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13.6 आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन का प्रायोगिक-पक्ष
पूर्व में हमने आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष को जाना। इस बात को गहराई से समझा कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का क्या स्वरूप है और किस प्रकार से विश्व-व्यवस्था एवं नवतत्त्वों का आलम्बन लेकर इस रत्नत्रय की प्राप्ति सम्भव है। अब इस बात की चर्चा की जा रही है कि रत्नत्रय की प्राप्ति का प्रायोगिक रूप क्या हो, कैसे सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़कर व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति कर सकता है। यहाँ यह भी समझना होगा कि जिस तरह मार्ग का जानकार समुचित प्रयत्न किए बिना गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता, अनुकूल वायु के बिना जलयान इच्छित लक्ष्य को नहीं पा सकता, उसी तरह शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी सम्यक् प्रयोग से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करा सकता।47
____ आगे, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिए उचित अभ्यास के क्रम को स्पष्ट किया जा रहा है। अनुकूलता की दृष्टि से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का पृथक्-पृथक् विवेचन किया जा रहा है। 13.6.1 सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति का अभ्यास-क्रम
आध्यात्मिक साधना के विकास के लिए सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होना नींव डालने के समान है। चूंकि ये दोनों युगपत् (साथ-साथ) होते हैं, अतः इनका वर्णन भी साथ-साथ ही किया जा रहा है। इनके प्रकटीकरण के लिए साधक को अनुक्रम से निम्न अभ्यास करना चाहिए - (1) प्राथमिक भूमिका का निर्माण करना – सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम उचित पात्रता का विकास करना आवश्यक है। जैनशास्त्रों के अनुसार, इस विकास का अधिकारी वही व्यक्ति है, जो क्षयोपशम-लब्धि (सम्यग्दर्शन हेतु आवश्यक पाँच लब्धियों में से प्रथम) से युक्त हो। ऐसा व्यक्ति ज्ञानावरणादि कर्मों का विशेष क्षयोपशम हो जाने से तत्त्व-विचार करने में समर्थ होता है। 148 जो जीवन-प्रबन्धक इस क्षयोपशम-लब्धि से सम्पन्न है, उसे इसका उपयोग सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की भूमिका तैयार करने के लिए करना चाहिए। इस हेतु उसे अर्थ और भोग की निरर्थकता का चिन्तन-मनन करना चाहिए और इनके प्रति रुचि को अल्प करते जाना चाहिए। इससे मोहात्मक वृत्तियाँ मन्द होती हैं और क्रोधादि काषायिक परिणामों की शुद्धि होती है। इस दशा को ही विशुद्धि-लब्धि (द्वितीय लब्धि) कहते हैं।149 श्रीमद्राजचन्द्र ने इस दशा के चार लक्षण बताए हैं150 -
कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष ।
भवे खेद प्राणी दया, त्यां आत्मार्थ निवास।। अर्थात् जो इस स्तर का साधक होता है, उसके चार लक्षण होते हैं - 1) उसकी कषाय उपशान्त होती है, 2) उसे मोक्ष-पद के सिवाय अन्य किसी पद की अभिलाषा नहीं होती, 3) संसार के
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अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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