________________
गुणों से सम्बन्धित सिद्धान्त ★ मैं (आत्मा) भी अनन्त गुणों का स्वामी हूँ, अतः पर की दासता व्यर्थ है। ★ प्रत्येक द्रव्य का प्रत्येक गुण अपना-अपना कार्य करता है, अन्य का नहीं। ★ मेरे (आत्मा के) अनन्तगुण भी अपना-अपना कार्य करते हैं, अतः पर के प्रति कर्ता-बुद्धि रखना व्यर्थ है।
पर्याय से सम्बन्धित सिद्धान्त ★ द्रव्य और गुण सदा निर्मल ही रहते हैं और पर्याय शुद्धाशुद्ध होती है। ★ मैं (आत्मा) भी द्रव्य और गुण की अपेक्षा से शुद्ध हूँ, पर्याय की अपेक्षा से वर्तमान में अशुद्ध हूँ। ★ पर्याय का स्वभाव परिवर्तनशील है। ★ मेरी (आत्मा की) पर्याय भी परिवर्तनशील होने से शुद्ध हो सकती है। ★ मैं अन्यों की समीक्षा करने के बजाय अपनी पर्यायों का अवलोकन करूँ और उनकी शुद्धि का प्रयत्न करूँ।
अस्तित्व गुण से सम्बन्धित सिद्धान्त ★ सभी द्रव्यों का अस्तित्व शाश्वत् है, मैं (आत्मा) भी जन्म-मरण से रहित हूँ। ★ अस्तित्व की अपेक्षा से सभी द्रव्य समान ही हैं। ★ मैं किसी को उत्पन्न नहीं कर सकता और न कोई मुझे। अतः माता-पिता, पुत्र-स्त्री आदि से
केवल संयोग सम्बन्ध व्यावहारिक-दृष्टि से है। ★ जब अस्तित्व त्रैकालिक है, तो सात प्रकार के भय करना व्यर्थ है - इहलोक-भय, परलोक-भय, मृत्यु-भय , अकस्मात्-भय, आजीविका भय , अगुप्ति-भय एवं अपमान-भय ।
__ वस्तुत्व गुण से सम्बन्धित सिद्धान्त ★ मैं किसी की रक्षा नहीं कर सकता और न कोई मेरी। ★ प्रत्येक द्रव्य अपनी प्रयोजनभूत क्रिया का कर्ता स्वयं है, अतः कोई भी पदार्थ जगत् में निरर्थक
नहीं है। ★ मैं (आत्मा) भी सभी प्रकार से स्वतंत्र हूँ, अतः परावलम्बन छोड़कर स्वावलम्बी बनना चाहिए। ★ परद्रव्य अपना कार्य करने के लिए स्वतंत्र है, अतः उनसे राग-द्वेष करना व्यर्थ है। ★ अरिहंतों और सिद्धों के समान मैं भी ज्ञान-दर्शन स्वभावी हूँ। ★ ‘जानना' मेरा (आत्मा का) कार्य है, अतः जानकर सुखी-दुःखी होना व्यर्थ है। ★ मेरी सीमा केवल जानना-देखना है, अतः मुझे ज्ञाता-दृष्टा या साक्षी भाव से जीना चाहिए।
731
अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org