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(6) मूढ़ता मिथ्यात्वी जीव तीन प्रकार की मूढ़ताओं से ग्रस्त होता है - देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता एवं समयमूढ़ता। देवमूढ़ता के वशीभूत होकर वह वीतराग सर्वज्ञ देवों को छोड़कर मिथ्यादृष्टि देवी-देवताओं की आराधना करता है और उनसे लोकख्याति, रूप - लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि सम्पदाएँ प्राप्त होने की कामना करता है। लोकमूढ़ता के वश वह नदी स्नान, प्रातः कालीन स्नान, वृक्षपूजा, अग्निपूजा, भूमिपूजा आदि को धर्मकृत्य मानता है। समय (शास्त्र) मूढ़ होकर वह ज्योतिषविद्या, मंत्रविद्या आदि शास्त्रों के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार, वह मिथ्यात्व को और अधिक प्रगाढ़ करता जाता है। 94
13.4.2 मिथ्याज्ञान एवं उसका स्वरूप
मिथ्यादर्शन का सहचारी ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है। प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों को अयथार्थ जानना ही मिथ्याज्ञान है। मिथ्याज्ञानी भले ही लोक में बुद्धिमान् क्यों न कहलाए, लेकिन उसे वस्तु के सम्यक् स्वरूप का अनुभव नहीं होता, इसीलिए वह स्व-पर का सम्यक् भेद नहीं कर पाता और न ही उसे आत्मा की सच्ची अनुभूति हो पाती है। उसके ज्ञान में तीन प्रकार के दोष होते हैं संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय । 'मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ' ऐसा परस्पर विरुद्धतापूर्वक द्वन्द्वात्मक ज्ञान 'संशय' है। 'मैं शरीर ही हूँ' ऐसा वस्तुस्वरूप से विपरीत ज्ञान 'विपर्यय' है। 'मैं कोई भी हूँ, मुझे क्या' ऐसा निर्धारणरहित ज्ञान 'अनध्यवसाय' है। इस प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों में संशयादि से युक्त ज्ञान ही मिथ्याज्ञान कहलाता है।" इसकी प्रमुख विसंगतियाँ इस प्रकार हैं -
(1 ) निश्चय - व्यवहार नय सम्बन्धी अयथार्थ ज्ञान होना जैनदर्शन अनेकान्तमूलक है। यहाँ नय सिद्धान्त का आश्रय लेकर विविध दृष्टिकोणों से वस्तु के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है। नय का अर्थ है
देखने का दृष्टिकोण या नजरिया ( Viewpoint ) । आध्यात्मिक साधना में
निश्चय एवं व्यवहार इन दो नयों का प्रयोग होता है । निश्चय - नय मूलभूत सत्य का प्रकाशक है, जैसी वस्तु है, उसी रूप में वस्तु का प्रतिपादन करता है । व्यवहार - नय मूलभूत सत्य तक पहुँचाने के लिए एक साधन का कार्य करता है, वह निमित्तादि के साथ मिलाकर मूलवस्तु का कथन करता है, जैसे 'मिट्टी का घड़ा' कहना निश्चय कथन है, जबकि जिसमें घी रखा जाता है, उसे 'घी का घड़ा' कहना व्यवहार कथन है। 6
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मिथ्याज्ञानी की नय-सम्बन्धी तीन प्रकार की भूलें होती हैं। पहली भूल यह होती है कि वह दोनों को ही यथार्थ या सत्य मान लेता है, ऐसे मिथ्याज्ञानी को उभयाभासी कहते हैं । वस्तुतः, निश्चय ही सत्य है, व्यवहार तो सत्य का उपचारमात्र है। दूसरी भूल यह होती है कि वह व्यवहार नय की उपेक्षा करके निश्चय नय को ही एकान्ततः आवश्यक मान लेता है, ऐसे मिथ्याज्ञानी को निश्चयाभासी अथवा शुष्कज्ञानी कहते हैं। यह शुष्कज्ञानी बन्ध - मोक्ष को केवल कल्पना मानकर स्वयं को सर्वथा सिद्ध-बुद्ध ही मान लेता है और मोहाधीन होकर जीता रहता है। वस्तुतः, व्यवहार नय सत्य न होते हुए भी साध्य - प्राप्ति के पूर्व तक आवश्यक है, क्योंकि यह निश्चय (साध्य) तक पहुँचने का साधन है। अध्याय 13: आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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