यत्र संभवति, तथाङ्गीकारे तु 'अनिष्टा च सेति न भावो भवत्युभयं पृथिवी घटश्चेति' इति पाठोऽप्यत्र सम्भवेत् ॥ ६ नन्वत्वयेत्यादि य० । नच्चयेत्यादि भा० । अत्रेदमवधेयम् अत्र यदि ननु त्वयेत्यादि इति प्रतीकः शुद्ध इत्यभ्युपगम्यते तदा 'ननु त्वयैव तदवस्थामात्रं घटादिमेदा इति घटादिभेदा एवौपचारिका इत्युक्तं भवति' इति मूलमत्र सम्भाव्यते ॥ ७ स्वात्मनोव भा० । स्वात्मन्येन य० । (स्वात्मनैव ?)॥ ८ द्रव्यस्यावयवस्थामात्रं य० । अत्र द्रब्यस्यावस्थामात्रं इति पाठोऽपि सम्भवेत् ॥ ९भवतीति य० ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৩৪০ .. न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [नवमे नियमारे पचारिकत्वं वक्रतायाः, नाङ्गुले, न हि वक्रत्वमङ्गुलिर्भवति अनुत्पन्नत्वात् खपुष्पवत् । भेदत्वाच रूपवत् । ____ अत उक्तन्यायात् त्रिभुवनं भिन्नाभिमतमप्यभिन्नमेव द्रव्याश्रितत्वाद् भेदानाम् । पर्यायप्रवृत्तेः सर्वथैव भवनविध्यनुपपत्तिः। विशेषस्वरूपप्रत्यवेक्षायां भवनं स्वेनैव महिम्ना पृथग् वर्तते । तद् यदि पूर्व भवनमवतन्त्रं पृथक चावृत्ति ततो निर्मूलत्वादसन् घटः खपुष्पवत् । नापि स स्वयमेव भावः, विशेषप्रधानपक्षहानेः। नाप्यस्य भावः, ततश्च असत्वाविशेषात् रित्यादि, यथा 'अङ्गुलिर्वक्रा भवति' इत्युक्तेऽङ्गुलेरवस्था वक्रताऽङ्गुले: सामान्यस्य भेदावस्थामात्रमित्यौप चारिकत्वं वक्रतायाः, नाङ्गुलेः । यस्मादू न वक्रत्वमङ्गुलिर्भवति, वक्रत्वस्याऽनवस्थात्वादमुलेः । अङ्गुलिरेव 10 वक्रीभवति, न वक्रतैवाङ्गुलीभवति । कस्मात् पुनर्न वक्रत्वमङ्गुलीभवति ? उच्यते-अनुत्पन्नत्वात् खपुष्पवत् । एवं तावदयुगपद्भाविकालभिन्नाभिमतपर्यायेषु द्रव्यमानत्वमुक्तम् । युगपद्भाविदेशभिन्नाभिमतपर्यायेष्वपि भेदत्वाच्च रूपवत् 'तेदवस्थामात्रम्' इति वर्तते । यथा घट एव चक्षुरादिग्रहणापदेशविशिष्टत्वात् 'रूपं रसो गन्धः' इत्यादिभेदेनोच्यतेऽङ्गुलिर्वा, विज्ञानमात्रस्य तत्र भेदत्वाद् वस्तुनो घटस्या भिन्नत्वात् , एवं पृथिव्यादिसामान्यभेदा घटादयोऽश्म-सिकतादय[श्च ] विज्ञानमात्रेणेति । 13 किञ्चान्यत् , अत उक्तन्यायादित्यादि । अतीतविध्यादिद्रव्यार्थिकनयेषु एक-सर्वगत-नित्यकारण वस्तुमात्रविजृम्भितं स्तिमितसरस्तरङ्गादिव[त् ] त्रिभुवनं भिन्नाभिमतमप्यभिन्नमेव, द्रव्याश्रितत्वाद् भेदानामवस्थादिसंज्ञानां पुरुषादिवादेषु प्रतिपादितत्वात् द्रव्यस्य पर्यायानाश्रितत्वाच्च । पर्यायप्रवृत्तेरित्या दि, इति सर्वथैव भवनविध्यनुपपत्तिरेवं पूर्वातीतद्रव्यन यदर्शनेन । विशेषस्वरूपेत्यादि । तस्यापि च विशेषस्य स्वरूपं !