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तर्क विचारे रे वाद परम्परा रे, पार न पहुंचे कोय।
अभिमते वस्तु रे वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय ।। सार कथन है कि धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को विज्ञान एवं विश्वास – दोनों का सम्यक् सामंजस्य स्थापित करना अत्यावश्यक है।
इस प्रकार, धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को विभिन्न रूपों में धर्म को समझना आवश्यक है, जिससे वह हर समय अपनी भूमिकानुसार उचित-अनुचित का भेद करके उचित व्यवहार का पालन कर सके। 12.5.5 धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए उपयुक्त स्थान क्या हो?
जैन-परम्परा में किसी भी कार्य की सफलता के लिए चार कारकों को महत्त्वपूर्ण माना गया है। ये हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव। इससे स्पष्ट है कि क्षेत्र अर्थात् स्थान का भी उचित चयन करना आवश्यक है। यद्यपि परिपक्व जीवन-प्रबन्धक किसी भी क्षेत्र में रहकर अपनी साधना कर सकता
परन्तु सामान्य जीवन-प्रबन्धक को साधनानुकूल देश एवं काल की आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा प्रतिकूल स्थानों पर रहकर उसके नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का पतन भी हो सकता है।
जैन-परम्परा में इसी कारण साधनानुकूल स्थानों की व्यवस्था की जाती है, जैसे – जिनालय, गुरुमन्दिर, पौषधशाला (उपाश्रय/ स्थानक), आश्रम, तीर्थस्थान, ग्रन्थालय, शोधकेन्द्र, सेवासंस्थान इत्यादि। यहाँ आकर व्यक्ति को सुदेव , सुगुरु एवं सद्धर्म (सत्शास्त्र) और इनके अनुयायियों का सम्यक सान्निध्य प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त, जैन श्रावक अपने निवास स्थान पर भी उपासना-कक्ष आदि बनाते हैं, जहाँ पवित्रता और एकान्त का विशेष ध्यान रखा जाता है।
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के सम्यक् सन्तुलन हेतु यह आवश्यक है कि व्यक्ति उपर्युक्त धर्म-स्थानों पर आकर अपनी पूर्व निर्दिष्ट ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक दोनों प्रकार की उपासना करे और द्रव्यात्मक धर्म का आलम्बन लेकर भावात्मक धर्म तक पहुँचने का प्रयत्न करे। वह यहाँ आकर लौकिक एवं लोकोत्तर - दोनों प्रकार के धर्मों को जानने और जीने का अभ्यास करे। निषेधात्मक धर्म-साधनों का त्याग तथा विधेयात्मक धर्म-साधनों का प्रयोग करने हेतु संकल्पित हो और अन्ततः अपने नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लक्ष्य की प्राप्ति करे।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उपर्युक्त धर्मस्थानों में धार्मिक शिक्षाओं - ग्रहणात्मक (Theoretical) एवं आसेवनात्मक (Practical) की प्राप्ति होती है। इनसे प्राप्त शिक्षाओं को
* आचारांगसूत्र (1/8/1/202) में भी कहा गया है - गामे वा अदुवा रणे। नेव गामे नेव रणे, धम्ममायाणह।। अर्थात् धर्म गाँव में भी हो सकता है और अरण्य (वन) में भी, क्योंकि वस्तुतः धर्म का सम्बन्ध न गाँव से है और न अरण्य से, वह तो अन्तरात्मा से है।
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अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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