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12.4 अनियोजित धर्मनीति के दुष्परिणाम
पिछली चर्चा के आधार पर कहा जा सकता है कि मानव-जीवन में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह वह तत्त्व है, जो प्राणी को अशुभ भावों से निवृत्त एवं शुभ भावों में प्रवृत्त करता हुआ, अन्ततः शुद्ध भावों में रमणता की दिशा में ले जाता है। धर्म न हो, तो प्राणी शुद्ध एवं शुभ भावों से पतित होकर अशुभ भावों के गर्त्त में गिर जाता है। फिर भी वर्त्तमान युग में व्यक्ति धर्म का सम्यक् मूल्यांकन ही नहीं कर पा रहा है। वह या तो धर्म को अनावश्यक जानकर उससे दूर हो रहा है अथवा धर्म करते हुए भी सम्यक् प्रकार से धर्म न करके स्वयं को ही छल रहा है। आज धर्मनीति में न समग्रता है और न सन्तुलितता। यह बात निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट हो जाती है
(1) आज संप्रदायों के आधार पर धर्म को देखा जा रहा है
डॉ. सागरमल जैन ने कहा है धर्म भिन्न है एवं संप्रदाय भिन्न है । धर्म (रिलीजन) शब्द जोड़ने का सूचक है, जबकि संप्रदाय या School शब्द विभाजन का सूचक है। यह सत्य है कि संप्रदाय एक व्यवस्था है, जिसके माध्यम से धर्म तक पहुँचा जा सकता है, फिर भी संप्रदाय को धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म तो हमारा स्वभाव है, अतः वह आन्तरिक है, जबकि संप्रदाय का सम्बन्ध बाह्य परम्पराओं ( रूढ़ियों) तक ही सीमित है और इसीलिए वह बाहरी है। अतः यह मानना होगा कि सांप्रदायिकता में धर्म नहीं है। धर्म को लक्ष्य बनाकर तो संप्रदाय में रहा जा सकता है, किन्तु संप्रदाय को लक्ष्य बनाकर धर्म में नहीं रहा जा सकता। जहाँ धर्मरहित संप्रदाय है, वहाँ ठीक वैसी ही स्थिति है, जैसी आत्मा से रहित शरीर (शव) की 153
वर्त्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या है धर्म को छोड़कर संप्रदायों, मतों, पन्थों आदि को बढ़ावा मिलना। आज व्यक्ति मूल धर्म को भूलता जा रहा है और जैन, बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आदि संप्रदायों को ही धर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर रहा है। इतना ही नहीं, इन संप्रदायों की नित नई-नई शाखाएँ - प्रशाखाएँ भी अस्तित्व में आ रही हैं। श्रीमद्राजचंद्र के अनुसार, इनके सम्भावित कारण निम्नलिखित हैं 54
★ साधुओं की आचार शिथिलता
★ मोह का प्रभाव
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★ बुद्धि की न्यूनता
★ दुःषमकाल (कलियुग) का प्रभाव
★ आचार्यों का अहं एवं तज्जन्य वाद-विवाद
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★ शास्त्रज्ञान की कमी
★ प्रवर्त्तन करने वाले को अनुकरण करने वालों का अन्ध समर्थन
जैसे-जैसे संप्रदायों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे धर्म के नाम पर हमारे मानस में वैचारिक घृणा, विद्वेष और बिखराव भी बढ़ता जा रहा है। सभी संप्रदायवादी अपनी-अपनी सत्यता का दावा करते हुए दूसरों को भ्रान्त और भ्रष्ट बता रहे हैं । उपदेशक भी शब्दों में एकता और सामंजस्य
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
★ मार्ग प्रवर्त्तन के पश्चात् सन्मार्ग प्राप्त होने पर भी उसे ग्रहण करने में हठधर्मिता
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