त्यपेक्ष्यमाणमन्वयसामर्थ्याहते न लभ्यते, 20 तद्यथा-पूरयति पालयति कार्यस्यात्मनोऽवस्थादेः स्वरूपमिति कारणं भवनमन्वयः स्खेनैव महिम्ना पृथगू वर्तते भेदादृतेऽपि यथोपवर्णितमनेकधाऽतीतनयेषु । तद् यदि पूर्व भवनमस्वतन्त्रं पृथक् चावृत्ति यथा त्वयेष्टं स्यात्, ततः किम् ? ततो निर्मूलत्वादित्यादि, निर्मूलत्वादसन् घटः खपुष्पवत् । स्यान्मतम्-किं घटस्य मूलेन भवनेन ? किं न स स्वयमेव भवति ? इति, एतच्च नापि स घटः स्वयमेव भावः, कस्मात् ? विशेषप्रधानपक्षहानेः । यदि विशेष एव भावस्ततो घट एव विशेषः, स एव भावो 25 भवनम् , तेन भूयतेऽन्वयेन भावेनेत्यतस्तथाभावत्वाद् घटस्यापि भावमात्रं सामान्यमर्थ(र्थः ? ) घटादि १ अङ्गुलिर्वक्रीभवति' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् , दृश्यतां पं० १०-११॥ २ भदवस्था प्र.। तदवस्था' इत्यपि पाठोऽत्र सम्भवेत , दृश्यतां पं० १२॥ ३ भवतीति भा०॥ ४ त्वयुक्तम् प्र०॥ ५ दृश्यतां पं० ८, पृ० ७३९ पं० २४ ॥ ६ (पर्यायाप्रवृत्तः ? ?) ॥ ७°त्यादिः । अथ सर्वथैव भा० ॥ ८ (प्रत्यवेक्ष्यमाण°?)॥ ९ लभ्येतो भा० । लभ्यते य० ॥ १० पृथक्त्वावृत्ति यथा त्वयेष्टं भा० । पृथक्त्वा वृत्ति(त्ते ! )र्यथात्वयवेष्टं य० ॥ ११त्वादि निर्मूल य० ॥ १२ न स्वयमेव य० ॥ १३ सामान्यामर्थ भा० । सामान्यमर्थ य० । 'सामान्यमेवं' इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्योपसर्जनस्य विशेषस्य निराकरणम् ] द्वादशारं नयचक्रम् | खपुष्पवदेवाविशेष इति पूर्वोक्तवदाविर्भावादिभेदानुपपत्तिविरोधाः । ननु विशेषः प्रत्यक्षत एवोपलभ्यते । दृश्यमानत्वेऽपि तथा तस्याभवनादसत्त्वं दृष्टम्, यथा मृगतृष्णिकागन्धर्वनगरयोः । मृगतृष्णिकागन्धर्वनगर योहि प्रत्यक्षत्वेऽपि शीतादिविशेषा सत्त्वादसत्त्वं दृष्टं तथा विशेषस्य प्रत्यक्षत्वेऽप्यसत्त्वम् । अथोच्येत - शीतादिर्जीवाजीवादिश्च विशेषो मृगतृष्णिकासलिले गन्धर्व - 5 नगरे च नास्तीति विशेषासत्त्वात् स्यादसत्त्वम्, नावश्यं विशेषे विशेषैर्भाव्यं यतो विशेषासत्त्वादसत्त्वं कल्प्येत । यदि स्युर्विशेषे विशेषा अविशेष एव स्यात्, , विशेषवत्त्वात्, सद्दव्यपृथिव्यादिसामान्यवत् । अपि च वयमप्येतदेव ब्रूमः - अन्वय एव स्यादिति । स च नास्ति खपुष्पवत् । विशेषजातमपि । तत्प्राधान्याद् विशेषस्य भावानुरोधात् सामान्योपसर्जनविशेषप्रधानप्रति [ ज्ञा] हानि: 110 एवं तावद् घटो भाव ईत्ययुक्तम् । ७४ स्यान्मतम् - घटस्य भावो विशेषस्य सम्बन्धिनः सम्बन्धषष्ठ्या । यथा घटस्य विनष्टस्य कपालान्यभावस्य भावहेतुत्वान्निरुद्धेस्य, कपालानि हि घटनिरोधहेतुकानि उत्पद्यन्ते तदुपकारित्वात् । किमिव ? यथाङ्कुरस्य बीजं निवर्तमानमुपकारीति । एतच्च नाप्यस्य भावः । कस्मात् ? ततश्चासत्त्वाविशेषात् खपुष्पवदेवाविशेष इति पूर्वोक्तवदाविर्भावादिभेदानुपपत्तिविरोध इत्यनेनातीतं ग्रन्थमतिदिशति 15 यदेतदसत्त्वं नाम त्वया क्वचिद् मन्यते ततोऽन्यत् कार्यम्, तदसमर्थविकल्पत्वात्, घटपटवत् । विकल्पासामर्थ्य चासत्कार्ययोरित्यादि यावत् स्ववचनादिविरोधोपसंहारेण विशेषविरोधोऽप्रयोगप्रसङ्गात् स्वरूपविरोध इति । आह - ननु विशेष इत्यादि । सामान्योपसर्जनो विशेषः प्रत्यक्षत एवोपलभ्यते । तस्माद् दृष्ट- ४७९-१ विरुद्वेयं कल्पनेति । अत्रोच्यते - दृश्यमानत्वेऽपि प्रत्यक्षव्यभिचारप्रदर्शनसाधनम् । यथा दृश्यते तथा 20 तस्याभवनादसत्त्वं दृष्टम् । यथा मृगतृष्णिकेत्यादि दृष्टान्तः । तद्व्याख्या - मृगतृष्णिका - गन्धर्वनगरयो हत्यादि, भवनस्य पृथग्भावेन भवनात् परमार्थसत्त्वात् सलिल-नगरयोरसत्त्वं दृष्टं यथा तथा सामान्योपसर्जनतायां विशेषस्यं प्रत्यक्षत्वेऽप्यसत्त्वमिति । अथोच्येत त्वया शीतादिरित्यादि । मृगतृष्णिका सलिले शीत-मृदु-द्रवतादिविशेषाभावात् गन्धर्वनगरे दृश्यमानजीवाजीवविशेषधर्माभावात् स्यादसत्त्वम् । नाऽवश्यं विशेषे घटादौ पृथिवी [वि]शेष (णा - 25 मश्मसिकतादिभेदैर्भाव्यं यतो विशेषासत्त्वं कल्प्येत । यदि स्युर्विशेषे विशेषा अविशेष एव स्यात्, सामान्यमेव अन्वय एव स्याद् विशेषो विशेषवत्त्वात्, द्रव्यपृथिव्यादिसामान्यवत् । य० ॥ ४ दृश्यतां पृ० अत्राचार्य आह-अपि च वयमप्येतदेव ब्रूमः - अन्वय एव अविशेषं सामान्यमेव स्यादिति । १ इत्यतयुक्तम् प्र० । ( इति न युक्तम् ? ) ॥ २ द्धस्या प्र० ॥ ३धादित्य १६० पं० ४–पृ० १६१ पं० १| तुलना - पृ० ४३० पं० १ ॥ ५ पृ० १७१ पं० ३ ॥ ६ पृ० १७२ पं० ३ ॥ ७ ( परमार्थतोऽसत्त्वात् ? ? ) ॥ ८ नगरसत्त्वं भा० ॥ ९ स्य च प्रत्य भा० ॥ १० क्षत्वेव्यस प्र० ॥ ११ घटाघटादौ प्र० । 'घटपटादौ' इत्यपि भवेदत्र पाठः ॥ १२ द्रव्यपृथिं भा० | सद्रव्यत्वपृथिं य० ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [नवमे नियमारे आकृतिविशेषनिवृत्तौ निर्वृत्तिर्घटादीनां रूपादीनां च । मृगतृष्णिका त्वाकृतजलविशेषापि किं शीतादिभेदा न भवति? भावाभावादेव । यथा चासो तथा घटादिर्विशेषोऽन्वयभावाभावान्नास्ति । यदि विशेष एव प्रधानं स्यात् सलिलभावानन्वितं मृगतृष्णकादिवद् घटाद्यप्यसत् स्यात्, निरुपाख्यत्वात् 'इदं तत्' इति नोपाख्यायेत। ततो न किञ्चित् स्यात् पृथिव्यादिसामान्येनानुपष्टब्धत्वात् खपुष्पवत्। तथा कस्मादुदकादिना न व्यज्यते पृथिवी विभिन्नेन ? अत्यन्तवैलक्षण्याद्वा कश्चिदेवावाच्योऽर्थः कस्मान्न स्यात् , अन्वयरहितत्वात् ? । अत एव च जीवकर्मसम्बन्धसन्तत्याख्यान्वयाभावात् संसारमोक्षाद्यनुप ४७९.२ 10 यदि तथाभवनेन विशेषेणाऽऽकृत्याख्येन विना भवेदन्वयो विशेष एव निःसामान्यः, स च नास्ति खपुष्पवत् । नापि सामान्यमेव निर्विशेषं १*घटादि, किं तर्हि ? आकृतिविशेषनिवृत्तौ निवृत्तिर्घटादीनां सामान्यभवनस्य विशेषात्माभिव्यक्तः, तथा रूपादीनां रूप-रस-गन्धादिविशेष घटावस्थानात् आक्रियमाणविशेषस्य तथा तथा वस्तुनो भवनात् ।। तद्वैधयं मृगतृष्णिकायामित्यत आह-मृगतृष्णिका त्वाकृतजलविशेषापि किं शीतादिभेदा 15 न भवति ? इति कारणनिर्णयार्थ प्रश्नः । व्याकरणं चास्य भावाभावादेव । यथा चौसाविति यथा मृगतृष्णिकादिर्भावाभावान्नास्ति तथा घटादिविशेषोऽन्वयभावाभावान्नास्ति । परस्य तु दोषः-यदि विशेष एव प्रधानं स्यात् सलिलभावेत्यादि सलिलभवनेनानन्वितं घटाद्यपि मृगतृष्णकाकल्पमसत् स्यात् निरुपाख्यत्वात् , उपाख्या हि भवनप्राणिका, किमित्युपाख्यायेतेत्यत आह-इदं तदिति 'नोपाख्यायेत 'पृथिवी' इति 'द्रव्यं सद् घटः' इति वा । ततः किम् ? न किश्चित् स्यात्, कस्मात् ? 20 पृथिव्यादिसामान्येनानुपष्टब्धत्वात् खपुष्पवत् ।। किञ्चान्यत् , तथा कस्मादित्यादि । यदि विशेषः सामान्यनिरपेक्षः स्यात् ततो यथा 'घटः' 'पटः' इति वा विशिष्टया वृत्त्या पृथिव्यादि व्यज्यते तथोदकज्वलनानिलाकाशादिना कस्मान्न व्यज्यते पृथिवी विभिन्नेन ? अत्यन्तमन्यस्य पृथिवीद्रव्यस्य वैलक्षण्याद्वा सर्वस्य द्रव्यगणस्य व्यतिरेकेण निरन्वयो निरुपाख्यः कश्चिदेवावाच्योऽवेद्यरूपोऽर्थः कस्मान्न स्यात् , अन्वयरहितत्वात् ? 25 अत एव चेत्यादि । यस्मादन्वयरहितस्य निरुपाख्यस्याभावस्तस्माद् मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययजीव कर्मसम्बन्धसन्तत्याख्यान्वयाभावाद् नरका दिगतिविशेषसुखदुःखफलाख्यसंसारविशेषार्थप्रवृत्तयोः पुण्यपापकर्मणोरनुपपत्तिः, तदनुपपत्तेः संसारानुपपत्तिस्तत्प्रतिपक्षसम्यग्दर्शनादिपरिणामविशेषानुपपत्तिः, तत १ * * एतच्चिह्नान्तर्गतो घटादि इत्यत आरभ्य विशेष' इत्यन्तः पाठो य० प्रतौ नास्ति ॥ २ षनिवृत्तौ भा० ॥ ३ अक्रिय प्र०॥ ४°षणस्य य . ॥ ५वासौ प्र०॥ प्राधान्यं भा० । 'विशेषे एव प्राधान्यं स्यात्' इति यद्यर्थस्तदा भा० प्रतिपारोऽपि सङ्गच्छते ॥ ७ ख्यायेत्यय प्र०॥ ८ नोपाख्यायन भा० । नोपाख्येयेन य०॥ ९'पृथिवीविभिन्नेन' इत्यपि योजना भवेत् ॥ १० मन्यस्था प्र०। मन्यस्मात' इति पाठोऽत्र समीचीनः सम्भाव्यते ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषप्रधानस्य भावस्य निराकरणम्] द्वादशारं नयचक्रम् । ७४३ पत्तिः, अनियततथाप्रवृत्तेः। सत्यां च तथानियतप्रवृत्तौ 'पृथिवी घटः' इत्यन्वयप्राधान्यमेवैषितव्यम् , विशेषस्तु पृथिवीमनुवर्तते । लोके प्रधानं ह्यनुवृत्यते, न गुणः । सदापि विशेषानुवृत्तेरुक्तवद् नेति चेत्, एतद्वद् विशेषाभावात्। अतस्त्यक्त्वेमौ सामान्यविशेषकान्तपक्षी अवचनीयं वस्तु प्रतिपत्तव्यम् । नाप्यभावं न तदुपसर्जनं न भाव एव नाविशेषं न विशेषोपसर्जनं न विशेष एव । नोभयोपसर्जनं नोभयप्रधानं वस्तु । अवचनीयभावविशेषकारणकार्येकानेकप्रधानोपसर्जनं वस्तु। स्तत्प्राप्यमोक्षानुपपत्तिरपि, ततः शास्त्राभ्यासादिपुरुषकारानुपपत्तिः, अनियततथाप्रवृत्तेः । अथ मा भूव-४८०-१ नेते दोषा इति तथानियतप्रवृत्तिरिष्यते ततः सत्यां च तथानियतप्रवृत्तौ जीवकर्मसम्बन्धसंसारमोक्षादिकायां 'जीवो नारकः संसारी मुक्तः' इत्यादिवत् 'पृथिवी घटः' इत्यन्वयप्राधान्यमेवैषितव्यम् , 10 विशेषस्तु घटः पृथिवीमनुवर्तते जीवत्वं नारकत्वादिः । कस्मात् ? यस्माद् लोके प्रधानं ह्यनुवृत्यते न गुणः, गुणस्त्वनुवर्तते न प्रधानं नीलोत्पलवदिति । सदापि विशेषानुवृत्तेरुक्तवद् नेति चेत्, । स्यान्मतम्-ननूक्तम् अर्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेप्यते ।। तस्य पूर्वमदृष्टत्वात् सामान्यादुपसर्जनात् ॥ इत्यादिप्रपञ्चेन विशेष एव सामान्येनाऽनुवृत्यते न विशेषेण सामान्यमिति । [एतञ्च न,] ऐतद्वद् विशेषाभावात् , स एव हि विशेषो नैवास्तीति पूर्वनयेषु बहुधा भावितम् । तस्मान्न विशेषैकान्तपक्षः सामान्यं शक्नोत्यत्यन्तं निवर्तयितुं नापि सामान्यैकान्तपक्षो विशेषपक्षम् । अतस्त्यक्त्वेमौ सामान्य-विशेषैकान्तपक्षौ वक्ष्यमाणमनन्तरं वस्तु प्रतिपत्तव्यम् । अवचनीयं 'भवनविशेषाभ्यां