Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 856
________________ प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रथम अध्याय जीवन - प्रबन्धन का पथ का प्रारम्भ हमने मंगलाचरण से किया। उसके पश्चात् हमने जीवन- प्रबन्धन की आवश्यकता क्यों है, इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हुए कहा है कि जीवन का सन्तुलित, सुव्यवस्थित और समग्र विकास हो, यह प्रत्येक मानव की आन्तरिक इच्छा होती है और जीवन - प्रबन्धन वस्तुतः इसी लक्ष्य की पूर्ति का एक प्रयास है। इसमें प्रबन्धन का तात्पर्य जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों का उपयोग करने की कला ही है और इसी के माध्यम से व्यक्ति जीवन-मूल्यों को आत्मसात् कर सकता है 1 इसके पश्चात् हमने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि जीवन क्या है, जीवन के विविध घटक कौन-कौन से हैं, जीवन का लक्षण क्या है और जीवन का लक्ष्य क्या है। इस प्रसंग में जैनदर्शन की मान्यता बहुत स्पष्ट है कि जीने की प्रक्रिया जीवन है; यह जीवन मूलतः आत्म-संचालित होता है, फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा और शरीर का समन्वित रूप कहलाता है; जीवन का लक्षण प्राण है और प्राणशक्ति का संतुलित प्रवर्त्तन ही जीवन का परम लक्ष्य है । आगे, यह बताने का प्रयत्न किया है कि जीवन के अनेक आयाम (विशेषताएँ) हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर जीना ही जीवन की सम्यक् दिशा है। प्रस्तुत अध्याय में हमने सृष्टि के विविध जीवनरूपों की चर्चा भी की है और यह बताया है कि मानव-जीवन ही इस जगत् का सर्वश्रेष्ठ रूप है, क्योंकि इसी में जीवन -प्रबन्धन की सर्वाधिक संभावनाएँ छिपी हुई हैं। आगे, जीवन जीने के विविध तरीकों यानि जीवनशैलियों का वर्णन किया है, जिससे जीवन- प्रबन्धक अपने जीवन का सम्यक् मूल्यांकन कर नकारात्मक जीवनशैलियों से बचता हुआ सकारात्मक जीवनशैलियों को अपना सके और यही जीवन- प्रबन्धन का ध्येय भी है। जीवनशैलियों को परिष्कृत करना आसान नहीं है, अतः यहाँ प्रबन्धन की अवधारणा को समझना आवश्यक हो जाता है और इसीलिए प्रस्तुत अध्याय में जीवन - प्रबन्धन के सन्दर्भ में आधुनिक एवं जैन दृष्टिकोणों से प्रबन्धन के मूल स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयत्न भी किया गया है। सामान्यतया व्यक्ति प्रबन्धन का उपयोग औद्योगिक, व्यावसायिक अथवा किसी हद तक सामाजिक क्षेत्रों में ही करता है, अतः जीवन का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। इसी कारण हमने प्रस्तुत अध्याय जीवन-प्रबन्धन की मौलिक अवधारणा एवं जीवन - प्रबन्धन के सम्यक् स्वरूप को सुस्पष्ट करने का प्रयत्न भी किया है, जिसके अंतर्गत यह बताया है कि जीवन - प्रबन्धन की आवश्यकता आखिर क्यों है, इसका जीवन में क्या महत्त्व है, इसका मूल उद्देश्य क्या है और इस लक्ष्य कि संप्राप्ति में साधक एवं बाधक कारण कौन-कौन से हैं। जीवन अत्यन्त जटिल है, क्योंकि जीवन के शिक्षा, शरीर, वाणी, समाज आदि विविध पहलू एकक- दूसरे में गुँथे हुए हैं। इससे जीवन- प्रबन्धन अत्यन्त कठिन हो जाता है, अतः इस अध्याय में हमने जैन-दृष्टि को आधार बनाकर जीवन - प्रबन्धन की सरलतम प्रणाली कैसी होनी चाहिए, इस बात की चर्चा भी की है। आगे हमने भारतीय-दर्शनों और विशेष रूप से जैनदर्शन में वर्णित पुरूषार्थ-चतुष्टय यानि, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष पुरूषार्थों की अवधारणा को स्पष्ट किया है। यह बताने का विशुद्ध उद्देश्य मात्र इतना है कि व्यक्ति के समक्ष जीवन - विकास के इन चारों आयामों का जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व 4 Jain Education International For Personal & Private Use Only 748 www.jainelibrary.org

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