Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 840
________________ (ज) निर्जरातत्त्व - शुद्ध आत्मस्वभाव के आलम्बन के बल पर स्वरूप में स्थिरता की आंशिक वृद्धि एवं अशुद्ध अवस्था का आंशिक नाश होना भाव निर्जरा है और तदनुसार कर्मों का आत्मा से अंशतः झड़ना (क्षय होना) द्रव्य निर्जरा है। (झ) मोक्षतत्त्व - अशुद्ध अवस्था का सम्पूर्ण नाश होकर आत्मा की पूर्ण निर्मल पवित्र दशा का प्रकट होना भाव मोक्ष है तथा द्रव्य कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाना द्रव्यमोक्ष है। भाव मोक्ष को अरिहंत-अवस्था एवं द्रव्य मोक्ष को सिद्ध-अवस्था कहा जाता है। संवर और निर्जरा आत्मा की एकदेश स्वभाव अवस्थाएँ हैं और इसीलिए एकदेश उपादेय (ग्राह्य) हैं, जबकि मोक्ष आत्मा की परिपूर्ण स्वभाव अवस्था है और इसीलिए सर्वथा उपादेय है। इन नवतत्त्वों में से प्रथम दो तत्त्व द्रव्य के सूचक हैं और शेष सभी पर्यायों के। इन पर्यायों में से विकारी पर्यायों से छूटना और निर्विकारी पर्यायों की प्राप्ति करना आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है। ये निर्विकारी पर्यायें साधना के प्रारम्भ में संवर-निर्जरा रूप होती हैं और अन्ततः मोक्ष रूप में परिणत हो जाती हैं। यह मोक्ष पूर्ण आरोग्य और स्वस्थता की स्थिति है, जिसमें साधक को पूर्णानन्द की प्राप्ति होती है। इस प्रकार, इन नवतत्त्वों का बारम्बार चिन्तन-मनन करता हुआ साधक स्व और पर के भेदज्ञान का अभ्यास करता रहता है और फलस्वरूप आत्मा का सम्यक् श्रद्धान एवं सम्यग्बोध करता है, इसे ही क्रमशः सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। इससे आत्मरुचि की अभिवृद्धि होती है और साधक आत्मरमणता का बारम्बार अभ्यास करता हुआ अन्ततः सम्यक्चारित्र की प्राप्ति करता है। वस्तुतः उपर्युक्त कथन भेददृष्टि से किया गया है, सो समझने के लिए है। वास्तविकता तो यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र आदि सब आत्मा ही है। अतः आत्मा में भेद से परे जाकर एवं विकल्परहित होकर लीन हो जाना, यही आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन का हार्द है। =====4.>===== 38 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 734 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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