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चारित्रिक-विकास के सभी उपक्रम सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के लक्ष्य से होने चाहिए। इस भूमिका के चारित्र को जैनाचार्यों ने व्यवहार-चारित्र की संज्ञा दी है। (2) अनन्तानुबन्धी कषाय से निवृत्त होना - साधक को केवल प्रथमस्तर के चारित्र को ही चारित्रिक विकास की इतिश्री नहीं मान लेना चाहिए। उसे द्वितीय स्तर में पहुँचकर शुभ से शुद्ध भावों की ओर गमन करने का प्रयत्न भी करना चाहिए। इस हेतु उसे मुख्य रूप से सांसारिक भोग-वासनाओं के प्रति उदासीनता लाना चाहिए और साथ ही मोक्षमार्ग के प्रति विशेष रुचिवन्त बनना चाहिए। भले ही वह सांसारिक प्रपंचों में व्यस्त हो एवं व्रतादि से युक्त न हो, फिर भी उसे सम्यग्ज्ञान के आधार पर अपने दोषों को दोष रूप में महसूस करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, उसे कम से कम राग का राग (राग को अच्छा मानना) छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे बारम्बार प्राप्त तत्त्वज्ञान के आधार पर भेदज्ञान का अभ्यास करते रहना चाहिए। इस अभ्यास के बल पर ही वह अन्ततः आत्मस्वरूप को उपलब्ध कर लेता है अर्थात् सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है। इसके साथ ही उसका स्वरूपाचरण चारित्र (सम्यक्चारित्र का एक प्रकार) प्रारम्भ हो जाता है। (3) अप्रत्याख्यानी कषाय से निवृत्त होना – सम्यग्दर्शन होने के बाद भी शुभाशुभ भावों का अस्तित्व बना रहता है और इससे साधक वीतरागदशा की प्राप्ति से दूर रहता है। इस तृतीय स्तर में पहुँचकर साधक को वीतरागता की दिशा में विशेष पुरूषार्थ करना चाहिए। उसे सुदेव, सुगुरू एवं सशास्त्र के निकट रहने का एवं उन पर पर्ण आस्था रखने का प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही, उसे बारम्बार हेय-ज्ञेय-उपादेय का चिन्तन करना चाहिए और इस आधार पर हेय अर्थात् अनावश्यक तथ्यों के परित्याग की भावना करनी चाहिए। उसे बाह्य जगत् से निवृत्ति एवं आत्मा में प्रवृत्ति करने का बारम्बार अभ्यास करना चाहिए। इससे क्रमशः उसका आत्मबल विकसित होता जाता है और अन्ततः अप्रत्याख्यानी कषाय पर विजय प्राप्त हो जाती है। तत्पश्चात् उसे बाह्य में अणुव्रतों को ग्रहण करना चाहिए एवं भीतर में अर्थ एवं भोग की आसक्ति का सीमांकन कर लेना चाहिए। इसके साथ-साथ उसकी आत्मस्थिरता भी और अधिक बढती जानी चाहिए। इस दशा को ही संयमासंयम चारित्र कहते
(4) प्रत्याख्यानी कषाय से निवृत्त होना - साधक को केवल प्रतिबन्धों के सीमाकरण से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, अपितु सर्वथा अप्रतिबद्ध जीवन जीने का प्रयत्न भी करना चाहिए। वस्तुतः, गृह-कुटुम्ब आदि को काजल की कोठरी की उपमा दी गई है, अतः साधक को विशिष्ट आत्मसाधना के लिए शरीर, कुटुम्ब एवं भोगों के प्रति उदासीनता उत्पन्न करनी चाहिए और जैनशास्त्रों में निर्दिष्ट प्रतिमाओं को क्रमशः ग्रहण करना चाहिए। अन्ततः उसे सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन पूर्वक प्रत्याख्यानी कषाय पर विजय प्राप्त कर सर्वविरति चारित्र अंगीकार करना चाहिए।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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