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रहने का प्रयत्न करना – ये सभी भावात्मक धर्म के उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त परिणाम हैं।
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए यह मानना आवश्यक है कि भावात्मक धर्म ही वास्तविक धर्म है और यही साध्य है। फिर भी इसकी प्राप्ति हेतु निमित्त या साधन होने से द्रव्यात्मक धर्म को भी औपचारिक रूप से धर्म की संज्ञा दी जाती है। अध्यात्मयोगी श्रीमद्देवचन्द्र ने द्रव्य-धर्म की साधनता और भाव-धर्म की साध्यता को निम्न पंक्तियों के द्वारा दर्शाया है" -
द्रव्यथी पूजारे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध अर्थात् न्हवण, विलेपनादि द्रव्य-पूजा भावों की उत्पत्ति का कारण है, ये भाव पहले प्रशस्त (गुणियों के प्रति अनुराग) तथा बाद में शुद्ध (आत्म-रमणता) रूप को प्राप्त होते हैं। धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए व्यक्ति के समक्ष निम्न चार विकल्प होते हैं -
भाव अशुद्ध | भाव शुद्ध द्रव्य अशुद्ध | | ४ | द्रव्य शुद्ध
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इनमें से चौथा विकल्प (भाव शुद्ध-द्रव्य शुद्ध) ही सर्वश्रेष्ठ है। अतः शुद्ध द्रव्यात्मक धर्म रूपी साधन का पालन करते हुए शुद्ध भावात्मक धर्म को प्राप्त करना प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का कर्तव्य है। (6) धर्म प्रवृत्तिरूप भी है और निवृत्तिरूप भी है
जैनशास्त्रों में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति - ये द्विविध धर्मरूपों का उल्लेख भी मिलता है। वस्तुतः, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों सापेक्ष हैं। एक ही समय में व्यक्ति किसी क्रिया से निवृत्ति लेता है और किसी क्रिया में प्रवृत्त होता है, जैसे - राग-द्वेष से निवृत्ति होती है और समता में प्रवृत्ति होती है। ये प्रवृत्ति या निवृत्ति जब नैतिक-आध्यात्मिक उच्चता का कारण बनती हैं, तब धर्म कहलाती हैं और जब निम्नता का कारण बनती हैं, तब अधर्म कहलाती हैं। अतः कहा जा सकता है कि केवल प्रवृत्ति ही अधर्म नहीं होती, निवृत्ति भी अधर्म हो सकती है और इसी प्रकार केवल निवृत्ति ही धर्म नहीं होती, प्रवृत्ति भी धर्म हो सकती है। धार्मिक व्यवहार-प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक होगा कि व्यक्ति अधर्म से निवृत्ति ले एवं धर्म में प्रवृत्ति करे।"
यह उल्लेखनीय है कि यदि वह अधर्म से निवृत्ति लेने पर भी धर्म में प्रवृत्ति नहीं करता है अथवा अधर्म से निवृत्ति लिए बिना धर्म में प्रवृत्ति की चेष्टा करता है, तो उसे उचित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ – कोई अवकाश के दिन व्यवसाय से तो निवृत्ति ले लेता है, किन्तु दिनभर खाने-पीने, सोने-भोगने या टी.वी. देखने आदि में प्रवृत्त हो जाता है अथवा कोई सामायिक आदि धर्मकृत्य में प्रवृत्त होता है, किन्तु सामायिक करते हुए भी निन्दा आदि अधार्मिक प्रवृत्तियों से निवृत्त नहीं होता – ये दोनों स्थितियाँ उसके नैतिक-आध्यात्मिक उत्थान के लक्ष्य को प्राप्त कराने में
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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