Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 861
________________ और साधना का कोई अर्थ है, तो यही है कि जो व्यक्ति, परिवार और समाज को जो तनाव से मुक्त रखे, वही सम्यक् साधना है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का अष्टम अध्याय पर्यावरण-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। व्यक्ति और समाज का विकास पर्यावरण से निरपेक्ष नहीं होता, अतः इस अध्याय में सर्वप्रथम हमने यह समझाने का प्रयत्न किया है कि पर्यावरण क्या है? वस्तुतः , पर्यावरण वह समग्र परिदृश्य है, जिसमें व्यक्ति के जीवन का विकास और निर्माण होता है। जिस प्रकार का पर्यावरण या परिवेश होगा, उसी के आधार पर व्यक्ति, समाज तथा संस्कृति का विकास होगा। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि अरब देश में शव को दफनाने की और भारत आदि में शव को जलाने की जो परम्पराएँ विकसित हुई हैं, उनका आधार वहाँ का पर्यावरण ही रहा है। रेतीले प्रदेशों में भूमि की विपुलता थी, किन्तु वन-सम्पदा का अभाव था, अतः उनके सामने शव को दफनाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। दूसरी ओर भारत जैसे वनों से परिपूर्ण देश में खुली भूमि की कमी और काष्ठ आदि की विपुलता के कारण यहाँ शवों को जलाने की परम्परा विकसित हुई। अतः यह एक सर्वमान्य तत्त्व है कि व्यक्ति, समाज और संस्कृति का विकास पर्यावरण-निरपेक्ष नहीं होता है। पर्यावरण से व्यक्ति का खान-पान और उसकी उपासना पद्धतियाँ भी प्रभावित होती हैं। जीवन में जल को महत्त्व देने के कारण हिन्दु-संस्कृति के तीर्थों का विकास मुख्यतः नदियों के किनारे हुआ, जबकि ध्यान-साधना पर बल देने वाले जैनधर्मदर्शन में तीर्थ क्षेत्रों के रूप में पहाड़ की चोटियों को अधिक पसन्द किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि पर्यावरण का सार्वजनिक, सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक महत्त्व है। प्रस्तुत अध्याय में हमने उसे ही इंगित करने का प्रयत्न किया है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि आज पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणामों से मानव-संस्कृति अत्यधिक प्रभावित हुई है और स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि यदि पर्यावरण प्रदूषण का गया तो मानव जाति का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है। ध्यान-साधनाएँ भी पर्यावरण के सुन्दर परिदृश्य में अधिक सहज और सफल होती हैं। अतः न केवल जीवन जीने के लिए, अपितु साधना के लिए भी पर्यावरण का अतिमहत्त्व है। पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणाम आज मानवता को कहाँ तक प्रभावित कर रहे हैं, यह चर्चा करते हुए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में यह दिखाया गया है कि जैनआचारमीमांसा में पर्यावरण-संरक्षण के तत्त्व प्राचीन काल से ही उपस्थित रहे हैं। साथ ही इस चर्चा के पूर्व इस बात को भी इंगित करने का प्रयास किया गया है कि पर्यावरण प्रदूषण के मूलभूत कारण क्या हैं और जैनआचारमीमांसा में उन कारणों के निराकरण का प्रयत्न किस रूप में हुआ है। जैनआचारमीमांसा का षट्कायिक जीवों की अहिंसा का सिद्धान्त पर्यावरण संरक्षण या पर्यावरण-प्रबन्धन का एक सम्यक उपाय है, क्योंकि जैन-परम्परा ने षट्जीवनिकायों में वनस्पति को भी जीवन का एक रूप माना है और उनकी हिंसा से बचने का निर्देश दिया है। आज वृक्षों के संरक्षण एवं वनों के विकास की जो बात कही जा रही है, उस सम्बन्ध में जैन-चिन्तक प्राचीन काल से ही जागरूक रहे हैं। जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने आत्मौपम्य-दृष्टि से सभी जीवनिकायों के संरक्षण की बात कही है। वे यह मानते रहे हैं कि पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि सभी 753 अध्याय 14 : जीवन-प्रबन्धन : एक सारांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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