Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 831
________________ विषय-सुख के दोष मोक्ष-सुख के गुण 16) यह पाप कर्मों का बन्ध करने वाला है। यह सब कर्मों का क्षय करने वाला है। 17) यह तन, मन एवं आत्मा को रोगी बनाने वाला है। यह सभी को आरोग्य एवं स्वस्थता प्रदान करने वाला है। 18) यह हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह के दोषों को यह सभी दोषों से मुक्ति दिलाने वाला है। बढ़ाने वाला है। 19) यह देश, काल, परिस्थिति एवं व्यक्ति की रुचि के सापेक्ष है। यह परद्रव्यों एवं परभावों से निरपेक्ष है। 20) यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को दूषित करता है। यह निष्कलंक और निर्दोष होता है। 21) यह पर्यायदृष्टि से होता है। यह द्रव्यदृष्टि से मिलता है। 22) यह राग-द्वेष पूर्वक होता है। यह विरागता और वीतरागता के साथ होता 23) यह सदैव अपूर्ण होता है। 24) यह दुर्गतियों में भटकाता है। यह सदैव परिपूर्ण होता है। यह परमगति में ले जाता है। इस प्रकार, मोक्ष-सुख एवं विषय-सुख का संक्षेप में तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया। निष्कर्ष यह है कि विषयसुख अनेक प्रकार के दोषों से युक्त होता है और इसीलिए मोक्षसुख ही सर्वथा आत्महितकारी है। अतः जीवन-प्रबन्धक को मोक्ष प्राप्ति का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। (4) मोक्ष का मार्ग मोक्ष प्राप्ति के लिए मोक्ष का सम्यक् मार्ग जानना अत्यावश्यक है। वस्तुतः, आत्मा सच्चिदानन्दमय, स्व–पर प्रकाशक, अजर-अमर-अविनाशी, देहादि संयोगों से रहित, ज्ञानादि अनन्तगुणों का पिण्ड, शुद्ध स्वरूप है। इस शुद्ध-स्वरूप का आश्रय लेकर उत्पन्न होने वाली ज्ञाता-दृष्टा या साक्षी भाव की प्रवृत्ति ही मोक्ष-प्राप्ति का मूल मार्ग है।122 इस मोक्षमार्ग में बाधा रूप आत्मा के ही राग-द्वेष और अज्ञान हैं, इनसे निवृत्त होकर ही मोक्षमार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है।123 इन बाधाओं को ही सर्वसामान्य रूप से 'मोह' कहा जाता है। मोह का तात्पर्य केवल राग, प्रीति, स्नेह से नहीं है। मोह के अन्तर्गत तो आत्मा के सभी विकारी परिणामों का समावेश हो जाता है। मोह का एक अर्थ भ्रम या कल्पना भी माना गया है और इस दृष्टि से आत्मा के सभी भ्रमित परिणाम मोह हैं। इस आधार पर मोक्षमार्ग और कुछ नहीं, बस! मोह से निवृत्त होने की प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में, भ्रमपूर्ण परिणामों से छूटकर वास्तविकता में जीने की दिशा में प्रवृत्त होना ही मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग को और गहराई से समझाने के लिए जैनाचार्यों ने मोह के दो मुख्य भेद बताए हैं - दर्शनमोह और चारित्रमोह। (क) दर्शनमोह - यह आत्मा के दृष्टिकोण को भ्रमित बनाता है, इसके सद्भाव में आत्मा को 725 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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