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13.5 जैनधर्म और आचारशास्त्र के आधार पर आध्यात्मिक - जीवन - 3
- प्रबन्धन
प्रस्तुत अध्याय में सर्वप्रथम आध्यात्मिक - विकास का सामान्य स्वरूप बताया गया। उसके पश्चात् आध्यात्मिक - विकास के आवश्यक घटक साधक साधन और साध्य के स्वरूप एवं इनकी पारस्परिक एकरूपता को स्पष्ट किया गया। फिर आध्यात्मिक साधकों एवं उनकी साधना के विभिन्न स्तरों की चर्चा की गई। तत्पश्चात् आध्यात्मिक साधना में अवरोध उत्पन्न करने वाले मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र के स्वरूप की चर्चा की गई। अब, आध्यात्मिक विकास में सहायक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है। साथ ही, इन तीनों के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्षों को भी स्पष्ट किया जा रहा है।
13.5.1 आध्यात्मिक - जीवन - प्रबन्धन का सैद्धान्तिक -पक्ष
जिस प्रकार, पूर्व अध्यायों में सैद्धान्तिक - पक्ष (Theoretical Aspect ) के पश्चात् प्रायोगिक -पक्ष (Practical Aspect) को समझाया गया है, उसी प्रकार से प्रस्तुत अध्याय में भी किया गया है। सैद्धान्तिक पक्ष के अन्तर्गत आध्यात्मिक - प्रबन्धन क्या है, इसकी आवश्यकता क्यों है और इसके लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इत्यादि प्रश्नों का सैद्धान्तिक समाधान किया गया I
(1) आध्यात्मिक - विकास - प्रबन्धन की मूल अवधारणा
आध्यात्मिक-विकास- प्रबन्धन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा आध्यात्मिक विकास के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके। चूँकि आध्यात्मिक - जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष है, अतः हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन वस्तुतः मोक्षमार्ग का प्रबन्धन है। यह धर्म, अर्थ और काम से ऊपर उठकर मोक्ष-प्राप्ति की प्रक्रिया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र बाधक कारण हैं, ये तीनों मोक्षमार्ग नहीं, संसार - परिभ्रमण के मार्ग हैं, अतः साधना के द्वारा इन तीनों बाधक कारणों से मुक्त होने की प्रक्रिया को भी आध्यात्मिक - विकास - प्रबन्धन कहा जा सकता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को मोक्ष - प्राप्ति का साधक कारण बताया गया है। कहा गया है कि ये तीनों रत्नत्रय हैं और इनकी पूर्णता ही मोक्ष है, अतः यह भी कहा जा सकता है कि इन तीनों की प्राप्ति की प्रक्रिया आध्यात्मिक - विकास - प्रबन्धन है। एक अन्य दृष्टिकोण से यह भी कहा जा सकता है कि आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा को स्थित करने एवं परभावों से आत्मा को मुक्त करने की प्रक्रिया का नाम आध्यात्मिक विकास - प्रबन्धन है। एक और दृष्टिकोण से मोक्ष आत्मिक तनाव एवं क्षोभ से मुक्ति है, अतः जिसके द्वारा व्यक्ति और समाज तनावों से मुक्त बनें, वही आध्यात्मिक-विकास- प्रबन्धन है ।
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कहा जाता है 'प्रयोजनं विना मन्दोऽपि न प्रवर्त्तते' अर्थात् उद्देश्य के बिना मन्दबुद्धि भी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । अतः यह आवश्यक हो जाता है कि मोक्ष के स्वरूप को समझते हुए सर्वप्रथम यह जाना जाए कि वह अन्य पुरुषार्थों से श्रेष्ठ क्यों है? तभी कोई साधक आध्यात्मिक - विकास को अपना जीवन-लक्ष्य बनाकर उसके सम्यक् प्रबन्धन की दिशा में अग्रसर हो जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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