Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 884
________________ अनुयोगद्वार अनुत्तर अनुराग अनुशंसा अनुशीलन अनुष्ठान अनुसंधान अनेकान्त-दृष्टि अनौचित्य | अन्तर्मुखी | अन्तर्मुहूर्त अन्योन्याश्रित अन्वेषणीय अपनयन अपरिहार्य अपलाप अपवर्ग अपवाद | अपशिष्ट अप्रतिबद्ध | शास्त्रों में कहे जाने वाले पदार्थों को सुगमता से समझने के विविध उपाय सर्वोत्तम प्रेम, भक्ति सिफारिश, संस्तुति बार-बार पढ़ना या विचारना, गहन चिंतन-मनन करना कोई धार्मिक कृत्य, आराधना खोज, अन्वेषण वस्तु के अनेक पक्षों, धर्मों, गुणों को ग्रहण करने वाली दृष्टि अनुपयुक्त अन्दर की ओर मुख वाला 48 मिनिट से कम एक-दूसरे पर अवलंबित होना खोज करने योग्य दूर करना, दूसरी जगह ले जाना, हटा देना अत्याज्य, अनिवार्य, अवश्यंभावी (Mendatory) लोप करना, इंकार करना, छिपाना, बक-बक करना मोक्ष, मुक्ति, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना देश, काल, परिस्थिति के अनुसार सामान्य से हटकर अपनाए गए विकल्प, विकट परिस्थिति में कमजोरीवश ग्रहण किए गए कार्य कुड़ा-कर्कट, भंगार, कबाड़ा, रद्दी (Wastage) अंतरंग में मनोभावों के और बाह्य में व्यक्ति, वस्तु, देश, काल, परिस्थिति के प्रतिबन्ध से रहित बेजोड़, अनुपम जो प्रिय न लगे नामकरण के योग्य, कथनीय, विषयवस्तु रूचिकर, प्रिय, चाहा हुआ, इष्ट प्रेरणा (Motivation) ज्ञापन, जानकारी, प्रतिवेदन (Notice) वांछित, प्रिय, मनोज्ञ, इच्छित अभिन्नता या एकरूपता को द्योतित करने वाली दृष्टि शुद्धि; उत्तरोत्तर उन्नति; इन्द्र आदि देव सम्बन्धी सुख और चक्रवर्ती, वासुदेव, | बलदेव आदि मनुष्य सम्बन्धी सुख बहुत अधिक, अपरिमित | जो अपरिमित हो अरूपी, रूप-रस-गंध-स्पर्श से रहित भावनापूर्वक सहज ढंग से किया गया धार्मिक अनुष्ठान अमृत का कलश घाति कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानने वाले सशरीरी परमात्मा, अरहन्त, अरूहन्त, जिन आदि जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व अप्रतिम | अप्रियकारी भाषा अभिधेय अभिप्रेत अभिप्रेरण अभिसूचना अभीष्ट अभेददृष्टि अभ्युदय | अमित अमितकारी भाषा अमूर्त अमृत अनुष्ठान अमृतकुम्भ अरिहंत 772 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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