Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 843
________________ भावों की दृष्टि से, आत्मा पर-पदार्थों से उपयोग हटाकर आत्मतत्त्व को पाने का अभ्यास करती है, वह श्रुतज्ञान का आलम्बन लेकर ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करने का प्रयत्न करती है।157 इस अवस्था को यथाप्रवृत्तिकरण भी कहते हैं।158 (4) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का लक्ष्यभेदी प्रयत्न करना - पूर्व स्तर में साधक को विकल्पात्मक रूप से तत्त्व की अनुभूति होती है, जैसे – मैं एक हूँ, अखण्ड हूँ, अजर-अमर-अविनाशी हूँ, शुद्ध हूँ आदि, किन्तु अब , इस स्तर पर पहुँचकर उसे निर्विकल्प अनुभूति का प्रयत्न करना चाहिए। इस हेतु उसे पर-पदार्थों से अपना उपयोग (चेतना का व्यापार/Active Consciousness of the Soul) हटाकर अर्थात् मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के विकल्पों को गौण कर एकमात्र आत्मस्वरूप के ज्ञान का प्रयास करना चाहिए और एक अखण्ड, अविनाशी, शुद्ध आत्मस्वरूप का विकल्परहित अनुभव करना चाहिए। ऐसा करने पर आत्मा के आनन्द का अपूर्व अनुभव होता है यानि आत्मा का सहज-आनन्द प्रकट होता है और अंतरंग में अपूर्व आत्मशान्ति का वेदन होता है। मैं चैतन्य स्वरूप, परिपूर्ण आत्मा हूँ', यह निर्विकल्प अनुभूति होते ही ज्ञान एवं श्रद्धा गुण की निर्मल पर्याय प्रकट होती है, जिसे क्रमशः निश्चय सम्यग्ज्ञान एवं निश्चय सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इस प्रयत्नात्मक दशा को ही करण-लब्धि (पंचम लब्धि) कहते हैं। इस स्तर पर साधक क्रमशः तीन कार्य करता है - चरम यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण। दिगम्बर मान्यतानुसार इन्हें अधःकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इनका विशेष उल्लेख लब्धिसार, कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार आदि साहित्य में उपलब्ध है।160 13.6.2 सम्यक्चारित्र के विकास का अभ्यास-क्रम आध्यात्मिक साधना के अन्तर्गत सम्यक्चारित्र का विकास करना एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसमें अनुक्रम से निम्न अभ्यास करना चाहिए - (1) प्राथमिक भूमिका का निर्माण करना - यद्यपि निश्चय सम्यक्चारित्र का प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साथ ही होता है, तथापि सम्यग्दर्शन के पूर्व भी निर्मल चारित्र की भूमिका का निर्माण करना आवश्यक है। इस हेतु साधक को अशुभ भावों के त्याग एवं शुभ भावों के ग्रहण का प्रयत्न करना चाहिए। उसे सामान्य सदाचार का पालन करते हुए जीवन-यापन करना चाहिए, जैसे - सप्तव्यसन, अभक्ष्यसेवन एवं अकल्पनीय कृत्यों का त्याग तथा मार्गानुसारी के पैंतीसगुणों का पालन आदि। इनका विशेष उल्लेख योगशास्त्र, धर्मबिन्दुप्रकरण, श्राद्धधर्म, वसुनन्दीश्रावकाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, सागारधर्मामृत आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध है। साधक को सामान्य सदाचार के साथ-साथ सामान्य धर्माचरण, जैसे – देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान में भी यथाशक्ति रुचि रखनी चाहिए। इतना ही नहीं, उसके त्याग, व्रतादि सभी सद्व्यवहार भी सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति की दिशा में सहयोगी सिद्ध होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, उसके 737 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन 41 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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