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वस्तुतः , यह प्रमाद अत्यल्प ही होता है, फिर भी साधक को अपने आत्मस्वरूप में रमणता के लिए बाधक होता है, इससे प्रभावित होकर उसके शुद्धोपयोग (ज्ञाता-दृष्टा भाव) का घात होता है। कहा भी गया है - आत्महित का विस्मरण होना प्रमाद है अथवा आत्महित के कार्यों में असावधानी होना (कुशलेषु अनादरः) प्रमाद है।" इस प्रमाद के पन्द्रह भेद हैं – चार विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा एवं देशकथा), पाँच इन्द्रियों के विषय, चार कषाय (क्रोध, मान, माया एवं लोभ) निद्रा एवं स्नेह/मद्य। ज्ञातव्य है कि जो प्रमाद से युक्त होता है, उसमें कषाय एवं योग भी रहते ही हैं। (4) प्रमादरहित आत्मा - यह आध्यात्मिक साधना का चतुर्थ स्तर है, जिसमें साधक प्रमाद पर विजय प्राप्त कर लेता है, किन्तु अल्प कषाय (संज्वलन कषाय/नो कषाय) का दोष विद्यमान रहता है। आत्मा के क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप परिणामों को कषाय कहते हैं। इन क्रोधाादि चारों में से प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद होकर सोलह तथा हास्यादिक नौ नोकषाय जुड़कर कषाय के कुल पच्चीस भेद होते हैं। इन सभी कषायों से आध्यात्मिक साधना बाधित होती है, साधक समत्वभाव में नहीं रह पाता।
इस स्तर के साधक की कषाय अत्यल्प रह जाती है, उसमें केवल संज्वलन कषाय एवं नोकषायों की उपस्थिति होती है, ये कषाय भी उसकी आत्मपूर्णता या वीतरागदशा की प्राप्ति में बाधक होती हैं। ज्ञातव्य है कि संज्वलन कषाय की विद्यमानता में योग भी रहता ही है। (5) कषायरहित आत्मा - इस अवस्था में पहुँचकर साधक की कषाय पूर्णतः क्षीण (क्षय) हो जाती है। वह आध्यात्मिक-विकास के साध्य रूप अरिहन्त अवस्था को प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाता है। फिर भी, शरीर से युक्त होने के कारण योग अर्थात् आत्मिक प्रदेशों का परिस्पन्दन (चंचलता/कम्पन) बना रहता है, जो इस परम उत्कृष्ट स्थिति में बाधक तो नहीं होता,62 फिर भी उसके सद्भाव में ईर्यापथिक बन्ध (क्षणिक बन्ध) चलता रहता है और सिद्ध अवस्था की प्राप्ति नहीं हो पाती। (6) योगरहित आत्मा - यह आध्यात्मिक साधना का अन्तिम शिखर है, जिसे सिद्धावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में योग (द्रव्य से मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति एवं भाव से आत्म-प्रदेशों का परिस्पंदन) भी समाप्त हो जाते हैं और आत्मा अडोल, अकम्प होकर सादि-अनन्त काल तक परमानन्द की प्राप्ति करती रहती है।
इन मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूप पाँच भावों का उल्लेख समवायांगसूत्र, ऋषिभाषित, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है।63
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अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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