Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 898
________________ सोद्देश्य सोपान स्थविर स्थानक स्थावर जीव स्थितप्रज्ञ स्थितिघात स्नेह स्याद्वाद स्वच्छन्द स्वभाव स्वाध्याय उद्देश्य सहित सीढ़ी | संघ के बीच रहकर साधना करने वाले साधु, पतित होने वाले साधकों को धर्म में स्थिर करने वाले साधु आराधक साधुओं व श्रावकों के ठहरने/आराधना करने का स्थान स्वेच्छापूर्वक गमन न कर सकें वे जीव | स्थिर बुद्धि वाला, समरस, निर्विकल्प, सब भ्रमों से मुक्त कर्मों का स्थिति (काल) को घटाना ममत्व, प्रेम अनेकान्तवाद की व्याख्या करने की एक पद्धति मनमौजी, स्वेच्छाचारी आदत, प्रकृति, स्वरूप, तत्त्व, धर्म, वस्तु की निज योग्यता स्वयं का अध्ययन करना, आत्महितकारी पुस्तकें पढ़ना, उपदेश श्रवण करना इत्यादि पर पदार्थों का अधिकारी या मालिक होने का भाव स्वयं का लौकिक हित | एक व्यक्ति के हाथ से दूसरे के हाथ में जाना त्याग करने योग्य क्षय, हानि, अभाव क्षण में नष्ट होने वाला, क्षणिक, अनित्य | मोहनीय कर्म का क्षय करने वाला नाश, क्षीण | स्वेच्छापूर्वक गमन करने में समर्थ सभी जीव | करना, कराना व अनुमोदन - ये तीन करण मन, वचन, काया की प्रवृत्ति धर्म, अर्थ व काम - इन तीन वर्गों वाला भूत, भविष्य एवं वर्तमान - तीनों काल में होने वाला केवल जानने-देखने का भाव, प्रतिक्रियारहित अवस्था 'ज्ञान' विषयक शास्त्र (Epistemology) ज्ञान प्राप्त करना जानने योग्य स्वामित्व भाव स्वार्थ | हस्तान्तरण हेय हास क्षणभंगुर क्षपक क्षय त्रस जीव त्रिकरण त्रियोग त्रिवर्गीय त्रैकालिक ज्ञाता-दृष्टाभाव ज्ञानमीमांसा ज्ञानार्जन ज्ञेय त्र ये तीन काया की धर्म, ===== ====== 16 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 786 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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