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द्रव्यत्व गुण से सम्बन्धित सिद्धान्त
★ प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय परिवर्त्तनशील है, अतः पर-पदार्थों से एवं उनकी नश्वर पर्यायों से मोह करना व्यर्थ है।
★ पर-पदार्थों के परिणमन का प्रवाह स्वतंत्र एवं सहज है, अतः उस प्रवाह को बदलने की चेष्टा करना व्यर्थ है ।
★ परिणमन होना द्रव्य का स्वभाव है, अतः इस परिणमन में सहज रहना ही श्रेयस्कर है। ★ वर्त्तमान दुःखमय संसारावस्था का नाश एवं सुख रूप सिद्धावस्था का प्रकट होना सम्भव प्रमेयत्व गुण से सम्बन्धित सिद्धान्त
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★ आत्मा के द्वारा आत्मा को जाना जा सकता है।
★ ज्ञाता (आत्मा) और ज्ञेय (अनात्मा) भिन्न-भिन्न होते हैं ।
★ आत्मा की महिमा निराली है, यह परद्रव्यों को भी जानती है और स्वद्रव्य को भी ।
अगुरुलघुत्व गुण से सम्बन्धित सिद्धान्त
★ चेतन सदा चेतन और जड़ सदा जड़ रहता है।
★ आत्मा के ज्ञानादि गुणों में से एक भी गुण कभी कम नहीं हो सकता ।
★ आत्मा में बाहर से कोई भी गुण या पर्याय न आते हैं और न जाते हैं, अतः मैं किसी का कर्त्ता, भोक्ता, स्वामी और अधिकारी नहीं हूँ ।
प्रदेशत्व गुण से सम्बन्धित सिद्धान्त
★ द्रव्य का आकार छोटा हो या बड़ा, इससे सुख - दुःख का सम्बन्ध नहीं है।
★ प्रत्येक द्रव्य अपने आकार की सीमा में ही रहता है, वह अन्य की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता ।
ऐसे अनेक प्रकार से षड्द्रव्यात्मक विश्व - व्यवस्था को स्वीकार कर आध्यात्मिक साधक को नवतत्त्वों का अनुशीलन करना चाहिए, जिससे उसकी मोक्षमार्ग की समझ और अधिक स्पष्ट हो सके । जैनदर्शन में इन नवतत्त्वों का वर्णन इस प्रकार किया गया है
(7) नवतत्त्वों का विषय, जैनदृष्टि का आधार
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जिस प्रकार किसी रोगग्रस्त व्यक्ति का इलाज करने के पूर्व चिकित्सक को तीन जानकारियाँ प्राप्त करनी आवश्यक है। रोगी कौन है, रोग के कारण क्या हैं और रोग निवारण कैसे सम्भव है, उसी प्रकार साधक को भी तीन प्रश्नों का निराकरण करना अनिवार्य है मैं कौन हूँ (दुःखी कौन है), मैं दुःखी क्यों होता हूँ और मैं सुखी कैसे हो सकता हूँ? इन तीन प्रश्नों का समाधान करने के लिए जैनाचार्यों ने नवतत्त्वों का वर्णन किया है ।
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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