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भोगोपभोग के सम्यक् प्रबन्धन की बात करती है और कहती है कि भोगोपभोग करने के पूर्व सम्यक् दृष्टिकोण के विकास की आवश्यकता है। जैनआचारमीमांसा के भोगोपभोग-प्रबन्धन सम्बन्धी सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयत्न भी हमने इस शोध-प्रबन्ध में किया है। इस सन्दर्भ में प्रत्येक इंद्रिय के विषयों का संयमन किस प्रकार से हो, यह बताया गया है, जैसे - जीवन जीने के लिए आहार आवश्यक है, किन्तु आहार का लक्ष्य स्वस्थता है, न कि स्वाद। आचारांग, उत्तराध्ययन आदि सूत्रों के आधार पर हमने यह बताया है कि इंद्रियों से उनके विषयों का सम्पर्क होने पर हम उनमें उत्पन्न होने वाले पारस्परिक सम्बन्धों को नहीं रोक सकते, जैसे - आँख होगी तो रूप दिखाई देगा ही। जैनआचारमीमांसा का कहना है कि भोगोपभोग-प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि भोगोपभोग के जो भी विषय हमारी इंद्रियों के सम्पर्क में आते हैं, उनके प्रति हमारे चित्त में राग-द्वेष की वृत्ति न हो। इंद्रियों का अपने विषय से सम्पर्क रोका नहीं जा सकता, किन्तु उन विषयों के प्रति राग-द्वेष भावों की चर्या को नियंत्रित किया जा सकता है। अतः इस अध्याय में हमने यह बताया है कि इंद्रियों का सम्पर्क अपने विषय से नहीं रोकना, अपितु उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप जगने वाले राग-द्वेष या इच्छाओं का सम्यक् प्रबन्धन करना है। अतः प्रस्तुत अध्याय में हमने भोगोपभोग-प्रबन्धन
प्र प्रक्रिया का तथा उस प्रक्रिया के विभिन्न स्तरों का विस्तार से उल्लेख किया है और यह बताया है कि भोगोपभोग का प्रबन्धन किस प्रकार सम्भव हो सकता है। इस सन्दर्भ में भोगोपभोग के परिसीमन की जो प्रक्रिया जैन-आगमों में मिलती है, उसका भी हमने निर्देश किया है। जीवन जीने के लिए मर्यादित भोगोपभोग आवश्यक हो सकते हैं, किन्तु उन्मुक्त भोगोपभोग की वृत्ति का परिसीमन तो आवश्यक है। इस सन्दर्भ में जैन जीवन-दृष्टि हमें यह कहती है कि भोगोपभोग की प्रवृत्ति को मर्यादित करना सीखें।
__ प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का बारहवां अध्याय जीवन के धार्मिक-व्यवहारों के प्रबन्धन से सम्बन्धित है। इस अध्याय के प्रारम्भ में हमने यह बताया है कि धर्म मानव-जीवन का एक आवश्यक अंग है। जिस प्रकार मनुष्य को जीवन में अर्थ-प्राप्ति एवं भोगों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार उसके जीवन में धार्मिक-व्यवहार भी जरुरी हैं, अतः जीवन के सम्यक् प्रबन्धन के लिए धार्मिक-व्यवहारों का प्रबन्धन भी आवश्यक है। इस सन्दर्भ में हमारी प्राथमिक आवश्यकता यह है कि व्यक्ति को धर्म के सम्यक् स्वरूप का बोध हो, अतः इस अध्याय के प्रारम्भ में हमने धर्म की विभिन्न अवधारणाओं एवं परिभाषाओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया है और यह बताया है कि धर्म का मानव-जीवन में कितना महत्त्व एवं स्थान है। धर्म की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए हमने इस प्रसंग में इस बात को भी स्पष्ट किया है कि अर्थ और भोग को नियंत्रित करने के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए जीवन में धर्म की महती आवश्यकता है। इसी परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के इस अध्याय में धर्म को एक जीवन-मूल्य के रूप में स्थापित किया गया है। प्राचीन परम्परा में जो विविध जीवन-मूल्य माने गए हैं, उनमें नैतिक और आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों का सम्बन्ध धर्म से ही है। दूसरी ओर जीवन-मूल्य के सन्दर्भ में भारतीय-परम्परा में जो पुरूषार्थ-चतुष्टय की अवधारणा है, उसमें भी 757
अध्याय 14 : जीवन-प्रबन्धन : एक सारांश
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