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औषधियों का सेवन करना। 10) यथायोग्य सामायिक , पौषध, देशावगासिक एवं अतिथिसंविभाग व्रतों का पालन कर भोग-निवृत्ति
का विशेष अभ्यास करना।16 11) प्रतिदिन प्रातः एवं सायं चौदह नियम ग्रहण करते हुए उनसे सम्बन्धित निम्न वस्तुओं की मर्यादा करना17 -
सचित्त-दव्व-विगइ-वाणह-तंबोल-वत्थ-कुसुमेसु ।
वाहण-सयण-विलेवण-बंभ-दिसि-ण्हाण-भत्तेसु ।। i) सचित्त मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि सजीव वस्तुओं के प्रयोग सम्बन्धी। ii) द्रव्य – खाने-पीने के काम में आने वाले पदार्थों की संख्या। iii) विगई - दूध, दही, घी, तेल, मिठाई एवं कढ़ाई (तले पदार्थ) वाली वस्तुएँ। iv) उपानह – जूते-चप्पल आदि। v) तम्बोल – सुपारी आदि सभी मुखवास । vi) वस्त्र - पहनने व काम में आने वाले रुमालादि । vii) कुसुम – फूल-तेल आदि सूंघने के पदार्थ । viii) शयन – गद्दा, तकिया, चद्दरादि बिछावन। ix) वाहन – परिवहन के जैविक/यांत्रिक सभी साधन । x) विलेपन – साबुन, लेप आदि प्रसाधन। xi) दिशा – दसों दिशाओं में गमन। xii) स्नान - लघ, मध्यम एवं उत्कृष्ट स्नान। xiii) ब्रह्मचर्य - मैथुन प्रवृत्ति पर नियन्त्रण। xiv) भोजन - खाद्य-पदार्थों की मात्रा
ये चौदह नियम मूलतः भोगोपभोग-परिमाण की अभिवृद्धि के लिए हैं और प्रतिदिन ग्रहण करने योग्य हैं। 12) षड्जीवनिकाय की यथाशक्ति जयणा करना अर्थात् हिंसात्मक प्रवृत्ति से बचना। 13) शुभ भोगों की गुणवत्ता में और अधिक अभिवृद्धि करना। 14) शुद्ध भोगों अर्थात् आत्म-स्थिरता की दशा की विशेष अभिवृद्धि करना। 15) धीरे-धीरे आत्मस्थिरता एवं आत्मरमणता बढ़ाते जाना और बाह्य विषय-भोगों को अधिकाधिक __ मर्यादित करना। 16) श्रावक की ग्यारह प्रतिमा क्रमशः वहन करना। 17) पंचमहाव्रत धारण करने अर्थात् अशुभ भोगों के सर्वथा परित्याग करने की पात्रता विकसित
करना।118
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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