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असीम आनन्द की प्राप्ति को ही माना जा सकता है। अतः प्रबन्धन केवल अर्थ-प्राप्ति के साधनों का प्रबन्धन नहीं होकर आत्मिक-शान्ति रूपी साध्य की प्राप्ति का पुरूषार्थ भी बनना चाहिए। आध्यात्मिक-दृष्टि से मानव का साध्य चेतना का समत्व या आत्मिक शान्ति ही हो सकता है, अतः प्रबन्धन की आवश्यकता इस साध्य की सिद्धि के लिए होनी चाहिए। जैनदर्शन में इस साध्य को 'मोक्ष' कहा जाता है और यह मोक्ष, मोह और क्षोभ से रहित, आत्मा का समत्व या आत्मिक-शान्ति ही है।137
जैनदृष्टि से हमें प्रबन्धन को केवल व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रबन्धन नहीं मानकर, जीवन के प्रबन्धन के रूप में लेना होगा, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार, जीवन एक समग्रता है और इसमें जो पुरूषार्थ चतुष्टय माने गए हैं, उनमें से 'अर्थ' एक निम्न श्रेणी का पुरूषार्थ है। 'काम' चाहे 'अर्थ' की अपेक्षा से साध्य हो, किन्तु वह भी स्थायी आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि 'काम' का जन्म इच्छाओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से होता है तथा ये सब आध्यात्मिक शान्ति को भंग ही करती हैं। कामनाओं की पूर्ति में भले ही क्षणिक सुख का आभास हो, किन्तु वह क्षणिक सुख भी इच्छाओं व आकांक्षाओं की ज्वाला को और अधिक प्रज्ज्वलित ही करता है तथा व्यक्ति को वास्तविक शान्ति प्रदान नहीं करता है, इसीलिए किसी ने कहा भी है18 -
सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जाएगी इच्छा ज्वाला।
परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला।। कामनाओं की पूर्ति में हम मनोवैज्ञानिक-शान्ति (Psychological Peace) का भ्रम भले ही पाल लें, लेकिन इससे भी वास्तविक शान्ति की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छापूर्ति के इन प्रयासों में नई-नई इच्छाएँ जन्म लेती रहती हैं और इनकी पूर्ति की चाह में नए-नए तनाव भी उत्पन्न होते रहते हैं, इसीलिए जैनाचार्यों की दृष्टि में प्रबन्धन मात्र औद्योगिक या व्यावसायिक प्रबन्धन नहीं, अपितु जीवन के समग्र पक्षों का स्थायी प्रबन्धन है।
अभी तक प्रबन्धन-शास्त्रों में प्रबन्धन की जो परिभाषाएँ उपलब्ध हैं और जिनकी चर्चा हमने पूर्व में की है, वे केवल आंशिक या एकपक्षीय परिभाषाएँ ही हैं। उनका क्षेत्र अर्थोपार्जन की माँग और पूर्ति तक ही सीमित है। अतः हमें प्रबन्धन की एक ऐसी परिभाषा खोजनी होगी, जो जीवन के समग्र पक्षों का समन्वय करते हुए क्षणिक शान्ति की अपेक्षा चिरस्थायी आत्मिक-शान्ति प्रदान कर सके। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बाह्य शान्ति, आध्यात्मिक-शान्ति के बिना एकांगी और आधारहीन होती है। आध्यात्मिक शान्ति ही समग्र और चिरकालिक हो सकती है, इसीलिए जैनाचार्यों की दृष्टि में, प्रबन्धन वह कला या विज्ञान है, जो जीवनशैली का समग्र रूपान्तरण करके चिरकालिक आध्यात्मिक शान्ति को प्रदान करता है। अतः प्रबन्धन के क्षेत्र में जीवन को अशान्त और तनावग्रस्त बनाने वाले तत्त्वों का निराकरण और इसके विपरीत, जीवन को तनाव एवं अशान्ति से मुक्ति तथा चिरशान्ति प्रदान करने वाले तत्त्वों का स्वीकरण किया जाता है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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