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द) उच्च धार्मिक ज्ञानार्जन करना - द) भावात्मक रूप से उपर्युक्त सभी द) लोकोत्तर धर्म का प्राथमिक रूप से पालन चारों अनुयोगों का विशेष अध्ययन धर्माराधनाओं को प्रारम्भ करना।
करना, जैसे - अहिंसा, सत्य, अचौर्यादि करना, गहन विषयों का विशेष
धर्मों का अभ्यास करना, यतनापूर्वक जीने का चिन्तन-मनन करना, दूसरों के साथ
अभ्यास करना इत्यादि। विचार-विमर्श करना और उन विषयों को विशेष बल देना, जिनसे मोक्षमार्ग
हेतु तत्त्वों की सुविचारणा होती हो। द्वि मन्द तीव्र तत्त्वों का चिन्तन-मनन, अनुप्रेक्षा, उपर्युक्त आराधनाओं के साथ-साथ विशेष निष्काम कर्म (अनासक्त भाव) की साधना
ध्यानादि करना, देव-गुरु-धर्म में दृढ़ रुचि/भावों से देव-गुरु-धर्म की भक्ति करना, दीर्घकाल तक वैर-वैमनस्य नहीं आस्था बनाना, तत्त्व का सुनिश्चय करना, आत्मलक्षी होकर माला-जाप-ध्यान रखना, आग्रह छोड़कर सहजता से जीने का करना, बारम्बार तात्त्विक शास्त्रों का आदि अनुष्ठान करना, सामायिक, अभ्यास करना, कम से कम पापों का सेवन अध्ययन करना, आत्मबोध की प्राप्ति देसावगासिक, पौषधादि का अभ्यास करना, करते हुए जीने का प्रयास करना छोटे-छोटे करना इत्यादि।
समय-समय पर स्व निरीक्षण करना, संकल्प, नियम आदि से जुड़ने का प्रयत्न गलतियों का अवलोकन करना एवं सुधारने करना, आत्मबल का विकास करना इत्यादि।
का विचार करना/भाव रखना इत्यादि। मन्दतर तीव्रतर तत्त्वों का विशेष चिन्तन-मनन, उपर्युक्त क्रियाओं के साथ-साथ सांसारिक स्थूल पापों, स्थूल प्रवृत्तियों एवं कषायों का
अनुप्रेक्षादि करना, भावों को ज्ञानपूर्वक कार्यों से निवृत्त होकर अधिकाधिक समय संकल्पपूर्वक त्याग करना, सूक्ष्म पापों का सुधारना, आत्म-जागृति की निरन्तरता धर्माराधना में लगाना, नियमित सामायिक खेद रखना, व्रतों को अंगीकार करना , का अभ्यास करना, दर्शन-ज्ञान की आदि धर्मकृत्य करना जीवन परिष्कृत करने प्रतिमा-वहन करना इत्यादि। विशुद्धि हेतु प्रयत्नशील रहना इत्यादि। हेतु प्रतिक्रमण, पौषध आदि करना।
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अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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