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जीवन को एक सम्यक दिशा प्रदान की जा सके और वह अपनी आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त कर सके। जैसा कि हमने पूर्व में इंगित किया है कि जीवन जीने के प्रेरक तत्त्वों में वासना और विवेक - दोनों ही काम करते हैं, किन्तु वर्तमान भौतिकवादी युग में वासना प्रधान बनती जा रही है और विवेक गौण होता जा रहा है। वासना की यह प्रधानता ही मनुष्य को पशु से भी नीचे गिरा देती है। पशु-जीवन में वासनाओं की प्रमुखता तो होती है, किन्तु वह अपनी वासनाओं को अपनी प्रकृति से नियंत्रित करता है। प्रकृति के नियमों को भंग करके वह अपनी वासना के पोषण का प्रयास नहीं करता, किन्तु मनुष्य की यह दुर्बलता है कि वह वासना के पोषण में प्राकृतिक मर्यादाओं को भी भूल जाता है और परिणामतः पशु से भी नीचे गिर जाता है। वर्तमान युग में जीवन-प्रबन्धन इसीलिए अत्यावश्यक बन गया है कि हम अपनी वासनाओं पर विवेक का अंकुश लगाना सीख लें, जीवन-प्रबन्धन वस्तुतः इसी कला को लेकर आगे आता है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में हमने जैनधर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि को सम्मुख रखते हुए जीवन-प्रबन्धन के कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्तों और उनके प्रायोगिक पक्षों को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। जैसा कि हमने पूर्व में इंगित किया था कि जीवन अपने आप में बहुआयामी है। अतः यह स्वाभाविक ही था कि जीवन के इन विविध आयामों को खोजकर, फिर उनके सन्दर्भ में जीवन जीने की शैली किस प्रकार हो, इसकी विस्तृत चर्चा की जाए। मानव-जीवन तथ्यों और आदर्शों का सुमेल है। हमारे लिए जीवन जीने में तथ्यों की पूर्ण उपेक्षा करना सम्भव नहीं है, फिर भी उन्हें न तो अनियंत्रित छोड़ा जा सकता है और न बिना विवेक के उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हुआ जा सकता है। अतः प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में हमने जीवन जिन आधारों पर खड़ा है, उनका आकलन करने का प्रयत्न किया है। फिर उसे किस प्रकार सुनियोजित किया जा सकता है, यह बताने का प्रयास किया है। साथ ही हमने जीवन जीने के सिद्धान्तों को व्यवहार में किस प्रकार उपस्थित किया जाए, यह भी देखने का प्रयत्न किया है और इस आधार पर व्यक्ति की जीवनशैली कैसी हो, इसका मार्गदर्शन करने का प्रयास किया है, ताकि व्यक्ति वासनाओं से ऊपर उठकर विवेकपूर्ण जीवन जी सके। यहाँ हमें यह स्पष्ट कर देना आवश्यक लगता है कि प्रस्तुत प्रसंग में वासना का अर्थ मात्र काम-वासना नहीं है, अपितु उसमें जीवन जीने के आवश्यक सभी तत्त्वों को समाहित किया गया है और उनका परिशोधन किस प्रकार हो या उनमें परिशोधन की सम्भावनाएँ कितनी हैं, यह देखने का प्रयत्न भी किया गया है। अतः प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में हमने न तो तथ्यों की उपेक्षा की है और न ही आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों का अपनयन किया है। हमने तो प्रबन्धन के रूप में आदर्श और यथार्थ के बीच एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है। साथ ही, व्यावहारिक स्तर पर यह भी देखने का प्रयत्न किया है कि वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक आदि जीवन-मूल्यों की कहीं उपेक्षा न हो। हमारे आदर्श मात्र आदर्श नहीं हैं, वे जीवन में व्यवहार्य भी हैं और इसीलिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रत्येक अध्याय में जहाँ एक ओर आध्यात्मिक जीवन-मूल्य को दृष्टि में रखा गया है, वहीं दूसरी ओर उनकी व्यावहारिक उपादेयता को भी ध्यान में रखा गया है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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