Book Title: Bruhat Katha kosha
Author(s): Harishen Acharya, 
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जै न ग्रन्थ मा ला संस्थापक - संचालक 'श्री बहादुर सिंहजी सिंघी श्री जिन विजय मुनि (ग्रन्थाङ्क १७) *************** श्री हरिषेणाचार्य-रचित बृहत् कथाकोश ISRI ALCAND JI SINCHI श्रीडालचन्रजातिका SHARE mummitTITITATIRITES Hmmiumminimum सम्पादक डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये एम्. ए., डी. लिट् [प्रोफेसर, राजाराम कालेज, कोल्हापुर ] *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* प्र का शक ********************** भारतीय विद्या भवन बंबई प्रथमावृत्ति, ५०० प्रति] * * * संवत् १९९९ - मूल्य, १२-०-० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी जन्म वि. सं. १९२१, मार्ग वदि६ स्वर्गवास वि. सं. १९८४, पोष सुदि६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. * सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला ******* [ ग्रन्थांक १७ ] ******** श्री हरिषेणाचार्य -कृत बृहत् कथाकोश ܦܝܣܬܚܗܚܝܤܚܣܝܬܝܬ नी RIDALCAND JI SINGHI TRAATAENILLINIILDLL पद-hthahahahahhh.. श्रीडालवन्दजी सिंचाया समाजासा SINGHI JAIN SERIES *******************[ NUMBER 17]****** BRHAT KATHAKOSA OF ŚRÍ HARISEŅĀCHARYA Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थमाला [जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक - इत्यादि विविधविषयगुम्फित ; प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर - राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध; सार्वजनीन पुरातन वाङ्मय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि । ] प्रतिष्ठापक तथा प्रकाशयिता श्रीमद्-डालचन्दजी- सिंघीसत्पुत्र दानशील-साहित्यरसिक - संस्कृतिप्रिय श्रीमान् बहादुर सिंहजी सिंघी भूतपूर्व अध्यक्ष जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्स (बंबई, सन् १९२६ ) ; संस्थापक-सदस्य, भारतीय विद्याभवन ; लॉ ऑफ् धी रॉयल सोसायटी ऑफ् आर्टस्, लन्दन; सदस्य-धी रॉयल एसियाटिक सोसायटी ऑफू बँगाल ; घी इन्डियन रिसर्च इन्स्टिट्यूट, कलकत्ता ; धी न्युमेस्मेटिक सोसायटी ऑफ इन्डिया ; बङ्गीय साहित्य परिषद् इत्यादि, इत्यादि ] 非 सम्मान्य कार्यवाहक श्रीयुत राजेन्द्र सिंह जी सिंघी संचालक तथा प्रधान-सम्पादक श्री जिन विजय मुनि आचार्य - भारतीय विद्या भवन - बंबई [ सम्मान्य सभासद - भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना; एवं गुजरात साहित्यसमा अहमदाबाद; भूतपूर्वाचार्य - गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदाबाद; सिंघी ज्ञानपीठनियामक एवं जैनवाङ्मयाध्यापकविश्वभारती, शान्तिनिकेतन; तथा, जैन साहित्यसंशोधक ग्रन्थावलि - पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावलि - भारतीय विद्या ग्रन्थावलि -आदि नाना ग्रन्थमाला प्रकाशित संस्कृत- प्राकृत- पाली - अपभ्रंशप्राचीन गूर्जर - हिन्दी-भाषामय- अनेकानेक ग्रन्थ संशोधक - सम्पादक । ] व्य व स्था प क तथा प्रकाश क भारतीय विद्याभवन बंबई Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री - हरिषेणाचार्य - कृत बृहत् कथाकोश [ बहुविधधर्मोपदेशात्मक संस्कृतपद्यमय १५७ कथानक सङ्ग्रह; तत्परिचायक आंग्लभाषा लिखित सुविस्तृत प्रस्तावना-प्रन्थसार-परिशिष्ट- अनुक्रमादि - विविधविषयसमलंकृत ] सम्पादक 'डॉक्टर' इत्युपाधिधारक - प्राध्यापक श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये एम्. ए., डी. लिट्. [ स्प्रींगर रीसर्च स्कॉलर, युनिवर्सिटी ऑफ् बॉम्बे; प्रोफेसर ऑफू अर्धमागधी, राजाराम कॉलेज, कोल्हापुर; 'प्रवचनसार, परमात्मप्रकाश, वरांगचरित, कंसवह, उषानिरुद्ध, तिलोयपण्णत्ति' इत्यादि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश भाषादि विभूषित विविध ग्रन्थ संशोधक एवं संपादक ] अमृत तु विद्या प्राप्ति स्थान भारतीय विद्या भवन 47 बंबई 47 विक्रमाब्द १९९९ ] * प्रथमावृत्ति; पंच शत प्रति * [ १९४३ ख्रिस्ताब्द ग्रन्थक्रमांक, १७] * पुनर्मुद्रणादि सर्व अधिकार भा. वि. भ. द्वारा संरक्षित * [ मूल्य, रू० १२-०-० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL, PHILO. SOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS IN PRĀKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD RAJASTHANIGUJARATI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS ***** ESTABLISHED AND PUBLISHED IN THE SACRED MEMORY OF THE SAINT-LIKE LATE SETH ŚRİ DALCHANDJI SINGHI OF CALCUTTA BY HIS DEVOTED SON DANASILA-SAHITYARASIKA-SANSKRITIPRIYA ŚRIMAN BAHADUR SINGHJI SINGHỈ (LATE PRESIDENT OF THE JAIN SWETAMBAR CONFERENCE (BOMBAY, 1926); FELLOW OF THE ROYAL SOCIETY OF ARTS, LONDON; MEMBER OF THE ROYAL ASIATIC SOCIETY OF BENGAL; THE INDIAN RESEARCH INSTITUTE OF CALCUTTA; BANGIYA SAHITYA PARISHAT; A FOUNDER-MEMBER OF THE BHARTIYA VIDYA BHAVAN; ETC.) * CONDUCTED UNDER THE GUIDANCE OF ŚRĪYUT RAJENDRA SINGHJI SINGHĨ 1000x DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ŚRI JINA VIJAYA MUNI ACHARYA-BHARATIYA VIDYA BHAVAN-BOMBAY (HONORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE OF POONA AND GUJARAT SAHITYA SABHA OF AHMEDABAD; FORMERLY PRINCIPAL OF GUJRAT PURATATTVAMANDIR OF AHMEDABAD; LATE SINGHI PROFESSOR OF JAIN STUDIES, VISVA-BHARATI, SANTINIKETAN: EDITOR OF MANY SANSKRIT, PRAKRIT, PALI, APABHRAMSA, AND OLD GUJRATI-HINDI WORKS, ETC.) PUBLISHED UNDER THE MANAGEMENT OF BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT KATHAKOSA ACHARYA HARIȘENA THE SANSKRIT TEXT AUTHENTICALLY EDITED FOR THE FIRST TIME WITH VARIOUS READINGS, WITH A CRITICAL INTRODUCTION, NOTES, INDEX OF PROPER NAMES ETC. OF BY DR. A. N. UPADHYE, M. A., D. LITT. SPRINGER RESEARCH SCHOLAR, UNIVERSITY OF BOMBAY; PROFESSOR OF ARDHAMAGADHI, RAJARAM COLLEGE, KOLHAPUR. at a forum TO BE HAD FROM BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY V. E. 1999 1 Number 17] * All rights reserved by the B. V. B. * First Edition, Five Hundred Copies. [ 1943 A. D. [Price Rs. 12-0-0 * Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैन ग्रन्थमालासंस्थापक प्रशस्तिः ॥ अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ निवसन्त्यने के तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एवागतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यं धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रया स्वबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपार्ण्य विपुलां लक्ष्मीं जातः कोट्यधिपो हि सः ॥ तस्य मन्नुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुर सिंहाख्यः सहुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियो निधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यसूर्येण प्रदीप्तं यत्कुलाम्बरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् बाहुर्यस्य हि दक्षिणः ॥ नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुर्वीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोsपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवश्चास्य सन्ति स्वस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते ॥ * * 20 5 9 २ ३ ४ अन्यच १३ १५ १६ १७ १८ १९ २० २२ २३ सरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तच्चित्रं विदुषां खलु ॥ न गर्यो नाप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः । दृश्यतेऽस्य गृहे क्वापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ १४ भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सज्जनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश - कालस्थितिज्ञोऽयं विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति -सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्ष हेतवे । प्रचारार्थं सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं धनम् ॥ गत्वा सभा समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग् - ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात् तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ २१ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति नि के त ने । सिंघी पदाङ्कितं जैन ज्ञान पीठ मतीष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयः प्राज्ञस्तस्याधिष्ठातृसत्पम् । स्वीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन पूर्वमेव हि तद्विदा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूयाति मुदा तेन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रश्रीरवीन्द्रस्य करकुवलयात् शुभात् । रस-नागा- चन्द्राब्दे प्रतिष्ठेयमजायत । प्रारब्धं चाशु तेनापि कार्य तदुपयोगिकम् । पाटनं ज्ञानलिप्सूनां तथैव ग्रन्थगुम्फनम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुल केतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसाऽनेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्य सुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नैकेषां विदुषां तथा । ज्ञानाभ्यासाय निष्काम साहाय्यं यः प्रदत्तवान् ॥ जलवाय्वादिकानां हि प्रातिकूल्यात् त्वसौ मुनिः । कार्य त्रिवार्षिकं तत्र समाप्यान्यत्र चास्थितः ॥ ३१ तत्रापि सततं सर्व साहाय्यं येन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशार्थ महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नन्द- निध्यङ्के - चन्द्राब्दे जाता पुनः सुयोजना | ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्ताराय च नूतना ॥ ततः सुहृत्परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता । भा विद्या भवना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ विद्वज्जनकृताह्लादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके श्रीसिंघीग्रन्थपद्धतिः ॥ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३२ ३३ ३४ ३५ ६ ८ ९ १० ११ १२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः ॥ MMM.509 २३ स्वस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः। रूपाहेलीति सन्नाम्नी पुरिका तत्र सुस्थिता॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः। श्रीमञ्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः॥ मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्रव जनो मेने राजन्यकुलजा ह्यसौ ॥ पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः । रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामाऽत्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः॥ अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः। स चासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक, कृतो जैनमतानुगः॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सर्वं गृहादिकम् ॥ तथा चपरिभ्रम्याथ देशेषुसंसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ १२ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न नूतनकालिकाः॥ १४ येन प्रकाशिता नैके ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः। लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः॥ यो बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ यस्य तां विश्रुतिं श्रुत्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीय शिक्षणालयः। विद्यापीठ इति ख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोच्चैर्नियुक्तो यो महात्मना । रस-मुनि-निधीन्द्धब्दे पुरात वा ख्य मन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत् पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत आगत्य सँल्लग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन स्वराज्यपर्वणि ॥ क्रमात् तस्माद् विनिर्मुक्तः स्थितः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंघी पदयुतं जैन शान पीठं यदाधितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीवहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठातृसञके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवायम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे ह्येषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ अथैवं विगतं यस्य वर्षाणामष्टकं पुनः । ग्रन्थमालाविकाशार्थिप्रवृत्तौ यततः सतः॥ बाणे-रत्नं-नवेन्द्वन्दे मुंबाईनगरीस्थितः। मुंशीति विरुदख्यातः कन्हैयालालधीसखः॥ प्रवृत्तो भारतीयानां विद्यानां पीठनिर्मितौ। कर्मनिष्ठस्य तस्याभूत् प्रयत्नः सफलोऽचिरात् ॥ विदुषां श्रीमतां योगात् संस्था जाता प्रतिष्ठिता। भारतीय पदोपेत विद्याभवन सज्ञया ॥ आहूतः सहकार्यार्थ सुहृदा तेन तत्कृतौ । ततः प्रभृति तत्रापि सहयोगं स दत्तवान् ॥ तद्भवनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका ह्यपेक्षिता । स्वीकृता नम्रभावेन साऽप्याचार्यपदात्मिका ॥ नन्द-निध्यङ्क-चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः। एतद्ग्रन्थावलीस्थैर्यकृद् येन नूनयोजना ॥ परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंघीकुलभाखता। भा विद्याभवना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ विद्वजनकृतालादा सच्चिदानन्ददा सदा। चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती॥ WWW000 २७ س اله سر لس ا CWWW سم سم اسع Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला अद्यावधि मुद्रित ग्रन्थनामावलि१ मेरुतुझाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि. २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह. ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. ४ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. ५ मेघविजयोपाध्यायविरचित देवानन्दमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. ९ प्रबन्धचिन्तामणि (हिन्दी भाषान्तर). १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. 11 Life of Hemachandracharya : By Dr. G. Buhler. १२ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. १३ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. १४ हरिषेणाचार्यकृत बृहत् कथाकोश. * * संप्रति मुयमाण ग्रन्थनामावलि१ खरतरगच्छगुर्वावलि. २ कुमारपालचरित्रसंग्रह. ३ विविधगच्छीयपट्टावलिसंग्रह. ४ जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, भाग १-२. ५ विज्ञप्तिलेखसंग्रह. ६ हरिभद्रसूरिकृत धूर्ताख्यान. ७ उद्द्योतनसूरिकृत कुवलयमालाकथा. ८-९ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य तथा कीर्तिकौमुदी आदि अन्यान्य अनेक प्रशस्त्यादि कृतिसंग्रह. १० जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. ११ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. १२ शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिकवृत्ति. १३ महामुनि गुणपालविरचित जंबूचरित्र (प्राकृत), इत्यादि, इत्यादि. मुद्रणार्थ निर्धारित एवं सजीकृत ग्रन्थनामावलि१ भानुचन्द्रगणिकृत विवेकविलासटीका. २ पुरातन रास-भासादिसंग्रह. ३ प्रकीर्ण वाङ्मय प्रकाश. ४ भद्रबाहुसूरिकृत भद्रबाहुसंहिता. ५ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायविरचित वासवदत्ता टीका. ६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. ७ देवचन्द्रसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति. ८ रत्नप्रभाचार्यकृत उपदेशमाला टीका. ९ यशोविजयोपाध्यायकृत अनेकान्तव्यवस्था. १० जिनेश्वराचार्यकृत प्रमालक्षण. ११ महानिशीथसूत्र. १२ तरुणप्रभाचार्यकृत आवश्यकबालावबोध. १३ राठोड वंशावलि. १४ उपकेशगच्छप्रबन्ध. १५ नयचन्द्रसूरिकृत हमीरमहाकाव्य. १६ वर्द्धमानाचार्यकृत गणरत्नमहोदधि, १७ प्रतिष्ठासोमकृत सोमसौभाग्यकाव्य. १८ नेमिचन्द्रकृत षष्टीशतक (पृथक् पृथक् ३ बालावबोध युक्त) १९ शीलांकाचार्य विरचित महापुरुष चरित्र (प्राकृत महाग्रंथ) २० चंदप्पहचरियं (प्राकृत) २१ नम्मयासुंदरीकथा (प्राकृत) २२ नेमिनाह चरिउ (अपभ्रंश महाग्रंथ) २३ उपदेशपदटीका (वर्द्धमानाचार्यकृत) २४ निर्वाणलीलावती कथा (सं. कथा ग्रंथ ) २५ सनत्कुमारचरित्र ( संस्कृत काव्य ग्रंथ ). २६ राजवल्लभ पाठककृत भोजचरित्र. २७ प्रमोदमाणिक्यकृत वाग्भटालंकारवृत्ति. २८ सोमदेवादिकृत विदग्धमुखमण्डनवृत्ति. २९ समयसुन्दरादिकृत वृत्तरत्नाकरवृत्ति. ३० पाण्डित्यदर्पण. ३१ पुरातनप्रबन्धसंग्रह-हिन्दी भाषांतर. इत्यादि. इत्यादि. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONTENTS Singhi Jain Series: A Short History » , , A Review , , Some Appreciations Preface by the General Editor Editor's Preface A 3-10 A 11-14 A 15-16 A 17-18 A 19-20 1-122 1-6 6-39 11 17-39 39-47 47-72 Introduction 1. Critical Apparatus and Text-constitution i) Description of Mss, and their Mutual Relation ii) Presentation of the Text jii) Numbering of the Stories 2. Narrative Tale in India i) Vedic and Allied Literature ii) S'ramanic Ideology: Ascetic Poetry iii) Early Buddhist Literature iv) Jaina Literature a) Canonical Stratum b) Post- and Pro-canonical Strata etc. c) Later Tendencies and Types 3. Compilations of Kathānakas: A Survey 4. Ārādhanā and Arādhanā Tales i) Ārādhanā and Ārādhană Texts i) Bhagavati Ārādhana iii) Commentaries on the Bhagavati Arādhanā iv) Kathākos'as Associated with the Bha. Ārāhanā a) Śricandra's Kathäkośa in Apabhramsa b) Prabhacandra's Kathākośa in Sanskrit Prose c) Nemidatta's Kathākośa in Sanskrit Verses d) Nayanandi's Arādhana and other A. Kathäkośas e) The Vaddărādhane in Old-Kannada Prose 5. Bha. Arādhanā and the Dependant Kathānakas 6. Harisena's Kathākośa: A Study i) Name, Estent etc. ii) Various Strata of the Contents etc, iii) Cultural Heritage and Literary Kinship of this Work iv) Interesting Social, Historical etc. Bits of Information v) Its Relation with other Kathākos'as vi) On the Language of the Text vii) Orientalists on the Jaina Narrative Literature 7. Harişeņa, the Author: his Place and Date 57-72 72-80 80-117 90 94 113 117-122 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) वृहत्कथाकोशकथानकसूची श्रीहरिषेणाचार्यकृतं बृहत् कथाकोशम् कथाकोशे समुद्धृतानां पद्यानां वर्णानुक्रमसूची कथाकोशगतविशेषनाम्नां वर्णानुक्रमसूची Notes Index to Introduction Corregenda Opinions and Reviews on some of the Books of the Editor Publications of the Singhi Jain Series 123-128 १-३५६ ३५७ ३५८-३७६ 77-393 395-379 399-402 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES [A Short History Of The Series ] IT is with great pleasure that I place before the public the present Volume 1 which forms No. 17 of the Singhi Jain Series. The following few lines describe how the Series came to be inaugurated. Babu S'ri Dalchandji Singhi, in whose sacred memory the present Series is inaugurated, by his son, Babu Siri Bahadursinghji Singhi was born in Azimganj ( Murshidabad) in the Vikrama Samvat 1921 ( 1865 A. D.), and died in Calcutta on the 30th December, 1927. The Singhi family of Azimganj occupies almost the foremost rank among the few hundred Jaina families which migrated to Bengal from Rajputana in the latter part of the 17th century and took their domicile in the district of Murshidabad. family rose to its present position and prominence chiefly through the energy and enterprise of that self-made man, Babu Dalchandji Singhi. Owing to financial difficulties, Dalchandji Singhi had abruptly to cut short his educational career and join the family business at the early age of 14. The family had been carrying on business in the name of Messrs Hurisingh Nehalchand for a long time though, in those days, it was not at all a prominent firm. But having taken the reins of the firm in his own hands, Babu Dalchandji developed it on a very large scale; and it was mainly through his business acumen, industry, perseverance and honesty that this comparatively unknown firm of "Hurisingh Nehalchand" came to be reckoned as the foremost jute concern with branches in almost all the impor. tant jute centres of Bengal. The fruits of Dalchandji Singhi's toils were immense, and the reputation of the firm in commercial circles was indeed unique. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A4] Having thus brought his jute business to the most flourishing condition, Babu Dalchandji Singhi diverted his attention to the mineral resources of India and spent many lacs of rupees in prospecting the coal fields of Korea State (C. P.), limestone deposits of Sakti State and Akaltara, and the bauxite deposits of Belgaum and Sawantwadi and Ichalkaranji States. His scheme for the Hiranyakeshi Hydro-Electric Project and manufacture of aluminium from bauxite ores, the first of its kind in India, is yet to be developed. His mining firm, Messrs Dalchand Bahadur Singh is reputed to be one of the foremost colliery proprietors in India. While so engaged in manifold business, he also acquired and possessed vast Zamindary estates spreading over the districts of 24-Perganas, Rangpur, Purnea, Maldah, etc. But the fame of Babu Dalchandji Singhi was not confined to his unique position in commercial circles. He was equally well-known for his liberality and large-heartedness, though he always fought shy of publicity attached to charitable acts and often remained anonymous while feeding the needy and patronizing the poor. A few instances of his liberality are given below. When Mahatma Gandhi personally visited his place in 1926, for a contribution to the Chittaranjan Seva Sadan, Babu Dalchandji Singhi gladly handed over to him a purse of Rs. 10,000. His War contribution consisted in his purchasing War Bonds to the value of Rs. 3,00,000; and his contribution at the Red Cross Sales, held in March 1917, under the patronage of H. E. Lord Carmichael on Government House grounds, Calcutta, amounted to approximately Rs. 21,000, in which he paid Rs. 10,000 for one bale of jute which he had himself contributed. His anonymous donations are stated to have amounted to more than one lac of rupees. In his private life Babu Dalchandji Singhi was a man of extremely simple and unostentatious habits. Plain living and high thinking was his ideal. Although he had been denied a long academic career, his knowledge, erudition and intellectual endowments were of a very high order indeed. His private studies were vast and constant. His attitude towards life and world was intensely religious, and yet he held very liberal views and had made a synthetic study of the teachings of all religions. He was also wellversed in the Yoga-darśana. During the latter part of his life he spent his days mostly in pilgrimage and meditation. Noted throughout the district and outside for his devoutness, kindness and piety, he is remembered even now as a pride of the Jaina community. During the last days of his life, Babu Dalchandji Singhi cherished a strong desire to do something towards encouraging research into important works of Jaina literature and publishing their editions scientifically and critically prepared by eminent scholars. But fate had decreed otherwise; and before this purpose of his could become a reality, he expired. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A5] However, Babu Bahadur Singhji Singhi, worthy son of the worthy father, in order to fulfil the noble wish of the late Dalchandji Singhi, continued to help institutions like the Taina Pustaka Pracăraka Mandala, Agra; the Jaina Gurukula, Palitana; the Jaina Vidyabhavana , Udaipur etc.; and also patronized many individual scholars engaged in the publication of the Jaina literature. Besides, with a view to establishing an independent memorial foundation to perpetuate the memory of his father, he consulted our common friend, Pandit Sri Sukhlalji, Professor of Jainism in the Benares Hindu University, an unrivalled scholar of Jaina Philosophy, who had also come in close contact with the late Babu Dalchandji Singhi, and whom the latter had always held in very high esteem. In the meanwhile, Babu Bahadur Singhji Singhi incidentally met the Poet, Rabindranath Tagore, and learnt of his desire to get a chair of Jaina studies established in the a-Bharati, Santiniketan. Out of his respect for the Poet, Sjt. Bahadur Singhji readily agreed to found the chair provisionally for three years in revered memory of his dear father, and invited me to take charge of the same. I accepted the offer very willingly, and felt thankful for the opportunity of nding even a few years in the cultural and inspiring atmosphere of Viśva-Bhāratī, the grand creation of the great Poet Rabindranath. During the period of 10 years of my principalship of the Gujarat Purătattva Mandir, Ahmedabad, and even before that period, I had begun collecting materials of historical and philological importance, and of folk-lore etc., which had been lying hidden in the great Jaina Bhandars of Patan, Ahmedabad, Baroda, Cambay, etc. I induced my noble friend Babu Bahadur Singhji Singhi, the great lover of literature and culture, also to start a Series which would publish works dealing with the vast materials in my possession, and also with other allied important Jaina texts and studies prepared on the most modern scientific methods. Hence the inauguration of the present Singhi Jaina Series. Babu Bahadur Singhji Singhi is himself a great connoisseur and patron of art and culture. He has an unbounded interest in creative researches in antiquities, and has a very good collection of rare and historic paintings, manuscripts, coins, books, and jewellery. On many occasions the organisers of various exhibitions throughout India have had to call upon him for loan of his art collection, and he has gladly responded to their requests without fail. In 1931 he was the recipient of a gold medal from the Hindi Sahitya Sammelan as a mark of appreciation of his unique collection. H Fellow of the Royal Society of Arts (London); a member of the Royal Asiatic Society of Bengal, Bangiya Sahitya Parishat, the Indian Research Institute, and many other similar institutions. He is also one of the Founder-members of the Bhāratiya Vidyā Bhavan, Bombay. He was one of the prominent working members of the Executive body of the "All-India Exhibition of Indian Architecture and Allied Arts and Crafts" held in Calcutta in February, 1935. i Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A6] Babu Bahadur Singhji Singhi is a prominent leader of the Swetambar Jaina community. He was elected President of the Jaina Swetambar Conference held in Bombay in 1926. He is also connected with many other Jaina conferences and institutions either as president, patron or trustee. Though thus a leading figure in the Jaina community, Babu Bahadur Singhji Singhi has always maintained a truly national and non-sectarian spirit and helped also many institutions which are outside the Jaina fold. For example, he has donated Rs. 12,500 for constructing a building at Allahabad for the Hindi Sahitya Parishat. In fact his generosity knows no distinction of caste or creed. Really speaking, he does not in the least hanker after name and fame even though he is a multi-millionaire and a big Zamindar, and even though he is a man of superior intellect and energy. He is by nature taciturn and a lover of solitude. Art and literature are the pursuits of his choice. He is very fond of seeing and collecting rare and invaluable specimens of ancient sculpture, painting, coins, copperplates, inscriptions, manuscripts etc. He spends all his spare time in seeing and examining the rarities which he has collected in his room as well as in reading. He is seldom seen outside and he rarely mixes with the society and friendly circle. Wealthy persons like himself usually have a number of fads and hobbies such as seeing the games and races, visiting clubs, undertaking pleasure trips etc., and they spend enormously over them, but Singhiji has none of these habits. Even the managers of his colliery and zamindari travel in first class while he, the master, travels mostly in the second class. Instead of wasting money on such things, he spends large sums on collecting old things and valuable curios and on the preservation and publication of important literature. Donations to the institutions and charities to the individuals are for the most part given anonymously. I know it from my own experience that these gifts, donations and charities reach a very high figure at the end of every year. But he is so modest that on his being requested so often by me he did not show the least inclination to part with the names and whereabouts of the individuals and institutions that were the recipients of such financial aid from him. By chance I came to know of a very recent example, just now, indicative of this characteristic of his nature. Last year he shifted, like other innumerable inhabitants of calcutta, his headquarters to Azimganj (Dist. Murshidabad) when the fear of the Japanese invasion was looming large, and decided to stay there with his whole family during war time. Taking into consideration the present grievous condition of the country as well as the excessive scarcity of the grains in Bengal, he had hoarded grains in large quantities with a view to distributing them gratis according to his capacity. Thereafter the problem of food became rather more serious and at present the prices have risen inconceivably high. Babu Bahadur Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A7] Singhji Singhi could have earned three to four lacs of rupees if he had, like many other miserly merchants, sold off the hoarded lot of grains, taking undue advantage of the prevailing conditions. But he resisted the tempta. tions, and has been daily distributing freely the grains among thousands of poor people who shower blessings on him; and he enjoys a deep self-satisfaction. This is the most recent example that puts us in adequate knowledge of his silent munificence. Really he is a very silent and solid worker and he has no desire to take active part in any controversies, social or political, though he has sufficient fitness and energy to do so. Still however he is skilful enough to do what is proper at a particular time. The following incident will best illustrate this statement. It was in the fitness of things that a wealthy multi-millionaire like him should give an appropriate contribution in the war funds. With this view he arranged in the second week of December, 1941, an attractive show, styled Singhi Park Mela in the garden of his residential place at Calcutta in which all the local people and officers of name and fame, including the Governor of Bengal, Sir John Arthur Herbert and lady Herbert as well as the commander-in-chief (now the GovernorGeneral-designate) Viscount Wavell, had also taken part with enthusiasm. This show fetched thousands of rupees which were considered substantial financial help to the war funds. The series was started, as mentioned above, in 1931 A. D. when I worked as a Founder-Director of the Singhi Jain Chair in Visvabhāratī at Shantiniketan, at Singhiji's request. It was, then, our aspiration to put the Singhi Jain Chair and the Singhi Jain Series on a permanent basis and to create a centre at Viśvabhārati for the the studies of Jain cult in deference to the wishes of the late Poet Rabindranath Tagore. But unfortunately I was forced to leave this very inspiring and holy place on account of unfavourable climatic conditions etc. which I had to face during my stay of about four years there. I shifted, therefore, from Viśvabhārati to Ahmedabad where I had formerly resided and worked in those glorious days when the Gujarat Vidyapith and the Purătattva Mandir had been established as a part of the movement for national awakening and cultural regeneration. I went there in the hope that the reminiscences of those days and the proximity of those places would serve as sources of inspiration in my literary pursuits. In the intervening period the activity of the Purātattva Mandir had languished and along with the arrest of its many scholar-workers the vast, precious collection of books also was confiscated and placed in a locked room by the British Government. After some years when it was set free it layunadored, like images, without its worshippers in the Mandir. My old friends and colleagues of the Purătattva Mandir and the Vidyāpith had, like myself, taken to different pursuits at different places. When some of them, namely, Prof. R. C. Parikh (who is, at present, the Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A8] Director of the Postgraduate and Research Departments of the Gujarat Vernacular Society, Ahmedabad), Prof. R. V. Pathak (who is, at present, the Vice-Principal of the S. L. D. Arts College, Ahmedabad), Pandit Sukhlalji (who is the Head of the Department of Jain Studies in the Hindu University, at Benares) and myself occasionally met, we all revived our old sweet memories of the Vidyapith and the Puratattva Mandir, discussed also the possibility of a regeneration of the Mandir or of the establishment of other similar institution at Ahmedabad and enjoyed in dreaming dreams of schemes of such institutions. During this period my aim of life had centred round the Singhi Jain Series and I devoted every iota of my energy to its development and progress. In June, 1938, I received, to my agreeable surprise, a letter from Śri K. M. Munshi (who was, then, the Home Minister of the Congress Ministry of the Bombay Presidency), my esteemed friend and the originator and the founder of the Bharatiya Vidya Bhavan. In that letter he had mentioned that Sheth Sri Mungalal Goenka had placed a liberal sum of two lacs of rupees at his. disposal for the establishment of a good academic Institution for Indological studies and he had asked me to come down to Bombay to discuss and prepare a scheme for that. Accordingly, I came here and saw Munshiji. Knowing that he had a fervent desire of founding at Bombay an institution of the type of the Puratattva Mandir, I was extremely delighted and I showed my eagerness to offer for that such services as might be possible for me. We, then, began to draft out a scheme and after some deliberations and exchange of ideas the outline of the Bharatiya Vidya Bhavan was settled. Accordingly, on an auspicious full-moon day of the Karttik of 1995 (V. S.) the opening ceremony of the Bharatiya Vidya Bhavan took place amidst the clappings and rejoicings of a magnificent party which was arranged at the residence of Munshiji. The Bhavan will complete five years of its career on the next Kärttiki full-moon day. The brilliant achievement and the wide publicity which the Bhavan has been able to secure in this short period of five years, bear eloquent testimony to the inexhaustible fund of energy and unsurpassed skill of Munshiji. As I am inseparably linked up with its very conception, I also feel the same amount of joy and interest at the Bhavan's progress as Śrī Munshiji, its FounderPresident and therefore I have been always offering my humble services in its various undertakings and activities. On the other hand, the Singhi Jain Series is the principal aim of my remaining life and the results of my thinking, meditation, researches and writings have all been devoted to the development of the Series. As life passes on, the time of activity is also naturally shortened and therefore it is quite appropriate, now, for me to chalk out lines of its future programme and permanence. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A91 As Babu Bahadur Singhji Singhi, the noble founder and the only patron of the Series, has placed the whole responsibility of the Series on me from its inception, he has the only right to expect that more and more works may more speedily and splendidly be published. I have neither seen nor come across any other gentleman who can match with him as regards generosity and unbounded zeal for the revival of ancient literature. After the works of the Series he has spent through me about more than 50,000 rupees till now. But he has not even once asked me, during this long period of a dozen of years, as to how and for what works the amount was spent. Whenever the account was submitted to him, he did not ask for even the least information and sanctioned it casting merely a formal glance on the account sheets. But he discussed very minutely the details regarding things such as the paper, types, printing, binding, get-up, etc. as well as internal subjects like Preface and others, and occasionally gives very useful suggetions thereon with deep interest. His only desire being to see the publications of as many works as possible in his life-time, he is always ready to spend as much, after it, as required. He does not labour under a delusion that the things should be done in this or that way when he is no more. As these were his ideas and desires concerning the Series and as the sses leaves me all the more convinced of the fickleness of my advanced life too, it was imperative for us to draw out a scheme of its future programme and management. Just at this time a desire dawned in the heart of Munshiji, to the effect that if the Singhi Jain Series be associated with the Bhāratiya Vidya Bhavan, both the institutions would not only be admirably progressing but the Series would get permanence and the Bhavan, unique honour and fame by its hereby becoming an important centre for the studies of Jain culture and the publication of Jain literature. This well-intentioned desire of Munshiji was much liked by me and I conveyed it in a proper form to Singhiji who is, besides his being a founder-member of the Bhavan, also an intimate friend of Munshiji since long. Eventually he welcomed this idea of Munshiji. I also came to a final decision of associating the Series with the Bhavan, having consulted my most sincere friend, life-long companion and co-worker, Pt. Sukhlalji, who is a well-wisher and an active inspirer of the Series, and who is also an esteemed friend of Babu Bahadur Singhji. Luckily we all four met in Bombay in the bright half of the last Vaisakh spicious day we all sat together and unanimously resolved, at the residence of Munshiji, to entrust the Series to the Bhavan. According to that resolution, the publication of the Series starts with this work under the management of the Bhāratiya Vidyā Bhavan and the office of the Series is also permanently located now in the building of the Bhavan. In addition to transfering all sorts of copyright of the Series, Singhiji has also donated a liberal sum of 10,000 rupees which will be spent Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 10] on erecting a hall, to be named after him, in a prominent place in the Bhavan. In appreciation of this generous donation of Singhiji, the Bhavan has also resolved to style permanently the Department of Jaina Studies as the "Singhi Jain Sastra S'ikṣapith". Thus the Singhi Jain Series, which is the fruit of the enlightened liberality of Babu Bahadur Singhji Singhi, will flourish, I hope, under the management of the Bharatiya Vidya Bhavan and will contribute to the advancement of a fan-Indological Studies - in all their aspects. BOMBAY, BHARATIYA VIDYA BHAVAN, 9th August, 1943. * } JINA VIJAYA MUNI. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A Review By Dr. Suniti Kumar Chatterji, M.A. (Calcutta), D. Litt. (London), F.R.A.S.B., Khaira Professor of Indian Linguistics & Phonetics, Calcutta University; Philological Secretary to the Royal Asiatic Society of Bengal, Calcutta. * The Jaina Literature of Western India - Gujarat, Rajputana and Malwa - during the medieval and early modern periods forms quite a distinctive thing in the expression of Indian culture, and by its extent and variety presents a veritable embarras de richesse. Philosophy, legendary, hagiographical and historical narrative, folk-tale, ritual, monastic, discipline, topography, grammar and study of literature - these are the subjects which find special treatment in this literature, which is composed in Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa and early forms of the vernaculars, like Gujarati and Marwari. Rich treasures of this and other literature are preserved very carefully in the many Jaina bhāṇḍārs or collections of books and MSS. in India, particularly in Gujarat and Rajputana, the strongholds of the Jaina faith in present-day India. These Mss. have from time to time been edited and published, much to the enrichment of our knowledge of the culture of ancient and medievel India, in which Jaina munificence has nobly co-operated with Indian and European scholarship. There are individual editions of some of the most important works, as well as editions in the various series, bearing ample testimony to the friendly rivalry of Laxmi and Sarasvati (to use the common Indian parlance) for the same end. Among the many series of Jaina texts, translations, lexicons and expositions, the latest, the Singhi Jain Granthamala, is one of the most remarkable, and in many respects, unique. In 1930, Seth Bahadur Singhji Singhi of Calcutta and Murshidabad, representative of an old family of princely merchants and bankers from Western India settled for some generations in Bengal, inaugurated in memory of his father the late Seth S'ri Dalchandji Singhi a foundation for Jaina studies (Singhi Jaina Jñana-pitha) and research in connexion with the Vis'vabharati Institute of Rabindranath Tagore at S'antiniketan in Bengal; and Muni S'ri Jinavijayaji as the first Director of the Jaina Research Foundation is bringing out the admirable editions and other works in the "Singhi Jain Series". The seat of the foundation has since been removed to Culcutta. Muni S'ri Jinavijayaji is a remarkable personality, as we can gather from the brief autobiographical sketch in Sanskrit slokas given as an introductory matter in these volumes. This is an excellent idea-a knowledge of the personality of the author or editor makes for the better appreciation of work; we are reminded of the biographical sketch obligatory in German University theses. Muni Jinavijayaji was born as the son of a Rajput nobleman in Mewär. Early in life he was educated by a Jaina Yati of great learning and piety, named Devihamsa, and it was through him that he became initiated into Jainism and its philosophy. He lost his father and his guru while quite young. He finally became a Jaina monk, and in the Jaina cloisters he laid the foundation Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 12] of that erudition which has now placed him in the forefront of Hindu scholarship at the present day, particularly in Jainism. His learning and austerities made him also a Muni, a monk who has attained to sainthood in Jainism. Later he busied himself, at Poona (in the Bhāņdārkar Research Institute) and elsewhere, in editing texts and inscriptions, and in carrying on Indological research and study in general. Mahātmā Gāndhi then called him to take charge of the Indian Research Department of the Gujarāt Vidyāpītha, the national university he had established at Ahmedabad. After eight years of fruitful work there, Muni Jinavijayaji went to Germany. A change in his attitude to life had already begun at Poona when he came in touch with Mahātmā Gāndhi and Lokamānya Tilak; and further, as the result of his coming in contact with the active and energetic mind of Europe in Germany, he sought to express himself in other activities than that of the simple scholar and teacher; and, returning to India, he plunged into the Satyāgraha movement, leaving for a while his studies and his researches in favour of social and political work. With many other prominent intellectuals he went to jail; and when he came out of it, he was invited by Mr. Bahadur Singh Singhi to take up the Chair of Jaina Studies established by him as a temporary measure at Santiniketan. With the traditional learning of Jaina Muni, universally respected for his scholarship, connected with the most important seats of learning and research at Baroda, Ahmedabad, Poona and Santiniketan, intimate collaborator through his own sphere of scholarship with men like Tilak, Gāndhi and Rabindranath Tagore, and travelled in Europe, Muni Sri Jinavijayaji is thus a unique personality in Indian scholarship; and the inauguration of a series of publications under his editing and supervision is a matter quite noteworthy in the field of Indology. The volumes before us have been reproduced in a way which is quite worthy of the eminence and erudition of the editor. These are large-sized works, printed beautifully on good paper and in bold type at the well-known Nirnaya-Sagara Press of Bombay, and bound in stiff boards. Five volumes are already in print, ten are printing, and besides, ten more are under preparation or waiting to be edited and prepared for the press. So far, all this excepting one-Bühler's Life of Hemacandrācārya translated from the German by Dr. Manilal Patel, Ph.D. (Marburg) of the Visvabhārati Vidyā-Bhavana, published 1936) has been Muniji's work, as a veteran scholar who has already to his credit the editing and publishing of quite a large number of texts, monographs etc. The .Singhi Jain Series? begins with an edition of the Prabandho cintamani of Merutungācārya (early 14th century A. C.). This important historical work is contemplated to be completed in five parts of which the first two are out. The first part (pub. 1933) gives a critical edition of the Sanskrit text, based on the oldest and best MSS. available, and Muniji's edition easily puts out of date the first edition published long ago. The second part (Pab. 1936), called the Purātana-Prabandhasangraha is a collection of many old prabandhas similar and analogous to the matter in the Prabandha-cintamani together with the gists of some of the prabandhas in the Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 13] latter work, and with indexes of the verses and proper names in it, preceded by a critical introduction in Hindi. In this part a mass of new material throwing light on the Prabandha-cintamani and the life and literature of the period has been called and brought together, and here we find ample evidence of the wide reading and the critical and historical acumen of Śrī Jinavijayaji. There are as many as 58 such prabandhas in Prakrit (apabhramsa) and Sanskrit. A most valuable find in this connexion has been of the fact that Apabhramsa equivalents (going back to the age of the Prabandha-cintamani) of some of the verses of the Prthvi-rāja-rāsau the old 'Hindi' epic of Canda Kavi are found in this collection. This makes it clear that extant Prthvi-raja-rāsau is not so spurious or recent as many scholars were inclined to think. Muniji has given the Apabhramsa verses side by side with the 'Old Hindi' of the Rasau (p. 9, Introduction), and in this way he has thrown important light on the genesis and development of this great landmark in North Indian Vernacular literature. The conclusion is inevitable that the original Rasau was a kind of Apabhramśa and not in a Modern Indo-Aryan speech; and that the Rasau is more a continuation of the Apabhramsa tradition in language and literature than a new vernacular beginning. Muni Jinavijayaji puts forward a vigorous plea for a proper critical study of the Răsau Text, which must be broad-based on a wide knowledge of prakrit and Apabhramsa literature, particularly the latter, before out of the mass of very corrupt verses in the received text of the Răsau something like a satisfactory edition could be evolved. The edition of the Rasau published by the Nagari pracāriņi sabha of Benares from this point of view is just an uncritical and non-philological reprint from the MSS. Muni Jinavijayaji urges upon the taking in hand of a new critical edition of the Rasau by the Nagari pracāriņī sabhā emulating the critical edition of the Mahabharata by the Bhandarkar Oriental Research Institute of Poona, basing it on a comparison with the huge mass of published and unpublished Apabhramsa verse narratives, distichs and stanzas, and fragments. This is as sound a proposal as can emanate from a scholar whose erudite researches have traced out a new track in what was a hopeless tangle. The other volumes remaining, contemplated to complete the work, will consist of (3) a complete Hindi translation, with critical introductions, of parts I & II already published in the original; (4) a collection of epigraphical records (in the shape of inscriptions of all sorts, MS. colophons etc.), and all available materials dealing with the persons mentioned in the Prabandhacintamani with a critical account of it all in Hindi; and (5) An elaborate general Introduction surveying the life and culture of the period covered by the work. These two parts, (4) & (5), will be fully illustrated by plates. The Prabandha-cintamani gives the history of Gujarat in relation to Jainism a thousand years ago; and although an English translation by C. H. Tawney, good but tentative in some parts, was published from Calcutta by the Asiatic Society of Bengal many years ago, the good edition of the original was a desideratum; and the Singhi Jain Series' has given it to the world with critical and other apparatus such as would please the most fastidious. When completed, these five volumes will give the most detailed study of this Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 14] important document of medieval Hindi life and religion in Western India, and will have a unique importance in world of Indological studies. The other three volumes so far out are an edition of Rajasekhara's Prabandhakosa (14th century) Jinaprabha-suri's Vividha-tirtha-kalpa and an English translation of Bühler's Life of Hemacandra from the German. The Prabandha-kośa (Pub. 1935) is a collection of narratives about 24 celebrities of ancient India 10 of whom were great saints and teachers of Jainism, 4 literary celebrities of Sanskrit, 7 great princes of ancient and medieval times, and 3 other Jaina worthies of repute. It is a work of the type of the Prabandhacintamani; and a number of similar works written in Western India show that it was favourite literary genre. These works sometimes overlap, naturally enough, when they treat of the same personality. In his introduction, the editor discusses the historical, literary and other importance of the Prabandha-kosa, and he promises us a collection of similar other Prabandhas treating the same topics. The present edition is of course far in advance of the rough print of the work in pothi-form published some years ago in the 'Patan Hemacandrācārya Granthavali' Series. Jinaprabha's Vividha-tirtha-kalpa (pub. 1934) is, as its name shows, a sort of guide-book or gazetteer of Jaina Sacred places of India of the 14th Century A. C. Of the holy places described, 8 are in Gujarat and Kathiawād, 7 in Rajputana-Malwa, 6 in Northern India (U. P.) and the Punjab, 11 in Oudh and Bihar, 3 in Mahārāshtra, and 3 in Karṇāṭak and Telingana. The work is published for the first time from the original MSS., and the MSS. material utilised is adequately described: the edition of it by D. R. Bhandarkar and Pandit Kedarnath of Jaipur has remained unfinished, after only one facicule of it (96 pages only corresponding to 30 pages of the present edition of 108 pages) was published by the Asiatic Society of Bengal. Georg Bühler's masterly treatise on the life and works of Hemacandra, one of the most erudite scholars of Medieval India was published from Vienna in 1889. It has so far remained confined to the original German work, and has been a sealed book to most Indian scholars. It was a happy idea to present it in an English garb to a large circle of students in India and abroad, and Dr. Manilal Patel Ph. D. (Marburg) a young Indologist, has done his task successfully. Professor M. Winternitz of the German University of Prague has contributed a Preface. The learned Preface by the General Editor, Muni Jinavijayaji, supplements and corrects some of points in Bühler's work in the light of later discoveries and more close studies, and thus brings the work up-to-date. This model of careful research forms a distinct addition of the valuable output of the Singhi Jaina Series. The "Singhi Jain Series" has come out with great promise and we hope that with the financial and scholarly collaboration of Babu Bahadur Singh Singhi and Muni Jinavijayaji and others, it will have a brilliant output in the course of the next few years. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES SOME APPRECIATIONS (1) From the late Poet, RABINDRA NATH TAGORE. 6 Uttarayan'' Santiniketan, Bengal 1st August, 1935. Jinavijaya Muni, during the period he was serving here as Singhi Professor of Jaina Culture at Visva-Bharati carried on valuable work in tracing out and editing some of the most important religious books of the Jainas. They have just been published as the first three volumes of the Singhi Jaina Series and we hope some more will follow. It will be difficut to overestimate the importance of these publications, as they reveal an hitherto undisclosed chapter of our cultural history. Most of the sacred books of the Jainas are securely locked up in monasteries scattered all over the country and access to them is extremely difficult, if not absolutely impossible. By his work, Prof. Jinavijaya Muni has rendered a considerable service to the cause of scientific research in the field and I am sure, his books will attract the attention of scholars, they so preeminently deserve. (sa.) Rabindra Nath Tagore.. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 16] (2) From late great Indologist, PROFESSOR Dr. M. WINTERNITZ, Ph. D., Professor of Indology and Ethnology at the German University of Prague (Czechoslovakia). It is with great pleasure that to-day I am able to welcome the new Singhi Jain Series, published under the able editorship of Jinavijaya Muni, the professor of Jaina culture at Viśvabharati, Santiniketan. The three volumes which lie before me, include critical editions of Merutunga's Prabandha Cintamani, Rajasekhara Suri's Prabandha Kosa and Jinaprabha Suri's Vividha Tirtha Kalpa. All the three works belong to the first half of the 14th century A. D. Though their chief contents are legends, stories and anecdotes, they are not without historical significance. The works of Merutunga and Rajasekhara, treating of historical and literary personages, the great Jaina monk Hemacandra and King Kumārapāla amongst others, have been utilized by the late Bühler for historical purposes in his well-known Life of Hemacandra, which is now being translated into English and will also be included in the Singhi Jain Series. Merutunga's Prabandhacintamani is best known by C. H. Tawney's English translation, published in the Bibliotheca Indica, 1901, but the edition of the text published at Bombay, 1888 is hardly available, for Tawney translated the text from three manuscripts. I know of no edition of Rajasekhara's Prabandhakosa. An edition of the Tirthakalpa of Jinaprabha, a work which describes Jinistic places of pilgrimage, giving the names of their founders, the kings by whom they were restored, and their dates, has begun to be published in the Bibliotheca Indica, 1923, but seems to be still incomplete. Thus the editions of the three works in the Singhi Jain Series meet a real want of Indology. The three volumes are excellently printed and got up, good selections of manuscripts have been used for the texts, variants are given, and useful Indices have been added. Like so many other Jaina publications the Singhi Jain Series owes its origin to a pious foundation. It has been founded by Sriman Bahadur Singhji Singhi of Calcutta in memory of his late father Sri Dalcandji Singhi. The founder and the Editor of the Series, are heartily to be congratulated on these publications, and we wish it every success for its progress. (Sd.) M. WINTERNITZ. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE BY THE GENERAL EDITOR PANDIT Śrī Nāthuramji Premi, my learned and sincere friend, used to come occasionally to Poona and stay with me for some time when I was staying there to offer my active, helpful co-operation in the foundation and deve. lopment of the famous Bhandarkar Oriental Research Institute, bet 25 years. He applied himself chiefly to writing various important articles, essays etc. throwing light on Jaina literature and History. Just at this time I had also started a research quarterly, styled the Jain Sahitya Samsodhaka, with an object that people may get benefit of our research and literary activities. In the first issue of that journal, Pt. Premiji had contributed one article, giving a brief description of Harişenācārya's Kathākosa the manuscript of which we saw for the first time in that Institute. From that day, Premiji had cherished an intense desire to see it published and I am glad to announce that even after twentyfive years it sees the light of the day, in such an excellent form, at the hands of such an accomplished scholar and editor as my learned friend Dr. A. N. Upadhye, M. A., D. Litt. I take all the the more pride because it appears as a valuable work of the welcomed Singhi Jain Series. An exhaustive Introduction containing 122 pages and evincing mature erudition, itself testifies to the amount of labour and time the learned editor has given to the work. It is the first of its kind so far as it makes autoritative statements regarding the wide range and variety of the Jain narrative literature and the nature of its relation with the general narrative literature of India. Dr. Upadhye has passingly referred in his Introduction to some of the many works written by the Jain men of letters with a view to inculcate principles of religion and ethics. One of such distinguished works which is about to be published along with this work is that of Jinesvarăcărya, in elegant Prākrit. During my searches and investigations of the Jaina Bhāņdārs, I have come across quite a great number of story works, big and small, the names of whose authors are not known, besides the reputed works of the well known writers such as Devabhadra, Naracandra, Subhasila, Rajasekhara, Jinasāgara, Hemavijaya and others. I have many such collections with me and the number of stories, occurring therein, goes beyond several hundreds. Some of the stories deal with historical topics while some are devoted to subjects of Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 18] religion and ethics. Also there are some the sole aim of which is nothing but diversion while in some the picture of an average public life is found portrayed. Even the so-called literary persons have no idea of this sort of vast literature, then what to talk of an ordinary student of Indian culture? It is my ardent desire to publish some such collections of story works in the Singhi Jain Series in the near future and I have already begun to prepare some of such works. I take this opportunity of heartily congratulating Pt. Premiji for inspiring me to publish the present Kathakosa in this series and Dr. Upadhye for adding to the dignity of the series by his superfine edition of the same. I hope the readers and the well-wishers of the series will surely be glad to know that many such works will be published in this series, in course of time, by this veteran scholar and editor. The founder of the series, Babu Śrī Bahadur Singhji Singhi and I also express our heartfelt gratitude to the university of Bombay for giving an adequate financial help in the publication of this work, in response to Dr. Upadhye's request and I hope it will continue the same with increased goodwill in our publications of works bearing on Indian culture. BOMBAY, BHARATIYA VIDYA BHAVAN, 1st August, 1943. JINA VIJAYA MUNI Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE WHILE bringing forth an authentic edition of this important Kathakośa of Harisena (A. D. 931-32), the editor is presenting, in the Introduction, not only a critical study of this valuable Sanskrit text but also an outlinear survey of Jaina Kathanaka literature in the back-ground of Indian literature. The Sramanic ideology occupies a significant position in Indian thought; and it stands specifically for certain principles and practices which are illustrated in the vast amount of narrative tales preserved in Buddhistic and Jaina literature. They embrace all sorts of subjects, including folk-tales and parables, mainly to illustrate the workings of human mind and Karmic ordination under varying conditions of life; in addition, they edify and exhort religio-moral principles, and glorify men of religion and ascetic heroes. A stock of such Kathanakas, as well as of their later elaboration, is taken especially from the different strata of Jaina literature. Many religious texts have afforded opportunities to different authors to load their comment. aries with illustrative stories which were individually enlarged and separately collected later on; and we possess to-day many compilations of Kathanakas which are duly listed and reviewed in the Introduction. The Bhagavati Aradhana is an important Prakrit text belonging to the pro-canon of the Digambaras and dealing with Jaina monachism. It contains much material which is partly common with the Svetambara canon and the Niryuktis and which antedates the division of Jaina church into Svetămbara and Digambara. It was subjected to both Prakrit and Sanskrit commentaries; and those of Aparajita and Asadhara are carefully examined, along with a critical study of the original Text. Definite limits are put for the age of Aparajita, and a tentative attempt is made to settle the date of the Bhagavati Aradhana. The legendary references contained in its gathās have been duly connected with the various tales found in the Kathakośas of Harişena, Śrīcandra, Prabhācandra and Nemidatta, and in the Kannada Vadḍārādhane. These works are thoroughly and critically studied noting their mutual relation. The section on the Vadḍaradhane, which is a significant prose work in early Kannada literature, clarifies important issues about its authorship and date. It has been shown how the source of these Kathakosas goes back to some Prakrit commentary on the Bhagavati Aradhanā. Then an exhaustive study of the Kathakośa of Harisena is instituted: its title and contents are discussed; the various strata of the text are analysed; its cultural heritage and literary kinship are scrutinised in the back-ground of Indian culture and literature; social and historical bits of information are put together; its relation with other Kathakośas is examined; the Sanskrit language of the text, especially grammar and vocabulary, is studied in comparison with the material available with respect to Classical Sanskrit ; and lastly, the views of some oriental scholars on the Jaina narrative literature are quoted. The Introduction is concluded with a note on Harişena, the author, his place and date. Thus the Introduction covers a good deal of fresh field. Important texts in different languages have been Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A 20] studied critically, and in a few cases for the first time; good many new facts are brought to light; and note-worthy conclusions have been arrived at after correlating the old and the new material. The Mss. material and the method adopted in constituting the text are described in detail. If I appear over-conservative in following the material supplied by the Mss., I hope, I have erred on the safer side. It would be a dis-advantageous step, somewhat unfair to the author, in our pursuit of reaching a really critical text that an editor of an editio princeps should silently correct the text, without Ms. evidence, according to his understanding of the grammatical standard. Whenever an emendation, probably lying at the basis of various apparently corrupt readings seen in the Mss., occurred to me, I have noted it either in square-brackets in the foot-notes or in the Notes at the end. Obviously they are all tentative, till they are confirmed by new material. The Notes include, besides textual emendations and peculiarities, many important details on which some of the conclusions in the Introduction are based. The University of Bombay very kindly awarded me the Springer Research Scholarship; and I feel happy to record that, during the tenure of the Scholarship, I was able to contribute not only a number of papers connected with Prakrit literature and language but also to complete this edition of the Kathakośą with its Introduction. It is a matter of pleasure to look back on the last few years and remember with gratitude the kindly aid of so many friends and colleagues. I owe important suggestions, references, information and material to my various friends: Pt. K. P. Jaina, Aliganj; Pt. Bhanwar Lal Nyayatirtha, Jaipur; Prof. Hiralalaji Jaina, Amraoti; Mr. P. K. Gode, Poona; Prof. H. D. Velankar, Bombay; Prof. K. G. Kundangar, Kolhapur; Pt. Jugal Kishore, Sarsawa; Dr. A. M. Ghatage, Kolhapur; Mr. R. S. Panchamukhi, Dharwar : to all these scholars I offer my sincere thanks. I am very thankful to my friend Mr. K. J. Dixit B. A., B. T., Sangli, who carefully read the text and offered some valuable suggestions which I have included in my Notes. Pt. Nathuram Premi's name deserves to be closely associated with this edition. It was at his suggestion that I undertook it; almost with a personal affection he watched and encouraged my studies of this Kathakośa; and perhaps this work would not have seen the light of day but for his kind interest. I record my sense of gratitude to Sriman Babu Bahadur Singhji Singhi, the noble founder of the stately Singhi Jaina Series in which my edition of the Bṛhat Kathakosa has been so kindly included; and to Acharya Śrī Jinavijayaji, the able Director and gifted Editor of the Series, with whom it is a pleasure to collaborate in academic pursuits and whose encouragement, co-operation and lavish supply of inaccessible books have greatly facilitated my work. I have to acknowledge my indebtedness to the University of Bombay for the substantial financial help it has granted towards the cost of the publication of this book. karmanyevadhikaras te: Rajaram College, Kolhapur. December, 1942. A. N. UPADHYE Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 1. CRITICAL APPARATUS AND TEXT-CONSTITUTION i) Description of Mss. and their Mutual Relation This editio princeps of the Kathakośa of Harişeņa is based on three Mss. whose description is given below: Pa: This paper Ms., written in Devanāgari characters, belongs to the Deccan College Collection, now deposited at the Bhandar Research Institute, Poona. It measures 12.7" x 5.7", and bears the No. 1159 of 1891-95. In all there are 350 folios written on both sides; the first and the last folio, however, are written on only one side. The page No. 267 is put twice. There are twelve lines on a page, and about 50 akşaras in a line. Black ink is used for the body of the text, while the marginal lines, the Dandas, the verse-numbers and the colophons are written in red ink. On many pages the hand-writing looks apparently different, but I think that the whole Ms. is written by one and the same copyist. It is well preserved. The characters are neat and clear. There are a few marginal notes giving the synonyms of some stray and unusual words occurring in the text. The words to be spaced and the absorbed vowels are indicated by comma-like strokes and Avagraha-like marks respectively; and they are put on the head of the line. A few corrections are made here and there with white paste, and some of them are quite sensible. In many cases they agree with the actual readings of either Pha or Ja. Scribal irregularities in numbering the verses and stories are seen in many places. The Ms. opens thus : follo AT Date II The concluding portion runs thus : sa sft-recapi perai समाप्तं ॥ ग्रंथसंख्या १२५०००॥ श्रीरस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥ संवत् १८६८ का मासोतममासे जेठमास शुक्लपक्षचतुर्थी तिथी सर्यवारे श्रीमलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरखतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारकजी श्रीमहेंद्रकीर्तिजी तत्प? भाटारकजी श्रीक्षेमेंद्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारकजी श्रीसुरेंद्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारकशिरोमणिभट्टारकजी श्रीसुखेंद्रकीर्तिजी तदानाये सवाईजयनगरे श्रीमन्नेमिनाथचैत्यालये गोधाख्यमंदिरे पंडितोत्तमपंडितजी श्रीसंतोषरामजी तत्सिख्य पंडितवषतरामजी तच्छिष्य हरिवंशदासजी तत्सिष्य कृष्णचंद्रः तेषां मध्ये वषतरामकृष्णचन्द्राभ्यां ज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ बृहदाराधनाकथाकोशाख्यं प्रथं स्वशयेन लिषितं श्रोतवक्तजनानामिदं शास्त्रं मंगलं भवतु ॥ This colophon is copied as it is. without any material changes; and it shows that the copyist is writing Sanskrit with a good deal of Hindi influence. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · BRHAT-KATHĀKOŠA Pha: This is a paper Ms. written in Devanăgari characters, and belongs to the Deccan College Collection now deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. It measures 13.25" x 6.5", and bears the No. 1049 of 1887-91. In all there are 377 folios, and they are written on both sides excepting in the case of the first folio. The Ms. two divisions : 157 folios are written in one hand, and the subsequent folios (with the last three lines on p. 157) are written in a different hand. In the first part there are 13 lines on a page with 35 to 40 akşaras in a line; and in the latter portion there are 12 lines on a page with some 45 aksaras in a line. Marginal lines, Dandas, numbers of verses, colophons and words like yugmam etc. are written in red ink and the verses are in black ink. The Ms. is not well preserved: it has suffered exposure to moisture; some leaves are clogged together; the surface of some pages is torn; and the edges of some folios are spoiled. Here and there some repairs are effected by pasting paper and by attempting to reproduce the lost letters, but the readings so replaced are purely conjectural. Some of the clogged pages could not be collated, but such pages are not many. The damage is apparent more in the first 157 folios, the paper of which is comparatively inferior. Scribal slips and irregularities are found in plenty in this Ms. After the symbol of bhale, the Ms. opens thus: BOTH Agiga, and the concluding portion runs thus : sa ERTT CAST All I 98400 ll ft OL १८७७ का मासोत्तममासे आसाढसुक्लपक्षे तिथौ ५ भृगुवासरे लिप्यकृतं माहात्मा संभुराम सवाईजयपुरमध्ये लिषायंतं । Ja: It stands for the transcript (upto the end of the story No. 55) of a Jaipur Ms. kindly sent to me by my friend Pt. Kamta Prasadaji of Aliganj. Later on he arranged to send the Jaipur Ms. itself (leaves 87 onwards) to me after procuring it through Pt. Bhanwar Lal Shastri, Jaipur. The Ms. belongs to a private library in Jaipur. I owe spe Pt. Bhanwar Lalaji but for whose kind offices it would not have been possible to get this Ms. The portion of the Jaipur Ms. received by me does not exhibit an uniform constitution. Folios 87 to 122 are written in one hand with the verse-numbers, yugmam etc. and colophons in red ink. The appearance of these pages is comparatively old. A square piece is left blank in the middle of the page. There are some 13 lines on a page and about 45 akşaras in a complete line. For folios 123 to 318 new and thick paper is used; and the handwriting too is different and comparatively inferior in appearance. Pages 183 etc. are numbered as 173 etc. In this new portion, no square-like space is left blank in the centre of the page; the red ink is used only for the marginal lines; and some light reddish powder is applied to verse-numbers, words like yugmam and colophons. There are about 14 lines on a page and some 37 letters in a line. Division of words is indicated by short comma-like strokes put at the top of the line. Absorbed vowels too are shown by a sign like the avagraha. Scribal errors are covered by some white paste. On the last page, No. 318, the name of the work is written on the left margin as Bșhadārädhanākathākośa. After the 16th verse of the Praśasti, there is a number 12500, put between the lines, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION which perhaps stands for the Granthāgra. Then we have the colophon in red ink: इति श्रीहरिषेणाचार्यकृतबृहत्कथाकोशं समाप्तं । The two letters carrya are covered with black ink possibly by a later copyist who did not like to acknowledge Harişeņa as an Acārya. Then we have in black ink ÉTT 9623 AT AHAHAR THTEYCHTHAUTETTATRIT Parent it. The rest of the writing, covering nearly six lines, has been rubbed with black ink; and the letters can be recognised with great difficulty. Possibly this portion contains for whom the copy was prepared etc. Some names like Surendrakirti and Kşemendrakīrti are seen in that portion. On the upper margin of page 318 we have 'Lambara 1072 which possibly stands for the number of the Ms. in a particular collection. So far as the Ms. Ja is concerned, the portion which would have mentioned the place of copying is erased with black ink, but we have received this Ms. from Jaipur. The two other Mss. clearly state that they are written at Jaipur. Pha and Ja do not show uniform constitution; their dates consequently indicate the age of the concluding portion only, i. e., pp. 158-377 in Pha and pp. 123-328 in Ta. As the dates are available, Ta was written in Samvat 1833 (-57 = 1776 A. D.), Pa in Samyat 1868 (-57 = 1811 A. D.) and Pha in Samvat 1877 (-57 = 1820 A. D.). The pages 87-122 in Ja look older, and they can be assigned at least 50 years earlier than 1776 A. D. Apart from the form of letters, which is bound to vary from scribe to scribe, the style of writing is nearly alike in these three Mss. Here and there these Mss. add explanatory synonyms on the margin for certain obscure words; and the important ones are recorded by me in the foot-notes. These Mss. show some common orthographical peculiarities : c and v are written alike; the three sibilants are freely confused; in a conjunct group with me as the first member, the other member is necessarily written as a duplicate; visarga is retained when it should have been dropped, and it is at times dropped when it should have been retained; the graphic representation for tk, kt and ktv is almost alike; at times gr is confused with gr, mri with mr, and ? with ri; usually ch is written for cch; bho for bhoh, udyota for uddy sanmukha for sarmukha, hk for $k etc. Some of the words are mutually confounded, for instance, priti and prita, nihita and nihata, prāpya and prāpa, Ujjayani and Ujjayini, asisrayat and asisriyat. Samdhi rules are not regularly observed at the close of Padas.The Ms. Pha sometimes shows j for y. These three Mss. do not show anything like recensions, but they belong to one and the same family or group. Apart from the form of colophons and the use of yugmam, yugalam or yugalamidam, with which, I think, the copyists have taken slight liberty, the Mss. show quite minor variations among themselves. In the beginning Pa, Pha and Ja show some differences. Later when Pa and Pha differed, Ja agreed, now and then. either with Pa or Pha. But with the change of hand-writing on folio No. 157, i. e. from the verse No. 64 in the story No. 63, Pha begins to show remarkable agreement with Pa almost upto the end. With the story No. 107 onwards all the three Mss. closely agree in various details, and the Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOŚA number of different readings is almost negligible. Some of the readings of Ja agree with those of Pha, but the marginal corrections thereof agree with those of Pa. With the meagre evidence that is at our disposal, it is not possible to assert any direct relation between these three Mss. The texttradition presented in them shows mutual contamination, and possibly they go back to a common source a few generations of Mss. back. There are some significant lapses in all the three Mss. inherited from the common source. On p. 96 of this edition, we see that all the three Mss. interchanged the places of verses, Nos. 283-84, even against the trend of the story. The copyist of Ms. Pa did detect it, and he has added a marginal suggesti Secondly, on p. 226, after verse No. 293, there is a confusion in the arrange. ment of lines. I have already indicated in the foot-note how the lines require to be rearranged to give a continuous story. My explanation of this confusion is like this. In one of the earlier Mss., which lies at the basis of the tradition of the text preserved in Pa, Pha and Ta, tl might have skipped over a few lines through oversight; but realizing this omission later, he added them perhaps on the margin of the next page putting a remark 'agre prşthe likhitam asti' at the place where they were missed. The subsequent copyists transcribed this remark at the right place, but incorporated the missing lines, written on the next page, at a wrong place with the result that we have a few lines grossly misplaced in that context. Lastly, on p. 40, a common significant slip is seen in all the three Mss. that they put three lines in verse No. 71 when, in fact, the second line of No. 65 appears to have been missed. These typical cases go to confirm that these three Mss. go back to a common source in the near past. ii) Presentation of the Text The text of the Kathakosa, presented here, cannot claim to be critical in the strict sense of the term ; but it is authentic within the limits of the Mss. material described above. All the three Mss. show a close kinship and represent identical recension, though they are not the copies of one another. A close comparison helped the editor to eliminate many scribal errors and ascertain uncertain readings. As the text is being edited for the first time, I have proceeded with utmost conservatism. This text, moreover, belongs to a tract of medieval Sanskrit literature which shows important and interesting grammatical and lexical peculiarities that have racted the attention of philologists like Jacobi, Hertel, Bloomfield and others. I did not want that the linguistic peculiarities should be levelled down under any rigorous editorial discipline. So the agreement of the three Mss. has been uniformly upheld. The general spelling and other outward features of the text are presented in a standardised form. The orthographical peculiarities like ch for cch, bho for bhoh, udyot for uddyot, sanmukha for sarmukha, hk for sk etc., however, are retained, because they are so written by all the three Mss. The Sandhis have been restored where it could be Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION done without violating the metre; but difficult Samdhis, like those between n and c, n and l, n and $ etc., especially at the end of a Păda, are not rigorously effected. Absorbed vowels, whether a or å, have been usually indicated by single or double avagraha for facility of understanding. Important and meaningful variants are given in the foot-notes. The terms like yugmam etc. are relegated to the foot-notes for the sake of printing convenience. Nowhere the readings are emended in the body of the text. The text is corrupt in many places; there are syntactical irregularities; there are deviations from the recognised grammatical standard; there are obscurities of meaning and construction; and many a Päda is metrically defective. All these are allowed to remain, when there is the agreement of the three Mss. In many places, without going too far beyond the material of readings, convenient emendations could be suggested ; and some of them are put in square-brackets in the foot-notes. This should not be understood as some pretension of the editor to improve upon the text of Harişeņa, but it is a modest and sincere attempt to reach the genuine readings of Harişeņa whose original text has suffered a good deal at the hands of copyists through generations of Mss. When constituting the text, I felt myself faced with various doubts, suggestions and improvements with respect to the actual readings; and all these I have incorporated in the Notes at the end. These suggestions are tentative, and the critical student is requested to take them for what they are worth. Whether they are to be accepted or rejected would be apparent when some more Mss. are collated and better readings are made available. With this procedure I hope to have given an authentic record of the text-tradition from the three Mss. used by me and presented the text as satisfactorily as it was possible for me within the limits of the material. iii) Numbering of the Stories These Mss. have not correctly and regularly numbered all the stories upto the end. There are no titles for the stories at the beginning; but in this edition they are added by the editor for referential facility. Every story has got only the concluding remark which is accompanied by the serial number of the story. Now and then the stories are wrongly numbered: usually the same number is put for two consecutive stories, but subsequently the error is corrected. If all the stories are serially counted (excluding the Praśasti), the total number comes to 165. But this cal. culation is objectionable in view of the unanimous statement of the Mss.. on p. 354, that there are 157 Kathānakas in this Kathākośa. Despite their irregularities in the interyal, all the Mss. agree to number Dhanyamitra's story as 100. The next story of Sagaradatta is numbered as IOI by Pa and Pha, but according to Ja it is 102 which is a mistake. The next nine stories or sections are not numbered at all by the Mss., so they have to be included as sub-stories of section No. 102. The section with the colophon Bhatta. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA partibaddha-Cumkärikā etc.', on p. 255, is not numbered at all by Pa and Pha, but Ja puts No. 103 for it. The following story of Pinnaka-gandha is numbered 104 by all the three Mss.; and if we continue this numbering, we arrive at the requisite number 157 as dictated by the Mss. themselves. As the material stands, this is the only way to arrive at the required number of stories; but certain discrepancies are quite apparent. First, under the present arrangement adopted in this edition, the subsections are shown under chap. 102, but that section (with its subsections) really concludes with a colophon (p. 255) which is specifically numbered 103 by the Ms. Ja. Secondly, we have to begin a section with No. 102 (p. 245) but end it with No. [102*1] on p. 249. Lastly, we feel, apparently of course, that there are only nine sub-stories, though they are expected to be ten according to an explicit remark 'dasa-kathānakam idam' on p. 255. As the present arrangement stands, it is difficult to explain the anomalies; but it is possible to rearrange some portions of the text to suit the situation, and the internal evidence is quite favourable for such a redistribution. The section No. 102 might end with verse No. 46 on p. 247, and section No. 103 should begin with verse No. 47 and end on p. 255 with the colophon Bhatta-pratibaddha.etc. which, as expected has already got No. 103. Now in this section there should be ten stories as indicated by the remark iti dasa-kathanakam idam on p. 255. In this proposed arrangement the sub-stories will have to be renumbered 103*1= [102*1], 103*2= [102*2] etc. The sub-story 103*1= [102*1] is to begin with verse No. 120 on p. 249. In this arrangement all the facts get duly explained, and the new sections proposed possess the characteristic beginnings like other sections in this work. 6 2. NARRATIVE TALE IN INDIA i) Vedic and Allied Literature The intellectual life in India, as reflected in ancient and medieval Indian literature, is thoroughly permeated with religious thought. That India is a cradle of religions is not merely a proud or sarcastic platitude, but it is a fact which can be fully attested by a large mass of evidence from literary records. The earliest records of Aryans, especially the Rgveda, preserved on the Indian soil and handed through the hierarchy of Indian priests, are full of devotional songs addressed to personified phenomena of nature; and later, these songs have been subjected to elaborate rituals which came to be associated, explicitly or symbolically, with every walk of life. Religion inherits its sacredness or authority from the sanctity it has bestowed on the Divinity, Scripture and Hero or Teacher; and these in turn help the elaboration of religious dogmas as time passes on. Every developed religion owes its allegiance to these three in some form or the Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION other, Rituals and worship, as well as devotion and meditation, are primarily associated with the first and gradually get embodied in the second Particular doctrines, dogmas and teachings constitute the Scripture which in turn glorifies the Divinity and edifies the Hero. The Hero represents or is inspired by the Divinity; he has inherited or come to possess the knowledge of the Scripture; and being a successful follower of the religion, his doings are an example for others. These three are interdependent and gradually contribute to the detailed evolution of religion and religious literature. The growth of Indian literature fully testifies to this general procedure. Apart from its theoretical and mystical elements, religion, so far as it has grown on the Indian soil, has constantly attempted to evolve and propagate certain ethical standards for the good behaviour of man as a constituent of the society. Thus religion has also played the role of the norm of good behaviour for the guidance of which some objective criteria were necessary. They were put in various forms: they may be the instructions of the Divinity inherited from times immemorial; they may be the sanctions of the old Scriptures; and they may be the preachings and examples of the Heroes of the past. It is in the last tendency that we can trace the ante. cedents of the epic poetry, heroic legends and didactic tale in India, which began moderately but assumed massive magnitude as time passed on. The songs of Rgveda can hardly be called popular poetry, but they had their origin, in the majority of cases, in the priestly circles. As a favourite of the deities addressed and as the custodian of the sacrificial cult elaborated, the priest is always trying to stand above the people, though not outside. Thus he is not altogether immune from the influence of popular traditions and devoid of appeal to the people at large. Vedic poetry has preserved many an interesting tale to narrate. We are told how that militant Indra destroys the demons like Vrtra and removes drought and darkness. Various myths are told about the twin Aśvins who are succouring divinities. The priest, who possesses a correct knowledge of the sacrifice, has these gods in his power: thus the priest only strengthens his hands and the cult of sacrifice by glorifying the various divinities that are said to bestow so much wellbeing on the people. The so-called Akhyāna hymns are ancient mythological ballads containing narrative and dramatic elements. It is here that we come across the dialogue between Purūravas and Urvasi and the passionate conversation between Yama and Yami; the former, however, is elaborately immortalised in later Indian literature. The Dänastutis have preserved to us lavish praise bestowed on those donors who showered their bounty on the priests; and it is quite likely that some of these patrons of sacrifices were historical persons, though unluckily we know nothing beyond their names. As we pass on to the Brāhmaṇas, which present a dreary reading t of their priestly twaddle about theology and sacrifice, their chief human interest is that they contain many myths and legends. They present Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 BṚHAT-KATHAKOSA an enormous amount of religion and ritual which are connected very little with morality. Sacrifice assumes the form of a magnificent mechanism through which gods fulfil the worldly wishes of the sacrificer; and his enemies, on that very account, are made to suffer. In order to explain some sacrificial ceremony and its efficacy, to celebrate the greatness of gods and their bounty, to sing the praise of ancient heroes and to impress on the audience the important rôle of the priestly art, ancient tales, myths and legends are narrated here and there. Despite their professed association with priestly ends and sacrificial cult, some of the tales do contain popular elements. The myth of Pururavas and Urvasi, the tale of Hariścandra and the sacrificial victim Sunaśśepa, the legend about Prajapati are certainly interesting as narrative pieces. The nucleus of the basic story is hard to be detected from the exhuberant elaboration of the tale narrated to explain, justify and glorify some sacrificial ceremony. In fact the beginning of the epic poetry, with its manifold aspects, reaches back to this narrative stratum of the Brahmanic texts. In Coming to the Upanisads we enter altogether a different world. the intellectual life of the Upanisads, the priest is receding back and almost a new horizon is in view. A note of unity in theology, a complaint against the vanity of barren sacrifices and monopoly of all knowledge by the priest, yearning for the highest knowledge setting aside the conventional social disabilities, attempt to explain worldly inequality not from the favour and frown of the gods but from one's own deeds and according to the doctrine of transmigration, a gradual ousting of sacrifices and donations by pursuit of higher knowledge and asceticism, use of repeated ethico-moral exhortations to guide man as a member of the society: these are some of the outstanding traits of Upanisaḍs which distinguish them from the Brahmanas. To explain the origin of this fresh orientation in thought Winternitz remarks: "While, then, Brahmans were pursuing their barren sacrificial science, other circles were already engaged upon those highest questions which were at last treated so admirably in the Upanisads. From these circles, which originally were not connected with the priestly caste, proceeded the forest-hermits and wandering ascetics, who not only renounced the world and its pleasures, but also kept aloof from the sacrifices and ceremonies of the Brahmans. Different sects, more or less opposed to Brahmanism, were soon formed from these same circles, among which sects the Buddhists attained to such great fame." The Upanisadic stratum of literature, especially in the older tract, supplies us with some interesting narratives such as the dispute between Gärgi and Yajnavalkya, the story of Satyakāma Jābāla and the incidents about Ksatriyas like Pravahana and Aśvapati. Some of these deserve to be remembered as intellectual heroes of ancient India. In the post-vedic Indian literature, there are three great narrative streams, which have already attracted the attention of critical scholars, viz., 1 A History of Indian Literature, I, p. 231. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Bșhatkatha, Mahābhārata and Rāmāyaṇa, the first in Paiści Prākrit and the remaining two in Sanskrit. The Brhatkathā of Guņādhya is lost beyond recovery, there being available only three summaries of it in Sanskrit; and the basic nucleus of the last two, as it was originally shaped by their respective authors, is almost beyond recovery, though attempts are being made by critical scholars in this direction, because these texts have reached mighty magnitude with interpolations and alterations effected by talented and propagandistic redactors, each one working in his own way in different parts of India for centuries together. The Mahābhārata and Rāmāyaṇa have already received the designation of 'epic', while the first also, despite its romantic and fairy elements, must have had the magnitude and dignity of an epic. The growth of the two epics is a problem by itself, and very good results are reached by critical investigators. The primary kernel of the Mahābhărata is a heroic tale belonging to the Kuru cycle of legends, especially dealing with the great Kuru battle. But this secular event is imposed on with the grandiose superstructure of an encyclopaedic literature showing clear-cut strata of different types and ages. This extraneous matter includes religious legends of theo-cosmological contents ; independent stories such as those about Karma's birth, Yudhisthira's escape from sins by giving gifts to Brāhmaṇas, destruc.ion of the Yādava race etc.; religio-philosophical and ethical sections including maxims on polity and social behaviour; fables, parables and didactic narratives; and lastly a good deal of ascetic poetry. The entire work, in parts and as a whole, has passed through the hands of many redactors; and all sorts of topics are admitted into the body of the text irrespective of inconsistency and mutual contradiction. The Mahabharata text, as it stands today, is moulded into its present shape, according to the opinion of competent authorities, under very strong and direct Bhārgava influence. This must have been preceded and followed by many a sectarian attempt of this nature. Many long and short Akhyānas etc. are simply added without much connection with the main story. In any way the Mahābhārata contains a substantial stock of narratives of all sorts which have influenced later authors in their choice of topics. The Rāmāyana does not contain so much heterogeneous matter as the Mahābhārata, though this text also has grown in the hands of professional rhapsodists who wanted to meet the demands of popular taste. The story of Rāma has found a place in the Mahābhārata and bears close resemblance with that in the Dasaratha-Tātaka. The first and the last books of the Rāmāyaṇa, which have been pronounced by critics as later addition, definitely betray the redactor's attempt to glorify god Vişņu who is claimed to have been incarnated as Rāma. Thus the sectarian hand has worked on a purely popular tale. Some of the characters developed in the Rāmāyaṇa are really interesting. Sītā has been looked upon as a typical ideal of Indian womanhood 1 V. S. Sukthankar: The Bhrgus and the Bhārata, Annals of the B.O. R. I., Vol. XVIII, part i, pp. 1-76. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 BRHAT-KATHAKOŚA and Hanumat has been the popular deity of Indian villages. The fabulous birth of Sītā reminds us of the Rgvedic Furrow personified and invoked as a goddess. The Rāmāyaṇa is not only an epic but the major portion betrays also the tendencies of an ornate poem where the form of the story is as much important as the contents. Especially in the seventh book we come across various myths and legends, viz., the legend of Yayāti and Nahuşa, the birth of Vašiştha and Agastya, destruction of Sambūka etc., which are interpolated at a later stage. Purāṇas deal with cosmogonic and legendary details and give an. account of gods, saints, heroes, incarnations and royal genealogies. Everywhere their didactic tone and sectarian purpose are quite plain. They show close connection with the later interpolations in the Mahābhārata and Rāmāyaṇa. The Rāmāyaṇa exhibits ornate style only here and there. But when we look at the Kavya stratum of Sanskrit literature, its characteristics get clearly distinguished form those of the epic. The epic poet minded primarily the subject-matter and a vigorous narration. In the Kāv.yas, however, the subject-matter is a feeble base for the poet to display his mastery over grammar, his facility of expression, his tricks of style, his ingenious use of poetic embellishments connected with both expression and thought, and last but not the least his thorough grounding in the elaborate and conventional theory of poetics. What were once virtues became vices, because the later poets, in their pedantic parade of learning, lost all sense of proportion and balance of stressing values. The subject-matter, as remarked by Macdonell, 'is increasingly regarded as a means for the display of elaborate conceits, till at last nothing remains but bombast and verba jugglery'. Beginning with Kalidasa and almost upto the close of the period of the lively use of Sanskrit, the Mahābhārata and Rāmāyaṇa have become with many authors the perennial source of the subject matter which is nicely dressed with lyric, erotic and didactic' spicing. Among the Kavyas the Raghuvaṁs'a, Bhattikāvya, Rāvanavaho, Jānakīharaṇa etc. deal with Rāmalegend; while the Kirātārjunīya, Sisupälavadha, Naişadhiya etc. are indebted to the Mahābhārata for their themes. Most of the dramas draw their themes from the two epics and the Brhatkathā; and there are very few plays like Mudrārākşasa and Mälatīmādhava which have chosen non-epical subject for their plots. Later on the poets, whether they write in prose or in verse, are not so much after the narration of the story as after the display of their learning. This is quite true especially of the prose romances like the Dasakumāra-carita, Vāsavadattā, Kādambari etc. Their authors show close acquaintarce, with the two epics, but their themes are not necessarily and mainly drawn from them. Their style is such that these can be read only by a few intellectual aristocrats. Strings of similes, plenty of puns, intricacy of style crammed with compounds: these are the normal features of their diction. To appreciate their literary genius and to pick up their poetical 1 A History of Sanskrit Literature, p. 329. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 11 thoughts one must have undergone a long apprenticeship to the rigorous study of grammar and poetics. These authors, inspite of themselves, have got a religious back-ground with moral and didactic exhortations scattered throughout the work. The didactic element becomes predominant with authors like Bhartrhari. Purely amorous sentiment is depicted by poets like Amaru; but the same gets inlaid in a religious back-ground and expressed in a mystic melody by authors like Jayadeva. In these ornate compositions there is very little scope for the narrative tale. When we look at the tract of didactic fable represented by the Pañcatantra and its associates, of romantic tale specimens of which appear to have existed in the Bșhatkathā and are now represented by the Vetāla. pañcaviṁsatikā etc., and of religious and moral tales samples of which are found in the epics and which are largely cultivated by the followers of different religions in their own ways, we find that the entertainment of the reader is not altogether ignored, but the desire to teach is always uppermost in the mind of the author. Man is an erring animal working in various ways under the tension of internal and external forces. He must be taught to understand rightly and behave properly. This could be achieved, to a great extent, by exemplary tales in which birds and beasts are introduced s characters, in which imaginary figures are made to take part, or in which even gods and semi-historical persons are the actors. ii) S'ramanic Idealogy: Ascetic Poetry The literature that we have reviewed so far with a view to get a picture, in broad outlines, of narrative tale in India from early times belongs mainly to those who have held Vedas as the highest religious authority and who owe allegiance to the Vedic religion or its direct and indirect successors. A critico-historical study of Indian literature beginning with the Veda and ending with the epics and Smộtis has helped scholars to detect a gap in the philosophical evolution of religious thought embodied in this tract of literature. After reaching the Upanișadic period, we come across novel ideas such as the doctrine of transmigration, partiality towards pessimistic and ascetic outlook on life and the superiority of Atmavidyā over the sacrificial cult. The priest has no more the monopoly of knowledge, and eminent Kşatriyas are propounding some of the above principles which, to an objective critic, have little basis either in the Veda or the Brāhmaṇas, Before the advent of Aryans into India, we can legitimately imagine that a highly cultivated society existed along the fertile banks of Ganges and Jumna, and it had its religious teachers. Vedic texts have always looked with some antipathy at the Magadhan country where Jainism and Buddhism flourished; and these religions owe no allegiance to the Vedic authority. The gap in the philosophical thought at the close of the Brāhmaṇa period has necessitated the postulation of an indigenous stream of religious thought which must have influenced the Aryan thought, at the same time being in, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA fluenced by the latter. Different scholars have differently described this indigenous religion of Eastern India. Jacobi called it Popular religion; Leumann held that its propounders were the Parivrājakas; Garbe associated it with the Ksatriyas; Rhys Davids has recognised the influence of well-organised sophistic wanderers; Winternitz conveniently designated these ideas as 'Ascetic poetry'; and I called this stream of thought by the name 'Magadhan religion'. As I have said elsewhere, 'we should no more assess the Samkhya, Jaina, Buddhistic and Ajīvika tenets as mere perverted continuations of stray thoughts selected at random from the Upanisadic bed of Aryan thoughtcurrent. The inherent similarities in these systems, as against the essential dissimilarities with Aryan (Vedic and Brahmanic) religion and the gaps that a dispassionate study might detect between the Vedic (including the Brāhmaṇas) and Upanisadic thought.currents, really point out to the existence of an indigenous stream of thought, call it for convenience the Magadhan Religion, which was essentially pessimistic in its worldly outlook, metaphysically dualistic if not pluralistic, animistic and ultra humane in its ethical tenets, temperamentally ascetic, undoubtedly accepting the dogma of transmigration and Karma doctrine, owing no racial allegiance to Vedas and Vedic rites, subscribing to the belief of individual perfection, and refusing unhesitatingly to accept a creator." Jainism and Buddhism are fairly typical representatives of this Magadhan religion the back-ground of which I have outlined thus elsewhere: "This brief survey of some of the important tenets of Jaimism compared and contrasted here and there with those of other Indian systems tempts me to try to state tentatively the position of Jainism in the evolution of Indian religio-philosophical thought. Its non-acceptance of Vedic authority, wholly common with Buddhism and partly with Samkhya, perhaps indicates that these three belong to one current of thought. They have in common the theory of transmigration with the attendant pessimistic outlook of life and Karma doctrine as an automatic law of retribution which appear definitely for the first time in Upanisads so far as the Vedic literature is concerned. The humane and ethical outlook and the downright denunciation of Himsã, whether for personal ends or for sacrificial purposes, are common to all the three. That Buddhism and Samkhya have much in common is not a new thing to orientalists. Ontological dualism, the plurality of spirits, the misleading of the spirit by matter, the early Samkhya belief that there are as many Prakṛtis as there are Purusas and many other technical details are common to Jainism and Samkhya. In all the three systems there is no place for a creator or superhuman distributor of prizes and punishments. These common points are not at all consistent with the natural evolution of the Vedic religion till almost the middle of the Upanisadic period. Especially the Samkhya, which is accepted as orthodox possibly because of its fascinating terminology, inspite of its glaring inconsistencies with the accepted orthodoxy, has influenced some of the Upanisads; and later on being coupled with theistic 1 Pravacanasara, Bombay 1935, Preface pp. 12–13. 12 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Yoga it became unquestionably orthodox. In view of these common points between Jainism, Samkhya and Buddhism and their common differences with the Aryo-Vedic religious forms, and in view of some of the peculiar tenets of Jainism in common with Ajivika, Purana Kassapa's order etc., I am inclined to postulate a great Magadhan religion, indigenous in its essential traits, that must have flourished on the banks of Ganges in eastern India long before the advent of the Aryans into central India; and possibly at the end of the Brahmana period these two streams of Aryan and indigenous religious thoughts met each other, and the mutual interaction resulted on the one hand into the Upanisads in which Yajnavalkya and others are, for the first time, preaching Atmavidya and on the other, in contrast to the Vedic ritualistic form of religion practised by the masses, into Jainism and Buddhism that came prominently to the fore as the strong representatives of the great heritage of Magadhan Religion." According to Winternitz, all intellectual activities in ancient India were not confined only to Brahmaņas: there was not only Brahmanical literature, but there was also the Parivrājaka, Śramaņa or ascetic literature. These two representatives of intellectual and spiritual life in ancient India are well recognised by the phrase 'Samanas and Brahmaņas' in Buddhist sacred texts, by the reference to 'Samana Bambhana' in Asokan inscriptions, and by Megasthene's distinction between Brachmânai and Sarmânai. These two can be clearly distinguished by their different legends, ethical values and moral outlook. Brahmanical legends start from Vedic mythology; the great Rsis, the seers of Vedic hymns and law-givers, have achieved a position almost by the side of gods; and the gift given to the priest is a plenipotentiary. But the Sramanic legends deal with world-renouncing saints and ascetics devoted to severe penances. The Brahmanical ethics and moral creed are steeped in the system of castes; and renunciation, though admitted, does not play an important rôle. Knowledge of the Veda, sacrifice and respect to the Brāhmaṇas have been given great importance. Ethical values have a conventional import: charity means liberality towards the Brahmaņas; self-sacrifice implies absolute devotion to the priests; and the king's promotion to the heaven depends upon his obedience to the priest. But the ethical ideal of the ascetic poetry is different: here the ethical discipline and renunciation are practised as the means for obtaining emancipation; the saint fears no being and holds no terror to others; he is the exalted embodiment of self-denial and self-sacrifice; sages of all ranks practise these ideals; and Ahimsa and Maitri are the highest principles of moral life. The ascetic morality is based on the belief in transmigration and Karman. Everywhere bitter complaints are expressed against the nature of Samsara; there is a pessimistic attitude towards life; and stress is laid on the eternal bliss of liberation. These ideas are hardly met with in the Veda. There are a few casual traces of the Karma doctrine in the Chandogya and Bṛhadaranyaka where characteristically enough it is taught 1 Pravancanasara, Intro., pp. 94-95. 13 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHÄKOŠA by a king to the Brāhmaṇa. The pessimistic note, so patent in ascetic poetry, appears only in the latest Upanişads. This ascetic poetry has left its influence on the Mahābhārata and on the Jaina and Buddhistic texts, as it is clear from the Pitāputra-saṁvåda the counterparts of which are found in the Tātaka and in the Uttarădhyayana. The Mahābhārata has got many such sections, for instance, Vidurabitavākya (5, 32-40), Dhịtarăştra-sokāpanodana (Striparvan 2-7), the famous parable of the 'Man in the Well', which is also present in the Jaina and Buddhist works, the instructions of Dharmavyādha (Vanaparvan 207-16), TulādhāraJājali-samvāda (Santi. 261-64), the section of Yajñanindā (XII, 272 etc.), the Go-kapiliya section (Ibid. 269-71 ), the detachment of Janaka (XI. which is common with Taina and Buddhist texts, the story of hunter and doves (Santi. 143-49), the tale of Mudgala (III. 260 f.), etc. Some of the principles inculcated and some of the moral values advocated in these sections are not quite consistent with the Brahmanical morality already expressed in other contexts. As to the historical position of this ancient Indian ascetic poetry, the Mahābhārata cannot be the original source, because these sections are found in the latest stratum ; so many of these discourses may have existed independently before they were taken up in the Mahābhārata. In conclusion Winternitz says, "I am inclined to think that ascetic poetry and the peculiar view of life expressed in it, first arose in an old form of Yoga which was merely a system of ethics and a practical theory of redemption, that could as easily be combined with Samkhya, as with Buddhist and Taina teaching. Both Samkhya and Yoga though taken up into the folds of orthodox Brāhmaṇism were originally not Brāhmaṇical, but independent of the Veda''. He accepts the position that 'some of the legends and maxims of the ascetic poetry contained in the epic are doubtless borrowed from Jaina or Buddhistic texts'. As to the common legends and maxims, there are two possibilities : "the original may have been either Buddhist or Jain, or the parallel passages may all go back to the same source, an older ascetic literature, that probably arose in connection with Yoga or Sāṁkhya-Yoga teaching”. Though the approach is slightly different, there is much common ground between the Ascetic literature discussed above and the Magadhan religion outlined by me: but for the geographical bias of the latter, both the terms connote nearly the same stock of ideas. Unfortunately the works of sophists like Mankhali Gosāla, Pūraņa Kassapa, etc. have not come down to us. In the ancient Indian literature that has come down to us, one can say without hesitation, in view of the nature of the legends and the ethico-religious outlook outlined by Winternitz, that Jaina and Buddhistic literatures are the major custodians of ascetic poetry and Jainism and early Buddhism are the best representatives of the Magadhan religion. 1 This is a short summary of an excellent paper 'Ascetic Literature in Ancient India' by Winternitz in his Some Problems of Indian Literature, Calcutta 1925. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION iii) Early Buddhist Literature Throughout Buddhist literature, which is studied more exhaustively and critically than Jaina literature, the personality of Buddha weilds tremendous influence on the reader almost at every context. Buddha is a master-physician who wants to cure man of his miseries by prescribing to him his religious principles. As a successful teacher, he rightly grasped men and their minds; and we learn that he used to tell many amusing and agreeable tales, both instructive and pleasant, which made all beings happy in this and the next world. Illustration has played a remarkable rôle in the Indian mode of thought; and the syllogism necessarily includes an Udaharana. This necessitated the teacher to keep himself wellacquainted with different walks of life from which illustrations were drawn that they might immediately convince the people about the intelligence of the teacher and about the veracity of his preachings. It is quite likely that Buddha included popular tales in his preachings. Pali literature presents abundant evidence that Buddhist monks and preachers profusedly illustrated their sermons with tales of piety, religious suffering, successful penance and the attainment of Arhatship. "They sometimes invented pious legends, but more frequently they took fables, fairy tales, and amusing anecdotes from the rich store-house of popular tales or from secular literature, altering and adapting them for the purpose of religious propaganda. The Bodhisattva dogma, in connection with the doctrines of rebirth and Karma, was an excellent expedient for turning any popular or literary tale into a Buddhist legend". Similes and parables have a great effect on the audience, and they convince the hearer more easily than a legion of abstruse arguments; eminent teachers, therefore, always used them to spice their sermons. Beginning with the Vinayapitaka, the rules and regulations in the Khandakās are introduced by narratives illustrating the occasion when they were announced by Buddha. In the Cullavagga too we come across many edifying anecdotes: some of them are conversion-stories and some of them deserve to be interwoven either in the life of the Buddha or the Buddhist order. The stories such as those of Sariputta, Moggallana, Mahāpajapati, Upāli, Jivaka etc. have a perennial sociological and psychological interest. In the Dighanikaya and the Majjhimanikaya of the Suttapiṭaka we come across bits of information connected with Buddha's biography. We have dialogues like the Payasisutta, and there are myths and legends which illustrate a doctrine or convey a moral. Stories of Channa, Assalayana etc. have an appearance of some factual occurrence. The tale of the robber Angulimāla who became a monk and reached the status of an Arhat, the legend of king Makhadeva who entered the order of monks at the first appearance of grey hair, and Raṭṭhapala's renunciation and subsequent strictures on the vanity of worldly pleasures-these are some of the fine 1 Encyclopedia of Religion and Ethics, VII, p. 491. 15 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 BRHAT-KATHĀKOŠA specimens of ballad narrative edifying ascetic ideals. The two texts Vimänavatthu and Petavatthu give stories, all made after one model, which illustrate how a happy or unhappy existence in the next world with its splendour or torment was acquired : these stories are meant to prove the universality and the efficacy of the doctrine of Karman. When the individuals concerned are made to explain their fate, such narrations would certainly have an effect on the believing hearers. The commentators are there to supply the requisite details in full. Thera- and Theri-gāthā are collections of spiritual confessions of souls of monks and nuns yearning for peace. Undoubtedly these are ascetic heroes whose utterances are to enlighten and whose examples are to inspire others that want to follow the spiritual ideal. Some of them appear to be historical persons. The verses uttered by them do not give any biographical details, but the corresponding Apadāna stories and the commentary of Dharmapāla give good many details about these monks and nuns. Most of these stories look like mechanical patterns; but as tales meant for a moral exhortation, they have a definite significance. The names have not got much value; but the spirit of asceticism, the working of the Karma doctrine, truth of moral values and the need of a pious life are all impressed upon the believers by these stories. When one looks at the tales of men and women of different status in life who are inspired by religious ideals and necessarily adopt the monastic life, it only means that ascetic values weilded a great influence on the outlook of these story-writers. Some of these stories are interesting as pieces of genuine didactic tale and realistic pictures of life. Then there are two other extensive tracts of early Buddhistic narrative literature that preach moral and ascetic ideals interwoven in a story. The first is the Jātaka, and the second the Apadāna. According to Buddhist terminology, Jātaka is a story in which Buddha, in one of his earlier births, plays some part, it may be as a hero or any other character or even as a mere witness. The dogma of Bodhisattva, coupled with the doctrines of transmigration and Karman, could turn any tale into a Tătaka. These Jātakas not only heightened the greatness of Buddha's personality; but quietly propagated also the ideas of rebirth and Karman, and established certain moral standards in the society for its collective welfare. Some of the stories that came to be put into the Jātaka form are already found in the Suttas as simple tales. If they are stripped of the personality of Bodhisattva and special Buddhistic outlook and terminology, we find that their contents include fables, fairy tales, anecdotes, romantic and adventurous tales, moral stories and sayings, and legends. These have been drawn from the comman stock of Indian folklore which is utilised by different religious schools in their own way. To be distinguished from the Tataka tale is the Apadāna story which gives the life of its hero or heroine in one or more births laying 1 Encyclopedia of Religion and Ethics, the article on the Jātaka; A History of Pāli Literature by B. C. Law (Calcutta 1937), Vol. I, pp. 271 ff. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ İNTRODUCTION stress on their good or bad acts and their concomitant consequences in subsequent births. They are the tales of heroic deeds, namely, the pious and religious acts of men and women. “An Apadăna, like a Jataka, has both 'a story of the past' and 'a story of the present'; but it differs from a Jātaka in that the latter refers always to the past life of a Buddha, whereas an Apadāna deals usually, not always, with that of an Arhat." Many of them are good legends of saints, and some of them are identical with monks and nuns celebrated in the Thera- and Theri- gāthā. Usually they are related in the first person. Some of the names are quite historical, and a few of them like Sāriputta, Ananda, Rāhula, Khemā, Kisāgotami are well-known in the Buddhistic hierarchy from other sources. But most of the tales have a mechanical form and contents, and they appear to have been specially framed to glorify some pious act or the other. The great commentators like Buddhaghoșa and Dharmapāla quote plenty of legends both of the Jätaka and the Apadāna type in their various commentaries, and these constitute an important bulk of Buddhistic narrative tales. The tendency to uphold religious and ascetic ideals is quite patent in all these stories. iv) Jaina Literature a) CANONICAL STRATUM Turning to Jaina literature, the Ardhamăgadhi canon, though recast into its present shape much later, contains undoubtedly old portions which can be assigned quite near to the period of Mahāvīra, the last Tirthakara of the Jainas. We possess in this canon a good bit of narrative portion which is characterised by didactic and edifying outlook: it biographies of religious heroes such as Tīrthakaras and their ascetic disciples including the Salākāpuruşas, explanatory similes, parables and dialogues, and didactic and exemplary tales and pattern stories of men and women turning into monks and nuns and attaining better births in the next life. The two texts, Acāranga and Kalpasūtra, give a biography Mahāvīra vividly describing the hardships which he had to undergo in his monastic life; and Bhagavati, in its different dialogues, gives some side-light on Mahāyira's personality, especially his skill in debates and in offering explanations in reply to the questions of his numerous pupils, male and female. The lives of other Tirthakaras, narrated in the Kalpasūtra, are no biographies at all, but supply the reader with a string of names (nāmāvali) 1 See for instance, Buddhist Legends, by Burlingame in Harvard O. Series, vols. 28-30, Cambridge, Mass., 1921. 2 For the editions etc. of these texts the readers are referred to A History of Indian Literature by Winternitz, Vol. II (Calcutta 1933) and Die Lehre der Jainas * by Schubring (Berlin and Leipzig 1935). For economy of space only essential bibliographical references are given. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 BṚHAT-KATHÁKOŠA with which perhaps the reciter is to give a detailed account. glimpses of the life of Nemi, Pärśva etc. in other texts also. We get some What must have been simple similes in the beginning are shaped into narrative pieces with a view to work out the simile in all its details and to deduce a lesson from it for the benefit of pious believers. Nāyādhammakahão gives us some good examples. A tortoise is known to be guarded with regard to its limbs; a gourd sinks when covered with mud; and the fruits of Nandi tree are harmful. These ideas are used for the purpose of teaching some lesson or the other; and they illustrate how the unguarded monks suffer, how those loaded with Karmas sink to the bottom of hell, and how those who taste the pleasures of life suffer in the long run. Almost on similar lines parables are elaborated either as a narrative piece or in a lively dialogue, and every detail conveys some lesson. The parable of the Lotus in the Suyagaḍam is an elaborate piece. There is a great lake full of lotuses in the midst of which stands a grand lotus. Four men from four quarters come there and try to pluck that grand lotus, but they were not successful. A monk, however, succeeds in plucking it even from the bank merely by uttering certain words. The lake is the world; the lotuses, the men; the grand lotus, the king; the four men, the heretics; and the monk is, the Jaina saint who, by uttering the true word of faith, wins over the king, and his religion is triumphant. Apart from the intended purpose of the parable, one point is plain to us that religions thrived well under royal patronage which consequently was sought with competition. The parable of four daughters-in-law, in the Nāyādhammakahão, is a simple folk-tale skilfully used for religious purpose. A shrewd father-in-law entrusts five grains of rice to his four daughters-in-law with an instruction that they should be returned whenever demanded. The first daughter-in-law is vain and indifferent and throws them away thinking that there is plenty of rice in the granary; the second also thinks alike but swallows them; the third carefully preserves them in her jewel-casket; and the fourth plants them and reaps a rich harvest with the result that she has a large stock of rice at the end of five years. The father-in-law punishes the first two, entrusts the third with the entire property, and hands over the whole management of the household to the fourth. The four women represent the monks, and the grains of rice are the five great vows. Some neglect them; some observe them carefully; while there are some noble monks who not only observe them but also propagate them for the benefit of others. The story of Mayandi princes is a mariners' tale developed into a parable and used to exhort the need of firm faith in religious principles. The Uttaradhyayana also gives some parables. The parable of the ram (chap. VII) brings out the fate of a being fed with worldly pleasures and instructs how human life is the capital with which heaven is to be gained if the capital is lost, one is born as a denizen of hell or a brute. The leaf of the tree (chap. X) discourses on the fleeting character of human pleasures with appealing similes, and repeated warnings are given to the aspirant to be Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 19 ever vigilent. 'The wicked bullocks' (chap. XXVI) is a homely but biting criticism against quarrelsome pupils who are a nuisance to the teacher. We come across a good number of legendary tales which are illustrative of the good and bad results of the practice of virtues and vices. The characters in the story attain better worlds and even liberation by following the principles preached by Mahāvira, Pārśva or Nemi; or they go to wretched births and even hell by violating them. Many heretics are shown to have been converted to the creed of Tirthakaras. Some of these tales aina in origin, while others are drawn from the common stock of Indian tales, though used to propagate Jaina virtues, and have their counterparts in Hindu and Buddhist literatures. Many of these legends are connected with famous cycles of tales associated with outstanding persona. lities like Krşņa, Brahmadatta, Sreņika etc. According to Jainism the virtues of a pious house-holder or lady are necessarily conducive to ascetic life; and a layman, if he steadily follows the steps of religious life, automatically reaches the stage of monastic life. Naturally most of these legends are ascetic in outlook. The Sramaņic religion, especially Jainism, has laid great stress on asceticism with the result that the Jaina literature gives us some lives of ascetic heroes that passed through exceptional sufferings at the hands of gods, men and lower beings, practised severe penances maintaining the spiritual balance at the critical moment of death, and thus attained a higher status of life in the next birth. It is quite probable that many of them are factual in origin referring to historical ascetics, though the details might have got elaborated in course of time. Sometimes their names are simply referred to, and it is the commentators that supply the necessary details. Besides the casual references to Siśupāla, Dvīpāyana, Parāśara etc., the Sūyagadam refers to the story of Ardraka about whom the Niryukti and the commentaries give interesting detāils. The text shows how he refuted Gośāla, a Buddhist, a Vedāntin and a Hasti-tāpasa. After defeating the opponents he was going to Mahāvīra; an elephant broke the chains and rushed against him, but on approaching him, bent on its knees to salute him. King Sreņika, who witnessed the scene, wondered how the elephant could break the chains. Ardraka replied that it was still more strange that a man could break the fetters of worldliness. Often we meet with discussions and doctrinal clarification between the pupils of Părśva and those of Mahāvira in texts like Uttaradhyayana. More than once pious men and women, such as Sivarāja, Sudarsana, Samkha, Somila, Jayanti etc. (in the Bhagavati) approach Mahāvīra and get some dogmatical explanation. There are many stories, definitely didactic, which illustrate the consequences of good and bad deeds. In the Nāyādhammakahão, prince Meha, when he is growing mentally unsteady, is confirmed in his faith in the ascetic life by Mahāvīra who narrates to him how he, in his earlier life as an elephant, had protected a hare by patiently holding up the foot. The merchant Dhanna, who is chained together with the murderer of his son, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 BRĦAT-KATHĀKOŠA had to partake meals with him out of sheer physical necessity; similarly the monks should eat food etc. simply to sustain the body, and not to grow strong or to look well, so that they might carry on their religious duties. King Selaga who was converted to the creed of Ariştanemi becomes negligent about his duties being addicted to wine, but is duly enlightened by one of his faithful pupils. The story exhorts the monks to be vigilent about the details of ascetic life. Malli is destined to be born a female as a result of a bit of hypocrisy in the religious practices in an earlier life; and she teaches her six suitors, the colleagues of a former life, through a golden image with rotten food inside, about the inner hatefulness of her apparently beautiful body and thereby induces them to renounce the world. Finally they all attain liberation. King Tiyasattu was led to the true faith by his minister Subuddhi who demonstrates to him the changeability of all things by the filteration of drinking water from mud. The layman Nanda is born as a frog because of his excessive attachment for the lake and the surrounding accessories of pleasure built by him for the benefit of his fellow-citizens. As such he proceeds to Mahāvīra but is crush under the foot of Sreņika's horse and dies with the formula of confession by which he is born as a god. Pottilā, the wife of the minister Teyaliputta, enters the order finding that she had lost the affection of her husband. After she is born as a god, she repeatedly tries, according to the previous promise, to enlighten Teyāliputta; but he is convinced about the value of renunciation only when he has fallen on bad days after losing king's favour and after attempting to commit suicide. At last he becomes a monk, and converts the king who asks his forgiveness. In the end they attain liberation. Dhammarus, who eats himself the poisonous food to save the life of ants, becomes a god and subsequently attains liberation; while Nāgasiri, who offered that food, becomes sick and poor. She is reborn as Sukumāliyā who becomes a nun not being liked by her suitors. The sight of a harlot enkindles her passion, and she entertains a hankering for love-satisfaction in the next life. She becomes first a harlot of the gods, is born subsequently as princess Dovai and married to all the five Pāndavas. Paümanābha, the king of Avarakamkā, on account of the mischief of Nārada, robs her; but was conquered by Kanha Vāsudeva who takes her back to her five husbands. After paying respects to Ariştanemi and practising severe penances in due course, the five Pāņdava monks and Dovai attain liberation. Cilāya, a robber, kidnaps Sumsumă but suffers a good deal as he has to run away simply cutting her head and taking it with him ; in the same manner suffer those monks who are addicted to physical pleasures. The father Dhanna and his sons, who were pursuing the thief, feed themselves on the headless trunk of Sumsumă just to save their life; similarly the monks and nuns are to eat food etc. merely to sustain their body and enable themselves to carry out their ascetic duties. Such monks finish their journey safely like Dhanna and his sons. The layman king Pundarika allows his brother Kandarīka to enter the order and tries to help him to continue Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION as a monk when he is sick and ailing. A second time he is not successful, so they interchange their places. Kandarika finds the pleasures of royalty to be painful and goes to hell after death; while Pundarika becomes a worthy monk and attains liberation. The lesson of the story is quite apparent that monks should follow Pundarika's example. All these stories have some lesson or the other for devoted monks. 21 The Uväsagadasão presents ten narratives which are pattern-stories, glorifying the lay-followers that are an example for others. They are all put as contemporaries of Mahāvīra who prescribes the elaborate vows following which they attain liberation in due course. Ananda is a model Uvasaga who acquires Avadhi-jñana by practising the vows and observances. Kamadeva, Culanipiya, Surădeva and Cullasayaya stick to their vows in spite of external temptations and threats: even when life was in danger, when relatives were persecuted, and when their health and possessions were at stake. Kunḍakoliya is firm in his faith and could not be tempted to the creed of Gosāla. Saddalaputta is converted from the Ajivika faith to the creed of Mahāvīra; and it was not possible for Gosāla to win him back. Mahasayaya was a pious house-holder; his vicious wife tried to tempt him, but was consequently cursed by him that she should be born in hell; Mahāvīra told him to repent and confess for his curse which he did, and attained liberation in due course. Nandiņipiya and Salihīpiya are pious householders that attain liberation duly. These stories are moulded in such a pattern that it is possible to multiply them to any number by simply changing the names etc.: the purpose is the same, though the names and a few other details differ. Dadhapaïnna appears to be a symbolical name for a soul that has developed firm faith and thus attains liberation: his biography is found both in the Uvavaiya and Rayapaseņaïjja. Taking into account the stereotyped plan of narration and the division into Vargas, we can group together the second Śrutaskandha of Nāyādhammakahão, Antagaḍa-, Anuttarovavaiya-dasão and the Nirayavaliyão which comprises the last five Upangas. In the second section of Nāyā., it is expected of the reciter to elaborate from the skeleton, proper names and catchwords of the story 206 stories of, which that of Kali alone is given in full. They are all meant to explain how certain goddesses came to have their positions on account of their religious practices in earlier births. Kāli, for instance, hears the preachings of Parsva and becomes a nun under the guidance of Pupphacula. As expected of her, she is not indifferent to the body, but is much attached to the toilet and has to go out of the Gana consequently. She practises fasts etc., and is born as a goddess. She comes to Mahavira to honour him, and he narrates to Gautama about her future fate. The stories in the Antagaḍa-dasão fall into two divisions according as they are associated with the age of Ariṭṭha-Nemi and Kanha Vasudeva or Mahavira and Seniya. These ninetytwo lessons give us tales of men and women who put an end to Samsara and attain liberation after conforming to the creed of Tirthakaras. One feels overwhelmed by the idea that men Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 BRHAT-KATHAKOŚA and women even from royal families are getting themselves initiated into the order : the call of spiritual freedom is demanding a sort of religious recruit on a grand scale and thus swelling the ranks of ascetic legions. A few stories are given in full and the rest are to be mechanically multiplied. The story of Gayasukumāla is a typical ascetic tale illustrating penancial heroism and forbearance. The six male children of Devakï were transferred, through the divine courtesy of Hariņegamesī, to the lap of Sulasă and had entered the ascetic order. When Devaki was pining that no son was with her and even Krşņa visited her after six months, Krşņa obtained a boon by propitiating that very deity whereby Gayasukumāla was born to her. Despite persuasion to the contrary, the prince entered the order to the offence of his father-in-law Somila who felt that his daughter was neglected by him in her prime of youth. One day when he was practising penance on the burial ground, Somila, in a mood of revenge, prepared an earthen basin on his head and poured burning charcoal there The young monk patiently bore the pangs, successfully destroyed the Karman and attained liberation. Somila, however, died a premature death at the sight of Krşņa. This text supplies us with the information about the destruction of Dvärakā and the Yādava clan. The story of Mudgarapāņi taking the cudgel against the vagabonds that were ill-treating his devotees, the gardener Arjunaka and his wife Bandhumatī, is a fine piece of folk-tale to make people devoted to the village deities; but the fact that Mudgarapāņi is helpless against pious Sudarsana only shows how it is used to establish the superiority of Mahāvīra's followers. Arjuna is converted to the creed of Mahāvira; as a monk he patiently puts up with all insults and pains; and at last by his penances he attains liberation. The tale of prince Atimuktaka only shows how spiritual problems induced youths to enter the order of monks and have them solved by finally attaining liberation through penancial discipline. The Aputtarovavăiya-dasão illustrates the stories of persons who attained highest heavenly mansions by practising penances. That of Dhanna is a typical story and shows how fasts played an important part in the discipline of ascetic life. The Nirayāvaliyão gives us a graphic description of the birth of Kūņiya, the son of Seniya by his wife Cellaņā, who wanted to eat the flesh of her husband during the period of her pregnancy-longing; and somehow her step-son managed to fulfil her desire. She feared that the issue would be a bane to the dynasty; and in fact she tried to do away with the child but without seccess. As foreseen by her, Küņiya really grew into a wicked prince. He wanted to capture his father's throne during his life-time by putting him into prison; and he tried to wrest from his brother Vehalla the paternal gift to him of a necklace and an elephant. Vehalla, however, sought shelter with his maternal grand-father Cetaka who made alliance with nine Mallakis and nine Licchavis to defend the just cause of Vehalla against Kūniya and his ten step-brothers. In the great Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOTION battle that ensued Kūņiya and his ten brothers died and went to the Hemābha hell. The Kappiyā continues the narratives of the sons of Kala and others who entered the order under Mahāyira and attained various heavens as a result of their religious practices. The Pupphiyā narrates the story of Angaï of Sāvatthi who was initiated into the order by Pārsva and who was consequently born as a moon in the lunar region as a result of his monastic discipline. The next interesting story is that of Somila, the learned Brahmin, who was almost converted by Pārsva; but he grows slack, adopts Brahmanic ways of life by planting trees etc., and becomes a Disāpokkhiya monk. A god, however, enlightened him; he resumed Jaina vows; and after severe penances he became Sukra planet and would attain liberation in due course. Subhadrã yearned for children, but she had none. She became first a lay woman and then a nun in the Jaina church; but her longing for children remained and she began to fondle the children of others. Though banished from the monastic congregation, she remained a nun but continued nursing children. Consequently she was born as an attendant-goddess Bahuputrikā. In the next birth she was born as Somā, was married to a Brahmin Rāştrakūta and had sixteen twins within sixteen years. She got disgusted with this life, entered the order, and in due course attained liberation. The Pupphacūlā narrates stories of ladies who were good disciples of the nun Pupphacūlā and secured heavenly status. Bhütă, for instance, was a pupil of Pārsva and was admitted to the order of nuns. She had a fancy for washing everything with water against monastic rules. As a result of this, she first reached only the heaven and then attained liberation later in the Mahāvideha' country. The Vanhidasão gives stories of twelve Vrşņi princes, the sons of Baladeva. The glories attained by prince Nisadha, the disciple of Nemi, are explained by a reference to his past life as prince Vîrāngada who practised penance for fortyfive years, was subsequently born in heaven and then became Nisaqha. As to his future, he would become a monk, go to heaven and then later attain liberation. The Vivāgasuyam, as its title indicates, gives narratives to illustrate the unhappy and happy consequences of wicked and pious acts. The first section gives ten stories illustrating the fruits of wicked acts; while the second gives only one story about good deeds and the remaining stories are to be mechanically narrated. Ikkāi, the district officer, was cruel and oppressed people with heavy taxes etc.;' as a result of this, he suffered incurable diseases in this life and was born as Miyāputta, of foul constitution, in the next birth. Passing through various lives of beasts and birds, he would be born as a merchant-prince; he adopts Jaina vows, becomes a monk, and goes to heaven; and at last he attains liberation. The Bhima killed many beasts to satisfy the pregnancy-longing of his wife for flesh and wine. She gave birth to a child, Gottāsaya by name, that grew into a wicked hunter, exessively addicted to flesh and wine. In the next life he was born as Ujjhitaka, a despicable boy, who proved to be a curse For Private & Personal. Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BREAT-KATHAKONA to the family, was given to vices like gambling, woman and wine, and was ordered to the gallows by the king as a punishment for his debauchery. Subsequently he would pass through various worldly and hellish births, then go to heaven from the birth of a merchant-prince where he acquires right knowledge, and thereafter he would get liberation. Ninnaya was a cruel dealer in eggs of which he enjoyed several dishes. This sin led him to hell, and thence he was born as Abhaggasena, a tyrant and oppressive robber, who was a nuisance to the surrounding territory. King Mahābala, finding that it was not easy to defeat Abhagga, invited him cordially for a feast, and then, closing the city-gates, ordered his execution. After wandering long in Saṁsāra, Abhagga would be born as a man, enter the order and finally attain liberation. A shepherd Chaņiya by name killed several animals and enjoyed and sold dishes of meat. This sin led him to hell, and thence he was born as a son Sagada to Bhaddă who had lost many of her children. After the child-birth, the family fell on evil days, Sagada grew vicious and debaucherous, and became attached to Sudarsanā, a kept mistress of the minister. He was dragged before the king who gave him capital punishment by making him embrace a red hot female statue. Mahāyīra prophesied that Sagada and Sudarisaņā would be later born as twins and would live as husband and wife. Consequently he would go to hell and pass through a series of births. As a merchant-prince he would enter the ascetic order and finally attain liberation. The royal priest Mahesaradatta celebrated human sacrifices so that the king's enemies might be destroyed. This sin took him to hell whence he was reborn as Bahassaï. datta, the family priest, with free access to the royal harem. On account of his vicious relation with the queen, the king ordered him to be impaled publicly. Mahăvira predicted that his soul would pass through various lower births, become a human being, practise asceticism and finally attain liberation. Dujjohana was a cruel jailor that inflicted manifold tortures on the convicts. He went to hell and was thence born as prince Nandivardhana who tried to murder his father Siridāma through a barber but was detected and ordered to be executed. Mahāvīra foretells that he would migrate like Ujjhiyaya and attain liberation. The physician Dhanvantari enjoyed and prescribed meat-preparations, and this sin led his soul to hell. Thence he was born as a merchant-prince Umbaradatta. He proved a bane to the family, and wandered in the town suffering from several diseases simultaneously. Mahāvīra prophesied that his future fate would be similar to that of Miyāputta. The cook Sirîya employed hunters, fowlers and fishermen to catch animals, birds and fish, and enjoyed and sold meat-dishes. In the subsequent birth, he was born as the fisherman Soriy adatta. Not only he sold fish to the public but also enjoyed fishpreparations. He suffered terribly on account of a fish-bone sticking in his throat. His future career, Mahāvīra said, would be like that of Miyaputta. King Sihaseņa burnt alive his 499 queens and their mothers who conspired against the life of Sāmā, his favourite queen. By this sin he was destined Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION to go to hell whence he was born as a beautiful daughter Devadatta. She was married to Pusanandi who was very much attached to his mother. She did not like this and killed the mother-in-law with a hot iron bar. The king ordered Devadattă to be impaled. Her future career would be like that of Miyaputta. The courtezan Puḍhavisiri seduced many persons of different status in life. As a result of this sin, she went to hell and was further reborn as a beautiful girl Añju. She became a queen but suffered lot on account of her vaginal pain which was incurable. Her future career, Mahāvīra prophesied, would be like that of Devadattă. The second section deals with the fruit of pious acts. The pious layman Sumuha received the monk Sudatta with pure and plenty of food. Consequently he had his journey of Samsara shortened and was subsequently born as prince Subahu of magnificent fortune. He received vows under Mahāvīra. Later on he would study scriptures, practise austerities, go to heaven and subsequently attain liberation. With the difference in names, the remaining stories are similar to that of Subăhu. The didactic tone of these stories is apparent. They want to give lessons in good behaviour both to monks and householders or to nuns and house-ladies. The pictures of the past and future and the horrors of transmigratory circuit warn the believer to tread the path of piety; even if he has erred, there is a better future for him; and he should follow the instructions of a teacher like Mahavira. Asceticism is a sovereign The sins enumerated remedy against all the ills of this and next life. and professions condemned give a fine glimpse of the ethical code which Jainism has always insisted upon. 25 The appeal to ascetic sentiments is worked out in a vigorous poetic back-ground in some of the stories of the Uttaradhyayana: King Nemi enters the order of monks after refuting the arguments of Indra guised as a Brahmin who wanted to test his faith (chap. IX). The legend of Hariesi sets aside the traditional value of sacrifice, and self-control and penance are held in great reverence (chap. XII). The story of Citta and Sambhūta (chap. XIII) belongs to the great cycle of tales about king Brahmadatta, and is a common property of Jaina, Buddhistic and Hindu works'. King Bambhadatta goes to hell, while the monk Citta attains liberation: this again conveys the superiority of ascetic values (chap. XIII). The chapter Usuyārijjam pleads so strongly for monastic values that it leads to a group-renunciation on the part of the king, queen and others. Aristanemi's renunciation with compassion towards the victims of the weddingfeast; Rajimati's devotion to him and her consequent retirement; her eloquent chastisement of wavering Rathanemi who was enlightened by her and the attainment of liberation after severe penances: the chapter Rahanemijjam (XXII), which nicely depicts these events, is a brilliant piece of ascetic poetry. The chapter Samjaïjjam (XVIII) gives some idea ; 4 1 See Charpentier's Intro., pp. 44 etc., and Notes, pp. 327 etc., of his ed. of the Uttara., Uppsala 1922. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 BRHAT-KATHAKOŚA of the early capitalix Jaina legends about ascetic heroes: some of the names of these outstanding persons are known to us from other sources. The list includes twelve Cakravartins, four Pratyekabuddhas and other kings like Udāyana, Kaśīrāja, Vijaya and Mahābala. Some of the legends like that of Miyāputta (chap. XIX) give a nice occasion for the text to present a good deal of didactic instruction, moral exhortation and dogmatic details. Coming to the Païņņas, some of them are full of references to stories about pious persons and ascetic heroes'. There was a nun Pupphacūla at Poyanapura ; her religious preceptor was Anniyāutta; while crossing the river Ganges he was thrown off from the boat; and he died piously and attained the highest object (S. 56-57). Amayaghosa of Kāyandi abdicated the throne for his son and toured all over the earth practising religion after mastering the scripture; when he returned to the metropolis, Caņdavega wounded his body; and when his limbs were being cut, he died and attained the highest object (S. 76-78). Avanti Sukumala of Ujjayani heard one evening the description of Nalini-vimāna, was reminded of heaven, entered the ascetic order, and sat in steady meditation under a bamboo grove in a lonely corner of the cemetery. His body was being dragged and bitten piteously by a carnivorous jackal for three days. He was in different, firm like the mountain and tolerated the agony. When he died piously and attained the highest object, gods showered scented water with flowers; and to this day we have the pond Gandhavati there (Bh. 160, M. 435-39 and S. 65-66). Ilāputta is an example of non-attach. ment for the world (M. 483). King Vesamaņadāsa of Kunāla had a heretical minister Rittha by name. There was a learned preceptor Usahasena who had a well-read pupil in Sihaseña. Being defeated in a debate, that cruel Rittha set Usahasena on fire one evening : as he was being burnt, he died piously and attained the highest object (S. 81-84). Kandariya and Puņdariya”, who were destined respectively for lower and upper births, go to Anuttara region by their firm attitude for a day (M. 637). Even after staying with friends, the soul is all alone when quitting the body like Kanha at the time of his death. Kanha had conquered anger by forbearance (M. 377, 496-97). The monk Kattiya (the son of king Aggi), physically dirty yet endowed with virtues, when he was wandering for food in the town of Rohidaya, was struck with a javelin by Kuñca. Enduring that agony he quitted the body piously and attained the highest object (S. 67-69, Bh. 160A noted by Kamptz). The monk Kālavesiya, the son of Jiyasattu of Mathurā, is said to have been eaten by a jackal in his illness on 1 Taking into consideration the crucial names, an attempt is made here to arrange them alphabetically. The references are to the Āgamodaya Samiti ed., Bombay 1927. See also Über die vom Sterbefasten handelnden ältern Pāiņņa des Jaina-Kanons by Kurt von Kamptz, Hamburg 1929. In this section Bh. = Bhattaparinnā, M.- Maranasa māhi, S.=Santhāraga. 2 Cf. Nāyādhammakahāo XX and see above, p. 21. 3 Cf. Antagadadasão, 5th Varga, para 81. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION the mount Moggalla (M. 498). Kidhi, the son of a householder, felt happy after abstaining from theft (Bh. 106). Kisi is well-known for his forbearance even when he did not get food (M. 497). The merchant Kuberadatta, full of infatuation as he was, could not distinguish, like Vesiyāņa, with whom to unite or not to unite; and had criminal intimacy with his daughter (Bh. 113). In the town of Kumbharakaḍa there were five hundred monks, namely, Khandaya and his pupils, endowed with ascetic virtues. All of them, except one, were crushed under a wheel (or in a machine). They suffered peacefully, continuing their meditation and bearing no ill will, died piously and attained the highest object (M. 443, 495; S. 58-60). The young monk Kurudatta, while meditating with a religious vow in the forest, was burnt at Gajapura and consequently attained the highest object (M.. 492, S. 85). A monk, though free from attachment and penance-worn, degrades himself by the company of women like that saint who dwelt in the house of Kosă (Bh. 128). Gangadatta, Vissabhui and Candapingala supply good illustrations of anger, hatred and infatuation (Bh. 137). Possibly there were two Gayasukumālas: the first had his body burnt by his father-in-law on the cemetery; he tolerated the burning sensation and did not swerve from his religious practices (M. 431-32, 492). The second one was pinned to the ground like wet skin with hundreds of nails, and he died piously (S. 87). The king Candavaḍimsaya was steady and firm in the hour of his death and thus achieved his object (M. 440-1). In the town of Paḍaliputta, that famous Caņakya abstained from preliminary sins, and submitted himself to Ingini-maraņa. Getting due respect and vanquishing the enemy, he had his body burnt (?). When he was observing Prayopagamana in a cowpen, the cow-dung cakes were set on fire by cruel Subandhu (or Subuddhi); he remained firm, though burnt, and attained the highest object (Bh. 162, M. 478, S. 73-75). Cilaiputta was a pious monk endowed with ascetic virtues; by the smell of blood ants swarmed on him and began to bite his head; his body was rendered porous like a seive; though he was bitten thus, he bore no ill will; and thus attained knowledge and the highest object (Bh. 88, M. 427-30, S. 86). The king Java was saved from death by a portion of verse, and he became a successful monk; then what to say of the efficacy of the Sutras preached by Jina (Bh. 87)? That devotee of Parivrajakas [ Harivahana by name] offered hot food to a recluse in a pot placed on the back of a pious banker Jinadhamma of Kañcanapura". The hot pot took out a patch of flesh etc. Disgusted with the world the banker became a monk. He abstained from all food and stood facing each direction for one fortnight. His wound was annoyed further by birds, worms etc., but he tolerated all that quietly taking that to be the fruit of his Karmas and less troublesome than the tortures of hell. At the end of two 1 2 Cf. Antagaḍadasão, 3rd Varga. See the story of Sanankumara given by Nemicandra in his commentary on the Uttaradhyayana, XVII, gāthā 37, pp. 239-40 of Bombay 1937. Śri-Uttaradhyayanāni, 27 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 BREAT-KATHẮKOSA months he fell deak paying respects to Jinas (M. 412-423). Desire for pleasures degrades one, while indifference to the same rescues one from Samsāra : the two brothers [ Jiņapāliya and Jiņarakkhiya ]' who met a goddess and a god (on an island) are an illustration in this context (Bh. 147). Danda was endowed with ascetic virtues; when he stood practising some penance, he was pierced with arrows; being concentrated on the words of Jina, he was indifferent to the body; he endured the pain, and attained the highest object (M. 465, S. 61-62). One who is heretical and hates the saints suffers terribly here like that Datta of Turumiņi (Bh. 62, M.491 ?). The devotion unto Jina results into happiness and birth in a good family addura of Rāyagiha who was formerly Maniyārasetthi (Bh. 75). The saint Damadanta, though blamed and praised by Kauravas and Pāndavas, maintained the attitude of equality (M. 442). Devaraï, the king of Sākeya, lost his kingdom and its pleasures, and was thrown into the river by his queen who was attached to a lame man (Bh. 122). The two monks, Dhanna and Sālibhadda, that were endowed with penancial glory, submitted themselves to Prāyopagamana on a pair of stone-slabs near Vebhāra mountain in the vicinity of Nalanda; they had no attachment for their bodies which withered with cold and heat, and they reached Anuttara region; through divine grace their bone heaps can be marked out even to this day (M. 443-48). At Padaliputta of Candayagutta, there was one Dhammasiha who abandoned Candasiri and adopted religious life at Kallaüra; he practised Grdhra-prştha Pratyākhyāna peacefully; he was in different to the body though eaten by thousands of worms, and consequently he attained the highest object (S. 70-72). Nanda, Parasurăma, Pāņdurārya and Lobhananda perished on ount of anger, vanity, treachery and greed respectively (Bh. 153). Five members of a family at Ayalaggāma, viz., Suraï, Saya, Deva, Samaņa and Subhadda, humbly waited upon a monk, Khamaga by name, who was penance.worn, and accepted from him the vows of a house holder after hearing his discourses on Punya and Păpa. Later they entered the ascetic order in the religious regime of Vāsupūjya. They practised various severe penances and were born in the Aparājita-vimāna. Thence they were born as the victorious sons of Păņdu in the Bhårata country. Hearing the sad news of Krşņa's death, they got themselves admitted to the order under the monk Sutthiya. The eldest mastered fourteen and the rest eleven Pūrvas, and they became famous all over the world. They came to Surattha; and hearing about the Nirvāņa of Jina [Nemi], they adopted fast. Bhima practised rigorous austerities, adopted Prāyopagamana on the mount Satruńjaya, tolerated every trouble, and reached Parinirvāņa. The rest of them also followed him (M. 449-64). Even a Pāņa (i. e. cāņdāla) could get divine attendance, when fallen in a crocodile pond, by virtue of his having observed the vow of Ahimsā only for a day (Bh. 96). There should not be 1 Cf. Nāyādhammakahão, chap. IX, p. 18 above, the story of Māyandi princes. 2 Nāyādhamma., chap. XIII. 3 This is one of the seventeen types of death. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION any attachment, even for a second, towards kinsmen a relatives, because it is they that become enemies like that mother in the case of Bambhadatta (M. 376). The pupils of the Arhat [Mahāvīra] were burnt by Mankhali' with his penancial lustre; being thus burnt, they attained the highest object (S. 88). The queen Miyāvai destroys within a moment the Karman of her past lives by Vandana and other rites (Bh. 50). Possession or attachment is dangerous: the saint Meyajja, along with the Krauñca bird (?), was oppressed by a house-holder when the wealth was really taken by his son'. Out of sheer compassion he did not expose the Krauñca bird which was a culprit; and when his eyes were pierced, he remained firm like the Mandara mountain (Bh. 133, M. 425-6). That wicked Mentha, who was sent to the gallows for theft, offered salutation to the Jina [ at the moment of his death] and was born as a Yakṣa, Kamaladala by name (Bh. 78). Thirtytwo members of the club Laliyaghada at Kosambi faced courageously the flood of the river, submitted themselves to Prayopagamana and attained the highest object (S. 79-80, M. 480?). The saint Vaïrarisi had a band of five hundred pupils; he stood courageously in the sun on a slab of stone performing his penance; tender as he was, his body melted as it were like a lump of ghee; the place where he was worshipped by gods is known as Rahavattagiri; and the mountain where Indra honoured him became famous as Kunjarāvatta (M. 468-73). A single lie vitiates many truthful words: by telling a lie but once Vasu went to hell (Bh. 101). The fourth sovereign [Sanamkumăra] suffered from sixteen diseases for a period of seven thousand years, but he tolerated all of them (M. 410-11). After a fast for four months, on the day of fast-breaking, when he was steady in his vow and while he was coming down the mount, the saint Sukosala was strangled by his mother, now born as a tigress, at Cittakuḍa on the Muggillagiri ; he tolerated patiently all that and attained the highest object (Bh. 161, M. 466-67, S. 63-64). The ignorant cow-boy uttered piously the Namaskāramantra, and was born consequently as a merchant-prince Sudamsana at Campă (Bh. 81). The monks from the low caste, Somadatta etc., of Kosambi, were thrown into the sea when they had submitted themselves to Prayopagamana (M. 493). Due to pure Samyaktva, i. e. Right faith, though not accompanied by conduct, Harikulaprabhu, Śrenika and others were destined to be born as Tīrthakaras (Bh. 67). Sodasa suffered being a slave of taste, and the king Somaliya, of the sense of contact (Bh. 145-6). The above survey is partial and does not include all the references from the Païnnas. There are some Kathanakas which are anonymously introduced (M. 424, 510 etc.), and there are others which give some names without sufficient details (M. 433). I have tried to note the contents of the verses with utmost caution, because it is difficult to interpret them without already having a close acquaintance with the Kathānakas. In some 1 Cf. Bhagavati, Sataka XV. 2 Possibly there are two versions of the same story. 29 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOŠA cases it is hard even spot the proper names. A story from the Diṭṭhivaya has been summarised (M. 512-520), but the crucial names are not properly indicated. To illustrate how different Parisahas or hardships, of which we get an account in the Uttaradhyayana, chap. II (M. 484), were endured by the ascetic heroes of the past, various names are mentioned; but the text gives very few biographical details (M. 485-503 etc.). This bird's-eye-view of the narrative sections from the Ardhamāgadhi canon reveals to us certain broad traits. The legends are associated mainly with three Tirthakaras, Nemi, Parsva and Mahavira: the majority with Mahavira and minimum with Pārsva. In all the legends connected with Nemi, Kṛṣṇa Vasudeva figures quite prominently; and they get closely linked with what we call Harivamsa. The tales belonging to the age of Mahāvīra give good many details about contemporary dynasties and kings. Though they are didactic in spirit, it is quite apparent that some characters are historical persons. As remarked above, some legends are specifically Jaina, while some are special editions of common Indian legends with ethico-religious bias of Jainism. 30 Some evidence is preserved in the canon itself as to how these pattern-stories etc. were kept in traditional memory. Almost all of them stand at present in prose, but in some places the series of names are put in the form of a verse. Further Uvāsagadasão gives a few verses which must have served a good aid to memory of the teachers who gave the stories in details when the occasion arose. The commentaries on the texts like the Nayadhammakahão give pithy verses summarising and explaining the motive of the stories. It is difficult to say whether these verses are the later summaries of the present texts or the texts themselves have such verses at their basis. Though the first alternative is not altogether excluded, I feel inclined to accept the second alternative as a general rule. The entire narrative of the Samaraic cakahā was presented by Haribhadra on the basis of a few verses which too have come down to us. Such verses do presuppose stories in oral tradition, but they themselves lie at the basis of the written compositions available at present. b) POST AND PRO-CANONICAL STRATA ETC. The next stratum of Jaina literature, which deserves special attention in the survey of early narrative tale, is represented by Nijjuttis1 that are something like commentaries which not only explain a few topics connected with the text with which they are associated by the application (ni-yuj) of Anuyoga-dvaras etc. but also supplement the information 1 On the Niryuktis the following sources may be studied. Leumann: Daśavaikālikasutra and Niryukti, ZDMG, 46, pp. 581-663, and Übersicht über die Avasyaka-Literature, Hamburg 1934; Ghatage: The Daśavaikälika-, and Sūtrakṛtänga-niryukti, Indian H. Quarterly, vol. XI, 4 and vol. XII 2; Charpentier: Intro.. pp. 48-52, of Uttaradhyayana, Uppsala 1922; Chatura vijayaji: Anekanta 111, pp. 678-684. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION by giving the accessory details. There are Nijjuttis o en canonical texts. Some independent Niryuktis like the Pinda-, Ogha- and Aradhana- are there: the first two appear to be the supplements of Daśavaikālika- and Avasyaka-niryukti; while the last is known only from a reference1, and it appers probable that it might have been absorbed in texts like the Bhagavati Aradhana, Maraṇasamähi2 etc. More than once the legendary environments of a certain discourse are given by the Niryukti: for instance, it is the Niryukti that gives details about Ardraka (in the Suyagaḍam) who held a debate with Gosala etc., as noted above. The Niryuktis themselves have many significant contexts and references which necessitated the subsequent Cūrṇīs, Bhāṣyas and Tīkās to give elaborate Kathānakas for a clear and full explanation. A few examples may be noted. The Uttaradhyayana-niryukti refers to Dhanamitra, Hastimitra, Svapnabhadra etc. to illustrate how bravely they faced different parisahas which are twenty-two in number; similar stories are found in other contexts too. Daśavaikālika-ni., in course of the exposition of Udaharaṇa, gives important references (verse 61 etc.) which presuppose, if not written, at least oral Kathanakas. In other contexts (verses 77, 81, 87, 162, 239 etc.) either proper names are mentioned or significant catch-words are given which become meaningful only when the legends are added in details. Even the Nandisūtra gives certain verses, perhaps of a traditional nature, which enumerate illustrative terms sela-ghana etc. to characterise good and bad pupils; and these have occasioned elaborate stories. As yet we have no clear idea about the early sources of these Kathānakas. It appears from certain references that some Kathanakas were present in the Dṛstivada, which is lost now; and the details of such a Kathanaka of an elephant are mentioned in the Maranasamahi Païņņa (verses 512-20). The Avasyaka-ni. is a pretty important text, or at least it has been given that importance by some of the extensive commentaries written by celebrated authors. The text affords many occasions for introducing Kathanakas, say in applying Anuyogas, in illustrating Buddhis, in the context of correct reading of the text etc. Consequently the Curņi, Bhāṣya and Tīkā have been replete with Kathānakas, both in Prakrit and Sanskrit, and the total bulk of these stories is of staggering magnitude.* Leumann has already summarised the stories on the Daśavaikālika-ni. and edited separately a few stories from 31 1 Müläcāra V. 82, p. 233, ed. Māņikachandra D. J. Granthamala No. 18, Bombay Samvat 1977. 2 The concluding gathas of Maranasamahi are very significant and interesting. This work has inherited ideas, and possibly verses also, from eight earlier texts: 1) Marana-vibhatti, 2) Marana-visohi, 3) Marana-samahi, 4) Samlehanasuya, 5) Bhatta-pariņņā, 6) Aurapaccakkhāņa, 7) Mahapaccakkhana, and 8) Arahaṇāpaiņņa. 3 Sri-Viseṣavasyaka, with Gujarati translation, parts 1-2, Agamodayasamiti, Bombay 1924-7, pp. I. 509, II. 513 etc. 4 The volumes of Bṛhatkalpasūtra, five of which are already out (Bhavanagar 1933-38), are rich in illustrative narratives. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 BņHAT-KATHĀKOŠA the Avaśyaka-cūrpt vnd Haribhadra's Tīkā. Besides consistently giving a complete account of the stories already referred to in the canonical texts, the commentators like Haribhadra, Silāöka, Sāntyācārya, Devendra, Malayagiri and Abhayadeva have not only drawn upon earlier commentaries but also on extraneous literature with the result that their commentaries have become repositaries of Jaina tales of varied length and various interests. In this context mention may be made of Uvaesamālā, a poem in 540 Prākrit verses, attributed to Dharmadāsa who is claimed to be a contemporary of Mahāvīra. Critical scholars are not ready to assign such an antiquity to this text. Apart from the didactic remarks in pithy and concise expression, this work is a rich mine of legendary references many of which are already met with in the Païņņas. It is often quoted and has been subjected to good many commentaries since gth century A. D. as far as we know. The work looks like a compilation, and the basic verses may go back to an earlier stratum of Jaina literature corresponding to Nijjuttis and Païņņas. The Digambaras have not accepted the present Ardhamāgadhi canon to be authoritative for them. Though the early canon is lost, the Digambara tradition has preserved the lists of canonical texts with their sub-divisions, if any, and contents. It is interesting to compare them with those given in the Nandisutra and with the classification of the Ardhamāgadhi canon as it is current today. The absence of the Upānga division both in the Nandisūtra enumeration and the Digambara classification and certain common details indicate the genuineness of the Digambara tradition which A is earlier than the Valabhi Council. According to the Digambara tradition, Tñātrdharmakathā or Nāyādham makahão narrates various Akhyānas and Upākhyānas; Antayada describes Nami, Rāmaputra etc.; and Anuttaropa. pädikadaśa or Aņuttaradasā, contains narratives about Rşidāsa, Dhanya, Sunaksatra, Kārtika, Nanda, Nandana, Sālibhadra, Abhaya, Vārişeņa, Cilāta. putra etc. Stories about some of them are available in the present Ardha. māgadhi canon, but in the absence of early texts it is not possible to say what the Digambara stories were like. Perhaps the only available fragments of the Digambara canon lie at the basis of those three big commentaries which, in their final shape, are known by the names Dhavala, Jayadhavalā and Mahadhavala. The portions, so far published, are comparatively small, and the context being purely technical, one is not in a position to have any idea of the Kathānakas, if found at all, in these works. Some of the 1 Daśavaikälika-sūtra and -niryukti ZDMG, 46, Leipzig 1892; Die Avaśyaka Erzählungen, Leipzig 1897. 2 See Prākrit Srutabhakti; Pūjyapāda's Sarvārthasiddhi on the Tattvārthasūtra I. 20, and Akalanka's Rājavārtika on the same; Satkhaņdāgama with Dhavalā (Amraoti 1939) vol. I, pp. 96 etc.; Gommațasāra, Jivakāņda (Bombay 1916) pp. 134 eto. 3 Prof. Hiralal has fully compared the details about the Drstivāda available in the Digambara and Svetām bara texts in his Introduction, pp. 41-68, to Dhavalā, vol. II (Amraoti 1940). Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 33 illustrative stories, such as those which classify and characterise the pupils, are also found here. The next stratum of the early Digambara literature consists of the works of Kundakunda, Yativrşabha, Vattakera and Sivārya. Among the works attributed to Kundakunda, the Nirvāṇakında is a formula of recitation which enumerates many celebrities in the Jaina tradition with the places of liberation; and salutations are offered to them. It gives a good idea of the early capital of Jaina mythology and of the personalities held in reverence by the Jainas. The Bhāvapāhuda refers to certain personages who suffered on account of some blemish in their bhāva or spiritual temperament: Bahubali's spiritual progress was hindered by his vanity, even though he had no attachment for his body. On account of Nidāna, the saint Madhupinga could not be a monk, and the saint Vaśiştha suffered misery ( 44-46). Bāhu, though a Jaina monk, burnt the town of Dandaka due to internal hatred and fell into the Raurava-hell; so also Dipāyana, though a monk in appearance but devoid of real merits, wandered in infinite Samsāra (49-50). Sivakumāra, though encircled by young ladies, could put an end to Saṁsāra because of his heroic and pure mind. Bhavyasena could not be a Bhāvasramaņa (i. e., an ascetic with bhāva), even though he had learnt 12 Angas and 14 Pürvas, nay the whole of the scriptural knowledge; Sivabhūti, whose bhāva was pure, attained omniscience by simply uttering tusa-māsa (51-3). Even the fish Sālisiktha, due to impurity of mind, fell into a great hell (86). To illustrate that mere knowledge devoid of Sila does not pave the path to higher worlds, the Silapāhuda quotes the instance of Surattaputta who, though knowing ten Purvas, went to hell (30). The Tiloyapaņņatti of Yativrşabha gives all the basic details that have constituted, in later works, the biographies of 63 Salākāpuruşas. Similar details are found in the Avasyaka-bhāşya etc. The Mülācāra of Vattakera records (II. 86-7) that Mahendradatta killed women like Kanakalata, Nagalatā, Vidyullata and Kundalată and also men like Sāgaraka, Vallabhaka, Kuladatta and Vardhamānaka on the same day in the town of Mithila. On this verse the commentator Vasunandi has not given any details of the story, but simply remarks: kathānikā cātra vyakhyeyā āgamopadesāt. Then to illustrate how alms were procured by certain monks through anger, vanity, deceit and greed, the text refers to some stories associated with the towns of Hatthikappa, Veņāyada, Vāņārasi and Rāsiyāņa. Vasunandi has not given any details, but merely remarks : atra kathā utpreksya vācyā iti. In the 1 Upadhye: Pravacanasāra (Bombay 1935), Intro., p. 33. 2 The Sanskrit Chāyā, supplied possibly by the editor, equates this name with Satyakiputra. A portion of this was tentatively edited by me (Jaina Siddhānta Bhavana, Arrah 1941; first printed in the Jaina Siddhanta Bhāskara and then separately issued ). Now it is again being reedited by me and it is in the Press. The text is accompanied by a Hindi translation. 4. Jitakalpabhāsya (Ahmedabad Sam. 1994) mentions an illustration of Khamaga of Hatthikappa but more details are not given (gāthās 1395 eto.). Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA: next verse (VI. 36) Yasodhara is mentioned as a typical Dänapati. The Bhagavati Arādhanā of Sivārya, though it deals mainly with the ascetic discipline on the eve of a monk's death, contains many legendary references which are already developed, as we shall see below, into Kathănakas collected in the Kathākośas of Harișeņa, Prabhācandra etc. The text refers to many eminent personalities who deserve to be remembered on account of their religious piety, sinful acts and ascetic heroism or forbearance with their consequences here and elsewhere. Many of the names are common with the Païņņas, and some of them are mentioned in almost identical verses. On account of almost identical contents dealing with monastic life, common verses showing minor changes of verbal and dialectal nature, and similar method of exposition and presentation, the conclusion apr be inevitable that texts like the Bhagavati Arādhanā, Mülācāra, Nijjuttis (like Avassaya, Pinda etc.) and Païņņas (like the Maranasamāhi, Bhatta. parinnā etc.), in some portions at least, go back to a common source that was once accepted as authoritative both by the Digambaras and Svetāmbaras. The dialectal and verbal differences rule out the possibility of mutua borrowing at a later date after the texts were fixed in writing; in fact, they clearly indicate how the same verse, without the contents being affected, has been subjected to minor changes in course of oral transmission. The preservation of identical broad outlines of contents only goes to confirm the authenticity of the early aina tradition and the fidelity with which it has been handed down to this day. Behind the differences, elaborated in later days, between the Svetāmbaras and Digambaras, a dispassionate study reveals a solid and common back-ground of Jaina tradition : ascetic ideals are fundamentally the same in spirit, and the same ascetic heroes are celebrated by them. Among the early Digambara Srāvakācāras, the Ratnakarandaka of Samantabhadra mentions Anjanacora, Anantamati, Uddayana, Revati, Jinendrabhakta, Vārişeņa, Vişņu and Vajra to illustrate how the eight limbs of Samyaktya, niḥsankā etc., were worthily possessed by them respectively (I. 19-20). Then Mátanga, Dhanadeva, Vārişeņa, Nili and Taya are known for their perfect observance of the five Anuvratas; and Dhanaśrī, Satyaghoşa, Tāpasa, Ārakşaka and Smaśru-navanīta are noted for their five sins (III. 18.9). Lastly the names of Śrīşeņa, Vrşabhasena and Kaundesa are mentioned as typical donors (IV. 28). Vasunandi in his Uvåsayajjhayaņa illustrates the eight Angas of Samyaktva with almost the 1 These facts are noted in more details later, - 2 The Yaśastilakacampũ (Šaka 881), 6th Āśyāsa, also gives these stories. The Dharmāmrta (in Kannada) of Nayasena (A. D. 1112) gives stories associated with Samyaktva, Vratas etc. 3 I have used an edition which gives Prākrit text and Hindi translation. The face page is gone; possibly it was published from Devaband by Babu Surajabhan Vakil. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION same names as those given by Samantabhadra : he gives Jinadatta for Jinendrabhakta and in addition mentions the names of their towns also (verse Nos. 52-5). Vasunandi illustrates the consequences of the seven Vyasanas by appealing to the following stories : Due to gambling the king Yudhisthira lost his kingdom and had to dwell in the forest for a period of twelve years; Yadavas perished by drinking foul wine when they were thirsty while sporting in the garden; the demon Baka of Ekacakra, being addicted to flesh-eating, lost his kingdom and went to hell after death; that intelligent Cārudatta, because of his contact with a prostitute, lost his wealth and suffered a good deal in the foreign country; the sovereign Brahmadatta went to hell on account of his sin of hunting; because he repudiated a deposit, Sribhūti was punished and he wandered miserably in Samsära; the lord of Lankā, though a semi-sovereign and a king of Vidyādharas, went to hell, because he kidnapped another's wife; and Rudradatta of Sāketa, being cted to all the seven Vyasanas, went to hell and wandered long in Saṁsāra (verse Nos. 125-33). These texts by themselves give very little information about these names, and it is for the commentators to supply the details. Prabhācandra, for instance, has given the stories to make the references of the Ratnakarandaka intelligible. Most of these stories, it is clear, are moral lessons ; some of them are found in later Kathākošas; and the fate of the heroes and e story leaves a definite imprint on the pious readers. If they suffer by their sins, the reader is expected to abstain from similar acts; and if they reach happiness by their pious acts, the reader becomes a confirmed believer in those virtues. A thorough study of the extensive Jaina Kathānaka or narrative literature alone would help us to identify the stories and get more details about the names casually mentioned in the wide range of early Jaina literature some specimens of which have been passingly surveyed above. This much is certain that no writer would refer to names like this unless he has definite stories in view either in oral tradition or in written records. The fact that some stories have been traced with the necessary details means that further studies are needed to connect these names with the well-established tales. c) LATER TENDENCIES AND TYPES After taking this passing survey of the narrative elements in early Jaina literature, it is possible to take stock, with typical examples, of the growth of subsequent Jaina narrative literature from the earlier seeds. We are concerned more with the types and their broad traits than with detailed particulars about each work. The material for the lives of 63 Salākāpuruşas (24 Tirthankaras, 12 Cakravartins, 9 Baladevas, 9 Vasudevas and 9 Prativāsudevas) is found partly in the Kalpasūtra and, in its basic elements, in the Tiloyapannatti and Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 BRHAT-KATHAKOŚA Višeşāvasyaka-bhāşya as we have seen above. These lives have assumed a definite pattern, though the extent of details and descriptions etc, differ from author to author. It appears that some earlier works, like that of Kavi-Parameśvara, have not come down to us; but the works of Jinasena. Gunabhadra and Hemacandra in Sanskrit, those of Sīlācārya and Bhadreśvara in Prākrit, of Puşpadanta in Apabhramsa, of Camundaraya in Kannada and the Śrīpurāņa of an anonymous author in Tamila are available besides the minor compositions of Aśādhara, Hastimalla etc. On account of their cosmographical and dogmatic details, intervening stories and moral preachings, they are worthily classed among the eminent Purānas and held in great authority. In the second type we have the biographies of individual Tirthakaras and other celebrated personalities of their times. We have seen how Nirvāṇakāņda offers salutations to many an eminent soul commemorated in later literature. Most of the available biographies of Tirthankaras, whether in Präkrit, Sanskrit, Kannada or Tamila, admit the traditional details, but present them in an ornate style following the models of classical Kavyas in Sanskrit: the lives of Supārsva and Mahāvīra depicted by Lakşmaņagaņi and Guņacandra in Prākrit, those of Dharmanātha and Candraprabha in Sanskrit by Haricandra and Viranandi, and those of Adinātha, Ajita and Santi in Kannada by Pampa, Ranna and Honna are good examples. Jaina tradition puts Rāma and Krşņa as contemporaries of Munisuvrata and Neminātha ; and there are many works giving the Jaina version of the Indian legends about Rāma and Krsna or cycles of tales associated with them. The Paümacariya of Vimala and the Padmacarita of Ravişeņa, even after making concession for the Jaina back-ground and outlook, do give original and important traits of the Rama-legend, though they do not conceal their acquaintance with Valmiki's Rāmāyana. Due to the introduction of Vidyadharas and their feats, these texts give a pleasant reading like a fairy tale in many portions. Krşņa Vasudeva figures in Jaina literature quite prominently: the Ardha. māgadhi canon gives good bits of information about him and his clan; he is an outstanding hero of his age, but the traces of deification, so overwh ingly patent in the Mahābhārata, are conspicuously absent throughout these references. In early Jaina works Pāņdavas are not as important as they appear to be in the Mahābhārata; and Krşņa, though not a divinity, is a brave and noble Kșatriya hero. Perhaps this represents an earlier stage in the evolution of the Pāņdava legend which, in its enlarged ar form, is available to us in the present-day Mahābhārata. The Vasudeva. carita attributed to Bhadrabāhu has not come down to us; but the Vasudevahindi of Sanghadāsa, describing the peregrinations of Vasudeva and representing a fine Jaina counterpart of the Bșhatkathā of Guņādhya, is a .. 1 He narrates a number of sub-stories illustrating the fruits of Samyaktva and of the Atioaras of twelve Tows, and they almost elclipse the main current of the narrativo. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION memorable storehouse of a lot of heroic legends, popular stories, edifying narratives extended over many births, and sectarian and didactic tales. Many of the Akhyānas, such as those of Cārudatta, Agadadatta, Pippalada, Sagara princes, Nārada, Parvata, Vasu, Saņamkumära etc., which are so popularly repeated in later literature, are already there in the Vasudevahindi nearly in the same form. The stories like that of Kadārapinga, who is well-known as a voluptuous character, can be traced back to this text; the motive remains the same, though the names associated with the story are different. The Harivamśapurāņa of Jinasena in Sanskrit and that of Dhavala in Apabhramsa share a good deal of common ground with the Vasudevahindi. Jinasena's text, it is remarkable, presents many details which can be more legated to a work dealing with the lives of 63 Salākāpuruşas. Under this type may be included hundreds of Jaina works, in prose or poetry, in various languages: some of them deal with the lives of individual religious heroes such as Jivandhara, Yasodhara, Karakandu, Nāgakumāra and Srīpāla ; then there are edifying tales of pious house-holders and ladies that devoted their life to the observance of certain vows and religious practices; there are short biographies of ascetic heroes well-known in early literature and lastly there are tales of retribution, illustrating the rewards of good and bad acts here and elsewhere. What matter in these stories are the motives and the doctrinal preachings. Some heroes are drawn from earlier literature, some from popular legends, and some names may be even imaginary: the setting, however, given to all these is legendary. This category includes many Kathās, Akhyānas and Caritras in Sanskrit, Präkrit or Apabhraíba; their authors mind only the narration of the events and their style is epical. There are some notable examples like the Gadya. cintamani, Tilakamañjarī, Yaśastilakacampů etc. which are fine specimens gh poetic ability and ornate expression. It is an essential qualification of a Taina monk that he should be able to narrate various stories ; naturally many Jaina monks, gifted with poetic inclinations, have richly contributed to this branch. The third type marks an interesting path in Indian literature: it is the religious tale presented in a romantic form. The Tarangalola of Pädalipta in Prākrit is lost, but its epitome in Sanskrit, the Tarangavati, shows that it might have possessed engrossing literary qualities. Then there is the Samarāiccakahā which is a magnificent prose romance composed by the poetic and literary genius of Haribhadra almost from a string of traditional names to illustrate how Nidäna or remunerative hankering involves the soul into long Saṁsāra. The Upamitibhavaprapañcā kathā of Siddharşi is an elaborate allegory worked out with much skill and care, and can be put under this type. Sometimes imaginary tales ! an excuse for attacking the other religions, their doctrines and mythology. This tendency is explicitly seen as early as the Vasudevahindi, but the ways adopted there are straightforward. Haribhadra's Dhurtākhyāna and the Dharmaparikşās of Harişeņa, Amitagati and Vịttavilăsa have shown how Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 BRHAT-KATHAKOSA skilfully the incredible legends of Hindu mythology could be ridiculed through an imaginary tale. The fourth type is represented by semi-historical Prabandhas etc. After lord Mahāvīra, there flourished patriarchs, remarkable saints, outstanding authors, royal patrons and merchant-princes who served the cause of Jaina church in different contexts and centuries. The succeeding generations of teachers have not allowed all these to fall into oblivion. We see how Nandisūtra offers salutations to eminent patriarchs; Harivamsa and Kathavali mention the various teachers after Mahavira; and the hymns like the Rṣimandala enumerate the names of saints: all these elements have given rise to a large mass of literature in later centuries, and the Parisiṣṭaparvan, Prabhavakacarita and Prabandhacintāmaņi are the typical examples. It is true that the historian has to glean out facts from their legendary associations. Like the great teachers, the Jaina holy places also are glorified in works like the Tirthakalpa. The last type is represented by compilations of stories or the Kathakosas. We have seen how some of the canonical texts, Niryuktis, Paippas, Aradhana texts etc. refer to illustrative and didactic stories, exemplary legends and ascetic tales. Other texts like the Uvaesamālā, Upadesapada etc. do continue this tendency. This required the commentators to supply these stories in full: sometimes older Prakrit stories are preserved in Sanskrit commentaries; and at times the commentators themselves wrote these stories, based on earlier material, in Sanskrit either in prose or verse or in a mixed style. This has made some of the commentaries huge repositaries of tales; and we know how rich in stories are the various commentaries on the Avaśyaka, Uttaradhyayana etc. These stories have got a definite moral purpose to be propagated, and as such teachers and preachers could use them independently, without any specific context, throughout their discourses. There have been the Jaina recensions like the Pañcākhyāna which were the forerunners of the Pañcatantra. This gradually led to small and big compilations of Kathas which could be conveniently used as source-books for constant reference. Many teachers could narrate them in their own way keeping intact, as far as possible, the purpose and the frame of the story. Consequently we have today in Jaina collections a large number of Mss. called Kathakośas. Many of them are anonymous compositions, and very few of them are critically inspected in comparison with others of that class. Works like the Kumārapālapratibodha are nothing but collections of stories meant for a specific purpose. Individual stories from these collections are available separately also. As distinguished from these didactic tales, there are some stories associated with Vratas or the religious and ritualistic practices, and a good tale is composed to glorify the fruit of Vratas and the persons who achieved it. In later days they have lost all literary flavour and become mechanical and prosaic narratives which are often preserved in collections also. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 39 In all the above types of works, excepting some of the semihistorical Prabandhas, certain traits specially attract our attention, because they are not quite normal and not found in such an abundance in other branches of Indian literature. Pages after pages are devoted to the past and future lives; and the vigilant and omnipotent law of Karman m'eticulously records their pious and impious deeds whose consequences no one can escape. Whenever there is an opportunity, religious exhortations are introduced with dogmatical details and didactic discourses. The tendency of introducing stories-in-stories is so prevalent that a careful reader alone. can keep in mind the different threads of the story. Illustrative tales are added here and there, being usually drawn from folktales and beast-fables ; and at all the contexts the author shows remarkable insight into the workings of human mind. The spirit of asceticism is writ large throughout the text; and almost as a rule every hero retires from the world to attain better status in the next life. 3. COMPILATIONS OF KATHĀNAKAS: A SURVEY In various Bhandāras we come across a large number of Mss. which are collections of stories; and their names are available to us from catalogues like the Brhattippanikā, Taina Granthāvali? and Tinaratnakosa. The last work is the most up-to-date and exhaustive Catalogus Catalogorum So studiously prepared by Prof. H. D. Velankar. The following list is mainly based on that work, the advance-formes of which, thanks to the kindness of the Author and Publishers, I have been allowed to use. Without a thorough examination of the Mss. it is difficult to distinguish one Kathākosa from the other; so I have noted specially those works which could be mutually distinguished and about which some specific information could be noted afresh. Kathakosa (Kathănakakośa or Kathākosa-prakaraṇam): It is in Prakrit containing 239 gathās according to the Bșhattippanikā. In the opening gāthī the author declares that he would preach some Nayas, illustrations or exemplary tales, which are the cause of liberation. The verses only mention the stories with catchwords: sometimes stories more than one are associated with a certain illustration. The fourth gāthä, for instance, says that the soul earns heavenly bliss even by pūjā pranidhāna (desire for or thought about Pūjā or worship) like Jinadatta, Sūrasena, Srimāli and Roranārī. In the first 17 gāthās, which portion alone is studied by me, the stories refer to Jinapūjā and Sādhudāna.* The Sanskrit comment 1 Jaina Sāhitya Samsodhaka vol. II, part 2. 2 Published by the Jaina Svetambara Conference, Bombay Samvat 1965. 3 To be published by the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 4. 4 One Kathākośa is attributed to Haribhadra (Jaina Sāhityano Itihāsa p. 168), but it has not come to light as yet. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 BRHAT-KATHAKOSA ary on these gāthas gives the illustrative stories in Präkrit, the presentation being an admixture of prose and verse. Prof. Jinavijayaji informs me that Tineśvara-sūri, the pupil of Vardhamăna-sūri, himself has composed the găthås as well as the stories in their present form, though it is not unlikely that he might have incorporated earlier material.' He quotes canonical passages and stray verses in Sanskrit, Prakrit and Apabhraṁsa. Kathākośa : It is a collection of 27 tales (beginning with the story of Dhanada and ending with that of Nala ) illustrating the fruits of worship and other pious duties and religious virtues, the effects of four passions and the consequences of ascetic observances. According to Tawney's estimate, these stories are genuine fragments of Indian folk-lore, but they have been edited by some faina theologian for the purpose of the edification of the votaries of that religion, and they are, in their present form at any rate, intended to illustrate the tenets and practice of Jainism. It is written in Sanskrit interspersed with Prākrit găthās. The name of the author is not known, nor can we assign any definite date to this work. Three names of kings, Karka, Arikesarin and Mammaņa, mentioned in this work, are traceable to the royal dynasties of Karnataka in the loth and Ith centuries A.D.; and from these references Dr. Saletore observes thus : 'it may not be unreasonable to conclude that the work may have been composed after the last quarter of the eleventh century A.D.' Kathākośa ( Kathāratnakośa): It was composed at Broach in Samyat 1158 (-57 = I10I A.D.), the author being Devabha of Prasannacandra. According to the doctrine of Jina, the path of liberation is sustained by the good monk and the good householder, well-versed in their respective duties. A good monk is not possible without his being a good householder: he who can practise the partial course of conduct is able to practise the full one. To become a good householder one has to be endowed with general (sāmānya) and special ( visesa) virtues: the former are 33 in number and refer to right-faith and eight Angas, religious devotion, devoted support of the institutions of the temple and monkhood, and the cultivation of philanthropic, noble and gentlemanly traits of character; the latter comprises 17 virtues referring to the practice of five Anuvratas, seven Sikşavratas, some of the Avaśyakas with Samyarana and renunciation. Peterson (Reports IV, p. xliv) remarks: 'Composed, Samvat 1092, in Āsāpalli a Lilāvatikatha and in Dindiyänakagrāmaa Kathānakakośa.' According to Mr. Desai (Jaina Sa. Itihāsa p. 208 ), he composed Kathākośa between Samvat 1082-1095. Brhattippaņikā puts Samvat 1108. So this Kathäkośa can be assigned to the econd quarter of the 11th century. Winternitz (HIL p. 543) puts 1092 A.D.:. perhaps he mist ok Samvat for A.D. 2 The work is in the press at present, and I am thankful to Sri Jinavijayaji who kindly sent to me thirteen advance formes. 3 This Kathäkoga is translated into English by O, H, Tawney, Oriental Translation Fund, New Series II, London 1895. 4 Jaina Antiquary (Arrah 1938) vol. IV, No. 3, pp. 77-80. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Corresponding to these virtues, exemplary stories are given by this Kathākośa in Prakrit with stray verses in Sanskrit here and there. It is written mostly in verse, there being a few prose passages. Religious and didactic instruction through stories is the main purpose of this composition; and they are expected to influence the reader and turn him into a well-behaved householder.1 Kathakosa (Bharatesvara-Bahubali-Vṛtti) of Subhasila: BharahesaraBahubali are the opening words of a Prakrit composition in 13 verses, perhaps a part of daily salutation, enumerating a century of great personalities, 53 men (beginning with Bharata and ending with Meghakumāra) and 47 women (Sulasă to Reņa) who have been well-known for their accomplishments in their religio-ascetic duties. Most of them are the characters from the stories and exemplary tales narrated and referred to in early Jaina literature some tract of which is already reviewed above. They are to be met with in texts like the Suyagaḍam, Bhagavai, Nāyādhammakahão, Antagada, Uttarajjhayaṇa, Païņņas, Āvassaya. and Dasaveyāliyanijjutti and their commentaries. The Prakrit verses give simply a string of these names, and in the beginning they must have been quite significant to those who were well-versed in the wide range of Jaina literature. Later on the need of exhaustive commentaries utilising the original sources and giving the stories in details was gradually felt. Subhasilagani, the pupil of Munisundara of the Tapagaccha has written a Sanskrit commentary giving the stories in prose and verse interspersed with Prakrit quotations here and there. The Vṛtti being entirely made up of stories, it is called Kathakośa; and it was composed in Samvat 1509.2 Subhasila shows a special aptitude for narrative composition. Besides his other works, he has written Pañcaśatiprabodhasambandha3 which "contains nearly 600 stories, anecdotes, legends, fables, fairy-tales etc., some of which allude to historical personages, kings and authors of both ancient and modern times, such as Nanda, Satavahana, Bhartṛhari, Bhoja, Kumārapāla, Hemasuri and others." 41 Kathākośa (Vratakathākośa) of Śrutasǎgara in Sanskrit: It contains stories about the Vratas, religious courses and vows consisting of rituals and fasts, such as Ākāśapañcami, Mukuṭasaptami, Candanaşaṣṭhi, Aṣṭahnika etc, The author belonged to Mulasangha, Sarasvati-gaccha, Balatkara-gana; and Vidyanandi was his teacher. He has not given his date, but from the external evidence he can be assigned to the 16th century of the Vikrama era. He has given a few stories in his Sanskrit commentary on the Pahuḍas of Kundakunda. 1 Thanks to Śri Jinavijayaji who kindly supplied me with a few advance forms (covering 90 folios) of this work which is in the press. 2 It is published in the Devachand Lalabhai Pustakoddhara Series, Nos. 77 and 87, Bombay 1932 and 37. 3 Peterson's Reports, III p. cxxi; Winternitz: HIL, II p. 544; etc. 4 Premi: Jaina Sahitya aura Itihasa, pp. 406-11. 6 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOŚA Kathākośas :' Some Mss. labelled as Kathäkośa are available in the Government Collection at the Bhandarkar Oriental R. Institute, Poona. No information is available about their authors, nor is it possible to state, at this stage, their source, their literary basis or their connection with other Kathākosas. I have casually inspected them just to see what they are like, and I note here a few facts about them: 1) No. 1266 of 1884-87, foll. 47, incomplete. It opens with a salutation to Candraprabha, and gives in Sanskrit the stories of Ārāmatanaya, Harişeņa.Srīşeņa, Jimūtavāhana etc. 2) No. 1267 of 1884-7. This gives the stories which are usually called Samyaktvakaumudi-kathā. The opening prose is slightly different and runs thus: गौडदेशे पाडलीपुरनगरे आर्यसुहस्तिसूरीश्वराः। त्रिषण्डभरताधिपसंप्रतिराज्ञोऽग्रे धर्मदेशनां चक्रुरेवं, भो भो Hout etc. The concluding story is that of Dhanapati illustrating Pătradāna. Though written in Sanskrit, some Prākrit verses are given here and there. 3) No. 1268 of 1884-87. This gives stories in Prākrit illustrating the fruits of worship with Gandha (by Subhamati etc.), with Dhūpa (by Vinayaṁ. dhara ) etc. The colophons and some portions are in Sanskrit. It is written at Sărangapura by Harșasinghagaņi. 4) No. 1269 of 1884-87. The Ms. is mutilated and very badly written. It gives stories of Amaracandra (with reference to bhāvanā), of Vikramāditya (to illustrate pāramārthika-maitri) etc. in Sanskrit prose and verse. The Vetālapañcavīsi is quoted on p. 19. and there are some small stories in Apabhramsa and Old-Gujarāti. It ends with a fable possibly from the Pañcatantra. 5) No. 582 of 1884-86. There are Sanskrit verses followed by illustrative stories some of which are Prabandhas about Jinaprabhasūri, Jagasimha, Sātavāhana, Jagadūsāha etc. 6) No. 583 of 1884-86. It is mutilated on both the sides. It is in Sanskrit prose with Sanskrit and Prākrit quotations; and possibly it contains the stories of the Sam yaktva-kaumudi. 7) No. 1324 of 1891-5. 1 and incomplete. There are stories about Prasannacandra, Sulasă, Cilātiputra etc. in Sanskrit prose mixed with verses. 8 No. 1323 of 1891-95. In Sanskrit prose mixed with Sk. and Pk, verses, it gives stories of Devapala (in connection with Deyapūjā), Bāhubali (to illustrate the effect of Māna), Asokadatta (to illustrate deception), Madanăvali (with reference to sandalworship) etc. Sometimes the stories open with Präkrit verses. No. 1297 of 1887-91 also begins like this and some stories too are common. The verse vasahi etc. (No. 240) from the Upadeśamālā is the basis of some tales. 9) No. 1322 of 1891-95. The stories of Madanarekhā, Sanatkumāra etc. are given in Sanskrit interspersed with Prākrit and Apabh. verses. 10) No. 478 of 1884-86. The first three folios give Harişeņa's Kathākośa. Th an Apabh. work giving Kathās, something like 53 in number, that deal with Vratas like Sugandhadaśamī, Șodaşakāraṇa, Ratnāvali (in Sanskrit) Nirdosasaptami etc. There are a few more Kathākośas attributed to the authors like Vardhamāna, Candrakirti, Simhasūri, Jayatilaka, Sakalakirti, Padmanandi, 1 Various Aradhani-kathākośas will be reviewed later. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Rămacandra' etc., but their Mss. have not been accessible to me. Kathanaka-kosa: The author is Vinayacandra, and it contains 140 gāthās in Prakrit. The text gives the name Dhammakkhāṇaya-kosa. The Pattan Ms., which is accompanied by a Sanskrit Vyakhyā, is dated Samvat 1166. Kathāmaņi-kośa (Akhyānamaņi-kośa): It is composed in Prakrit verses by Devendragani, alias Nemicandra, who finished his Sukhabodhā commentary, well-known for its Prakrit stories, on the Uttaradhyayana, in Samvat 1129 (1073 A.D.). Devendra is famous for his lucid style, so the Mss. of this bulky work, in 41 chapters, deserve to be studied with reference to the contents. A Sanskrit commentary on this work is written by Amradeva, the pupil of Jinacandra, in Samvat 1190, just sixty years after the composition of the Kosa.1 43 Kathamahodadhi: The Karpuraprakara or Suktavali of Hari or Harişena is a didactic poem containing 179 Sk. verses of lengthy metres; and deals with Jaina religious and moral principles which as enumerated by the author himself are 87 in number. It is indeed a rare thing that one is born as a man with religious surroundings, gets the necessary instruction, practises the Jaina virtues by eschewing all internal and external hindrances, and finally gets liberation. Every step of this preaching is nicely put and explained with relevant illustrations. We are told, for instance, how Neminatha practised Jiva-daya which led to his spiritual benefit and how Rāvana suffered because of his attachment for another's wife. Every verse refers to one or more legends by way of illustration. As we come to the close of the book, there are more moral exhortations than legendary references. The author Hariṣeņa was a pupil of Vajrásena, and the date of composition is not settled as yet. It was left for the commentators to give the stories in all their details, and the number of such tales, short or long, is nearly 150. The 1 At the Naya Mandira, Delhi, there is a Punyasrava-kathakośa in Sanskrit. There is a similar work in Kannada composed by Nagaraja in 1331 A.D. In all there are 52 stories, illustrating the religious virtues like Pūjā etc. by narrating the biographies of Bharata, Karakanța, Yama, Carudatta, Sukumara, Sitä etc.; and they are divided into twelve Adhikāras. It is written in a Campu style, and the author says that it is based on a Sanskrit work (Kavicarite I, pp. 409-12). This Kannada work is translated into Marathi Ovis by Jinasena in Saka 1743 (+78-1821 A.D.). 2 Catalogue of Mss. at Pattan, vol. I (Gaekwad's O. Series No. 76), p. 42. 3 Some of them are edited by Jacobi in his Ausgewählte Erzählugen in Mähäräṣṭri, Leipzig 1886; and it has been translated into English under the title 'Hindu Tales by Meyer (London 1909); see also Prakṛtakathasamgraha ed. by Jinavijayaji, Ahmedabad. 4 See Charpentier's Intro. to his ed. of Uttara. (Uppsala 1922), pp. 56 etc.; also Peterson's Report IV, p. 59 of the Index of authors; Report III p. 78 etc. 5 The text opens with the words karpura-prakara and hence its name. 6 For a list of these Kathas see Peterson Reports III, pp. 316-19. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BņHAT-KATHÅKOŠA Kathāmahodadhi, composed in Samvat 1504 by Somacandra, the pupil of Ratnasekhara, gives all the stories. Jinasāgara, the pupil of Srīvarddhana. sūri of the Kharataragaccha, has written a Karpura-prakara.tikā." The dates available for him are Samyat 1492 to 1520, so he is a contemporary of Somacandra. He explains the verses and then gives the illustrative stories, usually in Sanskrit verses, which are often introduced with Prākrit passages, both in prose and verse, from the canon and works like the Upadeśamālā. I have not been able to verify the relation of these stories with those in the Kathāmahodadhi: the titles of the stories and their order are the same. These illustrations include the tales about Salākā-puruşas like Nemi, Sanatkumāra etc., historical and semi-historical persons like Satyaki, Celanā, Kumārapāla etc., ascetic heroes like Atimuktaka, Gajasukumāra etc., and other pious men and women connected with Jaina tradition. . Kathāratnasāgara: It contains fifteen Tarangas and the last story is that of Agadadatta. The author is Naracandrasūri, the pupil of Devabhadrasūri. The Pattan Ms. is dated Samvat 1319. .: Kathāratnākara : It is in Sanskrit, and its author is Uttamarşi. The available Ms. is incomplete stopping with and Khaņda. It includes the story of Rukmiņi to illustrate the effects of Sādhunindā. Kathāratnākara: It is composed in Saṁvat 1657 by Hemavijaya. gani, the pupil of Kamalavijaya of the Tapāgaccha. As the author remarks, some of the stories are traditionally heard, some are imaginary, some are piled from other sources, and some are taken from scriptures. There are 258 stories distributed over ten Tarangas. Most of them are written in simple Sanskrit prose; very few are composed in a heavy style; and only a few are metrical narratives. Each story opens with one or more moralising verses which contain the central idea of it. Throughout the work, quotations anskrit, Māhārāştri, Apabhramsa, Old-Hindi and Old-Gujarāts are found in plenty; and some of them are well-known to us from the epics, Bhartr. hari's Satakas, Pañcatantra etc. The Jaina outlook of the work is explicit in some of the opening stanzas, ideas and stories. It covers a wide range of ideology from the erotic to the ascetic. Winternitz remarks: "Most of the narratives are similar to those in the Pañcatantra and other books of stories of this kind, tales of the artfulness of women, tales of rogues, tales of fools, fables and fairy-tales, anecdotes of all descriptions, including some which hold up Brahmans and other holy men to scorn. As in the Pañcatantra there are numerous wise sayings interspersed with the tales. The tales are, however, loosely strung together, and not inserted into a frame." The work, in its major portion, is really Indian in Outlook, Besides the names quite usual in Jaina works, we meet with anecdotes 1 Published by the Jaina-Dharmaprasaraka-sabha, Bhavnagar 1919; see also the Catalogue of the Bombay Branch of the R. A. S. by H. D. Volankar, vols. III-IV, Nos. 1705 and 1798. 