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12.7 निष्कर्ष
इस प्रकार, प्रस्तुत अध्याय में हमने यह जाना कि परम्परागत रूप से धर्म की जो व्याख्याएँ की जाती हैं, वे धर्म को सम्यक्तया स्पष्ट करने में सक्षम नहीं हैं। वस्तुतः, धर्म तो एक अतिव्यापक अवधारणा है, जो केवल बाह्य क्रियाकाण्ड अथवा प्रदर्शनात्मक व्यवहार से नहीं, अपितु अंतरंग नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से सम्बद्ध है। धर्म वास्तव में करने या दिखाने की वस्तु नहीं, यह तो जीने और अनुभूति करने की एक अवस्था है। यह मूलतः सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक व्यवस्था है, जो वस्तु का स्वभाव होने से सदैव योग्यता रूप में बनी ही रहती है।
वर्तमान परिवेश में धार्मिक मूल्यों को अनदेखा करने से धार्मिक व्यवहारों में आडम्बर, हिंसा, एकान्तिकता आदि अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न होने लगी हैं, जिससे जीवन में धर्म का यथोचित लाभ नहीं मिल पा रहा। धर्म के वास्तविक मूल्यों को स्थापित करना एक अनिवार्य आवश्यकता बन चुकी है। बिना प्रबन्धन के धार्मिक व्यवहारों को सम्यक् दिशा देना असम्भव है, अतः धार्मिक व्यवहार-प्रबन्धन एक नैतिक ही नहीं, अपितु अनिवार्य कर्त्तव्य के रूप में मानवजाति के समक्ष उभरकर आया है।
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन हेतु जैनधर्म एवं जैनआचारमीमांसा में अनेकानेक सूत्र विद्यमान हैं। इन सूत्रों (सिद्धान्तों) का सम्यक् अनुशीलन कर व्यक्ति अपने धार्मिक दृष्टिकोण को न केवल सन्तुलित एवं समग्र बना सकता है, अपितु उनका जीवन व्यवहार में समुचित प्रयोग भी कर सकता है। इसे ही हमने धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक - इन दो पक्षों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
इन पक्षों के आधार पर जीवन-प्रबन्धक सर्वप्रथम धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन की चेतना जाग्रत करता हुआ सम्यक् लक्ष्यों एवं नीतियों का निर्धारण कर सकता है। तत्पश्चात् उपासनात्मक धर्मसाधना - ज्ञानोपासना एवं क्रियोपासना का प्रयोग करते हुए अपने आपको सम्यक् धार्मिक-व्यवहारों के लिए शिक्षित एवं प्रशिक्षित कर सकता है। अन्ततः वह नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का जीवन-व्यवहार में सम्यक् सम्प्रयोग भी कर सकता है और ऐसा करता हुआ वह जीवन-प्रबन्धन के अन्य पहलुओं को विकसित करने में भी सफलता प्राप्त कर सकता है।
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अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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