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पश्चात् इस अध्याय में समय-प्रबन्धन किस प्रकार किया जा सकता है, इसके प्रायोगिक पक्ष को भी सामने रखा गया है और यह बताया गया है कि विविध क्षेत्रों में समय-प्रबन्धन के सन्दर्भ में किस प्रकार के आदर्श (Models) उपस्थित किए जा सकते हैं। इस अध्याय का सार यही है कि व्यक्ति समय का सम्यक् सदुपयोग करना सीखे और समय को बर्बाद होने से बचाए।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का पंचम अध्याय शरीर-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। शरीर वस्तुतः, जीवन जीने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। शरीर के अभाव में न जीवन जिया जा सकता है, न साधना की जा सकती है। अतः जैनआचारमीमांसा में शरीर–प्रबन्धन को विशेष महत्त्व दिया गया है। यह सत्य है कि शरीर साधना का साधन है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि साधन के अभाव में साध्य की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है। इसके पश्चात् इस अध्याय में शरीर के कुप्रबन्धन या अप्रबन्धन के दुष्परिणामों की विस्तार से चर्चा की गई है तथा यह बताया है कि आहार सम्बन्धी विसंगतियाँ किस प्रकार से हमारे जीवन को अपने साध्य से विमुख बना देती है। इस प्रसंग में हमने आहार, जल, प्राणवायु, श्रम-विश्राम, निद्रा, स्वच्छता, साज-सज्जा एवं काम-वासना सम्बन्धी विकृत आचारों की विस्तार से चर्चा करते हुए यह बताया है कि यदि शरीर का सम्यक् प्रबन्धन करना चाहते हैं, तो हमें विसंगतियों से बचना होगा। वर्तमान युग में भोगवादी संस्कृति के परिणामस्वरूप शरीर और उससे सम्बन्धित विविध पक्षों का सम्यक् प्रबन्धन नहीं हो पा रहा है। अतः आज शरीर को कुप्रबन्धन से बचाकर उसके सम्यक् प्रबन्धन की विशेष आवश्यकता है। अतः इसी क्रम में आगे आहार, जल, प्राणवायु, श्रम-विश्राम, निद्रा, स्वच्छता, साज-सज्जा एवं काम-वासना का नियंत्रण किस प्रकार से किया जा सकता है, इन तथ्यों को भी विस्तार से समझाया गया है। चूंकि शरीर और मन अन्योन्याश्रित हैं, अतः इसी अध्याय में हमने मनोदैहिक विकृतियों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि मनोदैहिक-प्रबन्धन किस प्रकार से हो सकता है। इसी प्रसंग में हमने शरीर-प्रबन्धन के प्रायोगिक पक्षों को भी स्पष्ट किया है और यह बताया है कि शरीर-प्रबन्धन के बिना धार्मिक और आध्यात्मिक साधनाएँ सम्भव नहीं हैं। अतः सम्यक् शरीर–प्रबन्धन एक आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का निवास सम्भव है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का षष्ठम अध्याय अभिव्यक्ति-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। इस प्रसंग में हमने सबसे पहले सांकेतिक-अभिव्यक्ति और भाषिक-अभिव्यक्ति के स्वरूप को स्पष्ट किया है और यह बताया है कि वाणी के सम्यक् प्रयोग के बिना व्यक्ति का जीवन पाशविकता की ओर बढ़ जाता है। अभिव्यक्ति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इसमें यह बताया गया है कि सांकेतिक-अभिव्यक्ति मूलतः निम्नस्तर के प्राणियों में पाई जाती है, जबकि सांकेतिक-अभिव्यक्ति के साथ-साथ भाषिक-अभिव्यक्ति विशेष रूप से मानव प्रजाति में ही पाई जाती है। वस्तुतः, मनुष्य की भाषिक-अभिव्यक्ति की शक्ति भी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। यहाँ पर यह समझना जरुरी है कि भाषिक-अभिव्यक्ति यदि सम्यक दिशा में नियोजित नहीं होती है, तो उसके भयंकर दुष्परिणाम भी सामने आते हैं, अतः इस अध्याय में भाषिक-अभिव्यक्ति का महत्त्व स्पष्ट करने के बाद असंयमित भाषिक-अभिव्यक्ति के दुष्परिणामों की विशेष रूप से चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि जैनआचारशास्त्र में भाषिक-अभिव्यक्ति का 751
अध्याय 14 : जीवन-प्रबन्धन : एक सारांश
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