2 Catalogue of Mss, at Pattan, vol. I, p. 14. 3 Peterson Reports IV, p. 80. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Some of the connected with Bhoja, Vikrama, Kālidāsa, Śreņika etc. topographical references are quite modern, and stories are associated with towns like Delhi, Champaner and Ahmedabad. On the whole the contents are instructive as well as amusing.1 45 Kathārņava: The Isimandala or the Rṣimandala-stotra of Dharmaghosa (c. 13th century A. D.) is a Prakrit poem containing 208 to 218 verses offering salutations to Jaina celebrities including Salakāpurusas and their great contemporaries devoted to religious life, Pratyeka-buddhas, legendary heroes like Jinapalita, ascetic heroes like Metarya, and eminent post-Mahāvīra teachers about whom casual biographic details are mentioned. Most of them are found in the canonical texts, Niryuktis and Prakirņakas. What appeared like legendary characters from a didactic tale, an edifying story or a narrative parable are treated here almost as ascetic heroes or actual personalities belonging to the Jaina church. It was incumbent on the commentators to explain these verses by giving the biographies of persons referred to in the Stotra. More than half a dozen Vṛttis are available on this text: the Ms. of the earliest is dated Samvat 1380 and that of the latest Samvat 1670. Pattan Collection has got a Bṛhadvṛtti in Prakrit on this text. The Vṛtti of Padmamandira of the Kharataragaccha is called Kathārņava (-anka), and it was composed in Samvat 1553 or A. D. 1496. It explains the verses and gives all the stories in Sanskrit verses usually Anustubh. Some verses of the text (for instance Nos. 154-160, opening of the third Amsa) are pronounced by Padmamandira as parakṛta or later additions. Kathavali: This is a huge work in Prakrit prose written by Bhadresvara, and so far there is only one Ms. of it at Pattan. The date of the Ms. is Samvat 139 (the last cipher is broken off) according to Jacobi, but according to Dalal it is Samvat 1497. Dalal assigns Bhadresvara to the reign of Karna (1064-94 A. D.), while Jacobi would identify this author, in all probability, with one Bhadreśvara in the 2nd half of the 12th century. of the Samvat era: in any way this work is to be put earlier than the Parisiṣṭaparvan of Hemacandra. It narrates the account of 63 Salakäpurușas and includes also the lives of eminent teachers from Kalaka down to Haribhadra. So far as this second section is concerned Hemacandra stops with Vajrasvamin while Bhadresvara's list comes upto Haribhadra. The collection of the materials', Jacobi remarks, 'for the whole history of the patriarchates was achieved, probably for the first time, by Bhadresvara' whose 'tales are, as a rule, but a more elegant version of the Kathānakas contained in the Curnis and Tikās'. Having noted some difference regarding 1 Published by Hiralal Hamsaraja, Jamnagar 1911; translated into German by Hertel, Münchon 1920; also see Winternitz HIL, II p. 545. 2 See Śri Rşimandala-prakaraṇam, Atmavallabha-granthamāla, No. 13, Valad 1939, especially its Introduction; Jaina Granthavali p. 175; Catalogue of Mss. in Jesalmere Bhandars p. 14, No. 126, Baroda 1923; Catalogue of Mss. at Pattan vol. I, p. 118; etc. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHÅKOŠA the composition between the works of Bhadreśvara and Hemacandra, Jacobi' says: 'Bhadreśvara's work has few literary merits. It is scarcely more than a collection of disconnected materials for the history of the Svetāmbara church culled from the ample Literature of Cūrnis and Tikās. The Kathāvali compares unfavourably with the Sthavirävalīcarita by Hemacandra which reads like a connected history of the patriarchate from Jambū down to Vajrasena, told in fluent Sanskrit verses and spirited Kavya style. No wonder that it superseded the older work to such a degree that for a long time the Kathāvali seemed to be lost, till but lately one single Manuscript was brought to light.' Kathāsamāsa (Upadeśamālā.): It is already noted above how Uvaesamālā contains many references to religious personalities etc. about whom stories in Prākrit are given in this work composed by Jinabhadra whose date and identity are still indefinite. There are other compilations of these stories in Sanskrit: one is by Sarvanandi and another is anonymous.* Not only the commentators gave the stories, but it was also usual to compile independent collections of stories referred to in a certain text just as Jinabhadra has done here with regard to the Upadeśamālā. The stories connected with the Uttarădhyayana, Silopadeśamālā, Bhagavati Ārādhanā etc. are also separately compiled.* Kathāsamgraha (also Antara-, or Kathakośa): The author is Raja. sekhara Maladhāri, the pupil of Tilakasūri of the Harsapuriyagaccha, who can be assigned to the middle of the 14th century A. D., his Prabandhakośa being composed in Samvat 1405. The stories are written in simple Sanskrit prose, quite in a conversational style, the expression being often contaminated with vernacularisms. Sanskrit, Māhārāștri and Apabhramsa verses are profusedly quoted throughout. Most of the stories are introduced with a verse laying down a maxim, edifying a virtue, preaching a piece of good behaviour or suggesting a way of tactful action; and then the stories follow almost to explain the ideas contained in the opening verses. In many cases, the style, format and contents remind us of the Pañcatantra. The author has in view a twofold aim in composing this work: some 86 stories are primarily meant for instruction, ethical and religious; and the remaining 14 are meant for amusement by their wit and humour. The text shows this division, but the contents are not mutually exclusive. The topics covered by the illustrative stories include all sorts of worldly wisdom, and some of them definitely bear the stamp of Taina religion and moral code. Though the motives are often handled by others, it is quite likely that most of 1 See the Intro, to the Sthavirāvalicarita 2nd ed. by Jacobi, Biblio. Indica, Calcutta 1932; and Catalogue of Mss, at Pattan, vol. I, pp. 56, 244. 2 Catalogue of Mss, at Pattan, vol. I, p. 90. 3 See Mss. Nos. 1271 (Bhandarkar Y) and 1325 of 1891-95. 4 Catalogue of Mss. in the Bombay Branch R. A. S. by Velankar (Bombay 1930) Nos, 1417, 1703, 1665; and see Ārādhanākathākośas below. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 the stories are imaginary and made to order. Some of them are drawn from the popular stock of Indian tales; and a few, like the illustration of Rohaka, have been drawn from the Jaina commentarial literature whose roots go back to Cūrņis and Bhasyas. The alternative title, Antara-kathā, possibly means that these stories were repeatedly used as illustrative sub-stories, like Upakathas, in a bigger tale.' There are a few more Kathāsamgrahas, noted in the Jinaratnakosa; either they are anonymous or we do not know much about their authors etc. 1) KS of Hemācārya. 2) KS of Anandasundara. 3) KS of Sarvasundara (Samvat 1510), successor of Guṇasundarasuri of the Maladharigaccha. 4) KS, No. 1272 of 1884-87 (dated Samvat 1524), contains many short didactic stories in Sanskrit dealing with topics like Jivadaya. This is a good sample of collections of stories that were possibly used by monks to illustrate their sermons. 5) KS, No. 1326 of 1891-95, has much common with the Kathakośa No. 1297 of 1887-91, and gives stories of Dhanadatta, Nāgadatta, Madanăvali etc. to illustrate the fruits that they got by different Pūjās etc. 6) KS, No. 1325 of 1891-95. This gives eight tales, in Sanskrit prose, about Kurucandra, Padmakara etc. illustrating the fruits of the gift of residence, bed, seat, food, drink, medicine, clothes and pot to the monk, which are mentioned in the gatha vasahi-sayaṇāsaṇa etc. (No. 240) from the Upadeśamālā. 7) KS, No. 335 of 1871-72. The opening story is that of Vikramaditya, and there are other stories of Śrīpāla etc. illustrating the fruits of Jaina vows and virtues. They are all in Sanskrit with Mahārāştri and Apabhramsa quotations. There is, however, one story in Prakrit. INTRODUCTION There are other collections of stories, according to the Jinaratnakosa, such as Kathakallolini, Kathägrantha, Kathādvātriṁśikā of Parama. nanda, Kathāprabandha, Kathāśataka, Kathāsaṁcaya, Kathāsamuccaya etc. Unless the Mss. are carefully examined, nothing can be said about their contents and about their identity or otherwise with the Kathakośas noted above. 4. ĀRĀDHANĀ AND ĀRĀDHANA TALES i) Ārādhana and Aradhana Texts Aradhana consists in firm and successful accomplishment of ascetic ideals, namely, Faith, Knowledge, Conduct and Penance, that are laid down in Jainism; in maintaining a high standard of detachment, forbearance, self-restraint and mental equipoise at the critical hour of death; and in attaining spiritual purification and liberation. The connotation of the 1 Śri-kathakośaḥ, Suryapura 1937, with useful Indices of quotations etc.; there is a Ms. in the Bhandarkar O. Research Institute, No. 1298 of 1887-91, which shows a different beginning from that of the printed text. 2 Bhagavati Aradhana 1-10; Samayasara 301-5; Maranasamahi 27, 41, 317 etc.; Aradhanäsära 1-8. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 BRHAT-KATHĀKOŠA term Ārādhanā covers a wide range of dogmatical and ethico-religious discussion to which small and big texts have been devoted. The subject is undoubtedly of immense interest to a monk who wants to win the spiritual battle; naturally both ancient and modern authors have composed works dealing with the Aradhanā topics. The Mūlācāra, as noted above, refers to the Arādhană-niryukti, but the text has not come down to us. Among the ten Païņņas, Āürapaccakkhāna, Mahāpaccakkhāņa, Bhattapariņņā and Maranasamāhi deal with this topic in its different aspects. The Bhagavati Arādhanā is a big work entirely devoted to the discussion about Ārādhanā. It belongs to the earliest stratum of Digambara literature; Païñņas and Nijjuttis have much common with it; and undoubtedly they contain much matter that antedates the division of the Jaina church into Digambara and Svetāmbara. Before we take up the study of Bha. A. in more details, we will enumerate here, mainly on the authority of the Jinaratnakośa, different Arādhanā texts with some information about their authors and contents. Ārādhanā: It is composed about Samyat 1629 by Ajitadevasūri, pupil of Maheśvarasüri of the Cāndragaccha.' Ārādhanā (Srāvaka.): It is composed in Samvat 1669 by Samaya. sundara, pupil of Sakalacandra of the Kharataragaccha. Ārādhanā. (Paryanta.): It is written by Somasuri in 70 Prākrit gāthās, and is often included in the list of Prakīrņakas. It is commented upon by Vinayavijayagani and by Vinayasundaragani (Samvat 1649). Aradhanā (-Pañcaka): It is a pretty big text in Prākrit dealing with fourfold Arādhana. Arădhana : The Jinaratnakośa records a couple of anonymous texts : one is in Prākrit, beginning with pañamiya narinda-devinda-vandiyan, and the other is composed in Samyat 1592. . Arădhană-kulaka : Four texts of this name are recorded: The first begins with aloyanovayāram, has got 85 gāthās, and is composed by Abhayadevasūri, the famous commentator who flourished in the middle of the rith century A.D.; the second begins with dānāï-caüvviha and is also called Samārādhanā-kulaka ; the third, noted by Peterson, contains 69 gāthăs;' and the fourth contains 17 igāthās and opens with savvaṁ bhante pānāim. Arādhanāpatākä: This contains 990 gāthis and was composed by Virabhadrasūri in Samyat 1078 (atthuttarime samā-sahassammi). The author admits his indebtedness to earlier works, and the text contains many gāthās common with Bhatta parinnā, Piņdanijutti and other works. Being a dated work its text and contents deserve a critical comparison with other Arādhanā works. 1 Desai: Jaina Sāhityano Itihāsa, p. 585. 2 Catalogue of Mss. at Pattan vol. I, pp. 303, 391 etc. 3 Peterson: Reports IV, p. iii, etc. 4 Reports III, p. 24. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION . Ārādhană-prakaraņa: There are two texts of this name, one by Yaśoghoșa and the other by Somasūri containing 61 găthās. Arādhanā-mālā (usually called Samvegarangaśālā): It is a bulky Prākrit work which, according to the Jaina Granthāvali, contains 10053 slokas. It deals with Ārādhanā in its four principal and f subsidiary topics. Some of the găthās are written in a fluent style. The author is Jinacandrasūri, the pupil of Jineśvarasūri. He composed this Malā at the request of his junior fellow-student (satīrthya), Abhayadeva, the famous Vrttikāra, after collecting the expressions from the Mūlasruta like a florist picking flowers from a park. It was finished in Saṁyat 1125 (-57 = 1068 A. D.). It is said to have been revised by Tinavallabha, the pupil of Abhayadeva. The doctrinal discussion includes along with it some illustrative stories as well. This work is respectfully mentioned by many authors. Some of the significant words from the opening găthā of the Bhaga. Arādhanā appear to be scattered in some of the opening gātbās of this book (Nos. 5, 14); secondly, some of the names of the subsidiary topics are common to both the works; and lastly, a găthã (No. 800), which is introduced with the phrase gurur āha, is nearly identical with gătbā No. 21 from the Bha. Ā. It is not unlikely, if Jinacandra used Sivakoti's text; it is premature to be dogmatic on this point. From what little I have seen it appears to me, however, that a comparative study of these two works would give interesting results. Aradhanāsăra: This Präkrit text of Devasena, who finished his Darśanasära in Samvat 990, contains 115 găthās and deals with fourfold Aradhana. There is a good Sanskrit commentary on this text by Ratnakīrti who gives a few details about himself in his Prāśasti. His date is not settled, but a critical study of his quotations may help us to put an earlier limit for his age. After a casual survey I find that he quotes from the Atmānu. śāsana of Guņabhadra, Samayasāra-kalasa of Amrtacandra, Iñānārņaya of Subhacandra, Sāmāyika of Amitagati and Ekibhāya of Vădirāja etc. There are many other texts dealing with Arādhană; but we do not know much about their authors and contents; so I shall simply note their names with scanty details: 1) Arādhanāratna by Devabhadra. 2) Arādhanā. vidhi. 3) Arādhanāśāstra of Devabhadra, the pupil of Abhayadeva noted above (possibly identical with -ratna ?).* 4) Arādhanā-sattaris by Kula. prabha in Prakrit. 5-8) Ārādhanāśāras of Ravicandra, Jayasekhara, Nāgasena and Lokācārya. 9) Ārādhanāstava (of Amitagati or Āsādhara?). 10) Ārā. dhan..svarūpa. 1 Catalogue of Mss. at Pattan vol. I, p. 65. 2 Jesalmere Catalogue, pp. 38, 21 (No. 183 ); only a portion is printed so far in the ed.: Sri Samvegarangaśālā, part I (gāthās 3053 with Sanskrit Chāyā) Surat 1924. 3 Mānikachandra D. Jaina Granthamälā, No. 6, Bombay Samvat 1973, 4 Desai: Jaina Sāhityano Itihāsa, p. 237. 5 Peterson Reports III, p. 13. 6 See Mülārādhanā (Sholapur 1935), pp. 1865 eto. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOŚA This large number of Arădhanā texts, early and modern, whatever may be their intrinsic value, shows the importance of the doctrines associated with Aradhană in the life of Taina monks. A detailed and comparative study of these texts would certainly give valuable results. ii) Bhagavatī Ārādhanā The Bhagavati Arādhana' is a pretty lengthy text containing nearly 2170 (but Bombay ed., 2166) verses in Prākrit or more correctly Jaina Sauraseni. The commentaries are not in perfect agreement about the original extent. Aparăjita has some additional gathās (Nos. 151, 343, etc.) which are not admitted by Amitagati and Asādhara; while there are many găthās (Nos. 117-9, 178, 1354, 1432, 1556, 1605-7, 1639-40, 1978, 2011, 2135 etc.) which are explained by Aśādhara though he specifically mentions that they are not commented upon by Srivijaya alias Aparăjita. Thus the extent of the text is not definite, and a systematic collation of Mss. alone would bring all the facts to light. Asādhara divides the whole work into eight Aśvāsas, but it is entirely his own proposal for which there is hardly any sanction either in the basic text or in Aparājita's commentary. A careful and continuous study of the gāthās clearly reveals that the whole work has a compact form and that the contents are systematically presented. The very nature of the subject matter, however, is such that sporadic verses may be added or omitted here and there without affecting the frame-work of contents. This work is devoted to a detailed exposition of four-fold Arādhanā which a monk must cultivate at least at the critical hour of death if not all through his life. After introductory discourse on the Arādhanā (Nos. 1-24), the text says that there are seventeen kinds of deaths of which five would be discussed in this work and the last three alone are commendable (25-30 ): i) Bäla-maraṇa (31-53); ii) Bālābāla- (54-63); iii) Pandita- which has three varieties : a) Bhaktapratyākhyāna (64-2029), b) Ingini ( 2029-2061), and c) Prăyopagamana (2062-77); iv) Bālapandita- (2077-87); and v) Panditapandita- (2087-2159). Then there are the concluding remarks along with the Prasasti of the author (2160-70). The three varieties of the Pandita - 1 Thore are two editions: 1) Bhagavati Arādhana in the Anantakirti D. Jaina Granthamālā, 8, Bombay San. 1989; the text is accompanied by a Hindi translation and the edition is equipped with a good introduction and an Index of gäthäs. 2) Mülārädhanã with the Sk. commentaries of Aparäjita and Asadhara, the metrical paraphrase of Amitagati and a modern Hindi translation, Sholapur 1935. 2 My references are either to the gāthā-numbers or to the pages of the Sholapur odition. Aparajita has elaborately described them; the details may be compared with those in the Uttaradhyayana-Niryukti which also enumerates and describes these seventeen types (p. 5 of the Ms. No. 1094 of 1887-91, from the Bhandarkar O R. I., Poona). 001 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 51 type have much in common; and all the instructions, which are conducive to the spiritual welfare of the monk, are included under Bhaktapratyākhyānasection which is treated under forty topics (Nos. 64-70): 1) arha': fitness for adopting the course of Samādhi-maraņa (71-76); 2) linga: necessary ascetic emblem such as nudity etc. (77-98); 3) sikşā: scriptural study (99-III); 4) vinaya: disciplined devotion to knowledge etc. (112-131); 5) samadhi: concentration of mind (132-141); 6) aniyatavāsa: unsettled residence (142–53); 7) parināma: dutiful and balanced temperament (154-61); 8) upādhi tyäga: minimum paraphernalia ( 162-70); 9) sriti: spiritual ascendancy (171-76)"; 10) bhāvaná: cultivation of salutary thoughts (177-204); 11 ) sallekhana: emaciation of body and of passions through external and internal penances etc. (205-70); 12 ) disā: proclamation of the spiritual successor (271-5); 13) kşamāpaņā: apology to the congregation; 14) anusāsana: pious instruction (279-83); 15) paragana-caryā: staying with another ascetic group for Samādhi-maraṇa (384-400); 16) märganā: finding out a suitable Niryāpaka (401-16); 17) susthita: a worthy teacher endowed with eight specific virtues (417-507); 18) upasarpana: seeking admission under a Teacher ( 508-14); 19) pariksana: test (515); 20) pratilekha: reviewing or considering the situation (516-17); 21) prcchü: inquiry (518); 22) pratīpsanā: admittance (519-21 ); 23) ilocanā: report of the sins committed (522-61); 24) guna-dosa : defects and merits of the report of sins ( 562-632); 25 ) sayyā: a fitting residence (633-39); 26) samstara: bed (640–7); 27) niryāpaka : the attendant ascetics that help one at the time of Samadhi-marana (647-88); 28) prakāsana: showing the food to allay the curiosity (689-95 ); 29) hāni: gradual abstention from solid food (696-9); 30) pratyākhyāna : abstention from liquids etc. (700-9); 31) kşāmanā: offering purificatory apology to the Acārya ( 710-13); 32 ) kşapana: destruction of Karman by Pratikramana etc. (714-19); 33) anusisti: instruction by the Ācārya etc. on various religious topics and practices, ranging from the relinquishment of Mithyātva upto the practice of austerities (722-3), which are described in details (720-1489); 34) sārana=smārana; reminding him of his status and duty (1490-1508); 35 ) kavaca: religious instruction as a protection or armour against Parīşahas etc. (1509-1682); 36) samatā: attitude of equality (1683-98); 37) dhyāna: meditation (1699-1905); 38) leśyā: spiritual glow or tint (1906-23); 39) phala: the fruit or the aim of Arădhanā (1924-65); 40 ) vijahanā: disposal of the body (1966-2000), and then this section is concluded with a few glorificatory găthās (2000-29). 1 The Samvegarangaśālā of Jinacandragūri discusses Aradhana in four primary Dvāras: 1) Parikarmavidhi, 2) Paragana-samkramana, 3) Mamatva-vyuccheda, and 4) Samadhi-lābha, each of which is further divided into 15, 10, 9 and 9 Pratidväras respectively. Some of their names are common with those of the topios from the Bhaga. Ārādhanā. They deserve to be studied in details, 2 Compare Jītakalpa bhäşya (Ahmedabad Saṁvat 1994) gāthā Nos. 338-340; this work shows many sections with common ideas found in the Bha, Ā, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOŚA This topical analysis gives us not only a definite assurance of the systematic treatment of the subject matter but also some glimpse of the wide range of contents covered by this work. The discussion about Arādhanā, which plays an important part on the eve of a Jaina monk's life, is carried on with such an exhaustive thoroughness that the book has become a valuable mine of Taina ideology with which a monk must he imbued in order to accomplish a successful ascetic life. On account of its dogmatic details, exposition of the basic principles of Jaina asceticism, practical injunctions about saintly life and the behaviour in details, extensive discourses on the mental, verbal and physical discipline of a monk advising him to follow the beneficial and warning him to abstain from the harmful and religio.didactic exhortations, this Bhagavatī Ārādhanā presents a rich survey of Jainism, especially with reference to the theory and practice of ascetic life. The section on anusisti (gāthās 720-1489) is a fine didactic work by itself. Thus, for a Jaina monk, its importance is very great and its study simply indispensable. The systematic exposition of contents in a simple and direct style and with homely similes and illustrations has left such an influence on later Jaina literature that, as far as I recall, many of the subsequent authors like Pūjyapāda, Guņabhadra, Subhacandra, Amitagati and other didactic monk-poets have freely drawn their ideas from this work. The popular name of this work is Bhagavati Arādhanā; but the genuine title, according to the author himself, is Ārādhanā (No. 2166), Bhagavati being only an honorific appellation added by the text to qualify the practice of Arădhanā (Nos. 2002-3, 2168). This is borne out by the following facts: Arādhană-ţikā is the other name given to Sri-vijayodayā by Aparăjita himself; Devasena's compendium is called Arādhană-săra; Amitagati calls his metrical Sanskrit version Arādhanā (No. 2245), also Bhagavati A., or simply Bhagavati (Nos. 2244, 2247); Prabhācandra mentions it as Mūlārādhanā in his Kathākośa possibly to distinguish it from Amitagati's Aradhana ; and lastly Asādhara also adopts the name Mulārā. dhanā, because he calls his commentary M.-darpaņa. It must be noted that the sanctity and importance of the Arādhanā have led to its being deified; and both Amitagati and Asādhara have glorified and praised the Arādhanā. devatā (pp. 1853, 1855, 1865 etc.). That explains why Bhagavati came to be inseparabely associated with the title Arādhanā. The author's name is Sivärya' who qualifies himself as päni-dala-bhoi. i. e., a monk that ate his food in the cavity of his palms. He studied the scripture under Jinanandi, Sarvagupta and Mitranandi, and composed this Ārādhanā depending upon the work or composition of earlier Acāryas (Nos. 2165-6). This is all that we learn about the author from this text. One Jinanandi is mentioned in the Altem copper-plates of c. 488 A.D.," and 1 See also Jaina Sāhitya aura Itihāsa by Pt. Premi, pp. 23-40. 2 Some doubt is expressed about the date, see IA, VII, pp. 209-17; XXIX, pp. 273-8; XXX, p. 218; etc. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 53 one Sarvagupta is casually referred to by Sakațāyana in his Sanskrit grammar (1-3-140); but mere common names are not enough to establish identity between two authors. I am not aware of any epigraphic reference to Sivārya. There is not the least doubt that he is mentioned by Jinasena in his Adipuräņa (i. 49) and by Sricandra in his Kathäkośa (noted below) as Sivakoţi. The Sravaņa Belgo! inscription, No. 105, dated 1398 A. D., mentions one Sivakoti who was a pupil of Samantabhadra' and who ornamented (perhaps with a commentary) the Tattvārthasūtra. It is about this Sivakoți a story is already narrated in the Kathākośa of Prabhācandra that he was originally a Saiva king of Benares, was converted to Jainism by seeing a miraculous transformation of Sivalinga into the image of Candraprabha, and became a Jaina monk. As a Jaina monk, the story concludes, Sivakoti mastered the whole range of scriptural knowledge, summarised for the benefit of less intelligent and shortlived people the Arādhanā of Lohācārya, containing 84 thousand verses, into a smaller compass, and composed Mülārādhanā, containing 2500 verses and divided into forty topics such as arha, linga etc. According to Prabhācandra, Sivakoti is identical with Sivärya, he is converted to Jaina faith by Samantabhadra, and he composed Mülārādhanā as a digest of the bigger Arādhanā of Lohācārya : these are extremely interesting bits of information, but we do not know their earlier source. As Prabhācandra's information is not confirmed by the present text of the Bhagavatī Arādhanā which at the most admits that it is based on earlier works and as Aparājitasuri also is completely silent on these points, we cannot take it at the value of contemporary evidence and use it for chronological purpose. We have to wait for still earlier sources. Sivakoti's commentary on the Tattvārthasūtra has not come to light as yet. The Ratnamala® is a small didactic text containing 67 anuştubh verses in Sanskrit and dealing mainly with the duties of a Taina house-holder. The colophon of the printed text attributes it to Sivakoti, the pupil of Samantabhadra, and the concluding verse indirectly mentions Sivakoti. One Bhattāraka Siddhasena is mentioned (No. 3) earlier than Samantabhadra who is solicited for grace (No. 4); the contents breathe a modern spirit of later age and do not maintain the high ascetic standard of the Mülārädhanā; and lastly it contains a verse (No. 65) closely agreeing with one from the Yaśastilakacampū (part ii, p. 373): these facts, taken together, do not induce one to attribute this work to the author of the Bhagavati Ārādhanā. 1 According to Hastimalla's remark in his Vikrantakaurava, Samanta bhadra had two pupils, Sivakoți and śivāyana. 2 As the text is not printed, I would quote here the relevant extract: rohet दृष्ट्वा शिवकोटिमहाराजस्य अन्येषां च तत्रत्यलोकानां जैनदर्शने महती श्रद्धा । परमविवेकसंपन्नः चारित्रमोहक्षयोपशमविशेषवशाच परमवैराग्यसंपत्तौ राज्यं परित्यज्य तपो गृहीत्वा सकलश्रुतमबगाह्य लोहाचार्यविरचितां चतुरशीतिसहस्रसंख्यामाराधनां मन्दमत्यल्पायुःप्राण्याशयवशाद् ग्रन्थतः संक्षिप्य अर्थतोऽहें लिङ्गे इत्यादिचत्वारिंशत्सूत्रैः परिपर्णामर्धतृतीयसहस्रसंख्यां मूलाराधनां कृतवानिति । It is printed in the Mänikachandra D. Jaina Granthamālā, No. 21, Bombay Samvat 1979. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 BRHAT-KATHAKOSA The evidence available for settling the date of Bha. A. is quite insufficient. A more thorough study of the text in comparison with various other works may help us to put closer limits to the age of this work; at present, however, an attempt may be made to lay down certain broad limits. All that we can definitely assert at present is that this work is earlier than Jinasena's Adipurāņa; but there are a few other considerations which shed: some light on the early date of this work. i) The Digambara tradition, as recorded by Prabhācandra, certainly admits the remote antiquity of this work by saying that it is based on the Aradhana of Lohācārya' and that its author was a contemporary of Samantabhadra, though this is not confirmed by the text itself. ii) It is quite probable that this work includes the missing Aradhana Niryukti; the ideas and verses which it has in common (with dialectal and minor variations) with Nijjutti's, Païņņas,3 Mulăcăra etc. definitely suggest that this text contains matter which antedates the division of the Jaina Church into Digambara and Svetambara; and it substantially represents the traditional verses collected by the Digambara monks who did not recognise the authority of the Ardhamāgadhi canon. iii) The section on vijahana, disposal of the body, prescribes certain practices which have an appearance of antiquity and which became obsolete in course of time.. The story of Dhanna and Salibhadda indicates that similar practices were in vogue and are recognised by the Svetambara canon too. iv) The text contains legendary references which breathe the same spirit as those in the Ardhamāgadhi canon, and some of them are expressed in almost identical words. Digambara tradition says that some of these stories were present in the canon which is lost beyond recovery. v) This work had the honour of having a Prakrit commentary: this corresponds to the spirit of the age of Cūrņis some of which are available on the texts 1 Lohācārya is one of the Angadharins, and according to the Paṭṭāvalis he might be assigned to the first half of the first century B. C. 2 Compare the discussion about the seventeen types of death in the Uttaradhyayanani. and that found in the Bha. A., also ef, Bha. A. No. 32 with a similar verse in that Niryukti. 3 Compare Samtharaga Nos. 94, 95, 99, 100, 101, 111 and 115 with Bha. A. Nos. 1561, 1562, 1669, 1670, 1667, 1538 and 108; cf. Bhattaparinna Nos. 21, 63, 64, 65, 66, 67, 68, 70, 71, 72, 73, 74, 77 and 81 with Bha. A. Nos. 408, 735, 737, 739, 738, 740, 741, 744, 746, 748, 749, 750, 755 and 759; cf. Maranasamahi Nos. 96, 97, 98, 99, 100, 101, 175, 176, 180, 185, 186 and 189 with Bha. A. Nos. 538, 539, 540, 543, 546, 547, 207, 206, 248, 256, 257 and 260. 4 Comparing Mülacara with Bhaga. A., I find more than sixty gathas common. I have incorporated the details in my paper on the Müläcara which is awaiting publication; see also the Varnanukramaņikā, p. 725, of the Bombay ed. of Bha. A., and Anekanta Vol. II. No. 5 (Obviously I do not agree with the conclusion of Pt. Paramanand). 5 Maranasamahi 443-48. 6 See for instance the references to Avanti-sukumala, Caṇakka, Ciladaputta, Jama (Java), Devarai, Sukosala etc. are expressed in almost identical verses. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION of the Ardhamăgadhi canon, and this period lies a few centuries earlier than Virasena-Jinasena who not only incorporated Prākrit Cūrnis in their Dhavală etc. but also began writing in a style mixed with Prākrit and Sanskrit. vi) The method of exposition is mostly simple preaching of dogmas and didactic lessons with popular similes and illustrations, and has not as yet reached the stage of logical arguments and refutation seen in the works of Samantabhadra, Siddhasena and Jinabhadra etc. Some of the discussions bear comparison with those in the Ardhamāgadhi canon. vii) Lastly, the Prākrit dialect shows close affinities with the Ardhamāgadhi canon on the one hand and with the works of Kundakunda etc. on the other; and the commentaries explain certain queer forms as ārsa (pp. 108, 1429 etc.). These considerations give an impression that the Bha. A. belongs to the earliest stratum of the pro-canon of the Digambaras consisting of the works of Vattakera, Kundakunda etc. It is quite likely that Sivärya might be senior even to Kundakunda, but we have to await further researches. I have put forth only my suggestions which require to be worked out in details after a more thorough study of the text. iii) Commentaries on the Bhagavati Ārādhanā In view of its contents, so important for one's guidance in the monastic life, and its antiquity, the Bhagavati Aradhanā is sure to have been subjected to many commentaries, the earliest of which that has come to light is the Srīvijayodaya of Aparājitasūri. It is an exhaustive commentary in Sanskrit full of information on ascetic duties and richly interspersed with Prākrit and Sanskrit quotations, some of the latter possibly composed by the commentator himself. He notes alternative readings of the text (pp. 225, 342, 489, 598 etc.); and more than once he refers to and discusses the views of other commentators (pp. 1, 23, 30, 33, 41, 56, 61, 105, 275, 1752 etc.), but their works have not been discovered as yet. From the remarks of Asādhara it is clear that Srivijaya was another name of Aparajita. Vijaya and Aparājita mean the same, and the name of the commentary, Vijayodayā, possibly implies the author's name. It appears from his casual remark (p. 1196) that he had written a commentary of this very name on the Daśavaikälika. According to the Praśasti, he was a crest-jewel of Arātiya* monks, a grand-pupil of Candranandi and Mahākarmaprakstyācārya, 1 For earlier discussions about the commentaries see the following sources. Premi: Anekānta I, 4-5, Intro. to the Bombay ed. of Bhagavati Arādhanā noted above, and Jaina Sahitya aura Itihāsa pp. 23-40; Jugalkishore: Anekānta I. 4, II. 1; Hiralal: Jaina Siddhanta Bhaskara (Arrah) V, PP. 129-34; Paramanand : Anekänta II, 6, 8. 2 It is necessary that these verses should be alphabetically arranged and seen whether any of them are found in the works of Ravişeņa, Jinasena, Viranandi, Asaga etc. 3 These page-numbers refer to the Sholapur ed, noted above. 4 For the explanation of the primary significance of this word see Sarvārthasiddhi of Pūjyapāda on the T.-sūtra I. 20, and Indranandi's Śrutāvatāra, verse No. 84. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT KATHAKOSA and a pupil of Baladevasuri. He had studied under Naganandi at whose instance he composed this commentary. These facts are too meagre to help us either to settle his date or the place of activity. In some of the inscriptions, these names are individually met with; but as they stand isolated, we cnnnot identify them with those in the Prasasti. If it is accepted that Candranandi and Candrakirti are interchangeable names, then I have in view a group of inscriptions which mention one Śrīvijaya who had another name Pandita Pārijāta and who could be compared with Hemasena with regard to his learning and austerities. He had predecessors Candrakirti and Karmaprakṛti by name. Śrivijaya flourished earlier than Asadhara who finished his commentary on the Anagaradharmamṛta in Samvat 1300 (-57=1243 A. D.) in which there are references to Aparajita (pp. 166, 673 etc.). Karmaprakṛti is a rare name, and in all probability Srivijaya and the inscriptions refer to one and the same monk. This would mean that the age of Srivijaya is slightly earlier than A. D. 1077, that being the year of an inscription, even if we hesitate to accept Śrīvijaya's identity" with others of that name. Turning to the internal evidence, Aparajita is acquainted with texts like Acaränga, Sūtrakṛtānga, Kalpa, Daśavaikǎlika etc. of the Ardhamāgadhi canon (pp. 2, 611, 1130, 1196 etc.); further he quotes from the works of Kundakunda, the Tattvärthasutra of Umäsväti, Svayambhūstotra (No. 83) of Samantabhadra (p. 1306), Sarvärthasiddhi of Pujyapada and the Varangacarita (VII. 26, I. 13) of Jatila (pp. 243, 258, 747) whom I have assigned to the close of the 7th century A. D. This certainly means that Aparajita is later than 7th century. Till more definite evidence comes forth, he might be put in the 8th to 10th century. 56 The next exhaustive commentary is the Mulāradhana-darpaṇa of Asadhara who carefully notes the number of gathās in different sections, though his aśvasa-division of the text is not quite satisfactory. He closely follows Aparajita (p. 68 etc.) whom he refers to as Sri-vijaya (-ācārya) and Tikäkära (pp. 797, 1047, 1442; 108, 150, 1043; etc.) and whose commentary he mentions as Tikā or Samskṛta-ṭīkā (pp. 420, 440, 744, 779 etc.). It is quite likely that he has in view some other Samskṛta-ṭīkākāras than Srivijaya (pp. 297, 1343, 1746, especially the phrase iti tikākārau vyācakratuḥ). Besides, Asadhara repeatedly refers to a Prakṛta-tikā (pp. 643, 744, 763, 779, 1085, 1 Pt. Premiji's suggestion that Aparajita belonged to the Yapaniyasamgha deserves respectful consideration, but we might wait for some positive and direct proof: see Jaina Sahitya aura Itihasa pp. 41-60. 2 EC. VIII, Nagar Nos. 35-37, Tirthahalli No. 192; IV, Nagamangal 100; V, Channarayapattana 149, Belur 17, Arsikere 1; II, No. 54 (or No. 67, 2nd ed.); VI, Kadur 69. 3 Published in the Manik. D. Jaina Granthamālā, No. 14, Bombay 1919. 4 About other Śrīvijayas see Karnataka Kavicarite I, p. 13 (Bangalore 1924); S. Shrikantha Sastri on the date of Jambudvipaprajñapti, Jaina Antiquary (Arrah 1938) IV, pp. 81-84. 5 Manika. D. Jaina Granthamälä No. 40, Bombay 1938. 6 About Asadhara and his works see Jaina Sahitya aura Itihasa, pp. 129-49. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOTION 57 1290, 1632, 1755 etc.); but as far as I have seen, the name of its author is not mentioned. In one or two places Aparăjita writes in Prākrit in continuation of his Sanskrit commentary (p. 355 ); and it looks quite likely that he might be reproducing from an earlier Prākrit commentary. Ašādhara quotes some Țippaņakas (pp. 779, 1737, etc.); and two authors of these Tippaņakas, Jayanandi (pp. 1755-6) and Sricandra (pp. 773, 793, 1834), are specifically mentioned by him. More than once he takes cognizance of anonymous views (pp. 1021, 1632 etc.). Amitagati's metrical Arādhanã in Sanskrit is already there before him (pp. 339, 392, 528, 1333 etc.); some of his quotations, however, which closely agree with the gāthās of Sivārya but differ from Amitagati's rendering, indicate the possibility that there was another metrical Arādhana in Sanskrit (pp. 84, 397, 473, 485, 575, 1021, 1037, 1045, 1747 etc.). Of chronological interest are some of his quotations from the Tattvānuśāsana (Nos. 89-95) of Rāmasena (pp. 1534-35 ) and Jõānārņava (p. 1690). There is a quotation on p. 1093 from Siddhyaňka, i. e., the Bharateśvarābhyudaya of Asādhara himself, of which no Ms. has come to light as yet ; and texts like Siddhāntaratnamālā (p. 1195), Vidagdhapriti. vardhani (p. 1291), from which he quotes, are new names of works which are still to be discovered. It is true that he quotes verses (V. 4, IV. 150 etc.) from his Dharmāmrta (Anagāra-) in this commentary (pp. 445, 1176), but in his Sanskrit commentary on that work he not only refers to Mulārādhana-darpaņa but takes over also lengthy passages from it even with some irrelevant sentences. A comparative study of both the commentaries, in all the details, is necessary to settle their mutual relation. There are two other small commentaries, Ārādhanā-pañjikă of an unknown author and Bhāvārtha-dipikā of Maņijidaruņa (Samyat 1818), the Mss. of which, though not fully studied as yet, have come to light. According to the Jinaratnakośa, one more Tikā of Nandigaņi is reported, but no Ms. of it has come to light so far. iv) Kathākos'as Associated with the Bha. Ārādhanā The commentarial activities, so far reviewed are quite worthy of the importance of the contents of the Bhagavati Arādhanā which must have been studied and interpreted in different ascetic circles by eminent monks as a part of their daily study and for the benefit of the Arādhaka. The text itself tells us that the attending monks narrate in a sweet and attractive manner various tales to the departing Aradhaka on the eve his life; they avoid the Vikathās, but address him with those stories that make him mentally firm and disgusted with worldly life (găthās Nos. 651, 653-55 etc.). Major portion of this text is such that it can be conveniently read to the Arādhaka at the time of his Samădhi-marana; and consequently there are gāthās in this work which contain references 1 See Anagāra-dharmāmita pp. 166, 672-75 and Bha. Arādhanā pp. 616-17; etc, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 BRHAT-KATHĀKOŠA to didactic, legendary, edificatory and ascetic tales about which all the details are not given. As in the case of Niryuktis and canonical texts like the Uttarădhyayana, we should expect the commentators to give these stories in full drawing their material from earlier literature and oral tradition. From the comparative study, set forth below, it is abundantly clear that the stories in the Kathākośas of Harişeņa etc. are meant serially to illustrate the gāthās of the Bha. Arādhană; and Sricandra's Kathākosa quotes the gäthäs in many cases, and then gives the stories. These stories contain quite significant verses which show their connection with the Arādhanā; and being, among themselves, mutually disconnected, one is driven to admit that they might have originally formed a part and parcel of some commentary or the other on the Bha. Ārādhanā before they came to be separately compiled by authors like Harişeņa and Prabhäcandra who have not altogether concealed their relation with the Arādhanā. It was expected that Aparājita and Asadhara should have included these stories in their commentaries, but to our disappointment they have not done so. Between the two, it is only Aśādhara that gives a few remarks, here and there, on these găthās. This neglect on their part indicates that either they were indifferent to this aspect of the contents or by their time the Kathākośas were so usual that they did not like to repeat them in their commentaries. It is unfortunate that they simply pass over these references without giving adequate information and referring the reader to the required sources. Āsādhara, however, has left a crucial remark (p. 643) which is extremely significant : pagsara al terrat: lisTEAMचुल्य पासं धण्णं जूवा रदणाणि सुमिण चकं वा । कुम्मं जुग परमाणुं दस दिटुंता मणुय-लंभे ॥ एते चुल्लीभोजनादिकथासंप्रदाया दशापि प्राकृतटीकादिषु विस्तारेणोक्ताः प्रतिपत्तव्याः। Āsādhara, we have seen, repeatedly refers to a Prākrit commentary; and this remark plainly says that the ten stories, corresponding to Nos. 35-44 in the Kathākośa of Harişeņa, were present in the Prākrit commentary. This definitely indicates that the Prākrit commentary etc. included these stories that are later on collected separately by Harişeņa and others. Harişeņa's text definitely inherits certain linguistic traits in the proper names, grammatical forms, expressions and vocabulary which undoubtedly betray that it is based on some Prākrit original, and that according to Asadhara's suggestion, might have been a Prākrit commentary on the Bha. Arādhanā. Besides the Kathākośa of Harişeņa, about which we will discuss later, there are similar collections by Śrīcandra, Nayanandi, Prabhācandra and Nemidatta which we shall have to review before we enumerate their stories in correspondence with the Arādhanā găthās. 1 In gāthả No. 567 Āsādhara quotes a Prākrit commentary to explain the term krmirāga-kambala; and this explanation, nearly in the same form, is found in the Kathākośa of Harişona (102. 82) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION a) SRICANDRA'S KATHAKOBA IN APABHRAMA. ...... This work is written in Apabhraṁsa with varied metres and is divided into 53 Samdhis which do not necessarily correspond to t of stories some of which are vivisected by the Samdhi-division. The colophons give the author's name as Siricaṁda. The Sanskrit Prasasti at the end gives his spiritual genealogy thus : Srīkirti (of Kundakundānvaya), Srutakirti, Sahasrakirti (who was respected by Gangeya, Bhojadeva and others). Viryacandra and Sricandra. At the request of the Bhavyas, he mastered the work of a pūrvācārya, an earlier author, and wrote this Kathākośa more specifically for the family of Krşņa, the son of Sajjana of Prāgvāța family. who was a resident of Anahillapura in Saurăştra and who was a legal adviser (dharmasthānasya gosthikah.) of king Mularāja. As to the date of this author, Prof. Hiralal" remarks: History tells us that there have been two kings of this name in the Chālukya line of Anhillvād. The first was the founder of the dynasty and reigned from A.D. 941 (961?) to 996, and the second, who was tenth in the line, sat on the throne in 1176 A.D. and ruled only for two years. Our author flourished about the time of one of these kings, probably of the first”. But the way in which the Prasasti gives the facts shows that our author was one or two generations Mūlarāja'. Sahasrakirti was a contemporary of Gāngeya and Bhoja, the former possibly the Kalacūri of Cedi (c. 1015-1040) and the latter the Paramāra of Malwä (c. 1018-1060). So tentatively we can put Sricandra at the close of the eleventh century A. D. In the following lines he speaks of the Kathäkośa of earlier poets : महं धम्मे परेकभत्ति गुरुक्क अण्णु किं पिन वियाणमि । जलहि व्व असोसु जो कहकोसु सो हउं केम समाणमि ॥ जो विरइउ आसि महामईहिं महरिसिहिं अणेयहिं सक्कइहिं । तं रयमि केम हठं मंदमई भूयरहो होइ किं गयणगई ॥ He gives some important facts about the source or the basis of his Kathākośa in the following lines : गणहरहो पयासिउ जिणवइणा सेणियहो आसि जिह गणवइणा । सिबकोडिमुणिंदि जेम जए कहकोसु कहिउ पंचमसमए । तिहं गुरुकमेण अहमवि कहामि नियबुद्धिविसेसु नेव रहमि । महु देवि सरासइ सम्मुहिया संभवउ समत्थु लोयमहिया। आयण्णहो मूलाराहणहें सग्गापवग्गसुहसाहणहें। गाहंतरियाउ सुसोहणउ बहु कहउ अस्थि रंजियजणउ । धम्मत्थकाममोक्खासयउ गाहासु जासु संठियउ तउ । ताणत्थं भणिऊण पुरउ पुणु कहामि कहाउ कयायरउ । 1 Allahabad University Journal, vol. I, pp. 171-72. 2 Sajjana was a contemporary of Mülarāja; his son was Krşņas; and Śricandra refers to the sons etc. of Krsna. 3 This Ms. retains initial n, so I have retained it. The lines are quoted with minor corrections. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 BRHAT-KATHİKOŠA घत्ता-संबंधविहूणु सव्वु वि जणु रसु न देइ गुणवंतहं । तेणिय गाहाउ पयडिवि ताउ कहमि कहाउ सुतहं ॥ भणिदं च जिह कुड्डेण विहूणं आलेक्खं नत्थि जीवलोयम्मि । तिह पयवेणविहूणं पावंति कहं न सोयारा ॥ The thesaurus of tales has come from Jinendra to Ganadhara and from Ganadhara to Śreņika; in the Pañcamakāla it was narrated by Śivakoțimunindra'; and through various teachers (guru-kramena) it has reached Śricandra. Secondly, Mulārādhană, whose study leads one to the happiness of heaven and liberation, has got in its gathas so many nice and interesting stories. Thirdly, Śricandra would first explain the gathās in which the stories are referred to and then narrate the stories. Lastly, Śricandra remarks that nothing would be interesting if given out of context, so the stories would follow only after the gathās are given. As there cannot be a painting without the wall, so the readers cannot grasp a story without word-to-word explanation or understanding (of the basic gaāthā). He begins with the opening Mangala (of the Bha. A.) which is explained; and then follows the second gätha which also is explained and on which are added the illus. trative stories of Bharata etc. in Apabhramsa. Thus it is plain that he gives stories associated with the gathas of Mulāradhana of Sivarya or Sivakoți. He picks up only those gathas on which the stories are to be illustrated, explains their literal meaning in Sanskrit, and then gives short and long tales. Possibly he complains against his predecessors that they did not give these gāthās, but narrated only the stories; in a way his is a commendable procedure, but unluckily he has not quoted those gathās upto the end. Sricandra's Kosa is interspersed with Prakrit and Sanskrit quotations. b) PRABHACANDRA'S KATHAKOSA IN SANSKRIT PROSE This work gives in simple Sanskrit prose, with occasional quotations in Sanskrit and Prakrit, the stories of those religious personalities who devoted themselves to fourfold Aradhană and attained happiness. The text is called Aradhana-satkatha-prabandha; the first two gathās from the Bha. Aradhana are quoted at the beginning; some of the titles of stories introduce the tales with a few words from the gathas of Bha. A., and all these can be traced to that text: these facts clearly indicate that this Kosa gives stories 1 Reading the whole Kadavaka, I do not think that we would be right in taking the second line literally and attributing a Kathakosa to Śivakoti. 2 I am very thankful to my friend Prof. Hiralalaji who procured for my use the Ms. of this Kathakosa belonging to the Balatkara Jaina Mandira, Karanja (A. No. 79 Kathakośa Magadhi). On account of the effect of ink on paper, the written portion of many folios is brittle and even broken. 3 On Prabhacandra, his date and works, see Nyayakumudacandra, vols. I and II, especially their Introductions (Māņikachandra D. Jaina Granthamala, Nos. 38-39, Bombay 1938-41). Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION to illustrate the direct and indirect references in the Bha. Aradhanā of Sivärya. With the second gathā of it are connected the opening stories about Pätrakesarin, Akalanka, Sanatkumāra, Samantabhadra and Samjayanta. The stories on the eight limbs of Samyaktva are identical with those found in the Sk. commentary of Prabhācandra on the Ratnakarandaka. There is no doubt that all the stories are connected with the Bha. A., but somehow the text shows two clear divisions. After the goth story of Sakațāla, there are two verses (yair ārädhya etc. and sukomalaiḥ etc.) followed by a prose colophon which records that this Arădhanā-katha-prabandha was composed by Prabhācandra Pandita, a resident of Dhārā, in the reign or kingdom of Jayasiṁhadeva. Again the stories ( 32 in number) are continu the close we have the verse sukomalaiḥ etc. followed by a concluding remark that here ends the Kathakośa of Bhattāraka Prabhā candra. The supplementary nature of the second part certainly disturbs the order of references found in the gāthās of the Bha. A. There is no sufficient evidence to decide whether both the parts are composed by one and the same Prabhā his early and later parts of life or whether we are to distinguish between Prabhācandra Pandita and Bhattāraka Prabhācandra. To me the former alternative looks more probable. The style and presentation of contents are nearly alike in both the parts: the only difference that strikes one is that the second section mentions the gāthās more specifically. Some of his Sanskrit sentences introducing the stories have a metrical ring; and most of the Prākrit catch words are taken from the gathās of the Bha. A. The Ms. used by me is dated Saṁyat 1638. Further Nemidatta (beginning of the 16th century A. D.) also follows this very order in his Kathākośa with minor additions and omissions, and he leaves some indication about this division at the close of his story No. 82, especially in the verse No. 21. So it is quite likely that Prabhācandra himself is responsible for this two-fold division, and my explanation about it is like this. We have seen above how these stories were originally incorporated in the commentaries on the Bha. Aradhanā plenty of which were used by Āsādhara. It is a these commentaries, in Prākrit and Sanskrit, differed among themselves on the number, nature etc. of the illustrative stories to be associated with a particular gāthā. Prabhācandra might have first completed his Kośa with 90 stories following some commentary, but later when he came across another commentary, or even a Kathakośa, giving more tales, he added a 1 Māņikachandra D. Jaina Granthamāla, No. 24, Bombay Saṁvat 1982. 2 The simple style reminds me of the style of Prakrit stories given by Devendra and others; and in all probability Prabhācandra is rendering into Sanskrit the Prākrit sentences. That alone will explain why his style is so elaborate in his other words and so simple in this Kathākośa. 3 I am very thankful to Pt. Premiji who kindly sent this Ms. to me for my use. According to my numbering of the stories, there are 90 stories in the first part and 32 in the second part. These thirty-two stories are numbered by me as 90*1, 90*2, etc. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHĀKOŚA. supplementary section, thus incorporating most of the stories associated with Arādhanā. This supplementation has not been carefully done, because some of the stories already given in the first part are repeated in the second part (Nos. 14 & 19*15, 15 & 90*18, 19 & 90*22, 22 & 90*27, 20 & 90*28, 21 & 90*31). Simple and short sentences, predominance of the use of past passive participles as predicates and numerous Prākritic words, some of them un-Sanskritic and some back-formations, clearly betray the use of Prākrit sources by Prabhācandra in composing this Kośa. As to the date of this work, it might he assigned to the close of the IIth century A. D., because Prabhācandra was a contemporary of Jayasimha who succeeded Bhoja of Dhără (C. 1OI8-1060). c) NEMIDATTA'S KATHĀKOŠA IN SANSKRIT VERSES Nemidatta plainly tells us that his Ārādhană Kathākośa' is based on the work of Prabhācandra who belonged to Mülasangha, Bharati-gaccha, Balātkāragana and Kundakundänvaya, and who wrote the stories in nice sentences. As far as possible he followed the same order of stories which he composed in verses, those of Prabhācandra being in prose. (Intro, verses 5 ff., concluding verses 68 ff.). More than once Prabhācandra is respectfully mentioned in this work (2. 134, 27. 33, 69. 35, etc.). It appears that Nemidatta claims Prabhācandra to belong to the same Gana etc. as those of his own, though Prabhäcandra has not given any details. Nemidatta gives his spiritual predecessors thus: Vidyānandi, Mallibhūsana, Simha nandi and Srutasāgara; they belong to the line of Bhattārakas; and he looks upon them as his elders (concluding verses 69-72). Some of them are his contemporaries, and he remembers them in the concluding verses of some of the stories (3. 66, 4. 83, etc.). This work was composed at the desire of his guru-bhrātr, Bhattāraka Mallibhūşaņa, in the presence of his disciple Simhanandi and for the religious benefit (samyaktva-ratna-sriye) of Srutasāgarasüri (1. 56, 3. 66, etc.). In view of his relation with these, Nemidatta can be assigned to the beginning of the 16th century A. D. The work is plainly called Arādhanā-kathākośa ; and in the introductory section the second gāthā of Bha. Ā. is quoted. Though Nemidatta's Kathākośa is based on that of Prabhācandra, still there are certain apparent differences between the two texts. The total number of stories in Prabhācandra's work is 122, while that of Nemidatta is 114. From a casual inspection I find that some seventeen stories (Nos. 16, 18, 29, 30, 38, 39, 42, 56, 60, 66, 84, 90*15, 90*16, 90*18, 90*22, 90*27, 90*28) from Pi's Kathākośa, though legitimately connected with the Aradhanā text, are not found in Ni's Kathākośa ; and nine stories from N.'s 1 The Sanskrit text and Hindi translation are published, in three vols., by the Jaina Mitra Kāryālaya, Bombay, Vira samvat 2440-42. My references are to the chaps. and verses of this od. 2 Peterson Reports IV, p. cxxiii; Premi: Jaina Sahitya aura Itihāsa, pp. 406-12; etc. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 63 collection (Nos. 25, 28, 53, 108, 109, IIO, III, I12 and 114) have not got their counterparts in P.'s work. The absence Pi's stories. Nos. 90*15, 90*18, 90*22, 90*27 and 90*28 can be explained by the fact that they are repetitions with Prabhăcandra and are already found once in story Nos. 14, 15, 17, 20 and 18 of Nemidatta. Of the nine additional tales, No. 25, the story of Mrgasenadhivara, appears to have been already connected with the Ārădhanā text; No. 53 is possibly a supplementary discussion suggested from No. 52; Nos. 28, 108, 109-12 and 114 are illustrative stories connected with the Ratnakarandaka III. 18, III. 18*2, IV. 28, IV. 30 respectively; and Nemidatta's stories closely agree with those given by Prabhācandra in his commentary on these verses of the Ratnakarandaka. ....... d) NAYANANDI'S ĀRĀDHANĀ AND OTHER ĀRĀDHANA KATIĀKOS'AS Details about Nayanandi's work are not completely available. This Apabhramsa text is said to have contained two parts with 56 and 58 Samdhis, but the Pattan Ms. inspected by Dalal contained only 30 and 27 Samdhis. It is not explicit from the title, Ārādhanā, whether it is a narrative work or a dogmatical treatise. The bulk of the work, its description as a Kăvya (like Sriçandra calling his Apabhramśa Kathākośa a kāvya in his Sanskrit Prasasti ) and its definite association with Arādhanā tempt me to suggest that Nayanandi's work might turn out to be a Kathākośa like that of Śricandra. The Tinaratnakosa mentions the following Aradhanā Kathakośas in addition; their Mss. should be brought to light and studied in details : I) A. K. in Sanskrit by Simhanandin; 2) Ā. K. in Prākrit by Chatrasena; 3 Ā. K. in Sanskrit by Brahmadeva Brahmacärin : this Ms. is reported from Sravana Belgol, and it should be seen whether it is identical with Nemidatta's work or an independent composition; 4) A. K. of Ratnakirti : it is reported from Delhi; in all probability it might turn out to be a separate compilation of Arādhanā stories given by Ratnakirti in his Sanskrit commentary on the Arādhanāsāra, gāthas 49-51; and lastly 5) A. K. of an unknown author. e) THE VADDĀRĀDHANE IN OLD-KANNADA PROSE As early as 1883, it was K. B. Pathak and through him T. F. Fleet that published a few lines from what they called Upasarga-kevaligala kathe of Revākotyācārya to explain some words like pañca-mahūsabda-and nisidhi. 1 See Jugalkishore's Intro, to the Ratnakaraşdaka (Bombay Samvat 1982), p. 43, verse No. 72. 2 See the Intro. to Bhavisayattakahā in the G, O. S., p. 43, 3. This is already referred to above. 4 Indian Antiquary XII, pp. 95 f., 99 f. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 BRHAT-KATHAKOŚA As far as I know, they have not given any information about the Ms. used by them. On getting, however, an indirect clue from another note of Fleet," lately I made a careful search for this Ms. in the Jaina Matha of Sri Lakşmisena Bhattāraka, Kolhapur; and I found a palm-leaf Ms. whose wooden board bears almost the above name (Palm-leaf Mss., No. 45). The longer extract given by Pathak is found on pp. 113-114 of this Ms. The designation of the Ms. inscribed in Old-Kannada characters on the board, namely, Upasarga-kevali-kathe, appears to be just a convenient and conjectural label written possibly by the library manager perhaps after reading a few opening lines. No such name is found in the Ms. itself. The opening words are Sukumārasyāmi and some of the concluding words run thus : यी पेल्द पत्तोंभत्तु कथेय रेवाकोट्याचार्यपेल्द वड्डाराधनेय कवचमेंबधिकारऊ । In addition to what has been already written, this is enough to indicate that this work is identical with the Vaddărādhane, major portion of which is edited by my friend Prof. D. L. Narasimhachar, Mysore, and about the age of which some scholars have quite eloquently expressed their views. 1 Indian Antiquary XII, p. 216. 2 This Kolhapur Ms., which would be called L hereafter, can be described thus : It is a palm-leaf Ms. containing 147 leaves written on both sides, the last page being blank. The bulk of the Ms., without the boards, is about 11.75 x 1.5 x 2 inches. On each page, due to string holes and surrounding space, the written portion is divided into three columns. There are eight lines on a page with 55 to 60 letters in each line. It is written in Old-Kannada characters; the old forms of r and are used; and there are other peculiarities of that script such as the absence of the distinction between long and short vowels and between some aspirated and un-aspirated consonants. The Ms. opens thus: $ARATI 74: ERT: 11 echiaeqni etc. II CH Tier etc. Il ferroflari di Falevi I achto HEE SCEI Haui il : ETT etc. fel & THERO etc. At the close of the last story, there are three Prākrit verses full of corrupt readings: E TU एवं etc.॥ किं पुण etc.॥ जिणवयण etc. Then we have in Kannada prose: यी पेद पत्तोंभत्तु कथेय रेवाकोट्याचार्यलद वड्डाराधनेय कवचमेंबधिकारऊ ॥ श्रीपंचगुरुवे शरणु ।। प्लव संवत्सरद कार्तिक सुद १ ya da izzvati 4 CETTT4a7 TGT HETT X II But for a few leaves that are broken across and stitched lately, the Ms. is quite intact. It is copied at Belur, in the Mysore state. The year is not given. From the general appearance, the Ms. looks quite old, say at least three hundred years. From what little I could compare I find that this Ms. belongs to the group of gha, ca, cha described by Mr. D. L. Narasimhachar. 3 As far as I know, about Vaddārādhane here are the sources, textual and critical: Pathak and Fleet: Indian Antiquary XII, pp. 95, 99 etc. R. Narasimhachary: Kavicarite I. p. 282. D. L. Narasimhachar: Karņātaka Sāhitya Parişatpatrike, XVI, pp. 173-231 (Intro. and the stories of Sukumāra, Bhadrabahu and Vidyuccora ; references to these are given by me with starred numbers of pages); Kannada Sāhitya Parişatpatrike XXIV, No. 4, pp. i-iii and 1-26 (story 1); Ibidem XXV. No. 2-3, pp. 1-v and i-viii, 27-44 (story 2 ); Ibid. XXV No. 4, pp. 45-66 (stories 3-5); Ibid. XXVI, No. 1, pp. 67-88 (story 6); Ibid. XXVI, No. 2, pp. 89-108 ( stories 7-10); Ibid. XXVII, No. 1, pp. 109-128 (Stories 11-13 and a page of 14). M, G. Pai: Mūru Upanyasagalu (Dharwar 1940), pp. 111122; Kannada Sāhitya Parişatpatrike XXVI, No. 2, pp. 134-36. S. Śrikaộtha Šāstri: Sources of Karnataka History, vol. I, (Mysore 1940), p. xx. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION sena. Vaḍḍārādhane may be accepted as the name of this collection of stories beginning with that of Sukumara and ending with that of VṛṣabhaWe have seen how the Bha. A. contains legendary references which are illustrated by stories that might have been primarily included in its Prakrit and Sanskrit commentaries but later on came to be preserved in separate Kośas some of which are already noted above. This Kannada work is a partial Kathakośa giving nineteen stories which are referred to in the Bha. A. of Śivarya or Sivakoti, gāthās Nos. 1539-1557. Apart from minor differences in readings, these Prakrit gathās are given at the begining of respective stories and also literally explained in Kannada. The Ms. L gives three more gathās (jadi ta evam etc.) corresponding to Nos. 1558-60 of the Bha. A., in continuation of the opening gathās, at the end of the work. The stories are presented in elaborate Kannada prose interspersed with quotations in Prakrit (including Apabhraṁśa), Sanskrit and Kannada. The style is less Sanskrit-ridden than that of Cămuṇḍaraya-purāņa but more dignified than that of later Nompikathes plenty of which are available in old Mss. Excepting in the contexts of dogmatical discourses and traditional enumerations, the text presents a vigorous prose maintaining a balanced proportion of Sanskrit and Kannada words. It does not imitate the classical style of prose of some of the Kannada Campus which is mostly Sanskrit in its vocabulary, but it has evolved a fine blend of racy expression that shows no special aptitude for Sanskrit words, if they could be conveniently substituted by genuine and Tadbhava Kannada words. One feels that the sentences have become involved due to too many gerundives, and some struggle for clear expression of ideas is seen here and there. Economy of expression has not weighed with the author; but as in the case of the prose of the Ardhamagadhi canon, descriptive and enumerative repetitions are scattered all over the work. Different aspects of the style of this text deserve to be studied in more details. On account of similar expressions, common ideas and identical quotations found in different stories, there seems to be no doubt about the fact that all the nineteen stories are written by one and the same author, whoever he might be. With a slight change in the order, at one place, these nineteen stories correspond to Nos. 126-144 in the Kathakosa of Hariṣeņa with which they have closer affinity than with any other Kosas reviewed above. A comparative reading of these stories, sidy by side, discloses many interesting 65 1 See grāmekarātram etc. p. 46 foot-note 8, p. 66 line 16; names of diseases vata-pitta etc. pp. 63, 92; types of villages etc. grāma-nagara etc. pp. 46, 66, 77, 82, 96, 103, 107 etc. 2 According to the sequence of the gathas of Bha. A., the story of Enikaputra should be the 5th and that of Bhadrabahu the 6th; this order is followed by the printed text; but the editor in enumerating the 19 stories has interchanged their places. 9 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 BĶHAT-KATHĀKOŠA points. There are groups of verses, here and there, in Harişeņa's Kośa (126. 19f., 162 f., 220 f., 256 f.; 127. 145 f., 259 f., 89 f.; 131. 67 f., etc.) which have close agreement with the Vaddărâdhane in those contexts. But when we go into more details, perhaps with the exception of Vrṣabhasena's story (K.: 135 and V. 10) which shows nearly the same extent of contents in both, all the stories in the Vaddārādhane are longer and contain more details than those given by Harişeņa. The story of Sukosala, as given by the Kannada text, begins with verse No. 107 of Harişena's story and gives the contents of the first 106 verses later: this is only a glaring illustration which indicates that the order of the presentation of details is not necessarily the same in both the works. Besides giving additional sub-stories, details about more Bhavas, stylistic descriptions and traditional enumerations, one feels, as in the case of Sanatkumāra's story, that perhaps Vaddārādhane is following, at times, a different recension too for some of its details. So far as these nineteen stories are concerned, it is plain that Harişeņa narrates the main events of the story in a straight way without adding too many extra. neous details. It may be that Harişeņa is nearing the close of his big work, while the Kannada author is vigorously shaping and narrating his stories which probably constitute all that he wrote in this context. On the whole the proper names etc. in different stories are the same in both the works, but there a few significant differences which deserve special attention : Sailapura, Jayakā and Vodaka in K. 126. 124 f., but Svetapura, Jaise and Bodhana in V. i, p. 17; Gandharva-bhūpāla in K. 127. 152, but Sundara (v. l. Gandara etc.) Pāņdya in V. ii, p. 31, line 5; Surendradatta in K, 126. 210, but Süradatta in V. i, p. 20; Gomini in K. 126. 206, but Gaurī in V. ii, p. 33 ; etc. Additional and varying details, absence of close agreement in the order of events to be narrated and the differences in some of the proper names rule out the possibility that one is directly and mechanically following the other in writing out these stories. A sober evaluation of these aspects along with the common points lead us to the conclusion that both of them are based on the same source, possibly a Präkrit commentary on the Bhagavati Arādhană, after admitting, however, the probability that every author elaborated the stories in his own way but kept the outline and the motive intact. The facts that the collection of Kannada stories is called Vaddārā. dhane and that it interprets the găthās of the Bha. A., just as Srīcandra has . 1 My observations have in view mainly the first ten Kannada stories which are so far available in print. The next three stories reached my hands rather late, 2 K.-Kathākośa of Harişeņa and V.- Vaddārādhane. 3 The Kannada version remainds me, in some portions at least, the story given by Devendra in his commentary on the Uttaradhyayanı, see Präkrit-kathāsamgraha (Ahmedabad Samvat 1978), pp. 17-28. Also compare the story No. 3 in Prabhācandra's Kośa. 4 Harişeņa would simply refer to the event of marriage, but the Kannada text would describe a Svayan vara. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 67 done, on which the stories are narrated only confirm the view that it might have been based on a commentary. If the Kannada author followed the Sanskrit Kathākośa of Harisena or of some one else, he would not ordinarily give the gāthās and show crucial differences in the proper names. Not only Harisena's text, as shown below, but also the Kannada stories betray some traces of the Prākrit source. Though the problem is not fully studied yet, it has to be accepted that it is the Prakrit tendencies that gave a lead to the growth of Kannada vocabulary; and a set-back was given to the excessive use of pure Sanskrit words for which Tadbhava words, which were derived according to Prākrit tendencies subjected, of course, to the genius of Kannada phonology, came to be substituted. Even after admitting this and making some concession for this sort of Prākrit influence, we come across certain traits indicating that these Kannada stories are based on a Prākrit source. In the story of Bhadrabahu, the boundaries of Madhyadeśa are stated in a Prākrit verse (p. 80) which is possibly a relic from the Präkrit original. There are many expressions which look like Prākrit remnants : āyambila (p. 61, see the footnote 2), chatthatthama-dasam-duvālasa (p. 40), jāvajjivaṁ (pp. 76, 82, 108), paccakkhāna (76), padikamana (p. 24, 86 etc.), bolaha bolaha (p. 79, Imp. 2nd p. pl. from vola to go, to get a way?), vakkhānisi (pp. 3, 5). There are other words like Lacchi (p. 91), savana (p. 6), risi (p. 9) etc. which are not altogether impossible in any Kannada work not based on a Präkrit original. Harisena too might have worked with a Prākrit original before him ; it is interesting to note certain names which are differently Sanskritised by the Kathakośa and by this Vaddārādhane; and in some cases at least we can definitely lay our finger, keeping in mind the possible orthographical confusions and phonetic changes, on the probable Prakrit name in the original: Dayāvāda and Dayāyata (K. 126. 26; V. pp. 5, 6); Sailapura and Svetapura (K. 126. 124; V. p. 17); Samvala and Sambara (K. 126. 57; V. p. 10); Sodālikā and Modāļi (K. 126. 130; V. p. 17); Ravibindu and Ratibindu 127. 242; V. p. 36); Jayamati and Jayāyati (K. 127. 263; V. p. 38 ); Vapravāda and Vaprapāla (K. 131. 69; V. p. 87); Amśumān and Sumanta, v. l., Sumana (K. 134. 2; V. p. 100), Jinapălita and Jinavādika (K. 135. 7; V. p. 104), Vinyātaţa and Veņātaţa (K. 138. 40; V. p. *226) etc. Casually peeping through the Ms. L, I came across names like Vajradāļa (p. 117) and imitra (p. 137). The doublets, noted above, are impossible, if these two texts had a common Sanskrit origin or they followed each other. This evidence is extremely interesting : it definitely indicates a Prakrit source for these stories, and possibly a common one. The title Vaddārädhane for these Kannada stories has come to stay; it has been made sufficiently popular by their editor as well as by subsequent writers; and without any hesitation the writers of the Moodabidri and Kolhapur Mss. use this title for their copies. To be more accurate, there 1 In the corresponding passage (131. 30) Harişeņa uses gaccha. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 BRHAT-KATHÁKOŠA is no evidence to say what name the author of the Kannada work gave to his collection of these nineteen stories: in my opinion, this name has not come down to us. This point will be clear from the colophon of the Kannada text, as distinguished from the colophons of the Mss., which might be presented thus : ई पेळ्द पत्तोंबत्तु कथेगळ् [1] शिवकोट्याचार्यर् पेळ्द बोड्डाराधनेय कवचवु मंगळं महा श्री। This is the reading of the Moodabidri Ms. with which the Kolhapur Ms. has some differences, the important one being Vaddārādhaneya. The meaning, however, is practically the same. The free rendering would be: 'Here or thus are narrated nineteen tales. Thus ends (auspiciously expressed by the words mamgalaṁ mahā sri) the section] Kavaca belonging to Vaddāră. dhanā of Sivakotyācārya'. Kavaca, in Indian literature, usually indicates a class of texts containing hymns or Mantras, associated with some deity or the other, whose regular recitations, on account of their miraculous power, are said to protect a devotee from all the dangers, just as a coat of armour can protect a soldier. This type is not quite popular with the Jaina authors; if at all composed, it can be associated legitimately only with Sāsanadevatās such as svālāmālini, Padmavati etc.; and we have one Ms., No. 575 of 1895-98, at the Bhandarkar O. R. Institute, which contains Ári-Padmāvati. kavaca comprising a few propitiatory verses soliciting protection. The Kavaca-section associated with Aradhanā texts is altogether different. It consists in an exhortation, accompanied by illustrations of tales of religious martyrs, addressed to an Arādhaka on the eve of his life, so that it might give him sufficient courage to face the different Parīşahas. Like an armour, it serves the purpose of spiritual protection. The Bhāşya on the Jitakalpa. sūtram' contains a Kavaca-dvāra (gäthas 476-90), and there are available independent Mss. of Kavaca-dvāra' (No. 579 of 1895-98 in the B. O. R. I., Poona) often included under Prakīrnaka texts of the Jaina canon. The Kavaca attributed to Sivakotyäcārya, in the above colophon, is definitely a section (gäthā Nos. 1509-1682) of that name from his Bhagavati A., and it contains religious instructions as a protection or armour against the Parīşahas etc. The Präkrit găthās quoted at the opening of the stories are drawn from this section, and they represent a solid bulk of illustrative gāthās, Srīcandra adds a sentence: kavacāhiyāro'yam immediately after the story of Vrşabhasena : that explains, to a certain extent, why the Kavaca-section ends with these nineteen stories. This further shows that Vaddārādhane, or Vaddārādhaņā (in Prakrit), is only another name of the Bhaga. Ā. of Sivakoti. The etymological interpretation of this additional name has been already subjected to a good deal of speculation. The two roots urdh and brh look like doublets showing dialectal variations, and undoubtedly they lie at the basis of the Prākrit word vadda, big or great. Its etymological derivation is attended with some difficulty, so Prākritists have included 1 Edited by Punya vijaya, Ahmedabad Samvat 1994. 2 Descriptive Catalogue, vol. XVII, part 1 (Poona 1935), pp. 330, 380. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 69 it in the list of Desi words. At any rate vadựāradhanā means a big Ārādhanā; and as shown above, Bha. Ā. is a pretty big work among the Ārādhanā texts so far known. So it looks quite reasonable that the Bha. Ā., in order to be distinguished from later and smaller Arādbană texts, came to be called by the names Mulärādhanā and Vaddärädhana. The colophon that concludes Kavaca, therefore, refers to Bhaga. A. and its author Sivakoti; and it has nothing to say either about the title of the Kannada stories or about their author. Pathak gave currency to the name Revākoțyācārya following the reading of the Ms. L. It is an improbable name so far as Jaina authors are concerned; there is every possibility that the Old-Kannada si from the exemplar has been wrongly copied as re in the Ms. L; and now other Mss., which read Sivakotyācārya, have come to light. In the light of the explanation given by me above, it is plain that the colophon mentions Sivakoți as the author of Vaddārādhaņā whose verses form the basis of the Kannada stories. We may call the Kannada work by the name Vaddārādhanā following the Mss. of Mudabidri and Kolhapur, but we have no evidence to attribute the authorship of Kannada stories to Sivakoţi. To conclude, we can call these stories by the name Vaddārādhane, but we do not know who the author was. I have already discussed the probable age of Sivakoți and his Bha, Ā. A tentative attempt may be made here to settle the date of this Kannaďa text on which some views are already expressed. 1) Pathak Casually implied that this work is contemporary with Torgallu inscription of A. D. 1188; and R. Narasimhachary, who had no occasion to examine the complete Ms., quietly followed Pathak and assigned this work to c. 1180 A.D. 2) Mr. D. L. Narasimhachary detects, in this text, certain old terminations like -oń, -? and -ör etc. found in the inscriptions upto the 8th century A. D. and earlier forms like irdon, pordidon, also the use of amma for appa found in the Kannada works upto the both century A. D. The text shows close similarities with the style of Cāmundarāya-purāņa (A. D. 978). Bhadrabāhu's story agrees with that given by Harişeņa in his Kathākośa (A. D. 931) which might be the source of this Kannada version. In the light of these consi. derations, he would assign the date c. 940 A. D. for this work. 3) Mr. M. Govind Pai advances the following arguments to settle the date of this work: In the text of the Vaddārādhane some verses from Bhartphari's Satakas are found, but their text and date are not definite. The text mentions Dinära, so it must be later than 2nd century A. D. It calls Belgola by the name Kalbappu which is first mentioned in a Sravana Belgola inscription of 650 A.D., so it must be earlier than 650. Then to comfirm this, he collects good many words and forms that are found in early Kannada works and inscriptions; and thus the Kannada Vaddārădhane is to be put not later than 6th century A.D. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA Some of his remarks are baseless and imaginary1; one feels as if he is bent on assigning high antiquity to this work after forcing every argument for his purpose; and his facts and premisses do not logically lead to the conclusion arrived at by him. Chronology is not a matter of taste and forced opinion: we should dispassionately record the evidence and see what limits can he put to the age of this work. 4) Prof. S. Śrīkanth Sastri has not argued out his conclusion, but he remarks that the Vaḍḍāradhane of Sivakoti probably belongs to the 7th century A. D. 70 My own study of the text, especially of the printed portion, has revealed certain facts which I shall note down and try to put broad limits to the age of this important Kannada work. Scrutinising the internal evidence, we find here a good number of quotations in Prakrit (with Apabhramsa), Sanskrit and Kannada. It is quite likely that some of the Prakrit and Sanskrit quotations are inherited from the Prakrit original and some others, along with the Kannada verses, might have been added by the Kannada author. That explains, to a certain extent, why we get a group of verses expressing nearly the same ideas (pp. 8, 9, 96, 97 etc.). If we could trace the sources of these quotations, unanimously included in the text by all the known Mss., it would not be difficult to put an earlier limit to the age of this book. I have been able to trace a few quotations to thier sources which can be arranged thus according to tentative chrono. logy: The opening gathas of the nineteen stories, the three concluding gāthās from the Ms. L and a quotation (jaha jaha etc., in the story of Gurudatta, p. 120 of L) are all found, with slight dialectal variations, in the Bha. A. of Sivakoti. Of the three opening Prakrit verses in the Ms. L, possibly quoted as a Mangala by the Kannada author, the first is from the Pañcāstikaya (No. 1) and the second from the Pravacanas āra (No. 1) of Kundakunda. Then khammami etc. (p. 43) is found in the Mūlācāra (II. 7) and also in the Pratikramaņa (p. 9, Bhavanagar ed. Samvat 1954) from which (Ibid. p. 10) appears to be quoted, with a slight variation, another verse ha dutthu etc. (p. 99). The verse yadyapi etc. (p. 107) is quoted from the Prasamarati-prakarana (No. 107) of Umāsväti. The opening Sanskrit verse namaḥ śri etc. is the Mangala of Ratnakaraṇḍaka of Samantabhadra who is assigned to c. 2nd century A. D. Some quotations like yeṣāṁ na vidya etc. (p. 97), yāvat svastham idam etc. (p. *229) and trasnam chindhi (p. 121 of Ms. L.) are traced to the Satakas (Niti. 13, Vairagya. 88 and Nīti. 77)2 of Bhartṛhari whose date and the authenticity of a particular verse in the Śataka are uncertain. The Apabhramsa quotation chijjai etc. (p. 43, not Some of the statements and premisses of Mr. Pai are incorrect and contradictory to the known facts. He says that thero is no practice of composing or quoting Prakrit gāthās in a Sanskrit work, that Sanskrit verses cannot be quoted in Prakrit works, that Prakrit is not praudhasahitya-these are all imaginary statements which do not desorve to be refuted even. 2 These numbers are from Telang's edition, Bombay 1874. 1 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION found in some Mss.) is from the Paramātma-prakāśa (i. 72 ) of Joindu' who probably flourished in the 6th century A. D. The verse kasya mātā etc., found in the story of Gurudatta (p. 119a of Ms. L) is from the Varāngacarita' (XV. 78) of Jațā. Simhanandi, c. close of the 7th century A. D. Then ādau janma etc. (p. 63) appears to be quoted from that portion of the Mahāpurāņa which is composed by Gunabhadra (Adi., 46. 196, p. 3121, Kolhapur ed.) who completed it some time before Saka 820 (+ 78 - 898 A.D.) when Lokasena glorified this work. As long as it has not been shown, with fresh evidence, that these quotations are traced to still earlier works and that their genuineness in the Kannada text is doubtful, we will have to admit that the Kannada Vadạārădhane cannot be dated carlier than Saka 820 or 898 A.D. Among the other quotations, so dhammo etc. (p. 9) is included by Padmaprabha* (c, last quarter of the 12th and the first quarter of the 13th century A. D.) in his commentary on the Niyamasāra (I. 6, p. 6) with the phrase tathä с'oktam; and kāle samprati ctc. (p. 81) is found, with slight variations, in the Subhāṣitāvali (p. 5, Belgaum ed. 1897) of Sakalakirti, c. 1464 A. D., but this work is more or less an anthology. So these have not got any value to settle the date of our work. Harisena's Kathākosa mentions a king Gandharva-bhūpāla (127. 152), but the Kannada text reads, in the corresponding context, Sundara-Pāņdya with the alternative readings Gandara. Gåndāra- and Gandara- (p. 31). The title Sundara is often repeated with the names of Pandyan kings and the reading too is uncertain : so this reference cannot be safely used for chronological purpose. Thus it is definite that the Vaddārādhane is later than 898 A. D. and earlier than 1403 A. D. which is the date of the earliest known Ms. Let us see whether the above limits can be brought nearer by studying the style and grammatical forms of this text. The prose style appears to me later than that of Cavundarāyå-purāņa but earlier than that of prose Nompikathes in view of the comparatively meagre use of Sanskrit words and of its racy Kannada expression. So I would put this work later than Cāvuņdarāya-purāņa (978 A. D.). On the basis of old forms etc. a high antiquity is claimed for this work. In evaluating these grammatical forms, we have to bear in mind, and to a certain extent it is borne out by the various readings, that the copyists might have subjected the text to contemporary idiom and usage here and there : so our conclusions from these are bound to be tentative. This text, one feels, does present much older 1 See the Intro. to my edition (Bombay 1937) of that work, p. 67. 2 Edited by me in the Māņikacandra D. J. Granthamālā, Bombay 1938, Intro. p. 22; also Kannada Sāhitya Parişat Patrike XXV, No. 3, pp. 133-46. 3 Premi: Jaina Sahitya aura Itihäsa, p. 513 f. 4 Journal of the University of Bombay, September 1942. 5 Smith: Early History of India, 3rd ed., Oxford 1914, p. 456; Banerji: Prehistoric, Ancient and Hindu India, Caloutta 1939, p. 283. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOŚA grammatical material; but this, by itself, might not prove necessarily the antiquity of the text but as well indicate the proficiency of the author in earlier phases of Kannada. It is not enough, therefore, if we simply detect old forms etc., as Mr. Pai has done; but we should be able to state the latest age-limit upto which they were current and after which they came to be gradually replaced; and this may help us to put some tentati and not the earlier limit. My remarks are based on a casual survey, and I hope that some Kannada scholar would undertake a thorough and statis. tical study. In this text initial p is usually retained: podaper (p. 3), pel.dan (p. 11), puttidor, puttida? (p. 33), also vodan (p. 28). The inscriptions show that it is only after the IIth century that p was being gradually replaced by h'. Secondly, we come across unassimilated conjunct groups like irddu (p. 48), irppor (p. 55), karccittu (p. 31 ), etc. By the close of the 13th century this assimilation was an accomplished fact, though the tendency was manifest in the popular speech by the middle of the 12th century. Lastly, we get verbal forms like pordidom (p. I ), kaļvom (p. 12), kūdidom (p. 27 ), sattol (p. 34) also sattal (p. 34), etc. : these tedly old forms, but they become rare after the lith century. These linguistic traits indicate that the Kannada Vadựārădhane can be assigned, within the broad but definite limits of 898 to 1403 A. D., probably to the IIth century A. D. 5. BHA. ĀRĀDHANĀ AND THE DEPENDANT KATHĀNAKAS After acquainting ourselves with various Kathākośas associated with the Bha. Ā., it is necessary to note the gathās which have served as the basis for different Kathās and to record the corresponding stories from the Kośas. In a few cases Sricandra has actually given the găthās at the beginning of his stories, and Prabhācandra also notes a few words from them here and there. The numbers of gāthās, which are not referred to either by Šricandra or Prabhācandra, but noted by me, are put in square brackets. With minor changes made in the light of the variants given by the commentaries, the găthās are reproduced from the Sholapur edition which is followed also in numbering the găthās. Those gāthās that are not specifically commented upon by Srivijaya are marked with an asterisk at the end; and those that 1 A. N. Narasimhia: A Grammar of the Oldest Kanarese Inscriptions, Mysore 1941, p. 2. 2 Ibidem p. 92. 3 Ibidem pp. 168, 206. 4 My friend Prof. K. G. Kundangar informs me that the Accusative termination -ān, the Loc. termi. -ul, and the 3rd p. sing. and pl. terminations -ān, -āt and -ūr, which occur in the inscriptions of the 5th century etc., are not to be noticed in the Vaddārādhane (see thc Halmidi inscription, Sources of Karnātaka History p. 20). Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION are not found in the Sholapur ed. are put in square brackets and bear no serial numbers. When one găthā corresponds to more than one story, ave put Devanā gari numerals on the words of the găthā. Now and then significant remarks from the Vijayodayă and the Mů.-darpaņa are reproduced. In the case of Harişeņa's Kośa (HK.) and Nemidatta's Kosa (NK.), the numbers are from the printed texts; Sricandra's Kośa (ŚK.) is referred to by page numbers of the Karanja Ms.; and the numbers of Prabhācandra's stories are continuous upto 90, and the following tales from the second part of the book are numbered 90*I, etc. In the last column the references from the Païņņas (Bh.= Bhattaparinnā, M.= Maraṇasamāhi, S.=Samthāraga) and the Kannada Vaddārādhane (= V.) are noted. Those from the Païnnas, it is hoped, will easily show the common capital of primary legends independently inherited by the Digambaras and Svetāmbaras. When the găthās from the Païņņas show an almost literal agreement I have added a sign of equation with them. This record of corresponding stories does not mean that the stories are in every way identical in all these sources; but it implies that these particular references should be studied by those who want to go into more details about an individual story from different works, In some cases the names too differ, but still the frame-work of the story and the motive are alike; in some cases the sources differ in their details, extent and sub-stories dealing with different births; and in a few cases the agreement is only partial and even remote. When the reference is not of an explicit character, difference of opinion is possible in spotting a particular gāthā from the Bha. A. and associating the stories with it; and that is why the numbers of găthās proposed by me are put in square brackets. In spotting them I have scrutinised all the available evidence, both direct and indirect, in the form of serial character of the numbers of gathās, common ideas, parallel expressions, significant terms and the suggestions from the commentaries. The task of marking out the stories from the continuous narration of Sricandra's text from a closely written Ms. was a difficult one, but I have tried to do it as carefully as possible. The textual variants in the gathās quoted by Sricandra are interesting from the dialectal point of view and deserve to be noted when a critical text of the Bha. A. is attempted. Nos. Bhagavati Arādhanā HK. ŠK.2 PK... NE, Others. 19 SIEVITT Powt fyri faci fa fall परियम्मभाविदस्स हु सुहसज्झाराहणा होदि ॥ | 22 strafaremount er heu ych 4. 1 3 ___जह सो कुमारमाल्लो रजपडायं बला हरदि ॥ [23] ag facelhut H eret fra faster आराहणापडाय हरदि सुसंथारंगम्मि ॥ 24 goufacut ra HRUHf fal 2-33 4 1 The numbered and the next unnumbered pages are referred to by the same number, 2 See verses Nos. 22-3 from that story. 3 Compare especially verse No. 17 of that story. 10 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 驚季 Nos. Bhagavati Aradhanā खष्णुगदितो सो तं खु पमाणं ण सव्वत्थ ॥ 44 सम्मत्तादी चारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा । परदिट्ठीण पसंसा अणायदणसेवणा चैव ॥ BRHAT-KATHAKOSA मू- जिनकल्पमाचरणविशेषं प्रतिपन्नो नागदत्तो नाम मुनिः । 4-6 7 45 उवगृहणठिदिकरणं वच्छलपभावणा गुणा भणिदा । 8-10 8-12 सम्मत्त विसोधीए उवगृहणकारया चउरो ॥ 48 * 1 सहहया पत्तियया रोचयफासंतया पवयणस्स । सयलस्स जेण एदे सम्मत्ताराहया होंति ॥ * 87 अववादियलिंगकदो विसयासत्तिं अगृहमाणो य । निंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो ॥ 92 आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसड्डा य । उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च ॥ 113 काले' विणए उवहाणे बहुमाणे तह अणिण्हवणे' । अथ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो ॥ 201 भयणीए विधम्मिजंतीए एयत्तभावणाए जहा । जिणकपिओ ण मूढो खवओ वि ण मुज्झइ तधेव ॥ वि- जिनकल्पिको नागदत्तो नाम मुनिर्भगिन्यामयोग्यं कारयन्त्यामपि एकत्वभावनया मोहं न गतः । 262 तं वत्थं मोत्तन्वं जं पडि उप्पज्जदे कसायग्गी । तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं ॥ 328 गुणपरिणामादीहिंय विज्जावच्चुजदो समज्जेदि । तित्थयरणामकम्मं तिलोयसंखोभयं पुण्णं ॥ 345 सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेणं । माला वि मोलगरुआ होइ लड्डू मडयसंसिद्धा ॥ 346 दुज्जणसंसग्गीए संकिज्जदि संजदो वि दोसेण । पाणागारे दुद्धं पियंतओ बंभणो चेव ॥ भणो शिवभूतिर्नाम । मू 348 दिसंजदो वि दुजणकरण दोसेण पाउणइ दोसं । जह घूगए दोसे हंसो य हओ अपावो वि ॥ 356 आसयवसेण एवं पुरिसा दोसं गुणं व पार्वति । म्हापसत्थगुणमेव आसयं अल्लिएजाह ॥ HK मू- एते चुलीभोजनादिकथासंप्रदाया दशापि प्राकृतटीका - 'दिषु विस्तरेणोक्ताः प्रतिपत्तव्याः । ] 547 जह बालो जंपतो कज्जमकजं व उज्जुगं भणदि । तह आलोचेदग्वं मायामोसं चमोत्तनं ॥ 589 मिगतण्हादो उदगं इच्छइ चंदपरिवेसणे कूरं । जो सो इच्छइ सोधी अकहंतो अप्पणो दोसे ॥ 16 14-5 17-19 10-12 12-17 11-13 13 17 90*1 27 28 17-26 20-25 29 30 31 373 अप्प विपरस्स गुणो सप्पुरिसं पप्प बहुदरो होदि । 34 उद व तेलबिंदू हि सो जंपिहिदि परदोसं ॥ ŚK, PK. 32 33 4-6 6 45 19 26 27 28 29 29 30 30 35 ७० 38 9 90*4 90*2-3 84-5 14 also 90*15 90*16 90*5-14 87-96 15 also 90*18 16 90*19 NK. 90*20 6 9 90*17 97 11-13 83 17 430*1 [चुल' पास' घण्णं जूवा रणाणि सुमि चक्कं वा । 35-44 36. 90*21 100 कुम्मं जुग परमाणुं" दस दिट्ठता मणुयलंभे ॥ * 18 86 14 15 98 99 16 Others. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION .Nos. Bhagavati Arādhanã HK.SK. PK. NK. Others. मू- अत्र कथयार्थप्रतिपत्तिर्यथा-चन्द्रनामा सूपकारः परिवारहितो राशा निम्सारितोऽन्यः कृतः। परिवारेण च राशा सह भोजनं परिहृतम् । एवमेकदा समायाते तस्मिन् राजनि भोक्तुमुपविष्टे गगने चन्द्रस्य परिवेषमालोक्योक्तं लोकरद्य चन्द्रस्य परिवेषो जात इति । एतच्छुत्वा परिवारः सूपकारस्य राजकुले प्रवेशो जात इति मत्वा भोक्तुं गतवान्न च कूरं प्राप्तवान् इति । 732 अच्छीणि संघसिरिणो मिच्छत्तणिकाचणण पडिदाणि। 46 39 19 also 17 कालगदो वि य संतो जादो सो दीहसंसारे॥ 90*22 737 भावाणुराग पेमाणुराग मज्जाणुराग रत्तो वा। 47-50 42-3 90*23-6 101-4 Bh. 64 धम्माणुराग रत्तो य होहि जिणसासणे णिचं ॥* [एक्का वि जिणे भत्ती णिहिट्ठा दुक्खलक्षणासयरी। 51 4322 also 20 सोक्खाणमणंताणं होदि ह सा कारणं परमं ॥*] 90*27 739 दंसणभट्ठो भट्ठोण हु भट्ठो होदि चरणभट्ठो हु। 52-4 43-44 20 also 18, 105-6 Bh. 65 90*28, दसणममुयंतस्स हु परिवडणं णस्थि संसारे ॥ -29,-30 740 सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अजेदि तित्थयरणामकम्म। 55 46 21 also 19, 107 Bh. 67 जादो खु सेणिगो आगमसिं अरुहो अविरदो वि॥ . 90*31 746 एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गई णिवारदं। 5658 90*32 113 पुण्णाणि य पूरे, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ॥* [747] तह सिद्धचेदिए पवयणे य आइरियसव्वसाधूसुं। 57 68 भत्ती होदि समत्था संसारुच्छेदणे तिब्वा ॥* 748 विजा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य। 58 किध पुण णिव्वुदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स ॥ [752] वंदणभत्तीमित्तेण मिहिलाहिओ य पउमरहो। 1977 देविंदपाडिहरं पत्तो जादो गणधरो य॥ 759 अण्णाणी वि य गोवो आराधित्ता मदो णमोकारं। 6078 Bh. 81 चंपाए सेटिकुले जादो पत्तो य सामण्णं ॥ 772 जइ दा खंडसिलोगेण जमो मरणादो फेडिदो राया। 61 81 24 - Bh. 87 पत्तो य सुसामण्णं किं पुण जिणउत्तसुत्तेणं ॥ वि- वाच्यमत्राख्यानकं च । 773 दढसुप्पो सूलहदो पंचणमोकारमेत्तसुदणाणे। 62also 82 25 उवजुत्तो कालगदो देवो जादो 63-70 83-97 794 जीववहो अप्पवहो जीवदया होदि अप्पणो हु दया। 7lalso 97 विसकंटओ व्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि॥ 7398 799 मारेदि एगमवि जो जीवं सो बहुसु जम्मकोडीसु। 731 99 (१) अवसो मारिजंतो मरदि विधाणेहिं बहुगेहिं ॥ 822 पाणो वि पाडिहरं पत्तो छुढो वि सुसुमारहदे। 7499 26 4 -S. 96 एफेण अप्पकालकदेण ऽहिंसावदगुणेण ॥ 837 सच्चं वदंति रिसओ रिसीहिं विहिदाओ सम्वविजाओ। 75 100 मिच्छस्स वि सिज्झंति य विजाओ सच्चवादिस्स। 1 Compare verse No. 305 of this story, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA K. 100 PK. 27 NK. 2 6 Others. Bh. 101 104 104 5, 285, 27 108 20 10930 110 31 29 112 32 3 0 = Bh. 122 Nos. Bhagavati Ārādhanā HK. 849 पावस्सागमदारं असञ्चवयणं भणंति हु जिणिंदा। 76 हिदएण अपावो वि हु मोसेण गदो वसू णिरयं । [859] अत्थम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगदचेयणो होदि। 77 मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स ॥ 874 परदव्वहरणबुद्धी सिरिभूदी णयरमज्झयारम्मि। 78 होदूण हदो पहदो पत्तो सो दीहसंसारं ॥ [876] देविंदरायगहवइदेवदसाहम्मिउग्गहं तम्हा। उग्गहविहिणा दिण्णं गेण्हसु सामण्णसाहणय ॥ 909 णीचं पि कुणदि कम्मं कुलपुत्तदुगुंछियं विगदमाणो। 80 वारत्तिगो वि कम्मं अकासि जह लंघियाहेदुं॥ वि- वारत्तिगो नाम यतिः। मू-वारत्तओ वारत्रको नाम यतिः। 015 बारस वासाणि वि संवसित्तु कामादुरो ण णासीय। 81 पादंगुटमसंतं गणियाए गोरसंदीवो॥ मू- गोरसंदीवो मुनिनामेदम् ।। 935 इहलोए वि महल्लं दोसं कामस्स वसगदो पत्तो। ४३ कालगदो वि य पच्छा कडारपिंगो गदो णिरयं ॥ वि- वाच्यमत्राख्यानम् । [942] आसीय महाजुद्धाई इत्थीहेर्नु जणम्मि बहुगाणि। 83-4 भयजणणाणि जणाणं भारहरामायणादीणि ॥ [949] साकेदपुराधिवदी देवरदी रजसोक्खपन्भट्ठो। 85 पंगुलहेदूं छूढो णदीए रत्ताए देवीए ॥ वि- गन्धर्वप्रवीणेन पङ्गुना सह जीवितुम भिलपन्त्या। [950] ईसालुयाए गोववदीए गामकूडधूदियासीस । छिण्णं पहदो तध भल्लएण पासम्मि सीहबलो॥ [951] वीरवदीए सूलगदचोरदट्रोट्रिगाए वाणियगो। 87 पहदो दत्तो य तहा छिण्णो ओट्टो त्ति आलविदो॥ ...999 उग्घेण ण वढाओ' जलंतघोरग्गिणा ण दडाओ। 88-89 सप्पेहिं सावजेहिं वि हरिदा खद्धाण काओ वि॥* 90 मू- काश्चन शीलवत्यः सुलोचनादयः। 1061 साधु पडिलाहेदुं गदस्स सुरयस्स अगमहिसीए। 91 णटुं सदीए अंगं कोढेण जहा मुहुत्तेणं ॥ वि- सुरतनामधेयस्य राज्ञः । सदीए सत्या शोभनायाः। [1063-5]वग्धपरद्धो लग्गो मूले य जहा ससप्पबिलपडिदो।। पडिदमधुबिंदुभक्खणरदिओ मूल म्मि छिजंते ॥ । तह चेव मञ्चुवग्धपरद्धो बहुदुक्खसप्पबहुलम्मि। 192 संसारबिले पडिदो आसामूलम्मि संलग्गो॥ बहुविग्घमूसगेहि आसामूलम्मि तम्मि छिजते।। लेहदि विभयविलज्जो अप्पसुहं विसयमधुबिंदु ॥ 1082 जादो खुचारुदत्तो गोट्रीदोसेण तह विणीदो वि। 93 गणियासत्तो मजासत्तो कुलदूसओ य तहा॥ पर 34 32 आलविदो॥ 113 1. 114 35 3 3 114 36 3 4 114 37 35 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Nos. Bhagavati Aradhana [1100] सगडो हु इणिगाए संसग्गीए दु चरणपब्भहो । गणिया सग्गीय कूववारो तहा णट्टो | मू- जहणियाए जैनिकानाम्न्या ब्राह्मण्याः । [1101] रुद्दो परासरो' सच्चई' य रायरिसि' देवपुत्तों" य । महिलारूवालोई पट्टा संसत्तदिट्ठीए ॥ [1128] गंथो भयं नराणं सहोदरा एयरत्थजा जं ते । अण्णोष्णं मारेढुं अत्थणिमित्तं मदिमकासी ॥ [1129] अरथणिमित्तमदिभयं जादं चोराणमेकमेक्वहि । मज्जे मंसे य विसं संजोइय मारिया जं ते ॥ 1130-32 संगो महाभयं जं विहेडिदो सावगेण संतेण । पुत्रेण चैव अत्थे हिदम्हि णिहिदिल्लगे साहुं ॥ 'घ' लोओ" हत्थी' य तह य रायसुर्यं । पहिरो' विय राया' सुवण्णयारस्स" अक्खाणं ॥ * वर'णउलो' विज्जो' वसहो" तावस' तहेव चूदवणं । क्ख विणी' हुंदुह' मेदजमुणिस्स" अक्खाणं ॥ * [1140] अत्थणिमित्तं घोरं परितावं पाविदूण कंपिल्ले | 104 ललकं संपत्तो निरयं पिण्णागगंधो खु ॥ [1144] पडत्थस्स ण तित्ती आसी य महाधणस्स लुद्धस्स । संगे मुछिदमदी जादो सो दीहसंसारी ॥ [1218] कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पत्थेदि परवधादीयं । जह उग्गसेणघादे कदं णिदाणं वसिद्वेण ॥ [1222] सो दिइ लोहत्थं णावं भिदइ मणिं च सुत्तव्थं । छारकदे गोसीरं डहदि णिदाणं खु जो कुणदि ॥ वि- सारविनाशसाधर्म्यादभेदमाचष्टे - सूपकारोपरि कथा यो निदानकारी, तेन नौप्रभृतिकं विनाशितम् । [1236] कुणदि य माणो णीयागोदं पुरिसं भवेसु बहुगेसु । पता हु णीचजोणी बहुसो माणेण लच्छिमदी ॥ 1281 संभूदो वि णिदाणेण देवसोक्खं च चक्कधरसोक्खं । पत्तो तत्तो य चुदो उववण्णो णिरयवासम्मि ॥ HK. 94 95 96-99 100 101 102 105 106 107 108 109 मू- चक्कधरसोक्खं ब्रह्मदत्ताख्यद्वादशचक्रवर्तिशर्म । [1286] पब्भट्ठबोधिलाभा मायासल्लेण आसि पूदिमुही । दासी सागरदत्तस्स पुप्फदंता हु विरदा वि ॥ [1287] मिच्छतसलदोसा पियधम्मो साधुवच्छलो संतो । बहुदुक्खे संसारे सुचिरं पडिहिडिओ मरिची ॥ [1333] कुलजस्स जस्समिच्छंतगस्स णिघणं वरं खु पुरिसस्स | 112 यदिक्खिदेण इंदियकसायवसिएण जीवितुं जे ॥ [1355] सरजूए गंधमित्तो घाणिदियवसगदो विणीदाए । विसगंधपुष्पमग्धाय मदो णिरयं च संपत्तो ॥ - विणीदार अयोध्यायाः स्वामी । विसपुप्फगंधं ज्येष्ठभ्रातृप्रयुक्त रौद्रविषरजोवासित सुरभि - तमकुसुमगन्धम् । [1356] पाडलिपुत्ते पंचालगीदसद्देण मुच्छिदा संती । पासादादो पडदा पट्टा गंधव्वदत्ता वि ॥ 110 111 113 114 SK. PK. 118 38 119 39 119-24 40-43 125 44 125 125f. 46 128 129 134 137 138 138 139 139 139 140 45 47 48 49 50 51 52 53 54 NK. 36-38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 77 Others. = Bh. 133 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Others. NK. 50 BRHAT-KATHAKOŚA Nos.' Bhagavati Ārādhanā HK. SK. PK. [1357] माणुसमंसपलत्तो कंपिल्लवदी तधेव भीमो वि। 115 1405 रजभंट्टो णट्ठो मदो य पच्छा गदो णिश्यं ॥ [1358] चोरो वि तह सुवेगो महिलारूवम्मि रत्तदिट्रीओ। 116 141 विद्धो सरेण अच्छीसु मदो णिरयं च संपत्तो॥ [1359] फासिदिएण गोवे सत्ता गिहवदिपिया विणासके। 117 141 57 मारेदूण सपुत्तं धूयाए मारिदा पच्छा। वि- गिहवदिपिया राष्ट्रकूटभार्या । [1374] बारवदी य असेसा दीवायणेण रोसेण । 11814258 बद्धं च तेण पावं दुग्गदिभयबंधणं घोरं ॥ [1381] सद्धिं साहस्सीओ पुत्ता सगरस्स रायसीहस्स। 119 14359 अदिबलवेगा संता णट्ठा माणस्स दोसेण ॥ [1388] सस्सो य भरधगामस्स सत्तसंवच्छराणि णिस्सेसो। दडो डंभणदोसेण कुंभकारेण रुटेण ॥ [1392] सन्धे वि गंथदोसा लोभकसायस्स हुंति णादव्वा। 121 लोभेण चेव मेहुणहिंसालियचोजमाचरदि ॥ [1393] रामस्स जामदग्गिरस वजं वित्तण कत्तिविरिओ वि। णिधर्ण पत्तो सकुलो ससाहणो लोभदोसेण ॥ [1518] को णाम भडो कुलजो माणी थोलाइदण जणमझे। 123 जुज्झे पलाइ आवडिदमेत्तओ चेव अरिभीदो॥ [1526] गाढप्पहारसंताविदा वि सूरा रणे अरिसमक्खं । 124 145 ण मुहं भंजंति सगं मरंति भिउडीए सह चेव ॥ [1528] केई अग्गिमदिगदा समंतओ अग्गिणा वि उज्झता। 125 जलमज्झगदा व णरा अच्छंति अचेदणा चेव ॥ [1539] भल्लंकीए तिरत्तं खजंतो घोरवेदणहो वि। 126 14563 आराधणं पवण्णो झाणेणावंतिसकुमालो॥ 1486 58 [1540] मोग्गिलगिरिम्म यसकोसलोविसिद्धत्थदइयभयवंतो।127 वग्धीए वि खज्जतो पडिवण्णो उत्तम अटै॥ = Bh. 160 M. 435-9 S.65-6 v.1 = Bh. 161 M. 466-7 S.63-4 V.2 S. 87 V. 3 V.4 S.56-7 V.5 [1541] भृमीए समं कीलाकोहिददेहो वि अल्लचर्मव। 128 15265 ___ भयवं पि गयकुमारो पडिवण्णो उत्तम अटुं॥ [1542] कच्छुजरखाससोसो भत्तच्छद्दच्छिकुच्छिदुक्खाणि। 129 152 3,66 अधियासियाणि सम्मं सणकुमारेण चालसयं ॥ [1543] णावाए णिब्बुडाए गंगामज्झे अमुज्झमाणमदी। 130 15367 आराधणं पवपणो कालगओ एणियापुत्तो॥ [1544] ओमोदरिए घोराए भद्दबाह असंकिलिहमदी। 131 15368 घोराए तिगिंछाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं॥ [1545] कोसंबीललियघडा बूढा गइपूरएण जलमज्झे। 132 15569 आराधणं पवण्णा पाओवगदा अमूडमदी॥* [1546] चंपाए मासखमणं करित गंगावडम्मि तन्हाए। .198 15570 घोराए धम्मवोसो पविण्यो उधाण v.6 S.79-80 V.7 V.8 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Nos. Bhagavati Aradhana [1547] सीदेण पुष्ववइरियदेवेण विकुच्चिएण घोरेण । संतत्तो सिरिदिण्णो पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ [1548] उन्हं वादं उन्हं सिलादलं आदवं च अदिउन्हं । सहिदू उससे पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ [1549] रोहेडयम्मि सत्तीए हओ कोंचेण अग्गिदइदो वि । तं वेदणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ मू- अभिराजनाम्नो राशः पुत्रः कार्तिकेयसंशः । [1550] काइंदिअभयघोसो वि चंडवेगेण छिण्णसव्वंगो । तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ मू- चंडवेगेण चण्डवेगनाम्ना राजपुत्रेण । [1551] दंसेहिं य मसएहि य खजंतो वेदणं परं घोरं । विजुच्चरो ऽधियासिय पडिवष्णो उत्तमं अहं ॥ वि- विद्युच्चरचोरः । [1552] हथिणपुरगुरुदत्त संबलियाली व दोणितम्मि । डज्झतो अधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ मू- वलशिम्बिपूरितमर्कपत्रप्रच्छादितमधोमुखभाजनं सर्वत्राग्निसंवेष्टितं संवलिस्थालीत्युच्यते । [1553] गाढप्पहारविद्धो मूइंगलियाहिं चालणी व कदो । तध विय चिलादपुत्तो पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ [1554] धण्णो जउणावंकेण तिक्खकंडेहिं पूरिदंगो वि । तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ वि- दंडो दण्डनामको यतिः । मू- धण्णो धन्यो नाम मुनिः । दंडो इत्यन्ये । जाके यमुनावनाम्ना राज्ञा । [1555] अभिनंदणादिगा पंचसया णयरम्मि कुंभकारकडे । आराधणं पवण्णा पीलिजंता वि जंतेण । [1556] गोट्ठे पाओवगदो सुबंधुणा गोव्वरे पलिविदम्मि । उज्झतो चाणक्को पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ * [1557] वसदीए पलिविदाए रिट्ठामच्चेण उसहसेणो वि । आराधणं पवण्णो सह परिसाए कुणालम्मि ॥ [1633] अरहंत सिद्ध केवलिअधिउत्ता सव्वसंघस क्खिस्स । पच्चक्खाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं ॥ मू- प्रत्याख्याताहारसेवनादित्यर्थः । [1643] होइ परो जिल्लज्जो पयहइ तवणाणदंसणचरितं । आमिसकलिणा ठइओ छायं मइलेइ य कुलस्स ॥ वि- आमिषाख्येन कलिनावष्टब्धः छायां कुलस्य मलिनयति परोच्छिष्टभोजनादिना । [1649] अवधिद्वाणं णिरयं मच्छा आहारहेदु गच्छति । तत्थेवाहारभिलासेण गदो सालिसित्थो वि ॥ HK. 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 1461 147 SK. 1560 156 157 158 159 160 162 163 163 164 1 Compare especially verse No. 15 from that story. 165 165 166 PK. 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 166 82 NK. 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 Others. V.9 V. 10 79 S. 67-9 V. 11 S. 76-8 V. 12 V. 13 S. 85 V. 14 Bh, 88 M. 4.27-30 S. 86 V. 15 M. 465 S. 61-2 V. 16 M. 443 S. 58-60 V. 17 = Bh. 162 S. 73-75 V. 18 S. 81-4 V. 19 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 Nos. Bhagavati Aradhana वि- आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिंगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामाः षण्मासं विवृतवदनाः स्वपन्ति । निद्राविमोक्षानन्तरं पिहिताननाः स्वजठरप्रविष्टमत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशन्ति । तत्कर्णावलग्नमलाहाराः शालिसिक्थमात्रतनुत्वाच्च शालि सिक्थसंज्ञका यदीदृशमस्माकं शरीरं भवेत् किं निःस एकोऽपि जन्तुर्लभते सर्वान् भक्षयामि इति कृतप्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशन्ति । [1650] चक्कधरो वि सुभूमो फलरस गिद्धीए वंचिओ संतो। समुद्दमज्झे सपरिजणो तो गओ णिरयं ॥ BRHAT-KATHĀKOŚA HK. SK. [1716] लोगो विलीयदि इमो फेणो व्व सदेवमाणुसतिरिक्खो । 149 रिद्धीओ सव्वाओ सुविणगसंदंसणसमाओ ॥ [1800] जणणी वसंततिलया भगिणी कमला य आसि भज्जाओ। 150 धणदेवस्य एक्कम्मि भवे संसारवासम्मि ॥ [1802] कुलरूवतेयभोगाधिगो वि राया विदेहदेसवदी । वच्चघरम्मि सुभोगो जाओ कीडो सम्मेहिं ॥ [1804] इधई परलोगे वा सत्तू पुरिसस्स हुंति णीया वि । इह परत वा खाइ पुत्तमसाणि सयमादा ॥ [1806] विमलाहेदुं वंकेण मारिदो णिययभारियागब्भे । जादो जादो जादिभरो सुदिट्ठी सकम्मे हिं ॥ [2073] कोसलयधम्मसीहो अहं साधेदि गिद्धपुट्ठेण । यरम्मिय कोल्लगिरे चंदसिरिं विष्पजहिदूण ॥ * [2074] पाडलिपुत्ते धूदाहेदुं मामयकदम्मि उवसग्गे । साधेदि उसभसेणो अहं विक्खाणसं किच्चा ॥ * [2075] अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिसमणलिंगेण । बड्डाहपसमणत्थं सत्थग्गहणं अकासि गणी ॥ * मू- अहिमारएण अहिमारकनाम्ना बुद्धोपासकेन । विदिम्मि स्रावस्तिकानगरीनाथे जयसेनाख्ये । गणी यतिवृषभनामाचार्यः । 148 151 152 153 154 155 156 [2076] सगडालएण वि तथा सत्थग्गहणेण साधिदो अत्थो । 157 वररुइपओगहेदुं रुहे णंदे महापउमे ॥ * 166 166 168 168 168 168 169 169 170 PK. 83 84 85 86 87 88 89 90 NK, 76 77 78 79 80 81 82 Others. Mutual relation etc. of some of these Kośas have been partly noted above (p. 62 f. ); and the relation of Harisena's Kathākośa with other Kosas would be discussed below. S. 70-1 6. HARISENA'S KATHĀKOS 'A : A STUDY i) Name, Extent etc. Harişena's Treasury of stories has attracted the attention of scholars from a pretty long time. Though the text was not printed, the story of Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 81 Bhadrabahu was used by Rice, Narasimhacharya' and others in their discu. ssion about the migration of the Jaina Sangha to the South, especially to Sravana Belgola, when a severe famine raged in Northern India. Pt. Premi published its prasasti and introduced it to Hindi readers; and lately he has revised some of his earlier opinions. There has appeared a Marăthi digest of a portion of it. Now it has been abundantly clear to us that this Treasury of stories presents a series of tales which illustrate the veiled and explicit allusions found in the Bha. Arādhană. Not only this relation is well established but all the stories are also serially associated with the gāthās from that work. In the absence of their context in the Bha. A., the stories, though quite significant individually and showing some affinity of subject matter among themselves in small groups, stand without mutual connection and continuity as such. Harişeņa has not given the găthās with which the stories are to be associated; and he gives very little hint on this point by saying that the Kathākosa composed by him is ārādhanoddhrta (Prasasti 8), meaning thereby that the stories are drawn out, extracted or chosen from the which stands for the Bhagavati A. perhaps inseparably connected with some Prakrit commentary that gave all these tales. We cannot easily take ud dhr in the sense of udāhr and argue that they are illustrative stories on the Arādhană găthās. Harişeņa uniformly calls this treasury, Kathākoša; and he has not added any specification like Prabhācandra and Nemidatta who qualify their Kathakośas by the term Arādhană. There are two colo. phons which mention the name as Bșhat Kathakośa (pp. 276 foot-note I and 356); but it is equally possible that these might belong to the copyists. The Praśasti mentions the name Kathākośa ; and it is likely that later on the adjective Bșhat came to be added perhaps to distinguish it from smaller collections of Prabhācandra and Nemidatta, and on the analogy of Bșhatkathā etc. This title, being already accepted in circulation, has been retained in this edition. The term brhat connotes bulk and extent, so it is difficult to say whether it is anticipated by the adjective paraṁ in one of the Mangala verses (No. 3). The total Grantha-saṁkhyā is given to be 12500 Ślokas. Apart from the Mangala and Prasasti sections, the text is said to contain The story No. 102 contains ten sub-stories, and I have already shown above (p. 5 of the Intro.) how a slight readjustment is necessary to arrive at the correct number of stories. The whole work is composed mostly in Anuştubh metre; and a few longer metres, some quoted and some composed by the 1 Mysore and Coorg from the Inscriptions pp. 2 f.; Epigraphia Carnatica, vol. II, 1st and 2nd eds., Bangalore 1889 and 1923, Intro. pp. 37f. of the 2nd ed. 2 Jaina Hitaishi, 14, pp. 216-18; Jaina Sāhitya aura Itihāsa, pp. 434-9. 3 Bịhatkathākoša, part 1 (stories 1-66, the last story being that of Mrgasena), by Ajiāta, Osmanabad, Vira Sam. 2463. 4 See Section 5 above where the găthās and the corresponding stories from different Kośas are noted. 11 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 BRHAT-KATHAKOŚA author himself, are found here and there. Among the quotations there are Anustubhs as well as Prākrit gathās. Almost all the quotations are anony. mous; they are not necessarily introduced by the phrase tathū coktam etc.; and there are reasons to believe that some verses, which form a part of the running text, might turn out to be quotations. In the extent of individual Kathānakas there is a good deal of disparity: the shortest (No. 125) contains 4 verses and the longest (No. 57 ) 585 verses. ii) Various Strata of the contents etc. All these stories have their seeds in the Bhagavati Ārādhanā which is primarily a religious scripture meant mainly for the study of Sramaņas; and consequently their back-ground and outlook are predominantly religious and ascetical. As it is usual with Jaina tales, many of the stories deal with the biographies not only of individuals but also of their souls migrating through various births. This naturally leads to the emboxing of sub-tales into tales, and the structure of the tale assumes some complexity, For the author, however, this mode of composition has a two-fold advantage: first, it gives him a sovereign method of illustrating the reward of virtues and punishment of vices in a subsequent birth, if not in this, and thus strengthens the faith of pious believers in the potentiality of moral values and the inviolability of the omnipotent law of Karman which automatically works and necessarily accompanies the doctrine of transmigration so far as Jainism is concerned; and secondly, it affords an opportunity for the author to present the same character in its various facets and under varying conditions through the infinite vista of the soul's journey. Chances, accidents, mishaps and traits of individual character, which usually control and guide the threads of the story, are all traced back to some Karman or the other in one of the past lives. At times a pair of souls is selected and their fate, in relation to each other, is elaborated through the tedious journey of Saṁsāra (No. 109). Some of the lengthy stories (Nos. 56-7, 73 etc.) do show these traits; and they assume an awful dignity which evokes sympathy for the characters that are suffering for their sins which the reader would like to avoid, of course sub-consciously, in his daily conduct, and thus escape the sad lot which faces the sinner elsewhere. Almost as a corollory from this we find here an enormous bulk of stories in which various religious virtues are illustrated: some specifically pertain 'to the ascetic life and some to that of a house-holder. Their number is pretty big in this book; and they comprise Jaina tenets connected with Samyaktva (Nos. 4-12, 52-5, 63-71, III), Alocană and Pratyakhyāna (Nos. 14-16), the nature of Samsāra and the rarity of human birth etc. 1. See my remarks on some of these quotations in the Notes at the end. 2 Bloomfield has already noted that such illustrations are found in plenty in the narrativo literaturc of the Jainas in particular and of India in general, soe Life and Stories of the Jaina Saviour Pārsvanātha, Baltimore 1919, Intro. pp. 13-6, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 83 (Nos. 35-44, 92, 149-53), devotion to religion, scripture, teacher and religious observances (Nos. 13, 22, 29, 47-51, 56.62 ), the five Vratas (Nos. 46, 72-9, 126), control of passions and subjugation of senses (Nos. 28, 81-91, 93-110, 112-22, 147-8), stray virtues and practices (Nos. 17-21, 23-30, 33-4, 45, 80), putting up with Parişahas, and facing death quietly and courageously (Nos. 1-2, 124-5 154-7). Then we have a substantial stratum of ascetic tales (Nos. 126-46 etc.) giving some biographical details about great ascetics who patiently endured various hardships and attained the highest spiritual object; and some of them are common to both Svetămbaras and Digambaras. It is highly probable that at least some names are historical and have beer handed down to posterity as inspiring ideals of ascetic culture to be followed as examples by those that want to lead a monastic life. There are a few stories which are not only sectarian and propagandistic but preach also pious rituals consisting of fasts etc. (Nos. 57, 59 etc.). The repetition of Pañca. namaskāra is attended with some miraculous power that comes to one's rescue in adversity and any attempt to dishonour it leads to ruin (Nos. 52, 60, 62-3). There is a small section at the beginning of story No. 46 which can be called a purely dogmatic discourse; and the whole text is replete with references to Taina dogmas and technical terms. Besides ethical preachings, we come across some philosophical discussions too (No. 73). In many of these tales what matter most are the motif and crucial details and not the various names scattered throughout the frame-work of the narrative. . In spite of the religious spirit permeating almost all the stories, this Kośa is not altogether devoid of secular interest. Tales which have nothing specially religious about them but which are primarily meant for amusement and general instruction of worldly wisdom are scattered all over this work, at times subordinated to the mission of religio-moral instruction which the author has on his hand. The narratives, Liquor-vendor and Brahmin, Owl and Swan, Parrots in good and bad Company, Housewife and Mungoose, Physicians and Tiger etc. (Nos. 31-33, 102*2-*3) are fables meant for didactic instruction; and their frame-work, ideology etc. not only remind us of the class of literature to which Pancatantra etc. belong but one of them (102*2) is found also in the Pañcatantra V. Their concluding verses are similar to those in the Jātakas and sayings of worldly wisdom found in texts like the Pañcatantra. Some of the Kathānakas narrated by Yamapāśa in the royal assembly (No. 63) belong to this type. There are a few genuine folktales incorporated in some of our stories, and their motifs are well-known in other branches of Indian literature: No. 21 brings out a contrast between a good wife and a bad one; the Kāyastha misreads the father's letter reading perhaps andhāpaya for adhyāpaya (No. 23)', and once he reads stabha for stambha (No. 25); Abhayakumāra skilfully meets the royal orders to fetch a well from a village, to weigh an elephant, to shift a well to the west of 1 It may be a confusion between the Präkrit forms amdhāvehi and addhivehi or o ndhiyai and adhiyai. Tr Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BĦĦAT-KATHÅKOŠA the village etc. (No. 55, see also No. 157); a go-between outwits the gatekeepers and brings the required lover to the queen (No. 60); and lastly an innocent cartman is duped by the villagers (No. 120). The tests put by Kșirakadambaka on the wisdom of his pupils (No. 70 ) are certainly a few amusing bits from popular stories. There is no piece of folk-tale which is foreign to our author and which cannot be improved upon for religious edification, if it can be made to illustrate the virtue which he wants to preach. There are other contexts which give interesting insight into the complicate workings of human mind at times plainly illustrated and at times symbolically put : we come across an avaricious merchant (No. 104), a greedy maternal uncle (No. 105), a treacherous wife (Nos. 85, 87), à jealous cowife (No. 86), a noble and self-sacrificing husband (No. 85), a passionate monk (Nos. 81, 95, 98), a loving mother (No. 145) etc.; and once a lover, endowed with miraculous power, converts himself into a bee and hovers round the face of his beloved (No. 8o). Then it is some technical terms, on account of their specific and obscure meanings, that have given rise to a few anecdotes: vişānna= special, rich and flavoury food which gives physical strength, lustre and vigour (No. 6. 20); yauvana = warmth or freshness of food (No. 14. 13); mași = husked and fresh mudga beans (No. 24. 37); and collaka = a specified dish (No. 35. 34-5). The chief object of most of these tales is to edify Jainism and impress on the minds of readers the greatness and power of Jaina religion, and thus propagate in the society the religio-moral ideals upheld by Jainism. These are not purely dogmatical and ethical discourses, but after all they are tales; and as such they are strewn with secular topics which also provide instruction and often give an agreeable entertainment. iii) Cultural Heritage and Literary Kinship of this Work In the light of the Vedic and śramaņic ideology, the outlines of which have been already sketched in short, a dispassionate evaluation of the contents of this Kathakośa definitely points to the fact that they stand for Sramanic ideology. The Vedic cult of sacrifice, the priestly religion and rituals, the epic mythology and the doings of Purānic deities and personalities are referred to in this work only to be criticised and condemned. On the other hand, nearly all the traits of Sramaņic ideology, as inherited by Jainism, are admirably upheld throughout this book. The doctrines of rebirth and Karman are illustrated almost by every lengthy tale. The worldly possessions and pleasures have their worth, but it is low and ephemeral as compared with the bliss of Nirvāpa. In these tales are introduced the Tirthakaras and eminent teachers who disillusion the worldlyminded people about their manifold attachment with the result that they grow pessimistic, are inspired by an optimistic disposition towards liberation, enter the ascetic order, and practise a severe monastic course putting up with all sorts of hardships. They have very little attachment even for Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 85 the body which they fully use for spiritual meditation. Physical comforts have no allurement for them, and they gradually grow so indifferent and plunge themselves in self-absorption that no bodily pain, not even physical torture, disturbs their equanimity and peace. The Arādhană tales about the ascetic martyrs, who are inspiring models for other monks, fully confirm this. Individual spiritual perfection is the highest religious ideal in tune with which the entire ethical code, in its two parts, one meant for householders and the other for monks, is laid down, and the moral outlook is evolved. The vigilant law of Karman governs everyone's destiny, and there is no place for any God bestowing favours and meeting out punishments. There are, however, a few stories in which semi-divine or heavenly (to be distin. guished from the liberated beings and supernatural or miraculous powers come to the rescue of religious people at critical moments (Nos. 4, 7, 11, 16, 19, 26, 54, 64, 66, 113, 134, etc.). Exceptional sanctity is bestowed on life, and Ahimsă is the highest moral principle guiding all human affairs. The moral values and social virtues inculcated in these stories are usually those that are found accepted in Jainism. They are so often preached and illustrated with a profuse use of Jaina technical terms that some stories become specifically sectarian, and direct and indirect attack is driven against other religions. In some of the stories the Aștāhnika-pājā is referred to. It is believed that gods etc. go to the Nandiśvara-dvipa and offer worship to the natural deities in the 52 temples standing in four quarters there. Corresponding to this the Jainas celebrate this Parvan thrice a year, in their temples, during the months of Aşādha, Kārtika and Phālguna from the 8th day to the Paurņimā when fasts are observed and Pūjās performed. It is also called Nandiśvara-parvan and Kaumudi-mahotsava, the latter being characterised by certain jubilant festivities on the day of Paurnimā or full moon. During this Parvan, a declaration to the effect that no living being was to be killed was made, and there was celebrated the Ratha-yatrā also possibly in competition with that of the Buddhists and Brahmins (Nos. 12, 33, 56-7, 63, 115, 134, 139). Other religious observances such as Rohiņi. and Pañcami-vrata are described in some tales (Nos. 57, 124, 145). Brahman, Vişņu, Rudra and Buddha are the popular non. Jaina deities mentioned in this text; and some antipathy is shown towards non-Jaina religions devoted to these deities (Nos. 7, 33, 55, 96-7, 99, 122, 156 etc.). A Tāpasa and a Bhāgavata are ridiculed in some stories (Nos. 19, 106 ); and more than once the sacrificial cult, involving harm unto living beings, is condemned (Nos. 11, 76, 93). The very fact that all the stories from this Kośa arise from direct and indirect allusions found in the Bhagavati Arādhană shows that their motifs are pretty old. There is every reason to believe that some of them were found in the canon, said to be lost now, but whose tables of contents have come down to us in the Digambara works. The skeleton of a story from the Drștivāda is given in the Maraṇasamāhi; and some of the details of a story from this Kosa (No. 78 ) have a close resemblance with it. As far Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 BRHAT-KATHAKOŚA as ascetic tales are concerned, the Nos. 126-8, 130, 132, 136-7, 193-44 etc. have their basic references in the Païņņas of the Ardhamāgadhi canon as well. Some of the events and stories connected with Harivamsa in general and Krşņa Vāsudeva in particular (Nos. II, 29, 34, 76, 78, 88, 93, 106, 108, 118 etc.) have their counterparts in the canonical texts like the Antagada. dasão and other earlier texts like the Vasudevahindi of Sanghadāsa' and the Harivamsa of Jinasena'. These Jaina sources contain much that is interesting and independent so far as Krşņa legend is concerned. Dr. Alsdorf has critically studied them, and he remarks thus: 'In all these [ Jaina] versions one has to admit, to a greater or smaller degree, a secondary production from the literary tradition of the Brāhmaṇas. By the expression secondary is meant that in any case the original reception of the Krşņa and Mahabharata sagas has not come from the Harivamsa or the Mahābhārata, at least not from the literary sources. It is indeed long-known that the real ancient Jaina tradition possesses some amount of independence as against the Brahmanic one, and even occasionally, though in rare cases, has preserved an old original trait which is obliterated from the epic-Purāņic tradition as available to us'. The stories of Vişnukumāra, Kadārapinga, Cărudatta etc. (Nos. 11, 82, 90 ) are traced to the Vasudevahiņdi (pp. 120, 296). The details about the life of Cărudatta (No. 90), who is closely associated with the Jaina Harivaṁsa, who with his companions like Marubhūti, Gomukha etc. and his connections with Kalingasenā reminds us of some contexts in the Bșhatkathā, and who has been immortalised by Bhāsa and Sūdraka in their plays, deserve to be studied critically with the help of Jaina and non- Jaina sources. The Pandava-legend, so far as the early Jaina sources like the Nāyādhammakahão, Païnnas etc. are concerned, is closely associated with the Krsna-legend in which Krsna figures as a brave hero. We have in this Kośa a few tales connected with Pandavas (Nos. 58, 83, 96). Once the author narrates the story according to the Mahābhārata, but condemns it as heretical and incredible (No. 83. 45-9). The killing of Paraśurāma' on the field and subsequent destruction of Brāhmaṇas twentyone times by Subhūma (Nos. 59, 122), which are also described in the Vasudeva hindi, Harivamsa etc., only supplement the Parasurama-legend which we get in plenty in the Mahābhārata. There is one story (No. 84) which gives the Kathănaka of the Rāmāyaṇa; and there is another (No. 89) in which Şītā is passing through an ordeal after which she accepts Jaina renunciation under Samyamasena. J. Dahlmann conjectures in his Genesis des Mahā. bhārata that there must have existed an independent heroic saga dealing with the conflict between Krşņa and Jarāsamdha in which the latter was killed 1 Published in the Atmānanda Jaina Granthamälä, vols. 80-1, Bhavanagar 1931. 2 Published in the Māņikachandra D. Jaina Granthamälā, vols. 31-2, Bombay. 3 Harivaṁśapurāņa, Hamburg 1936, Intro. pp. 119-20. # F. Lacôte: Essai sur Guņadhya et la Byhatkatha, Paris 1908, and also its English translation in the Journal of the Mythic Society, Bangalore 1923. 5 I am thankful to Dr. A. M. Ghatge for kindly drawing my attention to this. - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION by Krsna himself and only fragments of which are found in the present Mahabharata where the act of killing is atributed to Bhima. That both Kamsa and Jarasaṁdha are to be killed by Kṛṣṇa Vasudeva is specifically mentioned in one of our stories (No. 106. 198, 217). Some of the characters in Nos. 143, 157 etc. figure also in the 4th and 5th Tarangas of the Katha. saritsagara, and they might go back to the original Bṛhatkatha. The Jaina mythology recognises 12 Cakravartins (No. 41. 1.2) with whom are associated cycles of stories specimens of which, connected with Sagara, Sanatkumāra, Subhuma, Harişeņa and Brahmadatta, are found in this work (Nos. 119; 129; 122, 148; 33; 35, 52, 109). Among these Subhuma kills Parasurama; Sagara is well-known in Puranic mythology; and the legends about Brahmadatta are found in Jaina, Buddhist and Hindu works. 87: Subsequent to the period of our Kathakosa, that is roughly after the first quarter of the 10th century A. D., the Jaina contributions to Indian literature have been both extensive and interesting. Space prohibits me from tracing the influence of these stories on later authors and noting the common points, wherever available, in different works. It may be added, however, that there are a few stories, occupying just individual sections here, that have later on grown into independent themes on which series of authors have composed their works in different languages. Harişena's Kathakośa being a dated work, the form and the contents of these stories would be of great help to those who want to study their motifs at different stages of Indian literature. Some of the striking tales of this type are those of Karkanda (No. 56), Arhaddasa (No. 93) and Yasodhara (No. 73). The story of Arhaddasa is known later as Samyaktva-kaumudi. The above review makes it clear that many of the stories have so often appeared and reappeared, with or without variations, in different strata of Jaina literature in particular and Indian literature in general that it is necessary that individual stories, in view of their specific motifs and details, should be selected for intensive study, and their gradual evolution should be marked out at its various stages, separating the basic kernel from the incidental accretions and detached sub-stories. As a preliminary step towards this study, both in the Introduction here and in the Notes at the end, I have tried to put together useful references from different contexts which can be enriched by further studies. some iv) Interesting Social, Historical etc. Bits of Information In this Kathakośa of Harişeņa there is abundant information which would be interesting to a student of Indian religions in general and of Jainism in particular. Some items I have already noted above. This being a dated work of specified locality, the various bits of information of cultural interest have a definite chronological value, though it cannot be claimed that all of them belong only to the age and place of our author. For a student of Indian Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 BRHAT-KATHĀKOŠA folklore, who occupies himself with the study of customs, rites and beliefs which are current in the society in different places and at different times, there are some points of interest in our stories. The geographical back-ground of our author is primarily the Madhya-deśa, that is central India and the adjoining territory. He mentions some important towns of the South, and bears testimony to repeated communications between the Uttară- and the Dakşiņā-patha (No. 7 etc.). More than once travels to distant countries by sea are mentioned, and once the Yavana script is referred to (No. 22). There is an interesting mention of a rich Pärasika who buys Cumkārikā, feeds her for six months, and takes blood with the help of leeches from her body; and it was used for dyeing Kệmi-rāga-kambala (No. 102*1. 80-2). The idea of using blood in preparing blanket-dye is recorded by Aśādhara also. In explaining gātha No. 567 of the Bhagavati Ārādhanā which runs thus : किमिरागकंबलस्स व सोधी जदुरागवत्थसोधीव । अवि सा हवेज किहइ ण तधिमा सद्धरणसोधी ॥, he remarks : किमिरायकंबलस्स कृमिभुक्ताहारवर्णतन्तुभिरूतः कम्बलः कृमिरागकम्बलस्तस्येति संस्कृतटीकायां व्याख्यानम् । टिप्पनके तु कृमिरागत्यक्तरक्ताहाररजिततन्तुनिष्पादितकम्बलस्येति । प्राकृतटीकायां पुनरिदमुक्तम्-चर्मरङ्गम्लेच्छविषये म्लेच्छा जलौकाभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भण्डकेषु स्थापयन्ति । ततस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवसोत्पन्न विपन्नकृमिकेणोर्णासूत्रं रजयित्वा कम्बलं वयन्ति । सोऽयं कृमिरागकम्बल इत्युच्यते । स चातीवरुधिरवर्णो भवति, तस्य हि वह्निना दग्धस्यापि स HATITI ATVsala 1 Vidyadharas and Cărana monks are introduced in some stories (Nos. 7, 11, 46 etc.). Utterance of certain holy syllables leads to the acquisition of miraculous powers (Nos. 4, 10 etc.). Besides magical collyrium and pills (Nos. 10, 63) and the medicinal effect of Gandhodaka (No. 13), we get references to Ākāśa- and Sighra.gāmini Vidyās, and the Vetaļa Vidyā practised by a Käpälika (Nos. 4, 80, 64, 102). As useful information, we get a list of articles of food (Nos. 10. 75-6), a reference to Lakşapăka oil which is a patent medicine against skin-burning (No. 102. 25), an enumeration of different classes of serpents and their behaviour (Nos. 10, 112), à statement of divisions of time (No. 99. 14), the description of Candrakavedha target (Nos. 43, 57, 116), and the definitions of terms like ibhya etc. and grāma etc. (Nos. 87. 5-7, 94. 14-17). We find in one story that a burglar breaks open the door by throwing sarsapa or mustard seeds against it (No. 10. 15). A poor Brahmin, with a bījapūraka or citron fruit in his hand, goes to a merchant, announces the birth of a son to him, and is amply rewarded in return by the merchant with the ornament on his body and one hundred villages (No. 127. 32-4). We get some forms of public condemnation here and there. A culprit has his head besmeared with ashes or shaved leaving five tufts of hair and tied with pasca-bilva; his property is confiscated; and he is driven through the town on the back of an ass (Nos. 11. 139, 23. 31, 24. 38, 78. 87, 82. 39-40). Presentation of black clothes, of a pair of black oxen and of dark (or iron ) impliments indicates contemptuous treatment (No. 157. 10). A messenger from an offensive party has his head cleanly shaved and his ears and nose chopped off (No. 62. 27-8). A student of fiction finds in this Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 89 Kathākośa various motifs that are grouped under conventional captions such as Biter bit (Nos. 64-5, 72), Wicked ascetics (Nos. 19, 64, 93.78, 102.9), Sibi motif (No. 85. 7f.), Pişțakurkuța (No. 73. 226), Elephant selecting an heir apparent included under Pañcadivyādhivāsa (No. 56. 258), Pregnancy whim (Nos. 56. 156 f., 106. 129 f.), Human sacrifices (No. 73), Proclamation by drum (No. 57. 210), Immediate causes of renunciation like a momentary cloud, a grey hair etc. (57. 452 and 574). These are not necessarily connected with Jaina dogmatics and religion. Then we get in this work some pieces of information referring to historical events. It must be admitted at the outset that our author is not in any way contemporary with the events. What he records is a tradition; it certainly carries a weight of evidence for the past as it occurs in a text of definite date and place; and, so far as the evidence of ancient India is concerned, nearer we push the tradition to the period of the event, more genuine is its authenticity and more credible its authority. King Sreņika, alias Bimbhasāra, who was a contemporary of Mahāvīra and who is known as Bimbisāra in Indian History, is a memorable figure in the Jaina tradition ; and the entire Purāņic lore of the Jainas, in one way or the other, centres round this great Magadhan king to whom we get repeated references in the canonical works of both Buddhists and Tainas. It is just possible that facts and edificatory legends might have got mixed in course of time. There are a few stories in this Kośa which deal with Sreņika and his queen Celanā (Nos. 9, 10, 55, 80, 139-40 etc.). Though it presents some difficulties for a clear under. standing and consequently needs careful collation and comparative study with other sources, both earlier and later, the story of Bhadrabāhu (No. 131 ). is important in various respects: it refers to the migration of Jaina Saṁgha to Punnāța territory in the Deccan and to the division of twofold Kalpa, Jina- and Sthavira-kalpa, and outlines the circumstances under which Ardhaphālaka-samgha, Kambala-tirtha and Yapanīya-samgha were started. Quite casually, in one of the stories (No. 97. 198), the origin of Phallus worship is mentioned; and elsewhere we are informed that Samkhya religion was preached by Marici (No. II. 14). Well known figures like Cāņakya, Vararuci, Kārtikeya are introduced in some of the stories (Nos. 143, 157 and 136). The story No. 26 gives an illustrative anecdote incorporating the historical facts about the composition of the Satkhaņdāgama by Puşpadanta and Bhutabali who are mentioned here as Devabali and Puspabali; and we get these details confirmed from other sources also. The story number 12, verse 132, refers to the founding of five Stüpas at Mathurā of which the Taina 1 The Life and Stories of the Jaina Saviour Párávanātha by M. Bloomfield, Baltimore 1919, pp. 183-207. 2 Epigraphia Carnatioa, II, Intro. pp. 37 etc.; also The Traditional Chronology of the Jainas by S. Shaha, pp. 45 f., Stuttgart 1935. 3 Journal of the University of Bombay, vol. I, part vi, May 1933; Jaina Sahitya aura Itibāsa pp. 51-60. 12 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 BRHAT-KATEAKOSA Stūpas are well known. Somadeva also refers in his Yaśastilakacampū to the Devanirmitastūpa at Mathură in a similar story. It has to be seen whether there was, or there are any relics of, a group of five Stūpas at that place. In this context I am reminded of the facts that the Nirgrantha Sramaņācārya Guhanandin (Samvat 159) is called Pañcastūpa-nikāyika and that Vir asena and Jinasena belonged to Pancastūpānvaya.' Lastly, so far we know, Harișeņa is the first author to describe the caves on the hills adjoining Dhārāśiva (modern Osmanabad) near Tera which according to this text is situated in the Abhira country (No. 56). It is an urgent need that these topics should be critically studied using all other sources; and then alone it would be possible to separate historical events from their legendary settings. V) Its Relation with Other Kathākos'as Among the four Kathakośas, or even five if we treat Vaddărädhane as a partial Kathakosa, whose story-numbers have been tabulated above along with the Arādhanā gāthās, Harişeņa's Treasury contains the biggest number of tales; its text is the longest in extent; it is the earliest in time; generally its comparatively more exhaustive than those in other Sanskrit collections; and lastly the correspondence of its stories with the gathäs of the Bha. A. is more exhaustive and perfect, and thorough in sequence. It is really unfortunate that no Arādhanā Kośa earlier than that of Harişeņa has come to light, so for the present there is no evidence to assess his indebtedness to his predecessors. The four Kathākośas clearly fall into two groups: those of Harişeņa (HK) and Sricandra (SK) show closer kinship and stand together, while those of Prabhācandra (PK) and Nemidatta (NK) show a close mutual relation and form a group by themselves almost independently. Whenever we want to compare these groups or works mutually, we should not lose sight of the basic connection with those direct and indirect allusions in the Bha. Ārādhanā. A close comparison of HK with SK discloses some interesting facts. Reading these two texts side by side, one is struck by the remarkable agreement in the sequence of stories adopted by both. The essential contents of individual stories are nearly identical in both; so far as descriptions, details about Bhavas and sub-stories are concerned, HK is more exhaustive; almost in every case the stories from ŚK look like summaries of the corresponding stories of HK; and when the contents are alike, the verbal. agreement also is striking. Though Sricandra is silent in the matter, the above points lead us to the conclusion that he might have used HK in preparing his Kośa. For this conclusion we have some circumstantial evidence too: Harişeņa flourished earlier than Sricandra; Sricandra admits 1 See Yaśastilakacampü, part ii, p. 315; The Jaina Antiquary, VIII, 2, p. 45; A list of the Inscriptions of Northern India in Brahmi and derivative scripts, Epigraphia Indica XIX-XXIII, p. 283, No. 2037; Jaina Sāhitya aura Itihāsa, p. 497. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION that Kathakośa was composed by many monk-poets before his time; Śrīcandra complains possibly against some predecessor who gave only the stories without giving and explaining the contextual gāthās from the Bha. A., and we find that this complaint suits very well with HK which does not give the găthās. Going into more details, we find that Sricandra omits, sometimes at times with specific remarks, some of the stories found according to corresponding sequence in HK. I have not been able to detect in ŚK the tales corresponding to Nos. 73, 79, 83-4, 99, 102*9, 107, 123, 125, and 149 of HK. With regard to Nos. 73, 83 and 84, Sricandra plainly says that Yasodhara's tale is too well-known to be given and the stories of Bhārata and Rāmāyana are endless. This means that the stories were present in his sources, but he n them. As far as I have inspected the Ms., he quietly passes over the remaining numbers; and it is difficult to gauge the reasons of this omission. There are reasons to believe that besides HK, Sricandra might have used other sources also including perhaps some commentaries on the Bha. A. Looking at the facts that Prabhăcandra, Srīcandra and Nemidatta quote the 2nd găthā of Bha, A. (the first two, along with the first gāthā), that the colophons of some of the opening stories of PK and NK show that there could be some stories connected with Darśanoddyota, and that Sricandra also illustrates twofold Uddyotana, we are led to the presumption that in an earlier source some stories were connected with the 2nd gātha of Bha. Ā. which is not illustrated by Harişeņa in any way. this context Sricandra gives the stories of Bharata and Titaśatru as examples of Laukika and Lokottara Uddyotana, and for these there are no corresponding tales in HK. Secondly, if SK were to be solely based on HK, it is difficult to explain certain phonetic difference seen in some of the proper names: Śrīcandra reads Jasahara, Vissambhara, Doņimaṁta and Kuccavāra (PK Droņimati 90*30, Kucavāra 39), while Harişeņa reads in corresponding contexts Yasoratha, Vişamdhara, Tonimam and Küpakāra (Nos. 5, 54, 95). Lastly, if Sricandra followed only the text of HK, apparently there is no reason why some of the Sanskrit verses, which are given by him as quotations, should widely differ in readings from those still present in the Kośa of Harișeņa. We might compare 54. 17-8, 57. 518-9, and 143. 37-39 with the extracts given by me in the Notes. There are major differences in the readings; as they are being preserved in the body of an Apabhramśa text, that they are quotations is quite apparent; and if Sricandra took them from HK, he would not change them, because he is quoting. So my explanation is that Sricandra has before him some additional sources, perhaps common with those used by Harişeņa; Sricandra quotes them perhaps as they are; Harişeņa, however, retouches those verses because some of them are to form a part of his running Sanskrit text, and they are not necessarily quotations with him in the strict sense of the term. Just in this mannar Amitagati also rewrites in his own words some of the verses which stood as quotations in the Präkrit source used by him in composing his Dharma. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA parīkṣā. I have been able to detect at least one instance where Śricandra's quotation is nearer the original, i. e., Bha. A. 682, than that preserved in HK (No. 57. 531). Thus it is quite possible that Śricandra had before him the Kathakośa of Harişena, but he appears to have used some additional sources, some at least perhaps common with those of HK, in composing his Apabhramsa Kosa. 92 Turning to the next group, we have already studied the relation between PK and NK: the latter, though it omits some stories given by the former, is mainly indebted to PK and to Prabhacandra's commentary on the Ratnakarandaka. There is one significant story in NK, No. 25, that of Mrgasena-dhivara, which is not found in PK but is found in HK. The story is nearly identical in contents, but there is nothing specifically common which would induce us to accept that NK is following HK. Though the sequence of stories is disturbed by indiscriminate use of more than one source in compiling the Kathakośa, it has to be admitted that Prabhăcandra presents sufficient evidence to show that his stories are connected with the Bhaga. A. But this connection has become simply nominal in the case of NK: there are no introductory remarks, as in PK, connecting the stories with the Bha. A.; some of the stories, which are legitimately connected with the Bha. A. and which are duly given by PK (PK Nos. 29, 30, 40, 84 etc.), Nemidatta omits, and we do not know why; and at the close of his work, he adds a few stories which are connected with the Ratnakarandaka and the relation of which with Bha. A. in that context is difficult to be established. So it is not quite necessary to compare NK with HK in all the details. We might simply note that the Nos. 1-4, 7, 8, 10, 28 (compare HK 68), 53, 108-12 and 114 of NK have not got their counterparts in HK; and if we compare closely HK and PK we are doing the necessary justice to the second group too. Even a superficial comparison between HK and PK shows that the former contains numerically 35 stories more; and every one of its story, whenever it is common, is longer and gives more details. HK is composed in verses, but PK is in prose with occasional metrical quotations; and according to rough clerical calculation PK is just one-fifth of HK. As seen from the table given above, many stories from HK are not found in PK; a few stories from HK are given twice by PK; and what is more important, PK gives some stories which have no counterparts in HK. Of the eight stories (PK Nos. 1-4, 7, 8, 10 and 18) which are additional in PK, No. 3, the story of Sanatkumara, which gives nearly the same details as in its No. 66, can be easily equated with No. 129 of HK. Though the contents of some 1 See my paper Harisena's Dharmapariksa in Apa bhramsa, Silver Jubilee Volume, Annals of the BORI, 1942. See Notes on 57. 531. See my paper Śricandra and his Apabh. Kathakośa' contributed to the Radha Kumuda Mookerji Presentation Volume which is awaiting publication. 2 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 98 stories are common with those of HK, it is reasonable to take that Nos. 1-12 in HK form a solid block: the first four illustrate Uddyotana and the next eight are devoted to the limbs of Samyaktva. The topics are connected with gatha Nos. 2, and 44-5 of the Bha. A.; therefore, though Harişeṇa and Prabhācandra may differ among themselves, we have to admit that the stories given by them are not in any way foreign to an Aradhana Kośa. Nos. 1, 2 and 4 give details about some eminent authors, namely, Patrakesarin, Akalanka and Samantabhadra, who are brilliant figures in the annals of Indian literature and some of whose works have come down to us. How far these details are historical, what are the earlier sources to confirm them, and what events can be accepted as historical facts: these are independent questions that must be tackled on their own merits; and that these stories are inauthentic because Hariṣeņa has not included them in his work is not a relevant deduction, because Prabhācandra had before him other sources, his stories are legitimately Aradhana tales, and because he is not mechanically following Harişeņa. We have assigned Prabhacandra to the close of the 11th century A. D.; and it is rather unfortunate that all the sources of PK have not come to light so far. The verse anyatha etc. given in Patrakesarin's story is a pretty old verse often quoted in logical treatises; the verse nahaṁkāra etc. from Akalanka's story is also found in one of the Sravana Belgol inscriptions1 of 1128 A. D.; and the verse purvam Paṭaliputra etc. (quoted along with Kañcyam etc.) is not only found in the above inscription but is given also at the close of Svayambhu-stotra in some Mss. The facts that some of these verses are in the first person and that they stand like quotations even in PK probably indicate that Prabhācandra's details might go back to an earlier source. The story No. 18, which is fully reproduced by me in the Notes on No. 45, is important in various ways: It is connected with gatha No. 589 of the Bha. A. which contains a direct allusion, and has, therefore, a legitimate place in the Kathākosa; it is not found in the Kośa of Hariṣena; and lastly, the story becomes intelligible only on the assumption that it had its original in Prakrit. Prabhācandra is completely silent about his sources and predecessors. Chronologically HK is older than PK by more than a century. A close comparison of the common stories between HK and the first part of PK shows common contents, but the elaboration and sequence of events in the story and expression indicate rather a common source than Prabhācandra's indebtedness to HK. Some of the verses quoted in both the Kośas come from the same common source (HK Nos. 15. 16, 31. 13). Prabhacandra is concerned primarily with the immediate story with its absolutely necessary details, while Harişeņa adds more past and future births in a verbos style and with all possible details (HK 127, PK 64; HK 139, PK77). The stories in the second part of PK, which form a supplementary unit, give, however, a different impression. All the thirtytwo stories correspond almost to a conti 1 Epigraphia Carnatica II, No. 67, verses 23 and 7. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BṚHAT-KATHAKOSA nuous section from HK, roughly Nos. 13 to 56; among the stories repeated in both the parts, the one in the second or supplementary section agrees more closely with that of HK in its narrative sequence and phraseology (HK. No. 45 and PK Nos. 19 and 90*22; etc.); and lastly, at least in a few places (Notes on No. 13) we can lay our finger on identical expressions. These facts lead me to a tentative conclusion that Prabhăcandra might have used HK, in addition to his other sources, at the time of adding these supplementary stories. Thus the common stories between HK and PK go back to an identical source, directly or indirectly; but the stories from the supplementary section of PK do betray, in all probability, the influence of HK. 194 vi) On the Language of the Text We use the designation Classical Sanskrit' for that phase of the language which has been standardised by Panini and his followers in their grammatical treatises, and which is represented by artistic and ornate compositions so successfully attempted by eminent authors like Kalidasa, Bāņa and others. Panini's norm of correct speech is the one sanctioned by Sistas, and consequently the works of Kalidasa, Bāņa etc. can be enjoyed and appreciated by intellectual aristocrats who are already trained in the niceties of language and diction. Panini and his immediate commentators are primarily concerned with maintaining a refined standard of language from which are eschewed all 'vulgarisms' current in the world or in ordinary life of the uninstructed populace; and naturally, therefore, the texts in classical Sanskrit have no special appeal to the uneducated masses as distinguished from the instructed classes and audiences of experts. We need not doubt that Sanskrit was a spoken language, may be in restricted sections of the society and for religious and scholastic purposes. It is difficult to believe that the spoken language was of the type of, much less identical with, what we come across in the works of Bana, Bhavabhuti and others who must have mastered the grammar and crammed the lexicons before they developed such an elaborate style, with its mechanisms like Samdhi, monstrous compounds and artificial minting of meanings, where elegance and brevity were achieved by sacrificing naturalness and clearness. Whenever the social circle of appeal was wider and the subject-matter was more popular and less scholastic, the degree of the standard of refinement was bound to be lowered down; and the popular speech was bound to develop solecisms, both regional and temporal, which would quietly creep into popular works. Side by side with the refined phase of the language, which 1 Wackernagel: Altindische Grammatik, vol. I, pp. IX-LXXIV; Macdonell: A History of Sanskrit Literature, pp. 22-28; Keith: A History of Sanskrit Literature, pp. 1-36; Chatterji: The Origin and Development of the Bengali Language, Introduction; Bloch: L'Indo-Aryen du Veda aux Temps Modernes, Paris 1934, especially the Introductory portion; Chatterji: Indo-Aryan and Hindi, Ahmedabad 1942, Lectures II-IV. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 95 has come down to us in written records, there is evidence to believe that there were popular dialects current according to localities and strata of the society; and some of their elements go back to a period earlier than classical Sanskrit. Mahāvīra and Buddha preferred popular dialects of Magadha for their preachings. The earliest inscriptions like those of Asoka and Khāravela and coins fully bear out the fact that these dialects were the forerunners of Prakrits whose conventional usage in the dramas possibly had at its basis somewhat corresponding conditions in the society at some early period of Indian history. Thus the Sanskrit texts meant for a wider circle were exposed to solecisms which might arise from both ungram. matical Sanskrit and Prakritism, the distinction between which, though subtle, is possible and needed for practical purposes. The element of Prakritism, in its various aspects, becomes predominant and conspicuous when the author is steeped in the study of Prakrit works, these constituting the canonical literature of his religion, when Prakrit was his mother-tongue, or when the works were composed with Prakrit originals. All these tendencies get illustrated in the wide range of Sanskrit literature. The classical authors like Kalidasa are liable to minimal amount of solecism; and some complaints have been already made against them by later critics. When we come to the epics, especially the Mahabharata and and Rāmāyaṇa, there are many forms and expressions which are un-Paninian', often betraying contamination with the speech-habits so usual in Prakrits. As it may be expected in unrefined speech, delicate grammatical distinctions are not specially attended to, stray irregularities are normalised, rightly or wrongly analogical formations are set into vogue: in short, the grammatical restrictions get loosened and the tendency towards simplifying the language is apparent everywhere. Some of them can be defended by a liberal and hypercritical interpretation of the Sutras of some grammatical system or other. Commentators and intelligent copyists have felt offended at their presence; and a careful study of various readings indicates that constant attempts, independently carried on at different places and by different hands, have been made to normalise them.2 Puranas and Sanskrit texts on technical sciences present specimens of loose Sanskrit both in their vocabulary and grammatical forms. The Buddhist and Jaina authors were usually well-read in their religious works in Pāli and Prakrits. The measure of Prakritism in their works often depended upon individual mastery over Sanskrit grammar and expression. Even an elegant stylist like Asvaghosa is not immune from them, and works like the Lalitavistara and Mahāvastu in mixed Sanskrit (Gatha dialect) of Northern Buddhism contain plenty of them. The Jaina authors from the South are comparatively more free from this influence; but those from 1 J. Wackernagel: Altindische Grammatik vol. 1, pp. XLIV etc. 2 V. S. Sukthankar: The Mahabharata, vol. I, Prolegomena, pp. XCIII etc. 3 The Buddhacarita, ed. by E. H. Johnston, Punjab University Oriental Publications, Nos. 31-2, Intro. pp. 67-79 of the 2nd part. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 the North, especially Gujarata and Madhyadeśa, are more exposed to it. Even eminent Sanskrit-grammarians like Hemacandra have not avoided Prakritisms. If the Bower Ms., the Sanskrit digests of the Bṛhatkatha, and the Sanskrit texts like the Dharmaparikṣā of Amitagati, Parisișta-parvan of Hemacandra and Samaraditya-samkṣepa of Pradyumnasuri contain Präkritisms, it is mainly due to the fact that the works are based on Prakrit originals directly or indirectly. Like Siddharşi who wrote his Upamitibhavaprapañcă katha at the beginning of the 10th century A. D., some authors studiously wrote in simple and popular Sanskrit that it might be understood in a wider circle of readers. Further whenever a text belongs to the class of popular epics and draws its material from Prakrit sources, it would certainly exhibit both Sanskritic solecisms as well as Prakritisms. The medieval Sanskrit texts, especially those composed by Jaina authors from Gujarata and round about, have attracted the attention of eminent orientalists from a pretty long time; and their language has been Subjected to critical study by scholars like Weber, Jacobi, Hertel, Bloomfield and others. The orthodox Sanskritist may shun such a study; but a dispassionate linguist wants to have a fair acquaintance with the internal and external vicissitudes to which the Sanskrit language has been subjected throughout its phenomenal career; for him, there is nothing correct or incorrect; every authentic fact of the language has a judicious place in his study; and he would critically ascertain its exact position in the evolution of that language. Or as Jacobi remarks: 'it is considered the duty of a philologist to note such paculiarities in style, language, metrics etc. of the work he edits, as characterize its position in the Literature to which it belongs'. The Kathakośa of Harişeņa is being printed for the first time, and it would be worth the while to study its language from this point of view. Our limitations are plain: the text is not quite critical, all the three Mss. being of the same family; and more Mss. will have to be collated to arrive at a moderately final text. Some verses do present difficulties of interpretation. For the present, authenticity of the text amounts to the agreement of three Mss. It is not the intention of the editor to find fault with the author's language; but with all modesty he is trying to note down the salient linguistic peculiarities of the text, as it has come down to him, in the back-ground of 1 BṚHAT-KATHAKOSA Bloomfield: The Life and Stories of the Jaina Saviour Parsvanatha, Baltimore 1919, on the language of the text pp. 220-39; also Festschrift Jacob Wackernagel Gottingen 1923, Some aspects of Jaina Sanskrit, pp. 220-30. Jacobi: Upamitibhavaprapañca katha, Bibliotheca Indica ed., Preface pp. XX etc. Haragovinda and Becharadasa: Sri-Santinathamahakavya (Sri-Yasovijaya Jaina Granthamälä vol. 20, Benares Veer-Era 2437), Prastavana pp. etc. Hertel: The Pañcatantra-Text of Purṇabhadra, HOS, 12, Pūrṇabhadra's Language pp. 31-36; also his paper, 'On the Literature of the Shvetambaras of Gujarat' Leipzig 1922, especially, pp. 14f. Upadhye: Varangacarita, Bombay 1938, Intro. pp. 42-48. Mul Raj Jain: Citrasenapadmavaticarita, Lahore 1942, Intro. pp. 23-30. 2 See Bloomfield's paper 'Some Aspects of Jaina Sanskrit' and the editorial remarks in the Prastavana of Santinathamahākavya noted above. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 97 classical Sanskrit. Grammatical standard, howsoever safe, has a limited and relative value; it cannot be avoided altogether, but it has to be supplemented with fresh facts from the various ranges of literature which alone present a historical perspective of the whole language. Remembering that Harişeņa's text is dated and the home of its composition quite definite, the linguistic facts assume a special significance. It is hoped that a student of Sanskrit and allied languages will welcome these facts for what they are worth. In addition to the orthographical peculiarities noted above (p. 3), it may be added here that sometimes ? has a consonantal pronunciation (17. I, 157. 73 ); $ and s are confused in words like smaśāna or smaśāna and ucchista or utsista (56. 235, 12. 85); y and j are interchanged; and it is not unlikely, if some of them go back almost to the archetype. Hiatus is often allowed not only at the end of a pāda ( 10. 96, 63. 99, 73. 23, etc.) but at times also within the body of it (11. 400, 85.52a etc.). There are some abnormal Samdhis: adyameva (12. 119), khadgastha for khadgahasta (63. 191 ), seşatonmūlayāmi (143. 29), etc. Some words show alternative spellings : Koņikā, Kauņikā (61. 26 f.); Cāņakya, Cāņākya (143. 3 f.); sramana, sravana ( 74. 36 f.); Somila, Somillā (3. 14 f.); while others have fluctuating bases : kusa, kusikā, kusī (104.13 f.); kşīra, ksīri, kşīri (10.71 f.); padaka, patuka, paddika (121. 13 f.). A few words attract our attention with respect to their genders: kşiti M. (93. 246), dhvani F. (60. II), nigraha N. (7.28), bhūmi M. (4. 33), raksa M. (53. 18), vidhi F. (91.22), sandhi F. (11. 42). We meet with some of the feminine bases like these : jātismari (126. 171, 127. 224, also -smarā 126. 196), dhūrti (99. 60), puraḥsari (57. 55). manohari (optional, 76. 162, 97. 3, 127. 227 f.), vaitālikā (64. 70), srāvaki (12. 120). Then bhavanti ( 106.52) for bhavati shows that the fem. suffix is added to the strong base. There are a few words which indicate some partiality towards vowel-ending: for instance, agasc. for āgas (64. 48), cetasa for cetas (12. 84, 70. 156), bhagava for bhagavat (19. II, 46. 117), rodhasa for rodhas (19.9) and sarma for sarman (105. 102); of course the Sanskrit lexicons allow sarma and vardhakin (55. 182) for sarman and vardhaki. Coming to declensions, we get tari ( 56. 137 ) and sri (57. 262, 127. 208) besides früh in the Nom. sing.; nr-rājan (157. 73) and mahā-rājar (126. 162 ) in the Voc. sing.; and pascimasyāṁ (71. I, 99. 53) for the usual pascimāyāṁ of the Loc. sing. Then asunā (78. 244) is used in sing. perhaps in the sense of atman and anehäḥ (98. 70) in pl. perhaps meaning days, also anehas ( 102. 115) in the sense of time. Among the pronominal forms we get me for mayā in the Inst. sing. (15. 12, 19. 63, 30. 17 and imam for idam neuter Nom. or Acc. sing. (45. 29, 63. 55, also 55. 16). There are some conspicuous numeral formations : caturvinnsat for caturvimsati (105. 331), pancāni for pañca (126. 150), pañcadasāni for pañcadasa (57.460 ), dvādasaih for dvādasabhih (prasasti 12), dvādasama for dvādasa ( 109. 27), and sataikam for ekasatam (concluding colophon). 13 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 BRHAT-KATHAKOŚA Some of the abstract nouns are good examples of contamination, their formation being a compromise between two well-known forms: adars (56. 410, cf. adrsyatā and adarsana), mānusya, a man ( 73. 248, cf. mănuşa and manusya), samipyatā ( 93. 212, cf. sāmīpya and samīpatā), hilana (97. 74, cf. hilanā and helana ). We have some illustrations of double abstraction : vätsalyatā (73.294) and vināšatā (19. 30). Then dhīra for dhairya ( 52. 15), mandaleno for mandalatvena (73. 44) sālasa for sālasya (127. 214, 153. 5) and sthira for sthiratva (6.52 ) are found used in this text. The k-suffix plays a remarkable rôle in the language of this text. It is added to nouns etc. without any notable change in the meaning; it is simply pleonastic or svārthe k, as the Prākrit grammarians call it : kanyakā (65. 20), ghūkaka (32, 22), caturthaka (129. 2), dhātrikā (60. 168 ), binduka (102*6.6), bhūmikā (II. 133), mandaka (7.68), Mālavaka (28. I), vipraka (139. 103 ), salākikā ( 50. 15); also note ahinakam ( 74. 33), ünaka (139. 39), ekakam ( 74. 32 ) kşanamātrakam (63. 87), vārakam for vāram (71.29). Still more conspicuous is its presence in a series of pronominal forms scattered all over the text; a few typical ones may be noted here for illustration; and they are arranged in this order of the pronouns: asmad, yuşmad, tad, etad, idam, adas and yad. Nom. sing.: sakaḥ (4. 32, 10. 16, 59. 37), takaḥ ( 122. 16); sakā (4. 18, 7.64, 8. 13, 12. 2); eşakah (126. 80); yakaḥ (56. 220). — dual : takau (57. 56, 332, 126. 4) – pl.; take (11. 67, 78. 39, 100. 17); takāh (3. 17, 57. 524); imakāḥ (136. 2); yake (16. 32, 33. 140); yakāḥ (68. 46). Acc. sing.: makām (102. 74, 106. 60); takam (4. 17, 32, 6. 9, 7. 45, 30. 23 etc.); takām (60. 75, 68. 65; svakām (4. 6 . - pl.: takān (10. 21, 33. 140 ), imakān (76. 19). Inst. sing.: takayā (21.21) - pl.: imakaih (57. 149). Whitney?, Edgerton and others have discussed the different aspects of this k-suffix; and Edgerton has already noted how asakau is allowed by some grammarians and forms like anyake, yake, sakā, takā are found in pre-classical Sanskrit. I may add here a few more references casually noted by me. The Bhag. Ā. uses tago [= takaḥ] for saḥ and tagi [= taki ] for sā (găthā Nos. 508, 1058); Jinasena's Adipurāņa uses yakā for yā (23. 28); and Jagannātha Paņdita uses mayakā for mayā in his Citramimāṁsā khandana (p. 1). The suffix l also is found in some words: andhala (3. 3), pangula (85. 43 f.), Yājñavalkala (93. 233), etc. The possessive suffix vat and mat are at times confused in forms like Laksmīmati (11. 62, 33. 8), and the readings also are uncertain. From the following forms it would be apparent that these roots do not stick to the strict classical convention with regard to Padas, Parasmai. pada and Atmanepada : uttişthate (64. 16), jalpate (57. 550), tişthate 1 A Sanskrit Grammar, London 1896, sections 494, 1186, 1222, etc.; 2 Edgerton's discussion is confined to pre-classical Sanskrit; see The k-suffixes of Indo-Iranian, Journal of the American 0. S., vol. XXXI, p. 93 f. 3 In a Ms. of the Aştāhnikakathā (No. 469 of 1884-86, Bhandarkar 0. R. Institute) the form mayakā for mayā is used thrice in the Prasasti. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION (127. 172), bhave (12. 60); abhimantrayan (81. 51), āprcchat (93. 300), palāyanti ( 59. 86), prarthaya and prārthayantyā (12. 51, 127. 4), bhīşayan ( 45. 3), marūmi (33. 90, 54. 29), mrgayan (93. 30), vismayan (127. 221), asiksat (116. 38). It is interesting to note that some of them are either rare or agree with epic usages. We come across a few unsanctioned verbal forms: nirūpa for nirūpaya (57. 469), prapāya for prapāyaya (62. 14); ānayisyati for ānesyati (57. 301), ghātisyati for ghātayisyati ( 106. 221); niurttayāmāsa for nivartayāmāsa, also nivyttamāna ( 33. 27; 33. 28, 81. 49). There are some forms of the Causal with the augment -āpaya-: kārūpayāmi etc. (25. 7, 46. 40, 54. 29, 46. 33, 56.409, 71. 24, 32 ); note also sisyāpita (35.7), śikṣāpana (98. 106, 102. 65), kşamāpana ( 102*10. 28). The form upopapa. duate (17. 144) shows double preposition; nirmilita really stands for nimilita (93. 218); and uttīrna ( 56. 313), samuttīrya (56.330), uttīrya (105. 157), uttatāra ( 97.53) etc. go back to the root ava.tr and not ut-tr. In having the feminine base from the present participles, scrupulous distinction is not made between the usual weak and strong grades; so we get such forms: kurvanti (60. 48, also 94, 24, 97. 46, etc.), tişthati ( 106. 26), nindati (14. 28), rudanti ( 33. 19, 46. 140 ). The form vaksyanvāna (85. 52) shows a future base in the absence of a present one. The past passive participle form musta ( 126. 162 ) is rare. Among the unusual gerund forms, the following may be noted : nirudhva (80. 33), bhunktvā, besides bhuktvā (57.496, 558), visariya (76.76), vyāpayitvā ( 12. 128), snäpya ( 56. 260-3) and sthāpya (93. 286). . Turning to the compounds, the lengthening of the final vowel of the first member seen in cakravarti-sukham, cakri-kathānakam (129.3 and colophon) and the retention of r of the first member seen in mātr-pitr nimittataḥ, -samāyuktaiḥ (11. 133, 12. 63) are not quite regular. The collective neuter sing. is not observed in some of the Samāhāra-dvandva compounds : nāsākarnau (84. 24), mukha-bāhūru-pādebhyaḥ (99. 9), hastyasvaratha-pădātaiḥ (156. 20). In some of the compounds of the Karmadhāraya and Bahuvrihi types, the expected sequence of words is not maintained : nagottunge (56. 8); apita-soma-pürvo'pi (76. 112), kara-lumbhaṁ gajam (56.258, 98. 43), jaya-nanda-krta-svānā (85. 32), varaträropita-skandham (80.25), sva-nivedita-vrttāntā (97. 70). We get nirdoşi (31. 34) besides the usual nirdosah (32, 26). The following three illustrations show a strange type of compound : rajani-pascime yāme (139. 135), sarvari-pascime yāme ( 28. 43), haridrā-paścime yāme ( 26.4). It may be noted as a rare usage that bahiḥ and samam are compounded with their nouns: Ujjayani-bahiḥ (150. 36, 45), ghūka-samam (32. 14), Nāgavarmā-samam (50. II). The compound expressions yathā-sambhavataḥ (60. 159) and yathepsayā (60. 124) are not unusual in the epics. We get in this text tūşņābhāva for tūşnim-bhāva ( 55. 136, 154, 291, 127. 68). Coming to the Syntax, in some sentences Acc. is used for Nom.: bhagavan kān gunān tasyāḥ śrāvikāyā nivedaya ( 7. 18); ācāryāḥ prthivyādyasudhāriņaḥ sajīvān iti bruvanti (7.97 ); kimkytań te’tra copasargam vadāsu me (8. 25, see also 127. 172). Elsewhere too Acc. is irregularly used (2.5, 4.63); Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ too BRĦAT-KATHÁKOŠA and the roots ās and sthā govern Acc. (8. 6, 64. 29, 82. 25). We get some illustrations of Instrumental of purpose: pravisto nrpasevayā (63. III), nrpar gacchati sevayā (66.73, also 76), caurikayā gataḥ (59.21). Possibly Dative is used for Gen.: sva-gurubhyām puro 'kşipat ( 76. 43), ārāt governs Gen. instead of Abl. (16.45); and the roots smr and pra-hi govern Gen. (54. 54, 56. 173, 55. 97). Gen. is used for Dat.: pariprāpteḥ (55. 288) and for Abl.: prānānām api vallabhā (60. 57), upādhyāyasya pathati (27. 17). The Imparative and p. sing. form dehi is used in the sense of the Present (70. 62, 105. 18, 138). Many a form from the primitive base are used with a causal meaning: copasasāra ( 57. 210), uccaran (II. 132, 126. 161), dadarśa (7.80), pradadarśa ( 108. 45, but correctly at 60 below), prakāśase ( 46. 153 ), prajajväla (139. 105), pratisthitaḥ (57. 272), prāpya (124. 12), boddhavya ( 27. 6), mamāra (45. 17, 52. 21, 102*2. 13, 109. 34, 117. 21, 127. 272, 139. 38, 148. 5), sasnau and sasnuḥ (85.40, 134. 23, 98. 48, but correctly at 45 above); then some forms of the causal base are used with the primitive sense: khādayanti (126. 46), nindayitvā (59. 31 ), pīşayitvā (peşayitvā] (93. 16), pravartayāmāsa (28.8), yācayamānā (119.6), yācayitva (115. 10, 127. 76), yācayisye (93. 267 ); and for some of these we get epic parallels. We get many illustrations of what may be called Instrumental Absolute ( 56. 169, 73. 206, 74. 8, 96. 66, 108. 3, 139. 86, 150.8). The Gen. Absolute is used without any indication of disrespect' (56. 272, 118. 50). Very often Perfect participles are used as finite verb: iyivān (73. 9, 66), tasthivān (2. 14, 4. 29, 46. 58, 50. IO, 139. 50; also tasthuși 54. 63), suéruvān (51.3). Sometimes the forms of the Potential serve the purpose of the Past : kuryuh (9. 27, 41 ), prcchet ( 127. 188), bhavet, bhavetāṁ ( 105.128, 56. 49). Syāt, syātāṁ (97. 17, 56. 9, 73. 28, 93. 22); and note also the Benedictive for the Past : stheyāt (56. 225). Some forms of the Passive are used for the Active : hriye for hare (53. 8), hanyamānau for ghnantau (76.52). We get some illustrations of bhinna-kartrkatva (8. 40, 19. 21, 70, 66-7). The comparative tarām is separated from the finite verb ( 12.40 ). The gerund samārūhya is used intransitively (115.4); the root ram is transitive ( 40. 3); and saṁ chid has a cognate object (81. 37). It will be seen in the following cases that the verb agrees with the noun-predicate and not with the subject : cursumāro mrtir prāpya jātājā (73.75); devo Manoramah Yasodharābhidhā kanyā jātā (78. 158); Rukmini stritvam ādāya jāto divi suro mahān (108. 125). The Locative Absolute is coupled with yāvat and tõvat (1.5); both of them are used in the sense of yadi and tarhi (114. 31); yāvat denotes space and governs Acc. (55. 221). Often vā is used in the sense of iva ( 40. 13, 56. 198, 93. 98). At 85. 56 yadi is perhaps used in the sense of yad, that. The appositional numeral is of feminine gender, catasrah, and not of mas. or neuter as expected in view of the subject being constituted of members of different sex (106. 268 ). Here and there some expressions are open to the flaw of tautology: atavi-vandi, udyāna-vana (49. 3, 57. 502, 60. 59, 105. 49); anya-janma-bhavan Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION taram (II. 32); alpa and manak (73. 42); kasmat and kim (46. 103); vidhaya and kṛtva (105. 49); vithī-mārgam (76. 14); sobhanam and yujyate (106. 128); sarva and sakala (68. 63). At times even proper names are easily translated: Śakracāpa and Indradhanuş (33. 87 and 99). The author is in the regular habit of dividing the members of a compound expression, more usually proper names, by inserting words like ādi, anta, purva etc.; only a few select illustrations may be noted here: anu-nagaram Giri-pūrvakam (127. 206), kāṇḍādikam patam (8. 19), candrantam S'rutasāgaram (11. 64), Jina-Vasvaādikau dattau (49.4), paryadi-vrājikā (76. 181), pūrvottara-padāyukta-Mathurā (13. 125), malanta Kanakādikā (5.4), Rajopapadam grham (9. 1), Rāja-pūrva-gṛham (9.2), saranam samavādikam (10.46), etc. 101 The lexical material presented by this text is of great interest for the student of Sanskrit vocabulary. These stories, as we have seen above, arise out of a Jaina religious text; naturally they contain so many Jaina technical terms that are freely used. It is true that they are not usually recorded in ordinary Sanskrit Dictionaries with their specific shades of meaning. A specialist, however, can very easily ascertain their meanings by using various Jaina texts and their commentaries. In view of the linguistic purpose of the present study, Jaina technical terms are not included in the following list. Besides these terms, we come across a large number of words which can be classified' according to some predominant tendencies represented by them. First, there are many new words and formations, and also such words as are recorded in indigenous lexicons but are of rare usage in classical literature; a few are found in the Vedic language and are used here perhaps through the source of Kosas; some of them show notable variation either in their form or meaning, and as such they deserve to be taken into account. Secondly, there are Back-formations. Phonetically and apparently they look like Sanskrit words, but really speaking they are skilfully Sanskritised, rightly or wrongly, from well known Prakrit words used in Prakrit literature and recorded in Prakrit Dictionaries either as Prakrit or Desi. Thirdly, there are Hyper-Sanskritisms. These are also back-formations in a way, but they are given a super-Sanskritic appearance and they exist by the side of other ordinarily Sanskrit words of accepted usage. Fourthly, there are Prakritisms which are straight way borrowed from Prakrit with some or without any minor changes like the addition of ka-suffix. Lastly, there are the Vernacularisms, in view of their form or meaning. They easily remind us of some words in modern Indian languages, Aryan or Dravidian, for which Prakrit or Desi words may be or may not be detected. This fivefold classification cannot be rigorous, but it holds good for all practical purposes. In recording the following facts, I have constantly used A Sanskrit-English Dictionary by Monier-Williams 1 In view of the requirements of this text, my classification slightly differs from that proposed by Bloomfield in his paper 'Some Aspects of Jaina Sanskrit'. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 BRHAT-KATHAKOŠA (New ed., Oxford 1899) and the Paia-sadda-mahaṇṇavo by Sheth (First ed., Calcutta 1928). The following abbreviations are used below: D. = Deśī, noted from the Prakrit Dictionary; g.= gloss, i. e., the marginal gloss re, corded in the foot-notes of the printed text; Pk. Prakrit ; and Sk. = Sanskrit. Taraksi, eye, 3. 33. er, a cowrie, used as a coin, 76. 23. samakṣam, in the presence of, 34. 3, 53. 7, 71. 37. , a tree, 46. 34, 75. 2, 76. 166, 78. 110, 93. 29, 108. 66, 122. 3, 149. 3. aradt, g. garbhavati, pregnant, 86.6. , blind, 23. 17. , food, 8. 9, 65. 53. , g. sarira, the body, 55. 287, 65. 36, 73. 121. araf, an image, idol, 56. 10, 374-5, 57. 327. , v.1. aryikā at times, Pk. ajjiya, a respectable lady, a nun, 46. 185, 55. 227, 64. 86, 67. 7, 70. 155, 105. 101; a grand-mother, 73. 98. ena, usually aryikā 127. 283, see arjikā, 46. 188, 56. 320, 110. 5, 128. 28. age, besmeared, 129. 13. , a religious vow, 59. 20. aafu, g. marana, termination of life, death, 59. 28. , stipulation, anaya'vasthaya on this condition, 27. 35, 38. ta, g. dyutakaropaveśana-sthānam, cf. Sk. amsa, stake in betting, gambling hall or corner, 36. 4, 5. , g. samsara, transmigratory circuit, 57. 218, 76. 212, 92. 12. 93. 124, III. 15; see Tiloyapanņatti II. 1. ,g. hastyāroha, D. ahoraṇa, an elephant-driver, 33. 65. , Pk. āvāga, potter's kiln, 98. 117-8. ift, usually ārați, D. ārāḍī, crying, noise, 21. 8; see ratita 19. 35. afia, see arjikā, 56. 308, 78. 116. , a place where animals are killed, 73. 64. , g. udyapana, Pk. ujjavana, ujjāvana, festive conclusion of a religious or ritualistic vow or observance, 57. 548, 552. , a severe type of leprosy, 57. 211, also udumbara-kuştha at 57. 308. उषाजल, Pk. osa-jala, Sk. avasya-jala, dew-water, 157. 95 and 99. , a shepherd, 74. 9-10, cf. Pk. ūraṇa, a sheep. , Pk. ūraṇa, D. urani, a he-goat 73. 81-2. g, one who grasps at a single recitation, 157. 19. at, a stone-digger, 104. 26; cf. Kannada oḍḍa, one who works in the quarry. , g. vana, a forest, 58. 13, 72. 46; see also kaccha, pasture, 56. 81. , poor and destitute, 146. 8; cf. kamgala in some of our languages. an, Sk. kaccara, D. kaccara dung, refuse, dirt, 73. 108, 111. , a forest, a pasture for grazing cows, 56. 81; cf. kakṣa. afa, g. mālākāra, a florist, 56. 139. fea, some armour or weapon associated with the belt, 56. 298; cf. Sk. katitra, Pk. kaḍilla. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOTION 103 **TE, a lotus, 6. 3, 47.6. i, a cowrie used as a die in gambling, 39. 3; also kapardaka, 40. 12. *-915#, a sword, scimetar, 98.71-2; -vālikā, 123. 7; -vālī, 66. 92, 156. 40; -vālam, II. 47. Tutus, a barbed arrow, 32. 24; cf. Sk. karni, Pk. kanniya-sara. Atri, a variety of cowrie used in gambling, 39. 3, 40. 4f.; cf. D. kattā. qaz, a settlement surrounded by mountains, 33. 151, 94. 15-7. potot, agriculture, attracting the people (?), 57. 433. Pera:, a goldsmith, jewelsmith, 105. 265 f. also, wicked, 47. 179. HET9, read elsewhere as kalya-, wife of a liquor-seller, 106. 145; also kallālikā 106. 174. er, a liquor-vendor, 31. 25, also 33; cf. Sk. kalya. or kalpa-pāla. FETT, wife of a liquor-seller, 106. 174; see kallāla. €1077, Sk. kathānaka, Pk. kahānaga, a talk, anecdote, 93. 56. *, Sk. kārsya, bell-metal, 106. 142, 144. 147. BAT, Sk. kāṁsyā-la, kāṁsya-tāla, a bell-metal musical instrument, 12. 139. Freit, a cry of sorrow or distress, 57. 103; cf. Sk. kāku. fat, sour gruel, 106. 177, 157. 41. 47059, a curtain, screen, 8. 19, 88. 59. #ret, gold, 102. 90, 104. 38. #1972., a rogue-beggar, 65. 23; cf. also Sk, kāpatika. PGST, a kind of bird whose presence wards off famine and brings about general welfare. 82. 14 f. TT:, a parrot, 96. 27, 134. 47. more, blood, 85. 63, 102. 82. Fe, g. ghata, a pot, 65. 55, 76. 43; cf. D. kuda, Kannada koda. gafta, g. kanyā, a daughter, 30. 8.9. gaf 19, hump-backed, 59.85; also cf. Pk. khujjiya. palata, a crab, 105. 65; cf. Pk. kuruvilla, also -cilla. roz, also kurkkuta or -sarpa, besides kukkuta, a cock, 73. 19 f. ; 73. 175, 78. 140 f.; 73. 226 f. T, kusaka, kusī or kusikā, a metal piece, 104. 12, 19, 14. 36 f.; cf. Pk. kusi. sale oft, D. ibid., road, 93. 68. 9441*, besides krkavāku, a cock, 73. 117, 178. 191. Bet, g. sevā, service, II. 92. HTE, also koța, a fort, 11. 68, 23. 6. afgal, a granary, 73. 136. *#*, a camel, 57. 432. 1901, a nude Sramana or a Jaina monk, 74. 39. HUT, offering apology, 60. 123. TITUT, offering apology, 6o. 131, 61. 56; cf. Pk. khamāvanā. #l, a nun of the Kşullaka rank, 108. 27-8; cf. Sk. kşudra-ka. # 1, to embrace, 55. 163, etc. efetor, g. saạitā, wasted away, dried up, 81. 84. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 BĶHAT-KATHAKOSA *w*, name of a particular food, 7. 75; Pk. khajjaga. aft, chalk, 57. 452. egi, Pk. khaddă, Sk. gartā, a hollow, ditch, 45. 19; see khadda. agi, D. ibid., Sk. gartā, a hollow, ditch, 45. 18; see khatvā and garta in verses 19 and 25. ECENZ (qualifying dālih ), bald, husked, 24. 37. are, D, khallī, bald head, 76. 233. alfatti, a ditch or moat, 81. 42, 46. art, a measure of grain, 7. 76. qoz, a broken trunk of a tree 'or plant, a peg, 3. 26. ez, one who moves in the air, a Vidyadhara, 7. 22, etc. Torst, D. ganettiyā, a rosary, 96. 44, 70, 99. 33; cf. Sk. ganayitrikā. 7034-17f0571, a piece of sugar-cane, 93. 55; cf. Pk. ganda and gandiyā. feelfact, 55. 162; cf. Pk. gaddiā, a cart, gaddariyā, a goat; see Notes at the end. TATTA, going and coming, 55. 217, usually gatāgata. TES, Pk. gahilla, one possessed by a demon, 17. 10, 55. 44 f.; grhillā at 17. 7; cf. Sk. grahila. Tala, g. mleñcha, bhilla, a man of an outcast race, 33. 34, 37. Akci(?), 102*9. $. forrea, swallowed, 28. 29; cf. Sk. girita also. yfogat, a scroll (?), 9. 28. A, to speak, 10. 105, etc. murde, also gaunatvaka, v. 1. gonatvaka, D. goņattaya, a bag, sack; see also gonikā. ontfort, a bag, sack, 11. 77, 79, see gonataka ; cf. Sk. goņi. at foret, D. goņi, a cow, 57. 214. . unçus, Pk. goanţa, the print of a cow's hoof, 69. 29, here perhaps the mark of the wooden rod tied to cow's neck; cf. Sk. gokantaka. ATHER:, D. gāmaüļa, gāmaūļa, the village headman, 71.3, 79. 7, 86. 7, 135. 7, 12; in a corresponding context the Kannada Vaddărădhane uses gāvuïda, present-day Kannada gauda, gaümda. ATE, also ăgraha, obstinacy, 1o. 71, 73. aftal, Pk. ghāriyā, a kind of food-preparation, 7. 75; cf. Sk. ghārtika, pulse ground and fried with clarified butter. qa-T, -pūraka or pūrika, a sweet-meat, 7. 75, 24, 27, 56. 228. JE, D. ibid., a pupil, 114. 25-6. alget, Pk. caüttha, one day's fast, when in all four meals are cancelled, 57. 224. 4953, a kind of target (described in the text ), 43. 6, 57. 376, 58. 25. 7, a tiger, 92.8; perhaps identical with camara, a wild ox or yak, 93. 182; cf. also Sk. camūru. T&#IT, D. candāra, a store-house 157. 42; *canļāgāra may be postulated, cf. krodhāgāra Rāmāyaṇa II. IO. 8, 21; kopagrha, anger-chamber, swearing-room, Pārsvanātha-caritra of Bhāvadeva, 7. 42. 21075=caturanga, Pk. cāüranga, 24. 5, 57. 414, etc. TU. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 105 105 farfoz, Pk. cimidha, flat (nose etc.), 106. 247. facelifter, the hem of garment. 83. 28. felax, P. cilda, Sk. kirāta, one belonging to the Kirāta tribe, 58. 26. , 129. 43. el, a fire-place, 102. II. , a thief, 33. 93. het, a cradle-like mechanism of thick garment, 131. 30; cf. Pk: collaya and jholliyā. g, a specific dish, 35. 34-5. f, v. l. chajjikā, chajjakä, vajjikā, D. chajjiya, a basket, 15.6, 10, 13-4; in the corresponding context Prabhācandra reads chatrikā. fakt, adj., pierced, 11. 123. gar, Pk. ohurigā, Sk. kşurikā, a knife, 4. 24. 4*, a he-goat, chelikā, a she-goat, 71. 15, 76. 45 f., 93. 148, 73. 78-81; cf. Sk. chagala, D. chela. ora, a buffalo or mahisa, 73. 83, 85, 92, 104; 93. 140.1, 121. 21. oft, or jarin, g. vyddha-puruṣaḥ, an old man, 116. 9. 19T, a blood-sucking leech, 102. 87. STP, muttering prayers, 19. 5. 1, a chameleon (?), 73. 41-43. oftant, maintenance, livelihood, 102*3. 4. 9, also yoșa, silence, 76. 29, 60, 82, 102. 95. , also takkaka, a niggard, perhaps a professional name like thakka, 63. 91 f. zet, also takkāra, beating, 14. 26, 32. ag, also dhollaka, an instrument for beating, 14. 32. GFH, deceit, 76. 26. Refusti, also dinduka, a water-snake, 102*8.7, 18; cf. Pk. dunduha, Sk. dindibha, dunduka and dundubha. 97*:, also domba, a man of low caste, 19. 17, 27. 16, 48. 19, see tollaka. aftya, beginning of night, 47. 10. aus, a boat, 145.45. warf, D. talavara, talāra, Sk. talavara, a city-guard, 56. 264, 63. 147, 81. 57; see talāra. der, D. talāra, a city-guard, 35. 20, 22, 46. 127, 57. 174, 59. 11, 63. 23, etc.; see talavarga. 21795, a cock, 73. 120. a122 , a star, 57. 381. g++, the tumba gourd, 93. 100. ag , 126. 227. ata, g. putra, a son, child, 50.7, 55. 107, 63. 152, 138. 41; also stoka, 76. 85, 145. 19. atuite, Pk. ibid., a quiver, 56. 297; cf. Sk. tūnira. gras, D. ibid., a village-headman; but here perhaps a palace, 98. 46, 101. , 61. 52. 14 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 BRHAT-KATHAKOSA TIRE, poverty, 63. 91. TATT:, a gold coin denarius, 143. 42. geef, g. visa, serpent's poison, 27. 33.. Tafa, dear to the gods, a term of address, 73. 133; cf. Pk. devānuppiya; devānām api vallabhal, perhaps in the sense of a fool, 25. 24. dat, a husband, a husband's brother 150. 159. apta, a traveller, 33. 48, 40. 5, 72. 44, 85.44. stast, Pl. dotiadi, a dangerous river, 19. 32 gled, pregnancy longing, 56. 553, also dauhrda, 106. 104; more correctly .. daurhrda; cf. Pk. dohala, Sk, dohada. F#, a drachma, 104. 26; cf. Sk. dramma... 940, (*dviphana], a double-hooded (serpent?), 73. 48. 13*, driving out, 11. 100. atra, nir-dhāțita etc., cf. the Pk. root dhāda, to drive out, 55. 111, 56. 212, 11. 56, 25. 26, etc. art, = dhārā ), succession, series, 155. 12. offa, so dhira = dhairya, Pk. dhira, 52. 15. aft, D. ibid., fog, dusk, darkness, 96. 65-6; cf. Sk. dhūmra. Tar, g. mudrikā, also nakha, a seal-ring, 63. 32, 41. ATUA, a Mātanga, 72. 45. atfitoft, Pk. nāini, a female cobra, 27. 11, 55. 266, 56. 107; cf. Sk. nagi. alg, v.l. nāhara, an outcast tribe, 54. 32, 56. 354. 46, a leather bag, 73. 147. free, a mass or quantity of water 102. 130. qan, hair growing on the five parts of the body, 96. 44, 99. 34. qaraga, five kinds of Bilva used for disgracing a culprit, II. 139, 23. 31, 24. 38, 82. 40. qar, Pk. ibid., Sk. pañcodumbara. qfgi, v.1. paďaka, panduka, patuka, D. paddaya, paddiā, a calf, 121. 13, 15, 17, 19 f. 4791, g. trşā, Pk. pampā, thirst, 5. 8, 35. 11, 55. 31, 69. 29, 85. 8, etc.; cf. Bhaga, Arādhana, 1145, 1166, the commentaries render it by ūśī. TE=pata, 55. 197, 108. 48. ofg, palli, pallika, a settlement of wild tribes, a village, 55. 9, 33. 25, 58. 8, II. 72, pas avi, D. pasaya, a kind of animal, 73.41. . TETT, Pk. paṁgurana, covering, 127. 216. TIT:, an outcast, a Cāņdāla or Domba, 19. 28.9, 27. 17, 74. 47. qrugtta, also -panduri, a variety of serpents, 66. 60, 62. TEETH, also pādopagamana, a kind of fasting and death, 126. 236, 128. 16; cf. Sk. prāyopagamana, pūdapopagamana. Treafta, the Persian, 102. 80 f. qresu, adjoining, lying near, 73. III. fasta, a casket, 55. 284; cf. Sk. pitaka and pithara. foruer, a buffalo-herdsman, 121. 48. f9046 = pippala, 63. 220 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 107 guzfia, a tiger, 92. 3, 102*3. 7, 157. 80. gros = pulinda, 76. 95, 97.< . 96*3 = puskara, 54. 56, but puşkara at 54. 35. 7*1=phūtkāra, 64. 68, 99. 63. 799f291, a thin wheat-bread, 7. 75. W, a food-preparation, 7. 75, 56. 228. #i, also puraka, an article of food, 7. 75, 56. 228. 79*:, D. pūsa, a parrot, 33. 34, 39, 134. 46. uz, petaka, a multitude, a party (of dancers ), 73. 52, 55, 98. 9. 999, g. vivāha, marriage, 65. 18, 22. maht, g. pratimă, also pratiyatană, yātana, an image, idol, 20. 19, 78. 253, 56. 16, 51, 57. 329 f. gfe, a well, 93. 92 glatt, a guest, 12. 8, 28. 33, 32. 13. Fear, a shoe, 55.66, 68. 41, 45; cf. Pk. pānahā, Sk. upūnah. TISTA = prisuka, Pk. phisuga, free from living beings, 7. 95. Tagshenk:hand, a net, 9. 15. 57, also pharaka, pharaki, a shield, 93. 16, 18, 56. 298, 123. 9; cf. D. phara, pharaa. area, a brother, 117. 12. gat, D. bordi, body, 57. 584. alfart, D. bohittha, a boat, 53. 4, 82. 25, 93. 72 f., 105. 38; see bohittha. atleta, a boat, 78. 42 f.; see bodhistha. 721, to bite, 65. 74, 86. 019 = bhagavat, 19. 11, 19, 46. 117, 55. 234. *, also bhāndaka, a pot, 63. 191, 193, 98. 20. =bhanda-sala, a store-house, 77. 99; cf. bhandagāra, 105. 300. 27137, war, 56. 307, 309. ura, a term of respect used in addressing a monk, 59. 13; cf. Pk. bhamte, Sk. bhadram te. het, a spear, a kind of arrow, 116. 19. a, a leather bag, 73. 149; also bhastriī, bhastrikä, 93. 159-60. f*:, a devotee, 9. 25. HTTEIT, Pk. bhandūra, a store house, a treasure house, 63. 30; cf. bhändărc-sälă, 102*9. 6. ft-, g. bhiru, timid, afraid of, 57 218. FZ = mukuța, crown, 105. 266. Afår, Pk. madhi, monastery, 52. II. #174, an article of food, 7. 75, 140. 18. HET, a dog, 34. 19, 55. 297, 57. 168, 58. 13 f., 73. 44, etc. het, a fish, 96. 40-1. Afaa = amarsika, indignant, 123. 5. afai, g. mwigadilih, mudya beans, 24. 16, 37. #TAT, a chief officer, minister, 56. 265, 82. 35. guft, an elderly woman, 73. 53. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 BŘHAT-KATHÁKOŠA HEAT, f. a festivity, 63. 9. ATE* = mandūka, a frog, 147. 6, also mandūka at 8 below. ATAR 91, a fish, 106.78. Hifcea, a fisherman, a fish, 106. 37, 71 f. ATA, maternal uncle, 105. 167, 169. #TEA, a Brāhmaṇa, 11. 127, 55. 112, 56. 241, 60.37 (v.l. brāhmana); cf. Pk. mähana, and māhānaka at 134. 14. fen, also mendhraka, mendhaka, v. l. medhaka, a ram, 74. 9-10, 126. 106, 110, 127. 136; cf. Sk. medhra, Pk. miṁdhaya. IT, also musala, a pestle, 117. 20-I. Ayfare, v. 1. maithunaka, brother-in-law, 12. 38, 47. 8, 97. 25; cf. Pk. mehunaya, mehuniya. qa, speed, 56. 383; cf. Sk. java. Araat, g. pratimă, an image, idol, 56. 14. yu, a multitude, a party (of men), 110. 21. 479, see josa. 749787, red-eyed, a serpent, 92. Io. &, Pk. yes, Sk. 7, that which is to be protected, 56. 411. Tirt, a group, multitude, 12. 67, 13. 6. TTERE, also rāştroda, chief of a dominion, district, country, 126. 95, 97, 124; cf. grāmakūta also. 14*, a kind of dance, 57. 103. #*, Pk. riccha, Sk. rksa, a bear, 157. 72 f. TIEF or ärohaka, g. hastipaka, an elephant-driver, 57. 424. $t, a club, 62. 32, 36, 63. 218; cf. Pk. laida. ag, also lankhika, v.l. lankhaka, a pole dancer, 126. 42, 80. 18, 23; cf. Pk. lamkha, laṁkhaga. 255*:, Pk. ladduga. a kind of sweet-meat, 21. 15, 35. 15, 72. 97. faqet: or lampiksuh, D. lampikkha, a thief, 102*2. 9, 138. 30, 46. gee, D. lambūsa, an ornamental or decorative pendant, 57. 534. 7, lying near, see pärsva-laya adjoining, 73. III. =lāngala, 139. 93. far, a line, 134. 44, 45. ag, a clod, 105. 71. at, also vattaka, D. vatta, a cup, 55. 71, 116. 43, 131.7, 11. a *, D. vatta, an article of food; 21. 13, 24. TET, Pk. vayaṁsa, Sk. vayasya, a contemporary, an associate, friend, 12. 42. T, also varatrikā, a strap, rope, 80. 21, 33, 93. ito. anfát, a rope-dancer, 80. 37; see also varatrā, 80. 37. RIE, 56. 261; it is perhaps a wrong reading, see daravalla. 987, 135.9. ahe, also varmalya, g. maulya, price, cost, 28. 33, 40. 8. agit, g. vīnā, a kind of lute, 33. 53. a, also vallaraka, D. ibid., forest, thicket, 139. 116-17, 120. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 109 TET:, a tiger, 139. 63.' awat, under-ground, 102. 30. arant, the castor-oil plant, 63. 134, 137. ath, selected, 55. 121. are, Pk. võsa, Sk. varsa (as in Bhārata-varsa ), a division of earth, 6. I, etc. auret, a ground for training horses etc.; 127.52. famon, a magical transformation 7. 84. fastes, pollution, 157. 37. fastfea, D. vittālia, polluted, 105. 134. fauzo, Pk. viỉtana, Sk. veștana, a wrapper, a roll, 139. 103; also see verinta 139. 104. far, g. jñānavanta, learned, celebrated 78. 217. fara, Pk. ibid., to pierce, 116. 10. feira, a bier, 57. 207. farofaca, delay, 14. II. fafera, a passage, perhaps also a shop, 55. 204, 102*9. 13. faer = fay, 108. 9. atate, marriage, 150. 18, 46. au, a net, 72. 14, 149. 4. 499, g. vivāha, marriage, 55. 229; cf. prajana for which this may be a wrong reading FAST, Pk. samilä, Sk. samyā, the pin of a yoke, 44. 18. 7y, the boa snake, 78. 170. farad, a kind of tree, its wood being used in preparing a bheri, 102*7. 3, 8. farer, a vein like channel, 56. 380. İYAT, Pk. sumsumāra, an alligator, 73. 50, 60, 74. 39. Taffet, some article of food, 7. 75, 56. 228. ritusi, g. kalālaḥ, a liquor-vendor, 31. 2. mau = sramana, 74. 36. xxfara, Pk. sāvia, Sk. sāpita(2), 28. 22, 65. 83, 107. 13-4. » :, Pk. sottia, Sk. srotriyaḥ, learned in the Veda, 80. 2. Thrasfiqa, birth-day (?), 57. 571. effa, Pk. chajjiya, sajjiya, Sk. sajjita, dressed, made ready, 56. 158. peur, recitation, instruction, 76. 6, 157. 21. ATTOLT, D. ibid., a temple, but g. kūpa, 19. 51, 71. 7, 98. 19, 120.7, 138. 13; also sälūra 80.71. Erat, see sānūra, 99. 6. Arafat, one who practises sadhana, 126. 116. 1644, Pk. sālaņaya, an article of food, 19. 56. ATE, 80.71, see sānūra. FAT**, Pk. sikkaga, Sk. sikyaka, 4. 23, 93. 99. TFT, a subterranian passage, 33. 46. 2907, a Brāhmaṇa, 66. 5, 73. 98, 93. 308. ata: [Sk, sauraḥ], a distiller or seller of liquor, 106. 166. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 BRHAT-KATHAKOŚA. afe#, g. kārvali, a crow; 102*6. 5, 139, 53-4, 140. 33-4. TH, also neuter, a goat or ram, 73. 76, 76.50. .. F#, see toka above. Fritre, g. hastiprstha, 56. 329; g. mahişi 57. 204; horse 70 54, 69, 108. 77. TE, market, 28. 48, 72. 89. , ; FIT, force, 106.60. Eror, night, 26. 4, 70. 148. EIT, a crocodile, 73. 51, 54, 57. tea, the act of slighting, 127. 63, 67. This grammatical discussion shows that Harişeņa's language fairly agrees with what we call epic Sanskrit in some details, namely, treatment of the feminine forms of the present participle in ati or anti, confusion between Parasmaipada and Atmanepada, interchange of the causal and primitive bases and meanings of roots, indiscriminate formation of the two gerunds in tvā and ya, and irregular uses of cases. Some of the words, their genders and meanings have a close resemblance with the usages recorded from the epics. Most of the remaining traits of the language either show Prākritic influence or are specimens of loose handling of grammatical standard. If an author writes in Sanskrit but has some Präkrit dialect as his mother-tongue (or the language spoken in daily routine), it is inevitable that his Sanskrit composition would show Prākrit tendencies now and then. With regard to certain irregular forms, the future studies of similar works alone would decide whether they represent any grammatical tradition or they are author's irregularities and scribal slips in some cases. The term Taina Sanskrit has been already made current by Bloomfield, but the limits of its connotation should not be ignored. It is apparently used on the analogy of Buddhist Sanskrit;. but there is some important reservation : Not the least bit like the relation of Buddhist Skt. to Pali tradition is the relation of Taina Skt. to the Ārsa or Ardhamăgadhĩ of their canon (Siddhānta). Buddhist Skt. is largely a Sanskritized Pāli; Jaina Skt. is rooted in the main in Classical Skt. literature, and, to an astonishing extent, in the lexical and grammatical traditions of Classical Skt. speech. According to the considered opinion of Bloomfield, 'The Sanskrit Lexicon of the future will have much business with Jaina Sanskrit.' Secondly, besides showing Prakrit influence and foccasional Hyper-Sanskritism, i. e., it changes good Skt. words which have a Prākritic fonism into seemingly better Skt.', its 'diction is not altogether proof against local dialects. Thirdly, it must be remembered that almost all the texts, which form the basis for Bloomfield's stud from Gujaräta and round about and belong to rith and subsequent centuries. Lastly, eminent Jaina authors from the South, such as Samantabhadra, Pūjyapäda, Vädirāja etc., have successfully handled the Sanskrit language almost in its classical purity. So whenever we use the term Jaina Sanskrit, 1 Wackernagel: Altindische Grammatik, pp. XLIV f. 2 See Some Aspeots of Jaina Sanskrit in the Festschrift Wackernagel pp. 220 f. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 111 we must bear its scope in mind; in fact, its traits are practically covered by epic peculiarities with the addition of Prākritism in its different aspects. : As noted above, there is ample circumstancial evidence to demonstrate. the possibility that the stories of this Kathākośa might have been originally included in a commentary on the Bhagavati Arādhanā; secondly, Asadhara explicitly remarks that the ten illustrative talcs corresponding Harisena's stories, Nos. 35-44, were present in the Präkrit commentary etc.; and lastly, the explanation of krmirăga-kambala given by Harişeņa and Asadhara goes back possibly to a common Prākrit source. These considerations make it more than probable that this Kathākosa is based on some Prākrit commentary on the Bha. A. Though the conclusion is already anticipated, it is necessary here to put together various linguistic traits which confirm the possibility of the Prākrit source for these tales and the presence of which cannot be otherwise justified. . This Kathākośa is a Sanskrit text; most of the names in these stories are a matter of author's selection; so if the author uses some un-Sanskritic names, it is reasonable to admit that the author's selection was influenced by the sources used by him. i) A glance at the Index shows that there are many proper names which, at times with very slight changes, are justified only in a Prākrit text : Ayalā, Usabha-dāsa, -dāsī, Kasamyalaka, Kuruvilla, Gudakhedaka, Jánakasimgala, Duraņda, Bambhillagaņinī, Maddillapattana, Medajja, Vāņārasi etc.; secondly, some names show alternative forms, both of which are possible from one and the same Prākrit form that can be easily conjectured in most of the cases: Kurujangala and Kurujāngala Pk. Kurujamgala), Koņikā and Kauņikā [Pk. Koniyā], Kșantika and Kșāndikā, Kşāntikā and Khyāntika [Pk. Khamtiyā), Khatakhața and Khadakhada [Pk. Khadakhada ], Dravida and Dravila [Pk. Davila], Vinyātaţa and Venyātaţa [Pk. Veņņāyada ], Sopāraka and Sopāraya, etc.; some of them being found in the same story and having identical reference: Candaprajñaḥ and Caņdapradyotah [Pk. Camdapajjoo ?], Cāņakya and Cäņākya [Pk. Cāņakka), Muņdikā and Mundita [Pk. Mumdiyā ), Medajja and Medajña Pk. Meajjal, Vidyuddrdha and Vidyuddamstra [Pk. Vijjudādha.], Satyaki and Satyaki [Pk. Saccail; lastly, there are some names which show unsatisfactory Sanskritisation or are hyper-Sanskritic: Cilata [Pk. Cilāya, Sk, Kirăța), Tāmalipti [Pk. Támalitti, Sk. Tāmralipti], Daśānya (Pk. Dasaņņa, Sk. Dasārņa], Dhänyakumāra [ Pk. Dhanna-, Sk. Dhanya-1, Nagnaki [Pk. Naggaï, Sk. Nägnyajit, Nāmavādi [Pk. Nammaväi, Sk. Narmavādin ), Pişpalada [Pk. Pippalāya, Sk. Pippalāda , Bhārate väsye [Pk. Bhărahe väse, Sk. Bhäratavarse or Bhārate varsel, Yamadagni [Pk. Jamadaggi, Sk, Jamadagni]Vijñātaţa [Pk. Vennāyada, Sk. Venätata), Vairakumāra [Pk. Vaïra., Sk. 1 See pp. 38, 58, 67, etc. 2 The Sanskrit digests of the Bșhatkathā do show Prakritisms in their language. Budhasvmin Sanskritises Präkrit terms here and there (Keith: A History of Sanskrit Literature, p. 274). The proper name Madanamañoukā, I think, stands for Sk. Madanamañjüşā.. . . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 BRHAT-KATHĀKOŠA Vajra. 1, etc. ii) It is seen above how the same name has been differently Sanskritised by Harişeņa and the Kannada Vaddārădhane. The Kannada author keeps a Prakrit verbal form bolaha (Imp. and p. pl. from vola, to go) and in the corresponding passage Harişeņa uses gacoha (131. 30): such relics do indicate a common Prākrit source. iii) Among the grammatical details, Samdhis like adyameva, alternative spellings like padaka, patuka and padda partiality towards vowel bases of nouns which ordinarily have consonantendings, the pronominal forms like me for maya and imam for idam, the causal with the augment -āpaya-, the meaning attached to uttr, the usage of Instrumental of purpose, etc. are abnormal in Classical Sanskrit; but all of them get easily and rightly explained, if we take into account the rules of Präkrit grammar and Präkrit usages. Though the topic requires more thorough study, I feel inclined to suggest that even the excessive use of ka-suffix may get partly explained in the light of Prākrit tendency seen in such cases as aham, which, with the ka-suffix, presents itself under various garbs in Prakrit: ahaam, ahayam, hage, hake, ahake, hakaṁ, haù. All these have led to a postulate like *ahakaḥ, besides the well-known ahakam. This ka-suffix does play a conspicuous part in Prākrits. iv) Turning to the vocabulary, back-formations may be found in works which are not necessarily based on a Prakrit original. The abnormal use of Prakritisms, with or without minor changes, seen from the list of words studied above, deserves our special attention. Not only that, but looking at words like arjikā, karapālikā, khaddā, gahillaka, gonattaka, charjikā, joša, talavarga, paddika, pādogamana, puşkala, bodhistha, mindhaka, rästrakūta etc., we actually get also the evidence to the effect that the author is easily trying to Sanskritise certain Präkrit words; and the results of his attempts in different contexts have been varied. For the present, it is futile to question the evidence supplied by all the three Mss., almost unanimously. v) Lastly, words like uşājala, bhiluka, rathya, vihāya, srāvitaḥ, saula etc. become meaningless in those contexts unless they are interpreted in the light of their Präkrit counterparts which might have been there before t All the facts, noted above, cannot be explained merely by saying that the author was well-versed in Präkrits or the copyists are responsible for Präkritisms. We should not take these facts and items individually and try to explain them away, but look at the cumulative value of the entire mass of evidence in its proper perspective. Thus the Prākrit elements, so expli and frequent in the language of these stories, and the linguistic evidence available from the comparative study of Harişena's Kathakośa and the Kannada Vaddaradhane almost definitely prove the possibility of a Prākrit original for Harişeņa's work; and further, the valuable remark of Asādhara indicating that some similar stories were present in the Präkrit commentary etc. makes it highly probable that the stories of Harişeņa might have been based on a Prākrit commentary on the Bhagavati Arădhanā of Sivărya. 1 See p. 67. 2 Pischel: Grammatik der Präkrit-Sprachen, sections 142, 194, 417, 426 and 598. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 113 vii) Orientalists on the Jaina Narrative Literature We have studied the different aspects of this Kathakośa of Harisena which occupies an important place in Jaina narrative literature, the various currents of which are casually reviewed above. The orientalists began the study of Jaina literature rather late; still many eminent scholars have worked on important narrative texts that have afforded new material to enrich different branches of Indological study. Some have already emphasised its study in understanding Indian life and literature, as well as the salient traits of Indian culture. Some of their remarks are valuable not only as an estimate of Jaina narrative literature but also as constructive suggestions for the guidance of future workers in the field. Critical studies in different branches of Jaina literature are still in their infancy, though the richness of the field was already anticipated by Bühler in his significant remark made years ago: The Jaina writers "have accomplished so much of importance, in grammar, in astronomy, as well as in some branches of letters, that they have won respect even from their enemies, and some of their works are still of importance to European science. In southern India, where they worked among the Dravidian tribes, they also advanced the development of these languages. The Kanarese literary language and the Tamil and Telugu rest on the foundations laid by the Jaina monks. This activity led them, indeed, far from their proper goal, but it created for them an important position in the history of literature and culture." If the workers follow critical and comparative lines of study, the results of their research will enviably enrich the fields of Indological study. With respect to Jaina narrative literature, Winternitz remarks: "Like the Buddhist monks, the Jaina monks, too, delighted at all times in adorning their sermons with the telling of stories, in converting worldly stories into legends of saints, in elucidating Jinistic doctrines by means of 'examples', thus exploiting the inborn Indian love for fables in order to win over and retain as many adherents as possible for their religion." "As in the case with the Buddhist Tätakas, this narrative literature imbedded in the Commentaries, contains many popular themes, including some which occur also in other Indian and non-Indian literatures, and form part of the common treasury of universal literature." We have already studied his views on ascetic poetry which, he further adds, 'likes to take its subjects from popular tales, fairy stories, fables and parables. Now the Jainas have always had a special liking for any kind of popular poetry, especially folk-tales. Taina literature, both canonical and still more non-canonical, is a very store-house of popular stories, fairy tales and all kinds of narrative poetry. About the extent and the reality of tone, he says: "The mass of narratives and books of narratives among the Jainas is indeed vast. They are of great importance not only to the student of comparative fairy-tale lore, 1 On the Indian Sect of the Jainas, London 1903, p. 22. 