कारणकार्यत्वाभ्यामेकानेकत्वाभ्यां प्रधानोपसर्जनत्वाभ्याम्' इत्यादिभिर्विकल्पैर्विकल्प्यमानम-20 वक्तव्यतत्त्वं वस्तु भवति । नाप्यभावं निरन्वयम् न तदुपसर्जनं भावोपसर्जनं विशेषप्रधानं 'वस्तु' इत्यभिसंबध्यते, न भाव एव निराकृतविशेषः, तथा नाविशेषं विशेषशून्यम् , न विशेषोपसर्जनं सामान्यप्रधानमिति, न विशेष एवाऽत्यन्ततिरस्कृतसामान्यः, नोभयोपसर्जनं वस्तु अत्यन्तनिराकृत-४८०-२ स्वातन्त्र्यसामान्यविशेषम् , नोभयप्रधानमत्यन्तस्वतन्त्रतुल्यकक्षसामान्यविशेषम् , सर्वविकल्पेष्वेष्वभावापत्तिदोषदर्शनात् । कीदृक् तर्हि वस्तु भवति ? इत्यत आह-अवचनीयभाव-विशेषेत्यादिः समासदण्डको गतार्थ उक्तपर्यायविकल्पयुगैलकैः । 25 १ नरक प्र० ॥ २ नुवृत्त्यते य० । नुवृर्त्यते भा० ॥ ३ अर्थशब्दावि प्र० । दृश्यतां पृ० ६१६ पं० ३ ॥ ४ एतद्विशेषाभावात् प्र० । अत्र 'एतन्न विशेषाभावात्' इत्यपि पाठश्चिन्त्यः ॥ ४°स्त्यक्षेमौ भा० । °स्तक्षेमौ य०॥ ५ न्याय्यभावं प्र०॥ ६त तदुप° मा । तत्तदुप य०॥ ७ तविशेषं प्र०॥ ८ सामान्य प्रधान प्र०॥ ९कल्पोष्वष्वभावा भा० । ल्पोष्वणुभावा य० । ल्पेष्वभावा इत्यपि पाठोऽत्र स्यात् ॥ १० लकेः भा०। लके य० ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ न्यायागमानुसारिणीवृत्त्यलङ्कृतम् [नवमे नियमारे एवं हि भवति भवनमग्नीन्धनवत् । यथा नैकत्वम् [ अग्नेरिन्धनेन सह इन्धनस्याग्निना वा सह] । यदि स्यादेकत्वमग्नेरिन्धनेन दग्धेन्धनबदग्निरिन्धनरहित. त्वाद् न प्रवर्तेत, अनिन्धनस्याप्रवृत्तेश्चाभावतैवाग्नेः स्यात् । न प्रवर्तेत, एकत्वात्, दग्धेन्धनवत् । 5 यथेन्धनमग्निरहितमप्यनुपजाताग्निकं प्रवर्तते तथेन्धनरहितोऽप्यग्निः प्रव य॑ति सूक्ष्मावस्थ इति चेत्, को वा ब्रवीति 'इन्धनमग्निरहितम्' इति । तदपेक्ष __एतस्यार्थस्य भावनार्थमुदाहरणम्-एवं हि भवति भवनमग्नीन्धनवदिति । तत्र तावदग्नीन्धनयोरेकत्वं नानात्वमुभयत्वमनुभयत्वमन्यतरप्रधानोपसर्जनता वा स्यात् ? इति विकल्प्य सर्वथाप्य वक्तव्यतैव इति वक्ष्यमाणो दृष्टान्तार्थः, तद्विकल्पानुपपत्तेः । 10 तत्रैकत्वं तावन्न घटत इति ब्रूमः । कथम् ? यथा नैकत्वमित्यादि । तच्चैकत्वमग्नेरिन्धने न ] सह इन्धनस्याग्निना वा सह स्यात् , सहयुक्तेऽप्रधाने तृतीया, इन्धनमेवाग्निरेव वा स्यात् । तन्न तावदग्नेरिन्धनेन सहैकत्वं घटते, तेन सहैकत्वात् तत्प्राधान्याद् वक्ष्यते दोषोऽसत्त्वम् । यदि स्यादेकत्वमग्नेरिन्धनेन