Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 845
________________ (5) तीव्र संज्वलन कषाय से निवृत्त होना – सर्वविरति जीवन अंगीकार करने के साथ ही साधक गृहस्थ सम्बन्धी प्रपंचों से मुक्त होकर मुनि (श्रमण) बन जाते हैं। उनका कर्त्तव्य होता है कि वे अधिक से अधिक आत्म-रमणता एवं आत्म-स्थिरता के साथ जिएँ और सहज ही हिंसादि पाँच दोषों से दूर रहें, परन्तु वे असावधानीवश अपने शुद्धोपयोग में नहीं रह पाते। इस असावधानी का मूल कारण है उनकी तीव्र संज्वलन कषाय। इसके कारण वे शुभ भावपूर्वक बाह्य प्रवृत्तियों में जुड़ जाते हैं और कदाचित् उत्तरगुणों में अल्पदोष (अतिचार) भी लगा देते हैं। इन दोषों से मुक्ति हेतु उन्हें आत्मशुद्धि के विविध अनुष्ठान करने चाहिए, जैसे - प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान आदि। इन अनुष्ठानों को भावपूर्वक करते हुए उन्हें पुनः शुद्धोपयोग में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए। (6) मन्द संज्वलन कषाय से निवृत्त होना - वे मुनि अप्रमत्त होकर जब शुद्धोपयोग की साधना करते हैं, तब भी अचेतन मन में अव्यक्त रूप से शुभाशुभ भावों की धारा प्रवाहित होती रहती है। इसका मूल कारण है - मन्द संज्वलन कषाय।161 यह कषाय वीतरागदशा की अभिव्यक्ति में अन्तिम बाधा है। अतः मुनि को विशेष तप आदि प्रवृत्तियों से जुड़कर आत्मविशुद्धि का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। अंतरंग में विद्यमान मोह की महासत्ता का समग्र विनाश करने के लिए विपरीत परिस्थितियों में भी समताभाव से जीने का अभ्यास करना चाहिए। उन्हें परिषह-जय एवं उपसर्ग-जय (विविध प्रतिकूल परिस्थितियों में समताभाव) के लिए सदैव सजग रहना चाहिए। इससे अंतरंग विशुद्धि अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है और साधक क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर कषाय-विजेता बन जाता है। इसे ही यथाख्यात चारित्र या वीतराग चारित्र कहते हैं। इस प्रकार, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की एकता साधक का मोक्षमार्ग बन जाती है और इन तीनों की पूर्ण विकसित अवस्था ही मोक्ष कहलाती है। वस्तुतः, अभेद-दृष्टि से देखें, तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र तथा मोक्ष और कुछ नहीं, केवल आत्मा की आत्मा में अवस्थिति है और यही जीवन-प्रबन्धन का अन्तिम उद्देश्य भी है। =====4.>===== 739 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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