2 A History of Indian Literature vol. II, pp. 484, 545 etc. 3 Indian Culture, vol I, 2, p. 147. 15 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 BRHAT-KATHAKOSA but also because, to a greater degree than other branches of literature, they allow us to catch a glimpse of the real life of the common people. Just as in the language of these narrative works there are frequent points of agreement with vernaculars of the people, their subject-matter, too, gives a picture of the real life of the most varied classes of the people, not only the kings and priests, in a way which no other Indian literary works, especially the Brahman ones, do." Dr. Hertell, whose studies on the Paficatantra are quite wellknown, has worked on a number of medieval Taina narrative texts. In his opinion, 'the narrative literature of the Jainas is connected with several problems' the chief of which are: first, the problem of the migration of stories' which belongs to the domain of literary history and of history of civilization. Its solution is of equal importance for India and for the rest of the world'; and the second, 'purely linguistic' one, whose solution 'cannot but produce results which will prove to be of fundamental importance not only for the history of Sanskrit and other Indian languages, but for the history of Indian literature as well. He has sufficiently elaborated both these problems; and some of his remarks on the study of the linguistic aspect of these texts are highly critical and thought. provoking. He has in view especially the narrative works in Sanskrit written by Svetāmbara authors of medieval and post-medieval Gujarat; but on the whole, his remarks are equally applicable to other Jaina narrative works and deserve careful study. It is already noted above how the Karman doctrine forms the back-bone of many of the tales; and with reference to that Hertel remarks : 'Nobody will deny the wholesome influence which the doctrine of karman must necessarily exercise on the faithful members of the Jain community with regard to their behaviour, not only towards their fellow-men, but towards all their fellow creatures. Animal life is as sacred to a Jain as human life.' He fully brings out some of the salient traits of the Jaina didactic narrative texts in his following observations: "In these books (i. e. Aupadeśika texts] as well as in the commentaries on the Siddhārta, the Jains possess an extremely valuable narrative literature which includes stories of every kind: romances, novels, parables and beast fables, legends, and fairy tales, and funny stories of every description. The Svetāmbar monks used these stories as the most effective means of spreading their doctrines amongst their countrymen, and developed a real art of narration in all the above mentioned languages [namely, Sanskrit, Prākrit, Apabhramba, Hindi, Gujarātī, and Rajasthāni dialects ), in prose and verse, in kāvya as well as in the plainest style of every-day life. Beside single stories, they have compositions, in which a great many tales are embedded in frame-stories, as in the Panchatantra, and collections of single stories resembling the collection of the Household Tales of the brothers Grimm. 1 On the Literature of the Svetām baras of Gujarat, Leipzig 1922, pp. 11f., 3, 6 f. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 115 "At the beginning of his homily, a preaching Jain monk usually gives, in a few prose words or verses, the topic of his sermon (Dharmadeśanā), and then goes on to tell an interesting tale of more or less considerable extent, with many romantic incidents, and in most cases with several intercalated stories. Towards the end of his story, he introduces a kevalin, i. e. an omniscient Jain monk, who comes to a grove belonging to the town in which the persons of his story are dwelling at its end. After hearing the sermon of this monk, these persons ask him, why all the vicissitudes, which they had to pass through during their adventures, fell to their lot. The Kevalin, then, explains to them all the happy as well as the unhappy incidents by relating the story of their previous existence. "The literary form of these Tain sermons resembles that of the Buddhist Jätaka; but it is highly superior to it. A Jataka begins with a story which, in most cases, is quite insignificant. Such and such a thing has occurred to such and such a monk. The Buddha arrives. The other monks question him about the present case, and the Buddha explains it by narrating the story of the respective monk's previous existence. This story of the past is the main story of the Jätaka (whereas in the Jain sermons it forms only the conclusion); the Bodhisatta, or future Buddha, himself plays a rôle in it, and this rôle, of course, must be worthy of him; the whole story, moreover, must be an edifying one. The Jātakas, as far as they are interesting, are no inventions of the Bauddhas; they are taken from the huge store of tales spread all over India. Most of these popular tales are ingenious, or funny, or interesting in some other respect, but they are not edifying. Hence the Bauddha monks, whose Játakas must be edifying and must contain a rôle worthy of the Bodhisatta, are forced to alter the popular stories they use for theis purposes, and the lamentable consequence generally is that such a Jātaka becomes a rather dull story, from which all the wit of its original has disappeared; and its development is often contrary to all psychological probability. The Bauddhas impart their doctrines directly, showing, by the Bodhisatta's example, how a creature should act in accordance with the Bauddha notions of morals; and if the popular story chosen for being transformed into a Jātaka does not contain such a moral action, this story must be altered accordingly. To a Bauddha, the study of arthaśāstra, or political science, is a sin. Now many of the best Indian stories have been developed in this śāstra. The Bauddha monks take over into their collections of stories a great many of such nīti-tales; but in accordance with their principle, they are compelled to alter the very points, and consequently even the most essential features, of these stories, and by doing so, they inevitably must destroy the stories themselves. It is not a mere chance that amongst the innumerable recensions of the Panchatantra there is not even one of Bauddha origin, whereas the Taina recensions, called Pañchakhyāna, or Panchakhyānaka, made 1 See the author's papers 'Die Erzählungsliteratur der Jaina' (Geist des Ostens I, 178 ff.) and Ein altindisches Narrenbuch' (Ber, d. Kgl. Sächs. Gesellschaft der Wissenschaften, ph.-h, KI. 64 (1912) Heft 1)." Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 BRHAT-KATHAKOSA this old niti-work popular all over India, including Indo-China and Indonesia. The Panchakhyāna, in Sanskrit and in different vernaculars, became indeed so popular a book in all these countries, that its Jain origin was completely forgotten, even by the Jains themselves. "The Bauddha story-tellers, moreover, turn to their advantage the rage of the populace for the miraculous, the horrid, and the atrocious; they repeat, over and over again, the same motives in the same stories, and they have no idea of psychological motivation and causation. Their stories are characteristic Buddhist, but by no means characteristic Indian stories. "Characteristic of Indian narrative art are the narratives of the Jains. They describe the life and the manners of the Indian population in all its different classes, and in full accordance with reality. Hence Jain narrative literature is, amongst the huge mass of Indian literature, the most precious source not only of folk-lore in the most comprehensive sense of the word, but also of the history of Indian civilisation. "The Jains' way of telling their tales differs from that of the Bauddhas in some very essential points. Their main story is not that of the past, but that of the present; they do not teach their doctrines directly, but indirectly; and there is no future Jina to be provided with a rôle in their stories. "It is evident that under these circumstances the Jain narrators are at complete liberty. As they cannot possibly have the intention to make the persons of their stories act in accordance with morality, they are free to relate the old stories, as these stories have been handed down to them by literary or by popular tradition. Whether the actions of the persons of their stories are moral or immoral, whether these persons become happy or unha py, this is no concern of the story-teller. For the moral teaching imparted by the story does not lie in the events themselves as they are related in the tale, but in the explanation which the Kevalin gives at the end of this story. This Kevalin shows that all the misfortunes undergone by the persons which act a part in his narration, have been caused by bad deeds, and that all their good luck has been caused by good actions, done by them in their previous existences. It is clear that this manner of teaching morals is applicable to any story whatsoever, as in every interesting story the creatures whose adventures are related in it, must needs undergo various vicissitudes. The consequence of this fact is that no story-telling Jain monk is obliged to alter any story handed down to him, and that from this reason, Jain stories are much more reliable sources of folk-lore than the stories handed down in the books of the Bauddhas. "Jain monks, however, were not only reproductive, they were really productive of stories. They invented new stories and novels for the sake of their propaganda books; and literary story-telling was taught in their schools." It is necessary, therefore, that the various Jaina narrative texts in Sanskrit, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 117 Prakrit, Apabhramsa and the post-Apabhramsa stages of our modern Indo-Aryan languages should be critically edited and studied with a view to enrich our knowledge of Indian life, literature and languages. 7. HARISENA, THE AUTHOR: HIS PLACE AND DATE In the annals of Indian literature, we come across a few authors bearing the name Harişeņa. i) Harişeņa, the stylistic panegyrist of Samu. dragupta and the composer of the Allahabad pillar inscription of c. A.D. 345. ii) Harişeņa, the author of Apabhramba Dharmaparīkņā”, gives the following details about himself: In the territory of Mevāda, there was one Hari, expert in various arts, in the Dhakkada-kula of Siri-ujaüra (v. l. Siri-ojapura). He had a pious son Govaddhaņa (Sk. Govardhana) by name. Guņavati was his wife, and she was devoted to the feet of Jina. They had a son Harişeņa who became famous as a learned poet. He left Cittaüļu (Sk. Citrakūța) and came to Acalapura on some business (niya-kajjē). There he studied metrics and rhetorics, and narrated or composed this Dharmaparīksā when 1044 years of the Vikrama era had elapsed. He says that the Dharmapariksă was formerly composed by Jayarāma in gāthă metre and the same he is narrating in Paddhadiyä metre. Harişeņa's work is older by 26 years than the Sanskrit Dharmaparīkşă of Amitagati. iii) Harişeņa or Hari, the author of the Karpūraprakara or Sūktāvalī which has been already introduced above (p. 43): He tells us that he wrote Nemicaritra also; and his teacher was Vajrasena, the author of Trişaşțisāra-prabandha. His date is not definitely settled. "If this Vajrasena is identical with the author of an incomplete Trişașțiśalākā puruşacaritra in Sanskrit proses, then we will have to put him later than Hemacandra; and in that case, Hari is sufficiently later than 12th century A. D. All that is definite about his date is that he is earlier than Saṁvat 1504 (-57 = 1447 A. D.), when Somacandra wrote his Kathă. mahodadhi* giving illustrative stories on the Sūktāvali. iv) Harişeņa, or Pandita Harişeņa, according to the Poona Ms. (No. 266 a of A 1882-83, Bhandarkar O. R. I.) composed Jagatsundari.yogamālādhikära on the basis of various medical treatises when the Yorīprăbhịta was not accessible to him. The problems about his personality and date and relation of his composition: with that of Yaśahkirti can be solved only after some more material becomes available to enable us to study the mutilated Ms. at Poona. The Ms. was written in Samvat 1582 (-57 = 1525 A. D.) which is the later limit for the age 1 Keith: A History of Sanskrit Literature, pp. 77f. 2 This was lately discovered by me; I read a paper on it at the Hyderabad Session of the AllIndia Oriental Conference; and it is now published in the Silver Jubilee Number of the Annals of the B. O, R, I., Poona. 3 Jesalmere Catalogue, p. 53. 4 Its contents and date are noted above, pp. 43-4. 5 See the details discussed by Pts. Jugalkishore, Dipachand Pandya and Premi in the Anekānta, vol. II, pp. 495f., 611f., 666f., 635f. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 BRHAT-KATHAKOŚA of this Harişeņa. V Harişeņa, who had written some Yasodharacarita', is mentioned along with Prabhañjana (who appears to be referred to by Uddyotanasûri in his Kuvalayamala, A. D. 778) by Väsavasena in his Yaśodhara. carita which was used by Gandharva in supplementing Puşpadanta's Jasahara cariü in Samvat 1365 (-57 = 1308 A.D.). Somakirti also refers to him in his Yasodharacarita (Sam. 1535). vi) Harişeņa, the author of Aştahni. which we have a Ms. (No. 469 of 1884-86) in the Bha-darkar O.R. I., Poona. He belonged to Mūlasangha, and he gives his spiritual ancestry thus: Ratnakirti, Devakirti, Silabhūsana, Gunacandra and Harişeņa (the author himself). From its appearance, the Ms. may be about two hundred years old. Our Harişeņa, the author of Bịhat.kathakośa, is different from all the above Harişeņas that I have been able to list. It is not unlikely, however, that Harişena (No. v), referred to by Väsavasena and Somakirti, tical with our author who gives an exhaustive story about Yasodhara (No. 73) in this Kośa; but we have no sufficient evidence to establish this identity. The Prasasti gives Harişeņa's spiritual ancestry thus: There was that Maunibhattāraka, the full moon in the firmament of the Punnāta.samgha, who enlightened the pious people by the flash of his scriptural knowledge; he stayed at Vardhamānapura which was crowded with Jaina temples, white palaces and wealthy populace. His pupil was that revered Śrīharişeņa who possessed various virtues and practised different penances. His disciple was that pious Bharatasena who was a poet well-versed in different branches of learning, metrics, rhetorics, dramaturgy, grammar and logic, and who was attended upon by the learned. Of this famous Bharatasena, there was the disciple Harişeņa (the author himself) who does not claim to possess any [expert) knowledge of grammar, metrics and logic; and it is he that composed this Kathākośa (which is called ärādhanoddhrtaḥ). It was finished in 989 according to Vikramaditya-kāla, or in 853 according to Saka-kāla, in the twentyfourth year Khara by name, during the reign of Vinayädikapāla. This is just a running summary of the facts given by our author in the Praśasti; and it is necessary to scrutinise them critically and understand them in relation to other well-known facts. Punnāta-visaya or the territory of Punnāta, according to Harisena himself, is to be located in the Daksiņāpatha or South India (Nos. 131. 40, 1 Hiralal: Jaina Sāhitya Samsodhaka, II, 3, p. 146; P. L. Vaidya : Jasaharacariü, Intro. pp. 17, 24-5; Premi: Jaina Sahitya aura Itihasa, p. 539. 2 Mr. Modi reads the name of Śri-Harişena in a passage from the Apabhranía Harivañía of Svayam bhū (Bharatiya Vidyā, Hindi, vol. I, 2, pp. 167, 175); but Prof. Hiralal reads differently and gives the name of Sri-Harşa (Nagpur University Journal, No. 1, December 1935). So Mr. Modi's reference cannot be used, for the present, to enumerate one more Harişeņa or to identify him with Sri-Harişena, mentioned in the Prasasti of this Kathākośa. 3 That is his modesty. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135. 1); and from earlier discussions1 it is clear that it is to be identified with one of the ancient kingdoms of Karnataka, through which flowed Kaveri and Kapini, the capital of which was Kirtipura or the present Kittur on the Kapini, and which lay to the south of the present Mysore state including the Heggaḍdevanakote and other Talukas in it. The Punnâța-samgha must have derived its name from this territory. It is really significant that, so far as I know, there has come to light no inscription in the South which mentions this Samgha. In all probability, an ascetic group that hailed from Punnǎța and settled down at Vardhamanapura and round about became famous as Punnaṭa-samgha there. In the south, originally it was perhaps known as Kittura-samgha, a name derived from the capital of Punnǎța country, which is mentioned in one of the Sravana Belgola inscriptions of c. Saka 622. Besides our Harişena, the only author that mentions Bṛhat- or simply Punnata. samgha or gana is Jinasena who finished his Harivamsa at the same Vardhamana nagara in A. D. 783, just 148 years earlier than this Kathakosa. We do not know much about this Samgha*; but the facts given by Jinasena and Harişena show that it had a sound tradition of spiritual ancestry, and it was already established at Vardha. manapura and round about by the beginning of the 8th century A. D. INTRODUCTION A few facts, which go to indicate the possibility of Punnatasamgha hailing from the South, may be noted here: Jainism was a powerful religion of Karnataka and round about especially in the second half of the first millennium of the christian era; and it enjoyed a good deal of royal patronage under different dynasties. Some of the Karnataka kings like Pulikesin II (A. D. 608 onwards) of the Western Chalukya dynasty conquered the Laṭas, the Gurjaras of Broach etc., and a collateral branch of the Chalukyas was founded in Gujarata. The Jaina poet Ravikirti (A. D. 634) enjoyed the favour of Pulikisin II. Vikramaditya II invaded Cutch, Sorath and Broach. Some of the kings of the Raṣṭrakūta dynasty had close contacts with Gujarata. At the time of Kakkarāja II a separate Rāṣṭrakūta principality was establi shed in Gujarata; and Amoghavarsa I, whose partiality towards Jainism is 1 Rice: Mysore and Coorg from the Inscriptions pp. 2f., R. Narasimhacharya E. C. II pp. 37, 73; B. A. Saletore: The Ancient Kingdom of Punnata, Indian Culture, vol. III, 2, pp. 303-17; M. G. Fai: Rulers of Punnata, Festschrift Prof. P. V. Kane, Poona 1941, pp. 308-26. 2 Epigraphia Carnatica II, No. 81. 3 Published in the Manikachandra D. Jaina Granthamala, vols. 31 and 33. 119 5 4 Pt. Premiji's views about the relation of Punnaṭasamgha with Dravida and Nandisamgha are mere conjectures. See also his Jaina Sahitya aura Itihāsa, pp. 420-33. Amitasena, the grand-teacher of Jinasena, is called pavitra-punnāṭa-gaṇāgranīr gani. The phrase vyutsṛst apara-sangha-samtati perhaps implies its isolation from its co-related groups. 6 Smith: The Early History of India pp. 423f.; Banerji: Prehistoric, Ancient and Hindu India pp. 204f.; Saletore: Mediaeval Jainism chap, 2 etc.; Sharma: Jainism and Karnataka Culture, chap. 1. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 BṚHAT-KATHAKOŠA well-known', was styled as Gurjara-narendra2. This successful political domination of Karnataka dynasties, which patronised Jainism, over Gujarāta and adjoining territory presents quite favourable circumstances for the migration of a Jaina Samgha from Karnataka to Gujarāta. Secondly, the name of Nannaraja, whose Vasati is referred to by Jinasena, is quite South Indian in pronunciation; and we know that this name was usual in the South, for instance, the patron of Puspadanta at Manyakheța was Nanna. It would be a quite probable conjecture that this Nanna might have been Jaina chieftain from the South who had settled down at Vardhamanapura and built a temple of Parsvanatha. Lastly, this Kathakośa refers to many South Indian territories and towns; and Harişena is the first author, so far as we know, to describe the Tera caves: all this indicates the contact of the Punnaṭa-samgha with the topography and the holy relics of Karnataka and round about. Thus there was every possibility of a Jaina Samgha migrating to Gujarata and Kathiawar. a Mauni Bhaṭṭaraka is referred to in some records, but beyond the name there are no positive facts to propose his identity with the one who was staying at Vardhamănapura as mentioned in the Prasasti. Hariṣeņa's adjective kārtasvarāpūrṇa-janādhivase reminds us of Jinasena's description kalyanaiḥ parivardhamana-vipula-s'ri-Vardhamane pure; and I feel no doubt that both of them are referring to the same town. Presumably from the names Punnǎța-samgha and Nannarāja, Pt. Premiji once thought that this town must have been situated in the South. There are at least three modern localities which can be proposed for identification with Vardhamanapura: i) The Citracampu was composed by Citrasena' of Burdwan (Vardhamanapura) in Bengal about A. D. 1744. ii) There is a reference to Vardhamana. nagari in the Anumkonda inscription of Kakatiya Rudradeva, dated Saka 1084, which gives a graphic description of a certain Bhima and of Rudradeva's expedition against him. It states that Rudradeva advanced 'three or four steps' from his camp and took the city of Vardhamananagari which from the context appears to have been not far away from Anumkonda in the Nizam's dominions. The village is known now under the name Vaḍhman'. Prof. Hiralalaji has lately shown, in an important paper, that the statement of Praśnottara-ratnamala that Amoghavarsa accepted renunciation is further confirmed by the opening verses of Ganitasarasamgraha of Mahāvīrācārya, see Jaina Siddhanta Bhaskara, vol. IX, part 1, pp. 1-8. 2 I have in view the unpublished Prasasti of Jayadhavala which I have copied from the Sholapur Ms. 3 See Maunideva E. C. VIII, Nagar No. 35; Mauniyacariya E. C. II, 106; Mauniguru E. C. II, 8, 20; Moni Bhaṭṭāraka E. C. V, Belur 123, also Mediaeval Jainism p. 201. 4 Jaina Hitaishi, Vol. XIV. 7-8, pp. 216-12; but he has lately corrected his view, see Jaina Sahitya aura Itihasa, p. 424, pp. 428, 434 f. 5 I owe this reference to my friend Mr. P. K. Gode, Poona. 6 Indian Antiquary, vol. XI, p. 9 ff. 7 I owe this reference to my friend Mr. R. S. Panchamukhi, Dharwar, 1 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 121 iii) The medieval name for Wadhwan in Kathiawar was Vardhamānapura where Merutunga finished his Prabandhacintāmaņi in the year 1361 of the Vikrama era. Thus we have to see whether our Vardhamanapura was located in Bengal, Deccan or Kathiawar. The validity of identification depends upon the fulfilment of certain conditions already mentioned by Jinasena and Harişeņa. Jinasena wrote his Harivamsa at Vardhamanapura when Indrāyudha was ruling in the North; Srivallabha, the son of Krsna-nrpa, in the South; Vatsarāja, the king of Ayanti, in the East; and in the West, Vira Jayavarăha over the Saura. mandala”. Harişeņa, just 148 years later, associates one Vinayādikapāla with Vardhamānapura. These conditions are not fulfilled, so far as the available material is concerned, by locating that town in Bengal or Deccan; but by accepting its identity with Wadhwan with reference to which the directions are to be understood, all the facts can be satisfactorily explained. Indrāyudha is identified with Indrarāja of Kanauja whose territory appears to have extended sufficiently westwards; Srīvallabha with Govinda II, the son of Krşņa I, of the Răstrakūta dynasty in the South; Vatsarāja, the king of the Gurjara-Pratihāra ruler of that name; and Vira Jayavarāha might have been some king ruling over Sauramandala or Saurāstra about whom we do not know anything from other sources. These directions and ruling kings are suitable only for Wadhwan with which alone, as we see below, can be associated a king Vinayādikapāla mentioned by Harişeņa. So this Kathakośa was composed near about Wadhwan in Kathiawar. It is presumed, of course, that Harişeņa should be associated with the same locality with which one of his predecessors was connected. I have not been able to get any additional information about Sriharişeņa and Bharatasena. As to the year of composition, the author is quite explicit : he wrote this Kośa in Vikrama Sam. 989 or Saka 853, the year being Khara which is twentyfourth in enumeration. Referring to Pillai's Ephemeris“, I find that Khara would be twentyfourth according to the Northern cycle, but twenty fifth according to the Southern cycle where Sukla is additional after Vibhava, the second year. So Harişeņa, living near about Wadhwan, is calculating according to the Northern cycle. It appears that the book was finished sometime between 15th October 931 to 13th March 932 A. D. 1 Peterson's Reports IV, p. xcvi. 2 That is how Pt. Premiji and myself understand the verse, and I think, it is a consis tent interpretation. Some have differently interpreted it: Bhandarkar: The Early History of the Deccan, Collected Works, III, pp. 89-90; Jinavijayaji: Jaina Sahitya Samsodhaka, III, 2, p. 188; Hiralalaji: Ibidem, II, 3, p. 147; Banerji: Prehistoric, Ancient and Hindu India, p. 213. 3 Ray: The Dynastic History of Northern India, vol. I, pp. 279, 285, 287 etc. 4 A feudatory of the namo Dharanivarāha is mentioned in a record of A. D. 914 and associated with Vardhamanapura, as noted below. It is quite likely that Jayavarāha was a predecessor of the same branch, 5 An Indian Ephemeris, vol. II, pp. 264-66. 6 The contemporary Räştrakūta king in the South was Govinda IV (A, D, 918-33). 16 : Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 BẠHAT-KATHAKOŚA. As the reading stands, the name of the contemporary king would be Vinayakapāla or even Vinayapāla, if we induce ourselves to suppose that the usual k-suffix is added to ādi. We have to see whether there is available any such name of a ruling prince round about our Vardhamanapura and about A. D. 931-32. There is some difference of opinion about the relation between Mahipala and Vināyakapāla of the Gurjara-Pratihāra dynasty'; but this much is certain that Vināyakapāla was in possession of the capital Kanauj in A. D. 931. We have a grant of his issued from Mahodaya (Kanauj) dated Samyat 988, only one year earlier than the composition of the Kathākośa. Then there are the Haddaļa copper-plates, dated Saka 836, of the Cāpa-mahāsāmantādhipati, Dharaņi. Varāha, a feudatory of the Rājādhiraja Mahipāladeva, issued from Vardhamāna. Pratihāra empire was a big one extending from the Kathiawar to the borders of Bihar; and the "Government was more or less feudal in nature, and its rapid dissolution was due to the centrifugal tendency' which is still observable among the Rajputs." The above records make it clear that the Vardhamānapura was included in the Pratihāra empire a few years early and there was the king Vināyakapāla in A. D. 931. I feel convinced that Harişeņa is referring to Vināyakapāla, the suzerain king, and not to any local chief of Vardhamānapura; and this is perhaps implied by the adjective S'akropamānake. There is, however, one difficulty which needs some explanation. The text would give the name Vinayapāla or Vinayakapāla, while the king's name is Vināyakapāla. It is true that our author is in the habit of using l:-suffix; but here, I think, in all probability the original reading might have been Vināyādikapālasya (apparently meaningless, if one is not aware of the name of the king) which gives us the name Vināyakapāla. It is quite likely that Vināyādi. was easily corrected into Vinayādi- by some copyist who could not make out anything from Vināyādi- and who thought that his was a meaningful improvement of vināya into vinaya. Our author is in the habit of such division of words by inserting ādi etc., as I have shown above, in prases like paryādivrājikā. Unfortunately no other work of Harişeņa has come to light; so there is no possibility, for the present, of supplementing and checking the above information. To conclude, Harişeņa belonged to Punnātasamgha; he composed his Kathäkośa near about Wadhawan in Kathiawar; it was finished in Saka 853, Samvat 989 or A. D. 931-32 during the Khara Samvatsara; and the contemporary sovereign king was Vināyakapāla of the Gurjara-Pratihāra dynasty of Kanauj. 1 D. R. Bhandarkar: A List of Inscriptions of Northern India, Epigraphia Indica, vols. XIX to XXIII, No. 53 of Saṁvat 988, No. 61. of Samvat 1003, No. 68 of Samvat, 1011, No. 1086 of Saka 836 (Haddālā copper-plates ); see also his paper Gurjaras', Bombay Branch R. A. S. XXI, pp. 414£; Barnett: Antiquities of India pp. 62, 67; Ray: The Dynastic History of Northern India, pp. 571-582 where all the details are worked out and the basic records are fully summarised; Banerji: Prehistoric, Ancient and Hindu India, pp. 234, 236; H. C. Ray Chaudhari: On the Emperor Mahipāla of the Pratihāra Dynasty, Indian Culture, VII, 2. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानकसूची १ राजकुमाराख्यानकम् । २ पूर्वाभावितयोगसोमशर्म कथानकम् । ३ विष्णुदत्तगर्तनिधिदृष्टिलाभकथानकम् । ४ शङ्कितसोमदत्तनिःशङ्कितविद्युच्चौरकथानकम् । ५ सकाङ्क्षविषरथनिः काङ्क्षयशोरथकथानकम् । ६ विचिकित्सान्वितजय निर्विचिकित्स विजयकथानकम् । ७ अमूढदृष्टिरेवतीकथानकम् । ८ चेलनामहादेवीकृतं वैशाखस्योपगूहनाख्यानकम् । ९ श्री सम्यक्त्वसमन्वितश्रेणिकोपगूहनाख्यानकम् । १० श्री सोमशर्मवारिषेणस्थिरीकरणकथानकम् । ११ सम्यक्त्ववात्सल्यविष्णुकुमारकथानकम् । १२ श्रीवैरकुमार सम्यक्त्वगुणप्रभावनाख्यानकम् । १३ जिनमत श्रद्धान पर विनयंधरनृपकथानकम् । १४ श्रीबुद्धिमतीस्वनिन्दनकथानकम् । १५ प्रियवीरामहागर्हाख्यान कथानकम् । १६ सोमशर्म मुनिप्रतिबद्धलोचाख्यानकम् । १७ वीरभद्रमुनिकालाध्ययनकथानकम् । १८ अभिनन्दमुन्यकालाध्ययनकथानकम् । १९ श्री ज्ञानविनयाख्यानकम् । २० श्रीज्ञानाचरणकथानकम् । २१ श्री ज्ञानबहुमानाख्यानकम् । ३२ श्रीगुरुनिह्नवाख्यानकम् । २३ श्रीव्यञ्जनकथानकम् । २४ श्री अर्थहीन कथानकम् | २५ श्रीव्यञ्जनार्थहीन ककथानकम् । २६ श्रीव्यञ्जनार्थोभयशुद्धिकथानकम् । २७ श्रीनागदत्तमुनिकथानकम् । २८ श्रीशूरमित्रशूरचन्द्रादि परस्परकोप जननविधाननिराकरणकथानकम् | २९ श्रीवासुदेव वैयावृत्यतीर्थ कर गोत्रबन्धनकथानकम् | ३० श्रीमृतकसंसर्गनष्टमाला कथानकम् । ३१ कल्लालमित्र संगतिशिवभूतिनिर्धाटनकथानकम् । १ য my 20 २ ३ ४ ६ 67 ८ ११ १३ १४ १८ २२ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३२ ३५ ३६ ३७ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४६ ४८ ५० ५१ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० . Your uyuyuyur 200 m 303 124 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ३२ श्रीदुष्टचूकसंगतप्रजापालभूपतिहतहंसकथानकम् । ३३ श्रीदुर्जनाश्रयत्यजनसत्संगगमनहरिषेणश्रीसमागमनकथानकम् । ३४ श्रीविष्णुप्रद्युम्नगुणग्रहण कथानकम् । ३५ श्रीचोल्लकाख्यानककथानकम् । ३६ श्रीपासकद्यूतकथानकम् । ३७ सर्षपादिधान्यकथानकम् । ३८ श्रीधाग्यकथानकम् । ३९ श्रीद्यूताख्यानकथानकम् । ४० श्रीकपर्दकद्यूतकथानकम् । ४१ श्रीमनुष्यत्वप्राप्तिदुर्लभबोधिसमाधिसमागमकथानकम् । ४२ श्रीमनुष्यभवप्राप्तिकथानकम् । ४३ श्रीअर्जुनचन्द्रकवेधद्रौपदीनिमित्तकथानकम् । ४४ श्रीनन्दकच्छपकथानकम् । ४५ श्रीकौशाम्बीनगरीसमुद्रदत्तसोमकाख्यकथास्वरूपनिवेदनसागरदत्तकथानकम् । ४६ श्रीअसत्यभाषणकथानकम् । ४७ जिनधर्मानुरागसहितनागदत्तकथानकम् । ४८ श्रीप्रेमानुरागयुक्तवसुमित्रकथानकम् । ४९ श्रीधर्मानुरागसहितजिनदत्तवसुदत्तसोमशर्मकथानकम् । ५० धर्मानुरागयुक्तलकुचकथानकम् । ५१ श्रीजिनभक्तिसहितपद्मरथनृपगणधरप्राप्तिकथा । ५२ श्रीदर्शनभ्रष्टब्रह्मदत्तचक्रवर्तिकथानकम् । ५३ श्रीसम्यक्त्वसमन्वितजिनदासकथानकम् । ५४ श्रीरुद्रदत्तप्रियाप्रबोधसम्यक्त्वयुक्तिकथानकम् । ५५ श्रीक्षायिकसम्यक्त्वयुक्ताविरतश्रेणिकतीर्थंकरोत्पत्तिकथानकम् । ५६ महाभक्तिसमन्वितनागदत्तगोपालकपद्मकफलसंभूतकर्कण्डमहाराजकथानकम् । ५७ श्रीरोहिणीनक्षत्रोपवासैकफलसंभूताशोकरोहिणीकथानकम् । ५८ श्रीद्रोणाचार्यसमन्वितक्षीरकदम्बम्लेच्छधनुर्वेदविद्यासमागमकथानकम् । ५९ श्रीजिनभक्तिपरायणपद्मरथनृपगणधरत्वप्राप्तिनिर्वाणगमनकथानकम् । ६० श्रीजिननमस्कारसमन्वितसुभगगोपालकथानकम् । ६१ श्रीखण्डश्लोकत्रयस्वाध्यायसंसक्तयममुनिवर्गलोकगमनकथानकम् । ६२ श्रीदृढसूर्यचौरशूलिकानिहितपञ्चनमस्कारस्मरणमात्रदेवत्वप्राप्तिकथानकम् । ६३ श्रीशुलहतरूप्यखुरचौरमृतान्तर्गतदृष्टान्तसंयुक्ताहदासकथानकम् । ६४ श्रीवेतालविद्यानिर्भयजिनदत्तमित्रश्रीदृढसम्यक्त्वारोपणद्वितीयकथानकम् । ६५ श्रीसौम्याब्राह्मणीसहर्शनसहितखण्डश्रीदृढसम्यक्त्वकारणं तृतीयकथानकम् । ७२ ww0 ७६ ८८ १०१ १२० १२२ १२६ १३२ १३४ १३६ १४४ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 -९२] कथानकसूची ६६ श्रीअमात्यसोमश्रीदृढसम्यक्त्वदर्शनबहुहिरण्ययागान्तर्गतकथामहितविष्णुश्रीदृढ-. सम्यक्त्वचतुर्थकथानकम् । ६७ श्रीजितशत्रनृपमुण्डिताख्यकुमारीमृत्तिकाभक्षणनियमकरणदर्शननागश्रीदृढसम्यक्त्व पञ्चमकथानकम् । ६८ श्रीपद्मश्रीदृढसम्यक्त्वरात्रिभोजनपरित्यागदर्शनपद्मलतादृढसम्यक्त्वषष्ठकथानकम् । १५५ ६९ श्रीअज्ञातफलपरित्यागहढव्रतसम्यक्त्वदेवतापूजितोमकदर्शनकनकलतादृढसम्यक्त्वसप्तम १५३ कथानकम। १६६ .-१८० १८९ ७० श्रीअर्हदासश्रेष्ठीमित्र श्रीप्रभृतिअष्टभार्यादृढसम्यक्त्वकथानकम् । १५९ ७१ श्रीपलाशसकूटग्रामोद्भववसुदासग्रामकूटदेवताजीवहिंसाफलसंजातच्छेलककथानकम् । १६३ ७२ श्रीमृगसेनधीवरमीनैकदयाकरसोमदत्तसंभवस्वदयारक्षणकथानकम् । ७३ श्रीपिष्टमयकुक्कुटकात्यायनीदेवतायै निहतसप्तभवान्तरभ्रमणसहितयशोधरचन्द्रमतीकथानकम् । . १६९ ७४ श्रीएकदिवसग्रहणादहिसाव्रतफलसहितशुंशुमारहदनिक्षिप्तदेवप्रातिहार्यपाकशासनपूजाकरणयमपाशयाताहिंसाव्रतकथानकम् । १७८ ७५ श्रीसत्यव्रतयुक्तमातङ्गकथानकम् । ७६ श्रीनारदपर्वतप्रतिज्ञाकरणकथानकम् । १८१ ७७ श्रीधनापहरणग्रहणधनसमर्पणविश्रब्धीकरणसागरदत्तकथानकम् । ७८ श्रीभूतिपुरोहितकथानकम् । ७९ श्रीइन्द्रादिमुनिदत्ताविकृतिकथानकम् । ८० श्रीशिववर्मविप्रवरत्राभिधानकथानकम् । . १९७ ८१ श्रीगोचरसंगीव्याख्यानम् । १९९ ८२ श्रीकडारपिङ्गकथानकम् । २०३ ८३ श्रीस्त्रीनिमित्तयुद्धाख्यं पाण्डवकौरवकथानकम् । २०४ ८४ श्रीसीताहरणनिमित्तरावणवधसंबन्धरामायणकथानकम् । . २०८ ८५ श्रीरक्तापङ्गुलनिमित्तयमुनानदीनिक्षिप्तदेवरतिनृपकथानकम् । २१० ८६ श्रीविरक्तगोमतिभार्यानिहतसिंहबलनृपकथानकम् । २१२ ८७ श्रीदुष्टचौरासक्तस्वकान्तादत्ताभ्याख्यानवीरवतीकथानकम् । ८८ श्रीवसुदेवरमणीरोहिणीकथानकम् । ८९ श्रीरामदेवपत्नीसीताशुद्धिकथानकम् । २१५ ९० श्रीजिनदत्तभार्याजिनदासीस्वशुद्धिकरणकथानकम् । २१५ ९१ श्रीसूरदत्तभूपतिसतीमहादेवीकथानकम् । ९२ श्रीसंसाराल्पसुखबहुमन्यमानत्रिविक्रमाख्यानकथानकम । २१७ or or ४४ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९३ २२७ २२९ २३२ २३८ २४२ २४५ 126 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ९३ श्रीचारुदत्तकथानकम् । २१७ ९४ श्रीजयनीसंसर्गभग्नशकटमुनिकथानकम् । ९५ श्रीवीरवतीगणिकासंसर्गभग्नकूपकारमुनिकथानकम् । २२८ ९६ श्रीसत्यवतीसंसर्गभग्नपराशरकथानकम् । ९७ श्रीनीललोहितकथानकम् । ९८ श्रीराजमुनिकथानकम् । ९९ श्रीब्रह्मोर्वशीमेलापककथानकम् । १०० श्रीधन्यमित्राख्यभ्राद्वयकथानकम् । २४४ १०१ श्रीद्वात्रिंशद्वणिग्जनचौरलुण्टनपरस्परविषाहारभक्षणसमस्तमरणसागरदत्ततपोग्रण कथानकम् । १०२७१ श्रीदूतमर्कटकारणं जिनदत्तकथानकम् । २४५ १०२७२ श्रीकपिलाब्राह्मणीनिबद्धं जिनदत्तनिवेदितं मुनिकथानकम् । २४९ १०२७३ श्रीजिनदत्तेन मुनिकथितं वैद्यकथानकम् । १०२७४ श्रीमुनिनिवेदितजिनदत्तद्वितीयकथानकम् । २५१ १०२७५ श्रीजिनदत्तनिवेदिततृतीयतापसगजकथानकम् । २५२ १०२७६ श्रीसाधुजिनदत्तकथिततृतीयकथानकम् । २५२ १०२४७ श्रीसिंहभयरक्षितशिवनितरुच्छेदोपदेशदायकपुरुषजिनदत्तमुनिनिवेदितचतुर्थकथानकम् । २५२ १०२७८ श्रीजिनदत्तसाधुनिवेदितचतुर्थसर्पकथानकम् । २५३ १०२७९ श्रीजिनदत्तकथितमुनिपञ्चमचौरनिहतश्रेष्ठिकथानकम् । २५४ १०३ भट्टप्रतिबद्धचुंकारिकान्तर्गतकथानकनिबद्धमुनिकथानकम् । २५४ १०४ श्रीषष्ठनरकसमुद्भावतृतीयप्रस्तरलल्लकनामधेयगमनद्वाविंशतिसागरायुःस्थितिपरिग्रहपरायणपिन्नाकगन्धश्रेष्ठिकथानकम् । २५५ १०५ श्रीकलत्रपुत्रादिसहितस्पटहस्तकश्रेष्ठिकथानकम् । २५७ १०६ श्रीउग्रसेनवनिमित्तं वसिष्ठमुनिनिदानकरणकथानकम् । २६७ १०७ श्रीसागरदत्तश्रेष्ठिकथानकम् । . २७६ १०८ श्रीलक्ष्मीमतीसमाधिगुप्तमुनिजुगुप्साफलसंजातकुष्ठमरणगर्दभीगन्धशूकरीवारद्वय शुनीधीवरीसमाधिगुप्तधर्मश्रवणक्षुल्लिकावतप्रहणाच्युतेन्द्रस्त्रीपौलोमीरुक्मिणीतपश्चरण देवसंभवधरणीमनुष्यागमनतपश्चरणमोक्षगमनसंप्रापणलक्ष्मीमतीकथानकम् । २७६ १०९ श्रीनिदानविधानकरणसप्तमनरकगमनसंभूतिमुनिकथानकम् । ११० श्रीपुष्पदत्तार्यिकामायाकृतनिन्दाकथानकम् । २८२ १११ श्रीमरीचिकथानकम् । २८३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 २८३ २८५ २८७ २८७ २८७ २८९ २९२ २९३ २९३ २९५ २९६ س २९७ २९७ -१४३] कथानकसूची ११२ श्रीकुलजमहापुरुषकथानकम् । ११३ श्रीघ्राणेन्द्रियसमायुक्तनरकगमनगन्धमित्रकथानकम् । ११४ श्रीपञ्चालोपाध्यायगीतश्रवणमरणकथानकम् । ११५ श्रीनरमांसभक्षणकारिजिह्वेन्द्रियवशीकृतभीमनृपतिनरकगमनकथानकम् । ११६ श्रीभर्तृमित्रनिहतसुवेगम्लेच्छनायकगमनकथानकम् । ११७ श्रीस्पर्शनेन्द्रियार्थं नन्दगोपसमासक्तनागदत्ताकथानकम् । ११८ श्रीशम्बुकुमारादिकुमारोपद्रुतक्रोधविधानसंयुक्तमुनिद्वीपायनकथानकम् । ११९ श्रीमानावष्टब्धसगरचक्रवर्तिषष्टिसहस्रपुत्रकथानकम् । १२० श्रीबृहद्रामसंभवसिंहबलकुम्भकारकथानकम् । १२१ श्रीमहालोभसमन्वितमृगध्वजराजकथानकम् । १२२ श्रीयमदग्नितापससुतपरशुरामनिधनीकृतकार्तवीर्यनृपकथानकम् । १२३ श्रीमहाशूरभटसिंहकेसरकथानकम् । १२४ श्रीमहापौरुषयुक्तनीलसिंहनृपतिकथानकम् । १२५ श्रीशिवभूतिविप्रकथानकम् । १२६ श्रीअवन्तिसुकुमालमुनिकथानकम् । १२७ श्रीसुकोशलकथानकम् । १२८ श्रीगजकुमारकथानकम् । १२९ श्रीसनत्कुमारचक्रीकथानकम् । १३० श्रीएणिकापुत्रकथानकम् । १३१ श्रीभद्रबाहुकथानकम् । १३२ समुद्रदत्तादिद्वात्रिंशत्कुमारकथानकम् । १३३ श्रीसौधर्मघोषमुनिनिर्वाणकथानकम् । १३४ श्रीधरमुनिकथानकम् । १३५ श्रीवृषभसेनमुनिकथानकम् । १३६ श्रीस्वामिकार्तिकमुनिभ्रातृकोत्पत्तिकथानकम् । १३७ अभयघोषमुनिकथानकम् । १३८ श्रीविद्युच्चरमुनिकथानकम् । १३९ श्रीगजकुमारमुनिकथानकम् । १४० श्रीचिलातमित्रकथानकम् । १४१ श्रीधान्यकुमारमुनिकथानकम् । १४२ श्रीअभिनन्दनादिपञ्चशतमुनिकथानकम् । १४३ चाणाक्यमुनिकथानकम् । س س س ० ०.6 Mc0.6 ३१७ ३१९ س س ३१९ س سه ३२२ ३२४ ३२५ ३२५ ३२७ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे १४४ वृषभसेनमुनिकथानकम् । १४५ श्रीपालकथानकम् । १४६ श्रीनामवादिश्रेष्ठिमङ्गाहारार्थिपुरुषकथानकम् | १४७ श्री शालिसिक्थकथानकम् । १४८ श्रीसुभूमचक्रवर्तिकथानकम् । १४९ श्रीसुप्तपुरुष राज्य दर्शनकथानकम् । १५० धनदेववसन्ततिलकाकमलाकथानकम् । १५१ श्री सुभोगभूपतिस्वकीयाशुचिभवनोत्पत्तिकथानकम् । १५२ श्रीसुकोशलमुनिकथानकम् । १५३ श्रीसुदृष्टिमुनि कथानकम् । १५४ श्रीधर्मसिंहमुनिकथानकम् । १५५ वृषभसेनमुनिकथानकम् । १५६ श्रीअभिसारशस्त्रनिहतजय सेननृपतिकथानकम् । १५७ श्रीशकटालमुनिकथानकम् । प्रशस्तिः । [ १४४ ३३८ ३३९ ३४० ३४१ ३४२ ३४२ ३४२ ३४५ ३४६ ३४६ ३४७ ३४७ ३४८ ३४९ ३५५ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः॥ श्री-हरिषेणाचार्य-कृतं बृहत्कथाकोशम् ___ <>*02k-Sश्रियं परां प्राप्तमनन्तबोधं मुनीन्द्रदेवेन्द्रनरेन्द्रवन्धम् । निरस्तकन्दर्पगजेन्द्रदएँ नमाम्यहं वीरजिनं पवित्रम् ॥१॥ विघ्नो न जायते नूनं न क्षुद्रामरलङ्घनम् । न भयं भव्यसत्त्वानां जिनमङ्गलकारिणाम् ॥२॥ जनस्य सर्वस्य कृतानुरागं विपश्चितां कर्णरसायनं च । समासतः साधुमनोऽभिरामं परं कथाकोशमहं प्रवक्ष्ये ॥३॥ १. राजकुमारकथानकम् । अथ भद्रपुरे राजा जिनचन्द्रोऽभवत् प्रभुः । प्रतापसाधितारातिः सत्यत्यागसमन्वितः ॥१॥ . बभूवास्य नरेन्द्रस्य जिनदत्ता मनःप्रिया। तथा जिनमतिस्तन्वी चावीं जिनमतिः प्रिया ॥२॥ सुषुवे जिनदत्ताऽमुं सूरदत्ताभिधं सुतम् । शूरं धीरं महासत्त्वं शास्त्रशिक्षादिकोविदम् ॥३॥ जिनमत्यां महादेव्यां जिनदत्तोऽभवत् सुतः । गजाश्वादिक्रियादक्षो भोगदुर्ललिताङ्गकः ॥४॥ भूपतेर्जिनचन्द्रस्य याति यावदनेहसि । सुखेन तावदागत्य रुद्धं भद्रपुरं परैः ॥ ५॥ दृष्ट्वा निजपुरं रुद्धं म्लेच्छैर्निष्ठुरमानसैः । जिनदत्तं सुतं राजा प्रजिघाय तदन्तिकम् ॥ ६ ॥ ततः क्षणादसौ म्लेच्छैर्निर्जितो हतसैनिकः । रणात् पलायनं कृत्वा प्रविवेश निजं पुरम् ॥ ७॥ जिनदत्तं पुरो वीक्ष्य म्लानवाम्बुजश्रियम् । चिन्तापिशाचिकाग्रस्तो जिनचन्द्रो बभूव सः ॥ ८॥ विलोक्य पितरं त्वेष सूरदत्तो जगावमुम् । तात देहि ममादेशं याम्यहं म्लेच्छकान् प्रति ॥ ९॥ एवमस्त्विति संभाष्य जिनचन्द्रं मुमोच तम् । सूरदत्तं महानादनादिताशेषपुष्करम् ॥ १०॥ ० तत्समीपं पुनः प्राप्य सूरदत्तो जगाद तान् । रेरे खला दुराचारास्तिष्ठताग्रे ममाधुना ॥ ११॥ श्रुत्वा तं दुर्धरं वीरं वेष्टयित्वा च तं खलाः । स्वसैन्यसमुदायेन सर्वतस्तेऽवतस्थिरे ॥ १२ ॥ निर्जित्य तद्बलं युद्धे खड्गधाराप्रहारतः । विवेश पत्तनं शूरः पताकावलिराजितम् ॥१३॥ शत्रुर्जितो यतोऽनेन जितशत्रुरितीरितः । पुत्रो जयश्रिया सेव्यो भूभुजा तोषमीयुषा ॥ १४ ॥ अभिषेकं विधायासौ भूपतिर्भूपसाक्षिकम् । जलकुम्भैर्घटैः स्वर्णैर्युवराजपदं ददौ ॥ १५॥ ५ सर्वकालं पुरे ग्रामे देशेऽपि जनवाक्यतः । जितशत्रुकथा रम्या 'श्रूयते सर्वजन्तुभिः ॥१६॥ ____ 1 पॐ नमो वीतरागाय, फ ॐ नमो विघ्नच्छिदे, ज ॐ नमो वीतरागाय. 2 प जिनस्य. 3 फ जनमति. 4 पज सूरं. 5 फ दुर्लडिताङ्गकः. 6 प जिनवाक्यतः, फ जन्मवाक्यतः 7 फज स्तूयते. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १.१७ अन्यदा तत्सभामध्ये केनचिज्जल्पितं स्फुटम् । जितशत्रोः परः शूरो न भूतो न भविष्यति ॥ १७ ॥ निशम्य तद्वचः प्रौढं जिनदत्तो जगावमुम् । म्लेच्छपराजये काऽस्य शूरता वर्णिता मया ॥ १८ ॥ क्रोधं मानं मदं मायां लोभं कामं च येऽनिशम् । परीषहचमूं घोरां सामान्यजनदुर्जयाम् ॥१९॥ पुण्यवन्तो महासत्त्वा गुणिनो विमलाशयाः । निराकुर्वन्ति ते शूरा मुनयः स्वहितैषिणः ॥ २० ॥ जिनदत्तवचः श्रुत्वा महावैराग्यसङ्गतः । श्रीधराख्यमुनेः पार्श्वे सूरदत्तोऽग्रहीत् तपः ॥ २१ ॥ यथा राजकुमारेण कुशलेन क्रियाविधौ । युद्धे जयध्वजः प्राप्तस्तपोऽपि परमं पदम् ॥ २२ ॥ साधुनाऽपि तथा त्वर्थं नूनं स्वहितमिच्छता । मतिः सदाऽतितोषेण कर्तव्याऽऽराधनाध्वजे ॥२३॥ ॥ इति राजकुमाराख्यानकमिदम् ॥ १ ॥ २. सोमशर्मकथानकम् । • अथास्ति भरतक्षेत्रे मथुरा नगरी पुरा । हिमवत्कूटसंकाशजिनायतनमण्डिता ॥ १ ॥ चारित्राचारसंपन्नो गुणशीलमहोदधिः । आचार्यो नन्दिमित्राख्यो मथुरायां वसत्यसौ ॥ २ ॥ अत्रान्तरे द्विजो मानी देशान्ताद् वागडादिकात् । सोमशर्मा जगामेमां पुरीं गोधनसंकुलाम् ॥ ३ ॥ प्रविश्य मन्दिरं जैनं दृष्ट्वाऽऽचार्यं प्रशान्तधीः । दीक्षां दैगम्बरीं सोऽपि नन्दिमित्रान्तिकेऽग्रहीत् ॥४॥ विशुद्धबोधदेहेन सूरिणा संपरीक्ष्य वै । यथा निर्वर्ण्यते दीक्षामिति दत्ता महात्मना ॥ ५ ॥ आचार्येण पुनस्तस्य लिखिता 'मातृकादरात् । पाठितोऽपि 'नमः सिद्धं' पदं नैति परिस्फुटम् ॥६॥ मातृकाक्षरमप्येकं यस्य नैति कथं तपः । करिष्यति स्फुटं साधुः सूरिणाऽयं तिरस्कृतः ॥ ७ ॥ आचार्यस्य वचः श्रुत्वा निष्ठुरं देहनिःस्पृहः । मरणस्थितचेतस्कः सोमशर्माऽभवन्मुनिः ॥ ८ ॥ अन्यमाचार्यमासाद्य पप्रच्छायं विशुद्धधीः । उत्कृष्टमरणोपायं पवित्रं कथयाशु मे ॥ ९ ॥ आकर्ण्य तद्वचस्सारं सूरिरागमकोविदः । तदुपायं जगादेति तस्य निर्मलचेतनः ॥ १० ॥ 15 चतुर्धाऽऽराधनाशुद्धिं चतुर्धाऽऽहारमोचनम् । कृत्वा प्राचीमुखो भूत्वा वोदीची " सन्मुखोऽपि वा ११ स्थित्वा पर्यङ्कयोगेन कायोत्सर्गेण वा स्थिरः । चन्द्रप्रभजिनार्चायाः स्मर त्वं सुसमाहितः ॥ १२ ॥ आदाय तद्वचो जैनं मन्दिरं त्रिः परीत्य च । नत्वा जिनमसौ साधुं मथुरातो वनं ययौ ॥ १३ ॥ पृथुप्रांशुशिलापट्टे वटवृक्षतरोरधः । गिरीन्द्रनिश्चलो योगी कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥ १४ ॥ शरीराहारमुत्सृज्य यावज्जीवं विशुद्धधीः । चन्द्रप्रभं जिनं कृत्वा हृदयेऽनूनसत्त्वकः ॥ १५ ॥ 25 आराधनां समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम् | दिनद्वयगतायुष्को जातो देवो महर्द्धिकः ॥ १६ ॥ पूर्वाभावितयोगेनाराधिताऽऽराधना यदि । सोमशर्माभिधानेन प्रमाणं तन्न सर्वथा ॥ १७ ॥ ॥ इति पूर्वाभावितयोगसोमशर्मकथानकम् ॥ २॥ * 20 1 फज नरदुर्जयाम् 2 फ युग्मम्, पज युगलमिदम् 3 ज परां 6 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 7 [ साधुः ]. 8फ निप्रोधाख्यतरो 4 फ चोदीची 5 फ स्थिरत्वं. 9 प प्रणामं. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. ३१] विष्णुदत्तकथानकम् ३. विष्णुदत्तकथानकम् । अथ जम्बूमति द्वीपे क्षेत्रे भरतनामनि । अवन्तीविषयः सारो विद्यते जनसंकुलः ॥१॥ जिनायतनसाणूरसौधापणविराजिता । तत्रास्ति कृतिसंवासा श्रीमदुजयिनी पुरी ॥२॥ दुःखितानां दरिद्राणां नित्ययाचितकारिणाम् । अन्धलानां बभूवास्यां पाटको दीनचेतसाम् ॥३॥ तन्मध्ये विष्णुदत्तोऽभूदन्धलो धनवर्जितः । तजाया सोमिला नाम खरनादनिनादिनी ॥४॥ हृदयं मस्तकं हत्वा करस्थकठिनोपलैः । हट्टमध्ये तथा दन्तैर्विधृत्य तृणपूलिकाम् ॥५॥ गीतैर्मनोहरैर्लोकं रञ्जयन् विष्णुदत्तकः । कुटुम्बपोषणं चके क्लेशेनातिगरीयसा ॥६॥ ततोऽन्येधुरयं विप्रः शिरोवेदनयाऽर्दितः । स्थितो निजगृहे भूमौ पतित्वा क्लान्तविग्रहः ॥७॥ यावदास्ते द्विजो दुःखी पतितः स्वकुटीरके । तावदागत्य तद्भार्या पादेनाहत्य तं जगौ ॥ ८॥ रेरे निष्कम्प निर्लज्ज स्वकीयोदरपूरण । किमानयसि नाद्यापि द्रुतं मे शिशुभोजनम् ॥ ९॥॥ तस्मादाहारमानेतुं याहि खेदमचिन्तयन् । न हि सन्तो मनोदुःखं कुर्वते सुतपोषणे ॥ १० ॥ भार्यावचनमाकर्ण्य पूतनावाक्यसंनिभम् । जगाद निष्ठुरस्वान्तां विष्णुदत्तः स्वसुन्दरीम् ॥११॥ भार्या मनोरमा पुत्रों दुहिता मणिकाञ्चनम् । धनं धान्यादिकं सर्व वल्लभं सति विग्रहे ॥ १२॥ शिरःस्थवेदनासङ्गविह्वलीभूतमानसः । न दातुं पदमप्येकं शक्नोमि दयिते स्वतः ॥१३॥ विष्णुदत्तवचः श्रुत्वा सोमिल्लेमं जगौ पुनः । भोजनार्थं त्वयाऽवश्यं गन्तव्यं दुःखितेन च ॥१४॥ 15 सुतमादाय हस्तेन मरणे कृतनिश्चयः । कान्तावचनतो विप्रो नगरीतो विनिर्ययौ ॥१५॥ गृहं प्रति सुतं मुक्त्वा विष्णुदत्तोऽतिदुःखितः । ललाटे तरुजालेन धावन् विद्धोऽपतद् भुवि ॥१६॥ ललाटवणनिर्यातरक्तारुणिततत्क्षमः । पश्यति स्म स संप्राप्य चेतनां सधनं कुटम् ॥१७॥ कुम्भ रत्नभृतं दृष्ट्वा सन्तोषपुलकाञ्चितः । स्वप्नो वा संशयो वायं सत्यमेवावबुध्य सः॥१८॥ उत्थातुमसहो यावत् किं करोमीति चिन्तयन् । आस्ते तावञ्च सा भार्या तमुद्देशं तदीयिका ॥१९॥ 20 अन्वेषयन्ती संप्रापदुत्थापयितुमानसा । हन्ति पादेन यावत्तं तावदुक्तं द्विजन्मना ॥२०॥ निधिलाभेन मे दृष्टिरित्युत्थाप्यानुनीय च । आनयस्व गृहं शीघ्रमित्युक्त्वा सा गृहं ययौ ॥२१॥ क्लेशेनाथ समुत्क्षिप्य निजपुण्यं विचिन्तयन् । विप्रः शीघ्रं तमादाय सदृष्टिः स्वगृहं ययौ ॥२२॥ विलोक्य दधतं कुम्भं सधनं दयितं प्रिया । तत्सन्मुखमभीयाय तदानीं विकसन्मुखी ॥ २३ ॥ तन्मस्तकात् समादय तं कुटं निजपाणिना । मुमोच खकुटीकोणे संगुप्तं हृष्टमानसा ॥ २४ ॥ 25 तस्यासनं प्रदायाशु पादौ प्रक्षाल्य वारिणा । भोजनं विधिना दत्त्वा पप्रच्छेमं धनागमम् ॥२५॥ यथा खुण्टेन संभिन्नो दृष्टिलाभो धनागमः । तथा निशम्य तद्वाक्यं तस्याः सर्वं निवेदितम् ॥२६॥ श्रुत्वा तद्वचनं हृष्टा सुखसागरमध्यगा । सोमिल्ला विष्णुदत्तेन समं तस्थौ प्रियंवदा ॥ २७॥ एकदाऽन्धाः परीवारयुक्ताः सर्वे निमत्रिताः । भोजिताः पायसान्नाद्यैर्यथेष्टं तोषमागताः ॥ २८॥ अथ तौ दम्पती तत्र वस्त्राभरणभूषितौ । पुष्प-ताम्बूलशोभाढ्यौ हय-गोमहिषीवृतौ ॥ २९॥ 30 विस्मयव्याप्तचेतस्काः पाटकान्धलयोषितः । चिन्तयन्ति स्म तत्पुण्यभाषणासक्तमानसाः ॥३०॥ खकीयनादसन्तानपूरिताकाशभूतलाः । धनतृष्णापरिग्रस्ताः सोमिल्लां ताः समाययुः ॥ ३१॥ 1प युग्मम् , फ युगलम् , ज युगलमिदम्. 2 प खेदमचिन्तयत्. 3 पज पुत्रा. 4 फ पदमेकं तु. 5फ दयितेमुतः. 6फ सत्यमेव विबुध्य, ज सत्यमेवं वबुध्य. 7 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [३. ३२दत्तासनं समाविष्टाः कृतसन्मानसत्क्रियाः । प्रोचुः ससंभ्रमं सर्वाः युगपत्तां मृदूदितैः ॥ ३२॥ हले त्वदीयकान्तेन व लब्धं धनमुत्तमम् । अक्षदृष्टिरपि स्पष्टं कथयैतत् सखि द्रुतम् ॥ ३३॥ आकर्ण्य तद्वचः साऽपि हसित्वा प्रीतमानसा । सत्यं वक्तुं समारेभे तत् प्रत्यक्षं सकौतुकम् ॥३४॥ तिरस्कृतो मया कान्तः कठोरैदृढभाषितैः । श्रुत्वा मद्वचनं सोऽपि निर्गतोऽशक्नुवन् गृहात् ॥३५॥ ललाटं वृक्षमूलेन भिन्नमस्य प्रधावतः । तद्रक्तनिर्गमादस्य दृष्टिर्जाता धनं तथा ॥३६॥ सोमिल्लावाक्यमाकर्ण्य लब्धद्रव्यसमागमाः । स्खं स्वं निकेतनं यातास्तका मुदितचेतसः ॥ ३७॥ विष्णुदत्तस्य वृत्तान्तं कथयित्वा तदग्रतः । स्वस्वकान्तान् परिप्राप्य प्रोचुः स्वस्वप्रियास्तदा ॥३८॥ निशम्यात्मात्मभार्योक्तं सर्वे दुःखितमानसाः । धावन्ति स्म त्वरावन्तो धनलोचनतृष्णया ॥३९॥ केचित् पतन्ति कूपेषु केचित् सरसि दुःखिताः । केचिन्नदीषु वापीषु केचित्पुष्करणीषु च ॥४०॥ 10 तरूपलासमाघातचूर्णिताखिलविग्रहाः । रौद्रार्तध्यानिनः पापाः सर्वे मरणमाययुः ॥४१॥ केचित् श्वभ्रगति भीमा केचित्तिर्यग्गतिं खलाः । प्रधावन्तोऽधिकस्थानं स्वपदाद् भ्रंशमागताः ॥४२॥ विष्णुदत्तेन चेल्लब्धो धन-दृष्टिसमागमः । ततोऽन्यैर्मृतिमासाद्य प्राप्ता दुःखपरंपराः ॥४३॥ तस्मात् पुण्यसमुत्थानां प्राणिनां जगति ध्रुवम् । पापपुञ्जप्रजातानां न समानं प्रयोजनम् ॥४४॥ ॥ इति विष्णुदत्तगर्तनिधिदृष्टिलाभकथानकमिदम् ॥ ३॥ ४. सोमदत्त-विद्युच्चौरकथानकम् । अथास्ति मगधे देशे राजपूर्वगृहं पुरम् । धनधान्यसमाकीर्णं पौरलोकसमावृतम् ॥१॥ तत्र राजा प्रजापालो निहताशेषशात्रवः । कीर्तिशुभ्रीकृताशेषगगनावनिमण्डलः ॥२॥ प्रजापालनशक्तस्य गुणसन्ततिवारिधेः । तस्य भार्या महादेवी कनका कनकोज्वला ॥३॥ तत्रैव नगरे श्रेष्ठी जिनदासो महाधनः । जिनपूजाविधानज्ञो जिनधर्मरतोऽभवत् ॥४॥ 20 जिनदत्ता प्रिया तस्य जिनभक्तिपरायणा । रूपशीलकुलोपेता बभूव कलभाषिणी ॥५॥ अथारणाच्युतो देवो धन्वन्तरिचरः स्वकाम् । पाठसिद्धिं ददावस्मै जिनदासाय सादरम् ॥६॥ अन्येषां शक्तिहीनानां बाल-वृद्ध-युवेशिनाम् । साधिता सिद्धिमायाति विद्या जनितविस्मया ॥७॥ आकाशगामिमत्रेण कृत्रिमाकृत्रिमाणि सः । जिनबिम्बानि वन्दित्वा पुनरेति पुरं निजम् ॥ ८॥ अन्यदा सोमदत्तेन सोमिल्लावल्लभेन च । धर्मपुत्रेण पुष्टेन ग्रामवस्त्रविभूषणैः ॥९॥ 25 जिनदासः परं पृष्टः कौतुकेन गरीयसा । अष्टम्यां च चतुर्दश्यां तात यासि क मे वद ॥१०॥ श्रुत्वा तद्वचनं श्रेष्ठी जगादेमं सकौतुकम् । स्नेहनिर्भरचेतस्कं विनयानतविग्रहम् ॥ ११ ॥ यावन्ति जिनचैत्यानि कृत्रिमाकृत्रिमाण्यपि । तावन्ति तानि वन्दित्वा मणिवर्णमयानि वै ॥१२॥ मेरौ नमेरुशोभाहें मित्रमत्रप्रयोगतः । आकाशगमनेनारमागच्छामि पुरं पुनः ॥ १३ ॥ जिनदासवचः श्रुत्वा हृदयानन्दकारणम् । भूयोऽपि तं जगादायं विस्मयव्याप्तमानसः ॥१४॥ " तात तावदिमां विद्यामाकाशगमने क्षमाम् । देहि मे येव गच्छावो मन्दरं जिनमन्दिरम् ॥१५॥ कृत्रिमाकृत्रिमाण्याशु जिनबिम्बानि भक्तितः। वन्दित्वान्यान् मुनीनूनमागच्छावो विहायसा॥१६॥ 1फ यथासनं. 2 पज शकस्वगृहात्. 3फ शुभ्रकृता. 4 फ भवेत्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्, 6फगमनेनारामा'. 7 पफज त्रिकलमिदम्. 8 फकारिणम्. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ४८ ] सोमदत्त-विद्युच्चौर कथानकम् ३० ॥ सोमदत्तवचः श्रुत्वा जिनदासोऽवदत् तकम् । पुत्र देवेन सा विद्या दत्ता मे पाठसिद्धिदा ॥ १७ ॥ अन्येषां हीनशक्तीनां दुस्साध्या जायते सका । तेन त्वं जिनबिम्बानि स्तुत्वेह तानि तिष्ठ भो ॥१८॥ तेन भूयोऽपि संपृष्टो जिनदासः पटीयसा । कथं दुःसाध्यतां याता विद्या जनक मे वद ॥ १९ ॥ धर्मपुत्रवचः श्रुत्वा जिनदासो जगावमुम् । विनयाचारसंपन्नं जिनभक्तिपरायणम् ॥ २० प्रथमं षष्ठमादाय विहितेन्द्रियनिग्रहः । शुचिः कृष्णचतुर्दश्यां श्मशानं व्रज निर्भयः ॥ २१ ॥ तदन्तःस्थमहातुङ्गमहीधरशिरस्थितम् । शाखाछादितदिग्भागं वटवृक्षं निरूपय ॥ २२ ॥ अष्टोत्तरशतप्रान्तपादनिर्मितसिक्ककम् । तद्वटोपरिशाखायां प्रात्तं कृत्यधनं हि तत् ॥ २३ ॥ सिक्काधःप्रासकुन्तेषु छुरिकाद्यायुधानि च । कर्तव्यान्यूर्ध्ववक्राणि तीक्ष्णधाराणि तान्यलम् ॥ २४ ॥ कर्तव्यं पुरतस्तस्य त्वया विद्यासमाप्तये । गन्धाक्षतोद्गमहविर्दीपधूपफलादिकम् ॥ २५ ॥ खड्गधेनुं समादाय तीक्ष्णधारां समुज्वलाम् । नमः सिद्धेभ्य इत्युक्तत्वा समारोहय सिक्ककम् ||२६|| " जिन-सिद्ध-गणाधीश-पाठकेभ्यस्त्रिधा नमः । साधुभ्योऽपि नमस्कृत्वा छिन्द्धि तत्पादमेककम् ॥२७॥ एवं क्रमेण चोच्चार्य तत्पदानां कदम्बके । करवाल्या समुच्छिन्ने खेगमस्ते भविष्यति ॥ २८ ॥ विद्योपदेशमावेद्य सोमदत्तस्य धीमतः । जिनदासो विशुद्धात्मा जोषमादाय तस्थिवान् ॥ २९ ॥ धर्मपुत्रोऽपि तत्सम्यक् जिनदासनिवेदितम् । तोषपूरितचेतस्को जग्राह कृततन्नुतिः ॥ अन्येद्युः सोमदत्तोऽपि वटे पूर्वनिरूपिते । बबन्ध सिक्ककं हृष्टो जिनदासोपदेशतः ॥ ३१ ॥ is अधःकृत्वायुधान्यस्य चोर्ध्ववक्राणि वन्दनम् । दत्त्वा पुष्पप्रदीपादीनारुरोह तकं सकः ॥ ३२ ॥ यावदालोकते' भूमिं खड्गधारातिभीषणम् । तत्रस्थस्तावदेषोऽभूत् सभयः क्षुरिकाकरः ॥ ३३ ॥ सिक्ककस्य यदि च्छेदं करवाल्या करोम्यधः । ततः पताम्यहं क्षिप्रमायुधोपरि निश्चितम् ॥ आयुधोपरि संपाते नियतं मरणं मम | विद्या यास्यति किं सिद्धिं न वा चकितचेतसः ॥ ३५ ॥ एवं संचिन्त्य भीतात्मा सिक्कादुत्ततार सः । आरुरोह तदेवाशु व्याकुलीभूतमानसः ॥ ३६ ॥ 20 अत्रान्तरेऽन्तरालस्थो विद्युच्चौरो विलोक्य तम् । वभाण भासुराकारः सिक्ककावनिसंस्थितम् ॥३७॥ किमिदं कर्तुमारब्धं वटवृक्षे त्वया द्विज । समस्तं ब्रूहि वृत्तान्तं मम विस्मयकारणम् ॥ ३८ ॥ विद्युच्चौरवचः श्रुत्वा सोमदत्तोऽब्रवीत्तकम् । आकाशगामिनी विद्या मयाऽऽराधयितुं श्रिता ॥ ३९ ॥ अर्हत्सिद्धादिसन्मन्त्रं पठित्वा त्रिगुणीकृतम् । सिक्ककस्यैकपादो हि खड्गधेन्वा निकृत्यते ॥ ४० ॥ तत्पादेषु च सर्वेषु नूनं छिन्नेष्वनुक्रमात् । "धरामप्राप्य वेगेन गमनं दिवि जायते ॥ ४१ ॥ 25 अहं संशयमापन्नस्तिष्ठामि विजने वने । संशयं कुर्वतां पुंसां न किंचित् सफलं भवेत् ॥ ४२ ॥ निशम्य सोमदत्तस्य वचनं भीरुतावहम् । विद्युच्चौरोऽपि तं प्राह तद्विद्याग्रहणेच्छया ॥ ४३ ॥ विद्येयं केन ते दत्ता सच्चिदानन्ददायिनी' । ' त्वत्पक्षपातयुक्तेन कथयाशु मम द्विज ॥ ४४ ॥ विद्युच्चौरवचः श्रुत्वा सोमदत्तोऽप्यमुं जगौ । जिनदासेन मे दत्ता विद्या गगनगामिनी ॥ ४५ ॥ भणितं सोमदत्तस्य भयविह्वलचेतसः । विद्युच्चौरः समाकर्ण्य दध्यौ मनसि धीरधीः ॥ ४६ ॥ 30 जिनदासो दयायुक्तो जिनशासनभावितः। न चिन्तयति यो दुःखं कीटिकाया विशुद्धधीः ॥४७॥ स्वहस्तपोषितं विप्रं धर्मपुत्रं जनप्रियम् । पञ्चेन्द्रिययुतं चित्रं किं स हन्ति दयार्द्रधीः ॥ ४८ ॥ ३४ ॥ 1 फ विहते. 2 फ गन्धा..... । कर्तव्यं 5 फ कारिणं. 6 पज धारा 7 फज सच्चित्ता ॥ २५ ॥ 3 प यावदालोक्यते 4 फ तावदेको. 8 फ तत्पक्ष. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [४. ४९संशयग्रहसंग्राहवेपिताखिलविग्रहः । जिनदासोदितं मूढो मन्दभाग्यः करोति नो ॥ ४९ ॥ इति संचिन्त्य बुद्धात्मा गृहं प्रति विसृज्य तम् । तदुक्तं सर्वमादाय चारुरोह स सिक्ककम् ॥५०॥' खप्रयोजनहानित्वान्म्लानवसरोरुहः । आरक्षकैः समं सोऽपि सोमदत्तो गृहं ययौ ॥५१॥ अथ सिद्धस्तुतिं कृत्वा नत्वा पञ्चाईदादिकान् । चिच्छेद सिक्ककं चौरः सपादं क्षुरिकाहतेः ॥५२॥ 5 सपादसिक्कसंछेदाद् गगनस्थितविग्रहः । पश्चान्मेरुमसौ प्रापद् विद्युच्चौरो विहायसा ॥ ५३॥ नन्दने सौमनस्येऽपि भद्रशालवने वने । पाण्डुकाख्ये स चैत्यानि वन्दित्वोपशमं गतः ॥ ५४॥ सिद्धकूटेऽपि वन्दित्वा जिनार्चाः प्रीतिमाप्नुवत् । समं मुनिभिरद्राक्षीजिनदासं स तस्करः॥५५॥ त्रिः परीत्य स भावेन जिनदासं प्रणम्य च । विद्या भवत्प्रसादेन सिद्धा मे वरगामिनी ॥ ५६॥ जिनदासोऽप्यमुं दृष्ट्वा विकसन्मुखपङ्कजम् । दध्यौ हृदि विषण्णात्मा कृष्णीभूतमुखाम्बुजः ॥५७॥ 10 सुवर्ण-मणि-चैत्यानि तद्विम्बानि वराणि च । हरिष्यति न सन्देहस्तस्करो धनलम्पटः ॥ ५८॥ चिन्तयित्वा चिरं सोऽपि पप्रच्छेमं पुरःस्थितम् । वितीर्णा केन ते विद्या ब्रूहि मे व्योमगामिनी ॥५९॥ निशम्य भारतीमस्य म्लानवक्त्रस्य तस्करः । जगादैनं विशुद्धात्मा ललाटन्यस्तपाणिकः ॥ ६०॥ सोमदत्तेन मे विद्या दत्ता चञ्चलचेतसा । बहुना किं विकल्पेन मुनिर्विज्ञाप्यतामरम् ॥ ६१॥ श्रुत्वा तद्वचनं धीरं तोषपूरितमानसः । जिनदासो मुनि प्राह नीत्वामुं मुनिसंनिधिम् ॥ ६२ ॥ Is मगवन् भव्यसिंहाय धर्मयुक्ताय पावनीम् । दीक्षां दैगम्बरीं चास्मै दीयतां कर्मनाशिनीम् ॥ ६३॥ जिनदासवचः श्रुत्वा धर्मविन्यस्तचेतसम् । जगाद मुनिरप्येनं शिरोनिहितपाणिकम् ॥ ६४ ॥ धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि मतिमानसि साम्प्रतम् । येनेशी तपोबुद्धिर्जाता ते नवयौवने ॥६५॥" मुनिवाक्यं समाकर्ण्य संसारोदधितारणम् । जगाद योगिनं वीरं जानुस्पृष्टमहीतलः ॥ ६६ ॥ संसारकूपसंपातहस्तालम्बनधारिणीम् । देहि दीक्षां विभो मह्यं कर्मविच्छेदकारिणीम् ॥ ६७ ॥ 20 अनायुषोऽस्य भव्यस्य श्रुत्वा वचनमुत्तमम् । ददौ दैगम्बरी दीक्षां हतयेऽखिलकर्मणाम् ॥ ६८॥ विद्युच्चौरश्चिरं तप्त्वा तपः कर्मविनाशनम् । विधिना मृतिमासाद्य बभूव विबुधो महान् ॥ ६९ ॥ शङ्कान्वितस्य विप्रस्य न विद्या सिद्धिमागता । विद्युच्चौरेण सा क्षिप्रं शङ्काहीनेन साधिता ॥ ७० ॥ ॥ इति शङ्कितसोमदत्तनिःशङ्कितविद्युचौरकथानकम् ॥ ४ ॥ ५. विषरथ-यशोरथकथानकम् । 25 अस्त्यत्र भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे । अवन्तीविषयः ख्यातो धनधान्यवधूजनैः॥१॥ अस्ति देशेऽत्र पू रम्या रमणीरामणैः कुलैः । रूपसौभाग्यसंपन्नैनूनमुज्जयिनी शुभा ॥२॥ बभूवापि पतिस्तस्यां गुणरञ्जितभूतलः । दोर्दण्डखड्गसंपातखण्डितारिर्विषंधरः ॥३॥ नृपस्यास्याभवद् भार्या कन्दोट्टदललोचना । उत्तप्तकाञ्चनच्छाया मालान्ता कनकादिका ॥ ४ ॥ जातौ पुत्रौ तयोः कान्तौ भुवनानन्दकारिणौ । यशोरथो यशोराशिस्तथा विषरथोऽपरः ॥५॥ 30 क्रीडन्तौ निर्भरं तौ च वनेषु च नदीषु च । पुलिनेष्वपि रम्येषु समं पुष्पोच्चयादिभिः ॥६॥ अन्यदा गोकुलं यातौ जनकस्य तकौ वरम् । दृष्टौ गोकुलनाथेन नीतौ निजगृहं मुदा ॥ ७॥ 1 पफज कुलकम्. 2 फज आरक्षिकैः. 3 फ क्षुरिकाहते. 4 पज मानवान्. 5 पज जैनदासं वचः. 6 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 7 फरमणैः. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. २१] जय-विजयकथानकम् मन्नाथनन्दनावेतौ 'क्षुधापंपातिपीडितौ । भुक्तवन्तौ मुदा सार्धं तगृहे पायसादिकम् ॥ ८ ॥ निर्गत्य तट्टहादेतौ प्रविष्टौ निजमन्दिरम् । भूयोऽपि भोजनं चके कनिष्ठोऽशनलम्पटः ॥९॥ विसूचिकामृतं दृष्ट्वा तदा विषरथं सुतम् । विषधरनृपो दध्यौ चेतसीदं विचक्षणः ॥ १०॥ जीवितं जलबिम्बाभं प्रेम स्वप्नसमं नृणाम् । सम्पदोऽपि खलाः पापास्तरङ्गगतिचञ्चलाः ॥ ११ ॥ सन्ध्यारागसमा प्रीतिः सहारं रमणीजनैः । कदलीगर्भनिःसारं यौवनं च शरीरिणाम् ॥ १२ ॥ एवं संचिन्त्य बुद्धात्मा पुत्रं ज्येष्ठं यशोरथम् । स्थापयित्वा स्वराज्येऽसौ नन्दनान्तेऽगृहीत् तपः १३ कृत्वा विषरथः कालं भोजनाशक्तिकारणात् । संसारे घोरदुःखानि प्रभुञ्जानोऽवतिष्ठते ॥ १४ ॥ इतरो भोजनाकांक्षी न मृतोऽसौ यशोरथः । राज्यं जनकतः प्राप्तः शं भुञ्जानोऽवतिष्ठते ॥१५॥ इति सकाङ्क्षविषरथ-निःकाङ्क्षयशोरथकथानकमिदम् ॥५॥ ६. जय-विजयकथानकम् । ततोऽस्ति भारते वास्ये श्रीमदुज्जयिनी पुरी । राजा गगनचन्द्रोऽस्यां गगनश्रीः प्रियाऽस्य च ॥१॥ लङ्काधिपसमो धीमान् सिंहलद्वीपनायकः । वयस्योऽलं बभूवास्य गगनादित्यनामकः ॥२॥ शतपत्रशरच्चन्द्रमुखी कन्दोलोचना । आसीद् गगनसूर्यस्य भार्या गगनसुन्दरी ॥३॥ जातः पुत्रस्तयोरायो जयः कृतजयः सुधीः । कनिष्ठो विजयः शूरो विजयार्जितभूतलः ॥४॥ अन्यदा गगनादित्यः सिंहलद्वीपनायकः । बलवानपि शूरोऽपि नीतः कालेन पञ्चताम् ॥ ५॥ 15 गगनादित्यमित्रस्य लोकान्तरमितस्य सः । श्रुत्वा वार्ता सशोकोऽभूच्छ्रीमदुज्जयिनीपतिः ॥ ६॥ हितैनरैः समानीतौ तत्पुत्रौ निजपत्तनम् । व्योमचन्द्रहितालापैनष्टशोको बभूवतुः ॥ ७॥ पुष्पताम्बूलकपूरकुङ्कुमैर्मलयोद्भवैः । वस्त्राभरणकैः पूजां चकार नृपतिस्तयोः ॥ ८॥ तत्प्रत्यक्षं समाहूय सूपकारं नराधिपः । आदिदेश तकं क्षिप्रं विषान्नं भोजनं कुरु ॥ ९॥ सूपकारेण तच्छीघ्रं भोजनं विविधं तदा । आनीय दत्तमताभ्यां सशकं भुक्तमत्र च ॥१०॥ अथ तो भोजनं कृत्वा सुप्तौ निशि मनोहरे । शयनीये जयः प्राह विजयं बोधमागतः ॥११॥ सरोजदण्डवजिह्वा मे काठिन्यमुपागता । वेपतेऽङ्गतरोर्बादं वाताहतमिव च्छदम् ॥ १२ ॥ जयवाक्यमुपाश्रित्य विजयोऽमुं जगौ पुनः। खरा जिह्वा न मे कस्मात् कम्पते नो वपुस्तथा ॥१३॥ विजयोक्तं निशम्यायं निजगाद जयोऽपि तम् । किं न वाक्यं श्रुतं भ्रातः सभामध्येऽस्य भूभुजः॥१४॥ विषान्नं भोजनं पथ्यं सूपकारानय द्रुतम् । विषमिश्रं यदन्नं स्यात् विषान्नं तन्मतं बुधैः ॥ १५॥ 25 अन्नं विषेण सन्मित्रं विषान्नमिति भक्षितम् । अस्माभिस्तेन जिह्वा स्यात् खरा मे वेपते वपुः ॥१६॥ निशम्य तद्वचो मूढं जगावेनं विचक्षणः । विजयो विजयोपेतो निर्भयो मतिदुर्विधम् ॥ १७॥ यद्येवं रसनं जाड्यं ते शरीरं सकम्पनम् । किं कारणं न मे ब्रूहि त्वद्भोजनसमानतः ॥१८॥ गृहीतो विपरीतोऽर्थस्त्वया मूढत्वमीयुषा । नूनं विषान्नशब्दस्य ब्रवीम्यर्थं तव प्रभो ॥ १९ ॥ विशिष्टमन्नमत्युद्धं नानारससमन्वितम् । विषान्नं शोभनाहारं निगदन्ति मनीषिणः ॥ २० ॥ 30 कान्ति पुष्टिं बलं वीर्यं विदधाति शरीरिणाम् । विषान्नभोजनं भुक्तं तदस्माभिरशङ्कितम् ॥२१॥ 1 [क्षुधाकम्पा ]. 2 फ निर्गतो. 3 पफ चतुष्कुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 4 फज पुत्रस्तरोराख्यो. 5फ विषयार्जित. 6फ विजयोपेतं. 7 फज मत्युद्य. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ८ 25 विचिकित्सां विहायं त्वं संशयोत्पादकारिणीम् । विधाय धीरतां चित्ते विशुद्धो भव साम्प्रतम् ॥२३॥ * एवं निगद्यमानोऽपि विजयेन जयः पुनः । विषशङ्कागृहीतात्मा पञ्चत्वं प्राप्तवानसौ ॥ २४ ॥ क्रोधनीरभरापूर्णे माननक्रभयंकरे । मायासमुत्थकलोले लोभवेलाविसर्पिण ॥ २५ ॥ संसारसागरे घोरे नानायोनिसमीरणे । भ्रान्त्वा जयः प्रभुञ्जानो बहुदुःखं वितिष्ठते ॥ २६ ॥ विजयो जीवितस्तत्र विचिकित्साविवर्जितः । पूजामवाप्य भूपालान्निजं द्वीपं प्रयातवान् ॥ २७ ॥ निजद्वीपे चिरं राज्यं कृत्वाऽयं जितशात्रवम् । विहाय सकलं सङ्गं तपो जैनमशिश्रियत् ॥ २८ ॥ 10 द्रव्य-भावात्मकं हित्वा विचिकित्सां स धीरधीः । चिरं कालं तपस्तप्त्वा कनिष्ठो मोक्षमाप्तवान् ॥ २९॥ ॥ इति विचिकित्सान्वितजयनिर्विचिकित्स विजयकथानकमिदम् ॥ ६ ॥ 30 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे तथा चोक्तम्''त्वच्छासनरसज्ञानां विदुषां मोक्षकाङ्क्षिणाम् । विषान्नमिव भोक्तृणां श्रुतिरन्या न रोचते ॥ २२ ॥ अथ पाण्ड्यमहादेशे दक्षिणा मथुराऽभवत् । धनधान्यसमाकीर्णा जिनायतनमण्डिता ॥ १ ॥ तस्यां बभूव राजेन्द्रः प्रजापालनतत्परः । पाण्डुनामा गुणग्रामरञ्जिताशेषभूतलः ॥ २ ॥ " तद्भार्या शीलसंपन्ना रूपिणी मृदुभाषिणी । कीर्तिव्याप्तसमस्ताशा सुमतिः सुमतिर्मता ॥ ३ ॥ समस्तशास्त्रसंवेदी दिव्यज्ञानी महातपाः । आचार्यो मुनिगुप्तोऽस्यां वसति स्म गुणाम्बुधिः ॥ ४ ॥ अन्यदा कोऽपि वेगेन विद्याधरकुमारकः । आजगाम मनोवेगो दक्षिणां मथुरां पुरीम् ॥ ५ ॥ त्रिः परीत्य च भावेन जैनमुत्तममन्दिरम् । कृत्वा जिननमस्कारं सर्वदुःखविनाशनम् ॥ ६ ॥ गुरुभक्तिं विधायास्य मुनिगुप्तस्य योगिनः । अन्यानपि मुनीन्नत्वा निविष्टोऽसौ तदन्तिके ॥ ७ ॥ मुहूर्तमेकमास्थाय धर्मादिकथया सुधीः । मुनिगुप्तं जगादायं भक्तिभारनताङ्गकः ॥ ८ ॥ भगवन् गन्तुमिच्छामि श्रावस्तीं नगरीमहम् । जिनं वन्दितुमादेशं देहि मे यामि पावनीम् ॥९॥ मनोवेगवचः श्रुत्वा मुनिगुप्तो वभाण तम् । नर्तयन् शिखिनो वाचा धनकालविशङ्किनः ॥ १० ॥ श्रावस्तीं नगरीं रम्यां यदि श्रावक यास्यसि । देववृन्दनमस्यार्हान् प्रशस्तान् वन्दितुं जिनान् ॥११॥ रेवतीश्राविकार्या हि धर्मभावितचेतसः । ततो यत्नेन संदिष्टः कथय त्वं ममाशिषम् ॥ १२ ॥ मुनेर्वचनमाकर्ण्य तदा विस्मितमानसः । दध्यौ मनसि तत्रत्यः श्रावको ऽविदिताशयः ॥ १३ ॥ प्राहिणोति स्म यत्नेन रेवतीश्राविकाशिषम् । मुनीनां वन्दनान्नैष श्रावकानां न चाशिषम् ॥ १४ ॥ चिन्तयित्वा चिरं सोऽपि तत्परीक्षणकारणात् । भूयोऽपि तं मुनिं प्राह श्रावस्तीं याम्यहं पुरीम् ॥१५॥ श्रावकोक्तं समाकर्ण्य मनोवेगं जगौ मुनिः । वक्रतोपेतचेतस्कं भ्रान्तिज्ञानसमन्वितम् ॥ १६ ॥ रेवतीनामयुक्तायाः श्राविकाया मदाशिषम् । कथय त्वं जिनं नन्तुं यदि यास्यसि तां पुरीम् ॥१७॥ भूयोऽपि विस्मयं प्राप्य कोऽयं चामुं जगाद सः । भगवन् कान् गुणांस्तस्याः श्राविकाया निवेदय १८ वारत्रयं प्रपृष्टोऽपि येन तच्छ्रा विकाशिषम् । प्राहिणोषि न चान्येषां श्रावकाणां च न" प्रभो ॥ १९ ॥ - * ७. रेवतीकथानकम् । 1 फ उक्तं च. 2 पज विहायेत्थं. 5प युग्मम्, फ युगलम् ज युगलमिदम् 10 [ नः ]. [ ६.२२ 3 प भावात्मतां, ज भावात्मां. 4 फ रञ्जिताखिलभूतलः. 6फ पावना 7 पज श्रावकाया 8 प मदाशिखम् 9 ज कोपं. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवतीकथानकम् तस्यां च भव्यसेनाख्यः सूरिरस्ति महातपाः । एकादशाङ्गधारी च चातुर्वर्ण्यगणाधिपः ॥२०॥ ज्येष्ठो जीवादितत्त्वानां संशयोच्छेदकारकः । तस्येशस्य किं साधोः प्रहिणोषि न वन्दनाम् ॥२१॥ खेटस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच यतीश्वरः । गम्भीरभारतीनादनादिताशेषभूतलः ॥ २२ ॥ यो भव्योपपदो सेनो भवदुक्तो मदग्रतः। स धराकायिकान् जीवान् न श्रद्धत्ते विमूढधीः ॥२३॥ तन्मिथ्यात्वं भवेद् यच्च पदार्थानामरोचनम् । मिथ्यात्वमलिनो जीवो बम्भ्रमीति भवार्णवे ॥२४॥ अनेन कारणेनास्य वन्दना प्रतिवन्दना। नास्माभिः प्रहिता खेट नोक्तं स्वकुशलं ततः ॥ २५ ॥ अन्यच्च यत्त्वया पृष्टं रेवतीश्राविकाशिषम् । प्रहिणोमि न चान्येषां येन तत्कारणं शृणु ॥ २६ ॥ सम्यग्दर्शनसंपन्ना जिनोक्तमतसङ्गिनी। कुतीर्थलिङ्गिपाषण्डचरितच्युतमानसा ॥ २७॥ प्रतिपन्नो जिनो देवो मोक्षमार्गोऽप्यकिंचनः । अहिंसालक्षणो धर्मस्तपोऽपीन्द्रियनिग्रहम् ॥ २८॥ सचारित्रधरा धीराः क्षान्तिभूषितविग्रहाः । ब्रह्मचर्यसमायुक्ता गुरवो विहिता यया ॥ २९ ॥10 अनेन कारणेनार्य रेवत्याः प्रहिणोम्यहम् । आशीर्वादं न चान्येषां मिथ्यात्वमलिनात्मनाम् ॥३०॥ मुनिगुप्तस्य तद्वाक्यं परिणामसुखावहम् । आकर्ण्य ध्रुवमुत्क्षिप्य दध्यौ विद्याधरो हृदि ॥ ३१ ॥ अहो कषायबाहुल्यं मुनीनामपि जायते । येन सदृष्टिसंशुद्धा श्राविकोक्ताऽमुना परा ॥ ३२॥ समस्तागमसंवेदी महायोगी महामुनिः । एवंविधोऽपि येनोक्तो मिथ्यादृष्टिरनेन सः॥ ३३॥ तस्माद्बहुविकल्पेन किं कृतेन प्रयोजनम् । तत्परीक्षणकं शीघ्रं करोमि प्राप्य तां पुरीम् ॥ ३४ ॥ 15 जिनं स मुनिमानम्य जगामायं ततः क्रुधा । ससंभ्रमो मनोवेगः संप्राप्तस्तां पुरी क्षणात् ॥ ३५॥ ब्रह्मरूपं परं पूर्व सहसं सकमण्डलुम् । चतुर्मुखं चकारायं पूर्वस्यां दिशि मायया ॥ ३६॥ विष्णुरूपं सशङ्ख च सगदं गरुडासनम् । सचक्रं दक्षिणाशायां मायया कृतवानसौ ॥ ३७ ॥ रुद्ररूपं सखवाङ्गं कृतवासुगिशेखरम् । सवृषं पश्चिमाशायां चक्रे स निजमायया ॥ ३८॥ योगाभ्यासरतं शान्तं बुद्धरूपं सुरूपकम् । उत्तरस्यां दिशि स्पष्टं माययाऽऽशु चकार सः ॥३९॥2॥ रुद्रादिदेवसंघातं विलोक्य स्वस्वभक्तितः । माहेश्वरजनाः सर्वे जग्मुर्मुदितचेतसः॥४०॥ श्रावकाः श्राविकाश्चापि गतास्तं मन्दबुद्धयः। दृष्टा न तेन सा याता रेवती श्राविका परम् ॥४१॥ पुरमध्ये समायुक्तं प्रातिहार्यैः सहाष्टभिः । तथा तीर्थकरं चक्रे पञ्चविंशं स मायया ॥ ४२ ॥ पञ्चविंशं जिनं श्रुत्वा भव्यसेनो गणाग्रणीः । सहार्यिकागणैरायाच्छ्रावकैः श्राविकागणैः ॥४३॥ अथ स्त्रीनिकरः प्राह रेवती श्राविकामसौ । हले तीर्थकरः प्राप्तः पञ्चविंशः पुरान्तरे ॥४४॥ 25 यतिसंघार्जिका याताः श्रावकाः श्राविकास्तकम् । पुष्पादिकं समादाय भक्तिनिर्भरचेतसः ॥४५॥ पुष्पाक्षतं फलं धूपं चन्दनं दीपकं चरुम् । आदाय त्वरितं यामः सखि तद्वन्दनार्थतः ॥४६॥ रेवती श्राविका प्राह स्त्रीसंघं भक्तितत्परम् । तोषपूरितचेतस्कं तन्मुखाम्बुजवीक्षणम् ॥४७॥ गृहधर्मप्रसक्ताया गमनं मे न पूर्यते । वदन्तीमिति तां प्राहुः सख्यस्ताः स्नेहनिर्भराः ॥४८॥ एकैव पूरियं धन्या ब्रह्माद्यध्यक्षतः कलौ । तत्समये ते रुचिर्नास्ति तद्युक्तं न गता हि यत् ॥४९॥ ३० जिनदेवावतारेऽपि पापव्यापारसक्तधीः । न यासि यासि तत् शुभ्रे गदन्त्यो गन्तुमुद्यताः ॥५०॥ येऽतीता वर्तमाना वा भविष्यन्तो जिनाधिपाः । ते चतुर्विंशतिः स्पष्टं कथितं मे मुनीश्वरैः ॥५१॥ 1प कुतीर्थ लिङ्ग. 2फ यथा. 3 फ चतुष्कुलकम् , पज चतुष्कुलकमिदम्. 4 फ ब्रह्मरूपपरं. 5फ सखड्वाझं. 6[वासुकि]. 7फ त्रिकलम्, पज त्रिकलमिदम्, 8फ पापे. 9 फ गदन्त्योऽन्वगदत्तु ताः. 10 फच. बृ० को०३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७.५२ ५८ ॥ ॥ ५९ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ ॥ ६२ ॥ ६४ ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ पञ्चविंशो जिनो नास्ति न भूतो न भविष्यति । एष मायी मया ज्ञातो यात यूयं जिनालयम् ॥५२॥ निशम्य रेवतीवाक्यं रामागणोऽतिविस्मितः । निर्गत्य रेवतीगेहाज्जगाम स्वमनीषितम् ॥ ५३ ॥ तद्वन्दनां विधायोच्चैः सिद्धभक्तिपुरःसरीम् । ' जगामाभव्य सेनोऽपि ससंघो निजमालयम् ॥ ५४ ॥ सकलोsपि तदा संघो मनोवेगेन वीक्षितः । अवलोकनविद्यातो न दृष्टा रेवती परम् ॥ ५५ ॥ जिनरूपं विहायायं क्षौलकं वेषमाश्रितः । असत्यवेदनाग्रस्तः पपात विशिखान्तरे ॥ ५६ ॥ छर्दिं कुर्वन् बहिर्वृत्तिं पूत्कारमपि सर्वगम् । रेवती श्राविकासंज्ञामुच्चरन् व्यवतिष्ठते ॥ ५७ ॥ कापि तन्मन्दिरं प्राप्य रेवतीमबला जगौ । हले त्वन्नाम गृह्णाति पतितः क्षुल्लकः पथि ॥ रेवती तद्वचः श्रुत्वा प्राहेमां क स तिष्ठति । तत्पृष्टया च साऽवाचि विशिखान्ते स तिष्ठति तद्वाक्यतो गता सापि रेवती तत्समीपकम् । तमादाय करेणाशु स्वगृहं पुनराययौ ॥ 10 क्षुल्लकः प्राप्य तद्देहं रेवतीं निजगाविदम् । बुभुक्षाग्रस्तचित्ताय देहि मे भोजनं द्रुतम् ततः सुखोपविष्टाय क्षुधापीडितचेतसे । रेवतीश्राविका पात्रे तस्मै भक्तं ददौ मुदा यावदादाय सा मुद्गान् ददात्यस्मै मनोरमान् । तावद्धि भक्षितं भक्तं तेन मायाप्रपञ्चतः ॥ यावद् घृतं ददात्य॒स्मै रेवती सरसं सका । तावच्च तेन तत् पीतं मायाकारेण योगतः ॥ यावदेषा ददात्यस्मै घृतपूरान् मनोहरान् । तावदेतेन ते सर्वे भक्षिता हि गुडं विना ॥ ," यावद्ददात्यसौ तस्मै व्यञ्जनानि घनानि च । तावदेषोऽर्धदत्तानि जघास ग्रासमात्रतः ॥ यावद्ददात्यसौ तस्मै कठिनं दधिसुन्दरम् । तावद्भक्तं विना स्निग्धं भक्षितं मायिनामुना ॥ यावदेषा ददात्यस्मै मण्डान् दुग्धं सशर्करम् । तावदेतेन निःशेषं पीतं तन्मण्डकैर्विना ॥ यद्यद्विदीयते तस्मै किंचित्सरसभोजनम् । तत्तदर्धवितीर्णं वा जघासायं प्रमायया ॥ ६९ ॥ एवं भुक्तसमस्तऽपि यदा तृप्तिं न यातवान् । तदायं रेवतीं प्राह साहसं खेदवर्जिताम् ॥ ७० ॥ 20 श्रुत्वा त्वत्कीर्तिमम्बाहं सत्सम्यक्त्व समुच्छ्रिताम् । त्वदन्तिकं समायातः 'क्षुधापंपाकदर्थितः ॥ ७१ ॥ * किल यास्याम्यहं तृप्तिं भोजनेन मनस्विनि । बाढं त्वत्करदत्तेन प्रीणितोऽस्मि न साम्प्रतम् ॥ ७२ ॥ तस्मादानय मे क्षिप्रं भोजनं सरसं बहु । येनाहं तृप्तिमायामि तदेव कुरु साम्प्रतम् ॥ ७३ ॥ क्षुल्लकस्य वचः श्रुत्वा रेवती बहुविस्मया । वैमनस्यं परं त्यक्त्वा भूयोऽन्नं दातुमुद्यता ॥ ७४ ॥ भक्तं बहुविधं पूराः पूरिका घृतपूरकाः " । मण्डकाशोकवर्तिन्यो घारिकाः पूपपत्रिकाः ॥ ७५ ॥ 25 खज्जकानां तथा खारी मोदकानामपि स्फुटम् । तदा विश्रद्धया दत्तमेतत्तेन च भक्षितम् ॥ ७६ ॥ घटानां जलपूर्णानां लाक्षाकोट्यो " ह्यनेकशः । पीता जलस्य तद्दत्तास्तेन तत्क्षणमात्रतः ॥ ७७ ॥ एतदन्नं समादाय नानाभेदरसं जलम् । मायी" छर्दिर्बहिर्वृत्तिं चकारायं पुनः पुनः ॥ ७८ ॥ तद्वान्तामेध्यसंघातं दुर्गन्धामोदिताशकम् । आदाय स्वकरेणेमं बहिश्चिक्षेप रेवती ॥ ७९ ॥ रेवत्या विनयं दृष्ट्वा वैयावृत्यममूढताम् । विहाय क्षौलकं" रूपं खेटरूपं ददर्श सः ॥ ८० ॥ 30 हारराजितवक्षस्कं स्वर्णकुण्डलभासितम् । द्विजपक्किप्रभा भारसितीकृत नभस्तलम् ॥ ८१ ॥ दिव्यरूपधरं दृष्ट्वा रेवती पुरतः स्थितम् । इमं पप्रच्छ कोऽसि त्वं केन कार्येण वागतः ॥ ८२ ॥ रेवतीवचनं श्रुत्वा जगादेमां स खेचरः । विद्धि विद्याधरं मां त्वं मनोवेगं मनखिनि ॥ ८३ ॥ 1 फ एष मायासमायातो. 2 प युग्मम् फ युगलम् ज युगलमिदम्. 3फ रामाचारो. 4 फ जगामाभाव्य 5 पज क्षुलकं 6 प विवतिष्ठते. 7 प विशिषान्ते. 8 प omits ६४ and ६६, after confusing some lines. 9 [ क्षुधाकम्प ]. 10 फ interchanges ७१ and ७२. 11 फ चतुष्कलम्, पज चतुष्कलमिदम्. 12 फ घृतपूरिकाः. 13 प लक्षा, ज लक्ष्या 14 फ माया. 15 पज क्षुत्रकं 16 पज कर्ण. 5 ६३ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -6.90] चेलनामहादेवीकथानकम् ११ कृता रुद्रादिदेवानां मया तद्धि विकुर्वणा । विधाय क्षौलकं रूपं त्वत्परीक्षार्थमागतः ॥ ८४ ॥ ख्यातं यन्मुनिगुप्तेनाभव्यसेनस्य योगिनः । तवापि दर्शनं सारं तत्सर्वं विदितं मया ॥ ८५ ॥ मुनिगुप्तेन गुप्तेन मनोवाक्कायकर्मभिः । आशीर्वचनमत्युद्धं प्रहितं तव रेवति ॥ ८६ ॥ पदानि पञ्च संप्राप्य तत्सन्मुखमुदारधीः । ववन्दे तत्पदद्वन्द्वं रेवती शिरसाऽऽदरात् ॥ ८७ ॥ कथयित्वा स्ववृत्तान्तं तस्यास्तां च परीक्ष्य सः । अदर्शनं ययौ क्वापि मनोवेगः प्रशान्तधीः ॥ ८८ ॥ खेटः प्रदक्षिणीकृत्य जिनमन्दिरमुन्नतम् | जिनं स्तुत्वा सुसाधुं वा भव्यसेनं गणाधिपम् ॥ ८९ ॥ भाविताखिलशास्त्रार्थैः श्रावकैर्जिनदैवतैः । तत्रोपविश्य शुश्राव तद्व्याख्यानं स खेचरः ॥ ९० ॥ तद्व्याख्यानमुपश्रुत्य' मनोवेगेन वेगिना । भव्यसेनो बहिर्वृत्तिं विधातुं प्रययौ तदा ॥ ९१ ॥ इष्टकाशकलं " भस्मविकृतिस्तेन मायिना । विद्याबलेन तन्नीतं सर्वं दृष्टेरगोचरम् ॥ ९२ ॥ बहिर्वृत्तिं विधायात्र श्रावकोऽवाचि योगिना । कुतोऽप्यन्वेषणं कृत्वा तूर्णं विकृतिमानय ॥ ९३ ॥ ॥ तदुक्तः श्रावकः सोऽपि मृत्स्नामादाय शोभनाम् । आगत्य च मुनेः पार्श्व तं जगाद सकौतुकः ॥ ९४ ॥ विकृतिर्मे त्रिभेदापि न लब्धा क्वापि संयत । ततो गृहाण सन्मृत्स्नां प्राशुकां मदुपाहृताम् ॥ ९५ ॥ मृत्तिकां वीक्ष्य योगीन्द्रस्तामादाय करेण सः । जगाद श्रावकं भूयः पृथिवीकायसंशयी ॥ ९६ ॥ ब्रुवन्ति केचिदाचार्याः पृथिव्याद्यसुधारिणः । सजीवानिति निश्शेषान् मनोवेगप्रतीहितान् ॥ ९७ ॥ एवमुक्त्वा तकं सोऽपि धरादिप्राणसंशयः । करप्रक्षालनं चक्रे तया मृत्तिकया यतिः ॥ ९८ ॥ is रेवतीं श्राविकां मत्वा सत्सम्यक्त्वविभूषिताम् । धरादिजीवसंदेहकारिणं योगिनं तथा ॥ ९९ ॥ मुनिं प्राप्य वन्दित्वा तं पुनः पुनः । तद्वृत्तान्तं समावेद्य स्वं धाम गतवानसौ ॥ १०० ॥ अन्यलिङ्गिप्रशंसेयं सम्यक्त्वक्षयकारिणी । न विषामृतयोरेकं स्वरूपं जायते भुवि ॥ १०१ ॥ ज्ञानं ज्ञानी मुनिः सिद्धाः सिद्धायतनकानि च । चारित्रं तद्युतः साधुरेतान्यायतनानि षट् ॥ १०२ ॥ जीवानां भयभीतानां धर्मबुद्धिविधायिनाम् । एतेभ्योऽन्यानि दुःखाय सन्त्यनायतनानि वै ॥ १०३ ॥ ७ जिनसाधुपदाम्भोजधर्मरेणुरसालिनी । मोहं न रेवती याता विद्याधरविडम्बनैः ॥ १०४ ॥ ॥ इति अमूढदृष्टिरेवतीकथानकमिदम् ॥ ७ ॥ ८. चेलनामहादेवीकथानकम् | 28 अथ विद्वजनावासं पुरन्दरपुरोपमम् । नगरं पाटलीपुत्रं बभूव वसुधातले ॥ १॥ तत्पुरं पाति भूपेन्द्रो विशाखो नाम विश्रुतः । दोर्दण्डस्थित निस्त्रिंशखण्डितारातिमण्डलः ॥ २ ॥ पद्मपत्रसमानाक्षी पद्मपादकरद्वया । प्रबुद्धपद्मसका विशाखा तत्प्रियाऽभवत् ॥ ३ ॥ तयोर्वैशाखनामाऽभूत् पुत्रः पुत्राभिलाषिणोः । कीर्तिव्याप्तसमस्ताशो विनयी गुणवारिधिः ॥ ४ ॥ कनत्कनकसद्वर्णशरीरच्छविराजिताम् । उपयेमे विधानेन वैशाखः कनकश्रियम् ॥ ५ ॥ अन्यदा यावदुत्तुङ्गे वैशाखो निजमन्दिरम् । आस्तेऽनया समं जल्पन्नवोढकनकश्रिया ॥ ६ ॥ प्रियामण्डनसक्तस्य तावद्वालसखोऽस्य सः । मुनिदत्तो मुनिः प्राप भिक्षायै तगृहं क्रमात् ॥ ७ ॥ 30 कुमारोऽपि मुनिं दृष्ट्वा प्रोत्थाय दयितान्तिकात् । तत्सन्मुखमभीयाय भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ ८ ॥ विधाय तन्नुतिं भक्त्या नीत्वाऽमुं निजमन्दिरम् । अम्धसा बहुमेदेन मुनिदत्तं ततर्प सः ॥ ९ ॥ मुनिराहारमाहृत्य तगृहान्निर्ययौ ततः । कुमारोऽप्यमुना सार्धं प्रियामापृच्छ्य निर्गतः ॥ १० ॥ 1 पज क्षुलकं 2 फ नत्वा 3 पज जिनदेवतः 4 फ 'मुपाश्रित्य 5 पज सकलं. 6 फ त्रिभेदोप. 7 प युग्मम्, फ युगलम् ज युगलमिदम्. 8 प तयोर्विशाष. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे - [८. ११संसारासारतां ज्ञात्वा शरीरं रोगि सक्षयम् । मुनिदत्तान्तिके शीघ्रं वैशाखोऽपि तपोऽग्रहीत् ॥११॥ ततस्तपःस्थितं बुवा घनं मिथ्यात्वमाप्य च । कनकश्रीम॒तिं कृत्वा बभूव व्यन्तरी तदा ॥१२॥ अन्यदा योगिनं दृष्ट्वा विभङ्गज्ञानतः सका । विहरन्तं तं वैशाखं व्यन्तरी क्रोधमागता ॥ १३ ॥ अयं विहाय मां क्रूरो निर्लज्जो नवयौवनाम् । मयि कोपं गतायां हि करिष्यति कथं तपः ॥ १४ ॥ मासोपवासखिन्नस्य मुनेरेकविहारिणः । आहारसमये साऽपि करोतीन्द्रियवर्धनम् ॥ १५॥ मासमेकमुपोष्यायं पारणार्थं महातपाः । विवेश विहरन् कापि तदा राजगृहं पुरम् ॥ १६ ॥ उपवासपरिश्रान्तं योगिनं वीक्ष्य चेलना । स्वगृहाजिरमायातं समुत्थाय तमग्रहीत् ॥ १७ ॥ अथ स्थानस्थितं दृष्ट्वा पारणार्थं तपस्विनम् । कनकश्रीचरी चक्रे व्यन्तरीन्द्रियवर्धनम् ॥ १८ ॥ सोपसर्ग मुनिं दृष्ट्वा चेलना भक्तितत्परा । काण्डादिकं पटं चक्रे जनजल्पनभीतितः ॥ १९॥ 10 विधाय भोजनं योगी वैराग्याहितमानसः । चेलनावन्दितस्तूर्णं निर्जगाम तदालयात् ॥ २०॥ विपुलादिगिरौ स्थित्वा ध्यानेनायं मुनीश्वरः। निहत्य घातिकर्माणि केवलज्ञानमाप्तवान् ॥ २१ ॥ विदित्वाऽऽसनकम्पेन वैशाखस्य मुनेरिदम् । केवलज्ञानमुत्पन्नं सहसाऽगुः सुरेश्वराः ॥ २२ ॥ शकादयः सुराः सर्वे मस्तकन्यस्तपाणयः । पूजां केवलिनश्चक्रुः पुष्पधूपाक्षतादिभिः ॥ २३ ॥ विज्ञाय केवलोत्पत्तिं वैशाखस्याशु योगिनः । चेलनादिजनः प्राप नन्तुं केवलिनं मुदा ॥ २४ ॥ ॥ नत्वा केवलिनं भक्त्या चेलना सुरसंसदि । पप्रच्छ किंकृतं तेऽत्र चोपसर्ग वदाशु मे ॥ २५ ॥ चेलनावचनं श्रुत्वा पाहेमां केवली तदा । कनकधीरतिक्रूरा बभूव चललोचना ॥ २६ ॥ वैशाखाख्येन सा पूर्व परिणीताऽतिरागतः । कनकधीरियं दुष्टा भोगिनीव भयावहा ॥ २७ ॥ अन्यदा मगृहं प्राप्तो मुनिदत्तो भ्रमन् कचित् । मयाऽयं परमान्नेन प्रीणितो मित्रकारणात् ॥२८॥ मुनिनाऽहं समं यातः कनकश्रीनिकेतनात् । स्तोकान्तरमतिक्रम्य दीक्षितोऽस्मि तदन्तिके ॥ २९ ॥ ० श्रुत्वा मद्दीक्षणं क्रुद्धा मिथ्यात्वं प्राप्य तत्क्षणात् । मृत्युमासाद्य संजाता व्यन्तरीयं भयानका ॥३०॥ मां तपस्स्थं प्रविज्ञाय विभङ्गज्ञानतः खला । तेन वैरानुबन्धेन चकारेन्द्रियवर्धनम् ॥ ३१॥ मासोपवासयुक्तस्य त्वन्मन्दिरमुपेयुषः । भोजनार्थं स्थितस्येयं चकारेन्द्रियवर्धनम् ॥ ३२ ॥ मासोपवासमालोक्य धर्मवत्या त्वयेदृशम् । कृतं तत्पटयोगेन तदानीं तन्निवारणम् ॥ ३३॥ त्वद्गृहे भोजनं कृत्वा सोपसर्गविनिर्गतः। धृत्वा ध्यानं गिरावत्र कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥ ३४ ॥ * दग्ध्वा ध्यानाग्नियोगेन घातिकर्मेन्धनानि मे । केवलज्ञानमुत्पन्नं लोकालोकावलोकनम् ॥ ३५॥ नवयौवनसंपूर्णा दिनसप्तकमात्रके । नवोढेयं मया मुक्ता" तपो जैनं प्रकुर्वता ॥ ३६॥ पञ्चतां प्राप्तया सद्यो मिथ्यात्वं गतयाऽनया । उपसर्गः कृतो मे हि व्यन्तरीत्वमुपेतया ॥ ३७॥ यत्पृष्टोऽहं त्वया भद्रे सत्सम्यक्त्वमुपेतया । उपगूहनकारिण्या ख्यातं तन्निखिलं मया ॥३८॥" इति केवलिना प्रोक्ते स्ववृत्तान्ते सुरासुराः । विस्मयं परमं प्राप्य नेमुस्तं नतमस्तकाः॥ ३९ ॥ ० आखण्डलादयो देवा नत्वा केवलिनं मुदा । चेलनादिजनाः सर्वे जग्मुस्ते निजमालयम् ॥ ४०॥ निहत्य शेषकर्माणि दग्धरज्जुसमानि सः । वैशाखकेवली" मुक्तिं प्राप्तवान् सुखसागराम् ॥४१॥ यथा चेलनया नूनं कृतं यत्युपगृहनम् । तथाऽन्येनापि कर्तव्यं धर्मयुक्तस्य कस्यचित् ॥ ४२ ॥ ॥ इति चेलनामहादेवीकृतं वैशाखस्योपगृहनाख्यानकमिदम् ॥ ८॥ * 1फ धवं. 2 प विशाखाख्यं, 3फ जिनकल्पन. 4 पज स्थानेनायं. 5प वन्दित्वा. 6 प विशाखस्य, ज विशाषस्य. 7 प भयानिका. 8प पट्टयोगेन. 9फसोपसर्गो विवर्गतः, 10 पमुक्त्वा. 11 पफज कुलकमिदम्. 12 प विशाष, ज विशाख. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकनृपकथानकम् ९. श्रेणिकनृपकथानकम् । १ ॥ २ ॥ ३ ॥ ६ १० ॥ १५ ॥ अथास्ति मगधे देशे नगरं बहुभूतिकम् । धनदस्येव शोभाढ्यं तद्राजोपपदं गृहम् ॥ सम्यग्दर्शनसंपन्नः प्रतापाक्रान्तशात्रवः । राजपूर्वगृहं राजा श्रेणिकः पाति शुद्धधीः ॥ रूपयौवनसंपन्ना नीलोत्पलदलाक्षिका । सुदृष्टिस्तस्य भार्याऽऽसच्चेलना नाम विश्रुता ॥ अन्यदाऽऽस्ते सुराधीशो देवमध्ये सुरप्रियः । सद्रञ्जनकथासक्तः स्वर्गे सौधर्मनामनि ॥ ४ ॥ " मर्त्यलोके समस्तेऽपि श्रेणिकादपरस्य च । सम्यक्त्वं क्षायिकं नास्ति सुरेन्द्रेणेति भाषितम् ॥ ५ ॥ पुरन्दरवचः श्रुत्वा सत्सम्यक्त्वप्रशंसनम् । श्रेणिकस्य पुरं प्राप कोऽपि देवोऽत्यसूयकः ॥ मुनिरूपं समादाय तत्पत्तनसरोवरे । बृहज्जालकलापेन जग्राह शफरानयम् ॥ ७॥ अत्रान्तरे महाराजः श्रेणिक चतुरङ्गया । सेनया सहितो द्रष्टुं सरोवरमगात् पुरः ॥ ८ ॥ स्तोकान्तरमतिक्रम्य यावद्वजति भूपतिः । तावत्सरोवराभ्याशे संयतं पश्यति स्म सः ॥ ९ ॥ " आदाय मीनसंघातं करेणानायतः' स्थले । पिटके निक्षिपन्तं तं रोमाञ्चार्चितविग्रहम् ॥ दूराद्विलोक्य तं राजा हस्तिनो मदशालिनः । उत्ततार महाभक्त्या जिनाज्ञापालनोद्यतः ॥ ११ ॥ त्रिः परीत्य च तं भक्त्या ललाटन्यस्तपाणिकः । ववन्दे हृष्टचित्तोऽसौ जानुस्पृष्टमहीतलः ॥ १२ ॥ raiser पुरः स्थित्वा विनयानतविग्रहः । जगाद तं मुनिं वीरो धीरगम्भीरया गिरा ॥ १३ ॥ सतामनेन लिङ्गेन मोक्षमार्गप्रवर्तिना । न मीनहिंसनं कर्तुं युक्तं संसृतिवर्धनम् ॥ १४ ॥ मम त्वं प्रेक्षणं देहि मत्स्यबन्धनकारणे । पिटके खेन मुञ्चामि साधो त्वं दूरतो भव ॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा किंचिन्नोवाच संयतः । जालं समर्पयामास भूपेन्द्रस्य कुतूहलात् ॥ राजा सरोवरे यावज्जालं क्षिपति शुद्धधीः । तावन्निवार्य तं प्राह विरतो हृदि विस्मितः ॥ शफरैरपरै राजन् न किंचिन्मे प्रयोजनम् | उत्तिष्ठ स्वगृहं याहि जिनशासनभावितः ॥ १८ ॥ राजाऽन्यस्य करे कृत्वा जालं मीनकदम्बकम् । तद्वाक्यतः समं तेन विवेश निजमन्दिरम् ॥ १९॥ 20 अथ सिंहासनारूढो यावदास्ते स्ववेश्मनि । तावन्नृपजनस्योच्चैः शुश्रावेति वचो नृपः ॥ २० ॥ कथं जालेन गृह्णाति मुनिर्मत्स्यान् खपाणिना । कथं वा भूपतिर्भक्तिं करोत्यस्य विमूढधीः ॥ २१ ॥ महास्वपरसामन्तमस्तकोपात्तशासनः । तथाप्यस्मत्पतिर्मूढो निर्देशं कुरुतेऽस्य किम् ॥ २२ ॥ स्वसामन्तवचः श्रुत्वा जिनशासनदूषणम् । तन्मोहनविनोदाय दध्यौ कार्यं महीपतिः ॥ २३ ॥ ग्रामपत्तनदेशानां पत्रिकाशासनानि च । वेष्टयित्वोपरि स्पष्टं पुरीषेणातिपूतिना ॥ २४ ॥ जिनशास्त्र महानिन्दातत्परेभ्यः कुशाग्रधीः । नृपतिभ्यो ददौ राजा श्रेणिको जिनभाक्तिकः ॥२५॥ आदाय ताः स्वहस्तेन दुर्गन्ध्यामोदिताशकाः । करेण पुष्पगन्धैर्विदधुर्निजमस्तके ॥ २६ ॥ यावत्ते मस्तके” कुर्युः शासनानि च पत्रिकाः । गूथावगुण्ठितास्तावज्जगादेति नतानयम् ॥ २७ ॥ गूथावगुण्ठिताशेषपत्रिकागुण्डिकादिकम् । स्वमस्तके कृतं कस्माद् भवद्भिर्वदताशु मे ॥ २८ ॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा ते वदन्ति नरेश्वरम् । भवत्प्रसादतोऽस्माकं गूथं के कुङ्कुमायते ॥ २९ ॥ ॐ स्वसामन्तोदितं श्रुत्वा बँभाणेतान् पुरः स्थितान् । तदुक्ताकर्ण्य तान् शक्तान् शिरःकृतकरद्वयान् ॥३०॥ अशुच्याक्तं यथा सर्वमदत्तं पत्रिकादिकम् । युष्माभिर्विहितं भक्त्या शिरसि प्रणताङ्गकैः ॥ ३१ ॥ १६ ॥ १७ ॥ - १.३१ ] १३ 1फ करेणानायतं., [ करेणानाययत् ]. 2 पफ युग्मम्, ज युगलम् 3 पज प्रेषणं, [ प्रेखणं ]. 4 पज निर्देश्य 5 फ त्रिकलम्, पज त्रिकलमिदम् 6फ जिनसाधुमहा 7फ जिनभक्तितः. 8 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 9 [ दुर्गन्धा ]. 10 पज सगन्धे 11 प मस्तकं. 12 पफ हुण्डिका. 13 फ बाण तान्. 14 फ तदुक्तकर्णणात्सताः, [ तदुक्ताकर्णनासक्तान् ]. 15 [ सर्वं मद्दत्तं ]. 15 25 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [९. ३२मीनबन्धनसक्तस्य मुनिरूपानुकारिणः । जिनभक्त्या तथाऽस्माभिः प्रकृतं वन्दनादिकम् ॥ ३२॥ यावदेवं नृपस्तेषां विदधाति प्रबोधनम् । दिव्यरूपः पुरस्तावद्बभूवाशु स धीवरः ॥ ३३॥' हारराजितवक्षस्कः कर्णकुण्डलभासितः । जगौ तदा सभामध्ये श्रेणिकं विबुधो हसन् ॥ ३४ ॥ शङ्कादिदोषनिर्मुक्तं रविकोटिकरोज्वलम् । सम्यक्त्वं श्रेणिकस्यैव भाति नान्यस्य भूतले ॥ ३५॥ 5 इदं सुरवरेन्द्रेण जल्पितं सुरसंसदि । श्रुत्वा 'गर्वग्रहग्रस्तः प्राप्तोऽहं भवदन्तिकम् ॥ ३६ ॥ कृतं धीवररूपं मे त्वत्परीक्षणहेतुना । साम्प्रतं गतसंदेहो भवदर्शनकारणात् ॥ ३७॥ सितं मुक्तामयं हारं हतान्धतमसं करैः । श्रेणिकायेन्द्रनूताय दत्त्वा देवो दिवं ययौ ॥ ३८॥ जिनभक्तिं परां दृष्ट्वा हारदानं सुरेण च । श्रुत्वा भूगोचरस्यापि श्रेणिकस्येन्द्रवर्णनम् ॥ ३९ ॥ केचित् परिग्रहं हित्वा बाह्याभ्यन्तरभेदगम् । महाव्रतधरा धीरा बभूवुः श्रमणास्तदा ॥ ४०॥ " केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचित्सम्यक्त्वतोषिणः । केचित्प्रशंसनं कुर्युः जिननाथस्य शासने ॥४१॥ यथा श्रेणिकभूपेन्द्रः सत्सम्यक्त्वविभूषितः । पूजां सुरेन्द्रतः प्राप्तस्तथान्योऽपीह तत्समः ॥४२॥ ॥ इति श्रीसम्यक्त्वसमन्वितश्रेणिकोपगृहनाख्यानकमिदम् ॥९॥ १०. सोमशर्म-वारिषेणकथानकम् । पूर्वोक्तपत्तने श्रीमान् श्रेणिकः श्रीपतिः प्रभुः । आसीदस्य प्रिया चावी चेलना स्त्रीगुणालया ॥१॥ 15 सम्यग्दृष्टिस्तयोः सूनुर्द्वादशाणुव्रतान्वितः । वारिषेणो बभूवायं गुणसंतानवारिधिः ॥२॥ चतुर्यु पर्वस्वप्येष प्रोषधं प्रविधाय च । एकवस्त्रधरो धीरः शर्वरीप्रतिमामधात् ॥३॥ अत्रैव नगरे ख्यातो विद्युच्चौरोऽभवत् तदा । अञ्जनादिकसत्सिद्धिगुटिकासिद्धिकोविदः ॥४॥ तत्प्रिया गणिका चासीत् कामादिलतिका परा । कामिलोकमृगालोकबन्धनायकवागुरा ॥५॥ अथ मुक्तामयं हारं मूल्येन परिवर्जितम् । सुरदत्तं स्वतेजोभिर्धवलीकृतखावनिम् ॥ ६॥ 20 इमं कामलताभिख्या विलोक्य गणिकाऽभवत् । चेलनादिमहादेव्या वनं यान्त्या ज्वरातुरा ॥७॥ हारशोकग्रहग्रस्ता दाघज्वरसमन्विता । विद्युच्चौरप्रिया तस्थौ खट्टामादाय मूढधीः ॥ ८॥ अत्रान्तरे समायातो विद्युच्चौरो निजं गृहम् । अत्र पश्यति भार्यों च खटासुप्तां' ज्वरातुराम् ॥ ९॥ उत्तिष्ठ किं प्रिये शेषे देहि मे वचनं द्रुतम् । किं रुष्टाऽसि विना कार्य ब्रूहि किं करवाणि ते ॥१०॥ स्तेनवाक्यं समाकर्ण्य जगावेतं नितम्बिनी । तवोपरि न मे कोपः किंतु मद्वचनं शृणु ॥ ११ ॥ - दिव्यो हारो मया दृष्टो भासुरश्चेलनागले । तदभावे ज्वरग्रस्ता तिष्ठामि सुखवर्जिता ॥ १२ ॥ श्रुत्वा कामलतावाक्यं विद्युच्चौरो जगाद ताम् । आनयामि तव क्षिप्रं हारमुत्तिष्ठ सुन्दरि ॥ १३ ॥ विश्रब्धीकृत्य तां कान्तां निसृत्य निजमन्दिरात् । मोहयित्वा नरान् सर्वान् राजद्वारव्यवस्थितान् ॥१४॥ क्रमेण श्रेणिकावासं प्राप्य तवारभेदनम् । विधाय सर्पपाघातैर्विवेशायं तदन्तिकम् ॥ १५ ॥ रात्रावादाय तं हारं द्योतिताकाशभूतलम् । तन्मन्दिरानगोत्तुङ्गान्निर्ययौ त्वरितं सकः ॥ १६ ॥ 30 गतनिदैनरैदृष्टो हारोड्योतेन तस्करः । तन्मार्गतोऽनुधावद्भिनिरुद्धः शीघ्रयायिभिः ॥ १७ ॥ चितास्थानस्थितस्यास्य वारिषेणस्य धीमतः । मुमोच तस्करो हारं चरणोपरि वेगतः ॥ १८॥ - 1फ त्रिकलम, पज त्रिकलमिदम्. 2 प गर्भग्रह, फ सर्वग्रह. 3फ चतुष्कलम् , पज चतुष्कुलकमिदम्. 4 प युग्मम् , फयुगलम् , ज युगलमिदम्. 5 Mss. are not regular in putting इति, but I have uniformly used it. Gप युग्मम् ,फ युगलम, ज युगलमिदम्.7 फखट्रां.४ प मे. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०. ५१] सोमशर्मवारिषेणकथानकम् हारोक्ष्योतेन संप्राप्य कायोत्सर्गस्थितं तदा । वारिषेणं प्रपश्यन्ति ते नराः शस्त्रपाणयः ॥ १९॥ भार्यासमन्वितस्यास्य श्रेणिकस्य स्थितिस्थितम् । वारिषेणं सहारं च तस्करं निगदन्ति ते ॥ २०॥ सुतवार्ता समाकर्ण्य हारचोरणसंभवाम्' । आदिदेश तकान् राजा पुत्रनिग्रहणाय सः ॥ २१॥ आगत्य यावदेतेऽपि युगपन्नृपवाक्यतः । शिरश्छेदं प्रकुर्वन्ति तस्य प्रासाशिसायकैः ॥ २२ ॥ तावद्धर्यसमेतस्य वारिषेणस्य तत्क्षणात् । आयुधानि समस्तानि प्रययुः पुष्पमालताम् ॥ २३ ॥ तस्योपरि कलं मन्द्रं दुन्दुभिनंदति स्फुटम् । गन्धोदकं तथा देवा ववृषुः कृतसंस्तवाः ॥२४॥ भूयोऽपि तं परिप्राप्य निगदन्ति नरोत्तमाः । शस्त्राणि पुष्पमालाः स्युर्वारिषेणस्य भूपते ॥ २५ ॥ दुन्दुभिस्ताडितो देवैस्तस्योपरि नभोगतैः । गन्धोदकमपि क्षिप्रं प्रमुक्तं गन्धसुन्दरम् ॥ २६ ॥ राजा निशम्य तद्वाक्यं हृष्टरोमां जगौ प्रियाम् । तोषपूरितसर्वाङ्गी नितान्तं विकसन्मुखीम् ॥२७॥ अस्मत्कुलनभश्चन्द्रः प्रीणिताशेषभूतलः । वारिषेणः कथं कान्ते चोरणं विदधात्ययम् ॥ २८॥" जानताऽपि मया भद्रे सद्भावं तस्य शोभनम् । तथापि हिंसने बुद्धिमूढेन विहिता कथम् ॥ २९॥ खसुतं चौरमप्येष वल्लभत्वात् प्रमुञ्चति । परं साधुमपि क्षिप्रं निहन्ति निजकारणात् ॥ ३० ॥ मया जनभयात् कर्तुं प्रारब्धं मारणं सुते । अयं तु रक्षितः पुण्यैः स्वकीयैरमरैरपि ॥ ३१ ॥ यावच्चेलनया साकं जल्पतीदं महीपतिः । तावत्प्राभातिकैस्तूपैंर्गम्भीर ध्वनितं तदा ॥ ३२॥ श्रेणिकश्चलनालोकः सर्वो विस्मितमानसः । वारिषेणान्तिकं प्राप प्रभातसमये सति ॥ ३३॥ 5 कायोत्सर्ग विहायायं वारिषेणोऽरुणोदये। उपविष्टो धरापृष्ठे वैराग्याहितमानसः ॥ ३४ ॥ भूपश्चलनया साकं पादावादाय जल्पति । क्षमस्व मे त्वमज्ञस्य पुत्र मगोत्रभूषण ॥ ३५ ॥ गुणरञ्जितसल्लोकयशोधवलिताम्बर । मचित्तलोचनानन्द प्रोत्थाय स्वगृहं व्रज ॥ ३६॥" पित्रोर्वचनमाकर्ण्य तदानीं पादलग्नयोः । वारिषेणो जगादेतौ बाष्पविप्लुतलोचनौ ॥ ३७॥ उपसर्गोऽयमस्माकं यदि क्षेमेण यास्यति । ततो वयं करिष्यामः पाणिपात्रेण पारणम् ॥ ३८॥ 20 एवं विनिश्चयं ज्ञात्वा वारिषेणस्य धीमतः । श्रेणिकश्चलनालोको विवेश निजमन्दिरम् ॥ ३९॥ हित्वा परिग्रहं सर्वं वारिषेणो विशुद्धधीः । धर्मसेनगुरोः पार्थं तपो जैनमशिश्रयत् ॥ ४०॥ पुष्पाभजलपुत्रेण मित्रेण सोमशर्मणा । पलाशोपपदे कूटे ग्रामेऽनेन निवासिना ॥ ४१ ॥ वीरं नन्तुं व्रजन् दृष्टो वारिषेणोऽन्यवासरे। प्रीणितः परमान्नेन विधिना मित्रकारणात् ॥ ४२ ॥ प्रियां पृष्ट्वा ततोऽनेन सह लोकस्थितिं विदन् । सोमशर्मा पुरो वीक्ष्य क्षीरवृक्षं जगावमुम् ॥४३॥ वटवृक्षं मुने पश्य तथा स्वस्थं सरोवरम् । प्रबुद्धपद्मसंघातं गन्धागतमधुव्रतम् ॥ ४४ ॥ इदं प्रदर्शयन् तस्य सोमशर्मा ब्रुवन्नपि । नावाचि प्रभुणा किंचिन्निःस्पृहत्वादनेन सः ॥ ४५ ॥ वारिषणोऽपि संप्राप सहसा सोमशर्मणा । क्रमाद् वीरजिनेन्द्रस्य सरणं समवादिकम् ॥ ४६॥ स्तुत्वा वीरं यथायोग्यं सकलांश्च दिगम्बरान् । वारिषेणोऽमुना सार्धं स्वस्थाने समुपाविशत् ॥४७॥ वारिषेणसमीपे च दृष्ट्वामुं समवस्थितम् । कोऽपि साधुर्जगौ वाक्यं सहासं' वीरसंसदि ॥४८॥ 30 अयं पुण्यगृहीतात्मा सोमशर्मा विशुद्धधीः । सत्त्रात्र वारिषणेन तपः कर्तुं समागतः ॥ ४९॥ श्रुत्वा तद्वचनं विप्रो विलक्षः सदसि द्रुतम् । अज्ञातागमसद्भावो जग्राह परमं तपः ॥ ५० ॥ अथ वीणां समादाय सन्मनोहरणक्षमाम् । किन्नरैः किन्नरीयुक्तैः प्रारेभे गीतमुत्तमम् ॥५१॥ THHTHHTH 1फ चौरणसंभवम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 प युग्मम्, फ युगलम् , ज युगलमिदम्. 4 फ चतुष्कुलकम् , फज चतुष्कलकमिदम्. 5 पफ युग्मम्. ज युगलमिदम्. 6प युग्मम्, फ युगलम्, ज युगलमिदम्. 7फ दृष्ट्वा. 8 प युग्ममू, फ युगलम् , ज युगलमिदम्.9 फ सहसा. . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ 20 ५६ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ कलगीतमुपश्रुत्य सोमशर्मा जिनान्तिकात् । चचाल सोमिलावासं प्रति निश्चितमानसः ॥ ५५ ॥ विज्ञाय सोमशर्माणं गतं किन्नरगीततः । जिनाज्ञां प्राप्य तत्पश्चाद् वारिषेणो विनिर्ययौ ॥ संप्राप्य सोमशर्माणं वारिषेणो जगाविमम् । प्रथमं मगृहं यावो यास्यावस्त्वहं पुनः ॥ 10 श्रुत्वा तद्वचनं रम्यं तद्वाक्यात्प्रीतमानसः । सोमशर्माऽमुना साकं वारिषेणगृहं ययौ ॥ गृहागतं तमालोक्य ँ वारिषेणं ससंभ्रमम् । सोमशर्मसमायुक्तं चेलनापि तमग्रहीत् ॥ स्वहस्तेन समादाय सरागं वृहदासनम् । परीक्षार्थं ददौ चान्यद्वीतरागं हि चेलना ॥ वीतरागे समाविष्टो वारिषेणो महामुनिः । सरागे सोमशर्मा च विष्टरे मूढमानसः ॥ नमस्कारं विधायास्य वारिषेणस्य तत्समम् । चेलना शुद्धचेतस्का तस्थौ तत्पुरतो मुदा " विलोक्य मातरं पुत्रो जगौ तां त्रस्तमानसाम् । आनय त्वरितं मातर्वधूसंघं मदन्तिकम् ॥ वारिषेणवचः श्रुत्वा दूतिकां प्रजिघाय सा । वधूनामन्तिकं शीघ्रं तदानयनकारणात् ॥ ६४ ॥ ततो यावद्वधूसंघो नूनमागच्छति प्रभो । तावद्धर्मकथां ब्रूहि कर्णामृतरसायनम् ॥ ६५ ॥ जननीवाक्यमाकर्ण्य वारिषेणो वभाण ताम् । त्वमेव प्रथमं ब्रूहि बहुजन्मनिमित्ततः ॥ ६६ ॥ निशम्य भारतीमस्य विद्याकठिनचेतसः । जगौ कथानकं रम्यं चेलना धर्मभाविता ॥ ६७ ॥ ६१ ॥ 1 ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ 30 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे कुवलयनवदलसमरुचिनयने सरसिजदलनिभवरकरचरणे । श्रुतिसुखकरपरभृतकलवचने कुरु जिननुतिमयि सखि विधुवदने ॥ ५२ ॥ बहुमलमलिनशरीरा मलिनकुचेलाधिविगततनुशोभा । त्वद्गमनदग्धहृदया शोकातपशुष्कमुखकमला ॥ ५३ ॥ विमना गतलावण्या वरकान्तिकला॑पपरिमुक्ता । किं जीविष्यत्यवनिका नाथेऽपि गतेऽक्षयं मोक्षम् ॥ ५४ ॥ कस्मिन्नपि पुरे भद्र सुभद्रा वनिताऽभवत् । तस्याः पुत्रः सुभद्राख्यो गोवत्सपरिपालकः ॥६८॥ अन्येद्युर्भक्षिता क्षीरी सुभद्रेण मनोहरी । अन्येन केनचिदत्ता गोपालेन सरोवरे ॥ ६९ ॥ उक्ता माता सुभद्रेण गृहं गत्वान्यवासरे । अम्बिके क्षीरिकां देहि मह्यं त्वं पुत्रवत्सले ॥ ७० ॥ तयाऽवाचि पुनः पुत्रो न दुग्धं न च तन्दुलाः । कथं सुत भवेत् क्षीरं तद्ब्राहं मुञ्च साम्प्रतम् ॥ ७१ ॥ सुभद्रावचनं श्रुत्वा सुभद्रः प्राह तां पुनः । ददासि मे यदि क्षीरं ततो रक्षामि वत्सकान् ॥७२॥ * तदाग्रहं परिज्ञाय बालबुद्धेः सुतस्य च । सुभद्रस्य तया क्षीरिः प्रतिपन्ना सुभद्रया ॥ ७३ ॥ याचयित्वा परं दुग्धं तन्दुलानपि मातृका । तत्संस्कारविधिं कृत्वा ददौ क्षीरीं सुताय सा ॥ ७४ ॥ महागृद्धिसमेतेन भक्षिता साऽमुनाऽखिला । भूयः प्रच्छर्दिता क्षिप्रं तया पात्रे प्रतीक्षिता ॥ ७५ ॥ भूयोऽपि गदिता माता देहि मे तां मुहुर्मुहुः । तच्छर्दिता तया दत्ता भक्षिता तेन साखिला ॥ ७६ ॥ ततो मुनेऽस्य किं युक्तं वत्सपालस्य निन्दितम् । छर्दिभक्षणकं कर्तुं हि मे तनुसंभव ॥ ७७ ॥ तथा चोक्तम् - यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रैर्दानानि धर्मार्थयशस्कराणि । a [ १०.५२ ५९ ॥ ६० ॥ निर्माल्यवत्संप्रति मानितानि को नाम साधुः पुनराददीत ॥ ७८ ॥ चेलनावचनं श्रुत्वा वारिषेणो जगाद ताम् | जिनधर्मसमासंगजातनिश्चलमानसाम् ॥ ७९ ॥ उज्जयिन्यां पुरि ख्यातो वसुपालो नराधिपः । आसीदस्य प्रिया तन्वी परा वसुमती सती ॥८०॥ 1 फ कलाकलाप. 2 फ त्रिकलम्, पज त्रिकलमिदम्. 3 फ खगृहागतमालोक्य 4 फ वीतरागी, ज वीतरागो. 5 पज रसायनीम्. 6 फ क्षीरिं. 7 पज क्षीरिं. 8 फ जगावमूं. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०.११० ] सोमशर्मवारिषेणकथानकम् १७ अनयोरूपसंपन्ना सुता गुणमती प्रिया । कुमारी लोकविख्याता नारीगुणगणोदधिः ॥ ८१ ॥ . अन्यदा सा सुखं सुप्ता शयनीये मनोहरे । कुतोऽप्यागत्य वेगेन दष्टा सर्पेण कोपिना ॥ ८२ ॥ ततस्तत्क्षणमात्रेण विषव्याप्तशरीरका । निश्चलीभूतसर्वाङ्गी कुमारी सहसाऽभवत् ॥ ८३ ॥ सुतावार्तां समाकर्ण्य दन्दशूकसमुद्भवाम् । तत्पिताऽऽहूतवानाशु भिषजान् विषघातिनः ॥ ८४ ॥ ततः समागताः सर्वे तत्पत्तननिवासिनः । उपविष्टा यथास्थानं तदानीं मतिमानिनः ॥ ८५ ॥ ताम्बूलादिभिः संमान्य तत्पिता निजगाविमान् । मत्सुताजीवनं सन्तः कुर्वन्तु मतिशालिनः ॥ ८६ ॥ शिरोनतिं विधायाशु भूपतिं निगदन्ति ते । त्वत्सुतासंग्रहोऽस्माकं राजन् विशति नो' स्फुटम् ॥ ८७ ॥ ततस्तद्वचनस्यान्ते धन्वन्तरिरिमं जगौ । शक्नोमि नागमानेतुं त्वत्सुतोत्थापनं न तु ॥ ८८ ॥ धन्वन्तरिवचः श्रुत्वा वसुपालो जगावमुम् । अष्टनागकुलाह्वानं कुरु त्वं मण्डलं च भो ॥ ८९ ॥ अनन्तं वासुकिं चैव कर्कोटं तक्षिकान्वितम् । तथा पद्ममहापद्मौ कुलिकं शङ्खपालकम् ।। ९० ।। 10 एतान् सर्वान् समाहूय मण्डलाधिगतानरम् । धन्वन्तरिरसौ चक्रे वसुपालनिदेशतः ॥ ९१ ॥ अग्निकुण्डं विधायोच्चैः खदिराङ्गारसंभृतम् । धन्वन्तरिरुवाचैतान् सकलानपि भोगिनः ॥ ९२ ॥ वसुपालसुता दष्टा येन पापेन भोगिना । स परं तिष्ठतु क्षिप्रं यान्त्वन्ये मण्डलाद्बहिः ॥ ९३ ॥ विषघातिवचः श्रुत्वा सप्तनागकुलान्यगुः । कुलिकस्तु सदोषत्वात्तस्थौ तत्रैव मण्डले ॥ ९४ ॥ धन्वन्तरिरमुं प्राह नागं कुलिकसंज्ञकम् । गृहाणात्मविषं पाप विशाग्निं वाऽर्चिषोज्वलम् ॥ धन्वन्तरिगिरं श्रुत्वा दन्दशूकोऽपि तद्विषम् । विहाय निर्भयो मंक्षु अग्निकुण्डं विवेश सः ॥ तथा चोक्तम् ९५ ॥ 15 ९६ ॥ वरं प्रविष्टं ज्वलिते हुताशने न चापि भग्नं चिरसंस्थितं व्रतम् । १०० ॥ १०१ ॥ वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणां न शीलवृत्तिस्खलितं हि जीवितम् ॥ ९७ ॥ स्वरूपलोचनोत्क्षेपैर्जितशत्रुवधूजनम् । रत्नाभरणभाभारभाविताकाशभूतलम् ॥ ९८ ॥ पादनूपुरझंकारबधिरीकृतदिङ्मुखम् । अन्तःपुरं कृतानन्दं संप्रापच्चेलनान्तिकम् ॥ ९९ ॥ निरीक्ष्यान्तःपुरं सर्वं सोमशर्ममुनिं तदा । जगाद वारिषेणोऽपि भोगनिःस्पृहमानसः ॥ अन्तःपुरमिदं कान्तं मणिहस्तितुरङ्गमान् । सोमशर्म गृहाण त्वं मदीयं सकलं धनम् ॥ वारिषेणोदितं श्रुत्वा सोमशर्माऽतिविस्मितः । वैराग्याहितचेतस्को दध्यौ मनसि धीरधीः ॥ १०२ ॥ अहो त्यागो महानस्य अहो धैर्यमहो तपः । अहो सत्यमहो वीर्यमहो कान्तिरहो महः ॥ १०३ ॥ 25 अहो वचनसौभाग्यमहो रूपमहो गुणः । अहो शीलं वृषागारमहो विभवकारणम् ॥ १०४ ॥ एवं विचिन्त्य बुद्धात्मा कान्तासुखविरक्तधीः । वारिषेणं जगौ वीरं सोमशर्मा गुणाकरम् ॥१०५॥ नूनं निर्व्यूढमायातं मित्रत्वं तव शोभनम् । मां नियोजयतो मूढं मार्गे रत्नत्रयात्मके ॥ १०६ ॥ तस्मादुत्तिष्ठ यास्यावो महावीरजिनान्तिकम् । विधायालोचनां तत्र शोभनं नो भविष्यति ॥ १०७॥ सोमशर्मोदितं श्रुत्वा तत्समं निरगादतः । "जननीवन्दितो भक्त्या वारिषेणो महामतिः ॥ १०८ ॥ 30 केवलामलनेत्रस्य सुरासुरनतस्य च । क्रमेण वीरनाथस्य समीपं प्राप्तवानसौ ॥ १०९ ॥ आलोचनाविधिं कृत्वा तत्सकाशे प्रशान्तधीः । महावैराग्यसंपन्नः सोमशर्मा मुनिर्बभौ ॥ ११० ॥ 5 1 पज संग्रहेऽस्माकं राजन् वेत्स्यति नो. 2 फ सुतोत्थापने 3 फ मण्डलं च मे 4 फ यथा. सर्वान् 6प युग्मम् फ युगलम् ज युगलमिदम्. 7फ वसाग्निं. 8 फ लोचनाक्षेपै. युगलम् ज युगलमिदम्. 10 फ चतुष्कुलकम्, पज चतुष्कुलकमिदम्. 11 जनन्या. बृ० को ० ३ 5 प तान् 9 प युग्मम्, फ 20 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०.१११ यथा कृतः स्थिरीकारो वारिषेणेन तत्त्वतः । भार्यानिहितचित्तस्य सुतरां सोमशर्मणः ॥ १११ ॥ तथाऽन्येनापि वीरेण धर्मभावितचेतसा । कर्तव्यो धर्मयुक्तस्य सम्यक्त्वादिच्युतस्य वै ॥ ११२ ॥' ॥ इति श्री सोमशर्म वारिषेणस्थिरीकरणकथानकमिदम् ॥ १० ॥ 5 * ११. विष्णुकुमारकथानकम् । 11 10 ततोऽवन्तीबृहद्देशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । अस्यां बभूव राजेन्द्रः श्रीधर्मा श्रीधरो महान् ॥ प्रियंवदा महाभार्या नामतः श्रीमती परा । कलाविज्ञानसंपन्ना श्रीमती भूपतेरभूत् ॥ २ ॥ बलिर्बृहस्पतिश्चैव प्रह्लादो नमुचिस्तथा । चत्वारो मंत्रिणस्तस्य भूपतेरभवन् प्रियाः ॥ ३ ॥ अकम्पनादियोगीन्द्राः श्रुतसागरपारगाः । तदुद्यानवनं प्राप्ता विहरन्तः सलीलया ॥ ४ ॥ एकं दिनं तदुद्याने स्वाध्यायगतचेतसाम् । अकम्पनमुनिस्तेषां ददौ मौनं महामतिः ॥ ५ ॥ एको मुनिर्न तन्मध्ये केवलं श्रुतसागरः । भिक्षार्थं नगरं यातः स्थितस्तत्राशनेच्छया ॥ ६ ॥ सौधोपरि स्थितो यावन्मत्रिभिः सह तिष्ठति । तावत्पश्यत्ययं लोकं व्रजन्तं वनसन्मुखम् ॥ ७ ॥ ततोऽप्राक्षीत्तदा राजा मत्रिणो निकटस्थितान् । ब्रूत लोकः किमर्थं वा वनं याति विनोत्सवम् ॥ ८ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं तदानीं तं जगौ बलिः | आययुस्त्वत्पुरोद्यानं श्रमणा नग्नरूपिणः ॥ ९ ॥ गृहीत्वा सर्वभावेन पुष्पधूपाक्षतादिकम् । तद्वन्दनार्थमायाति तद्भक्तो निखिलो जनः ॥ १० ॥ Is बलिवाक्यं समाकर्ण्य भूपस्तद्भक्तितत्परः । उवाच तं तदा वीरस्तदालोकनकौतुकः ॥ ११ ॥ तदेहि तद्वनं यावो' नत्वा तान् मुनिपुङ्गवान् । श्रुत्वा धर्मं दयाढ्यं च स्वमेष्यामो गृहं ततः ॥१२॥ बलिः प्रोवाच भूयोऽपि भूपस्य वचनादिमम् । धर्मस्य लोकपथ्यस्य वेदो मूलं भवेन्नृप ॥ १३ ॥ या श्रुतिः स भवेद्वेदो धर्मशास्त्रं स्मृतिः स्मृता । सकलेष्वेषु मीमांसा धर्मस्ताभ्यां बभौ पुनः ॥ १४ ॥ श्रुतिस्मृतिभवं धर्ममधितिष्ठति यः सदा । इहत्यं स सुखं प्राप्य प्रभुंक्ते नाकजं तथा ॥ १५ ॥ 20 इदं वेदे समुद्दिष्टं वाक्यं जनसुखावहम् । लोके प्रमाणतां यातं ब्रह्मवऋविनिर्गतम् ॥ १६ ॥ यदि पृच्छसि मां भूप धर्मं वेदमतं परम् । सर्वलोककृतं शुद्धं निर्मलं कथयामि ते ॥ १७ ॥ नग्नश्रमणधर्मोऽयं श्रुतिस्मृतिबहिष्कृतः । विप्रभूपपरित्यक्तः संमतो न विचक्षणैः ॥ १८ ॥ श्रुत्वा बलिवचोऽनेन भाषितोऽयं महीभुजा । अवश्यमेव गन्तव्यं मुनिपार्श्वं मया बले ॥ १९ ॥ बलिनाऽवाचि भूयोऽपि 'भूपतिर्गर्वमीयुषा । विजिग्ये तानहं वादात् त्वं मध्यस्थो भव प्रभो ॥२०॥ 25 राजा तद्वचनं श्रुत्वा कौतुकव्याप्तमानसः । जगाम मन्त्रिभिः सार्धं वनं मुनिसमाकुलम् ॥ २१ ॥ यावत्संभाषणं तेन कुर्वन्ति सुनिभिः समम् । मौनमादाय तिष्ठद्भिस्तावद्भूपं वदत्यलम् ॥ २२ ॥ 'अस्मत्तो भीतचेतोभिः श्रमणैर्मूर्खराशिभिः । न किंचिदुत्तरं दत्तं ब्रुवाणेभ्योऽपि भूपते ॥ २३ ॥ विलोक्य मन्त्रिणः साधून् मौनमादाय संस्थितान् । निगदन्ति स्म भूपालं तोपहृष्टतनूरुहाः ॥ २४ ॥ यदस्माभिः कृतं भूप दौहृदं वादमिच्छुभिः । तदेतान् श्रमणान् प्राप्य विलीनं हृदये च तत् ॥ २५॥ 30 तस्मादुत्तिष्ठ गच्छामस्त्वरितं निजमन्दिरम् । न कार्यमन्तरेणात्र स्थानं युक्तं मनखिनाम् ॥ २६ ॥ एवं निगद्य भूपालं चत्वारोऽपि वनान्तरात् । निर्जग्मुस्तोषसंपूर्णा भवनं गन्तुमिच्छवः ॥ २७ ॥ 5 1 4 पज ईहत्यं. 5 पफज 1 पफ युग्मम् ज युगलम् 2 प याव, जयायौ. 3प लोकपथस्य. षट्कुलकम्. 6 प भूपतिं 7 प अस्मतो. 8 फ त्रिकुलकम्, पज त्रिकलकमिदम्. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. ६० ] विष्णुकुमारकथानकम् १९ एकोऽनड्वान् समायाति शृङ्गहीनः पुरादरम् । नग्नरूपधरो राज्ञो दर्शितो बलिना मुनिः॥२८॥ वने पुरः स्थितं दृष्ट्वा प्राहेमं श्रुतसागरः । आगतोऽसि कुतो भद्र ब्रूहि मे त्वरितं खल ॥ २९ ॥ बलिस्तद्वचनं श्रुत्वा जगौ तं नृपसाक्षिकम् । ज्ञानी त्वं मां न जानासि पुरःस्थनगरागतम् ॥३०॥ भवन्तं वेश्यहं नूनमिहत्यनगरागतम् । पृच्छामि श्वभ्रतिर्यक्त्वमनुष्यसुरजं भवम् ॥ ३१ ॥ श्रुतसागरसद्वाक्यं श्रुत्वा बलिरुवाच तम् । यते किं कोऽपि जानाति ह्यन्यजन्मभवान्तरम् ॥३२॥ भूयोऽयं मुनिनाऽवाचि तद्भवान्तरवेदिनां । भवद्भवान्तरं वेभि शृणु त्वं कथयामि वः ॥ ३३॥ इहैव नगरे विप्रो रुद्राणीरुद्रसंभवः । क्रोधमानादिसंग्रस्तः कपिलः कपिलोद्भवः ॥ ३४ ॥ अन्यदा धनलोभेन दण्डादण्डि कचाकचि । युद्धमासीत्कृताकम्पं तव देवगणस्य च ॥ ३५॥ अनेन पञ्चतां नीतः कोपारुणनिरीक्षणः । करवालसमाघातान्नरकं प्रथमं गतः ॥ ३६॥ उत्तीर्य दुःखतस्तस्मादायुषि क्षयमागते । स्तोकपुण्यानुभावेन बभूव हरिणो वने ॥ ३७॥ 10 भूयोऽपि गीतदोषेण कर्णश्रवणहारिणा । व्याधेन पञ्चतां नीतो हरिणो मुग्धमानसः ॥ ३८॥ देवकीदेवसंभूतो मिथ्यात्वग्रहदूषितः । जातो मन्त्री नृपस्यास्य साम्प्रतं बलिरुत्तमः ॥ ३९॥ यद्यच्च बलिना प्रोक्तं तेन तत्तच दूषितम् । प्रमाणनयनिक्षेपैः प्रभोरग्रे अनेकधा ॥४०॥ राजा तोषं परं प्राप्तः श्रुत्वा बलिभवान्तरम् । आ जन्ममूलतः ख्यातं श्रुतसागरयोगिना ॥४१॥ नत्वा मुनेः पदाम्भोजं श्रुतसागरयोगिनः । विलक्षमत्रिभिः सार्धं जगामायं स्वमन्दिरम् ॥४२॥ 15 जित्वा वादं सुहृष्टात्मा तदानीं श्रुतसागरः । अकम्पनगुरोः पार्थं प्राप्य तस्थौ प्रणम्य तम् ॥४३॥ दृष्ट्वाऽमुं पुरतः सूरिर्वदति स्म कृतागसम् । संघं विहाय चान्यत्र कायोत्सर्गेण तिष्ठ भो ॥४४॥ अकम्पनगुरोर्वाक्यं श्रुत्वा हि श्रुतसागरः। हित्वा गणं पुराभ्याशे कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥४५॥ श्रुतसागरनामानं मुनि स्थानस्थितं निशि । नगरासन्नदेशस्थं ददृशुः क्रूरमत्रिणः॥४६॥ आदाय करवालानि दष्टदन्तच्छदा भृशम् । वेष्टयित्वा रुषोपेताः सर्वतस्तेऽवतस्थिरे ॥४७॥ 20 आकृष्टकरनिस्त्रिंशा भृकुटीभीषणालिकाः । लालाविलमुखाभोगाः कोपारुणनिरीक्षणाः ॥४८॥ तत्पक्षपातकारिण्या तदा देवतया मुनिम् । परितः स्तम्भितास्त्रस्ता बभूवुस्तत्क्षणेन ते ॥४९॥ दुःखविह्वलचित्तानां मुनिनिन्दाविधायिनाम् । अनयाऽवस्थया तेषां शर्वरी विलयं गता ॥५०॥ अथारुणोदये जाते दृष्ट्वा तांस्तदवस्थितान् । प्राप्ता राजादयः सर्वे हाहाकारं विधाय ते ॥५१॥ महाकलकलं श्रुत्वा बधिरीकृतदिङ्मुखम् । लोकानां भूपतिं प्राह देवता गगनस्थिता ॥ ५२ ॥ 25 मदावासस्थितं साधु मुनि हन्तुं समुद्यतान् । निकारकारिणो हन्मि भूपतेऽहं त्वदग्रतः ॥ ५३॥ देवीवचनमाकर्ण्य भूपतिः प्राह तां पुनः । मद्वाक्यतो विमुञ्चार्ये बुद्धिहीनानिमानरम् ॥५४॥ मुमोच भूपवाक्येन देवतैतान् कृतागसः । महतामुपरोधेन प्रसीदन्ति हि देवताः ॥ ५५ ॥ विमुक्तबन्धनाः सन्तो मुक्ता देव्या नरेशिना । निर्धाटिता द्रुतं देशाचत्वारोऽपि मलीमसाः ॥५६॥ देवताऽपि मुनि नत्वा समाप्तनियमं तदा । जगामादृश्यतां क्वापि स्वेच्छाचारा हि देवताः ॥५७॥ 30 आश्चर्यमिदमाकर्ण्य श्रुत्वा धर्ममतः परम् । केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचिन्मध्यस्थतां पराम् ॥५८॥ भूयोऽपि नमनं कृत्वा मुनेरस्य प्रशान्तधीः । लोको मुनिगुणग्राही जगाम खं निकेतनम् ॥ ५९॥ उपसर्गजयं कृत्वा नृपलोकनमस्कृतः । जगाम स्वगुरोः पाच निर्दोषः श्रुतसागरः ॥ ६॥ 1पज स्थिरं.2 °वेदता. 3 पधनलाभेन. 4 Only in फ.5 पज दोषं परं प्राप्तं. 6 फ सूर्योज्वलं ख for करवालानि.7 पफ युग्मम, ज युगलमिदम्.8प निन्दाभिधायिनाम.9 फ महावास. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचायकृते बृहत्कथाकोशे [११.६१अथान्यद्विकटं जातं संविधानं तदुच्यते । कुरुजङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् ॥ ६१॥ तत्राभवन्महापद्मो भूपतिर्जनवल्लभः । लक्ष्मीमती महादेवी तस्य लक्ष्मीसमन्विता ॥ ६२ ॥ तयोद्वौ नन्दनौ जातौ पद्मविष्णुमहाबलौ । विनयाचारसंपन्नौ प्रतापहतशात्रवौ ॥ ६३॥ कदाचिद्विहरन्नार हस्तिनागपुरं वनम् । श्रुतसागरचन्द्राख्यः सूरिराचारपण्डितः ॥ ६४ ॥ 5 महापद्मनृपः श्रुत्वा चन्द्रान्तं श्रुतसागरम् । मुनिं नन्तुं जगामायं ससुतो वनमुत्तमम् ॥ ६५ ॥ श्रुत्वा धर्मकथां तत्र दत्वा पद्माय संपदम् । विष्णुना 'श्रुतवाय॑न्ते महापद्मस्तपोऽग्रहीत् ॥६६॥ अत्रान्तरे परिप्राप्य हस्तिनागपुरं तके । पूर्वोक्तमत्रिणो भूयो जाता पद्मस्य मत्रिणः ॥ ६७ ॥ अथ सिंहबलो राजा कोट्टनाथो महाबलः । व्याघ्रसिंहादिभिर्भीमे पर्वतान्ते वसत्यसौ ॥ ६८॥ धनधान्यहिरण्यानि रूप्यहस्तितुरङ्गमान् । आदाय पद्मदेशस्य स तस्थौ कोट्टमध्यके ॥ ६९ ॥ " खदेशलुण्टनं श्रुत्वा पद्मः पद्मदलेक्षणः । हस्त्यश्वरथपादातयुक्तोऽपि हृदि खिन्नवान् ॥ ७० ॥ विमनस्कं तरां पद्मं पद्माऽऽलिङ्गितवक्षसम् । जगाविति गुणावासो बलिरिङ्गितकोविदः ॥ ७१॥ मूढचित्तोऽसि किं राजन् शोकवान् दुःखितोऽसि किम् । यदिष्टं तद्वद क्षिप्रं सर्वं संपादयामि ते॥७२॥ मदीयो लुण्टितो देशो बले सिंहबलेन च । दुर्गमाश्रित्य दुष्टेन तेन दुःखं ममाधिकम् ॥ ७३॥ पद्मस्य वचनं श्रुत्वा बलिरूचे नृपं पुनः । वशीकरोमि तं शत्रु खबुद्ध्या धीरतां व्रज ॥ ७४ ॥ 15 बलिवाक्यं समाकर्ण्य तोषकण्टकिताङ्गकः । बभूव तत्क्षणादेव पद्मः पद्मनिभेक्षणः ॥ ७५ ॥ अन्यधुर्बलिवाक्येन खानुकूले दिने शुभे । नक्षत्रे रजनीनाथे प्रस्थानमकरोत्प्रभुः ॥७६॥ गोणिकासु सुदीर्घासु पृथुलासु घनासु च । चित्रचित्रविचित्रासु कृतासु वरशिल्पिभिः ॥ ७७ ॥ प्रासासिकुन्तखेटादिभासिताखिलविग्रहान् । बलिः प्रवेशयामास पुरुषान्पुरुविक्रमान् ॥ ७८ ॥ अञ्जनाद्रिसमानेषु महिषेषु कलखनाः। गुरूरारोपयामासुः पुमांसो गोणिकास्तकाः ॥ ७९ ॥ 20 महामहिषसार्थोऽयं महापुरुषसंगतः । चचाल बलिवाक्येन हस्तिनागपुरादरम् ॥ ८॥ ततः क्रमेण संप्राप्तस्तदा सैंहबलं पुरम् । महामहिषसार्थोऽपि बलिनाधिष्ठितो महान् ॥ ८१॥ तत्कोट्टमध्यकं प्राप्य गोणिकान्तरतो नराः । पाटयित्वा तु ताः शस्त्रैर्निर्ययुस्तन्निवासिनः ॥ ८२॥ ततः सिंहबलो दृष्ट्वा परचक्र समागतम् । दष्टदन्तच्छदं श्रान्तं कुन्तप्रासासिभीषणम् ॥ ८३॥ अधिरुह्य समावेगं तुरङ्गं चलचामरम् । तत्सन्मुखमभीयाय कोपलोहितलोचनः ॥ ८४॥ 28 ततो बलिरपि स्पष्टं दृष्ट्वा सिंहबलं पुरः । खसैन्यसमुदायेन तत्सन्मुखमवाप सः॥८५॥ खड्गधेनुसमाबद्धैः करवालकरै टैः । बलिः सिंहबलं शीघ्रं जीवग्राहं गृहीतवान् ॥ ८६ ॥ आदाय तं महासत्त्वं नृपं सिंहबलं बलिः । आजगाम स्वसैन्येन हस्तिनागपुरं परम् ॥ ८७॥ अथास्थानस्थितस्यास्य पद्मस्यायतवक्षसः । बलिः समर्पयामास तदा सिंहबलं नृपम् ॥ ८८॥ दृष्ट्वा सिंहबलं राजा बभाणेमं कृतानतिम् । क्रियते किं तवेदानीमसुखं वा सुखं वद ॥ ८९॥ 30 श्रुत्वा पद्मवचो दीनं तकं सिंहबलोऽवदत् । यत्तुभ्यं रोचते देव तदेव कुरु साम्प्रतम् ॥ ९॥ निशम्यास्य वचःसारं तोषं प्राप्य नराधिपः । ददावङ्गपरिस्पृष्टं तस्मै कङ्कणकादिकम् ॥ ९१ ॥ कारयित्वा निजां केरां संधि वा सार्वकालिकाम् । मुक्तोऽमुनाऽगमत्सोऽपि संतुष्टो निजपत्तनम् ॥९२॥ अत्रान्तरे बलिं प्राह पद्मो हृष्टतनूरुहः । वरं वृणीष्व भद्र त्वं तुष्टोऽहं स्वमनीषितम् ॥ ९३॥ 1 ज श्रुतपार्श्वन्ते. 2 ज कोटनाथो. 3 [विमनस्कतर] 4 प युग्मम् , फ युगलम् , ज युगलमिदम्. 5ज केरां-सेवां. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. १२५ ] विष्णुकुमार कथानकम् २१ १०६ ॥ खखामिवचनं श्रुत्वा बलिरूचे प्रभुं पुनः । आस्तां तावद्वरो नाथ निक्षेपो मे त्वयि स्थितः ॥ ९४ ॥ अथ योगी तपोराशिः पूजार्हः पूजितः सताम् । शतैः सप्तभिरायुक्तो मुनीनां शुद्धचेतसाम् ॥९५॥ अकम्पनमुनिर्ज्ञानी श्रीमदुज्जयिनीपुरात् । हस्तिनागपुरोद्यानं नानावृक्षं समाययौ ॥ ९६ ॥ अकम्पनमुनिं धीरं समुनिं मुनिनायकम् । हस्तिनागपुरोद्यानमागतं धर्मदेशकम् ॥ ९७ ॥ श्रुत्वा निजगृहं तिष्ठन् भुञ्जानो जनवाक्यतः । गत्वा वनमसौ दृष्ट्वा दध्यौ बलिरिदं सभीः ॥ ९८ ॥ श्रीमदुज्जयिनीतोऽहं प्रह्लादादिभिरन्वितः । निर्धाटितोऽधुना किं वा घाटयिष्यन्ति मां न किम् ॥ ९९ ॥ कारापयन्ति नो यावद्योगिनो मम धाटकम् । तावत्करोम्यहं किंचिदेतेषां नाशनं लघु ॥ १०० ॥ एवं विचिन्त्य संप्राप्य भूपतिं साधुवत्सलम् । बलिर्मधुरगम्भीरं ययाचे प्राक्तनं वरम् ॥ १०१ ॥ तद्वाक्यतोऽमुनाऽवाचि पझेनायं विवेकिना । ग्रामहस्तितुरङ्गादीन् गृहाण त्वं बले द्रुतम् ॥१०२॥ नरेन्द्रवाक्यमाकर्ण्य भाषितो बलिना नृपः । दिनानि सप्त मे राज्यं देहि राजेन्द्र निश्चितम् ॥ १०३ ॥ 10 महीपालोऽपि तद्राज्यं प्रदाय दिनसप्तकम् । प्रविश्यान्तःपुरं तस्थौ तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ १०४ ॥ अकम्पनादियोगीन्द्रान् विलोक्य प्रवनस्थितान् । बलिप्रभृतयस्तेषामुपसर्गं प्रचक्रिरे ॥ १०५ ॥ चतुर्ष्वपि च पार्श्वेषु यज्ञशालाः प्रवर्तिताः । मुनीनां बलिनाऽऽदिष्टैर्भटैर्यमभटैरिव ॥ तद्भटाहतजीवौघनादनादितपुष्कराः । मखानिलशिखाक्षिप्ततिलाज्यकृतधूमकाः ॥ १०७ ॥ महिषाजादिकान् जीवान्निघ्नन्ति बलिचोदिताः । भटा मुनिसकाशे च ध्वनिपूरितदिङ्मुखाः ॥ १०८ ॥ ७ कायोत्सर्गं विधायात्र भोजनादेर्मुनीश्वराः । प्रत्याख्यानं च सालम्बं तस्थुः स्थिरशरीरकाः ॥ १०९ ॥ अथ विष्णुकुमारस्य मिथिलानगरीस्थितः । गुरुर्ददर्श नक्षत्रं श्रवणं चलिचञ्चलम् ॥ ११० ॥ दृष्ट्वा श्रवणनक्षत्रं चलं विष्णुगुरुर्जगौ । अहो मुनिनिकायस्य चोपसर्गः प्रवर्तते ॥ १११ ॥ क्षुल्लकः पुष्पदन्ताख्यः श्रुत्वा विष्णुगुरोर्वचः । दिव्यज्ञानयुतं सूरिमुवाचेति विचक्षणः ॥ ११२ ॥ कस्मिन् स्थाने मुने केषां कुतो वा स विनश्यति । एतत्सर्वं समाचक्ष्व दिव्यज्ञानविलोचन ॥ ११३॥ 20 पुष्पदन्तवचः श्रुत्वा जगौ विष्णुगुरुस्तकम् । अकम्पनादियोगीशं हस्तिनागपुरे वरे ॥ ११४ कारापितोऽमुना नूनं बलिना पद्ममत्रिणा । उपसर्गों महानद्य नितरां जनदुःसहः ॥ ११५ ॥ शीघ्रं विष्णुकुमारेण तपःपूतेन योगिना । ऋद्धियुक्तेन धीरेण तत्क्षणात्स निरस्यते ॥ ११६ ॥ श्रुत्वा मुनीन्द्रसद्वाक्यं संशयोच्छेदकारणम् । पुष्पदन्तोऽगमत् क्षिप्रं धरणीभूषणं गिरिम् ॥११७॥ तद्गुहावासिनं नत्वा कुमारं विष्णुपूर्वकम् । जगाद पुष्पदन्ताख्यः क्षुल्लको धर्मशुद्धधीः ॥ ११८ ॥ 25 अकम्पनादिसाधूनामुपसर्गों महानयम् । हस्तिनागपुरे नाथ काले संप्रति वर्तते ११९ ॥ विकुर्वणादिका सिद्धिर्विद्यते भवतामियम् । तस्याः प्रभावतो नाशमुपसर्गः प्रयास्यति ततः स विस्मयोपेतस्तदा क्षुल्लकवाक्यतः । करं गुहोन्मुखं चक्रे भिन्नशैलं महातपाः ॥ ततो विकुर्वणायुक्तमात्मानमवगम्य सः । साधूपसर्गहान्यर्थं मतिं चक्रे महामतिः अद्यापि सा गुहाछिद्रा विष्णुपाणिविदारिता । लोकातिशयसंपन्ना विद्यते धरणीतले ॥ अथ विष्णुकुमारोऽयं” गुरुणाऽपि विसर्जितः । पद्मपार्श्वं परिप्राप्य जगादैनं ससंभ्रमम् ॥ १२४॥ अस्मत्कुलसमायातो जिनधर्मः स दीक्षिणः । उपसर्गो न केनापि मुनिधर्मस्य वा कृतः ॥ १२५ ॥ ॥ १२० ॥ १२१ ॥ ॥ १२२ ॥ १२३ ॥ ० 1 फ युगलम्, पज युगलमिदम्. 2 प जिनवाक्यतः 3 पफ युग्मम् ज युगलम्. 4 फ चालिचञ्चलम्. 5 पज योगीशां. 6 पज पुरे. 7 पफ त्रिकलम् ज त्रिकुलम् 8 प सिद्धिर्विभ्रमे 9 पफ त्रिकलम्, ज त्रिकुलम्. 10 Omitted in फ. 11 प कुमारोऽपि . ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 5 25 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ११. १२६ युष्माकं जानतां धर्मं समक्षमधुना सताम् । साधूपेक्षा न सा युक्ता विधातुं नीतिशालिनाम् ॥ १२६॥ तेन राज्यस्य' देशस्य न यावद्भवतामपि । विनाशो जायते तावन्निषेद्धव्या हि माहनाः ॥ १२७ ॥ श्रुत्वा विष्णुकुमारस्य वचनं नरकुञ्जरः । उवाचेमं पुनः स्पष्टं तन्मतस्थितमानसः ॥ १२८ ॥ यथैतेषां मया पूर्वं वरो दत्तोऽतितोषिणाम् । अतः किमपि कुर्वन्तो धर्तुं शक्या न माहनाः ॥ १२९ ॥ तथोक्तम् - २२ १३२ ॥ ॥ १३९ ॥ १४० ॥ तेन त्वं याशो मेडलं तादृशः सोऽपि माहनः । ब्रवीमि नोभयत्रापि समभावा हि साधवः ॥ १३१ ॥ ततो निसृत्य वेगेन कृत्वा रूपं स वामनम् । सभास्थितं बलिं प्राप वेदध्वनिमथोच्चरन् ॥ 1. पठित्वा मत्रमस्याग्रे स पादत्रय भूमिकाम् । प्रययाचे बलिं वृद्धमातृपितृनिमित्ततः ॥ बलिः स्वरूपमालोक्य वामनस्य त्रिपादगाम् । भूमिं ददौ प्रहृष्टात्मा करे तोयं विधाय वै ततो विकुर्वणां कृत्वा निजकायस्य वामनः । चिक्षेपैकं पदं मेरौ द्वितीयं मानुषोत्तरे ॥ क्षेत्रमप्राप्नुवन्नन्यस्तृतीयचरणोऽस्य सः । अन्तराले भ्रमन्नास्ते वदन्निव पदं कुतः ॥ ततो किन्नरखेटाद्याः समेत्य भयविह्वलाः । पूजयन्ति च तत्पादं विचित्रकनकाम्बुजैः ॥ साधूपसर्गमाहत्य बलियागं विकीर्य च । पश्चात्करं बबन्धुस्ता वलिं शासनदेवताः ॥ निधाय मस्तके भस्म पञ्चबिल्वप्रबन्धनम् । खरारोहं बलिं कृत्वा भ्राम्यन्ति नगरं सुराः ॥ भूयोऽपि किन्नराः खेटाः पादलग्ना वदन्ति ते । विधाय नो दयां पूत त्वं पादमुपसंहर ॥ घोषा सुघोषनामा च महाघोषा मनोहरी । वितीर्णं किन्नरैस्तुष्टैरस्य वीणात्रिकं परम् ॥ मुक्तैकाऽपि मतं विष्णोर्वलकी किन्नरामरैः । इहत्यविजयार्धस्य सिद्धकूट जिनालये ॥ 20 वीणाऽन्या' दक्षिणश्रेण्यामुत्तरस्यां कला परा । विजयार्धस्य संदत्ता विद्याधरगणाय तैः सर्वे विद्याधरा देवा" विस्मयाहितबुद्धयः । देव्योऽपि तत्पदं नत्वा ययुर्धाम यथायथम् ॥ पद्मोऽप्यन्ये नृपाः सर्वे बलिप्रभृतिमत्रिणः । अकम्पनादिसाधूनां प्रणेमुः पादपङ्कजम् ॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीदृक्षं प्रापुः केचिन्महाव्रतम् । केचिच्छ्रावकतां शुद्धां केचिचोपशमं परम् येऽपि मिथ्यादृशो लोकाः क्रोधादिकलुषीकृताः । जिनधर्मं प्रशंसन्तस्तस्थुर्मुदितचेतसः ॥ उपसर्गं सहित्वा ते यतयो कम्पनादयः । शुभानुष्ठानसंयुक्ता धर्मयोग्यं पदं ययुः ॥ विधाय मुनिवात्सल्यं कुमारो विष्णुपूर्वकः । आलोचनां गुरोः पार्श्वे कृत्वा योग्यं पदं ययौ ॥ १४९ ॥ ॥ इति सम्यक्त्ववात्सल्यविष्णुकुमारकथानकमिदम् ॥ ११ ॥ १४१ ॥ १४२ ॥ ॥ १४३॥ ॥ १४७ ॥ १४८ ॥ * १२. वैरकुमारकथानकम् । अथ नागपुरे रम्ये नागो नाम नराधिपः । बालश्रीरस्य भार्याऽऽसीद् बालादित्यतनुप्रभा ॥ १ ॥ 30 तस्य पुरोहितो विप्रो रुद्रदत्तोऽभवत्प्रियः । तद्भार्याऽपि च सोमिल्ला सुभूतिभगिनी सका ॥ २ ॥ बभूव सोमदत्तोऽस्या नन्दनो लोकनन्दनः । स्वदेहकान्तिसंतानजितचन्द्रकरोत्करः ॥ ३ ॥ अहिच्छत्रपुरे" राजा दुर्मुखोऽभवदिद्धधीः । दुर्मुखी तस्य भार्या च कलागुणविशारदा ॥ ४ ॥ सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति साधवः । सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ॥ १३० ॥ 1 फज राजस्य 2 पज शक्यो. 3 पज भूमिकम्. 4 पज त्रिपादगम् 6 ज मुक्तकोपि 7 फ वेणान्या 8 फ परे. 9 फ विद्याधरदेवा. 10 फ आलोचनं १३३ ॥ १३४ ॥ १३५ ॥ १३६ ॥ १३७ ॥ १३८ ॥ १४४ ॥ १४५ ॥ १४६ ॥ 5फ करोत्येवं विधाय वै. 11 प पुरो. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२. ३७ ] वैरकुमारकथानकम् २३ सुभूतिब्राह्मणो नाम तत्पुरेऽपि पुरोहितः । तद्भार्या काश्यपी तस्याः सोमभूतिः सुतोऽभवत् ॥५॥ सोमभूतेः स्वसा चार्वी कलाविज्ञानकौशला । रूपयौवनसंपन्ना यज्ञसेनेति कीर्तिता ॥ ६॥ अन्यदा सोमदत्तोऽपि हस्तिनागपुरादरम् । शस्त्रशास्त्रकृतप्रीतिरहिच्छत्रपुरं ययौ ॥७॥ विश्रान्तस्तदिनं सोऽपि कृतप्राघूर्णकक्रियः । सुखासनोपविष्टः सन्मातुलं निजगाविति ॥ ८॥ क्षिप्रं दर्शय मां राज्ञो मातुल स्नेहवत्सल । भवत्प्रसादतो येन वर्तनं मे प्रजायते ॥९॥ उक्तोऽपि मातुलोऽनेन भूयो भूयः प्रजल्पितैः । महामात्सर्यसंयुक्तो न तं नयति भूभुजम् ॥१०॥ ज्ञात्वा मातुलसद्भावं पैशुन्येन समन्वितम् । पिशाचरूपमादाय स विवेश नृपालयम् ॥ ११॥ ततो राजाऽपि तं दृष्ट्वा सोपचारं जगाविमम् । कोऽसि त्वं केन कार्येण समायातो मदन्तिकम् ॥१२॥ नृपवाक्यं समाकर्ण्य जगादायं नराधिपम् । हस्तिनागपुराद्भूप सोमदत्तोऽहमागतः ॥ १३ ॥ यदि कस्यास्ति विज्ञानं शस्त्रे शास्त्रकलासु च । ततो मया समं राजन्नागच्छतु करोतु तत् ॥१४॥10 इति तद्वचनं श्रुत्वा केचिन्नृपसभान्तरात् । उत्थिता सहसा कर्तुं तत्समं स्वगुणान्तरम् ॥ १५ ॥ ततस्ते युगपत्सर्वं सोमदत्तेन धीमता । धनुर्वेदेन शास्त्रेण कलाभिरपि निर्जिताः ॥ १६ ॥ धनुर्वेदादिविज्ञानैर्जितं दृष्ट्वा नृपव्रजम् । सतोषो भूपतिस्तस्मै ददौ मत्रिपदं महत् ॥ १७ ॥ ततोऽन्यदा विलोक्येमं महाभूतिं पुरोहितः । सुभूतिर्मातुलः प्रीतो ददावस्मै सुयज्ञिकाम् ॥१८॥ भुञ्जानाया रतिं तेन सोमदत्तेन भोगिना । बभूव सहसा गर्भो यज्ञिकायाः सुतेजसः ॥ १९ ॥ पुरःस्थितां मनःकान्तां कान्तां तामवदत् प्रियः । किमर्थं वल्लभे ब्रूहि शोकयुक्तेव दृश्यसे ॥२०॥ श्रुत्वा कान्तवचः स्निग्धं यज्ञदत्ता जगौ धवम् । आम्राणि खादितुं नाथ दौहृदं मे मनःप्रियम् ॥२१॥ भार्यावचनमाकर्ण्य सोमदत्तोऽगमगृहात् । आम्राणि तानि चानेतुं घनकालेऽपि दुःखितः॥२२॥ नदीतीरं समासाद्य घनाम्रतरुराजितम् । फलिताम्रतरोर्मूले ददर्शायं यतीश्वरम् ॥ २३॥ मुनिप्रभावादाम्राणि संजातान्यत्र शाखिनि । इति मत्वाऽन्यहस्ते च कान्तायै प्रजिघाय सः॥२४॥ 20 त्रिः परीत्य तमीशानं सुमित्राचार्यमादरात् । श्रुत्वा धर्मममुष्यान्ते सोमदत्तोऽगृहीत्तपः ॥ २५॥ ततो हि विहरन् वापि संघेन गुरुणा सह । सोमदत्तः पुरं प्राप सोपारं मागधोद्भवम् ॥ २६ ॥ श्रुत्वाऽऽगमं गुरोः पार्थे सोपारे नगरे स्थितः । निःसृत्य सोमदत्तोऽस्मात्संप्रापन्नाभिपर्वतम् ॥२७॥ ततो नाभिगिरौ तत्र कायोत्सर्गेण धीरधीः । सोमदत्तमुनिीष्मे तस्थौ वरशिलातले ॥ २८॥ यज्ञिका सुतमादाय बन्धुवर्गसमन्विता । ददर्श सा तदा क्रुष्टा कायोत्सर्गस्थितं मुनिम् ॥ २९ ॥ तत्पादोपरि तं पुत्रं मुक्त्वा निष्ठुरमानसा । ययौ निजगृहं क्रुद्धा यज्ञिका रोदनाकुला ॥ ३०॥ उपसर्गों महानेष यदि क्षेमेण यास्यति । तदाहारशरीरादेः प्रवृत्ति, भविष्यति ॥ ३१॥ अत्रान्तरे महाखेटो देवान्तो हि दिवाकरः । मुनि वन्दितुमायातो महादेवीसमन्वितः ॥३२॥ दृष्ट्वा खेटोऽपि तं बालं मुनिपादोपरि स्थितम् । उपसर्गार्थमानीय मुक्तं केनापि हेतुना ॥ ३३ ॥ एवं संचिन्त्य तं बालं गृहीत्वा निजपाणिना । खेटः समर्पयामास पुत्रहीनः स्खयोषितः ॥ ३४ ॥ ७ मुनिपूजां विधायाशु पुष्पगन्धानुलेपनैः । कृत्वा नामास्य बालस्य कुमारं वैरपूर्वकम् ॥ ३५ ॥ कृत्वा मुनिनमस्कारं भक्तिरोमाकुराञ्चितः । भार्यावैरकुमाराभ्यां खेटो निजपुरं ययौ ॥ ३६॥ ततो वृद्धिमनुप्राप पञ्चवर्षसमुद्भवाम् । वैरादिककुमारोऽतः सर्वखेटमनोहरः ॥ ३७॥ 1 पज मनःप्रियः. 2 प रुष्टा, ज तुष्टा. 3 फ omits 33. 4 प युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 ज विधायात्र. 6 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ३८ ॥ ३९ ॥ कनकादिपुरे रम्ये निजमैथुनिकस्य' च । विमलोपपदस्यान्ते वाहनस्य महात्मनः ॥ दिवाकरादिदेवेन विद्यागुणगणाप्तये । नीतो वैरकुमारोऽयं बालादित्यसमप्रभः ॥ कुलजातितपोविद्याशास्त्रवारिधिपारगः । नूनं वैरकुमारोऽपि निर्बभौ तगृहे तराम् ॥ ४० ॥ अन्यदाऽस्य नरेन्द्रस्य रूपराजितविग्रहा । इन्द्रपूर्वा मतिः पुत्री बभूव कलनिःखना ॥ ४१ ॥ • तदा वैरकुमारोऽपि रममाणो वयंसकैः । इन्द्रमत्या च तत्पुत्र्या सहासमवतिष्ठते ॥ ४२ ॥ दृष्ट्वा वैरकुमारं च दीव्यन्तं सुतयाऽनया । तत्पिता कान्तया साकं क्रीडां प्रतिनिषिद्धवान् ॥४३॥ आसीद् गरुडवेगस्य श्रीसमाङ्गमतेरपि । सुता पवनवेगेति रूपातिशयशालिनी ॥ ४४ ॥ इयं विद्याधरी धीरा विद्यां प्रज्ञप्तिमूर्जिताम् । आराधयितुमुत्तुङ्गहीमन्तं पर्वतं ययौ ॥ ४५ ॥ यावत्प्रसाधयत्येषा विद्यां तद्ध्यानतत्परा । श्रमेण महता युक्ता श्रमः स्थाने फलत्ययम् ॥ ४६ ॥ सहायैः कुलसंभूतैर्विद्याधरकुमारकैः । तावद्वैरकुमारोऽपि संप्रापत् तं नगं तदा ॥ ४७ ॥ सिद्धिमागन्तुकामापि विद्या विव्याध ' कण्टकैः । यदाऽपाकुरुते कोऽपि तांस्तदेयं च सिध्यति ॥ ४८ ॥ दृष्ट्वा विद्याधरीमेष बदरीकण्टकैश्च ताम् । लोचने तानपि क्षिप्रं तीक्ष्णतुण्डान्निरस्तवान् ॥ ४९ ॥ कन्या निःशल्यतां प्राप्य कुमारं निजगौ पुनः । भवत्प्रसादतः सिद्धा विद्या मम नरोत्तम ॥ ५० ॥ चेतसो यदभीष्टं ते तत्प्रार्थय महामते । प्रयच्छामि परं प्रीता' तुभ्यं पूर्णमनोरथा ॥ ५१ ॥ 15 खेचरीवचनं श्रुत्वा कुमारो वैरपूर्वकः । ययाचे तां महाविद्यां सावधिं दिनसप्तकम् ॥ ५२ ॥ तदा वैरकुमाराय सुकुमाराय धीमते । विद्या दत्ता तया स्नेहाद्यथेष्टमतकारिणी ॥ ५३ ॥ ततो विद्यां समादाय गत्वाऽसावमरावतीम् । कनिष्ठजनकेनामा युङ्खाऽमुं च निरस्तवान् ॥ ५४ ॥ तदानीममरावत्यां यथेष्टं सुरसंसदि । जनकं स्थापयामास कुमारो नतिपूर्वकम् ॥ ५५ ॥ एवं तिष्ठति यावच्च कुमारः प्रीतमानसः । तावत्पूर्वोक्तखेचर्याहृतोऽन्यैरपि सुन्दरः ॥ ५६ ॥ 20 ज्ञात्वा गरुडवेगस्तद् वृत्तं पत्त्या निवेदितम् । ददावस्मै सुतां शीघ्रं विधिनोत्सवपूर्वकम् ॥ ५७ ॥ तत्र वैरकुमारोऽयं भुञ्जानः सुखसंपदम् । देवेन्द्रभोगसंकल्पां सतोषं व्यवतिष्ठते ॥ ५८ ॥ प्रणम्य श्वशुरं श्वश्रूमवाप्याज्ञामथैतयोः । आटामरावतीं सोऽथ साकं पवनवेगया ॥ ५९ ॥ अन्यदा भ्रातृकार्येण ज्ञात्वा मातृरुषं सकः । पप्रच्छ पितरं तात त्वत्पुत्रोऽहं भवे न वा " ॥ ६०॥ श्रुत्वा वैरकुमारस्य वचनं जनकेन तत् । समाख्यातं यथावृत्तं तस्य कौतुकचेतसः ॥ ६१ ॥ 25 श्रुत्वा पितृवचः सत्यं जगादेमं स धीरधीः । तात यामि गुरोः पार्श्व संसारोच्छेदकारिणः ॥ ६२॥ कुमारवचनं श्रुत्वा भूयोऽवाचि स बन्धुभिः । पितृमातृसमायुक्तैस्तात तावन्न गम्यते ॥ ६३ ॥ पितृवाक्यं निशम्यायं जनकं प्राह सोत्सुकम् । तात गन्तव्यमस्माभिर्निश्चितं किं बहूदितैः ॥ ६४॥ ततस्ते निश्चयं श्रुत्वा कुमारस्य महात्मनः । विद्याधरगणाः सर्वे तमादाय पुरादगुः ॥ ६५ ॥ उत्तरोपपद श्री कैमथुरासन्नवर्तिनी । क्षान्दिकाख्या गुहा दिव्या राजते कनकादिभिः ॥ ६६ ॥ ३• अस्यां साधुसमेतस्य सोमदत्तगुरोरिमे । यदाभ्याशं परिप्रापुस्तत्समं खेटराशयः ॥ ६७ ॥ त्रिः परीत्य च भावेन सोमदत्तादियोगिनः । दिवाकरादिदेवाद्याः प्रणेमुः खेचरा भृशम् ॥ ६८ ॥ उपविश्य यथास्थानं * सोमदत्तमुनीश्वरम् । दिवाकरादिदेवोऽयं जगौ प्रणतमस्तकः ॥ ६९ ॥ 14 10 २४ 1 फ मैथुनकस्य 2 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 3 फ कलनः खना. 4 फ श्रमस्थाने. 5 ज विवाध. 6 प कण्टकैश्रितां, ज कण्टकैश्वेतां. 7फ प्रीति ज प्रीत्या 8 फ सप्तकां. 9 पज 'वेगस्य सद्वृत्तं. 10 फ संतोषं व्यवतिष्ठति. 11 फ भवेर्नवा 12 ज श्रीका 13 [ खेचरादयः ] 14 फ यथास्थाने. [ १२.३८ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२. १०० ] वैरकुमार कथानकम् २५ यस्त्वत्पादान्तिकान्नीतो नन्दनो लोकनन्दनः । सोऽयमस्माभिरानीतः सविद्यो भवदन्तिकम् ॥७०॥ श्रुत्वाऽस्य वचनं योगी तोषपूर्णो जगा विमम् । सविद्योऽयं समानीतो भवद्भिः शोभनं कृतम् ॥७१॥ अत्रान्तरे स्तुतिं भक्त्या विधाय करकुडलम् । तोषी वैरकुमारोऽपि सोमदत्तगुरुं जगौ ॥ ७२ ॥ भगवन् देहि मे दीक्षां संसारार्णवतारिणीम् ' । आहत्री' नाकसौख्यस्य मोक्ष सौख्यस्य च क्रमात् ॥७३॥ श्रुत्वा वैरकुमारस्य भव्यसिंहस्य भारतीम् । ददौ दैगम्बरीं दीक्षां सोमदत्तगुरुस्तदा ॥ ७४ ॥ दिवाकरादिदेवाद्या विद्याधरकुमारकाः । विधाय महतीं पूजां ययुस्ते निजमन्दिरम् ॥ ७५ ॥ इदं प्रकटमन्यच कारणं तावदुच्यते । पूर्वोक्तमथुरा चासीन्नगरी परमोदया ॥ ७६ ॥ अस्यां पूतिमुखो राजा बभूव विनयान्वितः । नीतिशास्त्रकृताभ्यासो निर्जिताखिलशात्रवः ॥ ७७ ॥ धर्मप्रभावनासक्ता सत्सम्यक्त्वविभूषिता । उर्विल्लाऽस्य महादेवी विद्यते गुणसागरा ॥ ७८ ॥ अस्यामेव पुरि श्रेष्ठी दत्तान्तः सागरादिकः । आसीत् समुद्रदत्ताऽस्य गेहिनी गेहमण्डनम् ॥ ७९ ॥ " दारिद्रका सुता जाता दारिद्रोपहतानयोः । कालेन तद्धने नष्टे मृतः शोकेन वाणिजः ॥ ८० ॥ ततः समुद्रदत्ताऽपि दुःखसंतप्तमानसा । भृतिं करोति सा दीना परप्रेषणकारिणी ॥ ८१ ॥ दारिद्रका क्षुधाकान्ता भ्रमन्ती नगरान्तरे । देहलीदत्तसिक्थानि भक्षयन्ती च तिष्ठति ॥ ८२ ॥ अन्यदा नन्दनो योगी तथाऽन्योऽप्यभिनन्दनः । प्रविष्टौ नगरं साधू चर्यामार्गेण सक्रमम् ॥ ८३ ॥ तदा दरिद्रिकां दृष्ट्वा बुभुक्षाग्रस्त चेतसाम् । मुनिर्दयागृहीतात्मा कनिष्ठो वदतीतरम् ॥ ८४ ॥ 15 अहो कथमियं बाला शरावोत्सिष्टकान्यलम् । अश्नाति मस्तके भिन्ना शरावशकलैरपि ॥ ८५ ॥ पुटिकापत्रसंघातैश्चाहता विकृपैस्तराम् । भुङ्क्ते तलग्नमुत्सिष्टं रुधिरारुणविग्रहा ॥ ८६ ॥ कनिष्ठमुनिसद्वाक्यं श्रुत्वा ज्यायानुवाच तम् । दिव्यज्ञानसमायुक्तो नन्दनो भव्यनन्दनः ॥ ८७ ॥ येयं कन्या त्वया दृष्टा शरावोच्छिष्टकाशनी । इहत्यनगरेशस्य वल्लभाऽऽशु भविष्यति ॥ ८८ ॥ अत्रैव नगरे भिक्षुर्बुर्द्धधर्मा सुचीवरी । प्रविष्टः पिण्डवृत्त्यर्थं शुश्राव वचनं मुनेः ॥ ८९ ॥ श्रमणोऽमोघसद्वाक्यः श्रूयते जनवाक्यतः । इमां रूढिं प्रसाध्यायंस्तामादाय गृहं ययौ ॥ ९० ॥ विधाय मृष्टमाहारं स्नापयित्वा विधानतः । प्रीतां पप्रच्छ तां सोऽपि कोऽस्ति ते निगदाशु मे ॥९१॥ श्रुत्वा तद्वचनं बाला जगादेमं कलस्वना । ममैका विद्यते माता नापरः कोऽपि पावन' ॥ ९२॥ तद्वाक्यात् तां समादाय भिक्षुरादरसंयुतः । प्राप्य तन्मातरं वेगाज्जगाद प्रियसंगताम् ॥ ९३ ॥ भगिनी त्वं तथेयं च भागिनेयी मम स्फुटम् । यदहं ते करिष्यामि ज्ञास्यसि क्रिययाऽपि तत् ॥ ९४ ॥ 25 श्रुत्वा समुद्रदत्ताऽपि तद्वचो हृदयंगमम् । तथैवेत्यनुमेने सा बुभुक्षाक्षामविग्रहा ॥ ९५ ॥ तद्वान्धवान् समापृच्छ्य भगिनी भागिनेयिका । प्रतिपन्ना निगद्यारं स्वविहारं जगाम सः ॥ ९६ ॥ सुगन्धपक्कतैलेन दुर्गन्धमपनीय च । कोष्ठशुद्धिं विधायास्या वमनादिविधानतः ॥ ९७ ॥ तिक्ताम्लमधुरस्निग्धभक्तसूपघृतादिभिः । शरीरं वृद्धिमानिन्ये तस्या भिक्षुरतन्द्रितः ॥ ९८ ॥ क्रमेण सा वयः प्राप्य बाला द्वादशवर्षजम् । करोति दोलकारूढा मधौ गीतं मनोहरम् ॥ ९९ ॥ 30 अथ राजा स्वसैन्येन चतुरङ्गेण भूयसा । स निर्गच्छन् पुराद्गीतं श्रुत्वा च श्रुतिपेशलम् ॥ १०० ॥ 1फदायिनीम् 2 प आहर्ती, ज आर्हती, फ आर्हत्रीं 3 ज तथाप्यन्योऽभिनन्दनः 4फ प्रविष्टं. 5 पज इहति 6फ बुद्धिधर्मा. 7फ पावनः. 8 फ वमनादिप्रभावतः. 9 पफ युग्मम् ज युगलम्. 10 पज add one more line after 100: यावच्छ्रणोति तद्गीतं श्रुत्वा च श्रुतिपेशलम् ; and it is a contamination of the two lines on either side. बृ० को ० ४ 20 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१२. १०१यावच्छृणोति तद्गीतं स्थित्वा तुरगसंस्थितः । तावद्ददर्श सद्रूपां कन्यकां भूपतिः पराम् ॥ १०१॥ किं किन्नरी किमिन्द्राणी किं यक्षी खेचरी च किम् । इति संचिन्त्य भूपोऽसौ 'मुमूर्छारतिविस्मयात्॥ चेतनां प्राप्य भूयोऽयं निजगौ पार्श्ववर्तिनः । कस्येयं सुन्दरी लोकाः क्षिप्रं मम निवेद्यताम् ॥१०३॥ भूपवाक्यं समाकर्ण्य ते वदन्ति नरेश्वरम् । राजन् रूपसमायुक्ता कन्येयं बुद्धधर्मणः ॥ १०४ ॥ 5 श्रुत्वा तद्वचनं भूपः कन्याध्यानपरायणः । विवेश खगृहं भूयो विह्वलीकृतचेतनः ॥ १०५॥ ततः कन्यानिमित्तेन भूपतिर्विबलात्मकः । शीघ्रं प्रवेशयामास सचिवान् बुद्धधर्मणः ॥ १०६ ॥ उपविश्य यथास्थानं तद्विहारे मनीषिणः । वदन्ति बुद्धधर्माणमिति भूपतिमत्रिणः ॥ १०७॥ सुवर्णरजतग्रामतुरङ्गवरकुञ्जरान् । यदीच्छसि ततः कन्यां प्रयच्छ त्वं महीभुजे ॥ १०८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं कान्तं बुद्धधर्मा जगौ तकान् । वितीर्णा भूभुजेऽस्माभिः कन्या मुनिमनोहरी ॥१०९॥ 10 निशम्य तद्वचस्तेऽपि सुन्दरीलाभतोषिणः । जग्मुर्नरपतेः पार्श्व कन्यावृत्तान्तभाषिणः ॥ ११०॥ शोभने दिननक्षत्रे योगे च रजनीपतौ । तयोविधानतो वृत्तं पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥ १११॥ राजा प्रीतो विवाहान्ते पुरन्ध्रिनृपसाक्षिकम् । बबन्धायं महादेवीपदं प्रीणितमार्गणः ॥ ११२ ॥ महारजतसद्राममणिवस्त्रादिसंपदा । राज्ञा सन्मानदानेन बुद्धधर्मा प्रपूजितः ॥ ११३ ॥ अथ फाल्गुनमासस्य शुक्लपक्षेऽष्टमीदिने । उर्विला च रथं जैनं निःसारयितुमुद्यता ॥ ११४ ॥ 15 श्रुत्वा नृपमहादेवी सपत्नीरथनिर्गमम् । 'उविल्लां प्राह हृष्टात्मा पतिपक्षबलान्विता ॥ ११५ ॥ पूर्व बुद्धरथो यातु मध्येऽस्य नगरस्य मे । मणिकाञ्चननिर्माणः पश्चाजिनरथस्तव ॥ ११६ ॥ श्रुत्वा दारिद्रिकावाक्यं वज्रेणेव समाहता । उर्विल्ला सोमदत्तान्तं जगामाक्षिजलप्लवा ॥ ११७॥ उर्विला सोमदत्तस्य विधाय शिरसा नतिम् । जगौ सर्वं यथावृत्तं सपत्नीविहितं मुनेः ॥ ११८ ॥ तस्मात्तत्रस्य मन्त्रस्य सामर्थ्यस्य महामुने । अद्यमेव च प्रस्तावो नान्योऽस्ति भवतामिति ॥११९॥ 20 श्रावकीवचनं श्रुत्वा सोमदत्तगुरुस्तदा । जगौ वैरकुमारं च विद्यानिकरभूषितम् ॥ १२० ॥ तपोबलेन तन्त्रेण मन्त्रेणापि च सर्वथा । कर्तव्यं यतिना यत्नाजिनपूजाप्रवर्तनम् ॥ १२१ ॥ विश्रब्धिकां तकां कृत्वा स विसर्ग्य गुरूदितात् । ततो वैरकुमारोज्गादमरावतिकाङ्क्षणात् ॥१२२॥ दिवाकरादिदेवोऽयं सर्वविद्याधरास्तकम् । दृष्ट्वा प्रणम्य भावेन तस्थुर्मुदितचेतसः ॥ १२३ ॥ खेटान् सर्वानुवाचायं पृष्टोऽमीभिः ससंभ्रमम् । तदा वैरकुमारोऽपि कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥ १२४ ॥ 25 पूर्वोत्तरपदायुक्तमथुरानगरीभवः । जिनेश्वरमहापूजाभङ्गः सुष्ठु प्रवर्तते ॥ १२५ ॥ तन्मतेन ततः सर्वे कोपारुणनिरीक्षणाः । विद्याधरजनाः शीघ्रं सोमदत्तान्तिकं ययुः ॥ १२६ ॥ प्रणम्य सोमदत्तादींस्तपोराशीन् महामुनीन् । पूर्वोक्तमथुरान्ते च प्रययुः खेचरेश्वराः ॥ १२७॥ व्यापयित्वा पुरं सर्वं गगनं च समन्ततः । भीषणाकारसंयुक्तास्तस्थिवांसो नभश्चराः ।। १२८ ॥ महादेवीरथान् सर्वान् बुद्धार्चासंस्थितानपि । खेटा विध्वंसयामासुभषियित्वा नृपादिकम् ॥१२९॥ 30 भ्रामयित्वा रथाजैनान् महानन्देन पत्तने । 'उर्विलाकारितान् स्वर्णान् महामाणिक्यनिर्मितान् १३० तूर्याणि समतालानि नादितावनिखान्यलम् । कारयित्वा समस्तानि शंखध्वनियुतानि च ॥१३१॥ महारजतनिर्माणान् खचितान् मणिनायकैः । पञ्चस्तूपान् विधायाने समुच्चजिनवेश्मनाम् ॥१३२॥ स्वच्छनी रैघृतैः स्निग्धैः क्षीरैर्दधिभिरुज्वलैः । गन्धोदकैरपि श्लक्ष्णैः स्नापयांचक्रिरे जिनम् ॥१३३॥" 1 फ मुमुचुरिति, ज मुमूछरिति. 2 फ कन्याधान्यं परायणं. 3 फ उविला. 4 फ उविल्लां. 5फ उविला. 6 फ उविल्ला. 7 फ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 8 फ उविला. 9 फ जिनवेश्मनम्. 10 फ जिनान्. 11 फ चतुष्कुलम्, पज चतुष्कुलकमिदम्. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३. १४] विनयधरनृपकथानकम् २७ कर्पूरकुङ्कुमेनापि समालभनमुत्तमम् । चक्रुर्नभश्चरा भक्त्या जिनानां क्षीणकर्मणाम् ॥ १३४ ॥ गन्धान्धीकृतभृङ्गोधैः पञ्चवर्णः समुज्वलैः । अर्चयन्ति जिनान् पुष्पैः खेचराः शुद्धचेतसः॥१३५॥ बाष्पाढ्यौदनसन्मुद्घृतादिचरुभिर्वरैः। पूजां कुर्वन्ति खेटोघा जिनानां पुरतः पराम् ॥ १३६ ॥ श्रीखण्डावासकर्पूरसिह्लादिसलिलादिकम् । उत्क्षिपन्ति स्वतो धूपं जिनानां खचरेश्वराः॥ १३७॥ सिद्धभक्तियुतां सारां भव्यश्रवणहारिणीम् । जिनस्तुतिं प्रकुर्वन्ति विद्याधरकुमारकाः ॥ १३८॥ 5 विपञ्चीवंशकंसालमृदङ्गपटुमर्दलैः । गर्जद्भिर्मधुरं तूर्यैराहतैः शिल्पिपाणिभिः ॥ १३९॥ करणैरङ्गहारैश्च संयुक्ता भक्तितत्पराः । आनन्दनाटकं खेटाः प्रनटन्ति जिनाग्रतः ॥१४० ॥ पञ्चाचारपरान् दान्तपञ्चेन्द्रियतुरङ्गमान् । प्रणमन्ति स्म योगीन्द्रान् खेचरेन्द्राः प्रमोदिनः॥१४॥ पूजाभङ्गं जिनेन्द्राणां यः करिष्यति मानवः । तस्य पीडां करिष्यामो वयं शृणुत सज्जनाः ॥१४२॥ एवमुक्त्वा नृपं लोकान् जिनं नत्वा मुनीनपि । तथा वैरकुमारं च खेचराः स्वपदं ययुः ॥१४३॥।॥ जिनधर्मप्रभावं च दृष्ट्वा मुदितमानसौ । नृपतिस्तन्महादेवी श्रावको तो बभूवतुः ॥१४४॥ केचिन्मुनित्वमापन्नाः केचिच्छ्रावकतां पराम् । केचिन्मध्यस्थतां लोकाः केचिन्मनसि तोषिणः।।१४५॥ धर्मस्य कथको ज्ञानी निमित्तज्ञः प्रवाद्यपि । तपस्वी चेति पञ्चैते सिद्धान्तोद्योतका मताः ॥१४६॥ तथा चोक्तम् - धर्मकथी" प्रावचनी वादी नैमित्तिकी तपस्वी च । पञ्चैते यतिवृषभाः प्रवचनस्योद्भासकाः प्रोक्ताः ॥ १४७ ॥ यथा वैरकुमारेण कृता धर्मप्रभावना । तथाऽन्येनापि कर्तव्या साधुना धर्ममिच्छता ॥ १४८ ॥ ॥ इति श्रीवैरकुमारसम्यक्त्वगुणप्रभावनाख्यानकमिदम् ॥ १२ ॥ १३. विनयंधरनृपकथानकम् । अथ कुम्भिपुरे श्रीमान् राजा श्रीविनयंधरः । तस्य भार्या मनःकान्ता विनयादिमतिः परा ॥१॥ 20 उसभोपपदो दासो राज्ञः श्रेष्ठी बभूव सः। उसभोपपदा दासी श्रेष्ठिनो रमणी प्रिया ॥२॥ अन्योन्यप्रेमसंबन्धचेतसोरनयोरभूत् । नन्दनो जनतानन्दो जिनदासः प्रियंवदः॥३॥ पुण्यप्रभावतः किंचित्कार्यमारभते हि यत् । तत्तत्सिद्धिं यतो याति 'सिद्धार्थाह्वोऽप्यतोऽभवत्॥४॥ अथानेकमहाव्याधिविह्वलीभूतमानसः । निद्रां न लभते नक्तं दिवाऽपि विनयंधरः ॥५॥ अस्थिचर्मावशेषोऽभूद् भूपतिर्व्याधिराशिभिः । भिषग्भिरपि संत्यक्तो बहुभिः कृतकर्मभिः ॥ ६॥ 25 अत्रान्तरे नृपोऽवाचि श्रावकेण महात्मना । सिद्धार्थनामयुक्तेन व्याधिविह्वलविग्रहः ॥ ७॥ त्वं करोषि यदि स्पष्टं मदचो धरणीधर । ततो व्याधिमहं क्षिप्रं निहन्मि तव निश्चितम् ॥ ८॥ सिद्धार्थवचनं श्रुत्वा राजेमं पुनरब्रवीत् । अयुक्तमपि ते वाक्यं करोमि हितकारिणः ॥९॥ इदं तु मद्धितं प्रोक्तं त्वया किं न करोम्यहम् । मजीवितं त्वया दत्तं तथा राज्यमपि ध्रुवम् ॥१०॥ भूपालवचनं श्रुत्वा दीनकं कृपयाऽऽधीः । तमादाय करे यातः सिद्धार्थो जिनमन्दिरम् ॥११॥ 30 कृत्वा जिनमुनिस्तोत्रं कारयित्वा नृपेश्वरम् । सिद्धार्थो भूभुजा सार्धं निविष्टोऽत्र यथासनम् ॥१२॥ जलाज्यक्षीरसंघातैर्दधिगन्धोदकैरपि । कुङ्कुमैः कुसुमैयूंपैश्चरुदीपफलैरपि ॥ १३ ॥ तूर्यशंखनिनादेन बधिरीकृतदिग्मुखम् । सिद्धार्थः कारयामास तदा जिनमहामहम् ॥ १४ ॥ 1फ जिनं पुष्पैः. 2फ शिष्याब्यौदन.3फ श्रवणवारिणीम्. 4.पफज युग्मम्. 5 पज मध्यस्थितां. 6फ धर्मकथा. 7 ज सिद्धार्थो कोऽप्यतो. 8पज जिनं. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [ १३.१५ जिनगन्धोदकं दिव्यं सर्वोपधि मुनेरपि । पादप्रक्षालनं सोऽपि पाययामास भूपतिम् ॥ १५ ॥ यावत्पिबति तद्भूपो मन्यमानोऽमृताधिकम् । तावद्व्याधिरसौ नष्टस्तद्भयादिव वेगतः ॥ १६ ॥ 'सानुभवं राजा व्याधिनिर्गमकारणम् । जिनभक्तिसमायुक्तः श्रावकत्वं प्रपन्नवान् ॥ १७ ॥ विधाय महतीं पूजां महासन्मानदानगाम् । सिद्धार्थाय नृपस्तुष्टो महाग्रामशतं ददौ ॥ १८ ॥ यथा श्रद्दधतो जैनं मतं पापविनाशनम् । मुनिपादोदकं पीतं व्याधिर्नष्टोऽमुतः क्षणात् ॥ १९ ॥ साधुनाऽपि तथा पूतं जन्ममृत्युजरापहम् । पातव्यं मुक्तिकामेन धर्मपानीयमादरात् ॥ २० ॥ ॥ इति जिनमतश्रद्धान परविन यंधरनृपकथानकमिदम् ॥ १३ ॥ 5 २८ * १४. बुद्धिमतीकथानकम् । १ ॥ २ ॥ 3 काशीजनपदे सारे वाराणस्यां पुरि प्रभुः । राजा विशाखदत्तोऽभूत् तद्भार्या कनकप्रभा ॥ 1. चित्रचित्रकरस्तत्र विचित्रो नाम विश्रुतः । विचित्रादिपदा' कान्ता तद्भार्याऽपि बभूव सा ॥ तत्सुता बुद्धिसंपन्ना रूपराजितविग्रहा । नीलोत्पलदलश्यामा नाम्ना बुद्धिमती मता ॥ ३ ॥ जिनस्य चित्रशालायां विशालायां गृहान्तरे । चित्रं चित्रकरश्चित्रं विचित्रं कुरुतेतराम् ॥ ४ ॥ अन्यदा भक्तमादाय पितुर्बुद्धिमतीद्धधीः । विचित्रचित्रशालां तामाजगाम विलासिनी ॥ ५ ॥ मणिकुट्टिमभूम्यन्ते मयूरच्छदमुज्वलम् । लिलेख तत्पिता रम्यं निर्मलीभूतभूतलम् ॥ ६ ॥ is तत्काले चित्रशालां च विवेश नृपतिः पराम् । ददर्श चन्द्रकच्छायं शिखिपिच्छं प्रभोज्वलम् ॥७॥ कौतुकेन करेणेदं यावद्गृह्णाति भूपतिः । बुद्धिमत्या च तावद्धि धिमूर्खोऽयं प्रभाषितः ॥ ८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा लज्जाविनतमस्तकः । विलक्षो मूकतां प्राप्य तस्थौ मनसि दुःखितः ॥ ९ ॥ ततोऽन्यदिवसे जाते भूपस्य पुरतो जगौ । पितरं तत्सुता दक्षा चित्रं कुर्वाणमुत्तमम् ॥ १० ॥ यौवनं याति नो यावदोदनस्य मृदोरिदम् । कुरु त्वं भोजनं तावद्विलम्बित्वं न सांप्रतम् ॥११॥ 20 आकर्ण्य तद्वचो राजा प्राहेमां स सकौतुकः । ओदनस्य च किं भद्रे यौवनं ब्रूहि सांप्रतम् ॥ १२ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं जगौ बुद्धिमती तकम् । ओदनस्योष्णता तद्धि ततस्त्वमतिमूर्खकः ॥ १३॥ भूयोऽन्यदिवसे' भूते चित्रकर्मपटासनम् । भूभुजोऽग्रे चकारासौ बुद्धिमस्य परीक्षितुम् ॥ १४ ॥ तच्चित्रसंयुतं कुड्यं विहायान्यं विलोकते । तथायं भाषितो भूपो महामूर्खो भवानिति ॥ तद्वाक्यानि समस्तानि परुषाणि निशम्य सः । जगाद क्रोधरक्ताक्षस्तदा बुद्धिमतीं नृपः ॥ 25 रे रे खले दुराचारे मत्तमातङ्गगामिनि । जिह्वामामूलतस्तेऽहं छिनझि क्रूरभाषिणि ॥ १७ ॥ नृपवाक्यं समाकर्ण्य निजगौ सा नरेश्वरम् । कस्मा॑दिह रूपं यासि मम त्वं कारणं विना ॥ १८ ॥ चापल्यमज्ञतावाक्यं संस्तवो लालनं गृहे । एते योगाः प्रलापाङ्गं नाहं तत्क्षम्यतां विभो ॥ १९ ॥ मयूरच्छदमादातुं चित्रस्थं नैव शक्यते । ओदनस्योष्णता सारा तत्रत्यं चित्रमीक्ष्यते ॥ २० ॥ श्रुत्वा बुद्धिमतीवाक्यं राजा विस्मितमानसः । बभूव प्रीतिसंपन्नस्तद्रूपहृतलोचनः ॥ २१ ॥ अङ्गप्रत्यङ्गतो राज्ञा यावत्तद्रूपमीक्षितम् । तावद्विह्वलतां प्राप्य मुमूर्च्छ क्षणमात्रतः ॥ २२ ॥ चेतनत्वं पुनः प्राप्य सिक्तचन्दनवारिणा । राजा तत्पितरं प्राह देहि कन्यामिमां मम ॥ २३ ॥ तत्पिता तद्वचः श्रुत्वा ददावस्मै स्वकन्यकाम् । परिणीता विधानेन भूभुजेयं सुतोषतः ॥ २४ ॥ ततोऽन्तःपुरमाहूय समक्षं बन्धुभूभुजाम् | बुद्धिमत्यै महीपालो महादेवीपदं ददौ ॥ २५ ॥ १५ ॥ १६ ॥ 30 1फ सानुभयं 2फ पताकान्ता 3 फज प्रभाषितम् 4 फ विलम्बित्वमसांप्रतम् 5फ मूर्खक. 6 फ भूयोऽप्यन्यदिने भूते. 7 फज कस्मादि न. 8 फ तद्रूपाहृत' 9 फ omits 24. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५. १६ ] प्रियवीराकथानकम् अथान्तःपुरमागत्य बुद्धिमत्यन्तिकं तदा । महादेवीति संभाष्य टक्कराणां शतं ददौ ॥ २६ ॥ एवं तिसृषु सन्ध्यासु तत्पूजां च पुरन्ध्रयः । यत्नेन महता कृत्वा हृष्टा यान्ति स्वमन्दिरम् ॥२७॥ स्थित्वा बुद्धिमती जैने मन्दिरे निन्दती स्वकम् । मत्समा वनिता देव नोत्पद्यत कदाचन ॥२८॥ अथ तां दुर्बलां दृष्ट्वा भूपतिः प्राह वल्लभाम् । केन ते विप्रियं कान्ते ब्रूहि मे हन्मि तं द्रुतम् ॥२९॥ प्रियस्य वचनं श्रुत्वा जगौ बुद्धिमती तकम् । न कोऽपि विप्रियं नाथ करोति मम सांप्रतम् ॥३०॥ यदोक्ताऽपि प्रिया किंचिन्न वक्ति जनविप्रियम् । तदा च चित्रशालान्ते मूढस्तस्थौ नराधिपः ॥३१॥ जिनपादान्तिके यावत्सा करोति स्वनिन्दनम् । पूर्ववत्तावदागत्य नन्ति तां टोलकैस्तकाः ॥३२॥ अत्रान्तरे स भूपालो निःसृत्य जिनमन्दिरात् । निहत्याथ कशाघातैस्ता निस्सारितवानरम् ॥३३॥ ततोऽभिषिच्य तां भूपः कुम्भैभर्मविनिर्मितैः । तस्यै समर्पयामास स्वनामाङ्कितकङ्कणम् ॥ ३४ ॥ यथा बुद्धिमती राज्ञा पूजिता स्वं सुनिन्दती । तथा साधुरपि क्षिप्रं निन्दन् पूज्यः सुरेश्वरैः ॥३५॥ ॥ ॥ इति श्रीबुद्धिमतीखनिन्दनकथानकमिदम् ॥ १४ ॥ १५. प्रियवीराकथानकम् । साकेताख्यपुरे राजा श्रीमान् दुर्योधनोऽभवत् । तस्यापि च महादेवी श्रीधरी नाम विश्रुता ॥१॥ तत्राभवदुपाध्यायः सुमित्रोऽपि षडङ्गधीः । चतुर्वेदपरिज्ञानी जरावेपितविग्रहः ॥२॥ तद्भार्या तरुणी चासीत् प्रियवीरा प्रियंवदा । यौवनेन समारूढा मत्ता भ्रमति तत्पुरे ॥३॥ 15 कामभोगं प्रभुञ्जाना प्रियवीराऽग्निभूतिना । छात्रेण यौवनस्थेन मदोन्मत्ता च तिष्ठति ॥ ४॥ अग्निभूतिरुपाध्यायं वृद्धं जनकसंनिभम् । जघान निष्ठुरस्वान्तः प्रियवीरामतेन सः ॥५॥ छर्जिकान्तर्गतं कृत्वा मस्तके तन्निधाय च । नक्तं जगाम दुष्टात्मा प्रियवीरा श्मशानकम् ॥ ६॥ यावत्तां मुञ्चति क्षिप्रं चितायां प्रियवीरका । तावच्छिरसि सा देव्या निश्चला विहिता तया ॥७॥ उत्कलन्तीं प्रधावन्ती फूत्कारं कुर्वतीमपि । देवताऽपि तकां प्राह गगनस्थितविग्रहा ॥ ८॥ मया जारनिमित्तेन कुमारपतिराहतः । नगरस्य चतुर्दिक्षु भ्रमन्ती वचनं वद ॥९॥ अनेन च विधानेन छर्जिका पतति द्रुतम् । हित्वोपायमिमं भद्रे नास्याः पातोऽस्ति जातुचित् ॥१०॥ देवतावचनं श्रुत्वा भयवेपितविग्रहा । भ्राम्यति त्वरितं साऽपि सर्वतो नगराबहिः॥११॥ अहो जनाः स्फुटं वाक्यं मदीयं शृणुताशु मे । कुमारपतिरानीतः पञ्चतां जारहेतुना ॥ १२ ॥ एवं यावद् वदत्येषा भ्रमन्ती पत्तनाद्वहिः । तावत्सा छर्जिका तस्याः पतिता क्वापि दूरतः ॥१३॥ 25 यथा सा छर्जिका" तस्याः पतिता क्वापि सत्त्वतः । स्वगर्हणं प्रकुर्वन्त्या जाताऽतो दोषवर्जिता॥१४॥ मुनिनैवं तथा गत्वा गुरुपाद्ये प्रयत्नतः । निन्दा गर्दा प्रकर्तव्या संसारोच्छेदमिच्छुना ॥ १५ ॥ तथा चोक्तम्आलोचनैर्निन्दनगर्हणैश्च व्रतोपवासैः स्तुतिसंकथाभिः। एभिः प्रपञ्चैः क्षपणं करोमि विषप्रतीघातमिवाप्रमत्तः ॥ १६ ॥ ॥ इति प्रियवीरामहागऱ्याख्यानकथानकमिदम् ॥१५॥ 1ज टकाराणां. 2 Omitted in फ. 3फ तदा सा चित्र. 4 प पादान्तके. 5ज ढोलके. 6फ repeats this verse. 7 फज छज्जिकान्त. 8 जपूत्कार.9 फ interchanges 12 and 13. 10 फ वज्जिका, ज छज्जका. 11 फज छज्जिका. 12 पज सत्वरः. 13 फ जातासी. 14 पज तथा सखद्गुरु. 15फ°च्छेदमिच्छता. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१६. ११६. सोमशर्मकथानकम् । पूर्वदेशे वरेन्द्रस्य विषये धनभूषिते । देवकोटपुरं रम्यं बभूव भुवि विश्रुतम् ॥१॥ सोमशर्माऽभवद्विप्रश्चतुर्वेदषडङ्गधीः । तद्भार्या वल्लभा चावीं सोमिल्लाख्या प्रियंवदा ॥२॥ अग्निवाय्वादिको भूती भवेतां नन्दनौ तयोः । अन्योन्यस्नेहसंपन्नौ वेदस्मृतिविशारदौ ॥३॥ ॐ तत्रैव नगरे विप्रो विष्णुदत्तोऽभवद्धनी । विष्णुश्रीरस्य भार्या च कलागुणविशारदा ॥ ४ ॥ अन्यदा धनमादाय विष्णुदत्तस्य सत्वरम् । सोमशर्माऽगमद्देशं वणिज्याय प्रशान्तधीः॥५॥ यावद् वनान्तरं याति तत्सार्थः सुमहानपि । तावद्बहुभिरागत्य दस्युभिः परिलुण्ठितः ॥ ६॥ अत्रान्तरे समायातो भद्रबाहुस्तदन्तिकम् । वैराग्याहितचेतस्कः सोमशर्माऽभवद्यतिः ॥ ७॥ अथासौ विहरन् क्वापि सोमशर्मा मुनिः सुधीः । देवकोटपुरं सारमाजगाम महातपाः ॥ ८॥ " विलोक्य तं मुनि प्राप्तं विष्णुदत्तोऽवदत्तदा । यावद्धनं न मे दत्तं तावन्मा याहि सांप्रतम् ॥९॥ यावच्च विष्णुदत्तेन सोमशा मुनिभृतः । तावन्नगरलोकोऽपि तयोः पार्थं समागतः ॥ १० ॥ अवाचि विष्णुदत्तोऽयं विशिष्टौधैर्महात्मभिः । सोमशर्ममुनिः कस्माद्भवता विधृतो वद ॥ ११ ॥ विष्णुदत्तोऽपि तानाह ममायं धरते धनम् । तद्दत्त्वा निखिलं यातु नान्यथा गमनं मुनेः ॥१२॥ विशिष्टास्तद्वचः श्रुत्वा निगदन्ति मुनीश्वरम् । भवद्भिर्धनमेतस्य किं दातव्यं न वा वद ॥ १३॥ 15 विशिष्टवचनं श्रुत्वा सोमशर्मा जगाविमम् । अहमस्मि व्रती शान्तो न धनं विद्यते मम ॥१४॥ ऋणं दातुं धनं लातुं समर्थोऽस्ति सुतो मम । तस्मात्स एव जानाति नाहं किमपि वेयलम् ॥१५॥" सोमशर्मवचः श्रुत्वा विष्णुदत्तो जगावमुम् । अहं पुत्रं न जानामि त्वं धनं वितराशु मे ॥१६॥ धर्मोऽथवाऽस्ति ते सारस्तं क्रीत्वा देहि मे धनम् । अन्यो न विद्यते साधो चोपायो गमनस्य ते ॥१७॥ विष्णुदत्तवचः श्रुत्वा मुनिं प्रोचुर्विचक्षणाः। धर्म कीत्वा यते देहि धनमस्मै ततो व्रज ॥१८॥ " विशिष्टवाक्यमाकर्ण्य सोमशर्ममुनिस्तदा। "विसय॑ तान् प्रभाते च धनं दास्यामि ते ध्रुवम् ॥१९॥ सोमशर्मवचः श्रुत्वा गृहं जग्मुर्यथायथम् । सोमशर्ममुनिर्यातः श्मशानं भीषणं निशि ॥ २०॥ देवता लोकपालाश्च मद्वाचं शृणुतादरात् । सत्यस्वरूपतां प्राप्तां तथार्तत्वमपि स्फुटम् ॥२१॥ महाव्रतानि पञ्चापि तथा समितयोऽपि च । गुप्तयोऽपि परास्तिस्रस्तपो द्वादशभेदकम् ॥ २२ ॥ गुणाः शीलानि सर्वाणि धर्मो दशविधः परः। एतत्सर्वे प्रगृह्णातु कोऽपि यद्यस्ति कार्यकम् ॥२३॥ 25 मुनिवाक्यं समाकये देवता गगनस्थिता । ज्ञात्वोपसर्गसंबन्धं मुनिवात्सल्यतत्परा ॥२४॥ रत्नानां पञ्चवर्णानां महास्तूपं समुज्वलम् । पातयामास तद्देशे स्वप्रभाभासिताम्बरम् ॥ २५॥" 1 देवकोटजनाः सर्वे कौतुकव्याप्तमानसाः । प्रभाते सोमशर्मान्तं विष्णुदत्तादयो ययुः ॥ २६॥ पञ्चवर्णमहारत्नराशिमध्ये तमुज्वले । विष्णुदत्तादयो दूरान्मुनिं ददृशुरुज्ज्वलम् ॥ २७॥ यथाक्रमोपविष्टेषु विष्णुदत्तादिषु स्फुटम् । सोमशर्मा जगावेतान् विस्मयव्याप्तमानसान् ॥ २८॥ 30 गृहाण रत्नसंघातं मूल्येन परिवर्जितम् । विष्णुदत्त प्रभाजालद्योतिताकाशभूतलम् ॥ २९॥ अत्रान्तरे स्थिता देवी नादपूरितदिङ्मुखा । तदा जनोत्करं सर्वमुवाच प्रीतमानसा ॥३०॥ 1 फज देवकोट्ट. 2 पज चतुर्वेदः. 3 फ देवस्मृति'. 4 प वणिजाये. 5 फ बाहुस्तदन्तिके. 6 फज देवकोट्टपुरं. 7 फ तत्तदा. 8 पज संतो. 9 फ धनं दातुं. 10 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 11 ज विसर्ज. 12 पज मद्वाचः. 13 फ प्राप्ता. 14 फ युग्मम् , पज युगलमिदम्. 15 फ गगनस्थिताः. 16 फ तत्पराः. 17 फ युग्मम् , पज युगलम्. 18 फ देवकोट्ट, 19 फ महावर्ण. 20 फ प्रीतिमानसा. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७. १४ ] वीरभद्रकथानकम ३१ धर्मों विक्रेतुमारब्धः श्मशानं प्राप्य योगिना । उपसर्गविनाशार्थ किंचिद्धनमुदाहृतम् ॥३१॥ अङ्गुष्ठाङ्गुलियोगेन चैकवारेण यत्नतः । उत्पाट्यन्ते यके केशाः पुरुषैर्मुनिमस्तके ॥ ३२ ॥ अहो लोककृतानन्द कृतकोलाहलखन । तेषामपि च केशानां न मूल्यं भवति स्फुटम् ॥ ३३॥ जिनधर्मस्य भव्यानां संसारोच्छेदकारिणः । त्रैलोक्याधिकमूलस्य केन मूल्यं विधीयते ॥ ३४॥ तथापि दत्तमस्माभिर्मुनेः किंचिदिदं धनम् । उपसर्गापनोदाय गृह्णात्वर्थी ततो जनः ॥ ३५॥ देवता मुनिवात्सल्यं विधाय प्रीतमानसा । कृतयोगिनमस्कारा जगामादर्शनं क्षणात् ॥ ३६॥ देवीवचनमाकर्ण्य विष्णुदत्तादयो जनाः । विस्मयं परमं प्राप्य निगदन्ति परस्परम् ॥ ३७॥ सर्वासामेव शुद्धीनां तपःशुद्धिः प्रशस्यते । तपःशुद्धिप्रशुद्धानां किङ्करास्त्रिदशा नृणाम् ॥ ३८॥ अहो व्रतमिदं जैनं देवानामपि पूजितम् । अहो जैनेश्वरो धर्मो लोकद्वयफलप्रदः ॥ ३९॥ धनलाभाद्वरं धर्मलाभो भवति शोभनः । धनलाभस्तु जन्तूनां वधबन्धनकारणम् ॥४०॥ ॥ एवं विचिन्त्य बुद्धात्मा वैराग्याहितमानसः । सोमशान्तिके जैनं विष्णुदत्तोऽग्रहीत्तपः ॥४१॥ दृष्ट्राऽऽश्चर्यमिदं केचिजिनधर्मस्य शोभनम् । जिनधर्म परं प्राप्ताः केचिन्मध्यस्थतां गताः ॥४२॥ ततो विस्मयमासाद्य जिनधर्मप्रशंसनम् । कृत्वा नृपादयो लोका जग्मुर्निजगृहं मुदा ॥ ४३ ॥ विष्णुदत्तस्तपः कुर्वन् परमं सोमशर्मणा । विजहार महीपृष्ठं मोक्षाङ्गं संप्रसाधयन् ॥ ४४॥ देवकोट्टपुरस्याराद्यप्रदेशे प्रपातिता । रत्नवृष्टिस्ततो देव्या कोटितीर्थं बभूव तत् ॥ ४५ ॥ ॥ इति सोमशर्ममुनिप्रतिबद्धलोचाख्यानकमिदम् ॥१६॥ १७. वीरभद्रकथानकम् । कस्मिन्नपि पुरे साधुवीरभद्रोऽभवदृजुः । अटवीं प्राप्य सोऽकाले श्रुतं पठति संततम् ॥ १॥ अन्यदा स कदाचिच्च पठन्नागममुत्तमम् । श्रुतदेव्या निशि स्पष्टं दृष्टोऽकाले दिगम्बरः ॥ २॥ तद्वोधनार्थमादाय कलशं तक्रसंभृतम् । मस्तके भ्राम्यति स्पष्टमग्रतः पार्श्वतो मुनेः ॥३॥ 20 परिपक्ककपित्थोत्थगन्धामोदितदिङ्मुखम् । गृहाण शीतलं तकं मुने कान्तिबलप्रदम् ॥४॥ योगी तद्वाक्यमाकर्ण्य जगादेमां पुरःस्थिताम् । वातग्रस्ताऽसि किं मूढे किं पिशाचसमीक्षिता ॥५॥ किं खेटं खर्व नान्यत्पत्तनं पुटभेदनम् । ग्रामादिकं न विद्येत येनायासि मदन्तिकम् ॥ ६॥ शर्वयाँ भीमरूपायां गृहीत्वा मथितं खले । गृहिल्ले काऽसि किं वृद्धे नरकुञ्जरनिन्दिते ॥ ७॥ साधोर्वचनमाकर्ण्य श्रुतदेवी मुनिं जगौ । जिनागमसमासंगनित्यभावितमानसा ॥ ८॥ स्निग्धं मधुरगम्भीरं भव्यलोकसुखप्रदम् । शुद्धं जिनमुखाम्भोजनिर्यातं पापनाशनम् ॥ ९॥ एवंविधं श्रुतं साधो यदकाले पठस्यरम् । गहिल्लकोऽसि किं न त्वं बन्धमोक्षप्रकाशनम् ॥१०॥ देवीवचनतो योगी यावदालोकते नभः । तावत्स्वाध्यायवेलेयमतिक्रान्ता प्रमादतः ॥११॥ यदकाले श्रुतं ध्यानं पठितं च मयाऽखिलम् । तदस्य चातिचारस्य मिथ्या मे दुःकृतं भवेत् ॥१२॥ ततः प्रभातकालेऽगात् वीरभद्रोऽन्तिकं गुरोः । आलोच्य शर्वरीवृत्तं स जातः परिशुद्धवाक् ॥१३॥ 30 अयमेव मुनिः प्राप्य धर्मं जिनवरोदितम् । पापठीति श्रुतं काले स्वाध्यायाहितमानसः ॥ १४ ॥ 1प उत्पाद्यन्ते. 2 फज मूल्यस्य. 3 फ षभिः कुलकम् , पज षट्कुलकमिदम्. 4 फ प्रीतिमानसा. 5 पज मध्यस्थितां. 6 फर्थसमादाय. 7 पज कान्तबल. 8 फज गहिल्लिकासि. 9 फज जगौ मुनि. 10 फ त्रिकला, पज त्रिकलमिदमू. 11 प परिशुद्धभाक्. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १८. अभिनन्दनमुनिकथानकम् । • तथाभिनन्दनः साधुः कस्मिन्नपि पुरे वसन् । स्वभावार्जवसंपन्नो विवेकपरिवर्जितः ॥ १ ॥ स्वाध्यायस्यामला वेला श्रवणस्योदये भवेत् । उपदेशं कुतोऽप्राप्य श्रुतं पठति मूढधीः ॥ २ ॥ कालाकालमनालोच्य मिथ्यात्वपापमोहितः । यतो जानाति नैतस्य तत्त्वं वाचामगोचरम् ॥ ३ ॥ पठन्नपि तथा काममभ्यस्तं नावधारयेत् । असमाधानतो योगी गतः कालेन पञ्चताम् ॥ ४ ॥ आर्तध्यानसमायोगान्मिथ्यात्वमरणादपि । मन्दाकिनीजले जातो महामीनः क्षणादसौ ॥ ५ ॥ " ततो गङ्गानदीतीरे स्थितोऽसौ शफरो महान् । मुनिपाठध्वनिं श्रुत्वा तदा जातिस्मरोऽभवत् ॥६॥ ततः स्वं निन्दितुं शक्तः पापिष्ठोऽहं दुराशयः । श्रुतातिचारतो जातो मीनः सुरसरिजले ॥ ७ ॥ ज्ञात्वा स्वभवमीदृक्षं सम्यक्त्वादिकमाप्य च । द्वादशाणुव्रतत्रातं मृतः स च सुरोऽभवत् ॥ ८ ॥ गुणदोषान् समालोक्य पठितव्यं श्रुतं ततः । साधुभिः साधुताचारैः काले स्वहितमिच्छुभिः ॥ ९ ॥ ॥ इति अभिनन्दनमुन्यकालाध्ययनकथानकमिदम् ॥ १८ ॥ * १९. ज्ञानविनयकथानकम् | हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १७.१५ पूर्वोक्तयोगिनं दृष्ट्वा पठन्तं कालतः श्रुतम् । पूजयित्वा च तं भक्त्या ययौ देवी स्वमालयम् ॥१५॥ द्रव्यं क्षेत्रं तथा कालं भावं चेति विशोधयेत् । पठन्निदं श्रुतं साधुः परलोकं प्रसाधयेत् ॥ १६ ॥ ॥ इति वीरभद्रमुनिकालाध्ययनकथानकमिदम् ॥ १७ ॥ * 20 ३२ १ ॥ २ ॥ ॥ विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी विद्यते पुरी । धनसेनो नृपस्तस्यां धनश्रीरस्य कामिनी ॥ प्रिया श्राविका जाता सम्यग्दर्शनभूषिता । पतिर्भागवतस्तस्याः परिव्राजकभक्तिमान् ॥ सुपरिव्राजकस्तत्र सुप्रतिष्ठाख्यया पुनः । राज्ञो भोजनवेलायां प्रभुङ्क्ते सर्वदाऽप्यसौ ॥ यमुनानिम्नगावाहे बृसिकोपरि संस्थितः । भगवान् सुप्रतिष्ठोऽस्थाजलस्तम्भनविद्यया ॥ ४ ॥ पद्मासनोपविष्टोऽसावक्षसूत्रेण सर्वदा । जापं करोति तुष्टात्मा लोकविस्मयकारकः ॥ ५ ॥ विद्युत्प्रभोऽभवद्राजा पत्तने रथनूपुरे । सम्यग्दर्शनसंपन्नो द्वादशाणुव्रतान्वितः ॥ ६॥ उत्तप्तकाञ्चनच्छायशरीरोद्योतिताम्बरा । परित्राजकसंभक्ता विद्युद्वेगाऽस्य वल्लभा ॥ ७ ॥ विद्युत्प्रभोऽनया साकं 'वन्दनायै जिनेश्वरान् । स्वकायोद्योतिताकाशश्चचाल रथनूपुरात् ॥ ८ ॥ द्योतमानो नभस्सर्वं मुक्ताहारकरोत्करैः । क्रमेण यमुनां प्राप जलपूरितरोधसाम् ॥ ९ ॥ 25 यमुनावाहगं दृष्ट्वा सुप्रतिष्ठं बृसीस्थितम् । विद्युद्वेगा जगौ कान्तं भक्तिहृष्टतनूरुहा ॥ १० ॥ पश्य कान्तास्य माहात्म्यं तपसो हि तपस्विनः । भगवस्य मदीयस्य दुःकरस्यान्ययोगिभिः ॥ ११ ॥ माघमासे कृताकम्पे लोकानां हिमशीकरैः । पश्य त्वं यमुनामध्ये कथं योगेऽवतिष्ठते ॥ १२ ॥ पद्मासनस्थितो हस्तादक्षसूत्रं प्रचालयन् । विद्याबलादयं कान्त यमुनान्तेऽवतिष्ठते ॥ १३ ॥ विद्युद्वेगावचः श्रुत्वा जगौ विद्युत्प्रभस्तकाम् । किं तपोऽस्य वराकस्य विद्याबलमपि प्रिये ॥ १४ ॥ भूयोऽपि कान्तयाऽवाचि वल्लभो रोषमाप्तया । विद्याबलं तपस्तेऽत्र नान्येषां प्रतिभासते ।। १५ ।। 30 1 फ स्वाध्यायस्य सदा वेला. 2 फ मिध्यात्वं प्राप मोहितः 3फ गतो गाङ्गानदी. 4 फ भगवः सुप्रतिष्ठो 5 फ वन्दनाय. 6 फ रोधसम् 7 फ योग्यवतिष्ठते. 8 प तिष्ठति, फ वितिष्ठते. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९. ४८ ] ज्ञान विनयाख्यानकम् ३३ २० ॥ २१ ॥ २३ ॥ २४ || ततो विद्युत्प्रभोऽवोचद् विद्युद्वेगां रूपं गताम् । विद्याबलं तपस्तेऽहं दर्शयाम्यस्य सांप्रतम् ॥ १६॥ डोम्बवेषं विधायाशु सुप्रतिष्ठोपरि द्रुतम् । स्थितौ तौ कुथितं चर्म क्षालयन्तौ सुदुःसहम् ॥ तद्गन्धोदकदुर्गन्धिव्याप्ताशेषशरीरकः । सुप्रतिष्ठोऽगमत्तस्मात् स्थानादुपरि संस्थितः ॥ ईषत्प्रहसनं कृत्वा तौ तदानीं बलान्वितौ । ' उपरिष्टाद्गतौ तस्य तत्प्रक्षालनकारिणौ ॥ भूयोऽपि सुप्रतिष्ठोऽयं क्रोधरक्तनिरीक्षणः । तस्थौ तदुपरि क्षिप्रं ददन् गालीकदम्बकम् ॥ स्वप्रियाप्रत्ययं कृत्वा तामुत्तीर्य तकौ तदा । पताकावलिभी रम्यं चक्रतुर्नगरं द्रुतम् ॥ चतुर्गोपुरसंयुक्तं प्राकारपरिखावृतम् । नानासौधापणायुक्तं वाप्युद्यानविभूषितम् ।। २२ ।। ततो नगरमालोक्यादृष्टपूर्वं मनोहरम् | तत्समीपेऽपि तौ डोम्बौ दध्याविति स विस्मितः ॥ मयेदृशं पुरं जातु न दृष्टं चारुदर्शनम् । तस्मात् कृतमिदं नूनमेताभ्यां विस्मयास्पदम् || एकां विद्यां विजानामि जलस्तम्भनकारिणीम् । प्राप्नोम्येतामपि स्पष्टं किमसाध्यं भवेन्मम ॥ २५ ॥ " सुप्रतिष्ठो विचिन्त्यैवं विस्मयव्याप्तमानसः । संप्राप्य तत्समीपं च सप्रणामं जगाविमौ ॥ साधो विद्यामिमां देहि मम त्वं पुरकारिणीम् । साध्यं करोमि येनाहं नगरं बुधरञ्जनम् ॥ सुप्रतिष्ठवचः श्रुत्वा पाणो वदति तं तदा । स्वकार्यकरणासंगविह्वलीभूत मानसम् ॥ २८ ॥ आवां पाणौ भवान् विप्रस्तपस्वी च महागुणः । अस्मन्नमस्कृतेर्विद्यासिद्धिमायाति नान्यथा ॥ २९ ॥ विद्या सिद्धा कथंचित्ते नूनं नतिमकुर्वतः । भूयो विनाशतां चेयं यास्यति क्षणमात्रतः ॥ ३० ॥ तद्वचोविस्तरं श्रुत्वा दध्यौ विस्मितमानसः । सुप्रतिष्ठस्तदा खिन्नः किंकर्तव्यविमूढधीः ॥ इतो व्याघ्रः समायाति इतस्तिष्ठति दोतटी । इतो लोकप्रभुत्वं मे इतो विद्यासमागमः ॥ विद्यासमागमं पूर्वं प्रगृह्णामि ततोऽपरम् । भविष्यति प्रभुत्वं मे लोके विद्यासमागमात् ॥ कृत्वा गर्दभसंरावं क्रियते जनरञ्जनम् । धनानि येन जायन्ते लोकद्वय हितान्यलम् ॥ तथा चोक्तम् २६ ॥ २७ ॥ 15 ३१ ॥ ३२ ॥ 1 फ उपविष्टाद्गतौ 2फ पताकावलभीरम्यं, ज पताकावलिरम्यं. 4. फ गुणाधान. 5 प भन्मते. वृ० को० ५ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥ कृत्वा गर्दभरटितमपि त्वं जनमनुरञ्जयमित्र । येन धनानि भवन्ति तवोच्चैर्यानि हितान्युभयत्र ॥ ३५ ॥ ततस्तौ त्रिःपरीत्यायं मूर्धन्यस्तकरद्वयः । सुप्रतिष्ठः प्रणम्योच्चैर्देहि विद्यां मम प्रभो ॥ सुप्रतिष्ठं पुरो दृष्ट्वा जानुस्पृष्टमहीतलम् | पाणोऽस्मै पुरविद्यां तां ददौ पूर्वविचारतः ॥ ततो विद्यां प्रदायास्मै विनताखिलमूर्तये । यातवन्तौ तकौ क्वापि तत्परीक्षानिमित्ततः ॥ प्राकारपरिखासौधं वाप्युद्यानादिभूषितम् । चकार नगरं रम्यं विद्ययाऽयं तया पुनः ॥ उपसंहृत्य तां विद्यां तोषपूरितमानसः । सुप्रतिष्ठः सुविद्योऽरं राजान्तिकमुपाययैौ ॥ राजा विलोक्य तं हृष्टो विनयानतमस्तकः । तत्सन्मुखमभीयाय पञ्चषानि पदानि सः ॥ स्वर्णपट्टस्थितं कृत्वा सुप्रतिष्ठं महीपतिः । प्रणामपूर्वकं प्राह तन्मुखाम्भोजवीक्षणः ॥ ४२ ॥ क्व गतोऽसि प्रभो वीर विकृतं ते प्रयोजनम् । अतिक्रमोऽद्य संजातो भोजनस्य वदाशु मे ॥ ४३ ॥ ३० निशम्य भूपतेर्वाक्यं तोषकण्टकिताङ्गकः । जगाद सरसं भूपं सुप्रतिष्ठोऽकनिष्ठकः ॥ ४४ ॥ अनारतं प्रकुर्वद्भिर्ध्यानमध्ययनं तपः । सांप्रतं लब्धमस्माभिर्जन्मनस्तपसः फलम् ॥ ४५ ॥ सुप्रतिष्ठवचः श्रुत्वा निजगौ भूपतिस्तकम् । किं जन्मनः फलं नाथ ब्रूहि त्वं तपसोऽपि मे ॥ ४६ ॥ अवाचि भूपतिस्तेन सुप्रतिष्ठेन तोषिणा । किं जल्पितेन राजेन्द्र ज्ञास्यसि क्रिययाऽपि तत् ॥ ४७ ॥ अन्तःपुरेण सर्वेण नानाजनपदेन च । राजन्नद्य गुणाधार' भोजनं कुरु मन्मठे ॥ ४८ ॥ ४१ ॥ 35 3 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. ३३ ॥ ३४ ॥ 20 ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ - ३९ ॥ ४० ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १९.४९भगवो भूभुजाऽवाचि विस्मयव्याप्तचेतसा । किं सत्यमिदमेव' न सत्यं राजेन्द्र नान्यथा ॥४९॥ भुक्त्वा नृपसमं सोऽपि निमन्त्र्य नृपति क्षणात् । तोषपूरितचेतस्को निर्जगाम नृपालयात् ॥५०॥ अथ सौधैः सुधाशुक्लैः साणूरैरपि शोभनैः । आपणैर्धनसंपूर्णैः पौरलोकसमाकुलैः ॥५१॥ परिखातोरणै रम्यैश्चतुर्गोपुरकैरपि । प्राकारवापिकोद्यानवनैरपि मनोहरैः ॥५२॥ 5 वितानध्वजमालाभिर्नानावस्त्रैः प्रसारितैः । 'राजमानं पुरं चके सुप्रतिष्ठः स्वविद्यया ॥ ५३॥ राजाऽन्तःपुरलोकौधैः कृतकोलाहलस्वनैः । आजगाम पुरं तेन जनसंघट्टमीयुषा ॥ ५४॥ भूपावरोधलोकानां "यथास्वमनुयायिनाम् । अमत्राणि पवित्राणि सौवर्णानि ददुर्जनाः ॥ ५५ ॥ हस्तप्रक्षालनं दत्तं जनैः सालनकानि च । ओदनो मुद्गसंयुक्तो घृतं तत्क्षणनिर्मितम् ॥ ५६ ॥ अत्रान्तरे तकौ पाणौ प्राप्तौ गोपुरकाङ्गणम् । दृष्टिगोचरमायातौ सुप्रतिष्ठतपखिनः ॥ ५७ ॥ " सुप्रतिष्ठेन चादिष्टाः किंकरास्तन्निरासनम् । यावत्कुर्वन्ति ते तावत्स्थितं शून्यं कुटीरकम् ॥ ५८॥ न भोजनं न भोज्यं च न पुरं न गृहादिकम् । सुप्रतिष्ठो नृपस्तस्थौ केवलं वजनैः समम् ॥५९॥ सुप्रतिष्ठं ततः प्राह कृष्णवक्र सकौतुकः । किं जातं तपसश्छिद्रं ते च मे ब्रूहि सांप्रतम् ॥६॥ भूपवाक्येन तेनोक्तं किं तपो नियमो गुणः । अस्माकं हि कृतघ्नानां भूपते शीलमेव वा ॥ ६१॥ दृष्टावेतौ त्वया डोम्बौ विद्या नगरसंभवा । दत्तेयं मह्यमेताभ्यां राजन् प्रणतिपूर्वकम् ॥ ६२॥ 15 त्वल्लज्जया प्रणामो मे राजन् हि न कृतोऽनयोः । अनेन कारणेनार्य विद्यैताभ्यां हृता पुनः ॥६३॥' राजा तद्वचनं श्रुत्वा भक्त्या प्राप्य तदन्तिकम् । त्रिःपरीत्य तकौ नत्वा ययाचे विद्यकामयम् ॥६४॥ राज्ञो वचनमाकर्ण्य डौम्बको तमवोचताम् । यावद्दर्श त्वया भूप कर्तव्या नुतिरावयोः ॥६५॥ अस्मन्नुति विना विद्या सिद्धाऽपि क्षयमेष्यति । भगवस्येव मूढस्य कृतघ्नस्य दुरात्मनः ॥६६॥ __ तथा चोक्तम् - विनयेन विना का श्रीः का निशा शशिना विना । रहिता सत्कवित्वेन कीदृशी वाग्विदग्धता ॥ ६७ ॥ एवमुक्त्वा पुनस्ताभ्यां विद्या दत्ता महीभुजे । तेनापि भक्तितश्चात्ता तदा तन्नतिपूर्वकम् ॥ ६८॥ गतौ क्वापि तकौ देशात्तत्परीक्षणहेतुतः । तद्विद्यया पुरं कृत्वा ययौ राजा स्वमन्दिरम् ॥ ६९ ॥ यावदास्थानमासाद्य भूपतिर्व्यवतिष्ठते । पाणौ च तावदागत्य तिष्ठतो द्वारि भूपतेः ॥ ७० ॥ 5 ततः क्रमेण तौ दृष्टौ भूभुजाऽऽस्थानमीयुषा । आस्थानतः समुत्थाय ययौ तत्सन्मुखं नृपः ॥७॥ त्रिः परीत्य तको राजा तद्भक्तिस्थिरमानसः । सभाजनसमक्षं च ननाम सरसं तदा ॥ ७२ ॥ दृष्ट्वा भक्तिं नृपस्यास्य विनयस्थितिशालिनः । 'वैद्याधरं परं रूपं दर्शयामासतुस्तकौ ॥ ७३ ॥ दृष्ट्वा रूपं तयोः कान्तं विस्मयं प्राप भूपतिः । सभाजनैः समं सर्वैः कौतुकव्याप्तमानसैः ॥७४॥ ततो नृपतिना "पृष्टस्तद्रूपाहितचेतसा । किं किन्नरोऽसि किं देवः किं खेटः किं धनाधिपः॥७५॥ 30 नृपवाक्यं समाकर्ण्य जगौ विद्याधरोऽपि तम् । विद्युत्प्रभोऽस्म्यहं राजन् विद्युद्वेगेति मत्प्रिया ॥७६॥ रथनूपुरनाथोऽस्मि सर्वविद्याधराधिपः । भवद्विनयतः प्रीतस्त्वद्गुणाकृष्टमानसः ॥ ७७ ॥ धनसेनं नृपं धर्मे न्ययुक्त स्वप्रभावतः । स्वकान्तां सुप्रतिष्ठस्य निजाचारक्षतेरपि ॥ ७८॥ सितं मुक्तामयं हारं कुण्डले मणिनिर्मिते । विद्युप्रभः प्रदायास्मै सपत्नीकः पुरं ययौ ॥ ७९ ॥ 1 फज सत्यमिदमेवेन. 2 फ राजामानं. 3 फ त्रिकलम्, पज त्रिकलमिदम्. 4 फ यथास्थानानुयायिनाम्. 5 फन च भोजनभोज्यं च. 6 पज किं पापं तपस. 7 फत्रिकलम्, पज त्रिकलमिदम्. 8 0mitted in फ. 9 फ विद्याधरपरं, ज वैद्याधरपरं. 10 पज पृष्टः सद्रूपाहितचेतसा. 11 फ क्षतैरपि. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ -२०. २३ ] ज्ञानाचरणकथानकम् सुप्रतिष्ठेन हीनेन कृतनेन दुरात्मना । विद्या लब्ध्वाऽप्यतो नष्टा मन्दभाग्येन पापिना ॥ ८०॥ धनसेनेन भूपेन विद्या लब्धाऽतिभक्तितः। विद्युत्प्रभाख्यखेटेन पूजितेन विभूतिभिः ॥ ८१ ॥ ज्ञानस्य मुक्तिमार्गस्य विवेकस्य प्रयत्नतः । विनयोऽस्ति प्रकर्तव्यः साधुना मुक्तिमिच्छता ॥ ८२॥ ॥ इति श्रीज्ञानविनयाख्यानकमिदम् ॥ १९॥ २०. ज्ञानाचरणकथानकम् । अथाभवदहिच्छत्रे वसुपालो नराधिपः । भार्या वसुमती तस्य पुत्री वसुमती शुभा ॥१॥ तदा सहस्रकूटाख्यं नगोत्तुङ्गमनोहरम् । अकारयदिदं राजा जिनायतनमुत्तमम् ॥ २॥ तस्मिन् पार्श्वजिनेन्द्रस्य प्रतिमामतिशोभनाम् । लेपकारः कलाधारः करोति स्म प्रयत्नतः ॥ ३॥ प्रभाते यावदायाति लेपकारस्तदन्तिकम् । तावत्तां प्रतिमां तत्र ददर्श पतितामसौ ॥४॥ भूयोऽपि मृत्तिकापिण्डैठेपकारो विधाय ताम् । विचित्ररूपसंपन्नां जिनार्चा यात्यतो गृहम् ॥५॥10 अथ राजा समागत्य निरूप्य प्रतिमामसौ । पतितां रोषमापन्नो लेपकारं विसृष्टवान् ॥६॥ एवं बहुषु यातेषु लेपकारेषु केषुचित् । अन्यः समागतो भूपं लेपकारो महामतिः ॥ ७॥ लेपकारं समालोक्य भूपतिः पुरतः स्थितम् । बभाणेति च तं क्रुद्धो विनीताकारधारिणम् ॥ ८॥ अस्माभिर्लेपकाराणां धनं दत्तं यथेप्सितम् । तथापि प्रतिमा नेता समाप्तिं मूढचेतसाम् ॥ ९॥ इदानीं त्वं समायातश्चित्रचित्रकरो महान् । गृहीत्वेमां कुरु क्षिप्रं ते दास्यामि महद्धनम् ॥१०॥ 15 अथवेदं न विज्ञानं विद्यते तव शोभनम् । तदा याहि “गृहाद्वारमस्पृशंशिरसा द्रुतम् ॥११॥ भूपवाक्यं समाकर्ण्य लेपकारो जगावमुम् । करोमि प्रतिमां राजन् बहुना जल्पितेन किम् ॥१२॥ प्रदायास्मै स्वहस्तेन ताम्बूलं नरनायकः । विससर्ज तकं सोऽपि जगाम निजमन्दिरम् ॥ १३॥ लेपकारो जिनस्तोत्रं विधाय बहुभक्तितः । गुरुभक्तिं चकारासौ गुरोराचारवेदिनः ॥१४॥ गुरुभक्तिं विधायासावुपविश्य तदन्तिके । जगाद मुनिचन्द्रं च भक्तिनिर्भरमानसः॥ १५ ॥ 20 मद्यस्य मधुमांसस्य क्षीरवृक्षफलस्य च । दधिदुग्धघृतस्यापि रमणीरमणस्य च ॥ १६॥ यावत्पार्थजिनेन्द्रार्चा निष्पत्तिं नोपगच्छति । तावन्निवृत्तिमेतेषां मुनिचन्द्र प्रदेहि मे ॥ १७ ॥ यदुक्तं तेन तत्सर्व वितीर्णं तस्य योगिना । आदाय भक्तितः सोऽपि सप्रमाणं समुत्थितः ॥१८॥ समस्तलक्षणोपेतां सर्वावयवसुन्दरीम् । लेपकारश्चकारैतां पार्श्वनाथप्रयातनाम् ॥ १९ ॥ ततोऽयं वसुपालेन धनधान्यादिसंपदा । विधाय बहुसन्मानं पूजितः सरसं तदा ॥ २०॥ 23 विधायावग्रहं तेन प्रतिमा विहिता यथा । भूभुजा पूजितेनालं मणिकाञ्चनभूतिभिः ॥ २१ ॥ तथैव साधुनाऽवश्यमागमं पठता सता । अवग्रहः प्रकर्तव्यस्तद्भक्तिकृतचेतसा ॥ २२ ॥ तस्मिन् समाप्तिमापन्ने प्राप्य पूजां नरादिकाम् । अपवर्गसुखं भूयो लभिष्यति मुनीश्वरः ॥२३॥ ॥ इति श्रीज्ञानाचरणकथानकम् ॥ २० ॥ .. 1पज लब्ध्वाप्यसौ. 2फ देशकस्य. 3 फ नगोत्तुङ्गमहेश्वरम्. 4 फ गृहद्वार. 5 फ घृतदुग्धदधिस्थापि. 6 फ युग्मम् , पज युगलमिदम्. 7 प प्रयातनाम्-प्रतिमाम्. 8 पज नरादिकम्. 9 ज कथानकमिदम् , फ कथानकमिदमगात्. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ २१. १२१. ज्ञानबहुमानकथानकम् । ततः काशीजनान्तेऽभूद् भूपतिवृषभध्वजः । वाराणस्यां पुरि श्रीमान् साधितारातिमण्डलः ॥१॥ भूपतेरस्य सत्कान्ता तरुणी लोललोचना । अभूद् वसुमतीश्रीः सा निधानं शीलसंपदाम् ॥ २॥ वाराणसीसमीमे च गङ्गारोधसि सुन्दरः । पलाशोपपदः कूटो ग्रामो बहुधनोऽभवत् ॥३॥ 5 आसीदशोकनामात्र ग्रामे बहुधनो धनी । महत्तरोऽस्य भार्या च नन्दा तन्मानसप्रिया ॥ ४॥ ततोऽन्या सचिवोद्भूता सुनन्दा नाम कन्यका। परिणीता साऽशोकेन नन्दा वन्ध्येति सुन्दरी ॥५॥ अशोकः शोकसंत्यक्तोऽनेकगोकुलनायकः । संतिष्ठतेऽग्रणीस्तत्र नन्दिताशेषबान्धवः ॥ ६॥ वृषभध्वजभूपाय घृतकुम्भसहस्रकम् । वर्षे वर्षे प्रदायास्ते भुञ्जानो गोकुलानि सः ॥७॥ दृष्ट्वाऽशोको महाराटिं तथा नन्दासुनन्दयोः । अर्धाधु गोकुलं कृत्वा ददौ कार्यविचक्षणः ॥८॥ 10 तदा गोपालभाण्डानां गवां च परिपालनैः । चकार सा सुनन्दा च बहुमानं दिने दिने ॥९॥ ग्रामाद् गवां प्रयान्तीनामटवीं स्तोकमन्तरम् । प्रयाति च समं ताभिः सुनन्दा स्नेहतत्परा ॥१०॥ भूयोऽप्येकैकशो गाः स्वा गणयित्वा पुनः पुनः । गोपालकसमूहानां समायाति मन्दिरम् ॥११॥ वनाद् गृहं विशन्तीनां गवामायाति सन्मुखम् । भूयोऽपि गणयित्वा ताः प्रवेशयति मन्दिरम् ॥१२॥ आगतानां गृहं तासां बहु वट्टलकं वरम् । ददाति सा पुनस्तस्यै दुग्धं ददति ता बहु ॥१३॥ 15 तथा गोपालकेभ्योऽपि दुग्धं दधि घृतं बहु । ददाति भोजनं स्थानं चर्वणादिकमेव सा ॥ १४ ॥ गच्छतामटवीं तेषां गोपालानामनारतम् । लड्डुकांश्च प्रदायैभ्यो विससर्ज तकानपि ॥ १५॥ तेऽपि गोपालका दृष्ट्वा यत्र निर्झरनीरकम् । कोमलानि च शष्पानि सन्ति तत्र नयन्ति गाः ॥१६॥ दुग्ध्वा दुग्धानि गा गोपाः पिबन्ति प्रीतमानसाः । सुनन्दाकरसंदत्तभक्षभोजनकारिणः ॥१७॥ अटव्यां गतगोपानां पादधावनभोजनैः। सुष्वाप्य स्नानपानाद्यैरुपचारं करोति सा ॥१८॥ 20 सुगन्धि शीतलं तोयं पाययित्वा पुनः पुनः । मृदुस्निग्धानि मृष्टानि चारयित्वा तृणान्यपि ॥१९॥ तरुच्छायासु मध्याह्ने किंचित्कालं निवेश्य ताः । गोकीटान्वेषणेनात्र स्वहिताः कुर्वतेऽन्वहम् ॥२०॥ एवं गोपालकाः प्रीतास्तकया बहुमानिताः । वनं सुखेन गा नीत्वा चानयन्ति पुनर्ग्रहम् ॥२१॥" भाण्डकेषु पुनयेषु दुग्धं दधि घृतं तथा । क्रियते तेषु संस्कारं करोति सततं सका ॥ २२॥ नन्दा सुयौवनोन्मत्ता सुवल्लभतया प्रभोः । गोगोपभाण्डकानां च सन्मानं न करोति सा ॥२३॥ 25 गवां "वट्टलकं नैषां गोपालानां न भोजनम् । भाण्डकानां न संस्कारं करोति मदविह्वला ॥२४॥ गावो ददति नो दुग्धं विना सन्माननेन ताः। किंचिद्ददति चेदल्पं दुग्ध्वा गोपाः पिबन्ति तत् ॥२५॥ यत्किंचिदल्पकं दुग्धं स्थाप्यते भाण्डकेषु तत् । अशुद्धेषु च सर्वेषु विनाशमुपगच्छति ॥ २६ ॥ नास्ति नन्दागृहे दुग्धं न वा दधि घृतं न च । बहुमानं विना लोके न हो जायते नृणाम् ॥२७॥ अत्रान्तरे समाहूय नन्दाऽऽख्यां पूर्ववल्लभाम् । अशोकः प्राह तां कान्तां सस्नेहं पुरतः स्थिताम् ॥२८॥ घृतकुम्भसहस्रं च वृषभध्वजभूभुजे । दातव्यमधुनाऽस्माभिर्निर्विकल्पं मनस्खिनि ॥ २९ ॥ शतानि घृतकुम्भानां पञ्च त्वं देहि मे प्रिये । एतावन्त्येव चान्यानि सुनन्दा दास्यति ध्रुवम् ॥३०॥ अशोकवचनं श्रुत्वा नन्दा वदति तं क्रुधा । तावत्पञ्चशतान्यासन् घृतस्यैकं पलं न हि ॥ ३१॥ 14°मतीश्री, जमतीश्रीसौनिधानं. 2 प धनो धनी. 3 प ज्येष्ठातरास्य, ज महत्तरास्य. 4 फ ततोऽन्य. 5फ तथा. 6 प प्रयातीनामटवीं. 7 फ कट्टलकं. 8 प दुरध्वा दुग्धा गा. 9प प्रीतिमानसाः, 10 पज सुखाय. 11 फ युग्मम्, पज युगलम्. 12 फ कट्टलकं. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२. २१ ] गुरुह्निवकथानकम् ३७ नन्दावचनमाकर्ण्य सुनन्दा जनवाक्यतः । घृतकुम्भसहस्रं वै ददावस्मै धवाय सा ॥ ३२ ॥ घृतकुम्भसहस्रं च दृष्ट्वा स स्वपुरः स्थितम् । अशोको गोकुलं तस्याः सुनन्दायाः समर्पयत्' ॥ ३३ ॥ गृहं च स्वधनं चैव स सर्वं जीवितं तथा । अशोकोऽपि सुनन्दाया ददौ तत्प्रीतमानसः ॥ ३४ ॥ * अशोकमानसोत्तीर्णा खादन्ती भक्षमानकम् । नन्दा सुदुःखतस्तस्थौ स्थिता तत्र कुटीरके ॥ ३५ ॥ गोगोपालकभाण्डानां बहुमानमकुर्वती । नन्दा निर्धाटिता गेहादशोकेन वराकिका ॥ ३६ ॥ गोगोपालकभाण्डानां बहुमानं प्रकुर्वती । सुनन्दा पूजिता तेन जाता तत्प्राणवल्लभा ॥ ३७ ॥ एवं साधुरपि स्पष्टं बहुमानं करोति नो । ज्ञानस्य समवाप्नोति संतापं चित्तदुस्सहम् ॥ ३८ ॥ साधुर्ज्ञानस्य भावेन बहुमानं करोति यः । ज्ञानमासाद्य सोऽपीन्द्रैः सुनन्दावत्प्रपूज्यते ॥ ३९ ॥ ॥ इति श्रीज्ञानबहुमानाख्यानकमिदम् ॥ २१ ॥ * २२. गुरुनिह्नवकथानकम् । अथावन्तीमहादेशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । अस्यां बभूव मानार्हो धृतिषेणो महीपतिः ॥ १ ॥ तस्याभवन्महादेवी श्रीकीर्तिधृतिरूपगा । भार्याऽमलमती नाम चण्डप्रज्ञोऽनयोः सुतः ॥ २ ॥ विन्यातटपुरे रम्ये सोमशर्माऽभवद् द्विजः । सौम्या च तत्प्रिया कालसंदीवस्तनयोऽनयोः ॥ ३ ॥ सर्वशास्त्रार्थकुशलश्चतुर्वेदषडङ्गधीः । अष्टादशलिपिज्ञोऽसौ मीमांसाऽऽहितमानसः ॥ ४ ॥ चण्डप्रज्ञस्य संजातश्चोपाध्यायो विशुद्धधीः । वैदिकः कालसंदीवः कलाविज्ञानकोविदः ॥ ५ ॥ " विवेद कालसंदीवात् सप्तदश लिपीरसौ । न चैकामध्यधीयानो लिपिं यवनसंभवाम् ॥ ६ ॥ यदा यवनदेशोत्थां भूयोभूयः प्रदर्शिताम् । न गृह्णाति लिपिं शुद्धां कुमारः सुकुमारकः ॥ ७ ॥ उपाध्यायेन रुष्टेन परिणामहितेन सः । चण्डप्रज्ञो हतो मूर्ध्नि तदा पादेन निर्दयम् ॥ ८ ॥ महारुषं परिप्राप्य स्वशिरःपादताडनात् । उवाच कालसंदीवं चण्डप्रज्ञोऽरुणेक्षणः ॥ ९ ॥ काकतालीययोगेन यदि मे राज्यसंभवः । ततः पादं कुठारेण छेत्स्यामीमं स्फुटं तव ॥ १० ॥ 20 कुमारवचनं श्रुत्वा बालविभ्रमकारणम् । जगाद कालसंदीवश्चण्डप्रज्ञं प्रकोपितम् ॥ ११ ॥ कुमार यदि ते राज्यं भविष्यति विसंशयम् । ततो मदीयपादस्य पट्टबन्धं करिष्यसि ॥ १२ ॥ अष्टादशलिपिज्ञं हि' कृत्वा कष्टेन पाठकः । ततो जगाम संतुष्टो दक्षिणापथमादरात् ॥ १३ ॥ जिनधर्मं समाकर्ण्य श्रुतसागरयोगिनः । समीपे कालसंदीवो दीक्षां दैगम्बरीं दधौ ततः समस्तराद्धान्तपारगः स्तोककालतः । बभूव कालसंदीवो विधाता तपसामलम् ॥ अथ दृष्ट्वा महामेघं विमानाकारधारिणम् । तत्क्षणाद् विलयं यातं धृतिषेणः प्रशान्तवान् ॥ १६ ॥ चण्डप्रज्ञं तमाहूय राज्यपठ्ठे बबन्ध सः । अमुष्य कृतकृत्यस्य सामन्तादिपुरःसरम् ॥ विहाय सकलं संगं स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । धृतिषेणो दधौ दीक्षां शान्तो जैनेश्वरीं तदा ॥ १८ ॥ ततः कलकलावर्तमुज्जयिन्यां पुरि प्रभुः । चकार विपुलं राज्यं चण्डप्रद्योत भूपतिः ॥ १९ ॥ अत्रान्तरे महामानी नृपो यवनसंभवः । प्राहिणोति स्म तल्लेखं चण्डप्रद्योत भूपतेः ॥ २० ॥ श्रीमदुज्जयिनीमध्ये सामन्तादिजनोऽखिलः । न कोऽपि तां लिपिं तत्र विवेद यवनोद्भवाम् ॥२१॥ I ॥ १४ ॥ १५ ॥ 25 १७ ॥ 30 1 प अशोकोपि सुनन्दाया ददौ तत्प्रीतमानसः । 2 Omitted in प. 3 फ विज्ञातटपुरे. 4फ संभवम् 5 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 6 फज प्रको पिनम् 7 फ तं. 8 फ भूपतेः 9 फ omits 20. 10 फ यवनोद्भवम्. 10 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [ २२. २२ततस्तं लेखमादाय स्खकरेण विधृत्य तम् । प्रवाच्य भूपतिः स्वेन तदर्थं ज्ञातवानसौ ॥२२॥ धरणीमण्डलं सर्वे यत्नेन महता ध्रुवम् । अन्विष्य सद्गुरुः सभ्याः क्षिप्रमानीयतामिति ॥२३॥ तदाज्ञां प्राप्य तद्भपाः श्रीमदुजयिनीपुरः । निर्ययुस्तं समानेतुमुपाध्यायं कृतत्वराः ॥ २४ ॥ ददृशुर्भट्टपुत्रास्तं कालसंदीवयोगिनम् । 'विन्यातटपुराभ्याशे परमागमवेदिनम् ॥ २५ ॥ । दृष्ट्वा वदन्ति तं तत्र विनयानतमस्तकाः । वयं भवन्तमानेतुं प्रेषिताः प्रभुणा प्रभो ॥ २६॥ तस्मादुत्तिष्ठ गच्छाम तदभ्याशं मुनीश्वर । ताम्बूलादि न गृह्णाति त्वददर्शनतः प्रभुः ॥२७॥ तद्भट्टपुत्रसद्वाक्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितम् । जगाम कालसंदीवश्चण्डप्रद्योतमन्दिरम् ॥ २८॥ विलोक्य कालसंदीवं चण्डप्रज्ञस्त्वरान्वितः । तत्सन्मुखमभीयाय विधाय करकुडलम् ॥ २९॥ स्वयमेवासनं दत्त्वा कालसंदीवयोगिने । चक्रे तदासनस्थाय पादप्रक्षालनं नृपः ॥ ३०॥ " धनसारसमृद्धेन कुङ्कुमेनातिचारुणा । लिम्पति स्म गुरोः पादौ स्वयमेव क्षितीश्वरः ॥ ३१॥ अष्टापदमयं पढें कालसंदीवपादयोः । चण्डप्रज्ञो बबन्धायं शङ्खतूर्यादिभूतिभिः ॥३२॥ गन्धान्धीकृतभृङ्गौधैर्नानापुष्पैमनोरमैः । कालसंदीवपादौ हि पूजयामास भूपतिः ॥ ३३॥ श्रीखण्डघनसारादि धूपं संधूपिताशकम् । समुत्क्षिपति भूपालः कालसंदीवपादयोः ॥ ३४ ॥ करौ शिरसि विन्यस्य चण्डप्रद्योतभूपतिः । ननाम कालसंदीवं मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ ३५ ॥ । ततः प्रणामं पुनः कृत्वा चण्डप्रज्ञो जगौ गुरुम् । भगवन् देहि मे दीक्षां संसारार्णवतारणीम् ॥३६॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा जगादेमं मुनीश्वरः । संसारवाससंभीतं गुरुभक्तिपरायणम् ॥ ३७॥ दिव्यज्ञानेन विज्ञाय भव्यतामस्य भूपतेः । तदानीं कालसंदीवो ददौ दीक्षां विशुद्धये ॥ ३८ ॥ दीक्षानन्तरमेवास्य शरीरं तपसो बलात् । गोदुग्धकुन्दपुष्पा बभूव विधुसंनिभम् ॥ ३९ ॥ नानातपोविधानज्ञो निगृहीतेन्द्रियः स्थिरः । ततोऽयं गुरुणाऽऽनीतः श्वेतसंदीवनाम तम् ॥४०॥ ॥ ततस्तौ द्वावपि क्षिप्रं गुरुशिष्यौ प्रजग्मतुः । ध्वजमालामनोहारि परं राजगृहं पुरम् ॥ ४१॥ विपुलादिगिरौ वीरः शरणे समवादिके । मुनिदेवादिसंकीर्णे तस्थौ केवललोचनः ॥ ४२ ॥ ततो वीरजिनेशस्य समवस्थानमुत्तमम् । जगाम कालसंदीवः श्वेतसंदीवसंयुतः ॥४३॥ विलोक्य श्वेतसंदीवं समवस्थानतो बहिः । जगाद श्रेणिको नाथ कस्य पार्थे तपोऽग्रहीत् ॥४४॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा कौतुकव्याप्तचेतसः । जगौ तं श्वेतसंदीवो वितथासक्तमानसः॥४५॥ 'अहं प्रसिद्धिमायातो राजराजसुपूजितः । मद्गुरुः कालसंदीव इत्याख्यातं कथं ब्रुवे ॥४६॥ अस्माकं हि महीपाल प्रीणिताशेषभूतलः । ज्ञानाम्भोधिस्तपोराशिमहावीरो भवेद्गुरुः ॥४७॥ ' एवं 'निगदतस्तस्य शरीरं शशिसंनिभम् । अङ्गारराशिसंकाशं तत्क्षणेन बभूव तत् ॥४८॥ श्रुत्वा तद्वचनं राज्ञा चिन्तितं मनसि स्फुटम् । शरीरं शुक्लमायातं किं मुनेरस्य कृष्णताम् ॥४९॥ एवं विचिन्त्य राजेन्द्रःप्राप्य गौतमसन्निधिम् । भक्त्या प्रणम्य तं नाथं पप्रच्छेति स कौतुकात्॥५०॥ 30 कुन्दपुष्पसमानाभं शरीरं विधुनिर्मलम् । कृष्णत्वं किं गतं ब्रूहि श्वेतसंदीवयोगिनः ॥५१॥ आकर्ण्य तद्वचः सत्यं गौतमोऽपि तमब्रवीत् । कौतुकव्याप्तचेतस्कं विनयानतविग्रहं ॥५२॥ असत्यभाषणादस्य लज्जया निजगौरवात् । सितं शरीरमायातं कृष्णत्वं गुरुनिह्नवात् ॥ ५३॥ निशम्य गौतमेनोक्तं श्रेणिको द्रव्ययोगिनम् । जगाद श्वेतसंदीवं कृष्णीभूतशरीरकम् ॥ ५४॥ सितकुन्दसमानाभं त्वच्छरीरं मनोहरम् । गुरुनिह्नवदोषेण कृष्णतां समुपागतम् ॥ ५५ ॥ 1फ विज्ञातट. 2 फ युवेश्वरः. 3 फ सारादि. 4 फ °दायिनीम् 5जतेन्द्रियस्थिरः, फतेन्द्रियस्थितिः. 6 फ श्वेतसंदीवमानताम्. 7 Only in फ. 8 प निगद्यत 9 फ विग्रहः. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३. २६ ] व्यञ्जनकथानकम् तस्मान्निजगुरुं प्राप्य शीघ्रमालोचनां कुरु । येन संपद्यते साधो कारणं तव शोभनम् ॥५६॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा परिणामहितं परम् । जगाम स्वगुरोः पार्थं वैराग्याहितमानसः ॥ ५७॥ त्रिःपरीत्य तमीशानं वन्दित्वा च पुनः पुनः । निजगौ कृष्णसंदीवो गुरुनिह्नवकारणम् ॥ ५८॥ श्रुत्वा शिष्यवचः सोऽपि प्रायश्चित्तं वितीर्णवान् । अस्मै 'खनिन्दनासक्तकरिणे भववेपिने ॥५९॥ गुरुदत्तं विधायोच्चैः प्रायश्चित्तं मुनिः सकः । बभूव केवलज्ञानी लोकालोकावलोकनः ॥ ६०॥ ॥ इति श्रीगुरुनिहवाख्यानकमिदम् ॥ २२॥ २३. व्यञ्जनकथानकम् । मगधाविषये रम्ये पुरे राजगृहेऽभवत् । वीरसेनो नृपः शूरो वीरसेनाऽस्य वल्लभा ॥१॥ अनयोनन्दनो जातः सिंहः सिंहपराक्रमः । उपाध्यायोऽभवत्तस्य सोमशर्माऽतिपण्डितः ॥२॥ अथोत्तरापथे देशे पुरे पोदननामनि । राजा सिंहरथो नाम सिंहसेनाऽस्य सुन्दरी ॥३॥ ॥ एष सिंहरथो राजा सिंहविक्रमराजितः । वश्यो न वीरसेनस्य नताशेषमहीपतेः ॥ ४ ॥ अन्यदा वीरसेनोऽयं गतः सिंहरथोपरि । स्वसैन्यसमुदायेन चतुरङ्गेन भूयसा ॥५॥ तत्कोट्टवेष्टनं कृत्वा वीरसेनः समन्ततः । महाबलसमृद्धोऽपि तद्वशीकारविह्वलः ॥६॥ वीरसेनोऽपि तत्रत्यो दध्यौ विस्मितमानसः। एकः पुत्रोऽस्ति मे बालः स किं पठति वा न वा ॥७॥ चिन्तयित्वा चिरं तत्र वीरसेनो नराधिपः । प्रहिणोति स्म सल्लेखं महादेवीं स्वमत्रिणाम् ॥ ८॥ खस्ति श्रीपोदनाभिख्यपुरादरिविमर्दनः । सामन्ताधिपतिः श्रीमान् वीरसेनो महाबलः ॥९॥ राजद्राजगृहे रम्ये पुरे राजगृहेऽखिलान् । आदिदेश महादेवी मत्रिमुख्यान् समङ्गलम् ॥ १० ॥ मगोत्रतिलकीभूतमस्मदत्यन्तवल्लभम् । रमणीमत्रिसंघातं सिंहमध्यापय द्रुतम् ॥ ११ ॥ यावच्छत्रोर्वशीकारं विदधामि बलीयसः । तावत्सुतस्य कर्तव्यं भवद्भिः परिरक्षणम् ॥ १२॥ रिपुं ववशमाधाय करदीभूतमानतम् । आगमिष्याम्यहं क्षिप्रं स्थेयं सर्वैः प्रयत्नतः ॥ १३ ॥2॥ लेखवाहगले कृत्वा लेखं संवेष्टय यत्नतः । पुरं राजगृहं तोषी प्राहिणोत्तं महीपतिः ॥ १४ ॥ लेखवाहो द्रुतं प्राप्य तत्त्रियां मत्रिसंयुताम् । लेखं मुमोच हृष्टात्मा सप्रणामं तदग्रतः॥ १५॥ लेखार्थमवगम्याशु स्वबुद्ध्या लेखकस्तदा । तेषां तदर्थमाचष्टे "सिंहोऽन्धीक्रियतामिति ॥ १६ ॥ सिंहोऽन्धलः कृतो मूढैः कायस्थवचनात्तकैः । शोकविह्वलचेतोभिर्गच्छद्भिर्भूपतेर्भयम् ॥ १७ ॥ अत्रान्तरे वशीकृत्य भीमं सिंहरथं रिपुम् । वीरसेनो नृपः शीघ्रमाजगाम निजं पुरम् ॥ १८ ॥ प्रविश्य मन्दिरं राजा चोपविश्य सभागृहे । सिंहमाहूय सस्नेहं मुदाऽमुं परिषस्वजे ॥ १९ ॥ सिंहस्य लोचनद्वन्द्वं दृष्ट्वा दृष्टिविवर्जितम् । जगाद भूपतिः कान्तां मत्रिणोऽपि पुरःस्थितान् ॥२०॥ सिंहाक्षियुगलं लोका विनष्टं केन हेतुना । शीघ्रं वदत मे स्पष्टं यथातथ्यं प्रयोजनम् ॥ २१॥ । वीरसेनवचः श्रुत्वा ते वदन्ति नरेश्वरम् । वल्लेखदर्शनादस्य नाशितं लोचनद्वयम् ॥ २२ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा भूयोऽपि निजगावमुम् । लेखार्थः कथितः केन लेखकेनेति ते जगुः ॥२३॥ ३॥ आकर्ण्य तद्वचो भूपो लेखकं पुरतः स्थितम् । जगाद क्रोधरक्ताक्षो भृकुटीभीषणालिकः ॥ २४ ॥ रेरे खल दुराचार सिंहलोचननाशन । कूटलेखक पापिष्ठ मल्लेखार्थ निवेदय ॥ २५ ॥ वीरसेनवचः श्रुत्वा लेखको निजगाद तम् । “तवेदं विस्मृतं वाक्यं सिंहमध्यापय द्रुतम् ॥२६॥ 1फ स्वनिन्दनाशक्तिकारिणे. 2 फ उपाध्यायो भवेत्तस्य. 3 पज सिंहान्धीक्रियतामिति.... 4 फ तदेदं. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [२३. २७भवदादिष्टवाक्यस्य जानीद्यर्थमिदं बुध । युष्माभिः कृतकर्तव्यैः सिंहानीक्रियतामिति ॥ २७ ॥ लेखकस्य निशम्योक्तं भूयो भूयो जगावमून् । शृणुतास्य पदस्यार्थ सिंहमध्यापय द्रुतम् ॥२८॥ सिंहस्य मत्सुतस्यास्य कारापयत मत्रिणः। अध्यापनं श्रुतस्येदं पावनं शीघ्रमादरात् ॥ २९ ॥ वीरसेननृपस्येदं निशम्य वचनं बुधाः । परं प्रमोदमायाता निन्दन्ति खललेखकम् ॥ ३०॥ 5 कारयित्वा खरारोहं लेखकस्य दुरात्मनः । बद्धानि पञ्चबिल्वानि पत्तनभ्रमणं तथा ॥ ३१॥ एवं विधाय राजेन्द्रो लेखकं दुष्टमानसम् । खलीकृत्य चकारास्य स्वदेशादपसारणम् ॥ ३२॥ यथायं लेखकः प्राप्तः खलीकारं सुदुःसहम् । व्यञ्जनेन परित्यक्तं भावयन्नर्थमीदृशम् ॥ ३३ ॥ जिनवक्राम्बुजायातं भव्यकर्णरसायनम् । अपवर्गपरावाप्तिभव्यजन्तुहितप्रदम् ॥ ३४॥ व्यञ्जनच्युतकं ज्ञानं तथा साधुरपि क्षितौ । पठन् मूर्खत्वमासाद्य भवं भ्राम्यति दुःखितः ॥३५॥ ॥ इति श्रीव्यञ्जनकथानकमिदम् ॥ २३ ॥ २४. अर्थहीनकथानकम् । अथायोध्यापुरी कान्ता विनीता विषयेऽभवत् । वसुपालो नृपस्तस्यां प्रिया वसुमती मता ॥१॥ अनयो रूपसंपन्नो वसुमित्रः सुतोऽभवत् । उपाध्यायोऽस्य संजातो गर्गों विद्यासमन्वितः ॥२॥ अवन्त्यां च महादेशे श्रीमदुज्जयिनी च° पूः । वीरदत्तो नृपस्तस्यां वीरदत्ता च तत्प्रिया ॥३॥ 15 वसुपालनरेन्द्रस्य विह्वलीभूतवैरिणः । आज्ञाभङ्गं करोत्येष वीरदत्तो नृपः सदा ॥४॥ चातुरङ्गेण सैन्येन तत्पुरं परिवेष्टय सः । वसुपालनृपस्तस्थौ तत्पराक्रमविस्मितः ॥ ५॥ वसुपालोऽपि तत्रत्यो दध्यौ कोट्टबहिः स्थितः । कालेन कियता मे हि वीरदत्तो भवेद्वशः ॥६॥ अयोध्यायामरं तावल्लेखं च प्रहिणोम्यहम् । मत्सुतो वसुमित्रोऽपि येनायं पठति स्फुटम् ॥७॥ चिन्तयित्वा चिरं स्नेहात्पुत्रविद्यासमागमात् । लेखं आहेतुमारेभे वसुपालो नराधिपः ॥ ८॥ 20 स्वस्ति श्रीपुण्ययुक्ताया उज्जयिन्या नरेश्वरः । वसुपालप्रतापासिसाधितारातिमण्डलः ॥९॥ विनीतायां स्थितां देवीं चार्वी वसुमती तथा । मैत्रिणं चादिदेशाशु कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥१०॥ कार्य च लिख्यते चारु वसुमित्रश्रुताप्तये । उपाध्यायस्य कर्तव्यं गौरवं विविधं बहु ॥ ११ ॥ कुन्दपुष्पसमानाभं बाष्पाढ्यं मृदुसिक्थकम् । शालिभक्तं च दातव्यं घृतं च मषिसंयुतम् ॥ १२॥ राज्ञा विसर्जितः शीघ्रं लेखावाहो हि तत्समम् । जगाम सरसं सोऽपि स्वामिकार्यपरायणः॥१३॥ 25 ततः क्रमेण संप्राप्य वसुपालनृपालयम् । भूपालवल्लभामत्रिलेखकादिसमन्वितम् ॥ १४ ॥ ततः क्रमोपविष्टेषु सर्वेषु नृपबन्धुषु । लेखकोऽपि च तल्लेखं तत्समक्षं प्रवक्ति सः ॥१५॥ भाजनानि विचित्राणि शालिभक्तं सुगन्धि च । घृतं च 'मषिसंयुक्तं दातव्यं पाठकाय वै ॥१६॥ उपाध्यायस्य गर्गस्य पठति प्रीतिमानसः । महताऽयं प्रयत्नेन वसुमित्रसमन्वितः ॥ १७ ॥ आसनं स्वर्णमादाय स्वर्णपात्र्यां शशिप्रभः । ओदनो मुद्गसंघोऽपि घृतं तत्क्षणनिर्मितम् ॥ १८॥ 30 दीयतेऽस्मै ततोऽङ्गारमपी तत्क्षणनिर्मिता । वधूजनैरिदं सर्वं गर्गों भुङ्क्तेऽतिलज्जितः ॥ १९॥" एवं मषीयुतं भक्तं भुञानस्य दिने दिने । गर्गस्य दुर्बलं जातं शरीरं नष्टदीधिति ॥ २० ॥ 14 omits 27-28. 2 फ बलीकृत्य. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 फज व्यञ्जनहीन?. 5 फ पुरी. 6 फ भवद्वशः. 7 पज त्रिकलमिदम्, फ निकलम्. 8 प मन्त्रिणां. १ प मषिः मुद्दालिः, फ मखि. 10 फ सालनानि. 11 ज मसि, फ मखि. 12 पफ युग्मम् , ज युगलम. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५. ६ ] व्यञ्जनार्थहीन कथानकम् ४१ 3 वसुमित्रोऽपि गर्गेण तदाश्रममागच्छता । विद्यायाः पात्रतां नीतः स्वकीयाया महात्मना ॥ २१ ॥ अत्रान्तरे वशीकृत्य वीरदत्तं महाबलम् । वसुपालः कृतानन्दो विवेश निजमन्दिरम् ॥ २२ ॥ उपविश्य नृपस्तत्र गर्गमाहूय सादरम् । सुतं चोत्सङ्गमारोप्य जगादेमं ससंभ्रमम् ॥ २३ ॥ किं कृशोऽसि गुणाधान सूपाध्याय महामते । किं न संपद्यते किंचिन्महे तव शोभनम् ॥ २४ ॥ निशम्य वसुपालस्य वचनं स्नेहसंगतम् । गर्गों जगाद तं वीरं दुर्बलः स्खलिताक्षरम् ॥ २५ ॥ स्वर्णपट्टोपविष्टाय स्वर्णपात्रे प्रदीयते । शालिभक्तं समुद्धं मे घृतं सुरभिनिर्मलम् ॥ २६ ॥ कृष्णाङ्गारमषी' बह्वी घृतपूराः सपूरकाः । व्यञ्जनानि प्रशस्तानि दधिक्षीरावसानकम् ॥ २७ ॥ एवमादि वरं भोज्यं वस्त्रताम्बूलभोजनम् । भवत्प्रसादतो राजन् सर्वं संपद्यते मम ॥ २८ ॥ भवत्कुले समाचारो विषमो नरनायक | कृष्णाङ्गारमषी' येन दीयते मे महत्यपि ॥ २९ ॥ यतस्त्वया प्रभो लेखः प्रेषितो मंत्रियोषिताम् । ततः प्रभृति भुञ्जानो मषीं' तिष्ठामि संततम् ॥ ३० ॥ ७ अस्थिचर्मावशेषस्य क्षयव्याधिमुपेयुषः । अनेन कारणेनेश शरीरं दुर्बलं मम ॥ ३१ ॥ उपाध्यायवचः श्रुत्वा वसुपालो विशुद्धधीः । बभाण क्रोधरक्ताक्षो लेखकं पुरतः स्थितम् ॥ ३२ ॥ रे लेखक दुराचार लेखार्थं ब्रूहि मत्पुरः । नो चेदेवं करोषि त्वं निहन्मि त्वां स्वयं रुषा ॥ ३३ ॥ शालिभक्तं मृदुश्लक्ष्णं व्रीहिभक्तं मयोदितम् । घृतं चाज्यं परिप्रोक्तं मषीकजलमेव तत् ॥ ३४ ॥ भूयस्त्वदीयलेखस्य लेखार्थः परिकीर्तितः । एषामेवंविधोऽस्माभिः कुरु त्वमधुनोचितम् ॥ ३५॥” ” लेखकोक्तं समाकर्ण्य वसुपालो जगावमुम् । शालिभक्तं वरं प्रोक्तं घृतमाज्यं” तथैव च ॥ ३६ ॥ हृद्या खल्वाटकी दालिश्च मषिः परिकीर्तिता । अत्र दोषः समायातस्तव मूढमतेरिति ॥ ३७ ॥ गर्दभारोपणं शीघ्रं जटापञ्चकमेव च । बन्धनं पञ्चबिल्वानां पत्तनभ्रमणं तथा ॥ ३८ ॥ कारयित्वा खलीकारं तरामस्य प्रमादिनः । स्वदेशाद् गमनं चक्रे वसुपालो महामतिः ॥ ३९ ॥ * अर्थहीनं यथा लेखं लेखको वाचयन् द्रुतम् । भूभुजा वसुपालेन खदेशादपसारितः ॥ ४० ॥ तथा मुनिरपि ज्ञानं जैनमर्थपरिच्युतम् । पठन् जडत्वमासाद्य संसारमवगाहते ॥ ४१ ॥ ॥ " इति श्रीअर्थहीनकथानकमिदम् ॥ २४ ॥ * २५. व्यञ्जनार्थहीनकथानकम् । कुरुजङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् । महापद्मोऽत्र भूपालः सम्यग्दर्शनभूषितः ॥ १ ॥ पद्मपत्रविशालाक्षी पद्मपादकरद्वया । सम्यग्दर्शनसंपन्ना पद्मश्रीरस्य कामिनी ॥ २ ॥ तथोत्तरापथे देशे पोदनाख्ये पुरेऽभवत् । सिंहनादो नृपः श्रीमान् वैर्यनेकपकेसरी ॥ ३ ॥ अन्यदाऽयं महापद्मो महाबलविभूतिभिः । सिंहनादोपरि क्रोधात् पोदनाख्यं पुरं ययौ ॥ ४ ॥ ततो रोधं विधायाशु पोदनस्य पुरस्य सः " । स्वसैन्यसमुदायेन महापद्मः प्रतिष्ठति ॥ ५ ॥ सहस्रकूटमुत्तुङ्गं पोदनस्थं जिनालयम् । धृतं स्तम्भसहस्रेण दृष्ट्वा राजा " विसिष्ये ॥ ६ ॥ 1 फज वसुमित्रेण 2 फ मागच्छतः 3 फज मगृहे. 4 फ मखी, 5 फ मखी 6 फ मन्त्रयोषिताम्. 7 फ मखीं. 8 प षट्कलकमिदम् ज षट्कुलकमिदम् फ षटूकलकम्. 9 प चाय्यं 10 फ मखीकज्जलमेव च. 11 फ चतुष्कुलम् ज 'चतुष्कुलकम्, प चतुष्कुलकमिदम्. 12 प कृतमाय्यं 13 फ मखिः 14 प युग्मम्, फज युगलम् 15 ज अर्थहीनकथानकमिदम् फ अर्थहीनकथानकमिदमगमत्. 16 फच. 17फ प्रतिष्ठते 18 फ राज्ञा. बृ० को ० ६ 20 25 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [२५. ७ईदृशं सौधमुत्तुङ्ग हस्तिनागपुरे परम् । कारापयामि जैनेन्द्रं चित्रकूटविराजितम् ॥ ७॥ अथवा किं विकल्पेन बहुना विहितेन मे । लेखं संप्रेषयामास भार्यामत्रिगणस्य च ॥ ८॥ स्वस्ति श्रीपोदनस्थानान्महासामन्तसेवितः । श्रीपतिः श्रीमहापद्मो गुणरञ्जितभूतलः ॥९॥ श्रीहस्तिनपुरे रम्ये पद्मश्रीनिजमत्रिणः । आज्ञापयति सस्नेहं कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥ १०॥ 5 कार्यं च लिख्यते श्रेष्ठं सद्भिर्जिनगृहं प्रति । बहुस्तम्भसहस्राणां कर्तव्यः संग्रहो महान् ॥ ११॥ भूपलेखं समादाय लेखवाहस्त्वरान्वितः । हस्तिनागपुरं प्राप्य विवेश नृपमन्दिरम् ॥ १२॥ प्रवाच्य लेखको लेखमवधार्य तदर्थकम् । पद्मश्रीमत्रिसंघानामिति धीरं जगाद सः॥१३॥ स्तभानां छलकानां हि सहस्राणि बहून्यपि । स्वीकर्तव्यानि युष्माभिर्जिनालयनिमित्ततः ॥ १४ ॥ कायस्थस्य वचः श्रुत्वा महापद्ममहत्तरैः । छलकानां सहस्राणि गृहीतानि ह्यनेकशः ॥ १५ ॥ " अत्रान्तरे वशीकृत्य सिंहनादं महाबलम् । आजगाम तरां हृष्टो महापद्मो निजालयम् ॥ १६ ॥ सभामण्डपमासाद्य चोपविश्य यथाऽऽसनम् । महापद्मनृपः प्राह मत्रिणः पुरतः स्थितान् ॥१७॥ बहुस्तम्भसहस्राणि गृहीतानि न वा बुधाः । जिनायतनहेतुत्वात् मत्रिणो ब्रूत मे द्रुतम् ॥ १८ ॥ महापद्मस्य सद्वाक्यं निशम्योचुमेहत्तराः । देव स्तभसहस्राणि तिष्ठन्तीमान्यनेकशः ॥ १९॥ मत्रिवाक्यं समाकर्ण्य महापद्मो जगाद तान् । मया स्तम्भसहस्राणि समादिष्टानि न स्तभाः॥२०॥ 15 अवाचि भूपतिर्भूयो मत्रिभिर्दीनमानसैः । लेखको देव जानाति न वयं चात्र वस्तुनि ॥ २१॥ सचिवोक्तं समाकर्ण्य महापद्मोऽपि लेखकम् । जगाद क्रोधसंभारकम्पिताखिलविग्रहः ॥ २२॥ महापद्मगिरं श्रुत्वा लेखको निजगावमुम् । यादृशान्यक्षराण्यत्र लेखकोक्तानि तानि मे ॥ २३ ॥ लेखकोऽवाचि भूपेन देवानामपि वल्लभः । कूटलेखक दुर्बुद्धे लेखार्थं ब्रूहि मत्पुरः ॥ २४ ॥ बहुस्तम्भसहस्राणि विहायार्थममुं पुनः । बहुस्तभसहस्राणि लेखार्थं वक्ति लेखकः ॥ २५ ॥ 20 व्यञ्जनार्थं परित्यक्तं वदन् वाक्यं समान्तरे । निर्धाटितः खलीकृत्य महापद्मन लेखकः ॥ २६ ॥ ज्ञानं जिनोदितं पथ्यं संसारार्णवतारणम् । अज्ञानमलनिर्नाशि भव्यकर्णरसायनम् ॥ २७॥ पठन् साधुरिदं मूढो व्यञ्जनार्थविवर्जितम् । अज्ञानमलमासाद्य बंभ्रमीति भवार्णवम् ॥ २८ ॥ ॥ इति श्रीव्यञ्जनार्थहीनकथानकमिदम् ॥ २५ ॥ २६. व्यञ्जनार्थोभयशुद्धिकथानकम् । 25 ततः सौराष्ट्रदेशेऽस्ति नगरं गिरिपूर्वकम् । धर्मसेनो नृपस्तत्र धर्मसेनाऽस्य सुन्दरी ॥१॥ तत्पत्तनसमीपे च चन्द्रोपपदिका गुहा । संतिष्ठते गुरुस्तस्यां धरसेनो महामुनिः ॥२॥ आचाराङ्गस्य चैकस्य वेत्ता शिष्यसमन्वितः । व्याख्यानं तत्र कुर्वाणस्तिष्ठति स्म मुनीश्वरः॥३॥ हैरिद्रापश्चिमे यामे वृषभौ द्वौ सितप्रभौ । प्रदक्षिणं प्रकुर्वाणौ ददर्शायं यतीश्वरः ॥४॥ प्रभातसमये साधू देवपुष्पादिको बली । आजग्मतुः कृतस्तोत्रैर्जिनयोगीन्द्रपादयोः ॥५॥ 30 उपविश्य क्षणं स्थित्वा प्रोचतुस्तौ मुनीश्वरम् । नाथ ग्रहीतुमायातौ त्वत्तो विद्यां मनोद्भवाम् ॥६॥ श्रुत्वा तद्भारती योगी निजगाद तकौ मुनी । दास्यामि भवतोर्विद्यां सुसमाहितचेतसोः ॥७॥ • 1फ जिनालयम् . 2 फ omits and confuses some lines. 3 4 confuses some lines. 4 फ omits 28. 5 प हरिद्रा रात्रिपश्चिमे प्रहरे. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७. १४ नागदत्तमुनिकथानकम् ४३ अथैकस्मै ददौ विद्यां हीनवर्णां परीक्षितुम् । अधिकाक्षरसंयुक्तामन्यस्मै मुनिनायकः ८॥ द्वाभ्यां चतुर्थमादाय विद्याराधयितुं स्तौ । एकस्य काणिका देवी चान्यस्योद्दन्तुरागता ॥ ९ ॥ विलोक्य देवतां व्यग्रामेताभ्यां चिन्तितं तदा । काणिकोद्दन्तुरा देवी दृश्यते न कदाचन ॥ १० ॥ शोधयित्वा पुनर्विद्यां मन्त्रव्याकरणेन तु । ऊनाधिकाक्षरं दत्त्वा हित्वा ताभ्यां विचिन्तितम् ॥ ११ ॥ भूयोऽपि चिन्तिता विद्या ताभ्यां देवी समागता । सर्वलक्षणसंपूर्णा किंकर्तव्यसमाकुला ॥ १२ ॥ विसर्ज्य देवतां साधू सिद्धविद्यौ तपखिनौ । गुरोः समीपतां प्राप्य प्रोचतुस्तौ यथाक्रमम् ॥१३॥ भवद्भिर्दत्तविद्यायां दत्तमेकं मयाऽक्षरम् । तथा निरस्तमेकं च महाऽतीचारकारिणा ॥ १४ ॥ कृतातीचारपापस्य प्रायश्चित्तं त्वमावयोः । प्रदेहि सांप्रतं तेन स्वचेतःशुद्धिमिच्छतोः ॥ १५ ॥ निशम्य तद्वचो योगी महासत्त्वसमन्वितम् । उवाच तौ भृशं प्रीतौ विनीताकारधारिणौ ॥ १६ ॥ ऊनाधिकाक्षरे विद्ये परीक्षार्थं यथाक्रमम् । वितीर्णे ते भवद्भ्यां मे न वां दोषोऽल्पकोऽपि सः ॥१७॥ ७ एवं निगद्य हृष्टात्मा धरसेनो मुनीश्वरः । आचाराङ्गं ददौ ताभ्यां विनीताभ्यां ससंभ्रमम् ॥ १८ ॥ आदाय तौ तदा विद्यां समस्तामल्पकालतः । पूजितौ सुरलोकेन जग्मतुः स्वमनीषितम् ॥ १९ ॥ यथा तौ योगिनौ विद्यां व्यञ्जनार्थोभयात्मिकाम् | शोधयित्वा श्रुताचारौ जातौ सुरनरार्चितौ ॥२०॥ तथा साधुरपि ज्ञानं व्यञ्जनार्थोभयात्मकम् । शोधयित्वा पठन्नाशु याति निर्वाणतामसौ ॥ २१ ॥ ॥ इति श्रीव्यञ्जनार्थो भयशुद्धिकथानकमिदम् ॥ २६ ॥ * २७. नागदत्तमुनिकथानकम् । मगधाविषये सारे पुरं राजगृहं परम् । बभूवात्र प्रजापालो भूपतिः पालितप्रजः ॥ १ ॥ प्रियधर्माऽभवद्भार्या भूपतेरस्य रूपिणी । प्रियादिधर्ममित्रान्तौ पुत्रौ स्यातां तयोरिमौ ॥ २ ॥ अन्यदा धर्ममाकर्ण्य जैनौ तौ भ्रातरौ मुदा । दीक्षां दमवरस्यान्ते जैनीं जगृहतुः क्षमौ ॥ ३ ॥ उग्रं तपो विधायेमौ दक्षं कर्मविनाशने । आराध्याराधनां वीरौ जातौ देवौ महर्द्धिकौ ॥ ४ ॥ प्रियधर्मचरो देवः प्रियमित्रचरं सुरम् । ज्यायान् जगाद नाकस्थः कनिष्ठमिति तद्भवम् ॥ ५ ॥ द्वयोरेको यदि क्षिप्रं भुवं याति सुरालयात् । तदवस्थेन बोद्धव्यो भोगासक्तमतिः सकः ॥ ६ ॥ ज्यायसो वचनं श्रुत्वा स्नेहनिर्भरचेतसः । निजगावनुजस्तत्र तोषकण्टकिताङ्गकः ॥ ७ ॥ साधु संजल्पितं भ्रातः स्नेहसंबन्धमिच्छता । त्वया मया भवत्पक्षः प्रतिपन्नः स्फुटं प्रभो ॥ ८ ॥ अस्त्यवन्तीमहादेशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । नागवर्मा नृपस्तस्यां नागदत्ता च तत्प्रिया ॥ ९ ॥ प्रियमित्रचरो देवः स्वर्गादेत्यायुषः क्षयात् । पुत्रोऽनयोर्बभूवायं नागदत्ताख्यया पुनः ॥ १० ॥ ततोऽन्या नागदत्तस्य भगिनी रूपशालिनी । नागश्रीरिति विख्याता नागिनीव मनोहरी ॥ ११ ॥ विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी नगरी परा । जिनदत्तो नृपोऽस्यां स्याजिनदत्ताऽस्य वल्लभा ॥ १२ ॥ अनयो रूपसंपन्नो नन्दनो जिनपालितः । नागश्रीर्नागदत्तेन दत्ताऽस्मै स्नेहमिच्छता ॥ १३ ॥ प्रियधर्मचरो देवो दिव्यनारीमनः प्रियः । स्वर्गे संतिष्ठते योऽरं भुञ्जानः सुखसंपदम् ॥ १४ ॥ ३० 1 प चान्यस्य दन्तुरागता. 2 फ देवताव्यग्रां. 3 प त्रिकलमिदम्, फज त्रिकलम्. 4 फज खमनीक्षितम् 5फ भयात्मकम् ज भयात्मकाम्. 6 फज often omit इति, श्री and इदम्. 7फ पुरम्. 8 फomits some lines. 15 20 25 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [२७. १५अन्यदाऽवधिमासाद्य धर्महीनं मदोल्बणम् । सर्पक्रीडां प्रकुर्वाणं नागदत्तं ददर्श सः ॥१५॥ अथ सर्पद्वयं क्षिप्त्वा करण्डे भीषणाकृतिः । डुम्बरूपधरो देवस्तत्समान्तरमाविशत् ॥ १६ ॥ तत्सभान्तरमासाद्य पाणो वदति सत्सभाम् । आगत्य मत्समं कोऽपि नागक्रीडां करोत्वरम् ॥१७॥ श्रुत्वा तद्वचनं वीरो नागदत्तस्त्वरान्वितः। तत्सन्मुखं समागत्य जगादेमं कलध्वनिः ॥१८॥ । रेरे डुम्ब दुराचार मुञ्च सर्प मदन्तिकम् । येनाहं निर्विषं क्षिप्रं करोम्येनं विसंशयम् ॥ १९॥ श्रुत्वा तद्वचनं डुम्बः क्रुद्धस्तत्सन्मुखं तदा । मुमोच भीषणं सर्प कोपारुणनिरीक्षणम् ॥ २० ॥ दृष्ट्वा सन्मुखमायान्तं दन्दशूकं महाजवम् । गतिबन्धं चकारास्य नागदत्तो महामतिः ॥ २१ ॥ कुण्डलीकरणं शीघ्रं दृष्टिबन्धं मुखस्य च । घटप्रवेशनं चके नागदत्तोऽस्य भोगिनः ॥ २२ ॥ एकं सर्प वशीकृत्य नागदत्तो जगावमुम् । रेरे डुम्बाधुना मुञ्च द्वितीयमपि पन्नगम् ॥ २३ ॥ 10 नागदत्तवचः श्रुत्वा डुम्बोऽपि निजगौ तकम् । नाहं मुञ्चामि रक्ताक्षं पन्नगं कालनामकम् ॥२४॥ रङ्गे राजकुमारस्य प्रमादो यदि जायते । अमुतः सर्पतो भीमात् ततो दोषो न मे स्फुटम् ॥२५॥ पाणवाक्यं समाकर्ण्य नागदत्तोऽपि तं जगौ । अभयं वत्स ते मुञ्च दन्दशूकं भयानकम् ॥२६॥ डुम्बः कुमारवाक्येन स्फुरन्तं भीमविग्रहम् । भीमभोगं चलजिह्व मुमोच फणिनं रुषा ॥ २७॥ दृष्ट्वोरगं तमायान्तं यावद्गृह्णाति पाणिना । नागदत्तोऽमुना तावत्संदष्टः पन्नगेन सः ॥२८॥ 15 दष्टमात्रस्ततो भूमौ पपात विषवेगतः । नागदत्तोऽस्य सद्वन्धुर्जगामाकुलतां पराम् ॥ २९ ॥ दृष्ट्वा नागं कुमारं च विषविह्वलविग्रहम् । तद्बान्धवजनः सर्वो डुम्बान्तिकमुपाययौ ॥ ३० ॥ नागदत्तपिता पुत्रदुःखविह्वलमानसः। जगादेति विनीतात्मा पाणं हृष्टतनूरुहम् ॥ ३१॥ सुवर्णधनधान्यानि ग्रामपत्तनकुञ्जरान् । अश्वादिकं गृहाण त्वं पुत्रस्योजीवनं कुरु ॥३२॥ नृपवाक्यं समाकर्ण्य पाणोऽपि निजगाद तम् । निराकर्तुं न शक्नोमि नागस्यैतस्य दुन्दुभिम् ॥३३॥ 20 अथवा जीवनोपायो विद्यते त्वत्सुतस्य सः । यदि दीक्षां प्रगृह्णाति नान्यथा कथितं तव ॥ ३४ ॥ अनयाऽवस्थया दत्तो मत्रो मे गुरुभिर्नृप । जीवत्यनेन मन्त्रेण यो दीक्षां विदधाति सः ॥ ३५॥ पाणवाक्यं समाकर्ण्य तन्मातापितरौ तदा । ऊचतुस्तं महाशोकदुःखदुःखितचेतसौ ॥ ३६॥ अस्मत्सुताय शूराय जीवितं देहि शोभनम् । पश्चादयं प्रगृह्णातु तपो जैनमनुत्तरम् ॥ ३७॥ डुम्बो निशम्य तद्वाक्यं जगादेमं कलध्वनिः । करोमि जीवितं सूनोरनयाऽवस्थया द्रुतम् ॥ ३८॥ 25 ततस्तद्वाक्यतः शीघ्रं विह्वलीभूतमानसम् । डुम्बोऽपि निर्विषं चक्रे नागदत्तं स्वमत्रतः ॥ ३९ ॥ ततश्चेतनतां प्राप्य जयमङ्गलनिस्वनैः । नागदत्तः समुत्तस्थौ विषेण परिवर्जितः ॥ ४० ॥ वस्थीभूतशरीरस्य नागदत्तस्य तत्क्षणे । निजरूपं तदा देवो दर्शयामास शोभनम् ॥४१॥ नागदत्तोऽपि तं दृष्ट्वा जगाद कृतकौतुकः । कोऽसि त्वं शोभनाकारः कथयाशु मम स्फुटम् ॥४२॥ नागदत्तवचः श्रुत्वा जगादेमं सुरस्तदा । प्रियधर्मोऽस्म्यहं भद्र प्रियमित्रो भवानसि ॥४३॥ 30 जैनं तपः समादाय कालं कृत्वा समाधिना । जातौ महर्द्धिकौ देवौ सुरूपौ द्वावपि स्फुटम् ॥४४॥ त्वमवाचि मया नाके तत्त्वतः सरसं तदा । यदि कोऽपि द्वयोरेको विषयी मेदिनीमितः ॥४५॥ विषयासक्तचित्तस्य पृथिवीतलवासिनः। प्रबोधस्तस्य कर्तव्यो नाकस्थेन सुरेण तु ॥४६॥ अवधिज्ञानमासाद्य दृष्टोऽसि त्वं मया भुवि । सर्पक्रीडां प्रकुर्वाणो विषयासक्तमानसः ॥४७॥ 1प सर्पक्षयं. 2 प रङ्गे-गारुडवादे. 3 फ तं 4 प तमायातं. 5 4 दृष्टमात्र. 6 फ धान्यादि 7 फज दुन्दुमिः, प दुन्दुभिं-विषम्. 8 फ प्रगृह्णाति. 9 4 repeats 43-44 as 45-46 again. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. ७७ ] नागदत्तमुनि कथानकम् ४५ सोsहं त्वद्बोधाधातुं स्नेहनिर्भरमानसः । डोम्बवेषं समादाय संप्राप्तो भवदन्तिकम् ॥ ४८ ॥ श्रुत्वा देववचः सत्यं नागदत्तो मुमूर्च्छ सः । चेतनां प्राप्यं भूयोऽपि जगादेमं कृतानतिः ॥ ४९ ॥ यज्जल्पितं त्वया साधो नीतं निर्वहणं हितम् । अनेनागमनेनेश भ्रातृस्नेहो नवीकृतः ॥ ५० ॥ जीवितं च चलं लोके शरीरं रोगमन्दिरम् । कदलीगर्भनिःसारं यौवनं च शरीरिणाम् ॥ ५१ ॥ भोगिभोगसमा भोगाश्चञ्चलाः संपदः खलाः । स्नेहोऽपि बन्धुभिः सार्धं श्रतः स्वप्नेन्द्रचापवत् ॥५२॥ : इति संचिन्त्य बुद्धात्मा हित्वा सर्वं परिग्रहम् । अन्ते संयमसेनस्य नागदत्तोऽग्रहीत् तपः ॥५३॥ कृतकृत्यत्वमासाद्य नागदत्तं तपःक्रियाम् । कारयित्वाऽमरः शीघ्रं जगाम दिवमुद्धजाम् ॥ ५४ ॥ नागदत्तस्य वृत्तान्तं श्रुत्वा देवनिवेदितम् । नागवर्मा जनः सर्वो विस्मयं परमं ययौ ॥ ५५ ॥ विद्युत्तोय तुषाराढ्यघनगर्जितकारिणि । घनागमे घनध्वान्ते तस्थौ तरुतले मुनिः ॥ ५६ ॥ मार्तण्डकरसंतप्ते शिलोच्चयशिलातले । धराधरस्थिरो योगी तस्थौ प्रतिमया सुधीः ॥ ५७ ॥ तुषारकणसंदग्धसमस्तनलिनीवने । शीतकाले सुखं तस्थौ नगरादेर्बहिर्मुनिः ॥ ५८ ॥ षष्ठाष्टमादियोगेन नानावग्रहकारणैः । यथाऽस्तमनशायी स चकार शिथिलं वपुः ॥ ५९ ॥ नानातपः प्रकुर्वाणः पूर्वदेशं प्रगत्य सः । तत्र तीर्थाणि सर्वाणि ववन्दे भक्तितत्परः ॥ ६० ॥ पूर्वदेशात् समागच्छन् विन्ध्ये प्रत्यन्तवासिना । शूरदत्तेन संदृष्टो नागदत्तो यतिस्तदा ॥ ६१ ॥ विन्ध्यमध्यस्थितं साधुं दृष्ट्वाऽमुं म्लेच्छराशयः । शूरदत्तं जगुः सर्वे स्वनादापूरिताम्बराः ॥ ६२ ॥ is नागदत्तसुता यावन्नागश्री रूपराजिता । साऽधुना प्रस्थिता गन्तुं कौशाम्बीं नगरीं प्रति ॥ ६३ ॥ कथयिष्यति नो" वार्तां राजपुत्रीजनस्य वै । अतो निरुध्यते तावन्मुनिरत्रैव नायक ॥ ६४ ॥" म्लेच्छवाक्यं समाकर्ण्य शूरदत्तो जगावमून् । " गुञ्जाफलसमानाक्षान् कज्जलालिसमप्रभान् ॥ ६५ ॥ शत्रुमित्रसमासंगः ”सुखदुःखसमानकः । यातु नो ध्रियते साधुर्न किंचिद्वदति ध्रुवम् ॥ ६६ ॥ मुक्तो" मुनिर्गतः सोऽपि शूरदत्तमतेन तैः । दृष्टो व्रजन् वनस्यान्ते नागदत्ताजनत्रजैः ॥ ६७ ॥" 20 नागदत्तमुनिं वीक्ष्य नागदत्ता जगावमुम् । न कोऽपि तस्करो दृष्टो भवता ब्रूहि मे मुने ॥ ६८ ॥ ममेदभावसंत्यक्तो मातृस्वसकदर्शनम् । अनालोच्य ययौ क्वापि जिनकल्पी विशुद्धधीः ॥ ६९ ॥ स्तोकान्तरमसौ सार्थो यावद्वजति तद्वने । तावदागत्य वेगेन गृहीतः सधनोऽपि तैः ॥ ७० ॥ नागदत्तां सुतायुक्तां सुवर्णरजतादिकम् । आदाय तस्कराः क्षिप्रं ययुर्निजगृहं पुनः ॥ ७१ ॥ आस्थानमण्डपस्थस्य शूरदत्तस्य तस्कराः । नागदत्तादिकं कोशं निदधुः पुरतोऽस्य ते ॥ ७२ ॥ 25 विलोक्य शूरदत्तोऽपि तत्सर्वं पुरतः स्थितम् । जगाद तस्करान् सर्वान् हसन्निति सविस्मयः ॥७३॥ त्रियते मुनिरत्रैव युष्माभिर्गदितं वचः । कथयिष्यत्ययं वार्तामस्मदीयां जनस्य सः ॥ ७४ ॥ वचनं प्रोक्तमस्माभिस्तदानीं भवतां पुरः । मुनिर्व्रजतु नो किंचित्ख्याति लोकस्य निःस्पृहः ॥७५॥ अस्मदीयकथाऽनेन न" ख्याता साधुना सता । अस्य सार्थसमूहस्य बन्धनत्वमुपेयुषः ॥ ७६ ॥" शूरदत्तवचः श्रुत्वा नागदत्ताऽपि तं जगौ । कोपसंभ्रान्तरक्ताक्षी दष्टदन्तच्छदा तदा ॥ ७७ ॥ " 1 प षट्कलकमिदम्, फज षट्कलम्. 2 फज भ्रातृस्नेहनवी 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 प दिवमुद्धजम्. 5प अवग्रहः = प्रतिमा. 6 ज यथास्तुमनशायी, फ यथास्तुमनसायास 7 प पूर्वदेशं 8फ संतुष्टो. 9 फज नागदत्ता सुता. 10 फज मा. 11 फज त्रिकलकम्, प त्रिकलमिदम्. 12 प गुआदल 13 फज संगसुख" . 14 फ मुक्तेर्मुनि, ज मुक्तमुनिं 15 प युग्मम्, फज युगलम् 16 फ विख्याता, 17 प चतुः कुलकमिदम् फ चतुष्कुलकम् ज चतुष्कम्. 10 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७. ७८ ४६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे यस्त्वया वर्णितो नग्नः श्रमणः क्रूरमानसः । नृशंसो निर्दयोऽशान्तो निर्लजः पिशुनः खलः ॥७८॥ क्रियासमभिहारेण निःस्पृहं स्वतनावपि । विनिन्द्यानन्दितं चित्ते शूरदत्तं जगाद सा ॥ ७९ ॥ शूरदत्तोषितः सोऽयं मदीये जठरे वरे' । क्षुरिकां देहि मे वत्स पाटयाम्यधुनोदरम् ॥ ८० ॥ नागदत्तोदितं श्रुत्वा प्रणम्य निजगौ तकाम् । या त्वं तस्य मुनेर्माता ममापि त्यज कोपनम् ॥८१॥ - एवमुक्त्वा तकां शीघ्रं मणिरत्नधनादिभिः । नागदत्तामसौ निन्ये कौशाम्बीं सुतया समम् ॥ ८२ ॥ शूरदत्त नरेन्द्रोऽपि नागदत्तमुनीश्वरम् । संप्राप्य भक्तिसंपन्नो ननाम कलनिस्वनः ॥ ८३ ॥ पुनः पुनः प्रणम्येमं सामन्तैर्बहुभिः समम् । शूरदत्तोऽपि जग्राह दीक्षां दैगम्बरीमसौ ॥ ८४ ॥ मातरं भगिनीं दृष्ट्वा पीड्यमानां मलिम्लुचैः । नागदत्तमुनिर्मोहं न जगाम यथाऽनघः ॥ ८५ ॥ पीड्यमानः कृतान्ताभैः परीषहमहाभटैः । क्षपकोऽपि तथा जातु मोहं याति न शुद्धधीः ॥ ८६ ॥ ॥ इति श्रीनागदत्तमुनिकथानकमिदम् || २७ ।। 10 २८. । पूर्वमालव के देशे तिलकाराष्ट्रनामनि । एकरथ्यं पुरं तत्र बभूव जनसंकुलम् ॥ १ ॥ तत्राभवत् प्रतापाढ्यः शूरसेनो नराधिपः । तद्भार्या शूरसेना च कन्दोट्टदललोचना ॥ बभूव शूरदत्तोऽत्र श्रेष्ठी धनसमन्वितः । शूरदत्ता प्रिया चास्य रमणी गुणभूषिता ॥ ३ ॥ 1s शूरादिमित्रचन्द्रान्तौ नन्दिताखिलबान्धवौ । अभूतां नन्दनौ कान्तौ सुता मित्रवती तयोः ॥ ४ ॥ अथ कालं गतः श्रेष्ठी द्रव्यं च क्षयमागतम् । दरिद्रतां परिप्राप्ताः शूरमित्रादयः स्फुटम् ॥ ५ ॥ शूरमित्रः समं तेन शूरचन्द्रेण दुःखितः । प्रययौ सिंहलद्वीपं तदानीं धनतृष्णया ॥ ६ ॥ तत्र द्वादशभिर्वर्षैरनयों मणिनायकः । लब्धस्ताभ्यां प्रभादीप्तो रविर्वा तेजसा स्फुरन् ॥ ७ ॥ ततो रत्नं समादाय शूरमित्रोऽनुजेन सः । पथि प्रवर्तयामास तोषपूरितमानसः ॥ ८ ॥ 2 करे मणि समादाय तस्थौ ज्यायान् वनान्तरे । शूरचन्द्रो गतो भिक्षामादातुं ग्राममन्तिकम् ॥९॥ शूरमित्रस्ततो दध्यौ करस्थितमणिस्तदा । अनुजं हन्मि येनेदं रत्नं भवति मेऽनघम् ॥ १० ॥ प्रतिक्षणविवर्त्याः स्युः परिणामा हि देहिनाम् । ततो निनिन्द स ज्यायानात्मानं सुचिरं तदा ॥ ११ ॥ हासुन्दरं कथं ध्यातं मया संसारवर्धनम् । सहोदरं न हन्तुं मे पितृकल्पस्य युज्यते ॥ १२ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य शूरचन्द्रः समागतः । भिक्षामादाय संक्षेपात् भुक्त्वा तौ जग्मतुस्ततः ॥१३॥ अन्येद्युः शूर मित्रोऽपि भिक्षार्थं नगरं गतः । मणिमादाय हस्तेन शूरचन्द्रो वने स्थितः ॥ १४ ॥ मणिहस्तः पुनर्दध्यौ शूरचन्द्रोऽपि तत्क्षणम् । ज्येष्ठं निहन्मि येनेदं मम रत्नं प्रजायते ॥ १५ ॥ हा हा विरूपकं ध्यातं मया दुःखनिमित्तकम् । ज्येष्ठस्य पितृतुल्यस्य हिंसने विहिता मतिः ॥१६॥ यावदेवंविधं वाक्यं ध्यायति स्मानुजोऽत्र सः । तावज्येष्ठः समायातो भिक्षामादाय शोभनाम् ॥१७॥ भुक्त्वा तौ भोजनं तत्र स्वस्वभावसमन्वितौ । क्रमेण निम्नगां प्राप्तौ स्वपत्तनसमीपगाम् ॥ १८ ॥ 30 प्रपाय शीतलं तोयं स्थित्वा वेत्रवतीतटे । शूरमित्रोऽनुजं प्राह शूरचन्द्रं पुरः स्थितम् ॥ १९ ॥ अलमेतेन दिव्येन रत्नेन मम सांप्रतम् । शुरचन्द्र गृहाणेदं मूल्येन परिवर्जितम् ॥ २० ॥ शूरमित्रवचः श्रुत्वा बभाणेमं कृतानतिः । शूरचन्द्रः कृतध्वानः कौतुकव्याप्तमानसः ॥ २१ ॥ समानमावयो रत्नं कुतो मे यच्छसि प्रभो । सत्येन श्रावितः क्षिप्रं यथावृत्तं निवेदय ॥ २२ ॥ 1 फज घरे. 2 फज त्रिकलम् प त्रिकलमिदम्. 3 फज तलिका . 4 फ 'निवर्त्याः 5 प प्रयायते. 1 1 25 * शूरमित्रशूरचन्द्रादिकथानकम् Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२८. ५२ ] शूरमित्रशूरचन्द्रादिकथानकम् आकर्ण्य शूरचन्द्रस्य वचनं कृतकौतुकम् । जगाद शूरमित्रस्तं स्नेहनिर्भरमानसः ॥ २३॥ यावच्च मत्करे रत्नं तिष्ठतीदं मुहुर्मुहुः । तावत्प्रभृति मञ्चित्तं वर्तते त्वन्निपातने ॥ २४ ॥ अनेन कारणेनेदं गृहाण रुचिभासुरम् । अलं तेन सुवर्णेन यत्कुर्यात् कर्णकर्तनम् ॥ २५ ॥ अग्रजस्य वचः श्रुत्वा शूरचन्द्रो जगाद तम् । ममापि चेदृशो भावो रत्ने करगतेऽभवत् ॥ २६ ॥ श्रुत्वाऽन्योन्यसमालापं खनिपातनकारणम् । अशोभनमिदं ताभ्यां निक्षिप्तं तत्सरिजले ॥ २७॥ । ततस्तौ भ्रातरौ शान्तौ स्नेहनिर्भरमानसौ । शोभनाचारसंपन्नौ जग्मतुर्निजमन्दिरम् ॥ २८॥ पतितं तन्नदीमध्ये मत्स्येन गिलितं तदा । जालेनाथ समाकृष्टो धीवरेण स मीनकः ॥ २९॥ ततस्तेन समुद्धृत्य विक्रेतुं विशिखान्तरे । नीतोऽवतिष्ठते तत्र संयुक्तो रोहिताख्यया ॥३०॥ माता पुत्रौ विलोक्येतौ तदानीं गृहमागतौ । तोषपूरितचेतस्का बभूव सुतया समम् ॥ ३१॥ तदाऽऽगतक्रियां कृत्वा पादप्रक्षालनादिकम् । माताऽऽपणं जगामाशु ग्रहीतुं मत्स्यमादरात् ॥३२॥ 10 आदाय रोहितं मीनं वर्मल्येन तदम्बिका । आजगाम पुनर्गेहं तत्प्राघूर्णकविह्वला ॥ ३३॥ यावच्छिनत्ति तं मीनं तन्माता स्नेहतत्परा । तावत्पपात तन्मध्यान्मणिर्मूल्यविवर्जितः ॥ ३४॥ मणिमादाय हस्तेन तोषपूरितमानसा । दध्यौ तदा च तन्माता चेतसीदं मिथो भृशम् ॥३५॥ दारको द्वावपि क्षिप्रं सुतां मत्रीतिकारिणीम् । निहन्मि येन तिष्ठामि स्वगृहे प्रीतमानसा ॥३६॥ ममेदं युज्यते नैव पुत्रपुत्रीविनाशनम् । विधातुं हीनसत्त्वानामपि दुःखावहं भवेत् ॥ ३७॥ पश्चात्तापमिमं कृत्वा सुतायै रत्नमुत्तमम् । ददौ तन्मातृका शीघ्रं सुतसद्भावकारिणी ॥ ३८॥ सुता रत्नं समादाय दध्यौ मनसि मूढधीः । मातरं भ्रातरौ नूनं विषं दत्त्वा निहन्म्यहम् ॥३९॥ हा हा कथं मया ध्यातं महापापनिमित्तकम् । संसारकारणं तद्धि महादुःखविधायकम् ॥ ४० ॥ चिन्तयित्वा चिरं दीनं रत्नं भ्रात्रोः समर्पितम् । शुभसंकल्पमासाद्य तया बुद्धिसमेतया ॥४१॥ दृष्ट्वा रत्नमिदं तौ च भ्रातरौ स्नेहतत्परौ । विज्ञाय भवतस्त्रस्तौ वैराग्यं परमं गतौ ॥ ४२ ॥ 20 शर्वरीप्रथमे यामे शूरदत्ता जगौ सुतम् । पुत्र द्वादशभिर्वः किमानीतं त्वया वद ॥४३॥ जननीवाक्यमाकर्ण्य शूरदत्तो जगाद ताम् । आवाभ्यां रत्नमुत्कृष्टं लब्धं दीधितिभासुरम् ॥४४॥ मद्धस्तसंगतं रत्नं कनिष्ठं हन्मि मे मतिः। यदाऽस्य हस्तसंप्राप्तं ज्येष्ठं हन्मीति भूरिशः" ॥४५॥" एवं संचिन्तयन्तौ द्वौ संप्राप्तौ सरयूनदीम् । तत्तटेऽन्योन्यमालोच्य स्वस्वभावनिरूपताम् ॥४६॥ असुन्दरमिदं रत्नमावाभ्यां सरयूहदे । निक्षिप्तं तद्विरक्ताभ्यां प्राप्ताभ्यां भवदन्तिकम् ॥४७॥" 25 पुत्रवाक्यं समाकर्ण्य शूरदत्ता जगावमुम् । गताऽहं हट्टमालोक्य भवन्तौ गृहमागतौ ॥ ४८॥ तत्र मत्स्यं समादाय मूल्येन गृहमाप्य च । मीनस्य खण्डनं यावद्विदधामि महानसौ ॥४९॥ तावन्महामणिं दृष्ट्वा तत्रत्यं परिगृह्य तम् । पुत्र तोषं परिप्राप्ता महामणिसमागमात् ॥ ५० ॥ हस्तप्राप्ते मणौ भावः संजातो मम बालका" । भवन्तौ हन्मि पुत्रीं च वल्लभामपि बालिकाम् ॥५१ भूयो विरक्तिमासाद्य बहुमूल्यमणेरपि । वितीर्णोऽयं मया पुत्र सुतायै स्नेहकारणात् ॥ ५२ ॥ ० 1फज त्रिकलम् , पत्रिकलमिदम्. 2 प गलितं. 3 फज समीनकं. 4 फज वितिष्ठते. 5 फज वर्मलेन, प (मौल्येन). 6 फज तदन्तिका. 7 फ चेतसीदं मथो, [चेतसीदमथो ]. 8 प पुत्रं पुत्री 9 महापात. 10 प दीपित. 11 फज भूरि सः 12 has lost a line here. 13 फज एवं चिन्तयितावावां प्राप्ता सरसयूनदीम्. 14 फज निरूप्यतां. 15 प चतुष्कलकमिदम् , फ चतु:कलम् , ज चतुष्कलम्, 16 फज बालकः. 17 फ विरक्त. 18 प चतुष्कलकमिदम् , फ चतुष्कलकम् , ज चतुष्कलम्. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ हरिषेणाचार्यकृते धृहत्कथाकोशे [२८. ५३सुताऽपि जननीवाक्यं निशम्य स्नेहतत्परा । जगाद मातरं साऽपि पुत्रद्वयसमन्विताम् ॥ ५३॥ यतः प्रभृति मे रत्नं त्वया दत्तं मनोहरम् । ततः प्रभृति भावोऽयं मे मातर्जायतेऽधरः ॥ ५४॥ मातरं वल्लभां हन्मि भ्रातरावपि निश्चितम् । अशोभनः पुनर्दत्तो भ्रातृभ्यां हि मया' मणिः ॥५५॥ मातृस्वसृवचः श्रुत्वा महावैराग्यकारणम् । भ्रातरौ भोगनिर्विण्णौ चक्रतुर्दीक्षणे मतिम् ॥ ५६ ॥ 5 रत्नमादाय ते सर्वे महावैराग्यसंगताः । दत्त्वा मणिं जिनायाशु नन्दनान्ते प्रवव्रजुः ॥ ५७॥ अन्योन्यं कोपमावेद्य प्रशमं प्राप्य ते यथा । शूरदत्तादयः सर्वे दैवीं गतिमुपाययुः ॥ ५८॥ साधवोऽपि तथा लोके सर्वस्खहितमिच्छवः । क्रोधादिकं विनिर्जित्य दिवं मोक्षं च यान्ति ते ॥५९॥ ॥ इति श्रीशरमित्रशूरचन्द्रादिपरस्परकोपाजनन विधाननिराकरणकथानकम् ॥ २८॥ २९. वासुदेवकथानकम् । सुराष्ट्रकप्रदेशेऽस्ति पुरी द्वारावती परा । अस्यां बभूव भूपालो वासुदेवो महाबलः ॥१॥ सत्यभामादिसद्भार्या बभूवुस्तस्य शोभनाः । रूपातिशयतो यासां न शच्यपि समा भवेत् ॥२॥ अन्यदाऽसौ महीपालो जिनायतनमुद्धजम् । नारायणो जगामेदं मुनिसंघसमाकुलम् ॥३॥ कृत्वा जिनमुनिस्तोत्रं हरिः स्थित्वा यथाऽऽसनम् । विलोक्य दुर्बलं साधु जीवंधरमवैक्षत ॥४॥ 15 ज्ञात्वा विष्णुमतं वैद्यः समुत्थाय जिनालयात् । राज्ञा समं निजं सौधं जगामौषधवाञ्छया ॥५॥ प्राणदान् वटकान् कृत्वा श्रावकाणां गृहे गृहे । स्थापयामास वैद्योऽपि वासुदेवमतेन सः ॥६॥ प्रथमं वटकं दत्त्वा योगिने स्थानमीयुषे । तद्भक्षणे कृते पश्चात्तकाञ्जलिचतुष्टयम् ॥७॥ श्रावकाणां जनस्यैवं समस्तस्य च तत्पुरे । जीवंधरो ददौ शिष्यां तदा विष्णुपुरस्सरम् ॥ ८॥ यत्रैव च गृहे योगी मुनिस्तिष्ठति सर्वदा । तत्रैवास्मै जनः सर्वो वटकं मथितं ददौ ॥९॥ 20 भोजनं भोक्तुकामस्य मुनेः श्रावकवेश्मनि । पुनर्नवमिदं जातं शरीरं रोगवर्जितम् ॥ १० ॥ अन्यदा वासुदेवोऽयं सरणं समवादिकम् । ययौ नेमिजिनेन्द्रस्य समं वैद्येन भक्तितः ॥११॥ नेमिनाथनुतिं कृत्वा सकलांश्च दिगम्बरान् । वन्दित्वाऽयं सुखं तस्थौ वासुदेवः सवैद्यकः ॥१२॥ प्राक्तनं योगिनं दृष्ट्वा स्वस्थीभूतशरीरकम् । देहस्य कुशलं विष्णुः पप्रच्छेमं सकौतुकः ॥ १३ ॥ विष्णुवाक्यं समाकर्ण्य स योगी निजगावमुम् । सारता का शरीरस्य राजन् धर्मच्युतस्य भोः॥१४॥ 25 मुनेर्वचनमाकर्ण्य दध्यौ जीवंधरस्तदा । अनेन मुनिना विष्णोः पुरतो जल्पितं कथम् ॥१५॥ साधुर्वदति यद्येवं नारायणपुरस्सरम् । कायस्त्वदीयवैद्येन शोभनो विहितो मम ॥ १६॥ ग्रामहस्तितुरङ्गौघं धनधान्यादिकाञ्चनम् । अदास्यन्मे ततो राजा पारितोषिकपूर्वकम् ॥१७॥ एवं चिन्तयतस्तस्य चार्तध्यानमुपेयुषः । जीवितं वापि संनष्टं तद्वैद्यस्य भयादिव ॥ १८ ॥ रेखामध्यगते तुङ्गे नानातरुविराजिते । पर्वते भीषणे वैद्यो यूथनाथोऽभवद्धरिः ॥ १९ ॥ ३० ततोऽसौ विहरन् क्वापि साधुस्तं प्राप्य पर्वतम् । तस्थौ घनागमे तत्र तिन्तिणीकतरोरधः ॥२०॥ 1ज महा° 2 फज त्रिकलम्, पत्रिकलमिदम्. 3 फ देवगति', ज दैवगति. 4 फज जगादेमं. 5 प गुटिकान्. 6 फज lose some lines here. 7 प स्नानमीयुषे. 8 फज शिष्यं, [ शिक्षा ]. 9पचतुष्कलकमिदम्, फज चतुष्कलमू. 10 फज सन्निष्ट. 11फ भवेद्धरिः, 12प हरिः मर्केटः. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ -२९. ५०] श्रीवासुदेवकथानकम् चण्डवातजलाघातपातितेनोपरिष्टतः । स मुनिभिन्नपर्यङ्कस्तच्छाखाग्रेण तिष्ठते ॥ २१॥ उपसर्गोऽयमीदृक्षो यदि क्षेमेण यास्यति । ततो मम प्रवृत्तिः स्यादाहारादेन चान्यथा ॥ २२॥ तावदस्थं विलोक्यमं मुनि मर्कटनायकः । परिदध्यौ हृदि स्पष्टं तन्मुखाम्भोजवीक्षणः ॥ २३ ॥ यो निजेऽपि शरीरेऽस्ति निर्ममत्वो महामुनिः । स ममत्वं कथं कुर्यादन्यस्यापधने परम् ॥ २४॥ पर्यन्तस्थितशाखाग्रं बद्धा वल्लीकदम्बकैः । औपरिष्टकशाखां च नम्रीकृत्यात्र मर्कटः ॥ २५॥ । सहैवोत्पतनं कृत्वा मर्कटानां कदम्बकम् । गतमन्यत्र शाखायां सा शाखा निर्गताऽमुतः ॥२६॥ ततोऽवतीर्य तद्वृक्षान्मर्कटो मर्कटैः समम् । प्रणम्यौषधियोगेन रोहणं कृतवानसौ ॥ २७ ॥ ततः पुरः स्थितं दृष्ट्वा मर्कटं मुनिसत्तमः । कृपावधूपरिष्वक्तहृदयो निजगावमुम् ॥ २८॥ तैरश्ची गतिमापन्नो वैद्यो जीवंधरः स्फुटम् । आर्तध्यानान्मृति प्राप्य मत्समं हरिणोदिते ॥ २९॥ दिनानि सप्त जानीहि कपीन्द्र तव जीवितम् । ततो मद्वचनाच्छीघ्रं कुरुष्व हितमात्मनः ॥ ३०॥ ॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य संसारत्रस्तमानसः । जगाद तं हरिः क्षिप्रं देहि मेऽनशनं विभो ॥ ३१ ॥ शिलातलोपविष्टाय मर्कटाय महात्मने । ददावनशनं योगी धर्मविन्यस्तचेतसे ॥ ३२ ॥ कोपं क्षमाबलेनार्य मानं मार्दवयोगतः । मायामृजुत्वयोगेन लोभं शौचबलेन च ॥३३॥ चतुर्गतिकसंसारवासवासितदेहिनाम् । दुर्गतेर्हेतुकानेतान् कषायांश्चतुरो जय ॥ ३४॥ आराधनां समाराध्य विधिनाऽपि चतुर्विधाम् । कृत्वा कालं हरिः क्षिप्रं सप्तमे दिवसेऽनघः ॥३५॥ 15 अणिमादिगुणोपेतः सुरनारीमनःप्रियः । बभूव प्रथमे नाके दिव्यरूपधरोऽमरः ॥ ३६॥ किं दत्तं किं मया भुक्तं किं तपोऽनुष्ठितं पुरा । येनाहं कृतपुण्यः सन् उत्पन्नो नाकजे गृहे ॥३७॥ अवधिज्ञानमासाद्य स्वभवं मर्कटोद्भवम् । विवेदेमं सुरशुद्धं तन्मुनेरुपदेशतः ॥ ३८॥ ज्ञात्वा नाकसमुत्पत्तिमात्मनो मर्कटामरः । तद्वन्दनाय हृष्टात्मा प्रस्थानमकरोदसौ ॥ ३९ ॥ रथैः कनकनिर्माणैरश्वैः पवनयायिभिः । हस्तिभिर्मदधाराभिः सिक्तगण्डस्थलैः परैः ॥ ४०॥ 20 हारराजितवक्षोभिः पिन्नद्धकरकङ्कणैः । अधिरूढैः सुरैः सार्धं व्याप्ताशेषनभस्तलम् ॥४१॥ वृक्षमूलस्थितं साधू भक्तिहृष्टतनूरुहः । सुरैः समं कृतानन्दैरनंसीन्मर्कटामरः ॥ ४२ ॥ महारजतनिर्माणैः कमलैरस्य योगिनः । अर्चयित्वा स्वयं पादाववादीत् प्लवगामरः ॥४३॥ तिर्यग्जातिसमुत्पन्नो मर्कटोऽहं पुरा भवे । अधुना त्वत्प्रणीतेन संन्यासेन सुरोऽभवम् ॥ ४४ ॥ श्रुत्वाऽमरवचः साधुर्जगादेनं विशुद्धधीः । यदीच्छसि हितं स्वस्मै मानोन्मानं करिष्यसि ॥४५॥ 25 श्रुत्वा मौनीश्वरं वाक्यं भूयोभूयः प्रणम्य तम् । नतेन शिरसा देवो ययौ निजकलेवरम् ॥४६॥ गोशीर्षचन्दनैः श्रेष्ठैः कुङ्कुमागरुभिस्तदा । कृत्वा पूजां खकायस्य ययौ देवो निजां दिवम् ॥४७॥ कृताऽमरेश्वरेणेयं पूजा साधुशरीरके । तेनामरेश्वरं तीर्थं बभूव भुवि विश्रुतम् ॥४८॥ यथाऽत्र वासुदेवेन वैयावृत्येन योगिनः । बद्धं तीर्थंकरस्येदं गोत्रं भुवनशेखरम् ॥ ४९ ॥ तथाऽन्योऽपि प्रकुर्वाणो वैयावृत्यं चतुर्विधे । संघे नरो हि बध्नाति तीर्थकृद्ोत्रमुत्तमम् ॥ ५० ॥ ३॥ ॥ इति श्रीवासुदेववैयावृत्यतीर्थकरगोत्रबन्धन ___ कथानकमिदं संपूर्णम् ॥ २९॥ 1पफज चतुष्कलम्. 2 पफज त्रिकलम्. 3 पफज युगलम्. 4 पफज युग्मम्. 5[सुरः]. 6 [पिनद्ध ]. 7 पफज त्रिकलम्. 8 फ कडेवरं, प कलेवर-मृतकशरीरम्. 9फ omits 50. बृ० को० ७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ३०. मृतकसंसर्गनष्टमालाकथानकम् । ११ ॥ १२ ॥ ॥ अथोत्तरापथे देशे बलदेवपुरस्य च । प्रतापनिहिताराती राजाऽऽसीद् बलवर्धनः ॥ १ ॥ रूपराजितसर्वाङ्गी नीलोत्पलदलाम्बका । बभूवास्य नरेन्द्रस्य रमणी कुलवर्धनी ॥ २ ॥ तस्मिन्नेव पुरे चासीदृक्क श्रेष्ठी महाधनः । धनदत्तोऽस्य सद्भार्या धनदत्ता प्रकीर्तिता ॥ ३ ॥ रूपयौवनसंयुक्ता मुखनिर्जितचन्द्रिका । कनत्कनकसद्वर्णा धनदेवी सुताऽनयोः ॥ ४ ॥ अत्रैव नगरे श्रीमान् टक्कश्रेष्ठी प्रियंवदः । पूर्णभद्रोऽभवच्चास्य' पूर्णचन्द्रा प्रिया वरा ॥ ५ ॥ तयोः परस्परप्रेमासक्तमानसयोः सुतः । पूर्णचन्द्रोऽभवद् भव्यः पूर्णचन्द्रसमाननः ॥ ६ ॥ ययाचे पूर्णभद्रस्तं धनदत्तं मनोहरीम् । सुताय पूर्णचन्द्राय धनदेवीं कलावतीम् ॥ ७ ॥ पूर्णभद्रवचः श्रुत्वा धनदत्तो वभाण तम् । यच्छामि कुटिकां तेऽहं यदि देहि धनं बहु ॥ ८ ॥ 10 निशम्य धनदत्तोक्तं पूर्णभद्रो जगावमुम् । कुटिकां देहि मे शीघ्रं गृहाण त्वं धनं बहु ॥ ९ ॥ ततो दत्त्वा धनं तस्मै परिणीताऽमुना सका । धनदेवी कलखाना धनदेवीव रूपिणी ॥ १० ॥ यस्मिन्नेव दिने वोढा धनदेवी निशि द्रुतम् । तस्मिन्नेव दिने बाला मृता कन्दोट्टलोचना ॥ ततो मृतां सुतां दृष्ट्वा शोकविह्वलमानसः । धनदत्तस्तदा दध्यौ किंकर्तव्यविमूढधीः ॥ धनेनानेन मे किंचिन्नितान्तं न प्रयोजनम् । अहं शोभां करोम्यस्या धनदेव्याः प्रभावतीम् ॥१३॥ 15 धनेनानेन सर्वेण पुष्पमालां मनोहराम् । गृहीत्वा धनदत्तोऽपि सुतोपरि ददौ तदा ॥ अथ श्रुत्वा तदा श्रेष्ठी खुषां पञ्चत्वमागताम् । पूर्णभद्रो धनाकाङ्क्षी धनदत्तान्तिकं ययौ धनदत्तं परिप्राप्य पूर्णभद्रोऽपि तं जगौ । धनदेवी मृता देहि मदीयं सकलं धनम् ॥ पूर्णभद्रगिरं श्रुत्वा धनदत्तो वभाण तम् । पुष्पमाला समादत्ता त्वदीयेन धनेन मे ॥ किंच पञ्चत्वमापन्ना त्वदभाग्येन मत्सुता । यत्सुता च स्थितं भाण्डं नश्येद्धानिं सहेत सः ॥ १८ ॥ 20 लौकिकानामयं न्यायस्तमुल्लङ्घयतस्तव । महाजन कृतो दण्डो भवेद्दण्डस्य किं विभोः ॥ १९ ॥ मृतपुत्रीपरिप्राप्तां नानापुष्पसमन्विताम् । पुष्पमालां गृहाणेमां तारापालीमिवोज्वलाम् ॥ २० ॥ निशम्य भारतीमस्य पूर्णभद्रो जगावमुम् । देहि मे सकलं द्रव्यं मालया न प्रयोजनम् ॥ एवं कलकलालापे प्रवृत्ते परुषे तयोः । विशिष्टौघः समायातः समाहूतस्तदन्तिकम् ॥ कोऽपि वृद्धो जगौ तत्र पूर्णभद्रं महामतिः । अनेन धनदत्तेन संबन्धश्चेत्तकं वद वृद्धवाक्यं समाकर्ण्य पूर्णभद्रो वभाण तम् । धनदेव्या धनं दत्तं बहु मे तदात्वयम् ॥ पूर्णभद्रोदितं श्रुत्वा वर्षीयान्निजगावमुम् । धनदत्त वचः सत्यं ब्रूहि मत्पुरतोऽनघम् ॥ वृद्धस्य वचनं श्रुत्वा धनदत्तोऽवदत्तकम् । धनेन सकलेनास्य पुष्पमाला मया हृता ॥ सुतोपरि कृतां मालामुपशोभानिमित्ततः । भूयोऽपीमामयं क्षिप्रं गृह्णातु कुसुमोज्वलाम् ॥ २७ ॥ वृद्धवाक्येन सा माला गृहीताऽनेन शोभना । पूर्णभद्रः समादाय तां ययौ विशिषान्तरे ॥ २८ ॥ 30 पुष्पमालां न कोऽप्येतां गृह्णाति' मृतकाश्रिताम् । कपर्दकेन चैकेन बहुमूल्यामपि क्षितौ ॥ २९ ॥ यथा सा बहुमूल्याऽपि पुष्पमाला मनोहरी । सर्वैरपि परित्यक्ता जनैर्मृतकसंगता ॥ ३० ॥ तथा दुर्जनसंसर्गात् पुरुषो वाचालोऽपि वा । अन्यैरपि नरैस्तुङ्गो बलवान् परिभूयते ॥ ॥ इति श्रीमृतकसंसर्गनष्टमाला कथानकमिदम् ॥ ३० ॥ २१ ॥ ॥ ३१ ॥ 25 ५० * 1 फ भवेच्चास्य. 2 प कुटिकां = कन्याम्. फज युगलम् 6 फ विशिषान्तरम् 7फ गृह्णामि. [ ३०. १ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ पomits 9. 4 प त्वदभागेन. 5 प युग्मम्, 8 फ कन्दर्पकेन, ज कापर्दकेन. 9 प संपूर्णम्. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवभूतिकथानकम् ३१. कल्लालमित्रसंगतिशिवभूतिकथानकम् । विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी नगरी परा । धनपालो नृपोऽस्यां स्याद् वसुपाला प्रियाऽस्य सा ॥१॥ तस्मिन्नेव पुरे शौण्डः' पूर्णभद्रोऽभवद्धनी । माणिभद्रा प्रिया चास्य वसुमित्रा सुताऽनयोः ॥ २ ॥ चण्डालादिजनः सर्वस्तद्विवाहे निमंत्रितः । भुक्तश्च विधिनाऽत्यर्थं पूर्णभद्रनिकेतने ॥ ३ ॥ शिवभूतिर्द्विजो मित्रं स्मृतिवेदविशारदः । समस्तशास्त्रसंवेदी ब्रह्मेव विदितो बुधैः ॥ ४ ॥ यद्ययं मगृहे विप्रो भोजनं विदधाति नो । धनेन बहुना वाऽपि तदा मे जीवितेन किम् ॥ ५ ॥ एवं ध्यात्वा चिरं शौण्डः पूर्णभद्रस्त्वरान्वितः । शिवभूतिं परं प्राप्य सस्नेहं निजगाविमम् ॥ ६ ॥ यदि मित्र या कार्यं विद्यते तव तन्वपि । ततोऽद्य सरसं साधो मगृहे भोजनं कुरु पूर्णभद्रवचः श्रुत्वा शिवभूतिर्षभाण तम् । त्वयाऽतिशोभनं प्रोक्तं मित्र प्राणमनः प्रियम् ॥ ८ ॥ ब्राह्मणानां कुले किंतु मित्र लोकविरुद्धकम् । तथा स्मृतिविरुद्धं च जायते कार्यमीदृशम् ॥ ९ ॥ " वेदस्मृतिविधिज्ञोऽपि शूद्राहारपरिच्युतः । यदि शूद्रगृहे भुङ्क्ते विप्रो लोकविरुद्धकम् ॥ १० ॥ शूद्रभोजनशुश्रूषा शूद्रप्रेषणता तथा । वितीर्णाऽनेन या वृत्तिर्नरकाय भवेदिदम् ॥ ११ ॥ हविष्कृतं तथोच्छिष्टं मतिं 'धर्मकथानकम् । व्रतं चैतानि शूद्राय न दीयन्ते कदाचन ॥ १२ ॥ तथा चोक्तम् - ७ ॥ -३१.२८ ] शूद्रान्नं शूद्रशुश्रूषा शूद्रप्रेषणकारिता । शूद्रदत्ता च या वृत्तिः पर्याप्तं नरकाय तत् ॥ १३ ॥ 1 प शौण्डः = कलालः 2 पफज त्रिकलम् . 3 फ मनः प्रिया, ज 5 दिव्यगृहे. 6 पफज चतुष्कलम् 7 फ यथाशनम् 8 [ भूपतेः ] षिप्रं, ज छिप्रं, [वि]. १४ ॥ न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् । न चास्योपदिशेद्धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ अनेन कारणेनार्य भवद्भवनभोजनम् । करोमि तेन नो मित्र नूनं स्मृतिविरोधतः ॥ शिवभूतिवचः श्रुत्वा पूर्णभद्रोऽपि तं जगौ । स्नेहनिर्भरचेतस्को म्लानवक्रसरोरुहः ॥ मगृहे भोजनं मित्र विरुद्धं यदि जायते । ततो 'विप्रगृहेऽन्नं च संस्कृत्य बहुभेदकम् ॥ द्राक्षाक्रमुकताम्बूलवल्लीवलयितं वनम् । कदलीनालिकेरादितरुखण्डविराजितम् ॥ १८ ॥ ईदृशं वनमासाद्य फलपुष्पमनोहरम् । स्वबन्धुभिरमा मित्र भोजनं कुरु मत्समम् ॥ १९ ॥ मतं तदुपरोधेन तदानीं वनभोजनम् । इच्छता स्नेहसंबन्धं परमं शिवभूतिना ॥ २० ॥ अन्येद्युः पूर्णभद्रोऽपि गृहीतवरभोजनः । शिवभूतिसमं भूत्या ययावुपवनं जनैः ॥ २१ ॥ पूर्णभद्रस्तदा सार्धं बहुभिर्निजबान्धवैः । शिवभूतिरपि क्षिप्रमुपविष्टो यथासनम् ' ॥ २२ ॥ मद्यं पिबन्ति ते तत्र पूर्णभद्रादयो जनाः । शिवभूतिः पुनर्दुग्धं तत्समीपे गुडान्वितम् ॥ २३ ॥ अथ दूरस्थितेनायं शिवभूतिर्विलोकितः । पुरुषेणान्तरङ्गेण भूपतेर्दुग्धमापिबत् ॥ २४ ॥ शिवभूतिं जगौ सोऽपि पिबन्तं मद्यमादरात् । कल्लालेन समं तत्र पूर्णभद्रेण भूपते ॥ राजाऽऽकर्ण्य वचस्तस्य विस्मयव्याप्तमानसः । तमानयेत्यतः शीघ्रं तदन्तं प्राहिणोन्नरम् ॥ तद्गोष्ठीमध्यतस्तेन दूरस्थेन समाहृतः । शिवभूतिः पुनर्मक्षु नीतो राजान्तिकं तदा ॥ २७ ॥ २० दृष्ट्वा पुरःस्थितं क्षिप्रं " शिवभूतिं जगौ नृपः । कनिष्ठ दुष्ट पापिष्ठ मद्यं पिबसि किं खल ॥ २८ ॥ 25 5 २५ ॥ २६ ॥ 15 १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ 20 मनः प्रियाम् 4फ मतिधर्म. 9 प तमानयत्यतः. 10 फ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [३१. २९श्रुत्वा नृपवचो विप्रो जगौ भूपं क्रुधान्वितम् । मद्यं पिबाम्यहं नैव राजन् दुग्धमिति ब्रुवन् ॥२९॥ अवाचि भूभुजा भूयः शिवभूतिः कुतूहलात् । छदि कुरु पुनर्येन दुग्धं पश्यामि सांप्रतम् ॥ ३०॥ दत्त्वाऽङ्गुलिमयं छ िचकार नृपशासनात् । क्षीरभावपरित्यक्तां विलोक्येमां नृपो रुषा ॥ ३१॥ अर्धचन्द्रं गले दत्त्वा शिवभूतिं करेण सः । पुरान्निःसारयामास खलीकृत्य नरेश्वरः ॥ ३२॥ 5 यथा दोषविहीनोऽपि गुणवान् लोकपूजितः । कल्लालसंगतो राज्ञा विप्रो निर्धाटितः पुरात् ॥३३॥ तथा साधुरपि क्षिप्रं तपस्वी संयमी गुणी । निर्दोषी दोषमाप्नोति स्फुटं दुर्जनसेवया ॥ ३४ ॥ तथा चोक्तम् - न स्थातव्यं न गन्तव्यं सहात्र दुष्टकर्मणा । शौण्डैः सह पयः पीतं वारुणीं मन्यते जनः॥ ३५॥ ॥इति कल्लालमित्रसंगतिशिवभूतिनिर्धाटनकथानकमिदम् ॥ ३१ ॥ ___ ३२. घूकसंगतहंसकथानकम् । अथास्ति मगधादेशे पुरं पाटलिपुत्रकम् । प्रजापालोत्र भूपालो वनमालाऽस्य वल्लभा ॥१॥ घूकस्तगोपुरद्वारगुहामध्ये समानके । अन्यत्र भ्रमणं कृत्वा वसति प्रीतमानसः॥२॥ सोऽन्यदा विहरन् कापि गङ्गापुलिनसंगतान् । प्रययौ शर्वरीमध्ये नन्दध्वानान् कलखनान् ॥३॥ 15 दत्त्वा मृणालखण्डानि संभाषणपुरस्सरम् । वृद्धहंसो जगादैनं कौशिकं सुस्थतामितम् ॥ ४॥ कोऽसि त्वं शोभनाकारः कुतो वेह समागतः । एतत्सर्वं मम स्पष्टं कथयाशु महामते ॥५॥ धूकोऽपि तद्वचः श्रुत्वा जगादेमं पुरः स्थितम् । हंससंततिमध्यस्थं विनयानतमस्तकम् ॥ ६॥ अहं सखे धरानाथो महावंशसमुद्भवः । अहं समस्तसामन्तमस्तकोपात्तशासनः ॥७॥ चन्द्रप्रियः कलाधारः क्रीडामुदितमानसः । एवंविधोऽपि सस्नेहं युष्मद्रष्टुं समागतः ॥ ८॥ 20 कौशिकस्य वचः श्रुत्वा मरालः प्रीतमानसः। जगावमुं कलध्वाननादिताशेषपुष्करः ॥ ९ ॥ महाराज महीनाथ भवद्भिः शोभनं कृतम् । यदस्मान् द्रष्टुमायातः पालनीयाननारतम् ॥ १०॥ भूयो मृणालखण्डानि कोमलानि धनानि च । प्रददौ राजहंसोऽस्मै स्नेहनिर्भरमानसः ॥ ११ ॥ अन्योन्यप्रेमसंबन्धतुष्टमानसयोस्तयोः । बभूव परमा मैत्री मयूरघनयोरिव ॥ १२ ॥ ततो जगाद तं हंसं घूको मुदितमानसः । मम प्राघूर्णको ोहि मित्रस्य मत्पुरो भव ॥ १३॥ 25 मन्दखाननिषिद्धोऽपि खमुत्पत्य त्वराऽन्वितः । ययौ तद्गोपुरद्वारं हंसो घूकसमं निशि ॥ १४ ॥ अत्रान्तरे प्रजापालः स्कन्धावारेण भूयसा । तदा दिग्विजयं कर्तुं चचाल नगरादरम् ॥१५॥ अथ घूको जगौ हंसं तन्मुखाहितलोचनः । भूपति सहसा मित्र व्रजन्तं धारयामि किम् ॥१६॥ घूकवाक्यं समाकर्ण्य हंसोऽपि निजगौ तकम् । गच्छन्तं भूपतिं मित्र मत्पुरो धारय द्रुतम् ॥ १७॥ निशम्य तद्वचो घूको गोपुरद्वारतः क्षणात् । हंसेन सह निःसृत्य प्राप राजान्तिकं सकः ॥ १८॥ . घूकस्तद्दक्षिणे भागे चकार विरसं स्वरम् । भूपोऽपि तवनिं श्रुत्वा तस्थौ तत्र ससैन्यकः ॥ १९॥ मुहूर्तमेकमास्थाय तत्र घूकः सहंसकः । तद्वाक्यतः पुनः प्राप्य वामभागं स भूपतेः ॥ २० ॥ तत्रस्थः कौशिको भूयश्चके शब्दं मनोरमम् । प्रजापालोऽपि तं श्रुत्वा चचाल बलसंयुतः ॥२१॥ 1 पफज निकलम्. 2 फज महद्भिः. 3 पज मित्र मत्पुरो. 4 फ मन्दस्थान, 5 फज हितलोचनम्. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ -३३. २०] हरिषेणश्रीसमागमनकथानकम् स्थित्वा हंससमं तत्र स्तोकवेलां स घूककः । प्राप्य तदक्षिणं भागं चकार ध्वनिमाकुलम् ॥२२॥ श्रुत्वा घूकखरं राजा कोपलोहितलोचनः । चापमारोपयामास मण्डलीकृतविग्रहम् ॥ २३॥ आकर्णाकृष्टमत्युग्रमनुशब्दं नराधिपः। क्रोधपूरितचेतस्कः कर्णिकाण्डं मुमोच सः ॥ २४ ॥ अनेन कर्णिकाण्डेन भूपमुक्तेन सत्वरम् । निदोषोऽपि हतो हंसो घूको दुष्टः पलायितः ॥२५॥ निर्दोषोऽपि यथा हंसो निहतो घूकदोषतः । प्रजापालेन भूपेन क्रोधसंभारमीयुषा ॥ २६ ॥ तपोज्ञानगुणाधारः संयतश्विरदीक्षितः। तथा दुर्जनसंगेन महान्तं दोषमाप्नुयात् ॥ २७॥ तथा चोक्तम्अकालचर्यां विषमैस्तु गोष्ठी कुमित्रसेवां न कदाऽपि कुर्यात् । पश्याण्डजं पद्मवने प्रसूतं धनुर्विमुक्तेन हतं शरेण ॥ २८ ॥ ॥ इति श्रीदुष्टघूकसंगतप्रजापालभूपतिहतहंसकथानकमिदम् ॥ ३२॥ ॥ ३३. हरिषेणश्रीसमागमनकथानकम् । अथाङ्गाख्यमहादेशे काम्पिल्यनगरं परम् । राजा सिंहध्वजो रूपी सिंहविक्रमराजितः ॥१॥ सम्यग्दर्शनसंपन्ना द्वादशाणुव्रतान्विता । रूपयौवनसंयुक्ता शीलभूषणधारिणी ॥२॥ आषाढे कार्तिके मासे फाल्गुने च महामहम् । जिनानां या चकारास्य वप्रा सा वल्लभाऽभवत् ॥३॥ कलाविज्ञानसंपन्नो रूपराजितविग्रहः । हरिषेणोऽभवत् पुत्रोऽनयोश्चक्री भविष्यति ॥४॥ 15 मिथ्यात्वमोदितस्वान्ता सौभाग्यमदविह्वला । चण्डकोपा खरस्वाना जिनधर्मपराङ्मुखी ॥५॥ दुष्टचित्ता भुजङ्गीव गुञ्जाफलविलोचना । अन्या लक्ष्मीवती तस्य भूपतेरभवत् प्रिया ॥६॥ अथ वा रथं जैनं यावदष्टाह्निकामहे । नगराभ्यन्तरे रम्ये मुदा भ्रमयति स्फुटम् ॥ ७॥ तावलक्ष्मीमती क्रुद्धा प्राप्य वप्रागृहं तदा । जगादैतां पतिस्नेहगर्वान्मन्थरनादिनी ॥ ८॥ पुरे ब्रह्मरथः पूर्वं मदीयो भ्रमतु द्रुतम् । पश्चाज्जैनरथो वप्रे त्वदीयोऽपि यथाविधिः ॥ ९ ॥ 20 एवं निगद्य तां वां पतिवल्लभकारणात् । लक्ष्मीमती जगामारं संतुष्टा निजमन्दिरम् ॥ १०॥ श्रुत्वा लक्ष्मीवतीवाक्यं बाष्पविप्लुतलोचना । चक्रे मनसि वा च प्रतिज्ञामतिदुःखिता ॥ ११ ॥ प्रथमं हि रथो जैनो भ्रमिष्यति पुरे यदि । ततो मम प्रवृत्तिः स्यादाहारादेर्न चान्यथा ॥ १२ ॥ यावदेवं च दुःखार्ता वा तिष्ठति मन्दिरे । हरिषेणोऽपि संप्राप मातरं तावदाकुलाम् ॥ १३ ॥ विलोक्य जननीं गेहे हरिषेणो जगाद ताम् । ब्रूहि केन कृतं मातस्तव शोकस्य कारणम् ॥१४॥ 25 हरिषेणवचः श्रुत्वा जगौ माताऽपि तं सुतम् । लक्ष्मीमत्या रथो जैनो निषिद्धो विचरन् पुरे ॥१५॥ पूर्वं ब्रह्मरथो मेऽद्य तावद्धमतु पत्तने । पश्चाद्वप्रारथो जैनस्त्वदीयोऽपि मनोहरः ॥ १६ ॥ मयाऽपि तद्वचः श्रुत्वा प्रतिज्ञेयं कृता सुत । यदि जैनरथः पूर्वं भविष्यति मम ध्रुवम् ॥ १७॥ भोजनं जलताम्बूलपुष्पगन्धानुलेपनम् । ग्रहीष्यामि ततः पुत्र नान्यथाऽहं कदाचन ॥ १८ ॥ अनेन च निमित्तेन शोकसंतप्तमानसा । स्थिताऽहं वेणिकां बद्धा रुदन्ती कथितं तव ॥ १९ ॥° 30 मातुर्वचनमाकर्ण्य दुःखपूरितमानसः। हरिषेणो महासत्त्वो दध्यौ मनसि धीरधीः ॥ २० ॥ ___14 धूषकः. 2 फ अनेक. ३ पफज युग्मम्. 4 प लक्ष्मीमती. 5 पफज युग्मम् . 6 प रथम. 74लक्ष्मीमती. 84 जननीगेहं. 9फ मया. 10 पफज चतुष्कलकम. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ३३.२१ यदि लक्ष्मीमतीं हन्मि पिता शोकेन गृह्यते । रुदन्तीं मातरं चाहं न शक्नोमि समीक्षितुम् ॥ २१ ॥ ततस्तेन समं युद्धं किं करोम्यविवेकिना । ममैतदपि नो युक्तं कर्तुं क्षुद्रविचेष्टितम् ॥ २२ ॥ इदं चेतसि संचिन्त्य हरिषेणो महामतिः । वैराग्याहितचेतस्को निर्जगाम गृहादरम् ॥ २३ ॥ पुरं ग्रामं सरोदेशं गोकुलं पर्वतं नदीम् । अतिक्रम्य वनं भीमं हरिषेणो विवेश सः ॥ २४ ॥ मेपलीं महापल्लीं सकलासुफलप्रदाम् । पश्येत् स्वल्पान्तरे यावत्तावच्छुश्राव स ध्वनिम् ॥ रोधनं छेदनं भेदं बन्धनं कुरुतास्य रे । युष्माकं येन राजाऽयं ददाति विविधं धनम् ॥ श्रुत्वा वाऽशोभनं रावं शुकस्य भयकारणम् । ततो निवृत्तयामास हरिषेणस्त्वरान्वितः ॥ ततो निवृत्तमानः सन् यावद्वजति सोऽन्यतः । शुश्राव तावदन्यस्य शुकस्य कलनिस्वनम् आसनं भोजनं शुद्धं ताम्बूलं वस्त्रयुग्मकम् । बहुमूल्यं कुमाराय सुकुमाराय दीयताम् ॥ 10 इमं कीरकलध्वानं निशम्य मनसः प्रियम् । जगादेति शुकं हृष्टो हरिषेणो गतश्रमः ॥ त्वत्समः कोऽपि मां वीक्ष्य वदति क्रूरमानसः । मारणादिकमेतस्य दस्यवः कुरुत द्रुतम् ॥ ३१ ॥ देवोऽसि किं मनुष्योऽसि किं मायी कोऽपि दानवः । किं मां छलयितुं प्राप्तस्त्वं सत्यं ब्रूहि कोऽसि मे ॥ * हरिषेणवचः श्रुत्वा पूषकोऽपि जगावमुम् । तदागमनसंतोषनादपूरितपुष्करः ॥ ३३ ॥ मम तस्य विहङ्गस्य मातैका जनकोऽपि वा । नीडादहं समानीतो मुनिभिः स गवाशनैः ॥ ३४ ॥ 15 गवाशनसमूहस्य शृणोति वचनं सकः । अहं योगिनिकायस्य श्रुतयुक्तस्य भूपते ॥ ३५ ॥ भवद्भिवींतसंदेहैः' कार्यमेतद्विलोकितम् । संसर्गसंभवा दोषा गुणा वा स्युर्महीतले ॥ ३६ ॥ 1 तथा चोक्तम् - माताऽप्येका पिताऽप्येको मम तस्य च पक्षिणः । अहं मुनिभिरानीतः स चानीतो गवाशनैः ॥ ३७ ॥ गवाशनानां वचनं शृणोति अहं च राजन् मुनिपुङ्गवानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवताऽपि दृष्टं संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ॥ ३८ ॥ 20 25 ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ पूषकोक्तं समाकर्ण्य तोषपूरितमानसः । हरिषेणो जगामेमं शतमन्युसमाश्रयम् ॥ ३९ ॥ हरिषेणं विलोक्यायं शतमन्युः ससंभ्रमः । चकारास्य महापूजां भोजनाच्छादनादिकम् ॥ ४० ॥ शतमन्योर्महादेवी चासीन्नागवती परा । चम्पापुरीप्रभुः श्रीमान् सुतोऽपि जनमेजयः ॥ ४१ ॥ रूपराजितसर्वाङ्गी बालमुग्धमृगेक्षणा । शतमन्युसुता चाव तरुणी मदनावली ॥ ४२ ॥ उष्ट्राधिपतिना तेन याचिता सा प्रयत्नतः । न दत्ता नागवत्यस्मै महाविभवभागिने ॥ ४३ ॥ नैमित्तिकेन चादिष्टं त्वत्सुता मदनावली | भविष्यति कलाधारा स्त्रीरत्नं चक्रवर्तिनः ॥ ४४ ॥ उष्ट्राधिपतिनाऽऽगत्य चम्पाख्या नगरी रुषा । स्वसैन्यसमुदायेन सर्वतः परिवेष्टिता ॥ ४५ ॥ अत्रान्तरे भयग्रस्ता सुतामादाय मातृका । शतमन्युसमीपं च गता सा तत्सुरङ्गया ॥ ४६ ॥ 30 परस्परं समालोक्य स्नेहनिर्भरयोस्तयोः । " प्रव्राज - मदनावल्योः सानुरागो महानभूत् ॥ ४७ ॥ देशिकेन समं स्नेहं किं करोषि वृथा सुते । चक्रवर्तिप्रिया क्षिप्रं भविष्यति" तनूदरि ॥ ४८ ॥ एवं नागवतीं पुत्रीं निवारयति तं प्रति । न करोति मतिं मातुस्तथाऽपि मदनावली ॥ ४९ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ 1 फज ततो न च समं. 2 पफ चतुष्कलम् ज चतुष्कलकम्. 3 प मेदपल्ली - भिल्लपल्ली. 4 पफज त्रिकलम्. 5 प गवाशनैः =म्लेञ्छैः, ज=भिलैः; फ सगरासनैः 6 प योगनिकायस्य 7 प संदोहैः. 8 प तरुणा. 9 फज उष्ट्राधिपतिनीलेन. 10 प प्रत्राजः = हरिषेणः:. 11 [ भविष्यसि ] 12 फ तनुदरी 13 प युग्मम्, फज युगलम्. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३. ८१] हरिषेणश्रीसमागमनकथानकम् ज्ञात्वाऽनयोः परां प्रीतिं शतमन्युः कुशाग्रधीः । तत्सुताहितचेतस्कं हरिषेणं विसृष्टवान् ॥५०॥ शतमन्युवचः श्रुत्वा सुता भयपराङ्मुखम् । हरिषेणसमं कृत्वा देशं सिन्धुनदं ययौ ॥५१॥ तस्मिन् सिन्धुनदीतीरेऽभवत् सिन्धुनदं पुरम् । राजा सिन्धुनदःश्रीमानस्य सिन्धुमती प्रिया॥५२॥ मुखेन कमलं चन्द्रं नादेन कलवल्लकीम् । जयन्ती कोकिलामासीत् सिन्धुदेवी सुताऽनयोः ॥५३॥ अथ कन्याशतोपेता जलक्रीडनकौतुका । सिन्धुदेवी परिणाप तदा सिन्धुनदीह्रदम् ॥ ५४॥ शतमन्युसुतास्नेहरागरञ्जितमानसः । हरिषेणोऽपि तं प्राप वीरः सिन्धुनदीह्रदम् ॥ ५५॥ कन्याशतं विलोक्यायं मकरध्वजमानदम् । खकान्तिद्योतिताकाशं कामबाणैः समाहतः ॥५६॥ कन्याशतं विलोक्येमं जलक्रीडां विहाय तत् । तत्सन्मुखमभीयाय तपाहृतमानसम् ॥ ५७॥ यावत्परस्परालोकसुखसंगतमानसम् । वज्राज कन्यकावृन्दं सुरूपं व्यवतिष्ठते ॥ ५८॥ यावगिरिसमुत्तुङ्गो मन्दमन्दगतिक्रियः । संप्राप्तो मत्तमातङ्गस्तं हृदं निजलीलया ॥ ५९॥ 10 विलोक्य तं नगाकारं तदानीं राजहस्तिनम् । सिन्धुदेव्यादिकन्योघो बभूव भयविह्वलः ॥ ६०॥ दृष्ट्वा करिणमायान्तं हरिषेणो मदाच्युतम् । विश्रब्धीकृत्य कन्यौघं दध्यौ मनसि धीरधीः ॥६१॥ वामलूरं खनत्युक्षा विषाणाभ्यां न पर्वतम् । छिनत्ति हि नरो रम्भा खड्ङ्गेन न शिलां घनाम् ॥ ६२॥ मृदोः परिभवं कुर्याजनो दुर्जनचेष्टितः । विधातुमसुखं क्लीबो न वाञ्छति बलीयसि ॥ ६३॥ भ्रूणास्ते तापसा हीना येषां क्षान्तिर्मया कृता । न हि हस्ती परावृत्तो हस्तिनो भवति क्षितौ ॥६४॥ 15 इति संचिन्त्य तुष्टात्मा सिंहनादं विधाय सः। आधोरणं जगौ मन्दं हरिषेणो भयच्युतः ॥६५॥ रेरे हस्तिपक क्षिप्रं हस्तिनं दूरतो नय । अन्यथा मरणं मत्तः प्राप्स्यसि त्वं खलाधुना ॥६६॥ श्रुत्वा हस्तिपको वाक्यं हरिषेणस्य धीमतः । जगावमुमयं वीरः कोपारुणनिरीक्षणः ॥ ६७ ॥ आत्मानं हस्तिनं मूढ मन्यसे मतिदुर्विधः । जरत्तृणमिवाजस्रं हस्तिनं तं मदालसम् ॥ ६८॥ मूढ त्वं जम्बुको भूत्वा समं सिंहेन किं कलिम् । करोषि किं गतायुस्त्वं निर्विण्णोऽसि खजीविते॥६९॥ १ आधोरणवचः श्रुत्वा हरिषेणो जगावमुम् । मत्सन्मुखमिभं मुञ्च निर्मदं विदधाम्यहम् ॥ ७॥ हरिषेणवचः श्रुत्वाऽऽधोरणो रक्तलोचनः । मुमोच हस्तिनं वेगादूर्ध्वहस्तं तकं प्रति ॥ ७१॥ दृष्ट्वा हस्तिनमायान्तं कुण्डलीकृतवस्त्रकम् । मुमोच तत्पुरः शीघ्रं हरिषेणो विचक्षणः ॥ ७२ ॥ यावत्करी करणेदं गृह्णाति स पुरः स्थितः । तावद्दन्तान्तरे पादौ विधायाधिरुरोह तम् ॥ ७३ ॥ क्षिप्त्वा हस्तिपकं भूमौ विमदीकृतकुञ्जरम् । नानाकरणमार्गेण हरिषेणो हि दान्तवान् ॥ ७४ ॥25 येन राजकरी दान्तो देवानामपि दुर्दमः । तस्मै कन्याशतं दत्तमस्माभिः प्राप्तसंगरैः ॥ ७५ ॥ तूर्यशङ्खनिनादेन कलमङ्गलराजिना । गत्वा तं समुदायेन शीघ्रमानयत स्फुटम् ॥ ७६ ॥ श्रुत्वा भूमिपतेर्वाक्यं निर्गत्य वरवर्त्मनः । हरिषेणं परिप्रापुर्महाबलसमन्विताः ॥ ७७॥ तूर्यैर्मधुरनिर्घोषैरानादितनभस्तलैः । तदुक्तो हरिषेणोऽपि विवेश नृपमन्दिरम् ॥ ७८॥ हरिषेणोऽवतीर्याशु हस्तिनो मदशालिनः । कृतभूपतिसन्मानः स्वासने चोपविष्टवान् ॥ ७९ ॥ 30. सुखोपविष्टमालोक्य हरिषेणं नराधिपः । जगाद विस्मितस्वान्तस्तोषपूरितमानसः॥ ८०॥ दुर्दमेभवशीकारादस्माभिस्तोषमागतैः। तुभ्यं कन्याशतं दत्तं स्वरूपजितदेवतम् ॥ ८१॥ 1प विसृष्टवान् गमनं प्रति आज्ञां दत्तवान्. 2 पज हरिषेणः समं. 3 प वल्लकी-वीणाम्. 4 प सिन्धुनदं हृदम्. 5फ जनलीलया. 6प करिणमायातं. 7 पफज चतुष्कलम्. 8प आधोरणं-हस्त्यारोहम्. 9 हस्तिनमायातं. 10 पज ते निर्गत्य. दम. 5 फ जनलीलया. 6 प करिणमा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे । [३३. ८२शोभने दिननक्षत्रे वारयोगे निशाकरे । तस्य ताभिः समं वृत्तं पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥ ८२ ॥ अथ कन्याशतेनोच्चैः प्रासादे सप्तभूमिके । हरिषेणः सुखं तस्थौ संसुप्तः सरसं निशि ॥ ८३ ॥ सुखं सुप्तं कुमारं तं ज्ञात्वा वेगवती तदा । आदाय सहसाज्यासीद् गगनस्थितविग्रहा ॥८४॥ अथ निद्राक्षये जाते समीरणसमागमात् । हरिषेणो जगादैतां क मां नयसि सुन्दरि ॥ ८५ ॥ साऽपि तद्वचनं श्रुत्वा जगौ तं कृतकौतुकम् । सूर्योदयं पुरं रम्यं विजयानगे भवेत् ॥ ८६ ॥ अत्र चेन्द्रधनू राजा तस्य बुद्धिमती प्रिया । कलाविज्ञानसंपन्ना जयचन्द्रा सुताऽनयोः ॥ ८७॥ कोऽपि लोके नरो नास्ति मद्रूपसमविभ्रमः । धवं प्रति विरक्ताऽतो दुर्मनस्का सकाऽन्यदा ॥ ८८॥ अनिच्छन्ती नरं चान्यं त्वद्रपं पट्टसंस्थितम् । दृष्ट्वाऽपि मोहमासाद्य चेतनां चाह मां पुनः ॥ ८९॥ मचित्तलोचनानन्दं यदि नानयसि द्रुतम् । एतं मराम्यहं मुग्धे निर्विकल्पं मनखिनि ॥ ९ ॥ 10 तत्प्रतिज्ञां परिज्ञाय तत्समागमसंभवम् । त्वत्समीपमहं प्राप्य त्वां नयामि तदन्तिकम् ॥ ९१॥ एवं तद्वचनं श्रुत्वा तोषकण्टकिताङ्गकः । मौनमादाय संप्राप्तो हरिषेणस्तदन्तिकम् ॥ ९२ ॥ त्वचित्तचोरणः पुत्रि जयचन्द्रे जनप्रियः । आनीतोऽयं मया भद्रे कुमारस्ते समर्पितः ॥ ९३ ॥ अन्योन्यदृष्टिसंपातजातस्नेहसमागमौ । बभूवतुरुभौ प्रीतौ जातविस्मयकारणौ ॥ ९४ ॥ जयचन्द्रामतं प्राप्य तत्पिताञ समागतः । दृष्ट्वाऽमुं रूपसंपन्नं तोषमाप स तत्क्षणात् ॥ ९५ ॥ 15 सुखोपविष्टमालोक्य जनकं प्राह तत्सुता । तात त्वं देहि मामस्मै नान्यमिच्छाम्यहं धवम् ॥ ९६ ॥ सुतावचनमाकर्ण्य दृष्ट्वा जामातरं तथा । सर्वलक्षणसंपूर्ण प्राहेमां तोषतः पिता ॥ ९७॥ धन्या त्वमसि मुग्धाऽपि चतुरा पुत्रि सांप्रतम् । येन कान्तस्त्वया लब्धो जातानन्दो मनस्विनि ॥९८॥ सुतावचनतोऽनेन शकचापेन शोभनम् । अनयोः कारितं शीघ्रं पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥ ९९ ॥ अथ गङ्गाधरः श्रुत्वा जयचन्द्रां मनःप्रियाम् । वितीर्णां देशिकायाशु जगाम क्रोधराशिताम् ॥१०॥ 20 शमं विधाय कोपाग्नेः क्षान्तितोयेन भूयसा । भागिनेयः परं दूतं प्रजिघाय तदन्तिकम् ॥१०१॥ शकचापं परिप्राप्य गङ्गाधरवचोहरः। जगादेति वचो धीरं स्वनाथहितमादरात् ॥ १०२॥ त्वं मातुल सुतां स्वस्य जयचन्द्रांमदावहाम् । अस्मभ्यं देहि तां योग्यां स्वरक्षणनिमित्ततः ॥१०३॥ श्रुत्वा दूतवचः प्रौढं जगादेन्द्रधनुस्तकम् । अनया स्वयमेवायं गृहीतः किं करोम्यहम् ॥१०४॥ इन्द्रचापवचः श्रुत्वा जगौ दूतोऽपि तं पुनः । देहि मह्यं सुतां नो चेत्संग्रामाय भव द्रुतम् ॥१०५॥ 25 एवं निगद्य तं दूतः स्वनाथान्तिकमादरात् । संग्रामनिहितस्वान्तो ययौ स्वामिहितः कृती ॥१०६॥ अथ जामातरं क्षिप्रमाहूय श्वशुरस्तदा । यशोव्याप्तसमस्ताशं जगाद पुरतः स्थितम् ॥ १०७॥ रुष्टो गङ्गाधरः पुत्र भागिनेयो ममोपरि । सुतादानादतस्तिष्ठ त्वमत्रैव पुरे स्थितः ॥ १०८॥ प्रयाम्यहमनेनाशु योद्धं बलवता द्विषा । चतुरङ्गेण सैन्येन सहितोऽतिरुषाऽन्विति ॥ १०९॥ निशम्येन्द्रधनुर्वाक्यं हरिषेणो जगावमुम् । मत्प्रयोजनमेवेदं याम्यतः प्रधनाय तम् ॥ ११० ॥ 30 एकं रथं भृतं शस्त्रैर्निशितैर्बहुभेदकैः । देहि सारथिना युक्तं कुशन न मेऽपरैः ॥ १११॥ जामातुर्वचनं श्रुत्वा श्वशुरो निजगाद तम् । एवमस्त्विति संभाष्य मुक्तोऽनेन समङ्गलम् ॥११२॥ समीरणमनोवेगैस्तुरगैः करिभिः कलैः । रथैः कनकनिर्माणै टैर्यमभयंकरैः ॥ ११३ ॥ एतैरन्यैरपि क्षिप्रं विद्याधरकदम्बकैः । हरिषेणश्चचालायं तदा गङ्गाधरं प्रति ॥ ११४ ॥ श्रुत्वा देशिकाँमातृसमधिष्ठितवाहिनीम् । आयान्तीमिन्द्रचापस्य हसित्वा तौ महाक्रुधा ॥११५॥ 1 फज पटसंस्थितम्. 2 पफज षट्कलकम्. 3 फ भयद्रुतम्, 4 [ °रुषाऽन्वितः ]. 5 [देशिकजामातृ॰]. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३. १४८ ] हरिषेणश्रीसमागमनकथानकम् ५७ अश्वै रथैर्गजैश्चित्रैभेटैरपि ससंभ्रमैः । सहितौ चेलतुस्तूर्णं गङ्गाधर-महीधरौ ॥ ११६ ॥ सैन्यद्वयमपि प्राप्तं कृतान्योन्यमहारवम् । नानायुधकृतोद्योतं वैतालिककलस्वनम् ॥ ११७ ॥ गजो गजेन संलग्नस्तुरङ्गेन तुरङ्गमः । रथो रथेन च क्षिप्रं भटेनापि भटो रुषा ॥ ११८ ॥ एवं महति संजाते संग्रामे भयदायिनि । परस्परकलध्वानपूरिताकाशभूतले ॥ ११९ ॥ केनापि वारणो ध्वस्तः केनापि च तुरङ्गमः । रथस्थेन रथो बाणैः पदिकोऽपि पदातिना ॥१२०॥ हरिषेणबलेनेदं गङ्गाधरबलं तदा । भयवेपितसर्वाङ्गं हतं शस्त्रैः पलायितम् ॥ १२१॥ दृष्ट्वा पलायितं सैन्यं निजं गङ्गाधरो बलः । समं तेन वरेणापि तस्थौ नो तत्सुखे परः ॥ १२२॥ दृष्ट्वा पुरःस्थितं वीरं गङ्गाधरखगेश्वरम् । तत्संमुखमभीयाय हरिषेणः कलध्वनिः ॥ १२३ ॥ गङ्गाधरं विलोक्येमं चक्रहस्तं पुरःस्थितम् । हरिषेणो जगौ मन्दं मुञ्चास्त्रं क्रोधयामि ते ॥१२४॥ श्रुत्वा तं निनदं क्रुद्धो गङ्गाधरखगेश्वरः । तत्संमुखं मुमोचेदं चक्रं रविसमप्रभम् ॥ १२५॥ ॥ आगत्य वेगतश्चक्रं त्रिः परीत्य समुज्वलम् । हरिषेणकरे तस्थौ पुण्यतः किं न सिध्यति ॥१२६॥ हरिषेणः करणेदं चक्रं यावद्विमुञ्चति । गङ्गाधरः खगस्तावद्रणाच्छीघ्रं पलायितः ॥ १२७ ॥ ततो भग्नं समालोक्य सिंहविक्रमराजितः । हरिषेणोऽसिपाणिः सन्निर्जगाम रणादरम् ॥ १२८ ॥ परिगृह्य ततो 'बन्दीर्जयनन्दावकारिभिः । मागधैः कलनिस्वानैः स्तूयमानः समङ्गलम् ॥ १२९ ॥ हस्तिभिर्मदसंयुक्तैः सप्तिभिश्चलचामरैः । स्यन्दनैश्चक्रचीत्कारैर्भटेवल्गनकारिभिः ॥ १३०॥ 15 तां श्रीशङ्खकलस्वानैस्तूर्यध्वनैर्विमिश्रितैः । हरिषेणो विवेशारं श्वशुरस्य पुरं पराम् ॥ १३१॥ पञ्चवर्णमणिबातैर्मण्डिते मणिविस्तरे । चतुष्के चोपविष्टस्य हरिषेणस्य धीमतः ॥ १३२ ॥ सुवर्णमणिकुम्भौधैः श्वशुरः स्वकरोद्धृतैः । अभिषेकं चकारास्य कलमङ्गलनिस्वनैः ॥ १३३॥ षट्खण्डां पृथिवीं सारां नगराकरमण्डिताम् । वशीचकार संक्षेपात् सप्तभिर्वासरैरयम् ॥ १३४ ॥ यस्य चञ्चलसृक्कानां कोट्योऽष्टादश वाजिनाम् । हस्तिनां च तथा लक्षाण्यशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१३५॥ ३० द्वात्रिंशच सहस्राणि भूपतीनां स्फुरत्त्विषाम् । रमणीनां सहस्राणि नवतिस्तु षडुत्तरा ॥ १३६ ॥ चतुर्दश च रत्नानि निधयोऽपि नवाऽपरे । रथानां हस्तिसंख्यानं चारुभोगो दशाङ्गकः ॥१३७॥ अर्धाष्टकोटयः सन्ति धेनूनां सुपयस्विनाम् । सुवर्णशृङ्गयुक्तानां हलकोटी तथा परा ॥ १३८ ॥ इत्यादिचक्रसंभूतां राज्यश्रियमहीनकाम् । हरिषेणः समं प्राप जिनधर्मसमागमात् ॥ १३९ ॥ श्रेणिद्वये यके खेटा विद्याबलसमन्विताः । तकान् सर्वान् वशीकृत्य चकार श्वशुरानुगान् ॥१४०॥ 25 आपृच्छय शकचापं स तथा बुद्धिमतीमपि । जयचन्द्रां समादाय ययौ तापसपल्लिकाम् ॥१४॥ शतमन्युसुतां चोद्यां विधिना मदनावलीम् । स्वसैन्यसमुदायेन प्राप काम्पिल्यपत्तनम् ॥ १४२॥ चक्रवर्तिश्रियं प्राप्तं हरिषेणं विलोक्य सः । सिंहध्वजनृपो वा परितोषं ययौ परम् ॥ १४३ ॥ आनन्दं परमं तत्र हरिषेणसमागमे । सिंहध्वजश्चकारायं तदानीं नूनसंपदा ॥ १४४ ॥ लक्ष्मीमतीरथं ब्राह्मं मणिकाञ्चननिर्मितम् । हरिषेणः वहस्तेन चूर्णयामास कोपतः ॥ १४५ ॥ 30 अष्टाह्निकमहं कृत्वा शहतूर्यादिभिः स्वनैः । हरिषेणो रथं जैनं मातुमयति स्म सः ॥ १४६॥ वेणिकां मोचयित्वाऽऽशु जिनपूजाविधानतः । शोकापनयनं मातुश्चकारायं विशुद्धधीः ॥१४७॥ षट्खण्डपृथिवीमध्ये पर्वते निम्नगातटे । सरोवरे नदीप्रान्ते ग्रामपत्तनकादिके ॥ १४८ ॥ 1प बन्दीजय. 2 पफज त्रिकलम् . प युग्मम् , फज युगलम् . 4 प नगराकार. 5प षडुत्तराः. 6 प चतुर्भिः कुलकम् , फ चतुर्भिः कलकम् , ज चतुष्कलम् . वृ० को०८ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ३३. १४९ मणिस्वर्णजिनार्चानि जिनवेश्मानि सर्वतः । हरिषेणो विशुद्धात्मा कारयामास भक्तितः ॥ १४९ ॥ चक्रवर्तिश्रियं तत्र भुञ्जानोऽलं हताहितम् । हरिषेणोऽधिकं राज्यं चकार सरसं सुधीः ॥ १५० ॥ ग्रामेऽपि नगरे घोषे मडम्बे कर्वटादिके । बभूव सकले लोके हरिषेणमयी कथा ॥ १५१ ॥ दुष्टपूषकनादेन मुञ्चन् म्लेच्छसमाश्रयम् । कलकीरनिनादेन शतमन्युपदं भजन् ॥ १५२ ॥ ॰ यथा समस्तसामन्तमस्तकोपात्तशासनम् । हरिषेणो महाराज्यं प्राप्तवान् साधुसंश्रयात् ॥ १५३ ॥ तथा मुनिरपि क्षिप्रं त्यजन् दुर्जनसंगमम् | यशोऽपवर्गमाप्नोति सत्संगस्य समाश्रयात् ॥ १५४ ॥ ॥ इति श्रीदुर्जनाश्रयत्यर्जन सत्संगगमनहरिषेणश्रीसमागमनकथानकमिदम् ॥ ३३ ॥ 10 ५८ ३४. विष्णु-प्रद्युम्न कथानकम् । I ११ ॥ सौराष्ट्रैकदेशेऽस्ति द्वारवत्यां पुरि प्रभुः । वासुदेवोऽस्य भार्या च रुक्मिणी मनसः प्रिया ॥ १ ॥ अनयोर्विनयसंपन्नः सर्वलोकमनोहरः । बभूव नन्दनो रूपी प्रद्युम्नः कुलनन्दनः ॥ २॥ गुणानुरञ्जनाख्यायां कथायामनुरक्तधीः । सौधर्मो विबुधाध्यक्षं जगौ नरगुणान्तरम् ॥ ३॥ सौधर्मेन्द्रवचः श्रुत्वा धरानरगुणस्तवम् । कोऽपि देवो जगादैनं कौतुकव्याप्तमानसः ॥ ४ ॥ किं गुणो विद्यते देव नराणां भूमिवासिनाम् । येन त्वं देवराजोऽपि करोषि नरकीर्तनम् ॥ ५ ॥ देववाक्यं समाकर्ण्य नरमात्सर्य संगतम् । बभाण भासुराकारस्तं तदाऽयं पुरन्दरः ॥ ६ ॥ द्वारवत्यां पुरि श्रीमान् वासुदेवः सुतान्वितः । अन्येषां दोषमप्येष गुणं गृह्णाति शुद्धधीः ॥ ७ ॥ सौधर्मेन्द्रस्य सद्वाक्यं निशम्य विबुधः कुधा । जगाम सहसा सोऽरं पुरीं द्वारावतीमसौ ॥ ८ ॥ अत्रान्तरे महीपालः सेनया चतुरङ्गया । ऊर्जयन्ते ससंतानः प्रतस्थे वन्दितुं जिनम् ॥ ९ ॥ अथ हस्तिसमाकारं दुर्गन्धामोदिताशकम् । महाकुष्ठपरिग्रस्तं क्रिमिराशिसमाकुलम् ॥ १० ॥ 20 विधाय ' माण्डलं वेषं मृतरूपं भयानकम् । पपात तत्पथे देवस्तदानीं तत्परीक्षितुम् ॥ तदा तद्गन्धमाघ्राय देवैरपि सुदुःसहम् । प्राणरोधं विधायाशु सर्वं सैन्यं पलायितम् ॥ १२ ॥ शूरः सहः समर्थोऽपि जिनशासनभावितः । ज्ञातपुद्गलसद्भावो हरिस्तस्थौ स तत्पुरः ॥ १३ ॥ विष्णुं पुरः स्थितं दृष्ट्वा देवो ब्राह्मणरूपकम् । विधाय तं जगादेति तत्परीक्षणकारणात् ॥ महाराज जयश्रीमान् बहुकालं मनोभव । त्वमुत्तिष्ठामुतः स्थानाद्गन्धो प्रातुं न शक्यते ॥ १५ ॥ 2s विप्रस्य वचनं श्रुत्वा विस्मयव्याप्तचेतसः । जगाविति हरिस्तं च तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ १६ ॥ चन्द्रकान्तमणिच्छाया शोभना द्विजसंततिः । रक्तोत्पलदलाभोगा पद्मरागसमप्रभा ॥ १७ ॥ मुखमध्यस्थिता चार्वी जिह्वा यस्य विराजते । समुज्ज्वलतयोपेतमधुपिङ्गललोचने ॥ १८ ॥ एवमादिगुणोपेतं शरीरं यस्य राजते । स कथं निन्द्यते विप्र मण्डलो दीप्तिमण्डलः ॥ १९ ॥ श्रुत्वा विष्णुवचो देवस्तोषकण्टकिताङ्गकः । दिव्यरूपधरः श्रीमान् जगादेमं सविस्मयः ॥ २० ॥ 30 यथा त्वं वर्णितो राजन् सौधर्मेण सुतान्वितः । तथाधिकगुणाम्भोधिस्त्वत्समो नापरः पुमान् ॥२१॥ कथयित्वा स्ववृत्तान्तं दत्त्वाऽस्मै हारमुज्वलम् । स्मृत्वा गुणान्तरस्योच्चैर्देवः स्वं प्रययौ दिवम् ॥२२॥ १४ ॥ 15 * 1 पफज युग्मम्. 2 फज त्यजन्. 3 Here has an additional line, the same as the first line of 2. 4 प माण्डलं श्वानं 5 पफज चतुष्कलम्. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३५. २७] चोल्लकाख्यानकथानकम् गृह्णन्नन्यगुणान् विष्णुर्यथा देवेन पूजितः । प्रद्युम्नपुत्रसंयुक्तो भद्रसद्भावसंगतः ॥ २३ ॥ तथा साधुरपि स्पष्टं पूज्यते सुरकुञ्जरैः । असमानगुणाधारः प्रकृत्यार्जवभूषितः ॥ २४ ॥ ॥ इति श्रीविष्णुप्रद्युम्नगुणग्रहणकथानकमिदम् ॥ ३४ ॥ ३५. चोल्लुकाख्यानकथानकम् । विनीताविषये कान्ते साकेता नगरी परा । अस्यां चक्राधिपो भोगी ब्रह्मदत्तो बभूव सः ॥ १॥ । सामन्तोऽस्य महासत्त्वः सहस्रभटनामकः । नानाग्रामपतिर्धन्यो वसुमित्राऽभवत् प्रिया ॥२॥ वसुदेवोऽनयोः पुत्रो बभूव गुणवर्जितः । नानायुधसमासंगपरिज्ञानपराङ्मुखः ॥३॥ अन्यदा पञ्चतां प्राप्तः सहस्रादिभटो बली । कृतान्तमुखतः को वा बलवानपि नश्यति ॥४॥ तदभावे नृपेणेदं सहस्रभटजीवनम् । निखिलं दत्तमन्यस्मै हेतिश्रमविधायिने ॥ ५ ॥ वसुदेवस्ततो दुःखी जनन्या वसुमित्रया । तदानीं मूषिकोत्खाते तस्थौ जीर्णकुटीरके ॥६॥ 10 वसुदेवोऽनया शीघ्रं धावनं वसुमित्रया । शिष्यापितोऽश्ववत् सोऽपि धावति स्म त्वरान्वितः ॥७॥ गन्धताम्बूलमाल्यौषैर्भक्षभोजनकारिभिः । भृतं गौणत्वकं चास्मै ददौ शिक्षा तथाऽम्बिका ॥८॥ त्वत्पिताऽपि सुताधावत् ब्रह्मदत्तपतेः पुरः । तस्मादस्य प्रयत्नेन कुरु सेवां यथोचिताम् ॥ ९॥ कक्षामूले विधायाशु तदा गौणत्वकं परम् । जननीवाक्यतः सोऽपि ब्रह्मदत्तान्तिकं ययौ ॥१०॥ वसुदेवः क्षुधां पम्पां गणयेन्नाभिमानतः । कष्टसेवां चकारासौ ब्रह्मदत्तस्य चक्रिणः ॥ ११ ॥ 15 अन्यदा ब्रह्मदत्तोऽयं दुष्टाश्वेन हृतोऽटवीम् । नीतोऽनेन समं धीमान् वसुदेवो ययौ तदा ॥१२॥ ततस्तुरङ्गमात् खिन्नादनेनोत्तारितो भुवि । वसुदेवेन भूपालः क्षुधापम्पाकदर्थितः ॥ १३ ॥ ततः शिलातले दिव्ये पातयित्वाऽग्निमत्र च । तापयित्वाऽग्निनानेन पाषाणनिकरानपि ॥ १४ ॥ निक्षिप्य तान् जले स्तोके स्नापयित्वाऽमुना नृपम् । स्वस्थीकृत्य पुनश्चास्मै ददौ लड्डकभोजनम्॥१५॥ तदन्ते पुष्पताम्बूलं गन्धामोदितदिग्मुखम् । वसुदेवो ददावस्मै भृत्यसन्मानकारिणे ॥ १६ ॥ 20 वस्थीभूततनुः पश्चादानीतो नगरान्तिके । ब्रह्मदत्तोऽमुना शीघ्रं तदा परमबन्धुना ॥ १७॥ वसुदेवाय दत्त्वाऽस्मै स्वनामाङ्कितकङ्कणम् । ब्रह्मदत्तो विवेशायं स्वगृहं सैन्यसंपदा ॥ १८॥ आस्थानमण्डपस्थोऽयं नताशेषनराधिपः । ब्रह्मदत्तो बभाणेदं वचनं निजसंसदि ॥१९॥ विशतो मे पुरं वेगात् खनामाङ्कितकङ्कणम् । पतितं वापि तरिक्षप्रं तलारान्विष्यतामिति ॥२०॥" भूपालवचनं श्रुत्वा सप्रमाणं ततो गतः । आपणान्तं तलारोऽपि नानाजनसमाकुलम् ॥ २१ ॥ 25 ददन्तं हट्टमध्ये च मूल्येन नृपकङ्कणम् । वसुदेवं परिज्ञाय जग्राहेमं तलारकः ॥ २२ ॥ प्राध्वंकृत्य" तकं साधुं विशिषान्तरमध्यतः । वसुदेवं निनायासौ ब्रह्मदत्तान्तिकं तदा ॥ २३॥ वसुदेवं विलोक्येमं निबद्धं दृढबन्धनात् । विधाय मोचनं खेन ब्रह्मदत्तान्तिकं तदा ॥ २४॥ त्वदीयस्योपकारस्य तादृशस्य महात्मनः । प्रतीकारं न शक्नोमि विधातुं भवतोऽधिकम् ॥ २५॥ तथाऽपि त्वं वरं ब्रूहि मनोवाञ्छितमुत्तमम् । तद्धिताहितचेतस्क वसुदेव ददामि ते ॥ २६ ॥3॥ ब्रह्मदत्तवचः श्रुत्वा वसुदेवो जगाद तम् । मन्माता विद्यते नाथ सा जानाति वरं प्रति ॥ २७ ॥ 1फज भाषितः.2 फ पश्यति. 3 फजीवनः.4 फ मूखिकोत्खाते. 5 पसुताधावन्. 6फ गोणत्वकं. 7प पम्पां-तुषां. 8 पफज चतुष्कलम्. 9 The page of फ being torn, some letters are lost here and there. 10 ज ददतं. 11ज प्राब्ध, पप्राध्वंकृत्यः बन्धयित्वा. 12[ब्रह्मदत्तोऽब्रवीत्तदा, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [३५. २८आकर्ण्य वसुदेवस्य साकल्येन सुभाषितम् । बमाण भूपतिर्भूयस्तं तदानीं कुतूहलात् ॥ २८ ॥ यद्येवं ते स्फुटं भद्र मातृवाक्यं प्रमाणकम् । ततो याहि द्रुतं वत्स तामानय मदन्तिकम् ॥ २९ ॥ भूपवाक्येन संप्राप्य मातरं पुत्रवत्सलम् । अग्रतस्तां विधायाशु राजान्तिकमसावितः ॥ ३०॥ दृष्ट्वा तन्मातरं राजा प्राहेमां प्रीतमानसः' । ब्रूहि भद्रे वरं श्रेष्ठं शीघ्रं संपादयामि ते ॥ ३१॥ । वचनं ब्रह्मदत्तस्य निशम्य प्रीतमानसा । वसुमित्रा जगादैतं सरसं स्नेहतत्परम् ॥ ३२॥ भोज्यं भवगृहे भुक्त्वा मणिकाञ्चनभाजने । विचित्रपुष्पताम्बूलवस्त्राभरणपूर्वकम् ॥ ३३॥ ततः षट्खण्डमेदिन्यां त्वदीयायां नराधिपः । भोज्यं गृहे गृहे भुक्त्वा परिपाट्या यथाक्रमम् ॥३४॥ भूयोऽपि भोजनं भोक्ष्ये त्वगृहे पुत्रसंगता । चोल्लकाख्यमिदं भोज्यं देहि मे भोजनं ध्रुवम् ॥३५॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा भूपतिस्तोषसंगतः । तद्भोजनं विधानं तु विधिना दातुमुद्यतः ॥ ३६॥ 10 स्लापयित्वा विधानेन भोजयित्वा प्रदाय च । वस्त्राभरणताम्बूलमणिरत्नाधिकं धनम् ॥ ३७॥ यथेदं भोजनं भद्रं महे विहितं मुदा । तथा मन्मेदिनीवेश्मभोजनं प्रविधाय च ॥ ३८॥ भूयोऽपि मगृहं प्राप्य भोजनं कुरुतं क्रमात् । एवमुक्त्वा तकौ शीघ्रं ब्रह्मदत्तो विसृष्टवान् ॥३९॥" अन्तःपुरादिगेहेषु तद्भूमण्डलवेश्मसु । वस्त्राशनं परं लब्ध्वा पुत्रेण सहिता पुनः ॥४०॥ चक्रवर्तिगृहं भूयो वसुमित्रा सुतान्विता । कदाचिदैवयोगेन समायाति ससंभ्रमा ॥ ४१॥ 15 मनुष्यजन्मकल्याणं प्राप्य चैकत्र जन्मनि । भूयश्चतुर्गतीर्घान्त्वा जीवो नाप्नोति निश्चितम् ॥४२॥" मनुष्यभवमासाद्य भवकोटिसुदुर्लभम् । व्रतशीलगुणेष्वेषु यत्नः कार्यों विचक्षणैः ॥ ४३ ॥ ॥ इति श्रीचोल्लकाख्यानककथानकमिदम् ॥ ३५ ॥ ३६. पासकद्यूतकथानकम् । 'मगधाख्यमहादेशे शतद्वारं पुरं महत् । शतद्वारो नृपस्तस्य शतद्वाराऽस्य सुन्दरी ॥१॥ 20 चित्रचित्रितसर्वाशं जननेत्रमनोहरम् । शतद्वाराख्यभूपेन तत्र द्वारशतं कृतम् ॥२॥ चित्ररूपविचित्राणां स्तम्भानां मणिशालिनाम् । एकैकस्मिन् सति द्वारे शतान्येकादशाभवन् ॥३॥ एकैकस्तम्भनोऽभूवन् नूनं षण्णवतिः परा । अंसिकास्तासु चैकैकमक्षद्यूतं प्रवर्तते ॥४॥ रममाणासु तं द्यूतं द्वारं स्तम्भांसिकास्वरम् । द्यूतकारान् परिप्राप्य शिवशर्मा द्विजोऽवदत् ॥ ५॥ भवतां द्यूतकाराणां द्वारादिस्थानजायिनाम् । यदि दायः पतत्येकः समर्पयत तं मम ॥ ६॥" 25 शिवशर्मवचः श्रुत्वा द्यूतकारा जगुस्तकम् । एकदायोद्भवं द्रव्यं दास्यामस्ते वयं द्विज ॥७॥ एवं निवेदिते तस्य तद्धने दिनसंभवे । स एवं पतितो दायस्तत्रत्यानां प्रदीव्यताम् ॥ ८॥ ततस्तत्सकलं द्रव्यं संख्यानपरिवर्जितम् । द्यूतकारैः ससंतोपैर्वितीर्णं शिवशर्मणे ॥ ९॥" लब्ध्वा लामं ततो विप्रस्तोषपूरितमानसः । आशीर्वादं ददौ तेभ्यो वेदस्मृतिसमुद्भवम् ॥१०॥ भूयः प्रतीक्षते विप्रस्तामेव परिपाटिकाम् । नासावागच्छति कापि तस्य लुब्धस्य तिष्ठतः ॥ ११ ॥ ॥ अथवा स कदाचिच्च यद्यागच्छति तिष्ठतः। मानुषत्वं गतं नूनं जीवो न लभते पुनः ॥ १२ ॥ ॥ इति श्रीपासकद्यूतकथानकमिदम् ॥ ३६॥ 1 पज प्रीतिमानसः. 2 पफज चतुष्कुलम्. 3 पफज चतुष्कलम्. 4 पफज त्रिकलम्. 5 फज चोल्लकाख्यानकथानकम्. 6 प मगधाक्ष. 7 फ स्तम्भयोभूवन् , [स्तम्भकेऽभूवन्]. 8 प अंसिका द्यूतकारोपवेशनस्थानम्. 9 ज चैकैकमद्यूतं वर्तते,फ चैकैकमद्यूतं वर्तते हृदि. 10 पफज युग्मम्. 11फ दिनसंस्तवे. 12 पफज त्रिकलम्. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९.१] सर्षपादिधान्यकथानकम् ३७. सर्षपादिधान्यकथानकम् । पल्यमेकमधःखातं योजनानां पृथुत्वतः । पल्यं चकार कोऽपीदं जम्बूद्वीपप्रमाणकम् ॥ १॥ सिद्धार्थकादिधान्येन निबिडं' परिपूर्यते । भीमसेनसमेनेदं पुरुषेण बलीयसा ॥ २॥ आकर्णाकृष्टनिर्मुक्तं तत्र काण्डं विमुच्यते । नरेणार्जुनकायेन दोर्दण्डबलशालिना ॥३॥ तत्पल्योपरि निःखातं द्विगुणीकृतवककम् । विज्ञायते भृतं तद्धि पुरुषैः पुरुबुद्धिभिः ॥ ४ ॥ सर्षपादिकधान्यानां शतमेकं दिने दिने । निरस्यते नरेणाशु कौतुकव्याप्तचेतसा ॥५॥ एवंविधमपि स्पष्टं कदाचिदैवयोगतः । जम्बूद्वीपप्रमाणं वा तत्पल्यं रिक्ततां व्रजेत् ॥६॥ मनुष्यजन्मतो जीवो निर्गतः पर्यटन् भवे । नानाकुयोनिलक्षाणि परिपाट्या समाप्य च ॥७॥ अणिमादिगुणोपेतो यद्देवोऽपि तदिच्छति । तत्पवित्रं मनुष्यत्वं देही न लभते पुनः ॥८॥ यथा चोक्तम्धण्णादिसरिसवाणं जंबूदीवं तु पल्लयं भरियं । उव वरिससरिसवाण य देवो मवणिजदे सयलं ॥९॥ एवमवणिजमाणं समणो जहु सो दु सरिसवं धण्णं । इह दुल्लहमाणुसय बोहिसमाही कुदो होदि ॥ १० ॥ ॥ इति सर्षपादिधान्यकथानकम् ॥ ३७॥ ३८. श्रीधान्यकथानकम् । अथ चैवं प्रवक्तव्यं धान्याख्यानकमुत्तमम् । साधुभिर्जिनराद्धान्तसमासंगविचक्षणैः ॥१॥ विनीताख्यमहादेशे विनीता नगरी परा । अस्यां बभूव भूपालः प्रजापालः प्रजाप्रियः ॥२॥ विद्यते मगधादेशे पुरं राजगृहं नृपः । जितशत्रुः प्रिया चास्य रूपिणी रूपशालिनी ॥३॥ अन्यदा कोपमासाद्य प्रजापालस्य भूभुजः । जितशत्रुश्चचालोचैर्विनीताविषयं प्रति ॥४॥ 2॥ तस्माद्भयं समासाद्य स्वधान्यानि जनैस्तदा । निक्षिप्तानि समस्तानि चैकस्मिन्नृपकोष्ठके ॥ ५॥ एवंकृतेषु धान्येषु जितशत्रुरशक्नुवन् । प्रजापालं वशीकर्तुं जगाम स्वपुरं पुनः ॥ ६॥ जितशत्रु गतं ज्ञात्वा प्रजाः संप्राप्य भूपतिम् । स्वस्तधान्यानि याचन्ते तदा सुस्थितमानसाः ॥७॥ याचमानाः प्रजा वीक्ष्य स्वस्खधान्यं पुरःस्थिताः । प्रजापालः पुनः प्राह कौतुकव्याप्तमानसः ॥८॥ स्वस्खधान्यं परिज्ञाय जनसंघ गृहाण तत् । परकीये गृहीते हि धान्ये दोषः प्रजायते ॥ ९॥ 25 कदाचित्ताः प्रजा धान्यमेकत्र मिलितं निजम् । विज्ञाय तत्समर्थाः स्युः स्वीकतुं चिरकालतः॥१०॥ नानाकुयोनिधान्येषु मत्वा सक्तेषु देहवान् । मनुष्ययोनिधान्येषु पृथक्कर्तुं न शक्नुयात् ॥ ११॥ ॥ इति श्रीधान्यकथानकमिदम् ॥ ३८ ॥ ३९. द्यूताख्यानकथानकम् । शतद्वारपुरे सारे द्वारा पञ्चशतानि च । एकैकस्मिन् सति द्वारे रमन्ते मणिराजिते ॥१॥ 1 प निवडं. 2 पफज युग्मम्. 3 फज तत्पलं. 4 प युग्मम् , फज युगलम्. 5 [°माणुसए]. 6पज मानसः 7फ confuses some lines. 8 फ omits No.9. 9प कथानकं संपूर्णम्. 10 फद्वारात्पञ्चशतानि च. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [३९. ३शतानि द्यूतकाराणां पञ्च पञ्च विलासिनाम् । तन्मध्ये सहिकश्चैको द्यूतं मुञ्चति सर्वदा ॥२॥ रममाणैस्तकैः सर्वैः सहिकोऽयं कृतध्वनिः । 'कर्ता कपर्दिकाः सर्वे द्यूतकारैः पराजिताः ॥३॥ सर्वं वित्तं समादाय पत्तनं प्रविहाय तत् । द्यूतकाराः पुनस्सर्वे दिशः सर्वा ययुः क्षणात् ॥४॥ सहिको द्यूतकारास्तु ताः कर्ता कापि संगताः । कदाचित्संभवत्येष परस्परसमागमः ॥५॥ । मनुष्यत्वं परिप्राप्य 'गतं तद्विधियोगतः । भूयो न लभते जीवः शुभकर्मपराङ्मुखः ॥६॥ तथा चोक्तम्सयदारम्मि य णयरे दारे दारेसु पंच सदा । एक्के कम्मि य खलये जूयारा पंच पंच सया ॥७॥ सवेहिं जिदो एक्को पुणो वि तेणेव णेज एकको । सो दु कया वि समाणे दुलहमिह माणुसो लंभो ॥८॥ ॥ इति श्रीयुताख्यानकथानकम् ॥ ३९ ॥ ४०. कपर्दकबूतकथानकम् । अथ चैवं समाख्यातं द्यूतस्य च कथानकम् । कोविदैर्गुणसंपन्नैलॊकविख्यातकीर्तिभिः ॥ १॥ पूर्वोक्तनगरे रम्ये शतद्वारादिनामके । द्यूतकारो वसत्येको युक्तो निर्लक्षणाख्यया ॥२॥ ।। एष स्वप्नान्तरेऽपीह न किंचिज्जयति स्फुटम् । द्यूतं च रमते बाढमनिर्विष्णो दिवानिशम् ॥३॥ अनेन रममाणेन कथंचिदैवयोगतः । विजिता द्यूतकाराणां कर्ताः सर्वे कपर्दकाः ॥४॥ ततस्तेषां परिप्राप्य सर्वाङ्गीणं ससत्त्विकः । निर्लक्षणो ददौ सर्वान् देशिकेभ्यः कपर्दकान् ॥५॥ लाभानन्तरमेवैते तोषसंतुष्टमानसाः । निर्गत्य पत्तनाच्छीघ्रं ययुः स्थानं यथायथम् ॥६॥ देशिकेषु गतेष्वेषु कांदिशीकत्वमादरात् । निर्लक्षणं वदन्तीमं द्यूतकाराः पुनः पुनः ॥ ७॥ 20 निर्लक्षणत्वमादाय वर्मलादिधनं बहु । अस्माकमानय क्षिप्रं सर्वाः कर्ताः कपर्दकाः॥ ८॥ निशम्य तद्वचः सोऽपि जगादैतान् पुरःस्थितान् । कौतुकव्याप्तचेतस्कान् विनयाचारसंगमान् ॥९॥ देशिकेभ्यो मया दत्ता नूनं कर्ताः कपर्दकाः। तेऽपि तान् शीघ्रमादाय ययुः स्थानं यथोचितम् ॥१०॥ निशम्य तद्वचस्तेऽपि द्यूतकारा निरुत्तराः । निजं सद्म पुनर्जग्मुः कृतकोलाहलखनाः ॥११॥ निर्लक्षणः कदाचित् स ताः कर्तास्ते कपर्दकाः । नूनमेकीभवन्त्येते तदानीं दैवयोगतः ॥ १२ ॥ ५ प्राप्य मानुष्यकं सारं जन्मकोटिषु दुर्लभम् । जीवो न लभते नष्टं रत्नं वा सागरेऽनघम् ॥ १३॥ ॥ इति श्रीकपर्दकद्यूतकथानकम् ॥ ४०॥ ४१. मनुष्यत्वप्राप्त्यादिकथानकम् । भरतः सगरश्चक्री मघवान् बलसंयुतः । तथा सनत्कुमारोऽभूच्छान्तिः कुन्थुररोऽपरः ॥ १॥ महापद्मः सुभूमोऽपि हरिषेणो विशुद्धधीः । जयसेनोऽपरो विद्वान् ब्रह्मदत्तोऽभवद् बली ॥२॥ 30 एष चूडामणिवैनितान्तं परिरक्षितः । ते देवाः स मणिस्ते च पृथिवीकायिकाऽङ्गिनः॥३॥ ___ 1 [कर्ताः]. 2 4 युग्मम् , फज युगलम्. 3 फ खमादाय. 4 [कर्ताः]. 5 ५ गते. 6 प (अपराक्रमः). 7 फज कथानकमिदम्. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ -३४.२] मनुष्यभवप्राप्तिकथानकम् ते जीवास्ते नरा दिव्याः स चक्री स मणिः परः । कदाचिदैवयोगेन प्राप्नुवन्ति समागमम् ॥४॥ मनुष्यत्वमपि प्राप्तं मुक्तिश्रीप्राप्तिकारणम् । समाधिर्बोधिना सार्धं देहिभिर्दुर्लभो भवेत् ॥ ५॥ ॥ इति श्रीमनुष्यत्वप्राप्तिदुर्लभबोधिसमाधिसमागमकथानकम् ॥४१॥ ४२. मनुष्यभवप्राप्तिकथानकम् । सागरादिकदत्तस्य श्रेष्ठिनो जलयायिनः । करादनर्घरत्नानि न्यपतन् सागरान्तरे ॥१॥ । आगमाहितचेतोभिर्यशोव्याप्तदिगन्तरैः । उपलम्भवराख्यानमिदं वक्तव्यमादरात् ॥२॥ एकः कोऽपि नरः सुप्तश्चक्री स्वप्नसमागमात् । स जीवः सोऽपि वा स्वप्नो दुर्लभो मानुषो भवः ॥३॥ विद्यते लोकविख्याता श्रीमदुजयिनी पुरी । चेलकाख्यो नरः कोऽपि वसत्यस्यां सुदुर्विधः ॥४॥ अन्यदा सोऽटवीं गत्वा काष्ठान्यादाय भूरिशः । तद्भारविह्वलखान्तो मुमोचैतानि दुःखितः ॥५॥ सुखसुप्तस्य तस्यारं श्रीमदुज्जयिनीवने । वक्तव्यं पुरुषैः प्राज्ञैः कथानकमिदं भुवि ॥६॥ ॥ इति श्रीमनुष्यभवप्राप्तिकथानकमिदम् ॥ ४२ ॥ ४३. अर्जुनचन्द्रकवेधकथानकम् । द्विसहस्रारकं चक्र स्तम्भा द्वाविंशतिः परः। तच्चन्द्रकं पराभागे निगदन्ति मनीषिणः ॥१॥ चन्द्रकस्यास्य वेधं यः करोति प्रीतमानसः । तस्मै ललामरामाणां कन्यारत्नं ददाम्यहम् ॥२॥ तानि च्छिद्राणि तच्चक्र विध्यते केनचित्तराम् । मानुष्यं चन्द्रकं लोकैर्दुःखतो विध्यते पुनः॥३॥ अथवाऽनेन भेदेन चान्द्रकं वेधमुत्तमम् । वदन्ति सूरयो लोके ज्ञाननिष्णातबुद्धयः ॥४॥ स्थित्वा भ्राम्यन् क्रमेणायमादिमं सप्तमं क्रमात् । त्रीणि त्रीणि पदानीत्वा चैकैकं पुरतो हि षट् ॥५॥ तच्छिद्रेऽपि परिभ्राम्यन् सरोलाघवयोगतः । सज्जः सन् विध्यति क्षिप्रं चन्द्रकाख्यं व्यधं नरः॥६॥ तथा चोक्तम्स्थित्वा भ्राम्यदनुक्रमेण युगपत्सप्तक्रमेणादिमः त्रीणि त्रीणि पदान्यतीत्य पुरतोऽप्येकैकमेवं हि षट् । तच्छिद्रभ्रमदर्पदन्तरसिरोजीन्तर्गतो' दर्पणे सजश्चेति य एष विध्यति नरः स्याञ्चन्द्रकाख्ये व्यधः ॥७॥ कृतं द्रुपदराज्येन काकन्यां पुरि चन्द्रकम् । कृष्णानिमित्तमाविद्धं नरेण विदुषा द्रुतम् ॥ ८॥ द्राधीयसाऽपि कालेन विश्वं यत्न" प्रकुर्वतः ।जीवोऽपि न च शक्नोति मनुष्यभवचन्द्रिकम् ॥९॥ 25 ॥ इति श्रीअर्जुनचन्द्रकवेधद्रौपदीनिमित्तकथानकम् ॥४३॥ ४४. नन्दकच्छपकथानकम् । एकोऽपि यो भवेजीवो यैर्देवैः परिरक्षितः । ते सुरास्ते धराकाया दुःखिनो जीवराशयः ॥१॥ जीवास्ते तेऽमरा देव्यस्तच्चक्रं भारतेऽन्वये । एते सर्वेऽपि लभ्यन्ते मानुषत्वं सुदुर्लभम् ॥२॥ 1 पज प्रीतिमानसः. 2 4 ( तिलकभूतस्त्रीणाम् ). 3 [सरोलाघव 4 प लाघवः शस्त्रविद्या. 5 पफज युग्मम्. 6 [तच्छिद्रे भ्रमदर्पदन्तुरशिरोज]. 7 [र्गते]. 8 [स्याञ्चन्द्रकाख्यो]. 9 ज (=अर्जुनेन). 10 फ व्युत्वं, ज व्यूद्यां. 11 4 यन्त्रं. 12 फज प्रकुर्वता. 13 [°चन्द्रकम् ]. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [४४. ३सुभूमचक्रिणश्चक्रममोघास्त्रं सुदर्शनम् । पृथिवीकायिका जीवा देवयक्षसहस्रकम् ॥ ३॥ धर्मपिण्डप्रदेशस्य कर्मणोऽपि विरोधिनः । एकत्रावस्थितं दृष्ट्वा पूर्वयोगविधानतः ॥ ४ ॥ नूनं कदाचिदेतेषां सर्वेषां समवस्थितिः । न पुनर्जातु नष्टस्य मनुष्यभवजन्मनः ॥५॥ वाधौं स्वयंभूरमणे कच्छपो 'नन्दनात्मकः । संतिष्ठते महाकायो निद्राघूर्णितलोचनः ॥६॥ । केनापि वह्निना बाढं तप्यमानस्य चर्मणः। भूयोऽपि बोधमायाति नन्दो वर्षसहस्रतः ॥७॥ 'नन्दः प्राप्नोति तच्छिद्रं भूयः कार्येण केनचित् । दुर्लभं हि मनुष्यत्वं कुतो बोधिसमाधिता ॥८॥ तिर्यग्लोकस्य सर्वस्य स्वयम्भूरमणोदधिः । अर्धप्रमाणमात्रोऽसौ वाक्यमेतजिनेशिनाम् ॥ ९ ॥ "एकाक्षः कच्छपस्तत्र नन्दनामा महाबलः । वज्रापधनसंयुक्तो वसति प्रीतमानसः ॥१०॥ नूनं तचर्मणो मूले जलमध्ये विसारिणः । तच्चाऽपि समानं स्यात् स्वयम्भूरमणोदधेः ॥ ११ ॥ 10 गच्छताऽष्टसहस्रेण यन्मध्ये जलसंकुले । नन्देन जातुचिदृष्टश्चर्मरन्ध्रेण भास्करः ॥ १२ ॥ दृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं यावन्नन्दो दर्शयते रविम् । स्वजनानामसौ तावजगामादृश्यतां क्षणात् ॥ १३ ॥ अथवाऽयमपि स्पष्टो दृष्टान्तो गदितो बुधैः। समस्तजनताचित्तरञ्जनासक्तमानसैः ॥ १४ ॥ विस्तीर्णपूर्वदेशस्थजलमध्ये वसन् सकः । दृष्ट्वा मध्याह्नवेलायां मार्तण्डं चर्मरन्ध्रतः ॥१५॥ यावत्सुबन्धुमित्राणां नन्दो दर्शयते रविम् । तावत्तच्छिद्रमप्याशु नष्टं वापि भयादिव ॥१६॥ 15 पुनः पुनः कदाचिच्च तच्छिद्रं पश्यति स्म सः। मानुष्यकमिदं नष्टं न जीवो लभते ध्रुवम् ॥१७॥ पूर्ववाओं परिक्षिप्तं शमिलाऽपरवारिधौ । युगं तयोः समासंगः कदाचिदपि जायते ॥ १८॥ चतुर्गतिकसंसारे क्रोधमानादिनीरके । नृजन्म श्रेष्ठमाणिक्यं न जीवो लभते गतिम् ॥ १९ ॥ गोपदण्डचतुर्हस्तः सर्वेषां चक्रिणां भवेत् । कृतभेदमसौ भूयः परमाणोः क्षयं व्रजेत् ॥ २० ॥ सुरास्ते देहिनस्ते च स दण्डश्चक्रिणो भुवि । दुर्लभं साधु मानुष्यं कुतो बोधिः समाधिना ॥२१॥ ॥ इति श्रीनन्दकच्छपकथानकमिदम् ॥ ४४ ॥ ४५. समुद्रदत्तकथानकम् । विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी नगरी परा । अस्यां बभूव भूपालः प्रजापालो गुणाकरः ॥१॥ सितमुक्तासमानाभदन्तोद्योतितखावनिः । बभूव भूपतेर्भार्या जयादिमतिरुत्तमा ॥२॥ तस्यामारक्षिको नाम यमदण्डो यमोपमः । बभूव भासुराकारो भीषयन् सकलं जनम् ॥३॥ 25 अस्यामेव पुरि श्रीमान् कीर्तिव्याप्तनभोधरः । श्रेष्ठी सागरदत्तोऽभूद् गुणरञ्जितभूतलः ॥४॥ तद्भार्या रूपसंपन्ना हरिणीलोललोचना । बभूव विनयोपेता दत्तान्ता सागरादिका ॥ ५॥ बालः समुद्रदत्तोऽभूत्तयोरत्यन्तवल्लभः । रममाणः पुरे भ्राम्यन् दिव्याभरणभूषितः॥६॥ अत्रैव नगरे निःखो वामनो नाम वाणिजः । सप्तव्यसनसंयुक्तो बभूव क्रूरमानसः ॥७॥ योषित्पानं च पापर्द्धिद्यूते विलसितं तथा । एतचतुष्टयं नूनं कामजं परिकीर्तितम् ॥ ८॥ 30 आद्यं वचनपारुष्यं दण्डपारुष्यमेव च । अर्थस्य दूषणं चेति क्रोध त्रिविधं मतम् ॥ ९॥ अथवा द्यूतकं पानं कुत्सिता वनिता वधः। परयोषिददत्तं च मांसभक्षणमेव च ॥१०॥ एतानि सप्त निन्द्यानि व्यसनानि भुवस्तले । दुःखदायीनि जन्तूनां निगदन्ति मनीषिणः ॥११॥ 1 [नन्दनामकः ]. 2 फ नन्दा, ज नन्दां. 3 ज omits some lines here. 4 प एकाख्यः. 5प विज्ञापधन, ज प्रज्ञापधन. 6 पफज युग्मम्. 7 पफज युगलम्. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६.४] असत्यभाषणकथानकम् तथोक्तम्द्यूतं पानं कुत्सितवेश्या परदारं हिंसाऽदत्तं मांसमकार्येष्वतिकष्टम् । एते दोषाः सप्त च नृणामतिपापाः शिष्टैर्दुष्टा दुर्गतिमार्गान् प्रवदन्ति ॥ १२॥ सौम्यनाम्नी प्रिया चास्य सौम्यः पुत्रोऽनयोः शिशुः । बभूव रूपसंपन्नो दारिद्रध्वजचेतसोः ॥१३॥ शयनं भोजनं स्थानं गमनं रमणं 'तराम् । सौम्यः समुद्रदत्तेन करोति स्म निरन्तरम् ॥ १४ ॥ अन्यदा रममाणौ तौ स्नेहनिर्भरमानसौ । वामनस्य गृहं शीर्णं जग्मतुः कलनिखनौ ॥१५॥ समुद्रदत्तमालोक्य दिव्याभरणभूषितम् । ससुतं स्वगृहे तत्र दध्याविति स वामनः ॥१६॥ चिन्तयित्वा चिरं सोऽपि सालंकारं पुरःस्थितम् । महालोभपरिग्रस्तो ममार क्रूरमानसः ॥१७॥ समुद्रदत्तरुच्यानि बहुमूल्यानि वामनः । आदाय तं परिक्षिप्य खड्डामध्ये सकम्बलम् ॥ १८ ॥ यस्मिन् समये चके तं खट्वान्ते च गतासुकम् । तस्मिन्नेव ददर्शायं तत्सुतः सौम्यसंज्ञकः ॥ १९॥" खपुत्रादर्शनादेतौ विह्वलीभूतमानसौ । तदा तत्पितरौ दीनौ रुदन्तौ तिष्ठतोऽधिकम् ॥ २० ॥ अथ वामनपुत्रोऽसौ रममाणः स्वलीलया । स्मृत्वा "समुद्रदत्तस्य तगृहं प्रययौ मुदा ॥ २१॥ कृत्वा सौम्यकमुत्सङ्गे श्रेष्ठिनी दीनमानसा । पप्रच्छेति तकं स्पष्टं बाष्पविप्लुतलोचना ॥ २२ ॥ समुद्रदत्तनामायं त्वद्वयस्यो ममाङ्गजः। यदि दृष्टस्त्वया क्वापि वद तं पुत्र सांप्रतम् ॥ २३॥ श्रुत्वा सागरदत्ताया वचनं सोऽब्रवीदमुम् । दृष्टः समुद्रदत्तोऽयं मया मद्भवनान्तरे ॥ २४ ॥ 15 आदाय दिव्यरुच्यानि छित्त्वा गर्ने निधाय तम् । प्रदाय कम्बलं तत्र मञ्चकं सुप्तवान् पिता ॥२५॥ श्रुत्वा तद्वचनं सत्यं ज्ञातं सागरदत्तया । वामनेन सुतो मेऽद्य नियतं निहतः कथम् ॥२६॥ किंवदन्ती ततः 'सारा ख्याता सागरदत्तया । तदा सागरदत्तस्य शोकविह्वलचेतसः ॥ २७॥ ततः सागरदत्तोऽपि श्रुत्वा वाक्यं स्वयोषितः । यमदण्डतलारस्य तद्वृत्तान्तमभाषत ॥२८॥ श्रुत्वा सागरदत्तस्य वचनं कोपसंगतम् । यमदण्डो जगामेमं भवनं वामनस्य सः ॥ २९ ॥ ० यावदन्वेषणं तत्र गृहमध्ये करोति सः । तावद्ददर्श तं बालं मृतं भावरविग्रहम् ॥३०॥ धनमादाय निःशेषं खलीकृत्य स दुष्टधीः । वामनो यमदण्डेन नगरादपसारितः ॥ ३१ ॥ यथा वामनपुत्रेण सौम्यकाख्येन भाषितम् । कार्याकार्यमनालोच्य श्रेष्ठिन्याः प्रगुणं भुवि ॥३२॥ "तथेयं क्षपकेणापि सूरिमूले यथास्थिता । आलोचना प्रकर्तव्या संसारोच्छेदमिच्छुना ॥ ३३॥ ॥ इति श्रीकौशाम्बीनगरीसमुद्रदत्तसोमकाख्यकथास्वरूप निवेदनसागरदत्तकथानकम् ॥ ४५ ॥ ४६. असत्यभाषणकथानकम् । अथ प्रणम्य वीरेशमाखण्डलनतक्रमम् । निहताशेषकर्माणं ध्वस्तकन्दर्पवारणम् ॥१॥ यातस्य संस्तरं येन क्षपकस्य सुचेतसः । नक्षत्रेण यदायुः स्यात्तत्प्रवक्ष्यामि सांप्रतम् ॥ २॥ यदा चाश्विनिनक्षत्रे क्षपको लाति संस्तरम् । तदा हि स्वातिनक्षत्रे नक्तं कालं करोति सः ॥३॥ भरणीभे प्रगृह्णाति क्षपकः संस्तरं यदि । कालं करोति रेवत्यां प्रदोषेऽसौ समाधिना ॥४॥ . 1 फज रमणान्तरम्. 2 प स्वसुतं. 3 प सालंकार. 4 फज read महालोभ etc. as the second line of No. 16 and other lines are serially adjusted. 5 प समुद्रदत्तोस्य. 6 पफज युग्मम्. 7 फज सारं. 8 फ जगादेमं. १ फज तथापि. 10 फ मिच्छता. बृ० को०९ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ४६.५संस्तरं यदि गृह्णाति कृत्तिकायां विशुद्धधीः । उत्तराफाल्गुनीभे च मध्याह्ने मरणं व्रजेत् ॥५॥ क्षपकः संस्तरं लाति रोहिण्यां यदि शुद्धधीः । कालं श्रवणनक्षत्रे निशीथे विदधाति सः॥६॥ मृगादिशिरसाभेन क्षपकः संस्तरं श्रितः। पूर्वफाल्गुनिनक्षत्रे ततः कालं करोति सः ॥७॥ आर्द्रायां यदि नक्षत्रे क्षपकः संस्तरं व्रजेत् । ततस्तदिवसे सोऽयं कालं कुर्यात्समाधिना ॥ ८॥ 5 अथवा तद्दिने कालं कदाचिन्न क्वचिद्भजेत् । क्षपकः शुद्धचेतस्कः प्रभाते विदधाति सः ॥९॥ पुनर्वसुनि नक्षत्रे लाति संस्तरकं यदि । अपराह्ने ततोऽश्चिन्यां क्षपकः कुरुते मृतिम् ॥१०॥ क्षपकः पुष्यनक्षत्रे लाति संस्तरकं यदि । मृगादिशिरसा कालं नक्षत्रेण करोत्ययम् ॥११॥ क्षपकोऽश्लेषनक्षत्रे संस्तरं भजते यदि । चित्रयाऽयं ततः कालं विदधाति समाधिना ॥ १२॥ यदा मघाख्यनक्षत्रे संस्तरं प्रतिपद्यते । क्षपकस्तद्दिने नूनं कुर्यात् कालं तदा सुधीः ॥१३॥ 10 "पूर्वफाल्गुनिनक्षत्रे क्षपकः संस्तरं भजेत् । धनिष्ठायां ततः कालं मध्याह्ने विदधाति सः॥१४॥ उत्तरोपपदायां चेत् फाल्गुन्यां संस्तरं भजेत् । ततो मूलेन भेनायं प्रदोषे कुरुते मृतिम् ॥१५॥ क्षपको हस्तनक्षत्रे संस्तरं भजते यदि । ततो भरणिनक्षत्रे प्रभाते कुरुते मृति ॥१६॥ लाति चित्राख्यनक्षत्रे क्षपकः संस्तरं यदि । मृगादिशिरसा भेन निशीथे कुरुते मृतिम् ॥१७॥ क्षपकः स्वातिनक्षत्रे वाऽऽदत्ते संस्तरं यदि । ततो रेवतिनक्षत्रे प्रभाते भजते मृतिम् ॥ १८ ॥ 15 विशाखाख्येऽथ नक्षत्रे क्षपको लाति संस्तरम् । दिवसेऽश्लेषनक्षत्रे कुर्यात् कालमयं सुधीः ॥ १९ ॥ अनुराधाख्यनक्षत्रे क्षपकः संस्तरं श्रयेत् । ततः पुष्येण संध्यायां कालं कुर्यात् समाधिना ॥२०॥ यदि ज्येष्ठाख्यनक्षत्रे क्षपकः संस्तरं भजेत् । पूर्वभद्रपदाख्ये भे दिने कालं करोति सः ॥२१॥ क्षपको मूलनक्षत्रे यदि गृह्णाति संस्तरम् । उत्तरादिकभद्रान्ते भे दिनार्धे मृतिं भजेत् ॥ २२ ॥ पूर्वाषाढाख्यनक्षत्रे लाति संस्तरकं यदि । क्षपकस्तद्दिने कालं त्वपराले करोति सः ॥ २३॥ 20 उत्तराषाढनक्षत्रे यदि गृह्णाति संस्तरम् । ततस्तद्दिवसे योगी चापराले मृतिं भजेत् ॥ २४ ॥ यदि श्रवणनक्षत्रे क्षपकः संस्तरं गतः । उत्तरादिकभद्रान्ते मे मृतिं तद्दिने व्रजेत् ॥ २५ ॥ धनिष्ठायां च नक्षत्रे यदि गृह्णाति विस्तरम् । क्षपकस्तद्दिने कालं करोति स्म समाधिना ॥२६॥ अथवा दैवयोगेन कदाचित्तद्दिने न तम् । ततोऽन्यस्मिन् दिने कालं क्षपको विदधात्ययम् ॥२७॥ नूनं शतभिषाख्ये तु नक्षत्रे संस्तरं भजेत् । यदि योगी धनिष्ठायां कुर्यात्कालं दिनात्यये ॥२८॥ 25 पूर्वभद्रपदायां च क्षपकः संस्तरं श्रयेत् । पुनर्वसुनि नक्षत्रे नक्तं कालं करोत्ययम् ॥ २९ ॥ नक्षत्रे चोत्तराभद्रपदायां यदि संस्तरम् । क्षपको लाति कालं च तद्दिने विदधाति सः॥३०॥ खत्यां यदि गृह्णाति क्षपकः संस्तरं ततः । मघायां कुरुते कालमध्यासितपरीषहः ॥३१॥ इदं सर्व परित्यज्य नक्षत्रादिकमादरात् । कालानुरूपसंभूतैर्निमित्तैर्बहुधा स्थितैः ॥ ३२॥ परीक्ष्य बलसत्त्वानि तथा निर्यापकानपि । क्षपकं संस्तरारूढं कारापयति तं गणी ॥ ३३॥ ७ अथ दक्षिणदेशेऽस्ति चान्ध्रदेशसमीपतः । श्रीपर्वतः समुत्तुङ्गो नानानोकुहसंकुलः ॥ ३४ ॥ तत्पश्चिमदिशाभागे मन्दपूर्वदला नदी । तुङ्गभद्रेऽभवत्तुङ्गजलकल्लोलसंकुला ॥ ३५॥ तद्दक्षिणे तटे रम्यं वल्लूरमभवत् पुरम् । राजा यशोधरोऽमुष्मिस्तद्भार्याऽपि वसुंधरा ॥३६ ॥ अनन्तोपपदो वीर्यः श्रीधरः प्रियचन्द्रकः । तस्या इमे त्रयः पुत्रा बभूवुः पृथुकीर्तयः ॥ ३७॥ • 1 फ omits two lines here. 2 फ पूर्वाफाल्गुनि. 3 फ पूर्वाफाल्गुनि. 4 फ वादत्ते सस्तरं यदि. 55 omits two lines here. 6 फ श्रियेत. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६.७१] असत्यभाषणकथानकम् अन्यदा सुतदारौधैरमाऽपश्यदिगन्तरम् । प्रासादशिखरारूढस्तदा राजा यशोधरः ॥ ३८॥ गगनं पश्यताऽनेन हिमाचलसमप्रभः । दृष्टो विमानसंकाशो नीरदश्चित्रकूटकः ॥ ३९ ॥ विलोक्येमं नराधीशश्चिन्तामेतामुपागतः । कारापयामि जैनेन्द्र मन्दिरं मन्दरोपमम् ॥४०॥ यावदेवं धरापृष्ठे लिखति स्म महीपतिः । तावद्विलयमापन्नो मेघोऽयं सहसा दिवि ॥ ४१ ॥ दृष्ट्वा घनं क्षयं यातं भोगनिःस्पृहमानसः । यशोधरो निनिन्दायं मनुष्यविभवादिकम् ॥ ४२ ॥ कदलीगर्भनिस्सारं यौवनं देहिनां भवेत् । आयुस्तडिद्विलोलं च तरङ्गचपलाः श्रियः ॥४३॥ चिन्तयित्वा चिरं राजा राज्यश्रियमहीनकाम् । ज्येष्ठपुत्राय निश्शेषां तदानीं दातुमुद्यतः ॥४४॥ नेच्छतीमां तनूजोऽयं ज्येष्ठो भोगपराङ्मुखः । श्रीधराय पुना राजा वितरीतुं श्रियं श्रितः॥४५॥ श्रीधरोऽपि यदा राज्यं न वाञ्छति मनागपि । तदा यशोधरो राजा प्रियचन्द्राय तद्ददौ ॥४६॥ यशोधरः 'सुपुत्राभ्यां हित्वा सर्व परिग्रहम् । वरदत्तमुनेः पार्थे दीक्षां केवलिनोऽग्रहीत् ॥४७॥ 10 शुक्लध्यानगजारूढो व्रतकङ्कणभूषितः । गुप्त्युत्थितसितच्छत्रः "समितिशुक्लचामरः ॥४८॥ तपोबाणेन शातेन शिरश्छित्त्वा यशोधरः। संसारप्रतिपक्षस्य प्राविशत् सिद्धिपत्तनम् ॥४९॥ आराधनां समाराध्य कृत्वा कालं समाधिना । विधिनाऽनन्तवीर्योऽपि प्राप्तोऽनुत्तरवासिताम् ॥५०॥ अथ नानातपो घोरं कुर्वाणः श्रीधरः शुचौ । कायोत्सर्गेण संतस्थे श्रीपर्वतमधिष्ठितः ॥५१॥ प्रपश्यन्नाटकं दिव्यमतिमुक्तकमण्डपे । प्रियचन्द्रो भुजङ्गेन दष्टः पञ्चत्वमागतः ॥ ५२ ॥ प्रियचन्द्रे नृपे जाते पञ्चतां दैवयोगतः । न कोऽपि राज्ययोग्योऽस्ति तद्वंशे विधुनिर्मले ॥५३॥ अत्रान्तरे शुचं प्राप्य परां सर्वेऽपि मत्रिणः । यशोधरादियोगीशान् प्रजिघ्युः पुरुषानरम् ॥ ५४॥ सर्वा दिशः परिभ्रम्य तद्वार्तामवगम्य ते । प्राप्य स्वमत्रिसामन्तांस्तद्वृत्तान्तं बभाषिरे ॥ ५५॥ निहत्याशेषकर्माणि मोक्ष प्राप्तो यशोधरः । अनुत्तरविमानं च गतोऽनन्तबलोऽपि सः ॥५६॥ श्रीपर्वतं परिप्राप्य श्रीधरोऽपि महामुनिः । जग्राहातापनं योगं ग्रैष्मादित्यकराहतः ॥ ५७ ॥ 20 तद्वाता कथयित्वा ते तोषपूरितमानसाः । तदुद्दिष्टे धराभागे तस्थिवांसो विचक्षणाः ॥ ५८॥ निशम्य तद्वचो मत्री तोषकण्टकिताङ्गकः । श्रीपर्वतं परिप्राप्य ददर्श श्रीधरं यतिम् ॥ ५९॥ प्रणम्य तं मुनि मन्त्री समाप्तनियमं तदा । शोकतोषसमायुक्तो जगाद पुरतः स्थितः ॥ ६॥ भगवन् प्रियचन्द्रोऽसौ मृति प्राप्तो सुतो हितः । तस्मादुत्तिष्ठ गच्छावः कुरु राज्यं सुताप्तये ॥६१॥ आकर्ण्य सचिवस्योक्तं श्रीधरः श्रीसमुत्सुकः । जगाम स्वगृहं शीघ्रं तदानीं संततीच्छया ॥६२ ॥ 25 राजानो मत्रिणः सर्वे तूर्यमङ्गलनिस्वनैः । राजपढें बबन्धुस्ते श्रीधरस्य कृतस्तवाः ॥ ६३॥ राज्यपट्टो यतो बद्धस्तस्य तैर्मुण्डमस्तके । ततो मुण्डितराजोऽयं विख्यातो धरणीतले ॥ ६४ ॥ यतः श्रियं परिप्राप्तः श्रीधरः पर्वतेन सः । ततः श्रीपर्वतख्यातिं जगामायं महीधरः ॥६५॥ वंशोऽस्य मुण्डिताभिख्यः श्रीधरस्य विलासिनः । समस्तलोकविख्यातः प्रसिद्धिं भुवने गतः॥६६॥ ततो मुण्डितवंशे च भगवान् ज्ञानसागरः । नेमिनाथजिनः श्रीमान् यादवाम्बरचन्द्रमाः ॥ ६७ ॥ ॥ वरदत्तमुनीन्द्रस्य गणेशस्य तदन्वये । जातो मुण्डितवंशोऽयं केवलेन विलासिनः ॥ ६८ ॥ पारंपर्येण भूपानां तदनुक्रमयायिनाम् । अयं मुण्डितवंशोऽपि जगाम भुवि विस्तरम् ॥ ६९ ॥ अन्ध्रदेशैकदेशस्थकर्मराष्ट्रजनान्तके । वेण्यातटपुरं रम्यं विद्यते जनसंकुलम् ॥ ७० ॥ बभूवात्र पुरे राजा मुण्डवंशसमुद्भवः । लोकवात्सल्यसंपन्नो धनदो धनदोपमः ॥ ७१॥ 1 फ °द्दिगम्बरम्. 2 फ जातं. 3 पफज त्रिकलम्. 4 फ खपुत्राभ्यां. 5 फ समितिः. 6 पफज युग्मम्. 7 [याते]. 8 प परं. 9 पफज युग्मम्. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [४६.७२श्रावकाणुव्रतोपेतो धार्मिकः श्रुतसंगतः । कलाविज्ञानसंपन्नो जिनशासनभावितः ॥ ७२ ॥ सर्वकालं सभामध्ये जिनधर्मकथामलम् । आक्षेपण्यादिकामेष विदधाति चतुर्विधाम् ॥७३॥' एवं धर्मकथां नूनं तदा कथयताऽमुना । समस्तोऽपि जनस्तत्र नीतः श्रावकतां पराम् ॥ ७४ ॥ तथा स्वमेदिनी सर्वा ग्रामपत्तनकादिका । विहिताऽनेन सा तेन जिनायतनमण्डिता ॥ ७५ ॥ । अत्रैकं दैवयोगेन कोऽपि बौद्धः समुन्नतम् । विहारं सौगतं शुभ्रं कारयामास भक्तितः ॥७६॥ तस्मिन् बौद्धविहारेज नानाशास्त्रविचक्षणः । बुद्धश्रीर्भिक्षुरेको हि वसति प्रीतमानसः ॥ ७७॥ उपासकोऽस्य शिष्योऽस्ति संघश्री वि विश्रुतः। धनदस्य महामत्री जिनधर्मपराङ्मुखः ॥ ७८ ॥ अस्य संघश्रियो भार्या विमलश्रीः प्रकीर्तिता । सुताऽनयो सुरूपा स्याद् विमलादिमतिः परा ॥७९॥ सा च राज्ञो महादेवी सर्वान्तःपुरनायिका । विहाय सौगतं धर्म जिनधर्ममुपाश्रिता ॥ ८०॥ 10 मत्री पुनः सदा सभ्यः संघश्रीर्जिनभाषितम् । धर्म कथयतोऽपीमं न गृह्णाति महीपतेः ॥ ८१॥ राजाऽन्यदा महादेवीमत्रियुक्तः प्रतिष्ठते । वर्णयन् सौधमूर्धस्थश्चारणानां गुणान्तरम् ॥ ८२ ॥ दिशावलोकनं कुर्वन् व्योग्नि चारणयुग्मकम् । ददर्श धनदो भूपो भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ ८३॥ प्रोत्थाय विष्टरादाशु भूपतिः पदसप्तकम् । तत्सन्मुखमभिप्राप्य वन्दित्वेमौ बमाण सः॥ ८४॥ खामिनौ ज्ञानसंपन्नौ सर्वसत्त्वकृपान्वितौ । धर्म कथयतां सारं दयां कृत्वा ममोपरि ॥ ८५ ॥ 15 श्रुत्वा तद्वचनं साधू चारणौ गगनादरम् । अवतीर्य तदभ्याशं प्राप्तवन्तौ शमाम्बुधी ॥ ८६ ॥ सत्यं ब्रूहि त्यजादत्तं संगं च परयोषितः । दयां सकलसत्त्वेषु धर्म कुरु जिनोदितम् ॥ ८७॥ साधुवाक्यं समाकर्ण्य प्राहेदं वसुधापतिः । अम्बरेचरयोगीन्द्रसंगनिधूतकल्मषः ॥ ८८॥ जिनधर्ममयं मन्त्री संघश्रीनामको मम । कथ्यमानं बुधैः श्रेष्ठं मनसाऽपि न वाञ्छति ॥ ८९ ॥ स्पृशतीमं यथा बाढं श्रद्धत्ते रोचतेऽपि वा। विधातव्यं तथा स्पष्टं भवद्भिर्हितमिच्छुभिः ॥९॥ 20 मुनिनाऽस्य तथा धर्मः कथितो जिनदेशितः। यथाऽयं जातसंतोषो दध्यौ विस्मितमानसः ॥९१॥ अहो जैनस्य धर्मस्य माहात्म्यं परमं भुवि । सर्वकालमहं पापो वञ्चितोऽस्मि कुहेतुभिः ॥ ९२ ॥ देवपाषण्डमोहादिवर्जितं जिनदेशितम् । धर्म जग्राह संघश्रीः सम्यग्दृष्टिमहामतिः ॥ ९३॥ ग्राहयित्वा मुनी धर्म मत्रिणं जिनभाषितम् । चारणौ जग्मतुः क्वापि गतिकर्मोदयादरम् ॥ ९४ ॥ ततो जगाद राजेन्द्रो मत्रिणं प्रीतमानसः । मम मातुल संतोषो जातस्त्वद्धर्मसंग्रहात् ॥ ९५॥ 25 अपरं च त्वया साधो सभामध्यगतस्य मे । प्रभाते खलु वक्तव्यं चारणद्वन्द्वमादरात् ॥ ९६ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं संघश्रीः परमोदयम् । जगादेमं विनीतात्मा तोषपूरितमानसः॥ ९७॥ त्वं महाराज तिष्ठ श्वो विशिष्टजनसंसदि । निराकरोम्यहं धर्म बौद्धादीनां स्वहेतुभिः ॥ ९८॥ तिर्यग्नरकदुःखान्तं स्वर्गमोक्षप्रदायकम् । प्रकाशयामि जैनेन्द्रं धर्म भव्यसुखावहम् ॥ ९९ ॥ चारणानां युगं वच्मि मया दृष्टं सभाऽन्तरे । एवं कृतप्रतिज्ञोऽसौ निर्जगाम नृपान्तिकम् ॥१०॥ 30 संघश्रीः प्रीतचेतस्को निर्गत्य नृपमन्दिरात् । बुद्धश्रियं परिप्राप्य तस्थौ विनयवर्जितः ॥१०१॥ दृष्ट्वा संघश्रियं स्तब्धं वन्दनादिविवर्जितम् । बुद्धश्रीः स्थविरः प्राह कोपलोहितलोचनः ॥१०२॥ बभूवोपासको बौद्धो मद्धर्मेण सुभावितः। बुद्धस्य मम वा कस्माद् वन्दनां न करोषि किम् ॥१०३॥ बुद्धश्रीवचनं श्रुत्वा संघश्रीनिजगावमुम् । बुद्धधर्मेण शून्येन चिरकालं प्रवञ्चितः ॥ १०४॥ जिनधर्म गृहीत्वाऽहं सांप्रतं समुपागतः । बुद्धधर्म च नेच्छामि मनोवाकायकर्मभिः ॥ १०५॥ 1 पफज त्रिकला. 2 फ तत्सन्मुखमपि प्राप्य. [नृपान्तिकातू]. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६. १३८ ] असत्यभाषणकथानकम् अधुना भूभुजा सार्धं प्रासादे तिष्ठता मया । दृष्टं चारणयुग्मं हि कुर्वद्धर्मकथां पराम् ॥ १०६॥ श्रुत्वा संघश्रियो वाक्यं बुद्धश्रीनिजगाद तम् । अनवस्थां च मा कुर्यान्मोहान्धतमसावृतः॥१०७॥ किं न श्रुतं त्वया वाक्यं यत्प्रोक्तं पिटकत्रये । यथा शून्यमिदं सर्वे नितान्तं प्रतिभासते ॥ १०८॥ महेन्द्रजालसंवेदी यो भूपोऽस्ति भुवस्तले । मायया दर्शितं तेन तव चारणयुग्मकम् ॥ १०९॥ अलीकं मानुषं रूपं दृष्ट्वा गगनगोचरम् । तेन त्वं मोचनं भद्र बुद्धधर्मस्य मा कुरु ॥ ११०॥5 इदं सतां मनोहारि प्रसिद्धं सत्कथानकम् । कथ्यमानं मया स्पष्टं शृणु त्वं सुसमाहितः ॥१११॥ काशीजनपदे रम्ये वाराणस्यां पुरि प्रभुः । उग्रसेनोऽभवच्छ्रीमान् धनश्रीवल्लभाऽस्य सा ॥११२॥ तस्य पुरोहितो विप्रः सोमशर्माऽभवत् सुधीः । भार्या पद्मावती चास्य पद्मपत्रनिभेक्षणा ॥ ११३॥ पद्मश्रीरनयोः पुत्री स्नेहनिर्भरचेतसोः । कुमारी रूपसंपन्ना बभूव कलभाषिणी ॥ ११४ ॥ सोमशर्मा द्विजस्तत्र गुणी भागवते मठे । चकार महती पूजां परिव्राजकसंहतेः ॥ ११५॥ ॥ नानाविधालयं कृत्वा सितीकृतनभस्तलम् । ददावाहारदानं स तेभ्यो भक्तिसमन्वितः ॥११६ ॥ अत्रान्तरे परो विद्वान् रूपयौवनगर्वितः । परिव्राजकसंयुक्तो भगवो विहरन् कचित् ॥ ११७॥ आगत्य दूरतः खिन्नो मन्दमन्दं गतिक्रियः । सोमशर्मालये तस्थौ सुवर्णखुरनामकः ॥ ११८ ॥ अन्नं प्रसाधितं साधु परिविष्टं तया परम् । पद्मश्रिया प्रहृष्टात्मा भुक्ते स्वर्णखुरो हसन् ॥ ११९॥ अत्यागमनतो नित्यं सरागेक्षणभाषणात् । अनयोः प्रेमसंबन्धो बभूव रतिकारणात् ॥ १२० ॥ पद्मश्रिया विना चाा स्थातुं क्षणमपि स्फुटम् । सुवर्णखुरकः साऽपि तं विना नाशकत् तदा ॥१२१॥ घनागमावसाने तो स्नेहनिर्भरमानसौ । निर्जग्मतुः पुराच्छीघ्रं मुदितौ धनसंपदा ॥ १२२॥ निशम्य सोमशर्माऽयं पद्मश्रीहरणं तदा । धावति स्म तयोः पश्चात् कोपारुणनिरीक्षणः ॥१२३॥ पद्मश्रियं यदा नायं पश्यति स्म स्ववल्लभाम् । तदाऽऽशु भूपतिं प्राप्य विललाप सुदुःखितः ॥१२४॥ विलोक्य सोमशर्माणं महाकारुण्यसंगतः । विलापकारणं राजा पप्रच्छेमं पुरःस्थितम् ॥ १२५ ॥ ३॥ महीपालवचः श्रुत्वा सोमशर्मा जगाद तम् । नीता स्वर्णखुरेणाशु पद्मश्रीमत्सुता नृप ॥ १२६ ॥ सोमशर्मवचः श्रुत्वा तलारं प्राह भूपतिः । तं परिव्राजकं दुष्टं सकन्यं शीघ्रमानय ॥ १२७॥ ततस्तेन तलारेण नृपवाक्येन वेगतः । प्राध्वंकृत्यायमानीतो भूपतेः पुरतः कृतः ॥ १२८॥ दुराचारमिमं दृष्ट्वा सुवर्णखुरमग्रतः । पप्रच्छ भूपतिर्विप्रास्तदानीं धर्मपाठकान् ॥ १२९॥ विहितं येन दुष्टेन कन्यया सह साहसम् । तस्मै को दीयते दण्डो ब्रूत शीघ्रं द्विजाः स्फुटम् ॥१३०॥ 23 नृपेन्द्रवचनं श्रुत्वा वदन्तीमं पुनर्द्विजाः । अनेन च विधानेन नीयतामेष पञ्चताम् ॥ १३१ ॥ ब्राह्मणस्य यथा रक्तं भूम्यां न पतति ध्रुवम् । तथायं मार्यतां भूप धर्मो हि मनुभाषितः ॥१३२॥ ततो ब्राह्मणवाक्येन शुष्कवृक्षे श्मशानके । उल्लम्बितो नृपेणासौ गतः कालेन पञ्चताम् ॥ १३३॥ उल्लम्बितं तमाकर्ण्य सुवर्णोपपदं खुरम् । पद्मश्रीः शोकसंतप्ता बभूव क्षणमात्रतः ॥ १३४ ॥ श्रीखण्डपुष्पताम्बूलधूपवस्त्रादिकं तदा । पद्मश्रीनक्तमादाय ययौ तं प्राणवल्लभम् ॥ १३५ ॥ 30 वस्त्रभूषणसंयुक्तं पुष्पताम्बूलभूषितम् । तत्कलेवरमालिङ्गय पद्मश्रीः प्रययौ गृहम् ॥ १३६ ॥ ततो विलोक्य भूपेन श्वो वस्त्रादिविभूषितम् । तत्कलेवरमानीतं भास्मतां कोपतः क्षणात् ॥१३७॥ भूयः सर्वविधानेन नक्तमागत्य बालिका । तभूतिपुलकं कृत्वा चिक्षेप स्रग्विलेपनम् ॥ १३८ ॥ 1फ चारणयुग्मे. 2 फ कुलभाषिणी. 3 फ interchanges 117 and 118. 4फ पराम: 5 फ नृपः. 6 फ°पमानीतो. 7 फ तत्कडेवर. 8 फ तत्कडेवर. 9 फ नग्नमागत्य. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ४६. १३९ १३९ ॥ १४० ॥ १४१ ॥ ॥ १४२ ॥ ॥ १४३ ॥ ॥ १४७ ॥ १४८ ॥ १४९ ॥ तद्भस्मपुञ्जमालिङ्ग्य तत्प्रेम्णाऽतिगरीयसा । मुक्तकण्ठं रुरोदासौ साधुमानसदुःखदम् ॥ पद्मश्रियं तत्र रुदन्तीमतिविह्वलाम् । तद्भस्म तत्पिता दुःखी चिक्षेप सरितो हृदे ॥ ततः पूर्वविधानेन तं हृदं प्राप्य दुःखिता । रोदिति स्म सका तत्र तद्भवेषणकारिणी ॥ मृतकालिङ्गने तत्र गूढे च जलभस्मनोः । किं कदाचित् सुखं प्राप्तं किं दृष्टो वल्लभोऽनया • यथा सुखं तया नातं मनस्संकल्पकल्पितम् । पद्मश्रिया न दृष्टो वा प्रियः स्वर्णखुरो धवः तथा बुद्धिविहीनानां बौद्धधर्ममकुर्वताम् । उपोपपद्यते ज्ञानं सत्त्वानां न कदाचन ॥ तपःसंयमचारित्रं मोक्षसंप्राप्तिकारणम् । विद्यतेऽल्पं यथा सर्वं त्वं विद्धि परशासने ॥ नास्ति किंचिद्ध्रुवं वस्तु स्व॒सिद्धान्ते प्रदर्शितम् । ज्ञानबुद्धेन बुद्धेन लोककारुण्यकारिणा ॥ सर्वं शून्यमिदं वस्तु प्रकारैः सकलैरपि । न श्रुतं सौगतं वाक्यं येन त्वं यासि मूढताम् to इदं बौद्धं मतं शून्यं जानन्नपि नरेशिना । कुहेतुभिः कुदृष्टान्तैर्भूयो नीतो विमूढताम् बुद्धश्रियो निशम्येदं वाक्यं सांशयिक तराम् । अमुं जगाद संघ श्रीः संदेह जडमानसः ॥ यदि राजा प्रभाते मां सभास्थो वदति ध्रुवम् । त्वया चारणयुग्मं च किं दृष्टं वद सांप्रतम् ॥ १५० ॥ एवं भूपतिना पृष्ठे सभामध्ये विपश्चिता । अस्माभिः किं प्रवक्तव्यं तत्पुरो ब्रूहि सांप्रतम् ॥ १५१ ॥ श्रुत्वा संघश्रियो वाक्यं संदेहमलभूषितम् । भूयो वभाण बुद्धश्री.द्धराद्धान्तकोविदः ॥ १५२ ॥ 15 परमोपासको भूत्वा विज्ञातपरमार्थकः । बुद्धधर्मं विहायेमं जिनधर्मं प्रकाशसे ॥ १५३ ॥ तेन सर्वप्रकारेण चारणं युगलं मया । न दृष्टं जातुचिद् वाक्यं प्रवक्तव्यमिदं त्वया ॥ १५४ ॥ अपरं च त्वया साधो प्रभाते नृपमन्दिरम् | सन्मानदानलाभेन न गन्तव्यं यशस्विना ॥ १५५ ॥ श्रुत्वा तस्य वचो गत्वा भुक्त्वा मौनं विधाय च । संधैश्रीर्मञ्चके तस्थौ बद्धलोचनपट्टकः ॥१५६॥ ततोऽन्यदिवसे जाते प्रभाते रविसंगते । 'प्राभातिकीं क्रियां कृत्वा तस्थौ सदसि भूपतिः ॥ १५७ ॥ क्षणमेकं ततः स्थित्वा तत्रत्यान् पार्श्ववर्तिनः । सभ्यानिति स राजेन्द्रो जगौ विस्मितमानसः ॥ १५८ ॥ मया मद्भार्यया संघश्रिया मत्पार्श्ववर्तिभिः । चारणानां युगं दृष्टं व्याख्यानं विदधत् परम् ॥ १५९ ॥ धर्माख्यानं विधायोच्चैर्भव्यपापविनाशनम् । जगाम देवमार्गेण पवित्रं तत्पुनर्बुधाः ॥ श्रुत्वा नरेन्द्रसद्वाक्यं बुधविस्मयकारणम् । ऊचुर्नरेश्वरं हृष्टा महासामन्तकुञ्जराः ॥ १६९ ॥ मुनयश्चारणाभिख्या राजन्नम्बरगामिनः । विपुण्यैर्नूनमस्माभिर्न दृष्टा धर्ममूर्तयः ॥ १६२ ॥ 25 सभ्यानां वाक्यमाकर्ण्य चारणेक्षणमिच्छताम् । जगाद भूपतिर्भूयस्तान् दृढीकर्तुमादरात् ॥ १६३॥ भवतां न प्रतीतिश्चेज्जायते मम भाषिते । ततः संघश्रियं पृष्ट्वा निश्चयं कुरुतात्र भोः ॥ १६४ ॥ एवमस्त्येव चेदीश संघ श्रीर्भवनादिह । आकार्यतां यथा वक्ति सर्वसंतोषकारणम् ॥ १६५ ॥ राज्ञा तद्वचनाच्छीघ्रं प्रेषिताः स्वहिता नराः । तदन्तिकं परिप्राप्य ते वदन्ति यथायथम् ॥ १६६ ॥ माम किंचित्परं कार्यमुत्तिष्ठ सचिव द्रुतम् । एहि भूपतिसामीप्यमग्रतो भव सांप्रतम् ॥ १६७ ॥ तेषां वाक्यमुपश्रुत्य संघ श्रीस्तान् जगौ पुनः । नाहं गन्तुं प्रशक्नोमि मम लोचनवेदना ॥ १६८ ॥ तद्वाक्यतः पुनः सोऽयं भाषितोऽमीभिरादरात् । अवश्यमेव गन्तव्यं समीपं भूपतेस्त्वया ॥ १६९॥ ततस्तद्वचनात् सोऽपि बद्धलोचनपट्टकः । राजान्तिकं परिप्राप्य यथासनमुपाविशत् ॥ १७० ॥ ततः सुखोपविष्टं तं सस्नेहं सरसं नृपः । उवाच प्रीतिचेतस्कः सामन्तान्तःपुरान्वितः ॥ १७१ ॥ १६० ॥ 30 20 ७० ॥ 1 पफज युग्मम्. 2 फज शांसयिकां 3 फज संदेहजल 4 फ यशखिनः 5 फज संघ श्रीमञ्च के. 6 पज प्रभातिकीं 7 फ दृष्ट्रा १४४ ॥ १४५ ॥ १४६ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४७. १२] नागदत्तकथानकम् मया त्वया महादेव्या प्रासादोपरि तिष्ठता । अपराह्नेऽम्बरे माम दृष्टं चारणयुग्मकम् ॥ १७२ ॥ श्रुत्वा नरेश्वरस्येदं वचनं बुधसंसदि । बभाण भूपतिं शीघ्रं संघश्रीर्मूढमानसः ॥ १७३॥ अहो सभ्या मया जातु न दृष्टं चारणं युगम् । अत्र काले कुतो दृश्या चारणानामवस्थितिः॥१७४॥ असत्यभाषणादस्य लोचने पतिते भुवि । पृष्टो भूयोऽपि भूपेन सत्यं वद यथायथम् ॥ १७५ ॥ भूयोऽपि भाषितं तेन नियतं भूपवाक्यतः । न दृष्टं तन्मया कापि चारणानां युगं बुधाः ॥१७६॥ एवं निगदितेऽनेन विष्टरात् पतितो भुवि । अयं पृष्टो नरेन्द्रेण सत्यं ब्रूहि यथायथम् ॥ १७७॥ निशम्य भूभुजो वाक्यं न दृष्टं वक्ति तन्मया। धरातो नरकं प्राप्य संघश्रीर्दुष्टमानसः ॥ १७८॥ तन्मुखेनोदयं प्राप्तं कर्म तस्य दुरात्मनः । व्यन्तरा अपि साहाय्यं कुर्वन्ति कलिलाशयाः॥ १७९॥ तावन्मानं तदायुश्च तद्व्याजात् पाकमागतम् । असंभाव्यं महापापभराद् यद्वा न किंचन ॥१८०॥ अज्ञातधर्मसद्भावो मिथ्यात्वग्रहदूषितः । अलीकभाषणासक्तो जातोऽसौ दीर्घसंसृतिः ॥ १८१॥" ततस्तदन्वये सर्वे जात्यन्धास्तनवोऽभवन् । तदुपार्जितदोषेण मिथ्यात्वं हि मलीमसम् ॥ १८२ ॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीक्षं बहवो नरकुञ्जराः । मिथ्यात्वविषमुत्सृज्य बभूवुः श्रावकास्तदा ॥ १८३॥ राज्यं दत्त्वार्हदासाय सुताय नरकुञ्जरैः । अन्ते समाधिगुप्तस्य दीक्षां जग्राह भूपतिः ॥ १८४॥ विमलादिमतिर्देवी सर्वान्तःपुरसंगता । जिनदत्तार्जिकापाचँ गुरुं नत्वा दधौ तपः ॥ १८५ ॥ ततोऽनेकसमाः कृत्वा नानाविधतपांसि तु । धनदः स मुनिर्विद्वानाध्यासितपरीषहः॥१८६॥ 15 दिव्यनामपुरीपार्थस्थितगोवर्जपर्वते । जगाम निर्वृतिं वीरो गिरीन्द्रस्थिरमानसः ॥ १८७॥ विमलादिकमत्यन्ताधर्यिकाः शुद्धचेतसः । नानातपो विधायोचैर्भावयोग्यं दिवं ययुः ॥१८८॥ ॥ इति असत्यभाषणकथानकमिदम् ॥ ४६॥ ४७. नागदत्तकथानकम् । अथावन्तीमहादेशे श्रीमदुजयिनी पुरी । अस्यामभून्महीपालो धर्मपालः प्रतापवान् ॥ १॥ धर्मश्रीरस्य भार्याऽभूत् धर्मतत्परमानसा । विनयाचारसंपन्ना कामिनीव मनोभुवः ॥२॥ अस्याभवन्महाश्रेष्ठी दत्तान्तः सागरादिकः । तद्भार्याऽपि सुभद्राऽऽख्या भद्रभावा प्रियंवदा ॥३॥ कान्तो नागकुमाराभो नागदत्तोऽभवत् सुतः । अनयो रूपसंपन्नः पुत्रजन्माभिलाषिणोः॥४॥ अस्यामेव पुरि श्रेष्ठी धनधान्यसमन्वितः । समुद्रोपपदो दत्तो भार्या तन्नामसंगता ॥५॥ रूपयौवनसंपन्ना कन्दोट्टदललोचना । अनयोः पद्मसद्वका प्रियङ्गुश्रीः सुताऽभवत् ॥ ६॥ 25 नागदत्तकुमाराय सुकुमाराय धीमते । पितरौ दत्तवन्तौ तौ प्रियङ्गुश्रियमूर्जिताम् ॥ ७॥ प्रियङ्गुश्रियमालोक्य वितीर्णामस्य भोगिनः । तदा मैथुनिकः क्षिप्रं नागसेनो दधौ रुषम् ॥ ८॥ अन्यदा नागदत्तोऽपि मन्दिरं जैनपुङ्गवम् । सोपवासः परिप्राप्य धर्मं शुश्राव शुद्धधीः ॥ ९॥ जिनभावानुरक्तोऽयं जिनमन्दिरबाह्यतः । तस्थौ प्रतिमया धीरो नागदत्तस्तमीमुखे ॥ १०॥ प्रतिमास्थं विलोक्येमं जिनभक्तिपरायणम् । नागसेनो मुमोचाशु स्वहारं तत्पदोपरि ॥ ११ ॥ धृत्वा हारमयं दिव्यं तत्पदोपरि दुष्टधीः । चौरं ब्रुवन्निमं वाचा पुरान्तर्धावति द्रुतम् ॥ १२ ॥ 2 फज दिव्यमासपुरा. 3 पफज युग्मम्. 4 फज संघश्रीअसत्य. . 1 पज असंभाव्यमहा. 5फ श्रीमते. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [४७. १५दृष्टोपचारतः क्षिप्रमारक्षकमनेन च । किंवदन्ती समस्ता सा भूभुजे विनिवेदिता ॥१३॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा सत्यहीनं वदन्नपि । जगावारक्षकं भूयो द्रुतमेनं समानय ॥ १४ ॥ भूषवाक्यं समाकर्ण्य तदानीं जनसंनिधौ । नागदत्तश्चकारेमा प्रतिज्ञा भोगनिःस्पृहः ॥१५॥ उपसर्गोऽयमीक्षो यदि क्षेमेण यास्यति । ममातः पाणिपात्रेण पारणं प्रभविष्यति ॥१६॥ जिभधमोनुरागस्थो धर्मध्यानपरायणः । कायोत्सर्गेण संतस्थे नागदत्तो गिरीन्द्रवत् ॥१७॥ जानन्नपि च सद्भावं नागदत्तस्य शोभनम् । जनापवादरक्षार्थं खड्ग जग्राह भूपतिः ॥१८॥ यावजघान तं राजा कृपाणेन गले रुषा । तावद्धारलता जाता दिव्यमुक्ताफलान्विता ॥ १९॥ नभस्थैरमरैस्तुष्टैर्गन्धामोदितदिग्मुखा । नागदत्तोपरि क्षिप्रं पुष्पवृष्टिः प्रपातिता ॥ २०॥ अहो धर्मानुरागोऽयं परमो जिनशासने । विबुधैर्नागदत्तस्य समुद्रुष्टा प्रघोषणा ॥ २१॥ 10 दृष्ट्वाऽतिशयमेतस्य प्रशान्ता बहवो नराः । श्रामण्यं जिनधर्मं च प्रतिपन्ना महाधियः ॥ २२ ॥ अनेन भूभुजा सार्धं ज्ञात्वा संसारफल्गुताम् । समीपे धर्मसेनस्य नागदत्तोऽग्रहीत् तपः ॥२३॥ ॥ इति श्रीजिनधर्मानुरागसहितनागदत्तकथानकमिदम् ॥४७॥ ४८. वसुमित्रकथानकम् । विनीताविषयेऽयोध्यापुरे धर्मोदयो नृपः । विद्यते सुन्दरी चास्य सुवर्णश्री रविप्रभा ॥१॥ ॥ अस्यैव भूपतेः श्रेष्ठी वसुमित्रोऽभवद्धनी । अत्यन्तश्रावको विद्वान् कीर्तिच्छन्नदिगम्बरः ॥२॥ जिनवरचरणद्वन्द्वकुशेशयमधुव्रतः । प्रेमानुरागरक्तोऽसौ निर्मले जिनशासने ॥३॥ अन्यदा वसुमित्रोऽसौ जिनभक्तिसमन्वितः । नक्तं प्रतिमया तस्थौ स्वगृहे शुद्धमानसः॥४॥ एवं स्थितस्य तस्यान्यो देवः कुटिलमानसः। 'उपसर्गे चकारेमं तत्परीक्षणकारणात् ॥५॥ तत्पुत्ररमणीबन्धुधनधान्यादिकं तदा । आदाय सवकं देवस्तत्पुरो निदधौ सकः॥६॥ ० सम्यक्त्वदृढसच्चित्तो निश्चलो दृढशासने । प्रेमानुरागरक्तोऽयं प्रतिमास्थो वितिष्ठते ॥ ७॥ ततो देवोऽपि संतुष्टस्तत्पूजां प्रविधाय सः। आकाशगामिनी विद्यां दत्त्वाऽस्मै प्रययौ दिवम् ॥८॥ तस्यातिशयमालोक्य केचिद्दीक्षां प्रपेदिरे । जैन धर्म तथाऽन्ये च क्षान्तिविन्यस्तचेतसः॥९॥ ॥ इति श्रीप्रेमानुरागयुक्तवसुमित्रकथानकमिदम् ॥४८॥ ४९. जिनदत्तादिकथानकम् । 25 अथ सागरबुद्ध्याख्यः सार्थवाहो महाधनः । वसति स्म गुणावासः श्रीमदुज्जयिनीपुरि ॥१॥ द्वौ वाणिजौ वणिज्यायै श्रावको श्रुतिसागरौ । तत्समं प्रस्थितौ गन्तुं परमं दक्षिणापथम् ॥ २॥ उशीरमलयं गच्छद्विलसत्यटवीवने । स सार्थों लुण्टितश्चौरैः सधनो भीमविग्रहैः ॥३॥ जिनववादिकौ दत्तौ जिनशासनभावितौ । विनयाचारसंपन्नौ धर्मविन्यस्तचेतसौ ॥४॥ धर्मानुरागरक्तौ तौ प्रत्याख्यानं द्विभेदकम् । वने जगृहतु/रौ स्वशरीरेऽपि निःस्पृहौ ॥ ५॥ 30 तत्रैवान्यो द्विजो भद्रः सोमशर्मा महामतिः । तयोः पार्थं परिप्राप्य धर्म शुश्राव सौख्यदम् ॥६॥ पिपीलिकादिजीवानां क्षुद्राणामुपसर्गकम् । सहित्वा कालमासाद्य सौधर्मेऽजन्यसौ सुरः ॥७॥ 1 प दुष्टोपचारतः 2 फज क्षिप्रमारक्षिक. 3 फज जगावारक्षिकं. 4 फज कथानकम्, 5 [उपसर्ग ]. 6 प सचकं, but सकलं in the margin; [ समकं]. 7 ज जिनवस्त्रादिको. 84 युग्मम, फ युगकाम, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१.८ ] लकुच कथानकम् ७३ ततोऽवतीर्य संजातः श्रेणिकस्य महात्मनः । अभयादिकुमारोऽसौ रूपसौभाग्यभाग्यवान् ॥ ८ ॥ ततो द्वावपि तौ तत्र समाधिं प्राप्य वाणिजौ । सौधर्मे धर्मसंभारादभूतां विबुधौ परौ ॥ ९ ॥ ॥ इति श्रीधर्मानुरागसहितजिनदत्तवसुदत्तसोमशर्मकथानकमिदम् ॥ ४९ ॥ * ५०. लकुचकथानकम् । अथावन्ती महादेशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । धनवर्मोऽभवद् राजा धनवर्माऽस्य वल्लभा ॥ १ ॥ अत्यन्तप्रेमसंभारसंसक्तमनसोस्तयोः । बभूव लकुचः पुत्रो युवराजो विचक्षणः ॥ २ ॥ अन्यदा कालपूर्वेण म्लेच्छेनोपद्रुतं द्रुतम् । स्वदेशं लकुचः कोपात् तं जगाम ससाधनः ॥ ३ ॥ प्राध्वंकृत्य तकं जन्ये बहुशत्रुक्षयावहे । विवेश स्वपुरीं शीघ्रं लकुचः प्रीतमानसः ॥ ४ ॥ जनकस्य ततोऽनेन कालम्लेच्छे समर्पिते । जगाद भूपतिः पुत्रं वरं ब्रूहि मनोगतम् ॥ ५ ॥ निशम्य जनकस्योक्तं लकुचो निजगावमुम् । कामचारं वरं देहि मह्यं जनक सांप्रतम् ॥ ६ ॥ पुत्रवाक्यं समाकर्ण्य जगाद जनकोऽपि तम् । दत्तस्तेऽभिमतस्तोक' कामचारो वरो मया ॥ ७ ॥ लकुचोऽभ्यन्तरे कामी तोषपूरितमानसः । लब्धकामवरस्तस्थौ श्रीमदुज्जयिनीपुरि ॥ ८ ॥ अन्यदा यौवनोन्मत्तां पङ्गुश्रेष्ठिवधूं पराम् । नागवर्माभिधां तत्र परासक्तां ददर्श सः ॥ ९ ॥ लकुचोऽपि तया साकं तिष्ठति प्रीतमानसः । तदानीं पङ्गुलश्रेष्ठी धैर्यमासाद्य तस्थिवान् ॥ एवं सति गते काले लकुचः क्रीडितुं मुदा । नागवर्मासमं यातो नन्दनोपपदं वनम् ॥ ११ ॥ धर्मसेनमुनिं तत्र दृष्ट्वा नत्वा च तं पुनः । धर्मं श्रुत्वा विहायेमां लकुचोऽयं तपोऽग्रहीत् ॥ १२ ॥ विहृत्य' देशमागत्य पूर्वोक्तां नगरीमसौ । महाकालवने तस्थौ कायोत्सर्गेण निश्चलः ॥ १३ ॥ अथासौ पङ्गुलश्रेष्ठी दृष्ट्वा तं लकुचं मुनिम् । पूर्ववैरानुबन्धेन चुकोपारुलोचनः ॥ १४ ॥ कायोत्सर्गस्थितस्यास्य श्रेष्ठी लोहशलाकिकाः । सर्वसन्धिषु दुष्टात्मा निचखान महामुनेः ॥ १५ ॥ 20 धर्मानुरागयुक्तोऽसौ धर्मध्यानपरायणः । अरोषो मृत्युमासाद्य नाकलोकं ययौ क्षणात् ॥ १६ ॥ ॥ इति धर्मानुरागयुक्त लकुचकथानकमिदम् ॥ ५० ॥ १० ॥ " * ५१. पद्मरथनृपकथानकम् । १ ॥ विदेहाख्यमहादेशे मिथिला नगरी परा । अस्यां पद्मरथो राजा पद्मा भार्याऽस्य चाभवत् ॥ अन्यदा ध्वजमालाभी रुवाऽऽदित्यप्रभोत्करम् । अयं प्रजापतिः शीघ्रं सूर्याभं नगरं ययौ ॥ २ ॥ 2” सौधर्माख्यगणेन्द्राच्च चतस्रो ज्ञानिनः कथाः । आक्षेपिण्यादिका दिव्याः शुश्रुवानत्र भूपतिः ॥ ३ ॥ धर्मं श्रुत्वा जिनेनोक्तं सर्वसत्त्वसुखावहम् । सम्यक्त्वादिकमादाय पप्रच्छेममिदं नृपः ॥ ४ ॥ लोकत्रयेsपि किं नाथ विद्यतेऽन्यो भवत्समः । ब्रुवाणो धर्ममीदृक्षं भव्यजन्तुहितप्रदम् ॥ ५ ॥ श्रुत्वा पद्मरथं वाक्यं सुधर्ममुनिरब्रवीत् । अमुं विस्मयचेतस्कं तोषकण्टकिताङ्गकम् ॥ ६ ॥ अङ्गाख्यविषयेऽस्तीह चम्पाSSख्या नगरी श्रुता । अस्यां त्रिलोकपूजार्हो वासुपूज्यो जिनेश्वरः ॥ ७ ॥ त्रिलोकशेखरीभूतसरणे समवादिके । पुरन्दरशतस्तुत्यस्त्रिलोकसदसि स्थितः ॥ ८ ॥ 1 प तोक-भो पुत्र. 2 has an additional reading विहारं. 3फ आक्षेपिण्या दिव्या. 4 फ कण्टकिताङ्गकः. 5 फ शेखरीभूतः; ज शेखरीभूता. बृ० को ० १० 5 10 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे एकयोजनसन्मार्ग प्रयान्त्या हि जघन्यतः । भारत्योत्कृष्टतो नूनं भूप द्वादशयोजनम् ॥ ९॥ भव्यश्रवणहारिण्या मितया हितयाऽङ्गिनाम्' । अर्धमागधया वाण्या धर्मं कथयति स्म यः ॥१०॥ सुधर्मवचनं श्रुत्वा भक्तिहृष्टतनूरुहः । उवाचे महाभक्त्या भोगनिःस्पृहमानसः ॥ ११ ॥ गुणरत्नोदधिः सर्वो युष्माकमधिको यदि । द्रष्टव्योऽवश्यमेवाशु वासुपूज्यजिनो मया ॥१२॥ । सुधर्ममुनिमानम्य भक्तिरागरतो जिने । भोगोपभोगकं हित्वा निर्जगाम पुरान्नृपः ॥१३॥ गच्छतः पथि भूपस्य विश्वानलसुरेण च । पुरदाहो जलं युद्धं सिंहरूपं महाभयम् ॥ १४ ॥ म्लेच्छानां च बलं भीमं समुद्रो ग्राहसंकुलः । विकुर्वाणाकृतं सर्वमेतदस्य पुरो लघु ॥ १५ ॥ हित्वोपदेशमीदृक्षं हारं तूर्यं कलखनम् । प्रातिहार्य च लब्ध्वाऽगाद् वासुपूज्यजिनान्तिकम् ॥१६॥ अनित्यतां परिप्राप्य शरीरादेनराधिपः । वासुपूज्यजिनस्यान्ते प्रवव्राज महामतिः ॥१७॥ 10 राधान्तपारमासाद्य तथा पद्मरथो मुनिः । महागणधरो जातो जिनभक्त्या विशुद्धधीः ॥१८॥ ॥ इति श्रीजिनभक्तिसहितपद्मरथनृपगणधरप्राप्तिकथा ॥५१॥ ५२. ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिकथानकम् । काम्पिल्यनगरे रम्ये राजा ब्रह्मरथोऽभवत् । रामिलाऽस्य महादेवी रूपयौवनशालिनी ॥१॥ तयोः पुत्रः कलाधारो निधिरत्नादिनायकः । ब्रह्मदत्तोऽभवच्चक्री नेमिपार्श्वजिनान्तरे ॥२॥ अन्यदाऽयं क्षुधाग्रस्तो ब्रह्मदत्तोऽरलाञ्छनः । भोक्तुं महानसे विष्टः साधितारातिमण्डलः ॥३॥ पायसं सूपकारेण जयसेनेन शोभनम् । अतीवोष्णं वितीर्णं तद् ब्रह्मदत्तस्य भाजने ॥ ४ ॥ पायसेन पुनस्तेन दग्धश्चक्री प्रकोपतः । तदस्य मस्तके क्षिप्तं भूभुजाऽयं मृतः क्षणात् ॥५॥ ततः क्षारसमुद्रान्ते रत्नद्वीपे मनोहरे । जातोऽयं व्यन्तरो देवो रूपराजितविग्रहः ॥६॥ ज्ञात्वा पूर्वभवं देवो ब्रह्मदत्तनिपातितम् । चुकोपाशु प्रदुष्टात्मा स्वनादात्पूरिताम्बरः ॥७॥ 20 कदलीनालिकेरादिफलानि विविधानि सः। आदाय तानि तं द्रष्टुं परिव्राजकवेषभाक् ॥ ८॥ दृष्ट्वा तानि फलान्युच्चैर्भूपतिस्तोषसंगतः । विनयाचारसंपन्नो जगादेमं पुरःस्थितम् ॥९॥ तातेदृशानि पक्वानि नानास्वादयुतान्यलम् । फलान्येतानि किं सन्ति न वा ब्रूहि यथायथम् ॥१०॥ ब्रह्मदत्तवचः श्रुत्वा तपस्वी वदति स्म तम् । मठिकायां ममैतानि सन्ति राजन्ननेकशः ॥ ११ ॥ ब्रह्मदत्तनृपं नीत्वा वार्धिमध्यं फलार्थिनम् । उपसर्ग चकारास्य स देवः क्रुद्धमानसः ॥ १२॥ 25 उपसर्गमिमं ज्ञात्वा प्रत्याख्यानं विधाय च । सावलम्बं नृपस्तत्र दध्यौ पञ्चनमस्कृतिम् ॥ १३॥ देवोऽपि तं पुनः पञ्चनमस्कारपरायणम् । अशक्तः पञ्चतां नेतुं रुष्टोऽपि बलवानपि ॥ १४ ॥ अशक्नुवन्निमं हन्तुं स देवोऽरुणलोचनः । जगाद निष्ठुरं वाक्यं धीरिणामपि भीतिदम् ॥१५॥ अहं स सूपकारोऽस्मि मस्तके यस्त्वया हतः । पायसेनोष्णकेनाशु गतः कालेन पञ्चताम् ॥ १६ ॥ रे रे पाप दुराचार नीतिहीन कलाधम । करोमि हिंसनं तेन तवाद्यैव विसंशयम् ॥१७॥ 10 अथवाऽस्ति तवोपायो जीवितस्य नराधिप । अनेन विधिना नूनं वक्ष्यमाणेन चारुणा ॥१८॥ भूम्यां यदि नमस्कारं लिखित्वा चरणेन चेत् । मार्टि ते जीवितोपायो नान्यथा गदितं मया ॥१९॥ लिखित्वाऽनेन सत्पञ्चनमस्कारो धरातले । तदानीं देववाक्येन खपादेनोपमर्दितः ॥ २० ॥ 1फ हितयाङ्गिताम्. 2 फ सः. 3 पफज चतुष्कलम्. 4 पफज युग्मम्, 5 फज दत्तोरिलाञ्छनः, पअर-चक्र. 6 फज चुकोपासौ. 7 फ आशक्तः. 8 [माक्षि] 9 पज जीविनोपायो. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५३. २३ ] जिनदासकथानकम् चक्री पञ्चनमस्कारं यावन्मर्दयति द्रुतम् । पादेन तावदभ्येत्य तं ममार सुरोऽम्बुधौ ॥ २१ ॥ ब्रह्मदत्तो मृतः सन् स सप्तमं नरकं ययौ । हीनसत्त्वं दुराचारं न हि कोऽपि विमुञ्चति ॥ २२ ॥ सामन्तमत्रिणो मुख्या अन्तः पुरमहत्तराः । चिन्तयन्तो नमस्कारपञ्चकं भक्तितत्पराः ॥ २३ ॥ उपसर्गं सहित्वाऽऽशु तदानीं देवनिर्मितम् । श्वाश्रीं गतिं गतश्चक्री नमस्कारविलोपनात् ॥ २४ ॥ स्ववैरनिग्रहं कृत्वा तापसामरदुष्टधीः । नाकलोकं ययौ शीघ्रं मन्दिर स्थिरमानसः ॥ २५ ॥ ॥ इति श्रीदर्शनभ्रष्टब्रह्मदत्तचक्रवर्तिकथानकमिदम् ॥ ५२ ॥ * ५३. जिनदासकथानकम् । ५ ॥ ६ ॥ ७ ॥ ११ ॥ अत्रास्ति पाटलीपुत्रे जिनदत्तः पुरोत्तमे । तद्वल्लभा प्रिया चावीं जिनदासी कलखना ॥ १ ॥ तयोः पुत्रोऽभवद्धन्यो धनकोटीश्वरो महान् । श्रावको जिनदासाख्यः कीर्तिच्छन्नन्दिगाननः ॥ २ ॥ अन्यदा जिनदासोऽसौ श्रावकवतभूषितः । सम्यग्दर्शनसंपन्नः स्वर्णदीपं ययौ मुदा ॥ ३ ॥ " योजनानां शतं चैकं साधिकं प्राप्य वारिधौ । बोधिस्थं द्रव्यसंपूर्ण जिनदासो ययौ क्षणात् ॥४॥ ततो जलधिमध्ये च जलकल्लोलसंकुले । 'कालिकाख्यसुरो गर्जन् सरोषं निजगावमुम् ॥ जीवितं यदि युष्माकं वल्लभं नितरां भवेत् । जिनस्य शासनं नास्ति वदतैवं वचो बुधाः ॥ भणिष्यथ न चेदेवं जिनशासनभाविताः । यदा सर्वजनाध्यक्षं दण्डोऽयं क्रियते मया ॥ तदा लोकसमूहानां भयव्याकुलचेतसाम् । हियेऽहं चोत्तमाङ्गानि वल्लभान्यपि संततम् ॥ ८ ॥ 15 प्रकृतीनां गुणान् सारान् विदन्तो वणिजोऽखिलाः । तं कुशास्त्रविनिर्माणाः प्रपृच्छन्ति भयातुराः ॥ ९ ॥ निशम्य तद्वचस्तत्र जिनशासनभावितः । जिनदासोऽवदत् तांश्च तत्प्रत्यक्षं कुशाग्रधीः ॥ १० ॥ उत्तमं सर्वधर्माणां सम्यक्त्वं विधुनिर्मलम् । देववाक्येन संत्यज्य जीवितार्थी मतिभ्रमात् ॥ मार्ष्टि स्म यः खपादेन महामत्रं पुरातकम् । किं न पश्यत चक्रेशं ब्रह्मदत्तमधोगतम् ॥ जिनदासवचः श्रुत्वा वणिजो धीरचेतसः । प्रत्याख्याना हितस्वान्ता जिनशासनभाविताः ॥ सम्यक्त्वाहितचेतस्का मस्तकन्यस्तपाणयः । प्रणम्येशं महावीरं निगदन्ति परस्परम् ॥ पोतं नयतु चान्यत्र राक्षसश्चूर्णयत्वरम् । नापवादं जिनेन्द्राणां विधास्यामो महात्विषाम् ॥ नत्वेति तं महावीरं जल्पितं पुटपाणिभिः । मुञ्चद्भिस्तैः प्रसूनानि जिनपादाम्बुजालिभिः ॥ उत्तरादिकुरोर्यातं भानूदयसुपिञ्जरम् । सुरैर्बहुभिरत्युग्रं देवचक्रं प्रपश्यति ॥ १७ ॥ स रक्षो मकुटेऽनेन निहतो भग्नदर्पकः । छिन्नरश्मिरिवेन्दुः खात् पतितो वडवानले ॥ धरते वरुणः पोतं धावति श्रीः कराम्बुजा । पोतो जलभरात्तीरं संप्राप्तो विघ्नतो विना ॥ ततस्ते दृष्टिमासाद्य प्रातिहार्यं च देवताः । सुखेन पाटलीपुत्रं खपुरं प्रापुरुतमम् ॥ दृष्ट्वातिशयमीदृक्षं बहवो नरकुञ्जराः । सम्यक्त्वं संयमं प्राप्ताः तथा मध्यस्थतां परे ॥ जिनदासोऽवधिज्ञानलोचनं वीक्ष्य योगिनम् । उपसर्गविधानं च पप्रच्छ विनयानतः ॥ २२ ॥ जिनदासोदितं श्रुत्वा योगी धर्मरुचिस्तदा । जगावाख्यानकं चास्य वैरसंबन्धकारणम् ॥ २३ ॥ 30 ॥ इति श्रीसम्यक्त्वसमन्वितजिनदासकथानकम् ॥ ५३ ॥ १६ ॥ २० ॥ २१ ॥ * 1 प युग्मम्, फज युगलम् 2 फज श्रावकधर्मभूषितः 3 प बोधिस्थं प्रोहणस्थम्. 4 फज कलिकाख्य.. 5 पफज त्रिकलम् 6 [ पुरातनम् ] 7 पफज युग्मम्. 8 फज कथानकमिदम्. 5 १२ ॥ १३ ॥ 2 १४ ॥ १५ ॥ १८ ॥ ४ १९ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५४. १५४. रुद्रदत्तप्रियाप्रबोधकथानकम् । लाटदेशैकदेशेऽस्ति तोणिमं गिरिपार्श्वगम् । धनधान्यबुधावासं नगरं गुडखेडकम् ॥ १॥ जिनदत्तोऽभवत्तत्र श्रावको जिनपूजकः । जिनदत्ताऽस्य सत्कान्ता जिनधर्मपरायणा ॥२॥ तयोः सुता कलाधारा जिनशासनमाविता । बभूव विनयोपेता जिनोपपदिका मतिः ॥३॥ 5 अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी नागदत्तोऽभवद्धनी । रूपयौवनसंपन्ना नागदत्ताऽस्य गेहिनी ॥४॥ अनयोर्नन्दनो रूपी नन्दिताशेषबान्धवः । रुद्रदत्तोऽभवद् गुण्यो रुद्रधर्मपरायणः ॥५॥ अन्यदा नागदत्तोऽसौ रुद्रदत्तनिमित्तकम् । जिनादिमतिका कन्यां जिनदत्तं प्रयाचते ॥६॥ नागदत्तवचः श्रुत्वा जिनदत्तो जगावमुम् । अहं जैनेश्वरोऽत्यन्तं वं च माहेश्वरः परः ॥ ७॥ श्रावकाणां हि संबन्धो घटते न मनागपि । माहेश्वरजनैः सार्धं विपरीतजडात्मभिः ॥ ८॥ 10 जैनदत्तं वचः श्रुत्वा रुद्रदत्तोऽपि तं जगौ । एक एव परं धर्मों न विशेषोऽस्य विद्यते ॥ ९॥ जिनधर्म प्रगृह्णामि मातुलाहमपि द्रुतम् । एवमुक्त्वा जिनावासं रुद्रदत्तो ययौ तदा ॥ १० ॥ मुनेः समाधिगुप्तस्य समीपं प्राप्य लोभतः । हित्वा माहेश्वरं धर्मं जिनधर्ममसौ सृतः ॥ ११ ॥ रुद्रदत्तमिमं ज्ञात्वा जिनधर्मपरायणम् । जिनदत्तो ददावस्मै तदा जिनमतिं सुताम् ॥ १२ ॥ परिणीय तकां कन्यां रुद्रदत्तोऽतिवञ्चकः । जिनधर्म विहायाशु शिवधर्म गृहीतवान् ॥१३॥ 15 अथ प्रस्तावमासाद्य रुद्रदत्तः सगोचरम् । भुक्त्वा सुखोपविष्टां तां जगौ जिनमतिं मुदा ॥ १४ ॥ सर्वदुःखान्तकृद्दीक्षा विशुद्धा दोषवर्जिता । पशुभ्योऽपि हिता तन्वि रुद्रेण परिभाषिता ॥ १५॥ नाकार्यलक्षतो दीक्षा शैवी सा परिहन्यते । हिताय द्रोहिणां पुंसामाह गौरीसखो हरः ॥ १६ ॥ तथा चोक्तम्पापच्छेदकरी दीक्षा निरवद्या सुनिर्मला ।। पशूनां तु हितार्थाय महादेवेन भाषिता' ॥ १७॥ न चाकार्यशतेनापि शिवदीक्षा विहन्यते । गुरुद्रोहयुजां पुंसामित्याह परमेश्वरः ॥१८॥ जिनधर्म विहायेमं विशिष्टजनवर्जितम् । शैवं धर्मं गृहाण त्वं मुक्तिसौख्यविधायकम् ॥ १९ ॥ भर्तृवाक्यं निशम्योचे तदा जिनमतिर्धवम् । जिनधर्म प्रिय त्यक्तुं मनो मे न विकल्पते ॥ २० ॥ किं पुनस्त्वं विहायमं शिवधर्म मनःप्रियम् । जिनधर्म मनस्युच्चैः स्थिरं कुरु बुधप्रियम् ॥ २१ ॥ 23 भार्यावचनमाकर्ण्य रुद्रदत्तो जगाविमाम् । शिवदीक्षां विहायाध जैनो धर्मः कथं वरः ॥ २२ ॥ भूयोऽपि जिनमत्याऽयमवाचि दयितस्तदा । कुरु त्वं शैवधर्मं तु जिनधर्म करोम्यहम् ॥ २३ ॥ रमणीवाक्यमाकर्ण्य रमणो निजगावमूम् । जिनधर्ममहं भद्रे न विधातुं ददामि ते ॥ २४ ॥ धर्मश्रवणयाऽन्योन्यं कदाचित्कलहेन च । वादधारणकेनापि याति कालस्तयोरयम् ॥ २५ ॥ रुद्रदत्तः प्रियां प्राह भूयोऽपि पुरतः स्थिताम् । विनयाचारसंपन्नां जिनशासनभाविताम् ॥ २६ ॥ 10 पश्यामि यदि गच्छन्ती कदाचिजिनमन्दिरम् । मुनिभ्यो ददती भिक्षां गृहान्निःसारयाम्यहम् ॥२७॥ रुद्रदेवकुलं गत्वा शैवेभ्यो यदि भक्तितः । भिक्षां दत्से ततः कान्ते भवतीं पूजयाम्यतः ॥२८॥ रुद्रदत्तवचः श्रुत्वा जगौ जिनमतिर्बुवम् । कारापयसि मामेतद्यदि नाथ मराम्यहम् ॥ २९॥ अथवा गच्छ मा नाथ रुद्रदेवकुलं क्वचित् । जिनार्चा वन्दितुं नूनं न यामि जिनमन्दिरम् ॥३०॥ विधाय द्वावपि क्षिप्रं प्रतिज्ञां स्वस्वगोचराम् । स्वस्वधर्म प्रकुवाणौ तस्थतुर्निजमन्दिरम् ॥ ३१॥ 1 फ भक्षिता. 2 फ जगाविमम्. 3 फ म्यरम्. 4 फज कारापयामि. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५४. ६४] रुद्रदत्तप्रियाप्रबोधकथानकम् अस्ति पूर्वदिशो भागेऽरण्यानी तरुसंकुला । 'म्लेच्छनाहलसंकीर्णा व्यावसिंहादिसेविता ॥ ३२॥ अन्यदाऽऽगत्य तद्देशाद् भिल्लसंघेन वेगतः । अग्निना ज्वालितं सर्व नगरं गुडखेडकम् ॥ ३३॥ ततोऽग्निना प्रदीप्तेऽस्मिन् नगरे सकलो जनः । पुत्रदारादिभिः सार्धं जगामाकुलतां पराम् ॥३४॥ चतुर्वपि च पार्श्वषु ज्वालोद्योतितपुष्करः । रुद्रदत्तगृहाभ्याशं संप्राप्तोऽग्निज्वलंस्तराम् ॥ ३५ ॥ अत्रान्तरे परिप्राप्य रुद्रदत्तं हरप्रियम् । जगौ जिनमतिः कान्तं विकसन्मुखपङ्कजा ॥ ३६॥ शिवधर्मस्तव स्वामिनितान्तं गदितोऽपि मे । तथाऽपि न स्थितश्चित्ते मदीये जिनरञ्जिते ॥ ३७॥ मयाऽपि निगदन्त्या हि जिनधर्म परं प्रभो । तथाऽप्ययं बुधप्रीतिजननो रुचितो न यः ॥ ३८॥ उपसर्गादतः स्वामिन् यो देवो रक्षति स्फुटम् । अस्मानस्मगृहं सोऽयं देवः शरणमावयोः ॥३९॥" जिनमत्या वचः श्रुत्वा रुद्रदत्तोऽपि तां जगौ । भद्रे जनमनोहारि शोभनं गदितं त्वया ॥ ४० ॥ गौरीसखं महादेवं महावृषभवाहनम् । विहाय देहिनामन्यः परित्राणं करोति कः॥४१॥ 10 अथवाऽन्यस्य देवस्य जगदानन्ददायिनः । प्रवर्तन्ते वशे किं वा भुवनानि चतुर्दश ॥४२॥ भूतग्रामः समस्तोऽपि देवताक्रियया वशे । वर्तन्ते यस्य देवस्य वर्ण्यन्ते तद्गुणाः कथम् ॥४३॥ निशम्य तद्वचो भूयस्तदा जिनमतिः प्रियम् । जगाद विभ्रमोपेतं रुद्रभक्तिपरायणम् ॥४४॥ भवदेवस्य माहात्म्यं विद्यते यदि किंचन । अग्निविध्मापनं कान्त स देवो विदधात्वरम् ॥ ४५ ॥ स्वभार्यावाक्यमाकर्ण्य रुद्रदत्तो बमाण ताम् । जिनभक्तिसमासंगतोषकण्टकिताङ्गकाम् ॥४६॥ 15 हरभक्तिसमेतस्य कृतकृत्यस्य सांप्रतम् । मम किं वह्निना गण्यं नश्वरेण नितम्बिनि ॥४७॥ एवमुक्त्वा प्रियां सोऽपि दधिदूर्वादिसंभृतम् । अर्घ्यपात्रं समादाय समुत्तस्थौ कृतध्वनिः ॥४८॥ रुद्रदेवनमस्कारं रुद्रदत्तो विधाय च । उत्तराभिमुखो भूत्वा मस्तकेऽयं चकार सः॥४९॥ भो भो शृणुत मे वाक्यं लोकपाला मनोहरम् । लोकपालनकोयुक्तो रुद्रदत्तो जगौ तदा ॥५०॥ यदि माहेश्वरो धर्मो देवो वा परमः शिवः । तस्येच्छया प्रवर्तेत जगत्सर्वं हृदि स्थितम् ॥ ५१ ॥ 20 यदि निर्वाणदीक्षा स्यान्निर्मलाऽवद्यवर्जिता । स देवो रक्षतान्मां च सर्वं लोकं सबान्धवम् ॥५२॥ महादेवस्य सन्नाम गृह्णतोऽप्यस्य सत्वरम् । द्विगुणस्त्रिगुणो वाऽग्निर्वर्धतेऽसौ तथाऽधिकम् ॥५३॥ ततो जिनमतिः प्राह रुद्रदत्तं भयाकुलम् । भूयोऽप्यन्यस्य देवस्य स्मर त्वं सुसमाहितः ॥ ५४ ॥ ब्रह्मस्कन्दहरीनग्निरविचन्द्रबृहस्पतीन् । आयर्यां गौरी च संदध्यौ रमणीवचनादसौ ॥ ५५ ॥ जाज्वलीति शिखी तत्र ज्वालाभासितपुष्कलः । क्षयमारुतसंदीप्तो रुद्रदत्तो जगौ प्रियाम् ॥५६॥ 25 प्रिये लौकिकदेवानां मध्ये देवो न कोऽपि सः। योऽस्मान् स्मरणभूयो वा शिखिनः परिरक्षति ॥५७॥ सांप्रतं जिनचन्द्राय द्योतिताशाय सुन्दरि । अयं देहि वयं येन भवामो निरुपद्रवाः ॥ ५८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं स्वस्य भर्तृपुत्रादिकस्य सा । प्रत्याख्यानं विधायाशु द्विविधं निजगौ पुनः ॥ ५९॥ केवलज्ञानसंपन्ना वीतरागा गतापदः । रागमोहपरित्यक्ता यद्यर्हन्तो भवन्त्यमी ॥६॥ अहिंसालक्षणो धर्मः सर्वसत्त्वदयापरः । लोकद्वयसुखाधारस्तदुक्तो विद्यते यदि ॥ ६१॥ यदि निर्वाणदीक्षा स्यात् संसारोच्छेदकारिणी । ततो मां पतिपुत्रादिसंयुक्तां रक्षतु द्रुतम् ॥ ६२॥ एवमुक्त्वा कलध्वाननादिताशेषभूतला । अयं दत्त्वा जिनायासौ कायोत्सर्गेण तरथुषी ॥ ६३॥" कायोत्सर्गेण यावत्सा तिष्ठति स्थिरमानसा । "तावदग्निर्गतः कापि म्लेच्छसंघोऽपि तद्भयात् ॥६४॥ 1प म्लेच्छनाहर..फज हरिप्रियम्.3 पफ चतुष्कलम्, ज चतुष्कम्. । पज कण्ट किताङ्गिकाम्. 5 फ वर्जितो. 6 फ रक्षतात्सा च. 7 प षड्भिः कुलकम् , फज षट्कलकम्. 8 [स्मरणभूतो ]. 9 पफज निकला. 10 पफ चतुष्कलम्, ज चतुष्कम्, 11 फज तावदग्निगिरिः, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५४. ६५धूमध्वजस्य दीप्तस्य ज्वलतस्तद्भयादिव । उपसर्गो गतः क्वापि जनानां भीतचेतसाम् ॥ ६५॥ तं तदाऽतिशयं दृष्ट्वा रुद्रदत्तः प्रशान्तधीः । शिवधर्म विहायायं जिनधर्म गृहीतवान् ॥ ६६ ॥ केचिन्मध्यस्थतां प्राप्य चान्येऽपि बहवो नराः। सम्यक्त्वादिकमासाद्य बभूवुः श्रावकाः परे ॥६७॥ ॥ इति श्रीरुद्रदत्तप्रियाप्रबोधसम्यक्त्वयुक्तिकथानकमिदम् ॥५४॥ ५५. श्रेणिककथानकम् । अथास्ति मगधे देशे पुरं राजगृहं परम् । तत्रोपश्रेणिको राजा तद्भार्या सुप्रभा प्रभा ॥१॥ तयोरन्योन्यसंप्रीतिसंलग्नमनसोरभूत् । तनयः श्रेणिको नाम सम्यक्त्वकृतभूषणः ॥ २॥ अथ प्रत्यन्तवासी च नागवर्माऽभवन्नृपः । भृत्यः प्रश्रेणिकस्यायं निर्जितारातिसंततेः ॥३॥ मुक्तस्थिरो महारूपो धृतवेगोऽस्य भूपतेः । पूर्ववैरानुबन्धेन जात्याश्वः प्रेषितोऽमुना ॥४॥ " दृष्ट्वाऽमुं वाजिनं दिव्यं सप्तिलक्षणलक्षितम् । प्रश्रेणिकोऽधिरूढोऽयं कौतुकव्याप्तमानसः ॥५॥ ततस्तेन तुरङ्गेण भूपतिः कन्दुकक्षितेः । नीतो महाटवीं वेगात् सिंहव्याघ्रादिसेविताम् ॥ ६ ॥ यमदण्डोऽभवत्तत्र पल्लिनाथो महाबलः । तद्भार्या रूपसंपन्ना विद्युदादिमतिः श्रुता ॥७॥ योषितां तिलकीभूता कलाविज्ञानकोविदा। तिलकादिमती पुत्री समुत्पन्नाऽनयोः परा ॥ ८॥ तदा प्रश्रेणिकं भूपं हरिपृष्ठव्यवस्थितम् । ददर्श पलिमायातं यमदण्डो यमोपमः ॥९॥ 15 शय्यास्नानान्नपानाधैरुपचारैरनेककैः । हृत्वा श्रमं नरेन्द्रस्य धराऽन्ते प्रणतेन च ॥ १० ॥ अनयाऽवस्थयाऽनेन वितीर्णाऽस्य स्वकन्यका । यो भविष्यति पुत्रोऽस्यास्तस्य राज्यसमागमः॥११॥ प्रश्रेणिकनरेन्द्रेण स्वप्रयोजनमिच्छता । परिणीता च तत्कन्या जयमङ्गलनिखनैः ॥ १२ ॥ तिलकादिमती कन्यां परिणीय विधानतः । केतुध्वजवितानाढ्यं विवेश स्वपुरं नृपः ॥ १३॥ रूपयौवनसंपन्नः प्रतापाक्रान्तशात्रवः । कालेन बहुना तस्याश्चिलाताख्योऽभवत् सुतः ॥ १४ ॥ 20 यौवनस्थमिमं दृष्ट्वा पुत्रं प्रश्रेणिको नृपः । मद्राज्यं कस्य भावीदं दध्यौ मनसि धीरधीः ॥ १५ ॥ चिन्तयित्वा चिरं राजा प्राप्य नैमित्तिकान्तिकम् । पप्रच्छेमं सुतः को वा मद्राज्ये प्रभविष्यति ॥१६॥ प्रश्रेणिकवचः श्रुत्वा संदेहेन समन्वितम् । नैमित्तिकः पुनः प्राह भूपतिं वीतसंशयः ॥ १७॥ यः सिंहासनमारूढः कलभेरी प्रवादयेत् । ददच पायसं श्वभ्यः स्वयं भुंक्ते स राज्यभाक् ॥१८॥ नैमित्तिकवचः श्रुत्वा तत्परीक्षार्थमादरात् । नैमित्तिकोदितं सर्वं कारयामास भूपतिः ॥ १९ ॥ 25 श्रेणिकः शुभनक्षत्रे दिने वारे च शोभने । सिंहासनमितः साधुः तदानीं जनकाज्ञया ॥ २० ॥ रुच्यानि तत्र दिव्यानि वस्त्राणि विविधानि च । निधाय भूपतिर्मन्दं राजपुत्रान् बभाण सः॥२१॥ यद्यन्मनोगतं वस्तु तत्तद् गृह्णातु शोभनम् । कुमारैरुचितं स्वस्य गृहीतं सकलं तदा ॥ २२ ॥ भेरी प्रताड्य संस्थाय श्रेणिको हरिविष्टरे । दत्त्वा च पायसं श्वभ्यो बुभुजे तत्स्वयं मुदा ॥२३॥ भूयोऽपि मण्डला मुक्ता भूभुजा सिंहविक्रमाः। कपिलाक्षा बृहद्वका युक्ताः पञ्चशताख्यया ॥२४॥ श्रेणिको मण्डलान् दृष्ट्वा स्वसन्मुखसमागतान् । भेरी प्रताडयंस्तेभ्यः पायसं संप्रयच्छति ॥ २५ ॥ धीरो 'नदीनगम्भीरो नगराजस्थिरो महान् । कुमारस्तत्पुनः पश्चात् पायसं परिभुक्तवान् ॥ २६ ॥ प्रश्रेणिको विलोक्यमं श्रेणिकं प्रीतमानसः । दध्यौ विस्मितचेतस्कस्तथ्यं नैमित्तिकोदितम् ॥२७॥ 1पमध्यस्थितां. 2 प परिपूर्णम्. ३ फज मगधादेशे. 4 फज शुभा. 5 फ पल्लिमायान्तं. 6 फ विधाय. 7 फ नदानगम्भारो. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. ६१] श्रेणिककथानकम् ७९ अयं राज्यधुरां गुर्वी धारयिष्यति मे सुतः। कलाविज्ञानसंपन्नः प्रतापाक्रान्तशात्रवः ॥ २८ ॥ अयं मण्डलकोसिष्टभक्षणोदितमानसः । एतस्य भोजनं वासो यो ददाति स दोषभाक् ॥ २९ ॥ विधाय घोषणामेवं नगरे विषयेऽपि च । श्रेणिको भूभुजा शीघ्रं शत्रुभीतेरपाकृतः ॥३०॥ तदा मध्याह्नवेलायां क्षुधापंपाकदर्थितः । एकाकी ब्राह्मणावासं नन्दग्रामं जगाम सः ॥ ३१ ॥ ब्राह्मणैः स पुनस्तस्माद्घाटितो नृपभीतितः । पारिवाजं मठं तत्र विवेशाविदितः परैः ॥ ३२॥ विधाय भोजनं चास्मै परिव्राजकयोगिना । तद्धर्मनिश्चितखान्तः श्रेणिको विहितस्तदा ॥ ३३॥ ततोऽपि निर्गतः शीघ्रं दक्षिणापथमण्डले । द्रविडाख्यमहादेशं प्राप्तोऽतोऽयं महामनाः ॥ ३४ ॥ एवं हि गच्छतस्तस्य नगरादिकमादरात् । इदमन्यच्च संजातं प्रकटं क्षितिपालिनः ॥ ३५ ॥ महाद्रविडदेशेऽस्ति काञ्चीनगरमुत्तमम् । वसुपालो नृपस्तस्य भार्या वसुमतिः परा ॥ ३६॥ रूपराजितसर्वाङ्गी स्त्रीलक्षणसमन्विता । विषाणदलसन्नेत्रा वसुमित्रा सुताऽनयोः ॥ ३७॥ ॥ अस्यैव भूपतेर्मत्री सोमशर्माऽभवद् द्विजः । सोमश्रीरस्य भार्या च सोमद्युतिविराजिता ॥ ३८॥ अभयादिमतिस्तस्याः कलाऽलंकृतविग्रहा । बभूव तनया चार्वी कलापारमिताऽवनौ ॥ ३९॥ अन्यदा सोमशर्माऽयं तद्भक्तिप्रेरिताशयः । ब्राह्मणाचारसंयुक्तः प्रयातस्तीर्थयात्रया ॥४०॥ स्नानं विधाय गङ्गायामागच्छन् स्वपुरं पुनः । मिलितः श्रेणिकस्यायं सोमशर्मा विशुद्धधीः॥४१॥ वजन्तौ द्वावपि क्षिप्रं पथि श्रेणिकभूपतिः । जगावमुं विशुद्धात्मा सोमशर्माणमादरात् ॥ ४२ ॥ मांस्कन्धेन वह त्वं भो त्वां वा पथि वहाम्यहम् । अनेन च विधानेन मार्गों गम्यो भवेद् द्विज ॥४३॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा सोमशर्मा विचिन्त्य सः। संभावयति चित्तेऽलमेष कोऽपि गहिल्लकः॥४४॥ पथि क्षेत्रं विलोक्यायं कुमारो वदति स्फुटम् । क्षेत्रपालक किं क्षेत्रं भक्षितं भक्षयिष्यते ॥४५॥ वृक्षमूले स्थितश्छत्रं दधे शिरसि भूपतिः । ग्रीष्मे तु स्कन्धमारोप्य गच्छति प्रीतिमानसः॥४६॥ 'तथोपानधुगं भूयो जलमध्ये पदानुगम् । विधायेदं स्थले “पाणी व्रजति स्थिरमानसः ॥४७॥ 20 एवं तौ द्वावपि क्षिप्रमन्योन्यविहितोत्तरौ । वनादिकमतिक्रम्य काञ्चीनगरमीयतुः ॥४८॥ सोमशर्मा तदा कृत्वा श्रेणिकं नगराबहिः । विवेश खगृहं हृष्टः कृतरङ्गावलीचयम् ॥ ४९ ॥ विलोक्य पितरं खिन्नं यथाऽभयमतिस्तदा । विष्टरोपगतं साधुं जगादेमं विचक्षणा ॥ ५० ॥ एकाकी किं समायातः किं नरेण समं पितः । कथयैतन्मम स्पष्टं कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥५१॥ सुतावचनमाकर्ण्य सोमशर्मा जगावमूम् । स्नानं विधाय गङ्गायामागतः पुत्रि पत्तनम् ॥५२॥ 23 एको गहिल्लको मार्गे मया सार्धं समागतः । नगरासन्नदेशस्थस्तिष्ठति श्रमहानये ॥ ५३॥ निशम्य जनकस्योक्तं तत्तनूजा बभाण तम् । कथं 'गहिल्लकस्तात यस्त्वया सह नागतः ॥ ५४॥ सुतावचनमाकर्ण्य जनकः प्राह तां पुनः । शृणु तत्कारणं येन मयोक्तोऽयं गहिल्लकः ॥ ५५ ॥ गच्छताऽनेन पन्थानं मया सार्धं मनस्विनि । अहं निगदितो वत्से मतिवर्जितचेतसा ॥५६॥ स्कन्धारोहणकादीदं मां सुते निजगाद सः । अतो गहिल्लको प्रोक्तो मयाऽलं पुरतस्तव ॥५७॥ 30 सुतया बुद्धिशालिन्या पिता प्रोक्तोऽतिमुग्धकः । तातायं मतिसंपन्नो नानाशास्त्रविचक्षणः ॥५८॥ स्कन्धारोहणवाक्यस्य तवार्थं निगदाम्यहम् । आकर्णयैकचित्तेन तावत्त्वं मुग्धमानसः॥ ५९॥ विप्र मे ब्रूहि चित्तस्थं शोभनं हि कथानकम् । अहं वा ते गदामीति सुखेन पथि गम्यते ॥६॥ संशीतियुतचित्तस्य मतिवर्जितचेतसः। अधुना क्षेत्रवाक्यस्य निगदामि तवार्थकम् ॥ ६१ ॥ 1फ शत्रुभूपेरपाकृतः, ज शत्रुभूतेरपाकृतः. 2 ज तथोपानयुगं. 3 फ भूपो. 4 फ पाणो. 5 पफज युग्मम. 6प युग्मम्. फज युगलम्. 7 फ ग्रहितकस्तात. 8 फरोहणकादीनां. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५५. ६२यदि भक्तं समादाय परकीयं हि युज्यते । ततो भक्षितमेवेदं क्षेत्रं जनक मूलतः॥ ६२॥ प्राप्य वेश्माथवा भक्तं सुखेन यदि भुज्यते । ततः खादति तत्क्षेत्रं सांप्रतं तन्निगद्यते ॥ ६३॥ अथ चेदं गृहं प्राप्तं जीर्णं यदि विभुज्यते । वाक्यं तदुच्यते तात खादयिष्यति निश्चितम् ॥६४॥ अन्यच्च तरुमूलस्थश्छत्रं धरति मस्तके । काकविष्ठादिसंपाते भयतः' स नरः पितः ॥६५॥ तथा प्राणहितं युग्मं कृत्वा हियु जले ततः। कण्टादिकभयात् तात स्थले पाणौ स गच्छति॥६६॥ एवंविधा मतिर्यस्य पथिकस्य महात्मनः । स गुणाम्भोधिरत्युद्धः कथं तात गहिलकः ॥ ६७ ॥ तस्मात्त्वमानय क्षिप्रं येन पश्यामि सांप्रतम् । कीर्तिव्याप्तसमस्ताशा गुणिनो हि गुणप्रियाः॥६८॥" सुतावाक्येन तेनाशु जनकेन तदन्तिकम् । प्राप्योरुपङ्कमध्येन स्वगृहं स प्रवेशितः ॥ ६९॥ विलोक्य पथिकं कन्या कर्दमालिप्तपादकम् । मार्गगमनखिन्नाय ददावस्मै वरासनम् ॥ ७० ॥ । तद्रूपहृतचेतस्का तत्परीक्षणकारणात् । तस्मै जलं ददौ तत्र विदग्धा साऽल्पवट्टके ॥ ७१ ॥ शातकम्बिकया पकं समस्तं व्यपनीय तम् । तचतुर्थांशनीरेण प्रधाव्य चरणौ स्वकौ ॥ ७२ ॥ तां वटिकां जलापू) किंचिदूनां स भूपतिः । तस्याः समर्पयामास वाढं विस्मितचेतसः ॥७३॥ ततोऽभयमतिस्तुष्टा भोजनान्ते महामतिः । जगाद पितरं तात मामेतस्मै प्रयच्छ भो ॥ ७४ ॥ पिताऽभयमतिं कन्यां तद्वाक्येन विशुद्धधीः। श्रेणिकाय कुमाराय सुकुमाराय दत्तवान् ॥ ७५ ॥ 15 ततः काञ्चीपुरे रम्ये श्रेणिकोऽपि नवोढया । तया समं प्रभुञ्जानः कामभोगान् वितिष्ठते ॥७६॥ अत्रान्तरे महाटव्यां वसुदत्तो जिनादरः । संन्यासस्थितविप्राय कर्णजापं ददौ मुदा ॥ ७७ ॥ ततो विप्रः शुभध्यानात् कालं कृत्वा समाधिना । सौधर्मे धर्मसंपन्नो जातो देवो महर्द्धिकः ॥७८॥ च्युत्वा सौधर्मनाकाग्रादभयादिमतेः सुतः । अभयादिकुमारोऽभूच्छ्रेणिकप्रीतिकारकः ॥ ७९ ॥ अन्यदाऽन्यमहादेशं विजयाहितमानसः । 'जगाम वसुपालोऽरं भूपतिः सैन्यसंपदा ॥ ८ ॥ 20 तत्रैकस्तम्भसंपन्नं 'प्रासादं बहुभूमिकम् । ददर्श वसुपालोऽयं तद्रूपहृतमानसः ॥ ८१॥ तत्प्रासादनिमित्तेन मत्रिणः सोमशर्मणः । दूतं प्रवेशयामास वसुपालो वसुप्रियः ॥ ८२ ॥ मत्रिणं सोमशर्माणं प्राप्य दूतो जगाद तम् । एकस्तम्भमयं सौधं कारापय नृपालये ॥ ८३ ॥ निशम्य तद्वचो मत्री श्रेणिकं प्राह सत्वरम् । एकस्तम्भविनिर्माणं सौधं कुरु महामते ॥ ८४ ॥ एकस्तम्भमयं दिव्यं प्रासादं तन्निदेशतः । चकार श्रेणिको राजा मन्दिरे बहुभूमिकम् ॥ ८५ ॥ 25 विधाय विजयं राजा प्रविश्य निजमन्दिरम् । एकस्तम्भं विलोक्येमं प्रासादं प्राह मत्रिणम् ॥८६॥ सोमशर्मन् कथं केन प्रासादो विहितो महान् । एकस्तम्भो महामानः कथयेमं ममाधुना ॥ ८७॥ वसुपालवचः श्रुत्वा सोमशर्माऽवदत् तकम् । अस्मद्वेशिकविज्ञानी कर्मणो" विद्यते नृप ॥ ८८ ॥ कलाविज्ञानयुक्तेन वल्लभेन मनीषिणा । मत्सुतारमणेनायं प्रासादो विहितः प्रभो ॥ ८९॥" आकर्ण्य स्वमनःकान्तं वचनं सोमशर्मणः । जगादेमं महीपालस्तोषदृष्टतनूरुहः ॥ ९० ॥ 30 माम यस्तव जामाता ममापि स्फुटमेव सः । आहूय श्रेणिकं तस्मै वसुमित्रां ददौ सुताम् ॥९१॥" श्रेणिकोऽभयमत्याऽमा तथा च वसुमित्रया । काञ्चीपुरवरे भोगान् भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ ९२ ॥ अथ प्रश्रेणिको राजा भोगनिःस्पृहमानसः । राज्यं चिलातपुत्राय प्रदाय नृपसाक्षिकम् ॥ ९३॥ 1 [°संपातभयतः] 2 फज प्राणहितायुग्मं. 3 प कृत्वां. 4 फ हियु. 5 पफज कुलकम्. 6 फज प्रयच्छते; प has a correction like this. 7 फ जगाद. 8 प प्रसाद. 9 फ महास्तम्भो. 10 प अस्मद्वैशिक, [अस्मद्देशिक]. 11 [ कर्मण्यो ]. 12 प युग्मम् , फज युगलम्. 13 पफज युग्मम्. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. १२६ ] श्रेणिककथानकम् अन्ते संयमसेनस्य गुरोराचारवेदिनः । विहाय सकलं संगं देक्षां दैगम्बरीमितः ॥ ९४ ॥ तदा चिलातपुत्रोऽपि मगधाविषये मुदा । चकार विपुलं राज्यं पुरे राजगृहे वरे ॥ ९५॥ कुर्वाणेनामुना राज्यं लोकोद्वेगविधायिना । प्रवर्तितास्तदाऽन्याया धर्मविध्वंसहेतवः ॥ ९६॥ ततः श्रेणिकराजस्य काञ्चीपुरनिवासिनः । मत्रिभिः प्रहितो दूतः प्राप्य तं निजगाद सः॥९७॥ राजन् भवत्पिता राज्यं स्वकीयं परमोदयम् । दत्त्वा चिलातपुत्राय बभूव श्रमणो महान् ॥९८॥ लोकश्चिलातपुत्रेण सकलः परिपीड्यते । तेन त्वं शीघ्रमागत्य कुरु राज्यं यथोचितम् ॥ ९९ ॥ दूतस्य वचनं श्रुत्वा म्लानवक्रसरोरुहः । गमनाय मनश्चके श्रेणिकः स्वपदेच्छया ॥१०॥ वसुपालनृपं सोमशर्माणं श्वशुरद्वयम् । अभयादिमतिं पृष्ट्वा वसुमित्रामपि प्रियाम् ॥ १०१॥ भूयो भार्याद्वयं प्राह श्रेणिकः प्रीतमानसः । अन्योन्यप्रेमसंबन्धं तन्मुखाम्भोजवीक्षणम् ॥ १०२॥ यदि कस्यापि मे कार्य पुरे राजगृहे परे । पाण्डुरादिकुटीं दृष्ट्वा स समागच्छतु द्रुतम् ॥ १०३ ॥ 10 एवमुक्त्वा प्रिये द्वे तु निर्गत्य श्वाशुरात् पुरात् । श्रेणिकः प्रीतचेतस्कः संप्रापज्जानकं पुरम् ॥१०४॥ चिलातं क्वापि निर्धाट्य स्थित्वा जनकविष्टरे । चकार श्रेणिको राज्यं स्थिरं राजगृहे पुरे ॥१०५॥ अन्यदा मातरं हृष्टः पप्रच्छेमं कुतूहलात् । अभयादिकुमारः स्वां व पिता मेऽवतिष्ठते ॥ १०६॥ श्रुत्वाऽभयकुमारस्य वचो विस्मितचेतसः । अभयादिमतिस्तोकं जगाद प्रीतमानसा ॥ १०७॥ मगधाविषये पुत्र पुरे राजगृहे स्फुटम् । शुक्लादिकुटिकां प्राप्य त्वत्पिता व्यवतिष्ठते ॥ १०८॥ 15 ततोऽसौ मातरं पृष्ट्वा कुमारोऽभयपूर्वकः । निर्जगाम कृतानन्दः काञ्चीपुरवरादरम् ॥ १०९ ॥ प्रापाभयकुमारस्तं नन्दग्रामं महाधनम् । अग्राहारं द्विजावासं पूर्व पितृनिषेवितम् ॥ ११०॥ यस्मिन्विप्रैः पिता पूर्व धाटितः सन्मठे स्थितः । भागवतं मठं पुत्रो विवेश श्रमहानये ॥ १११॥ माहनास्तं मठं प्राप्य चिन्ताऽऽकुलितमानसाः । एकत्र मिलिताः सर्वे दुःखिनस्तेऽवतस्थिरे ॥११२॥ विलोक्य ब्राह्मणान् भीतान् विषण्णमनसोऽखिलान् । पप्रच्छेति कुमारोऽयं कुतो ब्रूत भयं द्विजाः ११३ 20 निशम्य तद्वचो विप्रा वदन्तीमं भयाकुलाः । कुमार भूभुजाऽस्माकं दत्ताऽऽज्ञा हि किलेदृशी ॥११४॥ वटकूपो भवद्रामे लघुमृष्टजलस्तराम् । विद्यते श्रुतमस्माभिस्तमानयत मत्पुरे ॥ ११५॥ विप्रा न कुरुतैवं चेत्ततः सर्वमिमं द्रुतम् । ग्रामं विनाशयामीति संगरोऽयं मम स्फुटम् ॥११६॥ भूपप्रेषितविप्रस्य चोत्तरं दातुमक्षमाः । विषण्णास्तेन तिष्ठामः कुमाराध महामते ॥ ११७॥ विप्रवाक्यं समाकर्ण्य कुमारोऽभयपूर्वकः । जगाद तानिति स्पष्टं भयविह्वलविग्रहान् ॥ ११८॥ 25 विश्रब्धतां परिप्राप्य स्नानभोजनमादरात् । यूयं कुरुत दास्यामि चोत्तरं तस्य भूभुजः ॥११९॥" तद्वाक्यतः सहानेन भोजनं विहितं द्विजैः । तोषपूरितचेतस्कैः कृतवेदखनैरलम् ॥ १२० ॥ ब्राह्मणौ द्वौ परिप्राप्य कुमारवचनेन तम् । वारिकौ श्रेणिकं चेदमूचतुः कलनिस्वनैः ॥ १२१ ॥ महाराज भवत्पादौ नन्दग्राममहाजनः। प्रणम्योवाच सस्नेहमाशीर्वादपुरःसरम् ॥ १२२ ॥ अस्माभिः सर्वथा प्रोक्तो वटकूपो नरेश्वर । याहि त्वं स्वामिनोऽस्माकं समीपं न च याति सः॥१२३॥ 30 नन्दग्रामेण सर्वेण तथोक्तोऽपि न गच्छति । तालं दत्त्वा तदा सोऽयं "नन्दग्रामावहिष्कृतः ॥१२४॥ बहिःस्थितोऽपि संप्रोक्तो वटकूपो महाजनैः । त्वमस्मत्स्वामिनः पार्थं व्रज गन्तुं स नेच्छति ॥१२५॥" नन्दग्रामद्विजस्तोमो नत्वा त्वत्पदपङ्कजम् । भूयोऽपि ज्ञापयामास ललाटन्यस्तपाणिकः ॥ १२६॥ 1 [दीक्षां]. 2 पफज युग्मम्. 3 फज सहितो. 4 पफज त्रिकलम्. 5 फ दृष्ट्रा. 6 पफज त्रिकलम. 7 पफज युग्मम्. 8 [अग्रहारं]. 9 पफज चतुष्कलम्. 10 पफज युग्मम्. 11 फवज गन्तु स नेच्छति. 12 फ omits 125. बृ० को० ११ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५५. १२७ कुरु प्रसादमस्माकं नन्दिताशेषभूतल : ' । हृताखिलमहाराते माऽऽज्ञाभङ्गो भवेदयम् ॥ १२७ ॥ वशीकरणमध्ये तु समस्ते वसुधातले । भवन्ति योषितः पुंसां वशीकरणमुत्तमम् ॥ १२८ ॥ ददाति किं न वा किं न करोति वनितार्थिनः । अवाजी वाजितामेति मुण्डितकमपर्वणि ॥ १२९ ॥ तथोक्तं वररुचिना - 15 आरण्योऽपि महाहस्ती न करिण्या विना यथा । धर्तुं वा वारिबन्धं वा न नेतुं शक्यते नरैः ॥१३१॥ एवं स वटकूपोऽपि भूप कूपिकया विना । आनेतुं मत्तहस्तीवत् त्वत्समीपं न शक्यते ॥ १३२ ॥ स्वच्छमृष्टजलापूर्णा ललिता वरकूपिका । नदीसरोवरत्राता वारिबन्धप्रवेशदा ॥ १३३ ॥ 10 अस्मद्रामे द्विजापूर्णे द्विजातिभिरुपासिते । आज्ञाभङ्गो भवेदाशु भूपालेमां प्रवेशय ॥ १३४ ॥ येनानया समं राजन् प्रेमनिर्भरमानसः । वटकूपः समायाति त्वत्पुरं परमोदयम् ॥ १३५ ॥ एवमेभिस्तदा विप्रैर्वेदध्वनिविशारदैः । विज्ञापितो नरेन्द्रोऽसौ तूष्णीभावमुपाश्रितः ॥ १३६ ॥ निर्धाटितुं निजाद्देशान्न शक्तो हन्तुमप्यहम् । प्रकटागसोऽपि क्षुद्रान् बिभ्यलोकापवादतः ॥ १३७॥ अन्यदा श्रेणिको राजा नन्दग्रामनिवासिनाम् । नरं प्रवेशयामास ब्राह्मणानां कुधाऽन्वितः ॥ १३८ ॥ विह्वलीभूतचेतस्कान् सूत्रकण्ठान् कृतागसः । स नरः प्राप्य विश्रब्धमुवाचेति विचक्षणः ॥ १३९॥ मयैको 'मत्तमातङ्गो गृहीतो बहुमूल्यतः । अस्मत्पुरे न कोऽप्यस्ति तन्मानकुशलः पुमान् ॥१४०॥ तुलया तोलयित्वेमं पलभारप्रमामसौ । यः करोति कलाधारः स बुद्धितुलितावनिः ॥ १४१ ॥ भवद्रामे पुनर्विप्रा वेदस्मृतिविशारदाः । कलाविज्ञाननिष्णाता भवन्ति विधिसंनिभाः ॥ १४२ ॥ भवन्तस्तेऽपि सर्वेऽपि पलभारप्रमाणकम् । तुलया तोलयित्वाऽऽशु ब्रूतैतस्य गजस्य हि ॥ १४३ ॥ 20 अन्यथा धनमादाय पुत्रदारादिबन्धुभिः । समं निपातयामीति संगरोऽयं ममेदृशः ॥ १४४ ॥ एवं निगद्य हृष्टात्मा श्रेणिकस्य महानरः । तेभ्यः समर्पयामास करिणं बहुमूल्यकम् ॥ १४५ ॥ ततोऽभयकुमारेण कोविदेन मनस्विना । जलमध्ये गजो नावि स्थापितो बहुभिर्नरैः ॥ १४६ ॥ सका दन्तिसमायुक्ता तज्जले नौमहत्यपि । एतावन्मात्रनिर्मग्नामवधार्यावसाय ताम् ॥ १४७ ॥ नावं हस्तिप्रमाणेन ग्रावभिः परिपूर्य च । तानुत्तार्य ततः क्षिप्रं सकलानपि भूतले ॥ १४८ ॥ 25 तुलया तोलयित्वेमान् पलभारप्रमाणकम् । विधाय दन्तिनोऽनेन प्रहितं तन्नृपान्तिकम् ॥ १४९ ॥ तच्चेष्टितं विलोक्येदं जगदाश्चर्यकारणम् । तदानीं विस्मितखान्तः श्रेणिको लोकरञ्जकः ॥ १५० ॥ अन्यदा भूपतिः सर्वान् नन्दग्रामद्विजानरम् । आज्ञापयति विस्पष्टं स्वकीयपुरुषेण तान् ॥ १५१ ॥ नन्दग्रामस्य सर्वस्य वटकूपोऽस्य पश्चिमे । तिष्ठत्वरं दिशाभागे निर्विकल्पं मदुक्तितः ॥ १५२ ॥ ततः पश्चिमदिग्भागे नृपवाक्येन वेगतः । स्थापितो वटकूपस्य नन्दग्रामो द्विजैरयम् ॥ १५३ ॥ 30 नन्दग्रामस्य सा वार्ता भूपस्य कथिता नरैः । निशम्यैतां पुना राजा तूष्णीभावमुपागमत् ॥ १५४॥ अथ राजा रुषं प्राप्य नन्दग्रामोपरि द्रुतम् । यावदायाति तं दग्धुं तावदुक्तो नरेण सः ॥ १५५ ॥ नन्दग्रामस्य नो दोषो भूप ज्ञातमिदं मया । माहेन्द्री कोऽपि तद्रामे नरस्तिष्ठति दुष्टधीः ॥१५६॥ तन्मतेन हृतं सर्वं त्वदीयं वचनं नृप । ततो निर्धाट्यतामेष खलीकृत्य स्वदेशतः ॥ १५७ ॥ किं न कुर्यात् किं न दद्यात् स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः । अश्वोऽप्यश्वतां यात्यपर्वणि मुण्डितं शिरः ॥ १३० ॥ 1 [भूतल ]. 2 पफज कुलकम्. 3 फज निर्धाटितं. 4 फज मयैकोत्तममातङ्गो 5 पफज षट्कुलकम्. 6 पज चतुष्कलम् फ चतुष्कुलम्. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. १८९] श्रेणिककथानकम् आकर्ण्य तद्वचो राजा कोपलोहितलोचनः । स्वकीयेन नरेणाशु नन्दग्रामजनं जगौ ॥ १५८॥ अयमागच्छतु क्षिप्रं मत्समीपं कुदेशिकः । अनेन च विधानेन महाजन विमुच्यताम् ॥ १५९ ॥ मा दिवा मा रजन्यां च मा पथा मा भुवा खलः । याने नायं सुदुष्टात्मा तूर्णमेतु मदन्तिकम् ॥१६॥ यद्येवं न समायाति दुष्टचेष्टितविग्रहः । नन्दग्रामं निहन्मीमं भवद्भिः सह निश्चितम् ॥ १६१॥ ततोऽभयकुमारोऽपि सन्ध्याकाले महामतिः। गद्धिकालम्बिकारूढो जगाम श्रेणिकान्तिकम् ॥१६२॥5 दृष्ट्वाऽभयकुमारं च श्रेणिकः प्रीतिमानसः । क्षेमं दत्त्वा पुनः स्नेहाचुचुम्ब शिरसि स्फुटम् ॥१६३॥ ततोऽभयमतिं कान्तां वसुमित्रां च सत्वरम् । आनाय्य स्वनरैस्तत्र सुखं तस्थौ नराधिपः ॥१६४॥ अथ वज्रविदे देशे, विशाली नगरी नृपः । अस्यां केकोऽस्य भार्याऽऽसीत् यशोमतिरिनप्रभा ॥१६॥ विनयाचारसंपन्नः प्रतापाक्रान्तशात्रवः । अभूत् साधुकृतानन्दश्चेटकाख्यः सुतोऽनयोः ॥ १६६ ॥ भद्रभावा सुभद्राऽस्य बभूव वनितोत्तमा । अस्या दुहितरः सप्त बभूवू रूपराजिताः ॥ १६७ ॥ 10 तन्मध्ये प्रथमा प्रोक्ता परमा प्रियकारिणी । द्वितीया सुप्रभा ज्ञेया तृतीया च प्रभावती ॥१६८॥ प्रियावती चतुर्थी स्यात् सुज्येष्ठा पञ्चमी परा । षष्ठी च चलना दिव्या सप्तमी चन्दना मता ॥१६९॥ त्रिदिवादवतीर्णानां सप्तानामपि पुण्यतः । भविष्यन्ति चरित्राणि बुधचित्तहराणि वै ॥ १७० ॥ सप्तानामपि कन्यानां स्ववासभवने प्रिये । कारयामि परं चित्रं सुभद्रां प्राह भूपतिः ॥ १७१ ॥ यदि चित्रकरः कोऽपि लभ्यते निपुणः परः । ततश्चित्रमिदं भद्रे कारयामि स्वमन्दिरे ॥१७२ ॥ 15 तत्रैको वर्धकिर्दिव्यः कोकाशो नाम विश्रुतः । तेन स्त्रीरूपसंयुक्तं कृतं यत्रशतं तदा ॥ १७३ ॥ रामारूपेण यत्रेण नरमोहनकारिणा । तेन चित्रकरा दिव्या बहवोऽपि कदर्थिताः ॥ १७४ ॥ अत्रान्तरे समायातः पुराद् राजगृहाद् भ्रमन् । विचित्रभूरिति ख्यातस्तदा चित्रकरो महान् ॥१७५॥ तत्रालेख्यं विलोक्यायं देवादीनां च तत्पुरे । चित्रभूतिहं विष्टः कस्यचिद्विस्मयाकुलः ॥१७६॥ तत्रैकं पुरुषं दृष्ट्वा पृच्छति स्म कुतूहली । लोकचित्रकरो विद्वांश्चित्रभूतिर्महादरः ॥ १७७॥ 20 भद्रात्र नगरे दिव्ये रूपकारः प्रियंवदः । नरेशवल्लभोऽतीव श्रूयते कुशलस्तराम् ॥ १७८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि जगादेमं पुरः स्थितम् । विद्यते वर्धकिः साधो कुशलः सर्वकर्मसु ॥१७९॥ सोऽपि चित्रकरः क्षिप्रं तदा तद्वचनेन च । तत्समीपं जगामाऽयं कौतुकव्याप्तमानसः॥१८० ॥ विलोक्य वर्धकिस्तत्र चित्रभूतिं समागतम् । 'ग्रासादिकं चकारास्य तदा विस्मितचेतसः ॥१८॥ चित्रभूतिरपि स्पष्टं चोपकारं विधाय सः । तस्थौ मुदितचेतस्कस्तदा वर्धकिनो गृहे ॥ १८२ ॥ 25 ततः स्वागमनं सोऽपि कथयित्वाऽस्य सत्वरम् । नक्तमेकं गृहे स्थित्वा भूपस्य भवनं ययौ ॥१८३॥ ततो भूपतिनाऽनेन कृत्वा संभाषणं मिथः। आवासो विहितोऽप्यस्य चित्रभूतिः स्थितोऽत्र सः॥१८४॥ यत्रप्रवेशनं पश्चाद्धारताडनकं तथा । हस्तग्रहणमन्यच्च कृत्वा यत्रविनाशनम् ॥ १८५॥ आत्मकुट्ये तथाऽऽलम्ब्य लेखनं प्रविधाय च । नक्तं निर्गमनं प्राप्य विधाय द्वारि मोहनम् ॥१८६॥ एतत्सर्वं परिप्राप्य तदा भूपतिशासनात् । चित्रभूतिः सुसंतुष्टो महानसगृहं ययौ ॥ १८७ ॥° 30 चित्रभूतिं समालोक्य कृतलोककुतूहलम् । अहो चित्रकरः साधुर्जगाविति जनो मुदा ॥ १८८॥ चित्रभूतिं निशम्याशु कृतलोकसुकौतुकम् । याचयित्वा सुभद्रेमं भूपतिं कृतकौतुकम् ॥ १८९॥ 1 The surface of the pages of is spoiled here and there; so some words cannot be read. 2 I have followed 51; the reading is lost in , and is not clear in प. 3फ भयमतिक्रान्तां. 4 [ वज्राभिधे]. 5ज भूपकारः. 6फज चित्रभूतिसमागतम्. 7ज प्रामादिकं. 8 फ पश्चाद्वारताडनकं. 9 पफज त्रिकलम. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५५. १९० १९९ ॥ ९९२ ॥ १९३ ॥ २०१ ॥ लोकचित्रकरं साधुं चित्रभूर्ति मनोहरम् । निनाय वासगेहं सा वैबुधं भवनं यथा ॥ १९० ॥ सुभद्रादिककन्यानां सप्तानां प्रतिरूपकम् । सजीवमिव तत्रेदं वासगेहे लिलेख सः ॥ विलोक्य पतितं तत्र चेलनोपरि लाञ्छनम् । दृष्ट्वा नरेन्द्रकोपं च स्थितं मानसधामनि ॥ चेलनारूपसंयुक्तं लिखित्वा पटमादरात् । चित्रभूतिस्तमादाय ययौ राजगृहं पुरम् ॥ चित्रभूतिः पटं तं च चेलनारूपचित्रितम् । तदानीं दर्शयामास श्रेणिकस्य महात्मनः ॥ १९४ ॥ निरूप्य तं पटं राजा विह्वलीभूतमानसः । पपात विष्टरादाशु मोहतो भुवमागतः ॥ १९५ ॥ भूयोऽपि चेतनां प्राप्तः सिक्तश्चन्दनवारिणा । मूर्च्छायाः कारणं पृष्टः श्रेणिको हितबन्धुभिः ॥ १९६ ॥ निशम्य तद्वचो राजा जगादेमान् पुरः स्थितान् । पट्टसंदर्शनात्प्राप्ता मूर्च्छा मे कथितं हि वः ॥ १९७॥ श्रुत्वाऽभयकुमारोऽस्य वचनं काममोहितः । बभाण जनकं शीघ्रमानयामि तकामहम् ॥ विश्रब्धीकृत्य तं तातं भूपरूपं विधाय सः । पटेऽभयकुमारोऽयं मनोहारि सतामपि ॥ वणिग्वेषं विधायायं सार्थवाहो जनावृतः । विशालिकां पुरीं प्राप्य क्रमेण कृतसंमदः ॥ २०० ॥ आदाय साररत्नानि बहुमूल्यानि भूरिशः । ददर्श चेटकं भूपं कुमारोऽभयपूर्वकः ॥ ततो नराधिपस्तुष्टः प्राहेमं विनयस्थितम् । किमत्र याचसे स्पष्टं कथयाशु ममाधुना ॥ २०२ ॥ श्रुत्वा चेटकराज्ञोऽस्य वचनं स जगावमुम् । नगरेऽत्र प्रभूतं ते करोमि क्रयविक्रयम् ॥ २०३ ॥ भवत्कन्यागृहान्ते च करोमि विशिखं नृप । दानं ददामि सर्वस्मै वोट्टोऽहं वणिगुत्तमः ॥२०४॥ प्रसार्य पट्टकं राजन् वाणिज्यं विदधाम्यहम् । यो यगृह्णाति मे भाण्डं ददाम्यस्मै धनं विना ॥२०५॥ एवमत्र प्रकुर्वाणो भूपवाक्येन तत्पुरे । तिष्ठति प्रीतचेतस्को वाणिजो वोट्टनामकः ॥ २०६ ॥ चित्रकर्म विधायेदं पट्टके जनविस्मयम् । पुष्पधूपादिकं दत्त्वा चकार स्तुतिमस्य सः ॥ २०७ ॥ पश्चान्महाजनव्रातैः कोलाहलविधायिभिः । समं वोट्टवणिक् तत्र करोति क्रयविक्रयम् ॥ 20 अत्रान्तरे कलालापाश्चेलनाचेटिका मुहुः । गमागमं प्रकुर्वन्ति 'वोट्टवाणिजकापणे ॥ वोट्टो वणिक्पुनस्तासां चेटिकानां मुहुर्मुहुः । श्रेणिकस्य स्वनाथस्य माहात्म्यं कथयत्यसौ ॥ २१०॥ पटस्थं चित्रकर्मेदं श्रेणिकस्य विलोक्य ताः । चेलनां प्राप्य संतुष्टा निगदन्ति समं तदा ॥ २१९ ॥ स्वामिन्यस्मत्पुरे कोऽपि मूर्खोऽसौ वोट्टवाणिजः । आत्मनाथवरं रूपं लेखयित्वा पटे पुनः ॥ २१२ ॥ सजीवचित्रकर्मेदं "स्वपतिप्रतिरूपकम् । प्रभाते पूजनं कृत्वा स्तुत्वा स्तुतिशतैरपि ॥ २१३ ॥ 25 पश्चाद्यो यद्वरं द्रव्यं "याच्यते मूल्यतो विना । तस्मै यथेप्सितं वत्से ददाति प्रीतमानसः ॥ २१४॥ निशम्य तद्वचः कन्या कौतुकव्याप्तमानसा । चेलना प्राप्य तद्रूपं पश्यति स्म मनोहरम् ॥ २१५॥ श्रेणिकस्य परं रूपं प्रत्यङ्गं प्रविलोक्य च । मुमोह चेलना कन्या विश्रब्धा स्वगृहं ययौ ॥ २१६ ॥ भूयो गमागमं कृत्वा चेटिका हृष्टचेतसः । तत्रत्यं श्रेणिकस्यासां माहात्म्यं निगदन्ति ताः ॥२१७॥ चेटीवचनमाकर्ण्य कन्याः कन्दर्पविह्वलाः । कौतुकव्याप्त चेतस्कास्तत्पटं द्रष्टुमाययुः ॥ २९८ ॥ विलोक्य श्रेणिकं रूपं पटस्थं वरकन्यकाः । वोहं वदन्ति चैकान्ते कामबाणसमाहताः ॥ २१९ ॥ * गृहीत्वाऽस्मान् व्रज क्षिप्रं वोट्ट वै श्रेणिकान्तिके । जीवामो येन तं प्राप्य सुखेन कलिताः प्रियम् ॥ २२० तद्वाक्यतः कुमारोऽपि सुरङ्गां निचखान सः । खवासान्तर्गतां यावत्कन्याप्रासादमादरात् ॥२२१॥ ततोऽभयकुमारोऽपि प्राग्निर्मितसुरङ्गया । निनाय चेलनां कन्यां ज्येष्ठया सहसा सह ॥ २२२ ॥ २०८ ॥ २०९ ॥ 13 5 10 15 30 ८४ 1 पफज युग्मम्. 2 पफज युग्मम्. 3 फ महात्मभिः. 6 फज करोति. 7 पफज चतुष्कलम्. 8 फ जनत्रातः 9 फज वोट 12 प कन्या 13 फज समाहृताः. १९८ ॥ १९९ ॥ 4 ज कृतसंमहः 5 पफज युग्मम्. 10 फज खपिति 11 [ याचते ]. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. २५४ ] श्रेणिककथानकम् विलोक्य चलना ज्येष्ठां स्खसमं निर्गतां पुरात् । ईर्षयेमां जगादैषा मद्रुच्यानि' गृहान्नय ॥२२३॥ यावदादाय रुच्यानि स्वगृहं याति सत्वरम् । ज्येष्ठा तावदसौ जाता चेलना तत्समं मुदा ॥२२४॥ अभयादिकुमारोऽपि गृहीत्वा चेलनामरम् । तोषपूरितचेतस्कः प्राप राजगृहं पुरम् ॥ २२५ ॥ ततो ज्येष्ठाऽपि “तत्पृष्टा तन्मार्गेण विनिर्गता । चेलनां तामपश्यन्ती बभ्रामाकुलमानसा ॥ २२६॥ ततो यशोमतिं प्राप्य स्वसारं जनकस्य सा । अर्जिकां गुरुमानम्य दीक्षां जग्राह तत्पुरे ॥२२७॥ । अथाभयकुमारोऽपि सभामध्यानुयायिनः। श्रेणिकस्य नरेन्द्रस्य दर्शयामास चेलनाम् ॥ २२८॥ विलोक्य चेलनां राजा तोषविस्फारितेक्षणः । 'व्रजनं च विधायास्या महादेवीपदं ददौ ॥२२९॥ ततोऽभयकुमारं च चेलनाऽऽनयनादलम् । ग्रामादिसंपदा हृष्टः पूजयामास भूपतिः ॥ २३० ॥ परस्परमुखाम्भोजवीक्षणासक्तलोचनौ । अन्योन्यप्रेमसंबद्धौ दम्पती तौ बभूवतुः ॥ २३१॥ अथ कालानुभावेन चेलनाया गुणाकरः । बभूव वारिषेणाख्यो नन्दनः कुलनन्दनः ॥ २३२ ॥ 10 तथा हि धारिणीगर्भे समुत्पन्नः प्रियंवदः । कोणकाख्यः सुतः श्रीमान् विनयी रूपराजितः ॥२३३॥ जातः श्रेणिकभूपालो भगवासक्तमानसः । चेलनाऽपि महादेवी जिनभक्तिपरायणा ॥ २३४ ॥ ॲणिको भगवद्धर्म चेलना जैनमुत्तमम् । वक्ति चान्योन्यसंवादो वर्तते सर्वदाऽनयोः ॥ २३५ ॥ एवं याति तयोलोंके कलहेन दिवानिशम् । श्रेणिकश्चेलनां प्राह विनयेन पुरःस्थिताम् ॥ २३६ ॥ रमणो देवता नार्या लोकानां ब्राह्मणस्तथा । इदं बुधमनोहारि श्रूयते वचनं भुवि ॥ २३७ ॥ 15 भर्ताऽहं देवता तेऽत्र कुरु भक्तिं ममाधुना । यो धर्मों मम देवो वा कर्तव्यस्तेन स त्वया ॥२३८॥ ये मत्तपस्विनः केचिद्विष्णुदेवसमक्रियाः । अर्चितव्यास्त्वया तेऽपि संगरोऽयं मम प्रिये ॥२३९॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा चेलना वदति स्म तम् । आज्ञां दत्से यथा भर्तस्तथैवाहं करोमि ताम् ॥२४०॥ एवमुक्त्वा धवस्यान्ते परिव्राजकसंहतिम् । परिप्राप्य जगादैतां चेलना भर्तृवाक्यतः ॥ २४१॥ मगृहेऽद्य प्रभोक्तव्यं भवद्भिः सकलैरपि । एवमस्त्विति तैरुक्ता जगाम स्वगृहं सका ॥ २४२ ॥ 20 ततो मध्याह्नवेलायां श्रुत्वा सर्वेऽपि माहनाः । महादेवीगृहं प्राप्ता मणिनिर्मितभित्तिकम् ॥२४३॥ कृत्वा सर्वोपकारं च तेषामासनयायिनाम् । चेलना श्रेणिकप्रीत्या पुष्पधूपादिकं ददौ ॥ २४४॥ अवतारं प्रकुर्वन्तु विष्णुपादा धवप्रियाः। एवं निगद्य तान्पार्चे शिखी "प्रज्वालितेऽनया ॥२४५॥ एवं "प्रज्वालिते वह्नौ परिव्राजकसंहतिः । भयवेपितसङ्गिा नष्टा सर्वाऽपि तत्क्षणात् ॥ २४६॥ ज्ञात्वा वृत्तान्तमेतेषां श्रेणिकः क्रुद्धमानसः । जगाद चेलनां तत्र क्रोधारुणनिरीक्षणः ॥ २४७ ॥ 25 यदि त्वं श्राविका देवि परमाऽसि नितम्बिनि । यशोव्याप्तसमस्ताशे स धर्मस्ते न रोचते ॥२४८॥ ततो मध्याह्नवेलायां क्षुधापम्पाकदर्थिताः । किं कदर्थयितुं युक्तं वद देवि तपस्विनः॥२४९॥ श्रेणिकोक्तं निशम्योचे चेलना रमणं तदा । कारणेन विना नाथ किं कुप्यसि ममोपरि ॥२५०॥ ये ते तपखिनो देव देवता वाऽधिकं भुवि । ते मेऽपि देवता किंतु पुण्यवन्तस्तपस्विनः ॥२५१॥ येषां करोषि सुष्ठु त्वं भक्तिं निर्मलचेतसाम् । तेषामहमपि स्पष्टं करोमि स्थिरमानसा ॥२५२॥ 30 ततो भक्त्या मया वह्निस्तत्समीपे नरेश्वर । प्रज्वालितो न रोषेण शृणु तत्त्वं कथानकम् ॥२५३॥ विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी नगरी नृपः । प्रजापालो बभूवास्यां तद्भार्या च यशोमतिः ॥२५४॥ 1ज रुच्यानि-आभरणानि. 2 [याता]. 3फ प्राप्य. 4 फज तन्मृष्टा, [तत्पृष्ठात् ]. 5 प अर्यिकां. 6 फज दर्शयामास चेलनाम् ; प also like that, but corrected later in this manner. 7 पव्रजनविवाहम्. 8 ज चतुष्कम्, पफ चतुष्कलम्.9 [सर्वोपचारं]. 10 [प्रज्वालितो]. 11फ प्रज्वालितो. 12 [कदार्थतान]. 13 पफज त्रिकला. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५५. २५५अस्यामेव पुरि श्रेष्ठी भूपतेर्धनसंयुतः । अस्ति सागरदत्तोऽस्य भार्या वसुमती परा ॥ २५५ ॥ अपरोऽपि द्वितीयोऽस्यां पुरि श्रेष्ठी महाधनः । नाना समुद्रदत्तोऽस्ति कान्ता तन्नामसंगता ॥२५६॥ अनयोः श्रेष्ठिनोरस्यां सुखेन वसतोः सतोः । बभूव परमा प्रीतिरभेद्या दुर्जनैरपि ॥ २५७ ॥ अथ सागरदत्तोऽपि स्नेहनिर्भरमानसः । समुद्रोपपदं दत्तं जगाद सरसं हितम् ॥ २५८॥ यदि मे तनया यातु' जायते तनयस्तव । ततो मयाऽस्य सा दत्ता भवत्पुत्रस्य निश्चितम् ॥२५९॥ अथवा मे सुतो भावी ते सुता दैवयोगतः । मत्पुत्राय सका देया त्वया संबन्धमिच्छता ॥२६०॥ श्रुत्वा तद्वचनं सारं स्नेहसंबन्धकारणम् । समुद्रोपपदो दत्तः प्राहेमं पुरतः स्थितम् ॥ २६१॥ शोभनं गदितं साधो त्वया स्नेहगरीयसा । प्रतिपन्नं मयाऽप्येतद्भवता सुमनीषितम् ॥ २६२॥' ततः सागरदत्तस्य वसुमत्याश्च योषितः । सो बभूव कृष्णाङ्गो रक्ताक्षो लोलजिह्वकः ॥ २६३॥ 10 दिवा भवति सोऽयं भीमभोगभयंकरः । दिव्यरूपधरो नक्तं पुरुषः सन्मनोहरः॥ २६४ ॥ देवविद्याधराकारः कर्णकुण्डलराजितः । हारराजितवक्षस्को वसुमित्राख्यया युतः ॥ २६५ ॥ ततः समुद्रदत्ताया नागदत्ता सुताऽभवत् । रूपराजितसर्वाङ्गी नागिनीव मनोहरी ॥ २६६ ॥ एषा समुद्रदत्तेन नागदत्ताऽतिरूपिणी । वितीर्णा वसुमित्राय परिणीता विधानतः ॥ २६७ ॥ वसुमित्रो दिने सर्पो नक्तं दिव्यनरो भवेत् । भोगं यथेप्सितं दिव्यं भुञ्जानो नागदत्तया ॥२६८॥ 15 पश्चात्करण्डकान्तस्थस्तोषपूरितमानसः । संतिष्ठते महाभोगी पाताले चमरो यथा ॥ २६९ ॥ तत्र समुद्रदत्तेयं नागदत्तां पुरःस्थिताम् । पप्रच्छेदं महास्नेहात्तोषकण्टकिताङ्गिका ॥ २७०॥ भवत्पतिः सुते कीदृग्गुणी रूपी न वा भवेत् । क वा वसति संप्रीतः कथयेदं ममाधुना ॥२७१॥" निशम्य जननीवाक्यं सुता प्रीतिपरायणम् । तोपपूरितचेतस्का नागदत्ता जगावमूम् ॥ २७२॥ अम्बिके वल्लभो भीमः करण्डे कनकोज्वले । दिव्येन्द्रनीलसंकाशः सो भूत्वा वितिष्ठते ॥२७३॥ 20 नक्तं पुनरसौ कान्तो दिव्यरूपधरः पुमान् । मया समं महाभोगान् भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥२७४॥ प्रभातसमये सोऽयं करण्डे मणिभासुरे । भूत्वा सोऽम्बिके भोगी तिष्ठति प्रीतमानसः॥२७५॥ श्रुत्वा समुद्रदत्ताऽपि नागदत्तावचः परम् । जगौ सुतां महाप्रीत्या नानाकार्यविचक्षणा ॥२७६॥ सर्वकाले यथा पुत्रि वसुमित्रो नरो भवेत् । तथा तं ते करिष्यामि विश्रब्धीभव बालिके ॥२७७॥ एवं निगद्य तां पुत्रीं मत्तमातङ्गगामिनीम् । तदा समुद्रदत्ता सा नागदत्तागृहं ययौ ॥ २७८ ॥ 25 अथ नक्तं करण्डान्तात् कान्तासंगसमुत्सुकः। दिव्यरूपो नरः श्रीमान् वसुमित्रो विनिर्ययौ ॥२७९॥ यस्मिंस्तु समये सो निर्यातोऽतः करण्डकात् । तस्मिन्नेव स निक्षिप्तः करण्डोऽग्नौ तयाऽऽदरात् २८० करण्डो भस्मतां प्राप्तो वसुमित्रो दिवानिशम् । रूपयौवनसंपन्नो बभूव परमः पुमान् ॥ २८१॥ तस्मिन्करण्डके दग्धे भुञ्जानो यौषितं सुखम् । सर्वकालं नरो भूत्वा वसुमित्रोऽवतिष्ठते ॥२८२॥ स्वामिन् यथा तया दग्धः समुद्रादिकदत्तया । करण्डः स्वसुताहेतो गविन्यस्तचेतसा ॥ २८३॥ 30 तस्मिन्पिट्टारके दग्धे वसुमित्रः सुखान्वितः। दिव्यरूपः पुमान् भूत्वा तस्थौ मुदितमानसः ॥२८४॥ तथा मयाऽपि राजेन्द्र त्वद्देवानां खभक्तितः । विष्णुलोकं गतानां हि शरीरं दहनं कृतम् ॥२८५॥ प्रतीहि मद्वचः सत्यं मच्चेतोनयनप्रिय । न रोषेण कृतं स्वामिन् तद्देहदहनं मया ॥ २८६॥ 1 [जातु]. 2 पफज त्रिकलम्. 3 प युग्मम् , फज युगलम्. 4 प युग्मम् , फज युगलम्. 5फ समुद्रदत्तोऽयं. 6 पफज युग्मम्. 7 पफज चतुष्कलम्. 8 फ यथा. 9 पफज त्रिकला. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. ५५ ] कर्कण्डमहाराजकथानकम् विहायापघनं येन विष्णुलोकं समागताः । विष्णुलोके प्रभुञ्जाना भोगांस्तिष्ठन्ति ते परान् ॥ २८७॥ तथा तपः प्रकुर्वन्ति हित्वा पूर्तिकलेवरम् । विष्णुलोकपरिप्राप्तेः संसारत्रस्तचेतसः ॥ २८८ ॥ कलेवरमिदं दग्ध्वा बाह्याभ्यन्तरतोऽशुचि' । इहत्यमनुजा यान्तु विष्णुलोकं महासुखम् ॥ २८९ ॥ अनेन कारणेनेश कथितं तच्छरीरकम् । दग्धं मयाऽतिभावेन तत्सुखावाप्तिकारणात् ॥ २९० ॥ ततो राजा महादेव्या निशम्य वचनं तथा । तूष्णीभावं परिप्राप्य तस्थावन्तः प्रकोपवान् ॥ २९९॥ अन्यदा प्रस्थितो राजा पापद्धय क्रुद्धमानसः । पथि स्थानस्थितं वीरं दृष्ट्वा यमधरं मुनिम् ॥ २९२ ॥ - दध्यावनेन नग्नेन श्रमणेन दुरात्मना । मृगयाप्रस्थितस्याशु कृतो मेऽशकुनः कथम् ॥ २९३ ॥ - चेलनावैरसंबन्धं स्मृत्वा पूर्वसमुद्भवम् । शुनां पञ्चशतानीतो मोचयामास तं प्रति ॥ २९४ ॥ एवं ते बन्धनोन्मुक्ताः सिंहपोता इव द्रुतम् । मुनेः समीपतां प्राप्तास्तीक्ष्णदन्ता बृहन्मुखाः ॥ २९५ ॥ तत्प्रभावेन संभूय समस्ताः शान्तचेतसः । त्रिः परीत्य तमीशानं वन्दित्वा ते पुरः स्थिताः ॥ २९६ ॥ " विलोक्य मण्डलान् भूपस्तत्पुरो' विनयस्थितान् । मुमोच बाणसंघातं लक्ष्यीकृत्य मुनिं क्रुधा ॥ २९७॥ ततस्ते मार्गणास्तस्य भूत्वा पुष्पराजोऽमलाः । मुनिपादोपरि स्पष्टं निपेतुर्गन्धशालिनीः ॥२९८॥ राजा तत्समयेनैव सप्तमे नरके द्रुतम् । त्रयस्त्रिंशत्समुद्रोत्थं बबन्धायुः कुधीरयम् ॥ २९९ ॥ भूयोऽतिशयमीदृक्षं विलोक्योपशमं परम् । जगाम विस्मितखान्तो भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ ३०० ॥ मुनिं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा स्वं विनिन्द्य च । श्रेणिकस्तत्पुरस्तस्थौ विनयानतमस्तकः ॥३०१॥ स्वयोगमुपसंहृत्य सर्वसत्त्वदयापरः । श्रेणिकस्य चकारायं धर्मश्रमणमादरात् ॥ ३०२ ॥ मुनिनाऽस्य तथा धर्मः कथितो जिनदेशितः । यथाऽयं शुद्धसम्यक्त्वो बभूव क्षणमात्रतः ॥ ३०३॥ आयुर्यदर्जितं तत्र त्रयस्त्रिंशत्समुद्रजम् । तदनेन हतं सर्वं महामुनिसमागमात् ॥ ३०४ ॥ सीमन्तनरके राजा प्रथमंश्वभ्रसंभवे" । सहस्राणां बबन्धायुरशीतिश्चतुरुत्तरा ॥ ३०५ ॥ ततो निर्वाणमापन्ने महावीरे जिनेश्वरे । तिस्रस्समाश्चतुर्थस्य कालस्य परिकीर्तिताः ॥ ३०६ ॥ तथा मासाष्टकं ज्ञेयं षोडशापि दिनानि च । एतावति गते काले नूनं दुःखमनामनि ॥ ३०७ ॥ मानसेष्टान्महाभोगान् भुक्त्वा कालं विहाय " च । पूर्वोक्तं श्रेणिको राजा सीमन्तं नरकं ययौ ॥३०८॥" अथ श्रेणिकपुत्रोऽयं कोणको नाम विश्रुतः । चकार विपुलं राज्यं मगधाविषये महान् ॥ ३०९ ॥ दुःखमासुखमाकाले प्रविष्टे श्रेणिको नृपः । भुक्तस्त्वायुःप्रमाणः” सन् सीमन्तान्निर्गमिष्यति ॥३१०॥ “अष्टाविंशार्धयुक्तस्य भोगिनः कुलकारिणः । पद्मादिपुङ्गवस्यायं भविष्यति सुतः परः ॥ ३११ ॥ द्विसप्तत्यब्दसंख्यायुः सप्तहस्तशरीरकः । सर्वलोकगुरुः श्रीमानादितीर्थकरो महान् ॥ ३१२ ॥ sa भरतक्षेत्रे मध्यमादिकमण्डले । उत्सर्पिणीतृतीयाख्ये काले जनसुखावहे || ३१३ ॥ नामतोऽयं महापद्मो लोकावस्थितिदेशिकः । द्वादशाङ्गणायुक्तो गुणशीलमहोदधिः ॥ ३१४ ॥ चतुस्त्रिंशद्गुणोपेतः प्रातिहार्यसमन्वितः । धर्मं दिशन्नसौ स्वामी विहरिष्यति महीतले " ॥३१५॥ ॥ इति श्रीक्षायिक सम्यक्त्वयुक्तविरत श्रेणिकतीर्थंकरोत्पत्तिकथानकम् ॥ ५५ ॥ 25 16 米 1 फ शुचिः. 2 पफज युग्मम्. 3 ज पापर्धा. 4 पफज युग्मम्. 5 ज भूपतत्पुरो. 6 फ पुष्परुजोमला. 7 फ गन्धशालिनी. 8 [ धर्मश्रवण ]. 9 फज स्व. 10 पज शंभवे 11 [ विधाय ] 12 पफज त्रिकलम्. 18 [भुक्तखायुः प्रमाणः ]. 14 प ( = चतुर्दश कुलकराः ) 15 [ भूतले ]. 16 प चतुःकुलकम्, फज चतुष्कलकम्. 17 फज युक्तात् विरतः. ८७ 20 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ५६. कर्कण्डमहाराजकथानकम् । १२ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ १५ ॥ अथ लङ्कापुरि श्रीमान् राजाऽऽसीद्रावणान्वये । सूर्यप्रभोऽस्य भार्या च श्रीषेणा श्रीसमप्रभा ॥ १ ॥ अन्यदाऽतिमनःकान्ते मलये विषयान्तके । मलयाख्यगिरिं यातो भूपतिः श्रीतमानसः ॥ २ ॥ मलयाचलमूर्धानं दृष्ट्वेमं रामणीयकम् । तोषपूरितचेतस्को दध्याविति स विस्मितः ॥ ३ ॥ सितीकृतनभोभागान् कारयित्वा जिनालयान् । ऋषभादिजिनेन्द्राणामेष्वर्चाः स्थापयाम्यहम् ॥ ४ ॥ कैलासशिखरे रम्ये यथा भरतचत्रिणा । स्थापिताः प्रतिमा वर्ण्या जिनायतनपक्षुि ॥ ५ ॥ तथा सूर्यप्रभेणापि मणिकाञ्चननिर्मिताः । जिनालयेषु दिव्येषु स्थापिता जिनभक्तितः ॥ ६ ॥ विद्याधरजनैः साकं विनिर्वर्त्य महामहम् । तद्भूमिखातिकां कृत्वा जगामायं यथागतम् ॥ ७ ॥ विजयार्धे नगोत्तुङ्गे चोत्तरश्रेणिसंभवम् । विमानं चामरं वास्ति पुरं गगनवल्लभम् ॥ ८ ॥ 10 तत्र द्वौ भ्रातरौ स्यातां सर्वविद्याधराधिपौ । सुवेगामितवेगाख्यौ सम्यग्दर्शनभूषितौ ॥ ९ ॥ कुत्रिमा कृत्रिमार्चानां सर्वपर्वदिने युतौ । मन्दिरादिषु कुर्वाणौ वन्दनां कुं विचेरतुः ॥ १० ॥ लङ्कादक्षिणभागे तौ विधाय जिनवन्दनाम् । दक्षिणापथ देशस्थे मलये विषयान्तिके ॥ ११ ॥ भूतिपर्वतमायातौ श्रीखण्डतरुसंकुलम् । भक्तिनिर्भरचेतस्कौ जिनबिम्बानि वन्दितुम् ॥ तत्र तौ वन्दनां कृत्वा भक्तिनिर्भरमानसौ । पश्यन्तौ प्रतिमां जैने मन्दिरे तस्थतुर्मुदा ॥ तिष्ठतोरनयोस्तत्र पार्श्वदेवस्य यातनाम् । विलोक्यामितवेगेन सुरूपां चिन्तितं तदा कारयित्वा परां दिव्यां विजयार्थे ' जिनालये । प्रतिमां पार्श्वदेवस्य स्थापयामीदृशीमहम् ॥ व्रजन्नमितवेगोऽयं गृहीत्वा प्रतियातनाम् । कलिकुण्डस्य तां भूयो मुमोच लयनान्तरे विधाय तां नुतिं भक्त्या यावदुत्क्षिपति प्रभुः । तावत्तत्प्रतिमाऽत्रैव तस्थौ निश्चलविग्रहा ॥ ततो मज्जूषिकान्तस्थां तदच भूमिसंगताम् । विधायासौ प्रयत्नेन तेराख्यं पुरमाययौ ॥ १८ ॥ सहस्रकूटसंख्याने समुत्तुङ्गे जिनालये । मुनिर्यमधरस्तत्र तिष्ठति स्थिरमानसः ॥ १९ ॥ ततस्ताभ्यां विनीताभ्यां तन्नतिं प्रविधाय च । पार्श्वनाथस्य वृत्तान्तः सकलोऽस्य निवेदितः ॥२०॥ अस्माभिः पार्श्वनाथाच प्रारब्धा पूतपर्वतात् । आनेतुमत्र संलग्ना स्थिता सा तन्नगोपरि ॥ २१ ॥ किं निमित्तमिदं नाथ न विज्ञातं प्रयोजनम् । अस्माभिस्तत्पुनः क्षिप्रं कथयेश ममाधुना ||२२|| ' निशम्य तद्वचो योगी जगादेमं च तद्विरौ । भविष्यति मनोहारि दिव्यमायतनं खगः ॥ २३ ॥ 25 अयं सुवेगखेटोऽपि तदर्चां वीक्ष्य निश्चितम् । अपरत्र भवे साधो जिनधर्मं ग्रहीष्यति ॥ २४ ॥ श्रुत्वाऽन्यभवसंबन्धं सुवेगस्य महामुनेः । " दीक्षाम मितवेगोऽपि तत्समं सहसाऽग्रहीत् ॥ २५ ॥ अथ मिथ्यात्वमासाद्य सुवेगमुनिरर्दितः । परीषहभटैरार्तध्यानतो मृतिमाप सः ॥ २६ ॥ तत्पर्वतसमीपे च तदर्चास्थानके सकः । बभूव भीषणाकारः श्वेतवर्णो महागजः ॥ २७ ॥ विधायामितवेगोऽयं तपो घोरं महामुनिः । बभूव भासुराकारो देवो दिवि महर्द्धिकः ॥ २८ ॥ पूर्वोक्तप्रतिमा सा च निक्षेपविहिताऽत्र या । आनीताऽमितवेगेन लङ्कायां स्थापिता पुनः ॥ २९ ॥ विलोक्य प्रतिमामेतां कर्कण्डाख्यो " नराधिपः । अधोलयनमध्यस्थां चकारायं विशुद्धधीः ॥ ३० ॥ इदं कथान्तरं भव्यं भव्यानां निगदन्त्यमी । जिनराद्धान्तनिष्णाताः सूरयस्तत्त्ववेदिनः ॥ ३१ ॥ ॥ १६ ॥ १७ ॥ 15 20 30 5 ૯૮ 1 पफ विनिर्वत्य, प (= निर्माध्य). 2 फज वामरं. 3 पफज युग्मम्. 4 ज यातनां= प्रतिमाम् 5 फज वैजयार्थे 6 पफ तदर्थां 7 प युग्मम्, फज युगलमिदम्. 8 [ खग ]. 9 प युग्मम् ज युगलमिदम्. 10 पज तद्दीक्षा 11 फ कार्कण्डाख्यो. [ ५६.१ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. ६२] कर्कण्डमहाराजकथानकम् अत्रान्तरे सुरः खर्गेऽमितवेगचरो महान् । अवधिज्ञानमासाद्य दध्याविति स धीरधीः ॥ ३२ ॥ सुवेगखेचरो दिव्यः कनीयान् मे सहोदरः। पञ्चतां प्राप्य मिथ्यात्वात् क चोत्पन्नः सुधीरधीः॥३३॥ अवधिज्ञानतो दृष्टः पूतिपर्वतमस्तके । सितदन्तो महाहस्ती प्रालेयगिरिसंनिभः ॥ ३४ ॥ अणुव्रतानि पञ्चापि त्रिभिः सह गुणवतैः । शिक्षाव्रतैश्चतुर्भिश्च रात्रिभोजनवर्जनम् ॥ ३५ ॥ मधु मद्यं तथा मांसं पंचुंबरपरिच्युतिम्' । सम्यक्त्वपूर्वकं देवो ग्राहयामास तं गजम् ॥ ३६॥ । सागारधर्ममादाय मुनिदेवोपदेशतः । दध्यौ हस्तिवरस्तत्र तदालोकनतत्परः ॥ ३७॥ पापोऽहं पापकर्माऽहं पापनिर्मितदेहकः । पूर्वजन्मान्तरभ्रष्टस्तिर्यग्गतिमुपागतः ॥ ३८ ॥ गच्छन् महाटवीमध्ये क्व जिनार्चा व योगिनम् । पश्याम्यत्र नगे भीमे दृष्टं मे पुण्यतो द्वयम् ॥३९॥' एवं वैराग्यमापन्नं कुञ्जरं प्रविलोक्य सः । भूयो देवमुनिः प्राह स्नेहनिर्भरमानसः ॥४०॥ प्रदेशेऽस्मिन् गजाधीश पार्श्वदेवप्रयातना । निखातपूर्वा साऽस्माभिस्तिष्ठत्वद्यापि निश्चितम् ॥४१॥ ॥ अतः सरोवराद्भव्यात् पद्माद्यादाय भक्तितः । इष्ट्वाऽमूभिर्जिनं पाच त्रिकालं तन्नुतिं कुरु ॥ ४२ ॥ यदा कोऽपि त्विमाम_मुत्खाय च ग्रहीष्यति । तदा त्वं सर्वमाहारं हित्वा सल्लेखनां कुरु ॥४३॥ अग्र स्खं निवेद्यास्यामितवेगखगेश्वरः । इदमुक्त्वा गजं शीघ्रं मुनिदेवो ययौ दिवम् ॥४४॥ . गजः करेण पद्मानि गृहीत्वा सरसो जलम् । विस्तीर्णपद्मिनीपत्रे सितमुक्तासमाकृति' ॥४५॥ अभिषिच्य जलेनाा पद्मः पूजां विधाय च । त्रिःपरीत्य नुतिं कृत्वा वनं याति सुलीलया ॥४६॥ 15 अथेह भरतक्षेत्रे भव्यशस्यफलप्रदे । स्थितं तदक्षिणे भागे विजयार्धमहीभृतः ॥४७॥ पुरं च चक्रवालाख्यं रथनूपुरपूर्वकम् । धनदस्य पुरस्येदं करोति विजिगीषुताम् ॥ ४८॥" तत्र नील-महानीलौ भवेतां भ्रातरौ परौ । युद्धे पराजितावन्यैर्विद्याधरकुमारकैः ॥४९॥ महापराक्रमोपेतैः स्ववीर्यबलशालिभिः । विद्याच्छेदं विधायाशु धाटितौ तौ स्वपत्तनात् ॥ ५० ॥ धाराशिवप्रपाल्यां" च दृष्ट्वा निक्षेपयातनाम् । भूयो विद्या भविष्यन्ति चानयाऽवस्थया हि तौ ॥५१॥ 20 अभीराख्यमहादेशे तेराख्यनगरं परम् । तदा नीलमहानीलौ प्रयातो विजिगीषया ॥५२॥ सर्वत्र विषयेऽमुष्मिन् ये केचन महानृपाः । तान् सर्वान् स्ववशे कृत्वा निर्गतौ तत्पुरात् पुनः॥५३॥ तेरादक्षिणादिग्भागे गन्यूतित्रयसंगतम् । अध्वानं तावतिक्रम्य प्रविष्टौ भीषणं वनम् ॥ ५४॥ तत्र धाराशिवाभिख्यौ महाबलसमन्वितौ । सर्वभिल्लाधिपौ भिल्लौ वसतः स्म बलोत्कटौ ॥ ५५ ॥ ततो नीलमहानीलौ विद्याधरकुमारको । आगत्य पूजितौ ताभ्यां विनीताभ्यां धनादिना ॥ ५६ ॥ 25 नीलेन भ्रातृयुक्तेन सभामध्यस्थितेन तौ । इदं प्रयोजनं पृष्टौ तदानीं पुरतः स्थितौ ॥ ५७॥ विचरद्भ्यां वने वत्सौ भवद्भ्यां शूरभीतिदे । किं वापि दृष्टमाश्चर्य बुधविस्मयकारणम् ॥ ५८॥ श्रुत्वा तद्वचनं धारस्तदा शिवसमन्वितः । जगाद हृष्टरोमाऽयं नीलं भ्रातृसमन्वितम् ॥ ५९॥ अभिषिञ्चन् जलैरथ्यं पूजयन् कमलैस्तथा । महासरोवरान्नीतैः करेण त्रिःपरीत्य तं ॥ ६॥ गिरीन्द्रसदृशाकारो मन्दमन्दगतिक्रियः । अस्माभिः स व्रजन् दृष्टो राजन् सिततनुः करी ॥६१॥ ॥ ततो नीलमहानीलौ तदानीं तत्पुरस्सरी । प्राप्य वल्मीकसंस्थानं दृष्टवन्तौ महागजम् ॥ ६२॥ 1प पंचुंबरि०. 2 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. 3 फज योगिनाम्. 4 प युग्मम् , फ युगलम् , ज युगलमिदम्. 5 पज पद्मान्यादाय. 6 प चतुःकुलकम् , फ चतुष्कलमिदम् , ज चतुष्कलकमिदम्.7 समाकृतिः. 8 प खलीलया. 9 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. 10 फ भव्यवास्य. 11 प युग्मम्, फ युगलम् , ज युगलमिदम्. 12 ज प्रपल्या. 13 प केचिन्महानृपाः. 14 [जलेरN ]. बृ० को० १२ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे कुर्वन्तं नीरसंघेन वामलूरस्य सेवनम् । पूजयन्तं तथा पद्मः करेण बहुभक्तितः ॥ ६३ ॥ त्रिःपरीत्य कृतस्थानं भूमिविन्यस्तमस्तकम् । शुक्लीकृतनभोदेशं वामलूरपुरःस्थितम् ॥ ६४॥ षष्ठोपवासमादाय तत्पुरः प्रीतमानसौ । तदा नील-महानीलौ तस्थिवांसौ विचक्षणौ ॥६५॥ देवता तो समालोक्य वल्मीकपुरतः स्थितौ । स्वरूपं दर्शयामास तद्भक्तिप्रीतमानसा ॥६६॥ 5 किमर्थं पतितौ भद्रौ वल्मीकाग्रे मनस्विनौ । ब्रूतं प्रयोजनं वत्सौ मम शीघ्रं सुचेष्टितौ ॥ ६७ ॥ देवतावाक्यमाकर्ण्य प्रोक्तवन्तौ तकौ तकाम् । स्थितावत्र प्रयत्नेन भद्रे स्वपदवान्छया ॥ ६८॥ देवता तद्वचः श्रुत्वा जगादैतौ स्फुटाक्षरम् । श्रूयतां मद्वचो भद्रौ सत्यं वच्मि सुखप्रदम् ॥६९॥ अत्र पार्श्वजिनेन्द्रस्य निखाताऽर्चाऽवतिष्ठते । मया निवेदितं सत्यं अधुना कुरुतं हितम् ॥७॥ तद्वाक्यतोऽमुतस्ताभ्यामुत्खाता प्रतिमा सका । सहस्रस्तम्भसंयुक्ते लयने स्थापिता पुनः ॥ ७१॥ 10 फाल्गुनाष्टाह्निकायां च दिनान्यष्टौ महामहम् । कृत्वा नीलमहानीलौ सविद्यौ स्वपुरं गतौ ॥७२॥ अन्ये तु सूरयोऽन्येषां वदन्ति वचनं पुरः । आचार्याणां क्रमायातं सत्यं तदपि जायते ॥ ७३ ॥ वल्मीकान्तात् समादाय कर्कण्डाख्येन भूभुजा । सहस्रस्तम्भसंपन्ने लयने स्थापिता सका॥७४॥ दृष्ट्वोत्खातामिमामों कुञ्जरो भक्तितत्परः । सल्लेखनां चकारासौ हस्तिकूटगिरौ तदा ॥ ७५ ।। नानातूर्यकलारावे कल्पे माहेन्द्रनामनि । जातो महर्द्धिको देवो हारकुण्डलराजितः ॥ ७६॥ 15 अथ नील-महानीलभ्रातृयुग्मस्य तत्क्षणात् । दृष्ट्वा पार्श्वजिनेन्द्रस्य प्रतिमां परमोदयाम् ॥ ७७॥ छिन्ना याः सकला विद्याः संग्रामे खेचरेश्वरैः । महाप्रभावयुक्तास्ताः प्रादुरासन् सुधर्मतः॥७८॥ नीलस्य कुर्वतो राज्यं महानीलसमं तदा । तेरापुरवरे श्रेष्ठी धनमित्रोऽभवद्धनी ॥ ७९ ॥ तद्भार्या रूपसंपन्ना धनोपपदिका मतिः । एकोऽस्य धनदत्ताख्यो गोपालो धनपालकः ॥ ८॥ अन्यदा गाः समादाय कच्छं शष्पजलान्वितम् । नदीसरोवराकीण जगामायं कलं नदन् ॥८१॥ 20 दृष्ट्वा सरोवरं तत्र जलपद्मविराजितम् । गृह्णाम्यत्र वरं पद्मं बभूवास्य मतिस्तदा ॥ ८२ ॥ देवतारक्षिते तत्र सपझे सरसि स्फुटम् । प्रवेष्टुं लभते नासौ बलवानपि मागधः ॥ ८३॥ तत्रैकं मुग्धभावेन धनदत्तेन शोभनम् । प्रविश्यान्तर्महापमं गन्धामोदितदिग्मुखम् ॥ ८४ ॥ सपमं तत्र संवीक्ष्य रोषतोषसमन्विता । मुग्धभावसमायुक्तं तं जगौ नागदेवता ॥ ८५ ॥ सर्वलोकप्रधानस्य देवदेवस्य बालक । त्वया शिरसि कर्तव्यं भक्तिनिर्भरचेतसा ॥ ८६ ॥ 25 यद्येवं न करोषि त्वं मद्वचस्त्वत्सुखावहम् । तदा तव स्वहस्तेन निग्रहं विदधाम्यहम् ॥८७॥ शतपत्रं तदादाय विबुध" गन्धराजितम् । धनदत्तः पुरं प्राप्य दध्याविति सविस्मितः ॥ ८८॥ धनदत्तो मम श्रेष्ठी सर्वलोकमहत्तरः । सर्वस्वामी पुनः सर्वैः स्तूयते प्रीतमानसैः ॥ ८९॥ तेन तस्यान्तिकं प्राप्य पादपूजां करोम्यहम् । इति पद्मकरस्तस्थौ श्रेष्ठिनः पुरतः सकः ॥९०॥" धनदत्तं समालोक्य पद्महस्तं पुरः स्थितम् । धनमित्रो जगादतं पुत्र किं कर्तुमुद्यतः ॥ ९१॥ 30 निशम्य श्रेष्ठिनो वाक्यं धनदत्तो जगावमुम् । सर्वलोकगरीयांसो भवन्तः पूजिताः सताम् ॥९२॥ युष्माकं तेन कार्येण पञनानेन पादयोः । करोमि पूजनं तात सर्वलोकमनःप्रिय ॥ ९३ ॥ धनदत्तवचः श्रुत्वा धनमित्रो वभाण तम् । अस्माकं सर्वदा स्वामी नीलः पूज्यः सतामपि ॥९४॥ __ 1 [सेचनम् ]. 2 पफज त्रिकलम्. 3 फज पुरः स्थितो. 4 फ लयिने. 5 प युग्मम् , फज युगलमू. 6 प शिष्यजलान्वितम्. 7 प नदम्, (-हृदम्). 8 फज शोभनाम्. ) फ मदचस्तत्सुखावहम्. 10 फज विदधाम्यरम्. 11 [विबुद्धं ]. 12 पत्रिकुलकम् , फज त्रिकलम्. 13 फ मन:प्रियः. 14 प युग्मम्, फज युगलम्. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. १२७ ] कर्कण्डमहाराजकथानकम् ९१ I ॥ तेनाहं त्वं च' संप्राप्य तत्समीपं त्वरान्वितः । अनेन शतपत्रेण कुर्वे तस्य पदानम् ॥ ९५ ॥ राजाऽयं धनदत्तेन भणितो नीलनामकः । सर्वलोकगुरुः श्रीमान् सर्वलोकनमस्कृतः ॥ ९६ ॥ समस्तसाधितारातिः समस्तजनवल्लभः । तेन तेऽनेन पद्मेन पूजयामि पदाम्बुजम् ॥ ९७ ॥ आकर्ण्य धनदत्तस्य वचनं भक्तितत्परम् । तदा नीलो बभाणेमं जिनभक्तिपरायणः ॥ ९८ ॥ सर्वलोकगुरुर्नाहं नाहं पूज्योऽखिलैर्जनैः । पूजयानेन पद्मेन सर्वसत्त्वहितं मुनिम् ॥ ९९ ॥ नीलखेटवचः श्रुत्वा धनदत्तो मुनिं जगौ । पूजयामि भवत्पादौ पद्मेन त्वद्गुरुत्वतः ॥ १०० ॥ निशम्य तद्वचो मौग्धं जगादेमं यतीश्वरः । नाहं भवामि सर्वस्य लोकस्य गुरुरूर्जितः ॥ १०१ ॥ त्रैलोक्यस्य गुरुः श्रीमान् छत्रत्रयविराजितः । सिंहासनोपविष्टोऽयं जिन ः पूज्यः सुरासुरैः ॥१०२॥ तेन त्वमस्य वन्द्यस्य पूज्यस्य विबुधाधिपैः । पूजां कुरु महाभक्त्या कमलेन विकाशिना ॥ १०३ ॥ जैनस्य पादपद्मस्य धनदत्तः प्रपूजितम् । एकेन शतपत्रेण चकार बहुभक्तितः ॥ १०४ ॥ पद्मपूजावसाने च जिनं नत्वाऽतिभक्तितः । धनदत्तोऽगमद् गेहं धनमित्रसमं मुदा ॥ अत्रास्ति भरतक्षेत्रे श्रावस्ती नगरी परा । धनधान्यसमाकीर्णा 'धानदी नगरीव सा नागदत्तोऽभवदस्यामिभ्यो' धनपतिर्महान् । नागदत्ता प्रिया चास्य नागिनीव कलखना ॥ नागदत्तस्य तस्यैको नित्यभोजी द्विजो गृहे । नागदत्तासमं सोऽपि विधर्मं कुरुते तराम् ॥ तच्चेष्टितं परिज्ञाय नागदत्तो विशुद्धधीः । मुनेः सागरसेनस्य समीपे सोऽग्रहीत् तपः ॥ उग्रं तपो विधायासौ सामान्यनरदुष्करम् । नाके मनोहरो देवः संजातस्तपसः फलात् ॥ ततोऽवतीर्य तन्नाकान्नागदत्तचरः सुरः । वसुपालस्य चम्पायां वसुमत्याः सुतोऽभवत् ॥ दन्तिवाहननामाऽयं रूपरा जितविग्रहः । कलाविज्ञानसंपन्नो रूपीव मकरध्वजः ॥ ११२ ॥ तया समं वसंस्तत्र चिरकालं स माहनः । कालेन पञ्चतां नीतः कालो हि बलवानलम् ॥ ११३॥ संसारं स परिभ्रम्य कलिङ्गविषये महान् । जातो दन्तिपुराटव्यां नर्मदा तिलकः करी ॥ ११४ ॥ 20 कदाचित् केनचित्तत्र स्वस्य गौरवमिच्छता । आनीतः प्राभृतं हस्ती दन्तिवाहनभूभुजः ॥ ११५ ॥ तामलिप्तौ पुरे श्रेष्ठी वसुमित्रो महाधनः । तस्य भार्याऽभवत् तन्वी नागदत्ता प्रियंवदा ॥ ११६ ॥ नागदत्ता चिरं भ्रान्त्वा संसारे सारवर्जिते । बभूव चानयोः पुत्री धनोपपदिका मतिः ॥ ११७ ॥ नालन्द नगरे श्रेष्ठी धनदत्तोऽभवद्धनी । उपासकोऽस्य भार्या च धनमित्राऽतिरूपिणी ॥ अनयोः प्रेमसंसक्तचेतसोः प्रीतिकारकः । रूपी विनयसंपन्नो धनपालोऽभवत् सुतः ॥ ११९ ॥ 25 बालादित्यसमानाय धनपालाय धीमते । दत्ता धनवती" तस्मै पितृभ्यां प्रीतिकारिणी ॥ १२० ॥ अन्या वसा द्वितीया स्याद् धनश्रीः श्रीसमप्रभा । रतिरूपसमाकारा कोकिलेव कलखना ॥१२१॥ विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी नगरी श्रुता । नृपोऽस्यां वसुपालोऽभूद् भार्या वसुमती परा ॥ १२२॥ वसुदत्तोऽस्य सच्छ्रेष्ठी श्रावको जिनभक्तितः । धनश्रीरस्य सा दत्ता पितृभ्यां श्राविकाऽभवत् १२३ एवं सति गते काले वसुदत्तो मृतिं सृतः । नागदत्ताऽतिशोकेन कौशाम्बीनगरीमिता ॥ १२४ ॥ ३७ विलोक्य मातरं प्राप्तां नागदत्ताभिधां पुरः । प्रोत्थाय स्नेहतो बाढं धनश्रीरालिलिङ्ग ताम् ॥ १२५ ॥ परस्परकृतारोदं सुखदुःखसमागमम् । माता सुखं तदा तस्थौ स्नेहनिर्भरमानसा ॥ १२६ ॥ अन्येद्युर्नागदत्तां च धनश्रीर्निजमातरम् । निनाय मुनिसामीप्यं शोकम्लानमुखाम्बुजाम् ॥ १२७ ॥ ११८ ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ 1 [ त्वां च ] 2 पफज युग्मम्. 3 पफज युग्मम्. 4 पफज युग्मम् 5 पफज त्रिकलम् 6 प ( = धनदस्येयं धानदी ). 7फ भवेदस्यामिभ्यो. 8 फ omits some words. 9 पफज युग्मम्. 10 पज धनमती. 5 10 १०८ ॥ १०९ ॥ s ११० ॥ १११ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५६. १२८शर्वरीभोजनं हित्वा नागदत्ता मुनीरणात् । सुताधनमतीपार्श्वे नालन्दनगरं ययौ ॥ १२८ ॥ सुतां धनमती प्राप्य रात्रिभोजनकं तया' । पुत्रीसंसर्गतो नूनं विहितं नागदत्तया ॥ १२९ ॥ कौशाम्बी नगरी प्राप्य भुक्तं रात्रौ तया पुनः । एवं वारत्रयं भग्नं रात्रिभोजनकं व्रतम् ॥१३०॥ पुनश्चतुर्थवेलायां कौशाम्ब्याख्यपुरीस्थिताम् । कनिष्ठकां सुतां प्राप्य नागदत्ता मृतिं गता ॥१३१॥ शुभाशुभास्रवोपेता वसुपालस्य तत्पुरि । जाता वसुमतीगर्भ सुता कमानुभावतः॥१३२॥ यदा च गर्भसंभूता सका वसुमती तदा । श्वासकाशादिभी रोगैर्गृहीताऽतीव दुःखदैः ॥ १३३॥ जातमात्रां निधायाशु मञ्जूषायां प्रयत्नतः। कौशाम्ब्यां वसुपालस्य वसुमत्याः सुतामिमाम् ॥१३४॥ मुक्तां कर्मानुभावेन पूर्वोत्थेन बलीयसा । लब्ध्वा वर्धयतां कोऽपि कृपया पुण्यरक्षिताम् ॥१३५॥ इत्यङ्किताङ्गुलीरत्नरत्नकंबलसंवृता । निर्विण्णया महादेव्या निक्षिप्ता यमुदाह्रदे ॥१३६ ॥ 10 तरीव काष्ठमञ्जूषा प्रवाहस्यातिवेगतः । नीयमाना प्रयागे' सा प्राप गङ्गाप्रवाहकम् ॥ १३७॥ अङ्गकाख्यमहादेशे चम्पायां पुरि भूपतिः। दन्तिवाहननामाऽऽसीद् वसुमित्राऽस्य वलभा ॥१३८॥ चम्पापुरीसमीपेऽस्ति कुसुमोपपदं पुरम् । कच्छिकः कुन्ददन्तोऽस्य भार्या कुमुददन्तिका ॥१३९॥ तदानीं कुन्ददन्तेन निर्गतेन पुराबहिः । गङ्गापद्मदे द्रष्टा सा मञ्जूषा दिनानने ॥ १४० ॥ ततोऽसौ तां समादाय मञ्जूषां वालिकायुताम् । आजगाम गृहं शीघ्रं स्वकीयं हृष्टमानसः ॥१४१॥ 15 मञ्जूषान्तः समादाय तां बालां सुकुमारिकाम् । भविष्यति सुता तेऽसौ स्वकान्तायै करे ददौ॥१४२॥ वृद्धिं विधाय बालायाः क्षीरादिविधियोगतः । पद्मावतीति तन्नाम कृतं कुमुददन्तया ॥ १४३॥ क्रमेण यौवनं प्राप्य कामिमानसपीडनम् । पीनोन्नतकुचद्वन्द्वा रेजे पद्मावती तराम् ॥ १४४॥ ततो विलोक्य तां कन्यां दन्तिवाहनभूपतिः । दध्यौ मनसि कस्यैषा कामबाणसमाहतः ॥१४५॥ मालाकारसुता राजन् कथिता साऽस्य केनचित् । याचयित्वाऽथ तां राजोपयेमे विधिना ततः १४६ 20 दन्तिवाहनराजेन्द्रस्तद्पहृतमानसः । पद्मावत्याः कलावत्या महादेवीपदं ददौ ॥ १४७॥ तदानीं कुन्ददन्तेन पृष्टेनानेन भूभुजा । मञ्जूषायाः स वृत्तान्तः प्रारब्धोऽस्य प्रभाषितुम् ॥१४८॥ वसुपालस्य कौशाम्ब्यां वसुमत्याः सुता वरा । नामाङ्किताङ्गुलीरत्नं रत्नकम्बलकोऽप्ययम् ॥१४९॥ एषाऽपि भूप मञ्जूषा सर्वमेतत् पुरःकृतम् । विलोक्यैवं च सर्वेषां संजातः प्रत्ययो महान् ॥१५०॥" भुञ्जानस्य परान् भोगान् पद्मावत्या सहानया । रूपयौवनयुक्तस्य दन्तिवाहनभूभुजः ॥ १५१॥ 25 योऽसौ गोपालकस्तत्र पद्मन कृतपूजनः । विष्टः पद्मावतीगर्भे जीवितेन परिच्युतः ॥ १५२॥ तस्मिन् गर्भस्थिते सत्त्वे दोहलोऽस्या बभूव च । दुर्बलां तनुमालोक्य पप्रच्छेमां महीपतिः॥१५३॥ मन्मनोलोचनानन्दे मज्जीवितविधायिनि । ब्रूहि किं कारणं देवि शरीरं तव दुर्बलम्" ॥१५४॥ भर्तृवाक्यं समाकर्ण्य जगौ पद्मावती तकम् । मद्गर्भावस्थिते सत्त्वे दोहलोऽयं ममेदृशः ॥ १५५॥ नरवेषं समादाय भवता सह वल्लभः । अधिरुह्य समुत्तुङ्गं नर्मदातिलकं" गजम् ॥ १५६॥ ॥ मेघे मुञ्चति सत्तोयं मन्दमन्दप्रगर्जितम् । प्रदक्षिणं करोम्याशु यदि चम्पापुरः प्रभो ॥ १५७॥" निशम्य तद्वचो राजा नर्मदातिलकं द्विपम् । वनरैः कारयामास सारसर्जितमण्डितम् ॥ १५८ ॥ षोडशाभरणोपेतां कृतकौतुकमङ्गलाम् । पद्मावती महादेवी नरवेषां चकार सः ॥ १५९ ॥ 1 फ तथा. 2 फ पुरःस्थिता, ज पुरःस्थितां. ३ पज स्रवोपेता. 4 प मुक्त्वा. 5 फ निक्षिप्तायमुदेह्रदे, [निक्षिप्ता यमुनाह्रदे]. 6 पफज त्रिकलम्. 7 प प्रयोगे. 8प कच्छिकः-मालाकारः, 9 फहृष्टमानसः. 10 पफज युग्मम्. 11 फज दुर्लभम्. 12 पफज युग्मम्. 13 [वल्लभ ]. 14 प निर्मदातिलकं. 15 पज त्रिकलम्. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ -५६. १९३] कर्कण्डमहाराजकथानकम् महादेवीं पुरः कृत्वा हस्तिनो मदशालिनः । पश्चात्तत्पृष्ठमारूढो दन्तिवाहनभूपतिः ॥ १६० ॥ एवं प्रदक्षिणां यावद् विदधाति महीपतिः । स्वपुरस्य समायातस्तावत् कश्चिन्नभश्वरः ॥१६१॥ गोत्रेण वायुवेगोऽयं वायुवेगः सुहृत्प्रभोः । रूपातिशयसंपन्नः षोडशाभरणान्वितः ॥ १६२ ॥ अनेन वायुवेगेन विद्यागर्जद्धनो दिवि । विसर्जितेन्द्रचीपश्रीचित्रीकृतनभस्तलः ॥ १६३ ॥ एकैकं शीतलं बिन्दु गन्धयुक्तं जलस्य च । किरन्विसर्जितोऽनेन मन्दं मन्दं समीरणः ॥१६४॥ । विलोक्य तं धनं वीभ्रं मुञ्चन्तं जलविग्रुषः । समीरणं समाघ्राय सुगन्धीभूतदिग्मुखम् ॥१६५॥ शल्लकीवनविन्ध्यस्य नानातरुविशालिनः । नर्मदातिलकः कुम्भी सस्मार स्वनिषेविणः ॥ १६६ ॥ तदानीं सर्वलोकानां पश्यतां बलिनामपि । महादन्तिपुराटव्याः सन्मुखो वलितः करी ॥१६७॥ तस्मिन् करिणि वेगेन गच्छति द्रुतलीलया । पद्मावती जगादेशं नीयमानं महाटवीम् ॥ १६८ ॥ मत्कृतेन तवापीश चोपसर्गों महानयम् । भवद्भिर्नाशमायातैर्धरा सर्वाऽपि नश्यति ॥ १६९ ॥ 10 तेन त्वं वृक्षशाखाग्रं गृहीत्वाऽऽसन्नगोचरम् । नगराजसमुत्तुङ्गान्नागादवतर द्रुतम् ॥ १७० ॥ .. अहं दुःखभरकान्ता स्वकर्मफलचोदिता । गजेन सह गच्छामि दैवमालम्ब्य भूपते ॥ १७१॥ देवीक्षमापणं कृत्वा राजा तद्वचनादरम् । वृक्षशाखां समादाय हस्तिनोऽवततार सः ॥ १७२॥ देवीगुणान्तरस्योचैः स्मरन् दुःखितमानसः । भार्यानिहितचेतस्को जगाम स्वगृहं नृपः ॥ १७३॥ पद्मावतीं समादाय कलिङ्गविषयानुगाम् । नर्मदातिलको हस्ती प्राप दन्तिपुराटवीम् ॥ १७४ ॥ 15 नानापद्मसमाकीण हंससारसनादितम् । समुद्रमिव तोयाढ्यं प्रविवेश सरोवरम् ॥ १७५ ॥ . ततः पद्मावती देवी नर्मदातिलकादरम् । उत्तीर्य भूधरोत्तुङ्गादुत्ततार जलाद्भुवम् ॥ १७६ ॥ जलदेवीव सा तस्थौ सरोवरतटे तदा । न्यग्रोधपादपाधःस्था वीक्षमाणा दिगन्तरम् ॥ १७७॥ अत्रैकक्षणमास्थाय ततः पद्मसरोवरात् । उत्तीर्य सहसा दन्ती जगाम स्वमनीषितम् ॥ १७८ ॥ पद्मावती च तत्रत्यमालाकारेण साधुना । तदा दन्तिपुरस्यान्ते दृष्टा शतभटेन सा ॥ १७९ ॥ .. 20 वनदेवीमिवालोक्य रूपयौवनसंगताम् । भगिनीप्रेमरागेण निन्ये तां स्वगृहं सकः ॥ १८ ॥ तस्मिन् दन्तिपुरे साध्वी तगृहे भोजनादिकम् । कुर्वती प्रीतचेतस्का तस्थौ पद्मावती सुखम् ॥१८१॥ यावत्तिष्ठति सा तत्र पुष्पाण्यादाय मालिकः । जगाम तानि विक्रेतुं ग्राममन्यं धनेच्छया ॥१८२॥ विपरीतमनोवृत्त्या तावत्तद्भार्यया गृहात् । निर्धाटिता तया साध्वी प्रसवानेहसि द्रुतम् ॥१८३॥ ततो दन्तिपुरासन्नं नानाऽनोकुहसंकुलम् । सका महाभयं नाम श्मशानं प्राप भीषणम् ॥१८४॥ 25 सर्वलक्षणसंपूर्ण सर्वावयवसुन्दरम् । प्रसूता दारकं तत्र तदा पद्मावती शुभम् ॥ १८५॥ तोषशोकसमायुक्ता बालादित्यसमप्रभम् । पश्यन्ती बालकं तत्र तस्थौ सा त्रस्तमानसा ॥१८६॥ अत्रान्तरे महाभीमो बालदेवो वियचरः । चितां मातङ्गरूपेण तां स रक्षन् वितिष्ठते ॥ १८७ ॥ दृष्ट्वा तां दूरदेशस्थो विनयानतविग्रहः । पद्मावती महादेवीं प्राह विद्याधरो गिरम् ॥ १८८॥ यथा भगवति स्पष्टं मद्वृत्तान्तप्रवृत्तकम् । आकर्णयैकचित्तेन समासेन ब्रवीमि ते ॥ १८९॥ 10 अत्रास्ति भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । सर्वरूप्यमयस्तुङ्गो विजया| महीधरः ॥१९॥ तत्रास्ति दक्षिणश्रेण्यां मणिप्रासादभासितम् । बहुविद्याधरावासं पुरं विद्युत्प्रभं परम् ॥ १९१ ॥ तत्र विद्याधराधीशो राजा विद्युत्प्रभः प्रभुः । बभूव तन्महादेवी विद्युल्लेखा प्रभोज्वला ॥ १९२॥ तत्पुत्रो बालदेवोऽहं हेममाला मम प्रिया । दक्षिणाशां प्रहृत्यामा निवृत्तस्तत्प्रदेशतः ॥१९३॥ 1 प चतुष्कुलकम् फज चतुष्कलकम्, १ फज चापाश्री. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्, 4 4 चतुकुलकम् , फज चतुष्कलकम्. 5 पज तत्र सा माला. 6 पतं. 7 प विद्युत्पुर. ४प निर्वृत'. । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५६. १९४ कलिङ्गविषयस्यान्ध्रविषयस्यापि सुस्थितः ' । सन्धौ रामगिरिर्भाति विलिखन् शिखरैर्नभः ॥ १९४॥ तस्योपरि यतो मेऽरं विद्रुमावलिभासिनः । विमानं कामगं नाम जगाम स्थिरतामिदम् ॥ १९५ ॥ ततो मया द्रुतं भद्रे कृत्वा दिगवलोकनम् । अधो विलोकितं पश्चात् संभ्रमासक्तचेतसा ॥ १९६॥ एवं विलोकिते तत्र वीरः सत्यव्रतो मुनिः । सर्वसत्त्वानुकम्पी च मया दृष्टोऽघवर्जितः ॥ १९७ ॥ दैनं योगिनं तत्र ध्यानाचलमधिष्ठितम् । धर्मं 'वापघनोपेतं परिध्यातमिदं मया ॥ १९८ ॥ प्रियायुक्तस्य मेऽनेन गच्छतो दिवि सत्वरम् । नगे क्रीडितुकामस्य विमानं स्तम्भितं कथम् ॥ १९९॥ उपसर्गे मयाऽप्यस्य मतिभ्रंशकारिणः । कोपाद्विधातुमारब्धः पाषाणसमचेतसा ॥ २०० ॥ एवं कृतवतो मेऽलं मुनिना कोपमीयुषा । दुष्टचेतोचितान्याऽस्य दत्तः शापोऽयमीदृशः ॥ २०१ || यथा पाप दुराचार धर्मवर्जितचेतसः । भूयात् ते सर्वविद्यानां छेदः कारुण्यवर्जितः ॥ २०२ ॥ 10 तत्क्षणात् साधुवाक्येन विद्याच्छेदो मम स्फुटम् । जातो भूयो मया साधुर्विज्ञप्तो दीनचेतसा ॥२०३॥ सर्वलोककृतानन्द सर्वलोकदयापर | मम धर्मविहीनस्य कथं शापो गमिष्यति ॥ २०४ ॥ निशम्य मद्वचो योगी तदानीं कृपयाऽऽर्द्रधीः । जगाद मामिति स्पष्टं दिव्यज्ञाननिरीक्षणः ॥ २०५ ॥ अस्त्यङ्गाख्यमहादेशे चम्पायां पुरि भूपतिः । दन्तिवाहननामाऽस्य भार्या पद्मावती परा ॥ २०६ ॥ गर्भिणीं तां समादाय नर्मदातिलकः करी । कलिङ्गविषये दिव्ये पुरं दन्तिपुरं गतः ॥ २०७ ॥ 15 तत्र राजा प्रजापालो बलवाहन नामकः बभूव तत्प्रिया चावीं विनीता बलवाहना ।। २०८ ॥ पृथिवीमण्डलोपेतश्चतुरङ्गबलान्वितः । धनी पुनरयं राजा पुत्रहीनोऽवतिष्ठते ॥ २०९ ॥ अत्रैव नगरे सारे मालाकारो भटाभिधः । तद्भार्या मारिदत्ताऽऽख्या क्रूरनिष्ठुरमानसा ॥ २१० ॥ पूर्वोक्तदन्तिना नीतां तकां दन्तिपुराटवीम् । मालाकारो भटस्तत्र द्रक्ष्यति प्रीतमानसः ॥ २११ ॥ मालाकारेण सा नीता स्वकीयं गृहमादरात् । भूयः प्रसवकालेन घाटिता मारिदत्तया ॥ २१२ ॥ 20 प्राप्य भीष्मं श्मशानं च सर्वलक्षणसंयुतम् । पद्मावती सुतं तत्र प्राप्स्यति स्थिरचेतसा ॥ २१३ ॥ कुमारः सुकुमाराङ्गः सर्वलोकमनोहरः । पृथिवीमण्डलेऽमुष्मिन् स भविष्यति भूपतिः ॥ २१४ ॥ पद्मावती महादेवी प्रसूता दारकं तदा । श्मशाने पश्यसि क्षिप्रं बालादित्यसमप्रभम् ॥ २१५ ॥ पुनस्तं बालकं दिव्यं स्फुरन्तं तनुतेजसा । गृहीत्वा स्वगृहं नीत्वा वृद्धिं प्रापय सांप्रतम् ॥ २१६ ॥ ततोऽसौ वर्धितस्तत्र यस्मिन् काले महागुणम् । राज्यं प्राप्स्यति विस्तीर्णं पुरे दन्तिपुरे परे ॥ २१७॥ तस्मिन्नहसि प्राप्ते भवतां सानुरागतः । भविष्यन्ति पुनर्विद्या मुनिना गदितं वचः ॥ २९८ ॥ मुनेरादेर्शतस्तन्वि श्मशानं भीषणाकृतिम् । इयन्तं कालमासाद्य रक्षन्नहमिदं स्थितः ॥ २१९ ॥ पूर्वं निवेदितोऽस्माकमादेशो मुनिना यकः । सकोऽधुना हि संजातो नान्यथा मुनिभाषितम् ॥ २२०॥ मं दारकं भद्रे स्वगृहं प्राप्य वेगतः । वर्धापयाम्यतो बालं मावक्ष त्वं करिष्यसि ॥ २२९ ॥ विद्याधरवचः श्रुत्वा तकं पद्मावती जगौ । एवमस्त्विति मे भ्राता पुत्रयत्नं करिष्यसि ॥ २२२ ॥ ३० नत्वा पद्मावतीं भक्त्या गृहीत्वा त्वत्सुतं " पुनः । बालदेवो जगामाशु स्वगृहं हृष्टमानसः ॥२२३॥ ततः समादरं तस्याः स्नेहनिर्भरमानसः । बालकं हेममालाया बालदेवो ददौ करे ॥ २२४ ॥ मन्दिरे बालदेवस्य हेममालाप्रयत्नतः । वृद्धिं व्रजन्नसौ स्थेयात् तदानीं बालचन्द्रमाः ॥ २२५ ॥ पद्मावती महादेवी हित्वा तच्च श्मशानकम् । तस्मिन् दन्तिपुरे तस्थौ दिनानि कानिचित्तदा ॥२२६॥ 5 25 ९.४ 1 फ सुस्थितिः 2 फ चापधनोपेतं. 3 [ कारुण्यवर्जित ]. 4 प प्रसवकाले निर्धाटिता. 5 फ मुनेरादेशित. 6 फ भीषणाकृतिः 7 फ स्थितिः 8 फज मावक्षां, [माऽवज्ञां ]. 9 पफज कुलकम्. 10 [ तं सुतं ]. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. २५८] कर्कण्डमहाराजकथानकम् समाधिगुप्तिमानम्य मुनि भोगपराङ्मुखी । पद्मावती प्रवव्राज सुव्रतार्याऽन्तिकेऽमला ॥ २२७ ॥ घृतादिपूरकान् पूरान् मोदकान् शोकवर्तिनी । पद्मावती समादाय बालदेवगृहं ययौ ॥ २२८॥ भक्ष्यभोज्यादिकं दत्त्वा तनयाय मनःप्रियम् । विलोक्य स्नेहतः पुत्रं ययौ सा स्वमनीषितम् ॥२२९॥ अन्यदाऽऽगत्य तं स्नेहात्तत्करौ वीक्ष्य सा पुनः। कण्डूकच्छूसमायुक्तौ पादौ चास्य सुदुःखिता॥२३०॥ विधाय नन्दनस्याशु बालदेवपुरःसरम् । कर्कण्डाख्यां गुणोपेतां पद्मावत्यर्यिका ययौ ॥ २३१॥ । कुमारोऽपि क्रमेणायं कर्कण्डाख्यो महानभूत् । श्मशानं जनकेनासौ रक्षन् सन् स वितिष्ठते ॥२३२॥ कपोलात्तच्छमशानस्थात् त्रयो वंशाः समुत्थिताः । एको मुखेन निर्यातो द्वावक्षिभ्यां विनिर्गतौ ॥२३३॥ अथ संघेन संयुक्तो महताऽवद्यभीरुणा । दिव्यादिज्ञानसंपन्नौ गुणशीलमहोदधी ॥ २३४॥ विहरन्तौ तकौ क्वापि तदा दन्तिपुरान्तिके । यशोवीरादिको भद्रौ तस्थतुस्तत्स्मशानके ॥२३५॥ एको युवा यतिस्तत्र दृष्ट्वा वंशत्रयं जगौ । पश्याश्चर्यमिदं नाथ लोकातिशयकारणम् ॥ २३६ ॥ इदं नरशिरो भित्त्वा त्रयो वंशा विनिर्ययुः । यशोभद्रो विलोक्यमान् जगादेमं विशुद्धधीः ॥२३७॥ छत्रध्वजाङ्कुशानां च यस्य दण्डा मनोरमाः । इमे वंशा भविष्यन्ति स राजा सकलावनौ ॥२३८॥ श्रुत्वा मुनेर्वचः सत्यं सुमतिर्ब्राह्मणस्तदा । तिष्ठन्नेकोऽत्र हृष्टात्मा दध्याविति स चेतसि ॥२३९॥ अप्रमाणं न जायेत मुनिवाक्यं महीतले । अवश्यमेव कर्तव्यं मया राज्यमतः स्थिरम् ॥ २४०॥ अन्यदा चिन्तयित्वेदं छित्त्वा वंशत्रयं ततः । गच्छन् स माहनः शीघ्रं कर्कण्डेन विलोकितः॥२४१॥ 15 दृष्ट्वा पलायमानं तं सवंशं हृष्टचेतसम् । कर्कण्डेन त्रयो वंशा गृहीतास्तत्करादरम् ॥ २४२ ॥ ततः स सुमतिर्विप्रः कुमारं वीक्ष्य रूपिणम् । सर्वलक्षणसंपूर्ण दध्यौ विस्मितमानसः ॥ २४३॥ यो यथा मुनिनाऽऽदिष्टः समस्तधरणीतले । राजा सोऽयं मया दृष्टो भूपतिर्न भवाम्यहम् ॥२४४॥ कर्कण्डोऽवाचि विप्रेण मया विस्मयमीयुषा । भो भो कुमार मद्वाक्यं श्रूयतामेकचित्ततः॥२४६॥ वंशत्रयमिदं वीक्ष्य श्मशानस्थितसाधुना । आदेशोऽयं समादिष्टो मत्पुरोऽवितथो महान् ॥२४६॥ 20 यो मेदिनीतले कोऽपि वंशानेतान् गृहीष्यति । स भविष्यति भूपालः साधितारातिमण्डलः २४७॥ इदानीं सोऽयमादेशः संयातो” यो यतीरितः । तेनाखिलमहीमध्ये भूपतिस्त्वं भविष्यसि ॥२४८॥ वंशो भावी तवैकोऽत्र सितच्छत्रस्य दण्डकः । अन्योऽङ्कुशस्य शुक्लस्य ध्वजस्यान्यो यथाक्रमम् ॥२४९॥ तेन वंशत्रयस्यापि त्वया यत्नो विधीयताम् । यत्ने कृतेऽत्र वंशस्य श्रियमेषि" हि भूपते ॥२५०॥ तव राज्ये हि संजाते मम मत्रिपदं त्वया । अवश्यमेव दातव्यं धर्मनिश्चितचेतसा ॥ २५१ ॥ 25 एवं निगद्य तं तत्र सुमतिः सुमतिर्द्विजः । जगाम प्रीतचेतस्कस्तदानीं निजमालयम् ॥ २५२ ॥ कर्कण्डोऽपि तकान् वंशानादाय द्विजपाणितः । श्मशानवृक्षमूले च सुप्तोऽयं श्रमहानये ॥२५३॥ अथ दन्तिपुराधीशो राजाऽयं बलवाहनः । पुत्रहीनो गुणाधारो ममार वसुधाधिपः ॥ २५४ ॥ राज्ययोग्यो न कोऽप्यस्ति तद्वंशे प्रथिते भुवि । तदभावेऽखिलो" लोको जगामाकुलतां पराम् २५५ स्नानं विधाय नीरेण कुकुमेन च चर्चनम् । सुगन्धिपुष्पमालाश्च तथा धूपेन धूपनम् ॥ २५६ ॥ तूर्याणि समतालानि बधिरीभूतखानि च । अष्टापदविनिर्माणा घण्टा रटनहारिणी ॥ २५७ ॥ यस्येदं सकलं लोकैर्विहितं राजहस्तिनः । मुमुचुः करकुम्भं तं सुगजं भूपमत्रिणः ॥ २५८ ॥" 1प कर्कण्डाख्यं गुणोपेतं. 2 प युग्मम् , फज युगलम्. 3 पफ कपालात्तत्स्मशान. 4 फज पद्मभीरुणा. 5 प युग्मम् , फज युगलम्. 6 पज युग्मम्. 7 [तदा]. 8 पज स्मशानस्थितं. 9 फ संजातो. 10 फ विधीयते. 11 फज श्रियमपि. 12 पफज कुलकम्. 13 फ तदभावेखिले. 14 पफज चतुष्कलम्. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५६.२५९ 1 I आराममापणं सौधं सारं सरितां तटम् । वाप्यादिकमतिक्रम्य श्मशानं प्राप्य कुञ्जरः ॥ २५९ ॥ त्रिःपरीत्य स कर्कण्डं सुप्तं तरुतले तदा । करकुम्भजलैः स्नाप्य स्वपृष्ठे कृतवान् करी ॥ २६० ॥ राजहस्ती तमादाय कन्दर्पसमविभ्रमम् । वरवलं' निनायाशु तूर्यमङ्गलनिस्वनैः ॥ २६१ ॥ आस्थानमण्डपं प्राप्य मणिस्तम्भविनिर्मितम् । सिंहासने मुमोचायं कर्कण्डं कलकुञ्जरः ॥ २६२ ॥ • अथ हेमघटैः स्नाप्य कुङ्कुमेनाभिलिप्य च । पुष्पमालाभिरापूज्य भूषयामास तं करी ॥ २६३ ॥ पट्टबन्धं विधायास्य कर्कण्डस्य नराधिपाः । मत्रिणस्तलवर्गाश्च विनेमुः पदपङ्कजम् || २६४ ॥ कनकं रजतं रत्नं तुरङ्गं करिवाहनम् । ददुर्महत्तरा हृष्टा याचकेभ्यो मुहुर्मुहुः ॥ २६५ ॥ श्रीमद्दन्तिपुरे राज्यं कर्कण्डो जितशात्रवम् । चकार धर्मसामर्थ्यात् पाकशासनवद्दिवि ॥ २६६ ॥ एकेन शतपत्रेण विहितं जिनपूजनं । धनदत्तेन गोपेन भक्तिनिर्भरचेतसा ॥ २६७ ॥ " अस्य धर्मस्य सामर्थ्यात् स्वर्गे देवो बभूव सः । नान्दीतूर्यकलास्वाने देवदेवीमनोरमे ॥ २६८ ॥ तत्सुखं वैबुधं भुक्त्वा मानसेष्टं च्युतोऽमुतः । दन्तिवाहनभूपस्य पद्मावत्याः सुतोऽभवत् ॥ २६९॥ एकपद्मकृतं पुण्यं ज्ञात्वा गोपस्य सज्जनाः । धर्मं करुत जैनेन्द्रं येन जात' जिनेशिताम् ॥ २७० ॥ पट्टबन्धं विलोक्याशु कर्कण्डस्य महीपतेः । प्रादुरासन् महाविद्या बालदेवस्य तद्दिने ॥ २७९ ॥ आस्थानमण्डपस्थस्य कर्कण्डस्य नरेशिनः । जगाद सकलान् सभ्यान् बालदेवो नमः स्थितः ॥ २७२ ॥ 1s भो भो जनसमूहाशु' मदीयं वचनं परम् । आकर्णयैकचित्तेन प्रविहाय महारवम् ॥ २७३ ॥ एतन्मातङ्गरूपेण श्मशानं रक्षितं मया । कर्कण्डाख्यः कुमारोऽपि तथाऽयं परिपालितः ॥ २७४ ॥ नाहं भवामि मातङ्गो न मातङ्गसुतोऽपि च । कुमारः सुकुमारोऽयं महावंशसमुद्भवः ॥ २७५ ॥ अङ्गकाख्यजनान्तेऽभूच्चम्पायां पुरि भूपतिः । दन्तिवाहननामाऽस्य प्रिया पद्मावती प्रिया ॥२७६॥ तस्याः सुतः कुमारोऽयं रूपराजितविग्रहः । इहानीतः परं वृद्धिं मया मातङ्गवेषिणा ।। २७७ || 20 पद्मावती महादेवी तपो जैनं विधाय च । अत्रैव नगरे साध्वी स्थिताऽर्या शीलशालिनी ॥ २७८॥ इदं विद्याधरः सर्वं कुमारस्य सुचेष्टितम् । कथयित्वा स्वकीयं च लोकस्य स्वपुरं ययौ ॥ २७९ ॥ कर्कण्डभूभुजा तेऽत्र त्रयो वंशाः कपालजाः । छत्राङ्कुशध्वजानां हि कृता दण्डा मनोहराः २८० ॥ ततः सुमतिसंज्ञाय ब्राह्मणाय विधानतः । कर्कण्डोऽयं महाराजो महामत्रिपदं ददौ ॥ २८९ ॥ पद्मावत्यर्जिकाऽऽगत्य कलिङ्गविषयाधिपम् । कर्कण्डभूपतिं प्रापत् सुतवात्सल्यकारणात् ॥ २८२ ॥ 25 दृष्ट्वा स्वमातरं प्राप्तं प्रोत्थाय हरिविष्टरात् । चकार महतीं पूजां कर्कण्डोऽस्या विधानतः ॥ २८३ ॥ अथ सिंहासनस्थस्य कर्कण्डस्य महीपतेः । दन्तिवाहनदूतोऽयं प्रापाभ्याशं जगावमुम् ॥ २८४ ॥ अङ्गदेशाधिपो राजा दन्तिवाहननामकः । महाराजाधिराजोऽयं भवन्तं वक्ति मन्मुखात् ॥ २८५ ॥ यथा चम्पापुरीं पुण्यां कलिङ्गविषयाधिप । स्वसैन्यसमुदायेन त्वमागच्छ मदन्तिके ॥ २८६ ॥ दन्तिवाहनदूतस्य निशम्य वचनं तदा । बभाणेमं महाकोपात् कलिङ्गविषयाधिपः ॥ २८७ ॥ किमङ्गाख्येन देशेन किं चम्पाख्यपुराऽपि वा । त्वन्नाथेन न मे कार्यं दन्तिवाहनभूभुजा ॥ २८८ ॥ किं त्वत्प्रसादतो राज्यं किं गजाः किं तुरङ्गमाः । मे रथाः किं च पादाता येनैवं वक्ति त्वत्पतिः २८९ एवं निगद्य तं दूतं खलीकृत्य स्वहस्ततः । कर्कण्डभूपतिः शीघ्रं प्राहिणोत्तं तदन्तिकम् ॥ २९० ॥ 3 1 फ वरवल्भं [ वरबालं ]. 2 फ नराधिपः 3 [ यात ]. 4 प जनसमूहाच. 5 फज कुमारसुकुमारो. 6 फ नामोस्य 7 फज विनाधिना 8 All the Mss. interchange the places of 283 and 284; but I have followed the marginal suggestion of q looking to the trend of the story. 9फ प्रपाभ्यासं. 10 प विषयाधिपः. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. ३२४ ] कर्कण्डमहाराजकथानकम् क्रमेण प्राप्य तं दूतो दन्तिवाहनभूभुजम् । जगाद विस्मितस्वान्तो वेपिताखिलविग्रहः ॥२९१॥ कलिङ्गाधिपतिर्नाथ नगरागमपि स्फुटम् । भवन्तं नरसिंहं स तृणायापि न मन्यते ॥ २९२ ॥ स दूतवाक्यतस्तेन सेनया चतुरङ्गया । दन्तिवाहनभूपेन निर्यये नगराद् बहिः ॥ २९३॥ अथ सान्नाहिकी भेरी दध्वान करिपृष्ठगा । श्रीकर्कण्डसमादेशान्मन्द्रं नरकराहता ॥ २९४ ॥ श्रुत्वा तन्निनदं भूपा मत्रिणो भटसेवकाः । नृपद्वारं परिणापुः संग्रामकृतबुद्धयः ॥ २९५॥ । सन्नाहभेरिरावेण कार्कण्डं सकलं बलम् । सन्नद्धं विहितारावं चातुरङ्गं रणोत्सुकम् ॥ २९६ ॥ विधाय कञ्चुकं दिव्यं धनं कार्दमिकं पुरम् । स्कन्धविन्यस्ततोणीरा द्रुतं चेलुर्धनुर्भूतः ॥ २९७ ॥ आदाय फरकां दिव्यां पूर्णिमाचन्द्रसन्निभाम् । कडितल्लकरा धीरास्तदनु प्रययुनराः ॥ २९८ ॥ यमजिह्वासमाकारकुन्तहस्ता भटोत्तमाः । तदनु प्रस्थिता गन्तुं दूरोल्ललनकारिणः ॥ २९९ ॥ चारुवंशा नगोत्तुङ्गाः सुदन्ता दानदायिनः । महामात्रसमारूढा जग्मुस्तदनु दन्तिनः ॥ ३००॥ 10 कनत्कनकनिर्माणमध्ये माणिक्यराजिताः । सारथिप्रेरिता यान्ति चलवाजियुगा रथाः ॥ ३०१॥ अश्ववारसमारूढा वातमानसयायिनः । जात्याश्च सप्तयो यान्ति हेषितव्याप्तदिग्मुखाः ॥ ३०२॥ जात्याश्वपृष्ठमारूढश्चलचामरवीजितः । “समुच्छ्रितसितच्छत्रो बन्दिवृन्दारकस्तुतः ॥ ३०३॥ तुरङ्गेषु समारूढेश्चञ्चलेषु निषादिभिः । बहुभिः संवृतो याति कर्कण्डवसुधाधिपः ॥ ३०४॥ नदीं सरोवरं घोषं पर्वतं गहनं वनम् । पुण्याश्रमं महातीर्थ देशं जनसमाकुलम् ॥ ३०५॥ 15 खसैन्यसमुदायेन महासंघट्टमीयुषा। अतिक्रम्य क्रमात् प्राप चम्पाऽऽख्यां नगरी नृपः॥३०६॥ सैन्यद्वयं महोत्साहं संग्रामरसलम्पटम् । अन्योन्यभण्डनासक्तं बभूव कृतनिस्वनम् ॥ ३०७॥ अत्रान्तरे परिप्राप्य दन्तिवाहनभूपतिम् । पद्मावत्यार्जिका शीघ्रं जगादेति विचक्षणा ॥ ३०८ ॥ किं त्वया कर्तुमारब्धं पुत्रेण सह भण्डनम् । संसारकारणं राजन्नकीर्तिपरिवर्धनम् ॥ ३०९ ॥ आकयं तद्वचो राजा संशयोत्पत्तिकारणम् । जगाद तामतिस्पष्टं कौतुकव्याप्तमानसः॥ ३१० ॥ 20 कुतः समागताऽसि त्वं किं नामा काऽसि सुन्दरि। कथं वा नन्दनस्त्वायें ब्रूहि सत्यं ममाधुना ॥३११॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा जगावार्या तकं पुनः । शृण्वेकचित्ततो राजन् यथापृष्टं वदामि ते ॥ ३१२ ॥ त्वं दन्तिवाहनो राजन्नुत्तीर्णोऽतो मदुक्तितः। अहं पद्मावती नीता त्वद्गजेन विदेशताम् ॥३१३॥ सरोवरं प्रविष्टस्य गजस्य सलिलाशया । अहं गर्भस्थितस्यास्य पुण्यैनीता जलात् स्थलम् ॥३१४॥ ततो दन्तिपुरासन्नं श्मशानं प्राप्य भीषणम् । सर्वलक्षणसंपूर्ण प्रसूतेमं शिशुं परम् ॥ ३१५ ॥ 25 बालदेवेन खेटेन वृद्धिं नीतोऽयमकः । ततो मया तपो जैनं गृहीतं त्वद्वियोगतः ॥ ३१६ ॥ अपुत्रो मृतिमापन्नो बलवाहनभूपतिः। जातो दन्तिपुराधीशः स्वपुण्यैस्तव नन्दनः ॥३१७॥ कण्डूकच्छूगृहीतः सन् शिशुत्वे बालको यतः । ततः कर्कण्डनामास्य यथार्थ विहितं मया ॥३१८॥ निशम्यार्यावचः सत्यं दन्तिवाहनभूपतिः । विहाय वैरसंबन्धं बभूव प्रीतमानसः ॥ ३१९ ॥ निगद्य पुत्रसंबन्धं दन्तिवाहनभूभुजः। पद्मावत्यर्यिका शीघ्रं जगाम स्वसुतान्तिकम् ॥ ३२० ॥ 30 वेगेन प्राप्य तत्पाचे कर्कण्डं निजगाद सा । पित्रा समं विधातुं ते पुत्र युद्धं न युज्यते ॥३२१॥ श्रुत्वा पद्मावतीवाक्यं कर्कण्डो निजगाद ताम् । कथं मातः पिताऽयं मे बेहि विस्मितचेतसः॥३२२॥ अवाचि नन्दनो भूपः पद्मावत्या स्फुटाक्षरम् । द्वेषानुरक्तचित्तस्य पिता पुत्रस्य सन्धितः॥३२३॥ पुत्राहं हस्तिना नीता भवत्तातस्य पश्यतः । सरोजलनिविष्टेन मुक्ताऽनेन सरस्तटे ॥ ३२४ ॥ 1फ भूभुजाम्. 2 पज नमनागमपि, [ नगरागमनं]. 3 [खदूत ]. 4 प सन्नाहिकी. 5 फज नरकराहिता. 6प समुत्थितः. 7 पफज युग्मम्. 8 पफज युग्मम्. 9 [प्रासूतेम]. बृ० को० १३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५६. ३२५ प्राप्य दन्तिपुरासन्नं श्मशानं भीषणं सुत । उत्पन्नोऽसि भवानत्र' मम पुण्यानुभावतः ॥ ३२५ ॥ वर्धितो बालदेवेन द्युगेन स्वपदेच्छया । सुत दीक्षा मया जैनी गृहीताऽभवदायिनी ॥ ३२६ ॥ बलवाहनराजेन्द्रे मृतिं प्राप्ते सुतोत्तम । स्थापितोऽयं महाराज्ये त्वं मुदा राजहस्तिना ॥ ३२७ ॥ तस्मादुत्थाय पुत्र त्वं कुरु तातक्षमापणम् । तत्सन्मुखं परिप्राप्य नीरोषः पत पादयोः ॥ ३२८ ॥ स्थूरीपृष्ठात् समुत्तीर्य तदानीं मातृवाक्यतः । जगाम सन्मुखं हृष्टः कर्कण्डो जनकस्य सः ॥३२९॥ दृष्ट्वा तनूजमायान्तं सहसोत्तीर्य वाजिनः । तत्सन्मुखमभीयाय नरेन्द्रो दन्तिवाहनः ॥ ३३० ॥ परस्परं समासज्य स्नेहनिर्भरमानसौ । नितान्तं जनताऽध्यक्ष्यं तदानीमालिलिङ्गतुः ॥ ३३१ ॥ अन्योन्यकुशलं पृष्ट्वा तोषगद्गदभाषिणौ । उपविष्टौ यथास्थानं तकौ हृष्टतनूरुहौ ॥ ३३२ ॥ तूर्याणि समतालानि कारयित्वा नराधिपः । राजपट्टे धरायोग्यं कर्कण्डस्य बबन्ध सः ॥ ३३३ ॥ सामन्तमत्रियोधानां प्रकृतीनां प्रयत्नतः । सुतं समर्पयामास सस्नेहं दन्तिवाहनः ॥ ३३४ ॥ हस्तिनो वाजिनः कोशं स्यन्दनान् पदिकानपि । समस्तां मेदिनीं राजा ददौ पुत्राय धीमते ॥ ३३५ ॥ नीतियुक्तः सतां सेव्यः प्रजापालनतत्परः । चिरं कालं निरातङ्कः पाहि भूमण्डलं सुत ॥ ३३६ ॥ एवमुक्त्वा सुतं सर्वं जनं संभाष्य सक्रमम् । राजा वैराग्यसंपन्नो नन्दनाख्यवनं ययौ ॥ ३३७॥ तत्र दृष्ट्वा मुनिं वीरं वन्दित्वा बहुभक्तितः । पृष्ट्वा धर्मं श्रुतं ज्ञात्वा स्वहितं च यथाक्रमम् ॥ ३३८ ॥ 15 बाह्यमाभ्यन्तरं संगं हित्वा बहुनरेश्वरैः । दीक्षां श्रीधर्मसेनान्ते दधौ श्रीदन्तिवाहनः ॥ ३३९ ॥ * अथ चम्पापुर श्रीमान् साधितारातिमण्डलः । चकार सरसं राज्यं तदा कर्कण्डभूपतिः ॥ ३४० ॥ अङ्गवङ्गकलिङ्गादिसामन्ताः पृथुकीर्तयः । मस्तकेन प्रतीच्छन्ति शासनं यस्य भीतितः ॥ ३४९ ॥ द्रविलोपपदे देशे चेटचोटौ' सपाण्ड्यकौ । कर्कण्डस्य नरेन्द्रस्य न वशौ तौ बभूवतुः ॥ ३४२ ॥ चेटकादिनृपान् ज्ञात्वा कर्कण्डो नतिवर्जितान् । दूतं कृतज्ञमात्मज्ञं प्रजिघाय तदन्तिकम् ||३४३|| 20 ततः क्रमेण संप्राप्य दूतस्तान् सकलानपि । पुरः स्थितो बभाणेति कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥ ३४४ ॥ युष्मान् वदति कर्कण्डो मन्मुखेन महाप्रभुः । मत्पादाराधनाहेतोरागच्छन्तु त्रयोऽप्यरम् ॥ ३४५ ॥ निशम्य तद्वचस्ते च त्रयोऽपि हरिविक्रमाः । निगदन्ति तकं दूतं वचनैः सत्यतावहैः ॥ ३४६ ॥ अर्हन्मुनिपदाम्भोजं संसारोच्छेदकारणम् । विहाय पावनं नृणां कुर्मोऽन्येषां न वन्दनाम् ॥३४७॥ श्रुत्वा तद्वचनं दूतो नतिहीनं रुषाऽन्वितः । प्राप्य चम्पां विनीतात्मा पतिमेवमभाषत ॥ ३४८ ॥ 25 आस्तां 'त्वदन्तिकं राजन् पदमेकं पदादपि । सैन्यलक्ष्मीमदोन्मत्ता नागच्छन्ति त्रयोऽपि ते ॥ ३४९ ॥ निशम्य भारतीमस्य कोपारुणनिरीक्षणः । प्रस्थितो नगरं गन्तुं सेनया चतुरङ्गया ॥ ३५० ॥ ततोऽश्वैर्वायुरंहोभिः कुञ्जरैर्मदशालिभिः । रथैः कनकनिर्माणैः पत्तिभिः शस्त्रभीषणैः ॥ ३५१ ॥ चम्पापुराधिपो वेगात्तद्दर्पदलनेच्छया । दक्षिणापथदेशोत्थं तेराख्यं नगरं ययौ ॥ ३५२ ॥ ततो दक्षिणदिग्भागे तेराख्यनगरस्य च । स्कन्धावारोऽस्य संतस्थे तन्मार्गश्रमहानये ॥ ३५३ ॥ ॐ ज्ञात्वा कर्कण्डमायातं" शिवो मिलाधिपस्तदा । आजगाम तकं द्रष्टुं बहुनाहलसेनया " ॥ ३५४ ॥ नृपद्वारं समासाद्य द्वारपालनिवेदितः । तन्मतेन शिवः प्राप कर्कण्डाभ्याशमादरात् ॥ ३५५ ॥ दूरान्ननाम भूपालं सभामध्यस्थितं शिवः । मस्तकेन धरास्थेन करकुट्मलयोजिना " ॥ ३५६ ॥ 5 10 1 फज भवान्नत्र. 2 प ( हस्तिपृष्ठात् ) 3प नन्दनादि, ज नन्दनानि 4 पफज युग्मम्. 5 फ चलचोटौ, ज चटचोटौ 6 फज आस्तांस्त्वदन्तिकं. 7 पफज युग्मम्. 8फ सुखेन प्रस्थितो गन्तुं . 9 पफज युग्मम्.. 10 फज कर्कण्डमायान्तं 11 फ 'सेवया. 12 फ योजितः, ज योजिनः . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. ३८६] कर्कण्डमहाराजकथानकम् संभाषणं विधायास्य निविष्टस्य धरातले । ताम्बूलं च प्रदायेमं पप्रच्छेदं महीपतिः ॥ ३५७ ॥ त्वया शिवाटता कापि वनमध्ये दिवानिशम् । किं किंचिदृष्टमाश्चय तन्निवेदय मेऽधुना ॥३५८॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा जगौ म्लेच्छाधिपोऽपि तम् । दृष्टमेकं मया राजन्नाश्चर्य परमे वने ॥ ३५९ ॥ चम्पाधिपः पुनः प्राह श्रुत्वा तद्भारतीमिमाम् । कीटक संदृष्टमाश्चर्यं त्वया ब्रूहि ममाधुना ॥३६०॥ इतो दक्षिणदिग्भागे पर्वतोपरि विद्यते । जिनालयः समुत्तुङ्गः सहस्रस्तम्भनिर्मितः ॥ ३६१॥ । देवासुरनराधीशैरलक्ष्योऽग्निशिखेव सः । तस्योपरि समुत्तुङ्गश्चूडामणिरिव स्थितः ॥ ३६२ ॥ सर्वलोककृतत्राणः सर्वलोकमनःप्रियः । देवतारक्षितो नित्यं विद्यते वामलूरकः ॥ ३६३ ॥ अभिषिञ्चन् करणेमं जलैः पझैरपि स्फुटैः । अर्चयन्नपि भावेन सरोवरसमाहृतैः ॥ ३६४ ॥ कुर्वन् प्रदक्षिणं चास्य भूमिविन्यस्तमस्तकः। दृष्ट्वा सितः करी राजन् मया भूधरसंनिभः ॥३६५॥ अस्मिन् वनान्तरे राजन् दृष्टमाश्चर्यमीदृशम् । मया द्रुमलताकीर्णे मनसोऽप्यतिदुर्गमे ॥ ३६६ ॥ 10 कौतुकं यदि तेऽपि स्यात् प्रतीतिर्वा न विद्यते । राजन् पुरस्ततस्तिष्ठ दर्शयामि विसंशयम् ॥३६७॥ शिववाक्यं समाकर्ण्य राजा विस्मितमानसः। जगादेमं पुनः प्रीतो भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ ३६८॥ पुरतस्तिष्ठ मे वत्स यामि तं द्रष्टुमादरात् । आदरो जायते दृष्टे देहिनां चारुवस्तुनि ॥ ३६९ ॥ धर्मानुरागरक्तोऽयं तदा कर्कण्डभूपतिः । सहस्रस्तम्भसंपन्नं लयनं प्राप तत्समम् ॥ ३७० ॥ दृष्ट्वाऽत्र लयने पुष्पैः पूजयित्वा जिनं नृपः । वन्दित्वा पर्वतस्याग्रमारुरोहातिकौतुकात् ॥ ३७१॥ 15 तत्रस्थो भूपतिः पूजां वल्मीकस्य सरोरुहैः । कुर्वाणं करिणं पूज्यमतिशुभं ददर्श सः ॥ ३७२ ॥ वामलूरं विलोक्याशु करिपद्मसमप्रभम् । सोपवासो नृपस्तस्मै पुष्पधूपाक्षतं ददौ ॥ ३७३ ॥ ततः पार्थजिनेन्द्रार्चामुत्खातां तूर्यनिखनैः । अधोलयनमध्यस्थां चकार वसुधाधिपः ॥ ३७४ ॥ पुष्पमालाभिरापूज्य हरिविष्टरमध्यगाम् । अर्चा पार्श्वजिनेन्द्रस्य पश्यतीशो मनोहरीम् ॥ ३७५ ॥ सिंहासने समुत्तुङ्गे विचित्रमणिभासुरे । कर्कण्डादिमहाराजो ददर्श ग्रन्थिमिद्धधीः ॥ ३७६ ॥ 20 जिनसिंहासने ग्रन्थिः शोभते न मनागपि । दृषद्विज्ञानिनं राजा चिन्तयित्वा जुहाव सः ॥३७७॥ अश्मविज्ञानिनं सारमुपाध्यायं 'पुरःस्थितम् । कर्कण्डभूपतिः प्राह सोपचारं विशुद्धधीः ॥ ३७८॥ कलाविज्ञानसंपन्नः प्रतिमालक्षणान्वितः । सिंहासनोपरिग्रन्थिमुपाध्याय निराकुरु ॥ ३७९ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यमुपाध्यायो जगावमुम्। सिंहासनोपरि ग्रन्थौ शिराऽऽस्ते जलवाहिनी॥३८०॥" पाषाणग्रन्थिनानेन निरस्तेन नराधिप । विनश्यति तरां सर्वं लयनं जलपूरितम् ॥ ३८१॥ तद्वचोऽमन्यमानेन भूभुजाऽयं प्रचोदितः । अवश्यमेव कर्तव्यं ग्रन्थेरस्य त्वयासनम् ॥ ३८२ ॥ यवात् सिंहासनग्रन्थौ मध्ये जलनिवासिनि । ददाति टङ्किकाघातं कर्कण्डवचनादयम् ॥३८३॥ तावत्तद्धातनिर्यातजलसंततिधारया । शिरया जलवाहिन्या लयनं सकलं भृतम् ॥ ३८४ ॥ ततो लयनमालोक्य जलप्लवविनाशितम् । अतीवदुःखितो जातो भूपतिस्तत्क्षणादरम् ॥ ३८५ ॥ ततः स्नातः शुचीभूय सितवस्त्रो दिनत्रयम् । सोपवासो नृपस्तस्थौ तदानीं दर्भसंस्तरे ॥ ३८६ ॥ 30 1 पफज युग्मम्. 2 [ दृष्टः ]. 3 प युग्मम् , फज युगलम्. 4 फ दृष्ट्वाश्चर्यमीदृशम्. 5 Some letters are rubbed away in फ here and there. 6फ वृषद्विज्ञानिनं. 7 पज °ध्यायपुरः. 8 फज ग्रन्थि सिरास्ते जलवाहिनी. 9फ (and ज as corrected) भूपतिर्वाक्यमुपाध्यायं. 10 फज ग्रन्थिमुपाध्याय निराकुरु. 11 फज interchange 380 and 381 and show Variants in 380. I have followed the marginal suggestion of q. ___ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५६. ३८७एवं स्थितस्य तस्यात्र विह्वलीभूतचेतसः। तदा नागकुमारोऽरं कार्यवित्तं' समाययौ ॥ ३८७ ॥ विधायालापमेतेन कुमारो नागपूर्वकः । लयनादिकथाबन्धं प्रारेभेऽस्य प्रभाषितुम् ॥ ३८८ ॥ स्यातां नील-महानीलौ विजयार्धनगोत्तमे । भ्रातरौ स्नेहसंपन्नौ रूपयौवनशालिनौ ॥ ३८९ ॥ विद्याच्छेदं विधायाशु दायादैः पुरुविक्रमैः । ततो निर्धाटितौ सन्तौ तेराख्यं पुरमागतौ ॥३९०॥ 5 ततो नील-महानीलौ सर्वान् भूगोचरानिमान् । वशीकृत्य पुरेऽत्रैव तस्थतुर्मुदमागतौ ॥ ३९१ ॥ श्रुत्वा पार्श्वजिनेन्द्रस्य महामाहात्म्यसंगतम् । चरितं मुनिसमीपे पवित्रं भव्यपुण्यदम् ॥ ३९२॥ लयनं पार्श्वदेवस्य सहस्रस्तम्भनिर्मितम् । ताभ्यामिदं गिरावत्र भूप कारापितं परम् ॥ ३९३ ॥ लयनाभ्यन्तरे सर्वा रत्नस्वर्णविनिर्मिताः । प्रतिमाः पार्श्वनाथस्य महातिशयसंगताः ॥ ३९४ ॥ राजन् नील-महानीलौ सर्वबान्धवसंगतौ । कालत्रयेऽपि तौ भक्त्या वन्दारू. परमोदयौ ॥३९५॥ 10 महाविभवसंपन्ने नानाजनसमाकुले । राज्यं विदधतौ स्फीतं तस्थतुस्तरपत्तने ॥ ३९६ ॥ अमितोपपदो वेगो विजयार्धनगादरम् । महानीलस्य नीलस्य मित्रं लङ्कां समाययौ ॥ ३९७॥ जिनेन्द्रप्रतिमाः सर्वा वन्दित्वाऽत्र स खेचरः । स्वर्णरत्नमयीमेकामर्चामादाय निर्ययौ ॥ ३९८ ॥ गच्छन् विहायसा सोऽरं लयनं वीक्ष्य शोभनम् । गगनाद् भक्तिमापन्नो वेगतो भुवमाप सः॥३९९॥ ततः पार्श्वजिनेन्द्रस्य तामों वामलूरके । स्थापयित्वा स खेटोऽधोलयनं भक्तितोऽगमत् ॥४००॥ 15 वन्दित्वा स्तुतिभिस्तत्र प्रतिमा भक्तितत्परः । भूयः प्रागुक्तवल्मीकं प्राप खेटोऽतिवेगतः ॥४०१॥ यावदागत्य ताम_मुत्क्षिपत्ययमादरात् । तावद् बभूव सा तत्र पर्वतोपरि निश्चला ॥ ४०२॥ एवं तां निश्चलां दृष्ट्वा तत्रत्यां प्रतियातनाम् । भूमौ निधाय खेटोऽगात्तदानीं खमनीषितम् ॥४०३॥ कालेन बहुना भद्र जातोऽयं वामलूरकः । अहमेतं प्रयत्नेन रक्षन् तिष्ठामि सर्वदा ॥ ४०४॥ इदं च लयनं दिव्यं नीलेन जिनभक्तितः । महानीलयुतेनार्य कारितं मणिभासुरम् ॥ ४०५॥ 20 इदं लयनमुत्तुङ्गं विनष्टं जलधारया । रक्षितुं न समर्थोऽहं मौनमादाय संस्थितः ॥ ४०६॥ सुवर्णरत्ननिर्माणा लयनाभ्यन्तरा स्थिताः । अर्चास्तिष्ठन्तु राजेन्द्र जैन्यो रूपसमन्विताः॥४०७॥ अमुष्मिन् दुःषमाकाले शक्यन्ते ता न रक्षितुम् । विनश्य लयनं नीराद् दृष्ट्वोदासीनतामितः॥४०८॥ तेनेदं लयनं सारं तिष्ठताजलपूरितम् । अस्योपरि परं त्वन्यं त्वं कारापय सांप्रतम् ॥ ४०९॥ निवेद्य सकलं राज्ञः कुमारो नागपूर्वकः । जगामादर्शतां सद्यो भूयोऽप्यस्मात्समुत्थितः॥४१०॥ 25 अथ हस्ती परिप्राप्य दृष्ट्वा रथ्यं विनाशितम् । गजेन्द्रः पर्वतं तुङ्गमारुरोह त्वरान्वितः ॥४११॥ सर्वाहारं परित्यज्य समाधि प्राप्य कुञ्जरः । कालं कृत्वा सहस्रारे बभूव विबुधो महान् ॥४१२॥ अधोलयनमाच्छाद्य शिलाभिः शोभने दिने । राजा सर्वशिलाकुट्टान् शीघ्रमाहूतवानसौ ॥ ४१३॥ ततः स्वस्य महादेव्या क्षुल्लकस्य च शोभनम् । लयनानां त्रयं शीघ्रं कारितं तैर्महीभुजा ॥४१४॥ लयनानां त्रयस्यापि तूर्यमङ्गलनिखनैः । चकार महती पूजां कर्कण्डो भक्तितत्परः ॥ ४१५॥ 30 कर्कण्डः कृतकर्तव्यः सेनया चतुरङ्गया । आज्ञास्खलनतो रुष्टो द्रविलं विषयं ययौ ॥ ४१६ ॥ श्रुत्वा कर्कण्डमायातं बलिष्ठं सैन्यसंपदा । निर्गत्य स्वपुरादाशु तेऽमुना यो मुद्यताः ॥ ४१७॥ शस्त्रघातसमुद्भूतवह्निज्वालाप्रभोज्वले । अन्योन्यमारणासक्तभटगर्जितभीषणे ॥ ४१८ ॥ • हस्तिवाजिरथारावराविताकाशभूतले । धानुष्कमुक्तबाणौघविद्धाशेषपदातिके ॥ ४१९ ॥ वैतालिककलालापबधिरीभूतदिग्मुखे । छत्रचामरसंघातरुद्धादित्यप्रभोत्करे ॥ ४२० ॥ 1फ कार्यचित्तं. 2 [मुनिसामीप्ये]. 3फ जलसमाकुले. 4 फ interchanges 400 and 401. 5[विनष्टं]. 6पनीरा. 7 पफज कुलकम. 8 फज त्रयस्यास्य. 9फ कर्कण्डमायान्तं. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ -५७. १६] अशोकरोहिणीकथानकम् समरागजने जन्ये कृतदेवीसमीक्षणे । चेटकादित्रयं राजा जीवग्राहं गृहीतवान् ॥ ४२१॥' यावत्स्वपादघातेन कर्कण्डो विनिहन्ति तान् । तत्तिरीटे जिनस्यार्चा तदा तावदपश्यत ॥४२२॥ हा मयाऽनुष्ठितं कर्म हीनं साधुजुगुप्सितम् । यदों वीरनाथस्य पादेन हन्तुमुद्यतः ॥४२३॥ कर्कण्डादिमहाराजो महावैराग्यसंगतः । तदा स्वनिन्दनासक्तो बभूव परमार्थवित् ॥ ४२४ ॥ अथाह्वाय निजान् पुत्रान् राज्ययोग्यान् पुरःस्थितान् । राज्यपढें बबन्धुस्ते त्रयोऽपि क्रमतोऽनघाः॥ चटचेटौं समं वीरौ पाण्ड्यराज्येन सत्वरम् । देक्षां दैगम्बरी भव्यौ वीरसेनान्तिके दधुः ॥४२६॥ द्राविलं विषयं सर्वं वशीकृत्य नराधिपः । चम्पापुरी विवेशाशु सैन्यसागरसंयुतः ॥ ४२७ ॥ दत्त्वा राज्यश्रियं सारं वसुपालाय सूनवे । वसुपालाय वीराय सकलत्राय धीमते ॥ ४२८ ॥ वर्धमानजिनेन्द्रस्य तीर्थे कर्कण्डभूपतिः । वीरसेनगुरोरन्ते तपो जैनमशिश्रियत् ॥ ४२९ ॥ अयं कर्कण्डयोगीशो भव्यचेतोऽभिनन्दनः । जैनं तपश्चकारारं वर्गमोक्षफलप्रदम् ॥ ४३०॥ 10 ॥ इति महाभक्तिसमन्वितनागदत्तगोपालकपद्मकफलसंभूत ककेण्डमहाराजकथानकम् ॥५६॥ ५७. अशोकरोहिणीकथानकम् । अथास्ति मगधे देशे पुरं राजगृहं पृथु । श्रेणिकोऽत्र महीपालः सम्यग्दर्शनभूषितः ॥ १॥ आसीदस्य महादेवी चेलना नाम विश्रुता । तत्पुत्रो वारिषेणाख्यः श्रावको विदितो बुधैः ॥२॥ 15 अन्यदा श्रेणिकः पाप वर्धमानजिनेश्वरम् । गणैर्द्वादशभिर्युक्तं विपुलाख्यगिरौ स्थितम् ॥३॥ प्रणम्य भक्तितो वीरं देवासुरनरस्तुतम् । निहिताशेषकर्माणं पप्रच्छेदं महीपतिः॥४॥ भवत्समा जिना नाथ कियन्तश्चक्रवर्तिनः । बलदेवाः कियन्तो वा वासुदेवा हि तद्विषः ॥५॥ तथा चोक्तम्त्वत्सदृशाः कति नाथ जिनेन्द्राश्चक्रधराः कति केशवरामाः। तत्प्रतिपन्थिन एव कियन्तः सर्वमिदं मम नाथ विधत्स्व ॥६॥ एतत्सर्वं" जिनाधीश पवित्रत्रिजगद्गुरो । अहं भवत्प्रसादेन ज्ञातुमिच्छामि सांप्रतम् ॥ ७॥ मगधेशवचः श्रुत्वा वर्धमानजिनेश्वरः । यथापृष्टं जगादास्य कौतुकव्याप्तचेतसः ॥ ८॥ चतुर्भिरधिका राजन् विंशतिर्गदिता जिनाः । समस्तमेदिनीनाथास्तदर्धाश्चक्रवर्तिनः ॥९॥ बलभद्रा नव प्रोक्ता वासुदेवास्ततो नव । क्रूरकर्मसमायुक्तास्तट्विषोऽपि नव स्फुटम् ॥१०॥ 25 ऋषभादिपुराणानि श्रेणिकस्य जिनोत्तमः । कथयस्तावदायातो यावदङ्गाख्यमण्डलम् ॥११॥ अत्र चम्पापुरी रम्या विद्यते जनसंकुला। "वसुपूज्यो नृपोऽस्यापि जयानामाऽजनि प्रिया॥१२॥ अनयो रूपसंपन्नो द्वात्रिंशल्लक्षणान्वितः । वासुपूज्यो जिनो भावी नन्दनो भव्यनन्दनः ॥१३॥ द्वादशाख्यस्य तीर्थस्य भर्नाथस्य तस्य च । श्रुत्वा पुराणमापूर्ण गुणरत्नगणैरिदम् ॥१४॥ वासुपूज्यगणेन्द्रस्य प्रथमस्य नराधिपः । अमृताश्रवसंज्ञस्य पुराणं पृष्टवानिदम् ॥ १५॥" श्रेणिकस्य नरेन्द्रस्य कौतुकव्याप्तचेतसः । निशम्य वचनं वीरो जगादेमं पुरःस्थितम् ॥ १६ ॥ 1 पफज चतुष्कलम्.2 फ पादेनाहन्तुमद्यतः. 3ज चटचैटौ.4 [दीक्षां].5फ वशीकृत°. 6 पफज युग्मम्. 7 पफज ग्रं ४३३. 8 फज मगधादेशे. फज वारिखेणाख्यः. 10 फ हतद्विषः. 11 फज तत्सर्व. 12 फमगधेशो. 13 प वासुपूज्यो. 14 फज गुणैरिदम्. 15 पफज युग्मम्. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५७.१७ २४ ॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । कुरुजाङ्गलदेशोऽस्ति ' धनधान्यसमन्वितः ॥ १७ ॥ विद्यते तत्र पौराढ्यं हस्तिनागपुरं परम् । विगतोपपदः शोको भूपतिर्जनवल्लभः ॥ १८ ॥ विद्युत्प्रभा महादेवी भूपतेरस्य वल्लभा । तत्पुत्रोऽशोकनामाऽयं शोकवर्जितविग्रहः ॥ १९ ॥ श्रीमदङ्गमहादेशे चम्पाऽऽख्या नगरी परा । मघवा तत्र भूपालः श्रीमती चास्य गेहिनी ॥ २० ॥ ऽ तस्या गुणाकराः ख्याताः समस्तधरणीतले । पुत्रा बभूवुरष्टौ ते नामान्येतानि बिभ्रति ॥ २१ ॥ श्रीपाल : श्रीप्रियो ज्ञेयो गुणपालो गुणप्रियः । वसुपालो वसुस्फीतः प्रजापालः प्रजापतिः ॥ २२ ॥ व्रतपालो व्रताधारः श्रीधरः श्रीधरः परः । तथा गुणधरो ज्ञेयो गुणरञ्जितभूतलः ॥ २३ ॥ यशोधरो यशोधारी यशः शुक्तीकृताम्बरः । यथार्थनामसंयुक्ताः सर्वे भान्ति भुवस्तले ॥ रूपयौवनसंपन्ना पीनोन्नतघनस्तनी । तत्सुकन्या कलाधारा रोहिणी नाम विश्रुता ॥ २५ ॥ कार्तिकाष्ठाह्निकायां च सोपवाससमन्विता । श्रीखण्डचरुपुष्पाणि गृहीत्वा धूपतण्डुलम् ॥ २६ ॥ चम्पापूर्वदिशो भागे महापूजाङ्कनामकम् । जिनायतनमुत्तु रोहिणी प्राप भक्तितः ॥ २७ ॥ जिनपूजां विधायोच्चैः पुष्पगन्धाक्षतादिभिः । जिनसाधुनमस्कारं जिनशेषां प्रगृह्य च ॥ २८ ॥ जिनगेहाद्विनिःसृत्य सभामध्यनिवासिनोः । पित्रोरन्तःपुरस्यापि ददौ शेषां हि रोहिणी ॥ २९ ॥ ततः पिताऽवलोक्ये मामङ्कमारोप्य कन्यकाम् | यौवनेभमितां प्रौढां दध्याविति विषादवान् ॥३०॥ रूपातिशयसंपन्नां संपूर्णनवयौवनाम् । समानगुणरूपाय कस्मै दास्यामि कन्यकाम् ॥ ३१ ॥ एवं विचिन्त्य मूढात्मा कन्यां मुक्त्वा गृहं प्रति । मन्त्रशालां विवेशाशु विशालां वसुधाधिपः ॥ ३२ ॥ सुमतिः सुमतिः सारः सश्रुतः श्रुतसागरः । विमलादिमतिद्धशो विमलो विमलाशयः ॥ ३३ ॥ तानसौ समाहूय मत्रिणो मन्त्रकोविदान् । यथासनं परिप्राप्तान् पप्रच्छेदं महीपतिः ॥ ३४ ॥ कुमारी सुकुमाराङ्गी कुमाराय प्रदीयताम् । कस्मै वदत निःशङ्का मत्रिणो मन्त्रकोविदाः ।। ३५ ।। नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा मन्त्रिभिः प्रेरितस्तदा । जगाद सुमतिर्वाक्यं पूर्वं भूपतिसंमतम् ॥ ३६ ॥ कन्यैकस्मै कुमाराय यदि राजन् प्रदीयते । ततोऽस्याः प्रेमसंबन्धो जायतेऽत्र न वा धवे ॥ ३७ ॥ अथवा दैवयोगेन धवस्यास्य सुभोगिनः । अस्यां न जायते प्रीतिः पितरौ कुरुतः स्म किम् ॥ ३८ ॥ तस्मात् स्वयंवरे कन्या नानानृपसमागमे । गृह्णातु स्वमतं कान्तं संगरोऽयं ममेश्वरः ॥ ३९ ॥ स्वयंवरो मतः पूर्वैरादरेण नराधिपैः । लज्जा न जायते पुंसां कुर्वतां पूर्वसेवितम् ॥ ४० ॥ 25 श्रुत्वा नराधिपो वाक्यं सुमतेः सुमतेः परम् । स्वयंवरे मतिं चक्रे महापुरुषसेवितें ॥ ४१ ॥ कोटिशो मञ्चकांस्तुङ्गान्नानामणिविराजितान् । अचीकरन्नृपः शीघ्रं महारजतनिर्मितान् ॥ ४२ ॥ धरातले समस्तेऽस्मिन् स्वनरैः शीघ्रयायिभिः । तदानीं स महीपालः स्वयंवरमघोषयत् ॥ ४३ ॥ श्रुत्वा स्वयंवरं दूतैः नृपा विभवसंयुताः । श्रीमच्चम्पापुरं प्राप्य मञ्चकेष्ववतस्थिरे ॥ ४४ ॥ तूर्याणि समतालानि नादितावनिखान्यरम् । नेदुर्मधुरगम्भीरं तदानीं तत्स्वयंवरे ॥ ४५ ॥ 30 कोऽपि हारलतां पाणौ स्पृशति प्रीतमानसः । मुकुटं कोऽपि हस्तेन करोति स्थिरमुन्नतम् ॥ ४६ ॥ कोऽपि केशचयं स्निग्धं निश्चलं शिरसि द्रुतम् । चकार पाणिनाऽपश्यन्नक्ष्णा कन्यासमागमम् ४७ विद्रुमच्छविमोष्ठं च करेणाकृष्य पश्यति । कोऽप्येकलोचनेनाशु द्वितीयेन दिशां मुखम् ॥ ४८ ॥ कोsपि लीलाम्बुजं " पाणौ गन्धासक्तमधुव्रतम् । सुरभीकृतसर्वाशं चकार विकसन्मुखम् ॥ ४९ ॥ I 10 15 20 1 फज कुरुजंगल 2 फ गुणधरो 3 पफज युग्मम्. 4 फ जिनशोखां, ज जिनशेखां 5 पफज युग्मम्. 6 फ मन्त्रिकोविदान् 7फ महापुरप्रसेविते, ज महापुरुप्रसेविते. 8 प षट्कुलकम्, फ षट्कलमिदम्, ज षट्कलकम्. 9 फज 'लोचना शुद्धिद्वितीयेन. 10 फ लीलाम्बुजी. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ८१ ] अशोकरोहिणीकथानकम् .१०३ कोऽपि वीणां समादाय गीतं गायति शोभनम् । सप्तस्वरसमायुक्तं विंशदेकोनमूर्च्छनम् ॥ ५० नितम्बे कोऽपि बध्नाति खड्गधेनुं समुज्वलाम् । कृताङ्गमोटनं बाढं चारुपट्टिकया घनम् ॥ ५१ ॥ कोऽपि ताम्बूलमादाय करेण प्रीतमानसः । स्वनादपूरिताकाशभूतलः सहसाऽहसत् ॥ ५२ ॥ एवं नृपास्तदा सर्वे कुर्वन्ति विविधक्रियाः । कामाकुलितचेतस्काः कन्यागमनकाङ्क्षिणः ॥ ५३ ॥ अत्रान्तरे महावस्त्रा दिव्याभरणभूषिता । रूपराजितसर्वाङ्गी ' मदकुञ्जरगामिनी ॥ ५४ ॥ पञ्चवर्णविनिर्माणपुष्पमालाकरा परा । धात्रीपुरःसरी कन्या विवेशैषा स्वयंवरम् ॥ ५५ ॥ दृष्ट्वा सर्वे नृपाः कन्यां स्वयंवरमितामिमाम् । चिन्तयन्ति भृशं स्वष्टं मन्मथाकुलमानसाः ॥५६॥ यक्षिणी किन्नरी किंवा किं विद्याधरकन्यका । उर्वशी किं किमिन्द्राणी किं रतिः किं तिलोत्तमा ५७ एवं बहुविधान् संगान् भावयन्तो नराधिपाः । तस्थुर्विस्मित चेतस्कास्तन्मुखाम्भोजवीक्षणाः ॥५८॥ सुमङ्गलाभिधानाऽसौ कलकोकिलनिस्वना । स्वर्णवेत्रकरा धात्री जगौ कन्यां मनखिनी ॥ ५९ ॥ महाकुन्दपुराधीशं कुन्दपुष्पसमद्विजम् । रूपिणं कुन्दनामानं वृणीष्वैनं कुमारिके ॥ ६० ॥ एष मेघपुरस्वामी हेमाङ्गो हेमनामकः । बहुहेमधनाधारो मानयैनं मनखिनि ॥ ६१ ॥ अयं रत्नपुराधीशो रत्नसंचयनामकः । रत्नोद्योतितसर्वाङ्गो बालेऽत्र कुरु मानसम् ॥ ६२ ॥ प्रभुस्तिलकसंज्ञस्य पुरस्य तिलकाभिधः । तिलकोऽयं नरेशानां प्रीतिमत्र कुरु प्रिये ॥ ६३ ॥ विद्युत्पुरस्वामी नाम्ना विद्युत्प्रभः प्रभुः । अनेन भोगिना सार्धं भोगान् मानय मानिनि ॥ ६४ ॥ 15 एवमादिबहून्" भूपान् धात्रीदर्शितसंपदः । अतिक्रम्य जगामाशु बाला तद्वेषधारिणी ॥ ६५ ॥" भूयो जगाद तां धात्री त्यक्ताखिलनराधिपाम् । प्रसन्नवचसा साध्वी तच्चित्तेङ्गितकोविदा ॥ ६६ ॥ स्वामिन्येष गुणाधारो वीतशोकसुतो महान् । जयन् रूपेण कन्दर्पमशोकः शोकवर्जितः ॥ ६७ ॥ अनेन देवरूपेण विद्याधरसमेन वा । चिरकालं सुखं पुत्र त्वं मानय विलासिना ॥ ६८ ॥ * धात्रीवचनमाकर्ण्य तत्पुरो हृदयंगमम् । ददर्श तं महाकन्या कन्दर्पमिव रूपिणम् ॥ ६९ ॥ तं रूपिणं कन्या मुमोह क्षणमात्रकम् । चेतनां प्राप्य भूयोऽपि दध्यौ विस्मितमानसा ॥ ७० ॥ मन्मथः सतनुः किं वा किमिन्द्रोऽयं खगेश्वरः । भोगभूमिभवः किं वा कुमारो भाति मत्पुरः ॥ ७१ ॥ स्वचित्तहारिणं बाढं बद्धा मानसमालया । मुमोचास्य गले मालामशोकस्य हि रोहिणी ॥ ७२ ॥ वीतशोकसुतं दृष्ट्वा कन्यामालाविभूषितम् । तदाऽशोकं नृपाः सर्वे जग्मुः स्वं स्वं निकेतनम् ॥७३॥ कृत्वा महामहं पूतं जिनानां क्षीणकर्मणाम् । केवलज्ञाननेत्राणां पूतानां सर्ववेदिनाम् ॥ ७४ ॥ 25 शोभने दिनयोगादौ मघवाभिनिवेदिताम् । उवाह रोहिणीं रागादशोको विधिपूर्वकम् ॥ ७५ ॥* मनोऽभिवाञ्छितान् भोगान् भुञ्जानोऽशोकभूपतिः । रोहिण्या सह चन्द्रो वा तत्र तस्थौ सुखैधितः ॥ बहुष्वपि च लेखेषु जनकप्रेषितेषु सः । रोहिणी स्नेहतोऽशोकः पितुरन्तं न गच्छति ॥ ७७ ॥ अशोकस्य पिता लेखं" साभिज्ञानसमन्वितम् । वैतालिककरे शीघ्रं प्रजिघाय समुत्सुकः ॥ ७८ ॥ ततश्चम्पापुरीं प्राप्य वीतशोकसुतस्य च । स्तुत्वाऽशोककुमारस्य पुरो लेखं विसृष्टवान् ॥ ७९ ॥ ३० आदाय तं स्वहस्तेन तल्लेखार्थं प्रवाच्य च । अशोकः शोकसंपन्नो बभूव जनकोत्सुकः ॥ ८० ॥ ततः श्वशुरमापृच्छ्य रोहिणीसहितः क्रमात् । अशोकः स्वबलोपेतो जगाम पितुरन्तिकम् ॥ ८१ ॥ 15 1फ समुज्वलम्. 2 पज प्रीतिमानसः 3प कुलकम् ज कुलिकम् फ कुलकमिदम्. 4प मन्द • 5प युग्मम्, फज युगलम् 6फ श्रेष्टम् 7 ज युगलम् फ युगलमिदम्. 8फ महाकन्द 9 प वृणीष्वेनं. 10 प एवमाद्य 11 पज कुलकम्, फ कुलकमिदम् 12 पज त्रिकलम् फ त्रिकलमिदम्. 13 फज 16 फ लेषं. कुमारो भावि तत्पुरः. 14 पज युगलम् फ युगलमिदम्. 15 -पज प्रेक्षितेषु 20 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५७. ८२ ततः पितरमानम्य सभास्थं मातरं च सः । अशोकः शोकसंत्यक्तो बभूव पितृसंगमात् ॥ ८२ ॥ अथ प्रद्योतिताकाशां ज्वालाभासितपुष्कराम् । उल्कां ददर्श भूपालः शोकान्तो विगतादिकः ॥ ८३॥ उल्कापातं विलोक्यायं वैराग्याहितमानसः । सभ्यान् जगाद राजेन्द्रो मस्तकन्यस्तपाणिकान् ॥ ८४॥ विभवा धनवान्याद्यास्तृणबिन्दुचलाचलाः । यौवनं यद्गतं पुंसां पुनस्तन्न निवर्तते ॥ ८५ ॥ विद्युच्चलाचलं सभ्या' जीवितं देहिनां भवेत् । दृष्टादृष्टं शरीरं च 'लालितं मृष्टभोजनैः ॥ ८६ ॥ शुष्कपत्रसमानामा निचया भवनाधिकाः । सन्ध्यारागसमा प्रीतिर्वल्लभै रमणीजनैः ॥ ८७ ॥ बन्धुभिः सह यत्प्रेम स्वप्नराज्योपमं भवेत् । विद्यते तन्न लोकेऽस्मिन् यद्वस्तु स्थिरतां व्रजेत् ॥८८॥ एवं निगद्य तान् सभ्यानापृच्छ्य जनबान्धवान् । अशोकाय श्रियं दत्त्वा निर्ययौ भूपतिर्गृहात् ॥ ८९ ॥ अशोकवनमध्यस्थं तदा गुणधरं यतिम् । संप्राप्य भक्तिसंपन्नो वीतशोको नराधिपः ॥ ९० ॥ 10 प्रणम्य तं महासत्त्वं यतीशं स नराधिपः । दीक्षां जग्राह तत्पार्श्वे बहुभिर्नरकुञ्जरैः ॥ ९१ ॥ अतिघोरं तपः कृत्वा भित्त्वा कर्मकदम्बकम् । वीतशोकमुनिः शीघ्रं ययौ निर्वाणपत्तनम् ॥ ९२ ॥ अपनुद्य महाशोकं पितृदीक्षणसंभवम् । चकार विपुलं राज्यमशोको नतपार्थिवम् ॥ ९३ ॥ अशोकेन समं भोगान् भुञ्जानाया मनोरमान् । बभूवुरष्ट सत्पुत्रा रोहिण्याः क्रमतोऽमलाः ॥ ९४ ॥ एवं यौवनसंपन्ना विषाणदललोचनाः । अनुक्रमेण संजाताश्चतस्रस्तनयास्तथा ॥ ९५ ॥ विगतोपपदः शोको गतशोकः परो मतः । जितशोको विनष्टादिशोकोऽपि धनपालकः ॥ ९६ ॥ वसुपालः परो ज्ञेयो गुणपालो गुणाकरः । रोहिणीसुतनामानि विज्ञेयानि मनीषिभिः ॥ ९७ ॥ वसुंधरा मता पूर्वं सुरकान्ता तथा परा । लक्ष्मीमती परा ज्ञेया सुप्रभा चेति तत्सुताः ॥ ९८ ॥ समस्त पुत्रपुत्रीणां पश्चिमोऽजनि नन्दनः । लोकपालकुमाराख्यो रोहिण्या रूपराजितः ॥ ९९ ॥ अन्यदाऽशोकभूपालो रोहिणी पण्डिता परा । वसन्ततिलका धात्री लोकपालाङ्कधारिणी ॥ १०० ॥ 20 प्रासादशिखरस्थाने मञ्जुकोलाहला अलम् । गोष्ठीसुखोपविष्टाश्च संतिष्ठन्ते स्वलीलया ॥ १०१ ॥ रथ्यायां शोकसंपन्ना मुक्तकेशकदम्बिकाः । कृतकोलाहलखाना मण्डलीभूतविग्रहाः ॥ १०२ ॥ कुर्वती रासकं बालं 'काकुन्तीः स्वं मुहुर्मुहुः । वक्षः शिरस्तनं बाहू 'कुट्टन्तीः कृतरोदनाः ॥ १०३ ॥ प्रासादस्था विलोक्यैता योषितो रोहिणी तदा । वसन्ततिलकां धात्रीं पप्रच्छेति कुतूहलात् ॥ १०४॥ | अम्ब सिग्नटकं भानी छत्रं रासोऽपि दुम्बिली । एतान् पञ्चापि नृत्यन्ति नाटकानृत्यकोविदाः ॥ १०५ ॥ 25 एतान् पञ्चापि संत्यज्य नाटकान् भरतोदितान् । नाटको भीरुभिः कोऽयं नृत्यते सादिकुट्टनः ॥१०६॥ सप्तस्वरबहिर्भूतं भाषामूर्च्छाबहिर्भवम् । इमं तु नाटकं ब्रूहि सांप्रतं मम कौतुकात् ॥ १०७ ॥ निशम्य रोहिणीवाक्यं मुग्धभावसमन्वितम् । जगाद धात्रिकेमां च वसन्ततिलकाऽभिधा ॥ १०८ ॥ पुत्रि शोको महादुःखं क्रियते दुःखिभिर्जनैः । तद्वाक्यतः पुनः प्राह रोहिणीमां सकौतुकात् ॥ १०९॥ अम्ब किं भण्यते शोको दुःखं वा वद किं मम । भूयो जगाद तां धात्री रुष्टा कोपारुणेक्षणा ॥ ११० ॥ 30 संजातः किं तवोन्मादः पाण्डित्यैश्वर्यमीदृशम् । किं गर्वौ रूपसंभूतः किं सौभाग्यं जनातिगम् ॥ १११ ॥ तेन त्वं नाटकं ब्रूषे” स्वरभाषासमन्वितम् । शोकं दुःखं न जानासि जाताऽचैवासि सुन्दरि ॥ ११२॥ वसन्ततिलकावाक्यं श्रुत्वा भूयोऽपि रोहिणी । इमां जगाद मा भद्रे कोपं कुरु ममोपरि ॥ ११३ ॥ गन्धर्वगणितं चित्रमक्षराणि स्वराणि च । विज्ञानानि चतुःषष्टिः कला द्वासप्ततिस्तथा ॥ ११४ ॥ 5 15 1फ सप्त, [ सर्व ] 2 प ललितं. 3 प चतुष्कलम् ज चतुष्कलकम्, फ चतुष्कलकमिदम्. 4 फज गतशोकपरो. 5फ कोलाहलाहलम् 6 फ कांक्षन्तीः 7प कुट्टन्ती 8 पज त्रिकलम् फ त्रिकलमिदम्. 9 त्रिकलम् फ त्रिकलमिदम्. 10 फ ब्रूते. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. १४६ ] अशोकरोहिणी कथानकम् १०५ कलागुणमयक्षो मे न केनापि भाषितः । अदृष्टमश्रुतं तेन पृच्छामि भवतीमिमम् ॥ ११५ ॥ रोहिणीवाक्यमाकर्ण्य धात्रिकैतां जगौ पुनः । न नाटकप्रयोगोऽयं गीतभाषास्वरो न वा ॥ ११६ ॥ किं तु दुःखेन जन्तूनां रुदतां बन्धुमृत्युतः । मयाऽतो गदितो वत्से भूयः शोकोऽयमुच्यते॥११७॥ भूयस्तद्वाक्यतो देवी रोहिणी निजगाविमाम् । रुदितार्थमहं भद्रे न जानामि हि कीदृशः ॥ ११८ ॥ अत्रान्तरे महीपालोऽशोकनामा जगाविमाम् । शोकेन रुदितस्यार्थमहं तं दर्शयाम्यलम् ॥ ११९ ॥ लोकपालं सुतं बालं राजाऽऽदाय च तत्करात् । प्रासादशिखरादाशु रोहिणीपुरतोऽमुचत् ॥१२०॥ लोकपालकुमारोऽरमशोकतरुमूर्धनि । अशोकपुष्पशय्यायां रचितायां पपात सः ॥ १२१ ॥ अत्र ज्ञात्वा तकं बालं सर्वा नगरदेवताः । तं प्रदेशं समाजग्मुः कृत कोलाहलखनाः ॥ १२२ ॥ शोकस्य कारणं जातं रोहिण्याः कथमीदृशम् । शोकं दुःखं सुसंप्राप्तं यावदेषा न पश्यति ॥ १२३ ॥ अशोकतरुमूर्धस्थं दिव्यं सिंहासनं तदा । विकुर्वाणाकृतं ताभिः पञ्चवर्णसमुज्ज्वलम् ॥ १२४ ॥ अष्टोत्तरशताख्यानै रत्नाष्टापदनिर्मितैः । क्षीरोदनीरसंपूर्णैः कलशैर्मुखपङ्कजैः ॥ १२५ ॥ अभिषेकं विधायास्य 'बालाभरणभूषितः । देवीभिः स्नापितो बालो रममाणो वितिष्ठते ॥ १२६ ॥ अशोकवृक्षमूर्धस्थं सिंहासनमधिष्ठितम् । अशोको रोहिणीबालं ददर्शाधोविलोकनात् ॥ १२७ ॥ षोडशाभरणोपेतं पुरदेवीप्रपालितम् । पूजितं पुष्पधूपाद्यैर्गन्धामोदितदिग्मुखैः ॥ १२८ ॥ अन्यदा देवतासंघकरकुम्भाभिषिक्तकम् । लोकपालं विलोक्यैनं दिव्याभरणभूषितम् ॥ १२९ ॥ 15 सदारतिसहस्राक्षः संकीर्णोऽपि महामतिः । अशोकोऽपि महाराजो रोहिणी प्रेमकारिणी ॥ १३० ॥ रोहिणीविहिते पूर्वं चतुर्थे तत्फलेन च । पुरोहितादयः सर्वे विस्मयं परमं ययुः ॥ १३१ ॥' ततस्तं बालकं दिव्यं सर्वालङ्कारभूषितम् । आनीतं विस्मयोपेतास्तत्र तस्थुस्तके मुदा ॥ १३२ ॥ पुन्नाग चम्पकाशोकनमेरुबकुलाचिते । आम्राम्रातकसंपन्ने तत्राशोकवने सति ॥ १३३ ॥ अतिभूतिर्महाभूतिर्विभूत्यम्बरपूर्वकम् । तिलकान्तं बभूवात्र जिनवेश्म चतुष्टयम् ॥ १३४ ॥ रूपस्वर्णादिकौ' कुम्भौ चारणौ मुनिपुङ्गवौ । विहरन्तौ समायातौ हस्तिनागंपुरं परम् ॥ १३५ ॥ तत्र पूर्वदिशाभागसमुद्भूतमहावने । तस्थतुस्तौ महाभूततिलके जिनवेश्मनि ॥ १३६ ॥ ततः संप्राप्य " तत्पार्श्वे वनपालेन वेगतः । मुनिवार्ता च सा सर्वा भूभुजे विनिवेदिता ॥ १३७ ॥ निशम्य तद्वचो राजा महासंपत्समन्वितः । जगाम मुनिसामीप्यं भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ १३८ ॥ ततोऽशोकेन भूपेन वन्दित्वाऽमू सुभक्तितः । रूप्यकुम्भमुनिः पृष्टो विधिनाऽवधिलोचनः ॥१३९॥ 25 तथाऽऽदिश मया सम्यग् रोहिण्याऽपि पुराभवे । को धर्मो विहितः पूतः सर्वसत्त्वदयापरः" ॥१४०॥ विशोकाद्यष्टपुत्राणां कन्यकानां चतसृणाम् । पूतान्यभवसंबन्धं कथयेश ममाधुना ॥ १४१ ॥ अशोकवचनं श्रुत्वा रूप्यकुम्भो यतीश्वरः । अवधिज्ञाननेत्रेण तत्पृष्टार्थं जगाविति ॥ १४२ ॥ आकर्णयैकचित्तेन त्वद्रामाशोककारणम् । कथयामि समासेन तव राजेन्द्र सांप्रतम् ॥ १४३ ॥ हस्तिनागपुराद् गत्वा मार्गं द्वादशयोजनम् । अस्ति नीलगिरिस्तुङ्गो नानातरुशिलातलः ॥ १४४ ॥ यशोधरमुनिर्वरिश्चारणो लोकशान्तिकृत् । सर्वौषधित्वसंप्राप्तो धर्मभूषितविग्रहः ॥ १४५ ॥ मासोपवाससंयुक्तः शिखरेऽस्य महीभृतः । आतापनाख्ययोगेन संतस्थे स्थिरमानसः ॥ १४६ ॥ 30 1 फ भवतामिमम्. 2 पज त्रिकलम् फ त्रिकलमिदम्. 3 पज युग्मम् फ युगलमिदम्. 4 प भालाभरण". 5 पज कलापकम् फ कालापकमिदम्. 6 प युग्मम्, ज युगलम् फ युगलमिदम्. 7 पज त्रिकलम् फ त्रिकलमिदम् 8 पज युग्मम् फ युगलमिदम्. 9 [ रूप्यस्वर्णादिकौ ]. 10 फज तत्पार्श्ववन: 11 [ दयापर ]. 12 पज त्रिकलम् फ त्रिकलमिदम्. 13 पज युग्मम्, फ युगलमिदम्. बृ० को ० १४ 10 20 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५७. १४७मृगमारीति विख्यातो मृगस्तत्र भीषणः । जगामासौ मृगान् हन्तुं तदानीं नीलपर्वतम् ॥१४७॥ असमर्थों मृगान् हन्तुं मुनिमाहात्म्ययोगतः । मृगयुश्चिन्तयामास विफलीभूतवाणकः ॥ १४८ ॥ किं कारणमहं बाणैरमोघेरिमकैरपि । असमर्थो मृगान् हन्तुं नितान्तं पुरतःस्थितान् ॥ १४९॥ ततो ज्ञातमनेनाशु दृष्ट्वा दूरस्थयोगिनम् । मुनेरस्य प्रभावेन बभूवुर्विफलाः शराः॥१५०॥ 5 पारणार्थमसौ यावन्मुनिर्गच्छति पत्तनम् । मृगयुस्तावदभ्येत्य क्रुधा मुनिशिलातलम् ॥ १५१ ॥ तृणकाष्ठेरिदं दग्ध्वा तद्भस्माङ्गारसंचयम् । नीत्वाऽन्यत्र क्रुधा तस्थौ निषादो मृगहिंसया ॥१५२॥ विधाय पारणं साधुर्मन्दमन्दगतिक्रियः । आतापनशिलां प्राप वह्निनाऽनेन तापिताम् ॥ १५३ ॥ ज्ञात्वाऽपि तां शिलां तप्तां मुनिभिः सार्वकालिकम् । प्रत्याख्यानं विधायोचैरारुरोह विशुद्धधीः ॥५४॥ अन्तकृत्केवली भूत्वा सुरासुरनमस्कृतः । समस्तकनिर्मुक्तो मुक्तिरामामवाप सः ॥१५५ ॥ । उदुम्बराख्यकुष्टेन' कुथिताखिलविग्रहः । मृगमारी ममारासौ तदानीं सप्तमे दिने ॥ १५६ ॥ सप्तमं नरकं प्राप मृतः सन्मुनिदुःकृतात् । त्रयस्त्रिंशत्समुद्रायुःस्थितिकं स निषादकः ॥ १५७ ॥ ततो निःसृत्य दुःखेन तैरश्वी दुःखदायिनीम् । प्राप्य भूयो मनुष्याणां गतिं व्याधवरो भ्रमन् ॥१५८॥ अस्मिन्नेव पुरे रम्ये बहुगोधनभूषितः । गोपालोपपदो दण्डी वित्तो गोपालकोऽभवत् ॥ १५९ ॥ अस्य भार्याऽभवत् तन्वी गन्धारी नाम विश्रुता । मृगमारचरो व्याधो बभूव तनयोऽनयोः॥१६०॥ नाना वृषभसेनोऽसौ रक्षितुं गाः कदाचन । क्रमेण यौवनं प्राप्य तदा नीलगिरिं ययौ ॥१६॥ तत्र नीलगिरौ तुङ्गे तदा दग्धो दवाग्निना । भस्मीकृतसमस्ताङ्गो वराको मृतिमाप सः॥१६२॥ 'घृतार्थं गोकुलं तेन चागतेन विवेकिना । सिंहदत्तेन तपित्रोः पुत्रवार्ता स्फुटोदिता ॥ १६३ ॥ श्रुत्वा वृषभसेनस्य सुतस्य मरणं तदा । गन्धारी रोदनं चक्रे करुणं मुनिदुःखदम् ॥ १६४ ॥ शोककारणमेतत् ते गदितं नरकुञ्जर । अधुनाऽशोक-रोहिण्योः संबन्धं कथयाम्यहम् ॥ १६५॥ 20 अस्मिन्नेव नराधीश हस्तिनागपुरे नृपः। वसुपालोऽभवच्चास्य भार्या वसुमती शुभा ॥ १६६ ॥ तद्भाता धनमित्रोऽभूदु राजश्रेष्ठी महाधनः । तद्भार्या धनमित्रा च पूतिगन्धा सुताऽनयोः॥१६७॥ मृतस्य कुष्ठयुक्तस्य मण्डलस्येव दुःसहः । दुर्गन्धामोदिताकाशस्तद्गन्धो वाति देहजः ॥ १६८॥ तत्समीपे न शक्नोति स्थातुं ब्रह्मसमोऽपि ना । किमन्यः प्राकृतोऽपुष्टः पूतिगन्धसमाकुले ॥१६९॥ तस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी वसुमित्रोऽभवद्धनी। भार्या वसुमती चास्य श्रीषणोऽस्याः सुतोऽपि हि १७० 5. धूतपाने रतिर्यस्य पापद्धौ परयोषिति । अदत्ते जीवहिंसायां तथा पिशितभक्षणे ॥ १७१ ॥ तन्नन्दनो विनीतात्मा जनानां दुःखदायिभिः। एतैः सप्तभिरेवासौ व्यसनैः क्रीडति स्फुटम् ॥१७२॥ तथा चोक्तम्द्यतं मांसं कुत्सितवेश्या परदारं हिंसाऽदत्तं सुरामकार्येष्वतिकष्टम् । एते दोषाः सप्त" नृणामतिपापाः शिष्टैईष्टा" दुर्गतिमार्ग प्रवदन्ति ॥ १७३ ॥ 30 ततः श्रीषेणनामायं प्रविष्टो धनिनो गृहम् । गृहीतो यमदण्डेन तलारेण प्रकोपिना ॥ १७४ ॥ प्राध्वंकृत्य तकं दुष्टं पटहध्वनिसंयुतम् । निनाय यमदण्डोऽपि तस्करं नगराद् बहिः ॥ १७५॥ नीयमानममुं दृष्ट्वा बहुलोकसमावृतम् । धनमित्रो जगादेति दृढबन्धनियत्रितम् ॥ १७६ ॥ श्रीषेण यदि मे कन्यां परिणेतुं त्वमिच्छसि । ततोऽहं मोचनं तेऽरं कारयामि विसंशयम् ॥१७७॥ 1फज तृणकाचैरिदं. 2 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 3 प कालकम् , फ कालिकाम्. 4 उदम्बरा'. 5 फ तैरश्चीदुःख. 6 फ घृताक्तं. 7 फ पूतगन्धा. 8 फ मृष्टस्य. 9 फज मांसमकार्येष्विति कष्टम् , [पानम]. 10 [सप्त च]. 11 जशिष्टैर्दुष्टा. 12 See p. 65 above, No. 45. 12. 13 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. २०९] अशोकरोहिणीकथानकम् १०७ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि बभाणेमं सवेपथुः । कुरु मन्मोचनं शीघ्रं मातुलैवं करोम्यहम् ॥ १७८ ॥ नृपवाक्येन तेनाशु कारयित्वाऽस्य मोचनम् । दत्ताऽस्मै भागिनेयाय पूतिगन्धा विधानतः ॥१७९॥ परिणीता विधानेन पूतिगन्धाऽमुना सका । यस्याः कुथितगन्धेन लोकः सर्वः पलायितः ॥१८०॥ मुखं घ्राणं पिधायायमेकरात्रं सहानया । उषित्वा दुःखतो यातो प्रभाते नगरादरम् ॥ १८१ ॥ श्रीपेणेन परित्यक्ता पूतिगन्धाऽतिद्वःखिनी। तस्थौ पितृगृहे दीना निन्दन्ती निजजीवितम् ॥१८२॥ । एवं हि पूतिगन्धायाः काले याति सुदुःखतः । सुव्रताऽऽर्या परिणाप भिक्षायै तत्पितुगृहे ॥१८॥ दृष्ट्वा तामर्जिकां तत्र पूतिगन्धा सुदुःखिता । भिक्षामस्यै प्रदायाशु ययावुपशमं परम् ॥ १८४ ॥ तस्मिन्नेव पुरे श्रीमान् राजा कीर्तिधरोऽभवत् । भार्या कीर्तिमती तस्य विजिताखिलवैरिणः १८५ अथैकस्मिन् दिने जाते राजा कीर्तिधरो महान् । वनपालेन विज्ञप्तः सभामध्यस्थितस्तदा ॥१८६॥ अस्मदीयवने राजन् भगवान् पिहितास्रवः । सहामितास्रवेणास्थाचारणो हि शिलातले ॥ १८७ ॥ वनपालवचः श्रुत्वा तदा कीर्तिधरो नृपः । जगाम तौ मुनी नन्तुं परिवारसमन्वितः ॥ १८८ ॥ वन्दित्वा तौ मुनी भक्त्या श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् । बभूव भूपतिः शीघ्रं सम्यग्दर्शनभूषितः ॥१८९॥ तदानीं पूतिगन्धाऽपि निजलोकसमन्विता । आगत्य तौ मुनी नत्वा श्रुत्वा धर्म विशुद्धधीः ॥९० विधाय मस्तके पाणी मुनिद्वन्द्वं कृपाऽन्वितम् । पप्रच्छ स्वभवं पूर्व पूतिगन्धासमुद्भवम् ॥१९१॥ पूतिगन्धावचः श्रुत्वा महावैराग्यसंभवम् । अमितास्रवयोगीन्द्रो बभाणैतां पुरःस्थिताम् ॥१९२॥ 15 पुत्रि शृण्वैकचित्तेन स्थिरीभूतेव मुग्धिके । गदामि ते समासेन पूतिगन्धस्य कारणम् ॥ १९३॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपसमन्विते । पश्चिमार्णवसामीप्ये सौराष्ट्रविषये वरे ॥ १९४ ॥ "उर्जयन्तगिरेर्दिव्यं पश्चिमाशासमुद्भवम् । नगरं विद्यते नाम्ना नगरं गिरिपूर्वकम् ॥ १९५ ॥ बभूव तत्र भूपालः सम्यग्दृष्टिर्नराधिपः । स्वरूपाऽस्य महादेवी रूपराजितविग्रहा ॥ १९६ ॥ आसीदस्य नरेन्द्रस्य गङ्गदत्तो वणिक्पतिः । भार्या सिन्धुमती चास्य मिथ्यात्वग्रहदूषिता ॥१९७॥ 20 रूपयौवनगर्वेण विलासेन गरीयसा । एषा रामाजनं रम्यं तृणायापि न मन्यते ॥ १९८ ॥ मासोपवाससंपन्नः साधुरत्र पुरे सुधीः । समाधिपूर्वको गुप्तः पारणार्थं समाययौ ॥ १९९ ॥ गच्छता सह राज्ञा सो वनं प्रमदपूर्वकम् । गृहाद् गृहान्तरं गच्छन् गङ्गदत्तेन वीक्षितः ॥२०॥ दृष्ट्वा तं वगृहाविष्टं मन्दमन्दगतिक्रियम् । गङ्गदत्तः प्रियां प्राह तदा सिन्धुमतीमिति ॥२०१॥ अस्मदृहं मुनिर्भद्रे प्रविष्टश्चर्ययाऽनघः । तेन त्वं भोजयित्वेमं पश्चादागच्छ सुन्दरि ॥ २०२॥ 25 तद्वाक्यतो निवांशु रुष्टा सिन्धुमती तराम् । गृहीत्वा तं मुनिं दृष्ट्वा निनाय निजमन्दिरे ॥२०३॥ ततो धात्रीनिरुद्धाऽपि कोपारुणनिरीक्षणा । स्थूरीपृष्ठनिमित्तेन संस्कृतं लवणादिभिः ॥ २०४॥ तस्मै मासोपवासाय स्थिताय स्थितिशालिने । तदा सिन्धुमती दुष्टा ददौ कटुकतुम्बकम् ॥२०५॥" प्रत्याख्यानं समादाय स मुनिः सार्वकालिकम्"। आराधनां समाराध्य बभूव विबुधो दिवि ॥२०६॥ "कालगं मुनिमालोक्य नीयमानं विमानगम् । पप्रच्छान्यतरं तस्मादागच्छन् वनतो नृपः ॥२०७॥ 30 राजेन्द्रवचनं श्रुत्वा जगादेदमयं नृप । कटुकालाबुदायिन्याः सिन्धुमत्या विचेष्टितम् ॥ २०८॥ शिरसो मुण्डनं कृत्वा पञ्चबिल्वस्य बन्धनम् । खराधिरोपणं चास्याः कारयित्वा सकुट्टनम् ॥२०९॥ __ 1 फज सुखं. 2 फ उखित्वा. 3 फज तत्पितुहम्. 4 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 5 [स्थिरीभूतेन. 6फ उज्जयन्त. 7 पज युग्मम् . फ युगलमिदम्. 8फ निजमन्दिरं. 9ज स्थूरीपृष्ठ-महिषी. 10 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 11 फ सार्वकालिकामू. 12 फ कालमं. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५७. २१०तत्पुरः पटहं दत्त्वा नानाजनपुरःसरम् । एतां तदा दुराचारां पुरादपससार सः ॥ २१० ॥ मृता सप्तदिनान्ते च गृहीतोम्बरकुष्ठतः । द्वाविंशतिसमुद्रायुः षष्ठं नरकमवाप सा ॥ २११॥ ततः क्रमेण सप्तापि भ्रान्त्वा सा नरकक्षितीः। भुञ्जाना घोरदुःखानि तासु तिष्ठति पापिनी ॥२१२॥ नितान्तं घोरदुःखाभ्यस्ताभ्यो निष्क्रम्य दुःखतः । दुःखपीडितचेतस्का तिर्यग्गतिमवाप सा ॥२१३॥ 5 द्विः शुनी सूकरी चैव शृगाली मूषिका सका। जलूका खलु मातङ्गी गर्दभी गोणिकाऽभवत् ॥२१४॥ भूयोऽपि दुःखसंभूता कुथिताखिलविग्रहा । पूतिगन्धाऽधुना जाता बन्धुलोकातिनिन्दिता ॥२१५॥ श्रुत्वा मौनीश्वरं वाक्यं भवसंत्रस्तमानसा । पूतिगन्धा पुनः प्राह सर्वसत्त्वहितं यतिम् ॥२१६॥ भगवन्नधुना केन कृतेन ननु कर्मणा । पूर्वपापं विमुञ्चामि ब्रूहि मे परमेश्वर ॥ २१७॥ पूतिगन्धोदितं श्रुत्वा बभाणेमां महामुनिः । भक्तिनिर्भरचेतस्कामाजवंजवभीलुकाम् ॥ २१८ ॥ 10 यदि त्वमिच्छसि स्पष्टं सर्वपापविमोचनम् । रोगशोकपरित्यक्तां सुरवल्लभतामपि ॥ २१९ ॥ ततो रोहिणीनक्षत्रे चोपवासं कुरु द्रुतम् । येन भूयोऽपि दुःखानि न पश्यसि कदाचन ॥२२०॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य पूतिगन्धा जगावमुम् । कथं रोहिणी भो नाथ चोपवासो विधीयते ॥२२१॥ पूतिगन्धावचः श्रुत्वा तामुवाच यतीश्वरः । भक्तिनिर्भरचेतस्का बाष्पाकुलितलोचनाम् ॥ २२२॥ पुत्रि पूर्वदिने नूनं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् । गृह्यते मुनिमार्गेण पवित्रेण मनस्विनि ॥ २२३॥ 15 यस्मिन्नेवं दिने चन्द्रो रोहिण्यां व्यवतिष्ठते । तस्मिन्नेव विधातव्यं चतुर्थं जिनभक्तितः ॥२२४॥ उपवासो भवेदेकः सप्तविंशे दिने सति । भूयो भूयः कृते तस्मिन् कालमानं निरूप्यते ॥ २२५ ॥ नवस्वहस्स्वतीतेषु तथा वर्षेषु पञ्चसु । उपवासाः प्रजायन्ते सप्तषष्टिः परिस्फुटाः ॥ २२६॥ अनेन विधिना भद्रे भव्यभद्रविधायकः। उपवासविधिः सर्वः समाप्तिं यात्यखण्डितः ॥ २२७ ॥ ततः समाप्तिमापन्ने विधावस्मिन्नखण्डिते । रोहिणीपुस्तकस्यायें कारापय लिखापनम् ॥ २२८॥ 20 पुस्तकैरपरैः सार्धं यच्छद्भिर्धर्मकारणैः । आगमानुगतैः सारैभव्यौघहितकारिभिः ॥ २२९ ॥ सुरासुरनतस्यार्चा भव्यानन्दविधायिनः । वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य कारापय तथाऽनघे ॥ २३० ॥ विमानैः केतुभिश्चित्रै ङ्गारैः कलशैरपि । घण्टाभिः किङ्किणीजालैर्मुकुरैः स्वस्तिकादिभिः ॥ २३१॥ श्रीखण्डैः कुङ्कुमैः पुष्पैर्गन्धान्धीकृतषट्पदैः । चरुणा पञ्चवर्णेन दीपधूपफलादिभिः ॥ २३२ ॥ वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य रोहिणीपुस्तकस्य च । पूजा विधीयते भक्त्या कर्मक्षयनिमित्ततः ॥२३३॥" 25 पश्चादाहारदानं च भेषजं वसनादिकम् । चतुर्विधस्य संघस्य यथायोग्यं विधीयते ॥ २३४ ॥ एवं करोति यो भक्त्या नरो रामा महीतले । लभते केवलज्ञानं मोक्षं च क्रमतः स्वयम् ॥२३५॥ निशम्य मुनिचन्द्रस्य वचनं हृदयंगमम् । जग्राह पूतिगन्धेयमुपवासविधि ततः" ॥ २३६ ॥ गृहीत्वेमं विधिं सारं पूतिगन्धा मनःप्रियम् । भूयो जगाद योगीशं भक्तिहृष्टतनूरुहा ॥ २३७ ॥ भगवन् मत्समानेन पूतिगन्धेन केनचित् । गृहीतोऽयं विधिः पूर्वं ब्रूहि त्वं मम सांप्रतम् ॥२३८॥" 30 निशम्य पूतिगन्धाया वचनं मुनिपुङ्गवः । जगाद च पुनः सत्यं शिरोनिहितपाणिकाम् ॥२३९॥ त्वत्समानेन चान्येन पूतिगन्धेन यत्नतः । स्वयमाप्तो विधिः कान्तः सर्वदुःखक्षयावहः ॥२४०॥" श्रुत्वा यतिवचोऽदीनं पूतिगन्धा जगावमुम् । कस्मिन् केन कृतोऽयं मे वदानूचान सांप्रतम् ॥२४१॥ ____1 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 2 [नरकमाप सा]. 3 फज परमेश्वरः. 4 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 5 [ जीवं जन्मभीरुकाम् ], प-संसारभीरुतां( कां). 6फ रोहिणि'. 7 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 8 फज रोहिणि, [ रोहिणीमे नाथ]. 9 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 10 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. 11 पज तपः. 12 फ भगवन्नसमानेन. 13 प युग्मम् , ज युगलम् , फ युगलमिदम्. 14 फ पाणिकम्. 15 पज युग्मम् , फ युगलमिदम्. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H -५७. २७३ ] अशोकरोहिणीकथानकम् श्रुत्वा तद्वचनं योगी जगादेमां पुरःस्थिताम् । जिनवाक्याहितवान्तां जिनभक्तिपरायणाम् ।। २४२॥ अथ जम्बूमति द्वीपे क्षेत्रे भरतनामनि । शकटो नाम देशोऽस्ति पुरं सिंहपुरं परम् ॥ २४३ ॥ सिंहसेनो नृपस्तस्य भार्या च कनकप्रभा । अनयोनन्दनश्वासीत् पूतिगन्धिः कुमारकः ॥ २४४ ॥ जिनस्य मदनान्तस्य विमलादेर्गरीयसः । केवलज्ञानसंप्राप्तौ देवागमनशालिनः ॥ २४५ ॥ दृष्ट्वा सुरकुमारं च खे व्रजन्तं प्रभास्वरम् । सौधतः पूतिगन्धस्तु मुमूर्च्छ क्षणमात्रतः ॥ २४६ ॥ चेतनां क्षणतः प्राप सिक्तश्चन्दनवारिणा । जातिस्मरो बभूवाथ पूतिगन्धिकुमारकः ॥ २४७॥ सिंहसेननरेन्द्रेण जनकेन समं ययौ । तदा केवलिनः पाच पूतिगन्धकुमारकः ॥ २४८॥ त्रिः परीत्य तमीशानं वन्दित्वा भक्तितः पुनः। धर्म श्रुत्वा पिता-पुत्रौ तस्थिवांसौ ततः पुरः ॥२४९॥ अथ प्रस्तावमासाद्य सिंहसेनस्तदाऽऽत्मनः । पप्रच्छ तं विभुं भक्त्या स्वमनोगतमादरात् ॥२५०॥ पूतिगन्धः सुतो जातो मदीयः केन हेतुना । हित्वा मूर्छामितो नाथ वदेश मम सांप्रतम् ॥२५१॥ 10 नरेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा जगौ तोषान्नरेश्वरम् । राजन्नन्यभवेऽनेन त्वत्पुत्रेण मुनिहतः ॥ २५२ ॥ संसारसागरे भ्रान्त्वा नानायोनिजलाकुले । अधुना त्वत्सुतो जातो दुर्गन्धस्तद्वधादयम् ॥२५३॥ दृष्ट्वा सुरकुमारं च गच्छन्तमुपरिष्टतः । स्मृत्वा श्वभ्रस्य संभीतो जातो जातिस्मरः पुनः ॥२५४॥ जिनोऽवाचि नरेन्द्रेण भक्तिविन्यस्तचेतसा । कथं मुनिवधोऽनेन कुतो मे साधि केवलिन् ॥२५५॥ राजेन्द्रवचनं श्रुत्वा केवली निजगावमुम् । त्वत्पुत्रवैरसंबन्धं मुनिहिंसनकारणम् ।। २५६ ॥ B कलिङ्गविषयाभ्याशे विन्ध्यपर्वतसंभवम् । महाशोकवनं दिव्यं विद्यते तरुसंकुलम् ॥ २५७॥ तत्र स्तम्बकरिस्तुङ्गस्तथा श्वेतकरी परः । इमौ यूथाधिपौ जातौ हस्तिनौ मदशालिनौ ॥ २५८ ॥ ततो महानदीतीर्थप्रविष्टौ जलकारणात् । परस्पररणं कृत्वा मम्रतुद्वौ गजौ तदा ॥ २५९ ॥ मार्जार-मूषको जातौ सर्प-बभ्रू" भयानको । भूयोऽपि तौ समुत्पन्नौ तथा श्येन-बलाहकौ ॥२६०॥ नीलोत्पलसमाम्बको गुञ्जाफलसमानको । भूयः पारापतौ जातौ कलकूजनकारिणौ ॥ २६१ ॥ ॥ "कनकाख्यपुरे रम्ये प्रभुः सोमप्रभोऽभवत् । सोमश्री तस्य भार्या च सोमवक्रा प्रियंवदा ॥२६२॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य सोमभूतिः पुरोहितः । ब्राह्मणोऽस्य प्रिया चावीं सोमिला" नाम विश्रुता ॥२६॥ अस्यां बभूवतुः पुत्रौ सोमादी शर्मदत्तकौ । तौ विज्ञानकलायुक्तौ "देवस्मृतिविशारदौ ॥ २६४ ॥ सोमशर्मप्रिया चार्वी सुकान्ता कान्तविग्रहा । सोमदत्तस्य विख्याता तथा लक्ष्मीमतीरिता ॥२६५॥ अथ "पञ्चत्वमापन्ने सोमभूतौ पुरोहिते । तदेदं सोमदत्ताय वितीर्ण भूभुजा पुनः ॥ २६६ ॥ 25 सोमशर्मा पुनज्येष्ठः "कनिष्ठप्रियया सह । तिष्ठति प्रीतचेतस्को लक्ष्मीमत्यभिधानया ॥२६७॥ सोमशर्मप्रिया मूढा सुकान्ताऽऽख्या पुनः पुनः। सोमदत्तस्य तां वार्ता वदतीयं दिनेदिने ॥२६८॥ मद्भट्टेन समं सत्यं सोमदत्त तव प्रिया । लक्ष्मीमती दुराचारा तिष्ठति क्लीबमानसा ॥ २६९ ॥ सुकान्तावेदितां वा सोमदत्तो निशम्य सः । दृष्ट्वाऽनयोर्विधर्मत्वं निस्ससार तदा गृहात् ॥२७॥ महावैराग्यमासाद्य सोमशर्मविचेष्टितात् । सोमदत्तः प्रवव्राज धर्मसेनान्तिके मुदा ॥ २७१॥ 30 सोमदत्तं परिज्ञाय तदानीं तपसि स्थितम् । पुरोहितपदे राज्ञा सोमशर्मा प्रतिष्ठितः ॥ २७२ ॥ शकटाख्यमहादेशे प्रभुः सोमप्रभो नृपः । दूतं प्रवेशयामास वसुपालमहीभुजः ॥ २७३ ॥ 1प युग्मम् , ज युगलम् , फ युगलमिदम्. 2 पूतिगन्धकुमारकः. 3 फज पूतिगन्धसुतो. 4 फ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा. 5 फ जातो जातिस्मरः पुनः. 6 फ त्रिकलमिदम् , फ repeats verses Nos. 252-3. 7 पज त्रिकलम् , फ त्रिकलमिदम्. 8 प साधि-कथय. 9 फ केवली, ज केवलि. 10 प मर्जार', फ मार्जारमूखकौ. 11 ज बभ्रुः नकुलः. 12 प°समानाभौ. 13 फ कमलाख्यपुरे. 14 फ सोमिल्ला. 15 [ वेदस्मृति०]. 16फ पञ्चत्वमापन्नो. 17 फ कनिष्टः, 18 पज प्रीतिचेतस्को. 19 फ लक्ष्मीवती. 20फ राजा. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५७. २७४वसुपालान्तिकं प्राप्य तं प्रणम्योपविश्य च । दूतो जगाद हृष्टात्मा मुखविन्यस्तपाणिकः ॥२७४॥ त्रिलोकसुन्दरस्तुङ्गो राजहस्ती महाबलः । विद्यते ते महीपाल रणरङ्गरसप्रियः ॥ २७५ ॥ अस्मदीयप्रभुर्वक्ति भवन्तं 'प्रीतमानसः । क्षिप्रं गजमिमं शूरं प्रवेशय मदन्तिकम् ॥ २७६ ॥ दूतवाक्यं समाकर्ण्य जगादेमं पुनः प्रभुः । हस्तिनं न ददामीमं बहुना जल्पितेन किम् ॥२७७॥ । ततो निशम्य तद्वाक्यं स्वनाथं प्राप्य वेगतः । तद्वृत्तान्तं समावेद्य सुखं तस्थौ वचोहरः ॥२७८॥ ततः सोमप्रभः कोपात् कनकाख्यपुराद् बहिः । स्कन्धावारेण सर्वेण तस्थौ परनृपं प्रति ॥२७९॥ यथाऽस्तमनशायी च सोमदत्तमहामुनिः । नक्तं प्रतिमया तस्थौ स्कन्धावारैकदेशके ॥ २८० ॥ सोमदत्तं मुनिं दृष्ट्वा प्रतिमास्थं महीपतिः । सोमशर्मा जगादेमं कोपारुणनिरीक्षणः ॥ २८१ ॥ अस्माकं व्रजतां शत्रु विजेतुं बलशालिनम् । भूपाद्याशकुनो जातो नग्नश्रमणदर्शनात् ॥ २८२ ॥ 10 तस्मान्मुनिमिमं हत्वा क्षिप्त्वाऽस्य रुधिरं दिशाम् । शान्तिकर्म भवेत् पूतं येनास्माकं नराधिप ॥२८३॥ सोमशर्मवचः श्रुत्वा मुनिहिंसनकारणम् । कर्णौ पिधाय हस्ताभ्यां तदा तस्थौ महीपतिः ॥२८४॥ स्थिते 'नरपतावेवं विश्वदेवो द्विजस्तदा । नैमित्तिको विशुद्धात्मा चतुर्वेदषडङ्गधीः ॥ २८५ ॥ नानाशकुनशास्त्रार्थकुशलः साधुसंमतः । जगाद भूपतिं स्पष्टं विषण्णं जनताप्रियः ॥ २८६ ॥ सोमशर्मा द्विजो राजन्नजानन् वदतीदृशम् । कार्यसिद्धिं करोत्येष सर्वसत्त्वहितो यतिः ॥ २८७॥ 15 समस्तकार्यनिष्पत्तिः समस्तशकुनोपमः । अयं यतीश्वरो दृष्टः सर्वकल्याणकारकः ॥ २८८ ॥ तथा चोक्तम् - यतिराजवाजिकुञ्जरगोमयवरकुम्भवृषवरा ह्येते । आगमने निष्क्रमणे सिद्धिकराः सर्वकार्येषु ॥ २८९ ॥ दृष्ट्वा यतीश्वरं मार्गे पुरतः समवस्थितम् । युद्धार्थं व्रजताऽनेन विष्णुना गदितोऽर्जुनः ॥ २९०॥ 2० रथस्थो भव निःशङ्को धनुर्धारय भो नरः । जितां धरामहं मन्ये ग्रन्थहीनो मुनिः पुरः ॥२९१॥ तथा चोक्तम् - आरोह" रथं पार्थ गाण्डीवं चापि धारय । निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ग्रन्थो यतिरग्रतः ॥ २९२ ॥ तथा शकुनशास्त्रेषु समस्तेषु विचक्षणैः । सुभाषितमिदं प्रोक्तं समस्तजनविश्रुतम् ॥ २९३ ॥ श्रमणस्तुरगो राजा मयूरः कुञ्जरो वृषः । प्रस्थाने वा प्रवेशे वा सर्व सिद्धिकराः स्मृताः ॥ २९४ ॥ ज्योतिःशास्त्रे तथा प्रोक्तं सुभाषितमिदं बुधैः । समस्तभुवनव्यापि यशोव्यापि समुज्वलैः ॥२९५॥ पद्मिन्यो राजहंसाश्च निर्ग्रन्थाश्च तपोधनाः । यद्देशमभिगच्छन्ति तद्देशे शुभमादिशेत् ॥ २९६ ॥ ७० तथा सुभाषितं भूप कोविदर्भाषितं वरम् । धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु जनपुण्यविधायिषु ॥ २९७ ॥ योगी च ज्ञानी च तपोधनाश्च शूरोऽथ राजा च सहस्रदश्च" । ध्यानी च मौनी च तथा शतायुः संदर्शनादेव पुनन्ति पापम् ॥ २९८ ॥ 1 पज प्रीतिमानसः. 2 Some letters are rubbed away in फ. 3 फ omits No. 278. 4 फज omit No. 280 which is added by प on the margin.15 फ स्थितेन सारितावे. 6 फज सोमशर्मद्विजो. 7 पज तथोक्तम्. 8 [भो नर]. 9 पज परः. 10 [आरोहय ]. 11 फ सहस्रोश्वा. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ३३१] अशोकरोहिणीकथानकम् १११ तेनास्माकं महाराज प्रस्थितानां जयो रिपोः । महामुनिमहामार्गे शकुनोऽयं भविष्यति ॥ २९९॥ पुनानस्य जगत्सर्वं हतकोपादिवैरिणः । दर्शनादस्य नः साधोः कार्यसिद्धिर्भविष्यति ॥ ३०० ॥ अस्य संदर्शनात् साधोरस्माकं मगधाधिपः । त्रिलोकसुन्दरं नागं प्रभाते चानयिष्यति ॥३०॥ विश्वदेवद्विजस्येदं निशम्य वचनं नृपः । तदानीं मौनमासाद्य तस्थौ मुदितमानसः ॥ ३०२॥ अथान्यदिवसे जाते मगधाधिपतिर्गजम् । त्रिलोकसारमादाय प्राभृतं चाययौ विभुम् ॥ ३०३॥5 सोमप्रभोऽपि तं भक्त्या पूजयित्वा गजान्वितः । विवेश स्वपुरं सोऽपि ससैन्यो निजसंपदा ॥३०४॥ पूर्ववैरानुबन्धेन सोमशर्माऽपि तं मुनिम् । प्रतिमास्थं निहत्याशु खड्गधेन्वाऽगमत् पुरम् ॥३०५॥ ततः प्रभातवेलायां सोमदत्तमहामुनिम् । ज्ञात्वा सोमप्रभो रुष्टो निहतं सोमशर्मणा ॥ ३०६॥ सोमशर्मा दुराचारो मुनिहिंसाविधायकः । पापिष्ठो भूभुजाऽनेन पञ्चदण्डेन दण्डितः ॥ ३०७॥ मुनिहिंसाप्रभावेन सोमशर्मा सुदुष्टधीः । उदुम्बराख्यकुष्ठेन गृहीतो दिनसप्तके ॥ ३०८॥ ॥ कुष्टग्रस्तसमस्ताङ्गः कालमासाद्य दुःखतः। त्रयस्त्रिंशत्समुद्रायुः सप्तमी क्षितिमाप सः ॥ ३०९ ॥ ततो निःसृत्य दुःखेन 'स्वयंभूरमणाम्बुधौ । सहस्रयोजनायामो जातो मत्स्यस्तिमिङ्गिलः ॥३१०॥ ततः पञ्चत्वमासाद्य क्षितौ षष्ठयामजायत । द्वात्रिंशतिसमुद्रायुः स मीनो दुःखपीडितः ॥३११॥ तत्र कालं विधायायं कथंचिन्निर्गतो महान् । सिंहो बभूव दुष्टात्मा वित्रासितमहागजः ॥३१२॥ कालं विधाय तत्रापि पञ्चम्यां नरकक्षितौ । बभूव भासुराकारो नारको बहुवेदनः ॥ ३१३॥ ।। ततो विनिर्गतः क्लेशाद् गुञ्जाफलनिभेक्षणः । बभूव कृष्णवर्णाङ्गो भीमभोगो भुजङ्गमः ॥ ३१४॥ कालं कृत्वा ततः पापश्चतुर्थी पृथिवीमितः । ततो विनिर्गतो भूयः पुण्डरीकोऽभवत्सकः ॥३१५॥ व्याघो मृति परिप्राप्य तृतीयं नरकं गतः । ततो निःसृत्य संक्लेशाजातो दुष्टविहङ्गमः ॥ ३१६ ॥ भूयः पञ्चत्वमासाद्य द्वितीयं नरकं सृतः । ततोऽतिक्रम्य दुःखेन बको जातः सितप्रभः ॥३१७॥ बकोऽपि पञ्चतां प्राप्य प्रथमं नरकं ययौ । नानादुःखसमाकीर्णमेकसागरजीवितः ॥ ३१८ ॥ १॥ ततो विनिर्गतः क्लेशात् तव राजेन्द्र नन्दनः । पूतिगन्धकुमारोऽयं बभूव कुथिताङ्गकः ॥ ३१९ ॥ श्रुत्वा स्वभवसंबन्धं पूतिगन्धकुमारकः । पप्रच्छेति जिनं भक्त्या तदा विनतमस्तकः ॥ ३२० ॥ अन्यजन्मकृतस्यास्य नितान्तं पापकर्मणः । भविष्यति महाभाग्य कथमेतत्परिक्षयः ॥ ३२१॥" निशम्य भारतीमस्य जिनेन्द्रो निजगावमुम्। उपवासं च" रोहिण्यां कुरु त्वं यदि दुःखितः॥३२२॥ जिनेन्द्रवचनं श्रुत्वा पूतिगन्धो जगौ जिनम् । रोहिण्यां हि कथं नाथ चोपवासो विधीयते ॥३२३॥ जिनस्तद्वाक्यमाकर्ण्य बभाणेमं पुरःस्थितम् । अयं विधीयते वत्स रोहिणीस्थे निशाकरे ॥ ३२४॥ एवं च क्रियमाणेऽस्मिन् विधौ वर्षेत्रिभिः परम् । उपवासाः प्रजायन्ते चत्वारिंशत्परिस्फुटम्॥३२५॥ अथवा पञ्चभिर्वर्नवभिर्दिवसैः सह । सप्तषष्टिः प्रजायन्ते सूपवासा मलापहाः ॥ ३२६ ॥ एवं समाप्तिमापन्ने चोपवासविधौ पुनः । चतुर्विशजिनार्चानां कार्यते परमः पटः ॥ ३२७॥ तदधः कार्यतेऽशोकरोहिणी शोकहानये । अष्टपुत्रसमायुक्ता चतुःपुत्रीसमन्विता ॥ ३२८॥ वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य विचित्रां प्रतियातनाम् । कारयित्वा विधातव्या सपर्या परमोत्सवा ॥३२९॥ चतुर्विधस्य संघस्याहारदानं च भेषजम् । वस्त्रादिकं च दातव्यं भक्तितो विधिपूर्वकम् ॥ ३३०॥ माहात्म्येन विधेरस्य पुरुषो वनिताऽपि वा । देवासुरमनुष्येषु तथा विद्याधरादिषु ॥ ३३१॥ __1 फ omits No. 299. 2 पज कुलकम् , फ कुलकमिदम्. 3 पत्रिलोक्य . 4 [खङ्ग धन्वा]. 5फज सोमशर्मणः. 6फज निसृत्य.7 फज स्वयम्भु.8 विधायेमं. 9चतुर्थीपृथिवी. 10 प युग्मम् , फ युगलम् , ज युगलमिदम्. 11 फतु. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५७. ३३२प्राप्य जन्मार्चनीयोऽसौ वन्दनीयोऽपि सर्वदा । सर्वदुःखक्षयं कृत्वा पश्चात् सिद्धिं प्रयाति वै ३३२ सम्यक्त्वं जिनधर्मेण पूतिगन्धादिवाहनः । रोहिण्यामुपवासं च जग्राह जिनवाक्यतः ॥ ३३३॥ अणुव्रतानि पश्चापि त्रिभिः सह गुणवतैः । शिक्षाव्रतानि चत्वारि जग्राहासौ जिनान्तिके ॥३३४॥ सम्यक्त्वादिकसामर्थ्यात् पूतिगन्धादिवाहनः । सुगन्धिवाहनो जातो धर्मतः किं न जायते ॥३३५॥ 5 पालयित्वा स जैनेन्द्रं धर्म मासैकजीवितः । राज्यं श्रीविजयाख्याय सुताय प्रददौ निजम् ॥३३६॥ आराध्याराधनां सारां पूतिगन्धश्चतुर्विधाम् । कालं श्रावकधर्मेण चकार स्थिरमानसः ॥ ३३७॥ देवदुन्दुभिनिर्घोषे नाके प्राणतनामनि । जातो महर्द्धिको देवो विंशत्यब्धिसमस्थितिः ॥ ३३८ ॥ तत्रत्योत्पादशय्यायां शोभनायामुदारधीः । हारकुण्डलदीप्ताङ्गो दध्याविति महावधिः ॥ ३३९॥ अविचिन्त्यममानुषं वपुः पुनरालोक्य मुखं समाददे । 'शयनीयतलादलंकृतं समपश्यद् वपुरुत्तमं क्षणात् ॥ ३४० ॥ किमिदं व गतोऽस्मि को भवः कुत एतन्मम शं निरञ्जनम् । कतमो हि जनोऽयमुन्मुखो रमणीयः कतमोऽयमाश्रयः ॥ ३४१॥ प्रतिबुद्ध्य दिवं दिवौकसामुपचारैरुचितानुवर्तनैः । मणिभूषणरश्मिसंभवा सुरजन्मस्मृतिरभ्यजायत ॥ ३४२ ॥ अभिषेकमहागृहं ययौ सुरसेनापरिवारितस्ततः । अभिषिच्य विधानतः सुरास्तमलंकारगृहं समानयन् ॥ ३४३ ॥ मणिभूषणरत्नरश्मिदीप्तः कृतरत्नधुतिपट्टकेन सः। पुनरप्यभिषेकसेककल्पप्रचलचामरसीकरं तराम् ॥ ३४४ ॥ उपतिष्ठति भूरिनिखनो जयशब्दः सहदेव दिग्मुखे । प्रहतं सुरतूर्यमेकतः सुरनादेन नभःस्पृशा सह ॥ ३४५ ॥ व्यवसायसभागृहे स्थितं विकसद्रत्नशिखासमस्थले । उपगम्य सुरा व्यजिज्ञपन्नचितानि प्रथमं प्रणामतः ॥ ३४६ ॥ प्रथमं जिनराजपूजनं बलसामग्रिविलोकनं ततः । कुरु नाटकदर्शनं तु पश्चात् सुरदेवीललितानि मानय ॥ ३४७॥" 28 पूतिगन्धचरो वीक्ष्य देवान् स्वपुरतः स्थितान् । भूयोऽपि चिन्तयामास मुदा स्तुतिविधायिनः॥३४८॥ किं वा दत्तं मया पूर्व किं ध्यातं किं तपः कृतम् । येनाहं कृतपुण्योऽस्मिन्नुत्पन्नो देवमन्दिरे ॥३४९॥ दृष्ट्वा पूर्वभवं सर्वमवधिज्ञानलोचनात् । अयं स्तौति जिनान् सर्वान् सर्वज्ञान् सर्वदर्शिनः ॥३५०॥ भूयोऽवदद् विमानस्थः कृत्वा शिरसि चाञ्जलिम् । नमोऽस्तु गुरवे तस्मै येनाहं ग्राहितो वृषम्॥३५१॥ समस्तवन्दनीयोऽसौ पूजनीयोऽस्तु नित्यशः । यत्प्रसादेन चोत्पन्नो देवलोकेऽहमुत्तमे ॥३५२॥ a मनोऽभिवाञ्छितान् भोगान् देवीभिः सह शोभनान् । पूतिगन्धचरो देवो भुञ्जानो व्यवतिष्ठते॥३५३॥ पूतिगन्धचरस्यास्य पुरस्यामिततेजसः । उत्पत्तिस्थानकं वच्मि सांप्रतं साधुसंमतम् ॥ ३५४ ॥ अत्र जम्बूमति द्वीपे विदेहे पूर्वनामनि । विषये पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरीकिणी ॥ ३५५ ॥ नवयोजनविष्कम्भा दैर्ध्या द्वादशयोजना । समस्तधनसंपन्ना विद्यते प्रथिता भुवि ॥ ३५६ ॥' 1 पज कुलकम् , फ कुलकमिदम्. 2 फ दशनीय. 3 [सहसैव]. 4 फ omits No. 345. 5 फज विजिज्ञपन्. 6 पज कुलकम् , फ कुलकमिदम्. 7 पज चतुष्कलकम्, फ चतुष्कलकमिदम्. [दाद् ]. 9 प युग्मम् , ज युगलम् , फ युगलमिदम्. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ३८८ ] अशोकरोहिणीकथानकम् ११३ 5 विमलोपपदः कीर्तिः कीर्तिशुभ्रीकृतावनिः । अस्यां बभूव भूपालः श्रीमती तत्प्रिया प्रिया ॥ ३५७ ॥ अनयो रूपसंपन्नः सर्वलोकमनोहरः । अर्ककीर्तिः सुतो जातः पूतिगन्धचरः सुरः ॥ ३५८ ॥ मेघसेनोऽभवत् तस्य सखा प्राणप्रियस्तराम् । उपाध्यायस्य तौ बालौ श्रुतकीर्तेः समर्पितौ ॥ ३५९ ॥ कलाविज्ञानसंपन्नौ शस्त्रशास्त्रकृतश्रमौ । बभूवतुस्तकौ शीघ्रं श्रुतसागरपारगौ ॥ ३६० ॥ उत्तरस्यां पुरि श्रेष्ठी मथुरायां महाधनः । नाम्ना सागरदत्तोऽभूत् सागरं मणिभिर्जयन् ॥ ३६१ ॥ भार्या जयमतिस्तस्य रूपराजितविग्रहा । कन्दोदृपत्रसन्नेत्रा तस्याः पुत्रः सुमन्दिरः ॥ ३६२ ॥ दक्षिणस्यां पुरि श्रीमान् मथुरायां जनप्रियः । नन्दिमित्रोऽभवच्छ्रेष्ठी धनदत्ताऽस्य गेहिनी ॥३६३॥ सुशीला - सुमती कन्ये गुणानां मन्दिराय च । पितृभ्यां विधिना तस्मै विस्तीर्णे परमद्युती ॥ ३६४ ॥ मेघसेनोऽर्ककीर्तिश्च विवाहसमये तयोः । विहरन्तौ वयस्यौ तौ दक्षिणां मथुरामितौ ।। ३६५ ॥ अर्ककीर्तिरि कन्ये दृष्ट्वा विस्मितमानसः । गृहीते मेघसेनेन तन्मतेन करेण ते ॥ ३६६ ॥ आदाय कन्यके यावन् मेघसेनो व्रजत्ययम् । तावत् पौरजनेनेमे गृहीते तत्करादरम् ॥ ३६७ ॥ ततस्तैः श्रेष्ठिभिः प्राप्य त्वरितं पुण्डरीकिणीम् । वार्ता विमलकीर्तेः सा भूभुजः कथिताऽखिला ॥ ३६८ ॥ निशम्य तद्वचो दीनं भूभुजा रोषमीयुषा । ततस्तौ द्वावपि क्षिप्रं विषयादपसारितौ ॥ ३६९ ॥ ततस्तौ शोकतः किंचिन् म्लानवक्रसरोरुहौ । वीतशोकपुरं प्राप्तौ पताकावलिराजितम् ॥ ३७० ॥ तत्पुरे नीति संपन्नो राजा विमलवाहनः । विमलश्रीः प्रिया चास्य तरां विमलमानसा ॥ ३७१ ॥ s अनयोरूपसंपन्नाश्चाष्टौ दुहितरोऽभवन् । विनयाचारसंयुक्ता' नामानीमानि बिभ्रति ॥ ३७२ ॥ आद्या जयमतिस्तासां सुकान्ता कान्तविग्रहा । कनकोपपदा माला सुप्रभा सुमतिः परा || ३७३ || सुत्रता सुव्रतानन्दा विमला विमलप्रभा । कलाविज्ञानसंपन्ना रतिरूपसमप्रभा ॥ ३७४ ॥ नैमित्तिकेन चादिष्टममोधवचनेन हि । जयमत्याः स्वरूपाया जयमत्या महाश्रियः ॥ ३७५ ॥ यथा चन्द्रकवेधस्य वेधं साधु करिष्यति । सको भर्ता महाराज जयमत्या भविष्यति || ३७६° || 20 ततो भूपतिना सर्वे तदर्थं राजपुत्रकाः । आहूताः खपुरं हृष्टाः समायातास्तदर्थिनः ॥ ३७७ ॥ ततश्चन्द्रकवेधस्य वेधं नैकोऽपि भूपतिः । कर्तुं शक्नोति तन्मध्ये तद्रूपहृतमानसः ॥ ३७८ ॥ अर्ककीर्तिः सहानेन मेघसेनेन चागतः । पश्यतीमं प्रहृष्टात्मा वेधं चन्द्रकपूर्वकम् ॥ ३७९ ॥ अध्यासितागमैः प्राज्ञैर्लोकविख्यातकीर्तिभिः । वदामि चान्द्रकं वेधं कथितो यो महात्मभिः ॥ ३८० ॥ प्रथमं स्थाप्यते स्तम्भस्तदग्रे निशि तारकम् । कुलालचक्रवच्चक्रं वेगतो भ्रमदुज्वलम् ॥ ३८१ ॥ 3 तस्योपरि नरो भ्राम्यन् वैशाखकरणान्वितः । शरं धनुषि संयोज्य परयलक्ष्यं वितिष्ठते ॥ ३८२ ॥ अतः सप्तपदान्याशु प्रथमस्य युगस्य सः । संप्राप्य भ्रमणं चक्रे कुलालारिलघुत्वतः ॥ ३८३ || भूयस्त्रीणि पुनस्त्रीणि पदानि प्राप्य वेगतः । युगानि सप्त जायन्ते दृष्टानि" कुशलैर्नरैः ॥ ३८४ ॥ सप्तमस्य युगस्यापि गत्वा त्रीणि पदानि च । जायते चाष्टमस्तम्भो मानदण्ड इव क्षितेः ॥ ३८५ ॥ लम्बमानाऽत्र" यत्नेन वालबद्धा कपर्दिका । तदन्तरे भ्रमचक्रं सितनेमि च तिष्ठते ॥ ३८६ ॥ ३० स ना लघुत्वयोगेन भ्राम्यचकोपरि स्थितः । तदा सप्तयुगान् गत्वा चक्रबद्धे चलत्यपि ॥ ३८७॥ एवं सति शरं मुक्त्वा तद्वाले वेधमागते । इमं चन्द्रकवेधं हि निगदन्ति मनीषिणः ॥ ३८८ ॥ 1 13 1 ज मधुरायां 2 ज मधुरायां 3 [ वितीर्णे ]. 4 फ भवेत् 5फ 'संयुक्तः 6 पज कुलकम्, फ कुलकमिदम्. 7 फ वेधनं कोपि. 8फ ददामि 9 फ कुलालारिलघुत्वतः 10 फ omits 383. 11 फ पृष्टानि; some letters lost in फ. 12 पज लम्बमानो, 13 पज कुलकम् फ कुलकमिदम्. बृ० को ० १५ 10 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५७.३८९तथा चोक्तम्स्थित्वा भ्राम्यदनुक्रमेण युगपत्सप्तक्रमेणादिमं - त्रीणि त्रीणि पदान्यतीत्य पुरतोऽप्येकैकमेवं हि षट् । तच्छिद्रभ्रमदर्यरन्तरशिरोजान्तर्गतो तर्पणे मध्ये चेति य एष विध्यति नरः स्याचन्द्रकाख्यो व्यधः ॥ ३८९ ॥' अथ देशिकरूपेण तत्रत्यं कृतकौतुकम् । अर्ककीर्तिकुमारं च प्राहान्यः कश्चिदादरात् ॥ ३९० ॥ विद्यते चेत्तवाभ्यासो धनुर्वेदस्य शोभनः । तदा चन्द्रकवेधस्य कुरु वेधं महामते ॥ ३९१॥ तदा तद्वाक्यतः सद्यो धनुर्मुक्तशरेण सः । विद्धवांश्चान्द्रकं वेधमर्ककीर्तिः कलखनः ॥ ३९२ ॥ अर्ककीर्तिः कृतानन्दस्तत्पित्रा विनिवेदिताः । जयमत्यादिकाः कन्यास्तदष्टौ परिणीतवान् ॥३९३॥ 10 ताभिर्देवीसमानाभी रूपकान्तिविभूतिभिः । अर्ककीर्तिः प्रभुञ्जानो भोगांस्तत्र वितिष्ठते ॥ ३९४ ॥ अर्ककीर्तिः समादाय चोपवासं जिनार्चनम् । विधायामलयागस्थे सुष्वाप जिनमन्दिरे ॥ ३९५ ॥ चित्रलेखा विलोक्येमं सुप्तं विद्याधरी तदा । जहार वेगतः खेन तद्रूपकृतकौतुका ॥ ३९६ ॥ एषा विद्याधरी नीत्वा विजयानगोपरि । मुमोच सुखसुप्तं तं सिद्धकूटजिनालये ॥ ३९७ ॥ ततो निद्राक्षये जाते विबुद्धः सन् समुत्थितः। अर्ककीर्तिस्तदाऽपश्यत् तत्रत्यं जिनमन्दिरम् ॥३९८॥ 15 यावत् तद्गर्भमासाद्य चार्ककीर्तिः प्रतिष्ठते । तावद्वज्रकपाटानि स्वयमुद्घाटितान्यरम् ॥ ३९९ ॥ अकृत्रिमामिमामत्र दृष्ट्वाऽसौ प्रतियातनाम् । स्तुत्वा स्तुतिशतैर्भक्त्या निविष्टो मण्डप पुनः॥४००॥ एवं विलोक्य तत्रत्यः खेटो विकटदन्तकः । तद्रक्षपालकः प्राप्य जगादेति ससंभ्रमम् ॥ ४०१॥ यदर्थं त्वं समानीतो विद्याधर्याऽत्र बालकः । आकर्णयैकचित्तेन तमर्थ कथयामि ते ॥ ४०२॥ विजयानगेऽत्रैव पुरमभ्रपुरं पृथु । खेटः पवनवेगोऽस्य भार्या गगनवल्लभा ॥ ४०३॥ 20 नीलोत्पलसमानाक्षी प्रवालदशनच्छदा । वीतशोका कलाधारा वीतशोका सुताऽनयोः ॥ ४०४ ॥ नमित्तिकेन पृष्टेन तन्निमित्तं नरेशिना । आदेशोऽयं महादिष्टा सभाजनपुरस्सरम् ॥ ४०५ ॥ यस्मिन् समागते स्वामिन् सिद्धकूटजिनालये । स्वयं वज्रकपाटानि यास्यन्त्युद्धाटतामरम् ॥४०६॥ लक्षणान्वितदेहाया नितान्तं रूपसंपदः । स भर्ता ते तनूजाया भविष्यति गुणाकरः ॥ ४०७॥ नैमित्तिकवचः श्रुत्वा सत्यभूतं महामते । अनेन कारणेनात्र स्थापितोऽहं नरेशिना ॥ ४०८॥ 25 नैमित्तिकवचः सत्यं सर्वं जातं तु सांप्रतम् । तस्मादुत्तिष्ठ भद्र त्वं तद्गृहं याहि मत्समम् ॥४०९॥' तद्वाक्यतः कुमारोऽपि तोषकण्टकिताङ्गकः । बभूव तत्समं यातः शीघ्रमभ्रपुरान्तिकम् ॥४१०॥ उद्याने स्थापयित्वाऽमुं नानाकुसुमवासिते । स्वनाथान्तिकमासाद्य स तद्वाता जगाविति ॥४११॥ त्वत्सुतावल्लभो नाथ रूपराजितविग्रहः । त्वत्पुरोद्यानमासाद्य मयाऽऽनीतोऽवतिष्ठते ॥४१२॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा तोषपूरितमानसः । पूजयामास तं दानैः खेटं विकटदंष्ट्रकम् ॥ ४१३॥ 30 चातुरङ्गेन सैन्येन जयमङ्गलनिस्वनैः । अर्ककीर्तिर्विवेशेदं तदानीं श्वाशुरं गृहम् ॥ ४१४ ॥ विस्तीर्णा वातवेगेन वीतशोकां स्वकन्यकाम् । अर्ककीर्तिरुवाहेमां विभूत्या विधिपूर्वकम् ॥४१५॥ एकत्रिंशन्महाकन्याः परिणीतास्तथा पराः । पञ्चवर्षाण्यसावास्त भुञ्जानः खेटसंपदम् ॥ ४१६ ॥ 1 Here all the Mss. read this verse alike. For the other readings and our suggestions see p. 63 above, No. 43. 7. 2 फज रूपकान्तिमभूतिभिः. 3 प ससंभ्रमः. 4 [बालक]. 5 प महादिष्टा, [ममादिष्टः]. 6प यास्यन्त्युद्धाटितामरम्. 7 पज कुलकम्, फ कुलकमिदम्. 8 फज वितिष्ठते. 9 [वितीर्णा ]. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ४४९ ] अशोकरोहिणीकथानकम् भूमण्डलसुखस्योच्चैः स्मृत्वा निःसृत्य तत्पुरात् । अञ्जनोपपदं प्राप तदाऽयं गिरिपत्तनम् ॥४१७॥ तत्पत्तनान्तिके दृष्ट्वा जनसंघमसौ क्षणम् । विमानानि च दिव्यानि तस्थौ मुदितमानसः ॥४१८॥ अत्रैव नगरे राजा महासत्त्वप्रभञ्जनः । आसीत् प्रभञ्जनोऽस्यापि भार्या नीलाञ्जना शुभा ॥ ४१९॥ अस्या दुहितरोऽष्टौ च महारूपसमन्विताः । मुक्ताभदन्तसंताना बभूवुर्यौवनान्विताः ॥ ४२० ॥ प्रथमा मदना प्रोक्ता कनका विपुला परा । तथा वेगवती कन्या मालान्ता कनकादिका ॥४२१॥ विद्युत्प्रभा प्रभा ज्ञेया तथा' जयमतिः परा । सुकान्ता चेति निर्दिष्टाः कान्ताखिलशरीरिकाः॥४२२॥ ततो लोकसमूहेन राजोद्यानवनं श्रितः । भूयो निवर्तमानः सन् नगरं गन्तुमुद्यतः ॥ ४२३ ॥ अञ्जनादिगिरिस्तुङ्गो राजहस्ती बलान्वितः । आलानस्तम्भमाचूर्ण्य रोहकं हतवानयम् ॥४२४॥ अर्ककीर्तिस्ततो दृष्ट्वा ध्वंसयन्तं जनं गजम् । सुवर्णमणिसंनद्धाद् विमानादुत्ततार सः॥४२५॥ कन्याः स्वपृष्टतः कृत्वा हस्तिनोऽग्रे व्यवस्थितः। राजा परिजनोपेतः पश्यति स्म तकं नरम् ॥४२६॥ 10 उत्क्षेपकरणेनाशु दत्त्वा पादौ स दन्तयोः। हत्वा कुम्भौ च हस्ताभ्यां हस्तिनं दान्तवानिमम् ॥४२७॥ द्वात्रिंशत्करणैः शीघ्रं दमयित्वा स कुञ्जरम् । अर्ककीर्तिस्तमारूढो विवेश नगरं मुदा ॥ ४२८॥ अर्ककीर्तिं समालोक्य गजारूढं नराधिपः । अष्टौ कन्या ददावस्मै नैमित्तिकनिदेशितः ॥४२९॥ ततस्ताभिः समं भोगान् भुक्त्वा स्तोकदिनानि च । वीतशोकपुरे रम्ये वीतशोकजनाञ्चिते ॥४३०॥ मित्रं च मेघसेनाख्यं गृहीत्वा प्रीतमानसः । अर्ककीर्तिर्विवेशायं तदानीं पुण्डरीकिणीम् ॥४३१॥ 15 तदा तौ द्वावपि क्षिप्रं नगरद्वारवाह्यतः । क्रमेलकखरान् भृत्वा तस्थतुर्भाण्डसंगतान् ॥ ४३२ ॥ कर्षणं गन्धयुक्तिं च ताम्बूलच्छदविक्रयम् । अक्षयूतं च रत्नानि चकारायं स तत्पुरे ॥४३३॥ गणिकावेषमादाय नाटिकानर्तनं परम् । पितुरग्रे चकारायं लोकविस्मयकारणम् ॥ ४३४ ॥ एवमादीनि कार्याणि कौतुकानि मनस्विनाम् । तत्पुरे विदितश्चके स्वविज्ञानं प्रकाशयन् ॥४३५॥ चतुरङ्गमहासैन्यं विकुर्वणतया तदा । जग्राह गोकुलं शीघ्रं जनकस्य रणाय सः ॥ ४३६॥ 20 गृहीतं गोकुलं ज्ञात्वा भूपतिः क्रोधसंगतः । विधातुं तत्समं युद्धं निर्जगाम पुरादरम् ॥ ४३७ ॥ ततोऽश्वोऽश्वेन संलग्नो गजोऽपि करिणा सह । पदिकः पत्तिना सार्धं रथोऽपि रथिना समम्॥४३८॥ क्वचिद्गजो हतोऽन्येन क्वचिदश्वोऽपरेण च । चूर्णितः स्यन्दनोऽन्येन पदिकोऽपि पदातिना ॥४३९॥ एवं महति संग्रामे प्रवृत्ते जनसंक्षये । नष्टं भीतैः स्थितं धीरैः स्पष्टं दृष्टं सुरासुरैः ॥४४०॥ अथ चापं समाकृष्य तदानीं जनकान्तिके । अर्ककीर्तिर्मुमोचाशु स्वनामाङ्कितमार्गणम् ॥ ४४१॥ अर्ककीर्तिविमुक्तोऽयं कङ्कपक्षो महानपि । पपात जनकोत्सङ्गे मन्दमन्दगतिक्रियः ॥ ४४२ ॥ दृष्ट्वा बाणं निजोत्सङ्गे स्वपुत्राक्षरसंगतम् । बभूव भूपतिः क्षिप्रं तोषपूरितमानसः ॥४४३॥ उत्तीर्य वाहनाच्छीघ्रं त्यक्त्वा युद्धकदम्बकौ । सन्मुखं प्राप्य तोषेण सर्वाङ्गीणेन सस्पृहम् ॥४४४॥ बाढं कण्ठे परिष्वज्य स्नेहनिर्भरमानसौ । पितापुत्रौ कलस्वानौ सुतरामालिलिङ्गतुः॥४४५॥ यथा खं कुशलं पृष्ट्वा विधायाल्पकथामपि । दत्त्वा यथेप्सितं दानं याचकानां सुतागमे ॥४४६ ॥ 30 अर्ककीर्तिसुतायाशु विजयाय महात्मने । ददौ 'निजश्रियं सर्वां भूपतिर्भूपसाक्षिकम् ॥ ४४७॥ बाह्यमाभ्यन्तरं संगं हित्वा सर्व विशुद्धधीः । जग्राह श्रीधराभ्याशे शुभ्रकीर्तिनृपस्तपः ॥ ४४८॥ विमलोपपदः कीर्तिः तपस्तत्वाऽतिदुष्करम् । निहत्याशेषकर्माणि निर्वाणं गतवानयम् ॥ ४४९॥ - 1फ नाथा. 2 फ °चूारोहकं, परोहक-हस्तिपकम्. 3 फज अयंकीर्ति. 4 पज दत्तवानिमम्. 5 पज युगलम् , फ युगलमिदम्. 6 ज ताम्बूलच्छिद. 7 फ निजश्रियां. 8 पज युग्मम्, फ युगलमिदम्. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५७.४५० I अर्ककीर्तिः परां प्राप्य चक्रवर्तिश्रियं क्रमात् । चकार विपुलं राज्यं बिडौजास्त्रिदिवे यथा ॥ ४५० ॥ प्रालेयगिरिकूटाभं 'चित्रकूटविराजितम् । प्रासादशिखरारूढः पश्यति स्म घनं नृपः ॥ ४५१ ॥ यावल्लिखति तं भूमौ घनं खटिकया घनम् । विलीनं तावदालोक्य वैराग्यमगमत् प्रभुः ॥ ४५२ ॥ यशोमतीसुतं ज्येष्ठं राज्ययोग्यं महागुणम् । विमलोपपदं कीर्तिं पुत्रमाहूतवानयम् ॥ ४५३ ॥ · सामन्तसचिवाध्यक्षं सुतायास्मै यशस्विने । अर्ककीर्तिर्निजं सर्वं महाराज्यपदं ददौ ॥ ४५४ ॥ आपृच्छ्य सकलं लोकं महावैराग्यसंगतः । अर्ककीर्तिः प्रवत्राज शीलगुप्तान्तिके मुदा ॥ ४५५ ॥ उग्रं तपो विधायाशु सामान्यजनदुष्करम् । सल्लेखनां चकारायं मासमेकायुषि स्थिते ॥ ४५६ ॥ आराधनां समाराध्य चतुरङ्गां विधानतः । अर्ककीर्तिमुनिः कालं चकार विमलाशयः ॥ ४५७ ॥ सुरदेवीकृतानन्दे नाना तूर्य मनोहरे । द्वाविंशतिसमुद्रायुजतोऽयममरोडच्युते ।। ४५८ ॥ पूर्वोक्तपूतिगन्धाऽपि श्रावकव्रतभूषिता । उपोष्य रोहिणीं भद्रा चक्रे कालं समाधिना ॥ ४५९ ॥ पल्योपमानि भुञ्जाना सुखं पञ्चदशानि सः । अच्युतस्यैव देवस्य महादेवी बभूव च ॥ ४६० ॥ भुक्त्वा तया समं भोगान् मनःसंकल्पकल्पितान् । कालगोचरतां प्राप्य त्वमुत्पन्नोऽसि भूतले ॥ ४६१ ॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपसमन्विते । कुरुजाङ्गलदेशोऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् ॥ ४६२ ॥ वीतशोकनरेन्द्रस्य चैतन्नगरवासिनः । भार्या विद्युत्प्रभा चासीद् विद्युत्पुञ्जसमप्रभा ॥ ४६३ ॥ '' अनयो रूपसंपन्नः पुत्रजन्माभिलाषिणोः । जातोऽशोकोऽधुना राजन् पुत्रस्त्वं कुलनन्दनः ॥४६४॥ पूतिगन्धाचरी देवी या तवासीन्मनः प्रिया । सा स्वर्गाद्गलिता भूमिमवतीर्णाऽऽयुषः क्षये ॥ ४६५ ॥ श्रीमदङ्गाख्यदेशस्थ चम्पायां पुरि रूपिणी । मघोनस्तनया जाता श्रीमत्यां रोहिणी नृप ॥४६६ ॥ रोहिणी त्वत्समीपस्था तिष्ठति प्रीतमानसा । भूयोऽपि त्वन्महादेवी जाता प्राणगरीयसी ॥४६७॥ रूपकुम्भमुनेरस्य चारणस्य महात्मनः । निशम्य वचनं सत्यमशोको निजगावमुम् ॥ ४६८ ॥ बहूदितेन किं नाथ विधाय मदनुग्रहम् । पुत्राणां च सुतानां च मे निरूप भवान्तरम् ॥ ४६९॥ अशोकवचनं श्रुत्वा रूप्यकुम्भो जगाविति । अवधिज्ञाननेत्रेण पुत्र-पुत्रीभवान्तरम् ॥ ४७० ॥ अत्र जम्बूमति द्वीपे वास्ये भरतनामनि । शूरसेनजनान्तोऽस्ति विशिष्टजनसंकुलः ॥ ४७१ ॥ उत्तरां मथुरां शास्ति तदानीं श्रीधरो नृपः । विमला तन्महादेवी कमला तत्सुता शुभा ॥ ४७२ ॥ अग्रभोजी नृपस्यास्य दरिद्रकुलसंभवः । अग्निशर्माऽभवद् विप्रस्तद्भार्या तिलका" परा ॥ ४७३ ॥ तयोः सप्त सुता जाताः प्रेमसंबन्धचेतसोः । अग्निभूतिर्भवेदाद्यः श्रीभूतिरपरो मतः ॥ ४७४ ॥ वायुभूतिर्विशाखादिभूतिर्ज्ञेयो परोऽपि वा । विश्वभूतिर्महाभूतिः सुभूतिरपि च क्रमात् ॥ ४७५ ॥ देवस्मृतिपरास्ते च नानाशास्त्रविचक्षणाः । दारिद्रोपहताः पुंसो ययुः पाटलिपुत्रकम् ॥ ४७६ ॥ सुप्रतिष्ठो नृपस्तत्र स्वरूपा तत्प्रियाऽभवत् । सिंहध्वनिर्महासत्त्वः पुत्रः सिंहरथोऽनयोः ॥ ४७७ ॥ विगतोपपदो शोकस्तत्पुरे भूपतिः परः । रूपश्रीरस्य भार्या च तत्सुता कमलाऽभवत् ॥ ४७८ ॥ पितृभ्यां कमला चार्वी दत्ता सिंहरथाय सा । दृष्ट्वा " तयोर्विवाहं ते चिन्तयन्ति द्विजाः पुनः ॥ ४७९ ॥ अस्माभिः पापसंयुक्तैर्न कृतः पूर्वजन्मनि । धर्मो दयापरो जैनः सर्वदुःखविनाशनः ॥ ४८० ॥ भवन्ति धर्मयुक्तानां पुरुषाणां विभूतयः । महादुःखानि जायन्ते महापापविधायिनाम् ॥ ४८१ ॥ 25 10 20 30 1 फ चित्रकूटं 2 फज यातो. 3 फ देशस्थ. 4 फ भरते. 5 पज नृपः 6 प प्रीतिमानसा. 7 [ रूप्यकुम्भ° ]. 8 फ कमला तत्सुता शुभा. 9 फ omits No 472. 10 पज मिलका. 11फ दृष्ट्वानयो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ५१२ ] अशोकरोहिणीकथानकम् धर्माधर्मफलं ज्ञात्वा बहुभूत्यादिमाहनाः । यशोधरमुनिं प्राप्य धर्म पप्रच्छुरादरात् ॥ ४८२ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं कान्तं यशोधरमुनीश्वरः । धर्म जगाद चैतेषां सप्तानामपि शोभनम् ॥ ४८३॥ लब्ध्वा मनुष्यतां यो हि धर्म न कुरुते नरः। स निधिं वीक्ष्य संजातो लोचनाभ्यां विवर्जितः॥४८४॥ धर्मेण कुलसंपत्तिर्दिव्यरूपं च धर्मतः । धर्मेण धनसंप्राप्तिः कीर्तिधर्मेण देहिनाम् ॥ ४८५॥ कौ वशीकरणं धर्मो धर्मश्चिन्तामणिः परः । वसुधारा शुभा धर्मो धर्मः कामदुधा च गौः॥४८६॥ । उक्तेन बहुना किं वा सारं यद्यच्च दृश्यते । मनोऽक्षवल्लभं यद्वा तत्तद् धर्मफलं द्विजाः ॥ ४८७॥ इदं धर्मफलं श्रुत्वाऽधर्मतो वाऽसुखं नृणाम् । एवं मत्वा द्विजाः सर्वे तत्समीपे प्रवव्रजुः ॥४८८॥ ततः सर्वे तपः कृत्वा कालं प्राप्य समाधिना । जाता महर्द्धिका देवाः स्वर्गे सौधर्मनामनि ॥४८९॥ द्विःसागरं सुखं तत्र भुक्त्वा ते नाकतश्युताः। बभूवू रोहिणीपुत्रा वीतशोकादयो नृप ॥ ४९०॥ एषोऽपि लोकपालाख्यस्त्वत्सुतः परमोदयः । पूर्वजन्मनि राजेन्द्र भल्वादिक्षुल्लकोऽभवत् ॥४९१॥॥ श्रावकानां परं धर्म सम्यक्त्वादिकमादरात् । पिहितास्रवसामीप्ये जग्राहायं विशुद्धधीः॥४९२॥ कर्मभूमिषु सर्वासु विद्यया गमनस्पृशा । जिनचैत्यानि सर्वाणि कृत्रिमाकृत्रिमाण्यपि ॥ ४९३ ॥ सुरासुरनुतान्युच्चैभक्तिहृष्टतनूरुहः । कालत्रये विशुद्धात्मा क्षुल्लको नमति स्म सः ॥४९४ ॥ कालं समाधिना कृत्वा जिनभक्तिपरायणः । देवदुन्दुभिनिर्घोषं सौधर्म नाकमाप सः ॥ ४९५ ॥ तत्र दिव्यं सुखं भुङ्क्त्वा पल्यानां पञ्चविंशतिः। जातोऽयं रोहिणीपुत्रो लोकपालस्ततच्युतः॥४९६॥ 15 कथितः पुत्रसंबन्धो भवान्तरसमागतः । वदामि तेऽधुना भूप त्वत्पुत्रीणां भवान्तरम् ॥ ४९७ ॥ अथ पूर्व विदेहे हि जम्बूद्वीपे मनोहरे । विषयः कच्छनामास्ति धनधान्यजनाकुलः ॥ ४९८ ॥ दक्षिणे विजयार्धस्य भागे चास्त्यलकापुरी । राजा गरुडसेनोऽस्यां तत्प्रिया कमलाऽमला ॥४९९॥ तत्सुता रूपसंपन्नाश्चतस्रः कमलाननाः । कार्तस्वरशरीराभा नामानीमानि बिभ्रति ॥ ५००॥ कमलश्रीर्मता पूर्वा तथा कमलगन्धिनी । कमला च तृतीया स्यादन्या विमलगन्धिनी ॥५०१॥ 20 एता रूपान्विता दिव्याश्चतस्रः प्रीतमानसाः । उद्यानवनमाजग्मुस्तरुपुष्पफलान्वितम् ॥ ५०२ ॥ दृष्ट्वाऽत्र सुव्रताचार्य चारणं मुनिपुङ्गवम् । नत्वोपवासमाहात्म्यं पृच्छन्तीमाः सकौतुकाः॥५०३॥ नाथ लोकोपवासोऽयमुच्यते नामको भुवि । लोकोत्तरितधर्मोऽपि चोपवासो निगद्यते ॥ ५०४॥' सुव्रतस्तद्वचः श्रुत्वा धर्मोपादानकारणम् । लक्षणं ह्युपवासस्य जगादासां यथाक्रमम् ॥ ५०५॥ तत्राहारमिमं प्रोचुर्जिना राद्धान्तवेदिनः । अशनं पानकं खाद्यं स्वाद्यं चेति चतुर्विधम् ॥ ५०६ ॥ 25 "अतश्चतुर्विधस्यापि चाहारस्य सतो भुवि । बलकान्तिप्रदस्यालं मन्ये वाक्कायशुद्धितः ॥ ५०७॥ मुनिमार्गेण पूतेन जिनप्रोक्तेन साधुना । क्रियते यः परित्यागो ह्युपवासः स भण्यते ॥ ५०८॥" उपवासः पुनर्यस्तु लौकिके समये मतः । सर्वाहारसमादाने जायते स न जातुचित् ॥ ५०९ ॥ सर्वाहारसमादाने "सोपवासो भवेदयम् । तच्छास्त्रपाठका" नूनं "किमनर्थं वदन्त्यमी ॥५१०॥ फलं मूलं पयो नीरं हविर्माहनवाचिकम् । गुरूदितौषधं चाष्टौ धर्मकार्याणि देहिनाम् ॥५११॥ 30 तथा चोक्तम्अष्टौ तान्यव्रतनानि आपो मूलं पयः फलम् । हविर्ब्राह्मणकामश्च गुरोर्वचनमौषधम् ॥ ५१२ ॥ 1प को पृथिव्याम्. 2 पज चतुष्कलम्, फ चतुष्कलमिदम्. 3 फ चासुखं. 4 पज युग्मम् , फ युगलम्. 5 फ लोकपाल ततः०. 6फ तं सुता. 7 प युग्मम् , ज युगलम् ,फ युगलमिदम्. 8फ अथ चतु. 9 प युग्मम्, ज युगलम् , फ युगलमिदम्. 10 सोपवासे. 11 फज पाठको. 12 फ किमर्थ. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५७.५१३ उपवासो न जायेत सेवितैरष्टभिर्भुवि । तत्फलं जन्तुभिर्नैव प्राप्यते धर्ममिच्छुभिः ॥ ५१३ ॥ मुनिमार्गेण पूतेन पुत्रिका धर्मतत्पराः । सर्वाहारपरित्यागादुपवासः प्रजायते ॥ ५१४ ॥ उपवासस्य माहात्म्यं पुत्र्यः शुद्धेन चेतसा । आकर्णयत भावेन प्रोच्यमानमिदं परम् ॥ ५१५ ॥ यदज्ञानेन जीवेन कृतं पापं सुदारुणम् । उपवासेन तत्सर्वं दहत्यग्निरिवेन्धनम् ॥ ५९६ ॥ ' रजोमलावलिप्ताङ्गो यथा तोयेन निर्मलः । तथोपवासतोयेन चात्मा भवति निर्मलः ॥ ५१७ ॥ धमायमानं यथा लोहं मलं त्यजति सर्वतः । व्रतोपवासतोयेन तथा पापमलं त्यजेत् ॥ ५९८ ॥ जलागमे 'यथा रुद्धे सरः शोषयते रविः । गुप्तेन्द्रियस्तथा नूनं नरः पापं विशोधयेत् ॥ ५१९ ॥ श्रूयते सर्वशास्त्रेषु तपो नानशनात् परम् । पापानां क्षयहेतुत्वादुपवासः परं तपः ॥ ५२० ॥ देवगन्धर्वयक्षा वा पिशाचोरगराक्षसाः । व्रतोपवासयोगेन वशं गच्छन्ति तत्क्षणात् ॥ ५२१ ॥ विद्यामत्रास्तथैौषध्यो योगाश्च वशकारिणः । सिध्यन्ति ह्युपवासेन ये चान्ये व्यभिचारिणः ॥ ५२२ ॥ इमं संक्षेपतः स्तोकमस्माभिः कृतनिश्चयैः । उपवासविधानं हि भवतीनां निवेदितम् ॥ ५२३ ॥ श्रुत्वा यतिवचः कन्यास्तोषपूरितमानसाः । मुनिं पृच्छन्ति पञ्चम्याश्चोपवासविधिं तकाः ॥५२४॥ कन्यावचनमाकर्ण्य जगौ योगी पुनर्वचः । पञ्चमी द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा शुक्ला जिनेश्वरैः ॥ ५२५॥ या कृष्णपञ्चमी कृष्ण पक्षे भव्यैरुपोष्यते । वर्षाणि पञ्च तावन्तो मासा मुदितमानसैः ॥ ५२६ ॥ 18 एतस्याः कृष्णपञ्चम्या माहात्म्येन सुनिश्चितम् । जीवः समाधिमाप्नोति जिनशासनभावितः ॥५२७॥ यस्याः फलेन संसारे 'भव्यजीव प्रधानतः । द्वित्रीन् भवान् परिभ्राम्य सिद्धिं याति निरत्ययम् ॥५२८॥ एकस्मिन् जन्मनि स्पष्टं यः करोति समाधिना । कालं विशुद्धचेतस्को जिनभक्तिपरायणः ॥ ५२९ ॥ क्रोधमानमहामीने मायालोभतरङ्गके । स सप्ताष्टान् भवान् हित्वा न भ्राम्यति भवार्णवे ॥ ५३० ॥ तथा चोक्तमागमे - 10 20 25 30 एकहि 'भगवग्गणे समाहिमरणेण कुणइ जो कालं । हु सो हिंड बहुसो सत्तभवे पमोत्तूण ॥ ५३१ ॥ आद्या श्रीपञ्चमी नाम चोपवासविधिर्भवेत् । गृह्यते शुक्लपञ्चम्यामसौ भव्यजनब्रजैः ॥ ५३२ ॥ वर्षैः पञ्चभिरेवासौ मासैरपि तथाविधैः । उपवासैः कृतैरेभिः पूर्यतेऽयं महाविधिः ॥ ५३३ ॥ पश्चाजिनमहं कृत्वा पुष्पधूपाक्षतादिभिः । घण्टावितानलम्बूषैर्जिनगेहं विभूष्यते ॥ ५३४ ॥ पञ्चमीपुस्तकं दिव्यं पञ्चपुस्तकसंयुतम् । साधुभ्यो दीयते भक्त्या भेषजं च यथोचितम् ॥५३५॥ आहारदानमादेयं भक्तितो भेषजादिकम् । वस्त्राणि चार्यिकादीनां दातव्यानि मुमुक्षुभिः ॥ ५३६ ॥ कल्याणपञ्चकं प्राप्य विधेरस्य विधानतः । प्रयाति भव्यलोकोऽयं निर्वाणपदमक्षयम् ॥ ५३७ ॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य वन्दित्वा मुनिपुङ्गवम् । तका जिनमतासत्तत्या जगृहुः पञ्चमीविधिम् ॥५३८॥ पञ्चमीविधिमादाय तोषनिर्भरचेतसः । नत्वा मुनिपदाम्भोजं जग्मुर्निजगृहं तकाः ॥ ५३९ ॥ प्रासादशिखरस्थानां तदा चतसृणामपि । तन्मस्तकोपरि क्षिप्रं पपाताशनिरुज्वला ॥ ५४० ॥ तत्पातजातपञ्चत्वाश्चतस्रोऽपि च तद्दिने । सौधर्मे धर्मसामर्थ्याज्जाता देव्यो मनोरमाः ॥ ५४१ ॥ एकोपवासपुण्येन ताभिर्देवत्वमीदृशम् । संप्राप्तं त्रिदिवावा से किन्नरीगीतशोभिते ॥ ५४२ ॥ 1 फ बलागमे यथा रुद्रे. 5 पज कुलकम्, फ कुलकमिदम् 9 फ पार्थिकादीनां. 2 फ राक्षसः. 3 पज कुलकम् फ कुलकमिदम्. 4 [ भव्यजीवः ]. 6 फ तथा चोक्तं समागमे 7 [ एक्कम्हि भवग्गहणे ]. 8 यथोच्यते. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ५७४ ] अशोक रोहिणीकथानकम् ११९ 1 पञ्चपल्योपमं कालं भुक्त्वा तत्र सुखं सुरैः । चतस्रः कालमासाद्य तन्नाकाच्च परिच्युताः ॥ ५४३ ॥ इदानीं त्वत्सुता राजन् रोहिणीगर्भसंभवाः । वसुंधरादिका जातास्तिष्ठन्ति प्रमदान्विताः ॥ ५४४ ॥ रूप्यकुम्भमुनेः पार्श्वे श्रुत्वा पूर्वभवान्तरम् । राजा स्वपुत्रपुत्रीणां रोहिणी तोषमाप सा ॥ ५४५ ॥ अन्येऽपि बहवः श्रुत्वा तदानीं तद्भवान्तरम् । सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च यतित्वं प्रापुरुत्तमम् ॥५४६ ॥ अत्रान्तरे प्रणम्येशं कन्या वसुमती मुनिम् । जगादेति वचो हृष्टा विस्मयव्याप्तमानसा ॥ ५४७ ॥ नाथ मौनव्रतं साधो तत्फलोज्जवनं तथा । कथं विधीयते स्पष्टं कथयैतन्ममाधुना ॥ ५४८ ॥ तद्भारतीं निशम्यायं धर्मवर्धनकारिणीम् । रूप्यकुम्भो बभाणेमां ललाटन्यस्तपाणिकाम् ॥ ५४९ ॥ यथा भोजनवेलायां भुक्तं यावन्न चाशनम् । तावन्न जल्पते किंचित् कर्तव्यं मौनमुत्तमम् ॥५५० ॥ एवमिच्छानिरोधेन मासवर्षप्रमाणके । कृते मौनव्रते तन्वि विधिरेष समाप्यते ॥ ५५९ ॥ मौने समाप्तिमापन्ने कालावधिविधानतः । अधुना ते समासेन तदुज्जवनमुच्यते ॥ ५५२ ॥ वर्धमानजिनेन्द्रस्य पुष्पधूप। दिसंपदा । सपर्या खलु कर्तव्या महामहविधानतः ॥ ५५३ ॥ ततः समस्तसंघस्य देहिभिर्भक्तितत्परैः । देयं वस्त्रादिदानं च कर्मक्षयनिमित्ततः ॥ ५५४ ॥ ततो जैनगृहे दिव्या घण्टाष्टङ्कारहारिणीः । वितानैः सह दातव्या विधिरेष समाप्यते ॥ ५५५ ॥ कालं कृत्वा ततो जन्तुमौनव्रतविधानतः । देवः कलस्वनः स्वर्गे जायते भोगसंयुतः ॥ ५५६ ॥ ततस्तत्र सुखं भुक्त्वा भुवं प्राप्य विशुद्धधीः । चक्रवर्त्यादिकान् भोगान् भूयो भुङ्क्ते स तत्फलात् ॥ ५५७ भौमान् भोगान् पुनर्भुक्त्वा मनोऽभिलषितांश्चिरम् । दीक्षामादाय जैनेन्द्री सिद्धिं याति स नीरजाः ॥ यशोव्याप्तसमस्ताशे मृदुमन्थरगामिनि । वदामि तेऽधुना वत्से मौनव्रतफलं शृणु ॥ ५५९ ॥ श्रवः सुखं मनोहारि लोकप्रत्ययकारणम् । प्रमाणभूतमादेयं वचनं मौनतो नृणाम् ॥ ५६० ॥ देवशेषामिवाशेषामाज्ञामस्य प्रतीच्छति । मस्तकेन जनो यस्मात् तन्मौनफलमुत्तमम् ॥ ५६१ ॥ यच्च किंचित् कृतं तेन भयरोषविषापहम् । तत् समस्तं भवेलोके येन मौनं चिरं कृतम् ॥५६२ ॥ 20 मधुराक्षरसंयुक्तं मुखपद्मं मनोहरम् । मौनेन जायते पुंसां नानार्थरुचिभाषणम् ॥ ५६३ ॥ अपि दुःसाध्यतां प्राप्ताः सर्वलोकफलप्रदाः । विद्याः सिध्यन्ति सर्वेषां चिरं मौनव्रतं कृतम् ॥५६४॥ यदसाध्यं" भवेत् कार्यमतिसंशयकारणम् । तत्तस्य वाक्यतः सिद्धिमेति मौनफलाद् भुवि ॥ ५६५ ॥ ध्यायन्ति मुनयो ध्यानं येन कर्मविनाशनम् । मौनेन हि सदा तस्मान्मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥५६६॥ अणुव्रतधरः कश्चिद् गुणशिक्षाव्रतान्वितः । सिद्धिभक्तो" व्रजेत् सिद्धिं मौनव्रतसमन्वितः ॥५६७॥” 25 एवं मुनिवचः श्रुत्वा नत्वाऽमुं शिरसा त्रिधा । मौनव्रतं तदा कन्या जग्राह मुनिसंनिधौ ॥ ५६८ ॥ श्रुत्वा पूर्वभवं धर्मं रूप्यकुम्भान्तिके त्वमुम् । नत्वाऽशोकादयो भक्त्या हस्तिनागपुरं ययुः ॥५६९॥ अशोकरोहिणीपुत्राः प्रविश्य स्वं निकेतनम् । भुञ्जाना विपुलान् भोगांस्तस्थुर्मुदितचेतसः ॥५७०॥ समावर्धासने" स्नात्वा तदाऽशोकमहीपतिः । उपविष्टो महादेव्या समं भद्रासने मुदा ॥ ५७१ ॥ अथ काशप्रसूनाभं कर्णान्ते स्वधवस्य सा । ददर्श रोहिणी चैकं पलितं तत्समीपगा ॥ ५७२ ॥ " पलितं तत् समादाय महादेवी स्वपाणिना । ददौ भर्तृकरे* मुग्धा पद्मकोशसमप्रभे ॥ ५७३ ॥ दृष्ट्वा स्वपलितं राजा महादेवीसमर्पितम् । तदा दध्यौ स वैराग्यं निन्दन् भोगशरीरकम् ॥५७४ ॥ 1 पज कुलकं, फ कुलकमिदम्. 2 फ तुष्टा. 3 फ व्याप्तचेतसा. 4 ज उज्जवनं = उद्यापनम् 5 फ मौनमुन्नतम् 6 [ घण्टा टङ्कारहारिणी ]. 7 फ सिद्धं. 8 फज सुखमनों 9 फ मौनव्रते, [ मौनव्रते कृते ]. 10 फ यदि साध्यं 11 पज सिद्धभक्तो. 12 पफज कुलकम्. 13 [ समावर्धापने] 14 फ भक्तिकरे. 10 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ५७.५७५ अत्रान्तरे महीपालं वर्नपालो जगौ मुदा । राजन्नुद्यानमायातो वासुपूज्यजिनोऽद्य ते ॥ ५७५ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं शीघ्रं प्रोत्थाय हरिविष्टरात् । तत्सन्मुखं परिप्राप्य प्रमोदी पदसप्तकम् ॥ ५७६ ॥ वासुपूज्यं जिनं नत्वा वनपालं प्रपूज्य च । आनन्दभेरिनादेन पौरलोकमबोधयत् ॥ ५७७ ॥ लोकपालकुमाराय दत्त्वा राज्यश्रियं विभुः । महाविभूतिसंपन्नो जगाम वनमादरात् ॥ ५७८ ॥ • वासुपूज्यं जिनं भक्त्या त्रिः परीत्य प्रणम्य च । दीक्षां जग्राह जैनेन्द्रीं तदन्तेऽशोकभूपतिः ॥५७९ ॥ वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य पुरंदरनतस्य हि । गणेन्द्रोऽशोकयोगीशो जातोऽयममितप्रभः ॥ ५८० ॥ उग्रं तपो विधायायं कालेन बहुना ततः । क्षीणकर्मा जगामाशु निर्वाणं परमुत्तमम् ॥ ५८१ ॥ रोहिणी च महादेवी हित्वा सर्वं परिग्रहम् । वासुपूज्यं जिनं नत्वा सुमत्यन्ते तपोऽग्रहीत् ॥५८२ ॥ नानातपो विधायैषा सामान्यस्त्रीसुदुष्करम् । सलेखनविधिं चक्रे रोहिणी कर्महानये ॥ ५८३ ॥ 10 ततः स्त्रीत्वं समादाय कृत्वा कालं समाधिना । कल्पेऽच्युते बभूवासौ दिव्यबुन्दीधरः सुरः ||५८४ | एकेन चोपवासेन रोहिण्या तद्वशेन च । सामान्यजनदुःप्राप्या प्राप्ता सुखपरंपरा ॥ ५८५ ॥ ॥ इति श्रीरोहिणी नक्षत्रोपवासैकफलसंभूताशोकरोहिणीकथानकमिदम् ||५७|| * ५८. क्षीरकदम्बकथानकम् । 15 5 कुरुजाङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् । तत्र पण्डुर्नराधीशः कीर्तिशुश्रीकृताम्बरः ॥ १॥ कुन्ती- माधौ कलाधारे रूपयौवनसंगते । बभूवतुरुभे जाये नरेन्द्रस्यास्य शोभने ॥ २ ॥ युधिष्ठिरस्तथा भीमः किरीटी पृथुकीर्तयः । कुन्त्याः पुत्राः समुत्पन्नास्त्रयो लोकप्रियाः क्षितौ ॥ ३ ॥ नन्दनो नन्दिताशेषबान्धवो लोकसंमतः । नकुलः सहदेवोऽपि जातौ माद्याः कुलध्वजः ॥ ४ ॥ तस्मिन्नेव परे चासीद् द्रोणाचार्यो विदां मतः । शस्त्रशास्त्रकृताभ्यासो धनुर्वेदविशारदः ॥ ५ ॥ तस्य स्वस्तिमती भार्या बभूव मनसः प्रिया । अश्वत्थामाऽनयोः पुत्रो मनीषी 'जनवल्लभः ॥ ६ ॥ अर्जुनादिकुमाराणां विनयाचारवेदिनाम् । धनुर्वेदोपदेशं च द्रोणाचार्यो ददात्ययम् ॥ ७ ॥ विद्यते तत्पुरोऽभ्याशे भिल्लपल्ली भयानका । अस्यां क्षीरकदम्बाख्यः शबरश्चापवल्लभः ॥ ८ ॥ लेप्यस्य प्रतिमां कृत्वा द्रोणाचार्यस्य तां पुनः । नमस्कृत्य महाभक्त्या धनुर्वेदं सुशिक्षितः ॥ ९ ॥ एवं दिने दिने सोऽस्य कुर्वाणो विनयं भृशम् । धनुर्वेदस्य सर्वस्य पारं यातो महादरात् ॥ १० ॥ अन्यदा पर्यटन्तस्ते मृगयायां धनुर्भूतः । तामेव पल्लिकां प्रापुरर्जुनादिकुमारकाः ॥ ११ ॥ 2s ततः क्षीरकदम्बोऽपि रममाणो वनान्तरे । बाणबाणासनायुक्तः कुमारान्तिकमाययौ ॥ १२ ॥ कक्षे' तेषां कुमाराणां पापङ्घर्थं प्रदीव्यताम् । मण्डलेन महानादो विहितः कर्णदुःसहः ॥ १३ ॥ पुनः स मण्डलस्तेन शबरेण मुखे द्रुतम् । विद्धः क्षीरकदम्बेन शब्दवेधशरेण हि ॥ १४ ॥ अस्मन्मध्ये स को नाम शब्दवेधं करोति यः । स नरो दृश्यते नात्र धनुर्वेदविचक्षणः ॥ १५ ॥ चिन्तयित्वा चिरं तत्र किरीटी विस्मयान्वितः । शरानुसारतः प्राप्य सचापं तं ददर्श सः ॥ १६ ॥ ततोऽर्जुनकुमारोऽपि मं पुरतः स्थितम् । सन्नद्धं भीषणाकारं पप्रच्छेति कुतूहलात् ॥ १७ ॥ त्वयाऽयं मण्डलो विद्धः शब्दविज्ञानशालिना । वदने ब्रूहि मे भद्र पृष्टार्थं सनिमित्तकम् ॥ १८ ॥ नरवाक्यं समाकर्ण्य शबरो भक्तितः पुनः । यथा स्वामिन् मया विद्धः श्वा शरेण मुखे स्फुटम् ॥१९॥ 20 30 1. फ महीपालवन 6 फंज मनीषिजन 2 पफज त्रिकलम्. 3 फज कुरुजंगल. 4 फ पण्डु 5 [ कुलध्वजौ ]. 7 प कक्षे = वने. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ -५८. ५० ] क्षीरकदम्बकथानकम् भूयोऽवाचि नरेणायं तदा क्षीरकदम्बकः । कोऽसि त्वं कस्य वा पार्थे धनुर्वेदोऽपि शिक्षितः ॥२०॥ तद्वाक्यतोऽवदत् सोऽपि नरं विस्मितचेतसम् । अहं क्षीरकदम्बाख्यो महापल्लीपतिः प्रभो ॥२१॥ धनुर्वेदो मया राजन् शिक्षितो निखिलोऽप्यलम् । द्रोणाचार्यस्य दक्षस्य शस्त्र-शास्त्रकलासु च ॥२२॥ अयं निगदितो भूयः कौतुकेन किरीटिना । धनुर्वेदोपदेशशं द्रोणाचार्य प्रदर्शय ॥ २३ ॥ शृङ्गिका-वसुनन्दे च करवाल्यां च चक्रके। चित्रदण्डे स निष्णातो ज्ञातः पञ्चायुधेऽमुना ॥२४॥ ततश्चन्द्रकवेधादिकरणेषु विशारदम् । परीक्ष्य तं नरो दध्यौ तदा विस्मितमानसः ॥ २५ ॥ द्रोणाचार्य तथा मां च शबरोऽयं चिलातकः । अतिशय्य जनं सर्वं विज्ञानेन स्थितो भुवि ॥२६॥ उपदेशो हि यो दत्तो ममैकान्ते प्रयत्नतः । द्रोणाचार्येण सोऽस्यापि दत्तः सातिशयो वने ॥२७॥ अथवा प्रायशो लोके मतिवर्जितचेतसाम् । स्वभावो विपरीतोऽयं दृश्यते महतामपि ॥ २८॥ संक्रीडते खले रामा नगे मेघोऽम्बु मुञ्चति । श्रयेत् तृष्णापरं लक्ष्मीः प्रायशः पण्डितोऽधनी॥२९॥" तथा चोक्तम्अपात्रे रमते नारी गिरौ वर्षति माधवः। लुब्धमाश्रयते लक्ष्मीः प्राज्ञः प्रायेण निर्धनः ॥३०॥ एवं विचिन्त्य विस्मित्य नगरं प्राप्य वेगतः । द्रोणाचार्यं बभाणेति किरीटी विनयान्वितः॥३१॥ समस्तभुवनव्यापियशसां विदुषामपि । धनुर्वेदोपदेशो ते म्लेच्छहस्तमुपागमत् ॥ ३२॥ 15 अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा द्रोणाचार्यों जगावमुम् । कथमेवंविधं वाक्यं नर ब्रूषे निरूपितम् ॥३३॥ उपदेशो ममायैव तिष्ठति स्थिरतामितः । न म्लेच्छहस्तमायाति निश्चितं नर जातुचित् ॥ ३४ ॥ ....................]। उपदेशो गतस्तेऽद्य म्लेच्छं क्षीरकदम्बकम् ॥३५॥" द्रोणाचार्यों निशम्याशु वाक्यं गाण्डीवधारिणः। जगाम तत्समं पल्लिं नानानोकहसंकुलम् ॥३६॥ दृष्ट्वा म्लेच्छमिमं प्राह द्रोणाचार्यः कुतूहली । कस्य पार्थे त्वया ज्ञातो धनुर्वेदोऽयमीदृशः॥३७॥ 20 आकर्ण्य तद्वचः सत्यं जगौ म्लेच्छोऽपि तं पुनः। धनुर्वेदो मया ज्ञातो द्रोणाचार्यस्य चान्तिके॥३८॥ अवाचि सूरिणा भूयो म्लेच्छोऽयं पुरतः स्थितः । द्रोणाचार्य हि चेद्वेत्सि कीदृशं तं च मे वद ॥३९॥ निशम्य वाचिकं तस्य म्लेच्छोऽपि निजगावमुम् । द्रोणाचार्यमहं वेभि दर्शयामि पुरस्तव ॥४०॥ नीत्वाऽमुं लेपबिम्बस्य समीपं भाषितः पुनः । अयं स मद्गुरुः साधो द्रोणाचार्योऽवतिष्ठते ॥४१॥ तद्वाक्यतः पुनः प्रोक्तः शबरो गुरुणा तदा । कथमस्य त्वया पार्श्वे धनुर्वेदः सुशिक्षितः ॥४२॥ 23 भूयस्तद्वाक्यतोऽनेन म्लेच्छेनायं प्रचोदितः । प्रसन्नो मे गुरुयेन विधिना तं विधिं शृणु ॥४३॥ पूर्वमादाय पुष्पाणि कृत्वाऽस्य त्रिप्रदक्षिणम् । प्रसूक्तितः पादावर्चितौ विधिवन्मया ॥४४॥ ततश्चापं समादाय भाषितोऽयं गुरुर्मया । दृष्टिमुष्टिप्रसंधानं करोमि स्थानकं कथम् ॥ ४५ ॥ नूनमस्योपदेशेन विनयेन मयेदृशः। शिक्षितोऽयं धनुर्वेदो विनयात् किं न लभ्यते ॥ ४६॥" तुष्यन्ति गुरवो भक्त्या देवास्तुष्यन्ति भक्तितः । तुष्यन्ति योगिनो भक्त्या भक्तितः किं न वा भवेत् ॥ 30 श्रुत्वा तद्वचनं सारं तोषपूरितमानसः । गाण्डीवधारिणं प्रोचे द्रोणाचार्यो विशुद्धधीः ॥४८॥ धनुर्वेदोऽमुना ज्ञातो विनयाद् गुरुभक्तितः । त्वयाऽयं शिक्षितः साधो विनयेनापि भक्तितः॥४९॥ एवं निगद्य तस्याग्रे द्रोणाचार्येण तत्क्षणात् । तदा क्षीरकदम्बस्य वनाम विनिवेदितम् ॥ ५०॥ 1 फज दत्तस्यातिशयो. 2 फ प्रयासः. 3 पज कुलकम् , फ कुलकमिदम्. 4 [°पदेशस्ते]. 5फज युग्मम्, फ युगलमिदम्. 6All the Mss. have only one line in this verse. 7 [संकुलाम्].8 प पादं चर्चितो. 9 चतुष्कलम् , चतुष्कलमिदम्. बृ० को० १६ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५८. ५१एवं निगदिते तेन म्लेच्छो विनयसंगतः । ननाम चरणावस्य जानुस्पृष्टमहीतलः ॥५१॥ ततः क्षीरकदम्बोऽयं धनुर्वेदविशारदः । द्रोणाचार्येण तुष्टेन याचितो गुरुदक्षिणाम् ॥ ५२ ॥ तद्वाक्यतः पुनर्लेच्छो गुरुभक्तिपरायणः । छित्त्वा स्वदक्षिणाङ्गुष्ठं ददावस्मै स्वदक्षिणाम् ॥ ५३॥ यथा क्षीरकदम्बस्य गुरुभक्तियुतस्य को । म्लेच्छस्यापि धनुर्वेदः सिद्धिं जातोऽल्पकालतः॥५४॥ • तथा मुनेरपि क्षिप्रं जिनेन्द्रस्य गुरोरपि । भक्त्या निर्वाणविद्येयं सिद्धिं व्रजति निश्चितम् ॥ ५५ ॥ ॥ इति श्रीद्रोणाचार्यसमन्वितक्षीरकदम्बम्लेच्छधनुर्वेदविद्या समागमकथानकमिदम् ॥ ५८॥ ५९. पद्मरथनृपकथानकम् । अत्रैव भारते वास्ये जनान्ते विजये पुरम् । भूम्यादितिलकं नाम बभूव जनसंकुलम् ॥१॥ 10 प्रजापालोऽभवत्तत्र पुरे राजा प्रजाहितः । मनोरमा प्रिया चास्य मनोरमशरीरिका ॥२॥ अस्यैव श्रावकः श्रेष्ठी सुन्दरो जनसुन्दरः। प्रियाऽस्य सुन्दरी नाम बभूव गुणसुन्दरी ॥३॥ अन्योन्यप्रेमसंसक्तचेतसोरनयोः सतोः । क्रमेण सूनवः सप्त संजाताः श्रावकास्तराम् ॥४॥ तन्मध्ये श्रावकोऽत्यन्तं कनिष्ठो धर्मभावितः । धर्मान्तरिः प्रिया चास्य प्रियदत्ताऽभवत् प्रिया ॥५॥ सखा विश्वानलस्तस्य ब्राह्मणोऽत्यन्तवल्लभः । सप्तव्यसनसंयुक्तो बभूव चलमानसः ॥६॥ 15 धर्मान्तरिरपि क्षिप्रं तत्संसर्गेण तत्समः । जातो व्यसनसंपन्नो दुष्टसंगो हि तादृशः ॥७॥ ततस्तौ भूरिशो दृष्टौ कुर्वाणौ चौरिकां पुरे । तथापि भूभुजा मुक्तौ श्रेष्ठिदाक्षिण्यकारणात् ॥८॥ धर्मान्तरिः पुनर्जातु गृहीतो दण्डपाशकैः । प्रविष्टश्चौरिकाहेतोहं कस्यापि दुष्टधीः ॥९॥ बन्धुवर्गपरित्यक्तो मुक्तः सन् पापधीरसौ । हस्तिनागपुरं प्राप मातृभार्यासुहृत्समम् ॥ १०॥ . यमदण्डतलारस्य समीपे प्राप्य वेश्म तौ । तद्बलेन स्थितौ तत्र चौरिकासक्तमानसौ ॥ ११॥ . 20 अन्यदा मुनिसामीप्यं प्राप्य धर्मान्तरिः क्वचित् । घृतस्यावग्रहं चक्रे दिनानि कतिचित् सकः॥१२॥ न निवृत्तस्त्वहं यावद् भदन्त पदसप्तकम् । तावज्जीववधं नूनं न करोमि यतीश्वर ॥ १३ ॥ अत्रान्तरे तको नक्तं चौरिकार्थे विनिर्गतौ । गता च चौरिकावेला मन्दं नाटकदर्शनात् ॥ १४ ॥ धर्मान्तरिहं प्राप्य दृष्ट्वा मातरमत्र सः । सुषया सह संसुप्तां जगाम क्रोधराशिताम् ॥१५॥ ईर्षावशेन यावच्च खड्गमादाय तद्वधम् । करोत्यरं पुनस्तावत् सस्मारावग्रहस्य सः॥१६॥ 25 पदानि सप्त यावत्तु पश्चात्कुर्यान्निवर्तनम् । शुश्राव तावदेवायं स्वरं मातुः स्खयोषितः ॥ १७ ॥ ततो वैराग्यमासाद्य निर्गतः स्वगृहादरम् । गुरुभार्यावधं प्राप्तो व्रतेनाहं सुरक्षितः ॥ १८॥ एवं ध्यात्वा परिप्राप्य मुनेः सामीप्यमादरात् । जगाद व्रतसामर्थ्य धर्मान्तरिरिदं यतेः ॥१९॥ धर्म श्रुत्वा मुनेः पार्थे मधुमद्यपलस्य च । अवग्रहं विधायासौ नत्वाऽमुं निर्ययौ ततः ॥२०॥ अन्यदा व्याधवृन्देन सह चौरिकया गतः । धर्मान्तरिः स्वमित्रेण दुर्विदग्धेन लोभतः ॥ २१॥ 30 ततस्ते तस्करा भीमा धनरत्नसमन्वितम् । वनमध्ये महासार्थं जगृहुः क्रूरमानसाः ॥ २२ ॥ तद्धनं सर्वमादाय रक्षणार्थं समर्पितम् । विश्वानलस्य चौराद्यैर्धर्मान्तरियुतस्य तैः ॥ २३ ॥ मुक्त्वेमौ धनरक्षार्थं बुभुक्षाग्रस्तमानसाः । पानभोजनमानेतुं हस्तिनागपुरं ययुः ॥ २४ ॥ 1फ omits इतिश्री. 2 फ धर्मन्तरः. 3 फज नत्वा मुनिर्ययो. 4 फ जग्राह. 5 फज चौरौधै. 6फ interchanges 22 and 23. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. ५५] पद्मरथनृपकथानकम् १२३ मांसमध्ये विषं क्षिप्त्वा मद्यमध्ये मधुन्यपि । परस्परमजानन्तस्तदन्तं ते समाययुः ॥ २५॥ धर्मान्तरिस्तमाहारं तथा विश्वानलोऽपि च । न भुङ्क्ते स्म समानीतं रात्रिभोजनकारणात् ॥२६॥ 'आत्मानीतं विहायैतौ तदानीं पिशितादिकम् । अन्यदन्यसमानीतं सर्वं भुक्तं तु दस्युभिः ॥२७॥ अन्ये च तस्करा भुक्त्वा भोजनं विषमिश्रितम् । अजानन्तोऽवधि प्राप्ताः पापविन्यस्तबुद्धयः॥२८॥ ततस्तौ तद्धनं सर्वं समादाय प्रयत्नतः । तोषपूरितचेतस्कौ प्रविष्टौ नगरं तदा ॥ २९॥ मातृभार्ये धनं सर्व संप्राप्य नगरं व्रजन् । विश्वानलं च मुक्त्वाऽत्र निर्गतोऽविदितः सकः॥३०॥ ततो धर्मान्तरिः प्राप्य सूरिं गुणधरं परम् । निन्दयित्वा धनं खं च ययाचे तं तपः सुधीः॥३१॥ मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा ज्ञात्वा भव्यत्वमस्य च । ददौ दैगम्बरी दीक्षां संसारार्णवतारिणीम् ॥३२॥ आचाराङ्गादिकं सर्वं श्रुतं ज्ञात्वा महातपाः । तपश्चकार शुद्धात्मा स मुनिर्धर्मभावितः ॥३३॥ अन्यदा विहरन्नार तापसाश्रमगोचरम् । धरणीभूषणं तुङ्गं पर्वतं स यतीश्वरः ॥ ३४ ॥ प्राप्य तं भूधरं रम्यं तदा धर्मान्तरिमुनिः । दधावातापनायोगं तद्रौि स्थिरमानसः ॥ ३५ ॥ अथ विश्वानलः प्राप्य स्मृत्वा मित्रगुणान्तरम् । आतापनस्थितं साधुं धरणीभूषणे गिरौ ॥३६॥ दृष्ट्वा मौनव्रतस्थं तं कायोत्सर्गव्यवस्थितम् । सकः कोपं परिप्राप्य तापसव्रतमादधौ ॥ ३७॥ कायोत्सर्ग विमुच्यायं विश्वानलतपखिनम् । आजगाम स योगीन्द्रस्तदा बोधयितुं तकम् ॥३८॥ दृष्ट्वा विश्वानलं योगी जगाद हितकारणात् । जिनधर्म गृहाण त्वं समस्तसुखकारणम् ॥ ३९ ॥ 15 मुनिवाक्येन तेनापि न किंचिजल्पितं तदा । भवान्तरे पुनर्मित्र "ज्ञास्यसि त्वं तपःफलम् ॥४०॥ एवमुक्त्वा तकं साधुर्जिनधर्मपराङ्मुखम् । निर्गस्य च ततो देशाजगाम खमनीषितम् ॥४१॥ विश्वानलो मृतिं कृत्वा तापसव्रतयोगतः । लोकपालगजानीकः सौधर्मेन्द्रस्य सोऽजनि ॥४२॥ ततो धर्मान्तरियोगी तपः कृत्वा सुदुष्करम् । द्वाविंशतिसमुद्रायुरच्युतेन्द्रो बभूव सः॥४३॥ अथ नन्दीश्वरद्वीपे चान्योन्यमवलोक्य तौ । अन्योन्यसंकथामतां चक्रतुः कृतनिश्चयौ ॥४४॥ 20 ततो धर्मपरीक्षायै यमदग्निसमीपकम् । प्राप्य देवो कृतानन्दौ "तस्थतुस्तौ कुतूहलात् ॥ ४५ ॥ पक्षिणो रूपमेकोऽत्र पक्षिण्याश्चापरः पुनः । विधाय कौतुकाद्देवौ तस्थिवांसौ विचक्षणौ ॥४६॥" पक्षिरूपः सुरः प्राह नारीरूपां नितम्बिनीम् । "वियस्यास्मत्प्रभोः कान्ते गिरिराजस्य मूर्धनि ॥४७॥ अभिषेकं विधायास्य पक्षिणः प्रीतमानसाः । पट्टबन्धं करिष्यन्ति जयमङ्गलनिस्वनैः ॥४८॥ पद्मपत्रसमानाक्षि विबुद्धकमलानने । बृहन्नितम्बिनि क्षिप्रं गमिष्याम्यहमादरात् ॥४९॥ 25 निशम्य पक्षिरूपस्य देवस्य वचनं तदा । नारीरूपामरस्तत्र जगावेतं पुरःस्थितम् ॥ ५० ॥ खामिन् भवद्वियोगेऽहं गर्भालसशरीरिका । एकाकिनी न तिष्ठामि भयविह्वलमानसा ॥५१॥ पुरुषाणामिदं चित्तं को जानाति महीतले । मेरुशृङ्गे महारूपाः पक्षिण्यः सन्ति भूरिशः ॥५२॥ ताभिः समं सुरूपाभिः पक्षिणीभिर्निरन्तरम् । विहाय मां सुखं तत्र भुञ्जानः स्थास्यसि स्फुटम्॥५३॥" निशम्य तद्वचः पक्षी तामुवाच ससंभ्रमः । विहाय भवतीं नान्या विद्यते मम वल्लभा ॥ ५४ ॥ 30 दयायुक्तस्य सत्त्वानां जनवात्सल्यकारिणः । समीपेऽस्य मुनेः कान्ते तिष्ठ त्वं दिनपञ्चकम् ॥५५॥" ... 1 पज आत्मानितैर्विधार्यतै. 2 प अवधि-मरणम्. 3 फज संसारार्णवदाविनीम्. 4 पज महातपः. 5फ कायोत्सर्ग. 6फ विमोच्यायं. 7 फ ज्ञास्यसे. 8 प लोकपालः.लोकपालो]. 9 पज अन्योन्यं. 10 फ तस्थिवांसौ विचक्षणः. 11 फ omits 46. 12 corrects thus विहास्यप्रभोः, [विहस्यास्मत्प्रभुः]. 13 प युग्मम्, फज युगलमिदम्. 14 प चतुःकुलकम् ,फ चतुष्कलमिदम् , ज चतु(:)कुलकमिदम्. 15 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५९. ५६साऽस्य वाक्यं समाकर्ण्य बभाणेमं कलखना । स्वामिन्नहं न ते गन्तुं ददामि पदमप्यतः ॥५६॥ अवाचि सा पुनस्तेन गां विप्रां हन्मि वल्लभे । नागच्छामि त्वदन्तं चेच्छपथोऽयं ततो मम॥५७॥ यं यं करोति सोऽत्यर्थ शपथं तत्पुरःस्थितः । तं तं नेच्छति सा देवी प्रतिकूलत्वमागता ॥ ५८॥ भूयोऽपि पक्षिणा प्रोक्ता सा देवी लोललोचना । मयाऽवश्यं प्रगन्तव्यं शपथं कं त्वमिच्छसि ॥५९॥ तद्वाक्यतः पुनः प्राह सा देवी पक्षिणी तकम् । हित्वा मां यदि यासि त्वं कुर्विमं शपथं ततः॥६॥ यदि नागच्छसि क्षिप्रं मुनेरस्य गतिं ध्रुवम् । अन्यजन्मनि किं याहि ततो गच्छ प्रिय प्रभो॥६॥ पक्षिणीवचनं श्रुत्वा पक्षी प्राह पुनः प्रियाम् । भद्रे शपथमीदृक्षं जीवन् सन् न करोम्यहम् ॥६२॥' पक्षिणोर्वचनं श्रुत्वा यमदग्निर्मुनिः पुनः । प्राहैतौ क्रुद्धचेतस्कौं भृकुटीभीषणालिकः ॥ ६३ ॥ किं कारणमिमं कर्तुं शपथं नेच्छसि द्रुतम् । कथयैतन्मम क्षिप्रं कौतुकं प्रतिभासते ॥६४॥ 10 यमदग्निवचः श्रुत्वा पक्षी वदति तं पुनः । न गतिस्ते तपो नापि नास्ति किंचित्तपःफलम् ॥६५॥ गतिर्न सुतहीनस्य नाकोऽपि न भवेत्ततः । पुत्रस्य वदनं दृष्ट्वा चरमं भिक्षुको भवेत् ॥