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शत्रु भी। जो सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा है, वह मित्र है और जो दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों में स्थित आत्मा है, वह शत्रु है। 14 अतः स्पष्ट कि आध्यात्मिक - विकास की प्रक्रिया में आत्मा को ही साधना का लक्ष्य माना गया है।
13.1.4 आत्मा का सम्यक् स्वरूप
यहाँ स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा उठ सकती है कि आत्मा क्या है, यह कैसी है, इसका पतन किस रूप में होता है और इसका उत्थान कैसे सम्भव है? जैनदर्शन में इन प्रश्नों का स्पष्ट निराकरण आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, उत्तराध्ययन, समयसार, प्रवचनसार आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध है।
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जैनाचार्यों के अनुसार, विश्व दो प्रकार के पदार्थों का समूह है जीव एवं अजीव | 15 जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है जो जीया था, जीता है और जीएगा, वही जीव है। इसके अनेक पर्यायवाची हैं, जैसे प्राणी, जन्तु, सत्त्व, आत्मा, चेतन इत्यादि ।
आत्मा (जीव) के आश्रित अनेक गुण रहते हैं, जिनमें प्रमुख हैं ज्ञान, दर्शन, चारित्र. सुख, वीर्य आदि।” ये गुण सदैव आत्मा के साथ रहते हैं और इनके मूल स्वरूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं
आता ।
आत्मा का प्रत्येक गुण अपना-अपना कार्य करता है, जिसे 'पर्याय' कहा जाता है। 18 यह पर्याय प्रतिसमय परिवर्तनशील रहती हुई दो प्रकार की होती हैं स्वभाव एवं विभाव। 19 जब आत्मा में वस्तु के यथार्थ स्वरूप के अनुरूप ज्ञानादि गुणों का परिणमन होता है, तब अन्य द्रव्यों से निरपेक्ष" स्वभाव-पर्याय उत्पन्न होती है। इससे विपरीत परिणमन होने पर अन्य द्रव्यों के सापेक्ष विभाव-पर्याय उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, देहादि (आत्मेतर) पदार्थों के प्रति ममत्वादि (ये मेरे हैं इत्यादि) भावों के होने पर विभाव - पर्याय की उत्पत्ति होती है, किन्तु वस्तु-स्वरूप को आधार बनाकर पर - पदार्थों के प्रति इष्ट-अनिष्ट बुद्धि का त्याग करके समत्वादि भावों के होने पर स्वभाव - पर्याय उत्पन्न होती है। इस प्रकार, विभाव दशा आत्मा के ह्रास की एवं स्वभाव दशा आत्मा के विकास की परिचायक है ।
गुण ज्ञान
गुणों का सामर्थ्य जानने की शक्ति
दर्शन मान्यता बनाने की शक्ति चारित्र आचरण करने की शक्ति वीर्य पुरूषार्थ करने की शक्ति आनन्दित होने की शक्ति
सुख
आत्मा के विविध गुणों की स्वभाव एवं विभाव पर्यायों के अन्तर को निम्न तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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