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जाता है, लेकिन वास्तविकता में इनमें भेद नहीं होता। योगशास्त्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र, जिन्हें मोक्षमार्ग कहा जाता है, वे वस्तुतः आत्मा ही हैं। 30 समयसार में भी कहा गया है कि ये तीनों भाव व्यवहार-दृष्टि से कहे जाते हैं, किन्तु निश्चय-दृष्टि से न सम्यग्ज्ञान है, न सम्यग्दर्शन है और न सम्यक्चारित्र है, केवल आत्मा (ज्ञायक) ही सत्य है। इससे स्पष्ट है कि आध्यात्मिक जीवन में आत्मा ही ‘साधन' है।
जैनदृष्टि में इस प्रश्न का निराकरण भी मिलता है कि आध्यात्मिक विकास के अन्तर्गत सम्यग्दर्शनादि तीनों साधनों की प्राप्ति एक साथ होती है या नहीं। वस्तुतः, तीनों साधन जब परिपूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं, तभी मोक्ष रूपी साध्य की प्राप्ति होती है, यह नियम है। किन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि इनमें कोई क्रम नहीं होता। उत्तराध्ययनसूत्र में इस विषय में कहा गया है - सम्यग्दर्शन रहित जीव को सम्यग्ज्ञान नहीं होता, सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता और चारित्रविहीन जीव का मोक्ष नहीं होता तथा मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता। यद्यपि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होने की बात अवश्य की गई है, पर यह सम्यग्दर्शन के माहात्म्य को दर्शाने के लिए ही कही गई है। वस्तुतः, इन दोनों में साहचर्य होता है, इतना अवश्य है कि सम्यक्चारित्र की निष्पत्ति इन दोनों के प्रकट होने के पश्चात् होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता, किन्तु सम्यक्चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन हो सकता है। ये सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र एक साथ भी हो सकते हैं, फिर भी सम्यक्चारित्र से पूर्व ही सम्यग्दर्शन
होता है।33
अब यह प्रश्न उठता है कि आध्यात्मिक जीवन में साधक कौन होता है और उसकी क्या योग्यताएँ होती है?
13.2.3 साधक का स्वरूप
किसी भी कार्य की सिद्धि में साधक का अप्रतिम महत्त्व होता है। साधक के बिना साधना पथ का अनुकरण एवं तदनन्तर साध्य की प्राप्ति असम्भव है। यह प्रश्न उठता है कि आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में किसे साधक कहा जाए?
जैनदर्शन की यह स्पष्ट मान्यता है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा अनन्तशक्तियों का अजस्र स्रोत है, किन्तु सभी को साधक नहीं कहा जा सकता। जिस आत्मा को अपनी शक्तियों पर विश्वास हो जाता है और जो शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए पुरूषार्थ प्रारम्भ कर देती है, उसे साधक कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जो विभावदशा से स्वभावदशा की ओर प्रयत्नशील रहती है, वह आत्मा साधक कहलाती है।
जिस प्रकार खदान से निकले हीरे की चमक कम होती है, परन्तु जब उसे अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं द्वारा स्वच्छ कर तराशा जाता है, तो उसकी चमक बढ़ जाती है। ठीक उसी प्रकार साधक
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अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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