६६॥ पुत्रेण जायते नूनं लोकद्वितयमुत्तमम् । तथा कीर्तिवधूः शुभ्रा लोकत्रयविसर्पिणी ॥ ६७॥ आश्रमा लोकविख्याताश्चत्वारों विदिता बुधैः । यशोव्याप्तसमस्ताशैः समस्तजनवल्लभैः ॥ ६८॥ आश्रमादाश्रमं याति यदि विप्रो न निश्चितम् । अतिक्रामन्निदं वाक्यं प्रायश्चित्तं च सोर्हति ॥६९॥ 15 कुमारेण 'त्वया साधो व्रतमाचरता तराम् । अप्रमाणमिदं सर्वं कृतं मूर्खत्वमीयुषा ॥ ७० ॥ मनु-व्यास-वसिष्ठानां वेदस्य वचनं तथा । योऽप्रमाणं वदत्येष ब्रह्मघाती भवेद् भुवि ॥ ७१॥ मनुधर्मः "पुराणं च साङ्गो वेदविधिः क्रिया। एतानि सिद्धरूपाणि हन्तव्यानि न हेतुभिः॥७२॥ पक्षिवाक्यं समाकर्ण्य यमदग्निर्विमूढधीः । आत्मानं निन्दितुं बाढं प्रारेभे भोगसक्तधीः ॥७३॥ अज्ञानिना मया कष्टं कुमारव्रतचारिणा । इयन्तं कालमासाद्य कथमात्माऽतिवञ्चितः ॥ ७४॥ 20 तपस्वी चिन्तयित्वेदं पक्षिणं निजगाद तम् । बन्धुत्वं कर्तुमायातो दुर्गतिं मे निवारय ॥ ७५ ॥ पक्षिणं पूजयित्वाऽयमुपदेशप्रदायकम् । जगामेन्द्रपुरं योगी तदानीं सन्ततीच्छया ॥ ७६ ॥ तत्र राजाऽभवद् घाती यमदग्नेः सुमातुलः । भार्या जयमतिस्तस्य रूपराजितविग्रहा ॥ ७७ ॥ तयोर्दैवकुमार्याद्याः कन्याः सन्ति मनोरमाः । गत्वा तदन्तिकं प्राह भूपतिं विह्वलात्मकः ॥७८॥ मातुलाहमपुत्रोऽस्मि न काचिद्गतिरस्ति मे । तेन कन्यानिमित्तं हि राजन् प्राप्तस्त्वदन्तिकम् ॥७९॥ 25 श्रुत्वा तद्वचनं राजा समाहूय स्वकन्यकाः । रूपसौभाग्यसंपन्ना जगादेति पुरःस्थिताः ॥ ८० ॥ अनेन मुनिना सार्धं कामभोगं यथेप्सया । भुञ्जानास्तिष्ठत स्पष्टं मदुक्तेन कुमारिकाः ॥ ८१॥ कन्या जनकवाक्येन दृष्ट्वाऽमुं भयकारिणम्" । पिशाचसदृशं वृद्धं जटामुकुटधारिणम् ॥ ८२ ॥ बीभत्सं पञ्चभिः कूसित्वा जनकान्तिकात् । शीघ्रं पलायनं चक्रुः कन्यकाः भयविह्वलाः॥८३॥ ततो रुष्टेन तेनासां शापो दत्तस्तपस्विना। कन्यका हि दुराचाराः सर्वाः कुब्जा भवन्त्विमाः॥८४॥ 30 कुब्जिकाः सकलाः कन्या जाता तद्वचनेन ताः। पुरमिन्द्रपुरं पूर्व "कन्याकुब्जं बभूव तत् ॥८५॥ तन्मध्ये रेणुका कन्या धूलिधूसरिताङ्गिका । रममाणा पलायन्ती तस्थौ मुदितमानसा ॥८६॥ 1 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. 2 [क्रुद्धचेतस्को]. 3 प चत्वारः ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थः, भिक्षुकः. 4 फमया. 5 फ देवस्य. 6फ मनुधर्मपुराणं. 7 प कुलकम् , फज कुलकमिदम्. 8 फ यमुपदेशं. 9 पत्रिकला, फज त्रिकलमिदम्. 10 फसमाकुलः, 11 फ भयकारणम्. 12 फ कन्याकुब्जे. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. ११५ ] पद्मरथनृपकथानकम् १२५ अस्याः प्रदर्श्य धूर्तोऽयं जगौ तां बीजपूरकम् । यदि मामिच्छसि क्षिप्रं ददामीदमहं तव ॥ ८७॥ उक्तस्तया मुनिर्देहि ममेदमतिशोभनम् । इच्छामि त्वामहं येन तरां वृद्धमपि ध्रुवम् ॥ ८८ ॥ तत्करे तत्फलं दत्त्वा तन्मतेन स तापसः । स्कन्धे तां स समादाय निर्ययौ तगृहादरम् ॥ ८९ ॥ कृत्वा समस्तकन्यास्ताः कुब्जत्वपरिवर्जिताः । शुक्लदानं च दत्त्वाऽयं जगाम निजमालयम् ॥९०॥ नीत्वाऽसौ रेणुकां वृद्धिं परिणीय ' विधानतः । तस्यां 'परशुरामस्य वक्तव्योत्पत्तिरादरात् ॥ ९१ ॥ अच्युतेन्द्रस्ततः प्राह विश्वानलचरं सुरम् । अज्ञानमूढतां पश्य यमदग्नितपस्विनः ॥ ९२ ॥ अनेन मूढचित्तेन परमार्थमपश्यता । नन्विदं न परिज्ञातं शोभनं यमदग्निना ॥ ९३ ॥ परीक्षणं विधातव्यं सर्वग्रन्थेषु कोविदैः । न कुग्रन्थोपदेशेन कर्तव्यं गूथभक्षणम् ॥ ९४ ॥ नानासमासहस्राणि कौमारब्रह्मचारिणाम् । स्वर्गं प्राप्य विमुक्तानि विहाय रमणीजनम् ॥ ९५ ॥ तथा चोक्तम् परीक्षा सर्वशास्त्रेषु कर्तव्याऽत्र विचक्षणैः । न कुशास्त्रप्रणीतेन कर्तव्यं विषभक्षणम् ॥ ९६ ॥ अनेकानि सहस्राणि कौमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि मुक्तानि अकृत्वा दारसंग्रहम् ॥ ९७ ॥ 10 1 15 एवं निगद्य तौ देवौ यमदग्निं च तापसम् । कौमारव्रतहन्तारं पुरं राजगृहं गतौ ॥ ९८ ॥ श्रावको जिनदासोऽत्र सम्यग्दृष्टिः प्रियंवदः । अयं पर्वदिने प्राप्ते कायोत्सर्गेण संस्थितः ॥ ९९ ॥ अच्युतेन्द्रो विलोक्येमं प्रतिमायोगधारिणम् । विश्वानलचरं देवं जगादेति विशुद्धधीः ॥ १०० ॥ तिष्ठन्तु मुनयस्तावन्मद्धर्मे श्रावकं त्विमम् । यदि त्वं शक्तिसंपन्नः स्वयोगाद् भ्रंशमानय ॥१०१॥ अच्युतेन्द्रस्य वाक्येन गजानीकामरः कुधा । जिनदासोपसर्गं स कर्तुं प्रववृते तदा ॥ १०२ ॥ धनधान्यापहारं हि पुत्रगोत्रादिहिंसनम् । नानाविधोपसर्गं च चकारास्यः पुरःसरः ॥ १०३ ॥ 20 उपसर्गेऽमुना बाढं क्रियमाणेऽप्ययं पुनः । धराधरेन्द्रवत्तस्थौ ध्यानाचलितमानसः ॥ १०४ ॥ ज्ञात्वा धीरत्वमेतस्य गजानीकामरो मुदा । आकाशगामिनीं विद्यां ददावस्मै स्थिरात्मने ॥ १०५ ॥ विद्यामेतां प्रदायास्मै विश्वानलचरोऽमरः । अच्युतेन्द्रो बभाषेति तरां कुटिलमानसः ॥ १०६ ॥ जिनदासो महानार्यः श्रावकोऽयं चिरन्तनः । धर्मभावितचेतस्को नानाशास्त्रविचक्षणः ॥ १०७ ॥ उपसर्गमयं धीरः सहते कोऽत्र विस्मयः । अल्पधर्मश्रुतं चान्यं दर्शयैनं ममाधुना ॥ १०८ ॥ गजानीकवचः श्रुत्वा चारणेन्द्रो जगावमुम् । मुग्धचित्तो विशुद्धात्मा विद्यते मन्दधार्मिकः ॥१०९॥ जिनधर्मस्य सर्वस्य गृहीतस्य यशखिना । अमुना सारभूतस्य वर्तते दिनसप्तकम् ॥ ११० ॥ विद्यते यदि ते वाञ्छा तद्धर्मप्रविनाशने । व्रजावस्तत्समीपं च कौतुकव्याप्तमानसौ ॥ १११ ॥ वचनादच्युतेन्द्रस्य तोषरोषसमन्वितः । पुरंदरसमं सोऽपि मिथिला नगरीं ययौ ॥ ११२ ॥ धर्मं श्रुत्वा सुधर्मान्ते दिनैः सप्तभिरर्जितम् । उद्याने तिष्ठति प्रीत्या वीरः पद्मरथो नृपः ॥ ११३ ॥ ० चम्पापुरवरोद्याने वासुपूज्यजिनेश्वरम् । नन्तुं पद्मरथो राजा सोपवासः समागतः ॥ ११४ ॥ अच्युतेन्द्रः समालोक्य भूपतिं वनमागतम् । विश्वानलसुरं प्राह कौतुकव्याप्तमानसः ॥ ११५ ॥ 1 फ ददासीदमहं 2 पज वृद्धिमपि 3 [ शुल्कदानं ]. 4 [ परिणीतो ]. 5 पज तस्यां हि परशु . ' 6 फ स्वयोगाद्वशमानय 7 फ omits verses Nos. 106 - 125, ie, up to the close of this chapter 8 पज त्रिकलमिदम् 9 ज ' व्याप्तचेतसौ. 25 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [५९. ११६एष पद्मरथो राजा नवधर्मा समागतः । धर्मे विध्वंसनं चास्य कुरु त्वं यदि शक्तिमान् ॥११६॥ दृष्ट्वा नरेश्वरं तत्र कोपारुणनिरीक्षणः । उपसर्ग चकारेमं गजानीकः सुरो' रुषा ॥ ११७ ॥ पुरदाहं पुरस्तस्य बलयुद्धं महारवम् । उपसर्ग पिशाचादि चकार स सुरस्तदा ॥ ११८ ॥ विश्वानलोपसर्ग तं न विवेद मनागपि । ध्यानाचलं समारूढो न हि ध्यानाचचाल सः ॥११९॥ दृष्ट्वाऽस्य धीरतां देवो योजनध्वनिनादिनीम् । ददौ भेरी कलस्वानां तोषपूरितमानसः ॥ १२०॥ ततः पद्मरथायाशु धर्मवात्सल्यकारणात् । अच्युतेन्द्रो ददौ हारं सर्वव्याधिहरं मुदा ॥१२१ ॥ वासुपूज्यं जिनं नत्वा पूजयित्वा नृपं सुरः । भक्त्या पद्मरथो नौति वासुपूज्यं जिनं तरां ॥१२२॥ कण्ठे हारं विधायायं भेरीमादाय सुस्वरम् । भक्त्या पद्मरथो नौति वासुपूज्यं जिनं तराम् ॥१२३॥ स्थापयित्वा निजं पुत्रं राज्ये पद्मरथो नृपः । वासुपूज्यजिनस्यान्ते प्रवव्राज विशुद्धधीः ॥१२४॥ 10 गणेन्द्रत्वं परिप्राप्य जिनभक्तिपरायणः । शीघ्रं पद्मरथो योगी निर्वाणमगमत्सुधीः ॥ १२५ ॥ ॥ इति श्रीजिन भक्तिपरायणपद्मरथपगणधरत्वप्रातिनिर्वाण गमनकथानकमिदं संपूर्णम् ॥ ५९॥ ६०. सुभगगोपालकथानकम् । ततोऽङ्गाख्यमहादेशे परा चम्पापुरी प्रभुः । अस्यां बभूव नीतिज्ञो दन्तिवाहननामकः ॥१॥ 15 अभयाऽस्य महादेवी भूभुजोऽभवदिद्धधीः । अस्या धात्री गुणाधारा पण्डिता नाम विश्रुता ॥२॥ अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी बभूव स महाधनी । ऋषभोपपदो दासो जिनदासी प्रियाऽस्य सा ॥३॥ श्रेष्ठिनोऽस्य हितो भक्तो महिषीपरिपालकः । नामतः सुभगः ख्यातः सुभगोऽखिलदेहिनाम् ॥४॥ अन्यदा ताः पुरस्कृत्य महिषीः सुभगो वनम् । ययौ मुदितचेतस्कः शष्पनीरसमन्वितम् ॥ ५॥ ततो निवर्तमानः सन् पुरमार्गे दवीयसि । दृष्ट्वा चारणमेकं हि दध्याविति सविस्मितः ॥६॥ 20 शीतकाले महाशीते मुनिरेष बहिःस्थितः । 'करप्रावरणो दीर्घा कथं नेष्यति शर्वरीम् ॥७॥ सुभगः स्वगृहं प्राप्य सुप्तो निशि कुटीरके । मुनि ध्यायंस्तमेवासौ तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ ८॥ ततः प्रभातकाले च महिषीः प्राप्य तां दिशम् । दृष्ट्वा तं चारणं तत्र स्तोकवारं स तस्थिवान् ॥९॥ प्राभातिकीक्रियां कृत्वा रवावभ्युदिते मुनिः । नमोऽर्हते समुच्चार्य वचनं स खमुद्ययौ ॥१०॥ "दृष्ट्वा गोपालकः साधुं व्रजन्तं तं विहायसा । शुश्राव तद्धनिं भक्त्या सनीरजलदोपमाम् ॥११॥ 25 ज्ञात्वा विद्यामिमां सोऽलं नभस्तलविसर्पिणीम् । जग्राहाहन्नमस्कार संसारोदधिशोषणम् ॥१२॥ आकाशगामिनी विद्या मम सिद्धिं प्रयास्यति । अस्या बलेन सर्वत्र विचरिष्याम्यगादिषु ॥१३॥ सुभगश्चिन्तयित्वेदमुच्छिष्ठप्रभवन्नपि । नमोऽर्हन्यो वचो भक्त्या न मुञ्चति कदाचन ॥ १४ ॥ अवाचि श्रेष्ठिना गोपो शुचिभिः श्रावकैरपि । ग्रहीतुं पुत्र नो युक्तं जिननाम भवाशनम् ॥१५॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य गोपको वक्ति तं पुनः । तात मोक्तुं न शक्नोमि जिनगोत्रमहं क्वचित् ॥१६॥ 30 गोपवाक्यमिदं श्रुत्वा भूयः श्रेष्ठी बमाण तम् । सुत मा मोचनं जातु जिननाम्नः करिष्यसि ॥१७॥ इमं जैनेश्वरं नाम पवित्रं मङ्गलं तव । भविष्यति निगद्यासौ मौनमादाय तस्थिवान् ॥१८॥ 1प गजानिकासुरो. 2 4 omits No. 122. 3 ज omits इति श्री. 4फ श्रेष्ठिनो सहितो. 5 पज करप्रावरणो-कटिकर्पटं नास्ति. 6 फ नत्वा. 7 प भवाशनं भवनाशनः Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. ५१] सुभगगोपालकथानकम् १२७ अन्यदा महिषीसंघो गङ्गामुत्तीर्य वेगतः । क्षेत्रमध्यं विवेशायं गन्धशालिसमन्वितम् ॥ १९॥ मन्दाकिनीसमुत्तीर्ण विलोक्य महिषीगणम् । गोपालकः प्रधाव्याशु तस्थौ सुरसरित्तटे ॥ २० ॥ कृत्वा जिननमस्कारं तद्भक्तिस्थिरमानसः । गङ्गाह्रदे मुमोचायं गोपः स्वं भयवर्जितः ॥२१॥ तत्रत्यकाष्ठशूलेन विद्धस्तुण्डे' मृतिं गतः । पूर्वोक्तश्रेष्ठिभायास्तदाऽसौ गर्भमाश्रितः ॥ २२ ॥ तद्गर्भे सुस्थिते तस्मिन् नीतोऽथो मासपञ्चके । बभूव दोहलस्तस्याः श्रेष्ठिन्या जिनपूजने ॥२३॥ विलोक्य श्रेष्ठिनी श्रेष्ठी जगादैतां पुरःस्थिताम् । त्वं दुर्बलाऽसि कथं कान्ते ब्रूहि कार्यमिदं मम ॥२४॥ श्रेष्ठिवाक्यमुपश्रुत्य श्रेष्ठिनी निजगावमुम् । जिनपूजाविधौ नाथ मदिच्छा वर्ततेऽधुना ॥ २५॥ तद्वाक्यतः पुनः श्रेष्ठी जिनानां जितजन्मनाम् । महामहं चकाराशु तूर्यमङ्गलनिखनैः ॥ २६ ॥ ततो नवसु मासेषु व्यतीतेषु प्रभोज्वलम् । पूर्वाशेव रविं तत्र श्रेष्ठिनी सुषुवे सुतम् ॥ २७॥ : निजदेहप्रभाभारभासिताशेषपुष्करः । पूर्णिमाचन्द्रवद्भाति कुर्वन् बन्धुमुदं शिशुः ॥ २८॥ ततो जिनमहं कृत्वा नीत्वाऽमुं जिनमन्दिरम् । ददौ सुदर्शनं नाम मुनिरस्मै गुणानुगम् ॥२९॥ क्रमेण वृद्धिमासाद्य कलाः सर्वाः सुशिक्षिताः । सुदर्शनकुमारेण सुकुमारेण वेगतः ॥ ३०॥ चतुःषष्टिरपि स्पष्टं विज्ञानानि विवेद सः । यौवनं च परिप्राप्तः कन्दर्पसमविभ्रमम् ॥ ३१॥ सागरोपपदो दत्तः श्रेष्ठी तन्नगरेऽभवत् । भार्या सागरसेनाऽस्य तत्सुता च मनोरमा ॥३२॥ सुदर्शनेन सा लब्धा परिणीता विधानतः । सुतोऽनयोः समुत्पन्नः सुकान्तः कान्तदर्शनः ॥३३॥ 15 अथानित्यमिदं ज्ञात्वा सर्वं सांसारिकं सुखम् । सुदर्शनसुतायास्मै श्रेष्ठिप बबन्ध सः ॥३४॥ दन्तिवाहनभूपस्य समर्प्य तनयं पुनः । समाधिगुप्तिसामीप्ये श्रेष्ठी दीक्षामशिश्रियत् ॥ ३५ ॥ ततः सुदर्शनः श्रेष्ठी भूपतेरभवन्महान् । कलाविज्ञानसंपन्नः समस्तजनपूजितः ॥ ३६ ॥ सखा सुदर्शनस्यैष कपिलो नाम “माहनः । दन्तिवाहनभूपस्य स बभूव पुरोहितः ॥ ३७॥ ब्राह्मणी कपिला चास्य रूपयौवनगर्विता । सुदर्शनगुणान् श्रुत्वा तत्सत्ता मनसाऽभवत् ॥३८॥ 20 अन्यदा संफली दक्षा मदनोन्मत्तया तया । गूढं किमपि संदिश्य प्रेषिता श्रेष्ठिनो गृहम् ॥३९॥ अविलम्बं जगामेषा ततस्तद्गतमानसा । सुदर्शनं परिप्राप्य जगादैनं विचक्षणा ॥४०॥ कपिलो वक्ति नाथ त्वां शरीरेणापटुस्तराम् । आगन्तव्यं त्वयाऽवश्यं स्नेहनाशु मदन्तिकम् ॥४१॥' दूतीवचनमाकर्ण्य स्नेहनिर्भरमानसः । सुदर्शनो गृहं तस्य मित्रस्य सहसाऽगमत् ॥ ४२ ॥ दृष्ट्वा तद्ब्राह्मणी प्राह तदानीं स सुदर्शनः । व गतः कपिलो भद्रे सा पुनस्तं जगाविति ॥४३॥ 25 सुप्तस्तिष्ठति ते मित्रं गृहान्ते व्रज त्वं लघु । प्रविष्टोऽपि च तन्मध्ये पश्यतीमं न तत्र सः॥४४॥ क्क मित्रं वदत क्षिप्रं वक्ति सा पुनरप्यमुम् । न भट्टोऽस्त्यत्र किं चान्यन्मदीयं वचनं शृणु ॥४५॥ इच्छ त्वं भद्र मां शीघ्रं भवद्भक्तियुजं तराम् । त्वत्परोक्षानुरागेण रक्तां विद्धि सुदर्शनः ॥४६॥ यदि नेच्छसि मां भूयो भणितोऽपि ततो द्रुतम् । कारापयामि ते शीघ्र मारणं नियतं नरैः ॥४७॥" निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी तामुवाच विचक्षणः । आलिङ्गनादिकं मूढां कुर्वन्तीं निन्दितं बुधैः ॥४८॥ 30 शृणु मद्वचनं मुग्धे सत्यभूतं वदामि ते । किं त्वया न परिज्ञातः पौरुषो न भवाम्यहम् ॥४९॥" आकर्ण्य तद्वचस्तं च विरक्ता कपिला जगौ । यदि त्वं पुरुषो नासि ततो व्रज निजं गृहम् ॥५०॥ मन्यमानः प्रमुक्तं खं महाव्याघ्रीमुखादरम् । तयोदितो ययौ शीघ्रं खकीयभवनं सकः॥ ५१ ॥ 1पज तुण्डे-उदरे. 2 प उपसृत्य. 3 फ लब्ध्वा . 4 फ omits शात्वा. 5 फ ब्राह्मणः. 6 फ सफली, [शम्बली]. 7 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. 8 पज भक्तियुजां. 9 [सुदर्शन]. 10 फ सुरैः. 11 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. 12 प युग्मम् , फज युगलमिदम्, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [६०.५२अन्यदा कपिलेनामा सुदर्शनसमं तथा । महोद्यानवनं रन्तुं प्रययौ दन्तिवाहनः ॥ ५२ ॥ ततोऽभयमहादेवी कपिलाऽपि मनोरमा । एतास्तिस्रोऽपि निर्जग्मुः शिबिकास्था वनं प्रति ॥५३॥ अथाभयमहादेवी पप्रच्छ कपिलां तदा । कस्यैषा वनिता याति पुत्रादिपरिवारिता ॥ ५४॥ स्वदेहदीप्तिसंतानैरुद्योतितनभस्तलैः । आकाशे चन्द्रलेखेव द्योतयन्ती दिशां मुखम् ॥ ५५॥ 5 कपिला तद्वचः श्रुत्वा वदति स्म हि तां द्रुतम् । सुदर्शनस्य भार्येयं नाम्नाऽपीति मनोरमा ॥५६॥ कपिलाया वचः श्रुत्वा महादेवी जगाविमाम् । सुदर्शनस्य सद्भार्या प्राणानामपि वल्लभा॥५७॥ धन्येयं सुन्दरी बाला बालपुत्रसमन्विता । विना पुत्रेण किं स्त्रीत्वं वन्ध्यावल्लीव निष्फलम् ॥५८॥ अस्माभिः सह संप्रीत्या रूपराजितविग्रहा । महोद्यानवनं रन्तुं गच्छतीयं कलखना ॥ ५९॥ ततोऽभयमहादेवी वाक्यमाकर्ण्य मन्थरम् । बभाण कपिला राज्ञी हसित्वा हसनामिकाम् ॥६०॥ 10 सुदर्शनप्रिया भद्रे जायन्तां किं पुनः शृणु । जनयन्ति सुताः पुत्रान् कुशलत्वेन योषितः ॥६॥ कपिलावाक्यमाकर्ण्य हसित्वाऽसौ जगाद ताम् । किं कारणमिदं ब्रूषे कपिले क्रूरमानसे ॥६२॥ एषा पतिव्रता" नारी रूपशीलविराजिता । सुदर्शनपतिं हित्वा नान्यमिच्छति चेतसा ॥ ६३॥ जिनशासनसंमक्ता सम्यक्त्वाणुव्रतान्विता । गुणशिक्षाव्रतैर्युक्ता पञ्चुम्बरपरिच्युता ॥ ६४॥ निजकान्तं विहायैषा न चान्यं नरमिच्छति । जिनं मुनिगणं हित्वा न चान्यं स्तौति भक्तितः॥६५॥ 15 निशम्य भारतीमस्याः कपिला" तां जगौ पुनः । तेनेदं मत्पुरः प्रोक्तं पुरुषो नास्म्यहं स्फुटम्॥६६॥ तेनाहं वेमि तं पण्डं पुरुषं हि सुदर्शनम् । कुशलत्वेन तल्लब्धमेतया नन्दनादिकम् ॥ ६७॥" अभयादिमहादेवी तद्वाक्येन बमाण ताम् । त्वं वञ्चिताऽसि धूर्तेन कामशास्त्रपराङ्मुखी ॥६८॥ सुदर्शनो हले नूनं षण्ढो यः परयोषिताम् । पुरुषोऽयं वनारीणां कन्दर्पसमविभ्रमः ॥ ६९ ॥ तच्चित्तं वार्धिगम्भीरं क्षोभेन परिवर्जितम् । कथं त्वं वेत्सि मुग्धत्वाद्योषितोऽकुशला हि वै ॥७॥* 20 ततः प्रोवाच तां देवीं कपिला वञ्चिताऽमुना । ईर्षावशपरिग्रस्ता म्लानवक्रसरोरुहा ॥ ७१॥ यदि मे स वशीकर्तुं ब्राह्मण्या कामबाह्यया । न शक्योऽकुशलत्वेन मन्दरस्थिरमानसः ॥ ७२ ॥ ततस्त्वं कामशास्त्रज्ञा महादेवीपदाश्रिता । रूपयौवनयुक्ताऽसि वशीकुरु तकं लघु ॥७३॥" श्रुत्वाऽभयमहादेवी तद्वचस्तामुवाच सा । सुष्ठु तं स्खवशीकर्तुं समर्थाऽस्मि सुदर्शनम् ॥ ७४॥ एवमुक्त्वा तकां देवी विलक्षीभूतमानसाम् । तत्पुरः सा चकारेमा प्रतिज्ञा रूपगर्विता ॥७५॥ s यदि तच्चित्तसंक्षोभं न करोमि नितम्बिनि" । ततः पुरुषभोगस्य निवृत्ति विदधाम्यहम् ॥७६॥ महादेवी विधायेमां प्रतिज्ञा कपिलापुरः । प्रविश्य नगरं शीघ्रं विवेश निजमन्दिरम् ॥ ७७ ॥ अथाहूय महादेवी स्वान्ते पण्डितधात्रिकाम् । लज्जां विहाय हृष्टात्मा बभाणेति पुरःस्थिताम् ॥७८॥ सुदर्शनमिमं साध्वि मदन्तं शीघ्रमानय । येनामुना समं भोगाम् प्रभोक्ष्ये निजलीलया ॥ ७९ ॥ मच्चित्तहारिणं नो चेदेनं नानयसि द्रुतम् । ततोऽहं निश्चितं भद्रे करिष्ये प्राणमोचनम् ॥ ८॥ 30 श्रुत्वा तद्वचनं धात्री जगादैतां कलखना । अशोभनमिदं कार्यं त्वयाऽत्र परिचिन्तितम् ॥८१॥ 1 पज कपिलो नामा. 2 फ नृपं. 3 प युग्मम् , फज युगलमिदम्. 4 फ नाना प्रीति'. 5 पज सुन्दरं. 6प युग्मम् , ज युगलम्. 7 फ omits No. 60. 8 प युग्मम् , फ युगलमिदम् , ज युगलम्. 9फ सहित्वा. 10 फ पतिव्रते. 11 फ कपिलां. 12 प युग्मम् , ज युगलम् , फ युगलमिदम्. 13 फ नूनं पण्डकः पर. 14 पत्रिकलम् , फज त्रिकलमिदम्. 15 पत्रिकलम्, फज त्रिकलमिदम्. 16 फ"मानसा. 174 करोमि न नितम्बिनि. 18पभोग्यस्य. 19 प निवृत्यं. 20 पज त्रिकला, फ त्रिकलमिदम्. 21 पज त्रिकलम् , फ त्रिकलमिदम्. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. ११३ ] सुभगगोपालकथानकम् योऽणुव्रतादिसंयुक्तः सम्यग्दर्शनभावितः । पुण्यपापविचारज्ञो हिताहितविवेकधीः ॥ ८२॥ सागरो वाऽतिगम्भीरो मेरुवा कम्पवर्जितः । क्षमेव क्षान्तिसंपन्नो नभो वाऽमलविग्रहः ॥ ८३॥ पररामाकथां लोकैः क्रियमाणामपि स्फुटम् । कर्णाभ्यां नेच्छति श्रोतुं मनोवाक्कायकर्मभिः ॥८४॥ कामभोगांस्त्वया सार्धं गुणी भुङ्क्ते विशुद्धधीः । कथं चानीयते सोऽत्र मया तन्वि त्वदन्तिकम्।।८५॥ धात्रीवचनमाकर्ण्य महादेवी जगावमूम् । कपिलायाः पुरः प्रोक्ता प्रतिज्ञेयं महासखि ॥ ८६॥ 5 यदि नालिझ्यते सोऽयं काम्यते वा मयाऽऽलि न । ततोऽहं पञ्चतावाप्तिं यास्यामि नियतं द्रुतम्।।८७॥ ततो धात्री जगादैतां विज्ञातपरमार्थिका । उपायो विद्यते चायं तदागमनकारणे ॥ ८८॥ नक्तं प्रतिमया सोऽयं पर्वणि स्थिरमानसः । तिष्ठन्नानीयते तस्मादुपायो नापरः परम् ॥ ८९ ॥ ततोऽभयमहादेवी धात्रिकां तां जगौ पुनः । यत्ते प्रयोजनं चित्ते स्थितं तन्नोऽपि सुन्दरि ॥९॥ ततः कौलालमासाद्य भवनं धात्रिका तदा । तत्करात् कारयामास सप्त मृत्पुरुषानरम् ॥ ९१ ॥ 10 वस्त्रेणाच्छादितं कृत्वा समादाय मृदो नरम् । धात्री प्रववृते गन्तुं तदानीं प्रतिपद्दिने ॥ ९२॥ महादेवीगृहद्वारं यावद्विशति धात्रिका । प्रथमद्वारपालेन तावदृष्टा प्रभाषिता ॥ ९३ ॥ वस्त्राच्छादितमादाय किमिदं विशसि द्रुतम् । अस्मभ्यं कोपमायाति भूपतिर्वद मेऽधुना ॥ ९४॥ दौवारिकवचः श्रुत्वा धात्रिकाऽमुं जगौ पुनः । यन्मह्यं रोचते किंचिद्गृहीत्वा यामि किं तव ॥९५॥ उत्तरीयं ततस्तस्या द्वारपालेन कोपतः । आकृष्टं तत्करात् तेन तदानीं निजपाणिना ॥ ९६॥ 15 गृहीतमात्रया वेगान्मृत्तिकाप्रतियातना । मुक्त्वा तया पुनर्भूमौ गता सा शतखण्डताम् ॥ ९७॥ द्वारपालोऽनयाऽवाचि कोपकम्पितगात्रया । न शोभनमिदं कार्यं त्वयाऽत्र विहितं सुत" ॥९८॥ उपोषिता महादेवी पुरुषव्रतमादरात् । मृन्नरं पूजयित्वेमं भोज्यं किल करिष्यति ॥ ९९ ॥ आनीतोऽयं मया तेन तदर्थं मृत्तिकानरः । सांप्रतं चूर्णितः सोऽपि भवता मन्दबुद्धिना ॥१०॥ मृत्स्नामयो नरोऽद्यैव लभ्यते नेदृशः क्वचित् । वीक्ष्यमाणा च मां देवी तिष्ठति तत्प्रपीडिता ॥१०१॥2॥ कथयित्वा नरेन्द्रस्य वार्तामेतां तव द्रुतम् । शिरसः कर्तनं ते श्वः कारयिष्यामि निश्चितम् ॥१०२" धात्रिकावाक्यमाकर्ण्य भयवेपितविग्रहः । दौवारिको जगादैतां तत्पादन्यस्तमस्तकः ॥ १०३ ॥ अम्बिके जननीतुल्ये किंवदन्तीमिमां विभोः । कथयिष्यसि मा मुग्धे पादयोः पतितोऽस्मि ते ॥१०४॥ आस्तां मृत्लानरो भद्रे यदि सत्यनरं पुनः । गृहीत्वा यासि देव्यन्तं न किंचिन्निगदाम्यहम् ॥१०५॥ द्वारपालवचः श्रुत्वा धात्रिका निजगावमुम् । एवमस्त्विति संतुष्टा दीर्घायुस्त्वं चिरं भव ॥१०६॥ 25 एवमुक्त्वा तकं शीघ्रं वेपिताखिलविग्रहम् । जगाम धात्रिका गेहं तोषकण्टकिताङ्गिका ॥१०७॥ अन्येधुर्विधिनाऽनेन सप्तद्वारप्रतिष्ठितान् । द्वारपालान् वशे धात्री चकार विधिकोविदा ॥१०८॥ अथाष्टमीदिने जाते सर्वारम्भपरिच्युतम् । सोपवासं श्मशानस्थं नक्तं प्रतिमया स्थितम् ॥१०९॥ सुदर्शनं समादाय "ध्यानारूढं च धात्रिका । अभयादिमहादेवीसमीपं त्वरितं ययौ ॥११०॥ कायोत्सर्गस्थितं नक्तं तदानीं तं सुदर्शनम् । देव्यै समर्पयामास धात्रिका प्रीतमानसा"॥१११॥ 3 कायोत्सर्गस्थितस्यास्य गाढालिङ्गनकादिकम् । कामग्रहगृहीतात्मा महादेवी करोत्यलम् ॥११२॥ उपसगों ममेदृक्षो यदि क्षेमेण यास्यति । ततो भविष्यति क्षिप्रं पाणिपात्रेण पारणम् ॥११३॥ 1फ भुङ्क्तेतिशुद्धधीः. 2 फ न कथं वानीयते. 3 पज चतुःकुलकम्. ज चतुष्कलमिदम्. 4 फ मयाखिला. 5प युग्मम् , फ युगलमिदम् , ज युगलम्. 6 प युग्मम् , फ युगलमिदम् , ज युगलम्. 7 फ तन्नोप. 8 फ सत्कालकारयामास. 9 फ omits No. 93. 10 [मुक्ता]. 11फ पुनः. 12 पज चतुःकुलकम्, फ चतुष्कलमिदम्. 13 पज देवीतं. 14 पज त्रिकलम्, फ विकलमिदम्. 15 फ ध्यानरूढं. 16 प युग्मम् , ज युगलम् , फ युगलमिदम्. 17 फ प्रीतिमानसा. वृ० को० १७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ६०. ११४ सुदर्शनो विधायेमां प्रतिज्ञां मेरुनिश्चलः । श्यामायां निश्चलस्तस्थौ तत्रेमं चिन्तयन् जिनम् ॥११४॥ अभयादिमहादेव्या देवीरूपसमानया । क्षोभं तथाऽपि नो नीतस्तदा श्रेष्ठी सुदर्शनः ॥ ११५ ॥ पाटयित्वा नखैरेषा खशरीरं निरन्तरम् । विकीर्य केशभारं च कामाकुलितमानसा ॥ ११६ ॥ भुक्ताऽहं श्रेष्ठिना नूनमनिच्छन्ती हठादरम् । आगच्छत जनास्तुङ्गं महारावं चकार सा ॥११७॥ • महादेवीवचः श्रुत्वा राजा रुष्टो जगौ जनान् । एतस्य मस्तकच्छेदं कुरुताशु श्मशानके ॥११८॥ नीत्वा पितृवनं तं ते 'खङ्गेनाहन्तुमुद्यताः । पुष्पमाला बभूवैषा खड्गयष्टिर्गलेऽस्य सा ॥ ११९ ॥ दृष्ट्वा विस्मयमीदृक्षं नभस्स्थाः सुरपुङ्गवाः । अहो सौदर्शनं शीलं साधुवादान् प्रचक्रिरे ॥ १२० ॥ एवं निगद्य ते देवा नानावर्णैः समुज्वलैः । पुष्पैः सुगन्धिभिः पूजां चक्रुरस्य प्रमोदिनः ॥ प्रातिहार्यं विलोक्यास्य दन्तिवाहनभूपतिः । नानाजनसमूहेन समं प्राप तदन्तिकम् ॥ १२२ ॥ 10 प्रदक्षिणं विधायास्य क्षमणं च मुहुर्मुहुः । सपर्यां कानकैः कर्जगादेमं महीपतिः ॥ १२३ ॥ अर्धराज्यं गृहाण त्वं मदीयं हि सुदर्शन । भुञ्जानो विपुलान् भोगान् पुरे तिष्ठ यथेप्सया ॥ १२४॥ दन्तिवाहनभूपस्य निशम्य वचनं तदा । सुदर्शनो जगादेमं नानाजनसमन्वितम् ॥ १२५ ॥ १२१ ॥ राज्य मे कार्यं भोगेनापि नरेश्वर । भोगो' राज्यं महादुःखं संसारपरिवर्धनम् ॥ १२६ ॥ मानिनां हतदर्पाणां धरालाभेन किं सुखम् । जीवितं मानहेतुः स्यान्माने नष्टे सुखं च न ॥१२७॥ तथा चोक्तम्मानिनो हतदर्पस्य लाभोऽपि न सुखायते । जीवितं मानमूलं हि माने म्लाने कुतः सुखम् ॥ १२८ ॥ उपसर्गो हि राजेन्द्र त्वयाऽयं न कृतो मम । कर्मभिः प्राक्तनैरेष विहितोऽशुभकारणैः ॥ १२९ ॥ ' सुदर्शनो वदत्येवं यावत् सह नरेशिना । तावत् सूरिः समायातो नाम्ना विमलवाहनः ॥ १३० ॥ 20 हित्वा परिग्रहं सर्वं कृत्वा भूपक्षमापणम् । सुदर्शनो जगामाशु समीपं योगिनोऽस्य सः ॥ १३१ ॥ ' त्रिः परीत्य तमीशानं वन्दित्वा च पुनः पुनः । सुदर्शनो ययाचेमं दीक्षां संसारभीलुकः ॥ १३२ ॥ निशम्य तद्वचः कान्तं ज्ञात्वा निश्चयमीदृशम् । ददौ दैगम्बरीं दीक्षां तस्मै विमलवाहनः ॥ १३३॥ ततोऽभयमहादेवी प्रातिहार्यं सुरेशिना । पूजनं दीक्षणं चास्य विदित्वा जनवाक्यतः ॥ १३४ ॥ भयवेपितसर्वाङ्गी "कृत्वोल्लम्बनमात्मनः । मृत्वैवं पाटलीपुत्रे बभूव व्यन्तरी पुनः ॥ १३५ ॥ 25 तथा पण्डितधात्री च नरेन्द्रभयविह्वला | चम्पापुरवराच्छीघ्रं ययौ पाटलिपुत्रकम् ॥ १३६ ॥ समस्तगणिकानां च समस्तपुरयोषिताम् । आत्मदेशपरित्यागं सुदर्शनकथां तथा ॥ १३७ ॥ आत्मनिन्दनसंसक्ता कथयन्ती दिने दिने । गणिका देवदत्ताख्या तगृहे साऽवतिष्ठते ॥ १३८ ॥ * लोकोऽपि विस्मितस्वान्तस्तद्वार्ता हितचेतनः । सुदर्शनमुनिं द्रष्टुमिच्छन् हृष्टोऽवतिष्ठते ॥ १३९ ॥ अन्यदा विहरन् क्वापि सुदर्शनमुनीश्वरः । आजगाम सुधीरात्मा पुरं पाटलिपुत्रकम् ॥ १४० ॥ बहूपवास खिन्नाङ्गमस्थिचर्मावशेषकम् । व्रजन्तं राजमार्गेण चर्यार्थं हि सुदर्शनम् ॥ १४१ ॥ दृष्ट्वा पण्डितधात्रीमं देवदत्तां जगाद सा । यन्निमित्तादहं नष्टा तं साधुं पश्य सुन्दरि ॥ १४२ ॥ " धात्रिकावाक्यमाकर्ण्य देवदत्ता जगाविमाम् । न चाभयमहादेवी कपिला कामकोविदा ॥१४३॥ कामशास्त्रविनिर्माणा नरमानसलक्षिका । पश्य पश्य मुनेरस्य चित्तक्षोभं करोम्यहम् ॥ १४४ ॥ 14 15 36 1 फ तत्रेशं. 2 प भुक्त्वाहं. 3 प युग्मम्, ज युगलम् फ युगलमिदम्. 4 प खङ्गेन हन्तु . 5 फ भोग्ये. 6 प युग्मम्, ज युगलमिदम्, फ चतुष्कलमिदम्. 7फ adds No. 130 once more afterNo. 131. 8 फ ययाचेमां. 9 [भीरुकः ]. 10 प कृत्वो हुञ्छन, फ कृतोल्लंघन, पज ( = फासि ) 11 प युग्मम्, ज युगलम्, फ युगलमिदम्. 12 फज सा वितिष्ठते 14 फ धातृका 13 प युग्मम् ज युगलम् फ युगलमिदम्. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. १७३] सुभगगोपालकथानकम् एवमुक्त्वा तकां शीघ्रं देवदत्ता खचेटिकाम् । प्रजिघाय मुनेरन्तं प्राप्येमं वदति स्म सा ॥१४५॥ मगृहे भोजनं साधो कुर्वद्य त्वं यतीश्वर । तद्वाक्यतः पुनर्योगी देवदत्तागृहं ययौ ॥ १४६ ॥ कपाटद्वितयं दत्त्वा गृहं विष्टस्य योगिनः । देवदत्तोपसर्ग च चकार दिवसत्रयम् ॥ १४७॥ तदा काष्ठमयः किं वा लेपकर्ममयोऽपि वा । 'सुदर्शनो मुनिस्तस्थौ सुसमाहितमानसः ॥१४८॥ तदानीं देवदत्ताया हावभावविलासतः। विभ्रमेण न तस्यासीञ्चित्तक्षोभो मनागपि ॥१४९॥ स्थिरचित्तं मुनि ज्ञात्वा गम्भीरं गुणसागरम् । देवदत्ता भयग्रस्ता निनिन्द स्खदुरीहितम् ॥१५०॥ देवदत्ता मुनिं नीत्वा श्मशानं रजनीमुखे । आजगाम निजं गेहं प्रम्लानमुखपङ्कजा ॥१५१ ॥ ततः सुदर्शनो योगी श्मशाने दरदायिनि । सर्वाहारं परित्यज्य तस्थौ प्रतिमया निशि ॥ १५२॥ तत्राभयमहादेवी व्यन्तरी तं सुदर्शनम् । परिज्ञायोपसर्ग सा चकार दिनसप्तकम् ॥ १५३॥ ततः सप्तदिनान्ते च सुदर्शनमहामुनेः । घातिक्षयात् समुत्पन्नं केवलं सर्वभासनम् ॥ १५४॥ 10 एवं सति समुत्पन्ने तीर्थेशस्य जिनेशिनः । यथाऽसौ प्रातिहार्याणि चतुस्त्रिंशद्गुणास्तथा ॥१५५॥ सर्वमस्यैव वक्तव्यं केवलामलयोगिनः । सुदर्शनमुनीन्द्रस्य सुरासुरनतस्य च ॥ १५६ ॥ छत्रत्रयं समुत्तुङ्गं प्राकारो हरिविष्टरम् । मुण्डकेवलिनो नास्ति सरणं समवादिकम् ॥ १५७॥ छत्रमेकं शशिच्छायं भद्रपीठं मनोहरम् । मुण्डकेवलिनो नूनं द्वयमेतत् प्रजायते ॥ १५८॥ द्वादशापि गणा ज्ञेयाः सन्ति सामान्यगोचराः । मुण्डकेवलिनः सर्वं यथासंभवतो भवेत् ॥१५९॥ is केवले सति संजाते लोकालोकप्रकाशने । सुदर्शनमुनेभूतं देवागमनमुत्तमम् ॥ १६० ॥ अत्रान्तरे महाभक्तिर्देवदत्ता सधात्रिका । व्यन्तरी पौरलोकोऽपि ययौ केवलिनोऽन्तिके ॥ १६॥ अथ देवादिलोकानां स्थितानां च यथाऽऽसनम् । धर्म जगाद योगीन्द्रः केवलामललोचनः॥१६२॥ धर्मेण रूपसंपत्तिधर्मेण कुलसंभवः । धर्मेण धनसंपत्तिधर्मेण विमलं यशः ॥ १६३॥ चिन्तामणिसमो धर्मो धर्मः कामदुधासमः। धर्मः समस्तजन्तूनां वशीकरणमुत्तमम् ॥ १६४ ॥ मनुष्यत्वं परिप्राप्य धर्म ना न करोति यः । स निधिं वीक्ष्य संजातो लोचनाभ्यां विवर्जितः॥१६५॥ पापेन नरके जन्म तथा तिर्यग्गतावपि । जायते देहिनां नित्यं भ्रमतां सततं भवेत् ॥ १६६ ॥ दानेन भोगसंपत्तिस्तपसा स्वर्गसंभवः । ज्ञानेन च भवेन्मोक्षः सर्वकर्मक्षयात्मकः ॥ १६७ ॥ श्रुत्वा केवलिनो वाक्यं व्यन्तरी पूर्ववर्णिता । गणिका देवदत्ता च तथा पण्डितधात्रिका ॥१६८॥ एवमादिजना हृष्टा धर्मश्रवणकारणात् । जगृहुः श्रावकं धर्म सम्यक्त्वं च सुभक्तितः ॥ १६९ ॥ 25 केचित् संसारतस्त्रस्ता हित्वा सर्वं परिग्रहम् । वपुत्रेभ्यः श्रियं दत्त्वा व्रतं दैगम्बरं दधुः॥१७०॥ विहृत्य केवलज्ञानविहारेण सुदर्शनः । निहत्याशेषकर्माणि निर्वाणमगमन्मुनिः ॥ १७१॥ सुदर्शनमुनीन्द्रेण सुभगत्वं भवान्तरे । लब्धं जिननमस्कारफलेन परमं पदम् ॥ १७२॥ तथा चोक्तम्साथेनापि" नमस्कारं यः करोति जिनेश्वरे"। स निस्तरति संसारं किं पुनः परमार्थतः ॥ १७३ ।। ॥ इति श्रीजिननमस्कारसमन्वितसुभगगोपालकथानकमिदम् ॥६०॥ 1फ मनेरन्तुं. 2 पज त्रिकलम् , फ त्रिकलमिदम्. 3 पज द्वितीयं. 4फ सुदर्शनमुनि. 5 पज 'क्षोभं. 6 पज शरणं. 7 फ मुन्नतम्. 8 फ संनिधिं. 9 प नारके. 10 पज विहृत्य-विहारकर्म कृत्वा. 11फ साव्येनापि, ज सापेनापि, पज (=युगपत्पठति), [सार्थेनापि]. 124जिनेश्वरम्. 13 फज omit इति. 14 प adds समाप्तम्. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ६१. यममुनिकथानकम् । अथोण्ड्रविषये' चापि पुरं धर्मपुरं नृपः । यमस्तत्रास्य भार्याऽपि धनदोपपदा मतिः ॥ १ ॥ तत्पुत्रो गर्दभो नाम तनया कोणिका तथा । अस्या नैमित्तिकेनायमादेशो विहितः स्फुटम् ॥ २ ॥ सुकुमारामिमां कन्यां यो नरः परिणेष्यति । स महीमण्डलं सर्वं निरातङ्कः प्रभोक्ष्यति ॥ ३ ॥ तदादेशमिमं ज्ञात्वा भूपतिः कोणिकामिमाम् । भूमिगृहेऽपरिज्ञातां स्थापयामास केनचित् ॥ ४ ॥ अन्यासामपि पत्नीनां भूपस्यास्य महात्विषाम् । शतानि पञ्च पुत्राणां सन्ति रूपादिशालिनाम् ॥५॥ तस्यैव भूपतेर्मन्त्री दीर्घको नाम विश्रुतः । राजाऽयं लौकिकादीनि वेत्ति शास्त्राण्यखण्डितम् ॥६॥ राजा 'ज्ञानमदाविष्टो यमो वा स्खलिताज्ञकः । उग्रतेजास्तरां भूत्वा स नरेन्द्रोऽवतिष्ठते ॥ ७ ॥ एवं हि तिष्ठतस्तस्य नरेन्द्रस्य स्वपत्तने । कृतान्तसमशीलस्य साधितारातिसंततेः ॥ ८ ॥ 10 अन्यदा विहरन् क्वापि शिष्यपञ्चशतावृतः । धर्माख्यपुरसामीप्यं सुधर्मा मुनिराययौ ॥ ९ ॥ ततस्तं योगिनं ज्ञात्वा श्रावकाणां गणास्तदा । वितानध्वजमादाय तत्पूजार्थं समाययुः ॥ १० ॥ तद्वृत्तान्तं परिज्ञाय भूपतिर्गर्वसंयुतः । मुनिनिन्दां प्रकुर्वाणो याति साधुसमीपकम् ॥ ११ ॥ एवं हि गच्छतस्तस्य मुनिनिन्दाविधायिनः । ज्ञानं बुद्ध्या समं नष्टं तदानीं तत्क्षणेन च ॥१२॥ एतस्मिन् सकले नष्टे गर्वहीनो नराधिपः । मुनिपार्श्वं स संप्राप्य भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ १३ ॥ is त्रिःपरीत्य ततः साधुं वन्दित्वा भक्तितत्परः । धर्मं शुश्राव जैनेन्द्रं भूपतिः सन्मनोहरम् ॥ १४ ॥ आहूय गर्दभाभिख्यं पुत्रं प्राप्तं स भूपतिः । राज्यपठ्ठे बबन्धास्य समस्तनृपसाक्षिकम् ॥ १५ ॥ शैतैः पञ्चभिरायुक्तः स्वपुत्राणां नृपैः सह । अन्यैः सुधर्मसामीप्ये राजेन्द्रः स तपोऽग्रहीत् ॥१६॥ एवं प्रव्रजिते तस्मिंस्तत्पुत्रा नृपकुञ्जराः । ग्रन्थार्थपारगाः सर्वे बभूवुः स्वल्पकालतः ॥ १७ ॥ क्रियायां क्रियमाणायामुत्थानं च निवेशनम् । विहायान्यं न जानाति यमयोगी कदाचन ॥१८॥ 20 ततो वैराग्यमासाद्य ज्ञानाभ्यासविवर्जितः । संघमध्ये च किं कार्यं तिष्ठामि क्षणमप्यहम् ॥१९॥ एवं विचिन्त्य संप्राप्य गुरुं पृष्ट्वा पुनःपुनः । पूर्वदेशं जगामायमेकाकी विहरन् मुनिः ॥ २० ॥ यमयोगी व्रजन् मार्गे गर्दभस्यन्दनं' स्थितम् । यवमध्येऽभिगच्छन्तं नरमेकं ददर्श सः ॥ २१ ॥ भक्षयन्तौ यवं बाढं हन्यमानौ नरेण तौ । गच्छन्तौ मार्गतो मन्दमाकर्षन्तौ दिशो दश ॥ २२ ॥ यमयोगी विलोक्यायं गर्दभौ क्षेत्रमध्यगौ । खण्डश्लोकमिमं दिव्यमेकं पठति विस्मितः ॥ २३ ॥ तरामाकर्षणोऽसि त्वं भूयोऽपि प्रतिकर्षणः । लक्षितस्ते " मया भावो यवं गर्दभ याचसे ॥ २४ ॥ स्तौति देवक्रियां कुर्यात् स्वाध्यायादिकमेव सः । यमसाधुः परं हृष्टः लोकेनानेन सर्वदा ॥ २५ ॥ अन्यदा पथि गच्छन् सन् रममाणान् कुमारकान् । दृष्ट्वा कौणिकया भूयः " श्लोकखण्डं पठत्यरम् ॥ २६ ॥ आधावन्तः प्रधावन्तः संधावन्तो मतं मया । मन्दबुद्धिसमायुक्ताश्छिद्रे पश्यत कोणिकाम्" ॥२७॥ श्लोकद्वयेन चान्येन भक्तिनिर्भरमानसः । वन्दनादिक्रियाः सर्वाः करोत्येष विशुद्धधीः ॥ २८ ॥ ° ततो गच्छन् हरिं दृष्ट्वा संध्यायां यान्तमेव सः । यमसाधुः प्रयत्नेन श्लोकार्थं पठति स्फुटम् ॥२९॥ 25 5 १३२ numbering of the last chapter 6 Second line missing in फ. युगलम् फ युगलमिदम् 10 प लखितं 1फ अथेन्द्रविषये, [ अथोड़ विषये ]. 2 Upto verse No. 8 below, फ continues the फ महाज्ञानमहाविष्टो 5 फ तिष्ठति. फ दिशो दिशः. 9 प युग्मम्, ज 12 फ पश्यति कोणकम्. 3 फज प्रभोक्ष्यते 4 7फ गर्दभं स्यन्दने. 8 11 पज कोणिकया भूपः. [ ६१.१ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१. ६० ] यममुनिकथानकम् १३३ विषाणनालशीताङ्गसंध्यायां मा व्रज क्वचित् । बुभुक्षाग्रस्तचेतस्काहीर्घात्ते दृश्यते भयम् ॥३०॥ भूयः श्लोकत्रयेणायं स्वाध्यायादिक्रियाः सश । करोति भक्तिसंपन्नो यमयोगी दिवानिशम् ॥३१॥ ततो व्रजन्नसौ भूयो ग्रामस्यान्ते मनोहरे । शिलाबद्धमहावापीसोपानेषु वरेषु च ॥ ३२॥ निम्नगर्तान् विलोक्यैष योषितं पुरतः स्थिताम् । घटद्वयसमायुक्तां पप्रच्छेति कुतूहली ॥ ३३॥ किमर्थं कोणिका गर्ता वर्तुलाः श्रेणिसंस्थिताः । दृश्यन्ते ब्रूत मे शीघ्रं वापीसोपानपतिषु ॥३४॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य वक्रतापरिवर्जितम् । जगाद तं मुनि मुग्धं कौतुकेन विलासिनी ॥ ३५॥ जलपूर्णैः कुटैस्तुङ्गैः क्रियमाणैर्वधूजनैः । गर्ताः शिलासु संजाताः कालेन बहुना मुने ॥ ३६॥ श्रुत्वा तद्वचनं योगी कौतुकव्याप्तमानसः । पापठीति परं श्लोकं संगतार्थमिमं पुनः ॥ ३७॥ तिष्ठता गच्छताऽन्येन मृदुना कठिनोऽपि च । भिन्नो ग्रावाऽपि कालेन नित्यस्थेन घटेन सः॥३८॥ एवमुक्त्वा पुनः साधुर्दध्यौ विस्मितमानसः । शिलाया नूनमेतस्याः किं कर्णौ कठिनौ मम ॥३९॥" येनाहं स्वगुरुं हित्वा बन्धमोक्षप्रकाशकम् । अपुष्टधर्मतायोग्यां श्रितश्चैकविहारिताम् ॥ ४०॥ चिन्तयित्वा चिरं साधुरागच्छन् गुरुसंनिधिम् । धर्मपत्तनसामीप्ये तस्थौ तरुसमाकुले ॥४१॥ दृष्ट्वा यममुनिं नक्तं तद्वने दीर्घगर्दभौ । अमुं हन्तुं समायातौ खड्गमादाय भीषणम् ॥ ४२॥ यावन्मुनिमिमं हन्तुं खङ्गेनायं समुद्यतः । तावन्मुनिवधाद् भीतः खड्ग कोशे मुमोच सः॥४३॥ एवं हि गर्दभस्यापि कुर्वाणस्य विचेष्टितम् । स्वाध्यायं मुनिरादाय श्लोकखण्डं पठत्यरम् ॥ ४४ ॥ आकर्षन्तौ प्रकर्षन्तौ स्वमतं क्रूरमानसौ । भूयोऽपि गर्दभो' दीर्घ जगाद पुरतः स्थितम् ॥४५॥ मुनिनाऽत्र परिज्ञाता वाऽऽवां दीर्घ महामते । परस्परं समालोक्य तस्थतुस्तौ विशङ्कितौ ॥४६॥ मूकभावं समासाद्य दीर्घगर्दभयोस्तयोः । स्थितयोः साधुरप्येष श्लोकखण्डं पठत्यलम् ॥ ४७॥ आधावन्तौ प्रधावन्तौ किंचिदेतौ समीपगौ । भूयोऽपि गर्दभो दीर्घ प्राहेदं भयवेपितः ॥४८॥ यत्त्वया गदितो दीर्घ यथायं मुनिरागतः। आवयोमरणं कृत्वा तव राज्यं ग्रहीष्यति ॥ ४९ ॥॥ मदीयराज्यकार्येण दीर्घ नायं समागतः । मत्स्वसुः कोणिकाया हि ज्ञापनार्थ समाययौ ॥५०॥ तूष्णीभावमुपाश्रित्य स्थितस्यास्य यतीश्वरः । श्लोकखण्डं तृतीयं च पपाठ पुनरप्ययम् ॥ ५१॥ मृणालनालशीताङ्ग नक्तं मा याहि ददुरे । श्लोकखण्डमिदं मौनं श्रुत्वा दध्यौ स गर्दभः ॥५२॥ कुमत्रिणमिमं धूर्त दीर्घनामानमुद्धतम् । स्वकार्याकुशलं" क्रूर वञ्चकं वेभि सर्वदा ॥ ५३॥ उपकारशतेनापि गृह्यते न परः क्वचित् । सुगृहीतः सुमान्यो वा यः परः पर एव सः॥ ५४॥ 25 अनयाऽवस्थया साधुः पुत्रस्नेहपरायणः । शिक्षा दातुं समायातः पितुः पुत्रो हि वल्लभः ॥५५॥" चिन्तयित्वा चिरं साधुदीर्घेण सह गर्दभः । जगाम मुनिसामीप्यं पितृभक्तिसमन्वितः ॥५६॥ विधाय बन्दनामस्य भक्तितोऽपि क्षमापणम् । जिनधर्म समादाय सदीर्घः स्वगृहं ययौ ॥ ५७॥ यमयोगी परिप्राप्य गुरुसामीप्यमादरात् । घोरं तपश्चकारेदं विविधर्द्धिसमन्वितः ॥ ५८॥ “पादानुसारिणी बुद्धिः कोष्ठबुद्धिस्तथैव च । संभिन्नश्रोत्रिकाद्या हि बुद्धयः परिकीर्तिताः ॥५९॥ ॥ उग्रं तपस्तथा दीप्तं तपस्तप्तं महातपः । घोरादीनि विजानन्तु तपांसीमानि कोविदः ॥ ६ ॥ 1फ omits portions and gives one verse for Nos. 29-30. 2 फ कुतूहलीम्. 3 पज त्रिकलम् , फ त्रिकलमिदम्. 4 [ ह्रियमाणे ]. 5 प युग्मम् , ज युगलम् , फ युगलमिदम्. 6 फ यो नाहं. 7 फ गर्दभं. 8 फ दीर्घ. 9 पज स्तोकषण्डं. 10 फ दुर्द्धरः. 11 फ खकालकुशलं. 12 पज शिष्या. 13 प चतुष्कलकमिदम.फ चतुष्कलमिदम्, ज चतुःकुलकमिदम्. 14 [पदानु]. 15फ कोविदेः, कोविदाः]. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [६१.६१अणिमा लघिमा प्राप्तिर्वशित्वं कामरूपिता । प्रागम्यमीशिता' वीर्यं लब्धयोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥६॥ जललब्धिमता चार्वी तथाऽन्या तन्तुजङ्घयोः । बीजपुष्पफलाकाशश्रेणिलब्धिमता परा ॥ ६२ ॥ 'स्वखरूपफलावाप्तिविधानकरणक्षमाः । कीर्तिताः कोविदैरेताश्चाष्टौ चारणलब्धयः ॥ ६३ ॥ आमखेलौषधिर्दिव्यामलजल्लौषधिस्तथा । सौषधिरिमाः पञ्च लब्धयः परिकीर्तिताः ॥ ६४ ॥ 5 अमृतक्षीरयोलब्धिस्तथा च मधुसर्पिषोः । एताश्चतस्र उद्दिष्टाः कोविद रसलब्धयः ॥६५॥ औषधस्य क्षीणता 'लब्धिराहाराक्षीणतस्तथा । लब्धिद्वयमिदं प्रोक्तमक्षीणादिमहानसम् ॥६६॥ एताभिर्लब्धिभिर्युक्तः श्रामण्यं परिपाल्य च । धर्मादिनगरासन्ने कुमारगिरिमस्तके ॥ ६७ ॥ शतैः पञ्चभिरायुक्तो मुनीनां धर्मशालिनाम् । आराधनां समाराध्य यमः साधुर्दिवं ययौ ॥ ६८॥ ॥ इति श्रीखण्डश्लोकत्रयस्वाध्यायसंसक्तयममुनिवर्ग लोकगमनकथानकमिदम् ॥ ६१॥ ६२. दृढसूर्यकथानकम् । अथावन्तीमहादेशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । अस्यां बभूव भूपालो धनपालः प्रतापवान् ॥ १॥ कान्ता धनमती तस्य तन्मनोनयनप्रिया । आसीदुत्तुङ्गवक्षोजा विषाणदललोचना ॥२॥ अस्सैव भूपतेः श्रेष्ठी धनदत्तोऽभवद्धनी । धनदत्ताऽस्य सद्भायों रूपराजितविग्रहा ॥३॥ । तत्रैव नगरे चौरो दृढसूर्योऽभवन्महान् । भार्या वसन्तसेनाऽस्य पण्यस्त्री मनसः प्रिया ॥४॥ उद्यानवनमायान्त्या धनमत्या मनोहरम् । हारं विलोक्य सा जाता दुःखिनी तदलाभतः ॥५॥ ततो विलोक्य तां भार्यां दृढसूर्यो जगाद सः।देवि किं दुःखिता जाता किं वा ध्यायसि दुर्मनाः ॥६॥ दृढसूर्यवचः श्रुत्वा तत्प्रिया निजगावमुम् । हारदर्शनमूढात्मा म्लानवक्रसरोरुहा ॥७॥ दत्से हारं न मे कान्त धनमत्या यदि प्रभो । ततोऽहमद्य" यास्यामि पञ्चतां नियतं द्रुतम् ॥८॥ 20 निशम्य तद्वचः सोऽपि शोकिनी तां जगौ पुनः। भद्रे मा दुःखिनी भूया हारं ते वितराम्यरम् ॥९॥ एवं निगद्य तां कान्तां नक्तं तद्वासमन्दिरम् । दृढसूर्यो विवेशाशु तत्प्रभोद्योतिताम्बरम् ॥१०॥ मणिहारं समादाय निर्गच्छंस्तद्गृहान्तरात्" । गृहीतो यमपाशेन" तलारेण स तस्करः ॥ ११॥ ततः प्रभातकाले च शूलिकायां निवेशितः । यमपाशेन तेनाशु दृढसूर्यों वितिष्ठते ॥ १२ ॥ अन्यदा धनदत्तोऽपि वन्दित्वा जिनपुङ्गवम् । आगच्छन् दृढसूर्येण दृष्टोऽयमिति भाषितः ॥१३॥ 25 श्रावकोऽसि कुलीनोऽसि दयावानसि सजन । तेन त्वं मां जलं शीघ्रं धनदत्त प्रपाय भो ॥१४॥ शूलस्थदृढसूर्यस्य तृषाविह्वलचेतसः । निशम्य वचनं श्रेष्ठी बभाणेति तकं पुनः॥१५॥ कुर्वाणेन गुरोः सेवां सर्वसत्त्वानुकम्पिनः । मया द्वादशभिर्वमंत्रो लब्धो महानयम् ॥ १६ ॥ गच्छतो जलमानेतुं त्वदर्थं मम शोभन । विस्मृतिं याति मत्रोऽयं द्वादशाष्टप्रशिक्षितः ॥१७॥ मदीयं धरसे" मत्रं कण्ठस्थं यदि भावतः । ततोऽहं शीतलं तोयं भवन्तं पाययाम्यरम् ॥१८॥" ___1[प्राकाम्य]. 2 पवाप्तिर्वि. 3 प‘जलौषधि. 4 फ अषध्य, ज ऊषधस्य. 5 फ राहार. 6 [औषध्यक्षीणतालब्धिराहाराक्षीणता तथा ]. 7 फज omit इति श्री. 8 प adds संपूर्णम. 9 प वनमायाता. 10 फ दुर्मता. 11 फ ततोहमथ. 12 प युग्मम् , ज युगलम्, फयुगलमिदम्. 13 पज तत्प्रभाज्योतिताम्बरम्. 14 फहान्तरम्. 15 फ यमपालेन. 16 [द्वादशाब्दप्रशिक्षितः]. 17 फ चरमे. 18 पज चतुःकुलकम् , फ चतुष्कलमिदम्. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२. ५०] दृढसूर्यकथानकम् १३५ धनदत्तवचः श्रुत्वा दृढसूर्यो जगावमुम् । यथा त्वं लघु मे मत्रं देहि प्राणिदयापर ॥ १९॥ श्रावकेन ततस्तस्मै दत्तो मत्रो मुमूर्षवे । ध्यायंस्तं स नमस्कारं दृढसूर्यो मृतिं ययौ ॥ २० ॥ 'दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषदिव्यदेवीसमन्विते । दृढसूर्यः सुरो जातः सौधर्मे तत्फलान्महान् ॥ २१॥ दत्त्वा पञ्चनमस्कारं धनदत्तोऽपि दस्यवे । ययौ जिनालयं तुङ्गं नानामुनिसमाकुलम् ॥ २२ ॥ तद्वृत्तान्तं परिज्ञाय धनपालो नराधिपः । निर्धनं कर्तुमारेभे धनदत्तस्य मन्दिरम् ॥ २३ ॥ । दृढसूर्यचरो देवः प्रथमस्वर्गसंभवः । अवधिज्ञानमासाद्य विवेद स्वभवान्तरम् ॥ २४ ॥ धनदत्तोपसर्ग च विदित्वाऽवधिना सुरः । धनपालकृतः क्रुद्धः संप्रापच्छ्रेष्ठिमन्दिरम् ॥ २५ ॥ धनपालनरान् सर्वान् धनदत्तगृहागतान् । मायया पातयामास दृढसूर्यचरः सुरः ॥ २६ ॥ कर्णघ्राणं समादाय कृत्वा मस्तकमुण्डनम् । धनपालान्तिकं देवो नरं प्रहितवानरम् ॥ २७॥ आस्थानमण्डपस्थस्य धनपालस्य भूपतेः । स नरः प्राप्य सामीप्यं भयवेपितविग्रहः ॥ २८॥ ॥ दृष्ट्वाऽमुं भूपतिः प्राह केनेदं विहितं तव । ब्रूहि मे भद्र तं शीघ्रं प्रापयामि यमालयम् ॥ २९ ॥ धनपालनरेन्द्रस्य निशम्य वचनं भटः । जगाद विह्वलस्वान्तस्तं तदा स्खलिताक्षरम् ॥ ३०॥ धनदत्तगृहद्वारे मषीवर्णशरीरकः । गुञ्जाफलसमानाक्षो नरः कोऽपि वितिष्ठते ॥ ३१ ॥ त्वदादिष्टान्नरान् सर्वान् निहत्य लकुटेन च । अवस्थामीदृशीं तेन नीतोऽहं नरकुञ्जर ॥ ३२॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा कोपारुणनिरीक्षणः । चतुरङ्गबलं शीघ्रं तदन्तं स विसृष्टवान् ॥ ३३॥ ॥ आयातमात्रतस्तेन धनपालबलं लघु । दृढसूर्यचरेणेदं देवेन भुवि पातितम् ॥ ३४ ॥ ततो निहतमाकर्ण्य स्वबलं तेन भूपतिः । निजसैन्यसमाजेन संप्रापाशु तदन्तिकम् ॥ ३५ ॥ ततस्तत्क्षणमात्रेण तद्बलं लकुटाहतम् । दृढसूर्यचरो देवः पातयामास भूतले ॥ ३६॥ विलोक्य सकलं सैन्यं हतं विह्वलमानसः । रणात् पलायनं चक्रे धनपालनरेश्वरः ॥ ३७॥ वन्दित्वा श्रेष्ठिनं भूपो जिनायतनमागतम् । भयवेपितसर्वाङ्गो धनदत्तान्तिकं ययौ ॥ ३८॥ ॥ यावद्वदति तद्वार्ता धनदत्तस्य भूपतिः । तावत्तन्मार्गतः प्राप सुरो जिनवरालयम् ॥ ३९ ॥ धनपालनृपं दृष्ट्वा धनदत्ताश्रितं तदा । जगाद श्रेष्ठिनं देवो दष्टदन्तच्छदो रुषा ॥ ४०॥ वणिक्पते द्रुतं मुञ्च भूपतिं त्वत्पुरः स्थितम् । करोमि निग्रहं येन वहस्तेन तवाग्रतः ॥४१॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी जगादेमं पुरः स्थितम् । कोऽसि त्वं केन कार्येण कोपमायासि भूपतेः ॥४२॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य बभाण विबुधोऽप्यमुम् । दृढसूर्योऽस्म्यहं चौरः प्रसिद्धो वसुधातले ॥४३॥ 25 गृहमस्य प्रविष्टोऽहं हारमादाय निर्गतः । गृहीतोऽस्मि तलारेण शूलिकायां निवेशितः ॥ ४४ ॥ त्वत्पार्श्वतो मया श्रेष्ठिन् विह्वलीभूतचेतसा । नूनं जिननमस्कारो गृहीतो जललोभतः ॥४५॥ ध्यात्वा पञ्चनमस्कारं पञ्चतां प्राप्य वेगतः । जातो महर्द्धिको देवः सौधर्मे त्वत्समागमात् ॥४६॥ ज्ञात्वा वृत्तान्तमीदृक्षं त्वद्गृहस्य च लुण्टनम् । अनेन भूभुजा कर्तुं प्रारब्धं कोपमीयुषा ॥४७॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा भवत्पीडामहं द्रुतम् । आगतस्तां निराकर्तुं त्वद्गुणाकृष्टमानसः॥४८॥ 30 हत्वाऽस्य सकलं सैन्यं प्राप्तोऽमुं हन्तुमीश्वरम् । करोमि निग्रहं तेन मुञ्च श्रेष्ठिन् विकारणम् ॥४९॥" श्रुत्वाऽमरवचः श्रेष्ठी जगादेमं सुविस्मितः । मुञ्चेमं" मत्पतिं साधो मद्वात्सल्यं कृतं त्वया ॥५०॥ 1फ निर्घोषे. 2 फalone has this verse. 3 [प्राप]. 4 फ तदस्खलि. 5 पज त्रिभिः कुलकम्, फत्रिकलम, 6 फज विदित्वा. 7 फ loses the second line of No.40 and the first line of No. 41. 8 पज निग्रहस्तेन. 9 फ मुञ्चन्. 10 पज कुलकम् , फ कुलकमिदम, 11 फ मुञ्च मे. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२. ५१ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे दत्त्वाऽभयं नरेन्द्रस्य तदानीं श्रेष्ठिवाक्यतः । सैन्यमुत्थापितं सर्वं देवेन कृतनिस्वनम् ॥५१॥ श्रुत्वाऽतिशयमेतस्य महावैराग्यसंगतः । लक्ष्मी समर्पयामास धनपालः स्वसूनवे ॥५२॥ आपृच्छय सकलान् बन्धून् धनदत्तं च भक्तितः। जिनसेनान्तिके दीक्षां धनपालोऽग्रहीत् तदा ॥५३॥ दृढसूर्यचरो देवो धनदत्तस्य पूजनम् । विधाय कानकैः पदैर्जगाम त्रिदिवं मुदा ॥ ५४॥ ॥ इति श्रीदृढसूर्यचौरशूलिकानिहितपश्चनमस्कारस्मरणमात्र देवत्वप्राप्तिकथानकमिदम् ॥ ६२॥ ६३. अर्हद्दासकथानकम् । अथ चेदं समासेन भेदेनान्येन सजना । आकर्णयत भावेन कथयामि कथानकम् ॥१॥ शूरसेनजनान्तेऽस्ति चोत्तरा मथुरापुरीं । अस्यां नराधिपः श्रीमानुदितोदयनामकः ॥२॥ 10 उदिताऽस्य महादेवी रूपसौभाग्यशालिनी । आसीत् प्रमोदसंपन्नः पुत्रः प्रमुदितोदयः ॥३॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य प्रतापाक्रान्तवैरिणः । सुबुद्धिर्नामतो मत्री महामन्त्रविराजितः ॥४॥ भूपस्यास्य महाश्रेष्ठी जिनदासोऽभवत् प्रियः । अष्टौ तस्य महाभार्या नामानीमानि बिभ्रति ॥५॥ मित्र श्रीरभवत् पूर्वा कुन्दश्रीरपरा मता । विष्णुश्रीविष्णुभार्याभा नागश्रीर्नागिनीव सा ॥६॥ तथा पद्मलता चान्या कनकादिलता परा । विद्युल्लता परा ज्ञेया मता कुन्दलताऽपि च ॥७॥ 15 तथा स्वर्णखुरश्चौरस्तत्पुरे विद्यते महान् । महाचौरिकया सोऽयमहन्यहनि जीवति ॥ ८॥ अन्यदा तिष्ठतामत्र सर्वेषां च यथाक्रमम् । कौमुदीमहिमा प्राप्ता कामिमानसवल्लभा ॥९॥ नूनं कार्तिकमासस्य शुक्लपक्षे समागते । पूर्णिमान्ताऽष्टमीपूर्वा कौमुदीमहिमेरिता ॥१०॥ तत्पुरीप्रमदोद्याने 'समस्तवनिता भृशम् । रमन्ते पूर्णिमां यावन्नरेन्द्रनररक्षिताः ॥११॥ तदानी घोषणा दत्ता भूभुजेयं महादरात् । समस्तभुवनव्यापियशसा नीतिवेदिना ॥ १२ ॥ 20 योषितां रममाणानां मध्यं विशति यो नरः। स वध्यो मे स्वकीयोऽरं भवेद् यद्यपि नन्दनः ॥१३॥ नगराभ्यन्तरे सर्वे तोषपूरितमानसाः । रममाणा महाभूत्या नरास्तिष्ठन्तु केवलाः ॥ १४ ॥ अत्रान्तरे महादेवीविरहे स महीपतिः । जगाद मत्रिणं कामविह्वलीभूतमानसः ॥ १५ ॥ कौमुदीमहिमायां च रममाणाः सुयोषितः । पश्यामि तद्वनं गत्वा कौतुकव्याप्तमानसः ॥ १६ ॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा सुबुद्धिः सचिवः पुनः । जगादेमं महाबुद्धिर्भार्यादर्शनकोत्सुकम् ॥ १७ ॥ 2 विधाय घोषणामत्र यदि तन्मध्यमेष्यसि । प्रतिज्ञाभङ्गतो राजन्नकीर्तिस्ते भविष्यति ॥ १८॥ नूनं कृतप्रतिज्ञस्य गुणसंतानवारिधेः । तव राजप्रधानस्य न गन्तुं तत्र युज्यते ॥ १९ ॥ निशम्य मत्रिणो वाक्यं जगादेमं नरेश्वरः । अवश्यमेव गन्तव्यं मया तत्र महामते ॥ २० ॥ भूपालवचनं श्रुत्वा सुबुद्धिर्निजगावमुम् । अथाख्यानं महाराज शृणु त्वं मम सांप्रतम् ॥२१॥ कुरुजङ्गलदेशेऽत्र हस्तिनागपुरं परम् । सुयोधनोऽस्य भूपालो धनदत्ताऽस्य गेहिनी ॥ २२॥ 30 तस्य मत्री सुमित्रोऽस्ति सोमशर्मा पुरोहितः । तलारो यमपाशोऽपि पुरं पाति स सर्वदा ॥ २३॥ अन्यदा भूपतिर्जिष्णुः परदेशात् समाययौ । पौरलोकः समस्तोऽपि नरेन्द्रं द्रष्टुमागतः ॥ २४ ॥ 1प adds संपूर्णम्. 2 फ चोत्तरान्मथुरापुरी. 3 अस्या. 4 फ समस्ता. 5 प युग्मम् , ज युगलम्. फ युगलमिदम्. 6पज त्रिभिःकुलकम,फ निकलमिदम्. 7 पर्विजगावमुम्. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. ५५] अर्हद्दासकथानकम् १३७ सुयोधनो विलोक्येमं पौरलोकं पुरःस्थितम् । क्षेमं भवत्समूहस्य' सर्वकालं महाजन ॥ २५॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं श्रेष्ठिलोको जगावमुम् । आरक्षकप्रसादेन कुशलं सर्वदैव नः ॥२६॥ पौरलोकवचः श्रुत्वा कोपमासाद्य चेतसि । विस्मयव्याप्तचेतस्कस्तदा दध्यौ महीपतिः ॥ २७॥ आरक्षकप्रसादेन श्रेष्ठिनां कुशलं सदा । अस्मत्पादप्रसादेन नैतेषां तत् कदाचन ॥ २८॥ तदानीं चिन्तयित्वेदं मौनमादाय भूपतिः । दिनानि कानिचित्तस्थौ तलारोपरि कोपवान् ॥ २९ ॥ तलारमत्सरेणायं राजा मत्री पुरोहितः । भाण्डारे तत्परीक्षार्थं निशि खातं चखान सः ॥ ३० ॥ आदाय साररत्नानि विधायान्यत्र तानि सः। राजाऽऽहूय तलारं तं तद्वृत्तान्तमभाषत ॥ ३१ ॥ आरक्षिको नृपोक्तेन गत्वा खातमुखं तदा । नखां यज्ञोपवीतं च विलोक्य मणिपादुके ॥३२॥ एतानि त्रीण्यपि क्षिप्रं समादाय सविस्मयः। आरक्षिको भयग्रस्तो जगाम निजमन्दिरम् ॥३३॥ अथारक्षिकमाहूय भूपतिः स्वान्तिकं तदा । बमाण क्रोधरक्ताक्षस्तदा तं पुरतः स्थितम् ॥ ३४ ॥ ॥ अन्येषां वेश्मरत्नानि पासि दुष्ट प्रयत्नतः । मद्गृहं मद्धनं कस्मान्न रक्षसि वदाशु मे ॥ ३५॥ रे दुष्टारक्षिक क्षुद्र यदि सप्तदिनान्तरे । चौरं धनं मदन्तं च समानयसि ते शुभम् ॥ ३६ ॥ अन्यथा तव पापिष्ठ प्रमादासक्तमानसः । करोमि निग्रहं स्वेन करवालेन चारुणा ॥ ३७॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा तलारः संभ्रमान्वितः । एवमस्त्विति संभाष्य निर्जगाम तदन्तिकात् ॥ ३८॥ वणिग्जनादिसामीप्यं संप्राप्य पृथुवेपथुः । आरक्षिको जगादैतान् तदा तच्चौरदर्शनम् ॥ ३९ ॥ 15 भवद्भिः स्नेहसंपन्नैः साधुसेवापरायणैः । भवितव्यं ममावश्यं सहायैः करुणापरैः ॥ ४०॥ मत्रिसामन्तपुत्राणां कुमारश्रेष्ठिभूभुजाम् । नखयज्ञोपवीतं च विचित्रमणिपादुके ॥४१॥ दर्शयित्वाऽखिलानेतान् विस्मयव्याप्तचेतसाम् । आरक्षको विशुद्धात्मा जगादेति विचक्षणः ॥४२॥ स्वगृहे चौरिकां कृत्वा खयमेव नराधिपः । कार्य विनाऽधुना हन्तुं मां समिच्छति कोपतः॥४३॥ श्रुत्वा तद्वचनं तेन वदन्तीमं पुरःस्थितम् । सहायास्ते भविष्यामो वयं मा याहि भीतिताम् ॥४४॥2॥ शमं यास्यति यद्येष न स्वयं धरणीपतिः । ततोऽस्य निग्रहं सर्वे करिष्यामो विसंशयम् ॥४५॥ स्थिरान् सर्वान् विधायैष भूपवाक्येन संसदम् । आजगाम विनीतात्मा तलारो विकसन्मुखः ॥४६॥ आरक्षिकं विलोक्यैष भूपतिः प्राह सुस्थितम् । दृष्टश्चौरस्त्वया मूढ वद तं शीघ्रं मेऽधुना ॥४७॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा तलारो वदति प्रभुम् । न दृष्टस्तस्करो राजन् भ्राम्यताऽपि मया क्वचित् ॥४८॥ किं पुनः पुरुषश्चैकः पठित्वाशु सुभाषितम् । आख्यानं कथयत्येष शृण्वन्निदमहं स्थितः ॥४९॥ स्थिता वयं चिरं कालं पादपे निरुपद्रवे । मूलात् समुत्थिता वल्ली जातं शरणतो भयम् ॥५०॥ पादस्तम्भो वनस्यान्ते पादपः सरलो महान् । सरोवरसमीपे च स्थितो भाति विभिः कलैः ॥५१॥' निजदेहप्रभाभारभासिताकाशभूतलाः । वसन्ति बहवस्तत्र मन्दस्खानाः कलस्वनाः ॥ ५२ ॥ महातरोरधःस्थं तं सुकुमारं महाप्रभुः । वयङ्कुरं विलोक्यैकं वृद्धहंसो जगावमून् ॥ ५३॥ बहुश्रुतेन युक्तानां वृद्धानां वचनं परम् । भवद्भिः स्थिरचेतोभिः श्रोतव्यं सकलैरिदम् ॥ ५४॥* 30 वल्यङ्गुरमिमं यावदुत्थितं कोमलं द्विजाः । तावच्चञ्चूनखैः शीघ्रं नयामोऽसारतां वरम् ॥५५॥ 1 फ भव समूहस्य. 2 फ राजाहूय नलारम्भं. ३ प नखां=मुद्रिकाम्. 4 [°मानस]. 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6फ आरक्षको. 7 फसह संपन्नैः. 8 प चतुष्वकुलकम् , फ चतुःकलकमिदम्, ज चतुष्कुलकम्. 9 प युग्मम्,ज युगलम्, फयुगलमिदम. 10 फ स्थितो भाति विभिः कलैः. 11 फ omitsNo.51. 12 फ interchanges Nos. 53 and 54. 13 पज त्रिकलम, फत्रिकलमिदम. बु० को०१८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ६३.५६ वृद्धहंसवचः श्रुत्वा परिणामहितं तदा । धार्तराष्ट्र्युवानस्ते' हसित्वेमं जगुः पुनः ॥ ५६ ॥ अहो मरणभीतस्य तव वृद्धस्य सांप्रतम् । बुद्धिर्विनाशमायाता येनैवं भाषसे द्विज' ॥ ५७ ॥ अयं वहयङ्कुरोऽस्माकं सामर्थ्यपरिवर्जितः । बुद्धिपक्षप्रयुक्तानां मृत्युहेतुर्भविष्यति ॥ ५८ ॥ वृद्धहंसः समालापमुपहाससमन्वितम् । श्रुत्वा मौनं समादाय तस्थौ संकुचितात्मकः ॥ ५९ ॥ • ततः कालेन सा वृद्धिं प्राप्य वृक्षं समाश्रिता । तया वल्या समारूढो व्याधो वृक्षाग्रमुन्नतम् ॥ ६० ॥ प्राध्वं कृत्य ततो हंसान् व्याधः सर्वानपि द्रुतम् । भूमौ मुमोच हृष्टात्मा भयवेपितविग्रहान् ॥ ६१ ॥ वृद्धहंसस्य वाक्येन स्थितास्ते निश्चलाङ्गकाः । तावद्यावद् विमुक्तास्ते तेन सर्वेऽपि तत्क्षणम् ॥६२॥ ततः सर्वेऽपि ते हंसा वियदुत्पत्य वेगतः । पलायांचक्रिरे धूर्ता वृद्धहंसोपदेशतः ॥ ६३ ॥ नूनमाख्यानकं राजन् शृण्वन्नहमिदं स्थितः । एवमाज्ञापिते तस्य गतं तत् प्रथमं दिनम् ॥ ६४ ॥ 1. अथान्यदिवसे जाते भूपतिं सदसि स्थितम् । जगाद विस्मितस्वान्तः सेवार्थं दण्डपाशिकः ॥६५॥ दृष्ट्वा पुरःस्थितं राजा तलारं प्राह विस्मितः । दृष्टश्चौरस्त्वया भद्र ब्रूहि तं मम सांप्रतम् ॥ ६६ ॥ श्रुत्वा नराधिपं वाक्यं तलारो निजगावमुम् । न दृष्टस्तस्करो राजन् मयाऽन्वेषणकारिणा ॥६७॥ एकमाख्यानकं ख्यातं कुम्भकारेण मे विभो । आकर्णयन्निदं तत्र स्थितोऽहं नरकुञ्जर ॥ ६८ ॥ येनाहं दीनदुःखिभ्यो जन्तुभ्यः सततं भुवि । भिक्षं ददामि येनालं देवेभ्योऽपि तथा बलिम् ॥ ६९ ॥ पुष्णामि येन चात्यर्थं स्वगृहागतमानवान् । स्वजनानपि संप्रीत्या महास्नेहविधायिनः ॥ ७० ॥ अत्यन्तक्लेशनिर्माणा समानीताऽतिदूरतः । तया पृष्टं तु मे भग्नं जातं शरणतो भयम् ॥ ७१ ॥ मित्रेण केनचित् पृष्टः कुम्भकार सुमेधसा । पृष्टं तु केन भग्नं ते कथयाशु ममाधुना ॥ ७२ ॥ मित्रवाक्यं समाकर्ण्य कुम्भकारो बभाण तम् । जीवामि येन पिण्डेन पृष्टं तेनेह चूर्णितम् ॥ ७३ ॥ सर्वभूतशरण्येश समस्तजनताप्रिय । अस्माभिः श्रुतमेवेदं कुम्भकारवचो नृप ॥ ७४ ॥ 15 20 25 तृतीये दिवसे जाते तदाऽसौ दण्डपाशिकः । तत्पुरः प्रीतचेतस्को जगादेदं कथानकम् ॥ ७५ ॥ पिता यस्य गलं हन्ति विषं माता ददाति च । नरेन्द्रो लुम्पति क्षिप्रं शरणं कं प्रयातु सः ॥ ७६ ॥ अत्रास्ति भरतक्षेत्रे पुरं धर्मपुरं वरम् । वरधर्मोऽत्र भूपालो वरधर्मा प्रियाऽस्य च ॥ ७७ ॥ तन्मन्त्री ज्यदेवोऽस्ति जयदेवी प्रियाऽस्य सा । तोषपूरितचेतस्कौ तिष्ठतस्तौ यथोचितम् ॥ ७८ ॥ अन्यदा तौ परिप्राप्तौ परदेशं महाबलौ । रिपुं जेतुं महावीर्यं स्कन्धावारेण भूयसा ॥ ७९ ॥ तं च शत्रुं वशीकृत्य स भूपः स्वल्पवासरैः । आजगाम पुरं शीघ्रं पताकावलिराजितम् ॥ ८० ॥ विशन् स गोपुरद्वारं चित्रचित्रितभीतिकम्' । ददर्श निपतत्तुङ्गं विशीर्णाशेषबन्धकम् ॥ ८१ ॥ निपतद् गोपुरं दृष्ट्वा निवृत्तोऽशकुनं वदन् । वरधर्मो नृपस्तस्थौ तत्रैव नगराद् बहिः ॥ ८२ ॥ उत्थापयति तद्भूपो भूयः पतति मूलतः । विलोक्य निपतद् भूपो मन्त्रिणं प्राह विस्मितः ॥ ८३ ॥ केनोपायेन चोत्तुङ्गं स्थिरं भवति गोपुरम् । सांप्रतं सचिव स्पष्टं ब्रूहि मत्पुरतः शुभम् ॥ ८४ ॥ 30 भूपालवचनं श्रुत्वा मन्त्री तं निजगौ पुनः । महाचिन्ताभरक्रान्तविह्वलीभूतविग्रहम् ॥ ८५ ॥ निहत्य भानुषं चैकं स्वयं प्राकारगोपुरे । क्षतजेन बलिं दत्त्वा तिष्ठतीदं नरेश्वर ॥ ८६ ॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा वरधर्मनराधिपः । मूकभावं समासाद्य तस्थौ तत्क्षणमात्रकम् ॥ ८७ ॥ अत्रान्तरे परिप्राप्य पौरलोको जगाद तम् । तिष्ठ त्वं मौनमादाय जानीमोऽत्र वयं नृप ॥ ८८ ॥ अस्माकं मानुषं यो हि मारणार्थं ददात्यरम् । तस्मै दीनारलक्षं च दास्यामो वयमादरात् ॥ ८९ ॥ 1 फ युवानास्ते. 2 फ द्विजः 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 [ भैक्षं ]. 5 [ भित्तिकम् ]. 6 पफ युग्मम्, ज युगलम्, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. १२३] अर्हदासकथानकम् १३९ इयं च घोषणा दत्ता तदानीं पौरवाक्यतः । पुरमध्ये समस्तेऽपि स्तूयमाना जनवजैः॥ ९॥ दारिद्रपीडितो दुःखी लब्धटक्कः कठोरवाक् । गोचरोपपदो दत्तो विप्रो वसति तत्पुरे ॥ ९१॥ तद्भार्या टक्किनी दत्ता तत्पुत्राः सप्त सन्त्यमी । सुदत्तः शिवदत्तोऽपि गङ्गदत्तस्तथाऽपरः ॥ ९२॥ वसुदत्तस्तथा ज्ञेयः सूर्यदत्तो मतः परः । विष्णुदत्तेन्द्रदत्तौ च क्रमेणैते प्रकीर्तिताः ॥ ९३॥ श्रुत्वा तां घोषणां दत्तां तत्पुरे प्रीतमानसा । जगाद स्वपतिं टक्कं दारिद्रोपहतात्मिका ॥ ९४ ॥ पुत्रमेकं प्रदायाशु तरां यद्यपि वल्लभम् । दीनारलक्षमेकं च कान्तेदं परिगृह्यते ॥ ९५॥ निशम्य ब्राह्मणीवाक्यं ब्राह्मणः प्रीतमानसः । बभाण तां धनासक्तां शोभनं गदितं त्वया ॥९६॥ अस्माकं टक्ककानां हि कार्य द्रव्येण सुन्दरि । न पुत्रेणेति पुत्राश्च भविष्यन्त्यपरे ध्रुवम् ॥९७॥ ततः पुत्रं प्रदायैकं धनमानय मे गृहे । दत्ताऽपि घोषणां दधे गत्वा तां धववाक्यतः ॥ ९८॥ तथाऽहं पुत्रमेकं च भवभ्यो वितराम्यरम् । श्रुत्वा तैाह्मणीवाक्यं एवमस्त्विति सोदिता ॥ ९९ ॥ 10 इन्द्रदत्तसुतं दत्त्वा नागरेभ्यो कनिष्ठकम् । वरदत्ताऽपि जग्राह तदा दीनारलक्षकम् ॥ १०॥. अनयाऽवस्थया सोऽपि गृहीतो नागरैः पुनः । पित्रा गलोऽस्य हन्तव्यो मात्रा देयं गरं तथा ॥१०१॥ . जनन्या जनकेनापि नृपपौरजनेन च । नीयमानो हसन् याति हिंसनार्थमयं बटुः ॥ १०२ ॥ तदान्यपुरुषेणायं पृष्टः किं न भयं तव । त्वमद्य नगरद्वारे हन्तव्यो नागरैः सुत ॥ १०३॥ इन्द्रदत्तः समाकर्ण्य तद्वचस्तं जगौ पुनः । बालो मातृभयाद्याति पितरं भयहानये ॥ १०४॥ 1 तथा पितृभयाद्भीतो मातरं याति बालकः । द्वाभ्यामपि भयादाशु भूपतिं च भयापहम् ॥१०५॥ मातुः पितुस्तथा भूपात् त्रिभ्योऽपि भयतः स्फुटम् । महापौरसमूहानां शरणं याति बालकः॥१०६॥ नरनागाधुना यत्र निहन्ति जनको गलम् । सपौरो मां नृपो हन्ति नूनं तत्र न मे भयम् ॥१०७॥" ऐन्द्रदत्तं वचो धीरं जनै राज्ञे निवेदितम् । अमुनाऽयं पुनर्मुक्तो नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ॥ १०८॥ इन्द्रदत्ते प्रमुक्तेऽस्मिन् भूभुजा तोषमीयुषा । बभूव गोपुरं तच्च तदानीं स्थिरविग्रहम् ॥१०९॥ 20 कथानकमिदं श्रुत्वा दण्डपाशिकभाषितम् । तस्थौ नराधिपः स्वस्थो मनाग विस्मितमानसः॥११०॥ चतुर्थे दिवसे जाते प्रविष्टो नृपसेवया । तलारो भूभुजा भूयः स्वपुरस्थः प्रभाषितः॥१११॥ त्वया मलिम्लुचो दृष्टो भ्रमता कापि पत्तने । निवेदय तकं शीघ्रं दुराचारं ममाधुना ॥ ११२ ॥ भूपालवचनं श्रुत्वा तलारो निजगावमुम् । महाराज मया क्वापि न दृष्टस्तस्करो विभो ॥ ११३॥ महाजनकृतानन्द समस्तजननन्दन । कथानकमिदं भूयो मदीयं शृणु भूपते ॥ ११४ ॥ 25. सर्व विषं हि पानीयं मरणं क्रूरसंगतम् । खतत्रो भूपतिर्यत्र तत्र वासः सतां कुतः॥११५॥ कथानकमिदं भव्यं सर्वसत्त्वहितावहम् । समस्तलोकविख्यातं बुधकर्णरसायनम् ॥ ११६॥ पञ्चमे वासरे जाते कथानकमिदं पुनः । प्रारब्धं गदितुं तेन तलारेण सभाऽन्तरे ॥ ११७॥ समस्तविषयख्याता जनविस्मयकारिणी । गङ्गा हरति राजेन्द्र शृण्विदं मत्सुभाषितम् ॥ ११८॥ बीजानि येन जायन्ते सिच्यन्ते येन पादपाः । तन्मध्येऽहं मरिष्यामि जातं शरणतो भयम् ॥११९॥ ३॥ पत्तने पाटलीपुत्रे वसुपालो नराधिपः । वसुपूर्वा मतिस्तस्य बभूव वनितोत्तमा ॥ १२० ॥ वसुपालनरेन्द्रस्य शीघ्रकाव्यविधायकः । बभूव मतिसंपन्नो नाम्ना चित्रकविः कविः ॥ १२१ ॥ परिहासं प्रकुर्वद्भिः सभ्यैर्विस्मयमागतैः । मात्सर्येण पुनः शीघ्रं गङ्गायां स निधापितः ॥ १२२ ॥ नीयमानः पुनः सोऽपि गङ्गापूरेण वेगतः । तत्रत्यो वीर्यसंपन्नः पृष्टोऽमीभिः सुभाषितम् ॥१२३॥ ___1 [ दत्ता]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 फ सोदिताम्. 4 पफ जनकं. 5 पफज चतुर्भिः कुलकम्. 6 फनन्दनम्. 7 फ वसुपर्वा. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१३. १२४श्रुत्वा तद्वचनं तेन भाषितं च सुभाषितम् । इदं बुधमनोहारि शब्दार्थपरिपेशलम् ॥ १२४ ॥ येन बीजाः प्रजायन्ते सिच्यन्ते येन पादपाः । तन्मध्येऽहं मरिष्यामि जातं शरणतो भयम् ॥१२५॥ ततः षष्ठदिने तस्य नरेन्द्रस्य पुरः परम् । कथानकमिदं तेन प्रारब्धं गदितुं तदा ॥ १२६ ॥ आरामरक्षिका जाता मर्कटाश्चलचेतसः । सुराया रक्षकाः शौण्डाः स्वप्रयोजनकारिणः ॥ १२७ ॥ 5 वृका भवन्त्यजारक्षाः समस्तवसुधातले । प्रनष्टं मूलतः कार्यं नष्टमेव विदुर्बुधाः ॥ १२८॥ नगरे पाटलीपुत्रे सुभद्रो नाम भूपतिः । नरेण केनचित् पृष्टः कार्यमेतत् कुतूहलात् ॥ १२९ ॥ यथाऽऽरामः सुराजानां नताशेषमहीपतिः । पृथिव्यां कः प्रकर्तव्यो रक्षपालो नराधिपः॥१३० ॥ आराममभिरक्षन्ति मर्कटा यदि सर्वदा । सुराभाण्डं च कल्लाला छेलिका वृकराशयः ॥ १३१॥ ततोऽमीभिः स्फुटं कार्य समस्तमपि भूतले । विनष्टमवगन्तव्यं रक्षपालकदम्बकैः ॥ १३२॥ ॥ सप्तमे च दिने जाते तदानीं दण्डपाशिकः । कथानकमिदं भूयो भूपस्य निजगाद सः॥१३३॥ विनष्टा मूलतो वल्ली यत्तवेष्टं हि तत्कुरु । मातुर्वातारिमूले च दृष्ट्वा वस्त्रं जगौ वधूः ॥ १३४ ॥ अस्ति नित्योत्सवा रम्या श्रीमदुज्जयिनी पुरी । सार्थवाहोऽत्र शुद्धात्मा यशोभद्रो महाधनः ॥१३५॥ खजनन्या समं सोऽपि गृहीत्वा निजवल्लभाः। श्रीमदुजयिनीतोऽरं साथैन सह निर्ययौ ॥१३६॥ भूयोऽपि स गृहं प्राप्तो यशोभद्रो निशामुखे । स्वमातुरुत्तरीयं च ददशैरण्डमूलके ॥ १३७ ॥ 15 दृष्ट्वेदं स पुनः प्राह निजकान्ताः पुरस्थिताः । खेच्छया तिष्ठतात्रैव कोपलोहितलोचनः ॥१३८॥ आख्यानकमिदं प्रोक्तं तलारविनिवेदितम् । रुष्टो जगाद तं राजा भृकुटीभीषणालिकः ॥ १३९ ॥ दिनानि द्वादशार्धानि व्यतिक्रान्तान्यशोभनैः । कथानकैरिदानी च वर्तते सप्तमं दिनम् ॥१४०॥ तेन दुष्टतलार' त्वं चौरमानय मत्पुरः । अन्यथा निग्रहं तेऽद्य करिष्यामि न संशयः ॥ १४१॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा युवराजपुरो हि सः । मत्रिसामन्तपुत्राणां मिलितानां सभाऽन्तरे ॥ १४२॥ 20 तत्पुरः सहसा मुक्ता तदानीं रत्नपादुके । नखां यज्ञोपवीतं च बभाणेति सभामयम् ॥ १४३॥ यत्र राजा स्वयं चौरः समन्त्री सपुरोहितः । वनं व्रजत सर्वेऽपि जातं शरणतो भयम् ॥ १४४॥ आरक्षकवचः श्रुत्वा सत्यभूतं भुवः स्थले । सुयोधनो नृपोऽन्यायी कूटमन्त्री पुरोहितः ॥१४५॥ ततः समस्तसामन्तैर्युवराजेन वेगतः । अर्धचन्द्रं गले दत्त्वा खदेशादपसारितः ॥ १४६॥ ततः सचिवसामन्ततलवर्गादिपूजितः । चकार विपुलं राज्यं युवराजः स तत्पुरे ॥ १४७॥ 25 अनेन कारणेनार्य मर्यादालङ्घनं तव । कर्तुं न युज्यते गन्तुं महिलामध्यमप्यदः ॥ १४८॥ श्रुत्वा तद्भारती राजा तन्निषिद्धोऽपि तं जगौ । युक्तं न योषितां मध्ये यदि गन्तुं मनागपि ॥१४९॥ किंतु पत्तनमध्ये च यन्मनोनयनप्रियम् । तदहं प्राप्य पश्यामि रूपातिशयकारिणम् ॥ १५०॥" भूयो मत्रिपदं प्राप्य तत्समं निर्ययौ गृहात् । प्राप्तौ पत्तनमध्यं तौ नानातिशयसुन्दरम् ॥१५॥ ततो रूप्यखुरस्तोको नाम्ना वर्णखुरस्तदा । ताभ्यामग्रेसरो याति मन्दं मन्दं खलीलया ॥१५२॥ 30 कौतुकानि विचित्राणि पश्यन्तौ प्रीतमानसौ । तस्यानुमार्गतस्तौ च गच्छतो विस्मयाकुलौ ॥१५॥ श्रेष्ठिवेश्मबहिर्भूतप्राकारान्तस्तरौ घने । सुवर्णखुरनामायं तस्करस्तस्थिवांस्तदा ॥१५४॥ तन्मार्गानुगतः शीघ्रं राजा प्रमुदितोदयः । तस्थौ तदृक्षमूले च सुबुद्धिरपि निश्चलः ॥१५५ ॥ अष्टोपवाससंयुक्तः श्रेष्ठी मुदितमानसः । पुरः स्थिता महारूपा जगाद स्वप्रियाः प्रियाः॥१५६॥ योषितः सितराकायां कार्तिकस्य पुरोद्भवाः । प्रययुः कौमुदी रन्तुं वने नन्दनसंनिभे ॥ १५७॥ ____1 [ दुष्टं]. 2 [मुक्त्वा ]. 3 पफज त्रिभिः कुलकम्. 4 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 5 पफज कुलकम्. 6 पफ युग्ममू,ज युगलमू, 7 [मन्त्रिवरं]. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. १९१] अर्हहासकथानकम् वयं सहस्रकूटाख्यं जिनायतनमुत्तमम् । भवतीभिः समं यामः पुण्योपार्जनकारणात् ॥ १५८ ॥' ततः श्रेष्ठिवचः श्रुत्वा भक्तिहृष्टतनूरुहाः । तदानीं श्रेष्ठिनं प्रोचुर्विस्मयव्याप्तमानसाः ॥ १५९ ॥ त्वरितं वन्दितुं यामो जिनान् जितभवद्विषः । सर्वपापपरित्यक्ता भवामो येन वल्लभ ॥ १६०॥ तद्वाक्यतः पुनः श्रेष्ठी भार्याऽष्टकसमन्वितः । तोषपूरितचेतस्को ययौ जिनवरालयम् ॥ १६१॥ जिनेश्वरनुतिं कृत्वा संसारोच्छेदकारिणीम् । भार्याः पुरःस्थिताः श्रेष्ठी पप्रच्छेति कुतूहली ॥१६२॥ । भवतीनां कुतो हेतोः सम्यक्त्वं दृढतां गतम् । निवेदयत मे शीघ्रं जातं सुष्ठ कुतूहलम् ॥१६३॥ श्रेष्ठीवाक्यं समाकर्ण्य प्रोचुस्ता वचनं तदा । दृष्टिस्त्वया कथं प्राप्ता त्वं नाथ प्रथमं वद ॥१६४॥ परिपाट्या पुनः पश्चाद् वयं सर्वाः कुतूहलात् । भवतां कथयिष्यामः सम्यक्त्वस्थिरकारणम् ॥१६५॥ निशम्य वाचिकं तासां शोभनं प्रीतमानसः। श्रेष्ठी बमाण शुद्धात्मा सम्यक्त्वस्थिरकारणम् ॥१६६॥ क्षणं चित्तसमाधानं विधाय परमार्थतः । तत्र श्लोकानिमान् भव्यानाकर्णयत मुग्धिकाः ॥१६७॥" राजोदितोदयो नाम मथुरायां महाबलः । मन्त्री सुबुद्धिरस्यासीत्सुबुद्धिर्बुधसंमतः ॥१६८॥ सुवर्णखुरनामायं तस्करः सिद्धविद्यकः । कौमुदीजनसंघातं पश्यतीमं तरुस्थितः ॥ १६९ ॥ शूलाहते हि वेताले वासीशत्यमलीमसा । पृथिवीरात्रिभक्ते च फले वास्यैव संमताः ॥ १७ ॥ मथुरा नगरी रम्या पुरं राजगृहं परम् । हस्तिनागपुरं चैव कौशाम्बी नगरी तथा ॥ १७१॥ वाराणसी पुरी चम्पा श्रीमदुज्जयिनी परा । तथाऽन्या सूर्यकौशाम्बी धनधान्यजनालया ॥१७२॥ 11 जिनदत्तो वणिनाथो जिनदत्ता च तत्प्रिया । सौम्यः सौम्यशरीराभा सोमश्रीरस्य गेहिनी ॥१७३॥ तथा मुण्डितपद्मश्रीः पद्मश्रीसमविभ्रमा । प्रियंवदो महासत्त्वः सोमशर्मा जनप्रियः ॥ १७४ ॥ मित्रश्रीमित्रसत्तेजाः खण्डश्रीरपि रूपिणी । विष्णुश्रीः शोभनाकारा नागश्री गिनीव सा ॥१७५॥ तथा पद्मलता चार्वी कनकादिलता परा । मता विद्युल्लता कान्ता तथा विद्युल्लता परा ॥ १७६॥ सूत्रश्लोकान् विधायायं स्वदृष्टिस्थिरकारणम् । जगौ शूलहताख्यानं स्वभार्याणां मनोहरम् ॥१७७॥ 20 शूरसेनजनान्तेऽस्ति चोत्तरामथुरा पुरी । प्रमोदवाहनो राजा भार्या चास्य यशोमती ॥१७८॥ तत्पुत्रोऽपि गुणाधारो बलवानुदितोदयः । महोदया प्रिया चास्य रूपराजितविग्रहा ॥ १७९ ॥ सुबुद्धिरस्य मन्त्री च तद्भार्या सुप्रभा प्रभा । तत्पुत्रोऽपि सुबुद्धिः स्याद् बुद्धिविज्ञानभावकः ॥१८०॥ तथा रूप्यखुरश्चौरो भार्या रूपखुराऽस्य सा । सुवर्णादिखुरः पुत्रस्तयोस्तेजपरायणः ॥ १८१॥ अत्रैव नगरे रम्ये कनकादिसमन्विते । सिद्धाञ्जनादिसद्विद्यः चौरिकातः स जीवति ॥ १८२ ॥ 25 यो ह्यस्मिन्नगरे श्रेष्ठी जिनदत्तोऽभवद्धनी । तत्प्रिया जिनदत्ता च जिनभक्तिपरायणा ॥ १८३॥ अहंदासः सुतः प्रेयाननयोर्गुणशालिनोः । सांप्रतं हि प्रवर्तेऽहं भवद्भार्याऽष्टकान्वितः॥१८४॥ तज्जल्पितमिदं नक्तं त्रयोऽपि तरुसंस्थिताः । कौतुकव्याप्तचेतस्काः शृण्वन्ति प्रमुदान्विताः॥१८५॥ अथ रूपखुरश्चौरो जीवंश्चौरिकया पुरे । रन्त्वा द्यूतं पुनर्याति सदा नृपमहानसम् ॥ १८६ ॥ लोचनद्वयमजित्वा कन्जलेन निजं पुनः । नरेन्द्रेण समं सोऽपि भोजनं कुरुते सदा ॥ १८७ ॥ नरेन्द्रेण समं तस्य भुञ्जानस्य दिने दिने । बभूव दुर्बलो राजा त्वस्थिचर्मावशेषतः ॥ १८८॥ अत्यन्तदुर्बलं दृष्ट्वा नरेन्द्रं सचिवादयः । मायाविनं परिज्ञाय तदुपायं प्रचक्रिरे ॥ १८९॥ भूपभोजनवेलायां विस्तायां प्रयत्नतः । विकीर्यार्कप्रसूनानि नृपभोजनमण्डपे ॥ १९०॥ भूयः कटुकधूमेन भण्डकानि बहून्यपि । खड्गस्थान् पुरुषान् मन्त्री स्थापयामास दिक्षु सः॥१९१॥" 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 प हे. 4 फज शरीराभः. 5 पफज कुलकम्. 6 [तेजःपरायणः]. 7 पफ अहंदासः. 8 फ रत्वा. 9 पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [६३. १९२तदाऽर्कपुष्पशब्देन विविदुस्तं मलिम्लुचम् । गच्छन्तं भूपसामीप्यमरं भोजनवाञ्छया ॥ १९२ ॥ तद्भाण्डकानि सर्वाणि नरेणैकेन वेगतः । उद्घाटितानि धूमोऽपि विस्तरं प्राप्य' तगृहे ।। १९३॥ . तल्लोचनद्वयं तेन धूमेन च कदर्थितम् । पतद्भिरश्रुभिः शीघ्रं कजलं विलयं गतम् ॥ १९४ ॥ कजले विलयं याते तस्करः प्रकटोऽभवत् । गृहीतोऽयं नरैराशु तदानीं नृपसंमतैः ॥ १९५ ॥ 5 प्राध्वंकृत्य तक कोपान्नीत्वा नगरतो बहिः । नरै रूप्यखुरः शीघ्रं शूलिकायां निधापितः ॥१९६॥ एवं कृते ततश्चौरे नराः प्रच्छन्नविग्रहाः । तस्थुर्नरेन्द्रवाक्येन दिक्षु सर्वासु सायुधाः ॥ १९७॥ योऽनेन सह संजल्पं करिष्यति नरो बली । नूनं गृहीतसर्वस्वः स दण्ड्यो मे भविष्यति ॥१९८॥ अत्रान्तरे जिनं नत्वा मुनींश्च बहुभक्तितः । धर्माख्यानमतः श्रुत्वा जिनदत्तो दिनानने ॥ १९९॥ आगच्छन् स्वगृहं हृष्टः शूलास्थेन च दस्युना । दृष्टो रूप्यखुरेणायं विह्वलीभूतचेतसा ॥२०॥ 10 श्रावकस्त्वमसि ख्यातो दयावान् सर्वजन्तुषु । समस्तभुवनव्यापिकीर्तिच्छन्नदिगन्तरः ॥२०१॥ जलं पायय मां भद्र तृष्णाव्याकुलमानसम् । एवमुक्तोऽमुना श्रेष्ठी तदानीं मर्तुमिच्छता ॥२०२॥ श्रुत्वा तद्वचनं तथ्यं शूलस्थं प्राप्य तं तदा । जगौ कण्ठगतप्राणं जिनदत्तः कृपाऽऽर्द्रधीः ॥२०३॥ मया द्वादशभिर्वमंत्रो लब्धः प्रकामदः । सोऽधुना विस्मृतिं याति जलानयनतो मम ॥ २०४ ॥ यावज्जलमहं शीघ्रमानयामि कृते तव । तावन्मत्रमिमं वत्स त्वं घोषय भवच्छिदम् ॥ २०५॥ 15 श्रुत्वा तद्वचनं चौरो जिनदत्तं जगौ पुनः । दत्त्वा मे कामदं मत्रं गच्छ त्वं सलिलं प्रति ॥२०६॥ ततः पञ्चनमस्कारो दत्तोऽस्मै श्रेष्ठिना तदा । गृहीतो भक्तितः सोऽपि मस्तकाञ्जलिधारिणा ॥२०७॥ ध्यायन् पञ्चनमस्कारं जिनदत्तसमर्पितम् । समाधि प्राप्य सौधर्म प्राप चौरः सुभक्तितः ॥२०८॥ जिनदत्तोऽपि पानीयं गृहादादाय चागतः । तदन्तं यावदायाति व्यसुं तावदपश्यत ॥ २०९ ॥ न्यस्तं विलोक्य च श्रेष्ठी ललाटे करकुङ्मलम् । नाकं प्राप्तमिमं ज्ञात्वा सोपवासो गृहं ययौ ॥२१०॥ 20 समाधिगुप्तनामायमाचार्यः संघसंयुतः । शान्तिकादिगुहायां च तदा संतिष्ठते सुधीः ॥ २११॥ अत्रान्तरे नरैरस्य जिनदत्तो निवेदितः । जल्पन् रूप्यखुरेणामा दृष्टोऽस्माभिर्नरेश्वर ॥ २१२ ॥ तद्वाक्यतो रुपं प्राप्य भूपती रक्तलोचनः । तद्वन्धने धनादाने चादिदेश नरानरम् ॥ २१३॥ नरेन्द्राज्ञां समादाय देवशेषामिव क्षणात् । भूपान्ततो भटा भीमा निर्ययुस्तुष्टचेतसः ॥ २१४ ॥ उपसर्ग परिज्ञाय जिनदत्तस्य मत्कृते । अवधिज्ञानतः प्राप चौरदेवस्तदालयम् ॥ २१५ ।। 25 वेतालरूपमादाय भीषिताशेषजन्तुकम् । जिनदत्तगृहद्वारे तस्थौ चोरसुरस्तदा ॥ २१६॥ विलोक्य नृपमायान्तं महाभटपुरस्सरम् । तत्सन्मुखमभीयाय सुरो रूप्यखुरः पुरा ॥ २१७॥ भयानकं पुरो दृष्ट्वा सुरं लकुटपाणिकम् । ननाश भूपतिः शीघ्रं मरणाशङ्किमानसः ॥ २१८ ॥ तन्मार्गतः सुरो भीमः खनादापूरिताम्बरः । वदन्निदं तरां रुष्टो दण्डहस्तः प्रधावति ॥ २१९ ।। रेरे खल दुराचार घोर पापिष्ठ कातर । जीवन्न यासि दुर्बुद्धे दण्डेन क्राथयामि ते ॥ २२० ॥ 30 अथ तां भीतितो राजा स्रस्तवासःशिरोरुहः । मुनिश्रेष्ठिसमाकीर्णां क्षान्तिकादिगुहां ययौ ॥२२१॥ श्रेष्ठिन् मां पाहि पाह्यात निगदन् वचनं त्विदम् । भयवेपितसर्वाङ्गः स्थितोऽयं तत्समीपके ॥२२२॥ देवोऽपि तदनु प्राप्य महाभासुरविग्रहः । जिनदत्तं जगादेति कोपलोहितलोचनः ॥ २२३ ॥ इमं दुष्टं दुराचारं किं रक्षसि निकारिणम् । एतस्य निग्रहं स्वेन करोमि कुरु मोचनम् ॥ २२४ ॥ देववाक्यं समाकर्ण्य जिनदत्तो जगावमुम् । भवताऽवश्यमेतस्य क्षन्तव्यं मुदितः सकः ॥२२५॥ 1 [प्राप]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 फ कीर्तिछिन्न. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 फ दुराचार. 6 [ काथयामि ]. 7 पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. २५७ ] अर्हद्दासकथानकम् १४३ ततस्तद्वाक्यमाकर्ण्य त्रिः परीत्य प्रणम्य तम् । चौरदेवः पुनः प्राह त्वं गुरुः परमो मम ॥२२६॥ आचार्य साधुसंघं च प्रणम्य पुनरादरात् । श्रेष्ठिपार्श्व परिप्राप्य तस्थौ चौरसुरो मुदा ॥ २२७॥ दस्युदेवं पुरो वीक्ष्य भूपतिमुनिसंसदि । जगाद विस्मितस्वान्तः प्रभाभासुरविग्रहम् ॥ २२८॥ भवतां स्वर्गलोके किं विनयो हीदृशो बुध । येन साधुगणं हित्वा श्रावकं वन्दसे तराम् ॥२२९॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा चौरदेवो बभाण तम् । कौतुकव्याप्तचेतस्कं गुरुभक्तिपरायणः ॥ २३०॥ । विनयं वेद्मि राजेन्द्र विपश्चिजनसंमतम् । पूर्व विधीयते नूनं जिनसाधुनमस्कृतिः ॥ २३१॥ मूलगुणव्रतानां च शिक्षाणुव्रतधारिणाम् । श्रावकानां पुना राजनिच्छाकारो विधीयते ॥ २३२॥ किं पुनर्जिनदत्तोऽयं श्रेष्ठी मम गुरुः सुहृत् । तेन पूर्व नमस्कारों मयाऽस्य विहितो मुदा ॥२३३॥ देवस्य वचनं श्रुत्वा जगादैतं नराधिपः । कथं गुरुरयं तेऽत्र कथय त्वं ममाधुना ॥ २३४ ॥ अवाचि भूपतिर्भूयो देवेन मुदमीयुषा । विस्मयव्याप्तचेतस्कः सर्वसत्त्वहितान्तिके ॥ २३५॥ ॥ अहं रूप्यखुरश्चौरो जिनदत्तो वणिक्पतिः । कुर्वस्तेयं त्वया लब्धः शूलिकायां निधापितः ॥२३६॥ दत्तः पञ्चनमस्कारो मेऽमुना श्रेष्ठिना परः । अस्योपदेशतो राजन् जातो देवोऽहमीदृशः ॥२३७॥ अनेन कारणेनार्य जिनदत्तो गुरुर्मम । हित्वा मुनिगणं भूप मयाऽयं विनुतस्तराम् ॥ २३८ ॥ गीर्वाणवाक्यमाकर्ण्य राजा जातकुतूहलः । बभूव प्रीतचेतस्कस्तद्रूपहृतलोचनः ॥ २३९॥ पूजां विधाय भूयोऽपि मणिस्वर्णसरोरुहैः । जिनदत्तस्य देवोऽयं तस्थौ मुदितमानसः ॥ २४० ॥ 15 दृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं सारं नृपमत्रिपुरोहिताः । स्वपुत्रेभ्यः श्रियं दत्त्वा दीक्षां दैगम्बरी दधुः ॥२४॥ केचित् सम्यक्त्वमादाय श्रावकत्वं तथा परे । अन्ये मध्यस्थतां प्राप्य शशंसुर्जिनशासनम् ॥२४२॥ सम्यक्त्वं प्राप्य देवोऽपि मुनिसंघ प्रणम्य च । जिनदत्तं पुनः प्राह विन्यस्य करकुमलम् ॥२४३॥ भवत्पादप्रसादेन जैनो धर्मो मया परः । लब्धोऽतः कृतकृत्योऽहं पुण्यवानस्मि सांप्रतम् ॥२४४॥ भूयो भूयो नतिं कृत्वा जिनदत्तस्य भक्तितः। सौधर्म प्राप्य देवोऽसौ स्मृतश्रेष्ठिगुणान्तरः ॥२४५॥ 20 जिनदत्तसुतोऽवोचत् स्वकान्ताः पुरतः स्थिताः । आश्चर्यमिदमाकर्ण्य जातोऽहं दृढदर्शनः ॥२४६॥ श्रेष्ठिवाक्यमुपश्रुत्य श्रेष्ठिभ्यो निगदन्त्यमूः । त्वद्भाषितमिदं सुष्ठु श्रुतमस्माभिरादरात् ॥ २४७॥ श्रद्धानं रोचनं साधुस्पर्शनं प्रत्ययं तथा । भवद्वाक्यस्य भो श्रेष्ठिन् वयं कुर्मो दिवानिशम् ॥२४८॥ ततः कुन्दलता प्राह तद्वचो विनिशम्य सा । न सुष्ठु श्रुतमस्माभिर्न सुष्ठ कथितं त्वया ॥२४९॥ न सुष्ठ भाषितं किंचिन्नापि सुष्ठ विलोकितम् । न श्रद्दधामि किंचिच्च न प्रत्येमि मनागपि ॥२५०॥ 25 कस्यापि रोचनं नापि जल्पितस्य करोम्यहम् । स्पृशामि न क्वचिन्मुग्धा मनोवाक्कायकर्मभिः ॥२५१॥' श्रुत्वा कुन्दलतावाक्यं वृक्षमूलस्थितो नृपः । रोषपूरितचेतस्को दध्यौ विस्मितमानसः॥ २५२ ॥ ईदृशोऽतिशयो दृष्टो मयाऽपि जनको मम । राज्यं वितीर्य निग्रन्थो बभूव श्रमणो महान् ॥२५३॥ एषा कुन्दलता दुष्टा ब्रवीति मदविह्वला । न श्रद्दधाम्यहं सर्वं पूर्वोक्तवचनं त्रिधा ॥ २५४ ॥ आश्चर्यमिदमीक्षं श्रुतदृष्टानुभूतकम् । तथाऽपि दुर्विदग्धेयं न प्रत्येति मनागपि ॥ २५५ ॥ एतस्याः श्रेष्ठिभाया नितान्तं दुष्टचेतसः । निग्रहं श्वः करिष्यामि स्वयमेव विसंशयम् ॥२५६॥ मत्री स्वर्णखुरश्चौरो दध्यौ वृक्षं समाश्रितः । धृष्टा कुत्रेष्ठिनी चैषा न प्रत्येति वचः कथम् ॥२५७॥ ॥ इति श्रीशूलहतरूप्यखुरचौरमृतान्तर्गतदृष्टान्त संयुक्ताहँद्दासकथानकमिदम् ॥ ६३ ॥ .: 1 पफ युग्मम्, ज युगलम्.2 फ पूर्वनमस्कारो. 3 पफज चतुष्कुलकम्. 4 पफज चतुष्कुलकम, 5 पफ कृत्यकृत्योहं. 6 पफज त्रिभिः कुलकम्..7 पफज त्रिभिः कुलकम्. 8ज omits इतिश्री. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ६४. जिनदत्त मित्रश्रीकथानकम् । १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥ मित्र श्रीः श्रेष्ठिना' पृष्टा प्रथमा दयिता तदा । स्थिरतां तव सम्यक्त्वं संजातं केन हेतुना ॥ १ ॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा मित्रश्रीः प्राह तं प्रति । कौतुकव्याप्तचेतस्कं श्रेष्ठिनी तन्मनः प्रिया ॥ २ ॥ मगधाख्यमहादेशे पुरे राजगृहे परे । नरशूरोऽभवद् राजा स्वर्णलेखाऽस्य गेहिनी ॥ ३ ॥ 5 तत्रैव नगरे श्रेष्ठी चार्चदासो धनान्वितः । बभूव जिनदत्ताऽस्य सुन्दरी सर्वसुन्दरी ॥ ४ ॥ ततस्तौ दम्पती तत्र सुखसागरमध्यगौ । अन्योन्यप्रीतिसंपन्नौ तिष्ठतः स्म मुदाऽन्वितौ ॥ ५ ॥ ततो वन्ध्या सती सा च जिनदत्ता जगौ प्रियम् । अन्यां कन्यां वृणीष्व त्वं पुत्रसंतान कारणात् ॥६॥ पुत्रलाभं विना कान्त धर्मलाभो विनश्यति । धर्मलाभे विनष्टे हि सर्वं नष्टं भवेदिति ॥ ७ ॥ अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी जिनदासो जनप्रियः । तद्भार्या जिनदासी स्याजिनदत्ता च तत्सुता ॥ ८ ॥ 1. मिथ्यादृष्टिस्तरामस्य प्रिया बन्धुमती परा । कनकश्रीः सुता चास्याः कनकाभशरीरका ॥ ९ ॥ ततः कनिष्ठिका प्राप्ता मृतिं च जिनदत्तया । कनकश्रीर्वृता यत्नात् सपत्नी भगिनी तदा ॥ १० ॥ ऋषभोपपदो दासस्तामुवाह विधानतः । गृहं समर्पितं तस्याः सधनं श्रेष्ठिना मुदा ॥ ११ ॥ ऋषभोपपदो दासः श्रेष्ठिन्या जिनदत्तया । आस्ते धर्मविनोदेन सर्वदा जिनमन्दिरे ॥ ततो मध्याह्नवेलायां विधाय वरभोजनम् । स्वगृहे धर्मपृच्छातस्तिष्ठतस्तौ जिनालये ॥ कनकश्रीगृहं सर्वं कौटिल्यपरिवर्जिता । धनधान्यादिना सार्धं वृद्धिं नयति सर्वदा ॥ अन्यदा तद्गृहं प्राप्य बन्धुश्रीः स्नेहकारणात् । इदं संक्षेपतः पुत्रीं पप्रच्छ कनकश्रियम् ॥ १५ ॥ त्वत्पतिः स्नेहसंपन्नस्त्वया सार्धं स्वपित्यरम् । उत्तिष्ठ ते महास्नेहाद् ब्रूहि मे सकलं द्रुतम् ॥१६॥ जननीवचनमाकर्ण्य कनकश्रीस्तयोदिता । जगाद मातरं क्रुद्धा बाष्पविलुतलोचना ॥ १७ ॥ बुद्धिहीने खले वृद्धे सपत्नीतनयोपरि । मां प्रदाय पुनः प्रापे' धववार्तां प्रपृच्छसि ॥ १८ ॥ विवाहदिवसे सुप्ता धवेन सह निश्चितम् । स्वप्नान्तरेऽपि कीदृक्षं पतिं जानामि नाम्बिके ॥ १९ ॥ गृहधर्मं विधायेदं दासीव वशवर्तिनी । एकाकिनीव साम्यं च दुःखिनी शीर्णमञ्चके ॥ २० ॥ म त दम्पती प्रीत्या स्थित्वा जिनवरालये । गृहे मध्याह्नवेलायां आगत्य कुरुतोऽशनम् ॥२१॥ तस्मिन्नेव गृहे भूयो मदनोन्मत्तमानसौ । तिष्ठतो लीलया तौ च कथानकविधानतः ॥ २२ ॥ अहं दैवसिकं कर्म विधाय सकलं पुनः । तिष्ठाम्येकाकिका मातर्निन्दती निजजीवितम् ॥ २३ ॥ दिने निशि सुखं भर्तुः पक्षे मासेऽपि मातृके । मानितं न मया जातु त्वत्प्रसादान्मनखिनि ॥ २४ ॥ कनकश्रीवचः श्रुत्वा बन्धुश्रीर्निजगावमुम् । वञ्चिताऽहं सुते बाढं दुष्टया जिनदत्तया ॥ २५ ॥ तयेदं गदितं पुत्र मत्पुरो वचनं पुरा । त्वत्सुतां वल्लभां पत्युः करिष्यामि तरामहम् ॥ भर्तृसौख्यं परित्यज्य ब्रह्मचर्यसमन्विता । स्थास्यामि रागनिर्मुक्ता जिनगेहे धवान्विता ॥ अनेन च विधानेन त्वं दत्ताऽसि मया सुते | जिनदत्ताधवायास्मै त्वदादेशविधायिने ॥ २८ ॥ 30 जिनदत्तामृतिं यावच्चिन्तयामि तनूदरि । दिनानि कतिचिन्मुग्धे तिष्ठ तावत् स्वमन्दिरम् ॥२९॥ तनयाश्वासनं कृत्वा क्रोधारुणनिरीक्षणा । बन्धुश्रीः क्रूरचेतस्का जगाम निजमन्दिरम् ॥ ३० ॥ ततो निजगृहं प्राप्य महाक्रोधसमन्विता । जिनदत्तावधं सा हि चिन्तयन्त्यवतिष्ठते ॥ ३१ ॥ 25 २६ ॥ २७ ॥ 15 20 १४४ 1 पफ श्रीष्टिनी ( ? ). 2 पफ शरीरिका. 3 No. 11 is given only in ज. 4 ज कनकश्रीगृहं. 5फ प्राये, [ पापे ]. 6 पफ धनवार्ता. 7 [ एकाकिनी वसाम्यत्र ]. 8 ज इमौ तु. 9 No. 30 is given only in ज; पफज षद्भिः कुलकम्. [ ६४.१ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६४.६५] जिनदत्तमित्रश्रीकथानकम् १४५ अन्यदा यमदूतो वा मुदा बन्धुमतीगृहम् । कापालिको भ्रमन् भिक्षां चण्डमारिः समाययौ ॥३२॥ मृष्टाहारं ददात्यस्मै घृतपूरादिकं भृशम् । जिनदत्ताऽपकाराय बन्धुश्रीबन्धुनिःस्पृहा ॥ ३३॥ विदित्वा तदभिप्रायमुपचारकदम्बकैः । जगाद तामसौ धूर्तश्चण्डमारिः कलस्वनः ॥ ३४॥ विद्यामत्रौषधं योग्यं वशीकरणमुत्तमम् । उच्चाटनं च विद्वेषं स्तम्भनं मोहनाञ्जनम् ॥ ३५ ॥ एवमादीनि वस्तूनि सिद्धानि भुवनत्रये । नूनं जानाम्यहं भद्रे न कश्चिद्वेत्त्यमून्यलम् ॥ ३६॥ । यदि किंचित्तरां गूढं कार्यमुत्पद्यते तव । ततो ब्रूहि मम क्षिप्रं सर्व संपादयाम्यहम् ॥ ३७॥ कापालिकं वचः श्रुत्वा तं जगौ विकसन्मुखी । तव ज्ञानेन मे पुत्र न किंचिदुर्लभं भुवि ॥३८॥ प्रदत्ता त्वत्स्वसाऽन्यस्मै जिनदत्तामतेन मे । तद्वञ्चिता सुदुःखेन पुत्र तिष्ठति साधुना ॥ ३९ ॥ जिनदत्तामृतिं पुत्र कुरु मद्वचनेन सा । येनानुजा सुखं तेऽलं तिष्ठति प्रीतमानसा ॥४०॥ श्रुत्वा बन्धुश्रियो वाक्यं जगौ कापिलिकोऽपि ताम् । मारणं नः कुले युक्तं भूषणं न च दूषणम् ॥४१॥॥ अहं कृष्णचतुर्दश्यां नक्तं वेतालविद्यकाम् । नूनं साधयितुं यामि पुष्पादीनि त्वमानय ॥४२॥ तदादिष्टदिने पुष्पधूपदीपादिकं तया । आदाय तत्पुरः क्षिप्तं बन्धुमत्याऽतिवेगतः ॥४३॥ सोपवासः समादाय पुष्पधूपादिकं तदा । कापालिको जगामेदं भीमं पितृवनं निशि ॥४४॥ मनुष्यशवमादाय तत्करे संनिधाय च । वेतालिविद्यकां तत्र तदानीं साधयत्यसौ ॥४५॥ ततो वेतालविद्या च खड्गमादाय भीषणम् । जगादेमं ममादेशं देहि किं करवाणि ते ॥४६॥ 15 वाक्यं वेतालविद्यायाश्चण्डमारिर्निशम्य ताम् । कापालिकः श्मशानस्थो बभाण पुरतः स्थिताम्॥४७॥ चैत्यवेश्मस्थितां शीघ्रं जिनदत्तां कृतागसाम् । वेतालाख्यमहाविद्ये त्वं मारय मदुक्तितः ॥४८॥ ततस्तद्वचनात् सा च खङ्गहस्ता भयानका । गर्जन्ती भीषणारावं चैत्यवेश्मबहिःस्थिता ॥४९॥ तको कृष्णचतुर्दश्यां सोपवासौ जिनान्तिके । तन्नादाभीतचेतस्कौ कायोत्सर्गेण तस्थतुः॥ ५० ॥ ततो वेतालविद्याऽपि चैत्यान्तर्गन्तुमक्षमा । भूयः कापालिकान्तं च जगाम विगतक्रिया ॥५१॥ 20 भूयोऽपि साधिता तेन द्वितीयसमये सका । सखड्गा प्रोत्थिता तस्मात् तदन्तं प्रेषिता पुनः ॥५२॥ तेनैव विधिना भूयो जिनान्तं जातुमक्षमा । निवृत्ता साऽपि वेगेन तदन्तं प्राप्य विह्वला ॥५३॥ भूयोऽपि साधिता तेन तृतीयसमये सका । उत्थिता खड्गमादाय तत्समीपं विसर्जिता ॥ ५४॥ जिनेश्वरसमीपं सा प्रयातुमसहा सती । चण्डमारिसमीपं च प्राप शक्तिपरिच्युता ॥ ५५ ॥ चतुर्थसमये तेन साधिताऽसिसमन्विता । कापालिकेन सा विद्या प्रोक्ता खपुरतः स्थिता ॥५६॥ 23 दुराचारां द्वयोर्मध्ये निहत्य सहसा पुनः । आगच्छ मत्समीपं च कृतकृत्यत्वमागता ॥ ५७॥ पुनर्वेतालविद्या च सुप्तां तां कनकश्रियम् । हत्वा जगाम सा शीघ्रं कापालिकसमीपताम् ॥ ५८॥ ततः कापालिको दृष्ट्वा कृपाणं रुधिरारुणम् । कृतकृत्यो जगामाशु खकीयस्थानमादरात् ॥ ५९॥ ततः प्रभातकाले च बन्धुश्रीस्तोषमागता । जिनदत्ता हताऽनेन जामातुर्ग्रहमाययौ ॥६०॥ माता दृष्ट्वा सुतां तत्र जीवन परिवर्जिताम् । बाष्पविप्लुतनेत्रास्या जगादेति वचस्तदा ॥ ६१॥ ॥ मदीया तनया लोका निहता जिनदत्तया । किंवदन्ती नृपस्यैषा तयाऽऽशु विनिवेदिता ॥६॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा कोपलोहितलोचनः । बभाण भासुराकारो वचसा स्वान् नरानरम् ॥ ६३ ॥ जिनदत्तापति बवा समस्तधनसंयुतम् । मदभ्याशं पुनः शीघ्रं समानयत सजनाः॥ ६४॥ तदाज्ञां प्राप्य निर्गत्य प्रापुस्ते श्रेष्ठिमन्दिरम् । चकार स्तम्भनं तेषां तथा शासनदेवता ॥६५॥ . 1 पफ चतुष्कुलकम् , ज चतुष्कलकम्. 2 पफज त्रिकलम्. 3 पफ वेतालि'. 4 [वेताल° ]. 5 पफ भयानिका. 6 पफ युग्मम् , ज युगलम्. बृ० को० १९ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ६४. ६६ ७२ ॥ ७३ ॥ जिनदत्ताधवोऽप्यत्र तदा चैत्यगृहे मुदा । कायोत्सर्गेण संतस्थौ चोपसर्गप्रशान्तये ॥ ६६ ॥ अथ कापालिकं बद्धा मठस्थं पुरदेवता । भूपालमन्दिरद्वारमानयामास दुर्मदम् ॥ ६७ ॥ पुरमध्यस्थितो दीनं विह्वलीभूतमानसः । स्वबन्धवेदनाग्रस्तः पूत्कारं विदधाति सः ॥ ६८ ॥ अहो महाजन क्षिप्रं निर्दोषस्य वचो मम । तथा निरपराधस्य श्रूयतामेकचित्ततः ॥ ६९ ॥ बन्धुश्रीवाक्यतो नूनं विद्या वैतालिका मया । जिनदत्तावधार्थं च साधिता पुरतः स्थिता ॥ ७० ॥ मया वैतालिकी विद्या जिनदत्तावधाय सा । वारत्रयं समादिश्य प्रेषिता परमोदया ॥ ७१ ॥ जिनदत्तावधाशक्ता समागत्य मदन्तिकम् । भूयो मया प्रयत्नेन भाषितेयं पुनः पुनः ॥ दुष्टा या च द्वयोर्मध्ये सद्भावपरिवर्जिता । तां निहत्य मदादेशादागच्छाशु मदन्तिकम् ॥ इदमाभाष्य मुक्तेयं मया तद्वधकारणात् । भूयो मदन्तिकं प्राप निहत्य कनकश्रियम् ॥ ७४ ॥ 10 एवंविधं वचः सोऽयं तदा देवतया तया । बंभ्रमीति पुरस्यान्ते भाषमाणः पुनः पुनः ॥ ७५ ॥ तथा बन्धुमती पापा भूतयक्षपिशाचकैः । हन्यमाना प्रजल्पन्ती बंभ्रमीति पुरान्तरे ॥ ७६ ॥ भो भो महाजनाः स्पष्टं श्रूयतां मद्वचोऽधुना । दोषो न जिनदत्ताया मम दोषोऽयमीदृशः ॥७७॥ मया कापालिकः क्षिप्रं प्रेरितो मन्दभाग्यया । विद्याबलेन केनापि जिनदत्तावधं कुरु ॥ ७८ ॥ वेतालविद्यया लोक कापालिकविसृष्टया । मत्सुता निहता नूनं कनकश्रीः प्रियंवदा ॥ ७९ ॥ 15 प्रभाते स्वसुतां दृष्ट्वा स्वगृहे मृतिमागताम् । दत्तं हि जिनदत्ताया मयाऽभ्याख्यानमीदृशम् ॥८०॥ जिनदत्ता स्वपुण्येन रक्षिता दोषवर्जिता । वेतालविद्यया तत्र चण्डमारिविमुक्तया ॥ ८१ ॥ तयोर्निगदितं श्रुत्वा राज्ञा जनपदेन च । नागरैरपि विज्ञाता जिनदत्ताऽतिशोभना ॥ ८२ ॥ ततो नगरदेवीभिर्महाविभवसंपदा | पूजिता जिनदत्ताऽलं शीलालंकृतविग्रहा ॥ ८३ ॥ तदाश्चर्यमिदं दृष्ट्वा बहवो नरकुञ्जराः । प्रापुर्जेनेश्वरं धर्मं जिनभक्तिपरायणाः ॥ ८४॥ नरशूरो नृपो मत्री पुरोहितनृपादयः । समाधिगुप्तमानम्य दीक्षां दैगम्बरीं दधुः ॥ ८५ ॥ समाधिगुप्तनामस्य जिनदत्ता विशुद्धधीः । जिनमत्यर्जिकापार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ॥ ८६ ॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीक्षं जिनदत्तासमुद्भवम् । जातं स्थिरं सुसम्यक्त्वं श्रेष्ठिन् मित्रश्रियो मम ॥ ८७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं तत्र खण्ड श्रीप्रमुखाः परम् । श्रेष्ठिभार्या वदन्तीमं धर्मविन्यस्तबुद्धयः ॥ ८८ ॥ सुष्ठु दृष्टं तथा सुष्ठु कथितं परमार्थतः । श्रद्धानं प्रत्ययं कुर्मो रोचनं स्पर्शनं परम् ॥ ८९ ॥ 25 श्रेष्ठभार्यावचः श्रुत्वा तथा कुन्दलता परा । लघीयसी जगादैता जिनधर्मपरायणा ॥ ९० ॥ 1 20 5 १४६ दृष्टं न सुष्ठु युष्माभिर्न सुष्ठु कथितं भुवि । श्रद्दधामि न भावेन न प्रत्येमि प्रभाषितम् ॥ ९१ ॥ नाहं करोमि भावेन भवदुक्तस्य रोचनम् । स्पर्शनं च तथा नूनं सतीभूतस्य भूतले ॥ ९२ ॥ आकर्ण्य तद्वचो राजा दध्यौ कोपारुणेक्षणः । अमुष्या निग्रहं स्वेन श्वः करिष्यामि निश्चितम् ॥९३॥ ॥ इति श्रीवेतालविद्या निर्भय जिनदत्तमित्र श्रीदृढ सम्यक्त्वा - रोपणद्वितीयकथानकमिदम् ॥ ६४ ॥ * 1 पफज कुलकम्. 2 ज महाजन. 3 पफज षड्भिः कुलकम्. 4 पफ प्रापुर्जिनेश्वरं 5फ प्रमुखां परं. 6 ज तदा. 7 पफ युग्मम् ज युगलम्. 8 ज omits इति श्री. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डश्रीकथानकम् ६५. खण्डश्रीकथानकम् । खण्डश्री श्रेष्ठिनी पृष्टा श्रेष्ठिना केन हेतुना । सम्यक्त्वं ते स्थिरं जातं कथयाशु मम प्रिये ॥ १ ॥ श्रेष्ठिनो वाक्यमाकर्ण्य स्थिरसम्यक्त्वशालिनः । जगाद श्रेष्ठिनी स्वस्य सम्यक्त्वस्थिरकारणम् ॥२॥ कुरुजङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् । महीधरो नृपस्तत्र भार्या चास्य महीधरी ॥ ३ ॥ सोमदत्तो द्विजस्तत्र सोमिल्ला चास्य गेहिनी । सौम्याऽनयोः सुता जाता सौम्यभावा प्रियंवदा ||४|| S अन्यदा सोमदत्तोऽपि महादारिद्रपीडितः । सोमिल्लाभावतो जातो महावैराग्यसंयुतः ॥ ५ ॥ सुगुप्ताचार्यमासाद्य सोमदत्तो विशुद्धधीः । बभूव सौम्यया साकं श्रावकोऽणुव्रतान्वितः ॥ ६ ॥ अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी जिनदासो महाधनः । ऋषभोपपदा दासी तत्प्रिया दयिताऽभवत् ॥ ७ ॥ धर्मवात्सल्यतः सौम्या सोमदत्तोऽपि माहनः । आनीतो जिनदासेन स्वगृहे स वितिष्ठते ॥ ८ ॥ अन्यदा सोमदत्तोऽपि ज्ञात्वाऽऽयुः क्षयमात्मनः । सुतां समर्पयामास जिनदासस्य धीमतः ॥ ९ ॥ " सौम्यकन्या त्वयाऽवश्यं जिनदास जिनप्रिय । श्रावकाय प्रदातव्या जिनपादाम्बुजालिने ॥ १० ॥ बभूव सोमदत्तोऽयं संस्तरश्रमणो द्विजः । कृत्वा सल्लेखनां मृत्वा जातो नाके सुरोत्तमः ॥ ११ ॥ सौम्या सौम्यमतिस्तत्र जिनदासजिनालये । पूजां विदधती साध्वी तिष्ठति प्रीतमानसा ॥ १२ ॥ रूपं शीलं समालोक्य सौम्याया बहवो द्विजाः । याचन्ते तां स्वपुत्रेभ्यो भूयो भूयो मनस्विनीम् ॥१३॥ जिनदासोऽपि तां तेभ्यो न ददाति मनोहरीम् । मिथ्यादृष्टिकलङ्केन दूषितेभ्यो निरन्तरम् ॥१४॥ " सुरूपाय सुशीलाय श्रावकाय सुधीमते । सुकुलीनाय दास्यामि तामहं जोषमापं सः ॥ १५ ॥ एको विप्रः पुरे धूर्तः सप्तव्यसनभावितः । द्यूतकारैः समं द्यूतं रममाणो वितिष्ठते ॥ १६ ॥ अन्यदा द्यूतमध्यस्थो रुद्रदत्तः स माहनः । सौम्यां विलोक्य तां कन्यां द्यूतकारान् जगौ तदा ॥१७॥ रूपयौवनयुक्तायाः कन्यायाः शुद्धचेतसः । एतस्याः प्रजनं शीघ्रं विधिना विदधाम्यहम् ॥१८॥ रुद्रदत्तवचः श्रुत्वा द्यूतकारा वदन्त्यमुम् । श्रावकेभ्यो ददात्येतां नापरेभ्यो वणिक्पतिः ॥ १९ ॥ 20 यो ददाति न साधुभ्यो ब्राह्मणेभ्यः पुनः पुनः । कन्यकां याचमानेभ्यो जिनदासो जिनप्रियः ॥ २० ॥ सप्तव्यसनयुक्ताय चौराय कलिकारणे । भवते द्यूतकाराय स किं यच्छति तामयम् ॥ २१ ॥ द्यूतकारवचः श्रुत्वा प्रतिज्ञां तत्पुरोऽकरोत् । अमुष्याः सौम्यकन्यायाः कर्तव्यं प्रजनं मया ॥२२॥ एवमुक्त्वा ततो देशाद्भूत्वा कार्पटिकः पुनः । रुद्रदत्तो जगामाशु देशमन्यं तदाप्तये ॥ २३ ॥ अन्यदेशं परिभ्रम्य मायया श्रेष्ठिनः परम् । कृत्वा हि क्षौलकं वेषं चैत्यगेहं विवेश सः ॥ २४ ॥ 23 विलोक्य क्षुल्लकं श्रेष्ठी चैत्यगेहे व्यवस्थितम् । इच्छाकारं विधायास्य पप्रच्छेति स तोषतः ॥ २५ ॥ कुतस्त्वमागतो देशाद्धर्मालंकृतविग्रहः । क्षुल्लक ब्रूहि मे क्षिप्रमिदं संक्षेपतः स्फुटम् ॥ २६ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि क्षुलको निजगावमुम् । पूर्वदेशात् समायातो महाश्रावक सांप्रतम् ॥२७॥ समस्तसिद्धधामानि सर्वचैत्यानि च क्रमात् । वन्दित्वा सिद्धभावेन भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ २८ ॥ शान्तिकुन्थ्वरतीर्थेशान् जन्मनिष्क्रमणानि च । वन्दनार्थमिहायातस्त्वद्भक्तिं च विलोकितुम् ॥२९॥ ॐ श्रुत्वा तद्वचनं श्रेष्ठी तगुणाकृष्टमानसः । पूर्वाश्रमं स पप्रच्छ रुद्रदत्तं पुरःस्थितम् ॥ ३० ॥ आकर्ण्य वचनं तस्य श्रेष्ठिनः स जगाद तम् । अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठिन् सोमशर्माख्यमाहनः ॥३१॥ तस्यापि सोमगोत्रस्य सोमशार्मास्ति माहनी । तत्पुत्रोऽहं विनीतात्मा रुद्रदत्तो विशुद्धधीः ॥ ३२ ॥ ६५. ३२ ] ! 1 फ ज्योषमाप युग्मम्, ज युगलम्. 6 ज चावलोकितम्. 7 पफ युग्मम् ज युगलम्. १४७ 2 प प्रजनं = विवाहम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफ कार्पिटिकः 5 पफ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ६५. ३३ 1 तदभावे मया श्रेष्ठिन् लोकतीर्थानि गच्छता । जिनधर्मः परो लब्धो बन्धुः सर्वशरीरिणाम् ||३३|| जैने धर्मे परे लब्धे किं गोत्रेण धनेन वा । स्वजनैर्जनकेनापि ममैभिर्न प्रयोजनम् ॥ ३४ ॥ ब्रह्मचारी त्वहं भूत्वा व्रतशीलानि पालयन् । तिष्ठामि सर्वदा श्रेष्ठिन् कुर्वन् जिननमस्कृतिम् ॥ ३५ ॥ रुद्रदत्तवचः श्रुत्वा कौतुक व्याप्तमानसः । जिनदासो जगादेतं धर्मं वाऽपघनान्वितम् ॥ ३६ ॥ · किं त्वया क्षुल्लक स्वामिन् ब्रह्मचर्यमिदं धृतम् । सर्वकालं न वा ब्रूहि सांप्रतं मम निश्चितम् ॥३७॥ जिनदासवचः श्रुत्वा क्षुल्लको निजगाद तम् । ब्रह्मचर्यमिदं श्रेष्ठिन् सर्वकालं न मे धृतम् ॥ ३८ ॥ किंतु जैने मया लब्धे धर्मे जनहिते तराम् । मैथुनेन न मे कार्यं संसारार्णवकारिणा ॥ ३९ ॥ * अवाचि जिनदासेन रुद्रदत्तः कुतूहलात् । गृहीतं सर्वकालं नो ब्रह्मचर्यं यदि त्वया ॥ ४० ॥ विद्यते मगृहे कन्या ब्राह्मणी रूपशालिनी । मिथ्यादर्शनयुक्तेभ्यो न दत्ता सा मया सती ॥ ४१ ॥ सम्यग्दर्शनयुक्तस्य श्रावकस्य ददामि ते । यदीच्छा विद्यते तस्यास्ततः पाणिग्रहं कुरु ॥ ४२ ॥ श्रेष्ठिवाक्यमुपाश्रित्य क्षुल्लकः प्राह तं पुनः | जिनधर्मं परिप्राप्य कथंचिद्दैवयोगतः ॥ ४३ ॥ गृहबन्धननिर्मुक्तः पुरुषो धर्मसंयुतः । भवपाशे पुनः को वा क्षिपति स्वं सचेतनः ॥ ४४ ॥ इत्थं निगदतस्तस्य वितीर्णा श्रेष्ठिना सका । परिणीताऽमुना सौम्या रुद्रदत्तेन रूपिणी ॥ ४५ ॥ परिणीतदिने सोऽपि नवकङ्कणपाणिकः । द्यूतकारान् परिप्राप्य जगादैतान् हसन् मुदा ॥ ४६ ॥ 15 प्रतिज्ञा भवतां मध्ये मया या विहिता तदा । साऽधुना सिद्धिमानीता सद्विवाहविधानतः ॥४७॥ द्यूतकारैः समं द्यूतं रममाणो दिवानिशम् । तिष्ठति प्रीतचेतस्को रुद्रदत्तः स धूर्तकः ॥ ४८ ॥ विद्यते तत्पुरे वृद्धा सुमित्रा गणिका तदा । तत्सुता रूपसंपन्ना परा कामलताभिधा ॥ ४९ ॥ रुद्रदत्तोऽनया सार्धं कामभोगान् मनोरमान् । पूर्ववल्लभया बाढं भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ ५० ॥ परिणीताऽहमेतेन धूर्तेन बहुमायिना । व्रतशीलानि रक्षन्ती तस्थौ सौम्या स्वमन्दिरे ॥ ५१ ॥ 2 धनेन पितृदत्तेन बहुना जिनमन्दिरम् | सहस्रकूटमुत्तु कारयामास सा तदा ॥ ५२ ॥ तत्प्रतिष्ठां विधायात्र तूर्यमङ्गलनिस्वनैः । अन्धसा सकलं लोकं सा सौम्या समतर्पयत् ॥ ५३ ॥ रुद्रदत्तं सुमित्रां च तथा कामलतामपि । सौम्यैतेषां समस्तानां प्राप्य चक्रे निमन्त्रणम् ॥ ५४ ॥ पुष्पमालां कुटे' कृत्वा पन्नगं च भयानकम् । वक्रवस्त्रावृते शुक्ले दधिपूर्वाक्षतैर्युता ॥ ५५ ॥ क्रूरमानससंयुक्ता रक्तोत्पलसमप्रभे । सुमित्रेमं समादाय ददौ कामलताकरे ॥ ५६ ॥ * गृहीतचारुनेपथ्याः पुष्पताम्बूलभोगिनः । रुद्रदत्तादयः सर्वे ययुर्जिनवरालयम् ॥ ५७ ॥ सौम्यया सौम्यभावेन जिनभक्तिसमेतया । गृहीतः स कुटस्तत्र तदा कामलताकरात् ॥ ५८ ॥ उद्घाटनं विधायास्य पुष्पमालां तदन्ततः । सौम्या करेण जग्राह पन्नगं च स्फुरत्प्रभम् ॥ ५९ ॥ गुञ्जाफलसमानाक्षो लोलजिह्वोऽसितप्रभः । बभूव पुष्पमालाऽऽशु तत्करस्थः स पन्नगः ॥ ६० ॥ सुगन्धया तया चार्व्या दीर्घया पुष्पमालया । सौम्यया जिनपादाब्जमर्चितं भक्तियुक्तया ॥ ६१॥ • सौम्याऽपि रुद्रदत्तादीन् प्राप्य या निजमन्दिरम् | भोजयित्वा विधानेन तानाहारेण चारुणा ॥६२॥ भोजनान्ते च ताम्बूलं दत्त्वा तेभ्यः स्वपाणिना । पुष्पमालां तकां सौम्यां ददौ कामलताकरे ॥ ६३॥ तया सा पुष्पमाला च गृहीता निजपाणिना । कृष्णसर्पो बभूवेयं दष्टा कामलता मुना ॥ ६४ ॥ ष्ट्वा कामतां तत्र नागदष्टां स्वमातृका । तत्करात् सर्पमादाय घंटे चिक्षेप तं पुनः ॥ ६५ ॥ 19 1 पफज कुलकम्. 2 ज अपघनान्वितम् = शरीरयुक्तम् 3 पफ युग्मम् ज युगलम्. 4 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 5 पफज त्रिकलमिदम् 6ज मुपश्रुत्य 7 पज कुठे घटे 8 पफ युग्मम्, ज युगलम् 9 पफ नागदृष्टां. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६५. ९५ ] खण्डश्रीकथानकम् १४९ विषव्याप्तसमस्ताङ्गी विह्वलीभूतमानसा । पपात निष्क्रिया वेगात् तदा कामलता भुवि ॥६६॥ ततः कामलतां दृष्ट्वा निश्चेष्टीभूतविग्रहाम् । वसुमित्रा जगौ लोकं बाष्पविप्लुतलोचना ॥ ६७ ॥ मत्सुता सौम्यया लोकाः सपत्नीमत्सरेण च । मृतिं नीता विना कार्यात् सार्पणविधानतः॥६८॥ ततस्तद्वाक्यतः सौम्या दृष्ट्वा कामलतामिमाम् । नागदष्टां तमादाय घटं प्राप्य नृपान्तिकम् ॥६९॥ तद्वृत्तान्तं परिज्ञाय सौम्यां पप्रच्छ भूपतिः । किं कारणमियं प्राप मृति कामलता वद ॥ ७० ॥ भूपालवचनं श्रुत्वा जगौ सौम्याऽपि तं विभुम् । नाहं जानामि राजेन्द्र किंतु मद्भारतीं शृणु ॥७॥ एताभ्यां घटमध्यस्थाः पुष्पमाला मनोहराः । आनीता भक्तितस्ताभिर्जिनानी पूजितौ मया ॥७२॥ जनन्या सह गच्छन्त्या स्वगृहं जिनमन्दिरात् । मयैका पुष्पमालाऽस्या देवशेषा समर्पिता ॥७३॥ राजन् कामलताया हि शेषा दत्ता मया यदि । वसुमित्रा वदत्येषा मत्सुता भक्षिताऽहिना ॥७४॥ दन्दशूकेन दष्टेयं मन्मतेन यदि स्फुटम् । वसुमित्रैव जानाति न किंचिद्वेन्यहं प्रभो ॥ ७५॥ ॥ हितं समस्तजन्तुभ्यो जिनधर्म प्रजानती । एतस्य कर्मणो राजन् कारिणी न भवाम्यहम् ॥ ७६ ॥' अत्रान्तरे फणी भीमो घटादादाय वेगतः । सभास्थितस्य भूपस्य दर्शितो वसुमित्रया ॥ ७७ ॥ सौम्यामतेन भूपाल भीमेनानेन भोगिना । दष्टा मृतिं परिप्राप्ता मत्सुता धववल्लभा ॥ ७८॥ एवं निगद्य "मुक्तोऽहिनरेन्द्रपुरतोऽनया । कञ्जकासेन हस्तेन गृहीतः सौम्यया लघु ॥ ७९ ॥ सर्पो गृहीतमात्रः सन् पञ्चवर्णसमुज्वला । बभूव पुष्पमालेयं सौम्याहस्ते मनोहरे ॥ ८०॥ गृहीता पुष्पमालेयं तदानीं वसुमित्रया। भीमो भुजंगमो जातो भाषिताशेषजन्तुकः ॥ ८१॥ सौम्यया स्वकरामृष्टा मन्दा कामलता तदा । विषवेगपरित्यक्ता समुत्तस्थौ सभान्तरे ॥ ८२ ॥ दृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं राजा वसुमित्रां पुरःस्थिताम् । सत्येन श्रावितां कृत्वा पप्रच्छेति कुतूहली ॥८॥ त्वयेदं चेष्टितं भद्रे कृतं वा यदि वाऽकृतम् । यथा स्वरूपतो जातं सत्यं वद यथायथम् ॥८४॥ भूपेन्द्रवचनं श्रुत्वा वसुमित्रा जगौ नृपम् । मया नीतो घटस्थोऽहिः सौम्यावधनिमित्ततः ॥८५॥ ॥ न भक्षिताऽमुना सौम्या धर्मेण परिरक्षिता । मत्सुता वलनं कृत्वा कोपतो भक्षिताऽहिना ॥८६॥" अथ पत्तनदेवीभिदृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं तदा । परं वचः समुद्भुष्टं गगनस्थितमूर्तिभिः ॥ ८७॥ अहो शीलमहो सत्यमहो धैर्यमहो गुणः । जिनधर्मे परा भक्तिः सौम्यायाः शुद्धचेतसः ॥ ८८॥ इत्थमाभाष्य देवीभिनरेशस्य सभाऽन्तरे । पातिता पुष्पवृष्टिश्च सौम्याया मस्तकोपरि ॥ ८९॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीदृशं रुद्रदत्तो नरेश्वरः । जिनदासादयः सर्वे जिनधमपरायणाः ॥ ९०॥ जीवितं चपलं ज्ञात्वा धनयौवनसंपदा । दीक्षां दैगम्बरी वीरा धर्मसेनान्तिके दधुः ॥९१॥ तथा नागरिका नार्यों वसुमित्राऽपि भक्तितः । परां श्रावकतां प्राप्ता नूनं कामलतादयः ॥ ९२ ॥ खण्डश्रीः श्रेष्ठिनं ब्रूते स्वभार्यापरिवारितम् । महाविस्मयसंपन्ना भक्तिहृष्टतनूरुहा ॥ ९३॥ शीलसंघोषणं श्रुत्वा देवतापूजनं तथा । पुष्पमालाऽभवंश्चाहेभीषणाकृतिधारिणः ॥ ९४ ॥ जिनभक्तिसमेतायाः सौम्यायाः स्थिरचेतसः । दृष्ट्वा सम्यक्त्वमापन्नं स्थिरतां मम वल्लभ ॥९५॥".. ॥ इति श्रीसौम्याब्राह्मणीसदर्शनसहितखण्डश्रीहढसम्यक्त्वकारणं तृतीयकथानकमिदम् ॥ ६५ ॥ * 1 पफज त्रिभिः कुलकम्. 2 फज मुक्तो हि नरेन्द्र. 3 [कञ्जकामेन]. 4 [भापिताशेष]. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 6 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 7 पफज त्रिभिः कुलकम्. 8 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 9 [°ऽभवच्चाहे ]. 10 पफज त्रिकलमिदम्. 11 ज omits इतिश्री. 12 पफ add संपूर्णम्. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ६६. विष्णु श्रीकथानकम् । विष्णुश्रीः श्रेष्ठिना प्रोक्ता सम्यक्त्वं केन हेतुना । स्थिरत्वं ते समायातं प्रिये त्वं ब्रूहि मेऽधुना ॥ १ ॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य विष्णुश्रीः श्रीसमप्रभा । जगाद स्थिरसम्यक्त्वं स्वस्य कान्तस्य कौतुकात् ॥२॥ विषये वत्सकावत्यां नृपोऽस्यामजितंजयः । तद्भार्या च महादेवी बभूव प्रीतिकारिणी ॥ ३ ॥ सोमश्रीरस्य चामात्यो विमलादिमतिः प्रिया । रूपयौवनसंपन्ना कलाविज्ञानकोविदा ॥ ४ ॥ मिथ्यादृष्टिरमात्यो हि धनधान्यादिसंयुतः । ददाति सूत्रकण्ठेभ्यो भोजनाच्छादनादिकम् ॥ ५ ॥ समाधिगुप्तनामायं योगी मासोपवासगः । सोमश्रियो द्यमात्यस्य पर्यटन् गृहमाययौ ॥ ६ ॥ भिक्षार्थमागतं साधुं स्वगृहं वीक्ष्य दुर्बलम् । सोमश्रिया समुत्थाय धृतो योगी सुभक्तितः ॥ ७ ॥ श्रद्धादिगुणयुक्तेन तेनामात्येन साधवे । दत्ता भिक्षा सुखिन्नाय जीर्णभक्तेन भक्तितः ॥ ८ ॥ 10 वन्दितोऽनेन भावेन स्वदानफलमश्नुते । एवं निगद्य शुद्धात्मा निर्ययौ तगृहादरम् ॥ ९ ॥ तगृहान्निर्गते साधौ तपोऽगारे तपोधने । गृहेऽस्यातिशयाः पञ्च बभूवुः शुद्धचेतसः ॥ १० ॥ वसुधारा पपातोच्चैः पुष्पवृष्टिस्तथाऽमला । त्रिगुणोऽपि ववौ वातो दध्मौ दुन्दुभिरम्बरे ॥ ११ ॥ अहो दानमहो दानं देवानां प्रीतचेतसाम् । विचेरुर्गगने वाचो मनःश्रोत्रसुखावहाः ॥ १२ ॥ तथा चोक्तम् - 5 15 20 १५० [ ६६.१ देवदुन्दुभयो नेदुः सुरभिः पवनो ववैौ । अपतद् वसुधारा च पूरयन्ती नभःस्थलम् ॥ १३ ॥ द्विषट्काः खलु कोट्यस्तु तिस्रोऽर्धसहिताः स्मृताः । तीर्थकृच्छेषसाधूनां वसुधारेति कीर्तिता ॥ १४ ॥ शिरःकम्पाङ्गुलिस्फोटैर्हस्तभ्रमण निस्वनैः । साधु साध्विति देवानां पुष्पवृष्टिः प्रपातिता ॥ १५ ॥ आश्चर्यपश्ञ्चकं दृष्ट्वा स्वगृहे मुनिदानतः । अमात्यो विस्मितस्वान्तः प्रदध्यौ प्रीतमानसः ॥ १६ ॥ वेदवेदाङ्गयुक्तानामग्निहोत्रविधानतः । दत्तं यथेप्सितं दानं ब्राह्मणानां मया भृशम् ॥ १७ ॥ परिव्राजकशैवानां कालचक्रकपालिनाम् । यथेष्टं दानमन्येषां दत्तमस्माभिरादरात् ॥ १८ ॥ शोऽतिशयो लोके न मे जातः कदाचन । सत्त्वानां पुण्ययुक्तानां न किंचिद्दुर्लभं भवेत् ॥ १९ ॥ एवं विचिन्त्य शुद्धात्मा तोषकण्टकिताङ्गकः । ययौ शमं तदाऽमात्यो विवेकी बोधमेति हि ॥२०॥ शमं प्राप्य ततोऽमात्यो भक्तिनिर्भरमानसः । गत्वा समाधिगुप्तान्तं नत्वा पप्रच्छ तं त्विदम् ॥२१॥ * कनकाश्वतिला नागो रथो दासी मही गृहम् । कन्या च कपिला धेनुर्दश दानानि सन्ति वै ॥२२॥ दशाप्येतानि दानानि मया दत्तानि यत्नतः । माहनेभ्यस्तपखिभ्यो न दृष्टोऽतिशयो महान् ॥२३॥ श्रुत्वाऽस्य वचनं मुग्धं जगौ साधुरिमं पुनः । साधून्येतानि दानानि न भवन्ति महीतले ॥२४॥ आहाराभय शास्त्राणामौषधस्य प्रदानकम् । चत्वार्येतानि दानानि संमतानि मनीषिणाम् ॥ २५ ॥ उक्तमाहारदानस्य माहात्म्यं बुधसंगतम् । आकर्णयैकचित्तेन कथयामि तवेदृशम् ॥ २६ ॥ नकुलो यज्ञवाटस्थ इदं वचनमब्रवीत् । न सक्तुप्रस्थ तुल्यो हि यज्ञो बहुसुवर्णकः ॥ २७ ॥ इदं बुधमनोहारि भद्र साधुकथानकम् । शृणु त्वमेकचित्तेन निगदामि तवाधुना ॥ २८ ॥ दक्षिणापथदेशेऽस्ति विन्यानाम महानदी । तत्तटे लोकविख्यातं विन्यातटपुरं परम् ॥ २९ ॥ सोमप्रभः प्रभुस्तत्र बभूव जनविश्रुतः । सोमप्रभा प्रिया चास्य सुतरां तन्मनःप्रिया ॥ ३० ॥ 30 1 पफ सुखावहः 2 पफ चतुःकुलकम् ज चतुष्कलकम् 3 पफ आहारभय 4 फ वाटस्थमिदं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६६. ६१] विष्णुश्रीकथानकम् .. अथायं भूपतिर्भक्त्या तत्पुरासन्नभूतले । मखं सुवर्णनामानं चकार प्रीतमानसः ॥ ३१ ॥ क्रियमाणे मखे विप्रैाह्मणेभ्यो मुहुर्मुहुः । आदिमध्यावसानेषु ददाति कनकं नृपः ॥ ३२ ॥ अथ तन्मखशालाऽन्ते विश्वभूतिः प्रियंवदः । तापसो लोकविख्यातो वसति प्रीतमानसः ॥३३॥ शिशिरे त्वच्छवृत्त्याऽयं तापसो जीवति स्फुटम् । ग्रीष्मे कपोतवृत्त्या च चक्रवृत्त्या घनागमे ॥३४॥ सक्तून् कपोतवृत्त्याऽयमानीय जलमर्दितान् । चकार चतुरः पिण्डान् समभागान् स तापसः ॥३५॥ हुत्वा तत्पिण्डमेकं च चित्रभानौ स तापसः । प्रतीक्षतेऽतिथीन् भक्त्या समीपस्थितपिण्डकः ॥३६॥ अथ मासोपवासस्थः पिहिताश्रवनामकः । आजगाम क्रमाद् भ्राम्यंस्तगृहं यतिनायकः ॥ ३७॥ दृष्ट्वा स्वमन्दिरं प्राप्तं साधु भक्तिपरायणः । नत्वा मुनिं समुत्थाय तिष्ठ त्वं मगृहे मुने ॥ ३८॥ स्थापयित्वा तकं साधुं श्रद्धादिगुणसंयुतः । सक्तुपिण्डं ददावेकं साधवे तापसस्तदा ॥ ३९ ॥ तस्मिन् भुक्ते पुनस्तेन स्वस्य पिण्डोऽपि योषितः । पिण्डद्वयं वितीर्ण तद्भुक्तमेतेन साधुना ॥४०॥" भोजनान्ते प्रदायास्य चाशीर्वादं मुनीश्वरः । तन्मन्दिराजगामाशु मन्दमन्दगतिक्रियः ॥४१॥ ततो विनिर्गते साधौ संतोषस्थितचेतसि । आश्चर्यपञ्चकं जातं वसुधारादि तद्गृहे ॥ ४२ ॥ दृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं विप्रा राजाऽपि बहुविस्मयः । सुवर्णमखमाहात्म्याजातमागुस्तदालयम् ॥ ४३॥ यावगृह्णन्ति रत्नानां समूह नृपमाहनाः । तावदङ्गारसंघातः कृष्णवर्णों बभूव सः॥४४॥ प्राप्तान्यङ्गारतां दृष्ट्वा रत्नानि नरनायकः । विश्वभूतिगृहे प्राप ब्राह्मणैरिति विस्मितः ॥४५॥ ॥ सुवर्णयज्ञसामर्थ्याद्यदि रत्नानि माहनाः । संजातानि ततोऽङ्गारा जाता किं वदतेति मे ॥४६॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं नकुलः प्राह तं पुनः । सुवर्णयागतो नैषा रैधारा पतिता प्रभो ॥४७॥ पतिता वसुधारेयं नरेन्द्र मुनिदानतः । विश्वभूतिगृहे नूनं पञ्चवर्णसमुज्वला ॥४८॥ न युक्तमिदमादातुं विश्वभूतिधनं तव । भिक्षादानसमुत्पन्नं तत्पुण्यकृतरक्षणम् ॥४९॥ श्रुत्वाऽस्य भारती राजा तरां विस्मितमानसः । विश्वभूतिं जगादेमं संजातधनसंचयम् ॥ ५० ॥ अहं बहुसुवर्णस्य यज्ञस्याधं ददामि ते । मुनिभिक्षाफलस्यापि विश्वभूते हि देहि मे ॥५१॥ . एवं प्रचोदिते तेन भूभुजा तोषकारिणा । नेष्टं मनागपि स्पष्टं तदानीं विश्वभूतिना ॥५२॥ तेन कार्येण दानानि स्वर्णादीनि दशापि च । सामान्याहारदानेन न भवन्ति धरातले ॥ ५३॥ अभयादिप्रदानस्य माहात्म्यं शृणु सांप्रतम् । कथयामि समासेन तव धर्म चिकीर्षतः ॥ ५४॥ यः सौवर्णं नगाधीशं ददाति सकलां धराम् । जीवितं च तथैकस्य तत्फलेन समं न तत् ॥५५॥2 स्वर्णगोभूमिदानानि यः परस्मै प्रयच्छति । जीवितं च तथैकस्य तत्फलेन समं न तत् ॥५६॥ तथा चोक्तम्यो दद्यात् काञ्चनं मेरं कृत्वां चापि वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् फलेन न समं भवेत् ॥ ५७ ॥ हिरण्यदानं गोदानं भूमिदानं तथैव च । एकस्य जीवितं दद्यात् फलेन न समं भवेत् ॥ ५८॥॥ एतत्तेऽभयदानस्य माहात्म्यं कथितं मया । अधुना शास्त्रदानस्य कथयामि समासतः ॥ ५९॥ विप्रेण नीयमानोऽहिः पाण्डुरीको' जगाद सः।यो गुह्यं योषितां ख्याति न चिरं तस्य जीवितम् ॥६॥ गुरुरप्यक्षरं चैकं यः शिष्याय प्रयच्छति । धरायां तद्धनं नास्ति यद्वितीर्यानृणी भवेत् ॥६१॥ 1 [तूञ्छ°1.2 पफ कृष्णो वर्णो. [ब्राह्मणैरतिविस्मितः]. 4ज सुवर्णयागसा.. 5पफज त्रिभिः कुलकम्. 6 [समान्याहार]. 7 ज पण्डुरीको. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [६६.६२तथा चोक्तम्नीयमानः स्वपर्णेन नागः पण्डुरिरब्रवीत् । यः स्त्रीणां गुह्यमाख्याति तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ६२ ॥ एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।। पृथिव्यां नास्ति तद्रव्यं यद्दत्वाऽनृणी भवेत् ॥ ६३॥ अस्माभिः शास्त्रदानस्य माहात्म्यं कथितं तव । अधुनौषधदानस्य तद्वदामि समासतः ॥ ६४ ॥ औषधं यो हि साधुभ्यो रोगार्तेभ्यः प्रयच्छति । स जीवति निरातको जन्मान्तरशतेष्वपि ॥६५॥ चत्वार्यतानि दानानि प्रशस्तानि भवन्ति को । नान्यानि गोधनादीनि गुणकारीणि देहिनाम् ॥६६॥ धराक्षेत्रहिरण्यानि गोवित्तान्नानि भक्तितः । जिनमुद्दिश्य देयानि पुण्यहेतूनि देहिनाम् ॥६७॥ " देयादेयफलं श्रुत्वा जिनधर्म च भक्तितः । हृष्टो बभूव सोमश्रीर्लोकधर्मपराङ्मुखः ॥ ६८॥ शङ्कादिदोषनिर्मुक्तं सम्यक्त्वं मेरुनिश्चलम् । अणुव्रतानि सर्वाणि गुणशिक्षाव्रतैरमा ॥ ६९॥ मधु मांसं सुरां हित्वा तथा पञ्चुम्बरादिकम् । समाधिगुप्तसामीप्ये जग्राहायं विशुद्धधीः॥७०॥ नत्वा मुनि पुनः प्राह सोमश्रीभक्तितत्परः । यावजीवं न गृह्णामि लोहशस्त्रं मुनीश्वर ॥ ७१ ॥ नत्वा मुनिपदद्वन्द्वममात्यः प्रीतमानसः । स्वमन्दिरं जगामासौ जिनधर्मविभूषितः ॥ ७२ ॥ 15 क्षुरिकां काष्ठनिर्माणां खड्ग काष्ठमयं तथा । सकोशान्तं स चादाय नृपं गच्छति सेवया ॥ ७३ ॥ अन्यदा मत्सरोपेतैः पुरोहितमहत्तरैः । काष्ठखड्गादिका वार्ता भूपस्यास्य निवेदिता ॥ ७४॥ अमात्योऽयं महाराज क्षुरिकां काष्ठनिर्मिताम् । खड्गं च काष्ठनिष्पन्नं कोशमध्यव्यवस्थितम् ॥ ७५॥ माययाऽऽदाय दुष्टात्मा सद्भावपरिवर्जितः । भवन्तं सेवयाऽऽयाति महासामन्तपूजितम् ॥ ७६ ॥ निशम्य तद्वचो राजा क्रोधारुणनिरीक्षणः । अन्तर्मदकरीवाशु चुकोपास्मै खलाय सः॥ ७७॥ " कथामन्यापदेशेन विधाय सदसि स्थितः । पश्यति स्म निजं खड्गमिन्दीवरनिभं पुनः ॥ ७८॥ ततः क्रमेण चान्येषां कृपाणानि महीभुजाम् । तदा विलोकयामास छद्मना धरणीपतिः ॥ ७९ ॥ ततः सोमश्रियं राजा बभाण हृदि कोपवान् । पश्याम्यहं द्रुतं भद्र त्वं मे स्वमसिमर्पय ॥ ८०॥ नरेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा नितान्तं चित्तकोपिनः । सोमश्रीः श्रावकः कृत्वा हृदि पञ्चनमस्कृतिम् ॥८१॥ सभामध्यस्थितस्यास्य महीपालस्य रोषिणः । खड्गं समर्पयामास कोशमध्यस्थितं निजम् ॥ ८२॥ - आदाय तत्करादाशु कृपाणं भासुरप्रभम् । आचकर्ष नृपः कोशात् सभामध्ये व्यवस्थितः ॥ ८३॥ ततो निजप्रभाजालैोतमानो नभोधराम् । मण्डलायो बभूवायं रविर्वा भासुरप्रभः ॥ ८४॥ . तन्निस्त्रिंशकरो राजा तत्कोपागतमानसः । पूर्वोक्तसचिवादीनां व्यालुलोके मुखान्यसौ ॥ ८५ ॥ ततः सभ्यान् जगादासौ नरेन्द्रोऽसिकरस्तदा । तोयदध्वानधीरेण वचसाऽऽश्चर्यमीयुषा ॥ ८६ ॥ कैश्चिन्ममोदितं पूर्वमाश्चर्यों महतात्मभिः । खड्गधेनुं समादाय खड्गं काष्ठमयं तदा ॥ ८७ ॥ 30 मयाप्रपञ्चतो दुष्टः सोमश्रीस्तत्समीपकम् । आगच्छतीह सेवायां पश्यतेममसिं खलाः ॥ ८८॥ महीपालवचः श्रुत्वा सोमश्रीभूपतिं जगौ । गृहीतं व्रतमेकं हि गुरुपार्थे मयेदृशम् ॥ ८९ ॥ संग्रहो लोहशस्त्रस्यानर्थभूतस्य भूतले । यावजीवं न कर्तव्यो मया त्रेधा नराधिप ॥९॥ यदेभिः कथिता वार्ता तव मत्रिपुरोहितैः । साऽपि सत्यसमुद्भूता मद्विद्वेषविधायिभिः ॥ ९१ ॥ . 1ज तदन्तस्य जीवितम्, 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 [खकोशान्तः]. 4 पफज त्रिभिः कुलकम्. 5 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 6 [माया ]. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७. २१] नागश्रीकथानकम् १५३ करवाल्या कृपाणेन दारुनिर्मापितेन च । नक्तंदिवमहं कर्तुं सेवामायामि ते विभो ॥ ९२ ॥ सोमश्रियो वचः श्रुत्वा मत्रिणः प्रीतिकारिणः । जिनधर्मे दृढा जाता पूजितोऽयं नरेशिना ॥९३॥ तथा नगरदेवीभिः संप्राप्य नृपमन्दिरम् । मणिभर्मविनिर्माणे स्थापितः सिंहविष्टरे ॥ ९४ ॥ अष्टापदमयैः कुम्भैस्तथा मणिमयैरपि । स्वच्छनीरभरोपेतैरभिषिक्तः समङ्गलम् ॥ ९५॥ ततो नगरलोकेन सर्वेणापि सुभक्तितः । पूजितः सुतरां मन्त्री सोमश्रीः सर्वसंपदा ॥ ९६ ॥ दृष्ट्वा तद्धर्ममाहात्म्यं नरा नरवरादयः । जिनसेनगुरोरन्ते मोक्षार्थं ते प्रवव्रजुः ॥ ९७॥ अन्येऽपि बहवस्तत्र सम्यक्त्वं प्रतिपद्य ते । नरा विस्मयमासाद्य जिनधर्म प्रपेदिरे ॥ ९८॥ विष्णुश्रीः श्रेष्ठिनं प्राह जिनदासं मम प्रभो । दृष्ट्वाऽतिशयमेतस्य सम्यक्तवं स्थिरतामितम् ॥ ९९ ॥ ॥ इति श्रीअमात्यसोमश्रीदृढ सम्यक्त्वदर्शनबहुहिरण्ययागान्तर्गत कथामहितविष्णुश्रीदृढसम्यत्तवचतुर्थकथानकमिदम् ॥६६॥ ६७. नागश्रीकथानकम् । नागश्रीः श्रेष्ठिना पृष्टा तुरीया रमणी तदा । सम्यक्त्वं ते कुतो जातं स्थिरं मे वद सांप्रतम् ॥१॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य नागश्रीनिजगावमुम् । यथा मे स्थिरसम्यक्त्वं जातं शृणु वदामि ते ॥२॥ काशीजनपदे रम्ये वाणारस्यां पुरि प्रभुः । जितशत्रुरभूदस्य स्वर्णचित्रा प्रिया प्रिया ॥३॥ तत्सुता मुण्डिका नाम कुमारी रूपराजिता । अत्यन्तवल्लभा पित्रोस्तद्रूपहृतचेतसोः॥४॥ बालकाले विलोक्यैतां मृत्स्नाभक्षणतत्पराम् । ऋषभश्रीजगादार्या तद्वात्सल्यसमुद्यता ॥ ५॥ मृत्तिकाभक्षणे दोषो विद्यते पुत्रि निश्चितम् । पृथिवीकायजीवानां हिंसनं त्यज्यतामिदम् ॥ ६ ॥ अर्जिकावाक्यमाकर्ण्य मुण्डिका धर्मतत्परा । चकार नियमं तस्या मृत्तिकाया विशुद्धधीः ॥ ७॥ मृत्तिकायाः परित्यागे तदा मुण्डिकया कृते । देवकन्यासमं जातं तच्छरीरं मनोहरम् ॥ ८ ॥ ततस्तां ते समालोक्य तद्रूपहृतचेतसः । याचन्ते भूपतिं भूपास्तेभ्यो दातुं स नेच्छति ॥ ९॥ 20 अन्यदा भगदत्ताख्यः स्कन्धावारण भूयसा । वाराणसी रुरोधासौ सर्वतो मेदिनीपतिः ॥ १० ॥ देहि मे मुण्डिकाभिख्यां जितशत्रो कुमारिकाम् । अर्धराज्यं च भूपाल नान्यथा गतिरस्ति ते ॥११॥ एवं निगद्य तं दूतं भगदत्तो नरेश्वरः । जितशत्रुसमीपं च प्रजिघाय त्वरान्वितम् ॥ १२ ॥ दूतः क्रमेण संप्राप्य तद्वृत्तान्तमभाषत । स्वसुतायाचनं ज्ञात्वा जितशत्रुः क्रुधं ययौ ॥ १३॥ दूतनिर्भर्त्सनं कृत्वा प्रापय्य निजनायकम् । जितशत्रुः पुराच्छीघ्रं निर्ययौ संयुगं प्रति ॥ १४ ॥ 25 दूतवात परिज्ञाय संनह्य सकलं बलम् । तत्सन्मुखमभीयाय भगदत्तश्चमूसमम् ॥ १५ ॥ अथ युद्धं बभूवोग्रं वीरजातपराभवम् । सैन्यद्वयस्य कन्याऽर्थं बीजं युद्धस्य योषितः ॥ १६ ॥ पातितो वाजिना वाजी करिणाऽपि करी महान् । रथिकेन रथस्थोऽपि पदकोऽपि पदातिना ॥१७॥ "तुरङ्गहेषितैस्तुङ्गैनितान्तं गजगर्जितैः । रथाङ्गचयचीत्कारैः पदातिगलगर्जितैः ॥ १८॥ रणतूर्यनिनादेन धरागगननादिना । कर्णेऽपि पतितं भूपैः श्रूयते न परस्परम् ॥ १९॥ 30 एवं महति संजाते संग्रामे जनसंक्षये । रणात् पलायनं चक्रे जितशत्रुर्जितोऽमुना ॥ २०॥ अन्तःपुरं समस्तं च भयवेपितविग्रहम् । जितशत्रुमतेनाशु शत्रुभीतेः पलायितम् ॥ २१॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 ज प्रीतिकारिणा. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम् . 4 प संपदाम्. 5 ज omits इति श्री. 6 पफ हैषित. 7 पफ धर', 8 ज स्तूयते. 9 पफ युग्मम् , ज युगलम्. बृ० को० २० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [६७. २२पिता सुतां समादाय किल गच्छति वेगतः । गन्तुमिच्छति सा नातो भूयो भूयोऽपि भाषिता ॥२२॥ यन्मयोपार्जितं किंचिच्छुभाशुभफलोदयम् । प्राप्स्यामि तदहं तात गच्छ त्वं भयमत्र ते ॥ २३ ॥ पुत्रीवचनमाकर्ण्य धीरत्वसहितं तदा । जितशत्रुर्जगादैतां बाष्पविप्लुतलोचनः ॥ २४ ॥ एकाकिनी विहायात्र भवती मदनप्रियाम् । गन्तुं किं युज्यते पुत्रि प्रस्तावेऽत्र भयावहे ॥२५॥ 5 श्रुत्वा पितृवचः कन्या स्थिरचित्ता बभाण तम् । व्रततः पुण्यतो वा मे कोऽपि रक्षां करिष्यति ॥२६॥ महापराक्रमोपेतः प्रतापी बहुसैन्यकः । भवन्निकारसंसक्तो नानुबन्धं त्यजत्वरिः ॥ २७॥ तस्माद् व्रजामुतः स्थानात् प्राणसंदेहकारिणः । सुतावचनतो यातो जितशत्रुर्यथेप्सितम् ॥२८॥ स्मृत्वा जिननमस्कारं प्रत्याख्यानं च बालिका । सविकल्पं स्थिरस्वान्तरूपराजितविग्रहा ॥ २९ ॥ वैरिदृष्टिपथं याता भगदत्तस्य पश्यतः । गङ्गाह्रदं विवेशाय जलदेवीव मुण्डिता ॥ ३०॥ 10 गङ्गाह्रदं विशन्त्या हि तदाऽस्या धीरचेतसः । एको रुच्यमणिद्वीपो हृदो गेहं बभूव सः॥३१॥ गङ्गाह्रदं प्रविश्येवं जलकल्लोलभीषणम् । तस्थौ सुखेन विस्रब्धा भीतिवर्जितमानसा ॥ ३२ ॥ भगदत्तोऽपि भूपालस्तद्रपहृतमानसः। विशन् गङ्गाह्रदं देव्या स्तम्भितस्तत्तटे स्थितः ॥ ३३ ॥ ततः प्रभातकाले च सर्वलोकेन भूपतिः । निश्चेष्टस्तम्भितो दृष्टो देव्या सुरसरिजले ॥ ३४ ॥ ज्ञात्वा वृत्तान्तमेतस्य मिलितः सकलो जनः । तदन्तःपुरमप्यार धवान्तमतिविह्वलम् ॥ ३५॥ 15 अन्तःपुरं शुचाग्रस्तं बाष्पविप्लुतलोचनम् । पतिभिक्षां कृताक्रन्दं ययाचे मुण्डिताऽमरम् ॥ ३६॥ हृदगेहाद् विनिःसृत्य तदाऽन्तःपुरवाक्यतः । जगाद मुण्डिता वाक्यं करुणाहृतमानसा ॥ ३७॥ येन देवन देव्या वा मनुष्येणापि केनचित् । प्रातिहार्यं कृतं मेऽद्य स भूपं मुञ्चतु द्रुतम् ॥३८॥ तद्वाक्यतो नृपो मुक्तो जलदेव्या सुरेण वा । बभूव विस्मितस्वान्तो विस्रब्धीकृतचेतनः ॥३९॥ सिंहासनस्थितां कृत्वा मुण्डितां सुरसाः सुराः । क्षीरोदवारिणा तस्याः प्रचक्रुरभिषेचनम् ॥४०॥ 20 अभिषेकावसाने च मुण्डिता पूजिता सुरैः। स्थिरचित्ता गुणाधारा मृत्तिकावतशालिनी ॥४१॥ अत्रान्तरे विनीतात्मा भगदत्तो नरेश्वरः । दध्यो विस्मितचेतस्को मुक्तमानमहीधरः॥४२॥ अहो रूपमहो शीलमहो धैर्यमहो वचः । एतस्या वरकन्याया नान्यासामत्र योषिताम् ॥ ४३॥ एवं विचिन्त्य संप्राप्य तत्समीपं नराधिपः। भूयो भूयो नतिं कृत्वा चक्रेऽस्या हि क्षमापणम् ॥४४॥ ततः सा पूजिता बाढं भगदत्तेन पीडिता । तत्सामन्तैरपि स्पष्टं तत्पत्तनजनेन च ॥४५॥ 23 सुतामाहात्म्यमाकर्ण्य जितशत्रुस्त्वरान्वितः । आजगामान्तिकं तस्याः समस्तान्तःपुरेण सः॥४६॥ भगदत्तो नरेन्द्रोऽपि वैराग्याहितमानसः । तदा क्षमापणं चक्रे भूभुजा जितशत्रुणा ॥४७॥ प्रदाय सकलं राज्यं वसुताय जितेन्द्रियः । जितशत्रुर्जितानङ्गो भगदत्तोऽपि भूपतिः॥४८॥ अन्योऽपि भूपसंघातो भोगनिस्पृहमानसः। दधौ दैगम्बरी दीक्षां धर्मसेनान्तिके मुदा ॥४९॥ केचित् सम्यक्त्वपूर्वाणि व्रतान्यादाय भक्तितः । अणूनि श्रावका जाता जिनधर्मपरायणाः ॥५०॥ 30 मुण्डिताधबलाः सद्यो महावैराग्यसंगताः । ऋषभश्रीसमीपे हि बभूवुरर्जिकाः पराः ॥ ५१॥ मुण्डिताप्रातिहार्य च विलोक्य सुरनिर्मितम् । जाताऽस्मि दृढसम्यक्त्वा श्रेष्ठिन् मे कथितं तव ॥५२॥ ॥ इति श्रीजितशत्रुनृपमुण्डिताख्यकुमारीमृत्तिकाभक्षणनियमकरण दशेननागश्रीदृढसम्यक्त्वपञ्चमकथानकमिदम् ॥ ६७ ॥ ज विवेशाशु. 4 पफज युगलम्. 5 पफ 1 पफ संशक्तो. 2 पफज त्रिभिः कुलकम्. युग्मम् , ज युगलम्. 6ज omits इति श्री. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६८. ३१ ] पद्मलताकथानकम् ६८. पद्मलता कथानकम् । 15 भार्या पद्मलताभिख्या पञ्चमी श्रेष्ठिना पुनः । कौतुकेन हि संपृष्टा स्थिरसम्यक्त्वकारणम् ॥ १ ॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य जगौ पद्मलताऽप्यमुम् । स्थिरतां येन संप्राप्तं सम्यक्त्वं मम तच्छृणु ॥ २ ॥ अङ्गकाख्यजनान्तेऽस्ति चम्पाऽऽख्या नगरी शुभा । अस्यां नराधिपः श्रीमान् दन्तिवाहननामकः ॥३॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य महादेवी मनः प्रिया । विनयाचारसंपन्ना शोकाऽन्ता विनयादिका ॥ ४ ॥ अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी विद्यते धनसंयुतः । ऋषभोपपदो दत्तस्तस्य पद्मावती प्रिया ॥ ५ ॥ सम्यग्दर्शनसंपन्ना पद्मश्रीसमविभ्रमा । पद्मश्रीरभवत् पुत्री तयोः प्रेमानुरक्तयोः ॥ ६ ॥ बुद्धदासोऽभवत् तत्र श्रेष्ठी बाढमुपासकः । बुद्धश्रीरस्य भार्या च तत्प्रिया साऽप्युपासकी ॥ ७ ॥ बुद्धसंघोऽनयोः पुत्रस्तन्मनोनयनप्रियः । 'बुद्धभक्तिसमायुक्तो रूपराजितविग्रहः ॥ ८ ॥ अन्यदा बुद्धसंघोऽसौ पश्यन्नायतनानि च । अनुक्रमेण संप्राप्य जिनायतनमुत्तमम् ॥ ९ ॥ पद्मश्रियं विलोक्यात्र जिनपूजां प्रकुर्वतीम् । प्रसूनैर्बुद्धसंघोऽयं कामविह्वलतां ययौ ॥ १० ॥ ततः स्वमन्दिरं प्राप्य स्नानभोजनकादिकम् । हित्वा मौनं समालम्ब्य शयनीयमसौ श्रतः ॥११॥ दृष्ट्वा मञ्चस्थितं पुत्रं मौनस्थं शुचमागतम् । पप्रच्छेति तदा माता म्लानव क्रसरोरुहम् ॥ १२ ॥ भोजनं पुष्पताम्बूलं स्नानं काश्मीरकादिकम् । हित्वा किं कारणं पुत्र स्थितोऽसि शयने शुचा ॥१३॥ * जननीवाक्यमाकर्ण्य बुद्धसंघोऽपि तां जगौ । प्रमुञ्चनुष्णनिःश्वासं कामबाणसमाहतः ॥ १४ ॥ सुतामृषभदत्तस्य पद्मश्रीनामसंगताम् । यदि प्राप्स्यामि तां कान्तां जीविष्यामि ततो ध्रुवम् ॥ १५ ॥ अथवैतां न प्राप्स्यामि मन्मनोनयन प्रियाम् । नियतं श्वो मरिष्यामि प्रतिज्ञेयं ममाम्बिके ॥ १६ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं माता तन्मृत्युभयवेपिता । तत्पितुः कथयामास वृत्तान्तं निखिलं तदा ॥ १७ ॥ श्रुत्वा स्वरमणीवाक्यं पिता पुत्रं जगाद तम् । उपासका वयं पुत्र पिशिताहारिणस्तराम् ॥ १८ ॥ पद्मश्रीजनको बाढं श्रावको विदितो बुधैः । स ददाति कथं पुत्रीमस्माकं जिनदेवतः ॥ १९ ॥ 20 लब्धोऽथवा मयोपायो येन पुत्रीं ददाति ते । उत्सुकत्वं विहाय त्वं विश्रब्धो भव बालक ॥ २० ॥ एवं संमध्य तावत्र यशोधरमुनीश्वरम् । प्रापतुः प्रीतचेतस्कावुपविष्टौ यथासनम् ॥ २१ ॥ जैनधर्ममुपश्रुत्य' गृहीत्वाऽणुव्रतानि च । छद्मना श्रावकौ जातौ विनयानतविग्रहौ ॥ २२ ॥ बौद्धधर्मं विहायैतौ जिनपूजां प्रचक्रतुः । भिक्षादानं च साधुभ्यो दत्तवन्तौ मुहुर्मुहुः ॥ २३ ॥ उपवासं च कुर्वाणौ हृष्टौ तौ पर्ववासरे । धर्मवात्सल्यतः श्रेष्ठी स्नेहं च कुरुते तराम् २४ ॥ बुद्धः कृतोपवासश्च तचैत्ये स्थितवानसौ । श्रेष्ठिना स्वगृहं नीतः पारणार्थं प्रमोदिना ॥ ततो भोजनवेलायां दत्ता पेयाऽस्य वासिता । बुद्धदासो जगादैतं विनयानतमस्तकः ॥ २६ ॥ पुत्रीं वृषभदास त्वं मत्पुत्राय यदि स्फुटम् । पद्मश्रियं ददासीमां भोजनं विदधाम्यहम् ॥ २७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं श्रेष्ठी बभाणैवं पुरः स्थितः । अस्माभिः स्वसुता देयाः श्रावकेभ्यो बुधाखिलाः ॥ २८ ॥ सुता ऋषभदासेन दत्वास्मै श्रावकाय सा । भोजनं कुरुतः पश्चात्तौ तदानीं विधानतः ॥ २९ ॥ 30 तरां ऋषभदासोऽपि जिनानां जितविद्विषाम् । चकार महतीं पूजां पुष्पधूपादिसंपदा ॥ ३० ॥ शङ्खतूर्यनिनादेन महाविभवयोगतः । अकारयच्च विधिना पाणिग्रहणमेतयोः ॥ ३१ ॥ ॥ २५ ॥ १५५ 1 पफ दन्तवाहन 2 पफ बुद्धिश्री 3 पफ बुद्धिभक्ति 4 पफ युग्मम्, ज युगलम् 5 पफंज त्रिभिः कुलकम् 6 पफ बालकः. 7 ज जैनं. 8 [ दत्तास्मै ]. 5 10 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ३८ ॥ परिणीय विधानेन तदा पद्मश्रियं तकौ । उपवासं विधायात्र तस्थिवांसौ कृतक्रियौ ॥ ततो भिक्षुर्जगादास्या बुद्धधर्मं सभेदकम् । पद्मश्रीरपि तत्पक्षं नेच्छति स्थिरबुद्धिका ॥ भूयो वदन्ति ते तां च सर्वजन्तुहितो वचः । समस्तकरुणोपेतो बुद्धधर्मः सुखप्रदः ॥ ३४ ॥ अस्माकं ज्ञानमप्यम्ब कालत्रयविशेषवित् । तत्प्राप्य निश्चितं बौद्धस्तिष्ठन्ति सुखिनो भुवि ॥ ३५ ॥ · अहं ज्ञानविशेषेण सत्यरूपेण साधुना । जानामि सकलान् भावान् यद्रूपेण व्यवस्थितान् ॥ ३६ ॥ यथा तेऽत्र पिता पुत्र जिनधर्मं विधाय च । अटव्यां भीमरूपायां बभूव हरिणो मुधा ॥ ३७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं तत्र पद्मश्रीर्निजगाद तान् । विज्ञातं भवतां ज्ञानमस्माभिरधुना स्फुटम् ॥ मत्पिता येन विज्ञातो भवद्भिर्वीतसंशयैः । सारङ्गतां परिप्राप्तो वने वृक्षसमाकुले || ३९ ॥ पद्मश्रियाऽन्यदा सर्वे भिक्षवो हि निमंत्रिताः । उपानच्छत्रिकोपेता निविष्टास्ते यथाक्रमम् ॥ ४० ॥ 10 मुक्त्वा प्राणहिताः सर्वा गृहको प्रयत्नतः । निविष्टास्ते यथास्थानं भिक्षवः पिशिताशिनः ॥ ४१ ॥ एकैकोपानहं तेषामादाय त्वरितं पुनः । कृत्वा तत्खण्डखण्डानि सूक्ष्मरूपाणि तान्यलम् ॥ ४२ ॥ व्यञ्जनानि सुगन्धानि' नानारसयुतानि च । तद्भक्षणार्थमेतानि विहितानि घनान्यपि ॥ ४३ ॥ पद्मश्रिया वितीर्णानि तानि तेभ्यः पुनः पुनः । भक्षितानि त कैस्तुष्टैरङ्गुलिस्फोटकादिभिः ॥ ४४ ॥ भुक्त्वोत्थितैस्तकैस्तस्माद् दृष्ट्वा प्राणहितां निजाम्। एकैकां विस्मितैः पृष्टा पद्मश्रीर्द्रुतमादरात् ॥४५॥ 15 उपासकि गृहे तत्र मुक्ताः प्राणहिता यकाः । दृष्टैकैका च साऽस्माभिः द्वितीया न क्वचित्पुनः ॥४६॥ अन्वेषणं प्रयत्नेन विधाय निजमन्दिरे । समर्पय पुनर्येन गच्छामः स्वगृहं मुदा ॥ ४७ ॥ श्रुत्वा तद्भारतीं तत्र पद्मश्रीर्निजगावमून् । भवतां विद्यते ज्ञानं सर्ववस्तुप्रकाशकम् ॥ ४८ ॥ मत्पिता येन ज्ञानेन विज्ञातो हरिणो वने । उत्पन्नस्तेन विज्ञाय गृहाणोपानहं द्रुतम् ॥ ४९ ॥ ततस्तद्वाक्यतो रुटैर्भिक्षुभिः सुगताश्रितैः । बुद्धदासस्य सा वार्ता सकलाऽपि निवेदिता ॥ ५० ॥ 20 अस्मन्निमन्त्रणं कृत्वा भवद्वध्वाऽतिचण्डया । उपानद्भक्षणं दत्तमस्मभ्यं संस्कृतं तया ॥ ५१ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि बुद्धदासोऽरुणेक्षणः । तदर्थं भूमिपालाय ददौ बहुधनं तदा ॥ ५२ ॥ आदाय तद्धनं तेन भूभुजा रोषमीयुषा । निजपत्तनतः शीघ्रं घाटितौ तौ वधूवरौ ॥ ५३ ॥ 'तेन निर्धाटितौ सन्तौ मिलितौ सार्थवाहयोः । परदेशं गतौ तौ च दुःखपूरितमानसौ ॥ ५४ ॥ भुक्त्वा सविषमाहारं सार्थवाहौ परस्परम् | 'अजातविषसंबन्धौ सलोकौ तौ मृतौ निशि ॥ ५५ ॥ बुद्धसंघोऽपि भुक्त्वेममाहारं विषसंयुतम् । विषव्याप्त समस्ताङ्गी मृतकल्पो बभूव सः ॥ ५६ ॥ तद्वा बुद्धदासोऽपि विज्ञाय सकलामसौ । स्वलोकसंगतः प्राप तं प्रदेशं शुचाऽन्वितः ॥ ५७ ॥ मृतकल्पं सुतं दृष्ट्वा जगादोच्चैर्ध्वनिर्जनान् । पद्मश्रिया विषं दत्त्वा मत्सुतो निहितो' जनाः ॥ ५८ ॥ तथा समस्तलोकोऽयं सार्थवाहसमन्वितः । निहतो विषयोगेन कारणेन विनाऽनया ॥ ५९ ॥ अभ्याख्यानमिदं तत्र सत्येन परिवर्जितम् । पद्मश्रियो विमूढात्मा बुद्धदासश्चकार सः ॥ ६० ॥ निगद्यैवं जनाध्यक्षं बुद्धदासो निजं सुतम् । करेणादाय चिक्षेप पद्मश्रीचरणोपरि ॥ ६१ ॥ एवं कृतेऽमुना तत्र पद्मश्रीर्निजगा विदम् । रात्रिभोजनमाहात्म्यादुत्तिष्ठतु धवो मम ॥ ६२ ॥ एवं प्रोक्तेऽनया तत्र बुद्धसंघो विषोज्झितः । तत्क्षणेन समुत्तस्थौ सर्वोऽपि सकलस्तदा ॥ ६३ ॥ अत्रान्तरेऽमरैस्तुष्टैर्गगनस्थितविग्रहैः । पद्मश्रीः पूजिता बाढं महाविभवसंपदा ॥ ६४॥ पूजयित्वा तकां देवा दिवि विस्मितमानसाः । अदृष्टविग्रहा हृष्टा वदन्तीदं मुहुर्मुहुः ॥ ६५ ॥ 6 25 20 1 ज सुगन्धीनि 2 पफ पद्मश्रीत . 3 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 4 [ अज्ञात ]. 5 [ निहतो ] 6 पज मानसः. [ ६८. ३२ ३२ ॥ ३३ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६९. २३ ] कनकलताकथानकम् १५७ अहो पद्मश्रियः शीलमहो सत्यमणुव्रतम् । अहो जिने परा भक्तिरहो धर्मेऽपि तन्मतिः ॥६६॥ विलोक्याश्चर्यमीदृक्षं तदा पद्मश्रियः परम् । दन्तिवाहनभूपालमत्रिणो विस्मयं ययुः ॥ ६७॥ वितीर्य स्वस्य पुत्रेभ्यो 'राज्यभारमहागुणम् । महावैराग्यसंपन्ना मोक्षविन्यस्तबुद्धयः ॥ ६८॥ दन्तिवाहनभूपालमत्रिपौरादयस्तदा । हित्वा परिग्रहं सर्व श्रीधरान्ते प्रवव्रजुः ।। ६९॥ बुद्धदासोऽपि पद्मश्रीर्बुद्धसंघादिवाणिजाः । विहाय लौकिकं धर्म जिनधर्म प्रपेदिरे ॥ ७० ॥ ततः पद्मलता प्राह श्रेष्ठिनं श्रेष्ठिनीयुतम् । दृष्ट्वाऽतिशयमेतस्या जाताऽहं दृढदर्शना ॥ ७१॥ -शेषं पूर्ववत्॥ इति श्रीपद्मश्रीदृढसम्यक्त्वरात्रिभोजनपरित्यागदर्शन पद्मलतादृढसम्यक्त्वषष्ठकथानकमिदम् ॥ ६८॥ । ६९. कनकलताकथानकम् । कनकादिलता पृष्टा श्रेष्ठिना श्रेष्ठिनी तदा । सम्यक्त्वं स्थिरतां केन संप्राप्तं तव मे वद ॥१॥ अवन्त्याख्यमहादेशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । अस्यां बभूव भूपालो नरपालो बुधप्रियः ॥ २ ॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य महादेवी मनःप्रिया । कनत्कनकगौराभा मालान्ता कनकादिका ॥३॥ अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी श्रावको जिनदेवतः । नाम्ना समुद्रदत्तोऽयं समुद्रो रत्नसंपदाम् ॥ ४ ॥ तद्भार्याऽप्यभवञ्चार्वी दत्ताऽन्ता सागरादिका । तत्पुत्रश्चोमको नाम जिनदत्ताऽभिधा सुता ॥ ५॥ 15 विषये वत्सकावत्यां कौशम्ब्यां पुरि धीरधीः । अर्हद्दासोऽभवच्छ्रेष्ठी जिनदासी च तत्प्रिया ॥ ६॥ ऋषभोपपदो दासस्तत्पुत्रोऽभवदिद्धधीः। जिनदत्ताऽस्य सा दत्ता महाविभवयोगतः ॥ ७॥ । सप्तव्यसनसंयुक्तश्चोमकोऽपि परिभ्रमन् । कुर्वन् स चौरिकां तस्यामुज्जयिन्यां पुनः पुनः ॥ ८॥ प्रविष्टः कस्यचिद्रेहे गृहीतो दण्डपाशिकैः। श्रेष्ठिदाक्षिण्यतः सोऽपि विमुक्तस्तस्करो महान् ॥९॥ प्रविष्टो मन्दिरं भूयः कस्यचिद्धनतृष्णया । गृहीतश्चोमकः कोपात् स्वयमेव महीभुजा ॥ १० ॥ 20 समुद्रदत्तमाहूय जगादेमं महीपतिः । गृहीतश्चौरिकां कुर्वन्नुमकस्त्वत्सुतो मया ॥११॥ भवद्दाक्षिण्यतो मुक्तो भूयो भूयो मयाऽप्ययम् । निवारयाधुना पुत्रमन्यथा हन्मि निश्चितम् ॥१२॥ भूपालवाक्यतो दुष्टो जनकेन स तत्क्षणे । श्रीमदुजयिनीतोऽयं धाटितः कुलदूषणः॥१३॥ एवं निर्धाटितः सन्स सार्थवाहसुतैः सह । जिनदत्तान्तिकं गेहाजगाम जननिन्दितः ॥१४॥ सार्थवाहसुतानां च भोजनाच्छादनादिकः । उपचारः कृतस्तेषां तदानीं जिनदत्तया ॥ १५॥ 23 स्वस्रा हि पूजितान् दृष्ट्वा सार्थवाहसुतानरम् । धृत्वा चित्तेऽतिमानं स मुनिगुप्तान्तिकं ययौ ॥१६॥ नत्वा मुनिमिमं भक्त्या श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् । तत्पुरः स चकारेमा प्रतिज्ञां विनयानतः ॥ १७॥ फलस्य यस्य जानामि नाहं नाम मुने तदा । तत्फलं जातुचित् कान्तं भक्षयामि न निश्चितम् ॥१८॥ आदायेदं व्रतं सोऽपि भक्तिनिर्भरमानसः । जग्राह शुद्धसम्यक्त्वं तदन्ते विनयानतः ॥ १९ ॥ श्रुत्वा मुनिसमीपस्थं भ्रातरं दर्शनान्वितम् । जिनदत्ता तदा तं च स्वनरं प्राहिणोदरम् ॥ २० ॥ 30 तदन्तं प्राप्य वेगेन स नरः प्राह तं पुनः । जिनदत्ता जगाद त्वां मन्मुखेन ससंगतम् ॥ २१ ॥ सम्यक्त्वं यत्त्वया प्राप्तं मुनिपार्श्व सुनिर्मलम् । निवृत्तिर्यत्कृता भ्रातस्तथाऽज्ञातफलस्य च ॥ २२ ॥ त्वयेदं शोभनं भ्रातः कृतं मत्कुलभूषण । अधुनाऽऽगच्छ सामीप्यं सत्वरं मम निश्चितम् ॥ २३॥ ___1 ज राज्यभारं. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 ज omits इति श्री. 4 Mss. read both उज्जयनी and उज्जयिनी.5 पफ मयः.6 पफ भवदाक्षिण्यतो. 7 पफस सन्सार्थ.8 पफज त्रिभिः कुलकम्. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ६९. २४ जिनदत्तावचः श्रुत्वा तन्नरेण निरूपितम् । मुनिं नत्वा जगामायं तत्समं स्वसुरन्तिकम् ॥ २४ ॥ दृष्ट्वा स्वभ्रातरं प्राप्तं जिनदत्ताऽतिवेगतः । चकार स्नेहतोऽनेन क्षेमसंभाषणादिकम् ॥ २५ ॥ प्रदाय भोजनं चास्मै नानावस्त्रादिकं धनम् । चकार बहुसन्मानं जिनदत्ता जिनप्रिया ॥ २६ ॥ सार्थवाहसुतास्ते च कृत्वा वाणिज्यमुत्तमम् । कौशाम्ब्याख्यपुरीतोऽरं निर्ययुः प्रीतमानसाः ॥ २७ ॥ • सूक्ष्मं महापथं हित्वा गोदण्डेन ययुस्तके । उमकेन समं सर्वे महाकक्षमिदं श्रिताः ॥ २८ ॥ ततो मार्गपरिभ्रष्टाः क्षुधापम्पाकदर्थिताः । उमकेन समायुक्ताः सार्थवाहसुतास्तदा ॥ २९ ॥ गन्धामोदितसर्वाशं फलितं' दृष्टिवल्लभम् । किंपाकवृक्षमुत्तु ददृशुस्ते वनान्तरे ॥ ३० ॥' तत्फलानि समादाय मनोहारीणि देहिनाम् । भक्षितानि तकैर्मूढैस्तृड्बुभुक्षाकदर्थितैः ॥ ३१ ॥ उमकेन विचित्राणि बुभुक्षाग्रस्तचेतसा । भक्षितानि न चैतानि तन्निवृत्तिनिमित्ततः ॥ ३२ ॥ सार्थवाहयुताः सर्वे युगपन्मृतिमाययुः । अज्ञानमूढचेतस्काः किंपाकफलभक्षणात् ॥ ३३ ॥ अज्ञातफलहानेन व्रतयोगेन केवलम् | उमकः पञ्चतावाप्तिं न यातः स्थिरमानसः ॥ ३४ ॥ ततो मृतावशिष्टं तं वृद्धदेवी विलोक्य च । पप्रच्छ तत्परीक्षार्थं तन्मतान्तरवेदिनी ॥ ३५ ॥ एतान्यदनरूपाणि मृष्टानि मधुराणि च । नरदेवीसुरादीनां भोज्ययोग्यानि सर्वदा ॥ ३६ ॥ तृष्णाक्षुधागृहीतेन वने भोजन वर्जिते । त्वया कुतो न जग्धानि फलानि कथयाशु मे ॥ ३७ ॥ वृद्धदेवीवचः श्रुत्वा जिनदत्ताऽग्रजोऽब्रवीत् । इमां पुरस्थितां तत्र कौतुकव्याप्तमानसाम् ॥ ३८ ॥ अविज्ञातफलानां हि मयैतेषामवग्रहः । गृहीतो मुनिसामीप्ये खण्डितुं स न युज्यते ॥ ३९ ॥ देवी तद्वाक्यतो हृष्टा बभाणेमं दृढव्रतम् । वरं वृणीष्व भद्र त्वं मनोऽभिलषितं परम् ॥ ४० ॥ अवाचि देवताऽनेन तन्मतान्तरवेदिना । सर्वेऽपीमे वयस्या मे समुत्तिष्ठन्तु सत्वरम् ॥ ४१ ॥ देव्या तद्वाक्यतः सर्वे सार्थवाहकुमारकाः । उत्थापिताः प्रयत्नेन विकसन्मुखपङ्कजाः ॥ ४२ ॥ 20 ततो देवी तकं प्राह तोषपूरितमानसा । भवन्तं पूजयिष्यामि श्रीमदुज्जयिनी मितम् ॥ ४३ ॥ देवी प्रदर्श्य पन्थानमुज्जयिन्यास्त्वरावती । सार्थवाहकुमाराणां जगाम स्वमनीषितम् ॥ ४४ ॥ तत्समं प्रीतचेतस्काः सार्थवाहकुमारकाः । सर्वेऽपि ते परिप्रापुः श्रीमदुज्जयिनीं पुरीम् ॥ ४५ ॥ उमकं तं परिप्राप्तं सुकुमारं पुरीमिमाम् । ज्ञात्वा देवी च संप्राप्य तत्पार्श्वं प्रीतमानसा ॥ ४६ ॥ लोकविस्मयकारिण्या पूजयोमकमादरात् । पूजयामास सा देवी तदानीं नृपसाक्षिकम् ॥ ४७ ॥ 2s पञ्चवर्णमणीनां च स्वकराहतभास्वताम् । पातयामास सा देवी तदग्रे घष्टिकोटिकाः ॥ ४८ ॥ अन्येऽप्यतिशया जाताः पुष्पवृष्ट्यादयोऽस्य च । देवैर्नभोगतैर्घुष्टमुमकोऽयं दृढव्रतः ॥ ४९ ॥ दृष्ट्वाऽतिशयमेतस्य भूभुजा तज्जनेन च । महाविभवयोगेन चोमकः पूजितस्तराम् ॥ ५० ॥ दत्त्वा राज्यं स्वपुत्रेभ्यो नरपालादयो नृपाः । समीपे धरसेनस्य सवैराग्याः प्रवत्रजुः ५१ ॥ तदोमकादयो हृष्टा नराः सम्यक्त्वपूर्वकम् | जिनधर्मं समादाय बभूवुः श्रावकाः परे ॥ ५२ ॥ कनकादिलता भार्या श्रेष्ठिनं प्राह विस्मिता । उमकं पूजितं दृष्ट्वा सम्यक्त्वं मम सुस्थितम् ॥ ५३ ॥ - शेषं पूर्ववत् - I ॥ इति श्रीअज्ञातफलपरित्यागदृढव्रतसम्यक्त्वदेवतापूजितोमकदर्शन कनकलतादृढसम्यक्त्वसप्तमकथानकमिदं परिपूर्णम् ॥ ६९ ॥ 1 ज फलिनं. 2 पफ युग्मम् ज युगलम्. 3 पफज त्रिभिः कुलकम्. 4 मनोभिलिखितं 5 [ वृष्टिकोटिकाः ]. 6 ज omits इति श्री. 10 15 30 張 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७०. ३२] विद्युल्लतादिकथानकम् ७०. विद्युल्लतादिकथानकम् । विद्युल्लताभिधां भार्यां सप्तमी श्रेष्ठिनी जगौ । श्रेष्ठी तव कथं कान्ते सम्यक्त्वं स्थिरतां गतम् ॥१॥ निशम्य श्रेष्ठिनो वाक्यं जगौ विद्युल्लताऽपि तम् । विस्मयव्याप्तचेतस्कं तच्चित्तस्थितमानसा ॥२॥ मनोरमाऽत्र पूर्देशे विद्यते धनसंकुले । नगर्यां सूर्यकौशाम्ब्यां शकटो नाम भूपतिः ॥ ३॥ बभूवास्य महादेवी विजया नाम विश्रुता । एकोऽत्रैव पुरे श्रेष्ठी शुरदेवो वसत्यसौ ॥४॥ अनेन शूरदेवेन कलिङ्गविषयादरम् । जात्यश्वोऽत्र समानीतो मनोवातजवो महान् ॥ ५॥ दत्तस्तुरङ्गमोऽनेन शकटाख्यमहीपतेः । नृपेणास्य धनं दत्त्वा महाधनपतिः कृतः ॥६॥ शूरदेवोऽपि तत्प्राप्य धनमस्य महीपतेः । महाधनाधिपो भूत्वा तस्थौ मुदितमानसः ॥ ७ ॥ मुनिः श्रीषेणनामाऽथ गृहपंक्त्या परिभ्रमन् । मासोपवाससंयुक्तो विवेश गृहमस्य सः॥ ८॥ दृष्ट्वा स्वगृहमायातं शूरदेवो मुनिं तदा । समुत्थाय तरेणाशु जग्राह स्थितिकोविदः ॥९॥ ॥ प्रतिग्रहः शुचिस्थानं चरणोदकपूजने । नतिर्मानसवाक्कायाहारशुद्धिः क्रमादिति ॥१०॥ एवमादिक्रियाः कृत्वा शूरदेवोऽतिभक्तितः । ददावाहारदानं च योगिने स्थितिभोजिने ॥११॥ दत्ते चाहारदानेऽस्मिन् शूरदेवस्य मन्दिरे । आश्चर्यपञ्चकं जातं भक्तितः किं न जायते ॥ १२ ॥ अत्रैव नगरे श्रेष्ठी दत्तान्तः सागरादिकः । पुत्रः समुद्रदत्तोऽस्य श्रीदत्तागर्भसंभवः ॥१३॥ वसुधारादिकं दृष्ट्वा शूरदेवगृहे तदा । दध्यौ समुद्रदत्तोऽयं महादारिद्रपीडितः ॥ १४ ॥ अहं तं देशमासाद्य जात्यश्वं चानये परम् । विभूतिमीदृशीं येन प्राप्नोमि सुखदायिनीम् ॥ १५॥ चिन्तयित्वा चिरं सोऽपि वणिग्भिः स्वसमैः सह । वणिज्यायै गतः शीघ्रं परदेशं धनेच्छया॥१६॥ ततस्तैर्मिलितैः प्रोक्तं सर्वैरपि परस्परम् । तोषपूरितचेतस्कैर्धनसंघातमिच्छुभिः ॥१७॥ पलाशपूर्वके ग्रामे विधाय क्रयविक्रयम् । मिलितव्यं समं सर्वैः कृतसंतोषनिखनैः ॥ १८॥ एवं निगद्य ते सर्व धनार्थ कांदिशीककाः । सहाय्यतां विहायाशु ययुर्मुदितचेतसः ॥ १९॥ 20 स्थितः समुद्रदत्तोऽत्र ग्रामे धनसमन्विते । आसीदशोकनामायं कुटुम्बी बहुगोधनः ॥ २० ॥ अशोकः सप्तिसंघानां नरमाह्वयते कृते । श्रुत्वा समुद्रदत्तोऽपि तच्छब्दं गतवानिमम् ॥ २१ ॥ दृष्ट्वा समुद्रदत्तं च जगादाशोकनामकः । किमर्थं त्वं समायातो मदन्तं ब्रूहि सत्वरम् ॥ २२॥ अशोकवचनं श्रुत्वा बभाणेममयं पुनः । त्वदश्वरक्षणं नूनं करोमि धनवान्छया ॥ २३ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि जगावेतं पुरःस्थितम् । समात्रये गते भद्र प्रधानाश्वौ ददामि ते ॥ २४ ॥ 25 तदा समुद्रदत्तोऽपि तन्मतेन दिवानिशम् । तदश्वान् पालयंस्तस्थावशोकभवने मुदा ॥ २५ ॥ प्रभातेऽश्वान् समादाय वनं जलतृणान्वितम् । प्रयाति प्रीतचेतस्कस्तत्पालनपरायणः ॥ २६ ॥ नानाफलानि पक्वानि सपुष्पाणि मृदूनि च । वनादेत्य स सन्ध्यायां ददाति कमलश्रियः ॥२७॥ एवं गच्छति तत्काले फलादानमृदूक्तिभिः । प्रीतिः समुद्रदत्तेन बभूव कमलश्रियः ॥२८॥ दृष्ट्वेमं कन्यका दध्यौ गृहवासो यदि स्फुटम् । भविष्यति ममानेन नान्येन मनुजेन सः ॥ २९॥ 30 अन्यदाऽवाचि सा तेन स्नेहनिर्भरमानसा । स्वदेशं यातुमिच्छामि सांप्रतं जननीसमम् ॥३०॥ श्रुत्वाऽस्य वचनं कन्या सा सस्नेहमिमं जगौ । अहं त्वया समं यामि किंतु मद्वचनं शृणु ॥३१॥ जात्यश्वौ तिष्ठतः सारौ द्वावेवाश्वकदम्बके । मन्मतेन गृहाणेमौ कुरु कार्यं यथेप्सितम् ॥ ३२ ॥ 1 [त्वरेणाशु]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 ज सहय्यतां. 4 ज फलदान'. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७०. ३३तद्वाक्यतोऽमुना सर्वे चानीतास्तुरगास्तदा । वाजिमध्येऽत्र को सारौ गृह्णाम्यश्ववरौ वद ॥ ३३॥ तद्वाक्यतो जगादैषा तत्प्रीतिस्थिरमानसा । स्यातामश्वाविमौ सारौ वाजिमध्ये मनोजवौ ॥ ३४ ॥ एकः खे याति वेगेन द्वितीयोऽपि जलोपरि । एतौ गृहाण वाजीन्द्रौ बहुमूल्यौ मनोहरौ ॥३५॥ उक्ता समुद्रदत्तेन सा कन्या कलनिस्वना । जानामि तौ कथं सारी हरी ब्रूहि मनस्विनि ॥३६॥ 5 तयाऽवाचि पुनः सोऽपि नितान्तं तद्गताशयः । एकः शुक्लो बलाकाभो रक्तोऽन्यः शुक्ललोचनः ॥३७॥ यः किलर्जुरुदासीनः स्थिरको वराङ्गकः । आस्ते सितः खयायान् स जात्यश्वः सप्तिनायकः ॥३८॥ चलकर्णशयानो यः स रक्तो जलयानकः । कथितौ ते मया चारू जात्यश्वौ च गृहाण तौ ॥३९॥' तदभिज्ञानतो ज्ञात्वा जात्यश्वौ स्वमनोहरौ । कमलादिश्रियं प्राह तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ ४०॥ ज्ञातौ तवोपदेशेन वाजिनौ परमौ मया । अधुना यद्रवीपि त्वं तदेव विदधाम्यहम् ॥४१॥ 10 ततोऽभिलक्षणं कृत्वा स्वमतं प्रीतमानसौ । तूष्णीभावमुपाश्रित्य तस्थतुस्तौ यथोचितम् ॥४२॥ अत्रान्तरे परिभ्रम्य पुरग्रामादिकं बहु । पलाशपूर्वके ग्रामे प्राप्तास्ते तत्समागमम् ॥४३॥ प्राप्तेषु तेषु सर्वेषु प्रपूर्णे च समात्रये । जगौ समुद्रदत्तोऽयमशोकं शोकवर्जितम् ॥ ४४ ॥ गृहं स्वामिन्नहं यामि स्वदेशं मातृवल्लभम् । तत्र देशे क्रियाः सर्वाः करिष्यामि मनोहराः॥४५॥ __ अशोकस्तद्वचः श्रुत्वा बभाणेमं ससंभ्रमम् । स्नेहनिर्भरचेतस्कं बाष्पविप्लुतलोचनम् ॥ ४६॥ 15 सर्वलक्षणसंपूर्णौ “त्वन्मनोनयनप्रियौ । अश्वमध्ये गृहाण द्वावश्वावत्यन्तशोभनौ ॥ ४७ ॥ निशम्य गिरमेतस्य बभाणेमं हरीश्वरम् । एकमश्वं हि मे देहि श्वेतरक्ततुरङ्गयोः ॥ ४८॥ आकर्ण्य तद्वचो दक्षमशोकोऽपि तमब्रवीत् । दुष्टावश्वाविमौ भद्र दूरोत्कलनकारिणौ ॥ ४९॥ दुःकुलीनालसोपेतौ कठोरखनभीषणौ । देशान्तरमपि प्राप्तौ स्तोकमूल्याविमौ खलौ ॥ ५० ॥ अश्वावेतौ विहायान्यो सप्तिमध्ये मनोहरौ । गृहाण शोभनाकारौ बहुमूल्यौ कलखनौ ॥ ५१ ॥ तद्वाक्यतः पुनः प्रोक्तोऽशोकोऽनेन मनीषिणा । अश्वौ पूर्वोदितौ हित्वा नान्यौ गृह्णामि निश्चितम् ॥५२ ० देशिकोक्तं समाकर्ण्य खगृहं प्राप्य वेगतः। पप्रच्छेति जनं सर्वं स्वकीय सप्तिनायकः ॥ ५३॥ देशिकस्यास्य केनायं स्थूरीपृष्ठपरीक्षणे । उपदेशो वितीर्णोऽसौ ब्रूत मे लघु सज्जनाः ॥ ५४॥ भूयोभूयः समुक्तोऽपि यदा वक्ति न कोऽपि तत् । तदाऽशोकेन विज्ञातं मुखालोकनतः स्फुटम् ॥५५॥ उपदेशः प्रदत्तोऽस्मै मत्पुत्र्या कमलश्रिया । एवं ज्ञात्वाऽमुना चित्ते स्थितं विस्मितचेतसा ॥५६॥ समुद्रदत्तमाहूय दत्तश्च हयमादरात् । ददावस्मै प्रयत्नेन कन्यां च कमलश्रियम् ॥ ५७॥ 25 शोभने दिननक्षत्रे योगे च रजनीपतौ । विधिनेदं तदा वृत्तं पाणिग्रहणमेतयोः ॥ ५८॥ ततो बहुधनं दत्त्वा तत्तुरङ्गद्वयं तथा । वधूवरौ मुदा क्षिप्रमशोकस्तौ विसृष्टवान् ॥ ५९॥ भार्ययाऽश्वद्वयेनापि समस्तैः सह वाणिजैः। तदाऽसौ नावमारूढो नदीनोत्तरणं प्रति ॥६०॥ जात्यश्वरूढमालोक्य वार्धिमध्ये स नाविकः । जगौ समुद्रदत्तं च धूर्तः कुटिलमानसः ॥ ६१॥ यदि त्वं देहि मे क्षिप्रमश्वमेकं मनोहरम् । वार्धितीरं नयामि त्वां नान्यथा मे तवोदितम् ॥६२॥ 30 नाविकस्य वचः श्रुत्वा जगादैतं स वाणिजः । यजल्पितं मया ते च तद्ददामि न चापरम् ॥६३॥ अवाचि नाविकेनायं यदि न देहि मेऽश्वकम् । ततोऽपसर्प नावोऽरं मदीयाया विसंशयम् ॥६४॥ नाविकोक्तं समाकर्ण्य बभाणेमं वणिक्पतिः । अतोऽहमुत्तरिष्यामि नाश्वमेकं ददामि ते ॥ ६५ ॥ ___1 पज षड्भिः कुलकम् , ज षट्कुलकमिदम्. 2 [ ततोऽभिलषणं ]. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफ तन्मनों. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 6 पफज त्रिभिः कुलकम्.7 [ दत्त्वा च ].8[यदि मे देहि नाश्वकम्]. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७०. ९८] विद्युल्लतादिकथानकम् एवमुक्त्वा समुत्तीर्य जलयानादरं वणिक् । एकमश्वं समारुह्य तत्समं गगनायनम् ॥६६॥ द्वितीयं रश्मिनाऽऽकृष्य तुरङ्गं जलयायिनम् । प्रापतुः सूर्यकौशाम्बी तदानीं तौ वधू-वरौ ॥६७॥ जलायनं समप्यकं तुरङ्गं कमलश्रियः । आदायाकाशगं सोऽपि जगाम नृपमन्दिरम् ॥ ६८॥ स्थूरीपृष्ठं समालोक्य हरिलक्षणलक्षितम् । अङ्गलग्नं ददावस्मै भूषणं तोषतो नृपः ॥ ६९ ॥ अनझोपपदां सेनां प्रासादं सप्तभूमिकम् । अर्धराज्यं प्रदायास्मै जग्राहावं महीपतिः ॥ ७० ॥ । तरामृषभसेनस्य श्रावकस्य महात्मनः । अश्वं पालयितुं बाढं भूभुजाऽयं समर्पितः ॥ ७१ ॥ आदाय तत्तुरङ्गं च स्वहस्तेन प्रयत्नतः । स्थापयामास स श्रेष्ठी स्वगृहे भूमिगोचरे ॥ ७२ ॥ श्रेष्ठी तमश्वमारुह्य सुन्दरं पर्ववासरे । विजयार्धगिरौ चैये वन्दनार्थं जगाम सः ॥ ७३ ॥ तत्रत्यसिद्धकूटान्ते तुरङ्गादवतीर्य सः । कृत्वा प्रदक्षिणं चास्य तदन्तः स्तौति तं जिनम् ॥ ७४ ॥ अश्वोऽपि श्रेष्ठिना सार्धं त्रिः परीत्य जिनालयम् । चैत्याङ्गणे विनीतात्मा तिष्ठति प्रीतमानसः ॥७५॥ ॥ जिनस्तुतिं विधायात्र श्रेष्ठी पूर्वविधानतः । भूयस्तमश्वमारुह्य सूर्यकौशाम्बिकं ययौ ॥ ७६ ॥ ततोऽसौ सूर्यकौशाम्ब्यां मुनिसंघसमन्वितम् । आचार्य जिनदत्ताख्यं तत्समं याति भक्तितः ॥७७॥ ततः श्रेष्ठी समं तेन त्रिःपरीत्य जिनालयम् । विवेशाभ्यन्तरं तस्य तद्वहिस्तुरगोऽभवत् ॥ ७८ ॥ तत्र चैत्यं मुनिं नत्वा भक्तिहृष्टतनूरुहः । श्रेष्ठीमं सप्तिमारुह्य प्रययौ स्वनिकेतनम् ॥ ७९ ॥ अन्यदा भूपतिः प्राह जितशत्रुः सभागतान् । बली प्रत्यन्तवासी च ललाटन्यस्तपाणिकान् ॥८०॥ 15 नगयाँ सूर्यकौशाम्ब्यां शकटस्य महीपतेः । जात्यश्वो हि नभोयायी श्रेष्ठिगृहे वितिष्ठते ॥ ८१॥ यस्तमश्वं मनोवेगं नभस्तलविसर्पिणम् । क्षिप्रमानयति स्पष्टं ददाम्यस्मै महाधनम् ॥ ८२ ॥ जितशत्रुवचः श्रुत्वा सहस्रभटसंज्ञकः । जगादेमं विनीतात्मा सभामध्ये भटोत्तमः॥८३॥ आनयामि तव क्षिप्रमादित्यरथवाजिनम् । धरास्थेन तुरङ्गेण न गण्यं मे नरेश्वर ॥ ८४ ॥ एवमुक्त्वा पुरस्तस्य निर्गत्य स तदन्तिकात् । आदाय क्षौल्लकं रूपं सूर्यकौशाम्बिकां ययौ ॥८५॥ 20 दृष्ट्वा तं क्षुल्लकं तेन धर्मवात्सल्यकारणात् । श्रेष्ठिना संगृहीतोऽसाविच्छाकारं प्रकुर्वता ॥८६॥ अथ लोचनरोगोत्थां मायां कृत्वा सुदुष्टधीः । तस्थौ स तगृहे तत्र "फूत्कारमुखराननः ॥ ८७॥ जनैः प्रकथितं तस्य सत्यभाषणतत्परैः । यथाऽयं क्षुल्लकः श्रेष्ठिन् धर्मबाह्योऽतिवञ्चकः ॥ ८८॥ तथाऽपि श्रेष्ठिना तस्य धर्मवात्सल्यमिच्छता । पृष्टेन दर्शितः शीघ्रं तुरङ्गो रूपराजितः ॥ ८९ ॥ दृष्ट्वाऽयं तस्करः प्राह श्रेष्ठिनं विनयानतः । अहमस्य प्रयत्नेन करोमि परिरक्षणम् ॥ ९०॥ 21 श्रुत्वाऽस्य वचनं श्रेष्ठी बभाणेमं पुरःसरम् । एवमस्त्विति संभाष्य तुरङ्गोऽस्य समर्पितः ॥ ९१॥ अथाश्वं पालयन् धूर्तों नक्तमादाय तं पुनः । जगाम सूर्यकौशाम्ब्याः सहस्रभटनामकः ॥ ९२ ॥ अत्रान्तरे प्रमुक्तेन तेनाश्वेन प्रधावता । पतितो विषमस्थाने तस्करो मृतिमाप सः ॥ ९३॥ विजयाधनगं प्राप्य त्रिःपरीत्य तुरङ्गमः । सिद्धकूटं महाकूटं तस्थौ भक्त्या तदङ्गणे ॥ ९४ ॥ चारणौ ज्ञानसंपन्नौ सिद्धकूटजिनालये । तस्थौ चित्रगतिस्तत्र मनोगतिरपि क्रमात् ॥ ९५॥ ७ अथ विद्याधरस्तत्र प्राह चित्रगतिं मुनिम् । दिव्यज्ञानसमायुक्तं कौतुकव्याप्तमानसः ॥ ९६॥ नाथ सप्तिरयं कस्य तिष्ठति प्रीतमानसः । उत्तुङ्गसिद्धकूटाग्रे ब्रूहि मे सांप्रतं मुने ॥ ९७ ॥' श्रुत्वा तद्वचनं साधुर्जगादेमं पुरः स्थितम् । कौतुकव्याप्तचेतस्कं दिव्यज्ञानविलोचनः॥९८॥ ___ 1 पफ जलयानं. 2 फ तिष्ठते. 3 पफज त्रिभिः कुलकम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 ज पूत्कार. 6 फ अथ खं. 7 पफ युग्मम्, ज युगलम्. बृ० को० २१ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७०. ९९नगर्यां सूर्यकौशाम्ब्यां शकटाख्यो नरेश्वरः । स्वश्रेष्ठिनो गृहे चाश्वं मुमोच गगनायनम् ॥ ९९॥ जितशत्रुनृपप्रोक्तः सहस्रभटनामकः । जहारेमं तुरङ्गं स प्रसादाय प्रपञ्चतः ॥ १०० ॥ अधिरुह्य तुरङ्गं स यावद्वजति स्वाङ्गणे । तावदुत्पत्य चानेन पातितोऽयं मृतिं गतः ॥ १०१॥ पूर्वस्मिन् श्रेष्ठिना सार्धं समायातोऽत्र खेचर । अधुना सिद्धकूटाग्रे तिष्ठति स्थिरमानसः ॥१०२॥ । सांप्रतं स्कन्धदेशे त्वं करेणास्फालय द्रुतम् । वारत्रयं प्रयत्नेन तुरङ्गं व्योमचारिणम् ॥ १०३॥ चारणोक्तं समाकर्ण्य खेचरः प्रीतमानसः । स्कन्धे वारत्रयं शीघ्रं करणाहत्य वाजिनम् ॥ १०४ ॥ आरुरोह स तत्पृष्ठं विस्मयव्याप्तमानसः । सूर्यकौशाम्बिकाभ्याशं तुरङ्गः प्राप वेगतः ॥ १०५॥ अथ श्रेष्ठी परिज्ञाय वाजिनं गगनायनम् । मायाप्रपञ्चयुक्तेन हृतं तेन दुरात्मना ॥१०६ ॥ प्रत्याख्यानं समादाय द्विविधं जिनसाक्षिकम् । कायोत्सर्गेण संतस्थे चेत्यगेहे वनस्थिते ॥ १०७॥ 10 अत्रान्तरे स विज्ञाय भूपोऽश्वं केनचिद्धृतम् । चुकोप श्रेष्ठिने सद्यः प्रमतत्त्वकृतागसे ॥१०८॥ कोपतः प्राह भूपालो नरान् निकटवर्तिनः । गम्भीरध्वनिना बाढं दिशः प्रतिनिनादिना ॥१०९॥ रे रे नरा दुराचारं श्रेष्ठिनं तं प्रमादिनम् । निहत्य तद्धनं सर्वं समानयत सत्वरम् ॥ ११० ॥ नृपाज्ञाऽनन्तरं यावच्छ्रेष्ठिपार्थ प्रयान्ति ते । तावद्देवतया सर्व स्तम्भिता जिनवेश्मनि ॥ १११ ॥ अश्वोऽपि तावदागत्य त्रिःपरीत्य जिनालयम् । श्रेष्ठिपार्थं समं तस्थौ विनयानतमस्तकः ॥११२॥ 15 अहो दृढव्रतः श्रेष्ठी दृढधर्मा जिनप्रियः । नभःस्था दिव्यवाक्यानि वदन्ति सरसाः सुराः ॥११३॥ अहो जैनस्य धर्मस्य माहात्म्यं भुवनातिगम् । येनोपसर्गमीदृशं शमयन्ति सुरेश्वराः ॥ ११४ ॥ उपसर्गे क्षयं याते देवैः सर्वैः प्रपूजितः । महाविस्मयमापन्नैर्महाविभवयोगतः ॥ ११५ ॥ देवैः प्रपूजितं दृष्ट्वा श्रेष्ठिनं प्रीतमानसाः । नृपपौरादयः सर्वे चक्रिरेऽस्य क्षमापणम् ॥ ११६ ॥ ततो नृपमहाश्रेष्ठीमत्रिपौरादयो नृपाः । जिनदत्तान्तिके दीक्षां जगृहुः शुद्धचेतसः ॥११७॥ 20 दृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं तस्य श्रेष्ठिनो गुणशालिनः । समुद्रोपपदो दत्तः सहायं कमलश्रिया ॥ ११८॥ अन्येऽपि बहवस्तत्र विस्मयव्याप्तमानसाः। जिनधर्मं च सम्यक्तवं प्राप्य श्रावकतामिताः॥११९॥ ततो विद्युल्लता प्राह श्रेष्ठिनं रमणीयुतम् । कौतुकव्याप्तचेतस्कं जिनाभिकमलालिनम् ॥ १२० ॥ प्रातिहार्यमिदं दृष्ट्वा विहितं सुरकुरैः । एतस्य दृढसम्यक्त्वा जाताऽहं मनसः प्रिय ॥ १२१ ॥ तद्वचः शोभनं श्रुत्वा चाहदासो जगौ प्रियाः । विनयोपस्थितास्तत्र कन्दोट्टदललोचनाः ॥१२२॥ 2भद्राः सुष्ठु श्रुतं दृष्टं कथितं सुष्ठु भोजनम् । तथा सुष्ठ श्रुतं नूनमस्माभिः कृतनिश्चयैः ॥ १२३ ॥ श्रद्दधामि तदेवोच्चैस्तत् प्रत्येमि दिवानिशम् । रोचनं स्पर्शनं चापि विदधामि मुहुर्मुहुः ॥ १२४ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं कान्तं तदा कुन्दलता परा । तद्भार्या पश्चिमा प्राह तकं विस्मितमानसा ॥ १२५॥ तच्छ्रेष्ठिप्रातिहार्यं च न दृष्टं सुष्ठु बालिके । न सुष्ठु कथितं किंचिन्न सुष्ठु श्रुतमेव च ॥१२६॥ तथा न श्रद्दधामीति न प्रत्येमि कदाचन । रोचनं स्पर्शनं चैव न करोमि मनागपि ॥ १२७ ॥ ३० दृष्ट्वा वृत्तान्तमीदृक्षं श्रेष्ठिनो विह्वलात्मनः । न जाता दृढसम्यक्त्वा न धर्मस्थिरबुद्धिका ॥ १२८॥ श्रेष्ठिभार्यावचः श्रुत्वा राजा मत्री च तस्करः । दध्यौ विस्मितचेतस्को नक्तं तरुसमाश्रितः ॥१२९॥ एतस्याः श्रेष्ठिभार्यायाः प्रभातसमये द्रुतम् । निग्रहं हि करिष्यामि स्वहस्तेन कुयोषितः ॥१३०॥ अन्यासां श्रेष्ठिपत्नीनां विस्मयाकुलचेतसाम् । महापूजां करिष्यामि महाविभवयोगतः ॥१३१ ॥ ___ 1 पफज षटूकुलकमिदम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 [प्रमत्तत्व॰]. 5 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 6 पफ जग्राह. 7 पफ युग्मम, ज युगलम्. 8 पफज त्रिकलम्. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७१. ४] छेलककथानकम् १६३ चिन्तयित्वा चिरं तत्र प्रभाते तरुशाखतः। उत्तीर्य भूपतिः शीघ्रं विवेश स्वपुरं ततः ॥ १३२ ॥ नृपः श्रेष्ठिगृहं प्राप्य स्थित्वा त्वेनं प्रयत्नतः । पप्रच्छ नक्तमाख्यानमुपवासपरिश्रमम् ॥ १३३ ॥ राजा पुनरपि प्राह श्रेष्ठिनीः श्रेष्ठिपूर्वकम् । भवन्मध्ये तु का वक्ति क्षणदायां मदालसा ॥१३४॥ प्रोच्यमाने वराख्याने भवतीभिः परस्परम् । स्नेहातिशययुक्ताभिर्धर्मरञ्जितबुद्धिभिः ॥ १३५॥ यथा न सुष्ठ दृष्टं मे न सुष्ठु कथितं तथा । न सुष्ठ श्रुतमेवेदं संबन्धपरिवर्जितम् ॥ १३६ ॥ । न श्रद्दधाम्यहं किंचिन्न प्रत्येमि च किंचन । रोचनं स्पर्शनं नापि विदधामि महीतले ॥ १३७॥ इदं किं ज्ञानतः प्रोक्तं कयाऽप्यज्ञानतोऽपि वा । ननु संक्षेपतः सर्वं कथ्यतां मम सांप्रतम् ॥१३८॥' .. श्रुत्वाऽस्य वचनं सापि जगादेमं पुरःस्थिता । नक्तं मया महाराज मत्वाऽऽख्यानं प्रभाषितम् ॥१३९॥ निशम्य भारतीमस्या विस्मयस्थितमानसः । त्रयोऽपि ते गदन्तीमां नारी कुन्दलताभिधाम् ॥१४०॥ यथा शूलहताख्यानमस्माभिः कृतनिश्चयैः । दृष्टं श्रुतानुभूतं च खप्रत्यक्षं तनूदरि ॥१४१॥ ॥ किं कारणमिदं ब्रूषे दृष्टं सुष्ठ न किंचन । न सुष्ठु कथितं किंचिन्न सुष्ठ श्रुतमेव कौ ॥ १४२ ॥ न श्रद्दधामि किंचिच्च न प्रत्येमि क्वचित्पुनः । रोचनं स्पर्शनं चापि न करोमि धरातले ॥१४३॥ एवं पृष्टा च तैरेषा वदतीमान् पुरःस्थितान् । कौतुकव्याप्तचेतस्कान् भृशं तन्निहतेक्षणान् ॥ १४४॥ जिनधर्मप्रवीणानि सर्वाण्येतानि भूपते । विस्मयव्याप्तचित्तानि कृतकोलाहलानि च ॥ १४५॥ जिनधर्मस्य माहात्म्यं स्वर्गमोक्षपदस्य च । वीरास्तपो न कुर्वन्ति दक्षं कर्मविनाशने ॥ १४६ ॥ 15 प्रयोजनेन चैतेन मयैवं ते प्रजल्पिताः । दुर्दुष्टं दुःश्रुतं चैव तथा दुःकथितं भुवि ॥ १४७॥ जिनधर्मस्य माहात्म्यं प्रत्यक्षं न मयेक्षितम् । कथ्यमानं श्रुतं चाय हरिद्रायां कथानकम् ॥१४८॥ प्रत्यक्षं जिनधर्मस्य माहात्म्यमहमद्य च । प्रत्यक्षं तत्समादाय विदधामि तपोऽमलम् ॥ १४९॥ तद्वाक्यतस्त्रयस्तुष्टा वदन्तीमां नृपादयः । यथेदं शोभनं भद्रे त्वया निगदितं क्षितौ ॥ १५० ॥ त्वमेव दृढसम्यक्त्वा जिनधर्मपरायणा । यस्या बुद्धिसमुत्पन्ना प्रशस्तगुणविस्तरा ॥ १५१॥ 20 कुन्दादिकलतान्तायाः सम्यक्त्वं विधुनिर्मलम् । तथा शीलमुदारं च प्रशस्यातीव शोभनम् ॥१५२॥ तदोदितोदयो राजा सुबुद्धिः सचिवोऽपि वा । अर्हद्दासस्तथा श्रेष्ठी सुवर्णखुरतस्करः ॥ १५३ ॥ वितीर्य स्वस्वपुत्रेभ्यः संपदं बहवो नृपाः । श्रीधरान्ते दधुर्दीक्षां महावैराग्यसंगताः ॥ १५४ ॥" उदितोदयमहादेव्यो मित्रश्रीप्रभृतिस्त्रियः । ऋषभाद्यर्जिकापार्श्वे जगृहुर्जिनदीक्षणम् ॥ १५५ ॥ अन्येऽपि बहवो लोका विस्मयव्याप्तमानसाः । जिनधर्म ससम्यक्तवं जगृहुः शुद्धचेतसाः ॥१५६॥ 25 ॥ इति श्रीअर्हद्दासश्रेष्ठीमित्र श्रीप्रभृतिअष्टभार्या दृढसम्यक्त्वकथानकमिदम् ॥ ७॥ ७१. छेलककथानकम् । नासिकाख्यपुरस्यास्य पश्चिमस्यां दिशि स्फुटम् । कुडमोपपदो देशो विद्यते जनसंकुलः ॥ १॥ तत्र धान्यधनाकीर्णो बहुलोकसमावृतः । पलाशपूर्वको ग्रामो महातरुसमन्वितः॥२॥ सुदासोऽत्र पृथुग्रामे ग्रामकूटो महाधनः । सुदासी तत्प्रिया चार्वी तन्मनोनयनप्रिया ॥३॥ वसुदासोऽनयोः पुत्रस्तन्मानसमलिम्लुचः । विनयी रूपसंपन्नो बभूव दयितस्तराम् ॥ ४॥ 1 फप चतु:कुलकम् , ज चतुष्कलकम्. 2 पफज चतुष्कलकम्. 3 पफ वदन्तीमान्. 4 पफज त्रिभिः कुलकम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 6ज omits इतिश्री, and reads अर्हदास. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७१.५ ८ १६ ॥ पद्मिनीवनसंछन्नं महाजलसरोवरम् । कारापितं सुदासेन चक्रवाकादिनादितम् ॥ ५ ॥ तत्समीपे समुत्तुङ्गं नानाऽनोकुहसंकुलम् । नन्दनादिवनं तेन कारितं पक्षिनन्दनम् ॥ ६ ॥ तन्मध्ये च समुत्तुङ्गं शिरीकृतनभस्तलम् । अमुना कारितं चारु साणूरं ध्वजभूषितम् ॥ ७ ॥ तन्मध्ये विकरालास्या भृकुटीभीषणालिका । मारीव जीवसंघानां दुर्गादेवी प्रतिष्ठिता स्वहस्तनिहतैर्जीवैर्महिषाजाविकादिभिः । मासषट्रे जनैः सार्धं दुर्गापूजां करोति सः ॥ ९ ॥ अन्यदा व्याधिसंग्रस्तः सुदासः स्वल्पजीवितः । आजुहाव निजं पुत्रं स्वनरेण त्वरावता ॥ १० ॥ समागतं पिता पुत्रं जगादेमं पुरः स्थितम् । तदा कण्ठगतप्राणश्चण्डिकाभक्तितत्परः ॥ ११ ॥ मासषट्ङ्के त्वयाऽवश्यं वर्षं वर्षं प्रति स्फुटम् । नितरां चण्डिकापूजा कर्तव्या महिषादिभिः ॥ १२ ॥ सुदासवचनं श्रुत्वा वसुदासो जगावमुम् । चण्डिकापूजनं तात करिष्याम्यजकादिभिः ॥ १३ ॥ 10 वसुदासवचः श्रुत्वा तन्मतप्रीतमानसः । सुदासः पञ्चतावाप्तिं प्राप्तवान् क्रूरमानसः ॥ १४ ॥ पलाशोपपदे ग्रामे चास्मिन्नेव सुदासकः । बभूव छेलकः पापात् तदा श्वपचपाटके ॥ १५ ॥ छेको यौवनं प्राप्तो मासष वराककः । मण्डितः पिष्टचूर्णेन पुष्पमालाभिरचितः ॥ देवतापादमूले च जनकप्रेमकारिणा । निहतो वसुदासेन छेलको दीनमानसः ॥ १७ ॥ महानसं परिप्राप्य तन्मांसं च सुसंस्कृतम् । भक्षितं वसुदासेन महासंतोषकारिणा ॥ १८ ॥ 15 अनेनैव विधानेन छेलकः सप्तजन्मसु । निहतो वसुदासेन जनकोक्तविधायिना ॥ १९ ॥ वसुदासपिता पूर्वं सुदासः कर्मयोगतः । भूयोऽपि छेलको जातस्तदाऽष्टमभवान्तरे ॥ २० ॥ मण्डितः पीतपिष्टेन पुष्पमालापरिष्कृतः । वसुदासेन नीतोऽसौ वधार्थं देवतान्तिकम् ॥ २१ ॥ तदुद्यानवने तेन छेकेन सुवेपिना । दृष्टः समाधिगुप्ताख्यो मुनिस्तरुतले सुधीः ॥ २२ ॥ जातिस्मरत्वमासाद्य छेलको मुनिदर्शनात् । यतेः समीपतां प्राप दीनं नादं समुच्चरन् ॥ 20 भगवन् मोचनं मेऽरं कारापय महामते । येनाहं त्वत्प्रसादेन तिष्ठामि स्वेच्छया भुवि ॥ छेलकस्य वचः श्रुत्वा बभाणेमं यतीश्वरः । अहं त्वन्मोचने भद्र न समर्थो मनागपि ॥ २५ ॥ यत्त्वया विहितं कर्म भुंक्ष्व त्वमशुभोदयम् । अतस्त्वन्मोचने भद्र न प्रभुर्वसुधातले ॥ २६ ॥ * श्रुत्वा मुनिवचः सत्यं वसुदासो जगावमुम् । अनेन छेलकेनामा किं ब्रूषे वद मेऽधुना ॥ २७ ॥ अवाचि साधुना भूयो वसुदासः पुरः स्थितः । विस्मयव्याप्तचेतस्को बहुलोकसमावृतः ॥ २८ ॥ 25 छेलकोऽयं भवत्तातः सुदासाख्योऽन्यजन्मनि । त्वयाऽयं देवतामूले निहतः सप्तवारकम् ॥ २९॥ अधुनाऽष्टमवेलायां जातोऽयं छेलको महान् । भवता नेतुमारब्धो देवतापादमूलकम् ॥ ३० ॥ २३ ॥ २४ ॥ 5 मां छेलको भद्र भयवेपितविग्रहः । जगाद त्रस्तचेतस्कोऽधुना गद्गदनिखनः ॥ ३१ ॥ यथा मे मोचनं शीघ्रं कारापय मुनीश्वर । सर्वसत्त्वदयोपेतः समस्तजनबान्धवः ॥ ३२ ॥ परित्रायस्व मां नाथ परित्रायस्व पावन । परित्राणपरित्यक्तं पापिष्ठं पापसंभवम् ॥ ३३ ॥ 30 एवं ब्रुवन्नयं भद्र विह्वलीभूतमानसः । अस्माभिर्गदितो बाढं स्वरावाराविताम्बरः ॥ ३४ ॥ त्वया जीववधः पूर्वं विभूतिगणमिच्छता । विहितो मन्दभाग्येन पापोपार्जनकारिणा ॥ ३५ ॥ सांप्रतं ते परित्राणं विधातुं क्षणमप्यहम् । न शक्नोमि स्फुटं वत्स प्रतीहि वचनं मम ॥ ३६ ॥ आकर्ण्य तद्वचः क्रुद्धो जगादैतं यतीश्वरम् । वसुदासो जनाध्यक्षं कोपारुणनिरीक्षणः ॥ ३७ ॥ 4 पफ युग्मम् 1 ज नानानोकह° ज युगलम् 5 [पेत... बान्धव ]. 6 पफज कुलकम्. 2 पफ युग्मम् ज युगलम् 3 पफ युग्मम्, ज युगलम्. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७१.६४ ] छेलककथानकम् उद्यानवनमीदृक्षं सारं च सितप्रभम् । महासरोवरं रम्यं पद्मेन्दीवरराजितम् ॥ ३८ ॥ देवतापूजनं कृत्वा स्वहतैर्जीवराशिभिः । कृतकृत्यो ' मृतिं प्राप्य मत्पिता शुद्धमानसः ॥ ३९ ॥ यदि मोक्षं न यात्येष सदेहो दैवयोगतः । नाकं तु निश्चितं साधो गच्छति स्थिरमानसः ॥ ४० ॥ तिर्यग्गतिसमुद्भूतो बहुपापविधायकः । मत्पिता धर्मसंयुक्तश्छेलको जायते कथम् ॥ ४१ ॥ वसुदासोदितं श्रुत्वा जगदैतं मुनीश्वरः । दिव्यज्ञानसमायुक्तो धर्मभूषितविग्रहः ॥ ४२ ॥ जीवहिंसनयुक्तेन धर्मेणानेन बालकः । स्वर्गो न जायते नूनं देहिनां पापकारिणाम् ॥ ४३ ॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य वसुदासोऽपि तं जगौ । बहुना शुष्कवादेन किं कृतेन सुफल्गुना ॥ ४४ ॥ कालं प्रकुर्वता नाथ मत्पित्रा मोहकारिणा । धनं धरागतं तेन स्थापितं मे न भाषितम् ॥ ४५ ॥ अजानंस्तद्धनं क्वापि चिरकालं निरूपयन् । अपश्यन् दुःखितो भूत्वा स्थितोऽहं मुनिनायक ॥ ४६ ॥ तद्धनं यदि मे स्पष्टं साधो दर्शयतेऽखिलम् । ततोऽयं मत्पिता नूनं भवेदेष न चान्यथा ॥४७॥ वसुदासवचः श्रुत्वा छेलकं निजगौ मुनिः । यदि त्वं धनमेतस्य स्फुटं दर्शयसे द्रुतम् ॥ ४८ ॥ ततस्त्वां मुञ्चति क्षिप्रं वसुदासो भवत्सुतः । नैवं करोषि चेल्लोभान्मुञ्चत्येष न निश्चितम् ॥ ४९ ॥ निशम्य मुनिचन्द्रस्य वचनं पावनं नृणाम् । छेलकोऽमुं मुनिं प्राह स्वकीयध्वनिना कलम् ॥५०॥ मुने मुञ्चति यद्येष मां धनं चिरसंचितम् । ततोऽहं दर्शयाम्यस्य प्राणेभ्यः किं धनं बहु ॥ ५१ ॥ दिव्यज्ञानेन तद्भाषां विदित्वा मुनिसत्तमः । वसुदासं जगादायं विस्मयव्याप्तमानसम् ॥ ५२ ॥ " यत्प्रदेशे भुवं गत्वा स्वकीयचरणेन च । अयं जिघ्रति तामेव धनं तत्रास्ति ते परम् ॥ ५३ ॥ निगद्यैनं मुनिः स्पष्टं छेलकं वक्ति तं पुनः । अनेन विधिना सर्वं धनं पुत्रस्य दर्शय ॥ ५४ ॥ छेलको मुनिवाक्येन बहुलोकसमावृतः । जगाम प्राक्तनं क्षेत्रं महाधनसमन्वितम् ॥ ५५ ॥ खात्वा स्वधनभूमिं च पुरः पादखुरेण सः । जिघ्रति स्म तकां मन्दं छेलकः प्रीतमानसः ॥ ५६ ॥ अनर्घ्यरत्नसंघातं महारजतमिश्रितम् । प्रवालमौक्तिकोपेतं रजतादिमहाधनम् ॥ ५७ ॥ तत्प्रदेशे विलोक्येदं वसुदासः सवेपथुः । महावैराग्यसंपन्नो दध्याविति स चेतसि ॥ ५८ ॥ मत्पितुः सकलं ज्ञानं जन्मान्तरमिदं स्फुटम् । दिव्यज्ञानसमेतेन साधुना साधुना कथम् ॥ ५९ ॥ चिन्तयित्वा स्वपुत्राय धनं दत्त्वा विशुद्धधीः । समाधिगुणसामीप्ये वसुदासोऽग्रहीत् तपः ॥६०॥ पञ्चाणुव्रतसंयुक्तं चतुःशिक्षाव्रतान्वितम् । गुणत्रतत्रिकायुक्तं सम्यक्त्वादिसमन्वितम् ॥ ६१ ॥ मुनेः समाधिगुप्तस्य समीपे छेलकः सकः । गृहिधर्मं समादाय तस्थौ मुदितमानसः ॥ ६२ ॥ आश्चर्यमिदमालोक्य ग्रामीणः सकलो जनः । छागघाते जगामाथ देवता च भयान्विता ॥ ६३ ॥ जीवहिंसां विहायाशु महादुःखविधायिनीम् | जिनधर्मं च जग्राह स्वर्गमोक्षप्रदायकम् ॥ ६४ ॥ ॥ इति "श्रीपलाशसकूटग्रामोद्भववसुदासग्रामकूट देवताजीवहिंसाफलसंजातच्छेलककथानकमिदम् ॥ ७१ ॥ * 1 पफ कृत्यकृत्यो. 2 पफ चतुःकुलकम् ज चतुष्कुलकम्. 3 [ बालक ]. 4 पफ युग्मम्, ज युगलम् 5 पफज चतुःकुलकम्. 6 पफ युग्मम् ज युगलम् 7 पफ युग्मम् ज युगलम्. 11 ज 8 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 9 पफ युग्मम् ज युगलम्. 10 पफ युग्मम् ज युगलम्. omits इति श्री. १६५ 5 10 20 25 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७२. १७२. मृगसेनधीवरकथानकम् । अवन्त्याख्यमहादेशे सिप्राख्यासरितस्तटे । शिशपाख्योऽभवद् ग्रामो धीवरौघसमन्वितः ॥१॥ बभूव भवदेवाख्यो धीवरः पापकारकः । भवश्रीरस्य भार्या च मृगसेनोऽनयोः सुतः ॥२॥ सोमदासोऽभवत् तत्र धीवरः क्रूरमानसः । सेनाऽस्य गेहिनी नाम घण्टाख्या तनयाऽनयोः ॥३॥ मृगसेनेन सा घण्टा परिणीता विधानतः । तगृहे तिष्ठति प्रीता गृहीतपतिमानसा ॥४॥ । तत्र पार्श्वजिनेन्द्रस्य भवनं बहुभूमिकम् । विद्यते शोभनाकारं शुभ्रीकृतनभस्तलम् ॥५॥ अन्यदा संघयुक्तोऽपि धनान्तो जयपूर्वकः । आचार्यों विहरन्नार पार्श्वनाथजिनालयम् ॥६॥ मृगसेनो मुनि प्राप्य धर्म श्रुत्वा जिनोदितम् । प्रथमं जालगं मीनं मुने मुञ्चामि सर्वदा ॥ ७॥ गृहीत्वेदं व्रतं सोऽपि तदाचार्यात् ततः क्षणात् । जगाम निम्नगां शीघ्रं स्कन्धारोपितजालकः ॥८॥ तस्या हृदे च गम्भीरे धीवरः कृतनिस्वनः । जालं चिक्षेप विश्रब्धः प्रसारितकरेण सः ॥ ९॥ 10 आकृष्टोऽनेन जालेन जलान्मीनः स्थले महान् । एको वृद्धः प्रमुक्तोऽयं गृहीतव्रतयोगतः ॥१०॥ मुक्त्वाऽमुं तेन संक्षिप्तं जालं तत्सलिले पुनः। गृहीतः प्राक्तनो मत्स्यो मुक्तो भूयोऽप्यनेन सः॥११॥ गृहीतो प्राक्तनो मीनो धीवरेण महातनुः । साभिज्ञानं विधायास्य तेन मुक्तः पुनः सकः॥१२॥ भूयोऽप्यनेन संक्षिप्तं जालं तन्निनगाजले । नूनं चिरंतनो मीनो गृहीतो दैवयोगतः ॥ १३॥ मुक्त्वा तत्र महामीनं निर्विण्णो रिक्तवैवधम् । स्कन्धमारोप्य संध्यायां धीवरः स्वगृहं ययौ ॥१४॥ 15 मृगसेनं प्रियं दृष्ट्वा खगृहे रिक्तवैवधम् । जगाद निष्ठुरस्वान्ता घण्टा तं रमणी तदा ॥ १५ ॥ किमर्थं मगृहे पाप गृहीत्वा रिक्तवैवधम् । आगतोऽसि दुराचार यथावृत्तं वदाशु मे ॥ १६ ॥ घण्टावचनमाकर्ण्य मृगसेनो जगाद ताम् । इदं व्रतं मया कान्ते गृहीतं साधुसंनिधौ ॥ १७ ॥ क्षिप्ते जाले जले मत्स्यः प्रथमं यः पतिष्यति । महानपि स मे नूनं मोक्तव्यः संशयं विना ॥१८॥ इदं व्रतं समादाय धीवरैः सह वेगतः । सिप्रां नदीं गतः कान्ते ग्रहीतुं शफरानहम् ॥ १९॥ 20 क्षिप्तं जालं मया नद्यां प्रिये वारचतुष्टयम् । मुक्तो मुक्तः पुननिः स एवात्र पतत्यलम् ॥२०॥ मुक्त्वा मत्स्यमहं मुग्धे नूनं वारचतुष्टयम् । आगतः स्वगृहं तेन रिक्तवैवधसंयुतः ॥ २१ ॥ मृगसेनोदितं श्रुत्वा घण्टा वदति तं रुषा । बालैः सहाय यास्यामि पञ्चतां भोजनं विना ॥२२॥ दुष्ट पापिष्ठ याहि त्वं मदीयान्मन्दिरादरम् । निशम्य तद्वचः सोऽपि निर्जगामामुतः पुनः॥२३॥ मृगसेनो निशि प्राप्य शून्यं देवकुलं तदा । सुप्तो मृतिं परिप्राप्य सर्पदष्टः स तत्क्षणात् ॥२४॥ 25 सृगसेनप्रिया घण्टा बुभुक्षाग्रस्तमानसा । अन्वेषयन्त्यथ प्राप प्रियं प्राणपरिच्युतम् ॥ २५ ॥ दृष्ट्वा दृढव्रतं तं हि तदेव व्रतमस्तु मे । इति ध्यात्वा ससर्प सा बिले हस्तं समर्पयत् ॥ २६ ॥ तेनैव दन्दशकेन दष्टाऽथो क्रूरचेतसा । तदैव पञ्चतां प्राप नियतिः केन लंध्यते ॥ २७॥ अत्रान्तरे पुरि श्रीमानुज्जयिन्यां प्रतापवान् । राजा वृषभदत्तोऽभून्महासामन्तसेवितः ॥ २८ ॥ रूपयौवनसंयुक्ता पीनोन्नतघनस्तनी । वृषभोपपदा दत्ता बभूवास्स नितम्बिनी ॥ २९॥ 30 अस्यैव भूपतेः श्रेष्ठी गुणपालोऽभवद् धनी । गुणश्रीरस्य भार्या च गुणरञ्जितभूतला ॥ ३० ॥ घण्टाऽऽख्या धीवरी या च मृता मन्दकषायतः।साऽनयोर्दुहिता जाता विषाख्याऽतिमनोहरी॥३१॥ सार्थवाहोऽभवत् तस्यां श्रीदत्तः श्रीसमन्वितः । तद्भार्या श्रीमती नाम श्रीकीर्तिसमविभ्रमा ॥३२॥ मृगसेनो मृतिं प्राप्य धीवरो जिनभक्तितः। विनयी रूपसंपन्नः सोमदत्तोऽनयोः सुतः ॥ ३३॥ 1 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 2 पफ चतुःकुलकम् , ज चतुष्कलकम्. 3 [परिप्राप]. 4 फ सर्पदृष्टः, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७२. ६६] मृगसेनधीवरकथानकम् मातृगर्भस्थितस्यास्य पिता मृत्युमुपागतः । जातमात्रेण चानेन जननी परिभक्षिता ॥ ३४ ॥ यथा यथा व्रजन् वृद्धिं बालोऽयं पूर्वपापतः । तथा तथा क्षयं यातं कुलमस्य निर्मूलतः ॥३५॥ एवं कुलक्षये जाते बुभुक्षाग्रस्तमानसः । गुणपालगृहं प्राप सोमदत्तोऽशनेच्छया ॥ ३६॥ तष्ठिभोजनोच्छिष्ठशरावस्थितसिक्थकम् । भुञ्जानस्तिष्ठति प्रीत्या सोमदत्तस्तदादृतः ॥ ३७॥ एवं हि तिष्ठतस्तस्य संयमादिवरो मुनिः । आजगाम तमुद्देशं द्वितीयमुनिसंयुतः ॥ ३८॥ दृष्ट्वा तं सुन्दराकारं कनिष्ठो मुनिरब्रवीत् । ज्येष्ठं जनकमातृभ्यां बन्धुभिः परिवर्जितम् ॥ ३९ ॥ भक्षयन् सिक्थमेकैकं शरावस्थितमादरात् । बालोऽयं लक्षणोपेतो धिक् संसारमसारकम् ॥४०॥ . मुनेरस्य वचः श्रुत्वा ज्यायान् वदति तं यतिः। अवधिज्ञाननेत्रेण विज्ञातपरमार्थकः ॥४१॥ यथाऽयं दारको भद्र गुणपालस्य धीमतः । स्वामी धनस्य सर्वस्य भविष्यति वणिक्पतिः ॥४२॥ यथैतस्य मुनेर्वाक्यं गच्छतो विनिशम्य सः । गुणपालो मनस्युच्चैर्दध्यौ विस्मितमानसः॥४३॥ ॥ धनं मे देशिकस्यास्य किं भविष्यति पुत्रिणः । अथवाऽमोघसद्वाक्यः श्रमणो भवति क्षितौ ॥४४॥ एवं विचिन्त्य मूढात्मा समाहूय नराधमम् । जगाद निष्ठुरस्वान्तस्तकं तन्मारणं प्रति ॥ ४५ ॥ धनं तेऽहं प्रदास्यामि नानाभेदसमन्वितम् । नीत्वाऽमुं बालकं कक्षे कुवैतस्य निपातनम् ॥४६॥ तद्वाक्यतो हि मातङ्गः स्कन्धमारोप्य बालकम् । निनाय गहनं शीघ्रं नानानोकुहसंकुलम् ॥४७॥ मुक्त्वा तं बालकं तत्र नदीतीरे वटान्तिके । श्रेष्ठिनं प्राप्य मातङ्गो मृतिमस्य जगाद सः॥४८॥ is स्त्रात्वा नद्यां जलं पीत्वा कृत्वा च फलभक्षणम् । सुष्वाप वटवृक्षस्य मूले बालः सुखैषितः ॥४९॥ अत्रान्तरे समागत्य गोविन्दो बल्लवो धनी । ददर्श बालकं सुप्तं वटमूले सुलक्षणम् ॥ ५० ॥ आदाय तं कुमारं च गोविन्दः प्राप्तसंमुदः । धनश्रियाः स्वभार्याया ददौ पुत्रमुदीरयन् ॥५१॥ तयाऽपि पुत्रभावेन दधिदुग्धघृतादिना । वृद्धि तरामसौ नीतः कन्दर्पसमविभ्रमः ॥ ५२ ॥ बालं युवत्वमापन्नं गोविन्दगृहसंगतम् । गुणपालोऽत्र संप्राप्य ददर्शमं ससंभ्रमम् ॥ ५३॥ 20 गुणपालः परिज्ञाय प्राक्तनं दारकं तदा । जगाद बल्लवं श्रेष्ठी विस्मयाकुलमानसः ॥ ५४॥ कुमारः कस्य पुत्रोऽयं विनयी रूपराजितः । सौम्यो नदीनगम्भीरो मन्मथो वा सविग्रहः ॥५५॥ गौणपालं वचः श्रुत्वा गोविन्दोऽपि तकं जगौ । मत्पुत्रोऽयं गुणाधानः श्रेष्ठिन् मे कुलनन्दनः॥५६॥ अवाचि श्रेष्ठिना भूयो बल्लवः प्रीतमानसः । सोमदत्तं भवत्पुत्रं त्वं प्रवेशय मगृहम् ॥ ५७ ॥ श्रेष्ठिवाक्येन संयुक्तो गोविन्देन शरीरजः । षोडशाभरणोपेतो महावस्त्रविभूषितः ॥ ५८॥ 25 ततो लेखं प्रदायास्मै सोमदत्तो विसर्जितः । गुणपालेन भार्यायाः सन्मुखं स्वहितैषिणा ॥ ५९॥ त्वया गुणश्रिया नूनं म।हिन्या प्रवीणया । अस्मै विषं प्रदातव्यं लेखवाहाय निश्चितम् ॥६०॥ अथ लेखं समादाय सोमदत्तस्त्वरान्वितः । तदुद्यानवनं प्राप्य तरुमूले स सुप्तवान् ॥ ६१॥ वसन्ततिलका नाम गणिकाऽक्षरकोविदा । तस्य सुप्तस्य कण्ठस्थं लेखं पश्यति रूपिणः ॥ ६२ ॥ तद्गलाल्लेखमादाय प्रमुच्य स्वकरण सा । अमुं वाचयति स्पष्टं तद्रूपहृतलोचना ॥ ६३॥ अहं गृहं न यावच समायामि नितम्बिनि । तावद्विषं प्रदातव्यं लेखवाहाय सत्वरम् ॥ ६४॥ विज्ञाय लेखसंबन्धं वसन्ततिलका तदा । युवा रूपी नरो धीरः कथं यास्यति पञ्चताम् ॥ ६५॥ अहं गृहं न यावच्च समायामि नितम्बिनि । तावद्विषा प्रदातव्या लेखवाहाय मत्सुता ॥ ६६ ॥ ____ 1 [ समूलकम् ]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफज चतुष्कलकम्, 5 पफ युग्मम् ,जयुगलम्. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७२. ६७प्राध्वंकृत्य गले लेखं सोमदत्तस्य रूपिणः । वसन्ततिलका शीघ्रं ययौ धाम मनीषितम् ॥ ६७ ॥' सोमदत्तः समुत्थाय तदानीं तरुमूलतः। मोहयन् कामिनीलोकं गुणपालगृहं ययौ ॥ ६८॥ अथोपविश्य तद्गहे सोमदत्तो यथाक्रमम् । महाबलपुरो लेखं मुमोच प्रीतमानसः॥ ६९ ॥ आदायमं स्वहस्तेन लेखं वाचयति स्फुटम् । महाबलो बलोपेतो जननीबन्धुसाक्षिकम् ॥ ७० ॥ 5 महाजनसमूहेन विषा देया त्वया सुता । जननीबन्धुयुक्तेन महासंतोषकारिणा ॥ ७१॥ विवाहो मत्परोक्षे च तूर्यमङ्गलनिखनैः । विधातव्यो महाभूत्या सानुरागो महाबल ॥ ७२॥ जनन्या बन्धुलोकस्य लेखार्थ सकलं तदा । महाबलोऽगदच्छीघ्रं तोषकण्टकिताङ्गकः ॥ ७३ ॥ तुरङ्गकरिरत्नानि कनकाभरणानि च । नादवीणादिवस्त्राणि प्रदायासौ समङ्गलम् ॥ ७४ ॥ शोभने दिननक्षत्रे योगे च रजनीपतेः । तोषतो विधिना वृत्तं पाणिग्रहणमेतयोः ॥ ७५ ॥ " यावच्च वेदिकामध्ये तिष्ठतस्तौ वधूवरौ । तावत् स जनकः प्राप्तो मन्दिरं स्वं विधुप्रभम् ॥ ७६॥ दृष्ट्वा वधू-वरौ श्रेष्ठी कोपलोहितलोचनः । धूलिधूसरदेहोऽपि तस्थिवान् शयनेऽमुदा ॥ ७७ ॥ विलोक्य पितरं तत्र शयनीये व्यवस्थितम् । महाबलो जगादैतं गुञ्जाफलनिभेक्षणम् ॥ ७८ ॥ विवाहो विधिना वृत्तस्त्वन्मतेन महामते । किमर्थं मौनमादाय स्थितोऽपरवावानिव ॥ ७९ ॥ महाबलवचः श्रुत्वा गुणपालो जगाद तम् । प्रमुञ्चन्नुष्णनिःश्वासं म्लानवक्रसरोरुहम् ॥ ८०॥ 15 आगच्छामि न यावच्च सुताहं गृहमात्मनः । तावत्त्वया विषाया हि विवाहो विहितः कुतः ॥८१॥ निशम्य जनकस्योक्तं जगौ तातं महाबलः । स्वसुस्त्वदीयलेखेन विवाहो विहितो मया ॥ ८२॥ द्वाभ्यां बहुधनं दत्त्वा महासामन्तसाक्षिकम् । पूजा मनोरमाकारा नितान्तं विहिता मया ॥८३॥ पुत्रवाक्यमहादुःखविह्वलीभूतमानसः । तस्थौ शय्यातले श्रेष्ठी गुणपालोऽतिवञ्चितः ॥ ८४ ॥ गुणश्रीः श्रेष्ठिनी प्राप्य गुणपालं सुदुःखितम् । जगाद विस्मितस्वान्ता वद मे शोककारणम् ॥८५॥ 20 गुणश्रीरमणीवाक्यं गुणपालो निशम्य च । जगौ स पूर्ववृत्तान्तं समस्तं तं स्वयोषितः ॥ ८६ ॥ धूपपुष्पादिकं दत्त्वा संध्यानेहसि चैककः । प्रेषितो गुणपालेन जामाता नागमन्दिरम् ॥ ८७ ॥ धूपादिकं समादाय संध्यायां विशिखान्तरे । महाबलेन जामाता व्रजन् दृष्टोऽसहायकः ॥ ८८ ॥ तत्कराद् बलिमादाय हट्टे तं च निधाय सः । महाबलो विनीतात्मा ययौ नागनिकेतनम् ॥८९॥ तत्र च श्रेष्ठिना चैको मातङ्गः स्थापितो रुषा । संध्यायां यः समायाति स हन्तव्यस्त्वया लघु ॥९०॥ 25 यावन्नागगृहस्यान्तर्विशति प्रीतमानसः । तावत् स निहतोऽनेन मातङ्गेन सितासिना ॥ ९१॥ श्रेष्ठी जामातरं दृष्ट्वा जीवन्तं वपुरः स्थितम् । सुतं च निहितं तत्र मौनी दुःखी स तस्थिवान् ॥१२॥ अत्रान्तरे प्रियां प्राह गुणपालो विषादवान् । कान्ते जामातरं शत्रु निहन्मीमं न कारणम् ॥ ९३॥ अथवा केनचिन्मुग्धे चोपायेन विनाशनम् । शत्रुभूतस्य जामातुः कुरु शीघ्रं मयोदितम् ॥ ९४ ॥ ततस्तद्वचनाच्छीघ्रं मोदका विषगर्भिणः । गुणश्रिया कृता दिव्या गन्धामोदितदिग्मुखाः॥९५॥ ॥ ततः सुतां विषां प्राह गुणश्रीनिष्ठुराशया । धवाय मोदकानेतान् देहि त्वत्प्रीतिकारिणे ॥ ९६ ॥ माऽन्यस्मै लड्डुकानेतान् प्रदास्यसि मनस्खिनि । एवमुक्त्वा सुतामेषा निर्ययौ स्वगृहादरम् ॥९७॥ एतस्मिन्नन्तरे श्रेष्ठी गुणपालो विषां तदा । बुभुक्षाग्रस्तचेतस्को निजगाद सुतामिमाम् ॥ ९८ ॥ अहं राज्ञा समाहूतः कार्येण महता सुते । यद् गृहे भोजनं किंचिद् विद्यते देहि तन्मम ॥९९॥ 1 पफ षभिः कुलकम् , ज षट्कुलकम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 [स्थितोऽत्र परवानिव]. 4.पफ युग्मम्, ज युगलम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 6 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 7 [निहतं ]. 8 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 9 पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७३. १८ ] यशोधरचन्द्रमतीकथानकम् १६९ ततस्तद्वाक्यतः शीघ्रं मोदका' विषगर्भिणः । वितीर्णा गुणपालाय विषया हितकारणात् ॥ १०० ॥ ततस्तान्मोदकान् भुक्त्वा विषादत्तान् हिताशया । गुणपालो ममाराशु तदानीं विषयोगतः ॥ १०१ ॥ श्रेष्ठिनी च मृतं दृष्ट्वा भर्तारं शोकविह्वला । गुणश्रीः पञ्चतां प्राप भुक्त्वा तं विषमोदकम् ॥ १०२ ॥ मृतयोरनयोस्तत्र सोमदत्तं नरेश्वरः । आजुहावात्मसामीप्यं तोषपूरितमानसः ॥ १०३ ॥ स्वपुत्रीमधराज्यं च गुणपालधनं नृपः । वितीर्य सोमदत्ताय राजश्रेष्ठिपदं ददौ ॥ १०४ ॥ एवं कृतेऽमुना राज्ञा राजश्रेष्ठी स्वपत्तने । मानसेष्टान्महाभोगान् बुभुजे प्रीतमानसः ॥ १०५ ॥ सुकेतुसूरि संज्ञाय दत्त्वाऽऽहारविधिं तथा । पञ्चातिशयसंप्राप्तिं दुःप्राप्यां प्राप्य शोभनाम् ॥१०६ ॥ श्रुत्वा पूर्वभवं तस्मात् तथा लक्ष्मीसमागमम् । तपो विधाय जैनेन्द्रं संक्लेशपरिवर्जितम् ॥ १०७॥ आराधनां समाराध्य विधिना हि चतुर्विधाम् । प्राप सर्वार्थसिद्धिं च सोमदत्तो मुनीश्वरः ॥ १०८॥ एकमीनदयां भक्त्या चतुर्वारसमुद्भवाम् । चकार मृगसेनाख्यो धीवरो मृदुमानसः ॥ १०९ ॥ सोमदत्तभवे प्राप्य स्वदयां स चतुर्विधाम् । नराधिपत्यमासाद्य देवः सर्वार्थसिद्धिः ॥ ११० ॥ ॥ इति श्रीमृगसेन धीवर मीनै कदयाकरसोमदत्तसंभवस्वदयारक्षणकथानकम् ॥ ७२ ॥ * इदम् at the end. 1 ज मोदिका. 2 फ सकेतु 3 पफज त्रिभिः कुलकम्. 4 ज omits इति श्री and adds 5 [ प्रासादात् सप्तभूमिकात् ]. 6 पफज त्रिभिः कुलकम्. बृ० को ० २२ ७३. यशोधर चन्द्रमतीकथानकम् । 15 अस्त्यवन्तीमहादेशे श्रीमदुञ्जयिनी पुरी । कीर्त्योघोऽस्यां नृपोऽस्यापि भार्या चन्द्रमती शुभा ॥ १॥ यशोधरोऽनयोः पुत्रः पुत्रजन्माभिलाषिणोः । बभूव रूपसंपन्नो विनयी न पराजितः ॥ २ ॥ रूपराजितसर्वाङ्गी नीलोत्पलदलेक्षणा । अमृतादिमहादेवी बभूवास्य मनःप्रिया ॥ ३ ॥ यशोमतिकुमाराख्यस्तनयोऽजनि विक्रमी । विनयाचारसंपन्न श्चानयोः कुलनन्दनः ॥ ४ ॥ अन्यदा दर्पणे दृष्ट्वा निर्मले पलिताङ्कुरम् | कीत्र्योघः संसृतित्रस्तो वैराग्यं स समाश्रितः ॥ ५ ॥ यशोधरकुमाराय दत्त्वा राज्यश्रियं नृपः । अभिनन्दनसामीप्ये दीक्षां दैगम्बरी दधौ ॥ ६ ॥ नमन्नखिलसामन्तमस्तकोपात्तशासनः । चकार विपुलं राज्यमुज्जयिन्यां यशोधरः ॥ ७ ॥ अमृतादिमहादेव्या कामभोगं यथेप्सया । यशोधरस्तरां हृष्टो भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ ८ ॥ अन्यदा कुब्जकेनामा भुञ्जाना सुरतं निशि । दृष्ट्वा यशोधरः कान्तां महावैराग्यमीयिवान् ॥ ९ ॥ सभामध्यस्थितो नूनं प्रव्रज्या कारणाश्रयम् । अलीकस्वमसंबन्धं स्वमातुः कथयाम्यहम् ॥ १० ॥ आकर्णयाम्बिके स्पष्टमद्य रात्रौ मयेदृशः । स्वप्नो विलोकितः क्षिप्रं पश्चिमप्रहरे किल ॥ ११ ॥ अहं चावतरंस्तस्मात् प्रासादान् सप्तभूमिकान् । पतितोऽस्मि धरापृष्ठे पाषाणशकलाचिते ॥ १२ ॥ प्रासादस्थैर्नरैः शीघ्रमसत्यस्तुतिकारिभिः । मायाप्रपञ्चसंयुक्तः संस्तुतोऽस्मि समुत्थितः ॥ १३ ॥ यशोमतिकुमारस्य राज्यपट्टं नियुज्य च । महावैराग्यसंपन्नस्तपो जैनेश्वरं श्रितः ॥ १४ ॥ यशोधरोदितं श्रुत्वा जगौ चन्द्रमती तकम् । न शोभनस्त्वया स्वप्नो दृष्टो बालक सांप्रतम् ॥१५॥ स्वहस्तनिहतैर्जीवैः ः प्रपूज्य कुलदेवताम् । शान्तिकर्म विधातव्यं त्वया निश्चितचेतसा ॥ १६ ॥ 30 कृत्वेदं सकलं पुत्र शान्तिकर्मविधायकम् । भविष्यति पुनः क्षिप्रं तवापि स्वल्पदीक्षणम् ॥ १७ ॥ स्वमातृवचनं श्रुत्वा यशोधरनृपेण तत् । प्रतिपन्नं तदा सर्वं तन्मतं हितमिच्छता ॥ १८ ॥ 5 10 20 25 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७३. १९चन्द्रमत्या सहानेन यशोधरनृपेण च । निहतो देवतामूले पिष्टनिर्मितकुर्कुटः ॥ १९ ॥ तेन पापविधानेन महादेव्या समं तकौ । निहतौ विषयोगेन मोदकस्थेन तत्क्षणात् ॥ २०॥ हिमवद्दक्षिणाशायां नानातरुविराजितः। एकोऽस्ति पर्वतस्तुङ्गः सिंहव्याघ्रविभीषणः ॥२१॥ मयूरीगर्भतो जातः शिखी तत्र यशोधरः । यूनैकेन मनुष्येण तन्माता निहता तदा ॥ २२ ॥ । ततः स केनचित्तस्मादादाय परिपालितः । यशोमतिकुमारस्य आनीतो प्राभृतेच्छया ॥ २३ ॥ यशोमतिकुमारेण दृष्ट्वाऽमुं तोषकारणात् । गृहीतो रममाणोऽसौ नृपसौधे वितिष्ठते ॥ २४ ॥ या तु चन्द्रमती नाम तन्माता पूर्वजन्मनि । करहाटेऽभवत्सोऽपि मण्डलो मण्डिताङ्गकः ॥२५॥ ततोऽसौ केनचित्तस्मादानीतः प्राभृतेच्छया । यशोमतिकुमारस्य श्रीमदुज्जयिनी' पुरीम् ॥ २६ ॥ दृष्ट्वा तं तोषमासाद्य गृहीतो मण्डलोऽमुना । समर्पितः प्रयत्नेन स्वपतेः पुरुषस्य च ॥ २७॥ " एवं च तौ कुमारस्य वल्लभौ सुतरां भुवि । मयूरमण्डलौ स्यातां पूर्वबन्धसमागमात् ॥ २८॥ प्रासादशिखरस्थेन मयूरेण विलोकितः । गवाक्षस्तेन तन्मध्ये रत्नदीपप्रभोउवले ॥ २९॥ यावत्तदन्तरे बाढं विदधात्यवलोकनम् । तावज्जातिस्मरः शीघ्रं बभूवायं शिखावलः ॥ ३० ॥ ततः खान्तःपुरं तत्र पश्यता शिखिना तदा । पूर्वोक्तकुब्जकाङ्कस्था महादेवी विलोकिता ॥३१॥ दृष्ट्वा रतिं प्रकुर्वाणौ तौ तदानीं च कोपतः । स्वपादनखघातेन निहतौ शिखिना हृदि ॥ ३२ ॥ 15 ततो रतिसुखिन्नाभ्यां स्वमणिभूषणैर्हतः । ताभ्यां गतोऽमुतः सौधान्मयूरो भयविह्वलः ॥ ३३ ॥ रममाणं तरां द्यूतं यशोमतिनरेश्वरम् । प्रहारविह्वलस्वान्तः प्राप्तवान् स शिखी सरन् ॥ ३४॥ दृष्ट्वा मयूरमायान्तं वेपिताखिलविग्रहम् । मण्डलः प्राप्य तं वेगाच्चकार गतजीवितम् ॥ ३५ ॥ सोऽपि श्वा भूभुजा द्यूतफलकेन समाहतः । मस्तके पञ्चतां प्राप्य पपात भुवि निःक्रियः ॥३६ ॥ ततस्तौ पञ्चतां प्राप्तौ विलोक्य वसुधाधिपः । चकार विह्वलखान्तो विलापं मुनिदुःखदम् ॥ ३७॥ 20 कृत्वा शोकं चिरं तौ च दग्धौ श्रीखण्डदारुभिः । मन्दाकिन्यां तदङ्गानि प्रापयामास भूपतिः ॥३८॥ सुवर्णरत्नरूपाणि गोवस्त्रादीनि भूरिशः । स्वर्गसौख्यस्थितीभूतौ तावुद्दिश्य नृपो ददौ ॥ ३९॥ ततो दक्षिणदिग्भागे सुवेलाख्यो महीभृतः। आसीत् सिंहादिसत्त्वौघदुःप्रवेशघनं वनम् ॥ ४०॥ काणिकायां पशव्यां हि कुण्टेन पशवेन च । जनितो जाहको भीमो स मयूरचरो महान् ॥४१॥ सुशुष्कस्तनबन्धाया बुभुक्षाग्रस्तचेतसः । स्वमातुर्दुग्धमप्यल्पं लेभे स न मनागपि ॥४२॥ 25 महीविवरजातस्य जाहकस्य सुपापिनः । शरीरं वृद्धिमायातं भुञ्जानस्य सरीसृपान् ॥४३॥ या तु चन्द्रमती क्रूरा मण्डलेन मृतिं गता। तस्मिन्नेव महीरन्ध्रे कृष्णसर्पो बभूव सा ॥४४॥ प्रवृत्तः खादितुं यावद्द१रान् स भुजङ्गमः । तावत् पुच्छप्रदेशेऽरं गृहीतो जाहकेन च ॥४५॥ ततस्तेन भुजङ्गेन पश्चात् कृत्वाऽवसर्पणम् । गृहीतो वदने कोपाजाहको दशनैरपि ॥४६॥ अन्योन्यभक्षणं यावच्चक्रतुस्तौ रुषाऽन्वितौ । तावत् स जाहको वेगात्तरक्षेण निपातितः ॥४७॥ 20 तदानीं कृष्णसर्पोऽपि तद्दन्ताग्रविदारितः । इयाय मरणं वैरं द्युफणेन हि खाद्यते ॥४८॥ योऽसौ हि जाहकस्तत्र तरक्षण विनाशितः । बभूव रोहितो मीनः सिप्रायाः सरितो हृदे ॥४९॥ कृष्णसर्पोऽपि तत्रैव कालं कृत्वा भयानकः । शुंशुमारोऽभवदीर्घः कालपाशसमाकृतिः ॥५०॥ मीनोऽपि विहरन् कापि सन् हृदे सलिलेऽमले । पुच्छदेशे गृहीतोऽयं भीमहारेण वेगतः ॥५१॥ अत्रान्तरे नरेन्द्रस्य कुब्जवामनकादिकम् । पेटकं रन्तुमायातं प्रविष्टं तजलेऽमले ॥५२॥ 1 फज श्रीमदुजयनीं. 2 [पातयामास]. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७३. ८५] यशोधरचन्द्रमतीकथानकम् १७१ एका वामनिका तत्र क्रीडन्ती तत्सम जले । मीनोपरि पपाताशु तन्महत्तरिका वरा ॥ ५३॥ ततो हारेण तेनाशु मुक्त्वा मीनं प्रसर्पता । गृहीता चरणे कोपात् तदा वामनिकाऽमुना ॥ ५४॥ गृहीतमात्रया वेगात् तथा हि रटितं तया । यथा सीमन्तिनीपेटं क्रीडां हित्वा पलायितम् ॥५५॥ कुजवामनिकासंधैर्भयवेपितविग्रहैः । किंवदन्ती च सा सर्वा नरेन्द्रस्य निवेदिता ॥५६॥ सिप्रानदीहदे राजन् तव वल्लभिका तराम् । नक्रेण भीमरूपेण ग्रस्ता वामनिकाऽधुना ॥ ५७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा कोपलोहितलोचनः । समस्तधीवरान् प्राह खनादापूरिताम्बरः ॥ ५८॥ भो भो धीवरिकाः शीघ्रं यावन्तो मीनराशयः । तावन्तः स्वीप्रकर्तव्या भवद्भिर्जालयोगतः ॥ ५९॥ ततस्तद्वचनान्ते च जालान्यादाय वेगतः । सिप्रानदीह्रदं शीघ्रं जग्मुर्मुदितचेतसः ॥ ६०॥ मीनोऽपि शंशुमारेण विमुक्तो हृदतः क्षणात् । भीतः पलायनं चक्रे भावि भद्रं हि जीवितम् ॥६॥ ततस्ते युगपत् सर्वे दष्टदन्तच्छदा रुषा । सिप्रानदीह्रदान्ते च घनजालानि चिक्षिपुः ॥ ६२॥ 10 जालैस्तं हारमादाय धीवराः प्रीतचेतसः । यशोमतिकुमारस्य मुमुचुः पुरतः क्षणात् ॥ ६३॥ भूयो हारं पुरो वीक्ष्य धीवरान् निजगौ तदा । नयतैनं दुराचारमिन्द्रस्थानं निकारिणम् ॥ ६४ ॥ दृढबन्धनसंबन्धो जीवन्नपि स दुष्टधीः । म्रियतामेष तत्रस्थो नूनं कुमरणातुरः ॥ ६५॥ तद्वाक्यतः पुनीतः शुंशुमारः स धीवरैः । बद्धोऽमीभिदृढं तत्र दुःखतो मृत्युमीयिवान् ॥६६॥ अन्यदा धीवरैर्जालं निक्षिप्तं प्राप्य तं हृदम् । आनीतो रोहितो मत्स्यो जललग्नो भुवस्तलम् ॥ ६७॥15 ततोऽसौ रोहितो मीनो जीवन्नपि च धीवरैः । यशोमतिनरेन्द्रस्य नीतोऽयं प्राभृतेच्छया ॥ ६८॥ दृष्ट्वाऽमुं रोहितं मत्स्यं स्वपुरस्तोषमीयुषा । अमृतादिमहादेव्याः स मातुः प्रेषितोऽन्तिकम् ॥ ६९॥ अस्य रोहितमीनस्य पलेन सरसेन च । द्विजानां भोजनं देयं जनकादिकृते भृशम् ॥ ७० ॥ श्रुत्वा तद्वचनं मीनो भूत्वा जातिस्मरः क्षणात् । अमृतादिमहादेवीं पश्यन् यावद्वितिष्ठते ॥७१॥ तावत्तत्पुच्छखण्डं च महादेवीमतेन हि । नीतं महानसं क्षिप्रं जनकादिकृते तदा ॥ ७२॥ ० अन्यदुद्वरितं यच्च मातस्तत्खण्डकं निशि । भविष्यति तव स्पष्टं ममापि प्रीतिकारणम् ॥ ७३ ॥ घृततप्तकटाहे च तत्खण्डं निहितं तया । मीनो मृतिं परिणाप स्वकर्मवशतः क्षणे ॥ ७४॥ शुंशुमारो मृतिं प्राप्य जाताऽजा पाणपाटके । मीनस्तद्गर्भमासाद्य बभूव च्छेलको महान् ॥७५॥ ततो यौवनमासाद्य सोऽधिरूढः स्वमातरि । शुक्रनिर्गमकाले च स्तभेनान्येन मारितः ॥ ७६ ॥ विधाय गर्भसंभूतिं स्वमातुर्मूढमानसः । भिन्नः स्तभेन स नीतो मृति' शृङ्गाग्रदारितः ॥ ७७॥ 25 अत्रान्तरे हि पापा निश्चक्राम नराधिपः । ददर्श गर्भसंयुक्तां छेलिकां स्वपुरस्थिताम् ॥ ७८॥ यशोमतिकुमारण छेलिका बाणघाततः । वराकी निहताऽनेन पतिता सा भुवस्थले ॥ ७९ ॥ प्रपाट्योदरमेतस्यास्तन्मतेन नराधमैः । छेलकः शोभनाकारस्तत्कुक्षेः पातितो भुवि ॥ ८ ॥ दृष्ट्वा तदूर्णकं राजा तोषकण्टकिताङ्गकः । तदा समर्पयामास छेलिकापालकस्य तम् ॥ ८१॥ क्रमेण यौवनं प्राप्य भागिनेयीसुतादिभिः। अजाभिः सह कुर्वाणो मैथुनं स वितिष्ठते ॥ ८२ ॥ 30 अन्यदा भूमिनाथेन पापर्द्धिवरमिच्छता । कुलदेव्याः समुद्दिष्टा जरन्ता विंशतिः परम् ॥ ८३ ॥ काकतालीययोगेन पापर्द्धिक्रूरचेतसः । बभूव सफला तस्य पापोपार्जनकारिणः ॥ ८४॥ कुलदेव्या वितीणास्त कात्यायिन्याः प्रमोदिना । जरन्ताः पूर्णकामन भूभुजा भक्तिमीयुषा ॥८५॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 [शिंशुमारेण]. 3 [°संबद्धो]. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 पफ यावद्विचष्टिते. 6प मातस्त्वत्खण्डकं. 7 पफ मृतं. 8 [भुवस्तले]. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७३. ८६तन्मांसमक्षिकापूर्ण शाल्मलीपुष्पसंनिभम् । महानसगतं भूरिपुञ्जपुलैर्वितिष्ठते ॥ ८६ ॥ अवाचि भूपतिस्तत्र सूपकारेण सत्वरम् । यदेतत् पिशितं किंचिदुच्छिष्ठं काकमण्डलैः ॥ ८७॥ तच्छेलकेन चाघ्रातं पूतं भवति भूपते । कार्येऽत्र त्वं महाराज प्रमाणं नापरो भुवि ॥ ८८॥ सूपकारवचः श्रुत्वा जगादेमं नरेश्वरः । कौतुकव्याप्तचेतस्कस्तन्मतप्रीतमानसः ॥ ८९ ॥ 5 मद्धितं कुर्वता साधो शोभनं गदितं त्वया । करोमि त्वद्वचः क्षिप्रं देवमाहनपूजितम् ॥ ९०॥ तन्मतेन समानीतश्छेलको भूभुजा द्रुतम् । तस्थौ जातिस्मरो भूत्वा पिशितान्ते महानसे ॥ ९१॥ तदाऽमृतमहादेवी सूपकारं जगाद सा । महिषाणां न मे मांसं रोचतेऽद्य मनागपि ॥ ९२ ॥ अन्येषां जीवराशीनां किंचिन्मांसं समानय । येनेमा जायते प्रीतिर्मम चित्तस्य सांप्रतम् ॥ ९३॥ जननीवाक्यमाकर्ण्य यशोमतिनरेश्वरः । सूपकारं बभाणैष मातृस्नेहपरायणः ॥ ९४ ॥ 10 अधुना छेलकस्यास्य मांसं संस्कृत्य चानय । येन मे जननी वत्स तिष्ठति प्रीतमानसा ॥ ९५॥ भूपालवचनात् तेन सूपकारेण वेगतः । छित्त्वाऽस्य पश्चिमं पादं छलकस्यातिपापिना ॥ ९६ ॥ संस्कृत्य तत्पलं शीघ्रं नानाभेदसमन्वितम् । समर्पितं महादेव्याः सूपकारेण वेगतः ॥ ९७ ॥ जनकस्यार्जिकायाश्च नामतस्तत्प्रदीयताम् । यथेष्टं सूत्रकण्ठेभ्यो जल्पितं भूभुजा पुनः ॥ ९८॥ तदा तन्माहनेभ्योऽपि तदानीं भूपवाक्यतः । तत्पार्श्वस्थस्य मे नूनं न प्राप्नोति मनागपि ॥ ९९॥ 'क्षुधातृष्णापरिश्रान्तश्छिन्नपश्चिमभागकः । तिष्ठामि वेदनाग्रस्तो भयवेपितविग्रहः ॥ १०॥ या तु चन्द्रमती नाम छेलिका भूभुजा हता। सा कलिङ्गाख्यदेशेऽभून्महिषो भीमविग्रहः ॥१०॥ सोऽपि भाण्डभृतस्तस्मान्महामहिषमध्यगः । श्रीमदुज्जयिनीं प्राप पताकावलिराजिताम् ॥१०२॥ ततो मुक्तभरः सोऽपि दाहदग्धशरीरकः । सिप्रानदीजलान्तस्थस्तिष्ठति श्रमहानये ॥ १०३॥ ततोऽनेन जरन्तेन जलमध्यस्थितेन हि। राजाश्वः शृङ्गघातेन वल्लभोऽयं निपातितः॥ १०४॥ 20 ततो भूपोऽपि तां वाता ज्ञात्वा परिजनादरम् । महिषं कोपतः शीघ्रमानिनाय स्वमन्दिरम् ॥१०५॥ जरन्तं निश्चलं बवा चतुःपादेषु कीलकैः । चतुर्वपि च पार्श्वेषु वह्नि प्रज्वाल्य भासुरम् ॥१०६॥ कटाहं तत्पुरः कृत्वा तप्तपानीयसंभृतम् । हिंगुसैन्धवसंयुक्तं त्रिफलाद्यन्यकैरपि ॥ १०७॥ तस्मिन्नीरे प्रतप्ते च दग्धात्रनिचयः सकः । कचारं मुञ्चति क्षिप्रं पश्चिमद्वारतोऽखिलम् ॥१०८॥ पूर्वोदितस्तभः सोऽपि धृतपश्चिमभागकः । ज्वालाभासितसर्वाशो महिषान्ते निधापितः ॥१०९॥ तयोरपि पुनः क्षिप्रमग्निना पच्यमानयोः। जीवेन दुःखदुःखेन गतं क्वापि भयादिव ॥ ११० ॥ श्रीमदुजयिनीपार्श्वलयो मातङ्गपाटकः । विद्यतेऽस्थिकचारेण मण्डितो मण्डलादिभिः ॥ १११ ॥ तत्रैव कुर्कुटीगर्भे मातापुत्रयुगं तदा । बभूव कुर्कुटद्वन्द्वं पापनिर्मितमूर्तिकम् ॥ ११२ ॥ विलोक्य कुर्कुटद्वन्द्वं गृहीतं चण्डकर्मणा । नीतं च प्राभृतं तेन यशोमतिनृपस्य तत् ॥११३॥ दृष्ट्वैतत् कुर्कुटद्वन्द्वं यशोमतिनराधिपः । तुतोष पितरं पश्यन् को न तुष्यति बालकः ॥ ११४ ॥ राजा समर्पितं तच्च तदानीं कुर्कुटद्वयम् । चण्डकर्मतलारस्य तेन नीतं स्वमन्दिरम् ॥ ११५ ॥ अथोद्यानवनं रन्तुं अन्तःपुरसमन्वितः । यशोधरतनूजोऽयं जगाम प्रमदाकुलः ॥ ११६ ॥ चण्डकर्मा समादाय कृकवाकयुगं तदा । लोहपञ्जरमध्यस्थं जगामोपवनं परम् ॥ ११७ ॥ चीरपट्टसमं तत्र नानावर्णसमुज्वलम् । प्रासादं पश्यति स्मोचं चण्डकर्मा मनोहरम् ॥११८ ॥ पूर्वद्वारे च सौधस्य स्थिते मणिसमुज्वले । शरदभ्रसमाकारे विचित्रे दूष्यमण्डपे ॥ ११९॥ 1 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 2 युग्मम् , ज युगलम्. 3 पफ युग्मम् , युगलम्. 4 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 5 फ क्षुधातृषा. 6 फज श्रीमदुज्जयनी. 7 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 8 [राज्ञा]. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७३. १५२ ] यशोधरचन्द्रमतीकथानकम् अन्योऽन्यप्रेमसंयुक्तं मन्दखानसमप्रभम् । चण्डकी मुमोचात्र ताम्रचूलयुगं कलम् ॥ १२० ॥ प्रलम्बितभुजद्वन्द्वं नासाग्रनिहितेक्षणम् । सानुकम्प तपोऽगारं धर्म वाऽपघनान्वितम् ॥ १२१ ॥ अशोकतरुमूलस्थं निर्जिताक्षकदम्बकम् । मुनि वृक्षसमीपस्थं चण्डकर्मा ददर्श सः॥ १२२ ॥ दृष्ट्वा तं योगिनं तत्र विधायासत्यवन्दनाम् । दध्यौ कठोरचेतस्कश्चण्डकर्मा विशुद्धधीः॥१२३॥ अनेन मुनिना ध्वस्ता भूपस्य वसतिः कथम् । सणेवातिचण्डेन जनभीतिविधायिना ॥ १२४ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य तदानीं दुष्टचेतसः । योगः समाप्तिमायातो मुनेरस्य सुधीमतः ॥ १२५ ॥ चण्डकर्मा विलोक्यमं समाप्तनियमं मुनिम् । नष्टकन्दर्पसंपर्क जगौ निष्ठुरमानसः ॥ १२६ ॥ भवद्भि.कविख्यातैर्जनतासंमतैरपि । किं मुने ध्यातुमारब्धं वद त्वं मम सांप्रतम् ॥ १२७ ॥ श्रुत्वाऽस्य वचनं योगी बभाणेमं विशुद्धधीः । आकर्णयैकचित्तेन कथयामि तवाधुना ॥ १२८॥ संसारे सारताहीने तरां संसरतो मम । अनन्तानि शरीराणि गृह्णतो मुञ्चतोऽपि च ॥१२९ ॥ यत्समुत्पद्यते दुःखं नानायोनिसमुद्भवम् । तत्कथं हि क्षयामीति ध्यानं ध्यातं महानघम् ॥१३०॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य चण्डकर्मा जगावमुम् । अन्यो जीवोऽस्ति किं साधो किं चान्यच्च शरीरकम् ॥ मुनिः प्रोवाच तं सत्यमवधिज्ञानलोचनः । एकादशाङ्गधारी च नष्टसंदेहकारणः॥ १३२ ॥ भो भो देवप्रिय स्पष्टं संदेहोऽत्र न युज्यते। तव कतु प्रतीहि त्वं जीवोऽन्योऽन्यच्छरीरकम् ॥१३३॥ निशम्य वचनं साधोश्चण्डकर्मापि तं जगौ । अन्यो न विद्यते जीवो न चान्यद्वा शरीरकम् ॥१३४॥ 15 किंतु संसारकान्तारे नानायोनितरूद्भवे । भ्राम्यतां देहिनां नित्यं सजीवस्तच्छरीरकम् ॥ १३५॥ एको हि तस्करः कोऽपि कोष्ठिकायां निधापितः। जतुना सजिता सा च छिद्रहीना मया कृता ॥१३६॥ अस्यामेवमलं क्षिप्तः पञ्चतामगमत् प्रभो । जीवस्य निर्गमो नात्र दृष्टोऽस्माभिः कदाचन ॥१३७॥ तेन जानाम्यहं नाथ सत्यं कार्यमिदं भुवि । जीवः स एव संजातस्तदेव च शरीरकम् ॥१३८॥ निशम्य तद्वचो योगी तदा तं पुनरब्रवीत् । पूर्वोक्तकोष्ठिकायां च सशङ्खो ना निधापितः॥१३९॥ ॥ तत्रत्यः स नरः शङ्ख धमति प्रीतमानसः । तद्धनिः श्रूयते लोके निर्गमो न विलोक्यते ॥१४॥ यथा हि शङ्खशब्दस्य कोष्ठिकाया न निर्गमः। दृश्यते लोकसंघातैर्जीवस्यापि निबुध्यताम् ॥१४॥ अनेन कारणेन त्वं प्रतीहि वचनं मम । अन्यो जीवो भवेदेष तथाऽन्यच्च शरीरकम् ॥ १४२ ॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य चण्डकर्मा बमाण तम् । त्वद्वचो सत्यतां प्राप्तं वक्ष्यमाणनिदर्शनात् ॥१४३॥ मयैकस्तस्करः साधो तुलायां तोलितः स्फुटम् । सजीवो जीवहीनोऽपि तत्प्रमाणो भवेदयम् ॥१४४॥2 अनेन हेतुना सत्यं प्रतीहि मम भाषितम् । यथाहं सवज्जीवोऽस्ति तदेवच्च शरीरकम् ॥१४५ ॥ उवाच चण्डकर्माणं मुनिस्तद्वचनादरम् । इदं मदीयदृष्टान्तमाकर्णय मनोरमम् ॥ १४६ ॥ ... , गोपालकेन चैकेन निषङ्गो वातपूरितः । तोलितस्तुलया नूनं न्यूनाधिकविहीनया ॥ १४७ ॥ वातहीनः पुनः सोऽपि तोलितस्तुलयाऽनया । सवातो वातहीनस्तु निषङ्गस्तत्प्रमाणकः ॥१४८॥ तत्प्रमाणो यथा भस्त्रः सर्वतो वातपूरितः । तुलया तोलितस्तद्वन्नरोऽजीवः सजीवकः ॥ १४९ ।।.. एतेन हेतुना भद्र मतिं मद्वचने कुरु । जीवोऽन्योऽन्यच्छरीरं च कथितं तव मेऽधुना ॥१५०॥" मुनिचन्द्रवचः श्रुत्वा चण्डकर्माऽवदत् तकम् । मया चौरस्य चैकस्य कुर्वता कर्तनं तनोः॥१५१॥ भूयोऽपि खण्डखण्डानि कुर्वता तच्छरीरके । बाह्याभ्यन्तरतो दृष्टो न जीवः क्वचिदेव सः॥१५२॥ . 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 पफ समाप्ति. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफज त्रिकलम्. 5 पफ पञ्चतामागमत् . 6 पफज चतुर्भिः कुलकम्. 7 पफज चतुर्भिः कुलकम्. 8 [ शवजीवोऽस्ति तदेवं च]. 9 पफज चतुर्भिः कुलकम्. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७३. १५३ १५९ ॥ ॥ १६० ॥ १६१ ॥ 10 यथा शरीरखण्डे हि जीवखण्डं न वीक्षितम् । तथा स एव जीवोऽस्ति तदेव च शरीरकम् ॥ १५३ || ' अवाचि साधुना भूयश्चण्डकर्मा पुरःस्थितः । निदर्शनमिदं स्पष्टमाकर्णय मदीरितम् ॥ १५४ ॥ एकेन चारणीदण्डे कुर्वतोत्कर्तनं मुहुः । विलोकितो नरेणाग्निचण्ड दृष्टो न न क्वचित् ॥ १५५ ॥ भूयोऽपि खण्डखण्डानि कुर्वतोत्कर्तनं तदा । नरेण चारणीदण्डेन दृष्टोऽग्निः सुपश्यता ॥ १५६ ॥ विद्यमानोऽरणीदण्डे भाव्यमानो नरेण सः । विस्फारिताक्षियुग्मेन न दृष्टोऽग्निर्यथा भुवि ॥ १५७॥ एवं शरीरखण्डेऽस्मिन् विद्यमाने तथाऽप्यलम् । प्रत्यक्षाभावतो लोकैर्जीवखण्डं न दृश्यते ॥ १५८ ॥ एतेन कारणेनार्य सत्यं मद्वचनं भज | जीवोऽन्योऽपि यथा भद्र तथान्यच्च शरीरकम् ॥ श्रुत्वा मौनीश्वरं वाक्यं चण्डकर्मा जगौ मुनिम् । जातो निरुत्तरो देव किं करोमि प्रसीद नः श्रुत्वा तद्वचनं साधुर्बभाणेमं कृपार्द्रधीः । धर्मं कुरु महासत्त्व बन्धुं सर्वशरीरिणाम् ॥ भूयो विज्ञापितः साधुस्तदानीं चण्डकर्मणा । धर्माधर्मफलं स्पष्टं कथयेश ममाधुना ॥ १६२ ॥ सौभाग्यं धनसंपत्तिर्दीर्घमायुर्यशोऽमलम् । वशीकरणमारोग्यं धर्मतो जायते नृणाम् ॥ १६३ ॥ दारिद्रं च कुरूपत्वं दौर्भाग्यं बन्धुहीनता । अकालमरणं मौक्यं जायतेऽधर्मतो नृणाम् ॥ १६४ ॥ इति संक्षेपतः श्रुत्वा धर्माधर्मफलं पुनः । चण्डकर्मा जगौ साधुं भक्तिष्टतनूरुहः ॥ १६५ ॥ गृहस्थेन मया स्वामिन् यथाऽयं प्रविधीयते । तथाऽभिधेहि संक्षेपात् संसाराम्भोधितारकः ॥ १६६॥ 1" निशम्य तद्वचो ज्ञानी प्राह तं करुणार्द्रधीः । सम्यक्त्वपूर्वकं वत्स कुर्वणुव्रतपालनम् ॥ १६७ ॥ स्वर्गापवर्गहेतूनि सुखसंपत्तिभांति च । अणुव्रतानि नाथ त्वं ब्रूहि संक्षेपतो हि नः ॥ १६८ ॥ अणुव्रतानि पञ्चापि गुणशिक्षाव्रतानि च । मधुपञ्चम्बरत्यागं रात्रिभोजनवर्जनम् ॥ १६९ ॥ तथा पञ्चनमस्कारं सम्यक्त्वं गुरुपूजनम् । आचचक्षे यतिः सर्वं तदानीं चण्डकर्मणे ॥ १७० ॥ श्रुत्वा योगीश्वरं वाक्यं चण्डकर्मा जगावमुम् । नाथ सम्यक्त्वपूर्वाणि गृहीतानि व्रतानि मे ॥ १७१ ॥ 20 जीवधातव्रतं चैकं न गृह्णामि मुनीश्वर । अस्मत्कुलोचितो धर्मो जीवघातसमुद्भवः ॥ १७२ ॥ चण्डकर्मवचः श्रुत्वा सत्यभूतं महीतले । जगौ मुनिस्तकं वीरं भक्तिहृष्टतनूरुहम् ॥ १७३ ॥ अस्मत्कुलोचितं धर्मं जीवघातसमुद्भवम् । न मुञ्चसि यदि क्षिप्रं पापोपार्जनकारणम् ॥ १७४ ॥ यथैदं कुर्कुटद्वन्द्वमत्यजत् कुलधर्मकम् । अनन्तदुःखसंबद्धां प्राप्तं मृत्युपरंपराम् ॥ १७५ ॥ आजिहानस्तथा भद्र कुलधर्मं भवानपि । प्राप्नोषि दुःखसंबद्धां भवमृत्युपरंपराम् ॥ १७६ ॥ 25 श्रुत्वा यतिवचः सत्यं विस्मयव्याप्तमानसः । चण्डकर्मा पुनः साधुं पप्रच्छेति कुतूहली ॥ १७७ ॥ एताभ्यां कृकवाकुभ्यां कथं पूर्वभवान्तरे । कुलधर्मममुञ्चद्भ्यां प्राप्ता मृत्युपरंपरा ॥ १७८ ॥ श्रुत्वा तद्भाषितं भूयो मुनीन्द्रोऽपि बभ्राण तम् । आकर्णयैकचित्तेन तद्भवं निगदामि ते ॥ १७९॥ एष कुर्कुटिको भद्र यशोधरनरेश्वरः । यशोमतिकुमारस्य जनकः पूर्वजन्मनि ॥ १८० ॥ एषा कुर्कुटिका चासीत् यशोधरनृपस्य वै । माता चन्द्रमती वत्स परुषा पूर्वजन्मनि ॥ १८१ ॥ " कुलधर्मममुञ्चद्भयां देवतार्चन के हतः । एताभ्यां भक्तियुक्ताभ्यां पिष्टनिर्मितकुर्कुटः ॥ १८२ ॥ तेन पापविपाकेन कुर्कुटद्वन्द्वमीदृशम् । बभूव शान्तचेतस्कं धर्मश्रवणतत्परम् ॥ १८३ ॥ शिखिश्वानौ पुनः सर्पजाहकौ मीनहारकौ । अजाऽजौ तौ रजन्ताजौ कुक्कुटौ पक्षिणाविमौ ॥ १८४॥ यतिवाक्यं समाकर्ण्य चण्डकर्मा मुनीश्वरम् । बभाण जातसंवेगो भयवेपितविग्रहः ॥ १८५ ॥ S 1 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम्. 2 [ न स क्वचित् ]. 3 पफ षद्भिः कुलकम् ज षट्कलकमिदम्. 4 पफ थुम्मम् ज युगलम्. 5 पफ ममुचयां 6 पफ युग्मम् ज युगलम्. 7 ज भुक्तियु. 8 पफज चतुष्कलकम्. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७३. २१७ ] यशोधरचन्द्रमतीकथानकम् १७५ कुलधर्मो मया साधो मनोवाक्कायकर्मभिः । परित्यक्तो गृहीतोऽयं जैनो धर्मोऽधुना परः॥१८६॥ अणुव्रतानि चादाय सम्यक्त्वादीनि भक्तितः । जातोऽस्मि सांप्रतं नाथ श्रावको जिनदेवतः॥१८७॥ अथ साधुमुखाम्भोजनिर्गतं धर्ममुत्तमम् । श्रुत्वा भवान्तरं स्वस्य नानादुःखयुतस्य च ॥१८८॥ जिनधर्म परिप्राप्य जिनदेवं च भक्तितः । कूजितं तोषतस्ताभ्यां कुर्कुटाभ्यां कलखनम् ॥१८९॥ अथ तच्छब्दमाकर्ण्य दूष्यमन्दिरमध्यगः । यशोमतिकुमारोऽयं जगाद कुसुमावलीम् ॥ १९० ॥ पश्य पश्य प्रिये तन्वि मद्धनुर्वेदकौशलम् । कृकवाकुयुगं शीघ्रं निहन्मि शरघाततः ॥ १९१॥ एवमुक्त्वा तकां कान्तां शरमादाय भस्वतः । धनुर्गुणे समासनं चकार स नराधिपः ॥ १९२ ॥ आकर्णाकृष्टमुक्तेन मार्गणेन यशोमतिः । तदानीं कुर्कुटद्वन्द्वं चकार गतजीवितम् ॥ १९३॥ कालं कृत्वा समाधानात् तदा कुर्कुटयुग्मकम् । जातं पुष्पावतीगर्भे जिनभक्तिपरायणम् ॥१९४॥ ततः पुष्पावतीगर्भान्निष्क्रान्तौ तौ कुमारको । अनुक्रमेण संप्राप्तौ कलागुणललामताम् ॥ १९५॥॥ अन्यदा विहरन् क्वापि संघेन महता वृतः । सुदत्ताख्यो मुनिःप्राप श्रीमदुज्जयनीवनम् ॥ १९६॥ अत्रान्तरे महीपालः श्रीमदुज्जयिनीपुरात् । निजंगाम खवृन्देन पापर्द्धिगतमानसः ॥ १९७॥ विलोक्य तरुमूलस्थं सुदत्तमुनिनायकम् । मण्डला युगपन्मुक्तास्तद्वधार्थ नरेशिना ॥ १९८॥ मण्डलानां शतान्याशु पञ्चापि मुनिनायकम् । त्रिःपरीत्य तमीशानं तस्थुस्तत्पुरतो मुदा ॥ १९९ ॥ एवं दृष्ट्वा तकान् सर्वान् कोपारुणनिरीक्षणः । स्वकरेणासिमादाय धावमानस्तकं मुनिम् ॥२००॥ 15 ततः कल्याणमित्रेण सार्थवाहेन भूपतिः । मुनेः समीपतां नीतः सम्यग्दर्शनशालिना ॥ २०१॥ दृष्ट्वा मुनिं पुनर्दध्यौ नरेन्द्रो प्रीतमानसः । मया मुनिवधः कर्तुं कथं पापेन चिन्तितः ॥ २०२॥ प्रायश्चित्तस्य चैतस्य मुनिहिंसनकारिणः । कारणे स्खं शिरश्छित्वा ददाम्यस्मै विशुद्धये ॥२०३॥ एवं विचिन्त्य शुद्धात्मा यशोमतिनराधिपः । जगाम मुनिसामीप्यं मित्रेण सहसा सह ॥ २०४॥ ततो मुनिवरणायं नरेन्द्रो विनिवारितः । इदं न वर्तते कर्तुं भूपाल तव चेष्टितुम् ॥ २०५॥ १ ज्ञातया चिन्तया तस्य मुनिना बोधमीयुषा । विलक्षो लज्जया राजा चकारास्य क्रमानतिम् ॥२०६॥ एवमुक्तं नरेन्द्रेण वैराग्याहितचेतसा । क्षम्यतां मन्दभागस्य मम दुश्चरितं मुने ॥ २०७॥ तद्वाक्यतः पुनः प्राह मुनीन्द्रो वसुधाधिपम् । उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भूपाल देवानां प्रिय शोभन ॥२०८॥ अस्माभिः सर्वलोकेभ्यः सोढव्यं च मुमुक्षुभिः । भवतां तु विशेषेण बहुना जल्पितेन किम् ॥२०९॥' मुनीन्द्रवचनं श्रुत्वा पप्रच्छेदं महीपतिः । भगवन् किं मया स्पष्टं चिन्तितं वद मेऽधुना ॥२१०॥ तद्वाक्यतो मुनिः प्राह तं तदाऽवधिलोचनः । शृणु त्वमेकचित्तेन निगदामि तव स्फुटम् ॥२११॥ नूनं मुनिवधस्येदं प्रायश्चित्तं भवेद् भुवि । शिरश्छित्त्वा निजं चास्य करोमि पदपूजनम् ॥२१२॥ अशोभनमलं भद्र त्वयेदं परिचिन्तितम् । संसारकारणं पुंसां खवधो हि मतो बुधैः ॥ २१३ ॥ अत्रान्तरे धराधीशं शोकतोषसमन्वितम् । कल्याणोपपदो मित्रो जगादेदं विशुद्धधीः ॥ २१४॥ एकया चिन्तया धीर ज्ञातया मुनिनाऽमुना । किं विस्मितोऽसि राजेन्द्र नताशेषनराधिप ॥२१॥ अतीतानागतं योगी वर्तमानं च वेत्त्ययम् । यदि ते संशयः कोऽपि पृच्छ किंचित्तपोधनम् ॥२१६॥ श्रुत्वा कल्याणमित्रस्य वचनं मुनिवन्दनाम् । विधाय भूपतिर्भक्त्या पप्रच्छेमं यतीश्वरम् ॥ २१७॥ 1 पफज त्रिकल मिदम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 प युगपन्मुक्त्वा . 4 ज मुनिं. 5 [चेष्टितम् ]. 6 ज मन्दभाग्यस्य. 7 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 8 ज शिरं छित्त्वा. 9 पफज त्रिकलमिदम्. 10 पफज त्रिकलमिदम्. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोश [७३. २१८पितामहोऽर्जिका माता पिता मे क्व गतो मृतः। कां गतिं सांप्रतं यातः किं भुञ्जानः सुखासुखम् ॥२१८॥ एतत्सर्वं समासेन यथापृष्टं मुनीश्वर । सांप्रतं ब्रूहि मे नाथ दयां कृत्वा ममोपरि ॥ २१९ ॥ राजेन्द्रवचनं श्रुत्वा जगादेमं यतीश्वरः । कौतुकव्याप्तचेतस्कमवधिज्ञानलोचनः ॥ २२० ॥ भवत्पितामहो राजन् दृष्ट्वैवं पलिताङ्करम् । स्वमस्तके हि कीर्योघो दीक्षां दैगम्बरी दधौ ॥२२१॥ 5 पञ्चरात्रं तपः कृत्वा कालं कृत्वा समाधिना । ब्रह्मोत्तरे सुखं दिव्यं भुञ्जानः स वितिष्ठते ॥ २२२॥ अमृतादिमहादेवी या माता तव बालक । विषेण स्वपतिं हत्वा षष्ठं सा नरकं ययौ ॥ २२३ ॥ असह्यवेदनान्यत्र घोरदुःखानि मातृका । भुञ्जाना तिष्ठति क्रूरा निन्दन्ती निजजीवितम् ॥ २२४॥ यः पुनस्त्वत्पिता भद्र यशोधरनरेश्वरः । त्वदर्जिका च तन्माता चन्द्रोपपदिका मतिः ॥ २२५॥ भवतः पट्टबन्धं च पिष्टनिर्मितकुक्कुटः । देवतायाः पुरस्ताभ्यां कात्यायन्या हतः स्वतः ॥ २२६ ॥ ' तेन पापानुबन्धेन कृत्वाऽन्योन्यविनाशनम् । तिर्यग्गतिषु बहीषु जन्म प्राप्ताविमौ पुनः ॥ २२७॥ अणुव्रतस्थितौ पञ्चनमस्कारपरायणौ । कुक्कुटत्वं परिप्राप्तौ हतौ तौ भवता पुनः ॥ २२८ ॥ जातौ पुष्पावलीगर्भे कलालंकृतविग्रहौ । तिष्ठतस्त्वद्गृहे भूप कुमारत्वमुपागतौ ॥ २२९ ॥ अभयादिरुचिः पुत्रस्त्वमयादिमतिः सुता । तिष्ठतस्त्वगृहे राजन् अधुना तौ कुमारको ॥ २३० ॥ ततो यशोमती राजा श्रुत्वा तद्भवसंततिम् । विस्मयं परमं प्राप्य वैराग्यमगमत् प्रभुः ॥ २३१॥ 15 सत्यवाक्यं समाकर्ण्य मुनेरस्य समीपके । यशोमतिः प्रवव्राज मित्रान्तःपुरसंगतः ॥ २३२ ॥ श्रुत्वा भवान्तरं सर्व स्वकीयं तौ कुमारको । जातिस्मरत्वमापन्नौ वैराग्याहितमानसौ ॥ २३३ ॥ ततस्तौ भक्तिसंपन्नौ दीक्षानिहितमानसौ । सुदत्तमुनिसामीप्यं जग्मतुः शान्तचेतसौ ॥ २३४ ॥ त्रिः परीत्य तमीशानं नत्वाऽमुं भक्तितत्परौ । देहि दीक्षां मुने जैनीमावाभ्यामूचतुस्तकौ ॥२३५॥ श्रुत्वाऽनयोर्वचः साधुभक्तिनिर्भरचेतसोः । जगाद तो मुनिश्रेष्ठस्तद्धैर्यहृतमानसः ॥ २३६॥ ३० युवां सुकुमाराङ्गावनध्यासितपरीषहौ । शक्नुवो न व्रतं जैनं ग्रहीतुं मुग्धचेतसौ ॥ २३७ ॥ विधातुमधुना युक्तं धर्म क्षुल्लकसेवितम् । चरमं युवयोर्दास्ये धर्म दैगम्बरं परम् ॥ २३८ ॥ अभयादिरुचिर्भक्त्या तदानीं मुनिवाक्यतः । जग्राह क्षौल्लकं धर्म जिनभक्तिपरायणः ॥ २३९ ॥ एकादशाङ्गधारिण्याः क्षान्तिकायाः समीपके । अभयादिमतिर्भक्त्या जग्राह क्षौल्लकं व्रतम् ॥२४०॥ अथ यौधेयदेशोऽस्ति पुरं राजपुरं परम् । मारिदत्तो नृपस्तस्य देवताभक्तितत्परः ॥ २४१॥ 25 पुरदक्षिणदिग्भागे कुलदेवी भयंकरी । चण्डमारिरिति ख्याता वसति क्रूरमानसा ॥ २४२ ॥ मारिदत्तादयो लोकाः स्वहस्तहतजीवकैः । तस्यां कुर्वन्ति सत्पूजां भक्तिनिर्भरचेतसः ॥ २४३॥ यदा न कुर्वते ते च तत्पूजां भक्तितत्पराः । तदा तान्युगपत् सर्वान् कुलदेवी निहन्ति सा ॥२४४॥ नानाजनपदोपेतः सर्वान्तःपुरसंगतः । मारिदत्तः परिप्राप देवताभवनं तदा ॥ २४५॥ अथ संघेन संयुक्तः सुदत्तमुनिनायकः । तत्पुरोधानसामीप्ये श्मशानं प्राप्तवानसौ ॥ २४६ ॥ 30 मयूरकुक्कुटादीनि जीवयुग्मान्यनेकशः । उपनीतानि तल्लोकैर्देवतापादमूलके ॥ २४७ ॥ सर्वलक्षणसंपूर्ण मानुष्ययुगलं परम् । आनीयते महीपाल नृपोऽभाणि महत्तरैः ॥ २४८ ॥ तद्वाक्यतो नरेन्द्रेण खाज्ञाता किंकरास्तदा । मानुषं युग्मकं शीघ्रं समानयत शोभनम् ॥ २४९ ॥ तदाज्ञां प्राप्य ते वेगाद्देवशेषामिवाहताः । मन्यमानास्तदर्थं च जग्मुमुदितचेतसः॥ २५०॥ ततो नत्वा मुनिं भक्त्या तदा क्षुल्लकयुग्मकम् । नगराभ्यन्तरे गन्तुं प्रवृत्तमशनेच्छया ॥ २५१॥ 1 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 2 जपफ कुलकम्. 3 ज परिप्राप्य. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७३. २८३ ] यशोधरचन्द्रमतीकथानकम् १७७ I तन्मार्गतोऽनुलग्नं हि क्षौल्लकं युगलं परम् । गच्छन् मन्थरगामिन्या गत्या दृष्टं नरैरिदम् ॥ २५२ ॥ दृष्ट्वा तत्क्षौलकं युग्मं ते वदन्ति परस्परम् । नरा योग्यमिदं हन्तुं देवतायै नरेशिनः ॥ २५३ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं घोरं क्षौलकं युगलं तदा । परस्परं स्थिरीकारं कृत्वा तस्थौ भयोज्झितम् ॥ २५४ ॥ एवं निगद्य तैरेतद् गृहीतं क्षुल्लकद्वयम् । मारिदत्तान्तिकं नीतं रूपराजितविग्रहम् ॥ २५५ ॥ तेन क्षुल्लकयुग्मेन देवताचरणान्तिके । भीमखमकरो दृष्टो मारिदत्तो नरेश्वरः ॥ २५६ ॥ दूराद विलोक्य राजेन्द्रं युगपद्भीमविग्रहम् । जयशब्दः कृतस्ताभ्यां क्षुल्लकाभ्यां नरेशिनः ॥ २५७॥ दिग्मातङ्गगत भूप कनकाभ मलच्युत । चिरकालं जयाजस्रं कौन्दाभयशसोज्वल ॥ २५८ ॥ घनस्तनितगम्भीरं जयशब्दं निशम्य तम् । नरस्त्रीलक्षणोपेतं दृष्टमेतन्नरेशिना ॥ २५९ ॥ दृष्ट्वा पुरः स्थितं राज्ञा पृष्टं क्षुल्लकयुग्मकम् । को रूपातिशयेनायं कुलशैलो विभूषितः ॥ २६० ॥ केन वा कारणेनेयं प्रव्रज्या दुर्धरा धृता । एतत् सर्वं मम स्पष्टं वदतामतिशोभनौ ' ॥ २६१ ॥ " मारिदत्तवचः श्रुत्वा स्नेहातिशयसंगतम् । बालवृद्धयुवां शेषसभामध्ये जनाकुले ॥ २६२ ॥ क्षुल्लकेनात्मसंबन्धकारणं लोकविस्मयम् | यशोधरादिकं सर्वमतिक्रान्तं सविस्तरम् ॥ २६३ ॥ तथा प्रभाषितं तेन यथा राजजनोऽखिलः । चण्डमारीसमं जीववधं मुक्त्वा शमं ययौ ॥ २६४ ॥ ततो देवता श्रुत्वा तत्कथां सकलामिमाम् । भीमरूपं निजं हित्वा गृहीतवररूपया ।। २६५ ॥ त्रिः परीत्य च भावेन प्रदायार्थं प्रयत्नतः । पादावलग्नया बाढं भृङ्गारकरयाऽनया ॥ २६६ ॥ तद्भक्तियुक्तया स्पष्टं स्नेहनिर्भरचेतसा । क्षुल्लकोऽयं जनाध्यक्षं गदितश्चारुवेषया ॥ २६७ ॥ प्रसादं क्षुल्लक स्वामिन् विधाय परमां दयाम् । प्रव्रज्यां देहि मे क्षिप्रं संसारार्णवखण्डिनीम् ॥२६८॥ देववचनमाकर्ण्य क्षुल्लक निजगावमुम् । भक्तिनिर्भरचेतस्कां ललाटन्यस्तपाणिकाम् ॥ २६९ ॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रे त्वं देवानां श्वभ्रयायिनाम् । तिरश्चां न भवेद्दीक्षा मनुष्याणामियं मता ॥ २७० ॥ देवी तद्वाक्यतः प्राह क्षुल्लकं विनयानता । मम त्वं मन्दभाग्याया अनुरूपं वृषं दिश ।। २७१ ॥ 20 अवाचि क्षुल्लकेनेयं देवता पुरतः स्थिता । सम्यक्त्वं जिनपूजां च देवानां घटते वृषः ॥ २७२ ॥ नारकाणां न धर्मोऽस्ति जिनपूजा च सुन्दरि । त्रैलोक्यशेखरीभूतं सम्यक्त्वं विद्यते परम् ॥ २७३॥ तिर्यग्जातिसमुत्थानां सम्यक्त्वं विद्यते नृणाम्। कृतोऽनुकारितो धर्मो मोदितः सन्मतो बुधैः ॥ २७४॥ * क्षौल्लकं वचनं श्रुत्वा चण्डमारिः सुभक्तितः । सम्यक्त्वं जिनपूजां च जग्राह विधिको विदा ॥ २७५ ॥ जिनधर्मं समादाय सम्यक्त्वं जिनपूजनम् । मारिदत्तं जगादैषा देवीजनपदं तथा ॥ २७६ ॥ इतः प्रभृति राजेन्द्र मा जातु प्राणिहिंसनम् । करोतु मत्कृते शान्तो जयतामखिलो जनः ॥ २७७॥ अथवा संनिषिद्धश्चद्देहिघातं करिष्यति । ततोऽहं तं समस्तं हि हनिष्याम्यखिलं जनम् ॥ २७८ ॥ इदमाभाष्य सा देवी मारिदत्तं जनं तथा । क्षुल्लकं च प्रणम्याशु जगाम स्वमनीषितम् ॥ २७९ ॥ तदाश्चर्यमिदं श्रुत्वा विबुधैः खतलस्थितैः । मन्द्रं दुन्दुभयो नेदुः क्षुल्लकोपरि ताडिताः ॥ २८० ॥ साधुवादांस्तथा देवाश्चक्रुर्मुदितचेतसः । कृत कोलाहलास्तुष्टा मुमुचुः पुष्पमालिकाः ॥ २८१ ॥ " मारिदत्तो नृपः श्रुत्वा धर्मं जिनवरोदितम् । सर्वजन्तु हितं पथ्यं क्षुल्लकेन निवेदितम् ॥ २८२ ॥ ताम्रचूडवधोद्भूतं दुःखं श्रुत्वाऽतिदारुणम् । देवताप्रातिहार्यं च दृष्ट्वाऽवादीत् तकं नृपः ॥२८३॥ 1 ज वदतां मति'. 2 पफ युग्मम् ज युगलम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 ज र्णवदायिनीम्. 5 पफ चतुष्कुलकम् ज चतुष्कलकम्. 6 पफ युग्मम् ज युगलम्. 7 पफज त्रिकलमिदम्. 8 पफज त्रिकलमिदम्. 9 पफ युग्मम्, ज युगलम्. बृ० को ० २३ 5 15 25 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७३.२८४ देहि मे क्षुल्लक स्वामिन् प्रव्रज्यां भवनाशिनीम् । येनाहं त्वत्प्रसादेन करोमि हितमात्मनः ॥ २८४॥ मारिदत्तोदितं श्रुत्वा क्षुल्लकोऽपि जगाद तम् । दातुं ते न समर्थोऽहं दीक्षामुत्तिष्ठ भूपते ॥ २८५ ॥ अस्माकं गुरवः सन्ति कीर्तिच्छन्नदिगन्तराः । ते समर्थास्तपो दातुं भवतो ज्ञानिनोऽमलाः ॥ २८६ ॥ निशम्य क्षौल्लकं वाक्यं कौतुकव्याप्तमानसः । मारिदत्तो विशुद्धात्मा दध्याविति स चेतसि ॥२८७॥ पूसामन्तो' जनः सर्वो मत्पादाभ्याशमागतः । अहं बलसमोऽपि देवतापादमाश्रितः ॥ २८८ ॥ देवताऽपि पदद्वन्द्वं क्षुल्लकस्य समाश्रिता । अस्य चैवंविधस्यापि विद्यतेऽन्यो गुरुर्महान् ॥ २८९ ॥ अहो मुनिगणस्येदं माहात्म्यं तपसः परम् । येन देवासुराणां हि पूजनीयास्तपोधनाः ॥ २९० जिनधर्मसमासंगपवित्रीकृतचेतसा । क्षुल्लकादिमुखं तस्थौ मारिदत्तो विशुद्धधीः ॥ २९९ ॥ * अत्रान्तरे विदित्वाऽऽशु दिव्यज्ञानबलेन सः । महोपसर्गमीदृक्षं वीरक्षुल्लकयोरिदम् ॥ २९२ ॥ 'देवताप्रातिहार्यं च धर्मस्य ग्रहणं तथा । प्रव्रज्याध्यवसायं च मारिदत्तस्य धीमतः ॥ २९३ ॥ धर्मवात्सल्यतोपेतो धर्मो वाऽपधनान्वितः । सुदत्ताख्यमुनिर्धीरस्तत्समीपं समाययैौ ॥ २९४ ॥ एवंविधमुनेः पार्श्वे संप्राप्य विनयानतः । कलत्रपुत्रसामन्त भर्तृभ्रातृसुसंगतः ।। २९५ ॥ प्रणम्य चरणौ भक्त्या पूजितः सुरकुञ्जरैः । मारिदत्तो ययाचेऽरं प्रव्रज्यां यतिनायकम् ॥ २९६॥ राज्यपट्टं स्वपुत्राय वितीर्य विनताय सः । प्रकृतीनां समस्तानां समय तनयं मुहुः ॥ २९७ ॥ पुरोहितमहामात्य सामन्तान्तः पुरान्वितः । मारिदत्तः प्रवब्राज सुदत्तान्ते विशुद्धधीः ॥ २९८ ॥ क्षुल्लकौ क्षौलकं धर्मं हित्वा वैराग्यसंगतौ । तदा निजगुरोः पार्श्वे मुनिदीक्षामुपागतौ ॥ २९९ ॥ पादोपगमनं कृत्वा यावज्जीवं चतुर्विधम् । हित्वाऽऽहारं समस्तं च धर्मध्यानमुपाश्रितौ ॥ ३०० ॥ पक्षमात्रेण कालेन कालं कृत्वा समाधिना । स्वयंप्रभविमाने तौ संजातौ क्षुल्लकौ सुरौ ॥ ३०१ ॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीदृक्षं केचिज्जाता मुनीश्वराः । केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचिन्मध्यस्थतां गताः ॥ ३०२ ॥ 2° आराध्याराधनां सारां विधिना स चतुर्विधाम् । सुरलोकं वरं प्राप सुदत्तमुनिनायकः ॥ ३०३ ॥ आराध्याराधनां तेऽपि मारिदत्तादयोऽखिलाः । सम्यग्दर्शनसंशुद्ध भावयोग्यं पदं ययुः ॥ ३०४ ॥ एकजीववधं यो हि विदधाति प्रमत्तधीः । सोऽनेकभवसंबन्धां संसृतिं भ्रमति क्षितौ ॥ ३०५ ॥ ॥ " इति श्रीपिष्टमयकुक्कुटकात्यायनीदेवतायै निहतसप्तभवान्तरभ्रमणसहितयशोधरचन्द्रमतीकथानकम् " ॥ ७३ ॥ 5 10 15 25 ७४. यमपाशकथानकस् । काशीजनपदे रम्ये वाराणस्यां पुरि प्रभुः । आसीत् प्रतापसंयुक्तः पाकशासननामकः ॥ १ ॥ पौलोमी तस्य भार्याऽऽसीत् पौलोमीसमविभ्रमा । रूपयौवनसंपन्ना कामिनीव मनोभुवः ॥ २ ॥ आरक्षकोऽभवत् तस्य यमदण्डो यमोपमः । यमदण्डा च तद्भार्या तरुणी लोललोचना ॥ ३ ॥ आसीद् गोत्रसमायातो दस्युहिंसनकारकः । यमपाशोऽस्य भार्या च छर्दिनामेति विश्रुता ॥ ४ ॥ 30 तत्रैव नगरे कृत्स्ने लोकस्य सकलस्य च । उपसर्गः कृतः कोपान्मार्या मारिस्वरूपया ॥ ५ ॥ वोपसर्गमीदृक्षं जनानां रोगधारिणाम् । भूपेन घोषिताऽमारिघोषणाऽत्र दिनाष्टके ॥ ६ ॥ * 1 पफज त्रिकलमिदम्. 2 पफ युग्मम्, ज युगलम् 3 [ ससामन्तो ]. 4 पफज चतुर्भिः कुलकम्. 5 पफज त्रिकलमिदम् 6 पफ युग्मम् ज युगलम् 7 पफ युग्मम् ज युगलम्. 8 पफ क्षुल्लकं. 9 पफ युग्मम, ज युगलम्. 10 ज omits इति श्री. 11 ज कथानकमिदम्. و Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमपाशकथानकम् १७९ -७४. ३९ ] यो हि जीववधं कोऽपि करिष्यति दिनाष्टके । कालेऽत्र कृतकार्यस्य स मे वध्यो भविष्यति ॥७॥ एवं घोषणया तत्र दत्तयैकोऽस्ति वाणिजः । धर्मनाना स नाम्नैव पिशितासक्तमानसः ॥ ८॥ तेनैकस्य वराकस्य नूनमूरणिकस्य च । मिण्ढको निहतो दीनः पिशितासक्तचेतसा ॥९॥ निहतो मिण्ढकोऽनेन मांसभक्षणकारिणा । भूपस्योरणिकेनाशु तद्वार्ता कथिता तदा ॥ १० ॥ तेनापि भूभुजा शीघ्रं दुष्टो निगडसंयुतः । गुप्तौ निधापितः पापो दुःखतः सोऽवतिष्ठते ॥११॥ यावद् व्रजन्ति ते नूनं घोषणावासराः खलः । अत्र तिष्ठति धोऽयं मारयिष्याम्यमुं पुनः ॥१२॥ अतिमुक्तकसंज्ञाके श्मशाने तिष्ठति स्फुटम् । अमृताश्रवनामायं सर्वोषधिसमन्वितः ॥१३॥ यमपाशः पुनस्तत्र निजलोकसमन्वितः । उपसर्गविनाशाय श्मशाने तस्थिवानसौ ॥ १४ ॥ अमुं मुनि परिप्राप्य धर्मं श्रुत्वा जगद्धितम् । सोऽहिंसाव्रतमादाय पूर्णिमायां गृहं ययौ ॥१५॥ तत्र भायाँ निजां प्राह यमपाशः पुरः स्थिताम् । आरक्षकस्य मां ब्रूहि भद्रे ग्रामान्तरं गतम् ॥१६॥ 0 एवमुक्त्वा खकां कान्तां प्रविष्य स्वगृहान्तरः । स्वं वस्त्रेण समाच्छाद्य शिश्ये तद्वल्लभः सुखम् ॥१७॥ सुप्तमात्रस्य तस्यापि यमदण्डस्तलारकः । आगत्य तद्गृहं प्राह छर्दिकां तन्मनःप्रियाम् ॥ १८॥ छर्दिके त्वत्पतिर्भद्रे व गतो निगदाशु मे । साऽपि तद्वचनात् प्राह यमदण्डं यमोपमम् ॥१९॥ यथा भर्ता मम स्वामिन् भागिनेयाविवाहके । पलाशोपपदं ग्रामं जगामाद्य निमत्रितः ॥ २० ॥ आरक्षकः पुनः प्राह तदा तद्वचनादरम् । अद्य यस्तस्कर कोऽपि मरणं प्रापयिष्यति ॥ २१ ॥ 15 नानारुच्यानि दिव्यानि बहुमूल्यानि तस्य च । विद्यन्ते तानि सर्वाणि ग्रहीष्यत्यपरोऽन्त्यजः ॥२२॥ श्रुत्वा तद्वचनं सा च तं जगादाशु तत्प्रिया । वामहस्तेन तत्संज्ञां कुर्वती प्रीतमानसा ॥ २३ ॥ उत्क्षिप्य दक्षिणं हस्तं भूयोऽपीमं जगाद सा । स्वामिन्नद्यैव मे कान्तो गतो ग्रामं निमत्रितः ॥२४॥ यमदण्डेन तद्वाक्याद् विलोक्यैवं स भाषितः। रे रे पाप दुराचार निर्गच्छ निजमन्दिरात् ॥ २५॥ यमपाशोऽपि निर्गत्य तदानीं स्वनिकेतनात् । भयवेपितसर्वाङ्गो जगादेदं कृतानतिः ॥ २६ ॥2॥ स्वामिन् मयाऽद्य साध्वन्तेऽहिंसाव्रतमखण्डितम् । दिनमेकं गृहीतं च जिनाज्ञां कर्तुमिच्छता ॥२७॥ भवत्पादप्रसादेन यमदण्ड यमोपम । तदहिंसाव्रतं चैकं रक्षितुं नान्यतः प्रभुः ॥ २८ ॥ तद्भारती निशम्याशु यमदण्डो जगाद तम् । नृपाज्ञया समयातो न त्वां मुञ्चामि सर्वथा ॥२९॥ ततस्तौ द्वावपि क्षिप्रं सभामध्यस्थितं नृपम् । जग्मतुः प्रीतचैतस्कौ विनयानतविग्रहौ ॥ ३० ॥ यमपाशो नृपं नत्वा सभामध्ये व्यवस्थितम् । ललाटपट्टविन्यस्तकरकुड्मलराजितः ॥ ३१॥ 25 महाराज मयाऽद्यैव मुनि नत्वा तपोधनम् । अहिंसाव्रतमेकं च गृहीतं दिनमेककम् ॥ ३२ ॥ भवत्पादप्रसादेन व्रतमेतदहीनकम्' । पालयामि विना क्लेशान्मुञ्च मामधुना नृप ॥ ३३॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा यमपाशं जगावमुम् । कोपलोहितरक्ताक्षो भृकुटीभीषणालिकः ॥ ३४ ॥ विप्रभिक्षुपरिव्राजां भस्माङ्किततपस्विनाम् । त्वं व्रतं यदि गृह्णासि त्वां मुञ्चामि ततो ध्रुवम् ॥३५॥ नग्नश्रवणसामीप्यं परिप्राप्य त्वया खल । गृहीतं व्रतमेवेदं त्वां न मुञ्चाम्यतः स्फुटम् ॥ ३६ ॥ ॥ प्रतारणं विधायाध व्रतं दत्तं तकैस्तव । नग्नो भविष्यसि क्षिप्रं प्रभाते तन्मतेन च ॥ ३७॥ यमपाशं निगद्यैवं यमदण्डं जगौ नृपः । इमं मिण्ढकहन्तारं गृहीत्वा द्वावपि द्रुतम् ॥ ३८॥ एकं क्षपणकासक्तं द्वितीयं मिण्ढकाशनम् । नीत्वाऽमुं मुञ्च वेगेन शुंशुमाराकुले हृदे ॥ ३९ ॥ 1फ संज्ञाको. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 ज जगादेयं. 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6जन तां. 7 पफ द्विहीनकम्.8 पफज त्रिकलमिदम्.9 पफ रक्ताख्यो. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७४. ४०नृपवाक्यं समाकर्ण्य धर्मचौरो भयादितः । यमपाशं जगादेति मरणाशङ्किमानसः ॥ ४० ॥ मारणं कार्यते नूनं ममान्येनापि केनचित् । हत्वा मां स्खेन हस्तेन रक्षात्मानं प्रयत्नतः ॥४१॥ नियेऽपि यद्यहं नूनं जीवाम्यद्य तथाऽपि नो । जीवघातं करोम्यत्र व्रतखण्डमकारणात् ॥ ४२ ॥ यमदण्ड पुरस्कृत्य तौ तदा द्वावपि स्फुटम् । पुरमध्ये नयत्येष बहुलोकसमावृतः ॥४३॥ ६ नग्नश्रमणपार्थे हि यो गृह्णाति व्रतं जनः । एवंविधं फलं सोऽपि लभते नात्र संशयः॥४४॥ आरक्षको वदन्नेवं समन्तात् खरनादतः । गङ्गाह्रदं स संप्राप्य शुंशुमारसमन्वितम् ॥४५॥ आरक्षकः स्वहस्तेन चौरं चिक्षेप तत्र च । क्षिप्यमाणोऽप्यसौ शीघ्रं शुंशुमारैस्तु भक्षितः॥४६॥ प्राध्वंकृत्य ततः पाणं चिक्षेपायं धुनीहदे । तस्य प्रक्षिप्तमात्रस्य बभूव पुलिनं हि सः॥४७॥ गङ्गापुलिनमध्यस्थं विधाय मणिनिर्मितम् । सिंहासनं मनोहारि मेरुकूटमिवोन्नतम् ॥ ४८॥ " स्थापयित्वाऽत्र तं देवाः पाणं भासुरविग्रहम् । जाम्बूनदमयैः पद्मः सरत्नैः पूजयन्त्यलम् ॥ ४९ ॥ अहो शीलमहो धैर्यमहो स्थैर्य व्रतेऽस्य कौ । देवा नभोगता हृष्टा घोषयन्ति गुणान्तरम् ॥५०॥ अत्रान्तरे सुदीनास्यः पाकशासनभूपतिः । हन्यमानश्चपेटाभिः पुरमध्ये पिशाचकैः ॥ ५१ ॥ भो भो जनपदाः स्पष्टं मद्वचो हि निशम्यताम् । मुनिदत्तव्रतानां च यो भङ्गं विदधात्यरम् ॥५२॥ इह लोके परत्रापि परिभूतिं स दुःसहाम् । पाकशासनवन्मक्षु देही प्राप्नोति वेदृशीम् ॥ ५३॥ 15 एवं निगद्य तैर्देवैर्विस्मयव्याप्तमानसैः । प्राध्वंकृत्य ततो नीतः शुंशुमारहदं नृपः ॥ ५४॥ शुंशुमारहदे देवैस्तदा निक्षिप्यमाणकः । यमपाशं बभाणेमं पाकशासनभूपतिः ॥ ५५ ॥ पाहि पाहि व्रताधार मां परित्राणवर्जितम् । यमपाश समागच्छ ममाभ्याशं त्वरान्वितः ॥५६॥ एवं निगद्यतेऽनेन भूयो भूतपिशाचकाः । यमपाशं वदन्तीमे कोपारुणनिरीक्षणाः ॥ ५७॥ यावदेतं दुराचारं धर्मविघ्नकरं खलम् । तावद् ब्रवीषि मा किंचिन्निक्षिपामो ह्रदे वयम् ॥ ५८ ॥ 20 नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा यमपाशो जगौ सुरान् । भवद्भिर्न च हन्तव्यो मत्प्रभुः पाकशासनः ॥ ५९॥ अवाचि भूपतिर्भूतैर्भयवेपितविग्रहः । यमपाशोदितैः क्षिप्रं भीमरूपविधायिभिः ॥ ६०॥ पाकशासन यद्येतं कृत्वा भोज्यं स्वमानतः । यशोमतिसुतामस्मै चार्धराज्यं प्रयच्छसि ॥ ६१॥ पश्यतां सर्वलोकानां बन्धमोक्षोऽस्ति ते परम् । अन्यथा नेति जानीहि संगरोऽस्माकमीदृशः॥६२॥" भूपालो भूतवाक्येन पूजयित्वा पुरान्तरे । अर्धराज्यं सुतां चास्मै यमपाशाय संददे ॥ ६३॥ 15 पाकशासनतः पूज्यो भूत्वा राजा हि तत्पुरे । महाविभवसंपन्नो यमपाशो बभूव सः ॥ ६४ ॥ इदमाश्चर्यमालोक्य बहवो नरकुञ्जराः । जिनधर्म समाश्रित्य बभूवुर्मुनिपुङ्गवाः ॥ ६५ ॥ केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचिन्मध्यस्थतां पराम् । जिनधर्म प्रशंसन्तः केचित्तस्थुः स्वमन्दिरे ॥६६॥ ॥ इति श्रीएकदिवसग्रहणादहिंसावतफलसहितशुंशुमारहृदनिक्षिप्तदेवप्राति हार्यपाकशासनपूजाकरणयमपाशयाताहिंसाव्रतकथानकमिदम् ॥ ७४॥ ७५. मातङ्गकथानकम् । दक्षिणापथदेशेऽस्ति विषयो मलयादिकः । तद्दक्षिणदिशोभागे पाण्ड्वादिविषयों महान् ॥१॥ तदुत्तरदिशाभागे नानानोकुहसंकुले । नदीनगसमाकीर्णे जलनिर्धारणान्विते ॥ २॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 [ गुणांस्तराम् ]. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6 पफ मध्यस्थितां. 7 ज omits इति श्री. upto the end of theMs. and adds इदम्. 8फ पाड्वादि, [पाण्ड्यादि°].9 पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७६. २३ ] नारदपर्वतकथानकम् १८१ द्वयोरपि तयोः संधौ मातङ्गो नाम पर्वतः । सभार्यास्तत्र मातङ्गा वसन्ति प्रीतमानसाः ॥ ३ ॥ तत्रोपरि महादेशः शराणां निवासकः । नानातरुसमाकीर्णो गव्यूतिद्वादशात्मकः ॥ ४ ॥ शबराणां पुनस्तत्र व्यवस्थाऽभवदीदृशी । विवाहसमयात् पूर्वं यथोक्ताचारकारिणाम् ॥ ५ ॥ षण्मासं वर्षमेकं वा ब्रह्मचर्येण संगतौ । विद्यां साधयतस्तत्र तदा म्लेच्छवधूवरौ ॥ ६ ॥ भूयोऽपि तौ कुमारौ च विद्यामादाय भक्तितः । अटवीदुर्गदं व्यग्रे तकां साधयतस्तराम् ॥ ७ ॥ सत्येन युक्तयोस्तत्र ब्रह्मचर्येण च स्फुटम् । अनयोः सिद्धिमायाति विद्यानिश्चितचेतसोः ॥ ८ ॥ ब्रह्मचर्ये गते नाशं तथा सत्यव्रतेऽपि च । विद्या विनाशमायाति तयोर्विह्वलचेतसोः ॥ ९ ॥ ॥ इति श्रीसत्यव्रतयुक्तमातङ्गकथानकम् ॥ ७५ ॥ ७६. नारदपर्वतकथानकम् । 15 विनीतविषये चासीदयोध्या नगरी परा । अस्यां ययातिराजेन्द्रः ' सुरकान्ताप्रियापतिः ॥ १ ॥ अनयो रूपसंपन्नः सत्यवादी प्रियंवदः । विनयाचारसंपन्नो वसुनामा सुतोऽभवत् ॥ २ ॥ अस्यां क्षीरकदम्बाख्यश्चतुर्वेदोऽभवद् द्विजः । उपाध्यायोऽस्य भार्या च चार्वी स्वस्तिमती प्रिया ॥३॥ अन्योन्यप्रेमसंबन्धबद्धमानसयोस्तयोः । बभूव तनयो मूर्खः प्रियः पर्वतकाभिधः ॥ ४ ॥ शिष्याः क्षीरकदम्बस्य त्रयो गुणगरीयसः । बभूवुः पठनोद्युक्ता वसु पर्वत - नारदाः ॥ ५ ॥ बह्वीभिरपि संस्थाभिर्न गृह्णाति पदादिकम् । पर्वतः पर्वतग्रावसमानो मतिवर्जितः ॥ ६॥ दृष्ट्वा स्वस्तिमती पुत्रं मन्दबुद्धिं पतिं जगौ । स्वपुत्रं पर्वतं हित्वा विटान् पाठयसि स्फुटम् ॥ ७ ॥ उपाध्यायीवचः श्रुत्वा चोपाध्यायो जगाद ताम् । आगमं दातुमेतस्मै न समर्थोऽस्मि सांप्रतम् ॥८॥ बुद्धिर्नरविशेषेण जायते दयिते नृणाम् । बुद्धिरत्नविहीनानां तच्छरीरं न शोभते ॥ ९ ॥ परीक्षितुं मतिं तस्य दृष्टान्तं दर्शयत्यसौ । स्वप्रियाया ह्युपाध्यायस्तदानीं मुग्धचेतसः ॥ १० ॥ त्रयाणामपि हस्ते च दत्त्वा तेषां कपर्दकान् । जगौ क्षीरकदम्बस्तान् स्वस्तिमत्यां समन्वितान् ॥ ११॥ 20 दत्त्वा कपर्दकान् पुत्रास्त्रयोऽपि वणिजां पुनः । क्रीत्वा तैश्चणकान् बुद्ध्या भक्षयित्वा तकानपि ॥ १२ ॥ भूयः कपर्दकान् सर्वान् सर्वेऽपि वरबुद्धयः । समर्पयत मे क्षिप्रं क्रयविक्रयकोविदाः ॥ १३ ॥ * तानादाय ततः सर्वास्ते तदानीं कपर्दकान् । वीथीमार्ग ययुस्तुष्टाः कौतुकव्याप्तमानसाः ॥ १४ ॥ तन्मध्ये पर्वतो दध्यौ मूर्खो मज्जनको भुवि । यो वक्ति वणिजां दत्त्वा चणकार्थं कपर्दकान् ॥ १५॥ आदाय चणकान् भद्रा भक्षयित्वा तकानपि । भूयः कपर्दकान् सर्वान् ममानयत सत्वरम् ॥ १६ ॥ 2s दत्त्वा कपर्दकानेषां गृहीत्वा चणकानथ । भक्षयित्वा तकान् स्वस्थः स्वगृहं पुनराययौ ॥ १७ ॥ इतरौ द्वावपि स्पष्टं कुशलौ वसुनारदौ । दत्त्वा कपर्दकानेभ्यो गृहीत्वा चणकानरम् ॥ १८ ॥ अल्पकान् चणकान् भुक्त्वा शोभनान्निमकानलम् । अर्पयित्वा पुनस्तेभ्यः समादाय कपर्दकान् ॥ १९॥ तदुत्तरं प्रदायेमान् गृहीत्वा स्वकपर्दकान् । स्वगृहं प्राप्य तौ तस्मै ददतुस्तान् कपर्दकान् ॥ २० ॥ स्वस्तिमत्याः पुनः' स्पष्टं कौतुकव्याप्तमानसा' । पप्रच्छ पर्वतं तत्र तदा क्षीरकदम्बकः ॥ २१ ॥ ३० मयाऽर्पिता हि ये पुत्राः क्व गतास्ते कपर्दकाः । ममार्पय तकान् भद्र सांप्रतं तैः प्रयोजनम् ॥ २२ ॥ पितृवाक्यं समाकर्ण्य जगौ पर्वतकोऽपि तम् । आदाय चणकानक्षैर्भुक्त्वा तानहमागतः ॥ २३ ॥ 1 ज प्रपाति राजेन्द्रो. 2 ज विडान् 3 पफज त्रिकलम्. 4 पफ कपर्दकान्येषां 5 पफज त्रिकलमिदम् 6 पफज त्रिकलमिदम्. 7 [ पुरः ] 8 [मानसः ]. 14 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७६. २४पृष्टोऽमुना वसुः पश्चान्नारदोऽपि यथाक्रमम् । तद्वाक्यतो बभाणेमं विकसन्मुखपङ्कजः ॥ २४ ॥ मया कपर्दकान् दत्त्वा वणिग्भ्यश्चणकान् पुनः । आदाय भक्षितास्ते च भूयोभूयो यथारुचि ॥२५॥ त्वदीयाश्चणकाः श्रेष्ठिन् शोभना न भवन्त्यमी। मया डम्भमिमं कृत्वा गृहीताः स्वकपर्दकाः॥२६॥ अक्षानिमान् समादाय समस्तान् भवदन्तिकम् । संप्राप्तो वसुना सार्धं किं करोम्यधुना वद ॥२७॥ बुद्धिविस्तरमीदृक्षं स्वशिष्याणां विलोक्य सः। जगाद वल्लभामस्य पश्य चेष्टितमेतयोः ॥ २८ ॥ दृष्ट्वा स्वपुत्रविज्ञानं वसु-नारदयोरपि । सजोषा विस्मिता चित्ते तस्थौ स्वस्तिमती तदा ॥ २९ ॥ ततोऽन्यस्मिन् दिने जाते जगौ स्वस्तिमती पतिम् । मत्पुत्रं गौरवेण त्वं न पश्यसि मनागपि ॥३०॥ खकान्तावचनं श्रुत्वा तद्बुधोऽपि जगाद ताम् । भूयो मतिविकल्पं च त्रयाणां पश्य सुन्दरि ॥३१॥ नवं कलशमेकैकं त्रयाणां सकपर्दकम् । गुरुः प्रदाय सस्नेहं विधायेमं ममानय ॥ ३२॥ " गुरोराज्ञां समादाय प्राप्य तौ विशिखान्तरम् । ऊचतुर्वाणिजं हृष्टौ तदानीं वसुनारदौ ॥ ३३॥ घृतावगुण्डितं कुम्भं मदीयं कुरु वाणिज । मूल्येन तावता शीघ्रं येन यावः स्वमन्दिरम् ॥३४॥ तद्वाक्यतः पुनस्तेन निक्षिप्तः स्वगृहे कुटः । आदाय तं स्वहस्तेन चिक्षेपास्य पुरस्ततः ॥ ३५ ॥ तन्मूल्यजल्पनं कृत्वा जित्वा तं निजजल्पतः । गुरुपाद्यं गतौ तौ च स्निग्धकुम्भाक्षसंयुतौ ॥३६॥ विधाय विनतिं ताभ्यां भूयो भूयो गुरोरयम् । घृतावगुण्डितः कुम्भः कपर्दकयुतोऽर्पितः ॥३७॥ 15 घृतावगुण्डितं कुम्भ कारयित्वा कपर्दकैः । पर्वतोऽपि गुरोः पार्थं चिक्षेपेमं स्वपाणिना ॥ ३८॥ विलोक्य पर्वतस्यैषा वसुनारदयोरपि । मतिभेदं च संतस्थे म्लानवक्रसरोरुहा ॥ ३९॥ अथ स्वस्तिमती रुष्टा प्राप्य कोपं स्वभर्तरि । कलशं तत्परीक्षार्थ त्रयाणामपि संददे ॥४०॥ घृतेन कलशं पूर्ण कारयित्वा वणिक्पथे । आगच्छत ममाभ्याशे कपर्दकयुताः सुताः ॥४१॥ उपाध्यायीवचः श्रुत्वा त्रयोऽपि प्रीतमानसाः । ययुरापणमध्यं ते नानाजनसमाकुलम् ॥ ४२ ॥ ० घृतपूर्ण कुटं कृत्वा वणिग्वीथौ कपर्दकैः । गृहीत्वा पर्वतः शीघ्रं स्वगुरुभ्यां पुरोऽक्षिपत् ॥४३॥ कपर्दकैविना कुम्भं घृतपूर्ण वणिक्पथे । आदाय स्वगुरोरन्तं प्रापतुर्वसुनारदौ ॥ ४४ ॥ ततोऽन्यस्मिन् दिने तेषां त्रयाणामपि सत्वरम् । एकैकं छलकं दत्त्वा चोपाध्यायो बभाण तान् ॥४५॥ प्रदेशे यत्र नो कश्चित् प्रपश्यति जनः क्षितौ । निहत्य च्छेलकं तस्मिन्नागच्छत मदन्तिकम् ॥४६॥ स्ववच्छेलकसंयुक्ता वसुनारदपर्वताः । तद्वाक्यतः सुसंतुष्टा निर्ययुः कलनिस्वनाः ॥४७॥ 25 पुरं ग्रामं वनं भ्रान्त्वा बहुलोकसमाकुलम् । उपाध्यायसमीपं तौ प्रापतुर्वसुनारदौ ॥४८॥ खस्वच्छेलकसंयुक्तौ विलोक्य वसुनारदौ । उवाच जनकः क्षिप्रं कोपलोहितलोचनः ॥४९॥ निहत्य च्छेलकं वत्सौ प्रदेशे जनवर्जिते । स्तभं न भक्षितं कस्माद् ब्रूतं मम यथाक्रमम् ॥५०॥ निशम्य तद्वचस्तौ च विहस्य गुरुमूचतुः । भवदुक्तं प्रकुर्वाणौ पश्यत्यावां जनः परः ॥५१॥ हन्यमानावजं खे च चन्द्रादित्यग्रहादयः । नूनमावां प्रपश्यन्ति द्योतिताकाशभूतलाः ॥५२॥ 30 हतवन्तावमुं चावां वनेऽनोकुहसंकुले । प्रयत्नमपि कुर्वाणों पश्यन्ति वनदेवताः ॥ ५३॥ छेलकस्य वधं चावां कुर्वाणौ चेगुहोदरे । अस्मत्पञ्चेन्द्रियाणीश प्रपश्यन्ति मुहुर्मुहुः ॥ ५४॥ एवं हि सति संजाते कारणे सकले विभो । अस्माभिश्चिन्तितं भूयो भुवि जातकुतूहले ॥ ५५ ॥ आवयोः पुरतो नूनमुपाध्यायेन जल्पितम् । यथा यस्मिन् प्रदेशे हि कोऽपि पश्यति नो जनः॥५६॥ हत्वा तस्मिन् प्रदेशे च च्छेलकं क्रूरचेतसौ । तद्भक्षणं प्रकर्तव्यं भवद्भिर्वीतसंशयैः ॥ ५७॥ 1 पफ चतुःकुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 2 ज नवकलश. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 फ खगुरोरन्ते. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७६.९१] नारदपर्वतकथानकम् स प्रदेशो न कोऽप्यस्ति यस्मिन् कोऽपि न पश्यति।इति बुडा समायातावावां च भवदन्तिकम्॥५८॥' पर्वतो विजने देशे हत्वा तं छेलकं तदा । तद्भक्षणं विधायायादुपाध्यायान्तिकं पुनः ॥ ५९॥ इदं बुद्धिविशेषं स स्वस्तिमत्या जगौ पुनः । ज्ञात्वाऽमुं सर्वकालस्य तस्थौ जोषसमन्विता ॥६॥ अन्यदा त्रिभिरायुक्तः शिष्यैः क्षीरकदम्बकः । महाटवीं विवेशायं कृतक्षेत्रविशुद्धिकः ॥ ६१॥ एकान्ते निर्मलस्थाने चत्वारोऽपि महाजनाः । पठन्त्यारण्यकं ग्रन्थं पर्यङ्कासनसंस्थिताः ॥ ६२॥ एवं हि तिष्ठतामत्र चतुर्णामपि तद्वने । चारणो वीरभद्राख्यः शिवभद्रः समागतः ॥ ६३ ॥ दृष्ट्वा क्षीरकदम्बादीन् चतुरोऽपि महावने । शिवभद्रो जगादैतं वीरभद्रं महामुनिम् ॥ ६४ ॥ भगवन् पश्य पश्येदं यथा क्षेत्रादिशोधनम् । विधाय पठ्यतेऽस्माभी राद्धान्तो विनयानतैः॥६५॥ एतेऽपि च तथा विप्रा विनयाचारवर्तिनः । पठन्ति वागमं कक्षे पर्यङ्कासनयोगतः ॥ ६६ ॥ शिवभद्रवचः श्रुत्वा वीरभद्रोऽपि तं जगौ । दिव्यज्ञानसमासंगज्ञाताखिलपदार्थकः ॥ ६७॥ ॥ . अज्ञानिनो भवन्त्येते दिव्यज्ञानपरिच्युताः । कुशास्त्राहितसद्भावाः परिग्रहपरायणाः ॥ ६८॥ पठतामेव तेषां च सप्तमं नरकं नरः । एको यास्यति पापिष्ठो नानादुःखसमन्वितम् ॥ ६९॥ एवं निगद्य तौ साधू चारणौ गगनादरम् । अवतीर्य तदन्तं च तस्थतुर्ज्ञानतत्परौ ॥ ७० ॥ साधूदितं समाकर्ण्य तदा क्षीरकदम्बकः । संसारत्रस्तचेतस्को दध्यौ विस्मितमानसः ॥७१॥ मुग्धभावास्त्रयोऽप्येते ब्रह्मचर्यसमन्विताः । न यान्ति नरकं नूनं स्वभावार्जवचेतसः ॥ ७२ ॥ ॥ सर्वथा नरकं घोरं गन्तव्यं केवलं मया । अतः करोमि तत्किंचिद् येन यामि न दुर्गतिम् ॥७३॥ ततः क्षीरकदम्बेन दर्भपुष्पादिसंयुताः । प्रेषिताः स्वगृहं तेऽगुर्वसु-नारद-पर्वताः ॥ ७४॥ तद्वेलातिक्रमे जाते तदा स्वस्तिमती सुतम् । बभाण पर्वताभिख्यं किं नायाति पिता तव ॥ ७५॥ मातृवाक्यं समाकर्ण्य जगौ पर्वतकोऽपि वा । अस्मान् विसर्ग्य स क्वापि गतोऽहं वेभि नाम्बिके ॥७६॥ स्वस्तिमत्या तदुक्तेन पर्वतेन सहानया । एको विप्रो वनान्तेऽथ प्रेषितस्तद्वेषणात् ॥ ७७॥ ॥ उपाध्यायोऽपि तत्पार्श्वे दृष्टस्ताभ्यां वनान्तरे । शिलातलोपविष्टः सन्निर्ग्रन्थव्रतभूषितः ॥ ७८॥ उपाध्यायोऽपि ताभ्यां स दृष्टो मुनिसमीपके । वने यतित्वमापन्नो महावैराग्यकारणात् ॥ ७९ ॥ दूराद् विलोक्य तौ तत्र वस्त्रं यज्ञोपवीतकम् । पवित्रिकां समादाय संप्राप्तौ निजमन्दिरम् ॥८०॥ दृष्ट्वा स्वस्तिमती सद्यो वस्त्रादीनि स्वमन्दिरे । तदानीं तानि सर्वाणि रुरोद करुणावहम् ॥ ८१॥ प्रशंसन्ती कदाचित्तं निन्दन्ती च कदाऽपि च । तस्थौ स्वस्तिमती गेहे तदानीं जोषमास्थिता ॥८॥ उपाध्यायत्वमासाद्य तदा पर्वतकोऽपि सः । व्याख्यानं चापि भट्टानां कुर्वाणो व्यवतिष्ठते ॥८३॥ अत्रान्तरे ययातिश्च राजा वैराग्यसंगतः । राज्यपढें बबन्धासौ वसुनाम्नः सुतस्य सः॥ ८४॥ वितीर्य सकलं कोशं स्तोकाय वसवे ततः । गुणसेनगुरोः पार्थं स दीक्षामग्रहीत् परम् ॥ ८५॥ सत्यवादी नभःस्थायी महासामन्तसेवितः । चकार विपुलं राज्यं वसुर्वसुसमो भुवि ॥ ८६॥ उपाध्यायीं समाहूय तदा स्वस्तिमती वसुः । जगादेमां विनीतात्मा वरं ब्रूहि मनखिनि ॥ ८७ ॥३॥ वसुवाणीमुपाश्रित्य स्खचित्तानन्ददायिनीम् । उपाध्यायी बभाणेमं सभामध्यव्यवस्थितम् ॥ ८८॥ यस्मिन् काले सुतानेन मम कार्य भविष्यति । तस्मिन्निमं ग्रहीष्यामि तिष्ठत्वेष त्वदन्तिके ॥८९॥ अथास्ति नगरासन्ना भीषणा गहनाटवी । पुलिन्दस्तत्र पापर्ध्या गतस्तां सधनुःशरः ॥ ९॥ मृगं दृष्ट्वा निषादोऽपि मार्गणं धनुषोऽमुचत् । सोऽपि पाषाणमासाद्य परावृत्तः क्षणेन च ॥९॥ 1 पफज कुलकम, 2 [तोकाय ]. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७६.९२ शरे पराङ्मुखीभूते सारङ्गः प्रीतमानसः । सुखं व्यवस्थितस्तत्र बभूव वधवर्जितः ॥ ९२ ॥ तत्समीपं परिप्राप्य' विस्मयव्याप्तमानसः । व्याधोऽपि तां भुवं यावद् भूयो भूयः प्रपश्यति ॥ ९३ ॥ तावदाकाशसंकाशां स्फटिकाच्छमणिप्रभाम् । शिलां ददर्श तत्रत्यां स व्याधो विधुनिर्मलाम् ॥९४॥ विलोक्य तां पुलिन्द्रोऽपि विस्मयं प्राप्य वेगतः । राज्ञो निवेदयामास शिलां व्याधः सकौतुकः ॥ ९५ ॥ • श्रुत्वा तद्वचनं राजा जगादैनं सविस्मयः । कृत्वा प्रच्छन्नमूर्ति तामानयस्व मदन्तिकम् ॥ ९६ ॥ तदुक्तेन समाच्छाद्य पुलिन्द्रेण तदन्तिकम् । आनीता सा शिला शीघ्रं भूभुजेयं विलोकिता ॥९७॥ दृष्ट्वा तां विस्मयं प्राप्य दत्त्वाऽस्मै पारितोषिकम् । आस्थानमण्डपे राजा स्थापयामास तां शिलाम् ॥९८॥ तच्छिलोपरि संस्थाप्य दिव्यं सिंहासनं वसुः । आस्ते तद्विष्टरारूढः सभामध्ये समङ्गलम् ॥ ९९ ॥ लोकमध्ये प्रसिद्धिः स्यादीदृशी वसुधातले । समस्त भुवनव्यापियशसो वसुभूपतेः ॥ १०० ॥ " यथाऽयं भूपतिः खे वा सिंहासनमधिष्ठितः । आस्थानमण्डपे सत्त्वात् तिष्ठति प्रीतमानसः ॥ १०१ ॥ अत्रान्तरे श्रुताधारो नारदः कलहप्रियः । शिष्यपञ्चशतीयुक्तः प्राप्य पार्वतकं सदः ॥ १०२ ॥ व्याख्यानमत्र कुर्वाणः शिष्याणां पर्वतः पुरः । जगाद नारदं प्रीतो वेदवाक्यमिदं शृणु ॥ १०३ ॥ यशोव्याप्तसमस्ताशैर्धर्म संबन्धमिच्छुभिः । नरैरजैः प्रयष्टव्यं स्वर्गारोहणकामिभिः ॥ १०४ ॥ अस्य वाक्यस्य सत्यार्थो नारदैवं प्रतीयताम् । अजा हि च्छेलकाः प्रोक्ता यष्टव्यं तैर्नरैर्मखे ॥१०५॥ 15 पर्वतस्य वचः श्रुत्वा नारदो निजगाद तम् । अजाः स्तभा यदुक्तं हि शोभनं नोदितं त्वया ॥ १०६ ॥ सर्वातिशयसंपन्नं रूपातिशयसंयुतम् । सजीवं वा धरापृष्ठे कृत्वा पिष्टमयं पशुम् ॥ १०७ ॥ अजा हि नाम ते प्रोक्ता व्रीहयो येऽप्ररोहकाः । त्रैवार्षिका न जायन्ते यष्टव्यं त्वत्पुरस्तकैः ॥ १०८॥ तथा चोक्तं अमुना कृत्वा घृतपशुं संगे कुर्यात् पिष्टमयं तथा । नन्वेच्छतु वृथा हन्त पशुं घ्नन्ति द्विजोत्तमाः ॥ १०९ ॥ ततः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते । द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेव कलौ युगे ॥ ११० ॥ पश्य त्रैवार्षिकैरुक्तं कुर्यात् तद्भृत्यवर्गयोः । अधिकं वापि वेद्येन समस्तान्यातुमर्हति ॥ १११ ॥ अतः स्वल्पीयसे द्रव्ये यः सोमं पिबति द्विजः । अपीतसोमपूर्वोऽपि न तस्याप्नोति तत्फलम् ॥१९२॥ एतेन पटुवाक्येन विद्धि मद्वचनं शुभम् । वर्षत्रयसमुद्भूता व्रीहयोऽजा भवन्त्यतः ॥ ११३ ॥ एतैरजैः प्रयष्टव्यं पुरुषैः पुरुबुद्धिभिः । 'महानुभावतोपेतैर्नितान्तं धर्ममिच्छुभिः ॥ ११४ ॥ इदमेव समाख्यातं व्याख्यातं परमोदयम् । मम क्षीरकदम्बेन तथाऽपि श्रुतशालिना ॥ ११५ ॥ नारदोक्तं समाकर्ण्य पर्वतो निजगावमुम् । अजैर्यष्टव्यमाख्यानं गुरुणा कथितं मम ॥ ११६ ॥ यथाजैश्छेलकैर्नूनं यष्टव्यं स्वर्गकामिभिः । विनयाचारसंपन्नैर्नरैर्धर्मपरायणैः ॥ ११७ ॥ एवं विवादमन्योन्यं कृत्वा पर्वत - नारदौ । पर्वतेन प्रतिज्ञेयं विहिता जनसाक्षिकम् ॥ ११८ ॥ अजशब्देन भण्यन्ते छेलका नारद स्फुटम् । अतो नरैः प्रयष्टव्यं छेलकैर्विनयान्वितैः ॥ ११९ ॥ अयमर्थः समुद्दिष्टश्चोपाध्यायेन नो यदि । मम जिह्वासमुच्छेदो निग्रहो वा भविष्यति ॥ १२० ॥ श्रुत्वा पार्वतकं वाक्यं नारदोऽपि बभाण तम् । यद्यजा व्रीहयो न स्युर्जिह्वाच्छेदो ममास्तु भो ॥ १२१ ॥ कृत्वाऽन्योन्यं प्रतिज्ञां तावूचतुर्वचनं त्विदम् । आवाभ्यां हि विधातव्यो वादः श्वो वसुसाक्षिकम् १२२ स्वमानसे वसुं कृत्वा प्रमाणं कृतनिश्चयौ । जग्मतुः स्वगृहं हृष्टौ तदा पर्वत - नारदौ ॥ १२३ ॥ 20 25 30 1 पफ परिप्राप 2 पफ स्फुटिका 3 ज नन्वेच्छन्तु, ( नन्वेत्थ तु ? ), [ नन्वत्र तु ]. 5 पंफ महानुभावनो'. 4 [ तपः ]. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७६. १५६ ] नारदपर्वतकथानकम् १८५ स्वगृहागतमालोक्य पर्वतं म्लानवक्रकम् । शोकस्य कारणं माता पप्रच्छ पुरतः स्थितम् ॥ १२४॥ अतो भोजनवेलायाः कुतो यातो व्यतिक्रमः । तव पुत्र यथा पृष्टं ब्रूहि मे सकलं लघु ॥ १२५॥ आत्ममातृवचः श्रुत्वा तामवोचत पर्वतः । मयाऽधुनाऽम्बिके वादो नारदेन समं कृतः॥१२६॥ यथाजैश्छेलकैर्यागो मयोक्तो गुरुवाक्यतः । नीवारैरजकैर्वन्ध्यैर्नारदेनोदितः पुनः ॥ १२७ ॥ कृत्वा पिष्टमयं छेलं तत्पुरः प्रीतमानसैः । ब्राह्मणैर्ब्रह्मसंकाशैरमीभिः क्रियते मखः ॥ १२८॥ । इदं गुरूदितं न स्यात् सत्यं यदि ततो मम । जिह्वाच्छेदः प्रकर्तव्यः प्रतिज्ञेयं कृताऽमुना ॥१२९॥ श्रुत्वा सुतोदितं वाक्यं जगौ स्वस्तिमती तकम् । भयवेपितसर्वाङ्गी बाष्पविप्लुतलोचना ॥१३०॥ प्रतिज्ञा शोभना पुत्र गर्वेण विहिता त्वया । व्याख्यानमीदृशं कुर्वन् श्रुतस्ते जनको मया ॥१३१॥ यथाऽजा व्रीहयो बीजाः प्रादुर्भावविवर्जिताः । यष्टव्यं तैब/जैनूनं कृत्वाऽजं पिष्टनिर्मितम् ॥१३२॥' अवाचि जननी तेन पर्वतेन मयाऽम्बिके । जानताऽपि पितुर्वाक्यं गणेदं प्रभाषितम् ॥१३३॥ ॥ तद्वाक्यतो भयग्रस्ता नक्तं स्वस्तिमती तदा । जगाम वसुसामीप्यमुपविष्टा यथासनम् ॥ १३४॥ यथाक्रमं च सस्नेहं कुशलप्रश्नपूर्वकम् । इदं संतोषतः सत्यं जगौ स्वस्तिमती वसुम् ॥ १३५॥ सांप्रतं देहि मे पुत्र प्राक्तनी गुरुदक्षिणाम् । उक्तेयं वसुना मातः कीदृशी गुरुदक्षिणा ॥ १३६ ॥ अभाणि खस्तिमत्याऽयं वसुस्तद्वाक्यतः पुनः । नारदेन समं जातो वादः पर्वतकस्य च ॥१३७॥ अजैर्यष्टव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थोऽयमीदृशः । अजैश्छेलैः प्रकर्तव्यो यागः पर्वतभाषितम् ॥ १३८॥ 15 नारदेन पुनः प्रोक्ता व्रीहयो येऽप्ररोहकाः । अजास्ते साधु यष्टव्यममीभिर्द्विजकुञ्जरैः ॥ १३९ ॥ जानताऽपि त्वया वत्स वाक्यस्यार्थमिमं पुनः। अजाःस्तभाः प्रकर्तव्याः सभामध्ये मदुक्तितः॥१४॥ जानता वसुनाऽनेन गुरुपापसमागमम् । स्वस्तिमत्युपरोधेन प्रतिपन्नं तथाऽखिलम् ॥ १४१॥ पातयित्वा वसुं सा च स्वमते प्रीतमानसा । प्रदायाशिषमेतस्य ययौ स्वस्तिमती गृहम् ॥ १४२॥ अथ वादार्थिनौ श्वस्तौ तदा पर्वत-नारदौ । जग्मतुर्वसुसामीप्यं बहुलोकसमावृतौ ॥ १४३॥ 20 प्राप्य सर्वादरेणैतौ सभामध्यस्थितं वसुम् । जगाद नारदस्तत्र नितान्तं सत्यवादिनम् ॥ १४४ ॥ वसो सत्यगुणाधान केन यज्ञो विधीयते । तद्वाक्यतो वसुः प्राह नारदं छेलकैरयम् ॥ १४५ ॥ एवं पूर्वोदिते वाक्ये सिंहासनसमं वसुः । नभोमार्गादसत्येन प्रापयद् वसुधातलम् ॥ १४६ ॥ भूयोऽपि नारदेनोक्तः सत्यं ब्रूहि वसो द्रुतम् । स्तभैर्मखो विधातव्यो नारद स्वर्गकामिभिः ॥१४७॥ एवं निगदिते नूनं वसुः सिंहासनान्वितः । पतितो धरणीमध्ये मृषाभाषणतत्परः ॥ १४८॥ 25 भूयोऽपि नारदः प्राह वसुं धरणिसंगतम् । उपाध्यायोदितं चार्थं सत्यं ब्रूहि यथायथम् ॥१४९॥ नारदोक्तं समाकर्ण्य भाषितं वसुना पुनः । छेलकैरध्वरः कार्यों विप्रैस्तद्भक्तितत्परैः ॥ १५० ॥ एवमुक्ते ततः शीघ्रं कालं कृत्वा समाधिना । असत्याद् वसुभूपालः सप्तमं नरकं ययौ ॥ १५१ ॥ नारदोऽपि ततो देवैः पुष्पैरत्यन्तशोभनैः । गन्धामोदितसर्वाशैर्मनुष्यैरपि पूजितः ॥ १५२ ॥ अहो शीलमहो धैर्यमहो सत्यव्रतं दृढम् । नारदस्य सुरा हृष्टा घोषयन्ति नभःस्थिताः ॥ १५३ ॥ पर्वतोऽपि ततः प्राप्य निन्दां जनसमूहतः । भूभुजा गर्दभारूढः स्वदेशादपसारितः ॥ १५४ ॥ अन्यदेशं परिप्राप्य पर्वतः शोकपीडितः । अधो न्यग्रोधवृक्षस्य तस्थौ नृपविमानितः ॥ १५५ ॥ अत्रान्तरे परं वृत्तं धर्मविन्यस्तचेतसाम् । भव्यानां निगदामीति समाधानविधायिनाम् ॥ १५६॥ ____1 पफज त्रिकलम्. 2 पफ यातो. 3 पफ चतुर्भिः कुलकम् , ज चतुर्भिः कुलकमिदम्. 4 पफ निगद्यते. बृ० को. २४ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७६. १५७विनीताख्यमहादेशे साकेता नगरी परा । अस्यां बभूव भूपालः सगरो गुणसागरः ॥ १५७ ॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य महादेवी मनःप्रिया । पद्मश्रीरिति विख्याता पद्माभिः पद्मपाणिका ॥१५८ ॥ सुबुद्धिरभवत् तस्य मत्री मत्रविदां वरः। स्वबुद्धिबुद्धराजार्थों' नीतिशास्त्रविशारदः ॥ १५९ ॥ सुयोधननृपस्तत्र सामन्तः सगरस्य सः। तस्यातिधीः प्रिया चासीत् तत्पुत्रोऽप्यतिमुक्तकः॥१६०॥ 5 रूपातिशयसंपन्ना कन्दोट्टदललोचना । पीनोन्नतकुचद्वन्द्वा तत्सुता सुलसाऽभवत् ॥ १६१॥ पोदनाख्ये पुरे राजा शूरो रूपी सुपिङ्गलः । मनोहरी प्रिया चास्य नितान्तं तन्मनोहरी ॥ १६२॥ रूपयौवनसंपन्नस्तत्पुत्रो मधुपिङ्गलः । सुयोधननृपस्यायं भागिनेयः प्रतापवान् ॥ १६३ ॥ सुलसाऽस्मै प्रयत्नेन मधुपिङ्गलरूढये । दातुमिच्छति तत्तातस्तूर्यमङ्गलनिस्वनैः ॥ १६४ ॥ अन्यदा नागरेऽमुष्मिन् पताकावलिराजिते । शङ्खतूर्यनिनादेन बधिरीकृतदिग्मुखे ॥ १६५ ॥ 10 नानाऽनोकुहसंकीर्णं फलपुष्पसमन्वितम् । नन्दनाभं वनं दिव्यं प्राप्तं चारणयुग्मकम् ॥ १६६ ॥ चारणान्तं परिप्राप्य धर्म श्रुत्वाऽतिमुक्तकः । तदन्ते च प्रवव्राज महावैराग्यसंगतः ॥ १६७॥ पुरान्निर्गच्छताऽनेन सगरेण नरेशिना । सुलसा रूपसंपन्ना प्रासादस्था विलोकिता ॥ १६८ ॥ तत्रत्यां तां समालोक्य तदा सगरभूपतिः । बभूव विस्मितस्वान्तो मन्मथाकुलमानसः ॥ १६९॥ ततोऽसौ योधनं प्राप्य मन्दिरं मदविह्वलः । सगरोऽमुं ययाचे तां सुलसां रूपशालिनीम् ॥१७०॥ 15 सोऽपि तां सुलसामस्मै प्रदातुं नेच्छति स्फुटम् । देया मे सौकुमाराय मधुपिङ्गलिने स्फुटम् ॥१७१॥ मधुपिङ्गलमेतं च रूपान्वितमपि क्षितौ । साऽपि नेच्छति तं कन्या सुलसा रूपगर्विता ॥ १७२॥ सगरोऽपि महादुःखव्याकुलीभूतमानसः । सुलसाहृतचेतस्को दध्याविति स चेतसि ॥ १७३॥ मच्चित्तकुसुमाली तां मत्तमातङ्गगामिनीम् । केनोपायेन वा कन्यां लप्स्येऽहं कलनादिनीम् ॥१७४॥ तदाकूतं परिज्ञाय सगरं तत्पुरोहितः । बभाण दुःखितस्वान्तं वचसाश्चर्यमीयुषा ॥ १७५ ॥ 20 मध्वादिपिङ्गलस्यैतां तत्पिता चेन्न दास्यति । ततो भविष्यति क्षिप्रं सुलसा तव सुन्दरी ॥१७६॥ पुरोहितवचः श्रुत्वा सगरो दीनमानसः । जगावमुं विनीतात्मा चित्ते सोत्कण्ठतां वहन् ॥१७७॥ उपायं कुरु तं भद्र येन सा सुलसा द्रुतम् । मधुपिङ्गलविद्विष्टा जायते बुद्धिसागर ॥ १७८ ॥ सगरस्य वचः श्रुत्वा जगावेषोऽपि तं पुनः । एवं करोमि राजेन्द्र विस्रब्धो भव सांप्रतम् ॥१७९॥ विस्रब्धीकृत्य भूपालं शास्त्रं सामुद्रनामकम् । साधु साधुनराशंसं चकार स पुरोहितः ॥ १८० ॥ 15 पर्यादिवाजिकाया हि सचिवेन प्रयत्नतः । तदानीं विष्णुदत्तायाः सामुद्र शास्त्रमर्पितम् ॥१८१॥ सुयोधनगृहं प्राप्य पुस्तकं वाचयत्यसौ । कन्यानिवहमध्यस्था तस्थौ मुदितमानसा ॥ १८२ ॥ प्रशस्तनरशास्त्रार्थ व्याख्याय कलभाषिणी । अप्रशस्तनराख्यानं कृत्वा श्लोकं पठत्यसौ ॥ १८३॥ षष्ठिः काणे शतं कुण्टे वामने दोषसंततिः । मधुपिङ्गलके नूनं दोषाः सन्ति सहस्रशः ॥ १८४॥ मधुपिङ्गलनेत्रेण परिणीताऽपि कन्यका । तत्क्षणाद् विधवा वा स्यान्न कदाचित् सुखान्विता ॥१८५॥ 30 श्रुत्वा तत्पुस्तकाख्यातं सुलसा मधुपिङ्गले । विरक्ता साऽभवच्छीघ्रं द्वेषाख्यानं विषं भवेत् ॥१८६॥ तद्विरक्तां परिज्ञाय सुलसां प्रीतमानसा । विष्णुदत्ता जगावेतां म्लानवक्रसरोरुहाम् ॥ १८७ ॥ आत्मतातं परिप्राप्य त्वं वदैवं मनस्विनि । यथा स्वयंवरं शीघ्रं मदर्थं घोषयादरात् ॥ १८८ ॥ कृते स्वयंवरे हित्वा समस्तान् नरकुञ्जरान् । वृणीष्व सगरं चोक्त्वा विष्णुदत्ताऽगमद् गृहम् ॥१८९॥ 1 फ बुद्धभाजार्थो. 2 फ नन्दनाभवनं. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 [ततः सौयोधनं ]. 5 ज कुरुत. 6 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 7 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 8 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम्. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७६. २२२ ] नारदपर्वतकथानकम् १८७ ततस्तद्वाक्यतः शीघ्रं तत्पिता प्रीतमानसः । पृथिवीमण्डले पुंभिः स्वयंवरमघोषयत् ॥ १९० ॥ श्रुत्वा स्वयंवरं सर्वे मिलिता नरकुञ्जराः । यथाक्रमं सुखं तस्थुर्मणिमञ्चेषु सादरम् ॥ १९१ ॥ शङ्खतूर्यनिनादेन बधिरीकृतदिग्मुखम् । स्वयंवरं विवेशाशु सुलसा सा सखीयुता ॥ १९२॥ मधुपिङ्गलमुरिक्षत्त्वा' नरवृन्दारकानपि । मुमोच सुलसा मालां सगरस्य गले तदा ॥ १९३॥ विलोक्य सगरासक्तां सुलसां मधुपिङ्गलः । महावैराग्यमासाद्य निर्ययौ तत्सभालयात् ॥ १९४ ॥ तदा भव्यजनानन्दं मलितीर्थ प्रवर्तते । पूर्वोक्तचारणाभ्याशे प्रवव्राज स पिङ्गलः ॥ १९५॥ तस्मिन् प्रव्रजिते बाढं सगरः सुलसासमम् । कामभोगान् प्रभुञ्जानस्तत्पुरे व्यवतिष्ठते ॥ १९६॥ मधुपिङ्गलयोगीन्द्रो विहरन् नगरादिकान् । विनीतां नगरीमेष विवेशाशनवाञ्छया ॥ १९७॥ गृहं सागरदत्तस्य प्रविष्टः क्रमतो मुनिः । धृतोऽस्य भार्यया भक्त्या श्रद्धादिगुणयुक्तया ॥१९८॥ तस्मिन्नेव गृहे विप्रः सोमशर्माप्तभोजनः । बृहत्पुस्तकभारेण युक्तस्तद्वेश्मनि स्थितः ॥ १९९ ॥ 10 मधुपिङ्गलकाये च दृष्ट्वा सल्लक्षणानि सः। जगाद श्रेष्ठिनीं विप्रः कौतुकव्याप्तमानसः ॥ २००॥ अम्ब मेऽग्निं द्रुतं देहि कार्यमेतेन सांप्रतम् । किं करिष्यसि वानेन विप्रोऽयं गदितोऽनया ॥२०१॥ सोमशर्मा पुनः प्राह श्रेष्ठिनी पुरतःस्थिताम् । सामुद्रं पुस्तकं भद्रे दहामीति विसंशयम् ॥२०२॥ ब्राह्मणोक्तं समाकर्ण्य श्रेष्ठिनी निजगाद तम् । पुस्तकस्य हि को दोषो वद विप्र ममाधुना ॥२०३॥ श्रेष्ठिनीभाषितं श्रुत्वा ब्राह्मणोऽपि बभाण ताम् । यथायं पुस्तकोऽसत्यः सुतरां श्रेष्ठिनि क्षितौ ॥२०४॥ 15 लक्षणानि च तादृशि 'नन्द्यावर्तादिकान्यलम्। एतस्मिन् मुनिकायेऽपि तादृशैर्लक्षणैः शुभैः ॥२०५॥ अनेन मुनिना नूनं शोभनाङ्गेन देहिनाम् । पृथिवीमण्डलं सर्वं भोक्तव्यं विघ्नतो विना ॥२०६॥ सर्वग्रन्थपरित्यागं कृत्वा देहेऽपि निःस्पृहः । निर्ग्रन्थो नग्नतां प्राप्तो भिक्षां भ्रमति सर्वदा ॥२०७॥ अनेन कारणेनार्ये पुस्तकं सत्यवर्जितम् । ततो दहाम्यहं मुग्धे देहि वह्निं मम द्रुतम् ॥ २०८॥ श्रुत्वा तद्वचनं भूयो विज्ञातपरमार्थिका । श्रेष्ठिनी निजगादैनं ब्राह्मणं कृतनिश्चयम् ॥ २०९॥ 20 सुलसाया निमित्तेन सगरेण कुमत्रिणा । विधाय कुत्सितं मत्रं स्वयंवरनिभेन च ॥ २१०॥ महानुभावतोपेतो मधुपिङ्गलनामकः । वञ्चितोऽयं मुनिस्ताभ्यां विमलो विमलोदयः ॥ २११॥ एतेन कारणेनायं महावैराग्यसंगतः। आजवंजवतो भीतो निर्विण्णो मुनितामितः ॥ २१२ ॥ आकर्ण्य तद्वचो योगी कोपमासाद्य वेगतः । सगरस्य वधाधायी भावयंश्चान्यजन्मनि ॥ २१३॥ कृत्वा निदानमीदृक्षं तदानीं मधुपिङ्गलः । सद्यः पञ्चत्वमासाद्य जातो देवोऽसुरो महान् ॥ २१४॥ 25 ततः सगरराजस्य मारणोपायचिन्तकः । अक्षसूत्रजटाधारी ब्रह्मरूपं चकार सः॥ २१५॥ कक्षमध्यस्थितस्यास्य पर्वतस्य समीपकम् । संप्राप्येमं जगादायं वचसाऽम्बरनादिना ॥ २१६ ॥ उत्तिष्ठ पर्वत क्षिप्रं भर्ताऽहं जगतः स्फुटम् । ज्येष्ठः सकललोकस्य ततो लोकपितामहः ॥२१७॥ शम्भुर्हिरण्यगर्भोऽहं ब्रह्मा विश्वस्य पूजितः । सर्वे वेदा विनिर्याता मन्मुखाम्भोजतो ध्रुवम् ॥२१८॥ भवन्तं दुःखितं दृष्ट्वा जनजल्पनतस्तराम् । साक्षाद्ब्रह्ममहासत्त्वो ब्रह्मलोकात् समागतः ॥ २१९ ॥ 30 अजैर्यष्टव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थों न तत्त्वतः । बुद्धः क्षीरकदम्बेन कोविदेन विपश्चिता ॥ २२० ॥ अजाः स्तमा हि विज्ञेया यष्टव्यं तैर्मखे द्विजैः। इममर्थमहं वेमि वाक्यस्यार्थं न चापरम् ॥२२१॥ उत्तिष्ठ तेन गच्छावो यागधर्मं स्तभैरिमैः । स्खेष्टदेशं परिप्राप्य कुर्वो द्वावपि संगतौ ॥ २२२ ॥ 1 (°मुत्क्षिप्त्वा ?) [°मुत्क्षिप्य ]. 2 ज यथैव. 3 ज नन्यावर्तिका. 4 पफ चतुःकलकम् , ज चतुःकुलकमिदम्. 5 पफ चतुःकुलकम् , ज चतुःकुलकमिदम्. 6 पफ वधोधायी. 7 ज विपश्चितां. 8 पफज कुलकमिदम्. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [७६. २२३आकर्ण्य तद्वचस्तत्र पर्वतः प्रीतमानसः । तन्माहनसमं तूर्णमयोध्यां नगरी ययौ ॥ २२३॥ केनापि सगरस्येयं किंवदन्ती निवेदिता । यथाऽभवत् पुरे राजन् ब्रह्मा ब्रह्मपुरादितः ॥ २२४ ॥ निशम्य वचनं तस्य सगरो हृष्टमानसः । द्रष्टुं स्वयंभुवं प्राप ब्रह्माणं परमोदयम् ॥ २२५ ॥ प्रणम्य सगरो भक्त्या ब्रह्माणं कलनिस्वनः । तदानीं तत्पुरस्तस्थौ भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ २२६ ॥ 5 दृष्ट्वा विधिरयं तत्र सगरं पुरतः स्थितम् । बभाण भूपते क्षिप्रमश्वमेधं मखं कुरु ॥ २२७॥ क्रियमाणेऽश्वमेधेऽस्मिन् विमानानि तदाऽसुरः। मणिचित्राणि दिव्यानि दर्शयामास तत्पुरः ॥२२८॥ यथैतानि विमानानि मखमाहात्म्यकारणात् । नाकात् समागतानीह पश्य त्वं नरकुञ्जर ॥२२९॥ एवमुक्त्वा विमानेषु जनानारोप्य तेषु सः । आरुरोहासुरो व्योम खनादापूरिताम्बरः ॥ २३०॥ निवेद्य पार्वतं वैरं शिलया हन्ति तत्पुनः । कांश्चित् पादप्रहारेण कांश्चित् करतलेन वा ॥ २३१॥ 10 तथा विमानमारोप्य सगरं दीनचेतसं । शिलया मस्तके हत्वेत्यमारयदमुं क्रुधा ॥ २३२ ॥ आदाय सुलसां पश्चादरण्यान्तेऽतिकोपतः । हन्त्यतः खल्लिबिल्वोत्थन्यायान्मुनिरिहाययौ ॥२३३॥ निवेद्य पूर्वसंबन्धमतिमुक्तकसाधुना । असुरोऽथो शमं नीतः स्वभावोऽयं महात्मनः ॥ २३४ ॥ सापराधाऽपि नेह स्त्री हन्तव्या शुद्धबुद्धिभिः। विशुद्धायाविकल्पस्तु गर्हितः स्त्रीवधो यतः॥ २३५ ॥ साधुवाक्येन तां भूयो मुमोचायं कृपार्द्रधीः । योषितं यद्यपि क्रुद्धा न निघ्नन्तीह वैरिणः ॥२३६॥' 15 तथाऽयोध्यापुरीजातपुरोहितमहत्तरान् । सगरस्य निहत्यायं विनीताविषयं ययौ ॥ २३७ ॥ तत्रापि मखयोगेन जीवहिंसनकारिणा । जघान सकलं लोकमसुरो ग्रावभिस्तदा ॥ २३८ ॥ एवं समस्तजीवानां दुष्टे कलियुगे सति । जातं मखनिधानं हि पापोपादनकारणम् ॥ २३९ ॥ वैरनिर्यातनं कृत्वा हत्वा सगरभूपतिम् । असुरः प्रीतचेतस्को जगाम स्वमनीषितम् ॥ २४० ॥ मल्लितीर्थे मखे विप्रैहिंसाधर्मः प्रवर्तितः । पूर्वं न विद्यते क्वापि यज्ञे जीववधो भुवि ॥ २४१॥ ॥ इति श्रीनारदपर्वतप्रतिज्ञाकरणकथानकमिदम् ॥ ७६ ॥ ७७. सागरदत्तकथानकम् । पारिजातजनान्तेऽस्ति चित्रकूटं पुरोत्तमम् । गोपदासो नृपस्तत्र गोपदासी प्रियाऽस्य च ॥ १॥ समुद्रोपपदो दत्तः श्रेष्ठी तत्र महाधनः । भार्या समुद्रदत्ताऽस्य गृहीतपतिमानसा ॥२॥ अपराधशतेनायं भूभुजा रोषमीयुषा । समस्तधनमादाय निर्धनो विहितः पुनः ॥३॥ 25 ततो गहिल्लको भूत्वा मूढचित्तः स वाणिजः। मद्धनं सकलं नष्टं वदन्ननोऽभ्रमत् पुरे ॥४॥ एवं हि भ्राम्यतस्तस्य घृततैलादिभिः कृतैः । बन्धुभिर्यत्नतो बाढं नोपशाम्यति स ग्रहः ॥ ५॥ वैद्येन बान्धवास्तस्य गदिता बुद्धिशालिना । पुरोऽस्य धनमन्येषां कुरुत ग्रहहानये ॥६॥ निशम्य वचनं तस्य परकीयं धनं बहु । विदधुः तत्पुरः क्षिप्रं बान्धवाः स्नेहतत्पराः ॥७॥ दृष्ट्वा सागरदत्तोऽपि तद्धनं तोषसंगतः । आलिङ्गति शयानोऽपि करोति स्वपरोऽन्तिके ॥ ८॥ ० तिष्ठन् हस्ते समादाय तिष्ठति प्रीतमानसः । पुनः पुनः प्रकुर्वाणः स विश्रब्धोऽभवत् क्षणात् ॥९॥ परकीयं धनं यच समानीतं तदर्थकम् । धनिनां बंधुभिस्तुष्टैस्तत्समस्तं समर्पितम् ॥१०॥ ॥ इति श्रीधनापहरणग्रहणधनसमर्पणविश्रब्धीकरण सागरदत्तकथानकमिदम् ॥ ७७ ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. पफ परिजात. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभूतिपुरोहितकथानकम् ७८. श्रीभूतिपुरोहितकथानकम् । 5 1 १० ॥ ११ ॥ अपरादिविदेहेऽस्ति विषयो गन्धमालिनी । वीतशोका पुरी तत्र वीतशोकजनाञ्चिता ॥ १ ॥ वैजयन्तोऽभवत्तत्र भूपतिर्जनवत्सलः । सर्वश्रीस्तन्महादेवी सर्वश्रीः शीलशालिनी ॥ २ ॥ अनयो रूपसंपन्नो विद्याबलयुतोऽजनि । संजयन्तो जयन्तोऽपि नन्दनः कुलनन्दनः ॥ ३ ॥ वीतशोकां पुरीं श्रीमान् स्वयंभूस्तीर्थकृत् तदा । आजगाम पुराधीशैः सेव्यमानो महर्द्धिभिः ॥ ४ ॥ स्वयंभुवो जिनस्याथ समीपे भक्तितत्परः । धर्मं श्रुत्वा जिनप्रोक्तं वैजयन्तो नराधिपः ॥ ५ ॥ संजयन्तो जयन्तश्च जिनभक्तिपरायणः । भोगनिस्पृहचेतस्कः कीर्तिच्छन्नदिगन्तरः ॥ ६ ॥ स्वनन्दने श्रियं न्यस्य निजगोत्रक्रमागताम् । कीर्तिव्याप्तसमस्ताशे प्रतापाक्रान्तशात्रवे ॥ ७ ॥ आभ्यां समं विनीताभ्यां वैजयन्तो नरेश्वरः । पिहिताश्रवसामीप्ये' दीक्षां दैगम्बरीं दधौ ॥ ८ ॥ पिहिताश्रवसंयुक्ता वैजयन्तादिसाधवः । तपोनिहितचेतस्का विहरन्ति पुरादिकम् ॥ ९ ॥ एवं विहरतां तेषां वैजयन्तस्य योगिनः । केवलं ज्ञानमुत्पन्नं लोकालोकावलोकनम् ॥ तदा चतुर्विधा देवा भक्तिहृष्टतनूरुहाः । प्रापुः केवलिपूजार्थं विकसन्मुखपङ्कजाः ॥ धरणेन्द्रं विलोक्यात्र जयन्तो मूढमानसः । तन्निदानफलेनाशु धरणेन्द्रत्वमाप सः ॥ १२ ॥ मनोहरीं पुरीं प्राप्य संजयन्तः श्मशानके । दिनानि सप्त संतस्थे कायोत्सर्गेण निश्चलः ॥ १३ ॥ कायोत्सर्गस्थितं दृष्ट्वा संजयन्तं मुनीश्वरम् । पूर्ववैरी चुकोपाशु विद्युट्रो खगेश्वरः ॥ १४ ॥ ततस्तं कोपतः क्षित्वा जम्बूद्वीपार्थभारते । दक्षिणे विजयार्धस्य भागे जनमनोहरे ॥ १५ ॥ हर्यादिकवती दिव्या कुसुमादिवती तथा । सुवर्णादिवती चान्या चण्डवेगा जगावती ॥ १६ ॥ तासां पूर्वोदितानां हि नदीनां पञ्चसंगमे । प्रदेशे स्थापयित्वाऽमुं स्वपुरं गतवानसौ ॥ १७ ॥ सुवा नक्तं परिप्राप्य पुरे गगनवल्लभे । सर्वेषां बन्धुलोकानां जगादेति स्वचेष्टितम् ॥ १८ ॥ यथावृत्तं मया रात्रौ दुष्टस्वप्नो विलोकितः । उपसर्गो मुनेः कर्तुं प्रारब्धं खेटसाक्षिकः ॥ १९ ॥ नूनं शीतलतीर्थान्ते संजयन्तो मुनीश्वरः । कर्मक्षयं विधायाशु सिद्धिं प्राप्तो निरञ्जनम् ॥ २० ॥ तच्छरीरसुपूजार्थं देवागमनमुत्तमम् । बभूव धूपपुष्पादिगन्धामोदितदिग्मुखम् ॥ २१ ॥ धरणेन्द्रः परिप्राप्य दृष्ट्वा विद्युद्दृढं पुरः । क्रुद्धः कोपारुणाक्षोऽयं भृकुटीभीषणालिकः ॥ २२ ॥ नागपाशैर्दृढं बद्ध्वा खगं विद्युदृढं खलम् । दुराचारमिमं क्रूरं क्षिपामि वडवामुखे ॥ २३ ॥ गृहीतं तं विलोक्यायमादित्याभः कृतादरः । लान्तवेन्द्रः परिप्राप्य धरणं वारयत्यरम् ॥ २४ ॥ मुञ्च मुञ्च त्वमुं साधो धरणेन्द्र कृतागसम् । मैवंविधं कुरु स्पष्टं पापं मद्वचनं शृणु ॥ २५ ॥ त्वमहं चैष खेटोऽपि संजयन्तस्तपोधनः । संसारगहने भ्रान्ताश्चत्वारो वैरकारणात् ॥ २६ ॥ आदित्याभः पुनः प्राह लान्तवेन्द्रः पुरः स्थितम् । धरणेन्द्रं प्रगर्जन्तं खेटमन्तःक्रुधान्वितम् ॥ २७ ॥ sa भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । बभूव शोभनाकारो विषयः शकटादिकः ॥ २८ ॥ तत्र सिंहपुरं नाम विद्यते पुरमुत्तमम् | सिंहसेनो नृपः शूरो रामदत्ताऽस्य गेहिनी ॥ २९ ॥ विद्यते रामदत्ताया धात्रिका निपुणाऽभिधा । सर्वभाषासु कुशला सर्वशास्त्रार्थकोविदा ॥ ३० ॥ अस्यैव भूपतेर्विप्रः सत्यवादी पुरोहितः । परद्रव्यनिराकाङ्क्षः श्रीभूतिरभवद् बुधः ॥ ३१ ॥ श्रीदत्ता तत्प्रिया चार्वी रूपयौवनराजिता । नीलोत्पलदलश्यामा कन्दोट्टदललोचना ॥ ३२ ॥ पुरोहितेनानेनाशु तत्पुरस्य समन्ततः । भाण्डशाला विशाला हि कारिता धनसंगताः ॥ ३३ ॥ 20 1 पफ सामीपे 2 पफ चतुष्कलकम् ज चतुष्कलकमिदम् 3 ज केवलज्ञान. - ७८. ३३ ] ૯૨ 10 15 25 38 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [७८. ३४विश्वासं तत्र पौराणां विधाय सरसं सकः । अष्टापदादिकोशस्य संग्रहं कुरुते तराम् ॥ ३४॥ एवं प्रयाति तत्काले पद्मखण्डे पुरोत्तमे । बभूव धनसंयुक्तः सुमित्रो नाम वाणिजः ॥ ३५ ॥ सुमित्रोपपदा दत्ता तत्प्रिया रूपशालिनी । पुत्रः सुमित्रदत्तः स्यात् तत्प्रिया सुव्रताभिधा ॥३६ ॥ ततस्ते प्रीतचेतस्काः सर्वेऽपि धनवाञ्छया । वाणिज्यायै कृतानन्दाः प्रापुः सिंहपुरं परम् ॥ ३७॥ । श्रुत्वा जनमुखात् तत्र श्रीभूतिं सत्यवादिनम् । कृतभाण्डमहाशालं वैदेशिकहितावहम् ॥ ३८॥ मणिरत्नानि दिव्यानि बहुमूल्यानि तत्करे । तके समर्पयामासुस्तद्गुणाकृष्टमानसाः ॥ ३९ ॥ स्वस्खद्रव्यादिकं तत्र कस्यापि वणिजो गृहे । स्थापयित्वा पुनः सर्वे पद्मखण्डपुरं ययुः ॥ ४० ॥ दिनानि कानिचित्तत्र स्थित्वा मुदितमानसः । सुमित्रो मित्रदत्तोऽपि बहुमित्रसमावृतः॥४१॥ आरुह्य सत्वरं दिव्यं बोहित्थं ध्वजभूषितम् । कृतमङ्गलसत्कार्यो रत्नद्वीपं ययौ मुदा ॥४२॥ " गच्छन्तो जलमार्गेण महावातेन वेगिना । युगपद्भिन्नबोहित्था मम्रः सर्वेऽपि वाणिजाः ॥४३॥ सुमित्रोपपदो दत्तो न परं मृतिमागतः । भिन्नबोहित्थमारुह्य समुत्तीर्णो नदीपतिम् ॥ ४४॥ कथंचिदैवयोगेन समुत्तीर्य महाम्बुधिम् । सुमित्रोपपदो दत्तः सिंहादिपुरमाययौ ॥ ४५ ॥ विलोक्य मातरं तत्र भार्यां च पुरतः स्थिताम् । पितुर्वार्ता समाचक्षौ लोकान्तरमितस्य सः ॥४६॥ पितृकार्यं विधायात्र जलदानादिकं ततः । तदा श्रीभूतिविप्रस्य समीपं प्राप्तवानसौ ॥४७॥ 15 स्तोकवेलां समास्थाय तत्पुरो रत्नसंचयम् । ययाचेऽमुं च सस्नेहं मूल्येन परिवर्जितम् ॥४८॥ श्रीभूतिस्तद्वचः श्रुत्वा जगादेमं ससंभ्रमम् । स्वभारतीविशेषेण कुर्वन् वाचाटमम्बरम् ॥ ४९॥ नाहं रत्नानि जानामि त्वदीयानि मनागपि । पिशाचेन गृहीतः किं येन मां तानि याचसे ॥५०॥ ततः सुमित्रदत्तेन पौरभूपतियोगिनाम् । प्रकृतीनां समस्तानां प्रत्येकं कथितं हि तत् ॥ ५१॥ ततः श्रीभूतिवाक्येनं राज्ञा पौरजनेन च । निराकृतो वणिक् तत्र माहनैः सकलैरपि ॥ ५२ ॥ ७ ततो निराशको भूत्वा दुःखपूरितमानसः । पुरमध्यं परिभ्राम्यन् जल्पतीदं स वाणिजः ॥ ५३॥ रामदत्तागृहासन्नं तिन्तिणीवृक्षमादरात् । अधिरुह्य निशान्तेऽसौ जल्पतीदं वणिक् तदा ॥ ५४ ॥ अहो नरेन्द्र चान्यायस्त्वत्पुरे वर्ततेऽधुना । श्रीभूतिना गृहीतानि पञ्चरत्नानि मे ध्रुवम् ॥ ५५॥ दिव्यान्यनर्घ्यरत्नानि श्री तिर्लोभसंगतः । तानि नार्पयति स्पष्टं मदुक्तोऽपि पुनः पुनः॥५६॥ एवं निगद्य तत्रस्थस्तारेण वचसा पुनः । प्रयाति स्वगृहं दुःखी स्वकराहतमस्तकः ॥ ५७ ॥ 25 अन्यदा रामदत्ता सा सुप्ता खपतिना सह । निशम्य तवनिं प्राह भूपतिं कृपयाधीः ॥ ५८॥ श्रुतं वचनमेतस्य मया षण्मासमात्रकम् । पञ्चरत्नोद्भवं राजन् न किंचिदपरं क्वचित् ॥ ५९॥ श्रुतं मे वाक्यमेतस्य रत्नविह्वलचेतसः । नूनं केनाप्युपायेन सत्येनेदं परीक्षताम् ॥ ६० ॥ रामदत्तावचः श्रुत्वा भूपोऽपि निजगावमूम् । उन्मत्ततया हि वक्ति वाणिजो वाक्यमीदृशम् ॥६१॥ निशम्य भारतीमस्य रामदत्ताऽभणीदमुम् । ब्रवीति पञ्च रत्नानि षट् सप्त न कदाचन ॥ ६२ ॥ 30 अतः सत्यं ब्रवीत्येष मुग्धभावेन सर्वथा । राजन्नस्य मत्तबुद्धिः क्रियते स्थिरभावतः ॥ ६३॥ भार्यावचनतो राजा समाहूय निजान्तिके । एकान्ते भीतचेतस्कं श्रीभूतिं निजगाविति ॥ ६४ ॥ भवतैतानि रत्नानि वाणिजस्य हतात्मनः । गृहीतानि न वा तानि सांप्रतं ब्रूहि मे द्रुतम् ॥६५॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा श्रीभूतिः प्राह तं नृपम् । न गृह्णामि स्म भूपाल रत्नान्येतस्य निश्चितम् ॥६६॥ 1फ जानीमि. 2 पज श्रीपति ( but corrected thus in ), फ श्रीभूपति'. 3 पफ चतुकुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 4 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलकमिदम्. 5ज मत्तुबुद्धिः दयाबुद्धिः. 6 पफ युग्मम्, जयुगलम्. 7 पफ निजान्तके. 8 पफ युग्मम्,ज युगलमिदम्, Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७८. १०० ] श्रीभूतिपुरोहितकथानकम् ततोऽन्यदिवसे जाते रामदत्तोदितेन च । पुरोहितसमं द्यूतं रमते नरकुञ्जरः ॥ ६७ ॥ अनयोर्दीव्यतोर्मध्ये रामदत्ताऽतिविस्मिता । तस्थौ मुदितचेतस्का तदानीं तत्समीपगा ॥ ६८ ॥ अत्रान्तरे महाबुद्धी रामदत्ता पुरोहितम् । पप्रच्छ प्रथमं साऽपि साभिज्ञानं स्फुटाक्षरम् ॥ ६९ ॥ रामदत्तावचः श्रुत्वा श्रीभूतिर्भूतिगर्वितः । साभिज्ञानमिदं प्राह रामदत्तापुरःसरम् ॥ ७० ॥ यथाऽद्य वेश्मनि स्पष्टं पायसं घृतसंयुतम् । सशर्करं मनोहारि परिविष्टं सुयोषिता ॥ ७१ ॥ पूर्वाशाभिमुखस्थेन पुत्रपौत्रयुतेन च । मया भुक्तमिदं साधु सानुरागं समीक्षितम् ॥ ७२ ॥ साऽभिज्ञानेन चानेन तदा बुद्धिमती द्रुतम् । प्राप्य तद्ब्राह्मणीं नूनं पञ्चरत्नानि याचते ॥ ७३ ॥ रामदत्ताऽबलावाक्यं श्रुत्वा तां साऽब्रवीदिति । यथाऽहं तानि रत्नानि न वेद्मि वनिते ध्रुवम् ॥ ७४ ॥ ब्रह्मसूत्रं तं द्यूते समादाय त्वरावती । प्राप्य द्वितीयवेलायां तकां बुद्धिमती जगौ ॥ ७५ ॥ साभिज्ञानेन चान्येन देहि रत्नानि मेऽबले । सा वक्तीमानि नष्टानि क्व गतानि न वेझ्यहम् ॥ ७६ ॥ 1 ततस्तृतीयवेलायां तन्नामाङ्कितमुद्रिकाम् । समादाय तकां प्राप्य जगौ बुद्धिमती त्विदम् ॥ ७७ ॥ यथा श्रीभूतिना प्रोक्तं मन्नामाङ्कितमुद्रिकाम् । दृष्ट्वा वाणिजरत्नानि दातव्यानि करे मम ॥ ७८ ॥ ततस्तां मुद्रिकां दृष्ट्वा भर्तरि क्रुद्धमानसा । साऽऽदाय पञ्चरत्नानि ददौ बुद्धिमतीकरे ॥ ७९ ॥ ततो बुद्धिमती शीघ्रं रत्नान्यादाय पञ्च वै । रामदत्ताकरे तानि ददौ पूर्णमनोरथा ॥ ८० ॥ रामदत्ता समादाय पञ्च रत्नानि सत्वरम् । बभ्राण भूपतिं तुष्टा धव द्यूतं विमुच्यताम् ॥ ८१ ॥ 15 रामदत्तावचः श्रुत्वा भूपतिर्यूतमण्डलात् । द्यूतकारैः समं शीघ्रं समुत्तस्थौ प्रमोदवान् ॥ ८२ ॥ ततो गतेषु सर्वेषु द्यूतकारेषु भूभुजे । रामदत्ता ददौ तानि पञ्च रत्नानि सत्वरम् ॥ ८३ ॥ नररत्नसमूहानां मध्ये तानि निधाय च । भूयः सुमित्रदत्तस्य दर्शितानि महीभुजा ॥ ८४ ॥ ततः सुमित्रदत्तेन रत्नमध्ये विलोक्य च । गृहीतानि समस्तानि निजरत्नानि सादरम् ॥ ८५ ॥ समुद्रदत्तमालोक्य निजरत्नसमन्वितम् । महादेवी नरेन्द्रोऽपि तुतोष बहुविस्मयः ॥ ८६ ॥ खरादिरोहणं तत्र पञ्चबिल्वविबन्धनम् । सर्वस्वहरणं चापि कारयित्वाऽस्य यत्नतः ॥ ८७ ॥ १९१ ९१ ॥ 25 ९२ ॥ विधिना शीघ्रं श्रीभूतिर्धनहारकः । भूभुजा रोषतः पापः स्वदेशादपसारितः ॥ ८८ ॥ * ततो निकारमासाद्य भूपतेः साधुनिन्दितम् । विदीर्णहृदयः पापः श्रीभूतिः पञ्चतामितः ॥ ८९ ॥ आर्तध्यानान्मृतिं प्राप्य सिंहसेनस्य भूपतेः । भाण्डागारेऽजनि क्षिप्रं गन्धनः स भुजंगमः ॥९०॥ श्रीभूतस्थानके राज्ञा धमिलो नाम माहनः । चतुर्वेदसमायुक्तः कृतोऽनेन पुरोहितः ॥ तदा समुद्रदत्तोऽपि सत्यवादित्वमाप्य च । पद्मखण्डपुरं गत्वा ददौ दानं स साधवे ॥ दानं दत्त्वा सुसाधुभ्यो वक्तीदं वचनं पुनः । सुतोऽहं रामदत्ताया भविष्यामि भवान्तरे ॥ गिरिं विमलकान्तारं प्राप्य धर्मधिया सकः । वरधर्ममुनेः पार्श्वे श्रावकाणां व्रतं दधौ ॥ जिनधर्मसमादानाद् विरोधं प्राप्य तत्समम् । मृत्वा तत्पर्वते जाता भीमव्याघ्री तदम्बिका ॥ ९५ ॥ ततः सुमित्रदत्तोऽयं गतवान् वन्दितुं मुनिम् । विलोक्य तं सुतं व्याघ्री जघासारुणलोचना ॥९६॥ ततोऽयं भक्षितो व्याघ्या कालं प्राप्य निदानतः । सिंहसेनसुतो जातो रामदत्ताशरीरजः ॥ ९७ ॥ नाम्ना च सिंहचन्द्रोऽयं नन्दनः कुलनन्दनः । तद्धाता पूर्णचन्द्राख्यः पूर्णचन्द्रसमाननः ॥ ९८ ॥ अथैकस्मिन् दिने जाते भण्डशालां निजामसौ । सिंहसेनो विवेशाशु द्रविणस्य दिदृक्षया ॥ ९९ ॥ सिंहसेनं विलोक्यात्र प्रविष्टं पूर्ववैरतः । ददंश * पन्नगः क्रुद्धस्तदा गन्धननामकः ॥ १०० ॥ 1 पफ omit the second line of 77 and the first line of 78. 2 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम् 3 ज विमलकां भारं 4 ज ददर्श. ९३ ॥ ९४ ॥ 5 20 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [७८. १०१अत्रान्तरे समायातः पुरं सिंहपुरं परम् । विषनि शकस्तूर्णं दण्डान्तो गरुडादिकः ॥ १०१॥ ततस्तेन समाहूताः सर्पाः सर्वेऽपि तत्क्षणात् । काकोदराख्यमन्त्रेण स्वान्तिकं लोलजिह्वकाः ॥१०२॥ ततो गरुडमत्रेण भाषितास्ते समागताः। योऽपराधी भवेत् कोऽपि तिष्ठत्वत्र स केवलम् ॥१०३॥ येऽन्येऽपराधनिर्मुक्ताः स्वस्वस्थानानि सत्वरम् । गच्छन्तु ते सुसंतुष्टा मया मुक्ता विसंशयम् ॥१०४॥ निशम्य तद्वचस्ते च दन्दशूकाः ससंभ्रमाः । श्रीभूतिपन्नगं हित्वा सर्वे जग्मुर्यथागतम् ॥१०५॥ दृष्ट्वा सरीसृपं मत्री सजीवं सविषं तथा । जगाद तं दुराचारं गृहाणेदं विषं द्रुतम् ॥ १०६ ॥ अथवेदं विषं पाप ग्रहीतुं यदि नेच्छसि । खदिराङ्गारसंयुक्तमग्निकुण्डं द्रुतं विश ॥ १०७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं सो जातो जातिस्मरः क्षणात् । स्मृत्वा चिरंतनं वैरं दध्यौ विस्मितमानसः ॥१०८॥ पूर्ववैरी ममायं हि कृत्यकृत्योऽस्मि सांप्रतम् । गन्धनोऽग्निं प्रविश्याहिर्ममार कृतनिश्चयः॥१०९॥ 1" मृत्वा कालवने भीमे नानानोकुहसंकुले । श्रीभूतिपूर्वकः सर्पो बभूव चमरी चला ॥ ११०॥ सिंहसेनो नृपो मृत्वा नागदष्टः स तत्क्षणे । बभूव सल्लकीविन्ध्ये तदा मदकलः करी ॥ १११॥ विधाय सत्वरं कालं धम्मिल्लाख्यः पुरोहितः । तत्रैव मर्कटो जातो दाडिमीपुष्पवक्रकः ॥११२॥ सिंहचन्द्रः स्वपुण्येन तदा सिंहपुरेश्वरः । बभूव साधितारातिर्गुणरञ्जितभूतलः ॥ ११३॥ पोदनाख्ये पुरे रम्ये पूर्णचन्द्रो नरेश्वरः । बभूवास्य महादेवी हिरण्योपपदामती ॥ ११४ ॥ 15 अन्यदा पूर्णचन्द्रो हि धर्म श्रुत्वाऽवधीश्वरात् । भद्रबाहुगुरोः पार्थे संजातः श्रमणो महान् ॥११५॥ नत्वाऽऽचार्यमिमं भक्त्या महावैराग्यसंगता । दत्तक्षान्त्यार्जिकापार्थे हिरण्यमतिकार्यिका ॥११६॥ निजकान्तिकया साधं हिरण्यमतिरर्जिका । पूर्णचन्द्रमुनिं नत्वा जगाम कृतनिश्चया ॥ ११७॥ नत्वा मुनिं पुनः प्राह हिरण्यमतिरर्जिका । रामदत्ता कथं नाथ तिष्ठति बेहि मेऽधुना ॥११८ ॥ पूर्णचन्द्रमुनिः श्रुत्वा तद्वाक्यं स्थिरमानसः । दिव्यज्ञानेन तां ज्ञात्वा जगादेति विचक्षणः ॥११९॥ 20 त्वज्जामाताऽहिना दष्टो लघु पञ्चत्वमागतः । त्वत्सुता रामदत्ता च संजाता विधवा ततः॥१२०॥ पूर्णचन्द्रवचः श्रुत्वा नत्वाऽमुं भक्तितत्परा । हिरण्यमतिका साधू दत्तक्षान्तिकयाऽगमत् ॥१२१॥ रामदत्ता समालोक्य मातरं दीक्षितामिमाम् । प्रणम्यासनगां भक्त्या चक्रे ख्यान्तिकया सह ॥१२२॥ जिनधर्ममुपाश्रित्य रामदत्ता तदन्तिके । प्रवव्राज विनीतात्मा जिनभक्तिपरायणा ॥ १२३ ॥ विलोक्य सिंहचन्द्रोऽपि मातरं तपसि स्थिताम् । पूर्णचन्द्रे श्रियं न्यस्य हरिहस्तिधनादिकम् ॥१२४॥ 25 महावैराग्यसंपन्नो निर्जिताक्षकदम्बकः । भद्रबाहुमुनेः पार्श्वे धीरधीः स तपोऽग्रहीत् ॥१२५ ॥ महावैराग्यसंपन्नो जिनभक्तिपरायणः । चारणर्द्धिसमायुक्तो दिव्यज्ञानी महातपाः ॥ १२६ ॥ पूर्णचन्द्रोऽपि राज्यस्थो मिथ्यात्वग्रहदूषितः । बभूव निष्ठुरस्वान्तो जिनवाक्यपराङ्मुखः ॥१२७॥ अन्यदा रामदत्ताऽपि सिंहचन्द्रं मुनीश्वरम् । पप्रच्छ चारणं भक्त्या तदानीं स्वभवान्तरम् ॥१२८॥ श्रुत्वा तद्वचनं साधुजंगादैतां पुरः स्थिताम् । विनयाचारसंपन्नां भक्तिहृष्टतनूरुहाम् ॥ १२९ ॥ " अत्रैव भरतक्षेत्रे विषये कोशलाभिधे । विद्यते वर्धकिग्रामे ब्राह्मणोऽत्र मृगायणः ॥ १३०॥ तप्रिया मधुरा नामा तत्सुता वरुणाऽभवत् । मृगायने मृति प्राप्ते साकेतनगरे परे ॥ १३१ ॥ विद्यतेऽतिबलो राजा भार्याऽस्य श्रीमती मता । अनयो रूपसंपन्ना हिरण्यमतिका सुता ॥१३२॥ पोदनाख्यपुरेशस्य पूर्णचन्द्रस्य दीव्यतः । सा वितीर्णा कलवानां विधिना तत्पितामही ॥१३३॥ मधुराया पुरा चार्वी कालं कृत्वा विधानतः । प्राप्य तद्गर्भसंभूतिं रामदत्ताधुनाऽभवः ॥ १३४ ॥ या पुरा वरुणा भद्रे मृता कर्मानुभावतः । त्वद्गर्भ प्राप्य संभूतः पूर्णचन्द्रः स नन्दनः॥ १३५॥ 1[कृतकृत्यों ]. 2 ज धर्मिलाख्यः. 3 पफ दत्तख्यान्या. 4 ज नन्तुं. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---७८. १६९] श्रीभूतिपुरोहितकथानकम् १९३ सुमित्रोपपदो दत्तः पद्मखण्डे पुरे पुरा । यः प्राप्य त्वन्मतेनाशु श्रीभूते रत्नपञ्चकम् ॥ १३६ ॥ त्वत्सानुरागतः कृत्वा निदानं कालसंगतः । सांप्रतं सिंहचन्द्राख्यो जातस्त्वन्नन्दनः स्फुटम् ॥१३७॥' मपिता सिंहसेनोऽपि कालं कृत्वा यकः पुनः । गहने हस्तितां प्राप्तो ग्राहितः स वृषं मया ॥१३८॥ हिमालयसमुत्तुङ्गः सितदन्तविराजितः । यूथकेसरिनद्यन्ते कुञ्जरः स वितिष्ठते ॥ १३९ ॥ चमरी सा मृति प्राप्य तद्वने दरदायिनि । कुर्कुटोपपदः सर्पो बभूव सोऽतिभीतिदः ॥ १४०॥ । तेन कुर्कुटसर्पण दष्टोऽसौ कलकुञ्जरः । कालं चकार शुद्धात्मा जिनं चित्ते विचिन्तयन् ॥१४१॥ श्रीप्रभाख्यविमानेऽसौ सहस्रारे सुरोत्तमः । बभूव श्रीधरो नाम्ना हारकुण्डलराजितः ॥ १४२ ॥ यःश्रीभूतिपदे विप्रः स्थापितो भूभुजा तदा । धम्मिल्लाख्यो मृतिं कृत्वा संजातो मर्कटो महान् ॥१४३॥ ततः कुक्कुटसर्पोऽयं मृति प्राप्य स दुःखितः । वालुकादिप्रभा जातो नानादुःखसमाकुलाम् ॥१४४॥ ततः किरातराजस्य मृतों नाम शृगालकः । प्राप्तः करिवरोद्देशं कौतुकव्याप्तमानसः ॥ १४५॥ ॥ मौक्तिकानि समादाय दन्तानपि गजेश्वरात् । वाणिजाय स्वमित्राय तदानीं शबरो ददौ ॥ १४६॥ तेनापि पूर्णचन्द्रस्य ते पुत्रस्य समर्पिताः । तेनापि भूभुजा दन्तैः कारितं स्वस्य विष्टरम् ॥१४७॥ मौक्तिकैरपि सद्धारः कारितस्तेन शोभनः । कृत्वा हारं गले कुर्वन् राज्यं सिंहासने स्थितः॥१४८॥ एवं मुनिवचः श्रुत्वा तदानीं रामदत्तया । पूर्णचन्द्रोऽपि सद्वाक्यैबोंधितः परमोदयैः ॥ १४९ ॥ आकर्ण्य श्रावकं धर्म कालं कृत्वा समाधिना । सहस्रारेऽभवदेवः स वैडूर्यविमानके ॥ १५० ॥ 15 रामदत्ताऽपि तत्रैव कल्पे कालं विधाय च । स्वयंप्रभविमानेऽभूद् देवः सूर्यप्रभो महान् ॥१५॥ विधाय सिंहचन्द्रोऽपि परां सल्लेखनामसौ । प्राप्य ग्रैवेयकं चोर्ध्वं जातो देवो महर्द्धिकः॥१५२॥ सूर्यप्रभः स्फुटस्तस्मात् स्वर्गाद् भोगमनोरमात्। यत्र स्थाने समुत्पन्नस्तद्वदाम्यधुना हितः ॥१५॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । दक्षिण विजयार्धस्य भागे च परमोदये ॥ १५४॥ धनधान्यसमाकीर्णे धरणीतिलके पुरे । विद्यतेऽतिबलो भूपः सर्वविद्याधराधिपः ॥१५५॥ 2॥ सुशीला तन्महादेवी चारुरूपा सुलक्षणा । तत्सुता च कलाधारा श्रीधरा श्रीधरा सदा ॥१५६॥ स कालकपुरे रम्ये खेचरोऽस्ति सुदर्शनः । वितीर्णाऽस्मै महाभूत्या पितृभ्यां सुखभोजिने ॥१५॥ तद्वैडूर्यविमानाग्राच्युत्वा देवो मनोरमः । यशोधराभिधा कन्या जाता साऽस्य मनोहरी ॥१५८ ॥ परमस्योत्तरश्रेण्यां विजयाधमहीभृतः। प्रभातनगरं रम्यं विद्यते परमोत्सवम् ॥ १५९ ॥ सूर्यप्रभो नृपस्तत्र नाम विद्याधराधिपः। जनकेन च सा दत्ता तस्मै संबन्धमिच्छता ॥ १६० ॥ 25 तस्मान्नाकालयाच्युत्वा तदानीं वारणामरः । रश्मिवेगोऽभवत् पुत्रस्तस्या जनमनोहरः ॥ १६१ ॥ दत्त्वा राज्यं सुतायास्मै सूर्यदत्तो नरेश्वरः । मुनिचन्द्रसकाशेऽस्मिन् दीक्षां दैगम्बरी श्रितः ॥१६॥ श्रीधरा च मुनिं नत्वा जिनभक्त्या यशोधरा । गुणमत्यर्जिकापार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ॥ १६३ ॥ सिद्धकूटजिनं नन्तुं जिनपूजनतत्परः। रश्मिवेगो जगामाशु भक्तिहृष्टस्तनूरुहः ॥ १६४॥ भक्तितस्त्रिःपरीत्येदं जिनं नत्वा सुरार्चितम् । समस्तसाधुसंघं च स तस्थौ मुनिसंनिधौ ॥१६५॥ 30 जिनधर्म समाकर्ण्य भव्यलोकसुखप्रदम् । हरिचन्द्रमुनेः पार्थे रश्मिवेगो दधौ तपः॥ १६६ ॥ अथ काञ्चनसंज्ञायां गुहायां स तदा पठन् । त्रिलोकोपपदां नूनं प्रज्ञप्ति तस्थिवान् मुदा ॥१६७॥ ततः श्रीधरया साकमर्जिका सुयशोधरा । वन्दित्वा तं मुनिं भक्त्या तदन्ते तस्थुषी पुनः॥१६८॥ तृतीयश्वभ्रसंजातो नारकः कलुषाशयः । तस्मादुत्तीर्य दुःखेन संजातोऽजगरो महान् ॥ १६९ ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 ज मृत्यो. 3 [यतः]. बृ० को० २५ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७८.१७० सुप्तं तत्रायमालोक्य निशायां शयुरुन्नतः । रश्मिवेगादिकं कोपाज्जघास स्मृतवैरकः ॥ १७० ॥ रश्मिवेगो मुनिस्तत्र नाके कापिष्ठनामनि । अर्कप्रभः सुरो रूपी हारधारी बभूव सः ॥ १७१ ॥ अमुमेव च कापिष्ठं रुचकादिविमानके । आर्जिकाद्वयमप्यार मृत्वा तद्देवतामितौ ॥ १७२ ॥ भक्षयित्वा शयुस्तानि कालं कृत्वा समाधिना । चतुर्थनरकं प्रापन्नानादुःखसमन्वितम् ॥ १७३ ॥ चारणाख्यो मुनिर्योऽसौ सिंहचन्द्रोऽहमिन्द्रकः । प्रीतिंकरः सुरो जातो देवप्रीतिविधायकः ॥ १७४॥ तस्मादुत्तीर्य दुःखेन सुखवार्धिसमन्वितान् । अवतारं चकारेव नाकसौख्यविरक्तधीः ॥ १७५ ॥ अत्र चक्रपुरे रम्ये राजाऽऽसीदपराजितः । भार्याऽस्य सुन्दरी नाम रूपयौवनसुन्दरी ॥ १७६ ॥ अनयो रूपसंपन्नः सुतश्चक्रायुधोऽभवत् । चित्रमाला प्रिया चास्य कन्दोट्टदललोचना ॥ ९७७ ॥ अर्कप्रभोऽवतीर्यासौ कापिष्ठादमुतः सुरः । वज्रायुधोऽभवत् तस्या नन्दनः कुलनन्दनः ॥ १७८ ॥ 1. एष पूर्वभवे राजा सिंहसेनो महाबलः । अवतारं ब्रवीम्यस्य सांप्रतं शृणुतादरात् ॥ १७९ ॥ अतिवेगोऽभवद् राजा पृथिवीतिलके पुरे । प्रियंकरा प्रिया चास्य रत्नमाला शुभाऽमुतः ॥ १८० ॥ एषा पूर्वभवे चास्य रामदत्ता मनः प्रिया । श्रीधराऽपि तथाऽन्यस्मिन् श्रीधरा तनुयोगतः ॥ १८१ ॥ पूर्व प्रीतिनिबन्धेन दत्ता वज्रायुधाय सा । पितृभ्यां स्नेहयुक्ताभ्यां महाभोगविधायिने ॥ १८२ ॥ तस्या यशोधरापूर्वयुतो नाकालयादरम् । रत्नायुधस्ततो जातो गुणरत्नमहोदधिः ॥ १८३ ॥ 15 एष पूर्वभवे नूनं पूर्णचन्द्रो महाद्युतिः । वज्रायुधतनूजाय ददौ चक्रायुधः श्रियम् ॥ १८४ ॥ पिहिताश्रवसामीप्ये दीक्षामादाय शुद्धधीः । निहत्याशेषकर्माणि मोक्षं चक्रायुधो ययौ ॥ १८५ ॥ वज्रायुधो निजं राज्यं दत्त्वा रत्नायुधाय सः । दीक्षां जग्राह जैनेन्द्रीं स्वर्गमोक्षसुखप्रदाम् ॥ १८६ ॥ ततो रत्नायुधो राज्यं कुर्वाणः पितृशासनात् । मिथ्यात्वं प्राप्य मूढात्मा क्रूरचित्तो बभूव सः ॥ १८७॥ तस्य मेघनिनादोऽभूद् राजहस्ती मदालसः । नदीं गतो जलं पातुं स शुचौ निजलीलया ॥ १८८ ॥ 20 तत्र साधुं समालोक्य जातो जातिस्मरः करी । तृष्णाक्रान्तशरीरोऽपि जलं पातुं स नेच्छति ॥ १८९ ॥ राजा तं हस्तिनं दृष्ट्वा दुःखपीडितमानसः । वज्रदत्तमुनिं प्राप्य सन्निमित्तं स पृच्छति ॥ १९० भूपालस्य वचः श्रुत्वा दुःखपीडितचेतसः । बभाणेमं मुनिः स्पष्टं स्वनादापूरिताम्बरः ॥ १९९ ॥ चित्रकारे पुरे रम्ये प्रीतिभद्रो नरेश्वरः । बभूव तन्महादेवी सुन्दरी नाम विश्रुता ॥ ९९२ ॥ प्रीतिंकरः सुतस्तस्याः सर्वप्रीतिविधायकः । तन्मन्त्री चित्रबुद्धिश्च तद्भार्या कमला मता ॥ १९३ ॥ 25 विचित्रमतिनामायं सुतोऽस्य मतिराजितः । बभूव भासुराकारो जिनधर्मपरायणः ॥ १९४ ॥ प्रीतिभद्रनृपसूनुर्विचित्रमतिरुन्नतः । मत्रिपुत्रोऽपि सद्बुद्धिर्जिनागमसुभावितः ॥ १९५ ॥ तदेतौ द्वावपि प्राप्य श्रुतसागरयोगिनम् । महावैराग्यसंपन्नावभूतां हि तपोधनौ ॥ १९६ ॥ विहरन्तौ ततः कापि गोचर्यार्थं तपोनिधी । अयोध्यां नगरीं प्राप्तौ पताकावलिराजिताम् ॥ १९७॥ गणिकां बुद्धिसेनाख्यां विलोक्यात्रातिरूपिणीम् । मन्त्रिपुत्रः क्षणाद् भग्नो विचित्रमतिरुत्सुकः ॥१९८॥ 30 मांसं प्रसाधयन् कान्तं नानाभेदसमन्वितम् । गन्धमित्रस्य भूपस्य सूपकारोऽभवत् सकः ॥ १९९॥ एवं प्रकुर्वतस्तस्य सूपकारस्य भूभुजा । तुष्टेन गणिका दत्ता बुद्धिसेनाऽतिरूपिणी ॥ २०० ॥ तया समं महाभोगान् भुञ्जानो मनसः प्रियान् । तदा कालं विधायासौ सप्तमं नरकं ययौ ॥ २०१ ॥ संसृतिं स चिरं भ्रान्त्वा संयातोऽयं' गजेश्वरः । अस्मान् विलोक्य राजेन्द्र जातो जातिस्मरोऽधुना २०२ हित्वा जिनोदितं धर्मं यथाऽहं संसृतिं सृतः । तथाऽयं कुञ्जरो राजन् प्राग्विचित्रमतिः स्फुटम् ॥२०३॥ 25 जिनधर्मं समादाय दुःखसंतप्तमानसः । बभूव श्रावको राजन् नितान्तं कलकुञ्जरः ॥ २०४ ॥ 1 पफ पूर्वप्रति 2 पफ संयातो, [ संजातोऽयं ]. 3 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 1 5 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७८. २३७ ] श्रीभूतिपुरोहितकथानकम् १९५ श्रुत्वा मुनिवचः सत्यं तदा रत्नायुधः पुनः । स्थिरं सम्यक्त्वमादाय बभूव श्रावको महान् ॥२०५॥ वज्रायुधमुनिं दृष्ट्वा प्रियङ्गुवनमध्यगम् । पङ्कप्रभामतिक्रम्य भिल्लो भूत्वा रुषं ययौ । २०६॥ मृगयाऽर्थं वनं यातः काकतालीययोगतः । शरघातेन तं साधुं चकार गतजीवितम् ॥ २०७॥ कालं कृत्वा मुनिस्तत्र शुभध्यानपरायणः । प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं स कृतसर्वार्थसाधनः ॥ २०८॥ साधुं निहत्य मिल्लोऽपि मृत्युमासाद्य वेगतः । सप्तमं नरकं प्राप घोरवेदनया युतम् ॥ २०९ ॥ रत्नायुधस्तथा रत्नमाला मातृसुतद्वयम् । कालं कृत्वा समाधानाजातौ तावच्युतेऽमरौ ॥ २१०॥ अनयोश्युतयोस्तस्मात् तदा देवायुषः क्षये । अवतारं वदाम्याशु सांप्रतं शृणुतादरात् ॥ २११॥ अथास्ति धातकीखण्डे पूर्वमेरोः प्रभास्वतः । अपरादिविदेहे हि विषयो गन्धिलो महान् ॥२१२॥ कासपुष्पसमानाभैः प्रासादनिकरैः परैः । अयोध्या नगरी तत्र विद्यते लोकसंकुला ॥ २१३॥ अस्यां नरेश्वरः श्रीमानहद्दासो हताहितः । कान्त्या जयन् विधु विद्वान् दीप्त्या चरविमस्ति सः॥२१४॥" बभूवास्य नरेन्द्रस्य महादेवी मनोहरी । सुव्रता जिनदत्ता च विषाणदललोचना ॥ २१५॥ आयो वीतभयः पुत्रो द्वितीयोऽपि विभीषणः । तृतीयो बलदेवोऽपि वासुदेवश्चतुर्थकः ॥ २१६ ॥ अनयो रूपसंपन्ना विनीताकारधारिणः । बभूवुनन्दना वित्ताश्चत्वारोऽम्बुधयो यथा ॥ २१७ ॥ कालं विधाय कालेन श्वभ्रं यातो विभीषणः । अनिवृत्तगुरोरन्ते बलदेवोऽग्रहीत् तपः ॥ २१८ ।। बलदेवो मुनिस्तूर्णं कालं कृत्वा समाधिना । कृतार्ककीर्तिनामायं लान्तवेन्द्रो बभूव सः॥२१९॥ 15 बोधितो लान्तवेन्द्रेण श्वभ्रं प्राप्य विभीषणः । बाढं सहोदरप्रीत्या स्नेहतः किं न जायते ॥२२०॥ भुक्त्वा परं सुखं स्वर्गे दुःखं च नरके तथा । उत्पत्तिमनयोर्वक्ष्ये स्वर्गश्वभ्रनिवासिनोः॥२२१॥ अथ जम्बूमति द्वीपे वास्ये भरतनामनि । विषये गन्धमालिन्यां विजयाध पुरोत्तमम् ॥ २२२ ॥ बभूवात्र पुरे राजा श्रीधर्माख्यो महामतिः । श्रीदत्ताऽस्य प्रिया चावीं श्रीदासस्तनयोऽनयोः ॥२२॥ सोऽन्यदा मन्दरं स्वर्ण विद्यां साधयितुं गतः । बोधितो लान्तवेन्द्रेण श्रावकत्वमुपागतः ॥२२४॥ 20 अनन्तमतियोगीन्द्रं प्राप्य दीक्षां विधाय च । ब्रह्मलोके सुरो जातश्चन्द्राभाख्ये विमानके ॥२२५॥ निर्गत्य सप्तमाच्छुभ्रात् सो भूत्वाऽतिदारुणः । भूयोऽपि प्रथमं श्वभ्रं प्राप्तोऽयं पापयोगतः ॥२२६॥ ततो निसृत्य पापिष्ठो भ्रान्त्वा तिर्यग्गतावपि । नानादुःखानि भुञ्जानस्तिष्ठति क्षीणशक्तितः ॥२२७॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपसमन्विते । भूतवज्राटवीमध्ये विद्येतैरावती नदी ।। २२८॥ तत्तटे तापसो नाना खण्डकेशी वसत्यसौ । तद्भार्या स्वर्णकेशी च मृगशृङ्गः सुतोऽनयोः॥२२९।। 25 ततः पञ्चाग्निमध्यस्थः कन्दमूलादिभक्षणम् । कुर्वाणो मृगशृङ्गोऽसौ तिष्ठति प्रीतमानसः॥२३०॥ चन्द्राभखेटमालोक्य देवादिपुरनायकः । कृत्वा निदानकं तत्र तूर्णं कालं चकार सः ॥२३१॥ इहैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । विजया?त्तरश्रेण्यां पुरं गगनवल्लभम् ॥ २३२ ॥ विद्युत्प्रभोऽभवत् तत्र पुरे विद्याधराधिपः । भार्या विद्युत्प्रभा चास्य विद्युदंष्ट्रः सुतोऽनयोः ॥२३॥ भद्रशालवनं गत्वा प्रियया सह सादरः । ततो निवर्तमानः सन् मुनिं दृष्ट्वा चुकोप सः॥२३४ ॥ 30 खभायों खपुरं प्राप्य प्रदोषसमये सति । बाहुभ्यां तं समुत्क्षिप्य कायोत्सर्गस्थितं मुनिम् ॥२३५॥ इहत्यमारते भागे विजयार्धस्य दक्षिणे । मुक्त्वा पञ्चनदीसंगे यति स स्वपुरं ययौ ॥ २३६ ॥ स्तोककालं सुखं सुस्वा क्रोधं प्राप्य पुनः सकः। विद्याधरान् समाहूय जगाविति पुरः स्थितान् ॥२३७॥ 1 पफ गधिलो. 2 ज वित्ताः=ज्ञानवन्तः. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 [सप्तमाच्छुभ्रात् ], 5 [°मध्येऽविद्य]. 6 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ७८. २३८ यथाऽद्य रजनीमध्ये देवता मां जगाविदम् । गत्वा पञ्चनदीसंगे पञ्चचापशतोन्नतिः ॥ २३८ ॥ आस्ते नग्नत्वरूपेण सज्जनोद्वेगकारकः । भक्षयिष्यति खेटौघानतीते' दिवसत्रये ॥ २३९॥ ततः सर्वेऽपि संप्राप्य ते पिशाचं ससंभ्रमाः । अग्निवर्णशलाकाभिर्भित्त्वा लौहिभिरादरात् ॥ २४०॥ हतेऽमुष्मन् पिशाचा धृतननत्वभीषणे । विद्याधरसमूहस्य शान्तिरद्य भविष्यति ॥ २४१ ॥ • श्रुत्वा तद्वचनं प्राप्य सर्वविद्याधरैर्मुनेः । कायो भिन्नोऽग्निवर्णाभिस्तच्छलाकाभिरादरात् ॥ २४२ ॥ एवं कृते मुनेरस्य सर्वविद्याधरैर्युतम् । केवलज्ञानमुत्पन्नं लोकालोकावलोकनम् ॥ २४३ ॥ श्रीभूतिपूर्वको विप्रो विद्युष्ट्रोऽयमुग्रधीः । उपसर्गं चकाराशु मुनेरस्यासुना खलः ॥ २४४ ॥ योऽसौ वज्रायुधो देवश्युतः सर्वार्थसिद्धितः । तस्यावतरणं वक्ष्ये भवद्भिः श्रूयतामिति ॥ २४५ ॥ नगर्यां वीतशोकायां संजयन्तोऽभवत् पुनः । सिंहसेनो नृपः पूर्वं भ्रमित्वा बहुधा सकः ॥ २४६ ॥ 1. संजयन्तस्य यो भ्राता ब्रह्मलोकाच्युतः पुनः । जयन्तस्त्वं स संजातो धरणेन्द्रोऽधुना सुरः ॥२४७॥ त्वमन्यजन्मनि स्पष्टं खर्णचन्द्रोऽसि निश्चितम् । जातोऽहं लान्तवेन्द्रस्तु ध्यानसंपन्नभोगकः ॥ २४८ ॥ भवत्पूर्वभवे माता संजाता प्रीतिकारिणी । रामदत्तेति विख्याता सकले वसुधातले ॥ २४९ ॥ कारणेनामुना वत्स धरणेन्द्र ससंभ्रमः । वैरं हित्वा भव क्षिप्रं त्यक्तसर्वदुरीहितः ॥ २५० ॥ लान्तवेन्द्रवचः श्रुत्वा धरणेन्द्रो खलानिमान् । खेचरानाजुहावाशु भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ २५१ ॥ 1s आगताः सकलाः खेटा मस्तकन्यस्तपाणयः । अनयाऽवस्थयाऽनेन स्थापिता धरणेन ते ॥ २५२ ॥ श्रीमन्तं पर्वतं प्राप्य संजयन्तस्य योगिनः । पञ्चचापशतोत्सेधां कारयध्वं प्रयातनाम् ॥ २५३ ॥ संजयन्तपदाभ्याशे सर्वा विद्या मनोरमाः । यास्यन्ति भवतां सिद्धिं साध्यमाना न चान्यथा ॥ २५४ ॥ एवमुक्त्वा तकान् सर्वान् धरणेन्द्रस्त्वरान्वितः । तद्भक्तिहृष्टचेतस्को जगाम निजमालयम् ॥२५५॥ मधुरायामभूद् राजाऽनन्तवीर्यो महाबलः । मेघमाला महादेवी प्रथमाऽस्य प्रकीर्तिता ॥ २५६ ॥ लान्तवेन्द्रस्ततयुत्वा पुत्रो जातोऽनयो परः । सर्वलक्षणसंपूर्णो बन्धुलोकमनोहरः ॥ २५७ ॥ अमितप्रभसंज्ञायाः द्वितीयायाः स्वयोषितः । धरणेन्द्रोऽभवत् कान्तो मेरुनामानयोः सुतः ॥ २५८ ॥ ततस्तौ भ्रातरौ तत्र भुक्त्वा भोगान् मनोरमान् । तपो जगृहतुर्जेनं श्रेयस्तीर्थकरान्तिके ॥ २५९ ॥ तत्र मेरुकुमारोऽयं केवली मन्दरः पुनः । श्रेयसो देवदेवस्य संजातो गणनायकः ॥ २६० ॥ ॥ इति श्री श्री भूतिपुरोहितकथानकमिदम् ॥ ७८ ॥ * ७९. इन्द्रादिमुनिदत्ताविकृतिकथानकम् । B ऋषभस्य' जिनेन्द्रस्य सरणे समवादिके । सौधर्मेन्द्रो बभाणेदं कौतुकव्याप्तमानसः ॥ १ ॥ अदत्तं साधवस्तावन्न गृह्णन्ति स्वतः क्वचित् । दन्तशोधनमात्रं वा मुक्तिरामासमुत्सुकाः ॥ २ ॥ अन्यैरपि न चादत्तं ग्राहयन्ति यतीश्वराः । गृह्णन्तो वा परे दत्तं मन्यन्ते न मनागपि ॥ ३ ॥ विकृत्यं गृह्णतां तेषामदत्तं हि तपखिनाम् । न जाघटीति साधूनां तृतीयं तु महाव्रतम् ॥ ४ ॥ • सौधर्मेन्द्रवचः श्रुत्वा भरतश्चक्रलाञ्छनः । बभाणेदं विशुद्धात्मा तदा संसत्पुरःसरम् ॥ ५ ॥ साधूनां गृह्णतां तेषामल्पसंयमकारणम् । न भङ्गो जायते नूनं तृतीयस्य यमस्य सः ॥ ६ ॥ भरतस्य वचः श्रुत्वा भक्तिनिर्भरचेतसः । इदमेवोदितं सर्वं ग्रामकूटैरपि स्फुटम् ॥ ७ ॥ 20 25 1 फज पेटौधान्, 2 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम् 3 पफ रिषभस्य 4 पफ समुत्सकाः. 5 पफज चतुर्भिः कुलकम्. 6 पफ युग्मम् ज युगलम्. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८०. २२ ] शिववर्मविप्रकथानकम् शेषतीर्थकराणां च स्वस्वतीर्थप्रवर्तिनाम् । चक्रवर्त्यादिसामन्तैर्दत्तं विकृतिकारणम् ॥ ८ ॥ विपुलादिगिरेः शृङ्गे सरणे समवादिके । स्थितस्य वीरनाथस्य सौधर्मेन्द्रो जगाविमम् ॥ ९ ॥ विकृत्यादिकमेतेषामल्पसंयमकारणम् । वितीर्णं हि मया भक्त्या मुनीनां शुद्धचेतसाम् ॥ १० ॥ तथा श्रेणिकराजोऽपि तद्वचोऽपि निशम्य च' । बभाणेमं विनीतात्मा पुरन्दरपुरस्सरम् ॥ ११ ॥ मया धरणिनाथेन विकृत्यादिकमादरात् । वितीर्णं यदि संघेम्यः संयमस्यावनं ध्रुवम् ॥ १२ ॥ तथाऽन्यैरपि सामन्तैर्भक्तिहृष्टतनूरुहैः । विकृत्यादिकमेतेषां वितीर्णं यमसाधनम् ॥ १३ ॥ इन्द्रादिभिर्यतिभ्यो हि विधिनाऽवग्रहादिना । वितीर्णं तुष्टचेत स्कैर्विकृत्यादिकमादरात् ॥ इच्छाकारं विधायोच्चैर्मुनिभिर्विधिपूर्वकम् । विकृत्यादिकमात्तव्यं कालेऽमुष्मिन्नपि स्फुटम् ॥ ॥ इति श्री इन्द्रादिमुनिदत्ताविकृतिकथानकम् ॥ ७९ ॥ १४ ॥ १५ ॥ * १९७ ८०. शिववर्मविप्रकथानकम् । 'कुरुजाङ्गलदेशेऽस्ति धनधान्यजनालये । आखण्डलपुर श्रीकमहिच्छत्रपुरं परम् ॥ १ आसीद् दत्तपुरे विप्रः श्रोत्रिको वेदपारगः । शिवभूतिः प्रिया चास्य वसुशर्मा मनः प्रिया ॥ २ ॥ सोमशर्माऽभवत् तस्याः शिवशर्मा च नन्दनः । सोमकान्तिसमो ज्येष्ठः कनीयान् सुखलम्पटः ॥३॥ शिवशर्मा पठन् वेदमशुद्धं सोमशर्मणा । हतो वारत्रयं रोषात् कनिष्ठ द्यायसा तरम् ॥ ४ ॥ अनेन कारणेनास्य नाम वारत्रिकाभिधम् । लोके प्रसिद्धमायातं द्वितीयं शिवशर्मणः ॥ ५ ॥ सर्वशास्त्रार्थनिष्णातः श्रोत्रिकोऽसौ वारत्रिकः । षटुर्माभिरतस्तस्थौ तत्पुरे प्रीतमानसः ॥ ६॥ एवं तिष्ठन् पुरे तत्र वारत्राख्यं स्वनामकम् । शृण्वन् जनसमूहेभ्यो वैराग्यं गतवानसौ ॥ ७ ॥ अमुतो नामतः प्राप्य वैराग्यं स गृहादरम् । निर्गत्य प्राप तां सारां श्रावस्थि नगरीमसौ ॥ ८ ॥ जिनधर्मं समाकर्ण्य तदा दमवरान्तिके । शिवशर्मा सवैराग्यो दधौ जैनेश्वरं तपः ॥ ९ ॥ अन्यदा कूपपानीयमध्ये निजतनुं मुनिः । पश्यन् विलोकितो जातु नितरां निजसूरिणा ॥ १० ॥ 20 तं योगिनं तत्र जगादैनं गुरुस्तदा । महिलार्थं निजं बिम्बं पश्यसि त्वं जलान्तरे ॥ ११ ॥ श्रुत्वा गुरुदितं वाक्यं नवधर्मी विलक्षकः । महाटवीं विवेशायं 'स्त्री पाण्डपशुवर्जितम् ॥ १२ ॥ मुक्त्वा मासोपवासं च पारणार्थं वनान्तरे । भ्राम्यति स्म गुणाधारः प्रलम्बितभुजद्वयः ॥ १३ ॥ वृक्षोपरि स्थितास्तत्र देवता भक्तितत्पराः । अदृष्टविग्रहास्तस्मै भिक्षां ददति क्षापरम् ॥ १४ ॥ ग्रहीतुं सोऽपि तां भिक्षां तद्दत्तां नेच्छति स्फुटम् । पान्थसार्थं जगामासौ मन्दं मन्दगतिक्रियः ॥ १५ ॥ 25 तद्दत्तां च महाभिक्षां समादाय मुनीश्वरः । जगामाशु ततो देशात् तपोमार्गविचक्षणः ॥ १६ ॥ अपि साधुं प्रदेशं तं सार्थवाहो महाधनः । सागरोपपदो दत्तः प्राप सार्थसमन्वितः ॥ १७ ॥ पुनस्तेनैव सार्थेन सहैको गङ्गदेवकः । लंखिकोऽस्य' प्रिया नाम्ना गङ्गदत्ता समागता ॥ १८ ॥ मदनोपपदा वेगा तत्सुता चारुलोचना । सर्वलक्षणसंपूर्णा सर्वशास्त्र कलान्विता ॥ १९ ॥ एवंविधा च सा कन्या नानाभरणभूषिता । तदा मध्याह्नवेलायां नानाजनपदान्विता ॥ २० ॥ नानातूर्यकलध्वानबधिरीकृतदिग्मुखम् । वरत्रायां समारूढा नृत्यति स्म मदालसम् ॥ २१ ॥ भिक्षाषेलाप्रविष्टेन वारत्राख्येन साधुना । कुर्वती नर्तनं दृष्ट्वा दुर्गादेवीपुरस्तदा ॥ २२ ॥ 30 1 ज तद्वचो विनिशम्य 2 ज कुरुजंगल. 3 [ ज्यायसा ]. 4 [ श्रावस्तीं ] 5 पज पाण्डु, [पण्ड ]. 6 ज सुधुप्रदेशं 7 ज लेखको. 5 10 15 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [८०. २३दृष्ट्वेमां लंखिकां तत्र कामविह्वलमानसः । तपो विहाय जैनेन्द्रं लंखिकाभ्याशमाप सः ॥ २३॥ दृष्ट्वाऽन्योन्यमुखाम्भोजं प्रीतिविस्फारितेक्षणौ । परस्परसुखासंगसक्तचित्तौ बभूवतुः ॥ २४ ॥ वरत्रारोपितस्कन्धमहिच्छत्रपुरं गतम् । दृष्ट्वाऽमुं ब्राह्मणाः सर्वे नागराश्च वदन्त्यलम् ॥ २५ ॥ भवतां कर्म नो योग्यमिदमागच्छ सत्वरम् । ब्राह्मणान्तं परिप्राप्य प्रायश्चित्तं कुरु स्फुटम् ॥२६॥ । पूर्वयाऽवस्थया तिष्ठ खगृहे निजलीलया । निजं कर्म प्रकुर्वाणैर्लज्यते न हि जन्तुभिः ॥ २७॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि जगादतान् पुरः स्थितान् । शोभनावस्थया विप्राः स्थितोऽहं किंतु सस्पृहम्॥२८॥ अङ्गवेदचतुष्कं च मीमांसान्यायविस्तरम् । धर्मशास्त्रपुराणं च विद्यास्थानान्यमूनि च ॥ २९॥ विद्यास्थानेषु सर्वेषु शास्त्रेष्वन्येषु च द्रुतम् । यदि कोऽपि कृताभ्यासः समायातु ममान्तिकम् ॥३०॥ युष्माकं येन संदेहं निराकृत्य व्रजाम्यहम् । दूरं न याति यावच्च लंखिका मन्मनोहरी ॥ ३१ ॥ 10 अपकर्य वचस्तेषां निजविद्याबलेन सः । जगाम लंखिकाभ्याशं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ ३२ ॥ ततो द्वादशवर्षाणि निरूढ़ा तद्वरत्रिकाम् । लंखिकायाः प्रविज्ञानं विदांचक्रे स शोभनम् ॥३३॥ अन्यदा लंखिकायुक्तो विहरन् गतियोगतः । साधुलोकसमाकीर्णं सको राजगृहं ययौ ॥ ३४ ॥ कान्तासमन्वितस्यास्य श्रेणिकस्य पुरस्तदा । खड्गचापोपरि स्पष्टं चके नृत्यं स शोभनम् ॥ ३५॥ वैद्याधरं युगं दृष्ट्वा गगने शोभनाकृतिः । जातिस्मरो बभूवायं नर्तकः प्रीतमानसः ॥ ३६॥ 15 दृष्ट्येदं शोभनाकारं वार्तिको वरवर्त्मनि । दध्यौ विस्मितचेतस्कः श्रेणिकस्य सभान्तरे ॥ ३७॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे विजयार्धस्य भूभृतः । दक्षिणस्या दिशो भागे प्रियंकरपुरे वरे ॥ ३८॥ प्रियंवरो नृपोऽत्रैव नगरे परमोदयः । महाव्रती महादेवी भूपतेरस्य शोभना ॥ ३९ ॥ सोऽहं तन्नन्दनः पूर्वभवे प्रीतिकरोऽभवम् । नानाविद्यासमासंगविज्ञातजनभावनः ॥४०॥ अन्यदा गगने गच्छन् वापी वालाम्बुगाभिधाम् । ददर्श कञ्जसंछन्नं वालवाजलसंभृताम् ।। ४१॥ 20 तत्समीपे मया दृष्टा लंखिकेयं पुराभवे । विद्याधरी महाविद्यां साधयन्ती मनोरमाम् ॥ ४२ ॥ वापीजलान्तरस्थाया मुखमालोक्य संमितम् । एतस्या भ्रमरो भूत्वा पद्मे लीनोऽहमुत्सुकः॥४३॥ तत्समीपं परिप्राप्य तन्मुखाम्भोजमाप्य सः । स्वरूपं दर्शयामास कृतलोककुतूहलम् ॥ ४४॥ ललाटपटविन्यस्तकरकुड्मलराजिता । जगौ विद्याधरं सा च प्रणम्येति कुतूहलात् ॥४५॥ मा तावच्छीघ्रगामिन्या विद्याया विघ्नकारकः। भव त्वं साध्यमानाया विद्याधरमहेश्वर ॥ ४६॥ 25 नूनं साधितविद्यस्य लोकद्वयविलासिनः । तव भार्या भविष्यामि प्रतिज्ञेयं महेश्वर ॥४७॥ श्रुत्वा तद्वचनं खेटस्तन्मतं प्रतिपद्य च । तोषपूरितचेतस्को ययौ निजपुरं पुनः॥४८॥ ततः साधितविद्येन तेन खेटेन सत्वरम् । परिणीता सका खेटी जयमङ्गलनिस्वनैः॥४९॥ अनया सह भुञ्जानो भोगान् भोगीन्द्रसंनिभान् । तिष्ठति प्रीतचेतस्कः खेचरो निजपत्तने ॥५०॥ अन्यदा सौधमूर्धस्थो विमानाभं समुन्नतम् । विलीनं धनमालोक्य वैराग्यं गतवानसौ ॥५१॥ " श्रुत्वा जैनेश्वरं धर्म महावैराग्यसंगतः । गुरोः संयमसेनस्य समीपे सोऽग्रहीत् तपः ॥ ५२॥ तपो जैनं विधायाशु कालं चापि समाधिना । सौधर्मे धर्मसंबन्धाद् बभूवासौ सुरोत्तमः ॥५३॥ विद्याधरी तपः कृत्वा जैनं मृत्वा समाधिना । सौधर्म प्राप सद्भार्या कनकोज्वलविग्रहा ॥ ५४॥ अहिच्छत्रपुरे विप्रः शिवभूतिर्बभूव च । गेहिनी वसुमित्राऽस्य भर्तृप्रीतिपरायणा ॥ ५५ ॥ ___1 पफज त्रिभिः कुलकम्. 2 [ साङ्गवेद°]. 3 पफ समायान्तु. 4 [अपकृत्य ]. 5 पफज चवाः कुलकम्. 6 पफ वरवर्तिनि. 7 [सस्मितम् ].8 पफज कुलकम. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीपायनकथानकम् १९९ अन्योन्यप्रेमसंयुक्तवाञ्छितमनसोस्तराम् । सौधर्मादेत्य संजातः ' शिवशर्माऽनयोः सुतः ॥ ५६ ॥ श्रवणत्वं परिप्राप्य देवानामपि दुर्लभम् । हित्वा तपोऽपि जैनेन्द्रं संप्राप्तोऽहं गृहस्थताम् ॥ ५७ ॥ अन्यजन्मनि या भार्या खेचरी मम वल्लभा । सौधर्मादेत्य संजाता लिंखिका' सेह सांप्रतम् ॥५८॥ अनया सह भुञ्जानः कामभोगान् मनोरमान् । पर्यटन् विविधान् देशान् संप्राप्तोऽहं पुरोत्तमम् ॥५९॥ विद्याधरा मरेर्यो न तृप्तिमुपागतः । स कथं लेखिकाभोगैस्तृप्तिं यास्यामि सांप्रतम् ॥ ६० ॥ एवं विचिन्त्य बुद्धात्मा नृत्यारम्भं विहाय च । वेणोर्मस्तकतः क्षिप्रं समुत्तीर्णो भुवस्तलम् ॥ ६१ ॥ साऽपि विद्येश्वरी भूत्वा स्ववंशशिरसो द्रुतम् । उत्तीर्णा तोषसंपूर्णा मन्दमन्दगतिक्रिया ॥ ६२ ॥ एवं कृते सति स्पष्टं पूर्वजन्मनि संचिताः । विद्याः समागताः सर्वाः किंकर्तव्यसमाकुलाः ॥ ६३ ॥ अथ श्रेणिकराजोऽपि दृष्ट्वा विद्यास्तदन्तिके । पप्रच्छेमं यथावृत्तं कौतुकव्याप्तमानसः ॥ ६४ ॥ श्रेणिकस्य वचः श्रुत्वा वारत्रेण कुतूहलात् । विद्याधरादिकं सर्वं यथाक्रममुदाहृतम् ॥ ६५ ॥ श्रुत्वाऽतिशयमीदृक्षं तदानीं बहवो नराः । भोगाद् विरममासाद्य बभूवुः श्रमणोत्तमाः ॥ ६६ ॥ केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचिन्मध्यस्थतां पराम् । केचिज्जिनस्य धर्मस्य प्रशंसां चक्रिरे तराम् ॥६७॥ वात्रोऽपि विधायाशु प्रायश्चित्तं विशुद्धधीः । गुरोर्दमवरस्यान्ते दधौ दैगम्बरं व्रतम् ॥ ६८ ॥ श्रेणिकोऽपि महाराजस्तत्तपश्चरणे दिने । चक्रे महोत्सवं भक्त्या जनविस्मयकारणम् ॥ ६९ ॥ वराटविषये रम्ये दिशाभागे च पश्चिमे । वैराकरस्य सारस्य जनानन्दविधायिनः ॥ ७० ॥ विन्यानदीसमीपस्थं सालूरापणराजितम् । विहरन् स मुनिः क्वापि प्राप विन्यातटं पुरम् ॥ ७१ ॥ नानातपः प्रकुर्वाणो राद्धान्तकृतभावनः । तत्र कर्मक्षयं कृत्वा निर्वाणं गतवानसौ ॥ ७२ ॥ जिनधर्मं ससम्यक्त्वं गृहीत्वा लेखिकाऽपि च । बभूव श्राविकात्यन्तं तज्जनोऽपि तथाविधः ॥ ७३ ॥ ॥ इति श्रीशिववर्मविप्रवरत्राभिधानकथानकमिदम् ॥ ८० ॥ * -८१.१२] ८१. द्वीपायनकथानकम् । कुलालाख्यजनान्ते च श्रावस्ती नगरी परा । अस्यां द्वीपायनो राजा तत्प्रिया च मनोरमा ॥ १ ॥ वसन्तसमये जाते वनं नन्दनसंनिभम् । रन्तुं गोचरसंदीवो ययावन्तः पुरान्वितः ॥ २ ॥ चूतवृक्षं विलोक्यात्र मञ्जरीभिः समन्वितम् । तन्मञ्जरीं समादाय चकार श्रवणे नृपः ॥ ३ ॥ दृष्ट्वा तन्मञ्जरीमेकां भूभुजः शिरसि स्थिताम् । स्कन्धावारेण सर्वेण लुण्टितोऽयं क्षयं ययौ ॥ ४ ॥ दृष्ट्वा क्षयं गतं चूतं नग्नाचार्येण केनचित् । तन्मूलमेकमादाय स्वशिखायां निवेशितम् ॥ ५ ॥ प्राध्वंकृत्य शिखायां तत्पुरो धावति भूपतेः । उच्चरन् सुगुणानस्य कृतकोलाहलध्वनिः ॥ ६ ॥ नग्नाचार्यशिखायां च बद्धं तं वीक्ष्य सांप्रतम् । ततो विस्मयमापन्नः पप्रच्छैतं स भूपतिः ॥ ७ ॥ चूतवृक्षो मया दृष्टो मञ्जरीपरिशोभितः । नग्नाचार्यः कुतो नात्र दृश्यते सोऽधुना वद ॥ ८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं वृद्धो जगादेति कुतूहली । एतन्नाशनिमित्तं श्रीभूप शृणु वदाम्यहम् ॥ ९ ॥ गच्छताऽत्र त्वया नाथ चुतस्य नवमञ्जरी । गृहीत्वा मस्तके न्यस्ता कौतुकव्याप्तचेतसा ॥ १० ॥ ७ त्वत्सैन्येन समस्तेन चूतस्येत्थं विलोक्य च । पत्रमूलादिकं सर्वं कृतं कर्णे पवित्रतः ॥ ११ ॥ पश्चात् समागतेनेदं चूतमूलं मया नृप । यत्नेन महता लब्धं शिखायां विनिवेशितम् ॥ १२ ॥ 1 पफ संयातः 2 [ लेखिका ]. 3 ज मन्दं मन्द°. 4 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम्. 5 पफ read श्रीत्रिकलमिशिव. 6. पफ द्वीपायिनो. 15 20 25 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [८१. १३अधुना चूतवृक्षोऽयं फलपुष्पादिसंपदा । नूनं विनाशमायातो कथितोऽस्य मया नृप ॥१३॥ चूतं विनष्टमालोक्य मूलतो नरकुञ्जरः । महावैराग्यमापन्नो दध्यौ मनसि धीरधीः ॥ १४ ॥ धनं यौवनमायुश्च रूपं सौभाग्यमेव च । अनित्यं सर्वमेवेदं शकचापमिव क्षितौ ॥१५॥ एवं विचिन्त्य शुद्धात्मा महावैराग्यसंगतः । समाहूय सुतं ज्येष्ठमुदीर्णबलवाहनम् ॥ १६ ॥ 5 प्रदाय सकलं राज्यं सुतायास्मै नरेश्वरः । प्रणम्योत्तरसूर्याख्यं गुरुं दीक्षामशिश्रियत् ॥ १७ ॥ द्वीपायनमुनिस्तूर्णं पठित्वाऽऽगममञ्जसा । गुरुणा सर्वसंधेन संप्राप्तोजयनी पुरीम् ॥ १८॥ द्वीपायनमुनिस्तत्र मुनिसागरपर्वतम् । प्राप्य वैराग्यसंपन्नो वसति प्रीतमानसः ॥ १९॥ . नरवृन्दारकः श्रुत्वा मुनिवाता जनौघतः । तद्वन्दनार्थमायातस्तदुद्यानवनं परम् ॥ २० ॥ तत्र दृष्ट्वा मुनीन् सर्वान् वन्दित्वा भक्तितो नृपः। द्वीपायनमुनिं नैकं पश्यति प्रीतिकारणम् ॥२१॥ 10 ततो नरेश्वरः प्राप्य मुनिसागरपर्वतम् । दृष्ट्वामुं तत्र भावेन ववन्दे तत्क्रमद्वयम् ॥ २२ ॥ अन्यदा कोकिलाशब्दं पूर्णिमायां निशम्य सः । बभाण संघमध्यस्थो योगी योगिकदम्बकम् ॥२३॥ संघमध्येऽद्य यो योगी भिक्षार्थ कोऽपि यास्यति । पुरीमुज्जयनीं तस्य व्रतभङ्गो भविष्यति ॥२४॥ निशम्य तद्वचोऽमोघं तदा केचिदिगम्बराः । उपवासं विधायात्र तस्थुर्विस्मितचेतसः ॥ २५॥ उपवासपरिश्रान्ताः पारणार्थं कृतोद्यमाः । ग्राममन्यं परे जग्मुर्वालवृद्धतपोधनाः ॥ २६ ॥ 15 द्वीपायनमुनिस्तत्र तद्वचोऽसत्यतां विदन् । पारणार्थं परिणाप श्रीमदुजयिनी पुरीम् ॥ २७ ॥ विद्यतेऽस्यां नराधीशो जितशत्रुर्जिताहितः । भार्या कनकमालाऽस्य कनकोज्वलविग्रहा ॥ २८ ॥ काशीजनपदे रम्ये वाराणस्यां नराधिपः । श्रीमान् श्रीधर्मनामासीच्छ्रीमती तप्रिया प्रिया ॥२९॥ रूपयौवनसंयुक्ता श्रीकान्ता तनयाऽनयोः । स्ववक्रजितचन्द्रास्या तत्सखी कामसुन्दरी ॥३०॥ देवकन्येव सा तन्वी रूपयौवनगर्विता । जितशत्रोनरेन्द्रस्य जाता साऽत्यन्तवल्लभा ॥ ३१॥ 20 वरूपजितपौलोमी पीनोन्नतकुचद्वया । श्रीकान्ता दुर्भगा जाता जितशत्रोविधेर्वशात् ॥ ३२॥ ... एवं गतवति स्पष्टं श्रीकान्तायास्त्वनेहसि । ततः प्राप्य तं वक्ति जनकं जनितादरम् ॥ ३३ ॥ पट्टबन्धा महादेवी संजाता कामसुन्दरी । जितशत्रोरहं द्वेष्या तिष्ठामि च तदन्तिके ॥ ३४ ॥ निशम्य स्वसुतावाक्यं तत्पित्रा प्रीतचेतसा । श्रीकान्ता कामसुन्दा तेनानीतं स्वपत्तनम् ॥३५॥ क्रियमाणेऽन्यदा जातु तत्पुरे नखकर्मणि । श्रीकान्तायाः सुकान्ताया नापितेन विलासिना ॥३६॥ 25 नापितः कामसुन्दर्या यावन्नयति तान्नखान् । छेदं हि वामपादस्याङ्गुष्ठं तावत्समच्छिनत् ॥३७॥ . विषप्रयोगयोगेन वृषभेण नरेण तत् । तदा प्रच्छन्नतां नीतं वहन्नालिव्रणाशुचिम् ॥ ३८॥ अन्यदोजयनीं प्राप्य श्रीकान्ता भर्तुरन्तिकम् । संप्राप्ता कामसुन्दर्या कान्तवल्लभया तराम् ॥३९॥ जितशत्रुर्विलोक्येमां वल्लभां कामसुन्दरीम् । कुष्ठशीर्णतदङ्गुष्ठां तद्विरक्तोऽभवद् भृशम् ॥ ४० ॥ सुवर्णमयमङ्गुष्ठं वामपादे विधाय च । पण्यस्त्रीव्यवहारेण तस्थौ हि कामसुन्दरी ॥४१॥ ।। 30 अन्यदा भयतो नूनमुदीर्णबलवाहनात् । प्रदाय घोषणां शीघ्रं खातिकार्थ प्रयत्नतः ॥ ४२ ॥ श्रीमदुजयनीलोकं बालवृद्धपुरस्सरम् । आहूतवान् तदा स्पष्टं जितशत्रुः ससंभ्रमः ॥४३॥ द्वीपायनमुनिस्तत्र गृहपंक्त्या भ्रमन् क्रमात् । समाययौ तमुद्देशं बहुलोकसमावृतम् ॥ ४४ ॥ दृष्ट्वा मुनिं समायातं तत्रत्या बहवो नराः । इदमूचुस्तदा क्रूरा कृतकोलाहलखनाः ॥ ४५ ॥ ... 1 पफ चतुष्कुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 3[संप्रापोज्जयिनी]. 4 जमुनिनैकं. 5 पफ श्रीमदुनयनी, 6पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८1. ७७] द्वीपायनकथानकम् २०१ आदेशेन नरेन्द्रस्य जनाः खनति खातिकाम् । अतो मुनेः' सहायत्वमस्माकं भव सांप्रतम् ॥४६॥' श्रुत्वा तद्वचनं योगी जगादैतान् पुरःस्थितान् । पुरे भिक्षां विधायाशु खनिष्ये खातिकामतः॥४७॥ तन्मुक्तो नगरस्यान्तः प्रविष्टः स दिगम्बरः । दृष्टोऽयं कामसुन्दर्या स्वगृहाजिरमागतः ॥४८॥ कामसुन्दरिकां दृष्ट्वा कामाकुलितमानसः। ततो निवृत्तमानः सन् ब्राह्मणैगदितो मुनिः॥४९॥ आकर्ण्य तद्वचः साधुर्बभाणैतान् रुषं गतः । खातिकाऽर्थं च कुद्दालं समर्पयत मेऽधुना ॥ ५० ॥ तद्वाक्यतोअर्पितो विप्रैः कुद्दालमभिमत्रयन् । यावजलं खशक्त्यैष चखान धरणीमरम् ॥ ५१ ॥ खात्वा तत्र भुवं तेन मुक्त्वाऽमुं सहसा मुनिः । जगाम क्षुत्परिश्रान्तो मुनिसागरपर्वतम् ॥५२॥ गत्वा तं पर्वतं साधुनानातरुसमाकुलम् । रूपं हि कामसुन्दर्या विलिखन् व्यवतिष्ठते ॥ ५३॥ तत्खातिकाप्रहारेऽत्र दत्ते सति तपस्विना । प्रवृत्तं तजलं गन्तुं बाह्याभ्यन्तरतः पुरः ॥ ५४॥ ततो नृपगृहं व्याप्तं बाह्येनाभ्यन्तरेण च । खातिकाजलपूरेण महाप्लवविधायिना ॥ ५५ ॥ ॥ तद्वातों सकलां ज्ञात्वा तदा जनसमूहतः। समाकुलो बभूवायं जितशत्रु रेश्वरः ॥५६॥ सामन्तसचिवानां हि तलवर्गपुरोधसाम् । समस्तप्रकृतीनां च योषितोऽगुस्तदन्तिकम् ॥ ५७ ॥ असमर्था वशीकर्तुं द्वीपायनमुनि पुनः । जग्मुर्युवतयः शीघ्रं निजगेहं विचेतसः ॥ ५८॥ ततो गतप्रभा रामा मुनिना विहितास्तदा । स्वयमेव जगामाशु तदन्तं कामसुन्दरी ॥ ५९॥ हत्वाऽमुं पादघातेन वशीकृत्य स्वरूपतः । द्वीपायनमुनि निन्ये खगेहं कामसुन्दरी ।। ६०॥ . 15 मानं महाव्रतं हित्वा तदा द्वीपायनो मुनिः। कामभोगांस्तया साधं भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥६१॥ अक्षोभ्योऽलङ्घनीयोऽन्यैर्गम्भीरो गुणसागरः । रामासंगेन तन्निन्द्यो बभूवासौ धरातले ॥ ६२॥ सुवर्णागसमुत्तुङ्गो धरणीसमविभ्रमः । तृणसारो बभूवायं योषासंगेन तत्क्षणात् ॥ ६३॥ साधुगन्धगजोत्तुङ्गो मन्दमन्दगतिक्रियः । स्त्रीकरेणुसमासक्तो वारिबन्धं गतः कथम् ॥ ६४ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोब्रह्मसमन्वितः । सद्ध्याननष्टचेतस्को जातोऽसौ स्त्रीप्रसङ्गतः ॥ ६५ ॥ एवं द्वादशवर्षाणि भुञ्जानस्यास्य शं तराम् । तदानीं कामसुन्दर्या गतो मोहो हि तत्पुरे ॥६६॥ अन्यदागत्य वेगेन श्रीमदुज्जयनी पुरीम् । वेष्टयित्वा स्वसैन्येन रुद्धा तेन समन्ततः॥ ६७॥ कलकोलाहलध्वाननादिताशेषपुष्करः । तस्थौ जनाहितो धीरमुदीर्णबलवाहनः ॥ ६८॥" तत्रत्यस्य सुतस्यास्य लेखं द्वीपायनस्तदा । शुकतुण्डस्थितं कृत्वा प्रेषयामास सत्वरम् ॥ ६९ ॥ अहं द्वीपायनः पुत्र त्वत्पिता व्रतखण्डनम् । विधायावस्थितोऽत्रैव नगरे त्वद्भयाकुले ॥ ७० ॥ लेखार्थे शुकतुण्डस्थमवधार्य सुभूपतिः । महावैराग्यसंपन्नो बभूव क्षणमात्रतः ॥७१॥ श्रीमदुजयनीको विहाय जनकोक्तितः । श्रावस्ति प्रययौ तूर्णमुदीर्णबलवाहनः ॥ ७२ ॥ खसुताय निजं राज्यं दत्त्वा वैराग्यसंगतः। यशोधरगुरोः पार्थे स दीक्षामग्रहीत् तदा ॥ ७३ ॥ जितशत्रुः परिज्ञाय गतं परबलं पुरात् । द्वीपायनमतेनास्य पूजां चक्रे धनादिकम् ॥ ७४ ॥ द्वीपायनाय तोषेण सर्वाङ्गीणेन सत्वरम् । जितशत्रुर्जनाध्यक्षं महामत्रिपदं ददौ ॥ ७५॥ " यत्पुनः प्राभृतं पूर्वं बहुमूल्यं दिने दिने । जितशत्रुर्ददात्यस्मै महातोषसमन्वितः ॥ ७६ ॥ पूजयित्वा धनैर्बाढं द्वीपायनमनेकशः । जितशत्रुर्बभाणेदं वचसा कामसुन्दरीम् ॥ ७७॥ 1 [मुने सहायस्त्व॰]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 [मौनं]. 4 ज मन्दं मन्द. 5 पफ वीरमुद्दीर्ण". 6पफ युग्मम् , ज युगलम्. 7 पफ द्वीपायिनः 8 पफद्वीपायिनः. 9 पफ तूर्णमुहीर्ण. 10 पफ द्वीपायनेन. वृ• को. २६ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [८१. ७८यत्नं कुरु त्वमेतस्य महता गौरवेण हि । यदन्यत्र प्रयात्येष हन्म्यहं त्वां ततः क्रुधा ॥ ७८॥ जितशत्रुवचः श्रुत्वा जगौ तं' कामसुन्दरी । यथाऽऽज्ञापयसि स्वामिंस्तथैव विदधाम्यहम् ॥७९॥ ताम्बूलभोजनेनास्य पुष्पगन्धानुलेपनैः । उपकारं चकारैषा स्नानवस्त्रप्रियोदितैः ॥ ८॥ अथोत्तरपथादेशादागते रत्नपादुके । प्राभृतार्थ नरेन्द्रस्य बहुमूल्यसमन्विते ॥ ८१॥ द्वीपायनाय ते दत्ते भूभुजा जितशत्रुणा । सोऽपि शीघ्रं समादाय ययौ निजगृहं मुदा ॥ ८२॥ वामपादं समादाय स्थितः स्थापयितुं तके । तदायं कामसुन्दर्या शोभने रत्नपादुके ॥ ८३॥ न दत्ते सापि ते दिव्ये विधातुं निजपादके । निरस्ता तेन तत्पादात् तदावत्खटिका द्रुतम् ॥८४॥ कुष्ठशीर्णं तदाऽङ्गुष्ठं विलोक्य सहसामुतः । दध्यौ द्वीपायनश्चित्ते तद्विरक्तमनाश्विरम् ॥ ८५ ॥ . अनया कामसुन्दर्या कुष्ठदूषितदेहया । कामभोगान् प्रभुञ्जानो निहीनोऽहं कथं स्थितः ॥ ८६ ॥ " ततो निर्वेदमासाद्य मुनिसागरपर्वते । विमलोपपदं चन्द्रं संघयुक्तं जगाम सः ॥ ८७॥ प्रणम्येम गुरुं भक्त्या महावैराग्यसंगतः । द्वीपायनो दधौ दीक्षां तदन्ते जिनसेविताम् ॥ ८८॥ प्रतिक्रमणवेलायां स्वाध्यायानेहसि स्फुटम् । जिनस्तुतिं विधायासौ दध्यौ तामेव सुन्दरीम् ॥८९॥ कष्टं भार्या कथं त्यक्ता मया सा चित्तहारिणी । कुष्ठशीर्णतदङ्गुष्ठदोषेणैकेन निश्चितम् ॥ ९० ॥ ज्ञात्वा तच्चञ्चलं चित्तं यतीशो विषयोन्मुखम् । तद्धर्म कथयामास महाज्ञानसमन्वितः ॥ ९१॥ . 15 रमणीभिः समं मैत्री संध्यारागसमन्विता । किंपाकफलसादृश्यं तत्सुखं क्षणभङ्गुरम् ॥९२॥ यथा यथाऽबलां हृद्यां नितान्तं मन्यते नरः । तथा तथा पराभूतिं करोत्येषाऽस्य सर्वदा ॥ ९३॥ यथा यथा स्त्रियं हृष्टस्तरां कामयते नरः । तथा तथाऽस्य संसक्ता करोत्येषा विमानवम् ॥ ९४॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि महावैराग्यसंगतः । बभूव लजितः स्वस्य तद्विरक्तमनःक्रियः ॥ ९५॥ तद्दिने विगते साऽपि गणिका नृपभीतितः । उल्लम्ब्य खं ममाराशु तदानीं कामसुन्दरी ॥ ९६ ॥ 20 अन्ये वदन्ति तत्रत्याः पूर्वप्रेमानुरागतः । मातङ्गेन मृतिं नीता सका भूपतिशासनात् ॥ ९७॥ आदाय शर्वरीमध्ये तदानीं कामसुन्दरीम् । मातङ्गोऽपि मुमोचैतां श्मशाने जीववर्जिताम् ॥ ९८॥ विकटास्थिशिराजालकुथिताखिलविग्रहा । संतिष्ठते श्मशाने सा मण्डलादिसमन्विते ॥ ९९ ॥ द्वीपायनमुनिस्तत्र स्वाध्यायादिक्रियाविधौ । एकाग्रमानसो भूत्वा ध्यायतीमां मुहुर्मुहुः ॥१०॥ पादाङ्गुष्ठो यदि स्पष्टं विनष्टः कुष्ठतोऽमुतः । मुखाक्षिभ्रूस्तनादीनां विलासः शोभनः पुनः॥१०१॥ " रामारत्नं विहायेदं सर्वस्त्रीतिलकं तराम् । अङ्गुष्ठकुष्ठदोषेण मया मुक्तं हि तत्कथम् ॥ १०२॥ ज्ञात्वाऽभिप्रायमेतस्य स्मृतभार्यागुणस्य सः । तद्गुरुः प्राह तं तत्र ज्ञाताखिलपदार्थकः ॥ १०३॥ द्वीपायनं पुरस्कृत्य तदन्तं प्राप्य तद्गुरुः । मुक्त्वाऽत्रैव जगामाशु स्तोकान्तरमसौ सुधीः ॥१०४॥ मुहूर्तमेकमास्थाय तदन्ते स मुनिस्तदा । घ्राणं पिधाय हस्तेन तस्थौ विस्मितमानसः ॥ १०५॥ यथाचार्यों व्रजत्यस्मद्धामतः क्षणमात्रतः । ततो दुर्गन्धमेतस्या निहन्म्यौषधयोगतः ॥ १०६॥ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य द्वीपायनमुनेस्तदा । आचार्योऽपि तदन्तं च संप्राप्तस्तदनन्तरम् ॥ १०७॥ दृष्ट्वा द्वीपायनं तत्र तदाकुलितमानसम् । जगादति वचः सत्यं तद्गुरुस्तद्धितेच्छया ॥१०८॥ त्वया राज्यमिदं हित्वा प्रणताशेषशात्रवम् । धनधान्यसमाकीर्णं यशोव्याप्तदिगन्तरम् ॥ १०९ ॥ अन्तःपुरं समस्तं च सुरदेवीसमप्रभम् । हावभावविलासेन विभ्रमेण समन्वितम् ।। ११०॥ तपो जैनेश्वरं सारं गृहीत्वा शक्रवाञ्छितम् । समस्तशेखरीभूतमनर्व्यमणिवद्भुवि ॥ १११॥ 1 पफ ता. ५ ज खटिका सडिता. : पफज चतुर्भिः कुलकम् . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ -८२. २७ ] कडारपिङ्गकथानकम् मृतामिमां श्मशानस्थां कुथितां कामसुन्दरीम् ।ध्यायन्न लजितोऽसि त्वं स्वभूतेभ्योऽधुना मुने॥११२॥ श्रुत्वा गुरूदितं वाक्यमवसानहितं तराम् । चकारालोचनां सर्वां स्वगुरोरन्तिके सकः ॥११३॥ प्रायश्चित्तमिदं कृत्वा तदानीं गुरुसाक्षिकम् । द्वीपायनस्तपश्चके स्वर्गमोक्षप्रसाधकम् ॥ ११४ ॥ ॥ इति श्रीगोचरसंगीव्याख्यानमिदम् ॥ ८१॥ ८२. कडारपिङ्गकथानकम् । काम्पिल्यनगरे श्रीमान्नरसिंहो नरेश्वरः । तद्भार्या कमला नाम बभूव कमलानना ॥१॥ तन्मत्री सुमति म धनश्रीरस्य कामिनी । पुत्रः कण्डारपिङ्गोऽभूदनयोः प्रेमरक्तयोः ॥२॥ महिलाव्यसनयुक्तो नितरां राजवल्लभः । निषेवते हठात् सोऽयं खेच्छया पुरयोषितः॥३॥ लोकोऽपि तस्य चापल्यं निवेदयितुमक्षमः । वल्लभस्य नरेन्द्रस्य द्वेषी चित्तेन तिष्ठति ॥४॥ तत्रैव नगरे श्रेष्ठी विद्यते नृपवल्लभः । कुबेरोपपदो दत्तो महाधनसमन्वितः ॥ ५॥ ॥ प्रियङ्गुसुन्दरी तस्य रमणी रूपसुन्दरी । महासौभाग्यसंपन्ना बभूव जनविश्रुता ॥६॥ दृष्ट्वैतां रूपसंपन्नां रतिं वा सतनुं तदा । जातः कडारपिङ्गोऽसौ मदनाकुलमानसः ॥७॥ सरस्यां पद्मिनीखण्डे नन्दने चारुचन्दने । धृति कडारपिङ्गोऽयं न लेभे तन्निरीक्षणात् ॥ ८॥ पुत्रं कडारपिङ्गाख्यं कामविह्वलमानसम् । जगाद सुमतिर्मत्री शोकवान् किं वदाशु मे ॥९॥ पितुर्वचनमाकर्ण्य मुञ्चन्निःश्वाससंततिम् । उष्णां बभाण तं तत्र वेपमानशरीरकः ॥ १०॥ ॥ कान्तां कुबेरदत्तस्य यदि प्राप्नोमि निश्चितम् । प्रियङ्गुसुन्दरीं तात ततो जीवामि नान्यथा ॥१२॥ श्रुत्वा पुत्रोदितं वाक्यं सुमतिः सुमतिस्तदा । मृत्युमाशङ्कमानोऽस्य जगाम नृपसंनिधिम् ॥१२॥ विधाय प्रणति मत्री नरेन्द्रस्य प्रयत्नतः । यथोचितासने स्थित्वा जगादेति विचक्षणः ॥ १३॥ श्रेष्ठी कुबेरदत्तोऽयं लवणाम्बुधिमध्यगम् । किंजल्पपक्षिणं लातुं स्वर्णद्वीपं व्रजत्वरम् ॥ १४ ॥ पतत्रिणोऽस्य सामर्थ्याद् दुर्भिक्षारिविनाशनम् । जायते राज्यवृद्धिश्च भवदारोग्यकारणम् ॥१५॥ मत्रिवाक्यं समाकर्ण्य नरसिंहो भुवः पतिः । कुबेरोपपदं दत्तमाजुहाव स्वकान्तिकम् ॥ १६ ॥ आगत्येशं प्रणम्यायं यथास्थानं निविश्य च । जगाद भूपति श्रेष्ठी नाथ किं क्रियतां वद ॥१७॥ वाक्यं कुबेरदत्तस्य निशम्य धरणीपतिः । वचसाऽतिप्रयत्नेन बभाणेमं पुरस्थितम् ॥१८॥ त्वयाऽवश्यं प्रगन्तव्यं स्वर्णद्वीपं समुद्रजम् । किंजल्पनीड शीघ्रमानेतुं हि मदन्तिकम् ॥१९॥ नरेश्वरोदितं श्रुत्वा प्रतिपद्य तदग्रतः । प्राप्य भार्याऽन्तिकं श्रेष्ठी जगादैतां पुरःस्थिताम् ॥ २० ॥ अहं नरेशिना कान्ते स्वर्णद्वीपान्तरं द्रुतम् । किंजल्पाण्डजमानेतुं स्वहस्तेन विसर्जितः ॥ २१ ॥ तद्वृत्तान्तविशेषज्ञा भर्तृभक्तिपरायणा । प्रियङ्गुसुन्दरी प्राह तदुक्त्या निजवल्लभम् ॥ २२ ॥ कृतं कडारपिङ्गेन भर्तः सर्वमिदं ध्रुवम् । मच्छीलखण्डनार्थं च विद्धि मद्वचनं हितम् ॥ २३॥ अवधार्य वचः सत्यं स्वप्रियाया वणिक्पतिः। आपृच्छय भूपतिं प्राप्य निर्जगाम तदालयात् ॥२४॥ बोधिस्थेन समं गत्वा स्वर्णद्वीपं प्रति स्फुटम् । निवृत्त्याविदितो लोकैः तस्थौ स निजमन्दिरम् ॥२५॥ ॥ अथ कामग्रहासंगविह्वलीभूतमानसः । तदा कडारपिङ्गोऽरं श्रेष्ठिमन्दिरमाययौ ॥ २६॥ वसन्तः सागरो धन्यः शिवेन सह पुण्यकः । प्रियङ्गुसुन्दरीभृत्याः पञ्चाप्यते प्रियंवदाः ॥ २७॥ ____1 पफ चतुःकुलकम् , ज चतुष्कलकमिदम्. 2 [गोचरसंदीवाख्यान ]. 3 [कडारपिङ्गो]. 4 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 5 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 6 पफ युग्मम्, ज युगलम. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ०२. २८अमीभिः पञ्चमिदृष्ट्वा तदा स्वगृहमागतम् । बद्धा कडारपिङ्गं च निक्षिप्तोऽधः पथे पुनः ॥२८॥ षण्मासावधिपर्यन्ते स्वर्णद्वीपान्तरादरम् । कुबेरदत्तो बोधिस्थः संप्रापत् खपुरं पुनः॥२९॥ तदा कडारपिङ्गोऽपि चञ्चूपक्षादिभूषितः । तत्पक्षिरूपसंपन्नो नीतो भूपान्तिकं नरैः ॥ ३०॥ दृष्ट्वा पुरःस्थितं राजा पक्षिणं पूर्ववर्णितम् । जगाद जल्प जल्पेति किंचिद्विस्मितमानसः ॥३१॥ 5 आकर्ण्य नरसिंहस्य वाक्यं विस्मितचेतसः । सामन्तमत्रिसेवस्य जगादेदं स तत्पुरः ॥ ३२॥ पृथिवीपालनासक्त नरेन्द्र कृतशासन । भूपाहं किं प्रजल्पामि न किं जल्पामि दुःखितः ॥३३॥ निशम्य तद्वचो राजा विस्मयव्याप्तमानसः । कृताञ्जलिपुटान् सत्यान् बभाणेति कुतूहलात् ॥३४॥ सत्यं कडारपिङ्गोऽयं मन्महत्तरनन्दनः । मया शब्देन विज्ञातश्चञ्चूपक्षादिसंयुतः ॥ ३५ ॥ ततो नरेन्द्रवाक्येन विज्ञातः सकलैर्जनैः । नूनं कडारपिङ्गोऽयं न चान्यो नरकुञ्जर ॥ ३६॥ ॥ ततः कुबेरदत्तोऽपि सभाध्यक्षं महीपतिम् । कडारपिङ्गवृत्तान्तं समस्तं निजगाद सः ॥ ३७॥ वचः कुबेरदत्तस्य निशम्य वसुधाधिपः । बभूव भासुराकारः सर्पिषेव तनूनपात् ॥ ३८॥ ' सर्वखहरणं कृत्वा मत्रिणः सुमतेस्तदा । राजा कडारपिङ्गं च जग्राह क्रोधभीषणः ॥ ३९ ॥ खरादिरोहणं तूर्णं पञ्चबिल्वविबन्धनम् । तदा कडारपिङ्गस्य कारयामास भूपतिः॥४०॥ जनधिक्कारमासाद्य साधुलोकजुगुप्सितम् । नरसिंहमहीपालात् पत्तनादपसारणम् ॥४१॥ 15 कालेन पञ्चतां प्राप्य दुःखाकुलितमानसः । तदा कडारपिङ्गोऽयं नरकं प्राप भीषणम् ॥ ४२ ॥ ॥ इति श्रीकडारपिङ्गकथानकमिदम् ॥ ८२॥ .. . ८३. पाण्डवकौरवकथानकम् । कुरुजाङ्गलदेशेऽस्ति पुरं नागपुरं परम् । कुरुवंशसमुद्भूतः शान्तनोऽत्र नरेश्वरः ॥१॥ लावण्यरससंपूर्णा शोभना जनविश्रुता । बभूव तन्महादवी गङ्गा गङ्गेव वारिधेः॥२॥ " अनयोः स्नेहसंसक्तचेतसोर्भुवि विश्रुतः । भीष्मनामाऽभवत् पुत्रः पितृस्नेहपरायणः ॥३॥ कालेन पञ्चतां नीता गङ्गा शान्तनवल्लभा । तदभावे सुखं कृत्वा बभूवायं विशोककः ॥४॥ अत्रैव नगरे दिव्ये गङ्गाख्यो धीवरोऽभवत् । रमणी रमणीयाङ्गी गङ्गाऽस्य मनसः प्रिया ॥५॥ सुता योजनगन्धाऽस्या रूपयौवनराजिता । नीलोत्पलदलश्यामा कन्दोट्टदललोचना ॥६॥ अन्यदा तगृहं प्राप्य भीष्मो योजनगन्धिकाम् । पित्रथै गङ्गनामानं ययाचे धीवरं तदा ॥७॥ " भीष्मवाक्यं समाकर्ण्य कैवर्तोऽपि जगावमुम् । भवत्कुलं महद् धीमन्नस्मदीयं जुगुप्सितम् ॥८॥ ददामि चेत्सुतां राजन् भवत्ताताय निश्चितम् । सुतोऽस्या यदि जायेत न राज्यं तस्य जातुचित् ॥९॥ धीवरस्य वचः श्रुत्वा जगौ भीष्मोऽपि तं पुनः । निवृत्तिर्मम राज्यस्य यावज्जीवं हि गङ्गकः ॥१०॥ निशम्य भारतीमस्य गङ्गोऽपि निजगावमुम् । त्वमिच्छसि न राज्यं चेत् भवत्पुत्रः करिष्यति ॥११॥ कैवर्तवचनं श्रुत्वा भीष्मः प्रोवाच तं तदा । कौमारब्रह्मचर्य मे गृहीतं सार्वकालिकम् ॥ १२॥ • शपथार्थं च तेनाशु कैवर्तेन शिलोपरि । भीष्मोऽपि धारितस्तत्र स्वप्रयोजनहेतुतः ॥१३॥ उपविष्टस्य तस्यापि शिलोपरि शनैः शनैः । शुक्रबिन्दुः पपाताशु तदानीं दैवयोगतः ॥१४॥ तद्विन्दुना समुत्पन्नस्तत्क्षणेन शिलोपरि । महामतङ्गजस्तुङ्गः सितदन्तविराजितः ॥१५॥ . 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 [ सभ्यान् ]. 3 ज सत्याः, [ सभ्याः ]. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 [गाक]. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३. ४.] पाण्डरकौरवकथानकम् २०५ गङ्गासुतेन तेनापि पश्चिमोत्तरपूर्वतः । आव्रजन् प्रतिषिद्धोऽसौ प्रेषितो दक्षिणाशया ॥ १६ ॥ नानानोकुहसंछन्ने नानानगविराजिते । प्रविष्टस्तत्र मातङ्गः कानने प्रीतमानसः॥१७॥ . धीवरेण ततस्तेन सुता योजनगन्धिका । शान्तनाय नरेन्द्राय वितीर्णा विधिना तदा ॥१८॥ कालेन तनया जातास्तेन तस्यास्त्रयोऽनघाः। चित्रो विचित्रनामा च चित्राङ्गस्ते यथाक्रमम् ॥१९॥ चित्रस्याम्बाऽभवद् भार्या विचित्रस्याम्बिका तथा। चित्राङ्गदस्य चान्तस्य विचित्रा बालिकाभिधा २० । कालगोचरतां प्राप्ते शान्तने धरणीपतौ । बबन्ध वसुधापर्ट भीष्मोऽप्येषां यथाक्रमम् ॥ २१ ॥ सक्रमं संप्रदायैषां राज्यं विगतकण्टकम् । भीष्मोऽपि तान् जगादेति विनयानतमस्तकान् ॥२२॥ जातुचिदक्षिणाशायां स्थितं भीमं महावनम् । मा गच्छत गजान् धर्तुं भ्रातरः शिशुचापलान् ॥२३॥ स्तोककालं विहायैतां दिशं दक्षिगगोचराम् । भूयोऽपि वारिताः सन्तो जग्मुस्ते कुञ्जरार्थिनः॥२४॥ गजेन भीष्मपुत्रेण तत्रत्येन गरीयसा । त्रयोऽपि ते हतास्तत्र युगपद् भ्रातरः क्रुधा ॥ २५॥ ॥ मृतेषु तेषु सर्वेषु भीष्मपुत्रगजाहतेः । बभूव राज्यविच्छेदं पुत्रसंतानहानितः ॥ २६ ॥ तदा योजनगन्धाया व्यासो नाम महामुनिः । स्मृति मृतः समानीतो जटामुकुटभीषणः ॥ २७॥ पिधाय लोचने स्वस्य चीरचीरिकया तदा । अम्बायास्तस्य सामीप्यं गतायाः संततीच्छया ॥२८॥ उत्पादितः सुतोऽनेन व्यासेनापि तपखिना । धृतराष्ट्राख्यया युक्तो लोचनाभ्यां परिच्युतः ॥२९॥ अम्बिकाया द्वितीयाया विधायापाण्डुतां तनुम् । गताया व्याससामीप्यं पुत्रसंततिकारणात् ॥३०॥" व्यासेन नन्दनो जातो नन्दिताशेषबान्धवः । पाण्डुनामा महासत्त्वो रूपराजितविग्रहः ॥ ३१ ॥ विधाय तनुसंस्कारं सुरविद्याधरोपमम् । जगाम बालिकाऽभ्याशं तदा व्यासमहामुनेः ॥ ३२॥ विधाय सुरतं हृद्यमनया सह सादरम् । सुतमुत्पादयामास व्यासोऽपि विदुराभिधम् ॥ ३३॥ एवमेकैकमुत्पाद्य तनयं तिसृणामपि । व्यासो योजनगन्धायाः स्तुतिं कृत्वा जगाम सः॥ ३४॥ तस्मिन् व्यासमुनौ याते खमनोगतमादरात् । बभूव भूपतिः पाण्डुस्तदानीं पार्थपत्तने ॥ ३५॥" तस्य भार्या मनःकान्ता कुन्ती मद्री च भूपतेः । अभवद् रूपसंपन्ना पतिस्नेहपरायणा ॥३६॥ पाण्डुना मृगमध्यस्थो मृगचारी मुनिर्वने । चापमुक्तेन बाणेन निशितेन निपातितः ॥ ३७॥ अधिरूढेन तेनापि मैथुनार्थं स्वयोषिति । प्रियमाणेन संदत्तोऽभिशापोऽस्य महीपतेः ॥ ३८॥ अधिरूढः स्वभार्यायां दुराचार भवानपि । विदीर्णहृदयः पाप मरिष्यसि विसंशयम् ॥ ३९ ॥ दत्त्वा शापं नृपस्यास्य स मुनिः पञ्चतामितः । ब्रह्मवैरं समादाय तस्थौ पाण्डुश्च शङ्कितः॥४०॥ कुन्ती च विद्ययाहूय व्यासेन वरदत्तया । पुत्रार्थ रतिवेलायां धर्म वातं पुरन्दरम् ॥४१॥ एभिः समं समासंगं कृत्वा किल जनोक्तितः । पुत्रं युधिष्ठिरं भीमं तथाऽर्जुनमजीजनत् ॥४२॥ मद्री चाश्चिनिदेवाभ्यां सह कृत्वा समागमम् । नकुलं सहदेवेन समं पुत्रमजीजनत् ॥४३॥ कृतं पाण्डुमतेनेदं कुन्या मद्या च कान्तया । जुगुप्तितमपि क्षिप्रं मुनिशापभयाद्भुवि ॥४४॥ उक्तमत्र यदस्माभिर्विरुद्धमपि भूतले । तन्मिथ्यादृष्टिसंवादात् तत्कथानकसंभवात् ॥४५॥ ॥ एतद्विचार्यमाणं हि वचनं बुधसंसदि । घटामघटते नात्र महापुरुषदोषतः ॥ ४६॥ एका न विद्यते जातु कामिनी कामिनामपि । महासत्ववतां तेषां कुलजानां कथं भवेत् ॥४७॥ __1 पफ यातास्तेन. 2 [चान्त्यस्य ]. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफ गोचरम्. 5 पफ युकलोचनाभ्यां. 6 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 7 ज महामुनिः. 8 पफ जाते. 9 पफ युग्मम्,ज युगलमू. 10 [जुगुप्सितमपि]. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१३. ४८अभ्याख्यानमिदं नीताः पाण्डवाः कविभिः खलैः । कुमतिभ्रान्तचेतस्कैः सुतरामात्मवैरिमिः॥४८॥ असत्यतामिदं प्राप्तं तद्वचः फल्गुतामपि । युक्त्या विचार्यमाणं हि शतधा शीर्यते यतः ॥ ४९ ॥ पाण्डवाः पाण्डुना जाताः कुन्त्यां मद्यां च पञ्च ते । कुर्वन्त्यर्धधराराज्यमिन्द्रप्रस्थे मुदाऽन्विताः ॥५०॥ गन्धारिण्याः शतं पुत्रा धृतराष्ट्रस्य भूभुजः । रूपशौर्यादिसंपन्ना जाता दुर्योधनादयः ॥५१॥ 5 एतेऽप्यर्धधराराज्यं कुर्वन्तः कृतसंमदाः । दुर्योधनादयः सर्वे हस्तिनागपुरे स्थिताः ॥ ५२ ॥ ततो युधिष्ठिरो राजा कृत्वा दिग्विजयं भुवि । मखं प्रवर्तयामास राजसूयाभिधानकम् ॥ ५३॥ क्रियमाणे मखे तत्र सोऽन्तःपुरबलान्वितः । निमत्रितः समायातो दुर्योधननरेश्वरः ॥ ५४॥ प्रविशन्तं मखक्षोणी तथा दुर्योधनं नृपम् । भीमसेनो जगादाशु वचसा कुटिलाशयः ॥ ५५ ॥ प्रदेशेऽत्र कचिद्वाप्यो जलकल्लोलसंकुलाः । कारापितावतिष्ठन्ते केनचित् पद्मराजिताः ॥५६॥ 10 अन्यत्र शोभनाकारा मुकुरामलविग्रहा । जलकान्तशिलाभूमिस्तिष्ठति प्रीतिकारिणी ॥ ५७ ॥ नभःस्फटिकसंकाशाः सितीकृतनभःस्थलाः । अन्यत्र शिल्पिभिस्तत्र शिलानां भित्तयः कृताः॥५८॥ अन्यत्र शुद्धमाकाशमिन्द्रनीलविनिर्मितम् । श्यामलीकृतभूताङ्गं विहितं वरशिल्पिभिः ॥ ५९॥ जलकान्तिशिलामध्ये परिधानमुदस्य च । भीमोदितेन संविष्टस्तत्र दुर्योधनोऽभयः ॥ ६ ॥ जलधाने पुनस्तत्र प्रविशन् सरसं सकः । नीरमध्येऽमलच्छाये निमज्जति शनैः शनैः ॥ ६१॥ 15 अवतीर्य नभःस्थानं स्फटिकस्य शिलामसौ । मन्यमानो विशत्याशु दुर्योधनमहीपतिः ॥ ६२ ॥ स्फटिकाश्मशिलास्थाने चरणाभ्यां समुत्थितः । दुर्योधनः प्रयात्येष मन्दं मन्दगतिक्रियः॥६३॥ एवं प्रविशतस्तस्य दुर्योधनमहीभुजः । शिरः संचूर्णते तेन तच्छिलाजालतस्तराम् ॥ ६४॥ एवं सोऽपि प्रकुर्वाणः समीपस्थनरैस्तदा । हसितो रोषमासाद्य हस्तिनागपुरं ययौ ॥६५॥ प्रविष्टः स्वगृहं राजा प्रोक्तः शकुनिना पुनः । भीमोऽयं शत्रुभूतो नः सर्वकालं वितिष्ठते ॥६६॥ 20 द्यूतव्याजेन निर्जित्य वसुधाऽध वृकोदरम् । निर्धाट्य भ्रातृसंयुक्तं तिष्ठामोऽत्र वयं पुनः ॥६७॥ तद्वाक्यतो निमच्याशु पाण्डवान् सकलानपि । आजुहावान्तिकं खस्य तदा दुर्योधनो नृपः॥६८॥ तन्निर्धाटनकार्येण स्वदेशात् तेन मायिना । कृतो द्यूतप्रयोगो हि तदा दुर्योधनेन सः ॥ ६९॥ ततो युधिष्ठिरो रन्तुमक्षयूतं समुद्यतः । निजभूम्यैकपर्यायं समं दुर्योधनेन सः॥ ७० ॥ शकुन्यन्तस्थितस्यास्य नूनं दुर्योधनस्य च । चिन्तितानन्तरं द्यूते निपतन्ति दुरोदराः ॥ ७१॥ 25 तथा भीमसमेतस्य धर्मपुत्रस्य च स्फुटम् । हुंकारानन्तरं द्यूते निपतन्ति दुरोदराः ॥ ७२ ॥ " एवं सति प्रवृत्तेऽस्मिन् अक्षयूतेऽनयोस्तदा । भीमसेनं जगादेति शकुनिः पुरतः स्थितम् ॥७३॥ ज्येष्ठानां पुरतो भीम जल्पं कर्तुं न युज्यते । तव चापल्ययुक्तस्य कठोरवदनस्य च ॥ ७४ ॥ निशम्य तद्वचो भीमो भीमसेनो विमानदम् । शममादाय तत्रायं तस्थौ विनतमस्तकः ॥ ७५॥ ततो युधिष्ठिरः सर्वं धनं धरणिमण्डलम् । हस्तिनः पर्वतोत्तुङ्गांस्तुरङ्गान् वातरंहसः ॥ ७६ ॥ ३० स्वमर्जुनं यमं हृद्यं तथा द्रौपदिकामपि । दुर्योधनजितं छूते नूनं हारितवानसौ ॥ ७७॥ .. हारितेषु समस्तेषु धर्मपुत्रेण भूभुजा । सभामध्ये समस्तानां भूपतीनां विलासिनाम् ॥ ७८ ॥ दुःशासनोंऽशुकं जहे द्रौपद्या नृपसंनिधौ । अपरं शीघ्रमुत्पन्नं पुण्यतः किं न जायते ॥ ७९ ॥ तदंशुकानि सर्वाणि तेनाकृष्टानि वेगतः। उत्पन्नानि तदान्यानि धर्मतः किं न लभ्यते ॥ ८०॥ परिधानं समाकृष्टं तस्या दुःशासनेन च । पूर्ववत् तत् समुत्पन्नं वृषात् सर्वं हि जायते ॥ ८१ ॥ .: 1 [ कारापिता वितिष्ठन्ते ]. 2 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफ वेनाकृष्टेन, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८३. ११३ ] पाण्डवकौर व कथानकम् २०७ ततो द्रौपदिका तेन कचेष्वाकृष्य पाणिना । सभामध्ये पराभूतिं प्राप्तां तां पश्यतां सताम् ॥८२॥ एवं विदधतं क्रूरं तदा दुःशासनं खलम् । निवार्याजातशत्रुं च जगौ दुर्योधनो नृपः ॥ ८३ ॥ ”दण्डकोपपदेऽरण्ये भवद्भिः सकलैरपि । नूनं द्वादशवर्षाणि स्थातव्यं मम शासनात् ॥ ८४ ॥ वर्षमेकं तथा लोकेऽज्ञातरूपतया पुनः । स्थातव्यं साधुताधारैर्युष्माभिरखिलैरपि ॥ ८५ ॥ भवतो यदि जानामि तत्कथां दैवयोगतः । भवद्भिर्द्वादशान्यानि स्थातव्यान्यधिकानि च ॥ ८६ ॥ श्रुत्वा दौर्योधनं वाक्यं सत्यवादी युधिष्ठिरः । विदुरस्य गृहे कुन्तीं स्थापयामास सात्त्विकः ॥८७॥ द्रौपद्या सह पञ्चापि पाण्डवा द्वादशाष्टजाम्' । प्रतिज्ञां ते विधायाशु दण्डकाख्यं वनं ययौ ॥८८॥ नन्दिघोषं रथं दिव्यमारोप्यार्जुनमादरात् । महाप्रतापसंपन्नं धनुर्वेदपरायणम् ॥ ८९ ॥ निनाय मातलिः स्वर्गे शोभनाममरावतीम् । नन्दितूर्यकलस्वानां पुरन्दरपुरीमसौ ॥ ९० ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ तत्रासुरान् निहत्याशु हस्ते ' तालुनि मर्मणि । सर्वाम्राणि नरः प्राप्य धर्मपुत्रं समं ययौ ॥ ९१ ॥ " एकवर्षं प्रयत्नेन तदा पञ्चापि पाण्डवाः । अज्ञातचरितेनैते विराटस्य गृहे स्थिताः ॥ ९२ ॥ विप्रवेषं समादाय चाग्रभोजी युधिष्ठिरः । तत्र तस्थौ विनीतात्मा विराटभवने शुचिः ॥ ९३ ॥ मोSपि सूपकारोऽस्य भक्तसूपादिकोविदः । बभूव विनयोपेतः स्वामिभक्तिपरायणः ॥ अर्जुनो नर्तकाचार्यो बृहंदलकरूपभाक् । नर्तयन् सुतरां कन्यां विराटस्य गृहेऽवसत् ॥ नकुलोsपि विशुद्धात्मा सप्तीनां परिपालकः । सहदेवो घटोनीनां विराटस्य पयोमुचम् ॥ ९६ ॥ is द्रौपदी च महादेव्या विराटस्य पिनष्टचलम् । गन्धान् सैरन्ध्रिरूपेण सुरभीकृत दिङ्मुखान् ॥९७॥ अनेन विधियोगेन कालो याति शनैः शनैः । विराटभवने तेषां पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ९८ ॥ अथ कौरवसैन्येन तदा दक्षिण गोग्रहे । गृहीताः सकला गावो महानादविधायिना ॥ ९९ ॥ विराटेनानुधाव्यैता गावो वेगेन पृष्ठतः । निहत्य तद्वलं किंचित् समानीताः कृपाणिना ॥ १०० ॥ ततो दुर्योधनः सार्धं द्रोणाचार्यादिनायकैः । उत्तरे गोग्रहे सर्वा गा जग्राह कृतारवाः ॥ १०१ ॥ २० गावो बृहदलेनैताश्चोत्तरेण समं पुनः । आनीतास्तत्पुरः सर्वाः सिंहविक्रमशालिना ॥ १०२ ॥ जित्वा तान् सकलान् ँ बाणैरमीभिः समरे द्रुतम् । प्राप्तान्निजालयान् सर्वान् वेपिताखिलविग्रहान् ॥ विराटपाण्डवानां च प्रीतिविज्ञानपूर्वकः । जातः समागमस्तत्र महानन्दविधायकः ॥ १०४ ॥ अत्रान्तरे परिप्राप्तो 'विष्णुर्द्वारावतीं पुनः । स्नेहनिर्भरचेतस्कः पाण्डवाभ्याशमादरात् ॥ १०५ ॥ देहादिकुशलं पृष्ट्वा क्षेमं दत्त्वा परस्परम् । पाण्डवा हरिणा सार्धं तस्थुर्मुदितचेतसः ॥ १०६ ॥ अन्येद्युः पाण्डवैरुक्तो हस्तिनागपुरं हरिः । दुर्योधनान्तिकं प्राप तत्संधान निमित्ततः ॥ १०७ ॥ विष्णुः क्रमेण संप्राप्य तदा दौर्योधनीं सभाम् । आसनस्थ जगादेतां कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥१०८॥ पाण्डवेभ्यः प्रदायार्धं दुर्योधन भुवः स्फुटम् । ततो विधीयते सन्धिः तत्समं सुखहेतवे ॥ १०९ ॥ श्रुत्वा वचनमेतस्य जगौ दुर्योधनोऽप्यमुम् । कर्णशूलकरं बाढं कोपारुणनिरीक्षणः ॥ ११० ॥ आस्तां वसुन्धरार्धं हि नारायण महामते । ग्रामार्धमपि नो तेभ्यो ददामि मम संगरः ॥ १११ ॥ ० दुर्योधनवचः श्रुत्वा तदा सन्धिपराङ्मुखम् । विराटनगरं प्राप वासुदेवस्त्वरान्वितः ॥ ११२ ॥ आगतस्य हरेः सद्यः सप्ताक्षोहिणिकानुगः । स्कन्धावारो बभूवैषां पाण्डवानां महात्विषाम् ॥११३॥ 1 [ प्राप्ता ]. 2 पफ दन्दुकोपपदे 3 [ द्वादशाब्जजाम् ] 4 पफ युग्मम् ज युगलम्. 5 पफ तालनि. 6 फ भक्तरूपादि. 7 [ पयोऽमुचत् ] 8 पफ सकलैर्बाणै 9 ज विष्णुर्द्वारवतीं. 10 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 25 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [३. ११४सैन्यस्यैकादश प्रोक्ता अक्षौहिण्यः सुतेजसाम् । कुरूणां चतुरङ्गस्य महाइंकारचेतसाम् ॥ ११४॥ खसैन्यसमुदायेन पूरिताशेन नादिना । कुरुक्षेत्रं युधि प्रापुः पाण्डवाः कौरवास्तथा ॥११५ ॥ कुरूणां पाण्डवैः सार्धं तत्र रामानिमित्तकम् । बभूव भारतं युद्धं बहुसत्त्वक्षयावहम् ॥ ११६ ॥ ॥ इति श्रीस्त्रीनिमित्तयुद्धाख्यं पाण्डवकौरवकथानकमिदं संपूर्णम् ॥ ८३ ॥ ८४. रामायणकथानकम् । विनीताविषये रम्ये साकेता नगरी परा । अस्यां नराधिपः शूरो नाम्ना दशरथोऽभवत् ॥१॥ चतस्रस्तन्महादेव्यो रूपलावण्यसंयुताः । आद्या सुकोशला नाम सुमित्राऽन्या मता प्रभा ॥२॥ तृतीया केकया प्रोक्ता चतुर्थी सुप्रजा परा । एता धरातले ख्याताः कलागुणविशारदाः ॥३॥ कोशलायाः सुतो जातो रामदेवो महागुणः । लक्ष्मीविराजितोरस्कः सुमित्रायाश्च लक्ष्मणः ॥४॥ ० भरतः केकयायाश्च शत्रुघ्नः सुप्रजात्मकः । समस्तभुवनख्याताश्चत्वारः सागरा यथा ॥५॥ जनकेन सुता दत्ता रामदेवाय शोभना । सीताख्या करुणोपेता सीमा सौभाग्यसंपदः ॥६॥ अन्यदा रूपसंपन्नान् रामादितनयानिमान् । विलोक्य पुरतः श्रीमान् दध्यौ दशरथो हृदि ॥७॥ वितीर्य सकलं राज्यं रामायाक्लिष्टतेजसे । वनवासं च याम्याशु तपोऽर्थं कृतनिश्चयः ॥ ८॥ चिन्तयित्वा चिरं राजा राममाहूय सत्वरम् । यावनाति राज्यस्य पढें सामन्तसंनिधौ ॥९॥ 15 महोत्सवेन हृद्येन मङ्गलातोद्यनिस्वनैः । कुतोऽपि वार्ता शुश्राव तावच्च भरताम्बिका ॥१०॥ दापयामि महीं त्वस्मै पुत्रायेति वचेतसि । कृत्वाकूतं प्रतस्थेऽतस्तदानीं नृपतिं प्रति ॥११॥ आगत्य केकयी' हृष्टा प्राहेदं नृपसंसदि । संतिष्ठते वरो यो मे तव पार्थे नरेश्वर ॥ १२ ॥ सांप्रतं देहि तं मह्यं सत्यपालनतत्पर । सत्यसन्धा हि राजानः पालयन्ति प्रतिश्रुतम् ॥ १३॥ मत्सुताय प्रदायैव भरताख्याय खं पदम् । लक्ष्मणेन समं रामं वनं प्रापय सांप्रतम् ॥ १४ ॥ 2" केकयावाक्यतस्तत्र तदा दशरथो नृपः । राज्यपढें बबन्धाशु भरताख्यसुतस्य सः ॥१५॥ सीतालक्ष्मणसंयुक्तो रामो हित्वा परिग्रहम् । जगाम दण्डकारण्यं दक्षिणाशाव्यवस्थितम् ॥१६॥ अत्रान्तरे महाराजो लङ्कायां रावणोऽभवत् । मन्दोदरी महादेवी तस्य मानसहारिणी ॥ १७ ॥ शूराविन्द्रजिदक्षाक्षौ स्यातां पुत्रौ मनोरमौ । विनयाचारसंपन्नावनयोः प्रेमरक्तयोः॥१८॥ खसा शूर्पनखा नामा रावणस्य कनीयसी । खरादिदूषणान्ताय वितीर्णाऽनेन रूपिणी ॥ १९ ॥ ॥ दण्डक्यारण्यमध्यस्थं विचरन्ती कदाचन । रामदेवं परिप्राप्य बभाणेनं सका मुदा ॥ २०॥ खामिन्नहं समायाता कुमारी त्वत्स्वयंवरा । प्रतीच्छ तेन मां भद्र गुणज्ञोऽसि तरां भुवि ॥२१॥ निशम्य तद्वचोरामो जगादैतां पुरःस्थिताम् । याहि त्वं लक्ष्मणाभ्याशं मत्प्रियाऽऽस्ते मनस्विनि ॥२२॥ लक्ष्मणान्तं परिप्राप्य सका रामनिदेशतः । जगादेमं पुरःस्थित्वा तव भार्या भवाम्यहम् ॥ २३॥ लक्ष्मणेन क्रुधा तस्या नासाकी निकृत्य च । निर्धाटिताऽमुतः स्थानात् खरान्तं प्राप सा पुनः ॥२४॥ ॥ तदवस्थां विलोक्यतां खरः प्राह षान्वितः । अवस्थामीदृशीं केन प्रापिता मेऽधुना वद ॥२५॥ धवोदितं निशम्यैषा बभाण रुचिरेक्षणा । अवस्थामीदृशीं नाथ प्रापिता लक्ष्मणेन हि ॥ २६॥ तद्वाक्यतः खरः क्रुद्धो दूषणस्त्रिसरस्तथा । त्रयोऽपि भ्रातरः प्रापुस्तत्समीपं बलान्विताः ॥२७॥ ____1 पफ केकसी. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 3 [°जिद्दक्षाख्यौ ]. 4 [ दण्डकारण्य ]. 5 ["विशिर 1 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८४, ५७] रामायणकथानकम् २०९ सहस्रैर्दशभिः सार्धं चतुर्भिरपि रक्षसाम् । त्रयोऽपि भ्रातरो युद्धे रामदेवेन मारिताः ॥ २८॥ हतेषु तेषु सर्वेषु तदा शूर्पनखा परम्' । आत्मानं दर्शयामास रावणस्य सभासदः ॥ २९॥ कर्णनासापरित्यक्तां स्वसारं वीक्ष्य रावणः। तदानीं कोपमासाद्य रामदेवान्तिकं ययौ ॥३०॥ तत्र सीतां समालोक्य देवतामिव रूपतः । बभूव रावणः सद्यः कामविह्वलमानसः ॥३१॥ सारङ्गवेषमादाय स्वर्णनिर्मितमूर्तिकम् । तूर्णं जगाम मारीचः सीताभ्याशं मनोहरम् ॥ ३२॥ । अष्टापदमयं दृष्ट्वा रममाणं मृगं पुरः । रामदेवं जगादेति जानकी कौतुकेन तम् ॥ ३३॥ पश्य पश्य धव क्षिप्रं हरिणं लोललोचनम् । महारजतनिर्माणं रममाणं यदृच्छया ॥ ३४॥ स्तोकान्तरमतिक्रम्य जानकीवचनादरम् । जघान चापमुक्तेन रामो बाणेन तं मृगम् ॥ ३५ ॥ प्रहारविह्वलेनात्र सिंहनादः कृतोऽमुना । हा भ्रातः लक्षण क्षीणो मृतोऽहं संशयं विना ॥३६॥ श्रुत्वा तन्निनदं सीता लक्ष्मणं निजगाद च । रामदेवो मृतिं नीतः केनचिद् व्रज सांप्रतम् ॥३७॥ ॥ सीतोदितेन तेनोक्तं रामोक्तोऽहं मनस्विनि । सीतामेकाकिनी मुक्त्वा मा गमिष्यसि बालक ॥३८॥ जानकी तद्वचः श्रुत्वा बभाणेमं रुपं गता । यदि लक्ष्मण नो यासि त्वं किं मां भोक्तुमिच्छसि ॥३९॥ तद्विरुद्धं वचः श्रुत्वा लक्ष्मणः प्रविहाय ताम् । रामदेवान्तिकं यातस्तदा विह्वलमानसः ॥४०॥ यावद्गतोऽमुतः शौरिस्तावद्दशमुखोऽपि च । विधाय वाससी रक्ते भिक्षार्थ प्राप जानकीम् ॥४१॥ भिक्षां देहीति मे मुग्धे निगद्यैवं वचः पुनः। आदाय जानकी शीघ्रं ययौ लङ्कां मुदान्वितः ॥४२॥ 15 दशानने गते लङ्कां रामदेवेन लक्ष्मणः । उक्तः किमेकिकां सीतां हित्वा वत्स समागतः ॥४३॥ आकर्ण्य तद्वचस्तत्र लक्ष्मणो निजगावमुम् । नूनं संप्रेषितो नाथ सीतयाऽहं त्वदन्तिकम् ॥४४॥ लक्ष्मणवचनं श्रुत्वा रामदेवो बभाण तम् । नष्टं कार्यमिदं वत्स त्वदागमनकारणात् ॥ ४५ ॥ यत्र देशे स्थिता सीता तं प्रदेशं समागतः । लक्ष्मणेन समं रामो जानकीपरिवर्जितम् ॥ ४६॥ अदृष्ट्वा तत्र तां कान्तां रामदेवस्तदुत्सुकः । विलापं नितरां चक्रे मुनिमानसदुःखदम् ॥४७॥ ॥ हा मुग्धे हा गुणाधाने हा मनस्विनि हा शुभे । हा कलाऽलङ्कृते कान्ते हा विज्ञानविधानके ॥४८॥ हा चन्द्रमुखि हा तन्वि हा विषाणाभलोचने । हा चम्पकप्रसूनाङ्गि हा घनस्तनि हा प्रिये ॥४९॥ हा कोकिलाकलखाने हा मुक्ताभसमद्विजे । हा वज्रोदरि हा शान्ते हा सजनमनःप्रिये ॥ ५० ॥ देहि मे वचनं कान्ते कर्णामृतरसायनम् । येनाहं तोषमामोमि सर्वाङ्गीणं वरानने ॥५१॥ एवं कृत्वा महाशोकं लक्ष्मणेन प्रबोधितः । किंचिद्बभूव शान्तात्मा भस्मगूढाग्निवन्नृपः ॥५२॥ 25 अत्रान्तरे बलं प्रापुः सुग्रीवाङ्गाङ्गदं मुदम् । हनूमान्नलनीलाद्या वानरा बहवो नराः ॥ ५३॥ सेतुबन्धं समुद्रस्य कारयित्वाशु वानरैः । रामो नदीनमुत्तीर्य प्राप लङ्कां बलान्वितः ॥५४॥ ततो महति संग्रामे हत्वा रामोऽथ रावणम् । बभूव भूपतिर्भूपमस्तकोपात्तशासनः ॥ ५५ ॥ रामरावणसंबन्धं बहुसत्त्वक्षयावहम् । स्त्रीनिमित्तमिदं जातं लोके रामायणं पुनः ॥५६॥ अन्यान्यपि च जातानि घोरयुद्धानि भूतले । नराणां स्त्रीकृते कष्टं मूलं युद्धस्य योषितः ॥५७॥ ॥ इति श्रीसीताहरणनिमित्तरावणवधसंबन्धरामायण कथानकमिदम् ॥ ८४ ॥ 5 पफ "स्तदुत्सकः, 1 पफ परा. 2 [भ्रातर्लक्ष्मण]. 3 ज त्वं मां किं. 4 पफ निषयैवं. 6ज गूढोनि. 7 पफ षभिः कुलकम् , ज षट्रकुलकमिदम्. 8 पफ रावणसंबन्ध बृ० को० २७ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [८५. १८५. देवरतिनृपकथानकम् । विनीताविषये कान्ता साकेता नगरी शुभा। तत्र देवरती राजा बभूव हतशात्रवः ॥१॥ बभूवास्य महादेवी रक्ताऽस्या नाम चापरम् । रूपयौवनमत्ता या मित्रवत्यभिधानका ॥२॥ अपि रूपान्विता रामा हित्वा सर्वा विमूढधीः । रक्तायामनुरक्तोऽभूद् राजकार्यपराङ्मुखः ॥३॥ अपकर्ण्य महीपालो मत्रिणो मत्रकोविदान् । परचक्राभिभूतोऽपि रक्तया सह तिष्ठति ॥ ४ ॥ ज्ञात्वा भूपं तदासक्तं राजकार्यपराङ्मुखम् । सामन्ता मत्रिणो मुख्या मूलवर्गाः पुरोधसः ॥५॥ जयसेनकुमारस्य तत्पुत्रस्य मनीषिणः । राज्यपढें बबन्धुस्ते समस्तवसुधां प्रति ॥ ६॥' रक्तयाऽपि महादेव्या मत्रिभिर्नरकुञ्जरैः । स्वपुराद्धाटितः शीघ्रं तदा देवरतिर्नृपः ॥ ७॥ रक्ता देवी श्रमग्रस्ता विशन्ती तत्समं वनम् । बभूव म्लानसद्वका क्षुधापम्पाकदर्थिता ॥८॥ " स्वोरूमांसं समादाय पक्कं कृत्वा खरामिना । बाहुरक्तं च पानीयं विधायौषधयोगतः ॥९॥ खमांसभक्षणं तत्र जलपानं च भूपतिः । ददौ रक्तामहादेव्यास्तद्गुणाकृष्टमानसः ॥१०॥ तत्पानभक्षणं कृत्वा प्रीणिताखिलविग्रहा । तदा रक्ता महादेवी बभूव प्रीतिमानसा ॥ ११ ॥ ततो वनादतिक्रम्य यमुनाख्यनदीतटे । स्थितं तकौ परिश्रान्तौ श्रीपुरं प्रापतुः क्रमात् ॥१२॥ तत्पुरस्थेन लोकेन दृष्ट्वा तौ परमोदयौ । दत्त्वा भोगोपभोगौ च स्थापितौ शोभने गृहे ॥ १३॥ 15 तत्र शय्यागृहे चैकः किन्नरादिरतिः कलः । पङ्गुलो गीतनृत्यज्ञः कुशलो वसति स्फुटम् ॥ १४ ॥ अनेन सहसा देवी बभूव प्रीतमानसा । तिष्ठत्यासक्तचेतस्का शर्वरीदिनयोरपि ॥ १५॥ ततोऽन्येधुस्तया सत्यं पङ्गुलस्य निवेदितम् । यथेमं भूपतिं हत्वा भ्रमिष्यावोऽत्र भूतले ॥ १६ ॥ विधातुं पङ्गुलोऽप्येष पञ्चतामस्य नेच्छति । महापुरुषसिंहस्य स्वमृत्युभयहेतुतः ॥ १७ ॥ भूयोऽपि रक्तया प्रोक्ता पङ्गुलोऽनेन हेतुना । करोमि वधमेतस्य तिष्ठ त्वं मौनमाप्य च ॥१८॥ 20 अथैकदिवसे रक्ता रोदनं कुर्वती तराम् । पृष्टा भूपतिना देवि किं रोदिषि वदाशु मे ॥ १९॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा रक्ताऽपि निजगावमुम् । त्वद्वर्षवर्धनो नाम दिवसोऽयं समागतः ॥ २० ॥ मम पुण्यविहीनायाः कारणे राज्यतो नृप । आखण्डलसमाद् भ्रष्टो भोगसौख्यपरिच्युतः ॥२१॥ यदि स्वपत्तने भूप स्थितः स्यात् परमोदयः । ततो हेममयैः कुम्भैरभिषेको नरेश्वरैः ॥ २२॥ अहमेकाकिनी राजन् विभवेन परिच्युता । त्वजन्मवासरे जाते किं करोमि वदाधुना ॥ २३ ॥ 25 अनेन कारणेनार्य रोदनं विहितं मया । खनाथे राज्यतो भ्रष्टे कुतः सौख्यं हि योषिताम् ॥२४॥ रक्तावचनमाकर्ण्य तत्पतिः प्राह तां पुनः । किं देवि दुःखिता जाता सुधीराऽपि यथेतरा ॥२५॥ अस्माकं धनहीनानां परदेशानुयायिनाम् । जन्मवासरवृद्ध्यां हि कृतया किं प्रयोजनम् ॥ २६॥ अवाचि वल्लभो भूयः कान्तया मङ्गलं प्रति । राज्यवृद्ध्यै जलस्त्रानं कर्तुमिच्छामि ते नृप ॥२७॥ भार्यावचनमाकर्ण्य पुनरूचे नृपोऽपि ताम् । किं कदाचिन्मया देवि स्नेहभङ्गः कृतस्तव ॥२८॥ • तद्वाक्यतः समादाय यमुनाख्यां नदी पुनः । रक्ता समाययौ दुष्टा पुष्पमालासमन्विता ॥ २९ ॥ तत्र मण्डलकं कृत्वा पुष्पधूपाक्षतान्वितम् । गायन्ती मङ्गलं रक्ता स्त्रापयामास तं धवम् ॥ ३०॥ राज्यवृद्ध्याभिषेकं सा कृत्वा जलकुटैस्तदा । गुणनालमयीं तस्य पुष्पमालां च शोभनाम् ॥३१॥ मस्तकाचरणं यावद्वेष्टयित्वा तया पुनः । जयनन्दकृतखाना तत्सपर्या विधाय सा ॥ ३२॥ -1 पफ युग्मम् ,जयुगलम्. 2 पफ चतुष्कुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्.3 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 4ज गायन्ती मण्डलं. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८५. ६५] देवरतिनृपकथानकम् २११ पादयोरिममादाय गम्भीरयमुनाह्रदे । रक्ता चिक्षेप भूपालं तदानीं निष्ठुराशया ॥ ३३॥' पूर्वोक्तनिम्नगातीरे निक्षिप्य दयितं विटी । पङ्गुलेन समं भोगान् भुञ्जाना सा वितिष्ठते ॥ ३४ ॥ राजाऽपि च तथा क्षिप्तो धुन्यां तच्छ्रोतसानुगः । नीयमानः पुनः प्राप मङ्गलादिपुरं परम् ॥ ३५॥ . तत्पत्तनसमीपस्थमहाशाखातरोरधः । पूर्वोक्तभूपतिः शान्तदेवरतिः सोऽवतिष्ठते ॥ ३६॥ श्रीवर्धननृपोऽप्यत्र तत्पुरे धनसंकुले । तस्मिन्नेव दिने श्रीमान् कालगोचरतां ययौ ॥ ३७॥ । तस्मिन् मृति परिप्राप्ते पुत्रहीने महीपतौ । जगामाकुलतां सर्वे मङ्गलोपपदं पुरम् ॥ ३८॥ मण्डयित्वाऽरुणेनोचैः पुष्पधूपं प्रदाय च । भूपा महत्तराः सर्वे मुमुचू राजहस्तिकम् ॥ ३९ ॥ भ्रान्त्वाऽखिलं पुरं कुम्भी तद्वहिः शयितं पुनः । नृपं देवरतिं तत्र सस्लौ भर्मकुटेन सः ॥४०॥ करेणादाय तं भूपं स्वपृष्ठमधिरोप्य च । महासिंहासने दिव्ये स्थापयामास कुञ्जरः ॥४१॥ अथ सामन्तसंघाताः पुरोहितमहत्तराः । अभिषेकं कुटैः कृत्वा राज्यमस्मै ददुः पुनः ॥४२॥ . पङ्गुलानां महादानं दत्तेऽपश्यन् स योषितः । चक्रे देवरती राजा राज्यं कण्टकवर्जितम् ॥४३॥ पङ्गुलेन समं भोगान् भुञ्जाना सा यथेप्सया । एकेन देशिकेनोक्ता सा च तद्रक्तचेतसा ॥४४॥ यथा पतिव्रते देवि जयसेनो नरेश्वरः । मङ्गलाख्यपुरस्वामी कीर्तिव्याप्तदिगन्तरः ॥ ४५ ॥ .. पङ्गुलानां महादानं चिन्तिताधिकमादरात् । पतिव्रताबलानां च ददाति स दिवानिशम् ॥४६॥ तेन पङ्गुलमादाय गच्छ त्वं तत्समीपकम् । लभसे येन सन्मानं धनं च बहुलं सति ॥४७॥* 15 निशम्य तद्वचो रक्ता सवीणं पङ्गुलं तदा । स्कन्धेऽधिरोप्य तं भक्त्या मङ्गलादिपुरं ययौ ॥४८॥ पृष्टा सा तत्पुराभ्याशे लोकैः कौतुकसंगतैः। स्कन्धस्थोऽयं द्विजो देवि को भवेत् ते तनूदरि ॥४९॥ तद्वाक्यतो बभाणैषा जनान् संगतकौतुकान् । देवैर्द्विजैरयं भर्ता दत्तो मे प्रीतमानसैः ॥ ५० ॥ अहं पतिव्रता भूत्वा कुर्वन्ती विनयं परम् । यदत्रैतस्य भावेन तिष्ठामि सरसं भुवि ॥५१॥ वक्ष्यमाणा इमं श्लोकं तारेण ध्वनिना सका । निगद्य याचते भिक्षां लोकं वेश्मनि वेश्मनि ॥५२॥ स्थापयन्ती पतिं स्कन्धे मस्तके च श्रमं विना । भिक्षां बलिं च मे देहि साऽहं मित्रमती जन॥५३॥ श्रुत्वा मित्रमतीवाक्यं गन्धपुष्पाक्षतादिभिः । त्रिःपरीत्यार्चयित्वा तां भोजनं प्रददौ जनः॥५४॥ वस्त्रताम्बूलरत्नोपैः पूजयित्वा तकां तराम् । लोकः श्लोकं पपाठेमं तोषपूरितमानसः ॥ ५५॥ यदि स्यान्मङ्गलं तेऽलं धन्याऽसि त्वं पतिव्रते । पुत्रभार्यादियुक्तानामस्माकमपि मङ्गलम् ॥५६॥ अनेन विधिना रक्ता तत्समं क्रमते मुदा । मङ्गलादिपुरं प्राप्य द्वारि भूपस्य तस्थुषी ॥ ५७॥ 21 द्वौवारिकेण तो तत्र भूपालस्य निवेदितौ । तन्मतेन पुनः शीघ्र जग्मतुपसंनिधिम् ॥ ५८॥ अपश्यन् भूपती रामामभिरामामपि स्फुटम् । दत्त्वा काण्डपटं तत्र तस्थौ विस्मितमानसः॥ ५९॥ एवं स्थितस्य भूपस्य सभामध्यनिवासिनः । आशीर्वादमिमं देवी ददाति प्रीतमानसा ॥६०॥ आज्ञैश्वर्यबलेनामा चिरं जीवारिमर्दन । अर्थ वस्त्राणि मे देहि साऽहं मित्रवती सती ॥ ६१॥ मित्रमत्युदितं श्रुत्वा धनासक्तिपरायणम् । विस्मयव्याप्तचेतस्को जगादैवं महीपतिः ॥ ६२॥ ॥ उरूबाहुपलं जग्धं मदीयं पूतने त्वया । तथा कीलालजालं च निपीतं कुलटे खले ॥ ६३॥ निक्षिप्तोऽहं त्वया नूनं यमुनाख्यनदीह्रदे । अहो मित्रमति क्रूरे सतीत्वं घटते तव ॥ ६४॥ ... ततः काण्डपटं राजा निराकार्य नरेण सः । तयोर्महाधनं भूरि ददौ करुणया युतः ॥ ६५॥ . 1 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 2 ज शान्तः देव', [श्रान्तो]. 3 ज भस्मकुटेन. 4 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 5 ज मित्रवती. 6 [दौवारिकेण]. 7 पफ त्रिकलम् , जत्रिकलमिदम्. :. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ८५. ६६जयसेनकुमाराय राज्यं दत्त्वा सुताय सः । महावैराग्यसंपन्नो ययौ दमवरान्तिकम् ॥ ६६ ॥ नत्वाऽऽचार्यमिमं भक्त्या बहुसामन्तसंयुतः । दधौ देवरती राजा दीक्षां दैगम्बरीमसौ ॥ ६७॥ नानाविधं तपो जैनं नानादुःखविनाशकम् । कुर्वन् देवरतिः साधुस्तिष्ठति प्रीतमानसः ॥ ६८ ॥ ॥ इति श्रीरक्तापगुलनिमित्तयमुनानदीनिक्षिप्तदेवरतिनृपकथानकम् ॥८५॥ ८६. सिंहबलनृपकथानकम् । अथास्ति भूपतिः श्रीमान् गोविन्दः पृथिवीपुरे । रूपिणी तन्महादेवी जयोपपदिका मतिः ॥१॥ अस्यैव भूपतेरस्ति श्रीदेवो नाम विश्रुतः । द्वितीयं गुणनामास्य “सहस्रभटसंज्ञकम् ॥ २॥ श्रीकान्ता तस्य भार्याऽऽसीत् तत्सुता गोमतिः परा । नीलोत्पलदलश्यामा विषाणदललोचना ॥३॥ सा च सिंहबलायोच्चैस्तुष्टेन किल भूभुजा । दत्ता नृपाय शूराय पलाशग्रामवासिने ॥४॥ 10 सा च सिंहबलेनामा प्रीतिं न कुरुते दृढाम् । ऐश्वर्यकुलविज्ञानमानरूपेण गर्विता ॥५॥ दुःखं कलहमायासं तत्समं प्राप्य वेगतः । अन्तर्वत्नीं विहायासौ पद्मिनीखेटमाययौ ॥ ६॥ सिंहसेनोऽभवत् तत्र ग्रामकूटो महाधनः । सिंहसेना प्रिया चास्य सुभद्रा कन्यकाऽनयोः ॥७॥ वितीर्णा विधिनाऽनेन सुभद्रा तनया निजा । मातुलेन महाप्रीत्या गुर्वी सिंहबलाय सा ॥ ८॥ कामभोगसुखं तत्र तया सार्धं मनोरमम् । सिंहपूर्वो बलान्तोऽसौ भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ ९॥ . 15 श्रुत्वा सिंहबलस्येमं वृत्तान्तं गोमतिः क्रुधा । जगाम पद्मिनीखेटं नगरं शर्वरीमुखे ॥१०॥ गत्वा केनाप्युपायेन ग्रामकूटगृहं द्रुतम् । सुभद्रायाः शिरश्छित्त्वा गोमतिर्निर्गता निशि ॥ ११ ॥ तन्मस्तकं समादाय वने व्यालभयानके । प्रसूता दारकं दिव्यं गोमतिर्निष्ठुराशया ॥ १२॥ . ततो व्यालभयाद् बालं गृहीत्वा करतः सका । वटवृक्षं समारूक्षन्महाशाखासमन्वितम् ॥ १३ ॥ अथ तद्वटमूले च वंटयन्तो हृतं धनम् । दस्यवो विहितारावा तिष्ठन्ति प्रमदान्विताः ॥ १४ ॥ 26 गोमतिर्वटमूर्धस्था सुभद्रामस्तकं निशि । तेषामुपरि निःशङ्का मुमोच व्याकुलात्मनाम् ॥ १५॥. दृष्ट्वा ते स्वपुरश्छिन्नं मस्तकं पतितं तदा । भयवेपितसर्वाङ्गा धनं हित्वा पलायिताः ॥ १६॥ ततः प्रभातकाले च गोमतिालभीतितः। तन्मस्तकं धनं बालं गृहीत्वा गृहमाययौ ॥ १७ ॥ तन्मस्तकपलं साऽपि संस्कृत्य लवणादिभिः । तस्थौ निजगृहे क्रुद्धा स्वकीयरमणं प्रति ॥ १८॥ अथ सिंहबलः स्थित्वा ग्रामकूटनिकेतने । दिनानि कतिचित् प्राप तदानीं निजमन्दिरम् ॥१९॥ 25 गोमतिं भोजनं सोऽपि ययाचे गृहमागतः । तद्वाक्यतः प्रिया साऽस्य पादप्रक्षालनं ददौ ॥२०॥ मण्डयित्वादरेणोच्चैः संनिवेश्य वरासने । क्रमेण तच्छिरोमांसं ददौ पात्रेऽस्य वल्लभा ॥ २१॥ सोऽपि हृष्टस्ततो भुङ्क्ते तत्पलं वर्णयन् भृशम् । पृष्टोऽनया कुतो जातं मृष्टं मांसं वदाशु मे ॥२२॥ भार्यावचनमाकर्ण्य तत्पतिस्तां जगौ पुनः । अतीव शोभनं मांसं जातं नो वेद्मि वल्लभे ॥ २३॥ एवं निगदिते तेन मात्सर्यवशवर्तिनी । तन्मस्तकं विधायास्य भाजने सा जगाविदम् ॥ २४ ॥ ॥ भवत्प्रियाशिरोमांसं जातं मृष्टं तव प्रभो । ततो भूयोऽपि भुंक्ष्व त्वमिदं तत्प्रेमकारणात् ॥२५॥ यदि नैवं करोषि त्वं यथा त्वद्वल्लभाशिरः । छिन्नं मया तथा तेऽपि छिनमीदं द्रुतं खल ॥२६॥ 1ज निमित्तं. 2 ज नदीक्षिप्त'. 3 ज कथानकमिदम्. 4 पफ सहस्रभट्ट. 5 ज (=गर्भवती स्त्रीम् ). 6 पफ व्यालं. 7 पफ एवं निगद्य तं.. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८७. २८] वीरवतीकथानकम् एवमुक्तस्तया सोऽपि यदा भोक्तुं न वाञ्छति । तदा प्रासेन सो हत्वा चके तं गतजीवितम् ॥२७॥ चतुर्गतिकसंसारे नानादुःखभयानके । राजा सिंहबलो दीनश्चकार परिहिण्डनम् ॥ २८॥ ॥ इति श्रीविरक्तगोमतिभार्यानिहतसिंहबलनृपकथानकम् ॥ ८६॥ ८७. वीरवतीकथानकम् । मगधाख्यमहादेशे पुरं राजगृहं परम् । साधुलोकसमाकीर्ण विद्यते धनसंकुलम् ॥१॥ तत्पुरे धनमित्रोऽभूदिभ्यश्रेष्ठी जनप्रियः । सुविचित्रयशोव्याप्तसमस्तवसुधातलः ॥२॥ यस्येन्द्रनीलवैदूर्यपद्मरागमणिव्रजः । तत्करोद्योतिताकाशो मूल्येन परिवर्जितः ॥३॥ हस्तनिकरसद्दण्डच्छत्राणामुपरि स्थितः। दृश्यते लोकचारेण कौतुकव्याप्तचेतसा ॥४॥ आखण्डलशतस्तुत्यै राद्धान्तपरिवेदिभिः । केवलामलसन्नत्रैः स इभ्यो गदितो जिनैः ॥ ५॥ यस्य पूर्वोदितो राशी रत्नानाममलत्विषाम् । वृषस्थ नरसद्दण्डच्छत्राणामधिको भवेत् ॥६॥ समस्तभुवनव्यापियशोऽमलवितानकैः । निःशेषभुवनाख्यातैः स वृषेभ्यो मतो बुधैः ॥ ७॥ यस्य माणिक्यसंघातो मूल्यहीनः पुरोहितः । एकस्थनृपसद्दण्डछत्राणामधिको भवेत् ॥ ८॥ समस्तसाधुताधारैलोकविख्यातकीर्तिभिः । पटकेभ्यो मतः सोऽयं विदितागमविस्तरैः ॥९॥ तद्भार्या धरणी नाम बभूव गुणधारिणी । दत्तनामाऽनयोः पुत्रः कलाविज्ञानकोविदः ॥ १०॥ बभूव तत्पुराभ्याशे ग्रामो भूमिगृहो महान् । तत्रानन्दकुटुम्बी च धनधान्यसमन्वितः ॥ ११ ॥: 15 भार्या मित्रमती तस्य मित्रसंतोषकारिणी । अनयो रूपसंपन्ना सुता वीरवती मता ॥ १२॥ सेयं वीरवती दत्ता दत्ताय जनकेन हि । परिणीताऽमुना चार्वी जयमङ्गलनिस्वनैः ॥१३॥ तस्मिन् भूमिगृहे ग्रामे दुष्टभावो मलिम्लुचः । चौरिकाजीवनो नित्यं दुष्टभावो वसत्यरम् ॥१४॥ एतेन दुष्टभावेन तस्करेण समं खला । तिष्ठति प्रीतचेतस्का भृशं वीरवती तदा ॥ १५॥ तस्करोऽप्यनया सार्धमनुरक्तो वितिष्ठते । एतयोः प्रेमरागेण याति कालः परस्परम् ॥१६॥ साऽपि वीरवती दत्तं नेच्छति द्वेषमागता । दत्तोऽपि तां स्वचित्तस्थां मोक्तुं नेच्छति सर्वदा ॥१७॥ दुष्टभावः कदाचिच्च चौरिकां विदधत् पुरे । लब्धो नरेशिना जीवन् शूलिकायां निधापितः ॥१८॥ दत्तोऽपि शूरसेनेन मित्रेण सह तद्दिने । स्मरन् वीरवती यातो ग्रामं भूमिगृहाभिधम् ॥ १९ ॥ तत्र श्वशुरगेहे च वीरवत्या समं धवः । दत्तः 'स्वप्तोऽप्यनिच्छन्त्या शयनीये मनोहरे ॥ २०॥ यथाक्रमं प्रसुप्तानां त्रयाणामपि तन्निशि । दुष्टभावो हि शूलस्थो वीरवत्याः स्थितो हृदि ॥ २१ ॥ 25 दत्तेन सह संसुप्ता सोपरोधं मुहूर्तकम् । शयनीयात् समुत्तस्थौ दुःखिनी वीरवत्यरम् ॥ २२ ॥ : पुष्पकाश्मीरताम्बूलं समादाय सधूपकम् । शूलस्थचौरसामीप्यं जगामासौ निशि द्रुतम् ॥ २३ ॥ अवानपत्रसंघातस्योपर्यन्ववगच्छतः । पापया शूरसेनस्य कृपाणेन कराङ्गुली ॥ २४ ॥ छिन्ना शब्दं तु तस्योचैः श्रुत्वा मुद्रिकभूषणा । वीरवत्याऽटितं तत्र यत्रास्तेऽसौ मलिम्लुचः॥२५॥ शूरसेनस्तया सार्धं प्राप्य स्तोकान्तरं पुनः । तदानीं चौरसामीप्ये तस्थौ प्रच्छन्नविग्रहः ॥ २६ ॥ ३॥ प्राप्य चौरान्तिकं साऽपि कृत्वा संभाषणं मुहुः । कुङ्कुमालेपनं चास्मै दत्त्वा पुष्पादिकं स्थिता ॥२७॥ दुष्टभावोऽपि तां प्राह गाढालिङ्गनपूर्वकम् । एकवारं मुखेनाशु ताम्बूलं देहि मे प्रिये ॥ २८॥ ___ 1 [सा]. 2 ज कथानकमिदम्. 3 [वैडूर्य °]. 4 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 पफ कोविदः. 7 [ सुप्तोऽ]. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ८७. २९ताम्बूलं दातुमिच्छन्ती स्वमुखेनास्य सादरात् । इष्टकानां चयं चक्रे शूलिकाधस्तदुक्तितः ॥२९॥ इष्टकापुञ्जमारुह्य चौरं च परिरभ्य सा । ताम्बूलं स्वमुखेनास्मै ददौ वीरवती निशि ॥३०॥ दन्तै रदच्छदः छिन्नं तस्करण मुमूर्षता । वीरवत्याः स तद्वक्रे तस्थौ कीलालसंभृते ॥ ३१ ॥ तस्मिन् दिनेऽमुना प्राप्य स्वगेहं भर्तुरन्तिकम् । स्तोकवेलं च सुष्वाप तदा वीरवती खला ॥३२॥ 5 शयनीयात् समुत्थाय रोलं कृत्वा जगाविदम् । सत्या निरपराधाया दितो दत्तेन मेऽधरः ॥३३॥ श्रुत्वा तन्निनदं दीनं प्रभाते सकलो जनः । प्राप्य तद्भवनं बवा दत्तं निन्ये नृपान्तिकम् ॥३४॥ किंवदन्ती ततः सर्वा भूभुजे विनिवेदिता । तद्वान्धवैः समाकर्ण्य तं नृपो रुषमाययौ ॥ ३५॥ दत्तस्यास्य कुशीलस्य हत्यै नरपतिस्तदा । किंकराणां ददावाज्ञां कोपलोहितलोचनः ॥ ३६॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा शूरसेनो जगावमुम् । राजन् शूलस्थचौरेण छिन्नोऽस्या दशनच्छदः ॥ ३७॥ " ममेमां करशाखां च छिन्नां पश्य समुद्रिकाम् । स्वैरिण्या निशि गच्छन्त्याऽनुयातं पथि मूढया ॥३८॥ तस्मिनिरपराधस्य वणिक्पुत्रस्य भूपते । प्रजानुपालनासक्त मा कारापय हिंसनम् ॥ ३९॥ चेत्प्रतीतिर्न मद्वाक्ये विद्यते नुतनेश्वर । ततश्चौरान्तिकं याहि मत्समं दर्शयाम्यमुम् ॥ ४०॥ . शूरसेनवचः श्रुत्वा पौरलोकसमन्वितः । चौरान्तिकं जगामाशु भूपतिस्तत्समं मुदा ॥४१॥ दुष्टभावमुखे दृष्ट्वा तदौष्ठं नरकुलरः । दत्तं मुमोच तुष्टात्मा पूरयित्वा धनादिना ॥४२॥ । पूजितः शूरसेनोऽपि नरनागेन भूरिशः । सन्मानदानयोगेन सत्यजल्पनकारणात् ॥४३॥ अथ दत्तो वणिक् तत्र भार्यावैराग्यहेतुतः । अभिनन्दनसामीप्ये प्रवव्राज प्रशान्तधीः॥४४॥ चेष्टितं वीरवत्या हि विलोक्य नरकुञ्जराः । केचित् प्रवव्रीराः केचिज्जैनमधुर्वृषम् ॥४५॥ ॥ इति श्रीदुष्टचौरासक्तखकान्तादत्ताभ्याख्यान वीरवतीकथानकमिदम् ॥ ८७ ॥ ८८. रोहिणीकथानकम् । शूरसेनजनान्तेऽस्ति सौरी नाम पुरी परा । वसुदेवोऽत्र राजेन्द्रो रोहिणी तन्मनःप्रिया ॥१॥ तत्पुत्रो नवमः शूरो बलदेवो महाबलः । स्वमातुर्विनयं नित्यं कुर्वाणः स वितिष्ठते ॥२॥ जननीपुत्रभावेन स्थितावपि विलोक्य तौ । जनोऽयं वक्ति निःशङ्को रोहिणी बलदेवभाक् ॥३॥ समस्तजनसंजल्पं स्वनिन्दाप्रतिपादकम् । न परं रोहिणी वेत्ति राजवेश्मान्तरस्थिता ॥४॥ 25 अन्यदा सह पुत्रेण रोहिणी तिष्ठति स्फुटम् । लोकजल्पं च शुश्राव बालवृद्धपुरस्सरम् ॥ ५॥ एवं विज्ञाय तां वातों सत्येन परिवर्जिताम् । रोहिणी साधुतोपेता वज्रेणेव समाहता ॥ ६॥ गोकुलाद् दधिदुग्धादि गृहीत्वा कुचनम्रया । आगच्छन्त्या विशन्त्या च गोप्या तत्पुरमुवजम् ॥७॥ इयमाकर्ण्य तां वार्ता जलकूपेऽबलामुखात् । हलेऽस्मत्पत्तनेऽन्यायो वर्तते साधुनिन्दितः ॥८॥ विज्ञाताखिलभावेन कोविदेन मनीषिणा । पुत्रेण बलदेवेन सह तिष्ठति रोहिणी ॥ ९॥ " इदं वचनमाकर्ण्य दुःखपूरितमानसा । ययौ गृहं निजं साऽपि' शोकम्लानमुखाम्बुजा ॥१०॥ पृष्टा गोपी महादेव्या रोहिण्या संभ्रमण सा । गोपि किं कारणं दुःखाद् रोदनं कुरुषे वद ॥११॥ रोहिणीवाक्यमाकर्ण्य गोपिका निजगावमुम् । यथा त्वं देवि पुत्रेण सह तिष्ठसि सर्वदा ॥१२॥ 1 [रदच्छदश्छिन्नो ]. 2 फ मुमूर्षती. 3 [रोदं ]. 4 पफ करशाषां. 5 [नु तवेश्वर ]. 6 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम्. 7 ज सा च. 8 पफ चतुर्भिः कुलकम् , ज चतुःकुलकमिदम्. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९०, ५ ] जिनदासीकथानकम् निशम्य जनतो वाक्यं निर्गतं वदनादिदम् । अमुना कारणेनायें रुदन्ती त्वां समागता ॥ रोहिणी तद्वचः श्रुत्वा पुरमन्विष्य सर्वतः । सत्यं जनोऽपि वक्तीदं जातेयं वीतसंशया ॥ वसुदेवोऽपि विज्ञाय तं वृत्तान्तमशेषतः । आहूय रोहिणीमस्याः शपथं प्रददाविमम् ॥ यमुनाख्यनदीमध्ये महाप्लवसमन्विते । कायोत्सर्गेण तिष्ठ त्वं प्राप्येमां सरितं द्रुतम् ॥ निशम्य पतिसद्वाक्यं रोहिणी प्रीतमानसा । यमुनाख्यनदीवाहे तस्थौ प्रतिमया तदा ॥ १७ ॥ प्रतिमायोगमासाद्य तत्प्रवाहे महाजवे । स्थितायामत्र रोहिण्यां बभूवैषा स्थिरा नदी ॥ १८ ॥ स्तम्भिते तज्जले जाते पुरे वक्ति जनोऽखिलः । शुद्धाऽसि सांप्रतं देवि पाहीदं नगरं सति ॥ १९ ॥ लोकवाक्यं समाकर्ण्य गदिता यमुनाऽनया । पूरयन्त्या दिशां चक्रं निनदेन नभोऽपि गाम् ॥ २० ॥ यहं शुद्धिमायाता दक्षिणस्या दिशः पुरः । ततो व्रजोत्तरामाशां यमुने मम वाक्यतः ॥ २१ ॥ सत्यधैर्यसमेतायाः रोहिण्याः स्थिरचेतसः । कलाविज्ञानयुक्तायाः शुश्राव वचनं धुनी ॥ वेष्टयित्वा पुरं सर्वं उत्तरस्यां दिशि स्थिता । अद्यापि रोहिणीवाक्याद्यमुना वहति स्फुटम् ॥ प्रातिहार्यमिदं दृष्ट्वा रोहिण्या बहवो नराः । नार्योऽपि शुद्धचेतस्का जिनधर्मं प्रपेदिरे ॥ ॥ इति श्रीवसुदेवरमणीरोहिणीकथानकमिदम् ॥ ८८ ॥ २२ ॥ " २३ ॥ २४ ॥ * २१५ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ ८९. सीताकथानकम् । विनीताविषये कान्ते साकेता नगरी शुभा । रामदेवो नृपस्तस्यां सीताऽऽसीदस्य गेहिनी ॥ १ ॥ " रावणेन समं तस्या जाते संजल्पने तदा । रामदेवेन शुद्ध्यर्थं अग्निकुण्डं कृतं महत् ॥ २ ॥ तन्मध्येऽगरुकाष्ठौघैः श्रीखण्डैरपि पूरिते । रामदेवसमादिष्टैर्नरैः प्रज्वालितः शिखी ॥ ३ ॥ रामदेवं विहायान्यनरं मे यदि वाञ्छितम् । मनसाऽपि जना वह्ने ततो मां दह माऽन्यथा ॥ ४ ॥ एवं निगद्य सा सीता रामदेवप्रचोदिता । अग्निकुण्डं विवेशाशु ज्वालोद्योतितपुष्करम् ॥ ५ ॥ सीतयाऽऽविष्टया तच्च' वह्निज्वालासमन्वितम् । अग्निकुण्डं तदा जातं महापद्मसरोवरम् ॥ ६ ॥ " प्रातिहार्यमिदं प्राप्य वरं देवैः प्रकल्पितम् । सीता संयमसेनान्ते दधौ दीक्षां जिनाश्रितम् ॥ ७ ॥ आश्चर्यमिदमालोक्य तदानीं बहवो नराः । महावैराग्यसंपन्ना योषितोऽपि प्रवव्रजुः ॥ ८ ॥ श्रावकत्वं परिप्राप्य तथाऽन्ये भक्तितत्पराः । केचिन्मध्यस्थतां भव्याः सीतास्तुतिविधायिनः ॥ ९ ॥ ॥ इति श्रीरामदेवपत्नी सीताशुद्धिकथानकम् ॥ ८९ ॥ * ९०. जिनदासीकथानकम् । अथ 'चम्पापुरं श्रीमान् जिनदत्तोऽभवत् प्रभुः । श्रावकोऽस्य प्रिया चार्वी जिनदासी कलखना ॥१॥ अन्यदा जिनदत्तोऽयं जिनदास्या सहादरात् । प्रस्थितो मिथिलां गन्तुं श्वशुर स्नेहकारणात् ॥ २ ॥ जिनदत्तो व्रजन् कक्षे नानानोकुहसंकुले | अभ्याख्यानं ददौ किंचिज्जिनदास्याः स्वयोषितः ॥ ३ ॥ साऽपि तद्वचनं श्रुत्वा श्रुतपूर्वं मनखिनी । स्वचारित्रविशुद्धयर्थं सिंहान्ते प्रतिमां दधौ ॥ ४ ॥ सिंहोऽपि त्रिःपरीत्यैतां कायोत्सर्गमिव स्थिताम्' । जिनदासीं प्रणम्याशु ययौ धाम स्ववाञ्छितम् ॥५॥ 1 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 2 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 3प प्रज्वलितः 4 [ तत्र ]. 5ज कथानकमिदम्. 6 [ चम्पापुरे ]. 7 पफ 'विवस्थिताम् [ कायोत्सर्गव्यवस्थिताम् ]. 5 30 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ९१. महादेवीकथानकम् । ' विनीताख्यमहादेशे विद्यते परमा पुरी । अयोध्या जनसंकीर्णा सूरदोऽस्यां महीपतिः ॥ १ ॥ शतानि पञ्च भार्याणां विद्यन्तेऽस्य महीपतेः । रूपयौवनयुक्तानां विद्युत्पुञ्जसमत्विषाम् ॥ २ ॥ तन्मध्येऽस्य महादेवी रूपयौवनगर्विता । चन्द्रलेखेव सत्कान्तिः सती नामाभवत् प्रिया ॥ ३ ॥ तंद्र राजकार्याणि हित्वा सर्वाण्यपि स्फुटम् । सर्वकालं स भूपालस्तिष्ठति प्रीतमानसः ॥ ४ ॥ अन्यदा मुनिसामीप्ये श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् । प्रतीहारं जगादेति भूपतिः पुरतः स्थितम् ॥ ५ ॥ " जायते राजकार्येण तथा साधुसमागमः । मम विज्ञापनं कुर्यान्नान्यथा जातुचिद् ध्रुवम् ॥ ६ ॥ एवं निगद्य तं राजा महादेव्या तया समम् । मानसेष्टान् महायोगान् भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ ७ ॥ अन्यदा दमदत्तोऽपि तथा धर्मरुचिर्मुनिः । गत्वा मन्थरगामिन्या विवेश नृपमन्दिरम् ॥ ८ साधुयुगं विष्टं भिक्षार्थं नृपमन्दिरम् । प्रतीहारो जगामाशु तदानीं नृपसन्निधिम् ॥ ९ ॥ ततः सतीमहादेव्या विधाय मुखमण्डनम् । कुर्वन् ललाटपट्टे च रोचनातिलकं नृपः ॥ १० ॥ पूर्वादिष्टेन तेनापि प्रतीहारेण साधुना । भूयोभूयः प्रयत्नेन तदा विज्ञापितोऽधिकः ॥ ११ ॥ * प्रतिहारोदितं श्रुत्वा चुकोपास्मै महीपतिः । महादेवीभयेनापि मौनमादाय तस्थिवान् ॥ १२ ॥ मुहूर्तकमास्थाय प्राहेमं वसुधाधिपः । रे प्रतीहार वाचाट साधवः किं समागताः ॥ १३ ॥ यन विज्ञापितो मूढ नितान्तं मम सांप्रतम् । मण्डनं कुर्वतः सत्या महादेव्याः प्रयत्नतः ॥ १४ ॥ भूपालवचनं श्रुत्वा प्रतीहारो जगावमुम् । महाराजाद्य भिक्षायै त्वगृहं प्रापतुर्मुनी ॥ १५ ॥ 20 तपोधनावनागारौ धर्मविन्यस्तमानसौ । सूपकारेण राजेन्द्र तिष्ठतस्त्वगृहे धृतौ ॥ १६ ॥ प्रतीहारवचः श्रुत्वा समुत्थाय नरेश्वरः । जगौ सतीं महादेवीं मण्डनासक्तमानसाम् ॥ १७ ॥ उत्कण्ठतां परां भद्रे मा गमिष्यसि वल्लभे । यावता शोषमायाति रोचनातिलकं तव ॥ १८ ॥ तावन्नूनमहं मुग्धे भिक्षादानं प्रदाय च । साधुभ्यस्तूर्णमायामि तवाभ्याशं विवेकिनि ॥ १९ ॥ एवमुक्त्वा प्रियां राजा भक्तिष्टतनूरुहः । जगाम साधुसामीप्यं तद्दानोद्यतमानसः ॥ २० ॥ प्रतिग्रहः शुचिस्थानं चरणोदकपूजनम् । नतिमानसवाक्कायाहारशुद्धिः क्रमादिति ॥ २१ ॥ इमां दानविधिं कृत्वा साधुभ्यो भक्तितत्परः । ददावाहारदानं स धर्मविन्यस्तमानसः ॥ २२ ॥ दत्त्वा दानं सुसाधुभ्यो यावद्रजति सादरः । सामीप्यं स महादेव्यास्तगुणा कृष्टचेतनः ॥ २३ ॥ तावत्सतीमहादेव्या कुर्वती' साधुनिन्दनम् । सद्यो विनाशमायातं शरीरं कुष्ठतोऽमुतः ॥ २४ ॥ महादेवनुं दृष्ट्वा कुष्ठस्तामनित्यताम् । रूपयौवनलक्ष्मीनां सांसारिक सुखस्य च ॥ २५ ॥ महावैराग्यमासाद्य सामन्तैर्बहुभिः सह । दीक्षां जग्राह भूपालो वीरसेनान्तिके मुदा ॥ २६ ॥ ततः सती महादेवी कुष्ठव्याप्तशरीरिका । बभूव दीर्घसंसारा मुनिनिन्दाविधानतः ॥ २७ ॥ ॥ इति श्रीसूरदत्त भूपति सतीमहादेवी कथानकमिदम् ॥ ९१ ॥ * 15 1 २१६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९०. ६ अनेन विधिना तत्र शोधयित्वा स्वमादरात् । गुरुं सुमतिमानम्य जिनदासी तपोऽग्रहीत् ॥ ६ ॥ वातिशयमीक्षं जिनदास्याः सुचेतसः । सार्थमध्ये नरा धीरा जिनधर्मं प्रपेदिरे ॥ ७ ॥ ॥ इति श्रीजिनदत्त भार्याजिनदासीखशुद्धिकरणकथानकमिदम् ॥ ९० ॥ 25 30 1 ज 'जिनदासीशुद्धिकथानकमिदम्. 2 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम्. 3 [ अधिपः ]. 4 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम् 5 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 6 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 7 पफ चतुष्कुलकम्, ज चतुष्कुलकमिदम्. 8 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 9 [ 'देव्याः कुर्वत्याः ]. 10 पफ युग्मम्, ज युगलम् . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ -१३. १३ ] चारुदत्तकथानकम् ९२. त्रिविक्रमकथानकम् । तरिमन्नेव पुरे विप्रो बभूवायं त्रिविक्रमः । गच्छन् महावने भीमे व्याघेणासौ विलोकितः ॥१॥ धावन् व्याघ्रभयात् कक्षे वेपमानशरीरकः । पपात जीर्णकूपेऽसौ रक्षाहीनस्त्रिविक्रमः॥२॥ पतताऽनेन कूपेऽस्मिन् वेपिना पुण्डरीकतः । गृहीतः पाणिना क्षिप्रं 'शरस्तम्बस्तटस्थितः ॥३॥ हस्तद्वयेन तं बाढं गृहीत्वा कूपमध्यगः । स नरो वेपमानोऽरं लम्बमानोऽवतिष्ठते ॥४॥ तावद्व्याघ्रोऽपि संप्राप्तस्तरूढस्थो रसन् खरम् । तत्रत्यं तं नरं तस्थौ स्पृशन् पादनखाङ्कुरैः॥५॥ शक्नोति तं नरं नायं ग्रहीतुं बलवानपि । तदानीं स शरस्तम्बं चचाल पदयोगतः ॥६॥ तत्रत्यं मधुजालं च चलितं तत्पदाहतम् । तस्मिन् प्रचलिते तूर्णं चलितं सकलं मधु ॥७॥ चमूरं पश्यतस्तत्र तन्नरस्योर्ध्ववक्रकम् । मुखे पतति तद्विन्दुरेकैको मधुरस्तदा ॥ ८॥ मधुबिन्दुं पतन्तमाखादयति वक्रगम् । तन्मक्षिकागणैस्तत्र खाद्यमानो वितिष्ठते ॥ ९॥ तन्मूलेऽपि द्विधा नूनं क्रियमाणेऽत्र मूषकैः । दिक्षु सर्वासु रक्ताक्षाः सन्ति सर्वा भयानकाः ॥१०॥ गृहीतेऽपि पदद्वन्द्वे शयुना स नरस्तदा । मधुबिन्दुसुखं दिव्यं मन्यमानो वितिष्ठते ॥११॥ एवं जीवन्नरो लोके मृत्युव्याघ्रण भीषितः । आजवंजवकूपेऽस्मिन् पतितः स वितिष्ठते ॥ १२ ॥ स जीवितशरस्तम्बे लम्बमानः स भक्षितः । दुःखं माक्षिकसंलग्नमाक्षिकानिकरैरपि ॥ १३ ॥ क्रोधमानाद्यहिवातजिह्वाभिर्वेपिताङ्गकः । गृहीतश्चरणे बाढं नरकाजगरेण तु ॥ १४॥ अक्षिमाक्षिकसंसारं मन्यमानो नराधमः । परलोकसुखे दिव्ये निरपेक्षः प्रतिष्ठते ॥ १५॥ ॥ इति श्रीसंसाराल्पसुखबहुमन्यमानत्रिविक्रमाख्यानकथानकमिदम् ॥१२॥ ॥ ९३. चारुदत्तकथानकम् । अङ्गकाख्यजनान्तेऽस्ति चम्पाऽऽख्या नगरी परा । शूरसेनो नृपस्तस्यां शूरसेनाऽस्य कामिनी ॥१॥ विद्यते तत्पुरश्रेष्ठी भानुनाम महाधनः । सुभद्रा कामिनी चास्य सुरदेवीसमप्रभा ॥२॥ ॥ सा पुनः पुत्रहीना हि दुःखपीडितमानसा । सर्वदा पुत्रमिच्छन्ती सुभद्राख्या वितिष्ठते ॥३॥ अन्यदा मन्दिरे जैने प्रोत्तुङ्गे स्थितया तया । एको विलोकितो योगी चारणस्तपसां निधिः ॥४॥ मुनिमत्र प्रणम्यैषा भक्तितः पुरतः स्थिता । जन्मन्यत्र सुतो नाथ विद्यते वा न वा वद ॥ ५॥ निशम्य वचनं तस्या जगादैतां यतीश्वरः । स्तोकैर्दिनैः प्रधानोऽयं नन्दनस्ते भविष्यति ॥६॥ कृत्वाऽऽदेशमिमं तस्या जिनं नत्वाऽतिभक्तितः । जगाम स्वमतं साधुश्चारणः सुरवर्त्मना ॥ ७॥ 25 ततो भानुसुभद्राभ्यां कालेन कियताऽपि च । पुत्रो मनोरमो जातश्चारुदत्ताभिधानकः॥८॥ हरिसिंहस्तथा चान्यो मरुभूतिर्वराहकः । गोमुखः सन्ति चत्वारो वयस्यास्तस्य शोभनाः॥९॥ रन्तुमेभिः समं क्वापि चारुदत्तो विनिर्गतः । पुलिने रत्नमाल्या हि पदमेकं ददर्श सः ॥१०॥ विलोक्येदं पदं तत्र बभाणैतान् पुरःस्थितान् । पदमेतन्न साधूनां विद्याधरपदं त्विदम् ॥११॥ विज्ञाय तत्पदं सोऽपि सकलत्रोत्र खेचरः । विद्यते तत्पदाभ्याशे जगाम त्वरयान्वितः ॥१२॥" कदलीगृहवृक्षाग्रे कीलितं लोहकीलकैः । चारुदत्तो ददर्शकं खेटं निश्चललोचनम् ॥ १३॥ 1 पफ सरस्तम्बतट'. 2 [पतन्तं तमा]. 3 ज स भिक्षितः. 4 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 5ज त्रिविक्रमाख्यानकमिदम्. 6 पफ पुत्रमिच्छन्ति. बृ० को० २८ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [९३. १४दृष्ट्वा विद्याधरं तत्र चारुदत्तो जगाविदम् । कुतो दुःखमिदं मित्र प्राप्तोऽसि साधु मे वद ॥१४॥ श्रुत्वा तद्वचनं खेटो बभाणेमं ससंभ्रमम् । लोहकीलानिमान् क्षिप्रमुत्पाटय मदङ्गतः ॥१५॥ ततोऽत्र फरखड्ङ्गे च तिस्रो वीर्यसमन्विताः । ऊषधि पीषयत्वैता देहि मे व्रणगहरे ॥१६॥ ततोऽपनीय तान् कीलान् चारुदत्तः कृपाधीः । पीषयित्वौषधीरेतास्तद्वणे प्रददौ तदा ॥१७॥ । एवं कृते समुत्थाय खेचरो गतवेदनः । सफरं खड्गमादाय जगामाशु प्रियान्तिकम् ॥ १८॥ विटखेटान् समादाय स्खभायाँ परमाहवे । चारुदत्तान्तिकं प्राप्य जगादेति स खेचरः॥ १९॥ विजयाधमहीध्रस्य दक्षिणस्यां दिशि स्थितम् । वयस्य पत्तनं कान्तं विद्यते शिवमन्दिरम् ॥ २०॥ विद्यते तत्र भूपालः कौशिको नाम विश्रुतः । अमितादिगतिर्दक्षस्तस्याहं मित्र नन्दनः ॥ २१ ॥ गोरमुण्डो मतः पूर्वो धूमसिंहस्तथा परः । वयस्यौ द्वाविमौ स्यातां मम स्नेहपरायणौ ॥ २२ ॥ " आभ्यां सह विनीताभ्यां रममाणो निजेच्छया । नानातरुसमाकीर्णं हीमन्तं पर्वतं गतः ॥ २३॥ हिरण्यरोमनामाऽऽस्ते तापसस्तत्र शोभनः । हिरण्यतापसी तस्य तत्सुता सुकुमारिका ॥ २४ ॥ दृष्ट्वा तां शोभनाकारां तत्रत्यां रतिविभ्रमाम् । मन्मथस्य शरैर्विद्धो मित्राहं गृहमागतः ॥२५॥ मद्वयस्यैः पुनः सा च किंवदन्ती निवेदिता । मदुःखकारणोद्भूता मजनेभ्यो विषादिभिः ॥२६॥ मजनैर्भूपतेर्वार्ता कथिता सा परिस्फुटा । मन्निमित्तं वरा कन्या याचिता भूभुजा तदा ॥ २७॥ 15 हिरण्यरोमकन्या सा नामतः सुकुमारिका । परिणीता मया मित्र तूर्यमङ्गलनिस्वनैः ॥ २८ ॥ रममाणोऽनया सार्धं विधातुं रमणं भुवि । इमं प्रदेशमायातो रमणीयमनोकुहैः ॥ २९॥ मृगयन् धूमसिंहोऽपि मच्छिद्रं हि दिवानिशम् । तिष्ठतीच्छन्मदत्रस्तो मत्प्रियां सुकुमारिकाम् ॥३०॥ उद्यानेऽत्र मनःकान्ते क्रीडन्तं मां विलोक्य सः। अनया भार्यया साधं धूमसिंहो रुपं ययौ ॥३१॥ कीलकैः कीलयित्वा मां वृक्षाग्रे पूर्ववैरिकः । धूमसिंहः समादाय मत्प्रियां खमतं ययौ ॥ ३२ ॥ 20 इदानीं मोचितो भद्र त्वयाऽहं बन्धनादरम् । क्रोधेन तं परिप्राप्य प्रियामादाय चागतः ॥३३॥ सांप्रतं त्वं परं मित्र ततोऽहं तव सज्जन । भद्राज्ञां देहि मे सारां तुष्टः किं करवाणि ते ॥ ३४॥ विद्याधरवचः श्रुत्वा चारुदत्तो जगावमुम् । त्वद्दर्शनं हि मे दानं मित्र गृह्णामि नापरम् ॥ ३५ ॥ . निशम्य तद्वचो दीनं खेचरः प्रीतमानसः । ययौ निजपुरं हृष्टश्चारुदत्तविसर्जितः ॥ ३६॥ . नानाशास्त्रकृताभ्यासो जिनधर्मपरायणः । चारुदत्तोऽपि संप्राप क्रमेण नवयौवनम् ॥ ३७॥ 3 अथ सर्वार्थनामाऽभूचम्पायां पुरि वाणिजः । धनधान्यसमायुक्तः सुभद्रायाः सहोदरः ॥ ३८॥ बभूवास्य सुमित्राख्या रमणी लोललोचना । अनयो रूपसंपन्ना सुता मित्रवती परा ॥ ३९ ॥ पितृदत्ता खकन्येयं चारुदत्तेन सुन्दरी । परिणीता विधानेन तूर्यमङ्गलनिस्वनैः ॥४०॥ ततोऽनया समं भोगान् भोक्तुं कामं च रूपया । महावैराग्यसंपन्नश्चारुदत्तो न वाञ्छति ॥४१॥ धर्मासक्तमतिर्नित्यं कलाविज्ञानकोविदः । सुभानुगणिकासंगाज्जातोऽयं शिथिलस्तराम् ॥ ४२ ॥ ॥ अस्यामेव धनाढ्यायां चम्पायां पुरि कुट्टिनी । आसीत् कलिङ्गसेनाख्या गणिका स्वार्थतत्परा ॥४३॥ रूपयौवनसंपन्ना विषाणदललोचना । सुता वसन्तसेनाख्या बभूवास्याः कलस्वना ॥४४॥ द्यूतेन मद्यपानेन पुष्पताम्बूलयोगतः । विटगोष्ठीप्रसंगेन पिशिताशनकेन च ॥४५॥ अनया सह सक्तेन चित्तचोरणदक्षया । हावभावविलासिन्या विभ्रमान्वितयाऽपि च ॥४६॥ नूनं द्वादशभिर्वश्चारुदत्तेन तत्पुरे । निजाः षोडशकोठ्योऽपि कनकस्य विनाशिताः ॥ ४७॥ . 1 [ओषधीः]. 2 ज सुकुमालिकाम्. 3 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 4 पफ त्रिकलम् , जत्रिकलमिदम्. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९३.८० ] चारुदत्तकथानकम् २१९ तथा समस्तरुच्यानि मित्रवत्याः स्वयोषितः । आनीतानि नरैरस्याश्चारुदत्तनिदेशतः ॥४८॥ मित्रवत्याः स्वरुच्यानि समस्तानि विलोक्य सा । जगौ कलिङ्गसेनेयं स्वसुतां पुरतः स्थिताम् ॥४९॥ निर्धाट्यतामयं पुत्रि चारुदत्तो धनोज्झितः । अधुना सधनः कोऽपि गृह्यतामत्र पत्तने ॥ ५० ॥ एवमुक्त्वा तकां सा च जनन्या धनगृद्धया । तत्प्रेमरागतः पुत्री चारुदत्तं न मुञ्चति ॥५१॥ भूयोऽपि सा सुतां प्राह चारुदत्तपरायणाम् । अस्मत्कुलसमायातं शुभाक्षि तमिदं शृणु ॥५२॥ । त्वं बाला विद्धकर्णाऽसि मुग्धभावा तनूदरि । धनलोभपरित्यक्ता चास्मच्छास्त्रपराङ्मुखी ॥ ५३॥ स नरो वल्लभोऽस्माकं दाता बहुधनस्तराम् । निर्धनस्तु परित्याज्यः कुलजोऽपि सुरूपवान् ॥ ५४॥ किं न दृष्टा त्वया भद्रे यथा गण्डकगण्डिका । गृहीतरससर्वस्वा मुच्यते निखिलैर्जनैः॥ ५५ ॥ एवमुक्ताऽपि सा पुत्री यदा मुञ्चति नादरम् । एकस्यां निशि तं गीतैराभाणककहाणकैः ॥ ५६ ॥ कथाभिश्च विचित्राभिः प्रहेलाभिः समन्ततः । कृत्वा निद्रालुकं तत्र शय्यायां शयितं मुदा ॥ ५७॥" सुचेटीभिः प्रयत्नेन मोचयामास चत्वरे । निद्रान्तेऽथ तथा वीक्ष्य यातायातं जनं घनम् ॥५८॥ कृतस्य कर्मणश्चक्रेऽनुशयं च तदा बहु । मा स्म भूया जनः कोऽपि मादृक्षो गतचेतनः ॥ ५९॥ जैनो भूत्वा य ईदृक्षमाचारं कुरुते तराम् । दर्शयामीह लोकस्य कथमेतद् गतक्रियः ॥ ६० ॥ वक्रमावृत्य वस्त्रेण जगाम स्वगृहं ततः । चारुदत्तो तदा माता पूजां चक्रेऽस्य सादरम् ॥ ६१॥ विनष्टगृहविस्तारो मरणेन पितुस्तराम् । मातुः शोकेन मूढात्मा शुष्काखिलशरीरकः ॥ ६२॥ भार्यालङ्कारसंघातं सुवर्णमणिनिर्मितम् । समातुलः समादाय निर्गत्य निजमन्दिरात् ॥ ६३॥ उत्कालाख्यमहादेशे गिरावर्त पुरं महत् । चारुदत्तो वणिज्यायै जगाम धनसंकुलम् ॥ ६४ ॥ गृहीत्वा तत्र कसं बहुं बहुधनेन सः । सार्थेन सह सार्थेन स ययौ तामलिप्तिकाम् ॥६५॥ व्रजतस्तामलिप्तान्ते चारुदत्तस्य तत्समम् । कासः सकलो दग्धस्तदा वनदवाग्निना ॥६६॥ मातुलं तत्र हित्वाऽसावश्वमारुह्य सत्वरम् । एकाकी प्रस्थितो गन्तुं तदा पौरन्दरी दिशम् ॥ ६७॥" ततोऽपि गच्छतस्तस्य कुहिण्यां स तुरङ्गमः । प्रयातः पञ्चतां हित्वा तं हरिं स ययावतः ॥६८॥ आदित्योदयसामीप्ये विश्रम्य श्रमहानये । प्रियङ्गुनगरं प्राप चारुदत्तो मनोहरम् ॥ ६९॥ दृष्टः सुरेन्द्रदत्तेन प्रियमित्रेण तत्र च । नीतः स्वमन्दिरं सोऽपि संभ्रमान्वितचेतसः॥ ७० ॥ दिनानि कतिचित् तत्र भुञ्जानो भोगसंपदम् । ततो दुःखपरित्यक्तश्चारुदत्तः स्थितस्तदा ॥ ७१॥ ततः सुरेन्द्रदत्तेन ध्रियमाणो धनाशया । आरूढश्च सहानेन बोधिस्थे ध्वजराजिते ॥ ७२॥ यवनाख्यं महाद्वीपं मनोनयनसुन्दरम् । चारुवस्तुसमाकीर्णं चारुदत्तो ययावमुम् ॥ ७३ ॥ द्वीपाद् द्वीपान्तरं गच्छन् पत्तनात् पत्तनान्तरम् । षड्वारान् भिन्नबोधिस्थश्चारुदत्तो बभूव सः ॥७॥ सकः सप्तमवेलायामष्टौ स्वर्णस्य कोटिकाः । प्राप्य बोधिस्थमारोप्य संमग्नो वारिधौ पुनः ॥७५ ॥ ततोऽसावायुषः शेषे बोधिस्थफलकं तदा । प्राप्य तस्मिन् समारुह्य सिन्धुसागरमाययौ ॥ ७६ ॥ ततः समुद्रमुत्तीर्य विषयं सिन्धुपूर्वकम् । अतिक्रम्य श्रमी प्राप पुरं राजगृहं सकः ॥ ७७ ॥ ॥ परिव्राट् विद्यतेऽत्रैकस्तेन नीतो निजं गृहम् । स्तितवांश्चारुदत्तोऽपि तन्नीडे दिनपञ्चकम् ॥ ७८॥ अन्यदा तं परिव्राजो नीत्वैकान्ते जगाविदम् । रसकूपः पुराभ्याशे विद्यतेऽतिशयान्वितः ॥ ७९ ॥ अतो रसं समादाय ते ददामि महामते । येन दारिद्रतो मुक्तः सुखं जीवसि बालकः ॥ ८०॥ 1 पफ निदेशितः. 2 ज सुभाषितमिदं शृणु. 3 ज ततो. 4 पफ त्रिकलम्, ज त्रिकलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 [बालक ]. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९३.८१ अस्माकं तेन नो कार्यं सिद्धेनापि तपस्विनाम् । भवतः पक्षपातेन मयेदं परिभाषितम् ॥ ८१ ॥ परित्राजवचः श्रुत्वा धनलुब्धोऽभिनन्द्य तम् । वभाण विस्मितस्वान्तश्चारुदत्तः कुतूहली ॥ ८२ ॥ एवं कुरुष्व मे पूत पितृकल्प गुणाकर । येनाहं त्वत्प्रसादेन जीवामि सकुटुम्बकः ॥ ८३ ॥ अन्यदा तं समादाय तदुक्तेन भयावहम् । भीमाटवीं विवेशाशु स परिव्राट् प्रयत्नतः ॥ ८४ ॥ • तस्या न गणितं वेत्सि धातुपूर्वरसान्वितम् । महाबिलमगाधं च नानातिशयकारणम् ॥ ८५ ॥ कूटयचं मुखद्वारं प्रमाणं चास्य भासुरम् । अष्टार्धहस्तसन्मानं जनविस्मयकारणम् ॥ ८६ ॥ इदं प्राप्य परिव्राट् तं जगादोद्धुषिताङ्गकः । एतद्रसबिलं पुत्र कोविदाश्चर्यहेतुकम् ॥ ८७ ॥ विद्यते स रसो यत्र स्वमनोवाञ्छितप्रदः । दारिद्रकन्दनिर्नाशो नराणां करमागतः ॥ ८८ ॥ अतः पुत्र विश क्षिप्रं निर्भयः प्रीतमानसः । चारुदत्तः प्रविश्येदं तीरमात्रं वितिष्ठते ॥ ८९ ॥ " यावद्रसं स गृह्णाति तत्रत्यं स वणिक्पतिः । तावन्मनुष्यनादेन निषिद्धोऽयं रसं प्रति ॥ ९० ॥ श्रुत्वा तन्निनदं तत्र चारुदत्तो बभाण तम् । गृह्णन्तं मां रसं वाचा कुतो वारयसि द्रुतम् ॥९१॥ तद्वाक्यतो जगादेमं मनुष्योऽहं प्रधिस्थितः । कोऽसि त्वं वद मे भद्र रसच्छेदमिमं श्रितः ॥ ९२ ॥ मनुष्य चारुदत्तोऽहं चम्पापुरवणिक्पतिः । रसार्थमत्र संविष्टः परिव्राजकशासनात् ॥ ९३ ॥ चारुदत्त्वचः श्रुत्वा स नरो निजगावमुम् । यथा न शोभनं भद्र विहितं भवता शृणु ॥ ९४ ॥ " यत्परिव्राजकोक्तेन प्रविष्टोऽत्र रसालये । एष धूर्तः खलः पापो महापुरुषवञ्चकः ॥ ९५ ॥ अहं भाण्डं समादाय श्रीमदुज्जयनीपुरः । गतोऽरं सिंहलद्वीपं वाणिजो धनतृष्णया ॥ ९६ ॥ ततो निवर्तमानः सन् भिन्नबोधिस्थकः पुनः । क्रमेण पर्यटन् देशे प्राप्तो राजगृहं पुरम् ॥ ९७ ॥ पुत्रं वा पालयित्वा मां दिनानि कतिचित्पुनः । धनाशां दर्शयित्वा च विष्णुदत्ततपखिना ॥९८॥ रज्वा च सिक्वकं बद्धा हस्ते दत्त्वा स तुम्बकम् | सिक्के मां समारोप्य चिक्षेप रसकूपके ॥९९॥ " रसेन तुम्बकं भृत्वा मया चास्य समर्पितम् । रसमध्ये हि मां हित्वा गृहीत्वा तद्गृहं गतः ॥ १०० ॥ निक्षिप्तोऽहं यथाऽनेन रसमध्ये दुरात्मना । तथा नरसहस्राणि निक्षिप्तानि मृतानि च ॥ १०१ ॥ तेषां सृतनराणां च रसकूपो भृतोस्थितिः । सांप्रतं तव संप्राप्ता परिपाटी नरोत्तम ॥ १०२ ॥ रसतृष्णां विहायाशु समुत्तीर्य रसधेः । सुखेन जीवनं साधो कुर्वन्यत्र क्वचित्पुनः ॥ १०३ ॥ परिवाद् ते रसं प्राप्य भवन्तमपि निश्चितम् । दुष्टचित्तो दुराचारो रसकूपे प्रमोक्ष्यति ॥ १०४ ॥ * रसमध्येऽमुना क्षिप्तो नष्टशोणितकैकसः । मरणं यास्यसि क्षिप्रं तस्मात् कुरु पलायनम् ॥१०५॥ निशम्य तद्वचः सत्यं परिणामहितं तराम् । चारुदत्तो वभाणैतं भयवेपितविग्रहः ॥ १०६ ॥ इमं तपस्विनं दुष्टं नरनागवधोद्यतम् । प्राहिणोमि निजं वेश्म सोपसर्गं करिष्यति ॥ १०७ ॥ तेनेदं तुम्बकं भद्र रसपूर्ण प्रदेहि मे । येनोपायं विधास्यामि नूनमस्य पलायने ॥ १०८ ॥ तेन तद्वचनात्तूर्णं तुम्बकं रससंभृतम् । दत्तं कृपावता तस्मै सता तद्धितमिच्छता ॥ १०९ ॥ • तेनापि चारुदत्तेन सा वरत्राशु चालिता । रसतुम्बं समादाय स तपस्वी गृहं ययौ ॥ ११० ॥ प्रत्याख्यानं समादाय सावलम्बं स धीरधीः । स्मरन् हृदि तरां भक्त्या शरणोत्तममङ्गलम् ॥ १११ ॥ कृताञ्जलिपुटः के च समाधिमरणोद्यतः । चारुदत्तः सुखं तत्र तस्थौ मुदितमानसः ॥ ११२ ॥ अथोक्तश्चारुदत्तेन रसमध्यस्थितो नरः । यथा मम त्वया दत्तं पतितस्यात्र जीवनम् ॥ ११३ ॥ 3 [ भृतोऽस्थिभिः ]. 4 [ रसप्रधेः ]. 1 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम्. 2 पफ रसान्वितः 5 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम् 6 पफ युग्मम् ज युगलमिदम् 7 पफ युग्मम्, ज युगलम्. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९३. १४६ ] चारुदत्तकथानकम् 5 तथाऽहमपि ते साधो पतितस्य भवावटे । ददाम्युत्तरणोपायं धर्महस्तावलम्बतः ॥ ११४ ॥ एवं निगद्य तं वीरो धर्मश्रवणमादरात् । चारुदत्तश्चकारास्य तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ ११५ ॥ मित्र जीवोऽस्ति संसारे दुःखितः शरणोज्झितः । पापकर्म भराक्रान्तो धर्मबन्धुविवर्जितः ॥ ११६ ॥ नारकान्योन्यसंरम्भकृतयुद्धेषु पापतः । नरकेषु प्रचण्डेषु जायते मित्र देहवान् ॥ ११७ ॥ ' अनुभूय चिरं कालं नानादुःखानि भूरिशः । नरकेष्वेषु निर्गत्य जीवस्तिर्यक्त्वमेति सः ॥ ११८ ॥ छेदनाद्भेदनात् तत्र भक्षणाद्वधतोऽपि च । दुःखमासादयन् देही मनुष्यत्वं प्रपद्यते ॥ ११९ ॥ दारिद्रशोकरोगेभ्यो धनापहरणात् तथा । इष्टोपयोगतोऽनिष्टसंयोगाद्दुःखमाप्नुयात् ॥ १२० ॥ कथंचित् पुण्ययोगेन सुखं वा प्राप्य तत्र च । कषायाभावतो जीवो देवत्वं प्रतिपद्यते ॥ १२१ ॥ देवान्महर्द्धिकान् दृष्ट्वा तत्रापि स्वस्य हीनताम् । शोकं करोति देवोऽयं मित्र संसारवर्धनम् ॥१२२॥ चतुर्गतिकसंसारे नानादुःखसमाकुले । जीवो दुःखमवाप्नोति जिनधर्मं गृहाण भो ॥ १२३ ॥ जिनधर्म विना मित्र स्वर्गमोक्षप्रदायकम् । आजवंजवदुःखानि प्राप्स्यसि त्वं विमूढधीः ॥ १२४॥ * चारुदत्तोदितं श्रुत्वा रसमध्यस्थितो नरः । बभाणेमं प्रबुद्धात्मा तोषकण्टकिताङ्गकः ॥ १२५ ॥ स्वामिन्निहागतोऽसि त्वं पुण्येन मम चारुणा । उपदेशं प्रियं दिव्यं तं मह्यं देहि सांप्रतम् ॥ १२६ ॥ निशम्य तद्वचः सारं चारुदत्तः कृपार्द्रधीः । सम्यक्त्वपूर्वकं दिव्यं जिनधर्मं सुखावहम् ॥ १२७ ॥ पञ्चाणुव्रतसंयुक्तं चतुः शिक्षाव्रतान्वितम् । गुणत्रतत्रिकायुक्तं मधुमांसादिवर्जनम् ॥ १२८ ॥ चतुर्विधाशनस्योच्चैः शरीरादेः परिग्रहात् । यावज्जीवं ददौ तस्मै प्रत्याख्यानं नमस्कृतिम् ॥ १२९ ॥ * निशम्य चारुदत्तस्य वचनं प्रीतिवर्धनम् । बभाणेमं पुनस्तुष्टो रसमध्यस्थितो नरः ॥ १३० ॥ कल्याणमित्रतां प्राप्तो मम त्वं रसवासिनः । यत्त्वयोक्तमिदं स्वामिन् गृहीतं तन्मयाऽखिलम् ॥१३१॥ चारुदत्तः पुनः प्राह भूयोऽपीदं ससंभ्रमम् । मम श्वभ्रसमात् कूपान्निस्सरो जायते न वा ॥ १३२ ॥ आकर्ण्य तद्वचो हृष्टं स नरो वदति स्म तम् । अस्ति निःसरणोपायो भवतोऽयं परिस्फुटः ॥ १३३ || 20 अस्त्यत्र हि गुहाद्वारे 'सुरङ्गभासुरप्रभा । गोधाऽनया समागत्य रसं पिबति सर्वदा ॥ १३४ ॥ आयाताया रसं पातुं तस्याः कूपेऽत्र शोभने । करेण पुच्छमादाय निर्गमस्ते भविष्यति ॥ १३५ ॥ प्रपायाद्य रसं गोधा स्वेच्छया कृतविश्रमा । जगाम प्रीतचेतस्का मन्दं मन्दं निजालयम् ॥१३६॥ रसमध्यस्थितस्यास्य नरस्यासुखकारिणः । चारुदत्तः प्रकुर्वाणस्तस्थौ धर्मोपदेशनम् ॥ १३७ ॥ अन्येद्युश्चारुदत्तोऽस्मै दत्त्वा पञ्चनमस्कृतिम् । गोधायाः पुच्छमादाय निर्गतोऽयं सुरङ्गया ॥ १३८॥ 23 यावद्विहाय तत्पुच्छं चारुदत्तो भुवस्तले । तावन्मूर्च्छा परिप्राप्तश्चिरात् स प्राप चेतनाम् ॥१३९॥ दृष्ट्वाऽमुं भीषणाकारो जरन्तं वनसंभवम्' । मारणार्थं समायातस्तीक्ष्णशृङ्गोऽद्रिसन्निभः ॥ १४० ॥ दृष्ट्वा महिषमायातं भयवेपितविग्रहः । चारुदत्तः समारूढः समुत्तुङ्गं शिलातलम् ॥ १४१ ॥ यावच्छिलातलं सोऽपि विषाणाग्रेण दारुणः । भिनत्ति तावदागत्य गृहीतः शयुनाऽदयम् ॥ १४२॥ यावत् प्रवर्तते युद्धमनयोः क्रूरचेतसोः । तावच्छिलातलादाशु निःसृतोऽयं वनान्तरात् ॥ १४३ ॥ ३० अथ मातुलमित्रेण रुद्रदत्तेन सादरम् । भयवेपितसर्वाङ्गश्चारुदत्तो विलोकितः ॥ १४४ ॥ रुद्रदत्तः समादाय चारुदत्तं प्रयत्नतः । स्तोकं भाण्डं समुत्तीर्ण काण्डवेगां महानदीम् ॥ १४५ ॥ गिरिं टङ्कणनामानं तथा वेत्रवनं महत् । विषयं टङ्कणाभिख्यं प्रापतुस्तौ मुदाऽन्वितौ ॥ १४६ ॥ 1 पफ युग्मम्, ज युगलम् 4 पफ कूपान्निसरो. 5 ज सुरुङ्ग 8 ज महिषमायान्तं. २२१ 2 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 3 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम्. 6 पफ चतुष्कुलकम् ज चतुष्कुलकमिदम् 7 [ जरन्तो वनसंभवः ]. 10 15 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९३. १४७ तत्राजौ द्वौ समादाय धनेनारुह्य तौ तकम् । पर्वताग्रं समारूढौ तदा विस्मितमानसौ ॥ १४७ ॥ रुद्रदत्तस्ततोऽवोचच्चारुदत्तं नगोपरि । भद्रेमं छेलकं शीघ्रं निपातय ममाग्रतः ॥ १४८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं दध्यौ चारुदत्तः कृपार्द्रधीः । अस्योपकारिणो नूनं न करोमि निपातनम् ॥१४९॥ मयाऽहिंसात्रतं सारं गृहीतं गुरुसाक्षिकम् । अतो न हन्म्यहं छेलं मौनमादाय तस्थिवान् ॥ १५० ॥ रुद्रदत्तस्ततो यावत् तद्वधार्थं निषादधीः । यमजिह्वासमाकारां गृह्णाति करवालिकाम् ॥ १५१ ॥ तावद्धि चारुदत्तोऽपि सम्यक्त्वादिकमस्य च । समस्तं श्रावकं धर्मं ददौ पञ्चनमस्कृतिम् ॥१५२॥ अत्रान्तरे विनीतेन खड्गधेन्वा वराककः । रौद्रेण रुद्रदत्तेन छेलकोऽयं निपातितः ॥ १५३ ॥ सोऽप्यस्मै म्रियमाणाय छेलकाय मुहुर्मुहुः । कर्णजापं ददौ तत्र चारुदत्तो विशुद्धधीः ॥ १५४ ॥ छेलकः कालमासाद्य समाधिमरणेन सः । सौधर्मे धर्मसंपन्नो जातो देवो महर्द्धिकः ॥ १५५ ॥ 1. अनेनैव विधानेन द्वितीयोऽपि समाधिना । छेलकः कालमासाद्य जातोऽयं विबुधो दिवि ॥ १५६ ॥ रुद्रदत्तेन पापेन तयोरादाय चर्मणी । तन्मध्ये रक्तरक्ते च प्रविष्टौ तौ धनाशया ॥ १५७ ॥ ततस्ते मांसलोभेन तथा भेरुण्डपक्षिणः । आदाय पक्षविक्षेपै रत्नद्वीपं ययुः क्षणात् ॥ १५८ ॥ भेरुण्डपक्षिणां तेषां गच्छतां कुर्वतां रणम् । चारुदत्तस्य या भस्त्रा पतिता सा भुवस्तलम् ॥१५९॥ निकृत्य चारुदत्तोऽपि करवाल्या स्वभस्त्रिकाम् । ततो निःसृत्य वेगेन पर्वताग्रमशिश्रियत् ॥ १६० ॥ 15 आतापनस्थितं साधुं दृष्ट्वाऽसौ साधुवेष्टितम् । तस्मात्समीपं जगामाशु भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥ १६१॥ साधुनाऽपि ततः स्पष्टं भाषितोऽयं महात्मना । चारुदत्त यथाऽलं ते कुशलं सार्वकालिकम् ॥ १६२॥ श्रुत्वा मुनिवचः सत्यं चारुदत्तो जगाविदम् । क्वाहं दृष्टस्त्वया साधो सर्वं ब्रूहि मम स्फुटम् ॥ १६३॥ निशम्य चारुदत्तोक्तमवादीत् तं यतीश्वरः । चम्पोद्यानवने पूर्वं त्वयाऽहं प्रविलोकितः ॥ १६४ ॥ वृक्षाग्रे कीलितः कीलैर्दुष्टविद्याधरेण यः । त्वया प्रमोचितः सोऽहममितादिगतिः स्फुटम् ॥१६५॥ त्वन्मोचितः खमुत्पत्य लग्नः पृष्टेऽस्य वैरिणः । यावदष्टापदं सोऽपि न गच्छति ममाग्रतः ॥ १६६ ॥ मां दूरतो वैरी विहाय मम सुन्दरीम् । कैलासाभिमुखं यातो वेपमानशरीरकः ॥ १६७ ॥ गृहीत्वा वल्लभां तस्मात् पताकावलिराजितम् । सितप्रासादमालाढ्यं प्रयातो निजपत्तनम् ॥१६८॥ शंखतूर्यनिनादेन वीणावंशानुगामिना । स्वराज्ये स्थापितः पित्रा तपो जैनं प्रकुर्वता ॥ १६९ सुवर्णकुम्भसामीप्ये महावैराग्यसंगतः । मत्पिता शुद्धचेतस्को बभूव श्रमणो महान् ॥ १७० ॥ समानकुलशीलाहे रूपयौवनभूषिते । अभूतां मे महादेव्यौ कन्दोदललोचने ॥ १७१ ॥ तन्मध्ये प्रथमा जाया सेनान्ता विजयादिका । तस्या गन्धर्वसेनाख्या तनयाऽभवदिद्धधीः ॥ १७२॥ मनोरमा कनिष्ठा च मत्प्रिया श्रीमनोरमा । तस्याः प्रथमपुत्रोऽभूद् रूपी सिंहयशोऽभिधः॥१७३॥ द्वितीयो नन्दनस्तस्याः सर्वलोकाभिनन्दनः । वराहोपपदो ग्रीवो बभूव गुणसागरः ॥ १७४ ॥ यावद्गन्धर्वसेनाख्या तनया पूर्ववर्णिता । जित्वा लोकं समस्तं सा गान्धर्वेण व्यवस्थिता ॥ १७५ ॥ 30 पुत्राय ज्यायसे राज्यं सिंहादियशसे निजम् । तथा वराहकण्ठाय युवराज्यं प्रदाय च ॥ १७६ ॥ हिरण्यकुम्भयुक्तस्य गुणशीलतपोऽम्बुधेः । अन्ते सुवर्णकुम्भस्य तपो जैनमशिश्रयम् ॥ १७७ ॥ द्वीपः कुण्डलगो नाम दिक्षु सर्वास्वयं वरः । लवणाम्भोधिमध्यस्थो भाति रत्नादिभूषितः ॥ १७८ ॥ अस्य द्वीपस्य मध्यस्थः सुप्रतिष्ठो गिरीन्द्रवत् । राजतेऽयं समुत्तुङ्गककटाख्यो महीधरः ॥ १७९ ॥ यस्मिन्नहं समुत्तुङ्गे मनोहारिणि भूधरे । आतापनादियोगेन स्थितः कर्मविहानये ॥ १८० ॥ 1 पफ युग्मम् ज युगलम्, 2 ज आतापना 3 [ तत्समीपं ]. 5 20 25 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९३. २१२ ] चारुदत्तकथानकम् २२३ देवचारणखेटौघान् विहायात्र मनःप्रिये । नान्येषां जातुचित् पुंसां मनसाऽपि समागमः ॥१८॥ त्वं पर्वतमिमं भद्र दुःप्रापं कथमागतः । व्याघ्रसिंहेभशार्दूलचमूरादिभयानकम् ॥ १८२ ॥' चारणोक्तं समाकर्ण्य चारुदत्तः स्वचेष्टितम् । महाव्यसनसंयुक्तं जगादास्य समस्तकम् ॥१८३॥ अत्रान्तरे स्वसैन्येन विद्याधरकुमारकः । वन्दनार्थं मुनेः प्राप्तो भक्तिनिर्भरमानसः ॥ १८४ ॥ ततो विलोक्य तं तत्र खेटः सिंहयशा नरम् । बभाण विस्मितवान्तस्तोषविस्फारितेक्षणः ॥१८५॥ । भ्रातस्त्वं चारुदत्तोऽसि नितान्तं चारुचेष्टितः । मत्पितुर्जीवनं दत्तं येन रम्भाग्रहान्तिके ॥१८६॥ खेचरस्य वचः श्रुत्वा जगादैनं सकौतुकम् । भवामि चारुदत्तोऽहं विद्याधरकुमारक ॥ १८७ ॥ अथोत्थाय महास्नेहात् तदा तौ द्वावपि द्रुतम् । इच्छाकारं विधायात्र ददतुः क्षेममादरात् ॥१८८॥ निविश्य तौ पुनभूमौ तोषविस्फारितेक्षणौ । तस्थतुः स्वकथासंगसुखसंसक्तमानसौ ॥१८९ ॥ अत्रान्तरे वराक्षोऽपि विमानस्थः सुरोत्तमः । आखण्डल इवायातस्तं प्रदेशं विशुद्धधीः ॥ १९० ॥ 10 तन्मध्ये चारुदत्तं स त्रिःपरीत्य सुभक्तितः । ननाम चरणावग्यगीर्वाणः प्रीतमानसः ॥ १९१ ॥ पश्चान्मुनिं प्रणम्यायं कृताञ्जलिपुटः सुरः । सन्मुखं चारुदत्तस्य चोपविष्टः ससंभ्रमम् ॥ १९२॥ दृष्ट्वा सुरं पुरस्तस्य तदा सिंहयशाः पुनः । मनसा दुःखितो भूत्वा जगाद विबुधं सकः ॥ १९३॥ उत्तमान्वयजातानां हारकुण्डलधारिणाम् । किं देवानां क्रमो भद्र जायते हीदृशो दिवि ॥ १९४॥ जिनेन्द्रप्रणतं साधुं विहाय प्रथमं सुरः । प्रणामं क्रियते साधो श्रावकस्य ततो मुनेः॥ १९५॥ 15 श्रुत्वा वैद्याधरं वाक्यं जगाद विबुधोऽपि तम् । आकर्णयैकचित्तेन कारणं चात्र खेचर ॥१९६॥ सर्वज्ञानहतो मुक्त्वा वीतरागान् दिगम्बरान् । अस्माकं विद्यते नान्यो देवः खेचरपुङ्गव ॥१९७॥ अन्येषां देवसंघानां मनोवाक्कायकर्मभिः। प्रणामं न वयं कुर्मो विज्ञातपरमार्थकाः ॥१९८॥ किंत्वहं श्रोत्रिको विप्रः सवेदो मखवञ्चितः । संसारदुःखसंतप्तश्चारुदत्तं समाश्रितः ॥ १९९ ॥ जिनवाक्यामृताधारकर्णजापः सुखप्रदः । दत्तो मे चारुदत्तेन नियमाणाय साधुना ॥ २०० ॥ 20 तेन तत्कर्णजापेन संसारार्णवदायिना' । मृत्वा समाधिना खेटदेवो जातो महर्द्धिकः ॥ २०१॥ जिनधर्मों मया खेट प्राप्तोऽयं चारुदत्ततः । विज्ञातो मुनिसंघोऽपि श्रुतं जिनवरोदितम् ॥ २०२॥ धर्माचार्यमिमं पूर्वं चारुदत्तं हितप्रदम् । वन्दित्वा चरमं तेन मया साधुः प्रवन्दितः ॥ २०३॥ दैवं वचनमाकर्ण्य विस्मयव्याप्तमानसः । पप्रच्छेदं सुरं हृष्टः खेचरो रूपराजितम् ॥ २०४॥ अकृत्रिमस्य वेदस्य विधिना वञ्चितः कथम् । कथं वा चारुदत्तोऽयं धर्माचार्योऽभवत्तव ।।२०५॥ 25 निराकर्तुमिमं देव संदेहं मेऽधुना वद । येनाहं वीतसंदेहो भवामि त्वत्प्रसादतः ॥ २०६ ॥" निशम्य खैचरं वाक्यं गीर्वाणः प्रीतमानसः । यत्पूर्ववृत्तमाख्यानं जगादास्य मनोरमम् ॥ २०७॥ काशीजनपदे रम्ये वाराणस्यां पुरिस्फुटम् । सोमशर्माऽभवद् भट्टः सोमिल्ला" चास्य गेहिनी ॥२०८॥ अनयो रूपसंपन्ने द्वे सुते भवतः परे । ज्येष्ठा भद्रा कनिष्ठा च सुलसा नाम विश्रुता ॥ २०९॥ साङ्गोपाङ्गसमायुक्तवेदराद्धान्तपारगे । परिव्राजकतां प्राप्ते कुमायौं चारुचेष्टिते ॥ २१०॥ पाण्डित्यमदसंपन्ना ताभ्यां सर्वेऽपि वादिनः । निरुत्तराः कृताः शीघ्रं म्लानवक्रसरोरुहाः ॥२११॥ अथ वादनिमित्तेन वाणारस्याः पृथुयशः । ततस्ते द्वे परिप्राप्ते याज्ञवल्कसमीप्यताम् ॥ २१२ ॥ ___1 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 2 ज महद्व्यसन. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 [सुर]. 5 पफ त्रिकलम् , ज निकलमिदम्. 6 पफ "पुङ्गवः. 7 प has a correction °तायिना. 8 पज खेटः. 9 पफ कुलकम्, ज कुलकमिदम्. 10 पफ त्रिकलम्, ज त्रिकलमिदम्. 11 पफ सोमिला. 12 पफ यज्ञवल्क Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [२३. २१३ततः सुलसया तत्र प्रतिज्ञेयं कृता तदा । यो मां जेष्यति वादेन तस्याहं रमणी भवे ॥२१३॥ महापटहनादेन बधिरीकुर्वता नभः । धरणीमपि निःशेषां दत्तेयं घोषणा तया ॥ २१४ ॥ ततः सा सुलसा तेन याज्ञवल्केन संसदि । वादेन निर्जिता नूनं पण्डिताश्चर्यकारिणा ॥ २१५ ॥ नवयौवनसंपन्ना दिव्यरूपधरी सका । शुश्रूषाकारिणी भार्या विहिता तेन तत्क्षणात् ॥२१६ ॥ वाणारसीपुराभ्याशे नानातरुविराजिते । ऋष्याश्रमो बभूवेष्टः समभूमिव्यवस्थितः ॥ २१७॥ परस्परसुखासंगतोषनिर्मीलितेक्षणौ । तदा तौ दम्पती तत्र तस्थतुः स्थिरमानसौ ॥ २१८ ॥ कालेन बहुना तत्र भुञ्जाना तत्समं सुखम् । अजीजनत् सुतं दिव्यं सुलसा पयोज्झिता ॥२१९॥ जातमात्रं ततो बालं पिष्पलाधो विहाय तम् । जगाम सुलसा क्वापि निषादसममानसा ॥२२०॥ श्रुत्वा वृत्तान्तमीदृशं भद्रा जनमुखादरम् । आजगाम तमुद्देशं बालाध्यासितमादरात् ॥ २२१॥ 10 पिष्पलाधः स्थितं बालं बाद तत्फलभोजिनम् । भद्रा ददर्श तं तत्र भद्रभावा प्रियंवदा ॥ २२२॥ पैष्पलादं विधायास्य नाम चादाय तं पुनः । संप्राप्य स्वपुरं भद्रा वर्धयन्ती स्थिता गृहे ॥२२३॥ क्रमेण यौवनं प्राप्य सर्वलोकमनोरमम् । वेदवेदाङ्गशास्त्रज्ञः पिष्पलादो बभूव सः ॥ २२४ ॥ सर्वक्षत्रियविप्राणां परमात्मेव भूतले । पूजनीयः कलाधारो वन्दनीयस्तरां सकः ॥ २२५ ॥ अथैकदिवसे भद्रां पिष्पलादः प्रपृच्छति । अम्ब माता पिता क्वासौ वर्तते मेऽधुना वद ॥२२६॥ 15 निशम्य तद्वचो भद्रा ब्रवीति स्म तमादरात् । याज्ञवल्कः पिता भद्र सुलसा जननी तव ॥२२७॥ जातमात्रस्तया पुत्र पिष्पलादो निधापितः । तस्मान्मया समानीतस्त्वं वृद्धि प्रापितः पुनः॥२२८॥ भद्रावचनमाकर्ण्य मातृपितृसमुद्भवाम् । पिष्पलादो रुषं प्राप्य वादार्थी पितरं ययौ ॥ २२९ ॥ याज्ञवल्कः पिताऽनेन तदानीं बुधसंसदि । वादेन साधुवादेन पिष्पलादेन निर्जितः ॥ २३०॥ कृततस्य समं प्रीतिर्याज्ञवल्केन भद्रया। पिष्पलादः तथाऽप्याभ्यां चित्ते वैरं न मुञ्चति ॥२३१॥ 2० कियत्यपि गते काले तद्वधार्थ रुषाऽन्वितः । पितृमेधं मखं चके मातृमेधं च तत्सुतः ॥ २३२।। व्याजेन तन्मखे हत्वा पितरं याज्ञवल्कलम् । मातरं सुलसां चापि पिष्पलादः सुखं स्थितः ॥२३३॥ शिष्योऽहं पिष्पलादस्य वाद्वलिनाम खेचरः। पूजितः सर्वलोकेन वन्दितश्च सुभक्तितः ॥ २३४ ॥ षडङ्गवेदवेदाङ्गसमस्तसमये बुधः । कलाविज्ञानसंपन्नः संजातः परमोदयः ॥ २३५॥ ततो देवप्रिय स्पष्टिं सिंहकीर्ते गुणाकर । महानुभावतोपेतो सर्वलोकमनोरम ॥ २३६ ॥ 25 जानतोऽपि वृषं सार्व मन्दभाग्यस्य मे पुनः । इयं बुद्धिः समुद्भूता खेट कर्मानुभावतः ॥२३॥ जुहुयादग्निहोत्रं हि वर्गकामो नरोत्तमः । वेदवाक्यमिदं शुद्धं कर्तृत्वपरिवर्जितम् ॥ २३८॥ निर्मलं भासिताशेषं चूडामणिरिव क्षितौ । समस्तव्रतशास्त्राणामुपरीव व्यवस्थितम् ॥ २३९ ॥ इदं मुक्त्वा न चान्यं हि विद्यते भुवनेऽखिले । फलाफलविसंवादि मन्यमानो ततोऽपरम् ॥२४०॥ नूनमावसथः पूर्वं सर्वजन्तुहितः कृतः । अस्माभिर्लोकविख्यातैर्जनविस्मयकारिभिः ॥ २४१॥ 30 अग्निहोत्रं विधायाशु षण्मासं च स मांप्रति । कृताः कारापिता यज्ञा मया भक्त्याऽनुमोदिताः॥२४२॥ नानापशुवधं कृत्वा मखभक्तिपरायणः । ततोऽहं खेट संप्राप्तो नरकं घोरवेदनम् ॥ २४३॥ तत्र नानाविधां पीडां ह्यनुभूय कथंचन । ततो निर्गत्य संजातश्छेलकोऽशुभकर्मभिः ॥ २४४ ॥ ततो युवत्वमासाद्य सद्वयोलक्षणान्वितः । विप्राणां यागयोग्योऽहं संजातः खेचरेश्वर ॥२४५॥ ततोऽहं पुष्पकाश्मीरभूषितः सोमशर्मणा । नीतो मखक्षितिं खेट नानाजीवरवाकुलम् ॥ २४६ ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफ बन्धुसंसदि. 3 ज भावतोपेत. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९३. २७३ ] चारुदन्तकथानकम् २२५ यज्ञे नियुज्यमानेन मया वेपनकारिणा । सोमशर्मा जनाध्यक्षमिदं प्रोक्तं खवाचया ॥ २४७ ॥ नाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव । स्वर्गं गन्तुमभीप्सिता यदि भवेद् वेदे च तथ्या श्रुतिः यूपे किं न करोषि मातृपितृभिर्दारान् सुतान् बान्धवान् ॥ २४८ ॥ यूथादानीतमेकं सरसकिसलयग्रासमात्रोपभोज्यं 10 मुग्धं यूपेन बद्धं भयचलितदृशं कम्पमानं वराकम् । मेति व्याहरन्तं 'पशुमितविवसंनिघ्नतां याज्ञिकानां' मन्ये वज्रातिरेकं न दलति हृदयं तत्क्षणादेव तेषाम् ॥ २४९ ॥ निशम्य तद्वचो विप्रो विस्मयव्याप्तमानसः । ऋचः पठति वेदोक्ताः स्तभमुद्दिश्य भक्तितः ॥ २५० ॥ " समं मात्रा समं भ्रात्रा समं पित्रा समं सुतैः । समं बन्धुसमूहेन त्वं नाकं यास्यसि स्फुटम् ॥२५१॥ आप्यायतां मनस्तेऽलं वक्रमाप्यायतां तव । स्पर्शमाप्यायतां तेऽत्र जिह्वामाप्यायतां तव ॥ २५२ ॥ चक्षुराप्यायतां तेऽत्र श्रोत्रमाप्यायतां तव । यत्ते कोडं स्थितं साधु ब्रूते चाप्यायतां पशो ॥२५३॥ एता ऋचः समुद्धुष्य हतोऽहं सोमशर्मणा । अहं भूयोऽपि संजातश्छेलकः खेटनायक ॥ २५४ ॥ एवं भूयोऽपि संजातस्ततो वारचतुष्टयम् । निहतोऽनेन विप्रेण मखे माहनपूजिते ॥ २५५ ॥ भूयः सप्तमवेलायां विषये टङ्कणाभिधे । जातोऽहं छेलकः खेट स्वकर्मवशचोदितः ॥ २५६ ॥ भूयोऽहं रुद्रदत्तेन चारुदत्तनिमित्तकम् । मारणार्थं समानीतो द्वीपान्तरगमं प्रति ॥ २५७ ॥ सर्वजीवदयायुक्तो भावितोऽयं मयाऽखिलः | जिनधर्मः ससम्यक्त्वश्चारुदत्तेन भाषितः ॥ २५८ ॥ रुद्रदत्तान्मृतिं प्राप्य तेन धर्मेण खेचरः । जातो महर्द्धिको देवो कल्पे सौधर्मनामनि ॥ २५९ ॥ ततोऽवधिं समासाद्य चारुदत्तान्तिकं क्षणात् । विद्याधरः समायातः स्वगुरुं वन्दितुं विभुम् ॥ २६० ॥ वञ्चितस्य हि वेदेन कारणेनामुना मम । धर्माचार्यो महाख्यातश्चारुदत्तः सुहृत्तराम् ॥ २६१ ॥ प्रथमं तेन वन्दित्वा धर्माचार्यमिमं पुनः । नमस्कारः कृतोऽस्माभिर्मुनेरस्य सुखेचर ॥ २६२ ॥ देववाक्यं समाकर्ण्य तोषकण्टकिताङ्गकः । बभाणेति सुरं खेटः सर्वविद्याधराधिपः ॥ न केवलमसौ ज्ञातो धर्माचार्यस्तव प्रभो । चारुदत्तोऽमुना दत्तं जीवितं मत्पितुस्तथा ॥ अत्रान्तरे सुरः प्राह चारुदत्तं मुदाऽन्वितः । भवन्तं पूजयित्वेश प्रापयामि निजं पुरम् ॥२६५॥ गीर्वाणवचनं श्रुत्वा महाप्रेमविधायकम् । चारुदत्तो बभाणेमं विनयात् पुरतः स्थितम् ॥ २६६ ॥ आस्तां तावदयं भद्र वरो हि भवदन्तिके । यदेमं याचयिष्ये त्वां तदा देयो मम त्वया ॥ २६७॥ * निशम्य तद्वचः साधुं चारुदत्तं च भक्तितः । अनुक्रमेण वन्दित्वा ययौ देवो निजालयम् ॥२६८॥ खेचरश्चारुदत्तेन सह नत्वा यतीश्वरम् । विद्याधरपुरं प्राप पताकावलिराजितम् ॥ २६९ ॥ कियत्यपि गते काले तत्पुरे सुखतोऽनयोः । अन्योन्यप्रेमसंसक्तस्थिरमानसयोस्तयोः ॥ २७० ॥ सुतद्वयं समाहूय समं गन्धर्वसेनया । माता गन्धर्वसेनायाश्चारुदत्तं जगाविदम् ॥ २७९ ॥ मत्पतिश्चारणं साधुं प्रष्टवान् ज्ञानसंगतम् । पतिर्गन्धर्वसेनाया भविष्यति मुनीन्द्र कः ॥ २७२ ॥ श्रुत्वा तदीयसद्वाक्यं चतुर्ज्ञानसमन्वितः । चारणोऽपि जगावेतं गिराऽमृतमुचा स्फुटम् ॥ २७३॥ २६३ ॥ २६४ ॥ 1 [ पशुमति विवरां ]. 2 पफ याज्ञकानां 5 पफ युग्मम्, ज युगलम् 6 [ वरं ]. बृ० को ० २९ 3 पफ सुखेचरः 4 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम् 7 पफ युग्मम् ज युगलम्. 5 15 30 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [९३. २७४अर्धचक्रिपिता दिव्यो यो भविष्यति धीरधीः । महाप्रतापसंपन्नो यादवाम्बरचन्द्रमाः॥ २७४ ॥ सुतां गान्धर्वसेनाख्यां चारुदत्तगृहस्थिताम् । चारुगन्धर्वयोगेन मधुरेण विजेष्यते ॥ २७५ ॥ चारणोक्तमिदं वाक्यं मया ते विनिवेदितम् । यत्तुभ्यं रोचते पुत्र तदेव कुरु सांप्रतम् ॥२७६॥' श्रुत्वा स्वजननीवाक्यं सुतः सिंहयशोऽभिधः । महाविद्याधराधीशो बभूव प्रीतमानसः ॥ २७७॥ । कनत्कनकसंकीर्ण रणत्किङ्किणिकोत्करम् । तारानिकरसत्कान्तिमुक्तादामविराजितम् ॥ २७८ ॥ चन्द्रकान्तविनिर्माणं पद्मरागविशोभितम् । बुबुदादर्शसंपन्नं वैजयन्तीविचित्रितम् ॥ २७९॥ एवंविधमहामानं विमानं हंससंयुतम् । विद्याधरैरुपानीतं तदा सिंहयशोऽन्तिके ॥ २८०॥ पञ्चवर्णानि रत्नानि बहुमूल्यानि काञ्चनम् । मुक्ताप्रवालरूप्याणि चित्रनेत्रादिचेलकम् ॥ २८१॥ एकीकृत्य तथा सर्वसारवस्तुसमुच्चयम् । देवाभ्यां दत्तनिधिभिः पूरितं स्मरणादतः ॥ २८२ ॥ ॥ चारुदत्तं समारोप्य समं गान्धर्वसेनया । तद्विमाने महामाने सानुरागं समङ्गलम् ॥ २८३ ॥ शङ्खतूर्यनिनादेन बधिरीकृतदिग्मुखम् । बन्दिवृन्दारकौघेन कलनादविधायिना ॥ २८४ ॥ चातुरङ्गेन सैन्येन तदा चम्पापुरीमसौ । प्रापयामास युगपद् विद्याधरकृतोत्सवम् ॥ २८५ ॥ अक्षीणनिधिके स्थाप्य चारुदत्तं स्वमन्दिरे । गान्धर्वसेनया साधं तौर्यमङ्गलनिस्वनैः ॥ २८६ ॥ तत्रत्यभूपपौरादिसमस्तजनसाक्षिकम् । सिंहासनस्थितं तत्र पूजयामास खेचरः ॥ २८७ ॥ 15 धनं बहु प्रदायोच्चैश्चारुदत्ताय सादरम् । स्वस्रे गान्धर्वसेनायै तथा मानसवाञ्छितम् ॥ २८८ ॥ कृत्वा संभाषणं स्निग्धं प्रशस्य च कुलोचितम् । नतिपूर्वं समापृच्छय प्राप्यानुज्ञामथैतयोः ॥२८९॥ विमानं दिव्यमारुह्य समं खेचरसेनया । तदा सिंहयशाः खेटः खं ययौ निजपत्तने ॥ २९० ॥ चारुदत्तं समालोक्य विद्याधरसुपूजितम् । भूपालादिजनः सर्वस्तुतोष बहुविस्मयः ॥ २९१ ॥ चारुदत्तविधुस्तत्र कुर्वन् बन्धुकुमुद्वताम् । मुदं परं सुखं तस्थौ शुनासीरी यथा दिवि ॥ २९२ ॥ 20 अथाङ्गारामरेणामा कुर्वन् युद्धं पपात खात् । श्यामानियुक्तया पर्णलब्ध्या सरसि धारितः ॥२९३॥ - अग्रे पृष्ठो लिखितमस्तिशिष्यत्वेन प्रधानोऽस्य सुग्रीवाख्यस्य मन्दिरे। दिनानि कानिचित्तस्थौ वसुदेवो मुदाऽन्वितः ॥२९॥ अन्येाश्चारुदत्तस्य महाविभवशालिनः । जगाम मन्दिरं तुझं वसुदेवः स्वलीलया ॥ २९५ ॥ सुघोषवीणया तत्र कुर्वन् गान्धर्वमुत्तमम् । जित्वा गान्धर्वसेनां च वसुदेवोऽवतिष्ठते ॥ २९६ ॥ 25 चारुदत्तस्ततः कन्यां वसुदेवाय धीमते । ददौ गान्धर्वसेनाख्यां चारणादेशकारणात् ॥ २९७॥ ततो विवाहकाले च गोत्रं कुलमजानता । विप्रेण वसुदेवोऽयं पृष्टः संदेहकारिणा ॥ २९८॥ मया भो कस्य वर्णस्य होतव्यो विधिना शिखी । जलमुत्तीर्य सेतुस्थः पश्यति स्म जिनालयम् ॥२९९॥ वासुपूज्यजिनं नत्वा कृत्वा सामायिकं ततः । प्रातरापृच्छदेकं च विप्रं पूजार्थमागतम् ॥ ३०० ॥ केयं पुरी कुतो वीणां दृश्यते सकलो जनः। तद्वाक्यतोऽखिलं ज्ञात्वा प्रबन्धं कन्यकेच्छया॥३०॥ " चम्पान्तःप्राविशत् सद्य उपाध्यायस्य वेश्मनि । अभिवाद्य निवेद्यैष गान्धा दिनकारणम् ॥३०२॥ वीणामवादयच्छिष्यां लज्जनस्तदनुज्ञया" । देशोऽङ्गोऽयं पुरी चम्पा ख्यातैषा क्षितिमण्डले ॥३०३॥ 1 पफ षटकुलकम् , ज षट्कुलकमिदम्. 2 ज विस्तीर्ण. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 7 [पृष्ठे ]. 8 All the three Mss. add this phrase. Some portion is irregularly misplaced here. After No. 293, the lines may be better arranged thus: 2996-300a, 33000-301a, 3036-304a, 3046-305a, 3056-306a&3066-307a, 3016-302a. 3026-303a. The remaining lines get adjusted. 9[वीणा ]. 10[लजालु तदनुज्ञया ]. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९४. १६] शकटमुनिकथानकम् २२७ वेत्सि भद्र न किं नूनं पातितोऽसि नभस्तलात् । विप्र यक्षकुमारीभ्यां रूपलोभाद्धृतो दिवि ॥३०॥ परस्परं च कलहो क्षिप्तोऽस्मि सरसि द्रुतम् । हसन् प्राहाथ विप्रोऽस्यां चारुदत्तो महाधनः॥३०५॥ अस्ति श्रेष्ठी गृहे तस्य कन्या गन्धर्वसेनका । वीणावाद्यविदग्धस्य वरस्य कृतसंगरा ॥ ३०६ ॥ तदर्थ मिलितो लोकः कृताभ्यासः कुतूहली । सांप्रतं वद येनाशु विवाहः क्रियते तव ॥३०७॥ ब्राह्मणोक्तं समाकर्ण्य वसुदेवो नराधिपः । सूत्रकण्ठं जगादेमं मन्दरस्थिरमानसः॥ ३०८॥ । येनेच्छसि विधानेन ब्राह्मणत्वं महामते । तेनैव विधिना नूनमग्निहोत्रं द्रुतं कुरु ॥ ३०९ ॥ वसुदेवोदितेनालं विज्ञायास्य कुलादिकम् । अग्निहोत्रं चकारायं तदा जलविधानतः ॥ ३१० ॥ एवं कृतेऽमुना तत्र तूर्यमङ्गलनिस्वनैः । कन्यां गान्धर्वसेनाख्यामुवाहायं नराधिपः ॥३११॥ विधाय ब्रजनं साधुः समं गान्धर्वसेनया । वसुदेवः प्रभुञ्जानो भोगांस्तिष्ठति शोभनम् ॥ ३१२॥ अत्रान्तरे सुवृत्तान्तं चारुदत्तोऽखिलं परम् । तथा गान्धर्वसेनाया जगादास्य महीपतेः ॥३१३॥॥ चारुदत्तोदितेनात्र ज्ञात्वा खेचरकन्यकाम् । भूयो गान्धर्वसेनां स तस्थौ मुदितमानसः॥३१४॥ ' चारुदत्तश्चिरं भुक्त्वा भोगान् भोगीन्द्रसंनिभान्। दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं जगाम त्रिदशालयम्॥३१५॥ ॥ इति श्रीचारुदत्तकथानकमिदम् ॥ ९३ ॥ ९४. शकटमुनिकथानकम् । विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बी नगरी परा। अस्यां दन्तपरित्यक्तः शकटाख्योऽभवन् मुनिः ॥१॥ भिक्षार्थं स मुनिर्विष्टश्चर्यामार्गेण तत्पुरे । अनुक्रमविधानेन गृहपंक्त्या परिभ्रमन् ॥२॥ दृष्ट्वा शून्यकुटीकोष्ठं मार्गखिन्नशरीरकः । प्रविश्य तद्गृहं साधुरुपविष्टः स कोष्ठके ॥३॥ उपविष्टं परिश्रान्तं मुनिं खगृहकोष्ठके । अन्यवेश्म समायाता परप्रेषणकारिणी ॥४॥ दन्तहीना तरां वृद्धा जयनीनाम बिभ्रती । अतर्पयत् कदन्नेन शकटाख्यमिमं तदा ॥ ५॥ विधाय भोजनं साधुरुपविष्टः स कोष्ठके । पूर्वोक्तवृद्धया पृष्टस्तदन्तःस्थितया तया ॥६॥ भगवन् केन कार्येण प्रतिपन्नोऽसि शोभन । दुर्धरामीदृशी चर्यां साधो वद ममाधुना ॥७॥ श्रुत्वा तद्वचनं योगी बभाणैतां पुरःस्थिताम् । मदीक्षाकारणं भद्रे शृणु त्वं सुसमाहिता ॥८॥ अस्यामेव च कौशाम्ब्यां सोमशर्मा द्विजोऽभवत् । वेदवेदाङ्गसंयुक्तः काश्यपी तत्प्रिया परा ॥९॥ तत्सुतः सागराख्योऽहं चतुर्वेदकृतश्रमः । नानाशास्त्रकृताभ्यासो मनीषी गणवल्लभः॥१०॥ मन्मामसुतया सार्धं साध्वि वीवाहमङ्गले । क्रियमाणेऽपि सल्लोकैः संमता न मया सका ॥११॥ माहनस्य सुताऽत्रैव रोहिणी नाम विश्रुता । मम वृत्तं तया सार्धं पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥ १२ ॥ कियत्यपि गते काले मत्कान्ता सा मृतिं गता। ततो वैराग्यमासाद्य दीक्षितोऽहं मनस्विनि ॥१३॥ ग्रामं बृहद्वृतिं नूनं निगदन्ति मनीषिणः । शालगोपुरसंपन्नं नगरं पौरसंकुलम् ॥ १४ ॥ नद्यद्रिवेष्टितं खेटं वृत्तं" कर्वटमद्रिणा । शतैः पञ्चभिराकीर्ण ग्रामाणां च मटम्बकम् ॥ १५ ॥ पत्तनं रत्नसंभूतिः सिन्धुवेलासमावृतम् । द्रोणामुखमभिस्पष्टं सन्निवेशं नगोपरि ॥१६॥ 1 ज पतितोसि. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 ज कुरु द्रुतम्. 4 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 5ज खिले परम्. 6 पफ परप्रेक्षण'. 7 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 8 पफ शोभनः, ५ पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 10 पफ विवाह. 11 [वृतं]. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे तथा चोक्तम्ग्रामो वृत्त्या वृतः स्यान्नगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासिशालं, खेटं नद्यद्रिवेष्ट्यं परिवृतमभितः कर्वटं पर्वतेन । युक्तं ग्रामैर्मटम्बं दलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनिद्रणाख्यं सिन्धुवेलावलयितमभितो वाहनं चाद्रिरूढम् ॥ १७ ॥ साधुलोकसमाकीर्णकौशाम्ब्याख्यपुरं भवम्' । अधुना विहरन् सारं त्वत्कुटीकोष्ठकं क्रमात् ॥१८॥ ® कथयित्वा स्ववृत्तान्तं स मुनिर्निजगावमूम् । जीवनेनात्र केन त्वं वृद्धे तिष्ठसि मे वद ॥ १९ ॥ निशम्य तद्वचो वृद्धा जगादैनं पुरः स्थितम् । अस्मिन्नेव पुरे साधो सोमशर्मा द्विजोऽभवत् ॥ २० ॥ सोमिला ब्राह्मणी तस्य तत्सुताऽहं कुलोद्गता । जयनीनामविख्याता रूपयौवनगर्विता ॥ २१ ॥ 10 ततोऽहं विधिना दत्ता शंकराय द्विजन्मने । पितृभ्यां स्नेहयुक्ताभ्यां कन्दोट्टदललोचना ॥ २२ ॥ आवयोः क्रीडतोरत्र स्नेहसंबन्धचेतसोः । मुने मद्वल्लभः ख्यातो गतः कालेन पञ्चताम् ॥ २३ ॥ समस्तबन्धुलोकोऽपि मृत्युगोचरतां गतः । दूतिकर्म प्रकुर्वन्ती तिष्ठाम्यत्र प्रकोष्ठके ॥ २४ ॥ कथितः पूर्वसंबन्धः स्वकीयो मुनिपुङ्गव । मया ते पृष्टया सर्वो नापरं वेद्मि किंचन ॥ २५ ॥ आकर्ण्य तद्वचः साधुः स्वमनःप्रीतिकारणम् । जगाद विह्वलस्वान्तस्तां वृद्धामग्रतः स्थिताम् ॥ २६ ॥ 15 जानासि त्वं किं न मुग्धे पठितं यत्त्वया समम् । एकस्यां लेखशालायां मया प्रेमानुरागतः ॥२७॥ निशम्य तद्वचस्तत्र जयनी वदतीदृशम् । सर्वं स्मराम्यहं साधो पूर्वमाचरितं स्फुटम् ॥ २८ ॥ अन्योन्यप्रेमरागेण तरां वृद्धावपि द्रुतम् । संसर्गदोषतो यातौ तकौ पाटलिपुत्रकम् ॥ २९ ॥ तत्र गङ्गानदीनीरं वहन्ती जयनी तदा । दारिद्रकर्म कुर्वाणा संतस्थे परवेश्मनि ॥ ३० ॥ कक्षात् काष्ठानि चादाय तदा वै विधियोगतः । विधाय विक्रयं तेषां रूपकैकेन तत्पुरे ॥ ३१ ॥ 2" रतिकर्म तया सार्धं कुर्वन् दन्तविहीनया । शकटो दन्तहीनो हि तिष्ठति प्रीतमानसः ॥ ३२ ॥ ॥ इति श्रीजयनीसंसर्गभग्नशकटमुनिकथानकमिदम् ॥ ९४ ॥ * ९५. कूपकारमुनिकथानकम् । अथास्ति पाटलीपुत्रे नगरे मेरिकान्वये । अशोको नाम भूपालो अशोका तस्य कामिनी ॥ १ ॥ अनयोर्नन्दनो धीरः कूपकारः प्रतापवान् । अस्माद्भयेन राजानो न गच्छन्ति पदात्पदम् ॥ २ ॥ * अन्यदा वरधर्माख्यो गणेन्द्रो महताऽन्वितः । संघेन विहरन्नाट तत्पुरोद्यानमादरात् ॥ ३ ॥ श्रुत्वोद्यानवनं साधुं वरधर्मं समागतम् । कूपकारः समं पौरैस्तदन्तं प्राप विस्मितः ॥ ४ ॥ कूपकारो वृषं श्रुत्वा क्रूरोऽपि जिनदेशितम् । दधौ दैगम्बरीं दीक्षां वैराग्याहितमानसः ॥ ५ ॥ अन्यदा जलमध्ये हि स्वशरीरमनारतम् । कूपकारं प्रपश्यन्तं ददर्श स गणाधिपः ॥ ६ ॥ तदवस्थं समालोक्य वरधर्मो गणेश्वरः । वभाण तद्धितासंगे नितान्तोद्यतमानसः ॥ ७ ॥ " त्वं भद्र यास्यसि क्षिप्रं विनाशमबलाकृते । श्रुत्वा मौनीश्वरं वाक्यं जगाद स मुनिर्गुरुम् ॥ ८ ॥ यदि रामाकृते पूत नाशं यास्याम्यहं द्रुतम् । ततः स्त्रीवर्जिते देशे करोमि विविधं तपः ॥ ९ ॥ २२८ 2 [ भ्रमन् ] 2 [ विहरन्नार 3 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 4 ज मुनिपुङ्गवः 5 पफज कुलकमिदम्. 6 पफज युगलमिदम् 7 पफ विक्रियं. 8 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. [ ९४. १७ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराशरकथानकम् -९६.५] एवमुक्त्वा विनिःसृत्य तदा गुरुसमीपतः । आरूढः कूपकारोऽयमग्रमन्दिरपर्वतम् ॥ १०॥ नानातपः प्रकुर्वाणो दक्षं कर्मविनाशने । कूपकारमुनिस्तस्थौ केशाल्लोचयं मूर्द्धनि ॥११॥ तदवस्थं समालोक्य भूपाः प्रत्यन्तवासिनः । ग्रहीतुं पाटलीपुत्रं सर्वतस्तेऽवतस्थिरे ॥ १२ ॥ एवं स्थितवतां तत्र राज्ञां प्रत्यन्तवासिनाम् । पौरलोकः समस्तोऽपि तदानीं क्षोभमागतः ॥१३॥ अथाशोको महाराजो दुःखपीडितमानसः। सभ्यान् जगाद वित्रस्तान् मस्तकन्यस्तपाणिकान् ॥१४॥ कूपकारकुमारेण विना सभ्या ममेदृशी । अवस्था वर्तते कष्टा मनःसंदेहकारिणी ॥१५॥ अशोकवचनं श्रुत्वा महाशोकसमन्वितम् । जगौ वीरवती भूपं गणिका रूपराजिता ॥१६॥ दीनं ब्रवीषि किं राजन् वैरिजं भयमुत्सृज । कूपकारकुमारं तमानयामि त्वदन्तिकम् ॥ १७ ॥ एवमुक्त्वा सहान्याभिः पण्यस्त्रीभिर्नृपान्तितः । आरुरोह सका शीघ्रमग्रमन्दिरपर्वतम् ॥ १८॥ अर्जिकारूपमादाय मायावेषसमन्वितम् । गणिकैका स्थिताऽधोऽस्य पर्वतस्य सुरूपिणी ॥ १९ ॥ " शेषाः पर्वतमारुह्य कूपकारस्य योगिनः । चक्रुर्नमस्कृतिं प्राह मुनिं वीरवती तदा ॥ २० ॥ वृद्धकैकार्यिकाऽऽयाता भवन्तं वन्दितुं विभो । अधिरोढं नगं नालं तिष्ठत्यस्य गिरेरधः ॥ २१॥ दयामस्या विधायार्य तथा वात्सल्यकारणात् । गमनं कुरु येन त्वां वन्दित्वाऽस्ते मलच्युता ॥२२॥ निशम्य तद्वचः साधुः पर्वतादवतीर्य च । जगाम तत्समीपत्वं धर्मवात्सल्ययोगतः ॥ २३॥ तथा तया कृतः सोऽरं निजबुद्ध्या विदग्धया । यथा चारित्रतो भ्रष्टो मदनातुरमानसः ॥ २४ ॥3 कूपकारं पुरः कृत्वा मुक्तचारित्रमादरात् । वीरमत्यादयः सर्वा ययुः पाटलिपुत्रकम् ॥ २५ ॥ दृष्ट्वाऽशोकमहीपालः कूपकारं सुतं पुरः । सद्यो बभूव तत्रत्यस्तोषपूरितमानसः ॥ २६ ॥ पुत्र त्वया विना रुद्धं नगरं बहुभिः खलैः । शत्रुभिः शस्त्रसंपातद्योतिताकाशभूतलैः ॥ २७ ॥ निशम्य जानकं वाक्यं सभयं भीमविग्रहम् । जगाद पितरं सोऽपि किमेभिः क्रियते मम ॥२८॥ एवमुक्त्वा प्रणम्यास्य जनकस्य पदद्वयम् । कूपकारो जगामाशु तदा रिपुबलं प्रति ॥ २९॥ 20 कांश्चित्खड्गप्रहारेण कांश्चिन्मुद्गरचूर्णनैः। कांश्चिद्वाणविघातेन चकारारीनसौ मृतान् ॥ ३० ॥ परचक्रारयः सर्वे तद्भयाकुलमानसाः । अन्ये पलायनं चक्रुः कूपकारशराहताः ॥ ३१॥ आत्मात्मविषयं सर्वे भयवेपितविग्रहाः । स्वपराजयदुःखार्ता ययुरन्येऽरिराशयः ॥ ३२ ॥ तेषु सर्वेषु नष्टेषु परं पाटलिपुत्रकम् । तदा बभूव विश्रब्धं कूपकारसमाश्रयात् ॥ ३३॥ ॥ इति श्रीवीरवतीगणिकासंसर्गभग्नकूपकारमुनिकथानकमिदम् ॥ ९५॥ * ९६. पाराशरकथानकम् । कुरुजाङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् । नरेन्द्रः संवरस्तत्र शस्त्रशास्त्रविशारदः ॥ १॥ जयन्त्याख्यपुरः श्रीमान् विश्वसेनो नराधिपः । बभूव तन्महादेवी विश्वसेना मनोरमा ॥२॥ अनयो रूपसंपन्ना तपोधी नाम विश्रुता । अनयाऽवस्थया दत्ता जनन्या संवराय सा ॥३॥ ऋतुकाले यथाऽस्माकं सुतायाः संवर प्रभो । त्वयाऽन्यत्र न गन्तव्यं कदाचिदपि निश्चितम् ॥४॥3॥ अथवा दैवयोगेन चान्यत्र गमनं भवेत् । तथाऽपि शीघ्रमेवात्र त्वयाऽऽगन्तव्यमादरात् ॥५॥ 1 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 2 [ केशांल्लोचयन्मूर्धनि ]. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 पफ त्रिकलम,ज त्रिकलमिदम्. 5 पफ चतुष्कुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 6 पफ जनकं. 7 ज जगादाशु. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [९६. ६प्रतिपद्य वचस्तस्यास्तत्सुता संवरेण सा । परिणीता महाभूत्या' जयमङ्गलनिखनैः ॥६॥ ऋतुकालमिमं तस्याः संवरः प्रीतमानसः । अनन्यमतिकस्तत्र यत्नवान् संप्रतीक्षते ॥ ७॥ एवं हि तिष्ठतस्तस्य कालो याति महात्मनः । आखण्डलसभामध्ये बभूवायं समागमः ॥ ८॥ ब्रह्माविष्ण्वादिदेवानां त्रयस्त्रिंशच्च कोटयः । अर्थाष्टकोटयो नाके भूतानामपि सत्वराः ॥९॥ 5 एकादश तथा रुद्रा भास्वन्तो द्वादशापि च । त्रिदिवे मिलिताः क्षिप्रं संप्रीत्या ब्राह्मणादयः॥१०॥ आत्मभायामिदं प्राह संवरोऽपि तपोधियाम् । ऋतुकालो न यावत्ते तावदेमि त्वदन्तिकम् ॥११॥ एवं निगद्य तां कान्तां विनयानतविग्रहाम् । संवरः प्रीतचेतस्कस्तन्मुक्तस्त्रिदिवं ययौ ॥ १२ ॥ अथ पुष्पवती जाता प्रथमं तत्प्रिया सती । तपोधीस्तत्र सुखाता निजकान्तं प्रतीक्षते ॥ १३ ॥ स्थितवत्या तया चैवं यदा नागच्छति प्रियः । तदा संप्रेषितो दूतो धवान्ते हीन्द्रसंसदि ॥ १४ ॥ 10 तच्चरस्तत्पतिं प्राह पुरन्दरसभास्थितम् । इदं ब्रवीति ते कान्ता वचनं शृणु सांप्रतम् ॥ १५ ॥ यदि पूर्वा कृताऽवस्था मानसे तव तिष्ठति । ततो मदन्तमागच्छ स्त्राता तिष्ठामि सांप्रतम् ॥१६॥ भार्यादूतवचः श्रुत्वा संवरोऽपि जगाविदम् । हस्तिनागपुरं गत्वा चर मद्वल्लभां वद ॥ १७ ॥ अत्रान्तरे प्रिये कोपं मा करिष्यसि वल्लभे । ममोपरि समुत्पन्नं देवकार्यमिदं महत् ॥ १८॥ अहिल्यार्थे गतः शक्रः कामविह्वलमानसः । तद्रूपाहितचेतस्कः परदारनिषेवया ॥१९॥ 15 गौतमेन च संदत्तः शापः शक्रस्य दुःसहः । भीमं भगसहस्रं हि स्याच्छरीरे तव द्रुतम् ॥२०॥ दत्ते शापेऽमुना दूत जाते भगसहस्रके । स्वर्गात् पलायनं चक्रे विलक्षः स पुरन्दरः ॥ २१ ॥ तद्वेषणतः सर्वे गीर्वाणाः समनुष्यकाः । वसवोऽपि च संभूय ययुरिन्द्रं प्रति स्फुटम् ॥ २२ ॥ कार्येणानेन मे कान्ते नूनमागमनं न च । एवं दूतं स संदिश्य प्रजिघाय प्रियान्तिकम् ॥ २३॥ यथादिष्टं धवेनास्यास्तइतेन सविस्तरम् । तदन्तं प्राप्य वेगेन तथा सर्वं निवेदितम् ॥ २४ ॥ 20 प्रियवाता परिज्ञाय स दूतेन निवेदितम् । शुककण्ठे समासज्य लेखं सा विससर्ज तम् ॥ २५ ॥ शुकः क्रमेण संप्राप्य तद्धवान्तिकमादरात् । पूर्व मुखेन लेखार्थं जगाविति तदग्रतः ॥२६॥ ऋतुकालं परिप्राप्य तावदत्रैव च प्रभो । तिष्ठामि मनसोत्कण्ठा भवबीजाभिकाङ्क्षया ॥ २७ ॥ संपद्यते न ते नाथ यद्यागमनकारणम् । खबीजं प्रापय क्षिप्रं निःसंदेहं मदन्तिकम् ॥ २८ ॥ एवं निगद्य तद्वाता लेखान्तर्गतसंभवम् । कीरो मुमोच तल्लेखं तत्पुरः प्रीतमानसः ॥ २९ ॥ 25 तल्लेखा) विदित्वाऽऽशु शुकपूर्वनिवेदितम् । तदानीं संवरो दध्यौ क्षणमेकं दिवि स्थितः ॥३०॥ संवरः पुटिकास्थं तु शुक्रं कृत्वा शुकस्य च । प्राध्वंकृत्य गले शीघ्रं साभिज्ञानपुरस्सरम् ॥ ३१ ॥ महादेवी समीपे च स्नेहनिर्भरमानसः । शुक्र प्रवेशयामास हस्तिनागपुरं प्रति ॥ ३२ ॥ ततः शुकं खमुत्पत्य यातं हस्तिपुरान्तिके । गङ्गाजलोपरि श्येनो जग्राहेमं स तत्क्षणात् ॥ ३३॥ ततः सा शुक्रसंपूर्णा पुटिका शुककण्ठतः । मन्दाकिनीजलेऽगाधे पपात क्षणमात्रतः ॥ ३४॥ 30 ततस्तत्पुटिकाशुक्रं काकतालीययोगतः । पपात शफरीवके गिलितं चानया पुनः ॥ ३५॥ तया गिलितमात्रेऽस्मिंस्तन्मत्सीजठरे पुनः । दिव्यरूपधरी कन्या संभूता दैवयोगतः ॥ ३६ ॥ अत्रान्तरे परिप्राप्तो धीवरो जालसंयुतः । गङ्गानदीं समादातुं मीनसंघातमादरात् ॥ ३७॥ अयं गङ्गाभटो नाम गङ्गदत्ताऽस्य गेहिनी । अतीव वल्लभा जाता प्राणेभ्योऽपि कलावती ॥ ३८॥ 1 ज महीभूत्या. 2 ज संप्रीता. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफ गवेक्षणतः. 5 ज दूरं. 6 पफ चतुःकुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 7 पफ चतुःकुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम. 8 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९६. ७१] पाराशरकथानकम् २३१ तस्मिन्नेव हृदे जालं क्षिप्तं गङ्गाभटेन च । बद्ध्वा तां शफरी तेन संतुष्टो गृहमागतः ॥ ३९॥ यावच्छिनत्ति तां मत्सीं करवाल्या स धीवरः । तावद्ददर्श तत्रत्यां योषितं रूपशालिनीम् ॥४०॥ मत्सीतुन्दात् समादाय तां च कन्यां स धीवरः । सत्यवत्याख्यमेतस्या ददौ नाम गुणान्वितम् ॥४१॥ अन्यदा तां समादाय बालां सत्यवतीं पराम् । रूपराजितसर्वाङ्गी विषाणदललोचनाम् ॥ ४२ ॥ खनामाङ्कितसद्वक्रां गङ्गारोधसि सादरः । गङ्गाभटो निधायाशु जगाम स्वगृहं पुनः॥४३॥ अथ पराशरो योगी पञ्चकूर्चहतात्मकः । जटीछत्रीबृशीयुक्तो गणेत्रीकुण्डिकान्वितः ॥ ४४ ॥ यज्ञोपवीतसंयुक्तः पादुकायुतसत्पदः । दीर्घमार्गसमाश्रान्तो गङ्गातीरे व्यवस्थितः ॥४५॥' दृष्ट्वा सत्यवतीं तत्र जगौ पराशरोऽपि ताम् । अहं मार्गपरिश्रान्तः पुत्रि प्राप्तो नदीतटम् ॥ ४६॥ महाश्रमपरिग्रस्तं नावा छिद्रविहीनया । तेन मन्दाकिनी मुग्धे मां समुत्तारय द्रुतम् ॥ ४७॥ तद्वाक्यतस्तया शीघ्रं गङ्गापश्चिमतीरतः । पूर्वरोधः समानीता द्रोणिः प्लवनकारिणी ॥४८॥ 10 परस्परं समारोप्य गमश्रान्तं तपस्विनम् । पश्चात् स्वयं समारूढा तदा सत्यवती तकम् ॥४९॥ अधिरूढौ ततो द्रोणी व्रजतो द्वावपि द्रुतम् । परस्परं च जल्पन्तौ किंचिच्चकितमानसौ ॥५०॥ मुखं स्तनौ नितम्बं च जघने दशनच्छदम् । सत्यवत्याः समालोक्य पाणिपादं मनोहरम् ॥५१॥ खचित्तक्षोभमासाद्य विह्वलीभूतमानसः । बभाण बालिकामेतां पाराशरमहामुनिः ॥५२॥ भद्रे हि ब्रह्मचर्येणाभग्नोऽहं चिरकालतः । विलोक्य भवतीं नालं स्थातुं क्षणमपि क्षितौ ॥ ५३॥15 पूर्णिमाचन्द्रसद्वक्रां पीनोन्नतघनस्तनीम् । मुक्ताभदशनां भद्रे सांप्रतं त्वां भजाम्यहम् ॥ ५४॥ श्रुत्वा पाराशरं वाक्यं मन्मथानलदीपितम् । जगौ सत्यवती तत्र विद्वज्जनमनोगतम् ॥ ५५ ॥ तात नीचा विरूपाऽहं कैवर्तकशरीरजा । निन्दिता सर्वलोकेन दुर्गन्धा मतिवर्जिता ॥ ५६ ॥ दुर्बला दुःस्वरा दीना संस्कारपरिवर्जिता । तिष्ठाम्यहं धुनीतीरे बन्धुभिः परिवर्जिता ॥ ५७ ॥ त्वं पुनर्लोकविख्यातः सर्वलोकोत्तमो महान् । पूज्यः स्तुत्योऽपि सर्वेषां सतामपि महामुनिः॥५८॥2॥ शापानुग्रहयुक्तस्य सर्वलोकप्रियस्य भो । तेन नूनं न संबन्धो घटते मत्समं तव ॥ ५९॥" श्रुत्वा सत्यवतीवाक्यं जगौ पराशरोऽपि ताम् । मैवं वद न शक्नोमि स्थातुं मुग्धे त्वया विना ॥६०॥ तद्वाक्यतः पुनः प्राह तं मुनिं साऽब्जलोचना । अहं दुर्बलदुर्गन्धा कुचेला मतिदुर्विधा ॥१॥ भूयो बभाण तद्वाक्यात् पाराशरमुनिस्तराम् । मन्मथानलसंतप्तो म्लानवक्रसरोरुहः ॥ ६२ ॥ सुरूपा मतिसंपन्ना दिव्याभरणभूषिता । दिव्या योजनसद्गन्धा मत्प्रसादाद् भविष्यसि ॥ ६३ ॥ 25 एवमुक्ताऽमुना सा च वस्त्रालङ्कारराजिता । भूत्वा योजनसद्गन्धा बभाणेमं ससंभ्रमम् ॥ ६४ ॥ आवां पश्यति लोकोऽयं दिने रविसमुज्वले । तद्वाक्यतः पुनस्तेन धूमरी विहिता घना ॥६५॥ धूमर्या कृतयाऽनेन धनाञ्जनसमानया । भूयोऽपि निजगौ भीता तदा सत्यवती तकम् ॥६६॥ कामं सौख्यं न किंचिच्च जलमध्ये प्रजायते । महामुने परं नूनं गङ्गानीरनिमजनम् ॥ ६७॥ नानाद्रुमलतापुष्पफलपल्लवराजितम् । चक्रे गङ्गानदीमध्ये द्वीपं तद्वाक्यतो मुनिः ॥ ६८॥ 30 परिणीय विवाहेन गान्धर्वोपपदेन ताम् । पाराशरोऽनया सार्धं भुञ्जानः संवितिष्ठते ॥ ६९॥ छत्रिका कुण्डिसंयुक्तो बृषीयज्ञोपवीतकः । गणेत्रीपादुकायुक्तो जटामकुटराजितः ॥ ७० ॥ रूपराजितसर्वाङ्गो व्यासो नाम महामुनिः । क्रमात् सत्यवतीगर्भान्निःसृतो दिव्यविग्रहः ॥ ७१ ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 [पाराशरं]. 3 [तकाम् ]. 4 ज परस्परमहामुनिः. 5 पफ चतुष्कुलकम्, ज चतुष्कुलकमिदम्. 6 पफ चतुष्कुलकम्, ज चतुष्कुलकमिदम्, 7 पफ युग्मम् , ज युगकमिदम्. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९६. ७२गर्भान्निाक्रान्तमात्रोऽपि जनन्याः प्रीतचेतसः । व्यासो गन्तुं प्रवृत्तोऽसौ जनकेन समं पुनः ॥७२॥ गच्छन्तं तनयं दृष्ट्वा तातेन सह सत्वरम् । जगौ सत्यवती तं च पुत्रस्नेहपरायणा ॥ ७३ ॥ त्वत्पिता यदि मां हित्वा प्रयाति गतियोगतः। अधुना त्वं कुतो यासि मुक्त्वा द्वीपेऽत्र भीषणे ॥७४॥' मातृवाक्यं समाकर्ण्य व्यासोऽपि निजगाद ताम् । त्वदन्तमागमिष्यामि मोत्सुका भव मातृके॥७॥ 5 एवमुक्त्वाऽम्बिकां व्यासो विहायेमां ससंभ्रमः । जनकेन समं शीघ्रं हस्तिनागपुरं ययौ ॥ ७६ ॥ पाराशरवरेणाशु जाता साऽक्षतयोनिका । पितृमन्दिरमासाद्य कुलधर्मेण तिष्ठति ॥ ७७॥ अथ सत्यवती तत्र तिष्ठन्ती पितृमन्दिरे । भीष्मेण याचिता सा च शान्तनाथ प्रयत्नतः ॥ ७८॥ शान्तनाय स्वका कन्या दत्ता पित्रा विधानतः । परिणीताऽमुना क्षिप्रं तूर्यमङ्गलनिस्वनैः॥ ७९ ॥ जाताः पुत्रास्त्रयोऽनेन सत्यवत्यां महोजसः । चित्रो विचित्रनामा च तथा चित्राङ्गदः क्रमात् ॥८॥ 10 अमीषां च महादेव्यो बभूव रूपराजिताः । अम्बाऽम्बिका तथा चान्या नूनमम्बालिकाभिधा ॥८॥ त्रयाणां राजपुत्राणां गतानां दक्षिणां दिशम् । महापापर्द्धियोगेन कुञ्जरात् पञ्चताऽभवत् ॥ ८२॥ महास्नेहसमायोगव्याप्तमानसया तया । तत्पुत्रार्थ स्मृतो व्यासस्तदा योजनगन्धया ॥ ८३॥ अम्बायां पाण्डुरुत्पन्नो धृतराष्ट्रोऽम्बिकाभवः । अम्बालिकायामुत्पन्नो विदुरोऽपि क्रमादिमे ॥८४॥ अमीषां व्यासपुत्राणां त्रयाणामपि सक्रमम् । पाण्डवाः कौरवा जाताः कीर्तिच्छन्नदिगन्तराः॥८५॥ ॥ इति श्रीसत्यवतीसंसर्गभग्नपराशरकथानकम् ॥ ९६॥ ९७. नीललोहितकथानकम् । अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । नानाजनपदाकीर्णे नानाधनसमन्विते ॥१॥ विजयानगस्यासीदक्षिणस्यां दिशि स्थितम् । किन्नरोपपदं गीतं पुरं सुरपुरोपमम् ॥२॥ मणिचूलोऽभवत्तत्र नाम विद्याधराधिपः । मनोहरी महादेवी चास्य लोकमनोहरी ॥३॥ 20 अनयो रूपसंपन्नो बहुविद्याधिपो गुणी । रुद्रमाली समुत्पन्नो नन्दनो बहुनन्दनः ॥४॥ अन्यदा विहरन् क्वापि रुद्रमाली निजेच्छया । अादिमालिनी कन्यां ददर्शासौ मनोरमाम् ॥५॥ विद्यामाराधयन्त्या हि कामविह्वलमानसः । तन्मुखे भ्रमरो भूत्वा मासषटुं स तस्थिवान् ॥६॥ नितम्बस्तननीवीषु मासषटुं विधाय सः । स्पर्शनं रूपमात्मीयं ददर्शास्या मनोरमम् ॥७॥ एवं कृतेऽमुनाऽवाचि विद्याधर्या स खेचरः । विद्याराधनविघ्नं च मा कुरु त्वं प्रभो मम ॥ ८॥ 25 श्रुत्वा विद्याधरीवाक्यं रुद्रमाली क्षणान्तरम् । मौनमादाय संतस्थे विस्मयाकुलमानसः ॥९॥ मौनस्थं तं समालोक्य जगौ विद्याधरी पुनः । नूनं साधितविद्याऽहं भविष्यामि तव प्रिया ॥१०॥ श्रुत्वा तद्वचनं खेटः प्राहेमां प्रीतमानसः । भद्रे त्वं तनया कस्य ब्रूहि सत्यं ममाधुना ॥११॥ निशम्य भारती तस्य जगौ विद्याधरी तकम् । विजया|त्तरश्रेण्यामस्ति गन्धर्वपत्तनम् ॥ १२॥ महाबलोऽभवत्तत्र विद्याधरमहेश्वरः । प्रभाकरी महादेवी चास्य चित्तमलिम्लुचा ॥ १३॥ ३० तत्सुताऽहं विनीतात्मा विद्याधरमनोरमा । कन्यार्चिमालिनी नाम विद्याराधनतत्परा ॥ १४ ॥ नामादिकं निगद्यास्य स्वकीयं खचरी पुनः । पप्रच्छैषा प्रयत्नेन खेचरं प्रीतमानसम् ॥१५॥ तद्वाक्यतः पुनः सर्वं खनामादिकमादरात् । खेचरोऽस्याः प्रहृष्टात्मा यथाक्रममुदाहरन् ॥१६॥ अस्यैव विजयार्धस्य दक्षिणाशासमुद्भवम् । पुरं किन्नरगीतं स्यान्मणिचूलोऽत्र भूपतिः ॥१७॥ 1 युग्मम् , ज युगलम्. 2 पफ युग्मम्, ज युगलम. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ -९७. ५२ ] नीललोहितकथानकम् तत्प्रिया शीलसंपन्ना नामतः स्यान्मनोहरी । रुद्रमालीति विख्यातस्तत्पुत्रोऽहं घनस्तनि ॥१८॥ समस्तं स्वखसंबन्धं कथयित्वा परस्परम् । जग्मतुः प्रीतचेतस्कौ तकौ निजगृहं तदा ॥ १९ ॥ खस्वभवान्तरं पित्रोः संतोषस्थितचेतसोः । ऊचतुस्तौ मुदं प्राप्य तोषविस्फारितेक्षणौ ॥ २० ॥ निजापत्यवचः श्रुत्वा सानुरागं परस्परम् । चक्रतुः पितरौ प्रीत्या तयो वाहमङ्गलम् ॥२१॥ कृते विवाहसंबन्धे दम्पती प्रीतमानसौ । भुञ्जानौ परमान् भोगान् तस्थतुस्तौ सुखान्वितौ ॥२२॥ अन्यदा साधयित्वैतौ विद्यां प्रज्ञप्तिमूर्जितौ । पूजां प्रज्ञप्तिविद्यायाश्चक्रतुः कुसुमादिभिः ॥ २३ ॥ चैत्यपूजां विधायात्र महापुष्पादिसंपदा । स्तुतिभिस्तौ जिनं स्तुत्वा तस्थतुस्तत्प्रदक्षिणम् ॥ २४ ॥ अत्रान्तरे समायातौ भार्यामैथुनिकौ रुषा । तं प्रदेशं विलोक्येमौ दम्पती खेचरेश्वरौ ॥ २५॥ प्राध्वंकृत्य घनं तत्र तौ महाजालविद्यया । स्वपुरं तोषसंपूर्णावाटतुः परमोदयौ ॥२६॥ चेतनां प्राप्य तद्विद्यां स्थित्वा प्रज्ञप्तिविद्यया । रुद्रमाली समादाय स्वकान्तां स्वपुरं ययौ ॥ २७॥॥ तन्निमित्तं परिप्राप्य निर्वेदं भोगसंपदम् । कोशादिकं स्वपुत्राय ददौ राज्यं सुधीरधीः ॥ २८॥ बाह्यमाभ्यन्तरं संगं विहाय स्थिरमानसः । दीक्षां समाधिगुप्त्यन्ते रुद्रमाली समाददे ॥ २९ ॥ तस्मिन् प्रबजिते कान्ते महावैराग्यमीयुषे । तदर्चिमालिनी जैनं सुव्रतान्तेऽगृहीत् तपः ॥३०॥ अन्योन्यस्नेहरागेण सनिदानं तपस्तकौ । कृत्वा कालं च सौधर्मे देवीदेवौ बभूवतुः ॥३१॥ अथोत्तरापथे देशे गन्धकाख्यजनान्तिके । माहिष्मत्यां पुरि श्रीमानभूत् सत्यतनो नृपः ॥३२॥ अभवत् तन्महादेवी रूपलावण्यभूषिता । नीलोत्पलदलश्यामा कन्दोट्टदललोचना ॥ ३३॥ रुद्रमालिचरो देवश्युत्वा सौधर्मनाकतः । सत्यकिर्नाम संजातः सुरूपी नन्दनोऽनयोः ॥ ३४ ॥ वज्रबिम्बजनान्ते च वैताली नगरी परा । अस्यां बभूव भूपालश्चेटको नाम विश्रुतः ॥ ३५॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य जनतानन्दकारिणः । सुभद्राख्या महादेवी भद्रभावा प्रियंवदा ॥ ३६ ॥ अनयो रूपसंपन्ना नीलोत्पलदलाम्बकाः। आसन् सप्त सुता यास्तु नामानीमानि बिभ्रति ॥३७॥॥ तन्मध्ये पद्मपत्राक्षी प्रथमा प्रियकारिणी । द्वितीया सुप्रभा प्रोक्ता तृतीया च प्रभावती ॥ ३८॥ सिप्रादेवी चतुर्थी स्यात् सुज्येष्ठा पञ्चमी मता । षष्ठी च चेलना नाम सप्तमी चन्दना मता ॥ ३९॥ यार्चिमालिचरी देवी च्युत्वा सौधर्मनाकतः। सुज्येष्ठा सा समुत्पन्ना तत्सुता पञ्चमी मता ॥४०॥ चेटकेन समुद्दिष्टा सुज्येष्ठा सत्यकेः सुता । वीवाहमङ्गलं तस्या न तावद्विहितं किल ॥४१॥ अन्यदा चेलना कन्या नीयमाना सुरङ्गया । अभयादिकुमारेण पुरं राजगृहं परम् ॥४२॥ ईर्ष्याधर्मेण सा ज्येष्ठा महता रूपशालिनी । प्रेषिता हारमानेतुं तदा चेलनया गृहम् ॥ ४३॥ अभयादिकुमारेण चेलनाऽपि निशि द्रुतम् । जगाम प्रीतचेतस्का पुरं राजगृहाभिधम् ॥४४॥ सुज्येष्ठा हारमादाय यावत् संकेतभूतलम् । आगच्छत्यत्र तावच्च पश्यतीयं न चेलनाम् ॥ ४५ ॥ चेलनाऽन्वेषणं तस्याः कुर्वन्त्याः सा निशा क्षयम् । जगाम जनकादिभ्यो गताया नितरां भयम् ॥४६॥ विरोचनोदये जाते लजाभयसमन्विता । पितृगेहं न सा याता जगामार्यानिकेतनम् ॥ ४७॥ प्रविश्य तत्र चेटस्य यशोमत्याः स्वसुस्तदा । ज्येष्ठा प्राप्य तामायाँ तपो जैनमशिश्रियत् ॥४८॥ श्रुत्वा प्रव्रजन तस्या महावैराग्यसंगतः । समाधिगुप्तमानम्य सत्यकिमुनितां ययौ ॥४९॥ अथोत्तरदिशाभागस्थितगोकर्णपर्वते । सत्यकिः सत्यसंपन्नश्चकार विविधं तपः॥५०॥ ततो राजगृहासन्ने पर्वते सात्यकिर्यतिः । तस्थावातापनायोगे स्थानेन रविसन्मुखः ॥५१॥ अत्रान्तरेऽर्यिकावृन्दं प्रसन्नतरवृत्तिकम् । आतापनस्थितं साधु सात्यकिं प्राप' भक्तितः ॥ ५२ ॥ 35 1 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 2 फ याचिमाली'. 3 ज सुरुंगया. 4 पफ प्राप्य. वृ० को. ३० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९७.५३ विधाय वन्दनामस्य मुनेर्भक्तिपरायणाम् । उत्ततार गिरेरस्मादर्शिकावृन्दमादरात् ॥ ५३ ॥ अकालवर्षनीरौघघातविह्वलमानसा । ज्येष्ठार्यिका गुहामध्यं विवेश जलपाततः ॥ ५४ ॥ विहायातापनायोगं सात्यकिर्जलविह्वलः । विवेश तद्गुहामध्यं वेगतो जलभीतितः ॥ ५५ ॥ गुहामध्यस्थितां ज्येष्ठां विलोक्य सहसा यतिः । सद्यो बभूव मूढात्मा कामविह्वलमानसः ॥ ५६ ॥ • ज्येष्ठाऽपि तं समालोक्य मन्मथाकुलमानसा । जजल्प तत्समं किंचित् कन्दर्पोद्रेककारणम् ॥ ५७ ॥ परस्परं समासंगं विधाय मदनोद्भवम् । जगाम गुरुसामीप्यं सत्यकितवाञ्छया ॥ ५८ ॥ गुरुपार्श्व स संप्राप्य कृतालोचननिन्दनः । कृत्वा गुरूदितं सर्वं प्रायश्चित्तं बभौ मुनिः ॥ ५९ ॥ ज्येष्ठाऽपि मणिकां प्राप्य स्वकीयां तां यशोमतिम् । तन्निवेदितवृत्तान्तं संतस्थे हृष्टमानसा ॥ ६० ॥ सुज्येष्ठां तां समादाय क्षान्तिका सा यशोमतिः । मुमोच चेलनागेहे तद्वृत्तान्तनिवेदिनी ॥ नवमासेष्वतीतेषु सुज्येष्ठा तगृहस्थिता । प्रसूता दारकं दिव्यं बालादित्यसमप्रभम् ॥ ततोऽभयकुमारेण जातमात्रोऽपि बालकः । गुहायां कालपूर्वायां स्थापितः परमोदयः ॥ ६३ ॥ ततोऽसौ चेलना चख्यौ' रुद्रं कालगुहागतम् । त्याज्यात् स्वप्नं स्वकान्तस्य श्रेणिकस्य महात्मनः ॥६४॥ स्वभार्यांमुखतः श्रुत्वा रुद्रस्वप्नं महीपतिः । महासाधनसंयुक्तस्तदा कालगुहां ययौ ॥ ६५ ॥ दृष्ट्वा कालगुहान्तस्थं रुद्रं सैन्यसमन्वितः । विस्मयं परमं प्राप्य श्रेणिकः श्रीतमानसः ॥ ६६ ॥ 15 ततो रुद्रं समादाय श्रेणिक चेलनाकरे । महाप्रमोदसंपन्नो ददौ तद्वालसंपदम् ॥ ६७ ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ I चेलना वारिषेणेन सह संवर्धनं शिशोः । तैलाशनादियोगेन चक्रे प्रीतिसमुत्कटम् ॥ ६८ ॥ अमाभयकुमारेण चेलना धर्मभाविता । ज्येष्ठावगूहनं चक्रे स्थिरसम्यक्त्वभावना ॥ ६९ ॥ ज्येष्ठाऽपि स्वगुरुं प्राप्य कृत्वा निन्दनगर्हणम् । स्वनिवेदितवृत्तान्ता दीक्षां जग्राह मूलतः ॥ ७० ॥ ज्येष्ठाया नन्दनस्तत्र रौद्रभावसमन्वितः । करयष्टिप्रघाताभ्यां चेटकांस्ताडयत्यरम् ॥ ७१ ॥ ज्येष्ठातनय मालोक्य कुर्वन्तं शिशुचापलम् । चेलना रुद्रनामास्य चकार क्रोधसंगता ॥ ७२ ॥ अन्यदा चेलना प्राह तं रुष्टा चेटताडनात् । जारजात खल क्षिप्रं निर्लज्ज व्रज मे गृहात् ॥ ७३ ॥ श्रुत्वा स्वहीलनं वाक्यं रुष्टोऽसौ चेलनां जगौ । किमिदं भाषितं मातः सत्यं वद यथायथम् ॥ ७४ ॥ कुमारवचनं श्रुत्वा चेलना मूलतोऽखिलम् । यथावृत्तं जगादास्य तिरस्कारविचेष्टितम् ॥ ७५ ॥ तद्वाक्यतो विनिःसृत्य तगृहात् स कुमारकः । दीक्षां जग्राह जैनेन्द्रीं तदानीं पितुरन्तिके ॥ ७६ ॥ • क्रमेणैकादशाङ्गानि रुद्रेण पठितान्यरम् । तथा दश च पूर्वाणि निश्चयात् किं न सिध्यति ॥ ७७ ॥ शतानि पञ्च विद्यानां रोहिणीप्रभृतीनि च । तथा सप्तापि मन्त्राणां सिद्धान्यस्यातिपुण्यतः ॥ ७८ ॥ गोकर्णपर्वतस्थस्य सात्यकेरस्य योगिनः । आतापनाविधानेन हानयेऽखिलकर्मणाम् ॥ ७९ ॥ अर्चनं वन्दनां कर्तुं महाभक्तिपरायणाः । अर्थिकाः श्रावकाः प्रापुः श्राविकाभिः समं मुदा ॥ ८० ॥ अर्यिकादिपथे भीमं सिंहरूपं विधाय सः । विकुर्वणाकृतं रुद्रस्तस्थावन्यत्र भूतले ॥ ८१ ॥ साधुमार्गे विलोक्यायं हरिरूपं भयानकम् । अर्यिकादिगणस्तत्र चकाराशु पलायनम् ॥ ८२ ॥ तच्चेष्टितमिदं वीक्ष्य सत्यकिः प्राह तं पुनः । त्वं यास्यसि तपोभङ्गं स्त्रीकृते नियतं मुने ॥ ८३ ॥ गुरुवाक्यं समाकर्ण्य खचारित्रविनाशनम् । रुद्रसाधुर्विलक्षः सन् दध्याविति स्वचेतसि ॥ ८४ तपः करोम्यहं देशे स्त्री पाण्डुपशुवर्जिते । येन पापानि कर्माणि निहन्म्याशु विशुद्धधीः ॥ ८५ ॥ एवं विचिन्त्य शुद्धात्मा रुद्रयोगी विचक्षणः । निर्जगामाशु तद्देशान्मन्दमन्दगतिक्रियः ॥ ८६ ॥ 25 1 पफ चक्षौ. 2 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 3 पफ त्रिकुर्वाणाकृतं. 4 पफ स्त्रीकृतं. 10 20 30 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९७. ११९] नीललोहितकथानकम् २३५ नानाशिलातलोपेतं नानावृक्षसमाकुलम् । आरुरोह समुत्तुङ्गं कैलासं स मुनिस्तदा ॥ ८७॥ मार्तण्डकरसंतप्ते कैलासस्य शिलातले । तस्थौ 'प्रतिमया धीरस्तदानीं स मुनिः शुचौ ॥ ८८॥ अथ विद्याधरावासविजयाधगिरीशतः । अष्टापदसमाशेषसोधपंक्तिविलासिनः ॥ ८९॥ दक्षिणाशासमुद्भूतं पुरं मेघनिबन्धनम् । मेघादिनिचयं सारं तथा मेघनिनादकम् ॥९॥ पुरत्रयस्य चैतस्य राजाऽऽसीत् कनकप्रभः । मनोवेगाऽस्य सत्पत्नी मनोनयनवल्लभा ॥ ९१॥ । अभूतां नन्दनावस्य नन्दिताशेषबान्धवौ । देवदारुस्तयोज्येष्ठो विद्युजिह्वः कनिष्ठकः ॥ ९२॥ देवदारुसुतायास्मै ददौ राज्यं महात्मने । प्रज्ञप्तिं युवराज्यं च विद्युजिह्वाय सक्रमम् ॥ ९३॥ हित्वा परिग्रहं सर्वं भूपतिः कनकप्रभः । तदा गुणधराभ्याशे तपो जैनमशिश्रियत् ॥ ९४ ॥ अथ प्रज्ञप्तिसामर्थ्याद् विद्युजिह्वेन लोभिना । निर्धाटितोऽमुना शीघ्रं देवदारुः स्वमण्डलात् ॥१५॥ ततो मेघनिबद्धाख्यं मेघादिनिचयं पुरम् । तथा मेघनिनादं च महाजनधनान्वितम् ॥ ९६॥ ॥ पुरत्रयमिदं सारं समादाय त्वरान्वितः। कैलासपर्वतं प्राप्य देवदारुः स तस्थिवान् ॥ ९७॥ रूपयौवनसंपन्नमष्टापदतनुप्रभम् । भार्याचतुष्टयं तस्य देवदारोरिदं परम् ॥ ९८॥ आद्या योजनगन्धा स्याद्वितीया कनकप्रभा । अन्या तरङ्गवेगा च तरङ्गभङ्गिनी परा ॥ ९९ ॥ अथ योजनगन्धाया द्वे सुते भवतः परे । प्रथमा गन्धिला प्रोक्ता द्वितीया गन्धमालिनी ॥१०॥ कनकायाः सुताद्वन्द्वं रूपराजितविग्रहम् । आद्या कनकचित्रा स्याद्वितीया स्वर्णमालिनी ॥१०१॥ 15 ततस्तरङ्गवेगायाः सद्रूपं तनयाद्वयम् । तरङ्गमतिरेकाऽन्या सेनान्तादितरङ्गका ॥ १०२॥ तथा तरङ्गभङ्गिन्या बभूवेष्टं सुताद्वयम् । प्रभावती मता पूर्वा द्वितीया सुप्रभावती ॥ १०३॥ अष्टौ ता रूपसंपन्ना विद्याधरकुमारिकाः । वृत्ताः कुञ्चुकिभी रन्तुं वापीजलमगुस्तदा ॥ १०४ ॥ तत्र वापीजलाभ्याशे शिलातलसमन्विते । रुद्रोऽप्यातापनायोगं बभार प्रीतमानसः ॥ १०५॥ आतापनस्थितो दृष्ट्वा कन्यास्ता रूपशालिनीः । सद्यो बभूव रुद्रोऽपि कामाकुलितमानसः॥१०६॥* . तद्वस्त्राणि विचित्राणि रुच्यानि विविधानि च । विद्ययाऽऽत्मसमीपेऽसौ स्थापयामास तान्यरम् १०७ स्वानं विधाय ता वाप्यां खेच्छया प्रीतचेतसः । वेगात्ततः समुत्तीर्य तत्प्रतीरे स्थिताः पुनः॥१०८॥ तत्प्रदेशे न पश्यन्ति वस्त्राण्याभरणानि च । वाचाला रुद्रसामीप्यं जग्मुः खेचरकन्यकाः॥१०९॥ दृष्ट्वाऽग्रे तं मुनिं प्रोचुर्विद्याधरकुमारिकाः । मदीयवस्त्ररुच्यानि त्वया ज्ञातानि किं क्वचित् ॥११॥ श्रुत्वा तद्वचनं रुद्रो जगादैताः पुरः स्थिताः । यदि भार्या मे भवथ ततो दास्यामि तानि वः ॥१११॥ तदीयं वाक्यमाकर्ण्य वदन्तीमं पुनस्तकाः । स्वच्छन्दा न भवामो हि विद्याधरसुता यते ॥११२॥ अस्माकं च स्वतत्राणां मुने तत्क्षणमात्रतः । विद्या विनाशमायान्ति वाञ्छन्तीनां परंपराम् ॥११३॥ अस्मान् ददाति ते नूनं यदि तातो महामुने । ततो भार्या भवामोऽत्र भुवने भवतोऽखिलाः॥११४॥ तद्वाक्यतोऽमुना तासां वस्त्राण्याभरणानि च । समर्पितानि सर्वाणि प्रोक्ताश्चेदं वचस्तकाः॥११५॥ खमातापितरौ पृष्ट्वा बान्धवान् सकलानपि । आगच्छत मदाभ्याशं बालिका द्रुतमादरात् ॥११६॥" आकर्ण्य तद्वचः कन्या संप्राप्य जनकान्तिकम् । तद्वार्ता सकला ताभिःस्खताताय निवेदिता॥११७॥ यथैकस्तात निर्ग्रन्थो मुनिरस्माभिरादरात् । सहसा सह संबन्धं कामुकः कर्तुमिच्छति ॥ ११८॥ खपुत्रीवाक्यमाकर्ण्य देवदारुर्जगाविमाः । यद्यस्मांत्रिपुरे कान्ते प्रवेशयति सोऽधुना ॥ ११९ ॥ 1 पफ प्रीतितया. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 [वृताः कञ्चुकिभी]. 4 पफ omit 106. 5 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम्. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९७. १२०ततो महाप्रमोदेन तुर्यमङ्गलनादिना । ददामि भवतीस्तस्मै नान्यथा नियतं सुताः ॥ १२०॥ एवं निगद्य ताः कोऽपि कञ्चकी प्रेषितोऽमुना । तत्समीपं परिप्राप्य निजगादेति तं पुनः॥१२१॥ यथाऽस्मद्भूपतिर्वक्ति भवन्तं मन्मुखादरम् । सर्वकार्यसमासंगकारणोद्यतमानसम् ॥ १२२ ॥ प्रवेशं यदि मे तत्र करोति त्रिपुरे चिरात् । ततः कन्यां प्रयच्छामि भक्तो नान्यथा क्वचित् ॥१२३॥ ' श्रुत्वा कञ्चुकिनो वाक्यं रुद्रोऽपि निजगावमुम् । प्रवेशं त्रिपुरे वृद्ध करोम्येतस्य सांप्रतम् ॥१२४॥ निशम्य तद्वचो वृद्धः संप्राप्य स्खपति क्रमात् । जगादेमं पुनः प्रीतो विस्मयाकुलमानसः॥१२५॥ राजन् मुनिर्वदत्येवं यदि कन्याः प्रयच्छसि । मह्यं ततः प्रवेशं ते करोमि त्रिपुरे द्रुतम् ॥१२६॥ वृद्धकञ्चुकिवाक्येन देवदारुः स खेचरः। स्वगेहं रुद्रमानीय बभाणेमं ससंभ्रमम् ॥ १२७ ॥ पूर्ववृत्तववृत्तान्तं विजयाधसमुद्भवम् । देवदारुर्जगादास्मै रुद्राय सकलं तदा ॥ १२८॥ " विद्याधरोदितं श्रुत्वा रुद्रोऽपि निजगावमुम् । बहुनाऽपि किमुक्तेन सर्व संपादयामि ते ॥१२९॥ ततो रुद्रं समादाय देवदारुः ससैन्यकः । विजयाधस्य मूर्धानं क्षणादविदितं ययौ ॥ १३०॥ विद्युजिह्व निहत्याशु रुद्रोऽपि समरे तदा । त्रिपुरे स्थापयामास देवदारुं समङ्गलम् ॥ १३१ ॥ ततोऽष्टौ ता महाकन्यास्तदानीं देवदारुणा । रुद्राय विधिना दत्ता परिणीता यथाक्रमम् ॥१३२॥ परिणीय ततः कन्या रूपलावण्यसंयुताः । कृतकृत्यों बभूवायं तोषपूरितमानसः ॥ १३३ ॥ ॥ रुद्रो यया यया साधं रात्रि वसति तद्दिने । तां तां निपातयत्याशु शुक्रसंतापकारणात् ॥१३४॥ यावदष्टौ महाकन्या निहत्य रतिविभ्रमात् । महाशोकभराक्रान्तस्तस्थौ रुद्रो विषादवान् ॥१३५॥ एवं स्थितस्य रुद्रस्य तदा कैलासमूर्धनि । अष्टौ तिष्ठन्ति चैत्यानां रक्षपाला दिवानिशम् ॥१३६॥ देवदारुवयस्यानामेतेषां प्रीतिकारणम् । नामानीमानि सर्वेषां भवतां कथयाम्यहम् ॥ १३७ ॥ तन्मध्ये प्रथमश्चन्द्रो यमोऽन्यो वरुणोऽपरः । सोमश्चक्रधरणामा तथान्योऽपि महीधरः॥१३८॥ • धरसेनो महासत्त्वो हरिषेणस्तथापरः । अधुनाऽहं परेणैषां पुराणि कथयामि च ॥ १३९ ॥ पूर्व नागपुरं तेषां तथैन्द्रपुरमुत्तमम् । अन्यच्छैलपुरं प्रोक्तं जयन्तीपुरमेव च ॥ १४० ॥ नागयक्षपुरं चान्यदलकोपपदं पुरम् । तथापरं च विज्ञेयं विजयोपपदं पुरम् ॥ १४१॥ अमीभिरष्टाभिः खेटेः स्वकीयं रूपराजितम् । कन्याशतं च रुद्राय वितीर्ण विधिरूपकम् ॥१४२॥ विकुर्वाणाकृतेनाशु शेफेन पृथुनाऽमुना । हतं कन्याशतं तत्र रुद्रेण रतिमिच्छता ॥ १४३॥ - कन्याशतं निहत्यायं बृहन्मेद्रप्रयोगतः । तस्थौ विषण्णचित्तोऽसौ तदा कैलासमूर्धनि ॥ १४४ ॥ अत्रान्तरेऽर्यिका काचिद्देशान्तरसमागता । एकेन मीनबन्धेन निम्नगां तारिता सका ॥ १४५॥ तच्छरीरपरामर्शात् कामभोगवशं गता । सा निदानं चकारेदं कामाकुलितमानसा ॥ १४६ ॥ मच्चित्तवल्लभस्यास्य भार्याऽन्यस्मिन् भवे सति । संदेहमन्तरेणारं भविष्यामि भुवस्तले ॥१४७॥ धीवरोऽपि चिरं भ्रान्त्वा संसारे सारवर्जिते । ज्येष्ठासमुद्भवो रुद्रः सत्यकेस्तनयोऽभवत् ॥१४८॥ • आर्यिकाऽपि निदानस्था कालं कृत्वा मृदुत्वतः । सौधर्मे धर्मसंयोगाजाता देवी बिडौजसः ॥१४९॥ वासवाख्यो नराधीशः श्रावस्तीनगरीपतिः । बभूवास्य महादेवी साधु मित्रवती परा ॥ १५० ॥ अनयोरभवत् तन्वी विद्युदादिमती सती । शिवंकरपतेर्दत्ता विद्युदंष्ट्रस्य चानया ॥१५१॥ सौधर्मनाकतश्श्युत्वा देवी पूर्वनिवेदिता । अनयो रूपसंपन्ना संजाता तनया परा ॥ १५२ ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 ज कन्या, [ कन्याः]. 3 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 6 पफ कृत्यकृत्यो. 7 पफ रिपुविभ्रमात्. 8 जचान्यं. १ ज बृहन्मेंद. 10 ज भार्यास्मिन्. | Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९७. १८५ ] नीललोहितकथानकम् २३७ १६५ ॥ जातमात्राऽपि सा पुत्री नवमे मासि दुःखतः । निर्विण्णया महादेव्या परिमुक्ता गुहान्तरे ॥१५३॥ अत्रैव नगरे कान्ते सोमशर्माऽभवद् विजः । भार्याऽस्य सोमिला नाम प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ॥१५४॥ बभूवुरनयोरस्याश्चतस्रस्तनयाः पराः । भद्रा खन्दा तथा सौम्या वैरिणी नाम विश्रुता ॥ १५५ ॥ अन्यदैताश्चतस्त्रोऽपि देवतार्चनकारणात् । जग्मुः पुष्पाणि चादातुमुद्यानवनमादरात् ॥ १५६ ॥ गुहायां च मोमेति नादं विदधतीं तदा । विलोक्य बालकां कान्तां चतस्रो विस्मयं ययुः ॥ १५७॥ ' अस्या विधाय नामेदमुमाख्यं भुवि विश्रुतम् । आदायेमां चतस्रोऽपि ययुर्जिनगृह' तकाः ॥ १५८ ॥ ततस्ताभिरुमा बाला बालादित्यसमप्रभा । वासवस्य महादेव्याः मित्रवत्याः समर्पिता ॥ १५९ ॥ संवर्धननिमित्तेन तद्रूपाहितचेतसा । मित्रमत्या च सा बाला धात्रिकायाः समर्पिता ॥ अन्यदेन्द्रपुराधीशश्चन्द्रसेनो महीपतिः । गिरिकर्णिकया सार्धं रूपवत्या स्वकान्तया ॥ तदा धराविहारेण विहरन् विस्मयाकुलः । श्रावस्तीं नगरीं प्राप पताकावलिराजिताम् ॥ विलोक्य तामुमामत्र मित्रवत्याः समर्पिताम् । गिरिकर्णाभिधा खेटी जग्राह बहुविस्मया ॥ आदाय तामुमां साऽपि रूपराजितविग्रहा । पुत्रीं पुत्रविहीनायास्तनूजाया ददौ पुनः ॥ तया सुतानुरागेण स्वपुरं प्राप्य बालिका । वृद्धिं नीता प्रयत्नेन जाता विद्यासमन्विता ॥ देवकूटपुरेशाय वज्रवेगाय बालिका । खेचराय वितीर्णा सा यौवनस्थाऽनया परा ॥ १६६ ॥ ततोऽसौ दत्तमात्रायामुमायां दयितो मृतः । स्वच्छन्दा सा मदोन्मत्ता देवदारुखगं ययौ ॥१६७॥ ” हतां दिने दिने श्रुत्वा कन्यामेकैककामसौ । तथाऽपि देवदारुस्तामीश्वराय ददौ तदा ॥ १६८ ॥ भवोऽपि च तया सार्धमुमया प्रीतचेतसः । विजयार्धगिरौ तस्थौ भुञ्जानः सुखमुत्तमम् ॥ १६९ ॥ जटामुकुटधारीशो भूतिधूसरिताङ्गकः । कर्ता सर्वस्य लोकस्य स्वयंभूरहमुत्तमः ॥ १७० ॥ एवंविधस्तयाधीशो मन्यमानः स्वमादरात् । अवतारं चकारासौ दक्षिणे भरते भुवि ॥ अत्र लोकस्य विख्यातः शैवधर्मं प्रकाशयेत् । शैवाचार्यैः समं सर्वैर्बहुभिः परिवारितः १७२ ॥ 20 उमया सह कुर्वाणः स्वेष्टदेशेषु मैथुनम् । चकार संगतः प्रीतो विहारं द्वादशाब्दकम् ॥ १७३ ॥ * गतेषु द्वादशाब्देषु सर्वे विद्याधरा द्रुतम् । भयात् क्षोभं परिप्राप्य जजल्पुस्ते परस्परम् ॥ १७४ ॥ विद्यानां पारदृश्वाऽयं समस्तानां प्रचण्डधीः । अस्मान् निर्धाट्य वेगेन विजयार्धं गृहीष्यति ॥१७५॥ उभयश्रेणिगाः खेटास्तद्भयाकुलमानसाः । कदाऽस्य मारणं कुर्मश्चिन्तयन्तः सदाऽभवन् ॥१७६॥ कृत्वा परस्परं पृच्छां खेचरा भयविह्वलाः । उमेदं मायया पृष्टा तदा योजनगन्धया ॥ १७७ ॥ 25 पुत्रि भर्तुस्तवैतस्य कस्मिन् काले नितम्बिनि । विद्या विनाशमायान्ति कथयेदं ममाधुना ॥ १७८ ॥ निशम्य तद्वचः क्षिप्रं जगौ छिद्रं भवस्य सा । यस्मिन् काले मया सार्धं भुञ्जानस्यास्य मन्मथम् ॥ १७९॥ तस्मिन् कालेऽखिला विद्या वशीकृतमहीतलाः । भविष्यन्त्यस्य नो वश्याः कथितं मे तव स्फुटम् १८०० तद्वाक्यतः परिप्रापुः तद्वधोपायमीदृशम् । तोषपूरितचेतस्का बभूवुः खेचरा भृशम् ॥ १८१ ॥ गन्धाराख्यमहादेशे दुरण्डनगरे परे । बहिः सुप्तं समालोक्य चोमया सह शंकरम् ॥ १८२ ॥ ३७ आदाय खेचरैस्तत्र तच्छिरः प्रीतमानसैः । निहत्य दंपती वेगात् पञ्चत्वं प्रापिताविमौ ॥ १८३ ॥ मुष्मिन् यथा सद्यो गन्धारविषयोऽखिलः । उपसर्गं विधायोग्रं विद्याभिर्नाशितो द्रुतम् ॥ १८४ ॥ तस्मिन्नुद्वासिते तत्र नन्दिषेणो मुनीश्वरः । दुरण्डनगरं प्राप्य' गन्धारविषयोद्भवम् ॥ १८५ ॥ १७१ ॥ ॥ I 4 पफ युग्मम्, 1 [ ययुर्निजगृहं ] 2 पफ युग्मम् ज युगलम् 3 पफ युग्मम् ज युगलम्. ज युगलम् 5 पफ युग्मम् ज युगलम् 6 पफ युग्मम् ज युगलम् 7 [ प्राप ]. १६० ॥ १६९ ॥ १६२ ॥ ̈ १६३ ॥ १६४ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९७. १८६ श्रुत्वा तत्पत्तनोद्याने नन्दिषेणयतीश्वरम् । विश्वसेनो नृपः प्राप दुरण्डनगराधिपः ॥ १८६ ॥ प्रणम्य तं मुनिं भक्त्या जैनं धर्मं निशम्य च । पप्रच्छेदं विनीतात्मा विश्वसेनो नराधिपः ॥ १८७॥ नाथ कस्यानुभावेन गन्धारविषये मम । उपसर्गो महान् जातो ब्रूहीमं वितथेतरम् ॥ १८८ ॥ विश्वसेनवचः श्रुत्वा जगादेति महामुनिः । ' अक्षमापितविद्योऽसौ खेचरैर्निहतो मृतः ॥ १८९ ॥ · गन्धारविषये राजन् भवदीयेऽक्षमापिता । उपसर्गं प्रकुर्वन्ति ता विद्या रुषमागताः ॥ १९० ॥ श्रुत्वा मौनीश्वरं वाक्यं विश्वसेनो जगाविमम् । केनोपायेन मद्देशो भवतीतिविवर्जितः ॥ १९१ ॥ अवाचि विश्वसेनोऽपि नन्दिषेणेन सूरिणा । कृत्वेष्टकचितां दिव्यां महाविस्तीर्णपीठिकाम् ॥ १९२॥ कृत्वा भवाक्षोपस्थं च कृत्वा तत्पीठिकोपरि । प्रविधायात्र तन्मध्ये प्रयत्नेन भवेन्द्रियम् ॥ ९९३ ॥ ततो बलिविधानेन तल्लिङ्गं वरिवस्यते । अनेन विधिना राजन् सन्ति विद्या क्षमापिता ॥ १९४ ॥ " एवं कृते सति क्षिप्रं गन्धारविषयस्तव । उपसर्गविहीनोऽसौ जायते धरणीपते ॥ १९५ ॥ * श्रुत्वा मौनीश्वरं वाक्यं भक्तिनिर्भरमानसः । चकार विश्वसेनोऽरं सर्वं मुनिनिवेदितम् ॥ १९६ ॥ तन्मेढ्रपूजनाच्छीघ्रं गन्धारविषयोऽखिलः । बभूवेतिपरित्यक्तो नन्दिताशेषजन्तुकः ॥ १९७ ॥ ततः प्रभृति सर्वत्र विजयार्धस्य दक्षिणे । भरते शर्वलिङ्गस्य स्थापना विहिता जनैः ॥ १९८ ॥ ॥ इति श्रीनीललोहितकथानकमिदम् ॥ ९७ ॥ * ९८. राजमुनिकथानकम् । विदेहाख्यजनान्तेऽस्ति मिथिला नगरी परा । मरकोऽस्यां नराधीशो धनसेनाऽस्य गेहिनी ॥ १ ॥ अनयोरभवन् पुत्राः शूरः पद्मरथो नमिः । विनयाचारसंपन्ना नीतिशास्त्रविशारदाः ॥ २ ॥ अन्यदा मरको राजा नमिनामाऽमलाशयः । दधौ दमधरान्तेऽसौ दीक्षां दैगम्बरीं पराम् ॥ ३ ॥ दृष्ट्वा पानीयमध्ये च पश्यन्तं स्वतनुं क्वचित् । नमिं दमवराचार्यश्चकारादेशमस्य सः ॥ ४ ॥ " मुने त्वं नीरमध्यस्थं यत्स्वबिम्बं प्रपश्यसि । स्त्रीनिमित्तं ततो नूनं तपसो भङ्गमेष्यसि ॥ ५ ॥ गुरुवाक्यं समाकर्ण्य रामावैराग्यमागतः । विलक्षः स मुनिः शीघ्रं ययौ भीमां महाटवीम् ॥ ६ ॥ ततः सागरदत्ताख्यः सार्थवाहो महाधनः । सार्थेन महता युक्तश्चकारावासमत्र सः ॥ ७ ॥ तत्र नानानटाधारो गोविन्दो नटपेटकः । तत्प्रिया चाभवद् भद्रा भद्रभावा प्रियंवदा ॥ ८ ॥ सुता तयोः कलाधारा रूपयौवनराजिता । काञ्चनोपपदा माला काञ्चनाभशरीरका ॥ ९ ॥ 25 एतस्या रूपमालोक्य कामाकुलितमानसः । सद्यो बभूव मूढात्मा स मुनिस्तद्भताशयः ॥ १० ॥ नृत्यं शैलूषसंघानां नृत्यतां तत्र सादरम् । स मुनिर्दूषयामास नृत्यगीतविचक्षणः ॥ ११ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं तत्र भृकुंशैः प्रीतमानसैः । दत्ता काञ्चनमालाऽस्मै गुणसंघातसिद्धये ॥ १२ ॥ विहाय चरणं दीनस्तया कनकमालया । भुञ्जानः सुतरां भोगान् भङ्गुरान् स वितिष्ठते ॥ १३ ॥ अथ काञ्चनमालायाः कृते गर्तेऽमुना सति । जगाद तनयां माता तद्विक्षेपणकारिणी ॥ १४ ॥ ॐ मद्भोजनं प्रभुञ्जानस्त्वत्पतिः सालसः सुते । संतिष्ठते विनीतात्मा धनोपार्जनवर्जितः ॥ १५ ॥' ततः काञ्चनमाला च नमिं भर्तारमादरात् । जगादेयं मिथो रुष्टा जननीवचनादरम् ॥ १६ ॥ 15 1 प writes verse No. 187 twice. 2 फ अमाक्षपित 3 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 4 पफ चतुष्कुलकम्, ज चतुष्कुल कमिदम् 5 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३९ -९८. ४९] राजमुनिकथानकम् मत्तातोपार्जितं मूढ भोजनं हि दिने दिने । निरुत्साहो निरामर्षो भुञ्जानः किं न लज्जसे ॥ १७॥' भार्यावचनमाकर्ण्य विलक्षीभूतमानसः । तदानीं च विलक्षात्मा क्षणमेकं स तस्थिवान् ॥ १८॥ पूर्ववार्धिप्रतीरस्थं नानाजनधनान्वितम् । ययौ सचित्रसाणूरं मुण्डीरस्वामिपत्तनम् ॥ १९॥ तत्र प्रेक्षां स संप्राप्य रवावस्तमनं गते । नक्तं नृत्यं प्रकुर्वाणो मुमोच कुसुमाञ्जलिम् ॥ २०॥ नानाजनसमाकीर्णे सभामध्ये नमिस्तदा । दिव्यं श्लोकं पपाठेमं घनाघनकलस्वनः ॥ २१॥ । चिन्तनीयं खतो दीर्घ कर्तव्यं नाल्पकं सुखम् । उत्पथेन न यातव्यं न श्रोतव्यं खलोदितम् ॥ २२॥' अथ राजसुता तन्वी कुमारी यौवनान्विता । परं नरं समादाय संध्याऽनेहसि रूपिणी ॥ २३ ॥ बहुभेदानि रुच्यानि रत्नं रजतकाञ्चनम् । बवा वस्त्राञ्चले सारनानावस्तूनि सादरम् ॥ २४ ॥ स्तोकवेलां समास्थाय यास्यावः स्वपुरादरम् । नटं द्रष्टुं समायाता सुन्दरं विटसंगता ॥२५॥ चिन्तनीयं खतो दीर्घ श्लोकप्रथमपादकम् । श्रुत्वा सा तद्धनं दत्त्वा नटाय स्वगृहं ययौ ॥२६॥ काचित् तपस्विनी चैका ब्रह्मचर्यकदर्थिता। परं पुरुषमादाय गन्तुकामा मदातुरा ॥२७॥ पद्मरागमहानीलकनकादिकदम्बकम् । प्राध्वंकृत्य च वस्त्रान्ते नटं द्रष्टुं समाययौ ॥ २८॥ कर्तव्यं नाल्पकं सौख्यं द्वितीयश्लोकपादकम् । सा परिव्राजिकाऽऽकर्ण्य तोषकण्टकिताङ्गका ॥२९॥ वितीर्य तं मणिग्रन्थि शैलूषाय त्वरावती । जगाम मन्दिरं तुष्टा तदा सा बालिका निजम् ॥३०॥ तत्रैकः सार्थवाहोऽपि शुल्कं भङ्क्तवा विहाय तम् । मार्ग गच्छति वेगेन प्राप्य रत्नकदम्बकम् ॥३१॥ नटं द्रष्टुं समायातो हावभावसमन्वितम् । विलासविभ्रमोपेतं नवनाट्यरसान्वितम् ॥ ३२ ॥ उन्मार्गेण न यातव्यं श्लोकपादतृतीयकम् । आकर्ण्य सार्थवाहोत्र शैलूषेण निवेदितम् ॥ ३३॥ रत्नग्रन्थि प्रदायास्मै शुल्कं स नृपसंभवम् । सार्थमादायमार्गेण ययौ धाम स्ववाञ्छितम् ॥३४॥ तथैको राजपुत्रोऽपि निहत्य पितरं द्रुतम् । राज्यं गृहीतुकामोऽयं नटं द्रष्टुं ययौ धनी ॥ ३५॥ न श्रोतव्यं खलस्योक्तं श्लोकपादचतुर्थकम् । निशम्य राजपुत्रोऽयं संतोषस्थितमानसः ॥ ३६॥ " मणिग्रन्थिं प्रदायास्मै राजपुत्रो नटाय सः । युवराज्यपदे तस्थौ हित्वा सर्वां कुवासनाम् ॥ ३७॥ रत्नग्रन्थीः समादाय चतुरोऽपि नमिः पुनः । प्रदाय हृष्टचेतस्को जगाद कनकसृजम् ॥ ३८॥ गर्भेऽमुष्मिन् प्रिये तेऽरं भविष्यति सुतः शुभः । अमुं मुरजमध्यस्थं चितायां मोक्तुमर्हसि ॥३९॥ तद्वाक्यतस्तया बालो जातमात्रोऽपि तत्क्षणात् । कृतो मुरजमध्यस्थः श्मशाने निष्ठुराशया ॥४०॥ तत्काले तत्पुरे शीघ्र विश्वसेनो महीपतिः । जगाम पञ्चतावाप्तिं शरीरेण विवर्जितः॥४१॥ 5 अत्रान्तरे समालभ्य कुङ्कुमेन प्रसूनकैः । अर्चयित्वा प्रदायापि यूपमादाय पेशलम् ॥ ४२ ॥ तूर्याणि समतालानि कृत्वा तत्पुरतो नृपाः । मत्रिणः करकुम्भं हि मुमुचू राजहस्तिनम् ॥४३॥' आपणं गृहमारामं साणूरं निम्नगं तटम् । सरोवरं पुरं सर्वं बभ्राम स करी क्रमात् ॥४४॥ दृष्ट्वा पितृवने बालं मुरजान्तरवर्तिनम् । करस्थस्वर्णकुम्भेन स्नापयामास वारणः ॥ ४५ ॥ करेण तं समादाय पृष्ठमारोप्य वेगतः । राजहस्ती जगामायं दरवलं समुत्तमम् ॥ ४६॥ . कृत्वा सिंहासने दिव्ये मेरुकूटसमप्रमे । भूयोऽपि स्लपयामास करकुम्भेन कुञ्जरः ॥४७॥ ततो भूपतयः सर्वे पट्टबन्धनकारिणः । सस्नुमहत्तरा बालं कनत्कनककुम्भकैः ॥४८॥ विधाय दुर्मुखाभिख्यं शेषान्निक्षिप्य मस्तके । राज्यपढें बबन्धुस्ते बालस्य नरकुञ्जराः॥४९॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 पफ चिताया, 7 पफ युग्मम्,ज युगलमिदम्. 8 [शारीरेण]. 9 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९८. ५०क्रमेण यौवनं प्राप्य मुण्डीरस्वामिपत्तने । चकार दुर्मुखो राज्यं कण्टकैः परिवर्जितम् ॥ ५० ॥ पूर्वजन्मकृतेनायं धर्मेण पृथुसंपदम् । दुर्मुखं पाप तेनोचैर्धर्म कुरुत सज्जनाः ॥५१॥ नमिर्वैराग्यमासाद्य भूयोऽपि स्मृतदुःकृतः । गुरोर्वृषभसेनस्य समीपे मुनितामितः ॥५२॥ ग्रामादिकं परिभ्रम्य तदानीं गतियोगतः । कालप्रियं पुरं पाप नानाजनमनोरमम् ॥ ५३॥ 5 तत्र राजा महासेनः पुत्रहीनः कलालयः । बभूव तन्महादेवी विश्वसेना मनःप्रिया ॥ ५४॥ अत्रैव नगरे रम्ये पताकावलितोरणैः । गङ्गाभद्रो कुलालोऽस्य विमलाख्याऽभवत् प्रिया ॥ ५५ ॥ अनयोस्तनया जाता रूपयौवनगर्विता । विश्वदेवीति विख्याता कलाविज्ञानकोविदा ॥५६॥ आमपात्राणि शोषार्थ विधाय स्वगृहाजिरे । गतावन्यत्र' तौ तस्याः पितरौ कारणं प्रति ॥ ५७ ॥ तत्काले कालपानीयं धनाधनविसर्जितम् । बभूव विश्वदेवी च व्याकुला तत्सुता तदा ॥ ५८॥ " विश्वदेवीं समालोक्य विलापं कुर्वती तराम् । नमिः साधुर्बभाणेमां प्रविष्टश्चर्यया कुधीः ॥ ५९॥ यदि त्वं बालिके मुग्धे नरमिच्छसि सांप्रतम् । प्रवेशयामि ते गेहं भण्डकानि ततो वद ॥६॥ विश्वदेवी तदाकर्ण्य तद्वचो निजगाविदम् । अहं कुमारिका साधो तिष्ठाम्यद्यापि पावन ॥ ६१॥ किंतु मत्पितरौ साधो विद्येते क्वापि संगतौ । यदि मां प्रयच्छतस्तौ च ततो वाञ्छाम्यहं नरम् ॥२॥ अवाचि साधुना भूयो विश्वदेवी पुरःस्थिता । देवी नृपतिरस्कारकारिणी निजरूपतः ॥ ६३॥ 15 विद्याभिमत्रितं दण्डं गृहाणेमं मनस्विनि । स्पृशानेन खभाण्डानि गृहान्ते येन यान्त्यरम् ॥ ६४॥ आदाय तत्कराद्दण्डं तेन स्पृष्टानि तानि च।[...........................] ॥६५॥ तगृहान्तं प्रविष्टानि भण्डकानि विलोक्य तौ । तोषपूरितचेतस्कावभूतां दम्पती तदा ॥६६॥ ज्ञात्वा भाण्डकवृत्तान्तं विश्वदेवीनिवेदितम् । कुम्भकारो ददावस्मै हृष्टचेताः स्वकन्यकाम् ॥६७॥ कुम्भकारसुतां तत्र परिणीय नमिः पुनः । एकवर्ष तया सार्धं स्थितवान् प्रीतमानसः॥ ६८॥ 2. विधाय सुरतं हृद्यं नमिना सह सादरम् । संजाता गर्भिणी बाला विश्वदेवी मनोरमा ॥ ६९ ॥ एकस्मिन् दिवसे प्रोक्तो विश्वदेव्या नमिस्तदा । निरुत्साहतयाऽनेहाः कथं यास्यन्ति ते धव ॥७॥ विश्वदेवीवचः श्रुत्वा नमिना करपालिका । कृता मृत्स्वासमुत्पन्ना जनमानसहारिणी ॥ ७१ ॥ अथ गोविन्दनामाशु ब्रह्मचारी द्विजोत्तमः । नमिं प्राप्य परिश्रान्तो ययाचे करपालिकाम् ॥ ७२॥ विप्रस्य वचनं श्रुत्वा नमिर्विद्याभिमत्रितम् । अनयाऽवस्थया तस्मै प्रददौ करपालिकाम् ॥ ७३॥ 25 अद्यैकदिवसे नूनं यत्किंचिल्लभते द्विज । अस्यां सर्वं तदस्मभ्यं दातव्यं भवता सता ॥ ७४ ॥ नमिवाक्यं समाकर्ण्य गोविन्दो निजगावमुम् । अहो प्रजापते सत्यमेवमस्त्विति सज्जन ॥ ७५॥ नमिदत्तां समादाय गोविन्दः करपालिकाम् । भिक्षार्थ पत्तनं यातो नानाजनसमाकुलम् ॥ ७६ ॥ प्रविशन्तं समालोक्य पुरमध्यं द्विजं त्विमम् । सुरूपया महादेव्या विश्वसेनाऽभिधानया ॥ ७७॥ उपवासविधि सत्यामदृष्टस्त्रीसमाभिधम् । कुर्वाणया तमानेतुं निजविप्रः प्रवेशितः ॥ ७८॥ 30 दृष्ट्वाऽमुं पुरमध्यस्थं पुरस्कृत्य स माहनः । विश्वसेनमहादेवीसमीपं नीतवान्नरम् ॥ ७९ ॥ भोजनं षड्रसोपेतं यथेष्टविधिपूर्वकम् । प्रददौ विश्वसेनाऽस्मै विप्राय ब्रह्मचारिणे ॥ ८ ॥ ___ 1 पफ गतवान्यत्र. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 In all the Mss., the verse No. 71 is made up of three lines, i. e., निरुत्साहतया...to जनमानसहारिणी. It appears that perhaps the second line of No. 65 is missing. I have kept it blank and adjusted the other lines. 5 पफ सरूपया. 6 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९८. ११२] राजमुनिकथानकम् २४१ प्रद्मनागेन्द्रनीलादिमहारत्नकदम्बकैः । मूल्यहीनैर्महादेवी भृत्वा सा करवालिकाम् ॥ ८१॥ वसनेन समाच्छाद्य शशिशंखनिभेन ताम् । विश्वसेना ददावस्मै विप्राचार्याय भक्तितः ॥ ८२॥' श्रीखण्डेन समालब्धो नववस्त्रसमावृतः । गृहीतकरताम्बूलो निर्जगाम तदालयात् ॥ ८३॥ आगत्य तगृहं शीघ्रं गोविन्दः प्रीतमानसः । नमये रत्नसंपूर्णां ददौ तां करपालिकाम् ॥ ८४ ॥ नानारत्नभृतां तत्र समादाय स्वहस्ततः । विश्वदेव्यै प्रदायासौ जगादैतां नमिः पुनः॥ ८५॥ । तव भद्रे सुतो भावी द्वात्रिंशल्लक्षणान्वितः । जातमात्रस्त्वया नूनं मोक्तव्योऽयं श्मशानके ॥८६॥ पुत्रहीनेन भूपेन कालं प्राप्तेन सुन्दरि । राजहस्ती तमादाय तद्राज्ये स्थापयिष्यति ॥ ८७॥ एवमुक्त्वा प्रियां गेहे तद्वाक्यात् प्रीतमानसाम् । नमिर्मुदितचेतस्को मौनमादाय तस्थिवान् ॥८॥ विश्वदेवी ततः पुत्रं प्रसूता चारुलक्षणम् । आदाय तं श्मशाने च मुमोच नमिवाक्यतः ॥ ८९॥ अथ देवरती राजा तत्पुरे छत्रवर्जिते । कालगोचरतां प्राप्तो बालपुण्योदयादपि ॥ ९० ॥ ॥ । भूपमत्रिविमुक्तेन तदानीं राजहस्तिना । श्मशानात् पाणिनादाय स्वपृष्ठे स्थापितः शिशुः ॥९१॥ ततः सिंहासने मुक्त्वा बालं कुञ्जरनायकः । अभिषेकं चकारास्य भर्मकुम्भेन चारुणा ॥ ९२॥ राज्यपढें नृपा बवा कुमारस्य महत्तराः । पादारविन्दमानेमुर्मस्तकन्यस्तपाणयः ॥ ९३ ॥ क्रमेण वृद्धिमासाद्य तदा कालप्रिये पुरे । राज्यं कर्कटनामायं चकार पृथुधर्मतः ॥ ९४ ॥ विश्वदेवीमपहाय वैराग्याहितमानसः । नमिः स्वगुरुमासाद्य दीक्षितस्तदनुज्ञया ॥ ९५॥ भूयोऽपि विहरन् प्राप पुरिमोपपदं पुरम् । आपणारामसाणूरसौधवापीविराजितम् ॥ ९६ ॥ बभूव मरुदेशे च मूलस्थानं महापुरम् । सिंहसेनो नृपस्तस्य सिंहसेनाऽस्य कामिनी ॥ ९७॥ अनयो रूपसंपन्ना नीलोत्पलदलाम्बिका । कन्या वसन्तसेनाख्या तिष्ठत्यन्तःपुरान्तरे ॥ ९८॥ ततो नमिमुनिः प्राप्य मूलस्थानं पुरं परम् । यामद्वये च भिक्षार्थे प्रविष्टो राजमन्दिरम् ॥ ९९॥ ततः प्रविष्टमात्रः सन् कन्यां तां वीक्ष्य स चिरम् । परस्परं तयोर्बाढमनुरागो महानभूत् ॥१००॥ 20 दरवलं प्रविश्याशु नमिर्नक्तं दिने दिने । वसन्तसेनया साध कन्यया रमतेऽनिशम् ॥ १०१॥ नमिनाऽमात्र शं नक्तं भुजानाया निजेच्छया । गर्भो वसन्तसेनाया बभूव रतियोगतः ॥१०२॥ कन्यां वसन्तसेनाख्यां दृष्ट्वा धात्री सुमङ्गला । जगाद केन गर्भस्ते विहितः पुत्रि मे वद ॥१०३॥ धात्रीवचनमाकर्ण्य कन्या प्रोवाच तां पुनः । नक्तमेको मुनिः प्राप्तस्तेन गर्भः कृतो मम ॥१०४॥ भूयस्तां धात्रिका प्राह स्वकर्तव्यानताननाम् । यस्मिन् दिने मुनिःप्राप्तस्तदिनं वेत्सि बालिके॥१०५॥ भूयो धात्रीं सका प्राह मातनों वेभि तद्दिनम् । धान्योदिता पुनः कन्या शिक्षापणनिमित्ततः॥१०६॥ त्वत्समं रन्तुकामस्य मुनेरस्य नितम्बिनि । कर्तव्यो गच्छतः पृष्ठे त्वया कुङ्कुमहस्तकः ॥ १०७॥ आगतस्य पुनर्नक्तं कन्यया तस्य तत्कृतम् । ज्ञातोऽसौ तेन चिह्नन प्रभाते पुरि तन्नरैः ॥१०८॥ ततोऽसौ तन्नरैनीतः स्वगृहं भाषितः पुनः । सांप्रतं भगवन् शीघ्रं मा भोगं प्रशमं नय ॥१०९॥ ततस्तद्वाक्यतः साधुः कन्यया सह निर्भयः । आदित्यभवनं प्राप मूलस्थानसमुद्भवम् ॥ ११०॥॥ तद्गर्भे नमकिर्नाम पुत्रो भासुरविग्रहः । उत्पादितः पुनस्तूर्णमादित्येन प्रभावता ॥ १११॥ नमिरादित्यरूपेण तेजोव्याप्तनभोदिशा । एवं प्रसिद्धिमायातो लोके विस्मितमानसे ॥ ११२ ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 3 ज छत्रवर्जितः. 4 ज भूयोऽसौ. 5 पफ सन्नरैः. वृ० को० ३१ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ ९८. ११३ मुण्डितोपपदः स्वामी प्रभातेऽरुणविग्रहः । कालप्रियेऽपि मध्याह्ने मूलस्थाने दिनात्यये ॥ ११३ ॥ वसन्तसेनया सार्धं कामभोगं निजेच्छया । एवं कृतप्रयोगोऽयं नमिस्तिष्ठति तत्पुरे ॥ ११४ ॥ दुर्मुखेन सुतेनामा कर्कण्डेन विरागिणा । दधौ जैनेश्वरीं दीक्षां तथा नग्नकिना नमिः ॥ ११५ ॥ विहरन्तोऽपि चत्वारो जिनभक्तिपरायणाः । निगमं कुम्भकाराख्यं संप्राप्ता दिवसात्यये ॥ ११६ ॥ आपाके भूतिमध्ये च कुम्भकारगृहान्तिके । तस्थुरभ्रावकाशेन चत्वारोऽपि मुनीश्वराः ॥ ११७ ॥ कुलालोऽपि तमापाकं नक्तं मुनिसमन्वितम् । ददाह कुटभाण्डार्थं चित्रभानुसमाश्रयात् ॥ ११८ ॥ उपसर्गं सहित्वाऽमुं चत्वारोऽपि यतीश्वराः । आराधनां समाराध्य निर्वाणमगमंस्तराम् ॥ ११९॥ ॥ इति श्रीराजमुनिकथानकमिदम् ॥ ९८ ॥ 25 २४२ ९९. ऊर्वशीकथानकम् । 15 1. ब्रह्मणा देवपुत्रेण ब्रह्मलोके हि तिष्ठता । इदं हि चिन्तितं तेन जनतानन्दमिच्छता ॥ १ ॥ विष्णुलोके तथा स्वर्गे शक्रविष्णुमहेश्वराः । सभां देवद्विजाः सर्वे तूर्णमायान्ति सादराः ॥ २ ॥ मत्समीपं न कोऽप्येति भक्तिनिर्भरमानसः । अहमेकोऽत्र तिष्ठामि ब्रह्मलोके भयोज्झितः ॥ ३ ॥ चिन्तयित्वा चिरं ब्रह्मा स त्रिलोकदिदृक्षया । ब्रह्मलोकविरक्तात्मा मर्त्यलोकं समाययौ ॥ ४ ॥ * बुद्धा विष्णुमहादेव दुर्गायक्षादिभावितः । स तिष्ठते जनः सर्वस्तद्रूपाहृतमानसः ॥ ५ ॥ तदर्थं सितवर्णानि समुत्तुङ्गानि सर्वतः । साण्वराणि सगीतानि लोकः कारयति स्म सः ॥ ६ ॥ तत्संस्कारं समालोक्य कोपमासाद्य चेतसि । ब्रह्मशालां जगामाशु ब्रह्मलोकपराङ्मुखः ॥ ७ ॥ ब्रह्मरूपं समालोक्य तत्र पूजाविवर्जितम् । ब्रह्मा कोपपरीताक्षो दध्याविति स मानसे ॥ ८ ॥ मुखबाहूरुपादेभ्यो द्विजक्षत्रियवैश्यकाः । शूद्राश्चेति मया सृष्टास्तथाऽप्येते प्रमादिनः ॥ ९ ॥ कर्ता हर्ता स्वयंभूश्च प्रजापतिरहं क्षितौ । हिरण्योपपदो गर्भो लोकवित्तः पितामहः ॥ १० ॥ 20 तथाऽपि सर्वलोकेन परिभूतोऽस्मि सांप्रतम् । मच्छिष्या' माहना ये च तैर्दृष्टोऽहमवज्ञया ॥११॥ स्वपूजास्थानमिच्छन् स महारण्यं प्रविश्य च । तपः कर्तुं समारब्धः सामान्यनरदुः करम् ॥ १२ ॥ दिव्यार्धाष्टसहस्राणि वर्षाणामस्य वेधसः । गतानि वनविष्टस्य कुर्वाणस्य तपः परम् ॥ १३ ॥ पञ्चकालप्रमाणानि सन्त्यलं वेदवादिनाम् । मनुष्यादिप्रमाणं तु प्रथमं परिकीर्तितम् ॥ १४ ॥ ऋषिप्रमाणमुद्दिष्टं स्फुटं दिव्यप्रमाणकम् । कालप्रमाणमन्यच्च तथा ब्रह्मप्रमाणकम् ॥ १५ ॥ मनुष्यादिप्रमाणं तु प्रथमं प्रतिपाद्यते । त्रिंशन्मुहूर्तसंभूतमहोरात्रमिदं भवेत् ॥ १६ ॥ त्रिंशदिवस संभूतो मासो भवति निश्चितम् । एवं द्वादशभिर्मासैर्वर्षमेकं प्रजायते ॥ १७ ॥ मनुष्याणां हि यः शुक्लः पक्षो भवति सर्वदा । तत्पितॄणां दिनं चैकं निगदन्ति मनीषिणः ॥ १८ ॥ यस्तु कृष्णः पुनः पक्षः सैकरात्रिः प्रकीर्तिता । उभयं तद्गृहीत्वैकमहोरात्रमिदं भवेत् ॥ १९ ॥ एभिस्त्रिंशदहोरात्रैर्दिव्यो मासो भवत्ययम् । एवं द्वादशभिर्मासैर्दिव्यं वर्षं मतं बुधैः ॥ २० ॥ एतेन वर्षमानेन समाधष्टसहस्रकम् । अन्यैर्दुःखकरं कक्षे ब्रह्मणा विहितं तपः ॥ २१ ॥ एवंविधं तपः शक्त्या कुर्वाणस्य तपो विधिः । महावने महात्रासं कारणे महतामपि ॥ 30 २२ ॥ * 1 पफ निमिस्तिष्ठति 2 पफ चतुःकुलकम्, ज चतुःकुलकमिदम्. 3 ज तद्रूपहृत 4 [ साणूराणि ]. 5 [ ब्रह्मा ]. 6 पफ परीताख्यो. 7 पफ मच्छिक्षा. 8 [ विधेः ]. 9 पफ महात्रास • Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९९. ५५ ] ऊर्वशीकथानकम् २४३ २७ देवकोट्यस्त्रयस्त्रिंशद् भूतानामपि सत्वराः । अर्धाष्टकोटयो नूनं मार्तण्डा द्वादशापि च ॥ २३ ॥ एकादश तथा रुद्रा विष्णुरीशोऽपि च स्वयम् । मिलिता देवपुत्राश्च न पश्यन्ति विधिं क्वचित् ॥२४॥' अदृष्ट्वा वेधसं क्वापि महादेवो हरिं जगौ । विष्णो न दृश्यते ब्रह्मा मया सर्वत्र वीक्षितः ॥ २५ ॥ तद्वाक्यतो महादेवो विष्णुना गदितः पुनः । अन्वेषणा विधेरस्य क्रियते क्वापि शंकर ॥ २६ ॥ तदुक्तेन मृडेनापि स्वगणाः प्रेषिता द्रुतम् । गवेषणार्थमेतस्य ब्रह्मणोऽगुर्दिशो दश ॥ चतुर्दशसु ते तस्य भवनेषु गवेषणम् । चक्रुः संभ्रमणं युक्ता ददृशुस्तं न कुत्रचित् ॥ २८ ॥ भुवनेषु समस्तेषु वीक्षितोऽपि विधिः प्रभो । न दृष्टः कापि सोऽस्माभिः कथितं भवतः स्फुटम् ॥२९॥ विष्णुनाऽपि हरः प्रोक्तो यदीमं द्रष्टुमिच्छसि । तदन्तं भवसंक्षेपाद् वायुदेवं प्रवेशय ॥ ३० ॥ तदुक्तेन ततो देवैः सर्वैरपि ससंभ्रमैः । प्रेषितो वायुदेवोऽयं तदन्तं प्राप वेगतः ॥ ३१ ॥ अस्थिचर्मावशेषोऽयं तपः शोषितविग्रहः । पूर्वाशाभिमुखो धीरः समीरणकृताशनः ॥ ३२ ॥ " धरास्थितैकसत्पादो जानुस्थितपराङ्घ्रिकः । कृतोऽर्धबाहुयुगलो गणेत्रीकुण्डिकान्वितः ॥ ३३ ॥ घोरं तपः प्रकुर्वाणः पञ्चकूर्च भयंकरः । दृष्टो वायुकुमारेण विधिर्भीमवनस्थितः ॥ ३४ ॥ वायुदेवः समालोक्य वेधसं दूरतोऽपि सन् । परावृत्य ततो देशाज्जगाम च सुरान्तिकम् ॥ ३५ ॥ जगौ वायुकुमारोऽपि देवानेवं ससंभ्रमः । दृष्टो ब्रह्मा मया कक्षे कुर्वन्नुत्रं तपः परम् ॥ ३६ ॥ वातदेववचः श्रुत्वा महादेवो जगाद तान् । यथा नन्द्यादयो ब्रह्मा तपसो भज्यते द्रुतम् ॥३७॥ " अस्माकमुत्तमो यावज्जायते न मनागपि । जाते सत्युत्तमेऽमुष्मिन् का प्रभा परमा भवेत् ॥ ३८॥ स्थाणुवाक्यं समाकर्ण्य जगौ नन्दीश्वरोऽप्यमुम् । केनोपायेन नाशोऽस्य क्रियते तपसो विभो ॥ ३९ ॥ अत्रान्तरे हरिः प्राह तमेवं पुरतः स्थितम् । स्त्रीनिमित्तेन नाशोऽस्य क्रियते तपसो विधेः ॥ ४० ॥ एवं निगदिते तेन भूयः प्रोक्तोऽमरैरयम् । त्वं कथं परमं वेत्सि रहस्यं ब्रह्मणो विभो ॥ ४१ ॥ सर्वदेववचः श्रुत्वा जगौ विष्णुर्दिवौकसः । विवाहे शंकरस्यायं जातोऽत्र वरकारणात् ॥ श्रुत्वा विष्णूदितं तत्र महादेवो हरिं जगौ । इन्द्र त्वं क्षोभमेतस्य कुरु शीघ्रं मयोदितः ॥ निशम्य शंकरस्योक्तं शक्तो नर्तकपेटकम् | तिलोत्तमा वसन्ताभ्यां प्रजिघाय तदन्तिकम् ॥ ब्रह्मपार्श्वेऽलिझंकारहारिभिः पृथुपादपैः । फलपुष्पच्छदेोपेतैर्विजजृम्भे मधुस्तदा ॥ ४५ ॥ ततो नर्तितुमारब्धा तत्पुरः सा तिलोत्तमा । स्थिता पुरन्दराशायां हावभावादिसंयुता ॥ ४६ ॥ दृष्ट्वा स्वपुरतो वेधा नृत्यन्तीं तां तिलोत्तमाम् । ध्यानाद् भृशं परिप्राप्य ददर्शानिमिषेक्षणः ॥४७॥ " ततोऽन्यदिवसे जाते दक्षिणस्यां दिशि स्थिता । तत्पुरो नर्तनं चक्रे सविलासं तिलोत्तमा ॥४८॥ ब्रह्मा विलोक्य तां देवीं नृत्यन्तीं स्वपुरः स्थिताम् । दध्यौ विस्मितचेतस्कः कामाकुलितमानसः ॥४९॥ मुखं पराङ्मुखं कृत्वा चेत् पश्यामि सुरस्त्रियम् । ततो नभस्स्थदेवानामुपहास्यो भवाम्यहम् ॥५०॥ यदि मे तपसः किंचिन्माहात्म्यं विद्यते भुवि । ततो दक्षिणदिग्भागे द्वितीयं मुखमस्त्वरम् ॥५१॥ ततश्चिन्तितमात्रेण द्वितीयं वदनं विधेः । बभूव तत्समालोक्य स्थितो विस्फारितेक्षणः ॥ ५२ ॥ " यावद्विलोक्यते ब्रह्मा द्वितीयेन मुखेन ताम् । तावन्नृत्यमिदं नष्टं पश्चिमस्यां दिशि स्थितम् ॥ ५३ ॥ पूर्वोक्तविधिना तस्य मन्मथाकुलचेतसः । तिलोत्तमामुखेक्षार्थं तृतीयमभवन्मुखम् ॥ ५४ ॥ यावत् पश्यति तन्नृत्यं तृतीयवदनेन सः । अपरस्मिन् दिने तावदुत्तरस्यां दिशि स्थितम् ॥ ५५ ॥ ४२ ॥ ̈ ४३ ॥ ४४ ॥ 6 1 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 2 पफ चर्मविशेषोयं. 8 [ कृतोर्ध्वबाहु ]. 4 पफ चतुःकुलकम्, ज चतुष्कुल कमिदम् 5 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 6 पफ बेक्षणा. 5 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [९९.५६पूर्वोक्तविधिना नूनं ब्रह्मणस्तपसः फलात् । तिलोत्तमा मुखेक्षार्थ चतुर्थमभवन्मुखम् ॥५६॥ ततोऽन्यस्मिन् दिने जाते मस्तकोपरि तस्य च । तथा बभूव तन्नृत्यं तन्मनोहरणक्षमम् ॥ ५७॥ दशवर्षशतार्धस्य फलेन तपसः स्फुटम् । ब्रह्मणो मस्तकं जातं पञ्चमं गार्दभं शिरः ॥ ५८॥ दृष्ट्वोपरि प्रनृत्यन्तीं ब्रह्मणा तां तिलोत्तमाम् । ध्यातं मम तपो नष्टं समस्तं धरणीतले ॥ ५९॥ नर्तकी मां विहायैषा धूर्ती यावन्न गच्छति । मन्मस्तकस्थितं पादं तावद् गृह्णाम्यतो द्रुतम् ॥६०॥ चतुर्मुखो विचिन्त्यैवं तत्पादग्रहशक्तधीः । ऊर्ध्वं प्रसारयामास निजं दीर्घभुजद्वयम् ॥ ६१ ॥ तेन प्रसारितेऽमुष्मिन् ब्रह्माभिप्रायमञ्जसा । ज्ञात्वा सर्वाणि नष्टानि शक्रदेवीयुतान्यतः ॥ ६२ ॥ नष्टेषु तेषु सर्वेषु शिरसा पञ्चमेन च । पूत्कृतं तारशब्देन व गता हा तिलोत्तमे ॥ ६३॥ तिलोत्तमाऽपि संप्राप्य नाकं वेगेन तोषतः । महादेवादिदेवानां तपोभङ्गं जगौ विधेः ॥ ६४ ॥ * ततस्तिलोत्तमामिन्द्रः प्रोवाच पुरतः स्थिताम् । भद्रे त्वं ब्राह्मणा' सार्धं गृहधर्म प्रपालय ॥६५॥ तिलोत्तमामहादेव्या रूपलावण्ययुक्तया । पति भिमतो ब्रह्मा हावभावसमेतया ॥६६॥ ततः समस्तदेवोधैरुर्वशी ब्रह्मणोऽन्तिके । प्रेक्षतास्य च संजाता गृहवार्ताऽनया सह ॥ ६७ ॥ ततोऽस्य ब्रह्मणः सौख्यं भुञ्जानस्य निजेच्छया। उर्वश्या सह संजातो वसिष्ठो नाम नन्दनः ॥६॥ उर्वशी वेधसः कान्ता पण्यस्त्री प्राणवल्लभा । वसिष्ठस्तत्सुतो वित्तो वेदद्विजहितस्तराम् ॥ ६९ ॥ तथा चोक्तम्उर्वशी ब्रह्मणो भार्या वेश्या विख्यातसुन्दरी । तस्याः पुत्रो वसिष्ठाख्यो देवविप्रगणे हितः ॥ ७० ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मोर्वशीमेलापककथानकम् ॥ ९९ ॥ १००. धन्यमित्रादिकथानकम् । 20 दशान्याख्यजनान्तेऽस्ति सितसौधापणान्विते । एकरथ्याभिधं चारु पुरं सुरपुरोपमम् ॥१॥ तत्पुरे धनदत्तेभ्यो बभूव धनवारिधिः । तत्प्रिया धनदत्ताख्या तत्पुत्रौ धन्यमित्रकौ ॥२॥ अनयोरपरा पुत्री धनमित्रा धनप्रिया । रूपराजितसर्वाङ्गी पीनोन्नतघनस्तनी ॥३॥ अन्यदा निर्धनौ भूत्वा तदा तौ द्वावपि द्रुतम् । मातुलाध्यासितां यातौ कौशाम्बी धनमित्रकौ ॥४॥ मातुलेन ततस्ताभ्यां विश्रब्धाभ्यां महाप्रभाः । अष्टौ मणीश्वरा दत्ता बहुपुण्यसमन्विताः ॥५॥ 28 आगच्छतोस्तयोर्मार्गे विचित्रमणिहस्तयोः। अन्योन्यमारणासक्तिरभवद् धन्यमित्रयोः ॥६॥ परस्परं समालोच्य स्वभावं भ्रातरौ तकौ । हित्वा वेत्रवतीतोये तान्मणीनागतौ गृहम् ॥ ७॥ तदानीं मणयस्तेऽपि मुक्तमात्रा धुनीजले । गिलिता रोहिताख्येन महामीनेन वेगतः ॥ ८॥ काकतालीययोगेन तन्मीनं जालयोगतः । बवा निनाय विक्रेतुं धीवरो विशिखान्तरम् ॥ ९॥ तन्माता बहुमूल्येन गृहीत्वा तं झपं द्रुतम् । आनिनाय तकं गेहं सुतप्राघूर्णकेच्छया ॥१०॥ ॥ तन्मीनपाटतस्ते च मणयो भुवमागताः । तजनन्या द्रुतं दिव्या गृहीतास्तोषयुक्तया ॥११॥ आदाय तान् मणीन् दिव्यान् पुत्रपुत्रीषु तत्क्षणे । बभूव मारणे बुद्धिस्तन्मातुर्धनतृष्णया ॥१२॥ पश्चात्तापं विधायाशु तया ते मणयस्तदा । अनर्घमूल्यसंयुक्ताः खसुतायाः समर्पिताः॥१३॥ [प्रेषिताऽस्य]. 4 [बहुपण्य]. 5 पफ 1 पफ त्रिकला, ज त्रिकलमिदम्. 2 [ब्रह्मणा]. "भवद्धनमित्रयोः. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०२. १०] जिनदत्तकथानकम् सताऽपि तान् मणीन् प्राप्य मातरं भ्रातरौ तथा । निहन्मीति मतिं चक्रे लोभतः किं न जायते॥१४॥ तयाऽप्यनुशयं प्राप्य तदा ते मणयोऽमलाः । भ्रात्रोः समर्पिताः प्रीत्या तद्वेषस्थितचित्तया ॥१५॥ विलोक्य तान् मणीन् पूर्वान् मुक्तान्यांस्तद्धनीहदे । महावैराग्यसंपन्नावभूतां भ्रातराविमौ ॥१६॥ परस्परं समालोच्य तद्वृत्तान्तमशेषतः । चत्वारोऽपि तके भक्त्या जिनाय ददिरे मणीन् ॥ १७ ॥ हित्वा परिग्रहं सर्व धनमित्रादयस्तदा । मुदा दमवराभ्याश जिनभक्ताः प्रवव्रजुः॥१८॥ ... ॥ इति 'श्रीधन मित्राख्यभ्रातृदयकथानकम् ॥ १०॥ १०१. सागरदत्तकथानकम् । अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । विषये वत्सकावत्यां कौशाम्ब्याख्याऽभवत् पुरी ॥१॥ धनमित्रोऽपरो धन्यो धनदत्तो धनप्रियः। यशोधरादयः पौरा वसन्त्यस्यां परिस्फुटम् ॥२॥ अन्यदा भाण्डमादाय द्वात्रिंशद् वाणिजाः पुरः । धनमित्रादयः सर्वे वणिज्यायै प्रतस्थिरे ॥३॥ कृतकोलाहलवानैश्चापोन्मुक्तशरबजैः । गृहीता दस्युभिः सर्वे वैश्या राजगृहान्तरे ॥४॥ एकैकशो विषं क्षिप्त्वा मद्ये मांसे च भोजने । विषमिश्रितमाहारं भुक्त्वा ते दस्यवो मृताः ॥५॥ अथ सागरदत्ताख्यस्तन्मध्ये वाणिजो महान् । अपरं न मृति प्राप्तो रात्रिभोजनवर्जनात् ॥६॥ दृष्ट्वा वणिग्जनान् सर्वान् स चौरान् मृतिमागतान् । महावैराग्यसंपन्नो बभूवायं महामनाः॥७॥ ततः सागरदत्तोऽयं विहाय सकलं धनम् । मुदा सागरसेनान्ते तपो जैनमशिश्रयत् ॥ ८॥5 ॥ इति श्रीद्वात्रिंशद्वणिग्जनचौरलुण्टनपरस्परविषाहारभक्षण समस्तमरणसागरदत्ततपोग्रहणकथानकम् ॥ १०१॥ * १०२. जिनदत्तकथानकम् । मणिचन्द्राभिधानेऽस्ति देशे मणिमती पुरी । अस्यां मणिपती राजा तत्प्रिया पृथिवी परा ॥१॥ मणिचन्द्रोऽनयोः पुत्रो बभूवोन्नतशासनः । प्रतापसाधितारातिर्गुणरञ्जितभूतलः ॥ २॥ अन्यदा भूपतिर्दृष्ट्वा पलितं स्वशिरः स्थितम् । वैराग्यमगमत् सद्यो महादेवीकरार्पितम् ॥३॥ मणिचन्द्राभिधानस्य पुत्रस्य जितवैरिणः । राज्यपढें बबन्धाशु तत्पिता वसुधां प्रति ॥४॥ अवधिज्ञानयुक्तस्य स्थितस्य प्रासुके वने । महादमवरस्यान्ते गुरोराचारवेदिनः॥५॥ अन्तःपुरेण सर्वेण सामन्तैर्बहुभिः सह । दीक्षां मणिपती राजा जग्राह जिनदेशिताम् ॥ ६॥ ततः कृतार्थतां प्राप्य कृतान्ताभ्याशयोगतः । पुरीमुज्जयिनीं प्राप्य चैकाकी स मुनिःक्रमात् ॥७॥ महाकालवरोधाने श्रीमदुजयिनीभवे । सह प्रतिमया रात्री संतस्थे स मुनिर्मुदा ॥८॥ अथ कापालिको विद्यां वेतालाख्यां श्मशानकम् । सितेतरचतुर्दश्यामाराधयितुमागतः ॥९॥ अन्वेषयन् मुदा भ्राम्यंस्तद्वने मृतकत्रयम् । ददर्शाशु मुनिं सुप्तं मृतकप्रतिमास्थितम् ॥ १०॥ 1 [धन्य ]. 2 [श्रीधन्यमित्राख्य' ]. 3 पफ द्वणिजाः. 5 [प्राप]. 6 ज ददर्शासौ, 4 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०२. ११दृष्ट्वा तं निश्चलं तत्र प्रादाय' मृतकद्वयम् । तत्समं चुल्लिकां चक्रे नक्तं कापालिको मुदा ॥११॥ तत्कपालेऽग्निना तप्ते सिद्धिं याति चरौ सति । तदा प्रदाहसंयोगात् साधुना चालितं शिरः ॥१२॥ तन्मस्तके चले क्षिप्रं भयवेपितविग्रहः । अर्धसिद्धं चरुं हित्वा नष्टः कापालिकस्ततः ॥ १३॥ तद्दाह्मवेदनाग्रस्तसमाधानपरायणः । स साधुस्तद्वनान्तस्थः स्थितो मृतकशय्यया ॥१४॥ । प्रभातसमये जाते रविणा निर्मलीकृते । अर्धदग्धो मुनिर्दृष्टो नरेणैकेन साधुना ॥१५॥ अर्धदग्धं मुनिं दृष्ट्वा स नरः कृपयाधीः । विवेश नगरं तूर्णं पताकावलिशोभितम् ॥ १६ ॥ तत्पुरे जिनदत्ताख्यो धनवान् श्रेष्ठितामितः । तद्भार्या धनदत्तासीत् तत्पुत्रो धनदत्तकः ॥ १७ ॥ द्यूतं पानं तथा वेश्या कुत्सिता परदारकम् । हिंसाऽदत्तं पुनर्मांसभक्षणं व्यसनं त्विदम् ॥१८॥ अमीभिः सप्तभिर्मेस्तो व्यसनैः साधुनिन्दितैः । तत्सुतो निन्दिताचारो विद्वज्जनकदम्बकैः ॥१९॥ "तगृहं स परिप्राप्य जिनदत्तं जगावसौ । अग्निदग्धं श्मशानान्ते साधुरेको वितिष्ठते ॥ २०॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी श्मशानं प्राप्य वेगतः । आदाय तं मुनि तस्मात् स्वगृहं नीतवानसौ ॥२१॥ तगृहं प्राप्य वेगेन जिनदत्तोऽतिदुःखितः । वैद्यं श्रीदत्तनामानं पप्रच्छेदं ससंभ्रमः ॥ २२ ॥ साधुरेकोऽग्निना दग्धो मद्गृहे व्यवतिष्ठते । केनोपायेन तदेहः शोभनो जायते वद ॥ २३ ॥ जिनदत्तवचः श्रुत्वा श्रीदत्तो निजगावमुम् । सोमशर्मगृहे तैलं लक्षपाकाख्यमस्ति वै ॥ २४ ॥ 15 लक्षपाकेन तेनेदं शरीरं तस्य योगिनः। शोभनं जायते साधो तत्तैलाभ्यङ्गमात्रतः ॥ २५॥" श्रीदत्तवाक्यमाकर्ण्य जिनदत्तस्त्वरान्वितः । सोमशर्मगृहं प्राप मणिकुट्टिमभूतलम् ॥ २६ ॥ दृष्ट्वा चुंकारिकाभिख्यां योषितं तगृहे पुनः । सुखासनस्थितां प्राह तत्प्रदत्तासमस्थितः ॥ २७॥ लक्षपाकाभिधं तैलं विद्यते तव मन्दिरे । अस्मभ्यं देहि तद्भद्रे तेन सुष्ठु प्रयोजनम् ॥ २८ ॥' जिनदत्तवचः श्रुत्वा जगौ चुंकारिकाऽपि तम् । प्राप्य वेश्मान्तरं श्रेष्ठिन् गृहाणैकं हि तत्कुटम् ॥२९॥ ॥ तद्वाक्यतः पुनः श्रेष्ठी गत्वा तद्वसुधान्तरम् । जग्राह कुटमेकं स तत्तैलपरिपूरितम् ॥ ३०॥ आगच्छतोऽस्य वेगेन मणिकुट्टिमभूतले । कराग्रात् स पतन्नाशु संप्राप शतखण्डताम् ॥ ३१ ॥ जिनदत्तः पुनः प्राप्य तां जगाद भयान्वितः । एकस्तैलघटो भग्नो मत्करात् पतितो भुवि ॥३२॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य विहस्योवाच तं सका । द्वितीयं घटमादाय गच्छ त्वं निजमन्दिरम् ॥३३॥ तगृहाभ्यन्तरं प्राप्य जिनदत्तस्तदुक्तितः । यावद् गृह्णाति हस्तेन सोऽपि भग्नोऽमुतः पतत् ॥३४॥ 25 ततो भूयोऽपि तां प्राप्य सभयोऽसौ जगावमूम् । द्वितीयोऽपि घटो भग्नः पतितो मत्कराद् भुवि ॥३५॥ निशम्य भारतीमस्य बभाणैषा वणिक्पतिम् । अन्यं तैलघटं भद्र गृहाण त्वं भयोज्झितः ॥ ३६॥ तद्वाक्येन परिप्राप्य तद्वेश्मान्तरमादरात् । तृतीयोऽपि घटो भग्नो गृह्णतः पाणिना द्रुतम् ॥३७॥ श्रेष्ठिवाक्यं समाकर्ण्य ब्राह्मणी विकसन्मुखी । जिनदत्तं जगादेति म्लानवक्रसरोरुहम् ॥ ३८॥ विश्रब्धतां परिप्राप्य भयवर्जितमानसः । गृहाणान्यं कुटं भद्र घटलक्षान्तरस्थितम् ॥ ३९॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी दध्यौ विस्मितमानसः । ब्राह्मणीयं महासत्त्वा क्षान्तिभूषितविग्रहा ॥४०॥ आस्तां तावदिदं नूनं पक्कतैलस्य कारणम् । एतामहं प्रपृच्छामि महाक्षान्तिप्रयोजनम् ॥४१॥ चिन्तयित्वा चिरं श्रेष्ठी जगावेतां पुरःस्थिताम् । कुतः कोपं न यासि त्वं घटतैले क्षयं गते ॥४२॥ 1 पफ प्रदाय. 2 पफ नष्टकापालिक. 3 पफ तन्मुनिं. 4 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 6 [°सनस्थितः] 7 पफ युग्मम् ,ज युगलमिदम्.. 8 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 9 पफ त्रिकला, जत्रिकलमिदम्, 5 पफ यम्मम., ज युगलमिदम. 6 [ सनस्थितः Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०२. ७५] जिनदत्तकथानकम् २४७ जिनदत्तवचः श्रुत्वा बभाणेमं सकौतुकम् । तोषपूरितचेतस्का वरमाश्चर्यमीयुषा ॥४३॥ नानादुःखं मया प्राप्तं कोपेन विहितेन भोः । यावज्जीवमतोऽमुष्य गृहीतं व्रतमुत्तमम् ॥४४॥ कारणेनामुना भद्र सज्जनानन्ददायका । यशोव्याप्तसमस्ताशा न रुष्टाऽहं तवोपरि ॥४५॥ यथा श्रावक संप्राप्तं मया दुःखं सुदारुणम् । क्रुधा संपन्नया लोके कथयामि तथा शृणु ॥ ४६॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे मेढ़ाख्यो' विषयो महान् । आनन्दनगरं रम्यं शिवशर्मा द्विजोऽभवत् ॥४७॥ कमलश्रीः प्रिया तस्य वेदवेदाङ्गशालिनः । अष्टौ पुत्रास्तयोर्जाताः शिवभूत्यादयोऽनघाः ॥४८॥ तन्मध्ये नवमी जाता तनयाऽहं प्रियंवदा । भट्टाख्या रूपसंपन्ना समस्तजनवल्लभा ॥४९॥ समस्तशास्त्रनिष्णाता कलाविज्ञानकोविदा । तत्पत्तनजनवातमहानन्दविधायिनी ॥ ५० ॥ समस्तनगरस्यान्तः पित्रा तेन प्रदापिता । घोषणेयं नृपादेशात् समस्तजनसाक्षिका ॥ ५१ ॥ मत्सुतां वक्ति यो लोकः पुरे चुंकारिकामिति । धनापहार एतस्य क्रियते निर्विकल्पकम् ॥ ५२ ॥ ॥ कोऽपि तत्पत्तने लोकस्तद्भयेन वणिक्पते । न मां चुंकारिकां वक्ति जिनदत्त जिनप्रिय ॥ ५३॥ अतो लोकेन मन्नाम द्वितीयं विहितं बुधैः । अचुंकारिकभट्टेति प्रसिद्धं जनविश्रुतम् ॥ ५४॥ अनयाऽवस्थया भद्र कुमारी सोमशर्मणा । परिणीता द्विजेनाहं रूपलावण्यसंयुता ॥ ५५ ॥ चुंकारिकामिमां नूनं न जल्पामि महामते । परिणीयामुना नीता श्रीमदुज्जयिनीमिमाम् ॥ ५६ ॥ ततोऽहं स्वगृहे भद्र तिष्ठामि प्रमदान्विता । ब्राह्मणोऽपि न मां जातु वक्ति चुंकारिकाभिधाम् ॥५७॥ 15 अन्यदा विप्रशालायां समस्तपुरमाहनैः । प्रेक्षा दत्ता भृकुंशाय गीतनृत्यविलासिने ॥ ५८॥ तत्र मद्राह्मणो भद्र नटं द्रष्टुं समागतः । नक्तं स्वमन्दिरे कान्तो नागच्छति चिरादपि ॥ ५९॥ तावदीर्ध्याभराकान्ता रोषपूरितमानसा । कपाटयुगलं दत्त्वा तिष्ठामि शयनस्थिता ॥ ६०॥ हावभावविलासज्ञं विभ्रमेणान्वितं नटम् । दृष्ट्वा भट्टोऽपि संप्राप्तः स्वगृहं निजलीलया ॥६१ ॥ ताडयन् खकराङ्गुल्या कपाटद्वयमादरात् । गृह्णन् मन्नाम सोऽत्यर्थं तिष्ठति द्वारमाश्रितः ॥ ६२ ॥ ॥ महारुषं समासाद्य तन्नादं शृण्वती स्थिता । तावन्मधुरया वाचा वक्ति मां स पुनः पुनः ॥ ६३॥ हले माहनि मानाहे महादेवि मनःप्रिये । द्वारमुद्धाटय क्षिप्रं त्वद्गुणानां स्मराम्यहम् ॥ ६४ ॥ श्रुत्वाऽस्य निनदं श्रेष्ठिन् वारत्रयसमीरितम् । भूयो मया परिध्यातं कोपारुणितनेत्रया ॥६५॥ शिक्षापणं करोम्यद्य धवस्यास्य विचेतसः । न याति येन मां हित्वा नक्तमन्यत्र जात्वरम् ॥६६॥ चिन्तयन्ती चिरं यावत् तिष्ठामि शयनस्थिता । तावद्भटेन भूयोऽपि तारनादेन जल्पितम् ॥ ६७ ॥ 25 अपि चुंकारिके मूढे मत्तमातङ्गगामिनि । उद्घाटयसि किं नेदं द्वारं रमणि दुर्जने ॥ ६८॥ जिनदत्त मया भूयश्चिन्तितं तदुरुक्तितः । निकारोऽनेन विप्रेण विहितो मम नाल्पकः ॥ ६९ ॥ न कार्यमधुनानेन विप्रेण द्वेषकारिणा । तद्गृहेणापि संचिन्त्य शय्यातोऽहं समुत्थिता ॥ ७० ॥ समुत्थायामुतः शीघ्रं द्वारं कृत्वा निरर्गलम् । निःसृता तगृहान्नक्तं दिव्यरूपविभूषिता ॥ ७१॥ . द्वारं पिधाय विप्रोऽपि क्रोधारुणनिरीक्षणः । शय्यातलगतः कान्तः सुष्वाप वणिजां पते ॥ ७२ ॥ ॥ नानातरुसमाकीर्णमशोकवनमागता । चौरैस्तत्र गृहीताऽहं 'महाभरणहारिभिः ॥७३॥ ततः स्वपलिकां नीत्वा स्वनाथाय कृतस्वना । मकां विनयसेनाय दत्तवन्तो मलिम्लुचाः ॥ ७४ ॥ तेनापि तोषपूर्णेन गृहीताऽस्मि वणिक्पते । ममैषा गणिका नूनं पट्टबन्धा भविष्यति ॥ ७५ ॥ 1 ज मोढाख्यो. 2ज महामुने. 3 पफ भरकान्ता. 4 [ मदाभरण]. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०२. ७६ एवं संचिन्त्य तुष्टेन कस्मिन्नपि दिने सति । मम प्रकर्तुमेतेन प्रारब्धं शीलखण्डनम् ॥ ७६ ॥ ततो देवतया शीघ्रं स्तम्भितोऽयं सुदुष्टधीः । विधाय महतीं पूजां क्षमयित्वा मुमोच माम् ॥ ७७ ॥ अथ पलिं प्रविष्टस्य सार्थवाहस्य तोषतः । दत्ता धनेन तेनाहं महता भयवेपिना ॥ ७८ ॥ तेनापि मम मूढेन विधातुं शीलखण्डनम् । प्रारब्धं च विमुक्ताऽहं स्तम्भितेनानया भयात् ॥ ७९ ॥ तेनापि भयभीतेन धनेन महता पुनः । दत्ताऽहं पारसीकस्य सच्चित्तस्य' कुटुम्बिनः ॥ ८० ॥ षण्मासं पोषणं कृत्वा सृष्टाशनविधानतः । कुटम्बी सोऽपि यत्नेन मम दुःखितचेतसः ॥ ८१ ॥ तरां गृह्णाति कीलालं जलूकाभिः प्रचण्डधीः । कृते हि कृमिरागस्य कम्बलान्तस्य सादरम् ॥ ८२ ॥ अत्रान्तरे मम भ्राता द्रोणदेवाभिधानकः । जगाम पारसीकान्तं स्वनाथादेशतो ध्रुवम् ॥ ८३ ॥ दूतकार्यं विधायात्र सिद्धमेतेन गच्छता । तिष्ठन्ती पुरमध्येऽहं जिनदत्त विलोकिता ॥ ८४ ॥ 10 पारसीकप्रभुं दृष्ट्वा विधाय मम मोचनन् । अनेनोज्जयिनीं श्रेष्ठिन्नानीय प्रेमकारिणा ॥ ८५ ॥ भूयः समर्पिता तेन द्रोणदेवेन सादरम् । तुष्टस्य निजकान्तस्य विधिना सोमशर्मणः ॥ ८६ ॥ जलूकाभिर्यतो रक्तमाकृष्टं मत्तनोरिदम् । ततः प्रभृति वातेन गृहीतं मे शरीरकम् ॥ ८७ ॥ मच्छरीरं समालोक्य वातग्रस्तं प्रयत्नतः । पृष्टो वैद्योऽमुना श्रेष्ठिन्नौषधं सोमशर्मणा ॥ ८८ ॥ सोमशर्माप्रयुक्तेन वैद्येन प्रीतिकारिणा । लक्षपाकमिदं तैलं कथितं वातहानये ॥ ८९ ॥ " कार्तस्वरसमा दीप्ता चारुरूपसमन्विता । जिनदत्त ममानेन तैलेन विहिता तनुः ॥ ९० ॥ सम्यक्त्वादि समादाय जिनधर्मं गुरौः पुनः । इदं व्रतं मया साधो गृहीतं जिनभक्तितः ॥ ९१ ॥ यथा मयाऽपि न कस्य निकारे विहिते गुरौ । रोषो भुवि विधातव्यः स हि दुःखकरो नृणाम् ॥९२॥ जिनदत्त त्वया पृष्टा नितान्तं क्षान्तिकारणम् । यथापृष्टं मया सर्वं भवतः प्रतिपादितम् ॥ ९३ ॥ यावन्मात्रेण तैलेन विद्यते ते प्रयोजनम् । तावन्मात्रं गृहीत्वेदं वैयावृत्यं मुनेः कुरु ॥ ९४ ॥ 20 एवं निगद्य हृष्टात्मा तदा चुंकारिकाऽपि तम् । जिनभक्तिसमायुक्ता योषमास्त्र' स्वमङ्गलम् ॥९५॥ * श्रुत्वा चुंकारिकावाक्यं जिनभक्तिपरायणम् । प्रशंसनं विधायास्या वचोभिः प्रेमसंगतैः ॥ ९६ ॥ तत्तैलघटमेकं हि प्रदाय प्रीतमानसः । निजगेहं ययौ शीघ्रं जिनदत्तो जनप्रियः ॥ ९७ ॥ शरीरमिदमेतस्य मुनेस्तत्तैलयोगतः । जिनदत्तप्रयत्नेन बभूव कनकच्छविः ॥ ९८ ॥ जिनदत्तगृहाभ्याशे तत्कारितजिनालये । जग्राह स मुनिर्धीरश्चतुर्मासीं यथागमम् ॥ ९९ ॥ 25 अथ ताम्रमयं कुम्भं मणिरत्नादिसंभृतम् । तत्साधुमस्तकस्थाने जिनदत्तो निखातवान् ॥ १०० ॥ रत्नकुम्भं समालोक्य निखातं जनकेन तम् । कुबेरोपपदो दत्तस्तत्पुत्रो व्यसनान्वितः ॥ १०१ ॥ ततस्तं कुटमादाय लाभहृष्टतनूरुहः । निखातवानयं तूर्णं पश्यतोऽन्यत्र योगिनः ॥ १०२ ॥ * तान स्थापितं दृष्ट्वा गृहीतं तत्सुतेन च । साधुस्तस्थावुदासीनः तत्त्वार्थध्यानचिन्तकः ॥ १०३ ॥ राद्धान्तं पठतो भक्त्या तपः साधु प्रकुर्वतः । चातुर्मासिकयोगोऽस्य समाप्तिं प्रययौ मुनेः ॥ १०४ ॥ चातुर्मासिकयोगान्ते जिनदत्तान्तिकं तदा । आपृच्छ्य भाषयित्वा च निर्ययौ स मुनिः पुरात् ॥ १०५ ॥ श्रीमदुज्जयिनीतोऽयं निर्गत्य स्तोकमन्तरम् । स्वाध्यायव्याजतस्तस्थौ तत्प्रतीक्षणकारणात् ॥१०६ ॥ जिनदत्तो धनं तच्च तत्रत्यकुट संगतम् | अदृष्ट्वा चिन्तयामास विस्मयव्याप्तमानसः ॥ १०७ ॥ इमं रत्नमयं कुम्भं वेद्म्यहं मुनिरप्यसौ । तृतीयः कोऽपि नो वेत्ति गृहीतं साधुना धनम् ॥ १०८ ॥ 30 1 ज सचित्तस्य, [ सवित्तस्य ] 2 [ जोषमास्त ]. 3 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 4 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०२*२. ५ ] कपिलाब्राह्मणीकथानकम् २४९ एवं विचिन्त्य मूढात्मा जिनदत्तस्तदन्तिकम् । संप्राप्तस्तत्क्षणेनायं धनविह्वलमानसः ॥ १०९ ॥ विलोक्य तं मुनिं नत्वा हृदयस्थ महाधनः । जगादेति वचः श्रेष्ठी मायया तत्पुरः स्थितः ॥ ११० ॥ यावन्मुनिपदाम्भोजं न दृष्टं सुरपूजितम् । तावन्न भोजनं नूनं विदधामि मनागपि ॥ १११ ॥ एवमुक्त्वा सुतेनाहं भार्ययाऽपि त्वदन्तिकम् । प्रेषितो जिनभक्तया च भक्तिनिर्भरचेतसा ॥ ११२ ॥ * जिनदत्तोदितं श्रुत्वा ज्ञाततत्कुटिलाशयः । जगाम तगृहं हृष्टो मन्दमन्दगतिक्रियः ॥ ११३ ॥ ' कुर्वन् जिनस्तुतिं भक्त्या खाध्यायं पञ्चभेदकम् । तचैत्यमन्दिरे तस्थौ पञ्चषाणि दिनानि सः ॥ ११४॥ अन्येद्युर्जनदत्ता॒ऽयं सन्ध्याऽनेहसि सत्वरम् । समं कुबेरदत्तेन जगाम मुनिसंनिधिम् ॥ ११५ ॥ मुः श्रेष्ठ तो भार्या तदा कृतजिनस्तुतिः । संभाषणादिकं कृत्वा सर्वे तस्थुर्यथासनम् ॥ ११६॥ अत्रान्तरे मुनिं प्राह जिनदत्तस्त्वरान्वितः । कथानकं यथा ब्रूहि महापुरुषसेवितम् ॥ ११७ ॥ जिनदत्तवचः श्रुत्वा जगौ साधुरिमं पुनः । त्वमेव प्रथमं ब्रूहि कुशलो धर्मसंकथाम् ॥ ११८ ॥ " साधुवाक्यं समाकर्ण्य जिनदत्तो जगावमुम् । ममोपरि दयां कृत्वा शृणु त्वं मत्कथानकम् ॥ ११९॥ वराटविषये साधो पद्मादिनगरं परम् । वसुपालो नृपस्तत्र बभूवोन्नतशासनः ॥ १२० ॥ कोशलाधिपते राज्ञो जितशत्रोर्नरेशिना । वसुपालेन कार्यार्थं दूतः संप्रेषितो द्रुतम् ॥ १२१ ॥ पद्मावत्यटवीमध्ये क्षुधापम्पाकदर्थितः । तरुमूलस्थितो दूतः प्राप मूर्च्छा शिलोपमः ॥ १२२ मूर्च्छागतं समालोक्य तं नरं वानरो वने । स्वशरीरं जले क्षिप्त्वा संप्राप्तैतत्समीपताम् ॥१२३॥ धूनयित्वा निजं देहं दूतोपरि स वानरः । पश्चात् प्रवीजनं चक्रे सजलैस्तरुपल्लवैः ॥ १२४ ॥ ततः स चेतनां प्राप्य दूतो भूमेः समुत्थितः । नीतो महाहृदं तेन वानरेण कृपावता ॥ १२५ ॥ हृदमध्यं प्रविश्याशु जलं तत्र प्रपाय च । दूतो विश्रब्धको भूत्वा दध्याविति स चेतसि ॥ १२६ ॥ जलं भवेन्न वा मार्गे पुरतो गच्छतो मम । हत्वा हरिमिमं चर्म गृह्णाम्यस्य ससंभ्रमम् ॥ १२७ ॥ शीतलेन जलेनेदं परिपूर्य त्वरान्वितः । स्ववाञ्छितं पुनर्देशं निर्विघ्नं येन याम्यहम् ॥ एवं विचिन्त्य तं नीत्वा पञ्चतां शरघाततः । जग्राह तत्त्वचं दूतो कृतघ्नोऽसौ निषादधीः ॥ तेन गोणतकं कृत्वा भृत्वा तं नीरसंघतः । जगाम स्वमतं देशं दूतः स्वगतियोगतः ॥ स दूतो भगवन् कक्षे पतितो जलमन्तरा । मर्कटेनास्य संदत्तं जीवितं जलदर्शनात् ॥ स दूतस्तं हरिं हत्वा सोपकारं गतः क्वचित् । युक्तमेवंविधं कर्तुं कर्म किं तस्य पावन निशम्य तद्वचो योगी बभाणेमं ससंभ्रमम् । न युक्तं कृतमेतेन कर्मेदं श्रावक स्फुटम् ॥ त्वयाऽपि श्रावक स्पष्टं कथितं यत् कथानकम् । धर्मार्थसंगतं चारु बुधकर्णरसायनम् ॥ ॥ इति श्रीदूतमर्कटकारणं जिनदत्तकथानकमिदम् ॥ [ १०२*१] ॥ १२८ ॥ 20 ॥ * १२९ ॥ १३० ॥ १३१ ॥ १०२*२. कपिलात्राह्मणीकथानकम् । तद्वाक्यतः पुनः प्राह जिनदत्तं दिगम्बरः । आकर्णयैकचित्तेन कथयामि कथानकम् ॥ १ ॥ विषये वत्सकावत्यां कौशाम्ब्यां पुरि माहनः । शिवशर्माऽभवत् तस्य कपिला नाम गेहिनी ॥२॥ ̈ अथ विप्रे गते क्वापि बहिर्वृत्तिनिमित्ततः । शिवशर्माभिधानेन दृष्टं नकुलबालकम् ॥ ३ ॥ तमादाय ततो विप्रो गृहमागत्य वेगतः । वल्लभायै समप्येमं जगादैवं पुरः स्थितः ॥ ४ ॥ अयं पुत्रविहीनाया भवत्या शोकहानये । नकुलो नन्दनो भावी पालयेममतः प्रिये ॥ ५ ॥ १३२ ॥ १३३ ॥ 25 १३४ ॥ 1 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 2 [ संप्रापैतत्समीपकम् ] 3 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. बृ० को ० ३२ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०२*२. ६ नकुलः कान्तवाक्येन तया कपिलया तदा । वृद्धिं नीतो विनीतात्मा तत्प्रेक्षणविधायकः ॥ ६ ॥ अन्यदा दैवयोगेन कपिलायां मनोरमः । बभूव नन्दनो रूपी स्वजनानन्ददायकः ॥ ७ ॥ बालकं मञ्चके सुप्तं विधाय नकुलस्य सा । समर्प्य कपिला याता नदीकूलं जलं प्रति ॥ ८ ॥ बभ्रुस्तं दारकं गेहे 'शून्यं यत्नपरस्तदा । ररक्ष प्रीतचेतस्को भ्रातृस्नेहपरायणः ॥ ९॥ • अत्रान्तरे गृहं सर्पः प्रविष्टो भीमविग्रहः । ' दृष्टो बालोऽमुना वेगात् पञ्चतामगमत् पुनः ॥ १० ॥ बभ्रुणागत्य वेगेन स सर्पोऽपि विपादितः । तद्बालमञ्चकस्याधो विहितो व्यवतिष्ठते ॥ ११ ॥ अथ सा ब्राह्मणी प्राप्ता स्वगेहं सुतवत्सला । मञ्चकस्थं शिशुं तत्र ददर्श मृतिमागतम् ॥ १२ ॥ मृतं तं बालकं दृष्ट्वा कपिला क्रुद्धमानसा । मुसलेन समाहत्य ममार नकुलं खला ॥ १३ ॥ बालमञ्चस्य मृतं भीमं भुजङ्गमम् । दम्पतिभ्यां परिज्ञातं बालो दष्टोऽमुना ध्रुवम् ॥१४॥ गुञ्जाफलसमानाक्षो भीमदंष्ट्रोऽलिविग्रहः । नकुलेनापि रुष्टेन निहतोऽयं भुजङ्गमः ॥ १५ ॥ पुत्रकल्पो मया बभ्रुरपरीक्षणशीलया । पुत्रवर्जितया कष्टं निहतो मन्दभाग्यया ॥ १६ ॥ पुत्रं सर्पहतं दृष्ट्वा नकुलं संनिपातितम् । बभूव सुमहद्दुःखं कपिलाया भुवस्तले ॥ १७ ॥ अस्याः श्रावक किं युक्तं कर्तुमीदृग्विचेष्टितम् । येन सर्पकृते दोषे नकुलो निहतोऽनया ॥ १८ ॥ अपरीक्षणशीलानां सहसा कार्यकारिणाम् । पश्चात्तापो भवत्येव जगति प्राणधारिणाम् ॥ १९ ॥ तथा चोक्तम्'अपरीक्षितं न कर्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम् । 1 पश्चाद् भवति संतापो ब्राह्मणीनकुलं यथा ॥ २० ॥ श्रुत्वा मुनिवचः सत्यं जिनदत्तो जगावमुम् । विधातुं नाथ नो युक्तं धर्मेदं खलु योषितः ॥ २१ ॥ कथानकमिदं साधु विपश्चित्प्रीतिकारणम् । धर्मार्थानुगतं लोके युष्माभिः कथितं मम ॥ २२ ॥ " किं पुनर्मम योगीन्द्र सुरासुरनतक्रम । धर्मार्थसंगतं चारु कथानकमिदं शृणु ॥ २३ ॥ ॥ इति श्रीकपिलाब्राह्मणी निबद्धं जिनदत्तनिवेदितं मुनिकथानकम् ॥ [ १०२*२] ॥ * 10 18 १०२*३. वैद्यकथानकम् । 1 काशी जनपदे रम्ये वाणारस्यां पुरि प्रभुः । जितशत्रुः प्रिया चास्य रूपिणी कनकप्रभा ॥ १ ॥ 2• बभूवास्य नरेन्द्रस्य वैद्यः प्रेयान् महाधनः । धनदत्तः कलाधारो धनदत्ता च तत्प्रिया ॥ २ ॥ अनयोर्नन्दनौ स्यातां वैद्यशास्त्रपराङ्मुखौ । धनमित्रस्तयोरायो धनचन्द्रोऽपरो मतः ॥ ३ ॥ तत्ताते पञ्चतां प्राप्ते तज्जीवनमपि द्रुतम् । कुशलायान्यवैद्याय वितीर्णं जितशत्रुणा ॥ ४ ॥ तस्मिन्नपि हृते वैद्यौ तदेतौ द्वावपि द्रुतम् । चम्पकाख्यां पुरीं प्राप्तौ भ्रातरौ वैद्यकं प्रति ॥ ५ ॥ शिवभूत्याख्यवैद्यस्य समीपे भ्रातरौ तौ । समस्तं वैद्यकं ज्ञात्वा निवृत्तौ स्वगृहं प्रति ॥ ६ ॥ egesपात्रमिमं कक्षे पुण्डरीकं पथि स्थितम् । कनिष्ठो धनचन्द्राख्यो धनमित्रं जगाविति ॥ ७ ॥ व्याघ्रस्यास्यौषधं भ्रातर्ददामि परमोदयम् । कीर्तिर्धर्मोऽपि मे येन जीवितेऽस्मिन् प्रजायते ॥ ८ ॥ धनचन्द्रवचः श्रुत्वा धनमित्रो जगावमुम् । व्याघ्रसर्पादिसत्त्वानामुपकारो न शान्तये ॥ ९ ॥ 30 1 [ शून्ये ]. 2 [ दष्टो ]. 3ज कुलकमिदम्. 4 पफ निबद्ध 5 The Mss. do not put any numbers for these stories. I have treated them as sub-stories of 102, and added the numbers in square brackets. 6 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०२४. १६] वृषभकथानकम् २५१ जीवितः सन्नयं व्याघ्रस्त्वदीयौषधयोगतः । अस्मानेव क्षुधाग्रस्तः प्रसभं भक्षयिष्यति ॥१०॥ ज्येष्ठोदितं समाकर्ण्य कनिष्ठोऽपि बभाण तम् । तिर्यञ्चोऽपि हि केचिच्च शमं यान्त्युपकारतः॥११॥ तेन रोगाभिभूतस्य व्याघ्रस्याहं महामते । वैयावृत्त्यं करिष्यामि दिव्यौषधिविधानतः ॥१२॥ कनिष्ठवचनं श्रुत्वा जगौ ज्येष्ठोऽपि तं पुनः । वैयावृत्त्यं निषिद्धोऽपि यद्येतस्य करिष्यसि ॥१३॥ तिष्ठैकं वत्स तावत्त्वं मुहूर्तमपि दुर्विधम् । करोमि नियतं भ्रातर्यावदृक्षाधिरोहणम् ॥ १४ ॥ एवं निगद्य तं तत्र भ्रातरं बुद्धिवर्जितम् । आरुरोह समुत्तुङ्गं धनमित्रो महातरुम् ॥ १५॥ तत्समीपं परिप्राप्य कनिष्ठः कौतुकान्वितः। विवेद पुण्डरीकं स स्फुटं लोचनरागिणम् ॥ १६ ॥ दिव्यौषधं समादाय तद्वने कौतुकेक्षणा । तल्लोचनद्वयं तेन तद्रसेन भृतं धनम् ॥ १७ ॥ तदौषधिप्रभावेन लोचने तस्य तत्क्षणात् । काचकामलदोषेण विमुक्ते ते बभूवतुः ॥ १८॥ समुत्थाय ततो देशाद् बुभुक्षाग्रस्तमानसः । वैद्यं जघास दुष्टात्मा पुण्डरीकः खलोऽहितः ॥१९॥ भदन्त तस्य किं युक्तं कर्तुमीदग्विचेष्टितम् । हतः कृतोपकारोऽपि येन वैद्यो दुरात्मना ॥२०॥ जिनदत्तवचः श्रुत्वा जगौ योगी तकं पुनः । ईदृक्षं कर्म नो युक्तं कर्तुं श्रावक तस्य हि ॥२१॥ ॥ इति श्रीजिनदत्तेन मुनिकथितं वैद्यकथानकम् ॥ [१०२*३] ॥ १०२४४. वृषभकथानकम् । जिनदत्त गुणाधान जिनधर्मपरायण । शृणु त्वमेकचित्तेन मत्कथानकमादरात् ॥१॥ ॥ अङ्गनामकदेशोऽस्ति" चम्पाख्यायां पुरि द्विजः । वेदवेदाङ्गसंयुक्तः सोमशर्माभिधानकः ॥२॥ विनयाचारसंपन्ना भर्तृभक्तिपरायणा । सोमिल्ला" सोमशर्मा च बभूवास्य नितम्बिनी ॥३॥ सोमिल्लायाः सुतो जातो रूपराजितविग्रहः । सोमशर्मा पुनर्वन्ध्या सपत्नीद्वेषमिच्छति ॥४॥ अन्यदा तगृहं हृष्टो भद्रादिवृषभोऽविशत् । निहत्य तत्सुतं क्रुद्धा तद्विषाणे मुमोच सा ॥५॥ भद्रादिवृषभस्तुङ्गशृङ्गस्थितशिशुस्तदा । भ्राम्यन् पुरान्तरे दृष्टः पौरेण सकलेन सः ॥६॥ दृष्टुमं सर्वलोकेन कृतोऽयं ब्रह्मघातकः । भुवनेषु" समस्तेषु प्रवेशं लभते न च ॥७॥ अन्यदा जिनदत्तोऽसौ श्रावको जिनमन्दिरे । तस्थौ कृष्णचतुर्दश्यां निशि प्रतिमया सुधीः॥८॥ अस्यामेव च शर्वयां जिनदत्तप्रिया तदा । अभ्याख्यानं परिप्राप्ता लोकतो नरसंभवम् ॥ ९॥ पुरमध्ये सकात्मानं तदा शोधयितुं पुनः । अग्नितप्तस्य फालस्य समीपे व्यवतिष्ठते ॥१०॥ तावदागत्य वेगेन भद्रादिवृषभः सकः । निजवक्रेऽग्निना तप्तं फालं चिक्षेप तत्पुरः ॥११॥ दृष्ट्वा तं वृषभं लोकस्तत्फालवदनं तदा । शुद्धः शुद्धतरामेष संजजल्प परस्परम् ॥ १२ ॥ अनेन विधिना सोऽपि शोधयित्वा स्वकं पुनः । बभ्राम पूर्ववत् तोषात् पुरमध्ये निजेच्छया ॥१३॥ युक्तं किं वक्तुमीदृशं वाक्यं लोकस्य सजन । येन दोषविहीनोऽपि वृषभः शिशुघातकः ॥१४॥" मुनिवाक्यं समाकर्ण्य जिनदत्तो जगावमुम् । तस्य लोकस्य नो युक्तं वचनं वक्तुमीदृशम् ॥१५॥ किंतु साधो मदाख्यानं धर्मसंबन्धकारणम् । आकर्णयैकचित्तेन कथयामि तवापरम् ॥१६॥" . ॥ इति श्रीमुनिनिवेदितजिनदत्तद्वितीयकथानकमिदम् ॥ [१०२४] ॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफ व्याघ्रस्यायं. 3 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 [ कौतुकेक्षणात् ]. 6 पफ हतकृतोप. 7 पफ कुलकम्, ज कुलकमिदम्, 8 ज द्वितीयं वैद्यकथानकमिदम्.9 पफ परायणः. 10 [देशे ]. 11 पफ सोमिला. 12 [भवनेष. 18 पफ कुलकम्,जकुलकमिवम्. 14जयुगलमिदम्. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०२*५. ११०२७५. तापसगजकथानकम् । अथ गङ्गानदीकूले हस्तियूथं मनोरमम् । अन्योन्यरमणासक्तं वसति प्रीतमानसम् ॥१॥ तयूथाधिपतिस्तुङ्गः श्वेतकर्णीति विश्रुतः । गन्धहस्ती प्रिया तस्य भद्राख्या वल्लभाऽभवत् ॥२॥ तत्पुत्रः श्वेतकर्णीति बभूव कलभः कलः । त्यक्तोऽयं निजयूथेन नितान्तं कलहप्रियः ॥३॥ : कदाचित् संभ्रमन् क्वापि वनेऽसौ निजलीलया । विश्वभूत्यभिधानेन तापसेन विलोकितः ॥४॥ उपचारेण तं नीत्वा तापसः पल्लिमात्मनः । पुपोष भोज्यभक्षेण वितीर्णेन मुहुर्मुहुः ॥५॥ ततस्तापसयत्नेन प्रत्यहं क्रमतः करी । सर्वलक्षणसंपूर्णो गन्धहस्ती बभूव सः ॥ ६॥ ततः श्रेणिकराजेन याचितोऽसौ पुनः पुनः । तापसेन न दत्तोऽस्मै महातत्त्रीतिकारिणा ॥ ७॥ भूयोऽपि याचितोऽनेन तापसोऽमुं नरेशिना । करिणाऽदीयमानेन तपस्वी निहतो रुषा ॥८॥ ।" भगवन् किं गजस्यास्य तत्पोषणपरायणम् । निहतं तापसं युक्तं महाप्रीतिविधायकम् ॥ ९॥ श्रावकस्य वचः श्रुत्वा बभाणेमं यतीश्वरः । हन्तुं स्वपोषकं श्रेष्ठिन् गजस्यास्य न युज्यते ॥१०॥ ॥ इति श्रीजिनदत्तनिवेदिततृतीयतापसगजकथानकमिदम् ॥ [१०२५५] ॥ . १०२४६. आम्रकथानकम् । श्रावकेदं मम स्पष्टं धर्माख्यानं बुधप्रियम् । शृणु त्वमेकचित्तेन कथयामि तवाधुना ॥१॥ 15 कुरुजाङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् । विश्वसेनोऽत्र भूपालः प्रियधर्माऽस्य गेहिनी ॥२॥ पुरपूर्वदिशो भागे कोकिलालापसुन्दरम् । महाम्रवनमुत्तुङ्गं भूपेनानेन कारितम् ॥ ३॥ निजकाले ततः सर्वे सहकाराः समुन्नताः । पुष्पस्तबकभारेण फलैरपि विरेजिरे ॥४॥ चूतवृक्षेषु चैतस्मिन् सर्पमादाय सौलिका । फलिते भक्षयन्तीमं तरां मुदितमानसा ॥५॥ चूतवृक्षेत्र तिष्ठन्त्या भक्षयन्त्या भुजंगमम् । तस्याः पतित एकस्मिन् फले हि विषबिन्दुकः ॥६॥ 20 तदानं विषयोगेन पक्कं सपदि शोभनम् । आदायोद्यानपालोऽपि ददौ भूपाय तन्मदा ॥ ७॥ तेनापि भूभुजा तच्च महादेव्याः समर्पितम् । साऽपि तत्फलमास्वाध मृत्युगोचरतां ययौ ॥ ८॥ श्रुत्वा पञ्चत्वमायातां महादेवी नरेशिना । छिन्नं आम्रवनं रोषादनिरूपितकारिणा ॥९॥ युक्तं किं श्रावकैतस्य छेत्तुमाग्रवनं परम् । एकाम्रविहिते दोषे सर्वे चूता हि खण्डिताः॥१०॥ श्रावकस्तद्वचः श्रुत्वा जगौ साधुं पुरः स्थितम् । इदं कर्तुं मुने राज्ञो न युक्तं चाम्रनाशनम् ॥११॥ ॥ इति श्रीसाधुजिनदत्तकथिततृतीयकथानकम् ॥ [१०२*६] ॥ १०२७७. शिवनितरुकथानकम् । मुने मदीयमाख्यानं धर्मसंबन्धकारणम् । आकर्णयैकभावेन कथयामि तव स्फुटम् ॥१॥ माहिष्मतीपुरादेको वसुशर्मा नरोऽव्रजन् । विन्ध्यमध्ये हरिं भीमं गर्जन्तं प्रददर्श सः॥२॥ दृष्ट्वा भयानकं पान्थः 'सिंहगर्जितकारिणम् । आरुरोह तमुत्तुङ्ग शिवनेस्तरुमादरात् ॥३॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2ज जिनदत्तमुनि. 3 प तृतीयं, 4 ज सौलिकाकांवली. 5 पफ सर्वचूताः. 6 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 7 [सिंह ]. 8 [समुत्तुझं]. . Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०२*८. १८ ] सर्पकथानकम् २५३ तत्रत्यस्य नरस्यास्य भयविह्वलचेतसः । ततो जगाम सिंहोऽपि स्वनादापूरिताम्बरः ॥ ४ ॥ ततोऽनेन नरेणाशु दृष्ट्वा राजनरा वने । आहूतास्ते समायातास्तत्समीपं क्षणेन च ॥ ५ ॥ दृष्ट्वा समीपकान् यातान् पुरुषांस्तांस्तरोरधः । समुत्तीर्य ततो वृक्षाज्जगादेति किमागताः ॥ ६ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं तेऽपि जगुस्तं खेदसंगताः । नृपभेरीनिमित्तार्थं पश्यामोऽत्र वने तरुम् ॥ ७ ॥ निशम्य तद्वचः सोऽपि बभाणैतान् पुरः स्थितान् । भेरी शिवनिवृक्षेऽत्र जायते भूपतेः परा ॥८॥ ततस्तद्वचनेनाशु तन्नरैस्तोषमागतैः । खण्डितः स तरुः शीघ्रं भूपभेरीनिमित्ततः ॥ ९ ॥ कण्ठीरवभयाद्भीमाद्येन वृक्षेण रक्षितः । कारापयितुमेतस्य छेदः किं युज्यते मुने ॥ १० ॥ जिनदत्तवचः श्रुत्वा बभाणेमं यतीश्वरः । इदं न युज्यते कर्तुं नरस्यास्य कुधीमतः ॥ ११ ॥ ॥ इति श्रीसिंहभयरक्षितशिवनितरुच्छेदोपदेशदायकपुरुषजिनदत्तमुनिनिवेदितचतुर्थकथानकमिदम् ॥ [ १०२*७] ॥ * १०२*८. सर्पकथानकम् । किंतु धर्मार्थसंयुक्तं महापुरुषसंमतम् । आकर्णयैकचित्तेन कथयामि कथानकम् ॥ १ ॥ विनीताख्यमहादेशे साकेतायां पुरि प्रभुः । चन्द्रभद्रोऽभवत् तस्य भार्यां चन्द्रमती शुभा ॥ २ ॥ शतानि पञ्च दाराणामस्य सन्ति महात्विषाम् । शक्रपत्नीसमानानां रूपसौभाग्यधारिणाम् ॥ ३ ॥ अनेन भूभुजा दिव्या नन्दनोद्यानमध्यगा । कारापिता महावापी स्वर्णसोपानराजिता ॥ ४ ॥ " हंसकारण्डचक्राह्वशकुन्तरवशोभना । पद्मेन्दीवरसंछन्ना जलकल्लोलसंकुला ॥ ५ ॥ तत्रत्यडिण्डुकैः सार्धं नानावर्णमनोहरैः । रमन्ते सरसं बाढं भूपालस्य पुरन्ध्रयः ॥ ६ ॥ अन्यदा रक्तलोलाक्षो लेलिहानोऽसितप्रभः । विवेश तां महावापीं लोलजिह्रो भयंकरः ॥ ७ ॥ दृष्ट्वा समागतं सर्पं जगौ तान् वृद्धडिण्डुकः । सर्वेऽपि मद्वचः सत्यं समाकर्णयतादरात् ॥ ८ ॥ अमुष्मात् सर्पतो वित्थ् विनाशो नो भविष्यति । तस्मादिमं द्रुतं क्रूरं निर्धाटयत सज्जनाः॥ ९ ॥ ” ततस्तद्वचनं सर्वैर्डिण्डुकैर्नाभिमतम् । सोऽपि मौनं समादाय तस्थौ चकितमानसः ॥ १० ॥ अत्रान्तरे नृपेणामा सर्वमन्तःपुरं द्रुतम् । अवतीर्णं जलक्रीडां विधातुं वापिकाले ॥ ११ ॥ तत्र डिण्डुकसादृश्यात् सर्पपोतोऽतिचञ्चलः । गृहीतोऽसौ महादेव्या पाणिना पद्मकान्तिना ॥१२॥ ततो गृहीतमात्रेण तेन सर्पेण कोपतः । करे दष्टा महादेवी मृता तद्विषयोगतः ॥ १३ ॥ वापीजलात् समुत्तीर्य दन्दशूकोऽपि वेगतः । ननाश क्वापि दुष्टात्मा भावि भद्रं हि जीवितम् ॥ १४॥ ततो नृपो रुषं प्राप्य महादेवीविनाशनात् । धीवरानादिदेशासौ डिण्डुकानां मृतिं प्रति ॥ १५ ॥ प्राध्वंकृत्य च जालेन डिण्डुकानखिलानरम् । भूपादेशेन ते जन्नुर्नियतिः केन लक्ष्यते ॥ १६ ॥ जिनदत्तनृपस्यास्य युक्तं किं कर्तुमीदृशम् । येन सर्पकृते दोषे डिण्डुका निहता बत ॥ १७ ॥ अनूचानवचः श्रुत्वा जिनदत्तोऽपि तं जगौ । न युक्तं डिण्डिकान् हन्तुं भूपस्यैवं निरागसः ॥ १८ ॥ ॥ इति श्रीजिनदत्तसाधुनिवेदितचतुर्थसर्पकथानकम् ।। [१०२*८] ॥ * 1 [ दृष्टा ]. 2 फ पराः. 3 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 5 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 6 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 10 4 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 7 पफ चतुर्थ. 25 30 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ हरिषेणाचार्यकृते गृहत्कथाकोशे [१०२*९.११०२७९. चौरकथानकम् । किंतु साधो ममाख्यानं विद्वज्जनमनोहरम् । त्वं भावयैकचित्तेन कथ्यमानं मयेदृशम् ॥१॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे श्रीमदुजयिनी' पुरी । अस्यां महीपतिः श्रीमान् बभूव श्रीपतिः प्रभुः ॥२॥ रूपराजितसर्वाङ्गी नीलोत्पलदलाम्बका । बभूवास्स महीशस्य श्रीमती दयिता परा ॥३॥ 5 अत्रैव नगरे श्रेष्ठी नानाधनसमन्वितः । अभूत् समुद्रदत्ताख्यो महासामन्तवल्लभः ॥४॥ जयन्ती कोकिलां वाचा वल्लकीमपि सुखनाम् । प्रिया समुद्रदत्ताऽस्य समुन्द्र मणिभूषणैः॥५॥ अथ भाण्डारशालान्तं विवेश पृथिवीपतेः । चौरः सर्वकषायाख्यश्चौरिकातिशयान्वितः ॥६॥ गृह्णन् सारं धनं तत्र दृष्टोऽयं दण्डपाशकैः । ततः पलायितः शीघ्रं तद्भयात् स सवेपथुः ॥ ७॥ तच्छ्रेष्ठिमञ्चिकामूले प्रविष्टस्तस्करस्तदा । मञ्चिकाच्छादितानेन गिरिदाऽनेन सर्वतः ॥८॥ 10 ततस्तन्मार्गतः प्राप्य तलाराः श्रेष्ठिनं जगुः । लम्पिक्षः क्वापि ते दृष्टो न वा वद यथायथम् ॥९॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी बभाणैतान् पुरः स्थितान् । न दृष्टोऽयं मया दृष्टो येन तं परिपृच्छत ॥१०॥ श्रुत्वा ते श्रेष्ठिनो वाक्यं तलाराः श्रान्तचेतसः। जग्मु थान्तिकं तूर्णं स्वचित्तस्थिततस्कराः ॥११॥ रखावस्तंगते श्रेष्ठी नीत्वाऽमुं निजमापणम् । चारुवस्त्रयुगं दत्त्वा सस्नेहं समपूजयत् ॥ १२ ॥ रत्नादिसंभृतं दृष्ट्वा श्रेष्ठिनो विशिखं सकः । तद्रव्यलुब्धचेतस्को जघान वणिजां पतिम् ॥१३॥ ॥ साधो किं तस्स चौरस्य युक्तं श्रेष्ठिनिपातनम् । तद्दत्तजीवितस्यास्य कर्तुं तन्मानितस्य च ॥ १४ ॥ श्रावकस्य वचः श्रुत्वा जगौ योगी तकं पुनः । तस्य चौरस्य नो युक्तं कर्तुं श्रेष्ठिनिपातनम् ॥१५॥ ॥ इति श्रीजिनदत्तकथितमुनिपञ्चमचौरनिहतश्रेष्ठिकथानकम् ॥ [१०२*९] ॥ १०२०१०. मयूरकथानकम् । किं पुनर्मद्वराख्यानं महापुरुषसंमतम् । एकाग्रमानसं कृत्वा त्वमाकर्णय सांप्रतम् ॥ १॥ २० अत्रैव भरतक्षेत्रे कौशाम्बी परमा पुरी । अभूदु भूपालनामास्यां भूपतिः शासिताहितः ॥२॥ पूर्णिमाचन्द्रसद्वका मुक्ताभरदनावलिः । बभूवास्य महादेवी सुन्दरी सर्वसुन्दरी ॥३॥ ततो मध्याह्नवेलायां मेदत्ताख्यो मुनीश्वरः । विवेशेमां पुरी रम्यामनुक्रामविधानतः॥४॥ तत्रत्यैकेन भक्तेन भूपालासन्नवर्तिनः । चर्यामार्गेण संविष्टो धृतोऽसौ राजमन्दिरे ॥५॥ पद्मरागो मणिस्तत्र मयूरेण पलाशया । गिलितो वीक्षितोऽनेन साधुना साधुपक्षिणा ॥ ६॥ ॐ यावजिनस्तुतिं योगी करोत्येकाग्रमानसः । एष तावदिदं पृष्टो नरेण मणिपालिना ॥ ७॥ मुने मणिस्त्वया दृष्टो यदि कापि नरेशिनः । ततो वद यथावृत्तं सत्यभाषणतत्परः ॥ ८॥ निशम्य तद्वचः साधुरवादीत् तं नरं पुनः । नाहं वेनि न पश्यामि तव रत्नं वरं कचित् ॥ ९॥ पृष्टेन साधुनानेन भूयोभूयः प्रपञ्चतः । तथाऽपि नोदितं किंचिन्मणिसंबन्धकारणम् ॥१०॥ विदित्वा भाविनं साधुरुपसर्गे पराभवम् । शरीराहारसंबन्धं सावलम्बं चकार सः॥ ११ ॥ ० अग्नितप्तेन तैलेन प्रेषितस्तन्नरेण सः । तथापि जायते क्षोभो न मनागपि योगिनः ॥ १२ ॥ अत्रान्तरे मयूरोऽयं गललग्नमणिः पुनः । संप्राप मुनिसामीप्यं विह्वलीभूतमानसः ॥१३॥ ___1 पफ श्रीमदुजयनी. 2 [ समुद्र ]. 3 ज चोरः. इति जिन 6 पफ राज्यमन्दिरे, 4 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 5 पफ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४.१०] पिनाकगन्धकथानकम् २५५ ददतः पुरुषस्यास्य यष्टिघातं मुने?तम् । मयूरस्य गले लग्नः स घातो दैवयोगतः ॥१४॥ मयूरगलतोऽमुष्मात् यष्टिघाताद् भुवस्तले । पपात स मणिः सद्यो नरेन्द्रादिसमीक्षितः ॥१५॥ दृष्ट्वा मणिं सभामध्ये शिखिकण्ठविनिर्गतम् । चक्रुर्नृपादयः सर्वे मुनेरस्य क्षमापणम् ॥१६॥ नृपादिवचनं श्रुत्वा स्वनिन्दनपरायणम् । जगादैतान् स योगीन्द्रो मस्तकन्यस्तपाणिकान् ॥१७॥ लातुं परधनं स्वल्पं नरेन्द्र यदि वा बहु । मुनीनां कल्पते नैवं यथोक्तागमचारिणाम् ॥ १८॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य धनभोगपराङ्मुखम् । नृपादयोऽभवन् सर्वे श्रावका विस्मयान्विताः॥१९॥ सापराधमपि स्पष्टं परदोषं न युज्यते । मुनीनां वक्तुमन्येषां जिनदत्त मनागपि ॥ २० ॥ निशम्य योगिनो वाक्यं जिनदत्तो निरुत्तरः । विलक्षो विस्मयोपेतस्तस्थौ स्वसुतलक्षितः ॥ २१ ॥ ततः कुबेरदत्तोऽपि तत्सुतो भोगनिःस्पृहः । दध्यौ स्वमानसे धीरः पितृस्नेहपराङ्मुखः ॥ २२ ॥ उपसर्गों महानस्य तत्पित्रा कृत ईदृशः । करोति यावदन्यं न मत्तातो लोभलम्पटः ॥ २३ ॥ ॥ तावद्धनमहं सर्व लोभिनोऽस्य पितुर्दुतम् । अर्पयामि सुखं येन तिष्ठत्ययमतन्द्रितः ॥ २४ ॥ एवं संचिन्त्य चोत्थाय घटमानीय सत्करम् । पितुः समर्पयामास तत्सुतो निगदन्निदम् ॥ २५ ॥ सप्तव्यसनयुक्तेन गृहीतं तद्धनं मया । तथाऽपि योगिनः पापतिरस्कारं ददास्यरम् ॥ २६ ॥ रुदन्नप्यतिनम्रो हि गृहीत्वाऽस्य पदद्वयम् । पश्चात्तापं करोत्येष भूयो भूयोऽतिलजितः ॥ २७॥ मुनेः क्षमापणं कृत्वा हित्वा सर्वं परिग्रहम् । समं कुबेरदत्तेन जिनदत्तो जनप्रियः ॥ २८॥ 5 मुनेर्मणिपतेः पार्थे महावैराग्यसंगतः । दधौ दैगम्बरी दीक्षां संसारार्णवतारिणीम् ॥ २९ ॥ नानातपः प्रकुर्वाणावध्यासितपरीषहौ । विहरन्तौ धरापृष्ठे तस्थतुस्तौ यथागमम् ॥ ३०॥ - इति दशकथानकमिदम् - ॥ भट्टप्रतिवद्धचुंकारिकान्तर्गतकथानकनिबद्धमुनिकथानकमिदम् ॥१०॥" १०४. पिन्नाकगन्धकथानकम् । अथास्ति विषये सारे कान्ते पञ्चालनामनि । काम्पिल्यनगराभिख्यं पुरं सुरपुरोपमम् ॥१॥ बभूवात्र पुरे राजा नाम्ना रत्नप्रभः प्रभुः । विद्युन्मती महादेवी तस्य विद्युत्समप्रभा ॥२॥ अस्यैव भूपतेः श्रेष्ठी बभूव श्रावको महान् । जिनदत्ताभिधस्तस्य जिनदत्ता प्रिया परा ॥३॥ अपरोऽत्र पुरे श्रेष्ठी द्वात्रिंशद्धनकोटिकः । नाम्ना 'पिन्नाकभक्षोऽभूत् तत्प्रिया सुन्दरी मता ॥४॥ तत्सुतो विष्णुदत्तोऽभूत् कलाविज्ञानपारगः । खसा पिन्नाकभक्षस्य सुमित्रा मित्रवत्सला ॥ ५ ॥ 23 काम्पिल्यनगरासन्नपिप्पलग्रामवासिने । दत्ता सागरदत्ताय श्रेष्ठिने साऽमुना क्रमात् ॥ ६ ॥ तत्सुता सूर्यमित्रासीत् सूर्यदीप्तिसमप्रभा । महालावण्यसंयुक्ता कन्दोट्टदललोचना ॥ ७ ॥ अथ रत्नप्रभो राजा नगरासन्नभूतले । 'प्रदायोडसहस्रेभ्यो धनं बहुविधं तदा ॥ ८॥ महासरोवरं रम्यमगाधं दीर्घमायतम् । कारापयति हृष्टात्मा धर्मविन्यस्तमानसः ॥९॥" तस्मिन् सरोवरे रम्ये खनतौडेण तद्धराम् । कुद्दालकेन चैकेन वृद्धेन चिरजीविना ॥ १० ॥ 1 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 2 पफ चतुष्कुलकम्, ज चतुष्कुलकमिदम्. 3 ज जिनप्रियः, 4जर्णवदायिनीम्. 5 ज दशकथानकमिदम्. 6 पफ have no number, but ज has 103. 7 पफ पिनाक. 8 पफ सूर्यमित्रसम'. 9 [प्रदायौड°]. 10 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. - Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०४. ११अष्टापदमयाशेषकुशीशतभृतां तरा । लब्ध्वा मञ्जूषिका तेन नीता सा निजमन्दिरम् ॥ ११ ॥ एकं कुशं समादाय सौवर्णं स तदन्तरा । वर्षीयांस्तोषसंपूर्णो जिनदत्तान्तिकं ययौ ॥ १२ ॥ गृहीत्वा तत्कुशं तेन लोहमूल्येन मोहिना । कारयित्वा जिनस्यार्चा स्थापिता जिनमन्दिरे ॥१३॥ ततोऽन्यदिवसे चान्या तत्कुशी स्थविरेण सा । जिनदत्तान्तिकं तेन समानीता प्रमोदिना ॥१४॥ विलोक्य तत्कुशं सोऽपि जिनदत्तेन भाषितः । भवत्कुशेन मे भद्र गच्छ त्वं न प्रयोजनम् ॥१५॥ ततः शातकुशी तेन प्राप्य पिन्नाकमन्दिरम् । दत्ताऽस्मै लोहमूल्येन गृहीताऽनेन तोषिणा ॥१६॥ ज्ञात्वा स्वर्णकुशां हृष्टः पिन्नाको निजगावमुम् । कियन्त ईदृशा भद्र तिष्ठन्ति कुशकास्तव ॥१७॥ पिन्नाकवचनं श्रुत्वा बभाणौडोऽपि तं पुनः । भद्रेशकुशानां मे तिष्ठत्येकोनकं शतम् ॥ १८॥ एकैकं तं समादाय कुशकं लोहनिर्मितम् । अहन्यहनि ते श्रेष्ठिन् ददामि सकलानपि ॥ १९ ॥ 10 एवं निगद्य पिन्नाकं तोषकण्टकिताङ्गकम् । मन्दमन्दगतिवृद्धो जगाम निजमन्दिरम् ॥ २० ॥ आदाय कुशमेकैकं पिन्नाकाय दिने दिने । ददाति लोहमूल्येन स्थविरोडो भयान्वितः ॥ २१ ॥ अष्टाधिकाऽमुना यावन्नवतिः कुशिकाः स्फुटम् । दत्ताः पिन्नाकगन्धाय परमेका स्थिता सका ॥२२॥ अत्रान्तरे समागत्य ग्रामात् पिप्पलपूर्वकात् । स्वसा सुमित्रनाम्यस्य श्रेष्ठिनं निजगाविदम् ॥२३॥ विवाहः सूर्यमित्राया मत्सुतायाः सहोदरः । वर्तते साधुना कर्तुं नेच्छामि भवता विना ॥ २४ ॥ 15 स्वसुर्वचनतः श्रेष्ठी समाहूय निजं सुतम् । जगाद वचसा स्पष्टं विष्णुदत्तं पुरःस्थितम् ॥ २५ ॥ ओडः 'कुशीन् समादाय प्रभाते चागमिष्यति । द्रमद्वयेन मद्वाक्यात् ग्रहीतुं तां त्वमर्हसि ॥२६॥ एवं निगद्य तं श्रेष्ठी सुमित्रावचनादरम् । जगाम पिप्पलग्रामं तत्कुशास्थितमानसः ॥ २७॥ ओडोऽन्यदिवसे जाते गृहीत्वा तां कुशीमसौ । विष्णुदत्तं परिप्राप्य गृहाणेमां बमाण च ॥ २८॥ जनकेनोदितेनापि विष्णुदत्तेन सा कुशी । न गृहीता गतः सोऽपि तामादाय पणान्तरम् ॥ २९॥ * दृष्ट्वा नृपनरः कोऽपि तमोडं विशिखाऽन्तरे । नीतवान् नृपसामीप्यं नामाङ्कितकुशान्वितम् ॥३०॥ आदाय तां कुशां राजा तस्करान्निजपाणिना । ज्ञात्वा तदक्षरं सर्वं नूनं शतकुशान्वितम् ॥ ३१॥ रत्नप्रभो नृपः प्राह तमोडं पुरतः स्थितम् । एकेनोनं शतं शीघ्रं कुशानामानय द्रुतम् ॥ ३२॥ रत्नप्रभनृपस्येदं निशम्य वचनं सकः । भयवेपितसर्वाङ्गो जगादेति वचः स्फुटम् ॥ ३३॥ भृता शतकुशेनोचैमञ्जूषा नरकुञ्जर । "लब्ध्वा तव क्षमासारं तडागं खनता मया ॥ ३४॥ 25 एका कुशी च तन्मध्ये बुभुक्षाग्रस्तचेतसा । जिनदत्ताय मे दत्ता लोहमूल्येन भूपते ॥ ३५॥ अष्टानवतिरन्यास्ताः कुशिका लोहमूल्यतः । दत्ता "पिन्नाकगन्धाय नरवृन्दारक स्फुटम् ॥ ३६ ॥ एकां कुशीं समादाय नरनाग त्वदन्तिकम् । आयातः सांप्रतं नूनमतः कुरु यथायथम् ॥३७॥ निशम्योडवचो राजा जिनदत्तान्तिकं द्रुतम् । नरं संप्रेषयामास कार्तस्वरकुशं प्रति ॥ ३८॥ ततस्तद्वचनेनाशु जिनदत्तो भयान्वितः। आदाय कानकीमर्चामाजगाम नृपान्तिकम् ॥ ३९ ॥ 30 रत्नप्रभनृपं नत्वा जिनदत्तो जगाविदम् । सभामध्यस्थितो वीरो धीरगम्भीरया गिरा ॥ ४० ॥ मजानता मया राजन्नोडहस्ताद् बुधप्रिय । गृहीतेयं कुशी सारा कानकी लोहमूल्यतः ॥४१॥ कानकी तु परिज्ञाय परमां भूपतेऽनया । मया कारापिता जैनी प्रतिमेयं वितिष्ठते ॥ ४२ ॥ ___1 ज लब्धा मनुषिका. 2 बफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 पफ वर्षायांस्तोष. 4 पफ शतकुशी. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 [स्थविरौडो ]. 7 [कुशी] 8 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 9 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 10 [लब्धा]. 11 पफ पिनाकगन्धाय. 12 पफ चतुष्कुलकम् , ज चतुष्कुलकमिदम्. 13 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम्. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०५.१९] हस्तकश्रेष्ठिकथानकम् २५७ जिनदत्तवचः श्रुत्वा नरेन्द्रोऽपि बभाण तम् । निर्दोषः सन् समादाय प्रतिमां याहि मन्दिरम् ||४३|| तद्वाक्यतः प्रणम्येशं जिनदत्तस्त्वरान्वितः । भूपसन्मानितो दृष्टो' जगाम निजमन्दिरम् ॥ ४४ ॥ ततः पिनाकगन्धस्य कुशीभिः सह तद्धनम् । स्वगेहं प्रापयामास स्वनरैर्नरकुञ्जरः ॥ ४५ ॥ तत्सुतादिकुटुम्बं च कृत्वा निगडसंयुतम् । कारागारे तरां भीमे स्थापयामास भूपतिः ॥ ४६ अथ पिनाकगन्धोऽपि पिप्पलग्रामतस्तदा । आगच्छन्नथ कंचित् तं पप्रच्छेति नरं सकः ॥ ४७ ॥ भो भो र गृहेऽस्माकं कुशलं किं न वा वद । सोऽपि तद्वाक्यतः प्राह कुशलं न गृहे तव ॥ ४८ ॥ कुशीदोषेण ते श्रेष्ठिन् गृहीतं सकलं धनम् । कुटुम्बं च घृतं राज्ञा त्वदीयं व्यवतिष्ठते ॥ ४९ ॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी स्वजङ्घायुगलं रुषा । चूर्णयित्वा सुपाषाणैर्निजपादयुगं तथा ५० ॥ कृतावासे तृतीयप्रस्तरे सकः । द्वाविंशतिसमुद्रायुर्जातो लल्लकनामनि ॥ ५१ ॥ ॥ इति श्रीषष्ठनरकसमुद्भावतृतीय प्रस्तरलल्लकनामधेयगमनद्वाविंशति सागरायुःस्थितिपरिग्रहपरायणपिन्नाकगन्धश्रेष्ठिकथानकमिदम् ॥ १०४ ॥ * १०५. हस्तकश्रेष्ठिकथानकम् । अङ्गाभिधमहादेशे पुरी चम्पाभिधा परा । अभग्नवाहनो राजा बभूवास्यां प्रजापतिः ॥ १ ॥ रूपिणी तत्प्रिया रम्या सुन्दरीकाभिधा प्रिया । पीनोन्नतकुचद्वन्द्वा पुण्डरीकनिभेक्षणा ॥ २ ॥ अस्यैव भूपतेः श्रेष्ठी बभूव धनसंयुतः । अलुब्धनामकोऽस्यापि भार्या नागवधूः परा ॥ ३ ॥ रूपयौवनसंपन्ना कलाविज्ञानकोविदा | अभूतां नन्दनौ साधू नन्दिताशेषबान्धवौ ॥ ४ ॥ गरुडोपपदो दत्तस्तयोर्ज्यायानभूत् सुतः । नागोपपदको दत्तः कनिष्ठोऽपि यथाक्रमम् ॥ ५ ॥ लुब्धश्रेष्ठी पुनः स्वार्णौ द्वौ हयौ द्वौ गजौ मृगौ । द्वौ यक्षौ द्वौ श्रियौ दिव्यौ विधाय स्वगृहे न्यधात् ॥६॥ कृत्वैकं वृषभं दिव्यं पद्मरागविनिर्मितम् । द्वितीयं तत्समं कर्तुं चक्रे यत्नमहर्निशम् ॥ ७ ॥ सप्तरात्रं जले बाढं सवाते पतति द्रुतम् । महाजलभरापूर्णां विवेशासौ सुरापगाम् ॥ ८ ॥ प्रासादस्थितया देव्या स्थितया सुरसं प्रति । काष्ठान्युत्तारयन् दृष्टो नक्तं गङ्गाजलादसौ ॥ ९ ॥ विलोक्येमं महादेवी गृह्णन्तं काष्ठसंचयम् । जगाद भूपतिं नक्तं विस्मयव्याप्तमानसम् ॥ १० ॥ पश्य पश्य प्रिय क्षिप्रं चित्रं गुरुतरं प्रभो । विद्यतेऽस्मत्पुरे कोऽपि महादारिद्रपीडितः ॥ ११ ॥ येशे घने देवे वर्षति दुःखितो नरः । कोऽपि गृह्णाति काष्ठानि गङ्गावाहव्यवस्थितः ॥ १२ ॥ - आहूयेमं प्रभातेऽस्मै प्रदेहि विविधं धनम् । येन दारिद्रपङ्केन स्पृश्यतेऽयं न जातुचित् ॥ १३ ॥ ' महादेवीवचः श्रुत्वा प्रभातसमये सति । आजुहाव नरैरेतं नराधीशः सभागतम् ॥ १४ ॥ 5 पफ 1 [ हृष्टो ]. 2 ज ' प्रस्तरक'. 3 पफज put No. 104. 4 ज चतुः कुलकमिदम्. omit No. 14. 6 [ तिष्ठसि ]. 7 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 8 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. वृ० को० ३३ 10 खपुरवास्तव्यं श्रेष्ठिनं विहसन् मनाक् । जगाद विस्मितस्वान्तो भूपतिर्लुब्धवाणिजम् ॥१५॥ भो भो नर गृहाणेदं मदीयं विविधं धनम् । येन तिष्ठति संतुष्टो मदीये नगरे चिरम् ॥ १६ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं लुब्धश्रेष्ठी जगावमुम् । महताऽपि धनेनेश न कार्यं मे मनागपि ॥ १७ ॥ " किं तु मे विद्यते चैकोऽनाथनाथ हरिर्गृहे । तत्समं यदि देहि त्वं गृह्णाम्येतं तव स्फुटम् ॥१८॥ लुब्धश्रेष्ठीवचः श्रुत्वा भूपतिः प्राह तं पुनः । गत्वा मगोकुलं श्रेष्ठिन् गृहाण वृषभं परम् ॥ १९ ॥ 15 20 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०५. २०श्रेष्ठी भूपस्य वाक्येन प्राप्य तगोकुलं द्रुतम् । स्वगोपतिसमं तत्र न पश्यति वृषं परम् ॥