________________
(महाव्रत ) अंगीकार नहीं कर पाता । " इस प्रकार वह सत्य को सत्य मानकर भी पूर्णरूपेण सत्य पर जीने के लिए संकल्पित नहीं हो पाता । प्रत्याख्यानी कषाय के भी चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया एवं लोभ ।
यह साधक रागादिभावों की मन्दता से स्वस्वरूप का अनुभव पूर्वापेक्षा अधिक कर पाता है, फिर भी उसमें अन्तिम दो कषायों का सदभाव बना ही रहता है ।
68
(4) प्रत्याख्यानी कषायरहित आत्मा इस अवस्था में पहुँचकर साधक आत्म - साधना को विशेष गति प्रदान करता है। उसकी प्रत्याख्यानी कषाय भी क्षय - उपशम को प्राप्त हो जाती है, जिससे साधक परिपूर्ण संयम (महाव्रत ) अंगीकार कर लेता है। वह हिंसादि पाँच दोषों का सर्वथा परित्याग कर अधिक से अधिक आत्मस्वरूप में रमणता के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है। फिर भी संज्वलन कषाय विद्यमान होने से वह पूर्ण वीतरागदशा को प्राप्त नहीं हो पाता। वह कषाय जो संयम के साथ एकीकृत (सम्) होकर ज्वलित होती रहती है, संज्वलन कषाय कहलाती है। संज्वलन कषाय की तीव्रता अत्यल्प होती है और इसके भी चार भेद होते हैं क्रोध, मान, माया एवं लोभ । (5) संज्वलन कषायरहित आत्मा यह अवस्था आत्मपूर्णता की अवस्था है, जिसमें साधक अन्तिम संज्वलन कषाय का भी क्षय कर निष्कषायी हो जाता है। आत्मा अब पूर्णतया आत्मानन्द में लीन हो जाती है। इस प्रकार आध्यात्मिक साधना के विकास क्रम में साधक क्रमशः कषायों के एक-एक स्तर पर विजय पाता हुआ परम साध्यरूप परमात्मदशा को प्राप्त कर लेता है ।
-
13.3.5 पंचम वर्गीकरण : कर्मनिर्जरा की दस अवस्थाओं के आधार पर
आध्यात्मिक जीवन के विविध स्तरों को साधक की कर्मनिर्जरा ( सकाम) की मात्रा के आधार पर भी समझा जा सकता है। इसी आधार पर आचारांगनिर्युक्ति, तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में साधक की क्रमशः असंख्यगुणा निर्जरा वाली दस अवस्थाओं का वर्णन किया गया हैं। ये हैं सम्यग्दृष्टि, श्रावक (देशविरति ), विरत ( सर्वविरति मुनि), अनन्तानुबन्धी- वियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशमक (उपशमश्रेणी में आरूढ़ ), उपशान्तमोह, क्षपक ( क्षपक श्रेणी में आरूढ़), क्षीणमोह एवं जिन । "
711
—
यह उल्लेखनीय है कि व्यक्ति की एक वह दशा होती है, जिसमें सम्यक् साधना के अभाव में कर्मनिर्जरा ( सकाम) ही नहीं होती और इसीलिए उसे वास्तविक साधक भी नहीं कहा जा सकता। साथ ही, दूसरी वह दशा होती है, जिसमें साधक की कर्मनिर्जरा का सद्भाव होता है, वहाँ भी कर्मनिर्जरा की मात्रा के आधार पर उसके विविध स्तरों का निर्धारण किया जाता है । अल्पतम निर्जरा वाले साधक को 'जघन्य' तथा क्रमशः अधिक निर्जरा वाले साधक को उत्तरोत्तर 'उत्कृष्ट' श्रेणी में स्थान दिया गया है ।
Jain Education International
अध्याय 13: आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
For Personal & Private Use Only
15
www.jainelibrary.org