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करते हुए हमने यह बताया है कि सुख और शान्ति केवल बाह्य जीवन के ही तत्त्व नहीं हैं। यदि व्यक्ति स्वयं तनावग्रस्त होगा, तो वह दूसरों को भी तनावग्रस्त बनाएगा। अतः सम्यक् जीवन-प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रयत्न करना होगा। आध्यात्मिक-विकास से हमारा तात्पर्य केवल यह है कि व्यक्ति भौतिक इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं वासनाओं से ऊपर उठे और आत्मिक-शान्ति को प्राप्त हो। दूसरे शब्दों में, वह तनावमुक्त हो, इसी दृष्टि से आगे चलते हुए हमने यह स्पष्ट किया है कि आध्यात्मिक विकास के लिए साध्य साधन और साधक की एकरूपता आवश्यक है। आज साध्य को तो महत्त्व दिया जा रहा है, लेकिन साधन एवं साधक पर कोई विचार नहीं किया जा रहा है। जैन जीवन-दृष्टि हमें यह बताती है कि साध्य एवं साधन दोनों की पवित्रता पर ध्यान देना होगा और यह पवित्रता साधक के जीवन की पवित्रता पर आधारित होगी। मात्र साध्य को लक्ष्य में रखकर चलने से कहीं न कहीं गलत साधनों को अपनाने की बात भी उठ जाती है, जबकि जैनदृष्टि यह मानती है कि सम्यक् साधना से ही सम्यक् साध्य की प्राप्ति सम्भव है। यह सत्य है कि व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास और जीवन जीने के विभिन्न स्तर होते हैं। जैनधर्म में आध्यात्मिक-जीवन के इन विभिन्न स्तरों की विस्तार से चर्चा हुई है, प्रस्तुत अध्याय में भी हमने संक्षेप में आध्यात्मिक-विकास के इन विभिन्न स्तरों की चर्चा की है। जैन जीवन-दर्शन में आध्यात्मिक-विकास के जो विभिन्न स्तर बताए गए हैं, उनमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - ये तीन प्रमुख हैं। राग-द्वेष और कषायों की उपशान्तता एवं भौतिक आकर्षणों के प्रति निर्लिप्तता से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है. इसे जैनदर्शन में कषायों की मन्दता और राग-द्वेष की उपशान्तता के आधार पर समझाया गया है। इसमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन - ये चार स्तर बताए गए हैं, पुनः इन्हीं कषायों की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर जैनदर्शन में कर्म-क्षय की दस अवस्थाओं तथा गुणस्थानों की चौदह अवस्थाओं की चर्चा हुई है, जिसका हमने संक्षेप में वर्णन किया है। आध्यात्मिक-साधना की विसंगतियों की चर्चा करते हुए हमने यही बताया है कि राग-द्वेष की वृत्तियाँ एवं कषाय ही आध्यात्मिक-साधना में बाधा उत्पन्न करती हैं। अतः जैनधर्म और आचारशास्त्र के आधार पर हमने यह समझाने का प्रयत्न किया है कि आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन के लिए हमें आकांक्षाओं, इच्छाओं एवं अपेक्षाओं तथा राग-द्वेष एवं कषायों की वृत्ति से ऊपर उठना होगा और इनसे ऊपर उठने का प्रयत्न ही आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन का व्यावहारिक पक्ष है। इसे हमने गंभीरता से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। अन्त में यह बताया है कि व्यक्ति का आध्यात्मिक-विकास नहीं होता है, तो समग्र भौतिक एवं आर्थिक विकास निरर्थक हो जाता है। यदि मानव जाति को तनाव-मुक्त करना है, तो हमें व्यक्ति और समाज के भौतिक-विकास की अपेक्षा उनके आध्यात्मिक-विकास पर अधिक बल देना होगा, तभी हम व्यक्ति के जीवन का सम्यक् प्रकार से प्रबन्धन कर सकेंगे। इसी निष्कर्ष के साथ हमने यह अध्याय समाप्त किया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का यह अन्तिम अध्याय मुख्य रूप से उपसंहार रूप है, जिसके प्रारम्भ में जीवन-प्रबन्धन की आवश्यकता और महत्ता को स्पष्ट करते हुए उससे सम्बन्धित विविध आयामों की
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अध्याय 14 : जीवन-प्रबन्धन : एक सारांश
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