२०॥ आगत्य गोकुलात् प्राप्य नरेन्द्रं वक्ति वाणिजः । मगोपतिसमस्तत्र विद्यते वृषभो न च ॥२१॥ त्वद्गोकुलेऽखिले राजन् मद्बलीवर्दसंनिभः । न दृष्टो वृषभो यावत् तेनाजातो वृषं विना ॥२२॥ आकर्ण्य तद्वचो राजा श्रेष्ठिनं निजगौ रुषा। तवाथो वृषभो भद्र कीदृशो मे प्रदर्शय ॥ २३ ॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा लुब्धश्रेष्ठी बमाण तम् । गत्वा मद्भवनं भूप गोपतिर्मम दृश्यताम् ॥ २४ ॥ भूपालः श्रेष्ठिवाक्येन तगृहं कौतुकाशया। हरिहस्त्यादियुग्मानि पश्यतीमानि तद्यथा ॥२५॥ कानिचित्कानकैर्दिव्यैः कृतानि वरशिल्पिभिः । कानिचिन्मौक्तिकैर्दिव्यैः कानिचिद्वज्रगारुडैः ॥२६॥ कानिचिच्चन्द्रकान्ताभैः कानिचिद्रविसंनिभैः । पुष्परागेन्द्रनीलैश्च मणिभिर्भान्ति कानिचित् ॥२७॥ विलोक्यैतानि युग्मानि चित्ररूपाणि तगृहे । तद्रूपहृतचेतस्को विस्मयं नृपतिर्ययौ ॥ २८ ॥ ॥ पश्चाजातीप्रसूनाभपद्मरागविनिर्मितम् । ददर्श भूपती रम्यं वृषभं मूल्यवर्जितम् ॥ २९ ॥ दृष्ट्वेमं वृषभं रम्यं विस्मयव्याप्तमानसः । बभाण श्रेष्ठिनं तत्र तोषकण्टकिताङ्गकः ॥ ३० ॥ त्वदलीवर्दसंकाशो मदृषो न कदाचन । मयेदमधुना ज्ञातं बहुना जल्पितेन किम् ॥ ३१ ॥ नितान्तं षड्रसोपेतं स्वर्णपात्रादिषु स्थितम् । चकार भोजनं भूप महे' प्रीतमानसः ॥ ३२॥ सुवर्णपात्रिकां भृत्वा नानारत्नैः प्रभोज्वलैः । तत्प्रिया नागवस्वाख्या लुब्धष्ठिकरे ददौ ॥ ३३॥ ॥ नानारत्नभृतां पात्रीं महारजतनिर्मिताम् । त्वं देहि नरनाथाय भार्ययाऽसौ प्रचोदितः ॥ ३४ ॥ रत्नपात्रीं समादाय प्रसारितकरद्वयः । भूपालपुरतस्तस्थौ श्रेष्ठी दानपराङ्मुखः ॥ ३५ ॥ रत्नपात्रकरं दृष्ट्वा संप्रदानपराङ्मुखम् । चक्रेऽस्यार्थीनुगं तस्य स्पटहस्ताभिधं नृपः ॥ ३६॥ इदं नाम विधायास्य सार्थकं नरकुञ्जरः । विस्मयव्याप्तचेतस्को जगाम निजमन्दिरम् ॥ ३७॥ तद्वृषार्थं महालोभगृहीतः स्पटहस्तकः। जगाम सिंहलद्वीपं बोधिस्थो यथा धनं प्रति ॥ ३८॥ ॥ चतस्रकोटिकाः प्राप्य कनकस्य स वाणिजः । वार्षिमध्ये मृतिं पाप भिन्नबोधिस्थकः सुधीः ॥३९॥ ततः स्वमन्दिरे सो बभूवायं भयंकरः । रक्षन्निजनिधिं तत्र तीक्ष्णदंष्ट्रो वितिष्ठते ॥४०॥ न कस्यचित् कदाचिच धनान्ते स्थातुमप्ययम् । ददाति दन्दशूकोऽपि भीषिताशेषजन्तुकः॥४१॥ ततो गरुडदत्तेन ज्येष्ठपुत्रेण रोषतः । निहतोऽयं गतायुः संश्चतुर्थं नरकं ययौ ॥ ४२ ॥ ततो खडखडाभिख्ये जलावते स तद्भवे । जातो दशसमुद्रायु रकः पापकर्मतः ॥ ४३ ॥ ॥ योऽसौ गरुडनामास्य ज्येष्ठपुत्रस्तुरीयके । श्वभ्रे मृतिं परिप्राप्य तदायुर्नारकोऽभवत् ॥४४॥ नागवखा समं दुःखी नागदत्तो विवेकधीः । धर्मं श्रुत्वा मुनेः पार्चे बभूव श्रावको महान् ॥४५॥ कामभोगान् विहायाशु संसारत्रस्तमानसा । सुव्रतान्ते प्रवव्राज धीरा नागवसूरियम् ॥ ४६॥ नागदत्तोऽपि संपाल्य धर्म श्रावकगोचरम् । प्रययौ पञ्चतावाप्तिं सुसमाधानयोगतः॥४७॥ विमाने नन्दिघोषाख्ये ब्रह्मलोकसमुद्भवे । देवो दशसमुद्रायुर्बभूवोऽसौ महाप्रभुः ॥४८॥ ॥ नागवखर्यिका साध्वी चम्पोद्यानवने तदा । विधायानशनं कृत्वा महाशुक्रेऽभवत् सुरः ॥४९॥ स्पष्टहस्तचरो जीवश्चतुर्थनरकोद्भवः । ततो निःसृत्य जातोऽयं वृषभाख्यगिरौ करी ॥ ५० ॥ योऽसौ गरुडदत्ताख्यो ज्येष्ठपुत्रोऽपि तद्भवः । काकजङ्घाभिधो व्याधस्तगिरावभवद् बली ॥५१॥ 1 पफ omit No. 20. 2 [ तेनायातो]. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 5[भूपस्तद्गृहे ]. 6ज रत्नहस्ताभिधं. 7 [बोधिस्थोऽथ धनं]. 8ज चतस्रः 9 पफ खडखडामिख्यो. 10 पफ परिप्राप. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०५. ८४] हस्तकश्रेष्ठिकथानकम् बभूवतुरुभे जाये तस्य व्याधस्य वल्लभे । दुर्गा-गङ्गाभिधे तत्र कृष्णाङ्गे रक्तलोचने ॥ ५२ ॥ ततो दुर्गाभिधानाया ज्येष्ठाया निजयोषितः । वितीर्णे सति तेनास्या मुसले दन्तपूर्वके ॥ ५३॥ एवं सति कृतेऽनेन 'गङ्गा रुष्टा कनिष्ठिका । सोदिता ते प्रभातेऽहं दास्यामीदं विनिर्ययौ ॥५४॥ ततोऽन्यदिवसे जाते धनुर्मुक्तशरेण सः । स्पटहस्तचरो हस्ती निषादेन निपातितः ॥ ५५ ॥ ततो मृतः पुनः सोऽयं त्रिकूटाख्यमहीधरे । संजातः कीचकः पक्षी पूर्वपापफलोदयात् ॥५६॥। भूयः पापड़ियातेन तद्रौि तेन पापिना । दग्धो दवाग्निना पक्षी कीचको नीडगः सकः ॥ ५७॥ ततोऽपि सिंहलद्वीपे द्रविलासन्नवर्तिनि । विन्यानदी बभूवात्र जलकल्लोलसंकुला ॥ ५८॥ मिलितेयं समुद्रस्य यत्र देशे जलोज्वले । जातः कर्कटकः पापात् पक्षिजीवः सुदुःखितः ॥५९॥ काकजङ्घाभिधो व्याधः कृत्वा कालं सुदुःखतः । संजातो धीवरः पापः कुलीरग्रामसंभवः ॥६॥ समुद्रसंगमे तस्मिन् मुक्तागारे स धीवरः । मौक्तिकानि समादातुं संप्राप्तो निजलीलया ॥ ६१॥" कृत्वा तन्मौक्तिकैः पुजं विन्याख्यसरितस्तटे । यावद्याति च सोऽन्यत्र धीवरो मौक्तिकाशया॥६२॥ तावन्निःसृत्य वेगेन कर्कटः कुहरान्तरात् । गृहीत्वा तानि सर्वाणि मौक्तिकानि बिलं ययौ ॥६३॥ मुक्त्वा बिलान्तरे तानि मौक्तिकान्यखिलान्यसौ । कर्कटोऽदर्शनीभूय तस्थावन्यत्र तोपतः॥६४॥ तत्र धीवरमुक्तानि मौक्तिकानि पुनः पुनः । गृहीत्वा तानि यात्येषः कुरुविन्नो बिलान्तरे ॥६५॥ तन्मुक्तमौक्तिकान्येष कुर्वाणो निजमन्दिरे । धीवरेण हतः कोपात् कर्कटः पञ्चतामितः ॥६६॥॥ भग्नालिविषये नूनमम्बुदावर्तपर्वते । कसंवलकनामास्ति ग्रामो जनधनान्वितः ॥ ६७॥ अभूदुत्पलको नाम ग्रामेऽमुष्मिन् कृषीवलः । भृत्यो नन्दिविलासोऽस्य तत्प्रिया कृमिकाभिधा ॥६॥ अनयोनेन्दनः कान्तः करभाख्यः स कर्कटः। धीवरोऽपि मृति प्राप्य तद्रामेऽभूत् किशोरकः ॥६९॥ अश्वयूथस्य मध्यस्थं तं किशोरं मनोहरम् । रक्षति प्रीतचेतस्को करभः करभाननः ॥ ७० ॥ किशोरमश्ववृन्दस्थं दृष्ट्वा तं पूर्ववैरिणम् । रुष्टो निहन्ति सोऽत्यर्थं करभो यष्टिलोष्टुभिः ॥ ७१ ॥" अश्वोऽपि तं छलेनोचैर्विधातोत्कलितं महत् । घनपादप्रहारेण जघान करभं रुषा ॥ ७२ ॥ एवं याति तयोः कालो वैरेण महता तदा । परस्परसमायातविह्वलीकृतचेतसोः ॥७३॥ अन्यदा चारणास्तुङ्गमम्बुदावर्तपर्वतम् । चत्वारो मुनयः प्रापुर्धर्मविन्यस्तमूर्तयः ॥ ७४॥ प्रथमोऽनन्तवीर्याख्यः परो देवोपपादिकः। अन्यः श्रीनिलयो योगी श्रीधर्मश्चेत्यमी क्रमात् ॥७५॥ विलोक्य करमः साधूंस्तत्पर्वतशिरःस्थितान् । जगाम तत्समीपत्वं करभो धर्मवाञ्छया ॥ ७६ ॥ नत्वा मुनीन् स भावेन चतुरोऽपि यथाक्रमम् । स्वभावार्जवसंपन्नस्तत्समीपे निविष्टवान् ॥ ७७॥ धर्म जिनोदितं सर्व करभः प्रीतमानसः । अनन्तवीर्यसामीप्ये जग्राह विनयानतः ॥ ७८ ॥ नत्वा मुनीन् स निर्गत्य तत्समीपादरं सुधीः । गत्वा तदश्वसामीप्यं दुर्दिने सति सुप्तवान् ॥ ७९ ॥ सुप्तं करभमालोक्य सप्तिना पूर्ववैरिणा । गले दन्तैः समादाय मारितोऽयं पदाहतः ॥ ८॥ तेनाश्वेन हतः सन् स सौधर्मे धर्मसंभवे । अभ्यन्तरसभामध्ये जलकान्तविमानके ॥ ८१॥॥ हारराजितवक्षस्कः कर्णकुण्डलशोभितः । पञ्चपल्योपमायुष्को जातो देवो महर्द्धिकः ॥ ८२॥ अङ्गकाख्यमहादेशे चम्पाख्यायां पुरि प्रभुः। विद्युद्वाहननामाभूत् तत्प्रिया विमलप्रभा ॥ ८३॥ तस्येभ्यो भवदत्ताख्यः श्रेष्ठी प्राणसमोऽभवत् । रूपयौवनसंपन्ना चास्य भद्रमतिः प्रिया ॥ ८४ ॥ . 1 ज रुष्टा गङ्गा. 2 पफ कुर्कटकः. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 ज स दुःखतः. 5 पफ कुर्कटः, 6 पफ कुर्कटः. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०५.८५ 15 १०० ॥ १०१ ॥ सोऽनुभूय सुखं देवो जलकान्तविमानके । भवदेवोऽनयो रूपी कुमारोऽभवदिद्धधीः ॥ ८५ ॥ अस्यामेव पुरि श्रीमान् पद्मदेवोऽमरप्रियः । इभ्यो बभूव तद्भार्या पद्मादेवी जनप्रिया ॥ ८६ ॥ नन्दिघोषविमानेशो योऽसौ देवः सुखैधितः । जिनदेव कुमारोऽभूदेतयोः प्रीतचेतसोः ॥ ८७ ॥ पूर्वस्नेहानुबन्धेन तयोः प्रीतिरनुत्तरा । राम-लक्ष्मणयोर्यद्वद् बभूव श्रेष्ठिपुत्रयोः ॥ ८८ ॥ • अन्यदा धर्मसंयुक्तो जिनपादाब्जषट्पदः । मेरुप्रभगुरोः पार्श्वे जिनदेवोऽभवन्मुनिः ॥ ८९ ॥ क्रमेण जिनदेवोऽयं जिनागमविशुद्धधीः । महासंघाधिपो जातो धर्माख्यानपरायणः ॥ ९० ॥ पूर्वप्रेमानुबन्धेन भवदेवोऽपि निःस्पृहः | जिनदेवान्तिके दीक्षां जग्राह जिनदेशिताम् ॥ ९१ ॥ अन्यदा गुरुमापृछ्य भवदेवो महामुनिः । विहरन् क्वापि विश्रब्धः कलिङ्गविषयं ययौ ॥ ९२ ॥ ऐरावती नदीतीरे नन्दिग्रामसमुद्भवे । भवदेवोऽत्र संतस्थे तदातापनयोगतः ॥ ९३ ॥ • उपसंहृत्य तं योगं भवदेवः कदाचन । ददर्श तन्नदीतीरे स्वर्णकुम्भं धनान्वितम् ॥ ९४ ॥ आदाय तं निजस्कन्धे खात्वा भूमिं निधाय च । दत्त्वोपरि शिलां तत्र निश्चलां महतीं पुनः ॥ ९५ ॥ तद्द्रव्यरक्षणार्थं च तत्रत्यो धनतृष्णया । ददावातापनायोगं भवदेवो दिने दिने ॥ ९६ ॥' आतापनां ददात्येष तत्रत्यः प्रहरद्वयम् । भवदेवः समुत्तीर्य ततोऽसौ याति पत्तनम् ॥ ९७ ॥ तंत्र भिक्षां विधायाशु भवदेवो विशुद्धधीः । ददावातापनं योगं तत्प्रदेशे धनाशया ॥ ९८ ॥ दिने दिने दिनं सर्वं स्थित्वाऽऽतापनयोगतः । शर्वरीप्रतिमास्थोऽयं तत्रैव स वितिष्ठते ॥ ९९ ॥ एवं तपः प्रकुर्वाणमुग्रं नक्तंदिवं मुनिम् । देवीयं मन्दिरा नाम ददर्श निधिपालिका ॥ अर्जिकारूपसंपन्ना दिव्यालंकार भूषिता । हसन्ती तं जगादेति दिव्यरूपसमन्विता ॥ उग्रं तपस्त्वया साधो विहितं ननु सांप्रतम् । महीग्रामं परिप्राप्य मत्समं शर्ममानय ॥ देवीवचनमाकर्ण्य जगौ साधुरिमां रुषा । मत्समं किं खले ब्रूषे त्वं वृद्धे दुष्टमीदृशम् 20 अनूचानवचः श्रुत्वा देवता निजगावमुम् । विस्मयव्याप्तचेतस्का तच्छिक्षापणकारिणी ॥ निर्लज्जस्त्वं तरां साधो लोभदूषितमानसः । येनेदृशं व्रतं प्राप्य देवानामपि दुर्लभम् मणिरत्नादिपूर्णस्य कुम्भस्योपरि संस्थितः । तपः करोषि लोभेन संसारभयनिर्भयः ॥ देवताभारतीं श्रुत्वा प्रतिबोधपरायणः । स्वनिन्दा गर्हणासक्तो बभूव सहसा मुनिः देवतावाक्यसंबुद्धः संसारत्रस्तमानसः । जिनदेवगुरोः पार्श्वे जगामायं यतीश्वरः ॥ • आलोचनाविधिं कृत्वा प्रव्रज्यां चापि निर्मलाम् । भवदेवो बभौ योगी गुरोराचारवेदिनः ॥ जिनदेवाभिधानेन निजेन गुरुणा सह । अयनाख्यपुरं प्राप भवदेवो विशुद्धधीः ॥ तत्र राजा सुकेत्वाख्यो बभूवोन्नतशासनः । प्रिया केतुमती चास्य गृहीतपतिमानसा ॥ बभूवास्य नरेन्द्रस्य सुभद्राख्यो वणिक्पतिः । श्रीदत्ता गेहिनी तस्य श्रीदत्तेव सपत्निका सर्वलोककृतानन्दः सर्वलोकमनोहरः । बभूव भुवनख्यातो भद्रबाहुः सुतोऽनयोः ॥ महाविभूतियोगेन दृष्ट्वेमं पूजितं सताम् । भवदेवश्चकारेदं निदानं मन्दबुद्धिकः ॥ ११४ ॥ पूजाविधानमीदृक्षं नियतं तपसः फलात् । अन्यजन्मनि मे पूतं भवतु प्रीतिकारणम् ॥ ११५ ॥ सनिदानं मृतिं कृत्वा भवदेवो भवप्रियः । सांसारिक सुखा संगनितान्तस्थितमानसः ॥ ११६ ॥ सनत्कुमारसंभूतजम्बूनदविमानके । बभूव भासुरो देवः सप्तसागरजीवितः ॥ ११७ ॥ आराधनां समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम् । द्वाविंशतिसमुद्रायुर्जिन देवोऽच्युतं ययौ ॥ ११८ ॥ १०२ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ११३ ॥ 30 १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ * १०७ ॥ १०८ ॥ १०९ ॥ 1 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 2 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 3 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 4 पफ युग्मम् ज युगलमिदम् 5 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. ११० ॥ * १११ ॥ ११२ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०५. १५० ] हस्तकश्रेष्ठिकथानकम् २६१ १२० ॥ १२१ ॥ १२८ ॥ ७ १२९ ॥ १३० ॥ अवन्त्याख्यमहादेशे श्रीमदुज्जयिनी पुरी । अस्यां सिंहबलो राजा श्रीषेणाऽस्य च कामिनी ॥ ११९ ॥ रूपराजितसर्वाङ्गी नीलोत्पलदलाम्बका । कीर्तिशुश्रीकृताकाशा कीर्तिषेणा सुताऽनयोः ॥ बभूव भूपतेरस्य श्रेष्ठी बहुधनान्वितः । 'सुबन्धुर्बन्धुसंपन्नो धनश्रीरस्य गेहिनी ॥ जाम्बूनदविमानेशो भवदेवचरोऽमरः । च्युत्वा सनत्कुमारात् स धनश्रीगर्भमाययौ ॥ तस्मिन् गर्भस्थिते सर्वे बान्धवा जनकादयः । कालगोचरतां प्राप्ता युगपद्दुःखपीडिताः ॥ मृतेषु तेषु सर्वेषु बान्धवेष्वसुखार्दिताः । धनश्री गर्भिणी प्राप तदा सिप्रानदीतटम् ॥ तत्रस्था रोदनं दीना धनश्रीः कुर्वती तराम् । मेदामहानरेणाशु पर्वतेन विलोकिता ॥ ततः स्वसारमाभाष्य पर्वतेन स्वमन्दिरम् । नीता कृपावता शीघ्रं धनश्रीः प्रेमकारिणा ॥ धनश्रीस्तगृहे दीना प्रसूता दारकं शुभम् | 'मेदजनामसंयुक्तो ववृधेऽसौ शनैः शनैः ॥ भ्राता धनश्रियः श्रेष्ठी भवच्छ्रीषेणनामकः । बन्धुरस्या महानेष स परं क्रूरमानसः ॥ नागश्री प्रिया हृद्या तत्सुता रूपशालिनी । तिलक श्रीरिति ख्याता सर्वस्त्रीतिलका भुवि ॥ एषा पूर्वभवे नूनमासीन्नागवसूर्भुवि । कुमारः सत्कुमारोऽयं मेदजः स्फुटहस्तकः ॥ पठतोर्लेखशालायां 'मेदज्जतिलकश्रियोः । पूर्वस्नेहानुरागेण बभूव प्रीतिरुन्नता ॥ १३१ ॥ अन्यदा मधुमासे च संप्राप्ते श्रेष्ठमन्दिरे । हिन्दोलके विरूढौ तौ मेदज्जतिलकश्रियौ ॥ १३२ ॥ हिन्दोलनं प्रकुर्वन्तौ हृष्टौ तौ श्रेष्ठिनं रुषा । आहत्य निजपादेन 'दोलातोऽयं वियोजितः ॥ १३३ ॥ " म्लेच्छविट्टालितः शीघ्रं त्वं यासि मम मन्दिरात् । पल्लिं जगाम तद्वाक्यान्मेदजो मातरं प्रति ॥ १३४ ॥ किंवदन्ती च सा तेन स्वमातुः पर्वतस्य च । कथितां वा समाकर्ण्य दुःखितौ तौ बभूवतुः ॥ १३५ ॥ श्रीमदुज्जयिनीं प्राप्य मेदजो निजमातुलम् । भवश्रीषेणनामानं ययाचे तत्सुतामिमाम् "मेदजवचनं श्रुत्वा महाग्रहसमन्वितम् । भवश्रीषेणनामेमं जगादेति धनातुरः ॥ तिलक श्रीप्रमाणां त्वं स्वर्णस्य प्रतिमां यदि । देहि मे नियतं भद्र ततो यच्छामि तेऽङ्गजाम् निशम्य मातुलस्योक्तं लोभदूषितचेतसः । संप्राप्य मातरं प्राह मेदजः पुरतः स्थिताम् तिलकश्रीसमं दिव्यं जातरूपं महाप्रभम् । याचते मां तव भ्राता सोपरोधं सगौरवम् पुत्रवाक्यं समाकर्ण्य धनश्रीर्निजगावमुम् | त्वत्पिता निहतोऽनेन गृहीतं धनमप्यदः ॥ अहं दुःखभराक्रान्ता मेदपलिं समाश्रिता । तिलकश्रीसमं स्वर्णं कुतः प्राप्नोमि बालकः ॥ अम्बिकोक्ते स मेदजः प्रविश्य गहनं वनम् । महावृक्षं समारुह्य मुञ्चामि खमतः स्थितम् ॥ १४३ ॥ अत्रान्तरे सुरः पूर्वो नागदत्ताभिधानकः । तपः कृत्वाऽच्युतं प्राप्य यः प्राप" सुरनाथताम् ॥ १४४॥ मुनिरूपं समादाय मेदज्ञं प्राप्य वेगतः । नागदत्तचरः शक्रो बभाणेमं ससंभ्रमम् ॥ १४५ ॥ त्वं मेदज्ञः कुतस्तात समुत्तुङ्गमहातरुम् । अधिरुह्यामुतः क्षिप्रं मुञ्चसि त्वं तु मे वद ॥ १४६ ॥ " भगवन् यद्यहं लप्स्ये तिलकश्रियमुन्नताम् । ततो जीवाम्यहं कक्षे वाऽन्यथा यामि पञ्चताम् ॥ १४७॥ मेदज्जवचनं श्रुत्वा शक्रः साधुर्जगावमुम् । किं कारणमिमां कन्यां न प्राप्नोषि वदाशु मे ॥ १४८ ॥ * इन्द्रसाधुवचः श्रुत्वा मेदज्जोऽपि बभाण तम् । तिलकश्रीसमं स्वर्णं याचते मातुलो हि माम् ॥ १४९ ॥ मेदज्जवाक्यमाकर्ण्य कन्यायाचनतत्परम् । पूर्वस्नेहानुरागेण देवसाधुरवोचत ॥ १५० ॥ ॥ १३६ ॥ ॥ 1 पफ सुवधुर्वधु 2 [ मेदज° ]. 3 ज ववृधे सो. 4फ नावसु. दोलान्तोऽयं. 7 [ मेदज्ज]. 8 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 9 [ बालक ]. युग्मम् ज युगलम. ॥ ॥ १२२ ॥ १२३ ॥ १२४ ॥ १२५ ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ १३७ ॥ १३८ ॥ - १३९ ॥ १४० ॥ १४१ ॥ १४२ ॥ 5 पफ मेदज: 6 पफ 10 ज प्राप्तः 11 पफ -30 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०५. १५१यदि द्वादशवर्षाणि भुक्त्वा भोगान् समं तया । ततः प्रव्रजसि क्षिप्रं कनकारों ददामि ते ॥१५॥ मेदजोऽपि समाकर्ण्य पुरन्दरमुनेर्वचः। अवादीत् तं विनीतात्मा तत्कन्याहृतमानसः ॥ १५२॥ जायते यदि मे साधो तिलकश्रीसमागमः । ततस्तद्वचनं सत्यं करोमि शिरसा द्रुतम् ॥ १५३॥' मेदज्जस्योदितं श्रुत्वा कन्याकुलितचेतसः । आखण्डलमुनिः प्राह तद्गुणाकृष्टमानसः ॥१५४ ॥ । सन्मार्जनादिकं साधु कारयित्वा स्वसद्मनः । सिते प्रसारित वस्त्रे वर्णार्चा गच्छति प्रखात् ॥१५५॥ एवं निगद्य कक्षस्थं मेदजं पाकशासनः । जगाम स्वालयं तूर्णं तद्गुणध्यानतत्परः ॥ १५६॥ गते पुरन्दरे सोऽपि वृक्षादुत्तीर्य वेगतः । तोषपूरितचेतस्को जगाम निजमन्दिरम् ॥ १५७ ॥ शक्रोदितेन तेनापि स्वगृहे गगनान्ततः । सितवस्त्रोपरि क्षिप्रं कानकं प्रापि तत्प्रखात् ॥ १५८ ॥ मेदजस्तां समादाय भवश्रीषेणमाप्य सः । बभाण विस्मितस्वान्तः पुलकाञ्चितविग्रहः ॥ १५९ ॥ ॥ कनत्कनकनिर्माणां गृहीत्वा प्रतियातनाम् । सांप्रतं मातुल क्षिप्रं देहि मे तिलकश्रियम् ॥१६०॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी दृष्ट्वाऽाँ कानकी पुरः । विस्मयव्याप्तचेतस्को जगादैतं कृतस्मितः ॥१६१॥ क्षीरोदवारिधिं भद्र यद्यानयसि सत्वरम् । ततोऽहं कन्यकां तेऽलं ददामि तिलकश्रियम् ॥१६२॥ तद्वाक्यतः परिप्राप्य मातरं स्नेहवत्सलाम् । बमाणैतां विनीतात्मा तिलकश्रीसमुत्सुकः ॥ १६३ ॥ मातर्मातुलको वक्ति यदि त्वं क्षीरवारिधिम् । आनयसि मदाभ्याशं तन्वी दास्यामि ते सुताम् ॥१६४॥ 15 सुतवाक्यं समाकर्ण्य जगादेमं तदम्बिका । अन्यां कन्यां वृणीष्व त्वं पुत्र कस्यापि शोभनाम् ॥१६५॥ अस्माकमरिरूपोऽसौ छिद्रान्वेषणतत्परः । ददाति किं निजां कन्यां दुष्टचित्तः स ते वद ॥१६६॥' मन्मामो याचते यावत्प्रमाणां प्रतियातनाम् । कार्तस्वरमयीं साधो सा मे नास्ति कियत्यपि ॥१६७॥ इन्द्रस्तगिरमाकर्ण्य तत्सिद्ध्यर्थं मुदा ददौ । चिन्तामणिमथानेन कुरु त्वमभिवाञ्छितम् ॥१६८॥ ततो गत्वा वनात् प्रोक्तो मामोऽनेन ददामि ते । यत्किंचिद्याचसे नूनं किमन्यैः परिभाषितैः॥१६९॥ " भागिनेयवचः श्रुत्वा श्रेष्ठी तं निजगौ तदा । क्षीरोदमानय क्षिप्रं येन पश्यामि तं पुनः ॥१७०॥ श्रेष्ठिवाक्येन तेनापि गत्वा तद्भवने पुनः । चिन्तामणिकरेणाशु जल्पितं तारनादतः ॥ १७१॥ भो भो क्षीरसमुद्र त्वं भवश्रीषेणमन्दिरम् । आगच्छ त्वरितं श्रेष्ठी येन त्वां पश्यति ध्रुवम् ॥१७२॥ श्रुत्वा तन्निनदं श्रव्यं महारवसमन्वितः । पर्वतोन्नतकल्लोलः शङ्खवर्णजलौघकः ॥ १७३ ॥ महाजलप्लवेनायं प्लावयन्नगरीमिमाम् । क्षीरवाधिस्तदाऽऽगन्तुं प्रवृत्तो वातचञ्चलः ॥ १७४॥ 23 दृष्ट्वा क्षीरसमुद्रं तं प्लावयन्तं जलैः पुरीम् । मेदजश्रेष्ठिनं प्राह सप्रणामं जनोऽखिलः ॥ १७५ ॥ दृष्टो भवत्प्रतापोऽयमस्माभिर्न च कस्यचित् । अस्मान् बाह्यधुना नाथ क्षीरवारिधिनीरतः ॥१७६॥ ततस्तद्वचनात् तेन चिन्तामणिनिवारितः । स्वस्थावस्थो बभूवायं तदानीं क्षीरवारिधिः ॥१७७॥ तस्मिन् क्षीरोदधौ तेन मेदजेन निराकृते । विज्ञातोऽयं महान् कोऽपि पुरुषः सकलैनरैः ॥१७८॥ विद्यासामर्थ्यमेतस्य प्रविज्ञाय स मातुलः । ददावस्मै महाभूत्या स्वसुतां तिलकश्रियम् ॥१७९॥ " महाविभतियोगेन श्रीमदुजयिनीपतिः। कीर्तिषेणां ददावस्मै स्वकन्यां श्रीसमप्रभाम् ॥ १८० ॥ रूपलावण्यसंपन्ना द्वात्रिंशत् कन्यकाः पराः । परिणीतास्तथाऽनेन राजश्रेष्ठिसमुद्भवाः ॥ १८१ ॥ राजश्रेष्ठिमहापर्ट प्राध्वंकृत्य महीपतिः। पूजयामास तं वीरं मेदजं वरसंपदा ॥ १८२ ॥ एताभिर्वरनारीभी रूपराजितमूर्तिभिः । मेदज्जो बुभुजे भोगान् दिनानि कतिचिन्मुदा ॥१८३॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 7 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 8 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 9 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०५. २१६ ] हस्तकश्रेष्ठिकथानकम् २६३ तिष्ठन्नेवं तदा श्रेष्ठी मेदजः सुरसाधुना । आगत्य गदितः क्षिप्रं भोगसंसक्तमानसः ॥ १८४ ॥ राजन् श्रेष्ठिन् कुतो मूढ नितरां भोगसंपदा । न करोषि तपो जैनं महाविभवकारणम् ॥ १८५॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी बभाणेमं पुरःस्थितम् । भोगं द्वादश वर्षाणि भुक्त्वाऽहं तिलकश्रिया ॥१८६॥ पश्चात्तपः करिष्यामि संसारोच्छेदकारणम् । भवत्पार्धं विनीतात्मा त्यक्ताशेषपरिग्रहः ॥ १८७॥ मेदजवचनं श्रुत्वा भोगयाचनतत्परम् । एवमस्त्विति संभाष्य ययौ शको निजास्पदम् ॥१८८॥ गतेषु द्वादशाब्देषु भुञ्जानस्यास्य संपदम् । आगत्य तत्समीपं च जगादैतं सुराधिपः ॥१८९॥ तद्वाक्यतः पुनः प्राह मेदजं सुरकुञ्जरम् । देहि द्वादशवर्षाणि ममान्यानि सुखं प्रति ॥ १९०॥ इन्द्रस्तस्योपरोधेन भोगसंसक्तचेतसः । जगाम निजमावासं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ १९१ ॥ मेदजोऽपि तया सार्धं सरसं तिलकश्रिया । मनसः प्रियया भोगं भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥१९२॥ भूयः समाप्तिमाप्तेषु वर्षेषु द्वादशात्मसु । संप्राप्य स सुराधीशः प्राहेमं भोगलोलुपम् ॥ १९३ ॥ ॥ मेदज सांप्रतं मूढ कुरु जैनं तपोऽमलम् । नाकापवर्गसौख्यानि येन सन्ति तव स्फुटम् ॥१९४॥ शक्रवाक्यं समाकर्ण्य मेदजो निजगावमुम् । भूयो द्वादश वर्षाणि देहि मे तत्सुखं प्रति ॥१९५॥ इन्द्रस्तदुपरोधेन दत्त्वा तावन्मितानि सः । जगाम प्रीतचेतस्को निजनाकं महामनाः ॥ १९६ ॥ पूर्णेषु द्वादशाब्देषु देवः संप्राप्य तं जगौ । मेदज कुरु जैनेन्द्रं तपो निवृत्तिकारणम् ॥ १९७॥ देववाक्यं समाकर्ण्य मेदज्जोऽमरकुआरम् । बभाण भासुराकारः कोपलोहितलोचनः॥ १९८॥5 कोऽसि त्वं वद किं नाम व वास्तव्यो महान् किल। भूयो भूयोऽपि मां प्राप्य येनेदं भाषसे बुध ॥१९९ हित्वा देवोपमान् भोगान् नग्नत्वेन करोमि किम् । गृहसिद्धन को नाम भिक्षांभ्रमति मूढधीः॥२०॥ आकर्ण्य तद्वचो देवो दध्यौ मनसि धीरधीः । महाकामग्रहग्रस्तो भोगान् हृद्यान्न मुञ्चति ॥२०१॥ तथा करोम्यहं किंचित् कार्यं जगति तद्धितम् । तपस्यति यथाऽयं हि भोगनिःस्पृहमानसः॥२०२॥ चिन्तयित्वा चिरं देवस्तद्रूतग्रहणेच्छया । बभूव विह्वलीभूतमानसप्रसरः क्षणम् ॥ २०३ ॥३॥ ततोऽन्यस्मिन् दिने जाते मेदजश्रेष्ठिनि द्रुतम् । नरेन्द्रसेवया याते भूपालभवनं प्रति ॥ २०४ ॥ अथान्तरे गृहद्वारे तदीये पुरुषान्निजान् । गृहीतसायकवातान् स्थापयित्वा भयानकम् ॥ २०५॥ मेदजरूपमादाय तत्समानाकृति द्रुतम् । आखण्डलो विवेशासौ तहान्तरमादरात् ॥ २०६ ॥ आदाय तत्परीवारमन्तःपुरधनादिकम् । तदाकृतिधरो देवस्तस्थौ मुदितमानसः ॥ २०७॥ एवं तत्र स्थिते देवे मेदजः प्राप्य भूपतिम् । विशन् स्वमन्दिरद्वारं निषिद्धो द्वारपालकैः ॥२०८॥ अस्मिन् गृहान्तरे श्रेष्ठिन् मा प्रवेशं विधत्स्व भोः । आस्ते ममाधिपो भोगं भुञ्जानस्तिलकश्रिया २०९ स्वगृहाभ्यन्तरं गन्तुं लभमानो न तन्नरैः । राजान्तिकं जगामाशु मेदजो विस्मयाकुलः ॥२१०॥ मेदज्जोऽपि नृपं प्राप्य जगादेमं सविस्मयः। महान्तरमाविश्य कोऽपि धूर्तः स्थितो नृप ॥२११॥ स्वगृहेऽलभमानोऽहं प्रवेशं नरकुञ्जरः । त्वदन्तिकं परिप्राप्तस्तद्भयाकुलमानसः ॥ २१२ ॥ तद्वाक्यतः समाहूतो देवश्रेष्ठी महीभुजा । आगत्य स्वोचितस्थाने निविष्टो भूपचोदितः ॥ २१३॥" अनयोः श्रेष्ठिनोर्मध्ये समानाकारधारिणोः । मेदजो निश्चयं कर्तुं न शशाक महीपतिः ॥२१४॥ ततो योषं समादाय विस्मयव्याप्तमानसः । सभ्यैः समं सभान्तस्थः संशयी स वितिष्ठते ॥२१५॥ नृपं ततोऽमरश्रेष्ठी सचिवादिसमन्वितम् । जगौ तदा सभाध्यक्ष खनादापूरिताम्बरः ॥ २१६ ॥ ___ 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकल मिदम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 [ नरकुञ्जर ]. 5 [ जोषं ]. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०५. २१७ युष्मदीयेऽस्मदीये च वंशे यः कुलसंततिम् । जानाति स भवेन्नूनं मेदज्जो वणिजां पतिः ॥२१७॥ यस्त्विमां संततिं भूप न जानाति सभान्तरे । तस्य धूर्तस्य चाद्यैव कर्तव्यो निग्रहस्त्वया ॥२१८॥ देवश्रेष्ठवचः श्रुत्वा नरेन्द्रो निजगावमुम् । एवं भवतु साधूक्तं भवतामपि संगतम् ॥ २१९ ॥ ततोऽवाचि नरेन्द्रेण मेदज्जो वणिजां पतिः । सांप्रतं नियमं श्रेष्ठिन् ब्रूहि मत्कुलसंततिम् ॥ २२० ॥ ' इदं भूपेन संपृष्टः श्रेष्ठी मेदञ्जनामकः । भूपस्य चात्मनश्चापि न विवेद कुलान्वयम् ॥ २२९ ॥ मूकभावं समासाद्य स्थिते मेदजवाणिजे । देवश्रेष्ठ ततोऽवाचि भूभुजेदं सभान्तरे ॥ २२२ ॥ सांप्रतं परमार्थेन मद्वशं त्वं निवेदय । येन जाजायते तोषो मम सभ्यजनस्य च ॥ २२३ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं देवश्रेष्ठी जगावमुम् । आकर्णयैकचित्तेन त्वद्वंशं कथयाम्यहम् ॥ २२४ ॥ जर्जयन्तो नराधीश प्रथमोऽभवदन्वये । बभूव साधितारातिः श्रीमदुज्जयिनीपतिः ॥ २२५ ॥ तत्सुतोऽरिंजयो जातस्तत्पुत्रोऽपि च धीरजः । तत्पुत्रोऽपि जयन्तोऽभूत् तत्सुतश्चक्रनामकः ॥ २२६॥ तत्सुतोऽप्युञ्जयो नामा ततो मेघंजयः सुतः । तत्पुत्रश्चक्रवर्ती च मेघवाहस्ततोऽङ्गजः ॥ २२७ ॥ अधुना त्वं नराधीश मेघवाहननन्दनः । सिंहवाहननामा च जातः सिंहपराक्रमः ॥ २२८ ॥ एते त्वद्वंशजा भूपा नरवृन्दारकस्तुताः | जिनधर्मं समादाय बभूवुः श्रमणा मुदे ॥ २२९ ॥ केचित् स्वर्गं परिप्राप्ताः सुरदेवमनोरमाः । केचिच्च क्षीणकर्माणो मोक्षं बाधाविसर्जितम् ॥२३०॥ त्वद्वंशजातभूपानां परिपाट्या मदन्वये । बभूव मानवो नाम राजश्रेष्ठी महाधनः ॥ २३१ ॥ सुतो महेन्द्रदत्तोऽस्य तस्याप्यक्षोभनामकः । जातो धनपतिस्तस्मात् स्वर्णदत्तः सुतस्ततः ॥ २३२॥ इन्द्रदत्तस्ततो जातो दत्तान्तः सागरादिकः । वरुणोपपदो दत्तो मेघदत्तस्ततः सुतः ॥ २३३ ॥ मेघदत्ततनूजोऽहं मेदजाख्यो नरेश्वर । जातो भवत्प्रसादेन राज श्रेष्ठी महाधनः ॥ २३४ ॥ एते सर्वेऽपि राजेन्द्र श्रेष्ठिनस्त्वत्कुलान्वये | जिनधर्मं परिप्राप्य बभूवुः श्रमणोत्तमाः ॥ २३५ ॥ कुलवंशे नरेन्द्रस्य स्वस्यापि कथितेऽधुना । बभूव भूपतिः प्रीतस्तदा देववणिक्पतेः ॥ ततो जगाद भूपालो नरसिंहं कुधातुरः । धूर्तश्रेष्ठिनमेतं च प्राध्वंकृत्य खलाधमम् ॥ असत्यवादिनं हीनं दुष्टाचारसमन्वितम् । नरसिंह श्मशानस्थशूलिकायां निधापय ॥ २३८ ॥ ततो भूपालवाक्येन हस्तद्वयनियत्रितम् । तदा तलारसंघोऽपि शूलिकान्तं निनाय तम् ॥२३९॥ अथ मौनीश्वरं रूपं सामादाय तदन्तिकम् । संप्राप्याह तं देवो हसन् किंचित् तदग्रतः ॥ २४० ॥ श्रेष्ठिन् द्वादशवर्षाणि त्वमन्यानि च सांप्रतम् । भुंक्ष्व तावन्महाभोगान् सरसं तिलकश्रिया ॥२४१॥ साधुवाक्यं समाकर्ण्य जगौ श्रेष्ठी तदा तकम् | पाहि पाहि मुने मां हि न मे भोगैः प्रयोजनम् ॥ २४२ ॥ कारापय मुने शीघ्रं मोचनं मम येन च । तपः करोमि जैनेन्द्रं सर्वदुःखक्षयावहम् ॥ २४३ ॥ ज्ञात्वा तन्निश्चयं साधु पूर्व स्नेहार्द्रमानसः । तलारान्निजगौ योगी कोधारुण निरीक्षणः ॥ २४४ ॥ रे रे मा मारणं वत्साः कुरुतास्यापराधिनः । यावद् दृष्ट्वा सुभूपालमागच्छामि तदन्तिकात् ॥ २४५ ॥ " देवसाधुर्जगादेमं भूपालं सदसि स्थितम् । श्रेष्ठिनः सत्यभूतस्य मा कारापय हिंसनम् ॥ २४६ ॥ सुरसाधुवचः श्रुत्वा जगौ भूपोऽपि तं पुनः । दोषं राजसभामध्ये प्राप्तोऽयं किं न हन्यते ॥ २४७॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं देवसाधुर्जगावमुम् । सोऽहं येन कुलोत्पत्तिः कथिता तव भूपतेः ॥ २४८ ॥ २३६ ॥ २३७ ॥ 10 10 15 20 25 २६४ 1 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम्. 2 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 3[विवर्जितम् ]. 4 ज तस्याप्यक्षोभ्य 5 पफ नरेश्वरः. 6 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 7 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 8 [ संप्राप्याह च तं ]. 9 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 10 पफ वस्साः Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०५. २८१] हस्तकश्रेष्ठिकथानकम् अवाचि भभुजा साधुः पूर्वसंबन्धकारणम् । कथयाशु मम स्पष्टं येन संपद्यते सुखम् ॥ २४९ ॥ उक्त्वा तत्पूर्वसंबन्धं तदा पूर्व विधानतः । दिव्यरूपं निजं देवो दर्शयामास भूपतेः ॥ २५० ॥ देवरूपं समालोक्य ववंशस्थितिमेव च । जगाम विस्मयं राजा संसदा सह सादरम् ॥ २५१ ॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीदृशं भूपो भूपजनान्वितः । मेदजश्रेष्ठिसामीप्यं जगाम सुकुतूहली ॥ २५२ ॥ तस्मिन् नरेश्वरे प्राप्त समस्तजनसंगते । देवो बभाण तद्वृत्तं वकीयं च यथाक्रमम् ॥ २५३ ॥ 'स्फटहस्तादिकं सर्वं मेदज्जस्य भवान्तरम् । स्वकीयं च जगौ देवो जनभूपालसाक्षिकम् ॥२५४॥ श्रुत्वा निजभवं श्रेष्ठी संसारत्रस्तमानसः । महावैराग्यसंपन्नो बभूव क्षणमात्रतः ॥ २५५॥ प्राचीनवज्रिणा श्रेष्ठी क्षीरोदजलपूरितैः । अष्टोत्तरशतैः कुम्भैः स्नापितः कानकैस्तदा ॥ २५६ ॥ मेदजोऽपि वपुत्रस्य श्रीदत्तस्य महात्मनः । श्रेष्ठिपट्ट बबन्धोच्चैस्तदानीं भूपसाक्षिकम् ॥२५७॥ राजादिकस्य लोकस्य कृत्वा त्रेधा क्षमापणम् । श्रीधर्मगुरुसामीप्ये मेदज्जोऽशिश्रियत् तपः ॥२५८॥ ० तिलकश्रीस्तथा साध्वी कीर्तिषेणासमन्विता । द्वात्रिंशच्छ्रेष्ठिसद्भार्याः सुव्रतान्ते प्रवव्रजुः ॥२५९॥ सिंहवाहनभूपालो विषवाहनसूनवे । दत्त्वा राज्यश्रियं सर्वां सामन्तादिपुरस्सरम् ॥ २६०॥ महावैराग्यसंपन्नः सामन्तान्तःपुरान्वितः । श्रीधर्मगुरुसामीप्ये दधौ दैगम्बरं तपः ॥ २६१॥ बन्धुकृत्यं विधायास्य यत्नेन महता भुवि । ययौ प्राचीनवज्री च कृतकृत्यो निजां दिवम् ॥२६२॥ अवगाह्य श्रुतं साधुर्मेदज्जः स्थिरमानसः । बभ्रामैकविहारी स समस्तवसुधातलम् ॥ २६३॥ 15 अन्यदा विहरन् क्वापि मेदज्जः स मुनिः क्रमात् । कौशाम्बीनगरी प्राप पताकावलिराजिताम् ॥२६४॥ अस्यां बभूव भूपालो गन्धर्वानीकनामकः । अङ्गारदेवनामास्य कलादः कुशलः क्षितौ ॥ २६५ ॥ मणिभिः पद्मरागाद्यैः स्वकरोद्योतिताम्बरैः । कुर्वन् मकुटमेतस्य भूपतेः स वितिष्ठते ॥ २६६ ॥ गृहमङ्गारदेवस्य रममाणो निजेच्छया । काकतालीययोगेन संप्रापच्च शिखाबलः ॥ २६७ ॥ गृहाट्टहान्तरं भ्राम्यन् मेदज्जाख्यो महामुनिः । तत्कलादगृहं प्राप प्रलम्बितभुजद्वयः॥ २६८॥ 20 दृष्ट्वा स्वगृहमायातं चर्यामार्गेण योगिनम् । मन्दं मध्याह्नवेलायां कलादो निष्टपान्मुनिः ॥२६९॥ अत्रान्तरे प्रभादीतं पद्मरागमणिं परम् । शिखी जग्राह तं गृह्णन् मुनिनाऽयं विलोकितः ॥२७०॥ यावदायाति वेगेन तं प्रदेशं मणीच्छया । तावदङ्गारदेवोऽपि न पश्यति मणि क्वचित् ॥ २७१॥ अपश्यंस्तं मणिं सोऽपि साधुं पृच्छति सत्वरम् । दृष्टो मणिस्त्वया क्वापि प्रदेशेऽत्र वद प्रभो ॥२७२॥ मुनिर्मौनव्रती भूयः पृष्टोऽनेन प्रपञ्चतः । सकुटुम्बोऽपि यास्यामि पञ्चतां मण्यभावतः ॥ २७३ ॥ 25 तस्माद्भूहि प्रयत्नेन गृहीतः केन तं मणिम् । कृत्वा प्रसादमुत्तुङ्गं त्वद्भक्तस्य मम प्रभो ॥ २७४॥ यदा पृष्टोऽप्ययं साधुन किंचिद्वक्ति मौनतः। तदा कोपेन तेनास्य कृता घातादिकाः क्रियाः ॥२७५॥ यष्टिघातं मुनेरस्य ददतः क्रूरचेतसः । मयूरगलसंलग्नस्तद्धातो दैवयोगतः ॥ २७६ ॥ ततो यष्टिप्रहारेण शिखाबलगलादरम् । पद्मरागमणिः सोऽयं निर्गत्य पतितो भुवि ॥ २७७॥ उपसर्गावसाने च तत्कलादगृहादरम् । अकृताहारसंबद्धो निर्जगाम स धीरधीः ॥ २७८॥ कौशाम्बीकापुरं लग्नं देवपादाभिधं गिरिम् । आरुरोह समुत्तुङ्ग मेदज्जाख्यो मुनिस्तदा ॥ २७९॥ यावजीवं विधायात्र शरीराहारपूर्वकम् । नियमं स मुनिर्धारः कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥ २८०॥ एवं स्थित्वा मुनिस्तत्र क्षपकश्रेणिकारणात् । आद्यं पृथक्त्ववीचारं शुक्लध्यानं प्रविष्टवान् ॥२८॥ 1 [स्पटहस्तादिकं]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 3 ज°मायान्तं. 4 [ कलादोऽतिष्ठिपन्मुनिम् ]. 5 [केन सो मणिः]. 6 [°संबन्धो]. वृ. को. ३४ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०५. २८२ तच्छुक्लध्यानयोगेन सूक्ष्मादौ सांपरायिके । स्थित्वा स्थाने ददाहायं मोहनीयं विशेषतः ' ॥ २८२॥ ततः क्षीणकषायाख्यस्थाने स्थित्वा सधीरधीः । ध्यानमेकत्ववीचारं द्वितीयं शुक्लमाश्रितः ॥ २८३ ॥ अयमेकत्ववीचारध्यानयोगेन सत्वरम् । अन्तरायं निहन्ति स्म कर्म चावरणद्वयम् ॥ २८४ ॥ सयोगिस्थानमाप्तस्य मेदज्जाख्यमुनेररम् | केवलज्ञानमुत्पन्नं लोकालोकावलोकनम् ॥ २८५ ॥ ' केवले च समुत्पन्ने मेदज्जस्य महामुनेः । प्रापुर्वन्दारवः साधुं चतुर्भेदा दिवौकसः २८६ ॥ ज्ञात्वा देवागमं साधोः कौशाम्बीनगरीभवः । गन्धर्वानीकनामायमाजगाम निजान्वितः ॥ २८७ ॥ तिलक श्रीरपि क्षिप्रं आर्थिका भक्तितत्परा । प्राप्ता केवलिनं नन्तुं सिंहवाहनसाधुना ॥ २८८ ॥ नागदत्त चरः पुत्रो भक्तिहृष्टतनूरुहः | अच्युतेन्द्रोऽपि संप्राप नन्तुं केवलिनं तदा ॥ २८९ ॥ नत्वा केवलिनः पादौ धर्मं श्रुत्वा जिनोदितम् । स्वर्गापवर्गसंप्राप्तेः कारणीभूतमञ्जसा ॥ २९० ॥ 10 नाथ किं कारणं ब्रूहि तव साधोऽपि रक्षितौ । नूनमङ्गारदेवेन चोपसर्गः प्रवर्तितः ॥ २९९ ॥ इदं पप्रच्छ राजेन्द्रः कौतुकव्याप्तमानसः । गन्धर्वानीकनामायं सुरासुरपुरस्सरम् ॥ २९२ ॥ गन्धर्वानीकभूपस्य निशम्य वचनं वरम् । जगाद केवली चास्य चोपसर्गस्य कारणम् ॥ २९३ ॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा केवली निजगाद तम् । विद्यते वैरसंबन्धो राजंस्तस्य मया सह ॥ २९४ ॥ इहैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । अङ्गकाख्यमहादेशो विद्यते जनसंकुलः ॥ २९५ ॥ 15 तत्र चम्पापुरी रम्या विद्यते परमोत्सवा । अस्यां बभूव भूपालोऽभयवाहननामकः ॥ २९६ ॥ विद्यते तन्महादेवी पुण्डरीकाभिधा परा । महाधनसमायुक्तस्तच्छ्रेष्ठी स्पटहस्तकः ॥ २९७ ॥ सोsहं पूर्वभवे राजन् कान्ता नागवसूर्मम । पुत्रो गरुडदत्तोऽस्यां नागदत्तः कनिष्ठकः ॥ २९८ ॥ हस्त्यश्वादीनि युग्मानि सौवर्णानि बहून्यलम् । स्थापयित्वा गृहे लोभात् प्रस्थितो वार्धियात्रया ॥ २९९ ॥ वार्धिमध्ये निमग्नेऽस्मिन् यानपात्रे मृतिं गतः । भण्डागारे निजे राजन् जातः सर्पोऽतिदारुणः॥३००॥ 20 अप्रमत्ततया तत्र रक्षन् द्रव्यं दिवानिशम् । ददामि तन्न कस्यापि गृहीतं स्तोकमप्यलम् ॥३०१ || हतो गरुडदत्तेन निजपुत्रेण भूतले । चतुर्थनरकं जातो' दशसागरजीवितम् ॥ ३०२ ॥ गरुडोपपदो दत्तः कालं कृत्वा समाधिना । पूर्वोक्तनरकं प्राप्तो दशवारिधिजीवितम् ॥ ३०३ ॥ चतुर्थनरकादेत्य वृषभावर्तपर्वते । गन्धहस्ती समुत्पन्नो नगोत्तुङ्गो महारदः ॥ ३०४ ॥ यूथेन सह तत्राहं रममाणो निजेच्छया । मन्दं मन्थरगामी च तिष्ठामि नरकुञ्जर ॥ ३०५ ॥ ततो गरुडदत्तोऽपि निःसृतः स कथंचन । व्याधोऽभूत् काकजङ्घाख्यस्तद्गिरौ भीमविग्रहः ॥३०६॥ अनेन विहतो राजन् दन्तार्थं स करी रुषा । त्रिकूटपर्वते जातः कीचकाख्यो विहंगमः ॥ ३०७ ॥ वनदावे कृतेऽनेन' काकजङ्घन पापिना । दग्धोऽसौ कीचकः पक्षी 'वरकश्चित्रभानुना ॥ ३०८ ॥ वार्धिविन्यानदीतीरे मुक्ताकारे समौक्तिके । बभूव कर्कटः पापो नीडजोऽसौ बृहन्मुखः ॥ ३०९ ॥ कालेन पञ्चतां प्राप्य स निषादः प्रचण्डधीः । कुरुविल्लाभिधे ग्रामे संजातो मीनबन्धकः ॥ ३९० ॥ 30 तेन मीनारिणा भूयो हरंस्तन्मौक्तिकानि सः । कुरुविलो हतः क्षिप्रं महाकोपविधायिना ॥ ३११ ॥ उत्तरापथदेशे यशोऽम्बुदावर्तपर्वते । जानकसिंगलग्रामे करभाख्योऽश्वपालकः ॥ ३१२ ॥ सोऽपि पञ्चत्वमासाद्य मीनवञ्चनकारकः । तदश्वयूथमध्येऽभूद् दुष्टशीलस्तुरंगमः ॥ ३१३ ॥ कदाचिन्मुनिसामीप्यं संप्राप्य करभोऽश्वपः । जैनं धर्मं स जग्राह पापोपशमकारणात् ॥ ३१४ ॥ करभं सुप्तमालोक्य जिनधर्मपरायणम् । दन्तैर्गले समादाय जघान स तुरङ्गमः ॥ ३१५ ॥ 25 २६६ 1 ज मोहनीयमशेषतः 2 पफ चतुष्कुलकम् ज चतुः कुलकमिदम्. 3 [ साधोरपि क्षितौ ]. 4 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम् 5 [ यातो ]. 6 पफ मन्दमन्थर 7 पफ वनदावकृतोऽनेन 8 [ वराकश्चित्र ]. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०६. ११ ] उग्रसेनवसिष्ठकथानकम् २६७ जलकान्तविमानेऽसौ सौधर्मस्वर्गसंभवे । जातो महर्द्धिको देवो पञ्चपल्योपमस्थितिः ॥ ३१६ ॥ ततश्युतः पुनर्भूप चम्पाख्यनगरीभवः । इभ्यः श्रेष्ठिसुतो जातो भवदेवाभिधानकः ॥ ३१७ ॥ जैनं तपो विधायासौ भवदेवः समाधिना । सनत्कुमारकल्पेऽभूत् सप्तसागरजीवितः ॥ ३१८ ॥ सनत्कुमारतयुत्वा श्रीमदुञ्जयिनीभवः । राजन् बभूव मेदजः समस्तवणिजां पतिः ॥ ३१९ ॥ अच्युतेन्द्रोपदेशेन यतित्वं प्राप्य यत्नतः । सहित्वाऽङ्गारदेवस्य चोपसर्गं स केवली ॥ ३२० ॥ स्फटहस्तो' वणिग् यस्तु सोऽहं मेदजकेवली । अभूवं भूपते नूनं ज्ञाताखिलपदार्थकः ॥ ३२१ ॥ गरुडोपपदो दत्तो ज्यायान् मन्नन्दनोऽपि यः । सोऽयमङ्गारदेवोऽभूत् कृतसंसारहिण्डनः ॥३२२॥ रक्षन्निजधनं यत्नाद्दन्दशूकः स भूपते । हतो गरुडदत्तेन वैरं तेनावयोरभूत् ॥ ३२३ ॥ नागदत्तोऽपि मत्पुत्रो तपः कृत्वा जिनोदितम् । अच्युतेन्द्रो बभूवायं तेनाहं प्रतिबोधितः ॥ ३२४ ॥ जिनधर्मं समादाय नूनं नागवसूरियम् । देवलोकं परिप्राप्ता देवदेवीमनोहरम् ॥ ३२५ ॥ देवलोकात् समागत्य श्रीमदुज्जयिनीभवा | अधुनैषार्यिका जाता तिष्ठति प्रीतमानसा ॥ ३२६ ॥ श्रुत्वा केवलिनो वाक्यं वैरसंबन्धकारणम् । बभूव प्रीतचेतस्को गन्धर्वानीकभूपतिः ॥ ३२७ ॥ श्रुत्वा स्ववैरसंबन्धं संसारार्णवकारणम् । विहाय सकलं संगं वैराग्याहितमानसः ॥ ३२८ ॥ विधाय वन्दनां भक्त्या कृतनिन्दनगर्हणः । जग्राहाङ्गारदेवोऽयं तपः केवलिनोऽन्तिके ॥ ३२९॥ विधायाङ्गारदेवोऽपि तपः कालं समाधिना । अधो ग्रैवेयके मध्ये दिव्यामोदिविमानके ॥ ३३० ॥ 15 दिव्यरूपधरः श्रीमान् वस्त्राभरणभूषितः । चतुर्विंशत्समुद्रायुरहमिन्द्रो बभूव सः ॥ ३३१ ॥ च्युतोऽमुतो भवं प्राप्य कृत्वा जैनं तपः परम् । ध्रुवमङ्गारदेवोऽयं सिद्धिं प्राप्स्यति नीरजः ॥ ३३२ ॥ गन्धर्वानीकभूपोऽपि बहुभिर्नरकुञ्जरैः । तपो जग्राह जैनेन्द्रं तदा केवलिनोऽन्तिके ॥ ३३३ ॥ मेदज्जकेवली कृत्वा विहारं केवलस्य सः । पर्वते खड्गवंशाख्ये निर्वाणमगमत् पुनः ॥ ३३४ ॥ श्रीकलत्रपुत्रादिसहितस्पटहस्तकश्रेष्ठिकथानकम् ॥ १०५ ॥ ॥ इति * १०६. उग्रसेनवसिष्ठकथानकम् । 1 शूरसेनजनान्तेऽस्ति मथुरा नगरी परा । उग्रसेनो नृपस्तस्यास्तत्प्रया रेवती मता ॥ १ ॥ महाविनयसंपन्नौ प्रतापाक्रान्तशात्रवौ । कंसातिमुक्तकौ पुत्रौ भवेतामनयोः परौ ॥ २ ॥ जिनदत्तोऽभवत् तस्यां श्रावको दर्शनान्वितः । कान्ता जिनमती तस्य तन्मनोहरणक्षमा ॥ ३ ॥ अस्यैव श्रेष्ठिनो दिव्या हिता कर्मकरी तराम् । जिनेन्द्रभक्तिसंयुक्ता प्रियङ्गुलतिकाभिधा ॥ ४ ॥ सम्यग्दर्शनसंपन्ना जिनभक्तिपरायणा । रूपातिशयसंयुक्ता कलाविज्ञानकोविदा ॥ ५ ॥ नमितीर्थेऽन्यदा दिव्यमथुरां परमोदयाम् । वसिष्ठस्तापसः प्राप सितसौधविराजिताम् ॥ ६ ॥ पञ्चाग्याख्यं तपः सोऽयं यमुनाख्यनदीतटे । नानातरुकृतच्छाये स्वच्छपानीयराजिते ॥ ७ ॥ अग्निं प्रज्वाल्य संदीप्तं दिक्षु सर्वासु सादरम् । सूर्याग्निनाऽप्यसौ तप्तचोर्ध्वबाहुस्तपोऽकरोत् ॥ ८ ॥ अक्षसूत्रं जपन् वातं पिबन् लम्बजटाधरः । पञ्चाग्नितप्तदेहोऽसावेकपादस्थितो तपन् ' ॥ ९ ॥ तत्तापतप्तसर्वाङ्गो विह्वलीभूतमानसः । मीनोप्लुतिं विधायासौ पपात यमुनाहदे ॥ १० ॥ निमज्जनं विधायात्र प्रोत्तीर्यं यमुनाजलात् । भूयस्तपश्चकारेदं वसिष्ठोऽशिष्टभावनः ॥ ११ ॥ 1 [ स्पटहस्तो ] 2 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम्. 3 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 5 ज स्फट. 6 पफज put No. 104 7 [ स्थितस्तपन् ] 8 पफ प्रतीर्य. ज युगलम्. 4 पफ युग्मम्, 5 10 20 25 30 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०६. १२तअटाभारमध्यस्थाः काश्चिजीवन्ति विह्वलाः। काश्चिन्मृति परिप्राप्ताः शर्यः सन्ति मूच्छिताः॥१२॥ एवं बालं तपो बाढं कुर्वाणो निजवाञ्छया । अज्ञातपरमार्थोऽसौ तिष्ठति प्रीतमानसः ॥ १३॥' कालिन्दाख्यनदीतीरे वसिष्ठं वीक्ष्य योषितः । संध्याद्वयेऽपि तं नत्वा गच्छन्ति निजमन्दिरम् ॥१४॥ पानीयघटनारीभिः प्रियङ्गुलतिका गता । वसिष्ठपादयोर्जातु न प्रणामं करोति सा ॥१५॥ । प्रियङ्गुलतिकां दृष्ट्वा साधो तिमकुर्वतीम् । जगुस्ता योषितस्तां च कोपारुणनिरीक्षणाः ॥ १६ ॥ प्रियङ्गुलतिके कस्मान्मुनेः पादकुशेशयम् । हले न वन्दसे ब्रूहि सुरासुरनतं तराम् ॥ १७॥ निशम्य तद्वचस्ताश्च प्रियङ्गुलतिका जगौ । भवत्यः स्ववशा नित्यं कृतपुण्यकदम्बकाः ॥१८॥ अहं परवशा पुण्या खामिनो भयवेपिता । जलं कुटगतं कृत्वा यामि गेहं त्वरावती ॥ १९॥ तेन मेऽवसरो नास्ति पतन्याः पादयोर्मुनेः । परप्रेषणकारिण्याः पर्यायो न हि जायते ॥२०॥ ॥ अन्यच्च यो बुधः कोऽपि धर्माधर्मविवेकधीः । स प्रणामं करोत्यस्य योगिनः पादपङ्कजे ॥२१॥ धर्माधर्मफलं नूनं न जानामि मनागपि । वसिष्ठस्यास्य धन्यस्य विदधामि कथं नतिम् ॥ २२ ॥ एवं निगद्य ता बाला प्रियङ्गुलतिकाभिधा । दिने दिने समादाय जलं याति गृहं स्वकम् ॥ २३॥ अन्यदा सकला रामा पानीयार्थ समागताः । वसिष्ठाख्यमुनेत्या विनेमुः पदपङ्कजम् ॥ २४ ॥ प्रियङ्गुलतिका चैका वसिष्ठनतिवर्जिता । तदा तदृन्दमध्यस्था पश्यन्ती व्यवतिष्ठते ॥ २५॥ 15 एवं सा तिष्ठती बाला समस्तरमणीजनैः । हस्तापहस्ततो धृत्वा नीता तन्मुनिसंनिधिम् ॥ २६ ॥ प्राप्याथ तत्समीपं च प्रियङ्गुलतिकामिमाम् । जगुस्ता योषितः क्रोधादिदमाकुञ्चितभ्रवः ॥ २७॥ प्रियङ्गुलतिके क्षुद्रे विशिष्टस्यास्य योगिनः । त्वयाऽवश्यं नतिः कार्या नान्यथा गमनं तव ॥२८॥ निशम्यासां वचः साऽपि तां जगौ क्रुद्धमानसा । धीवरस्य परं पादौ नमाम्यस्य न योगिनः॥२९॥ प्रियङ्गुलतिकावाक्यं निशम्य क्रोधमाप्य सः । उग्रसेनं परिप्राप्य वसिष्ठो निजगाविदम् ॥ ३०॥ 20 कुर्वाणोऽहं तपो राजन् जिनदत्तेन रोषितः। धीवरो गदितो बुद्धिर्महापापविधायकः ॥ ३१ ॥ वसिष्ठवचनं श्रुत्वा कोपमासाद्य वेगतः । प्रतीहारं जगौ राजा सभामध्ये व्यवस्थितः ॥ ३२॥ प्रतीहार खलं दुष्टं समदं जिनदत्तकम् । त्वरितं प्राप्य तत्पार्थ मदन्तं तं त्वमानय ॥ ३३ ॥ नरेन्द्रवचनात् प्राप्य प्रतीहारो जगावमुम् । उत्तिष्ठ भूपसामीप्यं त्वमेहि नृपवाक्यतः ॥ ३४ ॥ प्रतीहारस्य वाक्येन जिनदत्तो नृपं ययौ । उग्रसेनोऽपि दृष्ट्वाऽमुं जगौ क्रोधारुणेक्षणः ॥ ३५ ॥ 25 किं कारणमिमं साधुं धीवरं वदसि स्फुटम् । तद्वाक्यतो नृपं प्राह जिनदत्तोऽपि सादरम् ॥३६॥ यद्यहं "मासिकं साधुं ब्रवीमि मनसाऽप्यलम् । ततो नरेन्द्र नीतिज्ञो मत्प्रमाणमयं मुनिः ॥३७॥ जिनदत्तवचः श्रुत्वा जगौ राजा तपोधनम् । किं मुने सत्यमेवेदं यक्ति वणिजां पतिः ॥ ३८॥ उग्रसेनवचः श्रुत्वा वसिष्ठोऽपि बभाण तम् । न वक्तीदमयं राजन् प्रियङ्गुलतिका जगौ ॥३९॥ वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा जिनदत्तो नृपं जगौ । दृष्टं सत्यमिदं राजन् मुनेरस्य तपखिनः ॥४०॥ 30 जैनदत्तं वचः श्रुत्वा गदितोऽयं नरेशिना । अधुना जिनदत्त त्वं निर्दोषोऽसि मदुक्तितः ॥४१॥ ततो भूपेन साऽऽहूता प्रियङ्गुलतिका द्रुतम् । प्रणम्य भूपति भक्त्या निविष्टा नृपसंनिधौ ॥४२॥ दृष्ट्वा पुरः स्थितां राजा प्रियङ्गुलतिकामिमाम् । उग्रसेनो जगादाशु कोपलोहितलोचनः ॥४३॥ प्रियङ्गुलतिके पापे त्वं मुनीशं तपोधनम् । ब्रवीषि 'मासिकं दुष्टे छिनमि रसनां तव ॥४४॥ 1 पफ कुलकम् , ज कुलकमिदम्. 2 पफ पतन्या. 3 पफ नता. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम् ,ज युगलमिदम्. 6 [मात्स्यिक]. 7 [मात्स्यिकं]. 8 पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०६. ७६ ] उग्रसेन वसिष्ठकथानकम् २६९ 5 निशम्य भूपतेर्वाक्यं प्रियङ्गुलतिका नृपम् । जगाद विह्वलस्वान्ता रुदन्ती गद्गदाक्षरम् ॥ ४५ ॥ नरेन्द्राहं समुत्पन्ना कर्मभिर्दुः कृतात्मभिः । पण्यस्त्रीकुलसंभूता परप्रेषणकारिणी ॥ ४६ ॥ स्वामिन्या जलमानेतुं प्रेषिता यमुनानदीम् । यत्र तिष्ठत्ययं योगी कुर्वाणो विविधं तपः ॥ ४७ ॥ पानीयघटनारीभिः समं बह्वीभिरादरात् । गताऽहं जलमानेतुं प्रदेशं तं नरेश्वरः ॥ ४८ ॥ सर्वा मनोरमा रामाः पुण्ययुक्ता महीपतेः । पतन्ति पादयोर्भक्त्या वसिष्ठस्यास्य धीमतः ॥ ४९ ॥ स्वस्वामिनीभयेनाहं जलमादाय सत्वरम् । नरेन्द्र स्वगृहं यामि स्वकीयोदरपूरणात् ॥ ५० ॥ योषितोऽन्या वदन्त्येवं मां नरेश पुनः पुनः । प्रियङ्गुलतिके यामो मुनिं नन्तुं तपोनिधिम् ॥ ५१ ॥ इमा मयोदिता राजन् भवन्त्यः पुण्यसंभवाः । स्ववशाः पादयोरस्य कुरुध्वं पतनं मुनेः ॥ ५२ ॥ मन्दभाग्या त्वहं दीना दारिद्रभयपीडिता । तिष्ठामि दुःखिनी नित्यं पापनिर्मितविग्रहा ॥ ५३ ॥ समस्त महिला भूप मां विहाय प्रयत्नतः । वसिष्ठचरणौ नन्तुं प्रययुस्तत्समीपताम् ॥ ५४ ॥ अहं जलभृतौ कुम्भौ समादाय त्वरावती । गता निजगृहं भूप स्वामिनीभयतो द्रुतम् ॥ ५५ ॥ प्रियङ्गुलतिके शीघ्रं वसिष्ठस्यास्य सन्मुनेः । पादयोः पतनं चाद्य कर्तव्यं भक्तितस्त्वया ॥ ५६ ॥ करोषि यदि वा न त्वं पादयोः पतनं खले । ततो न विद्यते मोक्षस्तवाद्य विनुतिं विना ॥ ५७ ॥ अर्धचन्द्रं गले दत्त्वा समस्त महिलाजनैः । पादान्तिकं मुनेरस्य नीताऽहं नन्तुमिच्छया ॥ ५८ ॥ उक्तास्ततो मया राजन् कोपमासाद्य योषितः । महाकलकलारावं कुर्वन्त्यः पुरुषं तराम् ॥ ५९ ॥ ” हठकारेण चैतस्य मकां चरणवन्दनाम् । कारयिष्यथ भो कस्मान्मीनबन्धकारिणः ॥ ६० ॥ श्रुत्वा मद्वचनं योगी कुर्वन्नाक्रोशनं रुषा । लग्नः पश्चाद्विरामाणां युवतीनां विहाय माम् ॥ ६१ ॥ योषितस्तद्भयात् त्रस्ता गतास्ताः कांदिशीकताम् । तन्मुक्ताऽहं गृहं प्राप्ता निजं मुनिभयाकुला ॥६२॥ एतावानेव राजेन्द्र मुनेरस्य पराभवः । मया कृतोऽपरं दोषं न जानामि मनागपि ॥ ६३ ॥ * प्रियङ्गुलतिकावाक्यं श्रुत्वा योगी जगावमुम् । इदमश्रुतपूर्वं किं तव येन विकत्थसे ॥ ६४ ॥ मत्पिता ब्राह्मणो दुष्टे सर्वलोकपितामहः । जगत्कर्ता जगत्ख्यातः प्रजापालों जनप्रियः ॥ ६५ ॥ एवमादिगुणस्यास्य ज्येष्ठपुत्रो गुणाकरः । चतुर्वेदसमायुक्तः सर्वशास्त्रार्थकोविदः ॥ ६६ ॥ ब्रह्मचारी सदा योगी कुर्वाणस्तापसं तपः । वायुभक्षणं चापि ब्रूषे मां मात्सिकं च किम् ॥६७॥ वसिष्ठवचनं श्रुत्वा प्रियङ्गुलतिका जगौ । यदि त्वं लक्षणं वेत्सि मात्सिकस्य' ततो वद ॥ ६८ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं साधुर्जगावेतां पुरः स्थिताम् । यो मीनमारणं कुर्यात् स भवेद् भुवि मात्सिकः ॥ ६९॥ 25 आकर्ण्य तद्वचः साऽपि बभाणेमं स्फुटाक्षरम् । यद्येवं त्वमसि स्पष्टं हन्ति मत्स्याननारतम् ॥७०॥ अवाचि साधुना चापि चेटिकेऽहं कथं खले । निहन्मि " मात्सिकान् पापे त्वं ब्रूहि मम सांप्रतम् ॥ ७१ ॥ वसिष्ठवचनं श्रुत्वा न्यगदत् तं पुनः सका । पाठीनोत्कलनं कृत्वा जले त्वं मज्जसि द्रुतम् ॥ ७२ ॥ समस्तभुवनख्यातकीर्तिशुक्लीकृताम्बर । मुने शुष्कजटाभारान्निहंसि शफरीगणान् ॥ ७३ ॥ यदि मद्वचनं साधो न श्रद्दधासि सांप्रतम् । ततो निजं जटाभारं विरलीकुरु संसदि ॥ ७४ ॥" ततस्तद्वचनात् तूर्णं रक्तीकृतनिरीक्षणः । अधः " स्रंस्तीचकारायं जटाभारं सभान्तरे ॥ ७५ ॥ वर्षाघनाघनोन्मुक्ता जलधारा इव द्रुतम् । पतन्ति तज्जटाभाराच्छफर्यो नृपसंसदि ॥ ७६ ॥ I 1 पफ प्रेक्षता. 2 [ नरेश्वर ]. 3 [ परुषं ]. 4 पफ कुलकम् ज कुलकमिदम् 5[ मात्स्यिकं ]. 6 पफ चतुःकुलकम् ज चतुः कुलकमिदम्. 7 [ मात्स्यिकस्य ] 8 [ मात्स्यिकः ]. 9 फ हति, [ हंसि ]. 10 [ मात्स्यकान् ]. 11 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम् 12 [ अधः स्रंसी ]. 10 20 30 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०६. ७७काश्चिजीवपरित्यक्ताः काश्चिज्जीवसमन्विताः । काश्चिन्मूर्छा परिप्राप्ता दृश्यन्ते भुवि भूभुजा ॥७७॥' दृष्ट्वा मात्सलिका भूमौ पतितास्तजटान्तरात् । पूजयित्वा नृपो भूत्या प्रियङ्गुलतिकामपि ॥ ७८॥ ततः सभाजनं सर्वं विस्मयव्याप्तमानसम् । उग्रसेनो जगादाशु तोषकण्टकिताङ्गकः॥ ७९ ॥ जिनधर्म प्रकुर्वन्ति ये नरा ज्ञानिनस्तके । अयमज्ञानसंपन्नो वसिष्ठः कुरुते तपः ॥ ८०॥ 5 भूपालवचनं श्रुत्वा तदा सातिशयान्वितम् । जिनधर्मं सुखाधारं जगृहुर्बहवो नराः ॥ ८१॥ उग्रसेननृपो रोषाद् वसिष्ठं स्वपुरादरम् । नूनं निर्धाटयामास तद्विरक्तमनास्तराम् ॥ ८२ ॥ गन्धावतीनदीगङ्गासंगमं प्राप्य सत्वरम् । कुर्वस्तपो वसिष्ठोऽयमास्ते पञ्चाग्निनामकम् ॥ ८३ ॥ अत्रान्तरे नमेस्तीर्थे वीरभद्रो गणेश्वरः । तत्संगमं परिप्राप मुनिपञ्चशतावृतः ॥ ८४ ॥ दृष्ट्वाऽमुं तापसं तत्र जगावेको यतिर्युवा । उग्रं तपो भवेल्लोके तापसानां यशस्विनाम् ॥ ८५ ॥ 10 तत्साधुवचनं श्रुत्वा वीरभद्रो जगावमुम् । यते जीववधं चैषां कुर्वतां कीदृशं तपः ॥ ८६॥ वीरभद्रवचः श्रुत्वा वसिष्ठोऽपि बभाण तम् । भो भो मुने किमस्माकं कुरुषे खेन निन्दनम् ॥८७॥ को मया नियतं साधो कृतो जीववधो भुवि । कथं वाऽज्ञानसंयुक्तं तपो भवति मे वद ॥८८॥ वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा जगादैतं यतीश्वरः । स्वगुरुं क गतं वेत्सि ज्ञानी यद्यसि तं वद ॥ ८९ ॥ निशम्य मुनिचन्द्रस्य वचनं सत्यतावहम् । वसिष्ठोऽपि बभाणेमं कोपलोहितलोचनः ॥ ९०॥ 15 तापसानां तपो घोरं विधाय नरदुःकरम् । ब्रह्मलोके समुत्पन्नो मद्गुरुः परमोदयः ॥ ९१ ॥ दिव्यं सुखं मनोहारि हारकुण्डलराजितः । भुञ्जानो मद्गुरुर्देवस्तत्र साधो वितिष्ठते ॥ ९२ ॥ आकर्ण्य तद्वचः साधुर्जगावेतं परिस्फुटम् । त्वद्गुरुर्न गतः स्वर्ग तिर्यग्योनिमुपाश्रितः ॥ ९३ ॥ काष्ठस्य दह्यमानस्य चान्तरे वह्निनाऽस्य च । महाभुजङ्गमो जातो दह्यमानो वितिष्ठते ॥ ९४ ॥ तद्वाक्यतः समादाय कुठारं कोपसंगतः । काष्ठमुत्पाटयामास स वसिष्ठोऽनेन सत्वरम् ॥ ९५॥ ० काष्ठमध्ये ततो दृष्ट्वा दह्यमानं भुजङ्गमम् । वसिष्ठश्चिन्तयामास विस्मयव्याप्तमानसः ॥ ९६ ॥ संदेहमन्तरेणायं जिनधर्मो दयापरः । सर्वसत्त्वसुखाधारः सर्वधर्मोपरि स्थितः ॥ ९७॥ चिन्तयित्वा चिरं सोऽपि भक्तिहृष्टतनूरुहः । संप्राप्य तं गुरुं नाथं जगादेति ससंभ्रमः ॥९८॥ जिनधर्म परं साधो बन्धुं सर्वशरीरिणाम् । चिन्तामणिसमं लोके कथयेश ममाधुना ॥ ९९ ॥" वसिष्ठवचनं श्रुत्वा वीरभद्रो गणेश्वरः । जैन धर्म जगावस्मै सर्वसत्त्वसुखास्पदम् ॥ १०॥ 23 हित्वा स तापसं धर्म वसिष्ठो मुनिवाक्यतः । महावैराग्यसंपन्नो बभूव श्रमणो महान् ॥१०१॥ भिक्षालाभपरित्यक्तस्ततोऽसौ निजसूरिणा । समर्पितः श्रुतार्थं च शिवगुप्ताय सूरये ॥ १०२॥ पोषयित्वा स षण्मासं शिवगुप्तोऽपि सत्वरम् । अमुं समर्पयामास शिवभद्राय सूरये ॥ १०३॥ पोषयित्वा स भूयोऽपि षण्मासं सुमतेर्गुरोः । अमुं समर्पयामास शिवभद्रो गणाधिपः ॥ १०४ ॥ विधाय पोषणं चास्य षण्मासं तेन सूरिणा । निरस्तः स्वान्तिकादाशु निर्विण्णेन मुनिः सकः ॥१०५॥ 30 ततो निर्गत्य वेगेन संप्राप्यैकविहारताम् । स मुनिर्विहरन्नार मथुरां नगरी पराम् ॥ १०६ ॥ नानातपः प्रकुर्वाणो गोवर्धनगिरौ सति । संतिष्ठते मुनिधीरमध्यासितपरीपहः ॥ १०७॥ एवं हि तिष्ठतस्तत्र कुर्वाणस्य तपः परम् । देवता वशतां प्राप्य बभणुस्तं पुरः स्थिताः ॥१०८॥ 1 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्.. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 पफ त्रिकलम्, ज त्रिकलमिदम्. 7 फ omits No. 103. | Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०६. १४० ] उग्रसेन वसिष्ठकथानकम् २७१ १११ ॥ * ११२ ॥ ११३ ॥ आज्ञां देहि मुनेऽस्माकं 'तपोराशिसमुज्ज्वलाम् । भवतां धर्ममूर्तीनां किं कुर्मो वयमागताः ॥ १०९ ॥ * निशम्य तद्वचः साधुस्तोषसंतुष्टमानसः । वभाण विस्मयोपेता देवता विनय स्थिताः ॥ ११० ॥ यदा प्रयोजनं मे स्याद् भवतीभिः कुतूहलात् । मदन्तिकं तदा भद्रा द्रुतमागच्छत स्फुटम् ॥ निशम्य योगिनो वाक्यं देवता प्रीतचेतसः । यथागमं पुनर्जग्मुः स्मृतसाधुगुणान्तराः ॥ उग्रसेनादिभिर्भूपैर्वसिष्ठोऽवगतः क्षितौ । विहाय तापसं धर्मं दीक्षितो जिनशासने ॥ कृत्वा मासोपवासं च पारणार्थं विशुद्धधीः । मधुराख्यां पुरीं जातु विवेश प्रहरद्वये ॥ ११४ ॥ विशतोऽस्य पुरे दत्ता घोषणा भूभुजा तदा । दास्यामि पारणामस्मै वसिष्ठमुनयेऽन्वहम् ॥ ११५ ॥ योऽन्यः कोऽपि ददात्यस्मै पारणं नियतं मम । स दण्ड्यः पञ्चभिर्दण्ड्यैर्भविष्यति महीतले ॥१९६॥ भिक्षार्थं व्रजतः साधोः क्रमेण गृहतो गृहम् । न कोऽपि पारणामस्मै ददाति नृपभीतितः ॥११७॥ सर्वं पुरं परिभ्रम्य प्रविष्टो राजमन्दिरम् । न दृष्टो भूभुजा योगी निर्जगाम तदालयात् ॥ ११८ ॥ ७ गोवर्धनगिरिं प्राप्य वसिष्ठमुनिरादरात् । मासोपवासमादाय तस्थौ मुदितमानसः ॥ ११९ ॥ ततो मासोपवासान्ते प्रविश्य मथुरां पुरीम् । भिक्षामप्राप्य भूयोऽपि आरुरोह नगं तकम् ॥ १२० ॥ मासोपवासमादाय भूयोऽपि स मुनिः सुधीः । तस्थौ धृतिबलोपेतस्तद्विरौ विजितेन्द्रियः ॥ १२१ ॥ भूयो मासोपवासान्ते प्रविशन् मथुरां मुनिः । भिक्षार्थं वृद्धया नार्या दृष्टो मौनी कथंचन ॥ १२२ ॥ सा मुनिं वीक्ष्य तं प्राह भूभुजा विहितोऽनयः । निषिद्धः सकलो लोको भिक्षाय न ददाति ते ॥ १२३ ॥ is वृद्धनारीवचः श्रुत्वा कोपमासाद्य वेगतः । गोवर्धनगिरिं गत्वा दध्याविति स देवताः ॥ १२४ ॥ चिन्तितानन्तरं प्राप्य निगदन्ति तका मुनिम् । अस्मभ्यं देहि चादेशं क्षिप्रं किमपि सांप्रतम् ॥ निशम्य तद्वचः साधुः प्राहैताः पुरतः स्थिताः । उग्रसेननृपस्याशु गत्वा कुरुत हिंसनम् साधुवाक्यं समाकर्ण्य नृपहिंसापरायणम् । विस्मयव्याप्तचेतस्का देवता निगदन्त्यमुम् ॥ नाथ निर्ग्रन्थरूपेण स्थितस्य तव शोभनम् । हिंसोपदेशनं दातुं युज्यते न मनागपि ॥ १२८ ॥ 20 देवतावचनं श्रुत्वा भूयोऽपि निजगाद ताः । अन्यजन्मनि मे सर्वा निदेशं कुरुतादरात् ॥ १२९॥ उग्रसेनस्य दुष्टस्य चान्यजन्मनि देवताः । मद्भारतीं प्रपञ्चेन कुरुताशु निपातनम् ॥ १३० ॥ एवं निगद्य ता भूत्वा निदानं कालमप्यलम् । स मुनी रेवतीगर्भमाससाद प्रचण्डधीः ॥ रेवतीगर्भसंभूते सन्मुनौ तच्छरीरकम् । निरीक्ष्य दुर्बलं वाढं पप्रच्छेदं महीपतिः ॥ त्वच्छरीरं महादेवि तरां मत्प्राणवल्लभे । किंकारणमिदं जातं दुर्बलं वद मेऽधुना ॥ उग्रसेनवचः श्रुत्वा रेवती तन्मनःप्रिया । बभाणेमं धवं कृच्छ्राद् वचसाश्चर्यमीयुषा ॥ १३४ ॥ यतः प्रभृति कोऽप्येष जीवो माऽन्तर्भवाश्रितः । ततो मे दोहलो जातः सुतरामसुखप्रदः ॥ १३५॥ अनेन कारणेनेश दुर्बला नितरामहम् । संजाता कथितं ते च मया कुरु यथोचितम् ॥ १३६ ॥ निशम्य रेवतीवाक्यं उग्रसेनो जगावमुम् । कोऽशुभो दोहलो वक्तुं नाम यो मे न पार्थते ॥१३७॥ ततस्तद्वाक्यतः सा च हित्वा लज्जां वधूर्वरम् । जगाद निष्ठुरस्वान्ता निजकान्तं पुरः स्थितम् ॥१३८॥ ३७ त्वदीयं हृदयं नाथ नूनं कर्तिकया यदि । निकृत्य रुधिरं सर्वं पिबामि करसंपुटैः ॥ १३९ ॥ इदं भे दौहृदं नाथ क्रूरनिष्ठुरचेतसः । संजातमधुना सत्यं मया ते परिकीर्तितम् ॥ १४० ॥ ॥ १३१ ॥ १३२ ॥ १३३ ॥ 28 1 [ तपोराशे ]. 2 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 8 पफ मदान्तिकं. 4 पफ युग्मम्, ज युगलमिदम्. 5 ज. चिन्तताः. 6 पफ युग्मम् ज युगलम् 7 पफ त्रिकलम् ज त्रिकलमिदम्. 8 पफ त्रिकलम्, ज त्रिकलमिदम् 9 [ कर्त्रिकया ]. 10 पफ त्रिकलम्, जत्रिकलमिदम्. १२५ ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०६. १४१ १४८ ॥ १४९ ॥ १५० ॥ ततो मायाप्रपञ्चेन भूभुजा कृतदौहृदा । प्रसूता दारकं दिव्यं पूर्वाशेव दिवाकरम् ॥ १४१ ॥ ततोऽसौ जातमात्रोऽपि रत्नकम्बलवेष्टितः । स्वनामाङ्कसमा संगकंसमभूषिकां श्रितः ॥ १४२ ॥ महाजलप्लवासंगपूरितायामशेषतः । उग्रसेनेन भूपेन यमुनायां प्रवाहितः ॥ १४३ ॥' ततोऽसौ कंसमञ्जूषा यमुनाजलपूरतः । कौशाम्ब्याख्यपुरीं प्राप्य तस्थौ तत्रत्यसंगमे ॥ १४४ ॥ • अथ प्रभातकाले ai कौशाम्बीनगरीभवा । ददर्श कंसमञ्जूषां कल्पपाली रजोदरी ॥ १४५ ॥ विधायोद्घाटनं तस्या' दृष्ट्वा तन्मध्यगं शिशुम् । आदाय तां निनायासौ संतुष्टा निजमन्दिरम् ॥१४६॥ कंसमभूषिकान्तस्थो ततो लब्धोऽनया शिशुः । कंसनाम कृतं तस्य स्वगुणानुगतं ततः ॥ १४७ ॥ ततो मृष्टाशनेनाशु वृद्धिं नीतोऽनया शिशुः । सप्ताष्टवर्षतो जातो रूपराजित विग्रहः ॥ हन्ति पौरशिशून् बालः सर्वदा यष्टिघाततः । निर्धाटितः स्वतो गेहाज्जनोपालम्भतोऽनया ॥ 1. तया निर्धाटितः कंसस्तां पुरीं सूरिकाभिधाम् । जगाम सहसा रम्यां पताकावलितोरणैः ॥ गृहीतशस्त्रशास्त्रार्थो वसुदेवोपदेशतः । वरं च परमं लब्ध्वा तस्थौ कंसोऽपि संमदी ॥ मगधाख्य महादेशे पुरे राजगृहाभिधे । अर्धचक्री बभूवासौ जरासन्धाभिधो नृपः ॥ अभवत् तन्महादेवी कलिङ्गोपपदा यशाः । अनयोस्तनया तन्वी नाम्ना जीवंयशा परा ॥ आदेशोऽयं कृतस्तस्याः सत्यनैमित्तिकेन च । यथेयं विधवा कन्या भविष्यत्यल्पकालतः ॥ १५४॥ 15 यः पोदनापुराधीशं नृपं सिंहरथाभिधम् । बद्ध्वा नयति मत्पार्श्वं तस्मै दास्यामि कन्यकाम् ॥१५५॥ इयं प्रघोषणा दत्ता जरासन्धेन भूभुजा । समुद्रविजयाभ्याशं संप्राप्ता विधियोगतः ॥ १५६ ॥ समुद्रविजयः श्रुत्वा तद्वृत्तान्तमशेषतः । स्वसैन्यं वसुदेवं च प्रजिघाय तदन्तिकम् ॥ १५७ ॥ पोदनाख्यपुराभ्याशे स्कन्धावारं निधाय सः । सार्थवाहनिभेनागात् वसुदेवोऽपि तत्पुरम् ॥ १५८॥ सिंहानां विष्टमूत्राणि समादाय स्वसैन्यकात् । तद्गन्धेन च तत्सैन्यं भावयामास भूपतिः ॥१५९॥ 20 ततः सिंहरथं युद्धे वसुदेवोऽपि सादरम् । चकार विरथं शूरस्तदानीं कंससारथिः ॥ १६० ॥ वसुदेवस्ततः प्राह तदा कंसं पुरः स्थितम् । बद्धा सिंहरथं वत्स त्वमानय मदन्तिकम् ॥ अथ सिंहरथं बद्ध्वा वसुदेवरथे मुदा । कंसोऽपि च चकारेमं मत्तमातङ्गविभ्रमः ॥ घोषणां च प्रदायेमां वसुदेवोऽपि तत्पुरे । कंसेन सहसा युद्धे धृतः सिंहरथो नृपः ॥ ततः सिंहरथं शूरं वसुदेवः सकंसकः । मुदा समर्पयामास जरासन्धस्य भोगिनः ॥ 25 दृष्ट्वा पुरः स्थितं कंसं तोषपूरितमानसः । पप्रच्छ पितृसंबन्धं जरासन्धः कुतूहली ॥ जरासन्धवचः श्रुत्वा कंसोऽपि निजगाद तम् । सौलो' गङ्गटभोऽस्तीह कौशाम्बीनगरीभवः ॥१६६॥ रजोदरी च तद्भार्या रूपराजितविग्रहा । तत्पुत्रः कंसनामाहं शस्त्रशास्त्रकलान्वितः ॥ १६७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा कौशाम्बीनगरीभवम् । दूतं प्रवेशयामास कंसस्य जननीं प्रति पुरस्कृत्य समञ्जूषां दूतः कंसस्य मातरम् । मुदा समर्पयामास जरासन्धस्य सत्वरम् ॥ " जरासिन्धो' विलोक्येमां समञ्जूषामभाषत । कंसस्ते नन्दनो भद्रे वद त्वं मे यथायथम् ॥ १७० ॥ निशम्य भारतीमस्य जगादैषा नरेश्वरम् । रत्नकम्बलसंयुक्तां कंसमञ्जषिकामिमाम् ॥ १७१ ॥ मुद्रासमन्वितां चाव दर्शयित्वा सभान्तरे । कंसो मन्नन्दनो नायं कंसमञ्जषिकासुतः ॥ १७२॥ कंसमञ्जूषिकामध्यं रत्नकम्बलकं तदा । उग्रसेनस्य नाम्नममङ्कितं ज्ञातवानसौ ॥ १७३ ॥ १६९ ॥ १६२ ॥ ॥ १६८ ॥ १६९ ॥ १५१ ॥ १५२ ॥ १५३ ॥ 1 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 2 पफ जलपूरितः 3फ तस्य 4 ज लब्धा. 5ज सैंहानि, 6 पफ स्वसैन्यकान्. 7 [ सौरो गङ्गभटो° ]. 8 [ जरासन्धो ] 9 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. १६३ ॥ १६४ ॥ १६५ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०६. २०६] उग्रसेनवसिष्ठकथानकम् २७३ यदि कलालिके नूनं त्वत्पुत्रो न भवत्ययम् । सोदरो भागिनेयो मे चोग्रसेनशरीरजः ॥ १७४ ॥ जरासन्धेन तुष्टेन दत्त्वा जीवंयशां मुदा । मथुराविषयो दत्तः कंसायाक्लिष्टतेजसे ॥ १७५ ॥ ततोऽयं मथुरां प्राप्य जित्वा जनकमाहवे । कंसोऽमुं स्थापयामास गोपुरद्वारकोपरि ॥ १७६ ॥ कोद्रवोदनसंपूर्ण शरावं हि सकांजिकम् । कंसादेशेन भुङ्क्तेऽसौ तदा बलविवर्जितम् ॥ १७७॥ दृष्ट्वापमानमीदृक्षमतिमुक्तकबालकः । दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं तस्थौ मुदितमानसः ॥ १७८ ॥ ततः कंसेन तुष्टेन वसुदेवः स्वपत्तने । आनीतः प्रीतयुक्तेन सस्नेहं स वितिष्ठते ॥ १७९ ॥ मित्रवत्यां पुरि श्रीमान् देवकिर्नाम भूपतिः । कंसस्य सादरश्वासीत् पितृव्यः स्नेहतत्परः ॥१८०॥ बभूव तन्महादेवी धनदेवी मनःप्रिया । तत्सुता देवकी नाम रूपलावण्यसंयुता ॥ १८१ ॥ दत्ता कंसेन तुष्टन वसुदेवाय देवकी । परिणीता विधानेन तगृहे सा वितिष्ठते ॥ १८२॥ पुष्पवत्यां च देवक्यां संजातायां महोत्सवः । तजनैः कर्तुमारब्धस्तूर्यमङ्गलनिखनैः ॥ १८३॥ सुप्रतीकस्थितान्येषा नववस्त्राणि सादरम् । आदाय मस्तके स्वेन स्वकीये निजपाणिना ॥ १८४॥ कलगीतं प्रगायन्ती मुनिमोहनकारणम् । कामिनीजनमध्यस्था नटद्भिः पटहैः कलैः ॥ १८५ ॥ मधुराख्यपुरीमध्ये कृतलोकमहोत्सवे । जीवंयशा प्रनृत्यन्ती भ्राम्यति प्रीतमानसा ॥ १८६ ॥' दृष्ट्वाऽतिमुक्तकं साधु चर्यामार्गेण तत्पुरे । तदा मध्याह्नवेलायां प्रविष्टं गोचरं प्रति ॥ १८७॥ विलोक्येमं मुनिं मार्गे रूपयौवनगर्विता । हसन्तीदं जगादासौ मन्दमन्दगतिक्रिया ॥ १८८ ॥ 15 एहि देवर देवक्या ह्युत्सवो वर्तते महान् । तेन शीघ्रं परिप्राप्य मत्समं नर्तनं कुरु ॥ १८९ ॥ जीवंयशावचः श्रुत्वा तरां साधुजनोज्झितम् । अतिमुक्तकयोगीन्द्रो बभाणैतां पुरः स्थिताम् ॥१९०॥ अस्माकं नर्तनं भद्रे युज्यते न तपस्विनाम् । तेन त्वमेव संतोषान्नर्तनं कुरु बालिके ॥ १९१॥ एवमुक्ताऽपि सा तेन तथाऽपि वदतीदृशम् । नर्तनं गीतसंयुक्तं कुरु सार्धं मया मुने ॥ १९२ ॥ तद्वाक्यतोऽतितुष्टेन मुनिनाऽस्या महानयम् । शापोऽलीकतया हीनो वितीर्णो दुष्टचेतसः ॥१९३॥ 20 यत्कृते मस्तके कृत्वा वस्त्राणि विविधानि च । नर्तनं कुरुषे बाढं कलगीतं मदातुरा ॥ १९४ ।। तस्या यो नन्दनो भावी नन्दिताशेषबान्धवः। स ते भर्तुः खले नूनं करिष्यति निपातनम् ॥१९५॥ तद्वाक्यतस्तया तानि शिरोवस्त्राणि रोषतः । मस्तकात् सहसा भूमौ प्रमुक्तानि सरोदनम् ॥१९६॥ विलोक्यैतानि वस्त्राणि तन्मुक्तानि धरातले । आदेशो विहितोऽनेन द्वितीयोऽयं तपस्विना ॥१९७॥ न केवलमिमं कंसं त्वत्पतिं स हनिष्यति । त्वत्तातं च जरासन्धं त्रिखण्डाधिपतिं खले ॥१९८॥ 25 तद्वाक्यतः समादाय तानि वस्त्राणि हस्ततः । पाटयित्वा रुषा मुक्त्वा ममर्द चरणेन सा ॥१९९॥ विलोक्य तानि वस्त्राणि मर्दितानि स्वपादतः । चके तृतीयमादेशमिमं साधुः स सत्यवाक् ॥२०॥ त्वत्कुलं निःकुलं कृत्वा त्रिखण्डायामपि क्षितौ । देवकीनन्दनो राज्यं सकलं स विधास्यति ॥२०॥ अन्तरायं विधायासौ निःसृत्य नगरादरम् । उद्यानेषु तरोर्मूले सुखं तस्थौ मुनीश्वरः ॥ २०२॥ जीवंयशा निधायात्र तानि वस्त्राणि दुःखिनी । खगृहं प्राप्य कंसस्य जगौ मुनिवरोदितम् ॥२०३॥ 30 मुनिवातों समाकर्ण्य स्वकान्तापरिभाषिताम् । वसुदेवं वरं कंसो ययाचे भयविह्वलः ॥ २०४॥ वसुदेवमहाराज प्राक्तनं देहि मे वरम् । देवकी मगृहे नूनं प्रसूतिं विदधात्वरम् ॥ २०५॥ कंसवाक्यं समाकर्ण्य तत्स्वभावमजानता । प्रतिपन्नं तदा सर्व वसुदेवेन तोषिणा ॥ २०६॥ 1 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 2 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्, 4 [रुष्टेण]. 5 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. बृ० को० ३५ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०६. २०७ततः कंसोऽपि संप्राप्य वसुदेवाद् वरं परम् । जगाम स्वगृहं मन्दं तोषकण्टकिताङ्गकः॥२०७॥ वसुदेवः समाकण्ये मुनीन्द्रादेशमुन्नतम् । चक्रे तद्दर्शनोत्कण्ठं प्रष्टुं तत्कारणं हृदि ॥ २०८॥ आबालत्वाद् विलोक्याथ निष्ठुरत्वं स्वचेतसि । पुरलोको निनन्देति' कंसस्य वरयाचनम् ॥२०९॥ अतिमुक्तकसामीप्यं देवक्या सह सादरः । परिप्राप्य तमप्राक्षीन्मुनिमेतत् प्रयोजनम् ॥ २१० ॥ 5 भगवन् मत्सुतो भावी कः कंसस्य बलीयसः । करिष्यति वधं पूत जरासन्धस्य च स्फुटम् ॥२११॥ पृथिवीमण्डलं तस्य नगराकरमण्डितम् । पालयिष्यति को नाथ कथयैतन्मम प्रभो ॥ २१२॥ तत्कालेऽस्य महादेवी वनदेवीव देवकी । आम्रशाखां समालम्ब्य सफलां सा व्यवस्थिता ॥२१३॥ तद्धस्तमुक्तशाखायास्तदाशु युगलत्रयम् । ऊर्ध्वं जगाम भूमौ च पपातैकं वराम्रकम् ॥ २१४ ॥ भूयोऽप्यूर्वं जगामैकमष्टमं चाम्रकं द्रुतम् । विलोक्यैतान्यथाम्राणि वसुदेवं जगौ मुनिः ॥२१५॥ 10 अष्टपुत्रा भविष्यन्ति देवक्या नरकुञ्जराः । तन्मध्ये प्रथमा षटुं मोक्षं यास्यन्ति निश्चितम् ॥२१६॥ सप्तमो यः सुतो भावी त्वदीयः परमोदयः। नवमो वासुदेवोऽयं महापौरुषसंगतः ॥ २१७ ॥ कंसं महाहवे हत्वा जरासन्धं च दुर्मदम् । त्रिखण्डमेदिनीनाथो नरनाथ भविष्यति ॥ २१८ ॥ योऽष्टमो नन्दनो भावी नरेन्द्र तव शुद्धधीः । निहत्याशेषकर्माणि सोऽपि मोक्षं गमिष्यति ॥२१९॥ श्रुत्वाऽतिमौक्तिकं वाक्यं सत्यभूतमपि क्षितौ । तथाऽपि तौ तरां मूढी चिन्तामेतामुपागतौ ॥२२०॥ 15 आवयोर्नन्दनः कोऽपि कंसं घातिष्यति बली । मुनिं नत्वा तकौ तुष्टौ जग्मतुर्निजमन्दिरम् ॥२२१॥ अतिमुक्तकनाथोऽपि कुर्वाणो विविधं तपः । स्वमनोवाञ्छितं देशं जगाम प्रीतमानसः ॥ २२२ ॥ अत्रान्तरे निजं गेहं कंसेन सह सादरात् । आनीता देवकी तत्र प्रसूता दारकद्वयम् ॥ २२३ ॥ भद्रिकाख्ये पुरे श्रेष्ठी सुप्रतिष्ठो बभूव सः । अयलाऽस्य प्रिया चावीं पीनोन्नतघनस्तनी ॥२२४॥ अथ देवतया तस्मात् समानीय प्रयत्नतः । अयलाया मनोहारिमञ्चके निहताविमौ ॥ २२५ ॥ 20 अयलायाः समुत्पन्नं तदा पुत्रद्वयं मृतम् । नक्तमादाय तद्देव्या देवक्या हि समर्पितम् ॥ २२६॥ प्रभातसमये ज्ञातं मृतं तद्वालकद्वयम् । कंसेन मारितं हीदं शिलाभिस्ताडितं नरैः ॥ २२७ ॥ एष क्रमोऽपरस्यापि देवकीजातकस्य च । पुत्रयुग्मद्वयस्यापि ज्ञातव्यः कुशलैनरैः ॥ २२८॥ अयलावृद्धिनीतानां तत्पुत्राणां महौजसाम् । षण्णामपि च नामानि कथयामि समासतः ॥२२९॥ देवदत्तो भवेदाधस्तथाऽन्यो देवपालितः । मुनिदत्तोऽपरो ज्ञेयस्तथाऽन्यो मुनिपालितः ॥ २३०॥ 25 ज्ञेयः शत्रुघ्ननामाऽन्यो जितशत्रुस्तथापरः । एते षडपि विज्ञेया देवकीकुक्षिसंभवाः ॥ २३१ ॥ देवक्याः सप्तमः पुत्रो नक्तं जातो जनार्दनः । गृहीतो वसुदेवेन छत्रचारी हलायुधः ॥ २३२ ॥ अनेन विधिना जातोरनयो' स्नेहनिर्भरा । देवी वृषभरूपेण तत्पुरो निशि गच्छति ॥ २३३ ॥ यमुनाख्यानदीतीरं दृष्ट्वा तौ दारकान्वितौ । मुहूर्तमानं मोहस्थौ पश्यन्तौ तस्थतुर्दिशि ॥ २३४ ॥ अथ देवकिभूपालो देवक्याः प्रजनोत्सवे । धनधान्यसमाकीर्णं प्रददौ गोकुलं मुदा ॥ २३५ ॥ 30 गोकुलस्य पतिर्नन्दो यशोदा तत्प्रियाऽभवत् । रूपराजितसर्वाङ्गी पीनोन्नतकुचद्वया ॥ २३६ ॥ अन्यदा सा समादाय गन्धपुष्पादिकं बलिम् । मातृगेहं ययौ हृष्टा पुत्रयाचनतत्परा ॥ २३७॥ काकतालीययोगेन सुता लब्धा तया परा । देवतान्तं समादाय नक्तं जाता रुषान्विता ॥ २३८॥ पुरतो मातृदेवीनां विधायेमां च दारिकाम् । गर्भगेहात् सका देवी निर्ययौ नन्दनान्विता ॥२३९॥ , 1 [निनिन्देति ]. 2 पफ नगराकार. 3 पफ त्रिकलम् , ज त्रिकलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 6 पफ अयाला". 7 [ यातोरनयोः]. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०६. २७१] उग्रसेनवसिष्ठकथानकम् २७५ दारकां मातृदेवीनां वसुदेवो निधाय सः । नन्दभार्या जगादेमां यशोदाख्यां मुदान्वितः ॥२४०॥ अस्मभ्यं कोपमासाद्य किं यासि त्वरितं मुधा । आगच्छ दारकं शीघ्रं ते यच्छामि मनोरमम् ॥२४१॥ दारकं शोभनाकारं महापुरुषलक्षणम् । गृहीत्वा दत्तमस्माभिर्याहि त्वं निजमन्दिरम् ॥ २४२ ॥ तद्वाक्यतो यशोदाऽपि विधाय विनिवर्तनम् । आदाय दारकं तुष्टा जगाम निजमन्दिरम् ॥२४३॥ यशोदायत्नतो बाढं स्तनपानादियोगतः । तगृहे वृद्धिमायाति तदानीं बालचन्द्रमाः ॥ २४४ ॥ वसुदेवोऽपि तां बालामादाय निजपाणिना । मुदा समर्पयामास देवक्याः प्राप्य मन्दिरम् ॥२४५॥ एवं कृतेऽमुना तत्र प्रभातसमये सति । देवक्या दारिका जाता कंसेन विदिता सका ॥ २४६॥ विधाय चिपिटं घ्राणं देवक्या कंसभीतितः । वृद्धिं नीता सका कन्या रूपराजितविग्रहा ॥२४७॥ ततो यौवनमासाद्य जिनधर्मेण भाविता । सुव्रतान्ते प्रवत्राज बाला हित्वा नृपाङ्गजान् ॥ २४८॥ संघेन महता युक्ता विहरन्ती पुरादिकम् । विन्ध्यपर्वतसामीप्यं संप्रापत् सा तपस्विनी ॥२४९॥ 10 भीमभिल्लान् समालोक्य विन्ध्यमध्ये भयाकुला । कायोत्सर्गेण सा तस्थौ संघोऽपि पुरतो गतः॥२५०॥ दृष्ट्वा तामार्यिकां तत्र कायोत्सर्गव्यवस्थिताम् । देवतामिति ते नत्वा वदन्तीदं मलिम्लुचः ॥२५१॥ देवते यदि तं सार्थ कनकादिसमन्वितम् । लुण्टयित्वा पुनः शीघ्रमागच्छामस्त्वदन्तिकम् ॥२५२॥ ततस्ते महती पूजां करिष्यामः सुचेतसः । एवं निगद्य तां नत्वा जग्मुर्मुदितचेतसः ॥ २५३ ॥ काकतालीययोगेन हत्वा सार्थ धनादिकम् । प्राप्य जग्मुः प्रदेशं तं दस्यवः प्रीतचेतसः ॥२५४॥ 15 दृष्ट्वा तामार्यिकां तत्र मृतां सिंहेनं चर्चिताम् । तदङ्गुलित्रयं भक्त्या स्थापयित्वोर्ध्वसंगतम् ॥२५५॥ ततः कोलाहलं कृत्वा नर्तनं चापि तत्पुरः । तस्करा महतीं पूजां चक्रुर्विनतमस्तकाः ॥ २५६ ॥ स्थापयित्वा यतो दुर्गे विन्ध्ये भक्तिपरायणैः। दस्युभिः पूजिता सा च नता पुष्पकदम्बकैः॥२५७॥ ततः प्रभृति सा जाता दुर्गादेवी धरातले । नामद्वयसमायुक्ता तथेयं विन्ध्यवासिनी ॥ २५८ ॥ लोके प्रसिद्धिमायातं तत्तीर्थ हिंसनोद्यतम् । तथाऽपि धर्मसंबन्धं कृतपर्वतनामकम् ॥ २५९ ॥ 20 अथ कृष्णोऽपि यातोऽलं वृद्धिं नन्दस्य गोकुले । कंसगेहे समुत्पन्नः समुत्पातो महांस्तदा ॥२६०॥ दृष्ट्वेमं भीषणं कंसः पप्रच्छ सहसाऽऽकुलः । सत्यं शकुनिशर्माणं तदा नैमित्तिकं सभीः॥२६१॥ महे केन कार्येण चोत्पातो जायते महान् । नैमित्तिक समालोक्य कथयाशु मम स्फुटम् ॥२६२॥ कंसोदितं समाकर्ण्य जगौ नैमित्तिकोऽपि तम् । तव शत्रुः समुत्पन्नो नन्दगोष्ठे स तिष्ठति ॥२६३॥ नैमित्तिकोदितं श्रुत्वा संदेहपरिवर्जितम् । अन्यजन्मनि याः सिद्धास्ता देवीातवानसौ ॥२६४॥ 23 ध्यातमात्रास्ततः सर्वा भयवेपितविग्रहाः । युगपत् तं समायाताः किं कर्तव्यसमुद्यताः ॥ २६५॥ शिरःस्थितकरद्वन्द्वा विकसन्मुखपङ्कजाः । दृष्ट्वा पुरःस्थिता देवीः कंसोऽपि निजगौ तदा ॥ २६६॥ नन्दगोष्ठे समुत्पन्नो मद्वैरी योऽधितिष्ठते । मच्छिद्रान्वेषिणस्तस्य कुरुताशु निपातनम् ॥ २६७ ॥ पूतना काकसंयुक्ता तथान्या यमलार्जुना । शकटं च चतस्रोऽपि कंसस्य पुरतः स्थिताः ॥२६८॥ कंसादेशं परिप्राप्य ययुः परमदेवताः । बालभावे स्थितं कृष्णं निहन्तुं नन्दगोकुले ॥ २६९ ॥ 30 वृषभोऽश्वस्तरां दृष्टो द्यूतकारा भुजंगमः । तथा चाणूरमल्लोऽपि कंसस्यैते पुरः स्थिताः ॥ २७० ॥ एते पञ्चापि संप्राप्य कंसादेशेन सत्वराः । युवत्वे वासुदेवेन रणं कर्तुं समुद्यताः ॥ २७१ ॥ .... 1 ज तामर्थिकां. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 [ चर्विताम् ]. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 6 पफ तत्र. 7 प्रफ युग्ममिदम् , ज युगलमिदम्. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०६. २७२वासुदेव-बलाभ्यां हि हतः कंसो महाहवे । संसारसागरं भीमं पर्यटन् स वितिष्ठते ॥ २७२ ॥ उग्रसेनस्ततो राज्ये निजे शकोपमे तदा । स्थापितो वासुदेवेन प्रेमसंबन्धमिच्छता ॥ २७३ ॥ ॥ इति श्रीउग्रसेनवधनिमित्तं वसिष्ठमुनिनिदानकरण ___कथानकमिदम् ॥ १०६ ॥ १०७. सागरदत्तकथानकम् । अवन्तीविषये चासीत् श्रीमदुज्जयिनी पुरी । श्रेष्ठी सागरदत्तोऽस्यां प्रिया तन्नामसंयुता ॥१॥ दारिद्रोपहतः सोऽयं सिंहलद्वीपमागतः । ततोऽनर्घ्यमणिं प्राप्य निवृत्तः स्वपुरं प्रति ॥ २॥ स्वकीयं देशमासाद्य दृष्ट्वा तत्र सरोवरम् । मुक्त्वा मणिं जलं पीत्वा विस्मृत्यासाविमं ययौ ॥३॥ तत्रैकपामरक्षेत्रं वापयंल्लाङ्गलेन सः । दृष्ट्वा तत्र मणिं दिव्यं जग्राह मतिवर्जितः ॥४॥ 10 चूर्णयित्वा मणिं मूढः पाषाणेन स पामरः । बबन्ध तद्गुणं स्तोत्रे मतिवर्जितमानसः ॥५॥ अत्रान्तरे वणिक प्राप्तस्तं प्रदेशं त्वरान्वितः । विलोक्य तं नरं तत्र पप्रच्छामुमिदं पुनः ॥६॥ दृष्टो मणिस्त्वया क्वापि क्षेत्रं वापयता द्रुतम् । यदि दृष्टस्ततो ब्रूहि सांप्रतं मम पामरः ॥७॥ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि जगादैनं वणिक्पतिम् । दृष्टो मयाऽत्र पाषाणस्तत्र बद्धः स्फुरत्प्रभः ॥८॥ चूर्णयित्वा तकं शीघ्रं पाषाणेन मया पुनः । तत्सूत्रं सांप्रतं भ्रातस्तोत्रबद्धं वितिष्ठते ॥९॥ 15 विलोक्य तद्गुणं श्रेष्ठी ज्ञात्वेमं पुनरब्रवीत् । चूर्णितः स मणियंत्र तं प्रदेशं प्रदर्शय ॥१०॥ तद्वाक्यतः पुनस्तेन स प्रदेशः प्रदर्शितः । स्फुरत्प्रभं च तत्खण्डं ददावस्मै विचेतसे ॥११॥ यदि द्रव्येण ते कार्य नर जातु प्रजायते । मणिखण्डमिदं देहि मूल्येन विशिखान्तरे ॥ १२ ॥ विक्रयं कुर्वता तस्य त्वयाऽवश्यं धनेन च । शपथश्रावितायास्मै देयं तद्राहकाय वै ॥ १३ ॥ एतस्य तद्भवेन्मूल्यं समस्तं वसुधातले । शपथश्रावितस्तत्त्वं देहि तस्मै प्रयत्नतः ॥ १४ ॥ 20 उपदेशमिदं दत्त्वा पामराय स वाणिजः । शेषं चूर्णं समादाय तन्मणेः प्रययौ पुनः ॥१५॥ तेनापि तन्मणेः खण्डं पूर्वोक्तविधिना द्रुतम् । दर्शितं सर्वलोकस्य तदानीं विशिखान्तरे ॥ १६॥ न परः कोऽपि तस्या कृत्वा गृह्णाति तन्नरः । दत्त्वाऽस्मै वाञ्छितं द्रव्यं गृहीतं तन्नरेशिना ॥१७॥ इति श्रीसागरदत्तश्रेष्ठिकथानकमिदम् ॥ १०७ ॥ १०८. लक्ष्मीमतीकथानकम् । 11 मगधाविषये रम्ये लक्ष्मीग्रामो महाधनः । अभवत् सोमदत्तोऽत्र माहनो वेदपारगः ॥१॥ लक्ष्मीमती प्रिया चास्य रूपयौवनगर्विता । आत्मानं मण्डयन्तीयं सर्वकाले वितिष्ठते ॥ २॥ अन्यदा ब्राह्मणेनामा तिष्ठन्त्या निजमन्दिरे । लक्ष्मीमत्या विलासिन्या मानिन्या मदनिर्भरम् ॥३॥ पक्षोपवाससंयुक्तो मध्याह्नसमये सति । मुनिः समाधिगुप्ताख्यो मन्दमन्दगतिक्रियः॥४॥ गृहागृहान्तरं गच्छन् भिक्षार्थ कृशविग्रहः । सोमदेवगृहं दिव्यं विवेशानुक्रमेण सः ॥५॥ ____ 1 पफ read इति श्रीहरिषेणाचार्यकृते श्रीमद् बृहत्कथाकोशे उग्रसेन. 2 पफ add संपूर्णम्. 3 [तत्रैकः पामरः क्षेत्रं]. 4 [तोत्रे]. 5 [पामर]. 6 पफज चतुःकुलकमिदम्. 7 All the Mss. put the No. 106. 8 पफज त्रिकलमिदम्. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०८. ३८ ] लक्ष्मीमतीकथानकम् २७७ ११ ॥ १२ ॥ २१ ॥ विलोक्य सोमदेवोऽमुं गृहं भिक्षार्थमागतम् । अभ्युत्थानं विधायासौ वन्दनां च जगौ प्रियाम् ॥६॥ साधोरस्य सतो भिक्षां देहि त्वं भक्तितः प्रिये । एवमुक्त्वा बहिर्गेहान्निर्जगामायमादरात् ॥ ७ ॥ मण्डयन्ती निजं वक्रं गृहीतमुकरा सका । मुनिबिम्बं समालोक्य संक्रान्तं मणिदर्पणे ॥ ८ ॥ आक्रोशनं विधायास्य तदा निष्ठुरवाक्यतः । द्वारं विहाय गेहस्य संतस्थे रूपगर्विता ॥ ९ ॥ * तेन दोषानुबन्धेन सप्तमे दिवसे सका । गृहीताऽम्बरकुष्ठेन धाटिता स्वजनैर्गृहात् ॥ १० ॥ ज्वलनेऽङ्गं विधायासौ दुर्गन्धामोदिताशकम् । लक्ष्मीमती ममाराशु ज्वालोद्योतितपुष्करे ॥ ततो मृता सती सा च लक्ष्मीग्रामे पुरोदिते । गृहे गङ्गभटस्यास्य रजकस्य कुधीमतः ॥ जाता जीर्णखरीगर्भे गर्दभी दुर्बलाङ्गिका । दुग्धमप्राप्नुवन्तीयं ममार चिरकालतः ॥ १३ ॥ अस्मिन्नेव च सा ग्रामे गन्धोपपदसूकरी । जाता भूयो मृतिं प्राप्य शुनी पापगरीयसी ॥ ततः कालं परिप्राप्य जातेयं कुक्करी' पुनः । पर्यटन्ती वने दग्धा महादावाग्निना मृता ॥ लाटदेशसमुद्भूतभृगुकच्छपुरान्तिके । बभूवायं वलग्रामो नर्मदातीरसंभवः ॥ १६ ॥ निविसिन्दो बभूवात्र धीवरः पापकारकः । मण्डूकी तत्प्रिया क्रूरा कठोरध्वनिनादिनी ॥ १७ ॥ दुर्बला दुर्भगा रूपा दुर्गन्धा कारिकाभिधा । कृष्णवर्णा बृहद्दन्ता बभूव तनयाऽनयोः ॥ १८ ॥ दुर्गन्धां तां समालोक्य पितृभ्यां स्नेहवर्जिताम् । विधाय नर्मदातीरे कुटिकां स्थापिता सका ॥ १९ ॥ नावा बहुजनं तत्र मूल्येनोत्तारयत्यसौ । संतिष्ठते महादुःखाद्दुर्गन्धापघनान्विता ॥ २० ॥ अन्यदा विहरन् क्वापि तदानीं परमोदयः । मुनिः समाधिगुप्तोऽयं संप्राप नर्मदातटम् ॥ निरावरणदेहं तं शीतकाले शिलातले । विलोक्य तत्र सा साधुं बभूव कृपयार्द्रधीः ॥ २२ ॥ शीतवाताभिभूतस्य हिमदग्धतनोरपि । ददौ तृणानि सा हृष्टा पार्श्वयोरुभयोरपि ॥ २३ ॥ सप्रणामं मुनिं प्राप्य प्रभातसमये सका । जैनं धर्ममुपश्रुत्य पप्रच्छेदं कृतानतिः ॥ २४ ॥ अन्यजन्मनि मे नाथ दृष्टो भवान् क्वचित्पुनः । कृत्वा दयां प्रसादं च कथयैतन्मम प्रभो ॥ २५ ॥ | 20 धीव वाक्यमाकर्ण्य जगादास्या महामुनिः । लक्ष्मीमत्यादिकं जन्म लक्ष्मीग्रामादिसंभवम् ॥२६॥ निजं भवान्तरं श्रुत्वा लक्ष्मीमत्यादिकं मुनेः । जातिस्मरत्वमासाद्य संजाता क्षुल्लिका सका ॥२७॥ धर्मश्रियोऽर्यिकाया हि धर्मविन्यस्तचेतसः । ततः समाधिगुप्तेन क्षुल्लिकेयं समर्पिता ॥ २८ ॥ विहरन्ती सका प्राप महत्तरिकयान्विता । ग्रामं सोपारयं नाम मगधाविषयोद्भवम् ॥ २९ ॥ ततो धर्मश्रिया सा च जिनधर्मपरायणा । नापि श्राविकायाश्च प्रयत्नेन समर्पिता ॥ ३० ॥ तच्छ्राविकामतात् साध्वी देवकर्म प्रकुर्वती । तिष्ठति क्षुल्लिका जैनमन्दिरे धर्मतत्परा ॥ ३१ ॥ एकान्तरोपवासेन शिथिलीभूतविग्रहा । सका द्वादशवर्षाणि चकार विविधं तपः ॥ ३२ ॥ सल्लेखनां विधायाशु सनिदानं मृतिं च सा । जाताऽच्युतेन्द्र पौलोमी कृततद्भोगसन्मतिः° ॥ ३३ ॥ पञ्चाशत्पञ्चयुक्तानि पल्यान्यत्र विलासिना । अच्युतेन्द्रेण सा साकं बुभुजे भोगमुत्तमम् ॥ ३४ ॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे वैदर्भविषये सति । कुण्डिनाख्यं पुरं रम्यं बभूव परमोदयम् ॥ ३५ ॥ अत्रैव पत्तने दिव्ये भैषमो नाम भूपतिः । बभूव तन्महादेवी चारुरूपा यशोमतिः ॥ ३६ ॥ अच्युतात् सा समुत्तीर्य देवी लक्ष्मीमती चरी । रुक्मिनो ह्यनुजा जाता रुक्मिणी तनयाऽनयोः ॥ ३७॥ अन्यदा नारदः प्राप सत्यभामागृहं परम् । कनत्कनकसद्भित्तिकाचकुट्टिमभूतलम् ॥ ३८ ॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 [° मुकुरा ]. 3 [ पिधाय ]. 4 पफज युगलमिदम् 5 पफज युगलमिदम्. 6 [ कुक्कुरी ]. 7 पफज युगलमिदम्. 8 ज 'मता साध्वी. 9 ज कृते तद्भोग. १४ १५ ॥ 15 25 30 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩૯૮ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०८, ३९ स्वमुखं दर्पणे सत्या पश्यन्ती विधुनिर्मले । ददर्श नारदं नासौ पुरः स्थितमपि स्फुटम् ॥ ३९ ॥ ततो निर्गत्य हात् कोपलोहितलोचनः । नारदः सहसा रुष्टो दध्याविति स चेतसि ॥ ४० ॥ निहन्मि किं खलामेतां दृषद्यास्फालयामि किम् । किं वा द्वीपान्तरे पापां क्षिपामि खलचेष्टिताम् ॥४१॥ एवं कृते सति क्षिप्रं विष्णुः शोकेन तप्यते । चिन्तयाम्यपरं किंचिदेतस्याः शोककारणम् ॥ ४२ ॥ योषितामपरं दुःखं विद्यते न धरातले । सपत्नीं रूपिणीं हित्वा सर्वावयवसुन्दरीम् ॥ ४३ ॥ इदं संचिन्त्य विश्रब्धो नारदः प्रीतमानसः । जगाम रुक्मिणीगेहं जनकस्वरसंगतम् ॥ ४४ ॥ सुखासनोपविष्टः सन् विनतः कन्यया तराम् । विष्णुचित्रपटं रम्यं रुक्मिण्याः प्रददर्श सः ॥ ४५ ॥ विलोक्य तत्पटं कन्या विचित्राकारराजितम् । मुमूर्च्छ सहसा तत्र तद्रूपहृतमानसा ॥ ४६ ॥ श्रीखण्डोदकसेन तथा व्यजनवायुना । रुक्मिणी बोधमासाद्य नारदं निजगाविति ॥ ४७ ॥ रूपराजितदेहस्य मच्चित्तानुगतस्य नुः । पट्टोऽयं कस्य मे ब्रूहि कार्यमेतन्महामुने ॥ ४८ ॥ निशम्य नारदो वाक्यं रुक्मिण्याः श्रीतमानसः । जगाद सरसं कन्यां पुष्पिकासहितामिति ॥ ४९ ॥ सुराष्ट्रविषये कान्ते पुरी द्वारमती परा । अस्यां बभूव भूपालो विष्णुर्विजितशात्रवः ॥ ५० ॥ रूपेण मन्मथो भद्रे कल्पवृक्षं स्वदानतः । गम्भीरत्वेन रत्नेशं विभवेन पुरन्दरम् ॥ ५१ ॥ स्थिरत्वेन नगाधीशं बलेन च समीरणम् । धिया सुरगुरुं नीत्या शुक्रं वा यो जयेद् भुवि ॥ ५२ ॥ 15 यादवाम्बरचन्द्रस्य करोद्योतितखावनेः । पटोऽयं राजते तन्वि वासुदेवस्य तस्य सः ॥ ५३ ॥ नारदीयं वचः श्रुत्वा तोषपूरितमानसा । बभाण रुक्मिणी साधुं जटामुकुटधारिणम् ॥ ५४ ॥ यास्यामि सितपञ्चम्यां माघमासस्य नारद । चन्दनं बलिमादाय विनन्तुं माधवीलताम् ॥ ५५ ॥ मच्चित्तलोचनानन्दमानयात्र महामुने । आदाय मां प्रयात्वेष संगमोऽयं मम स्फुटम् ॥ ५६ ॥ रुक्मिणीवाक्यमाकर्ण्य विश्रब्धीकृत्य तां पुनः । जगाम नारदः शीघ्रं विष्णुपार्श्वं मुदान्वितः ॥५७॥ विलोक्य नारदं विष्णुः सहसोत्थाय विष्टरात् । शोभनासनगं कृत्वा ननामैतं बलान्वितः ॥ ५८ ॥ अन्योन्यकुशलं पृष्ट्वा सभामध्ये त्रयोऽत्र ते । तस्थुर्मुदितचेतस्का बल - केशव - नारदाः ॥ ५९ ॥ क्षणमेकं ततः स्थित्वा नारदो रुक्मिणीपटम् । विष्णोः प्रदर्शयामास सजीवमिव सत्वरम् ॥६०॥ विलोक्य तत्परं सद्यो विष्णुर्मूर्च्छामुपागतः । भूयोऽपि चेतनां प्राप्तः सिक्तश्चन्दनवारिणा ॥ ६१ ॥ स्वस्थीभूय पुनः प्राह नारदं विस्मितो हरिः । पटस्था कस्य कन्येयं रूपिणी वद मेऽधुना ॥ ६२ ॥ विष्णुवाक्यं समाकर्ण्य नारदो निजगावमुम् । भीष्मकन्यामिमां विद्धि रुक्मिणीं भुवि विश्रुताम् ॥६३॥ कुण्डिकाख्यपुरं राजन् यदि त्वं यासि सत्वरम् । ततोऽहं ते प्रदास्यामि निश्चितं रुक्मिणीमिमाम् ॥ ६४ अवद्वारवचः श्रुत्वा बभाणेमं हरिः पुनः । शीघ्रं त्रयोऽपि गच्छामस्तत्समीपं महामुने ॥ ६५ ॥ योऽपि च समारुह्य विमानं कामगं तदा । तदुद्यानवनं प्रापुर्नानानोकुहसंकुलम् ॥ ६६ ॥ अथ सा रुक्मिणी प्राप तदुद्यानं सखीवृता । माधवीमर्चितुं व्याजान्नानायुधकरैर्नरैः ॥ 30 हरिर्ददर्श तां बालां वनदेवीमिवोर्वशीम् । कन्दर्पमिव तं साऽपि तोषमाप परस्परम् ॥ ६८ ॥ वासुदेवो विलोक्येमां तदुद्यानवने स्थिताम् । बभाण हृष्टचेतस्को वचसा विकसन्मुखः ॥ ६९ ॥ मच्चित्तलोचनानन्दे नीलोत्पलदलाम्बके । तूर्णमेहि विमानं मे पीनोन्नतघनस्तनि ॥ ७० ॥” ६७ ॥ 10 20 5 25 1 पफज चतुः कुलकमिदम्. 2 पफज युगलमिदम् 3 [ मन्मथं ]. 4 पफज चतुःकुलकमिदम्. 5 ज मद्य. 6 [ संगरोsयं ]. 7 पफज त्रिकलमिदम्. 8 ज नारदं. 9 पफज युगलमिदम्. 10 पफज युगलमिदम्. 11 [ अवधारवचः ] 12 पफज युगलमिदम्. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ -१०८. १०१] लक्ष्मीमतीकथानकम् निशम्य तद्वचो बाला तद्रूपहृतलोचना । आरुरोह कराकृष्टा तद्विमानं मनस्विनी ॥ ७१ ॥ अत्रान्तरे हरिः प्राह तज्जनानुरवासिनः' । तोषपूरितचेतस्को शिशुपालादिकानरम् ॥ ७२ ॥ वसुदेवसुतेनामा बलभद्रेण रुक्मिणी । नीतेयं वासुदेवेन समागच्छन्त भो जनाः ॥ ७३ ॥ एवमुक्त्वा समापूर्य पाञ्चजन्यं कलस्वनम् । आदाय रुक्मिणी विष्णुर्ययौ द्वारवतीं प्रति ॥ ७४॥ निशम्य तद्वचः प्रौढं पाञ्चजन्यध्वनि कलम् । भीष्मो रुक्मी क्रुधं पाप शिशुपालोऽपि तत्पतिः ॥७॥ गण्डस्थलात् स्खलद्दानकर्दमीकृतभूतलैः । महायोधसमारूढेर्नगोत्तुङ्गैः करेणुभिः ॥ ७६ ॥ मनः पवनसंवेगैः कर्णचामरवीजितैः । अश्ववारसमारूढ़ः स्थूरीपृष्ठैः कलखनैः ॥ ७७॥ तुरङ्गमसमायुक्तैः केतुमालाविराजितैः । विचित्रमणिसंनद्धैरष्टापदमयै स्थैः ॥ ७८॥ चापमुद्गरकुन्तासिपाशचक्रादिपाणिभिः । भटैर्यमभटाकारैर्बद्धसायकधेनुकैः ॥ ७९ ॥ एभिः समं तदा क्रुद्धः कृताकूपारनिस्वनैः। भीष्मोऽयं रुक्मिणा सार्धं शिशुपालेन निर्ययौ ॥ ८०॥ ॥ दृष्ट्वा पितृबलं प्राप्तं पूरितावनिमण्डलम् । जगाद रुक्मिणी कान्तं बाष्पाकुलितलोचना ॥ ८१ ॥ मत्कृते संक्षयं प्राप्तो जीवितस्य जनार्दन । किं करोम्यधुना पापा पुण्येन परिवर्जिता ॥ ८२॥ अस्मादुत्तिष्ठ याहि त्वं कुतोऽपि बलसंगतः । एतद्बहुबलं प्राप्त मत्तातस्य धवस्य च ॥ ८३॥" रुक्मिण्या वचनं श्रुत्वा भयसंत्रस्तचेतसः । बभाणेति प्रियां विष्णुः कोपारुणनिरीक्षणः ॥ ८४ ॥ पश्य पश्य प्रिये शक्तिं मदीयामपि मुग्धिके । मां भीतिभेदिनं प्राप्य किं भयं यासि कातरे ॥८५॥ 15 एवं निगद्य तामेष करस्थां वज्रमुद्रिकाम् । भस्मसाद्भावमानिन्ये पाणिद्वयविमर्दनात् ॥ ८६ ॥ धनुर्गुणविमुक्तेन शरेणैकेन वेगिना । भेदं च सप्ततालानां चकार युगपद्धरिः ॥ ८७॥ दृष्ट्वाऽस्य शक्तिसामर्थ्य रुक्मिणी प्रीतमानसा । जगादेमं महाशक्तिं वचसाश्चर्यमीयुषा ॥ ८८॥ पितरं भ्रातरं हित्वा मम नाथ परिस्फुटम् । शिशुपालादिसैन्यस्य कुरु त्वं विनिपातनम् ॥ ८९ ॥ आकर्ण्य रुक्मिणीवाक्यं हरिविक्रमशालिना । प्रतिपन्नं तदा सर्वं हरिणा तंबलेन च ॥ ९०॥ 20 एवं प्रवर्तिते यावत् तदालापः परस्परम् । तावत् परबलं प्राप्तं समुद्रसमविम्रमम् ॥ ९१ ॥ दृष्ट्वा बहुबलं प्राप्तं स्वसमीपं जनार्दनः । आश्वास्य रुक्मिणी भीतां क्रोधारक्तनिरीक्षणः ॥ ९२ ॥ विमानमम्बरे कृत्वा रुक्मिणी नारदान्विताम् । सबलो रथमारुह्य विमानाद् भुवमाययौ ॥९३॥ विलोक्य रथमारूढं शिशुपालो हरिं पुरः । बलभद्रं च भीष्मोऽरं सपुत्रः प्राप कोपतः ॥ ९४ ॥ दृष्ट्वा पुरःस्थितं विष्णुं शिशुपालो जगावमुम् । भीष्मोऽपि बलभद्रं च कवचार्चितविग्रहम् ॥ ९५॥ 25 रेरे खल दुराचार रुक्मिणीहरणप्रिय । शूरश्चन्मत्समं युद्धं कुरु भीरुः पलायनम् ॥ ९६ ॥ तद्वाक्यतो रुषं प्राप्य निजगाद हरिस्तकम् । भीष्मं बलोऽपि मुञ्चास्त्रं यदि शक्तिर्भवेत् तव ॥९७॥ एवमुक्तोऽमुना कोपात् तामसास्त्रं स मुक्तवान् । तेन मूढीकृतं सर्व विष्णुसैन्यं गतप्रभम् ॥ ९८॥ ततः कोपेन तेनाशु केशवेन बलेन च । उद्योतारेण दीप्तेन तामसास्त्रं निराकृतम् ॥ ९९ ॥ पिङ्गीकृतनभोभागं ज्वालोद्योतितपुष्करम् । तत्सन्मुखं मुमोचायं दहनास्त्रं सुधीरधीः ॥ १०० ॥3॥ विष्णुना बलभद्रेण शस्त्रं तद्दहनात्मकम् । हतं स्वकीयबाणेन वारुणाख्येन वेगतः ॥ १०१॥ ...- 1 [तजनान् पुर"]. 2 ज पाञ्चजन्यं. 3 पफज चतु कुलकमिदम्. 4 [संक्षयः]. 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6 पफज चतु:कुलकमिदम्. 7 पफज युगलमिदम्. 8 पफज युगलमिदम्. 9 पफज युगलमिदम्. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १०८. १०२ ॥ ततो गुञ्जाफलाकारलोचनांल्लोलजिह्वकान् । शिशुपालो मुमोचाशु पन्नगान् केशवं प्रति ॥ १०२ ॥ कीर्णपक्षं बृहद्दंष्ट्रं दीर्घघ्राणं प्रभोज्वलम् । नागान् प्रति मुमोचायं वैनतेयं जनार्दनः ॥ १०३ ॥ विलोक्य गारुडं बाणं विष्णुमुक्तं गतप्रभाः । विहाय वैष्णवीं सेनां दुद्रुवुस्ते भुजंगमाः ॥ १०४ ॥ ततो रविसमानेन चक्रेण स्फुरितत्विषा । शिशुपालशिरोऽनेन विष्णुमुक्तेन खण्डितम् ॥ १०५ ॥ अत्रान्तरे बलेनापि बद्धा तौ नागपाशकैः । आनीतौ च स्वसामीप्यं बलिनौ भीष्म-रुक्मिणौ ॥१०६ ॥ शिशुपाले हते भीष्मे तत्पुत्रेऽपि धृते सति । स्थितं मृतं भटैः शूरैर्भीरुभिश्च पलायितम् ॥ ततो वैतालिका वंशं जयवृत्तं यशोऽमलम् । पेठुर्नारायणस्योच्चैः खनादापूरिताम्बराः ॥ शिशुपालं हतं दृष्ट्वा धृतं भीष्मं च रुक्मिणम् । परितोषं परिप्राप रुक्मिणी नारदोऽपि च ततस्तौ पञ्चकं श्रव्यं पूर्यमाणौ रणाजिरात् । नारायण - बलौ शीघ्रं निर्गतौ हरिविक्रमौ ॥ 1. अथ तौ रथमारूढौ रुक्मिणीसहितौ तदा । सैन्यसागरमध्यस्थौ तोषकण्टकिताङ्गकौ ॥ तूर्यशङ्खनिनादेन जयशब्देन बन्दिनाम् । बधिरीकृतसर्वाशं वैजयन्तीविराजितम् ॥ ११२ ॥ वितानवस्त्रसंघातैः कृतशोभां समन्ततः । सपौरां द्वारिकां कान्तां प्रविष्टौ बल - केशव ॥ ११३ ॥ शोभने दिननक्षत्रे योगे च रजनीपतौ । रुक्मिणीमुपयेमेऽसौ वासुदेवः समङ्गलम् ॥ ११४॥ रुक्मिणी जिनधर्मेण विहितेन पुराभवे । याता' विष्णोर्महादेवी प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ॥ ११५ ॥ is रूपयौवनलावण्यविलासादिसमेतया । रुक्मिणीप्रीतिकारिण्या वीणाकोकिलनादया ॥ वासुदेवः प्रभुंजानो भोगान् भोगीन्द्रसंनिभान् । संतिष्ठते दिवानक्तं शच्येव दिवि वासवः ॥ ११७ ॥ * रूपिण्या सह संपर्कं विष्णुः प्राप्य मनोरमम् । सत्यभामां सुरूपां हि मनसाऽपि न पश्यति ॥११८॥ भीष्मोऽपि रुक्मिणा सार्धं प्राप्य सन्मानमुत्तमम् । हरितः प्रययौ शीघ्रं कुण्डिनाख्यपुरं मुदा ॥ ११९॥ आपृच्छ्य नारदो विष्णुं बलभद्रं च कौतुकात् । सत्यभामागृहं रम्यं जगाम हसितेच्छया ॥ १२० ॥ 20 सत्याऽपि नारदं दृष्ट्वा समुत्थाय प्रयत्नतः । प्रददौ विष्टरं भक्त्या नारदाय प्रशान्तधीः ॥ १२१ ॥ रुक्मिणीप्रेषणं भद्रे मत्प्रसादेन कुर्वती । सांप्रतं तिष्ठ पापिष्ठे चिरकालं खले भुवि ॥ १२२ ॥ एवं निगद्य तां हास्यात् कृत्वा प्रणयनं तथा । नारदः प्राययौ तूर्यं संतुष्टः स्वमनीषितम् ॥ १२३॥ अथ सा रुक्मिणी नत्वा सर्वसत्त्वहितं गुरुम् । संयमश्रीसमीपे च प्रवत्राज मनखिनी ॥ १२४ ॥ बङ्खा तीर्थंकरं गोत्रं तपः शुद्धं विधाय च । रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो दिवि सुरो महान् ॥ १२५ ॥ 25 देवश्च्युत्वा भुवं प्राप्य तपः कृत्वाऽयमुत्तरम् । निहत्याशेषकर्माणि मोक्षं यास्यति नीरजाः ॥१२६॥ ॥ इति श्रीलक्ष्मीमती समाधिगुप्तमुनिजुगुप्साफलसंजातकुष्ठमरणगर्दभीगन्धशूकरी वारद्वय शुनीधीवरीसमाधिगुप्तधर्मश्रवणक्षुल्लिकाव्रतग्रहणाच्युतेन्द्रस्त्री पौलोमी रुक्मिणीतपश्चरणदेवसंभवधरणी मनुष्यागमनतप ११६ ॥ 30 5 श्चरणमोक्षगमनसंप्रापणलक्ष्मीमतीकथानकमिदम् ॥ १०८ ॥ ' * 1 पफज त्रिकलमिदम्. 2 प समङ्गले. 3 [ जाता ]. put No. 108. १०७ ॥ १०८ ॥ १०९ ॥ ११० ॥ १११ ॥ 4 युगलमिदम्. 5 All the Mss. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ -१०९. ३२] चित्तसंभूतकथानकम् १०९. चित्तसंभूतकथानकम् । काशीजनपदे रम्ये पुरी वाणारसी परा । अस्यां कृषीवलो निःस्वः सुषेणाख्योऽभवत् पुरि ॥१॥ गन्धारी तस्य भार्याऽऽसीन्मनोनयनवल्लभा । अनयोश्चित्तसंभूतावभूतां तनयौ क्रमात् ॥२॥ सुशीलौ सर्वशास्त्रेषु रूपिणौ गुणसागरौ । कुलजातिस्वकां हित्वा यातौ तौ परमण्डलम् ॥३॥ नर्तनं विप्रवेषेण कुर्वन्तौ गीतमप्यदः । तिष्ठतस्तौ धरापृष्ठे कलकण्ठौ मनस्विनौ ॥४॥ अन्यदा नर्तनं रम्यं पुरे राजगृहे परे । नर्तकीवेषतो गीतं कुर्वाते तो सुरोपमम् ॥ ५॥ संभूतस्य समालोक्य नर्तनं कुर्वतः परम् । स्त्रीवेषेण सुशर्माऽपि मोहितोऽभूत् पुरोहितः ॥६॥ कालेन बहुनाऽनेन ज्ञातेयं स्त्री न दुःखतः । एष दिव्यो नरः कोऽपि कलाविज्ञानकोविदः ॥७॥ दिव्यरूपधरायास्मै संभूताय महात्मने । लक्ष्मीमती स्वसा दत्ता खकेयं च सुशर्मणा ॥८॥ संभूतस्य कुले ज्ञाते कालेन बहुनाऽमुना । ततस्तो लजितौ सन्तौ गतौ पाटलिपुत्रकम् ॥ ९॥॥ ततोऽमुष्मिन् पुरे ताभ्यां कुर्वभ्यां निशि नर्तनम् । भ्रातृभ्यां रञ्जितो लोकः कौमुदीसुमहामहे ॥१०॥ ततः समुदिते सूर्य विज्ञातौ श्मश्रुणा तकौ । नरैनराविमौ नूनं योषितौ भवतो न च ॥११॥ काशीजनपुरं प्राप्य गुरुदत्ताख्ययोगिनः । जिनधर्म तकौ श्रुत्वा दीक्षां दैगम्बरीमितौ ॥१२॥ समस्तमागमं श्रुत्वा जिनधर्मपरायणौ । तपोभिः कृशदेहौ तौ गतौ राजगृहं परम् ॥ १३॥ कृत्वा पक्षोपवासं च पारणार्थं पुरान्तरम् । प्रविवेश पुरि श्रान्तः संभूताख्यो महामुनिः ॥ १४ ॥ 15 भिक्षार्थ पर्यटन् साधुस्तदा राजगृहान्तरे । ददर्श च सुशर्माणं प्राक्तनं तं पुरोधसम् ॥ १५ ॥ दृष्ट्वाऽमुं पुरमध्ये च वेपमानशरीरकम् । ननाश तदनु पाप वसुशर्मा पुरोहितः॥१६॥ धावतोऽस्य मुनेस्तत्र संभूताख्यस्य वेगतः । तेजोऽग्निर्निर्गतो वक्रात् तेन व्याप्ता दिशो दश ॥१७॥ तं वृत्तान्तं परिज्ञाय ज्येष्ठश्चित्ताभिधो मुनिः । आजगाम महावेगाद् विस्मयव्याप्तमानसः ॥१८॥ अनेन मुनिना शीघ्रं कृत्वागमनमादरात् । संभूताख्यमुनेस्तत्र तेजोनिरिणं कृतम् ॥ १९॥ 20 ज्ञात्वा तन्मुनिमाहात्म्यं भयवेपितविग्रहः । पुरोधा विस्मितस्वान्तो वसुशर्मा पलायितः ॥२०॥ अत्रान्तरे समादाय चक्रिरूपं च देवता । महाविभूतियोगेन मुनिसेवां करोति सा ॥ २१ ॥ मुनिसेवां प्रकुर्वाणां देवतां विभवान्विताम् । संभूताख्यमुनिर्मूढो निदानमकरोदिदम् ॥ २२ ॥ विद्यते मम माहात्म्यमेतस्य तपसो यदि । अन्यजन्मन्यहं चक्री भवयंश्च' ततः स्फुटम् ॥ २३॥ कृत्वा निदानमीदृक्षं कालं संभूतको मुनिः । सौधर्मे धर्मसंयोगाज्जातो देवो महर्द्धिकः ॥ २४ ॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे जम्बूद्वीपोपलक्षिते । काम्पिल्यं नगरं चास्ति पञ्चालविषयोद्भवम् ॥ २५॥ ब्रह्माख्यो भूपतिस्तत्र विद्यते परमोदयः । बभूव तन्महादेवी वनदेवीव सुन्दरी ॥ २६ ॥ चक्री द्वादशमो रूपी ब्रह्मदत्ताभिधो बली । संभूताख्यचरो देवो जातः पुत्रोऽनयोर्भुवि ॥ २७ ॥ संसारसागरं भ्रान्त्वा वसुशर्मा पुरोहितः । सूपकारो बभूवायं ब्रह्मदत्तस्य चक्रिणः ॥२८॥ अथ भोजनवेलायां विस्तृतायां महीपतेः । क्षुधापम्पाभिभूतस्य ब्रह्मदत्तस्य चक्रिणः ॥ २९॥ आज्ञाभङ्गभयात् तेन सूपकारेण वेगतः । अत्युष्णं पायसं क्षिप्तं स्वर्णपान्यां मनोहरम् ॥ ३०॥ अत्युष्णं पायसं दृष्ट्वा चक्रिणा रोषमीयुषा । सूपकारो हतोऽनेन मस्तकेऽग्निसमेन सः ॥३१॥ पायसेन मृतिं प्राप्य सूपकारो वराककः । लवणाम्भोधिमध्यस्थे द्वीपेऽभूद् व्यन्तरामरः ॥ ३२॥ 1 [भवेयं च]. बृ० को० ३६ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१०९. ३३स्मृत्वा तद्वैरसंबन्धं वेषमादाय तापसम् । फलानि दर्शयामास दिव्यान्येष महीपतेः ॥ ३३॥ नीत्वा समुद्रमध्येऽमुं फललोभेन चक्रिणम् । प्रापयन् भ्रंशतां दृष्टेर्ममार सहसाऽमरः ॥ ३४ ॥ पश्चान्मृतिं परिप्राप्य ब्रह्मदत्तो दुराशयः । सप्तमं नरकं प्राप घोरं दुःखसमाकुलम् ॥ ३५ ॥ ॥ इति श्रीनिदानविधानकरणसप्तमनरकगमन संभूतिकथानकमिदम् ॥ १०९॥ ११०. पुष्पदत्ताकथानकम् । अत्रैव भरतक्षेत्रे जितधामपुरेऽभवत् । पुष्पचूलो नृपोऽस्यापि पुष्पदन्ता प्रिया प्रिया ॥१॥ तस्या रूपसमेताया धात्रिका नित्यपण्डिता । कलाविज्ञानसंपन्ना यौवनेन समन्विता ॥२॥ अन्यदा विहरन् क्वापि संघेन महता युतः । अमरप्रभयोगीन्द्रस्तत्पुरोधानमाययौ ॥३॥ 10 श्रुत्वा मुनि परिप्राप्त पुष्पचूलो नरेश्वरः । नत्वा धर्ममुपश्रुत्य तदन्ते मुनितामितः॥४॥ पुष्पदन्ताऽपि तद्देवी धात्रीकासहिता सती । बंभिल्लगणिनीपार्थे तदानीमर्यिकाऽभवत् ॥५॥ ततस्तपः समादाय पुष्पदन्तार्यिका तदा । कुलैश्वर्यमदोन्मत्ता महागर्वसमन्विता ॥६॥ अन्यासामर्यिकाणां च वन्दनां कर्तुमिच्छति । नो मूढात्मा प्रमादाच कुर्याद् वा मायया सका ॥७॥ मुख्यकायस्य वक्रस्य दुर्गन्धस्यापि सर्वदा । सुगन्धद्रव्यचूर्णेन करोत्येषा सुधूपनम् ॥ ८॥ 15 एवं प्रकुर्वतीं दृष्ट्वा पुष्पदत्ता दिने दिने । तन्महत्तरिका तां च जगादेति विचक्षणा ॥ ९॥ गन्धवस्त्रशरीराणां संस्कारो द्रव्ययोगतः । कर्तुं न युज्यते पुत्रि मतमेतन्जिनेशिनाम् ॥ १० ॥ खमहत्तरिकावाक्यं श्रुत्वा तां प्राह मायया । मच्छरीरं खभावेन सुगन्धं रूपसंयुतम् ॥११॥ मायाशल्येन संयुक्तं तपो धातृकया सह । पुष्पदत्तार्यिका कृत्वा सौधर्मेऽजनि सा पुनः ॥१२॥ अत्रैव भरते वास्ये चम्पायां पुरि विद्यते । श्रेष्ठी सागरदत्ताख्यो धनश्रीरस्य गेहिनी ॥१३॥ 20 सौधर्मादेत्य सा धात्री धनश्रीतनयाऽभवत् । धनमित्राख्यया युक्ता रूपराजितविग्रहा ॥१४॥ मायाशल्येन संयुक्ता पुष्पदन्ताऽपि तच्युता । जातेयं धनमित्राया दासी पूतिमुखी परा ॥१५॥ ततः सागरदत्तेन पृष्टो नैमित्तिकोऽन्यदा । धनमित्रावरः को वा भविष्यति वदाशु मे ॥१६॥ श्रुत्वा सागरदत्तस्य श्रेष्ठिनो वचनं तदा । नैमित्तिको जगादेमममोघवचनो भुवि ॥१७॥ त्वद्वने यं नरं दृष्ट्वा निषण्णं रूपशेखरम् । लाभो दीनारलक्षस्य भविष्यति तव स्फुटम् ॥१८॥ 25 तथा हि पूतिमुख्याश्च यं दृष्ट्वा नरपुङ्गवम् । मुखं दुर्गन्धतां हित्वा साधुगन्धं भविष्यति ॥१९॥ नरेन्द्रकृतसन्मानः कीर्तिच्छन्नदिगन्तरः । स पतिधनमित्रायास्त्वत्सुताया भविष्यति ॥२०॥ ततः सागरदत्तोऽपि नैमित्तिकनिदेशतः । समस्तनरयूथस्य चकारेदं परीक्षणम् ॥ २१ ॥ अत्रान्तरे महाभाग्यो वसुदेवो नराधिपः । वनं सागरदत्तस्य संप्रापत् पर्यटन क्वचित् ॥ २२ ॥ दृष्ट्वा सागरदत्तोऽयं वसुदेवं वनस्थितम् । लाभं दीनारलक्षस्य लेभे तत्संगमादरात् ॥ २३॥ ३० दृष्ट्वा पूतिमुखी भूपं तत्रत्यं खमुखस्य च । हित्वा दुर्गन्धतां सद्यः सुगन्धत्वं समाप सा ॥२४॥ अथ सागरदत्तोऽमा सुतया धनमित्रया । चकार वसुदेवस्य पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥ २५॥ ॥इति 'श्रीपुष्पदत्तार्यिकामायाकृतनिन्दाकथानकमिदम् ॥ ११०॥ 1 फ गलिणी. 2 पफज युगलमिदम्. 3 [ पुष्पदन्तां ]. 4 पफज युगलमिदम्. 5 [ पुष्पादन्ता]. 6 पफज चतुःकुलकम्. 7 [श्रीपुष्पदन्ता]. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११२. १३ ] कुलजमहापुरुषकथानकम् १११. मरीचिकथानकम् । १ ॥ २ ॥ विषये 'पुष्पलावत्यां विशिष्टजनसंकुले | मधुपूर्वं वनं रम्यं बभूव मधुकान्वितम् ॥ नानानो कुहसंछन्ने नानापक्षिरवाकुले । वसति प्रीतचेतस्को म्लेच्छो नाम पुरूरवाः ॥ अन्यदा विहरन् क्वापि नष्टमार्गे महामुनिः । समाधिपूर्वको गुप्तो तद्वनं प्रविवेश सः ॥ ३ ॥ ततः पर्यटताऽनेन तद्वने भ्रान्तचेतसा । दृष्टः पुरूरवा म्लेच्छो मार्गश्रमयुतेन सः ॥ ४ ॥ नानाजनसमेतस्य महादेशस्य सत्वरम् । ब्रूहि मार्ग मम स्पष्टं येन यामि वनेचर ॥ ५ ॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य धर्मशीलपुरूरवाः । जगादायं मुनेरस्य मार्गं देशस्य शोभनम् ॥ ६ ॥ पुरूरवोवचः श्रुत्वाऽवक्रशीलं महामुनिः । कृपाऽङ्गनापरिष्वक्तहृदयो निजगावमुम् ॥ ७ ॥ महामार्गेण खिन्नस्य देहस्य मृदुमानसः । अटवीविप्रनष्टस्य मम मार्गस्त्वयोदितः ॥ ८ ॥ भवाटवीप्रनष्टस्य वृक्षगोत्रावगाहिनः । धर्मपाथेयहीनस्य मोक्षमार्गं ब्रवीमि ते ॥ ९ ॥ साधूदितं समाकर्ण्य बभाणेमं पुरूरवाः । मोक्षमार्गस्य पन्थानं प्रदर्शय मम स्फुटम् ॥ १० ॥ गृहिधर्मपथोऽनेन सम्यक्त्वादिपुरस्सरः । तद्वाक्यतः समादिष्टः साधुना तद्धितैषिणा ॥ ११ ॥ श्रावकं धर्ममासाद्य कालं कृत्वा पुरूरवाः । सौधर्मे चाभवद् देवः सागरैकप्रजीवितः ॥ १२ ॥ ततश्युत्वाऽभवत् पुत्रश्चक्रिणो भरतस्य सः । मरीचिसंज्ञया युक्तो धारिणीकुक्षिसंभवः ॥ १३ ॥ दीक्षितः पुरुदेवेन मरीचिर्नाभिसूनुना । सभायां स्वस्तुतिं श्रुत्वा सांख्यधर्मं दिदेश सः ॥ १४ ॥ 15 भूयो मिथ्यात्वदोषेण परिभ्रम्याजवंजवम् । अभवच्च महावीरः तीर्थकृच्चरमः पुनः ॥ १५ ॥ ॥ इति श्रीमरीचिकथानकमिदम् ॥ १११ ॥ २८३ ११२. कुलजमहापुरुषकथानकम् । अवन्तीविषये चास्ति श्रीमदुज्जयिनी पुरी । शूरसेनो नरेन्द्रोऽस्यां शूरसेनाऽस्य गेहिनी ॥ १ ॥ अनयो रूपसंपन्नः शूरवीरो जनप्रियः । शूरवीरोऽभवत् पुत्रः कलाविज्ञानकोविदः ॥ २ ॥ तद्व्याधिच्छेदनार्थं च नरेन्द्रविषघातिनाम् । वैद्यानां संग्रहोऽनेन भूभुजा विहितो गृहे ॥ ३ ॥ तेषां संपूजनं राजा भोजनाच्छादनादिना । शूरवीरनिमित्तेन करोति सततं तराम् ॥ ४ ॥ अन्यदा शूरवीरोऽसौ प्रासादशिखरस्थितः । दष्टो भीमभुजङ्गेन पपात भुवि निःक्रियः ॥ ५ ॥ एवंस्थिते कुमारेऽस्मिन् विषदा वैद्यभूभुजः । आहूता युगपत् सर्वे नरेन्द्रेण समागताः ॥ ६ ॥ यथाक्रमं निविष्टेषु तेषु सर्वेषु सादरम् । एवमुक्ता नरेन्द्रेण पुत्रशोकविचेतसा ॥ ७ ॥ शूरवीरकुमारस्य मत्पुत्रस्य प्रयत्नतः । अस्माभिर्युगपत् प्रोक्ता यूयं कुरुत जीवनम् ॥ ८ ॥ भूपालस्य वचः श्रुत्वा सोमशर्मा द्विजः पुनः । कुशलोऽष्टाङ्गवेदेषु जगादेति महीपतिम् ॥ ९ ॥ यादृशं दिननक्षत्रं वारवेलामुहूर्तकम् । दंष्ट्रालक्षणमेतैश्च दष्टो भूप न जीवति ॥ १० ॥ श्रुत्वा तद्वचनं भूयो बभाणेमं महीपतिः । भवतां संग्रहोऽस्माभिः पुत्रार्थं विहितो ननु ॥ ११ ॥ आकर्ण्य भूपतेर्वाक्यं सोमशर्मा जगावमुम् । वार्तिकः कुर्वते कर्म संग्रहानुगतं नृप ॥ १२ ॥ अवाचि भूभुजा भूयो सोमशर्मा तदुक्तितः । मत्पुत्रोऽयं कुवैद्येषु सत्सु कालगतः कथम् ॥ १३ ॥ 30 1 [ पुष्कलावत्यां ]. 2 [ मानस ]. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफज त्रिकलमिदम् 5 पफज युगलम् 6 पफ युग्मम् ज युगलम् 7 [ सुवैद्येषु ]. 10 20 25 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [११२. १४भूयो नरेन्द्रवाक्येन सोमशर्मा बमाण तम् । दर्शयामि तवाद्यैव खमाहात्म्यं नराधिप ॥ १४ ॥ एवमुक्त्वा समाहूतास्तेन सर्वेऽपि पन्नगाः। भवनं राजराजस्य संप्राप्ता भयविह्वलाः ॥१५॥ आगतेषु समस्तेषु पन्नगेषु नृपालयम् । भूयोऽपि गदितास्तेन तदानीं सोमशर्मणा ॥ १६ ॥ योऽपराधी भवेन्मध्ये तिष्ठत्वत्र स मण्डले । येऽपराधपरित्यक्ताः स्वगृहं यान्तु तेऽखिलाः ॥१७॥ 5 सोमशर्मवचः श्रुत्वा सर्वे ये दोषवर्जिताः । स्वमन्दिरं गता यस्तु सदोषः स परं स्थितः ॥१८॥ एकस्मिन् पन्नगे भीमे स्थिते तत्रत्यमण्डले । भूयोऽवाचि पुनस्तेन तदानीं सोमशर्मणा ॥ १९ ॥ सर्पाणां द्वे कुले राजन् विद्यते वसुधातले । गन्धनाख्यं कुलं चैकमगन्धनकुलं परम् ॥ २०॥ गन्धने ये कुले जाता विषं गृह्णन्ति तेऽहयः । अकुलीनकुलं पूर्व प्रथमं ते मयोदितम् ॥ २१ ॥ येऽगन्धनकुले जाता मानिनः कुलसंभवाः । निजां कुलस्थितिं जातु लश्यन्ति न ते नृप ॥२२॥ 10 अनेन कारणेनैष सर्पपोतः कुलोद्भवः । अगन्धनकुलोत्पन्नो मानराजितविग्रहः ॥ २३ ॥ स्वकुलस्थितिसंतानभङ्गवेपितविग्रहः । अमुना कारणेनायं न गृह्णाति विषं प्रभो ॥ २४॥ इच्छत्येष वरं मृत्यु न कुलस्थितिलोपनम् । मानिनो मरणावाप्तिं वाञ्छन्ति न कुलक्षयम् ॥ २५॥ सोमशर्मोदितं श्रुत्वा नन्दनं जीवनं प्रति । बभाणेमं सभाऽध्यक्षं शोकविस्मयगो नृपः ॥ २६ ॥ जीवत्वेष चिरं सर्पः पञ्चतां यातु वा ध्रुवम् । तथाऽपि स्वविष नूनं गृह्णातु पुनरप्ययम् ॥२७॥ 15 नरेन्द्रवाक्यतो धृत्वा धारणं मनसि द्रुतम् । जगाद पन्नगं सत्यं सोमशर्मा पुरःस्थितम् ॥ २८॥ भो भो नागकुलप्रख्य मत्पतेर्नन्दनस्य तु । गृहाण विषमात्मीयं ग्रहीतुं स न वाञ्छति ॥ २९॥ काष्ठपुखं विधायाशु तरां प्रज्वाल्य वह्निना । सोमशर्मा जगादेमं सभामध्ये विचक्षणः ॥३०॥ इदं नागकुमार त्वं गृहाण विषमादरात् । न गृह्णासि यदि क्षिप्रं ततोऽग्निं विश भासुरम् ॥३१॥ सोमशर्मवचः श्रुत्वा नागराजोऽपि तत्क्षणम् । तदानीं विस्मयोपेतो दध्याविति स चेतसि ॥३२॥ • अस्मदीये कुले नूनं मर्यादेयं समुन्नता । खेन मुक्तं विषं यच्च गृहीतं तत्र केनचित् ॥ ३३ ॥ दिनपक्षेऽपि वा मासे वर्षे वा निश्चयेन च । मर्तव्यं जन्तुभिः सर्वेम्यद्भिर्भवसंकटे ॥ ३४ ॥ . हित्वा स्वकुलमर्यादामपवादयुतेन को । अवश्यमेव मर्तव्यं मयाऽपि भवकानने ॥ ३५ ॥ ततः स्वकुलमर्यादां पालयन् मत्कुलागताम् । मरामि येन नो निन्द्यो भवामि निजगोत्रजैः ॥३६॥ चिन्तयित्वा चिरं चित्ते नागेन्द्रो मृत्युनिर्भयः । प्रविश्य ज्वलितं वह्नि ममार सहसा सुधीः॥३७॥ तथा चोक्तम् - वरं प्रविष्टं ज्वलिते हुताशने न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः शुचिशुद्धकर्मणां न शीलवृत्तेः स्खलितं हि जीवितम् ॥ ३८॥ तिर्यग्जातिसमुत्पन्नो ज्ञानहीनोऽपि चेदहिः । अनादाय विषं मुक्तं प्राप्तो मृत्युमयं सुधीः ॥ ३९॥ उत्कृष्टकुलजातेन साधुनाऽप्यभिमानिना । गृह्णतेदं तपो जैनं जिनादिगुरुसाक्षिकम् ॥ ४० ॥ " कषायाक्षविषं वान्तं मरणे समुपस्थिते । व्रतीनां कुलमर्यादां जिनादिगुरुभिर्भुवि ॥४१॥ हित्वेमा कुलमर्यादां महापुरुषसेविताम् । कषायाक्षविषादानं न कर्तव्यं खचेतसि ॥ ४२ ॥ ॥ इति श्रीकुलजमहापुरुषकथानकमिदम् ।। ११२॥" 1 पफ षट्कलकमिदम् , ज षटकुलकमिदम्. 2 पफज युगलमिदम्. 3 [दिने]. 4 ज गृह्नतोदं. 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6 पफ No. 112, ज No. 111. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११४.१३] पञ्चालगन्धर्वदत्ताकथानकम् . २८५ ११३. गन्धमित्रकथानकम् । ततः सुकोशलाभिख्ये विषये परमोदये । अस्त्ययोध्यापुरी रम्या साणूरसरसीवनैः ॥ १॥ विद्यतेऽस्यां महाराजो यशःसेनो हताहितः । प्रिया जयमतिस्तस्य महाजयमतिः प्रिया ॥२॥ अभूतामनयोः पुत्रौ कलाविज्ञानशालिनौ । जयसेनो मतः पूर्वो गन्धमित्रोऽपरो मतः ॥३॥ अन्यदा प्राप्य वैराग्यं राज्यं ज्येष्ठाय सूनवे । युवराज्यं कनिष्ठाय यशःसेनो ददौ विभुः ॥४॥5 त्रिःपरीत्य तमीशानं नत्वा भक्त्या पुनः पुनः। मुनिसागरसामीप्ये ददौ दीक्षां स भूपतिः ॥५॥ योऽसौ ज्येष्ठसुतस्तस्य स्थितो जनकविष्टरे । राज्यमादाय वेगेन गन्धमित्रेण धाटितः ॥६॥ छिद्रं स गन्धमित्रस्य नक्तं पश्यद्दिनं तदा । जयसेनः स्वसैन्येन तस्थौ द्वारस्थितो रुषा ॥ ७॥ पीनोन्नतकुचद्वन्द्वैर्नीलोत्पलदलेक्षणैः । गन्धमित्रोऽपि राजेन्द्रः पञ्चभी रमणीशतैः ॥ ८॥ पञ्चेन्द्रियेषु मध्येऽसौ घ्राणेन्द्रियपरस्तराम् । भुञ्जानः परमान् भोगांस्तस्थौ मुदितमानसः ॥९॥ 10 अन्यदा गन्धमित्रोऽसौ सर्वदेवीसमन्वितः । जयसेनेन विज्ञातः स्थितो यः सरयूहदे ॥ १० ॥ ज्ञात्वाऽमुं सरयूभागे तदानीमुपरिष्टके । नानातरुप्रसूनानि विषधूलीयुतान्यलम् ॥ ११ ॥ तं तदा जलपूरेण मन्दमन्दप्रवाहिना । जयसेनः स्थितस्तत्र मुमोचाशु रुषान्वितः ॥ १२ ॥ तद्देवीभिः समादाय विषयुक्तानि तान्यलम् । दत्तानि रमणायास्मै तत्करे ताभिरादरात् ॥ १३॥ आदाय चित्रवर्णानि तानि चाघ्राय रागतः । गन्धमित्रो मृतिं प्राप्य जगाम नरकं पुनः ॥१४॥ ज्येष्ठोऽपि जयसेनाख्यो गृहीत्वा राज्यमात्मनः। भुञ्जानः परमान् भोगान् सुखं तस्थौ स्वपत्तने ॥१५॥ ॥ इति श्रीघ्राणेन्द्रियसमायुक्तनरकगमनगन्धमित्रकथानकमिदम् ॥ ११३ ॥ ११४. पञ्चालगन्धर्वदत्ताकथानकम् । नगरे पाटलीपुत्रे हतशत्रुकदम्बकः । राजा गन्धर्वदत्तोऽभूत् सर्वलोकमनोहरः ॥१॥ बभूव तन्महादेवी पीनोन्नतकुचान्विता । गन्धर्वोपपदा सेना कन्दोट्टदललोचना ॥२॥ 20 गन्धर्वोपपदा दत्ता पद्मकोमलपाणिका । गन्धर्वे विषये दक्षा गन्धर्वमदगर्विता ॥ ३॥ अस्यैव भूपतेरासीत् पुत्रिका लोललोचना । कलाकलापसंयुक्ता विज्ञानातिशयान्विता ॥४॥ गन्धर्वविधिना यो हि कुमारी मां विजेष्यते । तस्य भार्या भविष्यामि संगरोऽयं मम स्फुटम् ॥५॥ अथवा मां न कोऽप्यत्र गन्धर्वेण विजेष्यते । ग्रामत्रयेण युक्तेन तथा सप्तस्वरैरपि ॥ ६॥ चित्रभानौ ततः क्षिप्रं ज्वालाभासितपुष्करे । करिष्यामि जनाध्यक्षं प्रवेशं निर्विकल्पकम् ॥ ७ ॥ 25 आदाय ब्रह्मचर्य वा निश्चितं सार्वकालिकम् । पुत्रिकेयं तदा तस्थौ प्रतिज्ञारूढमानसा ॥ ८॥ अस्यामेव स्थितायां च प्रतिज्ञारूढचेतसि । स्वयंवरार्थमायाता नानानरगणास्तदा ॥९॥ खमन्दिराद् विनिःसृत्य नरनारीसमन्विता । तस्थौ गन्धर्वदत्ताऽपि सा स्वयंवरमण्डपे ॥१०॥ ... गतैरेकदिने तस्मिन् सप्तभिः सप्तभिर्दिनैः। वादं करोति सा बाला गन्धर्वेण नरोत्तमैः ॥ ११॥ गन्धर्वदत्तया तत्र कालेन बहुना तया । सविलासं नराः सर्वे गन्धर्वेण निराकृताः ॥ १२॥ 30 विजयानगासन्ने पोदनाख्ये पुरोत्तमे । एकः पञ्चालनामासीदुपाध्यायः कलान्वितः ॥१३॥ 1 [ दधौ ]. पफज युगलमिदम्. प्रफज युगलमिदम्. 4 पफ कुमारिं. 5 ज षद्कुलकम्. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ हरिषेणाचार्य कृते बृहत्कथाकोशे [ ११४.१५ 1 गन्धर्वविषये दिव्ये विपञ्चीविषयेऽपि च । किन्नरो वा कलस्वानस्तत्पुरेऽसौ वितिष्ठते ॥ १४ ॥ अन्यदागत्य तत्पार्श्वं नरैः संभ्रममागतैः । वार्ता गन्धर्वदत्तायाः कथिताऽस्य सकौतुकैः ॥ १५ ॥ पुत्रिका पाटलीपुत्रे किन्नरीव कलखना । निर्जित्य सकलं लोकं गीतेन व्यवतिष्ठते ॥ १६ ॥ निशम्य तद्वचः प्रौढं पञ्चालः कृतनिश्चयः । शतैः पञ्चभिरायुक्तः शिष्याणामाप तत्पुरम् ॥ १७ ॥ * यदि कोऽपि नरः क्षिप्रमागच्छति मदन्तिकम् । सुप्तस्योत्थापनं भद्र कुरु ततो मम स्फुटम् ॥१८॥ शिष्यमेकं निगद्यायमशोकाख्यतरोरधः । मुखप्रसारणं कृत्वा सुप्तोऽयं सपरिश्रमः ॥ १९ ॥ अन्ये ते वासिनः सर्वे कौतुकव्याप्तमानसाः । विविशुः पाटलीपुत्रं पताकावलिराजितम् ॥ २० ॥ अत्रान्तरे परिज्ञाय सहसा सहसादरैः । बहुभिश्चेष्टिकासंधैर्मृदुमन्थरगामिभिः ॥ २१ ॥ वस्त्रसगन्धकर्पूरश्रीखण्डकुसुमारुणम् । ताम्बूलादिकमादाय रागात् पञ्चालमाप सा ॥ २२ ॥ प्रसारितमुखं भीमं पञ्चालं सपरिश्रमम् । ददर्शो दन्तुरं तत्र सघर्घरगलं सका ॥ २३ ॥ ततो गन्धर्वदत्ता च तत्समीपे विलोक्य सा । छात्रमेकं जगादेति वचः साश्चर्यमीयुषा ॥ २४ ॥ भो भो चट्ट वद क्षिप्रं ममेदं सत्वमादरात् । पञ्चालोऽयमुपाध्यायो यः सुप्तो व्यवतिष्ठते ॥ २५ ॥ निशम्य तद्वचश्चट्टो जगादेमां मनखिनीं । भवेत् पञ्चालनामायमुपाध्यायः परिस्फुटम् ॥ २६ ॥ तद्वाक्यतः परिज्ञाय पञ्चालं भीमवक्रकम् । उद्दन्तुरं च चित्तेन विरक्ता दुःखिता सका ॥ २७ ॥ 15 ततोऽशोकतरुं बाला वस्त्रयुग्मेन सादरम् । विधाय' कुङ्कुमाद्यैस्तैरनुलिप्य मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥ पुष्पमालाभिरावेथ धूपं दत्त्वा पुनः पुनः । ताम्बूलमप्यधः कृत्वा त्रिःपरीत्य प्रणम्य तम् ॥ २९ ॥ भाण विस्मितवान्ता तद्विरक्ता गतप्रभा । गन्धर्वोपपदा दत्ता पुत्रिका हृष्टमानसा ॥ ३० ॥ यावदस्य मुखे भीमे पञ्चालस्य सरस्वती । पिण्डिपादप तावत्ते कुतो नेयं व्यवस्थिता ॥ ३१ ॥ एवं निगद्य तं वृक्षं पञ्चालोत्तीर्णमानसा । तूर्णं गन्धर्वदत्ताऽपि जगाम निजमन्दिरम् ॥ ३२ ॥ 20 ततः प्रबोधमासाद्य पञ्चालो वीक्ष्य पादपम् । पूजितं केन मे सत्यं ब्रूहि शिष्य यथायथम् ||३३|| निशम्य तद्वचः शिष्यो वभाणेमं ससंभ्रमः । नारी त्वदन्तिकं प्राप्ता पण्यस्त्री परिवारिता ॥ ३४ ॥ भवन्तं वीक्ष्य संसुप्तं पुष्पधूपादिसंपदा । अशोकं पूजयित्वा च प्राहेदं वनितोत्तमा ॥ ३५ ॥ उद्दन्तुरमुखे यावदस्य देवी व्यवस्थिता । तावत्तव तरो कस्मान्न स्थितेयं सरस्वती ॥ ३६ ॥ एवं निगद्य सा कन्या जगाम निजपत्तनम् । पञ्चालस्तद्वचः श्रुत्वा रुषा यातो नृपान्तिकम् ||३७|| उपाध्यायो नृपेणोक्तस्तुभ्यं किं क्रियते वद । तद्वाक्यतोऽमुना प्रोक्तो भूपतिः प्रीतमानसः ॥ ३८ ॥ राजन् गन्धर्वदत्तान्ते मदावासं निरूपय । तेनापि भूभुजा तस्य प्रतिपन्नं मनीषितम् ॥ ३९ ॥ पञ्चालोऽपि तदभ्याशे स्थितो गेहे कलखनाम् । वीणामादाय संगेयं नादितुं प्रवृत्तो" निशि ॥ ४० ॥ तद्गीतध्वनिमाकर्ण्य पञ्चालहृतमानसा । मदविह्वलचेतस्का बभूवासौ सविस्मया ॥ ४१ ॥ प्रासादात् पातमासाद्य पञ्चतामपि सत्वरम् । भवं " गन्धर्वदत्तेयं संसारं भवदुःखदम् ॥ ४२ ॥ 1 ॥ इति श्रीपञ्चालोपाध्यायगीतश्रवणमरणकथानकमिदम् ॥ ११४ ॥ * 10 25 30 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज युगलमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्. 4 [चेटिका ] 5 ज ददशो, [ ददर्शोद्दन्तुरं ]. 6 पफ omit the second line of No. 25 and the first line of No. 26. 7 [ पिधाय ]. 8 फ पञ्चाले तीर्ण. 9 पफज त्रिकलमिदम्. 10 ज प्रवृते. 11 [ भ्रान्ता ]. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ -११६.९] भर्तृभित्रकथानकम् ११५. भीमनृपतिकथानकम् । अत्रैव भारते वास्ये कम्पिल्लाख्यं पुरं परम् । अत्र राजाऽभवद् भीमो जिह्वेन्द्रियवशीकृतः ॥१॥ घभूवास्य महादेवी सोमश्रीरतिवल्लभा । अनयोनन्दनः शूरो भीमदासो भयानकः ॥२॥ तेन राज्ञा महापूजा जिनानां क्षीणकर्मणाम् । प्रवर्तिताऽतिभावेन त्रिषु नन्दीश्वरेष्वपि ॥३॥ दिनान्यष्टौ समारुह्य जीवानां भयवेपिनाम् । अमारिघोषणां' राजा चकार खकुलोचिताम् ॥४॥ अथ नन्दीश्वरान्ते च पिशिताशाऽभवत् प्रभोः । अत्यन्तदुर्धराऽसाध्या तद्व्याकुलितचेतसः॥५॥ आहूय मारनामानं महानसिकमादरात् । जगावेतं ममायैव रेरे त्वं मांसमानय ॥ ६॥ निशम्य भूभुजो वाक्यमनालोच्यं स सूदकः । श्मशानं प्राप्य वेगेन मृतं बालं ददर्श तम् ॥७॥ बालमादाय संप्राप्य संस्कृत्य निजमन्दिरे । ददौ भूपाय तन्मांसं जघासेदं स लम्पटः ॥८॥ आस्वाद्य तत्पलं हृष्टो जगौ सूदं स भूपतिः । भद्राद्य भोजनं मृष्टं संजातं मांसभक्षणात् ॥९॥" भूपवाक्यं समाकर्ण्य याचयित्वाऽभयं नृपम् । बालमांसमिदं पक्कं भक्षितं ते नरेश्वर ॥१०॥ आकर्ण्य तद्वचः सत्यमिदमेव दिने दिने । सूपकार ममैतद्धि समानय सुसंस्कृतम् ॥ ११ ॥ दत्त्वा मोदकमेकैकं हत्वा बालं दिने दिने । बालहीनं पुरं सर्वं सूदश्चके नृपं प्रति ॥ १२ ॥ जग्धबालं नृपं ज्ञात्वा सामन्ता हि महत्तराः । दुष्टं निर्धाटयामासुः सूदेन सह पत्तनात् ॥ १३॥ समस्तभुवनव्यापिनिहिताशेषशात्रवम् । भीमदासो हि तत्पुत्रश्चक्रे राज्यं यथाविधिः ॥१४॥ 15 ततो विन्ध्याटवीमध्ये भुक्ता सूदं बुभुक्षितः । मेखलाढ्यं पुरं प्राप भीमोऽयं भीमविग्रहः ॥१५॥ ज्ञात्वा भीमं नरं क्रूरं तत्पुरोद्वेगकारिणम् । जघान वसुदेवोऽयं नरभक्षणकारिणम् ॥ १६॥ नरमांसादनं कृत्वा जिह्वेन्द्रियवशीकृतः । जगाम नरकं भीमो वसुदेवनिपातितः॥१७॥ ॥ इति श्रीनरमांसभक्षणकारिजिह्वेन्द्रियवशीकृतभीमनृपति नरकगमनकथानकमिदम् ॥ ११५ ॥ ११६. भर्तृमित्रकथानकम् । मदिल्लपत्तने दिव्ये श्रेष्ठी धनपतिर्महान् । इभ्यस्तद्वल्लभा चासीद्धनश्रीः श्रीसमप्रभा ॥१॥ तत्पुत्रो भर्तृमित्रोऽभून्नन्दिताशेषबान्धवः । तत्प्रिया देवदत्ता च रूपराजितविग्रहा ॥२॥ भर्तृमित्रादयः सर्वे द्वात्रिंशच्छेष्ठिनस्तदा । सभार्यास्तत्पुरोद्यानं जग्मुर्मुदितचेतसः ॥३॥ तस्मिन् वसन्तसेनाख्यः श्रेष्ठिपुत्रोऽस्य कामिनी । आसीद् वसन्तमालाख्या वसन्तश्रीसमप्रभा ॥४॥ 25 उरःशिरःसमाधारं कृत्वाऽङ्ग स्नेहनिर्भरम् । सुप्ता वसन्तमालेयं स्वधवेनामुना समम् ॥ ५॥ उरःशिरःसमाधारं विधायाङ्गं सुसंगतम् । देवदत्ताऽपि संसुप्ता भर्तृमित्रधवान्तिके ॥ ६॥ एवं प्रसुप्तयोस्तत्र द्वन्द्वयोः सुखमिच्छतोः। विद्रुमाभां समालोक्य रुचिरां चूतमञ्जरीम् ॥७॥ वसन्तोपपदं सेनं स्वभर्तारं मनःप्रियम् । ब्रुवे वसन्तमालेयं नितान्तं प्रीतमानसा ॥ ८॥ राजते सुतरां नाथ चूतस्य नवमञ्जरी । वरां विलोक्य यां याति वेगं च नवमं जरी ॥९॥ ७ 1 ज अमारी'. 2 फ सलम्पटम्. 3 पफ तत्फलं. 4 पफ शाववम्. 5 [भुक्त्वा ]. 6 ज (=वृद्धपुरुषः). Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [ ११६.१० तस्मादिमां प्रयच्छ त्वं कामतोऽमरसंनिभाम् । विन्ध्यन्ती कामिनां चेतो येन कर्णे करोम्यहम् ॥१०॥ श्रुत्वा वसन्तमालाया वचनं निजयोषितः । जगौ वसन्तसेनोऽपि वचसा निजवल्लभाम् ॥ ११ ॥ निविष्टः किं ददाम्येतां तव सुन्दरि शोभनाम् । नूनं किमुत्थितो ब्रूहि मन्मनोहरणक्षमे ॥ १२ ॥ निशम्य तद्वचः कान्ता निजगाद धवं पुनः । इहत्यो देहि तां नाथ सुप्ताया मम सांप्रतम् ॥ १३ ॥ · तद्वाक्यतः समाकृष्य निषङ्गाद् बाणमुत्तमम् । धनुर्गुणे समासज्य मुमोचेमं स तां प्रति ॥ १४ ॥ स बाणो मञ्जरीं हत्वा तरौ तत्रापि निश्चलः । द्वितीयोऽप्यमुना मुक्तस्तत्रत्यः सोऽपि तत्समः ॥१५॥ पुङ्खाच पुङ्खतो मुक्तास्तावत्तेन शरा द्रुतम् । यावत्सा मञ्जरी चूतात् पतिता तत्पुरो धराम् ॥१६॥ वसन्तोपपदः सेनस्तां समादाय मञ्जरीम् । ददौ वसन्तमालायाः स्वहस्तेन सुकौतुकः ॥ १७ ॥ दृष्ट्वा तां मञ्जरीं दत्तां तेन तस्यै स्वयोषिते । देवदत्ता जगादेति भर्तृमित्रं रुषान्विता ॥ १८ ॥ स्वामिन् ममापि तां क्षिप्रं देहि चूतस्य मञ्जरीम् । भल्लीमिव वसन्तस्य येन कर्णे करोम्यहम् ॥१९॥ देवदत्तावचः श्रुत्वा भर्तृमित्रोऽपि तद्वने । अज्ञातमार्गणाभ्यासो बभूवानतमस्तकः ॥ २० ॥ विधायोत्तरमेतस्या भर्तृमित्रः प्रतारकम् । मुखं निजोत्तरीयेण सुप्ताया पिदधे वने ॥ २१ ॥ धनुर्वेदनिमित्तेन देशत्यागं विधाय सः । भर्तृमित्रो द्रुतं प्राप पुरं मेघपुरं परम् ॥ २२ ॥ मेघसेनो नृपस्तत्र बभूवोन्नतशासनः । तत्प्रिया रूपसंपन्ना रिन्ना वेगवती भुवि ॥ २३ ॥ कलाविज्ञानसंयुक्ता सुन्दरी सुभगा परा । अभवद् विनयोपेता मेघमाला सुताऽनयोः ॥ २४ ॥ रूपयौवनयुक्तायास्तस्या नैमित्तिकोक्तितः । स्वयंवरः कृतः पित्रा चन्द्रकोपपदव्यधः ॥ २५ ॥ नरप्रमाणकं स्तम्भमेकं कृत्वा तदग्रतः । सहस्रारकसंयुक्तं चक्रं संस्थाप्यते बुधैः ॥ २६ ॥ तस्योपरि स्थितो नूनं वेधकः कुशलो नरः । धृतकोदण्डसद्वाणो 'वैशाषकरणान्वितः ॥ २७ ॥ भ्रमतोऽस्य विशुद्धस्य चक्रस्य सहसा सकः । लक्षं विमार्गयन् मन्दं यत्नवान् संवितिष्ठते ॥२८॥ 20 नरप्रमाणकस्तम्भादमुतो घनसारतः । पदानि सप्त संप्राप्य तिष्ठति प्रथमं युगम् ॥ २९ ॥ त्रीणि त्रीणि पदान्यस्य तत्पुरः प्राप्य निश्चितम् । भवन्ति सप्तयुक्तानि युगानि स्थिरतागुणैः ॥ ३० ॥ युगेभ्यः सप्तसंख्येभ्यः संप्राप्य युगमष्टकम् । अतः परं प्रवेद्यानि पदानि त्रीणि कोविदैः ॥ ३१ ॥ चक्रस्य भ्रमतस्तत्र मुक्तारान्तरयोगतः । वालः कपर्दिकाबन्धो लम्बमानो वितिष्ठते ॥ ३२ ॥ एवं स्थिते सति क्षिप्रं युग सप्तप्रमाणके । स्थितो वितिष्ठते सर्वो नरसंघः कृतध्वनिः ॥ ३३ ॥ 25 दृष्ट्वा तं चान्द्रकं वेधं भयविह्वलमानसः । संतिष्ठते नरवातस्तत्सुताग्रहणेच्छया ॥ ३४ ॥ अत्रान्तरे महालोकसंघट्टरवसंकुले । भर्तृमित्रः परिप्राप पुरं मेघपुरं पृथु ॥ ३५ ॥ नानाशिष्यसमायुक्तं धनुर्वेदपरायणम् । द्रोणाचार्यं ददर्शासौ भर्तृमित्रोऽपि तत्पुरे ॥ ३६ ॥ अस्मै विचित्ररत्नानि भर्तृमित्रो वितीर्य च । धनुर्वेदकृते शिष्यो बभूवानुगतोऽस्य सः ॥ ३७ ॥ आयुधानि तदाऽशिक्षत् तदुपाध्यायशासनात् । कुर्वाणो विनयं तस्य भर्तृमित्रोऽवतिष्ठते ॥ ३८ ॥ 30 तत्पत्तनसमीपस्थं पर्वतं प्राप्य सर्वदा । नानातरुसमायुक्तं फलपुष्पोपशोभितम् ॥ ३९ ॥ देवतार्चनयोग्यानि फलपुष्पाणि सादरम् । समादाय ददावस्मै भर्तृमित्रो दिने दिने ॥ ४० ॥ तेन तत्पर्वतस्येदं तत्कालप्रभृति स्फुटम् । यावदद्यदिनं नाम जातं पुष्पादिसंज्ञकम् ॥ ४१ ॥ 10 15 २८८ 1 पफज चतुः कुलकमिदम्. 2 युगलमिदम्. 3 पफ तत्सलः . 4 [ नाम्ना ] 5 [ वैशाख° ]. 6 [ लक्ष्यं ]. 7 पफज युगलम्. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ -११७.५] नागदत्ताकथानकम् उपाध्यायोऽवमत्येमं नितरां नृपभीतितः । ददाति राजपुत्राणामुपदेशं प्रयत्नतः ॥ ४२ ॥ मदर्थं वट्टके कृत्वा गृहीत्वाऽमलकान्यलम् । अमुञ्चन् पृथिवीपृष्टे याहि त्वं निम्नगातटम् ॥४३॥ एवं निगद्य तं छात्रं भर्तृमित्राभिधं तदा । राजपुत्रैः समं याति द्रोणः स्नानाभिवाञ्छया ॥४४॥ तालसूचीसमुच्छेदकारणं संप्रदर्श्य सः । तदानीं राजपुत्राणां प्रययौ स्वमनीषितम् ॥ ४५ ॥ तन्मार्गानुपदं तूर्णं गृहीत्वाऽऽमलकानि सः । चारुकच्चोलकस्थानि भर्तृमित्रः समाययौ ॥ ४६ ॥ दृष्ट्वाऽयं तालवृक्षाधस्तत्पादकरणानि च । तन्मध्ये प्रददौ स्वानि भर्तृमित्र' पदान्यरम् ॥४७॥ दृष्ट्वा तत्सदसंस्थानि पदान्यन्यानि रोषतः । भर्तृमित्रं वदन्त्येते राजपुत्राः खरखनाः ॥४८॥ भर्तृमित्र त्वया भूमौ मुक्तामलकवट्टकम् । तालसूची वरा छिन्ना मूढीभूतखचेतसा ॥४९॥ कुमारवचनं श्रुत्वा भर्तृमित्रो जगावमून् । अमुक्ता वट्टकं भूमौ तालसूची दिता मया ॥ ५० ॥ निशम्य भर्तृमित्रस्य वचनं ते जगुः पुनः । तच्छेदनविधानं च दर्शयास्माकमीदृशम् ॥५१॥" ततस्तद्वट्टकं तेन चोर्ध्व क्षित्वा तदुक्तितः । सूचीच्छेदं विधायैषां कारणं दर्शितं तदा ॥५२॥ दृष्ट्वा तत्करणं तेऽपि विस्मयव्याप्तमानसाः । जग्मुर्निजालयं सर्वे द्रोणेन सहसा सह ॥ ५३॥ शिक्षयित्वा धनुर्वेदं भित्वा चन्द्रकवेधकम् । मेघमालाभिधा रूढा मेघसेनस्य कन्यका ॥ ५४॥ ततो द्वादशवर्षाणि भुञ्जानो निजलीलया । मेघमालासमं भोगान् भर्तृमित्रोऽवतिष्ठते ॥ ५५ ॥ अथ लेखान् बहूंस्तत्र पितृमातृसबान्धवाः । तदन्तं प्रेषयामासुः प्रीतिविस्फुरितेक्षणाः ॥ ५६ ॥ 15 मेघमालाऽपि तल्लेखाद् भर्तृमित्रस्य गेहिनी । नूनं न दर्शयामास तद्यानभयविह्वला ॥ ५७॥ अन्यदा स्थविरः कोऽपि नरः प्राप्य तदन्तिकम् । बहिः स्थितस्य तल्लेखं दर्शयामास वेगतः ॥५८॥ लेखार्थं तं परिज्ञाय भर्तृमित्रः सहाङ्गनः । आशुगं रथमारुह्य प्राप भीममहावनम् ॥ ५९ ॥ अत्रान्तरे सुवेगाख्यो म्लेच्छराजो महाबलः । विलोक्य मेघमालाया रूपं जातोऽतिचञ्चलः ॥६॥ तस्या हरणकामोऽसौ अज्ञातं तत्पतेर्बलम् । मार्गरोधं विधायाशु भर्तृमित्रस्य तस्थिवान् ॥ ६१॥॥ ततस्तेन समं युद्धं भर्तृमित्रस्य कुर्वतः । क्षयं गतानि शस्त्राणि बाणमेकं विहाय तम् ॥ ६२॥ मेघमालां समुत्तार्य तद्रथादाशु भूतले । तत्सन्मुखमभीयाय भर्तृमित्रो रुषान्वितः ॥ ६३॥ तद्भूषणरवं श्रुत्वा किन्नरस्वरसंनिभम् । यावत् पश्यति तद्रूपं सुवेगः प्रीतमानसः ॥ ६४॥ तावच्छिद्रं समासाद्य भर्तृमित्रेण वेगतः । अक्षिद्वये खबाणेन विद्धः शातेन शालिना ॥६५॥ ततो मृतिं परिप्राप्य सुवेगो म्लेच्छनायकः । जगाम नरकं भीमं महादोषेण चक्षुषः ॥ ६६ ॥ ॥ इति श्रीभर्तृमित्रनिहतसुवेगम्लेच्छनायकगमनकथानकमिदम् ॥ ११६ ॥ ११७. नागदत्ताकथानकम् । अत्रैव भरतक्षेत्रे नाशिकाख्ये पुरोत्तमे । आसीत् सागरदत्ताख्यो गृहनाथो महाधनः ॥१॥ नागदत्ता चलस्वान्ता तत्प्रिया प्रियवादिनी । श्रीकुमारोऽनयोः पुत्रः श्रीषेणा तनयाऽभवत् ॥२॥ नन्दगोपोऽभवत् तत्र गोपालो रूपराजितः । नागदत्ताऽमुना सार्धं तिष्ठति प्रीतमानसा ॥३॥ 30 अथैकस्मिन् दिने मूढा नागदत्ता खमन्दिरे । तदा व्याजेन केनापि तस्थौ मुदितमानसा ॥४॥ ततः सागरदत्तोऽपि गाः पुरस्कृत्य कौतुकम् । हरिद्रापश्चिमे यामे चारणार्थं वनं ययौ ॥५॥ 1 [भर्तृमित्रः]. 2 पफ पदान् परम्. 3 [मुक्त्वा ]. 4 पफज युगलमिदम्. 5 [अमुक्त्वा ]. 6 [व्यूढा]. 7 पफज युगलमिदम्. 8 [तल्लेखान् भर्तृ ]. बृ० को० ३७ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [११७.६मुक्ताश्चरन्ति ता गावः पश्यन्त्यः प्रीतिकारणम् । हतः सागरदत्तोऽयं सुप्तो नन्देन तद्वने ॥६॥ नागदत्ताऽपि तोषेण हते सागरदत्तके । वेष्टं सुखं प्रभुञ्जाना नन्देन सह तिष्ठति ॥ ७॥ जुगुप्सां सततं चक्रे श्रीकुमारः स्वमातरि । उक्तोऽयमनया नन्दस्तन्मृति प्रति दुष्टया ॥८॥ मत्पुत्रं श्रीकुमाराख्यं मन्महाद्वेषकारिणम् । निपातय प्रिय क्षिप्रं नितरां क्रूरचेतसम् ॥ ९॥ । नागदत्तावचः श्रुत्वा नन्दगोपोऽपि तन्मृतिम् । चिन्तयन् सर्वदा कुद्धस्तिष्ठति क्रूरमानसः॥१०॥ श्रीकुमारः पुरस्कृत्य यावद्गच्छति गोधनम् । तावत् स्वभगिनी वार्तामिमामस्य ब्रवीति सा ॥११॥ त्वत्पिताऽनेन गोपेन निहतो निशि बान्धव । अधुना निश्चितं पापो मारणं ते विधास्यति ॥१२॥ मुक्त्वा गाः पश्चिमे यामे विभावयाँ प्रयत्नतः। श्रीकुमारोऽपि संतस्थे भूतलेऽन्यत्र सुप्तकम् ॥१३॥ तन्मार्गेणैव संप्राप्य नन्दगोपोऽपि सत्वरम् । स्थाणुं जघान खड्नेन श्रीकुमारेच्छया खलः ॥१४॥ " तेनापि श्रीकुमारेण पृष्ठभागे समेत्य सः । हत्वा प्रासेन नन्दोऽरं वराको विनिपातितः ॥१५॥ नक्तं निहत्य तं नन्दं श्रीकुमारोऽपि वेगतः । आदाय गोधनं दोग्धुं स्वगृहं पुनरागतः ॥१६॥ श्रीकुमारोऽपि संपृष्टस्तदानीं नागदत्तया । नन्दस्त्वदन्तिकं पुत्र प्रेषितो मे क वर्तते ॥ १७ ॥ निशम्य जननीवाक्यं श्रीकुमारेण भाषितम् । नाहं वेमि तकं नन्दं प्रासं पृच्छ त्वमम्बिके ॥१८॥ तद्वाक्यतः समालोक्य प्रासं च रुधिरारुणम् । निहतोऽनेन मे कान्तो नागदत्ता रुषं ययौ ॥१९॥ 15 श्रीकुमारं समालोक्य संनिविष्टं गृहाङ्गणे । मूशलेन समाहत्य नागदत्ता ममार तम् ॥ २०॥ निहतं भ्रातरं दृष्ट्वा श्रीषेणाऽपि तत्सुता । ममार मातरं कोपान्मुशलेन निहत्य सा ॥ २१ ॥ नागदत्ताऽपि सा दुष्टा पतिपुत्रविनाशिनी । स्वसुतानिहता कोपाद बंभ्रमीति भवार्णवे ॥२२॥ ॥ इति श्रीस्पर्शनेन्द्रियार्थ नन्दगोपसमासक्तनागदत्ताकथानकमिदम् ॥११७॥" ११८. द्वीपायनकथानकम् । ५० सुराष्ट्रविषये रम्ये पुरग्रामादिसंपदा । बभूव वार्धिमध्यस्था नाम्ना द्वारावती पुरी ॥१॥ मणिकुट्टिमसद्भूमिस्वर्णप्राकारराजिता । नवयोजनविस्तीर्णा दैर्ध्या द्वादशयोजनैः ॥२॥ महारजतनिर्माणा महाषोडशगोपुरा । द्वाराणि पश्चिमादीनि चतुर्विंशतिरत्र च ॥३॥ मणिकाञ्चननिर्माणाः प्रासादा गगनस्पृशः । तस्यां वसन्त्यसंख्याताः श्रेष्ठिनां कुलकोटयः ॥४॥ युधिष्ठिरादिसदीरा लोकपालसमप्रभाः । वसन्ति स्म तदा तस्यां दशार्हा दश शोभनाः ॥५॥ 25 तन्मध्ये प्रथमः सारः समुद्रविजयो महान् । बभूव तन्महादेवी शिवाख्या शिवविग्रहा ॥६॥ नन्दनो नेमिनाथोऽभूदनयोर्गुणसागरः । दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं केवली विजहार सः ॥७॥ तन्मध्ये दशमोऽस्यां च वसुदेवोऽभवन्नृपः । रोहिणी तन्महादेवी बलदेवोऽनयोः सुतः॥८॥ तथाऽयं वसुदेवस्य देवकीकुक्षिसंभवः । नवमो वासुदेवोऽभून्नन्दनः स जनार्दनः ॥ ९॥ बभूवुर्वृद्धभूपानां सहस्राणि दश स्फुटम् । बलवादिकुमाराः स्युः षट्पञ्चाशत्सहस्रकाः ॥१०॥ 30 रूपयौवनयुक्तानां जनार्दनहितास्तराम् । अधोष्टकोटयः सन्ति यादवानां महात्विषाम् ॥११॥ रमणीनां सहस्राणि षोडशास्य महात्विषाम् । भूपतीनां च तावन्ति मुकुटांशुविराजिनाम् ॥१२॥ रुक्मिणी सत्यभामा च तथा जाम्बवती परा। सुसीमा लक्ष्मणा गौरी गन्धारी चारुविभ्रमा ॥१३॥ 1 पफज युगलम्. 2 ज नन्द त्वदन्तिकं. 3 All the Mss. put No. 116. 4 पफज चतुष्कुलकमिदम्. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११८. ४६] द्वीपायनकथानकम् २९१ तथा पद्मावती चेति नीलोत्पलदलाम्बिका । एता विष्णोर्महादेव्यो भवन्त्यष्टौ कलाऽन्विताः॥१४॥ चक्र गदा तथा शक्तिः खड्गो रविमणिः स्फुटम् । शङ्खः शार्ङ्ग हरेः सप्त सन्ति रत्नानि सर्वदा १५ रक्षन्त्यष्टौ सहस्राणि देवीनामस्य भोगिनः । रत्नादिकं सदा विष्णोः प्रमादरहितात्मनः ॥ १६ ॥ समस्तयादवैः सार्धं भोगान् भोगीन्द्रसंनिभान् । द्वारवत्यां प्रभुञ्जानः सुखं तस्थौ जनार्दनः ॥१७॥ अन्यदा विहरन् कापि नेमिः केवलसंयुतः। ऊर्जयन्तगिरेस्तुङ्गे शिखरे स्थितवानसौ ॥ १८ ॥ नेमिनाथं समाकर्ण्य दशार्दा दश भक्तितः । वासुदेवो बलेनामा वन्दनार्थं समाययुः ॥१९॥ त्रिःपरीत्य तमीशानं वन्दित्वा च पुनः पुनः । तदन्ते शुश्रुवुर्धर्मं द्विभेदं यादवाः परम् ॥ २० ॥ बलदेवः समालोक्य वासुदेवस्य संपदम् । पप्रच्छेदं विनीतात्मा नेमिनाथं स कौतुकः ॥२१॥ भगवन् वासुदेवस्य महाराज्यसमागमः। कियन्तं कालमासाद्य भविष्यति वदाशु मे ॥ २२ ॥ निशम्य बलदेवस्य वचनं संसदि स्फुटम् । नेमिनाथो जगादेमं प्रीतिविस्फारितेक्षणम् ॥ २३ ॥ ॥ अद्यप्रभृति भूपाल वर्षे द्वादशमात्रके । लोकद्रव्यसमाकीर्णा नंक्ष्यति द्वारिका पुरी ॥ २४ ॥ एतावति गते काले विष्णोश्चापि महात्मनः । भविष्यति बल क्षिप्रं राज्यलक्ष्मीपरिक्षयः ॥२५॥ निशम्य नेमिचन्द्रस्य वचनं च हितं नृणाम् । बलभद्रो बभाणेमं केवलामललोचनम् ॥ २६ ॥ समस्तजनयुक्ताया द्वारवत्या जिनेश्वर । सांप्रतं ब्रूहि मे नाथ विनाशः केन हेतुना ॥ २७॥ बलदेवोदितं श्रुत्वा नेमिनाथो जगावमुम् । कादम्बरीनिमित्तेन विनाशोऽस्या भविष्यति ॥ २८॥ 15 अवाचि बलदेवेन भूयोऽपि च जिनेश्वरः । वद मे द्वारवत्या हि विनाशं को विधास्यति ॥ २९॥ बलस्य वचनं श्रुत्वा कौतुकव्याप्तचेतसः । हरिवंशनभश्चन्द्रो नेमिचन्द्रो जगावमुम् ॥ ३०॥ हिरण्यनाभिपुत्रोऽयं रोहिण्या हि सहोदरः । मुनिीपायनः क्रुद्धः शम्बुवाक्यसमीरणात् ॥ ३१ ॥ कालं कृत्वा पुनः सद्यो धूमकेतुरभिख्यया । अमरोऽग्निकुमाराणां भविष्यति विभोज्वलः ॥३२॥ भवन्तौ भ्रातरौ हित्वा सबन्धुपरिवारिकाम् । द्वारिकां धक्ष्यति क्षिप्रं द्वीपायनचरोऽसुरः॥ ३३ ॥2॥ जरत्कुमारहस्तेन भव क्षुरिकयाऽनया । मरणं वासुदेवस्य भविष्यति विसंशयम् ॥ ३४ ॥ नेमिनाथवचः श्रुत्वा वन्दित्वाऽमुं सुभक्तितः । प्रविष्टौ द्वारिकां शीघ्रं सजनौ बलकेशवौ ॥ ३५॥ ततो द्वारवतीमा समस्तं नृपवाक्यतः । मुक्तं रेवतकोद्याने कदम्बतरुसंकुले ॥ ३६ ॥ ततो जरत्कुमारोऽपि हित्वा द्वारवतीं पुरीम् । कृत्वा विन्ध्यपुरं तस्थौ विन्ध्यपर्वतमस्तके ॥ ३७॥ निशाने भलिकाकारां विधाय क्षुरिकामसौ । चिक्षेप वारिधौ क्षिप्रं नानाग्राहसमाकुले ॥ ३८॥ पतन्ती वारिधौ सा च मीनेन गिलिता तदा । स मत्स्यो धीवरैर्बद्धो जालेन विधियोगतः ॥३९॥ ततस्तद्भल्लिकाखण्डं काकतालीययोगतः । लब्धं जरत्कुमारेण तच्छरस्थं वितिष्ठते ॥ ४० ॥ द्वीपायनमुनिहित्वा सुराष्ट्रविषयं द्रुतम् । पूर्वदेशं जगामासौ तपःशोषितविग्रहः ॥४१॥ ततो द्वादशवर्षाणि स्थित्वाऽन्यत्र महातपाः । अजानन्नधिकं मासं द्वारिकामाजगाम सः ॥ ४२ ॥ ततो रेवतकोद्यानमध्यस्थे तत्पुरान्तके । ऊर्ध्वग्रीवनगे योगी तस्थौ प्रतिमया दिने ॥ ४३॥ 30 अथ शम्बुकुमारादिकुमाराः समविभ्रमाः। ययू रेवतकोद्यानं क्रीडानिहतमानसाः॥४४॥ पीत्वा कादम्बरीतोयं दृष्ट्वा द्वीपायनं पथि । आतापमास्थितं तत्र ध्यायन्तं तत्त्वमादरात् ॥४५॥ गलप्रमाणमापादादिष्टकोपललोष्टुभिः । आपूर्य सुतरां साधु कुमारा विविशुः पुरीम् ॥ ४६॥ ____ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज युगलमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्. 4 [ तव] 5 पफज चतुःकुलकमिदम्. 6 [ निशान्ते]. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [११८.४७तद्वृत्तान्तं परिज्ञाय तदानीं बल-केशवौ । द्वीपायनमुनेः पार्था जग्मतुस्त्रस्तचेतसौ ॥४७॥ त्रिःपरीत्य प्रणम्यैतावूचतुर्मुनिसत्तमम् । महामुने कुमारेभ्यः क्षम्यतां दुरनुष्ठितम् ॥४८॥ निशम्य तद्वचः साधुर्विह्वलीभूतमानसः । अङ्गुलीद्वयमुत्क्षिप्य जातः पूर्वोदितोऽसुरः ॥ ४९ ॥ प्राप्तस्य पञ्चतावाप्तिं द्वीपायनमुनेस्तदा । प्रविष्टौ विह्वलस्वान्तौ द्वारिकां बल-केशवौ ॥ ५० ॥ । विभङ्गज्ञानतो हत्वा खं कुमारहतं रुषा । ददाह द्वारिका सर्वां हित्वाऽसौ बल-केशवौ ॥ ५१ ॥ ततो निर्गत्य तौ वेगात् ततो द्वारावतीपुरः । उत्तीर्य नर्मदां प्राप्तौ गहनं बल केशवौ ॥५२॥ कौशम्बवनसुप्तस्य विष्णोः पादहतस्य च । मृतिर्जरत्कुमारेण पूर्वभल्लिकया कृता ॥ ५३॥ षण्मासमात्रकं यावत् स्कन्धेन वहनं हरेः । बलदेवेन देवेन बोधितेन प्रयत्नतः ॥ ५४॥ दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं तुङ्गिकाख्यगिरौ बलः । सल्लेखनां विधायाशु ब्रह्मलोकं जगाम सः ॥५५॥ ॥ ॥ इति श्रीशम्बुकुमारादिकुमारोपद्रुतक्रोधविधानसंयुक्तमुनिद्वीपायन __ कथानकमिदम् ॥ ११८॥ ११९. सगरपुत्रकथानकम् । विनीताख्यमहादेशे विनीता विद्यते पुरी । तीर्थेऽजितजिनेन्द्रस्य सगरोऽस्यां महीश्वरः ॥१॥ अन्तःपुरसहस्राणि सन्ति षण्णवतिः क्षितौ । चतुर्दशास्य रत्नानि निधिभिनवभिः सह ॥ २॥ 15 दिव्या चमूर्वरं भोज्यं दिव्यान्याभरणानि च । शय्यासनं मनोहारि वाहनं नाटकं पुरम् ॥३॥ एतैर्दशभिरेतस्य सगरस्य महात्मनः । दशाङ्गोऽयं महाभोगो मनोनयनसुन्दरः ॥ ४॥ तथा चोक्तम् - भाजनं भोजनं शय्या चमूर्वाहनमासनम् । निधिरत्नं पुरं नाट्यं भोगस्तस्य दशाङ्गकः ॥५॥ 20 यस्य षष्टिसहस्राणि पुत्राणां परमौजसाम् । सदा याचयमानानां पितरं शासनं गुरुम् ॥६॥ कदाचिच्छासनं दत्तमिदं तेषां महात्मनाम् । रूपयौवनयुक्तानां सारं सगरचक्रिणा ॥ ७॥ कैलासपर्वते सन्ति भवनानि जिनेशिनाम् । चतुर्विंशतिसंख्यानि कृतानि मणिकाञ्चनैः ॥ ८॥ सुरासुरनराधीशैर्वन्दितानि दिवानिशम् । यास्यन्ति दुःषमे काले नाशं तस्करकादिभिः ॥९॥ तस्मादुत्खातिकां सारां दिशासु सकलास्वपि । गत्वाऽऽशु पर्वते पुत्राः शीघ्रं कुरुत भासुराम् ॥१०॥ 16 पितुराज्ञां परिप्राप्य कैलासं समनुत्तमम् । प्रापुः क्षणेन गर्वेण कृतकोलाहलखना ॥११॥ यावत् खनन्ति ते शैलं रत्नदण्डेन सत्वरम् । तावदेकः स्थितो देवो दिवि वारयतीत्यमून् ॥१२॥ भो भो राजसमूह त्वं खन तत्र नगोपरि । मा विनाशय मूढात्मन् रत्नदण्डेन मगृहम् ॥ १३ ॥ एवमुक्तास्तथाऽप्येते देवेन खरनादिना । खनन्ति रत्नदण्डेन पर्वतं मानशालिनः ॥ १४ ॥ भीमं भगीरथं हित्वा दृष्टिमुक्तविषेण ते । भस्मसाद्भावमानीता देवेन रुषमीयुषा ॥ १५॥ 30 ततस्तौ दीनचेतस्कौ संप्राप्तौ जानकी सभाम् । जानुविन्यस्तमूर्धानौ दृष्ट्वा भीम-भगीरथौ ॥१६॥ विद्युद्विलाससंकाशं जीवितं देहिनामिदम् । कदलीगर्भनिःसार यौवनं रूपसंपदम् ॥ १७ ॥ संध्यारागसमा प्रीतिबन्धुभिः सह सर्वदा । भोगीभोगसमान् भोगान् भीमान्नरकपातिनः ॥१८॥ 1 All the Mss. put No. 118. पफज चतुःकुलकमिदम्. 3 पफज चतुःकुलकमिदम्. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२१. १०] मृगध्वजकथानकम् २९३ मत्वेदं सकलं फल्गु दत्त्वा पौत्राय संपदम् । भागीरथ्यभिधानाय समस्तजनसाक्षिकम् ॥ १९ ॥ आपृच्छय सकलान् बन्धून् म्लानवक्रसरोरुहान् । संप्राप्य तरुसंछन्नं प्रमदोपपदं वनम् ॥ २० ॥ सर्वभूतिहितं नत्वा सर्वभूतिहितं गुरुम् । जग्राह सगरो दीक्षां समं भीमेन सूनुना ॥ २१ ॥ विज्ञायागमसद्भावं हितं साधुजनायतम् । तरां तप्त्वा तपो घोरं सामान्यनरदुःकरम् ॥ २२ ॥ निहत्याशेषकर्माणि शत्रुभूतानि देहिनाम् । भीमेन सह संप्राप सगरो मोक्षमक्षयम् ॥ २३॥ । ॥ इति श्रीमानावष्टबुधसगरचक्रवर्तिषष्टिसहस्रपुत्रकथानकमिदम् ॥ ११९ ।। १२०. कुम्भकारकथानकम् । अङ्गकाख्यमहादेशे बृहद्रामो महाधनः । कुम्भकारोऽभवत् तत्र सिंहोपपदो बलः ॥१॥ कुम्भकारो वृषं भृत्वा भण्डकानां निरन्तरम् । भरणोपपदं ग्रामं संप्रापत् खिन्नमानसः ॥२॥ ततोऽस्तमनवेलायां साणूरान्तर्निधाय च । भण्डकानि विचित्राणि तत्रस्थः स वितिष्ठते ॥३॥10 आकर्ण्य भाण्डकी वार्ता प्राप्तास्तत्रत्ययोषितः । श्वो मूल्यं ते प्रदास्यामो गृहीत्वा भण्डकानि ताः ॥४॥ एवमुक्त्वा तकं तस्मात् प्रीतिविस्फारितेक्षणाः । निजं निजं गृहं प्राप्ता हसन्त्यः कृतविस्मयाः॥५॥ वृषभं शेषभाण्डानि स्थापयित्वा तदन्तिके । नगर्यां विदधद् बाढं कुम्भकारो वितिष्ठते ॥६॥ तत्काले प्राप्य साणूरं केचित्तद्रामसंभवाः । कुमाराः कुम्भकारेण गीतं जल्पं च कुर्वते ॥ ७॥ अन्ये बहिःस्थिताः केचित्तदा तत्कुड्यमाश्रिताः । गृहीत्वा तद् वृषं शीघ्र जग्मुर्मुदितमानसाः॥८॥ 15 कुम्भकारोऽपि तां रात्रिं गमयित्वा सुदुःखितः । अपश्यद् वृषभं तत्र ग्राममध्यं जगाम सः॥९॥ भण्डकानां च तन्मूल्यं वृषभं स गृहे गृहे । याचते योषितो बाढं मिथ्याभावं गतास्तकाः॥१०॥ स्थित्वात्र सप्तवर्षाणि कुम्भकारो रुषान्वितः । निनाय भस्मसाद्भावं तं ग्रामं धान्यसंभृतम् ॥११॥ खकार्थस्य परार्थस्य कुलालेनेह दुर्धिया । नाशः कृतस्तथा नैव कर्तव्यं सुधिया सता ॥ १२ ॥ ॥ इति श्रीबृहद्रामसंभवसिंहबलकुम्भकारकथानकमिदम् ॥ १२०॥ * १२१. मृगध्वजकथानकम् । विनीताख्यमहादेशे साकेताख्याऽभवत् पुरी । अस्यां सीमंधरो राजा जिनसेनाऽस्य कामिनी ॥१॥ अनयो रूपसंपन्नः कुमारोऽभून्मृगध्वजः । मन्त्री सिद्धार्यसंपन्नः सिद्धार्थों भुवि विश्रुतः ॥२॥ अस्यैव भूपतेः श्रेष्ठी धनधान्यसमन्वितः । ऋषभोपपदः सेनः प्रसिद्धः सर्वविष्टपे ॥३॥ श्रेष्ठिनोऽस्याभवद् भार्या रूपसौभाग्यसंपदा । ऋषश्रीरिति विख्याता मुखपद्मावभासिता ॥४॥ 25 श्रेष्ठिनश्वारुरूपाणि बहुदुग्धप्रदान्यलम् । महिषीनामनेकानि सन्ति यूथानि तस्य च ॥५॥ तन्मध्ये च महिष्यौ द्वे प्रधाने भवतस्तराम् । सुभद्रा प्रथमा साध्वी भद्राऽन्या परिकीर्तिता ॥६॥ महिष्योरनयोस्तत्र बभूव प्रेमकारणम् । अभूतां रक्षपालौ द्वौ यूथयोः स्नेहसंगतौ ॥ ७॥ एकस्य नाम गोविन्दो द्वितीयस्य च वामनः । एकत्र मिलितावैतौ तिष्ठतो हि दिवानिशम् ॥ ८॥ यूथमयमिदं स्पष्टं महिषीणां दिने दिने । अन्योन्यप्रेमसंबन्धं चरन्नेकत्र तिष्ठति ॥९॥ ततो गोविन्दनामासौ स्वयूथं वामनस्य च । समर्प्य यत्नतो यातः स्वगृहं कारणेच्छया ॥१०॥ 1 पफज षट्कलकमिदम्. 2 [°मानावष्टब्धसगर]. 3 ज चक्रवरषष्टि. 4 पफज युगलमिदम्, Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२१.११ २३ ॥ महिषी यूथयोर्मध्ये द्वयोरपि तदा पुनः । एकत्र समये सूता सुभद्रा भद्रया समम् ॥ ११ ॥ ततः पुरात् समागत्य वेगेनागत्य तद्वने । सुभद्रापडको बालो गोविन्देन प्रभक्षितः ॥ १२ ॥ तो हतोऽमुनानेन विधिना पडकः सकः । सुभद्राजठरे जातः सप्तकृत्वो वराककः ॥ १३ ॥ जातो जातो' वराकोऽसौ सप्तकृत्वस्ततो वने । हत्वा हत्वाऽतिपापेन गोविन्देन प्रभक्षितः ॥ १४ ॥ यथाऽप्यष्टमवेलायामसौ तत्कुक्षिमाश्रितः । हित्वा सा महिषी यूथं प्रसूताऽन्यत्र पंडुकम् ॥१५॥ गोविन्देन परिज्ञाय सुभद्राप्रसवं पुनः । अनुमार्गेण संप्राप्य दृष्टा सा पटुकाऽन्विता ॥ १६ ॥ दृष्ट्वाऽमुं पडिको दूराद् गोविन्दं भयवेपितः । तत्सन्मुखं स संप्राप्य ननाम नतमस्तकः ॥१७॥ स्वपादप्रणतं दृष्ट्वा पटुकं भयविह्वलम् । गोविन्दोऽपि जगौ वत्स मा भयं व्रज सांप्रतम् ॥ १८ ॥ ततो जातिस्मरो भूत्वा पटुको विनयानतः । गोविन्देन सहापन्नो महिषीयूथमादरात् ॥ १९ ॥ 10 ऋषभादिकसेनस्य श्रेष्ठिनः पादयोरयम् । पटुकः पतितः शीघ्रं गोविन्दवचनेन च ॥ २० ॥ जरन्तं तं समादाय तोषपूरितमानसः । साकेताख्यपुरं श्रेष्ठी विवेश परमोत्सवम् ॥ आस्थानमण्डपस्थस्य श्रेष्ठिवाक्येन वेगतः । सीमंधरनरेन्द्रस्य प्रणामो विहितोऽमुना ॥ स्वपादप्रणतं दृष्ट्वा जरन्तं धरणीपतिः । सर्वापणेषु चैकैकं धान्यग्रासं स मुक्तवान् ॥ विशिखान्तं प्रविष्टस्य नितरां प्रीतचेतसः । नकुलादिजरन्तस्य सुखेन वसतः पुरे ॥ २४ ॥ " इभ्यः श्रेष्ठितनूजोऽपि नकुलाख्योऽत्र चौरिकाम् । कुर्वन् धृतस्तलारेण बद्धस्तिष्ठति तद्गृहे ॥ २५ ॥ ततो जनापवादोऽस्य संजातो नकुलस्य सः । चौरिका विहिताऽनेन नकुलेन विसंशयम् ॥ २६ ॥ ततः श्रेष्ठिसुतस्येमं लोहपिण्डं खराग्निना । नकुलाख्यस्य संतप्तं मुक्तं पञ्चकुलेन च ॥ २७ ॥ नकुलाख्यो जरन्तोऽयं स्वशङ्काग्रस्त मानसः । दन्तैरादाय तं पिण्डं जगाम नृपसंनिधिम् ॥ २८ ॥ तदवस्थं समालोक्य महिषं भूपतिस्तदा । सभ्यान् जगाद संतुष्टः सभामध्ये निवासिनः ॥ २९ ॥ 2• अहो सभ्या जरन्तोऽयं दोषवर्जितविग्रहः । विराजते तरां लोके महिषो भद्रपूर्वकः ॥ ३० ॥ अन्यदा विचरन् क्वापि महिषो भद्रपूर्वकः । अशोकवनमध्यस्थे चारुपुष्करिणीजले ॥ ३१ ॥ विषाणपद्मसंयुक्ते रक्तोत्पलविराजिते । संक्रीडते तरां हृष्टः करमुक्तजलोत्करैः ॥ ३२ ॥ श्रेष्ठिमत्रिसुतैः सार्धं तदशोकवनं परम् । आजगाम मुदा रन्तुं सानुरागो मृगध्वजः ॥ ३३ ॥ esi महिषं तत्र क्रीडन्तं निजलीलया । सद्यश्चुकोप दुष्टात्मा रक्ताक्षोऽयं मृगध्वजः ॥ ३४ ॥ स्वभक्षणनिमित्तेन महिषस्यास्य पश्चिमम् । छित्त्वोरुमानय क्षिप्रं मदन्तं नरकुञ्जरः ॥ ३५ ॥ तद्वाक्येन समुच्छिन्ने नरेणानेन तत्र च । पादत्रयेण संप्राप्य भूपान्तं महिषोऽपतत् ॥ ३६ ॥ विलोक्य महिषं राजा मर्तुकामं सभान्तरे । सल्लेखनां ददावस्मै नमस्कारपुरस्सरम् ॥ ३७ ॥ समाधिमरणं प्राप्य महिषो भद्रपूर्वकः । सौधर्मे धर्मसंयोगाज्जातो देवो महर्द्धिकः ॥ ३८ ॥ तद्वृत्तान्तं परिज्ञाय मन्त्री सिद्धार्थनामकः । राज्ञा संप्रेषितः कोपात् तत्कुमारमृतिं प्रति ॥ ३९ ॥ 30 ततस्ते मन्त्रिणा सर्वे तदानीं राजपुत्रकाः । मुनिदत्तान्तिकं नीता दीक्षिताश्च यथाक्रमम् ॥ ४० ॥ दापयित्वा च तद्दीक्षां मन्त्री राजान्तिकं गतः । प्रोक्तोऽयं भूभुजा रोषात् सर्वे ते निहितास्त्वया ॥४१॥ उक्तस्तद्वाक्यतो राजा मत्रिणा कुशलेन च । राजन् मया तके सर्वे कुमाराः सुहता द्रुतम् ॥४२॥ राज्ञा तद्वाक्यतो मत्री भूयोऽपि गदितो रुषा । मत्रिन् राजकुमारास्ते कथं सुनिहितास्त्वया ॥४३॥ 5 फ गोविन्दे 6 पफज 5 25 1 फ जाताजातो. 2 [ पड्डुकम् ]. युगलमिदम्. 7 [ नरकुञ्जर ]. 3 ज पहुकान्विता 4 ज पट्टिको २१ ॥ २२ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२२. २३ ] कार्तवीर्यकथानकम् २९५ तद्वाक्यतोऽमुना ख्यातं तद्रूतग्रहणं तदा । मृगध्वजस्य कैवल्यं नरेन्द्रस्य सभाऽन्तरे ॥४४॥ मृगध्वजस्य कैवल्ये संजाते सति सत्वरम् । आजगाम तदन्तं च सीमंधरनरेश्वरः ॥ ४५ ॥ ततो भद्रजरन्तस्य संन्यासे विहिते सति । अमरत्वे तदा क्षिप्रं देवागमनकारणम् ॥ ४६॥ नत्वा केवलिनः पादौ श्रुत्वा धर्म तदन्तिकम् । सीमंधरनरेन्द्रोऽमुं पप्रच्छेदं कुतूहली ॥४७॥ मृगध्वजजरन्तस्य पिण्डारस्य च पावन । ब्रूहि मे वैरसंबन्धं संसारार्णवकारणम् ॥४८॥ । ततोऽश्वग्रीवसंबन्धं सेनापत्यादिकं तथा । जगाद केवलीं सर्वं सीमंधरमहीभृतः॥४९॥ श्रुत्वा तद्वैरसंबन्धं सीमंधरनृपादयः । बभूवुः श्रावका भव्या सम्यक्त्वाभरणप्रभाः ॥ ५० ॥ ॥ इति श्रीमहालोभसमन्वितमृगध्वजराजकथानकमिदम् ॥ १२१ ॥ १२२. कार्तवीर्यकथानकम् । विनीताविषये रम्ये कोशलाख्यपुरीभवः । तीर्थे श्रीवासुपूज्यस्य कार्तवीर्यो नृपोऽभवत् ॥१॥ ॥ प्रबुद्धपद्मसद्वका पद्मपाणिपदद्वया । बभूव तन्महादेवी चार्वी पद्मावती प्रिया ॥२॥ अयोध्याख्यपुरीपाचे नानानोकुहसंकुले । तापसस्याभवत् पल्ली महावनसमुद्भवा ॥३॥ बभूव तापसस्तत्र यमदग्न्यभिधानकः । तत्प्रिया तापसी नाम रेणुका तन्मनःप्रिया ॥४॥ श्वेतोपपदको रामो माहेन्द्रोपपदोऽपि च । अभवत् तत्सुतः कान्तो जटावल्कलभासुरः ॥५॥ अन्यदा वरदत्ताख्यो विहरन् कुं महामुनिः । तत्तापसाश्रमान्तेऽसौ तस्थौ तरुतले सुधीः॥६॥ 15 तदन्ते रेणुका श्रुत्वा जैन धर्ममनुत्तरम् । संजाता श्राविका हृष्टा सम्यग्दर्शनलाभतः ॥७॥ रेणुकायै स योगीन्द्रो भगिनीस्नेहतो मुदा । कामधेनुं ददावस्यै पशुविद्यां विधाय च ॥ ८॥ अन्यदा कार्तवीर्योऽरं हस्तिबन्धनकारणात् । आजगाम वनं राजा यमदग्निनिषेवितम् ॥९॥ यमदग्निगृहे भुक्त्वा रेणुकाकरतोऽशनम् । कामधेनुं समादाय लोभतोऽसौ गृहं ययौ ॥१०॥ समिद्भारं समादाय वनात् संप्राप्य मन्दिरम् । रेणुकां शोकसंतप्तां ददृशुस्ते त्रयोऽपि ताम् ॥११॥ श्वेतरामो विलोक्यनां मातरं पुरतः स्थिताम् । जगादेति वचो मातर्दुःखिनी किं वदाशु मे ॥१२॥ निशम्य तद्वचो माता बभाणेमं विषादिनी । पुत्र मन्मन्दिरं राजा कार्तवीर्यः समागतः ॥१३॥ मगृहे भोजनं कृत्वा सुखं स्थित्वाऽत्र पुत्रक । बलादादाय तामेष कामधेनुं ययौ पुरीम् ॥१४॥ अनेन हेतुना पुत्र दुःखसंतप्तमानसा । तिष्ठाम्यत्र वने भीमे सामर्थ्यपरिवर्जिता ॥ १५ ॥ निशम्य जननीवाक्यं तन्मार्गेण रुषान्वितः। तदानीं प्रस्थितो गन्तुं कामधेनुकृते तकः ॥१६॥25 दृष्ट्वातो प्रस्थितो गन्तुं श्वेतरामं जगौ पिता । कार्तवीर्यो महावीर्यस्त्वया भेत्तुं न शक्यते ॥१७॥ यदि तस्यानुमार्गेण त्वं गच्छसि बलीयसः । त्वजनन्यै वितीर्णेयं विद्या परमयोगिना ॥ १८ ॥ असाध्यां देवबाणानां सर्वशत्रुक्षयंकरीम् । परशुं च महाविद्यां गृहीत्वा याहि तं प्रति ॥ १९॥ पितृवाक्येन चादाय परशुं शत्रुभीतिदम् । श्वेतरामो ययौ पश्चात् कार्तवीर्यस्य भूभुजः ॥ २० ॥ श्वेतरामेण संप्राप्य कार्तवीर्यो महाहवे । ससैन्यः सकुलस्तेन परशुना हतो रुषा ॥ २१॥ 30 कार्तवीर्यो हतोऽनेन श्वेतरामेण वेगतः । असह्यवेदनं घोरं जगाम नरकं ततः ॥ २२ ॥ ततो निःक्षत्रियं कृत्वा सप्तकृत्वा धरातलम् । परशूपपदो रामो बभूव स महीपतिः ॥ २३॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज युगलमिदम्. 3 ज तर्क. 4 [ दृष्ट्वा तं प्रस्थितं]. 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6 [ हतः परशुना रुषा]. 7 [ सप्तकृत्वो]. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२२. २४अथ नैमित्तिकोऽवाचि भुञ्जानेन धरातलम् । अधुना मरणं कस्माद् भविष्यति वदाशु मे ॥२४॥ निशम्य तद्वचः क्षिप्रं जगौ नैमित्तिकोऽपि तम् । समस्तक्षत्रियाध्यक्षं मरणाशङ्किमानसम् ॥ २५॥ भाजने भोजनं क्षिप्रं पायसं यस्य जायते । नियतं ते महीपाल वधकः स भविष्यति ॥ २६ ॥ एवं नैमित्तिकादेशाद् भोजनं भाजनेषु च । दीयतेऽहर्निशं यत्नात्. क्षत्रियाणां हि तजनैः ॥२७॥ 5 अत्रान्तरे सुभूमस्य भोजनं भाजने द्विजैः । दत्तं नराधिपाध्यक्षं यातं तत्पायसं द्रुतम् ॥ २८॥ परशूपपदं रामं रणे हत्वाऽतिदारुणे । सुभूमोऽयं बभूवाशु चक्रवर्ती हताहितः ॥ २९॥ सुभूमेन च तत्पश्चादेकविंशतिवारकम् । पृथिवीमण्डलं सर्वं कृतं ब्राह्मणवर्जितम् ॥ ३०॥ ॥ इति श्रीयमदग्नितापससुतपरशुरामनिधनीकृतकार्तवीर्यनृप कथानकमिदम् ॥ १२२॥ १२३. सिंहकेसरकथानकम् । दक्षिणापथदेशेऽस्ति धनधान्यसमाकुलम् । पुरमिन्द्रपुराकारं पटजं किंशुकादिकम् ॥१॥ नृपोऽत्र विजयादित्यो राजान्तों वल्लभादिकः । प्रियाऽस्य विजयादित्या बभूव वनितोत्तमा ॥२॥ अभवत् सेवकस्तस्य सिंहविक्रमराजितः । मन्यमानो नरं लोकं सिंहकेसरनामकः ॥ ३॥ अन्यदाकर्ण्य तं तत्र महाभटपुरःसरम् । आजगाम तदभ्याशं सिंहकेसरकोऽपरः ॥ ४ ॥ 15 पुरो वल्लभराजस्य निजनामनिमित्तकम् । द्वयोमर्षिकयोस्तत्र संजातं परमं रणम् ॥ ५॥ युद्धं प्रकुर्वतोस्तत्र द्वयोरपि परस्परम् । खड्गधेनुसमाघातवर्णनिःसृतरक्तयोः ॥६॥ द्वितीयमर्षिकेणास्य सिंहकेसरकस्य च । तुन्दं विपाटितं तेन करवालिकया द्रुतम् ॥ ७॥ अत्रजालं विनिःक्रान्तं तदीयं जठरान्तरात् । पलाशपुष्पसंकाशं प्रगललोहितोत्करम् ॥ ८॥ वामहस्तेन तद्धृत्वा फरकं च शशिप्रभम् । असिधेनुं समादाय दक्षिणेन हि पाणिना ॥९॥ 20 गुञ्जाफलसमानाक्षः संदष्टदशनच्छदः । दधाव कोपतो वेगात् द्वितीयं सिंहकेसरम् ॥ १० ॥ इन्दीवरसमानाभकरवाल्याऽतितीक्ष्णया । तत्सन्मुखं परिप्राप्य जठरं तेन पाटितम् ॥ ११॥ ततोऽरं तद्भयान्नष्टो द्वितीयः सिंहकेसरः । दष्टोष्ठः पञ्चतां प्राप्तः प्रथमः सिंहकेसरः ॥ १२॥ प्रशंसितो भटैः शूरैः समस्तेन जनेन च । दग्धो वल्लभराजेन प्रथमः सिंहकेसरः ॥ १३ ॥ ॥ इति श्रीमहाशूरभटसिंहकेसरकथानकमिदम् ॥ १२३ ॥ १२४. नीलसिंहकथानकम् । दक्षिणापथदेशेऽभून्नगरं च कलापुरम् । नीलसिंहोऽत्र भूपालः श्रावको दर्शनान्वितः ॥१॥ उपवासं विधायायं पञ्चमीदिवसे सिते । तिष्ठति प्रीतिचेतस्को नीलसिंहः स्वपत्तने ॥२॥ एवं स्थितस्य संप्राप्य छिद्रं वाहादिसंपदा । दायादपरचक्रं च तस्योपरि समागतम् ॥३॥ दायादसैन्यमायातं विदित्वा हृतभूतलम् । स्वसैन्यसमुदायेन तस्थौ तत्सन्मुखं स च ॥४॥ 30 सैन्ययोः स्थितयोरेवं द्वयोरपि भयानके । प्रवृत्ते दारुण युद्धे कुन्तप्रासासिभासुरे ॥ ५ ॥ ___ 1 [जातं]. 2 पफ राजातो. 3 [व]. 4 पफ तुदं. 5 पफज त्रिकलमिदम्. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२६. ११] अवन्तिसुकुमालकथानकम् धनुर्गुणे समासज्य प्रतिपक्षनराधिपः । मुमोच शातनाराचं नीलसिंह प्रति ऋधा ॥६॥ स नाराचोऽरिसंक्षिप्तो नीलसिंहस्य सत्वरम् । ततो ललाटमध्येन कपालान्तर्विवेश च ॥७॥ ललाटस्थेन तेनाशु मूीविह्वलमानसः । तत्सन्मुखमभीयाय नीलसिंहो रुषान्वितः ॥८॥ दृष्ट्वा तं भीषणाकारं गर्जन्तं कालनिस्वनम् । ननाश प्रतिपक्षोऽसौ भयवेपितविग्रहः ॥९॥ भित्त्वा परबलं जन्ये ललाटस्थिततोमरः । नीलसिंहः परिप्राप स्वगृहं जनवीक्षितः ॥१०॥ आगतस्य गृहं तस्य स नाराचोऽपि तजनैः । उत्खातः कुशलैः प्राप नीलसिंहो हि मूर्च्छनम् ॥११॥ चेतनां प्राप्य भूयोऽपि श्रीखण्डादिकसेवनात् । अवाचि निजलोकेन नीलसिंहोऽयमीदृशम् ॥१२॥ यावन्न गृह्यते वत्स शरीरं तव वायुना । तावत् पेयं पिब क्षिप्रं शरीरारोग्यकारणात् ॥ १३॥ निशम्य तद्वचो धीरो जगादैतान् पुरः स्थितान् । निवृत्तिरद्य मे नूनमाहारस्य जलस्य च ॥१४॥ सहित्वा नीलसिंहोऽपि क्षुधापम्पापरिश्रमम् । तदिनं सुखतो निन्ये स्मृतजैनपदाम्बुजः ॥ १५॥ !" षष्ठीप्रभातकालेऽयं मार्तण्डे चोदिते सति । चकार महतीं पूजां जिनानामभिषेकिणीम् ॥१६॥ सितं यशः परिप्राप्य महापुरुषसंभवम् । कालं कृत्वा समाधानान्नीलसिंहो ययौ दिवम् ॥ १७ ॥ ॥ इति श्रीमहापौरुषयुक्तनीलसिंहनृपतिकथानकमिदम् ॥ १२४ ॥ १२५. शिवभूतिकथानकम् । दक्षिणापथदेशोत्थं पुरं पौलरिरं परम् । शिवभूतिर्वभूवात्र ब्राह्मणो ब्रह्मसंभवः ॥ १॥ कौमारब्रह्मचारित्रं धृत्वा वर्षेशतं पुनः । कृत्वाऽमुनाऽबलासंग नाशितं स्तोकजीवितम् ॥२॥ गच्छन्ननुशयेनायं दा सर्वाङ्गसंभवम् । काष्ठराशिं विधायाशु विवेश ज्वलनं पुनः ॥३॥ चितोपरि स्थितो बाढं स्मरन्ननुशयस्य सः । शिवभूतिम॒तिं प्राप्यं कृतनिन्दनगर्हणः॥४॥ ॥ इति श्रीशिवभूतिविप्रकथानकमिदम् ॥ १२५ ॥ १२६. अवन्तिसुकुमालकथानकम् । विषये वत्सकावत्यां कौशाम्बीनगरीभवः । बभूवातिबलो राजा श्रीकान्तारमणीपतिः ॥१॥ सोमशर्माऽभवद् विप्रो भूपतेरस्य वल्लभः । तद्भार्या काश्यपी नामा रूपयौवनराजिता ॥२॥ परस्परसुखासंगसक्तमानसयोस्तयोः । अग्निवातादिको भूती बभूवतुरुभौ सुतौ ॥३॥ पितुर्वाक्यमकुर्वाणो मूखौं मूर्खप्रियौ तकौ । सप्तव्यसनसंयुक्तौ संजातौ निष्ठुराशयौ ॥४॥ जनके पञ्चतां प्राप्ते दायादैः प्रकदर्थितौ । धनहेतोर्नृपं प्राप्तौ तत्सम दीनमानसौ ॥५॥ नरेन्द्रेण तयोवित्तं समस्तं मूर्खकारणात् । गोतृकाणां समस्तानां वितीर्ण क्रमशस्तदा ॥ ६॥ ततस्तौ दुःखितौ सन्तौ प्राप्य राजगृहं पुरम् । ऊचतुः सूर्यमित्रस्य पितुर्मरणमादरात् ॥७॥ निशम्य सूर्यमित्रेण तद्वाता दुःखमीयुषा । सप्ताष्टवर्षमध्ये च कृतौ तौ शास्त्रकोविदौ ॥८॥ विद्यास्थानानि सर्वाणि सूर्यमित्रप्रसादतः । अङ्गवेदादिकान्याभ्यां विज्ञातानि कुतूहलात् ॥ ९॥ ततः कौशम्बिकां प्राप्य दृष्ट्वाऽतिबलभूपतिम् । निजभूतिं च तौ सर्वां तस्थतुस्तत्पुरे मुदा ॥१०॥ 30 सूर्यमित्रोऽपि संप्राप्य बोधं राजगृहे पुरे । सौधर्ममुनिसामीप्ये दीक्षां दैगम्बरी दधौ ॥ ११॥ 1 पफज युगलमिदम्.2 [प्राप]. 3 ज नाम. 4 ज अगावेदादि, [साङ्गवेदादि]. वृ० को. ३८ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [ १२६. १२सिद्धक्षेत्राणि सर्वाणि वन्दित्वा भक्तितत्परः । भिक्षार्थमाजगामायं कौशाम्बी नगरी मुनिः॥१२॥ गृहागृहान्तरं गच्छन् युगदृष्टिविधानतः । अग्निभूतिगृहं विष्टः सूर्यमित्रमुनिः क्रमात् ॥ १३ ॥ अग्निभूतिसुतस्यापि मुञ्जाबन्धनकारणात् । निमत्रिता द्विजास्तत्र तिष्ठन्ति बहवस्तदा ॥१४॥ अग्निभूतिर्मुनिं दृष्ट्वा सन्मुखं प्राप्य भक्तितः । श्रद्धादिगुणसंयुक्ततत्त्वज्ञानमबूभुजन् ॥१५॥ ' दत्त्वाऽऽहारविधिं तस्मै मुनये भक्तितत्परः । अग्निभूतिस्तदा पुण्यं वबन्ध भवभेदकम् ॥ १६ ॥ वितीर्णे चान्नदानेऽस्मै तदानीमग्निभूतिना । वसुधारादिकं गेहे बभूवाश्चर्यपञ्चकम् ॥१७॥ दृष्ट्वाऽऽश्चर्यमिदं सारमग्निभूतिगृहे द्विजाः । तकं सूर्यमुनि हृष्टा नमस्यन्ति स्वभक्तितः ॥१८॥ वायुभूतिः परस्तब्धो बहुशिष्यसमन्वितः । व्याख्यानं विदधत् तत्र न नमस्यति तं मुनिम् ॥१९॥ दृष्ट्वा स्तम्भसमाकारं वायुभूतिं तमग्रजः । पाणावादाय सस्नेहं जगादेति विचक्षणः ॥ २० ॥ " वायुभूते मुनेरस्य प्रसादेन गरीयसा । संजाता परमा लक्ष्मीरस्माकं पृथिवीपतेः ॥ २१ ॥ तत उत्तिष्ठ द्रुतं भद्र संप्राप्यास्य समीपताम् । वन्दनां कुरु भावेन समस्तमलदायिनीम् ॥२२॥ अग्निभूतिवचः श्रुत्वा वायभूतिर्जगावमुम् । अनानस्याशुचेरस्य कारापयसि मां नुतिम् ॥ २३ ॥ वायुभूतिवचः श्रुत्वा चाग्निभूतिर्बभाण तम् । बुद्धिपाशं कृतघ्नं च छान्दसं वठरं खलम् ॥ २४ ॥ मत्तोऽसि त्वं दुराचार वेदविप्रकुलेन च । येनास्य योगिनः पादौ मानितौ न नमस्यसि ॥ २५॥ 15 एवं निगद्य तं दुष्टं पैशून्योपहतात्मकम् । अग्निभूतिर्विहायाशु दयावादगिरं ययौ ॥ २६ ॥ विहाय सकलं संगं महावैराग्यसंयुतः । अग्निभूतिर्दधौ दीक्षां सूर्यमित्रान्तिके सुधीः ॥ २७॥ अत्रान्तरे जगादेमं वायुभूतिं पुरः स्थितम् । अग्निभूतिप्रिया दीना सोमदत्ता रुदत्यसौ ॥ २८ ॥ दुर्जनस्त्वं तरां लोके दुर्जनानामपि स्फुटम् । येनास्य गेहिनो दिव्यमुपकारं न वेत्सि च ॥२९॥ अधीत्य सकलान् वेदान् साङ्गोपाङ्गांस्तदन्तिके । पादयोः पतितुं मूढ सूर्यमित्रस्य लज्जसे ॥३०॥ ॥ तस्य विप्रसभामध्ये निशम्य वचनं तदा । विलक्षणामुना कोपात् पादेन निहतं शिरः ॥ ३१ ॥ गच्छ त्वं यत्र ते भर्ता तिष्ठत्येकाग्रमानसः । एवं निगद्य सा तेन धाटिता स्वनिकेतनात् ॥३२॥ निशम्य तत्तिरस्कारं सोमदत्ताऽपि सत्वरम् । चकारेदं निदानं सा कोपारुणनिरीक्षणा ॥ ३३॥ निहत्य त्वां भवत्पादं दुष्टमन्यत्र जन्मनि । चूर्णयित्वाऽस्थिसंघातं भक्षयिष्यामि निश्चितम् ॥३४॥ एवं निगद्य ते कोपाद् विनिःसृत्य च तहात् । सोमदत्ता हि मृत्वाऽऽस्ते भ्रमन्ती भवसागरम् ॥३५॥ - वायुभूतिरपि क्षिप्रमभिमानकलङ्कितः । चकारायं तिरस्कारं सूर्यमित्रमहामुनेः ॥ ३६॥ उदुम्बराख्यकुष्ठेन कुथिताखिलविग्रहः" । तत्पापतो मृति प्राप दुष्टः सप्तदिनान्तरे ॥ ३७॥" अङ्गकाख्यजनान्तस्थचम्पाख्यायां महापुरि । महासरोवरोद्याने वासुपूज्यनिषद्यकाम् ॥ ३८॥ सत्ता भक्तिसमायुक्तैरग्निभूत्यादिसाधुभिः । तद्वन्दनाथेमायातः सूर्यमित्रो महामुनिः ॥ ३९॥ सूर्यमित्रः खचित्तेन शुद्धो नत्वा निषधकाम् । बभूव तत्क्षणेनैव चतुर्ज्ञानसमन्वितः॥४०॥ • विनयाचारयुक्तस्य सूर्यमित्रस्य योगिनः । वायुभूतिस्तिरस्कारं कृत्वा यो मृतिमागतः ॥४१॥ कौशम्बिकाप्रजातस्य तस्य विभ्रमकारिणः । विद्याधरस्य लंखस्य" गृहे जातः स गर्दभी ॥४२॥ मृत्वा पापेन तत्रासौ गुरुणैव खरी खला । बभूव भीषणाकारा तीक्ष्णदंष्ट्रा च सूकरी ॥ ४३ ॥ 1ज कौशाम्बीनगरी. 2 पफ तत्त्वज्ञात. 3 फ भेदके, जवेदके. 4 ज तमग्रतः. 50 तेनोत्तिष्प 6 पफज त्रिकलमिदम्.7 पफज निकलमिदम्.8 पफज निकलमिदम्.9 पफज युगलमिदम्. 10 पफज त्रिकलमिदम्. 11 ज कुन्थिता. 12 पफज युगलमिदम्. 13 फ लङ्कस्य. 14 पफज युगलमिदम्. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२६. ७६ ] अवन्तिसुकुमालकथानकम् सूकरी मृतिमासाद्य चम्पाख्यायां पुरि स्फुटम् । मातङ्गकुलसंभूता शुनी भीषणविग्रहा ॥४४॥ शुनी मृतिं परिप्राप्य मातङ्गश्रेष्ठिमन्दिरे । कुमारी लोचनात् त्यक्ता चम्पायामभवत् पुनः ॥ ४५ ॥ जम्बूफलानि पक्कानि खादयन्तीं तरोरधः । अग्निभूतिर्विलोक्यमा सवैराग्यो जगौ गुरुम् ॥ ४६ ॥ एतस्यामप्यवस्थायामस्या योगीन्द्र योषितः । जायते न च वैराग्यं तु मनागपि मे वद ॥४७॥' अग्निभूतिवचः श्रुत्वा सूर्यमित्रो जगावमुम् । वायुभूतिर्भवद्भाता यो मृतो द्विजमानतः ॥४८॥ गर्दभी सूकरी दुष्टा शुनी पापगरीयसी । भ्रान्त्वा जन्मान्तराण्येष दुर्गन्धेयं वितिष्ठते ।। ४९ ॥ सूर्यमित्रगुरोवाक्यं निशम्य करुणापरः । अग्निभूतिरिमां प्राह दुर्गन्धां पुरतः स्थिताम् ॥ ५० ॥ प्राप्तं त्वयेदृशं दुःखं तिरस्कारेण योगिनः । मद्वाक्येनाधुना पुत्रि गृहाणाणुव्रतान्यरम् ॥ ५१॥ अग्निभूत्युपदेशेन संप्राप्याणुव्रतानि सा । दुर्गन्धा मरणं प्राप मिथ्यात्वेन मलीमसा ॥ ५२ ॥ अथ चम्पापुरं श्रीमांश्चन्द्रवाहनभूपतिः । अस्य चन्द्रमती भार्या बभूव वनितोत्तमा ॥ ५३॥1॥ अस्यैव च नरेन्द्रस्य नागशर्मा पुरोहितः । अभवद् ब्राह्मणी कान्ता त्रिवेदी तन्मनःप्रिया ॥५४॥ अजायत तयोः पुत्री दुर्गन्धा प्राग्निरूपिता । नागश्रीरिति विख्याता नागिनीव कलस्वना ॥५५॥ अन्यदा सूर्यमित्रोऽसौ विहरन् कापि भूतलम् । चम्पानागवरोद्याने नागवेश्मनि तस्थिवान् ॥५६॥ पद्मनागस्तथाऽन्योऽपि नागान्तः संवलादिकः । पत्रनागस्त्रयोऽप्येते तिष्ठन्त्यत्र गृहोदरे ॥ ५७ ॥ सामन्तमत्रिकन्याभिर्नागश्रीः परिवारिता । जगाम भक्तिसंपन्ना तद्वनं नागमर्चितुम् ॥ ५८ ॥ 15 नागपूजां विधायात्र गन्धपुष्पादिसंपदा । सूर्यमित्रगुरुं प्राप नागश्रीस्तत्समन्विता ॥ ५९॥ तत्र नागश्रियं दृष्ट्वा कन्यासंघातसंगताम् । अग्निभूतिर्विलोक्येमां बभूव स्नेहसंयुतः ॥ ६०॥ नागश्रियं विलोक्येमां कुतः स्नेहोऽभवन्मम । एतत् सर्वं यथापृष्टं कथयाशु महामुने ॥ ६१ ॥ अग्निभूत्युदितं श्रुत्वा सूर्यमित्रो बभाण तम् । आकर्णयैकचित्तेन कथयामि तव स्फुटम् ॥ ६२॥ आसीत् पूर्वभवे यो हि वायुभूतिस्तवानुजः। मजुगुप्सां विधायात्र पञ्चतामगमत् पुनः ॥ ६३ ॥ 20 गर्दभी सूकरी पापाच्छुनी मातङ्गिकाऽपि च । नागश्रियमिमां विद्धि सांप्रतं त्वं मदुक्तितः ॥६४॥ कथिते सूर्यमित्रेण समस्ते तद्भवान्तरे । नीताऽग्निभूतिसूर्येण नागश्रीपद्मिनी मुदम् ॥ ६५॥ श्रुत्वा भवान्तरं सर्व स्वकीयं सूर्यमित्रतः। जग्राहाणुव्रतैः सार्धं नागश्रीदर्शनं मुदा ॥ ६६ ॥ नागश्रीरुदिता भूयः सूर्यमित्रेण सूरिणा । अणुव्रतानि सर्वाणि मा मोक्ष्यसि कदाचन ॥ ६७॥ स्तुत्वेयं सूर्यमित्रस्य पादपद्मं मनोहरम् । अग्निभूतेरपि क्षिप्रं जगाम निजमन्दिरम् ॥ ६८॥ 25 ज्ञात्वा नागश्रियं कन्यां जिनधर्मपरायणाम् । जगाद नागशर्मेमां वाचया क्रूरया द्विजः ॥ ६९ ॥ पुत्रि त्वं मत्सुता साध्वी ब्राह्मणान्वयसंभवा । जिनधर्मेण संबन्धो न तेऽसौ युज्यते भुवि ॥७॥ तस्मादिमं वृषं पुत्रि लोकबाह्यं जिनोदितम् । मुञ्च मद्वाक्यतस्तन्वि त्वं मगोत्रपताकिका ॥७१॥ पितुर्वचनमाकर्ण्य जिनधर्मपराङ्मुखम् । बभाणेमं पुनः कन्या नागश्रीः श्रीसमप्रभा ॥ ७२ ॥ यस्य पार्श्वे मया धर्मो गृहीतो जिनपुङ्गवः । तस्य पार्श्व परिप्राप्य मुञ्चाम्येनं द्रुतं पुनः ॥ ७३ ॥ . ततो नागश्रियं हस्ते गृहीत्वा निजगौ पिता । तत्सकाशं व्रजावोऽरं सुते द्वावपि निश्चितम् ॥७४॥ एवं निगद्य तौ बाढं प्रवृत्तौ पथि तं प्रति । बद्धं मलिम्लुचं बाह्वोदृढपाशेन दोषिणम् ॥ ७५ ॥ ध्वनिना पुष्करणाशु नीयमानं पुरादहिः । लोकेन वेष्टितं बाढं दृष्टवन्तौ सकौतुकम् ॥ ७६ ॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 फ द्विजमानसः. 3 पफज युगलमिदम्. 4 पफज त्रिकलमिदम्, 5 पफज त्रिकलमिदम्. 6 पफज युगलमिदम्. 7 ज दोषिणाम्. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१२६. ७७दृष्ट्वाऽमुं तस्करं बद्धं नागश्रीः पितरं जगौ । तात किं कारणं बद्धो युवाऽयं रूपराजितः ॥७॥ सुतावचनतोऽनेन तदानीं नागशर्मणा । पृष्टा नराः कुतो बद्धो नीयतेऽयं महानरः ॥ ७८॥ नागशर्मवचः श्रुत्वा जगुरेते नराः पुनः । श्रेष्ठिपुत्रोऽमुना बढयो गृहीता धनकोटिकाः ॥ ७९ ॥ याचितोऽपि धनं बाढं दातुमिच्छति नैषकः । अनेन निहतः सोऽयं करवाल्या मृतिं गतः ॥८॥ । अनेन कारणेनायं नरः पुरुषघातकः । नरेन्द्रवचनाद् बद्धो नीयते दण्डवासिकैः ॥ ८१॥ निशम्य वचनं तस्य नागश्रीनिजगावमुम् । इदं व्रतं मया तात गृहीतं मुनिसंनिधौ ॥ ८२॥ जीवानां मृत्युभीरूणां जीवनं वाञ्छितं सदा । कायेन मनसा वाचा न करोमि वधं पितः ॥८३॥ इदं व्रतं समाशु मुनेर्जीवनिपातनम् । मया त्वन्मतकारिण्या कर्तव्यं जनक स्फुटम् ॥ ८४॥ हतेषु प्राणिसर्वेषु चरणबाहुयत्रिता । भवतां पश्यतां यामि श्मशानं तूर्यनिस्वनैः ॥ ८५ ॥ 10 शूलिकायां सुतीक्ष्णायां चितास्थायां निजां तनुम् । निक्षिप्य पञ्चतां शीघ्रं यामि तात त्वदग्रतः॥८६॥' निशम्य स्वसुतावाक्यं नागशर्मा बमाण तम् । तिष्ठत्विदं व्रतं पुत्रि तव तन्वि ममापि च ॥ ८७॥ खसुखं वाञ्छिता बाढं धर्म च जिनदेशितम् । नूनं जीववधः पुंसा न कर्तव्यो मुमुक्षुणा ॥८८॥ तेन व्रतमिदं तन्वि मा समर्पय योगिनः । अन्यानि यानि सर्वाणि मुञ्च तानि तदन्तिके ॥८९॥ यावदेवं सुतां शास्ति नागशर्मा पथि द्रुतम् । आगच्छन्तं नरं तावद् ददर्श करयत्रितम् ॥९॥ 15 दृष्ट्वाऽमुं नागशर्माऽपि पप्रच्छान्यं नरं पुनः। को दोषो विहितोऽनेन येन बद्धो व्रजत्ययम् ॥११॥ निशम्य स नरस्तूर्णं वचनं नागशर्मणः । बमाण वचसा चेमं कौतुकव्याप्तमानसम् ॥ ९२॥ अत्रैव देवदत्ताख्यो यज्ञदत्तोऽपि वाणिजः । गोधूमचणकादीनां संग्रहं चक्रतुस्तकौ ॥ ९३ ॥ एतौ तद्धान्यमादाय क्रयार्थ लाभलालसौ । श्रीपुरात् सहसा प्राप्तौ चम्पाख्यां नगरीमिमाम् ॥१४॥ ताभ्यां जयकरायेदं राष्ट्रौडायाखिलं तदा । वितीर्णं धनलोभेन धान्यं विविधभेदकम् ॥ ९५ ॥ 20 अत्रैव नगरे सारे तारको नाम वाणिजः । मायया कुरुते चौर्य हस्तसंज्ञाखरूपया ॥ ९६ ॥ जयाकराभिधानस्य राष्ट्रौडस्य धनेशिनः । मीयते सकलं धान्यं नरेणैतेन मायिना ॥ ९७ ॥ तद्वेश्मभित्तिसंबन्धं तदा चित्रकरेण च । लिखितं चित्रकर्मेदं वन्दनार्थं जनप्रियम् ॥ ९८॥ पदाक्षरमनोहार बुधकर्णरसायनम् । इदमाख्यानकं सोऽयं जगावस्य विवेकिनः ॥ ९९॥ कस्मिन्नपि पुरे श्रेष्ठी धनपालो महाधनः । तत्पुत्रो दन्दशकेन स दष्टो धनदत्तकः ॥१०॥ 25 निर्विषीकरणे दक्षौ लोकविख्यातकीर्तिकौ । तन्निमित्तं समाहूतौ विषदौ जनकेन च ॥ १०१॥ तन्मध्ये हि वदत्येकस्तत्तातं विषदस्तदा । नक्तं तिष्ठतु ते पुत्रः सर्पदष्टो धनाधिप ॥ १०२॥ विषव्याप्तसमस्ताङ्गं विह्वलीभूतमानसम् । त्वन्नन्दनं विधास्यामि प्रभाते निर्विषं ध्रुवम् ॥ १०३॥ एवमुक्त्वा धनाधीशं सुतशोककदर्थितम् । जगाम विषदस्तूर्णं स्वमनीषितमादरात् ॥ १०४॥ चतुरो नागदष्टस्य तत्समीपे नरानरम् । स्थापयामास तत्तातः सहस्रभटसंज्ञकान् ॥ १०५॥ 30 तत्रैको मेंढूकं हन्तुं नरः प्राप्य वनान्तरम् । आदायेमं पुनः शीघ्रमाजगाम तदन्तिकम् ॥ १०६॥ अन्यो निर्गत्य काष्ठार्थं तानि चादाय सत्वरम् । नागदष्टान्तिकं प्राप भयवेपितविग्रहः ॥१०७॥ अपरोऽग्निं समानेतुं विनिःसृत्य तदन्तिकात् । गृहीत्वाऽमुं परिप्राप नागदष्टसमीपकम् ॥ १०८॥ अन्योऽवष्टभ्य तं तत्र स्वशरीरेण यत्नतः । विषव्याप्तसमस्ताङ्गं तस्थौ तज्जीविताशया ॥ १०९॥ एवं ते रक्षकाः सर्वे तोषपूरितमानसाः । अग्निपक्वं विधायाशु मिंढकं भक्षयन्त्यलम् ॥ ११ ॥ ___ 1 [दण्डपाशिकैः]. 2 पफज त्रिकलमिदम्. 3 पफ चतुःकुलकमिदम्, ज चतुष्कुलकमिदम्. 4 [वाञ्छता]. 5 पफज त्रिकलकमिदम्, Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२६. १४३ ] अवन्तिसुकुमालकथानकम् ३०१ क्षणदायामतीतायां संप्राप्य विषदौ तकौ । जीवनं श्रेष्ठिपुत्रस्य चक्रतुर्मत्रयोगतः ॥ १११॥ जीविते श्रेष्ठिपुत्रेऽस्मिन् मणिस्वर्णादिसंपदा । पूजयामास तौ श्रेष्ठी विषदौ प्रीतमानसः ॥११२॥ एवं नरेण चैकेन तोषपूरितचेतसा । तदानीं नरसिंघस्य कथ्यमाने कथानके ॥ ११३॥ दृष्टिमोहं विधायैषां रक्षकाणां प्रयत्नतः । बहुधान्यं मिमीतेऽसौ वाणिजो हस्तसंज्ञया ॥ ११४॥ चौरिकाव्यवहारेण धान्ये च प्रमितेऽखिले । धर्माधिकारिणेऽन्योन्यं व्यवहारं चकार सः ॥११५॥ ततः साधनिकैः सर्वैर्मापकस्योपरि स्फुटम् । असत्यचोरिकावादः स्थापितस्तत्पुरान्तरे ॥ ११६॥ जिह्वाहस्तपदच्छेदः समस्तजनसाक्षिकः। आदिष्टो नरनाथेन तस्य मायाविधायिनः ॥११७॥ निशम्य वचनं तस्य नागश्रीमतिशालिनी । जगाद पूर्ववत् सर्वं तत्त्वतो जनकस्य सा ॥ ११८ ॥ नागश्रियो वचः श्रुत्वा धर्मविन्यस्तचेतसः । बभाणैतां पुनस्तत्र तोषपूरितमानसः ॥ ११९ ॥ व्रतद्वयमिदं भद्रे त्वदन्ते तिष्ठतु स्फुटम् । व्रतान्यन्यानि सर्वाणि मुनेरर्पय शोभने ॥ १२०॥ ॥ दृष्ट्वाऽपरं नरं मार्गे नागश्रीपरिनोदितः । पप्रच्छ नागशर्मेदं नीयमानं मृति प्रति ॥ १२१ ॥ को दोषो विहितोऽनेन येन बद्धः प्रयात्ययम् । तद्वाक्यतो जगादामुं स नरः प्रीतमानसः॥१२२॥ नागशमोदितं श्रुत्वा तन्मध्ये प्रीतमानसः। जगादेति वचो मन्दमेकः कोऽपि नरः स्फुटम् ॥१२३॥ चम्पापुरीसमीपस्थपुरं शैलपुरं परम् । बभूव मत्सनामाख्यो राष्ट्रकूटकुटुम्बिकः ॥ १२४ ॥ तद्भार्या जयका चासीत् तत्पुत्रौ नन्दवोदकौ । नन्दाय ज्यायसे दत्ता मातुलेन स्वकन्यका ॥१२५॥ अकृत्वा व्रजनं तस्या नन्दोऽपि धनतृष्णया । यात्रया चलितः क्षिप्रं नूनं द्वादशवर्षया ॥१२६॥ देशान्नन्दो न चायाति वाणिज्यायै गतस्तदा । वोदकाय वितीर्णा सा मातुलेन स्वकन्यका ॥१२७॥ करोति व्रजनं यावद् बोदोऽस्यास्तद्दिने सति । नन्दोऽपि तावदायातो दूरदेशात् स्वपत्तनम् ॥१२॥ दत्ता भूयोऽपि सा कन्या नन्दाय जनकेन च । इष्टा न रूपयुक्ताऽपि ज्यायसाऽनेन कन्यका ॥१२९॥ नन्दवोदपरित्यक्ता तदा सोदालिकाऽपि सा । रूपयौवनसंयुक्ता पितृगेहे वितिष्ठते ॥ १३०॥ तस्मिन्नेव पुरे रूपी नागशर्मसुतोऽभवत् । कटुकागर्भसंभूतो नागशूराभिधश्चलः ॥ १३१॥ भार्याचतुष्टयं हित्वा देवीरूपसमप्रभम् । सोदालिकासमं रेमे नागशूरः कुधीरयम् ॥१३२॥ सोदालिकां समादाय तद्रूपहृतमानसः । चम्पापुरी पुरीं प्राप्य नागशूरो मदातुरः ॥ १३३ ॥ गृहीत्वा रक्षकैरेष परनारीनिषेवितम् । आस्थानमण्डपस्थस्य भूपस्याथ समर्पितः ॥ १३४ ॥ कारयित्वाऽऽयसी रामां रूपराजितविग्रहाम् । राजाऽस्य दर्शयामास चित्रभानुसमप्रभाम् ॥१३५॥ 25 एतत्सर्वं समाख्यातमाख्यानमतिसुन्दरम् । तन्नरेण पथि स्पष्टं नागश्रीनागशर्मणोः॥ १३६ ॥ स्तोकमार्गमतिक्रम्य नरमेकं परद्युतिम् । पूर्वोक्तविधिना बद्धं दृष्टवन्तौ तदा तकौ ॥ १३७॥ नागश्रीवचनेनाशु नागशर्मा विलोक्य तम् । बभाणान्यं नरं तत्र बद्धोऽयं केन हेतुना ॥१३८॥ निशम्य भारतीमस्य जगादैको नरोऽपि तम् । यो बद्धो नीयते भद्र धीरपुण्यः स गोपकः ॥१३९॥ ततस्तुष्टेन भूपेन नितान्तं स्वस्वगोकुले । धीरपुण्याय गोपाय वितीर्णा धेनुकाः पराः ॥ १४० ॥ 30 एकैकां धेनुमादाय सामन्तादिव्रजे स्वयम् । तस्थौ खमन्दिरे गोपो देव्याः कामदुघामपि ॥१४१॥ तत्प्रत्यक्षं महादेव्या भूपालाय निवेदितम् । धीरपुण्येन गोपेन राजन् मद्धेनुका हृता ॥ १४२ ॥ महादेवीवचः श्रुत्वा भूपैरन्यैरुदाहृतम् । राजन्ननेन गोपेन मदीया धेनवो हृताः ॥ १४३॥ ____1 [ नरसिंहस्य ]. 2 पफज युगलमिदम्. 3 [°परिचोदितः]. 4 [ मत्समानाख्यो]. 5 पफ यात्राया. 6 पफज कुलकमिदमू. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२६. १४४निशम्य वचनं राजा महादेवीमहीभृताम् । कोपलोहितभीमाक्षस्तदोचे दण्डवासिकान्॥१४४॥ प्राध्वं कृत्वा विमं गोपं महालोभप्रवर्तितम् । दूरं नयत देशं हि धीरपुण्यनिकारिणम् ॥१४५॥ निशम्य तद्वचस्तत्र भयवेपितविग्रहा । नागश्री गशर्माणं जगादेति विशुद्धधीः ॥ १४६ ॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं स्वदाररतिकारणम् । धनादिकप्रमाणं च व्रतान्येतान्यणूनि मे ॥ १४७ ॥ 5 अर्पितेषु समस्तेषु व्रतेष्वेतेषु योगिनाम् । तात पूर्वोक्तदोषास्तु प्राप्तव्याः सकला मया ॥ १४८॥ नागश्रीवचनं श्रुत्वा नागशर्माऽवदत् तकाम् । सुव्रताणुव्रतैरेभिर्भव त्वं पञ्चभिः सुते ॥ १४९ ॥ अणुव्रतानि पञ्चानि हितकारीणि देहिनाम् । एतानि सारभूतानि माऽर्पयिष्यसि कस्यचित् ॥१५०॥ अस्माकमपि चैतानि योगिभिः प्राक्तनैः सुते । कथितानि विशिष्टानि स्वहिताचारवेदिभिः ॥१५१॥ किं पुनस्तस्य नग्नस्य श्रमणस्य कदर्थनम् । कृत्वा लज्जाविहीनस्य गच्छावः स्वगृहं सुते ॥१५२॥ ० येनान्यलोकबालानां नितान्तं मूढचेतसाम् । श्रमणोऽयं गताचारो न करोति प्रतारणम् ॥१५३॥ एवं निगद्य तां बालां नागशर्मा रुषान्वितः । अवादीत् तं मुनिं वीरं तारनादेन दूरतः ॥१५४॥ भो भो मुने कुतो हेतोर्मत्तनूजाप्रतारणम् । कृतं त्वया वद क्षिप्रं निर्लज्ज गुणवर्जित ॥१५५॥ आकर्ण्य तद्वचः साधुर्बभाणेमं पुरःस्थितम् । भटपुत्र न नागश्रीस्त्वत्सुता मत्सुता स्फुटम् ॥१५६॥ एवं निगद्य तं विप्रं प्राह नागश्रियं मुनिः। एहि पुत्रि ममाभ्याशं धर्मसंसक्तमानसे ॥ १५७ ॥ 15 श्रुत्वा साधुवचो दीनं नागश्रीः प्रीतमानसा । सूर्यमित्रस्य सामीप्यमाजगाम त्वरान्विता ॥१५८॥ सूर्यमित्राग्निभूताभ्यां मुनिभ्यामात्मनोऽन्तिके । नागश्रियं विधायाशु नागशर्मा प्रभाषितः ॥१५९॥ गच्छ त्वं ब्राह्मण क्षिप्रं कातर स्थानतोऽमुतः । यावन्न भूभुजाऽस्माभिर्दुष्टचित्त कदर्थ्यसे ॥१६॥ श्रुत्वा मुनिवचस्तत्र नागशर्मा स माहनः । अब्राह्मण्यं महाऽन्यायमुच्चरन् वचसा द्रुतम् ॥१६१॥ चन्द्रवाहनसामीप्यं संप्राप्य निजगाविदम् । महाराजन्नहं मुष्टो नग्नश्रमणकैः खलैः ॥ १६२ ॥ 20 नागश्रियं समादाय यावन्नो यान्ति ते वनात् । तावन्मया समं शीघ्रं तदन्तं याहि भूपते ॥१६॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा नानाजनसमन्वितः । कौतुकव्याप्तचेतस्कः सूर्यमित्रान्तिकं ययौ ॥१६४ ॥ अत्रान्तरे जगौ विप्रो वचनं नृपसाक्षिकम् । नागश्रीमत्सुता नागैर्वितीर्णा मम भूपते ॥ १६५ ॥ निशम्य सूर्यमित्रोऽपि वचनं नागशर्मणः । जगादेमं पुरो धीरं नृपादिजनसाक्षिकम् ॥ १६६ ॥ नागश्रीमत्सुता नूनं शृणु मद्वचनं नृप । अध्यापिता मया वेदांश्चतुरः स्मृतिपूर्वकम् ॥ १६७॥ 25 सूर्यमित्रवचः श्रुत्वा नरेन्द्रो निजगावमुम् । नागश्रियं वेदपाठं कारापय महामुने ॥ १६८॥ . चन्द्रवाहनभूपस्य निशम्य वचनं तदा । नागश्रियं जगादेति सूर्यमित्रो महामुनिः ॥ १६९ ॥ वायुभूतिचरः क्षिप्रं त्वं नागश्रीः स्फुटाक्षरम् । मदध्यापितवेदानां पठनं कुरु सांप्रतम् ॥१७०॥" सूर्यमित्रवचः श्रुत्वा तदा जातिस्मरी मुदा । पपाठ सकलान् वेदान्नागश्रीरिति सत्वरम् ॥ १७१ ॥ ओंकारं प्रथमं कृत्वा स्वरवर्णप्रभेदतः । चतुःषष्टिसमायुक्ता पपाठ क्रमविभागतः ॥ १७२ ॥ 30 सूत्राद्युपक्रमेणेमं समस्तं विधिपूर्वकम् । ऋग्वेदं च पपाठालं नागश्रीनृपसाक्षिकम् ॥ १७३ ॥ ततः सुवर्णभेदेन सप्तसंहितिकादितः । सूत्रवर्णादितः प्रोक्तो यजुर्वेदोऽनया क्रमात् ॥ १७४ ॥ सामवेदस्ततः प्रोक्तस्तथाऽथर्वणनामकः । अष्टादशपुराणानि तत्पुरो धर्मसंहिताः ॥ १७५ ॥ मीमांसान्यायशास्त्राणि चतुर्दश नृपाग्रतः । विद्यास्थानानि सर्वाणि भाषितानि तदाऽनया ॥१७६।।" 1 [ दण्डपाशिकान् ]. 2 पफज कुलकमिदम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफज चतुष्कुलकम्. 5 फ गुणवर्जितम्. 6 पफज युगलमिदम्. 7 पफज युगलमिदम्.8 पफज त्रिकलमिदम्.9 ज सौमित्रं वचः. 10 पफज युगलमिदम्. 11 पफज कुलकमिदम्. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२६. २०९] अवन्तिसुकुमालकथानकम् ३०३ नागश्रीवेदसंपाठं निशम्य वसुधाधिपः । सूर्य मित्रं जगौ साधुं तोषकण्टकिताङ्गकः ॥ १७७॥ तनया नाथ नागश्रीस्तव ज्ञानमहार्णव । नियन्तं ज्ञातमस्माभिर्न चेयं नागशर्मणः ॥ १७८ ॥ किंतु नागश्रियो नाथ दिव्यज्ञानमहेश्वर । वेदप्रपाठसंबन्धं ज्ञातुमिच्छामि सांप्रतम् ॥ १७९ ॥ निशम्य तद्वचः सारं ध्वनिना ह्लादयन् सभाम् । सूर्यमित्रो जगादेति धराधीशं सकौतुकम् ॥१८०॥ विषये वत्सकावत्यां कौशम्बी परमा पुरी । अस्यामतिबलो राजा श्रीकान्ता तत्प्रियाऽभवत् ॥१८१॥ अग्निमित्रो द्विजोऽस्यासीदग्निला तन्नितम्बिनी । तत्सुतो सूर्यमित्रोऽहं सोमशर्मा कनिष्ठकः॥१८२॥ सोमशर्मप्रिया चासीत् काश्यपी नाम विश्रुता । तन्नन्दनोऽग्निभूतिश्च वायुभूतिरपि क्रमात् ॥१८३॥ मत्तातमरणे राज्ञाऽनुक्रमं जानता तराम् । समर्पितानि सर्वाणि वृत्तिस्थावरकानि मे ॥ १८४ ॥ मया तानि च सर्वाणि वृत्तिस्थावरकाण्यरम् । सोमशर्मवितीर्णानि महास्नेहानुकारिणा ॥ १८५॥ मगधाविषये चासीत् पुरं राजगृहं तदा । वसुपालो नृपस्तत्र सुप्रभा तन्मनःप्रिया ॥ १८६ ॥ मया तद्भूपतेः पार्थे वृत्तिस्थावरकानि च । उपयुक्तानि सर्वाणि महाविद्याप्रभावतः ॥१८७॥ राजप्रसादतस्तत्र भुञ्जानस्योत्तमां श्रियम् । सुखेन मम मद्धातुबन्धुभिः सह सौख्यतः॥१८८॥ एवं गच्छति तत्काले सोमशर्मा ममानुजः । कालेन पञ्चतां नीतः कालो हि बलवान् भुवि ॥१८९॥ तस्मिन् काले गते नूनमग्निभूतिस्त्वरान्वितः । वायुभूतिसमं यातो मदन्तं विभवात्यये ॥ १९० ॥ सप्ताष्टवर्षसंयुक्ते काले द्वावपि भूपते । कृतौ मया प्रयत्नेन वेदस्मृतिविशारदौ ॥ १९१ ॥ ततः कौशाम्बिकां प्राप्य दृष्ट्वाऽतिबलभूपतिम् । स्ववृत्तिस्थावराण्याशु मोचयामासतुस्तकौ ॥१९२॥ समस्तविप्रशास्त्राणां ब्राह्मणानां निरन्तरम् । व्याख्यानं च प्रकुर्वाणौ तस्थतुः स्वपुरे तकौ ॥१९३॥ अग्निभूतिसमं राजन् लब्धबोधिपदार्थकः । दिगम्बरव्रतं सारं चकाराहो विशुद्धये ॥ १९४ ॥ वायुभूतिमृति प्राप्य मानदोषेण गर्दभी । सूकरी च शुनी जाता मातङ्गी दीनमानसा ॥१९५॥ कालं कृत्वा च मातङ्गी शुभकर्मानुभावतः । जाता जातिस्मरा भूप नागश्रीर्वरकन्यका ॥ १९६ ॥ 20 जातिस्मरत्वमासाद्य मदुक्तेन कलस्वना । पपाठ सकलं वेदं नागश्रीरियमादरात् ॥ १९७ ॥ तद्वेदपाठसंबन्धः कथितो योगिनाऽमुना । महावैराग्यसंपन्नश्चन्द्रवाहनभूपतिः ॥ १९८ ॥ श्रुत्वा जिनोदितं धर्म स्वर्गमोक्षप्रदायकम् । महाचलसुतायास्मै दत्त्वा राज्यमकण्टकम् ॥ १९९ ॥ सहर्बहुभियुक्तः सामन्तानां जिनोदितम् । चन्द्रवाहो दधौ राजा सूर्य मित्रान्तिके तपः॥२००॥" अन्यैरपि तदा लोकैरात्मभक्त्या प्रमोदिभिः । सम्यक्त्वपूर्वको धर्मो गृहीतो जैनपुङ्गवः ॥२०१॥ 25 सूर्यमित्रगुरोः पार्थे नागशर्माऽतिभक्तितः । महावैराग्यसंयुक्तो दीक्षां दैगम्बरी दधौ ॥ २०२॥ नागश्रिया समं साध्वी त्रिवेदी जिनभक्तितः । ब्राझिकार्यान्तिके शीघ्रं तपो जैनमशिश्रियत् ॥२०३॥ हत्वा कर्माष्टकं दुष्टमग्रपर्वतमस्तके । सूर्यमित्रोऽग्निभूतिश्च संप्राप्तः सिद्धिपत्तनम् ॥ २०४ ॥ नागशर्मा तपः कृत्वा दक्षं कर्मविनाशने । बभूवाच्युतकल्पेऽसौ देवो भासुरविग्रहः ॥ २०५॥ कालं प्रकुर्वती दीना पूर्वस्नेहा त्रिवेद्यपि । नागश्रीमै सुता भूयान्निदानमकरोदिति ॥ २०६॥ ॥ ततो मातृसुतायुग्मं कालं कृत्वा समाधिना । पद्मगुल्मविमानेऽभूदच्युतस्वर्गसंभवे ॥ २०७॥ देवयुग्मं मनोहारि हारराजितविग्रहम् । द्वाविंशतिसमुद्रायुस्तस्थौ तत्र सुखोचितम् ॥ २०८ ॥ इन्द्रदत्ताभिधश्चासीदिभ्यः श्रेष्ठी महाधनः । नूनं गुणमती भार्या श्रीमदुज्जयिनीभवा ॥ २०९ ॥ 1 [नियतं ]. 2 पफज त्रिकलमिदम्. 3 [वायुभूतिम॒तिं], 4 पफज कुलकमिदम्. 5 पफज युगलमिदम्. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२६. २१०-- नागशर्मचरो देवस्ततश्युत्वाऽऽयुषः क्षये । पुत्रः सुरेन्द्रदत्तोऽभूत् तयोः प्रेमानुरक्तयोः ॥२१०॥ आसीत् सुभद्रसंज्ञोऽन्यः श्रेष्ठीभ्यः कुलसंभवः। भार्या सर्वयशास्तस्य श्रीमदुज्जयिनीपुरि ॥२११॥ भुक्त्वा तत्र सुखं दिव्यं ततश्युत्वा त्रिवेद्यपि । जाता सर्वयशोगर्भे यशोभद्रा सुकन्यका ॥२१२॥ वितीर्णेयं यशोभद्रा सुभद्रेण च सादरम् । चार्वी सुरेन्द्रदत्ताय कुमाराय महौजसे ॥ २१३॥ 5 नागश्रीपूर्विका याऽऽसीत् पद्मगुल्मविमानके । देवस्तु शेषपुण्यः सन् स्वमातृखप्नपूर्वकम् ॥२१४॥ भुक्त्वा नाकसुखं दिव्यं च्युत्वाऽसौ तद्विमानकात् । अवन्तीसुकुमालाख्यो बभूव तनयोऽनयोः २१५ अवन्तीसुकुमालाय श्रेष्ठिपढें वितीर्य च । दीक्षां सुरेन्द्रदत्तोऽरं जिनसेनान्तिके दधौ ॥ २१६ ॥ अवन्तीसुकुमालोऽपि नवयौवनराजितः । द्वात्रिंशत्सौधमध्यस्थो द्वात्रिंशल्लक्षणान्वितः ॥ २१७॥ हारराजितवक्षस्को द्वात्रिंशद्वनितः सकः । अवन्तीसुकुमालोऽयं सुखं तस्थौ स्वपत्तने ॥ २१८॥ " कुमारं वीक्ष्य तत्रत्यं जिनधर्मपरायणम् । नैमित्तिकश्चकारेममादेशं तज्जनान्तिके ॥ २१९ ॥ कुमारोऽयं यदा नूनं मुनि द्रक्ष्यति पावनम् । हित्वा परिग्रहं सर्वं तदा दीक्षां करिष्यति ॥२२०॥ नैमित्तिकोदितं श्रुत्वा तज्जनैीतमानसैः । मुनीनां तद्गृहे दूरात प्रवेशोऽपि निराकृतः ॥ २२१ ॥ उज्जयिन्यां पुरि प्रीता प्रद्योतस्य महीपतेः । ज्योतिर्मालाभिधानाऽस्ति महादेवी मनःप्रिया ॥२२२॥ दक्षिणापथदेशाद्धि विक्रेतुं करभासुराः । एकेनाष्टौ समानीता वणिजा रत्नकम्बलाः ॥ २२३ ॥ Is ततो ग्रहणमेतेषां कम्बलानां नरेशिना । अवन्तीसुकुमालस्य जनन्या ग्रहणं कृतम् ॥ २२४ ॥ ततश्चत्वारि खण्डानि दिव्यरूपधराणि च । अतीवानन्दकारीणि समस्तजनचक्षुषाम् ॥ २२५ ॥ विलासविभ्रमोपेता हावभावसमन्विताः । तत्रत्याः सन्ति रूपाढ्या द्वात्रिंशद् वरकन्यकाः ॥२२६॥ एकैकं योषितः स्पष्टं नूनं तुषुडिकान्तरम् । एकैकखण्डसंवेशो द्रष्टव्योऽत्र मनीषिभिः ॥ २२७ ॥ भूपतेः श्रवणं तत्र प्रद्योतोद्योतमालयोः । तद्गृहागमनं तोषान्महाप्रेमानुरक्तयोः ॥ २२८॥ " उपचारविधानं च निमजद् वापिकान्तरम् । पानीयरमणं राज्ञो मणिहारविसर्जितम् ॥ २२९ ॥ भूपालवचनेनाशु निपुणं तद्भगवेषणम् । मणिकुण्डलहाराणां योषितां च विलोकनम् ॥ २३० ॥ आश्चर्यकारणं राज्ञः स्नात्वा तस्यां समागमः । दिव्यभोजनवेलायां दीपिकास्थापनं तथा ॥२३१॥ लवणोदनसूपानां मृदूनां रन्धनं परम् । दृष्ट्वैतद् भूभुजः स्पष्टं सरसं परिपृच्छनम् ॥ २३२ ॥ सानुरागेण भावेन स्वमातृकथनं पुनः । अवन्तिसुकुमालाख्यं राज्ञा तन्नामकीर्तनम् ॥ २३३ ॥ 25 मुनिपृच्छाविधानं च तन्मुन्यादेशकारणम् । भवत्पुत्रसमुत्पत्तिर्भविष्यति विसंशयम् ॥ २३४ ॥ मुनिं दृष्ट्वा तपः साधुः प्रकरिष्यत्ययं लघु । नैमित्तिकोदितं सत्यं समस्तभुवनातिगम् ॥ २३५॥ महाकालस्य चोद्याने पादोगमनमृत्युना । स्थास्यत्ययं मुनिवरिस्तदा मृतकशय्यया ॥ २३६ ॥ अन्यदा मुनिसंघानां तत्रत्यानां धनागमे । योगग्रहणमेतेषां नानावग्रहकारिणाम् ॥ २३७॥ स्वाध्यायपठनारम्भ खगृहे च प्रवेशनम् । साधूनां साधुवृत्तानां निषिद्धं तन्नरैः स्फुटम् ॥२३८॥ 30 चातुर्मास्यावसाने च प्रज्ञप्तिपठनं कलम् । श्रुत्वा तन्निनदं तेषां दीक्षादिस्मरणं तथा ॥ २३९ ॥ मुनिसानीप्यसंप्राप्तिर्मुनिदीक्षारुचिस्तथा । अवन्तीसुकुमालेन स्वायुषः परिपृच्छनाम् ॥ २४० ॥ मुनिभाषणमेतस्य दिवसत्रयजीवनम् । स्वयमेव प्रबोधत्वं स्वयमेव च दीक्षणम् ॥ २४१ ॥ महाकालस्य चोद्याने पीलवृक्षस्य मूलतः । प्रत्याख्यानं मुनेरस्य यावज्जीवं सुचेतसः ॥ २४२ ॥ मेरुवन्निःप्रकम्पस्य ध्यानाचलनिवासिनः । कषायहीनचित्तस्य शयनं मृतकार्चया ॥ २४३ ॥ । पफ श्रेष्ठीभ्यकुल.2 पफ पुरी. 3 ज द्रष्टव्यो तत्र. 4 पफ नानाविग्रह. 5 पफज कुलकमिदम्. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२७. १३ ] कोशलकथानकम् ३०५ अग्निभूतेः प्रिया चासीत् सोमदत्ताऽन्यजन्मनि । तत्पुत्रो नागशर्मा च सोमभूतिरपि स्फुटम् ॥ २४४॥ शूरमित्रो महामानी चाग्निभूतिस्तपो दधौ । श्रुत्वा धर्मं मुनेः पार्श्वे भ्राम्यति स्माजवंजवम् ॥२४५॥ विधाय पुत्रसंयुक्ता संसारपरिहिण्डनम् । सोमदत्ताऽभवद् भ्रूणा महाकालवने शिवा ॥ २४६ ॥ नागशर्मादयो भ्रान्त्वा चत्वारोऽपि भवार्णवम् । तच्छिवानन्दना जाता पापकर्मानुभावतः ॥ २४७॥ दिनानि सप्त संजाते तदानीं वातवर्धले' । क्षुधापम्पापरिश्रान्ता निजबालकसंयुता ॥ २४८ ॥ पूर्ववैरानुबन्धेन तत्पाद रुधिरं तदा । सा शिवा पातुमारब्धा सुकुमालमुनेरियम् ॥ २४९ ॥ खादयन्त्या तरां पादं तन्मुनेः शिवया तया । समाधिमरणेनायं चक्रे कालं दिनत्रये ॥ २५० ॥ विमाने नलिनीगुल्मे नाके चाच्युतनामनि । द्वाविंशतिसमुद्रायुः सुकुमालोऽमरोऽभवत् ॥ २५१ ॥ ततश्चतुर्थके यामे रजन्या देवनिश्वन - । श्रवणं तज्जनीसंघसमागमनमत्र च ॥ २५२ ॥ भूयोऽपि तदलंकारत्यजनं दर्शनं तनोः । विलापकरणं तासां नितान्तं हतचेतसाम् ॥ २५३ ॥ श्वश्रूरष्टौ विधायाशु जनन्या सह दीक्षणम् । तपः कृत्वा समाधानाद् देवलोकसमागमः ॥२५४॥ सुकुमालमुनौ नूनमच्युतं कल्पमासिते । एतत्सर्वं प्रवक्तव्यं नितरां कुशलैर्नरैः ॥ २५५ ॥ श्रीमदुज्जयिनीतोऽयं दक्षिणद्वारगोचरः । स्तोकमार्गमतिक्रम्य स प्रदेशो विराजते ॥ २५६ ॥ अवन्तीसुकुमालोऽयं यत्र कालगतो मुनिः । कापालिकैः प्रदेशोऽसौ रक्षतेऽद्यापि पुण्यभाक् ॥२५७॥ तत्र कापालिकानां च दत्त्वा मूल्यं बहु स्फुटम् । पुण्यबुद्ध्या दहन्त्येते मृतकानि महाजनाः ॥२५८॥ ७ देवैर्गन्धोदके मुक्ते तस्मिन् काले गते मुनौ । सुगन्धीभूतसर्वाशा जाता गन्धवती नदी ॥ २५९ ॥ तद्भार्याभिस्तरां तत्र कृते कलकले सति । बभूव लोकविख्यातो देवः कलकलेश्वरः ॥ २६० ॥ ॥ इति श्रीअवन्तिसुकुमालमुनि कथानकमिदम् ॥ १२६ ॥ * 1 [ वार्दले° ]. 2 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्. 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफ कर्तुमिच्छतः. बृ० को ० ३९ १२७. सुकोशलकथानकम् । विनीताविषये चास्ति कोशला नगरी वरा । प्रजापालो नृपस्तस्यां तत्प्रिया सुप्रभा प्रभा ॥ १ ॥ 20 इभ्यः सिद्धार्थनामासीत् तच्छ्रेष्ठी राजवल्लभः । द्वितीयं तस्य नामेदं दिशां धनपतिः पतिः ॥ २ ॥ द्वात्रिंशद्वनितास्वामी द्वात्रिंशद्धनकोटिकः । तन्मध्ये वल्लभाऽस्यैषा जयादिमतिरङ्गना ॥ ३ ॥ प्रार्थयन्त्या सुतोत्पत्तिं जयमत्या सहान्यदा । संतस्थे प्रीतचेतस्कः सिद्धार्थः सौधमस्तके ॥ ४ ॥ एवं हि तिष्ठतस्तस्य श्रेष्ठनः प्रीतचेतसः । प्रासादशिखरे रम्ये सुधाशुभ्रीकृताम्बरे ॥ ५ ॥ उल्लिखन्ती शिरः प्रीत्या सका स्वर्णशलाकया । केशमध्येऽलिसंकाशे ददर्श पलिताङ्कुरम् ॥ ६ ॥ 25 आदाय मुष्टिमध्ये मुं तत्प्रिया निजगाविति । दूतः समागतो नाथ त्वदन्तं किं न पश्यसि ॥ ७ ॥ निशम्य तद्वचः श्रेष्ठी सिद्धार्थोऽपि सविस्मयः । दिशोऽवलोकनं कृत्वा जगादेमां स्ववल्लभाम् ॥८॥ देवि देवि कुतो दूतः प्राप्तोऽसौ कस्य वल्लभे । विलोकितेऽधुना यो मे सर्वत्रैव न दृश्यते ॥ ९ ॥ करं प्रसार्य सा देवी बभाणेमं सकौतुका । नृपदूतं न वच्मीमं धर्मदूतं वदामि ते ॥ १० ॥ एवं निगद्य तत्रत्या विस्मयव्याप्तमानसा । दर्शयामास तं देवी निजहस्तव्यवस्थितम् ॥ ११ ॥ * दृष्ट्वा पतिमेकं स विद्याधरयुगं तथा । जातिस्मरत्वमासाद्य प्रवज्यां कर्तुमुत्थितः ॥ १२ ॥ अत्रान्तरे समागत्य मन्त्रिभिस्त्रिभिरादरात् । तपः कुर्वन् सुसिद्धार्थो धारितस्तद्धितेच्छया ॥ १३ ॥ 30 5 10 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२७. १४ भवद्वंशः समायातो दूरतोऽनुक्रमेण हि । महापुरुषसंघानामाधारः प्रथितो भुवि ॥ १४ ॥ भवद्भिः सोऽधुना नाथ तपः कर्तुं समिच्छुभिः । निर्मूलतः क्षयं याति वह्निदग्धस्तरुर्यथा ॥१५॥ तेन त्वं तिष्ठ तावन्तं भुञ्जानो भोगमुत्तमम् । यावत् प्रजायते पुत्रः प्रीणिताशेषबान्धवः ॥ १६ ॥' मन्त्रिवाक्यं समाकर्ण्य सिद्धार्थः सिद्धिलालसः । जगाद सचिवान् सारं वैराग्याहितमानसः ॥१७॥ • भवद्वचनतस्तावत् तिष्ठामि गृहसंगतः । यावत् पुत्रं न पश्यामि समुत्पन्नं कुलध्वजम् ॥ १८ ॥ उत्पन्ने तु पुनः पुत्रे कुलदीपे जनोत्सवे । मयाऽवश्यं तपो घोरं विधातव्यं विशुद्धये ॥ १९ ॥ निशम्य वचनं तस्य मन्त्रिभिर्बुधसंसदि । प्रतिपन्नं कलस्वानैस्तोषविस्फारितेक्षणैः ॥ २० ॥ अन्यदा श्रेष्ठो भार्या पुत्रार्थं यक्षपूजनम् । कुर्वाणा मुनिना प्रोक्ता दिव्यज्ञानैकचक्षुषा ॥ २१ ॥ श्राविके लौकिका देवाः पुत्रं सौख्यं धनं तथा । वितरन्ति न लोकेभ्यो जैनो धर्मो ददात्यलम् ॥२२॥ 10 तेन त्वं लौकिकान् देवान् धर्मानपि विहाय कौ । तिष्ठ संतोषसंयुक्ता जिनशासनभाविता ॥ २३॥ अद्यप्रभृति सद्वंशः सप्तमे दिवसे सति । त्वद्गर्भे नन्दनो भावी नन्दिताशेषबान्धवः ॥ २४ ॥ ततो देवी विहायेमं मिथ्यात्वं मुनिवाक्यतः । संसारभ्रमणासंगं तस्थौ सम्यक्त्वभूषिता ॥ २५ ॥ उद्योतयन् दिशां चक्रं सूर्यो वा तनुतेजसा । जयमत्याः सुतो जातः सर्वलक्षणभूषितः ॥ २६ ॥ न परं कोऽपि तद्वार्तां स्वगृहे पत्तनेऽवदत् । आकर्णं श्रेष्ठिनः सा च कदाचिदपि यास्यति ॥२७॥ Is एवं दिनेषु गच्छत्सु कदाचिद्दैवयोगतः । चेटिकैका विनिर्याता बहिरन्तःपुरादरम् ॥ २८ ॥ द्वितीया चेटिका चैतां वदति प्रीतमानसा । पश्य पश्य हले जातो जयमत्या शरीरजः ॥ २९ ॥ न परं स्वगृहे कोऽपि तथा राजकुले पुरे । जयमत्याः महादेव्या पुत्रं जातं जगौ मुदा ॥ ३० ॥ * महादारिद्रदग्धेन बुभुक्षाग्रस्त चेतसा । सोमशर्मद्विजेनेदं तदा तद्वचनं श्रुतम् ॥ ३१ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं हृष्टो दिनेऽन्यस्मिन् स माहनः । बीजपूरकमादाय करे श्रेष्ठिगृहं ययौ ॥ ३२ ॥ 20 विलोक्य श्रेष्ठिनं विप्रो जगाद प्रीतमानसः । जयमत्याः सुतः श्रेष्ठिन् समुत्पन्नस्तव प्रभो ॥ ३३ ॥ सोमशर्मवचः श्रुत्वा सिद्धार्थः पुलकाचितः । अङ्गस्पृष्टं प्रदायास्मै ददौ ग्रामशतं पुनः ॥ ३४ ॥ कृत्वा तत्पूजनं श्रेष्ठी गत्वा जयमतीगृहम् । दृष्ट्वा पुत्रमुखं चात्र तुतोष सुतसंगतः ॥ ३५ जिनस्य पूजनं कृत्वा गन्धपुष्पाक्षतादिभिः । धनदेवाभिधं नाम चकार तनयस्य सः ॥ श्रेष्ठो दारके जाते विनीताविषयेऽखिले । बभूवात्यन्तसंतोषस्तदा जनपदस्य च ॥ ३७ ॥ 25 अत्यन्ततोषमासाद्य सिद्धार्थतनयस्य सः । सुकोशलाभिधं नाम ददौ नागरिको जनः ॥ ३८ ॥ अत्रान्तरे महाभूत्या सिद्धार्थो राजवल्लभः । श्रेष्ठिपट्टं बबन्धाशु सुकोशलसुतस्य सः ॥ ३९ ॥ सामन्तैर्बहुभिः सार्धं तथा श्रेष्ठसुतैरपि । विनयंधरसामीप्ये श्रेष्ठी जैनं तपोऽग्रहीत् ॥ ४० ॥ हित्वा जयमतिं भामां श्रेष्ठिनोऽन्याः सुचेतसः । विनयंधरमानम्य सुव्रतान्ते प्रवत्रजुः ततो निजगृहे कोपाज्जयमत्या विचण्डया | मुनीनां साधुवृत्तीनां प्रवेशो हि निवारितः ॥ ४२ ॥ 30 ततो जयमतिर्धृत्वा सिद्धार्थस्योपरि ऋधम् । तस्थौ कन्दर्प संतप्ता मौनशैलमधिष्ठिता ॥ ४३ ॥ यौवनेन समारूढां मां तनूजं शिशुं तथा । हित्वाऽयं निर्दयखान्तः श्रमणानां व्रतं श्रितः ॥ ४४ ॥ सुकोशल कुमारस्य कुर्वती सकलाः क्रियाः । तद्विभूतीः प्रपश्यन्ती तस्थौ जयमतिः सुखम् ॥ ४५ ॥ सुकोशलकुमारस्य सुनन्दा स्तनधात्रिका | नन्दा रमणदा धात्री सुमतिर्भोजनप्रदा ॥ ४६ ॥ सुप्रभा स्नानदा धात्री मेखला मण्डनप्रदा । एताभिः पञ्चभिस्तत्र वृद्धिं नीतः सुकोशलः ॥ ४७ ॥ ३६ ॥ ४१ ॥ 1 पफज त्रिकलमिदम्. 2 पफज त्रिकलमिदम्. 3 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 4 पफज त्रिकलमिदम्. 5 ज जानपदस्य 6 फ स्थितः • Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२७. ८१ ] कोशल कथानकम् सुकोशल कुमारेण बिभ्रता यौवनं धनम् । परिणीता विधानेन द्वात्रिंशद्वरकन्यकाः ॥ ४८ ॥ सुकोशलकुमारस्य भोगसंसक्तचेतसः । नैमित्तिकश्चकारेममादेशं कृतनिश्चयः ॥ ४९ ॥ यतिरूपं यदा बालो द्रक्ष्यति प्रीतमानसः । तदा निर्ग्रन्थतां प्राप्य तपः साधु करिष्यति ॥ ५० ॥ ततो रोषं समासाद्य जयमत्या स्वमन्दिरे । भिक्षार्थमपि साधूनां प्रवेशो विनिवारितः ॥ ५१ ॥ कारापिता कुमारार्थं स्वगृहाजिरगोचरा । जयमत्या च वाह्याली हरिहस्तिक्रमोचिता ॥ ५२ ॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताष्टक भूमिकाः । प्रासादा विधुसंकाशाः कारिता बहवोऽनया ॥ ५३ ॥ तन्मध्ये पृथिवीसारे प्रासादे गगनस्पृशि । तस्थौ सुकोशलः प्रीत्या मातृधात्र्यादिसंयुतः ॥ ५४ ॥ अथ मध्याह्नवेलायां भिक्षार्थं मुनिपुङ्गवम् । अस्थिचर्मावशेषं च युगान्तनिहितेक्षणम् ॥ ५५ ॥ मासोपवासिनं वीरं प्रविशन्तं स्वमन्दिरे । सुकोशलो ददशैनं प्रासादशिखरस्थितः ॥ ५६ ॥ दृष्ट्वा स्वगृहं प्राप्तं विस्मयव्याप्तमानसः । सुकोशलो विनीतात्मा पप्रच्छेदं स्वमातरम् ॥ ५७ ॥ अम्ब किंनामधेयोऽयं पुरुषः प्राप्य महम् । भूयो विनिर्गतः कस्मात् कथयैतन्ममाधुना ॥ ५८ ॥ सा कौशलं वचः श्रुत्वा शोककोपसमन्विता । जगौ जयमतिः पुत्रं तदानीं सुखमानसम् ॥ ५९ ॥ पुत्र कोऽपि नरोऽधन्योऽनाथः स्वजनवर्जितः । वस्त्रभक्तपरित्यक्तो भिक्षामप्राप्नुवन् कचित् ॥६०॥ समस्तनगरं भ्रान्त्वाऽदत्तदानो गहिल्लकः । प्रविष्टो मगृहं तात श्रमणो गृहभञ्जकः ॥ ६१ ॥ श्रुत्वा जयमतीवाक्यं सुव्रता नाम धात्रिका | जगाद स्वामिनीं तुष्टां मुनिविद्वेषकारिणीम् ॥ ६२ ॥ ” मुनिहीलनसंयुक्तं वचनं तव भाषितुम् । नूनं जयमति क्रूरं न मनागपि युज्यते ॥ ६३ ॥ त्वदीयकुलसंभूता बहवः श्रेष्ठिनन्दनाः । तथा राजसुता हित्वा विभूतिं तृणवत् क्षितौ ॥ ६४ ॥ विहाय सकलं संगं भोगनिःस्पृहमानसाः । महावैराग्यसंपन्ना प्रविष्टा हि तपोवनम् ॥ ६५ ॥ प्राणसाधारणार्थं च भिक्षां गृह्णन्ति साधवः । ग्रामादौ शुद्धचेतस्का जिनधर्मपरायणाः ॥ ६६ ॥ तेनेह हीनं वाक्यं मुनीनां शुद्धचेतसाम् । योयुज्यते न ते वक्तुं संसारार्णवकारणम् ॥ ६७ ॥ धात्रिकाया वचः श्रुत्वा सुव्रताया जगौ सका । तूष्णीभावं समासाद्य तिष्ठ त्वं धात्रिके द्रुतम् ॥६८॥ स्थितायां मौनभावेन तस्यां जयमतीरणात् । जगाद सुप्रभाभिख्या धात्री वचनमादरात् ॥ ६९ ॥ लक्षणैर्व्यञ्जनैर्मुक्तं शरीरं योगिनामिदम् । जाजायते न सौख्यस्य कारणं जगति ध्रुवम् ॥ ७० ॥ बहवो येन दृश्यन्ते रामलक्ष्मणपाण्डवाः । लक्षणैर्व्यञ्जनैर्युक्ता धीराः शूराः सुमेधसः ॥ ७१ ॥ लक्षणैर्व्यञ्जनैर्युक्तास्तथाऽन्ये श्रेष्ठिसूनवः । पुण्यहीना हि ते भिक्षां न लभन्ते कदाचन ॥ ७२ ॥ 23 काष्ठभारी यथैकोऽत्र क्रीत्वा काष्ठानि दुःखितः । आच्छाद्य दुर्बलं वासो भोजनार्थं भ्रमत्यरम् ॥७३॥ लिङ्गिवेषं समादाय तनोर्वा धूलितोऽपि वा । वेषेण येन केनापि बंभ्रमीति पुरान्तरे ॥ ७४ ॥ अत्रैव नगरे श्रेष्ठी विद्यते भौमनामकः । वर्जितो बन्धुभिर्दीनो जननीजनकादिभिः ॥ ७५ ॥ पुण्यहीनस्तरां सोऽयं याचयित्वा जनं जनम् । भुञ्जानस्तत्पुरे भिक्षां भ्राम्यति स्म निरन्तरम् ॥७६॥ अन्यः शाकनिकस्तत्र' चिलाताख्योऽवसत् पुरे । दत्त्वा शाकं धनं सोऽयं गृह्णाति जनहस्ततः ॥७७॥ " धनं दत्त्वा जनायासौ गृह्णाति कनकं वरम् । आरक्षिकेण तत्सर्वं गृहीतं बलतोऽमुतः ॥ ७८ ॥ यदि वेषं समादाय भोजनाभावतः सकः । भिक्षार्थं नगरं सर्वं भ्राम्यति त्रपयोज्झितः ॥ ७९ कुमार तेन जानीहि लोके नानाविडम्बनाः । एवमाद्याः प्रदर्श्यन्ते नराणां पुण्यतो विना ॥ ८० ॥ कारणेनामुना वत्स सत्यं जानीहि मद्वचः । अतः स्थिरमतिर्भूत्वा कुरु राज्यं सुखप्रदम् ॥ ८१ ॥ 20 1 पफ युगलमिदम् ज युगलम्. 2 पफज युगलम् 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 [ प्राणसंधारणार्थं ]. 5 फ यामादौ 6 पफज षट्कुलकमिदम्. 7 [ शाकटिकस्तत्र ]. 8 पफज कुलकमिदम्. ३०७ 5 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१२७. ८२निशम्य तद्वचस्तत्र चित्ते दध्यौ सुकोशलः । मद्वञ्चनमिदं लोकैः कृतं मज्जननीमतात् ॥ ८२ ॥ यावदेवं कुमारोऽयं ध्यायति क्षणमात्रकम् । तावदागत्य वेगेन सूपकारेण भाषितः ॥ ८३ ॥ देव भोजनवेला च सांप्रतं वर्तते तव । क्रियतां भोजनं तावच्छरीरस्थितिकारणम् ॥ ८४ ॥ तथा जयमतिर्माता धात्रिकाः सुव्रतादिकाः । तद्भार्या रूपसंपन्ना नामानीमानि बिभ्रति ॥ ८५ ॥ । स्वयंप्रभा मता पूर्व श्रीदत्ता श्रीसमप्रभा । तथा मित्रमती चावीं सुप्रभा सेनयाऽन्विता ॥ ८६ ॥ अनङ्गसेनया साधं सोमश्रीः श्रीमती परा । तथा बन्धुमती सेना भानुमित्रा रविप्रभा ॥ ८७॥ प्रियङ्गुसुन्दरी चान्या प्रिया प्रियमती परा । श्यामा श्यामलताभिख्या वरा विद्युल्लता वला ॥८॥ विमलादिमतिदीप्ता श्रीकान्ता श्रीसमप्रभा । शूरसेना परा दिव्या तथा धनमती प्रिया ॥ ८९॥ विजया वैजयन्ती च स्वर्णमालाऽपराजिता । दमयन्ती केतुमाला धनश्रीधन्यया सह ॥ ९० ॥ 10 बन्धुश्रीरिति सर्वाभी रमणीभिः प्रचोदितः । विधाय मज्जनं नाथ भोजनं कुरु सांप्रतम् ॥ ९१ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं तत्र कौतुकव्याप्तमानसः । जगादेदं पुनः शीघ्रं तदध्यक्षं सुकोशलः ॥ ९२ ॥ यावदेतन्न विज्ञातं समस्तं वस्तु सत्वरम् । तावन्मयोदितं भद्रा विदधामि न भोजनम् ॥ ९३ ॥ तेनेदं यन्मया दृष्टं रूपमत्र मनस्विनि । निवेदय मम क्षिप्रं सुव्रते तत्प्रयत्नतः ॥ ९४ ॥ कुमारवचनं श्रुत्वा धात्रिका प्रथमा तदा । जगाद सुव्रताभिख्या तद्वृत्तान्तं तदग्रतः ॥ ९५॥ 15 त्वत्पिता पुत्र सिद्धार्थो यो बालत्वे तव स्फुटम् । श्रेष्ठिपढें प्रबन्ध्याशु निःस्पृहो मुनितामितः॥९६॥ त्वन्मन्दिरेज भिक्षार्थं प्रविष्टः क्रमतोऽमुतः । भूयो विनिर्गतस्तात तपःशोषितविग्रहः ॥ ९ ॥ तव जनन्यादेशेन द्वारपालैर्निराकृतः । अन्तरायो मुनेरस्य जातः संशुद्धचेतसः॥ ९८॥ सुव्रतावाक्यमाकर्ण्य बभाणैतां सुकोशलः । मयाऽपि मुनिरूपेण भोक्तव्यं नान्यथा पुनः ॥ ९९ ॥ एवं निगद्य तां वेगान्निर्गत्य निजमन्दिरात् । ददर्श प्रासुकोद्याने तं यतीशं सुकोशलः ॥ १०० ॥ 20 शिलातलोपविष्टं तं विलोक्य सहसा मुनिम् । जातिस्मरो बभूवाशु कुमारस्तुष्टमानसः ॥ १०१॥ तत्पुरोऽनेन विज्ञाता भवाः पञ्च खगोचराः । यथाक्रममिमे सर्वे संसारत्रस्तचेतसा ॥ १०२ ॥ सितदन्तो नगोत्तुङ्गो जवी मलयसुन्दरः । तदान्वभूदयं हस्ती सिद्धार्थों मलयोद्भवः ॥ १०३ ॥ पद्मावती च सा तस्य बभूव मलयाऽपि च । आभ्यां सह मुदा तत्र रममाणस्य सर्वदा ॥१०४॥ अत्रान्तरे विलोक्यैषा मलया तं रुषा नगे । पद्मावत्या सहाजस्रं दीव्यन्तं निजलीलया ॥१०५॥ 25 ईर्ष्यामहाग्रहग्रस्ता मलयाचलमस्तकात् । पातं विधाय सा क्षिप्रं ममार विधियोगतः ॥ १०६ ॥ अङ्गकाख्यमहादेशे महाचम्पापुरीभवः । सप्तस्थानगुणाधारो राजाऽऽसीद् गन्धमादनः ॥ १०७॥ दर्शनाणुव्रतं शीलं गुरुसेवागुणार्जवम् । जिनागमप्रवीणत्वं सप्तस्थानान्यमून्यलम् ॥ १०८॥ कैलासकूटसंकाशं जिनायतनमुत्तमम् । सहस्रोपपदं कूटं तेन कारापितं भुवि ॥ १०९ ॥ सुता सागरदत्तस्य सुरूपा नाम विश्रुता । वितीर्णा नागदत्ताय पित्रा चम्पापुरीभवः ॥ ११ ॥ 30 तस्या गर्भे समुत्पन्ना केशिनी नाम कन्यका । पद्मावती स्वयं पश्चादियं मृत्युमुपागता ॥ १११॥ जातोऽनुजः सुरूपायाः पुनः कर्मानुभावतः । वराङ्गो धनसंपन्नः श्रेष्ठी भुवनविश्रुतः ॥११२॥ अन्यदा मधुमासे च दृष्ट्वा जिनवरालये । सुकेशिनीमिमां राजा पप्रच्छान्यं कुतूहलात् ॥११३॥ कस्येयं रूपसंपन्ना विषाणदललोचना । कुमारी ब्रूहि मे शीघ्रं मच्चित्तानन्ददायिनी ॥११४ ॥ ___ 1 [ विद्युल्लताऽबला ]. 2 पफज षट्रकुलकम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफज त्रिकलमिदम् 5 पफज युगलमू. 6 पफज युगलम्. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२७. १४७] सुकोशलकथानकम् ३०९ श्रुत्वा तद्वचनं सोऽपि बभाणेमं सकौतुकम् । सुतेयं नागदत्तस्य श्रेष्ठिनस्तव भूपते ॥ ११५ ॥ निशम्य भारतीमस्य विस्मयव्याप्तचेतसः । सहस्रकूटतो राजा निर्जगाम बहिद्रुतम् ॥ ११६॥ संपूर्णयौवनां दृष्ट्वा कन्यामेतां धनाधिपः । खरूपां प्राह कस्यायं ददामि वद सांप्रतम् ॥ ११७॥ निशम्य तद्वचः साऽपि बभाणेमं पुरःस्थितम् । मद्भातृव्यसुतायेयं जितरङ्गाय दीयताम् ॥ ११८॥ सुरूपावचनं श्रुत्वा भूभुजा स्वपुरोहितः । नागदत्तान्तिकं तूर्णं वरणार्थं विसर्जितः ॥ ११९ ॥ तेनापि तत्समीपस्थं गत्वाऽयं विनिवारितः । सोऽपि तद्वाक्यतस्तस्थौ भूपालवचनानुगः॥१२०॥ ततः स्वनरवाक्येन तोषकण्टकिताङ्गकः । कन्यावरणतो राजा श्रेष्ठिगेहं ययौ क्षणात् ॥ १२१॥ कृत्वा जिनमहं श्रेष्ठी गन्धपुष्पाक्षतादिभिः । गन्धमादनभूपाय प्रददौ तां स्वकन्यकाम् ॥१२२॥ ततश्चत्वारि वर्षाणि तया सार्धं महीपतिः । कामभोगान् प्रभुञ्जानस्तस्थौ मुदितमानसः ॥१२३॥ कलिङ्गाधिपती राजा हस्तिसंक्षोभणे सति । वनहस्तिप्रवेशार्थं वारिबन्धं ययौ द्रुतम् ॥ १२४ ॥ वारिबन्धान्तरं दृष्ट्वा विशन्तं वनहस्तिनम् । सुकेशिन्याः स पप्रच्छ धात्रिकां धरणीपतिः॥१२५॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं जगौ धात्री नराधिपम् । राजन् हस्तिसमूहं हि सुकेशिन्याः प्रदर्शय ॥१२६॥ भो भो चित्रकर स्पष्टं विधाय मणिकुट्टिमे । हस्तियूथं महादेव्यै त्वं प्रदर्शय सांप्रतम् ॥ १२७ ॥ एवं निगद्य तं राजा सन्मान्य धनसंपदा । द्रुतं प्रपेषयामास' महादेवीसमीपकम् ॥ १२८॥ स्पष्टं चित्रकरः सद्यस्तूलिकाभिर्विधाय सः । हस्तियूथं सजीवं वा दर्शयामास तत्पुरः ॥ १२९॥ निजपूर्वभवोपेतं हस्तियूथं मनोहरम् । सुकेशिनी प्रपश्यन्ती तस्थौ मुदितमानसा ॥ १३० ॥ अत्रान्तरे चिरं रन्त्वा नृपतिर्वनहस्तिना। कृत्वाऽमुं स्ववशं तस्मादाजगाम प्रियान्तिकम् ॥१३१॥ ततः सुकेशिनीपार्थात् समायातं नरं नृपः । पप्रच्छ तोषसंजातरोमाञ्चार्चितविग्रहः ॥ १३२ ॥ भो भो नर मया दान्ते नितान्तं वनहस्तिनि । सुकेशिनी वद क्षिप्रं संतुष्टा किं ममोपरि ॥१३३॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा स नरः प्राह भूपतिम् । न सा संतोषमायाता प्रत्युतैवं जगाद च ॥ १३४ ॥ 20 मलयं प्राप्य किं कान्तो दान्त्वा मलयसुन्दरम् । हस्तिनं भूधराकारं गजलक्षणलक्षितम् ॥१३५॥ येनेमं कुम्भिनं दान्त्वा मेण्ढकोपमविग्रहम् । मदन्तिकं नरं कान्तः प्राहिणोति मदेद्धधीः ॥१३६॥ आकर्ण्य तद्वचो राजा मानशैलमधिष्ठितः । स्वसैन्यसमुदायेन जगाम मलयाचलम् ॥१३७॥ राजाऽतिरवमाहूय महाभट्युवाच च । क्षेपिष्ठमानय स्पष्टं गजं मलयसुन्दरम् ॥ १३८ ॥ नृपवाक्यं समाकर्ण्य स भटो बहुभिर्भटैः । जगामान्तिकमेतस्य गजस्य मदमुद्वहन् ॥ १३९ ॥ 23 दूराद् विलोक्य तं नागं भयवेपितविग्रहाः । वशीकर्तुमशक्तास्ते नृपान्तं पुनराययुः ॥ १४० ॥ विलोक्य भूपतिः सर्वान्नरान् स्वान्तिकमागतान्। उवाचेत्थं पुनः कोपात् म्लानवक्रसरोरुहान्॥१४१॥ रेरे खलं दुराचारं हत्वा तं करिणं नराः । क्षिप्रमानीयत स्पष्टं तन्मौक्तिकरदानपि ॥ १४२ ॥ नृपाज्ञां ते परिप्राप्य हत्वा ते करिणं रणे । तन्मौक्तिकानि दन्तौ च मुमुचुनृपतेः पुरः ॥ १४३॥ आदाय भूपतिस्तस्मान्मौक्तिकानि रदावपि । चम्पापुरी जगामाशु तोषपूरितमानसः ॥१४४ ॥ 30 आदाय निजहस्तेन नरेन्द्रः प्रीतमानसः । सुकेशिन्यै ददौ तूर्णं तन्मौक्तिकानि रदावपि ॥१४५॥ सुकेशिनी समालिङ्ग्य तन्मुक्ताफलदन्तकान् । खबाहुभ्यां ममाराशु स्नेहतः किं न जायते ॥१४६॥ तच्चेष्टितमिदं ज्ञात्वा कोविदाश्चर्यकारणम् । तस्थौ विस्मितचेतस्को राजाऽयं गन्धमादनः॥१४७॥ 1 [संप्रेषयामास]. 2 पफज युगलमिदम्. 3 ज रोमाञ्चाचित. 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफ मेढको. 6 पफज त्रिकलमिदम्. 7 पफ दन्तिकान्. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१२७. १४८विदित्वाऽऽश्चर्यमेतस्या नागदत्तास्वरूपया । प्रियङ्गुलतया साकं वराङ्गोऽपि महामनाः ॥१४८॥ जिनधर्ममुपाश्रुत्य वैराग्याहितबुद्धयः । यशोधरसकाशे च चत्वारोऽपि प्रवव्रजुः ॥ १४९ ॥ नत्वा केवलिनः पादौ भक्त्या विस्मयमागतः । सुकेशिनीमृतं चामुं पप्रच्छ धरणीपतिः ॥१५०॥ भूपालवचनं श्रुत्वा यशोधरमुनीश्वरः । सुकेशिनीभवानस्य जगादेति महीभृतः ॥१५१॥ । दक्षिणापथदेशोत्थमथुरानगरीभवः । अस्ति गन्धर्वभूपालो गन्धर्वरमणीपतिः॥ १५२ ॥ अस्यैव भूपतेः श्रेष्ठी बभूवायं सुदर्शनः । रूपयौवनसंपन्ना वीरश्रीरस्य गेहिनी ॥ १५३॥ प्रियङ्गुदर्शनाभिख्यो नन्दनो बन्धुनन्दनः । अन्योन्यप्रेमसंयुक्तदम्पत्योरनयोरभूत् ॥ १५४॥ तस्मिन्नेव पुरे श्रीमान्नन्दिश्रेष्ठी प्रियंवदः । बभूवास्य प्रिया दिव्या विजया धववल्लभा ॥१५५ ॥ रूपराजितसर्वाङ्गी सर्वलोकमनोहरी । कलकोकिलनिस्वाना कीर्तिनामा सुताऽनयोः ॥ १५६ ॥ " तूर्यमङ्गलनिस्तानैर्वितीर्णा जनकेन च । प्रियङ्गुदर्शनायैषा परिणीता विधानतः ॥ १५७ ॥ अन्यदा वारिबन्धेन बद्धो वनगजो महान् । गन्धर्वभूभुजा नीतस्तत्पुरासन्नवर्तिना ॥ १५८॥ प्रशंसितं जनैः सर्वैरटवीसुखसंगतम् । महीधरसमुत्तुङ्गं रूपिनं वनकुञ्जरम् ॥ १५९ ॥ वारिबद्धं विलोक्येमं कीर्तिभार्यासमन्वितः । प्रियङ्गुदर्शनस्तोषान्निदानमकरोत् तदा ॥ १६० ॥ गुलाफलसमाक्षेण भीमसर्पण कोपतः । प्रियङ्गुदर्शनो दष्टः सकीर्तिम॒तिमाप सः ॥ १६१॥ 15 मलयाद्रो समुद्भूते पश्चिमार्णवरोधसि । महाचन्दनसद्गन्धवासिताकाशभूतले ॥ १६२ ॥ नीलाञ्जनसमच्छायो बिससन्निभदन्तकः । प्रियङ्गुदर्शनो जातो हस्ती मलयसुन्दरः ॥ १६३॥ तद्भार्या कीर्तिसंज्ञा च कुन्दपुष्पसमप्रभा । बभूव वल्लभा तस्य मलया नाम हस्तिनी ॥ १६४॥ परस्परसुखासंगसक्तमानसयोस्तयोः । पूर्वस्नेहानुबन्धन बभूव प्रीतिरुत्तमा ॥१६५॥ रक्तोत्पलसमानामा मन्दमन्दगतिक्रिया । पद्मावती बभूवास्य द्वितीया करिणी प्रिया ॥ १६६॥ 20 मलयायै वितीर्यादौ गजोऽयं पल्लवादिकम् । पद्मावत्या ददौ पश्चादनुक्रमविधानतः ॥ १६७ ॥ श्वेतरक्तसरोजाभ्यां यथा मध्ये व्यवस्थितम् । नीलोत्पलं तरां भाति रमणीलोचनच्छवि ॥१६८॥ श्वेतरक्ताभयोमध्ये करिण्योरनयोः स्थितः । तथाऽयं कुञ्जरो भाति नीलनीरदसंनिभः ॥ १६९ ॥ आभ्यां समं गिरौ तत्र भुञ्जानो हस्तिजं सुखम् । तस्थौ मुदितचेतस्कः करी मलयसुन्दरः ॥१७०॥ अन्यदा तत्समं हस्ती प्रभंकरसरोवरे । स्नात्वा पीत्वा जलं शीतं जग्राह कमलद्वयम् ॥ १७१॥ 28 पद्मद्वयं समादाय करेण स करी पुनः । पश्यामि मलयानेहं कीदृशं मयि तिष्ठते ॥ १७२ ।। मलया वामपार्थे च धूर्तेन स्थापिताऽमुना । पद्मावती तथा स्वस्य दक्षिणा करिणी परम् ॥१७३॥ मदविह्वलचित्तेन परमार्थमजानता । वितीर्ण प्रथमं पद्मं पद्मावत्या हि हस्तिना ॥ १७४ ॥ मलयायाः पुनः पश्चाद् वितीर्ण नलिनं मुदा । निजहस्तेन तेनैवं कपटेन विलासिना ॥ १७५ ॥ पश्चाद् वितीर्णमेतेन कमलं मम मायिना । धूर्तेन वञ्चिताऽस्मीति सदुःखा मलयाऽभवत् ॥१७६॥ " ईय॑या सा च संग्रस्ता संपत्य गिरिमस्तकात् । कृत्वा विलापमत्यर्थ ममार मलया द्रुतम् ॥१७७॥ ततो मृता सती पश्चान्मलया मलयाचले । काकतालीययोगेन संजातेह सुकेशिनी ॥ १७८ ॥ हस्तिनीभिः समानीतं कलिङ्गपरमं गजम् । वारिबद्धं नगोत्तुङ्गं विलोक्यैतं महागजम् ॥ १७९ ॥ जातिस्मरत्वमासाद्य विह्वलीभूतमानसा । मानसे दुःखसंपूर्णे दध्याविति सुकेशिनी ॥ १८० ॥ मम कालगताया हि करी मदनसुन्दरः । शोकमल्पं चकारासौ मदविह्वलमानसः ॥ १८१॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफ प्रियङ्गदशन. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२७. २१३] सुकोशलकथानकम् ३११ विस्मृत्य मां पुनर्धूर्तः पद्मावत्या समं सुखम् । भुञ्जानः प्रीतचेतस्को नितरां व्यवतिष्ठते ॥१८२॥ चिन्तयित्वा चिरं चेदं भूयश्चिन्तयतीदृशम् । पद्मावत्या यथा याति वियोगं विदधे तथा ॥१८३॥ अत्रान्तरे नरो योऽयं तदन्ते प्रेषितस्त्वया । दान्ते हस्तिनि मे पृच्छ किं संतुष्टा सुकेशिनी ॥१८४॥ समागत्य ततस्तेन पुरुषेण तवोदितम् । सुकेशिनी न संतुष्टा महाराज मनागपि ॥ १८५ ॥ तयोदितं यथा भद्र तिष्ठन् मलयपर्वते । पद्मावत्या समं हस्ती दान्तो मलयसुन्दरः ॥ १८६ ॥ कारापयसि मां पृच्छां वनरेण यतो धव । तुष्टा सुकेशिनी भद्र न संतुष्टा जगौ सकः ॥१८७॥ त्वं ध्यायन्नितरां राजन् स्नेहेनातिगरीयसा । तदन्तं प्राप्य वेगेन पृच्छदेतां सुकेशिनीम् ॥ १८८॥ देवी कोऽसौ क वास्तव्यो गजो मलयसुन्दरः। तिष्ठत्यत्र त्वया भद्रेक दृष्टो ब्रूहि मेऽधुना ॥१८९॥ निशम्य तद्वचः स्पष्टं गृहयन्ती स्वमादरात् । बभाण दयितं प्रीता पुरस्तं सा सुकेशिनी ॥१९॥ खामिन्नहमतिक्रान्ते भवेऽमुष्मिन्नगोत्तमे । विजयार्धेऽभवं नूनं खेचरी रूपशालिनी ॥ १९१॥॥ दक्षिणापथमासाद्य प्रियेण सह सत्वरम् । मलयाद्रिं समुत्तुङ्गं प्राप्तया रमणीयकम् ॥ १९२ ॥ पद्मावत्या समं तत्र तरां क्रीडन् मदालसः । वनहस्ती मया कान्तो दृष्टो मलयसुन्दरः॥१९३॥ तद्वाक्यतः स्वसैन्येन कृतकोलाहलेन सः । मलयाद्रौ ददशैंमं पद्मावत्या समं नृपः ॥ १९४ ॥ दृष्ट्वाऽमुं भीषणाकारं द्विरदं स नराधिपः । आदिदेश तरां क्रुद्धस्तद्वधार्थ नरानरम् ॥ १९५॥ ततस्तद्वाक्यतः शीघ्रमायुधैर्मागणादिभिः । तद्भटेनिहतो नागो गतायुवमागतः ॥ १९६ ॥ विलोक्य तं गजं भूमौ पतितं गतजीवितम् । मृता पद्मावती तूणे करमाक्रम्य पादतः ॥ १९७॥ तस्मिन् गजेश्वरे तत्र मृत्युगोचरतामिते । विप्रलापं परं चक्रुः पक्षिणोऽपि कृतस्वनाः॥१९८॥ तत्कुम्भतः समादाय मौक्तिकप्रस्थकद्वयम् । करिदन्तद्वयं शीघ्रं चम्पामाप नरेश्वरः ॥ १९९ ॥ मौक्तिकानि करे दन्तौ तद्गजस्य कुतूहलात् । सुकेशिन्याः स्वभार्याया दर्शयामास भूपतिः ॥२००॥ विलोक्य मौक्तिकादीनि तद्गजस्य सुकेशिनी । महाशोकभराकान्ता दध्यौ मनसि दुःखिनी ॥२०१॥ ॥ तिष्ठन् सुखेन मद्भर्ता कुञ्जरो निजलीलया । भूपेन पञ्चतां नीतः कथं मवचनाद्धतः ॥ २०२ ॥ चिन्तयित्वा चिरं दीना तदानीं सा सुकेशिनी । तद्दन्तमौक्तिकादीनि परिरभ्य मृतिं ययौ ॥२०॥ दृष्ट्वा मृतां तरां तूर्ण राजाऽयं गन्धमादनः । पप्रच्छ योगिनं देवी क सोत्पन्ना वद प्रभो ॥२०४॥ गन्धमादनभूपस्य निशम्य वचनं वरम् । जगाद तद्भवं साधुः केवलज्ञानलोचनः ॥ २०५॥ सुराष्ट्रविषये चानुनगरं गिरिपूर्वकम् । समृत्योऽतिरथो राजा गोमिनी तत्प्रियाऽभवत् ॥ २०६ ॥ रूपराजितसर्वाङ्गी सर्वलोकमनोहरी । सुकेशिनीचरी तस्याः सुता जाता मनोहरी ॥ २०७॥ अस्यैव भूपतेरासीद् विजयाख्यः पुरोहितः । कुबेरश्री प्रिया चार्वी कन्दोट्टदललोचना ॥ २०८॥ कालं कृत्वा तयोरासीत् करी मलयसुन्दरः । पुत्रः कुबेरकान्ताख्यः सर्वावयवसुन्दरः ॥ २०९ ॥ पूर्वोक्तनगरे चासीद् राजश्रेष्ठी महाधनः । धनदेवाभिधो भोगी धनश्रीरस्य सुन्दरी ॥ २१०॥ कालं कृत्वा वराङ्गोऽपि रूपराजितविग्रहः । बभूव तत्सुतः प्रेयान् श्रीधरः श्रीधराभिधः ॥२११॥ ३॥ श्रीधरो जनतानन्दः सद्भावाहितमानसः । अयं कुबेरकान्तस्य सुहृदत्यन्तवल्लभः ॥ २१२ ॥ कुबेरश्रीः प्रिया तस्य रत्नकम्बलकारणात् । प्रासादशिखरात् पातं विधाय मरणं श्रिता ॥ २१३॥ HTHHTH 1 पफज त्रिकलमिदम्. 2 पफ रूपशालिना. 3ज चतुःकुलकमिदम्. 4 पफ omit the second line of No. 193 and the first line of No. 194. 5 पफज युगलमिदमू. 6 पफ गतायुभव. 7 पफज त्रिकलमिदम्. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१२७. २१४दृष्ट्वा शोकसमाकान्तं श्रीधरं सुहृदं तदा । जगौ कुवेरकान्तोऽमुं सालसः किं वितिष्ठसे ॥ २१४॥ श्रुत्वा कुबेरकान्तस्य वचनं श्रीधरोऽप्यमुम् । बभाण विस्मितस्वान्तो म्लानवक्रसरोरुहः ॥२१५॥ तत्प्रिया कम्बलेनोच्चैः कृत्वा पाङ्गुरणं तनोः । जगाम स्वगृहं हृष्टा मत्तमातङ्गगामिनी ॥ २१६ ॥ दृष्ट्वा तद्वल्लभां यान्तीं मत्प्रियेावशानुगा । अद्य प्रासादतः पातं विधाय मृतिमागता ॥ २१७॥ 5 श्रीधरस्य वचः श्रुत्वा प्रासादपतितामिमाम् । दृष्ट्वा कुबेरकान्तोऽपि जगादेमं सविस्मयः ॥२१८॥ वयस्य मत्प्रिया शीघ्रं मलयाचलमस्तकात् । पतित्वा मृतिमापन्ना त्वप्रियेावशात् तथा ॥२१९॥ एवं कुबेरकान्तोऽपि यावद्वदति तत्पुरः । तावजातिस्मरो जातो विस्मयव्याप्तमानसः ॥ २२० ॥ ततः कुबेरकान्तः स्खं चरित्रं पूर्वजन्मनि । निजपट्टे लिलेखायं निजहस्तेन विस्मयन् ॥ २२१॥ ततो गहिलकं वेषं समादाय त्वरान्वितः । ऊर्जयन्तं नगं जातो" मलयां मार्गयन्नसौ ॥ २२२ ॥ विद्याधरसकाशेऽसौ ऊर्जयन्तधराधरे । विकुर्वणादिविद्यानामुपदेशं हि लब्धवान् ॥ २२३॥ मलया नाम चादाय नृत्यन्तं गेयतत्परम् । दृष्ट्वा मनोहरी कान्तं जाता जातिस्मरी तदा ॥२२४॥ ततो मनोहरी दृष्ट्वा वामवाराभिधां सखीम् । तूर्णं प्रवेशयामास तत्पटार्थ धवान्तिकम् ॥ २२५॥ दृष्ट्वा कुबेरकान्तोऽपि तत्सखीं तद्धितैषिणीम् । अस्याः समर्पयामास तं पटं स्वभवोद्धृतम् ॥२२६॥ पूर्वजन्मभवोपेतं तं पटं वीक्ष्य चाग्रतः । सखीसमर्पितं सद्यो मुमूर्छाशु मनोहरी ॥ २२७॥ 15 अयं कुबेरकान्तोऽपि वेषमामत्तकं तदा । हित्वा निजगृहं तोषाद् विवेश सहजाकृतिः ॥ २२८॥ दृष्ट्वा गृहागतं तूर्णं विजयोऽपि जयप्रियः । सत्यं कुबेरकान्तं तं पप्रच्छेदं कुतूहली ॥ २२९ ॥ उन्मत्तकः कथं जातः पुत्र सज्जनवल्लभः । भूयो विश्रब्धतां प्राप्तः कथयैतन्ममाधुना ॥ २३०॥ . निशम्य तद्वचः क्षिप्रं कामाकुलितमानसः। ऊचे कुबेरकान्तोऽमुं मुञ्चन्निःश्वासमुष्णकम् ॥२३१॥ मनोहरीकृतो जातो नूनं मुग्धतकस्तराम् । राजगेहे विलोक्येमां गतो विश्रब्धतां पुनः॥२३२॥ 20 एवं निगद्य तं प्रीतो विद्यासामर्थ्यमस्य च । मुदा कुबेरकान्तोऽपि दर्शयामास सत्वरम् ॥२३॥ विद्यासामर्थ्यमेतस्य विलोक्य सहसा तदा । स्वयंवरे मुमोचाशु पुष्पमालां मनोहरी ॥ २३४ ॥ कुबेरोपपदं कान्तं दृष्ट्वा कन्यावृतं तदा । चुक्षोभ राजसंघातः समुद्रो वा विधूदये ॥ २३५ ॥ जित्वा तान् भूपतीन् सर्वान् संग्रामे जनसंक्षये । उपयेमे विधानेन कुमारोऽयं मनोहरी ॥२३६॥ सोपारकपुराभ्याशं नानानोकहराजितम् । मनोहरीसमं प्राप कुमारः प्रीतमानसः ॥ २३७॥ is ततोऽशनिनिपातेन मस्तके प्रहतौ तकौ । समं वधूवरौ तत्र मृत्युगोचरतामितौ ॥ २३८॥ . विजयानगोद्भूतदक्षिणश्रेणिगोचरम् । अलंकारपुरं दिव्यं विद्यते धनसंकुलम् ॥ २३९ ॥ प्राक् श्रीधरचरो राजा चण्डवेगोऽत्र पत्तने । अभवद् भूतिसंपन्नो विद्युदाभापतिर्महान् ॥ २४०॥ कुबेरोपपदः कान्तः कालं कृत्वा पुराभवे । अनयो रूपसंपन्नो विद्युन्माली सुतोऽभवत् ॥ २४१॥ अत्रैव नगरे चासीन्मेघमाली खगेश्वरः । भ्राता विद्युल्लताया हि रविबिन्दुप्रियापतिः ॥ २४२॥ 30 कालं कृत्वा तु या तत्र सा तदाऽशनिपाततः । मनोहरी चरी नाम बभूव तनयाऽनयोः ॥२४॥ अन्यदा चण्डवेगेन विद्युन्माली तडिप्रभः । ऊर्जयन्तगिरि यातो नन्तुं नेमिनिषद्यकाम् ॥२४४॥ शिखरं चोर्जयन्तस्य पूर्वदृष्टं विलोक्य सः । विद्युन्माली समूहॊरं जातो जातिस्मरस्तदा ॥२४५॥ स्मृत्वा मनोहरी तत्र मासक्षपणयोगतः । प्रज्ञप्तिनामसंयुक्ता विद्याऽनेन प्रसाधिता ॥ २४६ ॥ ... 1 [ यातो ]. 2 ज विजयो विजय'. 3 पफज युगलमिदम्. 4 [ नूनमुन्मत्तक]. 5 पफज त्रिकलमिदम, 6 ज तनयोनयोः. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२७. २७९ ] सुकोशलकथानकम् ३१३ ततः प्रज्ञप्तिरुत्थाय जगादेमं पुरःस्थितम् । करोमि प्रेषणं तेऽहमादेशं देहि मे प्रभो ॥ २४७॥ ततो विद्याकुमारेण प्रोक्ता तद्वचनेन सा । मनोहरीचरी ब्रूहि खेचरीमिदमादरात् ॥ २४८ ॥ विद्युन्मालीवचः श्रुत्वा प्राप्य सा तं जगाविति । मनोहरि स्मर क्षिप्रं पूर्वस्थानं प्रयत्नतः ॥२४९॥ विद्यादेवतया प्रोक्तं निशम्य द्रुतमादरात् । विरलोपपदा वेगा जाता जातिस्मरी पुनः॥२५० ॥ चण्डवेगोऽपि तां दृष्ट्वा तरां संतुष्टमानसः । विवाहं तत्समं चके वित्तसंयोगकारणात् ॥ २५१॥ गच्छन्तौ वापि तौ दृष्ट्वा हिमवत्पर्वतोपरि । सन्नीतौ पञ्चतावाप्तिं प्रतिसूर्येण संयुगे ॥ २५२ ॥ ततो गङ्गानदीतीरे वरे पश्चिमदक्षिणे । अस्ति कोशलदेशस्था साकेता नगरी परा ॥ २५३॥ अस्यां सागरसेनाख्यो विद्यते वणिजां पतिः । धनश्रीरस्य कान्ता च रूपातिशयशालिनी ॥२५४॥ विद्युन्मालीचरो मृत्वा रूपराजितविग्रहः । बभूव विनयोपेतः सिद्धार्थस्तनयोऽनयोः ॥ २५५ ॥ मगधाविषये चासीत् पुरे राजगृहाभिधे । समुद्रविजयः श्रेष्ठी तत्प्रिया सुमतिः प्रिया ॥ २५६ ॥1॥ ततो. विरलवेगाऽपि कालं कृत्वा सुताऽनयोः । बभूव सुन्दराकारा जयादिमतिरुत्तमा ॥ २५७ ॥ वितीर्णा जनकेनेयं सिद्धार्थेन प्रभावता । परिणीता विधानेन सा कान्ता श्रेष्ठिनाऽमुना ॥ २५८॥ अथ सौधोपरि स्पष्टं तिष्ठन् सत्कान्तया सह । विद्याधरयुगं गच्छद् गगने बालविग्रहम् ॥२५९॥ दृष्ट्वेदं सुन्दराकारं सिद्धार्थः प्रीतमानसः । मूर्छामासाद्य वेगेन जातो जातिस्मरः पुनः ॥२६॥ बालं विहाय मामेष महावैराग्यसंगतः। विनयंधरसामीप्ये दीक्षितो मत्पिता ध्रुवम् ॥ २६१ ॥ 15 विहरन् मगृहं विष्टो भिक्षार्थ मत्पिता ततः । धृतो न केनचित् साधुः सिद्धार्थः पूर्वबान्धवः ॥२६२॥ अहं च चण्डवेगाख्यः कालं कृत्वा महामनाः । जातो जयमतीगर्भ नूनं पुत्रः सुकोशलः ॥२६३॥ स्मरन् पञ्चभवान्यावत् सिद्धार्थखात्मनोऽपि च । तावद्वन्धुजनः सर्वो जयमत्या सहागतः ॥२६४॥ सुप्रभा तत्प्रिया प्राप्ता तदन्तं गुर्विणी प्रिया । गर्भस्थस्यैव पुत्रस्य राज्यं दत्त्वा तदाऽखिलम् ॥२६५॥ सिद्धार्थाख्यगुरोः पार्श्व सतस्तस्य महात्मनः । सुकोशलो दधौ दीक्षां तदा जैनेश्वरीं मुदे ॥२६६॥ 20 तदा जयमती करा चार्तध्यानपरायणा । कालं कृत्वाऽभवद् व्याघ्री मगधाविषये गिरौ ॥२६७॥ अथ तत्पर्वते साधू चातुर्मासोपवासिनौ । तस्थतुर्वृक्षमूले तो पितापुत्रौ घनागमे ॥ २६८ ॥ ततो धनागमेऽतीते पारणार्थ महामुनी । प्रवृत्तौ नगरं गन्तुं तो सिद्धार्थसुकोशलौ ॥ २६९ ॥ दृष्ट्वा तौ योगिनौ तत्र कोपारुणनिरीक्षणा । चुकोप सहसा व्याघ्री सा तदा परुषस्वना ॥२७॥ आदाय तो निरालम्बं प्रत्याख्यानं महामुनी । ध्यायन्तौ परमं तत्त्वं कायोत्सर्गेण तस्थतुः॥२७१॥ 25 सिद्धार्थ प्रथमं व्याघ्री विपाद्य नखकोटिभिः । ममार चरमं कोपात् तनयं च सुकोशलम् ॥२७२॥ पितापुत्रौ तदा साधू कालं कृत्वा समाधिना । दिवि सिद्धार्थसिद्धौ तावहमिन्द्रत्वमापतुः ॥२७३॥ शिशुभिः सह सा व्याघी भर्तारं तनयं तथा । भक्षयित्वा रुषा पापा स्वस्थाने तस्थुषी पुनः ॥२७४॥ सुकोशलकरे दृष्ट्वा कालादितिलकं तदा । व्याघ्री स्खनिन्दनासक्ता जाता जातिस्मरी पुनः ॥२७५॥ संसारनिन्दनं कृत्वा सर्वत्याग मृति तथा । सुरलोकं सका प्राप्य शुभध्यानपरायणा ॥ २७६ ॥ 30 श्रीकान्ताप्रमुखाः कान्ताः सिद्धार्थस्य महात्मनः । सुकोशलस्य च क्षिप्रं गुणार्यान्ते प्रवव्रजुः॥२७७॥ उग्रं तपो विधायाशु समाधि प्राप्य ताः पुनः । सुरलोकं परिणापुर्नानातोद्यकलखनम् ॥ २७८ ॥ पद्मावत्या वराङ्गस्य सुकोशलनृपस्य च । यशोधरमुनेः पार्थे श्रुत्वा चरितमादरात् ॥ २७९ ॥ 1 पफ क्षिप्रं. 2 [चित्तसंयोग ]. 3 पफज युगलमिदम्. 4 पफज कुलकमिदम्. 5 [प्राप]. बृ० को० ४० Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२७, २८० वैराग्याहितचेतस्को गृहवासविरक्तधीः । तुतोष भूपतिः सद्यो गन्धमादननामकः ॥ २८० ॥ दन्तिवाहनपुत्राय दत्त्वा राज्यं सुधीमते । कोशेभहरिदेशादिसमस्तजनसाक्षिकम् ॥ २८९ ॥ सामन्तशतसंयुक्तो हित्वा सर्वं परिग्रहम् । यशोधरान्तिके दीक्षां प्रददौ ' गन्धमादनः ॥ २८२ ॥ गन्धमादनपत्यो हि देवीरूपसमप्रभाः । दधुर्जेनेश्वरीं दीक्षां पद्मावत्यार्यिकान्तिके ॥ २८३ ॥ गन्धमादनयोगीशः कृत्वा नानाविधं तपः । जगाम ध्वस्तकर्मारिः सिद्धिं पाण्डुकपर्वते ॥ २८४ ॥ ॥ इति श्री सुकोशलकथानकमिदम् ॥ १२७ ॥ * ३१४ १२८. गजकुमारकथानकम् । सौराष्ट्रविषये चासीत् पुरी द्वारवती परा । अस्यां नराधिपः श्रीमान् वसुदेवो वसूपमः ॥ १ ॥ आसीद् गन्धर्वदत्ताख्या तत्प्रिया रूपशालिनी । अस्यां गजकुमाराख्यस्तनयः पुरुविक्रमः ॥ २ ॥ 10 अन्यदा पोदनाख्ये तु पुरे राजाऽपराजितः । अभवत् तत्प्रिया चावीं नाम्नेयमपराजिता ॥ ३ ॥ वसुदेवोपरि क्रूरो रोषपूरितमानसः । असौ संतिष्ठते मानी संपन्नो धनसंपदा ॥ ४ ॥ प्राध्वंकृत्य समुन्मत्तं यस्तमानयति द्रुतम् । मदन्तिकं ददाम्यस्मै वरमिष्टं विसंशयम् ॥ ५ ॥ इयं प्रघोषणा दत्ता वसुदेवेन तत्पुरे । नानाबन्धुसमेतेन कोपारुणितचक्षुषा ॥ ६॥ श्रुत्वा तां घोषणां तत्र निवार्य स्वकरेण सः । पोदनाभिमुखं यातः कुमारो गजपूर्वकः ॥ ७ ॥ 15 बद्ध्वा तं संयुगे भीमे चापराजितनामकम् । कुमारो वसुदेवस्य मुमोच पुरतो द्रुतम् ॥ ८ ॥ दृष्ट्वा तं भीषणं बद्धं वसुदेवो जगाविदम् । वरं ब्रूहि प्रदास्यामि ते कुमार मनोगतम् ॥ ९ ॥ वसुदेववचः श्रुत्वा कुमारो निजगाद तम् । स्वच्छन्दो विहाराम्यत्र पुरेऽहं त्वत्प्रसादतः ॥ १० ॥ वितीर्णे वसुदेवेन वरे तद्याचितेन सः । पुरमध्ये तदा स्वेच्छं कुमारो रमते तराम् ॥ ११ ॥ कुमारोऽनुदिनं तत्र पङ्गुलश्रेष्ठभार्यया । सुरत्या सह संतुष्टो रमते भयवर्जितः ॥ 20 विलोक्य पङ्गुलश्रेष्ठी कुमारं दुष्टचेष्टितम् । असमर्थो रुषं प्राप्य मनसि स्थितवानसौ ॥ अत्रान्तरे कुमारोऽयं नेमिनाथान्तिके मुदा । धर्मं श्रुत्वा प्रवत्राज वैराग्याहितमानसः ॥ ततो गजकुमारोऽपि कुर्वाणो विविधं तपः । प्राप रैवतकोद्यानं नानातरुविराजितम् ॥ पादोपगमनं मृत्युं वाञ्छन्नत्र वने सुधीः । उत्तानशय्यया तस्थौ कुमारो भयवर्जितः ॥ १६॥ ज्ञात्वा पङ्गुलकः श्रेष्ठी तदवस्थं महामुनिम् । लोहकीलान् समादाय तदन्तं प्राप कोपतः ॥ १७ ॥ दिक्षु सर्वासु कोपेन 'शरीरलोहकीलकैः । कीलयित्वा मुनेरस्य जगामायं स्वमालयम् ॥ १८ ॥ मुनिर्गजकुमाराख्यः सहित्वा वेदनामिमाम् । कालं कृत्वा समाधानाद् देवलोकं जगाम सः ॥१९॥ ॥ इति श्रीगजकुमारकथानकमिदम् ॥ १२८ ॥ १२ ॥ १३ ॥ 25 * १२९. सनत्कुमारचक्रीकथानकम् । कुरुजाङ्गलदेशेऽस्ति हस्तिनागपुरं परम् । कुरुवंशसमुद्भूतो विश्वसेनोऽत्र पार्थिवः ॥ १ ॥ 30 बभूव तन्महादेवी सहदेवी प्रियंवदा । पुत्रः सनत्कुमारोऽस्याश्चक्रवर्ती चतुर्थकः ॥ २ ॥ दशाङ्गभोगसंयुक्तं चक्रवर्ती सुखं सकः । रूपातिशयसंपन्नो भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ ३ ॥ अन्यदा प्रथमे कल्पे सौदामन्यादिनारकम् । पश्यन् वितिष्ठते शक्रो हरिविष्टरमास्थितः ॥ ४ ॥ 1 पफज युगलमिदम् 2 [ प्रदधौ ] 3 पफज युगलमिदम्. 4 [ शरीरं ]. १४ ॥ १५ ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२९. ३८ ] सनत्कुमारचक्रीकथानकम् एवमस्मिन् स्थिते चक्रे देवः संगमनामकः । ईशानकल्पतः प्राप सौधर्मेन्द्रसमीपताम् ॥ ५॥ तस्मिन् समागते देवे नष्टं तेजोऽमरेशिनाम् । नूनं चन्द्रगणस्येव दिननाथोदये सति ॥ ६ ॥ ततो विस्मितचेतोभिः शक्रः पृष्टः सुरैरिदम् । केनेश कारणेनायं ब्रूहि देवो रविप्रभः ॥ ७ ॥ निशम्य तद्वचस्तत्र सौधर्मेन्द्रो जगावमुम् । आचाम्लवर्धमानाख्यं तपोऽनेन कृतं पुरा ॥ ८ ॥ भूयोऽपि गदितो देवैः पुनरुक्तं पुरन्दरः । ईशोऽन्योऽपि किं रूपी विद्यते तेजसोज्वलः ॥ ९ ॥ ततो बिडौजसा प्रोक्ता भूयो देवाः पुरः स्थिताः । नितान्तं विस्मितस्त्रान्ताः करकुड्मलमस्तकाः ॥१०॥ हस्तिनागपुरे रूपी कुरुवंशसमुद्भवः । चक्री सनत्कुमाराख्यो विद्यते तेजसाऽधिकः ॥ ११ ॥ आखण्डलवचः श्रुत्वाऽसूयया विप्रवेषकृत् । विजयो वैजयन्तोऽपि तदन्तं विबुधोऽगमत् ॥१२॥ एतौ भूपान्तिकं प्राप्तौ प्रतिहारविसर्जितौ । आभ्यां विलोकितश्चक्री भ्रमंस्तैलावगुण्डितः ॥ १३ ॥ विलोक्य चक्रिणं देवौ विस्मयव्याप्तमानसौ । ऊचतुर्युगपत् तुष्टाविमं संसद्व्यवस्थितम् ॥ १४ ॥ ७ भो भो सनत्कुमारेदं तेजो रूपं च यौवनम् । यथेन्द्रभाषितं सर्वं विद्यते तेऽधिकं भुवि ॥ १५ ॥ गीर्वाणोदितमाकर्ण्य पृष्टौ तौ चक्रिणा तदा । कौ भवन्तौ कुतः प्राप्तौ ब्रूतं मे सांप्रतं शुभौ ॥१६॥ निशम्य चक्रिणो वाक्यं विस्मयाकुलचेतसौ । अवोचतामिदं देवौ नानासामन्तसेवितम् ॥ १७ ॥ सौधर्मसंसदि स्पष्टं तेजो रूपं च यौवनम् । भवतः पुण्ययुक्तस्य सौधर्मेन्द्रेण वर्णितम् ॥ १८ ॥ श्रद्दधानौ न सौरेशं वचनं सुरसंसदि । एतानि द्रष्टुमायातौ सुरौ सौधर्मनाकतः ॥ १९॥ रूपयौवनतेजांसि यादृशानि सुरेशिना । अधिकं तानि दृष्टानि तवावाभ्यां नराधिपः ॥ २० ॥ सांप्रतं वसुधानाथ नतसामन्तमण्डल । रूपादिगुणसंपन्न व्रजावो निजमालयम् ॥ २१ ॥ श्रुत्वाऽमरवचश्चकी रोमाञ्चाञ्चितविग्रहः । कृत्वा स्थितं स्मयेनैतौ वभाण सदसि स्थितः ॥ २२ ॥ भो भो सुरौ यदस्माकं रूपमिन्द्रेण वर्णितम् । भवद्भ्यां किं पुनर्दृष्टं तिष्ठतं घटिकाद्वयम् ॥ २३ ॥ विधाय मज्जनं यावत् कृत्वा मण्डनभूषणम् । आदाय पुष्पताम्बूलदिव्य वस्त्रादिकस्तथा ॥ २४ ॥ " सिंहासनस्थितस्यास्य मम सामन्तसेविनः । रूपयौवनतेजांसि पश्यतां सुरकुञ्जरौ ॥ २५ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं देवौ कौतुकव्याप्तमानसौ । मुहूर्तमेकमन्यत्र स्थितौ तद्रूपमीक्षितुम् ॥ २६ ॥ स्नानं विलेपनं भव्यं कृत्वा निजतनौ तदा । आजुहाव सुरौ चक्री सिंहासनमधिष्ठितः ॥ २७ ॥ यौवनं रूपमालोक्य तेजोऽप्यस्य महीभृतः । इदं प्रोक्तं पुनस्ताभ्यां सुराभ्यां तत्पुरस्तदा ॥ २८ ॥ अहो रूपं बलं तेजो यौवनं च धनादिकम् । विद्युद्धनेन्द्र चापाभं प्रविनश्यति तत्क्षणात् ॥ २९ ॥ 25 श्रुत्वाऽमरोदितं चत्री महाविस्मयमागतः । वसुधाधिप देवानां रूपयौवनकादयः ॥ ३० ॥ प्रथमोत्पत्तिमारभ्य यावदायुः परिक्षयम् । तावद्रूपादिना देवा न मुच्यन्ते महाप्रभाः ॥ ३१ ॥ मनुष्याणां पुना राजन् वृद्धिं रूपादयो ययुः । यावद् युवत्वमेतच्च प्रसिद्धं सर्वजन्तुषु ॥ ३२ ॥ ततः पश्चादमी सर्वे हानिं गच्छन्ति देहिनाम् । यावज्जीवितपर्यन्तं तावज्जानीहि मद्वचः ॥ ३३ ॥ त्वद्यौवनोदये राजन् रूपं साधु विलोकितम् ' । आवाभ्यामधुना तद्धि गतं विच्छायतां क्षणात् ॥३४॥ " ततो देवोदितं श्रुत्वा चक्री विस्मितमानसः । पश्यति स्म निजं देहं छायया परिवर्जितम् ||३५|| चन्द्ररश्मिसमानाभहारराजितमप्यदः । वक्षस्स्थलं ददर्शायं नष्टलावण्यसंपदम् ॥ ३६ ॥ इमां निजतनूं दृष्ट्वा विच्छायां चत्रिनामकः । दध्यौ विस्मितचेतस् को महावैराग्यसंगतः ॥ ३७ ॥ एतावति गते काले रूपं तेजोऽपि यौवनम् । मम नष्टमिदं किं न शेषकाले विनश्यति ॥ ३८ ॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 [ नराधिप ] 3 पफज चतुः कुलकमिदम्. 4 [ वस्त्रादिकं तथा ]. 5 पफज चतुः कुलकमिदम् 6 पफ मानुष्याणां 7 पफ विलोक्य तम्. ४ पफज चतुः कुलकमिदम्. ३१५ 15 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १२९.३९ चिन्तयित्वा चिरं चक्री सुतमाहूय सत्वरम् । राज्यपठ्ठे बबन्धास्य समस्तनृपसाक्षिकम् ॥ ३९ ॥ बाह्यमाभ्यन्तरं संगं हित्वा सर्वं विशुद्धधीः । विनयंधरसामीप्ये प्रवत्राज स चक्रभृत् ॥ ४० ॥ देवौ सनत्कुमारस्य वैराग्यं दीक्षणं तथा । विधाय तोषसंपूणौं जग्मतुर्दिवमात्मनः ॥ ४१ ॥ अयं षष्ठोपवासान्ते सज्वरो धर्मतत्परः । विवेश नगरं योगी भिक्षार्थं क्रमयोगतः ॥ ४२ ॥ · दत्तं चीरकभक्तेन साजातक्रेण भोजनम् । देवदत्ताभिधानेन नरेणास्य मुनेस्तदा ॥ ४३ ॥ भुक्त्वा तद्भोजनं भूयः स साधुः प्रीतमानसः । षष्ठोपवासमादत्ते महावैराग्यसंगतः ॥ ४४ ॥ तद्दोषेण मुनेरस्य कच्छूश्वास ज्वरादयः । समाशतं समुद्भूता व्याधयोऽसुखकारणाः ॥ ४५ ॥ उग्रं तपस्तपो दीप्तं महदादि प्रकुर्वतः । मनसा वचसा तन्वा शुद्धस्यास्य मुनेस्तदा ॥ ४६ ॥ आमखेलौषधिः पूर्वं विष्टाजल्लौषधिस्तथा । सर्वौषध्यादयो जाता नूनमौषधिसिद्धयः ॥ ४७ ॥ 10 एता सनत्कुमारस्य तपो विदधतः परम् । प्रतीकारं न कुर्वन्ति पूर्वकर्मानुभावतः ॥ ४८ ॥ सौधर्मेन्द्रेण भूयोऽपि स्थितेन सुरसंसदि । स्तुतः सनत्कुमारोऽयं कुर्वता मुनिवर्णनम् ॥ ४९ ॥ अहो सनत्कुमारस्य प्रथितं परमं तपः । अध्यासितोऽमुना तीव्रस्तथा वाधिपरीषहः ॥ ५० ॥ सौधर्मेन्द्रवचः श्रुत्वा तावेव विबुधौ पुनः । संप्राप्य वैद्यवेषेण प्रोचतुर्मुनिपुङ्गवम् ॥ ५१ ॥ साधुधर्मशरीरस्य त्वदीयस्य महामुने । आवां सुपुण्यवृत्त्यर्थं कुर्वे व्याधिविनाशनम् ॥ ५२ ॥ 15 श्रुत्वा सनत्कुमारोऽपि तदीयं वचनं मुदा । उवाच तौ स्थितौ तस्य पुरतः कुटिलाशयौ ॥ ५३ ॥ यदि वैद्यौ भवन्तौ च प्रसिद्धौ भुवि कोविदौ । संसारव्याधिमत्युग्रं निराकुरुत मे ततः ॥ ५४ ॥ निशम्य तद्वचो भूयो देवौ तावूचतुर्मुनिम् । नूनमावां निराकर्तुं संसारव्याधिममौ ॥ ५५ ॥ समस्तभुवनख्यातो महावैद्यो रुजापहः । अमुं त्वमेकयोगीन्द्र निराकर्तुमलं प्रभो ॥ ५६ ॥ एवं निगद्य तं साधुं तोषविस्फारितेक्षणौ । भूयोऽपि तन्नुतिं कृत्वा जग्मतुस्तौ सुरालयम् ॥ ५७ ॥ 20 साधुः सनत्कुमारोऽपि कृत्वा कर्मविनाशनम् । अनन्तसुखसंयुक्तं प्रययौ सिद्धिपत्तनम् ॥ ५८ ॥ ॥ इति श्रीसनत्कुमारचक्रीकथानकमिदम् ॥ १२९ ॥ १३०. एणिका पुत्रकथानकम् । १ ॥ वैदिशाख्यपुरे चासीत् प्रजापालो महीपतिः । सुनन्दा कामिनी तस्य हरिणी लोललोचना ॥ तस्यैव भूपतेरासीदानन्दाख्यो महाधनः । राजश्रेष्ठी जनानन्दो नन्दिताशेषबान्धवः ॥ २ ॥ 25 अभवत् तत्प्रिया चावीं सुनन्दा भुवि विश्रुता । पद्मावत्यादिका जाताः सुताः सप्तानयोः पराः ॥ ३ ॥ एणिका नाम विख्याता चावीं सर्वकनीयसी । दत्ता सागरदत्ताय श्रेष्ठिने जनकेन सा ॥ ४ ॥ अनयोरैणिकापुत्रो नन्दनोऽभवदिद्धधीः । महाविभवसंपन्नो धर्मैकरसिकस्तराम् ॥ ५ ॥ वर्धमानजिनः पृष्टस्तेनायुः स्वस्य जातुचित् । स्तोकमायुः समाख्यातं महावीरेण तस्य च ॥ ६ ॥ श्रुत्वाऽयं सन्मतेर्वाक्यं संसारत्रस्तमानसः । प्रवत्राज जिनस्यान्ते महावैराग्यसंयुतः ॥ ७ ॥ ग्रामादिकं कदाचिच्च विहरन् गतियोगतः । उत्तरीतुं समारूढो नावं गङ्गानदीमसौ ॥ ८ ॥ गङ्गानदीजलान्तेऽसौ नौर्निमग्ना निमूलतः । समाधिमरणं प्राप्य निर्वाणमगमत् सकः ॥ ९ ॥ ॥ इति श्रीणिका पुत्रकथानकमिदम् ॥ १३० ॥ 30 * 1 पफज षट्कुलकमिदम्. 2 पफज युगलमिदम्. 3 [ व्याधिपरीषहः ] 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफज युगलमिदम्. 6 पफज युगलमिदम्. 7 पफज त्रिकलमिदम्. Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३१.३२] भद्रबाहुकथानकम् ___३१७ १३१. भद्रबाहुकथानकम् । अथास्ति विषये कान्ते पौण्ड्रवर्धननामनि । कोटीमतं पुरं पूर्व देवकोटं च सांप्रतम् ॥ १॥ तत्र पद्मरथो राजा नताशेषनरेश्वरः । बभूव तन्मता देवी पद्मश्रीरतिवल्लभा ॥२॥ अस्यैव भूपतेरासीत् सोमशर्माभिधो द्विजः । रूपयौवनसंयुक्ता सोमश्री तत्प्रिया प्रिया ॥३॥ कुर्वाणः सर्वबन्धूनां भद्रं भद्राशयो यतः । भद्रबाहुस्ततः ख्यातो बभूव तनयोऽनयोः ॥४॥ भद्रबाहुः समुञ्जः सन् बहुभिब्रह्मचारिभिः । देवकोट्टपुरान्तऽसौ रममाणो वितिष्ठते ॥५॥ एवं हि तिष्ठताऽनेन रममाणेन तत्पुरे । कुमारैर्बहुभिः सार्धमनया क्रीडया यथा ॥६॥ एकस्य विहितो वट्टो वट्टकस्योपरि द्रुतम् । त्रयोदशामुना तेषु चतुर्दश निधापिताः ॥ ७॥ अत्रान्तरे महामानो वर्धमानः सुरस्तुतः। निर्वाणमगमद् वीरो हतकर्मकदम्बकः ॥८॥ गोवर्धनश्चतुर्थोऽसावाचतुर्दशपूर्विणाम् । निर्मलीकृतसर्वाशो ज्ञानचन्द्रकरोत्करैः ॥९॥ ऊर्जयन्तं गिरि नेमि स्तोतुकामो महातपाः । विहरन् क्वापि संप्राप कोटीनगरमुवजम् ॥ १० ॥ भद्रबाहुकुमारं च स दृष्ट्वा नगरे पुनः । उपर्युपरि कुर्वाणं तांश्चतुर्दशवट्टकान् ॥ ११॥ पूर्वोक्तपूर्विणां मध्ये पञ्चमः श्रुतकेवली । समस्तपूर्वधारी च नानर्द्धिगणभाजनः ॥ १२॥ देवदानवलोकार्यो भद्रबाहुरयं बटुः । स्तोकैरेव दिनैनूनं भविष्यति तपोनिधिः ॥ १३॥ . गोवर्धनो विधायेममादेशं विधिपूर्वकम् । भद्रबाहुबटुं स्वान्ते चकार पितृवाक्यतः॥१४॥ 5 गोवर्धनमुनिः क्षिप्रं नानाशास्त्रार्थकोविदम् । चकार विधिवत् तत्र भद्रबाहुकुमारकम् ॥१५॥ ततः स्वजनकं प्राप्य दृष्ट्वाऽमुं विधिपूर्वकम् । आजगाम मुनेः पार्श्व भद्रबाहुर्बटुः पुनः ॥ १६॥ .. महाबैराग्यसंपन्नो ज्ञाननिष्णातबुद्धिकः । गोवर्धनसमीपेरं भद्रबाहुस्तपोऽग्रहीत् ॥ १७॥ .... ततः स्तोकेन कालेन समस्तश्रुतपारगः । गोवर्धनप्रसादेन भद्रबाहुरभून्मुनिः ॥ १८ ॥ श्रुतं समाप्तिमायातमिति सद्भक्तिनोदितम् । भद्रबाहुः प्रभातेऽसौ कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥१९॥ ॥ देवासुरनररेत्य भक्तिनिर्भरमानसैः। भद्रबाहुरयं योगी पूजितो बहुपूजया ॥ २० ॥ .. अथ धर्मोपदेशेन समस्तगणपालकः । बभूवासौ सदाचारः श्रुतसागरपारगः ॥२१॥ , नानाविधं तपः कृत्वा गोवर्धनगुरुस्तदा । सुरलोकं जगामाशु देवीगीतमनोहरम् ॥ २२ ॥ अवन्तीविषयोद्धृतश्रीमदुज्जयनी पुरी । आसीन्मनोहरी वापी सौधापणसरोवरैः ॥ २३॥ श्रीमदुजयिनीपार्थलग्नसिप्रानदीतटे । बभूवोपवनं रम्यं नानातरुकदम्बकैः ॥ २४ ॥ चतुर्विधेन संघेन महता परिवारितः । इदं वनं परिणाप भद्रबाहुमहामुनिः ॥ २५॥ तत्काले तत्पुरि श्रीमांश्चन्द्रगुप्तो नराधिपः । सम्यग्दर्शनसंपन्नो बभूव श्रावको महान् ॥ २६ ॥ कनत्कनकसद्वर्णा विद्युत्पुञ्जसमप्रभा । अभवत् तन्महादेवी सुप्रभा नाम विश्रुता ॥ २७॥ अन्यदानुक्रमेणायं भिक्षार्थ गृहतो गृहम् । भद्रबाहुमहायोगी विवेश स्थिरमानसः ॥ २८॥ गत्या मन्थरगामिन्या प्रविष्टो यत्र मन्दिरे । भद्रबाहुमुनिस्तत्र जनः कोऽपि न विद्यते ॥ २९ ॥ 30 केवलं विद्यते तत्र चोलिकान्तर्गतः शिशुः । तेनोदितो मुनिः क्षिप्रं गच्छ त्वं भगवन्नितः ॥३०॥ श्रुत्वा शिशदितं तत्र ध्यादेवं स्वचेतसि । भद्रबाहुमुनिवर्वीरो दिव्यज्ञानसमन्वितः॥३१॥ ईदृशं वचनं तत्र बालस्य श्रूयते तदा । तदा द्वादशवर्षाणि मण्डलेऽत्र न वर्षणम् ॥ ३२॥ . 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 3 ज भद्रबाहुमहा. 4 पफज त्रिकलमिदम्, 5 [दध्यावेवं ]. 6 पफ भद्रबाहुर्मुनि. 7 [यदा ]. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१३१. ३३चिन्तयित्वा चिरं योगी भोजनातिपराङ्मुखः । ततो विस्मितचेतस्को जगाम जिनमन्दिरम् ॥३३॥ तत्रापरावेलायां कृत्वाऽवश्यकसक्रियाम् । संघस्यासौ समस्तस्य जगादैवं पुरो गुरुः ॥ ३४ ॥ एतस्मिन् विषये नूनमनावृष्टिर्भविष्यति । तथा द्वादशवर्षाणि दुर्भिक्षं च दुरुत्तरम् ॥ ३५ ॥ अयं देशो जनाकीर्णो धनधान्यसमन्वितः । शून्यो भविष्यति क्षिप्रं नृपतस्करलुण्टनैः ॥३६॥ । अहमत्रैव तिष्ठामि क्षीणमायुर्ममाधुना । भवन्तः साधवो यात लवणाब्धिसमीपताम् ॥ ३७॥ भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैव योगिनः पार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ॥३८॥ चन्द्रगुप्तिमुनिः शीघ्रं प्रथमो दशपूर्विणाम् । सर्वसंघाधिपो जातो विसषाचार्यसंज्ञकः ॥ ३९॥ अनेन सह संघोऽपि समस्तो गुरुवाक्यतः । दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं ययौ ॥ ४०॥ रामिल्लः स्थूलवृद्धोऽपि भद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी । वसंघसमुदायेन सिन्ध्वादिविषयं ययुः ॥४१॥ " भद्रबाहुमुनिीरो भयसप्तकवर्जितः । पम्पाक्षुधाश्रमं तीव्र जिगाय सहसोत्थितम् ॥४२॥ प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् । चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम् ॥ ४३॥ आराधनां समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम् । समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ ॥४४॥ सुभिक्ष सति संजाते सर्वसंघसमन्वितः । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं सम्यक्प्रपाल्य च ॥४५॥ भद्रबाहुगुरोः शिष्यो विशाखाचार्यनामकः । मध्यदेशं स संप्राप दक्षिणापथदेशतः ॥४६॥ 16 रामिल्लः स्थविरो योगी भद्राचार्योऽप्यमी त्रयः। ये सिन्धुविषये याताः काले दुर्भिक्षनामनि ॥४७॥ पानान्नभोजनहींने काले लोकस्य भीषणे । आगत्य सहसा प्रोचुरिदं ते जनसंनिधौ ॥४८॥ वैदेशिकजनैःस्थैः कृतकोलाहलस्वनैः । पितापुत्रादयो लोका भोक्तुमन्नं न लेभिरे ॥४९॥ लोको निजकुटुम्बेन बुभुक्षाग्रस्तचेतसः। साधयित्वान्नमाबालं तद्भयान्निशि वल्भते ॥५०॥ भवन्तोऽपि समादाय निशि पात्राणि मगृहात्। नूनं कृत्वाऽन्नमेतेषु गत्वा देशिकतो भयात् ॥५१॥ 20 स्वश्रावकगृहे पूते भूयो विश्रब्धमानसाः । साधवो हि दिने जाते कुरुध्वं भोजनं पुनः ॥५२॥ तल्लोकवचनैरिष्टैर्भोजनं प्रीतमानसैः । अनेन विधिनाऽऽचार्यैः प्रतिपन्नमशेषतः ॥ ५३॥ अन्यदैको मुनिः कोऽपि निम्रन्थः क्षीणविग्रहः । भिक्षापात्रं करे कृत्वा विवेश श्रावकगृहम् ॥५४॥ तत्रैका श्राविका मुग्धाऽभिनवा गुर्विणी तदा । अन्धकारे मुनिं दृष्ट्वा तत्र सा गर्भमागतम् ॥५५॥ तद्दर्शनभयात् तस्याः स गर्भः पतितो द्रुतम् । दृष्ट्वाऽमुं श्रावकाः प्राप्य यतीशानिदमूचिरे ॥५६॥ ॐ विनष्टः साधवः कालः प्रायश्चित्तं विधाय च । काले हि सुस्थतां प्राप्ते भूयस्तपसि तिष्ठत ॥५७॥ यावन्न शोभनः कालो जायते साधवः स्फुटम् । तावच वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धफालकम् ॥५८॥ भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च । गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने ॥ ५९॥ श्रावकाणां वचः श्रुत्वा तदानीं यतिभिः पुनः । तदुक्तं सकलं शीघ्रं प्रतिपन्नं मनःप्रियम् ॥ ६॥ एवं कृते सति क्षिप्रं काले सुस्थत्वमागते । सुखीभूतजनवाते दैन्यभावपरिच्युते ।। ६१॥ रामिल्लस्थविरस्थूलभद्राचार्याः स्वसाधुभिः। आहूय सकलं संघमित्थमूचुः परस्परम् ॥ ६२॥ हित्वाऽर्धफालकं तूर्णं मुनयः प्रीतमानसाः । निर्ग्रन्थरूपतां सारामाश्रयध्वं विमुक्तये ॥ ६३ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं सारं मोक्षावाप्तिफलप्रदम् । दधुनिग्रन्थतां केचिन्मुक्तिलालसचेतसः ॥ ६४ ॥ रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी । महावैराग्यसंपन्ना विशाखाचार्यमाययुः ॥ ६५ ॥ 1 पफज निकलमिदम. 2 पफज चतुःकुलकमिदम्. 3 ज विशषा', [ विशाखाचार्य]. 4 gives an emended reading श्रावकाः for सहसा. 5ज श्रावका, 6 [दृष्टा तत्र स्वगृहमागतम् ].7 पफज कुलकमिदम्. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३३. ३ ] धर्मघोषमुनि कथानकम् ३१९ त्यक्त्वाऽर्धकर्पटं सद्यः संसारात् त्रस्तमानसाः । नैर्ग्रन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुत्रयः ॥ ६६ ॥ इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि ॥ ६७ ॥ अर्धफालकसंयुक्तमज्ञातपरमार्थकैः । तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरैः शक्तिवर्जितैः ॥ ६८ ॥' सौराष्ट्रविषये दिव्ये विद्यते वलभी पुरी । वप्रवादो नृपोऽस्यां च मिथ्यादर्शन दूषितः ॥ ६९ ॥ बभूव तन्महादेवी स्वामिनी नाम विश्रुता । अर्धफालकयुक्तानां सेयं भक्ता तपखिनाम् ॥ ७० ॥ अन्यदाऽयं नृपस्तिष्ठन् गवाक्षे सौधगोचरे । स्वामिन्या प्रियया सार्धं पश्यति स्वपुरश्रियम् ॥७१॥ तावन्मध्याह्नवेलायां अर्धफालकसंघकः । भिक्षानिमित्तमायातो भूपतेरस्य मन्दिरम् ॥ ७२ ॥ दृष्ट्वार्धफालकं संघ कौतुक व्याप्तमानसः । महादेवीमिमां प्राह महीपालपुरस्सरम् ॥ ७३ ॥ अर्धफालकसंघस्ते महादेवि न शोभनः । न चायं वस्त्रसंवीतो न नग्नः सविडम्बनः ॥ ७४ ॥ ततोऽन्यस्मिन् दिने जाते चार्धफालकसंघकः । नगरान्तिकमायातः कौतुकार्थं कलस्वनः ॥७५॥ " ट्वा भूपतिः संघ बाण वचसा हि सः । हित्वा तान्यर्धफालानि निर्ग्रन्थत्वं त्वमाश्रय ॥७६॥ यदा निर्ग्रन्थता नेष्टा नृपवाक्येन तैरिमे । तदा महीभृता प्रोक्ता भूयोऽप्याश्चर्यमीयुषा ॥ ७७ ॥ यदि निर्ग्रन्थतारूपं ग्रहीतुं नैव शक्नुथ । ततोऽर्धफालकं हित्वा स्वविडम्बनकारणम् ॥ ७८ ॥ ऋजुवस्त्रेण चाच्छाद्य स्वशरीरं तपखिनः । तिष्ठत प्रीतचेतस्का मद्वाक्येन महीतले ॥ ७९ ॥ लाटानां प्रीतिचित्तानां ततस्तद्दिवसं प्रति । बभूव काम्बलं तीर्थं वप्रवादनृपाज्ञया ॥ ८० ॥ ततः कम्बलिकातीर्थान्नूनं सावलिपत्तने । दक्षिणापथदेशस्थे जातो यापनसंघकः ॥ ८१ ॥ ॥ इति श्रीभद्रबाहुकथानकमिदम् ॥ १३१ ॥ १३२. समुद्रदत्तादिकथानकम् । इन्द्रदत्तादयः सन्ति कौशाम्बीनगरीभवाः । इभ्यश्रेष्ठिकुलोद्भूता द्वात्रिंशच्छ्रावकास्तराम् ॥ १ ॥ बभूवुस्तत्सुताः सन्तस्तावन्तः प्रीतचेतसः । तथा समुद्रदत्ताद्याः श्रावका जिनदेवताः ॥ २ ॥ कुमाराः सुकुमाराङ्गाः संसारत्रस्तचेतसः । तेऽयुः केवलिनः पार्श्व नन्तुं तत्पादकं जनाः ॥ ३ ॥ नत्वाऽमुं भक्तितस्ते च पृच्छन्तीदं महामुनिम् । कियत्प्रमाणमस्माकमायुः कथय मे प्रभो ॥ ४ ॥ केवली तद्वचः श्रुत्वा जगदैतान् पुरः स्थितान् । सर्वे स्तोकायुषो यूयं स्वहितं कुरुतादरात् ॥ ५॥ केवलीरितमाकर्ण्य द्वात्रिंशत् ते कुमारकाः । महावैराग्यसंपन्नास्तदन्तेऽरं प्रवव्रजुः ॥ ६ ॥ यमुनाख्यनदीतीरे पादोपगमनेन ते । तस्थुस्तजलपूरेण नीताश्चण्डेन तद्धदम् ॥ ७ ॥ तत्तोयमध्यगा वीराः शुभध्यानपरायणाः । समाधिमरणं प्राप्य सुरलोकं ययुस्तके ॥ ८ ॥ ॥ इति समुद्रदत्तादिद्वात्रिंशत्कुमारकथानकमिदम् ॥ १३२ ॥ * १३३. धर्मघोषमुनिकथानकम् । चम्पानगरवास्तव्यो धर्मघोषमहामुनिः । सुधीर्मासोपवासान्ते पारणार्थं ययौ ब्रजम् ॥ १ ॥ मार्गभृष्टो गमं नेच्छन् हरिताद्युपरि स्फुटम् । गङ्गानदीतटस्याधस्तस्थौ पम्पाकदर्थितः ॥ २ ॥ तीव्र तृष्णापरिग्रस्तं ज्ञानिनं मुनिपुङ्गवम् । गङ्गादेवी जलापूर्णं कलशं तत्पुरोऽकरोत् ॥ "I 1 पफज युगलमिदम्. 2 पज युगलमिदम्. 3 फ omits Nos. 73-75. 4 फज जापन . 15 20 25 30 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० हरिषेणाचार्यकृते पृहत्कथाकोशे [१३३. ४विलोक्योवाच सा देवी यतिं वटतरोरधः । पीत्वा जलमिदं साधो पम्पाखेदं निराकुरु ॥४॥ गङ्गादेवीवचः श्रुत्वा जगादैतां महामुनिः । स्वतो न वर्तते पातुं जलमेतन्मनखिनि ॥५॥ मुनिवाक्यं समाकर्ण्य गङ्गादेवी त्वरावती । जिनं पूर्व विदेहस्थं संप्राप्य निजगाविदम् ॥६॥ तृष्णया 'परिभूतोऽरं मुनिरेको जिनेश्वर । ज्ञातो मया जलापूर्णः कलशोऽस्य पुरस्कृतः॥७॥ 5 मयाऽयमुदितः साधुः प्राशुकं शीतलं जलम् । मदानीतं पिब क्षिप्रं तृष्णाऽभावाय पावन ॥८॥ मुनिर्मद्वचनं श्रुत्वा मां बमाण जिनेश्वर । भवद्धस्तेन नः पातुं देवि तोयं न युज्यते ॥ ९॥ दीयमानं मया नाथ न पीतं मुनिना जलम् । किं कारणमिदं ब्रूहि सांप्रतं परमेश्वर ॥ १० ॥ देवीवचनमाकर्ण्य जगादैतां जिनेश्वरः । क्षरन्निवामृतं वाचा घनाघनगभीरया ॥११॥ तिर्यग्देवासुराणां च देवि हस्तेन नो जलम् । अन्नं वा युज्यते लातुं मुनीनां शुद्धचेतसाम् ॥१२॥ 10 सम्यक्त्वं जिनपूजां च प्रातिहार्य हि योगिनाम् । एतत्ते युज्यते कर्तुं नापरं भोजनादिकम् ॥१३॥ जिनवाक्यं समाकर्ण्य गङ्गादेवी सुभक्तितः । जलवर्षं ववर्षारात् मुनेरस्य सुशीतलम् ॥ १४ ॥ प्रातिहार्ये कृते देव्या शुक्लध्यानगतो मुनिः। निहत्य घातिकर्माणि केवलज्ञानमाप्तवान् ॥ १५॥ ततः केवलिनः पार्थे देवी धर्म निशम्य सा । पूजयित्वा मुनिं भक्त्या जगाम निजमालयम् ॥१६॥ धर्मघोषमुनिहत्वा शेषकर्मचतुष्टयम् । मोक्षं जगाम शुद्धात्मा निरावाधसुखास्पदम् ॥ १७॥ 15 ॥ इति श्रीसौधर्मघोषमुनिनिर्वाणकथानकमिदम् ॥ १३३ ॥ १३४. श्रीधरमुनिकथानकम् । अथ सिंहरथो राजा चम्पापुरवरेऽभवत् । सम्यग्दर्शनसंपन्नः श्राविकः सिंहिकापतिः ॥१॥ अंशुमानभवद् राजा साकेतानगरोद्भवः । सुदृष्टिः श्रावकः श्रीमांस्तत्प्रिया चांशुमालिनी ॥२॥ इलापुरेऽभवद् राजा जितशत्रुः सुदर्शनः । इलाभिधाऽस्य सत्कान्ता रूपयौवनशालिनी ॥३॥ 20 अन्योन्यप्रीतियुक्तानामेतेषां स्वस्वपत्तने । त्रयाणामपि मित्राणां याति कालः शनैः शनैः ॥४॥ नन्दीश्वरदिनेष्वेते त्रयोऽपि स्वस्वपत्तने । महामहं प्रकुर्वन्ति जिनानां भक्तितत्पराः ॥५॥ जितशत्रुरपि स्पष्टमिलावर्धनपत्तने । सपयाँ कर्तुमारेभे जिनानां क्षीणकर्मणाम् ॥ ६॥ तद्धात्रिका विरूपास्या विनयोपपदा मतिः । दीर्घदन्तकरालास्या जलबुद्बुदलोचना ॥७॥ पादखञ्जा बृहत्तुन्दा सत्त्वानां भयकारिणी । लम्बस्तनी च लम्बोष्ठी विषमास्थिशिराततिः ॥८॥ 25 इलापूजार्थमेतेन गच्छता जिनमन्दिरम् । गदितेयं सका यान्ती जितशत्रुमहीभुजा ॥ ९॥ अवतिष्ठ त्वमत्रैव त्वद्रूपमतिभीषणम् । जिनपूजार्थमेतेषामागतानां शरीरिणाम् ॥१०॥ वीभत्सदर्शनोपेतां भवती लोकभीतिदाम् । अतो मङ्गलहेतुत्वान्मा त्वं याहि जिनान्तिकम् ॥११॥ जितशत्रुवचः श्रुत्वा शोकसंतप्तमानसा । धात्रिकाऽमुं जगादैषा बाष्पविप्लुतलोचना ॥१२॥ जिनपूजा मया पुत्र न दृष्टा मन्दभाग्यया । न हि पुण्यैर्विना जैनं दृश्यते मुखपङ्कजम् ॥ १३ ॥ 30 अयं माहानकः ख्यातो विज्ञातोऽद्य मया सुत । धनुश्शतेन धर्मो हि रक्ष्यते जैनपुङ्गवः ॥१४॥ एवं निगद्य तं पुत्रं जिनेज्यादिवसाष्टकम् । उपवासं विधायासौ तस्थौ निजगृहे शुचा ॥१५॥ 1 पफ परिभूतोयं. 2 पफज चतुःकुलकमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्. 4' [श्रीधर्म ]. 5 [श्रावकः ]. 6 पफज युगलमिदम्. 7 पफज त्रिकलमिदम्. 8 पफज चतुष्कुलकमिदम्. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३४. ४९ ] श्रीधरमुनिकथानकम् ३२१ निवृत्याह्निकीं पूजां जितशत्रुजिनेशिनाम् । आहूय तां निजाभ्याशं पप्रच्छेदं कुतूहलात् ॥१६॥ अम्ब किं कारणं जाता दुर्बला शोकसंयुता । केन वाऽपकृतं तेऽद्य कथयैतन्मम स्फुटम् ॥१७॥ जितशत्रोर्वचः श्रुत्वा धात्रिका निजगावमुम् । अष्टाह्निकमहं पुत्र कुर्वती स्वगृहे स्थिता ॥ १८ ॥ · भूयोऽपि भूभुजा प्रोक्ता धात्रिका श्रीतमानसा । मनोऽभिवाञ्छितं मातस्त्वं वरं ब्रूहि सांप्रतम् ॥ १९ ॥ भूयोऽप्यवाचि भूपालस्तया धात्रिकया तदा । प्रीतोऽसि यदि मे जैनीं पूजां तां मत्कृते कुरु ॥२०॥ भूयोऽप्यसौ समारेभे तदर्थं जिनपूजनम् । धात्रिकाऽष्टोपवासं सा चकार प्रीतमानसा ॥ २१ ॥ हिमवद्भिरिसंभूतपद्मद्रहनिवासिनी । विदित्वा तत्तपोमार्गं सामान्यनरदुःकरम् ॥ २२ ॥ निजेन परिवारेण श्रीदेवी प्राप्य तामसौ । हृष्टा तदुपवासान्ते सत्रौ भर्मकुटैररम् ॥ २३ ॥ महापूजाविधानेन पूजयित्वा पुनः पुनः । श्रीदेवी धात्रिकां भक्त्या जगाम निजमालयम् ॥ २४ ॥ श्रीदेवीविभवं दृष्ट्वा धात्रिका मुग्धमानसा । निदानं तद्विभूत्यर्थं कृत्वा पञ्चत्वमाप सा ॥ २५ ॥ ० ततो जम्बूमति द्वीपे वास्ये भरतनामनि । जाता पद्महदे देवी संभूते हिमवद्विरौ ॥ २६ ॥ इलावर्धनकस्थानं श्रीदेवी प्राप्य सत्वरम् । लोकानां दर्शयामास स्वनमेतन्निशि द्रुतम् ॥ २७ ॥ भगवन्नगरमायाता श्रीदेवी श्रीगृहं मम । कारयित्वा द्रुतं भक्तिं कुरु लोक यथाविधि ॥ २८ ॥ भवद्भ्यो येन गच्छामि' वरमिष्टमहं द्रुतम् । पूजाविधायिनां नृणां भक्त्या तुष्यन्ति देवताः ॥ २९ ॥ तद्वाक्यतो विधायाशु श्रीगृहं ध्वजभूषितम् । महिमानं चकारात्र लोकः पुष्पादिसंपदा ॥ ३० ॥ 15 श्रीदेवी श्रीगृहे दृष्ट्वाऽपचितिं तज्जनैररम् । क्रियमाणामिलादेवी ददर्श स्वगृहे स्थिता ॥ ३१ ॥ ततो द्वादश वर्षाणि पुत्रार्थं पुत्रवर्जिता । श्रीदेवी श्रीगृहे पूजामिलादेवी चकार सा ॥ ३२ ॥ इलादेवीकृतां पूजां स्वस्य दृष्ट्वा महादरात् । स्वयंप्रभजिनं प्राप्य श्रीदेवी निजगाविदम् ॥ ३३ ॥ भगवन् मत्पुरे पूतदिव्यज्ञानैकलोचन । इलादेव्याः सुतो भावी न वेति वद मेऽधुना ३४ ॥ श्रीदेवीवाक्यमाकर्ण्य स्वयंप्रभजिनोऽवदत् । इलादेव्या सुतो भावी देवि नाकपरिच्युतः ॥ स्वयंप्रभजिनेनोक्तं निशम्य सहसा सका । प्राप्येलावर्धनं देवीं निशि स्वप्ने बाण ताम् ॥ इलादेवि स्फुटं भावी मत्प्रसादेन त्वत्सुतः । वर्धमानाभिधो देवयुत्वा सौधर्मनाकतः ॥ श्रीदेवीवचनं श्रुत्वा कर्णामृतरसायनम् । इलादेवी सुखं तस्थौ तोषकण्टकिताङ्गिका ॥ ३८ ॥ क्रमतो हि यतो दत्तः श्रीदेव्यास्तनयोऽमुतः । ततः श्रीदत्तनामायं जनकेनेति शब्दितः ॥ ३९ ॥ इलावर्धनसंज्ञोऽयमिलापुरसमुद्भवः । इलादेवीसमुत्पन्नो जितशत्रोः सुतस्ततः ॥ ४० ॥ साकेताधिपतेः पुत्र्या ह्यंशुमत्यभिधानया । स्वयंवरे धृतश्चार्या श्रीदत्तः श्रीसमन्वितः ॥ ४१ ॥ अंशुमत्या समायातः शुकः क्रीडनको चितः । कलकोलाहलोपेत इलावर्धनपत्तनम् ॥ ४२ ॥ दीव्यतोरनयो द्यूते दम्पत्योरक्षसंभवे । नादं विदधतोर्मन्दमन्योन्यप्रीतचित्तयोः ॥ ४३ ॥ अंशुमत्या जिते कान्ते लीलाविक्षिप्तपक्षकः । लिखति प्रीतचेतस्को भुवि लीहाद्वयं शुकः ॥ ४४ ॥ * जितायामंशुमत्यां च तथा संततमिद्धधीः । श्रीदत्तेन लिखत्येष लीहामेकां शुको भुवि ॥ ४५ ॥ ३० एवं कृते सति क्षिप्रं भूभुजा रोषमीयुषा । ग्रीवायामाहतो दुःखी ममार बत पूषकः ॥ ४६ ततः पञ्चत्वमासाद्य कीरो मन्दकषायतः । बभूव व्यन्तरो देवो रूपराजितविग्रहः ॥ ४७ ॥ अन्यदा मेवमालोक्य सौधस्थो विलयं गतम् । श्रीदत्तभूपतिः सद्यो वैराग्यमगमत् तदा ॥ ४८ ॥ वितीर्य सकलं राज्यं सुताय विनतात्मने । वरधर्मान्तिके नूनं श्रीदत्तो मुनितामितः ॥ ४९ ॥ ३५ ॥ 20 1 पज युगलम् फ युगलमिदम् 9 [ यच्छामि ]. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफज युगलमिदम्. बृ० को ० ४१ ३६ ॥ ३७ ॥ 25 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १३४. ५०गृहीतसर्वशास्त्रार्थों 'कृतश्चैकविहारताम् । संप्राप्तः श्रीदत्तो योगी तपोनिहितमानसः॥ ५० ॥ कदाचित् स्वपुराभ्याशे हेमन्ते हिमसंकुले । नक्तं प्रतिमया तस्थौ श्रीदत्तो धर्मधीरयम् ॥५१॥ . अथ कीरचरो देवो व्यन्तरः श्रीदत्तं मुनिम् । विवेद वधकं स्वस्य विभङ्गज्ञानयोगतः ॥ ५२ ॥ आगत्य च तमुद्देशं शीतं वातं विधाय सः । सिञ्चति स्म मुनि कोपाजलवर्षेण भूयसा ॥ ५३॥ 5 श्रीधरोऽपि मुनिस्तत्र सहित्वा तं परीषहम् । व्यन्तरेण कृतं घोरं निर्वाणमगमल्लघु ॥ ५४॥ ॥ इति श्रीधरमुनिकथानकम् ॥ १३४ ॥ १३५. वृषभसेनमुनिकथानकम् । उज्जयिन्यां पुरि श्रीमान् प्रद्योतो नाम भूपतिः । बभूव तन्महादेवी ज्योतिर्माला प्रभोज्वला ॥१॥ अन्यदाऽसौ महीपालो हस्तिनं मदशालिनम् । जगाम सहसा धर्तुं वनं नानानगाकुलम् ॥२॥ " आरूढो हस्तिनं तत्र प्रद्योतो मदनिर्भरम् । गृहीत्वाऽमुं बली नागो विवेश गहनं पुनः॥३॥ हस्तिनो धावतो वेगात् तरुशाखां प्रगृह्य सः। प्रद्योतभूपतिस्तस्थौ गजोऽन्यत्र गतो बली ॥४॥ उत्तीर्य तरुतो राजा विषयोन्मुखतां व्रजन् । एवं हि खेटकग्रामं संप्रापद् देवयोगतः ॥ ५॥ तत्रत्यक्षेत्रसामीप्ये क्षुधापम्पाकदर्थितः । कूपान्तं प्राप्य संतस्थे प्रद्योताख्यो महीपतिः ॥ ६॥ जिनपालितसंज्ञस्य ग्रामकूटस्य कन्यका । जिनमत्या जलं लातुं जिनदत्ताऽगमत् प्रधिम् ॥७॥ 15 दृष्ट्वा तां कन्यकां राजा तृष्णया शुष्कतालुकः । रूपयौवनसंयुक्तां जलपानं स याचते ॥ ८॥ जलपानं प्रदायास्मै स्तोकं कन्या पुरःस्थिता । कृत्वैकं वर्करं किंचिद्ददौ नीरं तदिच्छया ॥९॥ पाययित्वा जलं भूपं संप्राप्य निजमन्दिरम् । कथयामास तद्वाता निजतातस्य कन्यका ॥ १० ॥ ग्रामस्यास्य बहिः कोऽपि नरस्तिष्ठति शोभनः । गत्वा तदन्तिकं शीघ्रं स्वगृहं तं त्वमानय ॥११॥ सुतावचनतस्तेन ग्रामकूटेन वेगतः । निजगेहं समानीतो भूपतिः परमाकृतिः ॥ १२ ॥ 20 यावत् स तिष्ठते राजा तगृहे सुखलीलया । तावत् तन्मार्गतः सर्वः स्कन्धावारः समागतः ॥१३॥ दृष्टो नराधिपोऽमीभिस्तद्गृहे प्रीतमानसैः । ग्रामकूटेन सा कन्या वितीर्णाऽस्मै प्रमोदिना ॥१४॥ ततः प्रीतिं परां प्राप्य सामन्तादिपुरस्सरम् । नरेन्द्रो जिनदत्तायै महादेवीपदं ददौ ॥१५॥ श्वशुरं° पूजयित्वाऽत्र महाविभवसंपदा । श्रीमदुज्जयिनी राजा विवेश परमोत्सवाम् ॥ १६ ॥ अन्तःपुरमिदं सर्वं विहाय स नराधिपः । जिनदत्तासमं भोगं बुभुजे प्रीतमानसः ॥१७॥ 25 अन्यदा वारिमध्ये च पतितो मदकुञ्जरः । श्रुत्वा वार्तामिमां राजा निर्जगाम पुराद्धहिः ॥१८॥ तत्काले जिनदत्ताऽपि कुर्वती स्वस्य मण्डनम् । श्रुत्वा धवं बहिर्यान्तं सरोषा स्वगृहे स्थिता ॥१९॥ खकान्तं निर्गतं दृष्ट्वा तदानीं तत्पुरन्ध्रयः। वदन्ति स्म तदध्यक्षं तोषविस्फारितेक्षणाः ॥२०॥ वयं वल्लभिकाः पूर्व स्वभर्तुःप्राणतोऽधिकम् । अस्या भयाद् वचः स्थातुं स्वान्तिके न ददात्ययम् ॥२१॥ श्रुत्वा तद्वचनं कोपाजिनदत्ता त्वरावती । स्वकीय मन्दिरं हित्वा तस्थौ सा परवेश्मनि ॥ २२ ॥ 3) विलोक्य हस्तिनं राजा संप्राप्य निजमन्दिरम् । जिनदत्तामदृष्ट्वाऽत्र पप्रच्छान्यं नरं पुनः ॥२३॥ नरेन्द्रवचनं श्रुत्वा बभाणायं नरः प्रभुम् । जिनदत्ता रुष प्राप्य हित्वा धवसमागमम् ॥ २४ ॥ 1 ज कृतचैक. 2 फज श्रीधरो. 3 फज श्रीधरं. 4 [श्रीदत्त व्यन्तरो मुनिम्]. 5 [श्रीदत्तमुनि ]. 6 पफ विषयोन्मुषता. 7 ज प्रधि-कूपम्. ४ज प्रमोदिता. 9 पफ सुखरं, 10 धवं च समागमम्. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३५. ५७ ] वृषभसेनमुनिकथानकम् ३२३ निजगेहं विहायाशु भूत्वा साऽतितपस्विनी । महावैराग्यसंपन्ना संतस्थे परवेश्मनि ॥ २५ ॥ निशम्य वचनं तस्य नरस्य रुषमागमः । क्षणमेकं पुनर्दध्याविदं मनसि भूपतिः ॥ २६ ॥ शोभते व्रतमीदृक्षं गृहस्थाया न मगृहे । योषितोऽस्या जनैः सर्वैर्निन्दितं साधुभिर्भृशम् ॥ २७ ॥ एवं विचिन्त्य राजेन्द्रः सगर्भां तां स्वसुन्दरीम् । असहायां श्मशानेऽरं मुमोच प्रीतिवर्जितम् ॥ २८॥ ततोऽस्या मुक्तमात्रायाः श्मशाने दरदायिनि । बभूव सुन्दराकारो नवमे मासि बालकः ॥ २९ ॥ तत्काले पश्चिमे यामे रजन्या वृषभं सितम् । ददर्श भूपतिः स्वने तोषविस्फारितेक्षणः ॥ ३० ॥ प्रभातसमये जाते कृताशेषतनुक्रियः । वृषभं मत्रिणः स्वप्ने कथयामास भूपतिः ॥ ३१ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं जगौ मन्त्री नरेश्वरम् । पुत्रलाभोऽद्य संजातस्तव भूपाल निश्चितम् ॥ ३२ ॥ निशम्य मत्रिणो वाक्यं स्वदेवीनां समीपकम् । पुत्रवार्तामुपालब्धुं सचिवं प्राहिणोति सः ॥ ३३ ॥ तदन्तं प्राप्य वेगेन सचिवो नृपयोषितः । पप्रच्छ पुत्रमुत्पन्नं कस्याश्चिद्वदताशु मे ॥ ३४ ॥ सचिवस्योदितं श्रुत्वा जगुस्ता युगपत्तकम् । अस्माकं दुर्भगानां हि कथं पुत्रो धवं विना ॥ ३५ ॥ भर्तृसंगं विना वत्स गर्भोत्पत्तिः कथं भवेत् । अस्माकं पुण्यहीनानां वञ्चितानामनेन भो ॥ ३६ ॥ * नृपभार्यावचः श्रुत्वा पुत्रलाभपरिच्युतम् । सचिवो विस्मितखान्तो जिनदत्ताऽन्तिकं ययौ ||३७|| जिनदत्तां विलोक्यैष चितायां पुत्रसंगताम् । संप्राप्य भूपतेः पार्श्व सचिवो निजगौ नृपम् ॥ ३८ ॥ देवदेव जनाधार भवतां कथितं मया । कुमारो जिनदत्ताया जातस्त्वत्कुलमण्डनः ॥ ३९ ॥ तद्वाक्येन समानीतो जिनदत्तासमं शिशुः । राज्ञा विभवयोगेन स्वगृहं स प्रवेशितः ॥ ४० ॥ यतो विलोकितो' नक्तं वृषभः स्वप्नदर्शने । ततो वृषभसेनोऽयं समाहूतो नरेशिना ॥ ४१ ॥ महाविभवयोगेन जिनदत्तां प्रपूज्य च । प्रभुञ्जानोऽनया भोगं प्रद्योतोऽयं वितिष्ठते ॥ ४२ ॥ कुमारः सुकुमाराङ्गो रूपराजितविग्रहः । अष्टवर्षो बभूवायं धर्मविन्यस्तमानसः ॥ ४३ ॥ अन्यदा भूभुजा प्रोक्तः कुमारोऽयं विशुद्धधीः । राज्यपट्टं प्रतीच्छ त्वं प्रव्रज्यां कर्तुमिच्छता ॥४४॥ एवमुक्तोऽमुना तत्र कुमारो निजगावमुम् | मनुष्यराज्यपट्टं किं बध्नासि त्वं मम प्रभो ॥ ४५ ॥ देवमोक्षादिसंयुक्तं राज्यपट्टे महागुणम् । प्राध्वंकृत्य मम स्पष्टं प्रव्रज्यां कर्तुमर्हसि ॥ ४६ ॥ अवाचि भूभुजा भूयस्तनयो मुक्तिलालसः । मनुष्यराज्यपट्टे ते बध्नामि प्रथमं सुतः ॥ ४७ ॥ देवादिराज्यपट्टस्तु तपसा भवति स्फुटम् । मोक्षादिराज्यपट्टोऽपि जिनोक्तज्ञानयोगतः ॥ ४८ ॥ त्रियमाणोऽपि तातेन प्रद्योताख्येन नन्दनः । अभिनन्दनसामीप्ये तपो जैनमशिश्रियत् ॥ ४९ ॥ 25 विदित्वाऽऽगमसद्भावं महामतिविकल्पतः । बभूवैकविहारी स सेनान्तो वृषभादिकः ॥ ५० ॥ विषये वत्सकावत्यां कौशाम्ब्याख्यपुरान्तके । देववाटनगे तस्थौ शुचौ प्रतिमया मुनिः ॥ ५१ ॥ एवं वृषभसेनस्य कायोत्सर्गेण तस्थुषः । तद्भिरौ सकलो लोकः श्रावकः पुरि पुण्यवान् ॥ ५२ ॥ तत्पुरे बुद्धदासाख्यो वसति क्रूरमानसः । उपासकांस्तरां द्वेष्टि जिनधर्मं मुनिं तथा ॥ ५३ ॥ यावन्मुनिः प्रविष्टोऽयं चर्यामार्गेण पत्तनम् । ययौ मध्याह्नवेलायां बुद्धदासोऽपि तन्नगम् ॥५४॥ ३० अग्निवर्णं विधायात्र तच्छिलातलमादरात् । बुद्धदासो गृहं प्राप्य स्वकं न विदितः परैः ॥ ५५ ॥ मुनिर्भिक्षां समादाय तत्पुरे स्थिरमानसः । प्राप्याग्निना तरां तसं पश्यतीदं शिलातलम् ॥ ५६ ॥ यावज्जीवं समादाय प्रत्याख्यानं महामुनिः । आरुरोह मुदा धीरमग्नितप्तं शिलातलम् ॥ ५७ ॥ 20 1 पफज युगलमिदम् 2[ रुषमागतः ]. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफ 6 पफज युगलमिदम्. 7 [ बध्नामि प्रथमं सुत ] 8 [ प्राप ]. विलोक्यतो. 10 15 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १३५. ५८'बुद्धदासकृतं तत्र सहित्वा तं परीषहम् । वृषभोपपदः सेनः केवलज्ञानमाप्तवान् ॥ ५८ ॥ ॥ इति श्रीवृषभसेनमुनिकथानकमिदम् ॥ १३५ ॥ १३६, स्वामिकार्तिककथानकम् । कार्तिकाख्यपुरे दिव्ये राजाऽऽसीदग्निनामकः । भार्या वीरवती चास्य कलाविज्ञानभूषिता ॥१॥ 5 अनयो रूपसंपन्नाः षट् सुताः कलनिस्वनाः । विनयाचारसंपन्ना बभूवुरिमकाः पराः ॥२॥ आद्या बन्धुमती नाम श्रीषेणा श्रीमती परा । स्वयंप्रभा प्रभापूर्वा कीर्त्या लक्ष्मीमती सह ॥३॥ अन्यदा षडपि स्पष्टं नन्दीश्वरदिनेषु ताः । सोपवासा जिनेशानां चक्रुः पूजां प्रसूनकैः ॥४॥ जिनशेषां समादाय दत्त्वा यावद्जन्ति ताः। मातृपितृस्वबन्धुभ्यस्तावदृष्ट्वा नरेशिना ॥५॥ तन्मध्ये कीर्तिकां दृष्ट्वा कनिष्ठां वरकन्यकाम् । कामाकुलितचित्तेन विरहानलतापिना ॥६॥ 10 स्खलोकमपहायाशु निजां पत्नी सुयत्नतः । याचयित्वा विधानेन चोपयेमे नराधिपः ॥७॥ रतिसौख्यं धवेनामा भुञ्जानाया मनोरमम् । गर्भोऽभूत् कीर्तिसंज्ञायास्तद्भार्यायाः सुचेतसः॥८॥ नवमे मासि संजाते गर्भ तस्याः सकौतुकम् । रन्तुं शरवणोद्याने तद्वाप्यां मतिरुद्ता ॥९॥ ततः शरवणोच्छायां गुप्तायां नीलनीरजैः । वाप्यां तन्नामशालिन्यां कीर्तिः क्रीडां चकार सा ॥१०॥ जलक्रीडां विधायास्यां समुत्तीर्य ततो जलात् । प्रसूता दारकं कीर्तिः खामिकार्तिकसंज्ञकम् ॥११॥ 15 कीर्तेः कीर्तिसमेताया रूपराजितविग्रहा । ततश्च तनया जाता वीरश्रीनामभूषिता ॥ १२॥. वीरश्रीः श्रीसमा कन्या वितीर्णा जनकेन सा । रोहेटकपुरेशाय क्रौञ्चसंज्ञाय भूभुजे ॥१३॥ क्रीडन्नपि कुमाराद्यैः कुमारः प्रीतमानसः । स्वाम्यादिकीर्तिको बालश्चतुर्दशसमोऽभवत् ॥ १४ ॥ दृष्ट्वा वसन्तमासेऽसौ कुमारः प्राभृतान्यरम् । आगतानि कुमाराणां तन्मातामहमन्दिरात् ॥१५॥ सुदुःखो मातरं प्राप्य जगाद पुरतः स्थिताम् । अम्ब मातामहो मेऽस्ति न वा ब्रूहि यथायथम् ॥१६॥ 20 श्रुत्वा पुत्रवचो माता दुःखपूरितमानसा । जगाद नन्दनं चैकः पिता ते मेऽपि बालकः ॥१७॥ जननीवाक्यमाकण्ये महावैराग्यसंयुतः। यशोधरमुनेः पार्थे प्रवव्राज स बालकः ॥१८॥ नानातपः प्रकुर्वाणो विहरन् वसुधातले । स्वामिकार्तिकयोगीशः प्राप्य किकिन्धपर्वतम् ॥१९॥ नक्तं प्रतिमया तत्र संतस्थे स मुनिः सुधीः । घनवर्षेण तत्कायमलः प्रक्षालितस्तराम् ॥ २०॥ तत्साधुमलपानीयं जातं सर्वोषधं परम् । स्नात्वा तन्मुनिसन्नीरे लोको व्याधिविवर्जितः ॥२१॥ 25 ततः प्रभृति तत्तीर्थ दक्षिणापथसंभवम् । पूतं बभूव लोकानां महाव्याधिविनाशनम् ॥ २२ ॥ कदाचित् स मुनिधीरो युगान्तनिहितेक्षणः । रोहेटकपुरं दिव्यं विवेशाशनवाञ्छया ॥ २३ ॥ भार्या क्रौञ्चनरेन्द्रस्य वीरश्रीः श्रीसमप्रभा । ददर्श तं मुनिं प्रीता भ्रातरं सौधसंस्थिता ॥ २४ ॥ प्रासादशिखरस्थेन क्रौञ्चाख्येन महीभुजा । निर्गच्छन् स्वगृहात् कोपान्मुनिः शक्त्या समाहतः ॥२५॥ मयूरविद्यया क्षिप्रं समुत्क्षिप्य महामुनिः । स्वामिगेहमयं नीतस्तदा धर्मपरायणः ॥२६॥ 30 सहित्वा वेदनां तत्र समाधि प्राप्य धीरधीः। सुरलोकं जगामाशु स मुनिः स्वामिकार्तिकः ॥२७॥ कोविदैदृष्टशास्त्रार्थैर्महाकौतुकसंगतैः । तथेयं भ्रातृकोत्पत्तिर्द्रष्टव्याऽत्र कथानके ॥ २८॥ ॥ इति श्रीखामिकार्तिकमुनिभ्रातृकोत्पत्तिकथानकमिदम् ॥ १३६ ॥ 1 ज बुधदास. 2 फ वधुमती. 3 ज सोपवासं. 4 [दृष्टा ]. 5 [शरवणोत्थायां ]. 6 [°कार्तिको ]. 7 [सदुःखो]. 8 पफज युगलमिदम्. 9 [बालक]. 10 [किष्किन्ध]. Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ -१३८. १७] विद्युच्चरमुनिकथानकम् १३७. अभयघोषमुनिकथानकम् । आसीदभयघोषाख्यः 'काकन्धाख्यपुरीभवः । अभयादिमतिर्भार्या तन्नरेन्द्रस्य च वल्लभा ॥१॥ अन्यदाऽनेन भूपेन निर्गतेन पुरावहिः । चतुरङ्गेन सैन्येन सहितेन प्रधावता ॥२॥ चतुर्वपि च पादेषु बवा कच्छपमादरात् । यष्टिकायां प्रलम्ब्यैतं तत्पुरं प्राविशन्मुदा ॥३॥ सर्वाङ्गीणं वदंतोष भार्याशिशुसमुत्सुकः । दृष्टः स मात्स्यिकस्तूर्णं गच्छद्गीतं समुच्चरन् ॥ ४॥ भूपेनाभयघोषेण चक्र मुक्त्वा प्रयत्नतः । कच्छपस्यैकघातेन छिन्नं पादचतुष्टयम् ॥ ५॥ जीवन् स कच्छपोऽनेन धीवरेण त्वरावता । नीतः स्वमन्दिरं बाढं भयविह्वलचेतसा ॥६॥ कालं कृत्वा स दुःखेन तस्यामेव निशि द्रुतम् । नन्दनोऽभयघोषस्य चण्डवेगाभिधोऽजनि ॥७॥ प्रासादेऽभयघोषोऽपि भुञ्जानो भोगसंपदम् । खदेवीभिः समं सारं तिष्ठति प्रीतमानसः ॥८॥ विलोक्य सहसा चन्द्रं गृहीतं राहुणा तदा । स नरेन्द्रः सवैराग्यो नन्दनान्तेऽग्रहीत् तपः॥९॥॥ काकन्दीतः स संप्राप्य श्रीमदुजयिनी पुरीम् । वीरासनेन संतस्थेऽभयघोषमहामुनिः ॥१०॥ चण्डवेगाभिधानेन तत्पुत्रेणास्य कोपतः । पूर्ववैरेण संछिन्नं हस्तपादचतुष्टयम् ॥ ११ ॥ सहित्वाऽभयघोषोऽपि चण्डवेगोपसर्गकम् । केवलज्ञानमुत्पाद्य प्रययौ मोक्षमक्षयम् ॥ १२॥ ॥ इति अभयघोषमुनिकथानकमिदम् ॥ १३७ ॥ १३८. विद्युच्चरमुनिकथानकम्। अत्रैव भरतक्षेत्रे मिथिलानगरीभवः । आसीद् वामरथो राजा शूरः पद्मरथान्वये ॥१॥ बभूव तन्महादेवी रूपयौवनसंयुता । इष्टा बन्धुमती नाम बन्धुलोकमनःप्रिया ॥२॥ आरक्षिकोऽभवत् तत्र यमदण्डो यमोपमः । चौरो विधुच्चरः ख्यातश्चतुःषष्टिकलाऽन्वितः॥३॥ आदाय साररत्नानि बहुमूल्यानि तत्पुरे । भूमौ निधापयत्येष विधुच्चौरः कलाऽन्वितः॥४॥ कुष्टग्रस्तसमस्ताङ्गः कुथिताखिलविग्रहः । दिने देवकुले सोऽयं निर्विण्णो व्यवतिष्ठते ॥ ५॥ ॥ दिव्यदेहधरो नक्तं हृत्वा लोकधनं बहु । कामं गणिकया सार्धं भुञ्जानः स वितिष्ठते ॥ ६॥ अन्यदा तद्गृहं नक्तं प्रविश्य मतिकौशलात् । हारं वामरथस्यायं गृहीत्वा निर्ययौ द्रुतम् ॥ ७॥ यमदण्डं समाहूय प्रभातसमये सति । जगौ वामरथो राजा निद्राघूर्णितलोचनः॥८॥ अद्य नक्तं प्रविश्यैको मद्वासभवनं नरः। दिव्यरूपधरः श्रीमान् विद्युदुज्वलदेहकः ॥९॥ मोहं विधाय मे देव्याः पश्यतो मूढचेतसः । सुरदत्तं समादाय मुक्ताहारं स निर्ययौ ॥१०॥ यदि तं तस्करं तूर्णं लभसे दिनसप्तके । ततस्ते शोभनं नूनमन्यथा दण्डमर्हसि ॥११॥ श्रुत्वा वामरथस्सोक्तं तदानीं दण्डपाशिकः । चौरस्यान्वेषणं कर्तुं निर्गतोऽसौ नृपान्तिकात् ॥१२॥ आरामापणवापीषु "सरःसाणूरवेश्मसु । कुर्वाणोऽन्वेषणं चौरं यमदण्डो न दृष्टवान् ॥१३॥ अनाथं देशिकं धृत्वा शालायां सप्तमे दिने । तलारो हृष्टचेतस्को नृपान्तं गन्तुमुद्यतः॥१४॥ अञ्जनं गुटिकां दिव्यां गृहीत्वा रक्षकाग्रतः । मायारूपपरावर्त मायारूपं प्रकुर्वणाम् ॥ १५॥ ० नरदेवविमानानां कृतमागमनं वरम् । अनेन मायया स्पष्टमिन्द्रजालस्य दर्शनम् ॥ १६ ॥ ततोऽहं तस्करो नैव तलारो गुटिकाञ्जनम् । आदाय मद्वधार्थं च विदधाति परिस्फुटम् ॥१७॥ ___ 1 [काकन्द्याख्य ]. 2 [तन्नरेन्द्रस्य वल्लभा ]. 3 पफज युगलमिदम्. 4 फज सनन्दनः. 