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गुण विभाव पर्याय
स्वभाव पर्याय ज्ञान मिथ्याज्ञान - वस्तु-स्वरूप को यथार्थ रूप से नहीं सम्यग्ज्ञान - वस्तु-स्वरूप को संशय, विपर्यय एवं
जानना, जैसे - जड़-चेतन का विवेक न होना, अनध्यवसाय रहित जानना, जैसे - जड़ को जड़, संसार-मोक्ष के बारे में अन्यथा बुद्धि होना आदि। चेतन को चेतन जानना, संसार-मोक्ष के सम्यक मार्ग
का निर्णय होना आदि। दर्शन मिथ्यादर्शन - वस्तु-स्वरूप का अयथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन - वस्तु-स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान होना,
होना, जैसे - स्व-पर सम्बन्धी विपरीत मान्यता जैसे - स्व को स्व, पर को पर मानना, सुख-दुःख होना, शुभाशुभ भावों को भला मानना एवं शुद्ध स्वयं से ही है, ऐसा मानना, मोक्ष को आत्मस्वभाव भावों को अनुपयोगी मानना आदि।
मानना आदि। चारित्र मिथ्याचारित्र - वस्तु-स्वरूप से विपरीत आचरण सम्यक्चारित्र - वस्तु-स्वरूप के अनुसार आचरण
करना, जैसे - राग-द्वेष, कषाय, मोह आदि से करना, जैसे - आत्म-स्वरूप में रमणता, राग-द्वेष युक्त प्रवृत्तियाँ।
रहितता, समत्व भाव, ज्ञाता-दृष्टा भाव आदि। वीर्य मिथ्यापुरूषार्थ - बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध जोड़ने सम्यक्पुरूषार्थ - आत्मा के द्वारा आत्मा में रहने का वाला पुरूषार्थ करना।
पुरूषार्थ करना। सुख आकुलता-व्याकुलता-हर्ष (सुखाभास) एवं विषाद अनाकुलता-आत्मिक-आनन्द रूप परिणाम होना।
रूप परिणाम होना।
इस प्रकार, जब तक आत्मा विभाव पर्याय में होती है और स्व-स्वरूप से विपरीत वर्तन करती है, तब तक उसके ज्ञानादि गुणों की दशा मिथ्याज्ञानादि रूप बनी रहती है। वह विवेकविहीन एवं मूढ़ होकर पर से राग-द्वेष, मोह आदि करती रहती है और उसी में पुरूषार्थ करती हुई आकुल-व्याकुल होती रहती है। जैनाचार्यों ने इसे उन्मत्तवत् अर्थात् पागलों की तरह कार्य करने रूप स्थिति कहा है। परन्तु, जब आत्मा यथार्थ आत्मज्ञान पाकर वस्तु-स्वरूप का सम्यक् श्रद्धान कर, आत्मस्वभाव में रमण करने लगती है और उसी में स्थिर रहने का पुरूषार्थ करती है, तब एक निराकुल, अतिशययुक्त, अविनाशी आत्मानन्द की अनुभूति करती है, जिसे जैनाचार्यों ने स्वभाव दशा कहा है।
उपर्युक्त चिन्तन से यह निष्कर्ष निकलता है कि आध्यात्मिक विकास वस्तुतः, विभाव दशा से स्वभाव दशा की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया है। यही वह दशा है, जिसमें मोहादि के विकल्पजाल नष्ट हो जाते हैं और परमानन्द की प्राप्ति होती है। इस अवस्था को प्राप्त करना ही प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का परम साध्य है।
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अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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