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आत्मा की इन तीन अवस्थाओं को क्रमशः आध्यात्मिक विकास के तीन सोपानों के रूप में बताया गया है। बहिरात्मा से अन्तरात्मा एवं अन्तरात्मा से परमात्मा को श्रेष्ठ माना गया है। इन्हीं तीन अवस्थाओं को सामान्यतया मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि एवं सर्वदर्शी आत्मा भी कहा जाता है। पण्डित सुखलालजी ने इन्हें क्रमशः आध्यात्मिक-अविकास, आध्यात्मिक-विकास और आध्यात्मिक-पूर्णता की अवस्था कहा है। डॉ. सागरमल जैन इन्हें अनैतिक, नैतिक एवं अतिनैतिक अवस्था कहते हैं।
आत्मा के इस त्रिविध वर्गीकरण का प्रमुख श्रेय आचार्य कुन्दकुन्द को जाता है। परवर्ती सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों ने इन्हीं का अनुकरण किया है। कार्तिकेय, पूज्यपाद , हरिभद्र , योगेन्दु, आनन्दघन और यशोविजय आदि सभी ने अपनी-अपनी रचनाओं में आत्मा के उपर्युक्त तीनों प्रकारों का उल्लेख किया है।
आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन की दृष्टि से यह मानना होगा कि बहिरात्मा आध्यात्मिक साधना से वंचित रहती है और अन्तरात्मा बनते ही उसकी साधना प्रारम्भ होती है, जो परमात्मा-अवस्था प्राप्त होने पर पूर्ण हो जाती है। वह परमात्मदशा में पहुँचकर साध्य को प्राप्त कर उसमें एकाकार हो जाती
है।
13.3.3 तृतीय वर्गीकरण : कर्मबन्धन के हेतुओं के आधार पर
आध्यात्मिक जीवन के विकास को लेकर मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद , कषाय एवं योग - इन कर्मबन्धन के हेतुओं के आधार पर भी साधना के छ: विभाग किए जा सकते हैं - (1) मिथ्यात्व सहित आत्मा - अयथार्थ (मिथ्या) दृष्टिकोण को मिथ्यात्व कहते हैं। इस अवस्था में साधक आध्यात्मिक साधना के सम्यक् लक्ष्य एवं सम्यक मार्ग से अनभिज्ञ होता है, उसे सत्य की यथार्थ अनुभूति नहीं हो पाती। यह सबसे निकृष्ट अवस्था है, जिसमें मिथ्यात्व सहित अविरति आदि चारों दोष भी बने ही रहते हैं।52 (2) सम्यग्दृष्टि आत्मा - यह आत्मा की वह असंयमित अवस्था है, जिसमें मिथ्यात्व तो छूट जाता है, किन्तु अविरति बनी रहती है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह - इन पाँचों दोषों से विरक्त न होना अविरति है। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है – पाँच इन्द्रियों और एक मन के विषय एवं पाँच स्थावर और एक त्रस जीव की हिंसा – इन बारह प्रकार के दोषों का त्याग न करना अविरति है।54 इस अवस्था में साधक आंशिक या पूर्ण रूप से संयममय जीवन नहीं जी पाता। ज्ञातव्य है कि जिसकी अविरति दशा होती है, उसमें प्रमाद आदि तीन दोष भी रहते ही
हैं।55
(3) विरत आत्मा - यह आध्यात्मिक साधना का तृतीय स्तर है, जिसमें साधक अविरति पर विजय प्राप्त कर संयम अंगीकार कर लेता है, किन्तु उसमें प्रमाद (असजगता) दोष विद्यमान रहता है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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