दैग्धेन्धनवदग्निरिन्धनरहितत्वाद् न प्रवर्तेत, यथा दग्धेन्धनोऽग्निर्न प्रवर्तते तथास्याप्रवृत्तिः। अनिन्धन[स्याऽ]प्रवृत्तेश्चाभावतैवाग्नेः स्यात् अस्ति-भवति-विद्यति पद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः 15 सत्तार्थाः [ ] इति वचनात् प्रवृत्तिसत्तार्थत्वादप्रवृत्तेरसत्तापर्यायत्वात् । तदुपसंहृत्य साधनमाह न प्रवर्तेत, एकत्वात्, दग्धेन्धनवत् । यथा दग्धेन्धनोऽग्निरिन्धनेन सहैकत्वादिन्धनाव्यतिरेकेणाप्रवर्त५८१-१ मानत्वादेकत्वादप्रवृत्तेरसंस्तथाग्निरिति । अत्राह-यथेन्धनमित्यादि यावत् सूक्ष्मावस्थ इति चेत् । यथेन्धनमग्निना सहैकत्वेऽप्यनुपजाताग्निकं प्रवर्तमानं दृष्टं तथाग्निरपीन्धनेन सहैकत्वे प्रवर्तितुमर्हति सूक्ष्मावस्थः कार्यानुमेयोऽप्रत्यक्ष इत्यर्थः । 20 तस्मादि]नैकान्तिकत्वादहेतुस्तदेकत्वमिति चेन्मन्यसे, अत्र ब्रूमः -- "को वा ब्रवीतीत्यादि । अग्निरहितावस्थायामिन्धनत्वस्यैवाभावाद् विपक्षाभावेऽनैकान्तिकाभासता। तद्व्याचष्टे-तदपेक्षत्वादिन्धनत्वस्य दीपनोऽग्निरिन्धन-दीपन-दहन-भस्मीकरणार्थत्वात् तत्परिणतावेवेन्धनम् 'इंध्यते दह्यते दीप्यते' इति इन्धन मग्नित्वपरिणतावेव एकत्ववादिनो 'विशेषेण, अतत्परिणतावग्नित्वेन्धनत्वयोरभावात् जिइन्धी दीप्तौ १ दृश्यतां पृ० ४१२-२॥ २ व प्र० ॥ ३ दृश्यतां पृ० ४८६-२॥ ४ सहयुक्ते प्रधाने भा० । “५६५ सहयुक्तऽप्रधाने २।३। १६। सहार्थेन युक्तेऽप्रधाने तृतीया स्यात् । पुत्रेण सहागतः पिता। एवं साक-सार्ध-समंयोगेऽपि ।”-पा० सिद्धान्तकौमुदी॥ ५ तृतीयेननमेवा य० । तृतीयेनमेवाभा० ॥ ६ त । अग्ने भा० । (तत्र न तावदने ? ) ( न तावदने ? )॥ ७ दृश्यतां पृ० ४८४-१-२ । तुलना पृ० ४८६-२॥ ८ दग्नेत्वउवदग्नि भा० । दग्नत्वनवदग्नि य० ॥ ९ दृश्यतां पृ. ४८१-२, ४८४-२॥ १० दृश्यतां पृ० ३४ पं० २१ पृ. १९० पं० २३ पृ० १९९ पं० ७ पृ. ३२४ पं० २७ ॥ ११ प्रवर्ततैकत्वात् प्र० । (प्रवर्तते एकत्वात् ? )॥ १२ त्वादिन्धनात्यव्यतिप्र० । त्वादिन्धनतो व्यति' इत्यपि पाठोऽत्र सम्भवेत् ॥ १३ दृश्यतां पृ० ४८७-१॥ १४ यथा प्र०॥ १५ तस्मान्नका य० ॥ १६ दृश्यतां पृ०४८७- १॥ १७ कताभा य० ॥ १८ इष्यते य० ॥ १९ विशेषणातत्परिणता भा०॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOTE This Vol. II ends with the Eighth Ara on p. 737. However, as the first seven pages of the Ninth Ara (pp. 738-744 ) were printed along with the p. 737 of the Eighth Ara, they are given at the end of this Volume. But, for the convenience of the readers the Ninth Ara will be given from the beginning in Vol. III, pp. 738-744 will be printed again and will be given there. आ द्वितीय विभाग आठमा अरथी एटले के ७३७मा पृष्ठना अंते समाप्त थाय छे. परंतु आठमा अरना छेल्ला पृ. ७३७नी साथोसाथ नवमा अरनां प्रथमनां सात पृष्ठो (७३८-७४४) छपायां होवाथी आ ग्रथना अंते ते पृष्ठो आपवामां आव्यां छे. आम छतां, वाचकोनी सुविधा खातर तृतीय विभागमां नवमो अर प्रारंभथी ज छापवामां आवशे, अने पृ.७३८ थी ७४४ फरीथी छापीने ते विभागमां अपाशे. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री जंबूविजयजीनी आ आवृत्तिनी पोतानी अनेक विशेषताओ छे, जे विशेषताओथी ते तेनी पूर्वगामी आवृत्तिओ करतां निश्चयात्मक प्रकारनो सुधारो सूचवे छे. तेथी ते आपणा सर्व तरफथी आदर माटे योग्य छे. तुलनात्मक अभ्यासथी अर्बु मालम पडे छे के श्री जंबूविजयजीओ मूळ ग्रंथनो विगतपूर्ण अभ्यास करेलो छे. तेथी द्वादशार नयचकने तेना मूळ स्थाने स्थापवान कार्य वधु चोक्कस अने स्वीकार्य रीते थयेलं छे. बीजं, तेमनी हस्तप्रतो संबंधी पूर्वसामग्री निःशेषक रीते पूर्ण छे. जुदा जुदा पाठो ज्यां ज्यां मालूम पडया, त्यां त्यां तेमणे विवेचनात्मक रीते तेनो विचार करेलो छे. ग्रंथन संपादनकार्य करवामां तेओओ निश्चित पद्धति अजमावी छे. तेमणे लखेली टिप्पणीओ महत्त्वपूर्ण अने विद्वत्ताभरेली छे. भारतीय न्यायमां रस धरावती प्रत्येक व्यक्ति तेनु मूल्यांकन करी शकशे. भाष्यने भिन्न भिन्न पेरेग्राफमां रजू करवामां आवेल छे, ते दर्शावे छे के आ अति अघरा ग्रंथने तेओ सारी रीते समज्या छे. भोट (तिबेटन) परिशिष्टमां प्रमाणसमुच्चयना मूळ ग्रंथना पाठ स्पष्ट रीते दर्शावे छे के आ ग्रंथना संपादनकार्यमां तेओश्री केटलो परिश्रम लीधेलो छे. तेमणे लखेली प्रस्तावना पण संशोधननी दृष्टिथी मूल्यवान छे. मल्लवादीना जीवन विषे तेमणे हकीकतना तांतगा एकतंते वणी लीधा छे......अंतमां कहीश के अहीं न्यायग्रंथनी एक आदर्श रीते संपादित आवृत्ति आपणने मळे छे. तेने माटे हुँ मुनिश्री जंबूविजयजीने मारा आदरपूर्ण अभिनंदनोथी नवाजु छु. शिवाजी युनिवर्सिटी - डॉ. आदिनाथ ने. उपाध्ये कोल्हापुर For Private&Personal use only. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'આવરણ દીપક મિનટરી : અમદાવાદ ૩૮૦ ૦૦૧