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नौकर-चाकर आदि पर - द्रव्यों से भी अपना आत्मीय सम्बन्ध मान लेता है और इस प्रकार 'ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ, मैं इनका स्वामी हूँ, मैं इनका अधिकारी हूँ, मैं इनके सुख - दुःख का कर्त्ता एवं भोक्ता हूँ' आदि सम्बन्धों का मिथ्या आरोपण करता रहता है । पारमार्थिक दृष्टि से तो आत्मा का पर से लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी मिथ्यादर्शन के कारण सम्बन्धों की भ्रमपूर्ण स्थिति निर्मित हो जाती है। 89 (2) पुण्य-पाप के स्वरूप के प्रति मिथ्याभाव होना शुभ भावों से पुण्य एवं अशुभ भावों से पाप बन्ध होता है।" यद्यपि अशुभ की अपेक्षा शुभ भाव किसी दृष्टि से श्रेयस्कर व एकदेश उपादेय (किंचित् ग्रहण करने योग्य) हैं, तथापि तीव्र अनन्तानुबन्धी कषाय होने से जीव अशुभ भावों को भी उपादेय मान लेता है, जैसे - क्रोध करने पर सब अनुशासित रहते हैं, झूठ बोलने से लोकप्रिय बना जा सकता है इत्यादि । दूसरे प्रकार का मिथ्यात्वी थोड़ा मन्दकषायी होता है, किन्तु वह पुण्य को ही सम्पूर्णतया उपादेय मानने की भूल कर बैठता है । वह पुण्य को ही मुक्ति का मार्ग मान लेता है T वस्तुतः, आत्मज्ञानी साधक पाप को हेय (त्याग करने योग्य) और पुण्य को पाप की अपेक्षा से एकदेश उपादेय मानता हुआ भी संवर, निर्जरा एवं मोक्ष की अपेक्षा से दोनों को हेय ही मानता है। 1
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(3) आस्रव - संवर के स्वरूप के प्रति मिथ्याभाव होना शुभाशुभ भावों का उत्पन्न होना आस्रव है और उनका निरोध संवर है। 2 मिथ्यात्व दशा में जीव शुभ भाव में ही संवर की कल्पना कर लेता है। अतः उसके जप-तप, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, सामायिक आदि अनुष्ठान केवल शुभ भावों के लक्ष्य से ही होते हैं। वस्तुतः शुभाशुभ भाव दोनों ही आकुलता रूप हैं, कर्मबन्धन के कारण हैं और क्रमशः सोने और लोहे की बेड़ी के समान हैं, जबकि संवर सुख रूप है, मुक्ति का साधन है ।
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(4) बन्ध - निर्जरा के स्वरूप के प्रति मिथ्याभाव होना तत्त्वार्थसूत्र में 'तपसा निर्जरा च' सूत्र निर्दिष्ट है, जिसका अर्थ है तप से निर्जरा (अंशतः आत्म-शुद्धि एवं कर्म - क्षय) होती है, इस सिद्धान्त का भी मिथ्यात्वी जीव गलत प्रयोग करता है। वह अज्ञानपूर्वक एवं फलासक्ति से तप करता है, जो निर्जरा का नहीं, अपितु बन्ध का ही कारण बनता है। शुभ भावों से युक्त तप तो पुण्यबन्ध का कारण बनता है, किन्तु मान-सम्मान, यश-कीर्त्ति, प्रतिस्पर्द्धा, गत्यानुगतिकता ( देखा-देखी) आदि अशुभ भावों से युक्त तप भी पाप बन्ध का कारण होता है, जिसे मिथ्यात्वी जीव धर्म (निर्जरा) ही मानता रहता है।
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(5) संसार - मोक्ष के स्वरूप के प्रति मिथ्याभाव होना तीव्र मिथ्यादृष्टि जीव मोक्ष के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारता । वह संसार में ही सुख-दुःख की कल्पना करता रहता है । मन्द मिथ्यादृष्टि जीव मोक्ष-सुख और स्वर्ग-सुख में भेद नहीं कर पाता। उसे स्वर्ग से भिन्न मोक्ष के सहज, स्वतंत्र, परिपूर्ण, अनन्त आत्मिक सुख की अंतरंग से स्वीकृति ही नहीं होती ।
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इस प्रकार, मिथ्यादर्शन के कारण जीव नौ तत्त्वों का अयथार्थ श्रद्धान करता है और इससे उसकी आध्यात्मिक साधना सम्यक् दिशा में अग्रसर नहीं हो पाती।
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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