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धर्म को एक महत्त्वपूर्ण पुरूषार्थ माना गया है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है कि भारतीय चिन्तन में जहाँ एक ओर धर्म को अर्थ और भोग का नियन्त्रक तत्त्व माना गया है, वहीं दूसरी ओर इसे मोक्ष-प्राप्ति का साधन भी स्वीकार किया गया है। इस प्रकार भारतीय जीवन-दर्शन में धर्म साध्य और साधन दोनों ही है। इसी अध्याय में धर्म के सम्यक् स्वरूप, उसके महत्त्व और जीवन-मूल्य के रूप में उसकी उपयोगिता को प्रतिपादित करने के पश्चात् हमने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि अव्यवस्थित धर्मनीति के क्या दुष्परिणाम होते हैं? साम्प्रदायिक संकीर्णता, धार्मिक उन्माद, रूढी-प्रधानता, प्रदर्शन और अहं की सन्तुष्टि के प्रयत्न अव्यवस्थित धर्म-नीति के ही दुष्परिणाम हैं। आज धर्म के नाम पर जो दुराग्रह, सांप्रदायिक संकीर्णता, आतंकवाद आदि देखे जाते हैं, वे सब अव्यवस्थित धर्म-नीति और धर्म के सम्यक् स्वरूप का बोध न होने के कारण ही उत्पन्न हो रहे हैं। यह सत्य है कि धार्मिक-जीवन में श्रद्धा प्रमुख तत्त्व है, किन्तु जब धर्म अन्धरूढ़ियों और अन्धविश्वासों से ग्रस्त हो जाता है, तो उसके दुष्परिणामों को सहने के लिए मानवता बाध्य होती है। इन दुष्परिणामों से हम धार्मिक सहिष्णुता और सद्भाव के द्वारा ही बच सकते हैं। अतः प्रस्तुत अध्याय में धार्मिक सहिष्णुता और सद्भाव के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का क्या दृष्टिकोण रहा है, इसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। धर्म मात्र एक रूढ़िगत व्यवहार या अन्धविश्वास बन कर न रहे, इस सन्दर्भ में जैनधर्म और जैनआचारमीमांसा में धर्म-साधना के जो सम्यक् सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं, उन पर भी हमने प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है और यह बताया है कि आज धार्मिक-व्यवहार को धार्मिक अन्धरूढ़ियों और अन्धविश्वास से मुक्त कर वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार पर खड़ा करना होगा। वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार पर स्थित धार्मिक-व्यवहार का सुनियोजन ही प्रस्तुत अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। इसी दृष्टि से हमने धार्मिक-व्यवहार के सम्यक् प्रयोजन को प्रतिष्ठित करने के लिए व्यावहारिक जीवन-दृष्टि और व्यावहारिक प्रयत्न भी अभिसूचित किए हैं। इनका जीवन में प्रयोग कर मानवता को धार्मिक-अन्धविश्वासों, धार्मिक-उन्मादों और धार्मिक आतंकवाद से बचाया जा सकता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में हमारा निष्कर्ष यही है कि धार्मिक-व्यवहार सुनियोजित हो, ताकि वह मानव जाति में शान्ति और सद्भाव का विकास कर सके।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का तेरहवां अध्याय आध्यात्मिक-विकास और जीवन-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। इस अध्याय में सर्वप्रथम अध्यात्म के अर्थ को स्पष्ट करते हुए अध्यात्म का क्या स्वरूप हो, यह समझाया गया है। आध्यात्मिक-विकास से हमारा तात्पर्य आत्मिक सुख और शान्ति की प्राप्ति ही है। आज मानवता मुख्य रूप से तनाव से ग्रस्त है। व्यक्ति का वैयक्तिक और सामाजिक जीवन तनाव से ग्रस्त होने के कारण अशान्त है। आज जिन लोगों और देशों के पास भौतिक-सम्पदा का जमाव है, वे भी अपने आपको तनावग्रस्त पा रहे हैं। व्यक्ति और समाज ही नहीं, आज पूरा विश्व तनाव से ग्रस्त है और किसी एक व्यक्ति का भौतिक पागलपन समग्र मानव के अस्तित्व के विनाश का कारण बन सकता है। आज विश्व में बाहरी शान्ति की बात तो की जा रही है, किन्तु व्यक्ति के अशान्त चित्त के परिशोधन का कोई प्रयत्न नहीं हो रहा है। आध्यात्मिक विकास के स्वरूप को स्पष्ट जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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