5 पफज चतु:कुलकमिदम्. 6ज साणूर कूप. 7 ज विदधामि. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१३८. १८श्लोकत्रयनिबद्धं यद्वचनं धूर्तसंभवम् । तचौरभाषितं सर्वं ज्ञातव्यं कोविदैरिदम् ॥१८॥ आरक्षिकेण भूपस्य कौतुकव्याप्तचेतसः। रूपस्य च परावर्तदर्शनं विहितं ध्रुवम् ॥ १९॥ अनाथो देशिको भ्रूणो यमदण्डेन नाशितः । कारणेन विना नूनं लोकस्य वचनं त्विदम् ॥२०॥ संदेहमन्तरेणैष तस्करो भवति स्फुटम् । नरेन्द्रहारचौर्योत्थं तलारवचनं त्विदम् ॥ २१॥ 5 आरक्षिकेण नीतोऽहं स्वगृहं शर्वरीमुखे । हिमवातकृताकम्पे माघमासे सुखप्रदे ॥ २२॥ द्वात्रिंशद्वेदना घोराश्चौरसंबन्धकारणाः । क्रियमाणा मया दोषे प्रापयिष्यन्ति पञ्चताम् ॥ २३॥ श्लोकद्वयेन च प्रोक्तं वचनं भयभीषणम् । तच्चौरभाषितं ज्ञेयं विद्वद्भिः कृतनिश्चयैः ॥२४॥ ततः प्रभातकाले च यमदण्डेन वेगतः । नृपस्य पुरतः प्रोक्तं तस्करोऽयं नरेश्वर ॥ २५॥ प्रत्यक्षं भूपतेरेष वदति प्रीतमानसः । शृणु मद्वचनं भूप तस्करो न भवाम्यहम् ॥ २६ ॥ 10 श्रुत्वा तद्वचनं राजा दत्त्वाऽभयमतीव सः। बभाण विस्मितस्वान्तस्तस्करं भीतिवर्जितम् ॥ २७॥ त्वं चौरोऽसि महासत्त्व विहिताश्चर्यकारण । न वा कथय मे शीघ्रं नितान्तं कौतुकेषिणः ॥ २८॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं बभाणेमं मलिम्लुचः । विद्युचराभिधश्चौरवित्तो भुवि भवाम्यहम् ॥ २९ ॥ अवाचि भूभुजा भूयो लंपिक्षुः पुरतः स्थितः । द्वात्रिंशद्दण्डना नक्तं कथं सोढा त्वया वद ॥३०॥ भूपालवचनं श्रुत्वा महाविस्मयकारणम् । विद्युच्चरो जगादैतं नानाशास्त्रविशारदम् ॥ ३१॥ 15 मुखारविन्दतः साधोः श्मशानस्थस्य धीमतः। श्रुतं नानाविधं दुःखं मया नरकसंभवम् ॥ ३२॥ शर्वरीसहितं दुःखं मया तेन विनिर्मितम् । इदं नरकदुःखस्य न समं लक्षभागतः ॥ ३३॥ इदं मया परिध्याय दुःखस्य सहनं नृप । कथितं तेऽखिलं सत्यमनुभूतं श्रुतं तथा ॥ ३४॥ विद्युच्चौरोदितं श्रुत्वा नरेन्द्रो निजगावमुम् । सांप्रतं सुष्ठु तुष्टोऽहं वरं ब्रूहि ददामि ते ॥ ३५ ॥ क्षोणीनाथवचः श्रुत्वा न्यगदत् तस्करोऽप्यमुम् । अभयं देहि मित्रस्य तलारस्य मम प्रभो ॥३६॥ 20 दत्त्वाऽभयं पुनः प्रोचे तस्करं धरणीधरः । यमदण्डः कथं मित्रं तव ब्रूहि ममाधुना ॥ ३७॥ धराधरवचः श्रुत्वा जगौ विद्युचरोऽपि तम् । आवयोर्मिनहेतुत्वं शृणु त्वं नरकुञ्जर ॥ ३८॥ अथास्ति वसुधासारो दक्षिणापथगोचरः । आभीरविषयो नाम धनधान्यसमन्वितः ॥ ३९॥ तस्मिन् विन्यानदीतीरे परं विन्यातटं पुरम् । जितशत्रुरभूदस्य प्रिया जयमतिः प्रिया ॥ ४० ॥ अन्योन्यस्नेहसंयुक्तमनसोरनयोरहम् । 'विद्युच्चराविधस्तोको नरेश्वरकलान्वितः ॥४१॥ 20 अत्रैव नगरे भूप यमनामा तलारकः । तत्प्रिया यमुना देवी यमदण्डस्तदङ्गजः॥४२॥ बालकाले त्वतिक्रान्ते चौरशास्त्रमिदं मया। शिक्षितं पृथिवीपाल समस्तं गुरुशासनम् ॥ ४३॥ अनेन यमदण्डेन तस्यैवान्ते नरेश्वर । तलाराणामिदं शास्त्रं शिक्षितं सकलं तदा ॥४४॥ एवं कृते सति क्षिप्रं मयाऽयं गदितः पुनः । आरक्षिकोऽसि यत्र त्वं तत्र चौरोऽस्मि भूपते ॥४५॥ श्रुत्वा मद्वचनं राजन्नेषोऽपि निजगाद माम् । लंपिक्षुरसि यत्र त्वं तत्राहं रक्षतः परः ॥ ४६ ॥ 30 कृतप्रतिज्ञयोरेवमावयोस्तत्र पत्तने । अन्योन्यप्रेमसंगेन याति कालः शनैः शनैः ॥४७॥ दत्त्वा राज्यश्रियं मह्यं मत्पिता भोगनिःस्पृहः । अभिनन्दनसामीप्ये दधौ जैनेश्वरं तपः ॥४८॥ अस्यापि जनको राजन् दत्त्वाऽस्यै स्वपदं सुधीः । अस्यैव च गुरोरन्ते तपो जैनमशिश्रयत् ॥४९॥ विन्यातटपुरे तत्र नानाजनसमाकुले । करोमि विपुलं राज्यं कण्टकैः परिवर्जितम् ॥ ५० ॥ 1 पफज चतुःकुलकमिदम्. 2 पफ युगलमिदम् , ज युगलम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 पफ युगलमिदम् , ज युगलम्. 5 The text in फ is mutilated. 6 [सोढास्त्वया]. 7 पफज त्रिकलम्. 8 [विद्युञ्चराभिध]. 9 [रक्षकः]. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ -१३९.७] गजकुमारकथानकम् पृथुराज्यं मयि स्पष्ट कुर्वाणो नरनायकः । अयं तत्पत्तनं याति नक्तं दिवमतन्द्रितः ॥५१॥ मत्पुरं सकलं राजन् रक्षताऽनेन चौरतः । मत्प्रभुस्तस्करोऽत्यर्थं तलारोऽहं च तत्पुरे ॥ ५२ ॥ न शोभनमिदं कार्य विधातुं नगरेऽत्र मे। तस्करो यत्र भूपालस्तत्र किं क्रियते मया ॥ ५३॥ चिन्तयित्वा चिरं तत्र मद्भयेन गरीयसा । आरक्षिकपदं हित्वा त्वदन्तमयमागतः ॥ ५४॥ बहुकालमदृष्ट्वाऽमुं कुर्वाणोऽस्य परीक्षणम् । अहं समागतो राजन् भवदीयं पुरं द्रुतम् ॥ ५५ ॥ । आवयोरेष संबन्धः प्राकृतः प्रकटो महान् । नरवृन्दारक स्पष्टः कथितस्ते मयाऽखिलः ॥५६॥ हारादिकं धनं सर्वं भूपालस्य पुरो लघु । तदा समर्पयामास विद्युच्चौरः सभान्तरे ॥ ५७ ॥ लोकोऽपि सकलं दिव्यं स्वकीयं तत्पुरोद्भवम् । जग्राह विस्मितस्वान्तस्तोषविस्फारितेक्षणः॥५८॥ इमं निगद्य वृत्तान्तं भूपस्य पुरतोऽखिलम् । तस्थौ मुदितचेतस्को विद्युच्चौरो नृपान्तिके ॥ ५९॥ अथ विधुच्चरस्यान्तं विज्ञाताशेषकारणेः । मत्रिभिः प्रहितो दूतो विन्यातटपुरादरम् ॥ ६०॥ ॥ विद्युच्चौरं परिप्राप्य जगौ दूतोऽपि तत्पुरः । आगत्य स्वपुरं शीघ्रं कुरु राज्यमकण्टकम् ॥ ६१ ॥ राजाऽयं सकलं ज्ञात्वा वृत्तान्तं दूतवाक्यतः । विद्युचौराभिधो नूनं भागिनेयो ममागतः ॥ ६२॥ भागिनेयं परिज्ञाय राजाऽयं निजगावमुम् । ददामि ते सुतां वत्स प्रतीच्छ द्रुतमादरात् ॥ ६३॥ अपकर्ण्य वचस्तस्य मातुलस्य विषादिनः । यमदण्डसमेतोऽसौ जगामाशु स्वपत्तनम् ॥ ६४ ॥ तत्र पुत्रं समाहूय समस्तजनसाक्षिकम् । राज्यपढें बबन्धास्य तदा विद्युच्चरः सुधीः ॥६५॥ 15 हित्वा परिग्रहं सर्वं बहुसामन्तसंगतः । गुणसेनान्तिके दीक्षां दधौ विधुच्चरस्तदा ॥६६॥ नानातपः प्रकुर्वाणः शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । तामलिन्द्रीं पुरीं प्राप मन्दं विद्युचरो मुनिः॥६७॥ तत्पुराभ्याशवर्तिन्या दुर्गया सहसा मुनिः । गदितोऽयं महाभत्तया नतया तत्पदाम्बुजे ॥ ६८॥ यावत् समाप्तिमायाति मत्पूजा परमेश्वरः । तावन्मा पत्तनं याहि सदयं दिनपञ्चकम् ॥ ६९ ॥ अपकर्ण्य वचस्तस्याः शिष्यैः प्रेरितमानसः । विवेश नगरी धीरः पताकावलिराजिताम् ॥ ७० ॥ 20 तामलिन्द्रीपुरस्यास्य समीपे परिधेरयम् । तस्थौ पश्चिमदिग्भागे नक्तं प्रतिमया मुनिः ॥ ७१ ॥ एवं स्थिते मुनौ तत्र रात्रौ देवतया तया । रुपा दंशोपसर्गोऽयं विहितः क्रूरचित्तया ॥ ७२ ॥ नानादंशोपसर्ग तं सहित्वा मेरुनिश्चलः । विद्युच्चरः समाधानान्निर्वाणमगमद्रुतम् ॥७३॥ ॥ इति श्रीविद्युच्चरमुनिकथानकमिदम् ॥ १३८ ।। 25 १३९. गजकुमारकथानकम् । अथ श्रावस्तिकाख्यायां नगर्यामभवत् प्रभुः । इक्ष्वाकुवंशसंभूत उपर्युपपदश्चरः ॥१॥ अभवत् तन्महादेवी पद्मावत्यभिधानिका । तनयोऽनन्तवीर्याख्योऽनन्तवीर्यः परोऽनयोः ॥२॥ शतानि पञ्च पुत्राणां सन्ति तस्य महीभृतः । रूपयौवनयुक्तानां वज्रपाण्यादिशालिनाम् ॥ ३॥ अथोपरिचरो राजा स्वकीयान्तःपुरान्वितः । महाप्रमोदसंयुक्तः प्रमदादिवनं ययौ ॥४॥ तत्र पद्मावती देवी द्वितीया चामितप्रभा । तृतीया सुप्रभा चाथ चतुर्थीयं प्रभावती ॥ ५॥ 30 महादेवीभिरेताभिः क्रीडितुं सह तदने । सुदर्शनाख्यवाप्यन्ते दृष्ट्वोपरिचरं नृपम् ॥ ६॥ मदनोपपदा वेगा विद्युइंष्ट्रधवान्विता । तदा प्रशंसयामास रममाणा वनान्तरे ॥७॥" 1 [द्रव्यं]. 2 ज तामलिन्द्रीपुरी. 3 [परमेश्वर ]. 4 पफ नानादेशोपसर्ग. 5 पफज युगलम्. Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१३९. ८विद्युइंष्ट्रो रुषं प्राप्य नीत्वा स्वनगरं प्रियाम् । आजगाम पुनः शीघ्रं तद्वने खेचरेश्वरः ॥८॥ सुदर्शनाख्यवाप्या हि घनया शिलया रुषा । द्वारमाच्छादयामास विद्युइंष्ट्रखगेश्वरः ॥ ९॥ एवं कृतेऽमुना कोपान्मिथ्यादर्शनसंयुतः। तदोपरिचरो राजा ममार सहसाऽत्र सः ॥१०॥ मृत्वाऽऽर्तध्यानतो राजा तद्वनेऽरुणलोचनः । कृष्णाञ्जनशरीराभो दन्दशूको बभूव सः॥ ११ ॥ 5 पद्मावत्यादिका भार्या सम्यग्दर्शनसंयुताः । विधायानशनं तस्यां मग्रुर्युगपदेव ताः ॥१२॥ विमाने खस्तिकावर्ते प्रथमवर्गसंभवे । चतस्रोऽपि महादेव्यो बभूवू रूपसंयुताः ॥ १३ ॥ तृतीयदिवसे जातेऽनन्तवीर्यस्तदङ्गजः । जगाम सहसा रन्तुं तदुद्यानवनं मुदा ॥ १४ ॥ तच्छिलातलसंविष्टमवधिज्ञानलोचनम् । मुनि सागरसेनाख्यं ददर्शानन्तवीर्यकः ॥१५॥ नत्वाऽमुं भक्तितो राजा तोषशोकसमन्वितः । अवधिज्ञानसंपन्नं पप्रच्छेमं महामुनिम् ॥ १६ ॥ ॥ भव्यलोककृतानन्द सुरखेटनमस्कृत' । मत्पिता कां गति नाथ गतो ब्रूहि ममाधुना ॥ १७ ॥ निशम्यानन्तवीर्यस्य वचनं मुनिसत्तमः । वचसा सत्यरूपेण बभाणेमं पुरः स्थितम् ॥ १८॥ सुदर्शनाख्यवाप्यन्ते विद्युदंष्ट्रण कोपतः । त्वत्पिता मरणं नीतः शिलापिहिततन्मुखे ॥ १९॥ आर्तध्यानान्मृतिं प्राप्य मिथ्यादर्शनयोगतः। बभूवात्र वने कृष्णो भीमभोगो भुजङ्गमः॥२०॥ श्रुत्वा महामुनेवाक्यं तदाऽनन्तबलोऽगलन् । किमयं नाथ मे ब्रूहि जिनधर्म ग्रहीष्यति ॥ २१॥ 15 आकर्ष्यानन्तवीर्यस्य वचनं मुनिनायकः । अवधिज्ञानसंपन्नो बभाणेमं तदङ्गजम् ॥ २२॥ गत्वा तद्विलसामीप्यमेवं वद भुजङ्गमम् । यथोपरिचर क्षिप्रमेहि साधुसमीपताम् ॥ २३॥ त्वदीयवचनं श्रुत्वा बिलान्निर्गत्य वेगतः । जातिस्मरत्वमासाद्य सर्पो धर्म ग्रहीष्यति ॥ २४॥ मुनिवाक्येन संप्राप्य तदन्तं नरकुञ्जरः । बभाण मुनिवाक्येन पन्नगं बिलसंस्थितम् ॥ २५॥ अनयाऽवस्थया सर्प मुनिमासाद्य कोपतः । जिनधर्म गृहाणाशु सुखितां येन गच्छसि ॥ २६ ॥ ॥ श्रुत्वाऽनन्तबलस्योक्तं निर्गत्य शनकैर्बिलात् । मुनिपार्श्व जगामाहिधर्मविन्यस्तमानसः ॥ २७॥ पुरःस्थितमहिं साधुर्जगावुपचरं पुरा । धर्म गृहाण मद्वाक्यादधुना जिनदेशितम् ॥ २८॥ जातिस्मरत्वमासाद्य सर्पोऽयं मुनिवाक्यतः । जग्राह मनसा धर्म भक्तितो जिनभाषितम् ॥ २९॥ अल्पायुः स्वस्य विज्ञाय मुनिचन्द्रनिवेदनात् । गृहीत्वाऽनशनं तूर्ण पञ्चत्वमगमत् फणी ॥३०॥ देवो नागकुमारोऽभूत् त्रिपल्योपमजीवितः । हारराजितवक्षस्कः सुन्दरो नागमन्दिरे ॥ ३१ ॥ 25 अन्यदा जननीदेवो विज्ञायावधियोगतः । रूपराजितसर्वाङ्गं तदन्तं सहसाऽगमत् ॥ ३२॥ ततः सुवासुनामानं समाहूय स्खनन्दनम् । ददावनन्तवीर्योऽयं निजराज्यमकण्टकम् ॥ ३३॥ बाह्यमाभ्यन्तरं संगं हित्वाऽनन्तबलस्तदा । दधौ सागरसेनान्ते दीक्षां दैगम्बरीमरम् ॥ ३४ ॥ निहत्याशेषकर्माणि कृतदुःखानि देहिनाम् । मुक्तिं जगाम शुद्धात्माऽनन्तवीर्यो महामुनिः ॥३५॥ अथ नागकुमारोऽसौ नन्दीश्वरमहामहम् । विधाय मन्दरं प्राप्य वन्दनार्थं जिनेशिनाम् ॥ ३६॥ 30 विद्युद्दष्ट्रं गिरावत्र विद्यां साधयितुं श्रितम् । देवो नागकुमारोऽसौ सकलत्रं ददर्श तम् ॥ ३७॥ नीत्वा वारिधिमध्यं तं सकलत्रं निकारिणम् । पूर्ववैरानुबन्धेन ममार स सुरो रुषा ॥ ३८॥ खटखटाभिधे श्वभ्रे विद्युदंष्ट्रो हतोऽमुना । देशोनकत्रिपल्यायुः प्रथम नरकं ययौ ॥ ३९ ॥ ततो निःसृत्य दुःखेन विद्युदंष्ट्रचरो सुहृत् । बभूव पुण्डरीकोऽसौ तोणिमद्धरणीधेर ॥ ४०॥ 1 पफ नमस्कृतः. 2 पफज युगलमिदम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 [°वलोऽगदत् ]. 5 पफज निकलमिदम. 6 h has an emendation भक्तितः, 7 पफज युगलमिदम्. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ -१३९. ७३] गजकुमारकथानकम् हस्तिनागपुरे कान्ते कुरुवंशसमुद्भवः । राजा विजयदत्तोऽभूद् विजयाऽस्य नितम्बिनी ॥४१॥ देवो नागकुमारोऽपि कालं कृत्वाऽऽर्तवर्जितः । गुरुदत्ताभिधो रूपी बभूव तनयोऽनयोः॥४२॥ जनकोऽस्याष्टवर्षस्य दत्त्वा राज्यं महामतिः । जिनसेनान्तिके दीक्षां जग्राह जिनदेशिताम् ॥४३॥ हस्तिनागपुरे रम्ये गुरुदत्तोऽपि तत्सुतः । चकार विपुलं राज्यं त्रिदिवे वा पुरन्दरः॥४४॥ लाटदेशाभिधे देशे चारुलोकधनान्विते । पूर्वोत्तरदिशाभागे तोणिमद्भूधरस्य च ॥४५॥ । आसीच्चन्द्रपुरी रम्या सितप्रासादसंकुला । बहुलोकसमाकीर्णा धनधान्यसमन्विता ॥४६॥ चन्द्रकीर्तिरभूदस्यां नरेन्द्रो जितशात्रवः । चन्द्रलेखा महादेवी तस्य चन्द्रसमानना ॥४७॥ जिनमत्यादिकास्तस्या बभूवुः सप्त कन्यकाः । तन्मध्ये पश्चिमा जाताऽभयादिमतिरुत्तमा ॥४८॥ गुरुदत्तोऽपि तां कन्यां तत्तातं याचिते तराम् । तत्पिता मनसाऽपीमां दातुं नेच्छति रूपिणीम् ॥४९॥ अनेन कारणेनाशु स्कन्धावारेण भूयसा । वेष्टयित्वा पुरीमस्य गुरुदत्तोऽपि तस्थिवान् ॥ ५० ॥ ततो महाहवो जातो गुरुदत्तस्य भीषणः । चन्द्रकीर्तिनृपेणामा बहुशूरक्षयावहः ॥५१॥ ततो महीन्द्रदत्तस्य स्थितस्य रणमस्तके । सकङ्कणोऽरिणा छिन्नः केनचित् पातितः करः ॥ ५२॥ गृहीत्वा तं करं शीघ्रं सौलिका गगनस्थिता । भ्राम्यति स्म यशोऽस्यैव दर्शयन्तीव नाकिनाम् ॥५३॥ भ्रमन्त्याः सौलिकायाः खे स्थिताया निजमन्दिरम् । पपात सहसा व्योम्नः करोऽभयमतेः पुरः ॥५४॥ स्वपुरस्थं करं दृष्ट्वा महाकटकराजितम् । कन्यया धात्रिका पृष्टा ब्रूह्ययं पतितः कुतः॥ ५५ ॥ 15 कन्यावचनमाकर्ण्य धात्रिका निजगावमूम् । विस्मयव्याप्तचेतस्कां किंचिञ्चकितमानसाम् ॥५६॥ कृते ते पुत्रि संग्रामे प्रवृत्ते जनसंक्षये । कस्यचित् केनचिच्छिन्नः करोऽयं पतितो भुवि ॥ ५७॥ धात्रिकावाक्यमाकर्ण्य कन्येयं विकसन्मुखी । सविस्मया च संजाता तदानीं क्षणमात्रकम् ॥५८॥ अत्रान्तरे भयग्रस्तश्चन्द्रकीर्तिनरेश्वरः । ददौ कन्यामिमां प्रीतो गुरुदत्ताय धीमते ॥ ५९॥ अनया भार्यया सार्धं गुरुदत्तस्य तिष्ठतः । आगत्य सहसा लोको जगादेदं पुरोऽस्य सः ॥ ६० ॥ 20 तोणिमत्पर्वतस्यान्ते स्थितेन नरकुञ्जर । व्याघेणोद्वासितो देशः सकलोऽपि दुरात्मना ॥ ६१॥ श्रुत्वा लोकवचो राजा गुरुदत्ताभिधो रुषा । खसैन्यसमुदायेन तोणिमत्पर्वतं ययौ ॥ ६२॥ श्रुत्वा कलकलारावं तत्सैन्यस्य करिवनम् । प्रविवेश गुहामध्यं वसरो भयविह्वलः ॥ ६३ ॥ यदा तन्मारणं कर्तुं शक्नुवन्ति न तन्नराः । तदा गुहामुखे वह्निज्वालितस्तैस्तृणादिभिः ॥ ६४ ॥ तद्गुहामुखकीयेन महाधूमेन वह्निना । ज्वालोद्योतितखेनाशु व्याघ्रो मृतिमुपागमत् ॥६५॥ 25 चन्द्रापुर्यामभूद् विप्रो भवधर्माभिधः पुरि । तत्प्रिया माहनी नाम विश्वदेवी मनःप्रिया ॥६६॥ मृत्वा व्याघ्रोऽभवत् पुत्रस्तयोः प्रेमानुरक्तयोः। कपिलो नाम विख्यातः कपिलाऽस्य च तत्प्रिया॥६७॥ ततो बहूनि वर्षाणि भुक्त्वा भोगान् यथेप्सया । भव्यानभयमत्याऽमा चन्द्रपुर्यामनारतम् ॥६८॥ हस्तिभिर्मदिभिस्तुङ्गैतिवेगैस्तुरङ्गमैः । रथैः कनकनिर्माणैः पादातैः कृतनिखनैः ॥ ६९ ॥ सहितो बन्दिवृन्देन तूर्यमङ्गलनिखनैः । गुरुदत्तो विवेशाशु हस्तिनागपुरं परम् ॥ ७० ॥ ॥ ततोऽभयमतिश्चार्वी कालेन कलनिस्वना । सुतया भद्रनामानमसूत तनयं परम् ॥ ७१ ॥ अन्यदा तत्पुराभ्याशे धरणीभूषणं गिरिम् । नानाशिलातलोपेतं तरुषण्डविराजितम् ॥ ७२॥ अमृताश्रवनामायमाचार्यः श्रुतसागरः । आजगाम तपोराशिमुनीनां सप्तभिः शतैः ॥७३॥ 1 पत्रिदेवे, फ त्रिदेवा. 2 [याचते]. 3 [खपुरस्तं]. 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफज युगलमिदम्. 6 पफज युगलमिदम्. 7 पफज त्रिकलमिदम्. 8 पफज युगलमिदम्. बृ० को०४२ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १३९.७४आकर्ण्य तं मुनिं प्राप्तं गिरावत्र मनोरमे । आजगाम महाभत्त्या गुरुदत्तस्तदन्तिकम् ॥ ७४ ॥ त्रिः परीत्य मुनिं भक्त्या नत्वाऽमुं स निविश्य च । पप्रच्छ स्वान् भवान् पूर्वान् गुरुदत्तः कृताञ्जलिः ॥ गुरुदत्तोदितं श्रुत्वा मुनिचन्द्रो महामुनिः। कृपावधूपरिष्वक्तमानसो निजगाविदम् ॥ ७६ ॥ आसीदन्यभवे राजन् राजोपरिचरोऽप्यहिः । ततो नागकुमारोऽपि गुरुदत्तोऽसि सांप्रतम् ॥७७॥ 5 श्रुत्वा भर्तृभवानेतांश्चतुरोऽपि मुनीरितान् । पप्रच्छ स्वभवं पूर्वमभयादिमतिर्यतिम् ॥ ७८॥ अभयादिमतेर्वाक्यं निशम्य मुनिनायकः । अवादीत् तद्भवान् सर्वानवधिज्ञानलोचनः ॥ ७९ ॥ आसीद् गरुडवेगाख्यो गन्धर्वनगरोद्भवः । तत्प्रिया गोमती नाम संजाता पूर्वजन्मनि ॥ ८० ॥ अन्यदैतां पुरीं वापि विहरन् गतियोगतः। मुनिः समाधिगुप्ताख्यः संप्रापज्जनवत्सलः ॥ ८१॥ मधुमांससुरापानस्तेयप्राणिवधोज्झनम् । व्रतमेतत् समादाय गत्वा त्वं स्वगृहं पुनः ॥ ८२ ॥ 10 त्वद्धवेन पुनर्बद्धा बहवस्तित्तिरा गृहे । पञ्जरस्थास्त्वया मुक्ता गतास्ते स्वमनीषितम् ॥ ८३॥ ततस्तेन रुषा त्वं च स्वगृहाद्घाटिता सती । कृत्वा निदानजान् भोगान् संप्राप्ता पञ्चतामरम् ॥८४॥ जाता त्वं चन्द्रलेखायास्तनया मतिशालिनी । अभयादिमतिः पुत्रि दयार्दीकृतमानसा ॥ ८५॥ त्वया गर्भस्थया तन्वि धर्मविन्यस्तचेतसा । त्वन्मातुश्चन्द्रलेखाया बभूव हृदि दौहृदम् ॥ ८६॥ त्वजनन्या धवोऽवाचि नाथाहमखिलाङ्गिनाम् । अभयं त्वत्प्रसादेन ददामि वसुधातले ॥ ८७॥ 15 त्वन्मातृवाक्यतोऽनेन स्वकीये विषयेऽखिले । जीवाभयप्रदानोत्था वितीर्णा घोषणा द्रुतम् ॥८८॥ अनेन कारणेनायें जनकेन दयाऽन्विता । अभयादिमतिः प्रोक्ता समस्तनृपसाक्षिकम् ॥ ८९ ॥ श्रुत्वाभयमतिः पूर्वं भवं मुनिवरोदितम् । अभयाद्यर्यिकापार्श्वे प्रवव्राज मनस्विनी ॥९॥ गुरुदत्तः सपुत्राय श्रीदत्ताय श्रियं पराम् । दत्त्वाऽमितमुनेः पार्थे तपो जैनमशिश्रियत् ॥ ९१॥ अथ भक्तं समादाय कपिला दधिमिश्रितम् । क्षेत्रं जगाम हृष्टात्मा स्वकीयं पतिशासनात् ॥९२॥ 20 कपिलो विलिखेत् क्षेत्रं लाङ्गुलेन क्षुधाऽर्दितः । क्रुद्धो मध्याह्नवेलायां प्रययौ निजमन्दिरम् ॥१३॥ दृष्ट्वा निजगृहे रुष्टः कपिलः कपिलां जगौ । दुष्टे किं कारणं भक्तं भुक्त्वा स्वगृहमागता ॥ ९४॥ अहमद्यापि पापिष्ठे क्षुधापम्पाकदर्थितः । तिष्ठामि दुष्टचेतस्को दुर्जनानां सुदुर्जनि ॥ ९५ ॥ कपिलोदितमाकर्ण्य कपिलाऽपि बभाण तम् । त्वदर्थं भक्तमादाय गता क्षेत्रं मनःप्रिय ॥९६ ॥ अदृष्ट्वा त्वां पुनस्तत्र बुभुक्षाग्रस्तचेतसम् । आगता स्वगृहं नाथ भयवेपितविग्रहा ॥ ९७ ॥ 25 कपिलाया वचः श्रुत्वा न्यगदीत् कपिलोऽपि ताम् । मुनिना तेन किं नोक्तमिदं वाक्यं पुरस्तव ॥९॥ अन्यक्षेत्रं गतो विप्रो हलमादाय बालिके । क्षेत्रस्य कर्षणं कर्तुं बुभुक्षाग्रस्तमानसः ॥ ९९ ॥ निशम्य कपिलेनोक्तं जगाद कपिलाऽपि तम् । इदं मुनिमया पृष्टो किं दृष्टो मत्पतिस्त्वया ॥१०॥ मुनिस्तथाऽपि नो किंचिद्वक्ति निष्ठुरमानसः। अलोकज्ञो विशुद्धात्मा मूकतां प्राप्य तस्थिवान्॥१०॥ तद्वाक्यतो रुपं हित्वा कपिलः कपिलोपरि । सद्यश्चुकोप दुष्टात्मा साधवेऽस्मै कृपावते ॥१०२॥ 30 वर्तिविण्टनमादाय करेणाग्निं च विप्रकः । प्रतिमास्थं मुनिं प्राप्य कोपलोहितलोचनः ॥१०३॥ पादप्रभृति तं साधु यावन्मस्तकमादरात् । वेण्टेन वेष्टयित्वाशु नितान्तं छिद्रवर्जितम् ॥ १०४॥ तन्मस्तकोपरि क्षिप्रं विस्मयाहारकं क्रुधः । कपिलोऽग्निं प्रजज्वाल पूर्ववैरानुबन्धतः ॥१०५॥ अध्यास्य वेदनां घोरां गुरुदत्तो महामुनिः। संप्राप्य केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम् ॥१०६॥ 1 पफज कुलकमिदम्. 2 पफज त्रिकलमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्, 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफज युगलम्. 6 पफज त्रिकलमिदम्. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३९. १४० ] गजकुमारकथानकम् अमराः केवलं ज्ञात्वा गुरुदत्तमहामुनेः । चतुर्विधाः परिप्राप्ता नन्तुं केवलिनं तदा ॥१०७॥ दृष्ट्वाऽतिशयमीक्षं गुरुदत्तस्य योगिनः । कृत्वा खनिन्दनं बाढं प्राप्य केवलिनं द्विजः ॥१०८॥ नत्वा केवलिनः पादौ श्रुत्वा धर्म जिनोदितम् । पप्रच्छ स्वभवान् पूर्वान् कपिलो भयवेपितः॥१०९॥ श्रुत्वाऽस्य वाचिकं शीघ्रं गुरुदत्तोऽपि केवली । जगाद तद्भवान् पूर्वान् संक्षेपेण यथाक्रमम् ॥११०॥ आसीस्त्वं प्रथमं भद्र विद्युदंष्ट्रः सुखेचरः । हतो नागकुमारेण मृत्वा रत्नप्रभामितः ॥१११॥5 ततो निर्गत्य रुष्टेन तोणिमत्पर्वतोपरि । पुण्डरीको महाकायः शातदंष्ट्रो भयंकरः ॥ ११२ ॥ गुरुदत्तेन भूपेन तद्गिरौ पञ्चताविधिम् । नीतोऽसि सांप्रत जातः कपिलः कपिलापतिः॥११३॥ श्रुत्वा केवलिनो वाक्यं हित्वा वैरं पुरातनम् । बभूव कपिलः सद्यस्तदन्ते मुनिपुङ्गवः ॥११४ ॥ कपिलोऽयं गृहीतार्थों गृहीतैकविहारकः । यथास्तमनशायी च कौङ्कणं विषयं ययौ ॥ ११५॥ गिरिवल्लरके भीमे शुष्ककाष्ठचयोपरि । कपिलः शर्वरीयोग जग्राह स्थिरमानसः ॥ ११६॥ 10 ततस्तद्वल्लरे वह्नि क्षिप्त्वा नक्तं स पामरः । अजानंस्तं मुनि तत्र जगाम स्खं निकेतनम् ॥११७॥ उपसर्ग सहित्वाऽरं चित्रभानुसमुद्भवम् । कपिलः शुद्धचेतस्कः कालं चक्रे समाधिना ॥११८॥ ततोऽसावच्युते कल्पे हारकुण्डलराजितः । द्वाविंशतिसमुद्रायुर्जातो देवो महर्द्धिकः ॥ ११९ ॥ ततोऽसौ कौङ्कणः प्राप्य प्रभाते वलरं द्रुतम् । तत्र तं मुनिमालोक्य वह्निना भस्मसात्कृतम् ॥१२०॥ विधाय निन्दनं वस्य गर्हणं च सुदुःखितः। तस्मिन्नग्नौ स्वयं क्षिप्त्वा देवो हीनोऽभवत् पुनः॥१२१॥ 15 आयुरन्ते सको विन्ध्ये नानाव्यालनगाकुले । श्वेतहस्ती बभूवाशु भीमरूपः सितध्वजः ॥१२२॥ अन्यदा तं गजं दृष्ट्वा कुर्वन्तं जनसंक्षयम् । अच्युतेन्द्रः समायातस्तदा बोधयितुं वने ॥१२३॥ बोधयित्वा तकं शीघ्रं नयदृष्टान्तहेतुभिः । अच्युतेन्द्रो दिवं जातो गजोऽपि प्रशमं ययौ ॥१२४॥ संयमाख्यं तपः शान्तं गजोऽयं प्रीतमानसः । चकारानुदिनं तत्र क्षान्तिभूषितविग्रहः ॥ १२५॥ अन्यदा गजवृन्दं च दावानलशिखाहतम् । अधो न्यग्रोधवृक्षस्य तस्थौ संत्रस्तमानसम् ॥१२६॥ 20 दावानलश्चिरं तत्र ज्वालाभासितपुष्करः । शुष्कशाखां दहत्यग्निनितान्तं तद्गजोपरि ॥ १२७॥ एवं ज्वलति तद्वह्नौ सम्यग्दृष्टिगजस्य च । पादमूलेऽग्निसंत्रस्तः प्रविष्टः शशकस्तदा ॥ १२८॥ सम्यग्दृष्टिगजो मृत्वा दावानलशिखाहतः । शान्तिभूषितचेतस्कः सहस्रारे सुरालये ॥ १२९ ॥ पद्मगुल्मविमानेऽभून्मुक्ताहारविराजितः । अष्टादशसमुद्रायुः सुरो रूपमनोहरः ॥ १३०॥ ततो गजचरो देवश्युत्वा राजगृहे पुरे । श्रेणिकस्य महादेव्या गर्ने सोऽयं धनश्रियः ॥ १३१ ।। 25 श्रेणिकस्य महादेव्या रूपवत्या धनश्रियः । तस्मिन् गर्भस्थिते देवे दौहृदं समभूदिदम् ॥१३२॥ अभिरुह्य गजं हन्तुं प्रावृटकाले सविद्युति । स्कन्धावारेण सर्वेण प्रविश्य गहनं वरम् ॥ १३३ ॥ न्यग्रोधस्य फलावाप्त्यै दिव्यशाखादिशालिनः । फलपत्रसमृद्धस्य चित्रपादपशोभिनः ॥ १३४॥ रजनीपश्चिमे यामे श्वेतस्य वनहस्तिनः । स्वप्ने प्रदर्शनं जातं मम नाथाद्य शोभनम् ॥ १३५ ॥ धनश्रियो वचः श्रुत्वा श्रेणिको दुःखिताशयः । अभयादिकुमारं च समाहूयाभ्यधादिदम् ॥१३६॥ 30 कुमार सुकुमाराङ्ग मतिराजितमानस । उपायं ब्रूहि मे शीघ्रं दौहृदस्य धनश्रियः ॥ १३७ ॥ तातीयं वचनं श्रुत्वा कुमारोऽभयपूर्वकः । तदुपायं जगादेमं श्रेणिकस्य पुरस्तदा ॥१३८ ॥ विद्यते विजयाधस्य दक्षिणस्यां दिशि प्रभो । आकाशतिलकाभिख्या नगरी परमोत्सवा ॥ १३९ ॥ बभूवास्यां पुरि श्रीमान् खेचरेन्द्रो मनःप्रियः । कनकोपपदा माला तत्प्रिया मनसः प्रिया ॥१४॥ ____ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफ काष्ठचरोपरि. 3 [ यातो ]. 4 ज गर्भे स धनश्रियः, [ सोऽयाद्धनश्रियः ]. 5 पफज चतुःकुलकमिदम्, Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १३९. १४१ १५० ॥ १५१ ॥ १५२ ॥ १५३ ॥ १५४ ॥ नीलोत्पलदलश्यामा कन्दोट्टदललोचना । कनकोपपदा चित्रा बभूव तनयाऽनयोः ॥ १४१ ॥ साधयन्तीं तकां विद्यां खेचरीं रूपशालिनीम् । चित्रपूर्वगतिः खेटो जग्राह करपल्लवे ॥ १४२ ॥ श्रुत्वा तत्किंवदन्तीं च मनोगत्यादिखेचराः । ऊचुस्तं खरनादेन कोपारुणनिरीक्षणाः ॥ १४३ ॥ तिष्ठ द्वादश वर्षाणि भूत्वा भूगोचरः खगः । प्रायश्चित्तमिदं दत्तं तस्य तै रुपमागतैः ॥ १४४ ॥' अनेन कारणेनायं प्राप्य राजगृहं पुरम् । खेचरः प्रीतचेतस्कस्तस्थौ कामलतागृहे ॥ १४५ ॥ वर्षेर्द्वादशभिः पूर्णैर्ब्रजन्तं खेचरं दिवि । दृष्ट्वा पप्रच्छ तं विद्यां कुमारोऽभयपूर्वकः ॥ १४६ ॥ तद्वाक्यतो वितीर्णास्ता विद्याः खेटेन तस्य च । कुमारः साधयामास विद्यासंघ सुधीरधीः ॥ १४७॥ ततः साधितविद्योऽसौ कुमारोऽभयपूर्वकः । समं विद्याधरेन्द्रेण चकार स्थिरसंगतिम् ॥ १४८ ॥ अन्यदा दौहृदार्थत्वात् कुमारः प्रीतमानसः । सस्मार तस्य मित्रस्य विद्यादानविधायिनः ॥१४९॥ 10 कुमारस्मरणं ज्ञात्वा तदा दौहृदसंभवम् । खेचरेन्द्रः परिप्राप तन्मित्रं प्रेमतत्परः ॥ तदिष्टं दौहृदं कृत्वा विद्याधरमहेश्वरः । ततः पूजां परिप्राप्य जगाम स्वं निकेतनम् ॥ अथ मासेष्वतीतेषु नवसु क्रमतोऽस्य च । जातो गजकुमाराख्यस्तनयो धर्मभूषितः ॥ अत्रान्तरे समायातः सुमतिः सुमतिर्मुनिः । पूजितः सर्वलोकेन भक्तितः कृतवन्दनः ॥ समीपेऽस्य मुनेः श्रुत्वा धर्मं पूर्वभवं निजम् । जगामोपशमं धीमान् कुमारो गजपूर्वकः ॥ 15 तत्समीपे ततः प्राप्य कुमारो जैनपुङ्गवम् । गृहीत्वाऽऽगमसद्भावं प्राप्तश्चैकविहारताम् ॥ १५५ ॥ अन्यदा विहरन् क्वापि कलिङ्गविषयोद्भवम् । पुरं दन्तिपुराभिख्यमाजगाम महामुनिः ॥ १५६ ॥ तत्पश्चिमदिशो भागे स मुनिर्गजपर्वते । जग्राहातापनायोगं शुचौ कर्मविहानये ॥ १५७ ॥ पुरन्दरपुरश्रीके सुरमानसहारिणि । वसति श्रीतचेतस्को नरसिंहो नरेश्वरः ॥ १५८ ॥ अभवत् तन्महादेवी सुमतिः सुमतिस्तराम् । गुणपालः सुतस्तस्य निहताशेषशात्रवः ॥ १५९ ॥ गूढमत्रप्रयोगज्ञो मन्त्री निष्ठुरमानसः । बुद्धदासोऽभवत् तस्य नरेन्द्रस्य महामतेः ॥ १६० ॥ गजपर्वतमध्यस्थमालोक्य मुनिपुङ्गवम् । गुणपालो बभाणेदं मत्रिणं पुरतः स्थितम् ॥ १६९ ॥ किं कारणमयं योगी पर्वतेऽत्र समुन्नते । संतिष्ठतेऽचलखान्तो दिवाकरकराहतः ॥ १६२ ॥ गुणपालवचः श्रुत्वा बुद्धदासो जगावमुम् । राजन् शरीरमेतस्य गृहीतं चण्डवायुना ॥ निशम्य बुद्धदासस्य वचनं भूपतिर्जगौ । वदैतस्य मुनेः शीघ्रमौषधं वातनाशनम् ॥ 25 आकर्ण्य भूपतेर्वाक्यं बुद्धदासो जगावमुम् । शिलातलमिदं तप्तं क्रियते वह्निनौषधम् ॥ भिक्षानिमित्ततो यावन्मुनिर्यातः पुरं प्रति । तावच्छिलातलं तप्तं कारितं वह्निनाऽमुना ॥ इदं देवतया प्रोक्तो मुनिर्भिक्षां प्रति व्रजन् । मुनीन्द्र स्तोकमायुस्ते यत्पथ्ये तत्कुरु द्रुतम् ॥१६७॥ निशम्य देवतावाक्यं स मुनिवतसंशयः । आजगाम पुनर्धीरस्तदेवाभिशिलातलम् ॥ १६८ ॥ कृत्वाऽशनादिकस्यासौ नियमं सार्वकालिकम् । तस्मिन् शिलातले तस्थौ कायोत्सर्गेण धीरधीः॥ १६९॥ उपसर्गं सहित्वाऽमुं कृत्वा कालं समाधिना । अन्तकृत्केवली भूत्वा निर्वाणं गतवानसौ ॥ १७० ॥ दृष्ट्वा गजकुमारस्य तदाऽतिशयमीदृशम् । बुद्धदासोऽभवत् तूर्णं सम्यग्दर्शनसंयुतः ॥ १७१ ॥ गुणपालः खपुत्राय नरपालाय संपदम् । दत्त्वा तदा दधौ दीक्षां सुमत्यन्ते जिनोदिताम् ॥ १७२॥ ॥ इति श्रीगजकुमारमुनिकथानकमिदम् ॥ १३९ ॥ १६३ ॥ १६४ ॥ १६५ ॥ १६६ ॥ 5 20 30 ३३२ * 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज युगलमिदम् 3ज गौणपालं वचः. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४०. ३२] चिलातमित्रकथानकम् १४०. चिलातमित्रकथानकम् । गोपालकाभिधानोऽयं मगधाविषयोद्भवः । सार्थवाहश्चचालैकः सार्थेन महता सह ॥१॥ यशोधराभिधं दृष्ट्वा मुनिमेकविहारिणम् । भ्राम्यन्तं ग्राममध्येऽमुं क्रमतो गृहतो गृहम् ॥२॥ मृदुस्वभावयुक्तोऽयं दयार्दीकृतमानसः । भिक्षादानं ददावस्मै सार्थवाहः स साधवे ॥३॥ सार्थवाहो मृतिं कृत्वा जम्बूद्वीपे मनोरमे । पल्यैकजीवितो देवो जातोऽसौ भासुरप्रभः ॥४॥ सार्थवाहचरो देवो भुक्त्वा भोगं तदुद्भवम् । प्रश्रेणिकसुतो जातश्चिलाताख्यो विशुद्धधीः ॥५॥ ततः प्रश्रेणिको राजा श्रीमदुजयिनी पुरीम् । दूतं प्रवेशयामास मुद्रायणकुमारकम् ॥ ६॥ श्रीमदुञ्जयिनीनाथः प्रद्योतोऽपि नराधिपः । मुद्रायणं बबन्धाशु संग्रामे जनसंक्षये ॥ ७॥ सार्थेन महताऽऽगत्य कुमारः कुण्डनामकः । हृत्वा मुद्रायणं तूर्णं निन्ये राजगृहं पुरम् ॥ ८॥ ततः प्रद्योतभूपालो रुषमागत्य वेगतः । स्वसैन्यसमुदायेन ययौ प्रश्रेणिकं प्रति ॥ ९॥ श्रुत्वा प्रद्योतमायान्तं स्वपुरासन्नगोचरे । प्रश्रेणिकस्त्विमां शीघ्रं दापयामास घोषणम् ॥१०॥ बवा प्रद्योतभूपालं यस्तमानयति द्रुतम् । मदन्तिकं ददाम्यस्मै वरमिष्टं विसंशयम् ॥११॥ ततश्विलातपुत्रोऽपि श्रुत्वा जनकघोषणाम् । जलक्रीडारतं बवा प्रद्योतं प्रददौ पितुः ॥१२॥ ततः प्रद्योतमालोक्य तुष्टः प्रश्रेणिको नृपः । ददौ चिलातपुत्राय वरमेतमुदारधीः ॥१३॥ स्वकीययेच्छया पुत्र पुरे राजगृहेऽनिशम् । तिष्ठ द्वादशवर्षाणि भोगसंसक्तमानसः ॥ १४॥ ॥ ततः प्रश्रेणिको राजा वितीर्यास्मै स्वसंपदम् । जिनसेनान्तिके दीक्षां जग्राह जिनदेशिताम् ॥१५॥ ततश्चिलातपुत्रोऽपि श्रेणिकेन रुषं गते । कुर्वाणो विनयं बाढं स्वदेशादपसारितः॥१६॥ तूर्ण निर्धाटितोऽनेन निर्गत्य शनकैर्वनम् । मातामहान्तिकं प्राप चिलातो दीनमानसः ॥१७॥ दुर्गको विधायात्र गृहीत्वा देशमण्डकाम् । भुञ्जानः परमं भोगं चिलातो व्यवतिष्ठते ॥ १८॥ एवं चिलातपुत्रस्य याति कालः शनैः शनैः । अभूत् प्राणप्रियोऽत्यर्थं भर्तृमित्राभिधः सखा ॥१९॥ 20 मातुलो भद्रदत्ताख्यः सुभद्रां स्वसुतामसौ । दातुं नेच्छति तां कन्यां भर्तृमित्राय शोभनाम् ॥२०॥ सहस्रैः पञ्चभिः सार्धं भटानां तत्पुरं द्रुतम् । ग्रहीतुं तामसौ कन्यां भर्तृमित्रो ययौ रुषा ॥२१॥ स्नानं प्रकुर्वती कन्यां विवाहसमये सति । भर्तृमित्रः समादाय सुभद्रां प्रययौ ततः ॥ २२॥ तत्पृष्ठतः खसैन्येन कृतकोलाहलेन सः। दधाव श्रेणिकः कोपात् सहसाकृष्टकार्मुकः ॥ २३॥ तद्भयेनामुना कन्या भर्तृमित्रेण वेगतः । निहता व्यन्तरी जाता सुभद्रा दैवयोगतः ॥ २४ ॥ 28 भर्तृमित्रस्ततः शीघ्रं भयवेपितविग्रहः । वैभारपर्वतं तुङ्गमारुरोह श्रमातुरः ॥ २५॥ तत्पर्वतस्थितं दृष्ट्वा शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । मुनिदत्तं मुनिं प्राप्य पप्रच्छेदमसौ तदा ॥ २६ ॥ सर्वसत्त्वदयोपेत गुणरत्नमहोदधे । किंचिदर्थपदं साधो मद्धितं ब्रूहि सांप्रतम् ॥ २७ ॥ निशम्य तद्वचः साधुः किंचिदर्थपदं त्विदम् । जगौ धर्मसमायुक्तं भर्तृमित्रस्य धीरधीः ॥२८॥ संसारसागरं घोरं तरीतुं यदि वाञ्छसि । मुनिरूपं ततो धृत्वा सांप्रतं तिष्ठ शोभनम् ॥ २९ ॥ 30 दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं तदानीं मुनिवाक्यतः । तस्थौ चिलातपुत्रोऽयं प्रायोग्यमरणं प्रति ॥३०॥ ज्ञात्वा चिलातमित्रं च कायोत्सर्गव्यवस्थितम् । प्रणन्तुं श्रेणिकः प्राप स्कन्धावारसमन्वितः॥३१॥ त्रिःपरीत्य च तं भक्त्या पूजयित्वा प्रसूनकैः । वन्दित्वा श्रेणिको भूयो विवेश निजपत्तनम् ॥३२॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज युगलम्. 3 पफज युगलम्. 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफ युग्मम्, ज युगलमू. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१४०.३३विभङ्गज्ञानतो ज्ञात्वा सुभद्रा व्यन्तरी रुषा । सौलिकारूपमादाय तन्मुनेः शिरसि स्थिता ॥ ३३॥ ततश्चञ्चूप्रहारेण सौलिका क्रूरमानसा । अक्षयुग्मं मुनेरस्य जग्राह चिरवैरतः ॥ ३४ ॥ दीर्घमस्तकयुक्ताभिः कीटिकाभिः पुनः पुनः । स्थानस्थः खाद्यमानोऽपि ध्यानाचलमधिष्ठितः ॥३५॥ अहोरात्रद्वयं सार्धमुपसर्गमिमं द्रुतम् । सोढा चिलातमित्रोऽगात् सिद्धिं सर्वार्थपूर्वकाम् ॥ ३६ ॥ ॥ इति श्रीचिलातमित्रकथानकमिदम् ॥ १४ ॥ १४१. धान्यकुमारमुनिकथानकम् । अथ पूर्वविदेहस्थे वीतशोकाभिधे पुरे । अशोकसंज्ञको राजाऽशोकभार्यापतिः सुधीः ॥१॥ बलीवर्दमुखं बवा स्वकृषिक्षेत्रमागतः । राजा विगाहते तूर्णं धान्यसंग्रहलंपटः ॥२॥ प्राध्वंकृत्य स्तनांस्तासां स्तनपानं प्रति प्रभुः । महानसेऽखिलं कर्म कारापयति योषितः॥३॥ " एवं गच्छति तत्काले शिरसो वेदनस्य च । महारोगोऽभवत् सद्यो भूपतेरस्य दारुणः ॥ ४ ॥ ऊषधं भक्तसंयुक्तं प्राध्वंकृत्य महीपतिः । कृत्वा तद्भाजने चास्ते वेदनाव्याकुलाङ्गकः ॥ ५॥ अत्रान्तरे महायोगी प्रविष्टस्तस्य मन्दिरम् । दुर्वलाङ्गः स भिक्षार्थं युगान्तनिहितेक्षणः ॥ ६॥ विलोक्य भूपतिः साधुं समुत्थाय निजासनात् । सभेषजं ददावस्मै भिक्षादानं प्रयत्नतः ॥ ७॥ तदौषधप्रभावेन रोगो द्वादशवर्षजः । सद्यो मुनेः क्षयं प्राप दुःसाध्योऽपि भिषग्जनैः ॥ ८॥ 15 तद्वेदनासमासंगदुःखव्याकुलमानसः । जगाम पञ्चतां राजा कृतधर्मपरिग्रहः ॥ ९॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे धर्मरत्नसमुद्भवे । आमलोपपदं कण्ठं नगरं समभूत् परम् ॥ १० ॥ बभूव तत्पुरे राजाऽरिष्टसेनो हताहितः । नन्दिमत्यभिधानाऽस्य रमणी रमणोचिता ॥ ११ ॥ अन्या महीपतेरस्य प्रजापालनकारिणः । निधिवेणुप्रिया चासीद् रूपराजितविग्रहा ॥ १२॥ राजाऽशोकचरो मृत्वा योगीशाहारदानतः । सुतो धान्यकुमाराख्यो नन्दिमत्या बभूव सः॥१३॥ 20 आरण्यहस्तिदमनाद् दमदत्तः प्रकीर्तितः । अनन्तवीर्यनामायं शिलोद्धरणयोगतः ॥ १४ ॥ महाशत्रुजयान्नूनमतोऽयमपराजितः । दुर्योधनस्तथा प्रोक्तः स्कन्धावारसमाश्रयात् ॥१५॥ बन्दिग्रहणतोऽन्येषां संग्रामे शूरभीतिदे । मण्डलाग्रसमाघाताजितशत्रुः प्रकीर्तितः ॥१६॥ तस्य मत्री सुबुद्धाख्यो मातुलो धान्यनामकम् । इदमाहूयते स्पष्टं मात्सर्योपहतात्मकः ॥ १७ ॥ दमदत्तादिनामानि गुणसंतानवन्त्यलम् । उच्चारयितुमेतस्य जातु वाञ्छति न क्वचित् ॥ १८ ॥ 25 अन्यदा मत्रिणाऽनेन पिशुनत्वमुपेयुषा । उक्तोऽयं तारनादेन कुमारो धान्यनामकः ॥ १९॥ निशम्य तद्वचः कोपात् कुमारः परुषस्वनः। जगादेमं स मां माम धान्यमाह्वयसे कुतः ॥२०॥ कुमारवचनं श्रुत्वा जगौ मन्त्री तकं पुनः । प्रधानकुलसंभूतस्तेन धान्यो मयोदितः ॥ २१ ॥ दमदत्तादिनामानि गुणवन्ति न तानि ते । मुनीनां हि प्रयुज्यन्ते कुमार कथयाम्यहम् ॥ २२ ॥ दमनादिन्द्रियाणां हि दमदत्तो मतो मुनिः। उग्रचर्याविधानेनानन्तवीर्यस्तथा भवेत् ॥ २३॥ ३० परीषहोपसर्गेण न कदाचित् पराजितः । अतोऽपराजितो ज्ञेयो कुमार मुनिनायकः ॥ २४ ॥ रागद्वेषादयो येन वैरिणो विषमा जिताः । जितशत्रुस्ततो ज्ञेयो नरनागमुनीश्वरः ॥ २५॥ एवमेतानि नामानि मुनीनां शुद्धचेतसाम् । भवन्ति ते न युज्यन्ते नरकुञ्जर जातुचित् ॥२६॥ मत्रिणो वाक्यमाकर्ण्य कर्णशूलविधायकम् । अवदन्मातुलं भूयः कुमारो भोगनिःस्पृहः ॥ २७॥ 1 प वैरितः, फ वैरिनः. 2 [औषधं]. 3 पफ हस्तिमदना. 4 पफज युगलमिदम्. Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४२.६] अभिनन्दनादिमुनिकथानकम् गुणयुक्तानि नामानि यथैतानि भवन्ति मे । सर्वाणि मातुल क्षिप्रं तवं विदधाम्यहम् ॥ २८॥' अवाचि मत्रिणा भूयः कुमारः पुरतः स्थितः । एवं भवतु विस्पष्टं नरवृन्दारकप्रभो ॥ २९ ॥ एवं प्रबोधिते तस्मिन् कुमारे बुद्धिशालिनि । सुबुद्धिनामयुक्तेन मत्रिणा मातुलेन हि ॥३०॥ अत्रान्तरे जिनो नेमिः केवली संघसेवितः । आजगाम तमुद्देशं महापल्लवदेशतः ॥ ३१॥ नेमिनाथं समालोक्य स्वपुरोद्यानमागतम् । प्राप धान्यकुमारोऽयं भक्तिनिर्भरमानसः ॥ ३२॥ त्रिःपरीत्य तमीशानं भक्त्या नत्वा पुनः पुनः। पप्रच्छ स्वभवं चायुः कुमारो नेमिनायकम् ॥ ३३॥ कुमारवचनं श्रुत्वा केवलज्ञानलोचनः । नेमिनाथो जगादेमं महावैराग्यसंगतम् ॥ ३४ ॥ कुमारान्यभवे राजाऽशोकमामाऽभवत् प्रभुः । सांप्रतं धान्यनामा त्वं स्वल्पायु गनिःस्पृहः॥३५॥ कृत्वा कालं समाधानात् कुमार त्वं सुधीरधीः । निहत्याशेषकर्माणि सिद्धिं यास्यसि नीरजाः॥३६॥ अन्यजन्मभवं श्रुत्वा स्वस्यायुः स्वल्पमप्यदः । नेमिनाथान्तिके दीक्षां कुमारः समशिश्रियत् ॥३७॥ 10 दीक्षामादाय जैनेन्द्रीं पूर्वकर्मानुभावतः । भिक्षां धान्यकुमारोऽयं लभते न कदाचन ॥ ३८॥ कदाचिदैवयोगेन लभते यदि पारणम् । भूयोऽपि वमनं योगी विदधाति पुनः पुनः ॥ ३९॥ अनेन साधुना सार्धं यदि भिक्षां भ्रमत्यसौ । पूर्वकर्मानुभावेन लभते न मनागपि ॥४०॥ काकतालीययोगेन प्राप्नोति यदि भोजनम् । भूयश्छदि करोत्येष प्राक्तनाशुभगौरवात् ॥४१॥ अन्यदा वीक्ष्य तच्छदि दत्तो विणुकयौषधौ । मुनेश्छर्दिन संजाता तदौषधविधानतः ॥ ४२ ॥ 15 प्रायश्चित्तादिकं कृत्वा प्रतिक्रमणमेव च । विहरन् स मुनिः प्राप तदानीं शूरपत्तनम् ॥ ४३॥ तत्पुरोत्तरदिग्भागे यमुनापूर्वरोधसि । तस्थौ प्रतिमया धीरः स मुनिः कर्महानये ॥४४॥ अथ सौरिपुरे राजा साधितारातिमण्डलः । बभूव यमुनापको यमुनापतिस्प्रधीः ॥४५॥ मृगयार्थ महासैन्यः कोपारुणनिरीक्षणः । जगाम यमुनापङ्कस्तां दिशं दैवयोगतः ॥४६॥ ततो निवर्तमानः सन् प्रतिमास्थं तकं मुनिम् । विलोक्य स नराधीशः सहसाऽयं रुषं ययौ ॥४७॥ 20 दर्शनेनास्य नग्नस्य शकुनोऽपि न मेऽभवत् । जगाम स्वपुरं राजा पूरयित्वा शरैरिमम् ॥४८॥ उपसर्ग सहित्वाऽस्य धीरो धान्यमुनिस्तदा । मोक्षं जगाम शुद्धात्मा निहताशेषकर्मकः ॥४९॥ मुनेर्धान्यकुमारस्य सिद्धिक्षेत्रं तदद्भुतम् । विद्यते पूज्यतेऽद्यापि भव्यलोकैरनारतम् ॥ ५० ॥ स नृपो यमुनापङ्कः प्राप्य कुष्ठं हि तद्भवे । जगाम नरकं घोरं रौद्रध्यानपरायणः ॥५१॥ ॥ इति श्रीधान्यकुमारमुनिकथानकमिदम् ॥ १४१॥ १४२. अभिनन्दनादिमुनिकथानकम् । अत्रैव भरते वास्ये दक्षिणापथसंभवे । विद्यते विभवोपेतं कुम्भकारकृतं पुरम् ॥ १॥ दण्डवेगोऽभवद् राजा तत्पुरे साधिताहितः । तत्प्रिया सुव्रता नाम रूपयौवनगर्विता ॥२॥ अस्यैव भूपतेर्मत्री बालको नाम विश्रुतः । जिनशासनविद्वेषी मुनिसंघपराङ्मुखः ॥३॥ अभिनन्दनपूर्वाणि तत्पुरं जनसंकुलम् । शतानि पञ्च साधूनामागतानि निजेच्छया ॥४॥ वादेन चतुरङ्गेण खण्डिकाख्येन साधुना । जितोऽयं बालको मत्री सभायां नृपसंनिधौ ॥ ५॥ संबद्धेन महादेव्याः कूटमत्रं विधाय च । राजाऽयं रोषमानीतो मत्रिणा मुनिभिः समम् ॥ ६॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज युगलमिदम्, 3 [राजाऽशोकनामा ]. 4 पफज त्रिकलमिदम्. 5 [षधो]. 6 [संबन्धेन ]. . Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१४२. ७-- तेन रोपानुबन्धेन भूभुजाऽयुक्तकारिणा । दुष्टमत्रिमतेनाशु मुनयो यत्रपीलिताः ॥ ७॥ शतानि पञ्च साधूनां विधायानशनं तदा । समाधि प्रतिपन्नानि निश्चयात् किं न साध्यते ॥ ८॥ ॥ इति श्रीअभिनन्दनादिपञ्चशतमुनिकथानकम् ॥ १४२॥ १४३. चाणक्यमुनिकथानकम् । । पुरेऽस्ति पाटलीपुत्रे नन्दो नाम महीपतिः । सुव्रता तन्महादेवी विषाणदललोचना ॥१॥ कविः सुबन्धुनामा च शकटाख्यस्त्रयोऽप्यमी । समस्तलोकविख्याता भूपतेरस्य मत्रिणः ॥२॥ अस्मिन्नेव पुरे चासीत् कपिलो नाम माहनः । तद्भार्या देविला नाम चाणक्यस्तत्सुतः सुधीः ॥३॥ वेदवेदाङ्गसंयुक्तः सर्वशास्त्रार्थकोविदः । समस्तलोकविख्यातः समस्तजनपूजितः ॥ ४ ॥ नीलोत्पलदलश्यामा पूर्णिमाचन्द्रसन्मुखी । यशोमतिः प्रिया चास्य यशोव्याप्तदिगन्तरा ॥५॥ " कपिलस्य स्खसा तन्वी नाम्ना बन्धुमती परा । विधिना कवये दत्ता मत्रिणे कपिलेन सा ॥६॥ प्रत्यन्तवासिभूपानां क्षोभो नन्दस्य भूभुजः । कविना मत्रिणा सर्वो यथावृत्तो निवेदितः ॥ ७॥ कविवाक्येन भूपालो नन्दो मत्रिणमब्रवीत् । प्रत्यन्तवासिनो भूपान् धनं दत्त्वा वशं कुरु ॥ ८॥ नरेन्द्रवाक्यतोऽनेन मत्रिणा कविना तदा । वितीर्ण लक्षमेकैकं राज्ञां प्रत्यन्तवासिनाम् ॥ ९॥ अन्यदा नन्दभूपालो भाण्डागारिकमेककम् । पप्रच्छेदं कियन्मानं विद्यते महे धनम् ॥१०॥ 15 नन्दवाक्यं समाकर्ण्य धनपालो जगावमुम् । भाण्डागारे धनं राजन्न किंचिद्विद्यते तव ॥११॥ प्रत्यन्तवासिभूपानां कविना तव मत्रिणा । नरेन्द्र दत्तमेतेषां त्वदीयं सकलं धनम् ॥ १२ ॥ निशम्य तद्वचो राजा पुत्रदारसमन्वितम् । अन्धकूपे तकं वेगान्मत्रिणं निदधौ रुषा ॥ १३॥ एकैकं सकलं तत्र शरावं भक्तसंभृतम् । दीयते गुणयोगेन कवये हि दिने दिने ॥ १४ ॥ अत्रान्तरे कविः प्राह कुटुम्ब निजमादरात् । अन्धकूपसमासंगदुःखसंहृतमानसः ॥१५॥ 20 वैरनिर्यातने यो हि समर्थों नन्दभूपतेः । स परं भोजनं भुक्तां शरावेऽत्र सभक्तके ॥ १६ ॥ कविवाक्यं समाकर्ण्य तत्कुटुम्बो जगाद तम् । त्वमेव भोजनं मुंश्व शरावे सौदनं द्रुतम् ॥१७॥ उक्तं कुटुम्बमेतेन कविनासन्नवर्तिना । अन्धकूपान्तरे खात्वा बिलं तत्तटगोचरम् ॥ १८॥ तत्तटस्थः प्रभुञ्जानः शरावे सौदनं तदा । एवमुक्त्वा बिलं कृत्वा कविस्तस्थौ रुषान्वितः ॥१९॥ वर्षत्रयमतिक्रान्तं तत्रस्थस्य कवेः स्फुटम् । जीवनं चास्य संजातं मृतमन्यत् कुटुम्बकम् ॥२०॥ 25 किंवदन्तीं तकां ज्ञात्वा कवेः कोपारुणेक्षणैः । प्रत्यन्तवासिभिः भूपैर्वेष्टितं नन्दपत्तनम् ॥ २१ ॥ स्मृत्वा कवेः क्षणं राज्ञा नन्देनायमुदारधीः । पादयोः पतनं कृत्वा कूपादुत्तारितः पुनः ॥ २२ ॥ क्षमापणं विधायास्य नन्देनायं प्रचोदितः । वरं ब्रूहि महाबुद्धे प्रसन्नोऽस्मि तव स्फुटम् ॥ २३॥ नन्दस्य वचनं श्रुत्वा कविरूचे नरेश्वरम् । स्वहस्तेन मया द्रव्यं दातव्यं ते न चान्यतः ॥ २४ ॥ निशम्य वचनं तस्य भूभुजा मत्रिणः कवेः । प्रतिपन्नं सभामध्ये बालवृद्धसमाकुले ॥ २५ ॥ 30 अन्यदा भ्रमताऽनेन कविना द्रव्यमिच्छता । दर्भसूचीं खनन् दृष्टश्चाणाक्यश्चात्र संगतः ॥२६॥ दृष्ट्वाऽमुं कविना पृष्टश्चाणाक्यः स्खपुरः स्थितः । भट्ट किं कारणं दर्भसूचीं खनसि मे वद ॥२७॥ कवेर्वचनमाकर्ण्य चाणाक्यो निजगावमुम् । दर्भसूच्याऽनया विद्धो व्रजन् पादे सुतीक्ष्णया ॥२८॥ . 1ज चाणाक्य. 2 पफज युगलमिदम्. 3 ज बंधिमती. 4 पफज युगलमिदम्. 5 पफज युगलमिदम्. 6 पफज युगलमिदम्. Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४३. ६१ ] चाणक्यमुनिकथानकम् ३३७ पश्य पादमिमं भिन्नमनया रुधिरारुणम् । शेषतोन्मूलयाम्येतां दर्भसूचीं नरोत्तम ॥ २९ ॥ अवाचि कविना भूयश्चाणाक्यः खिन्नविग्रहः । खातं बहु त्वया विप्र पर्याप्तं खननेन ते ॥ ३० ॥ कविवाक्यं समाकर्ण्य चाणाक्यो निजगावमुम् । तदाग्रहसमुद्भूतविस्मयव्याप्तमानसः ॥ ३१ ॥ मूलं नोन्मूलते यस्य तत्किं खातं भवेद् भुवि । स किं हतो नरैरज्ञैश्छिद्यते यस्य नो शिरः ||३२|| यावन्मूलं न चाप्नोति दर्भसूच्याः कृतागसः । भूयो भूयः प्रबन्धेन तेन तावत् खनाम्यहम् ||३३|| ' निशम्य तद्वचः सत्यं नन्दस्य सचिवः कविः । दध्यौ स्वचेतसि स्पष्टं विस्मयाकुलमानसः ॥३४॥ नन्दभूपालवंशस्य समर्थस्य महीतले । नाशं करिष्यति क्षिप्रं एष कोऽपि महानरः ॥ ३५ ॥ चिन्तयित्वा चिरं तत्र सभामध्ये जनाकुले । श्लोकमेकं लिलेखेमं कविविस्मितचेतसा ॥ ३६ ॥ नरेणैकशरीरेण नयशास्त्रयुतेन च । व्यवसायेन युक्तेन जेतुं शक्या वसुंधरा ॥ ३७ ॥ अन्यदाऽयं विलोक्यात्र लोकमेकं विचक्षणः । लिलेख निजहस्तेन चाणाक्यो धीरमानसः ||३८|| नरेणैकशरीरेण नयशास्त्रयुतेन च । व्यवसायेन युक्तेन जेतुं शक्या वसुंधरा ॥ ३९ ॥ इमं लिखितमालोक्य कविः श्लोकं मनोहरम् । चाणाक्योपरि संतुष्टचेतसाश्चर्यमीयुषा ॥ ४० ॥ अन्यदा भार्यया सार्धं चाणाक्योऽयं निमन्त्रितः । कविनाश्चर्ययुक्तेन तगृहं स गतोऽशितुम् ॥४१॥ ततोऽपि कविना तेन चाणाक्यस्य गृहाजिरे । दीनारा बहवः शीघ्रं निक्षिप्तास्तं परीक्षितुम् ॥४२॥ यशोमत्या गृहीतास्ते दीनाराः स्वगृहाङ्गणे । आदाय तान् पुरस्तुष्टा जगौ चाणाक्यमादरात् ॥४३॥ 1 ददाति कपिलां" नन्दो ब्राह्मणेभ्यो मनःप्रियाम् । तदन्तिकं परिप्राप्य गृहीत्वा गच्छतानरम् ॥४४॥ भार्यावचनमाकर्ण्य चाणक्यो निजगाद ताम् । त्वद्वाक्यतः प्रगृह्णामि गत्वा तां कपिलामहम् ॥४५॥ तत्संप्रधारणं श्रुत्वा कविमत्री कुतूहलात् । इदं निवेदयामास नन्दस्य प्रीतचेतसः ॥ ४६ ॥ बहुदुग्धसमायुक्तं महाराज समुज्जवलम् । गोसहस्रं प्रदेहि त्वं माहनेभ्यः सुभक्तितः ॥ ४७ ॥ कविवाक्यं समाकर्ण्य नन्दोऽपि निजगाद तम् । गोसहस्रं ददाम्येव ब्राह्मणानानय द्रुतम् ||४८ || 20 ततश्चाणक्यमाहूय नरेन्द्रवचनादरम् | कविर्निवेशयामास प्रधानाग्रासने तदा ॥ ४९ ॥ उपविष्टः स चाणक्यो दर्भासनकदम्बकम् । कुण्डिकाभिर्वृशीकाभी रुद्धा तस्थौ नृपान्तिके ॥५०॥ ततोऽयं कविना प्रोक्तो भट्टनन्दो जगाविदम् । तदर्थमासनं चैकं मुञ्च विप्राः समागताः ॥ ५१ ॥ तद्वाक्यतो विहायैकं विष्टरं स द्विजः पुनः । एकैकमासनं मुक्तं भूयः प्रोक्तोऽमुनेदृशम् ॥ ५२ ॥ भट्टनन्दो वदत्येवं भवन्तं भक्तितत्परः । अग्रासने परो विप्रो गृहीतो भूभुजा महान् ॥ ५३ ॥ 25 भव राजगृहाद्दूरे निर्गत्य त्वरितं द्विज । गत्वा बहिर्गृहद्वारे तिष्ठ त्वं सुसमाहितः ॥ ५४ ॥ निशम्य वचनं तस्य चाणक्यो " रक्तलोचनः । जगाद कर्तिका हस्तस्तं " नरं परुषस्वनः ॥ ५५ ॥ इदं न युज्यते कर्तुं भवतो न्यायवेदिनः । भोजनार्थं निविष्टस्य त्वगृहे मन्निरासनम् ॥ ५६ ॥ अर्धचन्द्रं गले दत्त्वा चाणक्यो घाटितोऽमुना । तन्निमित्तं रुषं प्राप्य निर्गतस्तगृहाद्बहिः ॥ ५७ ॥ नन्दवंशक्षयं शीघ्रं विदधामि विसंशयम् । एवं विचिन्त्य चाणाक्यो निजगाद वचः स्फुटम् ॥५८॥ ३° यदीच्छति नरः कोऽपि राज्यं निहतकण्टकम् । ततो मदन्तिके शीघ्रं तिष्ठतु प्रीतमानसः ॥ ५९ ॥ चाणाक्यवचनं श्रुत्वा नरः कोऽपि जगाविदम् । अहमिच्छामि भो राज्यं दीयतां मे द्रुतं प्रभो ॥ ६० ॥ निजहस्तेन तं हस्ते समादाय त्वरान्वितः । चाणक्यो रोषसंपूर्णो निजगाम पुरादरम् ॥ ६१ ॥ 1 पफज युगलमिदम्. 2 पफज त्रिकलमिदम् 3 [ कविर्विस्मित ]. 4 फ omits Nos. 38-39. 5 पफ कपिलं. 6 [ गृहीत्वाऽऽगच्छ तामरम् ] 7 पफज युगलमिदम्. 8 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 9 पफ युग्मम् ज युगलम्. 10 ज चाणाक्यो. 11 पफ कार्तिका [ कर्तिका ]. बृ० को ० ४३ 10 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ हरिषेणाचार्यकृते वृहत्कथाकोशे [१४३. ६२वातवेगं समारुह्य तुरङ्गं प्रीतमानसः । अवाहय' तकं शीघ्रं चाणाक्यो निजलीलया ॥ ६२॥ जलदुर्ग प्रविश्यासौ वार्धिमध्ये सुधीरधीः । राज्यमन्वेषयंस्तस्थौ चाणाक्यः कृतनिश्चयः ॥ ६३॥ एवं हि तिष्ठतस्तस्य नरेणैकेन वेगतः । प्रत्यन्तवासिभूपस्य निवेदितमिदं वचः ॥ ६४ ॥ जलदुर्गे महानेकः समुद्रजलसंभवे । तिष्ठति प्रीतचेतस्को नरनागः सुबुद्धिमान् ॥ ६५॥ । प्रत्यन्तवासिभूपोऽपि निशम्यास्य वचः परम् । निनाय तं निजस्थानं चाणक्यं मतिशालिनम् ॥६६॥ पर्वतान्तं परिप्राप्य भूपाः प्रत्यन्तवासिनः । भक्तं प्रवेशयामासुर्धनं च सकलं तदा ॥ ६७॥ ततोऽमी नन्दभूपालं भूपैः प्रत्यन्तवासिभिः । उपायैर्भेदमानीतास्तस्थुस्तद्वेषमागताः ॥ ६८॥ प्रत्यन्तशत्रुभूपालैनन्दो दण्डं प्रयाचितः । अयं वक्ति न तं नूनं ददामि भवतां करम् ॥ ६९ ॥ ततोऽभिनन्दभृत्यानां मत्रभेदं विधाय च । निर्धाटनं छलेनैषां भ्रान्तिसंभ्रान्तिचेतसाम् ॥ ७० ॥ 10 खेन नन्दं निहत्याशु सुपुरे कुसुमनामनि । चकार विपुलं राज्यं चाणाक्यो निजबुद्धितः ॥७१॥ कृत्वा राज्यं चिरं कालं अभिषिच्यात्र तं नरम् । श्रुत्वा जिनोचितं धर्म हित्वा सर्वं परिग्रहम् ॥७२॥ मतिप्रधानसाध्वन्ते महावैराग्यसंयुतः । दीक्षां जग्राह चाणाक्यो जिनेश्वरनिवेदिताम् ॥७३॥ विहरन् गतियोगेन शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । वनवासं परिप्राप्य दक्षिणापथसंभवम् ॥ ७४ ॥ ततः पश्चिमदिग्भागे महाक्रौञ्चपुरस्य सः । चाणक्यों गोकुलस्थाने कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥७५॥ 15 बभूव तत्पुरे राजा सुमित्रो नाम विश्रुतः । तत्प्रिया रूपसंपन्ना विनयोपपदा मतिः ॥ ७६ ॥ मन्त्री सुबन्धुनामास्य नन्दस्य मरणेन सः। चाणक्योपरि संक्रुध्य तस्थौ तच्छिद्रवाञ्छया॥७७॥ ततः क्रौञ्चपुरेशस्य महासामन्तसेविनः । सुबन्धुबन्धुसंपन्नः समीपे तस्य तस्थिवान् ॥ ७८ ॥ अथ क्रौञ्चपुराधीशः श्रुत्वा मुनिसमागमम् । महाविभूतिसंयुक्तस्तं यतिं वन्दितुं ययौ ॥ ७९ ॥ चाणक्यादिमुनीन् नत्वा स तत्पूजां विधाय च । महाविनयसंपन्नो विवेश निजपत्तनम् ॥ ८॥ 20 ततोऽस्तमनवेलायां यतीनां शुद्धचेतसाम् । साग्निं करीषमाधाय तत्समीपेऽपि रोषतः ॥ ८१॥ विधाय खेन देहेन पापराशेरुपार्जनम् । महाकोधपरीताङ्गः सुबन्धुर्नरकं ययौ ॥ ८२॥" चाणक्याख्यो मुनिस्तत्र शिष्यपञ्चशतैः सह । पादोपगमनं कृत्वा शुक्लध्यानमुपेयिवान् ॥ ८३॥ उपसर्ग सहित्वेमं सुबन्धुविहितं तदा । समाधिमरणं प्राप्य चाणक्यः सिद्धिमीयिवान् ॥ ८४॥ ततः पश्चिमदिग्भागे दिव्यक्रौञ्चपुरस्य सा । निषधका मुनेरस्य वन्द्यतेऽद्यापि साधुभिः॥८५॥ ॥ इति चाणाक्यमुनिकथानकम् ॥ १४३ ॥ १४४. वृषभसेनमुनिकथानकम् । महान्ध्रविषये सारे दक्षिणापथसंभवे । आसीजनसमाकीर्णे विषयो भरताभिधः ॥१॥ कुलालनगरं तत्र राजा वैश्रवणोऽभवत् । पद्मावती प्रिया चास्य पद्मपत्रनिभेक्षणा ॥२॥ द्वेषको जिनधर्मस्य साधुसंघस्य निन्दकः । बभूव रिष्टको मत्री पद्मावत्याः कठोरधीः ॥ ३॥ 30 गणी वृषभसेनाख्यो मुनिसंघसमावृतः । आजगाम भ्रमन् क्वापि कुलालनगरान्तिकम् ॥४॥ श्रुत्वा वैश्रवणो भूपो मुनिसंघ समागतम् । लोकेन सह संप्राप वन्दितुं भक्तितत्परः ॥ ५॥ 25 1 [अवाहयत्तकं]. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3 ज चाणाक्यं. 4 [ संभ्रान्त 1. 5 पफ युग्मम्, ज युगलम्. 6 [जिनोदितं ]. 7 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 8 ज चाणाक्यो. 9 पफज युगलमिदम्. 10 ज चाणाक्योपरि. 11 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 12 ज चाणाक्याख्यो. 13 ज चाणाक्यः, Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --१४५. २४] श्रीपालकथानकम् ३३९ गच्छन्तं नृपसंयुक्तं दृष्ट्वा लोकं समुज्ज्वलम् । पप्रच्छ रिष्टको मत्री व यात्येष नराधिपः ॥६॥ रिष्टकोक्तं समाकर्ण्य लोको वदति तं पुनः । राजा मुनिगणं नन्तु याति भक्तिसमन्वितः ॥७॥ लोकोदितं निशम्याशु रिष्टकः कोपसंगतः । चक्रे वृषभसेनेन महावादं सुदुष्टधीः ॥८॥ ततो वृषभसेनेन तदा वैश्रवणान्तिके । स्याद्वादवादिनाऽनेन रिष्टकोऽयं पराजितः ॥९॥ जितोऽयं मुनिनाऽनेन वादेन नयशालिना । नक्तमग्निसमूहेन ज्वालिता वसतिः क्रुधा ॥ १०॥ । मुनिवृषभसेनाख्यो मुनिभिः सहसा सह । उपसर्ग सहित्वाऽसौ कृतकालो दिवं ययौ ॥११॥ ॥ इति श्रीवृषभसेनमुनिकथानकमिदम् ॥ १४४ ॥ १४५. श्रीपालकथानकम् । पुन्नाटविषये रम्ये दक्षिणापथगोचरे । तलाटवीपुराभिख्यं बभूव परमं पुरम् ॥१॥ गङ्गो राजाऽवसत् तत्र प्रतिपक्षशिवादिकः । रूपिणी तन्महादेवी प्रिया शिवमतिः परा ॥२॥ अस्यैव भूपतेरासीन्मत्री पल्लपतिनृपः । सम्यग्दर्शनसंपन्नः श्रावको नितरां भुवि ॥३॥ तत्प्रिया श्रीमहादेवी श्राविकाचारविग्रहा। गुणी रूपी कुमारोऽस्याः श्रीपालः श्रीसमन्वितः॥४॥ आचार्यों वसुपालाख्यो गुणशीलमहोदधिः। संघनाथस्तपोराशिस्तत्पुरे वसति स्म सः ॥५॥ अन्यदा श्रीमहादेवी परिवारसमन्विता । आषाढसितपक्षे च चतुर्थीदिवसान्विते ॥६॥ गृहकार्यविधिं कृत्वा चारुपुष्पाक्षतान्विता । महाविनयसंपन्ना लक्ष्मीश्रीरूपसंनिभा ॥७॥ उपवासं ग्रहीतुं सा श्रीः पञ्चम्या जिनप्रिया । स्नाताऽपरावेलायामाजगाम जिनालयम् ॥ ८॥ कृत्वा चैत्यनमस्कारं जिनभक्तिपरायणा । प्रापाशु श्रीमहादेवी वसुपालसमीपताम् ॥ ९॥ कृत्वा गुरोः परां भक्तिमुपवासं तदन्तिके । पञ्चम्यां श्रीमहादेवी तस्थौ विनयसंगता ॥ १०॥ .. वसुपालगुरोः पार्श्वे निविष्टां वीक्ष्य मातरम् । श्रीपालस्तत्सुतः प्राह विनयानतमस्तकः ॥११॥ उपवासो हि पञ्चम्या गृहीतो यस्त्वयाऽम्बिके । ममापि जायतां सोऽद्य पापविध्वंसकारणम् ॥१२॥ 20 कुमारवचनं श्रुत्वा श्रीदेवी निजगाद तम् । एवं भवतु मत्पुत्र शोभनं विहितं त्वया ॥ १३॥ वसुपालगुरुं नत्वा भक्तिहृष्टतनूरुहा । जगाम श्रीमहादेवी लीलया निजमन्दिरम् ॥ १४ ॥ श्रीपञ्चमीदिने जाते मध्याह्ने तं परीक्षितुम् । जगाद श्रीमहादेवी श्रीपालं निजनन्दनम् ॥१५॥ कुमार सुकुमाराङ्ग मचित्तानन्दकारण । बुभुक्षाग्रस्तचेतस्क भोजनं कुरु बालक ॥१६॥ जननीवाक्यमाकर्ण्य श्रीपालो निजगाद ताम् । उपवासो गृहीतोऽपि पञ्चम्यास्त्वत्समं मया॥१७॥ 23 भवतीगर्भसंभूतो गुणरञ्जितभूतलः । सांप्रतं तन्न मुञ्चामि म्रियमाणोऽपि मातृके ॥ १८॥ श्रीपालवचनं श्रुत्वा जगौ तं जननी पुनः। उपवासं कुरु स्तोक हसन्त्या गदितं मया ॥१९॥ कुमारणोदिता माता मया सद्भावतोऽम्बिके । उपवासो गृहीतोऽद्य जिनसिद्धादिसाक्षिकः ॥२०॥ उपवासव्रतं नूनं गृहीतं यन्मुनेः स्फुटम् । समीपे तन्न मुञ्चामि संगरोऽयं ममाम्बिके ॥ २१ ॥ निशम्य वचनं माता पुत्रस्य कृतनिश्चयम् । योषमादाय संतस्थे विस्मयव्याप्तमानसा ॥ २२ ॥ 30 अथास्तमनवेलायामादित्येऽस्तमनं गते । उपवासपरिश्रान्तः कुमारः समजायत ॥ २३ ॥ द्रव्यैः सुशीतलैस्तस्य तनुलग्नैरपि स्फुटम् । दाघस्तथाऽपि कायस्य प्रशमं याति न क्वचित् ॥२४॥ 1 पफ श्रावकाचार. 2 पफज त्रिकलमिदम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 [तोक]. 6 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 7 [जोषमादाय ]. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० . हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१४५. २५- यदा नोपशमं याति तद्दाधस्तच्छरीरके । बहिर्गृहान्तरे दीपं तदा प्रज्वाल्य भाषितः ॥ २५ ॥ पश्यादित्यमिमं पुत्र प्रोद्गतं भासुरप्रभम् । भोजनं कुरु तेनाद्य विकल्पो न विधीयते ॥ २६ ॥ मातृवाक्यं समाकर्ण्य श्रीपालो निजगावमूम् । स्नेहनिर्भरचेतस्कां भयवेपितविग्रहाम् ॥ २७ ॥ क्षत्रियाः कुलसंजाता मानिनः समरेऽम्बिके । जीवितव्यं न मन्यन्ते यथा पौरुषवाञ्छया ॥२८॥ । जीवितं जायतां नो वा गणयन्तः स्वपौरुषम् । युध्यन्ते परचक्रेण सह संग्रामलम्पटाः ॥ २९ ॥ एवमत्रापि जैनेन्द्रं सर्वसत्त्वहितं परम् । जानन्निहाम्बिके धर्म हिताहितविवेकधीः ॥ ३०॥ जीव्यते म्रियते वाऽपि योद्धव्यं सह सेनया । परीषहाख्यया भद्रे नितान्तं भीमया मया ॥३१॥ मातृके यदि जीवामि प्रत्यूषे प्रोदिते रवौ । तदाऽशनप्रवृत्तिः स्यान्मम नूनं मनस्खिनि ॥३२॥ अथवैवं न जानामि साधुमार्गेण साधुना । अशनस्य समस्तस्य प्रत्याख्यानं ममाम्बिके ॥ ३३ ॥ " आराधनासमायुक्तः समाधिर्मम जायताम् । देवाधिदेवता वीरो जिनेन्द्रः शरणं परम् ॥ ३४ ॥ उक्त्वैवं मातरं दीनां श्रीपालो धर्मशुद्धधीः । जलकुण्डं च तत्रत्यं विवेश जलसंभृतम् ॥ ३५ ॥ तनुदाहं विहायायं श्रीपालः सकलं तदा । शीतलध्यानमाविष्टस्तस्थौ मुदितमानसः ॥ ३६ ॥ एवं व्यवस्थिते पुत्रे जननी पुत्रवत्सला । समस्तभुवने दीप प्रज्वाल्य निजगावमुम् ॥ ३७॥ पश्य पुत्र रविं दीप्तं द्योतिताखिलभूतलम् । भोजनं कुरु तेनाशु येन मे जायते सुखम् ॥ ३८॥ 15 निशम्य वचनं मातुः श्रीपालः स्थिरमानसः । बभाण जननी दीनां शोकसंतप्तचेतनाम् ॥ ३९ ॥ यावन्न गुरवो दृष्टाः संसारोत्तारणक्षमाः । तावन्मया न भोक्तव्यं म्रियमाणेन मातृके ॥ ४०॥ उक्तयाऽनेन पुत्रेण चाहूता गुरवोऽनया । ते वदन्ति तकं प्राप्य पुत्रादित्योऽयमुद्गतः ॥४१॥ वयं भिक्षानिमित्तेन संप्राप्तास्तद्गृहं बुध । मद्वाक्यतः स्फुटं तात सांप्रतं कुरु भोजनम् ॥४२॥ गुरुवाक्यं निशम्याशु हसित्वा न्यगदत्तकम् । भवाब्धि त्वत्प्रसादेन तरिष्यामि किल प्रभो ॥४३॥ 20 प्रत्याख्यानं प्रभजद्धिर्भवद्भिर्धर्मकोविदैः । संसारसागरे भीमे प्रपातो मे भविष्यति ॥ ४४ ॥ कुमारनिश्चयं ज्ञात्वा गुरुभिस्तत्त्ववेदिभिः । संसारसागरोत्तारतरण्डीभूतविग्रहः ॥४५॥ उत्तमार्थ समुद्घष्य प्रतिक्रमणदण्डकम् । संस्तरे स्थापितो वीरः श्रीपालो हितमिच्छुभिः ॥४६॥ सहित्वा धीरचित्तोऽसौ क्षुधापम्पापरिश्रमम् । समाधिमरणं प्राप्य श्रीपालस्त्रिदिवं ययौ ॥४७॥ तृष्णाभिभूतदेहेन बालेनापि पटीयसा । प्रत्याख्यानं न तद्भग्नं श्रीपालेन यशखिना ॥४८॥ ॥ इति श्रीपालकथानकमिदम् ॥ १४५ ॥ १४६. नामवादिकथानकम् । दक्षिणापथदेशेऽस्ति नगरं कृषिपत्तनम् । राजाऽत्र विजयादित्यो धीरधीविजयापतिः॥१॥ तस्य वल्लभराजस्य नामवादी बभूव सः । श्रावकः परमः श्रेष्ठी सम्यग्दर्शनभूषितः ॥२॥ विनयाचारसंपन्ना श्राविका दर्शनान्विता । अभवच्छ्रेष्ठिनस्तस्य रमणीयं वसुंधरा ॥३॥ 30 अन्यदा सकले देशे धान्येन परिवर्जिते । दुर्भिक्षं दुर्धरं जातं बुभुक्षाग्रस्तजन्तुकम् ॥४॥ तत्र मध्याह्नवेलायां नामवादी वणिक्पतिः। जिनदेवस्तुतिं कृत्वा गृहे भोक्तुं स तस्थिवान् ॥५॥ ... 1 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 2 पफज कुलकमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्. 4 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 5[संप्राप्तास्त्वद्गहं]. 6 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 7 फ has lost some letters. 8 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४७. १३] शालिसिक्थकथानकम् ३४१ रूपी युवा गृहीतास्त्रः क्षुधापम्पाकदर्थितः । श्रेष्ठिनं प्राप वेगेन भुञ्जानं नरकुञ्जरः ॥ ६॥ करेणौदनमादाय' संनिविश्य तदन्तिके । निजे मुखे स चिक्षेप बुभुक्षाग्रस्तमानसः ॥७॥ नरेण तेन निक्षिप्ते चौदने वदने निजे । नामवादी जगादेमं कङ्कालसमविभ्रमम् ॥ ८॥ हस्तयोः पादयोः कृत्वा नर प्रक्षालनं पुनः । भाजनेऽन्यत्र विश्रब्धश्चरमं भोजनं कुरु ॥९॥ ततोऽसौ श्रेष्ठिवाक्येन हस्तपादादिधावनम् । विधाय भोजनं कर्तुमुपविष्टोऽन्यभाजने ॥१०॥ ततो यदृच्छया भुक्त्वा चाचम्याशु विधानतः । ताम्बूलं सत्समादाय विधायानेन जल्पनम् ॥११॥ निर्गत्य तगृहाद् दूरं लब्धचेष्टासमागमः । आत्मानं निन्दितुं सक्तः पथिकः शुद्धभावनः ॥ १२ ॥ क्षुधाभिभूतदेहेन कृतं कर्म विदं मया । पाटयित्वोदरं स्वस्य खड्गधेन्वा भुवं गतः ॥ १३॥ प्रहारविह्वलस्वान्तं दृष्ट्वाऽमुं श्रावकोऽवदत् । अशोभनमिदं भद्र त्वयान विहितं तराम् ॥ १४ ॥ श्रुत्वाऽस्य वचनं पान्थो विहितानुशयो जगौ । मयाऽद्य भक्तमुच्छिष्टं निक्षिप्तं वदने निजे ॥१५॥ 10 अयोग्यं विहितं कर्म मया स्वानुचितं भुवि । करोमि तदहं मित्र येन मे जायते सुखम् ॥१६॥ ऋषभादिक्रियां चावी क्रियमाणामपि क्षितौ । अनिच्छन् सर्वदा यो हि गुरुकर्मवशीकृतः ॥१७॥ आहारकारणात् सोऽयं जुगुप्सां प्राप्य भोगतः । शुभकर्मानुभावेन श्रेष्ठिपार्थ समाययौ ॥ १८ ॥ विहाय सकलं संग बाह्यमाभ्यन्तरं सकः । समाधिमरणं प्राप्य कालं कृत्वा दिवं ययौ ॥ १९ ॥ ॥ इति श्रीनामवादिश्रेष्ठिमङ्गाहारार्थिपुरुषकथानकम् ॥ १४६ ॥ ॥ १४७. शालिसिक्थकथानकम् । सर्वद्वीपसमुद्राणां क्रमतः स्थितिशालिनाम् । पश्चिमो जलधिः कान्तः स्वयंभूरमणोऽभवत् ॥१॥ योजनानां शतान्येष पञ्च विष्कम्भतो झपः । सहस्रयोजनायामस्तत्कर्णावपि दीर्घकौ ॥२॥ स्वयंभूरमणस्थस्य तस्य मीनस्य वेगिनः । शालिसिक्तुप्रमाणोऽन्यः शालिशिक्काभिधो झषः ॥३॥ महागृद्धिसमेतोऽयं क्रूरचित्तोऽतिचञ्चलः । तस्य कर्णमलं खादंस्तिष्ठति प्रीतमानसः ॥ ४॥ 20 अन्यदाऽयं महामीनो भोजनार्थ बृहन्मुखः । मुखं प्रसार्य यावच्च तिष्ठति क्रूरचेतनः ॥५॥ एवं हि तिष्ठतस्तस्य शफरस्य विलासिनः । मीनकच्छपमाण्डूकाः प्रविशन्ति मुखान्तरम् ॥ ६॥ षण्मासावधिपर्यन्ते मुखे संकोचमीयुषि । तदंष्ट्रान्तरतो येऽल्पास्ते गच्छन्ति यथायथम् ॥ ७॥ विलोक्य तस्य तत्क्षुद्रान् मण्डूकादीन् झपानपि । दध्यौ तत्कर्णगः पापः शालिसिक्थः स्वचेतसि ॥८॥ अज्ञानी मूर्खतोपेतो मत्स्यः स्वार्थपरिच्युतः । दृष्ट्वैतान् पश्यतः पापः स्वैरं तिष्ठति योऽल्पकः ॥९॥2 शरीरं मे मुखं वाऽपि यदि तुङ्गं भवेदिदम् । ततो नैकोऽपि निर्याति मन्मुखाद्धि झषादिकः ॥१०॥ एवं चिन्तयतस्तस्य शालिसिक्थविसारिणः । महतोऽपि च मीनस्य याति कालो शनैः शनैः॥११॥ नानाजीववधं कृत्वा बृहन्मीनो मृतिं गतः । त्रयस्त्रिंशत्समुद्रायुः सप्तमे नरकेऽभवत् ॥ १२ ॥ शालिसिक्थोऽपि मत्स्योऽयं मृतिं कृत्वा सुदुष्टधीः । परिणामवधेनापि सप्तमं नरकं ययौ ॥१३॥ ॥ इति श्रीशालि सिक्थकथानकमिदम् ॥ १४७ ॥ ___1ज करेणोदन. 2 पफज त्रिकलमिदम्. 3 जनामवाद. 4 पफ जलधीः. 5 [ शालिसिक्थप्र]. 6 [शालिसिक्थाभिधो. 7 फ has lost some letters. 8 पफज चतुःकुलकमिदम्. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१४८.१ १४८. सुभूमचक्रवर्तिकथानकम् । ईशावन्त्यां पुरि श्रीमान् कार्तवीर्यो नृपोऽभवत् । रेवती तत्प्रिया चावीं पीनोन्नतकुचद्वया ॥१॥ अष्टमश्चक्रिणां मध्ये सुभूमश्चक्रनायकः । चक्रेण साधितारातिर्बभूव तनयोऽनयोः॥२॥ सूपकारोऽभवत् तस्य सुभूमस्य कुशाग्रधीः । विजयोपपदः सेनो भक्तादिपचने पटुः ॥३॥ 5 अन्यदा सूपकारेण पायसं शीतलेतरम् । क्षिप्तं भोजनवेलायां भाजनेऽस्य महीभृतः ॥ ४ ॥ तदुष्णं पायसं दृष्ट्वा भाजने चक्रभृत् तदा । पायसोलिप्तसङ्गिं सूपकारं ममार सः ॥५॥ मृतः क्षारसमुद्रान्ते रत्नद्वीपान्तरे वरे । बभूव व्यन्तरो देवो सूपकारोऽस्य भूपतेः ॥६॥ ततस्तापसरूपेण रत्नद्वीपान्तरादरम् । फलान्यादाय संप्राप्य सुभूमं चक्रिणं सकः ॥७॥ दृष्ट्वाऽमुं तापसं चक्री पप्रच्छेदं प्रणम्य सः । फलान्येतानि दिव्यानि कुतो लब्धानि मे वद ॥८॥ " सुभूमचक्रिणो वाक्यं श्रुत्वेदं तापसोऽवदत् । फलान्यमूनि विद्यन्ते मन्मठे धरणीपते ॥ ९॥ निशम्य तापसस्योक्तं सुभूमोऽपि बभाण तम् । फलान्येतानि भो साधो दिव्यानि शीघ्रं देहि मे ॥१०॥ विहाय सकलं राज्यं चलितं फललोभतः । निनाय तापसः क्षिप्रं वार्धिमध्ये नरेश्वरम् ॥ ११ ॥ नीत्वा मिथ्यात्वमेतं तु सूपकारचरोऽमरः । ममार चक्रिणं कोपात् समुद्रसलिलान्तरे ॥ १२ ॥ व्यन्तरेण हतोऽनेन सुभूमश्चक्रभृत् तदा । सप्तमं नरकं प्राप्य संसारं भ्रमति स्म सः ॥ १३ ॥ ॥ इति श्रीसुभूमचक्रवर्तिकथानकमिदम् ॥ १४८॥ १४९. सुप्तपुरुषराज्यदर्शनकथानकम् । अवन्तीविषये दिव्ये श्रीमदुजयिनी पुरी । अस्यां बभूवतुद्वौं हि दारिद्रोपहतौ नरौ ॥१॥ काष्ठादिकं समादाय क्रीत्वाऽस्यां पुरि जीवनम् । कुरुतः स्वस्य तौ दीनौ क्षुत्पम्पाभ्यां कदर्थितौ ॥२॥ अन्यदा ज्येष्ठमासे तौ नानानोकुहसंकुलम् । तृणकाष्ठादिसंकीर्ण मनुष्यौ जग्मतुर्वनम् ॥ ३॥ 20 वैवधं काष्ठसंपूर्णं गृहीत्वा तौ नरौ वनात् । श्रमश्रान्तसमस्ताङ्गौ सपनं प्रापतुः सरः ॥४॥ मुक्त्वा काष्ठभरं तत्र पीत्वा तोयं सुशीतलम् । खेदखिन्नसमस्ताङ्गौ सुप्तौ तौ सरसस्तटे ॥५॥ महाविभूतिसंयुक्तं सिंहासनमधिष्ठितम् । त्रैलोक्यराज्यमैक्षिष्ट तत्रैको निद्रयाऽन्वितः॥ ६॥ उत्थितेन द्वितीयेन नरेणोत्थापितः परः । उत्थापनेऽमुना स्वस्य चुकोपास्मै समुत्थितः ॥ ७ ॥ पतित्वा स पुनः सुप्तो भूमों राज्यदिदृक्षया । पश्यति स्म न तं राज्यं हरिहस्तिधनादिकम् ॥ ८॥ 23 पुनः सुप्तेन नोऽनेन लब्धं राज्यं मनीषितम् । तथा समानुषं जन्म धर्मवद्दुर्लभं पुनः ॥९॥ ॥ इति श्रीसुप्तपुरुषराज्यदर्शनकथानकमिदम् ॥ १४९॥ १५०. धनदेवादिकथानकम् । अवन्तीनामसंयुक्ते विषये धनसंकुले । विद्यते पौरसंयुक्ता श्रीमदुज्जयिनी पुरी ॥१॥ श्रेष्ठी सुहस्तनामास्यां धनद्वादशकोटिकः । भार्या वसन्ततिलका गणिका रूपशालिनी ॥२॥ 30 वसन्ततिलकागर्भ नरस्त्रीयुगलं रतिम् । धवेन सह कुर्वन्त्याः संभूतं दैवयोगतः ॥३॥ तस्मिन् संभूतिमापन्ने तच्छरीरेऽतिदारुणः । कुछूकण्डादयो रोगा बभूवुः कृतवेदनाः ॥ ४ ॥ 1 [शीघ्रं दिव्यानि देहि मे]. 2 [ कच्छू ]. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५०. ३७] धनदेवादिकथानकम् ३४३ तेषु रोगेषु जातेषु कृतपीडेषु सर्वदा । त्यक्ता वसन्ततिलका सुहस्तश्रेष्ठिना द्रुतम् ॥ ५ ॥ तदुःखपीडितस्वान्ता रामानरयुगं तदा । सूता वसन्ततिलका दुःखिता वेपिताङ्गिका ॥६॥ बालद्वयं विलोक्यैषा तद्दुःखकृतरोदनम् । दध्यौ वसन्ततिलका निःशल्लीभूतविग्रहा ॥ ७॥ अनेन बालयुग्मेन गर्भस्थेनापि पापिना । त्यक्ताऽहं श्रेष्ठिना सद्यः स्नेहवर्जितचेतसा ॥ ८॥ भोगविनोऽपि मे जातः समं भी धनेशिना । पूर्वपापविपाकेन महादुःखविधायिना ॥९॥ । एवं विचिन्त्य तां कन्यां रत्नकम्बलभूषिताम् । नगरीदक्षिणाशायां मुमोच गणिका सका ॥१०॥ सुतं तं जातमात्रं सा रत्नकम्बलवेष्टितम् । नगर्यामुत्तराशायां तत्याज करुणोज्झिता ॥११॥ प्रयागनगरादागाद् गङ्गाकालिन्दिसंगमे । ससार्थः सार्थवाहोऽयं सर्वगुणसमन्वितः ॥१२॥ सुकेतुस्तां समादाय दारिका सुकुमारिकाम् । वल्लभायै ददौ स्वस्य रत्नकम्बलवेष्टिताम् ॥ १३ ॥ नीत्वा वृद्धिं सका कन्यां रूपराजितविग्रहाम् । सुकेतुरमणी तस्याश्चकार कमलाभिधाम् ॥ १४ ॥ सुभद्रसार्थवाहोऽगात् साकेतनगरादरम् । श्रीमदुज्जयिनीं प्राप्य बालं तं प्रददर्श सः ॥१५॥ दारकं तं समादाय रत्नकम्बलवेष्टितम् । अयं समर्पयामास सुव्रतायाः सुयोषितः ॥१६॥ ततस्तं वृद्धिमानीय मृष्टाशनविधानतः । धनदेवाभिधं नाम चकारास्य च सुव्रता ॥१७॥ प्राप्तयोरनयोवृद्धिं क्रमेण नवयौवनाम् । वीवाहमङ्गलं ताभ्यां कृतमुजयनीपुरे ॥१८॥ धनदेवस्ततो भायों गृहीत्वा कमलाभिधाम् । साकेतानगरी प्राप्तः पताकावलिराजिताम् ॥ १९ ॥ 15. धनदेवोऽनया साध रूपयौवनयुक्तया । साकेतनगरे भोगान् भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥ २० ॥ अन्यदा धनदेवोऽयं महासार्थसमावृतः । श्रीमदुज्जयनीं प्राप नानाप्रासादतोरणाम् ॥ २१ ॥ धनदेवो विलोक्यैतां वसन्ततिलकां पुरि । संतिष्ठतेऽनया सार्धं भुञ्जानो भोगमुत्तमम् ॥ २२॥ साकेतनगरे त्यक्ता धनदेवेन दुःखिनी । तिष्ठत्यप्रीतचेतस्का कमला कमलोपमा ॥ २३ ॥ अन्यदा मुनिदत्ताख्यः साधुः साधुसमावृतः । विहरन् क्वापि संप्राप साकेतनगरं गुणी ॥ २४ ॥ 20 कमला तं मुनि ज्ञात्वा साकेतोद्यानमागतम् । जगाम प्रीतचेतस्का वन्दनार्थ सभक्तिका ॥ २५॥ नत्वा मुनिमिमं भक्त्या धर्म सम्यक्त्वपूर्वकम् । आदाय कमला वातों पप्रच्छ दयितस्य सा ॥२६॥ कमलावाक्यमाकर्ण्य दिव्यज्ञानैकलोचनः । बभाणैतां महायोगी भर्तृदुःखसमन्विताम् ॥ २७ ॥ धनदेवाभिधो भर्ता त्वदीयः कमले सति । उज्जयिन्यां पुरि श्रीमान् सार्थवाहो विशुद्धधीः ॥२८॥ घसन्ततिलकां दृष्ट्वा गणिकां जननीमिमाम् । सहानया प्रभुञ्जानो भोगान् संतिष्ठते कुधीः॥२९॥* 25 मुनिदत्तमुनेर्वाक्यं निशम्य कमलाऽमला । जगाद मुनिचन्द्रं तं भक्तिहृष्टतनूरुहा ॥ ३० ॥ धनदेवस्य योगीन्द्र वसन्ततिलका मुने । अत्र जन्मनि किं माता भवेदन्यत्र मे वद ॥ ३१ ॥ कमलाभारती श्रुत्वा जगादैतां मुनीश्वरः । कौतुकव्याप्तचेतस्कां महाविस्मयसंगताम् ॥ ३२ ॥ आस्तामत्र भवे तावत् संबन्धोऽस्य तया समम् । अन्यजन्मनि संबन्धं कथयामि तवाधुना ॥३३॥ उज्जयन्यामभूद् विप्रः सोमशर्मा षडङ्गधीः । वेदवेदाङ्गसंयुक्तः काश्यपीपतिरूर्जितः ॥ ३४ ॥ 30 अग्निसोमादिको भूती वेदस्मृतिविशारदौ । अभूतां नन्दनावेतौ तयोः प्रेमानुरक्तयोः ॥ ३५॥ एते त्रयोऽपि निर्याताः श्रीमदुज्जयिनीबहिः । पठन्तो वेदवाक्यानि चागच्छन्ति गृहं प्रति ॥३६॥ आगच्छद्भिस्तकदृष्टं साधुयुग्मं जिनालये । अर्यिकायुगलं चापि कृशीभूतशरीरकम् ॥ ३७॥ ___1 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 2 [ समस्तगुणसंयुतः]. 3 [°यौवनम् ]. 4 पफज त्रिकलमिदम्. 5 पफ युग्मम्. ज युगलम्. HTHHTHHTHHHHol Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१५०. ३८वृद्धस्य हि मुनेः पार्थे पठन्ती श्रुतमादरात् । आर्यिका तरुणीं यूनो दृष्ट्वा वृद्धां गतप्रभाम् ॥३८॥ सोमशर्मा विलोक्यैवं प्राह पुत्रौ व्रजन् पथि । वेधसा विहितं सुष्ठु विपरीतमिदं भुवि ॥ ३९ ॥ तरुणी या सुता जाता भार्या वृद्धस्य सा कथम् । वृद्धा तु या हि संजाता भार्या यूनो विधेर्वशात् ॥४०॥ वृद्धस्य यदि वृद्धा स्यात् समरूपा नितम्बिनी । यूनोऽपि तरुणी चावी तदा साधुसमागमः ॥४१॥ । उपहासमिमं कृत्वा साधुयुग्मस्य ते त्रयः। जग्मुर्निजगृहं हृष्टाः पापोपार्जनकारिणः ॥ ४२ ॥ सोमशर्मा द्विजो भद्रे कृत्वा कालं बभूव सः । गर्भ वसन्तसेनाया वसन्ततिलका सुता ॥ ४३ ॥ अग्निसोमादिको भूती कालं कृत्वा क्रमेण तौ । जातं कर्मानुभावेन वसन्ततिलकायुगम् ॥ ४४ ॥ ततस्तयाऽतिदुःखेन महाव्याधिगृहीतया । जातं तदर्भकद्वन्द्वं मुक्तमुज्जयनीबहिः ॥४५॥ गृहीतं सार्थवाहाभ्यां तद्युगं कृतवर्धनम् । महाविभवयोगेन कृतवीवाहमङ्गलम् ॥ ४६॥ 10 अग्निभूतिचरो यो हि सोमशर्मा द्विजः सुतः । धनदेवाभिधः सोऽयं त्वत्पतिर्वर्ततेऽधुना ॥४७॥ अग्निभूतिकनिष्ठो यः सोमभूतिसहोदरः । भ्रान्त्वा त्वं तन्वि सा नूनं कमला कमलोपमा ॥४८॥ भवतोर्यः पिता पूर्वं सोमशर्मा षडङ्गधीः । सवेदः श्रोत्रियो विप्रः सर्वमाहनपूजितः ॥ ४९ ॥ साऽधुनात्र भवे मृत्वा वसन्ततिलकाभिधा । माता सास्ते द्वयोस्तन्वि श्रीमदुज्जयनीभवा ॥ ५० ॥ धनदेवस्तया सार्धं पूर्वस्नेहवशीकृतः । इहत्यकामभोगं च भुञ्जानः स वितिष्ठते ॥ ५१॥ 15 एवं हि तिष्ठतस्तत्र सस्नेहं सुरतं प्रति । बभूव सुन्दरः पुत्रः पुत्रजन्माभिलाषिणोः ॥ ५२ ॥ मुनिदत्तवचः श्रुत्वा मदीयं जिनदेशितम् । धर्म गृहीष्यतः सारं तव मे वद सांप्रतम् ॥ ५३॥ निशम्य कमलावाक्यं मुनिदत्तमहामुनिः । बभाण तां गिरा स्पष्टं नर्तयन् शिखिनां गणम् ॥५४॥ त्वद्वाक्यतः स्फुटं तन्वि तत्रयोऽपि जनस्तको । विस्मयव्याप्तचेतस्को जिनधर्म गृहीष्यतः ॥५५॥ मुनिदत्तोदितं श्रुत्वा नत्वाऽमुं भक्तितत्परा । क्षुल्लिकारूपमादाय निर्ययौ कमला पुरात् ॥ ५६ ॥ 20 वसन्ततिलकागेहं मणिरत्नविराजितम् । क्रमेण कमला प्राप श्रीमदुज्जयिनीभवम् ॥ ५७ ॥ तगृहे दारकं दृष्ट्वा रुदन्तं परुषस्वनम् । पठन्ती कमला श्लोकं चकारेषाऽस्य शान्तताम् ॥ ५८॥ पुत्रोऽसि मे शिशो नूनं भ्रातृव्योऽसि सहोदर । त्वं देवरोऽसि मे वत्स मञ्चित्तानन्ददायक ॥५९॥ यस्ते पिता स मे कान्तो बाल प्राणातिवल्लभः । मा क्रन्द पुत्र मा क्रन्द कमलेति जगौ शिशुम् ॥६॥ कमलावाक्यमाकर्ण्य वसन्ततिलका जगौ । अर्थं श्लोकद्वयस्यापि शोभने ब्रूहि मेऽधुना ॥ ६१ ॥ 25 वसन्ततिलकावाक्यं निशम्य कमलाऽपि सा । जगादेमां परिस्पष्टं तोषेण विकसन्मुखी ॥ ६२ ॥ तत्कथां धर्मसंबन्धां महतीं चाम्बके यदि । श्रोतुमिच्छसि भावेन शृणु त्वं तां वदामि ते ॥६॥ परिवारसमायुक्ता धनदेवसमन्विता । वसन्ततिलका तस्थौ तत्पुरस्तत्कथोत्सुका ॥ ६४ ॥ पद्मपत्रसमानाक्षी कमला कमलानना । सितदन्ता जगादेवं वसन्ततिलकोद्यता ॥ ६५ ॥ सोमशर्माऽभवद् विप्रः श्रीमदुज्जयनीपुरि । तत्प्रिया काश्यपी नाम रूपयौवनराजिता ॥६६॥ 30 अग्निसोमादिको भूती तत्पुत्रौ प्रेमतत्परौ । कलाविज्ञाननिष्णातौ ब्राह्मणाचारकोविदौ ॥ ६७ ॥ सुताभ्यां सह यातेन बहिर्भूमिजिनालये । साधु जुगुप्सितौ साधू नितरां सोमशर्मणा ॥ ६८॥ सोमशमा मृति प्राप्य साधुनिन्दापरायणः । सुता वसन्तसेनाया वसन्ततिलकाऽभवत् ॥ ६९॥ सोमशर्मसुतौ कालं कृत्वा द्वावपि शोभने । त्वद्ग: दारकद्वन् संजातं विधियोगतः ॥ ७० ॥ निर्विण्णया त्वया भद्रे तद्दारकयुगं तदा । रत्नकम्बलसंयुक्तं संत्यक्तं नगरीबहिः ॥ ७१ ॥ . . 1फ omits the second line of No. 37 and the first line of No. 38.2 पफज कुलकम्. 3 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 4 पफ पुरुषखनम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्.. . Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -१५१. १८] सुभोगभूपतिकथानकम् ३४५ द्वाभ्यां तत्सार्थवाहाभ्यां युगलं वृद्धिमागतम् । वीवाहमङ्गलं तस्य विहितं विधियोगतः ॥ ७२ ॥ योऽग्निभूतिसुतो ज्येष्ठस्तव वृन्दारिके परे । धनदेवः स मां हित्वा त्वदासक्तो वितिष्ठते ॥ ७३ ॥ सोमभूतिसुतो यो हि तवासीदन्यजन्मनि । कनिष्ठः कमला साऽहं सपत्नी त्वत्सुता हले ॥७४॥ या काश्यपी प्रिया भद्रे तवासीदन्यजन्मनि । साऽपि कालगतो जातः सुतोऽयं वरुणाभिधः ॥७॥ इदं मे मुनिना सर्व दिव्यज्ञानेन भाषितम् । तद्बोधनार्थमायाता सांप्रतं त्वत्समीपताम् ॥ ७६ ॥ 5 प्राप्योत्तमकुले जन्म साधुनिन्दाफलादिदम् । पुंवेदं त्यक्त्वा स्त्रीत्वं त्वं भूयः प्राप्ताऽस्यशोभनम् ॥७७॥ हिंसाऽसत्यं तथा चौर्यं मैथुनं च परिग्रहम् । विधाय पापकर्मेदं मधुमांसादिभक्षणम् ॥ ७८ ॥ अपारासारसंसारसागरं भीतिवीचिकम् । क्रोधमानादिनीरौघं भ्राम्यसि त्वं सुवालिके ॥ ७९ ॥ संसारकारणं सर्वं विहायेदं जुगुप्सितम् । मद्वाक्यतोऽधुना सर्वे कुरुध्वं धर्मसंग्रहम् ॥ ८०॥ कमलान्ते समाकर्ण्य जैन धर्ममहिंसकम् । वसन्ततिलका भीता धनदेवोऽपि संसृतेः ॥ ८१ ॥ सम्यक्त्वादिकमादाय वसन्ततिलका तदा । धनदेवोऽपि संजातः श्रावकः परमो भुवि ॥ ८२॥ कमलाभाषितं श्रुत्वा तचेष्टितमिदं तदा । केचिन्मुनित्वमापन्नाः केचिच्छ्रावकतां पराम् ॥ ८३॥ ॥ इति धनदेववसन्ततिलकाकमलाकथानकम् ॥ १५०॥ १५१. सुभोगभूपतिकथानकम् । विदेहाख्यजनान्तेऽस्ति मिथिला नगरी परा । सुभोगनृपतिस्तस्यां तत्प्रिया च मनोरमा ॥१॥5 रूपयौवनसंयुक्तस्तयोर्दैवरतिः सुतः । कुलाद्यष्टमदोपेतस्तस्थौ स धरणीतले ॥२॥ अन्यदा संघसंयुक्तो दिव्यज्ञानी महातपाः । आययौ तत्पुरोधाने गणी देवकुरुः सुधीः ॥३॥ मुनिं तमागतं श्रुत्वा वन्दनार्थं नरेश्वरः । आजगाम तमुद्देशं मिथिलानगरीपतिः ॥ ४ ॥ नत्वा मुनिं प्रयत्नेन श्रुत्वा धर्मं सुखावहम् । पप्रच्छ स्वभवं पूर्व ज्ञानाम्भोधिं यतीश्वरम् ॥ ५॥ अन्यजन्मन्यहं नाथ कालं कृत्वा यतीश्वरः । क्व भविष्यामि मे ब्रूहि निजकर्मवशीकृतः ॥ ६ ॥ ॥ निशम्य वचनं साधुः सर्वसत्त्वहितावहः । जगादेमं मुनिर्भूपं महाकौतुकसंगतम् ॥ ७॥ अद्यप्रभृति राजेन्द्र सप्तमे दिवसे स्फुटम् । कालं कृत्वा शकृत्कूपे स्वकीये त्वं भविष्यसि ॥८॥ साभिज्ञानमिदं राजन् विशंश्चाद्य स्वपत्तनम् । श्वानं भ्रमरसंकाशं पश्यसि त्वं पथि द्रुतम् ॥ ९॥ विष्टाप्रवेशकाले च छत्रभङ्गो भविष्यति । मृतिस्तेऽशनिपातेन महागर्जनकारिणा ॥ १० ॥ मुनेर्वचनमाकर्ण्य सत्यभूतं नराधिपः । निजं पुत्रं समाहूय बभाणेदं परिस्फुटम् ॥ ११॥ 25 अद्यप्रभृति पुत्राहं मृत्वा सप्तदिनान्तरे । कीटः सितो भविष्यामि स्वकीयेऽशुचिवेश्मनि ॥ १२॥ बहुपापसमेतस्य गूथवेश्मानुयायिनः । मारणं मम कर्तव्यं त्वयावश्यं शरीरजः ॥१३॥ सुतमेवं निगद्यासौ त्यक्ताशेषपरिग्रहः । जलप्रासादमाविश्य तस्थौ तद्भीतमानसः॥१४॥ मृत्वाऽशनिप्रपातेन नरेन्द्रः सप्तमे दिने । संजातोऽसौ सितः कीटः पूर्वोक्ताशुचिमन्दिरे ॥१५॥ पितृकीटस्ततो दृष्टः पुत्रेणाशुचिमध्यगः । भयवेपितसर्वाङ्गोऽशुचिमध्ये विवेश सः ॥ १६ ॥ 30 प्रविशन्तं तमालोक्य शकृन्मध्ये च कीटकम् । तत्सुतः स्वगृहं प्राप्य तस्थौ विस्मितमानसः॥१७॥ सुभोगभूपतिं दृष्ट्वा तत्रोत्पन्नं शकट्टहे । जैनेश्वरं नराः केचिजगृहुर्धर्ममुत्तमम् ॥ १८॥ ॥ इति श्रीसुभोगभूपतिखकीयाशुचिभवनोत्पत्तिकथानकम् ॥ १५१॥ 1 पफज कुलकम्. 2 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 3ज (=विष्टागृहे). 4 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 5 [शरीरज]. 6 पफज त्रिकला. बृ० को० ४४ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 10 25 30 ३४६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे १५२. सुकोशलमुनिकथानकम् । विनीताविषये कान्ते साकेता नगरी परा । अस्यां कीर्तिधरो राजा सहदेवीधवोऽभवत् ॥ १ ॥ परस्परसुखासंगप्रेमसंसक्तचेतसोः । सुकोशलाभिधो रूपी बभूव तनयोऽनयोः ॥ २ ॥ पितापुत्रौ तकौ दृष्ट्वा शरीरादेरनित्यताम् । महातपोधनौ जातौ जिनसेनान्तिके द्रुतम् ॥ ३ ॥ चतुर्मासोपवासस्थौ मौण्डिल्यधरणीतले । तस्थतुस्तौ महासाधू तरुमूले घनागमे ॥ ४ ॥ भर्तृपुत्रवियोगेन चार्तध्यानपरायणा । बभूव तद्भिरौ व्याघ्री सहदेवीति भीषणा ॥ ५ ॥ आहारार्थमितस्यास्य नगरं प्रति धीमतः । सुकोशलमुनेस्तत्र तथा कीर्तिधरस्य च ॥ ६॥ सहदेवीचरी व्याघ्री कोपारुणनिरीक्षणा । चखाद पिशितं पापा निर्दयं सकलं क्रुधा ॥ ७ ॥ उपसर्गं सहित्वाऽमुं तद्व्याघ्रीविहितं द्रुतम् । निर्वाणं जग्मतुर्वीरौ तद्भिरौ तौ तपोधनौ ॥ ८ ॥ ॥ इति श्रीसुकोशलमुनिकथानकमिदम् ॥ १५२ ॥ * १५३. सुदृष्टिमुनिकथानकम् । अवन्तीविषये दिव्ये श्रीमदुज्जयिनी पुरी । प्रजापालो नृपस्तस्यां तत्प्रिया सुप्रभाऽभवत् ॥ १ ॥ अस्यैव भूपतेरासीद् रत्नविज्ञानकोविदः । सुदृष्टिर्नाम विख्यातस्तत्प्रिया विमलाभिधा ॥ २ ॥ अस्य वङ्काभिधः शिष्यो विमलाऽप्यमुना सह । तिष्ठति प्रीतचेतस्का कामाकुलितमानसा ॥ ३ ॥ 1 अथ मैथुनवेलायां विमलावचनेन सः । सुदृष्टिर्निहतोऽनेन वङ्गेन कुटिलात्मना ॥ ४ ॥ संजातो विमलागर्भे सुदृष्टिर्वनाशितः । जातिस्मरत्वमासाद्य सालसः स्थितवानसौ ॥ ५ ॥ अनेन कारणेनायं बालो बालक्रियोद्यतः । गतोऽलसत्कुमाराख्यां समस्तभुवनातिगाम् ॥ ६ ॥ उद्यानवनजातायाः सुप्रभाया रतं प्रति । कीटावर्ताभिधो हारत्रुटितोऽदृश्यतां ययौ ॥ ७ ॥ अन्वेषणं प्रकुर्वद्भिस्तन्नरैर्यत्नतत्परैः । महानुग्रहतः प्राप्तः स हारस्तद्वनान्तरे ॥ ८ ॥ 20 मध्ये सुवर्णकाराणां तत्पुरे सकले नरः । हारं न कोऽपि संस्कर्तुं शक्नोति कुशलाशयः ॥ ९ ॥ ततोऽलसत्कुमारेण गत्वा राजगृहं द्रुतम् । स हारः संस्कृतो दिव्यः प्रभोद्योतितपुष्करः ॥ १० ॥ राजा विलोक्य तं हारं संस्कृतं स्वपुरः स्थितम् । जगाविदं कुमारं तं विस्मयव्याप्तमानसः ॥११॥ इदं सुदृष्टि विज्ञानं त्वया सारं क्व शिक्षितम् । मम विस्मितचित्तस्य कुमार वद सांप्रतम् ॥ १२ ॥ निशम्य भूपतेर्वाक्यं कुमारो निजगाद तम् । आत्मा मया मृतः स्वेन जनितोऽयं स्वयोषिति ॥ १३ ॥ विमलेयं पुरा भार्या नृप माताऽधुना मम । अपुत्रोऽहं मृतोऽस्या हि संजातस्तनयो बत ॥ १४ ॥ श्रुत्वा सुदृष्टिसंबन्धं नरेन्द्रो बहुभिर्नृपैः | अभिनन्दनसामीप्ये तपो जैनमशिश्रियत् ॥ १५ ॥ अन्येऽपि बहवो लोका महाविस्मयसंगताः । जिनधर्मं सुखाधारं प्रतिपन्नाः सुमेधसः ॥ ततोऽलसत्कुमारोऽपि संसारत्रस्तमानसः । पूर्वोक्तस्य गुरोः पार्श्वे दीक्षां दैगम्बरीं दधौ ॥ नानातपः प्रकुर्वाणो मन्दरस्थिरमानसः । वरोत्तरदिशाभागं प्राप शौरीपुरस्य सः ॥ १८ अथालसत्कुमारोऽयं स्थित्वा पश्चिमरोधसि । यमुनायाः समाधानान्निर्वाणं गतवानसौ ॥ ॥ इति सुदृष्टिमुनि कथानकमिदम् ॥ १५३ ॥ ॥ १९ ॥ [ १५२.१ १६ ॥ १७ ॥ * 1 प युग्मम् ज युगलम् फ has lost some letters. 2 ज कुटिलानना 3 पफ युग्मम्, ज युगलम्. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५५. १२ ] वृषभसेनमुनिकथानकम् १५४. धर्मसिंहमुनिकथानकम् । विषये कोशलामिख्ये विद्यते कौशलं पुरम् । धर्मसिंहो नृपस्तत्र चन्द्रश्रीरमणो महान् ॥ १॥ प्रियसेनः सुतस्तस्य रूपराजितविग्रहः । विनयाचारसंपन्नः समस्तजनवल्लभः ॥२॥ दक्षिणापथदेशेऽस्ति कोल्लादिगिरिपत्तनम् । वीरसेनो नृपस्तत्र रूपी वीरवतीप्रियः ॥३॥ चण्डचित्तः खरारावी तत्सुतस्तनयाऽप्यभूत् । पद्मपत्रसमानाक्षी पद्मपाणिपदद्वया ॥४॥ धर्मसिंहो नरेन्द्रोऽयं धर्मभूषितसन्मतिः । चन्द्रश्रिया समं भोगान् भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥५॥ अन्यदा धर्मसिंहोऽयं राजा दमवरान्तिके । धर्म श्रुत्वा प्रवव्राज त्यक्ताशेषपरिग्रहः ॥ ६॥ चन्द्रश्रीरपि तद्भार्या सर्वव्यापारवर्जिता । स्मरन्ती भर्तुरत्यन्तं संतस्थे दीनमानसा ॥७॥ चण्डभूतोऽपि तां दृष्ट्वा स्वसारं दुःखदुःखिताम् । साधोरन्वेषणां चक्रे ग्रामखेटपुरादिषु ॥८॥ चण्डभूतो विलोक्येमं साधु तपसि संस्थितम् । व्रतभङ्गं चकारास्य भूयो भूयः प्रचण्डवाक् ॥९॥10 राजा राज्यश्रियं हित्वा महावैराग्यसंगतः । भूयो जैनेश्वरीं दीक्षां जग्राह गतमत्सरः ॥१०॥ ततः पश्चिमवेलायां चण्डभूतो महाग्रहः । अन्वेषणं चकारास्य साधोरस्य पुनः पुनः ॥११॥ प्रविशन्तं ततो दृष्ट्वा कोलादिगिरिपत्तनम् । दधाव पृष्ठतस्तस्य चण्डभूतः क्रुधान्वितः ॥ १२ ॥ मुनिर्मध्याह्नवेलायां भिक्षां कृत्वा स तत्पुरे । दृष्ट्वाऽमुं चण्डभूतं च दध्यावेवं स्वचेतसि ॥ १३ ॥ बहुधाऽनेन मे पूर्वं व्रतभङ्गः कृतो बलात् । अधुनाऽयं किमु क्षिप्रं तपोनाशं करिष्यति ॥ १४ ॥ 15 चिन्तयित्वा चिरं योगी विधायालोचनां पुनः । शरीरादेस्तथा त्यागं विष्टो हस्तिकलेवरे ॥१५॥' चण्डभूतोऽपि संक्रुद्धस्तत्पुरे सकले तदा । अदृष्ट्वा तं मुनि कापि विवेश निजपत्तनम् ॥ १६ ॥ धर्मसिंहो नृपस्तत्र कालं कृत्वा समाधिना । दिव्यबुन्दीधरो जातो देवोऽयं दिवि भासुरः ॥१७॥ ॥ इति श्रीधर्मसिंहमुनिकथानकमिदम् ॥ १५४ ॥ १५५. वृषभसेनमुनिकथानकम् । बभूव पाटलीपुत्रे नगरे जनसंकुले । वृषभोपपदो दत्त इभ्यः श्रेष्ठी महाधनः ॥ १॥ वृषभश्रीः प्रिया तस्य कन्दोट्टदललोचना । वृषभोपपदः सेनः सगुणस्तत्सुतोऽभवत् ॥२॥ तस्मिन्नेव पुरे भोगी श्रेष्ठी धनपतिर्धनी । श्रीकान्ता तत्प्रिया चार्वी धनश्रीस्तत्सुताऽभवत् ॥३॥ एषा वृषभसेनाय वितीर्णा जनकेन च । अनया सह भुञ्जानो भोगांस्तस्थौ सुलीलया ॥४॥ अन्यदा धर्ममाकर्ण्य जैनं दमवरान्तिके । भोगनिःस्पृहचेतस्कः प्रवव्राज स धीरधीः ॥५॥ धनश्रीरपि शोकार्ता रोदनारक्तलोचना । तस्थौ गततनुच्छाया कपोलपतितालका ॥ ६॥ दृष्ट्वा धनश्रियं श्रेष्ठी खसुतां दुःखिनी तदा । साधोरन्वेषणं तस्य तत्कान्तस्य चकार सः ॥७॥ दृष्ट्वाऽमुं योगिनं क्वापि प्राध्वंकृत्य रुषान्वितः । कृत्वाऽमुना तपोभङ्गं सुतायै स समर्पितः ॥ ८॥ दिनानि कानिचित् स्थित्वा तया साकं धनश्रिया । वरदत्तान्तिके दीक्षां जग्राहासौ विशुद्धधीः ॥९॥ अनेन विधिना तेन वारद्वितयमस्य च । तपोभङ्गं विधायाशु भूयोऽपि तपसि स्थितः ॥१०॥ भूयस्तृतीयवेलायां बवाऽमुं खगृहान्तरे । श्रेष्ठी प्रवेशयामास साधु साधितमानसम् ॥ ११॥ खबन्धवेदनाधारव्याकुलीभूतमानसः । दध्याविदं पुनः साधुः श्रेष्ठिमन्दिरमध्यगः ॥ १२ ॥ 1 पफज निकला. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१५५. १३वारद्वयं ममानेन व्रतभङ्गः कृतः कथम् । अयं तृतीयवेलायां तपोभङ्गं करिष्यति ॥ १३ ॥ एवं विचिन्त्य तत्रत्यः स साधुः साधुचेष्टितः । संन्यास विधिना कालं कृत्वाऽभूत् त्रिदिवेश्वरः॥१४॥ ॥ इति वृषभसेनमुनिकथानकमिदम् ॥ १५५ ॥' १५६. जयसेननृपतिकथानकम् । 5 जयसेनो महीपालः श्रावस्तीनगरीभवः । आसीदुपासकः श्रीमान् वीरसेनाऽतिवल्लभः ॥ १॥ हारराजितवक्षस्कः कलाविज्ञानकौशलः । वीरसेनोऽभवत् पुत्रस्तयोरत्यन्तवल्लभः ॥२॥ मनसा वाञ्छितं भोगं तया सार्धं दिवानिशम् । अयं प्रेमाकरो रूपी भुञ्जानो व्यवतिष्ठते ॥३॥ अस्यामेव पुरि क्षुद्रः शिवगुप्ताभिधानकः । भिक्षुरेकः ससंघोऽसौ वसति प्रीतमानसः ॥ ४ ॥ भूपालस्य गुरुः प्रेयान्निजराद्धान्तकोविदः । व्याख्यानं विदधत्तस्य संघस्य पुरतो मदी ॥५॥ 10 अन्यदा बिहरन कापि वृषभो यतिपूर्वकः । राजाचार्यः समायातः श्रावस्ती संघसंगतः ॥ ६॥ जयसेनस्तदाभ्यास श्रुत्वा जैनेश्वरं वृषम् । बौद्धधर्मं विहायाशु बभूव श्रावको महान् ॥ ७॥ अनेन भूभुजा तत्र सामन्तान्तःपुरादिकः । महाजनपदः सर्वः श्रावकः परमः कृतः ॥ ८॥ खकीयं मण्डलं तेन जिनायतनमण्डितम् । कारितं भक्तियुक्तेन जयसेनेन सर्वतः ॥ ९॥ एवं कृतेऽमुना राज्ञा जिनधर्मं प्रकुर्वता । शिवगुप्ताभिधो भिक्षुश्चकोपास्मै नरेशिने ॥ १०॥ 15 शिवगुप्तो रुषं प्राप्य जयसेनस्य धीमतः । नितान्तं मारणोपायं दध्यौ मनसि दुष्टधीः ॥११॥ अन्यदा क्रोधरक्ताक्षः पृथिवीपुरनायकः । बभूव सुमती राजा बौद्धधर्मपरायणः ॥ १२ ॥ अनेन भूभुजाऽवाचि शिवगुप्तो निजो गुरुः । बुद्धदेवं विहायेमं जयसेनो जिनं श्रितः ॥ १३ ॥ निशम्य तद्वचः कोपी शिवगुप्तः खरध्वनिः । लेखं प्रवेशयामास जयसेननृपान्तिके ॥१४॥ बुद्धधर्म विहायेम समस्तसुखकारणम् । जयसेन दुराचार जिनधर्म प्रपन्नवान् ॥ १५॥ 20 मां यदीच्छसि रे मूढ जिनधर्म विहाय च । ततो बुद्धोदितं धर्म गृहाण सुखवाञ्छया ॥ १६ ॥ तल्लेखदर्शनेनापि जयसेनो जिनप्रियः । ग्रहीतुं नेच्छति क्रूरं बुद्धधर्म मनागपि ॥ १७॥ एवं ह्यनिच्छतस्तस्य बुद्धधर्म मनीषिणः । जिनधर्मानुरक्तस्य जयसेनस्य भोगिनः ॥१८॥ अचलं दण्डसंयुक्तं सहस्रभटनामकम् । समीपं प्राहिणोति स्म सुमतिः सुमतिर्नृपः ॥ १९॥" श्रावस्ती नगरी प्राप्य जयसेनं प्रवेष्ट्य च । हस्त्यश्वरथपादातैः स्कन्धावारो व्यवस्थितः ॥२०॥ 25 स्कन्धावारं जगादेदं सहस्रभटनामकः । घनाघनघनध्वानवीरनिर्घोषया गिरा ॥ २१॥ स्कन्धावारो मदीयोऽसौ न कोऽपि नरकुञ्जरः । जयसेनं दुराचारं यो निहन्ति निकारिणम् ॥२२॥ निशम्य वचनं तस्य दीनं गद्गदभाषिणः । उपासको वभाणैतं तदानीमभिसारकः ॥ २३ ॥ भवन्तस्तिष्ठतः स्वैरं भयं हित्वा शरीरजम् । कृतघ्नं दुष्टचेतस्कं जयसेनं निहन्म्यहम् ॥ २४ ॥ एवं निगद्य तं प्राप्य सेनान्तं वृषभादिकम् । मिथ्याविनययोगेन प्रवव्राजाभिसारकः ॥ २५॥ 30 एवं तपःस्थितं श्रुत्वा जयसेनो नराधिपः । तद्वन्दनार्थमायातो भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥२६॥ ___1 All the Mss. pur No. 155. 2 पफ शिवगुप्तविधानकः. 3 [जयसेनस्तदभ्याशे ]. 4 ज नृपान्तिकम्. 5 पफ नेच्छसि. 6 पफज युगलमिदम्. 7 पफ युग्मम् , ज युगलमिदम्. 8 [भवन्तस्तिष्ठत]. 9 पफज युगलम्. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५७. १२ ] शकटालमुनिकथानकम् ३४९ स्थापयित्वा जनं सर्वं जिनायतनबाह्यतः । जिनं मुनिगणं नत्वा प्रविश्यात्र जिनालयम् ॥ २७ ॥ ततो मन्त्रनिमित्तेन जिनचैत्यालयान्तरे । विवेश भक्तिसंपन्नो राजाचार्योऽभिसारकः ॥ २८ ॥ जिनायतनगर्भस्थास्त्रयोऽपि प्रीतमानसाः । खदुःखसुखसंपन्नास्तिष्ठन्ति कृतजल्पनाः ॥ २९ ॥ आचार्यपादयोर्यावच्छिरसा भूतलस्पृशा । करोति पतनं राजा जानुस्पृष्टमहीतलः ॥ ३० ॥ तावदादाय वेगेन खड्गधेनुं सिताननाम् । हत्वा तया गले भूपं नष्टोऽयमभिसारकः ॥ ३१ ॥' क्षुरिकैकप्रहारेण विह्वलीभूतमानसः । पतित्वा धरणीपीठे ममारायं महीपतिः ॥ ३२ ॥ मृतं महीपतिं दृष्ट्वा पतितं तं जिनाग्रतः । दध्यौ स्वचेतसि क्षिप्रमाचार्योऽयं कुशाग्रधीः ॥ ३३ ॥ उपप्लवोऽयमीदृक्षः शमनं याति निश्चितम् । न विनात्मविघातेन विहितेन महीतले ॥ ३४ ॥ एवं विचिन्त्य योगीन्द्रो नृपरक्तं प्रगृह्य सः । करेणैतां च तत्कुड्ये लिलेखाक्षरपतिकाम् ॥३५॥ मयेदं कर्म नो लोक विहितं नियतं भुवि । कृतमेतदिदं क्षिप्रमभिसारेण सांप्रतम् ॥ ३६ ॥ लोकापवादभीतेन मुनिवेषविधायिना । उपप्लवविनाशार्थं मया स्वस्य वधः कृतः ॥ ३७ ॥ एवंविधां हि तत्कुये लिखित्वाऽक्षरपतिकाम् । खनिन्दनादिकं कृत्वा जिनेन्द्रपदसंनिधौ ॥ ३८ ॥ जिनेन्द्रदीक्षया शुद्धः सर्वत्यागं विधाय च । स्मरन् पञ्चनमस्कारं धर्मध्यानपरायणः || ३९ ॥ स्वकीयमुदरं हत्वा करवाल्याऽतितीक्ष्णया । समाधिमरणं प्राप्य सूरिरेष दिवं ययौ ॥ ४० ॥ * वीरसेन कुमारोऽपि दृष्ट्वैतौ मृतिमागतौ । उपसर्ग चकारास्य संघस्य सकलस्य सः ॥ ४१ ॥ जिनमन्दिरसद्भित्तौ प्रवाच्याक्षरपङ्क्तिकाम् । आचार्यलिखितां स्पष्टां निजाभिज्ञानसंगताम् ॥४२॥ स्वनिन्दनविधिं कृत्वा जिनधर्मविधायकः । वीरसेनकुमारोऽयं तस्थौ कृतजिनस्तुतिः ॥ ४३ ॥ ॥ इति श्री अभिसारशस्त्र निहतजयसेननृपतिकथानकमिदम् ॥ १५६ ॥ * 1 पफ युग्मम् ज युगलमिदम्. 2 पफज कुलकम्. 3 ज आचार्यालिखितां 4 पफ अभिशारद. 5 पफ No. 156, ज No. 155. 6 [ वेदाङ्गस्मृति ]. 7 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 5 १५७. शकटालमुनिकथानकम् । ॥ अभवत् पाटलीपुत्रे नन्दो नाम महीपतिः । सुनन्दा तन्महादेवी नन्दिताशेषबान्धवा ॥ १ ॥ अस्यैव भूपतेर्मत्री शकटालो महापतिः । महाबन्धुत्वमापन्नः प्रीणिताशेषभूपतिः ॥ २ ॥ अथ साधुजनाकीर्णे विषये वत्सकाभिधे । आसीदत्र धनापूर्णा कौशाम्बी नगरी परा ॥ ३ ॥ सुभूतिर्ब्राह्मणस्तस्यां तद्भार्या कपिलाभिधा । द्वावभूतां सुतौ तस्यां रूपराजितविग्रहौ ॥ ४ ॥ आद्येोऽपराभिधो ज्ञेयो वेदस्मृतिविवर्जितः । सोमिल्लारमणीकान्तो मुग्धभावो प्रियंवदः ॥ ५ ॥ अपरो वेदवेदाङ्गः" स्मृतिशास्त्रार्थकोविदः । समस्तलोकविख्यातः सुप्रभाख्यप्रियापतिः ॥ अन्यदा दुःखसंतप्ता सोमिल्ला दीनमानसा । उपोषिता प्रयत्नेन व्रतं दुःखवताविधिम् ॥ ७ ॥ अवसाने विधेरस्य मूर्खकर्कशतायुजः । द्विजस्य भोजनं पश्चाद्दातव्यं विधियोगतः ॥ ८ ॥ इदं विचिन्त्य सा तत्र सोमिल्लाऽपरनामकम् । भोजयित्वा निजं कान्तं मृष्टाशनविधानतः ॥ ९ ॥ दत्त्वाऽस्मै कृष्णवस्त्राणि तथा कृष्ण वृषद्वयम् । कृष्णोपकरणं सा तं विससर्ज जुगुप्सितम् ॥१०॥ * भुक्त्वा तद्भोजनं सोऽपि निर्गत्य शनकैर्गृहात् । उक्तोऽहमनया मूर्खो विवेश गहनं वनम् ॥११॥ नानाश्वापदसंकीर्णे नानातरुसमाकुले । पादयोर्हि पपातायं देवताया भयोज्झितः ॥ १२ ॥ 30 10 15 20 25 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१५७. १३दृष्ट्वाऽमुं देवता विप्रं स्वपादपतितं वने । ददौ वरमिमं तुष्टा द्विजायास्मै कृपावती ॥१३॥ नानाशास्त्रकृताभ्यासश्चतुर्वेदषडङ्गधीः । त्वं काव्यनाटकोपेतः संक्षेपेण भविष्यसि ॥ १४ ॥ एवं निगद्य तं देवी संप्रेष्य निजमन्दिरम् । तोषपूरितचेतस्कः संतस्थे स निजास्पदे ॥ १५॥ एवं संतिष्ठतेऽमुष्मिन् कौशाम्बीनगरान्तिके । वटग्रामेऽभवद् विप्रः सूर्यशर्मा जनप्रियः ॥ १६ ॥ । वसुमित्रा प्रिया तस्य मनोनयनवल्लभा । पुत्रो वररुचिस्तस्यां बभूव विनयान्वितः ॥ १७॥ ततो वररुचिः पूर्वं नमुचिश्च बृहस्पतिः । इन्द्रदत्तोऽप्यमी सर्वे पठनार्थं विनिर्ययुः ॥ १८॥ एकसंस्थो भवेदाद्यः स्फुटं वररुचिर्बटुः । द्विसंस्थो नमुचिः प्रोक्तस्त्रिसंस्थोऽयं बृहस्पतिः ॥ १९॥ इन्द्रदत्तश्चतुःसंस्थो यथाक्रममवस्थिताः । उपाध्यायगृहे सर्वे पठन्ति प्रीतचेतसः ॥२०॥ अपरो ब्राह्मणस्तेषां चतुर्णामपि सर्वदा । संस्थामेकां ददात्येष चारुनादेन सर्वदा ॥ २१ ॥ " एकया संस्थया तत्र नूनं वररुचिर्बटुः । स्वीकरोति तदुक्तार्थ समस्तमपि मूलतः ॥ २२ ॥ एकां वररुचिः संस्थां त्रयाणामपि शोभनाम् । ददाति नमुचिः स्पष्टं तयादत्ते तदुक्तिकम् ॥२३॥ ददाति नमुचिर्भूयः संस्थामेकां द्वयोरपि । तया बृहस्पतिः क्षिप्रमादत्ते तेन भाषितम् ॥ २४ ॥ भूयो बृहस्पतिः संस्थामिन्द्रदत्तस्य चैकिकाम् । ददाति प्रीतचेतस्को वाचा धीरगभीरया ॥२५॥ तदुक्तमिन्द्रदत्तोऽपि यथावस्थितमादरात् । संस्थाचतुष्टयेनापि गृह्णाति सकलं द्रुतम् ॥ २६ ॥ 15 अनेन विधिना सर्वे वेदवेदार्थपारगाः । पठन्तोऽनुदिनं हृष्टा बभूवुः शास्त्रवेदिनः ॥ २७॥ ततः सर्वेऽपि ते पुष्टाः' प्रदाय गुरुदक्षिणाम् । एकवर्णमनोहारि गोसहस्रसमुद्भवम् ॥ २८॥ नगरे पाटलीपुत्रे पताकावलिभासिते । ययुनन्दसमीपं ते तोषविस्फारितेक्षणाः ॥ २९ ॥ अत्रान्तरे महीपालो नन्दाख्यो नन्दितावनिः । कालगोचरतां प्राप्तो विधि को वाऽवलङ्घयेत् ॥३०॥ देहसंक्रमणोपेतविद्यया नमुचिस्तदा । हित्वा शरीरमत्रैव नन्दकायं विवेश सः ॥ ३१ ॥ 20 एवं कृतेऽमुना नूनमुत्थाय सहसा पुनः । नन्दश्चिरंतने राज्ये तस्थौ मुदितमानसः ॥ ३२ ॥ एकवर्णगवां दिव्यं सहस्रं बहुदुग्धकम् । वररुच्यादिविप्रेभ्यो ददौ नन्दः स्वतोषतः ॥ ३३ ॥ गोसहस्रमिदं दिव्यमुपाध्यायस्य तैः पुनः । अन्यस्य कस्यचिद्धस्ते प्रेषितं तोषमागतैः ॥ ३४ ॥ गोसहस्रमिदं दृष्ट्वा चोपाध्यायोऽन्तिके तदा । सुरुष्टेनापरेणैभ्यो दत्तः शापोऽयमीदृशः ॥ ३५ ॥ गोसहस्रमिदं खेन गृहीत्वा खलचेष्टिताः । मदन्तिकं न संप्राप्ताः परहस्ते प्रवेशितम् ॥ ३६ ॥ 25 अनेन नमुचेः शापो मद्यविद्यालनामकः । स मारणात्मकः शापो दत्तो वररुचेरपि ॥ ३७॥ इन्द्रदत्तस्य शापोऽयं वितीर्णोऽनेन कोपिना । महाग्रहसमुत्थानं ग्रहणं ते भविष्यति ॥ ३८॥ शापमेवंविधं लब्धं स्वयोग्यमपरद्विजात् । योगानन्दस्य कुर्वाणाः सेवां तिष्ठन्ति ते पुनः ॥ ३९ ॥ एवं हि तिष्ठतां तेषां मद्यं दोषावहं नृणाम् । योगानन्दपरीक्षार्थ शकटालेन पायितः ॥ ४०॥ नन्देनापि च रुष्टन शरावं भक्तिपूरितम् । एवं दिने दिने साधु कांजिकेन प्रयच्छता ॥४१॥ 30 घनान्धकारसंयुक्ते चाण्डकारे भयानके । शतेन सह पुत्राणां शकटालो निधापितः ॥ ४२॥ अत्रैव नगरे श्रेष्ठी दत्तान्तः सागरादिकः । बभूव लोकविख्यातः सुनन्दाख्यप्रियापतिः ॥४३॥ ततो भोजनवेलायामनेन श्रेष्ठिना सह । एको हि श्रेष्ठिरूपेण पिशाचो भोक्तुमिच्छति ॥ ४४ ॥ बुभुक्षाग्रस्तचित्तस्य तत्सम भोक्तुमिच्छतः । व्यवहारो बभूवायं तदा श्रेष्ठिपिशाचयोः ॥४५॥ स्मृत्वेमं भूभुजा तत्र शकटालं महामतिम् । कूपादुत्तारितः शीघ्रमयं कौतुकमिच्छता ॥ ४६॥ __ 1 ज तुष्टाः. 2 पफ युग्मम् , ज युगलमू, 3 [ चण्डागारे ]. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५७. ७१] शकटालमुनिकथानकम् ३५१ निर्माल्यस्य सतस्तत्र संबन्धेन परीक्षणम् । कृत्वा निर्धाटितोऽनेन पिशाचोऽपि तदन्तिकात् ॥४७॥ ततो निर्धाटितेऽमुष्मिन् शकटालेन तगृहात् । श्रेष्ठिनस्तस्य संजाता सा भार्या वशवर्तिनी ॥४८॥ नन्दोपरि रुषं धृत्वा छिद्रान्वेषी दिवानिशम् । भस्मगूढाग्निवत् तस्थौ शकटालः प्रियंवदः॥४९॥ लब्ध्वा वररुचिर्दिव्यं नन्दराज्यपदं ययौ । नरेन्द्रशेखरीभूतः संतस्थे प्रीतमानसः ॥ ५० ॥ अनयोस्तिष्ठतोरेवं नन्दो वररुचिं जगौ । कौतुकव्याप्तचेतस्को महासामन्तमध्यगः ॥५१॥ काव्यस्य भट्टपुत्राहं चतुर्थं पादमादरात् । करोमि त्वं पुनः शीघ्रं कुरु पादत्रयं बुध ॥ ५२ ॥ नन्दस्य वचनं श्रुत्वा सभामध्यानुयायिनः । ऊचे वररुचिः स्पष्टमेवं भवतु भूपते ॥ ५३॥ ततोऽन्यदिवसे जाते प्रविष्टस्यास्य संसदम् । नन्दो जगाद तं भूयस्त्विदं संतुष्टमानसः ॥ ५४॥ विपश्चितां मानसवल्लभोऽयं श्रुतिप्रियः स्पष्टवराक्षरोक्तिः।। लब्धो मया काव्यचतुर्थपादो रणं टणं टण्टणटण्टणेति ॥ ५५ ॥ बालवृद्धमनोहारि बुद्धकर्मरसायनम् । काव्यपादत्रयं ब्रूहि प्रथमं त्वं महामते ॥५६॥ नन्दवाक्यं समाकर्ण्य तोषकण्टकिताङ्गकः । काव्यपादत्रयं प्रोचे पूर्व वररुचिस्त्विदम् ॥ ५७॥ नन्दनस्य राज्ञो मदविह्वलाया हस्ताच्युतः स्वर्णघटो युवत्याः। सोपानमाश्रित्य करोति शब्दं रणं टणं टण्टणटण्टणेति ॥ ५८॥ कपाटमाश्रित्य वराङ्गनायाः संदर्शितो यौवनगर्वितायाः। न रोचते तस्य जितेन्द्रियस्य सनूपुरः प्रव्रजितस्य पादः ॥ ५९॥ नाप्यागमोऽस्ति शलभस्य न मारुतस्य स्नेहक्षयो न भवति प्रथमप्रदोषे । अव्यक्तनूपुररवध्वनिबोधितेन पारापतेन पतता कृतमन्धकारम् ॥ ६०॥ सुभ्र सुचारुरयं कविपुत्रो राजपथेन गतः प्रवदन् सः। पश्चिमपादमिमं हि पठंश्च कर्कशनालमकर्कशनालम् ॥ ६१॥ कापि न मेऽस्ति हि कारणबुद्धिस्तस्य पदस्य परस्य न वेत्ता। मामिदमद्य भणिष्यति राजा कर्कशनालमकर्कशनालम् ॥ ६२ ॥ उत्पलनालकृताभरणा सा त्वं न गतः स्थित एव निराश । अद्य कृतं कमलं कमलाक्षि कर्कशनालमकर्कशनालम् ॥ ६३॥ अङ्गुलितर्जनजर्जरिताङ्गं शीर्णविशीर्णपवित्रपलाशम् । अद्य कृतं कमलं कमलाक्षि कर्कशनालमकर्कशनालम् ॥ ६४ ॥ निशम्य वचनं तस्य शकटालो जगौ नृपम् । राजन्नस्य मतिर्दुष्टा त्वदन्तःपुरनाशिनी ॥६५॥ शकटालवचः श्रुत्वा कोपारुणनिरीक्षणः । जगाद किङ्करान् राजा भृकुटीभीषणालिकः ॥ ६६ ॥ इमं वररुचिं दुष्टमन्तःपुरविनाशिनम् । बहिर्नगरतो नीत्वा कुरुतास्य विहिंसनम् ॥ ६७॥" नन्दोदितं समाकर्ण्य गृहीत्वाऽमुं च किङ्कराः । मुक्त्वा वररुचिं मार्गे जनुरन्यं नरं पुनः ॥६८॥ पाटलीपुत्रसंज्ञस्य पुरस्यास्य समीपगम् । पलाशकूटनामानं ग्रामं प्राप्य स तस्थिवान् ॥ ६९॥ अथ नन्दस्य भूपस्य नन्दनो दुष्टवाजिना । नीतोऽटवीं तरुच्छन्नां सुनन्दो नाम विश्रुतः ॥७॥ भिन्नालनसमानायां क्षणदायां स तद्वने । न्यग्रोधवृक्षमारुह्य तस्थौ नरपतेः सुतः ॥ ७१॥ 1 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 2 पफज युगलमिदम्. 3 [नन्दस्य ]. 4 पफज चतुष्कुलकमिदम्. 5 पफज युगलमिदम्. 6 पफज युगलमिदम्. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [१५७. ७२० एवं संतिष्ठतेऽमुष्मिन् एको रिक्षोऽतिचञ्चलः' । व्याघ्रभीतः परिप्राप्य तं वटं पृथुमण्डलम् ॥७२॥ न्यग्रोधकं समारुह्य राजपुत्रसमीपके । स्थित्वा जगाविमं रिक्षो नृराजंस्तिष्ठ निर्भयः ॥७३॥ तत्कुमारान्तिके यावद्रिक्षस्तिष्ठति निर्भयः । तावद्व्याघ्रोऽपि संप्राप्य तद्वटाधःस्थितो जगौ ॥ ७४ ॥ मित्र क्षुधापरिश्रान्तस्तिष्ठाम्यत्र वटान्तिके । सुप्तनरमिमं मुञ्च भोजनार्थं मम द्रुतम् ॥ ७५ ॥ • रिक्षो निशम्य तद्वाक्यं पुण्डरीकं जगाविदम् । बुभुक्षाग्रस्तचेतस्कं वटमूलव्यवस्थितम् ॥ ७६ ॥ मदन्तिकं परिप्राप्तं शरणार्थं महावने । अमुं कथं प्रमुञ्चामि सुप्तं नन्दस्य नन्दनम् ॥ ७७ ॥ आकयं तद्वचो व्याघ्रो बभाणेमं पुरस्थितम् । कृतघ्ना मानुषाः सन्ति मुञ्चसे तेन मां प्रति ॥७८॥ मूकभावं परिप्राप्य स्थापयित्वा निजान्तिके । कुमारं सोऽपि सुष्वाप निद्राघूर्णितलोचनम् ॥७९॥ रिक्षेऽमुष्मिन् प्रसुप्ते च पुण्डरीको जगावमुम् । कुमारेमं प्रमुञ्चाशु येन भुक्त्वा व्रजाम्यतः ॥८॥ 10 सुनन्दस्तद्वचः श्रुत्वा जगौ व्याघ्र क्षुधादितम् । दुष्टाश्वेनाहमानीतो वनं व्याघ्र भयावहम् ॥८॥ एकाकी रक्षितोऽनेन वटवृक्षेत्र शोभने । कथमेतं प्रमुञ्चामि भवन्तं प्रति सांप्रतम् ॥ ८२ ॥ एवं निगद्य तं तत्र रिक्षो हस्तद्वयेन च । उत्थापितः कुमारेण रुषं प्राप्य जगावमुम् ॥ ८३ ॥ उ ते वं ते हं किं चि दु सि मि ।। मुक्ताक्षराणि चैतानि दशापि त्वं नराधम । शेषाक्षरेषु यत्कार्यं भूतं भावि भवत्यपि ॥ ८४ ॥ is अथवा योऽर्थमेतेषामक्षराणां भविष्यति । सर्वेषामपि तं दृष्ट्वा तस्य कार्य भविष्यति ॥ ८५ ॥ एवमुक्त्वा तकं रिक्षो व्याघ्रोऽपि वटदेशतः । अदर्शनीयतां प्राप्य यथास्वं निलयं गतः ॥८६॥' प्रभातसमये जाते सुनन्दः प्रीतमानसः । पितुरुत्कण्ठितो भूत्वा ययौ स्खं स निकेतनम् ॥ ८७॥ यत्कोऽपि तगृहे वाक्यं तत्समं वदति स्फुटम् । तत्तस्य हृषयन् सर्व कुमारो व्यवतिष्ठते ॥ ८८॥ नन्दः पलाशकूटाख्यग्रामलोकमशेषकम् । तदानीमादिदेशेदं कोपलोहितलोचनः ॥ ८९ ॥ 20 आकाशभूमिसंत्यक्तं जलमानीयतां मम । यदि नानयसि क्षिप्रं दण्डयोग्योऽसि सांप्रतम् ॥९०॥ नन्दभूपवचः श्रुत्वा समस्तः श्रुतपूर्वकम् । "पलाशकूटसंजातजनोऽजनि ससाध्वसः ॥ ९१ ॥ पलाशकूटजं लोकं विलोक्य भयविह्वलम् । इदं वररुचिः प्राह विपश्चिद्गणसंमतः ॥ ९२॥ स्नानं विधाय विश्रब्धः कुरुध्वं भोजनं जनाः । प्रवेशयामि तस्याहं प्रभाते जलमुत्तमम् ॥ ९३ ॥ विश्रब्धीकृत्य तल्लोकं तदा वररुचिः पुनः । तत्तोयप्रापणे बुद्धिं चकारेमा विचक्षणः ॥ ९४ ॥ 25 उपाचलभृतान् कुम्भांस्तजनस्य समर्प्य सः । इमं प्रवेशयामास नन्दभूपालसंनिधिम् ॥ ९५॥" तद्रामवासिलोकेन मुक्तान् जलभृतान् कुटान् । विलोक्य भूपतिः प्राह तल्लोकं बहुविस्मयः ॥९६॥ इदं जलं कुतो लब्धं भवद्भिस्तोषसंगतैः । कुतो वत्स समानीतं जनाः कथयताशु मे ॥ ९ ॥ नन्दवाक्यं समाकर्ण्य तज्जनो निजगाद तम् । महाविस्मयसंपन्नं भयवेपितविग्रहः ॥ ९८॥ पलाशकूटसद्रामात् समानीतमिदं जलम् । उषासमुद्भवं राजन्नस्माभिर्भवदन्तिकम् ॥ ९९ ॥ 30 पलाशकूटलोकस्य निशम्य वचनं नृपः । भूयो बभाण तं रुष्टो विस्मयव्याप्तमानसः ॥१०॥ युष्माकं केन संदत्तो ह्युपदेशोऽयमीदृशः । एतद्वदत मे सत्यं यथावृत्तं महत्तराः ॥ १०१॥ 1 The Mss. uniformly read रिक्ष which is retained, but better [ ऋो]. 2 पफ रक्षो, [ऋक्षो]. 3 [सुप्तं]. 4 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 5 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 6 [से ], 7 पफज चतुःकुलकमिदम्. 8 ज पलाशकूपाख्य. 9 पफज युगलमिदम्. 10 ज पलाशकूपसं. 11 पफज चतुःकुलकमिदम्. 12 पफ युग्मम् , ज युगलम्. 13 पफ युग्मम् , ज युगलम्. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ -१५७. १३०] शकटालमुनिकथानकम् नन्दस्य वचनं श्रुत्वा ते वदन्ति नरेश्वरम् । अस्मद्रामे वसत्येषा यक्षादेवी प्रियंवदा ॥ १०२॥ समस्तलोकविख्याता समस्तजनवल्लभा । अर्थ मनोगतं नृणां जानाति नरकुञ्जरः ॥ १०३॥ महत्तरवचः श्रुत्वा तदानीं वसुधाधिपः । विस्मयव्याप्तचेतस्को मौनमादाय तस्थिवान् ॥ १०४॥ अन्येषुः प्रातरुत्थाय नन्दो वदति तजनान् । ममेमं मृष्टपानीयं कूपमानयत द्रुतम् ॥ १०५॥ तथानयत मे शीघ्रं हस्तिनं मदशालिनम् । कूपः पश्चिमदिग्भागे तद्रामस्य विधीयताम् ॥१०६ ॥ । एवमादिकमुद्दिश्य हित्वा मार्ग दिवानिशम् । यक्षदेवीं ममाभ्याशं तूर्णमानयतां जनाः ॥१०७॥ ततस्तैनन्दवाक्येन सा नीता यक्षदेवता । नृपान्तिकं समासेन तदुक्तिविधियोगतः ॥ १०८॥ आनीतया तया देव्या नन्दभूपालसंनिधिम् । दृष्टः पठन् कुमारोऽसौ पूर्वोक्ताक्षरपद्धतिम् ॥१०९॥ दृष्ट्वाऽमुं देवता प्राह कुमारं प्रीतमानसा । यथागतं तथा सर्वमनुक्रमविधानतः ॥ ११० ॥ उत्तिष्ठाशु दुराचार सुमित्रत्वं त्वमर्हसि । स्मर रिक्षं तथा व्याघ्र वटे यद्विहितं त्वया ॥१११॥1॥ ते नराः पुण्यवन्तः कौ मित्रस्यापकृतं बहु । ये मन्यन्ते महासत्त्वाः कीर्तिव्याप्तदिगन्तराः॥११२॥ वंदितोपचितोऽत्यर्थं पालितो बालपुत्रवत् । यः पायः पापहीनस्य कां गतिं स प्रयास्यति ॥११३॥ तेन ते पापरूपेण नर पाप दुरात्मना । दह्यते हृदयं किं न शुष्कैधमिव वह्निना ॥ ११४ ॥ हंति पक्षद्वयं सोऽपि यो नरः साध्वसूयकः । व्याजेन सेवनं कुर्यान्मित्रस्य धनदायिनः ॥११५॥ किं तेन न समं वैरं कृतमन्यत्र जन्मनि । येन रिक्षमिमं पाप निद्रालुं हन्तुमिच्छसि ॥ ११६॥ 15 चिरोपार्जितवैराशा नराः पापं सुदारुणम् । न कुर्वते महापाप यथा त्वं दुष्टमानसः ॥ ११७ ॥ दुष्टचित्त न किं वेत्सि सर्वराद्धान्तजं फलम् । अत्रामुत्र सुखं नास्ति मित्रवञ्चनकारिणाम् ॥११८॥ सेतुं प्राप्य नदीनं वा सरितः संगम खल । ब्रह्महा शुद्धिमायाति कृतघ्नो नैव जातुचित् ॥११९॥ मित्रबान्धवसंयुक्तः साधुभृत्यपरिच्युतः । अप्राप्नुवन् वने स्थानं कृतघ्नो नरकं व्रजेत् ॥ १२० ॥ पुरे वससि यत्पाप वृक्षाटव्यां प्रयोजनम् । सिंहशार्दूलरिक्षाणां कथं जानासि मानसम् ॥ १२१॥ 20 मानसे मम सावित्री रसनाने सरस्वती । तेनेदं नृप जानामि गुह्यान्ते तिलकं यथा ॥ १२२ ॥ श्रुत्वा वाररुचं वाक्यं तन्मनःप्रीतिकारिणम् । नन्दोऽमुं स्थापयामास स्वपदे तुष्टमानसः॥१२३॥ षडङ्गान्यस्य जिह्वाग्रे स्वक्रमो येन रक्षितः । सोऽयं गुणी चतुर्वेदी दैवमाक्रम्य खण्डितः ॥१२४॥ श्लोकोऽयमिन्द्रदत्तेन नन्दभूपालसंनिधौ । पठितः खानुरागेण सभामध्यानुयायिना ॥ १२५ ॥ एते यथाक्रमं सर्वे वररुच्यादयोऽनघाः । तस्थुः खधामसु स्पष्टं नन्दभूपालमानिताः ॥ १२६ ॥ 25 अत्रान्तरे महापद्मसूरिः संघसमावृतः । नगरं पाटलीपुत्रमाजगाम महामनाः ॥ १२७ ॥ श्रुत्वा समागतं सूरिं तत्पुरोधानमण्डपे । शकटालः परिप्राप धर्मामृतपिपासया ॥ १२८ ॥ त्रिः परीत्य तमीशानं वन्दित्वा भक्तितो भृशम् । श्रुत्वा जैनेश्वरं धर्म हित्वा सर्व परिग्रहम् ॥१२९॥ महापद्मगुरोः पार्श्वे महावैराग्यसंगतः । शकटालो विनीतात्मा तपो जैनमशिश्रियत् ॥ १३०॥ - 1 [नरकुञ्जर]. 2 पफज युगलमिदम्. 3 पफज त्रिकलमिदम्. 4 Verses, Nos. 111 to 120, begin with the letters mentioned above (after verse No. 83). In the Mss, the letters 3 etc. are written at the beginning of each verse, being separated by two Daņdas. For the convenience of printing, those letters are put here in dark type. 5 [प्रायः पापहीनश्च]. 6 पफज कुलकमिदम्. 7 पफ प्रीतकारिणम्. 8 पफज युगलमिदम्. बृ० को० ४५ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ १५७. १३१प्राप्य निःशेषराद्धान्तसागरान्तं क्रमेण सः । शकटालस्तपोराशिमहाचार्यपदं ययौ ॥ १३१ ॥ ततो वाररुचिस्तत्र' नन्दभूपालपूजितः । सर्वं वैरं समादाय तस्थौ मुदितमानसः ॥१३२॥ . द्वेषी वररुचिः कृत्वा प्रयोगं स्वमनीषितम् । नन्दभूपालसन्मानमहागर्वसमन्वितः ॥ १३३ ॥ . अथ मध्याह्नवेलायां भिक्षार्थं तं महामुनिम् । अयं प्रवेशयामास नन्दान्तःपुरमन्दिरम् ॥१३४॥ 5 विधिना भोजनं कृत्वा शकटालोऽत्र सत्वरम् । जगाम शुद्धचेतस्कस्तदानीं निजमालयम् ॥१३५॥ ततो वररुचिः प्राह नन्दभूपालमादरात् । राजन्नद्य भवद्रोहं शकटालः प्रविष्टवान् ॥ १३६ ॥ भिक्षाव्याजेन संप्राप्य त्वदीयं भवनं नृप । भुक्त्वा तेऽन्तःपुरं सर्वं निर्ययौ त्वद्हादयम् ॥१३७॥ श्रुत्वा वररुचेर्वार्ता नन्दः कोपारुणेक्षणः । प्रजिघाय निजं लोकं शकटालवधं प्रति ॥ १३८॥ तद्वृत्तान्तमिदं ज्ञात्वा कृत्वा खालोचनाविधिम् । शरीरादिकमुज्झित्वा जपन् पञ्चनमस्कृतिम् ॥१३९॥ 10 आदाय क्षुरिकां शातां पाटयित्वा निजोदरम् । समाधिमरणं प्राप्य शकटालो दिवं ययौ ॥१४०॥" शकटालमुनि ज्ञात्वा निर्दोष पञ्चतामितम् । सद्यो बभूव नन्दोऽपि पश्चात्तापपरायणः ॥ १४१॥ महापद्मान्तिके श्रुत्वा जिनधर्मं सुखालयम् । स्वनिन्दनादिकं कृत्वा नन्दोऽरं श्रावकोऽभवत् ॥१४२॥ ॥ इति श्रीशकटालमुनिकथानकम् ॥ १५७ ॥ * . ॥ एवं कथानकानां सप्तपञ्चाशदधिकशतैकं कथाकोशपुस्तके ॥ ** ILE ___1 [वररुचिस्तत्र]. 2 पफज युगलमिदम्. 3 पफज युगलमिदम्. 4 पफ शकटालाभिधं. 5 पफज युगलमिदम्, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३] प्रशस्तिः - [ प्रशस्तिः ] - यावच्चन्द्रो रविः स्वर्गे यावत् सलिलराशयः । यावद्व्योम नगाधीशो यावद्गङ्गादिनिम्नगाः ॥ १ ॥ यावत्तारा धरा यावद्रामरावणयोः कथा । तावच्चारुकथाकोश स्तिष्ठतु क्षितिमण्डले ॥ २ ॥ यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयूखैः । • पुन्नादसंघाम्बर संनिवासी श्री मौनि भट्टारकपूर्णचन्द्रः ॥ ३ ॥ जैनालयव्रातविराजितान्ते चन्द्रावदातद्युतिसौधजाले । कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरे वसन् सः ॥ ४ ॥ सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानको विनेयः । तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्द्यः श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥ ५ ॥ छन्दोऽलंकृतिकाव्यनाटकचणः काव्यस्य कर्ता सतो वेत्ता व्याकरणस्य तर्कनिपुणस्तत्त्वार्थवेदी परम् । नानाशास्त्रविचक्षणो बुधगणैः सेव्यो विशुद्धाशयः सेनान्तो भरतादित्र परमः शिष्यो बभूव क्षितौ ॥ ६॥ 'लक्षणलक्ष्यविधानविहीनश्छन्दसाऽपि रहितः 'श्रमया च । तस्य शुभ्रयशसो हि विनेयः संबभूव विनयी हरिषेणः ॥ ७ ॥ आराधनोद्वृतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम् । हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले ॥ ८ हीनाधिकं 'चारुकथाप्रबन्धख्यातं यदस्माभिरतिप्रमुग्धैः । मात्सर्यहीनाः कवयो धरायां तच्छोधयन्तु स्फुटमादरेण ॥ ९ ॥ भद्रं भूयाजिनानां निरुपमयशसां शासनाय प्रकामं जैनो धर्मोऽपि जीयाज्जगति हिततमो देहभाजां समस्तम् । राजानोऽवन्तु लोकं सकलमतितरां चारुवातोऽनुकूलः ११ ॥ सर्वे शाम्यन्तु सत्त्वा जिनवरवृषभाः सन्तु मोक्षप्रदा नः ॥ १० ॥ नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः । विक्रमादित्यकालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥ शतेष्वष्टसु विस्पष्टं पञ्चाशत्यधिकेषु च । शककालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ॥ १२ ॥ संवत्सरे चतुर्विंशे वर्तमाने खराभिधे । विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ॥ १३ ॥ ३५५ 1 पफज युगलमिदम्. 2 [ पुरेऽवसत् ] 3 पफज युगलमिदम् 4 [ लक्ष्यलक्षण ]. 5 ज प्रभया. 6 [ आराधनोद्धृतः ]. 7 [ प्रबन्धं ]. 5 10 15 20 25 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ [१४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे एवं यथाक्रमोक्तेषु कालराज्येषु सत्सु कौ । कथाकोशः कृतोऽस्माभिर्भव्यानां हितकाम्यया ॥ १४ ॥ कथाकोशोऽयमीदृक्षो भव्यानां मलनाशनः । पठतां शृण्वतां नित्यं व्याख्यातॄणां च सर्वदा ॥ १५ ॥ सहादशैर्बद्धो नूनं पञ्चशतान्वितैः । जिनधर्मश्रुतोद्युक्तैरस्माभिर्मतिवर्जितैः ॥ १६ ॥ ॥ इति श्रीहरिषेणाचार्यकृतं बृहत्कथाकोशं समाप्तम् ॥ ॥ ग्रन्थसंख्या ॥ १२५०० ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ कल्याणमस्तु ॥ ** 1ज कृतबृहत्कथा . 2 ज omits ग्रन्थसंख्या ॥ १२५०० ॥, but simply this number is put between the lines. 3 फ श्री. 4 alone gives श्रीरस्तु etc. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोशे तथा चोक्तमिति समुद्धृतानां पद्यानां वर्णानुक्रमसूची कालचयां विषमैस्तु अनेकानि सहस्राणि अपरीक्षितं न कर्तव्यं अपात्रे रमते नारी अष्टौ तान्यव्रतम्नानि आरुरोह रथं पार्थ आलोचनैर्निन्दन गर्हणैश्च ऊर्वशी ब्रह्मणो भार्या एकमप्यक्षरं यस्तु एक्कमि भवग्गहणे एवमवणिज्ज माणं किं न कुर्याटिक न कृत्वा गर्दभरदितमपि कृत्वा घृतपशुं संगे गवाशनानां वचनं ग्रामो वृत्या वृतः स्वच्छासनरसज्ञानां त्वत्सशाः कति नाथ देवदुन्दुभयो नेदुः द्यूतं पानं कुत्सितवेश्या द्यूतं मांसं कुत्सितवेश्या धण्णादिसरिसवाणं धर्मकथी प्रावचनी वादी न शूद्राय मतिं दद्यात् ( ? ) ३२.२८ ५९.९७ १०२*२.२० ५८.३० ५७.५१२ ५७.२९२ १५.१६ ९९.७० ६६.६३ ५७.५१३ ३७.१० ५५.१३० १९.३५ ७६.१०९ ३३.३८ ९४.१७ ६.२२ ५७.६ ६६.१३ ४५.१२ ५७.१७२ ३७.९ १२. १४७ ३१.१४ न स्थातव्यं न गन्तव्यं नाहं स्वर्गफलोपभोग (?) नीयमानः स्वपर्णेन पद्मिन्यो राजहंसाच (?) परीक्षा सर्वशास्त्रेषु पापच्छेदकरी दीक्षा भाजनं भोजनं शय्या माताका पिताप्येको मानिनो हतदर्पस्य यतिराजवाजिकुञ्जर यानीह दत्तानि पुरा यूथादानीतमेकं (?) योगी च ज्ञानी च ( ? ) यो दद्यात्काञ्चनं मेरुं वरं प्रविष्टं ज्वलिते विनयेन विना का श्रीः शूद्रान्नं शूद्रशुश्रूषा श्रमणस्तुरगो राजा ( ? ) सकृज्जल्पन्ति राजानः सयदारम्मि य णयरे सवेहिं जिदो एक्को साधेनापि नमस्कारं स्थित्वा भ्राम्यदनुक्रमेण ३१.३५ ९३.२४८ ६६.६२ ५७.२९६ ५९.९६ ५४.१७ ११९.५ ३३.३७ ६०.१२८ ५७.२८९ १०.७८ ९३.२४९ ५७.२९८ ६६.५७ १०.९७,११२.३८ १९.६७ ३१.१३ ५७.२९४ ११.१३० ३९.७ ३९.८ ६०.१७३ ४३.७,५७.३८९ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाकोशान्तर्गतविशेषनाम्नां वर्णानुक्रमसूची This Index of Names is prepared with the view that parallel stories in Indian iterature might be detected with the help of common names, and secondly that one might be able to find out the required story from some names casually remembered. Consequently the names of Tirtharkaras etc. and Jaina cosmographical terms are usually excluded. Some interesting and informative words are however listed. Very few of these names can claim to be historical, so no explanatory details are added here. The references are to the stories whose numbers are given against the names. ११ । अकम्पन अक्षोभ अगन्धन अग्नि अग्निभूत अग्निभूति अग्निमित्र अग्निला अग्निशमन अग्रमन्दिर अङ्ग(क) ११२ ५४,१३६. १२६ १५,१६,५७,१२६,१५० १२६ १२६ - - ९५ ३३,५१,५७,६०,८४,९३,१०२*४, १०५,१२६,१२७,५६,६८,१२०. १२ १०५ १०२ अपर . अपरविदेह अपराजित .७८,१२८,१४१ अपराजिता १२७,१२८ अभग्नवाहन . १०५ अभयकुमार ४९,५५,९७,१३९ अभयघोष अभयमति ५५,५३,१३७,१३९ अभयरुचि अभयवाहन १०५ अभया ६०,१३९ अभव्यसेन अभिनन्दन १२,१८,७३,८७,१३५,१४२,१४३,१५३ अभिसारक १५६ अभीर ५६ अभ्रपुर अमरप्रभ अमरावती अमरेश्वर अमलमती अमित १३९ अमितगति अमितप्रभ ५७,७८ अमितप्रभा १३९ अमितवेग अमृता अमृताश्रव ५७,७४,१३९ अम्बरतिलक अम्बा अम्बालिका अम्बिका अम्बुदावर्त १०५ २२ अङ्गद अङ्गमती अङ्गार अङ्गारदेव अचुंकारिका अजितंजय अञ्जनगिरि अञ्जनसिद्धि अतिधी अतिबल अतिभूति अतिमुक्तक अतिरथ अतिवेग अनङ्गसेना अनन्त अनन्तबल अनन्तमति अनन्तवीर्य अनिवृत्त ७८,१२६ ७४,७६,१०६ १२७ ७०,१२७ ४६,७८,१०५,१३९,१४१ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -उसभदासी] - वर्णानुक्रमसूची १४१ १३९ ८४ ६३,१०५,१३२,१५७ आमलकण्ठ आरण्यक इक्ष्वाकु इन्द्रजित् इन्द्रदत्त इन्द्रधनुष इन्द्रपुर इन्द्रप्रस्थ इन्द्रमति इलादेवी इलापुर इलावर्धन ईशावन्ती ईश्वर उग्रसेन उज्जय उज्जयि(य)नी • १३४ १३४ १३४ १४८ ४६,१०६ १०५ ३,५,६,१०,११,२२,२४,२७,४२, ४७,४९,५०,६२,६३,६९,७२,७३, ८१,९३,१०२,१०२*९,१०५, १०७,११२,१२६,१३१,१३५, १३७,१४०,१४९,१५०,१५३ ६१ उण्डू अयन १०५ अयला १०६ अयोध्या २४,४८,७६,७८,९१,११३,१२२ भर ४१,६५ अरिञ्जय १०५ अरिष्टसेन १४१ अर्ककीर्ति ५७,७८ अर्कप्रभ अर्चदास अर्चिमालिनी अर्जुन ३७,५८,८३ अर्धमागधा वाणी अर्धफालक १३१ अर्हद्दा(दा)स ४६,६३,६९,७०,७८ अलकपुर अलका अलङ्कारपुर १२७ अलसत्कुमार १५३ अलुब्ध १०५ अवन्ती ३,५,११,२२,२४,२७,४७,५०,६२, ६९,७२,७३,१०५,१०७,११२, १३१,१४९,१५०,१५३ अवन्तीसुकुमाल अशोक २१,५७,७०,९५,१४१ अशोकभार्या १४१ अशोका अश्वग्रीव १२१ अश्वत्थामन् अश्विनिदेवौ अष्टापद अष्टाह्निक(मह) ३३,१३४ अहिच्छत्र(पुर) २०,१२,८० अहिल्या अंशुमति १३४ अंशुमान् १३४ अंशुमालिनी आकाशगामिनी विद्या आकाशतिलक आचाम्लवर्धमान १२९ आचाराङ्ग २६,५८ ८७,१३० आनन्दनगर १०२ आन्ध्र ४६,५६,१४४ आभीर १३८ २३,२५,३०,९७,१०५ १०५ ६३,७० ८१ उत्तर उसरकुरु उत्तरपथा उत्तरमथुरा उत्तरसूर्य उत्तरापथ उत्पलक उदिता उदितोदय उदीर्णबलवाहन उद्योतमाला उपरिचर . उपश्रेणिक उमक उमा उर्वशी उर्विल्ला उशीरमलय उष्ट्राधिपति उसभदास उसभदासी १२६ १३४ ६९ ५७,९९,१०८ आनन्द १३ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० [अर्जयन्त १०६ १२४ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ३४,५७,१८,१२७,१३१ । कल्पपाली (2) ११८ कलापुर १२६ कलिकुण्ड ५६,५७,७९,१४६ कलिङ्ग कलिङ्गयशस् ६०,६४,६८,६९ कलिङ्ग सेना कल्याणमित्र ५६,५७,७०,७३,१०५,१२७,१३९ १०६ ur mmmm कवि ७०,१२१ १०६ १२१ २८,१०० १३० १३० ४३,१३७ १२६ ८२ प्रशस्ति ऊर्जयन्त ऊर्ध्वग्रीव ऋग्वेद ऋषभ ऋषभदत्त ऋषभदास ऋषभदासी ऋषभश्री ऋषभसेन ऋषभा ऋषश्री एकरथ्य एणिका एणिकापुत्र ऐन्द्रपुर ऐरावती कच्छ कटुका कडारपिङ्ग कथाकोश कथाकोश कनक कनकचित्रा कनकपुर कनकप्रभ कनकप्रभा कनकमाला कनकलता कनकश्री कनका कन्याकुडा कपिल कपिला कमलगन्धिनी कमलश्री कमला कम्पिल्ल करभ करहाट कर्कट कर्कण्ड कर्कोट कर्मराष्ट्र कलकलेश्वर ९७,१३९ कसंवलक कंस काक काकजङ्घ काकतालीय काकन्दी काकोदर काञ्चन काञ्चनमाला काञ्ची काण्डवेगा कात्यायिनी कापिष्ठ कामग कामलता कामलतिका कामसुन्दरी काम्पिल्य काम्बलतीर्थ कायस्थ कारिका कार्तवीर्य कार्तिक कार्तिकपुर कालकपुर कालप्रिय कालम्लेच्छ कालसन्दीव कालिक कालिन्दा कालिन्दी काशी ३३,५२,८२,१०४ १४,५७,९७,१०२*३ ५,५७,६९,८१,१३९ १३१ ८,६४ २३,२५ १०८ १२२,१४८ १३६ ४,५७ ११,६०,१३१,१४३ ६०,१०२*२,१३९,१४३,१५७ ५७,७०,१०२ ५७,७८,८२,१५० ११५ १०५ १५० ९८ १४,२१,४६,६७,७४ ८१, ९३,१०२*३,१०९ १२,९४,१२६,१५० १०,९३ काश्यपी किन्नरगीत १२६ । किन्नररति Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -खर] वर्णानुक्रमसूची कृषिपत्तन १०५ कृष्ण १३६ कृष्णसंदीव १२३ कृष्णा १२७ केकया ५७,१५२ केतुमती केतुमाला केशव १०५ किरीटिन् किशोरक किष्किन्ध किंशुकपटज कीर्ति कीर्तिका कीर्तिधर कीर्तिमती कीर्तिषणा कीयोघ कुङ्कुमदेश केक केशिनी १२७ १०८,११८ १२७ ५६,९३,९७,११९,१२७ कुण्ड १४० __ १६ १३१ १०८ कुण्डलग कुण्डिक कुण्डिन कुन्ती कुन्थु ५८,८३ ४१,६५ कैलास कोकाश कोटितीर्थ कोटीमत कोणक कोणिका कोल्लगिरि कोशल कोशला कौङ्कण कौरव कौशम्ब कौशम्बी कौशल कौशाम्बी १५४ ७८,१०२,१२२,१२७,१५४ ८४,१२७ -१३९ ६३,६४,७० - ११८ कुन्ददन्त कुन्दलता कुन्दश्री कुबेरकान्त कुबेरदत्त कुबेरश्री कुमारगिरि कुमुददन्तिका कुम्भकार कुम्भकारकृत कुम्भिपुर १२७ ८२,१०२,१०२*१० १२७ . १५४ १९,२७,३१,४५,५५,५६,६३,९४, १००,१०१,१०२*२,१०२*१०, १०५,१२६,१३२,१३५,१५७ कौशिक १४२ १३ क्रौञ्च क्रौञ्चपुर १४३ ८३ १०४ ६३,७३ १०५ ५२ ५८,७६ १०५ ८१,१४४ क्षमासार कुरुजङ्गल ११,२५,६३,६५ क्षान्तिका कुरुजाङ्गल ५७,५८,८०,८३,९६,१०२*६,१२९ क्षान्दिका कुरुवंश १२९,१३९ क्षारसमुद्र कुरुविल्ल क्षीरकदम्ब कुलवर्धनी ३० क्षीरोद कुलाल खटखट कुलिक १० खडखड कुलीरग्राम १०५ खग कुसुमपुर ५६,१४३ खण्डकेशिन कुसुमवती खण्डश्री कुसुमावली खण्डिका कूपकार ९५ । खन्दा कृमिका ०५ । खर बृ० को० ४६ १०५ १०५ ७८ ६३,६५ १४२ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ [खेटकग्राम खेटकग्राम हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे १३५ गरुडदत्त गरुडवेग गरुडसेन १०५ १२,१३९ खेत ११८ my - 9 Serv गर्ग ख्यान्तिका गगनचन्द्र गगनवल्लभ गगनवल्लभा गगनश्री गगनसुन्दरी गगनादित्य गङ्ग गङ्गदत्त गङ्गदत्ता गङ्गदेवक गङ्गभट गङ्गा ९७ २६,५७,१२७ गुणपाल ५७,७२,१३९ १०,७८,१२६ गुणश्री ७६,१३८ १०९,१३९ गङ्गादेवी ५६,७८ गर्दभ गान्धारिणी गिरावर्त गिरिकर्णिका गिरिनगर ८३,१४५ गुडखेटक ५७,६३ गुणधर ८०,९६ ८० गुणमती १०६,१०८ १८,२१,५५,५६,६०,६३,६७,७४, गुणसेन ८३,९४,९६,१०२*५,१०५,१०६, गुरुदत्त १२७,१३०,१३३,१५० गोकर्ण १३३ गोकुल गोचरदत्त गोचरसन्दीव गोपदास १२८,१३९ गोपदासी १३९ गोपालक गोपालदण्डी गोमति ११२ गोमती गोमिनी ७८,९७ गोमुख ७८,११३ गोरमुण्ड १३९ गोवर्ज ११४ गोवर्धन ११४,१२८ गोविन्द गौतम १२७ गौरी ९३,११४ घण्टा १०५ चक्र १२६ चक्रधर १०८ चक्रपुर चक्रवर्तिन् ५७,१०९,११८ चक्रायुध १०६ चण्डकर्मन् चण्डचित्त चण्डप्रद्योत ७८ । चण्डप्रज्ञ १२७ गङ्गाधर गङ्गाभट गङ्गाभद् गजकुमार गजपर्वत गतशोक गन्धक गन्धन गन्धमादन गन्धमालिनी गन्धमित्र गन्धर्व गन्धर्वदत्त गन्धर्वदत्ता गन्धर्वपत्तन गन्धर्वभूपाल गन्धर्वसेना गन्धर्वानीक गन्धवती गन्धसूकरी गन्धार गन्धारी गन्धावती गन्धिल गन्धिला गरुडदण्ड ४६ १०६,१३१ ७२,८६,९८,१२१ २२,९६ ५४,११८ ० - १०५ ० - ० - १५४ ९७ ० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त वर्णानुक्रमसूची ३६३ १४० १०२ चेट ४२ ८,९,१०,५५,५७,९७ चोट १०६,१०८,११८ ५६,५७,१०५ ३,५,३७,५७,७८,९७,१०१,१४० १३४ १२६ १२६ ३३ ८ चण्डभूत १५४ । चिलातमित्र चण्डमारि चुवारिका चण्डवेग १२७,१३७ चण्डवेगा चेटक चण्डिका चेलक चन्दना ५५,९७ चेलना चन्द्र चन्द्रक चोल्लक चन्द्रकवेध छर्दि चन्द्रकव्यध ११६ जगावती चन्द्रकीर्ति १३९ जनक चन्द्रगुप्त १३१ जनमेजय चन्द्रगुप्ति १३१ जनार्दन चन्द्रगुहा २६ जम्बू चन्द्रपुरी १३९ जम्बूद्वीप चन्द्रप्रभ जम्बूमत् चन्द्रभद्र १०२८ जय चन्द्रमती ७३,१०२*८,१२६ जयकर चन्द्रलेखा जयका चन्द्रवाहन १२६ जयचन्द्रा चन्द्रश्री १५४ जयन्त चन्द्रसेन जयनी चन्द्राभ जयन्ती चम्पा ३३,५१,५६,५७,५९,६०,६३,६८,९३, जयदेव १०२*३,१०२*४,१०५,११०,१२६,१३३ जयदेवी चम्पापुर ९०,१३४ जयधन चम्पापुरी ९३,१२६,१२७ जयमति चाण(णा)क्य १४३ जयसेन चाणूर १०६ जया चारण जरत्कुमार चारुदत्त जरासन्ध चित्त १०९ जर्जयन्त चित्र ८३,९६ जानकसिङ्गल चित्रकवि जाम्बवती चित्रकार जितधामपुर चित्रकूट जितरङ्ग चित्रगति ७०,१३९ चित्रबुद्धि चित्रभूति जितशोक चित्रमाला जिनकल्प चित्रलेखा जिनचन्द्र चित्राङ्ग जिनदत्त चित्राङ्गद चिलात ५५,१२७,१४० ७८,१०५ ९४ ९६,९७ ६३ ४५,५७,५९,८६,११३,१२७,१३८ ४१,५२,८५,११३,१५६ ا ११८ ا ors १०५ ६३ ११८ ة ه जितशत्रु ११० १२७ १,३८,६७,७०,८१,१०२,१०२*३, १०६,१३४,१३८,१४१ १३१ १,२७,४९,५३,५४,६३,७०,९०, १०२*२,१०२*३,१०२*४,१०२*७, १०२८,१०२*१०,१०४,१०६ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जिनदत्ता जिनदास जिनदासी जिनदेव जिनपालित जिनमति जिनमती जिनसेन जिनसेना जीवंधर जीवंयशा ज्येष्ठा ज्योतिर्माला टङ्कण (देश) टङ्कण (गिरि) तक्षिका तपोधी तरङ्गभङ्गिनी तरङ्गमति तरङ्गवेगा तरङ्गसेना तलाटवीपुर तामलिन्द्री तामलिप्ति तामलिप्तिका तारक तिलक तिलकमति तिलकश्री तिलका तिलकाराष्ट्र तिमिङ्गिल तिलोत्तमा तुङ्गभद्र तुङ्गिका तेरा तोणिम तोणिमत् त्रिकूट त्रिपुर त्रिलोकप्रज्ञप्ति त्रिलोकसार त्रिलोकसुन्दर हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे त्रिविक्रम त्रिवेदी त्रिशिरस् १,४,२७,४६,५४,६३,६४,६९, ७८, १०२, १०४, १३५ ४,१३, ५३, ५९, ६३, ६४,६५,६६ ५३, ६०, ६४,६९,९० १०५ २७, १३५ १,५४,१३५, १३९ ६४, १०६ ६२,६६, १२६,१३९, १४०, १५२ १२१ २९ १०६ ५५ १२६,१३५ ९३ ९३ १० ९६ ९७ ९७ ९७ ९७ १४५ १३९ ५६ ९३ १२६ ५७ ५५ १०५ ५७ २८ ५७ ५७,९९ ४६ ११८ ५६ ५४ १३९ १०५ ९७ ७८ ५७ ५७ दक्ष दक्षिण दक्षिणापथ दण्डकारण्य दण्डवे दत्त दत्तक्षान्ति दत्तपुर दत्ता दन्तिपुर दन्तिवाहन दमदत्त दमधर दमयन्ती दमवर दशमुख दशरथ दशान्य दशा दारिद्रका दिवाकरदेव दिव्यपुरी दीर्घक दुरण्ड दुर्गा दुर्गादेवी दुर्मुख दुर्मुखी दुर्योधन दुष्टभाव दुःशासन दूषण सूर्य देव देवकि देवकी देवकुमारी देवकुरु देवकूट [ जिनदत्ता ९२ १२६ ८४ ८४ ४६ २२, ४९, ५५, ५६, ६६, ७५, १२३, १२४, १२५,१२६, १२७,१३१,१३६,१३८, १४१,१४३,१४४, १४५,१४६,१५४ ८३,८४ १४२ ८७ ७८ ८० ६३ ५६, १३९ ५६,६०,६८,१२७ ९१,१४१ ९८ १२७ ,८५,१००, १०२ ८४ * १०० ११८ १२ १२ ४६ ६१ ९७ ९९,१०५ ७१,८०, १०६ १२,९८ १२ १५, ८३, १४१ ८७ ८३ ८४ ६२ ११ १०६ ११, १०६, ११८ ५९ १५१ ९७ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णानुक्रमसूची १९,४६,५६,७२,८२,१०५,१३९, ११०,११६,१२७,१५५ १९ . . ८२,१०१ १०० - नन्दन] देवकोट(ह)पुर देवकोट्ट देवचक्र देवदत्त देवदत्ता देवदारु देवपाद देवपालित देवपुर देवबलि देवमुनि देवरति देववाट देविला देव(वीर्य) द्रविड द्रविलदेश १६ | धनवर्मन् धनश्री ५३ १०६,१२६,१२९ धनसेन ६०,११६ धनसेना धन्य धन्य(धन) धन्वन्तरि धन्या धम्मिल्ल धरणी ८५,९८,१५१ धरणीतिलक १३५ धरणीभूषण १४३ धरणेन्द्र १०५ धरसेन ४,१० ० ० 5 ro m " धर्म २६,६९,९७ ७४,८३ १३३ و . द्रुपद ११६ ६१,६३ द्रोण द्रोणदेव द्रोणाचार्य द्रौपदी द्वारमती १०२ ५८,८३,११६ ८३ १०८ ३४,१२८ २९,८३,११८ ११८ ८१,११८ १०२*३ ४७,१०८ १५४ १०,२६,४७,५०,५६,५७,६५,६७ २६ द्वारवती ४८ ७८ द्वारावती द्वारिका द्वीपायन धनचन्द्र धनद धनदत्त धनदत्तक धनदत्ता १४१ ३०,५६,६२,१००,१०१,१०२,१०२*३ १२६ ३०,५७,६२,६३,१००, १०२,१०२*३ धर्मघोष धर्मपाल धर्मपुत्र धर्मपुर धर्मरुचि धर्मश्री धर्मसिंह धर्मसेन धर्मसेना धर्मान्तरि धर्मोदय धातकी धान्यकुमार धार धाराशिव धारिणी धीरपुण्य धूमकेतु धूमसिंह पृतराष्ट्र तिषण नकुल नग्नकि नग्नाचार्य नन्द नन्दगोप नन्दग्राम नन्दन ५६ १२६ ११८ १२७,१५० ३०,१०६ ११६,१२७,१५५ ३१,५६,५७,६२,१२६,१४३ १०१ २२ धनदमति धनदेव धनदेवी धनपति धनपाल धनप्रिय धनमति धनमती धनमित्र धनमित्रा धनवती ५८,६६,८३,१२१ ९८ ८१ १२७ ५६,५७,८७,१०१,१०२*३ ५६,५७,१०० ४४,१०६,११७,१२६,१४३,१५७ ११७ ५,१२,२८,५०,५६,१३७ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ नन्दा नन्दि नन्दिग्राम नन्दिघोष नन्दिमती नन्दिमित्र नन्दिविलास नन्दिश्रेष्ठिन् नन्दिषेण नन्दीश्वर नमि नमुचि नर नरपाल नरशूर नरसिंह नर्मदा नर्मदा तिलक नल नाग नागकुमार नागदत्त नागदत्ता नागपुर नागयक्षपुर नागवती नागवधू नागवन् नागवसू नागशर्मन् नागशूर नागश्री नागसेन नापिल्ला नाभि नाभि गिरि नामवादी नारद नारायण नालन्द ना (शि) सिक निधिवेणु निपुणा निर्लक्षणा हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे निविसिन्द २१,१२७ ९९ नील १०५ ८३,१०५ १४१ २,५७ १०५ १२७ ९७ ५९, ११५, १३४, १३६ ९८, १०६ ११, १५७ ४३ ६९ ६४ ८२,१३९ १०८ ५६ ८४ १२ ५६, १३९ २७,४७,५४, ५६, १०५, १२७ २७,५४, ५५, ५६, ११७, १२७ १२,८३,९७ ९७ ३३ १०५ २७, ५०, ५५ १०५ १२६ १२६ २७,६३,६७, १०५, १२६ ४७ १०८ १११ १२ १४६ ७६, १०८ २९ ५६ ७१, ११७ १४१ ७८ ४० नीलगिरि नीलसिंह नीलाञ्जना नेमि नेमिचन्द्र नेमिनाथ न्याय पङ्कप्रभा पङ्गुलश्रेष्ठिन् पञ्चमी विधि पञ्चायुध पञ्चाल पण्डिता पत्रनाग पद्म पद्मखण्ड पद्मदेव पद्मनगर पद्मनाग पद्मपुङ्गव पद्मरथ पद्मलता पद्मश्री पद्मा पद्मादेवी पद्मावती पद्मिनीखेट पर परशुराम पर्वत पराशर पलाशकूट पलाशग्राम पाण्डव [ नन्दा १०८ ५६,८४ ५७ १२४ ५७ २९,५२, ११८, १३१,१४१ ११८ ४६,११८,१२८ ८० ७८ १२८ ५८ ५८ १०४,११४ ५७,६० १२६ १०, ११,१३४ ७८ १०५ १०२ १२६ ५५ ५१,५९,९८,१३१ ६३,६८ २५,४६,६८,७६, १३१ ५१ १०५ ४६, ५६, ६८, १०२, ११८, १२२, १२७, १३०, १३९, १४४ ८६ १५७ ५९, १२२ ७६, १०५, १४३ ६ पलपति पवनवेग पवनवेगा पाकशासन पाञ्चजन्य पाटली (लि) पुत्र ( क ) ८,३२,५३,५७,६०,६३,९४, ९५,१०९, ११४, १४३, १५५,१५७ ८३,९६,१२७ _१०,२१,१५७ ७०,७१,७४,८६ १४५ ५७ १२ ७४ १०८ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -प्रियमती] - वर्णानुक्रमसूची ३६७ २८ ५७,१३३,१४१ १०२ ८६,१५६ पाण्डु पाण्ड(पाण्ड्य) पाण्डुक पाण्डुरीक पाण्ड्य पारसीक पारिजात पार्थपत्तन पाच पार्श्वनाथ पिटकत्रय पिनाक पिना(ना)कगन्ध पिनाकभक्ष पिप्पलग्राम पिशाच २३,२५,७६,७८,११४,१२८ १०६ १३१ ७,५८,८३,९६ । पूर्वमालवक पूर्वमेरु १२७ पूर्व विदेह पृथिवी पृथिवीतिलक १०२ पृथिवीपुर पैष्पलाद पोदन २०,५२,५६ पोदनापुर पौण्डूवर्द्धन ४६ पौलोमी १०४ पौल्लरिरं १०४ प्रजापाल १०४ १०४ प्रज्ञप्ति १५७ प्रद्युम्न प्रद्योत ५७,६६,७८ प्रभङ्कर १०५ प्रभञ्जन प्रभा प्रभाकरी १३१,१४५, प्रशस्ति प्रभाकीर्ति प्रभातनगर १३९ प्रभावती प्रमुदितोदय प्रमोदवाहन १११ प्रयाग ५७,१११ ११६ प्रश्रेणिक ११० १२५ ४,२७,३२,३८,४५,५५,५७,५९, १२७,१३०,१५३ १२,९७,१२६,१२७ ३४ १२६,१३५,१४० १२७ पिष्पलाद ५५,६३,१२७ Totuudikiuhaliland १३६ १११ ९७,१३९ ६३ ६३ ५६,१५० प्रनाज, ५५,१४० पिहिताश्र(स)व पुण्डरीका पुण्डरीकिणी पुण्यक पुबाट पुरन्दर पुरन्दरपुर पुरिमपुर पुरुदेव पुरूरवस् पुष्क(प)लावती पुष्प पुष्पचूल पुष्पदन्त पुष्पदन्ता पुष्पबलि पुष्पाभजल पुष्पावती पुष्पावली पूतना पूतपर्वत पूतिगन्धा पूतिगन्धि पूतिमुख पूतिमुखी पूर्णचन्द्र पूर्णचन्द्रा पूर्णभद्र ५५,९७ WW०० ७८,९३ १२७ १२७ प्रियकारिणी ११० प्रियङ्कर प्रियङ्करा प्रिया प्रियदर्शन १०६ प्रियङ्गुलता प्रियङ्गुलतिका प्रियङ्गुश्री प्रियङ्गुसुन्दरी प्रियचन्द्र ११० प्रियदत्ता ३०,७८ प्रियधर्म प्रियधर्मा ३०,३१ । प्रियमती ४७ ८२,१२७ २७,१०२*६ १२७ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [प्रिय मित्र भद्र प्रियमित्र प्रियवीरा प्रियसेन प्रियंवदा प्रियंवर प्रियावती प्रीतिकर प्रीतिङ्कर प्रीतिभद्र बन्धुमती बन्धुमतीसेना बन्धुश्री बम्भिल्लगणिनी ७८ भद्रा बल बलदेव बलभद्र बलवर्धन बलवाहन बलवाहना बलि बहुभूति बागड बालक बालदेव बालश्री बालिका बुद्ध बुद्धदास बुद्धधर्मा बुद्धश्री बुद्धसङ्घ बुद्धिमती बुद्धिसेना बृहद्राम बृहन्दलक बृहस्पति बौद्ध ब्रह्मन् ब्रह्मदत्त ब्रह्मरथ भगदत्त भगीरथ भन्नालि . २७ । भट्टा(?) १०२ १५ १५४ भद्रदत्त १४० १०२ भद्रपुर भद्रबाहु १६,७८,१०५,१३१ भद्रमति १०५ भद्वृषभ १०२४ भद्रशाल ९३,९७,९८,१०२*५,१२१ ६४,१३६,१३८,१४३ भद्राचार्य १३१ १२७ भद्रिक १०६ ६४,१२७ भरणग्राम १२० भरत(चक्र०) ४१,५६,७९,१११ १०६,१०८,११८ भरत(क्षेत्र) २,३,५,५५,५६,५५,६३,७८,८०,९७, ३०,७८,८८,११८ १०१,१०२,१०२४९,१०२*१०, ११८ १०५,१०८,११०,११७,१३४, १३८,१४१,१४२,१४४ भरत(ग्रंथकर्ता) भरत(दाशरथि) भरतसेन प्रशस्ति भर्तृमित्र ११६,१४० भव भवदत्त १०५ भवदेव ७२,१०५ भवधर्म १३९ ८३ भवश्री भव्यसेन ६८,१३५,१३९ भागवत १९,४६,५५ १२ भाद्रपद १३१ भानु भानुमित्रा १२७ १४,३३,७८ भारत ६,४४,५९,७८,११५ ७८ ५८,८३,११५,११९ १२० भीमदास ११५ भीमसेन ११,५४,१५७ भीष्म ८३,९६,१०८ ४६,६८ भूतवज्र ७८ ७,११,५४,९६,९९,१०९ भूतिपर्वत ३५,४१,५२,५३,१०९ भूपाल १०२*१० भूमिगृह भूमितिलक ११९ भैषम १०८ १०५ भौम १२७ मगध ४,९,३६,५५,५७,६४,८७,१०६,१२७ ४६,६८ भीम भट Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मुण्डीरस्वामिपत्तन ] वर्णानुक्रमसूची ८० ०.m.५१ मथुरा मगधा २३,२७,३२,३८,५५,१०८,१२६,१२७,१४० मघवन् मघवान् मङ्गलपुर मणिचन्द्र १०२ मणिचूल ९७ मणिपति १०२,१०२*१० मणिमती १०२ मण्डूकी १०८ मत्स्य १२६ मतिप्रधान १४३ मथुरा(दक्षिणा) ७,५७ मथुरा(उत्तरा) . २,१०६,१२७ मदनवेगा ८०,१३५ मदना मदनावली मदिल्लपत्तन ११६ मगी मधुपिङ्गल मधुरा ७८,१०६ मधुवन १११ मन:प्रिय १३९ मनु ४६,५९ मनोगति ७०,१३९ मनोरमा ५९,६०,७०,८१,९३,१५१ मनोवेग मनोवेगा ९७ मनोहरी ७६,७८,९५,१२७ मन्ददला मन्दर ७८ मन्दाकिनी १८,७३,९६ मन्दिरा १०५ मन्दोदरी मरक मरीचि १११ मरुदेश मरुभूति ९३ मलय(देश) मलय(गिरि) ५६,१२७ मलयसुन्दर १२७ मलया १२७ मल्लि २४,३७ महाकाल ५०,१०२ महाकुन्द बृ. को० ४७ महाचल महादन्तिपुर महादेव महादेवी महानील महापा १०,११,२५,४१,५५,१५७ महापल्लव १४१ महाबल ७२,९७ महाभूति महावीर १०,२२,५३,५५,१११,१३० महावीर्य महाव्रती महासेन महिष्मती महीग्राम १०५ महीधर ३३,६५,९७ महीधरी महीन्द्रदत्त १३९ महेन्द्रदत्त १०५ महेश्वर महोदया मणिभद्गा मातङ्ग मातली माद्री मानव १०५ मानुषोत्तर ११ मार मारिदत्त मारिदत्ता मारीच माहिष्मती १०२७ माहेन्द्र १२२ माहेश्वर ५४ मित्र १०० मित्रदत्त ७८ मित्रमती ८५,८७,१२७ मित्रवती २८,८५,९३,९७,१०६ मित्रश्री ६३,६४,७० मिथिला ११,५१,५९,९०,९८,१३८,१५१ मीमांसा २२,८० मुण्डिका(ता) मुण्डित मुण्डितपद्मश्री मुण्डितराज सुण्डीरस्वामिपत्तन ११५ ४६ S ८४ " ९८ - 1 मषि Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० मुद्रायण मुनिगुप्त मुनिचन्द्र मुनिदत्त मुनिपालित मुनिसागर मूलस्थान मृगचारी मृगध्वज मृगमारी मृगशृङ्ग मृगसेन मृगायण मृड मेखल मेखला मेघञ्जय मेवदत्त मेघनिचय मेघनिनाद मेघनिबन्धन मेघपुर मेघमाला मेघमालिन् मेघवाह मेघसेन मेदू मेदज (ज्ञ) दत्त मेदपलि मेरिका मेरु मेरुकुमार मेरुप्रभा मौण्डिल्य मौनिभट्टारक यजुर्वेद यज्ञदत्त यज्ञदत्ता यज्ञसेना यज्ञिका यतिवृषभ यम यमदग्नि यमदण्ड यमदण्डा हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे १४० ७,६९ २०, ७८, १३९, १५० ८, १०६, १२१, १४०, १५० १०६ ८१ ९८ ८३ १२१ ५७ ७८ ७२ ७८ ९९ ११५ १२७ १०५ १०५ ९७ ९७ ९७ ५७, ११६ ७८, ११६ १२७ १०५ ५७, ११६ १०२ १०५ १०२*१० ३३,१०५ ९५ ४, ११ ७८ १०५ १५२ प्रशस्ति १२६ १२६ १२ १२ १२ १५६ ६१,९७,१३८ ५९, १२२ १,५७,५९, ७४, १३८ ७४ यमधर यमपाश यमलार्जुना यमुना यमुनापङ्क ययाति यवन यवनलिपि यशः सेन यशोदा यशोधर यशोधरा यशोभद्र यशोभद्रा यशोमति यशोमती यशोरथ याज्ञवल्क यादव यापन संघक युधिष्ठिर योजनगन्धा यौ रक्ता रजोदरी द्वीप रतप्रभ रनपुर रखमाला रत्नमाली रत्नसंचय नायुध रथनूपुर रथनूपुर (चक्रवाल) रवि रविप्रभा विबिन्दु रश्मिवेग राजगृह राजपुर राम रामगिरि [ मुद्रायण ५५,५६ ६३,७४ १०६ १९,५६,८५,८८, १०६,१३२,१३८, १४१,१५३ १४१ ७६ ९३ २२ ११३ १०६ ४६,५७,६८,७३,८१, १०१, १२७,१३६, १४० ७८ ६३, ५६ १२६ ५५, ७३, ७४, ९७, १४३ ५७,६३ ५ ९३ ४६, ११८ १३१ ५८, ८३, ११८ ८३,९६, ९७ ७३ ८५ १०६ ५२, ७८, १४८ १०४ ५७ ७८ ९३ ५७ ७८ १९ ५६ ५४ १२७ १२७ ७८ ४, ८, ९, २२, २३,२७,३८,५५,५७, ५९,६३,६४,८०,८७,९३,९७, १०१,१०६,१२६,१२७, १३९, १४० ७३ १०५, १२७, प्रशस्ति ५६ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -वसुमित्र] वर्णानुक्रमसूची ३७१ वत्सकावती ७८ ८४,८९ १३१ वनमाला वनवास वप्रवाद वप्रा १९,२७,३१,४५,५५,५६,६६,६९, ९४,१०१,१०२*२,१२६,१३५ ३२ १४३ १३१ ३३ ४६,१२२,१५५ रामदत्ता रामदेव रामिल्ल रामिल्ला रावण रिष्टक रुक्मिणी रुक्मिन् रुद्र रुद्रदत्त रुद्रमालिन् रुद्राणी रूपश्री रूपखुरा रूप्यकुम्भ रूप्यखुर रूपिणी ५६,८४,८९, प्रशस्ति १४४ ३४,१०८,११८ १०८ ७,११,५४,९६,९७ १२,५४,६५,९३ ६३,७८,९५ ६३ १५७ ५७ سوم و سر و سه س वरदत्त वरदत्ता वरधर्म वरधर्मा वररुचि वराक्ष वराङ्ग वराट वराहक वराहकण्ठ वराहग्रीव वरि वरुण वरुणदत्त वरुणा १२७ ८०,१०२ س س س रेणुका १२६ रेवती ५९,१२२ ७,१०६,१४८ ९५,१५० रेवा १०५ १२८ ७८ वरेन्द्र ५७,८८,९४,९७,११८ रैवतक रोहिणी रोहिणी(व्रत) रोहित रोहेटकपुर २८,७३,१०० १३६ १०२ ८४,१०५,१२७ ११८ ८२ लक्षपाक लक्ष्मण लक्ष्मणा लक्ष्मीग्राम लक्ष्मीमती लक्ष्मीव(मोती लका १०८ ११,५७,१०८,१०९,१३६ ६,५६,८४ १२६ वर्धकि वर्धमान ५६,५७,१३०,१३१ वर्धमानपुर प्रशस्ति वलग्राम वल्लभराज १२३,१४६ वलभी १३१ वशि(सिष्ठ ५९,९९,१०६ वसन्त वसन्ततिलका ५७,७२,१५० वसन्तमाला ११६ वसन्तसेन वसन्तसेना ६२,९३,९८,१५० वसन्ता ७६ वसुदत्त वसुदास वसुदेव ३५,८८,९३,१०६,११०,११५,११८,१२८ वसुन्धरा ४६,५७,१४६ वसुपाल १०,२०,२४,५५,५६,५७,६३, १०२,१२६,१४५ वसुपाला वसुमति ६३,५५ वसुमती १०,२०,२४,५५,५६,५७ वसुमतीश्री ... वसुमित्र २४,४८,५५,५६,५७ लब्धि लाट लोकपाल ५४,१०८,१३१,१३९ ५७ वक १५३ वङ्ग वज्रदत्त वज्रविद वज्रबिम्ब वज्रवेग वज्रायुध वटप्राम वत्सक १५७ १५७ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [ वसुमित्रा ३१,३५,५५,५६,६५,८०,१५७ ८०,१०२*७,१०९ ६७,१०२*३,१०९ विद्युइंष्ट्र १२६ ९३ ११,४५,१२१ १३८ १२७ १६,५७,१२६ ८० १४,२१,४६,६३,७४,८१,९३ १०,५५,५७,९७ वसुमित्रा वसुशर्मन् वाणारसी वात वातभूति वाद्वलि वामन वामरथ वामवारा वायु वायुकुमार वायुभूति वायुवेग वारत्रिक वाराणसी वारिषेण वालाम्बुगा वासव वासुकि वासुदेव वासुपूज्य विकटदन्तक विक्रमादित्य विगतशोक विचित्र विचित्रकान्ता विचित्रभू विचित्रमति विजय विजयदत्त विजयपुर विजयसेना विजयसेना विजया विजयादित्य विजयादित्या विजया १० २९,३४,७८,१०२,१०६,१०८,११८ ५१,५७,५९,१२२,१२६ प्रशस्ति ५७ १४,८३,९६ विधुदृढ ७८,९७,१३९ विद्युद्वाहन १०५ विद्युद्वेगा १९ विद्युन्मति विद्युन्मती १०४ विद्युन्मालिन् १२७ विद्युल्लता ६३,७०,१२७ विद्युल्लेखा विदेह ५१,९८,१५१ विनत विनयन्धर १३,१२७,१२९ विनयादिकपाल प्रशस्ति विनयमति १३,१३४,१४३ विनयशोका विनयसेन १०२ विन्ध्य २७,५७,१०२*७,१०६,११५,११८ विन्ध्यपुर ११८ विन्ध्यवासिनी विनष्टशोक विनीत ७६,११९,१२१ विनीता २४,३५,३८,४८,८४,८५,८९,९१, १०२*८,११९,१२२,१२७,१५२ विन्या ६६,१०५,१३८ विन्यातट ८०, १३८ विन्यातटपुर २२,६६ विन्यानदी विपुल विपुलगिरि ८,२२,७९ विपुला विभीषण विभूति विमल विमलकीर्ति विमलगन्धिनी विमलचन्द्र विमलप्रभा १०५ विमलमति ४६,५७,६६,१२७ विमलमदन विमलवाहन १२,५७,६० विमलश्री ४६,५७ विमला ५७,९८,१५३ विरलवेगा १२७ विराट विशाख विशाखदत्त विशाखभूति ५५ ७८ ६,५७,५९,१२७,१२९ १३९ ५७ १४८ ९३ ७०,१२७,१३९ १२३,१४६ १२३ ११,३३,५६,५७,७०,७८,८०,९३ ९५,११४,१२७, १३९ विज्ञातपुर २२ बिदुर १२७ १३८ ४,१० विद्याकुमार विद्युचर विद्युञ्चौर विद्युजिह विद्युत्पुर विद्युत्प्रभ विबुप्रभा o १९,५६,५७,७८ ५७,७८ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शीलगुप्त ] विशाखा विशाखाचार्य विशाली विश्वदेव विश्वदेवी विश्वभूति विश्वसेन विश्वसेना विश्वानल विषन्धर विषरथ विषवाहन विष्णुकुमार विष्णुदत्त विष्णुदत्ता विष्णुश्री वीतभय वीतशोक वीतशोका वीर वीरजिन वीरदत्त वीरदत्ता वीरनाथ वीरभद्र वीरवती वीरश्री वीरसेन वीरसेना वृकोदर वृषभ वृषभ गिरि विषा विषान ६ विष्णु ७,११,२९,३४,५५,८३,९६,९९, १०८, ११८ ११ वृषभदत्त वृषभदत्ता वृषभदास वृषभध्वज वृषभश्री वृषभसेन वेगवती वेण्यातट वेत्रवती वेत्रवन वेद वर्णानुक्रमसूची ८ १३१ ५५ ५७ ९८, १३९ ५७,६६, १०२५ ९६,९७,९८, १०२*६, १२९ ९६,९८ ५१,५९ ५ ५ १०५ ७२ ३,१६,६३,९३,१०४ ७६ १६,६३,६६ ७८ ५७, १४१ ५७, ७८ १०, ४६ १ २४ २४ ५६, ७९ १७,५६,७६, १०६ ८७,९५, १३६, १५४ १२७,१३६ २३,५६,९१, १५४, १५६ २३, १५६ ८३ ८१ १०५ ७२, १५५ ७२ ६८ २१ १५५ ५७, १८, १३५, १४३, १५५, १५६ ३३,५७,११६ ४६ २८,१०० ९३ ८० वैजयन्त वैजयन्ती वैताली वैदर्भ वैदिश वैभार वैकुमार वैराकर वैरिणी वैशाख वैश्रवण वोह वोदक व्रतपाल व्यास शक शकट शकटाल शकुनि शक्रचाप शङ्कर शङ्खपाल शतद्वार (राजा) शतद्वार (पुर) शतद्वारा शतभट शतमन्यु शत्रुघ्न शम्बु शर्व शान्तन शान्ति शालिसिक्थ शिव शिवगुप्त शिक्ङ्कर शिवदत्त शिवभद्र शिवभूति शिवमति शिवमन्दिर शिवशर्मन् शिवा शिशुपाल शिंशप शीतल शीलगुस ३७३ ७८, १२९ १२७ ९७ १०८ १३०. १४० १२. ८० ९७ ८ १४४ ५५ १२६ ५७ ५९,८३,९६ प्रशस्ति ५७, ७०, ७८, ९४, १०६, १४३ १५७ ८३, १०६ ३३ ९४,९७,९९ १० ३६ ३६, ३९, ४० ३६ ५६ ३३ ८४, १०६ ११८ ९७ ८३,९६ ४१,६५ १४७ ५६,८२, १४५ १०६, १५६ ९७ ६३ ७६, १०६ ३१,८०, १०२, १०२*३, १२५ १४५ ९३ ३६,८०, १०२, १०२*२ ११८ १०८ V ७८ ५७ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ शुभ्रकीर्ति शूर शुरचन्द्र शूरदत्त शूरत्ता शूरदेव शूरपत्तन शूरमित्र शूरवीर शूरसेन शूरसेना शूर्पणखा शैलपुर शैवधर्म शैवी दीक्षा शौरी शौरीपुर श्यामलता श्यामा श्रावस्तिका श्राव (स्ति)स्ती श्रावस्थ (स्त्री) श्रीकान्ता श्रीकुमार श्रीदत्त श्रीदत्ता श्रीदास श्रीदेव श्रीदेवी श्रीधर श्रीधरा श्रीधरी श्रीधर्म श्रीधर्मन् श्रीनिलय हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे ५७ श्रीहरिषेण ९८ श्रुतकीर्ति २८ श्रुतसागर श्रुतसागरचन्द्र श्रेणिक श्रीपति श्रीपर्वत श्रीपाल श्रीपुर श्रीभूति श्रीमत् श्रीमती ११,५७, ७२, श्रीमहादेवी श्रीवर्धन श्रीविजय श्रीषेण श्रीषेणा २७, २८ २८ ७० १४१ २८,१२६ ११२ २८,५७,६३,८७,८८,९३, १०६,११२ २८,९३, ११२, १२७ ૮૪ ९७, १२६ ९७ ५४ ८४ १५३ १२७ ९३, १२७ १३९ ,८१,९७,१५६ ८० ८१,८६,१२६,१२७, १५५ ११७ ७२,१०२,१०५,१३४, १३९ ७०, ७८, १०५, १२७ ७८ ८६ १३४ १,४६,५७,६८,७०,७८,१२७,१३४ ७८ १५ ७८,८१,१०५ ११ १०५ १०२९ ४६ ५७, १४५ ८५, १२६ ५७, ७८ ७८ २९,१२७,१३६ १४५ ८५ ५७ ५७,७०,१०५ ५६,१०५,११७,१३६ श्रेयान् श्वेतकरिन् श्वेतकर्णी श्वेतराम श्वेतसन्दीव सगर सङ्गम सङ्घश्री सञ्जयन्त सती सत्यकि सत्यतन सत्यभामा सत्यवती सद्बुद्धि सनत्कुमार सन्मति समाधिगुप्त सरयू सरस्वती सर्वङ्कषाय सर्वयशस् सर्वश्री सर्वार्थ सलकी विन्ध्य सहदेव सहदेवी सहस्रकूट सहस्रभट सहस्रार संयमवर संयमश्री संयमसेन संवर संवलनाग ९,१०, [ शुभ्रकीर्ति - प्रशस्ति ५७ ११,२२,५७,७८ ११ ४१,१०५,१२९ १३० ४६, ५४, ५७, ६३, ६४,६६, ७१, १०८, १११,१३९ ५६,६०,९७ समुद्रदत्त ४५,४७, ५५, ६९, ७०, ७७, १०२९, १३२ समुद्रदत्ता समुद्र विजय समाधिगुप्ति १२,७७,१०२*९ १०६,११८,१२७ सम्भूत ,५७,७९,८०,९७, १०२*५, १३९, १४० ७८ ५७ १०२५ १२२ २२ ४१,७६, ११९ १२९ ४६ ૮ ९ १ ९७ ९७ २९,१०८, ११८ ९६ ७८ १०९ २८ १५७ १०२*९ १२६ ७८ ९३ ७८ ५८, ८३ १२९,१५२ ५६,६३ ३५,७०,८६,१५६ ७८ ७२ १०८ २७,५५,८०,८९ ९६ १२६ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुवर्णकुम्भ ] वर्णानुक्रमसूची ३७५ सुगत ५७ ८४,९३ ९३ ६३,७३ ४४,६०,७८,१२७ ७१ १११ १५३ साकेत १५,७८,१२१,१५० साकेता ३५,७६,८४,८५,८९,१०२*८, १२७,१३४,१५२ सागर ८२,९४ सागरदत्त १२,४२,४५,५५,५७,६०,७०,७६, ८०,९८,१०१,१०४,१०५,१०७,११०, ११७,१२७,१३०,१५७ सागरदत्ता ४५,४७,६९ सागरबुद्धि सागरसेन ५६,१०१,१२७,१३९ सागरसेना साङ्ख्य सात्यकि सामवेद १२६ सावलि १३१ सावित्री १५७ सिद्धकूट सिद्धार्थ १३,१२१,१२७ सिन्धुदेवी ३३ सिन्धुनद(देश) सिन्धुनद(राजा) सिन्धुनद(पुर) सिन्धुनदी सिन्धुमती ३३,५७ सिन्धुविषय सिन्धुसागर सिप्रा ७२,७३,१०५,१३१ सिप्रादेवी सुगन्धिवाहन सगुप्त सुग्रीव सुघोष सुज्येष्ठा सुदत्त सुदर्शन सुदर्शना सुदास सुदासी सुदृष्टि सुधर्म सुधर्मन् सुनन्द सुनन्दा सुन्दर सुन्दरी सुन्दरीका सुपिङ्गल सुप्रजा सुप्रतिष्ठ सुप्रभा १५७ २१,१२७,१३०,१५७ ५९,७८,१०२१०,१०४,१०९ १०५ ३३ سه س له سه ३३ ८४ १९,५७,१०६ ५५,५७,९७,१२६,१२७, १३१,१३९,१५३,१५७ १०५,१४३ १४१ ६३,७०,७६ सिंह ९७ २३,९० सुप्रभावती सुबन्धु सुबुद्ध सुबुद्धि सुभग सुभद्र सुभद्रा सुभानु सुभूति सुभूम १२३ १०,६३,१०५,१२६,१५० १०,४७,५५,८६,९३,९७,१२१,१४० सिंहकेसर सिंहचन्द्र सिंहदत्त सिंहध्वज सिंहनाद १२,५७,१५७ ४१,४४,१२२,१४८ १५१ सिंहपुर सुभोग सुमङ्गला सिंहबल ११,८६,१०५,१२० सिंहयश ९३ ७८ २३,५७,१०६,१३४ ६,२८ २८,९३,१०५,१०७ १०५ ५७,७८,८६,९८ २३,८६,९८ १३४ सिंहरथ सिंहल सिंहलद्वीप सिंहवाहन सिंहसेन सिंहसेना सिंहिकापति सीता सीमन्धर सुकान्त सुकान्ता सुकुमारिका सुकेतु सुकोशल सुमति ७,५६,५७,८२,९०,१०६,१२७,१३९,१५६ सुमन्दिर सुमित्र १२,१५,६३,७८,१४३ सुमित्रदत्त सुमित्रदत्ता सुमित्रा ६५,८४,९३,१०४ सुयशोधरा सुयोधन .६३,७६ सुरकान्ता सुरति १२८ सुराष्ट्र २९,१०८,११८,१२७ सुरूपा १२७ सुरेन्द्रदत्त ९३,१२६ सुलसा सुवर्णकुम्भ ८४,८९ १२०,१२१ ७२,१०५,१५० ११३,१२७,१५२ ! Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सुव्रत १३१ ११ym७, १०४ १२६ हरिषेणाचार्यकृते बृहत्कथाकोशे [सुवर्णखुरसुवर्णखुर ४६,६३,७० सौराष्ट्र २६,३४,५७,१२८,१३१ सुवर्णवती ७८ सौरिपुर १४१ सुवर्णश्री ४८ सौरी सुवेग ५६,११६ स्कन्द ५४ सुवेल स्तम्बकरि ९७,१०५,१०६,१२७ स्थविरकल्प १३१ सुव्रता ५६,५७,७८,१२७,१४२,१४३,१५० स्थूलवृद्ध सुव्रताचार्य स्पटहस्त १०५ सुशर्मन् १०९ स्वयंप्रभा १२७,१३६ सुशीला ५७,७८ स्वयम्भू सुषेण १०९ स्वयम्भूरमण ४४,५७,१४७ सुसीमा ११८ स्वरूपा १५० स्वर्णकुम्भ सूरद स्वर्णकेशी सूरदत्त स्वर्णखुर सूरिका १०६ स्वर्णचन्द्र सूर्यकौशाम्बी ६३,७० स्वर्णचित्रा सूर्यदत्त ६३,७८ स्वर्णदत्त १०५ सूर्यप्रभ स्वर्णद्वीप ५३,८२ सूर्यमित्र १२६ स्वर्णमन्दर सूर्यमित्रा स्वर्णमाला १२७ सूर्यमुनि स्वर्णमालिनी सूर्यशर्मन् स्वर्णलेखा ६४ १५७ स्वस्तिकावर्त १३९ सूर्योदय स्वस्तिमती ५८,७६ ७२,१२७ स्वामिकार्तिक सैरन्ध्री स्वामिनी १३१ सीदालिका हनूमान् १२६ सोपार(मागष) १२ सोपारकपुर ५४,८३,९९,१०८,११८ १२७ सोपारय हरिचन्द्र १०८ सोम हरिवती सोमदत्त हरिवंश ११८ ४,१२,५७,६५,७२,१०८ सोमदत्ता हरिषेण ३३,४१,९७, प्रशस्ति १२६ सोमदास हरिसिंह सोमदेव १०८ हस्तिकूट सोमप्रभ ५७,६६ हस्तिनागपुर ११,१२,२५,५७,५८,५९,६३, सोमप्रभा ६५,८३,९६,१०२*६,१२९,१३९ सोमभूति १२,५७,१२६,१५० हस्तिपुर सोमशर्मन् २,१०,१६,२२,२३,४६,४९,५५,५७, हिमवत् २,७३,१२५,१३४ ६३,६५,७६,८०,९३,९४,९७,१०२, हिरण्यकुम्भ १०२*४,११२,१२६,१२७,१३१,१५० हिरण्यगर्भ सोमशर्मा ६५,१०२*४ हिरण्यनाभि सोमश्री ५५,५५,६३,६६,११५,१२७,१३१ हिरण्यमतिका सोमिला ३,१०,५७,९४,९७ हिरण्यमती सोमिल्ला ३,४,१२,१६,६५,९३,१०२*४,१५७ हिरण्यरोम सौदामिनी १२९ हिरण्या सौधर्म ३४,५१,५७,६२,१२६,१२९ सौम्य हेममाला सौम्या २२,४५,६५,९७ ह्रीमत् १२,९३ सूर्याभ सेना हरि ९३ हेम Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOTES 1) Before giving the story corresponding to our No. 1, stan gives the stories of भरत. जितशत्रु (p. 2) etc. to illustrate लौकिक and लोकोत्तर उद्योतन. 5 Note the of Locative Absolute with यावत् and तावत्. 10 Context requires जिनचन्द्रो. 180 is metrically defective; better त्वया for मया in d. 23a Rather तथात्यर्थ for तथा त्वर्थ. 2) 36 means anteor anRTIT ; the author shows a tendency of dividing words like this. 50 दीक्षाम् = दीक्षा? 11d This text uniformly uses सन्मुख for संमुख. 14d areal possibly used in the sense of fea917, see also 4.29. 3) 2a = a temple. 3 333 = 3771+ ( ); E = part of a village (also 71. 15), cf, Prākrit an+31. 14 Mss. waver between a T and AĦET, see 4 above. 26 que = a peg, a broken trunk of a tree or plant. 33 37 possibly used for 37. 37 Mofil: = 7T:, the author excessively uses nominal and pronominal forms with suffix. 4) 12c ag is superfluous. 23b The usual spelling is IRT, but here tha(*); the Präkrit word is f. 246 The weapons are sa, fora, and gf (= f ). 33b ft is taken as Mas, or we might read tau. 63c See the Acc.; also at 2. 5. 5) 272727 reads जसहर and विस्संभर for our यशोरथ and विषंधर. 86 Omit footnote 1; पम्पा = thirst, see 35. 11, footnote 7. 6) la prà are (also 57. 471, 59. 1, 78. 222, 110. 13, 115. 1, 134. 26, 142. 1) is a back-formation from the Prākrit IE at which is usually equated with wraad; our author often uses this phrase. 3b Lexicons usually spell Pretz, a blue lotus; but our text has Fria, a normal form in Prākrits; for its etymology see Kamsavaho (Bombay 1940), p. 175. 16a Rather Shri. 7) See 1991€3 51-53 with Srutasāgara's commentary. 186 The reading to gives better sense; note the Acc. #Tunt, the Nom. would have been better. 19c Read sirevitfe. 22a ez: = asz:, one who moves in the sky (=èat), a god or Vidyādhara. 28d Epic usage admits both Mas, and Neu. for fage. 43 The author uses both and saffran ( 45a), the latter being a back-formation from f . 486 Are we.to read area for qua? 496 Metrically faulty. 50c Rather ca . 700 Better er for e# as in 10. 48. 710 Omit footnote 9. 75-6 aitoafciant is obscure: these names of the articles of food are definitely popular and some of the words are not quite Sanskritic. 800 Test is primitive for causal. 846 fagaut (also fagamo 51. 15), magical transformation, Pk. Acquit, the Sk. root being fàs; see also 11. 120, 97. 81. 95d 13 looks like a hyper-Sanskritisation of Pk. 197 = $115, free from living beings. 970 Hart Acc. for Nom. 8) 6 Note 3 governs Acc. 190 FT03C1 = curtain. 250 Note Pad 1941 Acc. for Nom. 40 Here we have an illustration of fatica, i. e. both the actions are not performed by the same subject; or we should take both the substantives as subject by supplying 4. 9) In his commentary on the fragiles (p. 102) go o xa Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 BRHAT-KATHAKOŚA [9.15 Haribhadra gives a story like this : उववूहणाए उदाहरणं जहा-रायगिहे नयरे सेणिओ राया, इओ य सक्को देवराया सम्मत्तं पसंसइ । इओ य एगो देवो असद्दहतो नगरबाहिं सेणियस्स निग्गयस्स चेल्लयरूवं काऊणं अणिमिसे गेहइ, ताहे तं निवारेइ, पुणरवि अण्णत्थ संजई गुठ्विणी पुरओ ठिया, ताहे अपवरगे ठविऊण जहा ण कोइ जाणइ तहा सूइगिहं कारवेइ, जं किंचि सूइकम्मं तं सयमेव करेइ, तओ सो देवो सजईरूवं परिच्चइऊण दिव्वं देवरूवं दरिसेइ, भणइ य-भो सेणिय, सुलद्धं ते जम्मजीवियस्स फलं जेण ते पवयणस्सुवरि एरिसी भत्ती भवइ त्ति उववूहेऊण गओ ॥. See also the story of ज्येष्ठा and her son रुद्र at No. 97.54 ff. 15a प्रेक्षण perhaps stands for प्रेखण, a swing or net, noted by lexicons. 246 Better read पत्रिकाः शासनानि च. 25d भाक्तिकः = a devotee. 410 कुर्युः appears to be used in the sense of चक्रुः, see 27a also above. 10) 29c Is तथापि syntactically necessary there? 40d Mss. promiscuously use the two forms अशिश्रियत् and अशिश्रयत. 52 This verse is in the मणिगुणनिकर metre with पादान्तयमक, and its flow has some Apabhramsa ring. 53 This is a regular आर्या. 54 The third line has one मात्रा more; as it stands it is उपगीति, but if we take the reading of फ it would be an आर्या. Just in this context Prabhācandra quotes an Apabhraíśa couplet which is corrupt and may be rewritten thus : मइल कुचेली दुम्मणी णाहिं पवसियएण। कह जीवेसइ धणिय धरा डझंतें हियएण ॥. This closely agrees with some of the words in verses 53-54. श्रीचन्द्र also (p. 10) introduces it with the phrase तं जहा, and the various readings are दुम्मण, नाहें, किम for कह and डज्झंती विरहेण. 68 The two anecdotes narrated here remind me of a couple of verses from the दशवकालिकसूत्र, II. 7-8, where the same motifs are mentioned, namely, वंतं इच्छसि आवेउं and मा कुले गंधणा होमो. 71 ग्राहं means आग्रहं. 73 The Mss. use four forms क्षीरी, क्षीरि f., क्षीर and क्षीरिका. 78 The metre is इन्द्रवज्रा. 86a Metrically defective. 96 Hiatus between c and d. 97 The metre is वंशस्थ, also at 112. 38. 103 Hiatus between a and b. 105 The author repeatedly uses # in the sense 'to speak, to address', see above 11, 27, 48, 57, 63, 88 etc. 11) 4d Better खलीलया. 200 विजिग्ये विजेष्ये? 32d Note the redundancy in अन्यजन्मभवान्तरम्. 34 कपिलोद्भवः perhaps mentions his गोत्र. 40 Hiatus in d. 44 Almost uniformly भो is used without विसर्ग. 620 लक्ष्मीमती for the usual लक्ष्मीवती, also at 33.8 etc. 73 This reminds me of an event how king rata had constructed a wooden elephant in which some soldiers were concealed and which misleads Udayana (Jaina Literature in Tamil p. 65). This story may go back to the original बृहत्कथा. 83c Should we read दष्टदन्तच्छदप्रान्तं? 84a समावेगं conveys the sense of महावेगं. 92 Note the gender of संधि f. 123 Rather गुहा छिद्रा, छिद्रा being an adjective. 132d उच्चरन् = उच्चारयन्. 133 Note the compound मातृपितृ, and also 12. 63. 12) प्रभाचन्द्र and नेमिदत्त read वज्रकुमार for वैरकुमार; both come from a common Prakrit वइरकुमार. 290 रुष्टा also is equally a good reading. 40d तराम् is separated from the verb. 42 वयंसक वयस्यक betrays Prakrit intuence. 496 Better कण्टकैश्चिताम्. 516 प्राथू is Parasmaipada as in the epics. 60d Note भू is आत्मने०, a rare usage. 67d Note the meaning of राशि, a group, band, multitude; cf. 13. 6 also. 84b Note the form °चेतसाम् , as though चेतस is the base, also 70. 156; see also रोधसां यमुनां at 19.9, कृतागसां जिनदत्तां at 64. 48. 856 उत्सिष्ट for the usual उच्छिष्ट ; both are used by the Mss., see below 86, 87, and also 55. 29. 100d Should we read शुश्राव for श्रुत्वा च? 1190 अद्यमेव irregularly for अयैव. definitely through Prakrit. 120a Note the form श्रावकी for the usual श्राविका. 128a व्यापयित्वा irregularly for व्याप्य or व्यापय्य. 132 It may be noted that the text refers here to five Stūpas founded at Mathură; Somasena, however, refers to only one Stupa, called देवनिर्मित, at Mathura, see Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOTES 379 II, p. 315. After I wrote my remarks in the Intro. p. 90, I remembered that Rajamalla (Samvat 1632) refers in his qka to the repair of Mathura Stūpas. He refers to them thus — क्वचित् पञ्च क्वचिच्चाष्टौ क्वचिद्दश ततः परम् । कचिद्विंशतिरेव स्यात् स्तूपानां च यथायथम् ॥ १-८७. So a group of five stūpas could be marked out as late as 16th century. We must await for some more clue to establish definitely that पञ्चास्तूपनिकाय or पञ्चस्तूपान्वय was connected with the locality of . The Paharpur Copper-plate grant, which refers to q, is dated Samvat 159, which its editor understands as Gupta era and assigns the record to A.D. 497. 135 This story may be compared with that of Bali and Vamana, the latter being an incarnation of विष्णु. 139 कंसाल is a Prākrit contraction of कांस्यताल, a cymbal. 146d Mss. almost uniformly read which should be etymologically. 147 It is an arraf, though there is one more in the fourth . betrays Prakrit influence; and we have already a Prakrit verse somewhat _corresponding to this : पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विज्जासिद्धा य कवी अट्ठे य पभावगा भणिया ॥ 13 ) The names उसभदास and उसभदासी are inherited from & Prākrit version of the story. श्रीचन्द्र reads them उसहदासु उसहदासी 14d The संधि दिग्मुखम् is quite usual in these Mss. 186 'दानगाम् = दानकाम् ? 19a Are we to read श्रद्दधता ? Some of the sentences of प्रभाचन्द्र run like this — श्रावकसिद्धार्थमन्त्रिणा पादौषध ( धं ? ) मुनेः पादप्रक्षालनजलं राज्ञे दत्तम् । श्रद्धादिगुणोपेतो राजा पीत्वा नीरोगो जातः । एवं धर्मपानीयं साधुनापि पातव्यम् ।; and they closely agree with our verses in expression. 14 ) 286 निन्दती for the usual निन्दन्ती, also at 356 below and 64. 23. Note also for 46. 140; 88. 13; 106. 45; कुर्वन्ती 60.48; 85. 51; d may be better read नोदपद्यत काचन. 15 ) 6 For छर्जिका in this story प्रभाचन्द्र has छत्रिका. 126 मे = मया. 16 The metre is. This is quoted by also. 16) 34c Better read with, f. 45 Note A governs Gen. instead of Abl. In this story introduces a couple 16 of प्राकृत verses which I might quote here with minor changes- भणितं देवतया । धम्मो जयवसियरणं धम्मो चिंतामणी अग्धे । धम्मो सुहवसुधारा धम्मो कामदुहाणू ॥ किं जंपिएण बहुणा जं जं दीसइ सुम्मइ बा लोए । इंदियमणोहिरामं तं तं धम्मप्फलं सव्वं ॥ Then there is a Sanskrit verse: सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च नारद । सर्वतीर्थाभिषेकश्च यत्कुर्यात्प्राणिनां दया ॥ 17 ) With respect to काल we have two stories Nos. 17-18 and so also with respect to, Nos. 25-26. Metrically has a consonantal pronunciation. Haribhadra gives a short story in Prakrit in his commentary on the , p. 103, illustrating this very motif. 70 गृहिल and गहिल(क) at 10c remind us of the Prakrit गहिल, Sk. ग्रहिल, possessed by a demon. 19) 5c, muttering prayers, is noted by lexicons. 11c भगव = भगवत्? Perhaps it means a follower of भागवत religion. The spellings , etc. are quite usual in these Mss. 21 Note the syntactical defect arising out of भिन्नकर्तृकत्व 30 विनाशतां = विनाशं 35 Prof. HD. Velankar kindly explains to me that this is an era with 16 and 12s in the odd and even lines. It is an extended at and Hemacandra calls it by the name a (समे द्वादश ओजे षोडश सुतालिङ्गनम् ). 49c Better take the reading of, and then इन स्वामिन्, lord. 63 मे = मया. 20) Note the form लभिष्यति irregularly for लप्स्यते. 21) 8a The spelling of are shows the influence of the Desi word as f. cry, noise, quarrel. We have already the Sk. words are, afe and area from the root 136, some food preparation for cows, to be traced back to the Prakrit word aɛ. 18c Better take the reading gar. 20d Are we to read gea, -21. 20] Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA [ 22.3 satisfied, for fear:? 356 भक्षमानकम् rather obscure; is it भक्ष्यमानकम् ? 22 ) 3a Note how the Mss. waver between विन्यातट and विज्ञातट. 6 Of the 18 traditional scripts only one is indicated to be of origin. 30c metrically defective. 40d Are we to read 23) la The name of the territory is Präkrit stories. Similarly विनीताविषय at 241, 38.4, तिलकाराष्ट्र at 28. 1, etc. 17 Note that the holds the office of clerk or reader. 27d Better read fs. Compare with this story's RR IX. 14-34. Hemacandra's story has a historical setting and can be traced back to the commentaries on the Dat. for Gen? 36a ? 59d Better, which is quite usual in (also 38. 3) , see Die Avasyaka-Erzählungen, pp. 7-8. 296 कारापयत = कारयत, see also 25. 7. 24 ) 5a चातुरङ्ग for the usual चतुरङ्ग reminds one of the Prākrit spelling चाउरंग; see also 57 414, 93 285 9c Better वसुपालः. 17a Note the Gen. for Abl. The Mss. often read प्रीतिमानस: for the usual प्रीतमानसः. Are we to read वसुमित्रः ? 216 Better 370 खल्वाटकी, bald, husked. 25 ) 246 देवानां वल्लभः = देवानां fa:, which means a fool' in later literature; see af at 73. 133. 26) Compare with this section the story of the origin of vol. I, Intro. p. 17 (Amraoti 1939), also p. 7 of the text. The story given by Prabhacandra makes this point quite plain when it says 'पुष्पदन्त भूतबलिनामानौ सिद्धान्ते कर्तारौ जातौ ' ; and his story deserves to be compared with the text, pp. 67-8. 5d Better कृतस्तोत्रौ जिन 96 Better विद्यां साधयितुं 27 ) 60 बोद्धव्य = बोधयितव्य ? 43d Either af stands irregularly for af or better read aft; see also 56. 325c. 63a Better take the reading area. 28) A Prakrit story of similar motif is given by Haribhadra in his commentary on the , p. 35, ed. Bombay 1918; cf. No. 100 below. 80 प्रवर्तयामास, causal for the primitive. 220 श्रावितः is perhaps a back-formation of the Pk. = af, see also 107. 13-4. 43α Compare शर्वरीप्रथमे यामे with हरिद्रापश्चिमे यामे at 26. 4. 466 radi, cf. 19 above. 29) 16 द्वारावती ( also 348 ) = द्वारवती, see 34. 1. 23a Better read तदवस्थं for तावदस्थं. 2 For शौण्ड here, प्रभाचन्द्र uses कल्पपालः 30 ) 36 टक्क is the name of a territory or a clan. 17d मे = मया. 28d Rather arrat; these Mss. often interchange and . 31 ) 13 Also quoted in यशस्तिलकचम्पू, II, p. 118. 14 मनुस्मृति IV, 80; both प्रभाचन्द्र and श्रीचन्द्र quote this. 19d मत्समम् = मया समम्, compare घूकसमं and हंससमं at 32 14, 22; so also नागवर्मासमं 50 11. etc. 24d Rather 'दुग्धमापिबन् 34c निर्दोषी = निर्दोषो ? cf. 32. 26. 32) Though the details differ, a story of identical motive occurs in the Katharatnākara, p. 270. 26 समानके ? 8d Rather युष्मान्द्रष्टुं 13d मित्र मत्पुरतो भव would be metrically allright. 28 The metre is also quotes the concluding verses of chapters 31-32. quotes No. 28 which is found as a stanza in the q, see Hertel's Index, p. 201, HOS, vol. 12. 33) 19dt, also 21 below. 27 Note the forms and (also 81. 49). 38 The metre is ; note the hiatus between the first two lines. found quoted in the कर्पूरप्रकरकथा on verse No. 15; and this कथा of is also referred to in the उवएसमाला 227. are found in the q, see Hertel's Index pp. 208, 217, HOS, vol. 12. 48 Corresponding to उष्ट्र, प्रभाचन्द्र has ऊविषय 58c Are we to read प्रब्राजकन्यकावृन्दं ? 90c Note the form, (also 54. 29), being usually a. 916 Rather त्वत्समागमसंभवाम् 1240 मन्दं मन्द्रं ? 1316 Rather ध्वनिविमिश्रितैः 144d नूनसंपदा = नूलसंपदा ? . also quotes them. 380 These verses are गिरिशुक and पुष्पशुक Similar verses Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -46. 331 NOTES 381 34)2a metrically defective; better तयोविनय. 11d Better तं परीक्षितुम्. 180 Better समुज्वलतयोपेते मधु. 35) The Prakrit verse quoted by प्रभाचन्द्र, आशाधर ( Intro. p. 74) and नेमिदत्त is nearly identical. The verse found in the उत्तराध्ययननियुक्ति (p. Ba of the Poona Ms.) runs thus : चोल्लगपासगधन्ने जूए रयणे अ सुमिणचके अ। चम्मजुगे परमाणू दस दिढ़ता मणुअलंमे ॥; see उपदेशपद of Haribhadra, gathas 4-15.also Charpentier's notes on the उत्तराध्ययन, p. 291. In all there are ten दृष्टान्तs suggested by catchwords in this Prākrit verse. Tre and give ten stories corresponding to ten illustrations. So far as हरिषेण's stories are concerned (Nos. 35-44), their distribution stands thus: चुल्लय 35, पास 36, धणं 37-38, जूवा 39-40, रदणाणि 41-42. 1-2, सुमिण 42. 3-6, चकं 43-44. 1-5, कुम्मं जुग परमाणु 44 (verses 6-17, 18-19, 20-21). So two stories are assigned to you and yar; and three items are put in one story or section. Thus though there are ten stories, their distribution in sections is not quite consistent. श्रीचन्द्र and प्रभाचन्द्र put अथवा in giving two stories on धण्णं and जूवा. 70 शिष्यापितः, perhaps a wrong reading for शिक्षापितः शिक्षयितः giving the sense of शिक्षितः. 26 Are we to read मद्धिताहित? 34 Corresponding to verses 34-35 of हरिषेण, श्रीचन्द्र gives a prose definition in Sanskrit (p. 36a) and it runs thus: महाकल्याणोपेतं पूर्व चक्रवर्तिगृहे भुक्त्वा पश्चात्समस्तान्तःपुरसामन्तचक्रग्रामपुरनगरखेटकर्वटपत्तनादिषु गृहे गृहे दानसन्मानप्रतिपत्तिपूर्वकं यद्धज्यते तच्चोल्लयमिति भण्यते।. 37) 9 The second line presents some difficulties. 10a Rather एवं मविजमाणं. 39) 3 कर्ता dice, see मृच्छकटिक II, 5-6. 40) 3c Note रम् is transitively used. Should we read ततस्तोषं? In view of the meaning सपराक्रमः given by the Ms. 4, are we to read सशक्तिकः? 13d वा = इव. 42) The first two verses really form an independent story which is an alternative for the previous story. This is clear from प्रभाचन्द्रs remark : अथवा सागरदत्तहस्तसमुद्रपतितरत्नदृष्टान्तः।.43) 1c पराभागे? 44) 20 लभ्यन्ते = लप्स्यन्ते? 45) 3d भीषयन् , at times परस्मैपद also as in the epics. 12 The metre is मत्तमयूरी. 17d ममार in the sense of मारयामास; see also 53. 21. 27 Better सारं सारं. 20c Note इमं भवनं. प्रभाचन्द्र adds one more story, which appears to be connected with No. 589 of the भग, आरा. and which should come between Nos. 45-46 of हरिषेण's कोश. The story is a short one and the version given by आशाधर (Intro. p. 75) closely agrees with it. प्रभाचन्द्र's story runs thusचन्द्रपरिवेषणाद्भुक्तमिति । अत्र कथा। राजगृहनगरे राजा वसुपालः सदा रात्री मुक्त। तस्य चन्द्रनामा महानसिकः परिवार- ... प्रियः । रुष्टेन राज्ञा चन्द्रो निःसारितोऽन्यो महानसिकः कृतः । ततः परिवारेण राजाग्रे भोजनं त्यक्तम् । एकदा भोजनसमये गगने चन्द्रस्य परिवेषमालोक्य लोकैरुक्तं चन्द्रस्याद्य परिवेषो जात इति । तच्छ्रुत्वा परिवारे चन्द्रसूपकारस्य प्रवेशो जात इति मत्वा भुक्तवाञ्छयागतेन [भक्तवाञ्छयागते?] न च भुक्तं भोजनं तेन विना कृतमिति ॥. The story becomes intelligible and the confusion also possible only on the ground that in the original Prākrit story a common word for both art and that was there, and it might have been some word like *परिवेसो. If the story was originally in Sanskrit, the words TRT and fas are so independent that no misunderstanding is plausible. 46) 31d अध्यासित reminds as of the Prakrit अहियास, to endure, to put up with etc., in the context of परीषहs. 33 Causal forms like कारापयति, कारापयामि (40), कारापयसि (54.29), with the augment आप, are quite usual with our author. In this section, the story begins with verse 34 and the contents of the first 33 verses have nothing to do with it. They present an independent dogmatical topic (verse 2) which is just a Sanskrit rendering of a small prose text in Prākrit, called # f5ft, already printed at the close of the Sholapur edition of भगवती आराधना (pp. 1875-6). The information is useful to an आराधक and connected Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 BṚHAT-KATHAKOSA [46. 48 700 Rather आन्ध्रदेशक . with आराधना. 48d metrically defective. 58d तस्थिवांसः serves the purpose of a verb; see also af at 50. 10, and a at 51. 3, and at 54. 63. 83c कथयतं ? 103 Rather बभूथोपासको ; both कस्माद् and किम् are used, one or the other being superfluous 115 परिव्राजक is the name of the ascetics of the भागवत school; perhaps their head is called भगव ( 117 ). 118 Better Hegheguía®. 144c Note the double preposition in . 153d प्रकाशसे, primitive for the causal. 48) 3a metrically faulty. 6c Better ( than समकं already proposed) for सवकं 49 ) 3 गच्छन् for गच्छद् ? Note the words अटवी वने and उद्यानवन at 57 502, 60. 59 etc. 51) 6a Better 8a Better 'शेखरीभूते. 52 ) 140 अशक्तः. 15d Note is used in the sense of; Hemacandra admits this word in Prakrit by a special rule (VIII. 2. 64). 19 Both af and are used. 53) 7a, also see 34. 3 above. 80 ह्रिये Pass. for the Act. हरे. 120 We might even take पुरा तकम्. 17d देवचकं, subject? 18a Note & Mas. 20a Are we to read हृष्टिमासाद्य ? 54 ) श्रीचन्द्र has दोणिमंत corresponding to तोणिमं. 1d Names like yes do not sound quite Sanskritic. According to (p. 45) both 17-8 are quotations, and he reads them thus —भवविच्छेदिनी दीक्षा निरवया सुनिर्मला । नृपशूनां हितार्थाय महादेवेन भाषिता ॥ न चाकार्यशतेनापि शाव सा हन्यते सती । गुरुद्रोहादृते पुंसामित्याह परमेश्वरः ॥ . 20d Note the meaning of fer; to be able, is quite usual in Prakrit. 31d fat-afat. 50 I think, we should interchange the two halves of the verse. 54 Note governs Gen., see also 56. 173. 566 पुष्कल = पुष्कर, cf. 356 above. 55 ) 6 कन्दुकक्षितेः ? 16 इमं इदं ? 66a Better fear following, and it corresponds to 3 at 47 above. 97c Note with governs Gen. 1066 Either or . 1116 Metrically मठ भागवतं. 130 श्रीचन्द्र reads thus in this context: उक्तं च । पुरुषस्य सर्ववशीकरणानां स्त्रियो वशीकरणमुत्तमम् ॥ अपरं च । किं न दद्यात्किं न कुर्यात् स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः । अनश्वोऽप्यश्वतां याति अपर्वणि मुण्डितं शिरः ॥ ; a verse similar to this appears to be present in the पञ्चतन्त्र, see Hertel's Index p. 211, HOS, vol. 12. 132c Better #ngala. 133c Are we to read "प्रातवारिबन्ध' 136d More than once we get in this text तूष्णीभाव for तूष्णींभाव, see also 154, 291 below. 162 A similar story is given by Malayagiri in his commentary on the नन्दीसूत्रम् ; and his expression corresponding to गद्धिकालम्बिका रूढो runs thus : , p. 147a, Agamodaya ed., Bombay 1924. 1630 क्षेमं दा (83. 106, 93. 188) to embrace, as in Marathi ? 175c चित्र भूतिरिति ?, see his name below. 182d Note the base q. 185 is it qera? 1986 Context requires . 2006 Rather fag. 204 Note the form of 217 Note ATA his name वोट 212 Note the compound आत्मनाथवरं qualifying रूपं. for the usual गतागत or गति 2210 यावत् is space-denoting and governs Acc. 259a More than once these Mss. interchange and . 262d Are we to read भवतः ? 2686 Rather नागदत्तोऽभवत्. 285d शरीरं दहनं शरीरदहनं? 2880 परिप्राप्तेः परिप्राप्त्यै. 56) About the various works dealing with the life of, see Prof. Hiralal's Intro., pp. 30-33, to his ed. of (Amraoti 1934). 8a gegn. 9a Note the Potential for the Past; so also at 389. 47d Rather faget. 496 ai, Potential for the Past. 51 So far as we know, among the authors who have written about करकण्ड, हरिषेण is the first to refer to धाराशिव, तेर and the caves there. Through the kindness of Sheth Nemachand Valachandaji of Osmanabad, Prof. Hiralal and myself lately (December 1941) visited fa = - Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -57. 294 ] NOTES 383 (Osmanabad), at and the caves on the adjoining hills. The mountain ranges, the caves, the adjoining lake, the hillock dedicated to attract (see verse 75) etc. confirm the fact that the spot was well-known in early days and traditional stories were current about it. It is true that are wrote this work in Gujarat, but the name of his a definitely shows that his predecessors might have had a good knowledge of the topography and traditions associated with the famous localities like at, EriTa etc. in the south. For the description of the caves etc. see Prof. Hiralalaji's Intro. noted above. 795 Note the use of 7 in the compound, and also at 135, 108. 80d Rather W r55F:. 101a Better TT ATTEZ or तद्वचो मुग्धं. 107a Metrically नागदत्तोऽभवत्तस्या 114 Here संसार, but संसारे below, see 117. 137c a£+59, usually Nom. sg. af:. 169a Are we to read che . 169c Note the Instru. absolutive. 198c ap=59. 2016 Rather obscure, 2185 AITETTA: ? 223 goi would be equally good. 224a Rather 4: # ATET? 2250 Print Benedictive for the Past. 230 The author gives the name Active in spite of the etymology. 235d The Mes, admit both the spellings 9 and ha. 2580 करकुम्भ - कुम्भकर. 260c Note the form स्नाप्य for the usual नापयित्वा, see also 263. 272 Note the Gen. Abso. without any 3TTET. 284d Better TYRE. 3010 Better PHOT! HET. 3136 gaflut: = 3faatu:?; also see 330 below. 342 The author refers to three Draviuian kingdoms चेर, चोळ and पाण्ड्य. 352c Better °देशस्थं, or ahore. 359d Rather # gì. 379 Should they be in the Voc. 98 and FETU ? 383 7977 = 5917? 4080 Note the spellings gh and also ga (55. 307, 309). 409 Better putra and F1197 = 12e (also 71. 24, 32, etc.). 4100 अदर्शता looks like a compromise between अदर्शन and अदृश्यता. 411 रथ्यं is obscure as it stands. It refers to the 76th guarded by that elephant. So the reading should be either pei, or it is a wrong back-formation of the Prākrit Tag 414a Are we to read महादेव्याः ? 426a Rather चोट-चेटौ standing for चोळ and चेर. 57) 4c Better निहताशेष. 6 The metre is दोधक. 39d Better ममेश्वर. 50d Are we to read Första ao ? 550 Note the feminine forms like gr:af, HET (55, 266, 76. 162, 97. 30), darles at faal ( 64. 70), HIM (74. 20), ai ( 99. 60), tym (102. 43) etc. 766 Rather स्वाभिज्ञान. 103c Read शिरःस्तनं. 105 Our author enumerates these five नाटका specifically mentioning the name of Bharata. Our readings are corrupt, though the three Mss. agree. दुम्बिली might stand for डोम्बिका, रास for रासक, छत्रं perhaps for चित्रा, भानी for भाणिका and सिग्नटक perhaps for षिद्गक (See the verses quoted on p. 544 of the Classical Sanskrit Literature, by M. Krishnamachariar, Madras 1937). 114 Note the author refers to 64 @as and 72 tis. 125 SETTECENA:, which number one hundred and eight. 132c Are we to read space for sneita? 173 The metre is मत्तमयूरी. 200b Better राज्ञाऽसौ. 204 Compare the story of नागश्री in the 19FE131) XVI. 2086 FICHE? 210d 3har, primitive for the causal. 2.40 Rather यस्मिन्नेव. 2560 Rather तत्पुत्रवैर. 260 Usually we expect समाहारद्वन्द्व in the case of animals between which there is natural antipathy; rather 717 for TT. 262c In these Mss. sit stands without fart in the Nom. sg. more than once. 272d sarga: =saga. 289 This is an 314f. 292 191 introduces No. 292 with the phrase भारते मुरारिणा (reading त्वमारोह for आरुरोह), No. 294 with शकुनशास्त्रे च, No. 296 with sulfaqarà a and No. 298 with the ; and his text shows minor variants (p. 72). In this context I am reminded of a remark of u in his Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 BạHAT-KATHĀKOŠA [57. 295antara that the arrival of a Jaina monk at the time of departure is inauspicious which is almost refuted by our author. The passage of बाण runs thus: कजलमय इव बहुदिवसमुपचितबहलमलपटलमलिनिततनुरभिमुखमाजगाम शिखिपिच्छलाञ्छनो नग्नाटकः । दुनिमित्तैरनभिनन्द्यमानगमनश्च नितरामशङ्कत ।. 295d. Better व्यापियशोराशिसमुजवलैः. 296 Compare यशस्तिलकचम्पू, part 2, p. 113. 298 The metre is इन्द्रवज्रा. 301d आनयिष्यति irregular for आनेष्यति. 305d Omit footnote No. 4. 340b Rather सुखं for मुखं; Nos. 340-43 and 345-46 are in the वियोगिनी metre, while Nos. 344 and 347 are a mixture of मालभारिणी and वियोगिनी. 346d. Are we to read "शिखाप्रभस्थले? 3546 We want सुरस्यामित. 375a सुरूपाया? 389 चंदयवेज्झ is referred to in the भग. आराधना, No.766 and आउरपञ्चक्खाण, No. 54. श्रीचन्द्र quotes this verse (p.73) in this manner-छित्त्वा भ्राम्यदनुक्रमे युगमतः सप्तक्रमैरादिमं । त्रीणि त्रीणि पदान्यतीत्य पुरतोप्येकैकमेवं हि षट् । तच्छिद्र भ्रमदर्यनन्तरशिरोजान्तर्गतौ दर्पणे । मजेच्चेदिषु एष विध्यति नरः स्याचन्द्रकाख्यो बुधः ॥. The readings are interesting and useful. 456d. मासमेवायुषि or मासमेयायुषि would be better. 4606 Note the form पञ्चदशानि, 469a निरूप for निरूपय? 474 Rather प्रेमसंबद्ध. 4956 पञ्चविंशतिम् ? 4966 Note the form भुङत्वा, also भुक्त्वा , 558 below. 404d च often begins a पाद. 511c Rather गुरूदितौषधे. 518-9 These two are introduced by off to with the phrase 3i 7, and the verse corresponding to 519 runs thus (p. 75): उदकागमे यथा रुद्ध सरः शोषति भास्करः । तथोपवासयोगेन प्राणी पापं विशोषयेत् ॥ Such independent lines do show that start might have had before him some other sources also beside the कथाकोश of हरिषेण. 5280 परिभ्रम्य? 531 श्रीचन्द्र introduces this with the phrase भणिदं च आगमे (p.75) and reads एकम्मि भवग्गहणे..... मरणेण जो मदो जीवो।... 'हिंडदि. श्रीचन्द्र's readings are nearer those of भग. आ. where this gatha is found, No. 682. A verse of similar contents is found also in the मूलाचार III, 11. 550 Note जल्पते, आत्मने as in the epics. 58) 9d स शिक्षितः? 34a ममात्रैव ? 59) Compare यशस्तिलक II, p. 283, which too gives a similar story. 3a Better अत्रैव. 216 चौरिकया. Instr. of purpose. 27a Are we to read विहायैतैस्तदानी? 310 निन्दयित्वा causal for the primitive. 86c पलायन्ती, note the परस्मैपद. 97 मनुस्मृति V, 159. 122 Note the identical second line in this and the next verse. 60) See the Introduction p.29, the reference to cow-boy. 9d स्तोकवारं = स्तोककालं? 11 Either ध्वनि is f. or read जलदोपमम्. 226 Better विद्धस्तुन्दे. 24c Metre requires त्वं दुर्बला कथं कान्ते. 31a Better चतुःषष्टिमपि. 44a Better सुप्तं तिष्ठति. 45a Better वद तत् क्षिप्रं. 57d प्राणानामपि, Gen. for Abl. 800 Better चेदेनमानयसि. 90d Rather तन्मेऽपि. 124d यथेप्सया is usual in the epics. 159d. यथासंभवतो- यथासंभवं? 166d Better भवे for भवेत् .i.e. संसारे. 173 In the footnote 11 read/व्याजेनापि] for [सार्थेनापि]. 61) Note the reference to the story of जव, Introduction p. 27. 26c Note the alternative spelling कोणिका or कौणिका. Both प्रभाचन्द्र and नेमिदत्त quote three Prakrit lines (slightly corrected by me): 1) कसि पुणु णिक्खेवसि रे गद्दहा जवं पत्थसि खादिउं, 2) अण्णस्थ किं पलोवह तुम्हे एत्थ णिबुद्धिया छिद्दे अच्छइ कोणिया, and 3) अम्हादो णत्थि भयं दीहादो दीसदे भयं तुम्ह which agree with verses Nos. 24, 27 and 30. 28a Are we to read चानेन? 30a Better शीताङ्ग संध्यायां, cf. 52 below. 62) It may be noted that हरिषेण reads दृढसूर्य, others दढसुप्प or दृढशूर्प; we know that our Mss. do not properly distinguish the sibilants; and are orthographically similar; so the original eg might have been misread as ECR by the copyists. 14d 4 stands irregularly for प्रपायय, or we might read धनदत्त प्रपायय. 21a The reading निर्घोषे is better. 25c Are we to read धनपालकृते? 63) In view of श्रीचन्द्र's remark 'अवरेरिस सूलहयस्स कहा णिसुणेजउ लोयवियारसहा। महुराउरि उत्तरि अत्थि वरो उदिदोदयणामु धरित्तिधरो॥', the colophon of No. 63 and the references at 63. 177, 70. 141, it appears that stories Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -72.12] NOTES 385 Nos. 63-70, which later on assumed the status of an independent book F737769कौमुदीकथा, are also associated with gatha No.773 of the भग. आराधना (see Intro p.75). 44d Either भीतताम् or भीतिकाम् ? 55 इमं = इदम् ? श्रीचन्द्र quotes some Prakrit verses in this section which have a close resemblance with the श्लोकs of हरिषेण. श्रीचन्द्र adds (p. 84a) with उक्तं च 'जस्स य पिदा गलयं वलेदि मादा विसं देदि। राया जत्थ विलुपदि के सरणं तेण गंतव्वं ॥ ef. with this No. 76. Compare his other quotations 'जेण बीया परोहति जेण सिच्चति पादवा । तस्स मज्झे मरिस्सामि जादं सरणदो भयं ॥' and 'आरामरक्खया मक्कडा सुरारक्खया सोंडा। अयरक्खया वया मूलविणटुं तु तं कजं ॥' with Nos. 125, 127-8. The उत्तराध्ययननियुक्ति contains some such verses (p. 3, Poona Ms. No. 1094 of 1887-91, B.O. R. I.), for instance : जेण रोहंति बीआणि जेण जीअंति कासया । तस्स मज्झे विवज्जामि जायं सरणओ भयं ॥ जमहं दिआ य राओ तप्पेमि महुसप्पिसा । तेण मे उडओ दडो जायं सरणओ भयं ॥ etc. 91a More than once these Mss. read दारिद्र, poverty. 99 Note the hiatus between c and d. 1116 नृपसेवया Instrumental of purpose, 115 The story narrated by the t, which appears to hava been based on verse No. 115 and which should come between verses 114 and 116. is perhaps missing; c Note the meaning of स्वतन्त्र, self-villed, unrestrained. 145d Rather 'मन्त्रिपरोहितः. 164a Better श्रेष्टिवाक्यं. 167 Verses 168-77 are strangely introduced in this context. They give a summary of sections 63-70 and form the basic verses as it were of the सम्यक्त्वकौमुदीकथा. 176d Better 181d Omit foot-note No. 6: we should better read पुत्रस्तयोः स्तेयपरायणः, 191 खड्गस्थ = खगहस्त? 2150 मत्कृते = वकृते? 245a Better प्राप for प्राप्य. 64) 160 उत्तिष्ठते. note the आत्मनेपद. 536 जातुमक्षमा = यातुमक्षमा. 68d पूत्कारं = फूत्कारं; see 70. 87 and the reading of ज. 86cs Following 85c we might read समाधिगुप्तमानम्य, 65) 2d स्थिर in the sense of स्थिरत्व. 55d Better read दधिदूर्वाक्षतैर्युते. 626 Better प्रापय्य for प्राप्य या. 67c It appears that वसुमित्रा = सुमित्रा, see 49 above. 916 Better यौवनसंपदः, 66) 57 Also quoted in the यशस्तिलकचम्पू II, p.97. -58 According to श्रीचन्द्र 58 also is a quotation. 62a खपर्णेन = सुपर्णेन? 63d Metrically deficient. 73d सेवया, Instr. of purpose; also see 76 below. 86 We might better read आश्चर्यमीयुषः qualifying सभ्यान्. 87 Are we to read पूर्वमाश्चर्य महितात्मभिः? 886 Rather सोमश्रीस्त्वत्. 67) 3c The spelling वाणारसी is quite usual in Prakrits. 16b जातवीरपराभवम् ? 17d Better पदिकोऽपि, see 57. 439. 296 स्थिरखान्ता? 30c Better विवेशेयं or the reading of ज. 36d Better मुण्डितामरम्. 68) A story of similar motif is found in Haribhadra's commentary on the दशवैकालिक, pp. 46 etc.; also read with this the story of नीली. No. 28, in Nemidatta's Kosa. प्रभाचन्द्र does not give the story of नीली in his कोश, but Nemidatta follows it as given by प्रभाचन्द्र in his commentary on the रत्नकरण्डक, verse III. 18. 90 Better संप्राप for संप्राप्य. 29a We might better read तरामृषभदासो. 46a Better उपासिके गृहे तेऽत्र. 63d Why सर्व and सकल both? 69) 21d. Rather सुसंगतम्. 46c Rather संप्राप for संप्राप्य. 70) 9c Read the foot-note No.1 as तरेणाश. 19c Better सहायतां. 21b आह्वयते, note the आत्मने. 38c Are we to read खयायी स on the analogy of नभोयायी. 62a देहि in the sense of ददासि, also in 64 below. 66-7 Note the भिन्नकर्तृकत्व of which we have some illustrations in this text. 78d Note बहिः in a compound. 81d Metrically better श्रेष्ठिगेहे. 71) 16 पश्चिमस्यां, irregular for पश्चिमायां. 70 Are we to read शारीकृत? 37c More than once our author uses अध्यक्ष in the sense of समक्षम्. 53a गत्वा = खात्वा?; a similar motif is illustrated in हेमचन्द्र's परिशिष्टपर्वन् II, 315-54. 600 समाधिगुप्त?, see 62 below. 72) 12c Note the phrase अस्य साभिज्ञानं विधाय; are we to read स्वाभिज्ञानं? 35a Better यथाऽव्रजद् वृद्धिं. 60 This very बृ० को० ४९ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHAT-KATHAKOSA [ 72.60motive is present in the story of prince Candrahasa given in the Kannada ir of R (A. D. 1700) who follows the Sanskrit work of that very name. The motif of the story recurs in the literature of the world; see the story No. 23 above and Winternitz: A History of Indian Lit. I, p. 585. 74dor प्रदायादौ ? 73 ) श्रीचन्द्र remarks : अत्रार्थे यशोधराख्यानं कथ्यते । सुप्रसिद्धत्वान्न लिखितम् ; so we do not find any corresponding section in his . For the various works dealing with the life of, see Dr. Vaidya's Intro. pp. 24-8, to his (Amraoti 1931). A similar story is found in the 85. 237c Rather 248 , 4th Bhava, pp. 237We learn that an author प्रभञ्जन by name wrote one यशोधरचरित, and he is referred to by उद्योतनसूरि ( A. D. 778 ) and वासवसेन, see जैनसाहित्य और इतिहास, p. 539. 9d is used as a finite verb, also see 66. 23 Note the hiatus between c & d. 27d Better . 28c i used in the sense of the past. 29d Context requires रत्नदीपः प्रभोज्ज्वलः 406 Better सुवेलाख्यमही . 42 Note both अल्प and मनाक् are used. 446 मण्डलेन = मण्डलत्वेन 69d Better खमातुः . 75 Note that agrees with , though expected to agree with R. 77c Metrically defective; are we to read सन्नीतो ? 836 पापर्द्धिमरमिच्छता ? 846 Better पापर्द्धिः क्रूर. 111 पार्श्वलयः, situated by the side of U.? 133 This section reminds us of a similar discussion between and पएसी in the रायपसेणइज, and between विजयसिंह and पिङ्गकेश in the समराइच्चकहा, 3rd Bhava. 145c In the light of 138 and 153, this line might be improved upon even thus यथा स एव जीवोsस्ति तदेव च . 171a Rather योगीश्वरं 174a Context requires युष्मत्कुलोचितं. 206 We have an Instrumental Absolute here. looks like a compromise between मनुष्य and मानुष. 258a Metre requires a. 262c Better] बालवृद्ध युवाशेष 277d Better यजतामखिलो. 291c Better क्षुलकाभिमुखं. 294 वात्सल्यता is doubly abstract. 305 The following colophon, like some others in this work, is not correctly expressed. 74) See the reference to Paņa, Introduction p. 28 above. 8 Instr. Absolute; धर्मनामा ? 176 Rather गृहान्तरम् or गृहान्तरे. 36a श्रवण and श्रमण are freely interchanged. 39c Context requires नीत्वामू. 43a यमदण्डः ? 75 ) 7e दुर्गकव्यग्रे ? 76) See also agafest pp. 189 etc., on this section, and the Introduction above p. 29. 14c Note -. 43d, Dat. for Gen. 52a ?; note also हतवन्तौ in the next verse. 576 क्रूरचेतसा ? 63 वीरभद्र and शिवभद्र are two individuals. 76c fa? 88% Rather arfgg. 95a y looks like a hyper-Sanskritisation. 1000 is used in the sense of the past; see also 78. 36. 109a; perhaps we are to read मनुना for अमुना, see मनुस्मृति V. 37. 112c Rather tags. 171d Both the forms are used, मधुपिङ्गल and पिङ्गलिन् 181 पर्यादित्राजिका = परिव्राजिका. 186d दोषाख्यानं ? 193 उत्क्षित्वा may also stand for उज्झित्वा . 213 Compare 45, and the Intro., p. 33. 219c Rather? 233c etc., this appears to be idential with खल्वाटबिल्वीयन्याय 77 ) 10 पारिजात possibly stands for पारियात्र, Pk. पारिजत्त. 8d agista? 78) Some of the details in this tale remind us of the skeleton of a story which is referred to in the (512-20) where it is specifically stated that it is inherited from the दृष्टिवाद. The contents of the Tamil मेरुमन्दरपुराणम् closely agree with those of this chapter, see Prof. Chakravarti's Jaina Literature in Tamil (Arrah 1941), pp. 69-74. 16 ? 19:? 22 विद्युदृढ and विद्युद्दंष्ट्र : appear to stand as idential; and this is possible only through a common_Prākrit word विज्जुदाढ. 122d ख्यान्तिका = क्षान्तिका as in the above verse. 1440 जातो = यातो ? 153d Or हि ते may be proposed for हितः 158 Note the 386 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -87.32 ] NOTES 387 agreement of prar with and not with an, see above 73. 75. 1720 Are we to read aqua? 208c Better seg for 94. 244d tgal, singular? 2516 Either arutatsfesor UF: S. 79) 3c ? 80) 26 : = :?; see also 6 below and 93. 199. 50 Tahrir? 126 Is it agai? 140 19TH perhaps a misreading for HCTH. 17a Better gazi. 22c Better T. 25a acaritate = Francifa2714. 32a Or even 394914 for 379958. 33b fegt irregular for Asa. 60a Better वैद्याधराम. 81) 13d कथितोऽसि? The incident about the चूतवृक्ष is found at the end of the story of नग्गइ in देवेन्द्र's commentary on the उत्तराध्ययन IX. The नियुक्ति verse runs thus (p.7 of the Poona Ms.): जो चूअरुक्खं तु मणाभिरामं समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं । रिद्धि अरिद्धिं समुपेहिआणं गंधारराया वि समिक्ख धम्मं ॥. The Prakrit नग्गइ is rendered by our author as wat (98. 115) which is a strange form. I would suggest IT as its significant equivalent, 184, nudity or sense of shame, being one of the twenty two aftes which a monk is expected to conquer. A nude Jaina monk can be legitimately called alufera, and this is implied by the word aan here. Bloomfield has noted the Pāli atsi and the epic Fat which name occurs in the s inference that the Jaina writers avoid the form waisted, 'conquering the naked', because they wish to spare the susceptibilities of the Digambaras, is not well-founded; and it need not be offered because the more meaningful form would be azz . 32a asta for the usual 415th. 37c Note FASTE. 38d ufa? 40c Better read art01931. 516 34727, note the 9. 72c trafe for the usual 196t. 74d gifcer? 84 Second half obscure. 94d fa747? 82) Though some names differ, the story of Fisiour in the agcatch has got the same motive, p. 296. 28 Note the syntactical difficulties in this verse, 83) 11 simply remarks "ITETA squias (p. 111a); he does not give the stories in details, but adds a discourse on woman and her nature. 10 Note that the name is शान्तन (also 96.78); but elsewhere the father of भीष्म is called शान्तनु or शन्तनु. 23d Better शिशुचापलात्. 306 Should we read तनोः? 360 Weget the name मद्री for the usual art, see 43 etc. below. 46c area? 516 Note Ruft for the usual गान्धारी. 82d. Equally better प्रापिता for प्राप्तां तां. 95b Note the name बृहंदलक (also 102 below), the usual form being a 45°. 96d Better also H. 1136 According to the usual spelling And, as we get in the next verse. 84) 3a Note the spelling $21, the other recorded forms being truft (see 12 below), aut and aut. 56 Rather gy :. 116 The sense requires a afu. 19c The author writes here as if agar is one individual, but see 27 below. 246 Note the compound aralaut. 266 fat would give better sense. 45a Metrically defective; better eure q: al. 53c Rather 74. 85) Compare the reference to day, p. 28 of the Introduction. 9 In the FTITUEET, 6th Bhava, TOT offers to his wife flesh from his thigh and blood from his arm roasting the former in the forest-fire and converting the latter into water with car . 26c Rather and agreeing with 92. 32c 572FEKTET: = 75779FEAT. 34a Better A . 356 We want acel chigan: ; that only shows how our Mss. confuse the sibilants. 40d Tal, primitive for the causal. 520 Note the form 7 HOT (when we want the present participle of this defective root) and also the hiatus. 56a ofę = Ja, that. 63c Note Firs for F, perhaps metrically lengthened. 87) 5 Note that इभ्य, वृषेभ्य and पटकेभ्य are defined in these verses. 32a Rather दितेऽमुना. To Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 BR HAT-KATHAROSA [87.32 illustrate the behaviour of wicked women, gegen gives in short the stories of गोमति (No. 86), वीरवती (No. 87) and देवरति (No.85) in his जसहरचरिउ, II. 9-10. 88) 8ca Better इयमाकर्णिता वार्ता. 89) 4 Are we to read 'नरो मे यदि वाञ्छितः । मनसाऽपि जने? 91) 6 Better यथा for तथा and कुर्या नान्यथा in the second half. 70 Rather महाभोगान्. 8c Better गत्या for गत्वा. 14a विज्ञापितं? 21c Rather नतिर्मानस'. 22a Either विधि is taken as fem. or we might read इमं. 24 Compare No. 108 below, especially verse 10 etc. 92) This is the famous मधुबिन्दुदृष्टान्त or the parable of the 'man in the well' which is so popular in the world-literature. In addition to the references already noted by Winternitz (A History of Indian Literature vol. I, p.480, II, p. 417), वसुदेवहिण्डी p. 8, समराइचकहा pp. 111-14, धर्मपरीक्षाs of हरिषेण and अमितगति might be added. 56 तरूढस्थो? 60 Rather शरस्तम्बश्चचाल. 13a Rather स्वजीवित. 13d Rather मक्षिकानिकरै. 93) For the earlier sources on the life of चारुदत्त see वसुदेवहिण्डी, pp. 128f, and the हरिवंश of जिनसेन (Bombay 1930). 20 Rather भानु म. 160 पीषयित्वा = पेषयित्वा, causal for the primitive, also in the next verse. 22c स्यातां, used in the sense of the Past. 30a मृगयन् , note the परस्मैपद. 36a Context requires तद्वचोऽदीनं. 416 Better मुरूपया for च रूपया. 51aa Better एवमुक्ता तया सा. 59c Better भूयाजनः. 65d The alternative spelling is ताम्रलिप्तिका, 70d. Better चेतसा. 90a Better यावद्रसंच. 98a वा= इव. 1200 Better इष्टापयोगतो. 1340 Rather सुरङ्गा भासुर. 145c Rather समुत्तीर्य. 153a Are we to read अत्रान्तरेऽविनीतेन? 176d, यौवराज्यं? 179c Better समुत्तुङ्गः. 212 Note the spelling याज्ञवल्क for the usual याज्ञवल्क्य; समीप्यता perhaps a compromise between सामीप्य and समीपता. 213d भवे, rarely Atmane. 2186 निर्मीलित - निमीलित, perhaps for the sake of metre. 2206 पिष्पल for the usual पिप्पल. 2336 याज्ञवल्कलम् , ल is perhaps स्वार्थ. 2346 वाढलिर्नाम. 2360 Better स्पष्टं for स्पष्टिं and °भावतोपेत सर्व. 246d क्षिति is either taken as Masc., or better रवाकुलाम्, 247d Rather प्रोक्तं. 248 Also quoted in the यशस्तिलकचम्पू , II. p. 133, with a few better various readings. 249b Better यूपेऽनुबद्धं. 252c Rather स्पर्श आप्या and जिह्वाप्याप्या. 267c याचयिष्ये Causal for the Primitive. 286a स्थाप्य irregular for स्थापयित्वा. 294a Rathe 3000 आपृच्छत् rarely परस्मै. 94) 10d Rather मनीषिगण. 14 Note the definitions in these verses; and ef. तिलोयपण्णत्ति IV. 1398 etc. 18 Read the foot-note, 2 [विहरन्नारं]. 24c प्रकुर्वन्ती for प्रकुर्वती. 95) श्रीचन्द्र reads कुच्चवार throughout. 1 Note the hiatus in the second half. 18b Either नृपान्ततः or नृपान्तिकात्. 96) 30 Rather तपोधी म. 9a Rather ब्रह्मवि. 19a Here अहिल्या, but usually अहल्या. 256 Better खदूतेन for स दूतेन. 31d Better स्वाभिज्ञान. 44a Metrically we want पाराशरो, also at 46b and 606%; see 52d. 66 We have an Instrumental Absolute here. 706 Better यज्ञोपवीतभाक्. 97) 170 स्यात् , Potential for the Present. 20 Are we to read खं स्वं भवा? 466 कुर्वन्त्याः for the usual कुर्वत्याः. 51c Both the forms सत्यकि and सात्यकि are being used. 640 त्याज्यात् ? 660 Better प्राप for प्राप्य. 700 Rather निवेदितववृत्तान्ता. 74a Note हीलन; the known forms however are either हीलना or हेलन. 856 Rather स्त्रीपण्डपशु see 80.12, especially the various readings. 93c Rather यौवराज्यं. 113d Better परं पराः. 1176 Better संप्रापुर्जनका. 1236 Context requires त्रिपुरेऽचिरात्. 127 This verse forms a युग्म with the next, so there is repetition. 137b Rather प्रीतिकारिणाम. 155a Better रनयो रम्याश्च 1646 Better 'विग्रहाम्. 1696 प्रीतचेतसा? 1726 प्रकाशयेत् = प्रकाशयन्. 179 The construction may be noted. 1930 Are we to read भवान्युपस्थं? 194d. Read विद्याः क्षमापिताः. 98) नेमिदत्त has not got any story corresponding to this. 146 गर्ने ? 150 Either सालस्यः or स्खलसः. 370 Either Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -105. 127] यौवराज्य' or युवराज 38 446 Rather निम्नगातटं. NOTES दूत - वानर = 102*1, लोक - वृषभ = 102 * 4 ; = ? 1= Usually and here also we want ग्रन्थीन्. 436 करकुम्भं = कुम्भकरंs 48c, Primitive for the Causal. 51c Context require. : 58s? These details remind me of a traditional story associated with माघनन्दी, षट्खण्डागम Vol. I, Intro. p. 16. 70c Note :, pl.; but are, time (102. 115); or is it that it means 'a day' with our author? 736 Rather मन्त्रिताम्. 746 Rather . 78a We want सत्यम' etc. to agree with विधि. 87 Note the Inst. Absolute. 99) 9 Note the compound etc. 226 Better ततो for तपो. 446 Rather शक्रो for शक्तो. 53 यावद्विलोकते ? ; पश्चिमस्यां पश्चिमायां ; some of these legends are referred to by अमितगति in his धर्मपरीक्षा. 59c Better ज्ञातं for ध्यातं. 63c पूत्कृतं for the usual फूत्कृतं. 70 श्रीचन्द्र rightly reads the last line वेदे विप्रगणेडितः । 100) Cf. this with No. 28 above. 1 दशान्य, compare Prakrit दसण्ण usually equated with . 4d Rather af, see 2, 6 etc. 102) For the renumbering of the stories, see my remarks in the Intro. p. 5. The substories, already mentioned in the gathas of the .. (Intro. p. 77) might be arranged in pairs with the corresponding story Nos. equated with them: verses 120-34; 2 ) ब्राह्मण - नकुल = 102 *2; 3 ) व्याघ्र - वैद्य = 102 * 3; 5 ) गज - तापस = 102 * 5; 6 ) राजसुत - चूतवन = 102 *6; 7) पहिय - रक्ख ; 8 ) नर- शिवनि = 102*7; 9) राजा - डिण्डुक = 102 *8; 10 ) सुवर्णकार - मित्रार्य = 102 * 10. The story No. 102*9 remains unassigned; though the order is disturbed, the simple rule of residue would require us to put 7) - 102*9; and in that case the Prakrit words should be translated as पथिक - रक्षक, पथिक standing for an itinerant robber and रक्षक for the in the story. I have not been able to detect the counterpart of 102*9 in the work of प्रभाचन्द्र and नेमिदत्त do not appear to be particular about having ten stories; and hence they do not help us out of the difficulty in any way. 14 Better ग्रस्तः. 456 Usually चुंकारिकाम् 74b Context requires कृतस्वनाम्. 88d Are we to read by the context but with some metrical flaw? 89a Rather not for a? 976 Rather. 102*2) We get this story in the ч and the verse No. 20 is nearly identical in both. 13d R, primitive for the causal. 20a Metrically defective. 21d Better for . 102*3) 3a, with the sense of the past. 146 ? 102*5) 9c Better fr. 102*8) 9a Better बित्त for वित्थ. 102*10) 4 In the light of the भग. आरा. ( Intro. p. 77 ) मेदत्ताख्यो is a mistake for मेदजाख्यो; see also the details about मेदज in the story No. 105, and the references in the Intro. p. 29. 12a Better ftat. 236 Better मत्पित्रा 104 ) 1 If we take the reading of ज, then rather 'भूतान्तरा. 126 Better तदन्तरात्. 13. The text shows various forms कुश, कुशा, कुशका ( 17 ), कुशी ( 16 ), (22) etc. 29d Rather a. 105) 6a Here 4 but above (3c) gy®. 126 Metrically defective. 18c Note f. 19a Rather . 33c She is mentioned both as नागवस् and नागवधू, see verses 3, 45, 46, 49. 36c Are we to read 'नुगां तस्य स्पटहस्ताभिधां ? 39 Accept the reading of ज. 490 Note 50% Here but above (36) 42°. 726 Rather fat. 96c Rather दधावातापना, also दधात्येष at 97a and दधावातापनं at 98c. by Lexicons; or ? 1176 Rather, see 122a. sometimes stands without fat in the Nom. sing. 125c ? 127c The text is hesitating between three forms मेदज, मेदज ( 143@ etc.) and मेदज्ञ 526 Note the Acc. as required 92a Why я. V. 1, both विधाय and कृत्वा . 73c Better Ama̸°. 102dn. is noted 124c Rather ; 1 4 ) 389 ) Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 BĶHAT-KATHAKOŚA [ 105.128 (145-46). 128c Rather Hazestauro, He used with the sense of the past as usual; or भवश्रीषेण is his name, see verses 136-37 below. 135c Better कथिता तां समाकर्ण्य. 1380 देहि in the sense of ददासि, cf. 18 above. 146d Rather खं for त्वं. 153c Rather ततस्त्वद्वचनं. 1576 उत्तीर्य = अवतीर्य. 164c Either ममाभ्याशं or मदभ्यांशं. 185a Rather राजश्रेष्ठिन् , see 231, 234 below. 197d Better निति for निवृत्ति. 200 गृहसिद्धेन, Inst. Abso. 205d Rather भयानकान्. 2146 Context requires मेदजनिश्चयं. 2200 Rather नियतं. 227a Better नाम. 236b Rather कथितेऽमुना. 245c Rather दृष्ट्वाऽऽशु भू". The narrative about Hari, in the Kathākośa translated into English by C. H. Tawney (London 1895), pp. 117-23, has some details common with our story; also see 102*10 above. 269d Or are we to take निष्टपात्, Abl. sg. from निष्टप, excessive heat? 2746 Omit footnote 5; and the construction may be taken as irregular. 279a Rather कौशम्बीकापुरो? 293d खोपसर्गस्य ? 301d Context requires ग्रहीतुं. 3026 Or चतुर्थनरके जातो दशसागरजीविते. 312 There is यतिभङ्ग in the first पाद and the name of the village is not Sanskritic. 3316 Note चतुर्विंशत्. 106) See भावपाहुड 46. 9d. Or even स्थितोऽतपत्. 14a According to the usual name कालिन्द्याख्य. 26a Note तिष्ठती for तिष्ठन्ती. 296 Rather ता जगी. 306 Are we to read क्रोधमाप? 520 Note भवन्त्यः for भवत्यः and कुर्वन्त्यः for कुर्वत्यः in 59 below. 600 Note the form मकां. My friend Prof. M. V. Patawardhan draws my attention to the fact that जगन्नाथ पण्डित uses मयका for भया in his चित्रमीमांसाखण्डन (p. 1): सूक्ष्म विभाव्य मयका समुदीरितानाम् । अप्पय्यदीक्षितकृताविह दूषणानाम् । निर्मत्सरो यदि समुद्धरण विदध्यात् । अस्याहमुज्वलमतेश्चरणौ वहामि ॥. 61c Is it पश्चाद्धि रामाणां? 676Rather वायुभक्षणकं चापि; it may be noted that Mss. uniformly read मात्सिक for मात्स्यिक. 74b Rather श्रद्दधासि न सांप्रतम. 95d Omit स. 1160 Rather पञ्चभिर्दण्डै". 1200 Note the hiatus. 123d Better भिक्षां यो न. 125d कमपि? 128 Note the tautology, both शोभनम् and युज्यते. 1300 Better मद्भारतीप्रपञ्चेन. 131a Perhaps ताः कृत्वा. 1376 We want जगावमूम्. 1396 यदि is not quite significant. 140 Such cruel pregnancy longings are described in texts like the faturalesarit; see also the Intro. p. 22. 155c Better बद्धाऽऽनयति. 162 Are we to interchange the places of 162 and 163? 165d Rather नदद्भिः. 202 विहायासौ? 216 Note the construction प्रथमा षवं मोक्षं यास्यन्ति; we want either प्रथम..... यास्यति or प्रथमाः षटू च etc. 2216 घातिष्यति stands for घातयिष्यति. 225d निहिताविमौ? 238d. Rather याता for जाता. 239d Are we to read निर्ययौ वन्दनाद्विना? 240a दारक? 258 We get a good description of विन्ध्यवासिनीदेवी in the गउडवहो 285-338. 267b Rather यो वितिष्ठते. 268 Rather तथान्यौ यमलार्जुनौ and शकटच ; note the use of the feminine form चतस्रः. 107) 15a Rather उपदेशमिमं. 108) 3 Note the Instr. Abso. here. 90 Note विहाय for पिधाय. 10 Compare with No.91 above. 18a Rather दुर्भगाऽरूपा. 21d संप्रापन्नर्मदा? 956 Preferably भवान् दृष्टः क्वचित्पुनः. 45d प्रददर्श is used with the causal sense; see No. 60 below. 500 द्वारमती = द्वारवती. 64a Here कुण्डिकायपुर, but below कुण्डिनाख्य (119). 73. समागच्छत? 76a Better गण्डस्थलस्खल. 79d धेनुक possibly used in the sense of असिधेनुक. 91a We want प्रवर्तते. 112b To qualify द्वारि(र)कां we want "सर्वाशां and °विराजिताम्. 116c Rather रुक्मिण्या प्रीति. 121a सत्या = सत्यभामा, see 39 above. 133c प्रययौ? 125a तैर्थकरं?; note the agreement रुक्मिणी जातो दिवि सुरो. 109) Compare with this the notes of Charpentier, especially the allied references given by him, on the उत्तराध्ययन, chap. 13, p. 327 ff.; see also the Intro., p. 25 above. 3c Rather कुलजातिं स्वकां. 27a द्वादशम irregular for द्वादश. 34d ममार, Primitive for the Causal. 110) 26 Or नित्यमण्डिता? 210 यूथ with reference to men is rather unusual. 23d. Rather तत्संगमादरम् ? 111) 8& Are we Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 391 -126. 243] NOTES to read खिन्नखदेहस्य qualifying मम? 112) 12c Rather वार्तिकाः. 26b Rather नान्दनं. 38 See 10. 97. 41 कषायाख्य for कषायक्ष (also in 42); कुलमर्यादा [कृता]? 113) 4c Rather यौवराज्यं. 76 पश्यन् दिनं? 114) 3 Rather गान्धर्वे and गान्धर्वमद. 8a Are we सा for वा? 11 Mss. read गन्धर्व for गान्धर्व. 18d Rather ततः कुरु मम स्फुटम्, 20a Better अन्येऽन्तेवासिनः. 30d रुष्टमानसा? 31 यावत्-तावत् used in the sense of यदि-तर्हि ? 40d Are we to read प्रवृत्तो नदितुं निशि? ' 42d Or ससार भयदुःखदम्. 115) 4a समारुहूय, what is the object? 106 ara ficar, causal for primitive. 116) 8c Context requires ad. 10c fere is a Prākrit root; we want faetrait or late trent qualifying 316H. 23d Or we might read वित्ता for रिन्ना. 38a अशिक्षत्, note the परस्मैपद. 4ld Better पुष्पादि. 456 Rather करणं, also at 52d, compare 53a. 6la Note the hiatus. 117) 50 Rather कौतुकात्. 13d सुप्तकः ? 200 मूशल, but the usual spelling is मुसल; in the next verse मुशल, which is noted by Lexicons. 21 The second uie is metrically defective, better 'श्रीषेणा चापि तत्सुता; ममार Primitive for the Causal. 118) 14b Rather °दलाम्बकाः. 38a Are we to read निशातभल्लिकाकारां? 50 Note the Gen. Absolute. 51b कुमारशतं ? 119) 6c याचय etc. causal for the primitive. 136 Rather खनन्नत्र. 186 Better °समा भोगा भीमा नरकपातिनः. 2la Are we to read सर्वभूतहितं? 120) 1d Metrically defective: so better सिंहोपपदको बलः, cf. श्वेतोपपदको रामो at 122. 5. 90 अपश्यन् ? 121) 9d. चरदेकत्र? 10d Is it पारणेच्छया ? 12 The Mss. use various forms पडक, पण्डक, पड्डिक, पट्टकं, पट्टिक and पटुक in this chapter to signify a calf. 15a यदा for यथा? 41d निहतास्त्वया?, also at 43d. 122) 46 यमदग्नि looks like a hyper-Sanskritisation, the usual spelling being जमदग्नि. 123) 3c Are we to read नरैलॊके ? 124) 10c तोमर = नाराच. 12a प्राप्य in the sense of प्रापय्य. 126) 66 Rather मौW. 10a Note कौशम्बिका for the usual कौशाम्बिका. 15d Better °संयुक्तस्तत्त्वज्ञानमबूबुधत्. 22a Better accept the reading of ज, तेनोत्तिष्ठ, which preserves the metre. 26d Rather दयावादगिरिं. 29c येनास्यागेहिनो, अगेहिन् = अनगार. 45c Why not लोचनत्यक्ता? 466 खादयन्ती Causal for the Primitive. 47d. किं for तु? 48d द्विजमानवः? 73b Here जिनपुङ्गवः, but below in 201 जैनपुङ्गवः. 76 पौष्करेणाशु? 113c Or we are to read नरसंघस्य ? 122-23 There is some repetition in these two verses. 133c Rather प्राप. 134b Are we to read 'निषेवकः? 150a पञ्चानि is either irregular for पञ्च or better read पञ्चापि. 158a Better साधुवचोऽदीनं. 161d. उच्चरन् = उच्चारयन्. 1620 Note महाराजन् for महाराज and मुष्ट for the usual मुषित. 1716 जातिस्मरी for "स्मरा, see 196 below. 172d Nine letters in the पाद. 2060 Better पूर्वस्नेहात्रि. हेमचन्द्र's परिशिष्टपर्वन् , XI, 128-78, also gives a story of अवन्तिसुकुमाल; the basic contents are nearly the same, though some details differ. See also the Introduction p. 26. 2180 Or perhaps द्वात्रिंशद्वनितासखः. 227 It is obscure; are we to read तु पुडिकान्तरम् ? 232d. We want परिप्रच्छनम् , but note the metre is slightly disturbed; also at 240d. 241 प्रबुद्धत्वं? 2596 कालगते? 127) See the Intro. p. 29, the reference to सुकोसल. 4 प्रार्थ is rarely परस्मै. 15 Instru. Absolute. 25a Rather विहायेदं. 270 न for च? 680 तूष्णीभाव = तूष्णींभाव. 76b Rather याचयित्वा, causal for the primitive. 79a Perhaps यतिवेषं. 110d चम्पापुरीभुवा? 1170 Rather सुरूपां. f. 119 below. 1420 क्षिप्रमानयत? 145c Metre requires तूर्ण मौक्तिकानि. 149a Either उपश्रुत्य or उपाश्रित्य. 172c Note the use of the Accu. "स्नेहं. 173d दक्षिणे? 188d Perhaps पृच्छेरेतां; potential for the past. 2080 More than once these Mss. have no विसर्ग for श्री in the Nom. sing; see 131. 3 also. 214d सालसः = सालस्यः, 221d. विस्मयन् , note the परस्मैपद; or are we to read विस्मयात्? 222a Rather गाहिल्लकं. 227 Note the use of both सद्यो and आशु. 232a Rather मनोहरीकृते. 243a या Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 BĶHAT-KATHAKOŚA [126. 243 serves no special purpose. 249a Rather विद्युन्मालि-, also at 255a. 250d More than once जातिस्मरी for the usual जातिस्मरा, so also मनोहरी for मनोहरा. 264b Rather सिद्धार्थः खा. 2720 ममार, primitive for the causal. 128) See the Intro. p. 27; our story agrees with the second. 16a Here we have पादोपगमन, cf. पादोगमन at 126. 236. 36 More than once we get चक्रवर्तीसुख for the usual चक्रवर्ति', चक्रीकथानकम् for चकि' etc. 129) See the Intro. p. 29. 226 Better स्मितं for स्थित. 46a Better उग्रं ततस्तपो. 130) प्रभाचन्द्र has got a pretty short story and it runs thus: मध्ये गङ्गमित्यादि अस्य कथा । पणीश्वरनगरे राजा प्रजापालः श्रेष्ठी सागरदत्तः श्रेष्टिनी पणिका तत्पुत्रः पणिको नाम । स वर्धमानखामिनं पृष्ट्वा निजायुः स्तोकं ज्ञात्वा तपो गृहीत्वैकविहारी जातः । गङ्गामुत्तरतस्तस्य नौ वुहा स च केवलज्ञानमुत्पाद्य निर्वाणं *TS: 11. Though the central idea is the same, a story with more details is given by हेमचन्द्र in the परिशिष्टपर्वन् VI, 43-174. Two forms of the name, एणियापुत्त or एणिकापुत्र and अन्नियाउत्त or अन्निकापुत्र are current; प्रभाचन्द्र पणिक, however, appears to me a misreading of एणिक. See also the Introduction p. 26. 131) 23c Read वापीसौधा. 320. यत्र for तत्र? 50b °चेतसा? 660 नैर्ग्रन्थं? 73d Are we to read महीपालः पुरःसरीम् ? 80a प्रीतचित्तानां? 132) See the Intro. p. 29. 4d Rather नः for मे. 134) 10a Are we to read अम्ब तिष्ठ in the light of 17 below? 11c Rather अतोऽमङ्गल. 16a Rather निर्वा . 23d सनौ, Primitive for the Causal. 26d Rather भारत. 39b Context requires श्रीदेव्या तनयो . 41c Rather वृतश्चाा . 42 अंशुमत्याः? 50b Better कृत्वा चैक. 54 श्रीधर and श्रीदत्त are promiscuously used; भगवती आ., however, has सिरिदिण्ण = श्रीदत्त. 135) 21 Are we to read न च for वचः and नो (= नः) for न? 136) See the reference to कत्तिय and कार्तिक etc. in the Intro. pp. 26, 32. 7c याचयित्वा causal for the primitive. 10a Or even शरवनच्छायागुप्तायां. 137) See the Introduction p. 26. 3d प्रविशन्मुदा? 4d Better गच्छन् गीतं. 50 मुक्त्वाऽप्र. 8c Better either सारां or सोऽरं for सारं. 138) 516 Rather कुर्वाणे नरनायक. 57 The text is wavering between विद्युचर and विद्युचौर. 139) 6b क्रीडितं? 286 उपचर = उपरिचर. 38d ममार with the causal sense. 50d As usual the Perf. Parti. serves the purpose of a verb. 65a Better मुखकीर्णेन. 82d Better गता त्वं. 86 We have the use of Instru. Abso. here. 93 Rather विलिखिन् क्षेत्रं; and लाङ्गलेन for लाङ्गुलेन, ef. 107. 4. 95c Context requires दुष्टचेतस्के. 105c प्रजज्वाल Primitive for the Causal. 106c Rather संप्राप. 1176 स पामरः = कौङ्कणः, see 120 below. 1216 Rather स्वकं for खयं. 135a Note the expression रजनीपश्चिमे यामे. 167d Rather यत्पथ्यं. 140) See the Intro. pp. 27, 32, the references to चिलाइपुत्त or चिलातपुत्र. According to Prakrit grammars किरात = चिलाय; so चिलात may be a backformation; and the correct Sanskrit name would be farah. Prabhācandra gives under this story some of the details which are already included under his story No. 55 above. Both the stories deal with श्रेणिक and his family. 141) 13 प्रभाचन्द्र rightly reads धन्य. 17c Are we to read इममाह्वयति? 25d. Rather नरनाग मुनीश्वरः. 28d Better तथैव. 426 Read footnote 5 [°षधः. 142) Compare कल्पसूत्रभाष्य p. 915. See also the Intro. above p. 27. The name of the town is कुम्भकारकट according to प्रभाचन्द्र. 143) 3d Note that the Mss. waver between चाणक्य and चाणाक्य; प्रभाचन्द्र also reads चाणाक्य; but it is the first that is more usual. 20 The details about the minister कल्पक (परिशिष्टपर्वन् VII, especially 85-115) remarkably agree with those of Kavi here. This story may be taken with No. 157 below and compared with परिशिष्ट. VIII, where many details about वररुचि, शकटार and चाणक्य are given. See also अनेकान्त II, 105; Intro. p. 27 above. 27a दृष्ट्वाऽसौ ? 29c Note the Samdhi शेषतोन्मूलयामि. 30d पर्याप्तं- अलं, 32a Rather नोन्मूल्यते. 33c Are we to read चाप्नोमि? 37 Corresponding Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -प्रशस्ति, 16] NOTES 393 to 37 and 39 श्रीचन्द्र quotes thus (p. 164) शक्यमेकसहस्रेण नीतिशास्त्रविशारदाः । व्यवसायद्वितीयेन जेतुमेनां वसुंधराम् ॥ चाणक्केण कयाइ णिएप्पिणु लिहियउ अन्नारिसउ करेप्पिणु। शक्यमेकशरीरेण नीतिशास्त्रविशारदेत्येवमादि ॥ 52 The construction is not quite satisfactory. 70 Are we to read ततोऽपि नन्द? 716 Metrically पुरे कुसुमनामनि. 74c Rather परिप्राप. 786 °सामन्तसेवितः? 81d तत् is not necessary. 144) See the references to fit and an in the Introduction p. 26. At the end of this story, श्रीचन्द्र's 50th chap. is completed, and he (p. 165a) remarks thus-समत्तो संधी कवचाहियारोयम्। 145) 7d Rather श्रीलक्ष्मीरूप. 80 श्रीपञ्चम्यां ? 19c Or we might even read स्तोकं qualifying उपवासं. 25c Why अपि is repeated? 44a Rather प्रभञ्जद्भि, f. 48 below. 146) 8d Rather °समविग्रहम्. 147) 7a Are we to read °पर्यन्तं मुखेऽसंकोचमीयुषि? 9a नश्यतः for पश्यतः? 148) 5d. ममार Prim. for the Causal ; also 12c. In its proper sense it is used at 156. 32. 7c Rather #919. 149)8c Rather न तद्राज्यं. 150) 3c कुर्वन्त्याः = कुर्वत्याः. 8 Note the Inst. Abso. in this verse. 366 Note the compound with बहिः, also 45 below. 59 प्रभाचन्द्र quotes three Prākrit-Apabhramśa verses which are very corrupt, though often quoted elsewhere too, and correspond to verses 59-60 here. Compare the story of मूक in the समराइचकहा, 6th Bhava, which illustrates the same idea. Though the names are different, Hemacandra too gives a similar story in his परिशिष्टपर्वन् II, 224-314. 152) For the details see No. 127 above. This illustrates very well that what matter are not the proper names in a story but the motif and the crucial details. 153) 3a वक्राभिधः? 5d सालस्यः? 7a Rather °वनयातायाः. 164) See the Introduction p. 28. 11 Note अस्य is used twice in the second half. 156) 5a व्यदधात्तस्य ? 20c Note the compound हस्त्यश्व etc. 21d Rather °धीरनिर्घोषया. 22 स्कन्धावारे मदीयेऽसौ ? 24a Of course the suggested भवन्तस्तिष्ठत would be irregular for भवन्तस्तिष्ठन्तु. 310 Rather शिताननाम्. 157) Details about the same persons that figure in our stories Nos. 143 and 157 are given in the कथासरित्सागर. तरङ्ग 4-5. 26 महामतिः? 5a Rather आद्यः पराभिधो. 16a Are we to read एवं संतिष्ठमानेऽस्मिन् , also at 72a. 23d तदुक्तिकाम् ? 28a The other reading Tet: is equally satisfactory, and in the last pāda rather "समुद्भवाम्. 30d वा विलक्षयेत् ? 416 Rather भक्तपूरितम्. 556 Are we to read स्पष्टतराक्षरोक्तिः? The metre is उपेन्द्रवज्रा. 566 Rather बुधकर्ण. 58 The metre is इन्द्रवज्रा. 59 The metre is उपजाति. 60 The metre is वसन्ततिलका. 61-4 The metre is दोधक. 73d Note नृराजन् for नृराज. 85a Rather योऽर्थ एतेषां. 916 Rather समस्तोऽश्रुतपूर्वकम्. 97a वत्साः ? 102d यक्षादेवी, but below यक्षदेवी (107). 107a Are we to read यक्षदेवी ममाभ्याशं तूर्णमानीयता? 1160 किं तेऽनेन समं? 123b कारणम् ? 142 In the last colophon we want सप्तपञ्चाशदधिकशतं. प्रशस्ति) 2 Read यावद्राम-रावणयोः. 116 जायतः? 16 Note द्वादशैः for द्वादशभिः. बृ० को०५० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDEX TO INTRODUCTION This Index, which supplements the Table of Contents, includes informative references to important names of authors and works, as well as to a few subjects. The references are to the pages of the Introduction. Abhira, 90. Ajitadevasūri, 48. Akhyanamaņikosa, 43. Amitagati, 49. Amoghavarṣa I, 119. Anandasundara, 47. Antagadadasão, stories in 21. Antarakathasamgraha, 46. Anuttarovavaiyadasão, stories in 22. Apadāna, 16. Aparajita, 55 f., date of 56. Aradhana, meaning of 47; texts dealing with 48 f.; see Bhagavati Ārādhanā. Aradhana (of Lohācārya), 53 f. Aradhana-, -kathakośa 62-3; -kulaka 48; -mālā 49; -niryukti 31, 48, 54; pañcaka 48; -pañjika 57; patākā 48; -prakarana 49; -ratna 49; -sara 49; sastra 49; -satkathaprabandha 60; sattari 49; -stava 49; -svarupa 49; -vidhi 49. Ārātiya, 55. Ardhamagadhi Canon, biography of Tirthakaras in 17; similes and parables in 18; legendary and didactic tales in 19; Digambara attitude towards 32. Ardhaphalakasamgha, 89. Asadhara, 49, 56 f. Ascetic Poetry, 11 f. Aṣṭāhnikakatha, 118. Baladevasüri, 56. Bhadrabahu, 89. Bhadresvara, 45. Bhagavati Aradhana, text and analysis of 50 f.; compact form of 52; genuine name of 52; author of 52 f; on the date of 54 f.; Commentaries on 55 f.; Kathakośas associated with 57 f.; Dependant kathanakas collated in correspondence with the gathās of 72 f.; Bṛhatkathakosa connected with 72, 81. Bharataseha, 118. Bharatesvara-Bahubali-Vṛtti, 41. Bhattaparinna, stories in 26 f. Bhavapähuda, stories referred to in 33. Bhavartha-dipika, 57. Bhima, 120. Bṛhatkatha, 9, 11. Brhat Kathakośa, Mss. of 1 f.; presentation of the text of 4 f.; numbering of the stories of 5 f.; name, extent etc. of 80 f.; Bhaga. Aradhana, the source of 72, 81; various strata of the contents of 82 f.; tales of religious interest in 83; secular interest of 83; cultural heritage and literary kinship of 84 f.; Śramanic outlook of 81, 85; Krsna legend in 86 f.; interesting social, historical bits of information in 87 f.; other Kathakosas compared with 90; on the Sanskrit language of 94 f.; interesting Sanskrit words in 101 f.; a Prakrit Commentary on Bhaga. Aradhana as the likely basis of 111f.; the author, the place and date of 117 f. Brahmadeva, 63. Brahmanas, the narrative elements in 7 f. Buddhism, comparison of Samkhya and Jainism with 12. Cāṇakya, 89. Candrakavedha, 88. Candranandi, 55. Chatrasena, 63. Citracampu, 120. Citrasena, 120. Devabali, 89. Devabhadra, 40, 49. Devasena, 49. Devendragani (alias Nemicandra), 43. Dharani Varaha, 122. Dharmaghosa, 45. Dharmapariksa (in Apabhramsa), 117. Digambaras, glimpses of their early literature common with Svetämbaras 34. Dṛṣṭivada, stories found in 31, Folktales, 83 f.; folklore 88 f. Guhanandin, 90. Gujarata, Karnataka dynasties ruling over 110. Hari (-şena), 43, 117. Harisena, various authors bearing the name 117 f.; spiritual genealogy of 118; place and date of 120 f. Harivamsa (of Jinasena), 119. Hemācārya, 47. Hemavijaya, 44. Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 BRHAT-KATHAKOŚA Indrāyudha, 121. Lakşapāka, 88. Isimandala, 45. Lokācārya, 49. Lohācārya, 53. Jagatsundari-yogamālā, 117. Jaina narratives, form of 116. Magadhan Religion 12 f. Jaina Sanskrit, connotation of 110 f. Mahābhārata, narrative elements in 9. Jaina stories, didactic spirit and ascetic Mahākarmaprakrtyācārya, 55. sentiment of 25 f., 30, 39; how they were Mahīpāla, 122. handed down 30; later tendencies and types Maņijidaruņa, 57. of literature dealing with 35 f. Maranasamāhi, stories in 26. Jainism, Samkhya and Buddhism compared Marici, 89. with 12. Mathurā, Jaina stūpas at 89, 90, Maunibhattaraka, 118; other teachers bearing Jātaka, 16, 115. the name 120, footnoto 3. Jayasekhara, 49. Mitranandi, 52. Jayarama, 117. Müläcăra, stories referred to in 33. Jayavaraha, 121. Mülärädhanā, see Bhagavati Aradhanä. Jinabhadra, 46. Mūlārādhana-darpaņa, 56. Jinacandrasūri, 49. Jinakalpa, 89. Nāganandi, 56. Jinanandi, 52. Nāgasena, 49. Jinasāgara, 44. Nandigaņa, 57. Jinasena, the author of Harivaṁśa, 119. Nannarāja, 57. Jineśvarasūri, 40. Naracandrasuri, 44. Narrative literature of the Jainas, Bühler on Kambalatirtha, 89. 113; Winternitz on 113; Hertel on 114, Kāpālika, 88. Narrative Tale, in Vedic literature 6; in Karnataka, attack against Gujarāta by the post-Vedic literature 8 f.; in classical Sk. kings of 119. literature 10 f.; in Buddhist literature 15 f.; Karpūraprakara, 43. in Jaina literature 17 f. Kārtikeya, 89. Näyâdhammakahão, parables and didactic tales Kathä-dvātrimsikä, 47; -grantha 47; -kallo- in 18, 19 f. lini 47. Nayanandi, 57, 63, Kathākośa, various works styled as 39 f. ; Mss. Nemicandra (alias Devendra ), 43, labelled as 42 f.; 58, 59 (Apabhramsa), Nemidatta, 62 f., 90 f. 60, 62; see also Bịhat-kathākośa. Nirayāvaliyao, narratives in 22 f. Kathäkośa-prakaraṇam, 39. Niryuktis, stories referred to in 31, Kathi-manikośa, 43; -mahodadhi 43. Padmamandira, 45. Kathänakas, Jaina literature, canonical and Padmavati-kavaca, 68. non-canonical, a repositary of 26, 30 f.; types of Jaina literature dealing with 35 f.; Painņas, various stories referred to in 26 f. Pasca bilva, 88. compilations of 39. Pascākhyāna, 115. Kathānakakośa, 39, 43. Pancastūpānvaya, 90. Kathā-prabandha, 47; -ratnakara 44; -ratna Pancastūpanikāya, 90, kośa 40; -ratnasāgara 44. Paramānanda, 47. Kathārņava, 47. Parables, in the Jaina canon, 18. Katha-śataka, 47; -samasa 46; -sancaya 47; Pārasika, 88. -samgraha 46, 47; -samucoa ya 47. Paryantārādhanā, 48. Kathāvali, 45. Prabhācandra, 60 f., 90 f. Kavaca, 68. Prabhasjana, 118. Kavaca-dvāra, 68. Präkrit, Sanskrit influenced by 94. Kayastha, 83. Pro-canon, of Digambaras, 32. Kittura-samgha, 119. Punnäța 89; identification of 118-9. Krmirāgakam bala, 88. Pannāța-samgha, 118-19; its connection with Kulaprabha, 49. the South 120, Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDEX TO INTRODUCTION 397 Punyásrava-kathākośa, 43, footnote 1. Śrivallabha, 121. Puranas, narrative elements in 10. Srivijaya, see Aparăjita. Puspabali, 89. Śrivijayodayā, 55. Śrutasāgara, 41. Rājasekhara, 46. Sthavirakalpa, 89. Rāmāyaṇa, narrative elements in 9. Stūpa, at Mathurā, 90. Ratnakarandaka, stories referred to in 34 f. Subhasila, 41. Ratnakirti, 63. Suktāvali, 43. Ratnamālā, 53. Śvetāmbaras, glimpses of their early literature Ravicandra, 49, common with Digambaras, 34. Religion, basic traits of 6. Rgveda, narrative elements in 7. Tera, caves at 90, 120. Rşimandala-stotra, 45. Uttamarşi, 44. Rudradeva (Kākatīya), 120. Upadešamālā, 38, 46. Upanişads, outlook of 8. Samayasundara, 48. Uvāsagadasão, narratives in 21. Sämkhya, Jainism and Buddhism compared Uväsayajjhayana (of Vasunandi), stories with 12; 89. referred to in 35. Samthāraga, stories in 26 f. Samvegarangaśālā, 49. Vaddárādhane, 63 f.; Mss. of 64; contents and Samyaktvakaumudi, 42, 87. style of 65; its connection with Arādhanā Sanskrit, various phases of 94 f.; Prākrit! kośa 66; Prākrit basis of 67; the title, influence on 95 f., 101 f. authorship, date eto, of 68 f. Sarvagupta, 52. Vardhamānapura, 118; identification of 120. Sarvanandi, 46. Vāsavasena, 118. Sarvasundara, 47. Vatsarāja, 121. Siddhāntaratnamālā, 57. Vidagdhaprītivardhani, 57. Siddhyanka, 57. Vinayacandra, 43. Simhanandi, 63. Vinayādikapāla, 118; identification of 122. Sivakoți, 52 f. Vinayasundaragani, 48. Śivārya, 57 f. Vinayavijayagani, 48. Somacandra, 44. Vināyakapāla, 122: Somasūri, 48. Virabhadrasūri, 48. Sramanic Ideology, back-ground and traits Vivāgasuyam, narratives in 23. of 11 f. Vrata kathākośa, 41. Śrāvakārādhanā, 48. Yápaniya Saṁgha, 89. Śrenika, 89. Yaśāhkirti, 117. Sricandra, his genealogy, date etc, 57, 59 f., 90 f. Yasoghoșa, 49. Śrīharişeņa, 118. | Yoniprābhrta, 117. "For Privatë & Personal use only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CORRIGENDA Story Story 28 Verse 13c 31a 326 49d Verse 21d 24b 556 13d 12c 20a 14a 14d. 23a 57c 676 780 860 340 Read 'ऽग्रहीत् कुन्तेषुच्छु प्रीतिमाप्नुवन् ऽग्रहीत् ऽङ्ग तरों 'मत्युद्धं प्रहिणोति श्रावकाणां भव्योपपदः रेवतीश्राविका दधि सुन्दरम् छर्दि ब "मत्युद्धं सोपसर्गों बभाणैतान् निःसृत्य 36 456 19d 26d 126 9d 776 1186 Road क्षेपाद् विलोक्यैतौ °क्षालनादिकाम् महानसे छजम् जगादैनं विभो मयाऽऽहृता मतिधर्म यथाविधि वरवर्मना स्तुरङ्गेण जय श्री वत्सलाम् नराधिप द्वारां पञ्च श निर्लक्षण त्व राजेन शिरोजा पापर्द्धि ते अपराहे प्राप्तः सुताऽनयोः अपराहे प्राप 15a 300 300 34b 16 8a प्रासासि °श्चलना लोकः सल्लोक यशो जगादैती 80 146 22d 33aa 360 37c 77d 22a 29d 636 666 94a 132a 25d ते न खल F.n.6 86 10c 610 .79c 172c 178d 13a 14c 25d 21c 47 दृष्ट्वोप 900 53 200 1320 33c 1206 190 29c 4ld 16c 38d विष्णू महा दत्त्वा स्वस्वामि निःसृत्य °ऽग्रही ध्यायं तामा पञ्च स्तू लोक कृ ध्यातं उपरिष्टा विद्या सि पञ्चषाणि शष्पाणि समार्पयत् प्रहिणोति 'विग्रहम् चतुरङ्गेण सिंहान्धी विनीतावि प्रीतो दिवमुवजाम् तीर्थानि 506 570 620 700 1296 180c 219a 262d 296a भूपो मन्दर प्राप्तास्तथा साधुस्तदानीं पथा गहिलकः भुज्यते मार्गागमन वनितार्थितः जगामायं श्रेणिक द्भवतः तत्प्रभावेण कृत्रिमा सत्यमधुना स विस्मितः ग्रहीष्यति 20c 52d 5d 27d 16 16c 54d 60c 10a 70c 88d 2476 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 BRHAT-KATHAKOŚA Read Story 56 प्राप्तां Story 67 त्वन्यत्त्वं 68 69 Verse 32a 36a 460 53a 39a 60a 76d 107d महादेव्याः अथाहाय्य सारां यशःशुली दूतैर्नृपा कुष्टेन Read प्रविश्यैवं शुचा ग्रस्त साऽस्माभिर्द्वि लता भार्या चलकर्णः जात्यश्वा कौशाम्बिका चैत्यगेहे 'मानसाः 57 शृण्वेक 1406 शाधि Verse 283a 4090 4146 425a 4280 246 44 156 193 255d. 309a 405a 414a 429d 435c 446 4606 4750 478a 490a 492a नैमित्तिकेन चातुरङ्गेण °निदेशतः तत्पुरेऽवि यथावं सा ज्ञेयोऽपरों विगतोपपदः द्विसागरं श्रावकाणां पुरे 1470 12a 26d 370 10 1c 23d 41c 86a 123d 135d 143c 166d 1840 2026 2496 269b 276d 13d 170 1c 8d 85d 131a गृहीतः समार्पयत् 'नोच्छिष्ट "दुजयिनी कीयोघो आनीतः भीमः तन्मांसं 'कर्माऽवि स जीव त्वदचोऽस 'तारक जरन्ताजी नरेन्द्रः खाज्ञाताः 50 ब्रूषेऽनि गोपोऽशु नीतेऽथो वन्ध्या वल्लीव देवीवाक्य क्षोभेण चमम् भोगान् 33d. 15a 236 58d 60a 706 79c 18c 46a 46a 20a 16 390 21-26 73d. 131d 2320 2360 160 210 90d 69d. 846 930 विहायान्यन्न परिज्ञातावावां साधु दी श्रावकेण सज्जनाः दैतांस्तदा 165a देवी ज सौषधि प्रविश्य 'दिशो भा विद्या नि पराम् प्रतिज्ञाऽशो नगरे मेऽसौ कु षष्टिः पापोपादान निःस्पृह विद्युइंष्ट्रः पञ्च र परीक्ष्यताम् कलखाना मधुरा या समन्वितात् लौहीभि पृष्ठं 171c 184 239d 60 14d 55d 60d 133c 134a 1750 240d 258a 120 कल्लालाश्छे श्रावकाणां कुर्वन् स्ते उत्तिष्ठते "वेलायामागत्य परायणाः प्राप नभोध जाताः संज्ञाया 79 संघेभ्यः Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CORREGENDA 401 Story Story 95 96 Verse 12d. 27d 360 410 86 35d. 45c Read वर्जिताम् लजयते शोभनाकृति संछन्नां नग्नाचार्य तेनानीता क्रूराः जनः Read पुरं तपोधियम् निवेदिताम् संभवाम् महादेवीस जटी छत्री बृ छत्रिकाकु बभूवू 460 अर्पितं 97 Verse 336 116 256 296 32a 440 70a 816 30d 1160 117a 1320 1546 156a 159c 175d 181a 4c 51a 81a 250 640 88d. 910 960 1080 F.n.3 19a F.n.5 296 9a 15a 18a 63a ग्रहीत् . पथाद्देशा लोकैस्तस्थौ संचूर्ण्यते ययुः सर्वास्त्राणि घटोनीनां जगादैतं [°द्वादशाब्द] °णखानामा [°स्त्रिशिरा] शूपेणखा खोरुमांसं सह सा प्रोक्तः ऊरु समारुक्ष स्तोकवेलां जगावमूम् [°च्छदश्छिन्नस्त] समेताया मदभ्याशं कन्याः दत्ताः द्विजः श्चतस्रो मादेव्या ग्रहीष्यति प्रापुस्तद्व दमधरा ग्रहीतु 98 350 स्रजम् 38d 550 81a 300 गङ्गाभद्रः पद्म 99 470 भव सं भ्रंश 130 326 126 F.n.1 'त्तमामुखें सक्तधीः देवौधै पतन् मोचनम् 220 20 र्थमग्नि गुरोः 7d. °च्छवि 14a 250 160 780 84b 560 616 67a. 102 34d 856 916 98d 102*2 50 102*5 50 102*7 26 102*8 17 102*10 50 256 104 24b 360 37a 105 656 1246 180a 1900 2236 249a 267d जिनाश्रिताम् श्रुत्वाऽश्रुत येन लक्ष्मीणां पीषयि स्थितवां भयावहाम् जगादोद्धृ प्रहिणोमि रम्भागृहा संपन्नास्ता पिष्पलाधो मानस्ततो च समां देवः पृष्टवान् चतुरङ्गेण 876 1076 1866 211a 2286 240d. 2426 2590 2726 285a वृ० को० ५१ भवत्याः 'भक्ष्यण नरो व्र जिनदत्त नृ वर्तिना सत्वरम् सहोदर दत्ताः निशम्याड यायेष सुखार्दिता 'विभूति द्वादश व मद्वंश भूभुजा शिखावलः Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 402 BRHAT-KATHAKOSA - - Story 105 Story 127 Read स धीर' क्षिप्रमार्यिका कुरुविल्ले Verse 2836 288a 3116 3160 324a 19a 24a 310 Verse 30c 65c 136d 2810 देवः 129 4b 106 496 Read जयमत्या संपन्नाः प्रहिणोति देशादि स 'नाटकम् विद्युद्धनेन्द्र एताः रेणिका द्वादश व नहींने वेलायाम मार्गभ्रष्टो जिनपूजा इलादेव्याः शास्त्रार्थः 290 48a 5a 326 48a 72a 130 131 F.n. 10 137 209a 216a 265d 2706 133 पुत्रस्तपः 'वशाऽपुण्या रामाः गदितोऽबु महीपते [मत्स्यकान्] °वाक्यमुग्र. आ बाल अष्ट पुत्रा किंकर्तव्य द्यूतकारो भ्रातस्तोत्र रुक्मिणो मनःपवन धात्रिका गुप्तस्तद्वनं भूयः विद्यते तन्न व्रतिनां अस्यामेवं 2a 13 9d 107 108 350 50a 5d 37c 77a 135 137 20 5c 110 111 112 4a 138 3d 13a 20b 33d 41c 28d 41d 496 51d 400 1050 चतुरङ्गेण वहंस्तोषं कौतुकैषिणः नरेश्वर क. दत्त्वास्मै नक्तंदि 114 9a 139 °चरः कुधा सह सा सत्यमा 1620 116 सुप्तायाः 141 80 216 256 21d 430 546 21d 11d पृष्ठे 24d. 29d किंकारण प्रभावेण ज्ञेयः 'वृन्दारक प्र० वासिभिर्भू क्षिप्रमेष कालमभि 143 210 118 119 120 भित्त्वा सकौतुकः खनाः सप्त व महिषीणाम यूथद्वय 350 110 121 50 720 11a 9a मुनि 11d 123 126 100 वेगाद् 144 147 148 150 151 6c 60 19a 7d. 260 गोत्रिकाणां परः स्तब्धो पैशुन्यो... ताम् तत्सुतः 6b 876 1820 184d) 153 156 157 कालः देवः निःशल्यी यतीश्वर विष्ठा सुदृष्टिवि प्रहिणोति मुग्धभावः मनोहारिगों उषाजल 10a 12a 190 5d 280 स्थावरकाणि 18765 232a 257d लवणौदन रक्ष्यते° 950 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WORKS BY Dr. A. N. UPADHYE 1. Pamcasy.ttan of an Unknown ancient writer: Prākrit Text edited with Introduction, Translation, Notes with copious Extracts from Haribhadra's Commentary, and a Glossary. Second Ed., revised and enlarged, Crown pp. 96, Kolhapur 1934. 2. Pravacanasāra of Kundakunda. An authoritative work on Jaina ontology, epistemology etc.: Prākrit text, the Sanskrit commentaries of Amộtacandra and Jayasena, Hindi exposition by Pánde Hemaräja: Edited with an English Translation and a critical elaborate Introduction etc. New Edition, Published in the Rāyachandra Jaina S'āstramālā vol. 9, Royal 8vo pp. 16+132+376+64, Bombay 1935. 3. Paramātma-prakās'a of Yogindudeva. An Apabhrams'a work on Jaina Mysticism: Apabhrams'a text with Various Readings, Sanskrit Ţikā of Brahmadeva and Hindi exposition of Daulatarāma, also the critical Text of Yogasāra with Hindi paraphrase: Edited with a critical Introduction in English. New Ed., Published in the Rāyachandra Jaina S'āstramālā vol. 10, Royal 8vo. pp. 12+124+396, Bombay 1937. 4. Varāngacarita of Jatāsimhanandi. A Sanskrit Purāņic kāvya of A. D. 7th century: Edited for the first time from two palm-leaf Mss. with Various Readings, a critical Introduction, Notes, etc. Published in the Mānikachandra D. Jaina Granthamālā No. 40, Crown pp. 16+88+396, Bombay 1938. 5. Kariisavaho of Rāma Pāṇivāda. A Prākrit Poem in Classical Style, Text and Chāyā critically edited for the first time with Various Readings, Introduction, Translation, Notes, etc. Published by Hindi Grantha Ratnākara Kāryālaya, Hirabag, Bombay 4, 1940, Crown pp. 50+214. 6. Usāniruddhan: A Prākrit Kāvya (attributed to Rāma Pānivăda), Text with Critical Introduction, Variant Readings and Select Glossary, Published in the Journal of the University of Bombay, Vol. X, part 2, September 1941, Royal 8vo. pp. 156-194. 7. Tiloyapannatti of Jadivasaha. An Ancient Prākrit Text dealing with Jaina Cosmography, Dogmatics etc.,: Authentically edited for the first time (in collaboration with Prof. Hiralal Jain) with Various Readings etc. Part I, Published by Jaina Samskrti Samraksaka Samgha, Sholapur 1943, Double Crown pp. 8+38+532. KAŃSAVAHO & USĀŅIRUDDHAM Karsavaho of Rāma Pāņivāda, A Prākrit Poem in Classical Style, Text and Chāyā critically edited for the first time with Various Readings, Introduction, Translation, Notes etc. by Dr. A. N. Upadhye, Published by Hindi Grantha Ratnākara Kāryālaya, Hirabag, Bombay 4, 1940. Crown pp. 50+214. and Usāniruddham: A Prākrit Kāvya (attributed to Rāma Pāņivāda), Text, Critical Introduction and Select Glossary, by Dr. A. N. Upadhye, Published in the Journal of the University of Bombay, vol. X, part 2, September 1941, Royal 8vo pp. 156–194. Reviews and opinions Dr. V. S. SUKTHANKAR, Poona: “You have now mastered the technique of editing Prăkrit texts. In fact yours are the best critical editions of Sanskrit and Prakrit texts, You will soon easily rank as a 'Master Editor'. " Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prof. Mm. P. V. KANE, Bombay: "Your edition of the Kamsavaho combines the best critical methods of the Western scholars with indigenous deep learning." Dr. SUNITI KUMAR CHATTERJI, Calcutta: "I congratulate you on your excellent work. The style in which it has been printed is fully in keeping with the remarkably fine way in which it has been edited. I admire the sane and methodical way in which you have written the Introduction, with all available material about the book itself, its author, its language and other points of interest and importance-it leaves nothing to be desired." Dr. B. R. SAKSENA, Allahabad: "The work is excellent and interesting. As usual with you, your edition is perfect and complete in all respects and leaves nothing to be desired." Prof. C. R. DEVADHAR, Poona: "I have gone through your masterly introduction and a part of the text, and I am very much impressed by the soundness of your scholarship and the thoroughness of your method." Mahakavi Ullur S. PARAMESHWAR AIYAR, Trivandrum: "It is an invaluable addition to the Prakrit literature so far published in India. The Introduction, Glossary and Explanatory notes have been most carefully and diligently prepared and leave absolutely nothing to be desired." Dr. P. L. VAIDYA, Poona: "I am very glad that your performance every time keeps up the reputation you have already established as a critical scholar." Dr. S. K. DE, Dacca: "It has the same thoroughness and scholarly skill which characterise all your works." Prof. L. V. RAMASWAMI AIYAR, Ernaculam: "Your book is a marvel of editorial achievement." Prof. P. V. RAMANUJASWAMI, Vizianagaram: "You have done a distinct service to Prakrit scholarship by publishing an excellent critical edition of one of the Prakrit poems of our country. Your Introduction is illuminating, and your notes and glossary are scholarly." Prof. M. R. BALKRISHNA WARRIER, Trivandrum: "It reveals unerring insight, patient industry and great scholarship. The work you have done on the Mss. material is accurate, scholarly and minute." Dr. LAKSHMAN SARUP, Lahore: "It is very creditable to your capacity of work and critical judgement." Annals of the Sri Venkatesvara Oriental Institute, Tirupati (1, 3): "Dr. Upadhye's work as an editor is beyond praise-painstaking, thorough and judicial." (K. V. Rangaswami Aiyangar). Indian Historical Quarterly, Calcutta (XVI, 4): "On the whole these beautiful editions bear eloquent testimony to the scholarship and patient labour of the learned editor." (Chintaharan Chakravarti). Journal of the University of Bombay, Bombay (IX, part 2): "His introduction is, s usual, highly instructive and learned." (H. D. Velankar). Indian Culture, Calcutta (VIII, 1): "...Dr. Upadhye has lavished on it unstinted labour and meticulous care. He has collected all available imformation about the author (born in 1707 A. D.) and discussed also his other known works." (B. K. Ghosh ). New Indian Antiquary, Bombay (III, No. 8): "Professor Upadhye's Translation and Critical Notes are characterised by earnestness and precision.... The observations on the Prakrit dialect of Kamsavaho evince Dr. Upadhye's elaborate and scientific knowledge of the phonology and structure of the Middle Indian tongues." (Goda Varma). The Jaina Antiquary, Arrah (VII, 1): "From the stand-point of Indian Linguistics, the work is a distinct contribution to our knowledge of Middle Indo-Aryan.... (Siddheshwar Varma). 39 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUBLICATIONS OF THE SINGHI JAIN SERIES 1. Prabandhacintāmani of Merutungācārya (A. D. 1306 ): Part I, Text in Sanskrit with Variants, an Appendix and Indices of Stanzas. This is an important collection of stories, legends and anecdotes connected with kings like Vikramārka, Bhoja, Kumārapāla etc. and aụthor-poets like Siddhasena, Māgha, Dhanapāla etc. Critically edited with various research accessories by JINAVIJAYA MUNI. Double Demy pp. 12+ 136. Price Rupees 3-12-0. 2. Purātana-Prabandha-Sumgraha: This is a noteworthy collection of many old Prabandhas similar and analogus to the matter in the Prabandhacintāmaņi. Authentically edited with Indices of Verses and Proper Names, a short Introduction in Hindi describing the Mss. and materials used in preparing this part and with plates by JINAVIJAYA MUNI. Double Demy pp. 15+ 32+156+8. Price Rupees 5-0-0. 3. Prabandhacintamani (Complete Hindi Translation): A complete and correct Hindi translation is given in this volume, so as to enable the purely Hindiknowing public to grasp fully the contents of the original. The translator is Pandit Hajāriprasād Dwivedi, Acārya, Hindi Deptt. Vis'vabhārati, S'āntiniketan. Along with the translation has been given an exhaustive Introduction in Hindi by the General Editor, MUNI JINA VIJAYJI, which contains useful material for the proper understanding of the text. Double Demy 4", pp. 12+12+156. Price Rupees 3-12-0. 6. Prabandhakos'a of Rājas'ekharasuri (A, D. 1349): Part I, Text in Sanskrit with Variants, Appendices and Alphabetical Indices of stanzas and all Proper Names, This gives twentyfour biographical Prabandhas dealing with celebrities of ancient India such as Bhadrabāhu, Mallavādi, Haribhadra, Sātavāhana, Vastupāla etc. Critically edited in the original Sanskrit from good old Mss. with Variants, Hindi Translation, Notes and elaborate Introduction etc. by JINAVIJAYA. Double Demy pp. 8+8+ 136+14. Price Rupees 4-0-0. 7. Devānanda-Mahakarya of Meghavijayopādhyāya (Sam. 1727): This is a Sanskrit poem in ornate style composed as a Samasyā--pürti incorporating some line or the other, in each verse, from the S'is'upālavadha of Mágh. In its seven cantos, it presents a biography of Vijayadevasūri who was honoured by both Akbar and Jehangir. Critically edited in the original Sanskrit from an old Ms. with Notes, Index and Hindi Introduction, summary etc. by Pt. BECHARDAS J. DosHl. Double Demy pp. 8+16+80. Price Rupees 2-12-0. 8. Jaina Turkabhāși of Yas'ovijaya (A.D. 1624-1688): It is a manual of Nyāya dealing with Pramāna, Naya and Niksepa. Edited by Pt. SUKHALALAJI SANGHAVI with his Tātparyasan grahā Vrtti and an Introduction in Hindi, Super Royal pp. 8+8+14+78. Price Rupees 1-12-0. 9. Prumānamīmānsă of Hemacandrācārya: This is a treatise on Nyāya left incomplete perhaps by the author himself. It propounds the Jaina point of view after reviewing the tenets of other systems. Edited with a valuable Introduction and still more valuable Notes in Hindi by Pt. SUKHALALAJI SANGHVI and Pts. MAHENDRAKUMARA and MALAVANIA. Super Royal pp. 8+16+ 56+76+ 144 +36. Price Rupees 5-0-0. 10 Vividhatirthakalpa of Jina prabhasūri (A. D. 1332): Part I, Text in Sanskrit and Prākrit with Variants, and an Alphabetical Index of all Proper Names. This work gives a description of nearly 60 holy places together with the names of their founders etc.; and thus forms a sort of guide-book or gazetteer of Jaina 9. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sacred places of India of the 14th Century. It contains valuable information of historical and topographical interest. Critically edited in the original Sanskrit and Prākrit with Variants, Hindi Translation, Notes and elaborate Introduction etc. by JINA VIJAYA MUNI. Double Demy pp. 8+16+114+14. Price Rupees 4-4-0. II. The Life of Hemacandrācārya: The eminent German orientalist, Dr. G. Bühler, wrote in 1889, an epoch-making essay in German on Hemacandra (A. n. 1088-1173) who occupies a place of honour in Indian literature. This essay is a fine model of historical research; and, as such, for the benefit of English knowing readers, it has been translated here into English by Dr. MANILL PATEL. Double Demy pp. 16+104. Price Rupees 3-8-0. 12. Akalanka-Granthatrayam comprising Laghīyastrayam with Svopajña-vrtti, Nyāya vinis'caya and Pramāṇasamgraha: These are three noteworthy Nyāya works of Akalarikadeva (C. A. D. 720-780), the last two being brought to light for the first time. Edited with Critical Notes, Variant Readings, Introduction [in Hindi] and Indexes etc. by Pt. MAHENDRAKUMARA. Super Royal pp. 8+14+118 +184 +60. Price Rupees 5-0-0. 13. Prabhāvakacarita of Prabhācandrācārya (A. D. 1277): Part I, Text in Sanskrit, with Variants and Indices of stanzas and all Proper Names. It presents in ornate style the traditional biographies of twenty eminent personalities including religious teachers like Vajrasvāmi, authors like Haribhadra and Hemacandra and poets like Mānatunga who have contributed to the glory of Jainism and Jaina church. Critically edited in the original Sanskrit from many old Mss. with Notes, Index and Hindi Introduction by JINA VIJAYA MUNI, Double Demy pp. 10+6+226. Price Rupees 5-0-0. 15. Bhūnucandra-caritra of Siddicandra Upadhyāya : This is a remarkable composition of Sanskrit litarature in which an able pupil, namely, Siddhicandra has chronicled, without the least exaggeration, acts of social and religious service rendered by his great Guru Bhānucandra. It is not only a biography of the Guru but also an autobiography of the pupil, both of whom had connections with and were honoured at the Moghul court by Akbar and Jehangir. The English Introduction by the Editor is a rich mine of historical information. Critically edited in the original Sanskrit from a single rare Ms. with elaborate Introduction, Summary, Appendices, Indices etc. by M. D. DES.I. Double Demy 8+12+104+68. Price Rupees 6-0-0. 16. Jžānabindu-prakarana of Yas'ovijaya Upādhyāya: This is a systematic manual of Jaina epistemology. The Hindi Introduction of the editor is a brilliant exposition of Jaina theory of knowledge in the back-ground of Indian me a physics. The Sanskrit Text edited with Introduction, Notes and Index etc. by Pt. SUKHL LAJI SANGHAVI, Pt. DALSUKH MLVANIA and Pta. Hira KUMARI DEVI. Super Royal pp. 12+8+84 +136. Price Rupees 3-8-0. All these volumes are printed in a stately size on excellent paper at the famous Nimaya Sagara Press, Bombay, etc. To be had from-- BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला ** - --*-*-*-*-*- -*-*-*-* अद्यावधि मुद्रित ग्रन्थ *-*--* 2 पुरातनप्रवचिन्तामणि सदृशात. (संस्कृत -0 00 1 प्रबन्धचिन्तामणि, मेरुतुजाचार्यविरचित. (इतिहासविषयक विश्रुत ग्रन्थ) पाठभेदादि युक्त सुसंपादित, सुविशुद्ध संस्कृत मूल ग्रन्थ, तथा विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना समन्वित 3-12-0 / 2 पुरातनप्रबन्धसंग्रह. (संस्कृतमय, अज्ञातकर्तृक, ऐतिह्य तथ्यपूर्ण) प्रबन्धचिन्तामणि सदृश, अनेकानेक पुरातन ऐतिहासिक प्रबन्धोंका अपूर्व एवं विशिष्ट संग्रह। 3 प्रबन्धकोश, राजशेखरसूरिरचित. (संस्कृत गद्य-पद्यमय 24 ऐतिहासिक निबन्धोंका संग्रह) अनेकविध पाठान्तरादियुक्त, विशुद्ध संस्कृत मूल ग्रन्थ, विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना आदि सहित। 4 विविधतीर्थकल्प, जिनप्रभसूरिकृत. (संस्कृत-प्राकृतभाषानिबद्ध पुरातन तीर्थवणेन)। पुरातन कालीन जैन तीर्थस्थानोंका वर्णनखरूप अपूर्व एवं विशिष्ट ऐतिहासिक ग्रन्थ 5 देवानन्दमहाकाव्य, मेध विजयोपाध्यायविरचित. (माघ महाकाव्यका समस्यापूर्तिरूप) विजयदेवमरिचरित्र-निरूपक सुन्दर, ऐतिहासिक, काव्य ग्रन्थ / 2-12-0 6 जैनतर्कभाषा, यशोविजयोपाध्यायकृत. (जैनतर्क विषयक पाठ्य ग्रन्थ) मल संस्कृत ग्रन्थ तथा पं० सुखलालजीकृत नूतन विशिष्ट संस्कृत व्याख्यायुक्त 2-0-0 7 प्रमाणमीमांसा. हेमचन्द्राचार्यकृत. (जैनन्यायशास्त्रविषयक मौलिक ग्रन्थ / 'सविशुद्ध मूल ग्रन्थ तथा पं० सुखलालजीकृत विस्तृत हिन्दी विवरण और प्रस्तावनादि सहित। 8 अकलङ्ग्रन्थत्रयी, भट्टाकलङ्कदेवकृत. (न्यायतत्त्व प्रतिपादक 3 मौलिक ग्रन्थोंका विशिष्ट संग्रह) न्यायाचार्य पं. महेन्द्र कुमारजी संपादित, विस्तृत प्रस्तावना, और हिन्दी विवरण युक्त। 9 प्रबन्धचिन्तामणि, संपूर्ण हिन्दी भाषान्तर. हिन्दी भाषामें सर्वथा नवीन ऐतिहासिक ग्रन्थ, विस्तृत प्रस्तावनादि समलबूत 3-12-0 10 प्रभावकचरित, प्रभाचन्द्रसूरिरचित. (प्राचीन जैन इतिहासका प्रौढ एवं प्रधान ग्रन्थ)। सुविशुद्ध संस्कृत मूल ग्रन्थ, हिन्दी प्रस्तावना, परिशिष्टादि समलकृत। 5- 0 -0 11 Life of Hemachandracharya: By great Indologist Dr. G. Buhler 3-8-0 12 भानचन्द्रगणिचरित, सिद्विचन्द्रोपाध्यायरचित. (संस्कृत भाषामय, आत्मचरित खरूप अपूर्व कृति)। संस्कृत मूल ग्रन्थ, सुविस्तृत इंग्लीश प्रस्तावनादि समेत, अनुपम ऐतिहासिक ग्रन्थ निविन्दप्रकरण, यशोविजयोपाध्यायविरचित. (ज्ञानतत्वनिरूपक प्रौढ शास्त्रीय ग्रन्थ ) पं० सखलालजी संपादित एवं विवेचित, अनेक दार्शनिक विचार परिपूर्ण निबन्ध समन्वित 3-8-0 14 बहत कथाकोश, हरिषेणाचार्यकृत. (धर्मोपदेशात्मक 157 कथायोंका महान् संग्रह) डॉ. ए. एन. उपाध्ये संपादित, सुविस्तृत इंग्रजी प्रस्तावनादि सहित प्राप्ति स्थान 6-0-0 12. 00 भारतीय विद्या भवन बंबई Published by the Secretaries. Bharatiya Vidya Bhavan, Bombay Printed by Ramehandra Yesti Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbhat Street, Bombay