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अध्याय 13
13.1 आध्यात्मिक विकास का स्वरूप
जीवन- प्रबन्धन के क्षेत्र में आध्यात्मिक - विकास का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। कोई भी जीवन- प्रबन्धक आध्यात्मिक - विकास की उपेक्षा करके जीवन का सम्यक् प्रबन्धन नहीं कर सकता । यद्यपि शिक्षा, समय, शरीर, अभिव्यक्ति, मन, पर्यावरण, समाज, अर्थ (धन), भोगोपभोग एवं धार्मिक - व्यवहारों के सम्यक् प्रबन्धन का भी जीवन में महत्त्व है, तथापि इनका लक्ष्य व्यावहारिक जीवन को सुव्यवस्थित करके आध्यात्मिक विकास के लिए उचित पात्रता प्रदान करना मात्र है। यह आध्यात्मिक-विकास प्रबन्धन ही है, जो एक ओर शिक्षादि प्रबन्धनों से अर्जित पात्रता का सम्यक् उपयोग कर एक सफल आध्यात्मिक व्यक्तित्व का निर्माण करता है, तो दूसरी ओर आत्मिक सद्गुणों का सम्यक् विकास कर इन सभी प्रबन्धनों की प्रक्रिया को सुचारु रूप संचालित एवं नियंत्रित भी करता है। इस प्रकार आध्यात्मिक -विकास एवं अन्य सभी प्रबन्धन परस्पर सम्बद्ध हैं। फिर भी, यह कहना होगा कि आध्यात्मिक - विकास - प्रबन्धन जीवन - प्रबन्धन का केन्द्र बिन्दु है, जबकि अन्य सभी प्रबन्धन परिधि पर स्थित हैं। दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिक - प्रबन्धन साध्य है, जबकि अन्य सभी प्रबन्धन इस साध्य की प्राप्ति के लिए साधन रूप हैं।
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आध्यात्मिक - विकास - प्रबन्धन (Spiritual Development Management)
यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि जीवन में आध्यात्मिक - विकास की आवश्यकता क्यों हैं, इसका सम्यक् अभिप्राय क्या है, इसका चरमलक्ष्य क्या है और इसकी सम्यक् प्रक्रिया क्या है? 13.1.1 आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता, आखिर क्यों ?
जीवन - विकास की दो धाराएँ हैं आध्यात्मिक एवं भौतिक । यद्यपि इन दोनों के आधार एवं दिशा में अन्तर है, तथापि दोनों का साध्य एक ही है व्यक्तित्व - विकास । आध्यात्मिक - धारा आत्माश्रित है और इसकी दिशा अन्तर्मुखी है, जबकि भौतिक - धारा पदार्थाश्रित है और इसकी दिशा बहिर्मुखी है। आधार एवं दिशा में विपरीतता होने के बावजूद दोनों का प्रयत्न एक ही लक्ष्य से होता है और वह है - दुःख - विमुक्ति एवं सुख - प्राप्ति ।
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भगवान् महावीर की दृष्टि में सभी प्राणियों की मौलिक आवश्यकता भी यही । आचारांगसूत्र में अध्याय 13: आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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