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एक भिन्न दृष्टिकोण से भी इस तथ्य को समझा जा सकता है। यदि हम दुःख का मनोवैज्ञानिक कारण खोजें, तो वह इच्छा, तृष्णा एवं आकांक्षा ही है। जैसे ही बाह्य पदार्थों को जानकर आत्मा में उनके प्रति इष्ट-अनिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है, वैसे ही इच्छाओं का जन्म होता है और आत्मा में दुःख की अनुभूति होने लगती है। अतः दुःख का इच्छाओं से सीधा सम्बन्ध है। दुःख से मुक्ति के लिए व्यक्ति चारों पुरूषार्थों में से किसी न किसी पुरूषार्थ का आश्रय लेता है। इन पुरूषार्थों की दिशाओं में मूलभूत अन्तर है। अर्थ एवं काम इच्छाजन्य दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए इच्छापूर्ति का प्रयत्न करते हैं। धर्म इच्छाओं को परिवर्तित (सात्विक) करने का प्रयत्न करता है। किन्तु इन तीनों पुरूषार्थों से इच्छाएँ सदा के लिए समाप्त नहीं हो पाती, अतः मोक्ष-पुरूषार्थ इच्छापूर्ति के बजाय इच्छाओं से मुक्ति का प्रयत्न करता है। इसके पीछे सिद्धान्त यह है कि जितनी-जितनी इच्छाएँ मिटती जाती हैं. उतनी-उतनी दुःखों से मुक्ति भी मिलती जाती है, अन्ततः पूर्ण इच्छारहित अवस्था आने पर परमसुख की अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार विषय-सुख, सुख का केवल बाह्य उपचार करता है, जबकि मोक्षसुख दुःख के कारणों को मूल से हटाकर स्थायी सुख की प्राप्ति कराता है। यही कारण है कि मोक्ष सुख को ही जैनदर्शन में परमसुख कहा जाता है। निम्न तालिका के माध्यम से विषय-सुख की तुलना में मोक्ष-सुख में निहित गुणों को स्पष्ट किया जा रहा है।21 -- विषय-सुख के दोष
मोक्ष-सुख के गुण 1) यह प्रतिसमय क्षीण होता है और अन्ततः समाप्त हो जाता है। यह अक्षय होता है और सदाकाल बना रहता
क्र.
है।
2) यह अन्त में नीरस हो जाता है।
इसकी सरसता सदैव बनी रहती है। 3) यह आरोपित सुख होता है।
यह वास्तविक होता है। 4) यह पराधीन सुख है।
यह स्वाधीन सुख है। यह आत्मा को विकारी बनाता है।
यह निर्विकारी बनाता है। 6) यह जड़ता लाता है।
यह ज्ञानमय बनाता है। यह श्रमसाध्य है।
यह सहज है। 8) यह सीमित होता है।
यह असीम होता है। इसके आदि और अन्त में दुःख ही दुःख है और मध्य में क्षणिक इसके आदि, मध्य एवं अन्त में सुख ही सुख सुखाभास है।
है। 10) यह बाधा (अन्तराय) से युक्त होता है।
यह सदा निराबाध होता है। 11) इसके भोग से शक्ति का क्षय होता है।
इससे शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। 12) यह पूर्वकृत पुण्य पर निर्भर होता है।
यह केवल आत्मनिर्भर होता है। 13) यह सुख निजस्वरूप का भान भुलाता है।
यह निजस्वरूप का स्मरण कराता है। 14) यह आकुलता युक्त होता है।
यह निराकुल होता है। 15) यह भय और शोक को जन्म देता है।
यह अभय और अशोक बनाता है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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