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तीसरी भूल यह होती है कि मिथ्याज्ञानी निश्चय का लोपकर व्यवहार को ही सब कुछ मान लेता है, उसे व्यवहाराभासी या क्रियाजड़ कहते हैं। ऐसे जीव बाह्य क्रियाओं में ही धर्म मानते हैं, उनके भीतर ज्ञान का रस नहीं होता।
इस प्रकार, नय का सम्यक् बोध न हो पाने से मिथ्याज्ञानी अथक परिश्रम करता हुआ भी आध्यात्मिक-विकास नहीं कर पाता। वास्तव में, आध्यात्मिक साधना के मार्ग में निश्चय एवं व्यवहार के बीच ऐसी व्यवस्था है कि किसी एक को मुख्य करके दूसरे को गौण तो किया जा सकता है, किन्तु किसी भी स्थिति में उसका लोप (निषेध) नहीं किया जा सकता। (2) वस्तु के स्वरूप का सम्यक निर्धारण नहीं कर पाना - मिथ्याज्ञानी के ज्ञान में वस्तु-स्वरूप सम्बन्धी तीन प्रकार की भूलें होती हैं – कारण-विपरीतता, स्वरूप-विपरीतता एवं भेदाभेद-विपरीतता। इन भूलों से उसका जीवन-व्यवहार अनुपयुक्त बन जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में ऐसे जीव को पागल (उन्मत्त) की उपमा दी गई है, जो वास्तविक और अवास्तविक (सत् और असत्) का भेद करने में असमर्थ होता है और इसीलिए नहीं करने योग्य कार्यों में भी रच-पच जाता है।98 ★ कारण–विपरीतता – मूल कारण को नहीं पहचानना एवं अकारण को कारण मानना, जैसे -
दुःखी स्वयं से होना और आरोप दूसरों/परिस्थिति पर लगाना। ★ स्वरूप-विपरीतता – वस्तु के मूलस्वरूप को नहीं पहचानना और अन्यथा मानना, जैसे -
आत्मा का मूल स्वरूप ज्ञाता–दृष्टा रहना है, किन्तु उसे कर्ता-भोक्ता मानना। ★ भेदाभेद-विपरीतता – दो भिन्न वस्तुओं को अभिन्न एवं अभिन्न वस्तुओं को परस्पर भिन्न मानना,
जैसे - बाह्य वस्तुओं एवं शरीर से आत्मा त्रिकाल भिन्न है और अपने ज्ञानादि गुणों से त्रिकाल अभिन्न है, किन्तु इसका उल्टा मान लेना।
इस प्रकार, मिथ्याज्ञानी इन विपरीतताओं से ग्रस्त होकर वस्तु के यथार्थ स्वरूप की अनुभूति से वंचित रहता है और वह आध्यात्मिक साधना में आगे नहीं बढ़ पाता। 13.4.3 मिथ्याचारित्र एवं उसका स्वरूप
आत्मस्वभाव से विमुख होकर पर-सम्मुख होना तथा कषाययुक्त प्रवृत्तियाँ करना ही मिथ्याचारित्र है। यहाँ यह समझना होगा कि आत्मा का स्वभाव तो ज्ञाता-दृष्टापना ही है, परन्तु जब पदार्थों को देखकर या जानकर आत्मा उनमें इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पना करने लगती है, तो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और इसी का नाम मिथ्याचारित्र है। मूल में परिस्थिति या पदार्थ न तो अच्छे होते हैं और न ही बुरे, परन्तु इनसे जुड़कर व्यक्ति इष्ट-अनिष्ट की कल्पना कर स्वयं राग-द्वेष रूप दोषों को उत्पन्न कर लेता है। 100 ये राग-द्वेष ही विस्तार पाकर क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरूषवेद एवं नपुंसकवेद के रूप में परिणत हो जाते हैं।101 इन कषायों की मात्रा एवं तीव्रता जितनी अधिक होती है, उतनी ही आत्मा स्वस्वभाव से विमुख होती जाती है। 22 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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