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★ विष-अनुष्ठान धार्मिक व्यवहार |
★ गरल - अनुष्ठान
★ अननुष्ठान
★ तद्हेतु-अनुष्ठान
इहलोक के आहार, ऋद्धि आदि सुखों की आकांक्षा से किया जाने वाला
परलोक में दिव्यभोगों की अभिलाषा से किया जाने वाला धार्मिक व्यवहार ।
उद्देश्यविहीन होकर यन्त्रवत् किया जाने वाला धार्मिक व्यवहार ।
नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास (मोक्ष) के लक्ष्य से किया जाने वाला सामान्य
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धार्मिक व्यवहार |
★ अमृत – अनुष्ठान – सहजतापूर्वक शुद्ध भावों के साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लक्ष्य से किया जाने वाला विशेष धार्मिक व्यवहार ।
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धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए केवल इसकी चेतना जाग्रत करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु सम्यक् लक्ष्यपूर्वक धार्मिक - व्यवहारों को सम्पन्न करना भी अत्यावश्यक है। उपर्युक्त पाँच प्रकार के अनुष्ठानों में से प्रारम्भिक तीन अनुष्ठानों का सर्वथा त्याग करके अन्तिम दो अनुष्ठानों का ग्रहण करना जीवन - प्रबन्धक का पुनीत कर्त्तव्य है । इन दोनों में भी अमृत - अनुष्ठान को श्रेष्ठ माना गया 1
अमृत-अनुष्ठान अथवा तद्हेतु अनुष्ठान को लक्षित करने वाले साधक को अपनी धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन की योजनाओं में निम्नलिखित बिन्दुओं को स्थान देना चाहिए
★ जीवन में नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का समुचित विकास हो । ★ जीवन का भावात्मक पक्ष परिष्कृत हो (अशुभ शुभ - शुद्ध ) । ★ धार्मिक - व्यवहारों के द्वारा जीवन - प्रबन्धन के
सभी लक्ष्यों की पूर्ति हो ।
उपर्युक्त लक्ष्यों की सम्यक् प्राप्ति हेतु धार्मिक - व्यवहार - प्रबन्धक को जीवन में निम्नलिखित नीतियों (Policies) का निर्धारण करना भी आवश्यक है
★ आचरणात्मक एवं उपासनात्मक (ज्ञानात्मक - क्रियात्मक) धर्मों में परस्पर सन्तुलन हो। इनमें भी उपासनात्मक धर्म के द्वारा शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके आचरणात्मक धर्म के रूप में उनका प्रयोग करने की नीति हो ।
★ लौकिक एवं लोकोत्तर धर्म भी परस्पर एक-दूसरे के विरोधी न बनें, अपितु इन्हें पृथक्-पृथक् रखकर प्रयोग करने की नीति हो ।
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★ द्रव्यात्मक धर्म से परहेज भी न हो और उसे ही सम्पूर्ण मानने की भ्रान्ति भी न हो, उसे भावात्मक धर्म की प्राप्ति के लिए साधन रूप में प्रयोग करने की नीति हो ।
★ प्रवृत्ति और निवृत्ति – इन दोनों क्रियाओं का परस्पर सामंजस्य स्थापित करने वाली नीति हो, जिससे ये दोनों क्रियाएँ मिलकर धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन के कार्यों को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हों।
★ पराश्रित धर्म को साधन बनाकर स्वाश्रित धर्म रूपी साध्य तक पहुँचने की नीति हो ।
★ विज्ञान एवं विश्वास इन दोनों का उचित समन्वय हो, जिससे न स्वच्छन्दता का पोषण हो
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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