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विश्वास या प्रतीति बनाने से है, जैसे
'यह ऐसा ही है'। मोक्षमार्ग की दृष्टि से, जब तक मान्यता विपरीत बनी रहती है, तब तक मिथ्यादर्शन नाम पाती है, परन्तु जब यह सही हो जाती है, तब सम्यग्दर्शन कहलाती है । इस दशा की प्राप्ति हेतु पूर्व में साधक देव - गुरु-धर्म के प्रति समर्पित होता है, उनके द्वारा उपदिष्ट विश्व - व्यवस्था को समझता है और उसमें प्रयोजनभूत नवतत्त्वों पर सच्ची श्रद्धा करता है, फिर इनमें छिपी स्व और पर की पहचान का सम्यक् भेदज्ञान कर उस पर आस्था करता है। ऐसा करता हुआ अन्ततः अपनी आत्मा का सम्यक् श्रद्धान करता है । इस आत्म-श्रद्धान को ही निश्चय-दृष्टि से सम्यग्दर्शन कहते हैं एवं इसकी पूर्ववर्ती अवस्थाओं को व्यवहार - दृष्टि से सम्यग्दर्शन कहते हैं।
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(ख) सम्यग्ज्ञान
यह आत्मा के 'ज्ञान' नामक गुण की स्वभाव पर्याय है। ज्ञान गुण के द्वारा ही आत्मा किसी विषय या वस्तु के बारे में जानने, देखने, सोचने आदि की क्रिया करती है । अध्यात्म के क्षेत्र में ज्ञान का सम्बन्ध मूलतः शास्त्रज्ञान से नहीं, अनुभूति ज्ञान से होता है। मोक्षमार्ग की दृष्टि से, जब तक यह ज्ञान विपरीत होता है, तब तक मिथ्याज्ञान नाम पाता है, परन्तु यही ज्ञान जब मोक्षमार्ग के अनुकूल हो जाता है, तब सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु साधक पूर्व में देव - गुरु-धर्म के उपदेशों को सम्यक्तया श्रवण करता है, उन पर उचित चिन्तन-मनन कर विश्व के यथार्थ स्वरूप को समझता है, फिर उसमें प्रयोजनभूत नवतत्त्वों को सम्यक्तया ग्रहण करता है, फिर इनमें निहित स्व और पर की सच्ची समझ बनाता है एवं अन्ततः भेदज्ञान के बल पर आत्मा की सम्यक् अनुभूति करता है। इस आत्मज्ञान या आत्मबोध की स्थिति को ही निश्चय - दृष्टि से सम्यग्ज्ञान कहते हैं एवं इसकी पूर्ववर्त्ती अवस्थाओं को व्यवहार - दृष्टि से सम्यग्ज्ञान कहते हैं ।
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मूलतः सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन दोनों का प्रकटीकरण एक साथ ही होता है। निश्चय सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन के होने पर ही जीव की आत्मरुचि बढ़ती है एवं विशिष्ट विवेक की जागृति होती है और वह चारित्रमोह पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर देता है, परिणामतः सम्यक्चारित्र रूप शुद्ध - पर्याय का प्रादुर्भाव होता है ।
(ग) सम्यक्चारित्र
यह आत्मा के ' चारित्र' नामक गुण की निर्मल पर्याय है । चारित्र गुण वह शक्ति है, जिसके द्वारा जीव अशुभ, शुभ या शुद्ध भाव करता है। मोक्षमार्ग की दृष्टि से, जब तक जीव को सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान नहीं होता, तब तक उसमें शुभ - अशुभ भावों का संचार होता रहता है, जिसे मिथ्याचारित्र कहते हैं, परन्तु जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रकट हो जाते हैं, तब शुद्ध भाव रूप सम्यक्चारित्र का प्रादुर्भाव होता है । इस दशा की प्राप्ति हेतु साधक सर्वप्रथम अशुभ भावों से निवृत्त होकर शुभ भावों में प्रवृत्त होता है, इसे व्यवहार दृष्टि से सम्यक्चारित्र कहा जाता है ।
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सम्यक्चारित्र की यह विशेषता है कि इसकी मात्रा क्रमशः बढ़ती जाती है। यह सम्यग्दर्शन से अध्याय 13: आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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