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है। दही और गुड़ की मिश्रित स्वाद जैसी यह दशा है। जब न मिथ्यात्व का उदय होता है और न अनन्तानुबन्धी कषाय का, किन्तु सत्य एवं असत्य की मिश्रित अनुभूति होती है, उस काल में यह गुणस्थान होता है। इसकी काल-स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।" (4) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान - यह एक विशिष्ट उपलब्धि वाली अवस्था है। इसमें आत्मभ्रान्ति समाप्त हो जाती है, आत्मस्वरूप का रसास्वादन मिल जाता है, आत्मा को अपने आध्यात्मिक साध्य एवं साधनामार्ग का सम्यक् बोध हो जाता है। परन्तु इन्द्रिय-विषयों से जीव विरक्त नहीं हो पाता, वह हिंसादि दोषों को छोड़ नहीं पाता। यद्यपि वह संसार को उपादेय नहीं मानता, तथापि सांसारिक प्रवृत्तियों को विराम नहीं दे पाता। (5) देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान - इस गुणस्थान में आंशिक रूप से संयम का प्रारम्भ हो जाता है। आत्मा चौथे गुणस्थान के पूर्व तक असीम इच्छाओं में जीती है, चौथे में इच्छाएँ ससीम हो जाती हैं और इस पाँचवे गुणस्थान में इच्छाओं का सीमांकन प्रारम्भ हो जाता है। आत्मिक-रस बढ़ने लगता है, साधना में गहराई आने लगती है तथा जीवन अणुव्रतमय हो जाता है। (6) प्रमत्तसंयत (सर्वविरत) गुणस्थान - यह वह गुणस्थान है, जिसमें पूर्ण संयम प्रारम्भ हो जाता है। साधक सर्व सावद्य कर्मों का संकल्पपूर्वक परित्याग कर महाव्रत अंगीकार कर लेते हैं और उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ शुभ भावों से सम्पादित होती हैं। वे बुद्धिपूर्वक निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं। संयमित (मुनि) होने पर भी मन्द रागादि के रूप में प्रमाद का सेवन होने से इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। (7) अप्रमत्त संयत गुणस्थान - इस गुणस्थान में संयमित साधक प्रमाद का भी त्याग कर देते हैं। उनकी प्रकट रूप से राग की कोई स्थिति नहीं रहती, वे एकमात्र आत्म-स्वरूप का आनन्द लेते रहते हैं। भीतर में अचेतन मन में कषाय तरंगें उठती हैं और वहीं विलीन हो जाती हैं। इस गुणस्थान का समय अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता। इसके पश्चात् यदि प्रमाद (असजगता) का उदय होता है, तो साधक छठे गुणस्थान में आ जाते हैं। पुनः दोषों की अंतरंग स्वीकृति होने पर वे साधक शुद्धिकरण की प्रक्रिया को अपना कर सातवें गुणस्थान में आ जाते हैं, आत्मलीन हो जाते हैं। इस प्रकार, कभी प्रमत्त तो कभी अप्रमत्त अवस्था में झूलते रहते हैं। (8) अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर) गुणस्थान - सातवें गुणस्थान की स्थिति विशुद्ध होने पर साधक इस भूमिका में प्रवेश करते हैं, जहाँ प्रतिसमय अपूर्व–अपूर्व परिणाम (अनुभूतियाँ) आते रहते हैं और विशेष-विशेष आत्म-शान्ति की स्थिति बनती जाती है। इस भूमिका में पाँच विशेष कार्य होते हैं - अपूर्व स्थिति-घात, अपूर्व रस-घात, अपूर्व गुणश्रेणी निर्जरा, अपूर्व गुणसंक्रमण एवं अपूर्व स्थितिबन्ध। पूर्व के गुणस्थान में जो भूमिका निर्मित हुई थी, उसके आधार पर इस गुणस्थान में कषायों के उपशम या क्षय की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। 713
अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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