Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 829
________________ सकता है। (2) मोक्ष का स्वरूप मोक्ष का शाब्दिक अर्थ है – 'मुक्ति' और इसी आधार पर, तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, आत्मा की सम्पूर्ण कर्मों से मुक्ति मोक्ष है। 113 नियमसार में कहा गया है - 'सुख-दुःख, पीड़ा-बाधा एवं जन्म-मरण से छुटकारा मोक्ष (निर्वाण) है। 114 अन्यत्र यह भी कहा गया है – 'इन्द्रिय-विषयों की इच्छा और उपसर्ग, मोह और विस्मय, निद्रा, भूख और प्यास का अभाव हो जाना मोक्ष है। 115 उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार - 'जिसे महर्षि प्राप्त करते हैं, वह स्थान मोक्ष है, जो अबाध, सिद्धि , लोकाग्र , क्षेम (मंगल), शिव (कल्याण) और अनाबाध आदि नामों से प्रसिद्ध है।'110 इनसे स्पष्ट है कि मोक्ष एक स्थान भी है और स्थिति (आत्मावस्था) भी। स्थान के रूप में यह लोक का अग्र (उच्चतम) भाग है और स्थिति की अपेक्षा से यह आत्मा की सर्वविभावों - क्रोधादि परिणामों, सर्वकर्मों, देहादि बाह्य संयोगों, सर्वदुःखों से मुक्त होने की अवस्था है। संक्षेप में, ‘मो' का अर्थ है, 'मोह' एवं 'क्ष' का अर्थ है 'क्षय', अतः मोह यानि भ्रम, कल्पना, अवास्तविकता का क्षय (नाश) हो जाना मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ केवल निषेधात्मक (नास्तिरूप) ही नहीं है। यह मानना भूल होगी कि मोक्ष शून्यावस्था है, क्योंकि मोक्ष का अपना विधेयात्मक (अस्तिरूप) वैशिष्ट्य भी है। आप्तमीमांसावृत्ति के अनुसार – ‘स्वात्मा की उपलब्धि मोक्ष है'।" ज्ञानार्णव के अनुसार – ‘जो संसार का प्रतिपक्षी है, वह मोक्ष है। जो चिदानन्दमयी सर्वोच्च (परिपूर्ण) दशा है, वह मोक्ष है। जो अतीन्द्रिय, अनुपम, अविच्छिन्न, स्वाभाविक , विषयातीत, पारमार्थिक सुख रूप है, वह मोक्ष है। 118 तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है – मोक्ष वह अवस्था है, जिसमें आत्मा क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान), क्षायिकदर्शन (केवलदर्शन), क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र (वीतरागता), क्षायिकदान, क्षायिकलाभ , क्षायिकभोग , क्षायिकउपभोग एवं क्षायिकवीर्यादि से परिपूर्ण हो जाती है। इस प्रकार मोक्ष आत्मा की पूर्ण शुद्ध , स्वतंत्र एवं स्वाभाविक अवस्था है। (3) मोक्ष में ही परम सुख यह बारम्बार कहा जाता है कि मोक्ष का सुख एक विशिष्ट सुख है, विषय सुख इसके समक्ष तुच्छ है। अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है कि मोक्ष का सुख श्रेष्ठ है, तो क्यों है? जैनदर्शन मूलतः आध्यात्मिक विचारधारा है, इसमें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष पुरूषार्थों का गहराई से विश्लेषण किया गया है। यद्यपि चारों पुरूषार्थों का उद्देश्य दुःख से मुक्ति एवं सुख की प्राप्ति ही है, फिर भी एकमात्र मोक्ष ही ऐसा पुरूषार्थ है, जो अपने उद्देश्य की सम्यक पूर्ति करता है। प्रशमरति प्रकरण में कहा गया है – काम पुरूषार्थ दुःख का हेतु होने से दुःख रूप है, अर्थ पुरूषार्थ उपार्जन, रक्षण एवं विनाश के प्रसंगों में दुःख का कारण बनता है और धर्म (पुण्यानुबन्धी) का फल अर्थ एवं काम होने से वह भी दुःख हेतु ही है, अतः सर्वथा अविनाशी और सुख-स्वरूप होने के कारण मोक्ष ही परम पुरूषार्थ है। 120 723 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900