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प्रति वैराग्य रहता है और 4) प्राणीमात्र पर दया रहती है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस दशा के साधक को 'अपुनर्बन्धक' कहा है। यह साधक ऐसी भावात्मक विशुद्धि को प्राप्त हो जाता है, जिससे पुनः कभी भी कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्धन न हो। इस दशा के तीन लक्षण होते हैं – 1) वह तीव्र भावों से पाप नहीं करता, 2) वह संसार के प्रति बहुमान नहीं रखता और 3) वह सर्वत्र उचित आचरण करता है। 151 उपाध्याय यशोविजयजी ने भी प्राथमिक साधक में तीन बातों का होना आवश्यक बताया है - 1) मोह की अल्पता, 2) आत्म-अभिमुखता तथा 3) कदाग्रह (पक्षपात) से मुक्तता।152
इस प्रकार, प्रथम स्तर में साधक को कषाय-मन्दता, मोक्षाभिलाषा, सरलता, पाप-भीरुता, आत्माभिमुखता आदि सद्गुणों से युक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। (2) सम्यक्त्व-सम्मुखता - इस स्तर के साधक को उचित बाह्य निमित्तों की पहचान करनी चाहिए। उसे सुदेव , सुगुरु एवं सुशास्त्र (सुधर्म) तथा उनके अनुयायियों (षडायतन) का समागम कर उनका उपदेश श्रवण करना चाहिए। साथ ही यह विचार करना चाहिए कि 'अहो! मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं थी। मैं तो भ्रमित होकर प्राप्त संयोगों में ही तन्मय होता रहा, परन्तु इस जीवन का थोड़ा ही काल अब शेष है और यहाँ मुझे सर्वनिमित्त भी सुलभ हैं, अतः मुझे इन बातों को बराबर समझना चाहिए, क्योंकि इनसे ही मेरा हित है।' ऐसा विचार कर आत्मा के लिए जो हितकारी है, उस मोक्षमार्ग का, देव-गुरु-धर्मादिक का, जीवादि नवतत्त्वों का तथा निज-पर का उपदेश सुनना चाहिए
और उसके चिन्तन-मनन एवं निर्णय का उद्यम करना चाहिए।153 इस प्रकार तत्त्वों को ग्रहण करने एवं उनका विचार करने से साधक को देशना-लब्धि (तृतीय लब्धि) की प्राप्ति होती है, जिसमें उसे आत्मान्वेषण के लिए विशेष चिन्तन करना चाहिए, जैसे – मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा शुद्ध स्वरूप क्या है, मैं क्यों दुःखी होता हूँ और दुःखी करने वाले सम्बन्धों को रखू या छोडूं इत्यादि। 154 जैसे-जैसे वह देशना को समझता जाता है, वैसे-वैसे उसे आप्तपुरूषों के वचनों के प्रति श्रद्धा, उनकी आज्ञा को स्वीकार करने में अपूर्व रुचि एवं स्वच्छन्दता का निरोध करने रूप उनकी भक्ति उत्पन्न होती है। श्रीमद्राजचन्द्र ने इसे व्यवहार सम्यग्दर्शन की दशा कहा है।155 (3) सम्यग्दर्शन के लिए तीव्र प्रयत्न करना - इस स्तर के साधक को जीवादि नवतत्त्वों का विशेष-विशेष चिन्तन-मनन करना चाहिए। इन नवतत्त्वों के आधार पर उसे स्व और पर के भिन्नत्व का बोध करते हुए अन्ततः एक आत्मस्वरूप को ही ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इस अभ्यास से ही आत्मानुभूति की प्राप्ति होती है। इस हेतु उसे लक्षण, नय, निक्षेप, अनुयोगद्वार आदि ज्ञान प्राप्ति के साधनों का भी सम्यक् उपयोग करना चाहिए। इस प्रयत्नात्मक दशा को ही प्रायोग्य-लब्धि (चतुर्थ लब्धि ) कहते हैं। यह वह अवस्था है, जिसमें जीव मिथ्यात्व के ग्रन्थिभेद के निकट पहुँच जाता है। उसके कर्मों की स्थिति एक कोटोकोटी सागरोपम से कुछ कम रह जाती है।156
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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